Book Title: Abhidhan Rajendra kosha Part 3
Author(s): Rajendrasuri
Publisher: Abhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधान राजेन्द्र को (तृतीय भाग) रचयिता पनि सीन्द विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. पकाराः আজ টাটা হোতা আ. अहमदाबाद Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमो समणस्स भगवओ महावीरस्स __ श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय विश्वपूज्य प्रातः स्मरणीय प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर पट्टप्रभावक चर्चाचक्रवर्ती परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय धनचन्द्रसूरीश्वर साहित्यविशारद विद्याभूषण श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीश्वर व्याख्यानवाचस्पति श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वर, शान्तमूर्ति कविरत्न श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वर गुरुभ्यो नमः सकलागम रहस्यवेदी कलिकाल सर्वज्ञकल्प-विद्वन्मान्य प्रातःस्मरणीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वर निर्मित श्री अभिधान राजेन्द्र कोष के तृतीय भागः [द्वितीय संस्करण] -: प्रकाशक :शांतमूर्ति आचार्यदेव श्रीमद्विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वर पट्टालंकार परमपूज्य तीर्थप्रभावक साहित्यमनीषी आचार्यदेव श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराज एवं संयमवयःस्थविर मुनिराजश्री शान्तिविजयजी महाराज के उपदेश से अ. भा. श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ प्रदत्त द्रव्यसहाय से । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष प्रकाशन संस्था, अहमदाबाद. श्री वीर संवत २५१३ प्रति : १०५० श्री राजेन्द्रसूरि संवत ७८ ईस्वी सन १९८६ मूल्य : संपूर्ण सेट (७ भागका) २५०१ (दो हजार पांचसो एक रुपये) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्तिस्थान श्री अभिधान राजेन्द्रकेोष प्रकाशन संस्था C/o श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञान मन्दिर, रतन पोल, श्री राजेन्द्रसूरि चोक, अहमदाबाद. मुद्रक : पं. मफतलाल झवेरचंद गांधी नयन प्रि. प्रेस, का. २ - ६१ गांधीरोड, ढींकवावाडी, अहमदाबाद- १ והמהגרים Popu अभिधान राजेन्द्रकोषस्य रचना तु सर्वथा अपूर्वे वाऽस्ति पण्डित शितिकण्ठशास्त्री श्री अभिधान राजेन्द्रकोष ! शब्दकोशोंकी परंपरा में 'अभिधानराजेन्द्र' यथार्थमें एक विशिष्ट उपलब्धि है । श्रीमद् की जीवनसाधनाका यह अत्यंत उदाहरण है। जब इस कोषका पहिला अक्षर लिखा गया तब वे तिरसठ वर्ष के थे । सात भागों में तथा दस हजार पांचसो छियासठ पृष्ठों में प्रकाशित यह कोश वस्तुतः एक विश्वकोष के समान है । जिसमें जिनागमों तथा बिभिन्न दार्शनिक ग्रन्थों के उद्धरण संकलित कर विस्तृत विवेचन किया गया हैं वसंतीलाल जैन — ग्रन्थरत्नकी रचना उनके निष्पत्ति हैं । अन्यथा अभिधान राजेन्द्र कोष जैसे अतिविशाल सम्यग् ज्ञानके सर्वांगी समर्पणकी साहजिक असंभव सा यह कार्य उनसे होता ही नहीं । अभिधानराजेन्द्र कोष सामान्य शब्दकोष नहीं हैं । किन्तु शास्त्रवचनोंकी समीचीन अभिव्यक्ति और अर्थघटनका सर्वश्रेष्ठ सहायक माध्यम है । रमेश आर. जवेरी ――― adityadadadadadadadadadadadadadadadadadadadadadada k For Private Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविहितसूरिशक्रचक्रचूडामणि-कलिकालसर्वज्ञकल्प-परमयोगिराज जगत्पूज्य-गुरूदेव-प्रभुश्रीमद्-विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज । श्रीअभिधान राजेन्द्र कोषः कालाकामाकाकालालालाजलागला लागि TOTOTIT KOOOOOOO OOR DIOOMOID तोलाराम दृप्तभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाननग्रामणी-राजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात्सन्दीप्तजैनश्रुत : । सङ्घस्योपकृतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशः, कोऽन्यः सूरिपदाङ्कितो विजयराजेन्द्रात्परः पुण्यवान् ? ।। १ ।। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय निवेदन कलिकाल सर्वज्ञकल्प, सकलागमरहस्यवेदी, विश्वपूज्य, परमयोगीन्द्र, परमकृपालु, पूज्यपाद गुरुदेव प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने अपने तप, जप, एवं ज्ञान, ध्यान की आत्मोन्नतिकारिणी प्रवृत्ति में अप्रमत्त भाव से रममाण होते हुए जिन प्रवचन में निर्दिष्ट सत्य वस्तु तत्त्व का जीवनभर प्रचार, प्रसार किया । साथ ही अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया-मन्थ सम्पदा का सर्जन किया । एक विशाल प्रन्थागार सम उन की जो सर्वोत्तम, और सर्वतोमुखी रचना हैं श्री अभिधान राजेन्द्र काश ! इस अलौकिक कृति के निर्माण द्वारा श्रीमद्ने विश्व के सभी विद्वज्जनों का युगों युगों के लिये अद्भुत प्रेरणा प्रदान की है । बीसवीं शताब्दी के संध्याकाल में इस ग्रन्थराज की प्रथम आवृत्ति भी सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय श्री जैन प्रभाकर प्रिन्टींग प्रेस, रतलाम (म. प्र. ) से प्रकाशित की गई थी । प्रथमावृत्ति की प्रतियां समाप्त प्रायः हो जाने के कारण यह ग्रन्थ दुर्लभ हो गया था । विश्व इस की द्वितियावृत्ति का इन्तेजार कर रहा था और हम भी इस के पुनः प्रकाशन के लिये प्रयत्नशील थे । अ. भा. श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन संघ का श्रीभांडवपुर तीर्थ पर विराट अधिबेशन हुआ और उस में इस ग्रन्थराज के प्रकाशन का निर्णय लिया गया । तदनुसार प्रकाशन कार्य प्रारंभ हुआ । इस महान कार्य में परमपूज्य शान्तमूर्ति आचार्य देव श्रीमद् विजय विद्याचंद्रसूरीश्वरजी महाराज के प्रभावक परमपूज्य तीर्थ प्रभावक साहित्यमनिषी आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज का श्रम साध्य सहयोग हमें प्राप्त हुआ है । वर्षो के बाद पुनः एक बार इस ग्रन्थराज का प्रकाशन हम सब के लिये परम आनन्ददायक है । इस के पुनः प्रकाशन में परमपूज्य तीर्थ प्रभावक आचार्य देव श्रीमद् विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराज 'यमवयःस्थविर मुनिराज श्री शान्तिविजयजी महाराज, मुनिराज श्री पुण्यविजयजी, मुनिश्री विनयविजयजी, मुनिश्री नित्यानन्द विजयजी, मुनिश्री जयरत्नविजयजी मुनिश्री जयानन्दविजयजी आदि मुनि मण्डल, एव साध्वी - मण्डल की ओर से जो सहयोग मिला है उस के लिये हम हार्दिक आभार प्रकट करते हैं : श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक संघ-अहमदाबाद के ट्रस्टी मंडल का भी इस कार्य में पूर्ण सहयोग मिला हैं । इस प्रकाशन में हमें जिन जिन ग्राम नगरों के श्री संघ एवं महानुभाबों का जो अनमोल आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है । नियमानुसार उनका नाम निर्देश करते हुए हमें अत्यन्त आनन्द का अनुभव हो रहा है । उन की मंगल नामावली प्रस्तुत है इस प्रकार । १ साध्वीजी श्री सुन्दरश्रीजी, विदुषी साध्वीजी श्री गंभीरश्रीजी के उपदेश से श्री मालवदेशीय त्रिस्तुतिक संघ । २ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ, चोराउ (राज.) ३ श्री महावीर जैन श्वेताम्बर पेड़ी, श्रीभाण्डवपुर तीर्थ (राज.) श्री मेंसवाड़ा सिल्क मिल्स, भीवडी (महाराष्ट्र) ५ श्री वस्तीमलजी हेमाजी, जीवाणा (राज.) ६ शाह नेमिचन्द देवीचन्द फूलचन्द, शुकनराज, कान्तिलाल, राजु बेटापोता श्री लखमाजी वलदरिया, कोशेलाव (राज.) ३ ४ For Private Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक ( त्रिस्तुतिक) संघ थराद (उ. गुजरात ) ८ श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ अने थराद जैन युवक मंडल, अहमदाबाद ९ श्री सौधर्मवृहत्तापेोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ दाधाल १० ११ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ धानेरा १२ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ थराद जैन मित्रमण्डल, बम्बई | १३ १४ श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ - सुराणा १५ १६ १७ १८ श्री जैन श्वेताम्बर सकल संघ, नेनावा (गुजरात) श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ, मेंगलवा (राज.) श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ, सियाणा (राज.) श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ, आकोली (,, ) श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञानमन्दिर, राणीस्टेशन (,, ) श्री मांगीलाल, फूटरमल, शान्तिलाल, किशोरचन्द्र बेटा पाता शेषमलजी खसाजी रामाणी, गुड़ाबालातान् (राज.) १९ श्री दरजमल, उकचन्द, हस्तिमल, तगराज हीराणी, रेवतड़ा ( राज ) २० श्री चेतनकुमार अशोककुमार, कन्हैयालालजी काश्यप, रतलाम (म. प्र. ) २१ श्री चीमनलाल भीखालाल लाघाणी वासणवाला, धानेरा (गुजरात) २२ शा. जेठमल, जुहारमल, लक्ष्मणराज, पृथ्वीराज, वीरचन्द, गौतमचन्द, अशोककुमार, रतनलाल, गणपतराज, बेटापोता केनाजी मेंगलवा, ( राजस्थान ) २३ श्री अमरचन्द देशमल तिलोकचन्द मीठालाल ओटमल घरमाजी पटियात (धाणसा ) २४ शाह मगराज सुखराज एन्ड क मद्रास २५ शाह सरेमलजी हरखचन्दजी तिलोकचन्दजी बेटा पाता हांसाजी रतनपुराबोरा, मोदरा (राज.) इनके अतिरिक्त गाँव नगरों के महानुभावाने लाभ लिया है उन के नाम हैं. भीनमाल, जोधपुर, मंगलवा, सायला, सुराणा, मद्रास, नल्लार, विजयवाडा, मांडवला, धाणसा, आहार, भेसवाडा, सुरा, सियाणा, कामता, सुराणा, दाधाल, रेवतडा, उनडी, पांथेडी, बम्बई, सुमेरपुर, सांचोर, तखतगढ कोशेलाव, थराद, अहमदाबाद, लेोवाणा, दूधवा, आणंद, वासणा, डीसा, लाखणी, बामी, धानेरा, कलाल, झाबुआ, टांडा, पारा, रिंगणोद, (धार) इस प्रकार गुरु कृपा से एवं पू. आचार्यश्री के सतत प्रयत्न से यह प्रकाशन हो रहा है, यह प्रसन्नता का विषय है, शुभम् । श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञानमन्दिर रतनपोल, श्री राजेन्द्रसरि चौक पो. अहमदाबाद २०४२ पोष सुद७ (गुरुसप्तमी) निवेदक श्री अभिधान राजेन्द्र केाश प्रकाशन संस्था अहमदाबाद For Private Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयावृत्ति प्रस्तावना 由歌曲中 अनादि से प्रवहमान है भी बीतराग परमात्मा का परम पावन शासन ! अनादि मिध्यात्व से मुक्त हो कर आत्मा जब सम्यक्त्व गुण प्राप्त करता है, तब आत्मिक उत्क्रान्ति का शुभारंभ होता है । सम्यग्दर्शन की उपलब्धि के पश्चात् हो सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का क्रम आत्मा में परिलक्षित होता है । मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान दोनों ही इन्द्रिय तथा मन से प्राह्य हैं, में होता है परन्तु अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान एवं केवलज्ञान आत्म ज्ञान में समाविष्ट हैं। सम्यक्त्व का सूर्योदय होते ही मिथ्यात्व का घना अन्धेरा दूर हो जाता है और आत्मा संपूर्णता की ओर गतिमान होता है । यही सम्यक्त्व आत्मा को परोक्ष ज्ञान से प्रत्यक्ष ज्ञान की ओर अग्रसर करता है। प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्धि के लिए यह आवश्यक है कि आत्मा लौकिक भावों से अलग हो कर कोतर भावों को चिन्तनधारा में स्वयं को दुबो दे 'जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पठा । अतः इनका समावेश परोक्षज्ञान अतः ये ज्ञान प्रत्यक्ष प्राह्य है संसार परिभ्रमण को प्रमुख कारण है आप और बन्ध दुःख से मुक्ति के लिए इनको दूर करना आवश्यक है तथा इसके साथ ही संवर और निर्जरा भी आवश्यक है । बन्धन सहज है, पर यदि उसके कारण भाव एव ं कारण स्थिति से स्वयं को अलग रखा जाये तो अवश्य ही हम निर्बंन्ध अथवा अनथक अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं । जिनागम में अध्यात्म समाया हुआ है। सहज स्थिति की कामना करनेवालों का चाहिये कि ये जिनवाणी का श्रवण, अध्ययन, चिन्तन, अनुशीलन आदि करते रहे। कर्म और आत्मा का अनादि से घना रिश्ता है; अतः कर्म आत्मा के साथ ही लगा रहता है; जैसे खान में रहे हुए सोने के साथ मिट्टी लगी हुई होती है मिट्टी सुवर्ण की मलिनता है और कर्म आत्मा की प्रयोग के द्वारा मिट्टी सुवर्ण से अलग की जा सकती है। जब देनों अलग अलग होते हैं तब मिट्टी मिट्टी रूप में और सुवर्ण सुवर्ण के रूप में प्रकट होता है। मिट्टी का कोई सुवर्ण नहीं कहता और न ही सुवर्ण को केई मिट्टी कहता है ठीक उसी प्रकार सम्यदर्शन प्राप्त आत्मा सम्यग्ज्ञान के उज्ज्वल आलोक में सम्यक् चारित्र के प्रयोग द्वारा अपने पर से कर्म रज पूरी तरह झटक देती है और अपनी मलिनता दूर करके उम्लता प्रकट कर देती है। कर्म की आठों प्रकृतियाँ अपने अपने स्वभावानुसार सांसारिक प्रवृत्तियों में रममाण आत्मा को भुगतान के लिए प्रेरित करती रहती हैं जिन्हें स्वयं का स्वाय नहीं है और जो असमंजस स्थिति में हैं; ऐसे संसारो जीवों का ये कर्म प्रकृतियां विभाव परिणमन करा लेती हैं कर्म Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानावरणीय कर्म आँखां पर रही हुई पट्टी के समान है। नजर चाहे जितनी सूक्ष्म हो, पर यदि आंखों पर कपडे की पट्टी लगी हो, तो कुछ भी दिखाई नहीं देता; ठीक इसी प्रकार आत्मा की निर्मल ज्ञानदृष्टि को ज्ञानवरणीय कर्म आवृत्त कर लेता है । इससे ज्ञानदृष्टि पर आवरण छा जाता है। यह कर्म जीव को उल्टी चाल चलाता है। दर्शनावरणीय कर्म राजा के पहरेदार के समान है । जिस प्रकार पहरेदार दर्शना को गजदर्शन से वंचित रखता है, उसे महल में प्रवेश करने से रोकता है। उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म जीव को आत्मदर्शन से वंचित रखता है । यह जीव को प्रमत्त भाव में आकण्ठ डुबो देता है। अतः जीव अप्रमत्त भाव से सर्वथा दूर रह जाता है । यह जीव के आत्मदर्शन के राजमार्ग को अवरुद्ध कर देता है और जीव को उन्मार्गगामी बनाता है । ___ मधुलिप्त असि धार के समान है वेदनीय कर्म । यह जीव को क्षणभंगुर सुख का लालची बना कर उसे अनन्त दुःख समुद्र में धकेल देता है। साता का वेदन तो यह अत्यल्प करवाता है, पर असाता का वेदन यह अत्यधिक करवाता है। शहद लगी तलवार की धार को चाटनेवाला शहद की मधुरता तो पाता है और सुख का अनुभव भी करता है; पर जीभ कट जाते ही असह्य दुःख का अनुभव भी उसे करना पड़ता है। इस प्रकार वेदनीय कर्म सुख के साथ अपार दु.ख का भी वेदन कराता है। मोहनीय कर्म मदिरा के समान है। मदिरा प्राशन करनेवाला मनुष्य अपने होश-हवास खा बैठता है। इसी प्रकार मोहनीय कर्म से प्रभावित जीव अपने आत्म-स्वरूप को भूल जाता है और पर पदार्थो को आत्म स्वरुप मान लेता है। यही एकमेव कारण है उसके ससार परिभ्रमण का । ' मोह महामद पियो अनादि, भूलि आपकु' भरमत बादि ।' यह जीव के सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र के मार्ग में रुकावट डालता है। जो मनुष्य इस मोहनीय कर्म के स्वरुप से अनभिज्ञ रहता है और जो इसकी स्थिति का अनुभव नहीं करता; वह अपने जीवन में आत्म विकास से वंचित रह जाता है। अहंकार और ममकार जब तक हममें विद्यमान हैं। तब तक हम माहनीय कर्म के बन्धन में जकडे हुए ही हैं। अहंकार और ममकार जितना जितना घटता जाता है; उतना ही मोहनीय कर्म का बन्धन शिथिल होता जाता है। यह मोहनीय कर्म समस्त कर्मसत्ता का अधिपति है और सबसे लम्बी उम्र वाला है। इस माहराजा के निर्देशन में ही कर्म सेना आगेकूच करती है । जीव को भेदविज्ञान से वचित रखनेवाला यही कर्म है । इसने ही जीव को संसार की भूलभुलैया में अटकाये रखा है। और बेडी के समान है आयुष्य कम । इसने जीव को शरीर रूपी बेडी लगा दी है; जो अनादि से आज तक चली आ रही है । एक बेडी टूटती है; तो दूसरी पुनः तुरन्त लग जाती है । सजा की अवधि पहुए बिना कैदी मुक्त नहीं होता; इसी प्रकार जब तक जीव को जन्म जन्म को केद की अवधि पूरी नहीं होती; तब तक जीव मुक्ति की मौज नहीं पा सकता । नाम कर्म का स्वभाव है चित्रकार के समान । चित्रकार नाना प्रकार के चित्र पट पर अंकित करता है। ठीक इसी प्रकार नाम कर्म चतुर्गति में भ्रमण करने विविध जीवों को भिन्न भिन्न नाम प्रदान करता है । इसके प्रभाव से जीव इस संसार पट पर नाना प्रकार के नाम धारण करके देव, मनुष्य तिर्यच और नरक गति में भ्रमण करता है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोत्र कर्म का स्वभाव कुम्हार के समान है। कुम्हार अनेक प्रकार के छोटे बडे बर्तन बनाता है और उन्हें विभिन्न आकार प्रदान करता है । गोत्र कर्म भी जीव को उच्च और नीच गोत्र प्रदान करता है, जिससे जीव का उच्च या नीच गोत्र में जन्म धारण करना पडता हैं। इसी प्रकार अन्तराय कर्म है-राजा के खजाँची के समान । खजाने में माल तो बहुत होता है, पर कुञ्जी खजाँची के हाथ में होती है; अतः खजाने में से याचक कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता । यही कार्य अन्तराय कमे करता है । इसके प्रभाव से जीव को इच्छित वस्तु उपलब्ध नहीं हो पाती। दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य (आत्मशक्ति) के विषय में अन्तराय कर्म के उदय से जोव किसी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं कर सकता । संक्षेप में यह है जैन दर्शन का कर्मवाद ।। इसी प्रकार जिनागमों में आत्मवाद, अनेकान्तवाद, षदद्रव्य, नवतत्त्व, मोक्ष मार्ग आदि अनेक ऐसे विषयों का समावेश है; जो जीव के आत्म विकास में परम सहायक हैं । द्वादशांगी जिनवाणी का विस्तार है । आत्म कल्याण की कामना करनेवालों के लिए द्वादशांगी का गहन अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है । संसारस्थ प्रत्येक जीव को स्वस्वरूप अर्थात् ईश्वरत्व प्राप्त करने का अधिकार केवल जैन धर्म दर्शन ही देता है, अन्य कोई नहीं । 'सर्व धर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज ।', 'बुद्धं शरणं गच्छामि......धम्म सरणं गच्छामि ।' और 'केवलिपण्णत्त धम्म सरणं पव्वज्जामि । इन तीनों पक्षों के सूक्ष्म एवं गहन अध्ययन से यही निष्कर्ष निकलता है कि अन्तिम पक्ष जीव के लिए केवलीप्रणीत धर्म के दरवाजे खुले रखता है । इस धर्म में प्रवेश करके जीव म्वयं अनन्त ऐश्वर्यवान केवलज्ञान सम्पन्न बन जाता है । जीव अपने पुरुषार्थ के बल पर परमात्म पद प्राप्त कर सकता है । अन्य समस्त धर्म दर्शनों में जीव को परमात्मप्राप्ति के बाद भी परमात्मा से हीन माना गया है। जब कि जैनधर्मदर्शन में परमात्म पद प्राप्ति के पश्चात् जीव को परमात्म स्वरुप ही माना गया है। यह जैन धर्म की अपनी अलग विशेषता है। परमज्ञानी परमात्मा की पावन वाणी जीव की इस अनुपम एवं असाधारण स्थिति का स्पष्ट बोध कराती है। प्रमाण, नय, निक्षेप, सप्तभंगी एवं स्यावाद शैली से संवृत्त जिनवाणीमय जिनागमों के गहन अध्ययन के लिए विभिन्न सन्दर्भ ग्रन्थों का अनुशोलन अत्यन्त आवश्यक है । आज से सौ साल पूर्व उचित साधनों के अभाव में जिनागमों का अध्ययन अत्यन्त दुष्कर था । विश्व के विद्वान जिनागम की एक ऐसी कुरुजी तलाश रहे थे; जो सारे रहस्य खोल दे और उनकी ज्ञानपिपासा बुझा सके। ऐसे समय में एक तिरसठ वर्षीय वयोवृद्ध त्यागवृद्ध, तपोवृद्ध एवं ज्ञानवृद्ध दिव्य पुरुष ने यह काम अपने हाथ में लिया । वे दिव्य पुरुष थे-उत्कृष्ट चारित्र क्रिया पालक गुरुदेवप्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज । उन्होंन जिनागम की कुञ्जी निर्माण करने का जटिल कार्य सियाणा नगरस्थ श्री सुविधिनाथ जिनालय की छत्र छाया में अपने हाथ में लिया। कुजीनिमोण की यह प्रक्रिया पूरे चौदह वर्ष तक चलनी रही और सूरत में कुञ्जी बन कर तैयार हो गयी। वह कुञ्जी है-'अभिधान राजेन्द्र'। यह कहना जरा भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आगमों का अध्ययन करते वक्त 'अभिधान राजेन्द्र' पास में हो तो और कोई ग्रन्थ पास में रखने की कोई आवश्यकता नहीं है । जैनागमों में निर्दिष्ट Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतत्त्व जो 'अभिधान राजेन्द्र' में है, वह अन्यत्र हो या न हो; पर जो नहीं हैं। वह कहीं नहीं है । यह महान ग्रन्थ जिज्ञासु की तमाम जिज्ञासाएँ पूर्ण करता है। भारतीय संस्कृति में इतिहास पूर्व काल से कोश साहित्य की परंपरा आज तक चली आ रही है। निघ'टु कोश में वेद की सहिताओं का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। ‘यास्क' की निरुक्त' में और पाणिनी के 'अष्टाध्यायी' में भी विशाल शब्दसंग्रह दृष्टिगोचर होता है। ये सब कोश गद्य लेखन में हैं। इसके पश्चात् प्रारंभ हुआ पद्य रचनाकाल । जो कोश पद्य में रचे गये, वे दो प्रकार से रचे गये । एक प्रकार है, एकार्थक कोश और दूसरा प्रकार है-अनेकार्थक कोश । कात्यायन की 'नाममाला', वाचस्पति का 'शब्दार्णव', विक्रमादित्य का 'शब्दार्णव' भागुरी का 'त्रिकाण्ड' और धन्वन्तरी का निघण्टुः इनमें से कुछ प्राप्य हैं और कुछ अप्राप्य । उपलब्ध कोशों में अमरसिंह का 'अमरकोश' बहु प्रचलित है। धनपाल का 'पाइय लच्छी नाम माला' २७९ गाथात्मक हैं और एकार्थक शब्दों का बोध कराता है। इसमें ९९८ शब्दों के प्राकृत रूप प्रस्तुत किये गये हैं। आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने 'पाइयलच्छी नाम माला' पर प्रामाणिकता की मुहर लगाई है। धनरुजयने 'धनब्जय नाम माला' में शब्दान्तर करने की एक विशिष्ट पद्धति प्रस्तुत की है। 'धर' शब्द के योग से पृथ्वी वाचक शब्द पर्वत वाचक बन जाते हैं जैसे भूधर, कुधर, इत्यादि । इस पद्धति से अनेक नये शब्दों निर्माण होता हैं। इसी प्रकार धनजयने 'अनेकार्थ नाममाला' को रचना भी की है। कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य के 'अभिधान चिन्तामणि', 'अनेकार्थ संग्रह', 'निघण्टु संग्रह' और 'देशी नाममाला' आदि कोश ग्रन्थ सुप्रसिद्ध हैं। इसके अलावा 'शिलोंछ कोश', 'नाम कोश', 'शब्द चन्द्रिका', 'सुन्दर प्रकाश शब्दार्णव', 'शब्दभेद नाममाला', 'नाम संग्रह', 'शारदीय नाममाला', 'शब्द रत्नाकर', 'अव्ययकाक्षर नाममाला', 'शेष नाममाला', 'शब्द सन्दोह संग्रह', 'शब्द रत्न प्रदीप', 'विश्वलोचन कोश', 'नानार्थ कोश', 'पंचवर्ग स ग्रह नाम माला', 'अपवर्ग नाम माला', 'एकाक्षरी-नानार्थ कोश', 'एकाक्षर नाममालिका', 'एकाक्षर कोश', 'एकाक्षर नाममाला', 'द्वयक्षर कोश', 'देश्य निर्देश निघण्टु', 'पाइय सहमहण्णव', 'अर्धमागधी डिक्शनरी', 'जैनागम कोश', 'अल्पपरिचित सैद्धान्तिक कोश', जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' इत्यादि अनेक काश ग्रन्थ भाषा के अध्ययनार्थ रचे गये हैं। इनमें से कई कोश ग्रन्थ 'अभिधान राजेन्द्र' के पूर्व प्रकाशित हुए हैं और कुछ पश्चात् भी। 'अभिधान राजेन्द्र' की अपनी अलग विशेषता है। इसी विशेपता के कारण यह आज भी समस्त कोश ग्रन्थों का सिरमौर बना हुआ है। सच तो यह है कि जिस प्रकार सूर्य को दिया दिखाने की आवश्यकता नहीं होती; उसी प्रकार इस महा ग्रन्थ को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है। सूर्य स्वयमेव प्रकाशित है और यह ग्रन्थराज भी स्वयमेव प्रमाणित है। फिर भी इसकी कुछ विशेषताए प्रस्तुत करना अप्रासंगिक तो नहीं होगा । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरपट्प्रभाकर-चर्चाचक्रवर्ति-आगमरहस्यवेदी-श्रुतस्थविरमान्य श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-श्रीमद्विजयधनचन्द्रसूरिजी महाराज। तालाराम शर्मा विद्वच्चकोरजनमोदकरं प्रसन्नं, शुभ्रव्रतं सुकविकैरवसद्विलासम् ।। हृद्ध्वान्तनाशकरणे प्रसरत्प्रतापं, वन्दे कलानिधिसमं धनचन्द्रसूरिम् ॥ १॥ . Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अभिधान राजेन्द्र' अर्धमागधी प्राकृत भाषा का कोश है। भगवान महावीर के समय में प्राकृत लोक भाषा थी। उन्होंने इसी भाषा में आम आदमो को धर्म का मर्म समझाया । यही . कारण है कि जैन आगों को रचना अर्धमागधी प्राकृत में की गई है । इस महाकोश में श्रीमद् ने प्राकृत शब्दों का मर्म 'अ' कारादि क्रम से समझाया है; यह इस महाग्रन्थ की वैज्ञानिकता है। उन्होंने मूल प्राकृत शब्द का अथ स्पष्ट करते वक्त उसका संस्कृत रुप, लिंग, व्युत्पत्ति का ज्ञान कराया है। इसके अलावा उस शब्द के तमाम अर्थ सन्दर्भ सहित प्रस्तुत किये हैं। वैज्ञानिकता के अलावा इसमें व्यापकता भी है जैनधर्म-दर्शन का कोई भी विषय इससे अछूता नहीं रह गया है। इसमें तथ्य प्रमाण सहित प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें स्याद्वाद, ईश्वरवाद सप्तनय, सप्तभंगी, षड्दर्शन, नवतत्त्व, अनुयोग, तीर्थ परिचय आदि समस्त विषयों की सप्रमाण जानकारी है । सप्तानवे सन्दर्भ ग्रन्थ इसमें समाविष्ट हैं । वैज्ञानिक और व्यापक होने के साथ साथ यह सुविशाल भी हैं। सात भागों में विभक्त्त यह विश्वकोश लगभग दस हजार रॉयल पेजी पृष्ठों में विस्तारित है। इसमें धर्म-संकृति से संबधित लगभग साठ हजार शब्द सार्थ व्याख्यायित हुए हैं । उनको पुष्ट-सप्रमाण व्याख्या के लिए इसमें चार लाख से भी अधिक लोक उद्धत किये गये हैं । इसके सातों भागों को यदि कोई सामान्य मनुष्य एक साथ उठाना चाहे; तो उठाने के पहले उसे कुछ विचार अवश्य ही करना पड़ेगा । इस महाप्रन्थ के प्रारंभिक लेखन की भी अपनी अलग कहानी है । जिस जमाने में यह महा प्रन्थ लिखा गया; उस समय लेखन साहित्य का पूर्ण विकास नहीं हुआ था । श्रीमद् गुरुदेव ने गत के समय लेखन कभी नहीं किया । कहते हैं, वे कपड़े का एक छोटा सा टुकडा स्याही से तर कर देते थे और उसमें कलम गीली करके लिखते थे । एक स्थान पर बैठ कर उन्होंने कभी नहीं लिखा । चातुर्मास काल के अलावा वे सदेव विहार-रत रहे । मालवा, मारवाड, गुजरात के प्रदेशों में उन्होंने दो विहार किये। प्रतिष्ठा-अ'जनशलाका, उपधान. संघप्रयाण आदि अनेक धार्मिक व सामाजिक कार्य संपन्न किये; जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान किया और प्रतिपक्षियों द्वारा प्रदत्त मानसिक सन्ताप भी सहन किये । साथ साथ ध्यान और तपश्चर्या भी चलती रही । ऐसी विषम परिस्थिति में केवल चौदह वर्ष में एक व्यक्ति द्वारा इस 'जैन विश्वकोश' का निर्माण हुआ; यह एक महान आश्चर्य है। इस महाग्रन्थ के प्रणयन ने उन्हें विश्ववपुरुष की श्रेणी में प्रतिष्ठित कर दिया है और विश्वपूज्यता प्रदान की है। श्रीमद् विजय यशोदेवसूरिजी महाराज 'अभिधान राजेन्द्र' और इसके कर्ता के प्रति अपना भावोल्लास प्रकट करते हुए लिखते हैं-आज भी यह ( अभिधान राजेन्द्र) मेरा निकटतम सहचर है। साधनों के अभाव के जमाने में यह जो महान कार्य सम्पन्न हुआ है। इसका अवलोकन करके मेरा मन आश्चर्य के भावों से भर जाता है और मेरा मस्तक इसके कर्ता के इस भगीरथ पुण्य पुरुषार्थ के आगे झुक जाता है । मेरे मन में उनके प्रति सन्मान का भाव उत्पन्न होता है; क्योंकि इस प्रकार के (महा) कोश को रचना करने का आद्य विचार केवल उन्हें ही उत्पन्न हुआ और उस विकट समय में अपने विचार पर उन्होंने अमल भी किया । यदि कोई मुझसे यह पूछे कि जैन साहित्य के क्षेत्र में बीसवीं सदी की असाधारण घटना कौनसी है; तो मेरा संकेत इस कोश की ओर ही होगा; जो बड़ा कष्ट साध्य एवं अर्थसाध्य है । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ , प्रस्तुत वृहद् विश्वकेश को पुनः प्रकाशित करने को हलचल और हमारा दक्षिण बिहार दोनों एक साथ प्रारम्भ हुए । बबई चातुर्मास में हमारा अनेक मुनिजनों और विद्वानों से साक्षात्कार हुआ। ज भी मिला, उसने यही कहा कि 'अभिवान राजेन्द्र जो कि दुर्लभ हो गया है, उसे पुनः प्रकाशित करके सर्व जन सुलभ किया जाये। हमें यह भी सुनना पड़ा कि यदि आपके समाज के पास वर्तमान में इसके प्रकाशन की कोई योजना न हो; तो हमें इसके प्रकाशन का अधिकार दीजिये । हमने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि त्रिस्तुतिक जैन संघ इस मामले में सम्पन्न एवं समर्थ हे अभिधान । राजेन्द्र ' यथावसर शीघ्र प्रकाशित होगा । । श्रीमद् पूज्य गुरुदेव की यह महती कृपा हुई कि हम क्रमशः विहार करते हुए मद्रास पहुँच गये । तामिलनाडु राज्य की राजधानी है यह मद्रास दक्षिण में बसे हुए दूर दूर के हजारों श्रद्धालुओं ने इस चातुर्मास में मद्रास की यात्रा की मद्रास चातुर्मास आज भी हमारे लिए स्मरणीय है। चातुर्मास समाप्ति के पश्चात् पाप सुदी सप्तमी के दिन मद्रास में गुरु सप्तमी उत्सव मनाया गया गुरु सप्तमो प्रातःस्मरणीय पूज्य गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब का जन्म और स्मृति दिन है। गुरु सप्तमी के पावन अवसर पर एक विद्वद् गोष्ठी का आयोजन किया गया। उपस्थित विद्वानों ने अपने प्रवचन में पूज्य गुरुदेवश्री के महान कार्यों की प्रशस्ति करते हुए उनकी समीचीनता प्रकट की और प्रशस्ति में अभिधान राजेन्द्र का उचित मूल्याङ्कन करते हुए इसके जोर दिया । पुनर्मुद्रण की आवश्यकता पर इस इस ग्रन्थराज का प्रकाशन एक भगीरथ कार्य है। इस महत्त्वपूर्ण कार्य का बीड़ा उठाने का आह्वान मैंने मद्रास संघ को किया आह्वान होते ही संघ हिमाचल से गुरुभक्ति गंगा उमड़ पड़ी। कार्य के लिए भरपूर सहयोग का हमें आश्वासन प्राप्त हुआ । ग्रन्थ की छपाई गतिमान हुई; पर श्रेयांस बहुविघ्नानि' की उक्ति के अनुसार हमे यह पुनीत कार्य स्थगित करना पड़ा कोई ऐसा अवरोध इसके प्रकाशन मार्ग में उपस्थित हो गया कि उसे दूर करना आसान नहीं था । प्रकाशन की स्थगिति सबके लिए दुःखद थी; पर 新 आंतरिक विरोध को जन्म दे कर कार्य करना मुझे पसन्द नहीं है । ' मजबूर था। " हमारी इस मजबूरी से नाजायज लाभ उठाया दिल्ली की प्रकाशन संस्थाओंने । उन्होंने इस पुनीत ग्रन्थ को शुद्ध व्यवसायिक दृष्टि से चुपचाप प्रकाशित कर दिया। श्रीमद् ने जो भी लिखा, स्वान्तः सुखाय और सर्वजन हिताय लिखा; व्यवसायियों के लिये नहीं। यही कारण है कि इसकी प्रथम आवृत्ति में यह स्पष्ट कर दिया गया कि ' इसके पुनःप्रकाशन का अधिकार त्रिस्तुतिक सकल संघ को है ।' त्रिस्तुतिक समाज की इस अनमोल धरोहर को प्रकाशित करने से पहले त्रिस्तुतिक समाज को इसके प्रकाशन से आगाह करना आवश्यक था । ऐसा न करके इसके अन्य प्रकाशकों ने एक तरह से नैतिकता का अंग दी किया है । ....... श्री भाण्डवपुर तीर्थ पर अखिल भारतीय श्रीसौधर्म बृहत्तपोगच्छीय ओजैन श्वेताम्बर श्रीजैन त्रिस्तुतिक संघ का विराट अधिवेशन सम्पन्न हुआ। देश के कोने कोने से गुरुभक्त उस अधिवेशन के लिए अस्थित हुए । पावनपुण्यस्थल श्री भाण्डवपुर भक्तजनों के भक्तिभाव की स्वर लहरियों से गूंज उठा । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिवेशन प्रारम्भ हुआ । संयमयःस्थविर मुनिप्रवर श्री शान्तिविजयजी महाराज साहब आदि मुनि मण्डल की सान्निध्यता में मैंने संघ के ममक्ष विश्व की असाधारण कृति इस 'अभिधान राजेन्द्र' के पुनःप्रकाशन का प्रस्ताव रखा । श्री संघने हार्दिक प्रसन्नता व अपूर्व भावोल्लास के साथ मेरा प्रस्ताव स्वीकार किया और उसी जाजम पर श्रीसंघ ने इसे प्रकाशित करने की घोषणा कर दी । परमकृपालु श्रीमद् गुरुदेव के प्रति श्री संघ की यह अनन्य असाधारण भक्ति सराहनीय है। और आज अखिल भारतीय श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ के द्वारा यह कोश पन्थ पुनमुद्रित हो कर विद्वजनों के समक्ष प्रस्तुत हो रहा है। यह हम सब के लिए परम आनन्द का विषय है । इस महाग्रन्थ के पुनर्मुद्रण हेतु एक समिति का गठन किया गया है। फिर भी इस प्रकाशन में अपना अमूल्य योगदान देनेवाले श्रेष्ठिवर्य सघवी श्री गगलभाई अध्यक्ष अ. भा. सौ. वृ. त्रिस्तुतिक संघ गुजरात विभागीय अध्यक्ष श्री हीराभाई, मंत्री श्री हिम्मतभाई एवं स्थानीय समस्त कार्यकर्ताओं की सेवाओं को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता । इनकी सेवाएं सदा स्मरणीय हैं। इस कार्य में हमें पंडित श्री मफतलाल झवेरचन्द का स्मरणीय योगदान मिला है। प्रेसकार्य, प्रफरीडिंग एवं प्रकाशन में हमें उनसे अनमोल सहायता मिली है। हम उन्हें नहीं भूल सकते। त्रिस्तुतिक संघ के समस्त गुरुभक्तों ने इस प्रकाशन हेतु जो गुरुभक्ति प्रदर्शित की है, यह इतिहास में अमर हो गयी हैं। वे सब धन्यवाद के पात्र हैं, जिन्होंने इस कार्य में भाग लिया है । शुभम् । नेनावा (बनासकांठा) दिनांक २-१२-८५ आचार्य जयन्तसेनसूरि Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सौधर्म बृहत्तपागचीय पट्टावती - *eakerश्रीमहावीरस्वामीशासननायक | २५ श्रीनरसिंहसूरि ५. श्रीसोमसुन्दरसूरि १ श्रीसुधर्मास्वामी २६ श्रीसमुद्रसूरि ५१ श्रीमुनिसुन्दरसूरि २ श्रीजम्बूस्वामी २७ श्रीमानदेवसरि ५२ श्रीरत्नशेखरसूरि ३ श्रीप्रनवस्वामी २८ श्रीविवुधप्रभसूरि ५३ श्रीलक्ष्मीसागरसूरि . श्रीसय्यंभवस्वामी २६ श्रीजयानन्दसूरि ५४ श्रीसुमतिसाधुसूरि ५ श्रीयशोमवसूरि ३० श्रीरविप्रनसूरि ५५ श्रीहेमविमलसूरि श्रीसंभूतविजयजी ३१ श्रीयशोदेवसरि ५६ श्रीआनन्दविमलसूरि श्रीनप्रबाहुस्वामी ३२ श्रीप्रद्युम्नसूरि ७ श्रीरथूलभस्वामी ५७ श्रीविजयदानसूरि ३३ श्रीमानदेवसूरि _(श्रीअार्यसुहस्तीसूरि ५८ श्रीहीरविजयसूरि ३४ श्रीविमलचन्प्रसूरि ८ श्रीमार्यमहागिरि ३५ श्रीउद्योतनसूरि ५६ श्रीविजयसेनसूरि श्रीसुस्थितसूरि ३६ श्रीसर्वदेवसूरि ... श्रीविजयदेवसरि श्रीसुप्रतिबदमूरि ३७ श्रीदेवसूरि श्रीविजयसिंहसूरि १. श्रीइन्द्रदिन्नसूरि ३८ श्रीसर्वदेवसूरि ६१ श्रीविजयप्रभसूरि ११ श्रीदिन्नसूरि श्रीयशोभद्रसूरि ६२ श्रीविजयरत्नसूरि १२ श्रीसिंहगिरिसूरि ३ श्रीनेमिचन्मसूरि ६३ श्रीविजयक्षमासूरि १३ श्रीवज्रस्वामीजी ४. श्रीमुनिचन्प्रसूरि ६४ श्रीविजयदेवेन्ससूरि १४ श्रीवज्रसेनसूरिजी ४१ श्रीअजितदेवसूरि १५ श्रीचन्मसूरिजी ६५ श्रीविजयकल्याणसूरि ४२ श्रीविजयसिंहसूरि १६ श्रीसामन्तनप्रसूरि श्रीसोमप्रनसरि ६६ श्रीविजयप्रमोदसूरि १७ श्रीवृहदेवसूरि ४३ श्रीमणिरत्नसूरि ६७ श्रीविजयराजेन्सूरि १८ श्रीप्रद्योतनसूरि ४४ श्रीजगच्चन्यसूरि श्री विजयधनचन्द्रसूरि १६ श्रीमानदेवसरि ...श्रीदेवेन्सूरि ६६ श्री विजयभूपेन्द्ररि २० श्रीमानतुङ्गसूरि ४५ श्रीविद्यानन्दसूरि ७० श्री विजययतीन्द्रसूरि २१ श्रीवीरसूरि ४६ श्रीधर्मघोषसरि २२ श्रीजयदेवसूरि ७१ श्री विजयविद्याचन्द्रर्ति ४७ श्रीसोमप्रभसूरि २३ श्रीदेवामन्दसूरि ४८ श्रीसोमतिलकसरि ७२ वर्तमानाचार्य २४ श्रीविक्रमसूरि ४६ श्रीदेवसुन्दरसूरि श्री विजयजयन्तसेनरि Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् विजय सूरीश्वरजी महाराज श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज उपाध्याय गुणाधविजयजी महाराज राजेन्द्र कोष प प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज රට Only उपाध्याय मोहनविजयजी महाराज विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज विजय विद्यावद्रसूरीश्वरजी महाराज nelibrary.org Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राभार-प्रदर्शनम् । M-12-3-45 t ***t-t * 本事去去去去去事本事于本去去去去去去去去去去去去去去去去去去去去去去去, 基本要去去去去下半生主,中学,市 ** सुविहिससूरिकुल तिलकायमान-सकसजैनागमपारदृश्व-थाबालब्रह्मचारी-जङ्गमयुगप्रधान-प्रातःस्मरणीय-परमयोगिराज-क्रियाशुभयुपकारक-श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-सितपटाचार्य-जगत्पूज्य-गुरुदेव-जहारक श्री १०.८ प्रभु श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने 'श्रीनिधानराजेन्द्र' प्राकृत. मागधी महाकोश का सङ्कलनकार्य मरुधरदेशीय श्रीसियाणा नगर में संवत् १ए४६ के धाश्विनशुक्ल द्वितीया के दिन शुन लग्न में श्रारम्भ किया। इस महान संकलन कार्य में समय समय पर कोशकर्ता के मुख्य पट्टधर शिष्यश्रीमद्धनचन्द्रसूरिजी महाराजने भी आपको बहुत सहायता दी। इस प्रकार करीब साढ चौदह वर्ष के अविश्रान्त परिश्रम के फलस्वरूप में यह प्राकृत बृहत्कोष संवत् रए६० चैत्र-शुक्ला १३ बुधवार के दिन श्रीसूर्यपुर (सूरत-गुजरात) में बनकर परिपूर्ण (तैयार ) हुआ। ** * * ** *** *** * गालियर-रियासत के राजगढ (मालबा) में गुरुनिर्वाणोत्सव के दरमियान संवत् १९६३ पौष-शुक्ला १३ के दिन महातपस्त्री-मुनिश्रीरूपविजयजी, मुनिश्रीदीपविजयजी, मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी, आदि सुयोग्य मुनिमहाराजाओं की अध्यक्षता में मालवदेशीय-छोटे बड़े प्राम-नगरों के प्रतिष्ठित-सद्गृहस्थों की सामाजिक-मिटिंग में सर्वानुमत से यह प्रस्ताव पास हुआ कि-मर्तुम-गुरुदेव के निर्माण किये हुए 'शनिधानराजेन्ड' प्राकृत मागधी महा--कोश का जैन और जैनेतर समानरूप से लाज प्राप्त कर सकें, इसलिये इसको अवश्य छपाना चाहिये, और इसके छपाने के लिये रतलाम (मालवा) में सेठ जसुजी चतुर्नुजजीत्-मिश्रीमलजी मथुरालालजी, रूपचं. दजी रखवदासजीत-जागीरथजी,वीसाजी जवरचंदजीत-प्यारचंदजी और गोमाजी गंजीरचंद जीत्-निहालचंदजी, श्रादि प्रतिष्ठित सद्गृहस्थों की देख-रेख में श्रीअनिधान राजेन्द्र-कार्यालय और श्रीजनप्रनाकरप्रिन्टिगप्रेस' स्वतन्त्र खोखना चाहिये । कोष के संशोधन और कार्यालय के प्रबन्ध का *** ** * ** * * 未来素,素去朱孝李未老去去去去去去去去去去去去去去去去去去去去并未未圣基本主体未来未来生本4名 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GEt. समस्त-भार मर्हम-गुरुदेव के सुयोग्य-शिष्य-मुनिश्रीदीपविजयजी (श्रीमद्विजयजूपेन्द्रसूरिजी) और मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी को सौंपा जाय । बस, प्रस्ताव पास होने के बाद सं० १९६४ श्रावणसुदी ५ के दिन उक्त कोश को छपाने के लिये रतलाम में उपर्युक्त कार्यालय और प्रेस खोला गया और उक्त दोनों पूज्य-मुनिराजों की देख-रेख से कोश क्रमशः छपना शुरू हुश्रा, जो सं० १९८१ चैत्र-वदि ५ गुरुवार के दिन संपूर्ण छप जाने की सफलता को प्राप्त दुथा। __ इस महान् कोश के मुद्रणकार्य में कुवादिमतमतंगजमदनञ्जनकेसरीकलिकाल सिझान्तशिरोमणी-प्रातःस्मरणीय-आचार्य-श्रीमद्धनचन्दसूरिजी महाराज, उपाध्याय-श्रीमन्मोहनविजयजी महाराज, सञ्चारित्रीमुनिश्रीटीकमविजयजी महाराज, पूर्णगुरुदेवसेवादेवाक-मुनिश्रोहुकुम विजयजी महाराज, सक्रियावान् -महातपस्वी-मुनिश्रीरूपविजयजी महाराज; साहित्यविशारद-विद्यानूषण-श्रीमद्विजयनृपेन्द्रसूरिजी महाराज, व्याख्यानवाचस्पत्युपाध्याय-मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी महाराज, ज्ञानी ध्यानी मौनी महातपस्वी-मुनिश्रीहिम्मतविजयजी, मुनिश्री-लदमी विजयजी, मुनिश्नी-गुलाबविजयजी, मुनिश्री-हर्षविजयजी, मुनिश्री-हंसविजयजी, मुनिश्री-अमृतविजयजी , आदि मुनिवरों ने अपने अपने विहार के दरमियान समय समय पर श्रीसंघ को उपदेश दे दे कर तन , मन और धन से पूर्ण सहायता पहोंचाई, और स्वयं भी अनेक जाँति परिश्रम उठाया है, अतएव उक्त मुनिवरों का कार्यालय आजारी है। 1293- 1953-28-12-1-1-1-1-1-1 -1-1-1 जिन जिन ग्राम-नगरों के सौधर्मबृहत्तपोगच्चीय-श्रीसंघ ने इस महान् कोषाङ्कन-कार्य में आर्थिक-सहायता प्रदान की है, उनकी शुभसुवर्णादरी नामावली इस प्रकार है -1-1-1-1-1-1-1-1-1- 1 श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय श्रीसंघ-मालवा 11 111111 श्रीसंघ-राजगढ़। श्रीसंघ-रतलाम । " जावरा। श्रीसंघ-वाँगरोद। , वारोदा-बड़ा। " झाबुवा। *-* ** ******** * **** *- *-*- *-* - *-* - *- * -*-*-*-*- *-*-*-* Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीसंघ-बड़नगर । " खाचरोद। __ मन्दसोर । सीतामऊ। निम्बाहेड़ा। इन्दौर। उज्जैन। महेन्दपुर। नयागाम। नीमच-सिटी। संजीत। नारायणगढ़। बरड़ाबदा। श्रीसंघ-सरसी। मुंजाखेड़ी। , खरसोद-बड़ी। चीरोला-बड़ा। मकरावन । बरडिया। (भाट)पचलाना। पटलावदिया। पिपलोदा। दशाई। बड़ी-कड़ोद। धामणदा। राजोद। भीसंघ-झकणावदा। " कूकसी। , प्रालीराजपुर । रींगनोद। राणापुर। पारां। टांडा। बाग। खवासा। रंभापुर। अमला। बोरी। नानपुर। श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीयसंघ-गुजरात श्रीसंघ-अहमदाबाद। वीरमगाम। सूरत। साणंद। बम्बई। पालनपुर । श्रीसंघ-थिरपुर (थराद)। श्रीसंघ-ढीमा । वाव। दूधवा। भोरोल। वात्यम। धानेरा। वासण। धोराजी। जामनगर। हुवा। खंभात। 本法未未料孝林林老老老老去未去去去去去去去去去去法未持未关法技法者未持善法未多未事若未持学未未未孝李林 श्रोसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-संघ-मारवाड़ श्रीसंघ-जोधपुर । " आहोर। " जालोर। भेंसवाड़ा। रमणिया। मांकलेसर । देवावस। विशनगढ़। मांडवला। श्रीसंघ-भीनमाल । , सांचोर। " बागरा। धानपुर। माकोली। साथू । सियाणा। ___ काणोदर। देवंदर । श्रीसंघ-शिवगंज। , कोरटा। " फतापुरा। जोगापुरा। भारुंदा। पोमावा। बीजापुर। बाली। खिमेल। 本法未未未事奉孝未来事奉事事非多基苯基苯基本事中事本来孝老老老老老老老老老老张是未来事者津津未来事件 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसंघ - गोल | साहेला । आलासए । रेवतड़ा | धाणसा । श्रीसंघ - मंडवारिया । बलदूट । जावाल । सिरोही । सिरोड़ी । हरजी । THE गुडाबालोतरा । भूति । तखतगढ । सेदरिया | रोवाडा । भावरी । बाकरा । मोदरा । थलवाड़ । मंगलवा । सुराणा । दाधाल । धनारी । ******** " श्रीसंघ- सांडेराव | खुडाला। राणी । खिमाड़ा | कोशीलाव । " पावा । दल का गुड़ा | चोद | डूडसी । धाँवला । जोयला | काचोली । इनके सिवाय दूसरे भी कई गाँवो के संघों के तरफ से मदद मिली है, उन सभी का कार्यालय शुद्धान्तःकरण से पूर्ण आभारी है । श्रीअभिधान राजेन्द्र कार्यालय. रतलाम ( मालवा ) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए श्रीसर्वज्यो नमः । अभिधानराजेन्द्रः । 0:0:0:0:0:0 वाणि जिणाणं चरणं गुरूणं, काऊण चित्तम्मिं सुयष्पजावा । सारंगहीऊण सुयरस एयं, वोच्छामि भागे तइयम्मि सव्वं ॥ १ १ ॥ ( एकार ) ए-ए-पुं० एकारः स्वरवर्णभेदः पदैतोः कण्ठतालव्यावित्युक्तेः कण्ठताल्वोः स्थानयोरुच्चार्य्यः । स च दीर्घः घिमात्रः प्युतस्तु त्रिमात्रः उदासानुदात्तस्वरितभेदैरनुनासिकाननुनासिक मे दाय च द्वादशविधः । वाच० । चाकृतभाषासूत्रे एकारासता मागघभाषालक्षणाऽनुरोधात् इति । जी० ३ प्रति० । एकारान्तः शब्दः प्राकृतशैल्या प्रथमाद्वितीयान्तोऽपि द्रष्टव्यः । यथा “ कयरे श्रागच्छर दिश्वरूवे " दश० १ श्र० । " से णं काले णं " तस्मिन् काले एकारस्य प्राकृतप्रभवत्वादिति । विपा० १ अ० । 66 ए - अव्य० र विच् । स्मृतौ श्रसूयायाम्, अनुकम्पायाम्, सम्बोधने, आह्नाने च मेदिनिः । वाक्यालङ्कारे, " से जहाणामए" ए इति वाक्यालंकारे, । अनु० । ज्ञा० । विष्णौ-पुं० एका० " कामसम्बोधने स्यादे-तत्परे ब्रह्मकेवले । ए शब्देमोदिता चान्द्री, गोचरे गोपता वयम् ” इति । एकारः कच्यते विष्ट, नगरीवारिधारयोः । हन्यै हरे दिनमुखे गगने मणिकुट्टिमे । तेजस्यैकादशाख्यायां, संख्यायामपि दृश्यते । इति च । एका० । पापस्य परिवर्जने । श्र० म० द्वि० । ऐ-पुं०कारः स्वरवर्णभेदः "पदैतोः कण्ठतालव्यावित्युक्तेः क ण्ठतालुस्थानयोरुच्चार्यः स च दीर्घः द्विमात्रत्वात्, प्लुतस्तु विमात्रः । द्विमात्रस्य उदात्तानुदात्तस्वरितभेदैः प्रत्येकमनुमासिकाननुनासिकाभ्याञ्च षविधः एवं प्रयुतस्यापीति द्वादशवि धः तपरत्वे कारपरत्वे च तत्स्वरूपपरः । वाच० । ऐकारस्य प्राकृते सर्वत्र एकारः । तथा च । "ऐत पत्" ८ ।१ । ४८ । इति आदी वर्तमानस्यैकारस्य एत्वं भवति । "सेखासेनं तेनुकं प्रा ऐ-अव्य० -- विज्ञ आह्नाने, स्मरणे, आरो प महेश्वर, पुं० । तस्य सर्वगतत्वात्तथात्वम् । चाच० | " ऐ स्वङ्गिः शम्भुश्रपतिवायुषु । शारदा परे सू मूर्द्धा पामेरपि स्मृतः” इति । येकारा राहत दि नागेविन्द्रबाणयोः । तमालावर्त्तदेशेषु, क्वचित्स्याच्छिखरेगिरेः " । इति च । एका० । - एइज्म- - ऐति इतिह पारम्पयोपदेशः अनिर्दिष्ट तृकोपदेश इति यावत् । स्वार्थे ष्यञ् पारंपर्योपदेशे यथान बटे यक्षः प्रतिवसतीत्यादिपरम्परोपदेशमात्रम् नतु केनाप्येतदुपलभ्य कथितम् । श्रष्टप्रमाणवादिनः पौराणिका इदं प्रमाणान्तरमुररीचक्रुः । "ऐतिह्यमनुमानं च, प्रत्यक्षमपि चाग मम् । ये हि सम्यक्परीक्षन्ते, कुतस्तेषामबुकिता” | रामा० वा च। तदेतन्मतं रत्नावतारिकायां निराकृतम् यथा - ऐतिह्यं त्वनि एक दिष्टप्रचफ्तृकप्रवादपारम्पर्यमितिहोद्धाः । यथेह बटे यशः प्रतिवसतीति तदप्रमाणमनिर्दिश्च कत्वेन सांशयिकत्वा त् । श्राप्तप्रबक्तृकत्वनिश्चये त्वागम इति । रत्ना०१ परि० । एइय- एजित त्रि० कम्पिते. स्था० ३ ठा० । जी० । “वाहि मंदाय २ एइयां ” वर्तिर्मन्दायन्ति मन्दं मन्दमेजितानां कम्पितानामिति । राज० । एई (या) एता - स्त्री० “ श्रजातेः पुंसः ” ८ । २ । ३२ । इति सूत्रे एकजातियां वर्तमानात की त रवर्णायाम, तोपधधर्णवाचित्वात्त्रियां ङीप् नश्च । पनी । पईए ए आए। एश्णं एत्राणं । प्रा० । एक ( ग ) ( ) -एक- त्रि० श् कन् “सेवादौ वा " ८ १२। इति सेवादिचनादी यथादर्शनमन्त्यस्यागमयस्य च वा द्वित्वं नवति । प्रा० | संख्यानभेदे, कप० । एकसंख्येोपेते व्यादौ, स्था० ४ ० । एकत्वरूपप्रथम संख्यान्विते च । प्रायशः संख्यावाचकस्य संख्यासंख्येयोभयपरत्वेऽपि एकशब्दस्य नूरिशः एकत्वसंख्यान्वितपरत्वम् । तेन एको घट इत्यादि, न तु घटस्यैकः कचि भाधाननिर्देशन संख्या "कयोद्विवचनैकवचने" पा० । इह द्वित्वमेकत्वं च द्वयेकशम्योर अन द्विषत्यमेव तथार्थसंग परत्वे येकेषामिति स्यात् । इन्कार्थानां संख्यान्वितानां बहुत्वासेन एक द्विवचनशब्दोऽपि एकत्वद्वित्वार्थकः। तत्रार्थे तयोः परिभाषितत्वात् । एकश्च गणनां नोपैति तथा चानुयोगद्वारे “एक्को गणर्थ न उवेई " एकस्तावरुणनं संख्यानोपैति यत एकस्मिन् घटादौ दृष्टे घटादि वस्त्विदं तिष्ठतीत्येवमेव प्रायः प्रतीतित्पद्यते नैकसंख्याविषयत्वेन । अथवाऽऽदानसमर्पणादिव्यवहारवस्तु प्रान कब्जियतीत्यतोया दल्पत्वाद्वा नैको गणनसंख्यामवतरति तस्माद्विप्रभृतिरेव गणन संख्येति । तथाब-संख्या संख्ये योजयपरत्वमेकशब्दस्य प्रव्यप्रमाणविशेषस्य विभागनिष्पन्नप्रमाणस्य पञ्चसु मानादिभेदेषु, गणिमं अन्यप्रमाणमधिकृत्यानुयोगद्वारे उक्तम् ॥ सेकिंत गणिमे गणिमेजयं गणिन्ज तं जहा एगो दसस सहस्सं दस सदस्साई सयसहस्सं दससय सदस्साई कोमीति गएयते संख्यायते वस्त्वनेनेति गणिममेकादि । अथवा गएयते संख्यायते यत्तणिमं रूपकादि । तत्र कर्मसाधनपक्कमङ्गीकृत्याह । जयमित्यादि । गएयते यत्तरुणिमम् । कथं गएयते इत्याह । एगो इत्यादि । अनु० । एकाकिनि, स्था० ४ ठा० श्रद्वितीये, वाच० । उत्तः । श्राचा० । असहाये, नं० । स्था० । 'एकस्यैकाकिनोऽसहायस्येति' स्था० ४ ० । “अकरत्तकालसमयंसि एगे अवीएक जाव पहरले साओ गेहाओ णिग्गच्छई” ( एगेत्ति ) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) अभिधानराजेन्जः। सहायानावात् । विपा०प्रश्नाकेवसे, स्था०३गावाच। एकोऽसहायो द्रव्यत एकाकिविहारी भावतोरागद्वेषरहितमा केवलमेकमसहायमिति । नं। तथाच सुत्रकृताने। रेत् । तथा स्थानं कायोत्सर्गादिकमेक एव कुर्यात् । तथाss अन्नागमितम्मि वा हे, अहवा नक्कमितेन नवंति। सनेऽपि व्यवस्थितोऽपि रागद्वेषरहित एव तिष्ठेत् एवं शयनेऽप्येकाक्येव समाहितो धर्मादिध्यानयुक्तः स्याद्भवेत् । एगस्स गती अागती, विमुमंता सरणं ए मन्नई॥ एतदुक्तं भवति । सर्वास्वप्यवस्थानासनशयनरूपासुरागद्वेषपूर्वोपात्ताऽसातवेदनीयोदयेनाभ्यागते दुःखे सत्येकाक्ये विरहात समाहित एव स्यादिति । सूत्र०१४०२ अ०। “एगे व दुखमनुभवति । न शातिवर्गण वित्तेन वा किश्चितक्रि एग विऊ बुद्धे" एको रागद्वेषरहिततया ओजा यदिवास्मियते । तथाच । “ सयणस्स वि मज्झगो, रोगाभिहतों कि न् संसारचक्रवाले पय्पेटनसुमान् स्वकृतसुखदुःखफलभाकलिस्सद इहेगो। सयणो वि य से रोग, न विरंचह नेव नासेर त्वेनैकस्यैव परलोकगमनतया सदैकक एव भवति । तत्रोच।१।" अथवोपक्रमकारणैरुपक्रान्ते स्वायुषि स्थितिक्षयेण वा भवान्तरे भवान्तिके वा मरणे समुपस्थिते सति एकस्यैवाऽसु तविहारी द्रव्यतोऽप्यकको भावतोऽपि गच्छान्तर्गतस्तुकारमतो गतिरागतिश्च भवति । विद्वान् विवेकी यथावस्थितसं शिको द्रव्यतोभाज्योभावतस्त्वेकक एवेति। सूत्र०१श्रु०१६१० सारस्वभावस्य वेत्ताईषदपि तावत्शरणं न मन्यते। कुतःस "एग एव चरेलाढे" एक एव रागद्वेषविरहितश्चरेदप्रतिनिबद्ध त्मिना त्राणमिति । तथाहि " एकस्य जन्ममरणे गतयश्च विहारेण विहरेत् सहायवैकल्यतो वैकस्तथाविधगीतार्थो यथो शुभाशुभा भवावः। तस्मादाकालिक हित-मेकेनवात्मनः का कम्।"ण वा समिजा निउणं सहाय,गुणाहियं वा गुणमोसमंबा यम् ।। "एको करेह कम्म, फलमवि तस्सिको समाह एको वि पावा विवज्जयतो, विहरेज्ज कामसु असज्जमाणो१" उत्त०३०।एको रागद्वेषसहायविरहित शत। कल्प०1" पगे वर। पको जायइ मरद य, परलोयं पक्को जाई"। १७। सहिते चरिस्सामि "एको मातापित्राद्यभिष्वङ्गवर्जितः कषायसव्वे सयकम्म कप्पिा , अवियत्तेण हेण पाणिणो । रहितो वेति । सूत्र०१७०२ अाअस्य द्विविधत्वं व्यवहारकल्पे हिंमंति जयानमा सढा, जाइजएमरणहिं भिहता ।१०। एगेव पुव्वजणिए, कारणनिकारणे दुविहनेदे सर्वेऽपि संसारोदरविवरवर्तिनः प्राणिणः संसारे पर्यटन्तः एक एकाकी द्विविधजेदः पूर्वमोधनियुक्तौ नाणितस्तद्यथा कारणे स्वकृतेन ज्ञानावरणीयादिना कर्मया कल्पिताः सूक्ष्मवादरप निष्कारणे च साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतः कारणैकप्रति र्याप्तकैकेन्द्रियादिना भेदेन व्यवस्थित तथा तेनैव कर्मणैके पादनार्थमाह। न्द्रियाद्यवस्थायामव्यक्तेनापरिस्फुटेन शिरःशूलाद्यलक्षितस्वभावेनोपलक्षणत्वात् प्रत्यक्लेन च दुःखेनाऽसातावेदनीयस्व असिवादी कारणिया, निक्कारणिया य चकनादि । भावेन समन्विताः प्राणियः पर्यटन्त्य रघट्टघटीन्यायेन ताव ज्वएसअाणवएसा सुविहा आहिमगा हुँति ।। स्वेष योनिषु भयाकुलाः शठकर्मकारित्वात् शठा भ्रमन्ति । अशिवादिन्निरादिशब्दादवमौदर्यराजद्विषादिपरिप्रहः । का. जातिजरामरणैरभिद्रुता पर्भाधानादिभिर्दुःखः पीडिता इति | रणैरकाकिनः कारणिकाः चक्रस्तूपादौ आदिशब्दात्प्रतिमानिसूत्र०१ श्रु०२०।" एगो सयं पञ्चणुहोर दुक्खम्" तदे- कमणादिपरिग्रहस्तेषां वन्दनाय गच्चन्त एकाकिनो निष्कारिवमेकोऽसहायो यदर्थ यत्पापं समर्जितं ते रहितस्तत्कर्मविपा णिकाः । व्यद्वि०० उ०पकस्य चातुर्विध्यम स्थानाङ्गे यथा । कजं दुःखमनुभवति न कश्चिदुःखसंविभागं गृह्णातीत्यर्थः । "चत्तारिका पएणत्ता तंजहा दविए पक्कए माउ पक्कए पज्जव एउक्तंच" मया परिजनस्यार्थे, कृतं कर्म सुदारुणम् । एकाकी का संगहएक्कर" एकसंस्योपतानि च्यादीनिस्वार्थिककप्रत्यतेन दोहं, गतास्ते फलभोगिनः" इत्यादि सूत्र०१० ५ योपादानादेककानि । स्था०४ ग०।। अ० । " एगस्त तो गतिरागती य" एकस्यासहायस्य अस्य च सप्सविधो निक्केपो यथाजन्तोः शुभाशुभसहायस्य गतिर्गमन परलोकं भवति तथा नाम ठवणा दविए, माजय पयसंगहकए चेव । भागतिरागमनं भवान्तरावुपजायते कर्मसहायस्यैवेति । उक्तं पज्जव नावे य तहा, सत्तेए एकगा होति ॥ व "एका प्रकुरुते कर्म,भुनत्तयकश्च तत्फलम् । जायते म्रिय- हैक एव पककः तत्र नामैकका एक ति नाम स्थापनककः से वैकः, एको याति भवान्तरमिति" सूत्र०१ श्रु०१३ अ० । एकक ति स्थापना न्यैकक त्रिधा सचित्तादि । तत्र सचिरश्को करेइ कम्म, इक्को अणुहवइ दुक्कयविवागं । मेकं पुरुषव्यमचित्तमेकं रूपकाव्यं मिश्रं तदेव कटकादिभू षितं पुरुषलव्यमिति । मातृकापदैककमकं मातृकापदं तद्यथा । इको संसरइ जीओ, जएमरणचउग्गइगुविल-४४म०प०। सप्पनेश्वेत्यादि । श्ह प्रवचने दृष्टिवादे समस्तनयवाद जभूताइक्को हं नत्थि मे कोई, नवाहमवि कस्सई । नि मातृकापदानि जवन्ति । तद्यथा। चप्पन्ने वा वियमेश्या धुएवं अदीणमणसा, अप्पाणुमणुसासए ॥१३॥ वेश् वा । अमूनि च मातृकापदानि च'अ ा ईश्त्येवमादीनि इको उप्पज्जए जीवो, इक्को एव विवज्जई । सकलव्यवहारशन्दव्यापकत्वान्मातृकापदानि । श्ह चानिधेय बखियचनानि भवन्तीति कृत्येत्थमुपन्यासः। संग्रहकका शाइक्कस्स होइ मरणं, इको सिज्झइ नीरो॥१४॥ सिरिति । अयमत्र जावार्थः । संग्रहः समुदायस्तमप्याश्रित्यकइको करेइ कम्म, फलमिव तस्सिको समणुहवइ । वचनगर्जशब्दप्रवृत्तेस्तथा चैकापि शालिः शानिरित्युच्यते। वहइक्को जायइ मरई, परलोयं कोजायइ ॥१॥ बोऽपि शालयः शासिरिति लोके तथा दर्शनात् । अयं चादिष्टानाशको मे सासो अप्पा, नाणदंसणसेजमो। दिष्टभेदेन समान्यविशेषभेदेन विधा। तत्रागादिशे यथा शानि: आदिशे यथा कसमशाझिरिति । एवमादिष्टानादिष्टभदौ उत्तरसेसा मे वाहिरा भावा,सब्बे संजोगलक्खणा।१६।महा.प. हारष्यपि यथानुरूपमायोज्यौ । पर्यायैककः एकपर्यायः पर्यायो एकश्च व्यतोऽसहायो भावतो रागद्वेषरहितः तथा च विशेषो धर्म श्त्यनान्तरम् । स चानादिष्टो वर्णादिः। आदिष्टः एगे चरे हाणमासणे, सयणे एगे समाहिए सिया। कृष्णादिरिति । अन्येतु समस्तश्रुतस्कन्धवस्त्वपेक्वयेत्थं व्याच Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) अभिधानराजेन्द्रः । एकभोपडाग कते मनादिष्टः श्रुतस्कन्धः आदियो दशवैकालिकास्य इति । एकाकी सन् ध्यायेत् । एको भावतो कन्यतश्च । भाचतो अन्यस्त्वनादिशेवंशवकालिकास्यः श्रादिष्टस्तु तदध्ययनविशेषो | रागद्वेषरहितः व्यतः पशुपएमकादिरहित इति । ०३ कुमपुष्पिकादिरिति व्याचष्टे । नचैतदतिचारु तस्य दशकालिका- अ०। “एगो वा" कारणकावस्थायामसहायो पा पा० । “त निधानत एवादेशसिर । भावककः एको नायः स चानादियो। श्रो चुजेज एगो" ततो जुम्जीत एकको रागादिरहित इति । भाष इति भादिष्टस्त्वौदयिकादिरिति सप्तैते अनन्तरोक्ता एक- दश०५०। एकसंख्योपेतानि द्रव्यादीनि स्वार्थिककात्ययोका भवन्ति । वह च किन यस्माद्दशपर्यायाध्ययनविशेषाः सं- पादानादेककानि । एकसंख्योपेते अन्यादौ, अन्यार्थे, "संते गहप्रहैकफेन संग्रहीतास्तस्मात्तेनाऽधिकारः । अन्ये तु व्याचक्षते या समणा माहणा वा" स्था०७ग “एगश्या जत्थ स्वस्सय यतः किल श्रुतज्ञानकायोपशमिके नावे वर्तते तस्माद्भावकके सभति" एकका एकतरा इति। स्था०५ ग० "जीवेणं गम्भगए नाधिकार प्रति गाथार्थः। दश०१०। समाणे नरपसु प्रत्थेगश्य ववजेज्जा अत्थेगश्ए मो खबजेअथ नियुक्तिविस्तरमाह। ज्जा" एककः कश्चित् सगर्भजरादिगर्जरूप उत्पद्यते मस्ति अवं एकस्स उउनावे, कत्तो लिंगं तेण एकगस्से वि । पक्षो यदुत एककः कश्चिनोपपद्यते इति । तं०। णिक्खेवं काकणं, णिप्फत्ती होइ तिराहं तु ॥ | एक (ग)अ-एकग-त्रि० एको गच्छत्तीत्येकगः। एकस्मिन् गन्तरि, शत्रयाणां संख्या प्रथमतो वक्तव्या तकस्यानावे कुतः सं. एकं वा कर्म साहित्यविगमान्मोकंगच्यतीत्येकगः। मोक्षगन्तरि, भवति तेन कारणेन प्रथमत एकस्यैव निक्षेपं कृत्वा ततस्त्रयाणां | " रुक्मामु च एगओ" एक रक्तरूपः स एवैकका एको वा प्रति निकेपस्व निष्पत्तिः कर्तव्या जवति। यथाप्रतिकातमेष करोति। मामतिपत्यादी गतीत्येकग एक वा कर्मसाहित्यषिगमान्मोकं नाम ठवणा दविए, माउगपदसंगहेक्कए चेव । गच्छति तत्प्राप्तियोम्यानुष्ठानप्रवृत्तेयातीत्येकगति।सस०३० पजव जावे य तहा, सत्तेए एकगा होति ॥ एक (ग) (य)- एककिक-त्रि० एकक एष एक(अत्रैव पूर्व व्याख्यातार्था) शरीरजव्यशरीरव्यतिरिक्तमाह। किपाटा. "एगायो पाणाश्चाताये पमिविरवा" दव्वे तिविहं मादुक-पदम्मि नप्पएणभूयविगतादी। | एकक एवैककिकः तस्मादेककिकात् । ओ० । स्था। सालिचि वग्गमीति, वसथोत्तिवसंगहिकं तु ।। एक (इ)(सि) ( सिअं)(ग) (गया) आ-एकदा-प्रव्य कन्ये व्यविषये एककं त्रिविधं तद्यथा सचित्तमचित्तं मिश्रं | “एकदावैकाहः सिसियश आ" । २।६। इत्येकशब्दावा। सचित्तं पुनरपि द्विपदचतुष्पदापदभेदात विधा । द्विपदक- स्परस्य दाप्रत्ययस्य सि सि आ इत्यादेशा वा।पकेयगमा। कमेकः पुरुषश्चतुष्पदैककमको हस्ती अपदैकको वृक्त इत्यादि प्रा०। एकस्मिन् काने, वाचा कदाचिदित्यर्थे, एगया गुणस. अचित्तैककमेकः परमाणुरेकमाजरणं मिङ्ककं सासंकार पकः मियस्स" श्राचा विविक्तदेशकालादौ च,"इथिमा एगतापुरुषः । मातृकापदे तु चिम्स्यमाने एककम् उत्पनभूतषिगतादि- णितंति" एकदति विविक्तदेशकालादी इति,सूत्र०१७०४०। कमुप्पन्ने वा विगते वा धुवेर वा इत्यस्य पदत्रयस्यैकतरमित्यर्थः । श्रादिशब्दादकाराद्यकात्मिकाया आद्यक्षरात्मिकाया वा | एक (ग) ओ (तो) ( एकदो)-एकतस्-अव्य० एक मातृकाया एकतरं पदं संग्रहैककं बहुत्वेभ्येकवचन विधेयं यथा | तसिन-" तो दो तसो चा"८।२।१६० । ति सूत्रेण तसः शासिरिति वा ग्राम इति वा संघ इति वा । स्थाने तो दो इत्यादेशौ वा । पके एकओ एकस्मिनित्य, वाच. अथ पर्यायैककादीनि दर्शयति । एकत्र-एकस्मिन्स्थाने,पगतो मिखंति रातो धेकस्थाने मिलं. दुविकप पज्जाए, आदिड देवदत्तो ति । न्ति भाषतस्तु परस्परविरोधपरिहारेण सम्मता प्रवन्तीति। दशा० १० अ० । " एगो भंगगं कह " एकत्रायतं प्राणादिह एक्को-सियपसत्यमियरं व जावम्मि ॥ पर्यायैककं द्विविकल्पं द्विप्रकारं तद्यथा-आदिष्टमनादिष्टं च । सुबळं भाएमकमिति । कल्प० । एकतः पकीय संयुविशेषणसामान्यरूपं चेत्यर्थः । तत्रादिष्टं यज्ञदत्तो देवदत्त इ ज्येत्यर्थः । न०२०श०११० । "दो साहम्मिया पगो विड रंति"होसामिकावेकत्र एकस्मिन् स्थाने विहरन्ति इति । व्य स्यादि ॥ अनादिष्टमेकः कोऽपि मनुष्य इत्यादि । अथवा पर्यायै द्वि०स० । एकतयेत्यर्थे च । “एगपोसा हणित्ता" एकककं वर्णादिना मन्यते एका पर्यायः । भावककं द्विधा । आ स्वत एकतयेत्यर्थः इति । न०१२ श० ३३०। विविक्त गमतो नोबागमतश्च । आगमतो ज्ञाता उपयुक्तः । नोपागमतः प्रदेशे, प्रत्यासने, दूरतरे च । "ते एगतो निसीहंति" एकत प्रशस्तमितरत्वप्रशस्तमिति द्विधा प्रशस्तमौपशमिकादीनामित | एकान्ते विविक्ते प्रदेशे प्रत्यासझे दूरतरेवेति । व्य०शि०१०। रोभावः। अथ प्रसस्तमौदयिको भावः। अत्राप्रशस्तभावककेमाधिकारो हस्तकर्मादीनामप्रशस्तभावोदयादेष संभवात् एक(ग) ओखहा-एकताखा-स्त्री० श्रेणिभेदे " पगोखहा" वृ०४ उश्रेष्ठे, अन्यार्थे, वाचा "एवमेगे वदंति मोसा" एके एकस्यां दिश्यङ्कशाकारेति । स्था० ७ ग०। तस्याः स्वरूपं यथा केचनेति । प्रश्न०२द्वाअल्पे, मख्ये, सत्ये, वाचाअवधार यया जीवः पुमलो वा नाच्या वामपाादेस्तां प्रविष्टस्तमेष गणे, नि० चू० । सदृशे, उपा०२ श्र० । “एगपएसो गाढे " त्वा पुनस्तद्वामपावादावुत्पद्यते सा एकतःखा। एकस्यां दिशिया श्रकशब्दोऽभिन्नार्थवाची । यथा द्वयोरप्यावयोरेक कुटुम्ब मादिपार्श्वनक्कणायां स्वस्थाकाशस्य खोकनामीव्यतिरिक्तमकणमिति । पं० सं०। एक शब्दस्य प्राकृते-एको--एप्रो-एगो । स्य नावादिति । श्यञ्च द्वित्रिचतुर्वक्रोपेतापि केविशेषाधिमा० । एको।" इम्मि जम्मिपए " चैदा०प० । स्त्रियां एक्की तेति नेदेनोक्ता । ज० २५ श०३ उ०। "अमयाए एकीए मायंगीए"निः०१उ०। सोएकी एक (ग) ओयंतय-एकतोनन्तक-न. अनन्तकनेदे, एकदेउलियं पविस्सई । प्रा० म०प्र०। तोऽनन्तकमतीताद्धाऽनागताका वेति । स्था० १.ग। एक (ग) (एकइ) (गइ) अ-एकक-त्रि० एक-असहायेऽर्थे | एक(ग)ोपमाग-एकतःपताक-त्रि० एकत एकस्यां दिशि पताका वा कन् । असहाये, “तो काइज्ज एकत्रो" तत एककः यत्र तदकेतःपताकम् । एकपताकोपेते, स्थापना त्वियम "कि Jain Education Interational Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) अभिधानराजेन्ः | एक्कच्योवका एगओ पमागं गच्छ । यो पागं गच्छ "भ०३८०४४० । एक (ग) का एकतोवक्रा स्त्री० श्रेणिभेदे, सा च एकत एकस्यां दिशि चूमा वा एकतो वक्रा यया जीव पुद्गला ऋजुगत्या वक्रं कुर्वन्ति श्रेएयन्तरेण यान्तीति । प्र० २५ श० ३ ० । "पगोवंका" एकस्यां दिशि वक्रा स्थापना । स्था०७० | एक (ग) प्रवस एकतोवृत्त पुं० इन्द्रियजीयविशेषे जीवा० १ प्रति । एक ( ग ) ओसमुवागय - एकतस्समुपागत- त्रि० स्थानान्तरेव्य एकत्र स्थाने समागते, "राय समुपागया" (गति) एकत्र समुपागतानाम् । भ०७०१०३० । 66 66 " एक ( ग ) सहिय एकतस्सदिन त्रिकत एकस्मित् स्थाने सहित एकतस्तदितः। एकस्मिन्स्थाने समुदिते, "एमओ सहियाणं " भ०७०१०००। एकस्मिन्स्थाने सहितानां समुदितानामिति । जं०९क० पकतो ते प्र०११२० ११४० एकं (गं ) गिय एकाङ्गिक त्रि० एकेनाङ्गेन कृते, तथाच संक्रममधिकृत्योत्तम एक्केको दुषितो पगियो अगं गिश्रो य " एकानेकपदकृतेत्यर्थः " नि० चू० १उ० । “ एगंगा दुग्गतिखंड न भवतीति " नि० चू० १६ उ० । श्रप रिशादिनि संस्तारकमेमोक्रम जो अपरिसाडी सो विहो गंगियो अगिओ व एगंगिता दुअ विधा संघायाए तरो उ नायव्वो । दोमादी गियमातू, होति श्रगम्मि उ तत्थ " "एगंगिओ दुविहो संघातिमो संघा तिमो व दुग्गतिता व सचिवाचा असेगम्मिड पते नि० एक (i) त - एकान्त त्रि० एकः अन्तः निश्चयः शोभा वा । श्रत्यन्ते, सूत्र०१०१० अ० " एगन्तरइया" एकान्तेन सर्वात्मना रतौ रमणे प्रसक्ता इति । प्रा० म० प्र० । एक इत्येवमन्तो निश्चयो यत्रासावेकान्तः । एकसि 'एमतमंतं गच्ड' एक इत्येवमन्तो निश्चयो यत्रासावेत एक इत्यर्थोऽततमन्तं भूमिभागं गच्छ तीति । भ० ७ ० १ उ० । श्रवश्यंभावे, पंचा० ५ विव० अवश्यमित्यर्थे, सूत्र १ श्र० ६ ० । निश्वये, विशे० । ज्ञा० । सर्वथार्थे, स्था० ५ ठा० । प्रश्न० । एक एवान्तो यत्र । निर्जने, रहसि वाच० । निर्व्यजनप्रदेशे, संथा० । विविक्तप्रदेशे, व्य० प्र० १ च०। जनरहितप्रदेशे, सुत्र ०१ ०६ अं० जनालोकवर्जिते भ० श० ६ उ० । विजने, भ० ३ ० २३० । “एगंते य विचित्ते " आ० म० द्वि० । “ आया एगतमंतमक्कमेजा " आत्मना एकान्तं विजनमन्तभूमिभागमवक्रामेत गच्छेदिति । स्था०३ arol एक एवाहमित्यन्तो निश्चय एकान्तः । एक एवाह मित्येवमेकत्व भावनायाम्' "" सव्वओ विप्पमुपकरस पगतम , पस्सओ " एक एवाहं इत्यन्तो निश्चयः एकान्तस्तं निश्चयं विचारयत एकत्वभावनां नावयत इति । उत्त० अ० । एक्कं ( ) तओ एकान्तम्-मध्य एकान्त-तसि एकान्ते [- । * इत्याद्यर्थे, वाच०] सर्वथार्थे च । "वज्जर अभमेगं ततोयरायंपि विरचितेनमेकान्ततस्तु सचैव (पति) सर्वरजनीमप्यास्तां सर्वदिनमिति" पंचा० १० विव० "जम्ड़ा एगंततो अविरुद्धो " यस्माद् यतो हेतोरेकान्ततस्तु सर्वथैवाविरुद्धो युक्त इति " पंचा० १७ विव० । एकं (गे) तम एकान्त खोत्पत्तिस्था गायिकाः खोत्पादकस्थानेनोपेते नरकादी, "पत कूमे नरए महंते, कूमेण तस्थ वि समेहताओ" । एकान्तेन नित्पत्तिस्यानामि पस्मिन् तथा तस्मिमेवं नरके * एगतपंडिय महति विस्तीर्णे पतितास्तेन वादना पाषाणसमूह लकणेन वा तत्र तस्मिन् विषमे हता इति । ०१०० कूटपद फूटमेकान्तेन फूटमेकान्तकूटम । एकान्तेन गलयन्त्रपाशादिबन्धके, "पगतकमेण च से पलेश यथा कूटेन मृगादिः परवशः सन्नेकान्त दुःखभाग् नवति एवं नायकटेन स्नेहमयेनैकान्ततोऽसी संसारचकपालं पचेति सूत्र १ श्रु० १३ अ० । 33 रगंतचा ( या ) रिण - एकान्तचारिन् - एकान्ते जनरहिते प्रदेशस्येकाचारी जनरल चाहि "पगतयारी सम पुरासी" "गन्तचारिस्सियम् धम्मे पायें "ये धर्म का रिणः भाराम्रोणादिच्चे का किविहारोधस्वरुप नाभिसमेति न संबन्धमुपयाति पापमकर्मेति सूत्र० २०६० एतणाण-एकान्तज्ञान-नत्यमेवेदम कस्थापनरूपे मिथ्याज्ञाने, अष्ट० । एतदंम एकान्तदएक-एकान्तेन सर्पचैव परान् दमयतीति एकान्तदमः । सर्वथैव परेषां दमके, भ० श०२ च० । एतदिट्ठिएकान्तदृष्टि- त्रि० एकान्तेन तत्वेन जीवादिषु पदार्थेषु eeस्याःसा एकान्तदृष्टिः । सूत्र०। एकान्तेन निश्चयेन जीवारि तत्वेषु सम्यक दर्शनं यस्य स एकान्तदृष्टिः । निष्प्रकम्पे सम्यकूत्यै, सूत्र ०१ ० १३ ० | एकान्तवादिनि च । सूत्र०२ ०६ अ० । (तद्वक्तव्यता एंगंतवाय शब्दे ) एतदिद्विय एकान्तरष्टिक मेवे मयेत्येवं या दृष्टिस्य स तथा एकान्तमाहमेवेदं मयेत्येवं निकाय के, झा० २ ० भ० ॥ 8 19 | एगंतदुक्ख - एकान्तदुःख- त्रि० एकान्तेनावश्यं सुखलेशर हिंद दुःखमेव यस्मिन् नरकादिके प्रवेस तथा एकान्तेन सुखरहितः लोपेते नरकादिके भचे सूत्र १०६ ० " नवमज्जणित्ता" सूत्र ०१ श्रु०५ ० "एतदुक्खे जरिए व लोप" सूत्र १० प्र० । तथैकान्तेनाभयतोऽन्तर्बहिश्च ज्ञाना अपगतप्रमोदा सदा दुःखमनुभवन्तीति । सूत्रः १ श्रु० ५ ० ॥ एगंतद्समा एकान्तदुःषमा- स्त्री० दुष्टा समा वर्षो षमासुसमा षत्वम्" एकान्तं षमा २ त० । दुःषमदुः षमायाम् । सूत्र० । १ श्रु० ३ ० । (तक्तव्यता श्रसप्पिणी शब्द ) एगंतधार - एकान्तधार - त्रि० एकान्ता एकबिनागाश्रया धारा यस्य एकधारोपिते चक्रादौ, झा० १ ० एकान्ता उत्सर्गलककविभागाश्रया धारेव धारा क्रिया यत्र । भ० श०३३ उ० अपवादपरित्यागेनोत्सर्गचियामेवाधिते निर्धन्थप्रवचनी रो श्य एगंतधाराए" कुर श्वकान्तधारं द्वितीयधाराकल्पाया अपवादक्रियाया अभावादिति । भ० श० ३३ ४० । एकत्रन्ते वस्तुविना धारेव चारा परोप यस्य स तया एकप्रहर्तव्यप्रवृत्ते चौरादौ तथा च तस्करवर्णकम धिकृत्य "खुरन्वपगतधाराए" यथा कुर एकधार एवमसौ मोvaaणैकप्रवृत्तिक एवेति नावः । ज्ञा० २ ० ॥ एतथी - एकान्तधी- प्रि० एकान्तानिनिवेषान नचात्र सुधियामेकान्तधी र्युज्यते, सुधियां परिमतानामेकान्तधीरेकान्ताभिनिवेशो न युज्यते एकतयानिनिवेशस्य मिथ्यात्वरूपत्वात् " इति । प्रति० ॥ एगंतपंथिय एकान्तपरित पुं० साधी "तमिवं मंते! Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) अभिधानराजेन्द्रः । एगंतपंडिय मनेर पफरेद" एकान्तपवतः साधुः (मासे) विशेषणं स्वरूपज्ञानार्थमेव अमनुष्यस्यैकान्तपरिमतत्वायोगासदयोगश्च सर्वविरतेरन्यस्यानावादिति । न० १ ० ० उ० । एतबाल- एकान्तबाल - पुं० मिथ्यादृष्टौ, अविरते च । "पगतबा णं भंते! मस्से " ० १ ० ८ ० । एतमिच्छा-एकान्तविध्या अन्य एकान्तेन मिथ्याभूते, "ए गंतमिच्छेअसाहु" पकान्तेनैव तत्स्थानतो मिथ्यानूतं मिथ्यात्वोपहतबुद्धीनां यतस्तद्भवत्यत ण्वासाधु असद्वृप्तत्वात् न हायं सत्पु रुपसेवितः पन्था येन विषयान्धाः प्रवर्तन्त इति । सूत्र० २०२० । (तादिशब्देषु द्वित्वक्वन्त्यपि रूपाणि भवन्ति तानि विस्तरभयान्न प्रदश्यन्ते स्वयमूह्यानि ) एतमोण एकान्तमौन-ज० संयमे, "तमोजेण वियागरेखा" केनचित्पृष्टोमीनेन संयमेव करणभूतेन वाणीयादिति " सूत्र० १ ० १३ श्र० । एगंतर - एकान्तर - न० एकमन्तरं व्यवधानम् । एकव्यवधाने, वाच० "अट्टोवाला एर्ग-तरेण विहिवारणं चधाम" एकदिन व्यवधानेन भोजनरूपे व्रतभेदे, पंचा १६ विव० । एकान्तरवर्तिनि त्रि० एकान्तरासु जातानां धर्मे विद्यादिमं विधिम् वाच० । एकस्मादन्य एकान्तरम् । अनन्तरे एकस्मिन् । तथाच "वाव्याणाम् ग्रहणविसीदधिकृत्य "पांतरं च मिटई, निसिरह पतरं वेद" " एकान्तरमेव शुद्धति निसृजत्येकान्तरं चैव प्रयमत्र नावार्थः । प्रतिसमयं गृहाति मुञ्चति कथं यथा प्रामाबन्यो ग्रामो ग्रामान्तरं पुरुषाद्वाऽन्यः पुरुषनिरन्तरोऽपि सन् पुरु पान्तरमेवैकैकस्मात्समयादेकक एवैकान्तरो ऽनन्तरसमय एवेस्वर्थः । विशे० । एकदिनव्यवधानेन जायमाने ज्वरभेदे, वाच० । मतरइपसत-एकान्तकान्तेन सर्वात्मनाती रमणे प्रसक्ता एकान्तरतिप्रसक्तासर्वात्मना रतौ प्रसक्ते, राज०। एगतबूसग - एकान्तभूषक5- पुं० एकान्तेन जन्तूनां हिंसके एकामोन सनुष्ठानस्य सागंता ये पायो" एकान्तेन जन्तूनां काखिकाः सनुष्ठानस्य वाध्वंसकास्ते । ते एवंभूता गन्तारो यास्यन्ति पापं लोसं पापकर्मकारिणां यो प्रोको नरकादिधिररात्रमितिप्रभूतं कालं त वासिनो भवन्तीति । सूत्र० १० २ अ० । एतवदात - एकान्तावदात- त्रि० शुक्रे, "संखेदुरगंतवदातसुकं" सूत्र० १ ० ३ ० । एतवाइ (न्) - एकान्तवादिन - पुं० नित्यानित्या चेकप कान्युपगन्तरि, स्या० । सूत्र० । एतवाय एकान्तवादकाभ्युपगमे, स्पा० एकान्तवादस्य च मिथ्यात्वम् तदेवेति नियमेनैकान्तान्युपगमे सर्व एवैते मिथ्यावादा उक्तन्यायेन नियमेन मिथ्यात्वमित्यभि धानात् कथंचिदज्युपगमे सम्यग्वाद एवैत इत्युक्तं प्रवति यत - त्पादव्ययधी-व्यात्मकत्वे वस्तुनः स्थिते तद्वस्तु तत्तदपेकया का मकार्ये च कारणमकारणं च कारणे कार्य सर्व्वासर्व्वकारणं काये काले विनाशवद विनाशयश्च तथैव प्रतीतेरन्यथा वा प्रतीतेरत एकान्तरूपस्य वस्तुनोsनावात् । सम्म० ॥ तथाच नित्यानित्यायेकान्तवादे दोषसामान्यमनिहितमिदानी कतिपयदामाद दस्तत्प्ररूपकाणामनृतोद्भावकतयो तथा विवरिपुजनजनितोपद्रवमिव परित्रातुर्धरित्री पते त्रिजगत्पतेः पुरतो सुनभयं प्रत्ययकारिकारितामाविष्करोति । एगंतवाय नैकान्तवादे सुखदुःखजोगी, न पुण्यपापेन च बन्धमोक्षौ । दुनीतिवादव्यसनासिनैवं परैर्विसुमं जगदप्यशेषम् ||२७| कायदे नित्यानित्यैकान्ताभ्युपगमेन सुखभोगी पटे न च पुण्यपापे घटेते न च बन्धमोकौ घटेते, पुनः पुनर्नञ्प्रयोगोत्यन्ता घटमानतादर्शनार्थः तयाकान्तनित्ये चात्मनि तावत्सुखदुःखजोगी नोपपयेते नित्यस्य दिलणाप्रानृत्यकरूपत्यमो यदात्मा सुखमनुभूय स्वकारणकलाप सामग्री वशा दुःखमुपचके तदा स्वभावनेदाद नित्यत्वापत्त्या स्थिरैकरूपताहानिप्रसङ्गः । एवं दुःखमनुभूया सुखमुपजुञ्जानस्यापि वक्तव्यम् । श्रथावस्थानेदादयं व्यवहारो न चावस्थासु निद्यमानास्वपि तद्वतो भेदः सर्वस्यैव कुएमलाजवाद्यवस्थास्विति चेन्ननु तास्ततो व्यतिरिक्ता अव्यतिरिक्ता वा व्यतिरेकेतास्तस्येति संबन्धाभावेऽतिप्रसङ्गात् व्यतिरेके तु सदयस्थितैव स्थिरेकरूपताहानिः । कथंचिदेकापस्थादप्रवेदिति किं सुखदुःखभोग पुष्पा निर्वृत्यैतनिवर्तनं चार्थक्रिया सा च कूटस्थनित्यस्य क्रमेणाक्रमेण बा नोपपद्यत इत्युक्तप्रायम् । तत एवोक्तं न पुण्यपापे इति पुण्यं दादिक्रियोपार्जनीयं तं कर्म पापे दिखादिक्रियासाध्यम भं कर्म ते अपि न घटेते प्रागुक्तनीतेः । तथा न बन्धमोक्षौ बन्धः कर्मफलैः सद् प्रतिप्रदेशमात्मनो जयद्भधः श्वायः पिएमवदन्योन्यसंश्लेषः मोकः कर्माकान्तनित्वेन स्याताम् । बन्धो हि संयोगविशेषः स चाप्राप्तानां प्राप्तिरितिसङ्कणः प्राक्कालभाविनि प्रप्राप्तिरन्यावस्था उत्तरकालभाविनि प्राप्तिरन्या तद्वयोरप्यवस्थाभेददोषो स्तरः कर्यकरूपत्वे सति तस्याकस्मिको बन्धनसंयोगः बन्धनसंयोगाच्च प्राकिं नायं मुक्तोऽ मुक्तो वाऽजयत् । किंच तेन बन्धनेनासौ विकृतिमनुभवति न वाअनुजयति चेचर्मादिवदनित्यः नानुभवति निर्विकारत्वे सता sसता वा तेन गगनस्येव न कोऽप्यस्य विशेष इति बन्धवैफल्यानित्यमुक्त एव स्यात्ततश्च विशीर्षा जगति बन्धमोकव्यवस्था तथा च पठन्ति " वर्षातपाज्यां किं व्योम्नश्चर्मण्यस्ति तयोः फलम् धर्मोपमरसोऽनित्यः बन्धानुपपसी मोकस्याप्यनुपपत्तिर्वन्धन विच्छेदपर्य्ययत्वान्मुक्तिशब्दस्येति । एवम नित्यैकान्तादेऽपि सुखानुपपतिरनित्यं हि तोच्छेद धर्मकत्वं तथाभूते चात्मनि पुण्योपादानक्रियाकारिणो निरन्वयं विनष्टत्वात्कस्य नाम तत्फलभृतसुखानुभवः । एवं पापोपादानक्रिया कारिणोऽपि निरन्वयविनाशे कस्य दुःखसंवेदनमस्तु एवं चान्यः क्रियाकारि अन्यश्च तत्फलभोक्तेत्य समज्जसमापयते । अथ "यस्मिन्नेव हि सन्ताने, आहिता कर्मचासना । फलं तत्रैव संघ, कपांसैरक्तता यया" इति वचनानासमञ्जसमित्यपि वाक्मानं सन्तानवासनयोरवास्तवाचेन प्रागेव मिलचितत्वात् तथापुण्यपापे अपि न घसो अर्थक्रियासुखोपभोगस्तदनुपपत्तिधा नन्तरमेव ततोऽर्थक्रियाकारित्वानावासयोग्य मानत्यम किंचा नित्यः कणमात्रस्याय) तस्मिंश्च क्षणे उत्पत्तिमात्रव्यग्रत्वासस्य कुतः पुण्यपापपादानपिनम्। द्वितीयादिचास्थास्यमेव नसते पुण्यपापोपादानक्रियाभावे च पुण्यपापे कुतो निर्मूल तत्सुख बोगः । प्रास्तां या कचिदेतत्तथापि पूर्वसहोमोत्सरणेन भवितव्यमुपादानानुरूपत्वापादेयस्य ततः पूर्ववण खितादुतरणः कथं सुखित उत्पद्यते कथं च सुखितात्ततः स दुःखितः स्याद्विसदृशभागतापत्तेः । एवं पुण्यपापादावपि तस्माद्यत्किचिदेतत् । एवं बन्धमोयोरप्यसंभवो लोकेऽपि हि य एष बज्रः स एव मुच्यते निरम्यनायुपगमे च एकाधिकरणत्या संतानस्य वा यस्तचत्यात्कुतस्तयोः संभावनामात्रमपीति । परिणाम Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगंतवाय निधानराजेन्डः । एगखन नि चात्मनि स्वीक्रियमाणे सर्व निर्वाधमुपपद्यते। परिणामोऽवस्था | एगतसर-एकान्तशरण्य-त्रि० सर्वाश्रितहितकारके, "गं न्तर्गमनं न च सर्वथा ह्यवस्थानं न च सर्वथा विनाशः परिणामा तसरमा अरहंता सरणं" पं० स०। तद्विदामिष्ट इति वचनात् पातञ्जलटीकाकारोऽप्याह । अवस्थि | एगंतसुसमा-एकान्तसुषमा-खो० सुष्टुसमावर्षः सुसमादितस्य जन्यस्य पूर्वधर्मनिवृत्तौ धर्मान्तरोत्पत्तिः परिणाम शति । स्वात् षत्वम् २ त । उत्सर्पिणीकालभेदे, नं० । (तद्वक्तव्यएवं सामान्यविशेषसदसदनिलाप्यानभिज्ञाप्यकान्तवादेष्वाप | ता ओसप्पिणी शब्द) सुखदुःखाद्यभावः स्वयमनियुक्तैरज्यूह्यः ॥ अथोत्तराईच्या. एगंतसुह-एकान्तसुख-न० सर्वथा शर्मणि, अव्यभिचारिख्या । एवमनुपपद्यमानेऽपि सुखासनोगादिब्यवहारपरैः परती र्थिकैरय च परमार्थतः शत्रुनिः परशब्दो हि शत्रुप-योऽप्यस्ति | सुखे च । पंचा०७ विव०॥ दुर्नीतियादव्यसनादिना नीयते एकदशविशिष्टोऽर्थ प्रतीतिवि एगंतसुहावह-एकान्तसुखावह-त्रि० सर्वथैव शर्मप्रापके, सि द्धिसुखावहे च “एगंतसुहावहा जयणा" एकान्तेन सर्वथैव पयमिति नीतिः । नीतयो नयाः दुष्टा नीतयो दुर्मीतयो पुर्नया सुखावहा शर्मप्रापिका एकान्तसुखावहा एकान्तसुखं वा सिस्तषां वदनं परेच्या प्रतिपादनं दुर्नीतवादस्तत्र यद्व्यसनमत्याश द्धिसुखं तदावहा यतनेति । मोकशर्मावहे अव्यभिचारिसुखाक्तिरौचित्यनिरपेक्वाप्रवृत्तिरिति यावत् पुनीतिवादव्यसनम् । वहे च । भावचरणप्रतिपत्तिमधिकृत्य "भावसरणस्स जातदेव सदोधशिरोच्छेदनशक्तियुक्तत्वादसिरिवासिः कृपाणो 5- यति, एगंतसुहावहा णियमा" एकान्तसुडावहा मोकशर्माधनीतबादव्यसनासिना करणजूतेन पुर्जयप्ररूपणदेवाकखड़ेन ए हाअव्यभिचारिसुखावहा नियमादवश्यतयेति पंचा०७ षिव. वमित्यनुभवसिद्धप्रकारमाह अपिशब्दस्य भिन्नक्रमत्वात, अशेषमपि जगन्निखिलमपि त्रैलोक्यं तात्स्थ्यात्तव्यपदेश ति त्रै | एगंतसोक्ख-एकान्तसौख्य-न० दुःखलेशैरकलङ्किते सौल्वे लोक्यगतजन्तुजातं विलुप्तं सम्यम्झानादिभावप्राणव्यपरोपणेन " एगंतसोक्ख समुवेर मोक्खं " एकान्तसौख्यं दुःखलेव्यापादितम्।तत्त्रायस्वेत्याशयः सम्यग्ज्ञानादयो हिनावप्राणाः शैरकलङ्कितं मोक्षं समुपैति मोक्षश्च दुःखमोक्षेणैव संसारस्थप्रावनिकैीर्यन्तेऽत एव सिध्वपि जीवव्यपदेशोऽन्यथा हि निवृत्यैव स्यादिति । उत्त० ३२ श्रा जीवधातुः प्राणधारणार्थोऽधीयते तेषां च दशविधप्राणधार एगतहरण-एकान्तहरण-न० एकान्ते विजने हरणं, एकान्त णानावादजीवतत्त्वप्राप्तिःसा च विरुका तस्मात्संसारिणो दश हरणम् । विजनेकस्यचिन्नयने, तं०॥ विधद्रव्यप्राणधारणा जीवाः सिद्धाश्च ज्ञानादिभावप्राणधारणा | एगतहरणकोला-एकान्तहरणकोला-स्त्री० एकान्ते विजने दिति सि पुर्नयस्वरूपं चोत्तरकाव्ये व्याख्यातमिति काव्यार्थः | हरणं नेतव्यं पुरुषाणां विषयार्थमेकान्तहरणम् । यद्वा एकास्या०२७ श्लो०॥(एकान्तवादस्य मिथ्यात्वम, अहगशब्दे ब न्ते दूरग्रामनगरदेशादौ स्वकुटुग्बादि जनरहिते हरणं तत्र णितम् ) ॥ अधुना सामान्यनैकान्तवादिमतदूषणार्थमाह पुरुषाणां विषयार्थ लावा गमनमित्यर्थः। तत्र कोला बनसूकर तुल्या यथा सूकरः किमपि सारकन्दादिकं भक्ष्यं प्राप्य बिजने सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं । गत्वा भक्षयति तथा विषयार्थमेकान्ते पुरुषाणां नेच्यो योषिजेउ तत्थ विउस्संति, संसारं ते वि उस्सिया ॥२३॥ तो भवन्ति । तं०। स्वकं स्वकमात्मीयं च दर्शनमन्युपगतं प्रशंसन्तो वर्णन्तः । एगंतहिय-एकान्तहित-वि० अतिशयेन हिते, “से केहणेसमययन्तो वा तथा गर्हमाणा निन्दन्तः परकीयां वाचं तथा गंतहियं धम्ममाहु" सूत्र० १ श्रु०६ ०। हि सांख्याः सर्वस्याविर्भावतिरोभाववादिनः सर्व वस्तु क्षणि- एपातय-एकान्तिक एतिय-ऐकान्तिक-त्रि एकान्तेन भवतीत्यैकान्तिकः एकाकं निरन्वयनिरीश्वरं वेत्यादिवादिनो बौहान दूषयन्ति तेऽपि नि तभाविनि, दर्श० श्राव० । अवश्यंभाविनि, विशे०।। त्यस्य क्रमयोगपद्याज्यामर्थक्रियाविरहात् सांख्यान् एवमन्येऽपि एगखरिय-एकाक्षरिक-त्रि० एकं च तदक्षरं च तेन निर्वरुष्टच्या इति । तदेवं य एकान्तवादिनः तुरवधारणे भिन्न त्तमेकाक्षरिकम् । एकाक्षरोपेते, तदात्मके द्विनामभेदे च । क्रमश्च तत्रैव तेष्वेवाग्मीयात्मीयेषु दर्शनेषु प्रशंसां कुर्वाणाः तद्यथा “ से किं तं एगक्खरिए " एकखरिए हीः श्रीः श्री परवाचं च विगर्हमाणाः विद्विष्यन्ते विद्वांस श्वाचरन्ति तेषु वा सेत्तं एगक्खरिए यदस्ति वस्तुतत्सर्वमेकाक्षरेण वा नाम्नाविशेषणोशंति स्वशास्त्रविषदे विशिएयुक्तिवातं वदन्ति ते चैवं ऽभिधीयत इति । अनु०॥ वादिनः संसारचतुर्गतिनेदेन संसृतिरूपे विविधमनेकप्रकारमु | एगखंधी-एकस्कंध-त्रि प्रत्येकमेव स्कन्धोपेते वृक्षादौ, ते प्रावल्यन श्रिताः संबकास्तत्र वा संसारे जषिता संसारान्तर्व पादपाः प्रत्येकमेकस्कन्धाः प्राकृतेचास्य स्त्रीत्वमिति। "एगतिनः सर्वदा नवन्तीत्यर्थः । १३ ।। सूत्र०१ श्रु०१० खंधीति" सूत्रपाठ इति । जी० ३ प्रतिः । एगंतसप्लि-एकान्तश्रद्धावत-त्रि एकान्तेन श्रमावान् एकान्त | एगखुर-एकखुर-पुं० प्रतिपदमेकः खुरः शफो येषान्ते एक खुराः प्रज्ञा० १ पद । एकः खुरश्चरणाधोवर्तिहुविशेषो अमावान् । एकान्तेन श्रद्धासौ, “एगंतसही व अमावे" मौनी येषान्ते एकसुराः । उत्त० ३६ अ०। चतुष्पदस्थलचरपलोकमले एकान्तेन श्रमायुरित्यर्थः । सूत्र०१ श्रु० १३ अ०।। चेन्द्रियतिर्यग्योनिकभेदे, प्रज्ञा०१ पद । स्थानते चाश्वादय गंतसमाहि-एकान्तसमाधि-पुं० आत्यन्तिके भावरूपे ज्ञाना- इति। भ०१५ श०१ उ०ा तथाच "चउप्पयथलयरपंचिदियदिसमाधी, "मंताओपगतसमाहिमाह" मत्वा अवधार्य एकान्ते। तिरिक्खजोणियाणं एगक्खुराणं इति" एकखुराणामित्यनात्यम्तेन च यो भावरूपो ज्ञानाविसमाधिस्तमाहः संसारोत्त- श्वारादीनामिति सूत्र०२ श्रु०३०॥ रणाय तीर्थकरगणधरादयः। द्रव्यसमाधयो हि स्पर्शादिसखो-एगखंज-एकस्तम्न-त्रि० एकस्तम्भोपेते प्रासादादी, "एकत्पादका अनेकान्तिका अनात्यन्तिकाश्च जवन्त्यन्ते चावश्यम- खंभे पासायं करेहि । दश०१ अ० अतीpमुस्ततः सौधमेकसमाधिमुत्पादयन्ति । सूत्र. १ श्रु० १० अ०। । स्तम्भं विधाप्य सः। श्रा०क०। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगगंध एगगंध- एकनन्यत्र सुगन्धीतराम्यतरगन्धोपेते, उत्त. १०। तुल्यानिलापे, " सेखा एकगमापति " एगगम एकगम स्था० २ ठा० । एगगुण - एकगुण - न० सिश्रेणिकपरिकर्म श्रुतभेदे । सम० । (तद्वक्तव्यता 'सिद्धसेणिगपरिकम्म' शब्दे ) एकेन गुणनेन गुणनं ताडने यस्य स एकगुणः । एकेनगुणिते, त्रि० । पोग्गलाणं व ग्गणेति "एगापगगुणकालगाणं । एकेन गुणनन्हा मनं यस्य स एकगुणः । स कालो वर्षो येषान्ते एकगुणकालकास्तारतम्येन कृष्ण तरकृष्ण तमानांचेभ्य आरज्य प्रथममुत्कर्ष स्मिन् स्था० १ ठा० । 46 एगग्य - एकाग्र त्रि० " एगग्गो का स्वग्गम्मि एकाग्र एकचितः शेषव्यापारानावादिति । श्रावण ५ श्र० एगग्गस्स य संतस्स एकमप्रमासम्बनं यस्याखावेकाग्रः । एकावलम्बने । आ० म० द्वि० । विशेपरहितज्ञाने च । वाच० । एकाग्र्य त्रि० एकमग्न्यं यस्य । एकजावे, एकावलम्बने, वाच० । ऐकाग्र - त्रि० स्वार्थेऽण् एकाग्रचित्ते, एकतानचित्ते, वाच० । ऐकाय काय नायः यन्यासकचित्त एक मात्रावलम्बिचित्तत्वे, वाच० । एमपिन एकाग्रचित्त-त्रि एकाग्रमेकं विषयं यस्य सः। विषयकविले घोषणावणमधिगमा वित्त समाजसाणं " एकानं घोषणा श्रवणैकविषयं चित्तं येषान्ते एकाग्रचित्ताः । राज० एकावलम्बने, “ नाणमेगावितो ” दश० अ० ४ उ० । एमग्गजोग - एका प्रयोग - पुं० अनालम्बनयोगपरनामधेये योगनेदे, एकाप्रयोगस्यैवापरनामानालम्बनयोग इति । अष्ट० । ( तद्वक्तव्यता जोग शब्दे ) । गगया-एकाग्रता श्री० एका पकाये पाच एक स्मितासम्बनसदृशपरिणामतायाम "तुत्याकाशान्तो (७) अभिधानराजेन्द्रः । 33 33 दिती प्रत्ययाविद"पावेकरूपाव मत्वेन सदृशी शान्तोदितवता प्रवर्तमानाधस्फुरित सण प्रत्ययायेकाता उच्यते । समाहितवित्तानि । शान्तोदिती दिव्यत्यय वित्तस्यैकामतापरिणामः । द्वा० २४ द्वा० ॥ एगचक्खु - एकचक्षुष्-' - त्रिo एकं चक्षुरस्येत्येकचक्रुः स्था० ३ ० का, तथा च प्रकरणे न्यायधिकृत्योक्तम् । एतच्च दोषश्यं गभगतस्योत्पद्यते जातस्य च । तत्र गर्भस्थस्य दृष्टिभागमप्रतिपन्नं तेजो जात्यन्धत्वं करोति तदेकागतं काणत्वं विदधत इति । प्रश्न० ५ द्वा० । एकचनुस्के च कुषस्यभेदे च । स्था० ३ वा० । ( तद्वक्तव्यता चक्खु शब्दे ) । एगचक्खुवि हिय- एकचकुर्विनिहत त्रि० एकं चक्षुर्विनिहतं येवान्ते एकचर्विताः। विनिहतैकरके, प्र०१० ॥ एगचर - एकचर त्रिकः सन् चरति चर्-पचा०अच् । सुप्सु पति समासः । एक एव चरतीत्येकचरः । एकाकिन, आचा० ५ श्र० १ उ० । एकाकीभूत्वा चारिणि, असहायचारिणि, " णिजयमेगचरंति पासेणं" निर्भयं गतनकं निर्भयत्वादेवैकचरमिति । सुत्र० १ ० ४ भ० । एमचरिया - एकच ख० चर चर्यते वा च "बरग तिभक्षणयोः " गदमदचरयमश्वानुपसर्ग इत्यनेन कर्मणि भावे मा यत् । आचा० १ ० ५ ० १३० । एकस्य चर्या ६ त । वाच० एमचारया " एकाकिविहारप्रतिमाभ्युपगमे, श्राचा० ६ श्र० २३० | श्रसहायगमने, वाच० । " चारो चरिया चरणं एग श्राचा० नि० । एकचर्यानिक्षेपो यथा सा च प्रशस्तेतरभेदे न द्विधा । सापि द्रव्यभावभेदात् प्रत्येकं द्विधा । तत्र द्रव्यतो गृहस्थपापण्डिकादेर्विषय कषायनिमित्तमेकाकिनो विरहणं भावतस्तु प्रशस्ता न विद्यते । सा हि रागद्वेषविरहाद्भवति । न च तद्रहितस्याप्रशस्ता वेति । प्रशस्ता तु द्रव्यतः प्रतिमाप्रतिपनस्य गच्छतः निर्गतस्य स्थविरकल्पिकस्य चैकाकिनः संघादिकार्यनिमिताजितस्य भावतस्तु पुनः रागद्वेषविरहाअवति तत्र यतो भातकचर्यानुपज्ञानानां तीर्थकां प्रतिपन्नसंयमानामन्ये तु चतुर्भङ्गपतितास्तत्राप्रशस्तद्रव्यैकचर्याहरणम् । तद्यथा पूर्वदेशे धान्यपूरकाभिधाने सन्निवेशे एकस्तापसः प्रथमवय स एव कुमारसदृशविग्रहः षष्ठभक्तेन तदुग्रामनिर्गमपथे तपस्तेपे । द्वितीयोऽप्युपग्रामगिरिगह्वरेऽष्टमभकेन तपः कर्मणा तापनां विधत्ते । तस्मै च ग्रामनिर्गमपथवर्तिने शीतोष्ण सहिष्णवे गुणैराकृष्टो लोक आहारादिभिः सपयोपतिष्ठते। तथालोकेन पूज्यमानो वाग्भिरभिष्यमान श्राहारादिनोपचर्यमाणो जनचे मतोऽपि गिरिपरिसरतोऽपि दुष्करकारकस्ततोभ्सी लोकस्तेन भूयो भूयः प्रोच्यमानस्तमे काकिनं तापसमहिरवासिनं पर्यपूजयत। दुष्करं पर गुणोत्कीर्तनमिति कृत्वा तस्यापि सपर्यादिकं व्यधात् । तदेयमाभ्यां पूज्या यात्यर्थमेकचर्या विदथे। अतोऽप्रशस्तैयमनया दिशाऽन्येप्यप्रशस्तैकचर्याश्रिता द्रष्टान्ता यथासंभवमायोज्या इति । श्राचा० १० ५० १३० १ सा च शिथिल कर्मणां भवति तथाहइहमेगेसि एगचरिया होति तत्थि अराइयरेहिं कुलेहिं सुसाए सव्वेसाए सो मेहावी परिव्वए सुनि अदुवा दुर्बिन अदुवा] तत्थ भैरवा वाणापाणे परिकिलेसेति । ते फासे पुट्ठो अभी अहियासिज्जासि तिबेमि ॥ (रहमेस इत्यादि) इहास्मिन् प्रचचने एकेषां शिथिलकhera भवत्येा किविहारप्रतिमाभ्युपगमो भवति । तत्र च नानारूपा अभिग्रहविशेषास्तपश्चरणविशेषाश्च भवन्तीत्यतस्तावत्प्राभृतिकामधिकृत्याह ( तत्थियरा इत्यादि ) तत्र तस्मिन्नेकाकिबिहारे इतरे सामान्यसाधुभ्यो विशिष्टतरा इत रश्चान्तप्रान्तेषु कुलेषु सिद्धैषण्या दशैषणादोषरहितेनाहारादिना सर्वेषणवेति सर्वागमोत्पादनप्रापणरूपा तया सुपरिविशुद्धेन विधिना संयमे परिव्रजन्ति बहुत्वेऽप्येकदेशतामाह (से मेहादि इत्यादि) स मेधावी मर्यादाव्यवस्थितः संयमं परिव्रजेदिति । किंच (सुभि इत्यादि ) स श्राहारस्तेवितरेषु कुलेषु सुरभिर्वा स्यादथवा दुर्गन्धो न तत्र- रागद्वेषौ विध्यात् । किंच (अदुवा इत्यादि) अथवा तत्रैकाकिविहा रित्वे पितृनप्रतिमाप्रतिपन्नस्य सतो भैरवा भयानका यातुधानादिकृताः शब्दाः प्रादुर्भवेयुः यदिवा भैरवा बीभत्साः प्राणाः प्राणिनो दीसदियोऽपरान् प्राणिनः यान्युप सापयन्ति त्वं तु पुनस्तः स्पृष्टस्तान् स्पर्शान दुःखविशेषान् धीरोऽक्षोभ्यः सन्नतिसहस्वेति । श्रचा० १४० ६ श्र० २ उ० । यस्य विषयका निमित्तमेकचर्या तस्य न मुनित्वम् अन्ये ज्यामप्यभ्युपेत्य केचिदू विषय पिपासातस्तान् कल्काचारानाचरन्तीति दर्शयितुमाह ॥ इहमेस एगपरिया भवति से बहुकोड़े बहुमाणे बहु माए बहुलोहे बहुरए बहुरण मे बहुसठे बहुसंकप्पे आसव Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगचरिया अभिधानराजेन्छः। एगचरिया . सको पलिओच्छणणे हितवादं पवदमाणे मा मे केश्य द- महासत्वतया अकोनेऽपि हुपराक्रान्तमेवेति। एतच नसर्वस्यैव क्खु भएणाणपमायदोसेणं सययं मूढे धम्मं णाभिजाणति कुर्यातं पुःखपकराक्रान्तश्च भवतीत्यतो विशिनष्टि भव्यत्तस्य भिक्षोरिति भिक्षणशीलो भिक्षुस्तस्य किंभूतस्याव्यक्तस्य स अट्टापया माणवककम्मकोविया जे अणुवरया अभिज्जाए चाव्यक्तःश्रुतवयोभ्यां स्यात्तत्रभुताव्यको येनाचारप्रकल्पोऽर्थतो परिमोक्खमाहावट्टमेव मणुपरिपट्टतित्ति ॥ नाधिगतो गच्छगतानां तन्निर्गतानां तु नवमपूर्वतृतीयवास्त्विइह मनुष्यलोके पकेषां न सर्वेषां चरणं चर्यते वा चर्या एक ति । वयसा वा व्यक्त श्रा षोडशवर्षाच्छगतानां तनिर्गतास्थ चर्या तत्र विषयकषायनिमित्तं यस्यैकचर्या स्यात्स किंभूतः नाञ्च त्रिंशत इति । अत्र चतुर्भङ्गिका श्रृतवयोभ्यामन्यक्तस्यैस्यादित्याह ( से बहुकोहेश्त्यादि ) स विषयगृध्नुरिन्द्रियानुकू कचर्या न कल्पते । संयमात्मविराधनात इत्याद्योभङ्गः। तथाअवत्येकचर्याप्रतिपन्नस्तीथिको गृहस्थो वा परैः परिभूयमानो व श्रुतेनाव्यक्तो वयसाच व्यक्तस्तस्याप्येकचर्या न कल्पते। अगीशुक्रोधो यस्येति बहुक्रोधस्तया वन्द्यमानो मानमुद्वहत रति बहुमा तार्थत्वादुभयविराधनासद्भावादिति द्वितीयः । तथा श्रुतेननस्तथा कुरु कुचादिन्निः कहकतपसा च बहुमायी सर्वमेतदादा व्यकोवयसा चाव्यक्तस्तस्यापिन कल्पते बालतया सर्वपरिभरादिलोभात्करोतीत्यतो बहुसोनः । यत एवमतो बहुरजो बहु वास्पदत्वाद्विशेषतस्तेन कुलिङ्गादीनामिति तृतीयः। यस्तूभयपापो बहुषु चारम्नादिषु रतस्तथा नटवद्भोगार्थ बहून्येषान्विध व्यक्तःससति कारण प्रतिमामेकाकिविहारित्वमन्युद्यतविहारं त इति बहुनटस्तथा बहुनिः प्रकारैः शगे बहुशस्तथा बहवः वा प्रतिपद्यतामस्यापि कारणाभावे एकचर्या नानुमता। यतसंकल्पाः कर्तव्या अध्यवशाया बस्य बहुसंकल्प इत्येवमन्येषामपि स्तस्यां गुप्तैर्या भाषैषणादिविषया यहवो दोषाः प्रादुःध्यन्ति । चौरादीनामेकचर्या वाच्येति । स एवंभूतः किमवस्थ: स्यादित्या सथा ह्येकाकी पर्यटन यदीर्यापथं शोधयति ततश्चाद्युपयोगाद्ह (आसव इत्यादि) आश्रया हिंसादयस्तेषु शक्तं सङ्गः श्रा भ्रस्यति तदुपयुक्तश्चेन्नर्यापथं शोधयेदित्यादिका शेषाऽपि अवशक्तं तद्विद्यते यस्वासावाश्रवशक्ती हिंसाद्यनुसङ्गवानव समितयो वाच्याः । अन्यश्चाजीर्णेन वातादिक्षोभेण वाव्याभ्याबितं कर्म तेनावच्छन्नः कर्मावष्टन्ध इति यावत् ।सचैवंभूतोऽपिकि घुद्भवसंयमात्मविराधमा प्रवचनहीलना च।तत्र यदि करुणाब्यादित्याद (उठियइत्यादि) धर्मचरणायोद्युक्त सस्थितस्त पन्ना गृहस्थाः प्रतिजागरणं कुर्युस्तीशानतया षट्कायोपमर्देद्वादस्तं प्रवदन तीर्थकोऽज्येवमाह यथा अहमपि प्रव्रजितोधर्मचणायोद्यत इत्येवं प्रबदन् कर्मणाऽवच्चाद्यत इति सर्योत्थितवादी न कुर्वाणाः संयमबाधामापादयेयुरथ न कश्चित्तत्र तथाभूतमाप्रवेषु प्रवर्तमानः आजीविकाभयात् कथं प्रवर्तत इत्याह कर्तव्योद्यतः स्यात्ततः आत्मधिराधना । तथातीसारादौ मूत्र(मामे इत्यादि) मा मां केचनान्येऽडाक्षुरवद्यकारिणमित्यतः पुरीषजं वाल्यन्तर्वर्तित्वात्प्रवचनहीलना । अपिच प्रामादिप्रच्छन्नकार्य विदधात्येवं ज्ञानदोषेण प्रमाददोषणवाविदधत ति व्यवस्थितः सन् धिग्जात्यादिना केशलुञ्चिताधिक्षेपेणाविकिंवा ( सययमित्यादि) सततमनवरतं मृढे मोहनीयोदयाद क्षिप्तः सन् परस्परोपमर्दकारि दण्डादण्डभण्डनं विदध्यात्तश ज्ञानाद्वा धर्मश्रुतचारित्राख्यं नानिजानाति न विवेचयतीत्यर्थः । गच्छगतस्य न संभवति गुवाद्युपदेशसंभवातदुक्तम् “अकोयद्येवं ततः किमित्याह (अट्टाश्त्यादि) आर्ता विषयकषायः सहणसमारण-धम्मब्भसणेवालमुलभाणा । भमगर धीरोप्रजायन्त इति प्रजा जन्तवो हेमानध मनुजास्यैवोपदेशाईत्वान्मा जहुतराण अभावम्मि" इत्येवमादिनोपदेशेन गच्छान्तर्गतो नवग्रहणं कर्मण्यष्टप्रकारे वीनत्स्यन्ते कोविदाः कुशमा न धर्मा गुरुणानुशास्यते गच्छनिर्गतस्य तु पुनः दोषा एव केवला. नुष्ठान इति के पुनस्ते ये सततं धर्म नानिजानन्ति कर्मबन्ध त्युक्तच " साहम्मिएहि समुज्जएहिं । पगागीउ य जोषिहरे। कोविदाश्चेत्यत आह (जे अणुवरया इत्यादि ) ये केचनानिर्दिष्ट प्रायंकपउरयाप, छकायबहम्मि आवडराएगाणियस्स दोसा, स्वरूपा अनुपरताः पापानुष्ठानेन्योऽनिवृत्ता ज्ञानदर्शनचारित्राणि इत्थी साणे तहेवपडिलीए । निक्खविसोहिमव्वय, तम्हासषि मोकमार्ग इत्येषा विद्या ततो विपययेण विद्या तया परि समन्ततः शएंगमणं" इत्यादि गच्छान्तर्वर्तिनस्तु बहवो गुणास्तविभमोकमाहुस्ते धर्म नाभिजानत इति संबन्धः । धर्ममजानानाच या परस्यापि बालवृद्धादेरुद्यतविहाराभ्युपगमात् । यथा बदके किमानयुरित्याह (आवट्टश्त्यादि ) नावावर्तः संसारस्तमर समर्थस्तरत्रपरमपि काष्ठादिविलग्नं तारयत्येवं गच्छेऽप्युद्यतविघटीयन्त्रन्यायेनानुपरिवर्तते तास्वेव नरकादिगतिषु नयो त्यो हार्यपरं सीदन्तमुधमयति तदेवमेकाकिनो दोषान् वदयगा. भवन्तीति यावत् । प्राचा०१७०५ अ०१०।हिंसकस्य विषयार न्तर्विदारिणश्च गुणान् कारणभावे व्यक्तेनापि नकचर्या बिम्मकस्यैकचरस्यामुनिजावे दोषोद्भावनतः कारणमाह । धेया कुतः पुनरव्यक्तेनेति स्थितम् । ननु वसतिसभषे गामाणुगाम दुइज्जमाणस्स दुज्जा तं दुप्परिकंतं जवति । प्रतिषेधोऽयुक्तो न चास्ति संभवः एकाकिविहारितायाः को प्रवियत्तस्स भिक्खुणो वयसा वि एगे चोइया कुप्पंति हि नाम वालिशः सहायान्विहाय समस्तापायास्पदमेकाकिमाण वा उएणयमाणे य गरे महता मोहेण मुज्झति संवाहा विहारितामन्युपेयादित्यत्रोच्यते न किंचिदपि कर्मपरिण तेरशक्यमस्ति तथा हि स्वातन्त्र्यगदागदकल्पस्य समस्तव्यबहवे भुज्जो भुज्जो दुरतिकमा अजाणो अप्पा सत्तो एयं सनप्रवाहसेतुभूतस्याशेषकल्याणनिकेतनस्य शुभाचाराधारते मा होउ एयंते कुशलस्स दंसपं ।। स्य गच्छस्यान्तर्वर्तिनः कचित् प्रमादस्खलिते चोदिता अपरिप्रसते बुख्यादिगुणानिप्ति प्रामः प्रामादनु पश्चादपरो प्रामो गणग्य सदुपदेशमपर्यालोच्य सद्धर्ममविचार्य कषायविपाकप्रामानुग्रामस्तं दूयमानस्यानेकार्थत्वासातूनां विहरत एकाकिन कटुकतामनवधार्य परमार्थ पृष्ठतः कृत्वा कुलपुत्रतां वाग्मात्रासाधोर्यस्मात्तद्दर्शयति (दुयति) पुष्टं यातं दुर्यातं गमनक्रिया- दपि किंचित्कोपनिनाः सुखीषिणो गणितापदो गच्छामिर्गच्चया गही गच्छत पवानुकूसप्रतिकूयोपसर्गसद्भावादईनकस्यैव न्ति । तत्र चैहिकामुमिकापायानवाप्नुवन्तीत्युक्तं च "जहकृतगतिभेदष्टव्यन्तरीजवाच्चेदनवत् । तथा उष्टं पराकान्तमा- | सायरम्मि मीणा, संखोहं सायरस्स असहंता । णिति तभी मातं स्थानमेकाकिनो भवति स्थूलभासतोपकोषा गृहसा- | सुहकामी, णिग्गयमेता विणरसन्ति ॥एवं गच्छसमुद्दे, सारहभोरिवेति । यदिवा चतुःप्रोषितभर्तृका गृहायितसामोरिव तस्य । वीचीहिंचोदया संता । पिति तो मुहकामी, मीया व अहा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगचरिया अनिधानराजेन्डः। एगचरियापरिसह विणस्संति । “गच्छम्मि के पुरिसा, सउणी जह पअरंतरुणि- (एयतेमाडोउत्ति) एतदेकचर्याप्रतिपन्नस्य बाधा दुरतिक्रमणीयरुद्धा । सारणवारणचोइया, पासत्थगया य विहरंति ॥"जहा- त्वमजानानस्य पश्यतश्च ते तव मदुपदेशतिनो मा भवतु दिया जोयमय रक्कजायं, सवासया पविउमणं मणागं । तमया- भागमानुसारितया सदा गच्गन्तर्वर्ती नयेदित्यर्थः । सुधर्मया तरुणमपत्तजाई, दंकार अब्वत्तगमं हरेज्जा" एवमजातसूत्रा- स्वाम्याह । (पयत्यादि) पतद्यत्पूर्वोक्तं तत् कुशलस्य श्रीधषयवः परतीथिकवांकादिभिविलुप्यतेगच्गलयात्रिर्गतो वाग्मा- मानस्वामिनो दर्शनमभिप्रायो यया व्यक्तस्यैकचरस्य दोषाः प्रेणापि चोदितः सन्नित्येतद्दर्शयितुमाह (वयसाविएगे इत्यादे) | सततमाचार्यसमीपवर्तिनश्च गुणा इति। भाचा०१श्रु०५१०४उ०। कचित्तपःसंयमानुष्ठानेनावसीदन्तः प्रासादस्वनिता वा गुर्वादि. | एगचरियापरि(री)सह-एकचर्यापाररी)पह-पुं० परीषदभेदे. ना धर्मेण वचसाऽप्येके अपुष्टधर्माणःअनवगतपरमार्था उक्ताश्चो- भयंच साधुना सोढव्यस्तथा च स्त्रीपरिषहं प्रतिपाद्य अयं चैदिताः कुष्यन्ति पते मानवा मनुजाः क्रोधवशगा जवन्ति । युवते च कत्र वसतस्तथाविधस्त्रीजनसंसर्गतो मन्दसत्वस्य भवतीत्यतोकथमहमनेन श्यतां साधुना मध्ये तिरस्कृतः किं मया कृतमथवा- उनकस्थेन नाव्यं किन्तु चर्यापरिषहः सोढव्य इति । तमाद । न्येऽप्येतत्कारिणःसन्त्येव ममाप्येवंतोऽधिकारोऽनूकिम्मे जीवि एग एव चरे लादे, अभिभूय परीसहे। तमित्यादि महामोहोदयेन क्रोधतभिस्राच्यादितदृष्यः बज्जितसमुचिताचारा उन्नयतोऽन्यतो व्यक्ता मीना श्व गच्चसमुहाभि गामे वा नगरे बावि, निगमे वा रायहाणिए॥ गैत्य विनाशमुपयान्ति । यदि वा वचसापि यथा कश्मे मुश्चिताम- एक एव रागद्वेषविरहतश्चरेदप्रतितिबकाविहारेण विहरेत्सहालोपहतगात्ररष्टयः प्राक्तनावसर एवास्माभिवृष्टव्या इत्यादिनोक्ता यवैकल्यतो वैकस्तथाविधगीतार्थो यथोक्तं "ण वा अभिजा निउ एके क्रोधान्धाः कुप्यन्ति मानवाः। अपिशब्दात कायनापि स्पृष्टाः णं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समंधा। एक्कोवि पावाई विवजकुप्यन्ति, कुपिताश्चाधिकरणादिकुर्वन्तीत्येवमादयोदोषा अव्यक्तै- यंतो, विहरेज्जकामेसुसज्जमाणो" (लादेत्ति) लाढयति प्रासुकराणांगुर्वादिनियामकाभावात्प्रादुःप्युरिति ।गुरुसानिध्ये चै- कैषणीयाहारेण साधुगुणैर्वात्मानं यापयतीति साढः । प्रशंवंत उपदेशः संजाव्यते । तद्यथा-"भाकुन मतिमता, तत्वा- सानिधायि चा देशीपदमेतत् पठ्यते (पगेचारेलादंति) तत्र विचारणे मतिःकार्या । यदि सत्य कः कोपः, स्यादनृत किंनु चैकोऽसहायःप्रतिमाप्रतिपन्नादिः स चैकोरागादिवैकल्यादभिकोपेन" तथा "अपकारिणि कोपश्चे-त्कोपे कोपः कथं न तोधर्मा- भूय निर्जित्य परीषहान् क पुनश्चरेदित्याह प्रामे चोक्तरूपे मर्थकाममोक्षाणां,प्रसह्य परिपन्थिनी" त्यादि किं पुनः कारणं वच- गरे वा करविरहितसनियेशे अपिः पादपूरणे निगमे वा वणिसाप्यभिहिता ऐहिकामुमिकापकारिणः स्वपरबाधकस्य को- ग्निवाले राजधान्यांचा प्रसिद्धायामुन्नयत्र या शब्दानुवृत्तेमऊभस्यावकाशं ददतीत्याद (चम्पयइत्यादि) नन्नतो मानोऽस्येत्यु- पाशुपलकणं चतदानहानाधं चानेनादेति सूत्रार्थः । मतमान उन्नतं वात्मानं मन्य इति स चैवंभूतो नरोमनुष्यो मह पुनः प्रस्तुतमेवाहता मोहेन प्रवसमोहनीयोदयेनाज्ञानोदयेन वा सह्यति कार्या असमारणे सरे जिक्ख, नो पकुज्जा परिग्गई। कार्यविचाराविवेकविकलो भवति । स च मोहमोदितः केनचिविकणार्थमन्निहितो मिथ्यादृष्टिना वा घाचा तिरस्कृतो असंसत्तो गिहत्थेहिं, अणिकेश्रो परिव्वए । जात्यादिमदस्थानान्पतरसद्भावनोन्नतमानमन्दिरारूढः कु- न विद्यते समानोऽस्य गृहिवाश्रयामूर्चितत्वनाम्यतीर्घिकेषु वा प्पति ममाप्येवमयं तिरस्करोति धिग्मे जाति पौरुषं विज्ञानं नियतविहारादित्यसमानोऽसदशः। यद्वा समानः साहंकारो न चेत्येवमभिमानग्रहगृहीतो वाग्मात्रादपि गच्चानिर्गच्छति तथेत्यसमानः। अथवा समाणो प्राकृतत्वादसनिवासन यत्रास्ते तनिर्गच्छतो वाधिकरणादिविमम्बनयात्मानं विमम्बयति । तत्राप्यसन्निहित इति हृदयसन्निहितो हि सर्वः स्वाश्रयस्योअथवोत्रम्यमानः केनचिद्दर्विदग्धेनाहो अवं महाकुलप्रसूतः दन्तमावहत्ययं तु न तथेत्येवविधः स चरेदप्रतिबझावहारितया प्राकृतिमान् पटुपको मिष्टवाक समस्तशास्त्रवेत्ता सुभगः विहरेद्भिकुर्यतिः कथमेतत्स्यादित्याह मैव कुर्यात्परिग्रह प्रामादिसुखसेव्यो वेत्यादिना वचसा तथ्येन चोत्पास्यमान उन्नतमा- षु ममत्वबुख्यात्मकमत्राइच "गामे कुले वा नगरे च देशे, मनो गमातो महता चारित्रमोहेन मुद्धति संसारमोहेन मुह्यत मंति जावं न कहिं वि कुजा" इति श्दमपि यथा स्यात्तथाह अइति तस्य चोन्नतमानतया महामोहेन मुह्यतो मोहाच्च वाग्मात्रे संसक्तोऽसंबन्धो गृहस्थैदिनिरनिकेतोऽविद्यमानगृहो नैकत्र णापि कुप्यतः कोपाव गच्छनिर्गतस्यानभिव्यक्तस्व भिको बकास्पदः परिव्रजेत् सर्वतो विहरेत् न नियतदेशादौ गृहिसंपमानुप्राममेकाकिनः पर्यटतो यत्स्यात्तदाह (संवाहाइत्यादि) एकत्र बद्धास्पदत्वे नियतदेशादिचिहारितायां वा स्यादपि मतस्याव्यक्तस्यैकचरस्य पर्यटतः संबाधयन्तीति संबाधाः पीमा मत्वबुकिस्तदन्नावे तु निरवकाशवेपमिति जाव इति सूत्रार्थः उपसर्गजनितानानाप्रकारातङ्कजनिता वा नूयो भूयो बहव्यः स्यु अत्र शिष्यद्वारमनुसरन् “असमाणो चरेश्त्यादि" सूत्रसूचितमुस्तावैकाकिना व्यक्तन निरवद्यविधिना दुरतिफमा दुरतिलहनी दाहरणमाह । याः किंस्तस्य सुरतिक्रमा इत्याह (अजाणो इत्यादि) तासां कोल्लइरे वत्यव्वो, दत्तो सीसो य हिंमतो तस्स । नानाप्रकारनिमितोत्थापिताना बाधानामतिसहनोपायमजाना- उवहरइ धाइपिंडं अंगुलिजलना य सा देवी ।। नस्य सम्यक्करणसहनफलं वा ऽपश्यतो दुरतिक्रमणीया कोलाइरे कोइरनानि नगरे वास्तव्य प्राचार्य इति शेषः दत्तः पीडा भवति ततश्चातङ्कपीडाकुलीनतः सनेषणामपि साये शिष्यश्च हिण्डकस्तस्य उपहरति धात्रीपिण्डमङ्गुलिज्यलनाञ्च स्पाण्युपमर्दमप्यनुमन्येत, याक्कएटकनुदितः सन्नव्यक्ततया सा देवीति गाथाक्षरार्थः । भाषार्थस्तु सुघल्सप्रदायादवगप्रज्वलनतद्भावयेत् । यथा मत्कर्मविपाकापादिता पताः पीमाः न्तव्यः । सचायं कोल्लयरे पयरे वत्थव्या संगमथरो आयपरोऽत्र केवलं निमित्तलतः । किश्चात्मदहममर्यादंमूढमुज्जित- रिया दुभिक्खे तेहिं संजया विसज्जिया तं नगर नवभागेका सत्पथं सुतरामनुकम्पेन नरकार्थिष्मदिन्धनमित्यादिका भावना ऊणं जंघावलपरिहाणा विहरंति णगरदेवीया य तेसिं किरभागमापरिमखितमतेर्न नवेदित्यतत्प्रवर्य भगवान्विनेयमाह जबसंता तेसि सीसो दत्तो नाम आहिउओ चिरेणं कालेणं Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगष्ट्रिय एगचरियापरीसह अभिधानराजेन्छः । उ दसवाहश्रो आगतो सो तेसिं पडिस्मयं न पषिट्ठो नितया | एकस्थ-त्रि० एकस्मिन् तिष्ठति स्था० । एकत्रस्थिते, एकके. पासित्ति भिक्खा वेलाए उम्गाहियं दिडंताएं संकिलस्सा त्राश्रिते, "दो वि तुझा पगडा अविसे समणायत्ता"एकस्थी या कुद्धो सकुलाईण दावेतित्ति तेहिं नायं एगत्थ सेठिकुल्ले रेखा पककेत्राश्रितौ सिरुिक्षेत्रापेक्येति जावः । न०१४ २०६०। याए गहितो दारो छम्मासा रोव्वंतस्स आयरिएहिं चप्पु एकार्य-जएकार्थस्य नावः व्यम्-एकशक्त्या विशिष्टकार्थोपहिया कया मा रोवत्ति वाणमंतराए मुक्को तेहिं तुट्टेहिं पडिला स्थापने एकार्थीनावे, एकप्रयोजने च । वाच। मिया जहिच्छपणं सो विसजितो एयाणि कुलाणित्ति पायरिया सुचिरं हिंडिऊण अंतपंतं गहाय आगया समुद्दिघाया एगट्ठाण-एकस्थान-न० एकमचलनेनाद्वितीयादिकं स्थायस्सए पालोयणाए बालोपहिं भणति तुम्भेहि समं हिंडतो नमङ्गन्यासमेकरूपे स्थाने,तद्विषयं प्रत्याख्यानमप्येकस्थानमेकमेष चि धातिपिंडो ते भुत्तो भणति प्रतियुहुभाई पेच्छहत्ति पपु. घा स्थानं यत्र तत्तया । पंचा०५ विव०। एकमाद्वितीय स्थानमट्ठो देवयाय अठरते वासं अंधकारो य विगुरूवितो एसोहि. विन्यासरूपं यत्रतदेकस्थानम् ।प्रत्याख्यानजेदे.ध०५ अधिक। लोहित्ति प्रायरिएहि मणितो अतिहिति सो भणह अंधकारो तथा चाह" एकठाणं पचक्वाति बसब्बिईपि प्राहारं असणं ति भायरिपहिं अंगुली दाश्या सा पज्जलिया प्राउटे प्रासो- पाणं खाश्मं सामं प्राथणाभोगणं सहसागारीयागारेणं गुरु पति पायरिया वि से रणवनागे कडेति ततश्च यथा महात्मनि अन्तुहाणेणं पारिकावणियागारेणं महत्तरागारणं सन्यसमाहिरमीभिः संगमस्थविरेश्चर्यापरीषहोऽध्यासितस्तथान्यैरप्यध्या वत्तियागारेणं वोसिरति"भाव०६०।सत्तेगट्टाणस्सउति" सितव्य ति। उत्त०३० सप्तकस्थानस्य तु एकस्थानं नाम प्रत्याश्यानं तत्र सप्ताकारा एगचारि[-] एकचारिन्-त्रि० एकः सन् चरति घर णि- भवन्ति श्हेदं सूत्र एगहाणमित्यादि एमाणए जं जहा अंगविगं नि सुप्सुपेति स० असहायचरे, एकचरे, किसहचरभेदे, पुं० वियं तेण तहागिपण चेव समुरिसिव्वं मागारा से सस याच० । एक एव चरति तच्छोलश्चैकचारी प्रतिमाप्रतिपक्षे प्राउट्टणपसारणा पत्थि सेसं जहा पक्कासणए"पं०व० भाषा एकलविहारिणि जिनकल्पादिके, "बहुजणे वा तह पगचारी" सप्ताकारानवन्ति । एकमचलनेमाद्वितीयादिकं स्थानमङ्गन्याससच प्रतिमाप्रतिपन्न एक विहारी जिनकल्पादिर्वा स्यात्स च मेकरूपं स्थानं तद्विषयं प्रत्याख्यानमप्येकस्थानमेक पव धास्थानं बहुजन एकाकी वा। सूत्र० १६०१३ ५०।। यत्र तत्तथा । तस्यैकस्थानस्य पुनस्तु शब्दः पुनःशम्दार्थो व्याएगचोर--एकचौर पुं० चौरजेदे, एकचौरा ये एकाकिनः सन्तो ख्यात पवा ते च यथैवैकाशनके नवरमाकुम्चनप्रसारणमिह हरन्तीति । प्रश्न०३द्वा०। नास्ति एकस्थानकस्य मुखहस्तयर्जावयवाचसमरूपत्वादिति। गच्च-एकार्च त्रि० एका असदशी अर्चा शरीरं येषान्ते ए. पंचा०५ विव०। तथा च अथकस्थानकं तत्र सप्ताकाराः अथ कार्चाः असहशशरीरे, अमितीयपूज्ये, संयमानुष्ठाने च । "एग सूत्रम् । “पकहाणं पच्चक्सा" श्यायेकासमवदाकुचनचा पुण पगनयंतारो" एकाच्या अद्वितीयपूज्याः संयमानुष्ठानं वा । प्रसारणाकारकर्जमेकमाद्वितीय स्थानमङ्गविन्यासम्पं यत्र सदेएका असरशी अर्चा शरीरं येषान्तेएका इति। उपा०अ०। कस्थानप्रत्याख्यानं यद्यथा नोजनकालेङ्गोपाङ्ग स्थापितं तस्मिएगच्चत्त-एकछत्र-पकराजके, एगच्चत्तं ससागरं भुंजिऊण स्तथा स्थापित एव भोक्तव्यम् मुणस्थ पाणेश्वाशक्यपरिहारवसुहंति' प्रश्न द्वा। स्वाशासनं न प्रतिषिद्धम । प्राकुञ्चनप्रसारथाकारवर्जनं व पकाशनतो दक्कापनार्थम् अन्यथा पकाशनमेव स्यादिति । पगजभि [ ] एकजटिन-पुं०अष्टाशीतिषु महाप्रदेषु एकाशी ध०२ अधि। तितमे महाग्रह, सू०प्र०२०।०प्र० । कल्प० । स्थानाक्टीकायां तु ज्यशीतितमः 'दो पगजमी' स्था०२ ग०।. एगट्टाणज्झयण-एकस्थानाध्ययन- न० एकसकणं स्थान एगजाय-एकजात-त्रि० रागादिसहायवैकल्यादेकीजूते, स्था० संल्यानेदः पकस्थानन्तद्विशिष्टजीवाद्यर्थप्रतिपादनपरमध्ययन ग० । खगविसाणं व एगजाए, सङ्ग आटव्यपाविशेषः चतु- मप्येकस्थानमिति । एकस्थानकाल्यं प्रथममध्ययनमितिच। तत्र प्पदविशेषः स किशृङ्गो जपतीत्युच्यते स्वद्भविषाणमिवैकजा- सामान्यमाश्रित्य प्रथमाध्ययने आत्मादिवस्त्वेकत्वेन प्ररूपिततो राजादिसहायवैकल्यादेकीनूत इत्यर्थः । प्रश्न०५द्वा०।। मिति स्था०५ग। एगट्ठ-एकाथे-पुं० एकः अर्थः प्रयोजनमाभिधेयं पदार्थो वा । एगट्ठाणिय-एकस्थानिक-त्रि० सहजे स्वभावस्थे, "निबुद्ध पफस्मिन्प्रयोजने, एकस्मिन्नभिधेथे पदार्थे च । वर्णाः पदं प्र. रसो सहजो पुग्ण चन्नागककिनागतो गहाणाए" यथा योगार्ड्सनन्वितैकार्थबाधकाः । याच. पकोऽभिषोऽथोंऽस्येत्ये- निम्बरस एव श्रस एव सहजः स्वभावस्थ एकस्थानिकरस कार्थःबहु०।प्राचा०१७०५०१०आम०प्र०ा अभिन्नार्य, उच्यते इति । कर्म॥ पंचा। विव० । अनन्यानिधेये, पंचा० १३ विव। एकार्यवा-एगडिय-एकाार्थक-पुं० एकश्वासावर्थचाभिधेव एकार्थः । स चके शम्दे,स्था०१००"चारो चरिया चरणंदगळं वंजणं तर्दि यस्यास्ति एकार्थिकः । पकार्थवाचके पर्यायशब्दे, स्था०१ग. " एकोप्रन्निनोऽर्थोऽस्येत्येकार्थः किं तदन्यजनम । व्यज्यते | आ०म०प्र० । पंचा। तदात्मके सामान्यापेक्या शब्दविशेषप्राविष्क्रियतेऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जनम् आत्रा०१९०५०१०। रूपे विशेषजेदे, तथाच स्थानाने दशविघविशेषमधिकृत्य "पगपकार्यश्च एकशक्त्योपस्थितार्थका वाचा"पखाणं नियमो,च- छिण य" (पगहिपश्यत्ति) एकश्वासावर्थश्चाभिधेय एकार्थः रित्तधम्मो य होति एगहा" एका अभिन्नार्या तिपंचा०वि स यस्यास्ति स एकार्थिकः । एकार्थवाचक इत्यर्थः पतिः रूपप्रघ."एकेकस्स य एत्तोनाम गहिया" एकोऽर्थो येषान्तान्येकाार्थ- दर्शने चः समुच्चये सच शब्दसामान्यापेक्वयैकार्थिको नाम कानीतिमा०म०प्र०"नायं आहारणंतिदितोवमनिदरिसणं चेष शब्दविशेषो भवति यथा घट शति तथा अनेकार्थिको यथा गौ:पगई" एकार्थमेकाथिंकजातमिति। दश०१०।"तत्युमगमो यथोक्तं “दिशि दृशि वाचि जले तुधि दिषि वजेशी पशो म पमई पभवो एमादि होति एगट्टा" पंचा०१३ विवाएकप्रयोज. गोशब्दः" इति कार्थिकविशेषग्रहणेनानेकाथिकोऽपि गृडीनमुरु, त्रिवाचा सस्तद्विपरीतत्वानहासौ गएयते दशस्थानकानुरोधादय वा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगठ्ठिय अभिधानराजेन्दः । एगणाम (न्) कपंनिदेकार्थक शब्दग्रामे यः कथञ्चिद्भेदः स विशेषः स्या- प्रवाया अपि प्रत्येकमसंख्येयप्रत्येकशरीरजीविकाः । तत्र मूलानि दिति प्रक्रमः (श्यत्ति) पूरणे यथा शक्रपुरन्दर इत्यत्रैकार्थे | यानि कन्दस्याधस्ताद्भमेरन्तः प्रसरन्ति तेषामुपरि कन्दास्ते व शब्दद्वये शकनकाल एव शक्रः पूर्दारणकाल एव पुरन्दर एवं लोकप्रतीताः स्कन्धाः स्थूणाः त्वचः स्यः शाला शाखा: प्र. भूतनयादेशादिति । स्था० १० ग० । भाचाराकनियुक्ती श्रा- बालाः पल्लवाडूराः ४ (पत्तापत्तेय जीवयत्ति ) पत्राणि प्रत्येकसारमधिकृत्य "तस्सेगध्यवत्तणं" तस्य भावाचारस्य एकार्था- जीवकानि एकैकं पत्रमेकैकेन जीवेनाधिष्ठितामीति भावः। पुष्पाभिधायिनो बाच्या ते च किंचिद्विशेषादेकमेवार्थ विशिषन्तः | ण्यनेकजीवानि प्रायःप्रतिपुष्पं प्रतिपत्रंजीवनावारफलान्येकास्थिप्रवर्तन्त इत्येकार्थिकाः शकपुरन्दरादिवत् एकार्थानिधायिनां च कानि उपसंहारमाह (सेसं एगट्रिया)सुगमम् । प्रका०१ पद । बधानुलोम्यादिप्रतिपत्यर्थमुद्घटनम् । प्राचा०१०। __ अह भंते अत्थिया तंदुयवोरकविट्ठवाडगमानविंगविपकार्थाभिधाने को गुण इत्याह । सामगफणसदालिमअंसोहअवरचरुणगोअण्णार्दिस्वस्खबंधाधुलोमया खलु, सुत्तम्मि य लाघवं असंमोहो। पिप्पनिसतरपिलक्खुकाबरियकुच्र्नुभरियदेवदारुतिझगनहसत्यगुणदीवणा चिय, एगट्टगुणा हवंतेए । उतोहसरीससतवएणदाधिवप्माबोकवचंदणज्जुणणीवकुमी एकाथिकाभिधाने वान्यर्थपदानि गाथादिजिवकुमिप्यन्ते तेषां | बन्धे अनुलोमतानवति अननुकूलानिधानपरिहारणानुकूवाभिधा गकवाणं । एसे णं जे जीदा मृत्ताए वक्रमात तेणं बको भवतीत्यर्थः । अनुकूलेन च विधानेन बके सूत्रस्य साघवं भंते ! एवं एत्याचे मुखादीया दस नहेसगा तालवमसरिसा प्रवति। तथा विवक्षितार्थस्यासंमोहो निःसंदिग्धप्रतीतिर्यथा ण्यव्या जाव वीयं । ज० १२ श० न० । ति वा स्त्यायुक्त शक्रश- एगट्टियदोस-एकार्थिकदोष-पुं० शम्दान्तरापेक्षयकार्थिकम्दार्थस्य तथा शास्ता तीर्थकरस्तस्य गुणास्तेषांदीपना प्रकाशना शब्द इत्यवंरूपे दोषसामान्यापेक्षयादोषविशेषे, सच स्थानाभवति यथा अहो भगवान् पकैकस्यार्थस्य बहूनि पर्यायनामा ने यथा “दोसे एगहिए इय' अथवा दोषशब्द हापि नि जानातिस्म पते पकार्थिनामभिधाने गुणा नवन्ति । वृ.१००। संबध्यते । ततश्चायं न्यायो ग्रहणे शब्दान्तरापेक्षयैकार्थिका ( एकार्यिकाइच तत्तचन्दे कष्टम्याः)। शब्दो नाम यो दोष इति । अमाप च दोषसामान्याऐलया एकास्थिक-त्रि० फलं फलं प्रति एकमस्थि येषान्ते एकास्थिकाः विशेष इति । स्था०१० ठा। शेषाद्वेति कप्रत्ययः एकमास्थकं फसमध्ये वीज येषान्ते एका-एगछियपय एकाथिकपद-न० सिद्धश्रेणिकपरिकम्मिकथुस्थिकाः । प्रत्येकवादर वनस्पतिकाधिकवृतभेदे, प्रका०१ पद तविशेष, स । (तद्वक्तव्यता सिद्धसेणियपरिकम्मिय शब्द) जा" पगट्ठियं एगवीजं जहा अंबगोत्ति" नि० चू०१०। एगट्ठियाणुजोग एकाथिकानुयोग-पुं० एकश्वासावर्थश्चाभितथा चैकास्थिकप्रतिपादनार्थमाह। धेयो जीवादिः स येषामस्ति ते एकार्थिकाः शब्दास्तै जुयोसे किं तं एगठिया! एगडिया प्रणेगविहा पएणत्ता गस्तत्कथनमित्यर्थः । एकार्थिकश- कथनरूपे द्रव्य योसंजहा "निवंव जंतुकोसं-पसाल अंकोल्लपीलुसेलूया । गभेदे, एकाथिकानुयोगो यथा जीवद्रव्यं प्रतिप्राणिभूतः सत्व सल्लइ मोयइ मालूय, वउल पलासे करजे य॥१२पुत्तं जीव- इति एकाथिकानां वाऽनुयोगो यथा जीवनात्प्राणधारणा जीवः प्ररिहे, विनेलए हरिउए य जलाए । वेभरिया खीरि प्राणानामुच्च्वासादीनामस्तित्वात्प्राणी सर्वदा भवनाद् भूतः सदा सत्वात्सत्व इत्यादि । स्था०१० ठा। णि, बोधब्वे धाय पियाले॥पूई य निंबकरए, सएहा तह एगणाम[न् ] एकनामन्- न० नामोपक्रमभेदे, सीसवा य असणे य । पुण्णाग नागरुक्खे,सिरवएणी तह से किं तं एगणामे नामाणि जाणि कााण अदवाणं असोगे य" जे यावने तहप्पगारा एतसिणं मूलाविभसं गुणाएं पज्जयपणं च तोरा आगमनिहसेनातियक्खे आसिखिज्जजीविया कंधावि खंधावि तयावि सालावि प णासे तेणे एगनाये। बालावि पत्तापत्ते य जीविया पुप्फा अणेगजीवा फला एग इह येन केनचिन्नाम्ना एकेनापि सताविवक्षितपदार्था अभिद्विया सेत्तं एगट्ठिया॥ धातं शक्यन्ते तदेकनामोच्यते इति । अनु० । एकं नामयति अथ के ते एकास्थिका अनेकविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा। निबंबे - क्षपयतीत्येकनामः । एकस्य कृपके, त्रि. त्यादि गाथात्रयम् तत्र निम्बाम्रजम्बूकोशम्बाः प्रतीताः। शामः जे एगणागे से बहुणामे जे बहुणामे से एगणामे इति सर्जः। (अंकोल्लत्ति) अंकोठः प्राकृतत्वान्सूत्रे च उकारस्य का- यो हि प्रवर्द्धमानशुभाभ्यवसायाधिरूढकरएडका एकमनन्तादेशः कोद्वेवशति वचनात् । पीलुःप्रतीतःशमुः श्लेष्मान्तकः, नुबन्धिनं क्रोधं नामयति कृपयति स बहन मानादीनाशयति शवकी गजप्रिया मोचिकीमालको देशविशेषप्रतीतौ । बकुस कपयत्यप्रत्याख्यानादीन् वा स्वभेदानामयति मोहनीयं चेकंयो केसर पसाशः किंशुका करजो नक्तमालः पुत्रजीवको देशवि- नामयति स शेषा अपि प्रकृती मयति यो चा बदन स्थिति शेषप्रतिवरूः अरिष्टः पिचुमन्दः विभीतकोऽक्षः हरीतका कोड़- विशेषान्नामयति सोऽनन्तानुबन्धिनमेकं नामयति मोहनीयं बदेशप्रसिकः कवायबाहुसः नल्लातको यस्य जिल्लातकाभिधाना- वातः अस्यैकोनसप्ततिभिर्मोहनीयकोटाकोटीनिः क्यमुपगनि फलानि लोकप्रसिकानि। चम्बेभरिका कीरिणी । धातकी प्रि- ताभिऊनावरणीयदर्शनावरणीयवेदनीयान्तरायाणामेकोनत्रियालिपूतिकरजलवाशिंशपाशनपुजागमागश्रीपर्यशोका सोक- शद्भिर्नामगोत्रयोरेकोनविंशतिभिः शेषकोटाकोट्यापि देशो. प्रतीताः (जे यावतहप्पगारा ति) येऽपि चान्ये तथाप्रकारा नया मोहनीयक्षपणा) भवति नान्यदेत्यतोऽपदिश्यते यो बपवम्प्रकारास्तत्तदेशविशेषभाविनस्ते सर्वेऽप्यकास्थिका वेदित- हु नाम स एव परमार्थत एकनाम इति कपकोऽनिधीयते उप. व्याः एतेषामेकास्थिकानां मूलान्यप्यसंख्येयप्रत्येकशरीरजीवा- शामको वा उपशमश्रेण्याश्रयेणैकबद्दपशमतावदेकोपशमता स्मकानि एव । कन्दा अपि स्कन्धा भाप त्वबोऽपि शाखा अपि । वा वाच्येति । आचा०१ श्रु०३ अ। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगणासा अभिधानराजेन्द्रः। एगत्तभावणा एगणासा-एकनासा-स्त्र. पश्चिमरुचकवास्तव्यायां स्वनाम- स्वजनं स्वदेह-मुख्यं ततः सर्वमवेत्य सम्यक् ।सर्वस्य कल्याख्यातायां पश्चिमदिक्कुमार्याम, आव०१ अ० प्रा०म०प्र०।। णनिमित्तमेकं, धर्म सहायं विदधीत धीमाम् ॥ ४॥ प्रव०६७ स्था० । द्वा० । श्रा०० अस्याः स्वरूपमुदाहरणञ्च यथा- . एगणिक्खमण-एकनिष्क्रमण-त्रि० एकनिष्कमणोपेते, त- जइ वि य पुचं ममत्तं, छिन्नं साहहिं दारमाईसु । था चावश्यके द्वादशावर्स बन्दनकमधिकृत्य " एगनिक्कमणं पायरियाइममत्तं, तहा वि संजायए पच्छा ।। चेव" एकनिष्कमणमावाश्यकया निर्गत इति-भाव०३ अ०। यद्यपि च पूर्व गृहपासकालभावि ममत्वं साधुभिर्दाराकएकनिष्क्रमणमवग्रहादावावश्यिक्या निर्गच्चतो द्वितीयवेझायां लत्रं तेष्वादिग्रहणात्पुत्रादिषु छिन्नमेव तथाप्याचार्यादिविषय ह्यग्रहान्न निर्गच्छति पादपतित एव सूत्रं समापयतीति।सम.१ स० ममत्वं पश्चात्प्रवज्यापर्यायकाले संजायते । तच कथं परिहाएगणिसिज्जा-एकनिषद्या-स्त्री० एकाशनपरिग्रहे, " से नगवं पयितव्यम् । उच्यते। महावीरे एगदिवसेणं एकनिसिजाए चप्पन्नाई वागरणाई दिहिनिवायालावे, अ परोप्परकारिय सपरिपुच्छं। वागरित्था" समः। परिहासमिहो य कहा, पुचपवित्ता परिहवे ॥ एगत [य] र-एकतर-त्रि एक उत्तरद्वयोर्मध्ये जातिगु- गुर्वादिषु ये पूर्व रष्टिनिपाताः सस्निग्धावलोकनानि ये च तैः रणक्रियादिभिर्निर्धाये एकस्मिन्, एकतरो ब्राह्मण एकतरःशूजः सहावापास्तान् तथा परस्परोपकारितां मिथो भक्तपामएकतरोनीन एकतरः शुकश्त्यादि । वाचा"एत्तो एकतरमवि" दानग्रहणाद्युपकारं प्रतिपृच्छं सूत्रार्थादिप्रतिपृच्छया सहित एकतरमपि अन्यतरदपीति, विपा०७ अ०। "एगतरे अमतरे परिहासं हास्यं मिथः कथाश्च परस्परवार्ताः पूर्वप्रवृत्ताः सअभिमाय" आचा०१७०६००।" अज्जियमेगयरं" र्वा अपि परिहापयति । ततश्च । अत्युद्यतं प्रयतमेकतरं द्वयोरन्यतरमिति पंचा०। १० विव०। तणुईकयाम्म पुव्वं, बाहिरपेम्मे सहायमाईम् । एगतझिय-एकतलिक-त्रि० एकतझोपेते, [तलिंगत्ति ] अपा आहारे उवहिम्मि य, देहे य न सज्जए पच्छा ।। नहस्ताश्च एकतलिकास्तदनावे यावच्चतुस्तक्षिका अपि गृह्यन्त सहायः संघाटिकसाधुस्तद्विषये श्रादिशब्दादाचार्यादिधिइति । प्रव०७३द्वा। षये च बाह्यप्रेमणि पूर्व तनुकीकृते परिहापिते सति ततः गता(या)-एकता-खी० एकस्वभावः एक-तम-एकत्ये, वाच० । पश्चादाहारे उपधी देहे चन सञ्जति न ममत्वं करोति । ततः एगताण या-एकतानता-स्त्री०विसरशपरिहारेण सदृशपरिणा- किं भवतीत्याह । मधाराबन्धे, “चित्तस्य धारणादेशे प्रत्ययस्यैकतानता"द्वा०२४वा. पुव्व छिन्नममत्तो, उत्तरकालं विवज्जमाणे वि। अन्नेदपरिणती, अष्ट। साभावियइयरे वा, खुज दई न संगइ ए॥ पगत्त-एकत्व-न० एकस्य नावे त्व-एकत्यसंख्यायाम,साम्ये, श्रे पूर्व छिन्नममत्वाः सर्वेऽपि जीवा असकृदनन्तशो चा सर्धटत्वे, चाचा अभेदे च । स्था०४म० श्राव० एकरूपत्वे, स्था०७ जन्तूनां स्वजनभावन शत्रुभावन च संजाता अतः कोऽत्र स्थगाएकवचने च। स्था०१०म०[एगति] पकत्वमेकवचनं तदनु- जनः को वा पर इति भावनया त्रुटितप्रेमबन्धः सन्नुत्तरकायोगो यथा सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोकमार्ग इत्यत्रैकवचनं लं जिनकल्पप्रतित्यनन्तरं व्यापाद्यमानानपि सङ्गति ॥ कान् सम्यग्दर्शनादीनां समुदितानामेवैकमोकमार्गत्यस्यापनार्थमस-| स्वजनान् स्वजातिकानितरान् वा वैक्रियशक्या देषादिनिर्मिमुदितवे स्वमोकमार्गतेति प्रतिपादनार्थमिति । स्था०१० ० तान् दृष्ट्वा न शुभ्यति ध्यानान्न चति । अत्रदृष्टान्तमाह । " दो सा एगसमावमा" नि० चू० २०३०॥ पुप्फपुर पुष्फकेऊ, पुष्फबई देविजुअलयं पसवे । एगत्तगय-एकत्वगत- घि० एकत्यभावनाभाषितान्तःकरणे, पुतं च पुप्फचूलं, धूमं च सनामियं तस्स । "णिपखंते पगत्तगए " प्राचा०१श्रु०९०१ उ०। सह वष्ट्रियाण रागो, रायत्तं चेव पुष्फचूलस्स । एगत नावना-एकत्वनावना-खी नावनाभेदे, तत्स्वरूपं यथा घरजामातुदगाणं, मिलइ निसि केवलं तेणं । एणो देहातो अहं-ताणत्तं जस्स एवमुवलई। पब्वज्जा य नरिंदे, अणुपव्वयणं च णेगसे। सो किं विसहारिकं, न कुणा देहस्स नंगे चि ।। अहं देहादन्य इत्येवमेकत्वज्ञावनया यस्य साधोः परिकर्मणां | बीमंसा उबसग्गे, विडेहि समुहिं च कंदयणा । कुर्वतः शरीरादात्मा नानात्वमुपलब्धः स दिव्यादिषु उपसर्गबेला पुष्फपुरं नयरं तत्थ पुष्फके राया पुष्पवई देवी सा अम्नया यां देहस्य जङ्गेऽपि विनाशेऽपिन किंचिदपि [आहरिकमिति]| जुयलं पसूया पुष्फचूलो दारो पुष्फचूना दारिया। ताणि दोणि उनासं न करोति । गता एकत्वभावाना । व्य०प्र०१उ० । अथै सह वहियाणि परोप्परं अश्व अणुरत्ताणि । अन्नया पुष्फचूलो कत्वभावना उत्पद्यते जन्तुरिहैक एव , विपद्यते चैकक एव राया पञ्चश्श्रो अपरागणं पुष्फचत्रावि नगिणी पव्यया । सो य पुण्फचलो अन्नया जिनकप्पं पमियजिनकामो पगसनावरणाए दुःखी। कार्जयत्येकक पव चित्र-मासेवते तस्फलमेक एव १ अप्पाणं जाये । ओ य एगेणं देवेणं वीमसणानिमित्तं पुष्फलयजीवेन धनं स्वयं बहुविधैः कष्टैरिहोपाळते, सत्संभूय क- माए अजाए रूपं विच ब्बिय धुत्ता धरिसि पत्ता। पुष्फलो लत्रमित्रतनयात्रादिभिर्भुज्यते। तत्सत्कर्मवशाच नारकार- य भणगारो तणं भोगासेणं बोले साहेसा पुष्फचमा बज्जा स्वर्वासितिर्यग्भवे-ध्वेकः सैष सुदुःसहानि सहते दुःखाम्य- जेटले सरणं भवाहित्ति बाद सोय भगवं बुच्छिमपेमबंधणे संख्याम्यहो ॥ २॥ जीवो यस्य कृते भ्रमत्यनुदिशं दैन्यं समा- 'एगो हं नस्थि मे को वि नाहमन्नस्स कस्सई' चार पगत्तनालम्बते, धर्माद्धस्यति वश्चयत्यतिहितान्न्यायादपक्रामति। दे। घणं जाषितो गमो सष्ठणं । एवं एगत्तभावणाप अप्पाणं जाधेहः सोऽपि सहात्मना न पदमप्येकः परस्मिन् भबे, गच्छत्यस्य यम्वोत्ति । गाथावरयोजना त्वेवं पुष्पपुरे पुष्पकेतू राजा पुष्पततः कथं वदत भोः साहाय्यमाधास्यति ॥ ३॥ स्वार्थैकनिष्ठं वती देवी युगर्स प्रसूते वर्तमान निर्देशस्तत्कासचिवकया पुत्रं च Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) एगत्तनावणा अन्निधानराजेन्डः। एगदिति पुष्पचूसं पुहितः च तस्य सनामिकां समानाभिधानां तयोश्च स- दीनां समुदितानामेवैकमोकमार्गवण्यापनार्थमसमुदितत्वेहवर्द्धितयोरनुरागो राजत्वं चैव पुष्पचवस्य पुष्पचूदायाश्च गृह- त्वमोक्षमार्गतेति प्रतिपादमार्थमिति । स्था०१०म०। दानम् । सा च तेन जत्रा सम कवलं निाश रात्री मिन-एगत्तिय-एकत्विक-त्रि० एकनरकाद्याश्रिते, एए एगइया सत्त ति, प्रव्रज्या च नरेन्जपुष्पचूत्रस्य तदनुरागणानुप्रव्रजनं च पुरप दंडगा जति ॥ (एगत्तियत्ति) एकत्विका एका नारकाद्याचलायाः। ततो जिनकल्पं प्रतिपित्सुरेकत्वभावनां नावयितुंलग्नो श्रिता शति । भ०१२ २०४ उ01 विमर्शपरीक्षा तदर्थ देवेनोपसर्गे क्रियमाणे विटैःसंमुखी पुष्फचूनां कृत्या धर्षणं कर्तुमारब्धम् । ततः क्रन्दना आर्य! शरणं श एगतीकरण-एकत्वीकरण-न० अनेकावलम्बनत्वस्यैकावयम्ब रणमिति । अथोपसंहारमाह। नत्वकरणे, "मणसा एगत्तीकरणणं " अनेकत्वस्यानेकावल म्बनत्वस्य एकत्वकरणमेकावलम्बनत्वकरणमेकत्वीकरणं तेनेति एगत्तभावणाए, न कामभोगे गणे सरीरे वा । भ०२ श०५ उ०। सज्जइ वेरग्गगओ, फासेइ अणुत्तरं करणं ।। एगत्तीगय-एकत्वगत-वि० संघातमापन्ने, “ताहे से पएसा एगएगत्वभावनया नाव्यमानो यः कामभोगेषु शब्दादिषु गणे गच्छे । तागया नवंति" एकत्वगताः संघातमापन्ना जवन्तीति । ज०८ शरीरे वा न सज्जति न सङ्गं करोति किंतु वैराम्यगतः सन् स्पृ- श० एन०। शत्याराधयति अनुत्तरं करणं प्रधानयोगसाधनं जिनकल्पपरिक प्रधानयागसाधनाजनकल्पपरिक एगत्तीभावकरण-एकत्वीभावकरण-ना अनेकस्य सत एकमेंति।गताएकत्वनावना।एकत्वनावनया चात्मानं भावयन् गुर्वा तालवणभावकरणे, न श०९ ०। एकाग्रतायाम्, “मणसा दिषु दर्शनालापादिपूर्व परिहरति । ततो बादरममत्वे मूत्रत एव एगत्तीभावकरणणं" अनेकत्वस्य एकत्वस्य जवनमेकत्वीविच्छन्ने देहोपध्यादिज्योऽप्यात्मानं निन्नमव सोकयन् सर्वथा तेषु जावस्तस्य यत्करण तत्तथा तेन एकत्वीभावकरणेन आत्मनिरभिष्वङ्गो भवति-ध०४ अधिः । तथाचाह।। न इति गम्यते मनस एकाग्रतयेत्यर्थः । औप० । तथा च एगंतमेयं अनिपत्थएज्जा, एवं पमोक्खो न मुसंति पासं। जगवत्याम् योगप्रतिसबीनतायास्तृतीय भेदमधिकृत्योक्तम् ॥ एस प्पमोक्खो अमुसे वरे वि,अकोहणे सचरते तवस्सी।१२।। "मणस्स पगत्तीभावकरण" विशिष्टैकाग्रत्वेन एकता तद्पएकत्वमसहायत्वमभिप्रार्थयेदेकत्वाध्यवसायी स्यात् । त- स्य भावस्य करणमेकतानाधकरणम् । आत्मना वा सहकथाहि जन्मजरामरणरोगशोकाकुले संसारे स्वकृतकर्मणा वि. ता निरासम्बनत्वं तद्रूपो नावस्तस्य करणं यत्तत्तथा । वाकून सुप्यमानानामसुमतां न कश्चित्त्राणसमर्थःसहायः स्यात्। तथा तिसंझीनताया अपि तृतीय भेदमधिकृत्य तत्रैवोक्तम् "वश्यथा चोक्तं "एको मे सासो अप्पा गाणदसणसंजुश्रो॥ सैसा एगत्तीजावकरणं" || वाचो वा विशिष्टकाग्रत्वेन एकतारूपभावमे बाहिरा भावा सव्वे संयोगलक्षणा” इत्यादिकामेकत्व- करणमिति । न०१५ श०७ उ०। भावनां भावयेदेवमनयैकत्वभावनया प्रकर्षेण मोक्षः प्रमोक्षो | एगत्थ-एकत्र-अव्य० एक० ऋ० एकस्मिन्नित्यर्थे, वाच । विप्रमुक्तसंगता न मृषा अलीकमेतद्भवतीत्येवं पश्य । एष चै- "श्य एगत्थ लोग मिक्षितंति" नि० चू०१ उ० । कत्वभावनाभिप्रायः प्रमोक्षो वर्तते अमृषारूपः सत्यश्वायमेव । तथा वरोऽपि प्रधानोऽप्ययमेव भावसमाधिर्वा यदिवा तपस्वी एगदंमिन्-एकदाएमन्-पुं० एकः केवः शिखायोपर्वातातपोनिष्टतदेहोऽक्रोधनः उपलक्षणार्थत्वादमानो निर्मायो दिशून्यो वा दशमोऽस्यास्तीति इन् । “यदा हृदाऽध्यवसितं परं निर्लोभः सन्यरतश्च एष एष प्रमोक्षोऽमृषासत्यो वरः प्रधा ब्रह्म सनातनम् । तदैकदएडं संगृह्य, सोपवीतां शिखां त्यजत्" नश्च वर्तत इति । सूत्रः १ १०१ १०। इम्युक्तलकणे (वाच.) परतीर्थिके परिव्राजकभेदे. सन्यासी एगे चरे गणमासणे, समणे एगे समाहिए सिया।। तावच्चतुर्विधः कुटीचकबहूकदकहंसपरमहंसजेदात् । तत्र कुटीजिक्खू उवट्ठाणवीरिए, वश्गुत्ते अज्कत्तसंवुमो ॥१॥ चकबहुदकयोस्त्रिदएमधारणम् । हंसस्यैकदएमधारणम् । परम हंसस्य न दएमधारणमिति भेदः । वाच०। एकदएिमकाः पञ्च[एगेचरे इत्यादि ] एकोऽसहायो ऽव्यत एकलविहारी विंशतितत्वपरिझानान्मुक्तिरित्यानिहितवन्तः।सूत्र०१०११०३उ. भावतोरागद्वेषरहितश्चरेत् । तथा स्थानं कायोत्सर्गादिकमेक एगदंतसेढि-एकदन्तश्रेणि-त्रि०एकदन्तस्य श्रेणिः पक्तियस्य एव कुर्यात् । तथा श्रासनेऽपि व्यवस्थितोऽपि रागद्वेषरहित एव तिष्ठेत् । एवं शयनेऽप्येकाक्येव समाहितो धर्मादिध्यान स तथा । औप० । एकाकारदन्तपती, जी०३ प्रति। "एयुक्तः स्यात् भवेत् । एतदुक्तं भवति । सर्वावऽप्यवस्थानास गदंतसेढी विव प्रणेगदंतो" एकस्य दन्तस्य श्रेणिः पक्तिनशयनरूपासु रागद्वेषविरहात् समाहित एव स्यादिति । तथा र्यस्य स तथा स श्व परस्परानुपलकमाणदन्तविभागत्वात भिक्षणशीलोभिक्षुः। उपधानं तपस्तत्र वीर्य यस्य स उपधान अनेके दन्ता यस्य स तथा । औप० । एको दन्तो यस्याः सा वीर्यः। तपस्यनिगृहितबलवीर्य इत्यर्थः । तथा वाग्गुप्तः सुप- एकदन्ता सा श्रेणियेषां ते तथा त च दन्तानामपि घनत्वादेर्यालोचितानिधायी अध्यात्म मनस्तेन संवृतो भिक्षुर्भवे- कदन्तेव दन्तश्रेणिस्तेषामिति नावः । अनेकदन्तो कात्रिशद्दन्त दिति ॥१२॥ सूत्र० १ श्रु०२ अ० २ उ०। ति जावः1 प्रश्न०४द्वा०तं । जी। एगत्तवियक-एकत्ववितर्क-त्रि० एकत्वेनाभेदेनोत्पादादिप- एगदा [या]-एकदा-अध्य० कदाचिदित्यर्थे, “एगया Uयाणामन्यतमैकपर्यायालम्बनयेत्यर्थः वितर्कः पूर्वगतः समियस्स" एकदा कदाचित् गुणसमितस्य गुणयुक्तस्येति श्रुताश्रयो व्यञ्जनरूपोऽर्थरूपो वा यस्य तदेकत्ववितर्कम् । झु- आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०।" इथिओ एकता णिमंतंति" क्लभ्यानजेदे, स्था०४ ग० । भ०। श्राव० [तद्वक्तव्यता सुक्क- सूत्र०११० ४ ० "सजणेहिं तस्स पुच्चिसु पगचरा वि एगदा" ज्माण शब्द] आचा०१श्रु०ए अ०२०। एगत्ताणुओग-एकत्वानुयोग-पुं० एकत्वमेकवचनन्तदनुयोग एगादट्टि-एकदृष्टि-स्त्री० एका अनिन्ना अनन्यविषयत्वात् एकत्वानुयोगः । शुक्रवागनुयोगभेदे, स च यथा सम्य- | दृष्टिः । अनन्यविषयदर्शने, बह० तथाष्टियुक्त, त्रि० याच०। ग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्ग इत्यत्रैकवचनं सम्यगदर्शना- “अणिमिसणयणेगदिछीए" एकदृष्टिक एकपुशलगतहाष्ट्रिरिति Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) अभिधानराजेन्कः । एगदिि पंचा०] १८ विघ० । काणे च त्रि० । काणत्वञ्च चक्षुः शून्यैकगोलकवस्त्वमन्धत्वं चक्षुरिन्द्रियशून्यत्वमिति नेदः। काके, पुं० वाच० एगडुक्ख एकःख-त्रि एक खोपेते, "एगे ले जाया एकमेवान्तिमभवग्रहणसंभवं दुःखं यस्य स एकःख इति । स्था० १ ० । ए गए सता -- एकप्रदेशता स्त्री० एकप्रदेशस्वनावे, " एकप्रदेशता बेहारबन्धनिवासता एकप्रदेशस्वभाव एकप्रदेशता । सा चेहैकत्वपरिणतिः । अखएकाकारबन्धस्य संनिवेशस्तस्य निवासता भाजनत्वं ज्ञातव्यम् । निष्कर्षस्त्वयम् अखएकतया प्रकृतीनां सन्निवेशः परिणमनव्यवहारः तस्य भाजनमाधाराधेयत्वमेकप्रदेशतोच्यते । अव्य० १२ श्रध्या० । एमएएसोगाद- एकप्रदेशायगाद वि० एकस्मिन् प्रदेशे बाद त्रि० ऽवगाढमेकप्रदेशायगादम् कर्म० एकप्रदेशव्यवस्थिते, "गपसो गाढं परमोही लहर कम्मगसरीरं " प्रकृष्टो देशः प्रदेशः एक 66 " प्रदेश प्रदेशमा व्यवस्थितमेकमदेशावगाढं परमाणुयणुकादि षव्यमिति । आ० म० प्र० । स्था० । एगपक्ख- एकपक्ष - पुं० एकः पक्को यस्य । असहाये, कर्म० । एकत्रपके, वाच । एकः पक्कोऽस्येति एकपक्काश्रिते, एकान्तिके "इमं दुक्खं मेगपां इदमस्मदत्युपगतं दर्शनमेक पको स्वेति एक पक्षमप्रतिपक्षतकालिकमायानिधायि तथा निष्यतिबाधं पूर्वापराविरमित्यर्थः । तथेदमेकः पोस् स्पकम् जन्मनि तस्पद्यात् तचेदमहोपचि तं परिज्ञोपचितमीर्य्यपथं स्वमादिकञ्चेत्यक्रियावादिनश्चावीक बौद्धादयः । सूत्र० १ ० १ २ श्र० । एगपत्तय-- एकपत्रक-त्रि० एक पत्रं यत्र तदेकपत्रक अथ कं च तत्पत्रं चैकपत्रं तदेवैकपत्रकम्। एकपत्रोपेते, एकपत्रे, न० । "उप्पले णं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे" एकपत्रकं चेह किशलावस्याया उपरि अष्टव्यम् । भ० ११ श० १ ८० । एगपरिश्य एकपरिश्य-शि० एकपर्याये "एमपरिश्यंति --- वा एगपज्जायंति वा एगणामभेदं ति वा एगठा तं च जहा क. स्वति दव्वस्स एगेव णाम भवति णो वितियंति" आचू० १८० । एगपिंमिय-- एक पिण्डित -- त्रि० एककाः सन्तः पिहिमता एक पिएकताः । एकवर्गेण पिरिकते, " एगदुर्गा पंमियाणंपि एक द्विकपिरितानामपि पञ्चाप्येककाः सन्तः पिहिमता एकपरिकता अथवा डिकेन वर्गयेन एक एकाकी एक अथवा एको ऽपरस्त्रिवर्ग इत्येवंरूपेण पिपिकता एकद्विकपिरिकतास्तेषामेककिपिकितानामपीति गमिव हु' एककाः पिष्मिता एकापरिकता द्विपिरिकता द्विकेन वर्गद्वयेन पिडिता अपिशब्दात् त्रिकपिरिताश्चतुष्क पिऐिमताश्वति । व्य० प्र० १ ० 39 2 एगपुट-एकपुट० एकतले नि० ० २० एगप्य - एकात्मन् पुं० एकस्मिन्नात्मनि । एक आत्मा स्वरूपं स्वभावो वा यस्याः । एकस्वरूपे, एकस्वन्नावे, त्रि० स्त्रियां टाए वाच। चेतनाचेतनं सर्वमेकात्मविवर्त इत्यात्माद्वैतवादे, तस्य त्र सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमाध्ययनप्रथमोहशके द्वितीयोर्थाधिकारः । तयोद्देशार्थाधिकारमधिकृत्य निर्युक्तिकृत् "पंचमहभूय एक्कप्पए य" बेतनाचेतनं सर्वमेकात्मवियत इत्यात्माद्वैतवादः प्रतिपाद्यत इत्यर्थाधिकारो द्वितीय इति । सूत्र० १ ० १ अ० । (आत्माद्वैतवादस्य निरुपण निराकरणे गावादि शब्दे ) एगमेग एगप्पबाइ (न्) - एकात्मत्रादिन् - श्रात्मा द्वैतवादिनि, सूत्र० १ श्रु० १ अ० । एगपवाय एकात्मवाद प्रात्मा तवादिनि ०१०१० एगप्पमुटु एकप्रमुख पुं० [पको मोहोन्शेषतत्वात्संयमो वा रागद्वेषरहितत्वात् तत्र प्रगतं मुखं यस्य स तथा । मोके, तदुपाये वा दत्तदृष्टौ, "णारभेकचणं सव्वए एकप्पमुहे" आचा० १० ५ श्र० ३ ४० । 66 एगजत्त० एकनक्त० - न० एक भक्कं भोजनं यत्र । एकाशनके, तह एगभतं च" एकभक्तं च एकाशनकं चेति । पंचा० १२ विव० । एकस्मिन् भक्तः । नितान्तभक्ते, त्रि० वाच० । एगभट्ट एकजकार्य पुं० योग्ये भने, “दसुचडिय एक एगमो " यावदशानां योग्यमुपस्कृतं तावदेकभार्थी ग्राह्यः । एकयोग्यं तत्र भक्कं ग्राह्यमिति भावः । व्य० १ उ० । एगनविय एकजाचक पुं० य न भयेन गतेनानन्तरभव एवोत्पत्स्यते तस्मिन् । सूत्रकृताङ्गे द्रव्यपौण्डरीकमधिकृत्य " एगभविए य बद्धाउए य " ॥ एकेन भवेन गतेनानन्तरभवे एपीडरीकेत्पत्स्यते स एकभाविक इति सूप० २ ० १ अ० । प्रव्यार्द्रकमधिकृत्यापि "एगभावयबद्धा उया " एकेन भवेन यो जीवः स्वर्गादेरागत्याईककुमारत्वेनोत्पद्यते इति । सूत्र०१० ६ ० एगभविश्रो जो अनंतरं व्यट्टित्ता चितिए भवे भिक्खु होहित्ति " नि० ० १ उ० । एगभाव-एकनाव - पुं० एको नावः । अनन्यविषये रागै, एकस्वनावे, एकाशये, अभिन्नत्वे श्रभेदे, तुल्यभावके, त्रि० arao | एकस्वनावे, तम्रो पच्छा एगभावे एगभूते सिया" पको भायः सांसारिकमुखविपर्ययात् स्वाभा विसुखरूपो यस्यासायेकभायोऽत पथ च भूत एकत्वं प्राप्त इति भ० १४ श० ४ उ० । 66 एगभूष एकभूतवि० का ० १४० १३० — एकत्वं प्राप्ते, । एकस्मिन् भूते एकासके च । वाच० । अनन्यतया व्यवस्थिते, "एतेगे दुक्खे जीवाणं एगभूते " एकभूतममन्यतया व्यवस्थिते प्राणिषु न सांख्यानामिव बाह्यमिति । स्था० १ ठा० । एक इव एकभूतः । एकतुल्ये, "फ्ले जीवाण" गहू श्वात्मोपम इत्यर्थ इति । स्था०१० वा० । -- एगमगंज-एकम-१० निवेशविशेषे "कारणमेवे" कारणमतिवादिणमधिकृत्य को साधुरेकाकी जात कथमप्येकमरुस्बे गतः एकमडम्बं नाम यस्य निवेशस्य सर्वासु दिक्षु च नास्ति कोऽप्यन्थो ग्रामो नगरं वा तस्मिन्नेकमम्बे गत इति । व्य० ३ उ० । 1 एगमा एकमनस ० एकाग्रथिते "जागर सुरमेणमणो" एकमना एकाग्रचित्त इति । आव० ५ अ० । “ जं तं कुयंति एगमणा" एकाग्रमनसस्सन्त इत्यर्थः" संथा० । एगमेग - एकमेक - एकेक शर्कक एकैक- त्रि० सुवन्तस्यैकस्य वीसाथै द्वित्वम् "एक बहुव्रीहिवत्" पा. शर्त द्विरुक्त एकशब्दो बहुचित्तेन पचायी बाब वीप्सात्स्यादेपर्य स्वरे मो वा " ८ । ३ । १ । इति सूत्रेण वीप्सात्पदात्परस्य स्वादेः स्थाने स्वरादी बसायें परे परे मो वा भवति मे कम् । प्रा० । प्रत्येकपदार्थ, वाच० । “ता एवं डुवे सरिया तीसाए मुद्दतेहिं पगमेगं श्ररुमंगलं चरतः" इति चं० १ पाहु० Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) अभिधानराजेन्थः । एगमेग कम भत्तई ममेगस्स” पकेकेन संयुक्तमेकः साधुः फेन सह संयुक्त पस्मिनानयने तदेकैकमिति । श्रघ० वमिक्किके आलावगा भाणियव्त्रा " स्था० २ ठा० । एगमे पक्रख एकैकप० भवगणे, “एकमेकपो णाम जो वजयगणो भवतीति" । नि० ० १५ उ० । एगरस एकरसत्र एक द्वितीयस्तिकादिरन्तर ऽस्येत्येकरसः । तिक्रादिरसान्यतमरसोपेते, उत्त० १ अ० । एकोsनन्य विषयको रसः रागः अभिप्रायः एकोऽभिन्नः स्वनावो वा अस्य । एकरागे, एकानिप्राये, अभिन्नस्वभावे च । एको रसो यत्र । एकरागविषये, वाचः । एगराया एकरात्रिकी-श्री० एका रात्र प्रमाणमस्या त् करात्रिकी । सर्वत्रिक्यां द्वादश्यां भिक्षुप्रतिमायाम्, । “पमि मंग एगर(तीयं” पंचा० १० विवः । द्वादशी एकरात्रमानेति । झा० १ अ० । अस्याः स्वरूपं यथा । "एका रादियं निक्खुप। । मिमं परिवा" ( एगराश्यंति ) एका रात्रिः प्रमाणमस्या - त्यैकरात्रिकी ताम् । अस्यां चाष्टमभक्तिको ग्रामादिवहिरीपदवनलगायोऽनिमिषनयनः शुष्कपुत्र निरुह टिर्जिनमुकास्थापितपादः नलम्बित जुजस्तिष्ठतीति विशिष्टसंहननादियुक्ता एव चैता प्रतिपद्यन्ते । आहच “परिवज्जर श्याश्र संघयणचिइजुओ महासत्तो । परिमाओ नावियप्पा सम्मं गुरुणा अणुarat' इत्यादि । औप० । ० । सम० । तथाचावश्यकसूत्रम् । एमेव एगराइ, अपननेण उणवाहिरियो । ईसीपन्नारगए. प्रणिमिसन योगदिडीए । साह दो वि पाए, सरिपाखितावर ठाणं । वचारिभि सदसा जहा जणि आय० अ० एगरातियं भिक्खुपमिमं परियम्पस्स अणगारस्स निच्चं वोसकरणं जाव अहियासेति । कप्पति से अमेण नत्तेणं अपाणपणं बहिया गामस्स वा जाव रायडाणिए वा ईसी पारगत एव खघु मूलगताए दिठीए अणिमिसनयणे बापगते सविदोपि पाप सादुग्धारितपाणिस्स ठाणं ठाश्तर नवरं उक्कुकुयस्स वालगं म सायरस वा ममातियस्स वा गणं गश्त । तत्थ से दि. माणस्स तिरिक्खाए जोणिश्रा जाव आधाविध मेव ठाणं वाइसए एगराइयं णं भिक्खुपमिमं समं अनुपालेमाणस्स अणगार श्मे त उठाणा आईताए असुभाष अखमाए अणिस्सेसा प भग लुगामियत्ता भवंति । तंजधा उम्मयं बालतेजा दीड्कालि वा रोगातंक पानणेज्जा के लिपत्ता वा धम्माओ भंसेज्जा एगरातियं गं भिक्खुपमिमं सम्म अणुपातेमाणस्स श्र गारस्स इमे तच तारणाहिताए जाय अनुगामियसार नति तंजा बहियाने वा समुपज्जे पणा पासेसमुप्पज्जेज्जा केवलणाणे वा से समुप्पा पुच्चे समुप्पज्जेज्जा । एवं रस एसा पगरातिमंदिया निपाडमा महाभुत आधाकल्यं भदामग्गं श्रहतच्च सम्मं कारणं फासिया पालिता सोहिता भीरिता किट्टिगता आरादिता आरहाए अपालिया विजयति । आ० चू० ४ श्र० । एगराय - एकरात्र - न० एका चासौ रात्रिश्चेत्येकरात्रम् । एकस्यां रात्रौ एगराई वा दुराई वा वसमाणे नाश्क्कम " ॥ स्था० ५ वा० " गामे गामे य एगरायं " ग्रामे ग्रामे चैकरात्रिं यात्रदिति । प्रश्न ०५ द्वा० । एका रात्रियंत्र तदेकत्रम् 1 एकराते ० "किमेगराई करि" । जिल्ला एक एगलबिहार रात्रियंत्र तदेकत्रमुपाश्रयं वसेत जिनको दिपकरा माधयं शुभमगुनं वा सेवेतेति । उत० २ अ० ॥ एगरायत्रासि (न्)- एकराचा सिन्० पुं० अहोरात्रमेष वस्तु शीले, एकरात्रं ग्रामादौ वस्तुशीले च । "णाए एगरायवासी” ॥ ज्ञातः प्रतिमाप्रतिपन्नोऽयमित्येवं जनेनावसितः सन् एकरात्रवासी एकत्र ग्रामादावहोरात्रमेव वस्तुं शीलः । तथा एकं वा एकरात्रं द्विकं वा रात्रिष्यं ग्रामादौ वस्तुं शीलमिति गम्यमिति । पंचा० १८ द्वा० । एगरूव० एकरूप - त्रि० एक समानं रूपमस्य । तुल्यरूपे, त्राच्च० एकविधाकारे, "पभू एगवां एगरूवं विविए" एकरूपं एकविधाकारं स्वशरीरादीति भ० ६ श० एकर्म० । एकस्मिन् रूपे, वाच० । एगलजि (न्) एकलम्निन् त्रि० पकनाभवति, तथाचाह 'खज्जूमा य अवस्सा, एगालंभी पहाणाओ । तं एगं न विवत्ती, अविसेसे देश जे गुरूणं तु । श्रहवा वि एगदय, वनंति जे ते देश उगुरूणं " व्य० प्र० ३ ० ( व्याख्या आयरिय शब्दे ) एगलंजिय - एकला (जि) भिक- त्रि० एकस्य लाभेन चरति, 66 66 एभिए" एकलाम्निकान् अथवा य एकं प्रधानं शिष्यमारमना बनते गृह्णाति शेषास्त्वाचार्यस्य समर्पयति स एकलाभेन चरतीत्येकला निकः । व्य० प्र० ३ उ० । एगल - एक-त्रि० लोना ८२ । ६५ । इति सूत्रेण वाल्लः । सेवादित्वात् कस्य द्वित्वे एक्कcar | पक्के पको एत्रो । प्रा० । एकाकिनि, स्था० g aro | एगल्लविहार- एक विहार - पुं० एकाकिनो विचरणे, स्था० aro | एका किविहार निषेधस्तत्र दोषश्च । तत्र एकाकिविहारे दोषा यथा । गाविस दोसा, वीसा तच पटीए । निक्ख विस्सेहि महव्त्रय, तम्हा सवितिज्जए पमणं ॥ ३१ ॥ गीयत्यो य विहारो, वीश्रो गीयत्थमीसप्रो नोि । एलोयविहारो, हा जिवरे । ३२ ॥ (एगागियस्सत्ति ) एकाकिनोऽसहायस्य विहरतः सतो दोया दूषणानि भवन्ति तद्यथा (साणेति खीनीमयं च समाहारद्वन्द्वस्ततश्च स्त्रीविषये श्वविषये च । तत्र स्त्रीविषये "विवियारमहंत मेगा य गहणं, इत्थमणिच्छे य दोसाओ" तथा श्वा कौलेयकस्तदोषस्ततोऽनेकस्य परियः तथा चेति समुच्चयार्थः प्रत्यनीके साधुप्रद्विष्टविषये साकिनमभिभवत् (क्विचिसोहिमन्वयसि ) इह सप्तमं। बहुवचनदर्शनाद्धिका विषये दोषामा तत्र युगपत् गृढत्रयस्य भिक्वाग्रहणे एकस्योपयोगकरणे अश त्यात पय च प्राणातिपातविरमणयराधनानिमि सच निकला ने पाया ि जिघृक्कादिभावाददन्तादानम् । स्त्रीमुखनिरीक्षणादौ मैथुनं तत्र दारपरिग्रह इति यस्मादेते ऽसहायस्य दोषास्तस्मात् (सबि जइत्ति ) सद्वित । यस्य सप्तमीषष्ठयोरनेदाप्रमनं भिक्कार्थमटनं यदि च भिकानमपि ससहायस्यैव युक्तं तदा सुतरां बिहार: ससहायस्यैव युज्यते । ससहायो हि सर्वानेतान् प्रायः परिह मनुर्भवतीति गीतार्थत्वात् गीतार्थः शब्दः समु चयेनिनक्रम विदारों विवरणमेक इति गम्यते द्वितीयन्यो विदारो गीतार्थमिधाएं बहुभूतसमन्वितानामगीतार्था I Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगल्लविहार अभिधानराजेन्डः। एगझविहार नामपि साधूनां यः स गीतार्थमिश्रको भणितः । उक्तो जिनर्वि- शययुक्तः देवताचार्यों प्रतीतो अयं तावदक्तरार्थः । भावार्थस्य धेयतया श्त प्रात्यां धान्यां दिहाराज्यामन्यस्तृतीयो विहा- | जाष्यकार एकैकं द्वारमङ्गीकृत्य प्रतिपादकः । “यथोद्देशं निर्देरस । एकानेकागीतार्थसाधुरूपो नानझातो नानुमतो विधेयतया शम्” इति न्यायमाश्रित्य यो विधिःयतेरसावनिधीयते श्हाशिजिनवरैर्जिननायकैर्यतः “साममगजोगाणं, बाज्झागिहिसन्नि- वमेकाकीत्यस्य हेतुत्वं वर्तते तस्मात्तथा कर्तव्यं यथा तन्न भवसंयुओ हो । दसणणाणचरित्ताग, पश्लणं पावए एको" इति त्येव । केम पुनः प्रकारेण तन्न नवतीति चेदुच्यते । गाथाद्वयार्थः । संवच्चरवारसए ण, होहिइ असिवति ते तोणिग्गंति। विशेषविषयत्वमेवास्य स्पष्टयन्नाह ॥ सुत्तत्थं कुव्वंता, अइसइमाईहि नाऊणं ॥ २३ ॥ तागीयम्मिश्मं खबु, तदमत्रानंतरायविसयं तु । संवत्सराणां द्वादशक २ द्वौ च दश च द्वादश तेन भविष्यमुत्तं अवगंतव्वं, णिउऐहिं तं तजुत्तीए ॥ ३३ ॥ त्य शिवमिति ज्ञात्वा ते इति तदैव तत इति तस्मान् क्षेत्रात (णिता इति तस्मादेतान्यागमवचनानि सामान्यसाधोरेकाकित्वा मात्ति) निर्गच्छन्ति सूत्रपौरुषीमर्थपौरुषी च कुर्वन्तो निष्पादस्य निषेधकानि सन्ति तस्माद्गीते गीतार्थसाधुविषये इदम् । यन्तोऽन्यदेशमनविष्यदशिवं विश्वस्ताः संक्रामन्ति । कथं पुन" एगो वि पावा विवज्जयंतो " इत्येतत्सूत्रमवगन्तव्यमिति यिते। अतिशय आदियेषां ते अतिशयदयो झानहेतवः । अतियोगः । खलुरवधारणार्थः । स च योदयते । अथ गीतार्थविषय शयादिज्ञानहेतवस्तैः । अतिशयादिप्रतिपादनायाह । किमिदं साधुः सामान्यत एव नेत्याह । तस्माद्गीतार्थसाधोरन्ये अश्सेसदेवया वा, निमित्तगहणं सय व सीसो वा । अपरे ये गुणवन्तः साधवस्तेषां यो साभः प्राप्तिस्तत्र योऽन्तरायो परिहाणि जाव पत्तं, निग्गमण गिझाण पमिबंधो।।२।। विघ्नः स एव विषयो गोचरो यस्य तत्तथा। अतस्तदन्यान्तराय अतिशयोऽवध्यादिस्तदभावे कपकगुणाकृष्टा देवता कथयति । विषयमेव गीतार्थस्यापि साध्वन्तराप्राप्तावेकाकित्वानुज्ञातपरमि अथवा "पायरियापणं सुत्तत्थे सुणिपण सयमेव णिमित्तं घेत्तव्यं दमिति भावोऽन्यथा ससहायतैव युक्ता । यतोऽनिधीयते "का अहया सीसो गहणधारणासंपन्नो निश्चिकारी जो सो गिएहासम्मि संकिलिहे, छक्कायदयावरोधि संविग्गो। जश् जोगीण लने विज जया आयरिओ बुछो भवति नया अधिकारिस्स सीसपण, गन्नयरेण संवस" पार्श्वस्थावसन्नकुशीलसंसक्तयथाच्च रस दित्ति । जाहे सो न दोज्जाताहे अन्नो कोइ पुजि ताहे दानिधानानां पश्चानां साधूनामेकतरेण सह वसतीत्यर्थः। इति वारसहि निमगंतव्वं । अह वारसहिं ण णायं ताहे पक्कारसहिं शब्दःप्राग्वत् । सूत्रं "नयासन्नत्यादि" क्तरूपमवगन्तव्यमवसे- जाव जाहे एकेण विणायं होजा ताहे उम्माहि सुयवाहे णिगं निपुणैः सहिभिस्तन्त्रयुक्त्यागमिकोपपत्योक्तरूपयति गाथा ग्गच्छतु । अह वा ण चेव णायं असिवं जायं ताहे णिग्गच्चन्तु । र्थः । पंचा०११विवा(कीरदास्यैका किविहारः कथं च तद्योग्य अवरव्याख्या। अतिशयनमतिशयः प्रत्यकं ज्ञानमवधिमनः पर्याताभवतीत्युवसंपया शदे)(एकाांकावदारस्य परिचितादिव्या यकेवलाख्यं तेन ज्ञात्वा देवता वा कथयति । नविष्यत्यशिवख्या व्यवहारकल्पे साचोवसंपया शब्दे ) एकाकिविदारे कार- मिति निमित्तमनागतार्यपरिझाइतुग्रन्थस्तस्य ग्रहणं स्वयमेव णान्योघनिर्युक्तौ। तत्र प्रथममेकाकिविहारिणः कतिविधा इत्याह करोत्याचार्यः शिप्यो वा योग्यो ग्राह्यते निमित्तं परिहाणिजाव एगेव पुव्व नपिए, कारण निकारणे मुविहलेदे । पत्तत्ति) द्वादशकेन यदा न झानं यदा एकादशकेनेत्येकैकहापक एकाकी द्विविधन्नेदः पूर्वमोघनियुक्त. भणितः । तद्यथा न्या परिहाणिरिति यावत् प्राप्तमिति तावत् स्थिताः । कथंचिकारणे निष्कारणे च । सांप्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतः कारणे द्यावत् प्राप्तमागतमशिवं तत्र किमिति निर्गमनं निर्गमः कार्यःसकप्रतिपादनार्थमाह। बैरेवेति कथं तर्हि अतिशयमाश्रित्य एकाकित्वमिति चेत्तदाह । असिवादी कारणिया, निकारणिया य वक यूजादी॥ (गिलाणपमिबंधो) खानो मन्दस्तयैव अशिवकारिण्या देव तया कृतः पूर्वनूतो वा तेन प्रतिबन्धो न निर्गमः सर्वेषां तस्य ओहावेतो ऽविहा, लिंगेन विहारेण वाहोंति। पूर्व शिवकारिण्याः स्वतपः प्रतिपादनायाह । अशिवादिनिरादिशब्दादवमौदर्या राजद्विष्टादिपरिग्रहः ।का संजयगिहि तनय, नदिया तह तदुजयस्स । रणैरेकाकिनः कागणिकाः । चक्रस्तपादौ श्रादिशब्दात्प्रतिमानिष्कमणादिपरिग्रहस्तेपांवन्दनाय गच्छन्त एकाकिनो निप्कार वियपंता चउबज्जण, नवस्मययतिपरंपराजत्तं ।।२।। णिका बिरुनोत्प्रवजितुकामा विहारेण पार्श्वस्थविहारेण विहर्तु- असिवे सदसंवत्यं, लोहं लोणं च तह य विगई य । कामा भवन्ति ज्ञातव्याःषमप्येते कारणिकाः१निष्कारणिकाः२ एयाई वाघेज्जा, चउवज्जयणयंति जं जणियं ॥२६॥ औपदेशिकाः३ अनौपदेशिकावलि ड्रेनावधाविनः ५ विहारेरणावधाविनश्च । ६। प्रायेणैते एकाकिनो विहरन्ति गच्छन्ति । संयताः साधवस्तेषां भद्रिका न गृहिणामिति प्रथमो भङ्गः। चा उपदेशिका यद्यपि नियमतः ससहायास्तथापि येन गच्चा गृहिणां भडिका न संयतानामिति द्वितीयः । तथोभयनडिकेति निर्गतास्तेन एकाकिनो नएयन्ते इतरेऽपि पश्च यद्यपि वृन्देन तृतीयः। तथोनयन्नद्रिका नोत चतुर्थः । उन्नयप्रान्ता अभडिका हिण्डन्त तथापि गच्छान्निर्गता एकाकिनःप्रोच्यन्ते । तत उक्त अशोजनेत्यर्थः । सा पुण चउप्पगारो संजयन्नाहगा उ जयवंता म । पमप्यते विहारिण एकाफिनः । व्यः द्वि०००। संजयपंता नभयभद्दिगा कहं पुण संजयन्नहिगा होजा पा गिकियन्ति पुनः तान्यशिवादीनि येवसावेकाकी भवतीत्याद। हिभाद्दिगा संजयप्पंता संजए चेव पढमं । [ गिराहत्ति ) जहा एते महातवसी य ते चेव पढमं पेलेयव्वा । एतेसु निज्जिपसु असिवे ओमोदरिए, गयनए खुभिय नत्तिमहे य ।। अवसेसा णिज्जिया चेव भवंति पत्थ जाहोउ सा होन गिग्गंफिडियगिला अइसेमि, देवया चेव आगरिए । ११।। तब्वं जाहेण जिग्गया के णश्वाघापण को वाघाओ पवं गिन शिवमशिवं देवतादि जनितो ज्वरायुएज्वः । अवमौदरिक | लाणो होज्जा साए वा तो हावियाए को संजओ गहिओ जो दुर्जिकं राझो नयं कुन्नितं कोभः संत्रास इत्यर्थः । नत्तमार्थोऽ- पंथा वा ण बहति ताहे तत्थ जयणाए अस्थिय । को जयणा नशनं फिमित इति तुष्टो मार्गात ग्लानो मन्दः अतिशेषोऽति- | माणि चत्तारि परिहारियब्वाणि विगई दसविदाविलोहं लोणं Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एग विहार अन्निधानराजेन्धः । एगह्मविहार व सदसवत्थं च जाणि य कुलाणि असिवेण गहियाणि तेसु । तादे ण सत्थो समकुसीबादीणं तेसिं बझाविमो केमिज तसि आहारादीणि ण गिएहात्त जाहे सव्वाणि विगहियाणि होज्जा देवकुमाणि नुज्जति साह यि य सिद्धपुत्ताणं तेसि असइसावताइ दिदिट्ठीपण पामिति तो मजिया गिएइंति दिट्ठी य| गाणं उणि क्खिप पच्ग सिज्झायरे अहानगेसु वा एवं बसंकमा [चनवजात्तिचतुर्णा दर्जनापरिहारः चतुर्वर्ज- निज्जर ताहे वच्चंति । यदि पुनरसौ मुच्यते न आक्रोशति ततः नादिकल्यानां चतुर्पु वर्जनीयकेत्रस्य संयतनधिकागृदिप्रान्ता किं कर्तव्यमित्याह । इत्यादिषु भङ्गकेषु [ विसउवस्सएयत्ति ] ग्लानविधिः विष्वग्ने- कूयंते अब्भवणं, समत्थ भिकरवू अणिच्छ तदिवसं । देन उपाश्रय आश्रयः कर्तव्य इत्यर्थः । “जो संतो होज। तस्स जविंदघाइजेश्रो, तिदुएगो जाव ला दुवमा ॥२॥ दूरे वितस्स नत्तंति परंपरेण दिजंति त्ति परंपराभतंति" त्र कूज अव्यक्ते शब्दे कजयत्यव्यक्तं शब्दं कुर्वाणे किं कार्यमियाणां परंपरानक्तमाहारः । तदेको गृहाति हितीयस्थानयति स्याह ( अन्नत्थणंति) समर्थः शक्कोऽज्यर्थ्यते तिष्ठ स्वं यावद्धतृतीयोऽवया ददातीत्यर्थः अवधूतमवज्ञानम् । यथावधूता यं निर्गच्छाम इति निर्गतेषु वक्तव्य श्च्चतु जवानहमपि गच्छामि नामतिसानोद्वर्तनादिविधिप्रदर्शनायाह । यदीच्छति विप्र निर्गतो वाऽसौ धर्मनिरपेक्षतया नेच्छति ततः उन्नत्तणनिवेवण, वीहं ते अणनिभोग अनीरुयं । किमित्याह । अथ तद्दिवसमनिच्छति तस्मिस्तस्य साधोर्गमनं त. अगहियकुबेसु जत्तं, गहिए दिहि परिहरिज्जा ॥२७॥ दिवसं स्थित्वा विधं सध्या न द्रष्टव्याः । तैश्च किं सह उद्धवर्तनं यदसाधु वर्तते निपनं यदसौ निपः क्रियते ।चप- निर्गन्तव्यमाहोस्विदन्येनापीत्याह (यदि विंदघातिनि) वृन्दघालकणं चैतत् तस्य सकाशे स्थातव्यम् ।दिवा रात्री वा अथ की-| तिनी ततो द्विधा दस्तथापि न तिष्ठति त्रिधा त्रयस्त्रयो द्वौ द्वौ रशेन साधुना कर्तव्यमित्याह (वीहंतोणभियोगत्ति ) अनभि- पकैको यावत्तथा ( वासंति) नान्यथेति तदर्थ भेदः । एवमादियोगः विज्यतीति भयं गच्छति नीरावित्यर्थः । न अमियोगोऽन-। वादेकाकी भवति यदि सो कुव्वति ताहे पक्को जन्म ति जो नियोगः यो भीरुः स तत्र न नियोक्तव्यः। कस्तर्हि करोतीत्याह समत्थो तुम अत्य ताहे ग्इिं नाऊण विश्यदिवसे इजासि (मभीरुयत्ति) अभीरुश्च न भीरुरभीरुस्तत्र क्रियते नियुज्यते । तस्स मज्जायाते वि सेज्जेयवा मा मम कजे तुमं करंतु च शब्दो वक्यान्तरादिप्रयत्नप्रदर्शनार्थः । अगृहीतेषु अशिवम जादे सो थि मजीणो ताहे सब्वे एगो धज्जंति जाहे तेर्सि भक्तं प्राह्यं तदनाधे राष्टिं २ संघातपरिहारः । श्राह चतुर्वर्जने- एगओ वचंताणं को विहामो होज्जा एस वंदधाति जत्थ त्युक्तं तत्र नङ्गकाः अपि गृह्यन्त इति । “जो चितुं नम्वत्तेति बहूगा तत्थ पर दितो कठसंघातो पमित्तो सो दुहा कतो वा परियते वा सो हत्थस्स अंतरे वत्थं दाऊणं ताहे उब्वत्तेश पच्चा एक्केषके दारुगं कज्ज ण जनति । एवं ते वि जे गहिया वा तव्वत्तेऊणं हत्थे महिछियाए धोवंती ओ य वीह सो त- ताहे दुहा कजं तिहा जाव तिन्नि तिनि जणा एगो पडिस्सयस्थायरिपण ण भाणियब्वो। जहा अज्जो तुमं वसाहित्ति ओध- वालो संघामतो हिंमद । अह तहवि नसूयर ताहे दो दो म्मस्स निनो साहू सो अप्पणा चेव मणति । अहं वसामि।। हुँति अह दो वि जणा ण मुयश् ताहे एक्केक्को जयति तेसि प्रतिबन्धस्थाने सति कर्तव्यान्तरप्रदर्शनायाह । उपगरणं ण वहम्मद एवं ता एकवओ दिको असिवण छक्केपुवाजिग्गहबुखी, विवगसंजाइएसु शिक्खमणं । न पुनरुपायेन एकत्वविशेषणे ज्येष्ठा नटास्सन्त एकत्र प्रदेशे ते वि य पमिबंधठिया, श्यरेसु वझारयगागं ॥ २८ ॥ संड्रियन्त इत्याह। पूर्वमित्यशिवे काले येऽभिग्रहास्तपःप्रभृतयस्तेषां वृद्धिः कार्या संगारो राइणिए, आखायणपुचपत्तपच्छा वा। चतुर्थानिग्रहः षष्ठं करोति । मृते तस्मिन् को विधिरित्याह। सोम्ममुहिकारतं, जयंतरे एक दो वि सए ॥ ३० ॥ (विवेगत्ति) विवेचन विवेकः विचिर पृथग्भावे परित्याग इति __ संगारः संकेतः पृथग्नावकाले कर्तव्यः । यथा अमुकप्रदेशे यावत् । कस्यासाविति तदुपकरणस्य अमृते तस्मिन् गमना- सर्वैः संहितव्यमित्युपायस्तं च प्रदेश प्राप्तानां को विधिरित्याह वसरे च प्राप्ते किं कर्तव्यमित्याह । ( संनाइएसुणिक्खमिण- (राणिपत्ति) वयोधिकस्य गीतार्थस्य पूर्वप्राप्ते वा लोचना, त्ति) अशेषसमानसमाचारिकेषु विमुच्य गम्यते ते तत्राशिवे तदभावे अघोरपि गीतार्थस्य दातव्या । कियत्पुनः केत्रमतिकथं स्थिता इत्याह । (ते विय पमिबंधाग्यत्ति) न तेषां ग- क्रमणीयमित्याह । (सोम्ममुहीत्यादि ) अशिवकारिएषा विमनावसरः कुतश्चित्प्रतिबन्धासदभावे किं कर्तव्यमित्याह (श्तरेसु शेषणानि सौम्यं मुखं यस्या सा । तया कथमुपजनकारिण्या त्ति) असांनोगिकेष्वित्यर्थः । तदभावे देवकुक्षिकेषु अतीव सुवक्षा सौम्यमुखीत्वे अनन्तरविषयं प्रत्युपद्रवाकरणात कृष्णमुखी कारेण तदभावे शय्यान्तरे यवा नाकामिथ्याष्टिःसोय गिला- द्वितीयविषयेऽपि न मुश्चति । रक्ताती तृतीयेऽपिन मुञ्चति यणो जश् अस्थि अन्ना वसहीतहिं विज्ज असतीए ताइ चेव वस- थासंख्यमनन्तरमेव स्थीयते । सौम्यमुखी एक ति एकमहीप एगपासे चिलिमीमीकिज्जावोरं दुहाकज्ज जेण गिला. न्तरे कृत्वा द्वितीये स्थीयते कृष्णमुख्याम् (दोशत्ति) द्वौ द्वावन्तं णो णिक्खमत्ति पविसइ वा तेण अंतेण साहू णो णिगच्चतु कृत्वा चतुर्थे स्थायन्ते रक्तादयां "ते सिंगारो दिल्लेखो भवति पमियारगविजंता व पत्तेहिं अत्यंति जाव सत्थो प सम्नति जहा अमुगन्थ मे लाई तत्य त्ति जाहे मित्रीणो भवति ताहेतताय जोगवहिं करेंति जो न पोक्कार करेतो सो पोरिसिं क- स्थ जो राशणिओ पुब्बपत्तो वापच्छापत्तो वातस्स आलोजति रोति एव वञ्चत्ति जइ पणो सो साहू योगहिरो ताहेव व- सा पुण तिविडायो धाश्यासोम्ममुही कालमुखी रत्तच्चीय जा चंति । अह कालं करोत ताहे जं तस्स न करणं तं सवं गह- सा सोम्ममुही तीसे एक्कं सवीयं गम्मकालमुडीए एगोविस जश्ते गद्दत्ता ताहे वच्चंति अह से ण चेव मुक्को ताहे अने- ओ अंतरिजरत्तच्चीप दोसविसए अंतरेऊण चनत्थेधिसइए ग सिं संजोश्याणं स कज्जपमिबंधट्रियाणं तले णिक्खिप्पति जाहे। शति असिवित्ति दारं सम्मत्तं" अशिवेन यथैकाकी भवति तथा संनोश्या ण होज्जा साहेव अम्मसंनोश्याणं जाहे तेण वि होजा व्याख्यातम् । सांप्रतम् "नमोयरियात्ति" यदुक्तं तव्याख्यानायाह Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (20) एगहविहार अभिधानराजन्छः। एगझविहार एमेन प्रोमम्मि वि नेदो, न अखंने गोणिदिट्ठते । इति ततो निमित्तात्स इति राजा प्रविष्यात् “ तं पुण रायदुई राजजयंति चउच्चा, चरिमट्टिगो होइ गशनेओ ।।३१॥ कई होज्जा केण लिंगरयेण अंतेउरे प्रवरकं होजा अहवा अधा वा वाणा वादे तस्स पंमियमाणिस्स बुनिस्सदुरप्पणो । सुरूं (एमेवत्ति) अनेनैव प्रकारेण अवमद्वारमपि व्याण्येयम् । यथा - पापण अकम्म वादी वायुरिवागतो' एवं रायपुठं भविजा । शिवद्वारव्याख्यानं यो विधिरशियहारे सोऽत्रापीत्यर्थः । चशब्दो णिग्विसए जत्तपाणपमिसेहे उवकरणहारे एत्थ गोण चेव वज्जंपहसादृश्यप्रतिपादनार्थम् । अवमे पुर्भिक्के अपिशब्दः सादृश्य ति । जत्थ जीयरित्तो संनयेन तमुच्यते “संवच्चरबारसरण होहि नवमंति तो न तत्थ पगागिओ होज्जा" | शुजितनणीति" इत्यादि । नेदनं भेद एकैकता तुशरद पवकारार्थः। कस्मि द्वारं व्याचिख्यासुराह [खुभियगालज्जेणित्ति] चुभित एकाकी न पुनरसी भवतीत्याह। अलाने जयत्यप्राप्तावाहारस्येत्यर्थः । य नवति कोन आकस्मिकसंत्रासस्तत्र [मासुज्जोणित्ति ] माला देको बभते ततो द्वावपि द्वौ वा दृष्ट्वा न किंचिद्विजहाति एकैक अहरदृस्य पतिता उज्जयिनी नगरी तत्र बहुशो मालवा श्रागएव ल नत इत्येवमाहारकैकाकिनी अत्र दृष्टान्तमाइ [गोणिदिते. त्य मानुषादीन् हरन्ति । अन्यदाच कृपे अदरदृमाया पतिता तत्र त्ति गोदृष्टान्तः यथा संहतानां गवां स्वल्पेन तृणोदकेन तृप्तिः पू. केनचिदुक्तं माझा पतिताऽन्येन सहसा प्रतिपन्नं मनवा पतिता थगनूतानांन स्यात्तयेहापीति [ओमो अारियाएवत्ति] एमेव कामो ततश्च संकोभस्तत्र किं भवतीत्याह [पनायणं जो अओ तुरियं ] वारसहि संवच्चरहिं आरकं जोहे परं ण पुवंति ताहे गणने पलायनं नाशनं यः कश्चिद्यत्र व्यवस्थितवान् स तत पव नष्ट करेति । णाणत्तं गिनाणो ण तहा परिहरिज्जति पत्थ गेोणिदि इति [मा जणित्ति ] वृतान्तसूचकं वचनं कुमिते वा एगागी इंतो कायन्वो" अल्पं गोब्राह्मणं निदिति ओमेण वि पगागियो | होजा जहा उज्जइणीए अरहमाझा पमिया लोगो सव्यो पलादिहो । साप्रतं राजभयहारप्रतिपादनायाह । [राजनयंति ] राझो तो मासा वा पमियत्ति एरिसे कभिते एगागी होजा जो जो भयं राजनयं चशब्दः एवमेवेत्यस्यानुकर्षणार्थः । “संवरवा होज्जाबो सो तो णास" अधुना यमुक्तं राजद्वारे" वायणिरजपश्त्यादि" कियन्तः पुनस्तस्य नेदा इत्याह चतुर्वा संख्यायाः | मित्तं च पमिसेजत्ति" तद्व्या चिख्यासुराह । प्रकारवचने धा चतुःप्रकारमित्यर्थः । कैः पुनस्ते इति मात्वरिष्ठाः तस्स पंमियमाणिस्स, बुधिस्स पुरप्पणो। अनन्तरमेघोच्यन्ते कि चतुर्वपि नेदो नेत्याह [चरिमत्यादि] सुषं पारण अकम्म-वादी वायुरिवागतो ॥ ३५॥ चरिमे पश्चिमे द्वये जवति जायते गणभेदो गच्छपृथग्नाव एकै आह चोदकः शोभनं स्थानं तयाख्या ननुभिततरेणान्तरितकतेत्ययः । “ रायमवि तहेव वारसहिं संवच्चरोह होति" त्वात् कोऽये प्रकार इत्यत्रोच्यते नियुक्तिप्रन्यवशाददोषः यतोऽ भेदचतुष्टयस्वरूपदर्शनायाह । त्रैव गाथया अन्तेउरे इत्यादिकया राजभयभुजितद्वारे उक्ते णिबिसनत्तिय पढमो, विश्ो मा देह जत्तपाणं तु। । ततस्तत्रानवसरत्वादिहैव युक्ता व्याख्या । तस्येति तस्य राज्ञो तओ नवगरणहरो, जीवचरित्तस्स वा जेओ॥ ३२॥ । जयहेतोः कयंभूतस्य पण्डितमानिनः परिमतमात्मानं मन्यते स सुगम नवरं जीवितभेदकरश्चतुर्थो भेदश्चारित्रभेदकारी वाच- एव मान्यो ज्ञानवदुर्विदग्धत्वात् । बुकिं मातीति बुकिलस्तस्य तुर्थोभेदोराजा उपकरणहारी जीवितचरित्रहारिणो गणभेदः कार्य पुफिलस्य पुरात्मनः मिथ्यादृष्टत्वादनत्वाच्छासनप्रत्यनीकत्वाइति । "तं चनविहं निविसउत्तिय पढमो । वीश्रो मा देहभत्त त्स तथा तस्य किमित्याह मूडानमुत्तमाङ्गं पादेनाक्रम्य वादी पाणं से तो उवगरणहारी जीवचरित्तस्स वात्रो"आह कथं वादलब्धिसंपन्नः साधुर्वायुरिवागतोऽभीष्टं स्थान प्राप्त श्त्यक पुनः साधूनां त्यक्तापराधानां राजनयं भवति "यस्य दस्ती च रार्थः । समुदायार्थस्तु स राजा परिमतमन्यतया दर्शनं निन्दति पादौ च जाह्वाग्रं च सुयन्त्रितमा इन्द्रियाणि च गुप्तानि तस्य राजा तद्वादी वा कश्चित्तत्र साधुवादितेन सभां प्रविश्य न्यायन पराकरोति किम्" सत्यमेतत्कि तर्हि॥ जितस्तथापि न साधुकारं ददाति प्रभूतत्वात्तथापि निन्दति अहिमर अणि दरिसण, बुग्गाहणया तहा आणायारो। पुनश्वासी साधुवादी विद्यादिवादनसभामध्ये शिरसि पादं अवहरण दिक्खणाए, प्राणालोए य कुप्पेज्जा ।। ३३ ।। कृत्वा दर्शनीभूतस्ततश्चासौ परपराभवमसहमानः प्रकर्षेण द्वषं यायादिति श्लोकार्थः। अंतेउरप्पवेसो, वाणिमित्तं च सो पसेज्जा । उत्तमार्थद्वारप्रतिपादनायाह । खुभित्रो मायुज्जणी, पबियणं जोजो तुरियं ॥३४॥ निब्भवगस्स मगासं, असा एगाणिन विगच्छेजा। अभिमुखमाकार्य मारयति म्रियन्ते चेत्यभिगमः। कुतश्चित्को सुत्तत्थ पुच्छगो वा, गच्छे अहवावि पमियरिओ॥३६॥ पाद्राजकुलं प्रविश्यापरं व्यापादयन्तीति साधूनां किमाघातमितिचेपुच्यते । अन्यथा प्रवेशमलभमानः कश्चित्साधुवेषण निर्यामयत्याराधयतीति निर्यामकः । आराधकस्तस्य सकाशं प्रविश्य तं कृन्तति ततश्च विकृतत्वात् स राजा साधुज्या कुप्येत् । मूलमसति द्वितीयानावे एकाक्यपि कावं कर्तुं कामोगच्छेदिति कुप्यदिति चैतत क्रिया प्रतिपदं योजनीया। अजव्यत्वादनिष्टान् सूत्रार्थः। प्रच्छको वा गच्छेदुत्तमार्थ स्थिता एकाक्यपि मा भूप्रसस्तान्मन्यमानो दर्शनं नेच्नति प्रस्यानादौ च दृष्टा इति कुप्ये द्यवच्छेदोऽथवापि प्रतिचरितुं प्रतिचरणकरणार्थम् । “उत्तिमटे त् । व्युग्राहणता विशब्दः कुन्सायामुत्प्रावल्येन केनचित्प्रत्यनी- वा सो साह उत्तिम पडिवजिनकामो आयरियसमासे य णकेन ब्युग्राढितो यथैते तवानिष्टं ध्यायन्तीति कुप्येत बोकं प्रत्य त्थि णिज्जाओ ताहे अन्नत्थ वञ्चज्जा तो संघामओवच्चो असर नाचारं समुद्देशादौ दृष्ट्वा कुप्यत् । अपहरणं कृत्वा तत्प्रतिबछो नाहणंगो एगागिनो वच्चेजा अहवा उत्तिमटुपमिवन्नो साहू दीकित इति कुप्येत्। श्राशाबोपे वा अाझा काबिलोपिता न कृता सुत्तो तस्स या वुत्तत्थ तदुभयाण य अनुवाणि उमस्स य ततश्च कुप्येत् । अन्तःपुरे प्रवेशं कृत्वा केनचिद्विवारिणा विकर्म संकियाणि अन्नस्स य णत्थि ताहे तत्थ पमिपुच्छणाणिमित्तं कृतं ततः प्रद्वेषं यावत् वादिना वा केनचित् निक्षुणा परिजूत वच्चेज्जा अवा उत्तिमपमियरएहि गम्म । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (the) अभिधानराजेन्द्रः | एगल विहार फिमिय फिमियधारं व्याचिख्यासुराह । पर मंद्राई वा विज्ञायामिलिना । सोमणं च गिक्षाणं, उसने असई एगो ३७ ॥ फिमितन्ति ते पंथेण वच्चेति तत्थ को पंथाओ उत्तिष्ठो अनेण बच्चेज्जा अढ़वा थेरो तस्स एग्गंतरा गड्डा वा मोगरो वा जे समत्था ते उज्जपण वच्चति । जो श्रसमत्थो सो परिरपणं भमामेणं वच्च ततो जाय ताणं ण मिलर ताव एगागी होजा इदानीं गाथार्थ फिमित प्रष्टः किमुकं भवति गच्छतामेव स चैषां पथिद्वयदर्शनात् संजातमाह । अन्येनैव पथा प्रयातस्तत काफी भवति (परिणति वा परिरयोगनवा एकाकी सहिष्णुः मन्दगतिर्वा कमि तितावदेकाकी भवतीति । उक्तं फिडितद्वारम् । इदानीं ग्लानद्वारमुच्यते ( सोडणं च निसानंति) गिज्ञाननिमित्तेष दगानीदोज्जा तस्स श्रसहं वा भेसढं वा सेसहं वा आणियव्वं अस संघाडगस्स ताहे पगागी होज्ज वच्चेज्जा अढ़वा गिलाणो सुसो तात यह अपायरिया घेरा तातोपासे अस्थियव्वं ताहे संघारस्त असर एगागि बच्चेज्जा श्दानीमकरगमनिका श्रुत्वाऽन्यत्र ग्लानिसंघाटे एकाकी व्रजति यदि या स्वच्छ एवमानः कश्चित्तदर्थमौषधादीनामानयनार्थ व्रजत्ये काकी द्वितीयाभावे सति । उक्तं ग्वानद्वार मथातिशयद्वारम् । सेसिन वासेहं, असई एगाणि नवगच्छेज्जा । देवकलियोडवणा-पारण खीररुद्दिश्च ॥ कोई अतिसयसंपन्नो सो जाणइ जहा एयस्स सेहस्स सहणिज्जगा आयगा ताहे सो नए एयं सेहं अवणे जर अवणेह ताई एसा ण करे पवज्जं ततो सो असर संघामस्स गाणि उवि व वितिदानीमकराचेः । अतिशय वा कश्चिद भिनवप्रव्रजितं द्वितीयेऽसति एकाकिनमपि प्रवर्त्तयेत् । उक्तमतिशयद्वारम् । इदानीं देवताकारम् ( देवक विगत्ति ) इह कलिगेसु जणवपसु कंचनपुरं तत्थायरिया बहुस्सुया बह्नागमा बहुमिस्सपरिवारा ते अन्नया सिस्साणं सुचत्थे दाऊणं सन्नाभूमिं वति । तस्य गच्छंतस्स पंथे महश्महालयो रक्खो तस्स य हेठा देवया महिलारूपं विनवित्ता कमुणकलुणाणि रोहय सा तेण दिठा एवं विश्यदिवसे वि तओ आयरिस्त संका जाया । अहो किस मा एवं रोवशन्ति ताहे उब्यतेऊण पुच्छिया किं पु· ण धम्मसीले रुवसि । सो प्रण‍ किं मम थोवं रोश्यव्वं आयरि यओ भइ कि कई वा सा प्रणश् । अहमेयस्स कंचनपुरस्स देवया एयं च अइरा सव्धं महाजलप्पवाहेण पलाविज्जादि ति तेरा रुयामिति । एते य साहुणो पत्थ सभमयंति ते य अन्नत्थ ग मिस्संति सि । अतो रुवामि आयरिपरि भणियं कहं पुण एयं पि जाणिज्जति । सा नणइ जम्रो तुम्नं खमओ पारणए डुकं बभिस्सइ तं से रुहिरं भविस्सतिति । जइ एवं होजा तो पतिपज्जह संघेण सच्चखाणं पते धो धो दिया अथ देसे तं सजायं जाहि तत्थ ण जलप्पवाहो पनविस्सतित्ति सुणिज्जड् तो पति भारिप पविचं । ताहे चितियसेि तदेव तड़ा य संजातं ततो आयरिपहि सव्वेसि मत्त पत्तेयं तं दिनं ततो जहासत्तीए पलायंति जत्थ तं पमलं जायं तत्थ मिलिया एवं पगागी होज्जा । उक्तं देवताकारम् । अथाचार्यद्वारम् ॥ चारमा संदिहो, उग्गहे उप मच गंठी । यह एक संग्गो परिच्छया मन सगणं ॥ ३० ॥ , एगलविहार चरिमा चतुर्थी पौरुषी तस्यां संदिष्टा उक्ता यदुत त्वयाऽमुकत्र गन्तव्यं सचानिग्रहिकः साधुः ततश्चासादेवमाचार्यणोकः किं करोति सकलमुपकरणं पत्रक पटलादिवोद्राहयति मात्रकं च तेन गच्छता ग्राह्यमतस्तस्मिन्ग्रन्थि ददाति मा भूयः प्रत्युपेकणीयं स्यात् एवमसावानिग्राहिकः संयमे तिष्ठतीति ( इद रंति ) श्राभिग्रहिकानावेऽपि कालवेलायां न गमनप्रयोजनमापतितं ततः कृतोत्सर्गः कृतावश्यकः किं करोतीत्याह । परीकार्थमिति पश्यामः को वा पथि गमनान्तरं प्रवर्तते को वा न प्रवर्तते इति स्वगणमात्रमते ते च प्रतिक्रमणानन्तरं तत्रैवान्नमुं हूर्तमानकालमासते कदाचिदाचार्यः खल्वपूर्वी सामाचारी प्ररूपयेयुरपूर्वपदं तत्रस्थान तानामन्त्रयतेऽसौ भो भिवो मुख्यं मे गमनकार्यमुपस्थितम गच्छेज्जाकाणुसच्चे, अम्मो काराणि दीपिंता गोए समत्यो अग्गहोज्जयकिकम् ||४०|| कतमस्साधुस्तत्र गमन कमस्तत्र श्राचार्ययाश्रवणानन्तरं सasa साधव एवं ब्रुवन्ति अहं गच्छाम्यहं गच्छामीति । अनुग्रहो यं स्तोकं चाय वैष्णवृत्त्यकरयोगवादा पयित्वा स्वयं प्रदर्श्य इदं भणत्यमुको न कार्ये समर्थः क्षमः । ततश्च योऽसावाचार्येणोकोऽयं कम इति स प्रणत्यनुग्रदो मेऽयं ततः को विधिस्ततः संजिगमिषुः साराचार्यस्य या करोति । यदि पर्यायेण लघुस्ततः शेषाणामपि चैत्यसाधूनां वदिनां करोति । अथासौ गन्तुमनाः साधूनां रत्नाधिकस्ततस्ते खावस्तस्य चैत्यसाधुन्द भयकृतिकर्मन्द ततः सङ्गतस्साधुः किं करोति जिगमिषुः सन् ॥ पोरिसिकरणं हवा करणं दोघं पुंत्रणे दोसा । सरणगुसासनी, अंतोहि अनंतनाणं ॥ ४१ ॥ air सूर्योमे यास्यति ततः प्रादोषिकां तत्र पौरुषी करोति । अथवा रात्रिशेषे यास्यति प्रयोजनवशान्ततस्तत्र पौरुषीमहत्येविति । एतत्पौपकरणमकरणं देती। पुनरपि म गच्छताssचार्यः पृच्छनीयः । प्रत्यूषसि यास्याम्यहमिति । अथ दो वा दोसति) द्वितीयारम पृच्छतः दोषा 可 वयमाणाः के च तेत्याह (समर) स्मरणमावास्येव सं जातमेवंविधमन्यथा व्यवस्थितं कार्यमन्यथा कदाचित् संदिष्टम 1, (सुतति) तमाचार्यैते जनविद्यते पक्षिमि वासौ प्रेष्यते तद्वा कार्यमन्यथा तव नास्ति ( साधुति) अथवा विकाले साधुः कस्मिंश्चित्तस्मात्स्थानादागतस्तेन कथितं यथा स आचार्यस्तत्र नास्तीति ( सन्नित्ति ) अथवा संझी श्रावक श्रायातः तेनाख्यातम् ( अंतोति ) अभ्यन्तरतः कस्य प्रतिश्रयस्य केनचिदुलपितं यथाऽस्माकमप्येवंविधाः साधवः आसन् ते च ततो गता मृतावा ( बढिप्ति ) बाह्यतः प्रतिश्रयस्य श्रुतमन्यस्मै कथमानं केनचित् [अन्ननावेणंति] योऽसौ गन्ता सोडन्यभायमनुकाम तथा चाय तत्संधार धियते केचिद्याजेन यदि पुनरसौ गन्ता न प्रबोधयन्यतः ॥ बोहणप्रपमिके, गुरुणपणा अपभियुके । निच्चा निसन्ना, दहुं चिट्टेव्वनं पुच्छे ॥ ४२ ॥ अचेतयनि सति तस्मिन् गन्तरि बोधनं गतार्थः करोति ततः साघुरन्यायाचार्यस्य समीपं गत्वा च यथायाय विस तोऽसौ गुरुवन्दनं करोति । श्रथाद्यापि स्वपिति ततः पाद शिरसायनाचनं कियते । अथासौ प्रति एव घटना Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगलविहार अभिधानराजेन्धः । एगझविहार किंतु निश्चः निष्प्रकम्प उपविष्टो ध्यायी चास्ते ततस्तमेवंभूतं | योग्यो भवति । ( एगल्लत्ति ) एकाकिनो विहारो प्रामादिचर्या निश्चवनिष्पन्नभ्यायितं दृष्ट्वा किं कर्तव्यमित्याह (चित्ति) स एव प्रतिमाऽनिग्रहः एकाकिविहारप्रतिमा जिनकल्पप्रतिमा स्थातव्यं तेन गुरुब्याघातेन महाहानिनवात् यथा चलोऽसौ मासिक्यादिका वा भिकुप्रतिमा तामुपसंपद्याश्रित्य णमित्यलंततः पृष्टव्यो भगवन् स एषोऽहं गमिष्यामीति ततश्चासावाचार्यण कारे विहाँ ग्रामादिषु चारतुं तद्यथा (सवित्ति) का तत्वेषु संदिष्ट इदमेवं त्वया कर्तव्यमिति व्रज स चेदानीं गन्तुं प्रवृत्तः श्रकानमास्तिफ्यमित्यर्थोऽनुष्ठानेषु वा निजोजिलापस्तद्वत्सकलइत्येतदेवाह नाकिनायकैरप्यचयनीयसम्यक्त्वचारित्रमित्वर्थः। पुरुषजातं पुरुअप्या हि अणुन्नाओ, ससहाउणीति जा पनायं तु ।। षप्रकार:१तथा सत्यं सत्यवादी प्रतिज्ञाशूरत्वात्सद्ज्यो हितत्वाद्वा उपयोगं आसन्ने, करे गामस्म सा वय जयए ॥ १३ ॥ सत्यम् २ तथा मेधा श्रुतग्रहणशक्तिस्तद्वन्मेधावी अथवा संदिष्टः प्राक् पश्चादनुज्ञातो गच्छेति कथं ससहायः कियन्तं (मेहावति ) । मेधावी मर्यादावृत्तिः ३ तथा मेधावित्वाद्वहु कालं यावत् ससहायो व्रजति तावत्पन्नातं जातं सूर्योदय इत्यर्थः। प्रचुरं श्रुतमागमः सूत्रतोऽयंतश्च यस्य तदहुश्रुतं तश्चोत्कृष्टतोऽ. ससहायश्च प्रजातं यावत् बजति स्वापदादिन्नयात् एवमसी संपूर्णदशपूर्वधरं जघन्यतो नवमस्य तृतीयवस्तुवेदीति । तथा साधुर्वजन ग्रामसमीपं प्राप्तः सन् किं करोतीत्याह । उपयोग शक्तिमत्समर्थ पञ्चविधकृततुलनमित्यर्थस्तथाहि "तवेण सत्तेण करोति विषयमुनयविषयं मृत्रपुरीषपरित्याग श्त्यथः।कस्मादेव सुत्तण, एगत्तेण वश्त्रेण यातुलणापंचहा वुत्ता.जिणकर्ष पमिचेत् ग्रामसंनिधान एव स्थण्डिलसद्भावात् गधादिसंस्थानात् । वजओत्ति"५ अल्पाधिकरणं निष्कबहा६ धृतिमच्चित्तस्वास्थ्यअथ रात्री गच्चतः कश्चिदपायः संभाव्यते ततः प्रभातं यावत् युक्तमरतिरत्यनुलोमप्रतिलोमोपसर्गसहमित्यर्थः ७ वीर्यमुत्सास्थातव्यम् । तथाचाह । हातिरेकस्तेन सम्पन्नमिति । इहाद्यानामेव चतुर्णा पदानां प्रत्ये कमन्तेपुरुषजातशब्दो दृश्यते ततोन्तपादानामप्ययं सम्बन्धनीय हिमतेणसावयनया, दारा पिहिया पहं अजाणतो। इति । अयं चैवविधोऽनगारः सर्वप्राणिनां रकणक्षमो भवतीअत्यइ जाव पभायं, वासियभत्तं च से वसभा ।।४।। ति । स्था० ग हिमं शीतं स्तेनाश्चौराः स्वापदानि सिंहादीनि पतद्भयात् (मूत्रम्)जे जिवाबू गणाओ अवकम्म एकद्धविहारपमिमं उवप्रभातं यावदास्ते यदि पुरस्य द्वाराणि पिहितानि ग्रामस्य फलि- संपज्जित्ताणं विहरित्तए से य इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव हकः पन्थानं वा अजानन् तिष्ठति यावत् प्रभातमिति । एवं च गणं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए पुणो आलोएज्जा पुणो प्रभातं यावत् स्थिते गन्तरि वासिकभक्तं दोषान्नं (से) तस्य वृषभा गीतार्था आनयन्ति । अथ केज्यस्तदानीयते । पमिकमज्जा पुणो आयपरिहारस्स उवट्ठावेज्ना । ३६ । एवं वणकुलसंखमीए, अणहिंमते सिणेहपयवज । गणावच्छेइए । २७ । एवं आयरियउवमाए ॥२०॥ जत्तट्ठियस्स गमणं, अपरिणपगानये वह ॥४५॥ जिक्खू य गगातो अबक्कम्म इत्यादि । अथास्य सूत्रस्य पूर्वसूत्रेस्थापना कुले ज्यस्तथा ( संखमी एत्ति ) सामायिकी नाषा | ण सह कः संबन्धः । तत आह। भोजनप्रकरणार्थे नस्य वा के पुनस्तदानयन्त्यत आह (अपहि निग्गमाणं तु अहिकयं, अणुवत्तनिवा हाधिकारायो । मंतोत्ति) ये भिक्कां पर्यटितवन्तः कस्मात्पुनस्ते भक्तमानयन्ति तं पुण वितिसगमणं, इमं तु सुत्तं नजयहा वि ।। उच्यते तेषामहिएडकानां गृहस्था गौरवेण प्रयच्छन्ति। कीदृशं __ अनन्तरसूत्रे पारिहारिकनिर्गमनमधिकृतमुक्तमिहापि तदेव निपुनस्तै क्तमानयनीयम् (सिणेहपयवजंति ) मेहेन घृतादिना र्गमनमुच्यते । अथवा अनन्तरसुत्रे तपसोऽधिकारोऽनुवर्तते । पयप्ता कीरण वर्जितं भक्तं गृहन्ति न तैयं ग्राह्यम् अमङ्गल- इहापि स एव तपोऽधिकारः । तत्पुनरनन्तरसूत्र निर्गमनमभिहिस्यात्, न घृतं परितापहेतुत्वात् । न उग्धं भेदकृत्त्वात् काञ्जिक- तवत् । वितीर्ममनुज्ञातवत् इदं सूत्रं निर्गमनमुनयथापि पितीविरोधत्वात् काश्चिकं प्रायोपायित्वाञ्च । संयतानां कि पुनस्ते समविती चनापते । अनेन संबन्धेनायातस्यास्य सूत्रस्य व्यागृहन्ति दधिशक्तकादि तदसौ तुक्त्वा ब्रजति । तथा चाह ख्या । निकुः प्रागुक्तशब्दार्थः। चः पुनरर्थाद्वाक्यनेदे सच वाक्य(मत्तध्यिस्स गमणंति) नुक्तवतस्ततो गमनं नवति अथ नेद: सुप्रतीतः पूर्वसूत्रवाक्याद्वितीसंगमनाभिधायिमोऽस्य सूत्रन तस्य भतं परिजातमित्यतोऽपरिणते नुक्ते सति स गव्य- वाक्यस्य वितीर्मगमनानिधायितया कथंचिद्भिन्नत्वात् । गणात तमा यावन्मार्ग वहति कोशद्वयं च गम्यूतमिति । अोघ.। गच्छादवक्रम्यविनिर्गत्य एकाकिविहारप्रतिमां एकाकिविहार (एगागिशब्दे पकाकित्वकारणानि तत्र दोषाश्च द्रष्टव्याः) योग्यां मासिक्यादिकां प्रतिमामुपसंपद्य विहरेत । स च गणस्य एगदविहारपमिमा- एकाकिविहारप्रतिमा-स्त्री० एकाकिनो स्मरति । संनाव्यते चैतत् तथा हि यः सूत्रार्थतदुभयैरव्यक्तोविहारो प्रामादिच- स एव प्रतिमाऽभिग्रहः एकाकिवि- यश्चाविधिना प्रतिमां च प्रतिपद्यते स मा जङ्गमुपैतु ति । ततः हारप्रतिमा। जिनकल्पप्रातमायाम, मासिक्यादिकायां भिकप्र. स गणं स्मरन् श्च्चत् । द्वितीयमपि वारम् । एक बार पूर्वमपि तिमायां च । अभिश्च स्थानः सम्पन्नोऽनगारोऽहत्येकाकि- प्रव्रज्याप्रतिपत्तिकालगणमाश्रितवान् इदानी द्वितीयं वारमतः विहारप्रतिमाम । तथा चाह। उक्तं हितीयमपि वारं तमेवात्मीयं पूर्वमुक्तगुणवतमुपसंपद्य अट्ठहिं गणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहर एगश्वविहार- पुनस्तमेकाकिविहारप्रतिमाभङ्गमालोचयेत् । गुरुसमीपे आलोपमिमं नवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए तं जहा सहीपुरिसजाए च्य पुनः पुनरकरणतया तस्मात्स्थानात्प्रतिक्रम्य च यदापन्नं प्रायश्चित्तं छेदं परिहारंवा तस्य वेदस्य परिहारस्य वा करणाय सच्चे पुरिसजाए मेहावी पुरिसजाए बहुस्सुए पुरिमजाए पुनरुपतिष्ठेत इह प्रतिमाप्रतिपन्नन यंत्रवाकृत्यं समासेवितं तत्रैसत्तिमं अपाहिगरणे विमं वीरियमंपन्ने । वाह । दुमकृतं मयेत्यादि चिन्तनतस्तदालोचितं प्रतिक्रान्त । अयाभिः स्यानैर्गुणविशेषैः सम्पन्नो युक्तोऽनगारः साधुरर्हति गुरुसमक्षं तु द्वितीयवारमिति पुनःशब्दोपपत्तिरेषसूत्रसंकेपार्थः Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) एगल्लविहारपडिमा अनिधानराजेन्छः। एगटविहारपडिमा विस्तरार्थ भाष्यकृदाह। मारियममारिएहिं, ता तीरावेति छावएहिं तु । संयरमाणस्स विही, आयारदसामु पस्मितो पुचि । वणमहिसहत्थिवग्याण, पच्चलो जाव सो जातो ॥ सो चेव य होइ विही, तस्स विजासा इमा होति ॥ वनमहिषादीनां शावकारितैरभारितैर्वा तावन्तमात्मीयशावं संस्तरन् नाम उच्यते यः सूत्रोक्तविधिना प्रतिमाप्रतिपत्ति- तीरयति समर्थीकरोति यावत्तेषां वनमहिषहस्तिव्याघ्राणां योग्यतामुपागतः मासिक्यादीनां च प्रतिमानां मध्ये या प्रति- स्वयमेव व्यापादने प्रत्यलं समर्थो जातो भवति । कृता सिंहमां प्रतिपत्रस्तां सम्यक्परिपालयितुं क्षमस्तस्य संस्तरतो विधिः दृष्टान्तनावना ॥ समाचारी। प्राचारप्रधाना दशा आचारदशास्तासु दशावतस्क- सांप्रतमनयोरेव निदर्शनयोरुपमानार्थमिदमाह ॥ न्धेवित्यर्थः । भिक्षुप्रतिमाभ्ययने पूर्व धर्मितः स एव शहापि अकयपरिकम्ममसहं, सुविहा सिक्खा अकोवियमवत्तं । अस्मिन्नप्यधिकृतसूत्रव्याख्याप्रस्तावे परिपूर्भो भवति ज्ञातव्यः पमिवक्खण जबमियो, समणिगसीहादिगवेहिं॥ तस्य प्रस्तावायातत्वात् । तथाहि एकाकिविहारप्रतिमामुपसंपद्य बिहरेदित्युक्तं ततः साक्षादुपात्ता एकाक्किविहारिप्रतिमति न कृतानि परिकर्माणि वक्ष्यमाणानि येन स तथा तमकृतपभवति । तद्विधिप्ररूपणावसरः। केवलं सकभिक्षुप्रतिमाध्यय रिकर्माणमकृतपरिकर्मत्वादेवासहर्मकाकिविहारप्रतिमा प्रतिपनं प्रतिपाद्य इति तत एवावधारणीयः । शह पुनस्तस्यैका किवि तुमसमर्थम् । तथा द्विविधायां शिक्षायां ग्रहणासेवनरूपायामहारिप्रतिमाविधिार्वभाषा कर्तव्यः । यथा ईशस्य एकाकिधि कोविदमननिझम् । तथाश्रुतेन वयसा वा प्राप्तयोग्यताक (पमिहारि प्रतिमाप्रतिपत्तिः कल्पते अनेन च प्रकारेण प्रतिपद्यते । वक्षणति) ये ये प्राकू शकुनिपोतसिंहशावकानां संजातपक्कईशश्च एकाकिविहारिप्रतिमाया अयोग्य इति । सा इयं वदय त्वादयो गुणा उक्तास्तेषां प्रतिपक्केण प्रातिकुल्येनासंजातपक्षत्वामाणा भवति । तामेवाभिधित्सुराह । दिना विशिष्टाः शकुनिसिंहादिशावका आदिशब्दात् व्याघ्रादिपघरसउणिसीहपब्बइय-सिक्खपरिकम्पकरण दो जोहा । रिग्रहस्तैरुपमितस्तथाहि यथा शकुनिपोतोऽसंजातपक्को यथा वासाद्विनिर्गत्य स्वच्छन्दमापरिचमति ततः स काकढङ्कादियो करणेलगच्चखमदुग, गच्छाएमा ततो नीती॥ विनाशमाविशति । सिंहपोतकोऽपि यदि कीराहारो गुहातो परिकर्मकरणे द्वौ दृष्टान्तौ तद्यथा गृहेऽवस्थितःशकुनिर्गुहश विनिर्गत्य वने स्वेच्छया विरहति ततः सोऽपि वनमहिषव्याकुनिस्तथा सिंहश्व वने व्यवस्थित ति गम्यते तथा (पवश्यसि घ्रादिभिरुपहन्यते । एवं साघुरप्यकृतपरिकर्मा द्विविधशिक्षायाक्वत्ति) प्रवजनं प्रवजितं प्रव्रज्या इत्यर्थः । शिक्का ग्रहणासेवन मकोविदः श्रुतेन वयसाऽप्राप्तयोम्यताको यदिगच्छादेकाकिविरूपं शिकाद्विकं पते वे द्वारे वक्तव्ये एतच्च शेषद्वाराणामर्थग्रह- हारप्रतिमाप्रतिपत्तये विनिर्गच्छति ततः स नियमादात्मविराणादीनामुपलक्षणमतस्तान्यपि वक्तव्यानि | ततः परिकर्मकरणं | धनां संयमविराधनां च प्राप्नोतीति। तदेवं "घरसणिसीहत्ति" वक्तव्यं तदनन्तरं परिकर्मिमतः परीक्षायां द्वौ योधौ दृष्टान्तत्वेनो व्याण्यातम् । संप्रति प्रवजितशिक्षादीनि द्वाराणि वक्तव्यानि । पन्यसनीयौ । ततः स्थिरीकरणनिमित्तं तस्योपसर्गव्यावर्णना तत्संग्राहिका चेयं गाथा । या सूत्रार्थकरणव्यवस्थितैमकावरूपं कपकद्विकज्ञातं वक्तव्यम्। पवजा सिक्खावय-सत्थग्गहणं व अणियतो वासे । तत एवं कृतपरिकासन् गच्छारामात सर्वतुकपुष्पफझोपगमारामरूपात् गच्छाद्विनिर्गच्छति । एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः। निप्पत्तियवीहारो, सामायारी रिती चेव ॥ सांप्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतो गृहकुशनिदृष्टान्तं जावयति॥ अस्या व्याख्यानं कल्पे सविस्तरमुक्तमत्र तु वेशतोऽर्थमात्रम भिधीयते । प्रथमतस्तावत्प्रवज्या भवति । सा च विविधा धवासगगयं तु पोसति, चंचपूरेहि समणिया सावं । र्मश्रवणतोऽभिसमागमतश्च तत्र या प्राचार्यादिन्यो धर्मदेशवारेइ य नटुंतं, जाव समत्थं न जायं तु ॥ नामाकर्य संसाराद्विरज्य प्रतिपद्यते सा धर्मश्रवणतः या पुनशकुनिका पक्किणी आत्मीयं शावं ( वासगगयंति) प्राकृतत्वा- र्जातिस्मरणादिना सा अभिसमागमतः। प्रवजितस्य च शिक्कापदाद्याकारस्य लोपः आवासो नीममाधास पवाघासकस्तझतं तु- द जवति । शिक्का च ध्धिा ग्रहणशिक्का आसेवनाशिता च । रेवकारार्थः। आवासकगतमेव शावं चञ्चपुरैश्चञ्चनरणैः पुष्णा- तत्र ग्रहणशिक्का सूत्रावगाहनम् आसेवनाशिका सामचार्यति पुष्टीकरोति । यदि कथमप्यसंजातपकोऽपिवानचापलेनावा ज्यसनं शिक्कापदनन्तरं चार्थग्रहणकरणंतदनन्तरं चानियतो साहिर्जिगमिषुरुङ्गीयते ततस्तमुडीयमानं वारयति प्रतिषेधय- वासो नानादेशपरिभ्रमणं कर्त्तव्यं गतमन्तरेण नानादेशीयशति । सा चैवं तावत्करोति यावत्समर्थो न जायते । गाथायां तु ब्दाकौशलेन नानादेशीयन्नाषात्मकस्य सूत्रस्य परिस्फुटपूरणाथनपुंसकनिर्देशः प्राकृतत्वात् । समर्थस्तु जातःसन्न प्रतिषिभ्यते । निर्णयकारित्वानुपपत्तः । तदनन्तरं वाचनाप्रदानादिना गच्चस्य ततो निरुपद्रवं स्वेच्छया विहरति । भावितः शकुनिदृष्टान्तः ॥ निष्पत्तिनिष्पादनं कर्तव्यम् । तदनन्तरं विहारोज्ज्युद्यतो विड़ासंप्रति सिंहदृष्टान्त भावयति ॥ रो जिनकल्पादिप्रतिपत्तिलकणः करणीयः । तस्य न विहारस्य एमेव वणे सीही, सा रक्ख गवपोयगं गहणे।। या सामाचारी सा धक्तव्या । तथा स्थितिर्जिनकल्पादीनां केत्रे खीरमिनपिसियचब्विय, जा खायइ अस्थियाई पि ॥ काबादिकारेषु चिन्तनीया। तत्र प्रव्रज्या,शिका,पदमर्थग्रहण-मनिएवमेव शकुनिकागतेनैव प्रकारेण वने किं विशिष्टे इत्याह गह यतो धासः, निष्पत्ति-विहारः, सामाचारीति सप्त धाराणि प्रने अतिशयेन गुपिले स्थिता सती सिंही शावपोतकं शाव एवा तिमायामुपयोगीनि । तत्रापि प्रव्रज्या शिक्कापदमर्थग्रहणं घेति । तिमघुत्वात् पोतः पोतकः शावपोतकस्तं रक्कयति । व्याघ्रादि श्रीणि द्वाराणि प्रतिमांप्रतिपसुकामस्य नियमतो प्रवन्ति शेषाणां ज्यस्तथा कारेण स्तन्येन. मृऽचर्वितपिशितेन व तावदात्मीयं मजना तथा चाह। शावपोतकं पुष्णाति यावदस्थीन्यपि खादति ।। पवज्जासिक्खावय-मत्थग्गहणं च सेसए भयणा । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) एगल्लविहारपडिमा अभिधानराजेन्द्रः । एगटविहारपडिमा सामायारिविसेसे, नवरं वुत्तो उ पडिमाए ॥ हाणी न होई जश्या कि, होज बम्मास उबसम्गो ॥ प्रवज्या प्रवजनंशिक्कापदमर्थग्रहणमानियतोवासाशिवाद्विकमर्थ | तत्र यदुक्तं चतुर्थादिषु तावदच्यासं करोति यावन्न क्याम्यग्रहणमर्थपरिज्ञानमित्येतत् त्रयं प्रतिपित्सोर्नियमेन भवति शैषिके। ति तत्र गिरिनदीसिंहदृष्टान्तः । तथाहि यथा सिंहो गिरिनअनियतवासिनिप्पत्तिलकणद्वारहिके भजना विकल्पना य श्रा- दीं तरन् परतटे चिहं करोति यथा अमुकप्रदेशे वृक्काधुपलकिचार्यपदाई स्तस्य नियमादिदं द्वारध्यमास्ति शेषस्य तु नास्ती-1 ते मया गन्तव्यमिति संचरन् तीक्ष्णेनोदकवेगेनापव्हियते । ततः त्यर्थः । विहारः पुनः प्रतिमाप्रतिपत्तिबकणोऽस्त्येव सामाचार्या | प्रत्यावृत्त्योत्तरति । एवं प्रमाणतस्तावत्तरणं करोति यावदभअपि जिनकल्पिकसामाचारीतो विशेषोऽस्ति नवरं सामाचारी-1 म्नः सन् सकलामपि गिरिनदी शीघ्रं तरति । एवं साधुरपि यदि विशेषः प्रतिमायां प्रतिमागतो दशाश्रतस्कन्धे भिक्षुप्रतिमामध्ये | चतुर्थ षष्ठमष्टमादि वा त्रीन वारान् कृत्वा क्लमं याति ततश्चयोऽन्य उक्त प्रतिपादित तिस न पुनरुच्यते । संप्रति परिकर्म, तुर्थादिकं प्रत्येकं तावदन्यस्यति यावन क्लाम्यतीति । तथा करणं वक्तव्यम् । तत्र पर आइ ननु तत्परिकर्म किं गच्च एव चनामेव सिंहदृष्टान्तयोजनामाह । स्थितः करोति नत गच्गद्विनिर्गत्यति । सरिराह। जह सीहो तह साहू, गिरिनदिसीहो तवोधणो साह । गणहरगुणेहिं जुत्तो, जति अन्नो गणहरो गणे अस्थि ।। वेयावञ्चकिरतो, अनित्ररोमो य आवासे ।। निम्गति गणातो इहरा, कुणति गणे चेव परिकम् ॥ यथा सामान्येन गुहायां वर्तमानः सिंहस्तथा गच्छे वर्तमानः यदि नाम गणे गच्छे अन्योऽन्यगणधरः गणधरपदाई इत्यर्थः ।। साधुर्यथा च गिरिनदीमुत्तरन् अज्यासकरणे प्रवृत्तः सिंहगणधरगुणयुक्तो विद्यते न च प्रयोजनेनान्यत्र गतस्ततस्तं गणे स्तथा तपोधनः तपःकरणान्यास प्रवृत्तः साधुः। एवं चतुर्थष ष्ठाष्टमादि तपः कुर्वन् स आत्मवैयावृत्त्यकरो ज्ञातव्यः। कस्मादिस्थापयित्वा गणाहिनिर्गच्छति विनिर्गत्य च परिकर्म करोति । ति चेषुच्यते । यस्मात्स तपसा पूर्वसंचितं कर्ममलं शोधयइतरथा तथाषिधान्यगणधरयुक्तगणधरस्वाहानावे गण एव मात्मन एवोपकारे वर्तते । ततः स आत्मवैयावृत्त्यफरः एवमास्थितः सन्परिकर्म करोति अत्र पर प्राह । ननु तेन पूर्व त्मनो वैयावृत्त्ये अक्वान्तः सन् (आवासेत्ति) अवश्यकरणीयेषु द्विधां शिकां शिकमाणेनात्मा भावित एव ततः किमिदानीं भा योगेषु न भिन्नरामा नवति । गतं तपोभावनाद्वारम् । वनानिः परिकर्मणयेत्यत आह । अधुना सत्वभावनाद्वारमाह।। जा विहु दुविहा सिक्खा, आपल्ला होति गच्छवासाम्म। पढमा उबस्सयम्मि, विश्या बाहिं तइया चउक्कम्मि। तहवि य एगविहारे, जा जोग्गा तीए भावेति ॥ सुष्मघरम्मि चउत्थी, पंचमिया तह मसाएम्मि ।। यद्यपि द्विविधा शिक्का आद्यसत्रग्रहणसामाचार्यासेवनलकणा प्रथमा सत्वनावमा उपाश्रये कथमिति चेत् उपाश्रस्यान्तर्निप्रवति गच्चगवासे तथापि गच्छावासे योग्यतातः एकाकिविहा. शि प्रतिमया प्रतिदिवसमवतिष्ठते स च तथावतिष्ठमानो मूरेयायोग्या शिक्का तद्योग्यसामाचार्यच्यासरूपा तया स आत्मानं षिकमार्जारादिस्पर्शनदर्शनादिभयं तावद् अयति यावत्तत्स्पर्शजावयति तद्भतसामाचार्यज्यासश्च पञ्चनिर्भावनानिवति । नादिभावे रोमोद्भदमात्रकरमपि जयं नोपजायते । उक्तंच "ग्छततस्तानिर्विशेषतः आत्मानं परिकर्मयति । स्स ब खश्यस्स ब, मूसियमादीहि वा निसिचरोहैं । जहन चितवेण सत्तेण सुत्तण, एगत्तेण कोण य । जायइ रोमु-गमो वि तह चेव वामोवा” द्वितीया सत्वनावना तुझणा पंचहा वुत्ता, पझिम पविजत्तो ॥ उपाश्रयस्य बहिरुपच्चन्ने तत्र हि प्रतिमा प्रतिपन्नस्य बहुतरं प्रतिमा प्रतिपद्यमानस्य प्रपितत्तुकामस्य तुलना परिकर्मणा। मार्जारादिनयं सजवीत । ततस्तज्जयाथै द्वितीया। नवसत्वनाथपश्चधा पञ्चप्रकारा प्रोक्ता तद्यथा तपसा सत्वेन सूत्रेण एकत्वेन ना तृतीया सत्वभावना चतुष्के तत्रातिप्रभूततरं त्रिविधं तस्कराबलेन च । तत्र तपोनावनाप्रतिपादनार्थमाह। रक्षिकस्वापदादिज्यो भयम्। चतुर्थी शून्यगृहे, पञ्चमीका स्मशाचननत्तेण न जतते, छठेहिं अट्ठमेहिं दसमहिं। ने।तत्रहियथोत्तरंसविशेषा सविशषतरा त्रिविधा बाधा उक्तंच बारसचउदसमेहि य, धीरो धीमं तुलेअप्पा ।। 'सविसेसतरा बाहिं, तकरारक्खिसावयादीया ।सुम्मघरमसा णेसु य, सविसेसतराजवे तिविहा' एतान्निः पञ्चभिरपि सत्वभाप्रथमतचतुर्थेन यतते । किमुक्तं भवति । प्रथमतो नियमेन श्रीन वनाभिस्तावदात्मानं भावयति यावदिवा रात्री वा देवैरपि बारान् चतुर्थ करोति तत्र यदि त्रिरपि कृते चतुर्थे क्लाम्यात ततस्तावदन्यस्यति चतुर्थे यावश्चतुर्थ कुर्वन् मनागपि न क्या भीमरूपैर्न चालयितुं शक्यते । उक्तं च " देवेहि सिया अवि दिया वा रातो वा भीमरुवेहितो सत्तभावणाए वहति पर निम्यमुपयाति । एवं चतुर्थेन यतित्वा त्रीन्वारान्षष्ठं करोति तत्रा ज्झतो संगलं" । गता सत्वभावना। वि यदि वारत्रयं कृते षष्ठे क्लाममुपैति ततश्चतुर्थधत षष्ठेश्यन्यासं तावत्करोति यावत्तस्यापि करणे म्मानिनॊपपद्यते एवं संप्रति सूत्रतावनामाह । षष्ठरात्मानं नावयित्वा अष्टमैर्भावयति । तदनन्तरं दशमैस्ततो उकवितोवकवियाई, सुत्ताई करेइ सोयव्वाई। द्वादशैरुपलक्वणमेतत् ततोऽनेन प्रकारेण षोमशादिभिश्च धीरो भुत्तट्ठपोरिमीतो, दिणे य काले अहोरत्ते ।। धृतिमान् आत्मानं तुलयति परिकर्मयति स च तावन्नयति । सोऽधिकृतप्रतिमाप्रतिपत्तिनिमित्तं परिकर्मकारी साधुः सयावत्वमासान् सोपसर्गेऽपि न खुधाहानिमुपगच्चति उतच । र्वाण्यापसूत्राणि उत्कक्तिोऽपकवितानि करोति। किमुक्तं भवति जाब णन्नत्थो पोरिसि-माई तवो न तं तिगुणं । नपरितनादारभ्योत्करेणाधोऽवतरतिमूलाद्वासमारज्यक्रमणो पर्यपर्यवमाहते । एकान्तरिताया एकग्रहणेन सर्व मूलादारज्य कुण बुहा वि जाहा, रिगिनदिसीहेण दिलुतो ॥ तावत्परावर्तयति यावत्पर्यन्तः। ततः उपरितनन्नागादारज्य गुएकेक तास तवं, करेति जह तेण कीरमाणेणं । णित मुशन् सर्वमगुणितं तावत्पश्चादानुपूर्व्या गुणयति Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) अभिधानराजेन्द्रः | एगलबार डिमा यावन्मूत्रमित्यादि । ननु पूर्वमपि तस्य स्वाभिधानमिव सर्वमपि तं पूर्वादिरूपमतिपरिचितमेव ततः कस्मादेवमिदानीमभ्यस्यति उच्यते कालपरिमाणावबोधनिमित्तम् । तथा हि स तथा सूत्रमा बारनामकनयमपूर्वगतसूतीय वस्तृप्रकारेण परावर्तयति। थथा चकवासपरिमाणं यथोक्तरूपमवधारयति । तत उच्छ्वासपरिमाणावधारणात् उच्छ्वासनिःश्वासपरिमाणावधारणं तस्मालोकस्य स्तोकान्मुक्तस्य तपीयायां परया पीरबीजिनिमाणमेतत् रामीणां व दिनरात्री बाहो रात्राणामेचं मुसत पीरथी दिनानि अहोरात्रां काले का विषये जानाति । उक्तं च । “जइ विय से वादी, सनाममिव परित्रियं सुयं तस्स । कालपरिमाणहेतुं तदावि खलु तज्जयं कुणति । उस्सासी तो पाणू, ततो य थोवो ततो वि य मुहतो । मुडुत्तेहि पोरिसोतो, जाणंति नि साय दिवसा य” उक्ता सूत्रभावना । सांप्रतमेकत्वनावनामाह । मो देहातो अहं नातं जस्स एवमुवई । सो किंवि साहरिकं न कुणइ देहस्स जंगे वि ॥ अहं देहादन्यत्येवमेकत्व भावनया यस्य साधो परिकाणां कुर्वतः शरीरादात्मा नानात्वमुपलब्धः स दिव्यादिषु उपसर्गवेलायां देहस्य भङ्गेऽपि विनाशेऽपि किञ्चिदपि (आहरिक्कमिति ) उत्राखं न करोति । गता एकत्वभावना । संप्रति बननावनामाह । एमेव यदेव निवासे से होइ । लेखकमले उनमा सकिसोरे य जोम्मलिए । एवमेव अनेनैव प्रकारेण बलजावनयापि देहस्तथा भावयितयथा देवस्य करणीयेषु योगेषु वलं न हानिमुपगच्छति ननु तपसा क्रियमाणेन नियमतो देहबलमुपगच्छति ततः कथमुच्यते बननावनया तथा देहो नावयितव्यो यथा देहबलं न हानिमुपयातीति सत्यमेतत् किंतु देहबलं धृतिबलसूचनार्थ ततोऽयं जावार्थो बलभावनया तथा यतेत यथा देहोपचयेऽपि धृतिः समुत्साहवर्ती समुत्साहमतितरां समुपजायते । यथा प्रय बामपि परीषदचमूमतिसोपसर्गामपि लीलया योधयति । तथा चोक्तं "कामं तु सररिबलं हायति तवभावणा पसुत्तस्स । देहावर वि सत्ती, जह होति धिती तहा जय । कारणो परीसहचमू, ज६ उब्वेज्जाहि सावसग्गावि। दहुरपहकर वेगा, जय जगणी अप्पसत्थणिं ॥ धितिधणियबरूकच्छी, जो होइ श्रणाral araहितो | बजावणार धीरो, संपुक्षमणोरहो होइ " ततो ऽपि च सर्वा अपि भावना धृतिबलपुरस्सराः । विशेषतो प्रतिभावना नातिया । प्रचलदेवाप सर्वोपनिपातेऽपि स्वकार्य साधयति न खलु धृतेः किंचिदसाध्यमस्ति । आह च । 'त्रितिबत्रपुरस्सरातो, हवंतिसव्वावि भावा तोया । तं तु न विश्व सत्तं, जं धितो न साहे" तचतपोवती नामनीसेवनया नवति । अत्रोपमा रातो लंखको मल्लब्ध न केवलं लंखको मल्लका दष्टान्तः किं त्वश्य किशारश्च किंविशिष्ट इत्याह । यो ज्ञापितः परिकर्म्मित इत्यर्थः । एषां च दृष्टान्तानामियं भावना | लेखको उज्यासं कुर्वन्नन्यासप्रकर्षवशतो रज्जावपि नृत्यं करोति । मनोSपि करणानि पूर्व दुःखेनाज्यस्थन् कालेन कृताभ्यासः पश्चादय 46 प्रतिम जयकिशोरोऽपि हस्यादित्यो भयं गृडानी दुःखं तत्पार्श्वे प्रथमतः स्थाप्यमानोऽभ्यासप्रकर्षवशतो न मनाग एगलविहारपडिमा पि तद्भयं करोति । तथा च सति संग्रामे हस्त्यादिनिश्च परि जवने ऽपि न नङ्गमुपयाति । एषा दृष्टान्तभावना । दान्तिक योजना स्वियम् एवमभीक्ष्णा सेवनया तपसा न क्लाम्यति सत्वावष्टमनतो देवादिज्यो न विभेति । सूत्रतः सूत्रार्थचिन्तनप्रमाणेन का दिनरागतागतरूपं जानाति। एकायनावनात पथोकस्वरूपो निस्सङ्गो भवति । वलभावनातोऽध्वन्य वष्टम्भतः प्राणात्ययेऽपि नात्मानं मुञ्चति । तदेवं परिकर्म्मकरणं व्याख्यातम् । संप्रति 'दो जोड़ा' इत्येतत्व्याख्यातव्यम् । तत्र परिकर्म्मणि कृते आचार्येण स परीक्षणीयः किमसौ कृतसम्यक्परिकर्मा किं वा नेति तत्र द्वे योधनिदर्शने ते पवाह । पञ्जीयमंतीवर्ड खंग-कम्प साहस्सिमा पारिष्ठा । महुकाल उगलसुर ताल पिसाए करे मं ॥ अवन्तीपतिः प्रद्योतः खररुकर्णो नाम मन्त्री । अन्यदा राज्ञः पार्श्वे साहस्रिकः साहस्रिकयोधी मल्लः समागतः। तस्य खएमकनामत्येव महाकालस्मशाने छागेन सुरापटेन परीक्षा कृता ॥ तत्र तात्रप्रमाणः पिशाचस्तालपिशाच स्तस्य करे हस्ते मांसं दत्तवान् । द्वितीयो मल्ल श्रागतः सोऽपि तथैव परीक्षितः केववं स ताल पिशाचाप्रयमगमत् ॥ एष गाथा संकेपार्थः । जावार्थः कथानकादव सेयस्तश्चेदम् । अवंती जणवर पज्जोयस्स रोमंती को नाम अश्या सहस्संपि जो जुमेह सो आगतो लग्गामित्ति रायाण विश्वेत्ति रक्षा प्रणियं ओलग्गाहि ततो सो भाइ मम वित्तो जा सहस्सजोदाणं सा दायव्वा ॥ ततो खंडकष्प चिंते । परिक्खामि ताव पयस्स सन्तं जर सत्तमंतो । होइ ततो सच्चं सहस्सजोही ततो खंरुकोण बगलओ सुरघओय दातुं तो कहउसी रति महाकाले मारो भक्त महाकाल उगल उसा पकलेचं मंसं खायं सुरं च पाउमाढतो नवरं तालपिसातो आमंत हाथ पसारेति । ततो सो सहस्वो ही अभीतो पिसायस्स वि देव । अप्पणो य खायति य रा य पतियपुरिसा परिवारमा देखिया ते जवि पासिता रोमकरणस्य कर्हेति । सच्चं सहस्सोही एसोति विदिशा विभागात ओलम्मामिति सोचि संदेय परिक्लिडमादसो साल पिसातो आगतो। भीतो महो परिचारगहिरो सकस व जदावित्तं कहिये न शिक्षा सहस्सजोहवित्ती" । एवमाचार्योऽपि किमयं कृतसम्यक्पारकर्म्मा किं वा नेति तपःप्रभृतिभिः तं परीक्षेत । कथमिति चिदत श्राह ॥ न किलामति दीहेण वि, तवेरण न वितासितो वि वीहेति । विविते वेलं, सहेति पुट्ठो अवितहं तु । परपच्छ्रसंयुएहिं, निसिज्जई दिट्टि एगमाईहिं । दिडीसुहवोह व अभत्थव समूहति ।। आचार्यस्तपःकारासादिना प्रकारेण तं सम्यक्प तद्यदा दीर्घेनापि तपसा म क्लाम्यति तदा स तपः परिकम्मि तो इतः यदा तु न वित्रासितो मारप्रतिपदाभिर्न विनेति तदा सत्वपरिकर्मितः यदा तु मेघने मनसि वसतिमध्ये वा स्थितः कियतं दिवसस्य किया गतं रात्रेः कियद्वा शेषमिति दिवसस्य रात्रेर्वा वेलां पृष्टः सन्नवितथां साधयति कथयति तदा ज्ञातव्यः स सूत्रभावनापरिकम्मितः । तथा पूर्वसंस्तुता नाभ्यश्रादयस्तेषु पूर्वसंस्तुतेषु Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) एगल्लविहारपडिमा अभिधानराजेन्द्रः। एगल्लविहारपडिमा न्दनार्थमुपागतेषु गाथायां तृतीया सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात् । दृष्टि वस्तु यावत्तत्र कात्रज्ञानस्यानिधानात् । उत्कर्षतो यावदशमं रागादिभिर्न स्निग्धहष्ट्यादिभिः आदिशब्दात् मुखधिकाशादि. पूर्व चशब्दस्यानुक्तार्थसूचनाद्देशोनमिति कष्टव्यम् । तथा चो. परिग्रहः न सज्यते न सङ्गमुपयाति । तदा स पकत्वनावनाप- क्तम् " मायारवत्थतश्यं, जहन्नगं होश नवमपुवस्स । सहियं रिकर्मिमतो वेदितव्यः । एतदेव व्याचष्टे । रष्टिमुखवर्णाज्यां स्नि- कामनाणं, दस नकोसाणि भिन्नाणि" 1 संहननं पुनरादिमानां ग्धयारष्ट्या अर्कावलोकनेन स्फारीकृतकान्तिमुखवार्मकरणेनच त्रयाणां संहननानामन्यतमद्यदा तेन पृष्ठं प्रतिमा प्रतिपचेहउपलकणमेतत् । संनाषादिना च तस्याध्यात्मवलमेकाकित्वन्ना- मिति तदा स स्थिरीकरणनिमित्तमिति वक्तव्यः। धनाचलं (समूहति) परिजावयन्ति सूरयः । बलभावनामाह । ज विसि तीए नवेओ, आयपरे दुक्करं खु वरगं । उज्जयतो किसो किसदढो, दढो किसोया विदोहि वि ददो य । आपुच्छणेसज्जण-पमिवज्जणगच्छसमवायं ।। वीयचरमापसत्या, घितिदेहं समप्पिया नंगा । यद्यप्यसि जवसि त्वं तया परिकर्मणया उपेतो युक्तः तथाऽप्या बलचिन्तायां चतुर्नङ्गी तद्यथा उभयतो धृतिदेहान्यां कृशः | त्मपरेषु प्रात्मपरविषयेषु आत्मसमुत्येषु परसमुत्येषु नभयसमुकिमुक्तं भवति । शरीरेण कृशोधृत्या च कृशः एष प्रथमो भगः त्थेषु चेत्यर्थः। परीषदेविति गम्यते । दुष्करं समु वैराभ्यं राग(किसदढोत्ति) शरीरेण कृशोधृत्या च बढः एष द्वितीयः (द- निग्रहणमुपलक्षणमेतत् द्वेषनिग्रहणं चेति हेतो य पाप्राकृना हो किसो यावित्ति ) शरीरेण दृढो धृत्या कृशः एष तृतीयः । क्रियते किं त्वया कृता सम्यक्परिकर्मणा किंवा नेति । एषमाद्वाभ्यामाप च शारीरेण धृत्या च दृढः एष चतुर्थः। अत्र द्वितीय- प्रच्छनायां कृतायां यदि सम्यकृतपरिका ज्ञातो भवति ततचतुर्थी भनौ धृतिदहसमाश्रितौ धृतिदेहविषयो प्रशस्तावेकाकि- स्तस्य विसर्जनमनुका तस्य क्रियते । अनुशातश्च गच्छसमवायं विहारप्रतिमायोग्यौ द्वितीयस्य दृढप्रत्याश्रयत्वात् । चरमस्य रद्ध- कृत्वा प्रशस्तेषु व्यकेत्रकालभावेषुप्रतिपादन प्रतिमायाःप्रतिधृतिदेहाश्रयत्वात् । एते च एकाकिविहारप्रतिपत्तये कृतपरिक- पत्तिं करोति । एष गाथासंक्षेपार्थः । र्माणः स्वयमेवात्मानं तुमितमतुलितं वा प्रायो जानन्ति । ज्ञात्वा सांप्रतमेनामेव विवरीषुः पूर्वार्द तावद्याख्यानयति ॥ च प्रतिमाप्रतिपत्तये आचार्यान्विज्ञपयान्ति तथा चाह । परिकम्मितो वि वुच्चइ, किमु य अपरिकम्ममंदपरिकम्मा। सुत्तत्थझरियसारा, मुत्तेण काझं तु मुट्ठ नाऊणं । पायपरोजयदोसेसु, होइ दुक्खं खु वेरग्गं । परिचिय परिकम्मेण य, मुट्ट तुलेऊण अप्पाणं ॥ परिकर्मितोऽपि सुख कृतपरिकमाधि उच्यते आपृच्च्यते तो विमति धीरा, आयरिए एगविहरणमतीओ। इति तात्पर्यार्थः । यथा त्वया कृता सत्परिकर्मणा किं वा न परिएगस्सु य सरीरे, कयकरणा निव्वसहाणे ।। कृतति किमुत अकृतपरिकर्मा मन्दपरिका वा ते सुतरामाप्रसूत्रार्थयोर्जरणेन क्षरणेन साराः शोजनाः सूत्रार्थकरणसाराः | चनीया इति नावः । कस्मादेवमाप्रच्चना क्रियते इति चेदत आह । यत आत्मपरोभयदोषेषु आत्मपराजयसमुत्थेषु परीषसूत्रेण सूत्रपरिकर्मतः कालं दिवसरात्रिगतमभ्रच्छन्नगगनादावपि सुष्ठ ज्ञात्वा परिचितेन स्वन्यस्तेन परिकर्मणा तपःप्रभृति हेषु समुत्थितेषु दुःखं खयु नवति । वैराग्यं रागोपशमबक्षण मेतत् । द्वेषोपशमो वा ततो मा नृत प्रतिपत्तौ कश्चियाघात - परिकर्मणा सुष्ठ प्रात्मानं तुलयित्वा धीरा महासत्वा एकवि त्याप्रच्छना क्रियते। अथ के ते आत्मपरोभयाः समुत्थाः परीषदा हरणमतिका एकाकिविहाराभिप्रायाः पर्याये गृहस्थपर्याये शति तान्प्रतिपादयति । प्रव्रज्यापर्याये च ते पूर्वगते शरीरे च कृतकरणाः कृतान्या पढमवीयाश्याभे, रोगे पलायिगा य आयाए । सास्तीत्रश्रकाकाः प्रवर्धमानश्रकाकास्ततस्तवनानन्तरमाचार्या सीनएहादीउ परे, निसहियादी उनए वि॥ दीन षिकपयन्ति । अत्र यो नाचार्यः स आचार्य विज्ञपयति । यथा जगवन् कृतपरिकाहमिच्छामि युष्माभिरनुशात एकाकिषि प्रथमः परीषदः क्षुद् द्वितीयः पिपासा आदिशब्दात्तत्पर इत्याहारप्रतिमा प्रतिपत्तमिति । यः पुनराचार्यस्स स्वगच्छाय कथ दिपरीषहपरिग्रहः। तथा लाभपरीषहः रोगपरीषहः प्रज्ञादिकाः यति तथा परिकर्मितोऽहमतः प्रतिपद्ये एकाकिविहारप्रतिमा प्रज्ञादयः परीषदा आदिशब्दादज्ञानादिपरिग्रहः । पते श्रात्मान मिति यदुक्तं । “परियागसुयसरीरे इति" तद्व्याख्यानार्थमाह । आत्मसमुत्थाः परीषहाः । तथा शीतोष्णादयः शीतोष्णदेशम शकादिपरीषदाः परे परविषयाः परसमुत्था इत्यर्थः । नैपेधिकीएगणतीसचीसा, कोडी आयारवत्थुदसमं च । वर्षादयः पुनः परीषहा उभयस्मिन् उन्नयसमुत्थाः । संघयणं पुणआदि-नगाण तिएहं तु अन्नयरं ॥ संप्रति “करणेलगच्छगत्ति" व्याख्यानार्थमुपक्रमते । द्विविधपर्यायो गृहिपर्यायो व्रतपर्यायश्च । तत्र यो जन्मत एएसु समुप्पामेसु, दुक्खं वेरग्गभावणा का । आरज्य पर्यायः स गृहिपर्यायः स च जघन्यतः एकोनत्रिंशद्ध पुवं अनावितो खलु, स होइ एलगच्छोयो। पाणि कथमिति चेडुच्यते । इदं गर्भाष्टमवर्षप्रवजिनो विश यः खलु पूर्वमनावितो यथोक्तपरिकर्मणया अपरिकर्मितो तिवर्षपर्यायस्य च दृष्टिवाद उद्दिष्टः । एकेन वर्षेण योगः जवति । यथा शैक एमकाकस्तस्य एतेषु आत्मपरोभयसमुत्थेषु ममाप्तः । सर्वमीलनेन जातान्येकोनत्रिंशद्वर्षाणि । व्रतपर्यायः परीषदेषु दुःखं महत्कष्टं वैराग्यजावना । उपलझणमेतत् द्वेषनिप्रव्रज्याप्रतिपचेरारज्य स च जघन्यतो विशतिवर्षाणि ताव ग्रहभावनाश्च कर्तुं न शक्यन्ते एवं रागद्वेषनिग्रहभावनां कर्तुमिस्प्रमाणपर्यायस्येव दृष्टिवादोद्देशभावात् । उत्कर्षतो जन्मपर्यायो वा देशोना पूर्वकोटी एतच्च पूर्वकोट्यायुप्के वेदि ति भावः । यस्तु सम्यकृतपरिकर्मा नवति स करोत्ययत्नेन सव्यं नान्यस्य । उक्तं च । “परिमापामवसास्सन, गिहिपरिया वैराग्यन्नावनां यथा कपकस्तथा चाह। तो जहागुणतीसा । अति परियातो तीसा, दोएहवि उकोस परिकम्मणाए खवगो, सेह वलामोमिए वि तहगति । देखणा" । भुतं जघन्यतो नवमस्य पूर्वस्य तृतीयमाचारनामकं । पाभातियउवस्सग्गे, कयम्मि पारेइ सो सेहो ।। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५) एगल्लविहारपमिमा अनिधानराजेन्द्रः। एगलविहारपमिमा पारेहि तं पि भंते, ! देव य अच्ची चवेडपामणया । संप्रति वदयमाणवक्तव्यतासंसूचनाय द्वारगाथामाह। काउस्सग्गा कंपण-एलगमए एइ निबित्ती ॥ परिचियकालामंतण-खामणतवसंजमे य संघयणा । परिकर्मणायामुदाहरणं कपकः । बलामोटिकायां श्रुतपर्याय- जत्तोवहिनिक्खेवे, आवलो लानगमणे य ।। स्वेन परिकर्मणायामेव प्रतिपत्तावाहरणं शैककः सोऽपि शैक- परिचितधुतः सन् यावन्तं कावं परिकर्म यस्य करोति तस्य कस्तथा क्षपक श्व तिष्ठति कायोत्सर्गेणावतिष्ठते । ततो दे। तावत्कालो वक्तव्यः तथा स्वगणामन्त्रणं वक्तव्यं तथा तपः संयबतया प्रानातिके उपसर्गे कृते स शेतकः पारयति पारयि- मः संहननं तथा भक्तमझेपकृदादि उपधिर्यावत्संख्याको जघन्यत्वा च कयकं ब्रूते । यथा नहन्त ! त्वमपि पारय जातं प्रभात- त उत्कर्षतश्च तावत्संख्याको वक्तव्यः ॥ तथा निक्षेप नपधेर्न कमिति ततो देवतया चपेटाप्रदानेन तस्याक्ष्णोः पातनमकारि त- र्तव्यो वसतेरन्यत्र गच्छतेति वाच्यम् । तथामनसापि यत्प्रायश्चिदनन्तरं शैककानुकम्पया देवताराधनार्थ कायोत्सर्गः कृतस्ते- समपन्नं भवति तद्दातव्यम् । तथा सचित्ताचित्तलाभो यथा न देवताया अकम्पनमावर्जनमत्ततः सोमारितस्य एम- कर्त्तव्यस्तथाभणनीयः । तया गमनं विहारस्तद्यस्यां पौरुभ्यां कस्य प्रदेशयोरणोस्तत्र निर्वृत्तिनिष्पत्तिः कृता। एष गाथाद्वय- कर्तव्यं तस्याः कथयितव्यम् । एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः । सांप्रतसकेपार्थः । भावार्थः कथानकादवसेयस्तच्चदम् " एगो खवगो मेनामेव ब्याचिख्यासुःप्रथमतः परिचितकालद्वारमाह । एगद्धविहारपडिमाए परिकम्मं करे सो पमिमं ठितो सुत्तत्था परिचितसुओन मग्गासर-मादि जाते उ कुणति परिकर्म । णि करेति । अन्नो खवगो अप्पसुत्तो पायरियं विन्नवेति । अहंपि एसो चिय सो कालो, पुणरेव गणं उवग्गम्मि ।। परिकम्मं करेमि । आयरिएणं भणियं तुमं सुएणं अपज्जत्तो परिचितमत्यन्तमभ्यस्तं स्वीकृतं श्रुतं येन स परिचितश्रुतः न पाओग्गोसि वारिज्जमाणो असुणित्ता तस्स जमवतो तहेव सन्मार्गशीर्षमासमादि कृत्वा यत्परिकर्म करोति । एष एतापमिम रितो । देवया चिंते एस आणाभंगे वट्टत्तित्ति । अरत्ते पनायं दंसेति । ततो सेहखबगो पारित्ता भणति । तं वत्प्रमाण एव साधोः प्रतिमाप्रतिपित्सोर्जघन्यपदे उत्कर्षतः खवगं पारहि । सेह खवगो देवयाए चवेडाग आहतो । दोवि कालः परिकर्मणाया एतावत्प्रमाणोत्कृष्टपरिकर्मणाकामान न्तरं च यद्यप्यवधानप्रतिमा प्रतिपित्सुस्तथापि अध्यस्य मुखअच्छीणि पमियाणि तं द8 इयरो तदएकंपणट्ठा देवयाए श्रा स्य वर्षाकाससंबन्धिनः समीपमुपाग्यमाषाढमास इत्यर्थः । तकंपणनिमित्तं धणियं का सग्गेण चितो॥ ततो सा देवया आ स्मिन्वर्षाकालयोग्यमुपधि ग्रहीतुं पुनरत्यागच्छति। स्वगणमिति गता भणति खवग! संदिसह किं करेमि । खबगेण जणियं कीस ते सेहो दुक्तावितो । देहि से अच्छगणि । ताहेतीप देव एवं तश्चेदमुत्कलितमुक्तमिदानीमेतदेवसविशेषतरं विवृणोति । याए भणीयं अच्छीणि अप्पदसी नुयाणि खवगो जण कह जो जति मासे काहिति, पमिमं सो तत्तिए जहमेण । वि करेहि । ताहे सज्जो मारियम्स एलगस्स सप्पएसाणि । से- कुणति मुणी परिकम्मं, उक्कोसं नावितो जाव ।। हखवगस्स साइयाणि" । सांप्रतमेतस्य निदर्शनोपनयमाह । यो मुनिर्यति(यावत) मासान प्रतिमां करिष्यति स तति(तावत्) जावियमनावियाणं, गुणा गुणमा विति तो थेरा। मासान् जघन्येन परिकर्म करोति तद्यथा मासिका प्रतिमा वितरंति भाबियाणं, दव्वादिमुजेयपडिवत्ती ।। प्रतिपित्सुरेकं मासं द्वैमासिकी द्वौ मासी त्रैमासिकींत्रीन् मासान् भावितानां कृतपरिकर्मणानां गुणा यथा कपकस्य अभावि एवं यावत्सप्तमासिकी सप्त मासान् एवं चमार्गशीर्षादारज्य स तानामकृतपरिकर्मणानामगुणा यथा शैक्वकः क्वपकस्य इति प्तमासिक्याः परिकर्म ज्येष्टमासे समाप्तिमुपयाति । एतानेव च एवं भाविता गुणा गुणकाः स्थविराः प्राचार्यास्तत आपृच्छान जघन्यपदे उत्कृष्टकानः। ततः परं प्रतिमानांमासैः परिमाणासंभन्तरं यान् भावितान् सम्यग् जानन्ति तेषां भावितानां प्रतिमा वात् उत्कर्षतस्तमधिकृत्य पुनः परिकर्मणाकासो यावता कालेन प्रतिपत्ति वितरन्ति समनुजानन्ति एतेन" आपुंरणा विसज्ज परिपूर्णमागमोक्तेन प्रकारेण भावितो भवति सावान्वेदितव्यः । ण" श्येत ब्याख्यातमधुना पविजणं इत्येतनाख्यानायाह । तत्र जघन्यपदपरिकर्मणाकालमधिकृत्य कासांचित्प्रतिमानां (दब्यादिसुनेयपमिवत्ती) व्यादौजव्यक्षेत्रकानभावेषु शुन्ने तस्मिन्नेव वर्षे प्रतिपत्तिः कासांचिद्वर्षान्तरेऽनिधित्सुराह ॥ घु प्रशस्तेषु प्रतिमायाः प्रतिपत्तिर्भवति कथमित्याह । तव्यरिसे कासिंची, पमिवत्ती अन्नहिं वरिमाण । निरुवसम्गनिमित्तं, नवसगं बंदिऊण आयरिए । आश्पपइसस्स उ, इच्छाए जावणा सेसे ॥ श्रावस्सिय च काउं, निरवेक्खो बच्चए जयवं ॥ कासांचिदाद्यानां प्रतिमानां तद्वर्षे एव यस्मिन्वर्षे परिकर्मपूर्व समस्तमपि स्वगामागत्य यथा कमयित्वा तदनन्त- समारब्धवान् तस्मिन्नेव वर्षे प्रतिपत्तिरुपरितनीनामन्यस्मिरमाचार्येण सकलस्वगच्छसमन्वितेन सकलसंघसमन्वितेन च न्वये । श्यमत्र भावना।मासिक्या द्वैमासिक्याख्यैमासिक्याश्चतुशक्रनिरुपसर्गनिमित्तमुपसर्गाभावेन सकसमपि प्रतिमानुष्टानं मासिक्या वा तस्मिन्नेव वर्षे प्रतिपत्तिः । कस्मादिति चेत्पनिर्वहत्वित्येतन्निमित्तं कायोत्सर्ग करोति तद्यथा “निरुवस रिकर्मणाकाबस्य प्रतिमाकालस्य च आषाढमासपर्यन्तादग्गवत्तियाए सकाए मेहाए " इत्यादि । कायोत्सर्गानन्तरं च कि अभ्यमानत्वात् । पाश्चमासिक) पाएमासिकीसाप्तमासिसूत्रोक्तविधिना प्रतिमा प्रतिपद्य आचार्यान् वन्दते वन्दित्वा कीनामन्यस्मिन्वर्षे परिकर्म अन्यस्मिन्वर्षे प्रतिपत्तिर्मार्गशीर्ष. च आवश्यकीं कृत्वा स भारममात्रोपकरणः सिंहगुहातो निरपे- मासादारज्य परिकर्मकालस्य प्रतिमाकालस्य चापाढमासपकं पूर्वापेकाविरहितो भगवान् वजति आचार्याश्च सकलसंघ- यन्तादर्वाग सन्यमानत्वादिति येन च या प्रतिमा पूर्वमाचीर्मा। समन्विताः पृष्ठतोऽनुवजन्ति । ते च तावास्यन्ति यावड़ाम- तस्याचीक्षप्रतिमस्य ता प्रतिमा प्रति परिकर्मणा श्च्या यदीस्य नगरस्य वा आघाटस्तती निरीकमाणास्तावदासते यावत् । च्या जयति ततः करोति नो चेन्नेति। किमुकं भवति।चिरकालरष्टिपथातीतो भवति ततः सर्वे विनिवर्तन्ते । कृततया यदि गतास्यासो जवति ततः करोति परिकर्मणा Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगटविहारपडिमा अभिधानराजेन्डः। एगझविहारपडिमा मन्ययातिशेषे येन या प्रतिमा पूर्व नाचार्मा तस्य तां प्रति नि' वसतेः सकाशाद्यदि निर्गमनं भवति ततो नवविधोपधिधारयामानावना परिकर्मणा भवति । णेनैव नाएममुपकरणमात्मीयं वसती न नितिपति। किंतु सर्व___ सांप्रतमामन्त्रण कामणतपःसंयमद्वाराएयाह । भाएममादाय दिएमते हिएममानश्च यत्रैव जबादिषु जो स्थले आमंतेऊण गणं, सवालवा उ संखमावेना । प्रामे नगरे कामने वने वा तस्य सूर्यो व्रजत्यस्तं तत्रैव कायोउग्गतव नावियप्पा, संजमपढमेव वितिए वा ।। त्सर्गेण अन्यथा वाऽवतिष्ठते न पुनः पदमात्र मुक्तिपति । गतं गणं गच्छ सह बात्रा यैस्ते सबालास्ते च ते वृक्षाश्च तैराकुल निक्केपद्वारम् । मामन्य समाहृय क्षमयति । यथा यदि किञ्चित्प्रमावतो मया अधुना आपन्नाभगमनहाराण्याह । न सुष्ठ भवतां पत्तितं तदहं निःशल्यो निष्कषायं कमयामीति। माणसावि भग्घाया, सञ्चिसे चेव कुणति उवदेसं । येच पूर्वविरुकास्तानेवं सविशेषतः कमयति । एवमुक्ते ये ब- अच्चित्तजोगगहणं, भत्तं पंथो य तइयाए । घवस्ते प्रानन्दाचप्रपातं कुर्वाणः भूमिगतशीर्षास्तं कमयन्ति मनसापि प्रास्तां वाचा कायेन चेन्यपिशब्दार्थः । यानि प्रायये पुनः श्रुतपर्यायवृद्धास्तान् पादेषु पतित्वा स क्कमयति । उक्तं चित्तानि आपद्यते तानि सर्वापयपि तस्यानुद्धातानि गुरुणि च "जश किंचिपमाएणं, न सुट्ट ने बट्टियं मए पुधि । तं खामे- जयन्ति । गतमापन्नहारम् । लामद्वारमाह (सच्चिसेचैत्यादि) मि अहं खु, निस्सन्छो निकसाओ य । आणंद अंसुपायं, कुणमा- लानो द्विविधः सचित्तस्य अचित्तस्य च तत्र सचित्तस्य प्रवजितुं णा ते वि भूमिगयसीसा । तं खामेति जहारिहं, जहारिई खा- कामस्य मनुष्यस्य अचित्तस्य भक्तपानादेः। तत्र यदासचित्तस्य मिया तेण"। एवं क्षमयतस्तस्य के गुणा इति चेत् मुच्यते। निः माम उपस्थितो ज्ञायते यथा नूनमेष प्रनजिष्यति मतु स्थाशल्यता विमयप्रतिपत्तिर्मार्गस्य प्रकाशनम् अपहृतजारस्येव नार स्यति तदा सस्मिन्सचित्ते प्रवजितुमुपसंपद्यमामतया संभाविते वाहस्य लघुता एकाकित्वप्रतिपयन्युपगमः । कचिदप्यप्रतिबछ। उपदेशमेव करोति नतु तं प्रवाजयति । तस्य तामबस्थामुपमतााएते प्रतिमासुप्रतिपद्यमानासु क्षमयतोगुणाः। स च "स्वाम- तस्य प्रवज्यादानानहत्वात् । एवकारो भिन्नक्रमः स च यथातस्स गुणा सालु, निस्सन्वय विणयदीवणा मग्गे साधविणं एगतं, स्थानं योजितः अचित्तस्य पुषयोग्यस्य भक्तस्य पानस्य वा ग्रहणं अपमिबंधो उ पमिमासु"।गतमामन्त्रणाद्वारम् । स एवंच काम- करोति । गतं सानघारम् । गममद्वारमाह । भक्तं भिक्काचर्याः पयिस्वाभाषितात्मा तपोजावनाभावितान्तः उग्रं तपः करोति ।गतं न्थाः पथि विहारक्रमकरणाय गमने तृतीयस्यां पौरुष्यां नान्यदा। तपोद्वारम् । स च तथा प्रतिमा प्रतिपन्नः संयमे प्रथमे वा सा- तदा कल्पत्वात् तदेवं निकोः प्रतिमाप्रतिपत्तिविधिरुक्तः । मायिकबकणे वर्तते। द्वितीये वा दोपस्थापने । तत्र प्रथमे म संप्रति गणावच्छेद्यादिषु तमाह । ध्यमतीर्थकरतीर्थेषु विदेहतीर्थकरतीर्थेषु च द्वितीये भरतादिषु एमेव गणायरिए, मणनिक्खिवणम्मि नवरि नाणतं । प्रयमपश्चिमतीर्थकरतीर्थेषु एता प्रतिपद्यमानकानधिकृत्योक्तं पुन्वोवहिस्स अहवा, निक्खिवणमपुचगहणं नु । वेदितव्यम् । पूर्वप्रतिपन्नाः पुनः पश्चानां संयमानामन्यतमस्मिन् एवमेव अनेनैव भिजुगतेन प्रकारेण (गणित्ति) गणावदिनि संयमे भवेयुः उक्तं च "पढमे वा वीए वा, पमियाइ सेजमम्मि (आयरिपत्ति) प्राचार्योपाध्याये वक्तव्यं किमुक्तं भवति यथा भिपमिमातो। पुरवपडिपन्नतो पुण,अनयरे संजमे दुजा" गत सेय की प्रतिमा प्रतिपतुं प्रतिपन्ने च विधिरुक्तस्तथा गणापच्छेदिनि महारम । अधुना भक्तद्वारमुपधिद्वारं चाह । प्राचार्योपाध्याये च प्रतिपत्तव्यः। तथा च सूत्रकारोऽपि तत्सूत्रे पग्गहियमसेवकम, जत्तजहमेण नवविहो नवही । अतिदेशत आह "एवं गणावरने एवं आयरितोषज्झाए" एवं पाचरणवज्जियस्स उ, श्यरस्स दसा वि जावाए । भिनुगतेन सूत्रप्रकारेण गणावच्छेद एवमेध आचार्यश्च सपाभक्तमुपलकणमेसत् पानकं च अक्षेपकृतं कहपते तथा प्रगृहीत ध्यायश्च आचार्योपाध्यायम् । तद्यथा "गणावच्यए बा गणातो मिहालेपकृद्रिकाया उपरितनानां तिमृणां निकाणां मध्यमा. प्रयकम्मा एगल्लविहारपमिमं उघसंपत्तिाणं विहरेज्जा से - मध्यमग्रहणे चाद्यन्तयोरपि ग्रहणं ततोऽयमर्थः सप्तसु पिण्डैषणा यजा दो पितमेव ठाणं उपसंपजिसाणं विहरिसए पुणो श्रासुमध्ये उपरितनीनां चतसुणामन्यतमस्याः पिएमषणायाःअनि लोपज्जा पुणो पमिकमज्जा। पुणो दस्स परिहारस्स वा नवग्रहःप्राद्यानां तिसृणां पिण्डेषणानां प्रतिषेधः एतच चूर्णिकारो. कापज्जा । तथा आयरितोषज्झाए य गणातो अस्स एगल विहारपदेशात् विवृतम् तथाचाह चूर्णिकृत् “ उपरिवहिं वहिं पिमे- पमिम नवसंपजिसाणं विहरे श्त्यादि" व्याख्याऽप्यस्य सुत्रसणाहिं श्रन्नयरीए । अनिम्गहो सेसासु तिसु उग्गहो इति"॥ यस्य तथैव । अथकिमधिशेषेण भिक्काधिवप्रतिमाप्रतिपत्तिविधिगतं भक्तद्वारमुपधिद्वारमाह । जघन्येनोपधिर्नवविधः । पात्र रनुसरणीयो यदि वास्ति कश्चिद्विशेषस्तत प्राह (गणनिक्लेवपात्रबन्ध-पात्रस्थापना-पात्रकालरिका-पटस-रजवाण-गोच्च णंश्त्यादि)नवरं नानात्वं भेदो गणनिक्केपणे। इयमत्र साधना गणा क-मुखवत्रिका-रजोहरणक्षण एष न नवविधो जघन्यत वच्छेदी गणावच्छेदित्य मुक्त्वा प्रतिमांप्रतिपद्यते आचार्योऽन्यंगण लपधिर्यः प्रावरणवर्जीकृतप्रावरणपरिहारानिग्रहस्तस्य वेदि- धर स्थापयित्वेति विशेषः । अथवा इदं निकमतविधेर्गणावच्छेद्यातभ्यः । इतरस्य कृतप्रावरणपरिग्रहस्य दशादिको बियो यावत् चार्ययोर्विधिः। नानास्वं गणावच्छेदी प्राचार्योंवा पूर्वगृहीतमुपधि द्वादाविधः। तत्रैकसीत्रिककल्पपरिग्रहे दशावधः सौत्रिककटप- निविष्य अन्यमुपधि प्रायोग्यमुत्पाद्य प्रतिमा प्रतिपद्यते इत्युक्तम्। ध्यपरिग्रहे एकादशविधः । कल्पत्रयस्यापि परिग्रहे बादशवि समाप्तप्रतिमानुष्ठानस्य गच्चं प्रत्यागमने राजादिभिः क्रियमाणं धः । गतमुपधिद्वारम् । सत्कारं कोऽपि मिर्गणावच्छेद। आचार्यो वा दृष्या जातसंवेसंप्रति निक्षेपधारमाह। गः सन् स्वाचार्याणां पुरत आपृच्चनं करोति । यथा भगवाहवसहीए निग्गमणं, हिंडंतो सम्बनडमादाय । मप्येकाकिविहारप्रतिमा प्रतिपद्य इति । ते चाचार्या विशिष्ट श्रुनयनिक्खियइ जलाश्सु, जत्थ से सुरो वयति अत्यं ॥ । तविदो जानन्ति भूतं जाविन चेति ॥ तस्यायोग्यतामुदीकमा Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगल्लविहारपडिमा अभिधानराजेन्डः । एगल्लविहारपडिमा णाः प्रतिषेधनं कृतवन्तः बधा त्वमयोम्यः श्रुतेन वयसा वाप्रा. अन्वते" तुशब्दः पुनरर्थे स च पुनरर्थ प्रकाशयन् हेत्वर्थमाप सत्वात् न च परिकर्मणा तद्योग्या त्वया कृतति । स एवं प्रति- प्रकाशयति । ततोऽयमधिकृतः सूत्रनिपातो व्यक्तोऽव्यकशब्दविविध्यमानोऽपि यदा न तिष्ठति तदा सूरेर्वक्तव्यो यदि न स्थास्य- षयः। भव्यक्तो नाम श्रुतेन वयसा चाऽप्राप्तोऽपरिकम्मितश्च पूर्वसि तर्हि विनइयास यथा सा देवी का सा देवीति चेत् । अत नणितं च समस्तं व्यक्तविषयमतोऽन्यविषयत्वं च प्रागुक्तमिआह । (देवीसंगामतो नीति) देवी राज्ञा धार्यमाणाऽपि ततो ति । नैतेन प्रागुक्तेन सूत्रत्रयं गतमिति । अत्राह । यदेतत्प्राध्याराज्ञः सकाशाद्विनिर्गच्छति संग्रामे प्रविशतीति प्रतिमाप्र- ख्यातं न तेन यदि सूत्रत्रयं गतं तर्हि तदेतत् कुत भागतम् । तिपत्तिविधिः । सूत्रात्तावन्न नपति सूत्रस्थान्यविषयत्वात् । अन्यस्माच्चेत्तर्हिन श्वानी समाप्तिविधिमाह । वक्तव्यमसंबहत्यातू अत अाह (उच्चारिय सरिसमित्यादि) परितीरियउभामणियोग-दरिसणं साहु सन्नि व पाहे। कर्मणानिधानं यश्च पूर्वमाचारदशासु निकप्रतिमागतमुक्तं यथा दंपियनोइय असती, सावगसंघो व सकारं ॥ "घरसउणीसाह इत्यादि" तथा "परिचियकालामतेणेत्यादि" च प्राग्भणितमपि प्ररूपितमुच्चरितस्य सदृशमनुगतमिति कृत्वा तीरितायां समाप्तायां प्रतिमायामुत्प्राबल्येन नुमन्तीत्युद्धमाः भिक्काचरास्तेषां नियोगो व्यापारो यत्र स सामनियोगो किमुक्तं नवति ॥ “एगल्लविहारपमिमे नवसंपत्तिाणं विहरि त्तए"इत्युक्तमतश्च सूत्रखएडे व्यक्ते व्यक्ते च समान ततो यदप्रामस्तत्र दर्शनात्मनः प्रकटन करोति । ततः साधु संयतं संझि पि सकलसूत्रोपनिपातोऽध्यक्तविषयस्तदपि यदेतत्सूत्रखएम तनक सम्यग्दृष्टि श्रावकं ( अप्पाहत्ति ) सन्देशयति । ततो दरिक्कस्य राको निवेदनं सत्कारकंकरोति। तदन्नावे भोजिकस्त त् व्यक्तेऽपि समानमिति । व्यक्तविषयं परिकर्मणादिकमुक्तमिस्यायनावे श्रावकवर्गस्तस्याप्यन्नावे संघःलाधुसाध्वीवर्गः । श्य त्यदोषः । यदुक्तमयभधिकृतसूत्रोपनिपातो ऽव्यक्तविषय इति । मानावना । प्रतिमायां समाप्तायां यस्मिन् ग्रामे प्रत्यासन्ने ब तत्राव्यक्ते यथा प्रतिमाप्रतिपत्तिसम्भवस्तथोपपादयति । हवो भिकाचराः साधवश्च समागच्छन्ति तत्रागत्यात्मानं द आगमणे सक्कारं, को यं दद्दण जायसंवेगो । र्शयति । दर्शयश्च यं साधु श्रावकं वा पश्यति तस्य सन्देशं श्रापुच्छणपडिसेहण, देवी संगामतो नीति ॥ कथयति । यथा समापिता मया प्रतिमा ततोऽहमागत इति । संगामे निवपमिम, देवी काऊण जुकति रणम्मि । तत्राचार्या राको निवेदयन्ति । यथा अमुकोमहातपस्वी समाप्त- वितियवले नरवती, नालं गहिया धरिसिया य । तपःकर्मा संस्तदतिमहता सत्कारेण गच्छे प्रवेशनीय इति। ततः संग्रामे देवी नृपप्रतिमां राज्ञाकारं कृत्वा युध्यते सा च नस राजा तस्य सत्कारं कारयितव्यस्तदनावे अधिकृतस्य ग्रामस्य था रणे संग्रामे युध्यमाना द्वितीयत्रले प्रतिपक्षबले यो नरपतिनगरस्य वा नायकः तदभावे समृद्धः श्रावकवर्गस्तदभावे साधु- स्तेन कथमपि शाता अरे महिला युध्यतीति सन्नाहापेक्षं कृत्वा साध्वीप्रभृतिकः संघो यथाशक्ति सत्कारं करोति । सत्कारो गृहीता चएमाघर्षापिता नारिता च एषोऽक्वरार्थः। नावार्थः कनाम तस्योपरि चन्द्रोदयधारणं नान्दीतूर्यास्फालनं सुगन्धवास थानकादवसेयस्तच्चदम् । “एगेण रमा एगस्स रमो नगरं वेदिप्रक्षपणमित्यादि । एवंरूपेण सत्कारण गच्चं प्रवेशयेत् । यं । रायासु अंतेरो नगरम्भंतरे अम्गमडिसी भम्स : जुज्झासत्कारेण प्रवेशनायामिमे गुणाः। मि वारिजंती वि रना न गति ततो सा सन्नहिता खंधावारेण नभावणा पवयणे, सघाजणणं तहेव बहुमायो । समं निगंतु परबलेण समं जुज्क महिलित्ति कालं गहिया. चं ओहावणा कुतित्थे, जीयं तह तित्थवढी य॥ मालेहि धरिसाविता मारिया । प्रवेशसत्कारेण प्रवचने पवचनस्य उद्भाजनं प्रावल्येन प्रका दूरेतो पमिमातो, गच्छविहारे वि सो न निम्माते । शनं जपति । तथा अन्येषां बहूनां साधूनां श्रद्धाजननं यथा वय निग्गंतुं सन्ना, नियति लहुओ गुरू दूरे ॥ मप्येवं कुम्नॊ महतीशासनस्य प्रभावणा भवति । यथा श्रावक- दूरे तावत्प्रतिमाः। किमुक्तं भवति । तद्विषयमिदं सूपत्रिकंतस्य श्राविकाणामन्येषां च बहु मानमुपजायते शासनस्योपरि यथा प्रतिमाः प्रतिपत्तव्यास्तावत् दूरे विशिष्टश्रुतवयोज्यामप्राप्ततया अहो महाप्रतापि पारमेश्वरं शासनं यत्रेदशा महातपस्विन इति। तत्सामाचारीपरिज्ञानस्य परिकर्मणायाश्चानावात् गच्छविहारे तथा कुतीर्थे जातावकवचनम् । कुतीर्थानामपन्जाजना हीलना । गच्चसामाचार्यामपि सोऽधिकृतसूत्नत्रयविषयो निर्मातोन परितत्र ईशांमहासत्वानां तपस्विनामभावात् । तथा जीतमेतत्कल्प निष्ठामुपगतः स प्राचार्येण वार्यते । स च धार्यमाणोऽपि यदा एष यथा समाप्तिप्रतिमानुष्ठानःसत्करणीय इति । तथा तीर्थवृहि स्थगच्चार्जिगत्य यदि कथमाप बुझिपरावर्तनेनासन्नाछिनिवर्तते श्था एवं हि प्रवचनस्यातिशयमुदीक्षमाणा बहवः संसारात विर ततस्तस्य प्रायश्चित्तं लघुकोमासःदूरे द्राद्विनिवर्तते तत पाह ज्यन्ते विरक्ताश्च परित्यक्तसङ्गाः प्रवज्यां प्रतिपद्यन्ते ततो भव गच्छ दोसो गळा, निग्गंतूणं वितो उ सुष्मघरं । ति तीर्थप्रवृद्धिरिति । तदेवं परिकर्मणाभिधानं प्रतिमाप्रतिप- सुत्तत्थमुपहियो, संजरइ इमोस मे गामी ।। त्तिः प्रवेशसत्कारश्च जणितः सांप्रतमधिकृतसूत्रं यत्र योगमई- स्वमात्मीयं उन्दोनिप्रायो यस्य स स्वच्छन्दःसन गच्गाद्विनि ति तद्विवक्षुरिदमाह। गत्य शून्यगृहे उपलकणमेतत् । श्मशाने वा वृक्तमूले वा देवएएण सुसं न गयं, सुत्तनिवातो इमो उ अन्वते । कमसमीपे वा कायोत्सर्गेण स्थितः स च सूत्रमर्थ वा न किमनच्चारियसरिसं पुण, परुवियं पुन्बजणियं पि॥ पि जानाति यञ्चिन्तयति । ततः सूत्रार्थशून्यहृदय एकाकी सन् यदेतदनन्तरं परिकर्मणादिकमुक्तं नैतेन सूत्रं गतं व्याख्यातं एषां वक्ष्यमाणानामाचार्यादीनां स्मरति । तानेवाह । जातावेकवचनस्य नावात् । नैतेन त्रीणि सूत्राणि व्याख्यातानि । आयरियवसनसंघा-डएयकंदप्पमासियं महुयं । सूत्राणामन्यविषयत्वात् । तथा चाह । “सुत्तनिवातो श्मो उ एगाणिपत्तसुष्मघरे, अत्थामिए पत्थरे गुरुगा। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) एगलविहारपडिमा अनिधानराजेन्डः। एगटविहारपडिमा आचार्यों गच्छाधिपतिलं धा यदि स्मरति । यदि वा घृषनम- बहुपुत्तपरिसमेहे, उदयग्गे जड सप्प चउमगा। थवा संघाटिक (कंदप्पात) अविनक्तिलोपो मत्वर्थीयलोप अत्थाअवरोगनियट्ट कंटक, गिराहणदिढे य नावे य ।। श्वप्राकृतत्वात् । यैर्वा साधुभिः समं गच्छे वसन कन्दर्म्यहं सच देवताया बहुपुत्रविकुर्वणामन्तरं चोदिते तथा पुरुषमेधे पुरुषसूर्यादिरूपंकृतवान् । कन्द (कान) र्पकृतान स्मरति तदाप्राय यझे तथा उदके उदकप्रवाहे अग्नौ प्रदीपनकरूपे जड़े हस्तिनि श्चित्तं मासिकं लघुकं तथा (एकाणियत्ति) पकाकी सन् शून्यगृहे सप्पे च समागच्छति पलायमानादौ चत्वारो लघुका मासाः। उपलकणमेतत् । श्मशानादी वा दिवसे विमेति तदा चत्वारो तथा देवताया विकुर्वितसंयतीरूपायाः पृष्ठतो लग्नायाः प्रतीलघुमासाः यदि पुनरस्तमिते सूर्ये भयं गृह्णन् प्रस्तरान् पापणा कणे यावत् कगटकं पादनग्नमपनयामीत्येवं अवन्त्याः (अत्थन (हत्ति) तदा चतुर्गुरुकाः जत्ति) प्रतिश्रवणे तथा अवलोकने तथा दूरादासनाचा निवपत्थरे बुह रत्ता, गमणे गुरुलहुगदिवसतो हुति । र्तने कण्टकग्रहणे उपलकणमेतत् । कण्टकोकरणाय पादप्रआयसमुत्था एए, देवयकरणं तु वृच्छामि ॥ हणे पादोरकेपणे च तथा दृष्टे सागारिके मृगपदीरूपे प्रतिसेयदि रात्रौ माजीरादिश्वापदादिज्यो विज्यन् प्रस्तरान शून्य- वे इति परिणते भावे चशब्दात्प्रतिसेवाकरणे च यथायोगं प्रागृहादौ च गृहस्यान्तः ( बुहशत्ति) प्रवेशयति । यदि वा स्ते- यश्चित्तमिति द्वारगाथासंकेपार्थः । सांप्रतमेनामेव गाथां विवनादिभयेन रात्री गच्छमागच्चति तदा प्रायश्चित्तं चत्वारो गु-| रीषुः प्रथमतो बहुपुत्रद्वारं विवृणोति । रुकाः । यदा पुनर्दिवसे एव शून्यगृहादाववतिष्ठमाना भयात्प्र- बहुपुत्ति त्यी आगम, दोसु व असु थालिविज्षणा । स्तरान्प्रवेशयति गच्छ वा भयमजीर्यन्समायाति तदा च अन्नान्नं पमिचोयण, बच्च गणं मा बलेपंता ।। त्वारो लघुका मासाः। एते आत्मसमुत्था दोषा नक्ताः । श्दानी बहुपुत्रा खी देवतारूपा तस्या आगमयोद्धयोरुपलब्धयोरुपरियद्देवता करोति तद्देवताकरणं वक्ष्यामि।सांप्रत 'मेगाणियसुम्मा सया स्थाबी निवेशिता सा पतिता जातम विध्यापनं ततः घरे इत्यादि' यदुक्तं तनिकुगणावच्छिद्याचार्यभेदेषु प्रत्येकंसवि. परं प्रतिचोदना तदनन्तरं तया उक्त बज गणं गच्चमा प्रान्तदेवशेषतरं भावयति ॥ तात्वांछनयिष्यतीति एष गाथाकरार्थनावार्थस्त्वयम् । “सम्मपत्थरमणसंकप्पे, मग्गणदिढे य गहियखेत्ते य । बिछी देवया इत्थीरूवं बहुयपुत्ते चमयरूवे विनव्वेत्ता पमिमापडियपरितावियमए, पच्छित्तं होरे तिएहं पि ॥ गयस्स साहुस्स समीवमल्लोणा । चेझरुवाणि रोवमाणाणि मासा लहुतो गुरुतो, चउरो बहुगा य चउर गुरुगाय । जणति जसंदेहेति । सा जण खिप्पं रंधेमि जाव ताव मारो यह । ताहे सा दोन्नि पाहणे जमले चवि तेसिं मज्झे अग्गि उम्मासा लहुगुरुगा, ओ मूलं तह दुगं च ॥ पजालित्तातेसिं उवरि पिहमं पाणियस्स रित्ता मुक्कं । तंपिहाडं प्रस्ताराणां ग्रहाणाय मनःसंकल्पे मार्गणे तथा ग्रहणबुद्ध्या प्र- तश्यपत्थरण विणा पमित। सो अग्गी विज्जवितो पुणो विअन्गि स्तरे दृष्टे तथा गृहीते तया किप्ते यस्योपरि प्रतिप्तः प्रस्तरस्तस्यो- पज्जा लिऊण पिहरू पाणियन्नरियं मुक्तं तहेव पमितं । अग्गी विपरि पतिते नवरमपरितापिते अनागाढं परितापिते तथा मृते च जवितो। एवं तं तियं पि वारं विज्झवितो ततो पमिमागतो त्रयाणामपि निक्षुगणावच्छेद्याचार्याणां प्रायश्चित्तं वक्ष्यमाणं साह भणति पत्तिएण विन्नाणेणं तुमं पत्तियाणि चेमरूपाणि यथाग्रिम जवति । तदेवाह (मासो इत्यादि) मासो लघुको निष्फाएसि एवं गणमाणस्स पच्चित्तं च लहुयं सा भणइ तुम गुरुकाः षएमासाः लघवः षण्मासा गुरुकादो मूलं तथा कहमेत्तिएण सुरण अप्पायोगो पमिमं पमिवनो सिग्धं आहि द्विकमनवस्थाप्यपारश्चितरूपमिति गाथाद्वयसंकेपार्थः । भा- गच्छ मा ते पंतदेवया ब्लोहित्ति" । गतं बहुपुत्रद्वारम् । वार्थस्त्वयम् । यदि निर्भयवशात्प्रस्तरविषयं मनःसंकल्प इदानीं पुरुषद्वारमाह । करोति गृहामि प्रस्तरमिति तदा तस्य प्रायश्चित्तं लघुमासः । ओवाश्यं समिक, महापसुं देमि सेज्ज मज्जाए । प्रस्तरस्य मार्गणे गुरुमासः प्रस्तरे ग्राह्योऽयमिति बुद्ध्या अवलोकिते चत्वारो लघुमासाः गृहीते प्रस्तरे चत्वारो गुरुकाः किप्ते एत्थेव तानि रिक्खह, दिखे वामं व समणा वा ॥ मार्जारादिश्वापदादीनामुपरि प्रस्तरे परमासा लघवः । यस्यो स कदाचिदश्यत आर्यासमीपे कायोत्सर्गेण स्थितस्तत्र बपरि विप्तस्तस्योपरि पतिते तस्मिन्नपरितापितेषएमासाःगुरवः॥ हवो मनुष्या आर्यावन्दनार्थमागतास्ते च तस्य साधोः समीगाढं परितापिते कोदः मृते मूझम् । तदेषं निकोबघुमासादारब्धं पदेशे स्थिता अवते । यथा यदापयाचितकर्माया जट्टारिकामूले निष्ठितम् । गणावच्छेदिनः प्रस्तरमनःसंकल्पे प्रायश्चित्तं याः समीपे याचितं यथा यद्यमुकं प्रयोजनमस्माकं सेत्स्यति गुरुको मासः प्रस्तरमार्गणे चत्वारो अधुमासाः प्रस्तरे ग्राह्यबु ततो महापद्यं प्रयच्छामः ति तदिदानी समृकं निष्पन्नमित्यर्थः। सच्चा उष्टे चत्वारो गुरुकाः । प्रस्तरे गृहीते षण्मासागुरवः प्रस्तरे ततः सद्यः श्दानी महापशु दमः। महापशु म पुरुषः । ततो घात्यस्योपरि पतिते बेदः । घात्यवगादे परितापिते मृलं मृते श्र. गवेषयन्तोऽत्रैव किश्चिन्मनुष्यं गता गवेषणाय मनुष्याः दृष्टः नवस्थाप्यं तदेवं गणावच्छेदिनो गुरुमासादारज्य अनवस्याप्ये स प्रतिमाप्रतिपन्नो हवा च कयितं मूलपुरुषाय यथेष श्रमणो निष्ठितम् । आचार्यस्य प्रस्तरमनःसंकल्पे चत्वारो सघमासाः दीयतामार्यायै शति एवमुक्ते यदि नयेन वामं करोति देशीवचप्रस्तरमार्गणे चत्वारो गुरुकाः प्रस्तरे ग्राह्यबुच्या दृष्टे पएमासा नमेतत् न समं करोति नश्यतीत्यर्थः । यदि वा श्रमणोऽहमिलघवः प्रस्तरे गृहीते गुरवः षएमासाः किते छेदः घात्यस्यो ति ब्रूते तदा प्रायश्चित्तं चतुर्बधु ।। परि पतिते प्रस्तरे मूलं गाद परितापिते घास्येऽनवस्थाप्यं मृते उदगजएण पलायज्ञ, पवश्रुक्खं व दुरुहए सहसा । पाराञ्चितमिति । संप्रति यदुक्तं । " देवयकरणं तु बुच्गमि" एमेव सेस एमुं, पडियाररूवेसु सो कुण ।। इति तत् अन्य विषद्घारगाथामाद । सो ऽव्यक्तप्रतिपन्नः कायोत्सर्गेण स्थित उदफप्रवाहे नादिगो Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (হ) अभिधानराजेन्द्रः । एगलविहारपडिमा समागच्छति । यशुदकभयेन पलायते यदि वा प्लयते तरति । अथवा सहसा वृकमारोहति तदा तस्य प्रायश्चित्तं चतुर्लघु पवमेव अनेनैव प्रकारेण पेयादिसमुत्थितेषु यदि प्रती कारं करोति चतुर्लघु । इयमत्र जावना । अग्नौ प्रसर्पति सर्वे वा समागच्छति यदि पत्रायते अन्यं वा प्रतीकारं करोति तदा प्रायश्चित्तं प्रत्येकं तानि पुरुषमेोदकाम तिसर्परूपाणि देवताकृतान्यपि संजायते खाभाविकानि च तत्र यदि देवताकृतानि यदि वा स्वाभाविकानि सर्वेष्वप्येतेषु प्रत्ये चतुषु । सांप्रतमत्थण आयत्यादि व्याचिव्यासुराह जेड अज परिच्छाहि अ-तुम्नेहिं समं वच्चामि । इति सकलुणमालत्तो, मुज्झिज्जर से अथिरभावो ॥ अथ घा देवता संयतीवेत्रं कृत्वा कायोत्सर्गे समाप्ते विहारक्रमं प्रति प्रस्थितं तमव्यक्तं साधुं प्रतिपन्नं ब्रूयात् । श्रहेो ज्येष्ठार्य ! अहमपि युष्माभिः समं व्रजामि तत्प्रतीक्षस्य तावत् यावत्पादलनं कण्टकमपनयामि इति एवं तया देवतया कृतसंयतीवेषया सकरुणमाप्तः स वराकः शैकत्वादेवास्थिरनावो मुह्यति मोहमुपगच्छति मु यदि प्रतीकृष्णादि करोति तथा प्रायश्चित तदेवाह अत्थति अवलोए तिय-झदुगा पुए कंटओ न मे लग्गति । गुरुगा नियतमाणे, तह तत्र यदि कण्टको मे लग्न इति वचः श्रुत्वा [ अत्यतित्ति ] प्र तीकृते तदा प्रायश्चित्तं लघुकाश्चत्वारो लघुमासाः । अथापि तत्संमुखमवलोकते तदापि चतुर्लघु । एतच्च " आसन्नतो - हुवो" इति वक्ष्यमाणप्रन्यादवसितम् । अय दूरात्तदा तस्मिन् दूरानिवर्त्तमाने चत्वारो गुरुका गुरुमासास्तथा [ कंटगमग्गणे ] कयामीति तत्पादलग्नं कण्टकं मृगयते तदापि प्रायश्चित्तं चतुर्गुरु ॥ बेदो कंटकपाय-गहणे गुरु वा । चलण मुक्खिवर दिडम्मि, उन्गुरुगा परिणतो जनति ॥ यदाहं प्रतिसेवे इति तदा छेदः अकरणे प्रतिसेवायाः पट् लघवो बघुमासाः । अथ तस्याः संयत्याः पादं गृह्णाति कण्टकोकारणाय तदापि षट् लघु यदि पुनश्चरणं पादमुत्किपति उत्पादयति कएटकोकारणाय तदा षट् गुरु । पादे उत्पादिते सति यदि सागारिकं पश्यति तदा तस्मिन्नपि दृष्टे षम् गुरु सागारिकदर्शनानस्तरं यदि भावः परिणतो नवति यदाहं प्रतिसेवे इति तदा छेदः करणे प्रतिसेयाकरणे मूलं एतत्प्रायश्चिसविधान निको रुगणावच्छेद्याचार्थयोः पुनरिदमाद [ सत्तदति ] यत्र पू. रणप्रत्ययान्तस्य लोपः प्राकृतत्वात्ततोऽयमर्थः । गणावच्छेदिनः प्रायश्चित्तविधानं द्वितीयाच्चकमार समाप्तम नवस्था प्रायश्चित्तं यापयमेषम्। आचार्यस्य प्रथमा चतुर्थगुरुकादार धममं पाराञ्चितं प्रायश्चित्तं यावत् । एतदेवाह ॥ लहुया य दो दोसु य, गुरुगा ब्रम्मासलदुगुरू बेदो । निक्खुगणायरिया, मूलं प्रणबद्ध पारंची ॥ निक्षुगणाचार्याणां निकुगणावच्छेद्याचार्याणां यथाक्रमं प्रायश्चित्तविधानं मूलमनवस्थाप्यं पाराश्चित्तं च यावत्तद्यथा निकौद्वयोः प्रतीकणेऽवलोकने च चत्वारो मासा लघवः द्वयोर्निवर्तन क राटकमार्गणे च चत्वारो गुरुकाः उम्मारुति मन दो ते प्रत्येकमभिसंबध्यते द्वयोः कण्टकग्रहणे पादग्रहणे च षण्मासा ल भ्रवः दयोः पादोदकेषे सागारिकदर्शने व ष गुरु प्रतिसेवाभिप्राये विहारपाडमा 1 प्रतिसेवाकरणे गणावच्छेदिनो यथाऽनवस्थाप्यं पर्यन्ते भवति तथा वक्तव्यम् । तचैवं गणावच्छेदिनः प्रतीकणे चत्वारो लघुकाः अवलोकने चत्वारो गुरवः । निवर्त्तने चत्वारो गुरवः कण्टकमार्गणे पद लघु कण्टकग्रहणे षट् लघु संयंतीपादप गुरुपोत्पाटने सागारिकदर्शने छेदः । प्रतिसेवाभिप्राये मूलम् । प्रतिसेवाकरणेऽनवस्थाप्यम्। आचार्यस्य यथा पारश्चितमन्ते जयति तथा वक्तव्यं तचैवमाचार्यस्य प्रतीकृणे चतुर्गुरु नर्तने कटकमार्ग पर अटक पादग्रहणे व पट् गुरु पादपाउने बेदः । सागारिकदर्शने मूलं प्रति सेवाभिप्राये मूत्रम् । प्रतिसेवाकरणे पाराञ्चितमिति । संप्रति यदुक्तं " गुरुगा निवत्तमारा" इति तत्र विशेषमाह । आसन्नातोलढुओ, दूरनियत्तस्स गुरुतरो दंडो । योगयसंग्रामदुर्ग, नियह विसति यया ।। संयत्यासन्नात्प्रदेशा निवृत्ते बघुको दण्डः चत्वारो लघुमासा दम इत्यर्थः । दूरानिवृतस्य गुरुतरखत्यारी गुरुमासाः । एवमाचार्येण प्ररूपिते चोदकः प्रश्नयति । तत्र चोदकाचार्यनिदाम निदर्शनं तं प्रति निवृत्तं प्रत्यागतं ये (खितिति हयन्ति तेषामनुदाताश्चन्यारो गुरुका मासा प्रायश्चित्तमित्युतराशेपार्थः । दानमेतदेोरा दिपः प्रथमतोदकवचनं भारयति ॥ य, दिडं लोए आओ अंगविणिए य अरणियनियतो । अवराहे नाणं, न रोए केप तु ॥ प्रागुकाचार्यप्ररूपणानन्तरं परः प्रश्नयति । ननु संयत्याः प्रत्या सन्नात्प्रदेशात्प्रतिनिवृत्तस्य गुरुतरेण दण्डेन भवितव्यं दूरात्प्रतिनिवृत्तस्य लघुतरेण न चैतदनुपपन्नं यतो लोकेऽपि दृष्टं तथा होकस्य राज्ञो नगरमपरो राजा वेयितुकामः समागच्छति तं च समागच्छन्तं श्रुत्वा नगरस्वामी भयात्प्रेषयति । तथा यूयं तत्र गत्वा युध्यध्वमिति । तत्रैको भटः परबलमतिप्रभूतमालोक्य दर्शनमात्र एवं नग्नः प्रत्यागतोऽन्यो युध्वा चिरकालं संजातव्रणो भग्नः समागतः अपरः परबलेन सह युध्वाऽसंजातव्रण एव जग्नः प्रतिनिवृत्तः सबै भटानां मध्ये या आलोकभङ्ग दर्शनमा भग्नः प्रतिनिधूतस्तस्य बहुतरोऽपराधः यः पुनः संजातवृणो य पितापिनी सन्ती प्रतिनिवृत्तचित्यपराध मोकभाषाऽल्पतरापराधी दूरात्प्रतिनिवृत्यादेवं लोके] दूरासनेदेनापराधेनामात्यमिदमुत बलेन यन्मयोक्तं संयत्याः प्रत्यासन्नात्प्रदेशात् प्रतिनिवृत्तस्य भूयाद परमो दुराव्यतिमिवृत्तस्पापतर इति ततः केन कारणेन युष्मभ्यं न रोचते । सूरिराह ॥ अक्खयदेहनियतं बहुदुक्खभए जं समारोह | एयमहं न रोयति को ते विसेसो भने एत्थ । दुःख येन परवलेन सह युध्यमानस्य प्रभूतं दुःखं मरभविष्यतीति भवेन सः सन् निवृतः प्रति निवृत्तोऽतदेहनिवृतस्तत्समानम एतमन त्वात्तथाहि । न सर्वया अत्राकृत्तचारित्र प्रतिनिवर्त्तते किं तु कृत्तचारित्रस्ततोऽव्यत्र स उपन्यसनीयो योऽधिकृतस्तदा वान्तिकेन सहमानतामवलम्बते न चासौ तथेति पर आई । यदेष दृष्टान्तस्तव न ज्ञासते ततः कोऽस्मिन् विचारे तब विशेषो नवेत विशिष्ठो दृष्टान्तः स्यात् । सूरिराह । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) अभिधानराजेन्द्रः | एगविहारपडिमा एसेव यदितो, पुररोहे जत्य वारियरमा । मी तत्थति, दूरासने य नाणत्ता ॥ एष एव जवपन्यस्तो दृष्टान्तःपुररोधे सति यो पुर राधे राज्ञा या वारितं यथा मा कोऽपि पुरान्निर्यासीदिति तंत्रनिवारित्र निति दूरादासाद्य प्रतिनिवृत्तं यथा नानात्वमपराधविषयं तथेहापि योजनीयम् । तद्यथा एरवन्नेन नगर रोपे तेरा पटन घोषितं यथा योगराजस्य समया निर्याय इति ततः कोऽपि निर्गत्य श्रसन्नात्प्रतिनिवृत्तो उपरो दूरातत्र तथेतयोरासन्नात्प्रतिनिवृत्त स्याल्पतरो राज्ञा दएको द्गत्प्रतिनिवृत्तस्य बहुतरः एवं यो दूरात्संयत्याः प्रतिनिवृत्तस्तस्प गरीयान् भावदोष इति सात्प्रतिनिवृत्तस्य स्वल्पीयान्भावदोष इति चतुर्लघु । संप्रति" पुणो आलोएजा" ६त्यादि सूत्रं व्याख्यानयति । सेसम्म चरित्तस्सा-लोयणया पुणो परिक्रमणं । परिहारं वा आवजोत पायो । यद्यपि प्रतिमाप्रतिपन्नस्य चारित्रविराधनाऽऽसीत् तथापि न चारि सर्व तु शेषोऽवतिष्ठते व्यवहारनयमन देशसर्वतः शेषे चारित्रस्य सति पुनरा चना पुनः प्रतिक्रमणं न पुनः शब्दो द्वितीयवारापेकः । तथा च ari वक्तारः कृतमिदमेवैकवार मैदानी पुनः क्रियते इति । अत्र प्रथममेवाच प्रथममेव च मणं ततः कथं पुनः शब्दो पपत्तिः । उच्यते यत्रैव स्थाने सोऽकृत्यं कृतवान् तत्रैव स इत्थमचिन्तयत् तचपामि प्रतिकमामि च तावद मे स्याकृत्यस्य भूयः झालोयविष्यामि प्रतिक्रमवियामि च । चिन्ता तथैव चकात् ततो घटते पुनः दो पादानमिति । यदि वा यदेव तदानीं हा दुष्ठु कारितमित्यादि चिन्तनेवाली संदेय च प्रतिक्रमण भवति तदपेक्षया पुनः शब्दोपपतिः पचि दे परिहार वा प्रायश्चित्तमापन स्तत्कमापनतममाप्नोति प्रतिपद्यते। संप्रति यदुक्तं "नियट्टखिं संत शुग्धाया" इति तद्व्याख्यानयति ॥ एवं सुभपरिणामं, पुलो वि गच्छंति तं पडिनियत्तं । जे हीजड़ खिंसइ वा, पावर गुरुए चउम्यासे ॥ एवं पुनरालोचनाप्रतिपत्यादिप्रकारे शुभपरिणामं शोभनाध्यवसायं पुनरपि गच्छे प्रतिनिवृत्तं सन्तं यो हीलयात खि सयति वा तत्र यदि श्रसूया निन्दनं तत् यथा समाप्ति नीताअनेन प्रतिमा सांप्रतमागतो वर्त्तते ततः क्रियतामस्य पूजेति । यत्पुनः प्रकटनं निन्दनं सा खिसा यथा धिक् तव भ्रष्टप्रतिशस्येत्यादि स प्राप्नोति प्रायश्चित्तं गुरुकान् श्रनुद्धातान् चतुसे मासान् व्य० प्र० १ ० ॥ एगवसरगुण पद्यन्ते अन्यं च प्रतिपादयन्ति । एवमाचार विनयमात्मानं परं च विनयति व्य० द्वि० १० उ० । एगनगमा - एकनगमा - स्त्री० एको वगमः परिकेपो यस्याः सा । एकवृत्तिपरिकेपायां वसतो, एगवगमाए अंतोषहिया संबकसंबा " तद्यथा साधुर्वसतः एगवगडाए इति । एकवृत्ति परिक्षेपाया अन्तर्बहिश्चेति । व्य० ७ उ० । एवम् एकवर्ण त्रि० को चल रूपं यस्याः अन्यरूपामिश्रि तवर्णयुक्ते, एको वर्णः जातिनेदो यत्र । ब्राह्मणादिवर्णवि भागशून्ये कलियुगावशेषस्यलोके पर्यते अनेन वर्गः एकयर्थः स्वरूपं यस्य । एकस्वरूपे, शुक्लादी रूपे, एकस्मिन् शब्दे च । श्रेष्ठवर्णे श्रेष्ठजातौ च ॥ वाचन वीजगणितोक्ते सजातीये तुल्यवर्णे यज्ञे च ० एका कृष्णादिम्यतमो वर्णोऽस्पेत्येकवर्णः । उत्त० १ अ० । कावाद्येकवर्णे, भ० ५ ० ७ ० १ एगममीकरण एकीकरण-म० एकपणीं तुल्यरूपी समीक्रियते अनेन करणे बीजगणितो गंतबीजभेदे, वाचस्पती अणकारी दर्शितः प्रथममेकर्ससमीकरणं वीजं द्वितीयमनेकपण सभी करणं बीजे यंत्रकर्णवामकरणमयमा हरणम् । यत्र जावितस्य तद्भावितमिति वीजचतुष्टयं वदन्त्याचा भास्कराचार्याः । अस्योदाहरणम् । एकस्य रूपत्रिंशती रुभ्वा अभ्वा दशान्यस्य तु तुल्यमूल्याः । ऋणं तथा रूपशसञ्च तस्य तौ तुल्यवित्तौ च किमश्वमूल्यम् । एतच्चाव्यक्तशब्दे व्या ख्यातम् । अत्र तुल्यमूल्यस्याश्वरूपस्यैका विधस्यैव पृष्टसंख्यातस्य समीकरणात एकवर्णसमीकरणमित्यनुगतार्था संज्ञा वाच० एगवण एकवचन-म० एकोऽर्थ उच्यते - स्यार्थस्य वचनमेकवचनम् । वचनभेदे, उदाहरणं देवः स्था०२ । एकवचनं वृक्ष इति । श्राचा० २ श्रु० । बहुत्वेऽपि कुत्रचिजातावेकवचनम् "इह जयमत्तासे हंता" अत्र बहुवचनप्रत्रमेsपि जात्यपेयैकवचनेन निर्देश इति । श्राचा० १ ० १ ० ॥ लोगस्स परियागं जाण पास, ( परियागं ) जातावेकवचनमिति पर्य्यायान् विचित्र परिणामान् इति स्था० १० ० । एगविक एक पुं० एकस्य शतरि " यगे य एकमेवात्मानं परलोकगामिनं वेत्तीत्येकवित् न मे कश्चिद् दुःखपरिमाणकारी सहायोऽस्तीत्येवमेकचित् यदि वैकान्तेव विदितसंसारस्वभावतया मौनीन्द्रमेच शासनं तयं नान्यदित्ये सत्येन्तत्किमो मो या तं बेसीति । सूत्र० १ श्र० ८ श्र० एगलविहार सामायारी - एका किविहारसमाचार - स्त्री० आचारनियमे एकाविहारप्रतिमां स्वयं प्रतिपद्यते परं ग्राहयतीति एकाकिविहारसामाचारीति । प्रव० ६४ द्वा० ॥ एगविह एकविध - त्रि० एका विधा प्रकारोऽस्य । एकप्रकारे, भ० ३४ श० १ उ० । “एकविदं केवलं नाएं" एकविधं नेदविप्रमुक्तमिति । विशे० ॥ एगविहारिन् एक बिहारिन पुं० एकः सन् विहरतीत्येवं शीखः वृ० १४० । एकाकिविदारिणि जिनकल्पिकादी वृ००० ( एतद्वक्तव्यता एगलुविहार शब्दे ) एगविहिविहाण - एक विधिविधान- त्रि० एकप्रकारेण व्यवस्थिते सांप्रतमेकाकिविहारसामाचारीमाद | गाविहारादी, परिमापडिवज्जती य सयणं वा । परिवज्जावे एवं अप्पा परं विति । पंवार दिसां ता एकैकविद्वारादय आदित्यविभाग विशेषानुष्ठानपरिग्रहः एवंभूताः प्रतिमा स्वयं प्रात एगरीसरइगुण एकविंशतितिगुण- कामास एक 'लवणादीया समुद्दा संगणओ एगदिहिविहाणा ” एकेन विधिना प्रकारेण विधानं व्यवस्थानं येषां ते तथा सर्वेषां वृत्तस्वात् भ० ११ श० उ० ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगवीरइगुण एक " 1 विशतिसंख्याके रतिगुणेवीरगुणप्पाणा शती रतिगुणाः कामशास्त्रप्रसिद्धाः ॥ विपा० १ श्र० । एगसंसय एकसंश्रय त्रि० एकाधारे, “सर्वत्राप्यविरोधेन धर्मी द्वावेकसंश्रया " । एकस्मिन् इव्ये संश्रय श्राधारो ययोस्ती एकसंश्रयात्रिति । द्रव्य० ४ अध्या० । एगसमय एकसामयिक- वि० एकः समयो यशस्त्यखावेकसामयिकः । एकसमयोपेते, "एगसमश्रण वा विग्गण नववजेज्जा० भ० २४ श० १ ० । समय-एकसमय-५० एकस्मिन् समये समये रण वा एकेन समयेन उपपद्यन्त इति योगः भ० १४ २०१३०॥ एकसमयडि:- एकसमयस्थिति-त्रि एवं समयं यावत् स्थितिः परमात्यादिना एकप्रदेशापगाढा दिल्वेव एकगुणकालादित्येनावस्था येषां ते एक समयस्थिविकास्तेषु स्था० १ दा० भ० । एसडि एकषष्टि-स्त्री० एकाधिका पहिः एकाधिपटसंख्या. याम, तत्संख्यान्विते च । “बकलाई उउमासा पत्ता " स० । एगसरिय- अब कांगत्यर्थे, संप्रत्यर्थे च एकसरि भगति संप्रति एकसरिश्रं झगित्यर्थे संप्रत्यर्थे च प्रयोक्तव्यम् । एक्कस रिश्रं झगिति सांप्रतं घा । प्रा० ८ श्र० ३ प० । एगसरिया - एकसरिका- स्त्री० एकावल्याम्, एकावलीच विचि त्रमणिकता कसरिफेति ० १ ० । एगसाहय एकशाटक. श्रि० एकवस्त्रे, "अदुवा एकसाडे" अथवा शनैः शनैः शीते ऽपगच्छति सति द्वितीयमपि कल्पं परित्यजेत्। एकशाटकस्संवृत इति । श्रचा०१ श्रु०४ श्र० २३० । एगसामिय- एक शाटिक भ० एकपटे, " एगसाडियं उत्तरा - त्रि० संकरेश" (एमसादिति ) एकपटतरास करोतीति । कल्प० ।" एगसाडिएणं उत्तरासंगकरणं" भ० २०१३० । एगसाहिलो- देशी० एकस्थानवासिनि, दे० ना० ॥ एसि एकशम् अन्य पायर्याद कारकायें वीप्सायें शस् । एकशो डिः । । ४ । २८ । इति सूत्रेणापभ्रंशे एकशब्दस्यार्थ डिः ॥ एसिसीलकलंकि देखाता जो पुण खंडर अणुदिश्रहुतसुपच्छित्ते काई । प्रा० । अल्पमल्पमेकमेकं वेत्याद्यर्थे, "वत्तोणामं एक्कसि " एक्कासिमेकवारं यः प्रवृक्तः स वृत्त इति । व्य० १० उ० । एमवित्रिदेशी० शाल्मली पुग्दैनवफलिकायाम, दे० ना० ॥ एसिक एकसिक पुं० एकस्मिन् समये एकका एच सन्तः सिद्धाः । सिद्धभेदे, प्रज्ञा० १ पद । ल० । ध० । एकस्मिन् २ समये एककाः सन्तो ये सिद्धास्ते एकसिद्धा इति । नं० । एकेकसमये जीवसिदिगमनादेकसिद्धा इति पा० ॥ एगसेल एकशैल पुं० [पूर्वपस्थमन्दरपर्वतसमीपस्थे स्प नामख्याते वस्कारपर्वते, स्था० ४ ० । धातकीखएपश्चि मास्थमन्दपर्वतस्ये स्वनामस्याले वहस्कार स्था० २ aro | ( तयोर्वव्यता वक्बार शब्दे ) तथाच " श्हेव जंबूदीवे२ पुन्वविदे सीताए महानईए उत्तरिले कूले नीलवंतस्स दाहिणेण उत्तरिस् सीतामुहत्रणसंगस्स पञ्चच्छिमेणं एगसेस्सवक्खारपव्वतस्सेति | झा० १० अ० / एकू एकशेपुं०० महादेवल स्कारपर्वतस्ये स्वनामस्याने फूटे जं० ४ ० यात वाच० । "3 - (at) अभिधानराजेन्ः | 39 एगरसप कीखण्डपश्चिमार्द्धस्थमन्दरपर्वतस्थे स्वनामख्याते वक्षस्कारपर्वते, स्था० २ ठा० । ( तद्वक्तव्यता वक्खार शब्दे ) महाविदे हवर्षस्थे स्वनामख्याते वक्षस्कारपर्वते च । तद्वक्तव्यता यथा । कहां ते महाविदेहे वासे एगसेले फार्म वाप पत्ते गोमा पुक्खलावत्तचक्कवाडिविजयस्स पुरच्छ्रिमेणं पोक्खखावत्तचक्कवद्विविजयस्स पञ्चच्चिमेणं पीलवंतस्स दक्खिणं सीआए उत्तरेणं एत्थणं एगमेले पामं वक्खारपव्वए पत्ते । चित्तकूडगमेणं अव्वो जात्र देश संपति चचारि कुमा तजहा सिकायचकूटे ? एगसेस कूडे २ पुरवलायकूकूमे ४ कूटानं तं देव परियाण जाव एगसेले अ देवे महिए || जं०४० ॥ एगसेस-एकशेष-पुं० एकः शिष्यतेऽन्यो लुप्यते यत्र शिपआधारे घञ्- समासनेदे, तथाच ॥ सेकिंत एगसेसे एगसेसे जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा जहा बहवे पुरिसा तहा एगो पुरिसो जहा बहवे साक्षी हा एगो साली जहा एगो साली वहा बहवे साझी सेतं एससी सेचं समासिए । सरूपाणामेकशेष एकविभक्तावित्यनेन सूत्रेण समानरूपाणामेक पदानामेकशेषः समासो जयति सति समासे एकः शिष्यतेऽन्ये तु लुप्यन्ते यश्च शेषोऽवतिश्रुते स आत्मार्थे लुतस्य लुप्तयोर्भुतानां चार्थे वर्तते । अथ एकस्य लुप्तस्यात्मनश्चार्थे वर्तमानात्तस्मात् द्विवचनं भवति । यथा पुरुषश्च पुरुषश्चेति पुरुषौ । द्वयोश्च लुप्तयोरात्मनश्चार्थे वर्तमानाद्बहुवचनं यथा पुरु पारे पुरुषाः। एवं बहून मनामनायें वर्तमानावि हुवचनं यथा पुरुषश्च ४ पुरुषाः इति । जातिविवक्षायां तु सर्ववैकवचनमपि जावनीयमितः सूत्रमनुश्रियते ( जहा एगो पुरिसोन्ति ) यथैकः पुरुषः एकवचनान्तपुरुषशब्द इत्यर्थः । एके शेषे समासे सति कार्थवाचक इति शेषः । ( तहा बहवे पुरसत्ति ) तथा बढ़कः पुरुषा बहुवचनान्तः पुरुषशब्द इत्यर्थः । एकशेषे समासे सति यह्नर्थवाचक इति शेषः । यथा चैकशेषे समासे बहुवचनान्तवान ऽपीति न कश्चिद्विशेषः । एतदुक्तं जवति यथा पुरुषश्ध इति विधाय पुरुषशब्दशेषता कियते तदा पकवचनान्तः पुरुषो र्यान्यति तथा बहुवचनन्तोऽपि यथा बनाये नान्तोऽपीति न कश्चिदेकवचनान्तत्वबहुवचनान्तत्वयोर्विशेषः केवलं जातिविवकायामेकवचनं बह्नर्थविवकायां तु बहुवचनमिति । एवं कार्षापणशास्यादिष्वपि भावनीयम् । अयं च समासो विशेष एवोच्यते केवल मेकशेषताऽत्र विधीयते इत्येतायता पृथगुपात इति अक्ष्यते तस्य तु सकार दिनो वदन्तीत्यमिति विजृम्भितेन ॥ अनु० । एकः प्रधानं शेषोऽन्तः । एकान्ते, पुं० । बहु० अतिशयिते, त्रि० । वाच० । एगस्सय- एकाश्रय-त्रि- एक आश्रय आधारोऽवलम्बनं वा यस्य अनन्यगतिके, २ वकाधारनीवैशेषिक गुणभेदे च । ते च गुणाः अनेकाश्रितगुणनिशाः ॥ " संयोगश्वविज्ञाय संख्याद्वित्यादिकास्तथा द्विपृथकृत्वा काश्रिता गुणाः । अतः शेषगुणाः सर्वे मता पयः ॥ भाषाः । एकस्मिन् आधारे, पुं० वाच० । 9: Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगाई (३१) एगहक्ष अनिधानराजेन्डः। एगहक्ख-एकधाख्य-त्रि० एकप्रकरकाख्योपेते,। नियबंधुणा वि सदि, तं गच्छं गच्छगुणहीणं । एकवाक्ष-त्रि० एकप्राकरजीवोपेते,“एगे दुक्खे जीवाणं एग-। यत्र च एकाकिनी श्रमणो एकाकिना निजबन्धुनाऽपि सार्क ते."पान्तरे त्येकधैवाख्या संशुकादिळपदेशो यस्य नत्वसंशु- जल्पति अथवा एकाकी साधुरेकाकिन्या निजन्नगिन्याऽपि साई रुसंशुकासंगुरू श्त्यादिकोऽपि व्यपदेशान्तरनिमित्तस्य कषाया जल्पति हेसौम्य ! हे गौतम! तं गच्छ गच्छगुणहीनं जानीहीति देरजावादिति । सनवत्येकधाख्य एकधा अको वा जीवो यस्य शेषः। यतः एकाकिन्याः श्रमायाः निजबन्धुनापि साड़मेकाकिनः स तथेति जीवानां प्राणिनामेकनूत एक श्वात्मोपम इत्यर्थः ॥ साधोर्वा निजलगिन्याऽपि सार्द्ध संदर्शनसंभाषणादिना बहुदोस्था० १०॥ पोत्पत्तिर्भवति कामवृत्तेमलिनत्वात् तथाचोक्तम् "संदसणेण एगहा-एकधा-अव्य० एकप्रकारे-धा- । एकप्रकारे, वाच । पीई १ पीओ२ रओ ३ रईन वीसंनो ४ वीसंभाओ पणम्रो ५ पंचविहवट्टए पिम्म" ||१|| जह जह करेमि नेहें, तह तहनेहोएगाइ-एकादि-त्रि० एक आदिर्यस्याः १ एकत्वसंख्यान्वितमा मि व तुमंमि । तणनमिओमि वलियं, जं पुच्छसि दुष्यलतरो राज्य परान्तिसंख्यायुक्ते, २तत्स्मारके रेखासनिवेशविशेषरूपे सिमित्तिममश्यदसणसंजा-सणेण संदीविउ मयणवराही। अड़े च । वाचा द्वारनगस्थेस्वनामख्याते राष्ट्रकूटे च । "इहव वंजाई गुणरयणे, महइ अणिच्च वि पमायाओ ३ अनिच्छतोऽपि जंबूदीये भारहे वासे सयदुवारे णामं णयरे होत्था"-"तस्स दहति तथा "मात्रा स्वस्त्रा ऽहित्रा वा, न विविक्तासनोभवेत्। णं सयदुवारस्स णयरस्स अदूरसामंते दाहिणपुरछिमे दिसि बलवानिन्द्रियग्रामः परिमतोऽप्यत्र मुह्यति" ॥१॥ इति गाथाभाए विजयवक्षमाणे णामं खेले होत्था” "तस्सणं विजयब उन्दः॥ ग०३ अ०। कमाणखेमे पक्का णामं रहकूमे होत्था' इति" विपा० राष्ट्र एकाकिन्या निम्रन्च्या गृहपतिकुलप्रवेशादिनिषेधो यथा कूटो मामलोपजीवी राजनियोगिक इति । विपा०१०। नो कप्पा निग्गथीए एगाणियाए गाहावश्कुलं पिंमवायफएकाकिन्या निर्ग्रन्थ्या उपाश्रयरकणे दोषाः । एकाकिन्या कु. डियाए निक्खमित्तए वा विपसत्तए वा बहिया वियारनूमि ल्लिकादिकया वतिन्योपाश्रयरकणे दोषमेव दर्शयति । वा विहारजूमि वा निक्खमित्तए वा एवं गामाणुगाम वा जत्य य एगा खुड्डी, एगा तरुणी य रक्खए वसहि । वइज्जत्तए वासावासं वा वत्थए । गोयम तत्थ विहारे, का सुद्धी बंभचेरस्स ।। एवं यावदेकपार्श्वशायिसूत्र तावत् सर्वाएयपि सूत्राण्युद्धापयत्र च साध्वीविहारे एकाकिनी कृतिका एकाकिनी तरुणी यितव्यानि । अथामीषां सूत्राणां संबन्धमाह। वा तु शब्दान्नवदीकिता वैकाकिन्युपाश्रयं रक्कति हे गोतम! तत्र बंभवयरक्खणहाए, अधियारो तु हति ते सत्ता। साध्वीविहारे ब्रह्मचर्यस्य का दिन कापीत्यर्थः " इत्थ वि जो एगपासमायी, विसेसतो संजतीवग्गो॥ दोसा कयाई वसहीए एगा खुड्डी किडिज्जा कोश तं अवहरिजा ब्रह्मव्रतरवणार्थमनन्तरं सूत्रद्वयमुक्तममून्यपि सूत्राणि याववा बलामो वा कोश सेविज्जा इच्चाइ बहु दोसा तरुणो विएगा देकं पार्श्वशायिसूत्र तावत्सर्वाएयपि अधिकाराणि तस्यैव ब्रह्मगिणी मोहोदएण फलादिणा च तत्थ सेधिज्जा पगागिणिं वा तं व्रतस्य रकणार्थमभिधीयन्ते (विसेसओ संजई वमोति)पतेषु द?ण तरुणा समागच्छतिहासाश्य कुब्वंति अंगे वा लम्गंति तो सूत्रेषुकिंचिन्निर्ग्रन्थानामपि संभवति।तथा एकाकी सूत्रं परं विउडाहो भवति । तं फासाओ वा मोहोदो भवति सील भंजि- शेषतः संयतीवर्गमधिकृत्यामूनि सर्वाण्यपि इष्टव्यानि । अनेन ज वा गम्भो वा भवेज तं च जश् गावे महादोसा भवश् अह संबन्धेनायातानाममीषां प्रथमसूत्रस्य नवेद व्याख्या न कल्पते । बट्टा तो पवयणे महा उडाहो भवति । अहवा पुचकी नियं स निर्ग्रन्ध्या एकाकिन्या गृह पतिकुलं पिएमपातप्रतिझ्या निमितुं मरमाणी वासाइयं वा दट्टण गच्चं मुत्तूण एगागिणी तरुणी सा- प्रवेष्टुं वा बहिर्विचारभूमौ विहारभूमी वा निष्कमितुं वा प्रवेहुणी गछिज्जा एवमा बहुदोसा एवं नवदिक्खियाए वि एगा- ष्टुं वा प्रामानुग्रामं वा व्रजितुं वर्षावासंवा वस्तुमिति सूत्रार्थः । गिणीप एगागिसेहसा हुव्वदोसा नायव्वेति गाथाच्छन्दः १०७। संप्रति नियुक्तिविस्तरः।। अथैकाकिन्या वतिन्या रात्री वसतेबहिर्गमने निर्मादत्वमाद । एगागी वच्चती अप्पा, तमहं वत्ता परिच्चत्ता। जत्य य उवस्मयाओ, बाहिं गच्छे हत्थमित्तं पि। लहुगुरु लहुगा गुरुगा, भिक्खवियारे वसहिगामे ।। एगा रत्ति समणी, का मेरा तत्य गच्छसि ।। एकाकिनी निर्ग्रन्थी यदि भिकादौ व्रजति तत प्रारमा महानयत्र च गणे उपाधयादहिरेकाकिनी 'रतिति' सप्तम्या द्वि- तानि च तया परित्यक्तानि भवन्ति स्तेनाद्युपध्वः संभवेत् अतो तीयेति सूत्रेण सप्तमीस्थाने द्वितीयाविधानात् रात्रौ श्रमणीसा- निकायामेकाकिन्या गच्छन्त्या लघुमासा बहिर्विचारनूमी गच्चध्वी द्विहस्तमात्रमपि नूमि गच्छेत् तत्र गच्छे गच्छस्य का म- त्या गुरुमासा ऋतुबके वर्षावासे या वसति एकाकिनी गृहाति यादा। अथवा कचिदू द्वितीयादेरिति प्राकृतसूत्रेणात्र सप्तम्यर्थे षष्ठी चतुर्लघु ग्रामानुग्राममेकाकिनी व्रजति चतुर्गुरु । दमेव शेषित ततस्तत्र गच्छे का मर्यादा न काचिदपीत्यर्थः । “श्थविदोसा. प्रायश्चित्तमुक्तम् । अथ विशषितमाह। कया परदारसेवकारयणीए एगागिणि समाणि दट्टण हरिज्जा __मासादीया गुरुगा, येरी खुड्डी विमजिकमतरुणीणं । चहाहं वा करजा पच्नं वा रायाई नममाणो संकिज्जा का पसा तवकालविसिट्टा वा, चनसं विचनबहमासाई ।। चोरा वा अवहरंति पत्थाश्यं वा गिएहति । अहवा कयाई गुरु स्थविराया एकाकिन्या निकादौ व्रजन्त्या मासरघु कुल्लिकाणीए फरसचोयणं संभरमाणी पुब्बकीलिय वा रयणीए विसेसं या मासगुरु विमध्यमायाश्चतुर्बधु तरुण्याश्चतुर्गुरु । अथवा स्थनसभरमाणी पगागिणीगच्छिज्जा या बहुदोसात्ति" ॥१०८ ॥ विरा यद्येकाकिनी भिक्कां याति ततो मासयघु तपसा कालेन अथैकाकिश्रमणाधिकारादेवेदमाह ।। च लघुकं बहिर्विचारनूमौ विहारनूमौ वा याति मासलघु कालेजत्थ य एगा समणी, एगो समणो य जंपए सोम। | न गुरुकं च मतिं गृह्णाति मासलघु । तपसा गुरुकं ग्रामानुग्राम Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगाइ द्रवति मासलघु । तपसा कालेन चतुर्गुरुकम् । एवमेष चतुर्षु स्थानेषु चत्वारि मासगुरूणि तपःकालविशेषितानि कर्तव्यानि । विमभ्यमाषातुर्षु स्थानेषु चत्वारि चतुर्लभूमि तप का थियो षितानि तरुष्याः स्थानचतुष्टयेऽपि तथैव तपःकालविशेषितानि चत्वारि चतुर्गुरुणि ॥ अथ दोषानाह । चिती वेगागी, किल्हई दोसे ण इत्यिगा पावे । आमोसगतरुणेहिं किं पुण पंचमि संकाय ॥ किमेकाकिनी श्री प्रतियन्ति दोषान प्रोति येनैवं निकाटनादिकमेचेकाकिन्याः प्रतिषिध्यते इति शिष्येण पृष्टः सूरिरा दोषान् परमामोषकाः स्तेनास्तर णा वा तत्स्थास्तत्कृता एकाकिन्याः पथि गच्छन्त्या नूयांसो दोषाः । शङ्का च तत्र जवति । श्रवश्यमेषा दुःशीला येनैकाकिनी गच्छति । किंच ॥ (३३) अभिधानराजेन्द्र गामिलिए दोसा, साया तरुणे तहवे मिणीए । जिक्खविसोहि महव्वत, तम्हा सवितिज्जया गमणं ॥ एकाकिन्या निक्षामन्त्या एते दोषा जवन्ति श्वानः समागत्य दशेयुस्तरुणो वा कश्चिदुपसंगमयेत् । प्रत्यनीको वा हन्यात् । गृहादानीता निकायामनुपयुज्य वृह्यमाणायामेषणानि भवति । कोलविलप्रयोगादिना च महाव्रतानि विराभ्यन्ते । येन एते दोषाः अतः सद्वित।यया निर्धच्या भिकादो गमनं | कर्तव्यम् ॥ द्वितीयपदमाह । सिवादि मीससत्थे इत्थी पुरिसे व पूजिते लिंगे । एसा उ पंथजयणा, जावियवसही य भिक्खा य ॥ शिवादिनः कारणै। कदाचिदेकाकिन्यपि भवेत् तत्रेयं यतना ग्रामान्तरं गच्छन्ती श्री सार्थेन प्रति तदभावे पुरुषमिषेण श्री. सार्थेन तद्भावी संबन्धिपुरुपखान मजति अथवा पतय 13 पूजितं तद्विधाय गच्छति एषा पतिमानणिता प्रामे च प्राप्साया यानि साधुभाषितानि जानि तेषु सतिं गृह्णाति भिकामपि तेष्वेव कुलेषु पर्यटति । वृ० ५ उ० ॥ एगाउछ- एकनवति--स्त्री० एकाधिका नवतिः शा० त० एकाधिकनवतिसंख्यायाम्, तत्संख्यान्विते च वाच० 64 'एक्काणच६परवेयावच्चकम्मपरिमाओ पाओ" सम० । गाहा - एकानुप्रेक्षा-त्री० एकस्यैकाकिनोऽसहायस्यानुभावना एकानुप्रेका “ एकोऽहं नास्ति मे कश्वि-ब्राहमन्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि यस्याहं, नासो भाषीति यो मम इत्येवमात्मनः एकत्व नाघनायाम् । स्था० ४ ग० । एगाचरण एकाभरण - न० एकजातीये आजरणे, “एगाभरणसणगद्दियनिय कोविचरतरुणसहस्सं सदावेह एक काश आभरणवसनलकणो गृहीतो निर्योगपरिकरो यैस्ते तथेति प्र० श० ३३० ॥ एाभरणपणा" एकाभर जामि एकजातीय हेमरूप्यरत्नाभरणानि पिधानानि व वस्त्राणि यस्याः सा तथेति । दशा० १० अ० । एगाभोग - एका जोग - पुं० अत्र कोपकरणादीनामेकत्र बन्धने, 'एगानोगपडिगह केई य सव्वाणि य पुरतो " एगाभोगो मोय योगो भाति पगठबंधन प्रथियं भयारी होति तं च मगोपकरणाण गति "नि०० १४० गानोगत) १ 66 एगावली एकत्राभोगः आनोग उपकरणं ( एगति ) एकत्र करात एकल पन्नातीत्यर्थ इति । श्रोघ० । एगामोस एकामर्ष ५० कामर्पणे मोघ० एकामर्श-पुं० एकस्मिन् स्पर्शे, ध०३ श्रधि० । तथा च धर्मसंप्रदे प्रत्युपे कृणदोषमधिकृत्य "एगामोसा" एकामश मध्ये गृही तावदाकर्षणं करोति यावस्त्रिनागावशेषे ग्रहणं जानमेकाकर्षणमित्यर्थः । अथवाऽनेकामर्श आकर्षणे ग्रहणे चानेके श्रमशः स्पर्धा नवन्दितमनेकधा स्पृशतीत्यर्थ इति। ०३ अि एगायत एकायत पनि "एगा य ताकमणं - त्रि० एकाकिनि, करंति " एकाकिनोऽत्राणा अनुक्रमणं तस्यां गमनं वनं कुर्वन्तीति एकम्मिन् दीधे च "एगायते पञ्चवर्मत लिक्खे” एकशिक्षा घटितो दीर्घ इति । सूत्र० १० ५ ० । गावपण एकायतन १० नादिष्ये अद्वितीय "मायतनरयरसविप्यकस्स णत्थि म भिविध समस्तपादारम्भे भात्यात्यते नियम्यते तस्मिन् कुशलानुष्ठाने वा यत्नवान् क्रियत इत्यायतनं ज्ञानादित्रयमेकमद्वितीयमायतनमेकायतनं तत्र रतस्तस्य नास्ति न विद्यते कोऽसैौ मार्गो नरक तिर्थ भ्मनुष्यगमनपरुतिरिति । आचा० १ ० ५ भ० २ ० । एगारं प्रयस्कार-जि० अयोविकारं करोति कृ—प्रए – ४० स० [सत्वम् । स्थविरविच किलायस्कारे ८/१/६६ इति सूत्रेणादेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह पद्भयति । लोडकारे, प्रा० । पगारस (ह) एकादशन् – त्रि० एकाधिका दश नि० प्रा० "संख्यागध्दे रु।२।१६ इति प्राकृतसूत्रेण । प्रा० । एकादशसंख्यान्विते, वाच० एक्कारस उषासगाणं एकादश चोपासकानां प्रतिमा जयन्तीति । प्रा० ॥ ६० । एगारसंगसुतत्यधारय-- एकादशाङ्ग सूत्राधारक ० कादशानामङ्गानां पार्थमवधारयन्त्यैकार " 46 93 काः । व्य० उ० | एकादशानामङ्गानां सूत्रार्थयोर्धारके, “पक्कारसंगमुत्तत्थधारए सव्वसाहू य" एकादश च तान्यङ्गानि च एकादशाङ्गानि एकादशाहनं षार्थी एकादशार्थी तथा सुषार्थधारकानिति । एगारसम-एकादशम एकादश पूरणे टिपूर्वकापि कचिन्मु यत्संख्या एकादश संख्या पृथ् ख्यान्विते, वाच० । 'एकारसमे पव्वे' स्था०६ ठा० (एक्कारसमंति) एकादश भ्रमणभूतप्रतिमामिति । उपा०२ ६० ॥ एगावस्स- एकपंचाशत्-स्त्री० एकाधिका पञ्चाशा०० एकाधिकपञ्चाशत्संख्यायाम्, तत्संख्यान्विते च । घाष० । " नवराहं भचेराणं एक्कावस्स उद्देसणकाला पष्ठता 1 सम०५१ स० । 39 - एगावतारि (न्) एकाता रिम् पुं० [पातार जी तद्विषये पण्डितजगमालगणिकृतप्रभ हीरम यथा वनस्प त्यादिषु जीवा एकाच तारियः शाखे उकास्तथा मतान्तरीयद मध्येऽपि कश्चिद् भवति नवेत्यत्रोस र मेकान्तेन निषेधो ज्ञातो मास्तीति । हीर० । गावली - एकावली-स्त्री० एकाऽद्वितीयाऽऽली माला म णिश्रेणी । श्राभरणविशेषे, सम० । सा च नानामणिकमयी हा Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) अभिधानराजेन्द्रः । एमावाइ 66 उ लेति । औपण एकावली विचित्रमणिकृता एकसरिकेति । शा० १ ० " एकावलिकंडलध्यषच्छा " पकावली आभ रबिन सा कठै ग्रीवायां लगिता विलम्बिता सती वक्षसि उरसि वर्त्तते येषां ते तथेति । सम० । गावलिं पिणदेसि " ० १ ० ४ ३० एगावलीपनि सि- एकावलीप्रविभक्ति-न० नाट्यभेदे, राजन गावाद (न्) एकनादिन् पुं० एक एवात्मादित्ये दीवादी व अक्रियावादिनंदे, तन्मतानुसारिभिः " एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवदिति " ॥ परस्यामेवास्ति नान्यदिति प्रतिपक्षस्तदुकं पुरुष एवेदं सर्वे यद्भूतं यच भाव्यमुतामृतत्वस्येशानो यदनेनातिरोहति ॥ १ ॥ यदेजति यन्नेजति यद्दरे यदन्तिके यदन्तरस्य सर्वस्य यत्सर्वस्यास्य बाहात इति । तथा " नित्यशानविवर्सोऽयं क्षितितेजोजलादिकः । श्रात्मा तदात्मकश्चेति संगिरन्ते परे पुनरिति ॥ १ ॥ शब्दाद्वैतवादे तु सर्वे शब्दात्मकमिदमित्येकत्वं प्रतिपन्नः । उक्तञ्च " अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्वं यदक्षरम् । विवर्त्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यत " इति ॥ १ ॥ अथवा सामान्यवाद सर्वमेकं प्रतिपद्यते सामान्यस्यैकत्यादि मने कियायादिता चास्य सतस्वापि तदन्यस्य नास्तीति प्रतिपादनात् । श्रात्माद्वैतपुरुषाद्वैतशब्दाद्वैतादीनां युतिभिघटमानानामनस्तित्वाभ्युपगमाश्च। स्थाष्ठान्तथाच । एकात्माद्वैतवाद मुदेशार्थाधिकारप्राप्तं पूर्वपवितुमाह जहादी शुभे, एगे नापादि दीसह । एवं भो कसि लोए, किन्नू नाणाइ दीस || ए || ट्रान्सलेट्रासायके पूर्व रान्तोपन्यासः । यथे दशोऽपिशब्दार्थे स च निरुक्रम एके इत्यस्थानन्तरं द्रष्टव्यः । पृथिबेव स्तूपः पृथिव्या वा स्तूषः पृथिवीसंघातावयवी । स चैकोऽपि यथा नानारूपः सरित्समुद्रपर्वतनगरसन्निवेशाद्याधारतया विचिनो दृश्यते । निम्नोशत मृदुकठिनरक्तपीतादिभेदेन या दृश्यते न च तस्य पृथिवीतत्वस्यैतावता भेदेन भेदो भवत्येवमुकरीत्या भो इत्यादिसमको वि लोकश्चेतनाचेतनरूप एको विद्वान् वर्तते । इदमत्र हृदयम् । एक एव ह्यात्मा विद्वान् ज्ञानपिण्डः पृथिव्यादवाकारतया नाना दृश्यते न च तस्यात्मन एतावताऽऽत्म तत्वभेदो भवति तथाचोकमेक पप हि भूतात्मत्यादि । अस्योत्तरदानायाह | एवमेति जपंति, मंदा आरंभणिस्तिआ । एगे किया सयं पातिथ्यं दुःखं नियच्छइ ॥ १० ॥ एयमित्यनन्तरोकामादर्शनम् के केचन पुरुषाः कारणवादिनो जल्पन्ति प्रतिपादयन्ति किंनूतास्ते इत्याह मन्दा जमा सम्यक्परिज्ञानधिकाः मन्दत्वं चैष युक्तिविकात्माऽ द्वैतपत्रसमाश्रयणात् । तथाहि यद्येक एवात्मा स्यान्नात्मबहुत्वं ततो ये सत्वाः प्राणिनः कृषीबलादय एके केचन आरम्भे प्रापयुपमर्दकारिणि व्यापारे निःश्रिता आसक्ताः संबद्धा अभ्युपपन्नास्ते च संरम्भसमारम्नैः कृत्योपादाय स्वयमात्मना पापमद्युभप्रकृतिरूपमसातोदयफलं तीव्रं दुःखं तदनुभवस्थानं वा नरकादिकं नियतीति या बनायें एकवचनमकारिता यमर्थो निश्चयेन यच्वन्त्यवश्यतया गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति त एवा एग वाइ नासता मान्य इत्येतन स्यादपि खाने कर्मणि कृते सर्वेषां भानुष्ठायिनामपि सःभिसंबन्धस्थादेि न चैतदेवं दृश्यते । तथाहि य एव कश्चिदसमञ्जसकारी स एव लोके तदनुरूपा विरुम्बनाः समनुजवन्नुपसज्यते मान्य इति । तथा सर्वगतत्वे श्रात्मनो बन्धमोकाद्यभावस्तथा प्रतिपाद्यप्रतिपा कविवेकाभावाच्छास्त्रप्रणयनाभावश्च स्यादिति । एतदर्थसंवादित्वात् निचिचाऽच व्याव्यायते तद्यथा पञ्चानां पृथिव्यादीनां भूतानामेकत्र कायाकारपरिणतानां चैतन्यमुपलभ्यते । यदि पुनरेक एवात्मा व्यापी स्यात्तदा घटादिष्वपि चैतन्योपलब्धिः स्यान्न चैवं तस्मान्नैक आत्मा । भूतानां चान्योन्यगुणत्वं न स्यादेकस्मादात्मनोऽनिश्नत्वात् । तथा पञ्चेन्द्रियस्थानां पानां मां सत्यामन्येन कात्या विदितमन्यो न जानातीत्येतदपि न म्याद्योक पवात्मा स्यादिति। सूत्र० १ ० १ ० ( विस्तरः पुंरुरीयशब्दे दर्शयिष्यते ) तथाच विशेषामश्याम बहुम संसारीयरथावर - मसाइने मुझे जीवं ॥ 16. तथा संसारीतरस्थावरत्र सादिभेदं संसारिणञ्चतरे सिद्धाः आदिशब्दाच्च सूक्ष्मबादरपर्याप्ता दिनेदपरिग्रह इति । अत्र वेदान्तवादी प्राह । ननु बहुभेदत्वमात्मनोऽसिद्धं तस्य सर्वकत्वात् । तदुक्तम् । एक एव हि भूतात्मा भूते जूते प्रतिष्ठितः। एकबहुधा चैव दृश्यते जन चन्द्रवत् । "यथा विशुरूमाकाशं. तिमिरोपमः। संकीमात्राभारिभिमन्यते ॥ "दमा निर्विकल्पमविद्यया त्याप पं प्रकाशते मूलमधः शाख-मश्वत्थं प्राहस्यम् उन्दसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् । पुरुष एवेदं सर्वे यद्भूतं यच्च भाव्यम् उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति यदेजति योजति यद्दूरे यदन्तिके यदन्तरस्य सर्वस्य यत्सर्वस्यास्य इत्यादि" इत्येतदेव पूर्वाद्वैनो रिप्यो राग परि रखा। जर पुरण सो एगो व्विय, हवेज्ज वोमं व सव्वपिंडे | गोयम ! तदेगलिंगं, पिंमेसु तहा न जीवो य ॥ परः प्राह यदि पुनर्दर्शितन्यायेन स आत्मा सर्वेष्वपि नारकतिर्यग्रामर पियमेषु व्योमचदेक एव भवेश तु संसारादिदभिन्नस्तर्हि किं नाम दूषणं स्यादेवमुक्ते भगवानाह । गौतम ! यो सर्वेयपि विद्यमेषु मूर्तिविशेषेषु स्थित एक सदस्याभावादेकरूपमेति त्वं जीवत्येवं विचार्य त्वेन प्रस्तुतो न तथा प्रतिस्ि विलक्षणत्वम् क्षणभेदेन च लक्ष्यभेदादिति न तस्यैकत्वमिति ॥ sex प्रयोगमाह । नाथा जीवा कुंभा-दय व विलक्खा भैयाथो । तुदुक्खधोखा जावा य जो तदेगते । नानारूपा वि जीवाः परस्परं भेदभाज इत्यर्थः । लक्षणादिमेदादिति हेतुः कुम्नादय इवेति दृष्टान्तः । यच्च न भिन्नं तस्य न लक्षणनेदो यथा नजस इति । सुखदुःखबन्धमौका भावश्च यस्मात्तदेकत्वे माहिना एव सर्वेऽपि जीवा इति । कथं पुनस्तेषां प्रतिपिएललकणनैद इत्याह ॥ जेोवचमलिंगो, जीवो जिनो य सो पइसरीरं । छवओोगोकरिसा व गरिसोडचे तेांनो || येन दर्शनोपयोगलणोऽसी जीवः स चोपयोगः प्रतिशरी Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) एगावाइ प्राभिधानराजेन्डः । एगावा रमुत्कर्षापकर्षनेदादनन्तन्नेदस्तेन दादनन्तजेदा एवेति तदेवं परस्मै च प्रतिपादयन् नियमतः परमत्युपगच्छेत्परं वाऽज्युभावितं (नाणाजीवा इत्यादि) पूर्वामिदानीं सुखपुःखेत्याधु। पगच्छन् तस्मै चाद्वैतरूपं तत्त्वं निवेदयन् पिता मै कुमारग्रह्मचाशरा जावयचाह॥ रोत्यादि वदन्निव कथं नोन्मत्तः स्वपयन्युपगमेनातिवचसो एगते सधगय-तो य नसोक्खादो नभस्सेव ।। याधनादिति यत्किंचिदेतत् (नंदी)तथाच सम्मतितकेऽद्वैतमाकत्ता भोत्ता मंता, नव संसारी जहागासं॥ त्रस्य तात्त्विकत्वं निराकृतम् तथाहि अपरस्तु कार्यकारणभावस्य कल्पनाशिल्पिविरचितत्वात् तन्नयव्यतिरिक्तमद्वैतमात्रं तस्यमिएकत्वे जीयानां सुखदुःखबन्धमोकादयो नोपपद्यन्ते सर्वग त्यज्युपपन्नस्तन्मतमपि मिथ्या,कार्यकारणोभयशून्यत्वारसरचितन्वाजन्नस इव । यत्र तु सुखादयो न तत्सर्वगतं यथा देवदत्त पाणबदतमात्रस्य व्योमोत्पलतुल्यत्वात्। तथाह्यद्वैतप्रतिपादकशति । किचन का न मोक्तान मन्ता न संसारी जीवः एकस्वात् सर्यजीवानां, यच्चैकं न तस्य कर्तृत्वादयो यथा नभस प्रमाणस्य सद्भावे द्वैतापत्सितो नाद्वैतं प्रमाणानावे अद्वैतासिद्धेः प्रमेयसिद्धेः प्रमाणनिबन्धनत्वात् । किंचावतमिति प्रसज्यप्रतिइति । अपि च। पेधः पर्युदासो वा प्रसज्यपके प्रतिषेधमात्रपर्यवसानत्यागस्य एगत्ते नस्थि सुही,बहुयरुवघाउ ति देसनिरुओव्य । नादैतसिकिः प्रधानोपसर्जनभायेनाङ्गाङ्गिभावकल्पनायां हैतबहुतरबछत्तणन य, न य मुक्को देसमुको व्व ॥ प्रसक्तिः द्वितीयपकेऽपि द्वैतप्रसक्तिरेव प्रमाणान्तरप्रतिपन्ने - श्दमत्र हदयं नारकतिर्यगादयोऽनन्ता जीवा नानाविधशरी- तलकणे वस्तुनि तत्प्रतिषेधेनाद्वैतसिद्धेः । द्वैतादद्वैतस्य व्यतिरे. रमानसा यथा ते खिता पव तदनन्तजागवर्तिनस्तु सुखिनः । केच द्वैनप्रसक्तिरेव पररूपन्यावृत्तस्वरूपाव्यावृत्तात्मकत्येन तस्य एवमनन्ता बास्तदनन्त नागवर्तिमस्तु मुक्तास्तेषां चैकत्वे- द्विरूपिताप्रसत्तेरव्यतिरेके पुनतप्रसक्तिनचाद्वैतस्यापि विधन कोऽपि सुखी प्राप्नोति बहुतरोपघातान्वितत्वाद्यथा स- मानत्वात् द्वैताब्यावृत्ततासंनवो विद्यमानस्यापि विद्यमानाव्यााङ्गरोगप्रस्तोऽङ्गस्यैकदेशेन नीरोगो यादत्तः पयं न कोऽपि वृत्तिप्रसक्तेरन्यथा सपनाग् विशेषप्रसक्तिर्भवेत् । प्रमाणादिमुक्तो घटते बहुतरबद्धत्वाद्यथा साङ्गकीवितोऽङ्गल्येकदेशमु- चतुष्टयसद्भावे च न द्वैतवादान्मुक्तिस्तदभावे शून्यतावादादिति क्तस्तस्मादेकत्वे सुखाद्यनुपपत्तेर्नानात्वं जीवानामिति स्थितम नाद्वैतकल्पना ज्यायसी नचनित्यत्वाद् द्वैतकल्पना भावानाम(विशे०) तथा च नन्द्यध्ययने आत्मवादिमतमुपक्रम्य आत्मवादि- नेकत्वेऽपि युक्तिसंगता सर्वदा सर्वभावानां नित्यत्वे प्राधानानो नाम पुरुषपवेदं सर्वमित्यादि प्रतिपन्नास्तन्मतंनिराकरणं च हकरूपतानावप्रसक्तस्तद्भावादाश्रयणं प्राहावाहकरूपताया वितवैव पुरुष पवेदमिति समिति प्रतिपन्नास्तेऽपि महामाहोरग-1 कारिताव्यतिरेकेण योगात् सा च कथञ्चिदेक स्थानेकरूपानुषगरलपूरमूतिमानसावेदितव्यास्तथाहि यदि नाम पुरुषमात्र कादिति कथं नानेकान्तसिकिः । व्याद्वैतवादे रूपादिभेदानारूपमद्वैतत्वं तर्हि वदि तदुपलभ्यते सुखितपु:खितत्यादि तत्सर्व वप्रसङ्गश्च न च चक्षुरादिसंबन्धात्तदेव व्यं रूपादिप्रतिपत्तिपरमार्थतोऽसत्प्राप्नोति ततश्चैवं स्थिते यदेतजुच्यते प्रमाणतोऽधि जनकं सर्वात्मना तत्संबन्धस्य तथैव प्रतीनिप्रसक्तेः । रूपान्तगम्य संसारनैर्गुण्यं तद्विमुखया प्रशया तपुच्छेदाय प्रवृत्तिरि रस्य तातिरिक्तस्य तत्राभावात् । तत्र व्याद्वतमपि प्रधानात्यादि तदेतदाकाशकुसुमसौरभवमनोपमानमवसेयम् । अद्वैत- द्वैतं युक्तमेव सत्यादिव्यतिरेकेण तस्याभावान च सत्वादे स्तदं. रूपे हि तत्वे कुतो नरकादिभवन्नमणरूपः संसारो यन्नैर्गुण्यम- व्यतिरेकादद्वैतं प्रधानस्य सत्वाद्यव्यतिरिकात् द्वसप्रसक्तेर्मधगम्य तपुच्चदाय प्रवत्तिरुपपद्येत । यदप्युच्यते पुरुषमात्रमे- हदादिविकारस्य चाभ्युपगमे कथमद्वैतं विकारस्य च विकारिंवाद्वैतत्वं यत्तु संसारनैर्गुण्यं नावनेददर्शनं च तत्सर्वदा सर्वे- णोऽन्यन्तमभेदेन विकारीति प्रतिपादितं नेदाभेदेऽनेकान्तसिद्धेपामविगानप्रतिपत्तावपिचित्रेनिम्नोन्नतभेददर्शनमिव भ्रान्तमव- य॑तिरेके द्वैतापत्तिरिति । (सम्म)ब्रह्माद्वैत यतात्विकत्वं प्रपञ्चसेयमिति तदप्यचारु एतविषयवास्तवप्रमाणाभावात् । तथादि स्य मिथ्यात्वं च निराकृतं तद्यथा ब्रह्मवादं बाघका पदन्ति युक्त नाद्वैताच्युपगमे किंचिदद्वैतग्राहकं ततःप्रथग्नूतं प्रमाणमस्ति द्वै- यदेष सकलापलापी पापीयानपापस्स आत्मब्रह्मणस्तांत्विकस्यतत्वप्रशतनच प्रमाणमन्तरेण निष्प्रतिपक्का तत्वव्यवस्था नवति सत्वात् । नवसरलसाखरसासप्रियाहिंतालतालतमालप्रवामप्र. माप्रापत्सर्वस्य सर्वेष्टार्थसिधिप्रसङ्गः । तथा नान्तिरपि प्रमाण- मुखपदार्थसार्थोऽप्यहमहमिकयामतीयमामः कथं न पारमार्थिक नूतादद्वैताद्भिन्नाऽज्युपगन्तव्या अन्यथा प्रमाणभूतमहैतमप्रमाण- स्यादिति वक्तव्यं तस्य मिथ्यारूपस्वात् । तथाहि प्रपञ्चो मिथ्यो. मेव नवेत्तदव्यतिरेकात्तत्स्वरूपवत् । तथाच कुतस्तत्वव्यवस्था प्रतीयमानत्वायदेवं तदेवं यथा शक्तिशको कलधौतं तथा चार्य भिन्नायां च भ्रान्तावन्युपगम्यमानायां द्रुतं प्रसक्तमित्यद्वैतहा- तस्मासथा तदेतदेतस्य न तर्ककार्कश्यं सूचयति । तथाहि मिथ्यानिः अपिच यदीदं स्तम्भेनकुम्भाम्जोरुहादिभेददर्शनचान्तमुच्य- स्वमत्र कीटकमाकान्तं सूक्ष्मदृशा किमत्यन्तासत्त्वमुतान्यस्या. ते तर्हि नियमात्तदपिकचित्सत्यमवगन्तव्यमभ्रान्तदर्शनमन्तरेण न्याकारतया प्रतीतत्वमाहोश्चिदनिर्वाच्यत्वमिति नेदत्रयी त्रिनेभ्रान्तेरयोगात् न खलु येन पूर्वमाशीविषो दृष्टस्तस्य रज्ज्वामाशी- प्रनेत्रत्रयीव त्रोकते । प्राचि पक्कद्वये तदनङ्गीकारः परीहारः। विषम्रान्तिरूपजायते तमुक्तम् "नादृष्टपूर्वसर्पस्य रज्ज्वां सर्पमतिः तार्तीयीकविकल्पे तु किमिदमनिर्वाच्यत्वं नाम किं निरुक्तियि कचित् । ततः पूर्वानुसारित्वाद्धान्तिरम्रान्तिपूर्विका"१तत एव- रह एव निरुक्तिनिमित्तविरहो निःस्वनावत्वं वान प्रथमः कल्पः मायव्याइतो नेदः । अन्यच्च पुरुषाद्वैतरूपतत्वमवश्यं पूर्व परस्मै कल्पनाई: सरसोऽयं सालोयमिति निश्चितोक्तेरनुन्नधात् । नापि निवेदनीयं नात्मने आत्मनो व्यामोहाभावात् विमोइश्चेदद्वैतप्र- द्वितीयः निरुक्तहिनिमित्तं झानं वा स्याहिषयो या न प्रथमस्य तिप्रत्तिरेव न नवेत् ।अधोच्येत यत एव व्यामोहोऽत पव तन्नि- विरहः सरससामादिसंवेदनस्य प्रतिप्राणि प्रतीतेनापिद्धितीयस्य वृत्यर्थमात्मनोऽद्वैतप्रतिपत्तिरास्थेया तदयुक्तमेवं सति अद्वैतप्र | यताविषयः किंभावस्वरूपो नास्यनावरूपो वा। प्रथमकल्पनायासिपस्यांधानेनात्मनो व्यामोहे निवर्त्यमानेऽवश्य पूर्वरूपत्यागोऽप- मसत्ख्यात्यज्युपगमप्रसङ्गः । द्वितीयकल्पनायां तु सख्यालिरेक ररूपस्य चास्यााम्दतालवणस्योत्पत्तिरित्यद्वैतप्रतिज्ञाहानिः उन्नावपि न स्त इति चेत् ननु नावाभावशम्दान्यां मोकप्रतीति Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) अन्निधानराजेन्द्रः एगाबाइ सिद्धौ तावनिप्रेती विपरीतौ या प्रथमपके तावद्यथोभयोरेक विधिर्नास्ति तथा प्रतिषेधोऽपि परस्परविरुरूयोर्मध्यादेकतरविधिनिषेधयत्यतरनिषेधविधिर्मान्तर कपि तु न काचित्कतिर्न हालौकिकविषयसहस्त्रनिवृत्तावपि लौकिकज्ञानविषयनिवृत्तिस्तमतिविवृतिर्वा खाकेऽपि निसः प्रतिषेधार्थत्वे स्वनावशब्दस्यापि भावाभावयोरन्यतरायेतेति पूर्ववत्प्रसङ्गः । प्रतीत्यगोचरत्वं निःस्वनावत्वमिति चेदव विरोधः । प्रपञ्चो न प्रतीयते चेत्कथं धम्मितया प्रतीयमानत्वं च देतुतयोपाददे तथेोपादाने वा कथं न प्रतीयते यथा प्रतीयते न तथेति ये विपरीतयातेरज्युपगमः स्यात्। किं वेयमनिर्वाच्यता प्रपश्वस्य प्रत्यङ्गेण प्रत्यकेऽपि सरलोऽयमित्याद्याकारं हि प्रत्यकं प्रपञ्चस्य सत्यतामेव व्यवस्यति सरलादिप्रतिनियतपदार्थपरिच्छेद मनस्तस्योत्यादादिसरेतर विविक्तवस्तुनामेय च प्रचवचो वाच्यत्वेन सम्मतत्वात् । अथ कथमेतत्प्रत्यचं पक्कमतिपकं तद्धि विधायकमेवेति तथा तथा ब्रह्मैव विदधाति न पुनः प्रपञ्चसत्यतां प्ररूपयति । सा हि तदा प्ररूपता स्याद्यदेतरस्मिनितरेषां प्रतिषेधः कृतः स्यान्न चैवं निषेधे कुएवत्वात्प्रत्यवस्यति चेत्तदयुक्तं यतो विधायकमिति कोऽर्थः इदमिति वस्तुस्वरूपं गृह्णाति नान्यस्वरूपं प्रतिषेधति । प्रत्यकमिति चेन्मैयम् अन्यरूपनिषेचनतरेण तत्स्वरूपपरिष्वस्वाध्यसंप पीतादिव्यवनिं हि नीलं नीलमिति गृहीतं भवति नेतरथा दमिति वस्तुस्वरूपमेति प्रत्यक्षमित्युच्यते तदाय श्यमपरस्य प्रतिषेधनेऽपि तत्प्रतिपद्यत इत्यभिहितमेव भवति के यलवस्तुस्वरूपप्रतिपत्तेरेयान्यप्रतिषेधप्रतिपतिपत्या । अपि विधायकमेव प्रत्यक्षमिति नियमस्याकारे विद्याविद्याया अपि विधानं तचानुषज्यते सोध्यमाद्यानि स मात्रं प्रत्यात्प्रतिबले च निषेधकं तदिति ब्रुवाणः कथं स्वस्थ इति सिद्धं प्रत्यक्षवाधितः पक्ष इति । श्रनुमानबाधितश्च प्रपश्च मिथ्या न भवत्यसद्विलक्षणत्वाद्य एवं स एवं यथात्मा तथाचार्य तस्मात्तथेति प्रतीयमानत्वं च हेतुना व्यति चारी । स हि प्रतीयते न च मिथ्या अप्रतीयमानत्वे त्वस्य तोवरचचनानामप्रत्रः प्रेयसी स्यात् सायकिल शुशिकल कल धीरोऽन्तर्गतत्वेनानिर्वचनीयतायाः साध्यमानत्वात् । किंचेदमनुमानं प्रपचाद्भिन्नमभिन्नं वा । यदि भिन्नं तर्हि सत्यमसत्यं वा । यदि सत्यं तर्हि तद्वदेव प्रपञ्चस्यापि सत्यत्वं स्यात् । अथासत्यं तत्रापि शून्यमन्यथा ख्यातमनिर्वचनीयं वा श्राद्यपकद्वये न साध्यसाध कालधीतवचेति तृतीयपक्षम यस्यासंभवित्वेनामित्यात्। व्यवहारसत्यमिदमनु मानमतोऽसत्यत्वाभावान्न च साध्यसाधकमिति चेत् किमिदं व्यवहारसत्वं नाम व्यवहारो ज्ञानं तेन तर्हि पारमार्थिकमेव तत्तत्र बोक्तो दोषः । अथ व्यवहारः शब्दस्तेन सत्यम् । ननु शब्दोऽपि सत्यस्वरूपस्तदितरो वा यद्याद्यस्तर्हि मेन यत्सत्यं तत्पारमार्थिकमेवेति तदेव दूषणम्। अथासत्यस्वरूपः शब्दः कथं ततस्तस्य सत्यत्वं नाम । नहि स्वयमसत्यमन्यस्य सत्यत्वव्यवस्थाहेतुरतिप्रसङ्गात् । अथ कूदकार्षागितकपवित्र बध्यवहारजना सम्यकापोषणव्यवहारवादसत्येऽप्यनुमाने सत्यव्यवहार इति स त्यमेव तदनुमानं तत्र चोक्तो दोषः । श्रतो न प्रपञ्चाद्भिन्नममानमुपपतिपदवीमापद्यते नाप्यभिनं प्रपञ्चस्वभावतया त एगाबाइ स्यापि मिथ्यात्वप्रसक्तेर्मिथ्यारूपं च तत्कथं नाम स्वसाभ्यं साधयेदित्युक्तमेव ॥ एवं च प्रपञ्चस्य मिथ्यात्वासिद्धेः कथं परब्रह्मरास्ताविक स्वाद्यतो वाह्याभावो भवेदिति । रक्षा ०१ परि० पुरुषाद्वैतस्य निराकरण करणे यथा पुरुषाद्वैतं तु यदा, जयति विशिष्टमवबोधमात्रं वा । जवजयविगमविभेदस्ता कथं युज्यते मुख्यः ॥ ७ ॥ योभोति तस्यां सेवा द्वैतं पुरुषस्यद्वैतमेकत्वं तु यदा भवत्यङ्गीकरणेन वादिनो विशिष्ट केवलं रागादिवासनारहितमोपमानं या बोलणं या बेदान्तवादिनः पुरुषान् यथाडुरेके "पुरुष पवेदं सर्वमित्यादि" । तथा विद्याविनयसंपले ह्मणे गहिस्तिनि शुनि च, परिमताः समदर्शिन" इति श्रुतिस्मृतिप्रसिडेविज्ञानवादिनस्तु शेषन विकल्पशून्यं पारमार्थिक रागादिवासनादि - परहितं बोधस्वणमात्रमेव प्रतिजानते यथोक्तम् “ चित्तमेव दि संसारो रामादिशातिनिव इति कथ्यते" । नवश्च भवविगमश्च तौ संसारमोको तयोर्विनेदो भयविगमविदस्तदा कथं युज्यते मुख्यसंखारमो योरूपभेदोन ते अर्थात विद्यादी येत योर्विशेषो युज्यते इति भावः ॥ ७ ॥ कस्मान्पुनः पुरुषाद्वैत बोधमा वा विशिषं भतया । अग्निजलनूमयो यत्परितापकरा भवे तु भवसिद्धाः । रागादयथ रौधा, असत्यदत्तास्पदं लोके ॥ ८ ॥ अग्निश्च जलं च भूमिश्चाग्निजलभूमयो यद्यस्मात्परितापकराः परमार्थतो दुःखानुभवकरा वैषयिकसुखस्य नावतो दुःखरूपस्वात् भवे संसारे तु नसिकाः किं पुनर्वहित्राणामुपादाने बायोपपतित्वाव गुरूपाय विप्रतिपन्ते वादिनो नाग्निभूमि तीतेरतो न वायुग्रह सर्वेन्द्रियानुपलच्याथवा सिहचरितत्व वायदणं यत्र तेजस्तत्र वायुरितिसू रागादयध रागद्वेषमोहाथ रौद्रा दारुणास्तरूपेणासत्प्रवृस्यास्पदमसत्प्रवृत्तीनां सुन्दरप्रवृत्तीनामास्पदं प्रतिष्ठा लोके सर्वत्रैवानुजयसिका यतो घर्त्तते यदि पुरुषाद्वैतमेव भवेत् प्रत्यवसिका बाह्या ज्वलनादयः पदार्था न स्युस्तेषां चैतन्यस्वरूपपुरुषव्यतिरेकेण रुपान्तरोपयेतेषां तु दिनां नादान पुरुषत्वाङ्गीकरणे सर्वपदार्थानां नाममात्रमेव कृतं स्यात्पुरुष इति न तत्र विप्रतिपत्तिः । विज्ञानाद्वैतमपि यदि प्रवेशतो रागादयोऽनुभवसिकाः प्रतिप्राणिनं भवेयुस्तथासीक परीकविरोधस्तेषां सर्वैरभ्युपगमादनुभयस्य चान्या मशक्यत्वादिति ॥ ॥ अथ सर्वेऽप्येते बाह्या अन्तराश्च परिकल्पितरूपा पवेत्याशङ्कायामिदमाह ॥ परिकल्पिता यदि ततो, न सन्ति तत्वेन कथममी स्युरिति। तन्मात्र एव तत्वे, भवभवविगमौ कथं युक्तौ ॥ ए ॥ परिकल्पिता भवस्तुसन्तः कल्पनामात्रनिर्मितशरीरा बाह्या अन्तराञ्च यदि भवताऽभ्युपगम्यन्ते ततः परिकल्पितत्वादेव न सन्ति विद्यायेन परमार्थेन कथममी पदार्थाः स्यु कवितामा इत्ये मात्र एव बोधमात्र एव तत्वे परमार्थे जवभवबिगमौ संसारमा क्षौ कथं केन प्रकारेण युक्ती संगतौ न कथंचिदित्यर्थः ॥ छ ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगावाइ अन्निधानराजेन्द्रः। एगावा कस्मात्पुनः परिकल्पिता पते न सन्तीत्युच्यते परिकल्पनाया शुरुदशरथत्वादिप्रकारकस्मरणोपपत्तिः तत्प्रकारकस्मृती तएवानावादित्याह ॥ प्रकारकानुभवत्वेनैव हेतुत्वादिति वाच्यमन्वयव्यतिरेकाच्या परिकल्पनाऽपि चैपा, हन्त विकल्पात्मिकान संजवति । शुरुतत्प्रकारकस्मृति प्रति शुरुतप्रकारकानुन्नवत्वेनैव हेतुस्थ सिकेन च प्रमेयाभाववदित्यादिज्ञानात्संसर्गविधया गुरुदशरतन्मात्र एव तत्वे, यदि वा भावो न जात्वस्याः ॥१०॥ थत्वादिस्वरूपप्रतियोगित्वाकणसंवन्धविषयकात् ज्ञानलक्षणपरिकल्पनाऽपि च एषा बाह्यान्तराणामर्थानां हन्त ! विकल्पा प्रत्यासत्तेः शुद्धदशरथत्वादिप्रकारको मानसानुनयः सुखभः त्मिका वस्तुशून्यनिश्चयात्मिका न संजवति न युज्यते निर्बीज साझापत्तिभिया सांसर्गिकझानस्यानुपनायकत्वस्वीकारात स्वात् । युक्तिमाह तन्मात्र एव पुरुषमात्र एव ज्ञानमात्रम् । एवं तस्मात्र दशरथपदवाच्यत्वं जबति दशरथपदवृत्तिप्रकारकच तत्वे तदतिरेकेणेतरपदाथानावात् । अज्युपगम्यं परिकल्पना झानात् । यथा दशरथपदवाच्यत्वेन वाच्यत्वासंबन्धेन दशरथदूषणान्तरमाद। यदिवा नावोऽसंभवो ननैव जातु कदाचिद पदत्वेन वा शाब्दबोधः स्वीकर्त्तव्यस्तथा तुल्यन्यायात सर्वप्यस्याः परिकल्पनाया यदि निर्वीजापीयं बाह्यान्तरपदार्थपरि-1 त्रापति शब्दानुनवोऽप्यर्थस्य शब्दात्मक एव साकीति । म कल्पनेष्यते ततः संसारवन्मुक्तावपिनवेदियमिति भावस्ततश्च संसारमोकभेदानुपपत्तिः परिकल्पनावीजसद्भावान्युपगमे तु चानवगतचित्तोऽपि रूपं चक्षुषा वीकमाणोऽभिलापासंसृष्टमेव विषयीकरोतीति नीलादेरशब्दात्मकत्वसिद्धिः शब्दासंएटापुरुषबाँधस्थलकणज्यतिरिक्तवस्त्वन्तरापत्या प्रस्तुताद्वैतपक्ष्य र्थानुभवस्य ज्ञानवादिना ज्ञानाभावकाल इव शब्दवादिना द्वामिः पो०१६ विवश (सम्मतावपि गुरुद्रव्यास्तिकनगमतमधि शब्दाभावकाले धागार्थस्येवानभ्युपगमेन शब्दातिरिक्तमाह्याकृत्य विस्तरेणाद्वैतमतं निरूपितं विस्तरजयानास्मानिलिख्यते तत्तु तत एबावधार्यम ) तत्र नयोपदेशे यथा ॥ सिद्धाह्यत्वनियतदेशवृत्तित्वादिव घटादावविद्यावशादेव भा. सत इति न तत्तदाकारैः शब्दब्रह्मभेदसिद्धिस्तदुक्तम् । “यथा जातं द्रव्यास्तिकाच्छुच्छा-दशेनं ब्रह्मवादिनाम् । विशुद्धमाकाशं, तिमिरोपप्लुतो जनः । संकामिव मात्रातत्रैके शब्दसन्मात्र, चित्सन्मानं परे जगुः।। ११०॥ भि-चित्राभिरभिमन्यते । तथेदममलं ब्रह्म, निर्विकल्पमविद्यशुकाव ब्यास्तिकात ब्रह्मवादिनां दर्शनं जातं तदाह " वादी- या।कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं विवर्त्तत" इति यदि चा प्रामारा. दवाट्ठियणयपयमीसुझासंगहपरूवणाविसओ ति " तत्रैके ब्रह्म- | मादिप्रपञ्चो व्यवहारः सत्यः स्वीक्रियते स्वार्थिक वैलक्षण्यावादिनः शब्दसन्मात्रमिच्छन्ति अन्ये च चित्सन्मात्रम् ।तत्राद्य- नुभवात्तदाविद्या सहितं शब्दब्रह्मैव तदुपादानं वाच्यम् । मतावलम्बीशब्दस्वभावं ब्रह्म सर्वेषां शब्दानां सर्वेषां चार्थानां अद्वैतशास्त्रेणाविद्यानिवृत्तीच तन्मूलप्रपञ्चविगमे शुद्ध शब्दप्रकृतिरित्यज्युपैति तदाह तदनियुक्तो भर्तृहरिः । " अनादिनि- देवावशिष्यते स एव मोक्ष इति निरवयं केवलं तस्य शब्दाधन ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदकरम् । विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जग- त्मकत्वे शुद्धशब्दत्वादिधर्मवत्वं निर्द्धर्मकत्वेऽप्यसदादिव्या. तो यत" इति । अस्याः आदिरुत्पादो निधनं विनाशस्तदभा- त्तिवदशब्दादिव्यावृत्ती चोपपत्तिरिति संवेपः । द्वितीयमवादनादिनिधनं ब्रह्मशब्दतत्त्वं शम्दात्मकं चैखर्यात्मशब्देनैवस- तावलम्बिनो वेदान्तिनस्तन्मते अखण्डमद्वितीयमानन्दैकरूपं घोडेखामध्यमाख्यशब्दसंमृष्टसविकल्पकज्ञानेनैव सर्वार्थग्रहणा- स्वप्रकाशं चैतन्यमेव जगतःस्वरूपमनिर्वचनीयस्यैव सर्पस्य त् पश्यन्त्याख्यरूशब्दात्मकझानेनैव चाखएमकस्वरूपनिश्च- रज्जुः । कथं तर्हि जीवेश्वरविभाग इति चेदज्ञानरूपादुपाधेः यात सर्वत्रानुस्यूतत्वात् । सर्वोपादानत्वाच्च शब्दतत्त्वमखएम यथा ोकस्यैव मुखस्य दर्पणोपाधिसंबन्धाद्विम्बप्रतिबिम्बब्राह्मत्यर्थः । एतदेवाह । “ यदकरमकारादि" पतेनाभिधानरूपो भावः एवं चिन्मात्रस्योक्तोपाधिसंबन्धाज्जीवेश्वरभावो न विवत्तों दर्शितः । तथा यदर्थभावस्तद विवर्तत्ते पतेनाभिधेय- तत्त्वान्तरमस्ति प्रज्ञानं स्वनाद्यनिर्वचनीयमायाविद्यादिशब्दारूपो विवों दर्शितः। तथा यतो जगतः प्रक्रिया प्रतिनियता ध्य- भिधेयं त केनैवोपपत्ताबनेककल्पनानवकाशादेकमेवेत्येके व वस्थानेदानां संकीर्तनमेतदिति । अयं च वर्मक्रमरूपो वेदस्तद- द्धमुक्तव्यवस्थानिरूपणायमानमित्यन्ये तदवस्थाऽतिमूलाज्ञाना. धिगमोपायः प्रतिच्छेदकन्यायेन तस्यावस्थितत्वात् । तच्च प. नि व्यवहारसौकर्याय निरूपयन्ति । तत्रैव मायाविद्याशब्दद्धरमब्रह्माच्युदयनिःश्रेयसफधमानुगृहीतान्तःकरणैरवगम्यते । यनिमित्तं शक्तिद्वयं विपशक्तिरावरणशक्तिश्च । कार्यजननअन्यैस्तु प्रयोगादवगम्यते शब्दएव जगतस्तत्वं तद्वाधेऽष्यवाध्य- शक्तिर्विक्षेपशक्तिस्तिरोधानशक्तिरावरणशक्तिर्यथाऽवस्थारूपमानत्वादहोरात्रवत् ग्रामारामादयः शब्दात्मकास्तदाकारानुस्यू. स्य रज्जुशानस्य सर्पजननशक्ती रज्जतिरोधानशक्तिश्च । एवं तत्वात सुवर्मात्मककुएमनादिस्यादितः शब्दब्रह्मसाम्राज्यसिके। मूलाशानस्वाद्वितीयपूर्णानन्दैकरसचिदावरणशाक्तिराकाशादिन च प्रमाणाधीना प्रमेयव्यवस्था प्रमाणं च चिदात्मकमेवानु- प्रपञ्चजननशक्तिश्चेति । निवृत्तेचाज्ञानेतन्निमित्ते च जीवेश्वरानृयत इति तत्र शब्दरूपत्वासिद्धिनिराकारस्य ज्ञानस्याग्राह- दिप्रपञ्चे चिन्मात्रमेव शिष्यते। जीवस्त्वज्ञानप्रतिविम्बितं चैकत्वेन व्यवहारेऽनाश्रयणीयत्वात् साकारस्य च तस्य वाग्र- तन्यमिति विचारणाचार्याः । रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूवेति" पतां विनाऽसंभवात्तदुक्तं " वापता चेद्युत्क्रामेदवबोधस्य श्रुतेः । “एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवदिति " शास्वती। स्यादशाश्वतीन प्रकाशेतू साहि प्रत्ययमर्शिनीति१ अत स्मृतेश्च । नचामूर्तस्य प्रतिबिरवाभावः शक्यो वक्तुममूर्ताएव शब्दार्थसंबन्धो वैयाकरणैरने देनैव प्रतिपादितः । युक्तं चै. नामपि रूपपरिमाणादीनां गुणानामादर्शमूर्तव्यस्यापि प्रदूतत्कथमन्यथाऽदृष्टदशरथादीनामिदानींतनानां दशरथादिप- तकेत्राकाशस्य जानुमाने जले विशाअरूपेण प्रतिबिम्पदर्शनात दाच्यम्दबोधः शुद्धदशरथत्वादिनोपस्थितेस्तत्रासंभवनीयत्वा- प्रतिबिरवस्यापि च चिद्रूपत्वं प्रत्यकशास्त्राच्या सिकम ।न त तथापूर्वकमनुलवानावात प्रमेयत्वादिना दशरथत्वादिप्रका- च घटादिविविन्नाकाशयदविद्यावच्छिन्नं चैतन्यमेव जीथोऽस्तु रकोपस्थितौ च ततः प्रमेयवानित्याकारकबोधस्यैव संजवात् । किं प्रतिबिम्बत्वेनेति बाध्यं तथा सति जीवनावेनावच्छिन्नस्य नचप्रमंयवानित्याकारकसंस्कारात् प्रमेयत्वांशे उद्बोधकरहिता पुण्यावच्चेदाम्तरायोगाद्घटाकाशादौ तथा दर्शनाइह्मणः सर्व. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगावाइ अमिधानराजेन्धः। एगावा नियन्तृत्वानुपपत्तौ यो विज्ञाने तिष्ठन् विज्ञानमन्तरायमयतीति विचारणाचार्यास्तु मुखान्तरोत्पत्तिं नेच्छन्ति किंतु मुखेऽधिष्ठानभुनिन्याकोपप्रसङ्गात् । प्रतिबिम्बपके तुजलगतस्वाभाविकाका- भेदमात्रस्य द्वित्वापरपर्यायस्थादर्शस्थत्वस्य चानिर्वचनीयस्योशेसत्येव प्रतिबिम्बाकाशदर्शनादिगुप्पीकृत्य वृत्त्युपपत्तेजीवावरचे त्पचिंताबवैव प्रतीत्युपपत्तर्मुखान्तरकल्पने गौरवात्। न चैवं शदेषु ब्रह्मणोऽपिनियन्तृतादिरूपेणावस्थानमुपपद्यत इति न दोषः। कावपि रजतोत्पत्तिर्न स्यात् तादात्म्यमात्रोत्पत्त्यैवेदं रजतमिति अस्मिन् पक्के विम्वं चैतन्यं नेश्वरः बिम्बस्यापि प्रतिविम्बान्तkि- धीनिर्वाहोपपत्तरिति वाच्यं तथा सति रजतस्यापरोकत्वापत्तेगुणीकृत्य वृत्ययोगेन प्रतिबिम्बात्मकजीवान्तर्यामित्वानुपपत्तेः मुखं स्वधिष्टानमपरोक्कमिडियसन्निकर्षादत पवादर्श मुखमिकार्यानुपाधिनूतस्य शक्तिद्वयस्य व्यापकतया तत्प्रतिबिम्बयो- त्यपरोकनपोत्पत्तेन निर्वचनीयमुखान्तरोत्पत्तिः। न च मुखस्येचिश्वरयोरपि व्यापकत्वाजावान्तर्यामित्वक्षुतेरप्यव्याघातात् । झियसान्नकर्षभावः कतिपयावयवावच्छेदेन तत्सत्वादासत्तेअज्ञानप्रतिबिम्ब मत्यत्राकानपदं चापिंद्यापरम भकानप्रतिविम्बि- विशदावभासप्रतिबन्धकत्वेऽपितत्रादर्शसन्निधानस्योत्तेजकत्वेन तं चैतन्यं साकी स चोक्तशक्तिवयप्रतिविम्थितो जीव इतीश्वर- दोषाभावादादादिनाभिहितचक्षुषो मुखाभिमुखविजातीयथवियन्तु गुरुमिति दिए । पते ज्ञानप्रतिविम्बितं चैतन्यमीश्वरः संयोगासदपरोक्कत्वमित्यपि कश्चित् । ननु किमित्येवं वर्यते बुद्धिप्रतिबिम्बितं चैतन्य जीवः अज्ञानोपहितं बिम्बचैतन्यं शुद्ध- मुखमधिष्ठानमिति आदर्श एवाधिष्ठानमस्तु तत्र च मुखाभामिति संक्षेपः । शारीरककारमतमप्युपसंगृहीतं तात्पर्यतोऽभे- घाशानन मुस्त्रोत्पत्तिम्तसंसोत्पत्तिर्वास्तु । आदर्श मुखदात् । प्रज्ञानावविशं चैतन्यं जीव इति वाचस्पतिमिश्राः। तेषा- मिति प्रतीतेरेवमप्युपपत्तर्मुखं यद्यपरोकं तर्हि तु संसर्गस्य मयमाशयः वस्तुतः सजातीयविजातीयभेदशून्यं चतन्यमनादि- यदि च नापरोकं तहि तनुत्पत्तेः स्वीकर्तव्यत्वान्मुखमाधिष्ठानं सिकानिर्वचनीयाज्ञानोपास्यवचिन्मजीव इत्यज्ञानेशर इति द्वै- तस्य चानुजयाननुसारित्वादिति चेन्न एवं ह्यधिष्ठानत्वाभिमविध्यं प्रतिपद्यते । अज्ञानत्वम् अज्ञानविषयत्वं तदेवेश्वरोपाधिः तस्योपाधिकत्वोक्तौ सर्वभ्रमाणां सोपाधिकत्वे प्रशक्ते सोपाधितश्च व्यापकमिति तदुपहितस्येश्वरस्यापि व्यापकत्वात् सर्वान्त- कनिरुपाधिकतमव्यवच्छेदप्रसङ्गात् । लोहितः स्फटिक इत्यमित्वमुपपद्यते विचारणाचार्यस्त्वनवचिन्नस्येश्वरत्वमवचिन्न त्रापि शक्त्यज्ञानाजतन्नमवजपाकुसुमत्वाज्ञानालोहिते तस्यच जीवत्वं दूषितमिति नात्र दोघस्पर्शः। नत्वेवमझानस्य चैत- स्मिन् स्फटिकतादात्म्यम इति सोपाधिकभ्रमत्वासिद्धे शक्य भ्यस्येश्वरत्वेऽहं मां न जानामीत्यनुभवादीश्वरस्य प्रत्यक्वपातः। ह्यत्रापि वक्तुं स्फटिको यद्यपरोकम्तर्हि तत्संसर्गमात्रमुत्पद्यते नझाततयेश्वरस्य प्रत्यक्त्वमनापाद्य सर्वस्व वस्तुनो कात- यदि नापरोक्वस्तर्हि तदुपपत्तिस्तस्मान्नादर्शोधिष्ठानं कि तु मुतयाऽज्ञाततया वा सादिप्रत्यकत्वाङ्गीकारादिति वाच्यं न खव- खमेव तत्र च भेदोऽस्य तेन मुखान्तरं प्रत्यनिशानाश्च न मुखाकाततयेश्वरप्रत्यक्रमापद्यते ईश्वरं न जानामीति येनान्युपगम- न्तरोत्पत्तिः स्वं क्रियते कथं तर्हि भेदनमोऽपि स्यात् प्रत्यक्षप्रत्य व्याघातापत्तिः स्यात किंवदं मान जानामीत्यवानं चैतन्य- | मिझानेनाझानानिवृत्त्या भेदभ्रमनिवृत्तिप्रसङ्गादितिचेऽच्यतेसो मनुनूयते स चेश्वर शति तस्य स्वरूपेणापरोकत्वं स्यादिति पाकभिकम्रमनिवृत्तानुपाधिनिवृत्तेः पुष्कलकारणत्वान्नततोभे शाहं मां जानामीत्यत्राझाततया जीवस्याखरामजगज्जी- दभ्रमनिवृत्तिः मुखान्तरोत्पत्तिपक्षे तु सोपाधिकन्वमेव नास्ति। येश्वरादितमाधिष्ठानचैतन्यरूपस्य हानेरप्यज्ञानोपहितचैतन्य-1 उपाधिदि उप समीपे स्थित्वा स्वकीयं धर्ममन्यत्रादधातीत्युरूपस्येश्वरस्याभानादज्ञानतास्फुरणे तपहितस्येश्वरस्य स्फु- च्यते नहि मुखान्तराध्यासे उपाधिरस्ति रजताध्यासवत् भेरणापत्तेः कर्तुमशक्यत्वात्तस्थायोग्यत्वान्न हि घटस्फुरणे घटो- दाध्यासे दर्पणस्योपाधित्वं संभवति अतः सत्यपि प्रत्यभिपहिताकाशादेराप स्फुरणं केनचिदापादयितुं शक्यत इति झाने यावपाधिनेदाध्यासानुवृत्तिर्युक्ता तस्मात् मुखमधिष्ठान तत्र विशेप्यस्यायोग्यत्वम् अत्र तु विशेषणविशेष्ययोोग्यत्व- तत्र भेदोऽध्यस्यते एवं चाहानादौ प्रतिबिम्बे सत्यपि नाभासामित्यास्त विशेष ति चेन्न तथाप्युपहितत्वसंबन्धगर्भवेनादृष्ट- न्तरं मानाभावात् । सादृश्यापत्तिस्त्वज्ञानाध्यासेन परिच्छिनवजीवन्चे तेनैवायोग्यताया ,व्यात् । प्राभासवादिनो वार्तिका- त्वापत्त्याऽहंकाराध्यासापेक्षिता भविष्यति तस्मान्यवभासवा. भार्यास्तु दर्पणादौ मुखान्तरोत्पत्ति स्वं कुर्याणाश्चैतन्यस्यानादि दो ज्यायानिति विवरणाचार्या जिप्रायः । श्रज्ञानोपहितबिम्बभूताझानेऽज्ञानादिरवामासःसमस्ति तत्वमा जीवो जमत्वात् अ चैतन्यमीश्वरः अज्ञानप्रतिविम्बितं चैतन्यं जीव शर्त वाहाना तस्तत्तादात्म्यापननैतन्यं जीवः किमात्राभासाङ्गीकारे बीजमिति । नुपहितं शुद्धचैतन्यमीश्वरः अज्ञानोपहितं च जीव इति वा मुचत चैतन्येऽहंकाराभ्यासस्य निरुपाधिकस्येष्ठत्वाविरुपाधिका- ख्यो वेदान्तसिद्धान्त पकजीववादाख्य इदमेव दृष्टिसृप्रियादमाच्यासत्वावच्छेदेन च साश्यस्यापेकणादानासतादात्म्यापत्त्या चकते । अस्मिइच पक्षे जीव पचेश्वरज्ञानवशादुपादानं निमित्तं च सादृश्यापन्ने चैतन्येऽहंकाराभ्याससंजवान्न चानासाध्या च दृश्यं च सर्वप्रतीतिः। किं देहभेदाजीवनेदा भ्रान्तिः । एकसेऽपि तदपकायामनवस्थापत्तिस्तस्यानादित्वात् । जन्माध्यास स्यैव स्वकल्पितगुरुशास्त्राद्युपहितश्रवणमननादिदाादात्मएव निरूपाधिके सादृदयापेकणात् । न चाहानाभ्यासेनेव सार- साकात्कारे सति मोतः शुकादीनां मोकश्रवणं चार्थवाद इश्यापभिःसुवचा जाड्यन हि सादृश्यं वाच्यं तच्च जमतादात्म्या- त्वायूह्यम् । ननु वस्तुनि विकल्पासंगवात्कथं परस्परविरुरूमपाया। नचाहानं तादात्म्येनाध्यस्तं किंत्वहंमत्त इति संसर्गेणा- तप्रामाण्यात्तस्मात् किमत्र हेयं किमुपादेयमिति चेक एघमाह ज्यस्तमिति अतो नाद्याभासतादात्म्याध्यासेन जाड्यापत्या सा- वस्तुनि विकल्पो न संनवति स्थाणु, पुरुषो वा राइ.सो घे. इथे सत्यदकाराध्यासो युज्यते । म चाभासे प्रमाणाभावः आ- त्यादिविकल्पानां वस्तुनि प्रवृत्तिदर्शनात् अताविकी सा कल्पदर्श मुखमिति स्पएमुखान्तरावभासात् एकत्र लप्तमन्यत्रापि ना पुरुषबुद्धिमात्रप्रनवेयं तु शास्त्रीया जीवेश्वरविभागादिव्यप्रतिसंघीयत इति न्यायेनाकानेऽपि चैतन्याभासाङ्गीकारात्।। वस्थेति कथं तत्र विकल्पस्पर्श इति चेन्नूनमतिमेधावी भवान् प्रवमन्तः करणादावपि चैतन्यानासः । अझानगतचैतन्याभास- येनत्थं वदति अहितीया हिप्रधान फसवत्वादशातत्याच्च प्रमेयंस्तु जीवशन्दप्रवृत्तिनिमित्तं तत्तादात्म्यापन्नचैतन्यजीवत्वादिति । शास्त्रस्य जीवेश्वरविभागादिकल्पनास्तु पुरुपबुरुिप्रजवा अपि Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) अभिधान राजेन्द्रः : । एग वाइ फलवत्संनिधायप शास्त्रेणान्धन्ते तत्वज्ञानोपयोगत्यात् तदङ्गमिति न्यायात् भूतासेकस्यापि श्रुत्यानुवादनसंनवा -- देतेन द्वैतसमानाअयविषयत्वनियमाप्रमाणाप्रयोजनाप्राववाहानान कारावयवेतन्याशानादेव तानाव्यवहारोपपत्तेः । प्रामाण्यस्य वा ज्ञातज्ञापकत्वरूपत्वादन्यथा स्मृतेरपि तदापत्तेरिति वेदान्तेषु सर्वत्रैवं विरोधेऽयमेव परिहारः । तदाह वार्त्तिककारः " यया यया भवेत्पुंसो व्युत्पत्तिः प्रत्यगात्मनि । सा सैव प्रक्रिया ज्ञेया. साध्वी सा चानवस्थिते" रिति श्रुतेस्तात्पर्यविषयी जूतार्थविरुद्धं मतं हेयमेवेति ना प्रसङ्गः स च जीवोऽनवत्यवादिनां दिरण्यमनवि दिवे तच्छति मेदान्तान्तःकरणदानानेत्यपि वदन्ति । तत्र तत्त्वज्ञानेन शक्तिरन्तःकरणस्य वा निवृचिरिति वक्तव्यवस्था जीवदानां हिर जीवनयापन न तस्य प्राया इत्यादीनां वावस्थे नोपपत्ति: एक वास्तुपासनानां ममुलि मादकमेव मुकारेक्रममुनिमुपास गायत्वेनैश्चैव फलवत्वेऽपीतरंषु तच्णस्वार्थवाद घश्यकत्वात् । फढवत्ता तु तासां सत्वशुद्धिराश्रयणाद्यधिकारोपयोगात् प्रमातृभेदाङ्गीकारात्त सत्फल नोगोत्तरमिममिति विशेषणादेतत्कल्पावच्छेदेन मानवभवानावृत्त्या वा भविष्यति तदेवं व्यवस्थितमेकानेकवादिनां जीवस्वरूपं तत्र चान्तःकरणमध्यस्यतेऽहमिति रज्ज्वामिव सर्पः केवलस्य तस्य साक्यभास्यत्वात् तत्कार्याकारपरिणतस्यैव साकियो नानामित्यहमाकारेण परिणतस्य तस्याच्यासोऽयमहं काराध्या तिमीयते । अयं च न सोपाधिक उपाधेरजावादहमज्ञ इति त्वहंकाराकानयोरेकतयाध्यासात्यायसोरे कबन्धादयोददतीतिवत् । तच्चान्तः करणं स्मृतिप्रमाणवृत्तिसंकल्पविकल्पातृष्ाकारेण परिणतं चित्तबुद्धिमनोका दमेवात्मतादात्म्येनाभ्यस्यमानमात्मनि सुखदुःखादिधर्माध्या से उपाधिः स्फटिके जपाकुसुममिय लोहित्याचा प्राद बस्तरचाशनीयाः पिपासादयस्तथा श्रोत्रागादयश् बधिरत्वादयोऽभ्य स्वन्ते तथा देहस्तः स्या दधात्मन्यभ्यस्यते तद्रादीनां न तादात्म्याच्यासो दस्तु मनुष्योऽयमिति भ्यस्यते एवं चैतभ्यस्याप्यहंकारादिषु पर्यन्तेष्वध्यासः स्वीकार्यः मध्यासव्यवधानतारतम्याच्च प्रेमतारतम्यम् । तडुक्तं वार्त्तिकामृते "विद्यात्पुत्रः प्रियः पुत्रः पिएस परः प्राणः प्राणान्दात्मा परः प्रियः " तेनान्योन्याभ्यासाच्चिदचिइन्थिरूपोऽयमभ्यासः समूहालम्बनभ्रमवदवश्यमत्रेतरेतराध्यासस्यावश्यमभ्युपगन्तव्यत्वात् । अयमेव संसारो माया शवलाविदारमन भाकाशादिक्रमेण सारीरात्मकपचीकृतोत्प तौ केषांचिन्मते तेज्य एव पञ्चीकृतभूतोत्पत्तौ संप्रदायमते च तेषामेव सयोगविशेषावस्थानां तत्वस्वीकारे तेभ्यो ब्रह्माएकभूधरादिशनचतुर्विधस्रो पत्तरतएव सिका धानात् (गो०) भात्मानमात्रे प्रत्यादिरात्रियम रेनान्तरात्यादाय एव न भ्रान्त्या साधनान्तरप्राप्तेरपि नियमविध्यङ्गत्वं यजेतेत्यादादेवेतिया निर्विशेषात्मबोधेऽपि इतिहासपुरा दधदित्यादिना पुराणप्राकृत ना त्वादेदान्तश्रवणं नियम्यत इति दोषाभावात् । एतच्च श्रवणा एगावाइ चतुर्थत्यातदेव बहुजन्मसन्धपरिपाक शादी तमस्यादिवाक्यार्थविशुद्धं प्रत्यगभिन्नं परमात्मानं साक्षात् कुरुते । नच प्रामाण्यस्योत्यत्तौ स्वतःस्वनङ्गः श्रवणादेः प्रतिबन्धकनिवर्तकत्वान्निवृत्तेश्च स्वत्वेनोत्पत्तावतिरिक्तानपेक्षणात् । तत्त्वमिति पदयोः परोक्षत्वा परोक्षत्वविशिष्टचैतन्यरूपपृथगर्थवा चकयोः श्रूयमाणं सामानाधिकरण्यमं । न तावत सिंहो देवदत्त इति णमुख्यनावः संभवति तस्यान्नाज्जातत्वात् । नापि मनो प्रतियपासमार्थ भुतहास्य भुत कल्पना मु न नीलोत्पलादिवत्सामानाधिकरण्यं गुणगुणिनां प्रावाधसंभवानिर्गुणा स्युजादिवचनविरोधाय नापि यः सर्पः सारिति वद्वाधयमुनयोश्चिद्रूपतया वाघायोगान्मुक्त्यभावप्रसङ्गाच्च । नहि स्वाधार्थं जीवप्रवृतिरुपपद्यते तत्पदार्थी परस्परव्यावर्तकतयाविशेषणविशेष्यभावप्रतीत्यनन्तरं लक्षणया सोऽयं दे इति तद्विशुद्ध प्रत्यगभिन्नाख एडपरमात्मप्रतीतेः सा च लक्षणा प दद्वयेऽप्यन्यथाऽण्डार्थप्रतीत्यनुपपते चाबी विरोधासमानाच इयं लक्षणा विशेषणं सत्यागाद्विशेष्यांशत्यागाश्च जहदजहती । नन्वेवं चैतन्याद्वैत सिद्धावपि कथं प्रपञ्चस्य परमार्थिकत्वाभाव इति चेदुच्यते यदि त्वं पदार्थे भोक्तृत्वादिपारमार्थिकं कथं त्यक्यसिद्धिरेवं तत्पदार्थे परोक्षत्वादि । यदि पारमार्थिक कथं त्वं पदार्थक्यसिद्धिस्तदे कल्पितये भोग्यादिति एवं जगत्कर्तुत्वादेः कल्पित्वे जगतः कल्पितत्यमित्यपि तत्त्वमस्यादिवाक्यसामध्येनैव निरस्तसमस्तप्रपञ्चात्मैक्यसिद्धिः सोऽयमित्यत्रेच पदार्द्धवभ्रमानिवृतेर्महावाक्याश्रयणस्यावश्यकत्वं तदिदमात्मानमुत्प मेवानन्त जन्मार्जितकर्मराशिं विनाशयति " क्षीयन्ते चास्य कर्माणीति श्रुतेः । नच देहनाशप्रसङ्गः प्रारब्धस्याविनाशात् । तस्य तायदेव यावन्न विमोक्षेऽप्यसंपत्स्य इति श्रुतेः कर्मविपाकेन प्रारम्भनिवृत्तावप्युक्तशास्त्रेण ज्ञानाभिचयत्वाभिधा नातू ततश्च ज्ञानेन तदानीमेवाज्ञान सर्वात्मना निवर्त्तयितव्ये प्रा प्रतिषन्धाप्यनिवृत्तिस्तस्यां वाचस्थयां प्रारम्भफलं भुञ्जान सफल संसारं बाधितानुपश्यन् स्वात्मारामो विधिनिषे धाधिकारशून्यः संस्कारमात्रः सदाचारः प्रारब्धक्षयं प्रतीक्षमाणो जीवन्मुक्त इत्युच्यतेऽस्य प्रारब्धक्षये संसक्तिक निरघशेपाज्ञाननिवृत्तौ परममुक्ति ननु के यमज्ञाननिवृत्तिर्नासती नाप्यसतनापि सदसती ज्ञानजन्यतामसोद्देश्य रोपेभ्य वास्तु तर्ह्यनिर्वचनीयाजन्यत्वात् । तदुक्तं " जन्यत्वमेव जन्यस्य, मायिकत्वसमर्पक" मितिमैवम् अनिर्वचनीयस्य ज्ञाननित्यनियमेव निवृत्तिपरंपराप्रसङ्गात् सतीव्याकोपम इहित्य तस्या निकोच एव दूषणम्। पञ्चमप्रकाराश्रयणं त्वत्यन्ताप्रसिद्धमस्तु म्यात्मिकेति चेन्न जन्यत्वादेव नास्त्येव जन्यत्वमिति चेन्न ज्ञानाधेस्य प्रसङ्गात् चैतम्यस्य सदा सत्येन प्रयत्नविशेषानुपपते अत्र केचित् सत्योपलक्षितं चैतन्यमेवाज्ञाननिवृतिः तच्च न तत्वज्ञानं प्रागस्ति उपलक्षणत्वस्य संबन्धाधीन-स्वास्काकसंबन्धो हि गृहस्य काकोत्स तित्वस्यापि सत्येऽद्वैपापातात्मा उद्देश्यत्वानुपपतेः। मियाले ज्ञाननियस्यापविमात् उदोषानतिवृतेः । न च तत्वज्ञानानुपलक्तिभिन्नं चैतन्यमेव साऽस्थाभेदं विना तस्यापि दुर्बको पुर्ववस्वरूपेऽयमज्ञाननिवृभिरोच्यते ज्ञानस्य निवृशिक रूपान्तरपरिषतोपादानस्येष तपत्याच Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगाबाइ घटसोहि चूर्णकारपरिणता देव न तम्यस्य रूपान्त - रमस्ति तस्मान्नास्त्येवाज्ञानध्वंसः किंत्वज्ञानस्य कल्पितत्वात्तदत्यन्ताभाव एव तनिवृत्तिः किं तर्हि तत्वज्ञानस्य साध्यमिति चेनास्त्येवाज्ञानात्यन्तानावबोधात्मकत्ववाधव्यतिरेकेण तमुक्तं तत्वमस्यादिवाक्योक्त - सम्यन्धी जन्म मात्रतः । अविद्या सद कार्येण नासीदस्ति नदिष्यतीति" शुतिबोधेनापि दि रजात्यन्तान्नावबोधरूपो वाघ एव क्रियते मिथ्याभूतस्य च वाघ एव ध्वंस इत्यभिधीयते तद्वदिहापि इष्टव्यम् सचायमधिष्ठानात्मक एव कथं तर्हि सर्वया सत इच्छाप्रयत्नाविति चेत्कण्ठगतचामीकन्यायेनानवसत्य मात्पुरुषार्थत्वं तु तानित्यादेव तिसाध्यत्वस्य तत्र गौरवेणाप्रवेशाचन्द्रामृतपानादी 66 (४०) अनिधानराजेन्धः । मिटमेव । प्रवृत्तिस्तु तत्र कृतिसाध्यत्वज्ञानरूपकारणान्तराजावादिति प्रति कथं पुनष्टिवाई अपरिपाक मना ज्ञानेनाङ्गानातिवाः तथाहि तस्मिन् मते चैतन्यतिरिक पदार्थानामा नातिमिष्यत्यस्यादिदान्तात्त शस्यैव सवस्याङ्गीकारात् । एवं च घटादीनां यदा प्रतीतिस्तदा सत्यं नान्यदेति नादिजन्यावं कानमात्रजन्यर्थस्थ वच्च दरमाद्युपादानम् । अज्ञानदेहादिकं तु जासमानमेव तिष्ठति अनावनिश्रयाभाषाश्च पुत्राद्यभावतरोद्ना प्रत्यनि नमपि चमएव ततश्चाकाशादिक्रमेण सृष्टिः पञ्च । करणं ब्रह्मा एकाधुत्यतिधितमायेय घटादेरप सदस्यासादेव अधिष्ठ नस्य स्थानास देतो हीराचनप्रवेशदेव महानातिरिक्तकारणाभावात् कथं श्रवणादिजन्यं तत्पज्ञानमिति । अत्रोच्यते लोकेऽज्ञानातिरिक्तानात्मदृष्टिकारणाभावेऽपि वेदे यागस्वगदी कार्यकारणदायिनां दबेाचरणप्रसङ्गात्तस्मा घटादेि स्वर्गगरानानमात्रजन्यत्वमपि तु विहितनिषिया म्यत्वमपीति दानुभविकत्वेऽई आरती यं प्रामाणिकं नो नाम दृष्टिसृष्टेरनवसानप्रसङ्गोऽधिष्ठानाने तदवसानमिति चेन्न तस्यैव हेतुत्वभावादज्ञानं तकेतुरिति चेन्न ततो दृष्टाकारण निरपेक्षा तदुत्पत्या शमाद्यननुष्ठानप्रसङ्गात् । भ्रान्त्या रामाद्यनुष्ठानमिति चेन यत्तद्वेदान्तार्थश्रवणवतां तदभावप्रसङ्गात् । किं च भ्रमे ज्ञानमात्रजन्यत्वं युक्तम् । नन्वधिष्ठानाने हि रजतमनेपल्यानजन्याचं तदवश्यं दोके ऽज्ञानातिरिककारणानावेऽपि वेदे यागादी स्वर्गादिसाधनता संमतेन यागादे स्वर्गादिसाधनत्यं प्रत्यागमतिकृतामुत्पन्नस्य स्वर्गसूक्ष्मरूपस्य वाऽपूर्वरूप साहसिदस्य स्वर्गजनकत्वमपूर्वस्य साहसिक पत इति नाकातसत्यानङ्गीकारेण ज्ञानकारणताया श्यापूर्वस्य साििसताज्युपगमश्यावश्यकत्वाच्च यागादेः स्वर्गादिजन्मवत् श्रवणमननादिसह अकृतवेदान्तवाक्यात्तत्वज्ञानोत्पत्तिरविरुका दृष्टिसृष्टियादे व भारतीत सत्यकथंतीरिति चेत कुरा यगतं सर्वदाप्रतीतेरिति चेत्तर्हि जीवोऽपि नास्येव चिद्रूपतया भासमानत्वमप्युभयत्र तुल्यमीश्वरत्वं सदान भासत इति चेजीवत्वेऽपि तुल्यमेतत् उभयमपि तर्हि नास्त्येवेति चेन्न साहित्यस्यानुभवसिद पटकाने शक्तिद्वयस्यावश्यकयेन जीवत्वेश्वरत्वयोरनादित्यस्य यौनिकत्वासयोरभेदानु पण चिन्मात्रीका तस्माद् दृष्टिष्टियापि चिन्मात्रधीर्वक्तव्या यथोक्तानुष्ठानानुभवस्तत्व ज्ञानादखएका नन्दस्वरूपा मुक्तिर्युविदेतास्तिक प्रकृतिका प्रकृतिकमयं पर्याया किननिर्निलॉचनीयमयतारणीयं स्वाद्वा ॥ ११० ॥ एगादच्च नयो० (पास्तिकनयमतेनाद्वैतवादे दोषाः सम्मतितकें) एगासए - एकाशन न० एकं सकृदशनं भोजनमेकं वासनं पुताSचालनतो यत्र तदेकाशनमेकासनं च । प्राकृते द्वयोरपि पगासरा मिति रूपम् । प्रत्याख्यानमेरे, अकाशनप्रत्याख्यानं ता धाकाराः स्तद्यथा । एगास पच्चक्खाइ चव्विहं पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं मत्था भोगेणं सहसागारेणं सागारियागारे उपसारेणं गुरु अन्नुट्ठाणेणं पारिडाव शियागारेणं महत्तरागारेभं सम्माविचिआगारेणं बोसिर । एक सफदरानं भोजनमेकं चासनं चालतो पत्र दे काशनमेकासनं च प्राकृते द्वयोरपि एगासणमिति रूपं तत्प्रत्याख्याति एकाशनप्रत्याख्यानं करोतीत्यर्थः । अत्राद्यावन्त्यौ च हावाकारी व पूर्ववत् " सागारियागारे " सह आगारेण वर्तते इति सागारः स एव सागारिको गृहस्थः। स एवाकारः प्रत्याख्यानापवादः सागारिकाकारस्तस्मादन्यत्र गृहस्थसमक्षं हि साधूनां भोज्यते प्रवचनोपघातसंभवात् प "कायद्यात जिओ कुरा बोहि आहारे नीहारे, दुगुछिए पिंडगहणे य" ततश्च भुञ्जनस्य यदा सागारिकः समायाति स यदि चलस्तदा क्षणं प्रतीक्षते । श्रथ स्थिरस्तदा स्वाध्यायादयाघातो मा भूदिति ततः खानादन्यत्रोपविश्य भु जनस्यापि न भङ्गः गृहस्थस्य तु येन दृष्टं भोजनं न जीर्यति तदादिः ( पसारेणं) आउट संकोचनं प्रसारणं च तस्यैवाकुञ्चितस्य ऋजुकरणमाकुञ्चने प्रसारणे वासहिष्णुतावास चलति ततोडम्प ( गुरुप्रभुणे) गुरोरभ्युत्थानार्हस्याचार्यस्य प्रा घूर्णकस्यवाऽभ्युत्थानं प्रतीत्यास मत्यजनं गुर्वभ्युत्थानं ततोऽन्यत्राभ्युत्थानं चावश्यं कर्त्तव्यत्वात् । भुञ्जनेनापि कर्तव्यमिति न तत्र प्रत्याख्यानभङ्गः । ( पारिधावसियागारे ) साधोरेव यथा परिष्ठापनं सर्वथा त्यजनं प्रयोजनमस्य पारिष्ठापनिकम तदेवाकारः पारिष्ठापनिकाकारस्ततो अन्यत्र तत्र हि त्यज्यमाने बहुदोष संभवादाश्रियमाणे चागमिकन्यायेन गुणसंभवाश्च तस्य गुप्यशया पुनर्भुञ्जानस्य तु न भङ्गः "विहिमहियं विहितं उद्धरियं भवे असमाई से गुरुगणानार्थ, कप्पर आर्यबिलाईगं " श्रावकस्तु खण्ड सूत्रत्वादुश्चरति ( वोसिरइन्ति । अनेकासनमनेकाशनाद्याहारं च परिहरति ध० २ अधि० । श्राव॰ । श्रा०चू० | एकाशने पण्डितकीर्त्तिगणिकृतप्रश्नो हीरप्रश्ने यथा प्रातः कृतद्विविधाहारैकाशनस्य श्राद्धस्य निशि द्विविधाहारप्रत्याख्यानं शुध्यति न वेति श्रत्रोत्तरं शुध्यतीतिबोध्यम् । ही | एगाह-एफाइ पुं० एकम -समा० एकरा देशः । रात्राह्राहाः पुंसि " इति पुंस्त्वम् एकस्मिन् दिवसे, वाच० । (सेज्जं पुण विहं जायेज्जा एगाहेण वा दुआहेण वा ) आचा० २ श्रु०३ ०१ ४० । - 66 एमाहच एकाहत्य त्रि० एकैयादत्वादननं महारो एकप्रहारोपेते, "एगाहथं कुमादयं नासरासि करेमि " एकैवाट रथाऽऽनने प्रहारो यत्र अस्मीकरणे तदेकात्यं तद्यथा नवाये वमिति प्र० १५ श०१ उ० । “एगाहश्चं कूमाहचं जीवियाओ - वरोवेश " एकाहत्या हननं प्रहारो यत्र जीवितव्यपरोपणे तदेकाइत्यं तद्यथा भवतीति प्र० ७ श० ए ० ॥ निर० । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) निधानराजेन्द्रः । एमाहिय एगाहिय एकाधिक त्रि० एकेनाधिके, पं० सं० । गाहिक० एकेनादारुडे, एकेनाहा प्राकादिका इति ज्यो० । रोगभेदे व " एकाहिका इति वा जी० १०३ प्रति० । एकाहिकज्वर एका दानन्तर एकदिनध्यापको ज्वर इति वैद्यके प्रसिकम् । वाच । एमाहिगम एकाधिगम० एक िनगमागमे, "गादिगमकाणे" एकाधिगमे एकदिनगमागमे अध्वनीति, व्य० ६ उ० । माहिगारिए (ऐ) काधिकारिक ०ि एक विकारे जव ऐकाधिकारिकः अध्यात्मादित्वादिकण् । एकाधिकारभये,तथाच प्रायमधिकृत्य "गारिगाण वि, नाणसं केतिया व दिजं ति” एकाधिकारिकानि नाम एकस्मिन् शय्यातर पिएकादावधिकृते दोषेणाहोच्तेि एव यानि शेदोषसमुत्थितानि प्रधानन्याधिकारिकाश एकाकानाधिकारिकाणि अध्यात्मादित्यादिकमिति प्यु त्पतेः । तेषामप्येकाधिकारिक नामात्यं न पुनरेकाधिकारिकतया एकत्वमिति ॥ व्य० ४ उ० । दिन- एकेन्द्रिय-पुं० एमिन्द्रियं करणं स्प केन्द्रियजातिनामकमा सदाचरण - केन्द्रियाः । पृथिवी कायिकादौ, स्था० वा०० : प्रज्ञान आव प्रश्न० | सूत्र० । एकेन्द्रियाणां जीवत्वं यथा । चरिदिआइजीमा इति प्यायसो सच्चे । दिप विष्पमिवन्ना जय मोहो ॥४२॥ तत्र चतुरिन्द्रियादीन् दीन्द्रियावसानान् जीवान् इच्छन्ति प्रा थः सर्वेऽपि वादिनः पद्रियेो विप्रतिपता तो मोहदिति गाथार्थः । ततः किमित्याह । जीवनं तेसियो, जहा संप नहर योच्छे सिर्फ पिणं संखेवेणं विसेसे ॥४३॥ जीवत्वं तेषामेकेन्द्रियाणां यतस्तथा युज्यते घटते सांप्रतं तथा ये सिमसिमासंपेण इति गाथार्थः। आह नए केसि दीसर, दखिदियो या एमेरसिं । तं कम्मपरिण, न तहा चउरिदिआणं च ॥ ४४ ॥ श्राह ननु तेषां बधिरादीनां दृश्यते द्रव्येन्द्रियं निर्वृत्त्युपकरणनेयमेतेषामेकेन्द्रियाणामबोसरमा राज्यकर्म रिणतेः कारणान तथा एवं कम्प पीओ वेदेति ? गोवा ! चन्दसकम्पप ति तं जहा पाणावर णिज्जं जाव अंतराइयं योईदियवजं चविवदियवज्जं घाणिदियवज्जं जिनिंदियवज्जं इत्यिवेदव पुरिसद्मनं । एवं चउकणं भेदेणं जा पा दरवणस्सकायाणं जेते ककम्पपीलि गोया एवं चैव चउदसकम्पनीयो वेदेति । सेवं भंते ! अंते ! चि ॥ कविाणं जैसे अतरोगा एगिदेया गोयमा! पंचगंगा पि दिया पणत्ता तं जहा पुढविकाया जाव वगरसइकाइया । ताणं ते! पुढविकाइया कविद्या पत्ता? गोपमा बिपणा तंजड़ा फाट्या वादकाय एव दुपदेसिए णं भेदेणं जात्र वणस्सइकाइया । सर्व पाठसिनवर ( एवं डुपएल जेवणंति) अनन्तरोपपन्नकानामेकेन्द्रियाणां पर्यातकापर्यातक नंदयोरभावेन चतुर्विधनेदस्या सम्वादिपदेन भेदेनेत्युक्तम् । तथा ॥ अतिरोममढवीकायां भंते! कइ कम्मपगटीओ ? गोपमा कम्मपगमीओ पणाचा जहाणावरणिज्जं जान अंतराइयं वांत रोववम्गवादरपुहवीका इपीओ ? गोयम यह कम्मागर्म आनंद पर अं न्द्रियमपि नास्त्यन्यथा च ते जीवा इति गाथार्थः ॥ पं० ब० । ( एकेन्द्रियाणां जीवत्वं कायशब्देऽपि ) ते च पञ्चविधा यथा "पुढवी श्राउक्काए, लेऊ चाऊ वणफई चेवए । गिंदियपंचविहा" पृथिवी अपायस्तेजोवायुर्वनस्पतिश्चैव म केन्द्रियाः पञ्चविधा प कमिन्द्रियं येषां ते एकेन्द्रियाः । पञ्चविधाः पञ्चप्रकारा इति आव०४ अ । जी० । एकेन्द्रियजेदा यथा । काणं ते एनिंदिया पचा? गोयमा पंचविहा एगिंदिया पता जहा पुढत्रिकाइया जाव वलस्सइकाइया पुत्रिकाया ! कड़विहा पत्ता? गोयमा ! दुविहा ने पतंगा विकाया बादरविका ना गोयमा दुषि माया एगेदिय हा पत्ता तंजहा पज्जत्तमुदुमपुढवीकाइया य अपज्जतमढवीकाइयाय । बादरपुढवीकाइया णं भंते ? कविहा पत्ता एवं चैव । एवं आउकाश्या वि एवं चउक्कणं भेदेणं जाणवल्या जाय वणस्मइकाइयाएं अपन माइया ते कड़कम्मपगमीओ पाओ गोयमा ! ऋ कम्मपगमीओ पात्ताओ से जहा ए यावरणि जाव अंतरापीकाइया भंते! कइ कम्मपगमीओ पनाओ? गोयमा कम्पन डीओ पनाओ तंजड़ा पाणावर णिज्जं जाव अंतराइयं । अपललदादरपुढची काइया येते का कम्पपीओए ता गोयमा ! एवं चैव । पज्जत्तवादरपुढवी काझ्या गं जंते ! का कम्पनीओ पछताओ एवं चैव एवं एकमे जाव वादरवणस्सङकाइयाएं अपज्जत्ताणं ति । पज्जत - वीकायाणं कद कम्पनीओति ? गोमा ! सा वि अविव सचधमाणा बजाओ सच कम्पग ओ पति अमापदि ओकम्पपगमं बंधन नाह यां जंते! कइ कम्पयमीग्रो ? एवं चैव एवं सच्चे जाव। पपादरवणस्सइकाइयाका कम्यगमओव ! Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगिदिय (४२) भभिधानराजेन्धः। एगिदिय राइयं एवं चेव एवं जाव अतरोववष्णगबादरवणस्सइका- एहलेस्सेहिं भणियं एवं णीललेस्सेहिं विसयं नाणिय श्याणं ति अपतरोवकारागसुहमपुढवीकाइयाणं ते! का | सर्व नंते ! ते ! त्ति एवं काउलेस्सेहिं विसयं नाणियवं कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! श्राउयवज्जाओ सत्तक- एवरं काउसेस्सेत्ति अजिलावो नाणियव्यो कइविहा एं म्मपगमीश्रो बंधति एवं जाव अणंतरोववागबादरवणस्स- जते! नवसिछिया पत्ता? गोयमा ! पंचविहानवसिद्धिया इकाइयति । अतरोववहगमृहमपुढवीकाझ्याणं नंते ! एगिदिया पापत्ता तं जहा पुढवीकाइया जाव वणस्सइकाकइ कम्मपगडीमो वेदेति ? गोयमा!चउद्दस कम्मपगडी- इया भेदो चनको जाव वास्सइकाइया वि ( ० ) श्रो वेदेति तंजता पाणावरणिजं तहेव पुरिसवेदवज्ज । कइ विहाणं भंते ! कएहलेस्सा जवसिफिया एगिदिया पएवं अणंतरोववामगवादरवणस्तइकाइयंति सेवं तेजते! एणत्ता ? गोयमा ! पंचविहा कएहस्सा जवसिद्धिया एति । कविहाणं ते ! परंपरोक्वप्मगा एगिदिया पम्पत्ता। गिदिया पाना? तं जहा पुढवीकाइया जाव वणस्मश्काइया गोयमा ! पंचविहा परंपरोववष्यगा एगिदिया पएणत्ता कएहलेस्सा जवसिद्धिया । पुढवीकाझ्या णं नंते ! कातंजहा पुढवीकाश्या चउक्कनेदो जहा प्रोहियउद्देसए । विहा परमत्ता? गोयमा! दुविहा पएणता ! तंजहा सुहुमपरंपरोववाणगअपजत्तसुहमपुढवीकाइयाणं ते! कइ क- पुढवीकाइया य बादरपुढवीकाइया य कएहलेस्सनवसिकिम्मप्पगमीओ पएणता एवं एएणं अनिलावणं जहा ओ- पमुहमपुढवीकाइया णं ते कइविहा पसत्ता? गोयमा! दु. हियनदेसर तहेव गिरवसेसं भाणियव्वं जाव चउद्दस वे- विहा पएणता तंजहा पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य एवं वादति सेवं ते ! भंते ! त्ति ॥ अणंतरोगाढा जहा अणं- यरा वि । एवं एएणं अभिलावेणं तहेव ननको भेदो तरोववाएगा परंपरोगाढा जहा परंपरोक्वएणगा अणंत जाणियको (ज.) कइविहा णं ते ! तरोववागा राहारगा जहा अतरोववरणगा परंपराहारगा जहा परंपरो कएहलेस्सा भवसिफिया एगिदिया पएणता? गोयमा! पंलवणागा अणंतरपज्जत्तगा जहा अणंतरोववरणमा परं चविडा अणंतरोववएणगा जाव वणस्सइकाइया । अर्णतपरपजत्तगा जहा परंपरोक्वएणगा चरिमा वि जहा परं- रोववएणा काहस्सा। नवसिद्धियपुढवीकाश्या णं नंते ! परोववएणगा तहेव एवं अच रियावि एवं एए एक्कारस उ कइविहा पएणत्तागोयमा ! दुविहा पएणता जिहा सुहदेसगा पढम एगिदियसयंमत्तं सेवं भंते ! भंते !त्ति जाव वि मपुढवीकाश्या य बादरपुढवीकाइया य एवं दुपओ दो हरइ ।। कइविहाणं नंते !कएहलेस्सा एगिदिया पएणता? जहा कएहलेस्तभवसिकिएहिं सयं नणियं एवं णीबोगायमा ! पंचविहा कराहनेस्सा एगिदिया पएणत्ता तंजहा स्सभवसिछिएहिं वि सयं जाणियव्वं सत्तममगिदियसयं पुढवीकाइया जात वणस्सकाझ्या कण्डोस्सा णं भंते !" एवं कानोस्सनवसिहिएहि वि सयं अहममेगिंदियसय काविहा पं भंते ! अभवसिफिया एगिदिया पएणता? पुढवीकाश्या कइविहापरणत्ता गोयमा विहापामत्ता! गोयमा ! पंचविहा अजवसिद्धिया पएणता तं जहा तंजहा सहुमपुढवीकाइया य बादरपुढवीकाइया य। कराह पुढवीकाइया नाव वणस्सइकाइया एवं जहेव भवसिद्धियमयं लेस्सा णं जंते ! मुहुमपुढवीकाइया कइविहा परमत्ता? एवं भणियं एवं णीननेस्स अनवास कियसयं एवरं पवनद्देपए अभिलावणं चउकभेदो जव ओहिए देसए सगा चरिमअचरिमनदेसगवज सेसं तहेव एवममेगिं जावरणस्पदकाश्यत्तिकाविहाणं भंते अणंतरोववलगा दियसयं एवं कएहलेस्सअनवसिकियएगिदियसयपि कएनेस्सा एगिदिया परमत्ता ? गोयमा ! पंचविहा अणं दसममेगिदियमयं णीललेस्सअभवसिकियएगिदियेतरोववागा काहलेस्मा एगिंदिया एवं एएणं अभिला हिंसएहिं एगदसगेगिंदियसयं काउलेस्सअजयसिरियसयं के तहेव दुपदो दो नाव वणस्सइकाइयत्ति । काविहा वारसमेगिंदियसयं एवं चत्तारि अवसिमिया सयाणि एव णं जंते ! परंपरोवचम्मगा कएहस्सा एगिदिया पप्मत्ता ? व उद्देसगा नवंति । भ० ॥ गोयमा ! पंचविहपरंपरोववस्मगा कण्हलेस्सा एनिंदिया पन्जियश्रेणिशतके प्रथमदातके । पारणता? तं जहा पुढवी काइया एवं एएणं अनिलावणं चउ- काविहा णं जंते ! एगिदिया पामत्ता गोयमा ! पंचविकनेदो जाव वएस्सइकायत्ति एवं एएणं अभिलावेणं हा एगिदिया पएणता तंजहा पुढवीकाश्या जाव वणस्सजदेव ओहिओ परंपरोववागा उद्देसो तहेव जाव वे- इकाइया एवमेते वि चउक्कएणं भेदेणं जाणियव्वा जाव देति । एवं एएणं अनिलावेणं जहेच ओहिए एगिदियसए | वणस्सइकाइया [ भ० ] एगिदिया चाव्व हा पएणता एकारस नसगा भणिया तहेव काहलेस्ससते विनारिण- तं जहा अत्थेगश्या समाउया समीक्वप्मगा जाव अत्यंगपगा जाव अचरिमचरिमकएदलेस्सा एगिदिया जहा क-| इया विसमाउया विसमोववएणगा। कइविहाणं भंते ! Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) अभिधानराजेन्द्रः । एर्गिदिय अर्णतववरणमा एनिदिया परखता गोयमा ! पंचविहा तरोववएगा एगिंदिया पण्णत्ता तं जहा- पुढविकाया दुपदो भेदो जहा एर्गिदिवसासु जाव बादरवणस काइया ज० ॥ ( दुपदो मेदोसि ) अनन्तरोपयचैकेन्द्रियाधिकारादनन्यरोपपन्नानां च पर्यकत्वाभावादपर्याप्तकानां सतां सूक्ष्माबाद राधेति द्विपदो भेदः भ० यंग एगिंदिया दुबिहा परणचा तं जहा प्रत्येगइया समाजया समोववरणमा अत्येगझ्या समाजया मोगा | कविहा णं जंते ! परंपरोववएगा एगिंदिया पाता गोयमा ! पंचविदा परंपरोववगाएगिंदिया पत्ता जहा - पुढविकाश्या भेदो चकओ जाव वसइकाइयति [ ० ] एवं सेसा वि ग्रह उद्देगा जाव अरिमो[िपडममेोगं० ] वरं अशंतरा अतरसरिसा परंपरा परंपरसरिसा चरिमाया अवरिमाया एवं क्षेत्र एवं एगोरय दिजातिषु यानि वीर्यत उत्कृष्टशाने तानि सकरत्नादीनि मन्तव्यानि । तत्र चक्रादीनि सप्तैकेन्द्रियाणि पृथिवीरूपाणि तेषाञ्च प्रमा"चक्क बत्तं दंगो,तिष्ठि वि पयाई वामतुल्लाई। चम्मं दुहत्थदीहं, तसं अंगुलाई असी ॥ १ ॥ चउरंगुलो मणी पुण, तस्सकदोष थियो। रंगुलप्यमाणा, सुपचवरकागणी नेथा" ॥ २ ॥ स्था ०७ठा ०१ एगिंदियसंसारसमावण एकेन्द्रियसंसारसमापन्न- पुं० [ एक स्पर्शणमिन्द्रियमान्तेद्रियाः पृथिव्यतेजोवायुधनस्पतयस्ते च ते संसारसमानजी के संसार समापन्नजीवाः संसारसमापन्नजीवविशेषे, । ते च पञ्चविधास्तद्यथा से किं दिवसंसार समावजीवा पचा? एगिंदियसंसारसमावसजीवपणा पंचविडा पत्ता तंजड़ा पुढची काइया आकाइयातेकाइया वाकायासइकाइया अथ का सा एकेन्द्रिय संसारसमापन्नजीवप्रज्ञाप १ सूरिराह एकेन्द्रिय संसारसमापन्नजीवप्रकापना पञ्चविधा प्रप्ता एकेन्द्रियाणां पञ्चविधत्वात् ॥ प्रज्ञा ०१ पद । एगुणचचालिस - एकोनचत्वारिंशत्- स्त्री० एक्रेनोना चत्वारिंशत् एकोनचत्वारिंशत्संख्यायाम्, तत्संख्यान्विते च । एवं एकोनविंशत्यादयोऽपि एकोनतत्संरख्यासंख्येययोः स्त्री० । वाच० | "नमिस्स णं भरो गुणचताश्री भदोरिया दोन्या"! सन० ३० स० । एकोननवति खी० एकोननवतिपाच" गूणण अरूमा सम एकरस उद्देगा [०] कइ विहाणं जंते ! कएहलेस्सा गिदिया पहाचा गोवमा पंचविला कएहलेस्सा एगि दिया पत्ता दो चउकओ जहा कएहलेस्सा एगिंदि यस जाव णस्सइकाश्यते । एवं एए अभिलावेणं हे पढमं से ढिसयं तव एक्काग्स उद्देसगा जाणियव्वा[वितियमेगिंदि० ] एवं पीललेस्सेहिं वि [ततियं सयं ३] काट लेस्सेहिं विसयं एवं चैत्र [चत्यं सयं ४] जवसिद्धियएगि दिए सर्प (पंचमं सर्व) विहाणं जंते! कएड लेस्सा जब सिडिया एगिंदिया एवं जव ओहिय उद्देसओ [बहं सयं ६ ] विहानंते! कसा भरसकिया एगिंदिया पत्ता? जहेव अतरोक्त्रागा उद्देसओ ओहि ओ बहेन । कवि मेते परंपरोववान जयसिद्धिया निंदिया पता गोषमा पंचविद्या परंपरोले पापीस (३) एकोनविंशति-त्री० एकोनविंशतिसंख्यायाम, ! सभवसिद्धियएगिंदिया पत्ता ओहिओ भेदो चउकभी जानवरकाश्यति । शीलले स्सनवसिकियएगिदिए [ सत्तमसयं सम्मत्तं ७ ] एवं कानलेस्सजन सिकिय सर्व [अमं सर्ग ८] जहा जबमिकिरहिं चचारि सवारी नायाणि एवं अजबसिकि एवि चचारिंसयाणि भाणिवव्वाणि खवरं चरिमचारमा उदेगा जाणिया से तंव एवं एाई वारसए गिंदियसेदीसयाई भाणियवाई भ०३४ श०१ ७० पर्गिदियरयण - एकेन्द्रियरत्न - न० पृथिवीरूपे रत्ने, 1 ४० स० । स्था० । एगमेगस्स णं रन्नो चाउरतचक्वहिस्स सत्त एर्गेदियरपापाता से जड़ा चकरपणे उत्तरपणे चम्मच दंगसरणे माणरयणे काकणिरयणे । रत्नं निगद्यते तत् जातौ जातौ यदुत्कृष्टमिति वचनात् चका ८६ स० । एगुणतीस एकोनत्रिंशद- स्वी०त्रिंशत्संख्यायाम् तसंख्यान्विते च । वाच० । “एगूणती सविहे पावसुयपसंगेणं पष्टते" सम० २० स० । एगूणपन्न - एकोनपञ्चाशत् - स्त्री० एकोनपञ्चाशत्संख्यायाम्, तत्संख्यान्विते च । वाच० । ।" एगूणपन्नरादिपाईं " सम० - तत्संख्यान्विते च । वाच० । “एगूणवीसणायज्झयणा पत्ता" सम० १९ स० । “गूणवीसश्मे पव्वे" स्था० ६ ० ॥ एगूरणवी समपव्व - एकोनविंशतितमपर्वन्- न० फाल्गुन कृष्णपके, स्था० ६ ० । (तस्य पर्वत्वमवमरात्रत्वे चावमरात्ररात्रे ) एग्रास िएकोनषष्टि-स्त्री० पोपटायाम संख्या न्विते च वाच० । “एगूणसठ्ठिरादियाई” सम० ८ स० । एग्सतरि एकोनसप्मृति खाएको ख्यायाम्, तत्संख्यान्विते च । वाच| "एगूणसत्तारं वासा वासपब्वया पत्ता" सम० ६० स० । एगुणासी एकोनाशीति-श्री० एकोनाशी तिसंख्यायाम् [संख्यान्दिते च । वाच० | "पगुणासी जोयणसदस्सादि" सम० । ७ए स० । एगोरु एकोरुक-पुं० अष्टादशानामन्तरद्वीपानाम्प्रथमेऽन्तरठीपे तत्स्थे मनुष्ये च । श्ट् एकोरुकादिनामानो द्वीपाः परन्तात्स्थ्यात् - Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगोरय तद्व्यपदेश इति न्यायान्मनुष्या अप्येकोरुकादय उक्ताः। यथा प चालदेशनिवासिनः पुरुषाः पञ्चाला इति । जी० ३ प्रति । एगो रूपदीप-एकोरुद्वीप-पुं० [अटादशान्सरद्वीपानाम्प्रथमे स्वनामख्याते ऽन्तरधीपे, जी० २ प्रति० ( तद्वक्तव्यता विस्तरेणान्तरदीय शब्दे ) एगोरणीय एकोपनीत नवेन समीपानीते, "एगरख भुजमाणस्स, लवणीयं तु गेरहर । न गेह डुगमादीणं, अवियत्तं तु मा नवे" ॥ एकस्य जुञ्जानस्य उपनीतं भगवान् गृह्णाति न द्विकादीनां द्वयोस्त्रयाणां पञ्चानां वा उपनीतं न गृह्णाति कस्मादिति नेत्र मा जूदप्रीतिदेतोः व्य० १० उ० । एन (ब) एज-पुं० जयती पायी, " पहुएजस्स दुगुंत्रणा ( डुगुणपत्ति) जुगुप्सा प्रभवतीति मतुः समर्थः योयो वास्तुनः समर्थ इति एज कम्पने एजयतीत्येजो वायुः कम्पनशीलत्वात्तस्यैजस्य जुगुप्सा निन्दा तदा सेवनपरिहारो निवृत्तिरिति यावत् तस्यां तद्विषये प्रचुर्भवति वायुकायसमारम्ननिवृत्तौ सक्तो जवतीति यावत् । श्राचा० १ ० १ श्र० । ए (ये) एतु वि० कम्पमाने खा० ० ० ( ४४ ) अभिधानराजेन्थः । 33 कम्पने, स्युद कम्पने, सूत्र० २०२० "निरयणं ज्जाणं" निष्प्रकरूप्यं ध्यानमिति आव० ४ ० चलने च। देजयति यन्नेजयति आ. म. द्वि । विशे । तथा च द्रव्यकि यामधिकृत्य सूत्रकृताङ्गे' "दव्वे करणया तत्र द्रव्यवि पये या क्रिया जनता एज् कम्पने जीवस्याजीवस्य वा कम्पनरूपा चनस्यावासा व्यक्रियेति । सूत्र० २ ० २ ० । एज (य) : एज़ना-स्त्री० कम्पने, चलने च सूत्र० २ श्रु० २ श्र० । तस्या भेदा यथा । कहा भंते ! एयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहाय तं जहा दब्वेपणा खेतेया कालेयणा नवेयणा भावेयणा ॥ 66 योऽयं निषेोऽयमेकस्मात्परयोगादे जनादिकारणेषु म योगेन शैलेश्यामेजन जयतिन कारणान्तरेणेति भावः (इत्युपक्रम्याह ) ( दध्वेयणत्ति ) द्रव्याणां नारकादिजम्याणां नारकादिजीववैजना च मारकादित्रे वर्तमानानामजना जना (कायति) का नारकादिका वर्त मानानाजना कालेजना ( भवेयणन्ति नये नाराकादिवर्त मानानामेज भजना (नापति नाचे वार्त मानानां नरकादीनां वाणां वैजना भजन | 66 बेण जने ! कहा पण गोयमाच हा पाच तं जहा रणातिरिक्तस्सदेवदुव्वेयर सेकेण्डों जंते ! एवं बुच्चइ णेरइयदव्वेयणा गोया 1 जेणं ऐरख्या गोरयदम्बे बहिं वा तिवास्ति वा तेणं तत्य रइया रश्यदव्वे वमाणा रइयदव्वे एयंसु वा एयंति वा एयस्संति वा से तेणणं जावदव्यणा । से केल फेणं जंते ! एवं बुच्चइ तिरिक्त्रोणिय पर्व व तिक्खिजोविदव्वेषणं भा णियन्त्रं सेसं तं चैव । एवं जान देवदव्वेयणा || एजया ( यदये पति र ययोः कथमेव नारकत्वमेवेत्यर्थः ॥ तत्र (पति) वृत्तवन्त (नेरश्यदव्वेयणंति) नैरयिकजीव सम्यक्त्वङ्गलव्याणां नैरविकीयानां जनाधिकजना ताम् (पति) ततो यर्थः ॥ 1 खेपणा ते काविहा पता ? गोयमा च बिहा पत्ता तं जहा रइययणा जाना। जंते ! एवं बुच्चइ ऐरइयखेत्तेयणा ? एवं चेत्र । रइयखेत्यणा जालियव्त्रा एवं जावदेवखे त्तेयणा एवं कायणावि एवं जावेयणावि एवं जाप देवाण वि । भ० १७ श० ३८० । से दमकमैण जीवनया जीवाणं भने कि सेवा गिरेगा ? गोयमा ! जीवा सेवा वि णिरेया वि। से केाणं भंते ! एवं बुबइ जीवा सेया वि शिरेया वि ? गोपमा ! जीना दुबिहा पसा तं जहा संसा रसमापगा य असंसारसमात्र गाय तत्थ णं जेते असं सारसमावगा ते सिद्धा । सिद्धाणं दुविला पत्ता वे जहां प्रणंतरसिका य परंपरसिका व तत्वे परंपरसिका तेणं शिरेया तस्य णं जेते अनंतर माते सेया तेणं जंते ! किं देतेया सध्या ? गोयमा ! णो देसेया सव्वैया तत्थ एां जेते संसारसमासगा ते दुविधा पत्ता तं जहा सेलेसीपमिवसमा य असेलेसीपािय । तस्य णं जे से सेमी तेरेया । तत्थ जे सेसीपविगा ते एां सेया । ते णं भंते ! किंदेसेया सन्वेया ? गोषमा सेवा विसवादि से क जाय रइया वि ( जीवाणमित्यादि सेवनि) सहेजे चलने सेजाः (निरेयत्ति ) निश्चलना: ( अणंतर सिद्धायत्ति ) न विद्यतेऽन्तरं व्यवधानं सिद्धत्वस्य येषां तेऽनन्तरास्ते च ते सिकाश्चेत्यनन्तरसिका ये सिद्धत्वस्य प्रथमसमये वर्त्तन्ते ते च सैजाः सिद्धिगमनसमयस्य सिद्धत्वप्राप्तिसमयस्य चैकत्वादिति । परम्परसिवास्तु सिकत्वस्यादित्यः पति) देशजा देशतश्चलाः ( सव्वैयत्ति ) सर्वेजाः सर्वतश्चलाः ( नोदेसेयासवेयत्ति । ) सिधानां सर्वात्मना सिद्धी गमनात्सत्वमंत्र ।" तत्थ णं जे ते सेलेसीमिया तेणं निरयत्ति " । निरु योगत्वेन स्वनावचलत्वात्तेषाम् ( देसेया वि सव्वैयावित्ति ) इंजिकागत्योत्पतिस्थानं गताः प्राक्तनशरीरस्थस्य देशस्य विवया निश्चलत्वात् । गेन्डुकगत्या तु गच्छन्तः सर्वेजाः सर्वात्मना तेषां गमनप्रवृत्तत्वादिति ( जीवः सदा पजते न वा तत्र किं किं वन्धक इति इरीया बढ़िया शब्देऽस्माभिरदर्शि ) वाणं ते! किं देया सच्या गोयमा ! - या विसयावि से केाट्टेणं जाव सव्वैया वि ? गोयमा ! रइया दुविहा पत्ता तं जहां विग्गहगसमावागा अविग्गगमावला व तस्य णं जे ते चिग्गहगह Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एज समादागा ते णं सध्या तस्यां जे ते अम्हिगःसमाबातेां देसेवा से तेलट्टेणं जाव सच्या वि । एवं जाब पाणिया || ( विग्गदगसमावन्नगत्ति ) विग्रहगतिसमापनका ये मृत्वा विग्रहगत्योत्पत्तिस्थान (अमित) अविग्रद्गतिसमागतागतिक स्थिताश्च तत्र विग्रहगतिसमापन्ना गेन्डुकगत्या गच्छन्तीति कृत्वा सर्वजाः श्रविग्रह गतिसमापनका स्त्ववस्थिता एवेह वि च देहस्था एच मारणान्तिकसमुच ता देशेनेलिकागत्योत्पत्ति क्षेत्रं स्पृशन्तीति देशजाः ! स्वक्षेत्रायस्थिता वा हस्तादिदेशानामेजनादिति ॥ (४५) अभिधानराजेन्द्रः : । परमान वैजयनिजत्वादि यथा । परमाणुपले भंते किं से निरेए गोयमा सिय सेए सिय रिए | एवं जाव णंतपदेसिए । परमाणुपोगाणं ते! किं सैया णिरेया ? गोयमा ! सेया विणिरेया वि एवं जाव अतरदेसिया || ( सपत्ति ) चलः (निरेपत्ति ) निश्चलः । अथ परमाण्वादीनेव सैजत्वादिना निरुपयन्नाह ॥ परमाणु परगणं भंते ! किं देतेए सच्चेए णिरेए ? गोयमा! देते सिय सव्वेए सिय शिरेए दुपदेसिएणं जंते! सं पुच्छा गोषमा सिय देसेए सिय सध्येए मिय गिरेए एवं जाव अणतपदेसिए । परमाणुपोग्गला गं भंते किं देया सच्या शिरेया? गोयमा ! णो देसेया सव्वेया वि शिरेयापि । दुपदेसिया णं भंधा पृच्छागोया दे या विसव्वेया विणिरेया वि एवं जाव अांतपदेसिया || ज० २५ श० ४ ० २५ । ! एज्जए - एजए - न० आगमने, (पज्जणत्ति) सिंहस्य कूपसमीपागमनमिति । व्य०३५० । (इ) जमाएज्यमानयमाने "मंदा मंदा परजमाणां” एज्यमाना विकम्पनवशादेव प्रकर्षत इतस्ततो मनाक चलनेन प्रलम्बमानानीति" आ० म० द्वि० । एज्यमानानि कम्पमानानीति' जी० ३ प्रति० । एकमाए - एजमान-शि० आगच्छति गच्छति च । “महावाय वा पज्ज़माणं पासत्ति" महावातं वा ( पज्ऊमाणमिति ) आयान्तं गच्छन्तं घा पश्यतीति । राज० । - ए- ए- पुं० [स्त्री०६ ण तस्य नेत्त्वम् । कृष्णवर्ण मृगे, स्त्रियां ङीप् । एणा हरिणा कमला मया कुरङ्गा य सारङ्गाः । को० । एस- एनस् - न० गच्छति प्रायश्चित्तेन कमापणेन वा आगस्ति अन् अदद च अपराधे ईश्वराशन रूपणिपिका चरणापराधजन्यत्वात् पापे च । वाच० । एग-एक-पुं०स्वार्थे कन् कृष्णवर्णे मृगे, शब्दर० । पणि] ( ) उनपे 66 मांदी, रीवाज निजिनानि "मोनिरतिबन्धनेदे देम० । " मृगमांसे पणिज्जरसए य" विपा० ८ श्र० एपि (ऐ) ज्जय - ऐणेयक- पुं० श्रमणस्य भगवतो महावी एत रस्य सकाशं प्रव्रजिते राजर्षिभेदे, तथाच स्थानाङ्गे जगवतो महावीरसकाशे प्रवजितानष्टौ राज्ञोऽधिकृत्य “ए णिज्जए य रायरिसी " पेणेत्रको गोत्रतः स च केतक्यजनपद श्वेताम्बी नगरीराजस्य प्रदेशिनाम्नः श्रमणोपासकस्य निजकः कश्विज्ञाजर्षिस्तथा सोऽयमाम कल्पानगर्याः स्वामी यस्यां हि सूर्य काभो देवः सौधर्माद्देवलोकाद्भगवतो महावीरस्य चन्दनार्थमवततार नाट्यविधिञ्च उपदर्शयामास यत्र च प्रदेशिराजचरितं जगचता प्रत्यपादीति ॥ स्थापना | पणेज्जगस्स सरीरंगश्रं अ पुष्पविसामि इति " ० १५० १ ० । एजी-ए-श्री० [दरियाम प्र० ७ ० " 'एणीकुरुविंदवत्तट्टा जंघे " एणी हरिणी तस्या इव कुरुविन्दस्तृणविशेषः पञ्च सूत्र अनकं ते श्व चवृत्ते वर्तुले श्रानुपूर्येण तनुके चेति गम्यं जवे प्रसृते यस्य स तथा । औप । तं । जी० । नायो च पण कुरुविंदावत्तट्टापुध्वजंघे " अन्य त्वाद्दुः एयः स्वायवः कुरुविन्दा कुटिलकाभिधानो रोगविशेषः तानिस्त्य के शेषं तथैवेति । औप 64 - एनिर्मित निर्मिते वस्त्रादौ " एणी परणीणिम्मिय " पणी हरिणी प्रेणी च तद्विशेष एव तच्चर्मनिर्मितानि यानि वस्त्राणि तानि पूर्णणीनिर्मितान्युच्यन्ते श्रयन्ते च निशीचे का मृगाणि चेत्यादिनिचनैर्मृगचर्मवस्त्राणीति | प्रश्न० ४ द्वा० । एसिंह ( एताहे ) इदानीम् अय० "पसिंह पत्ता इदानीमः" DI२/३४ | इति प्राकृत सूत्रेणेदानीम एतावादेशौ या भवतः प्रा० अधुनेत्यर्थे, " गरिह पि आमघाये इदानीमधनापीति " पंचा ए विव० । एत [[ ] त०] सन्वत्र । श्रदादि तु च । बुद्धिस्थे समीप 29 आ-इण् । कर्त्तरिक्त । आगते, त्रि० । पात्र० । एत [य] एतत्र० वर्तिनि " इदमस्तु सन्निकृष्टं समीपवर्ति चैतदो रूपम् | अद सस्तु विप्रकृष्टं तदतिपरो विज्ञानात् इत्युके समीपयसिंधुकस्योपलतिधम्मपित वृत्तिः । विशेष णत्वेऽस्य क्लीवता | अन्यव्यञ्जनस्य ८।१।११ इति प्राकृतसूत्रेणान्त्य व्यञ्जनस्य लुक् 'एयभ्गुणाः ' एतद्गुणाः । 'एयं खुडसर' सौ तात्परस्य स्थादेः सेव कः । एसो एस। वैसेणमिणमो सिना ८|३|०५ इति प्राकृतसूत्रेण सिना सह एस इणम इणमो हत्यादेशा या नवन्ति । "सव्वस्स विएस गई" सव्वाण वि पत्थिवाण एस मही । एससहावो चित्र ससदरस्स एस सिरं इणं इणमो । पक्के एवं एसा एसो । तदश्य तः सोऽ क्लीवे |३|०६ इति प्राकृत सूत्रेण तकारस्य सौ परेऽक्लीवे सो भवति । सो पुरिसो सा महिला एसो पिओ | एसा मुद्दा सावित्येव एए धन्ना ताप आओ महिलाओ क्लीव इति किम तं पश्रं धणं । टा विभक्ती " किमेतत्किं यत्तदृज्य मिणा " ८ ३ ७१ इति प्राकृत सूत्रेण टास्थाने ति श्णादेशः दक्षिणा पि स्तोत्ता” ३८२ इति प्राकृतसूत्रेणैतदः परस्य उसेः स्थाने तो सादे इत्येतावादेशौ वा । रथे च तस्य मुक् ८३०३ इति प्राकृतसूत्रेण त्थे परे तो ताहे इत्येतयोः परयोरेतदो बुक एप्सो पत्ताहे पक्के पाओ एव एहाहिन्तो एभा । सिआमि च वेदतदेतदोङसाम्रज्यां सेलिमौ ८३८१ इति सूत्रेण इन्स 33 66 35 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एत सामाज्य सहायमेन से सियादेशीया से अहि । एतस्या हितमित्यर्थः । सिं गुणाः सिंर्शनम् एतेषां गुणाः शीलं वेत्यर्थः । पके पअस्स एपर्सि एआणं । जै " ए अस्सि " श्रमो के सिमः ८३६१ इति प्राकृतसूत्रेणामो डे: सिमित्यादेशः पसि । परदीतीम्मी वा ८|३|०४ इति प्राकृ कारस्यामी परे तयाजव अयम्मम एयस्मि । प्रा० स्त्रियां टापू एआई विजाहि आरक०' एतं तुमसि' एतां तुलां यथोक्तणामन्वे पयेत् गयेपयेत् ॥ श्राचा० १ ० १ अ० ७ ० । वाच० । एत (य) कम्म एतत्कर्मन्न०१ एतत्काम्य- त्रि० एतदेव काम्यं कमनीयं यस्य स तथा । एतत्क मनीये, "एतकम्मे एयपहाणे एयचिज्जे पयसमायारे" विपा० १५०/ एत [य] पगार- एतत्प्रकार ३० मारे ग भासं सावजं गो नासेज्जा " एवं प्रकाराम सावद्यां भाषामिति एवमादिकां सावद्यां नापात्रो जायते इति च वृत्तिः । आचा० । २ श्रु० ४ ०२ न० १ 66 एत [य] पहाण - एतत्प्रधान त्रि० एतन्निष्ठे, विपा० १० अ० । एत [य] समायार- एतत्समाचार[त्रि०एतज्जीवितकल्पे, बि पा० १ श्र० । (४) अभिधान राजेन्द्रः " एता (या) रि[ स ] एता (या ) रिस- एता ( या ) रिच्छ एतादृश एतादृश एतादृक्ष-त्रि पतदि दृश्० – किप् - टक् सक्- आदन्तादेशः । दृशेः क्किए टक्सकः । १ । ४२ इति प्राकृतसत्रेण किए टक् सक् इत्येतदन्तस्य दृशेर्धातोरिसादेशः । प्रा० । एततुल्यदर्शने, वाच० । एयारिसे महादासे" एतादृशाननन्तरोदितरूपान् महादोषान् ज्ञात्येति । दश० ४ अ० टगन्त स्य स्त्रियां ङी । वाचः। " प्यारिसीए वीए" पतादृश्या समीपतरवर्निन्या ऋचेति । उत्त०२२ श्र० । एता (या) रूव - एतत्रपत्रि० अकृत्रिमपत्रञ्ज्यमानस्वरूपे,— “इमेया रूये उराला मायुस्वरिकी” श्यं प्रत्यका एतद्रूप उप. लभ्यमानस्वरूपैव अकृत्रिमत्यर्थः । विपा० १० ० । “यारूवा दिव्वा देवी" इयं प्रत्यासन्ना पतदेव रूपं यस्या न कालान्तरादावपि रूपान्तरनाग् सा तथेति स्या० ४ ठा० । एता (या) वंति - देशी० एतावन्त इत्यर्थे, “पत्रावति सवाति योगसिदितीति शब्द मागधदेशीभाषाप्रसिद्ध्या एतावन्तः सर्वेऽपीत्येतत्पर्यायाः । आचा० १ ० १ ० १ उ० । एमएम-२० पानन्तरोकोपमा यस्य स तपमः तत्सदृशे "तोयमे समणे गाव" सूत्र० १० १० एस० सि-शादेशः पखादेवमेय । 66 - दानी प्रयुतः परम्प २४२० इति प्राणापपत्त इत्यादेशः प्रा० अस्मादिस्यर्थे, वाचः । त्र - अव्य० "दम पतद् व्त्रस्य मेन्त हे" | ४ | ३६ | इति प्राकृतसूत्रेणत्रप्रत्ययस्य केत्सहे इत्यादेशः । प्रा० । अस्मिनिपर्थे, पतस्मिन्नित्यर्थे च वाचण एति एचिह्न एवह यत्- त्रि० इदम्परिमाणमस्य पदम वतुप् । इदं किम मेसिन मेतिल मेहहाः । १४७ इति प्राकृतसुत्रे एरंडइय इत्यादेशा मदारपरस्यातोमरतो यामि पास पति प ब्लुक च । प्रा० । एतावदर्थे, स्त्रियां ङीप् । वाच० । एति - एतिल - एदहअ - एतावत् त्रि० इदंकिमश्वमेत्तिमति मेहाः । २५७ । इति प्राकृतसूत्रेणैतच्छब्दात्परस्याताम यतोर्वा पत्तिपत्ति एद्दह इत्यादेशा पतछुक् च । यत्तदेत दोऽतोरिति लुक् च । २ । ५६ इति प्राकृतसूत्रेणैतच्छदात्परस्य डावादेरतोः परिमाणार्थस्य इति इत्यादेशः प्रा० एतत्परिमाणे, स्त्रियां ङीप् वाच० । एतो - इतः अव्य० अस्मादित्यर्थे, “पत्तो परिग्गहो" इतश्चतुथाश्रवणद्वारादनन्तरमिति, प्रश्न० ५ द्वा० । 46 एत्यत्र - अन्य श्दम् त्रम् एच्छप्पादौ ८ । १५७ इति प्राकृतसूत्रेणैकारादेशः । प्रा० । अस्मिन्नित्यर्थे वाच के पत्थ खत्ता उवजोश्या वा " केचिदत्रास्मिन् यज्ञपाटके इति । उत्त० । १२ अ० । एत्थ णं माणिनदे णामं चेश्य होत्था" अत्रास्मिन्निति सू० प्र० १ पाहु० एत्य एतदिन्देशात् प्रथमापम्चमी सप्तम्यर्थे त्रल् । त्थे च तस्य लुक् ८ ३८३ । इति प्राकृत सूत्रेणैतदो बुक प्रा० प्रथमार्थयुकेदार्थदिगादी वाच एत्थु अत्र - अध्य० इदम् एतद् लू - दुकुखा । ४ । ५ इति प्रकृतसूत्रेणापभ्रंसेऽत्र इत्येतस्य शब्दस्य मित्यु इत्यादेशः । प्रा० । अस्मिन्नित्यर्थे, एतस्मिन्नित्यर्थे च वाच० । एतुन इयान् त्रि० एतत्परिमाणे, वाच। अतो मे त्रुल्ल ८ ४३५ इति प्राकृतसूत्रेणाप इत्यादेशः । प्रा० । एमेत्र - एवमेव-अय० यावत्तावज्जीवितावर्तमानाचटप्रावारकदेवकुलैवमेवमेव वः । २ । २७ । इति प्राकृतसूत्रेणान्तं वर्त्तमानस्य वकारस्य लुकू । प्रा० । एवम्प्रकारेणैवेत्यर्थे, वाच० । एम्ब-एवम्- अध्य० एवं परं समं ध्रुवं मा मनाक् एम्ब परसमा भुमणा |४| १० | इति प्राकृतसूत्रेणैवम् अपभ्रंशे - स्व इत्यादेशः । प्रा० । एवम् प्रकारेणेत्यर्थे, वाच० । एम्बइ - एवमेव - अव्य० 'पञ्चादेवमेवेदानीं प्रत्युते तसः पच्चर पम्बर जिएम्बाई पच्चुलिए तहे ८।४।२० इति प्राकृतसूत्रेपापभ्रंशे एवमेवेत्यस्य पम्बर इत्यादेशः । प्रा० ॥ एवम्प्रकारेणैवेत्यर्थे वाच० ॥ 2 एम्वहिं - इदानीम् - श्रव्य० पश्चादेवमेवेदानीमः ८।४।२० इत्यादिप्रकृतीमत्यादेशः प्रा० । अत्याच एमएएम ० ति माया पा वायुं ईर् एक निपातनात् गुणश्च । एर एकाभिधाने वृके, स्था० ४ ठा० तृणनेदे, प्रज्ञा० १. पद | "परंणेरंडे परएमेन वा डिमिक्कितेन चेति" वृ० ३ ० । तथा चाचाराने व्यसारमधिकृत्य “घणे परं वरे" स्युद्वानां मध्ये एरएको नैको वा प्रकर्षभूत इति आचा० १० ५ ० १ ० प्रज्ञापनायामुत्कारिकानेदमधिकृत्य । परंरुवीयाण वा प्रज्ञा० ११ पद । परएड व परएऊः । श्रुतादिभिर्हीने, स्था० ४ ग पिप्प व्यां स्त्री० [टाए गौ० मी वा । वाच० । एरंडइय- एरएलकित- त्रि० मक्कयिते, "परंभव सा परंमइसारोति इमक्कयित" इति । वृह० १४० १ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) एरंमपरियाय अभियनराजेन्द्रः। एसकक्ख एरंडपरियाय-एरएमपर्याय- पुं० एरएमस्येव पर्याया धर्म सूत्र० १ श्रु०५ १० श्रत्रार्थे ऐरावणशब्दे ऐरावत शब्दश्च अब हमच्चायत्वासेव्यत्वादयो यस्य स परम्प-यः । अब- तत्रैरावणशब्दस्य प्राकृते एरावण इति ऐरावतशब्दस्य हलच्वायत्वाधेरारामधर्मयुक्ते, स्था०४ ग०।। एयिय इति कथमेरावणो? रावणशब्दस्य एरावो इति तुएरंडपरिवार-एरण्डपरिवार- पुं० एरएकल्पनिर्गुणपरिकरे ऐरावतस्येति । प्रा०। गुच्छात्मके बनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१ पद। एरंगणामेगे परंमपरिवारे, एरंमपरिवार' परएमकल्पनिर्गुण ऐरावतहदवासिनि स्वनामख्याते देवे च, जी०३प्रति०। साधुपरिकरत्वादिति । स्था०४०।। एरावणदह-ऐरावत-हद-पुं० जम्बूमन्दरोत्तरस्खे उत्तरकुरुस्थिते एरंकमज्झयार-एसाममध्याकार- त्रि० एरण्डमध्यवनिर्गुणे, महाहदे, स्था० ५ ठा० ( पेरावतहदवनव्यता उत्तरक"परममझयारे एरंमेणामहोश उमराया" स्था०४०। । रुशम्दे उक्ता) एरंमर्मिजिया-एएममिजिका-खी० एमफले, (एरंगमि- एरावणवाहण-ऐरावणवाहन-पुं० पेरावणो हस्ती स वाहनं जियावा) एरएममिञ्जिया परामफलमिति । भ०७०१ उ०।। यस्य स तथा शके,“एरावणवाहणे सुरिंदे" उपा०२०कल्प। एरंगसगडिया-एरएमशकटिका- स्त्री० एरणकाष्ठमय्यां शक ऐरावणनाम्नो गजपतेस्तद्वाहनस्य सत्वादिति, जी०३ प्रति। टिकायाम, झा०१०। एरावय-ऐरावत-त्रि० लकुचलुमे, । मेदि० । पञ्चकलामात्राएरणवय-एरण्यवत-पुं०हिमवन्महाहिमवतोर्मध्ये जम्बूद्वीपस्य प्रस्तारे आदिलघुके अन्त्यगुरुद्वयके, प्रथमे भेदे, पुं० ऋजुउत्तरतः स्थिते वर्षजेदे, स्था०२ ग.। सम. एरण्यवते जात पर दीर्घ शत्रुधनुपि मेदि० । इरावस्थाः नद्याः सन्निकृष्टो देशः अण् । मरुस्थलभेदे, न०। वाचा ऐरावतन्हदवासिनि स्वनाएयवतो वाऽस्यनिवास इति तन जातः सोऽस्य निवास इति वा मख्याते देवे च, जो०३ प्रतिः। ऽस्य निवास इति तत्र जातः सोऽस्य निवास तिवाडा प्रत्यये ऐरण्यवतः ऐरण्यवतवर्षजाते, ऐरण्यवतवर्षनिवासिनि च । एरि[लि ] क्ख-ईद-त्रि० अयमिव पश्यति इदम् दृम् अनु० दोपरम्पवय" स्था०२०। कर्मकर्तरि का इशादेशः दीर्घः ॥ वाच०॥ दशे क्किप्टक्सकः एरवई-ऐरावती-स्त्री० स्वनामख्याते नदीभेदे, "अह पुण एवं | ८।११४२॥ इति सूत्रेण ऋतोरिकारादेशः। "एत्पीयूषापीडविभी. जाणिज्जा एरवई कुणालाए । जत्थ चकिया पग पायं जले किश्चा तककीडशे रशे” ८२२५ इति प्राकृतसूत्रेणेत एवम् प्राणा एवं पगं पायं थले किश्चा" पेरावती नामनदी कुणालाया नगाः विधदर्शनवति, वाच० 'अक्खाइसेणाणमणेलिसं' ज्ञानमनन्यसमाप जहाईप्रमाणेनोद्वेगेन वहति तस्यामन्यस्यांचा यत्रैवं च सदृशमाख्यातीति" आचा० १ श्रु०६ अ०१ उ०। “सूयेण किया शक्नुयातू उत्तरीतुमिति शेषः । कथमित्याह एकपाद परिसं भत्तं कयं" प्रा०म० द्वि" एरिसगुणजुत्ताणं ताणं " जले कृत्वा पकं पादं स्थने आकाशे कृत्वेति । ० ५ उ०। ईदशगुणयुक्तानामुक्तवक्ष्यमाणभक्षणान्वितानां तासां नारी( एतस्याः सन्तरणादिवक्तव्यता णईसंतरण शब्दे) णामिति । तं । " एरिसा जावई एसा" येयमोडक्षा वागिति एरचय-परखत- न जम्बूद्वीपस्थे वर्षनेदे, सम । ध०। स्था०।। सूत्र०१ श्रु०३० जं० । जम्बूद्वीपस्य दक्षिणे भागे भरतमहाहिमवतस्तस्यैवोत्तरे एलकक्ख-[ ] एकाक्ष-न० पुरभेद, "तस्स कहं एलभागे परवतं शिखरिणः परत शति । स्था० २० । कच्छं नामं तं पुव्वं दसन्नपुर नगरं प्रासी तत्थ साविगा स्वनामण्याते दीर्घवैताब्यपर्वते, पुंश स्था० १० ठा। ऐरवते एगस्स मिच्छद्दिष्ठस्स दिना यालिया श्रावस्सयं करे । जात ऐरवतो वाऽस्य निवास इति तत्र जातः "सोऽस्य निवास" पश्चक्खाइया सो भणति किं रत्ति उद्वित्ता कोइ जेमइ एवं उ. इति वाणप्रत्यये ऐरवतः ऐरवतजाते, ऐरवतनिवासिनि च । प्पासेइ अन्नया सो भणति अहं पि पच्चर खामि । सा भणति अनु. " तत्थ खलु इमे दुवे सूरिया पात्ता । तं जहा भारहे भंजिहिसि सो भणति किं अन्नया वि अहरंति उहित्ता जेममि चेव सूरिए एरवर चेव सूरिए" चन्द्र० प्र०१ पाहु। दिन्नं देषा चितेइ सावियं उप्पासेर अज्ज गं उघलभाति एरवयकूड-ऐरवतकूट-नजम्बूमन्दरोत्तरस्थैरवतदीर्घवेताब्य तस्स भगिणी तत्थेव वसति तोसे रति रूपेण पेहेण यं गहाय आगया पक्खो साविगाए वारितो भणइ तुम्भव्यहि पर्वतस्थे कूटभेदे, स्था० १० ठा० शिखरवर्षधरपर्वतस्थे कूटभेदे, स्था० २ ठा। श्रालपालहिं किं मम देवयाए पहारो दिनो दो वि अच्छिगो लगा भूमीए पडिया सा मम अयसो होतित्ति काउस्सम्यएरावई-ऐरावती-स्त्री० जम्बूमन्दरदक्षिणेन सिन्धुं महानदी ट्ठिया अरत्ते देवया आगया भणति कि साविए सा भणति समाप्नुवयां स्वनामख्यातायाम्महानद्याम, स्था० ५ ठा० मम एएण अयसोत्ति ताहे अन्नस्स पलगस्स अच्छीणि 'सपञ्चालदेशस्थे नदीभेदे, ईराः सन्त्यस्य भूम्ना मतुपो मस्य प्पएसाणि तक्खणमारियस्स आणेत्ता लाइआयाणि ततो से वः इराधान् मेघः तत्र भवा श्रण विद्युति, ऐरावतयोषायां सयणे भणति तुम्भत्थाणि एलगस्स जारिमाणिति सेण च मेदि०। वाच। सव्वं कहियं सजाश्रो जणो कोनुहल्लेण एइ पेच्छगो सच. एरावण-ऐरावण-पुं० इरा सुरा वनमुदकं यत्र तत्रभवः अण्- | त्थरज्जे फुट्ट भन्नइ को एसि जत्थ सो एलको अन्न पूर्वपदादिति णत्वम् । इन्द्रगजे ऐरावते, वाच। उपा। कल्प.। भणति सोचव राया ताहे दंसणपुरस्स एलकच्छं मामं जायं जी० । “सको य देवराया परावणं विलगो" श्रा०म० द्वि० । श्राव०४०। (प्राणिस्सिोवहाणशम्देऽपि पपा कथोक्ता) आव० स च शक्रस्य देवेन्द्रस्य कुञ्जरानीकाधिपतिः “एरा तथाचावश्यककथायाम ॥ वणे हत्थिराया कुंजराणीयाहिवई" स्था०५ ठा० । “हत्थीसु गजानपदयम्दारु-रेलकच्छपुरे ययौ ॥ एरावणमाहुणाए" हस्तिषु करिवरेषु मध्ये यथा ऐरावतं शक- तदशार्मपुरं पूर्व-मासीत्तस्मिन्नुपासिका ॥१९॥ वाहनं जातं प्रसिद्धं दृधान्तभूतं वा प्रधानमाहुस्तज्ज्ञा इप्ति सके वैकालिकं मित्यं, प्रत्याख्याति स्म साथ सा । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०) एलकक्ख अन्निधानराजेन्द्रः। एलुग उपाहसत्पतिस्तस्याः, सायं भुक्तः परोऽपि किम् ॥११॥ पत्यसंतानस्य स्वव्यपदेशकारणमाद्यःप्रकाशकः पुरुषः तदपत्यनिश्यद्यात्सोऽपि भुक्त्वह, प्रत्याख्याम्यहमप्यतः। सन्तानो गोत्रमित्रापतेः अपत्यमैवाफ्त्यः पत्युत्तरपदयमादित्या भंदयसि त्वं तयेत्यूचे, न भक्ष्यामीति सोऽवदत् ॥१२॥ तो ध्याणपवादे वाश्व इति त्यप्रत्ययः । एवापत्येन सह गात्रेण देवताऽचिन्तयच्छ्राद्धा-मसावुपहसत्यदः। वर्तते यः स एवापत्यसगोत्रस्तं वन्दे महागिरिम् । पकस्य पनिशीथे स्वसृरूपेणा-भ्यागादादाय लाभनं ॥ १३॥ श्वदशसु रात्रिषु स्वनामख्यातायां तृतीयस्यां रात्रौ, खी० खादनिषिद्धः पत्न्योचे, कि मेतद्वालजालकैः। चन्छ०१४ पाहु। देवता तं प्रहत्याथ-दृग्गोलो च व्यपातयत् ॥१४॥ एलासाढ-एसापाह-पुं० अवन्त्यां जिनोद्यानलमागतानां धूर्तामा भून्ममायशः श्राद्धा, कायोत्सर्गेऽथ सा स्थिता । नामधिपे स्वनामख्याते धूर्ते, ग०२ अधिक। "पलासाढेण भणियं देवता स्माहतां श्राका-प्युवाचैवं ममायशः ॥ १५॥ अहं भेकहायामि" नि० चू०१ ०। साथानीयादधी सद्यो, मारितैमस्य चक्षुषी । एलग-एबुक-न० श्ल० उक् गन्धमध्यभेदे, भद्रादामुकाएमकारव्यस्ततः ण्यातः, स श्राद्धः प्रत्ययादनूत्॥१६॥ लोकः समेति तं इष्टु-मेकाक्षं कुतूहसात् । ख्ये च सर्वेषु बवणेषु च, सुश्रुग वाच० । देहल्याम , पुं० जी० ३ प्रतिः । व्य० । “हंसगलमये पत्रुगे" हंसगो रत्नविशेषएमकाकं पुरमपि-तन्नाम्ना तदभूत्ततः ।। १७ ॥ स्तन्मय एबुको देहबीति । जी०३ प्रतिः । “गिहेबुगसि वा एलग (य) एमक-पुं० स्त्री-श्व-ण्वुब्-कस्य बः चतुष्पदस्थ गिहेमुक वर ति" प्राचा० २ श्रु०॥ बचरपञ्चन्ध्यितिर्यग्यो निकविशेष, प्रज्ञा०१पद । पलकागड़ साधुनाचमुकात्परतोन प्रवेष्टव्यम् तथा चाह। रिका इति । प्रव० ४ द्वा०। एकोऽजविशेष इति-प्रव००४ णो से कप्पति अंता एलएस्त दो वि पाए साहदुदलयद्वा० प्रा०ाएरका चरना इति। जं०२ वका उपा० । स्था। माणीए पमिग्रहित्तए अहं पुण एवं जाणेज्जा एगं पायं उम्मकप्पा सा उवा उम्मति एमालामाणं गमुरा जाति । नि. चू. ३ उ० । वनच्नागे, पृयुगृङ्गे मेषे, मेषमात्रे च दश०५०। अंतो किच्चा एगं पायं वाहि किच्चा एलुयविखंजश्त्ता एल मूग-एलकमूक-पुं० मूकभेदे, यश्चैयक श्याव्यक्तं मूकतया पयाए एसणाए एसमाणे अनेज्जा आहारेज्जा ।। शब्दमात्रमेव करोति स एलकमक शति । १०३ अधिः । सांप्रतमेबुगविषखंभणे दोसा इत्यस्य व्याख्यामाह । एबमूग-एक [ल ] मक-त्रि० श्रुतिरहित एमो वधिरश्वासा गच्छगयनिग्गए वा, लहुगा गुरुगा य एलुगा परतो। मूकः वाकश्रुतिशक्तिरहिते, धाचः । एवमूक एलमूकः सूत्र० आणादियो य दोसा, सुविहाय विराहणा णमो । २ श्रु० २ अ० । यजाभाषानुकारिणि मूकनेदे, दश. ५ अ० । एलुकात परतः साधुरतिगच्चति उपनक्कणमेतत् । यदि सामा पलंगा जहा पुण वुचुअई पलम्भो न। आव० ४ ० । घरेलकं विष्कम्जयति आसन्ने वा प्रदेशे पबुकस्य तिष्ठति तदापसमूगो भास एजगी जहा वुमखुमति जहा पुण खुब्युबई ए गतस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः गच्चनिर्गतस्य चत्वारो गुसमूगो भासद अंतरे अंतरे खातीति। निचू०११ उ.। "ततो रुकाः । तथा आझादय आझाभङ्गादयो दोषाः। द्विविधा च विप्पमुश्चमाणे जुजो नुजो एबमयत्ताए" तस्मादपिस्थानादा- विराधना आत्मधिराधना संयमविराधना च । श्यं वक्ष्यमाणा युषः कयाद्विप्रमुच्यमानाइच्युताः किस्विषिकबहुसास्तरकर्मशे तामेवाह । गलवन्मका परमूकास्तद्भावनोत्पद्यन्ते किल्विषिकस्थाना संकग्गहणे इच्छा, दुन्निविट्ठा अचाउमा । युतः सन्ननन्तरभव वा मानुषत्वमवाप्य यथैलमूको ऽव्यक्तवाक समुत्पद्यत इति । सूत्र० २७०२ अ० । एकमुकत्यकारणम् निहरणुक्रवणण विरेगो, णे अविदित पाटुडए । मृपावादेन किल्विषिकत्वप्राप्तिमभिधाय यथा । बंधवह उद्दवणे य, खिसण असीयावणे चेव । तावि से चइत्ताणं, बभई एलमृयगं । नव्वेयगकुरूडिय, दीणे अविदिलवजणया । नरगतिरिक्खजोणिं व, बाही जत्य सुदुलहा ॥४॥ पमुकात्परतो यदि गच्चति तदा स्तन्ये मैथुने घा लोकस्य शततोऽपि देवसोकादसौ च्युत्वा लप्स्यते पत्नमूकतामजाभाषा का स्यात्तदनन्तरं च ग्रहणं तथा यस्या गृहमन्यन्तरं प्रविष्टनुकारित्वं मानुषत्वे तथा नरकं तिर्यग्यानि वा पारंपर्येण सस्यते स्तस्या विषयेऽस्य साधोः किं तु येन इच्छा येनाभ्यन्तरं गत बोधिर्यत्र सुपुर्बभः सकलसनिवन्धना यत्र जिनधर्मप्राप्ति - इति लोकस्य शङ्का स्यात्तथा निविष्ठा अप्रावृता वा मध्ये अरापा ह च प्राप्नोत्येवभूकतामिति वाच्ये असद्भावप्राप्ति गार स्याछज्जा स्यात् दोषाश्चान्ये शङ्कादयः तथा मध्ये गृहण्यापनाय लपस्यत इति भविष्यकासनिर्देश इति सूत्रार्थः ॥ स्वामी हिरण्यादेर्निधानं करोति उत्खननं वा परस्पर विरेचनं दश० अ०॥ तत्र स्तेनोऽयमिति शङ्कास्यात्तथा अतिभूमिप्रवेशनं तीर्थकृद्भिPएला-एला-स्त्री० इत्य्-अच-स्वनामख्याते पल्ल्यात्मके धन हस्थैश्वावितीसमननुज्ञातं ततोऽदत्तादामदोषः तस्मात्कस्मादस्पति भेके, प्रशा० १ पद । तिनूमिमेष प्रविष्ट इति गृहस्थः प्रानृतमधिकरणं कुर्यात्तथा एमावच्च-ऐलापत्य-पुं० श्लापतेरपत्यमैलापत्यः पन्युत्तरपदया बन्ध निगमादिभिः तामनमपजाव जीविता ध्यपरोपणं तथा मादितो ज्योगपवादे वाश्वे इति ध्यप्रत्ययः । नं० मएम्यस्य मू- खिंसना हीसना यथैते बराका अलभमाना अतः प्रविशन्ति सगोत्रस्य सप्तसु गोत्रभेदेष्वन्यतमे गोत्रे, स्था०७ गाथेर- (असियावणाचेवत्ति) श्रासीबावमा' नाम निष्काशयितुमासास्स णं अज्जयूलभहस्स ग यमगुत्तस्स अंतेवासी थेरे अजम- दनं किमुक्तं जवति गरे गृहीत्वा बहिर्वने निविपति तथा सवती हागिरि पलायचसगात्ते" कल्प० । "एवायश्चसगोत्तं चंदामि म- धिम् श्व प्रविष्टस्तासामगारणामुढेजको भवति । तथा कुरुहागिरि सुत्थि ब" नं० (एलावच्चेत्यादि) इह यः स्वा- पिकतो नाम उपवारक इत्युच्यते तं शङ्कमाना गृहिणो वधबन्ध Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) अभिधानराजेन्द्रः एदुग नाई।नि कुर्युरेतेः कारणैरविती स्वाति नृमिप्रवेशनस्य पर्जना एष द्वारगाथासमासार्थः । सांप्रतमेतदेव विवरीषुः प्रथमतः शङ्काद्वारमाह ॥ पच्नेि आसा संकियनिस्सकिए य गहणादी | ते व चउरथे, संकियगुरुगा निसकिए मुझे || लुकात्परतः प्रवेशे स्तन्यविषये चतुर्थे चतुर्थव्रतविषये घा शङ्का स्यात् तस्यां च शङ्कायां सत्यां निश्शङ्किते व जनस्य जाते प्रायश्चित्तविषये चतुर्थे चतुर्थव्रतविषये वा आदेशौ प्रका रौ । तावेव च दर्शयति गुरुकानि भू समिति । तथा ग्रहणादयश्च शङ्कायां दोषास्ता बेव कथयति ॥ रहण कट्टरण ववहार, पच्चकमुडाह तह य निम्सिए । किं मस्स इच्छा अन्तरमगतो जाए || उदु | ग्रहणं स्तेन परदारको वेति युद्धाप्रति ततो राजकुलं प्रति कर्षणं तदनन्तरं राजकुत्रे व्यवहरणं तलः पश्चात्कृत करणं त्यर्थः एवं सति महान्प्रवचनस्योः । तथा निर्विषय भाझा श्वेतद्द्वाराचार्या तु इति कर्षणाना vaणं गतं प्रहणद्वरम् । इच्छाद्वारमाह किं तु इति बितर्के हुरि ति निश्चितं यस्या गृह मन्यन्तरमतिगतस्तस्या विषये अस्य सा धोरिच्छा येनायमज्यन्तरं सहसा प्रविष्ट इति । अधुना दुर्बिचिटा भप्रावृतेति पदद्वयं व्याख्यानयति । मध्ये आगारी निविष्टा वा जवेत् भप्रावृता वा ततः सहसा साधार ज्यन्तरप्रदेशे स्वाऽपि लज्जिता भवेत् शङ्का वा तस्याः समुद्भवेत्ता मेवाह || किं मयेतुकामो एस ममं जेगा तेलिए दूरं । अन्न वा संकेज्जा, गुरुगा मूलं तु निस्संके || उत्थपरा वा वि, उजयसमुत्था व होज्ज दोसा ओो । क्खण निविरेगं तत्य किसी करेज्नाहि ॥ किंमत कामो न एतद् दूरमागच्छति । श्रन्यो वा एवं शङ्केत तत्र शङ्कायां सत्यां तस्य प्रायश्चित्तं चत्वागुरुतस्य या जाने मूखं प्रायश्चित्तमामात्यः परस्मात् यथा दोषा भवेयुः संप्रति ि त्यादि व्याख्यानयति ( उक्खष्पणेत्यादि ) तत्र गृहस्थो गृहम *ये हिरण्यादेरुत्खननं वा कुर्यात् निधानं परस्परं विवेकं वा विरेचनं किंचित्कुर्यान्ततः किमित्याह ॥ " दि एएण इमं साहेन्ना मा उ एस अम्नेसि | शोचिसो छ का गहरणादि कुनाए ॥ दृष्टमेतेन साधुना इदं हिरण्यादि उत्खन्यमानादिकं ततो मा एष अन्येषां कथयेत् यदि वा एष स्तेन इति शङ्कायां ग्रहणादियदि कुर्या सांप्रतमदिव्यानार्थमाद तित्यगर गहत्थे, वित्र्यतिभूमिपविसल पदिष्ां । कीसे दूरमतिगतो, असंखमं बंधत्रहमादी ॥ तीर्थकरे गृहस्थाश्यामप्यतिभूमिप्रवेशमद तीर्थकरे नादसमतिभूमिं न गच्छेज्जा इत्यादिवचनात् गृहस्थेनात्मीकरया प्राभृतादिवाकलापमा कस्मादेतद्मयमागत इति गृहस्थोऽखमं कलहं कुर्यादतिरोषाद्बन्धबधादिकम् । संप्रति विखाद्वारमाह । खिंसेज्ज व जह एए, अलभंत बरागत्र्यंते पविसंति । मला घेण वम्मि, निच्बुभेज्जाहि वाहिरतो ॥ सुगविवखम्भ खिसेत् दीलयेत् गृहस्थो यथा एते वराका अनुभमाना मध्ये प्रविशन्ति । असियावणद्वारमाह गलके गृहीत्वा बहिर्वने विकिपेव । उद्वेजकद्वारमाह ॥ वा लय आगारीतो, वीरक्षेणेव तासिया सही। उगं गच्छेजा, कुडितो नाम उववरयो ॥ यया वीरण त्रासिता शकुनिका उद्वेगं गच्छन्ति तथा ता - प्यायाः सहसान्तः प्रविष्टेन साधुना प्रासिताः सत्य उद्वेगं गच्छेयुः । कुरुतिद्वारमाह । कुरुपिटतो नाम उपचारकस्तदाशङ्कया वधबन्धनादि कुर्यात् । यत्रा जणेज्ज एते, गिहिवासम्म वि अदिकलाणा । दाणा प्रदिपदाणा, दोसानो पवसे ॥ I अथवा ब्रूयात् गृहवासेऽप्येते अकल्याणा दीना प्रदत्तदाना आसीरन् तेन मध्ये प्रविशन्ति । उपसंहारमाह । पतान् दोषान् ज्ञात्वा नो मध्ये प्रविशेत् । अत्र बोदकः प्राह । यदि पलुकविकरने पते दोषान्त सविशेषास्तत पहुकविष्कम्भ सूत्रमफलं स्यात्तत माह । उस्सरविर्खभमा जति दोसा तपसिसेिसा | तह विफलं न सुतं सुत्तनिवातो इमो जम्हा || यद्यपि उत्स्वराविष्कम्ने दोषा अतिगते मध्यप्रवेशे सविशेषास्तथापि सूत्रमफलं न जवति । यस्मादयं सूत्रनिपातः सूत्रविष यस्वमेव दर्शयति । उज्जाणघासत्थे, सेणा संवट्टवयपवादी वा । बहिनिग्गमणा जसे, मुंज्जइ यजत्थ हि पहियवग्गो || औद्यानिक्यां निर्गतो यत उद्याने भुङ्क्ते घटाभोज्यं नाम महस तु महतराविवहिरावासितः साथै सार्थः। सेना स्कन्धावारः ती नाम यत्र विषमादौ भयेनालोकः संघ भूतस्तिष्ठति ब्रजिका गोकुलं प्रपा पानीयशाला सभा ग्रामजन समवायस्थानमेतेषु स्थानेषु ये भुञ्जते जनास्तथा बहिर्निगमने यज्ञपाटवा यत्र वा पथिकवर्गो भुङ्क्ते एतेषु स्थानेषु प्रतिमाप्रतिपन्नो हिण्डते न विधिना ग्रहीतव्यम् । पासहितो गमचमेव पासति न वेपरे दोस्ता । निक्स वि य, अपडियादों जे एवं ॥ तत्र गत्वा निष्क्रमप्रवेश वर्जयित्य पदेकपार्श्वे तिष्ठति यथा एकमात्रं पश्यति नोत्पनिक्षेपविरेचनानि ततो बधबन्यादयः प्रागुक्रदोषाः परिहृता भवन्ति तथा निष्कमणे प्रवेशे च य अप्रतीत्यादयो दोषास्तेऽप्येवं परियः । उज्जायमाणं असतीप्सति अ गंभीरे । निमणसे मो- एलुगविक्रमेतमि || प्रौद्यानिकी घटादीनामसत्यभावे यः शालायाः प्रमुखे फोट को विशाल पत्र दूरस्थितैरपि पलुक उत्क्षेपनि दोषी दृश्येते मण्डपे वा यत्र परिवेषणं रसवत्यां वा महानसे गम्भीरेऽतिप्रकाशे तथापि निष्कमप्रवेशी वर्जयित्वा यत्र उत्पन न दृश्येते विष्कम्भमा क्षेत्रका स्थामादत्ते एष एलुकसूत्रस्य विषयः । व्य० १० उ० । एल्लुगविक्वं प्रयुकविष्कम्भ ५० उदुम्बरस्याऽऽकमणे, वृ०१ उ० । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (प.) अभिधानराजेन्षः। एवंनय एव-एव-अव्य इण-वन्-सादृश्ये , अनियोगे, चारनियोगे, स्तकाद्यारूढश्चेष्ठत इति घट इत्यत्र तदैवासी घटो यदा योषिन्मविनिग्रहे, परिभवे, ईषदर्थे च । वाक्यभूषणे, वाच । एवेति म्तकाद्यारूढतया जबाहरणचेष्टावामान्यदा घटध्वनिरपि चेष्टां गाथालङ्कारमात्र इति विशे| अवधारणे, दर्श०। पंचा० । कुर्वत एव तस्य वाचको मान्यदेत्येवं चेष्टायस्थातोऽन्यत्र घटदशा० । “अवंभपरिग्गहे चेव" एवशब्दोऽवधारणे इति स्य घटत्वं घटशब्देन निवर्त्यते घटध्वनेरपि तदवस्थातोऽन्यत्र प्रश्न.१द्वा०1"यामिधं चेव आहडं""दुक्यमेव विजा घटेन स्ववाचकत्वं निवर्त्यत इति भाव इति गाथार्थः ॥ अनुन णिया" एवकारोऽवधारण इति । सूत्र०१ श्रु०१०। विशे- एवं जह सद्दत्थो, संजूओ तह अन्नहानृओ । प्यसङ्गतोऽन्ययोगव्यवच्छेदे , । यथा पार्थ एव धनुर्द्धर तेणेवंतूयनओ, सद्दत्थपरो विसेसेण ॥ इत्यादा पार्थान्यपदार्थे प्रशस्तधनुर्द्धरत्वम् व्यवच्छिद्यते ।। विशेषणसंगतः अयोगव्यवच्छेदे , यथा शङ्खः पाण्डुर एवे एवं यथा घटचेष्टायामित्यादिरूपेण शब्दार्थो व्यवस्थितः (तन्यादौ शङ्ख पाएपुरत्वायोगो व्यवच्छिद्यते । क्रियासंगतः श्र हत्ति ) तथैव वर्तते घटादिकोऽथैः स एवं सन् नूतो विद्यमानः त्यन्तायोगन्यवच्छेदे, यथा नीलं सरोजं भवत्येवेत्यादौ सरोजे | (अन्नहाभूयोति) यस्त्वन्यथा शब्दार्थोल्नङमेनवर्तते स तत्वनीलत्वात्यन्तायोगो व्यवच्छिद्यते । वाच०। तो घटाद्यर्थोऽपि न भवति कित्येवंनूतोऽविद्यमानः येनैवं मन्यते एव-(4) एवम्-श्रव्य इण वा बमु-"मांसादेर्वा ८१।२६॥ तेन कारणेन शब्दनयसमभिरूढनयाभ्यां सकाशादेचंतमयो इति प्राकृतसूत्रेणानुस्वारस्य वा लुक । प्रा० । उपप्रदर्शने, विशषणशब्दार्थतत्परः । अयं हियोपिन्मस्तकारूढं जलाहरण" एवमेयाणि जपंता " एवमित्यनन्तरोक्तस्योपप्रदर्शने इति। कियानिमित्तं घटमानमेव चेप्टमानमेव घटं मन्यतेन तु गृहको" एवमेगेणियायही" एवमिति पूर्वोक्तार्थोपप्रदर्शने, इति । णादिव्यवस्थितम् । अवचेएनादित्येवं विशेषतः शब्दार्थतत्परोसूत्र. १ श्रु० १ ०" एवं पाउली करिति "इहैवं शब्दः पृषों ऽयमिति “वंजणमत्थतदुभयं एवंनूओ विसेसे इति" नियु क्तिगाथादशं ब्याचिख्यासुराह ।। काभिलापसंसूचनार्थ इति। भ०१।०९० "एवं सेहेवि अपुष्टे" एव मिति प्रक्रान्तपरामशार्थ इति सूत्र०१ श्रु० २ अ० प्रकारे, वंजण मत्थे पत्यं, व वंजणेणोभयं विसेसेइ । एवं शब्दः प्रकारवचन इति । श्रा०म०द्वि० । प्रश्न । व्य० । जह घटस चेट्ठा-व या तहा तं पि तेणेघ ।। दर्श०।पं०५०। दर्श० ।एमिति प्रकृतपरामर्शप्रकारेवाथों व्यज्यतेऽथोऽनेनोत व्यञ्जनं वाचकशब्दो घटादिस्तं चेष्टावता पदेशनिर्देशनिश्चयानोकारवाक्यार्थेषु, समुच्चयार्थे, समन्वये, एतहाच्येनार्थेन विशिनष्टि स एव घटशब्दो यश्चेष्टावन्तमर्थ परकृती, प्रश्ने च । मेदि० । वाच । अपरिमाणे, पृथग्भावे, प्रतिपादयात मान्य इत्येवं शब्दमर्थेन नैयत्ये व्यवस्थापयतीएकत्वे, अवधारणे च । तथा च व्यवहारकल्पे “अपरीमाणे त्यर्थः। तथायमप्युक्तबवणमभिहितरूपेण व्यसनेन विशेषपिहम्भावे, एगत्ते अवधारणे । एवसहो उ एपसिं" इति । यति चेष्टाऽपि सैव या घटशब्दवाच्यत्वेन प्रसिद्धा योषिन्मस्त एवं शब्दोऽपरिमाणे पृथग्भावे एकत्वे अवधारणे तत्रापरि कारुढस्य घटस्व जबाहरणादिक्रियारूपा न तु स्थानभरणक्रिमाणे यथा एवमन्येऽपीत्यादौ पृथनावे यथा घटात्पटः पृथक् । यात्मिका इत्येवमर्थ शब्देन नैयत्ये स्थापयतीत्यर्थः। इत्येवमुभयं पवमाकाशास्तिकायवत् धर्मास्तिकायोऽपीति । एकत्वे यथा विशेषयति । शब्दमर्थनार्थ नैयत्ये स्थापयतत्यिर्थः । एतदेवाह यमतकण एवमेषोऽपि । अत्र हवंशब्दस्तयोरेकरूपतामभिद्यो (जहघम्सद्दमित्यादि) श्दमत्र हृदयं यदा योषि-मस्तकारुढतयति अवधारणे यथा केनापि पृष्पमिदमित्थं भवति। इतर। चेधावानों घटशब्देनोच्यते तदास घटलक्षणोऽर्थःस च तद्वाप्राह एवं । इत्थमेवेति भावः । एवमेवंशब्द एतेष्वर्थेषु वर्तते चको घटशब्दः अन्यदा तु वस्वन्तरस्यैव तश्चेष्टानाबादघटत्वं इति । व्य०४.उ०। घटध्वनेश्चावाचकत्वमित्येवमुभयविशेषक एवं नूतनयमिति । एवश्य-एतावत-त्रि० एतत्परिमाणे, वाच । “ एवायं वा एवखुत्तो वा एवइयंति" तां विकृतिमेतावतीमिति । कल्प० ।। एतदेव प्रमाणतः समर्थयन्नाद ।। एवंकरण-एकरण-न० एवम्प्रकारेण करणे, " एवं करणया। सद्दवसादनिधेयं, तप्पञ्चइ वप्प इव कुंनो व्च । एतिकट्ट" भ० ३ श० १ ०। संसयविवजएग-त्तसंकराइप्पसंगाओ। एवंनूय-एवंचूत पुं० सप्तमे नयभेदे, तत्स्वरूपं यथा । यथा अनिधायकः शम्दस्तथैवानिधेयं प्रतिपत्तव्यमिति प्रतिवंजण अत्थतदुभयं-एको विसेसे॥ का तत्प्रत्ययत्वासथाभूत एवार्थस्तः प्रत्ययसंजूतेरिति हेतुः(वंजण अत्ये इत्यादि)यक्रियाविशिष्ाब्देनोच्यतेतामेव त्रि- दीपवत्कुम्नवद्वति दृष्टान्तः। विपर्यये बाधकमाह (संसयेत्यादि) यां कुर्ववस्त्वेवं नूतमुच्यते पवंशब्देनोच्यते चेष्टा क्रियादिकः इदमुक्तं भवति प्रदीपशब्देन प्रकाशवानेवार्थोऽभिधीयते अ. प्रकारस्तमेवंभूतं प्राप्तमिति कृत्वा ततश्चैवंभूतघस्तुप्रतिपादको न्यथा संशयादयः प्रसञ्जरंस्तथा हि यदि दीपनक्रियाधिक मयोऽप्युपचारादेवं नूतः । अथवा एवं शब्दनोच्यते चेश कि- लोपि दीपस्तर्हि दीपशब्दे समुश्चरिते किमनेन प्रदीपेन प्रका. यादिकः प्रकारस्तद्विशिष्टस्यैव वस्तुनोऽभ्युपगमात्तमेवंनृतः शवानर्थोऽभिहितः किं वा प्रकाशकोऽप्यन्धोपलादिरिति संप्राप्त एवं नूत श्स्युपचारमन्तरेणापि व्याख्यायते स एवंचूतो नयः। शयः अन्धोपलादिरेवानेनाभिहितो न दीप इति विपर्ययः । किमित्याह व्यज्यतेऽर्थोऽनेनोर्त व्यञ्जनं शब्दः अर्थस्तु तदभिधे- तथा दीप इत्युक्तोऽप्यन्धोपलादी चोक्ते दीपेप्रत्ययात्पदार्थानामे. यवस्तरूपः व्यञ्जन चार्थश्च व्यजमार्थी तीच ती तनयं चेति कत्वं साय वा स्यात्तस्माच्छन्दवशादेवाभिधेयमभिधेययममासः । व्यजनार्थशब्दयोर्यस्तनिर्देशःप्राकृतत्वासयजनार्थ शाच शब्द इति । विशे०। (समभिरूढनयादिवक्तव्यता नतदुभयं विशेषयति नैयत्येन स्थापयाती श्दमत्रहृदयं शब्दमर्थे- यशब्दे)शब्दाभिधेयक्रियापरिणतिबेलायामेव तद्वस्त्वितिभूतः। मार्थ च शब्देन विशेषयति । यथा घट चेष्टायां घटते योषिन्म-1 एवंभूतः प्राह यथा संघाभेदाझेदवद्वस्तु सथा क्रियाभेदाद Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवंनय अभिधानराजेन्द्रः। एसणघाय सा च क्रिया तद्भत्री यदैव तामाविशति तदैतनिमित्तं तत्ताप- पुरस्कारेण प्रवृत्तस्यैवंनूतनयस्य स्वार्थातिप्रसङ्गेन दूषणं किं देशमासादयति नान्यदेत्यभिप्रसङ्गात् । तथाहि यदा घटते तुतनिवारकनयान्तरोपस्थापकत्वेन भूषणमेव । नयो।सूत्रः । तदेयासी घटोन पुनर्घटितवान् घटिष्यते वा घट इति व्य- अष्ट । स्था० । रत्नावतारिकायामवंतानासमाचकते किया. पदे युक्तः सर्ववस्तूनां घटतापत्तिप्रसङ्गादपि च चेष्टासमये नाविष्टं वस्तु शब्दवाच्यतया प्रतिक्विपस्तु तदानास इति कियाएव चक्षुरादिव्यापारसमुद्भतशब्दानुविद्धप्रत्ययमास्कन्दति चे- विष्टं वस्तुध्वनीनामनिधेयतया प्रतिजानानोऽपि यः परामर्शटावन्तः पदार्था यथाऽवस्थितार्थप्रतिभास एव च वस्तूनांव्य- स्तदनाविष्ट न तेषां तथा प्रतिकिपति नत्वपेक्वातः स एवंतूतवस्थापको नान्यथाभूतोऽन्यथा चेष्टावत्तया शब्दानुविद्धाध्यक्ष- नयाभासःप्रतीतिविघातात उदाहरन्ति । यथा विशिष्टचेष्टाशून्य प्रत्यये प्रतिभासस्याभ्युपगमे तत्प्रत्ययस्य निर्विषयतया भ्रा- घटाख्यं वस्तुन घटशब्दवाच्यं घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्ततक्रिन्तस्यापि घस्तुव्यवस्थापकत्वे सर्वः प्रत्ययः सर्वस्यार्थस्य व्य- याशून्यत्वात्पटवदित्यादिरिति । अनेन हि वचसा क्रियानावस्थापकः स्यादिन्यतिप्रसङ्गः तन्न घटनसमयात्प्राक् पश्चाद्धा विष्टस्य घटादेवस्तुनो घटादिशब्दवाच्यतानिषेधः क्रियते स घटस्तद्यपदेशमासादयतीत्येवं भूतनयमतमुक्तं च "एकस्यापि चप्रमाणवाधित इति तद्वचनमेनूतनयाभासोदाहरणतयोक्तम् । भवनन्यं सदा तत्रोपपद्यते । क्रियाभेदेन भिन्नत्वादेवंभूतोऽ- स्या० । अस्य च मिथ्याष्टित्वं एवमेवंतूतानिप्रायमुपवयोक्तम् भिमन्यत" इति ( सम्म) एवंभूतनयं प्रकाशयन्ति शब्दानां सूत्रकृताने एवंनूसानिप्रायस्त्वयं यदैव शब्दप्रवृत्तिनिमित्तं स्वप्रवृत्तिनिमित्तभूतक्रियाविष्टमर्थ वाच्यत्वेनाभ्युपगच्छनेवं. चेपादिकं तस्मिन्घटादिके वस्तुनि तदैवासौ युवतिमस्तकारूद भृत इति समभिरूढनयो हीन्दनादिक्रियायां सत्यामसत्यां च उदकाद्याहरणक्रियाप्रवृत्तो घटो नवति न निर्व्यापार पव पयंवासवादेरर्थस्येन्छादिव्यपदेशमभिप्रेति पशुविशेषस्य गमन- नूतः तस्यार्थस्य समाश्रयणादेवंनूतोऽनिधानो नयो भवति तक्रियायां सत्यामसत्यां च गोव्यपदेशवत्तथा रूढेः सद्भावात् दयमप्यनन्तधर्माध्यासितस्य वस्तुनो नाश्रयणान्मिथ्यादृष्टिः रपवंभूतः पुनरिन्दनादिक्रियापरिणतमथै तरिक्रयाकाले इन्द्रा- लावल्यवयवे पनरागादौ । कृतरत्नावनीव्यपदेशपुरुषवादति ॥ दिव्यपदेशभाजमभिमन्यते न हि कश्चिदक्रियाशब्दोऽस्यास्ति प्रा०चू० प्रा० म०॥ गौरश्व इत्यादिजातिशम्दाभिमतानामपि क्रियाशब्दत्वात् । ग- | एवखुत्तो-एतावत्कृत्वम्- अव्य० एतावतो वारान् कृत्वत्यर्थे, च्छतीति गौराशुगामित्वादश्व इति शुक्लो नील इति गुणशब्दा कल्प। भिमती अपि क्रिया शब्दा एव शुचिभवनात् शुक्लो नीलना एवमु-इयत-त्रि. वेदंकिमोर्यादेः ।। । इति प्राकृतश्रीन इति देवदत्तो यज्ञदत्त इति यदृच्छाशब्दाभिमती अपि क्रिया शब्दा एव देव पनं देयात् । यज्ञ एनं देयादिति। संयोगिद्रव्य सूत्रेणेदमोऽत्वमियतो यकारादेवयवस्य वा मित् एवम् इत्यादेशब्दाः समवायितव्यशब्दाश्चाभिमताः क्रियाशब्दा एव दण्डो | शः प्रा० । एतावदर्थे, वाच। ऽस्यास्तीति दण्डी । विषाणमस्यास्तीति विषाणात्यस्ति क्रि-एवमाइ-एवमादि-त्रि० एषम्प्रकारे , " एवमाश्करेपवमाइयाप्रध्यनत्वात् पश्चतयी तु शब्दानां व्यवहारमात्रात निश्चया-1 प्रोवेयणा" श्रा एवम्प्रकारा वेदना इति (प्रश्न०) "एवमाईदित्ययं नयः स्वीकुरुते । उदाहरन्ति यथेन्दनमनुभवन्निन्द्रः श- णि णामधेन्जाणि" एवमादीन्येवं प्रकाराणि उक्तस्वरूपाणीकनक्रियापरिणतः शक्रः पुरदारणप्रवृत्तः पुरन्दर इत्यच्यता स्यर्थ इति । प्रश्न अध०१४ा० ३ अ०। इति । रत्ना। एस-एष्य-फर्मणि-एयत्-वाचनीये भाविनि, “एसोन तावजाएवम्तूतस्तु सर्वत्र, व्यञ्जनार्थविशेषणः । य" एण्यो जावीन तावज्जायते इति । आव.अ.एण्यत्काले च । "जुत्रं संपयामिस्सं" युक्तं साम्प्रतैष्यत्कालयोरिति । विशे० । रागचिरैर्यथा राजा, नान्यदा राजशब्दनाक ॥३०॥ एसंतभद्द-एष्यन-त्रिफल्याणानुबन्धिान “ एण्यदन्नबांसएवंभूतस्त्विति सर्वत्र व्यञ्जनं शब्दस्तेनार्थ विशेषयति यः या माश्रित्य पुंसः प्रकृतिमीरशीम" एध्यदभखामिति ईरशी संस एवंभूत “बंजणअत्थतदुभयं एवंभूश्रो विसेसे" इति। रात क्लेशायोगविशिष्टामष्यदभद्रा कल्याणानुबन्धिनी पुंसः प्रकृति नियुक्तिकारः व्यञ्जनार्थयोरेवंभूतः इति तत्वार्थभाष्यं पदानां समाश्रित्येति । धा०१४ द्वा०। व्युत्पत्यर्थान्वयनियतार्थबोधकत्वाभ्युपगन्तृत्वमेवभूतत्वमिति निष्कर्षः । नियमश्व कालतो देशतश्चेति न समभिरूढातिव्या एसकाल-रष्यत्काल-पुं. आगामिनि काले, "धारसपाहिं एसप्तिरयं चास्याभिमानः यदि घटपदव्युत्पत्त्यर्थाभावास्कूटपदार्थो कालो" द्वादशभिर्वरेष्यत्कालः परित्याज्य इति वर्तते । तत पिन घटपदार्थस्तदा जलाहरणादिक्रियाविरहकालेऽपि घटो एवापायसंभवादिति । दश०१०। न घटपदार्थः धात्वर्थविरहाविशेषादिति व्यञ्जनार्थविशेषक एसज्ज-ऐश्वर्य-न० प्रचत्वे, वाच । "रिसभेण स एसजं" स्वमस्य यदुक्तं तदुदाहरति । चिट्ठग्छत्रचामरादिभिर्यथा राजन एसज्जत्ति ऐश्वर्यमिति । स्था०७०। शोभमानः सभायामुपविष्टो राजोच्यतेऽन्यदा कत्रचामरादिशोः भाविरहकाले राजशब्दनागराजशब्दवाच्यो न भवति राजपद एसण-एषण-म०ग्रहणे,“विय उस्सेसणंचरे " एषणाय ग्रहव्युत्पत्तिनिमित्तानावादित्यर्थः । नन्धेतन्मते व्युत्पत्सिनिमित्त णाय चरेदिति । गवेषणे, पसणंति चतुर्थ्यर्थे द्वितीया ततश्चैमेव प्रवृत्तिनिमित्तमिति केनचिट्ठपेण तदतिप्रशक्तवाच्य घेणाय गवेषणार्थ, चरोदति । उत्त० २०। पषते शत्रुहदयम् भन्यथा तु गच्छतीति गौरिति व्युत्पत्त्या गच्चन्नश्वादिरपि ल्यु. मोहमयवाणे, पुं० हलायुधः ॥ गीः स्यात्तथाच उत्रचामरादिविरहकाले तत्प्रयुक्तराजताना- एसणघाय-एपघात-पु० एषणाय घातः प्ररणमषणघातः खेडमीतरातिशायिपुण्यादिप्रयुक्तराजत्वस्यानतिप्रशक्तस्याव्या- एषणाप्रेरणे, "दुविहा विहारसोही, य एसणघातो य जायपरिहतत्वात्कथं न राजशब्दवाच्यत्वमिति चेत्सत्यं प्रसिकार्थ- दाणी" पपणाया घातःप्रेरण मेषणघातः स च स्यात्-तथाहि Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसाधाय नवत्युपधिपात्रादिकमन्तरेण एषणघातः तत एषणाप्रेरणे यत्प्रायश्चित्तं तदापद्यत इति व्य० १ ० । एसा - एषणा - स्त्री० इष इच्छायाम् णिच् भावे युच्-प्रेरणायाम पुत्रलोकविसकामनायाञ्च यान अन्वेषणायाम, जो झोप स्से सणंचरे लोकस्य प्राणिगणस्यैषणाऽन्वेषणेति श्राचा०४ २०१ अ०१ उ० प्राप्तौ, "मच्छेलणं झियायति” मत्स्यप्राप्तिं ध्यायन्तीति 'विसएसणं ज्जियायंति' विषयाणां शब्दादीनां प्राप्ति ध्यायन्तीति च ।सुत्र०१ श्रु० ११ अ० । प्रार्थनायाम्, “एवं कामेसणं विन्नू” कामानां शब्दादीनां विषयाणां या गवेषणा प्रार्थना तस्यां कर्त्तव्यतायां विद्वान् निपुण इति सूत्र० १ श्रु०२ अ० । ' घायमेसंति तं तहा' घातं चान्तशस्तथा सन्मार्गविराधनतया उन्मार्गगमनं चैपन्त्यन्वेषयन्ति दुःखमरणे शतशः प्रार्थयन्तीति सूत्र० १० ११ ० ।' णिवायमेसंति ' निवातमेषयन्ति घशालादिवससायनादिरहिता प्रार्थयतीति श्राचा०२००२४० वाचनायाम, 'कमेसु घासमेसेज्जा' प्रस्यत इति ग्रास आहारमृणयेत्यादित्यर्थ इति ०१०१० पणमेपणा अशनादेर्ग्रहणकाले, शङ्कादिनिः प्रकारैरन्वेषणे, प्रय० ६७ द्वा० | उमादिदोषविप्रमुक्ते भक्तपानादिगवेषणे, स्था० ६ ग० । गृदिणा दीयमान पिएकादेर्ग्रहणे, स्था० ३ aro | एध्यतइत्येषणा उत्त० १ [अ० शुद्धाहारादौ च ( वरंतमेसणं ) एषणायां चरन्तं परिहारादिना वर्तमानमिति ०२५० ( १ ) एषणायाः नेदः । ( 9 ) पिएकोपसंहारः पणायाः अपकेपनिराकरणम् । (३) पान (42) अभिधानराजेन्द्रः । ( ४ ) एषणाया विस्तरतो नेदनिरूपणम् । (४) प्रदषणादिनि । (६) एषणाया शङ्कितादिदोषाणामपि बहुनेत्यम (७) विस्तरेण प्राणादिकम ( ८ ) एषणासमितेन श्रनेषणीयपरिहारः । (९) पुराऽऽयातान्यभिक विधिः । (१०) प्रापणाविि (११) शतसहस्रगच्छेषणपरिहारप्रकारः । (१२) चणादोपायश्चित्तम। (१३) पिणापिकारः । (१४) कर्त्तव्यतानिरूपणम् । ( १ ) एषणायाः नेदा: स्वा च त्रिविधा गवेषणग्रहणग्रासैषणानेदात् । स्था० ए ० तथाच विनिद्रादियमधिकारसंग्रहाथा। पिंमुग्गम उपाय - सणासंजोयणाषमाणं च । गालधूमकारण विभिनिती ॥ 1 पत्रणमेपणा सा वक्तव्या एषणाभिधा तद्यथा गवेषणैषणा ग्रहपणा प्रासैषणा च । तत्र गवेषणे एषणा अभिलाषो गवेषणेथा । एवं प्रहणैचणाप्रासैषणे अपि भावनीये । तत्र गवेषणैषणा उमोत्पादनाविषयेति यता प्रापणा त्वयवदारविषया ततः संयोजनादिग्रहणेन सा प्रदीप्यते तस्मादिद पारिशेष्यादेपणाशब्देन ग्रहणैषणा गृहीता या नाग्रहणेन च ग्रहणैषणा गता दोषा दिना शतोऽयं भावार्थः चत्पादनादोषानिधानानन्तरं प्रषणा गता दोषाः शलादयोऽनित एसका (२) पिएमस्योपसंहारमेषणायाथापके दिमा संखेवर एसो पिंटो पर समस्याओ । फुड विडपायडत्थं, बोच्छामी एसणं पत्तो ॥ ७३ ॥ एवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण संकेपपिएिकताथं संक्केपेण समासेन सामान्यरूपतयेत्यर्थः पिण्डित एकत्र मीलितस्तापर्यमात्रव्यवस्थितोऽर्थोऽभिधेयं यस्य स तथा रूपपिएमो मया व्याख्यातः इनमेषणामेषणानिधायिकां गाथा - र्थी स्फुटो निर्मलो न तात्पर्यानवबोधेन कश्मलरूपो विकटः सूक्ष्ममतिगम्यतया मेदः प्रकटस्तथाविधविशिष्टचमरथनाविशेषतः सुखप्रतिपाद्या याऽकरा एष्वव्याख्यातेष्वपि प्रायः स्वयमेय परिस्फुरनियते स इति भायार्थः अर्थोऽनिधेयं य स्याः स तथा तां वक्ष्ये तत्र तत्त्रभेदपर्यायैर्व्याख्येति प्रथमतः सुखावबोध मेपणाया एकार्थिकान्यनिधित्सुराह ॥ एसएमवे सामग्ग- या य उग्गोवा य बोधव्या ॥ एए उ एसलाए, नामा एगट्टिया होंति । नागवेषणा मणा द्रोपना पतानि शब्दादन्येष णाप्रभृतीनि च एषणाया एकार्थिकानि नामानि नवन्ति । तत्र इषु इच्छायाम् एषणं एषणा इच्छा गवेषणमार्गणे गवेषणं गवेया मागणं मार्गणा पोषना पिश्रु०॥ (३) एषणाया निक्केपेो यथा ॥ नाम पण दविए, भावम्मि य एसा मुणेपव्या । दम्म हिराई, गणामणाभावे ।। ६२२ ।। नामस्थापने सुगमे इन्यविषय यहा दिरण्यादिगवेषणांक रोति कचिद्भावे नावविषया त्रिविधा गवेषणैषणा श्रन्वेषणपण पण पिकादीनामपणा जानपणा चेति सा च गवेषणैषणा ओघ० । तथाच दशवैकासिके क्षुत्वान्नामस्थापने अनादृत्य अन्यैषणामाद दसणा न तिविहा, सचित्ताचित्तमीसदव्वाणं । पचपचपा, नरगवकारिसावणमासं ॥ २ ॥ पण तु त्रिविधा भवति सचित्ताचिसमिश्रव्याणामेषणा प्रध्येषणः । सचित्तानां द्विपदचतुष्यदापदानां यथासंख्यम नरजमाणामिति कार्यापण ग्रहणादण पदादिगोवरांमध्याथार्थः प्रायेषणामाद भासणा उ विहा, पसत्यापसत्थगा य नायव्त्रा । नाणाई पसत्या अपसंस्था कोदमाई || ३| भावेषणा तु पुनाविधा प्रशस्ता अप्रशस्ता ज्ञातव्या । एतदेवाह ज्ञानादीनामेषरणा प्रशस्ता अप्रशस्ता क्रोधादिनामेषणेति गाथार्थः योजनामा । 1 भावस्वगारिता, एत्यं दव्वसरणार अहिगारो । निई पुस्ती, बतया निजुनी ॥ ४ ॥ प्रायस्य नादेरुपकारित्वादप्रमेवैषणाधिकारः तस्याः एमईपणाया अतिररूपाययोजना पिएम निर्गुतिरिति गायार्थः दश० [अ०] तथा विस्तरेणजेदानभिधित्सुराद | Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३). श्रमिधान राजेन्द्रः । एसपा न उपवादविर, जावम्मि व एसला मुशेयथा । दब्बे भावे एकेका तिमिहा मुवा ॥ ७४ ॥ एषणा चतुर्विधा ज्ञातव्या । तद्यथा नामैषणा स्थापनेपा तथा इथे प्रज्यविषया एवणा भावे भावविषया च । तत्र नामैपणा पचणा इति नाम। यद्वा जीवस्याजीवस्य वा एषणा शब्दा वर्थरहितस्य एत्रणा इति नाम क्रियते सा नामनामयतोरभेदोपचारात् । यद्वा नाम्ना पथप्पा नामैषणा इति व्युत्पत्तेर्नामैषणेत्यभिधायते । स्थापनैवा एषणावतः साध्यादेः स्थापना छह एपणा साध्वादेरभिन्ना तन उपचारात्साध्यादिदेव पवणेत्यभिधीयते ततः स्थाप्यमानस्थापनैषणः स्थाप्यते इति स्थापना स्थापना चासी पणाच स्थापनेपणा । येषा द्विधा आगमतो नोश्यागमवश्च । तत्रागमत परणारा दार्थस्य ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः " अनुप्रयोगो द्रव्यमिति " व वनात्रा आगमतस्त्रिधा तद्यथा इशभारी शरीरय वैषणा च । यत्र यत्रणाशब्दार्थस्य यत् शरीरमपगतजीचितं दयतं तत्र नभावनया इ या वस्तु पासको नेदानीमेपणाशब्दार्थयते अथवा वनेनेव शरीरण परियो करणत्वाद्भन्यशरीरऽध्यैषणा । इशरीरजव्यशरीरख्यरिरिक्ता विषय प्राणघा गमतो नोश्रागमतश्च । तत आगमत एवणाशब्दार्थस्य परिज्ञाता तत्र च उपयुक्तः “ उपयोगो नावनिक्षेप " इति वचनात् नोआगम तो गवेषणैगादिमेदात्रि तत्र नामै रणः स्थापण अव्यैषणा आगमतो नोआगतश्च इशरीरभव्यशरीररूपां भावे वागमतः सुज्ञानत्वादनाद्दत्य शेषां प्रव्यैषणां च व्याचिपासुरिदमाह (दव्येत्यादि) ध्ये अव्यविषया जावे च नावविषया एकैका त्रिधा त्रिप्रकारा ज्ञातव्या । तत्र व्यविषया त्रिध ( सवित्तादिनेदात् । तद्यथा सचित्तद्रव्यविषया अचित्तद्रव्यविपया मिश्रव्यविषया च । भावविषयाऽपि त्रिधा गवेषणादिनेदात् तद्यथा गवेषणैषणा ग्रहणपणा प्रासैपणा च । तत्र 5यैपणाऽपि सचित्तव्यविषयात्रिधा तद्यथा द्विपदविषया चतुपदविषया अपदविषया च । तत्र प्रथमतो द्विपदव्यविपयामेणाद जम्म एस एगो युयस अभो नमेरा नहं । सतुं एस अयो, एसो अञो परो मं ॥ ७५ ॥ यद्यपि पनि चार नामानि प्राक् पार्थिकान्यु कानि तथाऽपि तेषां कथंचिदर्थभेदोऽप्यस्ति । तथा होषणा - मात्रमनियतबागवेषपाय पणायाः पर्याया उक्ताः । गवेषणादीनां तु परस्परं नितोऽर्थोऽस्ति पारि गवेषणमनुपत्यमानस्य पदार्थस्य सर्वतः परिभावनं मार्गणं निपुणबुड्या अन्वेषणम् । उपनं विपदार्थस्य जनक - दाहरणान्याह एकः कोऽप्यनिर्दिटनामा देवदत्तादिकः संतत्यादिनिमित्तं सुतस्य जन्म उत्पत्तिमेत्रते इच्छति इदमेषणाया उदाहर णम् । श्रन्यः पुनः कोऽपि यज्ञदत्तादिकः सुतं कापि नष्टमेवते गवेषयते गवेषणाया उदाहरणम् । अभ्यः कोऽपि विष्णु मित्रादिकः पदेन पदानुसारेण धूलीबअजूमिसमुत्यचरणप्रतिविधानुसारेणेत्यर्थः शत्रुमेवते मृगयते इदं मार्गणाया उदाहरणम् । अन्यः पुनस्तस्व मोर्मृत्युं मरणमेव प्रति सजनामृत्यु एसणा मनिपातुमिचतीत्यर्थमुपनया उदाहर मुक्ता सचित्त द्विपद प्रज्यविषया एवणा । संप्रति सचित्तचतुष्पदादामितिविषयप्रतिपादयति मेवापनिमीसेरा । जो जज ए-सणा मोजा ॥ ७६ ॥ यमेव द्विपदेष्यति द्विपदे यो व्यतिरिकेष्वपि चतुष्यदाप दामि वीजपुर का विस्मादिककराचार विभूषितसुतादिरूपेषु इन्येषु विषयेषु या इच्छा माने घटते तत्र पूर्वोाधानुसारे ण योजयेत् । यया कोsपि दुग्धाज्यवहाराय गामिच्छति । कोपि पुनस्तामेव कापि नष्टां गवेषयते अन्यः पुनस्तामेव गां परारिमाणां गवादिपदानविग्यानुसारेण गतेको पि पुनः शीकनाथ जन्प्रकाशं ममता विक ति एवमपदादिष्यपि भावना कार्या । उक्ता ध्यैषणा । सतं नाव मिि 可 जाणा तिषिहा गाणा उपा घाउ कमसो, पद्मनी वीराहिं। नायो ज्ञानदिरूपपरिणामविशेषः तद्विषय एपणा जावैषणा यथा महर्शनामेकदेशतः समूलघातं स्ाधातन भय ति तवा पिएडादेदेषणमिति भावः । साऽपि त्रिधा विकारा क्रमशः क्रमेण प्रशप्ता वीतरागः केन क्रमेणेत्यत आहगवेसणेत्यादि पूर्व गवेषणैषणा ततो ग्रहणैपणा ततो ग्रासैपणा । कस्मात्पुनरित्थं गवेषणादीनां क्रम इत्याह । सिन गहणं, न होइ न य अगहियस्स परिभोगो । एसए तिगस्स एसा, नायव्वा णुपुव्वीन ॥ इन गयेवितस्यापरिभाषितस्य पायगृहीतस्य परयोगः ततः पाकस्य पूर्वोक्नुपूर्वी क्रमो ज्ञातव्यः । पिं० 1 ( गवेषणानिक्षेपादि गवसणा शब्दे ) (५) ग्रहणादिभिक्षेपस्तत्र महामाह । साइदोसे आईपरसमुडिए वोच्छं । ग्रहणैषणदोषांस्त्वात्मपरसमुत्थितान् तानहं वक्ष्ये ॥ तत्र ये विभागतो दर्शयति । आत्मसमुत्थास्तान् दोन साहुसनृत्य, संकिय तर भाव अपरिच सेसा विनियमा, गिहिरो य समुझिए जाण ॥ हो दोषी मुस्ति तद्यथा शङ्कितं भावतोऽपरिणतं च । तश्च द्वयमपि वदयमाणस्वरूपं शेषानावपि दोषान् गृहिणः समुत्थिताद जानीहि संतानि दोपमाह । नाम उवा दचिए, जावे गहनेसणा मुषा । दब्बे वानरजू, भावमिव दसवा होति ॥ / यथानमा स्थापनाहरूपणा च व्यग्रह पणा भावग्रहरौपणा च । सा तत्र नामस्थापने ग्रहणैषणाऽपि यावद्भत्र्यशरीररूपा तावत् गवेषणावद्वतया । ज्ञसरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्ये व्यव यामुदाहरणं वानरयूथम् । भावग्रहवणा द्विधा । तद्यथा आगमतो ज्ञाता तो नोखागमतस्तु द्विधा तथा प्रशस्ता अप्रशस्ता च । तत्र प्रशस्ता सम्यग्ज्ञानादिविषया प्रशस्तादिदोषदुमपानादिविषया मान इस तु Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) एसपा अनिधानराजेन्द्रः। एसणा विधा वच्यमाणभेदैर्दशप्रकारा । पिं० । अोधनियुक्ती तु। रमते । अथ च तत्रैव पर्वत द्वितीयमपि बनवण्डं सर्यपुष्फगहरणेसणम्मि एनो, वोच्चं अप्पखरमहत्यं ॥ए०॥ | फसमूह समस्ति परं तन्मध्यभागवर्तिनि न्हदे शिशुभारोऽवसुगमा तत्र यदुक्तमत उर्दू ग्रहणैषणां वक्ष्यामि तन्प्रति- तिष्ठते स यत्किमपि मृगादिकं पानीयाय प्रविशति तत्सर्वमापादनायाह । कृष्य नक्षयति । अन्यदा च तद्वनखालं परिशटितपारपत्रमपनाम उवण। दविए, नावे गहणेसणा य बोधव्या । गतपुष्फफलमवलोक्य यथाधिपतिरन्यस्य बनखण्डस्य निवा हसमर्थस्य गवेषणाय वानरयुगनं प्रेषितवान् । गवेषयित्वाच दव्वे वानरजूहं, भावम्मि य गएमाईणि ॥ UU । तेन यूथाधिपतेर्निवेदितमस्ति नवं वनखएमम् । क प्रदेशे सयाऽसौ ग्रहणैषणा सा चतुर्विधा नामग्रहणैषणा.स्थापना वर्तुपुष्पकलपत्रसमृध्मस्माकं निर्वाहयोम्यं ततो यथाधिपतिः ग्रहणैषणा द्रव्यग्रहणैषणा भावग्रहणैषणा च झेया । नामग्रहणै सह युथेन रात गतवान् परिजावयितुं च प्रवृत्तः समन्ततस्तद्वपणा सुगमा। तत्र स्थापनाग्रहणैषणा द्विविधा सद्भावस्थापना नखरमं ततो दृष्टस्तन्मध्ये जबपरिपूर्णो हदः परं तत्र प्रविशन्ति ग्रहणैपणां कुर्वन् देशतः असझावस्थापनाग्रहणैषणा अक्वादिषु स्वापदानां पदानि दृश्यन्ते न निर्गच्छन्ति । यूथमाहृय यूथाधितत्र व्यषणा आगमतो नो भागमतश्च। श्रागमतो ग्रहणैषणाप- पतिश्याच माऽत्र यूयं प्रविश्य पिपत पानीयं किंतु तटस्थिता दार्थका तत्र वाशुपयुक्तः नो प्रागमतोशरीरजन्यशारीरोभयव्य एकनान पिबत यतो नैप हदो निष्कारणो निरुपयस्तथाहि तिरिका तथा शरीरे नव्यशरीरे इभव्यशरीव्यतिरिकग्रहणे मृगादीनामत्र पदानि प्रविशन्ति दृश्यन्ते ननिर्गच्चन्तीति पर्व पणायां वानरयूथं नावग्रहणवणायां तु स्थानादीनि भवन्ति । चोक्त यैस्तद्वचः कृतं ते बने खेळाविहारसुखभागिनो जाता इतरे पतदुक्तं नवतिनावग्रहणैषगांकुर्वन् स्थाने विवक्षिते तिष्ठति दा. विनष्टाः । उक्ता अव्यग्रहणैषणा । संप्रति भावग्रहणेपणा वक्ततृप्रतीनि चपरीकतेनावग्रहणवणायाम् । तत्र द्रव्यग्रहणेषणा व्या तया चाधिकारो प्रशस्तया पिएमदोषाणां वक्तुं प्रकान्तयामिदं व्याख्यानकम् “एगोणं तत्थ वानरजूहं परिभमकाले ण त्वात् सा च शङ्कितादिनेदाइशप्रकारा ततस्तानेव शङ्कितादीन य पहिसामियरूपत्तं जायं उएडकाले य ताहे जूद भण जेदान् दर्शयति ॥ अन्नं वणं गच्छामो तत्थ तेसिं जूहबई अन्नवणपरिक्खणत्वं दुन्नि संकियमक्खियनिक्खित्त, पिहियसंहरियदायगम्मिस्से। वसतिशिव पंवेब सत्त पयशवञ्चह वणतरे जोराह ताहे गया अपरिणयलित्तड्डिय, एसपदीसा दस हवंति ॥ एगं वणसडं पासति पनरफलपुष्फ तस्स वणस्म मज्के पगो महदहो तो तं दडणं हन्तुहा गया जूहवश्णो साहति। ताहे सो शङ्कितं संभाविताधाकर्मादिदोषं, म्रतिनं सचित्तपृथिव्यादिना गुगिठनम । निक्रिप्तं सचित्तम्योपरि स्थापितम् । रिहितं सचिनहवई सम्वेसि समं आगो ताहे तं वणं नक्खणं रुक्खं प तेन स्थगितम् । संहृतमन्यत्राप्तिम् । दायकदोषपुष्टा । उन्मिश्रा बोएर साहे तं वणं सुकं तेण जणिया खायह कणफला जाह पुष्पादिसन्मिथम् । अपरिणतमनासुकीनतम् । लिप्तं गर्दतं चूते तत्थ धाया पणियं गया ताहे सो जहवई दहस्स परिसरतेहं मी विमितम् । एते दश एषणादोषाः नवन्ति ( एतेषां वक्तपलोए जाव उयरं ताणि पदाणि दीसंति उत्तरताणि न दी यता तत्तकदे) संति ताहे सोनणइ एस दहो सावो तामा एत्थन्थनीरे पा. तत्र शकितपदं व्यात्रिख्यासुराह ॥ सत्थेवाजयरिय पाणिय पियह किंतु नाझेण । तत्थ जेहि सुयं वय संकाए चनजंगो, दोसु वि गहणे य झुंजणे लग्गो । ण तस्स तं पुष्फफलाणं आजोगिणो जाया जेहिं ण सुयं तस्स ते रुक्सहिंतो ताम्म दहे जे पात्रो देति ण चेव उत्तरंति ते अ जं संकियमावन्नो, पणवीसा चरिमए सुखो॥ गानोगिणो जाया एवं चेव पायरियो ताणं साहणं प्राहाकम्मुद्दे शम्यां इतिते चतुङ्गी चत्वारो भङ्गाः सूत्रे च पुंसवन्देिसियाणि समोसरणबहवणादिसु परिहराचे उवायणं फासुयं श आर्यत्वात् । सा चेयं चतुर्भङ्गी ग्रहणे शङ्किनो भोजने चैति गरहावे जहा नरिथ सिजति आहाकम्माश्णा तधा करे । त प्रथमोभङ्गः। ग्रहणे शङ्कितं न भोजने इति द्वितीयः।नोजने शङ्कित्थ पुत्रकयाणि खीरदाधिघयमाईणि तारिसाणि गिराहावेश तो न ग्रहणे इति तृतीयः । न ग्रहणे न भोजने इति चतुर्थः । अकय प्रकारियसंकप्पियाणि तत्थ ये आयरियाणं सुणेति ते परि- अत्र दोघानाह (दोसुवीत्यादि ) द्वयोरपि शङ्कितस्य ग्रहणहारंति ते च अचिरेण कारण कम्मरखयं करेहिंति जे ण जोजनयोरपियो यतेते यश्च ग्रहणयति । ग्रहणे अर्थापत्याननोजने सुणेविते न भणंति । एए. उदाहारया असत् विकल्पार्कि कारणं तथा नोजने सामर्थ्यान्न ग्रहणे स सर्वोऽपिहनो दोषेण संबकः। एवंण पर तिविहिणं सुयं पुणोते अनाणं जास्यव्यमरिय- केन दोषेणेत्याह (जं मकियमित्यादि) षोडशोममदोषाणामवैषध्वगाणं अभागिणो जाया " अोघः ॥ णादोषरूपाणां पञ्चशितिदोषेण शङ्कितं संभावितमापनो घर्तश्दानीममुमेवार्थ गाथानिः प्रदर्शयन्नाह । ते तेन दोषण संबकः । श्दमुक्तं भवति यदाधाकर्मत्वेन शङ्कितं तद् गृहानो जुआनो वाऽऽधाकर्मदोषेण संबध्यते यदि पुनरौहोशपाडसमियपमुपत्तं, वणसंडं दट्ट अन्नार्हि पसे । कत्वेन तत औद्देशिकेनेत्यादि । चरमे चतुर्थभने पुनर्वर्तमानः जूहवई पडियरए, जहण स संतयं गच्छो ।। शको न केनापि दोषेण संबध्यते इत्यर्थः । इह 'पणवीसा' सयमेवालोए उ, जूहबई तं वर्ण समंतेण । इत्युक्तं ततस्तानेव पञ्चविंशतिदोषानाह। वियर तसि पयारं, वारिकाण यतो दहं गच्छे ।। उग्गमदोसा सोलस, आहाकम्माइ एसणा दोसा । उपरंते पि य दिई, नीहारं तं न दीसई। नवमक्खियाइ एए, पणवीसा चरिमए मुके। नालेण पियह पाणिं, यं न एस निकारणो दहो । आधाकादयः षोमश उमदोषा नव च म्रवितादयः एषविशाबशुको नाम पर्वतस्तत्रैकस्मिन् वनखाडे वानरयूथमनि। खादोधा एते मिलिताः पञ्चविंशतिः चरमे तु भङ्गे न ग्रहणेन Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ul) अभिधानराजेन्धः । एसवा जोजने इत्येवंरूपे वर्तमानो यतिः । यत इहागुरूमपि ब्रह्मस्थपभोलि | छठमत्यो सुनाएणी, उवनत्तो लज्जुओ पयत्ते । यवनो पणवीस, सुयनापमानयो सुद्धो ॥ शस्यः श्रुतज्ञान) ऋजुको मायारहितः प्रयत्नेन यथागमारंगपयन शिषाणामन्यतमं दोषमापन ज्ञानप्रमाणतः आगमप्रामावतः शुद्धः । एनमेवार्थे स्पष्टयति ॥ ओहो ओपो सुप नाही विगि अ तं विज, अपम सुयं जवे इयरहा | "बोहो" प्रथमा तृतीयाचे तत सोधेन सामान् विक्त्यादिरूप आग उपयुक्त नुसारेण पद्धति तथाऽपि ततः केपि केहि स्थानानमप्रमाणं भवेत् । तथा हि स्थः श्रुतज्ञानवलेन शुद्धं गवेषयितुमीष्टे न प्रकारान्तरेण । ततो यदि केवल श्रुलज्ञानिना यथागमं गवेषयितमप्यशुद्धमिति कृत्वा न जुञ्जीत ततः श्रुतेऽनाश्वासः स्यादिति न कोऽपि श्रुतं प्रमाणत्वेन प्रपद्येत श्रुतज्ञानस्य चाप्रामाण्ये सर्वक्रियाविबोपप्रसङ्गः । श्रुतमन्तरेण ब्रद्मस्थानां क्रियाकाएकस्य परिज्ञानासंजवात् । ततः किमित्याह । सुत्तस्त अप्पमाणे, चरणाभावो तो य मोक्खस्स । मोक्लस्स वि य अभावे, दिवखविली निरत्या उ ॥ सूत्रामा परस्परायः मन्तरेण यथावत्सावयेरविधिप्रतिषेधपरिज्ञानासंजया चरणानावे व मोकाभावो मोकानावे च दी ज्ञानिरर्थिका तस्या अनपार्थत्वात् । संप्रति ग्रहणे शङ्कित भोजने व इत्यस्य प्रथमनङ्गस्य संभवमाह । किं नु खा जिक्खा, दिज्जइ न य तरइ पुच्छिउं हरिमं । 5 संकाय में, न ज किओ चैव ।। कोsपि साधुः खभावतो लज्जावान् भवति । तत्र कापि गृहे मिक्षार्थं प्रविष्टः सन् प्रचुरां भिक्षां लभमानः स्वचेतसि श क किमत्र प्रचुरा मिक्षा दीयते । न च लज्जया प्रष्टुं शक्नोति तत एवं शङ्कया गृहीत्वा शङ्कित एव तद् मुझे इति प्रथमभङ्गे वर्तते । संप्रति ग्रहणे शङ्कितो न भोजने इत्यस्य संभवमाह । हिरण किया गहि-या अमेण सोहिया सा य । एग वा सो निस्सं कि मुंजे । इह केनापि साधुना लज्जादिना प्रष्टुमशक्नुवत्ता प्रथमतः शनि हृदयेन वा तामा सा अपसंपादकेन शोविता यथा प्रकृतं प्रकरणं किमपि प्रायोजनादिकं यदि वा प्रणकं कुतश्चिदन्यस्माद् गृहादायातमिति । ततो द्वितीयसंतत् श्रुत्वा निःशङ्कितो भुते स द्वितीये भङ्गे वर्तते । तृतीयस्य भङ्गस्य संभवमाह । जारिसर विला, सदा जिला अनुपमे । अन्नेवितारिसिया, वियईत निष्ठामणे तइए | इह को साधुभिक्षाको विकटयतो गुरोरता सम्यगालोचनाय सति शङ्कते यादृश्येव मया भिक्षा प्र चुरा लब्धा तादृश्येवान्यैरपि संघाटकैस्तत्र न मे तदाधाकमादिदोषदुष्टं भविष्यतीति जानो पतिस्तृतीय भने पर्तते । एसणा अत्र पर श्राह । जइ संका दोसकरी, एवं सद्धम्म होइ अविसृद्धं । निस्कामद्वितिय सम्म निहोस || यदि शङ्का दोषक तत एवं सति इदमायातं शुद्धमपि श द्वितं सत् शुद्धं भवति शङ्कादोषदुत्वात् तथा अने मपि विशङ्कितमन्वेषितं युद्धं प्राप्नोति शङ्कारत्वात् न चैवं 'युक्तं स्वभावतः शुद्धस्याशुद्धस्य वा शङ्काभावाभावमात्रेण अन्यथा कर्तुमशक्यत्वात् । अत्राचार्य श्राह सत्यमेतत्तथाहि । विसुद्ध परिणामो, एगयरे अवडिओ य पक्खम्मि । एसि पि कुइ ऐसिं, असिमेसि वि सुद्धो न ॥ श्रविशुद्धः परिणामः । अध्यवसायः किंरूपो विशुद्ध इत्याह । एकतरस्मिन्नपि शुद्धमेवेदं भक्तादिकं यदि वा अशुद्धमेवेत्यन्यतरस्मिन्नपि पक्षेऽपतन् ( एसिं पित्ति ) एषणीयमशुद्धं विशुकस्तु परिणामो यथोकागमविधिना गवेषयतः शुद्धमेवेदम त्यध्यवसायः । अनेषणीयमपि स्वभावतोऽशुद्धमपि शुद्धं करोति श्रुतज्ञानस्य प्रामाण्यात्तस्मान्न कश्चित् प्रागुक्तो दोषः । तदेवमुक्तं शङ्कितद्वारमधुना प्रक्षितद्वारमाह । दुविहं विषयं खलु सचितं देव होइ अचित्तं । सच्चित्तं पुणतिविदं चित्तं होइ दुविहं तु ॥ प्रक्षितं द्विधा तद्यथा सचित्तमचित्तं च सचिसम्रक्षितं चेत्यर्थः तत्र वासचितेन पृथिव्यादिनाऽवगु तत्सवितं यत्पुनरचितेन पृथिवीरजःप्रभृतिनाऽयगुण्ठितं तत सचित्तं सनिक्षितं च अतिमनिक्षितम्। पुनखेचा एतदेव व्याख्यानयति । पुढवीआरएस तिविहं सचित्तमक्खि होइ ॥ अचितं पुरागरहियमियरेय जयता छ । समितिं प्रेचा तद्यथा पृथ्वीम अष्कायजितं वनस्पतिपतिं च तत्रैव पदेकदेशे पसायोपचारात् पृयिभ्य दिनचितं पृथिवीत्यायुकम् । श्रचितमचित्तत्रतिं पुन यथा गतिं सादिना यमितत्तादिना ॥ अत्र व कल्प्याकयविधौ नजना विकल्पना सा चाग्रे वयते । संप्रति विवाहित नायति ॥ मुक्ा ससरवण मस्त्रियमो पुविकाएण ॥ सव्र्व्वपि मक्खियतं, पतो आम्मि बोच्छामि । इह सचित्तपृथिवीकायो द्विधा तद्यथा युष्क श्रश्व । तत्र शुगरकेन कल्पेन यत् देहमा स्तो पाप्राण पृथिवीकार्यन समिति चित्तथिवी कायतितव्यम् । तत ऊर्द्धयविषये मुक्तिं वक्ष्यामि ॥ पुरवचकम्प सरणि- बुदन चनर आजभेया उ । उदरसान्तिं परिचरां महिरुहेसु ॥ काकारो नेाः तथापुरः कर्म पश्चा स्कर्म सस्निग्धमुदकार्ड च । तत्र भक्तादेदनात्पूर्वे यत्साध्यर्थे कर्म दस्तावजालनादि कियत् कर्म यत्पुननात्यायिते तत्पधात्कर्म सम्धीयमाणजखखरटितं हस्तादि उदकाईस्पृष्टो लभ्यमानजनसं Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (US) अभिधानराजेन्द्रः । पुसणा 1 सर्गः संप्रति धनपतिकाय कितं प्रपतिता एरसानि मधुररसोपेतानि यानि परीतानां प्रत्येक वनस्पतीनां नूतकादीनामनन्तानामनन्तकायिकानां च पनसफलादीनां सद्यःकृतानि कानि इति सामर्थ्या रत्नादि तन्मरुतेषु पत्र तृतीयार्थे सप्त म महीतिमवसेयं परित्ताणत्तमित्यत्र प्राकृतत्वाद्विननित्य इति बहुवचनं व्याव्यातम् ॥ सेहि य काहिं, तिहि वि ते समीरणतसेहि । सचित्तं मी वा, न मक्खिअस्थि उव ॥ 1 शेवैस्तेजः समीरणजभिरपि सचितपाईताक या न भवति सद लोकप्रतिपदर्शनात्र अविस्तु तैर्नम वीकायादौ न च प्रतित्वसंभव इति न तस्य प्रतिवेधः । वातकायेन सच्चित्तेनापि न मूक्तित्वं घटते तथा लोके प्रतीत्यभावात् संप्रति वित्तपृथिवीकायानिनि हस्तपात्रे श्राश्रित्य भङ्गान् कल्प्या कल्प्य विधिं च प्रतिपादयति । सच्चित्तमक्खितम्मि, इत्थपत्ते य होइ चभंगो । आइविए पडिसेहो परिमे भंगे प्रभा छ । सखिः पृथिवीकापादिनिहिते हस्तपात्रे व चतु रो नङ्गाः सूत्रे च पुंस्त्वनिर्देश आर्यत्वात् । ते च चत्वारा भङ्गा अमी तद्यथा हस्तो महितो पात्रं च हस्तो मुक्रितो न पात्रं, पनि हस्तो, तो नापि पार्थ, तत्रादिमे विके प्रतिषेधो न कल्पते ग्रह । तुमिति भावः । चरमे न पुनरनुज्ञातो यस्ती करणरस्तत्र दोषजावान् प्रतिमाश्रित्य का कल्यविधिमाह । अचित्तमक्खियम्मिन, सुविनंगेमु होइ जयणा ! अगर उगणं, पमिसेदो गरहिए होइ || चित्तमते ऽपि हस्तपात्रे अधिकृत्य प्राम्यत् चत्वारो भङ्गास्तत्र च चतुर्वपि नङ्गेषु विभजना विकल्पना तामेवाह गर्हिमनिन्दितेनादसादिना मुखिते भवति प्रतिषेधः पितुः चेति प्रदशम विशेषमा संसज्जिमिहि वजं, अगर हिरहिं पि गोरेसोहं । मलेहिय मामपिपीयायाओ ।। संसम्म गोरायां दध्यादियमकाभ्यामगर्दा ज्यामपि सिनिय पात्राभ्यां वा दीयमानं वज्य परियमित्यर्थः । तथा मधुलगुर यदीयमानं पापा) मा मक्किकापिपलिकानामुपल कृणमेतत् पतङ्गादीनां वातादीनां त्यानु जनकपिकाद्यवित्योतमवसेयं स्वविकास्तु यथाविधिपतनया घृतादपि गुमादिपद्यापि च गृहलिगलिगमा । मैसमसोजियासर लोए वा गरहिर पिलाउ | उजओ विगरहिएहि, मुत्तुबारोह छिन्नं पि ॥ मांसपसाशी जतायैरव सूत्रे विनोिष पालात लोके रियादः चया समुि साउनमपि लोके लोकोत्सव गर्द एसणा राज्यां माssस्तां मूतिं स्पृष्टमपि वर्जयेत् । उक्तं प्रतिद्वारम् । अथ निकितद्वारमाह । सच्चित्तमीसमु, विहं कारसु होइ निक्खितं । एक्केकं तं दुविहं अतरं परं परं चैव ॥ पनि द्विविधा सचिनेषु मिथेषु कम द्विधा । तद्यथा अनन्तरं परंपरं । तत्रानन्तरमव्यवधानेन परंपरं व्यवधानेन यथा सवित्तपृथिवी कायस्योपरि स्थापनिका तस्या उपरि देयं वस्त्विति । इह परिहार्यपरिहार्यविभागं विना सामान्यतो नितिं सवित्ताचित्तमिश्ररूपनेात्रिधा । तत्र च त्रयचतुर्भङ्गधस्तद्यथा । सवित्ते सचित्तं १ मिश्र सचित्तं २सचित्ते मिश्र ३ मिश्र मिश्रमित्येका चतुर्भङ्ग । तथा सचित्ते सचि उत्तम् १ चित्ते सचित्तं २ सचित्ते वित्तम् ३ अवित्त अत्रिउत्तम इति । द्वितीया चतुर्म । तथा मिश्र मिश्रम १ अचित्ते मिश्रं २ मिश्र श्रचित्तम् ३ अचित्ते चित्तम् इति तृतीया - [तुर्भवानन्तरपरंपरविभागमा पीआरका वा उपासना | एकेक दुहानंतर परंपराएम्मि सनावहो । पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायानां सचित्तानां प्रत्यकें सचितपृथिव्यादिषु निकेपः संभवति । तत्र पृथिवीकायस्य निकेपः पोडा तथा पृथिवीकायस्थ पृथिवीकार्य नित्यको नेद पुचिकायायेति द्वितीयः पृथिवीकारा इति तृतीयः । वातकाये इति चतुर्यः । वनस्पतिकाये शते पञ्चमः । यसकाये इति षष्टः । एवमप्कायादीनामपि निक्केपः प्रत्येकं पोडा भावना सर्वसंख्या फो द्विधा तथा श्रनन्तरपरम्परया च । अनन्तरपरंपरख्याख्यानं त्र प्रागेव कृतम् केवलमग्निकार्य निशेष सप्तधा एतश्च स्वयमेव वक्ष्यति। संप्रति पृथिवीकाये निक्केपस्य यदुक्तं पूर्व साकादर्शयति । सचिढविकाए, सचित्तो चैत्र पुढविनिक्खित्तो । आऊतेनवणस्स-ममीरात से एमेव ॥ सावते पृथिवोका ये सवित्तपृथिवीकायो नितिः एवमेव पृथि पीकाने अमेजोवनस्पतिसमीरसेषु सर्ववीकायो निकित इति पृथिवीकायनिष पोदा एवं शेषका दर्शयन्नाह । एमेव सेसयाण वि, निवखेवो होर जाव काए । एको सट्टा, परट्टाऐ पंच पंचैव ॥ यमेव पृथिवीकायस्येव शेषाणाम काया निक्षेपम यति पृथिव्यादिषु तपकैको भङ्गः स्वस्थाने शेषाः पञ्च पञ्च परस्थाने । तथाहि पृथिवीकायस्य पृथिवीकार्य निक्षेपः स्वस्थाने ग्रार्थिषु शेषु पक्ष स्थानेषु । एवमकायादीनामपि भावनीयम् । ततः स्वस्थाने एकैको मङ्गः पराने पक्ष पक्षका प्रथमे भने ति संप्रति प्रथमचतुर्भ द्वितीयचतुर्भयाः या शेर्पा प्रतिपादयति । एमेव पीसएस वि, मीसाणसचेय ऐसु निक्खेवो । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) एसणा थन्निधानराजेन्द्रः। एसणा मीसाणं मीसेसु य, दोएई पि य होइ चित्तमु ॥ विकायमम्मुरिंगा-लमेव अप्पत्तपत्तसमजाले । एवमेव सचित्तेष्विव मिश्रेयपि मिश्रपृथिव्यादिनिक्षेपः वोकते सत्त दुर्ग, जंतालित्ते य जयणाए ।। पत्रिंशत् भेदोऽवगन्तव्यः। एतेन प्रथमचतुर्भको व्याख्यातः। इह सप्तधा घह्निस्तद्यथा विध्यातो,मर्मुरो,ऽङ्गारः,अप्राप्तः प्राप्तः, एचमेव मिश्राणां पृथिव्यादीनां मिश्रेषु पृथिव्यादिषु निक्षेपः | समज्यालो व्युत्क्रान्तश्च । तत्र या स्पष्टतया प्रथमं नोपमन्यते । पत्रिंशद्भेदः। अनेन प्रथमचतुर्भङ्गयाश्चतुर्थो भङ्गो व्याख्यातः पश्चाविन्धनप्रक्केपे वृद्धिमपिगच्छति स व्युत्क्रान्तः। एते सप्त जे. सर्वसंख्यया प्रथमचतुर्भङ्गयां चतुश्चत्वारिंशद्भङ्गशतम् । एवमेव दास्तेजस्कायस्य । तत्र एकैकस्मिन् भेदे द्विकं तद्यथा अनन्तरनिद्वयोरपि सचित्तमिश्रयोरचित्तेषु निक्षिप्यमाणयोर्ये द्वे चतुर्भ विप्तं परंपरमिक्तिप्तं च । नत्र यत्त विभ्यातादिरूपे वह्नौ मएमकादि गयौ प्रागुक्त तथाऽपि प्रत्येकं चत्वारिंशगङ्गशतं भवति सर्वसं प्रतिप्यते तत् अनन्तरनिक्तिप्तस् यत्पुनरग्नेरुपस्थापिते पितरादी ख्यया भङ्गानां शतानि चत्वारि द्वात्रिंशदधिकानि भवन्ति । विप्तं तत्परंपरनिक्तिप्तम् तत्र सप्तानां भेदानां मध्ये यमेव तमेवाउक्तानिक्षेपस्य भेदाः। संप्रत्यस्यैव निकेपस्य पूर्वोक्तचतुर्भङ्गी धिकृत्य यन्त्रेषु रसपाकस्थाने कटहादी अवलिप्ते मृत्तिकाखरश्रयमधिकृत्य कल्प्याकल्ल्यविधिमाह । एिटते यननया परिसाटिपरिहारेण ग्रहणमिथुरसस्य कल्पते । जत्थ उ सचित्तमीसे, चनजंगो तत्थ चनसु विनंगेसु । संप्रत्येनामेव गाथां व्याख्यानयन् प्रथमतो विध्यातादीनां स्वरूपं तंतुअर्थतरइयं, परित्ताणं तं च वणकाए। गाथाद्वयेनाह। यत्र निक्षेप सचित्तमिश्रादिचतुर्भङ्गी भवति । प्रथमा चतु- विज्झा तिन दीसइ, अग्गी दीसे इंधणे बूढो । मेली भवतीत्यर्थः । तत्र चतुलपि भङ्गेषु अपिशब्दात द्वितीय- आपिंगलअगणिकणा, मम्मुरनिझालइंगाले ॥ तृतीयचतुर्भयोरपिश्राद्येषु त्रिषु विभङ्गेषु वर्तमानमनन्तरं परं. अप्पत्ता न चउत्थे, जाला पितरं तु पंचमे पत्ता । परा वा घनस्पतिविषये प्रत्येकमनन्तं वा तत्सर्वमग्राह्यं सामात् । द्वितीयतृतीयचतुर्भयाश्चतुर्थे चतुर्थभने वर्तमान बट्ठ पुण कन्नसमा, जालासमइस्थिया चरिमे ॥ प्राचं तत्र दोषाभावात् । संप्रति सचित्तादिभित्रिभिरपि सुगम नवरं ( अप्पत्ता उचउत्थे जाला इत्ति) चतुर्थे अप्राप्तामतान्तरेणैकमेव चतुर्भङ्गीकल्प्याकल्प्यविधि प्रदर्शयति । ख्ये नेदे पिठरमप्राप्ता ज्वाला द्रष्टव्याः । पञ्चमेत्यत्राप्यवरगमभइव ण सचित्तमीसो, से एगोएगउ अचित्तो। निका कार्या। संप्रति (जं तोसिते य जयणाए ) इत्यचयवं ब्यापत्थं चउकलंगो, तत्थाइत्तिए कहा नस्थि ।। चिख्यासुराह॥ अथवेति प्रकारान्तरताद्योतको णमिति वाक्यालङ्कारे शह चतु यं सोलित्तकमाहे, परिसाडी नस्थि तंपिय विसाल । भङ्गीप्रतिपक्कपदोपस्थित्या (से)तस्य प्रवति । तत्रएकस्मिन् पके | सो विय अचिरबूढो, इच्चुरसो नाइउसिणो य । सचित्तमिधे एकचतुष्पक्के अचित्तः। ततः प्रागुक्तक्रमेण चतुर्नङ्गी इह यदीति सर्वत्राभ्याव्हियते यत् यदि कटाहः पितरविशेषः भवति तद्यथा सचित्तमिश्रे सचित्तमिदं सचित्तमित्रे अचित्तम् | पितरः पार्श्वेषु मृत्तिकयाचा लिप्तो जवति । दीयमाने चेक्षुरसे यभचित्ते अचित्तमिति । अत्रापि प्रागिव एकैकस्मिन् भने पृथिव्य- दि परिसाटिनॊपजायते तदपिच कटाहरूपं भाजनं यदि विशालं जोयायुवनस्पतिभेदात् । तत्र पत्रिंशद् नेदाः सर्वसंख्यया विशालमुखं नवति । सोऽपि चेकुरसोऽचिरक्किप्त इति कृत्वा य. चतुश्चत्वारिंशदधिकं शतं तत्रादित्रिके आदिमे भङ्गत्रये कथा दिनात्युप्पो भवति तदा सदीयमान कुरसः कल्पते। इह यदि नास्ति ग्रहणे वार्ता न विद्यते सामर्थ्याच्चतुर्थो जङ्गः कस्पते । तदेवं दीयमानस्येचुरसस्य कथमपि विन्दुबहिः पतति तर्हिसलेप एव "पुढवीत्यादि" स्थलमाद्ययोः पूर्वार्द्धम् व्याख्यातं । संप्रति एक्केके वर्त्तते न तु चुहीमध्यस्थिततेजस्कायमध्ये पतति ततः पार्थाऽहाणंतरमि" त्यवयव व्याचिख्यासुद्धितीयचतुर्नयाः सत्कस्य वबिप्त इति कटाहस्य विशेषणमुक्तम् । तथा विशासमुखादाकृतृतीयस्य नङ्गस्य सामान्यतोऽशुरूस्य विषये विशेष विजाण- प्यमाण नदञ्चनः पिठरस्य कतै न अगति । ततो न पिठरस्य पुरनन्तरपरंपरया वा मार्गणां करोति। भङ्ग इति न तेजस्कायविराधनेति विशालग्रहणम् अनत्युप्णग्रहणे जं पुण अचित्तदव्वं, निक्खिप्पइ चेयणेसु दव्वेसु । । तुकारणं स्वयमेव वक्ष्यति । संप्रत्युदकमधिकृत्य विशेषमाह । तह मग्गणा उ इणमो, अणंतरपरंपरं होई॥ नसिणोदगं पिघेप्पड़, गुमरसपरिणामियं न अच्छसियं । यत् किमपि अचित्तं जव्यमोदनादिचेतनेषु सचित्तेषुमिश्रेषु वा जंतु अघट्टियकतं, फष्टिय पक्षणं पिमा अग्गी ॥ निक्तिप्यते तत्रेयमनन्तरं परंपरया वा मार्गणा परिजावनं नवति । उष्णोदकमपि गुमरसपरिणामितमनत्युषणं गृह्यते । किमुक्त श्रीमाहिगादणंतर-परपिरगाइपुढवीए । भवति यत्र कटाहे गुमः पूर्व कथितो नवति तस्मिन् निक्तिप्तं नवणीयाइ अणंतर-परंपरा ताव मासु ॥ जसमीपत्तप्तमपि कटाहसंसक्तगुमरसमिश्रणात सत्वरं सचित्तीभवमाहिगादि पक्वान्नं मएमकप्रति पृथिव्यामनन्तरनिक्तिप्तं पृ- जवति । ततस्तदनन्तरमपि कल्पते । अत्रापि पार्वावलिप्तकटाहथिव्या पवोपरि स्थिते पितरकादा यन्निक्किप्तमवग्गाहिमादि त- स्थितमपरिसार्ट मवेति विशेषणद्वयमनुपात्तमपि द्रष्टव्यातत्परंपरनिकेप उक्तः ।सम्प्रत्यप्कायमाश्रित्य "नवणीप" इत्यादि था यत् अघटितकर्ण न यस्मिन् दीयमाने पिठरस्य कर्णावुदञ्चनवनीतादि म्रकणस्थानीनूतघृतादिसचित्तादिरूपे उदके निक्ति- नेनप्रविशता निर्गच्छता वा घट्येते तद्दीयमानः कल्प्यते इत्याह । समनन्तरनिक्विन्तं तदेव नवनीतादि वा अवगाहिमादि वा जब- (फम्लियपणंपिमा अम्गी)नदञ्चनेन प्रविशता निर्गस्ता वा पिमध्यस्थितेषु नावादिषु स्थितं परंपरनिकिप्तम्। सम्प्रति तेजस्का- परस्य कमयोर्घट्यमानयोःपस्योदकस्य वा पतनेन नाग्निर्विराभ्ययमधिकृत्यानन्तरे परंपरे व्याख्यानयन् “अगणिम्मि सत्तविहो", तेति कृत्वा पतेन वक्ष्यमाणः वोगशभङ्गानामाद्यो मङ्गो दर्शितः। इत्याचषयषं व्याख्यानयन्ति । संप्रति तानेव षोडशभङ्गान् दर्शयति । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (40) एसणा भन्निधानराजेन्डः । एसणा पासोलित्तकडाहे, नच्चुसिणो अपरिसामिघट्टते । काप्रभृतिषु अनन्तरिता निक्किप्ता अपूपादय इति शेषः । हरितासोससनंगविगप्पो, पढमे गुन्ना न सेसेसु ॥ दीनामेवोपरिस्थितेष्वपि पिठरादिषु निक्तिप्ताः अपूपादयः परं परनिक्तिप्तम् । तथा वहीवादीनां पृष्ठे अनन्तरनिक्किमा अपूपादयः पायांवलिप्तः कटाहः अनत्युष्णो दीयमान कुरसादिः अपरि असेष्वनन्तरनिक्तिप्तं वनीवादिपृष्ठ पव भरके कुतुपादिषु वा साटिः परिसाट्यभावः (अघट्टते इति) उदञ्चनेन पिचरका नाजनेषु निक्षिप्ता मोदकादयः परंपरनिक्किप्तम् इह सर्वत्रानन्तरघट्टने श्त्यन्तानि चत्वारि पदान्यधिकृत्य षोमश भङ्गा नवन्ति । | निकितं न ग्राह्य सचित्तसाट्टनादिदोषसम्भवात । परंपरनिभङ्गानां च नयनार्थमियं गाथा । क्षिप्तं तु सचित्तसंघट्टनादि परिहारेण यतनया ग्राह्यमिति संप्रएय समदुग अम्जा, सेसा भंगाण तसि महरयणा । दायः । उक्त निक्षिप्तद्वारम् । एगंतरियं लदु गुरु-लहुगुरुगा य वामेसु ॥ अथ पिहितहारमाह । अस्य व्याख्या इह यावतां पदानां ना आनेतुं चिन्त्य- सञ्चित्ते अच्चिचे, मीसगपिहियम्मि हो चउभंगो । म्ते । तावन्तो द्विका कर्बाधः क्रमेण स्थाप्यन्ते । ततः प्रथमो प्रागतिगे पमिसेहो, चरिमे भवम्मि भयणा उ ।। शद्विको द्वितीयेन द्विकेन गुण्यते जाताश्चत्वारस्तै- इह सचित्त इत्यादौ सप्तमी तृतीयायें ततोऽयमर्थः सचित्तेन २ स्तृतीयो हिको गुण्यते जाता अष्टौ तैरपि च भचित्तेन मिश्रेण वा पिहिते चतुर्नङ्गी अवति । अत्र जातावेकवतुर्थो द्विको गुण्यते जाताः षोमश एतावन्तश्चतुणों चनम्। तत्रतिनश्चतुर्नयो जवन्तीति षष्टव्यम् । तत्रैका सचित्तपदानां भङ्गा भवन्ति । तेषां च पुनर्भङ्गानामेषा रच- मिश्रपदान्यां, हितीया सचित्ताचित्तपदान्यां, नृतीया मिश्राना प्रथमपङ्कावेकान्तरितम् । लघु गुरु प्रथमं लघु ततो गुरु पुन- चित्तपदाभ्याम् । तत्रसचित्तनसचित्तं पिहितं, मिश्रेण, सचिरा संघु पुनर्गुरु एवं यावत् षोमशो भङ्गाः। ततः प्रज्ञापकापेक्कया सचित्तेन मिश्र, मिश्रेण मिश्रमिति प्रथमा चतुर्नङ्गी। तथा सचामेषु वामपार्थेषु गुिणा लघुगुरवः । तद्यथा द्वितीयपतौ चित्तेन सचित्तं पिहितम् । अचित्तेन सचित्तं । सचित्तेनाचित्तम प्रथमं द्वौ लघू ततो द्वौ गुरू ततो नूयोऽपि द्वौ सघू एवं यावत् अचित्तेनाचित्तमिति द्वितीया चतुर्नङ्गी तथा मिश्रेण मिधं पिषोमशो नङ्गाः । तृतीयपनी प्रथमं चत्वारो अधवस्ततश्चत्वारो हितं, मिश्रेणाचित्तम् । अचित्तेन मिश्रम् । अचित्तेनाचित्तमिति। गुरवस्ततः पुनश्चत्वारो गुरवः चतुर्थपतयां प्रथममष्टौ सघवः । तृतीया । तत्र गाथापर्यन्तं तुशब्दवचनाप्रथमचतुर्भनयां संघततोऽधौ गुरवः । स्थापना । स्वपि मङ्गेषु न कल्पते द्वितीयतृतीयचतुर्भलिकायास्तु प्रत्ये| 0 | 15||अत्र ऋजवोऽशाःगुद्धाः वक्राचा- कमादिमेषु त्रिषु भङ्गेषु न कल्पते इत्यर्थः । चरमे तु नों 15 ISISsIs | sss | | शुकाः । वह षोमशानां नङ्गानामा- 'जनसोवगुरुणेत्यादिना' स्वयमेव वक्यते । संप्रति चतुर्नङ्गी थो नमोऽनुशातः शेषेषु पञ्चदशसु. प्रयविषयावान्तरजङ्गकथने ऽतिदेशमाह ॥ HISI ISSISSSSSI नङ्गेषु सम्प्रत्युष्णग्रहणे दोषानाह। lisssss SISS 555 जह चेव न निक्खित्वे, संजोगा चेव होति नंगा य । सुविहविराहण नसिणे, गणहाणीय भाणभेोय । एमेव य पिहियम्मि वि, नाणत्तमिणं तइयजंगे। वाउक्खित्ताणंतर-परंपरा य पामयवस्थि ।। यथैव निक्तिप्त निक्किप्तद्वारे सचित्ताचित्तमिश्राणां संयोगाःप्रा गुक्ता यथैव सचित्तपृथिवीकायस्योपरि निक्षिप्त इत्येवं स्वस्थामष्णेऽत्युष्णे श्करसादौ दीयमाने द्विधा विराधना आत्मवि- नपरस्थानापेक्कया चतुर्भजीत्रयसनेष्वकैकस्मिन् भने पत्रिंशराधना परविराधना च । तथाहि यस्मिन् भाजने तप्तस्ततोऽ- नेदाः सर्वसंख्यया चत्वारि शतानि छात्रिंशदधिकानि । तथात्युष्णं गृह्णाति । तेन तप्तः सत् भाजन हस्तेन साधुर्मूलन दह्यते त्रापि पिहितद्वारे अष्टव्याःतथाहि प्रागिवात्रापि चतुर्भङ्गीत्रयम श्त्यात्मविराधना । येनापि स्थानेन दात्री ददाति तेनाप्यत्युष्णे एकैकस्मिश्च भने सचित्तपृथिवीकार्य सचित्तपृथिवीकायेन पिन सा दह्यत इति । तथा (उडणे हाणीयत्ति ) अत्युष्णमिकुर- हितम् । सचित्तपृथिवीकायेनावरब्धंमएमकादि सचित्तपृथिवीसादि कष्टेन दात्री दातुं शक्नोति कष्टन च दाने कथमपि साधु- कायानन्तरपिहित, सचित्तपृथिवीकायगम्नपितरादिपिहितादिसत्कजाजनादहरुमने हानिर्दीयमानस्येचुरसादेः। तथा (नाण- रूपतया स्वस्थानपरस्थाने अधिकृत्य षट्त्रिंशत् भेदाः सर्वसंख्यया भेप्रो इत्ति)तस्य भाजनस्य साधुना वा नयनायोत्पाटितस्य एतह- चत्वारि शतानि द्वात्रिंशदाधिकानि नङ्गानाम् । नवरं द्वितीयतृदणादेर्दाच्या वा दानायोत्पाटितस्योदञ्चनस्य गएमरहितस्यात्यु-1 तीयचतुनङ्गयोः प्रत्येकं तृतीयेश्नले अनन्तरपरपरमार्गणाविधी प्णतया ऋगितिभूमौ मोचने भनः स्यात् । तथाच षम्जीवनिका- निक्किप्तद्वारादिकं वक्ष्यमाणनानात्वमवसेय निकित अनेन प्रकायविराधनेति। संयमविराधना संयमप्रतिकायमधिकृत्यानन्तरपरं रेणानन्तरपरंपरमार्गणा कृता अत्र त्वन्येन प्रकारेण करिष्यते परे दर्शयन्ति। वातोरिकप्ताः समीरणोत्पाटिताः पपएिटताः पप- इति भावः। तत्र सचित्तपृथिवीकायेनावष्टब्धं मासकााद स. रिटका शालिपर्पटिका अनन्तरं निक्षिप्तं परंपरनिक्तिप्तम् (बत्थि- चित्तपृथिवी कायानन्तरपिहितं सचित्तपृथिवीकायगर्भपिवराति) विनाक्तिलोपावस्ती उपलक्षणमेतत् समीरणापूरितवस्ति- दिपिहितं सचित्तपृथिवीकायपरंपरमोदकादि सचित्ताप्कायाप्रभृति व्यवस्थितं मपरकादि । संप्रति वनस्पतिविषयं द्विवि- नन्तरपिहितं हिमादिगर्भपिठरादिना पिहितं सचित्ताप्कायाधमपि निक्किप्तमाह। नन्तरपिहितं सचित्ततेजस्कायादिपिहितमनन्तरपरंपरञ्च गाथाहरियाइ अणंतरिया, परंपरं पिपरगाइसु वराणम्मि। द्वयेनाह। पूपा पिडिणंतर-भरये कुउवाइसु इयरा ।। अंगारवियाई, अणंतरो परंपरो सरावाई । पने वनस्पतिविषये अनन्तरनिक्षिप्त हरितादिषु सचित्तबीहि- तत्थेव अइरवाऊ, परपरं वस्थिणं पिहियं ।। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) एसग्गा अभिधानराजेन्द्रः । एसणा अरं फलाहापाहियं, वणम्मि श्यरं तु छव्वपिठराई । तह चेव उ साहरणे, नाणतमिणं तश्यनंगे । कत्थइ संचाराई, अणंतरो तरो बढे । ययैव निक्षिप्ते निक्षिप्तद्वारे सचित्ताचित्तीमश्रपदानां संयोगाः रह यदा स्थाख्यादौ संस्वेदनादीनां मध्ये अङ्गारं स्थापायत्वा | कृता यथैव च सचित्तः पृथिवीकायः सचित्तपृथिवीकायस्योहिंग्वादिना वासो दीयते तदा तेनाकारेण केषाञ्चित् संस्वेदना परि निक्षिप्त इत्येवं स्वस्थानपरस्थानापेक्वया चतुर्न ङ्गीत्रयभनेदीनां संस्पर्शोऽस्तीति ता अनन्तरपिहिताः ॥ आदिशब्दाच ध्वेकैकस्मिन् भने षट्त्रिंशत् २ नङ्गा उक्नाः सर्वसंख्यया चत्वाणकादिकं मुर्मुरादिक्किप्तमनन्तरापिहितमवगन्तव्यम् । अकारभृते | रिशतानि द्वात्रिंशदधिकामिनङ्गानां तथात्रापि संहृतद्वारे घटन शरावादिना स्थागतं पिटरादि परंपरपिहितम् । तथा तत्रैव व्याः। तथाहि प्रागिवात्रापि चतुर्नङ्गीत्रयमेकैकस्मिंश्च भने सअङ्गारधूपितादौ (अश्रत्ति) अतिरोहितमनन्तरपिहितं वाया चित्तः पृथिवीकायः मध्ये संहत इत्यादिरूपतया स्वस्थानपरद्रव्यं यत्राग्निस्तत्र वायुरिति वचनात समीरणे भृतेन तुबस्तिना स्थाने अधिकृत्य पत्रिंशत् षट्त्रिंशद्भदाःसर्वसंख्यया नङ्गानांउपलकणमेतत् वस्तितिप्रनृतिना पिहितं परंपरपिहितमवसे चत्वारि शतानि द्वात्रिंशदधिकानि नवरं हितीयतृतीयचतुर्मपम् । यथा वने वनस्पतिकायविषये फत्रादिना ( अश्यत्ति) निकयोः प्रत्येकं तृतीये नले भनन्तरपरंपरमार्गणाविधौ निप्रतिरोहितेन पिहितमनन्तरपिहितम् ॥ छब्वपिनरादौ कव्वक किप्तद्वारादाविदं वक्ष्यमाणं नानात्वमवसेयम् । निक्तिप्तद्वारे अन्येन स्थाल्यादौ स्थितेन फलादिना पिहितं (श्यरंति ) परंपरपिहि प्रकारेणानन्तरमार्गणा कृता अन्यत्र संहृतद्वारे अन्यथा करितमातथा प्रसे असकायविषये कच्चपेन संचारादिना वाकीटिका प्यते इति भावः तदेवान्यथात्वं दर्शयन् संहरणकणमाह ॥ पक्यादिना यपिहितं तत् अनन्तरपिहितम् । कच्छपसंचारा- मत्तेण जेण दाहिश, तत्थ अदिजं तु होज असणाइ । दिगर्भपिठरादिना पिहितम् । इहानन्तरपिहितमकटप्यं परंपर बुंतुं यं तह ते मा, देश अह होइ साहरणं । पिहितं तु नजनया ग्राह्यम् । यदुक्तं “चरमे भङ्गम्मि भयणा" शति तयाख्यानयन्नाह । येन मात्रकेण दास्यति दात्री तत्रादेयं किमप्यस्ति अशनादिकं गुरु गुरुणा गुरु लहुणा य, सहुयं गुरुपण दो विलइयाई।। प्रतादि सचित्तं पृथिवीकायादिकं था ततस्तत् अदेयमत्र स्थानान्तरे विस्वा ददाति (अहत्ति) एतत्संहरणम् । तत ए. मच्चित्तरा विपिहिए, चननंगो दोसु आगश्यं ।। तवकणानुसारेणानन्तरपरंपरमार्गणाऽनुसारणीया । तद्यथा सअचित्तनापि चित्ते देयवस्तुनि पिहिते चतुर्भङ्गी चत्वारो। चित्तपृथिवीकायमध्ये यदा संहरति तदाऽनन्तरसचित्तथिधी. मंङ्गास्तद्यथा गुरु गुरुणा पिहितमित्येको नङ्गः । गुरु बघुनेति काये संहृतम् । यदा तु सचित्तप्रथिवीकायस्योपरिस्थिते पिठद्वितीयः। रघु गुरुणेति तृतीयः (दो विबद्याशत्ति) लघु लघुना रादौ संहरति तदा परंपरया सचित्तपृथिवीकाये संहृतमेवमपिहितमिति चतुर्थः । एषु च चतुर्यु जङ्गषु मध्ये द्वयोः प्रथमतृ कायादिष्वपि भावनीयम् । अनन्तरसंहृते न पाह्य परंपरसंहते तीयनङ्गयोरग्राह्य गुरुजव्यस्योत्पाटने कथमपि तस्य पाते पा पृथिवीकायादिषु घट्टने ग्राह्यामिति । संपत्ति धितीयतृतीयचतुर्मदादिभङ्गसंभवात् ततः पारिशेष्यात् द्वितीयचतुर्थयोर्भङ्गयोर्या श्रीसत्कं तृतीयं नङ्गमाश्रित्य येषु वस्तुषु मा[पा] प्रकस्थितमदेयं ह्यमुक्तदोषाभावात् । देयवस्वाधारस्य पिठरादेर्गुरुत्वेऽपि ततः वस्तु संहराति तान्युपदर्शयति । फरोटिकादीनां दानसंभवात् । नकं पिडितद्वारम् । अथ संडतद्वारमाह । नुमाइएसु तं पुण, साहरणं हो। बसु निकाएसु । सञ्चित्ते अञ्चित्ते, मीसगसंहरणे य चउभंगो । जं तं दुहा अचित्तं, साहरणं तत्थ चननंगी । आइतिए पमिसेहो, चरिमे नंगम्मि भयणा उ॥ तत् पुनर्मात्रकस्थितस्यादेयस्य वस्तुनः संहरणं नूम्यादिकेषु सचित्तपृथिवीकायादिषु षट्सु जीवनिकायेषु नबति जायते । शह येन मात्रकेण कृत्वा भक्तादिकं दातुमिच्छति दात्री तत्र य- तनचानन्तरोक्तएव कल्प्याकल्प्यविधिरवधारणीयः। तथा यत्संदातव्यं किमपि सचित्तमचित्तं मिश्रंचाऽस्ति ततस्तदन्यत्र स्ती-| हरणं द्विधाऽपि आधारापेक्षया च अचित्तमचित्तसचित्ते यत्संम्यादी विश्वा तेनान्यत्र ददाति तच्च कदाचित्सचित्तेषु पृथि- व्हियते इत्यर्थः । तत्र चतुर्भङ्गो चत्वारो भङ्गास्तानेवाह । व्यादिषु मध्ये क्लिपति कदाचिदचित्तेषु कदाचिन्मिश्रेषु क्वपणा च सुक्खे सुक्खं पढम, सुक्खे उवं तु विश्यओभंगो। संहरणमुच्यते । ततःसंहरणे सचित्ताद्यधिकृत्य चतुर्नङ्गी अत्र जातावेकवचनं मिश्रचतुर्भङ्गी अत्र जातावेकवचनात्तिनश्चतुर्नङ्गयो नब्बे सुक्खं तइओ, नवे नवं चउत्थो न । जवन्तीत्यर्थः । तथाहि पका चतुर्भङ्गी सचित्तमिश्रपदाज्यां, द्वि शुष्के शुष्कं संदृतमिति प्रथमो नङ्गः । शुष्के आर्डमिति द्वितीतीया सचित्ताचित्तपदाभ्यां, मिश्राचित्तपदाच्यां तृतीयेति । तत्र यः । आई शुष्कमिति तृतीयः । आद्रं आमिति चतुर्थः । सचित्ते सचित्तं संहतं, मिधे सचित्तं, सचित्ते मिश्रं, मिश्रे मि एकेके चउनंगो, सुक्खाईएसु चनसु भंगेसु । श्रमिति प्रथमा चतुर्भङ्ग तथा सचित्ते सचित्तं संहृतमाचत्तेस- थोवे थोवं थोवे, बहुं च विवरीय दो अन्ने । चित्तं सचित्ते अचित्तम् अचित्ते अचित्तमिति द्वितीया।मिश्रेमिथं शुष्कादिषु शुष्के शुष्कसंहृतमित्यादिषु चतुर्यु भङ्गेषु मध्ये एकैकसंहृतम्, अचित्ते मिश्रं, मिश्रे अचित्तम्, अचित्ते श्रचित्तमिति- स्मिन् भने चतुर्भङ्गी तद्यथां स्तोके शुष्के स्तोकं शुष्क स्तोके सतीया । अत्र गाथापर्यन्तं तुशब्दसामर्थ्यात्प्रथमचतनङ्गिकायाः शुष्क बहु शुष्कं ( विवरीय दो अन्नेत्ति ) एतद्विपरीती द्वा सर्वेष्वपि भङ्गेषु प्रतिषेधः । द्वितीयतृतीयचतुर्नङ्गिकयोस्तु आ- अभ्यो नही कष्टव्यौ । तद्यथा गुण्के बहुकं स्तोके सुदिकेम्वादिमषु त्रिषु त्रिषु नङ्गेषु प्रतिषेधश्वरमे नजना । कम् । बहुके शुष्क बहु शुष्कमिति । एवं शुष्के आईमित्यादि. मधुना चतुर्भशीत्रयसत्कावान्तरजङ्गकथने अतिदेशमाह ॥ ध्वपि त्रिषु भङ्गेषु स्तोक स्तोकमित्यादिरूपा चतुर्भङ्गी प्रत्येक जह चेव उ निक्खिचे, संजोगा चेव होति भंगा य।। भावनीया। सर्वसंख्यया घोश भङ्गाः । अत्र कल्प्यविधिमा । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) अभिधानराजेन्द्रः एसणा । जत्य यो थोत्रा उ होइ किं । जइ तं तु समुक्वितं योवानारं दलइ अन्नो । यत्र तु भङ्गे स्तोकं तुशब्दाद्वदुके च संहृतं भवति तदपि शुष्के शुष्कं कल्पते अथवा शुष्के आई बाराम्दारा मुष्कमा आई वा तदा तत् ग्राह्यं न शेषम् । कुत इत्याह (जर इत्यादि) यदि तत् अदेयं वस्तु स्तोकाभारं बहुभाररहितमन्यत्र समुत्पत्ये तद्ददाति तर्हि तदाई कल्पते नान्यथा बहु । किंच संहियमाणं बहु भारं भवति । ततः शुष्के शुष्कमित्यादिषु चतुर्ष्वपि मङ्गेषु प्रत्येकं स्तोके श्लोकमिति । प्रथमतयो भङ्गी कन्येन द्वितीयचतु थी तत्र दोषानाह उनले निक्लेवे, मलायम्पिकमाहो । श्रावयत्तं वोच्छेउ, छक्कायवदो य गुरुमत्ते । मदति नाजने प्रभूतादेववस्तुभारयुक्ते गुरुमात्र उत्पादद्यमाने (निचले दाया पीमा भवति । तथा सध्वयं न परपीकां गणयतीति निन्दा तथा तद् जाजनं कदाचिदुष्णजक्तादिभृतं स्यात्ततस्तस्योत्पाटने कथमपि तस्य च विधिनाशो दाव्याः साधोर्वा दाहः स्यात् । तथा मुएकस्य भिकादानायोरपाटितमिदं भ्रमत्तः कदाचिदरुपजायते ततस्तत्र द्रव्यस्य द्रव्यवच्छेदः । तथा मत्ति भाजने अनेसमध्ये स्थिते कादरी सर्वतो विसर्पति पारिस्थित पृथिवीयः दिविनाशः। यत एवमेते दोषास्ततः स्तोके प केवमितिको सानदेह यो योवं ब्डं, सुकेनं तु आइन्नं । बहुयं तु अणाइन्न, कमोसो का स्तोके स्तोकम उपलक्षणमेतत् । मदुके वा स्तोकं यन्निसिं तदपि शुके शुष्कं कल्पते एव ततः । शुष्के आई तुशब्दात् श्राकम आई च तत् भवति । श्राचीर्ण कल्पते इति भाषः । यत्तु बहुकं स्तोके बहुके वा संन्हियते तत् अनाचीर्णे कुत इत्याह । स बहुकसंहारः कृतदोषोऽनन्तरगाथायामुक्तदोष इति कृत्वा, उक्तं संहृतद्वारम् । अथ दायकद्वारं गाथापङ्केनाह । बाले बुढे मत्ते, उन्मत्ते वेविए य जरिए य । ए पगरिए, श्रारूढे पानयाहिं च । इत्यम् निपलय, निहत्यपाए । तेरासिगुब्विणी बालवच्चजुंजंति फसुर्लेती ॥ भजंतीय दीप कती चैव तह व पीसंती | दिर्जतं । सेवंती, कन्नंति य मद्दमाणी य । छक्कायवग्गहत्था, समरणडा निक्खिवित्तु ते चैव ॥ योगात संपती रती य ॥ संसत्तेण यदव्दे, वित्तहत्था य वित्तमत्ता य । उव्वर्त्तती साहा - रणं व दिती य चोरियं ॥ पाडुमियं व ववंती, सपच्चवाया परं च उद्दिस्स । आजोगमानोगेश दलती बज्न शिजाए ॥ नादौ या वर्जनीया इति क्रियायोगः । तत्र बाल्लो जन्मतो कास्यान्तर्वत ? वृद्धः सप्ततिवर्षाणां मतान्तरापेक्षया घर्षणां वा उपरिवर्ती २ मत्तः पीतमदिरादिः ३ उन्मन्तो तो ग्रहगृहीतो वा ४ वेपमानः कम्पमानवशरीरः ॥ ज्वरितो एसपा ज्वररोगपीरितः ६ श्रन्धश्चक्षुर्विकः ७ प्रगति सत्कुष्ठः आरूढपाडुकयोः काष्ठमयोपानहोः । । तथा हस्तान्डुना करविषयका १० निगमेन च पादविषयद्रोहमचव प कः १९ इस्ताभ्यां १२ पादाभ्यां वर्जितस्थितत्वात् ॥ १३ त्रैराशिको नपुंसकः १४ । गुर्वी आपन्नसत्वा | १५ | बाबवत्स शून्योपजीविविशिशुका १५ जुखाना जोजनं कुर्वती १६ फसुती दयादिमती | १७|भयन्तादिन कादि स्फोटयन्ती । १८ जन्ती घरट्टेन गोधूमादि चूर्णयन्ती २६ करमयन्ती च दुखले तरकुलादिकं एयन्ती। २० पिवन्ती शिक्ष या विशालका २१ जयन्ती पिजमेनादिकं विरलं कुर्वती । २२ सेवन्ती कार्पासं लोग्न्यिां बोग्यन्ती २३ कृन्तन्ती कर्त्तनं कुर्व्यती । २४ । प्रमृज्यन्ती त कसायां पौनःपुन्येन विरसं कुर्वती २५ पट्कायव्यग्रहस्ता पट्काययुक्तहस्ता२६ यथा श्रमणस्य भिकामादाय तानेव षट्कायान् मौ निविष्य ददती २७ तानेव बटुकायानवगाहमाना पादाभ्यां चालयन्ती | २० | संघट्टयन्ती तानेव षट्कायान् शेषशर रावयवेनैव स्पृशन्ती । २९ । श्रारभमाणा तानेव षटूकायान् विनाशयन्ती ३० । संसकेन दध्यादिना इव्येण त्रिप्तहस्ता खररिटतहस्ता | ३१ तथाऽनेनैव रूपेण भ्यादिमा संस तमात्रा | १२ |उद्वर्तयन्ती महत्पठरादिकमुद्वर्त्य तन्मध्याद्ददती ३३ साधारणं बहूनां सत्कं ददती ३४ तथा चोरितं ददती ३५ रादिनिमितं मूलस्थास्यामाकृष्य स्थगनाद ३६ संप्रत्यपाया संभाव्यमानापायादात्री ३७ तथा विवक्तिसाभुव्यतिरेकेण परमम्यं साम्यादिकमुद्दिश्य यत्स्थापित ३८ तथाऽऽभोगेन साधूना मित्थं न कल्पत इति परिज्ञाध्योपपस्या शुद्धं ददती ३ अथवा अनाजोगेनाशुद्धं ददती ४० सर्वसंपवा चत्वारिंशदोषाः महितादिद्वारे जमे अगर परसदावे" वादिन्थेन संसकादिदो पाणामनिधानेऽपि यद्भूयोऽन्यत्र संस से यह सिस्था [य] [सितमन्तापे" त्याद्यनिधानं तदशेषदायक दोषाणामेकपदर्श नार्थमित्यदोषः। संप्रत्येतेषामेव दायकानामपवादमधिकृत्य वर्ज नामविभागमा एएस दायगाणं, गहणं केसि वि होइ भइयन्वं । फेसिपी तब्वरी जवग्गणं ॥ 9 एतेषां बालादीनां दायकानां मध्ये केषाञ्चिन्मूलत धारज्य पञ्चविंशतिसंख्यानां ग्रहणं भजनीयं कदाचित्तथाविधं महत्प्रयोजनमुद्दिश्य कल्पते शेषकालं नेति । तथा केषाञ्चित्पट्कायव्य ग्रहस्तादीनां पञ्चदशानां हस्तादग्रहणं निकायाः तद्विपरीतेषु बासादिविपरीतेषु दरग्रहणं संप्रति बालानां हस्तादित भिकाया ग्रहणे ये दोषाः संभवन्ति ते दर्शनीयास्तत्र प्रथमतो बालमधित्य दोषामाह ॥ केहि पाहि ऊ दिने व नग्गहए पज्जतं । स्वतियमग्गणदिने, उड्डार्ट पउसचारणमा || काचिदभिनवा आकिका श्रमणेच्यो भिक्षां दद्यादिति निजपुत्रिकi ( अप्पाणिं (स ) संदिश्य भक्तं गृहीत्वा क्षेत्रं जगाम । गतायां तस्यां कोऽपि साधुः संघाटको निक्कामागतः तया च वाकिया सदन बितीर्थः सोऽपि संघामुख्य साधुस्तां बालिकां मुग्धतरामवगत्य लाम्पस्यतो भूयो भूय उवाच पुनर्देहि पुनदति ततस्तया समस्तोऽप्योदनो दत्तस्तत प Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसणा (११), अभिधानराजेन्द्रः सुप्रभृततकयादिकमपि । श्रपराह्णे च समागता जननी उपविश्य भोजनाय प्रणिता निपुत्रिका देहि दि विसायोत् दत्तः समस्तप्योः साधवे खात् शोभनं कृतवती । मुफान मे देहि सा प्राह मुझ अपि साधवे सर्वे प्रदन्ताः । एवं यत् यत् किमपि सा याचते तत्तत्सर्व साधवे दत्तमिति । ततः पर्यन्ते काञ्जिकमात्रं यावत्तदपि बालिका प्रणति साधवे दत्तमिति । ततः साऽजिनवाकिका रुष्टा सती पुत्रिकामेति किमिति स्वया सर्व साधने दस ते स साधुर्भूयो भूयो याचते ततो मया सर्वमदायि ततः सा साधोरुपरि कोपावेशमाविशन्ती सूरीणामन्तिकमगमत् । अवकथञ्च कमपि साधुसन्तं यथा जवीयो यः साधुि त्रिकायाः सकाशात् याचित्वा याचित्वा सर्वमोदनादिकमानीतवानिति । एवं तस्यां महता शब्देन कथयन्त्यां शब्दश्रवणतः प्रतोऽपि च परंपरया नृषामिति ज्ञाताध सर्वैरपि साधुवृतान्तस्ततो विद्यति तेऽपि कोपावेशिक साधूनामवर्णवादम, नूनममी साधुवेषविकस्विनश्चारजटा श्व सुन साधुसा इति ततः प्रवचनादापनोदाय सूरिभिस्तस्याः सर्वजनस्य व समकं स साधुर्निभतस्योपकरणं च सकलमागृह्य सर्वजनैर्निष्काशितः । तत एवं तस्मिन्निष्काशिते श्राविकायाः कोपः शममगमत् । ततः सूरीणां कमाश्रमणमादायोतवती जगवन् ! मा मनिमित्तमेष निष्काश्यतां कमस्वैकं ममापराधमिति । ततो भूयोऽपि यथावत्साधुः शिकयित्वा प्रेषितः सुगम नच (उदाहपओचारनका इति) सो हस्ततो लोकस्य प्रद्वेष नावतश्चारजा श्व बुएनका अमीन साधव स्त्पपर्णवादः । यत एवं बामणे दोषास्ततो बालाज प्रायमिति । संप्रति स्थविरदायकदोषानाह । मेरो गलालो. कंपणहत्यो पनि वा देतो ॥ अपहुत्तिय चित्तं, एगयरे वा उजयओ वा । श्रत्यन्तस्थावरो हि प्रायो गल्लल्लालो भवति । ततो देयमपि घस्तु नालया खरण्टितं जवतीति तग्रहणे लोके जुगुप्सा । तथा कम्पमानहस्तो नवति । ततो हस्तकम्पने चशब्दोऽयं वस्तु जूमौ निपतति तथा च पजीवनिकायविराधना | स्वयं वा स्थविरो ददत् निपतेत् तथा च सति तस्य पीका भूम्याश्रितषम्जीनिकाय विराधना च । श्रपि च प्रायः स्थविरो गृहस्याप्ररस्वामी भवति ततस्तेन दीयमानेन प्रचुर एष इति विधिन्त्य गृहे स्वामित्वेन नियुक्तस्य चित्तं प्रद्वेषः स्यात् । स च एकतरस्मिन् साधौ गृहे वा यद्वा उभयोरपीति । मत्तोन्मत्तावाश्रित्य दोषानाह । प्रवास भाणओ, वमणं असुइ ति लोगगरहा य । पंतावणं च मत्ते, वमणत्रिवज्जा य उम्मत्ते । मतः कदाचिन्मत्ततया साधोरालिङ्गनं विदधाति भाजनं वा जिनसि । यद्वा कदाचित्पीतमासवं ददानो वमति वमंश्च साधुसाधुपानं वा खरपटयति । ततो लोके जुगुस्सा धिग् इमे साधalsagar ये मत्तादपीत्थं भिक्कां गृहन्तीति । तथा कोऽपि मतो मदवशनिर्वज्ञतया रे मुएक ! किमत्रायात इति ब्रुवन् घातमिति चिचाति तवं यतो मतेऽपायादयो दोषास्तस्मान्न ततो ग्राहाम येन त एवालिङ्गनादयो दोषामपि तस्मात्ततोऽपि न ग्राह्यम् । । एसणा संप्रति वेपितज्वरितावाश्रित्य दोषानाह । बेवियपरिसमाया, पासे वत्यु भेज्ज भाणनेओ वा । एमेत्र य जरियम्मिवि, जरसंकमणं च अड्डाहो । पितासु दातुः सकाशाद्भिकाग्रहणे देयवस्तुनः परिसातनं भपति या पार्श्वे साहस देषितो देयं वस्तु पेित् यद्वा येन स्थाल्यादिना भाजनेन कृत्वा निकामानयति तस्व भूमी निपाते भेदः स्फोटन स्वात् एवमेव त्वरितेऽपि दोषा नावनीयाः । किंच ज्वरिताग्रहणे ज्वरं संक्रमेण साधोर्भवेत् । तथा जने उडाहो यथा अहो अमी आहारलम्पटा यदित्थं स्वरपीमितादपि भिक्कां गृहन्तीति । अन्धगलत्कुष्ठावाश्रित्य दोषानाद । उड्डाहकायपणं, अंधे नेओ य पासछुहणं च । तोसी संकपणं गलितभिसभिमदेव || अन्धाद्भिक्षाग्रहणे उड्डाहः । स चायमहो अमी श्रदरिका यदन्यानि दातुमभिहन्तीति । तथा घोऽवश्य पादाभ्यां पापजीवनिकायाविति तथा सोष्ठादौ स्खलितः सन् भूमौ निपतेत् । तथा च सति भि कादाना थोत्पाडिती तस्थान्यादिभाजनः । तथा स देयं वस्तु पार्श्वे भाजनबहिस्तात् प्रतिपेददर्शनात् तस्मादन्धादपि न ग्राह्यम् । तथा त्वग्दोषनि किं विशिष्टे इत्याह । गलितं भूमिमात्यादन्यत्यासेन पयोजना सा चैवं भृशमतिशयेन गलितमपतं रुचिरं च दिनभित्र स्फुटितो देहो यस्य स तथा तस्मिन् तद्दोषसंक्रमणं कुष्ठन्याधिसंकान्तिः स्यात् तस्मात्ततोऽपि न ग्राह्यम् । संप्रति पाकारूढादिचतुष्टयदोषानाह । पाठदुरुपद बद्धे परियार अनुसिा य । कर चित्रा खिसा तेवि य पायम्मि पद च ॥ पाटुकारूढस्य भिक्कादानाय प्रचलतः कदाचिद्दुः स्थितत्वात् पतनं स्यात् । तथा बके दातरि भिकां प्रयच्छति परितापो दुःखं तस्य भवेत् तथा (अति) तत्र पुरीपोत्सजन तस्याशौचकरणासंभवात् । ततो निकाग्रहणे लोके जुगुप्सा यथामी अनुचयो यदेतस्मादप्ययुचित्वयुक्तात् भिकामाददते इति । एवं निकरेsपि निक्कां प्रयच्छति लोके जुगुप्सा तथा इस्ताज्ञाचेन शौचकरणासंभवात् तथोपणं तेन हस्तानाने येन कृत्वा भाजनेन निक्कां ददाति यद्वा देयं वस्तु तस्य पतनमपि नवति । तथा च सति षजीवनिकायव्याघातः । एत एव दोषाः यदि विच्छिन्नपादे दारिद्रयाः केवलं पादानायेन तस्य निक्कादानाय प्रचलतः प्रायो नियमतः पतनं पातो भवेत्तथा च सति भूम्याश्रितकीटिकादिकसत्वव्याघातः । संप्रति नपुंसकमधिकृत्य दोषानाह । आपरो भयदोसा, अभिक्खगहणम्मि खोजश्णनपुंसे । लोक गुंग संका, परिसया नूणमेण वि ।। नपुंसके निक्कां प्रयच्छति आत्मपरोजयदोषः । तथाहि नपुंसादभीक्ष्णं निक्काग्रहणे प्रतिपरिचयो भवति भतीच परिचयाच तस्य नपुंसकस्य साधोर्वा क्षोभो वेदोदयरूपः समुपजायते। ततो नपुंसकस्य साधुनिङ्गाद्यासेवनेन द्वयस्यापि मै घुमसेवया कर्मबन्धः । अभीक्ष्णग्रहपशब्दोपादानाच्च कदाचिदेवमाह। परिचयाभावात् तथा लोके गु Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) अभिधानराजेन्द्रः । एसणा सा यथैते नपुंसकादपि निकृष्टाद्धिकामाददते इति । साधूनामम्युपरि जनस्य शृङ्का नयति तस्माद्यतेऽपि साधवो नूनमीदशा नपुंसकाः कथमन्ययाने सदनिका माजतोऽतिपरिचयं विदधते इति । संप्रति गुर्विणी बालवत्से श्राश्रित्य दोषापदयति ॥ गिने संप रा उ उतनेसमाथीए । बालाई सेडुग मज्जाराई विराहिला । गुब्विया निक्कादानार्थमुत्तिष्ठन्त्या भिकां दत्त्वा स्थाने उपवि शन्त्याश्च गर्ने तस्य संघट्टनं संचलनं भवति । तस्मान्न ततो ग्राह्यम् (त) रायसेन पयोजना (बासमिति) शिशुं भूमी मादी वा निशिष्य यदिदिदाति तर्हि तं बालं माजीरादयो विमालसारमेयादयो मांसण्डुकादिमांसमं शशशिर या कृत्या येत् । तथा आहारखरएटितौ शुष्कौ हस्तौ भवतस्ततो निक्षां दया नया हस्तायां समाचस्य वासस्य पीमा भवेत् निम् जानां मनन्तीं बाधिस्य दोषानाह । झुंजंती आयमणे, उदगं बोमी य लोगगरहा य । घुलती संसते, करम्म लिने भये रसगा । खानादात्री मिादायार्थगाचमनं करोति आमनेयमाणे उदकं विराध्यते । अथ न करात्याचमनं तर्हि लोके वोटिरिति कृत्वा गर्दा स्यात् तथा ( घुसुवंती ) दध्यादि मथ्नती यदि तदध्यादिसंसकं मति तेन सदस्यादिना जिसे करे तस्य भिकां ददत्यास्तेषां रसजीवानां वधो भवति ततस्तस्था अपि हस्तान्न कल्पते । संप्रति पेषणादिदोषानुपदर्शयति । दगीए संपणा, पीण कंडदलभजणे महणं । पिंनंतरंजलाई दिने लिये करे उदगं पेपणरूपमननानिग्रहणे उदकवीज संस्थात् तथादिपदानादानापोसिति तदा पिप्यमाणविद्यादायिन्याः सचित्ता अपि - स्तादौ लगिताः संवन्ति ततो निक्कादानाय हस्तादिप्रस्फोटने या महासंपर्कतस्तासां विना यति नि च दवा निकावयवखरष्टितौ हस्तौ जलेन प्रकाशयेत् । ततः पेषणे उदकषीजसंचना एवं करूननयोरपि यथायोगं नावनीयम् । तथा नर्जने निक्कां ददत्या वेलाल गनेन कमिलक्षिगोधूमादीनां दहनं स्यात् । तथा पिञ्जनं रुज्जनमादिशब्दात्क प्रमर्दने च कुर्वती भिक्कां दत्वा निकावयवखर पिटती हस्तौ अनात् ततस्तत्राप्युदकं विनश्यतीति न ततो भिक्षा कल्पते । संप्रति पट्कायव्यग्रहस्तादिपञ्चकस्वरूपं गाथाद्वयेनाह । लोग अवस्थी, फलाइ मच्चाइ सजीवहत्यम्मि । पाएगाहण्या, संघट्टणसे सकाएणं ॥ खमाणी आरभये, मज्जधयइ सिंचए किंचि । उक्कायविरणमा बिंद उडे फुरफुरंते ॥ इह सा षट्कायव्यग्रहस्ता उच्यते यस्या हस्ते सजीवं लवणमुदकमग्निर्वायुपूरितो वा वस्तिः फलादिकं बीजपूरादिकं मत्स्या दयो वा विद्यन्ते ततः सा यद्येतेषां सजीवलवणादीनामादानं एसणा तदपि भ्रमणभिक्षादानार्थ भूम्यादी निक्षितं तहिं न कल्पते । तथा अवगाहनानामादयस्तेषां पञ्जीवनिकायानां पादे संघट्टनं शेषफावेन हस्तादिना संमनं संघट्टनमारनमाणा कुश्यादिना भूम्यादि खनन्ती । अनेन पृथिवीकायारम्न उक्तः । यद्वा मज्जन्ती युद्धेन जलेन स्नान्ती अथवा धावन्ती शुकेनोदकेन वाणि प्रक्षालयन्ती यदि वा किञ्चित्यादिकं संवती ते नाकायारम्नो दर्शितः । उपलक्षणमेतत् ज्वलयन्ती वा फूत्कारेण वैश्वानरं वस्त्यादिकं वा सचित्तवातभृतमितस्ततः प्रक्षिप एतेनाद्विवास्तुसमारम्भ उक्ता तथा शोकादेदविशार कुर्वती । तत्र छेदः पुष्पफलादेः खण्डनं विशरणं तेषामेव एडनां शोषणायन्मोचनाम् । श्रादिशब्दात्तन्दुलमुदीनां शोधनादिपरिग्रहः । तथा बिन्दन्ती षष्ठान् त्रसफायान् | मत्स्यादीन् फुरफुरन्ते इति पोस्फूर्यमाणान् पीडयोद्वेल इत्यर्थः । अनेन सकायारम्न उक्तः । इत्थं पजीवनिकायमारजमाताया हस्तान कल्पते । संप्रति षट्कायव्यग्रहस्त इति पदस्य व्याख्याने मतान्तरमुपदर्शयति । कायगत्या केई कोलाइकन्नलहवाई । सिकत्वगगुफाणि य, सिरम्मि दिन्ना वज्जति । केचिदाचार्याः षट्कायव्यग्रहस्तेति वचनतः कोबादीनि वदरादीनि श्रादिशब्दात्करीरादिपरिग्रहः । (कन्नलयाइति ) कर्णे पिनानि तथा सार्थकपुष्पानि शिरसि दत्तानि वर्जयन्ति । हस्तग्रहणं हि तस्य पदस्य विशेषो पुरुपपादः । न्ने जति दस वि, एसणदासेसु नत्थि तग्गहणं । ते न वचं भन्ना, शुगणं दायग्रहणो व श्रन्ये त्वाचार्यदेशी प्रणन्ति । यथा दशस्वपि शङ्कितादिषु एपणदोषेषु मध्ये तडणं षट्कायव्यग्रहस्तेत्युपादानमस्ति तेन कारणेन लोकादियुक्तदर्श निकाग्रहणं न वर्ज्य तदेतत्पाणीयो यत आह नएयते श्रत्रोत्तरं दीयते । यत्तु दायकग्रहणादेषणादोपमध्ये पट्कायव्यवस्तेत्यस्य प्रयं विद्यते तत्प्रमुच्यते न तड्रहणमिति । संप्रति संसक्तिमद्दात्र्यादिदोषानाद । संसज्जिमंदि देने, संसमदन्यलिनकरमना । संचार बतान, खिप्ते व ते देव || संसक्किमति संसक्तिमद्रव्यवात देशे मएमले संतिमता इव्येण लिप्तः करो मात्रं वा यस्याः सा तथाविधा दात्री भिक्षां ददती करविग्नान् सत्वान् हन्ति । तम्मात्सा वर्ज्यते तथा मइतः पिठरादेरपवर्तनं संचारः । सुचनात्सूत्रमिति संचारिमत्कीटादिसत्वव्याघातः इदमुक्तं भवति महत्पिठरं यदा तदा वा नोत्पाटयते नापि यथा तथा वा संचार्यते महत्त्वादेव किंतु प्रयोजनविशेषोत्पत्ती सत्ता की टिकादयः सत्वाः संभवन्ति । ततो यदा तस्पिनरादिकमुर्त्य किंचिद्ददाति तदा तदाश्रितजन्तुव्यापादः । एते च दोषा उत्पाट्यमानेऽपि महति पिठरादौ । तत्रापि हि भूयो निक्षिप्यमाणे हस्तसंस्पर्शतो वा संचारिमत्की टिकादि सत्वव्याघातः । अपि च तथाभूतस्य महत उत्पाटने दातुः पीडाऽपि भवति । तस्मान्न तदुत्पाटनेऽपि भिक्षा कल्पते । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (12) अभिधानराजेन्द्रः | एसपा संप्रति साधारणं चोरितं वा ददत्या दोषानाह ॥ साधारणं तत्य दोसा जहेब सिहे । चोरिए गहणाई, भयए सुहाइ वा देंते ।। बहूनां साधारणं यदि ददाति तर्हि तत्र यथा प्राक् अनिसृष्टे दोषा उक्तास्तथैव षष्याः । तथा चीर्येण नृतक कर्मकरैः स्नुषादौ वा ददति ग्रहणादयो ग्रहणबन्धनतामनादयो दोषा प्रक्रयातस्मात्ततोऽपि कल्पते। संप्रति प्रानृतिकास्थापनादिद्वार यदोषाना || न पाहुम विष दोसा तिरिउरूमहे तिला अवाया । धमियमाई उचियं परप्परं संवि थे वापि ॥ प्रानृतिकाञ्चाञ्चल्यादिनिमित्तं संस्थाप्य या ददाति निक्कां तत्रदोषाः प्रवर्तनादयः। संप्रत्यपायेति द्वारम् । अपायास्त्रिविधा तद्यथामित सर्पककाच विविधानामप्यपायानामन्यतममपाय - का संज्ञावयन् ततो निकां गृह्णीयात् " परंचोद्देशेति" ॥ यदुकं तथा धार्मिका पर साधुकापेटिकप्रतिनिमित्तं यत्स्थापितं तत्परस्य परमार्थतः संबन्धीति न तद् गृह्णीयात् । तग्रहणे श्रदत्तादानदोषसंभवात् । यद्वा परसत्कं मुञ्चति परस्य ग्लानादेसर पदातित स्वयमादातुन कल्पते असादानदोषात् किन्तु यस्मैलानाय दापितं तस्मै नीत्वा दातव्यं स चेन्न यो दाप्याः समानीय समणीयम् । यदि पुन रेयं दात्रीत यदि खानादिको नाति तर्दि स्वयं प्राह्ममिति तर्हि ज्ञानाद्यग्रहणे तस्य कल्पत इति । संप्रत्यानो गानानोगदायकस्वरूपमाह । कंपापणीय, याचते कुएइ जाणमाणो वि । एस दोसे विक, कुरणइ उ प्रसढो अ यातो ॥ सदैवैते महानुभावा यतयोऽन्नप्रान्तमशनमश्नन्ति तस्मात्क तेषां शरीराभाय पुरादीनामित्येवमनुकम्पया यदि वा मयेतेषामनेपणीयाग्रहण नियमनङ्गो भक्तव्य इति प्रत्यनीका या जनानपि तान् यथाकर्मादिरूपानेपणादोषान् करोति द्वितीयः करोत्यजमानो ऽशवभावम् । तदेव व्याख्यानयति चस्वारिंशदपि बालादिद्वाराणि ॥ संप्रति यदुक्तं "परसि दायगाणं गहण केसि वि होइ भश्यव्वमित्यादि" तयाचिख्यासुः प्रथमतो बालमाश्रित्य भजनामाह ॥ भिक्याम अविस- वासेण दिजमाणम्मि । संदिट्ठे वा गहणं, अइबहुयवियाझणे पुन्ना । मातुः परोके निक्कामात्रे बालेन दीयमाने अविचारणा कल्पते इदं न वेति विचारणाया अपि नावः किंतु ग्रहणं भिक्काया भवति । तदुपले माने कि प्रभूतं ददाति विद्या रणे सति अनुपातमात्रादिकमुत्कलना प्रयति तदा प्राह्यं नान्यथा । संप्रति स्थविरमत्तविषयां जजनामाह । थेरप धरयरंते, परिए अत्रेण दटसरीरे था । व्यत्तमत्तस, अवि वा असागरिए । स्थविरो यदि धनुर्भवति परपति सि ) कम्पमानो यदि अन्येनवितो वर्तते स्वरूपेण वातरशरीरो भवति तईि ततः कल्पते । यथा अव्यक्तं मना यो मत्तः सोऽपि च यदि श्राकोऽ विश्वापरवशश्च भवति । तस्मादेवंविधान्मत्तात् तत्र सागरिको न विद्यते तर्हि कल्पते नान्यथा । उन्मत्तादिचतुष्कविषयां जजनामाह । भुजगदिनाई - ददाहो बेचिए जरम्मि सिवे । अपरियं तु दो देवं धमेण वा धरियं । उन्मतोमा महगृहीतादिः स चेत्र चिक प्रति तदा तद्धस्तात्कल्पते नान्यदा । वेपितोऽपि यदि दृढस्तो भवति न हस्तेन गृहीतं किमपि तस्य पतति तदा तस्मादपि कल्पते । ज्वरितादपि ग्राह्यम् । ज्वरे सिवे सति। अन्धोऽपि यदि देयं वस्तु अन्य पुत्रादिना ददाति स्वरूपेण था यदि वा सपाश्धोऽन्येन विधृतः सन् देयं ददाति तर्हि ततो ग्राह्यं नान्यथा पूर्वोदोषप्रसङ्गात् त्वम्योचादिपम्यविषय जनामाद मंझपमुत्तिकुडी, असागरिए पाउया गए अयले । कमट्ठेसवियारे, इयारविच्छे असागरिए । एसणा け समलानि वृत्ताकारहद विशेषरूपाणि प्रसृतिर्नादिविदारणेऽ पिचेतनाया असंभवासरूपो वः कुष्ट रोगविशेषः सोऽस्यास्तीति एमलप्रसूतिकुष्ठी स चेदसागारिके सागारिकानावे ददाति तर्हि ततः कल्पतेोषकृतिः सागारिके या पश्यति पाकादोऽपि यदि जवत्यचत्रस्थानस्थितस्तदा कारणे सति कल्पते । तथा कमयोः पादयोर्यो यदि विचार इतश्चेतश्च पीरामन्तरेण गन्तुं शक्तस्ततो बद्धादपि तस्मात्कल्पते । इतरस्तु य इतश्चेतश्च गन्तुमशक्तः स चेदुपविष्टः सन् ददाति न च कोऽपि च तत्र सागारिको विद्यते तर्हि ततोऽपि कल्पते हस्तबस्तु निक्कां दातुमपि न शक्नोति तत्र प्रतिषेध एव न भजना उपलकणमेतत्। तेन निरोपे यदि सागारिकाभावे दान कल्पतेपादप सागरिकासंपाते प्रयच्छति ततस्ततोऽचिपते । नपुंसकादिक विषय भजनामाह । पिंग अप्परसंवी, बेलायजी विपरिषरमवं । उक्तिमावाए, अकिंचिलग्गे ठवंतीए || नपुंसको यदि प्रतिसेवी लिङ्गायना सेवकस्तहिं ततः क ल्पते तथा श्रपन्नसत्वाऽपि यदि (वेलन्ति ) सूचनात्सूत्रमिति न्यायात् वेला मासप्राप्ता न भवति । नवममासगर्भी यदि भवसत्यर्थः स्थविकल्पिकः परिहायां । द्विपाया दस्तात्स्थविरकल्पिकानामुपकल्पते इति द्रष्टव्यम्। तथा वापि वालवत्सा स्तन्यमात्रोपजीविशिशुका सा स्थविरकल्पिकानां परिहार्या न ततः स्थावरकल्पिकानामपि कल्पते किमपीति भावः । यस्यास्तु बाल श्राहारेऽपि लगति तस्या हस्तात्कल्पते । स हि प्रायः शरीरेण महान् भवति ततो न माजीरादिविराधनादोषप्रसङ्गः । ये तु भगवन्तो जिनकल्पिकास्ते मूलतपवनसत्वां बालवत्सां च सर्वथा परिहरन्ति । एवं भुजानाभर्जमानादलन्तीष्वपि भजना भावनीया । सा चैवं भुञ्जाना अनुसती याद्यापि न कवलं मुख प्रतिपति ताव दस्तात्करपते । भर्जमानाऽपि वत्सचितं गोधूमादिकलिके क्षिर्मचारितमन्यच नोऽद्यापि हस्तेन गृह्णाति अ न्तरे यदि साघुरायातो भवति सा ददाति तर्हि कल्पते । तथा दलयन्ती सचित्तमुद्रादिना दल्यमानेन सह घर मुच्यती अत्रान्तरे व साधुरायातस्ततो यद्युतिष्ठति अचेतन मुद्रादिकं दलयति तर्हि तद्धस्तात्कल्पते । कएमयन्त्याः कएकनायोत्पाटितं मुशलं न च तस्मिन् मुशले किमपि काञ्ज्या बीजं लग्नमस्ति अत्रान्तरे च समायातः साधुस्ततो यदि सानपाये प्रदेशे मुशले स्थापयित्वा भिकां ददाति तर्हि कल्पते पिषम्यादिविषयां भजनामाह ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) अभिधानराजेन्द्रः । एसपा पीसंती निष्पिट्टे, फासं वा फुरणे असंसत्तं । करण असंखचनी, तिथे वा जा अयोवखलि ॥ उब्वट्टे प्रसंस- तेण वि लिए न घट्टे । पिंजणपणे व पच्छाकम्मं जहा नत्थि ॥ तीनपरिसमाप्ती प्रासुकं वापि यदि ददाति तर्हि तस्या हस्तात्कल्पते । तथा फुसुकरणे असंसक्तं दध्यादि मन्यस्याः कल्पते। तथा कर्तने या अ खरस्तिहस्तं कृन्तति । इह काचित् स्वस्यातिशयस्वेदत्ता पनोदाय शंखचूर्णन हस्ती जहां खरटयित्वा कृन्तति तत उच्यते शंखचूर्णमिति अथवा चूर्णमपि शंखचूर्णमपि अग्रहस्तात्कृन्तन्ती या ( श्रवोक्स्खलिणी) श्रभुक्षाशी लानां जलेन हस्तौ प्रक्षालयतीति भावः । तस्या हस्तात्कल्प्यते । तथा उद्वर्त्तनेन कापतोले (असंसण या विधि) असंसनागृहीतकापसेन हस्तेनोपलहिता सती यदि तिष्ठति ल्लियत्ति ) श्रधिकान् कार्पासिकानित्यर्थः । न घट्टयति तदा तद्धस्तात्कल्पते । पिञ्जनप्रमर्द्दनयोरपि पश्चात्कर्म न भवति । तथा प्राह्यमिति । सेसेसु य परिवचरखे, न संजय कायमहामाई । परिवक्वस्स अभावे, नियमाउ घ्जवे तदग्गहणं ॥ शेषेषु कायेषु ( काय गहणमाईसु ) षङ्कायव्यग्रहस्तादिषु प्रतिपक्ष उत्सर्गापेक्षयाऽपवादरूपो न विद्यते न संभवति ततः प्रतिपक्षस्याभावो नियमात् नवति । तथा ग्रहणमिति । उक्तं दायकद्वारम् । अथोन्मिश्रद्वारमाह । सचिचे अधिचे, मीसगउम्मीसम्म चहगो । इतिए पटिसेटो, परमे गम्भिथान || इह यत्रोन्मिश्यते ते द्वे अपि वस्तुनी त्रिधा । तद्यथा सचिसे अचित्ते मिश्रे च । तत उन्मिश्र के मिश्रकतश्चतुर्भङ्गी अत्र जातावेकवचनं ततस्तिस्रवन्तीतिवेदित प्रथ मा सचितमिदायां द्वितीया सवितापिय तृतीया मिश्राचित्त पदाभ्यामिति । तत्र सचित्तमिश्रपदाभ्यामियं सचित्ते सचितम्। मधेसभितम् । सविते मिश्रम् । मिषे मिश्रमिति । द्वितीया त्वियं । सचित्ते सचित्तम । अचिते सचित्तम्। सचित्ते प्रतिम अवि अवितमिति तृतीया मधे मिश्रम, अ अचित्ते मिश्र, मिथे अचित्तम, अचित्ते अचित्तमिति । तत्र गाथापर्यन्ते तुशब्दस्यानुतसमुच्चयार्थत्वादायायां चतुङ्गकार्या सकलायामपि प्रतिषेधः विशेषतुर्तङ्गीध्ये प्रत्येकमादित्रिके श्रादिमेषु त्रिषु भङ्गेषु प्रतिषेधश्वरमे तु भङ्गे नजना वक्ष्यमाणा । अत्रैवातिदेशं कुर्वन्नाह । जद चैव य संजोगा, कायाणां हओ य साहरणे | तह चैव य उम्मीसे, होइ विसेइमो तत्थ ।। यथा देवाः प्रारद्वारे कायानां पृथिवकास चिता चित्त मिश्रनेदनिनानां स्वस्थानपरस्थानायां संयोगप्रङ्गाः प्रदर्शिता द्वात्रिंशदधिकचतुःशत संख्याप्रमाणास्तथैवोन्मिश्रेsपि उन्मिश्रद्वारेऽपि दर्शनीयास्तद्यथा । सचित्तः पृथिवीकाया सचित्तपृथिवीकार्य ममद्वारेऽपि दर्शनीयास्त द्यथा सचित्तः पृथिवीकाय: सचित्ता काय उन्मिश्रे इत्येवं स्वस्थानपरस्थानापेक्षया शित्संयोगासं योगाः सचित्तमिश्रपदाच्यां संवित्ताचित्तपदाच्यां मिश्राचित्त एसा पदायां च प्रत्येकं चतुर्भङ्गीति द्वादशनिर्गुणिता जातानि चत्वारि शतानि द्वात्रिंशदधिकानि न तु संहिते सम्मिश्रे । सविश्वादियस्तुनः सविना दिवस्तुनिपान्नास्ति परस्परं पिसे पः । अत आइ तत्र तयोः संहृतोन्मित्रयोर्भवति परस्परमर्थविशेषे वक्ष्यमाणः । तमेवाह । दायव्वमदायव्वं च, दोइ दव्वाइ देइ मीसाई । श्रवणकुबाई, साहरणतया गेहूं ॥ दातव्ये साधुदानयोग्यमितरददातव्यं राज्य समि बादिवी ते द्वे अपि द्रव्ये मिश्रयित्वा यद्ददाति यथोदनं कुषितेन दध्यादिना मिश्रयित्वा तत उन्मिश्रे एवंविधमुन्मिश्रवकणमित्यर्थः । संहरणं तु यद्भाजनस्थमदेयं वस्तु तदन्यत्र वाणि स्थगनिकादौ संहृत्य ददाति । ततोऽयमनयोः परस्परं विशेषः द्वितीयतृतीयचतुर्भङ्गी सत्कचतुर्भङ्गीभजनामाह । तं पिय सुक्खे सुक्खं, भंगा चत्वारि जहे व साहरणे । अप्पबहुए वि चहरो, तब आइमाइन्ने || यदि च तदचित्तं मिश्रयति तदपि तत्रापि शुष्के शुष्कं मिश्रितमित्येवं भङ्गाश्चत्वारो यथा संहरणे । तद्यथा शुष्कमुन्मिश्रं शुष्के शुभाईमा शुष्कमा आईमिति । तत पकैकस्मिन् न संहरणे व अल्पबहुत्वे अधिकृत्य चत्वारश्वत्वारो भङ्गाः । तद्यथा स्तोके के स्लोकं युकं तोकेके हुकम ति । एवं शुष्के मियादा के प्रत्येक चतुर्भी भावनीया सर्व संख्यया भङ्गाः षोमश । तथा तथैव संहरणे इष आचीसनाची कल्प्या कल्प्यमुन्मिश्रे ज्ञातव्याः । तद्यथा शुष्के शुष्कमित्यादीनां चतुङ्गानां प्रत्येक पो हो भने स्वोके स्तोकमुनि बटुल् मादिदोषाचा स्तोके बहु बहु के बहुरूपी वी भट्टी ताकी तमादिदोषसंवाद शेषानुभाषा यथासंभवं संहरण श्व स्रष्टव्याः । उक्तमुन्मिश्रद्वारम् । इदानीमपरिणतद्वारमा || अपरिणयं पिय दुविहं, दव्बे जावे य विहमिकेकं । दव्यमि होई व नायम्मि य होइ सजिलगा || अपरिणतमपि द्विविधं तद्यथा सव्ये द्रव्यत्वविषयं जाये नावत्वविषयं व्यरूपमपरिणतं भावत्वमपरिणतं चेत्यर्थः । पुनरप्येकैकं दानुगृहीतुसंबन्धान] द्विधा तथा इन्यापरिणतं दातु सत्कंच एवं भावापरिणतमपि । तत्र व्यापरिणतस्वरूपमाह । जीवन अगिए, अपरिहार्य परिणयं गए जीवे । दितो दद्दी इस अपरा परिणयं सेव ॥ जीवत्वे सचेतनत्वे विगते अष्टे पृथिवीकायादिकं अव्यमपरितमुच्यते गते तु जीवे परिणाम हान्यो पदधिनी । यथाहि परिएं दधिज्ञायमा परिणतमुच्यते दुग्धभावे वायथिते अपरिचतमेवं पृथिवीकायादिकमपि स्वरूपेण सजीवं सजीवत्वात्परिष्टमपरिणतमुच्यते जीवन च विप्रमुक्तं परिणतमिति । ते च यदा दातुः सत्तायां वर्तन्ते तदा दातृसत्कं यदा तु ग्रहीतुः सत्तायां तदा ग्रहीतृसत्कमिति । संप्रति दातृविषयं जात्रापरिणतमाह । दुग्गमाइ सामनं, जइ परिणम तत्य एगस्स । देमित्ति न सेसा, इय परिणयं भावओो एयं ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसणा अभिधानराजेन्यः । एसणा एवं द्विकादिसामान्ये भ्रात्रादिद्विकादिसाधारणे देयवस्तुनि संस्तरेण अशक्तौ अल्पलेपं गृहन् पानमेव गाथाद्वयेन विवृणोति यद्यकस्य कस्यचिद्ददामीत्येवं भावः परिणमति शेषाणान्नैतत् आयंवित पारणए, उम्मासनिरंतरं तु खविजणं । तद्भावतोऽपरिणमतां तद्भावापेक्षया देयतयाऽपरिणतमित्यर्थः । जइ न तर छम्मासे, एगदिणुस्मं तो कुण । अथ साधरणानिसृष्टस्य दातृनावपरिणतस्य च कः परस्परंप्रतिविशेषः उच्यते साधारणानिसृष्टं दायकपरोकत्वे दातृभावापरि एवं एकेक्कदिणं, आयंबिलपारणं वेऊण । णतं तु दायकसमकत्वे इति । संप्रति गृहीतविषयं नावापरि- दिवसे दिवसे गिएहउ, आयविझमेव निह्येवं । णतमाह। यदि सर्वकाले कृपणं कर्तुमशक्तस्तहि षण्मासान्निरन्तरं क्षएगेण वा वि तेसिं, मणम्मि परिणामियं न इयरणं ।। पयित्वा पारण के आचाम्नं करोतु । यदि पएमासानुपवस्तुं न तं पि हु होइ अगेज,सब्जिनगा सामिसाढू य॥ शक्नोति तत एकदिनानं तु करोतु । एवं षण्मासावधिरेकैकएकेनापि केनचित् अग्रेतनेन पाश्चात्येन वा एषणीयमिति मन दिनं परित्यज्याचाम्लेन पारणकं तावत्करातु यावच्चतुर्थमेवमप्यसि परिणमितं न श्तरेण द्वितीयेन तदपि भावतोऽपरिणतमपि शक्ती प्रतिदिन निर्लेपमाचाम्नमेव गृह्णातु । कृत्वा साधूनामग्राह्य शङ्कितत्वात्कबहादिदोषसंनवाच्च । संप्र जइ से न जोगहाणी, संपए से व हो तो खमओ। ति द्विविधस्यापि नाचापरिणतस्य विषयमाह(सभिलंगेत्यादि) खमणतरण आयं-विलं तु निययं तवं कुणा । तत्र दातृविषयं नावापरिणतं जातृविषयं स्वामिविषयं च प्र- यदि (से) तस्य साधोः संप्रति दात्री एप्यति वा कालेन होतृविषयं जावापरिणतं साधुविषयम् । उक्तमपरिणतद्वारम् । योगहानिः संप्रत्युपेकणादिरूपसंयमयोगभ्रंशो न भवति तर्हि संप्रति सिप्तद्वारं वक्तव्यं तत्र विप्तं यत्र दध्यादिद्रव्यलपो गति भवानुकपकः परमासाद्युपकर्ता तत्र च कपकमानानामे कैकदितच्च न ग्राह्यम्। नहान्या पूर्वोक्तस्वरूपाणामनन्तरं यावत्परमासावधिरुपोऽयं कघेत्तव्बमलेवकम, सेवकडे माई पच्चकम्माई । रोतु पवमप्यशक्ता नियतं सदैव प्राचाररूपं तपः करोतु केवसं न य रसगेहि पसंगो, श वुत्ते चोयगो भणइ ।। संप्रति सेवार्तसंहननानां नास्ति तादृशी शक्तिरिति न तथोपदेइह साधुना सदैव ग्रहीतव्यमझेपकृत् बचनकादि मा नूवन् शो विधीयते । पुनरपि पर आह॥ लेपकृति गृह्यमाणे पश्चात्कर्मादयो दध्यादिलिप्तहस्तादिप्रकाल हिट्ठावणिकोसलगा, सोवीरगत्तरभोयणो माया । नादिरूपा दोषाः आदिशब्दात्कीटिकादिसंसक्तवस्त्रादिप्राञ्छना- जति विजयंति तहा, किं नाम जईन जाति ।। दिपरिग्रहः । अतो लेपन्न ग्रहीतव्यम् । अलेपग्रहणे गुणमाह । अधोवा मम ये महाराष्ट्राः कोशलकाकोशलदेशोद्भवाः सदैन च सदैवालेपकृतो ग्रहणे रसगृहिप्रसङ्गो रसात्यवहारबाम्प- व सौवीरकक्तरमात्रनोजिनस्तेऽपिच सेवार्तसंहननास्ततोयदि ट्यवृद्धिस्तस्मात्तदेव साधुभिःसदैवान्यवहार्यम्। एवमुक्ते सति तेऽपीत्थं यापयन्ति यावज्जीवं तर्हि तथा सौवीरकमात्रभोजचोदको नणति । नेन किन्न यतयो मोक्तगमनकटिबहकका यापयन्ति तैः सुतराजइ पच्च कम्मदोसा, हवंति मा चेव भुंजन सययं । । मेव यापनीय प्रभूतगुणसंन्नवात् । अत्र सूरिराह॥ तवनियमसंजमाएं, चोयगहाणी खमंतस्स ।। तिय सीयं समणेणं, तिय उएहं गिहीम तेणणुनायं । यदि लेपकृद्हणे पश्चात्कर्मदोषाः पश्चात्कर्मप्रभृतयो दोषा भव- तकाईणं गहणं, कठरमाईसु नझ्यव्वं ॥ न्ति ततस्तन्न गृह्यते तर्हि मा कदाचनापि साधुर्मुताम् । एवं हि त्रिकं वदयमाणं शीतं श्रमणानां तेन प्रतिदिवसमाचारकरणे दोषाणां सर्वेषां मूलत एवोत्थानं निषिकं भवति । सूरिराह हे तक्राद्यजावत श्राहारपाकासंभवनाजीर्णादयो दोषाः प्रापुष्यन्ति चोदक! सर्वकालं कमापयतोऽनशनतपोरूपं कपणं कुर्वतः सा- तदेवं त्रिकमुक्तं गृहिणां तेन सौवीरकमात्रनोजनेऽपि तेषामाहाधोश्चरमकानवे तपोनियमसंयमानां हानिर्भवति तस्मान याव- रपाकमावतो नाजीर्णादिदोषाजायन्ते ततस्तेषांतथा प्रयततामपि जीवं कपणं कार्यम्।पुनरपि परःप्राह यदि सर्वकालं कपणं कर्तु- न कश्चिद्दोषः साधूनांतूक्तनीत्या दोषास्तेन कारणेन तक्रदिग्रहणं मशक्तस्तर्हि षण्मासकपणं कृत्वा पारणकमलेपकृता विझुप्तम् । साधूनामनुज्ञातम् । इह प्रायो यतिना विकृतिपरिभोगपरित्यागेगुरुराह यद्येवं कुर्वन् तपःसंयमयोगान् कर्तुं शक्नोति तर्हि करोतु न सदैवात्मशरीरंयापनीयं कदाचिदेव च शरीरस्यापाटबे संयन कोऽपि तस्य निषेधः। ततो न्योऽपि चोदको छूते । यद्येवं तर्हि मयोगवृकिनिमित्तं वझायोमायचिकृतिपरिभोगः। तथा चोक्तं सूत्रे पएमासान् उपोष्याचाम्लेन जुङ्को न तेन तच्छनोति तत एकदिन- "अजिक्खणं निम्विगई गया य इत्ति" निर्विकृतिपरिजोगे च हान्या तावत्परिभावयेत् यावश्चतुर्थमुपेक्ष्याचाम्लेन पारणकं तकायेवोपयोगीति तक्रादिग्रहणं करादिषु घृतवटिकोन्मिश्रती करोति एव"मप्यसंस्तरेणत्ति" सदैवालेपकृतं गृहीयात्। अमुमेव मनादिषु ग्रहणं भाज्यं विकल्पनीयम् । वानस्वादिप्रयोजनोत्पत्ती गाथया निर्दिशति । कार्य म शेषकानमिति तेषां बहुलेपत्वात् गृद्धयादिजनकत्वाश्च । सितंति भाणिकणं, छम्मासा हायए चनत्थं तु। अथ किं तत्रिकमित्यत आह ॥ आयंबिलस्स गहणं, असंथरे अप्पझेवं तु । आहार उवहि सेज्जा,तिनि वि उपहा गिहीण सीए वि। लिप्तं सदोषमिति नणित्वा असेपकृतनोक्तव्यं तीर्थकरगणधरैर- तिन्नि न जीरइ तेसि, नहउ जसिणेण आहारो॥ नुज्ञातमिति गुरुवचनम् अत्र चादक आह। यावजीवमेवननुलांन आहार उपधिः शय्या त्रीण्यपि गृहिणां शीतेऽपि शीतोऽपि उ चेतू यावज्जीवमनोजने न शक्नोति तर्हि परमासानुपोष्य आचाम्ले- ष्णानि भवन्ति ततो जीर्यते विग्रहमन्तरेणापि (सहमत्ति) अजयम तुङ्गा न चेदेवमपि शक्नोति ततएकादिनाऽपि हान्या तावदात्मा- तो बाह्यतोऽज्यन्तरतश्चोणेन तापेनाहारो जीर्यते । तत्रात्यन्तरो नं तोसयेत् यावचतुर्थमुपोष्याचाम्सस्य ग्रहणं करोतु एवमध्य-| नोजनवशात् बाह्यः शय्योपधिवशात् ॥ . Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसणा अनिधानराजेन्द्रः। एसणा एयाई वि य तिन्नि वि, जईण सीयाई होति गिण्हे वि ।। मात्रं सावशेषं द्रव्यम् ।। ७॥असंसृष्टो हस्तोऽसंस्ष्टं मात्र निरतेणुवहम्मइ अग्गी, तो य दोसो अजीप्पा ॥ पशेष द्रव्यम् ।। ८ ।। एतेषु चाटसु भङ्गेषु मध्ये नियमाधिश्व येन ओजस्सु विषमेषु भङ्गेषु प्रथमतृतीयपश्चमसप्तमेषु पहपतान्येव आहारोपधिशय्यारूपाणि श्रीणि यतीनां प्रीष्मेऽपि णमादानं कर्तव्यम् न समेषु द्वितीयचतुर्थषष्ठाएमरूपेषु । प्रीष्मकालेऽपि शीतानि नवन्ति तत्राहारस्य शीतता भिकाच इयं चात्र नावना । इह हस्तो मात्रं वा द्वेषा स्वयोगेन र्यायां प्रविष्टस्य बहुकगृहेषु स्तोकास्तोकसन यूहडेलालावात संसृष्टे भवतोऽसंसृष्टे वा न तवशेन पश्चात्कर्म संभवति किं उपधेरेकमेकवारं वर्षमध्ये वर्षाकालादर्वाक प्रवासनेन मलिनत्या तर्हि व्यवशेन तथा हि यत्र व्यं सावशेषं तंत्रते साध्वर्थ त् । शय्यायास्तु प्रत्यासन्नाग्निकरणाजावेन तेन कारणेन ग्रीष्म स्वरपिटते अपि न दात्री प्रहालयति नूयोऽपि परिवेषकालेऽप्याहारादीनां शीतत्वसंजयरूपेणोपहन्यते । अग्निर्जाग्रो णसंभवात् । यत्र तु निरवशेष व्यं तत्र साधुदानानन्तरं निवह्निः। तस्माश्चान्युपघातौ दोषाः (अजीमाइत्ति) अजीर्मवु यमतस्तव्याधारस्थाली हस्तं मात्र या प्रक्षालयति । ततो द्विनुत्तामान्द्यादयो जायन्ते । ततस्तकादिग्रहणं साधूनामनुज्ञातं तीयादिषु जङ्गेषु ब्ये निरवशेषे पश्चात्कर्मसंनयान्न कल्पते तकादिनापि हि जाठरोग्निरुद्दीप्यते तेषामपि तथा स्वभाव प्रथमादिषु न पश्चात्कर्मसंनवस्ततः कल्पते इति । उक्तं क्षिप्तत्वात् । संप्रत्यलेपानि द्रव्याणि प्रदर्शयति । द्वारम् । अथ गर्दितद्वारमाह। ओयणमंडगसत्तुय-कुम्मासरायमासकलवदा । सञ्चित्ते अञ्चित्ते-मीसग तह उडणे य चनभंगे । तुयरि मसूरि मुग्गा-मासा य अक्षेवकडा सुक्खा ॥ चउभंगे पडिसेहो, गहणे आणाइणो दोसा॥ श्रोदनस्तन्दुलादिभक्तं मण्डका कणिकमयाःप्रतीता एव ।श रहितमुज्झितं स्यक्तमिति पर्यायाः तच्च त्रिधा तयथा सचितषो यवाकोदरूपाः। कुल्माषा उडदा राजमाषाःसामान्यत- त्तमचित्तं मिश्रं च तदपि च । कदाचिच्चर्यते सचित्ते सचित्तमधवलाः श्वेतचवलिका वा । कला वृत्तचनकाः सामान्येन वा ध्ये कदाचिदचित्ते कदाचिन्मिश्रे तत एवं गर्दिते सचित्ताचित्तचनकाः। तुवरा बाढकी । मसूरा द्विदलविशेषाः । मुभा माषा- मिश्राव्यणामाधारभूतानाधयनूतानां च संयोगतश्चतुर्जशीभश्व प्रतीताः । चकारादन्येऽप्येवंविधधान्यविशेषाः शुष्का अ- वति । अत्र जातावेकवचनं ततोऽयमर्थस्तिनश्चतुर्भयो नवनार्ज अलेपकृताः। संप्रत्यल्पलेपानि द्रव्याणि प्रदर्शयति ॥ न्ति । तद्यथा सचित्तमिश्रपदान्यामेका सचित्ताचित्तपदाभ्यां नभिजपेज्जकंग, तकोल्खुणसूवकजिकढियाई । द्वितीया मिश्राचित्तपदाभ्यां तृतीया । तत्र सचित्ते सचित्त एए न अप्पलेवा, पच्छा कम्मं तहा जइयं ॥ गर्दितं, मिश्रे सचित्तं, सचित्ते मिश्र, मिश्रे मिश्रमिति। प्रथमा। सचित्त सचित्तम, अचित्ते सचित्तं, सचित्ते अचित्तम, अचिउञ्जेचा वस्तुलप्रभृतिशाकभर्जिका पेया यवागूः कण्डः कोद्र से अचित्तमिति हितीया । मिश्रे मिश्रम अचित्ते मिश्र, मिश्रे बौदनः । तत्रं तक्राण्यम उल्लणं येनादनमना/कृत्योपयुज्यते ।। अचित्तम, अचित्ते अचित्तमिति तृतीया । सर्व संख्यया हादसूपो राजमुद्दाल्यादिः काजिकं सौवीरं क्वथितं तीमनादि । शनाः आदिशब्दादन्यस्यैवंविधस्य परिग्रहः। एतानि द्रव्याण्यल्पले । सर्वषु च मङ्गेषु सचित्तपृथिवीकायमभ्ये गर्दित इपानि । एतेषु पश्चात्कर्म भाज्यं कदाचिद्भवति । कदाचिन्नेति त्यादिरूपतया स्वस्थानपरस्थानाच्या पत्रिंशत् पत्रिंशद् घिभावः । संप्रति बहुलेपानि द्रव्याणि दर्शयति ॥ कल्पास्ततः षट्त्रिंशत् द्वादशभिर्गुणितानि जातानि चत्वारि शतानि द्वात्रिंशदधिकानि । एतेषु च सर्वेषु जनेषु प्रतिषेधोनखीरदहिजादिकहर, तेसघयं फाणियं सपिमरसं । तादिग्रहणे निवारणम् । यदि पुनर्ग्रहणं कुर्यात्तत आकादय पा. इच्चाई बहुलेवं-पच्छा कम्मं तहिं नियमा । कानवस्थामिथ्यात्वविराधनारूपदोषाः। इहाद्यन्तग्रहणेमध्यस्याक्षीरं दुग्धं दधि प्रतीतं क्षीरपेया करं प्रागुक्तस्वरूपं तैलं पि प्रहणमिति न्यायादोदेशिकादिदोषदुष्टानामपि भक्तादीनां घृतं च प्रतीतं फाणितं गुडपानकं सपिण्डरसम् अाचारसा- ग्रहणे आझादयो दोषा द्रष्टव्याः। संप्रति गर्दतग्रहणे दोषानाह । धिकं खजूरादि इत्यादि द्रव्यजातं बहुलेपं अष्टव्यम् । तत्रच उसिणस्स बडणे दें-ते उवडज्झेज्ज कायदाहो वा। पश्चात्कर्म नियमतः। अत एव यतयो दोषभीरवस्तानि न गृह सीयपमणम्मि काया, पमिए महु विंदुआहरणं ॥ न्ति। यदुक्तं "पच्छाकम्मं तहिं भइयंति"। संप्रति तामेव भजनामष्टभकिया दर्शयति ।। उष्णस्य व्यस्य ग्इने समुज्झने ददमानो वा भिकां दह्येत नूम्याश्रितानां वा कायानां पृथिव्यादीनां दाहः स्यात् । शीतक. संसध्यरहत्थो, मत्तो वि य दब्बसावसेसियरं । व्यस्य नूमी पतने भूम्याश्रिताः कायाः पृथिव्यादयो विराध्यन्तेऽएएमु अट्ठभंगा, नियमा गहणं तु एएसु ॥ त्र पतिते मधुविन्दूदाहरणम् । वारवतपुरं नाम नगरं तत्राभयदातुः संबन्धी हस्तः संसृष्टोऽसंसृष्टो बा भवति। येन च कृत्वा सेनो नाम राजा तस्यामात्यो वारत्तकोऽन्यदा चात्वरितमचपत्र भिक्षां ददाति तदपि मात्रसंसृष्टमसंसृष्टं वा द्रव्यमपि सावशेष- मसंन्चान्तमेषणासमितिसमितो धर्मघोषनामा संयतो निकाममितरद्वा असावशेषम् । एतेषां च त्रयाणां पदानां संसष्टहस्ता- टन् तस्य गृहं प्राविशत् । तार्या च तस्मै भिक्कादानाय प्रजूतघृ. मंसूधमात्रसावशेषजव्यरूपाणांसप्रतिपक्षाणां परस्परंसंयोग- तखएमसन्मिश्रपायसभृतस्थासीमुत्पाटितवती । अत्रान्तरे चकतोऽष्टी भा भवन्ति ते चामी। संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्रं सा- थमपि ततः खएममिश्रो घृतविन्दुजूमौ निपतितः ततो नगवान् घशेषं द्रव्यम् । १ । संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्रं निरवशेषं व्य- धर्मघोषो मुक्तिपदैकनिहितमानसोजलधिरिवगम्नीरो मेरुविरम् ॥२॥ संसष्टो हस्तोऽसंसृष्टं मात्र सावशेष द्रव्यम् ॥३॥ निष्पकम्पो वसुधेव सर्वसहःशजश्व रागादिमिररजनोमहासुन्जट संसृष्टो हस्तोऽसंस्ष्टं मात्रं निरवशेषं द्रव्यम् ॥ ४॥ असंसृष्टो श्व कर्मरिपुविदारणनियमकको भगवदुपदिष्टभिवाग्रहणविधिहस्तः संस्ष्ट मात्र सावशेषं द्रव्यम् ॥ ५॥ असंसृष्टो हस्तः | विधानकृतोद्यमो निकेयं गर्दितदोषपुष्टा तस्मान मे कल्पते इति संसृष्टं मात्र निरवशेषं द्रव्यम् ॥६॥ असंसृष्टो हस्तः प्रसंसृष्टं परिभाव्य ततो निर्जगाम । वारत्तकेन चामात्येन मत्तवारणस्थि Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) एसणा अभिधानराजेन्डः। एसणा तेन दृष्टो भगवान् निर्गच्छन् चिन्तयति च स्वचेतसि किमनेन | मक्किकादयो येषु दध्यादिषु तानि संसक्तानि तैः १ अगजगवता न गृह्यतेऽस्महे निकेति । एवं च यावश्चिन्तयति | हितैरचित्तम॑क्तितमगर्हितसंसक्ताचित्तमूक्तितं निक्तिप्तं सतावत्तुभूमौ निपतितं स्त्रएमयुक्तं घूतविन्दं मविकाः समागत्या चिसादौ न्यस्त ३ पिहितं सचित्तादिनिः स्थगित ४ अयन् तासां चलवणाय प्रधाबिता गृहगोधिका गृहगोधिकाया सहतं येन हस्तमात्रा कणदात्री साधोरशनादिकं दास्यति अपि विधाताय चलितःसरटः तस्यापि च ननणाय प्रधावतिस्म तत्र शिष्यादकं वा यदि स्यात्तदन्यत्र सचित्तेऽचित्ते वाक्तिवा मार्जारी तस्या अपि च वधाय प्रधावितः प्राघूर्णकःश्वा तस्या- तेन यद्ददाति तत्संहृतं यदायकदोषा बालादिनिर्दीयमाने ६ - पिच प्रतिद्वन्द्वी प्रधावितोऽन्यो वास्तव्यश्या ततो द्वयोरपितयोः | मिश्रं सचित्तादिनिर्मिश्रितम् | अपरिणतं ध्धा व्यभावशुनोरतूत्परस्परं कब्रहस्ततः स्वस्वसारमेयपरान्नवदूरनमस्कः। नेदात् तत्र सञ्चितं वस्तु दीयमानं व्यापरिणतं नावापरिणत तयोः प्रधावितयो-योरपि तत्स्वामिनोरनुत्परस्परं महाकम् । विधा दातृग्रहीतृभेदात् द्वयोः साधारणेऽन्नादावेकेन दीयमाने पतच सर्व वारत्तकामात्येन परिनावितं ततश्चिन्तयति स्वचेतसि द्वितीयस्य नावोऽपरिणतो न दानपरिणामवान् तहातृजावाघृतादेर्विन्तुमात्रेऽपि नूमौ निपतिते यतः एवमधिकरणप्रवृत्ति- परिणतम् । अत्राह अनिसृष्टस्य नावापरिणतस्य च को विशेषः। रत एवाधिकरणनीरुनगवान् घृतविन्दुं तूमौ निपतितमवलोक्य उच्यते द्वितीयादीनां परोक्कमेकस्याददतो निसृष्टं भवति भाषानिक्कां न गृहीतवान् । अहो सुदृशे भवति प्राप्तधर्मा को हि नाम परिणतं तु यत्र द्वयोः साध्वोमिकाथै गतयोरेकस्य मनसि तदजगवन्तं सर्वकमन्तरेणेत्थमनपायिनं धर्ममुपदेष्टुमीशो न खल्ब. नादिकमा परिणतम् अन्यस्य च तदेव शुकमिति लिप्त. न्धो रूपविशेषं जानाति । एवमसर्वज्ञोऽपि नेत्यं सकल कासमनपा- दोषः दध्याद्युपलिप्तेन हस्तन मात्रकेण चानादिषु महणे पश्चात् यं धर्ममुपदेष्टुमन्नम् । तस्माद्भगवानेव सर्वकः । एवं च मे जिनो कर्मादिसनवात् तथाचोकम् "घित्तव्यमिक्षेवकम-माहु पुरकम्म देवता तक्तमेव वाऽनुष्ठानं मयाऽनुष्ठातव्यमित्यादि विचिन्त्य सं- पच्छकम्मा । न य रसगेहि पय, सामुत्ते वत्सपीमा य"९ सर्दिसारविमुखको मुक्तिबनिताश्लेषसुखलम्पटसिंह श्व गिरिकन्दर- तम् दीयमानस्यामादेः पृथ्वीकायादिसंसकादिनर्दितम् १०॥ या निजप्रसादाद्विनिर्गत्य धर्मघोषस्य साधोरुपकप प्रजज्यामग्र जीता प्रासैषणानिकेपे ग्रहणैषणां प्रतिपाद्योक्तम् । साप्रतं हीत । स च महात्मा शरीरेऽपि निःस्पृहो यथोक्तनिवाग्रहणा-1 प्रासैषणा उच्यते तथाचाह। दिविधिसेवी संयमानुष्ठानपरायणः स्वाध्याये जाविताम्तःकरणो दवे भावे घासे-सणा न दव्चम्मि मच्छाहरणं । दीर्घकालं संयममनुपाल्य जातप्रततकर्मा समुच्चसितदुर्निवा- गलमसुंडगनक्खण,गलस्स पुच्छेण घट्टण्या८१५ । र्यप्रसरः कपकश्रेणिमारुह्य घातितकर्मचतुष्टयं समूसघातं हत्वा के साच प्रासैषणा विविधा द्रव्यतो भाक्तश्च तत्र व्यतो मबन्नकानावीमासादितवान्, ततः कालक्रमेण सिद्ध इति । उक्त- त्स्योदाहरणम् “एगो कि मच्छबन्धो गुले मंसाप दाऊण दहे मेषणाघारम् । पि० । ध० । दर्श० । ग०। पं०व० । पंचा। ग्डात तंच एगो मच्छो जाण जहा एस गलो त्ति सो परिसर महा। स्था। आचा। प्रव०। (एषणायाः शवितादयो दश तेण मंसं खास जेण ताहे पराहुतो घेप्पए गलमाहण मच्चदोषास्ते चाचाराले पिएमाधिकारे एवैषणादोषमधिकृत्योक्तास्ते। बंधो जाण पस गहिश्रोत्ति । एवं तेण सव्वं स्वयं मंसं सा च गोयरचरियाशब्दे व्याख्यास्यन्ते) यमच्चबंधो स्वश्रण मंसेण अद्विप लछो अत्थ तत्थ आहरणं (६) पतेषां शङ्कितादिदोषाणामपि बहुभेदत्वं यथा शहितं दुविहं चरियं कपियं च । तं च मजबंधं ओहयमणसंकप्पं काशङ्कितदोषः अत्र चत्वारो नेदाः शङ्कितग्राही शतिनोजी नि:-1 शङ्कितग्राही शङ्कितभोजी २ शङ्कितमाही निःशङ्कितभोजी ३ यंतं दर्दू मच्छो भण अहं पमत्तो चरतो गहिरो बनाए गाहेनिःशहितग्राही निशान्तिभोजी४म्रक्तितं वेधा सचित्ताचित्तम्र ताएयहे सा नक्खित्ता पच्चा गिल ताहे अहं वा कातीसमूहे कितं वा । आद्यं त्रिधा पृथिव्यव्वनस्पतिभेदात्। ततः पृथिवीन पमियो एवं विश्यं पि तिश्यं पि उग्गलित्तो ताहे मुको अनया क्षितं चतुर्धा सरजस्कं सचित्तं पृथिवीरजोगुण्ठितं तच्चत समुद्दे भई गयो तत्थ मच्छबंधा पलया महाए करेंति कम्पर्डि कितं च सरजस्कम्रक्षितं मिश्रसचित्तासचित्तरूपः कर्द तादे समुहवेलापाणिपण सह अहं तत्थ वंकीकए कमे पषिद्रो मस्तेन प्रक्षितं मिश्रकर्दमम्रक्षितं मिश्रोऽपरिणतसचेतनकर्दम ताहे तस्स कम्गस्स अणुसारेण अतिगतो एवंति निराबलया मुहाओ मुक्को जालतो एकवीसं वाराउ फिडिओ किहि पुण स्तेन प्रकितमिति मिश्रकर्दमनक्तितम् । उपमृत्तिका हरितालहिसकास्ततः शिसाम्जनलवणगैरिकाश्चेत्यादिका कषरकादि जाहे जाले बूमं भवति ताहे है नूमि घेतूण अगामि तहा एपृथ्वीकायप्रक्षितं च अप्कायम्रदितं पुरःकर्म पश्चात्कर्म स-1 कम्मि जिन्नोदयम्मि दहे अस्थिया अम्हे किं कह बि ण णायं स्निग्धोदकार्डरूपं चतुर्भेदं दानात्पूर्व हस्तमात्रकायक्वालने | जहा एसो दहे सुक्तिहिन्ति ताहे सो दहो सुको मच्गणं धले पुरःकर्म दानानन्तरं क्वालने पश्चात्कर्म सम्निन्धमीषदुवकयु गती णस्थि ते सम्वे सुकंते पाणिए मया के जीमंति तत्थ को. इमबंधो आगो सो हत्येण गहाय सूझए पोपत्ति ताहेमपणं क्तमुदकार्डमुवफविन्दुयुक्तम् । वनस्पतिम्रक्वितं किंधा प्रत्ये. तेतं अहं पि अचिराविज्काहामि जाव ण विज्कामि ताव नवार्य कानन्तदात् प्रत्येकं म्रक्तितं त्रिधा पृष्टं आमं तन्दुलक्षोदविकु चितेमि ताहे तेसिं मच्चाणं अन्तरालं सूलं मुहे गहिऊण गिओ कुसा प्रतीता उत्कृष्टकलिङ्गाम्रवालुक्यादिफलादीनां शुक्कीकृतानि सो जाणइ एए सव्वे पोश्लयासो गंतूण अन्नाह दोहं धोवः । खण्डानि अम्बिकापत्रसमुदायो वा सदस्खलखरण्डितैनंक्तितं प्र- तत्थ अहं मच्चयं घयं करेंतो वे बुड्डाणो पाणिए पवितो तं त्येकवनस्पतिम्रकितं कुट्टितानन्तम्रक्तितं द्वितीयस्य पश्यतोऽपि एयारिसं मनसत्तं च हाविइच्छसि गोधिनु अहो ते निल्लज्जत्तभावापरिणतत्वेन । गृडीतभावापरिणतं तु अनन्तम्रक्तितम् अंति"अोघ। प्रचित्तम्रक्कितं द्विधा गर्हितागतिभेदात् गर्हितैमासषसाशो- (७) विस्तरेण ग्रासैषणा निकेपादिकं तत्र । णितसुरामूत्रोच्चारादिनिः शिष्टजनस्याभक्ष्यापेयैनंक्तितं गर्हि- संयोजनादीनि द्वाराणि वक्तव्यानि तानि च ग्रासैषणारूपाताचित्तम्रक्षितम् संभजन्ति विगहान्त संखपत्वात्कीटिका-| णीति प्रथमतो ग्रासैषणाया निक्षेपमाह । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसणा (६०) एसया अभिधानराजन्द्रः। नाम उवणा दविए, जावे घासेसणा मुणेयच्या । प्रविष्टस्तेनैव ततो जानाद्विनिर्गतः । “ जानेनेति" तृतीया पञ्च म्यर्थ इष्टव्या । तथा सकृत् पकवारं मात्स्यिकेन हद जलमन्यत्र दवे मच्छाहरणं, भावम्मि य होइ पंचविहा ।। संचार्य तस्मिन् न्हदे विनोदके बहुनिर्मत्स्यैः सहाहं गृहीतः। ग्रासैषणा चतुर्षा । तद्यथा नामग्रासैषणा स्थापनानासैषणा सच सर्वानपि तान् मत्स्यानकत्र पिएकीकृत्य तीदणायःशद्रव्ये व्यविषया प्रासैषणा भावे नावविषया ग्रासैषणा। स्था बाकया प्रोतयति । ततो ऽहं दक्कतया यथा स मात्स्यिको न पना प्रासैषणा व्यग्रासैषणाऽपि यावाव्यशरीररूपा ग्रहण पश्यति तथा स्वयमेव तामयःात्राकां वदनेन अगित्वा स्थितः। षणा भावनीया । शरीरव्यतिरिक्तायां तु प्रासैषणायां मत्स्य | स च मात्स्यिकस्तान मत्स्यान् कर्दमक्षिप्तान प्रक्षामयितुं सरसि उदाहरणं दृष्टान्तः । भावविषया पुनासैषणा द्विधा । तद्यथा जगाम तेषु च प्रकाल्यमानेष्वन्तरमवहाय झटित्येव जलमध्ये आगमतो नो आगमतश्च । तत्रागमतो ज्ञातस्तत्र चोपयुक्तः। नो निमग्नवान् ॥ श्रागमतो द्विधा प्रास्ता अप्रशस्ता च । तत्र प्रशस्ता संयोज एयारिसं मम सत्तं, स घटियघट्टणं । नादिदोषरहिताऽप्रशस्ता संयोजनादिरूपा तामेव निर्दिशति । "भावम्मि य" इत्यादि भावे नावविषया पुनासैषणा पञ्चविधा इच्छसि गलेण घेत्तुं, अहो ते अहिरीयया ।। संयोजनादिभेदात्पञ्चप्रकारा। तत्रव्यग्रासैषणोदाहरस्य संघ- एतादृशं पूर्वोक्तस्वरूपं मम सत्त्वं शठं कुग्विं घटितस्न धारान्धमाई॥ दिकृतस्योपायस्य घट्टनं चाबकत्वमिच्छसि मां गलेन गृहीतुचरियं च कप्पियं वा, ओहरणं दुविहमेव नायव्वं । मित्यही ते तव अहीकता निर्बज्जतेति । तदेवमुक्तो व्यग्रास षणायां दृष्टान्तः । संप्रति भावनासैषणायामुपनयः क्रियते । मअत्थस्स साहणत्या, इंधणमिव ओयणटाय ।। त्स्यस्थानीयः साधुर्मासस्थानीयं नक्तपानीयं मात्स्यिकस्थानीयो इह विवक्षितस्यार्थस्य साधनार्थ प्रतिपादनार्थ द्विविधमुदा रागादिदोषगणः यथा न गलितो मत्स्य उपायशतेन तथा साधुहरणं ज्ञातव्यम् । तद्यथा चरितं संकल्पितं च कथमिव विव रपि नक्तादिकमभ्यवहरनात्मानमनुशास्तिप्रदानेन रवयेत् । कितस्यार्थस्य प्रसाधनायोदाहरणं नवतीत्यत आह । इन्धन तामेवानुशास्तिं प्रदर्शयति ।। मिव प्रोदनार्थमिन्धनमिव प्रोदनस्येति नावस्तत्र प्रस्तुतस्यार्थस्य प्रसाधनार्थमिदं कल्पितमुदाहरणम् । कोऽप्येको मत्स्यसं बायालीसेसणसं-कडम्मि गहणम्मि जीव न हु छलियो। बन्धी मत्स्यग्रहणनिमित्तं सरो गतवान् गत्वा च तेन तदव इण्हि जह न छलिजसि, मुंजतो रागदोसेहिं ।। स्थानाग्रजागे मांसपेसीसगेतो गनः सरो मध्ये प्रचिक्तिपे तत्र इह एपणाग्रहणेन एषणागता दोषा अनिधीयन्ते ततोऽयमर्थः च सरसि परिणतयधिरेको महादको जीर्णमत्स्यो वर्तते स ग- | द्विचत्वारिंशत्संख्या ये एषणादाषा गवेषणाग्रहणषणादोषास्तैः लगतमांसगन्धमाघ्राय तद्भवणार्थ गस्य समीपमुपागत्य य- संकटे विषमे ग्रहणे भक्तपानादीनामादाने हे जीव ! त्वं नैव - त्नतः पर्यन्ते सकलमपि मांस खादित्वा पुच्छेन च गलमाहत्य वितस्तत इदानीं संप्रति नुजानो रागद्वेषाज्यां यथा न छल्यसे दूरतोऽपचकाम । मत्स्यबन्धी च गृहीतो गोन मत्स्य इति बि- तथा कर्त्तव्यम् । चिन्त्य गत्रमाकृष्टवान् न पश्यति मत्स्य पुनः मांसपेसीसहितं संप्रति तामेव नावग्रासैषणां प्रतिपादयति । गलं प्रचिकेप तथैव स मत्स्यो मांसं खादित्वा पुनश्च गत्रमाहत्य घासेसणा उ भावे, होन पसत्था तहेव अपसत्था । पलाचितवान् । एवं त्रीन वारान् मत्स्यो मांसं स्वादितवान् नच अपसत्या पंचविहा, तविवरीया पसत्था न॥ गृहीतो मरस्यबन्धिना । भाचे भावविषया ग्रासैषणा द्विविधा तद्यथा प्रशस्ता अप्रशस्ता अह मंसम्मि पहीणे, झायंत मंधियं भणइ मच्छगे। च । तत्र प्रशस्ता पश्चविधा संयोजनातिब हुकाङ्गारधूमनिष्कारकिं झायसि तं एवं, सुण ताव जहा अाहिरियोसि ॥ णरुपा । तद्विपरीता संयोजनादिदोषरहिता प्रशस्तापिं०(संयोअथ मांसे प्रवीणे ध्यायन्तं मात्स्यिकं मत्स्यो नणति यथा किं जनादि वक्तव्यता संजोजणा शब्दे) (नोजने कारणमाहारप्रत्वमेवं ध्यायसि चिन्तयसि शृणु तावत् यथा त्वमन्हीको नि- | माणं च आहारशब्दे) (अङ्गारधूमदोषा अंगारधूमादिशब्दे) लज्जो नवसि ॥ तथा चतिवन्नागे मुहामुक्को, तिक्खुत्तो बलयामुहे। गवसणाए गहणे, परिभोगेसणा जहा । तिसत्तखुत्तो जालेणं, सइंगिन्नोदए दहे। आहारोवहिसज्जाए, एए तिनि विसोहिए ॥ ११ ॥ अहमेकदा त्रीन वारान् वलाकाया मुखादुन्मुक्तस्तथा हि कदाचिदहं वाकया गृहीतस्ततस्तया मुखे प्रकेपार्थमूर्ध्वमुक्तिप्त गवेषणायामेषणा गवेषणैषणा गौरिव एषणा गवैषणा विशुकास्ततो मया चिन्तितं यद्यहमृजुरेयास्याः मुखे निपतिष्यामि तर्हि हारदर्शनविचारणा प्रथमा एषणा १ द्वितीया ग्रहणेषणा विशुपतितोऽहमस्मन्मुखे ति न मे प्राणकौशलं तस्मात्तिर्यग्निपता द्धाहारस्य ग्रहणं ग्रहणैषणा २तृतीया परिभोगैषणा परि समीति एवं विचिन्त्य दवतया तथैव कृतं परिवष्टस्तस्या मुखात्। मन्तात् भुज्यन्ते आहारादिकमस्मिन्निति परिजोगो मण्मलीततो नूयोऽपि तयोर्ध्वमुक्तिप्तस्तथैव चद्वितीयमपि वारं मुखात्प जोजनसमयस्तत्रैषा विचारणा परिभोगैषणा एतास्तिस्त्रोऽपि एरिजएः । तृतीयवेवायां तु जने निपतितस्ततो दूरं पनायितस्तथा षणा आहारोपधिशय्यासु विशोधयेत् केवलमाहारे एव एता त्रिकृत्वनीन् वारान् वनाफाया मुखे घनाकामुखे नाष्ट्रिरुपे निप एपणा न भवेयुः किंतु आहारे उपधौ वस्नपत्रादौ शय्या उपातितो दक्कतया शीघ्र वेलयैव सह विनिर्गतः । तथा त्रिःसप्तक श्रयः संस्तारकादिस्तत्र सर्वत्रैषणा विधेया श्त्यर्थः । त्वपकविंशतिवारान् मात्स्यिकेन प्रक्किप्ते जाले पतितोऽपि याव उग्गम उप्पायणं पढमे, विइए सोहिज एसाग । माद्यापि स मत्स्यबन्धी संकोचयति जाझं तावत् येनैव यथा| परिजोगं चनत्थं च, विसोहिज्ज जयं जयी॥१२॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) अनिधानराजेन्द्रः । एसा (जयं इति) यत्नवान् ( जयीति ) यतिः साधुः ( प्रथमे इति ) प्रथमायां गवेषणायामुमोत्पादनादोषान् विशेोधयेत् विशेयेग विचारयेत पुनः साधुतिय शादि दोषान् विचारयेत् तृतीयायां परिभोषणा दोविशोधयेत् १२ इति गाथार्थः । अत्र थमायगवेष नैषणायां द्वात्रिंशद्दोषा जवन्ति तद्यथा प्रथमं षोमश नमदोषाः क्रमशब्देन आधाकर्मकादि पोश दोषाः तथा प्रथमै बनायामेव उत्पादनादिदोषाः प्रवन्ति । उत्पाद्यन्ते साधुना ये ते उत्पादनाः साधोः सकाशादेव घोमश दोषा उत्पद्यन्ते । ते च प्रमुखः पाशा द्वितीयायामेषणायणायां शङ्कितादि दश दोषाः । उज्जयतो दायकाद् ग्राहकाच्च न. वन्ति उत्त० २४ श्र० । ( गवेषणायां द्वात्रिंशद्दोषाः तत्रो मदोषा धाकर्मिकादयः षोमश ते व उग्गमशब्दे उत्पादनाया धात्रीप्रमुखाः षोमश ते च उप्पायणाशब्दे ) अथ ग्रहणैषणाया दश दोषाः कथ्यन्ते । यदा दायकः शङ्कां कुर्व्यन् ददाति साधुरपि जानाति असीदायका करोति एवं सति महारं गृह्णाति सदा प्रथमः शङ्कितो दोषः १ द्वितीयो प्रहितो दोषः स द्विविधः य दा सचित्तेन खरष्टितः आहारः श्रचित्तेन खरष्टितश्चाहारो भवति तदा प्रक्षितदोष उक्तः उच्यते २ यदा पृथिव्यां जले अग्निवनस्पतिमध्ये सजीवानां मध्ये निक्किप्समाहारं ददाति तदा नि क्षिप्तस्तृतीयो दोषः ३ यदा श्रवित्तमाहारमपि सचिन्तेन आ च्यादितं तदा पिहितशेषः पिहितदोषस्य सिमाहारं सचितेन पनि चित्तं सचिन पिहि राम सवितमभिशेन पिडितमचिमचिपचि ङ्गधा अचित्त आहारः अचित्तेन पिहितः । अत्र कोऽपि न दोषः । या वृद्धाने स्थितमाहारं तपस्थभाजनेन दातुमशक्यत्वेन तद्भाजने परीतार्थ अथवा तस्माद्भाजनादपरस्मिन् भाजने उत्तार्य आहारं ददाति स संहृतदोषः पञ्चमः ५ यदा असमर्थः परमकः शिशुः स्थविरः अन्ध उन्मत्तो मत्तो ज्वरपीमितः कम्पमानशरीरो निगडबडो हडे तिमो गलितपाद एतादृशो वा दाता ददाति तदा दायकदोषः । पुनर्यदा कश्चिहायको दायिका वा श्रभि प्रज्वालयन् श्ररहट्टकं भ्रामयन् | घर चापेषणं कुन मुखलेन खण्डपर शिला लोके वर्त्तयन् वरच्यां कार्पासादिकं लोढयन स्तं या पिज्जयन सूर्यकेण धान्यमाच्छादयन् फलादिकं विदारयन् प्रमार्जनेन रजः प्रमार्जयन् इत्याद्यारम्भं कुर्वन् तथा भोजनं कुर्वन् स्त्री च या सम्पूर्णगर्भस्थिता भवति न च स्त्री बालं प्रति स्तम्यं पाययन्ती पुनस्तं बालं रुदन्तं मुक्त्वा श्राहारदानाय उत्तिष्ठति पुनर्यः षट्कायसम्मर्दनं सङ्घट्टनं वा कुर्वन् साधुं दृष्ट्वा हडि कोपरिस्थमपिमुत्तारयति इत्यादयो बहयो दायक इति षष्ठो दायकदोषः ॥ ६ ॥ यदा श्रनाभोगेन श्रविचार्यैव महासमील्य ददाति तदा सम्म उन्मिधितदोषः ॥ ७ ॥ यदा द्रव्येण परिणतमाहारं भावेन उभयोः पुरुषो राहारं वर्तते तन्मध्ये एकस्य साधवे दातुं मनोऽस्ति एकस्य नास्ति तदाहारमपरितोषकं स्यात् अपरिणदोषआटमः ॥ ६ ॥ यदा दधिदुग्धतेच्यादि येन इत्येस दर्वीकरो वा लिप्तः स्यात्तदा पश्चात्कर्मत्वेन लिप्सपिएडो नवमो दीपः स्यात् ॥ ६ ॥ यदा सिधानि तदधिदुग्धादिविन्दून् पातयन् श्राहारं ददाति तदा छर्दितो दशमो दोषः स्यात् ॥ १० ॥ इति षदायकमाहरू योरन्योन्यं दोषसम्भवः ॥ एसणा अथ परिभोगैषणायां ग्रासैषणायाः पञ्च दोषाः सम्भवन्ति तद्यथा यदा सीतादिद्रव्यं सम्मील्य रसलीयेन भुङ्क्ते तदा संयोजनादोषः प्रथमः । १ । यदा सिद्धान्ते पुरुषस्याहार उक्तोऽस्ति तस्मादाहारप्रमाणात्स्वादुलोभेन अधिकमाहारं करोति तदा श्रप्रमाणो द्वितीयो दोषः । २ । यदा सरसाहारं कुर्वन् धनवन्तं दातारं वर्णयति तदा इङ्गालदोषस्तृतीवः । ३ विरसमाहारं कुर्वन् दरिद्र कृपया निन्दति तदा चतुर्थी धूमदोषः ४ यदा तपःस्यात्यादि कारणषट्कं विना बलवीर्याद्यर्थ सरसाहारं करोति तदा पमो कारणदोषः ५ पते पञ्च दोषाः परिभोगपणायाः ज्ञेयाः । पर्व सबै ४७ सत्वारिशदोषा भवन्ति परिमोरीपायां चतुष्कं दोषच सूत्रे उर्फ कालधूम मोहनीयकम्मोदयादेव दायकस्य प्रशंसा दुधात एकत्वमेव कृतं तस्माचत्वारि एप दोषा - हीताः एवं । ४६ । षट्चत्वारिंशदोषा भवन्ति अथवा परिभो गैषणायां परिभोगसमये आसेवनासमये पिण्डं ( १ ) शय्या (२) व (३) पा] (४) तुकं विशोध मपि अर्थी विद्यते इत्यनेन " उम्ममुयायणं पदमे " इति गाथार्थः || १२ || एषणासमितेन चानेण्णा परिवर्जनीया उत्त० २४ प्र० । तथा योत्तरगुणानचि संमे से महापसे, धीरे दसणं चरे । 1 सणास मिए शिनं, बायंते असणं ॥ १३॥ भाधयकाराणां रोथेनेन्द्रियनिरोधेन संवृतः स भिकूदती प्रज्ञा यस्यासी महामहो विबुद्धिरित्यर्थः सदमेन जीवाजीचादिपदार्थात वेदिता भवति यः पिपासादिपरीषदैर्न कोज्यते । तदेव दर्शयति । श्राहारोपधिशय्यादिके स्वस्वामिना तत्संदिष्टेन वा दन्ते सत्यैषणां चरत्येषणीयं गृद्वातीत्यर्थः पणाया पणायां वा वेसरूपायां त्रिविधायामपि सम्यगितः समितः स साधुर्नित्यमेषणासमितः सन्ननेषणां परिवर्जयन् परित्यजन्संयममनुपालयेत् । उपलक्षणार्थत्वादस्य शेषामपीयसमित्य ष्टव्य इति ॥ १३ ॥ अनेषणीयपरिहारमधिकृत्याह ॥ त्या च समारम्भ, तमुहिस्सा य जं कई । तारिसं तु ण गिएहेज्जा, अन्नपाणं सुसंज्जए || १४ || अनुवन् भयन्ति नविष्यन्ति च प्राणिनस्तानि तानि प्राणिनः समारज्य संरम्भसमारम्नारम्भैरुपतापयित्वा तं साधुमुद्दिश्य साध्वर्थे यत्कृतं तदकल्पितमाहारोपकरणादिकं तादृशमाधाकदोषतः पानके या न हीत तुशब्दस्यैवकारार्थत्वान्नैवाभ्यवहरेदेवं तेन मार्गोऽनुपासितो भवति ॥ १४ ॥ सूत्र० १ ० १२ अ० । तथायोत्तरायने । परिवाडिए न चिज्जा, जिक्खुदनेसणं परे । परुिवेण एसित्ता, मियं काले अक्खए ।। ३२ ।। परिपाटिर्गृहपतिस्तस्यां न तिष्ठेत् न पङ्क्तिस्थगृहभिकोपादानायैकत्रावस्थितो भवेत् तत्र दायकदोषोऽ नवगमप्रसङ्गात् । यद्वा पयां भोपाष्ठपुरुषादिसंबन्धिन्यां न तिष्ठेदी त्यएकल्याण Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) एसणा अभिधानराजेन्द्रः। एसणा तादिदोषसंजवात् । किंच निक्षुर्यतिर्दत्तं दानं तस्मिन् गृहिणा दीय- समयं संजए मुंजे, जयं अप्परिसामियं ।। २० ।। माने एषणां तद्वतदोषान्वेषणात्मिकांचरेदासेवेत । चरतिरासेघा अल्पशब्दो भावानिधायी तथेहापि सूत्रत्वेन मत्वर्थीयलोपायामपि वर्तत इति वचनात्। अनेन ग्रहणैषणोक्ता किं विधाय दस प्राणाः प्राणिनस्ततश्चाल्पा अविद्यमानाः प्राणिनो यस्मिस्तपणां चरेत् प्रतिरूपेण प्रधानेन रूपेणेति गम्यम् । यद्वा प्रतिः प्रतिधि दल्पप्राणं तस्मिन्नवस्थितागन्तुकजन्तुविरहिते उपाश्रयादाविम्यं चिरन्तनमुनीनां यदूपं तेनोजयत्र पतहादिधारणात्मकेन स ति गम्यते । तथाऽल्पानि अविद्यमानानि बीजानि शाख्यादीनि कमान्यधार्मिकवितणेन ननु वस्त्रं उत्रं गत्रं पात्रं यष्टि चर्च यस्मिस्तदल्पबीजं तस्मिन्नुपयक्क्षणत्वाच्चास्य सकलैकेन्द्रिया. येत् भिक्षुः घेषेण परिकरेण च कियताऽपि विना न जिक्षाऽपि दिरहिते। ननु चाल्पप्राण इत्युक्ते ऽल्पवीज इति गतार्थ बीजात्यादिवचनाकर्मनाद्विभूपात्मकेनैषयित्वा गवेषयित्वाऽनेन च दीनामपि प्राणित्वादुच्यते मुखनासिकाज्यां यो निर्गच्छति वायुः गवेषणाविधिरुक्तः । ग्रासैषणाविधिमाह मितं परिमितमदन्ति स चेह लोके रूढितः प्राणो गृह्यते अयं च द्वीन्छियादीनामेव बहुनोजनात् स्वाध्यायविघातादियदुदोषसंभवात् काबेनेति | संभवति न बीजायेकेन्द्रियाणामिति कथं गतार्थता तत्रापि "नमोक्कारेण पारित्ता, करिता जिणसंथवं सज्कायं पट्टवित्ताणं, प्रतिच्छन्ने परि प्रावरणान्विते अन्यथा संपतिमसत्वसंपातसंबीसमिजक्खणं मुण" १ इत्यद्यागमोक्तप्रस्तावनाहृतायझम्बि- नवात् संवृते पार्श्वतः कटकुड्यादिना संकटद्वारे अटव्यां कतरूपेण वा नक्षयेत् जुजीतेति सूत्रार्थः ॥१०॥ एडादिषु वा अन्यथा दानादियाचने दानादानयोः पुण्यबन्ध() यत्र पुरायातान्यनिक्षुकसम्भवस्तत्र विधिमाह । प्रद्वेषादिदर्शनात संवृतो वा सकलाश्रवविरमणात् । समकमन्यैः नाश्रमणासन्ने, नन्नेसिं चखुफासओ। सह नत्वेकाक्येव रससम्परतया समूहासहिष्णुतया वा । अएगो चिटेज जत्तट्ठा, बंघित्ता तं नक्कमे । बाह । “साहवो तो चियत्तेणं, निमंतेज जहक्कम। जश् तत्थ कंश इच्छेन्जा, तेहिं सद्धि तु भुजत्ति" गच्छस्थितसामाचारी चेय नातिदूरं सुध्यत्ययान्नतिदूरऽतिविप्रकर्षवति देशे तिष्ठेदिति गच्छे एव जिनकल्पिकादीनामपि मूबवण्यापनायोक्ता उक्तं हि संबन्धः । तत्र च निर्गमावस्थानानवगमप्रसङ्गादेषणाट्यसंभवाच । तथा (अनासनेन्सि) प्रसज्यप्रतिषेधार्थत्वानो नासने "गच्छे चिय निम्मा" इत्यादि । यद्वा (समयति) सममेव स मकं सरसविरसादिप्यभिष्वङ्गादिविशेषरहितं सम्यग्यतः संयप्रस्तावान्नातिनिकटवर्तिनि जूभागे तिष्ठत्तत्र पुरा प्रविष्टापर तो यतिरित्यर्थः तुजीताश्रीयात् ( जयंति ) यतमानः (अपरिभिक्षुकाप्रीतिप्रसक्ते नान्येषां भिवाकापेक्वया परेषां गृहस्थानां साडियंति) परिसाटिविरहितमिति सूत्रार्थः ।।२।। उत्तअन चतुःस्पर्शत ति सप्तम्यर्थे तसिस्ततश्चक्षुःस्पर्श हग्गोचरे चतुःस्पर्शगोचरगतः तिष्ठदासीत किंतु विधिक्तप्रदेशस्थो यथा (११) शतसहस्रगच्चे एषणादोषपरिहारप्रकारो यथा। न गृहिणो विदन्ति यतैष भिकुकनिष्क्रमणं प्रतीक्त इति एक णोअगजिणकामम्मि, किह परिहरणाजहेव अणुजाणे । इति किममी मम पुरतः प्रविष्टा इति तपरि द्वेषरहितो जक्तार्थ अगमणम्मि य पुच्ग, निकारणकारणे सहगा । जोजननिमित्तं न च सयन्ति । तमुह तय समिति भिकुकं नाति- नोदकः प्रश्नयति यदि शते केष्वपि गच्छेषु सांप्रतमित्थमाक्रामत् प्रविशेत् तत्रापि तदप्रीत्यपवादादिसंभवादिह च मितं धाकर्मादयो दोषा जायन्ते तर्हि जिनस्तीर्थकरस्तस्य काले कालेन नकयेदिति भोजनविधिमभिधाय यत्पुनर्निक्वाटनानि- सहस्रेषु गच्छेषु साधवः कयमाधाकर्मादीनां परिहरणं कृतधानं तदम्नानादिनिमित्तं स्वयं वा बुचकाक्दनीयमसहिष्णोः वन्त इति।सूरिराह यथैवानुयाने रथयात्रायां सांप्रतमपि परिहपुनर्जमणमिति न दोषायेति ज्ञापनार्थम । उक्तं च "ज तेण संथ रन्ति तथा पूर्वमपि परिहृतवन्तः (अतिगमणम्मि य पुच्चात्ति) रे ततन कारणमुप्पन्ने जत्तपाणं गवेसये" इत्यादि सूत्रार्थः ॥१६॥ शिष्यः पृच्चति किमनुझाने अतिगमनं प्रवेशनं कर्तव्यम् नत नेति पुनस्तातविधिमेवानिधित्सुराह । आचार्यः प्राह (निक्कारणकारणे बहुगत्ति) निष्कारणे यदि नाइनच्चे व नीए वा, नासन्ने नाइदूरो। गच्छति तदा चत्वारो दृघवः कारणे यदि न गच्छति तदाऽपि फासुयं पक्ख पिम, पडिगाइज्ज संजये । चत्वारो बघवः । अथैतदेव नावयति । नात्युच्चे प्रासादोपरिनूमिकाद। नीचे वा नूमिगृहादी तत्र त-| एहाणाणुजाणमाई, मुजतीत जह संपयं समोसरिया । सुत्केपनिकेपनिरीक्षणासंभवाद्दायकापायसंनयाच्च । यद्वा ना- सतसो सहस्ससो वा, तह निणकाले विसोहिंसु ॥ त्यञ्चः उच्चस्थानस्थितत्वेन ऊचीकृतकन्धरतया वा व्यतो ना स्नानं वर्षतः प्रतिनियतदिवसजावी जगवत्प्रतिमायाः साने वतस्त्वहो अहं बधिमानिति मदामातमानसोनीचोऽश्यन्तावन पर्वविशेषः अनुयानं रथयात्रा तदादिषु कार्येषु सांप्रतमपि शतकन्धरो वा निम्नस्थानस्थितो वा व्यतो जावतस्तुनमयाऽद्य तशः शतसंख्या सहस्रशः सहस्रसंख्याः साधयः समवस्ताः । किंचित्कुतोऽप्यवाप्तमिति दैन्यवान् उन्नयत्र वा समुच्चय तथा ना संयते यथा यतन्ते श्राधाकर्मादिदोषशोधनायां प्रयत्नं कुर्वते सन्ने समीपवर्तिगि नातिदरे अतिविप्रकर्षवति प्रदेशे स्थित तथा जिनकालेऽपिते भगवन्तः एषणाशुद्धि कृतवन्त इत्यर्थः । नइति गम्यते यथायोग जुगुप्साशद्वेषणाद्धद्यसंभवादयो दोषाः। योऽपि परः प्राह । ननु च स सर श्च सागरः खद्योत श्व प्रोअथवा अत एवानासन्नो नातिदरगतः प्रगता असव ति सूत्र तनः मृग इव मृगेन्छः इत्यादि तदिदंयुगीनसमवसरणसत्कत्वेन मतुम्योपादसुमन्तः सहजससक्तिजन्मानो यस्मात्तत्मासुकं मेघणाशुध्यपमानं तीर्थकरकालभाविनीमेषणाशकिमुपमातुमपरेण गृहिणाऽऽत्मार्थ परार्थ वा कृतं निर्वर्तितं परकृतं किं तत्पि निधीयमान हीनत्वान्न समीचीनम् अत आह "पक्खेण परोराडमाहार प्रतिगृह्णी यातू स्वीकुर्यात् संयतो यतिरिति सूत्रार्थः ।१० क्वं, साहिजर" न चेयं सर श्व सागर इत्यादिवकीमोपमा (१०) इत्थं सूत्रद्वयेन गवेषण ग्रहणैषणाविषयविधिमुक्त्वा तीर्थकरकालेऽपि सहसंख्या एव साधव एकत्र के समवसरग्रासैषणाविधिमाह ।। न्ति स्म पतावन्तश्च ते सांप्रतमापि स्नानानुयानादौ पर्वणि समयअप्पपापप्पवीयम्मि, पमिच्छन्नम्मि संबुडे । सरन्त उपलभ्यन्ते शोधयन्तश्चैषणां ततोऽनुमीयते तीर्थकरका Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसणा अनिधानराजेन्द्रः। एसणा मेऽप्येवमेव दोषान् शोधितवन्त इति । "नेव एसहीपुवमा जं पु- घुपणगपरंपरे परित्तेसुपए चेव य गुरुगा, होति अणंते पररिसजगेतईए वोच्छिन्नो सिद्धिमग्गे" श्ह प्रत्यक्षेणोपमानवस्तु- ट्ठाणे " इति प्रसकाये अनन्तरप्रतिष्ठितं गृह्णतचतुर्लघुकं परंना परोक्षमुपमेयं साकादनुपत्रज्यमानमपि साध्यते शास्त्रे सोके- परप्रतिष्ठितं गृह्मतो मासलघु त्रसकाये “चतुलहुगा अनंतरऽवस्थितिः ततोऽत्रापि प्रत्यक्षमाणेन सांप्रतकालीनसमवसरण- परंपरहिए लहुगो" इतिवचनात् एवं परजीवनिकायेषु प्रसक्नेषणाशोधनेन परोक्षमपि तीर्थकरकान्नाविसमवसरण- त्येकेऽनन्ते मिधे च पृथिव्यादौ बीजे च प्रत्येके अनन्ते मिश्रे साधूनामेषणाशोधनं साध्यते इति "नेव एसहीणुवसत्ति" चानन्तरं परंपरं च प्रतिष्टितमाददानस्य प्रायश्चित्तमिति । अपि च श्रीमन्महावीरस्वामी श्रीसुधर्मस्वामी जम्बूस्वामीचेति अधुना पिहितं संहरणं चाधिकृत्य प्रायश्चित्तमाह । वीणि पुरुषयुगानि यावदनगाराणां निर्वाणपदवीगमनवत्तृतीये एमेव य पिहियाम्मि, लहुगा दमम्मि चेव अपरिणए । च पुरुषयुगे निर्वृते सति सिद्धमार्गः क्षपकश्रेणिकेवलोत्पत्या वीसुम्मिस्से पण गं, अगंतवीए य पणगगुरू । दिरूपो व्यवग्निः न पुननिदर्शनचारित्ररूपः शास्त्रपरिजापितस्तस्येदानीमध्यनुवर्तमानत्वात्ततश्च यदि तेषां साधूनामुक एवमेव अनेनैव प्रकारेण पिहितेऽपि प्रायश्चित्तं वक्तव्यं किमादिदोषशोधनं नाभविष्यत् ततस्ते सिद्धमार्गमपि नासादयि मुक्तं भवति यथा निक्षिप्ते प्रायश्चित्तमुक्तमेवं येन अव्येण सध्यन् अतो निश्चीयते तेऽपि नगवन्त श्त्यमेवैषणाशुकिं कृतव चित्तेनाचित्तन मिश्रेण वाऽनन्तरं परक चापि धीयते तत्रापि एव्यं नवरमचित्तेन गुरुकेण पिहिते गृहतश्चतुर्गुरुकं संहरन्त इति । वृ०१०। (१२) विस्तरेण दशस्वेषणादोषेषु प्रायश्चित्तमाह । णे येन मात्रकेण भिकां दातुकामस्तत्र यदि किंचित्प्रक्षिप्तं वर्तत तदन्यत्र संहृत्य ददात तच्च संन्हियमाणमद्यापि अपरिणतंतससरक्खे ससणिके, पणगं अहुगा दुगुंछसंसते ।। स्मिन्नपरिणते अव्ये संहते गृहतश्चत्वारो बघुकाः । दायके प्रउक्कुट्टएंते गुरुगो, सेसे सम्बेसु मासलह ॥ गनिते नपुंसके चत्वारो गुरुकाः। पिजनकर्तनश्लक्ष्णखएडकशथिते पञ्चविंशतेर्दोषाणां मध्ये यच्छङ्कितं तनिष्पन्नमाप- | रणप्रमईनप्रवृत्तेषु प्रत्येकं मासलघु। शेषेषु दायकदोषेषु चद्यते । प्रायश्चित्तं म्रक्षिते सरजस्केन सचित्तमिश्रपृथिवीकायर- त्वारो लघुकाः । नन्मिश्रे सचित्तानन्तमिश्रे चतुर्गुरु । मिधानजोम्रक्षितेन हस्तेन मात्रकेण वा भिक्षां गृह्णतः पञ्च रात्रिन्दि- न्तमिश्रे मासगुरु । सचित्तप्रत्येकमिश्रे चतुर्खघु । प्रत्येकमिश्रमिश्र वानि । सचित्तमिश्रापकायस्निग्धेन हस्तकेन मात्रकेण वा मासनघु। विष्वक नन्मिश्रे प्रत्येकबीजोन्मिश्रे बघुरात्रि दवपञ्चभिक्षामाददानस्य पश्च रात्रिंदिवानि , अचित्तेन जुगुप्सितेन कम् । अनन्तबीजोन्मिने गुरु रात्रिदिवपञ्चकम् । अपरिणते द्रव्याविष्ठामूत्रमद्यमांसल शुनपलाए सुप्रभृतिना म्रक्षितेन गृह्यमाणे परिणते कायनिष्पन्नं ये कायाः प्रत्येकरूपा अनन्तरूपा वा अपचत्वारो गुरुकाः, गुडवृततैलादिभिरपि कीटिकासंसक्तैनंकि- रिणता तनिष्पन्नमित्यर्थः। तत्र पृथिव्यादिष्वपरिणतेषु चतुर्मघुकतमाददानस्य चत्वारो लघवः । पुरःकमणि पश्चात्कर्मणि च म्। अनन्तवपरिणतेषु चतुर्गुरु । नक्तंच “दव्यापरिणते चउलहचतुर्लघुकाः । अन्ये मासलघु प्रतिपन्नवन्तः। उत्कुट्टिते अनन्ते- पुढवादीचउगुरू अनंतेसु । नावापरिणते “दोहं तु हुंजमाणेणमेसचित्ते वनस्पतिकायिके मासगुरु चूऽप्यनन्ते सचित्ते मास- गो तत्थ निमतए" इत्येवं रूपेषु अघुको मासः "नावापरिणते लघु गुरु सेसेसु सम्वेसुमासलहु" परीते प्रत्येके कुट्टिते चूर्मिते वा गो" इति वचनात् लिप्ते आधेषु त्रिषु भङ्गेषु चत्वारो बघुकावप्रत्येक मासगुरु, मिश्रेपरीते सर्वत्र मासलघु अनन्ते मासगुरु । रमभङ्गेऽनेषणायां चतुर्गुरवः । गर्दिते प्राधेषु त्रिषु नङ्गेषु प्रत्येक तथा मृत्तिकालिप्तहस्ते यावन्तः सेटिकादयो मृत्तिकाया भे-| चतुर्बधुकं चरमभङ्गे नाचीर्णम् ।। दास्तेषु सर्वेषु मासलघु । निक्षिप्ते प्रायश्चित्तमाह । सजोगसइंगाले, अणंतमीसे चनगुरू होति । चनलहुगा चनगुरुगा, मासो बहुगुरुयपणगलहुगुरुगं । कुछति परितणंतर, मीसे वीए य अणंतपरे य॥ वीसुम्मीसे मासो, सेसे लघुका य सव्वेसु ॥ प्रत्येकं सचित्तानन्तरप्रतिष्ठितमाददानस्य चत्वारो लघुकाः संयोजना विविधा अन्तर्बहिश्च । तत्रान्तःसंयोजनायां चत्वारो प्रत्येकसचित्तपरंपरप्रतिष्ठितमपि चत्वारो लघवः अनन्तस लघवः बहिः संयोजनायां चत्वारोगुरुका अन्ये चान्तर्बहिर्वा संचित्तानन्तरप्रतिष्ठितमादानस्य चत्वारो गुरुकाः। अनन्तसचि योजनायां चत्वारो गुरुका इति प्रतिपन्नाः।प्रमाणातिरिक्तमाहारतपरंपरप्रतिष्ठितमपि गृहतश्चत्वारो गुरुकाःप्रत्येकमिश्रान यति चत्वारो लघवः (सइंगालेत्ति) साङ्गारे आहार्यमाणे न्तरप्रतिष्ठितं परप्रतिष्ठितं वा गृहतो मासलघु । अनन्तरं चत्वारो गुरुकाः, सधूमे चतुर्बधु निष्कारणे चतुर्दघु सचित्ता नन्तमिश्रे चतुर्गुरुकम् । एतच्च प्रागेव स्वस्थानेऽन्निहितम् । तथा परंपरया वा प्रतिष्ठितमाददानस्य मासगुरु । बीजेषु परितेष्वमन्तरं वा प्रतिष्ठितं गृह्वतः पञ्चरात्रिदिवानि लघुकानि। अन विष्वगुन्मिधे पृथिवीकायादिभिः प्रत्येकर्मिश्रे लघुको मासोऽन न्तैरुन्मिश्रे गुरुकः ( सेसे बहुगा उ सब्वेसुत्ति) शेषेषु सर्वध्वपि न्तेषु गुरुकानि । अन्ये तु ब्रुवते प्रत्येकमिश्रेऽनन्तरं परं वा प्रति प्रहणषेणाभेदेषु ग्रासैषणाभेदेषु चत्वारो लघुकास्ते च तथैव ष्ठितमाददानस्य लघु रात्रिंदिवसपश्चकम् । अनन्ते अनन्तरं परं वा प्रतिष्ठितं गृह्णतो गुरुकमिति । तथापरे प्रत्येके सचित्तमनन्त योजिताः । वृ०१०। (१३) पिएमैषणा च पिामग्रहणप्रकारास्ताश्च सप्त तथा चाह । रप्रतिष्ठितं गृह्णतश्चतुर्लघवः परंपरप्रतिष्ठितं मासलघु।तथा प्रत्येके मिश्रे अनन्तरप्रतिष्ठितमाददानस्य लघुको मासः परं सत्त पिंडेसणाओ पमत्ताओ सत्त पाणेसणाप्रो परणपरप्रतिष्ठितं गृहातो लघुरात्रिंदिवपञ्चकम् । अनन्ते मिश्रेऽनन्तरं त्ताओ॥ प्रतिष्ठिते मासगुरु परंपरप्रतिष्ठिते गुरु रात्रिंदिवपश्चकमिति । पिएम समयभाषया भक्तं तस्यैषणा ग्रहणप्रकाराः पिएमषणाउक्तं च “पुढवी श्राऊ तेल, परित्ते चेव तह य वणकाये । चउ- स्ताश्चैताः "संसहमसंसघा, उकडं तहप्पनेविया चेव ४ा उम्लहु अणंतराम्मि, सचित्ते परंपरे मासो।मासाणंतरलहुगो, न- हिया ५ पम्गहिया, ६ उझियधस्मा, यससमिया" ॥१॥ त Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसणा अभिधानराजेन्द्रः। एसणा प्रासंस्पृष्टा हस्तमात्राच्यां चिन्तनीया । "असंसट्टे मत्ते खरंडि- तपानादिगवेषणरूपा तत्प्रधानो यो गौरिव मध्यस्थतया नियत्ति वुत्तं भय " एवं गृहतः प्रथमा भवति गाथायां तु | कार्थ चरणं स एषणागोचरः । एषणाप्रधानायां गोचरचर्यासुखमुखोच्चारणार्थोऽन्यथापाठः । संस्पृष्टा ताज्यामेव चिन्त्या याम, वृह०६८० "तितिणिए एसणागोयरस्स पलिमंथू" ति"संसडे हत्थ संसहे मत्ते खरंभिए ति बुत्तं नव "|| एवं | न्तिणिकोऽक्षाभे सति खेदाद्यत्किंचनानिधार्य स च खेदप्रधानगृतो द्वितीया । नरुता नाम स्थाल्यादी स्वयोगेन भोजनजा- त्वादेषणा मादिदोषधिमुक्तपानादिगवेषणग्रहण लक्षणा ततमुहतं ततः " असंस हत्ये असंसट्टे मत्ते संसले वा मत्ते सं| प्रधानो यो गोचरो गौरिव मध्यस्थया भिकार्थ चरणं स एषसट्टे वा हत्थे"॥ एवं गृढतस्तृतीया । अल्पलेपा नाम अल्पश- णागोचरस्तस्य परिमन्थुः । सखदो हि अनेषणीयमपि गृहातीब्दोऽभाववाचकः निपं पृथुकादिगृहुतश्चतुर्थी । अवगृहीता नाम ति भावः । स्था०६ग।। भोजनकाले शरावादिष्पहतमेवं जोजनजातं यत्नतो गृह्णतः पञ्च एसादोस-एषणादोष-पुं० एषणमेषणाऽशनादर्ग्रहणकाले श. मी। प्रगृहीता नाम भोजनवेलायां दातुमभ्युद्यतेन करादिना ड्रितादिभिः प्रकारैरन्वेषणं तद्विषया दोषा एषणादोषाः । प्रव० प्रगृहीतं यद्भोजनजातं नोक्तुं वा स्वहस्तादिना तद्गृहत शति षष्ठी । उज्जितधर्मा नाम यत्परित्यागाई नोजनजातमन्ये च द्वि ६७ द्वा० । एषणायाः शङ्कितादिके दोष, एषणा गृहिणा दीयपदादयो नावकान्ति मानपिण्डादेर्ग्रहणं तदोषाः शङ्कितादयो दशेप्ति । स्था०३० तदत्यक्तं वा गृहत इति हृदयं सप्तमी- (ते च एसणा शब्द)। ति। पानकैषणा एता एव मवरं चतुर्थ्यां नानात्वं तत्र ह्यायाम-]. सौवीरकादिनिर्वेपनं विझेयमिति स्था०७०। आध०। प्रव०। | एसणाविसोहि-एषणाविशुचि-स्त्री.विशुद्धिभेदे,स्था०१०गा। नि००। पंचा० (तथाचा चाराने पिएकाधिकार एव सप्तपि (तद्वक्तव्यता विसोहि शब्दे ) एमषणा अधिकृत्य सूत्रमाह । तच्च पिंडेसणाशब्दे कष्टव्यम्) (१४) एषणायां कर्तव्यम् तथा चाह एसणासमिश्-एपणासमिति-स्त्री०एषणमेषोगवेषणं तं करोतीजिक्खू मुयच्चे कयदिधम्मे, ति णिच्-ततः स्त्रीलिङ्गे नावे युटि एषणा । उत्त०२४ अ०। एषणायामुझमादिदोषवर्जनतः समितिरेषणासमितिः पा० । गामं च णगरं च अणुप्पविस्सा । पषणमेषणा गवेषणग्रहणग्रासैषणभेदाः शङ्कितादिबकणा वा तसे एसणं जाणमणेसणं च, स्यां समितिरषणा समितिः। समितिभेद, उक्कं च एषणासमिअन्नस्स पाणस्स अणाणु गिद्धे ॥ तिर्गम गोचरगतेन मुनिना सम्यगुपयुक्तेन नघकोटीपरिशुरू स एवं मदस्थानरहितो निहाणशीलो भिक्षुः तं विशिनष्टि । ग्राह्यमिति- ।स्था०५०।आप० । गवेषणग्रहणप्रासैषणामृतं च मानविलेपनादिसंस्कारानावाद; तनुः शरीरं यस्य दोषैरदूषितस्यानपानादे रजोहरणमुखवत्रिकाद्यौघिकोपधेः शस मृतार्चः । यदि वा मोदनं मुत् तद्भता शोभनाऽर्चा पनादिका। य्यापीउफबकचर्मदएमाद्यौपग्रहिकोपधेश्च विशुरूस्य यदू ग्रहणम् सेड्या यस्य स जवति मुदः । प्रशस्तदर्शलेश्यः। तथा दृष्टोऽ एषणासमितिर्यदाह "उत्पादनोगमैषण-धूमाङ्गारप्रमाणकारणवगतो ययावस्थितो धर्मः श्रुतधर्मचारित्राख्यो येनस तथा चैवं तः। संयोजनाच पिएडं, शोधयतामेषणास मिति” रिति । ध०२ नृतः कचिदबसरे ग्राम नगरमन्यद्वा मगदिकमनुप्रविश्य भि अधि० । प्रथ। “सुत्तानुसारेण रयहरणवत्थपादासणपाक्वार्थमसावुत्तमधृतिसंहननोपपन्नः सन्नेषणागवेषणग्रहणैषणा णणिलओ सहस्सेसणं एसणासमिति"" दिघमणेसियगहणे दिकां जानन् सम्यगवच्छन्ननेषणां चोझमदोषादिकां तत्परिहारं दिधमणेसियगहणे त्ति एस एसणासमिति एसणासमितिए विपाकं च सम्यगवगच्चन्नन्नस्य पानस्य वा न तु गृकोऽनध्युप उवउत्तेण दिघमणेसणिज्जं पच्छा दिदै ण सक्किो गहणजोपन्नः सम्यग्विहरेत् । तथा हि स्थविरकल्पिको द्विचत्वारिंशदो ग्गो णियसेन एवं सहसक्कारो एषणासमितिए भवतीति" परहितां निकां गृहायुर्जिनकल्पिकानां तु पश्चस्वनिग्रहो यो। नि०यू० १ १० । एषणासमितिर्विचत्वारिंशद्दोषवर्जनेन ग्रंहस्ताश्चेमाः 'संहमसंसहा उद्धम तह होति अप्पजेवाय । उ भक्तादिग्रहणे प्रवृत्तिरिति । समः । एषणासमितावुदाम्गहिया पग्गहिया नज्मियधम्मा य सप्तमिया अथवा यो यस्या हरणं यथा “ वसुदेवपुव्वं जम्मं श्राहरण एसणासमिनिग्रहः स तस्यैषणा अपरा त्वनेत्रणेत्येवमेषणानेषशानिक क तिए मगढ़नंदिग्गामे (गोयरग्गामे ति पाकिक सूत्रवृत्ती) चित्प्रविष्टः सन्नाहारादावमूतिः सम्यक् शुभां जिवां गृह्णीया गोयम धिज्जा चक्कयरों तस्स य धारिणिभज्जागम्भो ताए दिति । सूत्र०१ श्रु० १३ अ०। कओ वि पाहुओ धिज्जाई मश्रो बम्मासगम्भधिज्जावणी जाते माउलसंवुट्टणकम्मकरणवलापारणयएण नत्थि तुह इएसणाअसमिय-एषणाऽसमित पुं०असमाधिस्थाननेदे,“एसणा. स्थ किंचि तो बेतामाउरो तं च मा सुण लोगस्स तुमं धुया ए असमिपया विनव" तथा " एसणासमिए असमिएया वि ओ तिन्न तेसिलेट्टयरं दाहामि करेमि कम्मं पकम्मो उ पत्तो जवतित्ति " एषणायांसमितश्चापिसंयुक्तोऽपि नानैषणांपरिह य विवाहोसानेछई विसनो माउलोवेश द्वितीय दोहामि सावि रति प्रतिप्रेरितवासी साधुनिः सह कलहायते अनेषणीयतां य तहेव नेच्छई ततियं पिनेच्छह सावि निधिन्ननदिवशणायपरिहरन् जीवोपरोधे वर्त्तते एवं चात्मपरयोरसमाधिकरणाद रियाणं सगासे निक्खंतोजाश्रो बट्टक्खमोगण्डाति य । अनि समाधिकस्पानमिदं विंशतितममिति । इशा०१०।"श्रणेसणं ग्गहमिमं तु बामगिलाणादीणं वेयावश्च मए उ कायध्वं तं कुणणपरिहरति पमिवोदितो साधूर्हि समं मंगर अपरिहरंतो य| इतिब्वसहो खायजसो सक्कगुणकित्ती असइहणे देवस्स आग. कायाणमुबरोधे वळंती वळंतो य अप्पाणं चेव असमाहीप मो कुप्पति दो समणरूपो अतिसारगहियमग्गो अडिवितिजोजयतीति " आव० ४ अ० । प्रो अतिगो वितिनो वेह मिलाणो पडिभो वेयावच्चं तु स. एसपागोयर-एपणागोचर-पुं०एषणा मादिदोषविप्रमुक्तभ- देह जोओ सो उछेतु अनिष्पं सुयं च तं नदिसेगणं ग्छो व Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसिय (७३) एसणासमि अभिधानराजेन्द्रः। पासपारणमाणीयं कवसतुकामेणं तं सुयमेत रहसुनियो य तिगतो पाणगं मग्गंति । अणेसणं लोगो करेति ।न लद्धं काजणकेण कति पाणगदवं च तहिं जणच्छीवेश् तेण कजति । लगता पंच वि पते एसणाए । मा० चू०४०। निम्थं हिंसर ततो कुण अणेसण निविया पेस्ले इति । एक्क-[ एसणासमिय-एषणासमित- एषणायाम् उत्पादनमहणग्रावारं वित्तियं चहिमितो न मद्धततियवारम्मि अणुकंपाए चरंतो सविषयायां सम्यगितः स्थितः समितः पषणासमितः । एषततो गतो तस्सगासं तु खरफरसुनिटरेहिं अकोसई सो गिला- णायां सम्यक् स्थिते, निर्दोपाहारग्राहिणि, उत्त० ६ ० । णमो सको हेमंदभग ! फुक्कियनूससितनाममेत्तेण साबदुव- "पसणासमिए णिचं वजयंते प्रणेसणं" एषणायां गवेषणकारित्ति। अहं नाम हंसमुद्दिसिउमाओ एया अवस्थाए तं श्र- प्रहणैषणग्रासरूपायां त्रिविधायामपि सम्यगितःसमितः सामासि नत्ससोनिल्लो श्रमियमिव मममाणे तं फसगिरं तु सो धुनित्यमेषणासमितः सन्ननेषणां परिवर्जयन् परित्यजन् संयतु संतो चमणगतो खामेती धुवति यत असुश्मनलित उछेद ममनुपालयेदिति । सूत्र०१ श्रु०११ मा तथा च । बयामो ति तह कहामि जहा अचिरेण दोहिह । निरुप्प तु एसणासमिनो लज्जू, गामे अणियो चरे। फलेवेत्ता न तरामि गंतुं जे आरुहतापट्टीए प्रारुढो तो पयारं च परमासुश्दुगंधिमुयतीपडीए फरुसंच वेति गिरि धिं मुंमि अप्पमत्तो पमत्तेहिं, पिंगवायं मवेसए । य वेगविधाओ को सि । उक्खविप्रो श्य बहुविहमुक्कोसति एषणासमितिनिदोषाहारग्राही प्रामे नगरे वा अनियतो निपदेसो वि भगवं तु न गणेश फरुसगिरं न पत्तं चिकुसइत्ता र- त्यवासरहितः सन् चरेत् संयममार्गे प्रवर्तेत । कीडशः साधुर्लसं गंधं चंदणमिव मन्नतो मिच्छामि दुक्क भणति । चितेइ किं ज्जूर्लज्जालुः लज्जासंयमस्तेन सहितः । पुनः कीरशः अप्रमत्तः करेमि किह पुसमाही हवेज्ज साहुस्स श्य बहुविहप्पा- प्रमादरहितः। पुनःसाधुः(प्रमत्तेहिं इति)प्रमत्तेभ्यो गृहस्थेभ्यः रेण चिंतितो जाहे खोजेन ताहे अभित्युणतो तओ श्रागतो पिण्डपातं भिक्षां गवेषयेत् गृहीत प्राकृतत्वात्पञ्चमीस्थाने सृय इयरोन अालोपड गुरुहिं धन्नोत्ति ततो य अणुसट्टो जह| तीया उत्स०६अ। तदात्मके समाधिभेदे च । स्था०१० ठा। तेणं न विपेल्लिय एसणाए जश्यञ्च । अहवा वि इमं अन्नं एसणिज्ज-एषणीय- निष-एष वा कर्मणि अनीयर् आशाभाहरणं दिठिवा दीयं जह केइपंच संजया तए बुहह कि- स्ये, गम्ये च वाचन एण्यते गयेष्यते उझमादिदोषषिकलतया संतसुमहमकाणं उसिन्ना वेयावियपत्तगामं च ते एग मग्गति साधुभिर्यत्तदेषणीयम् कल्पे, । स्था० ३ ठा। "फासुयस्स पाणगं ते लोगो य अणेसणंतेहि कुणति न गहिय न स एसणिजस्स उंछस्स सामुदाणियस्स णो सम्मं गधेसहसा कामियरं कारगयतिसाभिनूया य आव०४० । आवश्य भवर"। एष्यते गवेष्यते उदमादिदोषरहिततयेत्येषणीयः ककचूणों तु "एप्तणासमितीए नंदिसणो अणगारो मगधाज ल्पस्तस्येति । स्था० ४ ठा० । “ एसणिमिति संकितमाक्सिजवर सान्निग्गामो तत्येगो गाहावती तस्स पुत्तो नंदिसेणो यादिदोसविमुक्तमिति" पं० चू।" एसणिजे तु दसदोसतस्स गब्जत्थस्स पितो मतो माता ग्म्मासियस्स मातुपिताए विष्पमुकं ति"पं० भा०।। संवक्रितो । अमदा णंदिवरुणो अणगारो साधुसंपरिखुमो वि. हरमाणो तं गाममागो उजाणे ग्तिो । साधुनिक्खस्स गतो एसणोपघाय-एपणोपघात-पुं० एषणया शङ्कितादिनेदया योधा सणो भणति के तले रिसोवामा तः स एषणोपघातः। उपघातभेदे, स्था०१०गाएषणोपघात णितो पायरिया जाणंति उज्जाणे तत्थ गंतं पुच्चगहि गतो पु- एषणया तहाषदशाभा शाकताादामरुपघात शत स्था०५ भित्ता पब्वश्तो । ग्टुक्खमश्रो जातो । प्रनिग्गडं गेण्डति। एसमारण-एषयत-त्रि० भन्येषति, "पसणाए पसमाणं परोघदेयावश्चं मए कायब्वति । सक्को गुणग्गहणं करेति । अदाणमण- जा" पतया अनन्तरोक्तया वस्लेषणया वस्त्रमन्वेषयन्तं साधु सो वेयावच्चे अब्भुट्टितो । जो जं दव्वं श्च्चति साहूतं तस्स सो परो वदेत् । आचा० २ श्रु० ५ अ० १ उ० । दोत । एगो देवो मिच्नगदिछी असद्दईतो आगतो साधु रूवं वि-एसित्तए-एषितम-अव्य० अन्येष्टुमित्यर्थे, “संथारगमे सित्त" उब्वित्ता उम्भडन पमिस्सयं आगतो नंदिसणस्स रहस्स पा-1 संस्तारकमन्वेधमिति प्राचा० २ ०२०१०। रणगा पढमे कवले नक्खिने देवक्त्रमणो तं पत्तो भणति । | एसित्ता-एक्तित्वा-अव्य० अन्विष्येत्यथें, "पिंडवायं पसित्ता" मा. वितिउ निसाए परितो । अंतरंतोपितो बाहि ज को सहहति वेयावश्चं तुरितं घेतूण पाणगं जातु । नंदिसेणो अपारितो चेव | पिएमपातं निकामेक्विन्वाऽन्विष्यति । प्राचा०२ श्रु०१ ०श्च०। पाणगस्स गाम अतिगतो निक्खू तो हिमंतो देवाणुभावणं न एपित्वा-अव्य० निर्दोषमाहारं गृहीत्वेत्यर्थे “पमिरवेण एसिअन्नति । चिरस्स स गहाय गतो साहं न पेति वाटता त्ता" आहारं निर्दोषं गृहीत्वेति । अन्विष्येत्यर्थे, उत्त०१०। चिरेण वायादिणा देवेण अतिसारजुत्तोसाह विउधितो लणति | एसिय-एषिक-पुं०पषितुं शीसमस्येत्येषिका मृगमुग्धक हस्तिएएणं धि मुंगए चिरस्स आगतो वेयावच्चे वि कवडबुझी भणति। तापसादा, पास्वपिसके च । (एसिया बेसिया सुदा) पषितुं मिच्छाऽक्कमति । पाणगं चिरेण वति । भणति किह ते शीसमित्येषिका मृगलुब्धका हस्तितापसाश्च मांसहेतो गान् ह. गामं नोमि । किं अंसेण पिछीएप्ति । नणति अंसेणं असे स्तिनश्च एण्यन्ति तथा कन्दमूलफलादिके च । तथा ये चाऽन्ये कातु पद्वितो असुभकामसं मुयति गुरुगं च । अप्पगं पास्वएिसका नानाविधैरुपायैर्भयमेष्यन्त्यन्यानि वा विषयसाधकरेति भणति य मत्तरखलखला विजामि । पुणो तुरा- नानि ते सर्वेऽप्येषिका इत्युच्यन्ते । सूत्र०१ श्रु०एम०। जातिहित्ति । एवं बहुसो धिक्स्वोभवेड आहे ण तरति खामे दे, [एसियकुमाणि वा) पसियति गोष्ठा इति" आचा० २ ताहे सो तुको संमसं पडिपो बंदिसा पडिगतो। एस एस-भु०१० २०॥ णासमितो । श्रहवा इमं दिष्विातियं पंच संजता महाप्रो एपित-त्रि० एषणीये,पवयन्ति एषणीयमुद्रमादिदोषरहितमिति अघाणाश्रो तएहा छुहा किलंता निग्गता । वेयाले गाम अ- प्राचा०२ श्रु०१ १०११ ०। (एसियस्सत्ति) एवणीयस्य गये. ___ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) एसिय अभिधानराजेन्द्रः। पणाविशुद्ध्या गवेषितस्येति न०७ श०१ उ० । एषितं प्रासुक- एहिय-ऐहिक-त्रि० इह भवः काबाटुश्, हलोकभषे, गृहीतमित्यर्थ इति व्यद्वि०४ उ० । पषितमन्वेषितं निक्काचर्यावि- शरीरसम्बधिनि मक्चन्दनादिसुखानुनवादौ च वाचाऐधिना प्राप्तमिति सूत्र०२ श्रु.१० ॥ हिकमेव चक्रं सांसारिकसुखहेतुत्वादिति । श्रा० म०प्र०। एसिया-एपित्वा-अव्य० अन्वेष्यत्यर्थे, “सुविसुकमेसिया" सु ऐ-अयि-अव्य०३ण इन् । भयौ वैत् ।१।१६ए। ति प्राकृतविशुरुमुत्पादनादोषरहिततयैषणादोषपरिहारेणैषित्वाऽन्विष्ये- | सूत्रेणायिशब्दे आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जमेन सह वा ऐ ति । आचा०१श्रु.६०४101 कारः । प्रा० । प्रश्ने, अनुनये, सम्बोधने, अनुरागे च । वाच । परंत-पधयत--त्रि०अनुभवति,"दासंति ऽहमंहता"उखकश | माटोम" अउम्मत्तिप वचनादकारस्यापिप्राकृते प्रयोगःप्रार मकणमेधयन्तोऽनेकार्थत्वादनुन्नयन्त इति । दश० ए०। पाकककककककककककककककककककककका इति श्रीमत्सौधर्मवृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वज्ञश्रीमहट्टारक-जैन श्वेताम्बराचार्यश्रीश्री १०७ श्री विजयराजेन्सूरिविरचिते अनिधानराजेन्डे एकारादिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् PANA काकाकाकाकाकाकाका Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोकार अनिधानराजेन्धः। प्रोगहिय भोऊल-अवचून-ज०हस्यादः कटन्यस्ताधोमुसकूर्चके, "पसंघोकलमदुपरकर्यधयारं "हा. १६ अ०। ओं-ॐ-पुं०अव्य० अश्व अश्व प्राच नश्व मच इन्द्रः। परमेष्ठिपश्वके, "*मर्भुवःस्वातत्सवितुर्वरेण्यं," श्रोमिति परमेष्ठिपञ्चकमाहाकथमिति चेदुच्यते । अति अईत प्राधाक्वरम | अश्त्य शरीरा इत्यस्य सिरुवाचर्कस्याद्याकरम् । मा श्त्याचार्यस्याद्याGAAAAAAAA कर उ इत्युपाध्यायस्याचाकरम, म ति मनीत्यस्याद्याकरम् अअाउम् इति ततः सन्धिवशात् ओं इति । पदैकदेशे पद समुदायोपचारादेवमुक्तिः॥ ओमित्यनेन "आघट्टकला अरिहंता,प्रो-अब-अप-उत्-अन्यण्वादिप्रकरणोक्तार्थेषु, " अवापोते च नितणा सिद्धाय बोकुकरसूरी । उवज्झाय विसुककला, दोह।१७२ अवापयोरुपसर्गयोरुत इति विकल्पार्थनिपाते च | कला सादुणो नणिय ॥१॥" इति गाथोक्तरहस्येन परमेआदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह प्रोद् वा भवति । ष्ठिपञ्चकमेव महानन्दार्थिना ध्येयमिति ॥ परमतत्त्वे यतः अक्कओअर अवअर । भोत्रासो अवआसो। अप। भोसर । पादाःस्वं देवमीश्वरं प्रणिदधानाःप्रार्थनापुरःसरमेवमन्निदधति । मवसरह । ओसारिअं । अवसारिश्र। उत्-प्रोवणं उश्रवणं।। (ओनूभुवेत्यादि) श्रोमिति सर्वविद्यानामाद्यबीजं सकसागमो. भोघणो । उअघणो । क्वचिन्न भवति अवगभं । अवशद्दो उअ-| पनिषद्भूतं सर्वविघ्नविधातनिघ्नमखिरष्टारष्ट्रफमसंकल्पकल्परवी प्रा० । अब-अधःशब्दार्थे, वोसिरामि । विशे। हमोपमामित्यस्य प्रणिधानस्यादावुपन्यस्तं परममङ्गलम न चैतधओ-श्रव्य उ-बिच । संबोधने, बाहाने, स्मरणे, अनुकल्पने, तिरिक्तमन्यत्तत्वमस्ति इति । प्रोमित्यक्करं छन्दसमादिभूच मेदिन प्राकृतेऽपि यो सूचना पश्चात्तापे, ॥३॥ ओ इतिसूचना- तत्वात्तस्य किंविशिष्टस्य भूर्जुवःस्वस्तद्धनत्रयच्यापि तर्हि किंपश्चात्तापयोःप्रयोक्तव्यम् सूचनायाम् “ो अविणप्रतत्तिल्ले" चिदनिधेयसत्तासमाविष्टं वस्तु गुरुसंप्रदाययुक्तान्विष्यमाणपश्चात्तापे-"श्रो नमर गयातिभाए" विकल्पे तु उतादेशेन प्रो- मत्र ओकारे शब्दपर्यायेणाचाप्यते सर्ववादिभिरविगानेनास्य कारेणैव सिकम् । "ओघिरपमि न हो" प्रा० । ओ इति नि. सकलजुवनत्रयकमनाधिगमे बीजतयोपवर्णितत्वादिति परिनापातः । पादपूरणे, पंचा०३ विवा"सामाईयमोत्तयं तु यं विन" चनीयमेतत् । गा० । अश्व उश्च मश्च तेषां समाहारः। विष्णु"पंचा०१ विव० । सुहमे परमुस्सकण-मवसक्कणमोयपाहु. महेश्वरब्रह्मरूपत्रयात्मके ईश्वरे, । ब्रह्मोकारोऽत्र विज्ञेयः प्रकारो मिया" पंचा० १७ विव०। विष्णुरुच्यते । महेश्वरो मकारस्तु त्रयमेकत्र तत्त्वतः । पं०व०४ प्रो-पुं० रकणे, शेषे, मन्त्रे, श्रुतावपि ब्रह्मणि, शीतांशी, पङ्के, द्वा०३३पत्र प्रणये,प्रारम्ने, स्वीकारे,। अनुमती, अपाकृती, दायादे, त्रिदिवेशे, पयोवाहे, यवे, वेधे, नदे, योनौ, सरसिजे, | अस्वीकारे, मङ्गले, शुन्ने, झये, ब्रह्मणि च । वाच । तोये, रुषस्वामिनि, मातरि, एका। ओंकार-ओंकार-पुं-श्रोम-स्वरूपे कारप्रत्ययः। प्रणव, स्तुबीश्रोअक्ख ना-धावा-पर-सक० । प्रेवणे "शो निअच्छपे- त कृतं सर्वमित्युक्तेश्च भोकारस्य सर्वकारम्नादौ पाठ्यत्वात्च्या वयग वयक चज्ज सञ्चव देक्खो अक्खा चक्खावअक्ख | | श्रारम्नसाधनत्वेन आरम्ने,। सप्तानां समावयवानां प्रथमापुस्रोये पुलअ निश्राव आस पासाः"618100। ति रशे वयवे च । बुझिशक्तिभेदे च स्त्री० । वाच । रोअक्खादेशः। ओवक्खापास पश्यति प्रा०। प्रोक-श्रोक-पुं०उच्-घ-चस्य कः। पक्विणि, वृषसे, भाभये च । भोअम्ग-वि-अप-धा० स्वा-उन० व्यापेरोअम्मः ८।४।४।। उच् भावे घम् कुत्वम् । समवाये । वाच । शति व्याप्नोतेरोअग्ग इत्यादेशो वा नवति । प्रोअग्गा । वावे । अोक्य--प्रोकाय हितं यत् निवासाय हिते, त्रि. पाच। प्राप्नोति प्रा०। ओकस्--न०नुच्-असुन् म्यवादित्वात्कुत्वम् । गृहे,माश्रयमात्रे श्रोअद-श्रा-निद-धारुधा हस्तादिनाऽऽकर्षणे, | माङा ओ- च । बनौकसः त्रिदिवौकसः इत्यादि । पाच० । "कुलपत्यर्पिते अंदोहासौ ८।४।५। ति पाका युक्तस्य निदेरोअंदादेशः। वर्षास्तस्थौ स्वामी तृणीकसि।गाचो यहिस्तृणानाफ्या वर्षारम्भेश्रोअंदर आदि । माच्चिनत्ति । प्रा। सुधातुराः" प्रा० क०। श्रोग्रास-अवकाश-पुं० अ-का-घञ्-अवापोते च ८।१Nोजिय-अवकजित-म० कर्क तिर्यग्वाहुमिति करणे, "8 ७। इति सस्वरव्यम्जनेन सह श्रोत प्रा० । भाभये, पं०० तिरिय इत्ति करणं श्री अवकुंजिय"। निचू०१७ २०। १द्वा०॥ ओक्खन-उदखल-न० सद्-ऊर्फ याति । मा-क पृषो-निक श्रोग्रासचिव जिभ-अवकाश विवर्जित-त्रिपाश्रयरहिते,"च नवा मयूस्खलवणचतुर्गणचतुर्थचतुर्दशचतुर्वारसुकुमारकुतूहरो त्तम्मि घरावासे, प्रोप्रासविवजिओ पि पासतो" पं०व०१द्वा० दुखसोलुखले ०।१।७१ ॥ इति श्रादेः स्वरस्य परेण सस्वभोश्म-अवतीर्ण-त्रि० गन्तुमुपक्रान्ते, "विसमं मम्गमो श्लो, रव्यञ्जनेन सह प्रोद् चा। भोक्खा । उलूखलं । तैलादित्वात्सद्विअक्ने नम्गमि सोयह " उत्त०५०। त्वे 'द्वितीयतुर्ययोरुपरिपूर्वः'।२। । ति द्वितीयस्योपभोन-ओतु-पुं० स्त्री० अ-तुन्-कर गुणः । विमाले, मार्जारे, रिप्रथमः । तन्मुलादिसाधने गृहोपकरणे, प्रा०। श्रा-वे-तुन्-या संप्रसारणम् । तिरधीनसूत्रे, वाच । भोगसण-अपकसन-नाइसने, पृ०६०। प्रोउय-आर्तव-न०ऋतौ यदुचितं तदातवम् ।ऋतचिते, "- ओगहिय-अवगृहीत-- न० येन केनचित्प्रकारेण दायकेनाते गहरुबरपवरधूवणोउवमलापुलेषणविही"का०१७मा । भक्कादौ, ॥ Jain Education Interational Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोगाहिय अनिधानराजेन्डः। मोगाहणा तिविहे भोगहिए पम्मत्ते तं जहा जंच ओगिएडा जं अवगाहना औणादिका प्रत्ययः। प्रव०१०। औदारिकादी च साहरई जं च पासगांस पविखव॥ शरीरे, सम। अधगृहीतं नाम येन केनचित्प्रकारेण दायकेनातं भक्तादि (१) अवगाहनाया भेदाः। यदिति नक्तम् । चकाराः समुच्चयार्थाः । अवगृढाति (२) औदारिकशरीरावगाहनामानम् । श्रादत्ते हस्तेन दायकस्तदवगृहीतमेतश्च षष्ठी पिण्डैषणेति एवं (३) पृथ्व्यादीनामौदारकावगाहनामानम् । चवृद्धव्याख्या परिवेषक-पटकाया रंगृहीत्वा यस्मै दातुका (४) द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणामौदारिकावगाहना। मा तद्भाजने केप्तुमुपस्थितस्तेन च प्रणितं मा देहि अत्रावसरे (५)तिर्यकपश्चेन्द्रियौदारिकशरीरावगाहना। प्राप्तेन साधुना धर्मलाभितं ततः परिवेषको भणति प्रसारयसा- (६)मनुष्यपञ्चेन्डियौदारिकशरीरावगाहना। धो!पात्रं ततः साधुना प्रसारिते पात्रे विप्तमादनम् । इहच सं. (७) वैक्रियशरीरस्यावगाहनामानम् । यतप्रयोजनगृहस्थन दस्त पव परिवर्तितो नान्यसनाहित.I (८) पृथ्व्यादीनां वैक्रियशरीरावगाहना । जघन्यमा जातमिति वा (१) पञ्चेन्छियतिरश्चां वैक्रियशरीरावगाहनामानम् । "@जमाणस्स उक्खितं, पमिसिद्धं च तेण उ । जहन्नोवहमंतं । (१०) असुरकुमारादीनां क्रियशरीरावगाहना । तु, हत्थस्स परियत्तणेति" तथा तच्च परिवेषकः स्थानाद (११) आहारकशरीरस्यावगाहनामानम् । विचक्षन् संहरात प्रक्तभाजनाज़ोजनजाजनेषु क्विपत्ति तच्चाव (१२) तैजसशरीरस्यावगाहनामानम्। गृहीतमिति प्रक्रमः श्लोकोऽत्र । अह साहारमाण (परिवेषय (१३)निगोदजीवस्यावगाहनामानम् । नित्यर्थः)तु, वढ्तो जो उदायो। दवेज्जा चसिभोतत्तो, छठा (१४) एकत्र एक एव धर्मास्तिकायादिप्रदेशावगाढ। पसा वि एसणत्ति" तथा यश्च भक्तमास्यके पिनरादिमुखे कि (१५) धर्मास्तिकायादेरवगाढानवगाढस्य चिन्ता। पति तचावगृहीतमिति । एवं चात्र वृद्धव्याख्या कूरमवसादननि (१) अवगाहनायाः भेदारतद्यथा मित्तं कनिंजादि भाजने विशाबोत्तानरूपेक्तिप्तं ततो भक्तिकेन्यो दत्तं ततो जक्तशेषं यद्यः पिउरके प्रकाशमुखे विपति दद्यात् चनबिहा ओगाहणा पमत्ता तं जहा दव्योगाहणा खेपरिवेषयतीति या प्रकाशमुखे नाजने समृप्तीयमवगृहीतम् । त्तोगाहणा कालीगाहणा भावोगाहणा ।। श्लोकोऽत्र ।"नुत्तसेसंतुजं ओ, बुवंती पिवरोदये । संबटुंती अवगाहन्ते आसते यस्थामाश्रयन्ति वा यां जीवाः साऽवगाच अन्नस्स, पासगंसिपएसपत्ति ॥१॥, मनु श्रास्ये मुखे य हना शरीरं द्रव्यतोऽवगाहना द्रव्यावगाहना । एवं सर्वत्र । तत्र प्रक्विपतीति मुल्येऽर्थे सति किं पितरादिमुखे इति व्याख्यायत कन्यतोऽनन्तद्रव्या क्षेत्रतोऽसंख्येयप्रदेशावगाढा । कालतोऽसंइत्युच्यते अस्य प्रक्केपव्याख्यानमयुक्तमिति जुगुप्सानाधादिति।। ण्येयसमयस्थितिका भावतो वर्णाद्यनन्तगुणैति। अथवा प्र. आद च । “ पक्खेवर पुगुच्छा आपसो कुममुहाईसुत्ति" स्था० वगाहना विवक्षितद्रव्यस्याधारभूता आकाशप्रदेशास्तत्र द्र३ग०॥ व्याणामवगाहना द्रव्यावगाहना । क्षेत्रमेवावगाहना क्षेत्रावभोगाढ-अवगाढ-त्रि० अव-गाह-क्त। आश्रिते, । स्था० १० ठा। गाहना । कालस्याबगाहना समयक्षेत्रलक्षणा कालावगाहना। अवस्थिते, स्था०१ ठाउययस्थिते, आ० म०प्र०ा व्यप्ति, झा० भाववतां द्रव्याणामवगाहना भावावगाहना भाषप्राधान्या१६ अास्थिते, आचा०२ १० । निमग्ने, स्था० ४ ग० । दिति । आश्रयणमात्र वा अवगाहना । तत्र द्रव्यस्य पर्यायैर घगाहना श्रयणं द्रव्यावगाहना। एवं क्षेत्रस्य कालस्य भावानां भोगाढरु-अवगाढरुचि-स्त्री० श्रवगादः साधुप्रत्यासन्नीभूत द्रव्येणेति अन्यथा चोपयुज्य व्याख्येयमिति स्था०४ठा। स्तस्य साधूपदेशाद् रुचिरबगाढरुचिः। धर्मध्यानरय चतुर्थे, । लकणे, । स्था० ४ ठा। नवविहा जीवोवगाहना पठात्ता तं जहा पुढविकाश्यओगाहपत्ता-अवगाह्य--अ० उदकमेव आत्माभिमुखमाकृष्येऽर्थे श्रोगाहणा आजकाइय जाव वणस्सइकाइयश्रोगाहणा "ओगाहश्त्ता चलत्ता आहारे पाणभोयणे" द० अ०। वेदियोगाहणा तेंदियोगाहणा चउरिदियोगाहणा पंचेंप्रोगात-अवगाहत-अवगाहमान-त्रि० अवगाहना कुयति, "सू दियोगाहणा || स्था० ठा। रूट्यपच्छिमाए ओगाहंती पुव्यं नए" अवगाहम्त्यामागच. (२) सामान्यत औदारिकशरीरावगाहमामामम । म्त्यामित्यर्थः । श्राव०२०।"ते चोगाहंती संघट्टती रमंती य"। तानेव षटकायानयगाहमाना पादास्यां चाजयन्ती। पिं०। ओरालियसरीरस्सणं नंते ! के महालिया सरीरोगाभोगाहणसेणियापरिकम्म-अवगाहनश्रेणिकापरिकर्मन्-न०| हणा पत्ता गोयमा! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभार्ग दृष्टिवादान्तर्गतपरिकर्मभेदे, सम० । उकोसेरणं सातिरेगं जोयाण सहस्सं । एगिदियनरालियभोगाहणा-अवगाहना- स्त्री अवगाहन्ते भासते यस्यां | स्स वि एवं चेव जहा श्रोहियस्स ।। साऽवगाहना । क्षेत्रप्रदेशे, स्था०१ ठा। अवगाहन्ते अव-1 औदारिकस्य जघन्यतोऽवगाहना अङ्गलासंख्येयभागा स तिष्ठन्ते जीवा अस्यामित्यवगाहना । नारकादितनुसमवगाढे चोत्पत्तिप्रथमसमये पृथिवीकायिकादीनां वाऽवसातव्या । उक्षेत्रे, ! अनु। आधारैकभूते क्षेत्रे, समा अवगाहन्ते आसते| स्कर्षतः सातिरेक योजनसहस्रमेषा लवणसमुद्रगोतीर्थादिषु यस्यामाश्रयन्ति वा यां जीवाः साऽवगाहमा स्था०४ टा०।। पानालाद्यधिकृत्यावसातव्या । अन्यत्रतावत् औदारिकशरीअवगाहन्ते क्षेत्रं यस्यां स्थिता जन्तवः साऽवगाहनामा०म०। रस्यासंभवात् । एवमेकेन्द्रियसूत्रेऽपि तथा चाह । “एगिदिप्र० । उत्त ३६ अ०। प्रावगाह्यते जीवन प्राकाशोऽनयेति यउरालियस्स एवं चेच जहा श्रोहियरस इति" प्रका०२१. पद् For Private & Personal use only . Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७) भोगाहणा अनिधानराजेन्द्रः। ओगाहणा (३) औदारिकपृथिव्यादीनामवगाहनामानम् । बगानयाई । पज्जत्ताण वि एवं चेव ३ । सम्मुच्छिमाणं पुद विकाश्यएगिदियोरा लियसरीरस्स एं भंते ! के म- पज्जताण य कोसेणं गाउयपुहत्तं ३ । गन्जवतियाणं हालिया पुच्चा । गोयमा ! जहन्नेण विउकोसेण वि उक्कोसेणं छगानयाई। पजत्ताण य ओहियचउप्पयपज्जत्तयअंगुलस्स असंखेज्जइभागं एवं अपज्जत्तयाणं वि पज्जत्तयाण गब्जवकतियपज्जत्तयाण य उक्कोसेणं छ गाउयाई सम्मुच्चिवि। एवं मुहमाणं पज्जत्तापज्जत्ताण वायराण पजत्ताप- माणं पज्जत्ताणं गाउयपुहत्तं उक्कोसेण एवं, उरपरिसप्पाण ज्जत्ताणवि। एवं एसोगवनेोजहा पुढविकाझ्याणं तहा। वि । ओहियगन्जवतियपजसयाणं जोयणसहस्सं । पाउकाश्याण वि । तेउकाझ्याण वि वाउकाश्याण वि । सम्पच्छिमाण जोयणपुहत्तं नुयपरिसप्पाणं ओहियगन्मवणस्सइकाइयोगलियमरीरस्स एं नंते ! के महालिया वक्कतियाण वि नकोसेणं गाउयपुहत्तं, सम्मुच्छिमाणं धणुसरीरोगाहणा पम्मत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुनस्स अ- पुहत्त, खहयराण ओहियगम्भवतियाणं सम्मुच्छिमाण य संखेजजागं नकोसेणं सातिरेगंजोयण हस्सं । अपज- तिएह वि कोसणं धागुपुहत्तं । इमाओ संगहणिगाहाम्रो ताणं जहम्मेण वि उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेजश्ना- जोयणसहस्सलगानयाई, तत्तोय जोयणसहस्सं । गाउयपुगं । पज्जत्तगाणं जहमेणं अंगुलस्स असंखेजश्भागं ।। हत्त नुयपरि-धागृहे पुहत्तं च पक्खीसु ।१। जोयणसहनकोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं । बादराणं जहमेणं | स्सगानय-पुहत्तं तत्तो य जोयणपुहत्तं । होरह धणुपुहत्तं, अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं जोयणसहस्सं साति- सम्मुच्छिमे होति उच्चत्तं ।। रेगं । पज्जताण वि एवं चेव । अपजत्ताणं जहोण वि तथा सामान्यतस्तिर्यपञ्चेन्द्रियाणां जलचराणां सामान्यतः उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेजइनागं । मुहमाणं पज- स्थवचराणां चतुष्पदानामुरम्परिसीणां तुजपरिसणां खतापज्जत्ताण यतिएह वि जहरण वि उक्कोसेण वि अगुल चरपञ्चेन्द्रियतिरश्चां च प्रत्येकं नव सूत्राणि । तद्यथा त्रीणि अधिकानि । त्रीणि संमूचिमविषयाणि । त्रीणि गर्भव्युत्क्रान्तिस्स असंखेज्जइनागं । कविषयाणि । तत्रापर्याप्तेषु स्थानेषु सर्वेष्वपि जघन्यत सत्कपृथिभ्यतेजोवायूनां सूक्ष्माणां बादराणां प्रत्येकं पर्याप्तानामपर्या पतो वाऽङ्गलासंख्येयनागः । शेषेषु तु स्थानेषु जघन्यतोऽङ्गलासंसानां चौदारिकशरीरस्य जघन्यत उत्कर्षतश्चावगाहना अङ्गमा ख्येयजागः । उत्कर्षतः सामान्यतस्तिर्यपञ्चन्छियेषु जलचरेषु संग्येयजागः । प्रत्येकं च नव सूत्राणि तेषामौधिकसूत्रमौधिकप चोत्कर्षतो योजनसहनं सामान्यतः स्थलचरेषु चतुष्यदस्थयाप्तसूत्रम् । तथा सूक्ष्मसूत्रं सूझापर्याप्तकसूत्र सूक्ष्मपर्याप्तकसू लचरषु गर्नव्युत्क्रान्तिकेषु षट् गब्यूतानि संमूर्चिलमेषु गब्यूतअमेवं बावरेऽपि सुत्रत्रिकमिति एवं वनस्पतिकायिकानामपिच सूत्राणि । नवरमौधिकं वनस्पतिसूत्रे आधिकवनस्पतिपर्याप्तकस पृथक्त्वम् । तर परिसध्वौधिकेषु गर्भव्युत्क्रान्तिकेषु च योजनबादरसूत्रे बादरपर्याप्तस्त्रेजघन्यतोऽङ्गवासंख्येयभाग उत्कर्ष- सदनं संमूर्षिम्मेषु योजनपृथक्त्वं शुजपरिसप्वौधिकेषु गर्नतः सातिरेकं योजनसहनं तच्च पद्मनालाद्यधिकृत्य वेदितव्यम् । व्युत्क्रान्तेषु च गव्यूतपृथक्त्वम्।संमूनिमेषु धनुः पृशक्त्वं खचशेषेषु तु जघन्यत उत्कर्षतो वाऽगुवासंख्येय नागः॥ रेवौधिकेषु गर्नव्युत्क्रान्तेषु समामेषु च सर्वेषु स्थानेषु धनुः (४) द्वित्रिचतुरिन्छियौदारिकाणामवगाहनामानम।। पृथक्त्वम् अत्रेमे संग्रहगाथे (जोयणसहस्समित्यादि) गर्भब्युवे इंदियउरानियसरीरस्स एं भंते ! केमहालिया सरीरो कान्तानां जनचराणामुत्कर्षतः शरीरावगाहनामानं योजनसहगाहणा पमना ? गोयमा ! जहमेणं अंगुलस्स असंखेज स्रं चतुष्पदस्थलचराणां षट् गव्यूतानि । चरपरिसर्पस्थलचरा णां षट् गव्यूतानि । नरःपरिसर्पस्थनचराणां योजनसहनं इनागं उकोसे वारसजोयणाई । एवं सव्वत्थ वि अपज तुजपरिसर्पस्थलचराणांगव्यूतपृथक्त्वं पक्किणां धनुः पृथक्त्वम् । त्तयाणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं जहण विउकोसेण वि तथा संमूच्छिमानां जन्नचरणामुत्कर्षतःशरीरावगादनायाःप्रपज्जत्तगाणं । जहेव ओरालियस्स ओहियस्स । एव तेइं- माणं योजनसहस्रं चतुष्पदस्थनचराणां गव्यूतपृथक्त्वं, पक्किणां दियाणं तिमि गानयाई । चरिंदियाणं चत्तारिगाउयाई । धनुःपृथक्त्वम् । तथा संमूळिमानां जनचराणामुत्कर्षतः शरीरावगाहनायाः प्रमाणं योजनसहस्रश्चतुष्पदस्थलचराणां वित्रिचतुरिन्द्रियाणांप्रत्येकं त्रीणिसूत्राणि तद्यथा औधिकसू गव्यतपृथक्त्वम् , पक्तिणां धनुःपृथक्त्वमुरम्परिसर्पस्थलचराणां पर्याप्तसूत्रमपर्याप्तसूत्रं च। तत्रौघिकसूत्रेपर्याप्तसूत्रेचद्वान्छिया योजन पृथक्त्वं, तुजपरिसर्पस्थनचराणां च धनुःपृथक्त्वमिति । णामुत्कर्षतो द्वादश योजनानि । त्रीन्द्रियाणां त्रीणि गव्यूतानि । उक्तं तिर्यक् पञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरावगाहनामानम् । चतुरिन्द्रियाणां चत्वारिं गव्यूतानि । अपर्याप्तसूत्रे तु जघन्यत (६) श्दानी मनुष्यपश्चेम्ब्यिौदारिकशरीरावगाहनामानमाद । उत्कर्षतश्वालासंख्येयभागः॥ (५) तिर्यकपञ्चेन्ज्यिादारिकशरीरावगाहनामानम् ॥ मास्सोरालियसरीरस्सणं ते! के महालिया सरीरोपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं नकोसेणं जोयणसहस्सं ३ गाहणा पमत्ता ? गायमा ! जहरणं अंगुलस्स असंखेएवं सम्मुच्छिमार्ण ३ । गज्जवतियाण वि३ । एवं चेव जश्भागं नकोसेणं तिन्नि माउयाई । अपजत्ताणं जहन्ने वो दो भाणियन्यो । एवं जायराण वि जोयणस- ण वि नकोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं । सम्मुहस्सं वो जेदो । यलयराण विणयओजेदो उक्कोसेणं तिमाएं जहण वि उक्कोसण वि अंगुलस्स असंखज Jain Education Interational Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगाहणा अभिधानराजेन्द्रः। योगाहमा इभागं । गम्भवतियाणं पज्जत्ताण य जहनेणं अंगुलस्स | भो । उत्तरवेनुब्बिया पणवीसं घणुसतं। धूमप्पनाए जबअसंखेजइलागं । उक्कोसेणं तिएिग्ण गानयाई ॥ धारणिज्जा पणवीसं धणुसतं । उत्तरवेउब्बिया अहाकराव्यम् । नवरं त्रीणि गव्यूतानि देवकुर्याद्यपेकया तदेवमौ- इज्जाई घासयाई। तमाए नवधारणिज्जा अाइज्जाई दारिकशरीरस्थ विधयः संस्थानानि प्रमाणानि चोक्तानि । धणुसयाई। उत्तरवेनब्बिया पंचधणुसयाई । अहेसत्तमाए (७)संप्रति क्रियशरीरस्यावगाहनामानमाह। वेउब्बियसरीरस्स णं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा भवधारणिज्जा पंचधणुसयाई। नत्तरवेउब्बिया घणुसहस्स। पम्पत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जाभार्ग एयं उक्कोसेणं जहन्नेणं भवधारणिज्जा अंगुलस्स असंउकोसेणं सातिरेगं जोयणसयसहस्सं । वानकाइगएगिदि खेजश्नाग । उत्तरवेनचिया अंगुलस्स संखेज्जक्ष्भागं ॥ यवेउन्चियसरीरस्स णं भंते ! के महालिया सरीरोगाह अङ्गासासंख्येयभागप्रमाणता प्रथमोत्पत्तिकाले घेदितव्या । उणा परमत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइ त्कर्षतः सप्त धनषि त्रयो हस्ताः षट्चाङ्गलानि पर्याप्तावस्थाया मिदं चोत्कर्षतः शरीरावगाहनामानं त्रयोदशे प्रस्तटे द्रष्टव्यं जागं नकोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं । ऐरइयपं. शेषेषु त्वर्वाक्तनेषु प्रस्तटेषु स्तोकं स्तोकतरम् । तश्चैव रत्नप्रचिंदियवेनन्धियसरीरस्सणं भंते ! के महालिया सरीरोगा जायाः प्रथमे प्रस्तटे त्रयो हस्ता उत्कर्षतः शरीरप्रमाणम् द्वितीये हणा परमत्ता ? गोयमा! सुविहा परमत्ता तं जहा जव- प्रस्तटे धनुरेकमेको हस्तः सार्दानि चाष्टाङ्गलानि । तृतीये प्रधाराणिज्जा य उत्सरवेउब्बिया य! तत्य णं जा सावधार स्तटे धनुरेकं त्रयो हस्ताः सप्तदशाङ्गानि चतुर्थे द्वे धनुष) णिज्जा सा जहनेणं अंगुलस्स असंखेज्जइनागं नको द्वौ हस्ती सार्धमेकमङ्गलम् । पञ्चमै त्रीणि धषि दशाङ्गुला नि । षष्ठे त्रीणि धनूंषि को हस्तौ सार्धान्यष्टादशाङ्गलानि ससेणं पंच घणुसयाई । तत्थ णं जा सा उत्तरउधिया सा | प्तमे चत्वारि धनषि त्रयो हस्ताः सार्धान्येकादशाङ्गसानि । न. जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं उक्कोसेणं धनुस्सहस्सं। बमे पञ्च धषि एको हस्तो विंशतिरङ्गलानि । दशमे पद (वेउब्वियसरीरस्स णमित्यादि ) जघन्यतोऽङ्गालासंख्येयभागं धषि सार्धानि चत्वार्यङ्गसानि । एकादशे षट् धनूंषि द्वा नैरयिकादीनां भवधारणीयस्यापर्याप्तावस्थार्या वातकायस्य हस्तौ त्रयोदशाङ्गानि । द्वादशे सप्त धनषि सार्धान्येकवा उत्कर्षतः सातिरेक योजनशतसहस्रं देवानामुत्तरवैक्रियस्य विंशतिरङ्गमानि त्रयोदशे सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः षट् परिपूमनुष्याणां वा (पगिदिगवे ब्वियसरीरस्स णमित्यादि) अत्र ए- न्यङ्गनानि । एष चायं तात्पर्याधः। प्रथमे प्रस्तटे यच्चरीराबकेन्छियो वातकायोऽन्यस्य चैक्रियजध्यसंजवात् । तस्य जघन्य गाहनापरिमाणं त्रयो हस्ता इति तस्योपरि प्रस्तटक्रमेण सात उत्कांतो वाऽवगाहनागानमालासंख्ययभागप्रमाणमेतावत्प्र- कानि षट् पञ्चाशदङ्गानि प्रक्किप्यन्ते ततो यथोक्तं प्रस्तरेषु माणं विकुर्वणायामेव तस्य शक्तिसंनवात् । सामान्यनैरयिक- शरीरावगाहनापरिमाणं नवति। उक्तं च । “रयणाए पढमपयरे, सत्रे जवधारणीया भवोधार्यते यया सा जवधारणीया कृ- हत्थतिगदेहनस्सहभणियो। उष्पन्नंगुलसखा, पयरे पसरे हवह द्वहसमिति वचनात्करणे अनीयप्रत्ययः । उत्कर्षतः पञ्च धनु-श-| धुही "१ ( तत्थ णं जा सा उत्तरवेउध्विया इत्यादि ) तानि उत्तरवैक्रियधनुःसहस्रं सप्तमनरकपृथिव्यपेक्या अन्यत्रै- जघन्यतोऽङ्गनसंख्येयभागं प्रथमसमयेऽपि तस्या अङ्गससंख्येतावस्था भवधारणीयाया उत्तरवैक्रियाया वा शरीरावगाहना यभागप्रमाणाया एव नावात् । न स्वसंख्येयनागप्रमाणा । प्राया अप्राप्यमाणत्वात् । हाच । संग्रहरिणमूलटीकाकारो हरिजद्रसूरिः-उत्तरबैक्रिया तु (5) संप्रति पृथिव्यादीनां वैक्रियशरीरावगाहनामानमाह । तथाविधप्रयत्न नावादाद्यसमये अङ्गुलसंख्येयनागमात्रे चलरयणप्पन पुढविणेर याणं के महालिया सरीरोगाहणा त्कर्षतः पञ्चदशधषि अर्द्धतृतीयहस्ता इदं च उत्सरवैकिपपत्ता? गोयगा! विहा परम तातं जहा जवधारणिज्जाय यशरीरावगाहनापरिमाणं प्रयोदशे प्रस्तटेऽवसातव्यं शेषेषु उत्तरउछि नाय तत्थ णं जा भवधारणिजा सा जहन्नेणं अं- प्रस्तटेषु प्रागुतं भवधारणीयमानापेक्षया द्विगुणं प्रत्येतव्यम । गुलस्स असंखेजश्भागं नकोसेणं सत्तधणूई तिमि रयणीओ शर्करप्रभायां जवधारणाया उत्कर्षतः पञ्चदशधषि अतृती यहस्ता इदं चोत्कर्षतो जवधारणीयावगाहना परिमाणमेकादछच अंगुलाई तत्थ णं जा सा नत्तरवे उञ्चिया सा जहनेणं | शे प्रस्तटे ऽवसातव्यम् । शेषेषु प्रस्तटेखिदं शर्करायाः प्रथमे अंगुलस्स संखेजश्नागं नकोसेणं पनरसधण्इं असाइजाओ प्रस्तटे सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः षट् चाङ्गानि। द्वितीये प्रस्तटेरयणीभो । सकरप्पभाए पुच्छा गोयमा! जाव तत्य णं जा ऽष्टौ धपि द्वौ हस्तौ नव चाङ्गानि । तृतीये नव धषि एको. सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग हस्तो द्वादशाङ्गतानि । चतुर्ये दश धनूंषि पञ्चदशाङ्गवानि । उक्कोसेणं पन्नरसधणई अवाज्जाओ रयणीअो । तत्थ णं जा पञ्चमे दश धनषि त्रयो हस्ताः अष्टादश अङ्गानि । षष्ठे एकासा उत्तरवे उब्बिया सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जइनागं दश धषि द्वौ हस्तावेकविंशतिरङ्गलानि । सप्तमे द्वादश धषि उकोसेणं एकतीसं घणई एका य रयणी । वासुयप्पभाए दौ दस्ती । अष्टमे प्रयोदश धषि एको हस्तस्त्रीणि अङ्गसानि । पुच्छा, जवधारणिज्जा एकतीसवणूई एक्का य रयण।। उ- नवमे चतुर्दश धनूंषि षट् चाङ्गानि। दशमे चतुर्दश धषि त्रयो तवे नचिया उगवष्टिधाई दोमि य रयणीयो। पंकप्प- हस्तानव चाङ्गतानि। एकादशे सूत्रोक्तमेव परिमाणम् अत्रापीभाए पुच्छा, भवधारणिज्जा वावद्विधणूई दोनिय रयणी. दंतात्पर्यम् । प्रथमे प्रस्तटे यत्परिमाणमुक्तं तस्योपरि प्रथमे Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए) भोगाहणा अभिधानराजेन्द्रः। ओगाहणा प्रस्तटे क्रमेण त्रयो हस्तास्त्रीणि चाशनानि प्रप्तव्यानि । ततो माणमुक्तं तस्योपरि प्रस्तटे प्रस्तटे क्रमेण पञ्च धषि विंशतियथोक्तं प्रस्तटे परिमाणं नवति । “सो चेव य बीयाए, पढमे रन्मानीत्येवंरूपा वृहिरवगन्तव्या । ततः पृथमे प्रस्तटे सूत्रोपयरम्मि होर नस्सेहो । हत्थतियं तिन्नि अंगुन-पयरे पयरे यवु क्तपरिमाणं भवति । उक्तं च । “सो चेव चउत्थीप, पढमे पयहीरो ॥१॥पकारसमे पयरे, पन्नरस धपूणि दापिण रयणी रम्मि होइ नस्सहो । पंचधणुवीसअंगुल,पयरेपयरे य वुडीय॥१॥ ओ। वारसयअंगुबाई, देहपमाणं तु विनेयं ॥२॥" गाथाद्ध जो सत्तमए पयरे, नेरझ्याणं तु हो। उस्सेहो ॥ गवाहीधणुयायस्यापीयमकरगमनिका य एव प्रथमपृथिव्यास्त्रयोदशे प्रस्तटे इंदोमियरयणी य बोधव्वा" ॥२॥ अस्यापि गाथाद्वयस्यावरगउत्कर्षत उत्सेधो जणितः सप्त धषि प्रयो हस्ताः षट् चाङ्गना मनिका प्राग्वद्भावनीया ॥ उत्तरवैक्रियोत्कर्षपरिमाणं पञ्चविंशनीति स एव द्वितीयस्यां शर्करप्रनायां पृथिव्यां प्रथमे प्रस्तटे तिधनुःशतं तच्च सप्तमे प्रस्तटे । शेषेषु तु प्रस्तटेषु स्वस्थभवसत्सेधो जवतिज्ञातव्याततःप्रतरे प्रतरेबुद्धिरवसेयात्रियो हस्ता धारणीयापेकया द्विगुणमिति । पञ्चम्यां धूमप्रनायां पृथियां स्त्रीणि चान्नानि । तथा च सत्येकादशे प्रस्तटे उत्कर्षतो प्रव अवधारणीयोत्कर्षतः पञ्चविंशरूनुःशतं. तच्च पञ्चमं प्रस्तट मधिकृत्योक्तमयसेयम् । शेषेषु प्रस्तटेविदम् । प्रथमे प्रस्तटेकापधारणीयशरीरपरिमाणमायाति। पश्चदश धषि द्वी हस्तौ द्वा ट्रिधनूंषि द्वौ हस्तौ । द्वितीयेऽष्ठसप्ततिधनूंषि एका वितस्तिः । दशाङ्गलानीति । उत्सरवैकियोत्कर्षपरिमाणमाह । एकविंशति तृतीये त्रिनवति धषि त्रयो हस्ताः । चतुर्थे नवोत्तरं धनुःशतं धनूंषि पको हस्तः । श्दं च एकादशे प्रस्तटे बोदितव्यम् । शेषेषु पको इस्त एका च वितस्तिः। पञ्चमे सूत्रोक्तपरिमाणम् । अत्रातु प्रस्तटेषु स्वस्वधारणीयापेक्या द्विगुणमवसेयम् । तथा तृ पि चायं तात्पर्यार्थः। यत्प्रथमे प्रस्तटे परिमाणमुक्तं तपरि तीयस्यां वालुकप्रभायां पृथिव्यामुत्कर्षतो भवधारणीया। ए प्रस्तटे प्रस्तटे क्रमेण पञ्चदश धषि सार्धहस्तद्वयाधिकानि कत्रिंशत् धषि एको हस्त पतच्च नवमप्रस्तटमधिकृत्याक्त प्रक्षेप्तम्यानि । तथा च सति यथोक्तं पञ्चमे प्रस्तटे परिमाणं भ मवसेयम् । शेषेषु प्रस्तटेष्वेवम् । तत्र प्रथमप्रस्तटे भवधारणीया वति । उक्तं च । “सो चेव य पंचमीए पढमे पयरम्मि हो पञ्चदश धनूंषि द्वौ हस्तौ द्वादशाङ्गतानि । द्वितीये प्रस्तटे सप्त उस्सेहो । पन्नरसधणूण दो हत्थ,सहपयरेसु बुहीय ॥१॥ तह धनूंषि द्वौ हस्ती सार्धानि सप्ताङ्गलानि । तृतीये एकोनविंशति पंचमए परये, नस्सेहो धणुसत्तं तु पणवीसं।" अस्याः सार्धधनूंषि द्वौ हस्तौ त्रीण्यङ्गसानि | चतुर्थे एकविंशतिधषि एको गाथायाः अकरगमनिका प्राम्बत् कर्तव्या। नत्सरवैक्रियोत्कर्षपरिहस्तः सार्धानि द्वाविंशतिरङ्गलानि । पञ्चमे त्रयोविंशतिधषि माणमर्धतृतीयानि धनुःशतानि । एतानि च प्रथमे प्रस्तटे वेदिपको हस्तोऽधावश चाहुमानि । षष्ठे पञ्चविंशति धनूंषि एको तन्यानि । शेषेषु प्रस्तटेषु स्वस्वभवधारणीया द्विगुणमिति । षहस्तः सार्धानि त्रयोदशाङ्गलानि सप्तमे सप्तविंशतिधनूंषि एको ष्ठयां तमःप्रनायां पृथिव्यामुत्कर्षतो भवधारणीया। अर्धतृतीयाहस्तो नव चाङ्गमानि।अष्टमे एकोनविंशजूंषि एको हस्तः सा- नि धनुःशतानि । तानि च तृतीये प्रस्तटे प्रत्येतव्यानि । प्रथमे र्धानि चत्वार्यङ्गवानि । नवमे यथोक्तरूपं परिमाणम् । अत्रापि तु प्रस्तटे पञ्चविंशतिधनुःशतं, द्वितीये सार्धसप्ताशीत्यधिक चायं भावार्थः। प्रथमप्रस्तटेषु यत्परिमाणमुक्तं तत्तस्योपरि प्र- धनुःशतं, तृतीये तु सूत्रोक्तमेव परिमाणं भवति । उक्तं च । स्तटे प्रस्तटे सप्त हस्ताः सार्धानि च एकोनविंशतिरङ्गलानि “सोचेव य नट्ठीए, पढमे पयरम्भि होश नस्सेहो। गवद्विधक्रमेण प्रकप्तव्यानि । ततो यथोक्तं प्रस्तटेषु परिमाणं भवति । णुयसका, पयरे पयरेय वुडीए ॥१॥ गट्ठीए तश्यपयरे, दोसयउक्तं च । “सो चेव य तश्याप, पढमे पयरस्मि होश उस्सेहो। पन्नासया होति"। अस्याप्युत्तरार्धपूर्विकाया गाथाया प्रकरगमसत्तरयणी अंगुल, तणवीस सवुम्ही य ॥१॥ पयरे पयरे निका प्राग्वत् कर्तव्या । उत्तरवैक्रियोत्कर्षपरिमाणं पञ्च धनु:यतहा, नवमे पयरम्मि हो उस्सेहो।धणुप्राणि एगतीसं,एका- शतानि तानि च तृतीये प्रस्तटे वेदितव्यानि । प्राद्ययोस्तु द्वयोः रयणी य नायब्वा ॥२॥"अस्यापिगाथाद्वयस्येयमकरगमनिकाय प्रस्तटयोः स्वस्वनवधारणीयापेक्षया द्विगुणमयबोकव्यम् । अ एव द्वितीयस्याः शर्करप्रजायाः एकादशप्रस्तटे भवधारणीयाया थ सप्तम्यां तु पृथिव्यां जवधारणीया उत्कर्षतः पञ्चधनुःशतानरकर्षत उत्सेध उक्तः पञ्चदशधषि द्वौ हस्तौ द्वादश चाङ्गसानि नि उत्तरवैक्रियधनुःसहनं सर्वत्र भवधारणीया जघन्यतो स पय तृतीयस्या घालुकप्रभायाः पृथिव्याः प्रथमे प्रस्तटे नत्से- इन्सासंख्येयनागप्रमाणा उत्तरवैक्रियसंख्येयनागप्रमाणेति । धोनषति ततः प्रतरे प्रतरे वृफिरवसेया । सप्त हस्ताः सा (E) पञ्चेन्द्रियतिरश्चां वैक्रियशरीरावगाहनामानम् । र्धानि चैकोनविंशतिरङ्गसानि । तथा च सति नवमे प्रस्तटे य- तिरिक्खजोणियपचिंदियवेउब्वियसरीरस्स णं ते । के थोक्तं जवधारणीयावगाहनामानं भवति । एकत्रिंशद्धनूंषि एको हस्त ति। उत्तरवैकिगत्कृष्टपरिमाणमाह। हापष्ट्रिधनूंषि द्वौ महालिया सरीरोगाहणा पणता? गोयमा! जहनेणं अंगुहस्ती पतच नवमप्रस्तटापेकमवसेयम् । शेषेषु तु प्रस्तटेषु लस्स संखेज्जइजागं । उक्कोसेणं जोयणसतपुहतं ।। मिजनिजभवधारणीयप्रमाणापेक्षया गुिणमिति । चतुर्थी तिर्यपश्चेन्द्रियस्य वैक्रियशरीरावगाहना उत्कर्षतो योजनपकप्रभायाः पृथिव्याः उत्कर्षतो जवधारणीया द्वाषष्टिधषि शतपृथक्त्वं तत ऊर्धकरणशक्तरभावात् । मनुष्याणां यथाद्वी हस्तीदं च सप्तमे प्रस्तटे प्रत्येयं शेषेषु तु प्रस्तटेष्वेवं पङ्कम- मनुस्सपंचिंदियवेउब्बियसरीरस्स णं नंते! के महालिया भायां प्रथमे प्रस्तटेएकनिशचिएको हस्तः। द्वितीयेषत्रिंशत् धनूंषि एको हस्तः विंशतिरङ्गलानि । तृतीये एकचत्वारिंशकषि सरीरोगाहणा पत्ता गोयमा ! जहश्रेणं अंगुसस्स संद्वौ हस्तौ पोकशाहमानि । चतुर्थे षट्चत्वारिंशब्नूंषि त्रयो हस्ता खेज्जाभागं । उक्कोसेखं सातिरेकं जोयणसतसहस्सं ।। द्वादशाङ्गसानि । पञ्चमे द्विपञ्चाशत् धनपि अष्टावसानि । मनुष्याणां सातिरेकं योजनशतसहस्रं, विष्णुकुमारप्रभृतीमां षष्ठे सप्तपश्चाशत् धषि एको हस्तः चत्वार्यबानि । सप्तमे तथा श्रवणात् । जघन्या तूभयेषामप्यङ्गलसंख्यवभागप्रमाणा। यथोक्तरूपं परिणाममत्रापि चैप भावार्थः। प्रथम प्रस्तटे यत्परि- म स्वसंख्येयभागमाना । तथा रूपप्रयलासंभवात् । उपा Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) योगाहणा अभिधानराजेन्नः। ओगाहणा (१०) असुरकुमारादीनां वैक्रियशरीरावगाहनामानम् । प्राप्यङ्गमसंख्येयभागप्रमाणा । सा च प्रतीतोत तामवधार्योत्क असुरकुमारेणं भवणवासिदेवपंचिंदियवेउ व्वय रीरस्सथ प्रतिपादयति । (बनसोगवंतगेमु पंच रयणीश्रो इति) श्द णं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पसत्ता ? गोयमा !| यद्यपि ब्रह्मलोकस्योपरि सान्तको न समश्रेण्या तथापीह शरीअसुरकुमाराणं देवाणं सुविहा सरीरोगाहणा पणता तं रप्रमाणचिन्तायामिदं हिक विवक्ष्यते द्विकपर्यन्त एव हस्तस्य जहा नवधारणिज्जा य उत्तरवेउब्बिया य । तत्थ णं जा श्रुतितया बन्यमानत्वात् एवमुत्तरत्रापि विकचतुष्कादिपरिसा जवधारणिज्जा सा जहमेणं अंगुलस्स असंखेज्जइ-| आहे कारणं वाच्यम् । तत्र ब्रह्मलोकमान्तकयोरुत्कर्षतया नवधा. जागं उक्कोसेणं सत्त रयणीओ । तत्थ एणं जा सा उत्तर- रणीयाः पञ्च रत्नयः पतश्च सान्तके चतुर्दशसागरोपस्थिति कान् देवानधिकृत्य प्रतिपादितमवसेयं शेषसागरोपमास्थितिवेवेउब्विया सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जइजागं उको वं येषां ब्रह्मलोके सप्तसागरोपमाणि स्थितिस्तेषां षट् रक्षयः सेणं जोयणसयसहस्सं । एवं जाव थणियकुमारा। एवं परिपूर्णा नवधारणीया । येषामष्टौ सागरोपमाणि तेषां पञ्च प्रोहियाण वाणमंतराणं । एवं जोइसियाण वि सोहम्मी- हस्ता षट् इस्तस्यैकादशनागाः । येषां नवसागरोपमाणि तेषां साणगदेवाणं एवं चेव उत्तरवेउव्विए जाव अच्चुओ कप्पो। पञ्च हस्ताः पञ्च हस्तस्यैकादशभागाः । येषां दशसानवरं सणंकुमारभवधारणिज्जा जहनेणं अंगुलस्स असं गरोपमाणि तेषां पञ्च हस्ताश्चत्वारश्चैकादशभागा हस्तस्य । खेजभागं उक्कोसेणं न रयणीयो । एवं माहिंदे विबंज | बान्तकेऽपि येषां दशसागरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावतीज [वैधारणीयोत्कर्षतो येषामेकादशसागरोपमाणि लान्तकस्थिसोयसंतगेसु पंच रयणीओ महामुक्कसहस्सारेसु चत्वारि रय-| तिस्तेषां पञ्च हस्तात्रयौ हस्तस्येकादशनागाः । येषां द्वादशणीयो। आणयपाणयारणअच्चुए 4 तिन्निरयणीयोगे- सागरोपमाणि तेषां पञ्च हस्ता द्वौ च हस्तस्यैकादशभागौ । विजगकप्पातीतवेमाथि य देवपंचिंदियवेउब्बियसरीरस्स | येषां त्रयोदशसागरोपमाणि तेषां पञ्च हस्ता पको हस्तणं जंते ! के महालिया सरीरोगाहणा परमत्ता ? गोयमा ! स्यैकादशनागः । येषां चतुर्दशसागरोपमाणि स्थितिस्तेषां परिपूर्णा पञ्च हस्ता भवधारणीया ( महासुक्कसहस्सारेसु चगेविज्जगदेवाणं एगा जवधारणिज्जा सरीरोगाहणा प त्तारि रयणीओत्ति ) महाशुक्रसहस्रारयोश्चतस्रो रक्षयः उत्कर्षपत्ता सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइनाग उक्कोसेणं तो भवधारणोया । पतच्च सहस्रारगतान् अष्टादशसागरोपमदो रयणीओ। एवं आणुत्तरोववाइयदेवाण वि नवरं स्थितिकान् देवानधिकृत्योक्तं वेदितव्यम् । शेषसागरोपमस्थिएका रयणी॥ तिवेवम् । येषां महाशुक्रे कल्पे चतुर्दशसागरापमाणि स्थिति स्तेषामुत्कर्षतो नवधारणीया परिपूर्णाः पञ्च हस्ताः । येषां असुरकुमारादीनां स्तनितकुमारपर्यवसानानांव्यन्तराणां ज्यो पञ्चदशसागरोपमाणि तेषां चत्वारो इस्तात्रयश्च हस्तस्यैकातिप्काणां सौधर्मेशानदवानां प्रत्येकं जघन्या नवधारणीया वै दशभागाः। येषां षोम्शसागरोपमाणि तेषां चत्वारो हस्ता द्वी क्रियशरीरावगाहना अङ्गयासंख्येयनागप्रमाणा । सा चोत्प च हस्तस्यैकादशनागी । येषां सप्तदशसागरोपमाणि तेषां चत्तिसमये द्रष्टव्या। लस्कृष्टाः सप्त रस्नयः उत्तरवैक्रिया जघन्या अ. त्वारो हस्ता पको हस्तस्यैकादशन्नागः। सहस्रारेऽपि येषां सअन्नसंययेयनागमात्रा उत्कृष्टा भोजनशतसहस्रम (उत्तरपेठब्धि प्तदशसागरोपमाणि तेषामेतावती नवधारणीया। येषां पुनःसहया जाव अच्चुत्रो कप्पोत्ति) उत्तरवैक्रियासंजवात् । एतश्च प्रागे नारे पूरिपूर्णान्यष्टादशसागरोपमाणि स्थितिस्तेषां परिपूर्णाश्चघोक्तं सर्वत्र जघन्यतोऽङ्गुनासंख्येयनागमाना उत्कर्षतो योजनल त्वारो हस्ताभवधारणीया (आणयपाणयप्रारण अच्चुएसु तिन्नि कम् ।भवधारणीया तु विचित्रा ततस्तां पृथगाह (नवरमित्यादि) रयणीश्रोत्ति) अानतप्राणतारणाच्युतेषु तिम्रो रनय उत्कृष्ट नवरमयं जवधारणीयां प्रति विशेषः सनत्कुमारे कल्पे जघन्यतोऽ-| अवधारणीया । एतच्चाच्युतेकल्पे काविंशतिसागरोपमस्थिति सासंक्येयभागः उत्कर्पतः षट् रक्षयः (एवं माहिदेवि इति) कान् देवानधिकृत्योक्तं द्रष्टव्यं,शेषसागरोपमस्थितिप्यवम्। येषाएवमुक्तेन प्रकारण जघन्या उत्कृष्टा च भवधारणीया महेन्द्रक- मानतेऽपि कल्पपरिपूर्णानि किञ्चित्समधिकानि वाऽष्टादशसागपेऽपि वक्तव्या । एतच्च समसागरोपमस्थितिकान् देवानधिकृ-| रोपमाणि स्थितिस्तेषां परिपूर्णाश्चत्वारो हस्ताः उत्कृष्टा भवधारत्योक्तमवसेयं यादिसागरोपमस्थितिष्वेव येषां सनत्कुमारमाहे. णीया । येषां पुनरेकोनविंशतिसागरोपमाणि तेषां त्रयो हस्ता कल्पयोर्द्धसागरोपमस्थिती तेषामुत्कर्षतो भवधारणीया परि- स्त्रयश्च हस्तस्यैकादशनागाः । प्राणतेऽपि कल्पे येषामेकोनपूर्णसप्तहस्तप्रमाणा येषां त्राणि सागरोपमाणि तेषां षट् हस्ता-1 विंशतिसागरापमाणि स्थितिस्तेषामेतावती च अवधारणीया । श्वत्वारश्च हस्तस्यैकादशन्नागाः । येषां चत्वारि सागरोपमाणि येषां पुनः प्राणते कल्पे विंशतिसागरोपमाणि स्थितिस्तेषां त्रयो तेषां षट् हस्तास्त्रयो हस्तस्यैकादशनागाः । येषां पम्चसागरो- हस्ता द्वौ च हस्तस्यैकादशनागौ । येषामारणेऽपि कल्पे विशपमाणि तेषां षट् हस्ताः द्वौ च हस्तस्यैकादशभागी । येषां षट् तिसागरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावती नवधारणीया । येषां सागरोपमाणि तेषां षट् हस्ता एकस्य हस्तस्यैकादशनागाः । ये- पुनरारणेऽपि कल्पे एकविंशतिसागरोपमाणि स्थितिस्तेषां षां तु परिपूर्णानि सप्तसागरोपमाणि स्थितिस्तेषां परिपूर्णा | यो हस्ता पकस्य हस्तस्यैकादशनागा भवधारणीया । षट् हस्ता भवधारणीया। उक्तं च " प्रश्रथिगंविश्जेसि, सणं-| अच्युतेऽपि कल्पे येषामेकविंशतिःसागरोपमाणि स्थितिस्तेकुमारे तहेव माहिदे।रयणीकं तेसि, जागचउकाहियं देहो। पामेतावत्यवे नवधारणीया येषां पुनरच्युते कल्पे द्वाविंशतिसातत्तो अयरे अयरे, भागो एककओ पर जाव । सागरसत्तनिईनं, गरोपमाणि स्थितिस्तेषामुत्कर्षतो भवधारणीया। परिपूर्णस्त्रियो रयणीउकं तापमाणं ॥२॥" इह जघन्या भवधारणीया सर्व- हस्ताः “मेबिजकप्पातीतेत्यादि" नाषितमा नवरम(उकोसेणं दो Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १) योगाहणा अन्निधानराजेन्द्रः। श्रोगाहणा यणीश्रोत्ति) एतन्नवमे ग्रैचेयके एकत्रिंशत्सागरोपमस्थितिकान् | | रीरप्पमाणमित्ता विक्खंजबाहह्मणं । आयामेणं जहन्नेणं देवान्प्रति अष्टव्यं । शेषसागरोपमस्थितिष्वेवम् । प्रथम त्रैवेयके अंगुलस्स असंखेजइभागो उक्कोसेणं लोगंताओ लोगंते । येषां द्वाविंशतिसागरोपमाणि स्थितिस्तेषां त्रयो दस्ता भवधारणीया।येषां पुनस्तत्रैव त्रयोविंशतिसागरोपमाणिस्थितिस्तेषांद्वी एगिदियस्स [ भंते ! मारणंतियसमुग्याएणं समोहयस्स हस्तौ अष्टौ हस्तस्यैकादशभागाः।हितीयेऽपि ग्रैवेयके येषां त्रयो- तेया सरीरस्स के महालिया सरीरोगाहणा पणता? गोयविंशतिसागरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावतीभवधारणीया। येषां मा ! एवं चेव जाव पुढवी आन तेउ वाउ वणस्सइकाइपुनस्तत्र चतुर्विंशतिसागरोपमाणि स्थितिस्तेषां द्रौ हस्तौ सप्त | यस्स । वेइंदियस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोच हस्तस्यैकादशन्नागा नवधारणीया। तृतीयेपि अवयके येषां चतुर्विशतिसागरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावत्येव भवधा हयस्स तेया सरीरस्स के महालिया सरीरोगाहणा पमरणीया । येषां पुनः पञ्चविंशतिसागरोपमाणि तत्र स्थितिस्ते- त्ता ? गोयमा ! सरीरप्पमाणमित्ता विक्खंजबाहरणं । षां द्वौ हस्तौ षट् दस्तस्यैकादशनागा भवधारणीया। चतुर्थेऽ- आयामणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइनागं । उक्कोसेणं पिं अवेयके येषां पञ्चविंशतिसागरोपमाणि स्थितिस्तेषामेताव तिरियलोगाओ लोगंतो एवं जाव चनरिंदियस्स ।। तीजवधारणीया । येषां पुनस्तत्र ईशतिसागरोपमाणि स्थितिस्तेषां द्वौ हस्तौ पञ्च हस्तस्यैकादशनागाः । पञ्चमेऽपि जीवस्य नैरयिकत्वादिविशेषणाविवक्वायांसामान्यतःसंसारिप्रैवेयके येषां पदिशतिसागरोपमाणि तेषामेतावती । येषां तु णो, णमिति वाक्यामकारे । मारणान्तिकसमुद्धातेन वक्ष्यमाणतत्र सप्तविंशतिसागरोपमाणि तेषां द्वौ हस्तौ चत्वारो हस्तस्यै- सवणेन समवहतस्य सत्ता (के महालिया इति) किं महती किं कादशभागाः नवधारणीया । षष्ठेऽपि ग्रैचेयके येषां सप्तविंशति- प्रमाणमहत्वा शरीरावगाहना । शरीरमौदारिकादिकमप्यस्ति सागरोपमाणि तेषामेतावत्येव भवधारणीया । येषां पुनस्तत्राष्टा- तत आह । तेजसः शरीरस्य प्रज्ञप्ता? भगवानाह । गौतम! शरीविंशतिसागरोपमाणि स्थितिस्तेषां द्वौ हस्ती त्रयो हस्तस्यैकादश- रप्रमाणमात्रा विष्कम्नबाहुल्येन । विष्कम्भश्च बाहुल्यं च विष्कजागाः भवधारणीया । सप्तमेऽपि प्रैवेयके येषामविशतिसा. म्नबाहुल्यं समाहारो हन्दूस्तेन विष्कम्नेन बाहुल्येन चेत्यर्थः । गरोपमाणि तेषामतावती । येषां पुनस्तत्र एकोनत्रिशत्सागराप- तत्र विष्कम्न उदरादिविस्तारः बाहुल्यमुरः पृष्ठस्थूलता आयामो माणि तेषां भवधारणीया । द्वौ हस्तौ द्वौ च हस्तस्यैकादशभागी। दैर्घ्यम्। तत्र पायामेन जघन्यतोऽङ्गमस्यासंख्येयभागः। अङ्गमाभष्टमेऽपि ग्रैवेयके येषां स्थितिरेकोनत्रिंशत्सागरोपमाणि तेषा- संख्येयभागप्रमाणा । श्यं च एकेन्ज्यिस्यैकेन्छियेत्यासनमुत्पामेतावत्प्रमाणा येषां पुनस्तत्र त्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिस्तषां द्यमानस्य इष्टव्या । उत्कर्षतो लोकान्ताल्लोकान्तः। किमुक्तं नवद्वौ हस्तौ एकस्य हस्तस्यैकादश नागाभवधारणीया। नवमेs- ति । अधोलोकान्तादारज्य यावर्वलोकान्तः कर्वलोकान्तादापि अवेयके येषां स्थितिस्त्रिंशत्सागरोपमाणि तेषां अवधारणीया रज्य यावदधोलोकान्तस्तावत्प्रमाणा इति। श्यं च सूक्ष्मस्य बादएतावत्प्रमाणा । येषां पुनरेकत्रिंशत्सागरोपमाणि तत्र स्थिति- रस्य एकोन्छियस्य वेदितव्या नशेषस्यासम्नवात् । पकेन्द्रिया स्तषां परिपूर्णों द्वौ हस्तौ जवधारणीया ( एवं अणुत्तरे इत्या हि सदमा बादराश्च यथायोग समस्तेऽपि लोके वर्तन्ते न शेषादि) एवं प्रैवेयकोक्तेन प्रकारेण अनुत्तपिपातिकदवानामपि सू स्ततो यदा सूमो यादरो वा एकेन्द्रियोऽधोलोके वर्तमानः त्रं वक्तव्यं नवरमुत्कर्षतो भवधारणीया । एका रनिहस्तोवक्त उर्ध्वक्षोकान्ते सदमतया बादरतया वोत्पत्तुमिच्छन्ति ऊर्चसोकाव्यः । एतच त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकान् प्रति ज्ञातव्यं येषां न्ते वा वर्तमानः सुक्ष्मो यादरो वा अधोलोकान्ते सूदमतया पापुनर्विजयादिषु चतुर्पु विमानषु एकत्रिंशत्सागरोपमाणि स्थिति दरतया चोत्पत्स्यते तदा तस्य मारणान्तिकसमुद्धातन समयस्तेषां परिपूर्णों द्वौ हस्तौ नवधारणीया । येषां पुनस्तत्रैव मध्य हतस्य यथोक्तप्रमाणा तैजसशरीरावगाहना नवति । एतेन मा द्वात्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां एको हस्त एकस्य ह- पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिसूत्राएयपि भावितानि इष्टव्यानि । स्तस्यैकादश नागो नवधारणीया । येषां पुनस्तत्र सर्वार्थसि- तथा हि-सुक्ष्मपृथिवीकायिकेऽधोझोके कर्वलोके वा वर्तमानो के महाविमाने त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि तेषामेको हस्तो नवधा- यदा सूक्ष्म पृथिवीकायिकादितया बादरवायुकायिकतयावा कर्वरणीया । जघन्या सर्वत्रागुवासंख्ययनागमात्रा । तदेवमुक्तानि | बोकेऽधोलोके वा समुत्पत्तुमिच्चति तदा नवति तस्य मारणावैक्रियशारीरस्यापि विधिसंस्थानावगाहनाप्रमाणानि ॥ न्तिकसमुदातेन समवहनम्योत्कर्षतो लोकान्तात् लोकान्तं याव(११) आहारकशरीरस्यावगाहना मानं यथा । सैजसशरीरावगाहना । एवमप्कायिकादिष्वपिजाव्यमाहीन्द्रिआहारगसरीरस्स एं भंते ! के महानिया सरीरोगाहना | यसूत्रे आयामेन जघन्यप्तोऽङ्गवासंख्येयभागप्रमाणों, यदा अपर्याप्तो पणत्ता ? गोयमा ! जहमेणं देसणारयणी उक्कोसेणं पडि- वीडियोऽङ्गलासंख्येयनागप्रमाणौदारिकशरीरःस्वप्रत्यासनप्रदेपुणा रयणी॥ शे एकेन्द्रियादितयोत्पद्यते तदाऽवसेया । अथवा यस्मिन् शरीरे (जहन्नेणं देसूणा रयणीइति ) आहारकशरीरस्य जघन्यतोऽ-1 स्थितः सन् मारणान्तिकसमुद्धातं करोति तस्मात शरीरात मारवगाहना देशोना किञ्चिदूनारनिहस्तः तथाविधप्रयत्नभावप्रा-1 णान्तिकसमुद्धातवशाहिर्विनिर्गततैजसशरीरस्यायामषिष्कम्भरम्नसमयेऽपि तस्या पतावत्या पवाभावात् । तदेवमुक्तान्याहा- विस्तारैरवगाहना चिस्यते न तच्छरीरसहितस्य, अन्यथा प्रवनपरकशरीरस्य विधिसंस्थावगाहनामानानि ॥ त्यादेर्यजघन्यतोऽङ्गलासंख्येयनागत्वं वदयते तद्विरुध्येत । भव(१२) तैजसशरीरस्यावगाहनामानमाह ॥ नपत्यादिशरीराणां सप्तादिहस्तप्रमाणत्वात् । ततो महाकायोऽपि जीवस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्याएणं समोहयस्स | द्वीडियो यदा स्वप्रत्यासने देशे एकेन्द्रियतयोत्पद्यते तदाऽव्यङ्गतेयासरीरस्स के महालिया सरीरोगाहना पणत्ता ? स खासंख्येय नागप्रमाणा वेदितव्या उत्कर्षतस्तिर्यग्लोकाखोकाम्तः। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (02) निधानराजेन्द्रः | भोगाहणा किमुकं भवति । तिर्यखादधोलोकान्त कोकान्सो या या बता भवति तावत्प्रमाणा इत्यर्थः । कथमेतावत्प्रमाणेति चेदुच्यते हीन्द्रिया एकेन्द्रियेष्वप्युत्पद्यन्ते । एकेन्द्रियाश्च सकललोकव्यापिनस्ततो यदा तिर्यग्लोकस्थितो द्वीन्द्रियः ऊर्ध्वलोकान्ते अधोलोकान्ते वा एकेन्द्रियतया समुत्पद्यते तदा भवति तस्य मारणान्तिकसमुद्धात समवहतस्य यथोक्त प्रमाणा तैजसशरीरावगाना | तिर्यलोकग्रहणं च प्रायस्तेषां तिर्यग्लोकस्वस्थानमिति कृतमन्यथा अशोक से अध्यक्ष से किक प्रामादी देशेऽपि परामकयनादीन्द्रियाः सम्भवन्ति इति तदपेक्षा 5तिरिक्तापि तैजसशरीरावगाहना प्रष्टव्या । एवं त्रिचतुरिन्द्रियसूत्रे अपि भावनीये ॥ नेरइयस्स जेते ! मारणंतिम मुग्धा एवं समोहयस्स यासरीरस्स के महालिया सरीरोगाहणा पणत्ता ? गोमा ! सरीरप्यमाणमेत्ता विकंभमाणवाढवणं श्रायामेणं जहत्रेणं सातिरेगं जोवणसहस्तं उकोसेणं आहे जाव अ सत्तमा पुढी तिरियं जाव सर्वजुरमणे समुद्दे उ जाव पंडवणे पुक्खरयणीओ पंचिदियतिरिक्खजोशियसां जंते ! मारणं तियसमुग्धाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स के महालिया सरीरोगाहणा पणत्ता ? गोयमा ! जहा वेदिवसरीरस्स | रविकायामेन जघन्यतो दासतिरेकं योजनसहस्रमु क्तं तदेवं परिज्ञावनीयम् । इह वलयामुखादयश्चत्वारः पातालकलशा सक्षयोजनावगाड्योजन सहस्रबाहल्यठिक्क रिकास्तेषामागो वायुपरिपूर्ण उपरितनस्त्रिजाग उदकपरिपूर्णो म यस्मिनागो वायूदयोसरापसरणधर्मस्तत्र यदा काल्सीमन्तकादिषु नरकेन्द्रकेषु वर्तमानो नैरयिकपाताल कलशप्रत्यासन्नवर्ती च स्वायुःकया दुकृत्या पाताल कलश कुड्यं योजनसह बाहुल्य मिरवा पाता कलशमध्ये द्वितीये तृतीये वा त्रिनागे मत्स्यतयोत्पद्यते तदा भवति सातिरेक योजनसहस्रमाना नैरयिकस्य मारणान्तिकसमुद्धात समवहतस्य जघन्या तैजसशरीरावगाहना | उत्कर्षतो यावदधःसप्तमपृथ्वीतिर्यक् यावत्स्वयंरमणपर्यन्त पात्परमकपणे पुष्करिण्यस्तावद्या किमुक्तं भवाय सप्तमपृथिव्या रज्य विर्य यावत्स्वयंम णपर्यन्त ऊर्ध्वं यावत्पएम कघने पुष्करिण्यस्तावत्प्रमाणा एतावती च तदा लज्यते यदाऽधः सप्तमपृथिवीनारकः स्वयंभूरमणसमुद्रपर्यन्तं तत्परमकयने पुष्करिणति कृपचेन्द्रियस्योत्तसन्तोकान्तोऽपि भावना - यवत्कर्तव्यातिर्यक्रपश्यद्रिये पूत्यादसम्भवात् । मस्सस्स णं भंते! मारणंतियससुग्घाएणं समोहयस्म तेयासरीरस्स के महालिया सरीरोगाहना पडता ? गोयमा ! समय खिताओ लोगंतो । असुरकुमारस्स णं भंते ! मारणं तियसमुग्धाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स के महालिया सरीरोगाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सरीरप्प माणमिता विनवादद्वेणं आया जहणं अंगुलस्स प्रसंखेज्जश्नागं उक्कोसेणं हे जाव तच्चाए पुढवीहेटिक्षे परियंते तिरियं जाव सर्वतूरमणसमुदस्स बाहिरि - Jain Education. International..... ओगाहणा इयंते उट्टं जाव इसीपभारा पुढवी । एवं जाव यशियकुमारो वाणमंतरजोइसियसोहम्मीसागा प एवं चेव । सकुमारदेवस्स णं भंते! मारणं तियसमुग्धारणं समोहयस्स तेयासरीरस्स के महालिया सरीरोगाला पहाता ? गोयमा ! सरीरप्यमाणामत्ता विक्खंज बाहल्लणं । आयामेणं जहनेणं अंगुलस्स असंखेज्जइनागं । उक्कोसे आहे जाप महापाताला दोच्ने तिजागे तिरियं जान सयंभूरमणसमुद्दे । उ जाव अच्चुओ कप्पो । एवं जाव सहस्सारदेवस्स | आयदेवस्स ते मारतियस मुग्धारणं समोहयस्स तेयासरीरस्स के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ! गोपमा ! सरीरष्यमाणमता वि क्लंनबाहल्लेयं । [आापामेणं जहन्नेां अंगुलस्स असंखेज्जइनागं । उक्कोसेणं जाव अहो लोइयगामा । तिरियं जाव मस्सखेहं जाव अच्चुचो कप्पो । एवं जाव आरणदेवस्स अयदेवस्स वि एवं चेव नवरं जाव सगाई निमाणा । गेविज्जगदेवस्स शं भंते ! मारणंतियसमुग्धारणं समोहयस्स तेयासरीरस्स के महालिया सरीरोगाहणा पणत्ता ? गोयमा ! सरीरप्यमाणमेत्ता विक्खंमेणं बाइलेणं आयामेणं जहन्ने विजाहरसेडीओ कोसे जाव अहो लोइयगामा । तिरियं जाव मणुस्सखेते । उ जान सगाई रिमालाई अणुतरोक्वाइयस्स वि एवं चैव ।। मनुष्यस्योत्कर्षतः समयक्षेत्रात् समयप्रधानं क्षेत्र मयूरव्यंसकादिस्यान्मध्यमपदलोपी समासः । यस्मिन् तृतीये श्री. पप्रमाणे सूर्यादिक्रियाव्यङ्गयः समयो नाम कालद्रव्यमस्ति तत्स मयक्षेत्रं मानुषक्षेत्रमिति भावः तस्माद्यावदध ऊर्ध्वं वा लोकान्तस्तावत्प्रमादा मनुष्यस्याप्येकेन्द्रियेषूत्यादसंभवात् । स मयक्षेत्रग्रहणं समय क्षेत्रादन्यत्र मनुष्यजन्मनः संहरणस्य वा संभवेनातिरिक्ताया श्रवगाहनाया असंभवात् । श्रसुरकुमारादिस्तनितकुमार पर्यवसाना भवनपतिन्य सज्योतिकसी धर्मेशानदेवानां जघन्यतोऽङ्गला संध्येयभागः कथमिति चेदुपते। एते हो केन्द्रियेत्पद्यन्ते ततो यदा ते स्वाभरशेष्या दिषु कुण्डलादिषु वा ये मणयः पद्मरागादयः तेषु गृना मूच्छितास्तदध्यवसायिनस्तेष्वव शरीरस्थेष्वाभरणादिषु पृथिवीकायिकत्वेनोत्पद्यते तदा भवति जघन्यतोऽमुलासंख्येयभागममाणा तैजसशरीरावगाहना । श्रन्ये त्वन्यथाऽत्र भावनिकां कुर्वन्ति सा च नातििित न लिखिता न च दूषिता । कु मार्ग न हि तित्यः पुनस्तमनुधावतीति न्यायानुसरणात् । उत्कर्षतो यावदधस्तृतीयस्याः पृथिव्या श्रधस्तनश्वरमान्तस्तिक यावत्स्वयंभूरमणसमुद्रस्य वायो वेदिकान्ता यावदीपत्प्राग्भारा पृथिवी तावद्द्रष्टव्या कथमिति चेदुच्यते । यदा भवनपत्यादिको देवस्तृतीयस्याः पृथिव्या अधस्तनं चरमान्तं यावत्कुतश्चित प्रयोजनवशात् गतो भवति तत्र च गतः सन् कथमपि स्वायुःक्षयान्मृत्वा तिर्यक्स्वयंभूरमण Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०३) ओगाहणा अमिधानराजेन्द्रः। ओगाहणा समुद्रपाह्यवेदिकान्ते यदि वा ईषत्प्राग्भाराभिधपृथिवीपर्यन्तं अच्चुत्रो कप्पो" इति। अच्युतदेवो हि यदा चिन्स्यते तदा कपृथिवीकायिकतयोत्पद्यते तदा भवत्युत्कर्षतो यथोक्ता, तथा थमूर्व यावदच्युतकल्प इति घटते तस्य तस्य विद्यमानत्वात् तेजसशरीरावगाहना । सनत्कुमारदेवस्यापि जघन्यतोऽङ्गला- केवलमच्युतदेवोऽपि कदाचिदूर्व स्वविमानपर्यन्तं यावद्गच्चसंख्येयभागप्रमाणा तैजसशरीरावगाहना। कथमिति चेदुच्यते ति तत्र च गतः सन् कालमपि करोति तत उक्तम् "उहं जावसइह सनत्कुमारादय पकेन्द्रियेषु विकलेन्द्रियेषु चा नोत्पद्यन्ते या विमाणाई" इति । प्रैवेयकानुत्तरमुरा जगवन्दनादिकमपि तथा भवस्वाभाव्यात् किन्तु तिर्यकपञ्चेन्द्रियेषु मनुष्येषु वा ततो तत्रस्था एव कुर्वन्ति तत इहागमनासंभवादङ्गलासंख्येयभागयदा मन्दरादिषु पुष्करिएयादिषु जलावगाहं कुर्वन्तः स्वन्नवायु:- प्रमाणता न मन्यते । किन्तु यदा वैताट्यगतासु विद्याधरश्रेणिःक्यात्तत्रैव प्रत्यासन्ने देशे मत्स्यतयोत्पद्यन्ते तदाऽङ्गासंख्येयजा त्पद्यन्ते तदा स्वस्थानादारज्याधो थावद्विद्याधरश्रेणयस्तावगप्रमाणा द्रष्टव्या । अथवा पूर्वसम्बन्धिनी मनुष्यस्त्रियं मनुष्येणों- त्प्रमाणा जघन्या तेजसशरीरावगाहना। अतोऽपि मध्ये जघन्यपभुक्तामुपलज्य गाढानुरागादिहागत्य परिष्वजते परिष्वज्य च तराया असंजवात् । उत्कृष्टा यावदधोलौकिका ग्रामास्ततोऽप्यध तदवाच्यप्रदेशे स्वावाच्य प्रक्रिप्य कासं कृत्वा तस्या एव गर्भे पु. उत्पादासनवात् । तिर्यग् यावन्मनुष्यवेत्रपर्यन्तस्ततः परं तिर्यरुषबीजे समुत्पद्यते तदा बज्यते ततोऽधः पातालकशानां लक- गप्युत्पादानावात् । यद्यपि हि विद्याधरा विद्याधर्यश्च नन्दीश्वरं योजनप्रमाणावगाहानां द्वितीयत्रिभागं यावत् तिर्यक् यावत्स्वयं- यावद्गच्छन्ति अर्वाक संभोगमपि कुर्वन्ति तथापि मनुष्यकेत्रानूरमणपर्यन्तमूर्व यावदच्युतकल्पस्तावदवगन्तव्या ।कथमिति त्परतो गर्भे मनुष्येषु नोत्पद्यन्ते ततस्तिर्यग् यावन्मनुष्यकेत्रमिचेदुच्यते इह सनत्कुमारादिदेवानामन्यदैव निश्रया अच्युतकरूपं त्युक्तम्। प्रज्ञा २१पद ।स्थाका (सिझानामवगाहनासिरूशब्दे वयावफमने जवति न च तत्र वाप्यादिषु मत्स्यादयः सन्ति तत क्ष्यामि-उत्पबजीवानामवगाहनात्रैवोक्ता-पर्याप्तानां संझिपश्चेइह तिर्यग्मनुष्येषूत्पत्तव्यम् । तत्र यदा सनत्कुमारदेवोऽन्यदैव नियतिर्यग्यानिकस्य नैरयिकेषूपपन्नस्यावगाहना उववायशब्दे) निश्रया अच्युतकल्पं गतो भवति तत्र च गतः सन् स्वायु-क- (१३) अथ जीवप्रदेशपरिमाणनिरूपणपूर्वकं निगोदादी-- यात्कानं कृत्वा तिर्यक् स्वयंभूरमणपर्यन्ते यदि वाऽधःपातास नामवगाहनामानमन्निधित्सुराह । कनशानां द्वितीये विभागे वायदकयोरुत्सरणापसरणभाविनि लोगस्स य जीवस्स य, होति पएसा असंखया तुल्ला । मत्स्यादितयोत्पद्यते तदा नवति तस्य तिर्यगधो वा यथोक्तकमेण तैजसशरीरावगाहनेति ( एवं जाव सहस्सारदेवस्सत्ति) अंगुलअसंखनागो, निगोयजीयगोलगोगाहो ॥ १३ ॥ एवं सनत्कुमारदेवगतेन प्रकारेण जघन्यत उत्कर्षतश्च तैजसश-1 लोकजीवयोः प्रत्येकमसंख्येयाः प्रदेशा भवन्ति ते च परस्परीरावगाहना तावहाच्या यावत्सहस्रारदेवनावनाऽपि च सर्व रेण तुल्या पव । एषां च संकोचविशेषात् । अङ्गनासंख्येयनागो त्रापि च समाना पानतदेवस्यापि जघन्यतोऽङ्गलासंख्येयनाग-| निगोदस्य तज्जीवस्य गोलकस्य चावगाह इति । निगोदादिसमाप्रमाणा तैजसशरीरावगाहना नन्वानतादयो देवा मनष्यवेवो- वगाहनतामेव समर्थयन्नाह । स्पद्यन्ते । मनुष्याश्च मनुष्यकेत्र एवेति कथमङ्गलासंख्येयन्नाग-1 जम्मि जीअो तमेव, निगोयतो तम्मि चेव गोस्रो वि। प्रमाणा उच्यते । इह पूर्वसम्बन्धिनी मनुष्यस्त्रियमन्येन मनुष्ये- निप्पज जं खेत्ते, तो ते तुझावगाहणया ।। १४॥ णोपचुक्तामानतदेवः कश्चनाप्यवधिज्ञानत उपन्यासन्नमृत्यु यस्मिन् क्षेत्रे जीवोऽवगाहते तस्मिन्नेव निगोदो निगोदतया विपरीतस्वभावत्वात् सत्वचरितवैचित्र्यात् कर्मगतेरचि व्याप्त्या जीवस्यावस्थानात् । (तोत्ति) ततस्तदनन्तरं तत्यत्वात् कामवृत्तेर्मशिनत्वाच्च । उक्तं च । "सत्यानां चरितं चित्र, विचित्रा कर्मणां गतिः । मलिनत्वं च कामानां, वृत्तिः प स्मिन्नेव गोलोऽपि निष्पद्यते विवक्षितनिगोदावगाहनातिरि तायाः शेषनिगोदावगाहनाया गोलकान्तरप्रवेशेन निगोदमार्यन्तदारुणा" इति । गाढानुरागादिहागत्य कुतोऽपि गूढान्तां त्रत्वाद् गोलकावगाहनाया इति । यद्यस्मात्क्षेत्रे श्राकाशे ततस्ते परिष्वज्य तदवाच्यप्रदेशे स्वावाच्यं प्रक्किप्यातीव मूलितं स्वायुकयात्कालं कृत्वा यदा तस्या एव गर्भे मनुष्यबीजे मनुष्य जीवनिगोदगोलास्तुल्यावगाहनकाः समावगाहनका इति । त्वनोत्पद्यते । मनुष्यबीजं च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो द्वादश श्रथ जीवाद्यवगाहनासमता सामर्थ्येन यदेकत्र प्रदेशे जीव प्रदेशमानं भवति तद्विभणिषुस्तत्प्रस्थापनार्थ प्रश्नं कारयन्नाह। मुहूर्तान् यावदवतिष्ठति । उक्तं च । “मगुस्सवीएणं नंते !कासाओ केव चिरं होह ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतो मुहत्तं उक्कोसेणं उक्कोसपयपएसे, किमेगजीवप्पएसरासिस्स । वारस मुहुत्ता इति" । ततो द्वादशमुहूर्ताभ्यन्तरे उपचुक्तां परि- होज्जेगनिगोयस्स व, गोलस्स व किं समोगाढं ॥१५॥ खज्य मृतस्य तत्रैवोत्पत्तिर्मनुष्यत्वेन इष्टन्या । उत्कर्षतोऽधो तत्र जीवमाश्रित्योत्तरम् । यावदधोलौकिका ग्रामास्तिर्यग् यावन्मनुष्यकेत्रमूवं यावद- जीवस्स लोगमेत्तस्स, सुहमोगाहणावगाढस्स । च्युतः कल्पस्तावदवसेया । कथमिति चेऽच्यते । वह यदा- एकेकम्मि पएसे, होति पएसा असंखेज्जा ॥ १६ ॥ नतदेवः कस्याप्यन्यस्य निश्रया अच्युतकल्पं गतो प्रवति स च तत्र गतः सन् कादं कृत्वाऽधो लौकिकग्रामेषु यदि वा मनुष्य ते च किल कल्पनया कोटिशतसंख्यस्य जीवप्रदेशराशेः केत्रपर्यन्तं मनुष्यत्वेनोत्पद्यते तदा लज्यते । एवं प्राणतारणा प्रदेशदशसहस्र स्वरूपजीवावगाहनया भागे हते लक्षमाना च्युतकल्पदेवानामपि भावनीयं तथा चाह । “ एवं जाव बार भवन्तीति । अथ निगोदमाश्रित्याह ।। णदेवस्स अच्चुयदेवस्स एवं चेव नवरं लकं जाव सयाई विमा लोगस्स हिए भागे, निगोयोगाहणाइ जं लम् । णाई" इति अच्युतदेवस्यापि जघन्यत उत्कर्षतश्च तेजसशरी- उकोसपए तिगयं, एत्तियमेक्केकजीवाओ॥ १७॥ रावगाहना । एवमेव एवं प्रमाणैव परं सूत्रपारे। " उहं जाव | लोकस्य कल्पनया प्रदेशकोटिशतमानस्य हते भागे निगोसयाई विमाणाई" इति वक्तव्यम् । न तु " उषं जाव दावगाहनया कल्पनातः प्रदेशदशसहस्त्रीमानया यल्लम्धं तस Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) श्रोगाहणा अभिधानराजेन्द्रः। योगाहणा किल लक्षपरिमाणमुत्कृष्टपदेऽतिगतमवगाढमेतावदेकैकजी- तसमत्वबुभुत्सोर्गोलकमेकेकं ततश्च एवमुक्तत्रामस्थापने उत्कृष्टवाननन्तजीवात्मकनिगोदसंबन्धिनः एकैकजीवसत्कमित्यर्थोs- पदे ये एकजीवप्रदेशास्ते तथा तेषु तत्परिमाणेष्वाकाशप्रदेशेमेन निगोदसत्कमुत्कृष्टपदे यदवगाढं तद्दर्शितम् । अथ गोलक- वित्यर्थः । मान्ति गोला इति गम्यं यावन्त उत्कृष्टपदे एकजीसत्कं यत्तत्रावगाढं तहर्शयति । घप्रदेशास्तावन्तो गोजका अपि भवन्तीत्यर्थस्ते च कल्पनया एवं दवाओ, सव्वेसिं एकगोलजीवाणं । किन लकमाना उन्नयेऽपीति न०११ श०१० उ०। (टीकोक्ता उकोसपयमश्गया, होति पएसा असंखगुणा ।। १० ।।। अपि गाथाः सार्थकत्वात्स्थूलारैाख्याताः)प्रज्ञा [परमाणुयथा निगोदजीवेभ्योऽसंख्येयगुणास्तत्प्रदेशा उत्कृष्टपदेऽति पुद्गलादीनामसिधारादिषु पुग्गशब्दे-केवडी यस्मिन्नाकाशप्रगता एवं द्रव्यार्थात् व्यार्थतया न तु प्रदेशार्थतया । सब्वे देशेष्ववगाढस्तत्रैव हस्ताद्यवगाह्य स्थातुं शक्त इति केवत्रिशब्द) सिंति) सर्वेभ्यः । (एक्कगोलजीवाणंति) एकगोलगतजीव (१४) एकत्रैक एव धर्मास्तिकायादिप्रदेशा अवगाढाः । यथा । द्रव्येभ्यः सकाशात् उत्कृष्टपदमतिगता भवन्ति । प्रदेशा असं जत्थ णं जंते ! एगे धम्मत्थिकायपदसे ओगाढे तत्थ ख्यातगुणाः । इह किल अनन्तजीवोऽपि निगोदः कल्पनया केवइया धम्मत्यिकायपदेसा ओगाढा णत्थि एक्को वि, केलक्षजीवः । गोलकश्वासंख्यातनिगोदोऽपि कल्पनया लक्षनि- वश्या अहम्मस्थिकायपदेसा ओगाढा एको, केवइया आगोदस्ततश्च लक्षस्य लक्षगुणने कोटिसहस्रसंख्याकल्पनया गासस्थिकायपदेसा एक्को, केवइया जीवत्थिकायपदेसा गोलके जीचा भवन्ति । तत्प्रदेशानां च लक्ष लक्षमुत्कृष्टपदेऽतिगतमतश्चैकगोलकजीवेभ्यः सकाशादेकत्र प्रदेशेऽसंख्येय अर्थता । केवड्या पोग्गलस्थिकायपदेसा अणंता । केवगुणा जीवप्रदेशा भवन्तीत्युक्तम् । अथ तत्र गुणकारणराशेः इया अच्छा समया ? सिय ओगाढा सिय णोोगाढा । परिमाणनिर्णयार्थमुच्यते। जा ओगाढा अणंता । जत्थ एं भंते ! एगे अहम्मत्थितं पुण केवइएणं, गुणियमसंखेज्जयं नवेजाहि । कायपदेसे ओगाढे तत्य केवड्या धम्मत्थिकायपदसा प्रोभइ दबढाए, जावश्या सबगोलत्ति ।।१५।। गाढा ? एक्को । केवड्या अहम्मत्थि कायपदेसा ? णत्यि तत्पुनरनन्तरोक्तमुत्कृष्टपदातिगतजीवप्रदेशराशेः सम्बन्धि कि एको वि। सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । जत्थ णं भंते ! एगे यता किं परिमाणेन संख्येयराशिना गुणितं सत् (असंखे आगासात्यकायपदेसे श्रोगाढे तत्थ केवड्या धम्मत्थिकाजायंति) असंख्येयकमसंख्यातगुणनाद्वारा यातं भवेत्स्यादिति । भण्यते अत्रोत्तरम् । व्यार्थतया न तु प्रदेशार्थतया यावन्तः यपदेसा ओगाढा ? सिय ओगाढा सिय पोोगादा, जइ सर्वगोलकाः सकललोकगोलकास्तावन्त एवति गम्यं, स चोक प्रोगाढा एको, एवं अहम्मस्थिकायपदेसा वि । केवश्या धृपदगतेकजीवप्रदेशराशिमन्तव्यः । सकसगोलकानां तत्तुल्य- आगासत्थिकाय? एथिएको वि । केवइया जीवस्थि०१ स्वादिति ॥ सिय अोगाढा सिय णो अोगाढा । जइ ओगाढा अणंता, किं कारणमोगाहण-तुबत्ता जियनिगोयगोलाणं । एवं जाव अच्छा समया। जत्थ एंजते! एगेजीवस्थिकायगोला उकोसपए-क जियपएसेहिं तो तुझा ॥२०॥ पदेसे तत्य केवइया धम्मत्थिकायपदेसे एको, एवं अहम्म(किं कारणंति ) कस्मात्कारणात यावन्तः सर्वगोबास्तावन्त स्थिकायपदेसावि एवं आगासस्थिकायपदेसा वि । केवइया एवोत्कृष्टपदगतैकजीवप्रदेशा इति प्रश्नः । अत्रोत्तरमवगाहना तुल्यत्वात् केषामित्याह । जीवनिगोदगोजानामवगाहनातुल्यत्वं जीवस्थिकाय? अणंता सेसं जहा धम्मस्थिकायस्स । जत्थ चैषामङ्गलासंख्येयभागमात्रावगाहित्वादिति । यस्मादेवं ( तो- णं ते ! पोग्गलत्थिकायपदेसे ओगाढे तत्थ केवश्या धम्मत्ति) तस्माद्गोवाः सकललोकसंबन्धिन उत्कृष्टपदे ये एकस्य जी. स्थिकायपदसे? एवं जहा जीवस्थिकायपदेसे तहेब हिरवसेसं वस्य प्रदेशास्ते तथा तैरुत्कृष्टपदैकजीवप्रदेशैस्तुल्या नवन्ति । जत्थ एंजते ! दो पोग्गलत्थिकायपदेसा ओगाढा तत्थ णं एतस्यैव नावनार्थमुच्यते । केवड्या धम्मत्यिकाय ?सिय एको, सिय दोलि, एवं अगोलेहिं हिए लोगे, आगच्छद जं तमगजीवस्स । हम्मस्थिकायस्स वि एवं आगासस्थिकायस्स वि सेसं जहा नकोसपयगयपए-सरासितु नवइ जम्हा ॥ २१ ॥ धम्मस्थिकायस्स । जत्थ णं नंते ! तिरिण पोग्गलत्थिगोर्गोसावगाहनाप्रदेशैः कल्पनया दशसहस्रसंख्यैः हृते वि कायप्पएसा अोगाढा तत्थ केवइया धम्मस्थिकायपदेसा भक्ते हतविजाग इत्यर्थः । झोके लोकप्रदेशराशी कल्पनयककोटिशतप्रमाणे आगच्गत मन्यते । यत्सर्वगोरकसंख्यानं क प्रोगाढा ? सिय एको सिय दोलि सिय तिमि एवं अहरूपनया लक्वमित्यर्थः तदेकजीवस्य संबन्धिना पूर्वोक्तप्रकारतः म्मस्थिकायस्स वि । एवं आगासत्थिकायस्स वि । सेसं कल्पनया लक्कप्रमाणैवोत्कृष्टषदगतप्रदेशराशिना तुल्यं भवति । जहेव दोएहं । एवं एकेको वयम्बो पएसो आदिबेहिं तियस्मात्तस्माकोसा उत्कृष्टपदैकजीवप्रदेशस्तुल्या जवन्ति ॥ प्रकृ गिण अस्थिकाएहिं सेसेहिं जहेव दोएहं जाव दसएह सिय तमेवेति । एवं गोलकानामुत्कृष्टपदगतेकजीवप्रदेशानां च तुल्य एको, सिय दोएिण, सिय तिषिण, जाव सिय दस । त्वं समर्थितम् । पुनस्तदेव प्रकारान्तरण समर्थयति ॥ अहवा लोगपएसे, एक्केके उवयगोलमेक्केकं । संखेज्जाणं सिय एक्को सिय दोषिण, जाव सिय दस सिय एवं नकोसपए-कजियपएसेसु मायत्ति ।। २३ ॥ संखेज्जा । असंखेज्जाणं सिय एक्को जाव सिय संखज्जा अथवा लोकस्यैव प्रदेशे एकैकस्मिन् स्थापय निधेहि । विवकि- सिय असंखेजा, जहा असंखेज्जा एवं अणंता वि । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगाहणा अन्निधानराजेन्डः। श्रोगाहणानाम (जत्थ णं भंते ! श्त्यादि) यत्र प्रदेशे एको धर्मास्तिकायस्य प्र. केवइया आगासत्यिक एक्को केवइया जीवत्थकायप्पदेसा अदशोऽवगाढस्तत्रान्यः प्रदेशो नास्तीति कृत्वाऽऽह (नत्थि पको पंता एवं जाव अच्छा समया। जत्थ णं ते! धम्मस्थिकाये वित्ति) धर्मास्तिकायप्रदेशस्थाने अधर्मास्तिकायस्य प्रदेशस्य विद्यमानत्वादाह (एक्कोत्ति) एवमाकाशास्तिकायस्याप्येक पव भोगाढे तत्थ केइया धम्मस्थिकायपदेसा ओगाढा पत्थि जोवास्तिकायपुरवास्तिकाययोः पुनरनन्ताः प्रदेशा एकैकस्य एको विकेवइया अहम्पत्थिकायप्पदेसा असंखज्जा केवइया धर्मास्तिकायप्रदेशस्य स्थाने सन्ति हैःप्रत्येकमनन्तैाप्तोऽसा- जीवत्थिकाय अयंता एवं जाव अच्छा समया । जत्थ णं वत उक्तम् । (अणंतत्ति) अबासमयास्तु मनुष्यलोक एव सन्ति भंते ! अहम्मत्थिकाए ओगाढे तत्य केवइया धम्मात्थिकान परतोऽतोधर्मास्तिकायप्रदेशे तेषामवगाहोऽस्ति नास्ति च । यपास्ति तत्रानन्तानां नावना तु प्राग्वदेतदेवाह । 'अझासमये यप्पदेसा असंखेजा। केवइया अहम्मत्यिकायप्पदेसाणस्थि त्यादि'ाजत्थ णमित्यादीन्यधर्मास्तिकायसूत्राणि पम् धर्मास्तिका एक्को वि । सेसं जहा धम्यत्यिकायस्स । एवं सव्वे सहाणे यसूबाणीव वाच्यानि । आकाशास्तिकायसूत्रेषु (सियोगाढा णत्यि एको वि जाणियव्वं । परहाणे आदिवा तिमि संसियनोोगाढात्त) लोकालोकरूपत्वादाकाशस्य लोकाकाशे खेज्जा नाणियब्वा । पछिल्ला तिलि अणंता भाणियऽवगाढा । अलोकाकाशे तु न तदनावात जित्य ण ते ! दोपो या। जाव अच्छा समोत्ति । जाच केवइया अका सग्गलस्थिकावप्पदेसेत्यादिसियएकोसियदोरिणत्ति) यदा एक आकाशप्रदेशे घणुकः स्कन्धोऽवगाढः स्यात्तदा तत्र धर्मास्ति मया ओगाढा । णत्थि एक्को वि । नत्य पंचते ! एगे कायप्रदेश एक एव यदा तु द्वयोगकाशप्रदेशयोरसाववगाढः पुढवीकाइए ओगाढे तत्थ णं केवड्या पुढवीकाझ्या ओस्यात्सदा तत्र धौ धर्मप्रदेशाववगाढौ स्यातामित्यवमवगाहना:- गाढा असंखेज्जा । केवइया आनकाश्या श्रोगाढा असंनुसारेणाधर्माकाशास्तिकाययोरपि स्यादेकः स्याद् द्वाविति खेज्जा । केवइया तेनकाइया ओगाढा असंखेज्जा । केवश्या भावनीयम् ( सेसं जहा धम्मत्यिकायस्सत्ति) शेषमित्युतापेक्वया जीवास्तिकायपुसमास्तिकायाद्धासमयलकणत्रयं वानकाझ्या ओगाढा असंखेजा । केवइया वणस्सइकाइया यथा धर्मास्तिकायप्रदेशवक्तव्यतायामुक्तं तथा पुत्रप्रदे- अोगाढा अता । जन्य णं जंते ! एगे आनकाइए शद्वयवक्तव्यतायामगि पुमलप्रदेशद्वयस्थाने तदीया अनन्ताः श्रोगाढे तत्थ केवइया पुढवीकाइया असंखेज्जा । केवश्या प्रदेशा अवगाढा इत्यर्थः । पुत्रप्रदेशत्रयसूत्रेषु (सिय पको इ- | त्यादि) यदा त्रयोऽप्यणव एकत्रावगाढास्तदा तत्रैको धर्मास्ति आजकाइया असंखेज्जा । एवं जहेव पुढवीकाइयाणं वकायप्रदेशोऽवगाढो यदा तु द्वयोः तदा द्वाववगादौ । यदा त्तव्यं तहेव सव्ये हिरवसेसं भाणियन्वं । जाव वणस्सतु त्रिषु तदा त्रय इति । एवमधर्मास्तिकायस्याकाशास्तिका- इकाइयाणं जाव केवश्या वएस्सइकाइया ओगाढा अणंता। यस्य च वाच्यम (सेसं जदेव दोएहति) शेष जीवपुमक्षाकास- (जत्थ णमित्यादि) धर्मास्तिकायशब्देन समस्ततत्प्रदेशसं. मयाश्रितं सूत्रत्रयं ययैव द्वयोः पुमलप्रदेशयोरवगाहचिन्ताया- प्रहात्प्रदेशान्तराणां वाऽभावात् उच्यते। यत्र धर्मास्तिकायोऽय. मधीतं तथैव पुमलप्रदेशत्रयचिन्तायामप्यध्येयं पुस्खप्रदेशत्र-- गाढस्तत्र नास्त्येकोऽपि तत्प्रदेशोऽवगाढः । अधर्मास्तिकायायस्थाने अनन्ता जीवप्रदेशा अवगाढा इत्येवमध्येयमित्यर्थः काशास्तिकाययोरसंख्येयाः प्रदेशा अवगाढा । असंख्येयप्रदे( एवं एकेको वयम्बो) यथा पुमलप्रदेशत्रयावगाहचिन्तायां शत्वादधर्मास्तिकायनोकाकाशयोः जीवास्तिकायसूत्रे चानधर्मास्तिकायादिसूत्रत्रये एकैकः प्रदेशो वृर्ति नीतः एवं पुल- न्तास्तत्प्रदेशा अनन्तप्रदेशत्वाजीवास्तिकायस्य । पुद्रलास्तिप्रदेशचतुष्टयाद्यवगाइचिन्तायामप्येकैकस्तत्र वर्धनीयस्तथा दि कायसूत्राद्धासूत्रयोरप्येवमेव तदाह ( एवं जाव अकासमयत्ति) " जत्थ णं भंते! चत्तारि पुमाथिकायप्पदेसा अवगाढा तत्थ अथैकस्य पृथिव्यादिजीवस्य स्थाने कियन्तः पृथिव्यादिजीवा केवश्या धम्मत्थिकायप्पएसा ओगाढा । सिय एक्को सिय दो- अवगाढा इत्येवमर्थ "जीवमोगाढत्ति" द्वारं प्रतिपादयितुमाह (ज रिण सिय तिरिण सिय चत्तारि"श्त्यादि जावना चास्य प्रागेव स्थ णं ते! पगे पुढविकाए इत्यादि) एकपृथिवीकायिकाच(सेसेहिं जहेव दोएहंति ) शेषेषु जीवास्तिकायादिषु त्रिषु सू- गाहे असंख्येयाः प्रत्येकं पृथिवीकायिकादयश्चत्वारः सूक्ष्मा त्रेषु पुलप्रदेशचतुष्टयचिन्तायां तथा वाच्य यथा तेष्वेव पु- अवगाढाः । यदाह । “जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखजत्ति" प्रसप्रदेशद्वयावगाइचिन्तायामुक्तं तश्चैवम् “जत्थ णं भंते ! वनस्पतयस्त्वनन्ता शति । भ०१३ श० उ०। चत्तारि पुगगनथिकायप्पदेसा प्रोगाढा तत्थ केवल्या जी- (१५) (धर्मास्तिकायादेरवगाढाऽनवगाहत्वचिन्ताकृतयुगाबस्थिकायप्यदेसा ओगाढा अणतेत्यादि इति जहा असंखेज्जा | दिविशेषणेन जुम्मशब्द) अव-गाह-नावे युच् । अवस्थाने, एवं अणता चेति" अस्यायं भावार्थः। “जत्थ गंभंते! अणंता विशेष अवग्रहणपरिच्छेदे, । स च परिच्छेदोऽपायादिनेदादनेपोगक्षरिथकायप्पएसा प्रोगाढा तत्थ केवश्या धम्मत्यिका- कविधः । प्रज्ञा०१५पद०। यपदेसा ओगाढा सिय एक्को सिय दोएिण जाव सिय असं- ओगाहणानाम-अवगाहनानामन-न० अवगाहते यस्यां जीवः खेजा" । एतावदेवाध्येयं न तु सिय अणंतत्ति । धर्मास्तिका-1 साध्वगाहना शरीरमौदारिकादि सस्था नाम । औदारिकादिशयाधर्मास्तिकायझोकाकाशप्रदेशानामनन्तानाम भावादिति ॥ रीरनामकर्मणि, न०६०७० । अवगाहना शरीरमौदारिअथ प्रकारान्तरेणावगाहद्धारमेवाह । कादि पञ्चविध तत्करणं कर्माप्यवगाहना तदूपं नामकर्मावगाजत्थ णं भंते! एगे अघासमए प्रोगाढे तत्थ केवश्या धम्म हनानाम । औदारिकादिशरीरनामकर्मणि, स०॥ | अवगाहनानाम-पुं० अवगाहमारूपो नाम परिणामः । भवस्थिफायप्पदेसा एको। केवइया अधम्मस्थिकायप्पदेसाएको। गाहनात्मके परिणामे, न०६ श० ८ १० । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) योगाहणाणाम. अन्निधानराजेन्छः । प्रोत्थय ओगाहणाणामनिहत्तानय-अवगाहनानामनिधत्तायुष- म० वनदारिणो" सूत्र० १७०३ अ०। अविच्छेदे, अवितुटितत्वे च अवगाहनानाम्ना सह यन्निधत्तमायुस्तदवगाहनानामनिधत्तायुः। प्रश्न०४ द्वा०॥ आयुर्बन्धनेदे, न.६ श८ न०। स्था। स०। प्रज्ञा ओषसणा-ओघसंझा-खी० मतिज्ञानावरणकर्मक्कयोपशमात् ओगाहणारु-अवगाहनारुचि-पुं०स्त्री० अवगाढरुच्यपरना- शब्दाद्यर्थगोचरसामान्यावबोधक्रियायाम, प्रज्ञा०७ पद ॥ मके धर्मध्यानस्य चतुर्थे बकणे, “ोगाहणारुईण य पवादभंग- ओघ (ग्घ) सिय-अवधर्षित- न० अवघर्षणमवघर्षितं नावे गुरुविलं सुत्तमत्थतो सारुणसंवेगमावन्नं सो कायति" । आ० क्तप्रत्ययः । नूत्यादिना निर्मार्जने, “अयोग्घसियाणिम्मवाए गच०४ अ॥ याए' । रा०॥ अोगाहित्ता-अवगाह्य- अव्य आक्रम्येत्यर्थे, ज०५ श०४ उ०। गोपादेस-कोपाला-पं० सामान्यतः श्रादेशने,"ओ मय-अवगाहिमक-न० अबगाहेन स्नेहबोलनेन निवृत्त- सिय कमजुम्मा" न.२५ श० ३०॥ मवगाहिम-" भावादिम" इतीमः । ध०२ अधिः । तदेवावगा- ओं (इ.) घ-निजा-अदा० अक-शयने, निभातेरोहीरौधौ ८।४। हिमकम्-पक्कान्ने, पञ्चायविधाप्रवण । अस्प विकृतित्व- | १२ । इति निपूर्वस्य जातेरोघादेशः : ओघ निजाति । प्रा०॥ विचारः यत्तापिकायां घृतादिपूर्णायां चलाचलं खाद्यकादि पच्य- ओचिइयच-औचित्य-न० चितस्य नावः । न्यायप्रधानत्वे, ते तस्यामेव तापिकायां तेनैव घृतेन द्वितीयं तृतीयं च खाद्यका उचितवृत्ती, द्वा०१८ E) "औचित्यमेकमेकत्र, गुणानां कोटिरेदिविकृतिः ततः परं पक्वान्नानि श्रयोगवाहिनां निर्विकृतिप्रत्याख्या कतः । विषायते गुणग्राम, औचित्यपरिवर्जितः" ध० १ अधि० । नेऽपि कल्पन्ते। अधैकेनैव पूपकेन तापिका पुर्यते तदाहितीय अनौचित्यपरिहारे, "विधिसेवादानादौ, सूत्रानुगता तु सा नियोपक्वान्नं निर्विकृतिप्रत्याख्यानेऽपि कल्पते क्षेपकृतं तुजवतीत्येषा वृ. गेन । गुरुपारतन्त्र्ययोगा-दौचित्या चैव सर्वत्र” षो०५ विव० ॥ सामाचारी ।ध०२ अधि तयुक्तं निशीथे "चलचलओगाहिमंच पर्क" "आदिमे जे तिम्मि घाणाएयात्त ते चनचलेत्ति तेण प्रोचिइय (च्च ) जोग-औचित्ययोग-पुं० औचित्यब्यापातेऽचचलेत्ति तवस्पटमं जंघयं खित्तं। तब्वत्रणअपस्कितंती आ. रे, । पो०१ विव०। दिमे जे तिम्मिघाणा पयति तेचलचत्ति तेण ते अचाचाओगा | ओचूल-अवचून-पुं० स्त्री० । अधोमुखचूनायाम, वि०२ अ० हिमं नम्मति । तत्थ तथा जे सेसा पञ्चंति ते ण चलति अतो तेण | प्रलम्बमानगुच्छे, । औ०। अातिल्ला तिमिश घाणो मोनु ससा पञ्चक्वाणिस्स कप्पांत जति ओचूझगवत्यणियत्थ-अवचूलकवस्त्रनिवसित-त्रि० । अवअसं घयं ण परिकप्पति जोगवाहिस्स पुण सेसगा वि गता"। चूला अधोमुखाश्चूला यत्र तदवचूलं मुत्कलाञ्चलं यथा भवनि००४ाध० । पक्वान्नाद्याश्रित्य चैवमुक्तं “वासासु पन्न- | तीत्येवं वस्त्रं निवसितं येन स तथा । मुत्कलाञ्चयतया निवसिरदिवसं, सीनएहकाले सु मासदिणवीसं । नग्गाहिम जईणं, तवने, । “सरसस्स उल्लपमसामए ओचूनगवत्थनियत्थे"। कप्पर प्रारम्भ पढमदिणे" केचित्तस्या गाथाया अन्नत्यमान-1 झा०१६ अन्न वदन्तो यावन्धरसादिना न विनश्यति तावदवगाहि- श्रोच्चिय-अवच्छिन्न-त्रि० । अवष्टब्धे, “पलिओच्छणे ठितमं शुद्ध्यतीत्याहुः । ध०२ अधि० । ब० प्र०। पं० व० । श्राव० । | वाद पवदमाणे” । अवलितं कर्म तेनावच्छिन्नः कर्मावष्टब्ध इति ओगिकिय-अवगृह्य-प्र०अव्-ग्रह-ट्यप्-आश्रित्येत्यर्थे, "ओगि- यावत् । आचा०१श्रु०५ अ०१०॥ किय भोगिकियत्ता उणिमंतेजा" आचा०२ श्रु०३ अ०३०॥ ओच्छिमपलिच्छीण-अवच्छिन्नपरिच्छिन्न-त्रिक अत्यन्तमाअोगिएइत्ता-अवगृह्य-अव्य. अव्-गृह-ल्यप्-अनुशापूर्वकं गृ- धादिते, । “पत्तेहि य पुफ्फेहि य ओपिनिच्छीणा" जी. हीत्वेत्यर्थे, " अहापमिरूवं ओगिएह ओगिरहश्त्ता संजमेण ३ प्रति०॥ अप्पाणं भायमाणो" झा० १०॥ ओझर-निर्जर-पुं०।वा निर्भरे ना। ||5। इति निर्करशम्दे ओगिएहण-अवग्रहण- न० अवगृह्यतेऽनेनेति अवग्रहणं कर- नकारेण सह श्त ओकारो वा भवति । प्रोकरो। नि:रो गिणेऽनट । व्यवनावग्रहप्रथमसमयप्रविष्टाग्दादिपालादानपरि-रिप्रस्रवणे, प्रा०। णामे, नं० जावे ल्युट । प्रतिरोधे, अनादरे, मेदि०झाने चवाची ओणय-अवनत-न० अवनतिरवनतं भावे क्तः । अत्तमाङ्गप्रधाप्रोगिणया-अवग्रहणता-स्त्री० अवग्रहणस्य भावोऽवग्रह- | ने प्रणमने, “फुओणयं" प्रय०२ द्वा० "क ओणयं का सिरं" णता । मतिदायग्रहे, नं०। मनोविपकरणे च "सयाणं धम्मा- | आव०२ अ०। णं अोगिएहणयाए अोवहारणयाए अग्नुट्टेयवं" स्था०८ गोणमणी-अवनमनी-स्त्री० अलौकिकाबनमनसाधने विद्याश्रोमिय-अवगुणिमत-स्त्री० मलदिग्धगात्रे, वृ०१ ३०॥ दे , । " ओणामणीए अणामित्ता गहियाणि पज्जत्तगाणि"। ओगूहिय-अवगुहित-न० आलिङ्गिते, झा० अ०॥ नि० चू० १ उ० । प्रोणमिश्र-अवनम्य-अव्य० अवनतं कृत्वेत्यर्थे, । "श्रोणमियश्रोग्गाल-रोमन्यि-रोमन्थ-ना-धा-णिच-आत्मचुक्तस्य घासा उमाभियणिज्झाएज्जा" । आचा० २ श्रु० ॥ देः पशुभिरुचीर्य चर्वणे, वाच ।“ रोमंथेरोग्गालवग्गोली" ८ । ४।४३ । रोमन्धेनामधातोर्यन्तस्य एतावादेशी नवत इति ओ- आणामऊण-अवनम्य-अव्य. अवनत कृत्वत्यथ,"तच सिगानादेशः। ओग्गा वग्गोबर रोमंथ-रोमन्थयते । प्रा०॥ | वो प्रोणमिकण पमिच्छ" नि००१ उ० । श्रोध-अोघ-पुं० संघाते,"मेघो घरिलियं गंभीरमदुरसई"राण ओत्तरिय-अवतारित-त्रि० शरीरात पृथक् कृते, ज्ञा०४०। सामान्ये, अोधुवक्कमित्रो । संसारे, "एते ओघं तरिस्संति समुहं | ओत्थय-अवस्तृत-त्रि० आच्छादिते, । “हारोत्थयकयरह Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७) प्रोत्थिय अभिधानराजेन्द्रः। ओदइय यवत्थे”। झा० । “सम्मं ततो आत्थयं गयणं"। आमदि। मिश्र वा दव्वं वेनबिअंवा सरीरं वेउध्वियसरीरप्पोओदश्य-औदायक-पुं० उदयः कर्मणां विपाकः स एवौद-| गपरिणामिश्र वा दव्वं । एवं आहारगं सरीर तेअगं सयिकः। क्रियामा जावनेदे, उदयेन निष्पन्न औदयिको नावः । रीरं कम्मगं सरीरं च जाणिअव्वं । पयोगपरिणामिए नारकत्वादिपर्यायविशेषे, ज.७.१४ उ० । सूत्र० । कर्मोदयापादितगत्याद्यनुनावलकणे नावदे, सूत्र.१ श्रु० १३ अ०। बसे गंधे रसे फासे सेतं अजीवोदयनिप्पएणे सत्तं उदयअनु०। आचा० । कर्म । आ० म०हि । उत्त०।। निप्पणणे सेत्तं उदइए। से किं तं ओदए अोदए दुविहे पन्नते तं जहा नद- विशिष्टाकारपरिणतं तिर्यङ्मनुष्यदेहरूपमादरिकं शरीरम् । ए य उदयनिप्पन्ने अ अनु० ॥ (उरालियसरीरप्पओगे इत्यादि ) औदारिकशरीरप्रयोगपरिणऔदयिको द्विविधः उदय उदयनिष्पन्नश्च । तत्रोदयोऽष्टानां मितं अन्यमौदारिकारीरस्य प्रयोगो व्यापारस्तेन परिणमितं कर्मप्रकृतीनामुदयः शान्तावस्थापरित्यागेनोदीरणावलिकाम स्वप्रयोगित्वात् गृहीतं तत्तथा । तत्र वर्णगन्धरसस्पर्शीनां तिक्रम्य उदयावलिकायामात्मीयरूपेण विपाक इत्यर्थः । अत्र पानादिरूपं स्वत एवोपरिष्टादर्शयिष्यति वाशब्दः परसमुचये चैवं व्युत्पत्तिः । उदय एव प्रौदयिकः। (स्था०) विनयादेराक- एतद्वितथमप्यजीवे पुजवाव्यलक्षणे औदारिकशरीरमामकोंतिगणतयोदयशब्दस्य तन्मध्यपाठाभ्युपगमात् । विनयादिभ्य दयेन निष्पन्नत्वादजीवोदयनिष्पन्न औदायको भाव उच्यते । इति स्वार्थे इकण प्रत्ययः । पं० सं०२ द्वा० । उदयनिष्पन्नस्तु एवं वैक्रियशरीरादिष्वपि भावना कार्या । नवरं वैक्रियशरीरकर्मोदयजनितो जीवस्य मानुषत्वादिपर्यायस्तत्र च उदयेन नि नामकर्माद्युदयजन्यत्वं यथास्वं वाच्यमिति औदारिकादिशवृत्तस्तत्र भव इत्यौदयिकः इत्येवं व्युत्पत्तिरिति । स्था०६ ठा। रीरप्रयोगेण यत्परिणमति द्रव्यं तत् स्वत एव दर्शयितुमाह । एतदेव सूत्रकृदाह । (पओगपरिणामिए, वा इत्यादि)पञ्चानामपि शरीराणां प्रयोसे किं तं नदए उदए अहं कम्मपयमीणं नदएणं गेण व्यापारण परिणमितं गृहीतं वर्णादिकं शरीरे वर्णादिसं पादकं व्यमिदं षष्टव्यम् उपवकणत्वाच्च वर्णादीनामपरमपि सेत्तं नदए । से किं तं नदयनिप्पन्ने उदयनिप्पन्ने दुविहे यच्चरीरे संभवत्यानापानादिं तत्स्वत एव दृश्यमिति । अत्राह । पामते तं जहा जीवोदयनिष्पन्ने अ अजीवोदयनिप्पन्ने अ॥ ननु यथा नारकत्वादयः पर्याया जीवे जवान्त जीवोदयनिप्पन्ने औदयिको भावो द्विविधः अष्टानां कर्मप्रकृतीनामुदयस्तत्र औदयिके पठ्यन्ते एवं शरीराएयपि जीव एव जयन्त्यतस्तान्यनिष्पन्नश्च । अयं चार्थः प्रकारद्वयेन व्युत्पत्तिकरणादावेष द- पि तत्रैव पठनीयानि स्युः । किमित्यजीवोदयनिप्पन्नः धीयन्ते, शितः । उदयनिष्पन्नः पुनरपि द्विविधो जीवे उदयनिष्पन्नः । अस्त्वेतत्किन्वौदारिकादिशरीरनामकर्मोदयस्य मुख्यतया शजीवोदयनिष्पन्नः । श्रजीवे उदयनिष्पन्नः अजीवोदयनिष्पन्नः।। रीरपुफलेष्वव विपाकदर्शनात्तन्निष्पन्न औदयिको नायः शरीर से किं तं जीवोदय निप्पन्ने अणेगविहे परमत्ते तं जहा। नक्कणे जीव एव प्राधान्याद्दर्शित इत्यदोषः सत्तमित्यादिनिगमऐरइए तिरिक्खजोणिए मस्से देवे पुढविकाइए जाव नत्रयम् । उक्तो द्विविधोऽप्यौदयिकः । अनु। तसकाइए कोहकसाई मोहकसाई इत्थीवेदए पुरिसवेदए पते चौदायकनावनेदा एकविंशतिरिति दर्शयन्नाह । एणपुंसगवेदए कएहसे जाव एकसे मिच्छादिही अवि चउगइचउकसाया, लिंगतिग लेस उक्कमन्नाणं । रए अपाणी आहारए उउमत्थे सजोगी संसारत्ये मिच्चत्तमसिकतं, असंयमो तह चनत्थम्मि ।। असिके सेत्तं जीवोदय निप्पन्ने । एते सर्वेऽपि गत्यादयो भावाश्चतुर्थे औदयिक नावे भवन्ति । जीवोदयनिष्पन्नस्योदाहरणानि ( नेरइए इत्यादि ) इदमुक्तं तथा हि चतस्रो नरकादिगतयो नरकगत्यादिनामकर्मोदयादेव भवति । कर्मणामुदयेनैव सर्वेऽप्येते पर्याया जीवे निष्पन्नास्त जीवे प्रादुःषन्ति कषाया अपि क्रोधादयश्चत्वारः कषायमानीद्यथा नारकस्तिर्यङ्मनुष्य इत्यादि । अत्राह । ननु यद्येवमप यकर्मोदयात् । सिङ्गत्रिकमपि स्त्रोवेदादिरूपं स्त्रीवेदपुंवेदनपुंसरेऽपि निजापञ्चकवेदनीयहास्यादयो बहवः कर्मोदयजन्या कवेदं मोहनीयकर्मोदयात् । लेश्याषट्कं तु योगपरिणामो लेजीवे पर्यायाः सन्ति किमिति नारकत्वादयः कियन्तोऽप्युप श्या इत्याश्रयणेन योगत्रिकजनककर्मोदयात् । येषां तुमते कषान्यस्ताः सत्यमुपलक्षणत्वादमीषामन्येऽपि संभविनो द्रष्टव्याः । यनिष्पन्दो लेश्यास्तदभिप्रायेण कषायमोहनीयकर्मोदयात् । अपरस्त्वाह । ननु कर्मोदयजनितानां नारकत्वादीनां भवत्वि येषां तु कर्मनिष्पन्दो वेश्यास्तन्मते संसारित्वासिद्धत्ववदष्ट प्रकारकर्मोदयादिति । अज्ञानमपि विर्पयस्तयोधरूपमत्यज्ञानाहोपन्यासो लेश्यास्तु कस्यचित् कर्मण उदये भवन्तीत्येतन्न प्रसिद्धं तत्किमितीह तदुपन्यासः । सत्यं किं तु योगपरिणामो दिक ज्ञानावरणमिथ्यात्वमोहनीयोदयात् । यत्तु पूर्वमस्यैव मलेश्याः । योगस्तु त्रिविधोऽपि कर्मोदयजन्य एव ततो लेश्या त्याद्यज्ञानस्य कायोपशमिकत्वमुक्तं तद्वस्त्ववबोधमात्रापेक्कया नामपि तदुभयजन्यत्वं न विहन्यते । अन्ये तु मन्यन्ते कर्मा सर्वमपि हि वस्त्ववबोधमात्रं विपर्यस्तं चाज्ञानावरणीयकर्मक्कयोटकोदयात् संसारस्थत्वासिहत्व वल्लेश्यावत्त्वमपि भावनीय पंशम पर जवति । यत्पुनस्तस्यैव विपर्यासलकणमझानत्वं तत् मित्यलं विस्तरेण । तदर्थना तु गन्धहस्तिवृत्तिरनुसर्तव्यति झानावरणमिथ्यात्वमोहनीय एव संपद्यते । इत्येकस्यैवाज्ञानस्य सेत्तं जीवोदयनिष्पन्नेति निगमनम्। कायोपशमिकत्वमौदयिकत्वं च न विरुध्यत इत्येवमन्यत्रापि अथाजीवोदयनिष्पन्नं निरूपयितुमाह ।। विरोधपरिहारः कर्तव्य ति । मिथ्यात्वमपि मिथ्यात्वमोहनीयो. से किं तं अजीवोदयनिप्पन्ने २ अणेगविहे पएणते तं| दयात् श्रसिद्धत्वं कर्माष्टकोदयात् । असंयमोऽविरतत्वं तदष्य प्रत्याख्यानावरणकषायोदयात् उपजायत ति। ननु निद्रापञ्च जहा नरालित्रं वा सरीरं उरालिअसरीरप्पयोगपरिणा- कासातादिवेदनीयहास्यरत्यरतिप्रभृतयःप्रनूततरजावा अन्येऽपि Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओदश्य कर्मजन्याः सन्ति समितान्त पनि निर्दिष्टाः सत्य मुक्षणमात्यादमीषां संचिनोऽन्येऽपि कन्याः केवलं शास्त्रेषु प्राय एतावन्त एव निर्दिष्टशः दृश्यन्ते इत्यत्राप्येतावन्त एव प्रदर्शिता इति प्रदोष इति । प्रव० २२१ छा० । सूत्र० । ओद (ब) ओदनन० उद्युम्नलोपो गुण कूरे 1 उपा० १ अ० । पंचा० । कोऽवौदनादौ । आचा० १४० ९ ० । ०१ शापादिके, दि०"सूत्र १ दणे २ जवणं | ३ |" इति व्यञ्जनभेदत्वं तस्य । स्था० ३ वा० । (रविवानाम्पाविशन्दे उपनि) उष्णाय मोदनः प्रश स्वते न शीतः । सूत्र० २ श्रु० ३ अ० ॥ मोद (य) खविहि-मदन विधि-पुं० [कोद्रवादिचान्यानि ध्याये ओदनप्रकारे दर्श (अस्य विधिः) प्रदरिय- प्रदरिक - त्रि० उदरे प्रवृत्तः ठक् । श्रथूने, उद रमात्रपूरणापेक्षके, विजिगीषा विवर्जिते, अमरः । विजिगीषा विगानेear निन्देच्छा तस्याः स्वोदरपूरणासक्कतया त्याग एवास्य प्रवृत्तिः बाच जीविका प्रमजिते, "चोदरिया णाम जीविताहेतुं पव्वश्या" नि० चू०१५० । औदरिकानां यत्रागतास्तत्र रूपकादिकं प्रक्षिप्य समुद्दिशन्ति । समुद्देशनानन्तरं भूयोऽप्यग्रतो गच्छन्ति । वृ० १३० । प्रौद० उदरे भकः यत् उच्यः ततः स्वार्थे अ दरभवे नलादो, अभ्यन्तरप्रविटे च वाय० । ओहण अदहन १० दम्भने ० १३० । - (८०) अभिधानराजेन्: । m - ओदा सिष्य प्रौदासीन्य १० उदासीनस्य भावः पशुभाशुभयरूपेक्षायाम्, ताटस्थ्ये, राहित्ये, रागनिवृत्तौ च । श्रीदास्यमप्यत्र वाच० । प्रोप्प अधि० समर्पणे "पाप" १६३ अवती धातौ श्रादेरस्य श्रोत्वं वा भवति । श्रोप्पे । अप्पे । श्रोपिश्रं । श्रपिश्रं । प्रा० । श्रीरूपफलय- अवफलक पक्षस्याभ्य न्तरे पीठफलकादीनां बन्धनानि मुक्त्वा प्रत्युपेक्षणं न करोति यो वा नित्यावस्तृत संस्तारकः सोऽवबद्धपीठफलकः । सर्व तो, "बडपीठफल ओखमंजयं विवाणादि" । व्य० १३० । योबुकमा अवबुध्यमान- त्रि० विजानाने, "श्रो बुज्ऊमाणे इह माणवेसु”। स्वर्गापवर्गौ तत्कारणानि चावबुध्यमानोऽनावार कज्ञानसद्भावात् इहेति मर्त्यलोके मानवेषु विषयभूतेषु धर्ममाख्याति । श्राचा० ६ ० १ उ० । प्रोभावणा-अपभ्राजना-स्त्री० लोकप्रवादे, ओभावना मा मे भून्नवसावप्यस्ति विद्वान् किमन्येषां वन्दनकं प्रयच्छतीत्येवंभूताऽपचजना मम मा भूदित्यर्थः । प्रव० २ द्वा० । भोनास अवभास-० अशीतिमामाणां पञ्चमे प्रदे सू० प्र०२० पाहु कल्प० । षट्षष्टितमे, इति चं०प्र० २० पाहुण सप्तषष्टितमे वा महाग्रहे । " दो ओजासा " । स्पा० २ ० ॥ प्रभा (हा ) सण - अवनासन- न० । ईषद्योतने, न०० श० उ० । आविर्भावे, प्राप्यमाणतायाम, सूत्र० १० १२ अ० ॥ देशतः सर्वतः पोते, देशतः कावधि ना सर्वतोऽज्यन्तरावधिना ज्ञाने च । स्था० २ ० ॥ ओमज्जा पुरवखार अवभाषण - न० याचने, व्य० द्वि० ८ उ० ॥ ओमा (हा ) सरानिक्खा अपनापण भिक्षा स्त्री० [विशि टद्रव्ययाचनं समयपरिभाषया । "ओहासणंनि जा" तत्प्रधाना भिक्का । विशिष्टव्ययाचनेन निक्षणे, श्राव० ४ अ० । घ० । भोजा (डा) समाण अवभासयत् । उद्भासया । "जोनासमाने दविपस्स वित्तं पाणिकसे बढ़िया प्रासु पो" अवसायन सम्यगनुतिष्ठन् इव्यस्य मुकिगमन योग्यस्य तत्साधो रागद्वेषरहितस्य सर्वज्ञस्य व्यावृत्तमनुष्ठानं तत्स'दनुष्ठानतोऽवभासयेत् धर्मकाधिकः कथनतो पोकासयेदिति । सूत्र० १ ० १४ भ० श्रोभासमाणची अवनासमानपरीचि श्री० शोभमानरङ्गे, भ० ११०६ ४० । ओनासिज्जमाण - श्रवभाप्यमाण- त्रि० याच्यमाने, । “सेजापरस्स जे पुरपच्छक संपता ते परघरेसु भोभासिज्जमाण एवं क रेजा" । नि० चू० १३० । प्रोमासिय-भाषित ०ि पाचिते व्य० द्वि०६४० प्रार्थिते । ओ० । अवभाषणभवनाषितं जावे कः । याचने, वृ० १ ० । अनुग्ग- अवग्न- त्रि० वक्रे, " रोसागयधमधाम तमारुयसिरफरुससिरभो गासियमा ३०० ओम नम - त्रि० ऊने, स्था०३ ठा० न्यूने, ।" आमं श्रमं जुंजीया" । आ० प्र० प्र० । होने, मिथ्यादर्शनाऽविरत्यादिके, । आचा० १ श्रु० ३ अ० ३ ० । वाले, श्र० । लघुतरे, व्य० द्वि० ० । लघुपर्याये । श्र० स्था०| "ओमोत्ति वरिसारणं" । अवमो नाम भराति वर्षारतो यस्य प्रव्रज्यापर्यायेण त्रीणि वर्षाणि माद्यापि परिपूर्णत्यर्थः व्य० प्र०३ ० ० "अ पिए भोगे" दीर्घदु०३४० ॥" मोमे विगम्ममाणे ओमोदरियाए श्रस्स विसयं गंतव्वं " ॥ नि० चू०१३० ॥ श्रोमंथ - श्रवमन्थ - त्रि० । श्रवाङ्मुखकरणे, । वृ० १ उ० ॥ भ्रामथिय-श्रवमथित त्रि० । अधोमुखीकृते, " श्रोमंथियणयणययणकमला " अधोमुखीकृतानि नयनयनरूपाणि कमज्ञानि यया सा तथा विपा० २ अ० । झा० । श्रोमकोडया- श्रवमकोष्ठता-१० रिक्तोदरतायाम्, स्था० ४ वा. श्रमचेलय अवमचेझक - पुं० अवमानि असाराणि चेज्ञानि व स्त्राणि यस्य स अनमचेत्रकः । महाविद्वत्वेन जीर्णत्वेन त्याज्यप्रायवारिणि 'ओमचेगा व सुपिसायभूया गच्छखला हि किमिदं विश्रोसि, उत्त० १२० । 66 आमचेलिय- अत्रमचेलिक- पुं० अवमं त्र चेलं चावमचेसं प्रमाणतः परिणामतो मूल्यतश्च तद्यस्यास्त्यसाववमचेलिकः । एककपपरित्यागात विकल्पधारिणि "अदुवा संतरे अवा श्रमचेल अडया एगसाडे" श्राचा० १ श्रु०५ श्र० ३३० । असारवस्त्रधारिणि । श्राचा० १ ० ३ ० १ उ० ॥ ओमच्चय अवमात्यय- पुं० दुर्भिक्कापगमे, पंचा०१३ विव० । श्रोमज्जणपुरक्खार-श्रवमज्जन पुरस्कार- पुं० न्यून जनपूजायाम्, "ओमणपुरखारे" इति पञ्चमं स्थानं प्रत्युपेक्षणीयम् । व्याख्याऽन्यत्र दश० १ ० ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 0) प्रोमज्जायण अभिधानराजेन्द्रः । ग्रोमरत्त प्रोमज्जायण-अवमज्जा (घा) यन-पुं० ऋविभेदे, यस्य ते अोमरत्तनागा, नवंति मासस्स नायव्वा । गोत्रे पुण्यनकत्रम, जं०७ वक्ता सू०प्र० । चं० प्र० ॥ इह कर्ममासपरिपूर्णत्रिंशदहोरात्रप्रमाणश्चमास एकोनत्रिओमत्त-अवमत्व-नऊनतायाम, भ०१८ श०३०। ही- | शादहोरात्रो द्वात्रिंशश्च द्वाष्टिनागा अहोरात्रस्य । ततश्चरूमानत्वे, व्य० प्र०१०॥ सपरिमाणस्य ऋतुमासस्य कर्ममासपरिमाणस्य चेत्यर्थः। पओमदोस-अवमदोष-पुं० संखमीशप्ने दर्शयिष्यमाणे सं- रस्परं विश्लेषः क्रियते विश्लषे च कृते सति ये भंशा उद्धरिता खड्यां स्तोकसंस्कृतत्वेनानेषणीयपरिभोगात्मके दोषे, प्राचा दृश्यन्ते त्रिंशदावष्टिनागरूपास्ते अवमरात्रस्य भागास्त यवम रात्रं परिपूर्ण जवति । मासद्धयपर्यन्ते ततस्तस्य सक्तास्ते नागा २ १०१ अ०३०॥ मासस्यावसाने रुष्टव्याः। किमुक्तं नवति एकस्मिन् कर्ममासे श्रोमरत्त-अवसरात्र-पु.अवमा हीना रात्रिरवमरात्रः समासान्ते परिपूणे सति त्रिमासद्वयमपर्यन्तेषु शतद्वापष्टिभागा अधमराटचि" राबाहादाः पुंसि" इति पुंस्त्वम् । दिनकये, “छोमरत्ता अस्य सबन्धिनः प्राप्यन्ते इति । यदि मासपर्यन्ते एतावतोऽवपएणता तं जहा तइए पव्वे सत्तमे पञ्चे पक्कारसमे पब्वे पाण मरात्रा भागाः प्राप्यन्ते ततः प्रतिदिवस कतिप्राप्यन्ते इति । यदि रसमे पब्वे गृणवीसश्मे पव्वे तेसिश्मे पव्वे" स्था०४ ठा० मासपर्यन्ते एतन्निरूपणार्यमाह। फर्ममासापेक्षया एकैकस्मिन् ऋतौ लौकिकमेकैकं चन्र्तुमधिकृत्य व्यवहारत एकैकोऽवमरात्रो भवति । सकले तु कमसंव वावाहिजागमेग, दिव संजाइ ओमरत्तस्स । त्सरे षडवमरात्रास्तथा चाह । वावट्टिएहि दिवसेहि, ओमरत्तं तो जव। ता सब्वे विणं एते चंदनमूदुवे दुवे मासा तिचनपोणं । एकस्मिन् पकस्मिन् एकैकस्मिन् दिवसे कर्ममाससंबन्धिनि आदाणेणं गणिज्जमाणा सातिरेगाइं एगूणसटि एगूणसट्ठि अवमरात्रस्य संबन्धी हापष्टिनागः एकैकः संजायते । सत्रेच नपुंसकता प्राकृतत्वात् कथमेतदवसीयत इति चेमुच्यते रात्रं राइदिवाई राइंदियग्गणं आहितेति वदेज्जा तत्थ खलु इमे छ केवमात् । तथाहि यत एकैकस्मिन् दिवसे एकैको द्वाषष्टिओमरत्तापएणता तं जहा ततिए पव्वे सत्तमे पव्वे एकारसमे भागोऽवमरात्रस्य संबन्धी प्राप्यते ततो हाषष्टया दिवसैरेकोऽपन्ने पन्नरसमे पव्वे एकूणवीसतिमे पव्वे तेवीसतिमे पव्वे । वमरात्रो भवति । किमुक्तं जवति । दिवसे दिवसे अवमरात्रतत्र कर्मसंवत्सरेचसंवत्सरमधिकृत्य व्यवहारतःखस्विमेवढ्य सत्कैकद्वाधिभागवृद्ध्या द्वाषष्टितमे दिवसे त्रिषष्टितमा तिथि: माणक्रमाः षट् अवमरात्राः प्राप्तास्तद्यथा 'तए पव्वेत्यादि'सु प्रवर्तत इति । एवं च सति य एकषष्टितमोऽहोरात्रस्तस्मिन्नेकगमम् । सू० प्र०१३ पाहु०॥ षष्टितमा छाष्टितमा च तिथिर्निधनमुपगतेति द्वाषष्टितमा तिएसा तिहिनिप्पत्ती, भणिया मे वित्थरं य पहिका। थिोंके पतितेति व्यवहृयते । तथा चाह। वोच्चगमि अोमरतं, उविंगितो समासेण ॥ एकम्मि अहोरने, दो वि तिहिनिहणमेज्जासु । एषा अनन्तरादितस्वरूपा तिथिनिष्पत्तिर्मया विस्तरं प्रहाय प सोत्थ तिही परिहाय, मुहमेण हविज सो चरिमो ।। रिहृत्य भणिता प्रतिपादिता । संप्रति समासेन संकेपेण उद्विङ्गन एकैकस्मिन्नहोरात्रे तिथिसक्तो द्वापष्टिनागो द्वाषष्टिहानिमुपगकिंचिन्मात्रतया प्रतिपादयन् अघमरात्रान् वक्ष्यामि । ननु कासः च्छन् यस्मिकषष्टितमे अहोरात्रे द्वे अपि एकषष्टितमारूपे तिसर्वदानादिप्रवाहपतिततया प्रतिनियतस्वन्नाव एव परावर्तते थी निधनमायातः सा द्वाषष्टितमा तिथिरत्र एकषष्टितमे भहोरान तस्य कापि हानिर्नापि कश्चिदपि स्वरूपोपचयः । ततः कथम त्रैः परिहीयते । एवं च सति सूक्ष्मेण द्वापष्टितमरूपतया अतिवरात्रतासंनव इत्यत आह । लणेन एकैकेन भागेन परिहीयमानाया द्वाषष्टितमायास्तिथैः कालस्स नेव हाणी, न वि वझवी वा अवट्टिो कालो। स एकषष्टितमो दिवसश्वरमपर्यवसानसर्वात्मना निधनमुपजायइ वुववुकी, मासाणं एकमेकाओ। गतेति जावः । संप्रति वर्षाहिमग्रीष्मकालेषु चतुर्मासप्रमाणेषु कालस्य सूर्यादिमियोपलवितस्यानादिप्रवाहपतितप्रतिनियत प्रत्येकं कस्मिन् पक्के अधमरात्रं भवतीत्येतन्निरूपयति । स्वरूपतो न हानि पि कश्चिदपि स्वरूपोपचयः किं तु सदा तथा तइयम्मि ओमरत्तं, कायव्वं सत्तमम्मि पक्खम्मि । जगत्स्वाभाव्यादवस्थित एव । तथा प्रतिनियतरूपतया कालः वासहिमगिएहकाले, चाउम्मासे विधीयते ॥ केवलं यो जायते जायमाने प्रतीयते वृद्धयपवृछी मासानांते एक- इह कालस्त्रिधा तद्यथा। वर्षाकालो हिमसंबन्धी शीतकाल मेकस्मात् एकस्यान्यतरस्य सूत्रे द्वितीया प्राकृतत्वातू प्रवति प्रत्यर्थः । ग्रीष्मकासश्च एते च प्रयोऽपिचतुर्मासकप्रमाणावर्षाहि प्राकृतसवणवशाध्यत्ययः स्वादिविभक्तीनां यदाह पाणिनिः कालस्य चतुर्मासप्रमाएस्य श्रावणादेस्तृतीये पर्वणि प्रथमोऽवस्वप्राकृतलकणे "व्यत्ययोऽप्यासामिति" एकस्मादन्यतरस्मान मरात्रः । तस्यैव वर्षाकालस्य संबन्धिनि सप्तमे पर्वणि द्वितीयो. मासात् अत्र स्थाने पः कर्मधारय इत्यनेन पञ्चमी ततोऽयमर्थ उवमरात्रस्तदनन्तरशीतकालस्य तृतीये पर्वणि मुलापेक्या एएकमपरं मासमधिकृत्यैकस्यान्यतरस्य मासस्य धृद्ध्यपवृष्टी कादशे तृतीयोऽवमरात्रस्तस्यैव शीतकालस्य सप्तमे पर्वणि मअवतः । किमुक्तं भवति । कर्ममासात्सूर्यमासकाल चिन्तायां सात्पश्चदशे चतुर्थस्तदनन्तर ग्रीष्मकालस्य सप्तमे पर्वणि मूलावृहित स्वरूपापेक्षया तु त्रयोऽपि मासास्तदप्रतिनियतस्वरूप- पेकया त्रयोविंशतितमे षष्ठः । इह आषाढाद्या लोके ऋतवः प्रसिनावाः परावर्तन्ते न तु कश्चित् काबस्य वृद्धिहानिसंनवः।। द्धिमैयरुस्ततो लौकिकव्यवहारमपदयाषाढादारज्य प्रतिदिवससंप्रति ते पच वृद्धिहानिमपेक्ष्य चन्द्रमासे कर्ममासमपेक्ष्य मा. | मेकैकद्वायप्टिभागहाम्या वर्षाकालादिगतेषु तृतीयादिपर्यसु यथोसचिन्तायां कालस्य हानि दर्शयति । का भवमरात्री नूतया तया सह का तिथि: परिसमाप्तिमुपैतीचंदनम् मासाणं, अंसा जे दिस्सए विसेस म्मि । ति शिष्यः प्रश्नं कारयति ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोमदत्त अन्निधानराजेन्द्रः। ओमाण पाडिव योमरत्ते, कश्या विइया समप्पि हो तिही।। णि तत्र प्रतिष्यन्ते जातानि पञ्चशतान्यष्टापञ्चाशदधिकानि । विइयाए तिइयाए, ओमरत्ते चउत्थी उ॥ एषोऽपि राशिर्वाषष्टया भज्यमानो निरंशं भागं प्रयच्छीति ससेसासु चेव काहिइ, तिहीसु ववहारगणियदिट्टासु। उधाच नवेत्यागतो नवमोऽवमरात्र इति समीचीनं करणम् । एवं सर्वास्वपि तिथिषु करणनावनाकरणसमीचीनत्वनावना अबसुहुमेण परिबतिही, संजाय कम्मि पञ्चम्मि ॥ मरात्रसंख्या च स्वयं भावनीया। पर्वनिर्देशमात्र क्रियते तत्र इह प्रतिपदमारज्य यावत्पञ्चदशी तावत्यस्तिथयस्तासांच मध्ये तृतीयायां चतुर्थी समाप्त्यष्टमे पर्वणि गते चतुर्ध्या पश्चमी एप्रतिपद्यघमरात्रीभूतायां सत्यां कस्मिन् पर्वणि पके द्वितीया कचत्वारिंशत्तमे पर्वणि पञ्चम्यां षष्ठी द्वादशे पर्वणि षष्ठ्यां तिथिःसमाप्स्यति प्रतिपदासह एकस्मिन्नहोरात्रे समाप्तिमेष्यति सप्तमी पञ्चचत्वारिंशत्तमे पर्वणि सप्तम्यामष्टमी षोडशे तृतीयायां वा तिथावधमरात्रिसंपनायां करिमन् पर्वणि चतुर्थी अष्टम्यां नवमी एकोनपञ्चाशत्तमे नवम्यां दशमी विंशतितमे तृतीयया सह निधनमुपयास्यति । एवं शेषास्वपि तिथिषु व्यवहा दशम्यामकादशी त्रिपञ्चाशत्तमे पकादश्यां द्वादशी चतुर्विरगणितदृष्टासु लोकप्रसिद्धव्यवहारगणितपरिजावितासु पञ्चमी- तितमे द्वादश्यां त्रयोदशी सप्तपञ्चाशत्तमे त्रयोदश्यां चतुर्दषष्ठीसप्तम्यष्टमीदशम्ये कादशीद्वादशीत्रयोदशीचतुर्दशीरूपासु झी अष्टाविंशतितमे चतुर्दश्यां पञ्चदशी एकषष्टितमे पञ्च. शिष्याप्रश्नं करिष्यति यथा सूदमेण प्रतिदिवसमें कैकेन द्वाषष्टि दश्यां प्रतिपत् द्वात्रिंशत्तमे ति एवमेता युगपूर्वार्धे पवं युगोतमरूपेण शुक्लेन भागेन परिदीयमानायाः परिहीयमानायां तिथौ त्तरार्धेऽपि अष्टव्याः । ज्यो०५ पाहु । सू० प्रा०प्र०। पूर्वस्या अवमरात्रीनृतायास्तिथेरानन्तर्येण परा तिधिः कस्मिन् ओमराइणियभाव-अवमरालिकभाव-पुं० प्रथमो बघुः सचापर्वणि गते संजायते समाप्ता । एतमुक्तं भवति । चतुर्थी तिथाववमरात्रीतूतायां कस्मिन् पर्वणि पञ्चमी समाप्तिमुपैति । पञ्च सौरालिकश्च गुणरत्नव्यवहारी तस्य नावोऽवमरासिकनावः। म्यां वा षष्ठी एवं यावत् पञ्चदश्यां तिथावयमरात्रीनृतायां क न्यूनपर्यायतायाम, पंचा० १६ विव०। स्मिन् पर्वणि प्रतिपदूपा तिथिः समातेति । एतं शिष्यस्य प्र अोमराणियभावकिरिया-अवमरालिकभावक्रिया-स्त्री० अ श्रमवधार्य निर्वचनमाचार्य आह। | मवरातिकभावो न्यूनपर्यायता तस्य या क्रिया करणं सा तथा रूवाहिगा उग्रो वा, विगुणा पञ्चा हवंति कायव्वा । । लघुतापादने, पंचा० १६ विव। एमेव हवा जुम्मे, एकतीसाजुया पन्चा ।। ओमाण-अपमान-न० अवमदर्शित्वे, सूत्र. १ श्रु० १ ० । शह याःशिष्येण प्रश्नं कुर्वता तिथय उद्दिष्टास्ता विविधास्तद्य- "भिक्खानसिए पगे एगे ओमाणभीरुए " अपमानभीरुः भथा। ओजोरूण युग्मरूपाश्च । ओजोविषयं समं युग्मं तत्र च या पमानात् जीरुः अपमानन्नीरुः । उत्त०२६ १० प्रोजोरूपास्ताः प्रथमतो रूपाधिकाः क्रियन्ते ततो द्विगुणास्तथा अवमान-ना अवमीयते परिच्छिद्यते खाताधनेनेति अवमानच सति तस्यास्तस्यास्तिर्युग्मपर्वाणि निर्वचनरूपाणि समाग- म हस्तदएमादौ, अवमीयते परिच्छिद्यते हस्तादिना यत्तदवतानि जवन्ति । ( एमेव हवा जुम्मे ति) या अपि युग्मरूपास्ति- पानम् । खातादौ, करणकर्मसाधनध्यव्युत्पत्तिः । थयस्तास्वपि एवमेव पूर्वक्तिनैव प्रकारेण करणं प्रवर्तनीयं नव तत्र कर्मसाधनपकमधिकृत्य तावदाह । रं द्विगुणीकरणानन्तरमेकत्रिंशद्युक्ताः सत्यः पर्वाणि निर्वचनरूपाणि भवन्ति ।श्यमत्रनावनाऽयं प्रश्नः कस्मिन्पर्वणि प्रतिपद्यव से किं तं ओमाणे जमं ओमिणिज्जइ तं जहा हत्थेण मरात्री नूतायां समुपयातीति तदा प्रतिपत् किलोद्दिष्टा सा च वा दंमेन वा धनुक्केण वा जुगेण वा नालिआए वा अप्रथमातिथिरित्येको धियते सरूपाधिकः क्रियते जाते हे रूपे ते क्खेण वा मुसलेण वा, दंडधणूजुगनालि य, अक्खं मुअपि द्विगुणीक्रियेते जाताश्चत्वार आगतानि चत्वारि पर्याणि । सलं च च उत्थं । दस नालियं च रज्जु, विआणआमाणसततोऽयमों युगादितश्चतुर्थे पर्वणि प्रतिपद्यवमरात्रीभूतायां हितीया समाप्तिमुपयातीति युक्तं चैतत्तथा हि प्रतिपद्युद्दिष्टायां च पाए । वत्पम्मि हत्यमेजं, खित्ते दंडं धणुं च पत्थम्मि । त्वारि पर्वाणि लब्धानि पर्व च पञ्चदशतिथ्यात्मकं ततः पञ्च- खायं च नाझिाए, विश्राएतो माणसणाए । एएणं अदश चतुर्निर्गुण्यन्ते आता षष्टिः। प्रतिपदि द्वितीया समापयती- वमाणप्पमाणेणं किं पोणं ? एएणं अवमाणपमाणेण ति द्वे रूपे तत्राधिके प्रति जाता द्वाषष्टिः सा च द्वाषचा भ खायाचिअकरकचियकम्पममिति परिक्खेवससियाणं दव्वाणं ज्यमाना निरंश जागं प्रयच्चति बब्ध एकक त्यागतः प्रथमोऽव. अवमाणपमाणं निवित्तिलक्षणं भवइ सेतं अवमाणे ।। मवरात्र इत्यविसंवादिकरणम्। यदातुकस्मिन् पर्वणि द्वितीयायामवमरात्रीभूतायां तृतीया समाप्नोतीति प्रश्नस्तदा द्वितीया __ यदवमीयते खातादि तद्वमानं केनावमीयते इत्यादि "हत्थण किस परेणोद्दिष्टेति द्विको ध्रियते । सरूपाधिकः क्रियते जातानि वा दंमेन वा श्त्यादि" तत्र हस्तो वदयमाणस्वरूपश्चतुर्विशत्यत्रीणि रूपाणि तानि हिगुणीक्रियन्ते जाताः षट् द्वितीया च ति- इ-समानोऽनेनैव हस्तेन चतुर्भिहस्तैः निष्पन्ना अवमानविशेषादथिः समेति षट् एकत्रिंशद्युताः क्रियन्ते जाताः सप्तत्रिंशत् श्राग- एमधनुयुगनालिकाकमुसलरूपा षट् संज्ञा सभन्ते। अत एवाह “दतानि निर्वचन रूपाणि सप्तत्रिंशत्पाणि । किमुक्तं भवति युगा-1 एमं हस्तो दएम, धनुयुगं नाविकां चाकमुसतंच" करणसाधनपदितः सप्तत्रिंशत्तमे पर्वणि गते द्वितीयायामवमरात्रीभूतायां | कमङ्गीकृल्यावमानसंज्ञया विजानीहीति संबन्धः । दण्डादिकं तृतीया समाप्नोतीति दमपि करणं समीचीनम् । तथा हि।। प्रत्येकं कथंभूतमित्याह । चतुर्हस्तं दशभिर्नालिकाभिर्मिष्पन्नां द्वितीयायामुद्दिष्टायां सप्तत्रिंशत्पाणि समागतानि । ततः सप्त- रज्जु च विजानीयवमानसंशयेति गाथार्थः । ननु यदि दण्डात्रिंशत् पञ्चदशानिर्गुण्यन्ते जातानि पञ्चशतानि पञ्चपञ्चाश- दयः सर्वे चतुर्हस्तप्रमाणास्तयेकेनैव दण्डाद्यन्यतरोपादानेन दधिकानि । द्वितीया नष्टा तृतीया जातेति त्रीणि रूपा- चरितार्थत्वात्किमिति षणामप्युपादानम् । उच्यते मेयवास्तुषु Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओयनूय म ( १) श्रोमाण अभिधानराजेन्डः। भेदेन व्याप्रियमाणत्वात् तथा चाह “वत्थुम्मि गाहा" चा- शति प्लवतेय॑न्तस्य एतावादेशौ वा भवतः। श्रोम्बाल। प्यावस्तुनि गृहभूमौ मीयतेऽनेनेति मेयं मानमित्यर्थः। लुप्तद्विती-| यति । प्रा०। यैकवचनत्वेन हस्तं विजानीहीति संबन्धः । हस्तेनैव वास्तु पोय-पोकस्--न निवासे, 'संनलिविणोयकेयणवेलवणं'। व्य. मीयत इति तात्पर्यम् । क्षेत्रे कृषिकर्मादिविषयभूते चतुर्हस्तं द्वि०५० घंशलक्षणं दण्डमेव मान विजानीहि । धनुरादीनां चतुर्हस्तत्वे ओज-त्रि०ओज-अच्-एके, असहाये, सूत्र०१ श्रु० ४ अ०। समानेऽपि रूढिवशात् दण्डसंज्ञा । प्रसिद्धेनैवावमानप्रमाणेन आचा० । व्यतः परमाणौ, भावतस्तु रागद्वेषवियुते, । "श्रो. विशेषेण क्षेत्र मीयते इति हृदयम् । पथि मार्गविधाने धनुरेव एसयाणरजेजा नोगकामी पुणो विरजेज्जा" सूत्र०१ श्रु०४ मानम् । मार्गे गव्यूत्यादिपरिच्छेदो धनु-संशा प्रसिद्धेनैवाव. आचा। "खेतोयं कालोय, करणमिण साहो नवाओयं । कसमानविशेषेण क्रियते न दण्डादिभिरिति भावः । स्वातं कूपा- त्तियजोगितिय-श्य कमजोगी वियाणाहि"। यो न रागेन द्वेषे किंदिनालिकयेव यदि विशेषरूपया मीयते इति गम्यते । एवं यु- तु तुझादपदवद्वयोरपिमध्ये प्रवर्तते स प्रोजोनएयते।ग्रेडगादिरपि यस्य तत्र व्यापारो रुढस्तत्र वाच्यस्तत्कथंभूतं ध्वादौ ओजाः केत्रीजाः। काले अवमौदर्यादौ ओजाः कालौजाः। हस्तदण्डादिकमित्याह । अवमानसंशयोपलक्षितमिति गा- केत्रे काले च प्रतिसवमानो न रागद्वेषाच्या दृष्यत इत्यर्थः। वृ० थार्थः । एतेनावमानप्रमाणेन किं प्रयोजनमित्यादिभावितार्थ- १ उ०। रागषरहिते चित्ते, । दशा० ५ १०॥ विषमराशौ । मेव । नगरं ख्यातं कृपादिचितं त्विष्टिकादिरचितं प्रासादपी- पुं०। इह गणितपरिभाषया समराशियुग्म श्त्युच्यते विषमस्तु ठादिक्रकचितं करपत्रविदारितं काष्टादि कटादयः प्रतीता एव। ओजः । स्था०४ ठा। परिक्षेपो भित्त्यादेरेव परिधिनगरपरिखादिर्वा एतेषां खाता ओजस्-न०-असुन-वलोपे गुणः। मानसावष्टम्भे, निशा। दिसंशितानामभेदेऽपि भेदविकल्पनया खातादिविषयाणां द्र शारीरे, विद्यादिसत्के वा बले, । प्राचा १७०३ अ०१8०।व्याणां खातादीनामेवेति तात्पर्यम् । अवमानमेव प्रमाणं तस्य काशे, चं० प्र०५पाहु० । सू०प्र०ा दाहापनयनादिस्वकार्यकरनिर्वृत्तिलक्षणं भवतीति तदेतदवमानमिति निगमनम्। अनु०। णशक्ती, झा० १० १० । शस्त्रादिकौशल्ये, धातुतेजसि, । मा० म०प्र० स्था० । प्रवेशे च । “णिति श्रोमाणाई" नि. शानेन्द्रियाणां पाटवे, गौड्यां रीत्याम, “नमरैः फलपुष्पेन्यो, त्यम् ( ओमाणंति ) प्रवेशः स्वपक्षपरपक्षयोर्येषां तानि । यथा संम्रियते मधु । तद्वदोजः शरीरेज्यो, धातुभिः श्रियते नृणां आचा०२ श्रु.१०१ उ०। हृदि तिष्ठति यच्छुद्ध-मीषदुष्णं सपित्तकम् । ओजः शरीरे संभोमिय-अवमित-त्रि० परिच्छिन्ने, सू०प्र०६ पाहु । ख्यातं, तन्नादानासमृच्चति" । इत्युक्तलक्कणे धातुरसपोषके श्रोमुच्छग-अवमूर्द्धक-त्रि० अधोमुखे, "श्रोमुद्धगाधरणितले वस्तुन्नेदे, । वाच० । शुक्रशोणितसमुदाये, तं। उत्पत्तिदेशे पडंति" सूत्र० १ श्रु०५ अ०। आहतयोग्यपुससमूहे, प्रशा० 6 पद । प्रार्तवे, स्त्रीसंओमुयंत-अवमुञ्चत्-त्रि० परिदधति, कल्प। बन्धिनि रक्ते, । “ अप्पसुक्कं बहु ओयं इत्थी तत्थप्पजाय । प्रोमोय-अवमोक-पुं० श्रवमुच्यते परिधीयते यः स अव अप्पोयं बहू सुक्कं पुरिसो तत्थ जाय " स्वाग०। 'रसस्याङ्गित्वमाप्तस्य धर्माः शौर्यादयो यथा।एवमाधुर्यमोजोऽथ मोकः । आभरणे, भ० ११ श० ११ उ० । प्रसाद इति ते त्रिधा । इति गुणान् विनज्य तत्तद्वकणमुक्तम् । ओमोयरिय-अवमौदरिक-म० अवमानमुदरं यस्मिस्तदव ओजश्चित्तस्य विस्तार-रूपं दीप्तत्वमुच्यते । वीरवीनत्सरौषु मोदरं तत्र भघमघमौदरिकम् । बाह्यतपोभेदे, उत्त० ३० अ०। क्रमेणाधिक्यमस्य तु" इति तब्यञ्जकवर्णादयश्च तत्रोक्ताः “वआचा० । न्यूनोदरतायाम, श्राचा०१ श्रु०६०२ उ० । गेस्याद्यतृतीयान्यां युक्तौ वर्णों तदन्तिमौ । उपर्यधो द्वयोर्वा दुर्भिक्षे, श्रो। व्य । “असिवे प्रोमोयरिए रायदुढे भए य स्यात् रेफेः टठडढैः सह । शकारश्च षकारश्च तस्य व्यजकता गलमे" | नि० चू०१ उ० ! गताः । तथा समासबहुला घटनौकत्यशालिनी" शति । वाचः। ओमोयरिया-अवमोद ( रता) रिका-स्त्री० अवममूनमुदरं ओयसि (रण )-ओजस्विन्-त्रि ओजो मानसावष्टम्भस्तद्वायस्य सोऽवमोदरः । अवमं चोदरमवमोदरं तद्भावोऽवमोद- नोजस्वी । झा० १ ० । नि० । मानसावष्टम्भयुक्ते, न० २५ रता । प्राकृतत्वात् । अवमोदरस्य था करणमवमोदरिका । श०३ उ० । मानसबलोपेते, स० ।। आचा।" आरोहपरिणाह व्युत्पत्तिरेवेयमस्य प्रवृत्तिस्तूनतामात्रे । बाह्यतपोभेदे, स्था०३ चियमंसोदियापतिपुरस्तं" अह उउ तेन पुण होइ अणो तप्पया ठा० । श्राव० । सा च द्रव्यस्य उपकरणभक्तपानविषया प्र- देहो" आरोहो नामशारीरेण नातिय नातिहस्वता परिणाहो ना तीता भावतस्तु क्रोधादित्यागः । स्था०६ ठा० । पा०। (वि. तिस्थौल्यं नातिदुर्बलता अथवा प्रारोहः शरीरोच्यः परिणाशेषतो वर्णमं साक्षात्सूत्रैरेव व्यासेन ऊनोदरताशब्देऽदर्शि । हो वाहाविष्कम्भ पती द्वावपि तुल्यौ न हीनाधिकप्रमणो । ऊनोदरताशब्दस्यैतत्पर्यायत्वात् ) धर्मधर्मिणोरभेदात्साधौ (चियमसात्ति)नावप्रधानत्वान्निर्देशस्य चितमांसत्वं नाम वच । “चउव्वीसं कुकुडीअंडगप्पमाणे जाव आहारमाणे पुषि पांशूमिका नावलोक्यते । तथा इन्द्रियाणि च परिपूर्णानि श्रोमोयरिया" अवमोदरिका भवति धर्मधर्मिणोरभेदाद वा न चक्कुःश्रोत्राद्यवयवविकलतेति भावः । अथैतदागेहादिकमोज अवमोदरिका साधुर्भवतीति गम्यम् भ०७ श०१ उ०। । उच्यते तद्यस्यास्तीति ओजस्वी । वृ०१ उ० "ओयंसी ओयंसीभोम्बाल-उद्-- णिच्-धा० । गदने, बदेणेप्मन्मसन्नूमढ- ति वा तेअंसी तेअंसीति वा" प्राचा०१ श्रु०२ १०६०। कौम्बासपब्वासाः ७।४।२ । उदेय॑न्तस्यैते धमादेशा भव- ओयप्पएसिय-प्रोजःप्रदेशिक-त्रि. विषमसंख्यप्रदेशनिष्पन्ने, न्ति इत्योम्बालादेशः। श्रोम्बान । गदयति । प्रा०॥ न०१५ श०३० । प्लव-इ-णिच्-धा० सवने । प्यारोम्बासपब्वालौ।४१॥ ोयन्य-ओजोनूत-त्रि० रागद्वेषविरहिते, । वृ०१०। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) ओयरिय अभिधानराजेन्द्रः। भोयसंविद श्रोयरिय-ौदरिक-वि० उदरजरणैकचित्ते, वृ० १००। स्यौजोऽन्यदुत्पद्यते अन्यत्प्राक्तनमपैति इत्याख्यातमिति वदेत् । श्रोयल्ल-अपदीर्ण-त्रि०, कुण्ठीजूते, शा० १४ अ० । अत्रोपसंहारः एगे पवमासु एवमित्यादि" एवमुक्तेन प्रकाश्रोयविय-पोयविय-त्रि. विशिष्टपरिकर्मणा परिकार्मेते, प्रा० रेण एतेन वक्ष्यमाणेन प्रतिपत्तिजातेन नेतव्यन्तानेषाभिक्षापषि शेषान् दर्शयति । "ता अणुराईदियमेवेत्यादि" सुगमं नवरं राम०प्र० । मा० जी०।" श्रोयवियत्रोमगुल्लपडिच्छ्यणे"। त्रिदिवसमित्येवं सर्वत्र विग्रहनावना करणीया पानः पुनर सशयनीयानि (ओयवियत्ति) विशिष्टपरिकार्मतंक्षीमं कासिकं त्रस्य घेदितव्यः ।। "एगे एवमाइंसु ता अणुराइंदियमेव सूरियदुकूल वस्त्रं तदेव पट्टीयवियकौमदुकूलपट्टःस प्रतिच्छदनमा स्स ओया अम्मा चवज्ज असा प्रवेश श्राहियत्ति वपज्जा एगे च्छादनं यस्य तत्तथा । रा०। जी० । प्रशा० । एवमाहंसु ३ पगे पुण एवमासु ता अणु पक्वमेव सूरियस्स श्रीयसंठिइ-ओजःसंस्थिति-स्त्री० ओजसः प्रकाशस्य संस्थिति ओया प्रमा उप्पज्जा अन्ना अवेश भाहियत्ति वएज्जा पगे पचरवस्थानम् । प्रकाशावस्थाने, कथमोजसः संस्थितिराख्याता माइंसु ४ एगे पुण पवमाहंसु ता अणुमासं एव सूरियस्सभोया तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह। अम्मा उप्पज अना अवेश आदियत्ति बपज्जा पगे पक्षमासु ता कहं तेतोयसंठिती अहितातिवदेज्जा । तत्थ खलु इमा- ५ पगे पुण एवमादंसु ता अणुउनमेव सूरियस्स अशा ओया तो पणुवीस पवित्तीओ पहाता तो तंजहा तत्थेगे एव- सुप्पजर असा अवेति आहियत्ति वएज्जा पगे पवमाइंसु ६ माहंसु ता अणुसमयमेव मूरियस्स ोया अन्ना नप्पज्जाति एगे पुण पवमाहंसु ता अणुअयणमेव सूरियस्स भोया प्रमा उप्पज्ज अशा अवे आहियत्ति वएज्जा पगे पवमाहंसु ७ पगे अमावेती अहिताति वदज्जा। १ एगे पुण एवमाहंसुता - पुण पषमाइंसु ता अणुसंवच्चरमेव सरियस्स अन्ना प्रोया मुहुत्तमेव सूरियस्स अोया अमा उप्पज्जति अम्मा बेति उप्पज्जा अन्ना अवेति आदियत्ति वएज्जा एगे पवमाइंसु।। आहिता २ एवं एएणं अनिमावणं ता अणुरादितमेव पंगे पुण एवमाहंसु ता अणुवासमेव सूरियस्स प्रोग्रा अमाप्पसूरि० ३ ता अणुपक्खमेव सूरि० ४ ता अणुमासमेव सू ज्जा अम्मा अवे आहियत्ति वएज्जा एगे पवमाईसुए एगे पुण एबमाइंसु ता अणुवाससयमेव सूरियस्स ओआ अम्मा सप्पज्ज रि०५ ता अणुउउमेव सूरि० ६ ता अणुअयणमेव सूरि अप्मा प्रवेश आहियसि वएज्जा एगे एवभाइंसु १० एगे पुण एय०७ ता अणुसंवच्चरमेव मूरि०८ ता अणुवासमेव मूरि० वमाईसु ता अणुवाससहस्तमेव सूरियम्स प्रोयाश्रममा सप्पज ए ता अणुवाससयमेव मूरि० १० ता अणुवास श्रमा प्रवेश आहियत्ति घपज्जा पगे एवमाइंसु ११ एगे पुण एयमासहस्समेव सरि० ११ ना अणुवाससयसहस्समेव मूरि० हंसु ता अणुवाससयसहस्समेव सूरियस्स अम्मा आआ उपज १२ ता अणुपुत्वमेव सूरि० १३ ता अणुपुब्बसतमेव सू. अम्मा प्रवेश प्राहियत्ति वएज्जा एगे पचमाइंसु १२५गे पुण एव माइंसु अणुपुब्वमेव सूरियस्स अम्मा प्रोया अप्पज्जअमा प्रवेश रि० १४ ता अगुपुव्वसहस्समेव सूरि १५ ता अणुपुन्व पाहियात्त बपज्जा पगे एवमाइंसु १३ एगे पुण एषमाइंसु ता सतसहस्समेव सूरि०१६ ता अणुपलितोवममेव सूरि०१७ ता अणुपुब्यसयमेव सूरियस्स प्रोया अम्मा उप्पज्ज अममा प्रवेश अपलितोवमसयमेव सतसूरि० १०ता अणुपलितोबमसह- आहियत्ति वपज्जा एगे एवमासु १४ एगे पुण एवमासु ता स्समेव सरि० १६ ता अणुपनितोवमसतसहस्समेव सूरि० अणुपुब्वसहस्समेव सूरियस्स ओया श्रमा अप्पज्जा अमा प्रवे इ आहियसि वएज्जा एगे पवमाइंसु १५ एगे पुण एषमाइंसु ता २० ता अणुसागरोवममेव सृरि० १ ता अणुसाग अणुपुब्वसयसहस्समेव सूरियस्स अोया अम्मा अप्पज्ज अमर रोवमसतमेव सूरि २२ ता अणुसागरोबमसहस्समेव सू| प्रवेश प्राहियत्ति वपज्जा एगे एवमाहंसु १६ एगे पुण पवमासु रि०२३ ता असागरोवमसतसहस्समेव सूरि० एगे ता अपलिओवममेव सूरियस्स ओया अम्मा अप्पज्जा अना एव० २५ एगे पुण ता अणुनस्सप्पिणी मेव सूरियस्स अवेश आहियत्ति वएज्जा पगे एवमाहंसु १७ एगे पुण एवमाईअोपा अम्मा उपज्जअमा वित्ति आहियाति वएज्जा एगे सु ता अणुपलिनोवमसयमेव सूरियस्स प्रोया अशा अप्पज्जर अणा अवेश आहियत्ति वएज्जा एगे एवमाइंसु १७ एगे पुण एवमाहसु॥२५॥ एवमाहंसु ता अणुपवित्रोवमसहस्समेव सूरियस्स अछा प्रोया (ता कहं तेओयत्ति) ता इति पूर्ववत् कथं केन प्रकारेण किं सप्पज्ज अश्या अवेश् आहियत्ति वएज्जा पगे पवमासु १५ सर्वकालमेकरूपावस्थायितया उतान्यथा श्रोजसः प्रकाशस्य पगेपुण पबमाइंसु ता अणुपबिओवमसयसहस्समेव सूरियस्स संस्थितिरवस्थानमाख्याता इति वदेत् । पवमुक्त भगवानेतद्विषये ोया अमा उप्पज्ज अप्ला प्रवेश प्राहियत्ति वपज्जा पगे पवयावत्यः प्रतिपत्तयः सम्नयन्ति तापतीः कथयति (तत्थेत्या- माइंसु २० एगे पुण एवमाईसु ता अणुसागरोवममेव सूरियस्स दि) तत्र प्रोजसः संस्थितौ विषये खल्विमाः पञ्चविंशतिः ओया अन्ना उप्पज्जा अमा प्रवेश आहियत्ति वएज्जा एगे एवप्रतिपत्तयः प्रहप्तास्तद्यथा । तत्र तेषां पञ्चविंशतेः परताधिका- माहंसु २१ एगे पुण एषमाइंसु ता अणुसागरोवमसयमेव नां मध्ये एके वादिन पवमाहुः। ता इति पूर्ववत् । अनुसमयं प्र- सूरियस्स अप्पा ओया चप्पज्जा असा प्रवेश आहियत्तिषपज्जा तिकणमेव सूर्यस्यौजोऽन्यदुत्पद्यते अन्यदपैति । किमुक्तं भवति एगे पवमासु २२ एगे पुण एघमासु ता अणुसागरोषमसहप्रतिकणं सूर्यस्यौजा प्राक्तनं भिन्नप्रमाणं विनश्यति । अन्यदेव स्समेव सूरियस्स ओया अम्मा उप्पज्ज अमा प्रवेश प्राहिप्राक्तनाद्भिशात्प्रमाणमोज उत्पद्यते सूत्रे च ओजःशध्नस्य स्त्री- यत्ति वएज्जा एगे पवमासु २३ एगे पुण पवमाहंसु ता अणुत्वेन निर्देशः प्राकृतत्वादात्याद्वा। अनोपसंहारः, ता एगे एवमा- सागरोवमसयसहस्समेव सूरियस्स ओयाममा चप्पज्जा अक्षा इंसु १ एके पुनरेवमादुः । ता इति पूर्ववत् अनुमुहुर्तमेव सूर्य अवे आहियत्ति बएज्जा पगे पयमादंसु २४ एगे पुण एवमाहंसु Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए३) श्रोयसंवि अभिधानराजेन्द्रः। ओयसंनिश सा अणुउसपिणि २ मेव सरियस्स ओया अम्मा उप्पज्जा अम्मा रसदिवसे चनहिं को वासराती जवति । चनहिं अअधेश साहियत्ति वपज्जा पगे एवमाइंसु” २५ एताश्च प्रति हिता एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिते तताणं पत्तयः सर्वा अपि मिथ्यारूपाः श्रत पतासामपोहेन भगवान् स्वमतमुपदर्शयति । तएतो तताणंतरं मंमलातो ममलं संकममाणे २ एगमेगं नागं वयं पुण एवं वयामोता तीसं महत्तं सरितस्स प्रोयातो अ- ओयाए एगमेगं मंगले एगमगणं रातिदिएणं दिवसे खेत्तस्स वहितारो जवति तेण परं सरियस्स श्रोता अणवद्विता णिचुकेमाणे ५ अजिवमाणे २ सन्चबाहिरं मंमलं उपसंभवति उम्मासे सूरिये ओमंणिबुट्ठिति उम्मासे सूरिए ओयं कमित्ता चारं चरति ता जता णं मूरिए सचन्तरातो अनिवति निक्खममाणेसूरिए ओयं निबुटेति पविसमाणे मंडलातो सव्वबाहिर मंडलं नवसकामत्ता । मंडलातो सव्वबाहिरं मंडलं नवसंकमित्ता चार चरति सूरिए प्रोयं भिवति तत्थ णं को हेतू ति वदेजा ।। तता णं सव्वलंतरं मंमक्षं पणिहाए एतेणं ते सीतेणं (वयं पुण इत्यादि ) वयं पुनरेवं वक्ष्यमाणप्रकारेण बदाम- रातिंदिवसं तेणं एगते सीतं ता एगसयं उयाए दिवसस्तमेव प्रकारमाह (ता तीसमित्यादि)ता इति पूर्ववत् ज- खेत्तस्स णिचुट्टित्ता रातिखेत्तस्स अभिवष्ठित्ता चार म्बूद्वीपे प्रतिवर्ष परिपूर्णतया त्रिंशतं त्रिंशन्मुहूर्तान् यावत्सू चरति अट्ठारसहिं तीसहि मंमलं छेत्ता तताणं उत्तमकर्यस्य प्रोजः प्रकाशोऽवस्थितं भवति । किमुक्तं भवति सूर्यसंवत्सरपर्यन्ते यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारं चरति तदा पत्ते उकोसं अट्ठारसमुहुत्ता राती भवति जहमिए पुवालसूर्यस्य जम्बूद्वीपगतौजःपरिपूर्णप्रमाणं त्रिंशन्मुहूर्तान् यावत्सू- समुहुत्ते दिवसे नवति एसणं पढमे उम्मासे एसणं जाव र्यस्य ओजः प्रकाश उद्भवति (तेण परंति ) ततः परं सर्वा- पज्जवसाणो से पविसमाणे मूरिए दोचं उम्मासं अयमाणे भ्यन्तरान्मएडलात् परमित्यर्थः । सूर्यस्य श्रोजोऽनवस्थितं भ पढमंसि अहोरसि बाहिएणंतरं मंमझं उवसंकमित्ता चारं वति । कस्मादनवस्थितं भवतीति चेदत आह (छम्मासे इत्यादि ) यस्मात्कारणात्सर्वाभ्यन्तरान्मएडलात परतः प्रथ चरति । ता जता णं सूरिए बाहिएणंतरं मंडलं जाव चारं मात् सूर्यसंवत्सरसत्कान् षएमासान् यावत्सूर्यो जम्बूद्वीपग- चरति तता णं एग जागं ओआए एगणं रातिदिएणं रातितमोजः प्रकाशं प्रत्यहोरात्रमेकैकस्य त्रिंशदधिकाष्टादशशत- खेत्तस्स णिव्युट्टित्ता दिवसखेत्तस्स अनिवहिता चारं चरति। संख्यभागसत्कस्य भागस्य हापनेन निर्वेष्टयति हापयति । तदनन्तरं द्वितीयान् परामासान् सूर्यसंवत्सरसत्कान् यावत्सूर्यः अट्ठारसहिं तीसेहिं सएहिं ममतं छेत्ता तता णं अट्ठारसप्रत्यहोरात्रमेकैकत्रिंशदधिकाष्टादशशतसंख्यभागसत्कभागव. मुहुत्ता राती दोहिं कणा ज्वालसमुहुत्ते दिवसे दोहिं अहिधनेन ओजः प्रकाशमभिवर्धयति । एतदेव व्यक्तं व्याचष्टे । ए से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरसि बाहिर तञ्च मं(निक्खममाणे इत्यादि ) सुगमं । तेनोच्यते सर्वाभ्यन्तरे म- डलं नवसंकमित्ता चारं चरति । ता जता णं मूरिए बाहिर एडले परिपूर्णतया त्रिंशन्मुहूर्तान् यावत् अवस्थितं सूर्यस्य तच्चं मंडलं जाव चार चरति । तता णं दो जाए ओयाए दोओजः ततः परमनधस्थितमिति । एतदेव वैतत्येन विभावयिषुः प्रश्नसूत्रमुपन्यस्यति ( तत्थेत्यादि ) तत्र पवंविधायां | हिं रातिदिएहिं रातिखेत्तस्स निव्वुद्वित्ता दिवसखेत्तस्स अवस्तुव्यवस्थायां को हेतुः का उपपत्तिः इति वदेत् भगवानाह ।। हिवहित्ता चार चरति । अट्ठारसहिं तीसेहिं सरहिं मंडझं ता अयणं जंबुद्दीवे दीवे जाव परिक्खेवेणं ता जता णं छेत्ता तताणं अट्ठारसराती चनऊणा वालसमुहुत्ते दिवसे सूरिए सव्वजंतरं मंडलं नवसंकामेत्ता चारं चरति। तताणं चउअहिए एवं खलु एएणं नवाएणं पविसमाणे सूरिएउत्तमकट्ठा पत्ता अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे नवति । जहमिया दु- तताएंतरातो तताणंतरं मंडलायो मंडलं संकममाणे ५ वानसमुहुत्ता राती भवति सेणिक्खममाणे सरिए णवसं- एगमेगं भागं नयाए एगमेगं मंडलं एगमेगणं रातिदिएणं वच्चरं अयमाणे पढमंसि अहोरसि अभंतराणतरं रातिखेत्तस्स णिव्वुटेमाणेशदिवसखेत्तस्स अनिवठ्माणे मंडलं जाव चारं चरति ता जताणं एगभागं ओत्ताए ए- | सव्वभंतरं मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरति । ता जता एं गणं रातिदिएणं दिवसखेत्तस्स णिबुलेत्ता एति खेएस्स | सरिए सव्वबाहिरातो मंडलातो सबभंतरमंडलं उबअभिवत्तिा चारं चरति अचारसहिं तीसेहिं सएहिं मंमलं संकमित्ता चारं चरति तता णं सव्वबाहिरं मंडलं छेत्ता तताणं अघारसमुहुत्ते दिवसे भवति दोहिं एगढि पणिहाए एगणं तीसेणं रातिदियसत्तेणं एगंते तीसभागजागे कणे सुवालसमूहुत्ता राती भवति । दोहिं अहिया सतं । श्रोताए रातिखेत्तस्स णिव्बुढेत्ता दिवसे खेतस्स असे णिक्खममाणे सूरिए दोचंसि अहोरत्तंसि अभंतरं तच्च भिववेत्ता चारं चरति अट्ठारसहिं तीसेहिं माझं छेत्ता ममलं जाव चारं चरति ताजयाणं सरिए अभंतरं तच्च समझ तताणं उत्तमकट्ठपत्ते नकोसे अट्ठारसमुहत्ते दिवसे जवति जाव चारं चरति । तता णं दो जागे नयाए दोहिं रातिदिएहिं जहमिया सुवाससमुहुत्ता राती भवति एसणं दोच्चे उम्मादिवसखेत्तस्स णिबुकित्ता रातिक्खेत्तस्स अनिवत्तिा चारं से एसणं जाव पज्जवसाणे एसणं श्रादिचे संवच्छरे एसणं चरति श्रद्वारसहिं तीसेहिं सतेहिं मंमलं छेसा तताएं अट्ठा- प्राइच्चसंवच्छरस्स जाव पजवसाणे (बई पाहुमं सम्मत्त) ता Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ay) अभिधानराजेन्द्रः | संवि के ते सूरिए चरयति आहितेति वदेज्जा तत्थ खलु इमा ता बीसे परिरतीय पत्ताओं नत्य खलु एगे एमासु ता मंदरेणं पव्वते सूरियं चरयति आहितेति वदेज्जा एगे एव० १ एगे पुल ता मेरूणं पव्वते सूरितं चरयति । २ । आहिएतिले एवं एते अभिलावेणं जाव वीसतिमापमिवती जाव तापव्वतरायाणं पव्यते सूरितं चरयति । आहितेति बदेना एगे एवमाहं वयं पुए एवं वयामो ता मंदरे वि य वुच्चति मेरुविय दुम्बति एवं जाव पव्वतराया व बुच्चति । ता जेणं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति तेणं पोग्गला सूरियं चरति । अण्डावि णं पुग्गमा सूरियं चरति । चरिमले संतरगताचिणं पोग्गला सूरियं चरयात आह तोते वदेज्जा ॥ ( ता अयणमित्यादि ) इदं जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववत् परिपूर्ण पठनीयं व्याख्यानीयं च ( ता जया समित्याद ) तत्र यदा सूर्यः सर्वान्यन्तरम एकलमुपसंक्रमे चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठा प्रा सा । चत्कर्षतोऽष्टादशमुहूर्ती दिवसो भवति । जघन्या च द्वादशमुहूती रात्रिः। ततः सर्वान्यन्तरान्मएका दुक्तप्रकारेण निष्क्रामन् सूर्यो न संवसरमाददानो नमस्य संवत्सरस्य प्रथमेऽहोरात्रे अभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयममुपसंचारं चरति ता जया मित्यादि) तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयमएमलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा एकेन रात्रिन्दिवेन सर्वाभ्यन्तरमामलगतेन प्रथमकृष्णाने कामाचहायनेनादोराप्रपर्यन्ते एकभागमोजस प्रकाशस्य दिवसस्य नि 1 हातमेव चैकं जायं रजनियनियत्याचा रं सरति । किमार्थ मांग दिवसमतस्य प्रकाशस्य हापयित्वा रजनिकेलस्य वर्धयित्वा तत आह । मरामस्य अनादधिकैः स्थित्वा किमु यति द्वितीयमम महादामिशिदधिकेभज्य तत्सत्कमेकं नागमिति । कस्मात्पुनमएमसस्थाष्टाधिकानि नागानां परि कल्प बचते रहेकैकं काय सुर्याज्यामेकेनाहोराण परियापूर्वते अहोरात्र प्रमाणः प्रतिसूर्य वाऽहोरात्रगणने परमार्थतो द्वौ अहोरात्रौ नचतः । प्रयोश्चाहोराजयोः पतितो मएम प्रथमतः पश्या नाज्यिते निष्णामन्ती च सूर्य प्रत्यहोरात्र प्रत्येक को ही मुहूर्तकपरिमा गौ - हापयतः । प्रविशन्तौ च अभिवर्धयतः । यौ च द्वौ मुहूर्तकषष्टिभागी समुदितौ । एकसार्कत्रिंशत्तमो भागस्ततः षष्टिरपि भागाः साचाजिता गुरयन्ते जातान्यानि दि धिकानि नागानाम् । एवं निष्क्रामन् सूर्यः प्रतिमण्डलं त्रिंशदधिकाष्टादशशतसंख्यानां जागानां सत्कमेकैकं भागं दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्य हापयन् रजनि क्षेत्रस्याभिवर्द्धयन् तावद्वतव्यो यादत्सवादरमत्मसे व्यशीत्यधिकं नागतं दिवस गतस्य प्रकाशस्य हापयिता रजनिकेंत्रस्य चाभिवर्धयिता भवति । ज्यशीत्यधिकं च नागशतमष्टादशशतानां त्रिंशदधिकानां दशमो नागस्ततः सर्वान्यन्तरात्मात् सर्वषामण्डले जम्मूकवादशनागयति रजनिस्वाभिषर्कते इति यदप्रायासिंजातमिति । एवमन्यन्तरं प्रविश प्रतिम एक क्षमादशशतभागानां त्रिशदधिकानां सत्यमेकं नाम ओयसंविश वर्धयन् तावद्वक्तव्या यावत्सर्वान्यन्तरे मएमले व्यशीत्यधिकं नागशतं दिवसगतस्य प्रकाशस्याभिवर्धयति । रजनिष स्य च दापयति व्यशीत्यधिकं च नागशतं जम्बूद्वीपचक्रवालस्य दशमभागः । ततः सर्वबाह्यान्मएवात्सर्वाज्यन्तरे मएमदिवस क्षेत्रगतस्य प्रकाशस्यैको दशमश्चक्रवाल प्रायो ऽभिवर्धते रजनित्रस्य त्रुट्यतीति यत् प्रागवादि तदविरोधे इति सूत्रं तु “तया णं श्रट्टारसमुडुत्ते दिवसे इत्यादिकं" सकलमपि प्राभृतपरिसमा यात् सुगमम नवरमेवमत्रोपसंहारो यत एवं सूर्यचारस्ततः प्रतिसूर्य सूर्यसंवत्सरपर्यन्ते सर्वान्यन्तरे मलेि शतं त्रिंशन्मुहुर्तान् यावदव स्थितं परिपूर्णमोजः ततः परमनवस्थितम् । सर्वाभ्यन्तरे समराले मुन् यावत्परिपूर्णमयस्थितमोज उच्यते व्यवहारतो निश्चयतः पुनस्तत्रापि कृपादूध्वै शनैः शनैः दीयमानमपसेपम् प्रथमणा सूर्यस्प सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयमण्डलानिमुखं चारचरणादिविप प्रभूतं समाप्तम् ) तदेवमुक्तं पातं संमति सप्तममारभ्यते । तस्य चायमर्थाधिकारः कस्ते तव मतेन भगवन् ! सूर्य चरयतीति तत एतद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह । "ता के इ त्यादि" ता इति पूर्ववत् । कस्ते तब मतेन जगवन्! सूर्य चरयति चरयन् चर ईप्सायां श्राप्तुमिच्छन् स्वप्रकाशत्वेन स्वीकुर्वन् प्रख्यात इति वदेत् एवमुक्ते भगवानेतद्विषये याव परतीर्थप्रतिपत्तयः तावती कथयति (सत्यादि) तत्र सूर्यः प्रतिचरन् विषये खल्विमा विंशतिप्रतिपत्तयः प्रकृताः । तद्यथा तत्र तेषां विंशते अपरतीर्थिकानां मध्ये एके प्रथमा एवमाहुः । मन्दरपर्वतः सूर्य चरयति मन्दरपर्वतो हि सूर्येण मण्ड परिस्य सर्वतः प्रकाश्यते ततः सूर्यः प्रकाशयन् चरयतील्युच्यते । अत्रोपसंहारः ( एगे एवमादसु ) एके पुनरेषमाहुः । मेरुपर्वतः सूर्य परयन् मयात इति वदेत्युपसंहारा ( पचमासु) एवमित्यादि । वमुक्रप्रकारेण श्याप्रतिहतिविषयप्रतिपत्तिवत् तावन्नेतव्या यावद्विंशतितमा प्रतिपत्तिः सायं परावाणमित्यादि) पर्वतराजः पर्वतः सूर्य पर यद् भाख्यात इति वदेव पके पचमारिति किमुक्तं भवति यथा प्राफ लेपामतिदतिविषयविज्ञातिप्रतिपणय येन कर्मण क्ताः तेन क्रमेणात्रापि वाच्याः । सूत्रपाठोऽपि प्रथमप्रतिपत्तिगतपाठानुसारेण स्वयमन्यूनातिरिकः परिज्ञावनीयोन्यगौरवयान्तु न लिख्यते तदेवमुक्ताः परतीर्थिकप्रतिपत्तयः । संप्रति नगवान् स्वमतमुपयति (वयं पुण इत्यादि) ययं पुनरे माणप्रकारेण वदामस्तमेव प्रकार माह ( ता मंदरे वि इत्यादि ) ता इति पूर्ववत् । योऽसौ पर्वतः सूर्य चरयन् आख्यातः समदयातराजो उपयुक्त प्रागेव ज्ञाचितं ततो भिन्नभिन्नविषयतया प्रवृत्ताः प्राक्तन्यः प्रतिपत्तयः सर्वा अपि मिथ्यारूपा अवगन्तव्याः । श्रपि त्र न केवलं मेरुरेव सूर्य चरयति किंत्वन्येऽपि पुरुसास्तथाचाद ( ता जे णमित्यादि ) ता इति पूर्वमिति वाक्याद्वारे खातात वा सूर्यस्य बेश्याः स्पृशन्ति ते पुफला : स्वप्रकाशकत्वेन सूर्ये चरयन्ति। स हि सूर्येण प्रकाश्यते। ततो यास परंपरा है। सूर्य पर्वतीयन्ते । ये च प्रकाश्यमानपुखाः पुमान्धाता मेला या सूर्वेण प्रकाशिता अपि सूइया स्पर्शमुपगच्छन्ति तेऽपि प्रागुक्तयुक्त्या सूर्य परयान्ति येपि च चरममेान्तमेता विशेषशिंगः पङ्गलास्तेऽपि सूर्य परयति तेषामपि सूर्येण प्रकाश्यमा Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५) पोयसंविध अनिधानराजेन्द्रः। पोरालिय नत्वात् ।(इति सप्तमं प्रानृतं समाप्तम् )च० प्र०७ पाहु०।। दारं उरालं, उरलं ओरालं वा तित्थयरगणधरसरीराई पमुख ओयाय-नपयात-त्रि उपागते, “पायघहणेणं अवणसमुहं ओ- सदारं वुश्च तत उ नदारतरमन्नमस्थितिकाउं" उदारं नाम प्रधायाए"।झाए। नं उरावं नाम विस्तरालं "विसालंति वा जनणियं हो कह श्रोयारग-अवतारक-त्रि० प्रवर्तके, " मोक्खपहोयारगा" मो. सारेगजोयणसहस्समवट्ठियप्पमाणमोरालियं अन्नमिदहमित्तं क्षपथावतारको सम्यग्दर्शनादिषु प्राणिनां प्रवर्तकावित्यर्थः । नस्थि वेचब्वियं हुजलक्खमियं अवट्टियं पंचधणुसयाई आहेस. सम०। त्तमाए इत्थं पुण अवट्ठियपमाणं अश्रंग जोयणसहस्स" वनस्पओयावत्ता-प्रोजयित्वा-अव्य० ओजो यवं शरीरं विद्यादि त्यादीनामिति उराखं नाम स्वल्पप्रदेशोपचितत्वाच्च निएमवत् । उराझं नाम मांसास्थिस्नाय्याद्यवयवबहुत्वात श्रीपूज्या भल्याहुः सत्कं वा तत्कृत्वा प्रदर्य दीयतेऽसा ओजयित्वेत्यनिधीयते । तत्धादारमुराल-मुरलं सरलमहवमहलगतेण| श्रोरालियंतिपप्रवज्यानेदे, स्था० ४ ग। उमं, पमुश्च तित्थेसरसरीरं ।। नम य तहोरालं, वित्थरवंतं ोयाहार-मोजाहार-पुं० भावाहारभेदे, सूत्र० २ श्रु० ३ ०। वणप्फति पप्पा पयई इ नत्थि अन्नं, श्दहमित्तं विसालंति।श उरलं (सरीरेणोयाहारो शति तल्नकणमाहारशब्दे-व्याख्यातम् )। घेवपएसो, चियं पिमहलग जहाजि । मसहिएहाउवई, उरालं ओरस-अवत- धावा०-प० अवतरणे,"अवतरेरोहोरसौ" समयपरिनासी।। सर्वत्र स्वार्थिक इक्प्रत्ययः। उदारमेव उरा।४।४५ । इति ओरसादेशः । ओरस प्रोअरइ । अवतर- अमेव उरलमेव ओरालमेव औदारिक पृषोदरादित्वादिष्टरूपति । प्रा०। निष्पत्तिः। कर्म । दशा० । अनु० । जी०। सूत्र० । प्रशा० । उपरस-त्रि० उपगतो जातो रसः पुत्रस्नेहलवणो वा यस्या स्था०। प्रव० । आचा० । संप्रत्यौदारिकशरीरस्य जीवजातिसावुपरसः अपत्यस्नेहयुक्ते, स्था० १० ग० ॥ नेदतोऽवस्थानेदतश्च दाननिधित्सुराह । औरम-त्रि० नरसि वा हृदये स्नेहाद्वर्त्तते यः स औरसः। उरालियसरीरेणं नंते? कइविहे पमचे ? गोयमा ! स्था०१० ठा। स्वयमुत्पादिते पुत्रादौ, उत्त०१०। सूत्र। पंचविहे पामते तं जहा एगिदियउरालियसीरे जाव पोरस(नरस्स)बलसमगय-पोरस-(उरस्य )बलसमन्वागत- पंचिदियउरालियसरीरे । एगेंदियनरालियसरीरेण नंते ! त्रि० । उरसि जवमुरस्यम् (औरसं ) तच्च तदनं च उरस्यवत्वं कइविहे पसत्ते ? गोयमा! पंचविहे पाणते तं जहा पुढतत्समन्वागतः समनुप्राप्तः नरस्यबसमन्वागतः। अन्तरोत्सा विकाश्य एगिदियनरालियसरीरे जाव वणस्राश्काश्य एहवीर्ययुक्ते । जी० ३ प्रति पोरान्न-(उदार ) ओराल्न- त्रि० । प्रधाने " पोरानकितिवं- गिदियउरालियसरीरे पुढवीकाइय एगिदियउरानिसरीरेण तसद्दसि लोगा" । स्था०१० मा चन्द्र बहुजन्मान्तरसंचिते भंते ! काविहे परमत्ते ? गोयमा ! सुविहे पणत्ते तं जहा कर्मणि, सूत्र०१ श्रु०१० अ०। आशंसादोषरहिततयोदारचित्त- सुदुमपुढविकाक्ष्य एगिंदियनरालियसरीरे य चादरपुढवियुक्ते, स्यूले द्वीन्द्रियादी, स्था०४०"से किंतं उरालातसापाण। काइय एगिदियउरालियसरीरेय सुहमपुढविकाश्य एगिचउबिहा पन्नत्ता तं जहा वेदिया तेइंदिया चउरिंदिया पं. चेंदिया" । जी०१ प्रति। “ोरानं जगतो जोग विवजा संपति दियउरालियसरीरेणं भंते ! कतिविहे परमत्ते ? गोयमा ! दुतिय" (ोरात्रमिति) स्थुवमुदारं जगत औदारिकजन्तुग्रामस्य विहे पमत्ते तं जहा पज्जत्सगसुमुहपुढविकाइय एगिदियनयोग व्यापार चेष्टामवस्थाविशेषमित्यर्थः । सूत्र० १७०१ अ०। रालियसरीरे य अपज्जत्तगसुहमपुटविकाश्य एगिदियउरा"ओरालपोग्गाणि चत्रेजा" उदारा बादराणि पतेयुर्विश्रसा- लियसरीरेय। बादरपुढविकाइया वि एवं चेव एवं जाव परिणामात्ततो विचटेयुरन्यतो वाऽऽगत्य लगेयुयन्त्रयुक्तमहोप- वणस्सइकाश्य एगिदियउरालियसरीरे येति । वेइंदियउरालवत् । स्था०३ग भीष्मे, उग्रादिविशेषणविशिष्टतपःकरणतः लियसरीरेणं भंते ! कतिविहे पणते ? गोयमा! सुविहे पपार्श्वस्थानामनससत्वानां जयानके, चं० प्र०१ पाहु। ओरालिय-औदारिक-न० । उदारं प्रधान प्राधान्यं चास्य ती पत्ते तं जहा पज्जत्ता वेइंदियउरालियसरीरे य। अपर्थकरगणधरशरीरापेक्या ततोऽन्यस्यानुत्तरसुरशरीरस्यापि जत्ता वेइंदियनरालियसरीरे य । एवं तेइंदियच उरिंदिया अनन्तगुणहीनत्वात्। यद्वा उदारं सातिरेकयोजनसहनमानत्वा- वि । पंचिंदियनरालियसरीरेणं ते ! कतिविहे पणते ? त्। शेषशरीरापेक्या वृहत्प्रमाणं वृहत्ता चास्य वैक्रिय प्रति- गोयमा! बिहे पएणते तं जहा तिरिक्खजोणियपंचिंदियभवधारणीयं सहस्र शरीरापेक्षया द्रष्टव्या। अन्यथोत्तरवै क्रिय नरालियसरीरे य मणुस्सपंचिंदियनरालियसरीरे य । तिरियोजनलकमानमपि सत्यते । उदारमेवौदारिकं विनयादिज्य इतीका प्रत्ययः (कर्म) अथवा उरावं स्वल्पप्रदेशोपचित क्खजोणियपंचिंदियनरानियसरीरेणं भंते! कतिविहे पणते? स्वात् वृहत्वाश्च जाएमवदिति अथवा मांसास्थिस्नायुबकं यच्च गोयमा ? तिविहे पएणत्ते तं जहा । जलयरतिरिक्खजोणिरीरं तत्समयपरिभाषया उरालमिति प्राकृतत्वादोरालियम् (स.) यपंचिदियउरालियसरीरे य। यलयरतिरिक्खजोणियपंचिंऔदारिकशरीरनामकर्मोदयादुदारपुम्लनिवृत्ते केवलमेकेन्द्रि दियउरा लियसरीरे य । खहयरतिरिक्खजोणियपंचिंदिय उयाणामस्थ्यादिविरहिते वा शरीरजेदे, । स्था० २० । रालियसरीरे य जन्नयरतिरिक्खजोणियपंचिंदियउरालिय आव० । कर्मः । श्व प्रसिसिकान्तसंदोदविवरणप्रकरणप्रमाणग्रन्थनावाप्तसुधामधवलयशःप्रसरधवलितसकलवसुन्धराव सरीरेणं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते । तं लयप्रनुश्रीहरिजसरिदर्शिता व्युत्पत्तिर्लिख्यते। “तत्थ ताव उ. | जहा सम्मुच्चिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोशियउरालि Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओरालिय अभिधानराजन्छः। भोरालियपरदारगमण यसरीरे य गब्भवतिय जलयरपंचिंदिय० । सम्मुच्छि- पएणत्ते । तं जहा । पजत्तगन्नवकंतियमणुस्सपंचिंदियउमजलयरतिरिवखजोणियपंचिंदियनरालियसरीरेणं भंते ! रालियसरीरे य । अपज्जत्तगगन्जवक्कंतियमणुस्सपंचिंदियकतिविहे पन्नते ? गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते तं । जरालियसरीरेण य॥ जहा पजत्तगसम्मुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियउरालि- औदारिकशरीरमेकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियभेदात्पश्चधा । एकेयसरीरे य । अपज्जत्तगसम्मुच्छिमपंचिंदियातिरिक्खजो- छियौदारिकशरीरमपि पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पत्येकेन्द्रियभेणियउरालियसरीरे य एवं गजवकंतिए वि । थायर दात्पञ्चविधम् । पृथिवीकायिकैकेन्द्रियौदारिकशरीरमाप सू दमेतरभेदादू विधा। पुनरेकैकं द्विधा। पर्याप्तापर्याप्तभेदात । एवतिरिक्खजोणियपंचिंदियउरालियरीरेणं नंते ! कतिवि-- मतेजोवायुवनस्पत्येकेन्डियौदारिकशरीराण्यपि प्रत्येकं । चतु. हे पन्नते? गोयमा ! पुविहे पन्नते तं जहा चउप्पयथ- विधानोति सर्वसंख्ययकन्छियौदारिकशरीराणि विंशतिधा । सयरतिरिक्खजोणियपंचिंदियउराझियसरीरे य परि द्वित्रिचतुरिन्छियौदारिकशरीराणि प्रत्येक पर्याप्तापर्याप्तभेदात् द्विनेदानि । पञ्चेम्ब्यिौदारिकशरीरं द्विविधंतियन्मनुष्यानेदात् सप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचिंदियनरालियसरीरे य ।। तिर्यकपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरं त्रिधा।जनचरस्थकचरखच्चरभेदाचनप्पयथलयरतिरिक्खजोणियपंचिंदियउराक्षियसरीरेणं त् । जलचरतिर्यपञ्चन्छियौदारिकशरीरं द्विविधं समूचिमगभंते ! कतिविहे पन्नते ? गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते । तं नव्युत्क्रान्तिकनेदात् । एकैकमपि पुनर्द्धिभेदं,यर्याप्तापयाप्तनेदात् । जहा सम्मुच्छिमचउप्पयथलयरतिरिक्खजोणियपंचिंदिय- स्थलचरतिर्यकपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरमपिद्विविधम् । चतुष्पदनरालियसरीर य गन्भवतियचउप्पयथलयरतिरिक्खजो परिसर्पभेदात्।चतुष्पदस्थबचरतिर्यगपञ्चेन्डियौदारिकशरीर मपिद्विविधम् संमूच्छिमगर्जव्युत्क्रान्तिकभेदात् । पुनरेकैकं द्विधाणियपंचिंदियउरालियसरीरे य। सम्मुच्छिमचनप्पयउरा पर्याप्तापर्याप्तनेदात् । परिसर्पस्थलचरगिर्यक्रपञ्चेन्द्रियौदारिकशलियसरीरे दुविहे पन्नत्ते तं जहा । पज्जत्ता सम्मुच्छिम- रीरमपितरः परिसर्पनुजपरिसर्पनेदतोधिविधम् । पुनरफैकं द्विचनप्पयथायरतिरिक्खजोणियपंचिंदियउरालियसरीरे य। धा संमूच्छिमगर्नव्युत्क्रान्तिकन्नेदात्। तत्रापि पुनः प्रत्येकं वैविध्य अप्पज्जना सम्मुच्छिमचउप्पययलयरनिरिक्खजोणियपं- पर्याप्तापर्याप्तनेदात ॥ सर्वसंख्ययाऽष्टजेदम् । परिसर्पस्थलचरचिंदियउरालियसरीरे य । एवं गब्भवतिए वि परिसप्प तिर्यपश्चन्छियौदारिकशरीरखचरतिर्यपञ्चन्द्रियोदारिकश रीरसंमूछिमगनव्युत्क्रान्तिकभेदात धिभेदमा पुनरे कैकं द्विधा। थलयरतिरिक्खजोणियपंचिंदियनरालियसरीरेणं भंते ! पर्याप्तापर्याप्तनेहादिति सर्वसंख्ययातिर्यपञ्चेन्द्रियौदारिकश - कतिविहे पन्नत्ते ? गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते । तं जहा । उ रं विंशतिनेदम् । मनुष्यपञ्चेन्छियौदारिकशरीरं समाचमगर्भरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियउशलियसरीरे व्युत्क्रान्तिकनेदात द्विनेदम् ॥ पुनरेकैकं द्विधा पर्याप्तापर्याप्तनेदाय। जयपरिसप्पयनयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियनरालि देवमौदारिकनेदा उक्ताः । प्रज्ञा०२१ पद (अवगाहनाप्यसाव गाहनादिशब्देषु) शरीरान्तरैः सह संयोगश्च स रहावे घयसरीरे य । बरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिय क्यते) शरीरतद्वतोरजेदोपचारात् मत्वर्थीयोपाद्वा औदरिकनरासियसरीरेणं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? गोयमा! वि. शरीरवति जीवे, विपा०१ श्रु०३० घटितरूपे द्रविणे, । "मिहे पन्नते तं जहा । सम्मुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचिं- यरूवं दविणं पोराबियंति जम्म" नि००१ १०॥औदरिकस्य दियतिरिक्खजोणियउरासियसरीरे य गन्जवकांति य नर- | मनुष्यतिर्यक्शरीरस्येदमौदरिकम, । अस्वाध्यायिकनेदे, स्था० परिसप्पथलयर० । सम्मुच्छिमे दुविहे पन्नत्ते । तं जहा । १० ग० । (तत्स्वरूपम् असज्झाय शब्दे) अपजत्ता सम्मुच्छिमनरपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपं- ओरालियंगोवंगणाम-औदारिकाङ्गोपाङ्गनामन्-न.अङ्गोपाङ्गनाचिंदियउरालियसरीरे य । पज्जत्ता सम्मुच्छिमनरपरिसप्प मकर्मदे,। यदयादौदारिकशरीरत्वेन परिणतानां पुलानाम ङ्गोपाङ्गविभागपरिणतिरुपजायते तदौदारिकाङ्गोपाङ्गनाम कर्मा थलयरतिरिक्खजोणियपचिंदियउरालियसरीरे य । एवं ओरालियकायजोग-औदारिककायजोग-पुं० । औदारिकमेव गब्भवतिए वि । नरपरिसप्पचनभेदो । एवं नुयपरिस चीयमानत्वात् कायस्तेन सहकारिकारणनूतेन तद्विषयो वा प्पा वि सम्मुच्छिमगन्भवति य पजत्ता य अपज्जत्ता | योगः औदारिककाययोगः । काययोगभेदे, । कर्म० । य । खहयरा दुविहा पमना। तं जहा । सम्मुचिमा य ग ओराझियणाम--औदारिकनामन्-न० औदारिकनिबन्धनं नाम ब्जवक्कंतिया य । सम्मुच्छिमा दुविहा । पज्जत्ता य अप- औदारिकनाम शरीरनामभेदे, यजुदयवशादौदारिकशरीरप्रायोज्जत्ता य । गन्नवकंतिया वि । पज्जत्ता य अपज्जत्ता य । ग्यान पुनलानादाय श्रीदारिकशरीररूपतया परिणमय्य च जीमणुस्सपंचिंदियनरालियसरीरेणं भंते ! कतिविहे पएण वप्रदेशैः सहान्योन्यानुगमरूपतया संवन्धयति तदौदारिकशरी रनामेत्यर्थः कर्मः। ते ? गोयमा ! दुविहे पएणत्ते । तं जहा । सम्मुच्छिम्म ओरालियदुग-औदारिकद्विक-न: औदारिकशरीरमौदारिका. गुस्सपंचिदियउरालियसरीरे य । गब्जवतियमणस्सपं ङ्गोपाङ्गमित्येवं सकणे विके, कर्म । चिंदियउरालियसरीरे य । गम्भवतियमणुस्सपंचिंदियनरा श्रारालियपरदारगमण-औदारिकपरदारगमन-न० परखधादि. लियसरीरेणं भंते ! कतिविहे पएणते ? गोयमा! दुविहे गमनझक्षणे परदारगमनदे, । श्राव०६ अ०। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) पोरालियबंधण अनिधानराजेन्डः। अोवघाश्य ओरालियबंधण-औदारिकबन्धन-न० यदुदयादादारिकपु- ओरोह-अवरोध-पुं० अन्तःपुरे, वृ०१उ० । प्रतोलीद्वारेऽज्यन्तगलानां पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्पर तैजसादिशरीर- रद्वारे, रा०ाी० । संघाते, । "पहकरोरोदसंघाया" । इति पुश्च सह अन्धस्तस्मिन् । बन्धनन्नेदे, । कर्म । देशीनाममालावचनात् । जी० ३ प्रति। ओरालियमीसकायजोग-औदारिकमिश्रकाययोग-पुं० प्रौदा- ओझवणदीव-अवलम्बनदीप-पुं० श्यामाबद्धदीपे, भ० ११ रिक मिश्रं यत्र कार्मणेनेति गम्यते स औदारिकमिश्रः। उत्पत्ति- श० ११ उ० । का। देशे हि पूर्वनवादनन्तरमागतो जीवः प्रथमसमये कार्मणेनैव केवोनाहारयति ततः परमौदारिकस्याप्यारब्धवादौदारिकेण अोलंबिय-अवलम्बित-त्रि० दत्तावलम्बे , । "सा भणद कामणमिश्रेण यावच्चरीरस्य निष्पत्तिः। यदाह सकलश्रुताम्नो भोलंबितत्ति अम्हेहिं" नि० २१ उ०। रज्ज्वा बच्चा गादानिधिपारदृश्वाऽनुग्रहकाम्यया निर्मितानेकशास्त्रसंबन्धः श्रीभद्र ववतारिते, और । कृपनदीप्रभृतिषु उल्लम्बिते, कुत्सितमाबाहुस्वामी "जोएण कम्मएणं, श्राहारेई अणंतरं जीवो । ते रेण मारिते, दशा०६ अ० । " जिन्नुपामियं ओलंबियं" करे । ण परं मीसेणं,जीवसरीरस्स.णिप्पत्ती" केवत्रिसमुद्धातावस्था सूत्र०।२ श्रु० अ०।। यां तु द्वितीयषष्ठसप्तमसमयषु कार्मणेन मिश्रमौदारिकं प्रती अोझग्ग-अवरुगण-त्रि० जनमनोवृत्ती, । विपा० १ (०२० तमेव । मिश्रौदारिकयोगः सप्तमषष्ठद्वितीयेष्विति वचनात्। औ नि । साने, दुबो च । ज्ञा० १ ०। दारिकमिश्रश्चासौ कायश्च तेन योगः औदारिकमिश्रकाययोगः। ओलग्गसरीर-अवरुग्णशरीर-त्रि० अवरुग्णं म्नानं दुर्बलं च काययोगन्नेदे, कर्म। शरीरं यस्य स तथा । का० १ अ० । जग्नदेहे, विपा० १ श्रु०१ पोरालियमीससरीरकायप्पोग-औदारिकमिश्रशरीरकाय प्र०ाझा। नि। प्रयोग-पुं० औदारिकमुत्पत्तिकालेऽसंपूर्ण सन्मिभं फार्मणे श्रोलोयणा-अवलोकना-स्त्री० गवेषणायाम , व्य०४४०। नेति औदारिकमिश्रं तदेवौदारिफमिश्रक तस्लकणं शरीरमौ- ओलि (ली) आलि(बी-स्त्री० श्रोदाल्यां पड्तौ ।।१।०३। मालिदारिकमिश्रकशरीरं तदेव कायस्तस्य यः प्रयोग औदारिकमि- शब्दे पङ्किवाचिनि आत ओत्वं भवति । ओली। पती, पताविति श्रकशरीरस्य वा यः कायप्रयोगः स औदारिकमिश्रकशरीर. | किं आली सखी । प्रा० । वृ०। कायप्रयोगः। कायप्रयोगन्नेदे, अयं पुनरौदारिकमिश्रकशरीरका- ओलिंपमाण-अवलिम्पत-त्रि अवक्षेपं कुर्वति, आचा०२ श्रु०। यप्रयोगेऽपर्याप्तकस्यैव वेदितव्यः । यत आह । “जोपण कम्मएण, आहारेई अणंतरं जीवो । तेण परं मीसेणं, जावसरीरस्स ओलिज्झमाण-अवनियमान-त्रि० आस्वाधमाने, कल्प० । निप्पत्ती । १।' एवं तावत्कार्मणेनौदारिकशरीरस्य मिश्रतो ओलित-अवलिप्त-त्रि० द्वारदेशे पिधानेन सह गोमयादिना सत्तिमाश्रित्य तस्य प्रधानत्वात् । यदा पुनरौदारिकशरीरो वै| कृतापे, वृ०२ उ० । भ०। स्था० । प्राचा०। क्रियान्धिसंपन्नो मनुष्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः पर्याप्तबादर प्रोम-विरिचइ-धा० एयन्तः । विरेचने, । " विरेचरोझएको वायुकायिको वा वैफियं करोति तदादारिककाययोग एव वर्तमानप्रदेशान्विक्किप्य वैक्रियशरीरयोग्यान् पुद्गलानुपादाय यावद्वै लुपडपाहुत्थाःGI४।२६ । विरेचयतेएर्यन्तस्य ओमुण्डादयः क्रियशरीरपर्याप्तानपर्याप्तिं गच्छति तावद्वै क्रियेणादारिकशरी-- आदेशा जवन्ति । ओझुपमा विरेा । विरेचयति । प्रा०। रस्य मिश्रता प्रारम्नकत्वेन तस्य प्रधानत्वादेवमाहारकेणाप्यौ ओलोट्टमाण-अपवर्तमान-त्रि० यतो गतस्तत्रैव पुनरागच्चदारिकशरीरस्य मिश्रता वेदितव्येति । भ० ८ २०१०। । ति तस्मिन् , । " सोदाएहुए" प्रश्न अध० ४१० ॥ श्रारालियमीसमरीरकायप्पयोगपरिणय-पोटारिका प्रोवइय-अवपतित-न० अप्-पत्-भावे का निपतने, औ० । रकायप्रयोगपरिणत त्रि० औदारिकमिश्रशरीरे कायप्रयोगेण अवतीर्णे । औ० । कर्तरि क्तः । भवतीणे, औ०॥ परिणतं यत्तत्तथा । कायप्रयोगपरिणतभेदे, । ०७०१० औपचयिक-त्रिक उपचयनिवृत्ते उपचिते, प्रश्न अध०४ म०। ओरालियसंघायणाम-औदारिकसंघातनामन्-न० संघातना ओवगारियलेण-औपकारिकलयन-न. प्रासादादिपीठकल्पे मन्नेदे, । यदुदयादौदारिकपुजला ये यत्र योग्यास्तानुसरत्र सं. आश्रये, भ० १३ श. ६०॥ घातयति । यथा शिरोयोग्यान् शिरसि पादयोम्यान पादयोःशे-अोवग्गहिय-ौपग्रहिक-त्रि० उपष्टम्नप्रयोजने, “तासि चणं पाङ्गयोग्यान् शेषाङ्गेषु तदौदारिकसंघातनाम । कर्मः। उवग्गहिए अणंताप्रबंधी कोहमाणमायालोभे" ज०९२०३१ उ०। ओराझियसरीर-औदारिकशरीर-न० उदारा स्फारतामात्र- सप आत्मनः समीपे संयमोऽवष्टम्नार्थ वस्तुनो ग्रहणमुपग्रहः सारा चैक्रियादिशरीरापेक्कया स्थूला इत्यर्थः। तैरित्थंभूतैः पुस स प्रयोजनमस्येत्यापग्रहिकः । उपाधिभेदे, आपने संयममात्राबैर्निष्पन्नमौदारिकशरीरम् । शरीरनेदे, कर्म। थै यो गृह्यते न पुनर्नित्यमेव स औपग्रहिक इत्यर्थः । प्रव० ६० ओरानियसरीप्पओगणाम-औदारिकशररिप्रयोगनामन्-न० द्वा० " ओहेण जस्स गहणं नोगा पुण कारणा सो होहि । जस्स ल दुर्ग पि नियमा, कारणसो उवग्गहिओ " यस्य तु औदारिकशरिप्रयोगस्य संपादके नामदे, न०८०६०|| पीठकादेयमपि ग्रहणं नोगश्चेत्येतनियमात्कारणतो निमित्तन ओरालियसरीरप्पोगबंध-औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध- पुं० | स्नेहादिना स पीउकादिरौपग्रहिकः कादाचित्कप्रयोजननिर्वृत्त औदारिकशरीरप्रयोगस्य संघातरूपे शरीरबन्धनेदे, । ज०० | इति गाथार्थः । पं०वाध (तस्यजघन्यमध्यमोत्कृष्टत्वमुवश० ए०। हि शब्दे)॥ प्रारुहमाण-अवरोहयत-त्रि० उत्तारयति, स्था०५०। योवधाय-औपघातिक-न० उपघातनिर्वृत्ते तत्फले वा बचने Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( G) ओवधाश्य अभिधानराजेन्द्रः । ओचम्म यथा चौरस्त्वमिति “सुयं वा जइ वा दिटुं न लविजोवघाश्य" किंचिसाहम्मोवणीए अणेगविहे जहा मंदरोहा सरिसवो द०८ अ०॥ जहा सरिसवोतहा मंदरो जहा समुद्दोतहा गोप्पयं जहा गोओवट्टणा-अपवर्तना-स्त्री० भागहरणे, विशे। प्पयं तहा समुद्दो जहा आश्च्चो तहाखजोतो जहा खज्जोतो त ओवलोमोयरिया-नपार्धावमौदरिका-स्त्री० द्वात्रिंशतोव॑षोम हा आश्च्चो जहा चंदो तहा कुमुदो जहा कुमुदो नहा चंदो । श एवं च हादशानामर्धसमीपवर्तित्वाऽपाविमौदरिका। द्वादशनिरिति द्वादशकवलाहाररूपेऽवमौदरिकाभेदे, तद्वता सहा. से किं तं पायसाहम्मोवाणीए २ अणेगविहे जहा गौ तहा गवनेदोपचारात् साधी च‘दुवाबसकुक्कुमिअम्गप्पमाणमेत्ते कवले ओजहा गवो तहा गौ सेत्तं पायसाहम्मोवणीए। से किं तं श्राहारमाहारेमाणे ओवडोमोयरिया " उपाविमौदरिकेति | सव्वसाहम्मोवणीए सव्वसाहम्मे ओवम्मे नस्थि तहा वि तो रूपम् । भ०७०१०॥ व तस्स तोवम्म कीरइ जहा अरिहंतेहिं अरिहंतसरिसं ओवल-अपवृषि-स्त्री हासे, नि० चू०२० उ०। कयं चकवहिणा चकवट्टिसरिसं कयं बलदेवेण बलदेवसओवणिहिय-औपनिधि (निहिति) क-त्रि० उपनिधिःप्र रिसं कयं वासुदेवेण वासुदेवसरिसं कयं साहुणा साहुसत्यासन्नं यद्यथा कथंचिदानीतं तेन चरतीति । तद्ग्रहणाये रिसं कयं सेत्तं सव्वसाहम्मे सेतं साहम्मोवणीए । त्यर्थः इत्योपनिधिकः । उपनिहितमेव वा यस्य ग्रहणवि तश्च द्विविधं साधयेणोपनीतमुपनयो यत्र तत्साधोपनीषयतयाऽस्ति स प्रशादेराकृतिगणत्वेन मत्वर्थीये ण प्रत्यये तम् । वैधय॑णोपनीतमुपनयो यत्र तद्वैधोपनीतम् । तत्र साऔपनिहित इति । स्था०५ ठा० । उपनिहितं यथाकथंचि धोपनीतं त्रिविधं किंचित्साधादिभेदात् किंचिसाधर्य त्प्रत्यासन्तीभूतं तेन चरति यः स औपनिहितिकः । भिक्षा व मन्दरसर्षपादीनाम् तत्र मन्दरसर्षपयोयोरपि मूर्तत्वं चरकभेदे, औ०। सादृश्यम् । समुष्गोष्पदयोः सोदकत्वमात्रम् । आदित्यत्रद्योआवणिहिया-औपनिधिी-स्त्री० उपनिधिनिक्षेपो विरचनं तयोराकाशगमनोद्योतकत्वरूपम् । चन्मकुमदयोः शुक्लत्वमिति प्रयोजनमस्य इत्योपनिधिकी (ौ०) प्रयोजनार्थ इकण प्र (सेकिंतंपायसाहम्मेत्यादि) खुरककुदविषाणलाङ्गलादेयोत्ययः । सामयिकाध्ययनादिवस्तूनां (प्राणुपुब्धी शब्दोक्त) रपि समानत्वान्नवरं सकम्बलो गौर्वृत्तकएस्तु गवय इति प्रायः पूर्वानुपादिविस्तारप्रयोजनायामानुपूाम् (व्यानुपूा- साधर्म्यता । सर्वसाधर्म्य तु केत्रकालादिभिर्भेदात् न कस्यापि दोनामीपनिधिकीत्वम् श्राणुपुवीशब्दे दर्शितम्) केनचिन्साधय संभवति संभवे त्वेकताप्रसङ्गः । तर्हि उपमानस्य ओवतिणी-अवपतिनी-स्त्री० विद्याभेदे, यां हि जपतः खत तृतीयनेदोपन्यासोऽनर्थक पवेत्याशङ्कयाह । तथापि तस्य विवएव पतत्यन्यं वा पातयति । सूत्र०२ श्रु०२०। वितस्याहदादेस्तेनैवाईदादिना औपम्यं क्रियते । तद्यथा अर्हता अोवत्तिय-अपवर्तित-त्रि० क्षिप्ते, ज्ञा० १ ०। अर्हत्सदृशं कृतं तत्किमपि सर्वोत्तमं तीर्थप्रवर्तनादिकार्यमर्हता ओवतिय-अपवयं-अव्य. अपवर्तनेन अग्निविक्षिप्तेन भाज- कृतं यदहन्नेव करोति नापरः कश्चिदिति भावः एवं च स पचोनेनान्येन वा इत्येवमादिलक्षणेन कृत्येऽर्थे, दश०५०। पमीयते । लोकेऽपि हि केनचिदत्यद्भुते कार्य कृते वक्तारो ह. अोवत्याणिया-औषस्थानिकी-स्त्री० चेटीभेदे, या आस्था इयन्त तत्किमपीदं भवद्भिः कृतं यत् भवन्त एव कुर्वन्ति नान्यः कश्चिदिति । एवं चक्रवर्तिवासुदेवादिष्वपि वाच्यम् । नगतानां समीपे वर्तन्ते भ० ११ श० ११ उ०। प्रोवमिय-औपमिक-न० उपमया निवृत्तमोपमिकम् । गणि से किं तं वेहम्मोवणीए शतिविहे पएणते तं जहा ) किंचि तस्याविषये कालभेदे, उपमानमन्तरण यत्कालप्रमाणमनति. वेहम्मे पायवेहम्मे सव्ववेहम्मे से किं तं किंचि वेहम्मे । शयिना ग्रहीतुं न शक्यते तदोपमिकमिति भावः । अनु० । जहा सामलेरो न तहा बाहुलेरो जहा बाहुलेरो न तहा भ० । स्थान जंग"से किं तं श्रोवभिए दुविहे पामते तं जहा सामोरो सेत्तं किंचिवेहम्मे । से किं तं फायबेहम्मे ३ जहा पलिश्रोवमे अ सागरोपमे अ" अनु० । उपमया निर्दिष्टः वायसो न तहा पायसो जहा पायसो न तहा वायसो । ठक । उपमया निर्दिष्टे, वाच। सेत्तं पायवेहम्मे । से किं तं । सव्ववेहम्मे सव्ववेहम्मे ओऔपम्य-न. उपमायाम, स्था०८ ठा०। श्रोचम्म-औपम्य-न-उपमीयते सदृशतया वस्तु गृह्यतेऽनये वम्मे नत्यि तहा वि तेणेव तस्स तोवम्म कीरइ जहा पीएत्युपमा सैवोपम्यम् अनु । ध०। प्रसिम्साधर्म्यात्साध्यसाधन ए पीअसरिसं कयं दासेण दाससारसं कयं काकेण काकरूपे प्रमाणनेदे, यथा गौर्गवयस्तथा। अत्र च संझासंझिसंबन्ध सरिसं कयं साणण साणसरिसं काय पाणण पाणसरिस कयं प्रतिपत्तिरुपमानार्थः । सूत्र०१७०१० अ०। ( अस्य प्रमाएयवि. सेत्तं सव्ववेहम्मे सेत्तं वेहम्मोवीए सेत्तं ओवम्मे ।। चार उवमाणशब्द कृतः) ययेति यादृशः शबलाया गोरपत्यं शाबलेयो न तादृशो तदभेदा श्मे । बहुलाया अपत्यं बाहुलेयो यथाचायं न तथा इतरः अत्र च से किं तं ओवम्मे? ओवम्मे दुविहे पएणत्ते तं जहा साहम्मो शेषधर्मस्तुल्यत्वाद्भिन्ननिमित्तजन्मादिमानतस्तु वैलकण्यातियहीए अवेहम्मोवणीए असे किं तं साहम्मोवणीए? सा. चिद्वैधयं भावनीयम् ( से किं तं पायवेहम्मे इत्यादि ) अत्र वायसपायसयोःसचेतनत्वाचेतनत्वादिनिबहुन्निर्धर्विसंवादात् हम्मोवणीए तिविहे पएणते । तं जहा । किंचिसाहम्मोव अनिधानगतवर्णद्वयेन सत्वादिमात्रतश्च साम्यात्प्रायो वैधयंता जीए पायसाहम्मोवणिए सव्यसाहम्मोवणीए । से किं तं भावनीया । सर्ववैधयं तु न कस्यचित्केनापि संनवति सत्वप्र Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम्म मेयत्वादिभिः सर्वाभासमानस (ए) बोसवैयर्थ्यमाशङ्कबाद तथापि तस्य वीम्यं कि यते यथा नीचेन गीयतं गुरुपातादीत्यादि । वानीचे न नोचसदरां कृतमित्याद्युक्तवता साधर्म्यमेवोक्तं स्यान्न वैधर्म्य सत्यं किंतु प्रायो नै पापाचरति किं पुनरी ततः सकलजगविणप्रवृत्तत्वविवक्रया वैधर्म्यमिह भावनीयम् । एवं दासाद्युदाहरणेष्वपि वाच्यम् । सेत्तं सव्वहम्म इत्यादि निगमत्रयम् । अनु० । नि० चू० ओवम्मसच्च-प्रपम्य सत्य-न० उपमैवौपम्यं तेन सत्यमौपम्यत्यम् । सत्यभेदे । यथा समुद्रवत्तडागं देवोऽयं सिंहः । स्था० १०० प्रश्न प्रज्ञा० ॥ संख्यात्री० संख्या संख्या परिच्छेद वस्तुनिर्णय इत्यर्थः । औपम्येन उपमाप्रधाना संख्या श्रौपम्यसंख्या । संख्यार्भेदे, प्र० । ० अभिधानराजेन्द्रः । दोनागेऽवतरति उत्तरति देहि य देवी हिय ओवयंतेर्हि" अवपतद्भिः स्वर्गाद्भुवमागच्छद्भिः । कल्प. योवयमाण-अवपतत्-त्रि० व्योमाङ्गणावतरति, झा० १० अ० ॥ श्रवयायय-औपयाचितक-पुं० उपयाचिते देवाराधने भव औपयाचितकः । पुत्रभेदे, स्था० १० वा० ॥ मदान १०० १० ॥ योवयारियक्णिय औपचारिक विनय ५० उपचारो ओकण्यद हारः पूजा वा प्रयोजनमस्येत्यपचारिकः स चासैौ विनयश्च । भक्तिरूपे । पंचा०६ विव० । प्रतिरूपयोग्यव्यापारात्मके विनयभेद, दश० अ० ॥ ओववाइय-औपपातिक-पुं० उपपातः प्रादुर्भावो जन्मान्तरसंक्रान्तिः । उपपाते भव औपपातिकः । संसारिणि, आचा० १ श्रु० १ ० १ ० ॥ उपपाताजाता उपपातजाः ! अथवा उपपति नवा औपपातिकाः । देवनारकेषु, दश० ४ अ० | आचा० । विशे० । उपपातेन नवे, उत्त० ५ अ० उपपातेन निर्वृत्ते वा पदार्थमात्रे, न० । उत्पातजन्मनिमित्ते देवनारकाणां संबन्धि नि वैक्रियशरीरे, न० | पं० सं० १ द्वा० । आचाराङ्गसंबन्धिनि प्रथमे उपाने, सूत्र० २ श्रु० २ श्र० औ० । " श्री वर्धमानमानम्य प्रायोऽन्यग्रन्थवीकिता । औपपातिकशास्त्रस्य, व्याख्या काचिद्विधीयते " अथोपपातिकमिति कः शब्दार्थः उच्यते । उपपतनमुपपातो देवनारकजन्म सिद्धिगमनं चातस्तमधिकृत्य कृतमध्ययनमौपपातिकमिदं चोपानं वर्तते । श्राचाराङ्गस्य हि प्रथममध्ययनं शस्त्रपरिज्ञा तस्याद्योद्देश के सूत्रमिदम् " एवमेगेसिं नोनायं जव अस्थि वा मे आया उववाइए नत्थि वा मे श्राया वाइए के वा अहं आस। के वा इह च्चुए पेच्चा वह नविस्वामीत्यादि " इह च सूत्रे यदौपपातिकत्वमात्मनो निर्दिष्टं त दि प्रपञ्चत इत्यर्थतोऽङ्गस्य समीपभावेनेदमुपाङ्गम् । इति व्युत्पत्तेः औ वसग्गय पसर्गिक पुं० उपगीय प्रभवति सन्तापातक। उपसर्गसमये रोगभेदे । वातादिसंनिपाते, देवारि केही स्यादी वाच० । उपसर्गेण निर्वृतम् प्रपरेत्यादिके नाम प्रेम विशे० परीत्योपलर्गिकमुपगषु पठितत्वात् । अनु० ॥ वसामय पशमिक - पुं० उपशमो भस्मच्छन्नाग्निरिवानु ओहिय युदयानावः द्विविधस्यादयस्य विक म्भणम् ( कर्म० ) इति यावत् । इत्थं भूतश्चोपशमः सर्वोपशम उच्यते । स च मोहनीयस्यैव कर्मणो न शेषस्य । “सव्वोवसमो मोहस्सेव उ इति वचनात् तत्र चैवं शब्दव्युत्पत्तिरुपशम एवोपशमिकः स्वार्थ इकण्प्रत्ययः । यद्वा उपशमेन निर्वृत औपशमिकः । क्रोधाद्युदयाभावफलरूपे जीवस्य परमशान्तावस्थालऋणपरिणामविशेषे, । अयं च पराणां भावानां प्रथमो द्वितीयो वा । प्रव० २२१ छा० । पं० सं० आ० म० छ० । पशमिकस्य द्वे निर्दिदिरा से किं तं नवसममिए 2 दुविहे पाते । तं जड़ा । जवसमे समनियो से किं से उसमे मो कम्मस्स डवसमेणं सेतं उसमे से किं तं उपसमनिप्पणे2 हे पत्ते तं जहा उवसंतकोड़े जाव जवसंतलोभे उपसंतपज्जे उपसंद उपमण उन संतमोहज्जे उस मिश्रसम्मचली उवसमिआचरिचलब्दी उसंतकसाया दमत्यवीतरागो सेयं उप समशिष्य सेचं उपसमिए । औपशमिको विविध उपशमस्तन्निष्पन्नश्च उपशमनिष्पन्ने तु ( वसंत कोहे इत्यादि ) इहोपशान्तक्रोधादिव्यपदेशात्वा पि याचनाविशेषाः कियन्तोऽपि दृश्यन्ते । तत्र मोहनीयस्योपशमेन दर्शनमोरिमोहन भवति तदुप शान्तायां च स्वेच्छया देशाः संभवन्ति ते सर्वेऽप्यदुष्टान दोषा इति भावनीयम् । ( सेत्तमित्यादि ) निगमनद्वयं निर्दिशे द्विविधोऽप्योपशमिकः । श्रनुः । द्विभेदोऽयम् । ( सम्मंचरणं पदमावति इह यथासंख्यं दर्शनमोहनीयचरित्रमोहनीरामभूतं सम्यक्त्वं पर प्रथमे शमिति शेषः इति निपितामिकजावस्य । कर्म० | प्रब० । वसामयसम्पत्त- औपशमिकसम्यक्त्व- न० उपशम उदीर्णस्वमिध्यात्वस्य ये सति अनुस्य उपशमे विपाकप्रदेशवेदनरूपस्य द्विविधस्यापि उदयस्य विष्कम्भणं तेन निर्वृत्तमौपशमिकम् । कर्म | भस्मन्नानिवत् मिथ्यात्वमोहनीयस्यासन्तान कोपमानमायाखोनानामनुदयावस्था उपशमः प्रयोजनं प्रवर्तकमस्य औपशमिकं तच्च तत्सम्यक्त्वं च । सम्यक्त्वभेदे, तच्चानादिमिथ्यादृष्टेः करणत्रयपूर्वकमान्तर्मुहूर्तिक चतुर्गतिकस्यापि संहिसपद्रियस्य जन्तोन्धिमेवान न्तरं भवतीत्युक्तप्रायम् । यद्वा उपशमश्रेण्यारूढस्य भवति । यदाह । " उवक्षमसेढिगयस्स छ, होइ उवसामियं तु सम्मत्तं । जीवा अकयति पुंजो, अखवि अमित्था बढइ सम्मत्ति" । ग्रन्थिप्रदेश या अन्योऽपि संख्येयमसंख्ये या काले तिष्ठति तत्र स्थित भयो णि वायलभते । जिनदादा अत पत्र पुर्यान्तं तं मया स्यादित्यन्यदेतत् । ०२० सम्मत शब्दे सोपपत्तिका प्यामि ) यि औषधिक० मात्वेन प्रचारिणा० २ अ० । प्रश्न० । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) प्रोवाइय अभिधानराजेन्द्रः। भोसमा अोवाइय-औपपातिक-न० उपपतनमुपपातो देवनारकजन्म- प्रोसचारण-अवश्यायचारण-पुं० अवश्यायमाश्रित्य तदाभसिद्धिगमनं च । तदधिकृतमध्ययनमौपपातिकं प्राकृतात्वा- यजीवानुपरोधेन याति । चारणनेदे, ग०२०। द्वर्णलोपः । आचाराङ्गस्योपाने, पा०। प्रोसम्म-अवसन-पुं० सामाचारीविषये भवसीदति प्रमाधश्रावपातिक-पुं० अवपातः सेवा सा प्रयोजनमस्येति भाव ति यः सोऽवसन्नः । प्रव०२ द्वा० । व्य० । सूत्र० । आव० । पातिकः। सेवके, तल्लकणे पुत्रभेदे, स्था० १० ठा। अवसन श्व धान्त श्वावसनः। आलस्यादनुष्ठानात् सम्यकरणाअोवाई-अवपायी-स्त्री० पोताकीप्रतिपक्षभूतायां परिव्राजक- त् (भ०६ २०७०) अवसीदति स्म। क्रियाशैथिल्यान्मोक्तमन्थिन्या विद्यायाम, " ततो पोयागि मुयद इयरो तासिं श्रो- मार्गे श्रान्त श्वावसनः । ध०२ अधि० । विवक्तितानुष्ठानाससे, याई" प्रा० म० द्वि०। आवश्यकस्वाध्यायप्रत्युपेक्कणध्यानादीनामसम्यकारिणि, का अोवाडण-अवपातन-न० विदारणे, शा०१६ अ०। स्था। ६ अ०। आवश्यकादिष्वनुद्यमे, व्य०द्वि०३०॥ प्रोवाय-अवपात-पुं० गर्तादौ, दश०४ अ०। प्राचा। सा तद्भेदो यथारूणां सेवायाम, स्था० ३ ठा० । ज्ञा० । गर्तविशेषे, प्रश्न०।। विहो खलु ओसन्नो, देसे सच्चे य हीति नायव्यो। प्रपातस्थाने यत्र चलन् जनःसप्रकाशेऽपि पतति।जं०२ वक्षः। देसोसन्नो तहियं, आवासाई इमो होई ॥ ओबायपव्वजा-अवपातप्रव्रज्या-स्त्रीअवपात सद्रूणांसेवा अवसन्नो खलु जवति द्विविधो ज्ञातव्यः । तद्यथा देशे देशतः ततो या प्रवज्या साध्वपातप्रवज्या । प्रवज्याभेदे, स्था०४ ठा० तत्र देशावसन्न भावश्यकाद्यविकृत्यायां वकमाणो नवति । तमेवाह ॥ अोवायवं-अवपातवत्-त्रि० वन्दनशीले, निकटवर्तिनि च ।। दश० अ० । आवासगसकाए, पमिलेहणजाणजिक्खजत्तट्टे । ओवारि-अपवारि-न० दीर्घतरधान्यकोष्ठागाराविशेषे, अनु०॥ आगमणे निग्गमणे, गणे निसीयणतुयढे ।। आवश्यकादिप्ववसीदन् देशतोऽवसन्न इत्यायातो गाथाकरअोवाहिय-औपाधिक-त्रि० उपाधिरेव विनयादित्वात् स्वार्थे योजनार्थः । जावार्थस्त्वयम् । आवश्यकमनियतकासं करोति । ठञ् । साध्यसमव्यापकत्वरूपे उपाधौ, वाच । उपाधेरागत- यदि वा हीनं हीनकायोत्सर्गादिकरणात् । अतिरिक्तं वा अनुपेमोगाधिकम् । समवायसंबन्धलक्षणेनोपाधिनाऽऽत्मनि समवेत क्वार्थमधिककायोत्सर्गकरणात् । अथवा यहैवसिके भावश्यशानादी, प्रात्मनः स्वयं जडरूपत्वात्समवायसंबन्धोपदौकिते, के कर्तव्यं तत् रात्रिके करोति । रात्रिके कर्तव्यं देवसिके । स्या । उपाधिना निवृत्तः वा ठम् । उपाधिकृते, स्त्रियां ङीप् । तथा स्वाध्यायं सूत्रपौरुषीलकणं वा । अत्र गर्दितं “कुरु स्वमि" रूढं संकेतवन्नाम सैव संक्षेति कीर्त्यते । नैमित्तिकी पारि- ति" गुरुणोक्ते गुरुसन्मुखीनूय किंचिद्यदनिष्टं जस्पित्वा भप्रिभाषिक्यापधिक्यपि तद्भिदा" वाच । यण करोति न करोति वा सर्वथा विपरीतं वा करोति । ओविय-ओपित-जि० उज्ज्वालिते, का० १६ अ० । स्वचिते,।। कालिकवेलायामुत्कालिकं वा कालवेलायां प्रतिलेखनामपि प्रा०म०प्र० । परिकर्मिते, भ० श. ३३ उ०। प्रौलारा वस्त्रादीनामावर्तनादिनिरूणामतिरिक्त वा विपरीतां वा दोषैर्धा ओवीलय-अपनीमक-पुं० लज्जयाप्तीचारान् गोपायन्तमुप- संसक्तां करोति तथा ध्यानं धर्मध्यानं शुक्ष्यानं वा यथा देशविशेषैरपवीडयति विगतलज्जं करोतीति अपवीडकः । कालं न ध्यायति । तथा निकां न दिएमते गुरुणा वा निक्कानियुबालोचनाकारयितरि योग्ये गुरौ, अयं ह्यालोचकस्यात्यन्तम् तो गुरुसन्मुखं किंचिदनिष्टं जल्पित्वा हिएडते । तथा नक्तपकारको भवति । पंचा० १५ विवा। विषयं प्रयोजनं सम्यक् न करोति न मएमस्यां समुद्दिशति । काकशृगालादिनकितं वा करोति । अन्ये तु व्याचकते (अ. श्रोस-अवश्याय-पुनेहे, "उदगं या प्रोसंथा हिमं वा” दश तहत्ति ) अभक्तार्थग्रहणं सकप्रत्याख्यानोपनक्कणं ततोऽय४ अा विशे। श्राचा "अवश्यायो रजन्यां यःनेहः पतति । मर्थः । प्रत्याख्यानं करोति गुरुणा वा नणितो गुरुमुखं किंचिउदकसूक्ष्मतुषारे, अकायभेद एषः । श्राचा० २ श्रु० १०॥ दनिष्टमुक्त्या करोति आगमने नैधिकीं न करोति निर्गमने प्रोसकइत्ता-अवष्वप्क्य- अव्य० पृष्टतो गत्वेत्यर्थे, प्रा०म०प्र० आवश्यिकी च स्थाने ऊर्ध्वस्थाने निषीदने उपवेशने त्वब" प्रोसकश्त्ता " विवादे अवष्वक्य अपसृत्यावसरलाभाय तने शयने एतेषु क्रियमाणेषु न प्रत्युपेकणां करोति । नापि कालहरणं कृत्वा यो विधीयते स तथोच्यते। विवाददे, स्था० प्रमार्जनां करोति । अथवा प्रत्युपेक्षणप्रमार्जने दोषदुष्टे । ग०॥ ___ सांप्रतमावश्यककारं व्याख्यानयति ॥ ओसकंत-अवध्वष्कत-त्रि० अपसरणं कुर्यति, ग०२ अधि०॥ श्रावस्सयं अणिययं, कर हीणारित विवरीयं । ओसकण-अवष्वष्कण-न० स्वयोगप्रवृत्तिकालावधेरे अर्थात गुरुवयणेण नियोगे, वलाइ इणमो उ अोसन्नो ।। रणमवपकणम् । ध०३ अधिस्वयोगप्रवृत्तिनियतकालावधेर- आवश्यकमनियतमनियतकानं यदि वा हीनमथवाऽतिरिक्त चीकरणे, पिं०। विवक्तिविध्वंसमादिकालस्य न्हासकरणे, अर्वा- विपरीतं वा करोति गुरुराचार्यस्तस्य वचनं गुरुवचनं तेन निकरणे, वृ०१ उ०। (अवकणे प्रानृतिकदोष इति तत्स्थान योगो व्यापारस्तस्मिन् सति सन्मुखो बलति । किमुक्तं भएवास्य स्वरूपमाख्यास्यते ) अपसर्पणे, पंचा० १३ विव० । वति । गुरुणा भिकादिषु नियुक्तः सन् गुरुसंमुखमेष किंचिज्वलफुलमुकानां प्रज्वलनार्थमुदीरणे, वृ०२० । इनिष्टं नाषमाणो वक्षनेन गुरुवचस्तथैवानुतिष्ठति । एकदेशतोश्रोसकिय-अवष्वष्क्य-भव्य० अतिदाहनयापुल्मकान्युत्साये | ऽवसन्नः । अत्र प्रायश्चित्तविधिः पार्श्वस्थस्यैवानुसरणीयः । त्यर्थे, दश०४०॥ यदुक्तं "गुरुसन्मुखो बलते" इति तत्सविशेष विवृणोति ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१) अभिधानराजेन्द्रः । सम जह उवलो वलवं, भंजति समिलं तु सो वि एमेव । मुवर्ण अकरेंतो मला कुणतीय उस्तो || यथा बलवान् वलीवर्दः प्रेरितः सन् दुःशीलतया संमुखं व्यात्यमानः समिता भनक्ति । एवमेव प्रनेनैव प्रकारण सोऽव्यवसन्नो गुरुवचनमकुर्वन् संमुखो वसते न पुनः करोति । ततः कार्य करोति वा उत्सहा उच्छशब्दोऽत्र निषेधार्थं आखाद्य इत्यर्थः किंचिदि मकरोतीति तो देशतोऽवसम्मः सर्वतोपमा । प्रवद्धपीठफलगं, समं संजयं वियाणाहि । टायगर भोई, एमेवेया परिवनियो । यः पकस्याज्यन्तरे पीठफलकादीनां बन्धनानि मुत्का प्रत्युयेकं न करोति यो या निविस्तृत संस्तारकः सोऽवच उफलकः । तं संयतं सर्वतोऽवसन्नं तद्विजानीहि । यथा यः स्थापितकनोजी स्थापनादोषदुष्टप्रानृ तिकनोजी रचितकं नाम कांस्यपात्रादिदेवयुद्ध किन स्थापित इत्येवं शीलो रचितकनोजी तमपि सर्वतोऽवसन्नं जानीहि । एवममुना प्रकारेण एता अवसन्नविषये प्रतिपत्तयो वेदितव्याः ॥ अधुना प्रायश्चित्तविधिमाह || सामायारी वित, ओसनो जं च पावए जत्थ । सम्मतो व अलंदो, नरुवं एलगो वेव ॥ सामाचारीं ज्ञानादिसामाचारी " काले विराप" इत्यादिरूपां यदि वा सुखमय महल्यादिगतां सामाचारों चितथा कुर्वन् । यत्र स्थाने यत्प्रायश्चित्तं प्राप्नोति तत्र तस्य स्वस्थाननिष्पन्नं प्रायश्चित्तमिति । गतमवसन्नसूत्रम् । व्य० प्र०१० ॥ " जे जिक्खू श्रोसएणं वंद‍ वंदंतं वा साइज्जर " । जे निक्खू ओसएणं पसंत पसंसंतं वा साइज्जर नि० चू० १३ ०० । शिथिले, ग० १ अधि । शिथिलतां गते, व्य० ३ उ० । मझे, । सूत्र० १० २ ० । श्रान्ते । न० १० श० ४ ० ॥ उत्सन्न - - त्रि० प्राचुर्ये । प्रश्न ०१ द्वा०] प्रायोऽर्थे, कल्प० । श्राव० । प्रोसरणचरणकरण - अवसन्नचरण करण- पुं० [स्त्री० अवस ने शिथिलतां गते चरणकरणे व्रतभ्रमणधर्मादि पिएम विशोधितमित्यादिरूपे यस्य सोऽवसन्नचरणकरणः । शिथिलचरणकर णे, व्य० प्र० ३ ० । सण दोस-अवसन्नदोष- पुं० हिंसादीनामन्यतरस्मिन् श्रयसन्नं प्रवृत्तेः प्राचुर्य बाहुल्यं यत्स एव दोषः । अथवा 'ओसन्नमिति' बाहुल्येनानुपरतत्वेन दोषो हिंसादीनां चतुर्णामन्यतरोऽवसन्न दोषः । धर्मध्यानस्य प्रथमे लकणे, स्था० ४ ० । ० । ओसएणविहारि (ए) - अवसन्नविहारिन् - पुं० आजन्मशिथिलाचारे, न० १० श० ४ ० । झोसत अवस- त्रि० बजे ० ३ ० । प्रोसी अवसर्पिणी-स्त्री० श्रवसर्पयति भावानियेवं शीलाऽवसर्पिणी | ०५ ० १ उ० । अवसर्पति हीयमानारकतया अवसति वाऽऽयुतशरीरादिभावान हापयत्य सर्पिणी । स्था० १ ० । अवसर्पन्ति क्रमेण हानिमुपपद्यन्ते शुभा भावा अस्यामित्यवसर्पिण) । (सागरोपमशब्दे वयमास्वरूपाणां सागरोपमाणां) माकासारोपमा परिपूर्ण दिखागरोपम फोटाकोमा यांच सप्पिणी 1 समस्ता अपि शुना भावाः क्रमेणानन्तगुणतया हीयन्ते। अनुक्रमेणानन्तगुणतया परिवर्धन्ते । जो० १ पाहु० नं० । अनु०। विशे० " दससागरोवमकोकाकोमीओ कालो श्रसपिण ए" । स्था० १० वा० ॥ अत्र पमरकाः " छव्विा श्रसपिण पत्ता तंजदा सुसमसुसमा जाव दुस्समदुस्समा" स्था०४ ० (१) अवसर्पिण्या जेदाः । ( २ ) सुषमादीनां प्रमाणम् । (३) सुषमसुषमास्वरूपम् । (४) भेादिवर्णनम् । ( ५ ) वनश्रेणिवर्णनं तत्र कल्पवृक्कस्वरूपवर्णनं च । (६) तत्काल भाविमनुष्यादिस्वरूपम् | ( ७ ) मनुष्यादीनां भवस्थितिः । (D) द्वितीयारकस्वरूपम् | (६) तृतीयारकस्वरूपं तत्र जगद्व्यवस्थावर्णनं च । (१०) चतुर्थारक स्वरूपनिरूपणम् । ( ११ ) पञ्चमारक स्वरूपम् । ( १२ ) षष्ठारक स्वरूपकथनम् । (१३) भरतभूमिस्वरूपम्। (१) सर्विया नेवाः । दीवे एणं ते! दीवे जारहे वासे कतिविहे काले पत्ते ? गोषमा ! दुवि काले पाते तं जहा उस्सप्पिणी काले असप्पिणीकाले । ओस पिरणीकाले गं भंते ! कतिविहे पत्ते ? गोयमा ! बबिहे पत्ते तं जहा मुसमसुसमाकाले मुममाकाले सुसमदुस्समा काले दुस्सममुसमाकाले समकाले दुस्समदुस्समाकाले ॥ च अवसर्पिणी कालः कतिविधः प्रज्ञप्तः गौतम ! षड्विधः प्रइमस्तद्यथा सुष्ठु शोजनाः समाः वर्षाणि यस्यां सा सुषमा "निई:सुवेःसमसुतेरिति "पत्वं सुषमा चासी सुषमा सुमसुमा द्वयोः समानार्थयोः प्रकृष्टार्थवाचकत्वादत्यन्तसुषमा एकान्तसुखस्वरूपोऽस्या एव प्रथमारके इत्यर्थः । सा चासौ कालश्चेति । द्वितीयः सुषमाकालः । तृतीयः सुषमडुःषमा दुष्टाः समा अस्यामिति दुःषमा | सुषमा चासो दुःषमा च सुषमदुःषमा । सु मानुभाववदुलाल्पदुःषमानुजावेत्यर्थः । चतुर्थो दुःषमसुषमा । दुःषमा चासौ सुत्रमा च दुःषमसुषमा । दुःषमानुजावबहुसाल्पसुषमाजाचेत्यर्थः । पञ्चमो दुःषमा ! षष्ठो दुःषमादुपमाकाशः ॥ निरुकं तु सुषमसुषमावत् ॥ (२) प्रमाणमित्यम् ॥ एएवं सागरोवमप्यमाणं चत्तारि सागरोवमकोमा कोमीओ कालो सुसमसुसमा १ तिथि सागरोचमफोटाकोमीओ कालो सुसमा २ दो सागरोपमकोडाकोमीओ arat सुसमदुस्समा ३ एगा सागरोवमकोकाकोडी वायालीसाए बाससहस्सेहिं कणिकालो दुस्समसमा ४ एकवीस पाससहस्साई कालो दुस्समा ५ एकवीस वास सहस्साई कालो दुस्समदुस्समा ६ पुणरवि प्रोसप्पिणीए एकवीस वास सदस्साई कालो दुस्समदुस्समा । एवंप मिलोमतो जाय चचारि सागरोषमकोदाकोई ओ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) अनिधानराजेन्द्रः । भोसपिणी कालो सुगमसुगमा । दससागरोत्रम कोडाकोमीओ कालो श्रसपिणी ॥ 1 पतेन सागरोपमयमयेनान्यूनाधिकेत्यर्थः चरात्रः सागरोप मकोट कोट्यः कालः सुषमसुषमा प्राग्वर्णितान्वर्था । श्रयमर्थः । सतुः सागरोपमकोण का प्रथमारक इत्युच्यते वाया श्रीमति) या च सागरोपमकोटाको काद्विवारिंशत्सहसेनैयोनिका का चतुर्थोऽरः समासत्रेकविंशतिस हा वर्षाणां पूरणीया तेन पूर्णकोटा फोटोका भवति अ सर्पिणीकालस्य दशसागरकोटाकोटीपूरिका नवतीत्यर्थः । एवं प्रतिलोमेति पश्चानुपूर्या ज्ञेयम् । उक्तं भरतकालस्वरूपम् ॥ (३) अथ काले भरतस्वरूपं पृच्छन्नाह । तत्रावसर्पिण्या वमनपा प्र जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भरहे वासे इमीसे ओसपि - पीए सुसम समाए समाए उत्तमक पत्ताए भरहस्स वासस्स के रिसए आयारभावपमोयारे होत्या ? गोयमा ! बहु समरमणिज्जभूमिभागे होत्था से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव णाणामणिपंचवणेहिं । तणेहि य मणीहि य उनसोजिए से जहा किएडेहिं नाव सुकिल्ले एवं घो तं गंधो फासो सदो अतणाण व महीण व भाणि जाव तत्य णं बहवे मनुस्सा मणुस्सीओ अ अासयंति सयंत चिति विसीति तुद्वंति हसंति रमंति ललंति । तीसे णं समाए रहे वाले बहवे उदाला कुद्दाला समुद्दाला कयमाला एट्टमाला दंतमाला सिंगमाला संखमाला से माला शार्म दुमगणा पाता? कुसचिकुसविक रक्खमूला मूलतो कंदमंतो जावी अमंतो पत्तेहि अ पुष्फेहि फलैहि उषाच्या मिरी भईपोक्सोमा या चिति ॥ जम्बूद्वीपे भदन्त द्वीपे भरतक्षेत्रे यामवसरियां संप्रति या वर्तमानेति शेषः सुमसुमानायां समायां कालविभागल क्षण भरके इत्यर्थः किलायामित्याह । उत्तमका प्रकृष्टामवस्थां प्राप्तायां " कचिदुत्तमक पत्ता इति " पाठस्त जोत्तमान् सत्कालापेक्षयोत्कृष्टान् अर्थान् वर्णादीन् प्राप्ता उत मार्थप्राप्ता तस्यां भरतस्य वर्षस्य कीदृश आकारभावप्रत्यव तारः ( होत्थेत्ति ) अभवत् । सर्वमन्यत्प्राख्याख्यातार्थ नवरमंत्र मनुष्योपभोगाधिकारे भयथापि संगनिद्रासहितायभेदात् अथ सविशेषमनुजा गुरु पृष्टमपि शिष्यायोपदेयमिति प्रपद्धतिरहितं प्रथमारकानुभावज नितभरतभूमि सौभाग्यसूचकं सूचतुर्दशकमा तीनमित्यादि) तस्यां समायां भरतवर्षे बहने उहाला कोदालाः समुद्दालाः कृतमालाः दन्तमालाः शृङ्गमालाः शङ्खमालाः श्वेतमाला नाम हुमगणा हमजातिविशेषसमूहातातीर्थकर । धरैः। हे श्रमण ! आयुष्मन् ते च कथंभूता इत्याह । कुशाः दर्भाः विकुशा विल्वजादयस्तृणविशेषास्तैर्विशुद्धं रहितं वृक्षमूलं तदधोभागो येषां ते तथा इह मूलं शाकादीनामपि श्रादिमो भागो लक्षणया प्रोच्यते यथा शास्त्रामूलमित्यादि । तथा सकलवृत्तसमूलप्रतिपत्तये वृक्षग्रहणं मूलमन्तः कन्दमन्त इति पदद्वयं यावत्पदसंग्राह्यं च जगतीवनगततरुगण ग्रोसप्पिणी छ्यायेम पत्रैश्च पुष्पैध फलेथ अयसप्रतिकृ इति प्राग्वत् । श्रिया श्रतीवोपशोभमानास्तिष्ठन्ति वर्तन्ते इति भावः । ( ४ ) तत्र भेरुतालादिवृक्ष निरूपणायाह । तीसेणं समाए रहे वासे तस्थ तस्य बहने भेटतालच पाई हरुवालवणाई सेरुवालाई सालवणाई सरलवणाई सत्तिवावरणारं पूफलिवणाई खज्जूरीवरणाई पालिएरिवणादं कुविक्रमविमुकरुक्खमूलाई जाय द्विति। तीसेणं समाए रहे वासे तत्थ तत्थ बहवे सरिश्रागुम्माणे मालि गुम्मा कोरंटयगुम्मा बंधुजीवगगुम्मा बीचगुम्मा गुम्मा कणइरगुम्मा कुज्जावगुम्मा सिंदुवारगुम्मा जोई गुम्मा मोरमा हिगुम्मा महिगुम्मा वासंतिआगुम्मा लगुम्मा बालगुम्मा आगम्मिगुम्मा चंपगगुम्मा जागुम्मा वणी आगुम्मा ईदगुम्मा महानागुम्मा रम्मामहामेहणिकुरंबन आदसन्दवणं कुसुमं कुसुमेति जेणं जर हे वासे बहुसमरमणिज्जं भूमिभागं वा या विदुमसालामुकफजो बयारकलि करेंति तीचं समाए भर वासे तत्थ तत्थ तहिं तहिं बहुई पउमलयाओ जाक सामलबाओ नियं कुमाओ जाव लयापाश्री ॥ तस्यां समायां पनि सूत्रे पुंस्स्वनिर्देश प्राकृतत्वात् भेतालादयो वृक्कविशेषाः 'क्वचित्पभवालवणा इति' पाठस्तत्र पनवालास्तरुविशेषाः सालः सर्ज सरलो देवदासीस्तेषां वनानि पूगफली क्रमुकतरुः खर्जूरीनारिकेरे प्रतीते तासां वनानि शेषं प्राभ्वत् ( तीसेणामित्यादि ) तस्यां समायां बहवः सेरिकागुल्याः नवमालिका गुल्माः पम्पूजीकगुरुमा यत्पुष्पाणि मध्या विकसन्ति मनोवगुरुमाः पीजकगुल्माः वाणगुल्माः कुज्जगुल्माः सिन्दुवारगुल्माः जातिगुमाः मुरगुल्मा यूधिकारमा मलिका गुल्मा:वासन्ति कगुल्माः वस्तुलगुल्माः सेवालगुल्माः अगस्त्यगुल्माः चम्पकगुस्माः जातिगुल्माः नयनीतिमा कुन्दन्मा महाजाति ल्माः । गुल्मा नाम ह्रस्वस्कन्ध बहुकाण्डपत्रपुष्पफलोपेताः । एषाश्ञ्च केचित् प्रतीताः । केचिदेशविशेषतोऽवगन्तव्याः । रम्याः महामेघनिकुरम्बभूताः । दशार्धवर्णं पञ्चवर्ण कुसुमं जातावेकचचनं कुसुमसमूहं कुसुमयन्ति उत्पादयन्तीति नावः “ ये णार्मति" प्राग्वत् । भरते वर्षे इति षष्ठी सप्तम्योरर्थ प्रत्यभेदात् जरतस्य पर्पस्य समरमणीयं भूमिभागं वाचिभूता वायुकम्पिता या अग्रशालास्ताभिर्मुक्तो यः पुष्पपुञ्जः स एवोपचारः पूजा तेन कलितं युक्तं कुर्वन्तीति ( तीसेसमित्यादि ) सर्वमेतत् प्राग्वत् ॥ (५) वर्णनाथा । तीसे समाए भरडे वासे तत्य तत्य राहिं नींद बहुईओ पराईओ पत्ता किएहाओ किएहाभासाओ जान मनोहराओ रतमन्त उपयकोरगर्जिगारगको दलजी जीवगनंदीमुहक विलपिंगलक्खगकारं मवचकवाय गकलहंससारसग उगणमिहुणत्रिरिश्राश्र सहुइय महुरसरणाइआओ संपिडिश्रणाणाविदगुच्छ वा वीक्खरिणीदी Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३) योसप्पिणी अभिधानराजेन्द्रः । ओसाप्पिणी हिवासुअसुणिविचित्तअजितरसाहुणिरोगकसव्वोनअपु- जातिपरुन्नतल्लगसताउ खजूरमुट्ठिा सारकाविसायणसुपकप्फलसमिछिनो पिमिमजातपासादिश्राओ तीसे एणं समाए | रेवा परसबरसुरावणगंधरसफरिसजुत्तवनविरिपरिणामामज विही बहुप्पगारा तहेव ते मत्तंगा विदमगणा प्रणेगबहविविहजरहे वासे तत्थ तत्थ तहिं तहिं मत्तंगा णामं दुमगणा प वीससा परिणया पमज्जविहीए उववेया फलहिं पुराणा वीसं एणत्ता । जहा से चंदप्पमा जाव छपपमिच्चमा चिट्ठति । दंति कुसविसुरुरुक्खमूला। यावरचन्नप्रतिच्छन्ना सिरीई आईएवं जाव अणिगणा णाम दुमगणा पएणत्ता । व उवसोभेमाणा २चितित्ति"। अत्र व्याख्या । "इदं च संकेततत्र तत्र प्रदेशे तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवोवनराजयः प्रा वाक्यमपरेष्वपि व्याख्यास्यमानकल्पमद्रुमसूत्रेषु बोध्यम् चसाः हानेकजातीयानां वृक्काणांपतयो वनराजयःततः पूर्वोक्तसू मस्येव प्रभा आकारो यस्याः सा चन्द्रप्रना। मणिशिलाकेव मज्योऽस्य जिन्नार्थतेति न पौनरुक्त्यं ताश्च कृष्णा कृष्णावभासा णिशिबाकावरा च तत् साधुच वराचासो वारुणी चवरवारुणी इत्यादिविशेषेण जातं प्राग्वत् । यावन्मनोहारिण्यः। यावत्पदसं तथा सुजातानां सुपरिपाकागतानां पुष्पाणां फलानां चोयस्य ग्रहश्चायं “णीलो नासाओ हरिप्राओ हरिश्रोभासाश्रो सीआरओ गन्धव्यस्य यो निर्यासो रसस्तेन साराः । तथा बहूनां 5सीओजासाओ णिहायोणिछो भासाओतिव्याोतिब्बोनासा व्याणामुपवृंहकाणां युक्तयो मीलनानि तासां संन्नारप्राभृत्यं येषु प्रो किण्दाओ किएहच्छायाओ णीलाओणीबच्चायाओ हरि है तथा काले स्वस्वोचिते सन्धिस्तदङ्गभूतानां ब्याणां संधानंयामो हरिग्रच्छायामो सीआओ सीअच्छायाो णिहारो | योजनमित्यर्थः तस्माज्जायन्ते इति कालसन्धिजा एवंविधाश्च णिकच्यायाओतिञ्चायो तिब्वच्चायाश्रो घणकमिअमच्छायाओ" ते आसवाः । किमुक्तं भवति । पत्रादिवासकाव्यभेदात अनेक वाचनान्तरे " घणकमिकमगयाओ महामहणिकुरंबनूयाओ प्रकारो ह्यासवः । पत्रासवादिरानननिर्दिष्टो भवतीति ततः रम्माओ" इति पतत्सूत्र प्राक् पद्मवरवेदिकावनवर्णनाधिकारे नि पदद्वयपदद्वयमीलनेन विशेषण समासः। मधुमेरको मद्यविशखिसमपि यत्पुनर्लिखितं तदतिदेशदर्शितानां सूत्रे साकाद्द को रिष्टा भरिष्टा रत्नवर्णानायाशास्त्रान्तरे जम्बूकफलफलिकेर्शितानां च वनवर्णकविशेषणपदानां विजागझापनार्थमिति ति प्रसिद्धा दुग्धजातिःप्रास्वादतः क्षीरसदृशी प्रसन्ना सुराविसूत्रे कानिचिदेकदेशग्रहणेन कानिचित्सर्वग्रहणन कानिचि शेषः । तल्लकोऽपि सुराविशेषः । शतायुर्नाम या शतवारं शोधिक्रमेण कानिचिदुत्क्रमेण साक्षाद्विखितानि सन्ति तेन मा | ताऽपि स्वस्वरूपं न जहाति । सारशब्दस्य प्रत्येकं योजनात् नूद्वाचयितृणां व्यामोह ति सम्यक् पाउझापनाय वृत्तौ पुनर्मि खजूरसारनिष्पन्न पासवविशेषः । सुपक्तः परिपाकागतो यः ख्यते । “ रयमत्तउप्पयकारेगभिंगारगकोमलगजीवं जीवगनंदी क्षोदरस चरसस्तन्निष्पन्ना वरसुरा पते सर्वेऽपि मद्यविशेषाः। मुहकविपिंगलक्खगकारंडवचक्कयायकलहंससारसमणेगस पूर्वकाले लोकप्रसिद्धा इदानीमपि शास्त्रान्तरतो लोकतो या उणगणमिदुणविभरिबाओ सदुणइअमहुरसरणादिआओ सं यथास्वरूपं वेदितव्याः । कथंभूता एते मद्यविशेषा इत्याह य. पिभित्रदरिअभमरमहकरपहकरपरिसिंतमत्तप्पयकुसुमासव-- पेण न प्रस्तावादतिशायिना एवं गन्धेन रसेन स्पर्शन च सोसम हुरगुमगुमैतगुंजतदेशगामाओ (णाणाविह गुच्छत्ति) णा युक्ताः सहिता बलहेतवो वीर्यपरिणामा येषां ते तथा बहवः णाविहगुच्छगुम्ममम्वगसोहियात्रोवावीपुक्खरिणीदीहि आसु प्रकारा जातिभेदेन येषां ते बहुप्रकाराःतथैवेति पदभिन्नक्रमेण (असुअसुणित्ति)असुणिवेसे अरम्मजालघरय(मोविचित्तत्तिवि योजनात् । तथा स्वरूपेणैव न त्वन्यादेशेन मद्यविधिना मद्यप्र. चित्तसुहकेउभूआप्रो (अभिमिति)अजितरपुष्फफलाओबाहि कारेणोपपेतास्ते मत्ताङ्गा अपि द्रुमगणा इति भावः । अन्यथा रपत्तोबणायो पत्तेहि अपुप्फेहि अच्छस्पपरिचयाओ 'साहुत्ति' दृष्टान्तयोजना न सम्यग् भवति । इति किंविशिष्टेन मद्यविधिसाहुफलामो (णिरोगकत्ति) णिरोगयामोसव्वाश्रओ अपुष्फफलस नेत्याह । अनेको व्यक्तिभेदात् बहुप्रभूतं यथा स्यात्तथाविमिछात्रो (पिभिमत्ति ) पिंडिमनाहारिमं सुगंधिसुहसुरभिमणं विधो जातिभेदान्नानाप्रकारो जातिभेदतो नानाविध इति हरं च मयागं धब्युणि मुअंतील जाव पासादीआउ ४ इति । भावः । स च केनापि कल्पपालादिना निष्पादितोऽपि संभाव्याख्या प्राग्वत् नवरं ( रतमत्ताः) सुरतोन्मादिनो ये षट्प- व्यते तत श्राह विनसया स्वभावेन तथाविधक्षेत्रादिसामदाण जीवा इत्यादि । एवमेव हि सूत्रकाराः पदैकांशग्रहणतः। ग्रीविशेषजनिते परिणतो न पुनरीश्वरादिना निष्पादित इति । "एवं जाव तहेव इच्चाश्चमश्रो सेसं जहा इत्यादि'' पदानि- तत्र पदत्रयस्य पदद्वयपदद्वयमीलनेन कर्मधारयः । सूत्रे च व्यङ्गथैरिति देशैर्दर्शितविवक्वणाय वाच्याःसूत्रे लाघवं दर्शयन्ति। स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् । ते च मद्यविधिनोपपेता न तालायत उक्तं निशीथभाष्ये वोभशाद्देशे "कत्थ देसम्गहणं, कत्थर | दिवृक्षा इवाङ्करादिषु किं तु फलादिषु । तथा चाह । फलेषु नर्णति निरवसेसाई । उक्कमकमजुत्ता, कारणवसो निरुत्ताई" पूर्णाःमद्यविधिभिरिति गम्यम् । सप्तम्यर्थे तृतीया प्राकृतत्वात् । अथात्र वृक्वाधिकारात्कल्पद्रुमस्वरूपमाह (तीसणामत्यादि) यत् विष्यन्दन्ति स्रवन्ति सामर्थ्यात्तानेवानन्तरोदितान्मद्यतस्यां समायां भरते वर्षे तत्र तत्र देशे तस्मिन् तस्मिन् प्रदेशे विधीन् क्वचिद्विगसंतीति पाठः । तत्र विकसन्तीति व्याख्येमत्तं मदस्तस्याङ्गं कारण मदिरारूपं येषु ते मत्ताङ्गा नाम द्रुम- यम् । किपुक्तं भवति । तेषां फलानि परिपाकगतमद्यविधिभिः गणाः प्राप्ताः । कीदशास्ते इत्याह । यथा ते चन्प्रनादयो म- पूर्णानि स्फुटित्वारतान् मद्यविधीन्मुञ्चन्तीति भावः। शेषं तथैव घविधयो बहुप्रकाराः । सूत्रे चैकवचनं प्राकृतत्वात् । यावच्चन्न अथ द्वितीयकल्पवृक्षजातिस्वरूपमाण्यातुमाह। प्रतिच्छन्नास्तिष्ठन्ति एवं यावद नग्ना नाम हुमगणाः प्रप्ता इति । तीसणं समाए तत्थ तत्य तहिं तहिं बहवे निगा णाम अत्र सर्वो यावच्चदान्यां सूचितो मत्ताङ्गादिद्रुमवर्णको जीवा दुमगणा पणत्ता। ता समया सो जहा सेवारगघमगकल्लसभिगमोक्तानुसारण भावनीयः । स चायं " जहा से चंदप्पभा-| मणिसिलागवरसीधुवरवारुणिसुजायपत्तपुप्फफलचोणिज्जा । कमगककरिपायकांचणिउदंकबकणिसुपइवगविट्ठरपारीचससारबहुदवजुत्तिसंजारकाससंधिमासवामेहुमेरगरिट्ठाभयुद्ध-| सकग्निंगारकरोमिसरगपरगपत्तीथालणगचबलिअअवमद Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अोसप्पिणी अभिधानराजेन्धः। योसप्पिणी दगवारगविचित्तवट्टगमणिवट्टगसुत्तिवापीणया कंचणम-| न्त्री वीणा महती सप्ततन्त्रिका सा कच्छपीनारती वीणा। रिंगणिरयणनत्तिचित्ता भायणविही य बहुप्पगारा तहेव ते भिंगा | सिगिका घjमाणवादित्रविशेषः । इति श्राविधिवृत्तौ पते क थंनूता इति । तझं हस्तपुटं ताझाः कांस्यतालाश्च प्रतीताः पतैः वि दुमगणा। अणेगबहुविहवीससा परिणयाए भायणवि सुसंप्रयुक्ताः सुष्तु अतिशयेन सम्यग्यथोक्तनीत्या प्रयुक्ताः सं. हीए उववेअफसोहिं पुस्मा विव विसंतीति । बद्धाःयद्याप हस्तपुटं न कश्चित्तूर्यविशेषः तथापि तमुत्थितशतस्यां समायां तत्रेत्यादि प्राग्वत् भृतं भरणं पूरणमित्यर्थः।। ब्दप्रतिकृतिः शब्दशब्दो बक्ष्यते । एतादृशा पातोद्यविधयस्यतत्राङ्गानि कारणानि न हि भरणक्रियाभरणीयं भाजनं वा भव- प्रकाराः निपुणं यथा जवन्ति एवं गन्धर्वसमये नाट्यसमये कुतीति तत्संपादकत्वात् । वृक्षा अपि भृताङ्गाः । प्राकृतत्वाच्च शलास्तैः स्पन्दिता व्यापारत इति नावः । पुनः किविशिष्टा . भिंगा उच्यन्ते। यथा सेवारको मरुदेशप्रसिझनामा मङ्गल्यघटः त्याह । त्रिषु आदिमध्यावसानेषु स्थानेषु करणेन क्रियया यघटको लघुर्घटः कलशो महाघटः कटकः प्रतीतः । थोक्तवादनक्रियया शुझा अवदाता न पुनरस्थानव्यापारणरूपदोकर्करी स एव सविशेषः । पादकाञ्चनिका पादधावन- षसशेनावि कलकताः तत्र त्रुटिताङ्गा अपि दुमगणास्तथैव तथा योग्या काञ्चनमयी पात्री उदको येनोदकं मुच्यते वार्ड्स- प्रकारेण नत्वन्यादृशेन । ततं वीणादिकं विततं पटहादिकं धनं नी लन्तिका यद्यपि नामकोशे करककर्करीवार्द्वानीनां न क. कांस्यतासादिकं सुषिरं वंशादिकमेतद्रूपेण सामान्यतश्चतुर्विधेन श्चिद्विशेषस्तथापीह संस्थानादिकृतो विशेषो लोकतोऽवसेय आताद्यविधिनोपपेताः शेषं प्राग्वत् इति । इति सुप्रतिष्ठकः पुष्पपात्रविशेषः पारी स्नेहनाए; चषकः सु अथ चतुर्थकल्पवृक्तस्वरूपमाह ॥ रापानपात्रं भृङ्गारः कनकासुकः शरको मदिरापात्रं पात्रीस्थले तीसेणं समाए तत्थ तत्थ तहिं तहिं बहवे दीवसिहा णाप्रसिके दकवारको जलघटः विचित्राणि विविधचित्रोपेतानि वृत्तकानि नोजनक्कणोपयोगिघृतादिपात्राणि तान्येव मणिप्रधा मं दुमगणा पम्पत्ता ? समणानसो जहा सेसं नाविसमनानि वृत्तकानि माणवृत्तकानि गुक्तिश्चन्दनाद्याधारजूता शेषा 'वि ए नवनिहिवश्णो दीविआचक्कबालविंदपभूयवादिपलित्तणाटूरकरोडिनल्लकचपलितावमददगवारग'०पीनकालोलतो विशि- हे धणिनजालिए तोमिरमद्दए कणगनिगरकुसुमिअपालिअत्त एसंप्रदायाद्वाऽवगम्याः काञ्चनमणिरत्नानां भक्तयो विच्चित्तय गवणप्पगासे कंचणमणिरयाणविमनमहरिहतवणिज्जुज्जलस्तानिः चित्रा भाजनविधयो नाजनप्रकारा बहुप्रकारा पकैकस्मिन् विधाववान्तरानेकभेदनावात् । तथैवेति पूर्ववत् । ते भृ. विचित्तदंमाहिं दीवियाहिं सहसा पन्जालिनस्सप्पिअनिताङ्गा अपि द्रुमगणा "अणेगेति" पूर्ववत् । भाजनविधिनोपपेताः | फतेअदिप्पंतविमलगहगणसमप्पहाहिं वितिपरकरमूरपफौः पूर्णा इव विकसन्ति । अयमर्थस्तेषां भाजनविधयः फ- सरिउज्जो अविसिाहिं जाबुज्जलपहसिअभिरामाहिं सोनानीव शोभन्ते । अथवा श्वशब्दस्य जिन्नक्रमेण योजना तेन जमाणाहिं मोजमाणं तहेव ते दीवसिहा वि दुमगणा अणेफलैः पूर्णा भाजन विधिना वोपपन्ना दृश्यन्ते इति ॥ गबहुविविहवीससा परिणयाए उज्जोअविहीए उववेत्रा श्रथ तृतीयकल्पवृकस्वरूपमाह ॥ तीसेणं समाए तत्थ तत्थ तहिं तहिं बहवे तुडिअंगा फोहिं पुस्मा कुसविकुसं जाव चिट्ठतित्ति ॥ णामं दुमगणा पामत्ता । समणानसो जहा से आलिंगमुई तस्यां समायां दीपशिखा श्व दीपशिखास्तकार्यकारित्वात् । अन्यथा व्याघातकामधेन तत्राग्नेरभावात् दीपशिखानामप्यसंगपणवपमहदद्दरगकरडिडिमिमन्नाहोरंजकरिणयखरमुहि भवात् । योजना प्राग्वत् । यथा तत्संध्यारूपो विरुक उपरि समुगुदसंखिअपिरलीवञ्चकपरिवाइणिवंसवोघोस विवंचिमह - मयवर्तित्वेन मन्दो रागस्तत्समये तदवसरे नवनिधिपतेश्चक्रवर्तितिकच्चविनिरिया तलतालकंसतालसुसंपनत्ता। आतोजवि न श्व-हस्वा दीपा दीपिकास्तासांचकवासं सर्वतः परिमएमनहीनिनणगंधचसमयकुसलेहिं फंदिया तिट्ठाणकरणसुका रूपं वृन्दं कारगित्याह । प्रनूता नूयस्यः स्थूरा शिववर्तीया दशा यस्य तत्तथा । पर्याप्तः परिपूर्णः स्नेहस्तैबादिरूपो यस्य तत्तथा। तहव ते तुमिअंगा वि दुमगणा | अणेगबहुविहवाससा परि धणिअमित्यर्थमुज्वाबितमत एव तिमिरमर्दकम् । पुनः किं विगयाए ततविततघणमुसिराए आतोज्जविहीए नववा शिष्टमित्याह । कनकनिकरः सुवर्णराशिः कुसुमितं च तत् पारिजाफोहिं पुस्मा विव विसंटेति कुसचिकुसं जाव चिटुंतीति ।। तकवनं च पुपितसुरतरुविशेषवनं ततो द्वन्द्वस्तत्प्रकाशः प्रभा यथा ते पालिङ्गयो नाम यो वादकेन मुरज आसिङ्गन्ध वाद्यते हदि आकारो यस्य तत्तथा । एतावता समुदायविशेषणमुक्तमिदानी धृत्वा वाद्यते इत्यर्थः मृदङ्गोलघुमर्दनः पणवो नारामपटहोल. समुदायसमुदायिनोः कथंचित् भेद इति ण्यापयन समुदायविघुपटहो वा पटहः स्पष्टः दर्दरकः यस्य चतुर्निश्चरणैरवस्थानं शेषणमेव विवक्षुः समुदायिविशेषणान्याह । लोकेऽपि वक्तारो भुवि सगाधो चौवनद्धोवाद्यविशेषः। करटी सुप्रसिद्धा। मिमः भवन्ति । यदि जन्ययात्रा महर्डिकजनैराकीणेति (कंचणेत्यादि) प्रथमप्रस्तावनासूचकः पणवविशेषः भम्भा ढक्का निःस्वनानि कानिः शोभमानमिति संबन्धः। कथंनूताभिः दीपिकाभिरत पाह इति संप्रदायः होरम्भा महाढक्का महानिःस्वनानीन्यर्थः । कणि- काञ्चनमणिरत्नमालाविमलाः स्वानाविकागन्तुकमलरहितामता काचिद्वीणा खरमुखी काहबी मुकुन्दो मुरजविशेषो योऽ. हार्दा महोत्सवार्तः । तपनीयं सुवर्णविशेषस्तेनोज्यता दीप्ताः तिमीनं प्रायो वाद्यते । शक्विका लघुशङ्खरूपा तस्याः स्वरो म- विचित्रवर्णा दरामा यासां तास्तथा तानिः सहसा एककालं प्रनाक तीक्ष्णो भवति न तु शस्येवातिगम्भीर पिरलीवश्च- ज्वासिताश्च ता उत्सर्पिताश्च वर्तुत्सर्पणेन । तथा स्निग्धं मनोहर कौतृणरूपवाद्यविशेषो। परिवादिन। सप्ततन्त्री विणा घंशः प्रती- तेजो यासा तास्तथा दीप्यमानो रजन्यां भास्वान् विमलोऽत्र तः वेणुर्वेशविशेषः । सुघोषा वीणाविशेषः विपञ्चीतित- धूल्यायपगमेन ग्रहगणो ग्रहसमूहस्तेन समा प्रना यासां ता Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५) श्रभिधानराजेन्द्रः । प्रोसप्पिणी स्ताभिः । ततः पदद्वयपद्यमीलनेन कर्मधारयः । तथा वितिमिराः करा यस्यासौ वितिमिरकरो निरन्धकारकिरणः स चासो सूरतस्य पाउन प्रसरस्तेन (चिलि प्रसृत उद्योतः आदि ति) देशीयपदमेतत् । दीप्यमानाभिरित्यर्थः । ज्वाला एव प्रखितं हासस्तेवाजिरामा रमणीयास्ताभिः भएप शोभमानम् । तथैव ते दीपशिखा अपि दुमगणा अनेकवहुवि विधविस्रसा परिणतेनोद्योतविधिनोपपेताः । यथा दीपशिखा रात्रौ गृहान्तरुद्योतन्ते दिवा गृहादौ तदेते दुमा इत्याशयः । एवं च वक्ष्यमाणयोतिषिकायो विशेषः कृतोऽपि नवतीति शेषं प्राग्यत् ॥ अथ पञ्चमकल्पवृकस्वरूपमाह । तीसे णं समाए तत्थ २ बहवे जोइसिया णामं दुमगला परचा | समणाउसो जहा से अवसरसूरमंझ पर्यंतडका सहस्सादिष्यंतार्थ जामिन मिश्रा तो तत्ततवणिज्ज किंसुप्रासोत्र्य जपाकुसुमवियसि पुंजमल किरण जयाहंगुलरपणि गरवारेगरुना वहेप तेजोऽसि विमला अगवदुविविहवीससा परिया य उज्जो विहीए उववेया सुहसेसा मंदलेसा मंदयव. लेसा कूमा व डिआ अचोसमोगादाहिं साहि साए पढ़ाए तिप्पएसे सब समताओ हासतोअति पनासंति कुसुमं जाव चिट्ठतीति । अत्र व्याख्या । तस्यां समायां तत्थेत्यादि पूर्ववत् । ज्योतिषिका नाम दुमगणाः प्रकृता इत्यन्वययोजना । अन्वर्थस्त्वयं ज्योतीं ज्योतिका देवास्त एव ज्योतिषिकाः । अत्र मन्तावरणस्वाइक्प्रत्ययः। उणादयो व्युत्पन्नानि नामानि इत्यव्युत्पत्तिपक्काश्रयणाकि सप्रत्ययान्तत्वानावादिकारलोपानावश्च संभाव्यते । जीवाभिगमवृत्ती ज्योतिषिका इति सरकारदर्शनात्तोषि प्रधानाप्रधानयोः प्रधानस्यैव ग्रहणं तेमात्र, ज्योतिषिकशब्देन सूर्यो गृह्यते तत्सदृशप्रकाशकारित्वने वृक्का श्राप ज्योतिषिकाः । ज्योति दिनेशयोरिति वचनात्। ज्योतिःशब्दः सूर्याको व द्विवाचक या स्वार्थादिकं किं विशिष्टा इत्याह । तथा ते अचिरेत्यादिना हुतवह इत्यन्तेन संबन्धः । श्रचिरोशतं शरत्सूर्यमएमलं यथा वा पतशुल्कासहस्रं प्रसिद्धं यथा वा दीप्यमाना विद्युत् यथा वा उद्गता ज्वाला यस्य स उपवस्तथा निधूम धूमरहितो ज्वहितो दोसो यो तपो दहनः सूत्रे पदोपन्यासव्यत्ययः प्राकृतत्वात् । ततः सर्वेषामेपां । एते च कथंभूता इत्याह । निततरमग्निसंयोगेन यतं शोधितं तप्तं च तपनीयं ये च किंशुकाशोकजपाकुसुमानां विकसितानां - ये च मणिरत्नकिरणाः । यश्च जात्यहिङ्गुल' पुजा कनिकरस्त ज्योतिरेकेणातिशयेन यथायोग्यं यतः प्रभया व रूपं स्वरूपं येषां ते तथा । ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः । सचैव ते ज्योतिषिका अपि मगणा अनेकविधविपरि नोयोधिनोपेता यान्तीति नदि सूर्यम एक लादिव से प्रकाशकास्तर्नियम स्वादिमा अनियर सुखश्या सुखकारणांपा स्तथामन्द लेश्यस्तथा मन्दातपस्य जनितप्रकाशस्य लेश्या येषां ते तथा सूर्यनाद्यातपस्य तेजो यथा दुःसहं न तथा तेषामित्यर्थः । ओसप्पिणी तथा कूटानीय पर्वतादाद्वासीय स्थानस्थिताः स्थिरा ति समय क्षेत्र बहिर्वती ज्योतिष्का श्व तेऽवनासयन्तीति ज्ञावः । तथा अन्योऽन्यं परस्परं समवगाढाभिर्लेश्याभिः सहिता इति शेषः किमुक्तं नवति । यत्र विवक्तिज्योतिषिकाण्यतरुलेश्या अवगाढा तत्रान्यस्य लेश्या अवगाढा यत्रान्यतरुतल लेश्या श्रवगाढा तत्र चिवतितरुलेश्या अवगाढा इति "साए पजाए इत्यादि पभाए संतीत्यन्तं" सूत्रे विजयद्वारतोरणसंवन्धिर लकर एक कचर्णने व्याख्यातमिति । कुशविकुशेत्यादि पूर्ववत् । एषां च बहुव्यापी दीपशिखाप्रकाशापेक्षया प्रकाशो भवतीति पूर्वेच्यो विशेषः । अथ षष्टकल्पवृकस्वरूपमाह । तीसेणं समाए तत्य तस्थ बढ़वे चिरंगा शामं दुमगणा पत्ता | समणाउसो जहा से पेच्छाघरे विचित्ते रपे वरकुसुमदाममा लुजले जातमुकफजोवयारकलिए विरल्लिअविचित्तमल्ल सिरिसमुद्दप्पगन्भे गतिमवेष्टिमसंघाइमेण मलेण देवसिपिविभागरणं सवओो चैव समव पविरललवंत विप्पट्टपंचवणेहिं कुसुमदामेहि सोभमाणे वामाले कवग्गए थे दिप्यमाणे तत्र ते चि गंगा वि तुमगणा अगबहुविविधवीससा परिणामविहीए जवा कुसविकुसं जाव चितीति । तस्यां समायामित्यादि प्राग्वत् नवरं 'चित्संगा' इति चित्रस्यानेकप्रकारस्य विवकायाः प्राधान्यान्माल्यस्याङ्गं करणं तत्संपादकत्वात् वृक्का अपि चित्राङ्गाः । यथा तत्येागृहं विचित्रं नानाचित्रोतम एव रम्यं रमयति णां मनांसि इति बाहुलकारकर्त रियमस्य किं विशिष्टमित्याह वरकुसुमदाम्नां मालाः श्रेणयस्ताभिरुज्ज्वलं देदीप्यमानत्वात् । तथा भास्वान् विकसिततया मनोहरतया च देदीप्यमानो मुक्तो यः पुञ्जोपचारस्तेन कसित तथा विरक्षितानि तु विस्तारे इत्यस्य सोमस्तक तत् विरात्नेन विरहादेशे कृते प्रत्यये च विरतानि चिर श्रीकृतानि विचित्राणि यानि माध्यस्ति प्रथितपुष्पमालास्तेषां क श्री समुदयः शोनापकर्षस्तेन प्रमतीय परिपुष्टम तथा ग्रन्थितं यत्सूत्रेण ग्रन्थितं वेष्टितं यतः पुष्पमुकुटमिन्दोरुपर्युपरिखिराकृत्या मालास्थानं पूरितं लघुत्रेषु पुष्प निवेशेन पूर्वते संघातिमं यत्पुष्पं पुष्पेण परस्परं नालप्रवेशेन संयोज्यते ततः समाहारद्वन्द्वे पर्वविधेनाका परमदक्षेण क लावता विनागरचितेन विनक्तिपूर्वक कृत्येन यद्यत्र योग्यं ग्रन्थिवादित सर्वतः सम्प्रि स्वमानैस्तत्र प्रविरत्वं मनागप्य संहतत्वमात्रेण भवति ततो विप्रप्रतिपादनायाः पततः क मधारयः कुसुमदामनिः शोभमानं वनमाला वन्दनमाला वन्दनमालाकृता अग्रभागे यस्य तत्तथा । तथानृतं सद्दीप्यमानं तथैव चित्राङ्गा अपि नाम द्रुमगणाः । अनेकबहुविविधविन्नसा परिण तेन माल्य विधिनोपपेताः "कुसविकुसविसुकमूलादि " प्राग्वत् । अथ सप्तमकल्पवृकस्वरूपमाह । तीसेणं समाए तत्व तत्थ बहने चित्तरमा णाम दुमगणा पणत्ता समणाउसो जहा से सुगंधचरकमलसालि तंदुल विसिणिरुवदुकरके सारयपयगुलख ममहुमेलिए अरसे परमरमणे होज्जा उत्तमत्रगंधपंते । वा रणो चक्रवट्टि Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) श्रोसप्पिणी अभिधानराजेन्छः । अोसप्पिणी स्स होज णिनणेहिं सूयपुरिसेहिं संनिए चउकप्पसेअसिते ते चित्ररसा श्रपि द्रुमगणा अनेकबहुविविधविनसापरिणतेन इव उदणे कामसालिणिव्यत्तिए विपके सवप्फमिउविसय भोजनविधिनोपपेताः इत्यादि प्राग्वत्। सगलसित्ते । अणेगसानणगसंजुत्ते अहवा पमिपुरमदन्नुव अथाष्टमकल्पवृक्षस्वरूपमाह । क्खमे सुसक्खए वप्मगंधरसफरिसजुत्तबलविरिपरिणामे तीसेणं समाए तत्य तत्य बहवे मणिअंगाणामं दुमगणा इंदिअबलपुष्टिविवरणे खुप्पिवासमहणे पहाणगुलका पम्मत्ता । समणाउसो जहा से हारकहारवेट्टणयमनमकुंमदिअखंममच्छंडिघओवणीएव्वमोअगेसएहसमिइगन्ने हवे लवासुत्तगहेमजालमणिजानकागजालगमृत्तनचिकमगज परमइट्ठगसंजुत्ते तहेव ते चित्तरसा वि दुगमणा । खुड्डयएकावलिकंठसुत्तगमगरिअउरत्यगेविजसोणिसुत्तगअणेगबहुविविहविस्मसा परिणयाए भोअणविहीए न चूलामणिकएगतिनगपुप्फगसिद्धत्थयकरावालिससिसूरउववेत्रा कुसविकुसं जाव चिटुंतीति ।। सहचकगतलभंगयतुमिश्र हत्थमालगहरिसयकेयूरवलयपतस्यां समायामित्यादियोजना प्राग्वत् । नवरं चित्रो मधुरा संबअंगुलिज्जगवनक्खदीणारमालियाकंचिमहलकलावपदिभेदभिन्नत्वेनानेकप्रकार प्रास्वादयिनृणामाश्चर्यकारी वा यरगपारिहेरगपायजालघंटिआखिखिणिरयणीरुजालखुडिरसो येषां ते तथा । यथा तत्परमान्नपायसंभवेदिति संबन्धः । अवरणेऊरचलणमानिआ कणगणिगलमानिआ कंचकिंविशिष्टमिह ये सुगन्धाः प्रवरगन्धोपेताः समासान्तविधे णमणिरयणनत्तिचित्ता तहेव ते मणिभंगा वि दुमगणा रनित्यत्वादत्रेदं रूपस्य समासान्तस्याभावो यथा सुरभिगन्धेन वारिणेति बराः प्रधाना दोषरहिताः क्षेत्रकालादिसामग्रीसंपा अणेगा जाव नूसणविहीए उववेआ जाव चिटुंतीति । दितात्मलाभा इति भावः । कलमशाले शालिविशेषस्य तण्डु- तस्यां समायामित्यादि प्राग्वत् नवरं मणिमयानि प्रानरणाला निस्तुपितकणाः । यश्च विशिष्टं विशिष्टगवादिसंबन्धिनिरु- न्याधागधेयोपचारान्मणीनि तान्यव अङ्गानि अवयवा येषां ते पहतमिति पाकादिभिरविनाशितं दुग्धं तैराद्धं पक्कं परमक- मण्या भूषणसंपादका इत्यर्थः । यथा ते हारोऽष्टादशसरिका लमशालिभिः परमदुग्धेन च यथोचितमात्रेण केन निष्पादि- अर्धहारो नवसरिकः । वेष्टनकः कर्णाभरणविशेषः मुकुटकुएमतमित्यर्थः । तथा शारदं घृतं गुडखएडं मधु वा शर्करा परप- ले व्यक्ते वासुत्तगं हेमजावं सच्चिसुवर्णालङ्कार विशेषः । एवं र्यायं मेलितं यत्र तत्तथा तान्तस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् । मणिजालककनकजालके अपि परं कनकजाकस्य हेमजालतो सुखादिदर्शनाद्वा । अत पवातिरसमुत्तमवर्णगन्धवत् । यथा | भेदो रूढिगम्यः । सूत्रं कण्ठैककककृतं सुवर्णसूत्रम् । उचितकवा रामश्चक्रवर्तिन श्रोदन इव भवेदित्यर्थः । निपुणैः सूपपुरुषैः टकानि योग्यवनयानि कुडकमङ्गलीयकविशेषः । एकावलीच सूपकारैः संशितो निष्पादितः चत्वारः कल्पा यत्र स चासो विचित्रमणिककृता एकसूत्रिका च कएमसूत्रं प्रसिहं मकरिकासेकश्च चतुष्कल्पसेकस्तेन सिक्कः रसवती शास्त्राभिज्ञा हिश्रो- मकराकार आभरणविशेषः । उरस्थं हृदयाजरणाशेषः । वेय दनेषु सौकुमार्योत्पादनाय सेकविषयांश्चतुरः कल्पान् विद- ग्रीवानरण विशेषः । अत्र सामान्यतो विवश्या त्रैवेयमिति जी धति । स च श्रोदनः किंविशिष्ट इत्याह । कलमशालिनिर्व- वानिगमवृत्त्यनुसारेणोक्तम् । अन्यथा हेमव्याकरणदावलङ्कारतितः कलमशालिमय इत्यर्थः । विपक्को विशिष्टपरिपाकमा- विवक्तायां वयकमिति स्यात् । पवमन्यत्रापि तत्तवृत्त्यनुसारण गतः सबाष्पानि बाष्पं मुञ्चन्ति । मृदृनि कोमलानि चतुष्कल्प- झेयं श्रोणिसूत्रकं कटिसूत्रकं चूमामणिनार्म सकलपरत्नसारो सेकादिना परिकम्मितत्वात् विशदानि सर्वथा तुषादिमलाप- नरामरेन्डमालिस्थायी । अमङ्गलमयप्रमुखदोषहृत् परममङ्गहगमात् । सकलानि पूर्णानि सिक्तानि यत्र स तथा । अनेकानि भृत् बालरणविशेषः । कनकतिलक ललाटाभरणं पुष्पकं पुप्पाशालनकानि पुष्पफलप्रभृतीनि प्रसिद्धानि तैः संयुक्तः अथवा कृतिलबाटाजरणं । सिकार्थकं सर्वपप्रमाणस्वर्णकणरचितसुवमोदक इव भवेदिति किं विशिष्ट इत्याह । परिपूर्णानि सम- र्णमणिमयं । कर्णपाली कर्णोपरितनविभागभूषणविशेषः। शशिस्तानि द्रव्याणि एलाप्रभृतीनि उपस्कृतानि नियुक्तानि यत्र त- सूर्यवृषनाः स्वर्णमयचन्द्रिकादिरूपा आनरण विशेषाः । चक्रकं तथा निष्टान्तस्य परामपातः सुखादिदर्शनात् । सुसंस्कृतो चक्राकारः शिरोजूषणविशेषः तनङ्गकं त्रुटिकानि च बाहानयथोक्तमात्राग्निपरितापादिना परमसंस्कारमुपनीतः वर्णगन्ध- रणानि अनयोर्विशेषस्तु आकारकृतः । हस्तमालकं हर्षकम रसस्पर्शाः सामादतिशायिनस्तैर्युक्ता बलवीर्यहतवश्व परि- । केयूरमङ्गदम् । पूर्वस्माचाकृतिकृतो विशेषः । वलयं कङ्कणम् ।प्रायणामा प्रायतिकाले यस्य स तथा । अतिशायिभिर्वर्णादिभिः म्ब मुंबनकम। अङ्गबीयकं मुफ्रिकावलकं रूढिगम्यम् । दीनारमा बलवीयहेतुपरिणामश्चोपेता इति भावः । तत्र बलं शारीरं विका सूर्यमालिका दीनाराद्याकृतिमाणिकमाझा । काञ्ची मेख. धीर्यमान्तरोत्साहः । तथा इन्द्रियाणां चक्षुरादीनां बलं स्वस्व. ला। कापा. स्त्रीकट्यानरणाविशेषाः विशेषश्चैषां रूढिगम्यः । विषयग्रहणपाटवं तस्य पुष्टिरतिशायी पोषस्तां वर्धयति । प्रतरकं वृत्तप्रतल आनरणविशेषः । पारिहार्य वक्षयविशेषः। नन्द्यादित्वादनः । तथा क्षुत्पिपासामथन इति व्यक्तम् । तथा पादेषु जालाकृतयो घण्टिका घोरेकाः। किङ्किण्यः कृयटिप्रधानः कथितो निष्पक्को गुडस्तादृशं वा खण्डं तादशी वा म- काः। रत्नोरुजावं रत्नमयम्। जङ्घयोः प्रलम्बमान संकलकं संभास्यण्डी खण्डशर्करा तादृशं वा घृतं तान्युपनीतानि योजि- व्यते। कुडिका वराणि नपुराणि व्यक्तानि चरणमालिका संस्थानतानि यस्मिन तथा निष्टान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात् । विशेषकृतपादाजरणम(लोके पागमा इति प्रसिकम् ) कनकनितथा श्लपणा सूक्ष्मा निर्वस्त्रगालितत्वेन समिता गोधूमचूर्णता गमः निगमाकारः पादाभरण विशेषः सौवर्णः (सनाव्यन्ते च भस्तन्मूलदलनिष्पन्न इति भावः । परम इष्टकमत्यन्तवल्लभं कमला इति प्रसिद्धाः) एतेषां मालिका श्रेणिः । अत्र च व्यातदुपयोगिद्रव्यं तेन संयुक्त एतद्व्यक्तिः संप्रदायगम्या । तथैव ख्यातव्यतिरिक्तं नूषणस्वरूपं बोकतो गम्यम् । ईत्यादिका नूष Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०७) श्रोसप्पिणी अनिधानराजेन्द्रः। ओसप्पिणी णविधयो मएमनप्रकाराः बहुप्रकाराः अवान्तरभेदात् । ते अथ दशमकल्पवृक्तस्वरूपमाह ।। च किं विशिष्टा इत्याह काञ्चनमणिरत्नन्नक्तिचित्रा ति व्यक्त- तीसेणं समाए तत्थ तत्थ बहवे अणिगाणा णामं दुपगम । तथैव तया प्रकारेण नृषणविधिनोपपेतास्ते मएयङ्गा णा पत्ता । समणानसो जहा से अश्णगखोमतणुलकंइति तात्पर्यार्थः । शेषं प्राग्वत् । अथ नवमकल्पवृक्तस्वरूपमाह। बझदुग़लकौसेजकालमिगपट्टअंसुअचीणअंसुअपट्टामा - तीसे एं समाए तत्थ तत्थ बहवे गेहागारा णामं दुमगणा भरणचित्तसिलक्खणगकन्वाणगनिंगणीलकजलवहुवार - पएणता । समणानसो जहा से पागारहालयचरियदार तपीअसुकिसक्खयमिगलोमं हेमप्परसग अवरुत्तरसिंधुउगोपुरपासायागासतलमंडलएगसालगविसालगतिसालग - सभदविलवंगकलिंगतक्षिणतंतुममयत्तिचित्तवत्थ हिवाबदुप्पचउसालगगब्लघरमोहणघरवलभीहरचित्तमालयघरजत्ति- गारा वरपट्टाग्गया बएणरागकलिया तहेव ते अएगणावि घरवदृतंसचउरंसणंदिआवत्तमंद्विआ पंडुतरतलमुंहमालह-- दुमगणा। अणेगबहुविविहवीससा परिणयाए वत्थविहीए म्मिश्र अहवा णं धवनहरअच्छमागहविन्भमसेनकसेन उववेत्रा कुसविकुसं जाव चिट्ठति ॥ संविअकूमागारसुविहिकोट्ठगणेगधरसरणलेणावणा घाक्ययोजना पूर्ववत् । नामार्थस्तु विचित्रवस्त्रदायित्वात् । न विद्यन्ते नग्नास्तात्कालीनजना येन्यस्ते अनग्नाः । यच्च प्राविडंगजालविंदणिजजूहअपवरगचंदसालिया रूवविभत्ति क्तनेषु बहुषु जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रादर्शेषु (आयाणा इति) दृश्यकहिआ भवणविही बहुविकप्पा तहेव ते गेहागारा विदु- ते स लिपिप्रमादः संभाव्यते । प्रस्तुतसूत्रालापकविस्तारोपदर्शमगणा अणेगबहुविविहवीससा परिणयाए सुहारुहणसु- के जीवाभिगमे पतादृशपाठस्यादर्शनात् । प्राजिनकं चर्ममयं होत्ताराए सुहणिक्खमणपवेसाए दद्दरसोपाणपंतिकलिआए वस्त्रं । कौम सामान्यतः कासिकं । अतसीमयमित्यन्ये । तनुं पइरिकसुहविहाराए मणोणुकूलाए जवणविहीए उववेया शरीरं सुस्वस्पर्शतया बाति अनुगृएहातीति तनुलं तनुसुखादिक म्बलः प्रतीतः । अणुअकंबल इति पाठे तु तनुकः सूदमोर्णाकजाव चिट्ठतित्ति ॥ म्बलः । दुकूलं गौडविषयविशिष्टकासिकं अथवा । कूलो तस्यां समायामित्यादि प्राग्वत् । गेहाकारानाम दुमगणाः प्र- वृक्षविशेषस्तस्य वल्कं गृहीत्वोदूखले जलेन सह कुदृयित्वा बुसन्ताः । यथा ते प्राकारो वप्रः अट्टाहकः प्राकारो परिवाश्रय- सीकृत्य च वीयते यत्तहुकूलं कौशयं च सरितन्तु निष्पन्न । विशेषः चरिका नगरप्रकारान्तरालेष्टहस्तप्रमाणो मार्गद्वारं व्यक्तं कालमृगपट्टः कालमृगचर्म । अंशुकचीनांशुकानि नानादेशेषु गापुरं पुरघारं प्रासादो नरेन्जाश्रयः आकाशतवं कूटाद्याच्चि प्रसिद्धानि । कूलविशेषणरूपाणि । पूर्वोक्तस्येव वस्त्रस्य याअकुट्टिम मरारूपः छायाद्यर्थ पटादिमय आश्रयषिशेषः । एक न्यन्यन्तरहारिभिनिष्पाद्यन्ते सूक्ष्मतराणि भवन्ति तानि चीनांशाबकद्विशालकत्रिशालकचतुःशालकादीनि नवनानि । नवरं शुकानि वा पट्टानि पट्टसूत्रनिष्पन्नानि आभरणैश्चित्राणि विचित्रा गर्भगृहं सर्वतो वर्ति गृहान्तरमन्यन्तरगृहमित्यर्थः । अन्यथोत्त णि आनरणचित्राणि । श्लणानि सूदमतन्तुनिष्पन्नानि कल्यारत्र वक्ष्यमाणेनावरकेण पौनरुक्त्यं स्यात् मोहनगृहं सरतगृह एकानि परमल कणोपेतानि । जङ्गः कीटविशेषः स श्व नीलम् ॥ बलभीच्छदिराधारस्तत्प्रधानं गृहं वृत्तं वर्तुलाकारम् । त्यत्रं त्रि तथा कज्जलवर्ण बहुवर्ण विचित्रवर्ण रक्तपीतवसंस्कृतं परिकोणं चतुरनं चतुष्कोणं नन्द्यावर्तः प्रासादविशेषस्तद्वत्संस्थि कर्मितं यन्मृगसोमहेम च तदात्मकं कनकरसच्चरितत्वादिधर्मतानि नन्द्यावर्ताकाराणि गृहाणि पश्चाद् द्वन्द्वः पाएमुरतलं शुकामयतलं मुएममालहर्म्यम् उपर्यनाच्छादित शिखरादिनागरहि योगात् ॥ रद्वका कम्बलविशेषो जीणादि पश्चाद् द्वन्तः । पते च तं हर्म्यम् । अथवा णमिति प्राग्वत् धवलं गृहं सौधम् श्रर्फमा कथंनूता इत्याह । अपरः पश्चिमदेशः उत्तर उत्तरदेशः सिन्धुगधविचमाणि गृहविशेषाः । शैक्षसंस्थितानि पर्वताकाराणि गृ देशविशेषः।(उसन्नात्तसंप्रदायगम्यं । विम्वङ्गकलिला देशधिहाणि अशैलसंस्थितानि तथैव कुटाकारण शिखराकृत्याद्या शेषाः ॥ एतेषां संबन्धिनस्तत्र देशोत्पन्नत्वेन ये ते तथा । तलिनि सुविधिकोष्ठकानि सुसूत्राएयपूर्वकरचितोपरितनजागविशे नतन्तवः सूक्ष्मतन्तवातन्मया या नक्तयो विच्छित्सयो विशिष्टरचपाणि अनेकानि गृहाणि सामान्यतः शरणानि तृणमयानि लय नास्ताभिश्चित्राः इत्यादिका वस्त्रविधयो बहुप्रकारा नवेयुर्वरनानि पर्वतनिकुट्टितगृहाणि । सामान्यतः शरणानि आपणा पत्तनं तत्सत्प्रसिझपत्तनं तस्मापुसता विनिर्गता विविधैर्वर्णविधिहवाः । इत्यादिकाः भवनविधयो बास्तुप्रकारा बहुविकल्पा इ धेरागैर्मनिष्ठरागादिभिः कवितास्तथैव ते नग्नका अपि तुमत्यन्वयः । कथं नूता इत्याह । विटङ्कः कपातपाली जानवृन्दो गवा-॥ गणाः। अनेकबहुविविधविरसा परिणतत्वेन वस्त्रविधिनोपपेता कसमूहः । नियूहः द्वारोपरितनपार्श्वविनिर्गतदारु अपवरका प्र. इत्यादि । अत्र चाधिकारे जीवानिगमसूत्रादर्श क्वचित २ किंतीतः । चन्द्रशालिका शिरोगृहम् । एवं रूपानिर्विनक्तीभिः क चिदधिकपदमपि दृश्यते । तत्तु वृत्ती व्याख्यातं स्वयं पर्यासोथिताः । तथैव भवनविधिनोपपेतास्ते गेहाकारा अपि दुमगणा च्यमानमपि च नार्थप्रदमिति न लिखितम् ॥ तेन तत्संप्रदायादस्तिष्ठन्तीति । संबन्धः किं विशिष्टेन विधिनेत्याह । सुखेनारोह वगन्तव्यं तमन्तरेण सम्यक् पाशुहेरपि कर्तुमशक्यत्वादिति णमुर्ध्वगमनं सुखेनावतारोऽधस्तादवतरणं यस्य स तथा । सु उक्तं सुषमसुषमायां कल्पद्रुमस्वरूपम् ॥ खेन निष्क्रमणं निर्गमः प्रवेशश्च यत्र स तथा । कथमुक्तं स्व (६)अथ तत्कालनाविमनुजस्वरूपं पृच्चन्नाह ॥ रूपमित्याह । दर्दरसोपानपतिकलितेन अत्र हेतौ तृतीया ।। तीसे णं भंते ! समाए जरहे वासे मणआणं केरिसए । तथा प्रतिरिक्ते एकान्ते सुखो विहारोऽवस्थानशयनादिरूपो यत्रा आयारभावपमायार पएणत गाय आयारभावपमोयारे पाणचे । गोयमा ? तेणं महुआ सुप्पस तथा । मनोऽनुकूलेनेति व्यक्तं शेषं प्राग्वत् ।। शहिअकुम्मचारुचलणा जाव लक्खणवंजणगुणोपवेआ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) ओसप्पिणी अनिधानराजेन्डः। योसप्पिणी मुजायसुविन्नत्तसंगर्यगा पासादीश्रा जाव पडिरूवा। मिअचावरुसकिएहब्नराइसंग्अिसंगयाययसुजायतणतस्यां समायां भदन्त ! भरतवर्षे मनुजानां प्रक्रमादयुग्मिनां किसिणणिद्धमा अवीणपमाणजुत्तसवणा सुस्सवणा कीदृशक आकारभावप्रत्यवतारः प्रज्ञप्तः । भगवानाह गौतम! पीणमंसकत्सकपोलदेसजागा णिव्वणसमलट्ठमट्ठचंदफसमते मनुजाः सुप्रतिष्ठिताः सत्प्रतिष्ठानवन्तः संगतनिवेशा इत्यर्थः । कूर्मवत् कच्छपवत् उन्नतत्वेन चारवश्चरणा येषां ते णिनाडा मुवइयमिपुरमसोमवयाणा घणणिविमुबलतथा ननु मानवा मौलितो वा देवाश्चरणतः पुनरिति कविस- क्खणुमाकूमागारणिनपिमिअगा सिए च्छत्तागारुत्तमंगमयान्मनुजजन्मिनां युग्मिनां पादादारभ्य वर्णनं कथं युक्तिम- देसा दाममपुप्फप्पगासतवणिज्जसरिमणिम्मलसजाय-- दित्युच्यते । वरेण्यपुण्यप्रकृतिकत्वेन ते देवत्वेन वाभिमता केसंतकसभूमी सामलीवोडघणणिचित्रा छोमिअमिनविइति न कदाचिदनुपपत्तिरिति। अत्र यावच्छब्दसंग्राह्य "मुद्धसिरया" इत्यन्तं जीवाभिगमादिप्रसिद्धं सूत्रं चैतत् । सयपसत्यसुहमलक्खणसुगंधसुंदरनुअमोअगाभंगणीलक ज्जबुज्जनपहिडभमरगणणिकणिकुरुंवाणिचिअपयाहिणावरत्तुप्पनपत्तमउअसुकुमालकोमझतला गणगरमगरसाग त्तमुफसिरा॥ रचकंकहरंकलक्खणकिअचक्षणा अणुपुव्वसुसाहयंगुली अत्र व्याख्या । रक्तं लोहितमुत्पलपत्रवन्मदुकं मार्दवगुणोआ। नामयतणुतंबणिकणक्खा संविअसुसिलिगृढगुप्फा पेतमकर्कशमित्यर्थः । तचासुकुमारमपि संभवति । यथा एणीकुरुविंदवत्तवट्टापव्यजंघा समुग्गनिमग्गगूढजाणू ग घृष्टमृष्टपाषाणप्रतिमा । तत आह । सुकुमारज्योऽपि शिरीषकु समादियोऽपि कोमलं सुकुमाझं तलं पादतलं येषां ते तथा यसमणसुजायसबिभोरू वरवारणमत्ततुद्वविक्कमविमन्ना सि नगो गिरिः नगरमकरसागरचक्राणि स्पष्टानि अङ्कधरश्चन्छः अगई पमुश्व रतुरगसीहवरवट्टिअकडी वरतुरगसुजायगु अस्तस्यैव बाचनं यल्लोके मृगादिव्यपदेशं लभते । एवं रूपैजमदेसा आइपमहनव्व निरुवझेवा साहयसोणंदमुसलद- सक्वणैरुक्तवस्त्वाकारपरिणताभिः रेखाभिरङ्किताइचलना येषां प्पणाणिगरिअवरकणगउरुसरिसवरवइरवनिअमज्का ऊस ते तथा । पूर्वस्या अनुबघव इति गम्यते अनुपूर्वाः किमुक्तं ज वति । पूर्वस्या उत्तरोत्तरा नखं नखेन हीनाः"णहणहेणहीना" विहगमुजापवीणकुच्ची ऊसोअरा सुष्करणा गंगावत्तपया शति सामुखिकशास्त्रवचनात् । अथवा आनुपूर्येण परिपाट्याहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुणवाहिअअकोसायंतप वर्धमाना हीयमाना वा इति गम्यते । सुसंहता अबिरला अङ्गख्यः जमगंलीरविअमणाना उज्जुअसमसहिअजच्चताणुकसिण- पादानावयवा येषां ते तथा । अत्रानुपूयेति विशेषणात् पादाङ्गसिणिचआदेज्जलमहसूमालमनअरमणिजरोमराई संरणय- लीरहणं तासामेच नखं नखेन हीनत्वात् । उन्नता मध्ये तुङ्गापासा संगयपासा सुंदरपासा सुजायपासा मिअमाइअपीणर स्तनवः प्रतलास्ताम्रा रक्ताः स्निग्धाः स्निग्धकान्तिमन्नखाः पा दगता इति सामर्थ्य वन्यम् । तर्णनाधिकारात् येषां ते तथा। अपासा अकरमुअकण गरुअगणिम्मलमुजायणिरुवहय णक्खेत्यत्र द्वित्वं सेवादित्वात् । संस्थितौ सम्यक् स्वरूपप्रमा देहधारी पसत्थवत्तीसमक्खणधरा कणगसिमायलुज्जलप- णतया स्थिती सुश्लिष्ठौ सुघनी सुस्थिरावित्यर्थः। गूढी गुप्तौ मांसत्थसमतन्ननबइअवक्खा जुअसणिजपीणरअपीवरपउह- सबत्वादनुपनदयौ गुल्फो घुटिको येषां ते तथा । एणी हरिसंहिअसुसिलिट्ठघणथिरसुबछसंधिपुरवरफलिहवट्टिअभुजा णी तस्या इह जवा ग्राह्या । कुरुविन्दस्तृणविशेषः। वः च सूत्र बलनकम् । एतानीव वृत्ते वर्तुले आनुपूर्वेण क्रमेण उव स्थूलत जुजगीसरविउवभागायाणफनिहनच्ढदीहवाहू रत्त रेइति शेषः जके येषां ते तथा।औपपातिकवृत्तौ तु अन्ये त्वादुः। तलोवअमनलमंसलसुजायपसत्यलक्खणअछिद्दजालपा- एण्यस्तापः कुरुविन्दकुटिलिकाभिधाना रोगविशेषस्तानिस्त्यणी पीवरकोमलवरंगुलीआ आयंवतलिणसुइरुश्लणिक- के इत्यपि व्याख्यातमस्ति वृत्तेत्यादि । तथैव समुहकः समुएखा चंदपाणिलेहा सूरपाणि लेहा संखपाणिलेहा चक्कपा काख्यनाजनविशेषः तस्य तत्पिधानस्य च संधिस्तन्निमग्ने गूठे णिलेहा दिसासोवत्थियपाणिनेहा चंदमूरसंखचकादिसा मांसबत्वादनुपवदये जानुनी येषां ते तथा। क्वचित् "समुम्गणिम मागूढजाणू" इति पाउस्तत्रसमुद्कस्येव पक्तिविशेषस्येव निससोवस्थिअपाणिलेहा अणेगवरलक्खणुत्तमपसत्यसुरश्य- गतो गूढे स्वन्नाचतो मांसलत्वादनुन्नते न तु शोफादिविकारतः पाणिरेहवरमहिसवराहसीहमइलनसहणागवरपमिपुपवि- शेषं तथैव गजस्य हस्तिनः श्वसनः गुएमादरामः सुजातः सुनिपुनखंधा चउरंगुनमुप्पमाणकंचुवरसरिसगीवा मंसलसंठि प्पन्नः तस्य संनिजातूरू येषां ते तथा । सुजातशब्दस्य विशेषअपसत्यसनविपुलहणुा अवहिअसुविनत्तचित्तमंसून णस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् । मत्तो यरः प्रधानो भाजातीय स्वाद्वारणो हस्ती तस्य विक्रमश्चमणं तद्वधिनसितः विद्यासः अचिअसिनप्पवालदिवफलसमिजाधरोहा पंमुरयमसिस संजातोऽस्याति तारकादित्वादितम्प्रत्ययः। विश्वासवतीः गति. गलविममणिम्मनसंखगोखीरफेणकुंददगरयमृणालित्रा ध- र्गमनं येषां ते तथा अत्रापि मत्तशब्दस्य विशेष्यात् परनिपातः वनदंतसेही अखंडदंता अफुडिअदंता सुजायदंता अवि- प्राकृतत्वात् । प्रमुदितो रोगाद्यनागेनातिपुष्टो यौवनप्राप्त सि रखदंता एगदंतसेढीवपणेगदंता दुअवहणियंतधोअतत्त गम्यते । एवंविधो यो वरतुरगः सिंहवरश्च तद्वर्तिता वृत्ता कटी येषां ते तथा वरतुरगस्येव सुजातसुगुप्तत्वेन सुतवणिज्जरत्ततनतालुजीहा गरुनायतनज्जुत्तुंगणासा अव निष्पनो गुह्यदेशो येषां ते तथा । आकीर्णहय व जात्याश्व दालिअपोंमरीकणयाणा कोपासीयधवलपत्तनाणा व निरुपलेपाः । जात्याश्वो हि मूत्राद्यनुपलिप्तगात्रो नवती Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोसप्पिणी अभिधानराजेन्द्रः। अोसप्पिणी ति सौहृतं सौनन्दं नाम कीकृतमुस्वाकृतिकाष्ठं तच्च मध्ये तनु नीयप्रस्तुतविशेषणस्य विशेष्यदर्शनात् । रत्त.तलावरुणावउनयोःपावयोवृहत् । अथवा संहृतं संक्तिप्तमध्यं सौनन्दं रामायुधं | धोभागे उपचितावुन्नतौ औपयिकी वोचितौ अवपतितौ वा मुसलविशेष एव मुसले सामान्यतः । दर्पणशब्देनेहावयवे स- क्रमेण हीयमानोपचयौ मृदुलौ मांसलौ सुजाताविति पदत्रयं मुदायोपचारादर्पणं गएडो गृह्यते । तथा निगरितं सारीकृतं व- प्राग्वत् । प्रशस्यलक्षणो अच्छिद्रजालौ अविरलाङ्गुलिसमुरकनकं तस्य सरुः खगादिमुष्टिस्तैः सदृशं तेशमिवेत्यर्थः । । दायी पाणी हस्तौ येषां ते तशा । “पीवरकोमलवरद्गुलीश्रा" तथा वरवजस्येव सौधयेन्द्रायुधस्येव कामो, वलितो वलयः इति व्यक्तम् । श्राताम्रा ईषद्रक्ताः तलीनाः प्रतलाः शुचयः पसंजाता अस्थति वलितो बनित्रयोपतो मध्यो मध्यभागो येषां वित्राः सचिरा मनोज्ञाः स्निग्धा अरूक्षा नखा येषां ते तथा नखते तथा । ऊपस्येवानन्तरोक्तस्येवोदरं येषां ते तथा । शुचीनि प शब्दे द्विर्भावस्तु प्राग्वत् । चन्छ इव चन्द्राकारा पाणिरेखा वित्राणि निरुपलेपानीति भावः करणनि चक्षुरादीनीनिया- येषां ते तथा! एवमन्यान्यपि त्रीणि पदानि " दिसासोवत्थिणि येते तथा । अत्र च “पम्इविअमणाभा" इति पदं कचि अत्ति" दिकसौवस्तिको दिकप्रोक्षकः दिकप्रधानः स्वस्तिको द्वाचनान्तो प्रसिकमपि नत्तरपदेन मा पुनरुक्तानासो नूयादि दक्षिणावर्तः स्वस्तिक इत्यन्ये स पाणी रेखा येषां ते तथा । लिन व्याख्यातम् । गङ्गाया आवर्तकः पयसां नमः स श्व प्रदक्कि- एतदेवानन्त रोक्नविशेषणपञ्चकं तत् प्रशस्तता प्रकर्षप्रतिपादणावर्ता न तु वामावर्ताः तरङ्गा श्व तरङ्गास्तिस्त्रो वलयस्तानिः | नाय संग्रहवचनेनाह । "चंदसूरेति" गतार्थम् । ननु इयन्त्येव नहरा नुना रविकिरणैस्तरुणैरभिनवबोधितमुक्तिीकृतं सत् लक्षणानि तेषां शरीरस्थानात्याह । अनेकैः प्रभूतै वरैः प्रधानअकोशायमानं विकचीजवदित्यर्थः । पनं तद्गम्भीरा विकटा लक्षणैरुत्तमाः प्रशंसास्पदीभूताः शुचयः पवित्रा रचिताः स्वविशाला नाभिर्येषां ते तथा ।विशेषणस्य परनिपातः प्राग्वत् । कर्मणा निष्पादिताः पाणिरेखा येषां ते तथा । वरमहिपः प्रअस्माश निर्देशादनाम्न्यपि समासान्तः । बाजुका अवका समा धानसैरिभैः । वगहो वनशूकरः। सिंहः केसरी शार्दूलो व्याघ्रः न कापि दन्तुग संहिता संततिरूपेण स्थितानत्वपान्तरालव्यव- वृषभो गौः नागवरः प्रधानगजः एपामिव परिपूर्णः स्वप्रमाचिन्ना सुजाता सुजन्मा न तु कालादिवैगुण्यतो दुर्जन्मा । श्रत नाहीनो विपुलो विस्तीर्णः स्कन्धांगदेशो येषां ते तथा । पव जात्या प्रधाना तन्वी न तु स्थूबा कृष्णा न तु मर्कटवर्णा । चतुरङ्गलं स्वाङ्गापेक्षया चतुरङ्गलप्रमितं सुष्टु शोभनं प्रमाण स्निग्धा चिकणा आदया दर्शनपथमुपगता सती पुनः पुनराका- यस्याः सा तथा । कम्खुवरसदशा कृन्नतया वलित्रययोगेन च सणीया। उक्तमेव विशेषणद्वारेण समर्थयते (समहत्ति) सबवणि- प्रधानशङ्खसंनिभा ग्रीवा येषां ते तथा । विवेकविलासे तु मा अत यादेया सुकुमाग मृई। अतिकोमवारमणीया रम्या रोम- प्रतिमाया एकादशाङ्कस्थानसंख्यायां चतुःपञ्च चतुर्वह्नि, इति राजियेषां ते तथा । सम्यक् अधोऽधः क्रमेण नते पार्थे येषां श्लोके ग्रीवायारूयकुलमानमिति । मांसलं पुटं तथा संस्थितं ते तथा । संगते देहप्रमाणोचिते पार्श्वे येषां ते तथा । अत एव संस्थानं तेन प्रशस्तसंकुचितं कमलाकारत्वात् । शार्दूलस्येव सुन्दरपार्थाः सुजातपा ति पदद्वयं व्यक्तम् । तथा मिते प- व्याघ्रस्येव विपुलं विस्तीर्ण हनुकं येषां ते अवस्थितान्यवर्द्धिरिमिते मात्रिके मात्रोपेते । एकार्यपदद्वययोगादतीवमात्रान्विते- पणूनि सुविभक्तानि परस्परं शोभमानविभागानि । न तु पुननोचितप्रमाणे अन्यूनाधिके पीने उपचिते रतिदे पायें येषां ते मरुजाताभीरस्येव व्यादानमात्रलक्षवदनविवरस्य कूर्चकेशतथा । अविद्यमानं मांसलत्वेनानुपलक्ष्यमाणं करण्मुकं पृष्ठवं- पुजा इव पुजीभूतानि चित्राणि अतिरम्यतयादतानि श्मश्रुणि शास्थिकं यस्य देहस्य सोऽकरण्मुकः । अत्राल्पत्वेनानाववि- कूर्चकेशा येषां ते तथा श्मश्रूणामभावे पराढभावे प्रतिपत्तिः । घकणातू पवं निर्देशः । अनुदराकन्येत्यादिवत् । अथवा अकर- हीयमानत्वे चेन्द्रलुप्तिकत्ववार्द्धकप्रतिपत्तिः। वर्धमानत्वे च संएकमेवेति व्याख्येयं कनक.स्येव रुचको रुचिर्यस्य सः। निर्म- स्कारकजनाभावामहनभूतानि तानि स्युरित्यवस्थितत्वम् । 'उनः स्वाभाविकागन्तुकमवरहितः । सुजातो वीजाधानादारज्य अचिपत्ति' परिकार्मतं पच्छिलारूपं प्रवालं अायतविद्रुमखामजन्मदोषरहितः । निरुपज्यो ज्वरादिदंशाधुपवरहितः । एवं- मित्यर्थः। न तु मणिकादिरूपं तस्यैतदुपमानानुपपत्तेः। विम्बफविधो यो देहस्तद्धारयन्तीत्येवंशीवास्तथा कनकशिनातनव- लं पक्कगोहलाफलं तयोः संनिभो रक्ततयोन्नतमध्यतया अधरो दुवयं प्रशस्तं समतलविषममुपचितं मांसलं विस्तीर्णमूर्धा- ठोऽधस्तनो दन्तच्छदो येषां ते तथा पाएरं यच्छशिशकलं धोपेकया पृयुवं दकिणोत्तरतो वक्त नरो येषां ते तथा । श्रीव- चन्द्रमण्डलखण्डमकलङ्कः चन्द्रमण्डलभाग इत्यर्थः । विमलारसो बाचनविशेषः तेनाङ्कितं वक्को येषां ते । युगसंनिभौ वृत्तत्वे नां मध्ये निर्मलश्च यः शङ्खो गोक्षीरफेनश्च प्रतीतः। कुन्दं च कुन्दनायतस्वेन च यूपतुल्योपनीतौ मांसलो रतिदौ पश्यतां सुनगौ कुसुमन्दकरजश्व वाताहतजल करणः । मृणालिका च पमिनीमूपीधरप्रकोष्ठकावकशकलाचिकौ तथा । संस्थिताः संस्थानवि- लं तद्वद्धवला दन्तश्रेणिर्दशनपनियेषां ते तथा । अखण्डदन्ताः शेषवन्तः सुश्लिाः सुघना विशिष्टाः प्रधानाः घना निबिझाः स्थिरा परिपूर्णदशनाः अस्फुटितदन्ताः अजर्जरदन्ताः अत एव सुजा. नातिश्लथाः ।सुबका स्नायुनिः सु नद्धाःसंधयोऽस्थिसंधाना तदन्ताः जन्मदोषरहितदन्ता अविरलदन्ता निरन्तरालदन्ता नि ययोस्ती तथा पुरवरपरिघव-महानगरागलावर्तिनी वृत्तौ नु- एकाकारा दन्तश्रेणियेषां ते तथा। त श्व परस्परानुपन्तक्ष्यमाणजी येषां ते तथा । ततः पदद्वयमीलनेन कर्मधारयः पुनर्वाहुमेवा- दन्तविभागत्यात अनेके छात्रिंशद्दन्ता येषां ते तथा । एवं नाम यामतोविशिनष्टि । नुजगेश्वरो भुजगराजस्तस्य विपुलो योनागः तेऽविरबदन्ता यथा अनेकदन्ता अपि सन्तः एकाकारपतय श्व शरीरं तथा आदीयते। द्वारस्थगनार्थ गृह्यत इत्यादानः स चा- सत्यन्त इति नायः । हुतवहनामिना निर्मातं निर्दग्धं सत् धात सौ परिघोऽर्गला"उच्छूढत्ति" स्वस्थानादवक्षिप्तो निष्कासितो शोधितमसंतप्तं सतापं तपनीयं सुवर्णविशेषस्तक्ततसं लोहिद्वारपृष्ठभागे दत्त इत्यर्थः । विशेषणव्यस्तता चार्घत्वात् । ततः तरूपं तालु च काकुदं जिह्वा च रसना येषां ते तथा । गरुम्स्येव पूर्वपदेन कर्मधारयः तद्वद्दीधौं बाहू येषां ते तथा । न चात्रा-1 पकिराजस्येव यथा दीर्घा ऋज्वी सरसा तुङ्गा उन्नता न तु मुझन-तरोक्तविशेषणेन पौनरुक्त्यमाशङ्कनीयम् । अत्रा यामतादर्श- बाजातीयस्येव चिपिटा नासा नासिका येषां ते तथा । अबदा Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अोसप्पिणी अभिधानराजेन्छः। प्रोसप्पिणी नितं रविकरैर्विकासितं यत्पुरामकिं श्वेतपनं तद्वन्नयने येषां ते त्थमक्खण अकोप्पजंघजुअला सुणिम्मिअसुगुढसुजाणुमंतथा । "कोः कासीइअतिविकसेको अासविसपवि" त्यनेन को डलसुवकसंधी कयलीखंभाइरेकसंठिअणिव्वमसुकुमालमकसिते धवने च क्वचिद्देशे पदमले पदमवती अक्तिणी नेत्रे येषां ते तथा भानामितमीषन्नामितमारोपितमिति भावः । यचायं च उअमंसल अविरलसमसहिअसुजायवट्टपीवरणिरंतरोरुअट्ठा धनुस्तद्वगुचिरे संस्थानविशेषजावतो रमणीये कृष्णराजीइवावस्थि क्यवीपट्ठसंहिअपसत्यवित्थिप्पपिहलसोणिवयणायामप्पते संगते यथोक्तप्रमाणोपपन्ने आयते दोघे सुजाते सुनिष्पने तनू माणगुणिअविसालमंसलसुवजहणवरधारिणीअो वतनुके श्लक्ष्णपरिमितबाबपश्यात्मकत्वात् कृष्णे कालिमापते ज्जविराइअपसत्यनक्खणनिरोदरतिवनिअवलिअतणुणमिस्निग्धच्छाये नवौ येषां ते तथा । आसीनौ मस्तकभित्तो किंचिगौ न तु टपरी प्रमाणयुक्तौ स्वप्रमाणोपेतौ श्रवणौ की येषां अमज्झिमाओ उज्जुअसमसहिअजत्तणुकमिणणिछाइते तथा । अत एव सुश्रवणा इति स्पष्टम् । अथवा सुष्व श्रवणः जलमहसुजायसुविजत्तकंतसोभतरुइलरमणिज्जरोमराईगंशम्दोपलम्भो येषां ते तथा। पीनौ पुष्पौ यतो मांसलौ उपचिताक गावत्तयपयाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुणवोहिअकोपोली तहकणो देशभागो मुखावयवो येषांते तथा । वय विस्फो- सायंतपनगगंभीरविअमणाना अणुब्नम्पसत्यपीणकुच्छी टकादिक्कतरहितं समविषमं लष्टं मनोझं मृश्मसृणं चन्छासमा सहायपासा सगयपासासुजायपासा मिअमाइअपीयरइयपाम् । अष्टम चन्छसदृशं बलाट येषां ते तथा । सूत्रे निमालेति प्रा. कृतमकणवशात् । प्रतिपूर्णः पौर्णमासीय रुपतिश्चन्त: स श्व सा अकरंडुअकणगरुअगणिस्सलमुजायणिरूवहयगायलसोमं सश्रीकं वदनं येषां ते तथा । पदव्यत्यये प्राकृतता एव ट्ठीकंचणकासप्पमाणसमसंहिअसु.पट्टचुच्चुओमलगजमलहेतुः घनवनिचितं निबिमं सुबळं सुष्तु वायुनकं सकणोन्नतं जुयलवट्ठियअन्तुन्नयपीणरइयपीवरपहुअएओ नुभगप्रशस्तलकणं कूटस्य गिरिशिखरस्याकारेण निनं सदृशं पि णुपुवतणुअगोपुच्छवट्ठसमसंहिअणमिवआइज्जललिअएिमकेव पाषाणपिहिमकेव वर्तुलत्वेन च पिण्डिकायमानमग्राशर बाहू तंबणहा मंसग्गहत्था पीवरकोमलवरंगुलीआ णिउष्णीपजवणं येषां ते तथा । बत्राकारः सदृश उत्तमाहरूपो देशो येषां ते तथा । दामिमपुप्पस्य प्रकाशेनारुणिम्ना । तथा द्धपाणिरहा रविससिसंखचक्कमोत्थियसुविभत्तमविरश्यपातपनीयेन च सदृशी निर्मला सुजाता केशान्ते बाससमीपकेश- णिलेहा पीएमयकक्खवक्खवत्थिप्पएसा पमिपुलगलकपोनूमिः केशोत्पत्तिस्थानभूता मस्तकत्वक येषां ते तथा। शाल्म- या चउरंगुलसुप्पमाणकंवुवरसरिसगीवा मंसलसंविअपसत्थल्या वृक्षविशेषस्य यदुबारामफलं तद्वद् घना निचिता अतिशयेन हणुगा दाडिमपुप्फप्पगासपीवरपलबकुंचिअवराधरा सुंदनियिमा नोटिता अपि युग्मिनां परिझानाभावेन केशपाशाकरणात। परं चोरिता अपि तथा स्वन्नावेन शाल्मली वोएमाकारव रुत्तराहादाहिदगरयचंदकुंदवासंतिमउलधवलअच्छिद्दविमल घना निचिता पवावतिष्ठन्ते । तेनैतद्विशेषणोपादानम् । तथा मृद दसणा रत्तुप्पलरत्तम असुकुमालतालुाजीहा करवीरमवोऽस्वराः विशदा निर्मत्राः प्रशस्ताः प्रशंसास्पदीनूताः । सू उलअकुडिलअन्तुग्गयउज्जुत्तंगणासा सारयणवकमलकुहमाः लदणाः लकणं विद्यन्ते येषां ते लक्षणवन्तः अनादि- मुअकुवलयदलणिअरसारिसलक्खरणपसअत्याज्झिम्मकंतण स्वादप्रत्ययः । सुगन्धाः परमगन्धोपेताः । अत एव सुन्दराः। यणा पत्तलधवलायतआयंबलोअणाओ आणामिअचावतथा तुजमेचको रत्नविशेषः । नङ्गो नीलकीटः । अस्य ग्रह रुश्लकिएहब्जराइसंगयसुजायभुमगा उद्घाणपमाणजुत्तणं तु नील कृष्णयोरेक्यात् । नीलो मरकतमणिः कज्जलं प्रतीत प्रहष्टः पुष्टो नमरगणः स चात्यन्तं कालिमोपेतः स्यादिति ते सवणा पीएमट्ठगंमलेहा । चनरंसपसत्यसमणिडाला श्व स्निग्धाः निकुरम्बनताः सन्तो निचिता न तु विकर्णाः कोमुश्रयणिअरविमलपडिपुराणसोम्पवयणा उत्तुएणयउसन्तः कुञ्चिताः ईपत्कुटिलाः कुएमलीनूता इत्यर्थः । प्रद- त्तिमंगा अकविलसुसिणिद्धमुगंधदीहसिग्या उत्त १ क्षिणावर्ताश्च मुद्दनि शिरोजा बाला येषां ते तथा । इत्येतत्प ज्य २ जूअ ३ धून व दामणि ५ कमंडलु ६ कलसर्यन्तमतिदेशसूत्रम् । अथ मूबसूत्रमनुश्रियते लक्षणानि स्वस्तिकादीनि व्यञ्जनमर्षीतिकवादीनि । गुणाः कान्त्यादयस्तैरुपेताः। ७ वावि सोत्थिअएपडाग १० जव ११ मच्छ १श्कुम्न सुजातं पूर्ववत् । सुविभक्ताङप्रत्यङ्गानां यथोक्तविक्त्यसला. १३ रहवर १३मगरज्झय १५ अंक १६ थाल १७ अंकुसवात् । संगतं प्रमाणोपपन्नं न तु षमङ्गुलिकादिवन्यूनाधिकम- १० अट्ठावय १५ सुपश्टग २० मयूर २१ सिरिआजिसेसदेहो येषां ते तथा। प्रासादीया इति पदचतुष्कं गतार्थमिति । २२ तोरण २३ मेषिश्वरदाह २५ वरजवण २६ गिरि अथ युगवध समानेऽपि माभूत्पङ्किनेद । इति युग्मिनीरूपं पृच्छति ॥ २७ वरायंस २८ सलीलगय श्ए उसन३० सीह ३१ तीसे एं भंते ? समाए जरहे वासे मणुईणं केरिसए आ- चामर ३२उत्तमपसत्थवत्तीसमक्खणधरीओ। हंससरिसग गारजावपडोबारे पराणते गोयमा ! ता कणं मणुईओ सु- इ उ कोइलमहुरगिरसुस्सराओ कंतसव्वस्त अणुमयाश्रो जायसव्वंगसुंदरीओ पहाणमहिलागुणेहिं जुत्ता अइकंत- वनगयवलिपलि अवगंदुव्वरमवाहिदोहगासोगमुक्का उच्चत्ते. विसप्पमाणमरअसुकुमाला कुम्मसविश्रा विसिट्ठचलणान- ण य णराण योगणमूसिवा उ सनावसिंगारुवेसा संगगगजुमउअपीवरसुसंहयंगुलीओ अब्भुपयरश्तलिणितं- यहसिअनणिअचिअिविलाससंलावणिनएजुत्तोवयारवसुइणिवणक्खा रोमरहिअवसहसंविअअजहणपस- कुसला सुंदरचणजहणवयणकरवलणणयणलावणरूवजो Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१११) प्रोसप्पिणी अभिधानराजेन्द्रः। अोसप्पिणी व्यणविलासकलि आणंदणवणविअरचारिणा नव्वअच्छरा मकोऽप्यमध्यमतिसुभगत्वेन जवाजुगझं यासां तास्तथा सुष्टु तरां मिते परिमाणोपेते सुगूढे अनुपबदये ये जानुमएमले तयोः भोजरहवासमाणुमच्छाओ अच्छेरगपेच्चणिजाओ पासा सुबके दृढस्नायुकत्वादश्लथसन्धी सन्धाने यासां तास्तथा ईआओ जाव पठिरूवाश्रोते णं मणुआ ओहस्सरा हंस- कदवीस्तम्नादतिरेकेणातिशयेन संस्थितं संस्थानं ययोस्ते स्सराकोंचस्सरा एंदिस्सरा एंदिघोसा सीहस्सरा सीहयो- निर्बणे विस्फोटकादिक्कतरहिते सुकुमारे मृदुके प्रत्यर्थकोमो सा सुस्सरा सुस्सरणिग्धोसा छायानउज्जोइअगमंगा बजरि मांसले मांससंपूर्णे न तु काकजङ्घावद पुर्बले अविरले परस्परासहनारायसंघयणा समचउरंससंगणसंविधा छविणिरातं सन्ने समे प्रमाणतस्तुल्ये सहिके क्रमे सुजाते सुनिष्पन्ने वृत्ते वर्तुऽने पीवरे सोपचये निरन्तरे परस्परनिर्विशेषे ठरू सक्थिनी का अणुलोमवाउवेगा कंकग्गहणा कोयपरिणामा सन यासां तास्तथा वीतिर्विगतेति कोघुणाद्यक्त इति नावः । एवंणिपोसा पिलुतरोरुपरिणया उद्धणुसहस्समूसिप्रातसिणं म- | विधोऽष्टापदो चूतफलकः विशेषणव्यत्ययः प्राकृतत्वात् । यता गुआणं वेच्छप्पमपिटकरंडुअसया पप्रमत्ता । समणाउसो पउ- पृष्ठसंस्थिता प्रधानसंस्थाना प्रशस्ता विस्तीर्णा पृथुला प्रतिषि. मुप्पलगंधसरिसणासीससुरभित्रयणा ते णं मणुअपगईन पुला श्रोणिः कटरग्रजागो यासांतास्तथा । वदनायामप्रमाणस्य मुखदीर्घत्वस्य द्वादशाङ्गलप्रमाणस्य तस्मादहिगुणितं द्विगुणं चबसंतपगई पयणुकोहमाणमायालोमा मिनमद्दवसंपन्ना अल्ली तुर्विशत्यगझं विशालं विस्तीर्ण मांसलं पुष्टं सुबळं श्लथं जघनणा भद्दगा विणीपा अपिच्छा असमिहिसंचया विमवंतर वरं प्रधानकटिपूर्वजागं धारयन्तीत्येवं शीलाः अत्रापि विशेषपरिवसणा जहिच्छिकामकामिणी तेसिण भंते! मणुाणं णस्य परनिपातः प्राग्वत् । वज्रवद्विराजितं कामत्वेन तथा प्रदाकेइकालस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ गोयमा ! अट्ठमभत्त- स्तसक्वणं सामुखिकप्रशस्यगुणोपेतं निरुदरं विकृतोदररहितम् अथवा निरुदरमल्पत्वनाभावविवरणात् । तिम्रो बनयो यत्र स्स आहारढे समुप्पज्जा पुढवीपुप्फफलाहाराणं ते मणुआ तत्रिवलिकम् । तथा वनितं संजातबझं नच कामत्वेन दुर्बलमापपत्ता समणानसोतीसे एंजत्ते! पुढवीए केरिस आसा. शङ्कचं तनु कृशं नतं ननं तनुनतमीषन्नम्रमित्यर्थः। ईदृशं मए पत्ते ? गोग्रमा! से जहा णामए गुले वा खंमा वा ध्यं यास तास्तथा स्वार्थे कप्रत्ययः । ऋजुकानामवक्राणां ससकराइ वा मच्छंडिकाइ वा पप्पडमोअप वा भिसे वा मानां तुल्यानां न कापि दन्तुराणां संहितानां सन्ततानां न त्वपा न्तरामव्यवविन्नानां स्वभावजानां प्रधानानां वा तनूनां सूदमाणां पुप्फुत्तराइ वा परमुत्तराइ वा विजयाइ वा महाविजया कृष्णानां कामानां न तु मर्कटवर्णानां स्निग्धानां सतेजस्कानाम् वा आकासिआइ वा अदंसिआइ वा आगासफलोवमाइ आदेयानां दृष्टिसुभगाना ( लमहत्ति) बवितानां सुजातानां सुवा उमाइ वा अणोवमाइ वा भवेए असाए णो इणढे समढे विनक्तानां कान्तानां कमनीयानामत एव शोनमानानां रुचिररमसा णं पुढवी इतो इत्तरिमा वेव जाव मणापत्तरिया वेव | णीयानामतिमनोहराणां रोम्णां राजिरवबिर्यासां तास्तथा । आसाएणं परमत्ता॥ "गंगावत्तेति" पदं प्राग्वत् । अनुद्भटावनुल्वणी प्रशस्ती पानी कुक्की यासां तास्तथा । सन्नतपाादिविशेषणानि प्राग्वत् । तस्यां समायां भदन्त.जरते वर्षे मन जीनां प्रस्तावाद् युग्मिनी- काञ्चनकाशयोरिव प्रमाणं ययोस्तौ । तथा समौ परस्परतुल्यौ नां कीदृशाकारभावप्रत्यवतारः प्रज्ञप्तः । गौतमेत्यादि प्राग्वत् । नैको हीन एकोऽधिक इति नावः । संहितौ संहतौ अनयोरन्तता मनुज्यः सुजातानि यथोक्तप्रमाणोपेततया शोजनजन्मानि स- राले मृणाकसूत्रमपि न प्रवेश लभते शतिनावः । सुजातौ जन्मओण्यङ्गानि शिरःप्रवृतीनि यासां ता अत एव सुन्दर्यश्च सुन्दरा- दोषरहितौ स्पष्टचूचुकामेलको मनोइस्तनमुखशेखरौ यमलौ काराः । अत्र पदद्वयस्य कर्मधारयः तथा प्रधानाये महिलाग- समणिको युगौ युगलरूपौ वर्तितौ वृत्तौ अन्युनती परस्पराणाः स्त्रीगुणाः प्रियंवदत्वस्वभर्तृचित्तानुवर्तकत्वप्रनृतयस्तैर्यु- निमुखमुन्नती। पीनां पुष्टां रति पत्युर्दत्तामिति पीवररतिदौ पावरी ताः अनेनान्तरोक्तविशेषणद्वयेन सामान्यतो वर्णने कृतेऽपि तासां पुष्टौ पयोधरौ यासा तास्तथा। तुजङ्गवदानुपूर्येण क्रमेणाधोऽ. तार्तृणां च प्राचीनदानफलोद्भावनाय विशिष्य वर्णयति अति- धोनागे इत्यर्थः । तनुको अत एव गोपुच्छ्यवृत्तौ समौ परस्पर कान्ती अतिरम्यावत एव विशिष्ठस्वप्रमाणी स्वशरीरानुसारि- तुल्यौ संहितौ मध्यकायापेक्वया विरसी नती ननौ स्कन्धदेशस्याप्रमाणीन न्यूनाधिकमात्रावित्यर्थः । अथवा विसर्पतावपि सं-| नतत्वात् । श्रादेयावतिसुजगतयोपादेयौ अलितो मनोझचेष्टाकत्रिचरन्तावपि मृदूनां मध्ये सुकुमारी कर्मसंस्थितावुन्नतत्वेन क- तौ बाहू यासांतास्तथा। पीवेति प्राग्वत् । स्निग्धपाणिरेखा इति उपसंस्थानौ विशिष्ठौ मनोझौ चनौ पादौ यासां तास्तथा । व्यक्तम् । रविशशिशंखचक्रस्वस्तिका एव सुविजक्ताः सुप्रकटा: ऋजवः सरताः मृदवः कोमयाः पीवराः अदृश्यमानस्नसादि- सुविरचिताः सुनिर्मिता पाणिरेखा यासां तास्तथा। पीना नपचिसन्धिकत्वेनोपचिताःसुसंहताः श्लिष्टा निर्विवरा इत्यर्थः। अङ्ग- तावयवा नन्नता अन्युन्नताः कनावकोवस्तिप्रदेशा तुजमूबहृदय ल्यः पादाङ्गलयो यासा तास्तथा अन्युन्नता नन्नता रतिदाः सु- गुह्यप्रदेशा यासांतास्तथा। परिपूर्णा गलकपोला यासां तास्तथा। खदा रणामथवा मृगरमणादन्यत्राप्यनुषङ्गोपवादिमताश्र- "चउरंगुक्षेति" पूर्ववत् । मंसखेति च वक्तव्यं । दाडिमपुष्पप्रकाशो यणाजिता श्व लाकारसेन तसिनाः प्रतनास्ताम्रा ईषक्ताः रक्त इत्यर्थः। पीवर उपचितः प्रलम्ब प्रोष्ठापेकया ईषल्लम्बमानः। शुभयः पवित्राः स्निग्धाः चिक्कणाः नखा यासा तास्तथा "णक्खे कुञ्चित आकुञ्चितो मनाग बलित इत्यर्थः । वरःप्रधानोऽधगेत्यत्र" द्विभावः प्राग्वत् रोमरहितं निनोमकं वृत्तं बर्तुत्रं अष्टंसं- उधस्तनदशनच्छदो यासांतास्तथा । सुन्दरोष्ठा इति कण्ठ्यं दधिस्थितं मनोकसंस्थानं क्रमेणोर्ध्व स्युरं स्यूरतरमिति भावः। श्र- प्रतीतं दकरज उदककणश्चन्छः प्रतीतः । कुन्दं कुसुमं वासन्तीमुजघन्यान्युत्कृष्टानि प्रशस्तानि बरुणानि यत्र तत्तथा एतादृशा- कुजवनस्पतिविशेषकनिका तद्वद्धवक्षा । जम्बूदीपप्राप्तिप्रश्न Jain Education Interational Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११ ) अोसप्पिणी अनिधानराजेन्मः। अोसप्पिणी व्याकरणाद्यादर्शष्वदृष्टोऽपि धवनशब्दो जीवानिगमवृत्तौ दर्श- | स्यान्न तथा । तेषां मनुष्याणामिति । तथा स्वन्नावत एव शृङ्गानाविखितोऽस्ति । अच्चिका अविरला विममा निर्मझा दशना रः शृङ्गाररूपश्चारुः प्रधानो वेषो यासां तास्तथा । प्रायो निर्विदन्ता यासां तास्तथा । रक्तोत्पन्नवक्तं मृउ सुकुमारमतिकोमलं कारमनस्कत्वेनादृष्टपूर्वकत्वेन च तासां सीमन्तोन्नयनाद्यौपातालु जिह्वा च यासां तास्तथा । करवीरकनिकावत् नासापुटद्व- धिकारानावात् । संगतमुचितं गतं गमनं हंसीगमनवत् । यस्य यथोक्तप्रमाणतया संवृताकारतया वाऽकुटिला अवका हसितं हसनं कपोलविकासिप्रेमसंदर्शि च भणितं नणनं गम्भीअच्युद्गता तुजद्वयमध्यतो विनिर्गता । अत एव ऋज्वी सरला रकन्दर्पकोद्दीपि च चेष्टनं सकाममङ्गप्रत्यङ्गोपाङ्गदर्शनादिविलासती तुङ्गा नच्चा न तु गवादिङ्गवरका सतीतुङ्गेत्यर्थः। एवं- सो नेत्रचेष्टा । संसापः पत्या सह सकामं स्वहृदयप्रत्यर्पणक्षविधा नासा यासां तास्तथा । शरदि भवं शारदं नवं कमलं र. मं परस्परसंनाषणं तत्र निपुणास्तथा युक्ताः संगता ये उपचारा विवोध्यं कुमुदं चन्द्रबोध्यं कुवलयं तदेव नीलमेषां यो दबनि लोकव्यवहारास्तेषु कुशलाः। ततः पदद्वयकर्मधारयः एवं विधकरः पत्रसमूहस्तत्सदृशे लवणप्रशस्ते। अजिले श्रमन्दे नाना- विशेषणाश्च स्वपति प्रतिष्ष्टच्याः। न तु परपुरुष प्रति तथाविधचतया निर्विकारचपन इत्यर्थः । कान्ते नयने यास तास्तथा । कामस्वभावातू प्रतनुकामतया परपुरुषं प्रति तालामनिझाषाएतेन तदीयदृशामजितमुजगत्वमायतत्वं सहजचपलत्वं चाह । संभवात् । एवं च युग्मिपुरुषाणामपि परस्त्री प्रति नाभिलाष स्त्रीणामङ्गे हि नयनसौभाग्यमेव परमगृङ्गाराङ्गमिति पुनस्तद्वि- शति प्रतिपत्तव्यम् । नन्वेवं सति प्रथमं जगवतः सुगन्दापाणिशेषणेन विशिनष्टि । पत्रले पदमवती न तु रोगविशेषातरोम- ग्रहणं कथमुचितं मृतेऽपि पुंसि तस्याः परसंबन्धित्वाविरोधात्। के कचित्धवझे कान्तवर्तिनी क्वचित्कचित्तान्ने सोचने यासां ता- उच्यते मा ब्रूहि निषिद्धबिरुझाचरणस्यः जगवतः श्रवणाश्रव्यस्तथा (आणामिअत्ति) अल्लीणविशेषणे प्राग्वत् । पीना मांसल- मनपवादं कन्यावस्थायामेव तस्याः पाणिग्रहणकरणात् । यतः तयान कृपाकारामृष्टाः शुझान तु श्यामच्छायामापन्ना गराडोखा “पढमो अकालमच्चू, तहिं तामफलेण दारो पहओ। कमा कपोलपाली यासां तास्तथा । चतुर्यु अस्रषु कोणेषु दक्किणोत्त- य कुलगरेणं, सिढे गहिआ उसभपत्त" । एवं तर्हि सहरयोः प्रत्येकमाधोभागरूपेषु प्रशस्तमहीनाधिकलवणत्वात् जातयोः सुमङ्गलायाः पाणिग्रहणं कथं सत्यम् । तदानींतनलोसममविषमं बबाट यासांतास्तथा। कौमुदी कार्तिकी पौर्णिमा काचीर्णत्वेन तदानीं तस्या अधिरुकत्वादिति । प्रर्वोक्तमेवार्थ तस्या रजनिकरश्चन्द्रस्तद्वद्विमवं प्रतिपूर्णमहीनं सौम्यमक्रूरं न संपीड्याह मुन्दरेत्यादिव्यक्तमेव । नवरं जघन्यं पूर्वकोटीजागः तु थककान्तानामिव भीषणं बदनं यासांतास्तथा । रोन्नतोत्त झावण्यमाकारस्य स्पृहणीयताविवासः । स्त्रीणां चेष्टाविशेषः । माङ्गा ति प्रतीतम् । अकपिलाः इयामाः सुस्निग्धाः स्थूला ना प्राइच। "स्थानासनगमनानां, हस्ततासुनेत्रकर्मणां चैव । उत्पवादच्यङ्गनिरपेकतया निसर्गचिक्कणा सुगन्धा दीर्घा न तु पुरु द्यते विशेषो, यः श्लिष्टः स तु विनासः स्यात्" नन्दनवन मेरोपकेशा इव निकुरम्बभूताः। नापि धम्मिल्ला विपरिणाममापन्नाः । द्वितीयवनं तस्य विचरमवकाशो वृक्तरहितभूभागः तत्रचारिसंयमविज्ञानाभावात् शिरोजा यासां तास्तथा। छत्र १ ध्वजः २ ण्य श्व अप्सरसो देव्यः । जरतवर्षे मानुषरूपा अप्सरसः आश्चयूपः स्तंनविशेषः ३ स्तूपः पाठः ४ दामिणीति रूढिगम्यं क- र्यमद्भुतमिति प्रेकणीयाः। प्रासादीया इत्यादि । संप्रति स्त्रीपुंमएमलुस्तापसपानीयपात्रं ६ कलसः ७ वापी स्वस्तिकः ।। ससाधारण्येन तत्कालभाविमनुष्यस्वरूपं विवश्चरिदमाह । पताका १० यवः ११ मत्स्यः १२ कूर्मः १३ रथवरः १४ मकर- (तेणं मणुआ इत्यादि) ते सुषमसुषमाभाविनो मनुष्या श्रोध्वजः कामदेवस्तत्संसूचकं सूचनीये सूचकोपचारावकण- घः प्रवाह। स्वरो येषां ते तथा । हंसस्येव मधुरः स्वरो येषां ते मिति तच सर्वकासमविधवात्वादिसूचकम्१५अङ्कश्चन्द्रबिम्बान्त | तथा । क्रौञ्चस्येवाप्रयासविनिर्गतोऽपि दीघंदेशव्यापी स्वरो येवी मृगावयवः १६ क्वचिदङ्कस्थाने शुक पति दृश्यते। स्थानम१७ पां ते तथा । नन्दी द्वादशविधतूर्यसमुदयस्तस्य श्व शब्दोऽन्तः अडूशः १८ अशापदं पूतफलक १२. सुप्रतिष्ठकं स्थापनकं १० तिरोधायी स्वरो येषां ते तथा । नन्द्या श्व धोषोऽनुनादो येषां मयूरः २१ श्रियोऽनिषेको अदम्यन्निपेकः२२ तोरणं २३ मेदिनी ते तथा । सिंहस्येव बलिष्टस्वरो येषां ते तथा । एवं सिंह२४ उदधिः २५ वरभवनं प्रधानगृहं २६ गिरिः२७ वरादर्शो वरद- घोपाः नक्तविशेषणानां विशेषणद्वारहतुमाचष्टे । सुस्वरा जः २० सलीगजो बीमावान् गजः २४ऋषभो गौः ३०सिंहः निघषाः छायया प्रभयोद्योतितान्यङ्गान्यवयवा यस्य तदेवंविध३१ चामरं ३२पतान्युत्तमानि प्रधानानि प्रास्तानि सामुजिकशा- मङ्गशरीरं येषां ते तथा । मकारो बाकणिकः। वज्रऋषजनारास्रेषु प्रशंसास्पदीभूतानि द्वात्रिंशद्वक्षणानि धरन्ति यास्तास्तथा चं नाम सर्वोत्कृष्टमाद्यं संहननं येषां ते तथा । समचतुरस्त्रं संहंसस्य सदृशी गतिर्यासां तास्तथा । कोकिक्षायाः अाम्रमअरीसं- स्थानं सर्वोत्कृष्टा आकृतिविशेषास्तेन संस्थिताः उव्यां त्वचि निरास्कृनत्वेन पञ्चमस्वरो द्वारमयी या मधुरा गीस्तद्वत् सुष्ठ शोज- तङ्काः निरोगा दह्रकुष्ठकिलासादित्वग्दोषरहितवपुष श्त्यर्थः । नः स्वरो यासा तास्तथा । कान्ताः कमनीयाः सर्वस्य तत् प्र- अथवा (वित्ति) विमन्तः। बधिविमतोरभेदोपचारादार्षत्वे. त्यासन्नवर्तिनो लोकस्यानुमताः समता न कस्यापि मनागपि :- ममतुवलोपाद्वा । यथा मरीचिरित्यत्र मलयगिरीयावश्यकवृत्तौ प्या इति भावः । बक्षिः शैथिल्यसमुद्भवश्चमविकारः । पलितं उदात्तवर्णसुकुमारत्वयुक्ता इत्यर्थः । पश्चान्निरातङ्कपदेन कर्मपाए मुरः कचः व्यपगतानि वलिपलितानि याज्यस्तास्तथा । धारयः। अनुलोमोऽनुकूलो वायुवेगः शरीरान्तर्वी वातजयो येषां तथा विरुकमाङ्गं व्यङ्गं विकारवानवयवः। पूर्वों पुरशरीरच्च ते तथा । वायुगुलमरहितोदरमध्यप्रदेशाः सति गुल्मे प्रतिकूलो वाविः व्याधिदौ ग्यशोकाः तैर्मुक्ताः । पश्चाद्विशेषणद्वयकर्मधारयः युवेगो जवतीति नावः। कङ्कः पक्तिविशेषस्तस्येव ग्रहणी गुदाशयो उच्चत्वेन च नराणां स्वनर्तृणां स्तोकोनं यथा स्यात्तथोच्चताः। नीरोगवर्चस्कतया येषांते तथा कपोतस्येव पक्तिविशेषस्येव परिकिंचिल्यूनत्रिंगन्यूतोच्चू इत्यर्थः । न हि ऐदयुगीनमनुष्यपन्य णाम आहारपरिपाको येषां ते तथा। कपोतस्य हि जाठराग्निः पाइव स्वभर्तुः समोच्चत्वादधिकोचत्वा नवेयुः । किमुक्तं नवति षाण अवानापि जरयतीति बौकिकश्रुतिरेवं तेषामपि अत्याहारग्रहतथा हि संप्रति पुरुषस्य अन्यूनोच्चत्वादयो लोके उपहासपात्र। णेऽपि न जातु कदाचिदपि अजीर्णदोषादयः। शकुनरिव पक्किण Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) अभिधानराजेन्द्रः । श्रसप्पिणी शव पुरीषोत्सर्गे निर्लेपतया पोसोऽपानदेशो येषां ते तथा । पुंस उत्सर्गे पुरीषमुत्सृजन्त्यनेनोति व्युत्पत्तेः तथा । पृष्ठनागान्तरे पृष्ठोदरयोरन्तराले पार्श्वे इत्यर्थः । ऊरूच सक्थिनी च इति इन्द्रः । ए तानि परिणतानि परिनिष्ठितताङ्गतानि येषां ते तथा । कान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात् ततः पद्मयकर्मधारयः । यथोचि तपरिणामेन तानि संजानातीत्यर्थः । षम्धनुः सहस्रच्छ्रिता भ afv aarasarafणकः । उत्सेधाङ्गुलतस्त्रिगव्यूतप्रमाणकाया इत्यर्थः । यथ युग्मिनीनां किंचित्रितप्रमाणोच्चन्यमुकं तदन्यतया न विवक्तितमिति भावः । अथ तेषां वपुषि पृष्ठकरएकसंख्यामाइ ( तेसि णमित्यादि ) तेषां मनुष्याणां द्वे षट्पशाशदधिके पृष्ठकरवमुकशते पाठान्तरेण पृष्ठकर या प्रसे] पृष्ठकर मुकानि च पृष्ठवंशययुता अस्थिपं सिका इत्यर्थः हे अमत्यादि प्राग्वत् पुनस्तानेव विशिन ष्टि (पप्पल इत्यादि) ते णमिति पूर्ववत् । मनुजाः पद्मं क मनमुत्पलं च नीलोत्पलम् । अथवा पद्मं पद्मकानिधानं गन्धद्रव्यम् उत्पलं कुष्ठं तयोर्गन्धेन परिमलेन सदृशः समो यो निःश्वासस्तेन सुरभि सुगन्धि वदनं येषां ते तथा । प्रकृत्या स्वभावेन - पशान्ता न तु कराः । प्रकृत्या प्रतनवोऽतिमन्दीभूताः क्रोधमानमायालोमा येषां ते तथा । अतएव मृड मनो परिणामसुखावहमिति नावः । यन्मार्दवं तेन संपन्नाः न तु कपटमार्दवो पेताः । अलीना गुरुजनमाश्रिता अनुशासनेऽपि न गुरुषु द्वेमापद्यन्ते इत्याशयः । अथवा आसमन्तात् सर्वासु क्रियासु लीना गुप्ता नोल्वणचेशकारिण इत्यर्थः । नकाः कल्याणभागिनः । भङ्गा वा जहस्तिगतयः । विनीता वृहत्पुरुषविनयकरणशीलाः । अथवा विनीता श्व विजितेन्द्रिया इव श्रल्पेच्छा मणिकनकादिप्रतिबन्धरहिताः । अत एव न वि द्यते सन्निधिः पर्युषितखाद्यादेः संचयो धारणं येषां ते तथा विटपान्तरेषु शास्त्रान्तरेषु प्रासादाद्याकृतिषु परिवसनमाकालमावासो येषां ते तथा । यथेप्सितान् कामान् शब्दान् कामयन्ते श्रर्थात् ज्ञ्जते इत्यर्थः । एवं शीला येषां ते तथा इति । अत्र जीवाभिगमादिषु युग्मिवर्णनाधिकारे आहारार्थप्रश्नोत्तरसूत्रं दृश्यते । अत्र च कालदोषेण त्रुटितं संभाव्यते अत्रैवोत्तर द्वितीयतृतीयारकचनचे आहारार्थसूत्रस्य साकार दृश्यमानत्वादिति तेनावस्थापनाशून्यार्थ जीवाभिगमादिभ्यो विख्य (तेसणं भंते! माणमित्यादि) तेषां जदन्त ! मनुजानां ( केasaratसत्ति ) सप्तम्यर्थे षष्ठी । कियति काले गते नूय आहारार्थे समुत्पद्यत इति । यद्यपि सरसादारित्वेनैतावत्कालं तेषां दोदयाभावात् एवानार्थतान निर्जरार्थे तपः तथाप्यन कार्यत्वसाधयोदश्मभमिति मम बोपवासप्रयस्य संका इति अर्थ यदाहारयन्ति तदा ( वी पुण्यादि) पृथिवी भूमिः फलानि च कल्पतरुफलाहारो येषां ते तथा । एवंविधास्ते मनुजाः प्रकृताः । देश्रमणेत्यादि पूर्ववत् । प्रधानयोराहारयोर्मध्ये पृथिवीस्वरूपं पृच्छन्नाह (तमित्यादि) तस्याः पृथिव्याः कीदृशः आस्वादः प्रज्ञप्तो वा युगलधर्मिणामनन्तरपूर्वसूत्र आहारत्वेनोक्तेत्यध्याहार्य भगवानाह गौतम ! तद्यथा " नाम इत्यादि" प्राग्वत् । गुड इक्षुरसक्काथ इति । इति वा शब्दः प्राग्वत् । खरमं गुरुविकारः । शर्करा काशादिप्रजवा। म सदिकाखमशर्करा पुष्प. सरापद्मोत्तरे शर्करादावेव अन्ये तु पर्पटमोदकादयः खाद्यविशेषा लोकतोऽवसेयाः । एषां मधुsafeशेषाणां स्वामिना निर्दिष्टेषु नामसु एतादृशरसा पृथि ओसप्पिणी वी भवेत् । कदाचिदिति विकल्पारूढमतिगौतम आह । भवेदेतब्रूपः पृथिव्या आस्वादः । स्वाम्याद गौतम ! नायमर्थः समर्थः सापृथिवी तो गुरुशर्करादेरिएतरिका एव स्यायें कत्ययः यावत् करणात् कान्ततरिका चैव प्रियतरिका चेवेति परिग्रहः । मन आपतरिका एव आस्वादेन प्रज्ञप्ता इति ॥ अथ पुष्पफलानामास्वा सीसे भंते! पुष्कफलाएं फेरिए आसाए पराणा ने ? गोयमा ! से जहा णामए रमो चउरतचक्कवट्टिस्स कल्लाऐ भोजाए सय सहसनिप्पन्ने वलेणुवनेए आसायणिजे विसावा वे एयारूपे यो इणड़े समडे तेसि णं पुफफलाएं एतो इतराव जान आसा पण ते । तेषां पुष्पफलानां कल्पद्रुमसंबन्धिनां कीदृशक श्रास्वादः प्र तो यानि पूर्वसूत्रे मिनामाहात्वेन व्याख्यातानीति ग म्यम् । भगवानाह गौतम ! तद्यथा नामराज्ञः स च लोके राजा कतिपय देशाधीशोऽपि स्यादत श्राह । चतुर्थं तेषु समुद्रत्रयहिमवत्परिच्त्रेिषु च वर्तितुं शीलमस्येति चतुरन्तचकघर्ती अतः समृद्ध्यादीन दीर्घम् अनेन वासुदेवतो व्यावृत्तिः कृता तस्य कल्याणमेकान्त सुखावहं भोजनविशेषः । शतसहस्रनिष्पर्ण लक्षम्यनिष्पवर्गेनातिशायिनेति गम्यते । अन्यथा सामान्यभोजनस्यापि वर्णमात्रवता संभवत्येवेति कि माधिक्यवर्णनमुपपेतं युक्तं यावदतिशायिना स्पर्शेनोपपेतं यावन्धेन रसेन वातिशायिनोपपेतम् । श्रस्वादनीयं सामान्येन विस्वादनीयं विशेषतस्तमधिकृत्य दीपनीयम वृद्धिकरं दीपयति जाठराग्निमिति दीपनी बाहुलकारकर्तनीयमस्वयः । एवं दर्पणीयमुत्साह वृद्धिहेतुत्वाद मदनीयं मन्मथजनकत्वात् । वृंहणीयं धातूपचयकारित्वात् । सर्वाणि इन्द्रि याणि गाणं च प्रसादयतीति सर्वेन्द्रियावैशद्यहेतुत्वात् तेषामेवमुक्तम् । गौतम श्राह भगवन् ! भवेदेतद्रूपस्तेषां पुष्पफलानामास्वादः । भगवानाह गौतम ! नायमर्थः समर्थः तेषां पुष्पफलानामितश्चक्रवर्तिभोजनादिष्टतरकादिरेवास्वादः । श्रत्र कल्याणभोजनसंप्रदायः । एवं चक्रवसिंबन्धिनीनां पुचारिणीनामनातङ्कानां गवां लक्षस्यार्द्धार्द्धक्रमेण पीतगोक्षीरस्य पर्यन्ते यावदेकस्याः गोः संबन्धि यत् क्षीरं तत्सकलमशालिपर मारूप मनेक संस्कारकस्यसम्मिश्रं कल्याणं भोजनमिति प्रसिद्धं विचिना अन्यस्य भोरं महदुम्मादकं वेति । श्रथैते उक्तस्वरूपमाहारमाहार्य व वसन्तीति पृच्छति । ते णं भंते! तमाहारमाहारेता कहिं सहि उवेंति ? गोत्रमा ! रुक्खगेहालया ने पापा समाउसो तेसि भंते! रुक्खा केरिसए आयारनावण्टोआरे पाने गो ! मा कूटागारापेच्छा उसज्जय तोरण चून गोहरवेया चोप्फालाल गपासायहम्मित्र्गवक्खवालग्गपोरा बलजी घरा इत्यं बहवे परभवणविसालसंयमगणा गृहसीअलच्छाया समणासो ! अस्थि भंते! तीसे समाए रहे वासे गेहाइ वा गेहावरणाइ वा गोयमा ! णो इणडे समट्टे रुक्खगेहालया णं ते मछुआ पाचा समासो ! ॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अोसप्पिणी अभिधानराजेन्द्रः । योसप्पिणी ते भदन्त ! मनुजास्तमनन्तरोदितस्वरूपमाहारमाहार्य क- हितानि ग्रामपञ्च शत् नपजीव्यानि वा ममम्बानि पत्तनानि जलवसतौ कस्मिन्नुपाश्रये उपयान्ति उपगच्छन्ति। भगवानाह गौ- स्थनपथयुक्तानि रतयोनितूतानि वा सिन्धुवेलावलयपर्यन्तानि तम! वृक्षरूपाणि गृहाणि श्रालया श्राश्रया येषां ते तथा। एवं बोणमुखानि आकराः हिरण्याकरादय आश्रमास्तापसाश्रयाः। विधास्ते मनुजाः प्राप्ताः हे श्रमणेत्यादि पूर्ववत् । अथैते गेहा संबाधाः शमशृङ्गस्थायिनो निवासाः यत्र समागतमजूतजननिकाराः वृक्षाः किं स्वरूपा इति पृच्छति "तेसि ण भते रुक्खा- वेशा वा राजधान्यो यत्र नगरे पत्तने अन्यत्र वा स्वयं राजा एमि"त्यादिप्रश्नसूत्रपदयोजना सुलभा श्राकारभावप्रत्यवतारः वसति संनिवेशो यत्र सार्थकटकादेरावासा भवन्ति । अप्राग्वत् । भगवानाह गीतम! ते वृक्षाः कटं शिखरं तदाकार नोत्तरम् नायमर्थः समर्थः । अत्रार्थे विशेषणधारहेनुमाइ । संस्थिताः । प्रेक्षा इति पदैकदेशे समुदायोपचारात् । प्रेक्षागृहं यथेप्सित इच्छामनतिक्रम्य काममत्यर्थ गामिनो गमनशीलास्ते नाट्यगृहं द्वन्द्वान्ते श्रयमाणं पदं प्रत्येकमभिसंबध्यते इति संस्थि- मनुजाः अत्रात्यर्य कथनेन तेषां सर्वदा स्वातन्त्र्यमुक्तम् । ग्रामनगतशब्दः सर्वत्र योज्यः। तेनोरप्रेक्षागृहं संस्थिता इति व्याख्येयप्रे रादिव्यवस्थायां तु नियताश्रयत्वेन तेषामिच्गनिरोधः स्यात् । क्षागृहाकारेण संस्थानवन्त इत्यर्थः । एवं छत्रध्वजतोरणस्तूपगो- जीवानिगमे तु “जदिछिकामगामिनो" इत्यस्य स्थाने "जनेपुरवेदिका चोप्फा अट्टालकं प्रसादहर्म्यगवाक्वालाग्रपोति- च्छिकामगामिणो" इति पाठस्तत्रायमर्थः । यद्यस्मानच्छितकावसजीगृहसंस्थिताः तत्र त्राद्याः प्रतीताः । गोपुरं पुरद्वार कामे गामिनः न इच्छितमिच्चाविषयीकृतं नेच्छितं नायं न किवेदिका अपवेशनयोग्या नूमिः । चोप्फासं नाम मत्तवारणम् । तु नशब्द इत्यनादेशाभावः यथा नैकेषस्य पर्याया इत्यत्र नच्चिअट्टानका प्राम्बत् । प्रासादो देवतानां राज्ञां वा गृहम् । उच्च- तमिच्छाया विषयीकृतं कामं स्वच्छ गच्चतीत्येवंशीला नेच्छियवहुझा वा प्रासादाः ते चोभयेऽपि पर्यन्तशिखराः । हये शि- तकामगामिनस्ते मनुजाः इति यद्यपि गृढसूत्रेणेवार्थापत्या ग्रास्वररहितं धनवतां नवनं गवाकः स्पष्टः । वालाग्रपोतिका नाम माद्य जावः सूचितः तथाप्यव्युत्पन्नविनयजनव्युत्पत्त्यर्थमेतत्सूजनस्योपरिप्रासादा वक्षनी दिराधारस्तत्प्रधानं गृहम । अ- त्रोपन्यासः (अस्थिणमित्यादि ) अत्रासिः खगो यमुपजीव्य स त्रायमाशयः केचिकाः कूटसंस्थिताः तदन्ये प्रेक्षागृहसंस्थिताः न सुखवृत्तिको भवति । अस्याः साहचर्यनक्कणाया असिशब्देतदपरे त्रसंस्थिताः । एवं सर्वत्र भाव्यम् । अन्य अत्र सुषम- नात्र अस्युपत्नक्विताः पुरुषा गृह्यन्ते पवमग्रेतनविशेषणवपि यसुषमायां जरते वर्षे बहवो वरभवनं सामान्यतो विशिष्टगृहं त- थायोग्य झेयम् । यदुपजीवनेन लेखककला, कृषिः कर्षणं, वणिक स्येव यद्विशिधं संस्थानं तेन संस्थिताः शुना शीतला गया येषां पण्याजीवः, पणितं ऋयाणक, वाणिज्यं सत्यानृतमर्पणग्रहणाते तथा। एवंविधा हुमगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमणेत्यादि पूर्ववत् प्राग्गे- दिषु न्यूनाधिकार्पणमित्यर्थः । अत्राह नायमर्यः समर्थः । यतस्ते ढाकारकल्पद्रुमस्वरूपवर्णके उक्तेऽपि पते परमपुण्यप्रकृतिका यु- व्यपगतानि असिमषीकृषिवणिक्पणितवाणिज्यानि येच्यते ग्मिन पषु सौन्दर्याश्रयेषु वसन्तीति झापनार्थ पुनस्तद्वर्णकरसू तथा । मनुजाः प्राप्ताः । इति (अस्थिणमित्यादि) हिरण्यं रूप्रारम्भः सार्थक इति । ननु तदा गृहाणि न सन्त्यपि वा गृहाणि प्यमघटितसुवर्ण वा सुवर्ण घटितं कांस्यं प्रतीतं, दूष्यं वस्त्रजाधान तिन तेषामुपनोगाय यान्तीत्याशंकमानः पृच्छति ( आत्थ तिः । मणिश्चन्द्रकान्तादिः । मौक्तिकं व्यक्तं, शलो दकिणादिः, णमित्यादि ) अस्तीत्यस्य त्यादिप्रतिरूपकाव्ययस्य वचनत्रय शिला गन्धपेषणादिका, प्रवावं प्रतीतं, रक्तरत्नानि पद्मरागासदशरूपत्वन सति व्याख्येयं सन्ति भदन्त तस्यां समायांनरत दीनि । स्वापतेयं रजतसुवर्णादिष्व्यम् । ननु यदि हिरण्यं रूप्यं वर्षे गेहानि वा प्रतीतानि गृहेषु आतपनानि वा सपनोगार्थमा तदा रूप्यखानी तत्संजवः यदि वा घटितसुवर्ण तदा सुवर्णखानी गमनानि उत्सरसूत्रं प्राग्वत् एतेन तदा मनुष्यादिप्रयोगजन्य-1 परं घरितं सुवर्ण, तथा ताम्रपुसंयोगजं कांस्यं तथा तन्तुसगृहाभावस्तत एव तेषामुपभोगार्थः तत्रापतनाभावश्चोक्तः॥ । न्तानसंजवं दूष्यं, तत्र कथं संभवेयुः । शिल्पिप्रयोगजन्यत्वाअस्थि एंण भंते ! तीसे समाए भरहे वासे गामाइ वा जाव तेषां न च तान्यत्रातीतोत्सर्पिणीसत्कनिधानगतानि संजवन्ती तिवाच्यं साहिसपर्यवसितप्रयोगबन्धस्यासंख्येयं कालं स्थितेर. समिसाइ वा । णो इणढे समझे जहिच्चियकामगामिणो संजवात् । एगोरुगोत्तरकुरुसूत्रयोरतदालापकस्याकथनप्रसभंते ! मणुश्रा पाएणता अस्थि एं भंते ! असीइ वा म ङ्गात । उच्यते संहरणप्रवृत्तक्रीडाप्रवृत्तदेवप्रयोगात् । तानि सोइ वा किसी वा वणिएत्ति वा पणिएत्ति वा वाणिज्जेइ संजवन्तीति संन्नाव्यते । श्होत्तरं हन्तीति वाक्यारम्भ कोमझावा। णो इणढे समढे वगय असिमसिकिसिवणि अपणि मन्त्रणे वा अस्ति हिरण्यादिकमिति शेषः । नैव तेषां मनुजानां परिजोग्यतया ( हव्वमिति ) कदाचिदागच्चति । वाणिजाएं ते मा पएणत्ता समणाउसो! अत्थि एं अस्थि ण नंते ! जरहे राया शवा जुवराया ईसरतनभंते ! हिरोइ वा सुबहोइ वा कंसेइ वा से वा मणि वरमामविप्रकोमुंविअन्नसेडिसेणावइसत्यवाहाइ वा हो मोत्ति असंखसिलपवावरत्तरयणसावइजेइ वा हता अत्थि को चेव णं तेर्स मााणं परिजोगत्ताए हबमागच्छइ । इणढे समढे ववगयइढिसक्काराणं ते मणुआ। अक्तवत्यमाणेषु पषु युग्मिसूत्रेषु प्रश्नोत्तरालापकबाक्ययोज अस्ति राजा ति वा चक्रवर्त्यादिः । युवराजा राज्याई इति यावत् । ईश्वरो नोगिकादिः । अणिमाद्यष्टविधैश्वर्ययुक्तो वा तनना प्राग्वत नवरं ग्रामावृत्या वृताः करणा ग्राम्या चा यावत् करणान्नगरादिपरिग्रहः तन नगराणि चतर्गोपुरोझासीनि न वि वरः सन्तुष्टनरपतिप्रदत्तसौवर्णपट्टालतशिरस्कचौरादिशुख्यचते करो येषु तानि नकराणि वा कररहितानि नखादिनिपातना-| धिकारी "मांमविय" पूर्वोक्तमझम्बाधिपः कौटुम्बिकः कतिपयकुइपसिकिः निगमाः । प्रमूतवणिम्बावासाः प्रांमुप्राकारनिव- टुम्बप्रनुः इभ्यो यद् व्यनिचयं तैरिभो हस्स्यपिन दृश्यते। भो हानि क्यचिन्नद्यडिवेष्टितानि वा खेटानि कुलप्राकारपेटतानि | हस्ती तत्प्रमाणं अव्यमहतीति निरुक्तादिन्यः। श्रेष्ठी देवताध्या. भनितः पर्वतवृतानि वा खबटानि अर्द्धतृतीयगम्यूतान्तमिर- सितापर्णपट्टालतशिराः पुरा ज्येष्ठो वणि विशेषः। सेनापति Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) अभिधानराजेन्द्रः ओसपिणी र्यदायत्ता नृपेण चतुरङ्गसेना कृता भवति । सार्थवाहो यो गणिमादिक्रयाणकं या देशान्तरं गच्छन् सदचारिणामत्यसदायो नवति । अत्रोत्तरं नायमर्थः समर्थः । व्यपगता ऋद्धिर्विभवैव सत्कारश्च सेव्यतालकणो येभ्यस्ते तथा । यि ते ! भरहे वासे दासेड़वा पेसेइ वा सिस्तेइ वा भगने वा नाइझाए या कंमारण्या को इणडे समड़े aar भिओगाणंति मत्र्या पन्नत्ता । समाउसो ! अस्थि णं भंते ! तीसे समाए रहे वासे मायाइ वा पिया वा जायनगिणितज्जपुत आहावा हंता प्रत्यो चे तिनो पेमबंधणं समुप आसरणं गृहदासीपुत्रो या लेप्यः प्रेणा जन दूतादिः । शिष्य उपाध्यायस्योपासकः शिक्षणीय इत्यर्थः । भृतकानि यत्कालमवधिं कृत्वा चेतनेन कर्मकरणाय धृतः दुष्कालादौ निःश्रितो वा भागिको द्वितीयाद्यशग्राही कर्मकरः गणपुखाद्यपनेता । श्रवा नायमर्थः । स०| यतस्ते मनुजा व्यपगतमानियोगिकं कर्म येज्यस्ते तथा । अत्राजियोम्यशब्दात् कर्मणि यप्रत्यये व्यञ्जनात्पञ्चमस्थायाः स्वरूपे वा इत्यनेनैकस्य यकारस्य लोप इति ( अत्यिणमित्यादि ) माता या प्रसूते । पिता यो बीजं निषिक्तवान् । भ्राता यः सहजातः । जगिनी सहजाता । नार्या जोग्या । पुत्रो जन्यः, धूता दुहिता । स्नुषा पुत्रवधूः । अत्र भगवानाह । हन्तेत्यादिनैव चः पुनरर्थे तेषां मनुजानां तीवमुत्कटं प्रेमबन्धनं समुत्ययते। तथापि क्षेत्रस्वभावात् प्रतनुप्रेमवचार पुग्मिन इति मनु चतुर्षु मनुष्येषु स्तुपासंबन्धो यथा तथा भ्रातृज्यागिनेयादिसंवन्धनसंग उप्यते कुबेरदत्ता स्वनाववत् सोऽप्युपलक्षणादू ग्राह्यः । परं स्फुटव्यवहारत्वेने मे एव संबन्धाः । अस्थि णं ते! भरहे वासे अरीया पाय वा बहुया पडिए वा पचामिच वा यो इण्डे समझे वगसाणं ते मलुआ परणत्ता । समणाउसो ! | अरिः सामान्यतः शत्रुः वैरिको जातिनिबद्धवैरोपेतः । घातको योऽन्येन घातयति वधकः । स्वयं हन्ता व्यथको वा चपेटादिना ताकः । प्रत्यनीकः कार्योपघातकः । प्रत्यमित्रो यः पूर्व मित्रं नूत्वा पश्चादमित्रो जातः श्रमित्रसहायो वा । श्हाचार्यः नायमिति यतो व्यपगतो जयोऽनुशयः पापयेयस् थारं कृत्वा दिविपाके पुमानशेते इति । अस्थि भंते! भरहे वासे मित्ताइ वा वसाइ वा - इ वा संघाटिएइ वा सहाइ वा मुहीइ वा संगएइति वा हंता अस्थि हो चैत्र एां तेसिं माणं तिब्बे रागबंधणे समुपजा । पत्रमित्र स्नेहास्पदययस्यः समानवयाः गाढतरवास्पदं ज्ञातकः स्वज्ञातीयः । यथा ज्ञातकः संवासादिना ज्ञातसहजपरिचित इत्यर्थ । संघाटिकः सहचारी । सखा समानखादनपानोद्वाढतमस्नेहास्पदम् । सुहृद् यः मित्रमेव सकल कालमव्यभिचारी तिलोदेशदायी व साइतिकः संगतिमात्रघटितः । तेत्यादि पूर्वमनुजानी रामरूपं धनं समुत्पते। 'अस्थि अंते रहे पासे आवाहा या बीवाडा या ज योसप्पिणी पाड़वा सच्चाइ वा थालीपागाइ वा मितपिंमनिवेदणाइ वा णो इण्डे समडे वगयावाहूवीवा हजएसकचालीपागमितपिंड निवेदणाणं ते मनुया पणत्ता समाउसो ! | 1 अत्र चाह । आडूयन्ते स्वजनास्ताम्बूलदानाय यत्र स आवाहः । विवादात्पूर्वं ताम्बूनदानोत्सवः । विवाहः परिणयनं । यज्ञः प्रतिदिवस स्वष्टदेवतापूजा आपितृक्रिया स्थालीपाकः संप्रदायगम्यः । मृतपिण्डनिवेदनानि मृतेभ्यः श्मशाने तु तृतीयनवमादिषु दिनेषु विनितरं नायमर्थः समर्थः । व्यपगताऽवाविवाहस्थली पाकनिदा मनुजाः प्रकृताः । अस्थि जंते भर वासे इंदमहाइ या खंदाजखअवरुतमागदादी रुक्खपण्यमचे अमहाइ वा यो इसम वयमहिमा ने मया पता। इन्द्रः प्रतीतः तस्य महः प्रतिनियतदिवसभावी उत्सवः । एवमग्रेऽपि । स्कन्दः कार्तिकेयः । नागो जवनपतिविशेषः । यज्ञनूतौ व्यन्तरविशेषौ । (अवमत्ति) अवटः कृपः । तमागः सरः । न्हनदीवृकपर्वताः प्रतीताः । स्तूपः पीठविशेषः । चैत्यं चेदेवतायतनम् । अत्राह । व्यपगतमहिमानस्ते मनुजाः प्रप्ताः । अस्थि भंते रहे वासे डपेच्छा वा जनममुवेलंग कहगपवगलासगपेच्छाइ वा लो इण्डे सम aaratari ते मणुया पणत्ता समणानसो ! | नदा नाटवितारः तेषां प्रेकणकं कौतुकदर्शनोत्सुकजनमेलकः । एवमग्रेऽपि । नृत्यन्ति स्म नृत्ताः कर्तरि तप्रत्ययः नृत्तविधायिनः । जल्लावरत्राखेकाः । मल्ला भुजयुद्धकारिणः । मौष्टिका मला ये मुनिप्रति विदूषकाः मुख कारादिभिर्जन हास्योत्पादकाया सरसकथाकथन - तुरसोत्पत्तिकारकाः का ये जम्पादिनिदि गर्तादिलङ्घनकारिण इत्यर्थः । अथवा तरन्ति नद्यादिकं ये इति लासका ये रासकान् ददति तेषां प्रेक्का उपलक्षणादाख्यायककादिग्रहः । श्रत्रोत्तरं नायमर्थः समर्थः । यतो व्यपगतकुतूहलास्ते मनुजाः प्रप्ताः ॥ अस्थि जेते भरदे वासे सगाई या रहाड़ वा जाणाइवा जुग्गगिनिथिह्निसिविसंदमाणी आइ वा पो इट्ठेसमडे पायचारविहाराणं ते मया पणत्ता समाउतो । अत्र शकटानि प्रतीतानि । रथाः क्रीकारथादयः । यायन्ते गम्यते पभिरिति व्युत्पत्या यानानि उक्तवक्ष्यमाणातिरिक्तानि गन्ध्या नि पुरुषसमाकाशयानं जपानमित्यर्थः (गित्ति) पुरुषयोटिक मोलिका ( विलित्ति निर्मिती यानविशेषः शिविका प्रतीता । स्यन्दमानिका पुरुषायाम प्रमाणा शिबिकाविशेषः । अत्र प्रतिवचनं नायमित्यादि पादचारेण न तु शकटादिचारण विहारो विचरणं येषां ते तथा । मनुजा इति ॥ अणिं भंते! भरहे वासे गावी वा महिसी वा अया वा एलगाइ याता अस्थि हो चैत्र तेर्सि परिभोगता हव्यमागच्छति ॥ अत्र गोमहिष्यजाः स्पष्टाः । एकका उरजा श्राह । न च तेषां मनु Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोसप्पिणी अनिधानराजेन्द्रः । अोसप्पिणी घ्याणां परिजोग्यतया कदाचिदागच्छन्ति नैतासां मुग्धादि तेषा- बहुसमरमणिजे भूमिभागे पलत्ते । से जहाणामए आग्निंमुपभोग्यमिति यावत् ॥ गपुक्खरेइ वा॥ अत्यि णं भंते ! जरहे वासे आसाइ हत्थिनट्टगोणगवय अत्र गर्ता महाखाएमाः । दरी मूषिकादिकृताध्वीखएमा । अ. अयएलगपसयमिअवराहरुरुसरभचमरसंवरकुरंगगोकम- अपांतःप्रपातस्थानम् । यत्र चलन् जनःसप्रकाशेऽपि पतति ।प्रमाइया हंता । अस्थि णो चेव णं तेसिं परिजोगत्ताए ह- पातो नृगुः यत्र जनः कांचित्कामनां कृत्वा प्रपतति । विषमं दुराव्वमागच्छति ।। रोहावरोहस्थानम् । जलं स्निग्धकर्दमाविलस्थानं यत्र जनोऽत किंत एव पतति । नायमर्थःसमर्थ इत्यादि न सन्तीत्यर्थःजारते अत्राश्वाः हस्तिनः उष्ट्राः प्रतीताः। गोणा गावः गवयो वनग वर्षे बहुसमरमणीयो भूमिभागो यतः प्रज्ञप्तः । “से जहाणामए" वः । अजमको स्पष्टौ। प्रश्रया विखुरा आटव्यपाविशेषाः। मृग इत्यादि वर्णकं प्राग्वज शेयम् ॥ वराही व्यक्तौ । रुरवो मृगविशेषाः। शरजा अष्टापदाः। चमरा अरण्यगवा यासां पुच्छकेशाचामरतया भवन्ति । शम्बरा येषाम अत्थि भंते! जरहे वासे गणूइ वा कंटगतणकयवराइ नेकशाखे टङ्गे भवतः । कुरङ्गगोकर्णी मृगभेदौ । शृङ्गवर्णा वा पत्तकवयराइ वा णो णहे समढे ववगयगणुकंटगभदिविशेषाश्च सामर्थ्याफम्याः । अत्रोत्तरं हन्तेति कोमलामन्त्र- णकयवरपत्तकयवराणं सा समा परमत्ता ।। णे सन्ति न चैव तेषां प्रथमसमाभाविना मनुष्याणां यथासनव- अत्र स्थाणुरूवकाष्ठं कएटकः स्पष्टः। तृणान्येव कचवरः पत्रामारोहणादिकार्येषूपयुज्यन्ते ॥ एयेव कच्चवरः । अत्राह नेत्यादि । यतो व्यपगतस्थाणुर्यावत्पत्रअथ श्वापत्प्रश्नसूत्रमाह ॥ कचवरा सा सुषमसुषमानाम्नी समारकः प्रज्ञप्तः ॥ अस्थि णं भंते! जरहे वासे सीहाइ वा वग्याइ वा विग- अत्थि णं भंते जरहे वासे मसाइ वा मसगाइ वा जूदीविगच्छतरच्चमित्रालाइ वा वेरालसुणगकोकंतिअको- आइ वा निक्खाइ वा ढिंकुणाइ वा पिसुआइ वाणो इण्टे लसुणगाइ वा हंता अस्थि णो चेव णं तसं मणुाणं | समढे ववगयडंसमसगजूअनिक्खादिकुणपिसुअउवद्दवविरआवाहं वा पवाहं वा विच्छेअं वा उप्पाएंति पयमिजद्द- | हिआणं सा समा परमत्ता॥ याणं ते सावयगणा परमत्ता । समणाउसो!॥ अत्र दंशमशकयूकालिक्षाः स्पष्टाः। ढिडूणा मत्कुणाः यदाहुः। अत्र सिंहाः केसरिणः । व्याघ्राः प्रतीताः । वृकाः ईहामृगाः । श्रीहेमसूरयो देश्या "मकुणए टिंकुणढकुणा तहा ढंकणापिहाद्वीपिनश्चित्रकाः । ऋकाः अच्चनल्लाःतरक्तवो मृगादनाः। शृगा- णीप इति" पिशुकाश्चञ्चटा अत्राचार्यः। व्यपगतदंशमशकयूया व्यक्ताः । विसाला मार्जाराः । श्वनकाः श्वानः । कोकन्तिका कालिक्षा तथा ढिङ्कणाः पिशुकोपद्रवविरहिताः पश्चात्कर्मधासोमटिका ये रात्री कोको इत्येवं रवन्ति । कोबसुनका महामूक- रयः सा समा प्रज्ञप्ता । अत्र सूत्रे व्यपगतेत्यादिविशेषणस्य राः। अत्रोत्तरं सन्ति परं नैव तेषां मनुजानामावाधां वा ईषद्बाधा कर्मधारयं विना व्याख्यानं करणे प्रस्तुतमूलादर्श "विरहिअवा प्रबायां वा विशेषेण बाधां विच्छेदं वा चर्मकर्तनमुत्पाद- ति" पदं प्रमादापतितमिति शेयम् । तदर्थस्य तत्वतो व्यपगत. यन्ति । यतः प्रकृति नष्कास्ते श्वापणाः प्रज्ञताः ॥ पदेनैवोक्तत्वात् । अत्थि णं भंते!जरहे वासे सालीति वा वीहिगोहमजब- __ अस्थि एणं भंते! भरहे वासे अहाइ वा अयगराइ वा हंता जवा कलमसूरमुग्गमासतिलकुलत्थिरिणप्फावालिसंदग- अस्थि णो चेव णं तेसि मणुाणं आवाहं वा जाव पगयसिकुसुंजकोदवकंगुबरगरालगमणसरिसवमूलगवीआश्वा | भद्दयाणं ते वालगणा पत्ता ॥ हंता अस्थि पो चेव णं तेसिं मााण परिनोगताए अत्राह ये सामान्यतः सर्पाः अजगराः महाकायसः शेष हनमागच्छति ॥ पूर्ववत् । यतः प्रकृतिभद्रकास्ते ब्यालगणाः सरीसृपजातीयअत्र शालयः कामादिविशेषाः। वीदयः सामान्यतः। गोधूमय गणाः प्रज्ञप्ता इति । अग्रे ग्रहयुद्धसूत्रं जीवाभिगमादिषुसाक्षाचौ प्रतीती। यवयवा यवविशेषाः (कबत्ति) कारिखपुटा द् दृष्टमपि एतत्सूत्रादर्शषु न दृष्टमिति व्याख्यायामप्यलेखि । ख्या वृहच्चणका वा मजूरा मालवादिदेशप्रसिकाः धान्यवि अस्थि णं नंते भरहे वासे मिवावा कलहवोलखारवश्रमशेषाः । मुझमाषतिलाः । कुबत्थाश्च पत्रकतुल्याश्चिपिटा नवन्ति- हाजुकाइ वा महासंगामाइ वा महासस्यपडणाइ वा महापुनिष्पावा चल्लाः (आविसंदगत्ति)चपकाः अतसी धान्यं यस्य रिसपमणाइ वा णो इण समडे वगयवराणुबंधा णं ते तैलमतसीतैसमिति प्रतीतम् कुसुंजत्ति) बट्टकेणाः यत्पुष्पैर्वस्त्रादिरागः समुत्पाद्यते। कोज्वाः प्रतीताः। कङ्गवः पीततामुलाः। मणुा पम्मत्ता ॥ (वरगत्ति) वरगो धान्यविशेषः सपाद सक्वादिषु प्रसिकारा अत्र डिवडमरौ पूर्ववत् कलहो वचनादिः । बोलो बहूनामाबकः कङ्गविशेष पव स चायं वृहच्चिराः। कल्पशिरालकः। नामव्यताक्षरध्वनिकलकलः क्षारः परस्परं मत्सरः । वैरं शाणं यकप्रधाननासो धान्यविशेषः । सर्षपाःप्रतीताः । मूत्रक परस्परमसहमानतया हिंस्यहिंसकताध्यवसायः। महायुद्धानि वीजकादिकाः रूढितोऽवसयाः सन्त्येते परं न च ते नपभोगमाग व्यवस्थाहीनमहारणाः महासंग्रामाश्चकादिव्यूहरचनोपेततयाच्छन्ति कल्पद्रुमपुष्पफलानाहारकत्वात्तेपामिति ॥ संव्यवस्था महारणाः । महाशस्त्राणि नागबाणादीनि तेषां निअस्थि णं भंते !जरहे वासे गत्ताइ वा दरी ओवाय पतनानि हिंसाबुध्या वैरिषु मोचनानि । महाशस्त्रत्वं चैतेषाम द्भुतविचित्रशक्तिकत्वात् । तथा हि नागवाणा धनुष्यारोपिता पवायविसमविज्जालाइ वा पो इणहे समढे जरहेणं वासे- बाणाकारा मुक्ताश्च सन्तो जाज्वल्यमानाः सद्यश्चोल्कादण्ड Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) अभिधानराजेन्द्रः । सप्पिणी रूपास्ततः परशरीरे संक्रान्ता नागमूर्तीभूय तफात्रमनुवन्ते । तामसवाणास्तु सकलरणव्यापिमहान्धतमसरूपतया पवनबाणाच्च तथाविधपवनस्वरूपतया वह्निबाणाश्च तादृशवह्निप्रकारेण ते प्रतिवैरिवाहिनी विनोत्पादका भवन्ति । एवमन्येऽपि स्वस्वनामानुसारेण स्वस्वजन्य कार्यमुत्पादयन्ति । उक्तंच "चित्रं श्रेणिकवाणास्ते, भवन्ति धनुराश्रिताः। उल्कारूपाश्च गच्छन्तः शरीरे नागमूर्तयः क्षणं बाणाः क्षणं दण्डाः, क्षणं पाशत्वमागताः। श्रमराद्यस्त्रभेदास्ते, यथा चिन्तितमूर्तयः” । महा पुरुषाश्छत्रपत्यादयस्तेषां पतनानि कालधर्मनयनानि । तत एव महारुधिराणिपत्यादिसत्करुधिराणि तेषां निपतनानि प्रवाहरूपतया वाहनानि । श्रत्रोत्तरं नेत्यादि । यतस्तपगतो वैरस्यानुबन्धः सन्तानाभावेन प्रपर्ती येते तथा मनुजाः प्रशप्ताः । अस्थि भंते! भरदे वासे अन्भूयाणि वा कुलरोगाइ वा गामरोगाइ वा मंडलरोगाइ या पेहलीसवे आणाइ वा को तराइ वा कासाइ वा सासाइ वा सोसाइ या दाहाइ वा अरिसाइ वा अभिपागाइ वा उदओदराइ वा पंडुरोगाइ वा जगंदराइ वा एगाहि वा वेगाहिर वा ते आहि वा चउत्यहि आइ वा ईदग्गहाइ वा गहा वा खंदग्गदाइ वा कुमारन्गहाइ वा जवखग्गद्दाइ वा भूअ गाइ वा मत्थसूलाइ वा हियपोट्टकुच्छिजोणिसूलाइ वा गाममारी वा जाव सणिवेसमारोह वा पाणिक्य जणबखया फुलक्खया बसपूभ्रमणारिया णो इाद्वे समझे aarयरोगायका णं ते मणुत्रा पणत्ता समानसो ! ॥ अत्र दुष्ट जनधान्यादीनामुपवासत्रा अभयमुखा तय त्यर्थः कुखरोगा प्रारोगा मदरोगा पोटरं बहुस्थानव्यापिनः ( पेट्टत्ति ) देशत्वादरं शीर्ष मस्तकं तद्वेदना कर्णेौष्ठानि वेदना कण्ठ्याः कासयासी व्यक्ती। शोषः कयरोगः दादः स्पष्टः । अर्शो गुदाङ्कुरः । श्रजीर्ण व्यक्तं दकोदरं जलोदरं पाण्डुरोगभगन्दरी प्रतीती। एकाहिको यो वर एकदिनान्तरित आयाति । एवं द्विदिनान्तरितो द्वयाहिकः। त्रिभिदिनैरन्तरितः प्रयादिकः चतुर्थेन दिनेनान्तरितश्चतुर्थादिकः । इन्द्रादयस्तु उन्मत्ततादि देतच व्यन्तरादिदेवकृतार्थ संप्रदायगभ्यः मस्तकशुनादीनि प्रतीतानि प्रामे उत्तस्वरूपे मारियुगपकोगविशेषादिना बहूनां काउपर्मप्राप्तिः । एवमप्रेप यावत्करणान्नगरमारिप्रभृतिपरिग्रहः प्राणिकयो गवादिकयः । जनकयो मनुष्ययः कुरुते च कथंभूता इत्याह । व्यसनभूता जनानामापद्भूताः । अनार्याः पापात्मकाः अत्र विभक्तिलोपमकारागमौ प्राकृतत्वात् । श्रत्राह नेत्यादि । व्यपगतो गश्चिरस्थायी कुष्ठदिरात श्रापाती शूलादियेन्यस्ते तथा मनुजाः । प्रप्ताः । हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! | (७) अचेषां मवस्थिति पृच्छति। तीसे जंते! समाए रहे वासे मणुआ णं केवइअं कार्ल ठिई पण्णत्ता । गोयमा! जहोणं देणाई तिमिपलिवमाई उकोसणं तिथिपलिओमाई ॥ प्रापकं सूत्रमेतत् । नवरं देशोनानि त्रीणि पल्योपमानि स्थि ओसपिणी विमितीयमेायानं देशाच पत्योपमासंस्थेयभागरूपो यो यजीयाभिगमे देवकुरुत्तरकुरु खियमधिकृत्य "देवकुरुउत्तरकुरुप्रकम्मऩमगमपुस्सित्थीणं भंते ! केव काला पिता । गोयमा ! देसूणाई तिमिपलिश्रोवमा पनिभोवमस्स असंखेज भागणं कणगाएं उक्कोसेणं तिष्ठि पलिओदमाई ” । श्रथावगाहनां पृच्छन्नाह । तीसे णं जंते! समाए भरहे वासे माणं सरीरा केव इया उच्चत्ते पत्ता गोयमा ! देसूणाई तिएिगाउआई कोसेणं तिरिगाउाई तेषं जंते ! मणुत्र्या किं संघयणी पणचा गोवमा ! बरोभणारायसंपवणंी । सुगमं नयरं देशोनास्त्रयः क्रोशा अधिमिमीप्रत्ययः परासिया " इति वचनात् यद्यपि “सहसिग्राम " इति पूर्वसूत्रेणैतेषामवगाहना बज्यते तथाऽपि जधन्योत्कृष्ट विधानाचे पुनरयगाद मासुषारम्भ इति (मित्यादि) अत्र किं च तत् संहननं चेति कर्मधारयः । पश्चादस्त्यर्थे इनिः । प्रत्ययः गतवर्षनारायसंह निनस्ते मनुजा इति ॥ ८८ - एतेसि ते आणं सरीरा किं संाि पाएना गोयमा ! समच उरस्ससंठाए संविया तेसि णं मणुप्राणं वि पणा पिडकरंडयसया पण्यचा समाउसो ! | सुग नवरं किं संस्थितं संस्थानं येषां ते तथा यद्यपि पूर्व वर्णकसूत्रे विशेषणद्वारा एषां संहननादिकमाख्यातं तथापि सवैषामपि तत्कालभाविनामेकसंहननादिमात्र ताख्यापनार्थमस्य सूत्रस्य प्रश्नोत्तरपत्यादिनिर्देशेन न पौनरुक्त्यमाशङ्कनीयम् । गत चाप्रवर्तिनि पृष्ठकर एकसूत्रे तीसे भंते! माम त्यत्र " केवश्या पिठकरंडगलया पत्ता गोश्रमा ! " इति प्रसूषांशोऽध्यादार्थ ति तणिमित्यादि) तेषां पृष्ठ करण्मकशतानि पूर्वोक्तरूपाणि क्रियन्ति श्रत्र भगवानाह । द्वे षट् पंचाशदधिके स्पृएकरएक इत्यर्थः " से भंते! या कालमाने का किया कहिं गच्छति कहिं नववज्जंति गोयमा ! बम्मासावसेसाना णं जुग्रलगं पसर्वति एगुण पपपराईदिआई संरवर्खेति संगोर्वेति कासि ताजीना गंजाइसा अकिलिडा अन्न हिमा अपरिष्याविया कालमासे कालं किवा देवलोएस उववज्जंति देवलोए परिग्गहा णं ते मणुआ य देवलोए अपरिग्गहा णं ते मपुत्रा परणत्ता । ते मनुजाः कालस्य मरणस्य मासो यस्मिन् कालविशेषः अवश्याधर्मः तस्मिन् का कृत्या मासस्योपका दिवसे इत्याद्यपि गच्छन्ति पि "देवलोपसु उववजंती "त्येकमेवोत्तरं गमनपूर्वकत्वात्पादस्योत्पादानिधाने गमनं सामर्थ्यादवगतमेवोत्पात शय्याया इति । श्रथ या गतिर्देशान्तरप्राप्तिरपि भवतीति गच्छन्तीत्येतदेव पर्यायेपाच उत्पद्यन्ते पत्तिधर्माणो नयन्ति धत एवोत्तरसूत्रे'उप'वज्जती' त्येवोक्तः स्वास्याह गौतमेति । षएमासावशेषायुषः कृतपरभवायुर्यन्धा इति गम्यं युगलकं प्रसुवत इति । खिजागाही परभवायुधानामाह तचैकोनपञ्चाशतं रात्रिदिवान्यहोरात्राणि याच संस्कृति उचितचारकरणतः पा जयन्ति संगोपायन्ति भनाभोगेन हस्तखलकृष्टेभ्यः संरक्ष्य संगोप्य Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०) प्रोसप्पिणी अभिधानराजेन्डः । अोसप्पिणी चकासित्वा कासं विधाय चुतं विधाय जम्भयित्वा जम्भांविधाय अ यगिरिपादैरपि श्रीवृहत्संग्रहणीवृत्ती देवानामाहारोच्चासान्तक्लिष्टाःस्वशरीरोत्थक्लेशवर्जिता अव्यथिता परेणानापालितदुःखा कासमानाधिकारे "दसवासहस्साई,समयाई जाव सागरं उर्ण। अपरितापिताः स्वतः परतो वा अनुपजातकायमनःपरितापा। पतेन | दिवसमुहुत्त हुत्ता, आहाररस समासेणं" इत्यस्या गाथाया अ. तेषां सुखमरणमाह । काममासे कालं कृत्या देवलोकेषु ईशाना-1 र्थकथनावसरे कृतमस्तीति सर्व सुस्थमिति । न्तं सुरलोकेषूत्पद्यन्ते । स्वसनानायुकसुरेष्वेव तत्पत्तिसंजवा- अथ तदा मनुजानामेकत्वमुत नानात्वमिति प्रश्नयन्नाह । त् । अत्र कालमास शति कथनेन तत्कान्नाविमनुजानामकाब- तीसेणं भंते समाए भरहे वासे काविहा मणस्मा। आणुमरणनावमाह । अपर्याप्तकान्तर्मुहर्तकालानन्तरमनपवर्तनीया सजित्या गोयमा विहातं जहा पम्हगंधा १ मिअगंधा युष्कत्वात् । अत्राह कश्चित् । ननु सर्वथा वर्तमानभवायुः कर्मपुद्गलपरिशाटकालस्यैव मरणकालत्यात् । कथमकालमरणमु अममा ३ तेअतली सहा ५ सणिचारी ६। पपद्यते । यदन्नावो वर्तमानसमयो निरूप्यते इति चेत्सत्ये द्विधा तस्यां समायां भगवन! जरते वर्षे कतिविधा जातिनेद कति प्रह्यायुर्नरतिरश्चामपर्वर्तनीयमनपर्वर्तनीय च । तवाद्य बहुकालवेद्य कारा मनुष्या अनुषक्तवन्तः तत्कालान्तरमनुवृत्तवन्तः।सन्ततितत्तथाऽभ्यवसाययोगजनितम्लथवन्धनधरूतयोदोर्णसर्वप्रदेशाग्र भावेन भवन्ति स्मेत्यर्थः । नगवानाह। गौतम! पबिधास्तमपवर्तनाकरणवशादल्पायुः । कालेन रज्जुदहनन्यायेन किन्न घथा। पनगन्धा१मृगगन्धाः २ श्रममाः ३ तेजस्तविनः । वासो न्यायन मुष्टिजलन्यायेन वा युगपद्वेद्यते । इतरस्तु गाढब सहाः ५ शनैश्चारिणः ६ मे जातिवाचकाः शब्दाः संझाशब्दधनवम्तया न प्रवर्तनायोग्यं क्रमेणावेद्यते । तेन बहुषु वर्तमा त्वेन रूढाः। यथा पूर्वमेकाकारापि मनुष्यजातिस्तृतीयारकप्रान्ते नारकोचितमनपवर्तनीयमायुः ऋमेणानुन्नवत्सु सत्सु यावदेक श्रीऋषनदेवेन उग्रनोगराजन्यकत्रियभेदैश्चतुर्वा कृता । तथास्य कस्यचिदायुः परिवर्तते तदा तस्य लोकैरकालमरणमिति ऽत्राप्येवं पविधा सा स्कनावत एवास्तीति । यद्यपि श्री अन्नयव्यपदिश्यते "पढमो अकालमच्चू" इत्यादिवत्।ते चान्यदाऽ का. देवसूरिपादः पञ्चमाङ्गषष्ठशतसप्तमोद्देश्यके पन्नसमगन्धयःमृगसमरणस्यापि संभवान्न तदानीं तनिषेध शति न दोष इति । अ मदगन्धयः ममकाररहिताःतेजश्च तवं च रूपं येषामस्तीति तेजथ कथं तहेवोकेषूत्पद्यन्ते इत्याह । यतो देवलोको नवनपत्या स्तलिनः सहिष्णवः समर्थाः । शनैर्मन्दमुत्सुकत्वानावाचरन्तीत्येद्याश्रयस्तस्य तथाविधकालस्वन्नावात् । तद्योग्यायुर्वन्धेन परि वं शीला श्त्यन्यर्थता व्याख्यातास्ति। तथापि तथाविधसंप्रदायाग्रहोगीकारो येषां ते तथा । देवलोकगामिन इत्यर्थः । एषा चै भावातू असाधारणव्यजकानावे नैतेषां जाति प्रकाराणां उर्वोकोनपञ्चाशद्दिन वधिपरिपालने केचिदेवमवस्थामाहुः । “सप्तो धत्वं जीवानिगमवृत्तौ च सामान्यतो जातिवाचकतया व्याख्यातानशया बिहन्ति दिवसान्, स्वाङ्गठमार्यास्ततः कौरिङ्गन्ति प नदर्शनाच्च न विशेषतो व्यक्तिकृतेति प्रथमारकः । (७) अथ द्वितीयारकव्याख्या। दैस्ततः कलगिरो यान्ति स्खद्भिस्ततः । स्थेयोनिश्च ततःकलागणभृतस्तारुण्यभोगोकताः, सप्ताहेनततो जवन्ति सुटगादाने तीसे णं समाए चरहिं सागरोवमकोमाकोमोहिं काले वीपि योग्यास्ततः"अत्र व्याख्या आर्याः सप्तदिवसान् जन्मदिवसादि इकते अणंतहिं वामपन्जवेहि अणं तेहिं गंधपज्जवहिं अएंतेकात् यावत् उत्तानशयाः सन्तःस्वाङ्गुष्ठ बिहन्ति ततो द्वितीयसप्त- हिं रसपज्जवेहिं अणंतेहिं फासपज्जवहिं अणंतेहिं संघयणके पृथिव्यां रिङ्गन्ति ततस्तृतीयसप्तके कलगिरोऽध्यक्तवाचोभवन्ति पज्जवेहिं अणंतेहिं संवागपज्जवेहिं अएंतहि उच्चत्तपज्ज-' ततश्चतुर्थसप्तके स्वाद्भिः पदैः यान्तिः । ततः षष्ठसप्तके कला वेहिं अणंतेहिं आयुपज्जवहिं अणंतहिं गुरुवहुपज्जवेहि गणनृतो जवन्ति । ततः सप्तमसप्तके तारुण्यनोगोकताः भवन्ति। केचिच सुगादानेऽपि सम्यक्त्वग्रहणेऽपि योग्या भवन्तीति क्रमः। अणंतेहिं अगुरुखहुपज्जवेहि अणंतेहिं उट्ठाण कम्मबइंद चावस्थाकालमानं सुषमायामादौ झेयम् स्तः परं किचिदधि सवीरिअरिसकारपज्जवेहिं अणंतोहं गुणपरिहाणीए पकमपि संजाव्यते इति । अत्र प्रस्तावात् कश्चिदाह । अथ तदा- रिहायमाणे । एत्थ पं सुसमसुसमाणामं समा काले ग्निसंस्कारादेरप्रादुर्जूतत्वेन मृतकशरीराणां का मतिरित्युच्यते । पडिवाजिम समणाउसो। नारुण्मप्रभृतिपक्षिणस्तानि तथा जगत्स्वाभाव्यात् नीमकाष्ठमिवोत्पाद्य मध्येसमुफक्किपन्ते । यमुक्तं श्रीदेमाचार्यकृतऋषभच तस्यां सुषमसुषमानाम्न्यां समायां चतसृषु सागरोपमकोटाकोरित्रे "पुरा हि मृतमिथुनानां, शरीराणि महाखगाः। नीमकाष्ठमि टीषु काले व्यतिक्रान्ते सति सूत्रे च तृतीयानिर्देशः आर्षत्वात् । योत्पाद्य, सद्यश्चिकिपुरम्बुधौ।" किंचात्र श्लोके अम्बुधावित्यु अथवा चतसृनिःसागरोपमकोटाकोटीनिः काममिते गमिते या पलक्षणं तेन यथायोगं गङ्गाप्रभृतिनदीष्वपि ते तानि विपन्ती एतेनेत्यादि शब्दाध्याहारण योजना कार्या । अत्र च पक्षे करणे ति केयम् । ननु चोत्कृष्टतोऽपि धनुःपृथक्त्वमानशरीरैस्तैरुत्कृष्ट तृतीया झेया । अत्रान्तरे सुषमानाम्ना समाकालः प्रतिपन्नवान् प्रमाणानि तानि कथं सुवहानि इत्यत्रापि समाधीयते । युग्मि- अगति स्मेति वाक्यान्तरसूत्रयोजना सुषमाचोत्सर्पिण्यामपि नये. शरीराणामम्बुधिवेपस्य महारागकृतत्वेन बहुषु स्थानेषु प्रति- दित्याह । अनन्तगुणपरिहायमाणं २ हानिमुपगच्छन् २सूत्रे च पादनादवशीयते। यत्परं "काधणुहतमि" त्यत्र सूत्रे जान्यपेक्तया हिर्कचनमनुसमयं हानिरिति हानेः पौनःपुन्यज्ञापनार्थम् । एकवचननिर्देशस्तेन क्वचिद्ववचनं व्याख्येयं तथा वसति अथ कालस्य नित्याव्यत्वेन हानिरुपपद्यते । अन्यथाऽहोरात्रं पक्तिशरीरमानस्य यथासंभवमरकापेक्कया बहु बहुतरबहुतम- सर्बदा त्रिंशन्मुहूर्तात्मकमेव न स्यादित्यत श्राह । अनन्तैर्वर्णधनुः पृथक्त्वरूपस्यापिसंभवात्ततःकात्रवर्तियुग्मिनरहस्तादिश- पर्यायरित्यादिवर्णाः श्वेतपीतरक्तनीलकृष्णभेदात् पञ्च । कपिरीरापेक्कया बहुधनुःपृथक्त्वपरिमाणशरीरैस्तैन किंचिदपि तानि शादयस्तु तत्संयोगजास्ततः । श्वतादेरन्यतमवर्णस्य पर्ययधुफ़िपुर्वहानीति न काप्यनुपपत्तिः संभाव्यते । तत्वं बदुश्रुतगम्यम् । कृता निर्विभागाभागा एकगुणाश्च तत्यादयः। सकलजीवराशेएवं च सूत्रे एकनचननिर्देशेऽपि बहुवचनेन व्याख्यातम् । श्रीमल-1 रनन्तगुणाधिकास्तैरनन्ता ये गुणा अनन्तरोत्तस्वरूपाभागास्तेषां Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) अनिधानराजे ओसप्पिणी 61 परिहानिरपचयस्तथा प्रकारभूतया इत्यर्थः । हीयमानः २ सुषमा काटाविशेष इति योज्यम् । एवमग्रेऽपि योजना कार्या । अथ यथैषामनन्तत्वमनुसमयमनन्तगुणहानिश्च तथा दर्श्यते । तीसे णं समाए उत्तमक पत्ताए" इति प्रागुक्तबलात् । प्रथमसनये कल्पद्रुमपुष्पफत्नादिगतो यः श्वतो वर्णः स उत्कृष्टः तस्य केवलाद्यमाना यदि निर्विभागा जागाः कियन्ते ति अनन्ता भवन्ति तेषां मध्यादनन्तनागात्मक एको राशिः प्रथमा यति एवं तृतीयादिखमयेष्वपि वाच्यम् । यावत्प्रथमारकान्त समयः । एवैव रीतिरवसर्पिणीचरमसमयं यावत् वा अत एवानन्तगुणपरिहाणीत्यत्र अनन्तगुणानां परिहारित पट्टीतत्पुरुष एच विधेयो न तु अनन्तगुणा थासी परिहाविति कर्मधारयः । गुणशब्देश्य भागपयवचनो अनुयोगद्वारा एकगुणकालपर्ययविचारे सुस्पाय तः श्राह । एवं सति श्वेतवर्णस्यासन्न एव सर्वथोच्छेदस्तथा च सति श्वेतवस्तुनोऽश्वेतत्वप्रसङ्गः । एतच्च जातिपुष्पादिषु प्रायविरुद्ध उपते । आगमेऽनन्तकस्यानन्यभेदत्यात् । श्रीमानागानामनन्तकल्पं ततो मौराशेः भागानन्तर्क बृहश्रमवगन्तव्यम् । यदि नाम सिकस्यापि प्रव्येषु लोकेषु न ते मनन्तकाल तोsपि निर्लेपता आगमेऽभिहिता किं पुनः सर्वजीबेयोऽनन्तगुणानामुपगन च ते संख्याता पत्र सिद्ध्यन्ति श्मे तु प्रतिसमयेऽनन्ता हीयन्ते इति महद्दृष्टान्तवैषम्य मिति वाच्यं यतस्तत्र यथा सिध्यतां भव्यानां संख्यांकानां तथा सिचेः कालोऽनन्तः । एवमन्यत्रापि यथा प्रतिसमयमनन्तानामेषां हीयमानता । तथा हानिकालोऽवसर्पिणी प्रमाण एव ततः पर मुत्सर्वप्रथममादादेव क्रमेण वर्धन्ते इति सर्व सम्यगेव । पीतादिषु गन्धरसस्पर्शेषु च यथासंभवमागमाविरो धेन भावनीयं तथा अन तैः संहननपर्यवैरिति संदननानि अस्थिनिचयरचनाविशेषरूपाणि । वज्रऋषभनाराच ऋषजनाराच नाराचामाराकाभेदात् पद् । प्रस्तुते चारके आयमेव ग्राह्यम् । ऋषभनाराचादीनामभावात् । अन्यत्र यथासंभवं तानि ग्राह्याणि तत्पर्यचा अपि तथैव हापयनीयाः । संननेच शरीरे दजायते तथ सर्वोत्कृष्टं सुमसु माघसमये ततः परमनन्तैः पर्यवैः समये २ हीयते इति तथा संस्थानानि आवृतिरूपाणि समचतुरस्त्रम्यग्रोधखादिकुकवामन हुएमनेदारपोदा तथ तत्र प्रथमं प्रथमे समये सर्वोत्कृष्टं ततः परं तथैव दीयते इति तथात्वं शरोत्लेपस्तच तत्र प्रथमे समये त्रिगन्यूतप्रमाणमुत्कृष्टं ततः परं तत्प्रमाणतारतम्यरूपाः पर्यवाः अनन्ताः समये २ हीयन्ते । ननु उच्चत्वं दिशशरीरस्य स्वावगाढमूल क्षेत्रादुपरितनोपरितनननःप्रदेशत्यागादित्वं तत्पर्थनाथ एकद्वितिरावगाहित्वान्तादयोऽसंपाता पचमचगाइसंख्या तत्प्रदेशात्मकत्वात् । तर्हि कथमेषामनन्तत्वं कथं चानमतभागपरिहाण्या हीयन्ते इति चेदुच्यते । प्रथमारके प्रथमसमयो शरीरोचत्वं नयति ततो द्वितीयादिसमयोत्पन्नानोभावतामेकः प्रतरायगादि च पर्यचाणां दागिस्ताय पुलान्तकं दीयमानं द्रष्टव्यम् । आधारहीनावाधेय हानेरावश्यकत्वादिति । तेनोश्च पर्यवाणामप्यनन्तत्वं सिरूम नभः प्रतरावगाहस्य पुद्गलोपचयसाध्यत्वात् । तथा आयुर्जीवितं तदापि । तत्र प्रथमसमये पियोमा तदनन्तरं सत्पर्यवा अपि अनन्ताः प्रतिसमयं हीयन्ते । ननु पर्यवा एकसमयोना द्विवीमोना यावदसंख्यात समया उत्कृष्टा स्थितिरिति स्थितिः स्था प्रसप्पिणी नतारतम्यरूपा असंख्याता एवं आयुःस्थितेरसंख्याते समयात्मकत्वात् तर्हि कथं सूत्रे ऽनन्तैरायुः पर्यवैरित्युक्तम् । उच्यते प्रतिसमर्थ दीयमानस्थितिस्थानकारणी जूतानि अनन्तानि आयु कर्मदलिकानि परियन्ते ततः कारणानी कार्याने त्या तानि च नवस्थितिकारणत्वादायुः पर्यवा एव । अतस्ते अनन्ता इति यया अन्तैरुलघुपर्ववैरिति गुरुपुष्याणि बास्क वास्त व्याणि श्रदारिकर्म कियाहार कतैजसरूपाणि प्रकृते कियाहारकयोरनुपयोगस्तेनदारिकशरीरमाकृष्णदासमये बोध्याः ततः परं तथैव यते तेज समाधित्य कपोतपरिणामकारकृत सरं मन्दमन्दरादिवीका रूपइति तथा गुरु पर्यवैरिति । अाणि यानि प्रस्तुते व पौि कानि मन्यानि यथा पीहिकानां धर्मास्तिकायादीनामपि पर्यवहानिप्रसङ्गः । तानि च कार्मणमनोभावादिद्रव्याणि । तेषां पर्यवैरनन्तैस्तत्र कार्मण्यस्य सातवेदनीयगुननिर्माणसुखरसीभाग्यादेयादिरूपस्य बहु स्थितिमनुगृहा प्रदेशकत्वेन मनोवस्थ बहुग्रहणासंदिग्धग्रहणं ऊटिति ग्रहण बहुधारणादिमत्तया जाषाष यसोदारोपनीतरागतिनाविधावितादिरूपतया च तत्रापि समये उत्कृष्टता । ततः परं क्रमेणानन्ताः पर्यवा हीयन्ते । अनन्तैरुत्थानादिपर्यवैः तत्रोत्थानमूर्ध्वभवनं कर्मोत्क्रेपणादि गमनादि वा बलं शारीरं प्राणाः। वीर्ये जीवोत्साहः पुरुषकारः पौरुवाभिमानः पराक्रमश्च स एव साधिताभिमतप्रयोजनः । अथवा पुरुषकारः पुरुषक्रिया सा च प्रिया स्त्री क्रियते प्रकर्षवतीति तत्वात्तविशेषेण सह पराक्रमस्तु शत्रुविशासन तत एते प्राक्तनसमये उत्कृष्टास्ततः परं प्रतिपाद्याः तथैव हीयन्ते । तथा " संघयणं संगणं, उच्चत्तं आउश्रं च मणुश्राणं । श्रपुसयं परिहायश ओस्सपिणी कालदोसेणं ॥१॥ कोहमयमायसोभा, उसभं वहुए मपुत्राणं । कूरुतुलकुरमाणं, त्रेणाकुमाणेणस पि ॥ २ ॥ विससा अज्जतुत्रा व विसमाणि श्र जणवपसुमागाणं विसमाए य कुलाई, तेण न विसमाई वासा सिमेसु वाले हाँति साराई श्रसहियलाई ३ ॥ सहि णय, आनं परिहायश णराणं" ॥४॥ इति तरामु सवैकारिके अवसर्पिणीकदोषेण हानिका सावास्येन दुःषमामाश्रित्य शेषारकेषु तु यथासंभवं ज्ञेयेति । ननु निर्द्रव्यस्यापि - कालस्य कथं हानिरिति परकृतासंप्रवाशङ्कानिवारणार्थे वर्णादिपर्यवाणां हा निरुक्ता ते व पुलधर्मास्तर्हि अन्यधम हीयमाने विवक्तिः कालः कथं हीयत इति महदसंगतं तथा सति वृकाया वयोहानौ युवत्या अपि वपोदानिप्रसङ्ग इति चेत्र कालस्य कार्यवस्तुमात्रे कारणत्वाङ्गीकारात् कार्यगता धर्माः कारण उपचर्यते कारणत्यसंबन्धादिति ॥ अथ प्रस्तुतारकस्य रूपप्रश्नायाह । जंबुपेणं ते! दीवे इमीसे ओसप्पिलीए सुसमाए उत्तमकरूपत्चाए रहस्य वासस्स केरिसए आयारनावपमोयारे होत्या गोयमा ? बहुसमरमणिज्जे भूमिजागे होत्या । से जाणार आलिंगपुक्खरे वा तं चैव समसमाए पुच्चारणपरं णाणतं चणुसहस्सनूसिया एगे अावासे पिट्टकरंडुगसए ब्रट्टतत्तस्स आहारट्ठे चनसद्धिं राईदिई संरक्खं ति दो पविमाई आाउसेसं तं चे Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) योसप्यिागी अभिधानराजेन्द्रः। प्रोसप्पिणी प्रायः सूत्रं गतार्थमेव नवरं केवलं नानात्वं भेदः स चायं चतु-1 केरिसए आयारजावपमोआरे पुच्छा, गोत्रमा बहुसमरधनुः सहस्रोच्छ्रिताः क्रोशद्वयोच्चास्ते मनुजाः इति योगः मका मणिज्जे नूमिभागे होत्था सो चेव गमो णेअब्बो पाण रोऽवाक्षणिकः अष्टाविंशत्यधिकमेकं पृष्ठकरण्मुकशतं प्रथम्गकरोक्तपृष्ठकरणमुकानामर्द्धमिति यावत् तेषां मनुजानामिति योगः दो घणुसहस्साई । उहुं उच्चत्तेणं तेसिंणं च माणं चषष्ठजक्तेऽतिक्रान्ते आहारार्थःसमुत्पद्यते इति योगसूत्रे सप्तम्यर्थे उसटिपिट्टकरंडुगा चउत्थभत्तस्स आहारत्थे समुप्पज्जा षष्ठी सूत्रत्वात् चतुःषष्टिं रात्रिन्दिवानि यावत् संरक्कन्ति। अप- ठिई पनिओवमएगृणासीराइंदिआई संरक्खंति संगोवेति त्यानि ते मनुजा इति योगः तत्र सप्तावस्थाक्रमः पूर्वोक्त एव जाव देवमोगपरिगहिआणं ते मणुआ पमत्ता समणाउसो! नवरमेकैकस्या अथाऽवस्थायाः कालमानं नव दिनानि अष्टा "जंबुद्दीवेणमित्यादि" सबै गतार्थ नानात्वमित्ययं विशेषः । । घट्यश्चतुर्विंशत्पमानि । सप्तदश चाकराणि किंचिदधिकानीति धनुःसहस्र ऊध्वोच्चत्वेन कोशोचा इत्यर्थः । तेषां च मनुष्याणां चतुःषष्टौ सप्तनिर्जाग एतावत एव लानात् । यश्च पूर्वेभ्योऽधिकोऽपत्यसंरकणकालस्य दीयमानत्वेनोच्यादीनां हीयमानत्वा चतुःषष्टिपृष्ठकरएफुकानि अष्टाविंशत्यधिकशतस्यार्थीकरणेए तावत एव लाभात् । चतुर्थे भक्तेऽतिक्रान्ते आहारार्थः। समुदनूयसाऽनेहसा व्यक्ततानवनादिति एवमग्रेऽपि शेयम हे प-| स्पद्यते । एकदिनान्तरित आहार इत्यर्थः । स्थितिः पल्योपल्योपमे आयुः तेषां मनुजानामिति योगः एवमन्यत्रापि यथासं मैकोनाशीतिरात्रिदिवानि संरक्षन्ति संगोपायन्ति अपत्ययुगलप्रवमध्याहारेण सूत्राकरयोजना कार्या । अन्यत्सर्व सुषमसुषमो कमित्यर्थः। तत्रावस्थाक्रमः तथैव नवरमेकैकस्या अवस्थायाः क्तमेवेति । अत्रापि यथोक्तमायुःशरीरोच्छ्रायादिकं सुषमायामादी | कालमानमेकादश दिनानि सप्तदशघट्यः अष्टौ पलानि । चतुशेयं ततः परं क्रमेण हीयमानमिति ॥ स्त्रिंशश्चाक्षराणि किंचिदधिकानि । एकोनाशीतेः सप्तभिर्भागे अथात्र भगवान् स्वयमेवापृष्टानपि मनुष्यन्नेदानाह। एतावत एव लाभात् । अस्यां च भिन्नजातिमनुष्याणामणुष्यंतोसे णं समाए चनबिहा मणुस्सा अणुसजित्था तं | जना नास्ति तदा तेषामसंभवादिति संभाव्यते । तत्त्वं तु जहा एका १पउरजंघा ३ कुसुमा ३ सुममणा ४॥ तत्त्वविद्वेद्यम् । यत्तु" उम्गामोगारायन्नखत्तिप्रसंगहो भवे चअत्रान्वययोजना प्राग्वत् । एकाः १ प्रचुरजाः २कुसुमाः ३ उहा" इत्युक्तम् । तदरकान्त्यभागभावित्वेन नेहाधिक्रियते । सुशमनाः ४ पतेऽपि प्राग्वजातिशब्दा झेयाः। अन्वर्थता चैवम् ।। न त्वस्याः समायाः त्रिधा विभजनं किमर्थमुच्यते । यथा प्रथपकाः श्रेष्ठाः संझाशब्दात्वान्न सर्वादित्वं । प्रचुर जङ्गाः पुष्टजचा मारकादौ त्रिपल्योपमायुषस्त्रिगव्यूतोच्यास्त्रिदिनान्तरितभोन तु काकजक्वा इति भावः । कुसुमसहशत्वात् सौकुमार्यादिगु- जना एकोनपञ्चाशद्दिनानि कृतापत्यसंरक्षणास्ततः क्रमेण णयोगेन कुसुमाः पुंस्यपि कुसुमशब्दः । सुपतिशयेन शमनं कालपरिहाण्या द्वितीयारकादौ द्विपल्योपमायुषः द्विगव्यूतोच्चू शान्तेनीयो येषां ते तथा प्रचुरतनुकषायत्वात् । अत्र पूर्वोक्तषट्- या द्विदिनान्तरितभोजनाचतुःषष्टिदिनानि कृतापत्यसंरक्षणा प्रकारमनुष्याणां भावादेतेऽन्ये जातिनेदाः गतो द्वितीयारकः । स्ततोऽपि तथैवं परिहाण्या तृतीयारकादौ एकपल्योपमायुष ए(९) अथ तृतीयारकव्याख्या । कगव्यूतोच्चाया एकदिनान्तरितभोजना अशीतिदिनानि कृतातीसे ण समाए तिहिं सागरोवमकोमाकोमीहिं काले वीइ-| पत्यसंरक्षणास्तदनन्तरमपि त्रिधा विभज्य तृतीयारकप्रथमत्रिकंते अणंतेहिं वएणपज्जवेहिं जाव अणंतगुणपरिहाणीए भागद्वयं यावत् तथैव नियतपरिहाण्या हीयमानयुग्मिमनुजा अभूवन्नन्तिमत्रिभागेषु सा परिहाणिरनियता जातेति सूचपरिहायमाणी २ एत्थ णं सुसमदुस्समाणामं समा काले नार्थ त्रिभागकरणं सार्थकमिति संभाव्यते । अन्यथागमसंप्रपभिवन्जिंसु समणाउसो!। दायत्रिभागकरणे हेतुरवगन्तव्य इति । व्याख्या पूर्ववत् । नवरं परिहायमाणी इत्यत्र स्त्रीलिङ्गनि अथ तृतीयारकस्वरूपप्रश्नायाह । देशः समाविशेषणार्थस्तेन समाकाले इतिपदद्वयं पृथक मन्त- तीसेएं भंते ! समाए पच्चिमे तिनागे नरहस्स वासस्स व्यम् । अयमेवाशयः सूत्रकृता "साणंसमे"त्युत्तरसूत्र प्रादुश्चके इति । अथास्या एव विभागप्रदर्शनार्थमाह । केरिसए आयारनावपडोयारे य होत्या गोयमा बहुसमरमसाणं समा तिहा विनज्जइ तं पढमे तिभाए १ मज्झि णिजे भूमिनागे होत्था से जहाणामए आग्निंगपुक्खरेइ मे तिभाए २ पच्छिमे तिनाए । वा जाव मणीहिं नवसोभिए तं जहा कित्तिमेहिं चेव अकसा सुषमदुषमानाम्नी समा तृतीयारकलक्षणा त्रिधा वि-| त्तिमेहिं चेव ॥ भज्यते त्रिभागीक्रियते । तद्यथा प्रथमतृतीये भागे मयूरव्यं- (तीसेणमित्यादि ) यदेव दक्षिणार्धभरतस्वरूपप्रतिपादनासकादित्वात् पूरणप्रत्ययलोपः। एवमग्रेऽपि अयं भावः द्वयोः धिकारे व्याख्यातं तदत्र सूत्रे निरवशेष प्राचं नवरमत्र कृष्यासागरोपमकोटाकोट्योः त्रिभिर्भागे यदागतं तदैकैकस्य भाग. दिकर्माणि प्रवृत्तानीति कृत्तिमैस्तृणैरकृत्तिमर्मणिभिरित्युक्तम् । प्रमाणं तच्चेदं षट्षष्टिः कोटीलक्षाणां षट्षष्टिः कोटीसहस्राणां अथात्रैव मनुजानां स्वरूपं पृच्छन्नाह । पर्ट कोटिः शतानि षट्षष्टिः कोटीनां षट्षष्टिः लक्षाणां षट्षष्टिः तीसेएं ते !समाए पछिमे तिलागे भरहे वासे मण्यासहस्राणां षट्कं शतानां षट्षष्टिश्च सागरोपमाणां द्वौ च साग णं केरिसए आयारनावपडोआरे होत्था गोयमा ! तेसि एं रोपमत्रिभागी स्थापनाचेयम्। ६६६६६६६६६६६६६६२ इति। अथाद्यभागयोः स्वरूपप्रश्नायाह । मणुआणं छबिहे संघयणे विहे संठाणे बहूणि धणुसजंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे श्मीसे ओसप्पिणीए सुसमदुस्स याणि नक्षू उच्चत्तेणं जहम्मेणं संखिज्जाणि वासाणि माए समाए पढममजिक्रमेसु तिभाएसु भरहस्स बासस्स नकोसेणं असंखिज्जाणि वासाणि पाउनं पाति पा Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) अभिधानराजेन्द्रः । सप्पिणी लेतित्ता अप्पेगइया पिरयगामी अप्पेगइया तिरिगामी अप्पेगइया मस्सगामी अप्पेगइया देवगामी अप्पेगइया सिज्ऊंत्ति जाव सच्चदुक्खाणमंतं करोति ॥ व्याख्या प्राग्वदनुसरणीया । अथ यथास्मिन् जगद्यवस्थाऽभूत्तदाह । तीसे णं समाए पच्छिमे तिभाए पनि श्रोवम भागावसेए एत्थ णं इमे पारसकुलगरा समुप्पज्जिता । तं जहा मई १ डिस् सीमंकरे इसीमंधरे ४ खेमंकरे एखेमंधरे ६ विमलवाहणे ७चक्खुम जसस्समं श्रनिचंदे १० चंदाने ११ पाणइ १२रुदेवे १३णाची १४उसमे १५ ति ॥ ( कुलकराणां सव्याख्यानं वर्णनं कुलगर शब्दे करिष्यामि ) ( ऋषभचरित्रम् उसह शब्दे उक्तम् ) (१०) अथ चतुर्थारकस्वरूपं निरूप्यते । तीसे णं समाए दोहिं सागरोवमकोका कोमीहिं काले वीइकं विपज्जवेहिं तहेव जाव प्रणतेहिं उठाएकम्बलवरिया जाव परिहीयमाणे २ एत्थ णं दुस्समसुरमाणामं समा कालो परिवर्जिसु समरणाउसो ! | तस्यामनन्तरव्यावर्णितायां समायां द्वाभ्यां सागरोपमकोटाकोटभ्यां द्वे सागरोपमकोटाकोटी इत्येवं प्रकारेण काले व्यतिकान्ते अनन्तैर्वर्ण पर्यवैस्तथैव द्वितीयारकप्रतिपत्तिक्रमवत् ज्ञेयम् । याचदनन्तैरुत्थानबलवीर्यपुरुषाकारपराक्रमैरनन्तगुणपरिहाण्या हीयमानोऽतिक्रान्तो दुष्षमसुषमानाम्ना समा कालः प्रत्यपद्यत । हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! अथ पूर्वारकवद्भरतस्वरूपं प्रष्टुमाह । श्रथ तत्र मनुष्यस्वरूपप्रश्नमाह । तीसे भंते! समाए रहस्स वासस्स केरिसए श्रायारजावपकोचरे पाते ? गोमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पत्ते । से जहाणामए आलिंगपुक्खरई वा जाव मणीहिं उवसोजिए तं जहा कत्तिमेोहं चैव अकत्तिमेहिं चैव तीसे भंते! समाए रहे माणं केरिसए प्रागारभावपडोयारे पप १ गोमा ! तेर्सि मणुत्राणं छव्विहे संघयणे छव्विहे ठाणे बहूहिं धणून उच्चत्तेणं जहमेणं अंतो मुहुत्तं उकोसेणं पुन्नकोडि प्राउयं पालेंति पार्लेतित्ता अप्पेगा णिरयगामी जाव देवगामी अप्पेगइमा सिज्ऊंति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेंति । तीसेणं समाए तजवंसा समुप्पज्जित्ता तं जहा अहंतांसे चक्कवट्टिवंसे दसारवंसे ती सेणं समाए तेवीसं तित्थयरा एक्कारस चक्कबट्टी णव बलदेवा एव वासुदेवा समुप्पज्जित्ता ॥ इदं च सूत्रद्वयमपि प्रायः पूर्वसूत्रसदृशं गमकत्वात् सुगमम् । नवरं जघन्येनान्तर्मुहूर्तमायुस्तत्कालनिमनुष्या उत्कृष्टं पूर्वकोटिमायुः पालयन्ति पालयित्वा च पञ्चस्वपि गतिष्वतिथौ भवति । अथ पूर्वसमातो विशेषमाह (तीसेणमित्यादि ) तस्यां समायां ये वंशाश्व वंशाः प्रवाहा श्रावलिका इत्येकार्थाः । ननु सन्तानरूपाः परम्परा परस्परं पितृपुत्रपौत्रप्रपौत्रादिव्यवहा राभावात् समुत्पद्यन्ते । तद्यथा अर्हद्वंशः चक्रवर्तिवंशः दशा ओसप्पिणी होणां बलदेववासुदेवानां वंशः यदत्र दशार्हशब्देन द्वयोः कथनं तदुत्तरसूत्रबलादेव । अन्यथा दशार्हशब्देन वासुदेवा एव प्रतिपाद्या भवन्ति । " अह पंच दसाराणमिति " वचनात् । यत्तु प्रतिवासुदेववंशो नोक्तस्तत्र प्रायोऽङ्गानुयायी म्युपाङ्गानीतिस्थानाने वंशत्रयस्यैव प्ररूपणात् । येन हेतुना तत्रैवं निर्देशस्तश्रायं वृद्धभावः । प्रतिवासुदेवानां वासुदेववध्यत्वेन पुरुषोत्तमत्वाविवक्षणात् । एवमेवार्थे व्यनक्ति । तस्यां समायां त्रयोविंशतिस्तीर्थकराः एकादश चक्रवर्तिनः । ऋषभभरतयोस्तृतीयारके भवनात् नव बलदेवाः नव वासुदेवाः ज्येष्ठबन्धुत्वात् प्रथमं बलदेवग्रहणमुपलक्षणात्प्रतिवासुदेव वंशोऽपि ग्राह्यः समुत्पद्यन्तश्च गतश्चतुर्थारकः । ( ११ ) अथ पञ्चमारकः । तीसे णं समाए एकाए सागरोव मकोकाकोमीए वायालीसाए वाससहस्सेहिं उत्रिए काले वीइते - तेहिं बापज्जवेहिं तहेब जाव परिहाणीए परिहीयमा२ एत्य णं दुस्समाणामं समा काले पडिवज्जिस्सर समाजसो ! ॥ तस्यां समायामेकया सागरोपमकोटाकोट्या द्विचत्वारिंश६सहस्त्रैरुन्नतयोन्नी भूतया अनयैव प्रत्येकमेकविंशतिसहस्रवर्षप्र माणयोः पञ्चमषष्ठारकयोः पूरणात् काले व्यतिक्रान्ते. अनन्तैर्वर्णादिपर्यवैस्तथैव यावत्परिहाण्या परिहीयमाणः २ अत्र समये पुष्पमानाम्ना समा कालः प्रतिपत्स्यते । वक्तुरपेक्षया प्रविष्यकालप्रयोगः । अथाऽत्र भरतस्य स्वरूपं पृच्छन्नाह ॥ · तीसे भ! समाए रहस्स वासस्स केरिसए आगा-' राव मोरे भविस्सइ गोत्रमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे भविस्सर । से जहाणामए आलिंगपुक्खरेश वा सुरंगपुक्खरेइ वा जाव णाणामणिपंचवएलेोहिं कत्ति - मेहिं चैव अकासिमेहिं चेव । (ती सेणामित्यादि) सर्व प्राम्याख्यातार्थ नवरं भविष्यतीति प्रयोगः पृच्छकापेक्तया श्रत्र भूमौ बहुसमरमणीयत्वादिकं चतुर्थारकतो हीयमानं २ नितरां ज्ञातव्यम् । ननु स्थापबहुले कण्टकबहुले विसमबहुले इत्यादिनाऽधस्तनसूत्रेण लोकप्रसिद्धेन च विरुध्यते । मैवमतिचारितचतुरश्चिन्तयेः यतोऽत्र बहुतशब्देन स्थाएवादिबाहुल्यं सुचितम् । न च षष्ठारक श्वैकान्तिकत्वं तेन च कचिङ्गातटादी आरामादौ वैताढ्य गिरिकुआदौ वा बहुसमरणीयत्वादिकमुपलभ्यत एवेति न विरोधः अथ तत्र मनुजरूपं प्रष्टुकाम श्राह । तीसे णं भंते! समाए भरहे वासे मत्र्याणं केरिसए आ यारभाव पडोयारे पणते ? गोमा ! तेसिं मपुत्राएं बविढे संघयणे विहे संगणे बहुओ रयणीयो उ उचत्तणं । जहा तो मुदुत्तं नकोसेणं साइरेगं वाससयं प्र पार्लेति पालेंतित्ता अप्पेग पिरयगामी जाव सव्वक्खाणमंत करेंति । (ती सेणमित्यादि) पूर्वे व्याख्यातार्थमेतत् । नवरं बाह्यरत्नयो हस्ताः सप्तहस्तोच्छ्रयत्वात्तेषां यद्यपि नामकोशे बमुष्टिको इ For Private Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२) ओसप्पिणी अभिधानराजेन्द्रः । अोसप्पिणी स्तो रनिरुक्तस्तथापि समपरिभाषया पूर्ण इति ते मनुजा जघ- तिलकणपर्यायस्य प्रत्यवतारोऽवतरणम् आकारभावः प्रत्यषन्यतोऽन्तर्मुहूर्त उत्कर्षेण सातिरकं त्रिंशदधिकं वर्षशतमायुः पा- तारः प्रकप्तः। जगवानाह । गौतमेत्यामन्व्य वक्ष्यमाणविशिष्टः सयन्ति । अप्यका नैरयिकगतिगामिनः यावत् सर्वपुःखानामन्तं कालो भविष्यति कीदृश इत्याह । हाहाभूतः हाहाश्त्येतस्य शकुर्वन्ति । अत्र चान्तक्रिया चतुर्थारकजातपुरुषजातमपक्ष्य तस्यैवं ब्दस्य दुःखार्तलोकेन करणं दाहोच्यते । तद्भूतः प्रायो यः पञ्चसमये सिध्यमानत्वाजम्बूस्वामिन श्वन चसंहरणं प्रतीत्येदं कानःस हाहाभूतः। जम्मा इत्यस्य पुःखार्तगवादिभिःकरणं नभावनीयम् । तथा च सति प्रथमषष्ठारकादावपि एतत् सूत्रपाठ म्मोच्यते । तद्नूतो यः स जम्नाभूतःद्वावण्यनुकरणशब्दाविमौ । उपमन्यत पवेति आइ। अत्र पालयन्ति अन्तं कुर्वन्तीत्यादौनवि- जम्मा वामेरी सावान्तःशून्या ततो भम्ने च यः कालो जनक्कयाप्यत्कासप्रयोगे कथं वर्तमाननिर्देशः । उच्यते सर्वासु अवसर्पि- सच्चून्यः स जम्नाभूत इत्युच्यते । कोसाहन इहार्तशकुनसमूणीषु पञ्चमसमासु इदमेव स्वरूपमिति नित्यप्रवृत्तवर्तमानक्ष- हत्यनिः । तं नूतः प्राप्तः कोझाइसनूतः समानुन्नावेन कालविकणप्रयोगः । यथा द्वे सागरोपमे शत्रो राज्यं कुरुते इत्यादी शेषसामर्थ्येन च चकारोऽत्र वाच्यान्तरदर्शनार्थः। णमित्यप्रकारे तर्हि दुषमा समा कालः प्रतिपत्स्यते इत्यादिप्रयोगः कथमिति वरपरुषा अत्यन्तकगेरा । धूल्या च मलिना ये वातास्ते तथा। चेपुच्यते । प्रज्ञापकपुरुषापेक्यैतत्प्रयोगस्यापि साधुत्वात् । दुर्विषहा फुस्सहाः। व्याकुत्राः असमञ्जसा इत्यर्थः । जयङ्कराः पुनरपि तस्यां किं किं वृत्तमित्याह । चः विशेषणसमुच्चयसूचकः । वास्यन्तीत्यनेन संबन्धः । संवर्ततीसे णं समाए पच्छिमे तिभागे गणधम्मे पाखमधम्मे काश्च तृणकाष्ठादीनामपहारका वातविशेषाश्च तेऽपि वास्यन्तीति रायधम्मे जायतेए अधम्मचरणे अवोच्छिजिस्सइ ।। शहास्मिन् काले अन्नीदणं पुनः पुन—मायिष्यन्ते च । धूममुद्वमि ध्यन्तीति दिशः किंनूतास्ता इत्याह । समन्तात् सर्वतो रजस्वला तस्या पुष्षमानाम्न्याः समायाः पश्चिमे त्रिनागे वर्षसहस्रस रजोयुक्ताः अत एव रेणुना रजसा कमुषा मलिनास्तथा। तमः प्तकप्रमाणे अतिक्रामति सति नतु अवशिष्टे तथा सति एकविंश पटलेनान्धकारवृन्देन निरालोका निरस्तप्रकाशा निरस्तदृष्टितिसहस्रवर्षप्रमाणश्रीवीरतीर्थस्याव्युचित्तिकालस्यापूर्तेः गणः प्रसरावा । ततः पद्धयकर्मधारयः। समया रुकत्या च काबरूसमुदायो निजजातिरितियावत् । तस्य धर्मःस्वस्वप्रवर्तितो व्य कतया चेत्यर्थः अहितं अधिकं चापथ्यं चन्छाशीतं हिमं मोदयवहारो विवाहादिकः। पाखएमाः शाक्यादयस्तेषां धर्मःप्रतीत एव। न्तिमक्यन्ति । तथैव सूर्यास्तपन्ति तापं मोक्यन्तीत्यर्थः। कामराजधर्मो निग्रहानुग्रहादिः । जाततेजा अग्निसहितोपतिस्निग्धे | रौत्येण शरीररीत्यं तस्माच्चाधिकशीतोष्णपरानव इति ॥ सुषमसुषमादी, नातिरुक्षे दुष्षमदुप्षमादौ चोत्पद्यत इति च अथ पुनस्तत्स्वरूपं जगवान् स्वयमेवाह । कारादग्निहेतुको व्यवहारो रन्धनादिरपि चरणधर्मश्चारित्रधर्मः। चशब्दादच्चव्यवहारश्च । अत्र धर्मपदव्यत्ययः । प्राकृतत्वात्।। अदुत्तरं च णं गोमा! अनिक्खणं अरसमेहा विरसमेहा विच्छेत्स्यति विच्छेदं प्राप्स्यति सम्यक्त्वधर्मस्तु केषांचित्संभव- खारमेहा. खत्तमहा अग्गिमेहा विजमेहा विसमेहा अजयपि चिलवासिनां हि अतिक्लिष्टत्वेन चारित्रजावः अत एवाह प्र. वणिजोदगा वाहिरोगवेदणोदीरणपरिणामसलिला अमज्ञप्ती " ससम्म धम्मसन्नप्पनट्टा" इति चसन्नमिति प्रायो ग्रहणा गुल्मपाणिअगा चंडानिन्नयपहत्ततिक्खधाराणिवातपनरवात् । कचित् सम्यक्त्वं प्राप्यतेऽपीति जावःगतः पञ्चमोऽरकः।। (१२) अथ षष्ठारकः उपक्रम्यते। सिहितिजे णं जरहे वासे गामागारमागरखेककन्नम्मडंबदो तीसे णं समाए एकवीसाए वाससहस्सेहिं काले वीइक- णमुहपट्टणा समगयनणवयचउप्पयगवेनए खहयरे खहसंघे ते अणंतेहिं वामपज्जवेहि गंधरसफासपज्जवहिं जाव परि गामारणप्पयाराणिरए तसे अपाणे बहुप्पयारे रुक्खगुच्चहीयमाणे ५ एत्य णं दूसमसमाणामं समा काले पमिव- गुम्मलयवनिप्पवालकुरमादीए तणवणस्सइकाइए अोसही जिस्सइ समाउसो!॥ ओ अविट्ठ सेहित्ति पव्वयगिरिमुंगरुत्थलमहिमादीए ।वे. तस्यां समायामेकविंशत्या वर्षसहस्रैः प्रमिते काले व्यतिका- अकृगिरिवज्जे विरावहिंति सलिलविझविसमगडणिणुष्पन्ते अनन्तैर्वर्णपर्यवैरेव गन्धरसस्पर्शपर्यवैर्यावत् परिहीयमाणः याणि अगंगासिंधुज्जा समीकरोहिंति । २ दुष्पमदुष्षमानाम्ना समा कालः प्रतिपत्स्यते । हे श्रमण ! हे अथापरं च हे गौतम अभीक्ष्णं पुनः पुनः अरसा अमनोका रआयुष्मन् । अथ तत्र जरतरूपप्रश्नायाह । सवर्जितजला ये मेघास्ते तथा । विरसा विरुद्धरसा ये मेघास्ते तीसे णं ते! समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स केरिसए तथा । पतदवाभिव्यज्यते । कारमेघाः सादिकारसमानजमो पेतमेघाः। करीषसमानरसजनोपेतमेघाः । (खट्टमहत्ति) कचिआयारभावपडोमारे भविस्सइ । गोमा! कालेजविस्सइ। दृश्यते। तत्राम्लजला मेघाः । अग्निमेघाः अग्निवहाहकारिजला हाहातूए जंभाजूए कोलाहलभूए समाणुभावणं य खरफरु-| इत्यर्थः । विद्युत्प्रधाना पब जलवर्जिता इत्यर्थः । विद्युन्निपातसधूलिमाला दुब्बिसहावानला भयंकरा य वाया संवट्टगा य वन्तो वा विद्युत्रिपातकार्यकारिजननिपातवन्तो वा मेघाः । विष. वोहीत यह अभिक्खणं धूमाहिति अ दिसा समंता रअस्स मेघाः । जनमरणदेतुजलाः । अत्र “असाण मेहा" इत्यपि पदं लारेणुकलुसतमपमलणिरालोआ समयरुक्खयाए णं अहि कचित् श्यते । तत्रायमर्थः । करकादिनिपतवन्तः पर्वतादिदा रणसमर्थजन्मत्वेन वा बज्रमेघाः । अयापनीयं न यापना प्रयोजअं चंदा सीअं मोच्चिहिंति अहिश्र मूरिआ तविस्सति । कमुदकं येषां ते तथा। असमाधानकारिजमा श्त्यर्थम कचिदपि तस्यां समायामुत्तमकाष्ठाप्राप्तायामुत्तमावस्थागतायामित्यर्थः (वणिजोदगा इति) तत्रायातव्यजला इत्यर्थः। एतदेव व्यनक्ति । परमकाष्ठाप्राप्तायां वा भरतस्य कीदृशः क श्राकारभावस्या- व्याधिरागवदनोदीरणापरिणामसझिला। व्याधयः स्थिराः। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३) अभिधान राजेन्द्रः | प्रोसप्पिणी कुष्ठादयो रोगाः। सघोघातिताः त्या वेदनायोदीरणा प्रप्राप्तसमये उदयप्रापणा सैव परिणामः परिपाको यस्य सलिलस्य तत्तथा । तदेवंविधं सलिलं येषां ते तथा । अत पयामनोपानीयकाः चण्डाऽनिलेन प्रतानामाच्तामांसीदणानां वेगवतीनां धाराणां निपातः । स प्रचुरो यत्र वर्षे सतथा । तं वर्षे वर्षिष्यन्ति करिष्यन्तीत्यर्थः । प्रन्थान्तरे तु एते कीरमेघादयो वर्षशतोनेकविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणडुष्पमाका जातिक्रमे वर्षिष्यन्तीति । अतस्तेन बर्षणेनारज्य मेघादयः किं करिष्यन्तीत्याह ( जेणं नरहेत्यादि ) येन वर्षेणेन करणभूतेन पूर्वोविशेषणा मेघा विध्वंसयिष्यन्तीति संबन्धः । भरतवर्षे ग्रामाद्या आश्रमान्ताः प्राभ्याख्यातार्थाः । तत्र गतं जानपदं मनुष्यलोकं तथा चतुष्पदा मनुष्यादयो गोशब्देन गोजातीया एमका उरम्रास्तान् तथा खचरान् वैताख्यवासिनो विद्याधरान् तथा पविसंघान् तथा ग्राम्यारण्ययोर्यः प्रचारस्तत्र निरताना सक्तान् । त्रसांश्च प्राणान् द्वीन्द्रियादीन् बहुप्रकारान्। तथा वृक्कानाम्रादीगुच्छान पुस्ताकी प्रतीन् गुल्मान् नमात्रिका शोकाचाही वाक्यादिकाः प्रवाखान्या रानू शल्यादिबीजसुचीत्यादीन् तृणवनस्पतिकायिकान् बादरव नस्पतिका विकान् सूक्ष्मवनस्पति कायिकानां पचतावाद तथा औषधीय शापादिकाथोऽज्युखये ( पात्यादि) य धाप पर्वतादयोऽन्यत्रैकार्थतया रुद्रास्तथापी विशेषत था हि पतनादुत्सवविस्तारणात् । पर्वताः श्रीमापर्वताः । जयन्तवैारादयः । इति शब्दायते जन मिरयः गोपाल गिरिचित्रकूटमभूतयः । निशानि चोवृन्दानि वा सम्येषु यस्य खत्ययः राशिय मात्ररूपाः। उत् उचतानि तानि युच्छ्रयरूपाणि (प्रति भ्राष्ट्राः परिवादिवर्जिताः भूमयः । तत पतेषां इन्द्रस्य से तथा तान् दिशब्दात् प्रासादशिखरादिपरिग्रहः। मकारोSaraण शब्दो मेघानां क्रियान्तरद्योतक विधावविष्य न्तीति क्रियायोगः | अजार्थेऽपचाद सूत्रमाद बैताख्यगिरिवजन् पर्वतादी नित्यर्थः । शाश्वतत्वेन तस्याऽविध्वंसात् । उपलक्षणाडनकूटं शाश्वतप्रायश्री शत्रुंजय गिरिप्रभृतींश्च वर्जयित्वा तथा सखिचिह्नानि भूनिर्जराः विषमगता पूरयन्त्राणि कि दुर्गपदमपि तत्र दुर्गाणि च खातवसपत्राकारादिदुर्गमाणि निम्नानि च तान्युतानि निम्नोधताना त्यर्थः । पश्चात् इन्द्रः । तानि च कर्मभूतानि शाश्वत नदीत्वात् गङ्गासिन्धुपनि समीकरिष्यन्ति । (१३) अथ तत्र भरतभूमिखरूपप्रक्षमाह । जीसे णं जंते! समाए नरइस्स वासस्स भूमीए फेरिसए भागारापमोरे भविस्सर गोयमा ! भूमी नविस्त इंगालभूआ मुम्पुरभूय गरिभूया प्रभूआ तत्तसमनोभूम धूलिबहुला रेणुबहुला पंकबटुला पणयबहुसा चलणिपला बहूणि परणिगोचराणं सत्ताणं किमाया वि भविस्सर । तस्यां भदन्त ! समायां भरतस्य भूमेः कीदृशक श्राकारभावप्रत्यवतारो भविष्यति । भगवानाह गौतम ! भूमिर्भविष्यति । अङ्गारतूता ज्वालारहित वह्निपिण्डरूपा मुर्मुरनूतविरलाद्मिकणरूपा झारिकछूता नस्मरूपा तप्तकवेच्छकनूता तितक श्रसप्पिणी वेल्युरूपा । ततमज्योतिता सेन भावे प्रत्ययविधानात तापेन समा तुल्या ज्योतिषा वह्निना नूता जाता या सा तथापदव्यत्ययः । एवं समासश्च प्राकृतत्वात् । धूलिबहुलेत्यादौ धूलिः पांसुः रेणुः वालुका पङ्कः कर्दमः। पनकः प्रतलः कर्दमः । चलनप्रमाणकर्दमश्चल नीत्युच्यते । अत एव बहूनां धरणिगोचराणां स्वत्वानां न नितरां क्रमः क्रमणं यस्यां सा दुर्निष्कमा दुर तिक्रमणीयेत्यर्थः । चः समुच्चये श्रपिशब्देन दुपदादिपरिग्रहः । अत्र बहूनामित्यादितः प्रारभ्य भिन्नवाक्यत्वेनोत्तरसुत्रवर्तिना भविष्यति पदेन पोरवयम | अथ तत्र मनुष्यस्वरूपं पृच्छति ॥ तीसे णं भंते ! समाए रहे वासे मधुआएं केरिसए आयारजानपमोयारे भविस्स । गोषमा मथुआ जनिस्संति शुरुमा दुब्बा दुग्गंचा दुरसा फासा अणिडा अर्कता अ पिया असुन मणुना श्रमणोमा हीणस्सरा दीएस्सरा अकंतसरा अपिचस्सरा अमरसरा अणादेज्जवपापचायाता खिलज्जा कूडकवक कलह वह बंधवेरनिरया मज्जायातिक्कमप्पहाणा कज्जणिच्चुज्जाया गुरुणि योगवियणरहिआय विकलरूवा परूढह केसमंसुरोमा काला खरफरुससमावयपुसिरा कविप्रपलि असा बहुरहाउसपिएक दुईसिणश्रूचा संकुमिअवलीत रंगपरिवेष्ठि अंगमंगा जरापरिण यवरगणरा पविरल पमिसामि अदंतके ससेढ । उब्जमघमयमुहादिममणया कणसा वकवनिविगयजी सामुदादडुकट्टिन सिध्यफुमि अफरुसच्छवी चिगमंगा कच्छूखसराभिभूआ खरतिवाक्वकं अविकपत होसम्मतिविसमसंधिबंधणा उक्कुडित्र्अत्यि अविजत्तदुव्वल कुसंघयण कुप्पमाणकुसंठिया कुरुवा कुहानामा कुसेज्जकुनोइणो असुइणेगवाहिपीसिअंगा खांतविन्नगई निरुच्छाहा सतपरिव जिआ विगयचेट्ठा नहतेआ श्रभिक्खणं सीउए हखर फरुसवायविक्रमिअमणिपेसुर गुमि अंगमंगा बहुकोमाणमायामोना बहुमोहा अमदुक्खभागी ओसाधम्मसम्यपरिभट्ठा उक्कोसेणं स्यणिप्पमाणमेत्ता सोलसवीसइवासपरमाउसो बहुपुतणनुपरिवामपण पबहुला गंगासिंधुओ म हाईवे च पव्वयं नीसाए वापस रिटिगोआ बी वीमेता विवासियो मथुआ भविस्संति ॥ तीनमित्यादि) प्रसू प्राग्वत् निर्वाचनसूत्रे गौतम! मनुजा भवन्ति कीदृशा इत्याह । पुरुषाः दुःखजावा । दुर्वर्णाः कुत्सितपणीः । पर्व दुर्गन्धा दूरखाः रोहिण्यादिवत्रताः। कःस्पर्शः। दिकुत्सितस्वशः। श्रनिष्टाश्रमाविषयाः। अनिष्टमपि किंचित्कमनीयं स्यादित्यत आह । कान्ताः अकमनीयाः । कान्तमपि किंचित् कारणवशास्त्रीतये स्यादतोऽप्रिया भप्रीतिहेतवः । अप्रियत्वं च तेषां कुत इत्याह । श्रशुभा शोमन भावरूपत्वात् । अशुभत्वं च विशेषत आह। न मनसा सातवेदनयात्मनोज्ञाः अमनोतया धनुतमपि स्मृतिदशायां दशाविशेषेण किंचिन्मनो स्यादत आह । अमनोमाः न मनसा अस्वन्ते गम्यन्ते पुनः स्मृत्या इत्यमनोमाः । ए t Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४) अोसप्पिगी अन्निधानराजेन्द्रः। ओसप्पिणी कार्थिका वा पते शब्दा अनिष्टताप्रकर्षवाचका ति मूर्त्या अनि- ताङ्गाः स्वलन्ती विह्वला च चार्दवितर्दा गतिर्येषां ते तथा । निप्टादिविशेषणोपेता अपि केचिमुम्बा श्व सुस्वराः स्युरित्या- रुत्साहाः सत्वपरिवर्जिताः। विकृतचेष्टाः नष्टतेजसः । स्पष्टाहाहीनो ग्वानस्येव स्वरो येषां ते तथा । दीनो दु:खितस्येव नि अन्नीदणं शीतोष्णखरपुरुषपातैः(विज्कडिभं) मिश्रितं व्याप्तमि स्वरो येषां ते तथा । अनिष्टादिशब्दा उक्तार्था एवात्र स्वरेण त्यर्थः । मलिनं पांशुकपेण रजसा न तु पौष्यरजसावगुपितायोजनीयाः । अनादेयवचनप्रत्याजाता अनादेयमशुन्नगत्वादग्रा- न्युद्धूलितानि अङ्गान्यवयवा यस्य एतादृशमङ्गं येषां ते तथा । खं वचनं वचः प्रत्याजातं च जन्म येषां ते तथा । निर्लज्जाः बहुक्रोधमानमायालोमाः । बहुमोहाः न विद्यते शुभमनुकूमवेयं व्यक्तम् ।कूट धान्तिजनकंब्यं कपट परवश्चनाय वेषान्तरकरणं कर्म येषां ते तथा । अत एव मुखभागिनः ततः कर्मधारयः । अकलहः प्रतीतः। वधो हस्तादिभिस्तामनं बन्धो रज्जुभिः संयमनं थवा पुःखानुवन्धिदुःखन्नागिनः ततः कर्मधारयः (उसमंति)बावैरं प्रतीतं तेषु निरताः मर्यादातिक्रमे प्रधाना मुख्याः भकार्यनि- हुल्यन धर्मसंझा धर्मधकां सम्यक्त्वं च ताज्यां परिभ्रष्टाः । बात्योद्यताः गुरूणां मात्रादिकानां नियोग आज्ञा तत्रयो विनयरू- हुल्यग्रहणेन यथा सम्यक् दृष्टत्वमेषां कदाचित्संभवति । पमित्यादिरूपस्तेन रहिताः चः पूर्ववत् । विकलमसंपूर्ण काणं तथाधस्तनप्रन्थे व्याख्यातम् । उत्कर्षेण रत्नई स्तम्य यश्चतुर्विंश. चतुरनलिकादिस्वजावत्वाऽपं येषां ते तथा । प्ररूढा गर्ता सूक- त्यबसवणं प्रमाणं तेन मात्रा परिमाणं येषां ते तथा । इह कदा. राणामिवाजन्मसंस्कारानावात् । वृकिं गता नखाः केशाः इम-- चित् षोमश वर्षाणि कदाचिच्च विंशतिवर्षाणि परममायुश्रु रोमाणि च येषां ते तथा। कालाः कृतान्तसदृशाः कूरप्रकृति येषां ते तथा । श्रीवीरचरित्रेषु तु घोमश स्त्रीणां वर्षाणि त्वात् कृष्णा वा खरपरुषाः स्पर्शतोऽतीव कोराः श्याम विंशतिः पुंसां परमायुरिति । बहूनां पुत्राणां नप्तृणां पौत्राणां धर्णा नीलीकुरमे निक्किप्तोकिप्ता श्व ततः कर्मधारयः यः परिवारस्तस्य प्रणयः स बहुलो येषां ते तथा । अपि नाकचिद् मानवर्णा इत्यपि पदं दृश्यते तत्रानुज्ज्वरवर्णा इत्य ल्पायुष्कत्वेऽपि बलपत्यता तेषामुक्ता अल्पेनापि कालेन यौवनर्थः स्फुटितशिरसः स्फुटितानीव स्फुटितानि दामि सद्भावादिति । ननु तदानी गृहाद्यभावेन क ते वसन्तीत्याह । मवत् शिरांसि मस्तकानि येषां तथा । कपिलाः के गङ्गासिन्धुमहानद्यो वैतात्यंच पर्वतं निधांकृत्वा (वावत्तरिति) चन पलिताश्व शुक्लाश्च केचन केशाः येषां ते तथा । बहुस्नायु द्वासप्ततिस्थानविशेषाश्रिता निगोदाः कुटुम्बानि द्विसप्ततिभिः प्रनुरस्नायुनिः संपिनकं बम्मत पव दुःखेन दर्शनीय रूपं संख्या चैवं वैताळ्यादर्वाग्गङ्गायास्तटे ये नवनवविलसंभषायेषां ते तथा । संकुटितं संकुचितं वल्यो निर्मासत्वग्विकारास्त दष्टादश एवं सिन्ध्वा अपि अष्टादश एषु च दक्षिणार्धे भरतएव तदनुरूपाकारत्वात्तरङ्गा वीचयः तैः परिवेष्टितानि अङ्गा मनुजा धसन्ति । वैताव्येन परतो गङ्गातटद्वयेऽष्टादश एवं तन्यवयवा यत्र तमेवं विधमहं शरीरं येषां ते तथा । क इवेत्याह। त्रापि सिन्धुतटद्वये अष्टादश पतेषु चोत्तरार्धभरतवासिनो जरा परिणता श्व स्थविरकनरा जरा व्यायाः स्थविरतरा श्वे. मनुजा वसन्ति । बीजमिव बीजं भविष्यतां जनसमूहानांहेतुत्यर्थः । स्थविराश्चान्यथापि व्यपदिश्यन्ते इति जरापरिणतग्रह स्वात् । बीजस्येव मात्रा परिमाणं येषां ते तथा । स्वल्पाः णम् । प्रविरक्षा सान्तरालत्वेन परिशाटिता च दन्तानां केशानां स्वरूपत इत्यर्थः। विलवासिनो मनुजा भविष्यन्तीति पुनः केषांचित् पतितत्वेन दन्तश्रेणिर्येषां ते तथा उद्भट विकरालंघ- सूत्रं निगमनवाक्यत्वेन न पुनरुक्तमवसातव्यम् । टवन्मुख तुच्छदशनच्छदत्वाचेषांते तथा कचित् 'तुन्जमघमोमुहा' अथ तेषामाहारस्वरूपं पृच्छन्नाह । इति पास्तत्र उद्भटे स्पष्टे घटोन्मुखे कृकाटिकावदने येषां ते तेणं भंते ! मणुआ किमाहारमाहारिस्संति ? गोभमा ! तथा विसमे नयने येषां ते तथा। वक्रा नासा येषां ते तथा। ततः तेणं कालेणं तेणं समएणं गंगासिंधुओ महाणईओ रहपपदद्वयकर्मधारयः । वक्त्रं पागन्तरेणव्यङ्गं सलाञ्चनं वनिभि हमित्तवित्थरात्रो अक्खसोअप्पमाणमेत्तं जलं वोज्जिहंति विकृतं वोजसं भीषणं भयजनकं मुखं येषां ते तथा । दद्रुकिट्टि सेविअणं जले बहुमच्छकच्छनाश्म को चेव णं मानभसिम्मानि कुनकुष्ठविशेषास्तत्प्रधाना स्फुटिता परुषा च नविः शरीरत्वरा येषां ते तथा । अत एव चित्रलानाः करावयवश- बहुले भविस्सइ॥ रीराः कच्चूः पामा तया कसरैश्च खसरैरनिनूता व्याप्ता ये ते ते भगवन् ! मनुजाः किमाहारमाहरिष्यन्ति । किंनोक्ष्यन्ते ! सथा। प्रत पवखरतीक्ष्णनखाना कठिनतीव्रनखानां कएयितेन भगवानाह गौतम! तस्मिन् काले एकान्तदुष्पमालक्षणे तखर्जूकरणेन विकृता कृतवणा तनुःशरीरं येषां ते तथा । टोला- स्मिन् समये षष्ठारकप्रान्त्यरूपे गङ्गासिन्धुमहानद्यो रथपथः कृतयो प्रशस्ताकाराः क्वचित् टोलग इंति पाउस्तत्र टोबगतय उ- शकटचक्रद्वयप्रमितो मार्गस्तेन मात्रा परिमाणं यस्य स ताट्रादिसमप्रचाराः तथा। विषमाणि दीर्घहस्वभावेन सन्धिरूपा- दशो विस्तरःप्रवाहव्यासो ययोस्ते यथा । अक्षं चक्रनाभिणि बन्धनानि येषां ते विषमसन्धिबन्धनाः तथा उत्कुटुकानि क्षेप्यकाष्ठं तत्र स्रोतो धुरः प्रवेशरन्धं तदेव प्रमाणं तेन मात्रायथास्थानमनिविष्टानि अस्थिकानि कीकसानि विभक्तानीव च वगाहनो यस्य स तथाविधं जलं वक्षतःइव प्रमाणेन गम्भीर दृश्यमानान्तराझानि येषां ते तथा । अत्र विशेषणपदव्यत्ययः जलं धरिष्यन्त इत्यर्थः । ननु क्षुल्लहिमवतोरेकव्यवस्थाराहिप्राग्वत् । अथवा उत्कुटुफस्थितास्तथा स्वभावत्वात् विभक्ताश्च त्येन ततपमहानिर्गतयोरनयोःप्रवाहस्य नैयत्येनोक्तरूपोकथं भोजनविशेषरहिता येषां ते तथा। पुर्बला बलहीना कुसंहननाः संगच्छेते । उच्यते गङ्गाप्रपातकुण्डनिर्गमादनन्तरं क्रमेण सेवार्तसंहननाः प्रमाणहीनाः कुसंस्थिताः । दुःसंस्थानाः ततः कालानुभावजनितभरतभूमिगततापवशादपरजलशोषे समुएषां टोनाकृत्यादिपदानां कर्मधारयः अत एव कुरूपाः कुमूर्तयः द्रप्रवेशे तयोरुक्तमात्रावशेषजलवाहित्वमिति । न काप्यनुपपतथा। कुस्थानासनाः ।कुशय्याः कुत्सितशयनाः।कुभोजिनो कु. त्तिरिति । तदपि च जलबहुमत्स्यकच्छपाकीर्ण न चैवम अमोजनास्ततः पतिः पदैः कर्मधारयः। अशुचयः स्नानब्रह्मचर्या- च्छलं बह्वप्कायं सजातीयापराप्कायपिण्डबहुलमित्यर्थः । दिवर्जिताः । अश्रुतयो वा शास्त्रवर्जिताः । अनेकव्याधिपरिपीमि- ततस्ते मनुजाः सूरोझमनमुहर्तसूरास्समयेन मुहूर्ते च यकार Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) अभिधानराजेन्ऊः । श्रसप्पिणी लोपोऽत्र प्राकृतत्वात् । चकारौ परस्परं समुच्चयार्थौ विलेभ्यो निर्द्धाविष्यन्ति । शीघ्रया गत्या निर्गमिष्यन्ति । मुहूर्तात्परतोतितापातिशीतयोर सहनीयत्यात् । विलेभ्यो नियमत्स्य पानां स्थलानि । ततः भूमिः णिजन्तत्वात् विकर्मकत्वं ग्राहयिष्यन्ति प्रापयिष्यन्ति । ग्राहयित्वा च शीतातपतप्तैः रात्रौ शीतेन दिया तपनेन ततैः रसशोषं प्रार्थितैराहारयोग्यतां प्रापि तैरित्यर्थः अतिसरसानां राशिना परिचयमानत्वाम रथक पैरेकविंशतिवर्षसहस्राणि यामिाजक पयन्तो विदधाना विहरिष्यन्ति व्याख्यातवेदम 1 तर णं ते मणुत्र्या सूरुग्गमणा मुहुत्तंमित्र सूरत्थमुहुत्तंमि विलेहितो णिकाइस्संति विलेहिंतो शिसा मच्च्छ भेयलाई गाहिहिंति गाहिहिंतित्ता सीयातवेहिं इकवीसं वाससहस्साई विधि कप्पेमाथा विहरिस्सति ॥ श्रथ तेषामस्तित्वरूपं पृच्छन्नाह । ते णं ते! हिस्सीला णिन्या खिम्गुखा निम्मेरा शिष्यालायपोस होववासा उस साहारा मच्छाहारा खोड्डाहारा कुणवाहारा कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छं ति कहि उपवज्जिहिंति गोयमा ! उस खरगतिरिक्खजोशिएस उज्जिति ॥ ते मनुजा भगवन् ! निश्शीला गताचारा निर्वता महावतावतविकलाः। निर्गुणा उत्तरगुणविकलाः निर्मर्यादाः अविद्यमान कुनादिमर्यादाः । निष्प्रत्याख्यानपौषधोपवासा श्रसत्पौरुष्यादिनिया अविद्यमानाम्यादिपचपवासाखेत्यर्थः 'उस' प्रावो मांसाहाराः कथमित्याह । मत्स्याहारा यतः तथा कौडाहाराः मधुमियामुचान्यादिकमाहारो येषां ते तथा विशेषणं सूपपक्षमेय पूर्वविशेषणे प्रायो प्रदनात् । केषुचिदादर्शेषु अत्र। ‘गममाहारा' इति दृश्यते । स लिपिप्रमाद् एव संभाव्यते पञ्चमाङ्गे सप्तमशते षष्टोदेशे दुष्षम दुष्षमावर्णने दृश्यमानत्वात् । अथवा यथासंप्रदायमेनत्पदं व्याख्येयम् । कुणपः शवस्त सोऽपि वसादिः । कुणपस्तदाहाराः कालमासे इत्यादिकं प्राम्यत् । निधनसूत्रमपि प्राम्यत् नगरम् "उखणमिति" ग्रहणात् कश्चित कृषादारयान् देवलोकगम्पेऽपि मान्यवसायात् । अथ ये तदानीं वीणावशेषाश्चतुष्पदास्तेषां का गतिरिति पृच्छति । भंते! समासीहा वग्घा विगा दी विश्रा अच्छात वरस्सपरस्सरासरन सियाला बिरालासुणगा कोलसुणगा सासगा चिलगा उसएणं मंसाहारा मच्छाद्दारा खोड्डाहारा कुशवाहारा कालमासे कालं किया को गच्छति वचज्जिति । गोयमा ! उस एवं एरगतिरिक्खजोगिएस उववज्जिहीति ते भंते! ढंका कंका पिलगा मग्गुगा सिद्दी उस साहारा जाव कहिँ गच्छिहिंति का जववज्जिहिति गोपमा इसारगतिरिक्खजोगिएसु जाव उवव निर्हिति तस्यां भगवन् समायां चतुष्पदाः सिंहादयः प्रायायातार्थाः श्वापदाः। प्राय मांसाहारादिविशेषणविशिक्षा क गमिष्यन्ति उत्पत्स्यन्ते । भगवानाह गौतम ! प्रायः नरकतिर्यग्योनिकेषू त्पत्स्यन्ते प्राथी प्रहणात् । कचिदमांसादिदेव चिलगा खरविशेषा इति । अथ तदानींतनपक्तिगतिं प्रश्नयति । "तेणमित्यादि" कव्यं नवरं "गामिति " हीणाशिवे पक्षिणः इति तात् ग्राह्यम् । ढङ्काः काकविशेषाः कङ्काः दीर्घपादाः । पिलका रूढिगम्याः । मद्भुका जनवायसाः शिखिनो मयूरा इति गतः षष्ठारकः तेन चावसर्पिण्यपि गता । जं २ चक्क० । सा त्रिविधा । तिविहा ओसपिणी परखना। तं जहा टकोसा मज्झि मा जहुना । एवं छप्पियसमा भाणियन्वा जाव सुसमसुसमा । कामविशेषनिरूपणायाद “तिविदेत्यादि । सूत्राणि देश कठ्यानि नवरमत्रसार्पिणी । प्रथमे श्ररके उत्कृष्टा चतुर्षु मध्यमा पश्चिम जपन्या एवं सुषमसुखमादिषु प्रत्येकं वयं अकल्पनी यम् । स्था० ३ ठा० स्थानाङ्गेऽपि 'जंबुद्दीवे भरहे एरबसु वासेसुती एओसपिणं। ए"। तथा सुखमा सुखमसुखमा “मणस्सा णं आठ सरीरमाणं” । स्थानाङ्गस्य हिस्थाने त्रिस्थाने सूत्रं तस्य परमार्थः कान्त्रादिशब्दे गतमस्ति नात्र लिखितं तेन । स्था३० तिविहा ओसप्पिणी पण्णत्ता तीता परुष्पंता लागया सह स्था० ३ ० । - ओपिपिणी - अवसर्पिएयुत्सर्पिणी-स्त्री० अवस पिंणीयुक्ता उत्सर्पिणी अवसर्पिण्युत्सर्पिणी । विंशतिसागरोपमकोटाकोटी कालचके, "विसे सागरोमकोकाको कामेो श्रसपिणी पिण" जं० २० ओोसणिणीका अवसर्पिणीकाल पुं० । अवसानी बासी काय अवसर्पिणीला जं०२ ० । प्रोपिलीगंडिया अवसर्पिणीगण्डिका-० । भवसर्वि श्रोसर - अवसर - पुं० अन्तरे, नि० अवसरो विभागः । पर्या एयेकवक्तव्यतार्थाधिकारानुगतायां गएिककायाम् ॥ सं० ॥ इत्यनर्थान्तरम्, विशे० कणे, ॥ सूत्र० १० २ अ० ॥ औषर - न० ऊषरे भवः अण्-पांशुवर्णे, राजनि० ॥ वा० ॥ ओसरण अवसरण न० बहूनां साधूनामेकत्र मीझ ०६ ८० ॥ मेलापके, सूत्र० १० श्रु० १२ ० ॥ देव संस्कृतव्याख्यानमो पंचा विच० ॥ ओसरणकम- अपसरणकम समवसरणन्याये, पहचा० - नवरं ८ विव० ॥ ओसराइ - अवसरणादि - पुं० जिनसमवसरणप्रनृतौ, आदिशब्दात्समवसरण संबन्धिमरेन्द्रध्वजचामरतोरणादिपरिग्रहः ॥ पञ्चा० १२ विव० ॥ 1 प्रोसह औषध न० ओषधेरिय परजातीपासू हाथ ओषधिजाते अनादी । वाय० एक०१३ अ० ॥ औ० प्रश्न० विपा० । केवलव्य रूपे बहिरुपयेोगिनि, ०१ अधि० ध०र० एकद्रव्याश्रये । दशा० १० अ० श्रगदेवृ० ३४० या नि००२४० एलादका दौ, नि० चू० १ ० झा० ॥ महातिककघृतादौ न० ७ श० १० ०० । त्रिकटुकादौ । झा० अ० ॥ त्रिफलादौ च ॥ श्री० चिकित्सा, “बहुकल्पं बहुगुणं संपलं योग्यमौषधम् " स्था० ४ वा० ॥ स्वार्थेऽए । श्रोषधौ च । वाच० ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६) अभिधानराजेन्धः ओसह सज्ज सभेस औषधषज्य-उपा० ॥ ॥ प्रोस (हि) ही ओष ( प ) पिस्त्री० घोषः पाको या कि जातिविषयत्वात् स्त्री या डीप ओषधी च । वाच० । फलपाकान्ते शाल्यादौ । जीवा० १प्रति० प्रत्येकहशरीरवादवनस्पतिकायिकभेदे । सदा यथातं से कि ओसीओ ? ओसीओ रोग विहाओ पण चाओ। तं जहा सालीचीही गोहू-मजना कलममूरतिलम्ग्गा । मासप्फिा वकुलत्थ-अलि संदसती एएलिंघा । १ । अपसकुजकोदव- कंगूरा अगवरकोसा । सासारसमूलगीपावाव तदप्यगारा से ओसीओ। टीका नास्ति । प्रज्ञा० १ पद ॥ तं० उत्त० जं० आ० म० प्र० पंचा० भ० सू० कृत्खीपभिनणनिषेध स पेधश्वरगोयर चरियाशब्दे) पुष्कलाख्यविजय क्षेत्रयुगले, पुरी युगले, ।" दो पुक्खवना" । तत्र "दो ओसहीओ" स्था० २ ठा० । प्रोसाहिबल - ओषधिबल - न० गोधूमादि वीर्ये । तं० " तं चसिवासयिलो अपरिहत्थो " ग्रा० ४० सहिव रियोषधिवीर्य - न० शल्योकरण संरोहणविपापहारमेधाकरणादिके ओषधीनां वीर्ये । सूत्र० १ ० १ ० । ओसन रियति औषधोर्वरिततेल न०कायाम्, । ध० २ अधि० ॥ झोसा- अवश्याय ५० बेटे, बाराका किभेदे जी० १ प्रति० ॥ प्रज्ञा० । दशा० । प्रसारण - अवमान - न० अन्ते । स्था० ४ ठा० । गुरोरन्तिके, ॥ २०३ अधि० गुरोरनिके स्थाने "आसाणमिच्छे मसुर समाहिं, अोसिए तकरिति णच्चा । सूत्र० १ श्रु० ४ अ० ॥ अवश्यानक- न० स्वनामख्याते स्थाने. । यत्र प्रहाद त्तो जान्तः। “ कपिंडि गिरितमागं पाहत्थिणपुरं च सा पत्थं ससकगं नंदिओ - साणं वीसं पासा य समकरगं । उत्त० १५ उ० ॥ प्रोसायण - अवसादनण- न० पुफलानां परिशाटने, विशे० ॥ प्रोसारिंपणभर अपसारितेन्धनभर पुं० [अपनी साहासा ते ॥ " ओसारिघणनरो, जह परिहाइ कमसो हु श्रासे । " आव० ४ श्र० । झोसारिय-अप (ब) सारिय-अपसारित-बि० I 66 अप् सृ णिच् क्त-अवापोते च प्र० ७२ ॥ इति श्रवापयोरुपसर्गयोरादेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह ओत् प्रा० ॥ अपसारित-त्रिपनीते, । आव०४ अ० अवलम्बिते । झा० १६ ० ० "प्रोसारियपरे अवसारिता पास्तनुत्राणविशेषा येषां ते तान् दिपा० २ अ० ॥ श्रोसारियजमलजुगलघंटं " श्रवसारितमवलम्बितं जमलं समं युद्विकं घण्टपोर्यत्र तत्तथा । औ० ॥ भ० ॥ सिअंत-अवसीदत्रि पानीयादिवित् । १।१०० इति श्कारस्य शत्वम् । श्राम्यति । प्रा० । असिंचित अपसिञ्चयितृ त्रि० उष्णव्येणापसेककर्तरि । "सिणोगवियन वा कार्य सविता भवति " सू० २ ४० २ अ० । हज्जुि ओसिय-अवसित० पर्यवसिते, उपशान्ते सूत्र० १० १३ प्र० । जिते, । विशे० !! ओसुकति पा० तीक्ष्णीकरणे, बुरा-उन० स०] सेट लि जेरोसुक्कः । ८ । ४ । ४ ॥ तिजेरोसुक्क इत्यादेशो वा । " ओसुक्कर, तेअणं 33 प्रा० । असोवणी - अवस्वापिनी स्त्री० विद्याने सूत्र० २०२ - । अ० । कल्प० । ओह-प०पो० ० संसारसमु, सू० १ ० ६ अ० । सामान्यप्रकारे, 150 सूत्र० विसे० । व्य० सामान्ये, । आ० म० द्वि० पंचा० ॥ श्रोषः समासः सामान्य मित्यनर्थान्तरम् । नि० चू० १९ उ० । ओघः संकेपः स्तोकः, नि०यू० १ ० ॥ सामान्यशास्त्रानिधाने, आ म० प्र०॥ प्रवाहे । ०१९ वक्ष० सङ्के, | को० ओपो द्विधा इयभावनेदात् । अव्ययो नहीसाईकः प्रवधो कारे कर्म संसारो वा तेन हिमपि कालमुह्यते ॥१॥ आचा० २ श्र०३ उ० द्रुतनृत्यादौ ॥ आध्यात्मिके तुष्टिभेदे ॥ ५ रंपरायाम् । उपदेशे च ॥ मंदि० ॥ वाच० ॥ ओह-अव् तृ-धा०अवतरणे, । ज्वा०प० अक० । श्रवतरेरोभोरसी ४ ०५ अवतरतेोदादेशः ओह ओहरद श्रवतरति । प्रा० । ओजलिया - देशी० चतुरिन्द्रियविशेषे जी० १२ ति० । प्रज्ञा० उत० । तर - घन्तर - पुं० ओघं संसारसमुद्रं तरितुं शीलमस्य स तथा । सूत्र० १ ० ६ ० । ज्ञानदर्शनचारित्रवोहिस्थत्वेन | आचा २ श्र० ३ ० । संसारतरणशीले । सूत्र० १ श्रु० १० । “एस ओदंतरे मुणी" २ ० । इति प्रान्तरुक्काहारसेवनेन कर्मादिशरीरं धुन्वानो जावतो भवौघं तरति कोऽसौ मुनिः स एव जवौघं तरति यो मुक्तः स बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितः कश्च परिग्रहान्मुक्तो भवति । यो नाचतः शब्दादिविषयानिष्यति त यो सत्येन या विषयातमुनिः सम वौघं तरति तीर्ण पवेति वा इति । श्राचा० २ श्र० ६ उ० ओहट्टय अपघट्टक-त्रिव्यदृच्छया प्रवर्तमानायाः स्त्रिया हस्त हादिना निवर्त" प्रणोदट्टियाए" ० १६० पाया निवारके, । झा०१८ श्र० । अपहर्तुक त्रि० काय्य प्रवर्तमानस्य हस्ते गृहीत्वापहारके व्यावर्तके | झा० अ० । ओह पनि श्री० [घोषसामाचारीप्रतिपादर्क अन्यविशेषे, तब हि णमो अरिहंताणं मसान भरिया नमो उपाय नभ शेष सब साहू एसी पंच णमुक्कारो” इति नमस्कारमुच्चार्य "दुविहोवक्कमकालो, सामायारी अहान पंचे। सामायारी तिविदा श्रहे दस हा पर्याविनावे" त्युपक्रम्य कालमुपदार्थ सीधसमावारी तायदभिधीयते। अस्याच महार्थत्वात् कान्तरस्यादा मला संबन्धात्रयप्रतिपादनार्थे व माथाम दिसा बोदसी सहेब दसवी कारसंग सुधारसव्यसाया" अन्तः चतुर्दशपूर्वि तथा एवं दश पूर्वि एकादशास्त्राचारका सान्ति पदानि श्राद्यगाथासूत्रे द्वितीयगाथासूत्रपदान्युच्यन्ते श्रघेन तु निर्यु - - Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२७) श्रोहणिज्जुत्ति अभिधानराजेन्द्रः । ओहणिज्जुत्ति तिं वक्ष्ये । चरणकरणानुयोगात् अल्पाकर महार्थामनुग्रहार्थे गृह्यन्ते । श्रोधः समासो जवतीति योगः । एवं भवतीति क्रिया सुविहितानामेतावन्ति पदानि । सर्वत्र मीलनीया ( संखेवेत्ति ) संकेपणं संकेपः समेकीभावेन अधुना कृतमङ्गलः सन् संबन्धाभिधेयप्रयोजनत्रयप्रदर्शनार्थ द्वि- प्रेरणमित्यर्थः । चशब्दः उक्तसमुच्चये कदाचिदनुक्तसमुच्चये एव तीय गाथासूत्रमाह। शब्दः प्रकारवाचकः । एवमेतेषामपि पिएमादीनां ये पर्यायास्ते ओहेण निज्जुत्ती, वोच्छं चरणकरणाणुओगाओ। । मीझनीया इति नियुक्तिपदव्याख्यानार्थमाह (णिज्जुत्तिय ) अप्पक्खरं महत्य, अणुग्नहत्थं सुविहियाणं ॥ इत्यादि निराधिक्ये योजनं युक्ति प्राधिक्येन युक्ता नियुकाः प्रोघः मंकपः समासः सामान्यमित्येकोऽर्थः तेन प्रोधेन नि अर्थत इत्यर्थः । ओ०। युक्तिं वक्ष्ये । इति योगः तदनेन गाथाखएमनकेन संबन्धः प्रति अधुनास्पाकरां महाऑमिति यदुक्तं तद्याख्यानायाह । पादितः। क्रियानन्तर्यबकणः तथा च व्यासक्रियायाः समासक्रि अप्पक्खरं महत्थं,महक्खरप्पत्थं दोसु वि महत्थं । यानन्तरभूता वर्तते अतः क्रियानन्तर्यनक्कणः संबन्धः एवं कार्य- दोसु वि अप्पं च तहा, जणि सत्यं चउवियप्पं । कारणाकणेपि द्रव्यः । कार्यमोघनिर्युक्त्यर्थपरिक्षानमनुष्यानं अत्र चतुर्नङ्गिका अल्पान्यवराणि यस्मिन् तदल्पाकर स्तोच कारणं तुवचनरूपापन्ना ओघनियुक्तिरेव एवं साध्यसाधनाद- काकरमित्यर्थः । (महत्थंति) महानर्थों यस्मिन् महाथै प्रनूयोऽपि अष्टव्याः । इतिशब्दो विशेषणे किं विशिनष्टि । ओघेन तार्थमित्यर्थः । तत्रक शास्त्रं अल्पाक्करं भवति महाथै च प्रथमो वक्ष्ये तुशब्दात्किञ्चिद्विस्तरतोऽपि "पुरिसमित्यादि" नियुक्ति जङ्गः। अथवान्यस्किनूतं जवति (महक्खरप्पत्थंति) महाकरं प्र. वत्य इति निराधिक्ये योजनं युक्तिः सूत्रार्थयोोगो नित्यव्यव- भूताकर जवति । अल्पाय स्वल्पार्थमिति हृदयं हितायो प्रङ्गः। स्थित एवास्ते वाच्यवाचकतयेत्यर्थः अधिका योजना नियुक्ति- अथवान्यत्किंनूतं भवति ( दोसु वि महत्थं )द्वयोरपीति श्ररुच्यते नियता निश्चिता वा योजनेति। ततश्च नियुक्तियुक्तिरि- करार्थयोः श्रुतत्वादकरार्थोभयं परिगृह्यते । एतदुक्तं भवति । त्येवं वक्तव्ये एकस्य युक्तिशब्दस्य लोपं कृत्वा एवमुपन्यासः । प्रनूताकरं प्रनूतार्थ च तृतीयो नङ्गः तथान्यत् किंतूतं भवति यथोष्ट्रमुखी कन्यति 'वोच्चमिति' वदयेऽभिधास्येति । यमुक्तं तदाह (दोसुवि अप्पंच तहा)द्वयोरपि अल्पमतरार्थयोः एतदुक्तं भवति । कुतो वक्ष्यत इत्यत आह । चरणकरणानुयोगात् चर्यत नवति ! अल्पावरमल्पार्थ चेति तथेति तेन आगमोक्तेन प्रकाशत चरणं वक्ष्यमाणलक्षणं व्रतादि क्रियत इति करणं पिएम-] रेण जणितमुक्त शास्त्रं चतुर्विकल्पं चतुर्विधमित्यर्थः । विशुद्धयादि चरणं च करणं च चरणकरणे तयोरनुयोगश्चर- अधुना चतुर्णामपि भङ्गिकानां मुदाहरणदर्शनार्थमिदं गाथासूणकरणानुयोगः अनुयोजनमनुयोगः अनुरूपो योगोऽनुयोगः ।। त्रमाह । अनुकूलो वा योगोऽनुयोगः । अथवा अणु सूत्रं महानर्थः । ततो सामायारीअोहे, णायज्जयणा य दिहिवाश्री य । महतार्थस्य अणुना सूत्रेण योगोऽनुयोगः तस्माश्चरणकरणानुयो गात् नियुक्तिं वक्ष्ये चरणकरणात्मिकामेवति गम्यते । यथा मृदो। सोश्यकथासादी, अणुकमाकारगा चनरो ॥ १४ ॥ घटं करोति मृदात्मकमेव तद्वदत्रापाति अथवा । चरणं च तत्क ओघसामाचारीप्रथमभङ्गके उदाहरणं भवति । ततःप्रतावरत्व रणं च तस्यानुयोगः तस्माच्चरणकरणानुयोगानिर्युक्तिं व मल्पार्थ चेति द्वितीयः कृतः ज्ञाताध्ययनादिषष्टाने प्रथमश्रुतस्कक्य इति तदनेनावयवेनाभिधेयमुक्तम चरणकरणनियुक्तिरभि न्धेषु कथानकान्युच्यन्ते । ततः प्रतूताकरत्वमल्पार्थ चेति द्वितीधीयते किं स्वरूपा नियुक्तिं वक्ष्य इत्यत आह । अल्पान्यक्कराणि यनङ्गके ज्ञाताध्ययनान्युदाहरणं चशब्दादन्यश्च यदस्यां कोटौ यस्याः सा अल्पावरा तामल्पाकरामथवा क्रियाविशेषणमेतत्कथं व्यवस्थितं दृष्टिवादश्च तृतीयभङ्गक उदाहरणमाख्यातोऽसौ वक्ष्ये श्त्यत आह । अल्पाकरं स्तोकाकरं वदये प्रसूताकर प्रसूताकरःप्रतूतार्थश्च चशब्दात्तदेकदेशोऽपि चतुजङ्गोदाहरणमित्यर्थः किमल्पावरमेव नेत्याह । महाथै वदये अथवा महान प्रतिपादनार्थमाह (लोश्यकथासादिति) लौकिकं चतुर्नङ्गोदाथों यस्याः सा महा तां महार्थी वदये तदनेनाभिधेयविशे- हरणं किंनूतं कथासादि आदिशब्दाच्छिवजद्रादिग्रहः ( अणुषणं प्रतिपादितं भवति अल्पाकरामहामित्यनेन चतुर्नङ्गिका कम्मत्ति) अनुक्रमादिति अनुक्रमेण परिपाट्येव तृतीयाथै प. प्रतिपादिता भवति। एकमपाकर प्रनूताथै जवति, तथान्यत् प्रनू ञ्चमी कारकाणि कुर्वन्तीति कारकाण्युदाहरणान्युच्यन्ते चत्वाताकर अल्पार्थ तथा प्रस्तार्थ प्रभूतार्थमल्पावरमल्पार्थ नवति रोति । यथासंख्येनैवेति । अनुग्रहार्थ सुविहितानामिति यदुक्तं किं निमित्तं वक्ष्य इत्याह । अनुग्रहार्थमनुग्रह उपकारोऽभिधीयते | तद्व्याख्यानायोदाहरणगाथा । अर्थशब्दः प्रयोजनवचनं ततः उपकारः प्रयोजनं वक्ष्ये तदनेन प्र- बालाईणणुकंपा, संखमिकरणंमि होइ अगारीएं। योजनं प्रतिपादितं इष्टव्यम् । केषां वय इत्यताह । सुविहि ओमे य बीयभत्तं, रन्नादीनं जणवयस्स ।। १५ ।। तानां शोजनं विहितमनुष्टानं येषामिति सुविहिताः साधवस्तेषां | एवमित्युप-यासाय यथेति गम्यते ततोऽयमों भवति । यथा ह्यसुविहितानामनुग्रहार्थमोघनियुक्ति बदय इति योगः श्रो० ॥ ङ्गारिणामनुकम्पा जवतियालादीनामुपरिसंखमिकरणे एवं स्थविअधुना भाष्यकृदेकैकमवयवं व्याख्यानयति तत्र तत्वजेदपर्यायैाख्येति पर्यायतो व्याख्यां कुर्वन्निदानी गाथाघ्यमाह। रैः साधूनामनुकम्पार्थमुद्दिष्टा श्रोधनियुक्तिरिति संबन्धः। अधुना करगमनिका बाचा:शिशवोऽभिधीयन्ते ते आदिर्येषां आदिशब्दाअोहे पिंडसमासे, संखेने चेव होति एगट्ठा। कर्मकरादिपरिग्रहः तेषां बालादीनामुपर्यनुकम्पा देयेत्यर्थः।संखणिज्जुज्जतिय अत्यान, जं वच्चा तेण णिज्जुत्ती।। मिकरण संखड्यन्ते प्राणिनो यस्यां सा संखडिः अनेकसत्वव्यापप्रोधःपिएमो भवतीति योगः पिण्डनं पिएमः संघातरूप इत्य- त्तिहेतुरित्यर्थः कृतिः करणं संखड्याः करणं संखडिकरणं तस्मिन् र्थः । (समासेत्ति ) समसनं समासः । असु केपणे समेकीभा- संखमिकरणे यथानुकम्पा जवात केषामित्याह । अगारिणां चन श्रसनं केपणमित्यर्थः । तथाच समासेन सर्व एव विशेषा अगारं विद्यते येषान्ते अगारिणस्तेषामगारिणाम् । तथा हि य Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२०) ओहणिज्जात्त अभिधानराजेन्धः। अोहणिज्जत्ति जोजनं प्रहरत्रयादेशो भवति तस्मिन् । यदि बालादीनांप्रथमा- णं तश्च गणनाप्रमाणं प्रमाणप्रमाणं च । (अणायतणवज्जति)नालिका न दीयन्ते ततोऽतिबुलुक्काक्रान्तादीनां केवांचिन्मूगे- यतनमनायतनं तद्वयं त्याज्यमित्येतच वक्ष्ये तश्चानायतन पागमनं प्रवति। केचित्पुनः कर्मादिकर्तुं न शक्नुवन्ति ततोऽनुक- पण्डकः संशक्तं यद्वर्तते तद्विपरीतमायतनं ( पमिसेवणीत) म्पार्थ प्रथमालिकाप्यसौ गृहपति प्रयच्छति । अस्यैव दर्शनार्थ प्रतिसेवना एतदुक्तं जपति संयमानुघमात् । प्रतीपसंयमादृष्टान्तरमाह । (ोमेश्त्यादि)। अवमं निकं तस्मिन्नवमे बीजा- नुद्यमात्तदासेवना तां (बालोयणत्ति) अालोचनमालोचमाने नि शाख्यादीनि नक्तमन्नं बीजानि व भक्तं च बीजजक्तम् । एक | परे मर्यादया लोचनं दर्शनमार्यादेः । पालोचनेत्यभिधीयते । वद्भावः। राज्ञा नरपतिना दत्तं स्वीकृतं कस्य तदाह। जनपदस्य किमालोचनमेव नेत्याह (जह य इत्यादि ) यथा येन प्रकारेणकस्यचित्राको विषये दुर्निकंप्रभूतवार्षिकं संजातं ततस्तेन पुर्मि- विशोधिः विशेषेण शोधिः विशोधिः एतमुक्तं प्रवति । शिष्येकेण सर्वमेव धान्यं वयं नीतं रोकश्च विषमः । तस्मिन्नवसरे णासोचिते अपराधे सति तद्योग्यं यप्रायश्चित्तप्रदानं सा विशोराझा किं चिन्तितं सर्वमेव राज्य मम जनपदायत्तं । यदि जनप- धिरभिधीयते । तां विशोधि केषां संबन्धिनी विशोधि तदाह । दो जवति ततः कोष्ठागारादीनां प्रनवः जनपदाभावे तु सर्वा- | सुविहितानाम् शोननं विहितमनुष्ठानं येषां ते सुविहितास्तेषां भावः । ततस्तत्संरकणार्थ बीजनिमित्तं नक्तनिमित्तं च कोष्ठागा- संबन्धिनी यथा विशोधिस्तथा वदये । चशब्दः समुच्चये कि रादिधान्यं ददामीति एवमनुचिन्त्य दापितं जनपदस्य लोकस्य समुधिनाति कारणप्रतिसेवने अकारणप्रतिसेवने च । यथा शोप्रसन्नःसंजातःपुनर्द्विगुणं त्रिगुणं प्रेषितं राक्ष शति । अयं दृष्टान्तः धिस्तथा वक्ष्य इति । भत्राह यथैषां हारेण इत्थं प्रमोपन्यास अधुना दान्तिकप्रतिपादनार्थमाह ।। कि प्रयोजनमित्यत्रोच्यते । यत्प्रतिलेखनाद्वारस्य पूर्वमुपन्यासः एवं थेरेहि श्मा, अपावमाणाणं पयविभागं तु।। कृतस्तत्रैतत्प्रयोजनं सर्वविवक्कया प्रतिहखनाद्वारमुपन्यस्त प्रति सेखनोत्तरकासपिएफस्य ग्रहणं नवति। अतः पिएमस्योपन्यास साहूणाणूकंपट्ठा, उवइटा ओहनिज्जुत्ती ॥ १६ ॥ अशेषदोषः विशुद्धपिरामो प्राह्यः। इति तदनन्तरमुपधिद्वारस्योएवमित्युपनयग्रन्थः यथा गृहपतिना बालादीनामनुकम्पार्थ पन्यासः क्रियते किमर्थमितिचेत्स हिपिएमःन पात्रवधादिमन्तजक्तं दत्तं राज्ञा च बीजनक्तमनुग्रहार्थमेव दत्तं एवं स्थविरैः रेण ग्रहीतुं शक्यते । अत उपधिप्रमाणं तदनन्तरमभिधीयते । ओघनियुक्तिः साधूनामनुप्रहार्थ नियूंढेति । स्थविरा नयाहु सच गृहीतं उपधिपिण्डव न वसतिमन्तरणोपमोक्तं शक्यते । स्वामिनस्तरात्मनि गुरुषु च बहुवचनमिति बहुवचनेन निर्देश: अतो नायतनवय॑मित्यस्य द्वारस्योफ्न्यासः क्रियते प्रतिलेखकृतः (श्मेत्ति ) श्यं वक्ष्यमाणकणा प्रतिलेखनादिरूपा किम नां कुर्वतः विरामग्रहणमुपधिप्रमाणम् अनायतनमायतनवर्जन थै नियूंढा । तदाह । (अपावमाणाणमित्यादि ) अप्राप्नुवतां गच्चतः कदाचित् कचित् कश्चित् अतिचारो भवतीत्यतोऽतिअनासादयतां किमप्राप्नुव तामित्याह पदविभागं वर्तमानकाला चारद्वार क्रियते स चातिचारोऽवश्यमालोचनीयोनावशयर्थपेक्रया कल्परूपं चिरं रूपं चिरन्तनकासापेक्वया तु रष्टिवाव्यव. मतः आलोचनोत्तरकालं प्रायश्चित्तं तद्योम्यं यतो दीयते । - स्थितं पदविभागसामाचारीमित्यर्थः। तु शद्वादशधा सामाचारी तो विशुकिद्वारस्योपन्यासः कृतः।त्यक्षमतिविस्तरेण । ओ० च अप्राप्नुवतां केषामनुकम्पार्थ नियूंढा तदाह । साधूनां शान (प्रतिलेखनादिशब्देषु तविधानम् ) ग्रन्थमानम् । ओछ। निरूपानिः पौरुषेयोनिः क्रियानिः मोक साधयन्तीति साधवस्तेषां साधूनां किमनुकम्पार्थम् । अनुकम्पा कृपावय इत्येकार्थः एसा सामायारी, कहिया ने धीरपुरिसपन्नता। तया अर्थः प्रयोजनं उपदिष्टा कथिता श्रोधनियुक्तिः सामान्या संजमसयत्तबगाणं, णिग्गंथाएं महरिसीणं । थप्रतिपादिकेतीत्यर्थः॥ सुगमा। अथ केयमोधनियुक्तिः या स्थविरैः प्रतिपादिता तां एवं सामायारा, जुता चरणकरणमावुत्ता। प्रतिपादयन्नाह ॥ साहू खवंति कम्म, अणेगनवसंचियमणंत १२३२ पडिहणं च पिंक, जवहिपमाणं अणायतणवजं । सुगमा। पमिमेवाणमालोयण, जह य विसोही सुविहियाणं १७| एसा अणुग्गहत्था, पुमरियमविसुखवंजणा इणमो। एवं संबन्धे कृते सत्याह परः। ननु पूर्व मभिहितमई तो वन्दि- एकारसहिं सरहिं, तेतीसहिएहिं संगहिया । त्वोधनियुक्तिं वदये तकिमर्थ वन्दनादिक्रियामकृत्वबौधनियुक्ति ११३३ सुगमा । ओ०। प्रतिपादयतीत्यत्रोच्यते । अविझायैव परमार्थ भवतः तश्चोत्प-अोहणिप्पएण-ओघनिष्पन्न-पुं० प्रोघःसामान्यमध्ययनादियते । इह हि वन्दनादिक्रिया प्रतिपादितैव असाधारणनामोद्ध- ताभिधान नियनि ट्टनात् एव तथा हि अशोकाद्यष्टमहाप्रतिहार्यादिरूपां पूजा से कितं अोघनिप्पणणे चउबिहे पाणते तं जहा अमईत्यर्थतः तदननेव स्तबोऽनिहितः एवं चतुर्दशपूर्वधरादयो योज ज्झयणे अक्खीणे आए खवणा। नीयाः । अयं प्रसङ्गन प्रकृतं प्रस्तुमः (पमिलेहणति)विख अक्करविन्यासे प्रतिलेखन प्रतिवेखना तां वक्याम इति । एतदुक्तं नवति ओघनिष्पनश्चतुर्विधः प्राप्तरतद्यथा अध्ययनमकीणमायः आगमानुसारेण या निरूपणा केत्रादेः सा प्रतिवेखनति । चश कपणा पतानि स्वत्वारि अपि सामायिकचतुर्विंशतिस्तवाग्दात्प्रतिबेखक प्रतिलेखनीयं वक्ष्ये । अथवा अनेकाकारां प्रतिल दिश्रुतिविशेषाणां सामान्यानि । यथा हि सामायिकमध्ययनखनां च बदये । उपधिन्नदात् । (पित्ति ) पिण्डनं पिण्डः ॥ मुच्यते यदि वा अक्षीणं निगद्यते इदमेव यः प्रतिपद्यते एतसंघातरूपस्तं वक्ष्य इति प्रत्यकें मीलनायं विवक्तितशोधिमित्य देव क्षपणाभिधीयते । एवं चतुर्विंशतिस्तवादिष्यभिधानीर्थः ( उवहिपमाणमिति) उपधातीत्युपधिः उपसामीप्यम सं| यम् । अनु° द्वार० यम धारयति पोषयति चेत्यर्थः । स च पात्रादिरूपः तस्य प्रमा- | ओहबल-ओघवल-पुं० श्रोधेन प्रवाहेण बलं यस्य न तु क Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) श्रोहय अभिधानराजेन्द्रः। ग्रोहामिय थयतो बलं हानिरुपजायते इति भावः । रा०। अव्यवच्छिन्न- देशं लभ्यते । तथाह तृणजन्यदुग्धादिभावेन दुग्धध्यादिभाबलत्वात् प्रवाहबलिः । स०। औ०। प्रश्न। चेन परिणमिता घृतशक्तिः प्रकाश्यमाना लोकसुखप्रदा । लोओहय-उपहत-त्रि० विनाशिते, औ०। कचित्तगम्या भवेत् । ततः सा शक्तिः द्वितीया समुचितशक्तिः अोदयकंटय-अपहतकण्टक-पु० न०इह देशोपद्रवकारिणश्चा कथ्यते । अत्रायं विवेकः। अनन्तरकारणमध्ये समुचितशक्तिः रटाः कण्टका इव कण्टकास्ते अपहताः । अवकाशनासी परम्पराकारणमध्ये प्रोघशक्तिरिति । ओघशक्तौ तु तृणानि दनेन स्थगिता यस्मिन् तत् अपहतकएटकम् । निरवकाशी धेनुरभाति पुष्टा सती धेनुर्दुग्धं ददाति धेनुदुग्धेन दधि जायते कृतचारटे राज्ये, रा०। उपहता राज्यापहारात कपटका दा दुग्धकारणकलापेन घृतं पवमोघेन घृतशक्तिः स्फुटीभवति । यादा यत्र राज्ये तत्तथा । स्था० १ ठा० । कण्टकाः प्रतिस्प तथान्यत्र दुग्धध्यादिघृतमेवेति व्यवहारयोग्यत्वं लोकप्रसिधिनो गोत्रजाः अपहता विनाशेन निहता यत्र तत्तथा । रा खमेवेति । अथ च घृतशक्तिसमुचितशक्त्योरन्यकारणता ज्यापहारात विनाशितस्वगोत्रजवैरिके राज्ये, । शा०१०। प्रयोजनतेति । नामान्तरद्वयमपि ग्रन्थान्तरात्कथितमिति शेसूत्र औ०! यम् । अथ श्रात्मद्रव्यमध्ये एतच्छक्तिद्वयं विविनक्ति । श्रोहयमणस्संकप्प-उपहतमनःसंकल्प-पुं० उपहतः कलुषीभूतो | प्राक् पुजलपरावर्ते, धर्मशक्तियथौघजा । मनःसंकल्पो यस्य । कलुषितपरामर्श, । कल्प० । विपा०। अन्त्यावर्ते तथा ख्याता, शक्तिः समुचिताङ्गिनाम् ।। मोहयसत्तु-अपहतशत्रु-न० प्रत्यनीका राजानः शत्रवस्ते यथाङ्गिनां प्राणिनां भव्यानां प्रापुद्गबपरावर्ते प्रथमपुद्गलपअपहताः स्थावकाशमलभमानीकृताः यत्र तत् अपहतशत्रु । रावर्ते जात्येकवचनमर्थात् अनन्तेषु पुगनपरावर्तेषु सा कुतः निरवकाशशत्रुके राज्ये, रा०। प्राप्स्यते यतो " नासतो विद्यते नाव" इत्यादिवचनात् । तथा उपहतशत्रु-न० उपहता विनाशेन निहताः शवोऽगोत्रजाः पुनः अन्त्यावर्ते चरमपुद्ररूपरावर्ते धर्मशक्तिः समुचिता ख्याता । यत्र विनष्टागोत्रजप्रतिस्पर्छि नि, शा०१०। स्था। अत एव चरमपुगनपरावर्तकालो धर्मयौवनकालश्च कथ्यते । नक्तं च "अचरमपरियट्टेसु, कालो भववासकासगो भणियो । चरमो ओहयहय-उपहतहत-त्रि० उपसामीप्येन मुझरादिना हता स धम्मजुब्वण, कालो तहवन्नन्नेओत्ति ॥" एतद्विशत्यां पठितउपहताः पुनरप्युपहताः एव खगादिना हता उपहतहताः। मिति । द्र। पूर्व मुद्रादिना पश्चात्खड्गादिना हते, “ओहयहए य ताहियं पोहसामायारी-अोघसामाचारी-स्त्री० ओघः सामान्य तद्विणिस्सझे कप्पणीहि कप्पंति" सूत्र०१ श्रु०५ अ। षया सामाचारी । सामान्यतः संकेपानिधानरूपौधनियुक्तिप्रतिओहर-उपगृह-न० प्राश्रयविशेषे, “वत्थोहरपरिमंडणघाए" पादितक्रियाकलापे, क्वचित्वाच्यवाचकयोरनेदादोघनिर्युक्तौ च । प्रश्न०१द्वा०। हच सांप्रतकासप्रव्रजितानां तावत् श्रुतविज्ञानशक्तिविकलानाओहरिय-अपहृत्य-प्रतिरश्चीनो भूत्वेत्यर्थे, “अवउजिया।। मायुष्कन्हासविषये समपेक्ष्य ओघसामाचारी नवमात्पूर्वास्तुमोहरिया आदलएजा" श्राचा० ।“ अगणिउसिरिया तीयवस्तुना आचारानिधानात्तत्रापि विंशतितमात्प्रात्तात्तत्राणिसिक्किया ओहरिय आहट्टदलएज्जा" श्रोहरियअग्निकायो- प्योघमानतप्रानृतात् (नद्रबाहुस्वामिना) निब्यढा इयं च प्रथपरि व्यवस्थितं पिठरकादिकमाहारभाजनमपवृत्य तत पाहत्य | मदिवस एव दीयते प्रतिदिवसक्रियोपयोगिनीत्वादिति (त्रिविगृहीत्वाऽऽहारं दद्यात् । आचा०२ श्रु०१ अ०७ उ०। धसामाचारीनेदेषु ) प्रथमोक्ता, ध०३ अधि० । प्रव० । ओ०। श्रोहसणा-ओघसंका-स्त्री० मतिज्ञानाधावरणक्षयोपशमाच्छु-नोदसिय-उपहसित-त्रि० प-हल-क्त-कश्योपे ८/११७३। लपब्दाद्यर्थगोचरा सामान्यावबोधक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति श्रोघ- शब्द प्रादे स्वरस्य परेण सस्वरव्यजनेन सह छत् ओषासंक्षा । दर्शनोपयोगरूपे सामान्यप्रवृत्तिरूपे घा संशाभेदे, | देशौ वा भवत इति सप प्रोत्वम् । जातोपहासे, प्रा० । स्था०१० ठा०। ओहसुय-अोघश्रुत-न० उत्सर्गश्रुते, नं०। श्रोहसत्ति-ओघशक्ति-स्त्री० ओघोद्भवा शक्तिरोघशक्तिः स. श्रोहसुयसमायारग-अोघश्रुतसमाचारक-पुं० श्रोघश्रुतं समाचघेषां द्रव्याणां निजनिजगुणपर्याययोःशक्तिमात्रे,गुणपर्याययोः रन्ति येते श्रोघश्रुतसमाचारकाः। उत्सर्गश्रुतसमाचारकेषु नागाशक्तिमात्रमोघोजवादिमा गुणेति' सर्वेणां व्याणां निजनिजगु-। र्जुनादिषु, । नं। णपर्याययोःशक्तिमात्रमोघशक्तिःश्रादिमा प्रथमभेदरूपा कथ्यते अत्र दृष्टान्तः। ओहस्सर-अोधस्वर-त्रि ओघेन प्रवाहेन स्वरो यासां (येषां) कायमाना तृणत्वेना-ज्यशक्तिरनुमानतः। ता (ते) श्रोधस्वराः । प्रवाहिस्वरे, जी०३ प्रतिः । तं० "ता श्रोणं घंटा ओहस्सराओ मेहस्सराओ" रा० किंच दुग्धादिभावन, पोक्ता लोकसुखप्रदा।। ओहामण-अवघाटन-न० आच्छादके, व्य० १३०॥ यथा भाज्यशक्तिद्धृतशक्तिः तृणत्वेन तृणभविन अनुमानप्रमाणतो शायमानापि लोकानामग्रतः कथयितुं न शक्यते । आहाडिए। ओहाडिपी-अवघाटिनी-स्त्री० आच्छादनहेतुकम्पबोपरिस्थाप्ययदि तृणपुरलेषु घृतशक्तिर्नास्ति तदा तृणाहारण धेनुर्दुग्धं | मानमहाप्रमाणकलिं च स्थानीयेऽर्थे,"श्रोहामिणहारम्गहणं महकथं दत्ते। तहुग्धान्तर्भूता घृतशक्तिः कुत आगता इत्थमनुमी- | तुजुल्लुक तुपुच्चनी"रा०इति।मूलटीकाकारः। जी०३प्रतिज यमाना तृणभावेन घृतशक्तिःशातापि लोकानां पुरतः प्रकाश- | ओहाडिय-अवघाटित-त्रि० पिहिते, "श्रोहामियग्गदाराए" अ. यितुमशक्या । तस्मात् तृणाभावेन या शक्तिः सा ओघशक्तिः बघाटितं चिलिमिलिकया पिहितं द्वारमग्रद्वारं यासांता श्रवइत्येकदृष्टान्तः । किंचानुमीयमानौघशक्तिराद्या पुनर्व्यवहारा घाटितानद्वाराः । वृ०१उ०1"श्रोहारियमव्वर, च हो पाएण Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) अभिधानराजेन्द्रः । मोहाण तंतु" "ओहारित" स्वमितं विषादिना तिरस्कृतस्वभाव म् । आव ०५ प्र० । ओहाण - अवधानन० उपयोगे ०३ अधि आत्मनोऽर्थ साक्षात्करणव्यापारे । आ० म० प्र० । चित्तं चेतना संज्ञानमुपयोगोऽवधानमिति पर्यायाः । आव० ६ श्र० । अवधावन न० विहाराधायनेन लिगायधायनेन वा द्विविधे गणावरुमणे "हाणे को मणं " नि० चू० १६ उ० । ओहाणुप्पेड () अवधावनोत्ने सिन्धावनमपसरणं संयमत्तात्प्राबल्येन प्रेकितुं शीलं यस्य तथाविधः । जितुकामे ६०१ ० । प्रोद्दाम तुल० ० पर० स० सेट् पापरिच्छेदे तूले रोहामः ८ । ४ । २५ । इति तूलेएर्यन्तस्य भहाम इत्यादेशो वा भवति । भोहाम‍ । तुलइ तूलति । प्रा० आ० ० शोहारविता- अवधारयितु शि० शङ्कितस्याप्यर्थस्य निःशङ्कतस्यैवमेवायमित्यर्थवक्तरि ॥ अवहारयितृ - त्रि० परगुणानामवहारकारिणि, यथा भदासादिकमपि परं प्रणति दासस्त्वं चौरस्त्वमित्यादि " अभिक्खणं मोहारचित्ता भव" असमाधिस्थानमेका ०२०० दशा० ॥ यव ओहारण अवधारण न० तसदासहितान्ययोगव्यवच्छेदादिफले निश्वये, श्राव०६ अ० विशे० ( णय शब्देऽस्योदाहरणानि ) सर्वे वाक्यं सावधारणमामनन्ति नं० आ० म० प्र० । sोहारणी अवधारणी-श्री० अवधार्यतेऽवगम्यते धारणी । भ० २ ० १४० अशोजन एवायमित्यादिरूपायाम् जी०४ प्रति० अवबोधबीजभूतायाम्, प्रज्ञा० १० पद० निश्चया मिकायां वा भाषायाम् " मुसं परिहरे भिक्खू न य भोहारावर" उत्त० १ ० " ओहारणिं अप्पियकारिणिव भासं न नासिज सया स पुज्जो द० ८ ० ३ ० ( इति तद्भाषणनिषेधः से सूते ! मनामीति बोहारणी भारताइत्यादिनासा स्याः स्वरूपमा वेदिष्यते ) छोहान-आक-धा० आक्रमणे, त्वा-उभ० भाकमेरोहावोच्छारच्छुदाः ८ । ४ । ५ए आक्रमेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति इति श्रक्रमेरोहावादेशः । श्रहावर अक्कमह श्राक्रामति । प्रा० । महाव-अपधावन न० प्रतपर्यायावाङ्मुखीजने व्य० १ ० । उत्प्रवाजने । व्य० ३ स० । अवसरणे, द० १ चूलि० । निगमणमवकमणं, निस्सरणपलायणं च एगट्ठा । सोलुणपलोह-ओहावणं चैव एगहा ।। निर्गमनमपक्रमणं निस्सरणं पलायनमित्येकार्थाः । लोटनं सुसोमवधावनमिति वैकात सो उने इत्यस्यैव प्रपूर्वस्य पर्यायशब्देरष्यतिर्थप्रतीतिरुप जायते तत्व पर्यायै यस्येति वचनमप्यस्ति । ततस्तपन्यास इति व्य० १ उ० । गणादवधावेत्पुनस्तत्रैवागच्छेत् तत्र प्रायश्चित्तम् । व्य० अ० । 1 निक्खू य गणावकम्म अहाणपेहो वजेज्जा से ग्रहच्च अ धाइतो से य इच्छेला दोचं पि तमेव गणं उपसंपखिता विउत्तरा तत्थं थेराणं इमेयारूबे बियाए समुपज्जित्ता मोदाव इमां अज्जो जाह किं परिसोविअपरिसेवी से व पुच्चिय किं परिसेवी परिसेवि से य वएज्जा परिसेविपरिहारपत्ते जे से पमाणं वयति से पमाणे घेतव्वे से किं एव माहु भंते ! सचपणववहारस्स । निकुब्धाम्य अवधानमसंयमगमनं तदनुमेका व्रजेत् । स चानवधावित पत्र असंयमगत एव सन् इच्छेत् इति द्वितीयमपि वारं तमेव गणमुपसंपद्य वितु तत्र स्पविराणामर्थ पक्ष्यमाणस्तपोऽनन्तरोच्यमानको विवादः समुत्पद्यते । इद जो आर्या ! जानीत किमयं प्रतिसेवी किंवा नेति तत्र स प्रष्टव्यः । किं प्रतिसेवी किं वा नेति । तत्र स प्रष्टव्यः । किं स प्रतिसेवी अतिसेवी या कृतप्रतिशेधनाः । तत्र यदि स वदेत्यतिसेवी ततः परिहारं प्राप्तः प्रायश्चित्तं प्राप्तः स्यादथ वदेत् । न प्रतिसेवी तर्हि नो परिहारं प्राप्तो भवति । यत्स प्रमाणं वदति तस्मात्प्रमाणो प्रीतयः सत्योऽसत्यो वा अथ कस्मादेवमादन्त!] सूरिराह सत्यप्रतिज्ञाव्यवहारास्तीर्यकृद्भिर्वशिता इति कृता पषा सूषाकरणमनिका संप्रति नियुक्तिभाष्यविस्तरः । सो पुल सिंगेण समं ओहावर मोलिंगमहवा वि किं पुण लिंगेण समं ओहावर मेहिं कज्जेहिं । स पुनरवधानानपेक्षः कोऽपि लिङ्गेन सममवधावेत । अथवा कोऽपि मुक्त्वा लिङ्गं तत्र शिष्यः प्राह । किं केन कारणेन पुनर्लिन सममेषपाति हि यमाणैः कार्यः कारण: "क अंति वा कारणं ति वा एगनुमिति” वचनात् तान्येव कारणान्यनिधित्सुराह । 1 जड़ जीवेडिंति जानाति पर न बो तो लिंगमोच्च संका, पविट्टे तत्थेव नवहम्मे । यदि भाय्यादयो मे जीविष्यन्ति जीवती यमीति नाथः यदिका तम्मे पितृपितामहोपार्जितं स्वजोपार्जितं वा धनं घरति बिमानवतिष्ठते यदि वा पयन्ति मुख्य नि यानिति तदा लिङ्गं मोक्ष्यामि नान्यथा । एवं शङ्कया व्रजतस्तस्य संघाटको दातव्यः किं कारणमिति चेत् उच्यते । कदाचिनानुशिष्यमाणः प्रतिनियततापीतिहेतोः तथा संचारके प्रतिनिवृते सति किमुत प्रजामि किया नेति शङ्काप्रविशे रात्री व्युषितो भवेत् तदेय कारणमनिचित्सुराद । गच्छमि के पुरिसा, सीयंते बिसयमोहि यमविया । प्रोढावंताणगणा, चलम्बिदा सिमा सोही । केचित्पुरुषा विमोहितमतिका रूपादिकविषयविपर्यासितमतयो गणात् गच्छादवधावन्ति । तेषां तथा गणादवधावतां केनापि समनुशिष्टानामथषा न सुन्दरं वयं कुर्म इति । स्वयमेव परिभाव्य विनिवृत्तानामियं मह्यमाणा चतुर्था चतुःप्रकारा शोधिः प्रायधितं जयति तामेवाद दन्वे खेत्ते काले, भावे सोडी न तत्थिमा दव्वे | राया सुबे अमचे पुरोडियकुमारकुलपुते । , अव्ये ऽव्यतः क्षेत्रतः कालतः भावतश्च । तत्र तासु चतसृषु शोधिषु मध्ये सव्ये अव्यविषया श्यं वक्ष्यमाणा अन्ये पुनरिदं वदन्ति द्विविधा रुष्टव्या शोधिः । सचित्तविषया अवित्तविषया ख । तत्र सचित्तविषया " उक्कायच वसु सहुगा " इत्यादिका पूवैवर्णिता । अचित्तविषया उरुमोत्पादादिकौघनिष्पन्ना । यश्चा | Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालगुरु॥ (१३१) मोहावण अनिधानराजेन्षः। अोहावण कल्पिकं यश्च कलपनीयमपि सूत्रेण प्रतिविद्धं तं तद्विषया। र्तमानस्य मासगुरु तृतीये दिवसे चतुर्मासलघु । चतुर्थे चतुर्मासर्वापि शोधिः अव्यत इति भाष्यकारः । संप्रति ज्ञातां व्य- सगुरु । पञ्चमे षट्लघु। षष्ठे षड्गरु ।सप्तमे वेदः। अष्टमे मूलम् । शोधिमाह “राया इत्यादि" राजा प्रतीतः तस्मिन् युवराजे | नवमे अनवस्थाप्यम् । दशमे पाराञ्चितमिति। एषा काले कालअमात्ये पुरोहिते कुमारे कुबपुत्र द्रव्यशोधिरिति वाक्यशेषः ।। विषया शोधिः भावतो वक्ष्यमाणा । संप्रत्यत ऊर्ध्वं व्ये केत्रे कथमेतद्विषमा द्रव्यशोधिरत आह । काले च यः संयोगस्तस्मिन् वये प्रतिज्ञातमेव निर्वादयति। एएसिं रिकिं तो, दई लोजाउ संनियत्तंते । दव्वस्स य खेत्तस्स य, संजोगे हो मा पुण विसोही। पणगादीया सोधी, बोधव्वा मासबहुअंता । रायाणं रायपहे, दर्दु जासीमतिकतो ॥ एतेषां राजादीनां ऋद्धिं दृष्ट्वा अहो धर्मस्य फलं साकाजुपनत्य- पणगादीमा मासो, जुवरायं निवपहाइ दवणं । ते तस्मादहमपि करोमि । धर्ममिति सोभाद्भोगाभिष्वङ्गरूपात् | दसराशंदियमाई, मासगुरु होइ अंतमि ॥ सनिवर्तमाने षष्ठीसप्तम्योरथ प्रत्यन्नेदात् । सम्यग्निवर्तमानस्य न्यस्य केत्रस्य च संयोगे संबन्धे पुनरिय वक्ष्यमाणा भवति बोधन्या शोधिः । पञ्चकादिमासलघुपर्यन्ता । तद्यथा राजानं विशोधिस्तामाह । (रायाणमित्यादि ) येषां हि राजादिकं स्फीतिमन्तमुपलज्य अहो धर्मप्रभावतः कथमषः स्फीतिमान् । द्रव्यं नृपपधादिकं केत्रमधिकृत्योच्यते श्तीय व्यक्षेत्रसंयोगतस्मान्न त्यजामिधर्ममिति प्रतिनिवर्तमानस्य पञ्चरात्रिन्दिनानि। जा विशोधिः । तत्र यदि गजानं राजपथे दृष्ट्वा निवृत्तः। ततस्तअमात्यं दृष्ट्वा पञ्चदश, पुरोहितं विंशतिः, कुमारं पञ्चविंशतिः । स्य पञ्चकं पञ्चरात्रिन्दिवं प्रायश्चित्तमेवं क्षेत्रं राजपथमादिं कृत्वा कुलपुत्रं मासलघुकमिति ।। राशि च भव्ये पञ्चकादिप्रायश्चित्तं क्रमेण तावद्वक्तव्यं यावत्केत्रचोएती कुलपुत्ते,गुरुगतरं राणो न बहुगतरं । तः सीमातिक्रान्ते राशि प्रायश्चित्तं यावन्मासस्तद्यथा नगरकारे पखितं किं कारणं, नणियं सुण चोयग इमं तु। राजानं दृष्ट्वा निवर्तमानस्य दशरात्रिन्दिवानि उद्यानानिवर्तमानचोदयति परः किं कारणं केन कारणेन कुलपुत्रेऽल्पढिके रष्टे | स्य पञ्चदश उद्यानस्य सीम्नश्चान्तरा, तु विंशतिकं सीम्नो निवनिवर्तमानस्य गुरुकतरं प्रायश्चित्तं जणितं, राझो महर्डिकस्य र्तमानस्य मासलघु । युवराज व्यं नृपपथादि केत्रमेतदृष्ट्वा दर्शनेन प्रतिनिवर्तमानस्य लघुकतरमत्र सूरिराह । चोदकाय निवर्तमानस्य दशरात्रिन्दिवानि नगरद्वारे पञ्चदश उद्याने वियेन कारणेनेत्थं प्रायश्चित्तं नानात्वं तत्कारणमिदं वक्ष्यमाणं शतिरुधानसीम्नोरपान्तराले पञ्चविंशति सीम्नि मासलघु शृण्वेतदेवाह। सीमातिक्रमण मासगुरु ॥ दीसइ धम्मस्स फलं, पेञ्चत्यं तत्थ उज्जम कुणिमो । सचिवे पम्मदसादि, लघुगतं वीसमादि उ पुरोहे । ट्ठीसु पइणवीसु वि, सजते होइ नाणत्तं । अंतम्मि चनगुरुगं, कुमारनिनादिश्रा छेत्रो ॥ दृश्यते खलु धर्मस्य फलं साक्षात् तस्मादत्र धर्म वयमुद्यम कु- सचिवे राजपथादिषु क्रमेण पञ्चदशादि चतुर्बघुपर्यन्तम् । मैः । एवमृहिषु राजसंबन्धिप्रभृतिषु प्रसूतास्वपि यथाक्रमं ही- तद्यथा राजपथेसचिव राष्ट्ठा निवर्तमानस्य पञ्चदश रात्रिन्दिवाममानतरास्वपि सज्यते सङ्गमुपयाति । यथा यथावाल्पतरास्व- नि नगरधरे विंशतिरुद्याने सीम्नोरन्तराले मासमधु । सीम्नि पि ऋषुि सङ्गममुपपद्यते । तथा तथा लक्ष्यते तीव्रातीवतरा मासगुरु। सीमातिक्रमे चतुर्मासलघु। तथा पुरोधसि विंशत्यादि तस्य भोगासक्तिरित्युक्तप्रकारण जवति । प्रायश्चित्तनानात्वाम- प्रायश्चित्तमन्ते चतुर्गुरुकम् । तद्यथा राजपथे पुरोधसं दृष्ट्वा निति । अपरे त्वियं नावशोधिरिति प्रतिपन्ना संप्रात केत्रतः शो- वर्तमानस्य विंशतिरहोरात्रं नगरद्वारे पञ्चविंशतिरुद्याने मासधिमाभिधित्सुराह। मधु । उद्यानसीम्नोरपान्तराले मासगुरु । सीम्नि चतुर्मासगुरु । खेत्ते निवपहनगर-दारे नजाणा सीमाहिकते। कुमारे जिन्नमासादि यावत् षट्लघु । तद्यथा राजपथे कुमारं ह. पणगातीईआ लहुओ, एएमु य सन्नियत्तंते ट्वा निवर्तमानस्य जिन्नो मासः । पञ्चविंशतिरात्रो, रात्रावित्य र्थः । नगरद्वारे मासबधु । उद्याने मासगुरु उद्यानसीम्नोरपान्तकेत्रे केत्रविषयां पतेज्यः सनिवर्तमाने श्त्यत आह (निवपहे. राले चतुर्मासलघु । सीम्नि चतुर्मासगुरु । सीमातिक्रमण मात्यादि ) अत्रापि सप्तमी पञ्चम्यथें । ततोऽयमर्थः। नृपपथानगर सलघु ॥ द्वाराधानापुद्यानात्परतःसीम्नोर्वा तथा सीनःसीमातिक्रमतः कुलपुत्ते मासादी, छग्गुरगं होई अंतिमेट्ठाणे । किं प्रमाणा शोधिरत आह । पञ्चकादिका यावचघुको मासः। एत्तो य दब्बकाले, संयोगमिमं तु वोच्छामि ॥ श्यमत्र नाचना । राजपथात्पञ्चरात्रिन्दिनानि नगरद्धाराभिवर्त कुलपुत्रे मासादिमासलवादिप्रायश्चित्तंक्रमण तावद्रव्यं यामानस्य दश, उद्यानात्पञ्चदश उद्यानात्परतः सीम्नो निवर्तमानस्य विंशतिरहोरात्राः सीम्नो भिन्नमासः सीमानमतिक्रम्य वदन्तिमस्थानं षगुरुकं भवति । तद्यथा राजपथे कुलपुत्रं दृष्ट्वा निवर्तमानस्य मासलघु । नगरकारे मासगुरु । उद्याने चतुर्मघु । मासलघुः। उद्यानसीम्नोरपान्तराले चतुर्गुरु । सीम्नि षएमासाघु । सीमा____ संप्रति कासतः शोधिमाह ॥ तिक्रमेण मासगुरु । तदेव व्यक्त्रसंयोग नक्तम् । इत ऊर्व पढमेदिण निवत्तंते, लहुओ दसहिं सपदं नवे । अव्ये काले च संयोगमिमं बदयमाणं वक्ष्यामि यथा प्रतिज्ञाकाले संयोगे पुण, एत्तो दवे य खेत्ते य । तमेव निर्वाहयति॥ यदि प्रथमे दिवसे निवर्तते ततस्तस्मिन् प्रथमे दिवसे निव रायाणं तदिवसं, दट्टण नियत्ते होइ मासलह । तैमाने सघुको मासलघु प्रायश्चित्तम् । एवं यावत् दशभिर्दिवसैः दसाह दिवसाह स-पय जुयरमाद तवा बाच्छ स्वपदं दशमं प्रायश्चित्तम् जयति । तद्यथा द्वितीये दिवसे निष- राजानं रष्ठा तस्मिन् दिवसे यदि प्रतिनिवर्तते । तेन तु अव Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) अभिधानराजेन्द्रः । महावण धानानन्तरं तत्कणमेव तदा तस्य मासलघु प्रायश्चित्तम् । एवं क्रमेण यावद्दशनिदिवसे स्वपदं दशमं प्रायभितं भवति । तद्यथा द्वितीये दिवसे राजानं दृष्ट्वा निवर्तमानस्य मासगुरु तृतीये दिवसे चतुर्गुरु पञ्चमे परामास । षछेषएमासगुरु । सप्तमे छेदः । अष्टमे मूलं । नवमेऽनवस्थाप्यम् । दशमे पारावतम्। सांप्रतम युवराजादिमधिकृत्य वक्ष्यामि । प्रतिकालमेव करोति ॥ " मासगुरु चहलडुया, चलगुरु बन दगुरुकमादी | नवहिं अदि सहि छ पंचा चैव परमपदं ॥ युवराजामात्यपुरोहितकुमारकुलपुत्रेषु यथाक्रमं प्रथमदिवसे मासगुरु चतुधुकं चतुर्गुरुकं पटलघु पट्गुरुकादि कृत्वा यथाअनिनिःसप्ततिः पक्षि पनि दिवसेश्वरमं पाराचितं वक्तव्यम्। तद्यथा प्रथमे दिवसे युवराजं दृष्ट्वा निवर्तमा नस्य मासगुरु । द्वितीये दिवसे चतुर्मासलघु । तृतीये दिवसे चतुर्मासगुरु । चतुर्थे दिवसे षण्मासनघु । पञ्चमे दिवसे षण्मासगुरु पद सप्तमे ममष्टमेऽनवस्थाप्यं नयमे पाराचितम्। तथा अमात्यं दृष्ट्वा प्रथमे दिवसे निवर्तमानस्य चतुर्मासलघु । द्वितीये दिवसे चतुर्मासगुरु । तृतीये परमासन्नघु । चतुर्थे ष । मासगुरु | पञ्चमे छेदः । षष्ठे मूलं । सप्तमे अनवस्थाप्यम् । अटमे पाराञ्चितमिति । तथा पुरोहितं दृष्ट्वा प्रथमे दिवसे निवर्त मानस्य चतुर्मासगुरु । द्वितीये परमासलघु । तृतीये परमा सगुरु । सतुः पञ्चमे सूप बनवस्थाप्यं सप्तमे पाराजितम्। यथा कुमारं दृष्ट्वा प्रथमे दिवसे निवर्तमानस्य षमासलघु द्वितीये दिवसे मासगुरु तृतीये वेदः चतुर्थे मूत्र पथमे अनवस्थाप्यम् । षष्ठे पाराश्चितम् । तथा कुलपुत्रकं प्रथमे दिवसे निवर्तमानस्य परमासगुरु द्वितीये देद तृतीये चतुर्थे अनवस्थाप्यम् । पञ्चमे पाराञ्चितमिति । उपसंहारमाद । दव्वे खेत्ते काले, भणिया सोही उ भावइणमया । मियागसं ते मोश्या विषयानुये दो ॥ इत्येवमुकेन प्रकारेण प्रत्येकं संयोग ये काले व प्रणिता शोधिरिदानीं नावत इत्ययमन्ये द्रव्य क्षेत्रकालव्यतिरिकानयन्ते इति शेषः प्रतिज्ञातमेव कुर्वन द्वारसंग्रहमा | दरिमते राज्ञा भूणके देशीपदमेतत् बालकेषु पुत्रादावित्यर्थः । मृते इति वाक्यशेषः । तथा संक्रान्ते परपुरुषं गते विपन्ने मृते कति गम्यते तथा दोति तृतीयाचे सप्तमी बघा "तिसु यापुर्वीइत्य ततोऽयमर्थान्यां पुरुषायां स्त्री ज्यां वा वक्ष्यमाणस्वरूपाच्यां भोजने भावतः शोधिर्भवति । तत्र यो निर्देश प्रति प्रथमतो मितादिधारमा दंडिय सो उ नियत्ते, पुत्तादिमए व चउलहू हुंति | संकेतमयाए वा, भोएते चउगुरू हुंति ॥ ,," यत्र स संप्रस्थितः तत्र ते मनुष्याः कस्मिंश्चिदपराधे राज्ञादडिताः । यदि वा तेषां पुत्रादिकं किमपि मृतं अथवा यमपीदं जातं ततो दरिमतवान् यदि वा पुत्रादीन मृतानथवा बभयमपि श्रुत्वा निवर्तते । ततो निवृत्तिनिवृत्तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो घुमासा नवन्ति । तथा भोजिका नाम भार्या सान्यपुरुषं संक्रान्ता । अथवा मृता श्रुता ततोऽन्यपुरुषसंक्रान्तायां मृतायां वा भोजिकायां निवर्तमानस्य चत्वारो गुरुका गुरुमासा भवन्ति । संप्रति जति) व्याख्यानयति । महावण " अह पुण जाई, होहि उ वग्गेहि तवो समयं तु । इत्थीहिं पुरिसेहिं तवोहियं यरोवणा इणमो ॥ अथ पुनस्तत्र गतः सन् द्वाभ्यां वर्गाभ्यामेतदेव व्यक्तमाचष्टे । स्त्रीभ्यां पुरुषाभ्यां वा समकं सार्धं तु शब्दो वाल्पप्रमाणं समस्तविशेषसूचकः। भुञ्जीत तत्रयमनन्तरमुध्यमाना श्रा रोपण प्रायधितं । तमेवाद लड़गा य दोसु दोसुप, गुरुगा धम्मासगुरु लहुदो निक्खिवणं चिय मूलं, जे सेव तं समाजे । 1 सेव्यते स्त्रीपुंसकादिकं तक्षिष्यश्रमपि प्राय तस्य भवति एष गाथासार्थ सांप्रतमेनामेव प्रथमतो "स गाय दोसु य गुरुगा ” इति व्याख्यानयति । पुरिसे व नालबके अन्यतो पास पटलगा। एयासुं विय थी, अनालबके य चचगुरुगा ॥ अत्रापि सर्वत्र सप्तमीतृतीयार्थे पुरुपेण मालवन तुशब्दो विशेषणार्थः । स चैतद्विशिनष्टि । मिथ्यादृष्टिना अथवा सुत्र तोपासकेन नालबद्धेन एताभ्यां द्वाभ्यां पुरुषाभ्यां चशब्दस्या समुचयार्थत्वात् दर्शनमात्रभाषकेण च साथै भुञ्जानस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघु का व्याख्यातम् “लघुकाय दोसु तिगुरुगा" इति व्याख्यानयति । " एयासुं विय श्री सुमिति " । एताभ्यामेव स्त्रीभ्यां किमुक्तं भवति । नालबद्धमिथ्यादृस्त्रिया नालबातोपासकप्रिया वा सार्धं मुज्ञानस्य तुका 6 अनालबकेय चउगुरुगा ' इति । श्रनालबद्धमिथ्यादृष्टिपुरुपेण अनालबद्धावतोपासकेन वा समं भुञ्जानस्य चतुर्गुरुका इति व्याख्यापनार्थमाह । अनासाहित्य, दिन पुरिसे बना । दिति पुन आदि, मेहुणभोजीए हग्गुरुगा य ॥ अनालबद्धा दर्शनमात्रधाविका यश्च पूर्वे दृष्टः सन् तदानीमाभाषितः पुरुषस्तेन च समं भुज्जानस्य षट्लघुकाः । तथा (दिति । पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् पूर्व या भाषि तथा भाषिता सेन पुरुषेण तथा मेरा मैथुना मैथुनजीया वेश्यया इत्यर्थः तथा भोजभते चतुर्भिः सह भुञ्जानस्य षएमासगुरुवः । संप्रति इति व्याख्यानार्थमाह । अदिमहापी संभोइए संगती देदो संजतीए, मूलं यीजावसंबंधो ॥ पूर्वमभिस्तदानीमाभाषिताभिः खीभिः सह तथा सां भोगिके संयत्याऽपि न समं भुञ्जानस्य हे तथा सां गिकसंयत्या सह भोजने । तथा स्त्रीस्पर्शसंबन्धे च मूलं प्रायश्चित्तम् । सांप्रतमत्रैष व्याख्यानान्तरमाह । अहना विपुवसंधु पुरिसेहिं सिट हुति पुरसं वीए, पुरसेयरदोवि गुरुगा || अथवेति प्रकारान्तरोपदर्शनेन पूर्वसंस्तुतः सह पूर्वसं स्त्रिया च समं भुज्ञानस्य चत्वारो लघुका लघुमासा भवन्ति । एतेन ( लहुगा य दोसुत्ति) व्याख्यातम् । तथा पुरुषेतराभ्यां पुरुषस्त्रीभ्यां द्वाभ्यामपि च भुञ्जानस्य गुरकाव्यत्वारो गुरुमासाः । अनेन " दोसु य गुरुगा" इति व्याख्यातम् । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३३) ग्रोहावण अभिधानराजेन्द्रः। मोहावण पच्छा संयुयश्त्थी -ए छन्बहु मेहणीए चनगुरुगा । ग्वेवं गतो अन्नया सो रोहिणेयो रायगिहमतिगतो रति चोसमणुस्मेयरसंजति, छेदो मूलं जहा कमसो।। रोत्ति गहितो न य तज्जर रोहिणेओ जयाहु अन्नो चोरोततो पि द्विसमाढत्तो भम य अक्खाहि सव्वं तुमं रोहिणातो नवस्ति। पश्चात्संस्तुतया सह भुजानस्य षट् लघवः । मैथुनक्या मैथु जय रोहिणेश्रो तोसिया तो मुयामो। एवं सोनीतिसत्थपविठ्ठाहिं नजीवनया पण्याङ्गनया इत्यर्थः । मनोज्ञसंयत्या सह भुञ्जा अठारसहिं कारणेहिं एक्वेक्काचं पुच्छिज्ज । सो न कहेश कहाकई नस्य छेदः । अमोशया संयत्या सह मूलम् । पुनः प्रका रोहिणेओ चोरोत्ति।ताहे अहारसमा सुहमा कारणा करिउमाढ रान्तरमाह। त्तामजं पाश्त्तो मत्तो निवेयणो जातो ताहे देवयोगभवणसरिसं अहवा पुर संथुए त-रपुरिसत्थी सो य सोय वादीसु । जवणं काउंतत्थ महरिहे सयणिज्जे तिवज्जा ग्तिो ततो पमिसमणुन्नेयरसंजइ, अट्ठोकंतीए मूलं तु । बोहिवेलाए निब्बतिज्जमाणे ताहिं नण । तुम देवलोए उवषअस्य व्याख्यानं कल्पाध्ययनचूर्णितः कर्तव्यम्। संप्रति यदुक्तं मो देवलोएय एसो अणुभावो जो पुच्चित्तो पुब्वभवं सम्म प्राक् "संवमं सेवते दुविहं ति" तव्याख्यानार्थमाह । अक्खाति सोचिरद्विती देवतो अत्यत्ति जो न अक्खा सो तथीविग्गहकिलिवं वा, मेहुणकम्मं व चेयणमचेयं । क्खणं पामति तो मा अम्हे श्रणाहा कादिसि सव्वं अक्खादि । मूलुग्गमकोमिदुगं, परित्तणंतकाएमादी। ततो रोहिणीपण तित्थयरवयणं संजरित्ता चितियं । अदूतिवयस्त्रीविग्रहो नाम स्त्रीशरीरं क्लीवो नपुंसकम् । एतद्धिकं यत्सेवते । णा तित्थगरा सामिणा मणियं । 'अमिलाय इत्यादि' श्म स व्वं वि तहं दीसइ । तो कयगं एयंति जण नाहं रोहिणेतो ततो अथवा ( मेहुणत्ति ) मैथुनं ( कम्मत्ति ) हस्तकर्म । अथवा, मुक्को रोहिणिएण चिंतियं । अहो एगस्स वि सामिणो वयणस्स सचित्तमनितं वा यत्प्रतिसेवते। यदि वा मूलगुणविषयं यदि केरिसं माहप्पं । अहं जीवियसुहानोगी जातो ज पुण निग्गं. वा उममकोटि विशुद्धिकोटि अथवा (परीतमिति) प्रत्येकश थं पावयणं सुणोमि । तो जह लोए य सुहिओ जवामित्ति चिरीरम् (अनंतत्ति) अनन्तकायमेवमादि द्विविधं षष्टव्यम् । श्रा तिकण पवश्नो" । उक्तं सूक्ष्मं लौकिकं परिनिर्वापणं तथाचाह ।। दिशब्दात्तिर्यग्यानिकं मानुषिकं वा मैथुनमित्यादिक द्विपरिग्रहः । एएसि तु पयाणं, जं सेघइ पावई तमारुयणं । मुहुमाइ कारणा खलु, लोए एमादि उत्तरे णमो । मिच्छदिट्ठीहिं कया, किंतु हु मे तत्थ जवसग्गो।। अन्नं तु जमावजे, पावइ तं तत्थ तहियं तु । सूक्ष्मा खनु कारणयतना एवमादिका एवं प्रनृति आदिशब्दात्प्रएतेषामनन्तरोदितानां स्त्रीविग्रहक्लीवादीनां पदानांमध्ये यत्सेव।। नूतान्येवंविधो दृष्टान्तः सूचकः। उत्तरे लोकोत्तरे श्यं वक्ष्यमाते नामारोपणं तनिष्पन्नं प्रायश्चित्तं प्राप्नोति । अन्यश्च यदा णस्वरूपा कारणता तामेवाह ।मिथ्यादृष्टिभिः किंतु कृता मे भवपद्यते संयमविराधनाप्रत्ययं प्रायश्चित्तं तदपि तत्र प्राप्नोति । तस्तत्र गतस्योपसर्गाः किमुक्तं भवति । न तव वत्स!विरूपाचतत्तो य पमिनियत्ते, सुदुमं परिनिव्ववति आयरिया। रणे किमपि चित्तं केवलं यदि मिथ्यादृष्टिभिः बलात्कारेण किभरियं महातलागं, गलफलदिलुतो चरणम्मि ।। मपि कारितः स्यात् । तत्र किं प्रतिसेवितं किं वा नप्रतिसेवितसतस्तस्मात् अवधावनाप्रतिनिवृत्तात् । यथा सूदमन्ते जानन्ति मिति एवमुक्ते सति यत्करोति तदाह ॥ सूरयोऽस्माकमुपरि तथैव सस्नेहा वर्तन्ते । इत्येवमतिकोमले। अवि संधरति सिणेहो, पोराणो आइअो निप्पिवासाइ। नोपायनाचार्याः परिनिर्वापयन्ति । सुखापयन्ति । येन ते सर्व इइ गोरवमारुवितो, कद्देइ सव्वं जहा वत्तं ।। मालोचयन्ति तेनानन्तरमेवं वदेयुः । यथा चारित्रमस्माकं सर्व अपीति संत्रावने संभावयामीत्येतत पुराणायामवस्थागनितमस्मन्न्यं व्रतानि दत्थ । एवमुक्ते सूरिभिः चरणे चरणवि यां जवः पौराणः स्नेहः आयातोऽद्यापि निष्पिपासया मदीषये भरितं महातमागमतिचरणादेव कस्मिश्चित्प्रदेशे पालीभे या वैग्यावृत्यादिपियासाव्यतिरेकेणापि धरति विद्यते इति । दात् गमदुदकं तत्कणादेव पतितेन फलेन तत्प्रदेशापूरणानिरुद्धोदकं दृष्टान्तः करणीयः । श्ह "सुहम परिनिवव्वंती" त्युक्तम्। एवं गौरवमारोपितः सन् किमेतेषां कुर्मो जीवितमपि मदीयमेतेतश्च सूक्ष्म परिनिर्वापणं द्विविधं । तद्यथा । लौकिकं लोकोत्त षामेवेति । मत्वाऽतो यथावृत्तं समस्तमपि कथयति । एतदेव रिकं च । तत्र लौकिक यथारौहिणिकचौरस्याजयकुमारेण कृतम्। स्परतरमाचष्टे॥ तश्चैवं "रायगिहं मगरं तत्थ रोहिणेयोचोरो बाहिं दुग्गे हितोस. एवं नणितो संतो, उन्नुइत्तो सो कद्देश सव्वं तु । गलं नगरं मूसइ। न कोई तं घेर्नु सकाअन्नया वकुमाणसामी जं जेणं समणुनूयं, जं वा से तहिं कयं तेहिं ।। समोसढो तित्थगरवयणं सोउं चोरिचं न कहामित्ति कसे - __ एवं पूर्वप्रदर्शितेन प्रकारेण भणितःसन् (उन्नुश्त्तोत्ति) देशीएक तस्सेवं बोलमाणस्स । कंटकोपायलम्गो तं जाव एगेण हत्थे- पदमेतत् । गर्वे वर्तते अतोऽयमर्थः। अहमेव गुरूणां मान्यो नान्य ण उद्धर । ताव तित्थगरो श्मं गाहत्थं पपवेइ "अमिला यम. इति गौरवमारोपितः। सर्वमेव तुरवधारणे यदनन स्वयं समनुबदामा, अणिमिसनयणाय नीरजसरीरा । चतरंगुझण नाम, न नूतं यद्वा (से) तस्य तैर्मिथ्यादृष्टिनिः कृतं तत्समस्तमेव कथग्विंति सुराजिणो कहए"सुरा देवाश्चतुर्निकायनाविनोऽपि अ- यति । तत्र यदि सोऽगीतार्थो भवति तत श्दं ब्रूते॥ म्यानमास्यदामानस्तथा न विद्यते निमेषो येषां ते। तथा अनि- एहणादीणि कयाई, देह वए मज्जं वएतु अगीतो। मेरे नयने येषां ते अनिमेषनयनाः। तथा नीरजा निर्मलं शरीरं पुव्वं च उवसग्गो, किलिट्ठभावो अहं आसि ।। येषां ते नीरजाः शरीराः। चतुरङ्गलेन चतुर्जिरङ्गः भूमि न मया मानादीन स्नानाङ्गरागादाने तथा पूर्वमुपसर्गादुपसर्गेस्पृशन्तीति । जिनःसर्वज्ञः कथयति । अनेन सर्वतीर्थकृतामविसं.| वनारब्धष्वहं संक्लिष्परिणामोऽजवमुपसर्गप्रारम्भसमकालमेव पादिवचनतामावेदयति । एवं"सोज कंटगं उदारता पुणो को पनर्वियद्धपरिणामो जात ति। तत एतेन कारणन मह्यं ददत । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४) ग्रोहावण अभिधानराजेन्छः। पोहावण यूयं वतानि ममारोपयतेति नावः । इति अगीतोऽगीतार्थो | यदि सोऽनिधत्ते नाहं ब्रजामि । ततस्तस्मिन् प्रत्यागमच्छति । ब्रूते । एवं तेनोक्ते यदाचार्येण वक्तव्यं तदाह । यदि नागच्छति तहिं उपधिमपितावदेहि मा उपधेरप्युपहतोवेसकरणं पमाणं, न होइ नइ मज्जणं नलंकारो। ऽभूदिति । अणुमणनं किंय सेवी, अण्णुमएणं असेवी उ ॥ नवि देमित्ति य भणिए, गएसु जइ सो ससंकितो सुवति । वत्स!न वेषकरणं न च मज्जन नालङ्कारः प्रमाणं यथाक्रममप्र- उवहम्मद नीसंके, न हम्मए अपमिवजते ॥ तिसेवना वा किंतु (सोज्जपणंति ) यदि स्नानादिविषये अनु- यदि उपाधर्याचने कृते स ब्रूते । नापि नैव ददाम्युपधिमहमननं कृतं तेन सेवी प्रतिसेवनाकारी जवति । अननुमतेन तु मिति । तत एवं गणिते संघाटको गच्छति । संघामगतिगेति असेवी प्रतिसेवी । अन्यच्च । व्याख्यातमधुना (बुच्छो उवहिम्हणा)इति तयाख्यानयात 'गएजो सो विसुधभावो, नप्पलो तेण ते चरित्तप्पा । सु' इत्यादि । गतेषु तेषु सहायेषु यदि स शान्तिः । शङ्कनं शङ्कितं धरितो निमज्जमाणा, जलेण नावा कुर्विदेण ।। सह शाङ्कितं यस्य येन वा सः। तथा का पुनः शङ्कोच्यते । फि योऽसौ विशुद्धन्नावस्तत उपसर्गप्रारम्नसमये समुत्पन्नस्तेन तव वजामि किं वा नेति। एवंरूपशङ्कोपेतः स्वपिति रात्रौ तदास उप धिरुपहन्यते। अथ निःशाङ्कतः सन् स्वपिति यथा नियमात्मयोगाचरित्रात्माधारितः। यथा कुविन्देन कौलिकेन निमज्जन्ती नौरित। त् प्रवजितव्यमिति । तदा नोपहन्यते । अथ निःशङ्कउषित्या यजह वा महातलागं, भरितलिज्जतमुपरिपालीयं । दि वा यस्मिन् दिने सहायागतास्तदिवसमेवानुपित्वा यदि निवृतज्जाएण निरुक, तक्खणपमितरेण तालेणं ।। त्य वजिकाद्विवप्रतिवध्यमान आगच्छति। न चान्तरा रात्रौ दिवयथेति दृष्टान्तोपन्यासे या ति दृष्टान्तान्तरसमुच्चये महातडागं से वा स्वपिति तदा तस्मिन्नप्रतिबध्यमानेनोपहन्यते । अथ स्वमरितमिति वर्षे पानीयेन परिपूर्ण भृतमिति भरणादेव चोपर्य- पिति तहघुफ्हन्यते। ये कस्मिन् प्रदेशे निद्यमानपालीकं (तज्जातेणोत्त) प्राकृतत्वात् । संवेगसमावन्नो, अणुवहयं यत्तुं एति तं चेव । तृतीया पञ्चम्यर्थे ततेऽयमर्थस्तत्पाल्यांजातस्तजातः। तस्मात्ता अह होजाहि उवहतो, सो वि य ज होज गीयत्थो । लात्तालवृताद्यस्मिन् कणे उदकगलनेन पालीभेत्तमारब्धस्तरवणे तस्मिन्नव प्रदेशे पतितेनेति । ताअफवेनेति गम्यते । उदकं तो अन उप्पाए, तं चोवहिं विगचित्रो होइ। गलत् तेन विरुकमेव दृष्टान्तोऽयमोंपनयः। अप्पमिवज्ते उ, सुचिरेण विन हुनबहम्मे ॥ एवं चरणतलाग, जाकियनवसग्गवीचिवेगेहिं । संवेगो मोकाभिलाषस्तं समापन्नस्तमेव गुरुप्रदत्तमुपधिमनुप पहतं गृहीत्वा पतिसमागच्चति । अथ प्रवेत्कथमप्युपहतः सोऽपि भज्जत तुमे धारयं, धिइबलवेरग्गतालेणं ।। च साधुर्यदि स्यात् गीतार्थस्ततस्तमुपहतमुपाधं (विगंचिोसि) एवं महातमागदृष्टान्तगतप्रकारेण चरणमेव तमाग जातयः । परिस्थाप्यान्यमुपधिमुत्पाद्यए तिसमायाति।अथ स्यादगीतार्थस्तस्वजनास्तैः कृता ये उपसर्गास्त एव वीचिवेगाः कबोलवेगास्तै- हि तेनोपधिरन्येनोत्पादनीयोऽगीतार्थतत्वेनान्यनोत्पादने योग्यतार्जातिकृतोपसर्गवीचिवेगैनिद्यमानं त्वया धृतिबलं च वैराग्यं च भावात् । किंतु तेनैवोपधिना गन्तव्यं । समागतस्य चान्यमुपधिधृतिबलवैराग्यं तदेव तालोऽवयवे समुदायोपचारात् । तालफवं माचार्याः समर्पयन्ति ।प्राक्तनंच साधुनिः परिस्थापयन्ति । संप्रति तेन धृतबलवैराग्यताबेन धारितं केवलमवधानतः प्रायश्चित्तभा- (अप्पमियते) इत्यादि अप्रतिबध्यमाने । कर्मकर्तर्ययं प्रयोगः। क जातं तीर्थकराझानङ्गात्तदेवाह। कचिदपि प्रतिबन्धमकुर्वति । पुनःसुचिरेणापि कालेन ह निश्चित पमिसेहियगमणम्मि, आवष्णो जेण तेण संसृट्ठो। नोपहन्यते उपधि क्वचनापि प्रतिबन्धाकारणतः सततोद्यत्वात् । संघामगतिहबुच्छो, उवहिम्गहणे ततो विवादो॥ । संप्रति विवाद इति व्याख्यानयति । प्रतिषिकं खलु जगवता तीर्थङ्करेणावधावनानुत्प्रेक्तिगमनं त- गंतूण तेहिं कहियं, स यावि आगंतु तारिसं कहए । स्मिन् प्रतिगमने कृते। तथा कारणेन स्त्रीवादित आपनं प्रायश्चि- तो त होइ पमाणं, विसरिसकहणे विवादो ओ॥ तस्थानं तेन संसृष्टः कर्मसंबन्धेन ततस्ताद्विशोधनाय तस्मै दी- यौ सहायौ तस्य प्रेषितौ ताभ्यां गत्वा गुरुसमीपंतस्य प्रतिसेवयते प्रायश्चित्तम् । अथ योऽसौ द्वितीयः। संघाटकप्रेषितस्तेन कि- नमप्रतिसेवनं वा कथितं स चापि कृतावधावन साधुरागत्य तायश्चिरं स प्रतीकणीयस्तत प्राह ( संघामगेत्यादि ) संघाटक दृशं कथयति। ततस्तद्भवति प्रमाणमुभयेषामप्यविसंवादात् । अथ आह । त्रीन् दिवसान यावत्प्रतीक्वते इह व्यहग्रहणं मध्यतो न- विसदृशं कथयति । ततो विवादः सहाया ब्रुवते। एष प्रतिवितुमर्हति ततः उपधिग्रहणं कर्तव्यं तदीय उपधिर्याचित्वा ज- सेवीति तत्र सत्यप्रतिज्ञा खा व्यवहार इति । स एव प्रमाणीपग्रहणीयः । ततो (विवादोत्ति) यत्र सोऽवधावितस्ततः प्रति- क्रियते न सहायाः तदेवं प्रतिसेवनामधिकृत्य विवादो दर्शितः निवृत्तस्य सहायैर्यदि विवादो वक्ष्यमाणस्वरूपः क्रियते । तदा संप्रति मन्जनादिकमधिकृत्याह ॥ सप्रमाणयितव्यमिति। अहवा वेंति अगीया, मज्जणमादीहिं एस गिहिनूतो । संप्रत्येतदेवोत्तरार्क व्याचिख्यासुराह तं तु न होइपमाणं, सोचेव तहिं पमाणं तु॥ एगाहतिहे पंचा-ह इच्छित्तो निवत्तिओ सहायाणं । । अथवेति प्रकारान्तरोपप्रदर्शने अगीतार्था अवते मज्जनादिभिसव्वा उ अणिच्छते, नणंति नवहिं पि तो देहि ॥ | मजनाङ्गरागधृपाधिवासादिभिरेष गृहितो जातः स पुनरेवजघन्यत एकाहे एकस्मिन् दिवसे मध्यतः व्यहे तत्कर्षतः प. माह । नाहं स्नानादिकं कृतवान् । यदि वा वादहं स्वजन 5चाहे प्रतीक्षिते यदि सनिवर्तितुं नेच्छति ततः "सहायाणमिति" | स्नानादिकं कारितो न पुनस्तेषु स्नानादिष्वनुरागवान् जात तं ब्रुवते । कियच्चिरमस्माभिरवस्थातव्यमेहि व्रजाम एवमुक्ते। रति तत्रैवं भूते विवादे याते सहाया ब्रुवते तन्न भवति प्रमाणं Jain Education Interational Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५) प्रोडावगा अनिधानराजेन्द्रः। ओहावण किंतु स एव तत्र प्रमाणमिति । एतदेव प्रविकटयिषुराह ॥ नच्युता सती। सपश्चात्परितप्यत इत्येतत्पूर्ववदिति सूत्रार्थः।तथा । पमिसेवि य पडिसेवि, एवं थेराणं होइ उ विवादो । जया य पुश्मो होइ, पच्छा होइ अपूइमो । तत्थ वि होइ पमाणं, स एव पडिसेवणा न खलु ॥ राया व रज्जपन्जको, स पच्छा परितप्पई ॥४॥ स्थविरा अवेकन्ते एष प्रतिसेवी स प्राह । नाहं प्रतिसेवी एवं यदा च पूज्यो नवति वस्त्रभक्तादिनिः श्रामण्यसामर्थ्याखोकास्थविरैः सह गाथायां षष्ठी तृतीयायें विवादो अवति । तत्रापि प्र- नां पश्चाङ्गवत्युत्प्रवजितः सन्नपूज्यो लोकानामेव । तदा राजेवरातिसेवनाविषयेऽपि भवति । स एव प्रमाणं न पुनः खनु सहा- ज्यप्रभ्रष्टः। महतो भोगाद्विप्रमुक्तः स पश्चात्परितप्यत इति पूर्ववयैरुच्यमाना प्रतिसेवना तेषां पुनरगीतार्थानां पुरतः सुरय एत- देवोत सूत्रार्थः । तथा ॥ दभिदधति । जया य माणिमो होई, पच्छा होइ अमाणिमो। मज्जणगंधपरिवार-णादि जह नेच्छतो अ दोसा य । सिट्ठिव्व कब्बडे छुढो, स पच्छा परितप्पई ॥५॥ अणुलोमा नवसग्गा, एमेव इमं पिपासाओ। यदा च मान्यो नवत्यच्युत्थानाझाकरणादिना माननीयः शीयथा अनिच्छतोऽननिवषतोऽनुलोमा अनुकलाः उपसर्गाः सप्रभावेन पश्चाद्भवत्यमान्यस्तत्परित्यागेन तदा श्रेष्ठीय कटे के ते इत्याह । मज्जनं स्नानं गन्धः पटवासादिरूपः परिवा- महाक्षुषसंनिवेशे किप्तः सन् पश्चात्परितप्यत पतत् समानं रणस्त्रिया बलात्कारणोपभोग आदिशब्दादेवंविधान्योपस- | पूर्वेणेवेति सूत्रार्थः॥ परिग्रहः । एते यथा । अदोषास्तद्विषयानुमननानावा जया य थेरो होइ, समकंतजुब्बयो। त् । एवमिदमप्यधिकृतावधावितसाधुविषयं मजनादिपाश्य मच्छोव्व गलि गीलित्ता, स पच्छा परितप्पई॥६॥ मस्तदप्यनुरागाजावतो निर्दोषमिति भावः । एतदेव नावयति ॥ जह चेव य पमिलोमा, अपडुस्संतस्स होति दोसाय । जया य कुकुडुंबस्स, कुतत्तीहिं विहम्मई । एमेव य अणुलोमा, होति असायझणे अफला ।। हत्थीव बंधणे बच्छो, स पच्छा परितप्पई ॥७॥ यथेति दृष्टान्तोपन्यासे । च शब्दो दृष्टान्तदान्तिकयोःसाम्या यदा च स्थविरो भवति स त्यक्तसंयमो वयःपरिणामेन एतपधारणार्थः । यथा चैवं प्रतिसोमाः प्रतिकूलाः उपसर्गाः प्रद्वेषत: द्विशेषप्रतिपादनायाह । समतिक्रान्तयौवनः एकान्तस्थविर इति प्रद्वेषमागच्चतो नवन्त्यदोषाय एवमेव अनेनैव प्रतिकूलोपसर्ग नावः। तदा विपाककटुकत्वाद्भोगानां मत्स्य श्व गसं बमिशं गिगतेन प्रकारेण अनुलोमा अपि स्वजनैः क्रियमाणा मज्जनादय नित्वाभिगृह्य तथाविधकर्मसोहकएटकचिद्धः सन् स पश्चात्पउपसर्गा " असाश्जमाणे " अननुमनने भवन्त्यफला । अन्यश्च ।। रितप्यत एतदपि समानं पूर्वेणेवेति सूत्रार्थः। एतदेव स्पष्टयति ॥ सोहीएनोगजागी, अवि महती निज्जरा उ एयस्स । पुत्तदारपरिकियो, मोहसंताणसंतो। सुहुमो वि कम्मबंधो, न होइ उ नियत्तभावस्स ॥ पंकोसमो जहा नागो, स पच्छा परितप्पई ॥ ७ ॥ अपीति गुणान्तरसमुच्चये स्वजनक्रियमाणमन्जनाङ्गरागाद्य- पुत्रदारपरिकीर्णो विषयसेवनात् पुत्रकलत्रादिभिः सर्वतो विनास्वादनादेष स्वाधीननोगत्यागी स्वाधीननोगत्यागाच्चैत- विप्तः मोहसन्तानसन्ततो दर्शनीयमोहनीयकर्मप्रवाहण व्याप्तः । स्य महती निर्जरा पुराणकर्मनिर्जरणं प्रवृरुप्रवृहतर शुभाशयसं- पावसन्नो यथा नागः कर्दमाधमग्नो वनगज श्व स पश्चात्परिभवात् । नचाप्यभिनवकर्मसंगलनं यत आह । ननु निवृत्तपरि- तप्यते । हाहा कि मयेदमसमञ्जसमनुष्ठितमिति सूत्रार्थः । कणामस्य सतः सूदमोऽपि कर्मसंबन्धो जवति । कर्मोपचयहेतो- श्चित्सचेतनतर एवं च परितप्यत इत्याद । १ष्टाभ्यवसायस्याभावात् । व्य० प्र०२०॥ (आचार्य नपाध्या- अज्ज याई गणी हुँतो, जाविअप्पा बहुस्सुनो। यो वाऽवधावन् य वदेत्स आचार्यपदेस्थापयितव्य इति आयरि जइह रमंतो परिआए, सामने जिणदेसिए ॥ए॥ यशब्दे उक्तम् )(गणादपक्रम्येच्छदन्यं गणमुपसंपद्य विहर्तुमिति अद्य ताघदहमद्यास्मिदिवसे। अहमित्यात्मनिर्देशेगणी स्या उपसंपच्छब्द) (अवधावितुकामेनाष्टादशस्थानानि प्रत्युपेक माचार्यो भवेयम् ।भावितात्मा प्रशस्तयोगभावनाभिः बहुश्रुत णीयानीति अट्ठारसाणशब्दे) उभयलोकहितबह्वागमयुक्तो यदि किं स्यादित्याह । यद्यहमरजया ओहावित्रो होइ, इन्दो वा पडिओ छमं । मिष्यं पर्याये प्रव्रज्यारूपेसोऽनेकभेद इत्याह । श्रामण्ये श्रमणानां सम्बधम्मपरिभट्ठो, स पच्छा परितप्पा ॥२॥ संबन्धिनि सोऽपि शाक्यादिभेदभिन्न इत्याह । जिनदेशित यदा अवधावितोऽपसृतो भवति। संयमसुखविनतेरुताव जित-| निर्ग्रन्थसंबन्धिनीति सूत्रार्थः । अवधानोत्प्रेक्षिणः स्थिरीकत्यर्थः। इन्लोवेति देवराज श्च पतितः मांगतः स्वविनवनसेन रणार्थमाह। भूमौ पतित इति भावः।क्ष्मा नूमिः सर्वधर्मपरिभ्रष्टः सर्वधर्मेन्यः देवलोगसमाणो अ, परिपायो महोसिणं । कान्त्यादिन्यः आसेवितेन्योऽपि यावत् प्रतित्तमनमुपासनात् रयाणं अरयाणं च, महानरयसारिसो॥१०॥ सौकिकेन्योऽपि वा गौरवादिन्यः परिभ्रष्टः सर्वतः च्युतः स प देवलोकसमानस्तु देवलोकसदृश एव पर्यायः। श्वज्यारूपः। तितो जूत्वा पश्चान्मनाग मोहावसाने परितप्यते ।किमिदमकार्य महर्षीणां सुसाधूनां रतानां सक्तानां पर्याय एवेति गम्यते । मयानुष्ठितमित्यनुतापं करोतीति सूत्रार्थः॥ एतदुक्तं भवति । यथा देवलोके देवाः प्रेक्षणकादिव्यापृता अ. जया अवंदिमो होइ, पच्छा होइ अवंदिमो ।। दीनमनसस्तिष्ठन्त्येवं सुसाधवोऽपि ततोऽधिकं भावतः प्रत्यु. देवया व चुअढाणा, स पच्छा परितप्पई ॥३॥ पेक्षणादि क्रियायां व्यापृता उपादेयविशेषत्वात् । प्रत्युपेक्षणादे. यदा वन्द्यो जवतिाश्रमणपर्यायस्थो नरेन्द्रादीनां पश्चाद्भवति। उ. रिति। देवलोकसमान एवं पर्यायो महर्षीणांरतानामिति । श्ररनिष्कान्तः सन्नवन्धः। तथा च देवता श्व काचिदिन्द्रवर्जा स्था- तानां च भावतः सामाचार्यामसक्तानां च शब्दाद्विषयाभिला Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओहावण अभिधानराजेन्द्रः। ओहावण पिणां च भगवल्लिङ्गविडम्बकानां खुद्रसत्वानां महानरकस- पेक्कतया प्रकटेन चित्तेन तथाविधमझोचतमधर्मफलं कृत्वाभिनि दृशो रौरवतुल्यस्तत्कारणत्वान्मानसदुःखातिरेकात्तथा विड- | र्षासंयम कृष्याद्यारम्नरूपं बहुमसंतोषात् प्रनूतं स इत्थंहूतो म्बनाञ्चेति सूत्रार्थः। एतदुपसंहारेणोपनिगमयन्नाह । मृतःसन् गतिं च गच्छत्यनभिध्याताम् अनिध्याता इष्टा नानिष्टाअमरोवमं जाणि सुक्खमुत्तमं, मित्यर्थः। काचित्सुस्वाप्येवंचूता भवत्यत आह । पुःखां प्रकृत्यैवारयाण परिआई तहा रयाणं । सुन्दरां खजननी बोधिश्चास्य जिनधर्मप्राप्तिश्चास्योनिष्क्रान्त स्य न सुलभा पुनःपुनःप्रजूतेष्वपि जन्मस दुर्वनैव प्रवचनविराधनिरोवमं जाणि दुक्खमुत्तमं, कत्वादिति सूत्रार्थः । यस्मादेवं तस्मादुत्पन्नदुःखोऽप्येतदनुचिन्य रमिज्ज तम्हा परिआई पंमिए ।॥ ११ ॥ नोत्प्रव्रजेदित्याह। अमरोपममुक्तन्यायाद्देवसदृशं ज्ञात्वा विज्ञाय सौख्यमुत्तमं इमस्स ता नेरइअस्स जंतुणो, प्रशमसौख्यं केषामित्याह । रतानां पर्याये सक्तानां सम्यक मुहोवणीअस्स किलेसवत्तिणो । प्रत्युपेक्षणादिक्रियाद्यङ्गे श्रामण्ये । तथा अरतानां पर्याय एव पलिओवमं कि सागरोवमं, किमित्याह । नरकोपमं नरकतुल्यं ज्ञात्वा दुःखमुत्तमं प्रधानमुतन्यायाधस्मादेवं रतारतविपाकस्तस्मात् रमेत शक्तिं कुर्यात् किमंग पुण मज्ज इमं मणोदुहं ।। १५ ॥ क्वेत्याह । पर्याय उक्तस्वरूपे पण्डितः। शास्त्रार्थक इति सूत्रार्थः अस्य तावदित्यात्मन एव निर्देशः नारकस्य जन्तोनरकमनुपर्यायच्युतस्यैहिकं दोषमाह । प्राप्तस्येत्यर्थः । दुःखोपनीतस्य सामीप्यन प्राप्तदुःखस्य केशधम्मान जट्ट सिरिओववेअं, वृत्तेः एकान्तक्लेशचेष्टितस्य सतो नरक एव पल्योपमं वीयते जमग्गिविज्काअमिवप्पते। सागरोपमं च । यथा कर्मप्रत्ययं किमङ्ग पुनर्ममेदं संयमारति निष्पन्नं मनोदुःखं तथाविधवेशदोषरहितमेतत् कीयत पवैतत् हीसंति णं दुविहिरं कुसीला, चिन्तनेन नोत्प्रव्रजितव्यमिति सूत्रार्थः । विशेषेणैतदेवाह । दाहुहिगं घोरविसं व नागं ॥ १॥ न मे चिरं दुक्खमिणं नविस्सइ, धर्मात श्रमणधर्मतःभ्रष्टं च्युतं श्रियोपेतं तपोलदम्या अपगतं यज्ञाग्निमग्निष्टोमाद्यनलं विध्यातमिव यागावसाने अल्पतेज असासया नोगपिवासजंतुणो । समल्पशब्दोऽभावे तेजः शून्यं भस्मकल्पमित्यर्थः । हीलयान्ति न चे सरीरेण इमेणविस्सई, कदर्थयन्ति पतितस्त्वमिति पतयपसरणादिना एनमुन्नि- अवसई जीविअपज्जवेण मे ॥ १६ ॥ एकान्तं दुर्विहितमुन्निष्कमणादेव दुष्टानुष्ठायिन कुशीलास्तत्सझोचिता लोकाः स एव विशेष्यते "दादुठियंति" प्राकृतशैल्या न मम चिरं प्रनूतकालं दुःखमिदं संयमारतिबवणं भविष्य ति किमित्यत आह । अशाश्वती प्रायो यौवनकालावस्थायिनी उद्धृतदंष्ट्रमुत्खातदंष्ट्रं घोरविषमिव रौद्रविषमिव नागं सर्प य भोगपिपासा विषयतृष्णा जन्तोः प्राणिनःशाश्वतीत्व एव काशाग्निसर्गापमानं लोकनीत्या प्रधानभावादप्रधानभावाख्याप रणान्तरमाह । न चेचरीरेणानेनापयास्यति न यदि शरीरेनार्थमिति सूत्रार्थः। एवमस्य भ्रष्टशीलस्यौघत ऐहिकं दोषम णानन करणनूतेन वृक्षस्यापि सतोऽपयास्यति। तथापि किमाकुभिधाय ऐहिकामुष्मिकमाह । सत्वं यतोऽपयास्यति जीवितपर्ययेण जीवितस्यापगमन मरणेहेव धम्मो अयसो अकित्ती, नेत्येवं निश्चिन्तः स्यादिति सूत्रार्थः । अस्यैव फलमाह ॥ दुस्मामधिजं च पि हुजणंमि । जस्सेवमप्पा उ हविज निच्छिो , चुअस्सधम्मा उ अहम्मसेविणो, चज्ज देहं न हु धम्मसासणं । संभिन्नचित्तस्स य हिो गई ॥ १३ ॥ तं तारिसं नो पश्लंति इंदिआ, इहैवेह लोके एवाधर्मः इत्ययमधर्मः फलेन दर्शयति । यदुतायश-अपराक्रम कृतं न्यूनत्वं तथा अकीर्तिरदानपुण्यफलप्रवा. नविति वाया व सुदंसिणं गिरिं ॥ १७ ॥ दरूपा । तथा दुर्नामधेयं च पुराणः पतितः इति कुत्सितनाम- यस्येति साधोः एवमुक्तेन प्रकारण श्रात्मा तुशब्दस्यैवकाराधेयं च भवति । क्वेत्याह । पृथग्जने सामान्यलोकेऽप्यास्तां वि. र्थत्वात् । आत्मैव नवनिश्चितो दृढ़ः।स त्यजेद्देहं क्वचिद्विघ्ने उपशिष्टलोके कस्येत्याह । च्युतस्य धर्मात्प्रवजितस्येति भावः । स्थिते न तु धर्मशासनं न पुनर्धांझामिति तं तादृशं धर्मे निश्चि. तथा अधर्मसेविनः कलत्रादिनिमित्तं षट्कापोपमईकारिणः। तं न प्रचालयन्ति । संयमस्थानान्न कम्पयन्तीन्द्रियाणि चक्षुरातथा संभिन्नवृत्तस्य चाखामनीयखण्डितचारित्रस्य च क्लिष्ट- दीनि निदर्शनमाह । उत्पतद्वाता श्व संपतत्पवना श्ष सुदर्शकर्मबन्धात् अधस्तातिर्नरकेधूपपात इति सूत्रार्थः । अस्यैव | नं गिरि मेरुं एतयुक्तं भवति । यथा मेरु वाता न चालयन्ति । विशेषप्रत्यपायमाह। तथा तमपीडियाणीति सूत्रार्थः । उपसंहरबाह । भुंजित्तु भोगाई पसज्ज चेअसा, इच्चेव संपस्सिन बुद्धिमं नरो, तहाविहं का अंसजमं बहुँ । आयं उवायं विविहं विप्राणिया। गई च गच्छे अपहिन्जिअं मुहं, कारण वाया अनु माणसेणं, घोहीअ से नो सुलभा पुणो पुणो ॥१४॥ तिगुत्तिगुत्तो जिणवयणमहिहिज्जा सित्तिवेमि ॥ १८ ॥ स उत्प्रवीजतो नुक्त्वा नागान शब्दादीन् प्रसह्य चेतसाधर्मनिर-। इत्येवमध्ययनाक्तं दुःप्रजीवित्वादि संप्रेदयादित आरज्य य. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३७) ओहावण अभिधानराजन्तः । योहि यथावद् दृष्ट्वा बुकिमान्नरः। सम्यक बुध्यपेतः। आयमुपायं विविधं (तणावहीपत्ति ) अवशब्दस्याव्ययत्वेनानेकार्थत्वादधोऽधोविविज्ञाय प्रायः सम्यग्ज्ञानादेः उपायस्तत्साधनप्रकारः कालविनया स्तृतं धीयते परिच्चिद्यते रुपि वस्तु तेन ज्ञानेनेत्यवधिः । अथवा दिः विविधोऽनेकप्रकारस्तं झात्वा किमित्याह । कायन वाचा अथ अव मर्यादया एतावत्केत्र पश्यन् पतावन्ति व्याण्येतावन्तं मनसा त्रिभिरपि करणैर्यथाप्रवृत्तः त्रिगुप्तिगुप्तः सन् जिनवचन- काल पश्यतीत्यादिपरस्परनियमितकेत्रादिलक्षणया धीयते पमहदुपदेशमधितिष्ठेत् । यथाशक्ति तमुक्तैकक्रियापालनपरो रिच्छिद्यते रूपि वस्तु तेनेत्यवधिः ( तम्मिवत्ति ) अथवा श्र-- भूयात् । भावाय सिकौ तत्वतो मुक्तिसिके । ब्रवीमीति पूर्ववदे- वशब्दस्यार्थद्वयम् । तथैवावधीयते जीवेन तस्मिन् वस्त्वित्यवेति सूत्रार्थः । दश०१ चूवि०॥ वधिः अकारस्य दर्शनाद् (अवहाणंति) वाशब्दोऽनुवर्तते ततश्च श्रोहाविय-अवधावित- वि० । अपमृते, । संयमसुखविभूतेरु- अथवा अवधानमवधिः। साकादर्थपरिच्छेदनमित्यर्थः । अथवाप्रबजिते, दश०१ चूवि०॥ ऽवधीयते तस्माजीवेन साक्षाद्वस्त्वित्यवधिरित्युपत्नकणव्याअपभ्राजित-त्रि० । ग्लानिमापादिते, "ओहावितो न कुवर, ख्यानात्स्वयमेव अष्टव्यम् (सोय मज्जायत्ति) स चोक्तस्वरूपो:पुणो वि सो तारिसं अतीयारं" व्य० ६०८१०। वधिर्मर्यादयार्थपरिच्छेदने प्रवर्तमानत्वाऽपचारतो मर्यादा पत देवाह (जंतीपत्यादि) पुँडिङ्गोऽप्यवधिदाब्दः प्राकृतत्वात् स्त्रीश्रोहावेंत-अवधावत-त्रि० । प्रव्रज्यादेरपसर्पति, ओ । “श्रो त्वे निर्दिएस्ततश्च यद्यस्मात्कारणात्तेनानन्तरोक्तनावधिना जीवो हार्वेता दुविहा, सिंगे विहारे य होति नायव्वा "अवधाविनो द्वि च्यादि (मुणत्ति ) जानाति । कथंनूतं सदित्याह । परस्परविधाः। लिङ्गेन विहारेण च । लिङ्गेनोत्प्रवजितुकामा विहारेण नियमितमिति शेषः। वक्ष्यति च । “अंगुलमावलियंतो, आवलिया पार्श्वस्थ विहारणोत्प्रव्रजितुकामा जवन्ति ज्ञातव्याः॥व्य० न०॥ अंगुलप्पुहुत्तं हत्थम्मि।मुहुत्ततो दिवसंतो, गाउयम्मि बोधवा" ओहि-अवधि-पुं० अव-धा किः ॥ अधो विस्तारजावेन धा श्त्यादि तस्मादनया परस्परोपनिवन्धलक्षणया मर्दया यतो जीवबतीत्यवधिः। उत्त०१० अ०। रूपिष्वेव अव्येषु परिच्छेदकतया स्तेनावधिना ब्यादिकं मुणति । ततोऽवधिरप्युपचारान्मर्यादेति प्रवृत्तरूपायां मर्यादायाम, कर्म स्था० स० अभिविधौ, च । भावः। अवधिश्चासौज्ञानं चेत्यवधिज्ञानमिति प्रक्रमनब्धेन ज्ञानअवधिश्च द्विधा । अभिविधिमर्यादा च । प्रव० ३५ घा. शब्देन समास इति विशे०। आ० चू। पं० सं० अवधिज्ञानाव(१) अवधिशब्दस्य व्युत्पत्तिस्रक्वणं च । रणविनयविशेषसमुद्भवं नवगुणप्रत्ययं रूपि ऽध्ये गोचरमवधि(२) अवधिनेदाः संख्यातीताः भवन्ति । ज्ञानमिति । अवधिज्ञानावरणस्य विनयविशेषः क्कयोपशमभेद(३) चतुर्दशविधी निकेपो द्वारसंग्रहश्च तत्र जघन्यादिनेदाः | स्तस्मात्समुद्भवति । यतः सुरनारकजन्मलक्वणो गुणः सम्यग्दर्श(४) नामादिसप्तविधी निक्केपः । नादिस्तौ प्रत्ययौ हेतू यस्य तत्तथा। तत्र नवं प्रत्ययं सुरनारका(५) नवप्रत्ययिकादितो द्वैविध्यम् । णां गुणप्रत्ययं पुनर्नरतिरश्चां रूपि व्यादि पृथ्वी आपः पावक(६) अवधेरानुगमिकादि षट् भेदाः ॥ पवनान्धकारच्गयाप्रभृतीनि तदालम्बनमवधिज्ञानम् । रत्ना। (७) अवधिप्ररूपणे दण्डकः। (२) तत्रावधिभेदाः संख्यातीता नवन्तीति दर्शयति ॥ (0) अवधिकेत्रप्रमाणं पनकजीवस्यावगाहना संखाइयाओ खल्ल, ओहिम्माणस्स सम्वपयमीओ। अग्निजीवप्रमाणं च । (९) अवधिविषयस्य व्यस्य मानम् । काइ जवपन्चक्ष्या, खोवसमियान काओ वि॥ (१०) क्षेत्रकानयोर्विषयत्वमानम् । संख्यानं संख्या तामतीता अतिक्रान्ताः संख्यातीताः असंख्यया (११) भवप्रत्ययो देवनारकाणाम् । इत्यर्थः। प्रकृतयोऽशानेदाः सर्वाश्च ताः प्रकृतयश्च सर्वप्र(१२) पृथ्वीसुरादिविषयचिन्तनम् । कृतयः ततश्च पूर्वोक्तशब्दार्थस्यावधिज्ञानस्य क्षेत्रकालो विष(१३) अवधेः संस्थानम् । यभूतावाश्रित्य सर्वा अप्यसंख्येयाः प्रकृतयो भेदा भवन्ति । तथा (१४) ज्ञानदर्शनविनङ्गलकणद्वारद्वयम् । ह्यवधेर्जघन्यतोऽङ्गानासंख्येयभागादारज्य प्रदेशान्तरया वृद्ध्या (१५) देशतः सर्वतश्चावधिनिरूपणम् उत्कृष्टतो लोकेऽपि लोकप्रमाणान्यसंख्येयखएडानि केत्रविषय इति [१६] केत्रगत्यादिद्वाराणि । वक्ष्यते। कालोऽपि जघन्यत आवत्रिकासंख्येयभागादारज्यसम(१७) अवधेः संपप्ररूपणा प्रस्तावना च। योत्तरया वृष्या उत्कृष्टतोऽसंख्ययोत्सर्पिणीक्वणो विषय इत्य. [१] व्युत्पत्तिलक्षणञ्च । भिधास्यते । एवं च विषयनेदाद्विषयिणोऽपि भेद ति न्याअवशब्दोऽधः शब्दार्थः अव अधो विस्तृतं वस्तु धीयते परि यात् केत्रकानलकणविषयस्यासंख्ययभेदत्वादवधेरप्यसंख्येया छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः। यद्वा अवधिर्मर्यादा रूपिष्वेव व्येषु परि नेदा जवन्ति । खसुशब्दश्चेद विशेषणार्थः । किंविशिनष्टीति च्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा तदुपल्लवितं ज्ञानमप्यवधिः। यद्वा अवधा चेऽच्यते । केत्रकालावेवाङ्गीकृत्यावधेरसंख्येयाः प्रकृतयो प्रवनमात्मनोऽर्थः साकाकरणव्यापारोऽवधिः ॥ प्रा०म०प्र०॥ प्रव० न्ति। व्यभावी त्वाश्रित्यानन्ता अपि ताःप्राप्यन्ते तद्यथा ॥"ते. "व्याणि मूर्तिमन्त्येव, विषयो यस्य सर्वतः। नैयत्यरहितं ज्ञानं, याभासा दवाणमंतरा एत्थ बनाइ पध्वों " इत्यादि वचनातैजतत्स्यादवधिलकणमि" त्युक्तबकणे मूर्तव्यविषये, प्रत्यककाने, सजास्वाद-व्यापान्तरालवर्ति-अनन्तप्रदेशिकात् व्यादारस्य गच्च०२ अधि० । स्था० । पा० । अनु० ॥ विचित्रवृच्या सर्वमूर्तद्रव्याण्युत्कृष्टविषयपरिमाणमवधेर्वक्ष्यअथ अवधिव्युत्पादनार्थमाह। ते। प्रतिवस्तुगतासंख्येयपर्यायरूपं च भावतो विषयमानमतेणावही य एतम्मि, वावहाणं तओवही सोय । भिधास्यते । अतः सर्वमपि पुमसास्तिकायमवधिग्राह्यांश्च तत्पमज्जाया जंतीए, दव्वा परोपरं मुणइ ।। र्यायानाश्रित्यानन्तोऽवधिविषयः सिको नवति। शेयभेदाच ज्ञा(तोवहित्ति) ततःकरणादवधिरित्युच्यते । यतः किमित्याह ।। नन्नेद शति । अव्यन्नावलक्षणविषयापेक्षया अवधेरन्ता अपि प्र Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३७) प्रोहि अभिधानराजेन्द्रः। प्रोहि कृतयो जवन्ति । तर्हि (संखाश्याओ खल्वित्ति) विरुध्यते इति जवपञ्चइया नारय-भुराण पक्खीण वा नभोगमणं । चेन्नैवम् । श्रमन्तस्यापि संख्यातीतत्वात् व्यनिचारादतः संख्या- गुणपरिणामनिमित्ता, सेसाणखोवसमियाओ॥ तीतशब्देनासंख्याता अनन्ताश्च प्रकृतयो गृह्यन्त श्त्यविरोधः । ए-1 गताथैव नवरं ( पक्खीणवत्ति) वाशब्द इवार्थे नभोगमनतासु च प्रकृतिषु मध्ये काश्चनान्यतमा नवप्रत्ययाः जवो नार मिवेत्यत्र संबध्यते । श्रथाक्षेपपरिहारायाह । कादिजन्म स पक्तिणां गगनोत्पतनलब्धिरिवोत्पत्ती प्रत्ययःका ओहीखोवसमिए, भावे जणिो भवो तहोदइए । रणं यासांता जवप्रत्ययाः। ताइच नारकामराणामेव कांचन पुनरन्यतमाः कयोपशमन निवृत्ताः कायोपशमिकाः । तपःप्रन तो किह जवपच्चओ, वोत्तुं जुत्तोवही दोएह ॥ तिगुणपरिणामावितकयोपशमप्रत्यया इत्यर्थः । एताइच ति- सो विदु खोवसमिओ, किंतु स एव ओवसमझाभो। यहमनुष्याणामिति आह । क्षायोपशमिकभावेऽवधिशानं पठ्यते। तम्मिसअहोअवस्सं, जमइ जवपञ्चओ तो सो॥ नारकादिभवश्चौदयिकः स कथं तत्प्रकृतीनां प्रत्ययः स्यादि व्याख्यातार्थे एव नवरं (दोरहत्ति) सुरनारकाणां सोऽपि त्यत्रोच्यते । मुख्यतस्ता अपि कयोपशमनिवन्धना एव केवलं सुरनारकावधिः (खोवसमोति) क्षयोपशमादेव स च सोऽपि कयोपशमस्तस्मिन्नारकामरभवे सत्यवश्यं भवतीति कृ तस्मिन् सुरनारकभवे सत्यवश्यं भवत्यतोऽसौ सुरनारकावत्वा भवप्रत्ययास्ता नक्ता इति। अथ सामान्यरूपतयोद्दिष्टानां सं धिर्भवप्रत्ययो भएयते । ननु कर्मणः क्षयोपशमादयः किं भख्यातीतानामवधिप्रकृतीनां वाचः क्रमवर्तित्वात् । आयुषश्चाल्प वादिनिमित्ता भवन्तीत्याह । त्वाद्यथावद्भेदेन प्रतिपादनसामर्थ्यमात्मनोऽपश्यन्नाह ॥ उदयखयखोवसमो-चसमावि यजं च कम्मणोजणिया । कत्तो मे वन्ने, सत्ती ओहिस्स सब्वफ्यमीओ। दव्वं खित्तं कालं, भवं च जावं च संपप्पा ।। चनदसविहनिक्खेवं, इसीपत्ते य वोच्छामी। यतः स्रक्चन्दनाहिविषादिलव्यादीनि प्राप्य प्राणिनां सुखकुतो मम वर्णयितुं शक्तिरवधेः सर्वप्रकृतीरायुषः परिमितत्वा- दुःखोदयादयस्तीर्थकरगणधरैरागमे भणिताः । प्रत्यक्षतोहद्वाचः क्रमवर्तित्वात् । तथापि विनेयगणानुग्रहार्थ चतुर्दशविध- श्यन्ते च । अतः सुरनारकाणां तद्भवमपेक्ष्यावधिः क्षयोपशश्चासौ निक्केपश्च चतुर्दशविधनिकेपस्तमवध्यादिकं चतुर्दशविध- मिकोऽप्यवश्यं भवतीति । अथ द्वितीयनियुक्तिगाथाव्यानिवेपं वक्ष्यामि । श्रामर्वोषध्यादिका ऋफिः प्राप्ता यैस्ते प्राप्त- ख्यानभाष्यम् । धयस्तां च वक्ष्यामि।हगाथाभङ्गभयाद्यत्ययोऽन्यथा निष्ठान्त- इयसव्वपयमिमाणं, किह कमवसवमवत्तिणीवाया। स्य बहुव्रीहौ पूर्वनिपात एव भवतीति । नियुक्तिगाथाद्वयार्थः। वोच्चित्ति सम्वं सव्वा-नु णासंखिज्जकामेण ।। अत्र प्रथमगाथापूर्वार्धव्याख्यानार्थ नाष्यम्। गताथैवेति गाथा सप्तकार्थः श्राह । तस्स जमुक्कोसयखे-त्तकालसमयप्पएसपरिमाणं । (३)चतुईशविधो निक्षेपोद्वारसंग्रहश्च तत्रजघन्यादिभेदाः । तएण्यपरिच्छिन्नं तं चिय से पयमिपरिमाणं । अथ चतुर्दशविधं निक्षेपं दर्शयामि । संखाई यमपंत, च तेण तमतपयडिपरिमाणं । अोहिखेत्तपरिमाणे, संठाणे आणुगामिए । पेच्छाइ पोग्गलकार्य, जमणंतं पएसपज्जायं । अचट्ठिए चले तिव्य-मंदपयभि वाउप्पयाइ य॥ तस्यावधेरसंख्येयाः प्रकृतयः कुत इत्याह । यतः (तं चिय से| णानदंसणविब्नंगे, देसे खित्ते गई इय । पयमिपरिमाणंति) (से) तस्यावधेस्तदेव प्रकृतीनां नेदपरि- इढिपत्ताओगे य, एमेया पडिवत्तिो ॥ माणं यत्किमित्याह । यत्कृष्ट केत्रप्रदेशपरिमाण यश्चोत्कृष्ट का- इहाबध्यादीनि गतिपर्यन्तानि चतुर्दश द्वाराणि । ऋद्धिस्तु बसमयपरिमाणमित्येवं यथासंभवं संबन्धः। केत्रस्यैव प्रदे- चशब्दसमुञ्चितत्वात् पञ्चदशचतुर्दश विधिनिक्षेपस्योपरिष्टापशानां युज्यमानत्वानाथाभङ्गनयाञ्च समयनिर्देशादनन्तरप्रदश- श्चाद्वच्यते । तत्रावधिर्नामस्थापनादिभेदभिन्नो वक्तव्यः ॥१॥ निर्देशः आह । ननृत्कृष्टं केत्रप्रदेशकाससमयपरिमाणमनन्तमपि तथा अर्थवशाद्विभक्तिविपरिणाम इत्यवधिजधन्यमध्यमोत्कृष्टनवति । नेत्याह । तज्ज्ञेयपरिच्छिन्नं नावप्रधानोऽयं निर्देशस्ततश्च भेदभिन्न क्षेत्रपरिमाणं वक्तव्यम् ॥२॥ तथाऽवधेः संस्थानं वातस्यावध.यं तद्भावस्तज्यत्वं तेन परिच्छिन्नं नैयत्ये व्यवस्था- च्यम् ॥३॥ तथाऽनुगमनशील श्रानुगामिकोऽवधिः सप्रति. पितं तच्च वक्ष्यमाणप्रकारेणाङ्गलासंख्येयभागादारज्य यावदसं- पक्षो वाच्यः ॥४॥ तथा द्रव्यादिषु कियन्तं कालमप्रतिपतितः ख्येयलोकाकाशप्रदेशास्तथावक्षिका असंख्येयभागादारज्य या- सन्नुपयोगतो लब्धितश्चास्ते इत्येवमवस्थितोऽवधिर्वक्तव्य: वसंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयानिति । एतच्च केत्रप्रदेश- ॥५॥ तथा वर्धमानतया हीयमानतया चञ्चलोऽनवस्थितोऽयकालसमयानामसंख्येयपरिमाणमतः केत्रकालवणा झेयापेक्वयाऽ- धिर्वक्तव्यः ॥६॥ तथा तीब्रो मन्दो मध्यमश्चावधिर्वक्तव्यः ॥७॥ वधेरसंख्येयाः प्रकृतय शतिअथ स्खलुशब्देन विशेषणार्थेन सूचिता- | तथा तीनो विशुद्धः मन्दोऽविशुद्धः इतरस्तूभयप्रकृतिः । तथा स्तस्यानन्ताः प्रकृतीदर्शयति (संखाईत्यादि ) संख्यातीतं न के- द्रव्याद्यपेक्षया एककाले प्रतिपातोत्पादी अवधेर्धक्तव्यौ ॥८॥ वनमसंख्येयमुच्यते । किं तर्हि अनन्तं च तस्यापि संख्यातीत- तथा ज्ञानदर्शनविभङ्गावाच्याः॥६॥ किमत्र ज्ञानं किं वा दर्शनं त्वाद्यभिचारात्तेन तदवधिज्ञानमनन्तप्रकृतिपरिमाणमपि भव- कोवा विभङ्गः परस्परतश्चामीषामल्पबहुत्वं चिन्तनीयम् ॥१०॥ ति । यद्यस्मात्तत्प्रेक्षते पश्यति । समस्तमपि पुद्गलास्तिकार्य | ततश्च ज्ञानदर्शनविभङ्गैारत्रयम् ॥११॥ तथा(देसेत्ति)कस्यादेकथं भूतमित्याह । अनन्तदेशमनन्तपर्यायं च सत्यनन्तव्यप-| शविषयः सर्वविषयोऽवधिर्वक्तव्यः ॥ १२॥ गतिरिति चेत्तत्र ायत्रणवयापेक्कयाध्यधेरनन्ताः प्रकृतय इति । इतिशब्द प्राद्यर्थस्ततश्च “गइइंदियकाए" इत्यादि द्वारकलापोऽ अथ प्रथमनियुक्तिगाथोत्तरार्धं व्याचिख्यासुराह । वधिर्वक्तव्यः ॥ १३ ॥ तथा प्रात्ययनुयोगश्च व्याख्यानरूपः Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) अभिधानराजेन्ऊः । मोहि कार्यः ॥१४॥ एवमनेन प्रकार अनन्तरोकाः प्रतिपत्तयः । प्रतिपादनानि परित्तिय इत्यर्थः कथं पुनरस्यायं निक्षेप चतुर्दशविध इत्याह भाष्यकारः । गइपज्जत्ता चोदस, रिद्धी व समुच्चियत्ति पंचदसी | ओप पिव मोतुं, सेयरमाणामि काळं ॥ केई चोदसभेय, जंति ओहित्ति न पयमिजम्हा | परमीय निक्लेवो, जंभदिओ चउदस विदोति ॥ अवध्या याः गतिपर्यन्ताश्चतुर्दश निक्षेपाः ऋद्धिस्तु चतुर्दशविधानेोपमध्ये न भवति । किं तर्हि " इष्पितेयवोच्छामी यत्र समुचितत्वात् पृथग्भूता पञ्चदशी अथवा ओह परिमाणे ) इत्यत्रायमधिपदं मुत्वा अनुगमनशीलमनु गामुकं तरं सप्रतिपक्षं कृत्वा अनुगामिकमनुगामुकसहितम तो गणयित्वेत्यर्थः । केचनाप्याचार्यांश्चतुर्दशविधनिक्षेपं पूरयन्ति किमिति। ते एवं व्याख्यानयन्तीत्याह श्रोत्यादि) अवधिर्यस्मान प्रकृतिः विवरेवेह प्रकृतयो विचारयितुं प्रक्रान्ताः कुत इत्याह । यतः प्रकृतीनामेव चतुर्दशविधो निक्षेप उक्तः । श्रविरुद्धं चैतदपि व्याख्यानमंत्र च पक्षेऽवधिशब्दः सर्वत्र विशेषणतयैव योजनीयोऽवधेः क्षेत्रपरिमाणमयथे संस्थानमित्यादीनीति गाथाद्वयार्थः । विशे० । प्रकारान्तरतो द्वारसंग्रहः । दविसया, जितरवाहिरे य देसोही । ओस्सिय परिवार्य चैव परिवादी ॥ अवधिरयधिज्ञानस्य प्रानिरूपितशब्दार्थस्य प्रथमं दतो - तव्यस्ततो विषयस्तदनन्तरं संस्थानमवधिना द्योतितस्य केप्रस्य यस्तशादिरूप आकारविशेषः सोऽपचित्ि संस्थागत्वेन व्यपदिश्यते तथा द्विविधोऽधिर्वन्यस्तयथा । आभ्यन्तरो बाह्यथ । तत्र योग्यधिः सर्वासु दि स्योत्य प्रकाशयति । श्रवधिमता च सह सातत्येन ततः स्वद्योत्यं केत्रं संबद्धं सोऽभ्यन्तरावपिरेतद्विपरीतो वाद्यावधिः स च द्विधा तथ था अन्तर्गतो मध्यगतश्च । प्रा० ३२ पद । यदा अवधिना द्यो तितं क्षेत्रमवधिमता संबद्धं भवति । तदा सोऽन्यन्तरावधिर्मतः । सर्वदिगुपलब्ध क्षेत्रमध्यवर्तित्वात् । एष चेह न ग्राह्योऽज्यन्तराधावस्यान्तात् । यदा तु तदुद्योतितं क्षेत्रमपान्तराने व्यव अधमता संबन्धंन जयति तदा बाह्योपधिरेष बेद ग्राह्यः । प्रस्तुतत्वात् तथा ( देसोहीत ) देशावधिर्वक्तव्य - पलकणमेतत् । प्रतिपक्कतसर्वावधिश्च । अथ किंस्वरूपो देशा । किस्वरूपो या सर्वाधिरिति उच्यते इदावधिस्त्रिविधो प्रवति । तद्यथा सर्वजघन्यो मध्यमः सर्वोत्कृष्टश्च । तत्र यः सर्वजघन्यः स इज्यतोऽनन्तानि तैजसभाषणान्तरायतन - व्याणि तो पेयजागं केलं कालतोऽतीतमनागतं चाब लिकायाः संख्य भागम् । इहावधिक्त्रं कालं च स्वरूपतः साहान जानाति । तयोरसूत्यादयश्व रुपिया“ रूप ष्ववंधिरिति” वचनात् । इढ क्षेत्रकालदर्शनमुपचारतो वेदितव्यम् । किमुक्तं नवत्येतावति क्षेत्रे काले च यानि द्रव्याणि तानि जानातीति । नावतोऽनन्तान् पर्यायान् जानाति । प्रतिद्रव्यं जघन्यपदेऽपि चतुर्थी रूपरसगन्धस्पर्शरूपाणां पर्यायाणामवगमात् । "दो पजवे दुगुणिए सब्बजनस पिच्छए तेउवन्नाश्या चउरो " इति वचनात् । इव्याणां चानन्तत्वात् । अत ऊर्ध्वं तु प्रदेशवृद्ध्या श्रोहि समयवृद्ध्या च प्रबर्द्धमानोऽबधिर्मध्यमो वेदितव्यः । स च तावत् यावत् सर्वोत्परमावधनं प्रति सर्वोत्कृरमा सर्वाणि रूपाणि जानाति तो ओकाकमात्राणि - इमानि । कालतोतीतानागनाथासंख्येया उत्सवसर्पिणीनायतोऽनन्तान् पर्यायान् प्रतिद्रव्यं संख्येयानामश्वानांच पर्यायाणामवगमात् । "एगं दव्वं पेच्छं खंधमपुं वा पज्जवे त उकोसमज्जे, खेज्जेको " इति वचनात् । तत्र सर्वजघन्यो मध्यमश्च देशावधिः सर्वोत्कृष्टस्तु परमावधिः सर्वाधिः तथावधेः कयवृद्धी वक्तव्ये । किमुक्तं भवति । हीयमाकः प्रवई मानकश्चावधिर्वक्तव्य इति प्रज्ञा० ३३ पद । (४) पुनर्गमादिसप्तविधी निशेष । अथ प्रथमव्याख्याभिमताद्यद्वाख्याचिख्यासया प्राह । नामं वा दविए, खेत्ते काले जवे य जावे य । एसो खलु हिस्स, निक्खेवो होइ सत्तविहो || नामस्थापनारूव्य क्षेत्रकाल भवभावनेदादेष खल्ववधिनिकेपः । सप्तविधो भवतीति । निर्युक्तिगाथासंकेपार्थः । अथ विस्तरार्थ विनणिषुर्भाष्यकारः प्राह । ओहित्ति जसा नाम, जह मज्जायावहिति झोगम्मि । उपणाविहिनिक्खेवो, होइ जड़करवाई विभासो || यस्य जीवादिपदार्थस्याधिरिति नाम जियते असी माग्ना नाममात्रेणावधिमाधिरुच्यते यथा ओके मर्यादाभि धोयते । स्थापनया स्थापनामात्रेणावधिः स्थापनावधिर्भवति । कोऽयमित्याह निधो न्यायप्रेरेव वसन्तरे इति गम्यते । यथेत्यादयादविन्यासो निकेोऽधिकादिवास इति । प्रकारान्तरेण नामस्थापनाबधी प्राह ॥ हवा नाम तस्से व जमजिद्वाणं सपनो तस्स | वागारविसेसो, तदव्वं खित्तसामीणं ॥ अथवा (नाति) नामावधिरुच्यते । यत्किमित्याह । तस्यैव प्रकृतस्याषविज्ञानस्य यदयपरित वर्णाची मात्ररूपमभिधा नं संज्ञेति । नामेवावधिमाधिरिति कृत्वा तचावधिरित्यभिधानं तस्यावधिज्ञानस्य वचनरूपः स्वपर्याय इति मन्तव्यम् । स्थापनावधिस्त्वाकारविशेषो नएयते । केषामित्याह । तस्यावधिज्ञानस्य अयं विषयभूतं सुधरानित्रं तु नरता दिखा मिवाधारभूतसाध्वादिरेतेषामाकारविशेषः स्थापनावधि। विषविषयभावादिसंबन्धिनामाकारेऽवधिः स्थाप्यत इति भावः । पूर्व मर्यादाकादाववधिकानासंबन्धेऽपि नामस्थापनेप्रो अत्य निधानव्याद्याकारयोरवधिज्ञानसंबन्धयोस्ते अनिहिते इति विशेष इति । अथ द्रव्यावधिरुच्यते । स च द्विविध आगमतो नो आगमता तागमतोऽयधिपदार्थहस्तत्र चानुपयुको ऽनुपयोगो ऽव्यमिति वचनात् इन्यावधिः । नो आगमतो इशरीरङ्गण्यावविश्व इशरीरमापहारीरस्यतिरिकं तु विनाtयकारः स्वयमेवाह । दम्बो उप्पज्जर, जरथ तथ जं च पासप तेणं । जंबोबगारि दवं देहाइवे होइ तद्रव्यं श्रव्यावधिर्भण्यते ( उपज जत्थ तत्रयंन्ति ) यत्र विशिलाद कायोत्सर्गादिस्थितस्य साभ्यादेस्वरको सो अवधिप । यहा सूनुधरादिकं कपि यं तेनावना साध्वादिः पश्यति तत् रून्यावधिरुच्यते । यद्वा तस्यावर्धरुद्भवे Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) ओहि अभिधानराजेन्द्रः। अोहि उत्पत्तौ सहकारित्वेनोपकारकं देहादिव्यं तत्सर्व द्रव्यावधि- तद्यथा । भवप्रत्ययं च क्कायोपशमिकं च । तत्र भवान्त कर्मवशरभिधीयते। श्दमुक्तं नवति।इहाधारन्नतशिक्षादिष्व्याण्युत्पद्य- वर्तिनः प्राणिनोस्मिन्निति भवो नारकादिजन्म 'नाम्नीति। अधिमानस्यावधेःसहकारिकारणानि भवन्ति । कारणं च "नूतस्य ना- करणे घ प्रत्ययः । भव पव प्रत्ययः कारणं यस्य तद्भवप्रत्ययं विनो वा, भावस्य हि कारण च यद्बोके । न व्यं तत्वहः, सचे- प्रत्ययशब्दश्वेह कारणपर्यायः वर्तते च प्रत्ययशब्दः कारणत्वे तनाचेतनं गदितमिति"वचनात द्रव्यमुच्यते। अतोऽन्यान्यपि तपः- यत उक्तं । “प्रत्ययाः शपथशान-हेतुविश्वासनिश्चये" च शब्दः स्वसंयमादीन्यवध्युत्पत्तिकारणानि न्यावधित्वेनावसेयानीति । गतदेवनारकाश्रितनेदद्वयसूचकः । तौ च द्वौ दावनन्तरमेव वअत्र केत्रकालावधी प्राह । क्ष्यति । यथा क्यश्चोपशमश्च क्कयोपशमौ ताज्या निवृत्तं क्षायोखेत्ते जत्थुप्पज्जा, कहिज्जए पेच्छए व दव्वाई। पशमिकम् । चशब्दः स्वगतानकेन्दसूचकः । तत्र यद्येषां भवएवं यजत्थ य काने, तउ पच्छ खित्तकाले सो॥ ति। तत्तेषामुपदर्शयति । (दोएहमित्यादि )द्वयोर्जीवसमूहयो नवप्रत्ययं तद्यथा देवानां नारकाणां च तत्र दीव्यन्ति निरुपमयत्र नगरोद्यानादिक्केत्रे स्थितस्यावधिरुत्पद्यते।सकेत्रेऽधिकरण कीमामनुजवन्तीति देवाः । तथा नरान् कायन्ति शब्दयन्ति योभूतेऽवधिः केत्रावधिरुच्यते । केत्रस्याधारत्वेन प्राधान्यविवक्कया केत्रेण व्यपदेश इति जावः । यत्र वा केत्रेऽवधिः कथ्यते प्र. ग्यतायों अनतिक्रमेणाकारयन्ति जन्तून स्वस्थाने इति नरकाः। तेषु झापकेन स्वरूपतः प्ररुप्यते । यत्र वा क्षेत्र व्यवस्थितानि व्या भवा नारकाः। तेषां चशब्द उभयत्रापि स्वगतानेकभेदसूचकः । णि अवधिज्ञानी प्रेक्वते । तत्प्राधान्यविवक्वया तेन व्यपदेशात् के ते च संस्थानचिन्तायामग्रे दर्शयिष्यन्ते । अत्राह परः । नन्ववधिघावधिरनिधीयते । एवं यत्र प्रथमपौरुष्यादौ कालेऽवधिरुत्प शानं कायोपशमिके जावे वर्तते । नारकादिनवश्चादयिके तत्कथं द्यते । यत्र वा प्रज्ञापकन प्ररूप्यते यत्कालं विशिष्टानि वा अव्या देवादीनामवधिज्ञानं भवप्रत्ययमिति व्यपदिश्यते । नैष दोषः । एयवधिज्ञानी पश्यति । तत्प्राधान्यविवक्कया तेन व्यपदेशात्स का यतस्तदपि परमार्थतः कायोपशमिकमेव केवलं सः क्वयोपशमो सावधिरुच्यते । ननु किमिति क्षेत्रकालावस्थितानि व्याणि देवनारकनवेष्ववश्यंभावी । पक्किणां गगनगमनलब्धिरिव ततो पश्यत्यसावुच्यते । किं केत्रकालावेव साक्वादेव न पश्यतीत्याश भवप्रत्ययमिति व्यपदिश्यते नैष दोषः । यतस्तदपि उक्तं च ॥ याद । जनु पश्यति केत्रकासावसौ तयोरमूर्तत्वादवधेश्च मू चूर्णी ननु “ओही खोवसमिए भावे नरगाइनवे से उदइए तविषयत्वार्तनारूपं तु कालं पश्येत् । व्यपर्यायत्वात्तस्येति । नावे तओ कहं भवे पञ्चश्त्रो भष्मइ उच्यते सो वि खओषसअथ नवभावावधी निरूपयितुमाह। मिश्रो चेव किंतु सो खओवसमो नारगदेवभवेसु अवस्सं भवर जम्मि जवे उप्पज, वइ पेच्छद च जं भवोही सो। को इह दिर्हतो पक्खीणं आगासगमणं च तो भवपञ्च" एमेष य भावोही, वळुई य तो खोवसमे ।। (ओभष्मत्ति) यथा द्वयोः क्कायोपशमिकम् तद्यथा मनुष्याणां च पञ्चेन्द्रियाणां तिर्यग्योनिजानां चात्रापि चशब्दो प्रत्यकें स्वयस्मिन्नारकादिनयेऽवधिरवश्यमुत्पद्यते। यत्र वा भवे उत्पन्नोऽ गतानेकजेदसूचकौ पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां चावधिज्ञानं नासाववधिर्वर्तते । नारकादिभव एवायं वा स्वकीयं परकीयं वा वश्यम्नावि । ततः समानेऽपि क्वायोपशमिकत्वे भवप्रत्ययादिदं अतीतमनागतं वा एकादिकमसंख्याततमं वा तं नवं पश्यति । भिद्यते । परमार्थतः पुनः सकलमप्यवधिज्ञानं कायोपशमिकं संस भवावधिः । नवे आधारजूते विषयजूते वा ऽवधिरिति कृत्वा एवमेव नावावधिरपि वक्तव्यः । यस्मिन् क्षयोपशमिके जावेs प्रति कायोपशमस्वरूपं प्रतिपादयति । ( को हेक खानोवसवधिरुत्पद्यते । यत्र वा कायोपशमिक एव जावे उत्पन्नोऽसौ मियंति ) को हेतुः किं निमित्तं यद्धशादवाधिकानं वायोपशमिवर्तते।यं वा प्रौदयिकादिनावपञ्चकान्यतरभावान् पश्यति स कमित्युच्यते । अत्र निर्ववचनमभिधातुकाम आह (खायोवस मियमित्यादि ) कायापेशामक येन कारणेन तदावरणीयानानावावधिरित्यर्थः । जावे अवधिनीवाधिरिति कृत्वा सत्ववधिः । कनावे वर्तत शति । कथ्यतामित्याह । वर्तते च तत्कोऽसा मवधिज्ञानावरणीयानां कर्मणामुदीर्णानां कयणानुदीर्णानामुदवधिः क्कायोपशमिके भाव इति। तदेवं प्रथमव्याख्याने द्वारतया यावनिकामप्राप्तामामुपशमेन विपाकोदयविष्कम्जणलवणेनाव धिज्ञानमुत्पद्यते। तेन कारणेन क्कायोपशमिकमित्युच्यते। कयोपसमायातस्यावधेर्नामादिनिक्केपोऽयमुक्तो छितीयव्याख्याने तु विशेषणतया समायातस्यास्यैषोऽनिहित इति। विशे०। श्रा०चू०॥ शमश्च देशघातिरसस्पर्डकानामुदये सति जवात। नसर्वघाति रसस्पर्धकानाम् । नं०॥ तत्रावधिज्ञानावरणकर्मप्रकृतीनां तथा(५) भवप्रत्ययिकादितो द्वैविध्यम् । विधविकाध्यवसायभावतः सर्वघातिषु रसस्पर्धकषु देशघासे किं तं ओहिणाणपच्चक्खं ओहिनाणपञ्चक्खं सुविहं तिरुपतया परिणमितेषु देशघातिरसस्पर्धकेवाप वातस्निग्धेषु पएणतं । तं जहा भवपच्चइयं च खोवसमियं च । से अल्परसीकृतेषु उदयावलिकाप्राप्तस्यांशस्य क्षये अनुदोर्णस्य किं तं भवपच्चइयं जवपच्चश्यं दुएहं तं जहा । देवाण य चोपशमे विपाकोदयविष्कम्भरूपे जीवस्यावध्यादयो गुणाः प्रानेरइयाण य । मे किं तं खोवसमियं एहं तं जहा पुःसन्ति उक्त च । “ निहिपसु सव्वघाई, रसेसु फड़ेसु देशघा ईणं। जीवस्स गुणा जायं-ति भोहिमणचक्खुमाश्या। १ । अत्र मणूमाण य पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण को हेज खाओ निहितेष्वति देशघातिरसस्पर्द्धकतया व्यवस्थितेषु शेष सुगवसमियं क्खाअोवसमियं तया वरणिज्जाणं कम्माएं उद्दिमा- मम । सर्वघातिनि च रसपर्धकान्यवधिज्ञानावरणीयस्य देशघाणं खएणं अणुदिएणाणं नवसमेणं ओहिनाणं समुप्पज्ज तिरसस्पर्द्धकतया परिणमयति । कदाचिद्विशिएगुणप्रतिपत्ति मन्तरण कदाचित्पुनर्विशिष्टगुणप्रतिपत्त्या विशिगुणप्रतिपत्तिइ। अहवा गुणपमिवन्नस्स अणगारस्स ओहिनाणं स मन्तरेण कथमिति चेषुच्यते । इह यथा दिवसकरमएमसस्य घ. मुप्पज्जा ।। नपटयाच्यादितस्य कथञ्चिद्विश्रसा परिणामेन घनपटलपुद्गबाअथ किंतवधिज्ञानप्रत्यकम् ।अवधिज्ञानप्रत्यकं द्विविधं प्राप्तम् नां निस्नेहीभूय परिक्कयतः समुपजातेन रन्ध्रेण तिमिरनिकरो सम।। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोहि अभिधानराजेन्द्रः। श्रोहि पसंहारहेतवो भानवः स्वावपातदेशास्पदं अव्यमुद्योतयन्ति । णुगच्चइ चियपश्च्चो व गच्छंतं । नभयसहावो मीसो तथा प्रकृतिभासुरस्यात्मनो मिथ्यात्वादिहेतूपचयोपजनिताऽवधि देसो जस्साणुजाइ नो अन्नो कास गयस्स कत्थइ एगं झानावरणपटलतिरस्कृतस्वरूपस्य संसारे परिन्नुमतः कथञ्चिदेवमेव तथाविधशुभाध्यवसायप्रवृत्तितोऽवधिज्ञानावरणसंबन्धि उपहम्मइ जहत्थि ।। नां सर्वधातिरसस्पर्डकानां देशघातिरसस्पर्धकतया जातानामु गतार्थे एव उक्तमानुगामुकद्वारम् । दयावलिकाप्राप्तस्यांशस्य परिकयतोऽनुदयावलिकाप्राप्तस्योपश अथावस्थितद्वारमुच्यते। अवस्थितं चावधेराधारभूतक्षेत्रत मतः समुद्भतेन कयोपशमरूपेण रन्ध्रेण विनिर्गतोऽवधिज्ञाना-1 उपयोगतो लब्धितश्च चिन्तनीयम्। तत्र क्षेत्रत उपयोगतश्चात् । सोकःप्रसाधयति।स्वकार्य कदाचित्पुनर्विशिष्टगुणप्रतिपत्तितः स खित्तस्स अवहाणं, तेत्तीसं सागरान कालेणं । घातीनि रसस्पर्फकानि देशघातीनि भवन्ति । तथा चाह (अ- दव्वे भिन्नमुहुत्तो, पज्जवनंभे य सत्तट्ठ ।। हवेत्यादि ) अथवेति प्रकारान्तरोपदर्शनेन प्रकारान्तरता च गु. अवधेराधारपर्यायण क्षेत्रस्यावस्थानं त्रयस्त्रिंशदेव सागरोणप्रतिपत्तिमन्तरेणत्यपेक्ष्य अष्टव्या । गुणाः मूलोत्तररूपाः तान् पमानि कालेन कालमाश्रित्य भवन्ति । इदमुक्तं भवति । अनुप्रतिपन्नो गुणप्रतिपन्नः । अथवा गुणैः प्रतिपन्नः पात्रमिति कृत्वा तरसुरा यत्र क्षेत्रे जन्मसमये अवगाढास्तत्रैवाभवक्षयमवतिगुणैराभितो गुणप्रतिपन्नः अनेन पात्रतायां सत्यां स्वयमेव गुणा ठन्तेऽतस्तत्संबन्धिनोऽवधेरेकत्र क्षेत्रे प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमलभवन्तीति प्रतिपादयति उक्तञ्च। "नोदवानर्थितामेति,न चाम्नो क्षणकालमवस्थानं संपद्यते। उपयोगस्त्ववधेःसुरनारकपुरनिर्न पूर्यते । प्रात्मा तु पात्रतां नेयः, पात्रमायान्ति संपदः । १। लादिके द्रव्ये व्यविषयमुपयोगमाश्रित्य तत्रान्यत्र वा क्षेत्रे अगारं गृहं न विद्यते अगारं यस्यासावनगारः । परित्यक्त- भिन्नमुहूर्तमेवावस्थानं न परतः सामार्थ्याभावादिति । तत्रैव अव्यन्नावग्रह श्ययः । तस्य प्रशस्तवध्यवसायेषु वर्तमानस्य द्रव्ये ये पर्यवाः पर्यायधर्मास्तल्लाभे पर्यायात्पर्यायान्तरं च सर्वघातिरसस्पर्ककेषु देशघातिरसस्पर्धकतया जातेषु पूर्वोक्त सञ्चरतोऽवधेस्तदुपयोगे सप्ताौवा समयानवस्थानं न परतः। क्रमेण कयोपशमन्नावतोऽवधिज्ञानमुपजायते । मनःपर्यायझाना अन्ये तु ब्याचक्षते । पर्यायात द्विधा गुणाः पर्यायाश्च तत्र सवरणीयस्य तु विशिष्टसंयमाप्रमादादिप्रतिपत्तावेव सर्वेघाती हवर्तिनो गुणाः शुक्लादयः क्रमवर्तिनस्तु पर्याया नवपुराणादनि रसस्पर्धकानि देशघातीनि भवन्ति । तथा स्वभाव्यात्तच्च यस्तत्र गुणेष्वष्टौ समयानवध्युपयोगावस्थानं पर्यायेषु सप्ततथा स्वनाव्यं बन्धकाले तथा रूपाणामेव तेषां बन्धनात् ततो समयानीति स्थूलं हि द्रव्यं तेन तत्रान्तर्मुहूर्त तदुपयोगस्थिति मनापर्यवज्ञानं विशिष्टगुणप्रतिपन्नस्यैव वेदितव्यम् ।मतिश्रुतावर गुणास्ततः । सूमास्तेनैतेष्वष्टौ समया न गुणेभ्योऽपि पर्यायाः णाचकुर्दर्शनावरणान्तरायप्रकृतीनां पुनः सर्वघातीनि रसस्पर्द्ध सूक्ष्मा इति । तेषु सप्तसमयान् यावदिति भावः । अथ लकानि । येन तेन वाध्यवसायेनाध्यवसायानुरूपं देशघातीनि स्प-| धितोऽवध्यवस्थानमाह । र्धकानि भवन्ति । तेषां तथा स्वन्नाव्यात ततो मतिज्ञानावरणादीनां सदैव देशघातिनामेव रसस्पर्द्धकानामुदयः । सदैव च अद्धाए अवहाएं, छावढि सागरान कालेणं । वयोपशमः। नक्तश्च। पञ्चसंग्रहमूसटीकायाम् मतिश्रुताधरणाच उकोसगं तु एयं, एकोसमो जहनेणं ॥ क्षुर्दर्शनावरणान्तरायप्रकृतीनां च सदैव देशघातिरसस्पर्द्धका- | इहाद्धाशब्देनावधिज्ञानावरणक्षयोपशमलाभरूपा या लब्धिनामेवोदयः । ततस्तासां सदैवौदयिकक्कायोपशमिको भावा- रभिप्रेता सा च तत्रान्यत्र वा क्षेत्रे तेवन्यषु वा व्यादिषु विति कृतं प्रसङ्गेन । नं० । स्था० । प्रज्ञा । भ० ॥ युक्तस्य वा भवति । अथैतस्यावधिज्ञानावणक्षयोपशमलाभरू(६) आनुगामिकादि षट् भेदाः। पाया लब्धेर्निरन्तरमवस्थानं वक्ष्यमाणभाष्ययुक्त्या षट्षष्टिः तं समासओ विहं पातं । तं जहा आणुगाभियं १ सागरोपमाणि कालेन कालमाश्रित्य भवन्ति । तुशब्दस्य विशेअणाणुगामियं श्वमाणयं हीयमाणयं ४ पडिवाईयं ५ षणार्थत्यानरभवसंबन्धिना कालेनैतान्यधिकानि अष्टव्यानि । अप्पडिवाईयं ६। इदं चाबाधद्रव्यादिषूपयोगस्य लब्धेश्चान्तमुहूर्तादिकमवस्था नमुत्कृष्ट अष्टव्यम् । जघन्यतस्त्वक एव समयो मन्तव्यः । तत्र एतेषां पम्मां भेदानामाः । सभेदाः अनुगामिकादिशब्दषूक्ताः नरतिरश्चां समयादूर्ध्वमवधिःप्रतिपातादनुपयोगाद्वाऽसौ विवक्ष्यन्ते च नवरमिह । ज्ञेयो देवनारकाणां तु येषां भवस्य चरमसमये सम्यक्त्वलाअणुगामिओय ओही, नेरझ्याणं तहेव देवाएं। भाद्विभङ्गज्ञानमवधिरूपतया परिणमति । ततः परं च मृतानां अणुगामि अणणुगामी, मीसो य मणुस्सतेरिच्छे । । तदवधिज्ञानं च प्रच्यवते तेषामेष द्रष्टव्यः। इति नियुक्तिगाथाअनुगमनशील प्रानुगामुको यः समुत्पन्नोऽवधिः स स्वामिनं | द्वयार्थः । ७१७ । अत्र भाष्यम् । देशान्तरमभिवजन्तमनुगच्छति । लोचनवदसौ श्रानुगामुक आहारे उवोगे, सकीए वा हविज्ज वत्थाण। इत्यर्थः। ईटश एवावधिर्भवति केषामित्याह । नारकाणां तथा आहारो से खित्ते, तेत्तीसा सागरा तत्थ ।। देवानां चेति । तथा श्रानुगामुक उक्तस्वरूपः अनानुगामुकस्त्ववस्थितशृङ्खलानि यन्त्रितप्रदीपवद्विपरीतः यस्य तूत्पन्नस्याव. विजयाइसूववाए, जत्थो गाढो जवक्खो जाव। धेर्देशो व्रजति । स्वामिना सहान्यत्र देशस्तु प्रदेशान्तरचलित- खित्ते व तिहइ तहिं, दवेमु देहसयणेसु॥ पुरुषस्योपहतैकलोचनवदन्यत्र न व्रजति । असौ मिश्र उच्यते । आधारोपयोगलग्धिविषयमवधेरवस्थानं भवेत्तत्राधारः (से) एष त्रिविधोऽप्यवधिर्मनुष्यतिर्यक्षु च भवतीति । नियुक्तिगा- तस्यावधेः क्षेत्रं मन्तव्यं (तत्थत्ति) तत्राधारजूते केत्रे त्रयस्त्रिधार्थः । अथ भाष्यम् । शत्सागरोपमाण्यवधेरवस्थानमिति शेषः । कः पुनः केत्रे पताअणुगाामाणुगच्छव लायण जहा पुरिस इयराय ना-| वन्तं कासमवधिरवविष्ठत इत्याह । विजयादिष्वनुत्तरविमानेषुपपा Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोहि (१४२) अोहि अन्निधानराजेन्फः। ताद्भवक्कयं यावद्यत्र क्वापि (खेत्तेत्ति) शयनीयाक्रान्तक्षेत्र देवोऽव- ५ अनन्तगुणवृतिः अनन्तनागहानिः १ असंख्यातनागहानिः२ गाढोऽवतिष्ठते (तहिति) । तत्र केत्रे अस्यावधिः त्रयस्त्रिंशत्सा- संख्यातनागहानिः ३ संख्यातगुणहानिः४ असंख्यातगुणहानिः ५ गरोपमाएयवस्थानं अष्टव्यम् । क्षेत्रस्योपत्रवणत्वाद्रव्येषु च देह- अनन्तगुणहानिः६पतयोश्च पद्विधवृमिहान्योश्च मध्यादवधिविशयनीयेष्ववधेरेतावन्तं कानमवस्थानमवसयमिति । अथोप- षयनूते केत्रकालयोराद्यन्तपदद्वयवर्जिता चतुर्विधा वृद्धिहाँनिर्वा योगतो व्यगुणपर्यायोववधेरवस्थानमाह । जवति । अनन्तभागवृफिरनन्तगुणवृद्धि तथा अनन्तभागहानिदव्वे भिन्नमुहुन्न, तत्थ णत्य हविज खेत्तम्मि । रनन्तगुणहानिर्वा केत्रकालयोन संभवति । अवधिविषये विषयउवोगो न नपरो, सामत्याजावतो तस्स ।। नूतकेत्रस्यानन्त्याजावात् कालस्याप्यवधिविषयचूतस्यानन्तत्वा प्रतिपादनात्तदिदमत्र हृदयं यावत्केत्रं प्रथमावधिज्ञानिना दृष्ट दव्वे तत्थेव गुणा, संचरओ सत्तचट्ठवासमया । ततः प्रतिसमयमसंख्यातभागवृकिं कश्चित्पश्यति कोऽपि संख्याअसे पुण अद्वगुणा, जणंति तप्पजवे सत्त ।। तनागवृकिमन्यस्तु संख्यातगुणवृद्धिम् । अपरस्तु असंख्यातगुगताथैव । नवरं तत्र विवक्तिते के अन्यत्र वा गतस्यावधिम- णवृर्षि केंत्र पश्यति । एवं दीयमानमपि वाच्यम् । एवं केत्रे वृ. तो व्यविषयेऽन्तर्मुहूर्तमेवोपयोगो जवति ( दवेत्यादि ) तत्रै- किवा हानिर्वा चतुर्धा नवति। इत्थं कालेऽपि चतुर्धा वृद्धिहान्योव विवकिते अव्ये ( गुणत्ति ) गुणेष्वपरापरेषु सञ्चरतः सप्ताप्टौ श्वातुर्विध्यं भावनीयम् । अव्येषु पुनरवधिनूतेषुधिविधा वृछिीवा समया नावधेरुपयोगो भवति। अन्ये वाहुर्गुणेष्वष्टौ पर्यायेषु निर्वा जवति । श्दमुक्तं भवति । अवधिज्ञानिना यावन्ति ऽव्याणि सप्त समयानिति । किमित्येवमित्याह । उपलब्धानि प्रथमं ततः परं तेन्योऽनन्तभागाधिकानि कश्चित्यजह जह मुहुमं वत्थु, तह तह थोचोवोगया हो। इयति । अपरस्तु तेभ्योऽनन्तगुणान्येव तानि पश्यति। न त्वसंदव्वगुणपज्जवसुं, तह पत्तेयं पि नायव्वं ॥ ख्यातनागाधिक्यादिना वृहानि वस्तुस्वाभाव्यादपरस्ततः परं पूर्वोपलब्धेन्योऽनन्तभागहीनानि व्याणि पश्यत्यन्यस्त्वनन्त__गताथैवं । अथ बाब्धतोऽवस्थानमा । गुणहीनान्येव तानि तेन्यः पश्यति । न त्वसंख्यातभागहीनत्वानत्य णत्थ य खित्ते, दव्वे गुणपज्जवोवोगे य । दिना हीनानि पश्यति । तथा स्वाभाच्यादिति पर्यायेषु पुनः चिट्ठ लघी सा पुण, नाणावरणक्खोवसमो॥ पूर्वोक्ता पक्विविधापि वृछिर्दा निर्वा भवतीति नियुक्तिगाथासंकेसा सागरोवाई, डावहिँ होइ सारेगाई। पार्थः। ७२७। ____ अथ विस्तरार्थ जाध्यैणाह। विजयाइ स दो वारे, गयस्स नरजम्मणा समयं । गतार्थ । अथोपलब्धिविषयं जघन्यमवस्थानमाह । वुही वा हाणी वा, णंतासंखिज्जसंखनागाणं । सव्वजहएणो समत्रो, दवाईसु होइ सबजीवाणं । संखिज्जासंखिज्जा-णंतगुणा वेति उम्भेया ।। अत्र नरतिरश्चां समयार्ध्वमवधेः प्रतिपातादनुपयोगा। अनन्तश्चासंख्येयश्च संख्येयश्च ते तथा । ते च ते भागाश्च तेषां उन्नयोपलब्ध्यो समयमवस्थानं परोऽवगच्छत्येव । अतः सुरना वृहिहानिर्वेत्येवं त्रिविधे प्रत्येकं वृकिहानी जवतोऽपरमप्यनयोः रकविषयमेतत्पृच्छन् गाथामाह ।। प्रत्येकं त्रैविध्यमित्याह (संखिज्जेत्यादि) गुणशब्दः प्रत्येकमभि संबध्यते । ततश्च संख्यातगुणा असंख्यातगुणा अनन्तगुणाइचेस पुण मुरनारगाणं, हविज किह खित्तकालेसु ॥ त्येवं त्रिविधे प्रत्येकं वृद्धिा निश्चेत्थं वृझिहान्योः प्रत्येक पूर्वस पुनः सुरनारकाणां व्यादिष्ववधिलब्ध्युपयोगयोजघन्यतः दर्शितं पक्विधत्व भावनीयमिति। तदेवं वृकिहान्योः प्रत्येक पकथं समयावस्थानं वतिष्ठतां सुरनारकाणामित्याह (खेत्तकाले- धित्वं सामान्येनोपदर्थेदानी केत्रकालयोकिहान्योश्चातुर्विसुत्ति)तयोरेव निजकेत्रकालयोः तिष्ठतामिदमुक्तं भवति । अ- ध्यस्य भावार्थ दर्शयन्नाह । न्यत्र नरतिर्यक्संबन्धिन्याधारसूते क्षेत्रे स्वायुष्करूपे च काले पइसमयमसंखिज्जर, भागहियं को संखभागहियं । गतानाममीषामपि भवति । व्यादिष्ववधेः समयावस्थानं के अन्नो संखेज्जगुणं, खित्तमसंखिज्जगुणमप्लो ।। चनम् । ते तत्र गताः सुरनारका न भवन्त्येव । किंतु नरतियश्चएवेत्यत उक्तम् । तस्मिन्नेव स्वाधारजूते केत्रे स्वायुष्कचकणे च पेच्च विवछमाणं, हायंतं वा तहेयकासं पि । काले तिष्ठतामिति । तत्र हि तिष्ठतां सुरनारकाणामवधेः प्रति- नाणंतबुझिहाणी, पेच्छजं दो विनाणं तं । पाताजावात्समयमात्रावस्थानासंभव एवेति भावः। अत्र सूरिराह। गतार्थे श्व । नवरं क्षेत्रकानयो नन्त वृद्धिहानी कुत इत्याह (पे चरमसमयम्मि सम्मं, पमिवजं तस्स जे चिय विजंगं । चश्त्यादि) यद्यस्मात् द्वावपि क्षेत्रकालौ नानन्तौ अवधिज्ञानी तं होइ अोहिनाणं, गयस्स वीयम्मि तं पमइ ।। पश्यति । पूर्वोक्तयुक्तेरिति । अथ अन्यविषये प्रत्येक द्विविधवृव्याख्याताथैवेति गाथानवकार्थः ।७२६। उक्तमवस्थितद्वारम् । किहानी पर्यायविषयांतु वृति हानि च प्रत्येक विधामाह "द___ अय चक्षघारमनिधित्सुराह । व्वमणतं सहियं,, शति अनन्ततमोऽशो नागोऽनन्तांशस्तनाधिक अव्यं कश्चित्पश्यतीति । एतेषां च द्रव्यकेत्रकालनावानां परस्परबुढी वा हाणी वा, चउबिहा होइ खेत्तकालाणं ।। संयोगे चिन्त्यमाने एकस्य वृक्षावापरस्य वृधिन त्वैकस्य हानी दव्वेस होइ विहा, बिह पुण पज्जवे होई॥ अन्यकस्य वृद्धिः। एकस्य हानावेवापरस्य हानिन त्वकस्य वृकौ चलद्वारमिदमुच्यते । चनश्चावधि:व्यादिविषयमङ्गीकृत्य व अपरस्यहानिर्भवति । अपरं चैकस्य व्यादेनागेन वृद्धौ हानी धमानको हीयमानको वा जवति । वृधिहानी च षमिधे सामान्ये- वा जायमानायामपरस्यापि नङ्गेनैव वृकिहानी प्रायो न तु गणनागमे प्रोक्ते । तद्यथा । अनन्तनागवृतिः १ असंख्यातभागवृतिः कारेण गुणकारणाप्येकस्य वृझिहान्योः प्रवर्तमानयोरपरस्यापि २संख्यातनागवृद्धिः ३ असंख्यातगुणवृतिः। संख्यातगुणवृद्धिः प्रायस्तेनैव ते प्रवर्तेते शति दर्शयन्नाह । Jain Education Interational Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४३) प्रोहि अनिधानराजेन्छः। ओहि चुकीए चिय वुही, हाणी हाणीए न उ विवज्जासो। दवाई संखेत्ता, उ एंतगुणो पज्जवासदव्वाओ। नागे नागो गणणा, गुणो दबाइ संयोगे ।। निययाहारा हीणा, तेसिं वुही य हाणी य । इह वृद्धिहानी समाश्रित्य व्यकेत्रकालभावानां परस्परं सं- न उ निययाहारवसा, प्रोहिनिबंधो जो परित्तो सो । योगे चिन्त्यमान एकस्य व्यादेवृद्धावेव तदपरस्य वृद्धिर्जायते । चित्तो तह ण हाविय, आणागज्को य पाएण ॥ एकस्य हानावेव च तदन्यस्य हानिः प्रर्वतते । न च (विवज्जासो इह स्वरूपेण तावत्समस्तपुवास्तिकायलकणानि अव्याधारभूत्ति) न तूक्तस्य विपर्यासो विपर्ययो मन्तव्यः । एकस्य व्यादेहनौ अपरस्य वृद्धिः। तथैकस्य अव्यादेव॒की अन्यस्य हानिरित्येवं तात्स्यवादनन्तगुणा निवर्तन्ते इति लिङ्गव्यत्ययेनात्रापि योज्यते। एकैकाकाशप्रदेशेऽनन्तस्य परमाणुह्यणुकादिषव्यस्यावगाहनाअक्षण विपर्ययः । कदाचिदपि न भवतीत्यर्थः । अथवा गाथा त्पर्यवापर्यायाः पुनः स्वाश्रयनूतात व्यादनन्तगुणाः एकैकस्य ईमिदमन्यथा व्याख्यायते । एवकारस्य भिन्नक्रमेण योजनात्त. परमाएवादेरनन्तपर्यायत्वादित्यवंभूतं केत्रादीनां स्वरूपं वर्तत द्यथा । एकस्य द्रव्यादेवृद्धौ तदपरस्य वृद्धिरेव न तु हानिलकणो इति । स्वरूपकथनमात्रं तावत्कृतं प्रकृतोपयोग्याह (निययाहाविपर्यासो भवति। "काले बनण्हवुहित्ति" वचनादेकस्मिन् वर्ध रेत्यादि ) व्यस्य निजकाधारः केत्र पर्यायाणां तु निजकाधारो मानेऽपरस्यावस्थानं तु स्यादपि “ कालो जश्यम्वो खित्तबुद्धी जव्याणि तदधीना च तेषां द्रव्यपर्यायाणां सामान्येन वृद्धिर्हानिएत्ति"वचनात्तथा एकस्य हानिरेव न तु वृधिलकणो विपर्यासः। इच नवति । केत्रस्य चतुर्विधायां वृक्षौ हानौ वा व्यस्यापि अवस्थानं तु स्यादपीति (नागे नागोत्ति ) एकस्य केत्रादेर तथैव ते प्राप्नुतः । व्यस्य द्विविधायां वृकौ हानौ वा पर्यायासंख्याततमादिके नागे वर्कमाने तदपरस्यापि नाग एव वर्धते । णामपि तथैव ते युज्यते । इत्येवं यथा परः प्रतिपादयति अवस्थानं वा भवति । न तु गुणकारेण वृद्धिः । तथा गुणकारे तथा वयमपि स्वरूपस्थितिसामान्यचिन्तायां मन्यामहे ।नाऽत्र विणाप्येकस्य वृक्षौ जायमानायामपरस्यापि तेनैवासौ नवत्यव वाद इति भावः । परं किन्तु (न उ निययेत्यादि)न तु निजकाधास्थानं वा जायते । न तु नागेन वृद्धिः । प्रायेण चैतत् अष्टव्यं रवशादवधिनिबन्धोऽवधिविषयो वर्धते हीयते वा यतः परीतः केवादेर्भागेन वृक्षावपि व्यादेर्गुणकारेण वृहिसंभवादिति । प्रतिनियतोऽसौ यथोक्तरूपेण कायोपशमनियमितोऽसौ चित्र अथ परःप्रेरयति। कायोपशमाधीनत्वाचित्रोऽनेकरूपो यथा युक्त्या घटते तथैवाय कह खित्तासंखजागा- संनवे संजवो न दध्वेत्ति । प्रवर्तते । तामुखजधान्यथापि वा वर्तत इति नात्रैकान्तः आशाकिह वा दवाणंते, पज्जवसंखिजनागाइ ।। ग्राह्यश्च प्रायेणायमित्याझैवात्र प्रमाणं किं स्वच्गप्रवृत्तष्कतननु कथं केवस्यासंख्येयभागादिवृछौ सत्यां तदाधेयाव्याणा युक्त्योपन्यासेन प्रायो ग्रहणाद्यथासंनवं युक्तिरपि वाच्यति मप्यसंख्येयनागादिवृद्धर्न संनवः । कथं वा व्यानन्त्ये न्य गाथानवकार्थः। गतं चलद्वारम् । स्यानन्तभागवृक्षौ जायमानायां पर्यायाणामसंख्येयनागादि अथ तीवमन्दद्वारमनिधित्सुराह । वृद्रिव्यानन्तगुणवृद्धौ वा पर्यायाणामसंख्यातगुणादिवृद्धिः फाय असंखेजा, संखेज्जेया वि एगजीवस्स । प्रतिपाद्यते । इदमुक्तं नवति । केत्राधाराणि हि व्याणि च्या- एगप्फवओगे, नियमा सव्वत्थ नवउत्तो॥ धाराश्च पर्यायाः ततो यादृश्यवाधारस्य वृदिर्हानिर्वा तादृश्येवाधेयस्यापि युक्ता तत्कथमिह वैचित्र्यं केत्रस्य चतुर्विधे वृद्धि फड्डा य आणुगामी, अणाणुगामी य मीसया चेव । हानी व्यस्य विविधे पर्यायाणां तुषविधेति। अत्र सूरिराह।। पमिवाश्यपमिवाई, मीसा य मणुस्सतेरिच्छे ॥ खेत्तावत्तिणो पो-ग्गला गुणा पोग्गलागुवत्तीय। अपवरकादिजानकान्तरस्थप्रदीपप्रनानिर्गमस्थानानि चावधिसामन्ना विनेया, न उ ओहिनाणविसयम्मि ॥ झानावरणे कयोपशमजन्यान्यवधिज्ञाननिर्गमस्थानानीह फडका न्युच्यन्ते । तानि चैकजीवस्य संख्येयान्यसंख्येयान्यपि च भवान्त। केत्रानुवर्तिनः पुलाः परमाणुस्कन्धादयः गुणास्तत्पर्यायाः तत्र चैकफडकोपयोगो जन्तुर्नियमात्सर्वत्र सर्वैरपि फडकैरुपपुसलानुवर्तिनः इत्येवमेते सामान्याः सामान्येन विज्ञेयाः । कस्य युक्तो भवत्येकोपयोगत्वान्जीवस्यैकमोचनोपयोगे द्वितीयलोचकिन हन्त नैतदभिमतम् । अननिमतप्रतिषधं त्वाह । न त्वब नोपयुक्तवदिति । एतानि च फडकानि त्रिधा जवन्ति । तद्यथा अधिज्ञानविषयत्वेनैवमेते अग्निप्रेताः। श्दमत्र हृदयम् । अस्त्येवै- नुगमशीलान्यानुगामुकानि यत्र देशे तिष्ठतोऽवधिमतोजीवस्योतत्सामान्येन को वैन मन्यते । यदुत सामान्यतः समस्तलोका त्पन्नानि ततोऽन्यत्रापि व्रजतस्तस्यानुयायिनीत्यर्थः। एतद्विपरीकाशस्यासंख्येयतमादिके नागे समस्तपुझास्तिकायस्याप्यसं तानि त्वनानुगामुकानि बानुगामुकानानुगामुकोजयस्वरूपाणि स्येयतमादिक एव नागः स्वरूपेण वर्तते समस्तपुमनास्तिका- तु मिश्राणि कानिचिद्देशान्तरानुयायीनि कानिचिन्नत्यर्थः । यस्यान्त्यतमादिके भागे समस्ततत्पर्यायराशेरप्यनन्ततमादि- एतानि प्रत्येकं च पुननिधा नवन्ति । तद्यथा प्रतिपतनशीलानि नागो वर्तते । अतः केत्रस्यासंख्येयादिनागझिहान्योरपि तद- प्रतिपातीनि कियन्तमपि कालं स्थित्वा ततो ध्वंसनस्वभावानीनुवृत्त्या तथैव वृझिहानी स्याताम् । व्यस्यानन्ततमादिवृहि- | त्यर्थः । तद्विपरीतानि स्वप्रतिपातीनि आमरणान्तभावीनीत्यर्थः। हान्योस्तत्पर्यायाणामपि तदनुवृत्या तथैव वृहिहानी नवेताम् । प्रतिपात्यप्रतिपात्युनयरूपाणि तु मिश्राणि कानिचित्प्रतिपातीनि परं किं तत्रावधिज्ञानविषयतूतस्य केत्रादेवृकहानी चिन्तयितु- कानिचिन्नेत्यर्थः । एतानि च मनुष्यतिर्यश्च योऽवधिस्तस्मिन्नेव मभिप्रेते । ननु सामान्यन स्वरूपस्थस्य पव च विशेषिते ये वृकि- जवन्तिान देवनारकावधाविति । आह । ननुतीवमन्दद्वारे प्रस्तुते हानी ते अवधिज्ञानावरणकयोपशमाधीनत्वाद्विचित्रे अतो फडकावधिस्वरूपं प्रतिपादयतःप्रक्रमविरोध इत्यत्रोच्यते। प्रायोयथोक्तप्रकारेणैवैते अत्र युक्ते नान्यथेति । एतमाथोक्तमेवार्थ अनुगामुकाप्रतिपातीनि फडकानि तीव्रविशुझियुक्तस्वात्तीवाणि प्रपञ्चयन्नाह । जण्यन्ते । अननुगामिप्रतिपातीनि त्वविशुद्धत्वान्मन्दान्युच्यन्ते । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४ ). अभिधानराजेन्द्रः । मोहि मिश्राणि तु मध्यमानी त्यतस्तीव्रमन्दद्वारमिदमित्यदोषः । अपरस्त्वाह । अनुगामुकाप्रतिपातिफडकानां कः परस्परं विशेषः । अननुगामुकप्रतिपातिफडकानां चान्योऽन्यं को भेद इत्यत्रानिधीयते अप्रतिपातिफडुकमनुंगास्येव नवति अनुगामुकं त्वप्रतिपाति प्रति पाति च नवतीति विशेषः । तथा प्रतिपाति पतत्येव पतितमपि च देशान्तरे गतस्य कदाचिज्जायते । न चेत्थमनानुगामिकमिति नियुक्तिगाथाद्वय संकेपार्थः । ७३७ । विस्तरार्थे तु जाष्यकार एवाह । जातरत्थदीप-पहोमो फड्डुगावही हो । 65 तिब्बो विमलो मंदो, मलीमसो मीसरूवो य ॥ अपवरकजालकान्तरस्थप्रदीपप्रभोपमः फड्कावधिर्भवति । तत्र च विशुद्धकयोपशमजन्य फड्डुकप्रजवोऽवधिर्विमलः स च तीव्र उच्यते । भविरूक्योपशमप्रवर्तितश्च मलीमसः स च मन्दोऽ भिधीयते । मध्यमक्कयोपशमाविष्टस्तत्फडुकसमुत्थस्तु मिश्ररूपस्ती मन्दस्वरूप इत्यर्थः । अत एव तीव्रमन्दद्वारमिदमुच्यते । एगफडोवगोगे ” इत्युत्तराधे व्याचिख्यासुराह ॥ उवयोगं एगे, विदितो सो फड्डुएहिं सव्वेहिं । नवउज्जइ जुगवंचिय, जह समयं दोहिं नयणेहिं ॥ गतार्था । श्रथ प्रेर्यमुत्थाप्य परिहरन्नाह ॥ कि नोवओबहूया, भाइ न विसेस स सामसो । तग्गहविसेसविहो, खंधावारोवोगोन्ब || मन्वेवं सत्यवधिमतः कथं नोपयोगबहुता अनेकैः फडुकैरुपयुज्यमानत्वादत्रोक्तमेवोत्तरमेकस्मिन्समये जीवस्यैक एवोपयोगो भवति । तत्स्वाभाव्यान्नयनद्वयोपयोगव सदनेक फड्डुकैरुपयुज्य - मानस्यापि न तस्योपयोगबहुता अथवा जायते । अत्रोत्तरम् । अनेकवस्तुविषयोपयोगे ह्येतत्स्याद्यथा । एते हस्तिनो दक्षिणतस्त्वमी वाजिनो घामतस्तु रथाः पुरतः पदातय इत्यादि । न चहानेक वस्तुविशेषोपयोगोऽस्ति किं तर्हिसामान्योपयोग पव ग्राह्य वस्तुगतविशेषवैमुख्यान्नयनरूयेन स्कधावारोपयोगवदयं चैक एवोपयोग इति न तद्बहुतेति ॥ फड्याआगामीत्यादिविवृएवन्नाह । श्रगामिनिययसुद्धा, इं सैयराई य मीसयाई व । एकेक सो विभिन्नाईं, फङ्कुयाई त्रिचित्ताई ॥ ३६ तावत्फडुकानि त्रिधा भवन्ति । तद्यथा अनुगामीनि १ नियतान्यप्रतिपातीनीत्यर्थः २ शुकानि तीव्राणीत्यर्थः ३ ( सेयराइयत्ति ) सेतराणि चैतानि भवन्ति । तद्यथा अनुगामिन्य इतरारायननुगामीनि ४ अप्रतिपातित्र्य इतराणि प्रतिपातीनि ५ तीवेभ्य इतराणि मन्दानि ६ ( मीसयावत्ति ) मिश्राणि चैतानि । अनुगाम्यादीनि भवन्ति । तद्यथा । अनुगाम्यननुगामीनि ७ प्र तिपात्यप्रतिपातीनि । तत्रिमन्दानीति (एक्केक्क सोनिन्ना इति ) एतानि चानुगाम्यादीन्येकैकशो विभिन्नानि भवन्ति । तद्यथा । अनुगामीनि । प्रतिपात्यप्रतिपातिभिश्रभेदात्त्रिधा एवमनुगामीन्यपि त्रिधा । अनुगाम्यननुगामी न्यप्येवं पुनरप्यनुगाम्यादीनि । फडुकानि तीव्रमन्दमध्यमभेदात्प्रत्येकं त्रिधा वक्तव्यानि । तद्यथा अनुगामी नि तीव्रमन्दमध्यमानि । एवमननुगामीन्यपि एवमनुगाम्यननुगामी नीति ( विचित्ता इति ) एतानि च जघन्यमध्यमा ओहि दिभेदाद्विचित्राणि नाना प्रकाराणि । अवस्थितानुगामिकयोर्भेदः अत्र प्रेरकः प्राह ॥ निययागामियाणं, को भेयो को व तव्विवक्खाणं । नियोजाइ नियमा, नियो नियत्रो व्त्र अणुगामी ॥ चचियपडिवाई, अणुगामी चुओ पुणो होइ । नर तिरिगहणं पाउँ - जत्सु विसोहिसं किलेसा ॥ नियतानुगामिनोर प्रतिपात्यनुगामिनोः फडकयोरित्यर्थः । को दो न कश्चिदिति पराभिप्रायको वाऽनुगाम्यप्रतिपात्यविवकयोरनुगामिप्रतिपातिनोर्भेदः । अत्रोत्तरमाह । यो नियतोऽप्रतिपाल । स चलद्दीपिकेव नियमादन्यत्र गच्छन्तमनुयात्यनुगच्छत्येव यो रुच्यनुगामी स नियतो वा स्यादनियतो वा श्रप्रतिहतलोचनवदप्रतिपाती वा स्यादुपहतलोचनवत्प्रतिपाती वा स्यादित्यर्थः । प्रतिपक्षनेदमाह ( चयश्चियेत्यादि ) व्यवत एव प्रतिपात्येव प्रतिपाती च्युतोऽपि च देशान्तरे जायत इत्यत्र संबध्यते । अनानुगामुकस्तु नैवं स्वरूपो यतोऽसौ यत्र देशे तिष्ठतः समुत्पन्नस्तत्रैव तिष्ठतश्चयवते न वाच्युतोऽपि च देशान्तरे पुनरप्युत्पतिप्रदेशे समायातस्य भवतीति प्रतिपात्यनानुगामुकयोभेदः ( नरेत्यादि ) इह तीव्रमन्दद्वारमिदं तीव्रमन्दता च फडकानां विशुद्धिसंक्वेशक्शाज्जायते । विशुद्धिसंक्लेशाश्च तथाविधाः । प्रायस्तिर्यङ्मनुष्येष्वितीह फड्याआगामीत्यादि गाथा पर्यन्तं ( मस्स तिरिच्छेत्तिं ) नर तिर्यग्ग्रहणं कृतमिति । अथ प्रेर्यान्तमुत्थाप्य परिहरन्नाह । गणमनुगामिमाई - यश किंकयतिव्वमंदचिंताए । पायमणुगामिनियता, तिव्वा मंदा य ज इयरे || ननु चास्तमन्दद्वारवर्तिती वमन्दचिन्तायां प्रस्तुतायां किमित्यनुगामिकादिफडुकग्रहणं कृतमप्रस्तुतैव फडुकप्ररूपणेति नाव: । प्रतिविधानमाह ( पायमित्यादि ) अनुगामीन्यप्रतिपाafra फडकानि यस्मात् प्रायस्तीवाणि भवन्ति । इतराणि त्वनुगामीनि प्रतिपातीनि च प्रायो अन्दानि मिश्राणि तनयस्वनावान्यतः फड्डुकप्ररूपणायामिति तीव्रमन्दद्वारता गम्यत एवेति अथ मतान्तरमुपदर्श्य तस्याप्यविस्तामाह । अन्ने पमिवाउप्पा, यदारएणुगामियाईणि । नरतिरियग्गहणं, हवा दो पि न विरुद्धं || अन्ये त्वाचार्याः । " फड्डाय असंखेज्जा" इत्यादिगाथया तीव्रमन्दधारमभिधाय अनन्तरमेव वक्ष्यमाणे प्रतिपातोत्पादद्वार मेव । " फड़याआणुगामीत्यादि " गाथोक्तानुगामुकादीनिदानीमाचकते केन कारणेन त एवमाचकते इत्याह ( नरतिरियगणेणंति ) इदमुक्तं नवति । प्रतिपातोत्पादयोस्तिर्य मनुष्याधेरेव घटनात्तथैतद्विषयमेव प्रतिपातोत्पादद्वारमतो नरतिर्यग्रहणादेतेऽप्यनुगामि कादयो मैदाः । प्रतिपातोत्पादद्वारान्तर्नाविन एवेत्याचार्याभिप्रायः । अथवा द्वयोरपि तीव्रमन्दाप्रतिपातोत्पादद्वारयोरिदमनुगामुकादिभेद कथनमर्थतो न किंचिद्विरुरुम् । तीव्रमन्दस्वरूपे प्रतिपातोत्पादवति चावधौ अनुगामुकादिनेदानां घटनादिति गाथाष्टकार्थः ॥ ७४७ ॥ गतं तीव्रमन्दद्वारम् । अथ प्रतिपातोत्पादद्वारमाह । बाहिरलंभे भज्जो, दव्वे खेत्ते य कालभावे य । उप्पापमिवाविय, तदुभयं चेगसमएणं ॥ For Private Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४५) निधानराजेन्द्रः | ओहि श्रवधिमतो बहिः बाह्योऽवधिस्तस्य लाभः प्राप्तिरुत्पत्तिस्तस्मि नू बाह्यावधिलाने भाज्यो भजनीयः कोऽसावित्याह । उत्पादः प्रतिपातस्तभयं चैकसमयेन क विषये उत्पादादय इत्याह । saravarलेष्विति नियुक्तिगाथासंदेपार्थः ॥ अथ भाष्यम् ॥ बाहिरओ एगदिसो फट्टोही वाहवा असंवो दवाइ भयणिन्जा, तन्तुपायादच्यो समयं ॥ इह बाह्यावधिरुच्यते । क इत्याह । योऽवधिमत एकस्यां दिशि भवति अथवा अनेकास्पद या फड्कावरम्योन्यविधि नः सान्तरो भवति । सोऽपि बाह्यावधिस्तद्यथा । अथवा सतः परमकारोऽध्ययभ्यमितो जीवस्य प्रमानादिना व्यवधानेन सर्वतोऽसंबद्धः सोऽपि बाह्यावधिस्तद्यथेति । तावत् प्राष्यकारचिरन्तनटी काकृतामभिप्रायः । आवश्यकच्चूfर्णकारस्त्वाह " बाहिरांनो नाम जत्थ सेवियरस ओहिनाणं समुप्पा से महिना न किंचि पास से पुरा द्वा जाहेर होतं जहां अंगण या गुण वा विहत्थी वा विहत्य पुहुत्तेण वा एवं जाच संखेजेहिं वा श्र संखेज्जेहिं वा जोयणेहिं ताहे पासइ एस बाहिरसंनो भाइ" ॥ अनने जाप्योक्तस्तृतीयपक एव लिखितः । आद्यपकद्वयं तु किसुत्रकृणन्याख्यानाच्चूर्णी महोदयत्किचित्कारणमिति केवलिनो विदन्तीति । तत्र चैवंविधे बाह्यावधौ एकस्मिन् समयेनवेषु विषये उत्पादादयो नया इति कथं जजनीया इत्याह ॥ उपाओ पमिवाभी, उजयं वा होज एगसमयेणं । कमुजयमेगसमये विभाग तं न सव्व ।। इ कदाचिदेकस्मिन् समये उत्पादो नयति । पूर्वः स्वपस्यादि विषय बाह्यापनः सन् वर्धत इत्यर्थः अधिकाज्य - कालभावान् पश्यतीति जावः। कदाचित्त्येकस्मिन् समये हीयतेसौ पूर्वज्यो इयादिभ्यो दीनांस्तान्पश्यतीत्यर्थः । कदाचित्त्याप्रतिपालकृष्णमुनयमपि एकस्मिन् समये नवेद्यतो बाह्यादेशावधिरयं तदितिरश्चीनं सङ्कोचः प्रतिपातस्तदेवामतो वृद्धिरूप उत्पादो नयति यदा वाऽग्रतः सङ्कोचस्तदैव तिरश्चीनविस्तरः । एवं सान्तरानेकदिनेऽपि च यदेकर दिशि अधिकस्योत्पादस्तदेवायस्यां प्रतिपात एवं सर्वतो विधी यत्रैव समय एकस्मिन् देशे वलयस्य विस्तराधिक्यलक्षण उस्यादस्य समये अन्य दिशि वयस्य सः प्रति पात त्यादिप्रकारेणोत्पादादयोऽयेकस्मिन् समये भजनीयाः । अत्र पर माह (कट्मुनयमित्यादि) कपात 1 धर्मद्वय कणमुनयमे कस्यैकस्मिन् समये युक्तं न घटते एव एतदिति पराभिप्रायः । अत्रोत्तरमाह ( विभागओ तं न सबपति भवति । यदि हि सर्वस्याप्यनवेयुगपदेवादप्रतिपातावज्युपगम्येयातां तर्हि स्याद्विरोधः । एतच्च नास्ति विनागतो देशतस्तदज्युपगमात्कथमित्याह || दावानलोच्य करथर लग्गर विजाः समयमतत्तो । तह कोइ हिदेसो, संजायइ नामए विश्य ७० यथा हि दानावल्लो दैवैकतः शुष्ककुशस्तम्बादी लगति दीप्यसेतोगुणादिके देशे विधमति निर्वाति । ओदि तथा अस्यातिवाह्यावधेः सदेशत्वात्कोऽपि देशे जायते वृषिमासादयति । अन्यस्तु कोऽपि देशः तस्मिन्नेव समये नश्यति हीयस प्रति नेोत्पादमतिपाती युगपद्विरुयेते इति गाथाश्यार्थ अथैताचेोत्पादप्रतिपाती अत्यन्तरावची निरूपयितुमाह ॥ एतदुजयं नत्थि एगसम ं । उप्पापमित्राओ त्रिय, एगयरो एगसमयेणं ॥ यस्य नैरन्तर्ये सर्वतो भाविनोऽस्तद्वान जीवन्तरे वर्तते । असौ अभ्यन्तरावधिरुक्तः तल्लब्धौ तत्प्राप्तौ पुनस्तदुभयं प्रतिपातोत्पादद्वयं युगपदेकसमये नास्ति। अर्थहि अभ्य न्तरावधिः प्रदीपप्रभापटलवदवधिमता जीवेन सह सर्वतो नैरन्तर्येण संबन्धो खण्डो देशरहित एकस्वरूपः । श्रत एवायं संबन्धावधिर्देशावधिश्चोच्यते । तथा चोक्तं चूर्णौ । " तत्थ अभितरलद्धि नाम जन्य सेठियस्स ओहिनाएं समुप्य ततो ठाणाश्रो श्रारम्भ सो श्रहिनाणी निरंतरसंबद्धं संखेजं वा असंखेजं वा खित्तश्रो श्रहिणा जाण्इ पास एस भित रखिति" एकस्मिन्प कस्मिन् समये प्रतिपादपातयोरेकतर एव भवति नतु युगपदेोभयं संदेशत्यागाय तथा हि निरावर सर्वतः प्रापडले एकस्मिन् समये सोयविस्तरयोरेकतर एव भवति न कस्यां दिशि संको बोयस्यां तु विस्तर हत्येवं युगपदेकसमये सोयविस्तरी भवतः एवमत्रापीति भावः । एतदेवाह (उप्पापडिवाओ वियेत्यादि ) इति नियुक्तिगाथार्थः । अथ भाष्यम् । भरली सा, जत्य प्पइ वप्पभव्वसव्वत्तो । संमोहिनाणं, अतिर ओवनाणी ॥ गताचैव नपरे संबद्धमिति । अथायीचे संब सर्वतो भवति । श्रवधिज्ञानी त्ववधिज्ञानस्याभ्यन्तरतो भव तीति । अथावत्यादतिपातविधिमाह । उप्पा विगमो वा, दीवस्स व तस्स नोभयं समयं । न भवनासो समयं वत्थुस्स जमेधमे॥ अभिहितार्थैव । नवरं यद्यस्माद्वस्तुनो द्रव्यस्य एकेन धर्मेण स्वभावेन समकं युगपनैव भवननाशौ उत्पादव्ययौ कदाच - नापि भवतः । न लिप्यं येनैव स्वधर्मेण ऋद्ध प्राअलं भवति । तेनैव विनश्यतीति युज्यते । विरुद्धत्वाद्धर्मान्तरेख स्वेकस्यैककालमपि युज्यते उत्पादन्ययी यथा देवालिद्रव्यं यस्मिन्नेव समये ऋजुतयोत्पद्यते । तस्मिन्नेव समये वक्रतया विनश्यति । द्रव्यतया त्ववस्थितमेवास्त इति तदेवाह । उपाय धुवा, समर्थ धम्मंतरेण न विरुका । जरिता गुरनरजीवचणाई वा ॥ उप्पज्जर रिजयाए, नासर वक्कत्तणेण तस्समयं । न उ चैव तम्पिरिया, नामो वकतजवाएं च ॥ गतार्थे एच। नवरं तत्प्रत्ययः प्रत्येकमभिसंबध्यते । तथा ॠ जुता वक्रता अङ्गलिता चेतचितमपि युगपद्धर्मान्तरेण न विरुद्धं यदि वा यथा कोऽपि मृतः खाधुरिमय समये देवत्वेनोत्पद्यते । तस्मिन् समये नत्वेन विनश्यति । जीवत्येन पुनर वतिष्ठते। एवमिहापि युगपद्धमन्तरेणोत्पाददोन विरुध्यन्ते नस्येकेनैव धर्मेण युगपसे मुज्यन्ते तदेवाह न तम्मियादि न पुनरेतत् युज्यते किमित्याह ( रिउयेत्यादि ) यस्मिन्नेव स Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६) अोहि अभिधानराजेन्द्रः। ओहि मये अडल्या ऋजुता जायते। तस्मिन्नेव समये तस्या ऋजुताया गतार्था एव । अधसितमुत्पादप्रतिपातद्वारम् विशे। स्था। नाशो भाविवक्रत्वस्य भवनं चेति । एवं हि ऋजुता ऋजुत्व (७) अवधिप्ररूपणे दएमकः । धर्मेणोत्पद्यते । तेनैव च धर्मेण तस्मिन्नेवोत्पत्तिसमये सा विन- णेरझ्याणं भंते ! योही किं आणुगामिए अणाणुगामिए श्यतीत्यभ्युपगतं भवति । दूरविरुद्धं चैतत्कथमित्याह । पवमाणए हियमाणए पडिवाइए अपडिवाइए अवहिए मद्धत्तलाभनासो, जुज्जलानो य तस्स समएणं । प्रणवहिए । गोयमा ! अणुगामिए नो अणाणुगामिए नो जइ तम्मि चेव नासो, निव्वविणटे कुओ भवणं ॥ वठ्माणए नो पमिवाई अपमिवाई अवछिए नो अणवसब्बुप्पायाजावो, तदभावे य विगमो भवे कस्स । ट्ठिए । एवं जाव थणियकुमाराणं पंचिंदियतिरिक्खजोउप्पायवयानावे, कावहि सव्वहा सुमं ।। णियाणं पुच्छा । गोयमा ! अणुगामिए वि जाव अण्वट्ठिलब्ध आत्मनो लाभः सत्ता येन तल्लुब्धात्मलाभं प्राप्तस्वसताकं तस्यैवेत्थंभूतस्य वस्तुनो नाशो युज्यते । न ह्यनासादित ए वि । एवं मणसाण वि वाणमंतरजोसियवेमाणियाणं सत्ताकस्य खरविषाणस्य विनाश इति वक्तुं युज्यते । श्रात्म- जहा परश्याणं। लाभश्च तस्य वस्तुनः समयेन भवति । यदि च यस्मिन्नेव स-| प्रानुगामिकादिचिन्तायां नैरयिकजवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमये ऋजुत्वधर्मेण ऋजुता समुत्पद्यते । तस्मिन्नेव समये तेनैव मानिका अनुगामिका प्रतिपात्यवस्थिताऽवधयोन त्वनानुगामिधर्मेण सा विनश्यतीत्यभ्युपगम्यते । तर्हि एवं सर्वदैवोत्पत्त्य- का वर्धमानहीयमानप्रतिपात्यनवस्थितावधयस्तथाभवस्वानाभावानित्यविनष्टे कदाचिदध्यनवाप्तात्मनाने वस्तुनि कुतो नव- व्यात तिर्यकपञ्चेन्द्रियाणां त्वष्टधावधिरिति । प्रशा० ३३ पद । नं सत्तारूपं न कुतश्चिदित्यर्थः । ततः किमित्याह । “सबुपाये- (0) अवधिकेत्रप्रमाणं पनकजीवस्थावगाहना अग्निजीवत्यादि" | तत इत्थं सर्वदैव विनाशाघ्रातत्वान्नित्यमेव वस्तूनामु- प्रमाणं च । त्पादाभावः प्रसृजति । तथा च सति कस्य विगमो विनाशो अथवाऽवधिवेत्रप्रमाणमनिधित्सु ष्यकार एव प्रस्तावनामाह। युज्यते । श्तरथा तु कस्य विनाश ति भावः । उत्पादव्यया- ओहिस्स खेत्तमाणं, जहएणमुक्कोसमझिमं तत्थ । नावे च (कावहित्ति) कावस्थितिस्तथा हि । यदुत्पाद पाएण तदादीए, जं तेण जहन्नो वोच्च । व्ययान्य तस्यावस्थितिरपि नास्ति यथा खरविषाणस्य त अवधेषियनूतं केत्रं तस्य मानं प्रमाणं जघन्यमुत्कृष्टं मध्यम जून्यं च वस्तूक्तयुक्तेर्नवतः समापततः कुतस्तस्यावस्थिति च भवति । तत्र प्रायो यद्यस्मादादौ प्रथमतस्तज्जघन्यं केत्रं रिति । एवं च सति सर्वथा शून्यं जगत्त्रयामिदं प्राप्नोति । प्रवति । जघन्यकेत्रविषयावधिः प्रायेणादौ समुत्पद्यते । तेन कातथा पुत्पादब्ययध्रौव्यरहितं वस्तु नास्त्येव सत्वाद्ययोगात् ।। रणेन जघन्यमेव केत्रप्रमाणमादौ वये प्रति गाथाषट्रार्थः । यखरविषाणवदिति अग्नेतननियुक्तिगाथासंबन्धं भाष्यकार: स्वत | थाप्रतिक्षातमेवाह । एव कुर्वनाह। जावइया तीसमया-हारगस्स सुमहस्स पणगजीवस्स । दव्वाईणं तिएह, पुव्वं भणिो परोप्परनिबंधो। ओगाहणा जहन्ना, श्रोहीखेत्तं जहानं तु ॥ इह दव्वस्स गुणेणं, भणइ दव्वासिओ जं सो ॥ यावती यावत्प्रमाणा श्रीन समयानाहारयतीति त्रिसमयाहारअत्रैव पूर्व "संखेजमाणो दब्वे नागो योगपनियस्स बोधब्बो"। कस्तस्य सूदमनामकर्मोदयात्सदमस्तस्य पनकश्चासौ जीवश्च इत्यादिना व्यक्केत्रकालनक्कणत्रयस्य परस्परनिबन्धोऽनिहितः। पनकजीवो वनस्पतिविशेषस्तदवगाहन्ते यस्यां प्राणिनः शह तूत्पादप्रतिपातद्वारमेव प्रसङ्गतो व्यस्यैव गुणेन सहाय- सावगाहना तनुरित्यर्थः । जघन्या सर्वस्तोका अवधेः क्षेत्रमवमुच्यते। न तु केत्रकाबयोर्यतो व्याश्रितोऽसौ । ननु केत्रकाला- धिक्केत्र जघन्य सर्वस्तोकं तुशब्दोऽवधारणे तस्य चैवं प्रयोगः श्रित इति गायासप्तकार्थः। तदेवाह । ७५७ । अवधेर्विषयनूत केत्रं जघन्यमेतावदेवेति नियुक्तिगाथासंकेपार्थः। दव्वा न असंखेजे, संखेज्जेया वि पज्जवे लहा। अथ सांप्रदायिकार्थव्याख्यानपरं भाष्यम् । दो पजवे मुगुणिए, लहइ एगाउ दवाड ॥ जो जोयणसाहस्सो, मच्छो नियए सरीरदेहम्मि। शह परमाएवादिद्रव्यमेकं पश्यन्नवधिज्ञानी तत्पर्यायानेकगुण- उववजंतो पढमे, समए संखिवइ आयाम ॥ कालकादीनुत्कृष्टतोऽसंखयान् विमध्यमतः संख्येयान् लभतेप्रा पतरमसंखिजंगुल-भागतj मच्छदेहवित्थिमं । मोति पश्यतीति तात्पर्यम् । जघन्यतस्तु द्वौ पर्यायौ द्विगुणिती एकस्मात् जब्यात लनते । सामान्यतो वर्णगन्धरसस्पर्शलक वीए तइए मूई, संखि विन होइ तो पणो ।। णांश्चतुरः पर्यायान् जघन्यत एकस्मिन् अन्ये पश्यति। न त्वेकगु उववायाभो तइए, समए ज देहमाणमेयस्स । णकालकादीन बहूनित्यर्थः । एकाव्यगतानुत्कृष्टतोऽप्यनन्तपर्या- तोयदबजायण-मोहिक्खित्वं जहां तं ॥ यान्न पश्यति । किं स्वसंख्येयानेव अनन्तेषु अनन्तांस्तान्पश्य- यो मत्स्यो योजनसहस्रो योजनसहनायामःस्वदेहस्यैव बाह्यत्येवेति नियुक्तिगाथार्थः । अथ भाष्यम् । देशेऽनुत्पद्यमानः प्रथमे समये आयाम संकिपति । तं च संक्षिपन् एगं दव्वं पिच्छ, खंध मणुं वा सपज्जवे तस्स । प्रतरं करोतीतिशेषः । कथंनूतमित्याह ( असंखेजंगुलनागतनकोसमसंखिजे, पेच्छएको मखेजे। गुंति) बाहुल्येनाङ्गनासंख्येय नागसूदममित्यर्थः। पुनरपितत्कथं नूतमित्याह । मत्स्यदेहविस्तीर्णशरीरान्तःसंबन्धत्वादूर्वाधस्तिर्यदो पज्जवे मुगुणिए, सव्वजहमेण पेच्छये ते य । क यावान्मत्स्यदेहस्य विस्तरस्तावांस्तज्जीवप्रदेशप्रतरस्यापीत्यवमाया चउरो, नाणं ते पिन्छइ कया । थः। एवं चायामतो विष्कम्नतश्च मत्स्थशरीरपृथुत्वतुल्योऽगुला Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४७) प्रोहि अभिधानराजेन्डः। ओहि संख्येयनागबाहुल्यश्चायं प्रतरो नवतीत्येष प्रथमसमयब्यापार कजीवः सूक्ष्मतरः मूक्ष्मतमश्च सर्वदेहेज्यो भवति इति । अथ ननु च प्रथमे समये आयाम संकिपतीत्येतदेवोक्तं यथोक्तप्रतर- किं त्रिसमयाहारक इत्यस्योत्तरमाह । करणं तु कुतो बन्यत इति चेदुच्यते । अनन्तरे हितीयसमये पढमविईए अतिसएहो, जमइत्थूलो चउत्थयाईसु । तत्केपस्य भणनात्तस्य च करणपूर्वकत्वादिति "वीपत्ति सं तइयसमयम्मि जोगो, गहिओ तो तिसमयाहारो॥ खिविउ मि"त्यत्रापि संबध्यते ततो द्वितीयसमये तं प्रतरमुन्नयतः यस्मात्प्रथमहितीययोः समययोरतिसूक्ष्मो भवति । चतुर्थासंक्तिप्याकलासंख्येयभागबाहुल्यं मत्स्यशरीरपृयुत्वायामां सूचि दिषु च प्रतिस्पूनः संपद्यते । तृतीयसमये तु योग्योऽतस्त्रिसकरोतीत्यध्याहारः । अत्राप्यनन्तरतृतीयसमये सूचिसंक्पानिधानात् तस्य च तत्करणापूर्वकत्वात् सूचीकरणमध्याट्ठियते । मयाहारकग्रहणमिति । अत्र केषांचिन्मतमुजावयन्नाह ॥ (तईत्ति) ततस्तृतीयसमये तामपि सूचि संक्विप्याङ्गलासं केई दो झससमया, ताओ पणगत्तणोक्वायम्मि । ख्येयभागमात्रावगाहनो भूत्वा निर्जीर्णमत्स्यनवायुरुदीर्णपरजवा- अह तिसमइओ आहा-रओ य सुहमो य पणो य॥ युश्चाविग्रहगत्या मत्स्यशरीरस्यैवैकदेशे पनकःसूक्ष्मवनस्पति- उववाए चेव तो, जहन्नो न सेससमएसु । जीवविशेषो जवति । अस्मादुत्पादसमयात तृतीयसमये यद्दे तो फिर तदेहसमा, णमोहिखित्तं जहन्नं तु ॥ हमानमेतस्य पनकस्य तत्किमित्याह (ओहिखित्तं जहम तमिति ) तजघन्यमवधेर्विषयनूतं केत्र किं स्वरूपं तत् ज्ञेयम् । त्रिसमयाहारकत्वविषये केचनाचार्या व्याचकृते । यात द्वौ ध्यभाजनं तस्यावधे.यानि ग्राह्याणि यानि व्याणि तेषां भा-1 तावग्झषस्य मत्स्यसंबन्धिनौ आद्यसमयौ गृह्यते । आयामसंहाजनमाधारजूतमतेने तज्ज्ञेयद्रव्याधारत्वेनैव केत्रमवधेर्विषय उच्य रमतरकरणलकणः प्रथमः सूचि तु यत्र करोति स द्वितीयः । ते । ननु साक्वात्तस्यामूर्तत्वादवधेस्तु मूर्तविषयत्वादिति पत- तृतीयसमयस्तु तां संक्तिप्य पनकत्वेनोत्पादो भवति । ततश्च माथात्रयव्याख्यातार्थसंवादि चोक्तं वृकैः " योजनसहस्रमानो, प्रयः समया यस्यासी त्रिसमयः अविग्रहेणोत्पत्तराहारकश्च । मत्स्यो मृत्या स्वकायदेशे यः। उत्पद्यते हि सूदमः, पनकत्वेनेह स एवं च सति प्रत्युतातिसूक्ष्मश्च पनकश्चायं सिको भवति । ग्राह्यः॥१॥ संहत्य वाद्यसमये, सह्यायामं करोति च प्रतरम्।सं- तथा च स“तिसमयाहारगस्स सहमस्स पणगजीवस्सेति" ख्यातीताख्याङ्गन-विभागबाहुल्यमानं तु ॥२॥ स्वकतनुपृषु नियुक्तिकारवचनमाराधितं जवति । किं चेह यथासूमः सूक्ष्मत्वमात्र,दीर्घत्वेनापि जीवसामर्थ्यात्। तमपिद्वितीये समये, संहृत्य तरोऽसौ भवति । तथा कर्तव्यम् एतश्चास्मिन् व्याख्याने स विकरोत्यसौ सूचिम् ॥ ३॥ संख्यातीताख्याडल विभागविष्कम्न शेष सिद्ध्यतीति दर्शयति (उववाए चेवेत्यादि ) उत्पादसमय माननिर्दिष्टाम् । निजतनुपृथुत्वदैर्ध्या, तृतीयसमये तु संहृत्य ॥४॥ एव यतो यस्मात्तत्कोऽसौ पनकजीवो जघन्य इति । जघन्यावउत्पद्यते च पनकः, स्वदेहदेशे स सूक्ष्मपरिणामः ॥ समयत्रयेण गाहनो भवति । न शेषेषु समयेषु द्वितीयादिष्वीषन्महत्वाजतस्या-बगाहना यावती भवति ॥ ५॥ तावजघन्यमवधे-राल- घन्यावगाहनाश्च नियुक्ती प्रोक्तास्ततोऽतिसूक्मरवसिकेस्तस्यानम्बनवस्तुनाजनं केत्रम् । श्दमित्थमेव मुनिगण-सुसंप्रदायात्स स्तरोक्तस्वरूपस्य देहस्तद्देहस्तत्समानमेवमेतद् किमावधिविषयमवसेयम् ॥ ६॥ अत्र परः पृच्चति । नूतं जघन्य क्षेत्र भवतीति । अत्र भाष्यगाथामन्तरेणापि पूर्वकिं मच्छोत्तिमहबो, किं तिसमयमोदकोस वा सुहमो। टीकाकारलिखितं प्रतिविधानमुच्यते । तश्चैवं न युक्तमिदं केषांगहिरो कीस व पणओ, किं व जहणावगाहएओ ॥ चिद्याख्यानं त्रिसमयाहारकत्वस्य पनकविशेषणत्वेनोक्तत्वान्मकिमिति मत्स्योऽतिमहान् गृह्यते । किं वा त्रिसमयाहारकः तृ त्स्यसमयद्वयस्य च पनकसमयत्वायोगाद्योऽपीत्थमपि जघन्यावतीयसमये निजशरीरदेशोत्पत्तिमात्रो गृह्यते। किंवा सूक्ष्मः कि गाइनालाभनवणो गुण उद्भाव्यते। सोऽपि न युक्तो यस्मान्नेहातिमिति वा पनको जघन्यावगाहनको वा गृहीत इति । सूक्ष्मेणातिमहता वा किंचित्प्रयोजन किं ताई योग्यो न यो ग्यश्च स एव तद्धेतुभिदृष्टो यः प्रथमं जघन्यावगाहनस्तस्मिन्नेव अत्रोत्तरमाह। भवे समयत्रयमाहारं गृह्णातीत्यलं विस्तरणेति गाथानवकार्थः। मच्छो महबकाउं, संखित्तो जो य तीहिं समएहिं । तदेवमवधिविषयनूतस्य जघन्य क्षेत्रस्य परिमाणमुक्तमोत्कृटसो किर पयतविसेसे-ण मुहुमो व गाहणं कुणई ॥ स्य तदाह । साहयरासन्नयरो, सुहुमो पणओ जहन्नदेहो य। सम्बबहुअगाणिजीवा, निरंतरं जत्तियं नरिज्म । सुबहुविसेसविसिट्ठो, सएहयरो सबदेहसु ॥ खेत्तं सव्वदिसागं, परमोही खेत्तनिहिछो।। यो हि योजनसहस्रायामो महाकायो मत्स्यस्त्रिनिश्च समयै- | सर्वेन्यो विवक्तितकालावस्थायिज्योऽनजीवेज्य एव बहवः रात्मानं संक्तिपति । स किन प्रयत्नविशेषादतिसूक्ष्मामवगाहनां सर्वबहवः । न तु भूतभाविज्यो नापि च शेषजीवेज्यः कुतोऽसंकुरुते नान्यः अनेन किमिति। मत्स्यो महान् गृह्यते । तृतीयसम- जबादेवेति । अग्नयश्च ते जीवाश्च अग्निजीवाः सर्ववहवश्व ते अग्नियसंक्तिप्तश्चेत्येतस्योत्तरमदायि । दूरे च गत्वाऽन्यत्र यद्युत्पद्यते जीवाश्च सर्वबह्वम्निजीवा निरन्तरं सततं नैरन्तर्येणत्यर्थः। यावविग्रहेण च गच्छति तदा जीवप्रदेशाः किंचिद्विस्तर यान्तीत्यव- दिति यत्प्रमाणं केत्रमाकाशं वक्ष्यमाणविशिष्टसूचीरचनया रगाहना स्थूसतरा स्यादित्यविग्रहगत्या स्वशरीरदेश एवोत्पा- चिताः सन्तो भृतवन्तो व्याप्तवन्तः कानूतनिर्देशश्चाजितस्वादित इत्येतत्स्वयमेव अष्टव्यमिति । "कीसवासुहमो"इत्यादेरुत्तर- मिकास एव वदयमाणयुक्तधा प्रायः सर्ववहयोऽनजीया भवमाह"समयरा" इत्यादि । लणादपि श्लणतरस्तावद्भवति कः त्यस्यामवसर्पिण्यामित्यस्यार्थस्य ख्यापनार्थः । इदं चानन्तरोपनका कयं नूतः सूक्ष्मः जघन्यदेहश्च जघन्यावगाहनश्चेत्यर्थः। क्तविशेषणं केत्रमेकदिशमपि भवत्यत आह ( सव्वदिसागति) वस्तुतोऽर्थतात्पर्यमाह (सुबहु इत्यादि ) " जो जोयणसाह- सर्वदिशो यत्र तत्सर्वदिशम् अनन वदयमाणन्यायेन सर्वस्सो" इत्यायुक्तप्रकारेण सुबहुविशेषणविशिष्टो गृह्यमाणपन-| तः सूचीमणप्रमितं तदाह । परमश्वासाववधिश्च परमावधिः Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहि क्षेत्रमनन्तरख्यावर्णितं प्रभृताननजीवप्रमितमङ्गीकृत्य निर्दिष्टः । प्रतिपादितो महामुनिभिः । ततश्चावधेः पर्यायेणैतावत्केत्रमुत्कृतो विषयमित्युक्तं प्रयति । इति निर्बुक्तिगाथारार्थः । भावाथे तु सांप्रदायिका प्रतिपादकनाप्यमुखेन प्राप्यकार एवाह ॥ व्यापार सम्मभूमी जं तदारम्भा | सव्वव मस्सा होंति जियजिरिंगदकालम्मि || अयाघाते ऽनलजीवोत्पत्तेर्म हा वृष्टया दिव्याघाताभावे सर्वासु समस्त भरतरायत विदेहला पद कर्मभूमिषु सर्वघट्यो यादग्निजीवा जयन्ति इति प्रक्रमानुज्यते किमविशेषे ण सर्वदेव पतास्वेतेना जितजिनेन्द्रस्योपवणत्वादवसर्पिण्या द्वितीयतीर्थङ्करकाले ६त्यर्थः । किमिति तत्रैते बहवो जवन्तीत्याह । ( जमित्यादि ) मतदानातेषां बादशन्निजीवानां संज्ञानाचा रम्पराः सर्वबहवः सर्वेभ्योऽप्यतः तानागतेभ्यो बहवः प्रचुरा गर्नजमनुष्याः स्वनावादेवेति । किमेतेरे बाद सर्वदलीचपरिमाणं पूर्यते आहोश्वित् सूक्ष्मानि सह यदि ते सहा ते अपरिचि देव विशिष्टा इत्याह ॥ , उकोसया यहुमा, जया तथा सम्यगमगणी । परिमाणं संजय से बड़ा पुरणं कुणई ॥ तं उत्कृष्टश्च सुक्ष्माग्निजीवाः स्वनावत एव कथमपि यदा संजवन्ति । तदैवैतैर्वाद राग्निजीवैः सह सर्वबह्नग्निजीवानां परिमाणं भवति । इदमत्र हृदयम् । अनन्तानन्तास्ववसर्पिणीषु मध्ये स एव कश्चिद्धि तीर्थकरकालो गृह्यते । यत्र सूक्ष्माग्निजीवा - कृपदिनः प्राप्यन्ते दि भिर्मीलितैः सर्वबह्वग्निजीवानां परिमाणं भवति । तच्च संभवमात्रमाश्रित्य बुद्धया बोढा 'पद्मकाररचनया व्यवस्थाप्यन्ते । ततश्च महुतर केचपुरणं करोति तत्र पञ्चानादेशाः । तादेश इति देवाद एकेकागासपण से जीवरया सावगाहे य । चरं संघणपरं सेडीको सुयाएसो || तैः सरसिपनो क थमित्याह । एकैकाकाशप्रदेशे एकैकाग्निजीवरचनया स्वावगाढे च देहासंख्येयाकाशप्रदेश काजी वरचनयेति । भवस्थापना । ० एतेषां नवानामझिजीवानां प्रत्येकमेके कायस्थापितानामयपरिचान्योऽपि न ००० व २ जीवा इत्यमेव स्थाप्यन्ते । एप कल्पनया सप्तविंशत्या सद्भावतस्त्व संख्येयैरग्निजी वैरेकैका १० काशप्रदेशयवस्थापनमद्वितीयोऽपि धन इत्यमे वयः । केवलमिहा संख्येयाकाशप्रदेशेष्वेकैकजी वो व्यवस्थाप्रदेश पकीयस्थापना संय देशात्मकस्यावगाहस्थापनया च प्रतरोऽपि द्विनेदः । सूचिरपि द्विभेदा तत्र घनप्रतरपश्चतुर्भेदः। पञ्चमश्चैकाकाशप्रदेशस्थापिनेकजण चिपकोऽपि न दोषानुषङ्गात् । तथा हि पञ्चविधयाऽप्यनया स्थापनया स्थापिता अग्निजीवाः षष्यविज्ञानिनोऽसत्कल्पनया भ्राम्यमाणाः स्तोकमेव के दीपः एकेकाकाशप्रदेश प यामागमविशेष रितीयदोषः असंस्कारादेशाम Q ० ० 0 ( १४० ) अभिधानराजेन्द्रः । ० ००० o महि रेणागमे जीवावगाह निषेधाद सत्कल्पनया प्रदेशावगाहोऽप्यस्त्वि ति चेन्नैवं कल्पनापि सति संभवेऽविरोधिन्येव कर्तव्या । किं वि त्याच्या पासोति ) असंख्येयाकाशप्रदेशअङ्गणस्थाचगा पचामेकैकजीवस्थापनेन यः सूणिः पक्कोऽयं श्रुते श्रादित्वाद्वाह्यः शेषास्तु पञ्चानादेशाः सम्भवोपदर्शनमात्रेणोत्वात्परिहार्थाः स्वं हि यथोचिरे के कीयस्था संख्येपाका प्रदेशावगात्तरं देवं स्पृशतीत्येको गुणः अवगाह विरोधाभावस्तु द्वितीयः वसृचिरवधिज्ञानिनः षष्वपि दिवसत्कल्पनया भ्रामिता सती Math लोकप्रमाणान्यसंख्येयखरामा नि स्पृशत्यत एतावदुत्कृष्टक्षेत्रमत्युक्तं प्रयतीत्यादि स्वयमेव वादयतीति अ त्र कश्चिदाह । घणपयरसेढिगारिणयं, ननु तुलं चिय विगप्पणा फीस । बट्टा कीरइ नाइ, पुरिसपरिक्लेवो भेओ ।। नन्वेकैकाकाशप्रदेशावगाढजी वघनप्रतरश्रेण्याक्रान्ताकाशप्रदेशानां संख्यारूपं गणितं तुल्यमेव तथाऽसंख्येयाकाशप्रदेशाच गाढजीवधनप्रतरखेएयाक्रान्ताकाशप्रदेशानामपि गणितं स्थाने परस्परं तुल्यमेव तथा हि यात एकेकाकाशप्रदेशायाहिनां जीवानां घनाकाशप्रदेशानाक्रामन्ति प्रतरोऽपि तेषां तावत एव नाक्रामति सूचिरपि तेषां तावत एव तान् स्पृशति । संप्रसारित नेत्रपाकान्ताका राप्रदेशयदित्येवमसंख्याका शप्रदेशावगाढजीवधनप्रतरश्रेण्याक्रान्ताकाशप्रदेशानामपि स्वस्थाने गणिततुल्यता भावनी येत्यतो ऽयगाह भेदद्वय भित्र घन ए वास्तु । प्रतरो वा सुचिर्वेति । षोढा तु विकल्पना बदभेदानां कल्पनं किमिति । क्रियते न युकेयमित्यभिप्रायः । अत्र ि राह । जायते उत्तरं किमित्याह । ( पुरिसप क्खैिवओ भेोति ) - यस्याः पचिकल्पनायाः भैः कथमित्याद पुरुषपरिशेषतः दमुकं मतिने कान्ताकाशप्रदेशानां संख्यामत्ययत्वे चिन्त्ये । इति किं ताई घनादीनां मध्याद्यः कश्चिचनाविशेयोनिः सर्वासु दिक्षु भ्रम्यमाणी बहुतर के स्पृशति स पवेद ग्राह्यः एवं च सत्यम मेदस्तथा हकप्रदेशाथगाढजीवधनो भ्रम्यमाणोति तस्मादशायमाढजीवधनोऽगुणं स्पृशति रातो ये देगा जीवप्रतरोऽसंख्येयगुणं, तस्मादप्यसंख्येयप्रदेशावगाढजन्तुप्रतरोऽसंख्येयगुणं, ततोऽप्येकैक प्रदेशावगाढं जीवसूचिर संख्येयगुणं तस्मादप्यसंख्येयाकाश प्रदेशावगादेके का झिजीवसूचिरपथि कामिनः सर्वासु दिनु भ्रम्यमाथा असंख्येयगुणं क्षेत्रं स्पृशति । तालोके लोकप्रमाणान्यसंख्येयाकाशखर मानिए ता वदधिरुक्षेत्र विषय संयुक्तमेवार्थ प्राप्यकार ग्राह निययावगाहणाग्गि- जीवसरीरावली समं तेणं । भामिव ओहिना शि देहपज्जतओ साइ || अगंतू लोगं, लोगागासप्पमाणमित्ताइ । बाई व असंखेज्जा-इं इमो हि खेतमुकोसं ॥ निजका आत्मीया कश्यासंख्येयप्रदेशात्मिका ऽवगाहना येषां तानि तथा तानि च तानि श्रग्निजीवशरीराणि च तेषामवली पङ्क्तिः । सूचिरवधिज्ञानिनो देइपर्यन्तात्समन्तात्सर्वासु Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोहि अन्निधानराजेन्द्रः। ओहि दिक बुच्या भ्राम्यति । स चालोकालोकप्रमाणमात्राएयसंखेयान्या | हारा श्यते (दोसु संखजत्ति) द्वयोरङ्गलावलिकयोः संख्येयो काशसरमानीति गम्यते। अतीत्य गत्वा स्पृष्ट्वा वा ति तिष्ठत्यु- भागौ पश्यति । अङ्गलसंख्येयभागमात्रं पश्यन्नावालेकायाः परमते।श्दमवधेरुत्कृष्टकेत्रविषय ति। आह । ननु रूपिद्रव्याएये संख्येयमेव भागं पश्यतीत्यर्थः। ( अंगुलमावलियंतोसि) श्रघावधिः पश्यतीति । गीयते केत्रं त्वमूर्तत्वात्कथं तद्विषय इत्याह । कलं पश्यन् क्षेत्रतः कालतः श्रावलिकान्तर्भिन्नामावलिका सामत्थमेतमेयं, जई दहव्वं हविज्ज पिच्छेज्ज । पश्यतीत्यर्थः । (आवलिया अंगुलपुतंति ) कालतः प्रावन य तं तत्य चिछज्जो -सो रूविनिबंधनो भणियो।। । लिकां वीक्ष्यमाणः क्षेत्रतोऽकुलपृथक्त्वं पश्यति । पृथक्वं च यदवधेरैतावत्केत्रं विषय उच्यते। तदेतत्सस्य सामर्थ्यमात्रमेव समयपरिभाषया द्विप्रभृत्या नवभ्यः सर्वत्र द्रष्टव्यमिति (हत्थंकीर्त्यते। कोऽर्थ इत्याह । यद्येतावत्केत्रे द्रष्टव्यं किमपि नवेत्तत्तदा मि मुस्तंतोत्ति। क्षेत्रतो हस्तप्रमाणक्षेत्रविषयोऽवधिःकालतो पश्येदवधिज्ञानीनच तद्रूष्टव्यं तत्रालोके समस्तिायतोऽयमव मुहर्तान्तभिन्नं मुहर्त पश्यतीत्यर्थः ( दिवसंतो इत्यादि ) काविस्तीर्थकरगणधरैः रूपिछव्यनिबन्धनोत्रणितः। तच्च रूपिलव्य लतो दिवसान्तर्भिनं दिवसं वीक्ष्यमाणः क्षेत्रतो गव्यूतविमलोक नास्त्येवेति आह । यद्येवं लोकप्रमाणोऽवधिभूत्वा यस्य षयो बोद्धव्यः (जोयणदिवसपुत्तंति ) योजनक्षेत्रविषयोऽपुरतो विशुद्धिवशतो लोकादहिरप्यसौ वर्धते । तस्य तद् वृके। वधिः कालतो दिवसपृथकक्त्वं पश्यति (पक्वतो इत्यादि) किं फलं लोकादहिव्याजावात् श्त्याशझ्याह । कालतः पक्षान्तभिन्नं पकं पश्यन् क्षेत्रतः पञ्चविंशतियोजनानि बकंतो उण वोहि, लोयत्य चेव पासइ दव्वं ।। पश्यति (भरहम्मि इत्यादि) भरतक्षेत्रविषयेऽवधौ कालतोऽमुहमयरं सुहुमयरं, परमोही जाव परमाणुं ॥ झुमासस्तद्विषयत्वेन बोझन्यः । जम्बूद्वीपविषये तु साधिको लोकात्पुनः बहिर्विशुद्धिवशाद्वर्धमानोऽवधिोकस्थमेवाधिक- मासः अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रलकणे मनुष्यलोके तु वर्ष संवतरं च पश्यति । कथं नूतं सूक्ष्मं सूक्ष्मतरं सूक्ष्मतमंच। याव- त्सरः रुचकाख्यबाह्यद्वीपविषयेऽवधौ वर्षपृथक्वं तद्विषयत्वेनात्परमावधिः सर्वसूक्ष्म परमाणुमपि पश्यतीति तस्तात्विक वगन्तव्यम् । वर्षसहस्रमित्यन्ये । इति नियुक्तिगाथात्रयार्थः । फलमिति। असोके तु लोकप्रमाणासंख्येयत्वं म्बएमेषु अन्यदर्श अथ भाष्यम् । नसामर्थ्यमेव तस्येति । अन्यकर्तृकीयां प्रक्केपगाथा सोपयोगेति खेत्तमसंखजंगुल-नागं पासत्तमेव कालेण । च व्याख्यातेति । तदेवं जघन्यमुत्कृष्टं वाऽभिहितमधधर्विषयभू श्रावलिए नागं लू-यमणागयं च जाणाइ । तं केत्रमेतस्माच्चान्यत्सर्व विमध्यममिति सामर्थ्यात् गम्यत एव । केवलं यद्यत्र विमध्यमे केत्रविशेषे कालमानं भवति । तत्थेव य जे दव्या, तेसिं चिय जेहवनिपज्जाया। यावति च कावे यधिमध्यमं केत्रं भवतीति तदभिधत्सुः श्य खेत्ते कालम्मि य, जोएज्जा दव्वपज्जाए ॥ प्रस्तावनामाह। संखेज्जंगुलभाए, आवलियाए विमुणइ त नागं । जणियं जहासमुक्को-सयं च खेतं विमज्झिम सेसं । अंगुल मिह पेच्छंतो, आवलियंतो मुणइ काझं ।। एयस्स कालमाणं, वोच्छं जं जम्मि खेत्तम्मि ॥ आवलियं मुणमाणो, संपुर्ण खेत्तमंगुलपुहुत्तं । गताथैव । नवरमुपलकणत्वादिह यावति काले यद्विमध्यम | एवं खेत्ते काले, काले खेत्तं च जोएज्जा ।। केत्रं भवतीत्यनिधास्यत ति अष्टव्यमिति गाथानवकार्थः । यथा प्रतिज्ञातमेवाह । गतार्था एव । नवर"मणागयं" चेत्यनागतम् । आह । नन्वमूर्ती अंगुलमावलियाणं, नागमसंखिज्ज दोसु संखेज्जा । क्षेत्रकालौ कथमवधिः पश्यति । मूर्तालम्बनत्वात्तस्येत्याह । (तत्येव ये इत्यादि) इदमत्र हृदयम् । अङ्गुलासंख्येयभागादिकं अंगुलमावलियंतो, आवलिया अंगुलपुहुत्तं ॥ केत्रं पश्यतीति कोऽर्थस्तत्रैवैतावति क्षेत्रप्रस्तुतावधिदर्शनयोहत्थम्मि मुहुत्तो, दिवसंतो गाउयम्मि बोधव्वो। ग्यानि पुलद्रव्याणि तान्येवासौ पश्यति । प्रावलिकासंख्येयजोयणदिवसपुहुत्तं, पक्खंतो पणवीसारो॥ भागादिकं कालं पश्यतीत्यत्रापि च कोऽर्थस्तेषामेव पुद्रलद्रजरहम्मि अफमासो, जंबुद्दीवम्मि साहिओ मासो। व्याणां ये प्रस्तुतावधेर्दर्शनयोग्याः पर्यायास्तान् भूतेऽनागते वासं च मणुयलोए, वासपुहुत्तं व रुयगम्मि ।। चैतावति कालेऽसौ वीक्ष्यते । इत्येवं सर्वत्र क्षेत्रे काले चाव धेविषयत्वेनोक्तम् । यथासंख्यं क्षेत्रगतानि योग्यरूपिद्रव्याणि अङ्गलं क्षेत्राधिकारात् प्रमाणाङ्गलं गृह्यते । अवध्यधिकारा कालगतांस्तद्योग्यांस्तत्पर्यायानायोजयेत् । क्षेत्रकालौ तु मन्दाः दुच्याङ्गलमिति च केचिदिति । असंख्येयसमयसंघाता- मोशन्तीत्यादिन्यायेनोपचारत एवोच्यते । इति भाग्यगाथात्मकः कालविशेष प्रावलिका । अङ्गुलं चावलिका चाङ्गलाब- चतुभ्यार्थः । लिके तयोरङ्गुलावलिकयोर्भागमसंख्येयम् पश्यत्ववधिज्ञानी संखेजम्मिन काले, दीवसमद्दा वि होति संखेज्जा। एतदुक्तं भवति । क्षेत्रमङ्गलासंख्येयभागमात्रं पश्यन् कालत कालम्मि असंखेज्जा, दीवसमुद्दा वुजइयव्वा ।। श्रावलिका असंख्येयमेव भागं पश्यत्यतीतमनागतं चेति क्षे- संख्यायत इति संख्येयः स च संवत्सरमासादिरूपोऽपि त्रकालदर्शनं चोपचारेणोच्यते । अन्यथा हि क्षेत्रव्यवस्थितानि भवत्यतस्तु शब्दो विशेषणार्थः कृतः । किं विशिनष्टि | संख्येदर्शनयोम्यानि द्रव्याणि तत्पर्यायांच विवक्षितकालान्तर्वर्तिनः योऽत्र वर्षसहस्रात्परतो गृह्यते ।अत एव पूर्वगाथायां “वासपश्यत्यवधिर्न तु क्षेत्रकाली मूर्तरुच्यालम्बनत्वात्तस्येति । सहस्सं व रुयगमिति" पाठान्तरं तस्मिन् वर्षसहस्रात्परतो वएवमुत्तरत्रापि सर्वत्र द्रष्टव्यम् । क्रिया चेह गाथात्रयेणाध्या- तिनि संख्येये कालेऽवधिविषयप्राप्ते सति क्षेत्रतस्तस्यैवावधे Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहि विषयतया द्वीपसमुषास्तेऽपि भवन्ति संख्यैयाः । श्रपिशब्दामहानेकोऽपि तदेकदेशोपीऽति तथा काले संख्येये पल्योपमादिलक्षणेऽवधिविषये सति तस्मै वा संख्येयकालपरिच्छेदकस्याधितः परिच्छेदकतया द्वीपसमुदाय मच्या विकल्पयितव्याः कदाचिदषः यदिह कस्यचिन्मनुष्यस्यासंख्येयद्वीपसमुद्र विषयोऽवधिरुत्पद्यते। कदाचित् महान्तः संख्येयाः कदाचित्यतिमहा नेकः कदाचिन्नु तदेकदेशोऽपि स्वयंभूरमणतिरोऽधि स्वयंभूरमापयमनुष्यवाद्याथधिर्वा योजनापेक्षया तु सर्वपक्षेषु श्रसंख्येयमेव क्षेत्रं द्रष्टव्यमिति नियुक्तिगाथार्थः । अथ भाष्यम् । काले संखए दी - सागराखड्या असंखेज्जा । जय शिवाय मला खेचं पुणे में असंखेज्जा | ताथैव । एवं तावत्परिस्थूरन्यायमङ्गीकृत्य क्षेत्रवृद्धौ कालवृकिरनियता कालवृद्धौ तु क्षेत्रवृद्धिर्भवत्येवेति प्रतिपादितम् । सांप्रतं यत्रकालजावापेक्षया यद्वृद्धौ यस्य वृद्धिर्भवति । यरूपवान वत्यप्रतिपादयश्रा ( १५० ) अभिधानराजेन्द्रः । काले चउकी, कालो इयव्वखेत्तवुडीए । बुडीए दब्बपज्जव अन्य खेताला ॥ काले श्रधिगोचरे वर्धमाने सतीति गम्यते (चनराहवुत्ति) नियमादीनां चतुर्णामपि वृद्धियति । काशात्सूक्ष्मसूक्ष्मत सूक्ष्मतमत्वात् केत्रद्रव्यपर्यायाणाम् । तथाहि कालस्य समयेsपि माने शेवस्य प्रनुप्रदेशावर्तन्ते तचावश्यं जायिनी प्रथाकाशप्रदेश देशव्यसुर्याद्रयवृद्धी च पर्यायवृद्धिर्भवत्येवं प्रतिद्रव्यं पर्यायबाहुल्यादिति । यद्येवं काले वर्धमाने शेषस्य क्षेत्रादिजयस्य किमंतीयमेय य मुचितं कथं चतुर्णामप्ययुक्तम सत्यं किंतु सामान्यवचनमेत तथाहि । देवदत्ते भुञ्जाने सर्वमपि कुटुम्बं मुङ्क्ते इत्यादि । अन्यथा यत्रापि देवदत्ताच्छेषमपि कुटुम्बं जुङ्क्ते इति वक्तव्यम् स्यादित्यदोया बुद्धीत क्षेत्रस्यावधिमोचरस्य । वृद्धावाधिये सति का विकल्पनीयो] बर्द्धते या न वा प्रभूते क्षेत्रवृद्धिगते वर्द्धते कालो न स्वल्य इति नायः । श्र न्यथा हि यदि क्षेत्रस्य प्रदेशादिवृद्धी कालस्य नियमेन समयादिवृद्धिः स्यातामात्रादिके वर्धिते क्षेत्रकालस्यासंख्येचा उत्सर्पिण्ययर्पियो वृरस्तथा च यति अंगुलीम उसपिणो तिनपत्रिका "गुल मित्यादि सर्व विरुध्येत तस्मात कालवृद्धिमंज नीयैव । यपर्यायास्तु तद्दृद्धौ नियमाद्वईन्ते एवेति स्वयमेव दृश्यमिति ( बुीय दव्यपज्जवेत्यादि ) द्रव्यपर्याय यो सत्यां क्षेत्रकाraat नक्तत्र्यौ विकल्पनीयौ बर्हेते वा न वा । तथास्थितयोरपि क्षेत्रकालयोस्तथा शुनाभ्यवसायतः क्षयोपशमी पर्यंत व ती व पर्यायविश्यं नाव प्रतिपर्यायानन्यानोपायः पर्याय चनुष्टयाभादिति पर्यायी यांन यति वान वेति स्वयमेव द्रष्टव्यम् । अवस्थितेऽपि हि अच्ये तथाविधकयोपशम पर्याया वर्धन्त इति नियुक्तिगाथार्थः । अथ नाष्यम् । काले पास या पति । खेसे फासो जो पति दयाया ।। जपणार खेत्तकाला, परिषदव्यभावे । - महि दब्बे व भावो नावे दव्वं तु जयहिज्जा ! अपि व्याख्यातार्थे भनोत्तरगाथासंबन्धनार्थ विनयमुन प्रश्नं कारयति । अरणोपनिषाणं, जहएणयाईणखित कालाणं । समयप्पएसमार्ण, किं तु होज्ज हीहियं ॥ अन्योन्यनिवरूयोर्जघन्यादिरूपयोः क्षेत्रकालयोः समयप्रदेशमानं किं तुल्यं भवेद्धीनमधिकं वेति । इदमुक्तं भवति । "अंगुमावलियाणागमखेत्यादि " ना प्रन्येन परस्परसंबन्धनावधिविषयतया प्रोक्तयोर्जघन्य योर्मध्यम योरुत्कृष्टयोश्च क्षेत्रकालयोः संबन्धिनां प्रदेशानां च समयानां संख्यामाश्रित्य यन्मानं तत्परस्परं कि तुल्यमधिकं वा भवेदिति सर्वत्र प्रतियोगित्वावलिका संख्येयनागादेः कासादसंख्येयगुणमेव यतः प्राह सुमो य हो कालो, ततो मुहमपरं हवइ खेनं । अंगुललेडीमिथे, उसपिणीओ असंखेजा || सूक्ष्मस्तावत्को प्रति यस्मात्पलपत्रराने प्रतिपदम संख्याः समयान्तस्यागमे प्रतिपाद्यते । न चातिमत्वेन ते पृथग्विभाव्यन्ते । तथापि ततः कालात्सूक्ष्मतरं भवति । क्षेत्रं यस्मादश्रेणिमाले क्षेत्रे प्रतिप्रदेशं समयगणनया प्रतिप्रदेशपरिमाणमवसर्पिण्योपस्ती कृद्भिरुताः । इदमुक्तं भवति माया प्रदेशराशिः स प्रतिसमयं प्रदेशापदारेणापयमाणोऽसंख्येयाय सर्पिणीभिरपद्रियते इति नियुक्तिगाथार्थः । अथ भाष्यम् । खेत्तं बहुयर मंगुल-सेढी मित्ते पएसपरिमाणं । जमसंखेज्जासप्पिणि, समयसमं योवओ कालो || तार्थैव च । ननु कानात क्षेत्रं सूक्ष्ममित्यवगतम् । क्षेत्रात्तु जावकथंतादिति कथ्यतामित्याशाला - व्यावानां यथोत्तरं सूक्ष्मत्वोपदर्शनार्थमाह । " कालो वित्तं दां, भाषो यजदुत्तरं मुहममेया । योवा असंखाता संखानमोहि विसयाम्प ॥ फालादयो यथोत्तरं सुमभेदाः समनुमीते । कुती यत-सश्रावधिविषयस्वप्रतियोगिया स्तोकः कालो जणितः ततः शेषमसंख्येयगुणं ततोऽपि इव्यमनन्तगुणं पर्यायास्तु "दव्या ओ संत्रे, संजये विपशेष सहर" इति वचनात्। इष्यादसंयगुणायति तदेव व्यक्तीकृत्य प्राययति । सव्त्रमसंखेज्जगुणं, काला खेत्तम। हिविसयम्मि । अवरोप्परसंव, समयपएसप्पमाणेणं ॥ खेत पर सेहिंतो, दव्वमनंतगुरिणयं परसेहिं । दोदितो भाचो संखगुणो संखओ वा ।। गाथाद्वयमपि गतार्थम् । नवरं यस्मात्सर्वमप्यङ्गुला संख्येयनागादिकं केलं प्रदेशरावलिकासंख्येय भागादेः कालादेस्तत्समयानाचित्यासंख्येयगुणमयचिविषये प्रदेशेयस्तद्रव्यं प्रदेवैरनन्तगुणमित्यादि । तस्मात्कादयः स्तोकादितया अनुमेया इति । अथ पूर्वोक्तस्य निगमनार्थमुत्तरस्य च प्रस्तावनामा नथियं खेचपमा सम्हाणमिवं भणामि दव्यमत्रो। से फेरिसमारंभ, परिणित्यो पिमव ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहि अन्निधानराजेन्छः। श्रोहि भाणितं जघन्यादिनेदं विविधमवधिवेत्रप्रमाणम् । विशे० । लध्वगुरुबघु च अव्यमवधेः प्रथमं पश्यतीति पूर्वमुक्तम् । तत्र (ए) अवधिविषयस्य व्यस्य मानम् । गुरुत्रघुव्यारम्भस्य चावधेर्यत्स्वरूपं भवति। तद्दर्शयन्नाह। सांप्रतं तस्य जघन्यादिभेदस्य केत्रस्य यदङ्गलासंख्येयभागादिकं गुरुलघुदवारको, गुरुलघुदवाई पिच्चियं पच्छा । मानं तेन मितं परिच्छिन्नं उज्यमत ऊर्च भणामि । व्यावस्थाना- इयराइं कोइ पेच्छइ, विसुकमाणो कमेणेव ।। पेक्कमेव केत्रस्य जणनात् । अन्यथा हि मूर्तविषये अवधौ प्रका अगुरुसघुसमारको, उहूं वह कमेण सो नाहो। न्ते किमत केत्रभणनेनेति भावः। तच अव्यमारम्ने प्रस्तावने कीदृशमवधेविषयो भवति । परिनिष्टानेऽवसाने विमध्ये वा की वळतो चिय कोइ, पिच्छद इयराइ सयएहं ।। दृशमित्यवं भणामि । इति गाथापचकार्थः। स्वप्रतिज्ञातमेवाह । गुरुलघुषव्यारब्धोऽवधिस्तैजसप्रत्यासन्नव्यारब्ध इत्यर्थः । तेयाभासादवाण-मंतरा एत्थ सभा पट्ठवओ । किमित्यत्रोच्यते। वर्धमानोऽधस्तात्तान्येव गुरुबघून्यौदारिकादि व्याणि दृष्ट्वा कश्चित्पश्चाद्विशुष्मानक्रमेणैवागुरुनधूनि जापागुरुमहुआ गुरुलदुयं, तं पि य तेणावतिहाई ॥ दिव्याणि पश्यति । यस्तु न विशुद्धिमासादयति । स तेष्वेव तैजस च भाषा च तैजसभाषे तयोईव्याणि तेषां तैजसनाषा गुरुमघुषव्येषु कियन्तं कासं स्थित्वा ततः प्रतिपतति । यस्त्वगुव्याणामन्तरादपान्तराले (पत्थत्ति ) अचान्यदेव तदयोग्य रुबघुषव्यव्ययसमारब्धोऽवधि षाडव्यारब्ध श्त्यर्थः। स ऊर्ध्वव्यं लभते पश्यति । प्रस्थापकोऽवधिज्ञानप्रारम्भकोऽवधिप्रति मेव क्रमेण वर्धते नाधस्तादुपरिवीन्येवागुरुलघूनि भाषादिषपातीति यावत् । किं विशिष्टं तदित्याह । गुरुलध्वगुरुत्रघु वेति ।। व्याणि पश्यति । कश्चित्तथाविधगुद्धमाने वर्धमान एव(सयपहमि गुरुलघुपर्यायोपेतं गुरुनघु, अगुरुनघुपर्यायोपेतं त्वगुरुसध्विति । त्ति) युगपदितराएयपि गुरुमघून्यौदारिकादीनि पश्यति। विशे। तत्र तैजसद्रव्यासन्नं गुरुमधुभाषाव्यासन्मगुरुलञ्चिति । तदगि ( अगुरुजघुशन्दे गुरुलध्वादिप्ररूपणा कृता) चावधिकानं तदावरणोदयात्प्रतिपतत्तेनैवोक्तस्वरूपव्येणोपन (१०) केत्रकालयोर्विषयत्वमानमाह । ब्धेन सता निष्ठां याति प्रतिपततीत्यर्थः। अपि शब्देन चैतज्ञाप ननु पूर्व कर्मद्रव्यदर्शिनः प्रत्येक लोकपल्योपमन्नागाः संख्येयति प्रतिपातिन्यवधिकानेऽयं न्यायो न चेतदवश्यं प्रतिपतत्ये या विषयत्वनोक्ताः । अत्र तु कार्मणशरीरदर्शिनः किमिति स्तोवेति नियुक्तिगाथार्थः। को केत्रकामा विषयत्वेनोक्तौ । अत्रोच्यते । पूर्व कर्मद्रव्याणि अथ भाष्यम् । कर्मवर्गणागतानि जीवेन शरीरतयाऽबद्धान्युक्तानि ! अत्र तु तदू. पट्ठवओ नामावहि, नाणस्सारंजओ तयाईओ। पतया बद्धानि गृहीतानि अबकेन्यश्च बकानि बादराणि भवउनया जोग्गं पेच्छइ, तेयानासंतरे दव्वं ।। न्ति । अच्युततन्तुन्योऽच्युततन्तुषु तथादर्शनादतोऽत्र कामगुरुमघुतेयासन्न, नासासम्ममगुरुं च पासेज्जा । णशरीरदर्शिनः स्तोकी केत्रकालो विषयत्वेनोक्ताविति । प्रारंजे जं दिडं, दट्टणं पडइ तं चेव ।। अत्र जाष्यम् । एयाइं जो कम्म य, दव्वेहिंतोत्ति थूलतरयाई। गाथाद्वयमपि गतार्थम् । नवरं नामेति शिष्यामन्त्रणे तैजसद्व्या सन्नं गुरुसघुनापाव्यासन्नं त्वगुरुनधुपश्येदिति। तैजसनापाद्र तेयाइयाइं तम्हा, योवयरा खित्तकालत्थ ।। ब्याणामन्तरे तद्योग्य व्यं पश्यतीत्युक्तम् । अतो विनेयः पृच्छति ।। पतानि यतस्तैजसादीनि तैजसशरीरकार्मणशरीरतजसवर्गतेयाभासाजोगं, किमजोगं वा तयंतराले जं। णाजव्यनापाद्रव्याणीत्यर्थः। कार्मणशरीरयोग्यवर्गणान्यज्यो ऽतिस्थूलतराणि बादराणि तस्मात्तौ कतरौ केत्रकासावत्र प्रोओरालियाइतणुव-गणाकम्मेणं तयं सज्जं ॥ काविति । प्रागेव नावितमिति भाष्यनियुक्तिगाथार्थः। आह ननु यसैजसशरीरजापाया योग्यमुचितं ब्यमयोग्यं वा तदन्त-| यथा जघन्यमध्यमावधी निर्दिष्टन्यायनासर्वरूपिछव्याविषयावु. राले यदुक्तं तत्कि कतमस्वरूपं कियत्प्रदेशं वेति । कथ्यतामनो- तौ तथोत्कृष्टावधिरपि पाहोश्वित्सर्वमपि कपिद्रव्यमसौ पश्यच्यते। हन्त? परमाणुव्रणुकच्यणुकादि स्कन्धोपचयादौ नारका-1 तीत्याशङ्क्याह। दिशरीरवर्गणाप्ररूपणक्रमेणैव तत्साध्यं प्ररूपयितुं शक्यं नान्य एगपएसोगाढं, परमोही लहइ कम्मगसरीरं । था इत्यर्थः । विशे०। (वग्गणाशब्दे शरीरवर्गणादि प्ररूपणा) प्रकृतं स्मरयन्नाहा लहइ य अगुरुलहुयं, तेयसरीरे नवपुहुत्तं ॥ जणियं तेयानासा, विमज्दच्चावगाहपरिमाणं । एकस्मिनाकाशप्रदेशेऽवगाढं स्थितमेकप्रदेशावगादं परमाणु झणुकाद्यनन्ताणुस्कन्धपर्यन्तं सर्वमपि द्रव्यमापरमश्वासावधिश्च मोहिनाणारंभो, परिनिहाणं च तं जेसु ॥ परमावधिरुत्कृष्टावधिरित्यर्थः । लन्नते पश्यति । तथा कार्मणतदेवं भणितं प्रतिपादितं किमित्याह । तैजसनाषयोर्विमध्ये शरीरं च बनते । हकप्रदेशावगाढमिति । सामान्योक्ती कथं अन्तरलि यानि तद्योग्यव्याणि तेषामवगाहपरिमाणमुपलक- परमाणुधणुकादिकं व्यं गम्यते । यावता एकप्रदेशावगाढं णत्वादनन्तपरमाणुप्रचितस्कन्धात्मकत्वादिकं तत्स्वरूपं चोक्तं कार्मणशरीरमित्युपानमेव कस्मान्न योज्यते । नैवं कार्मणशरीयेषु व्येषु किमित्याह । येष्ववधिज्ञानस्यारम्भः प्रथमोत्पत्तिा- रस्यासंख्येयप्रदेशावगाहित्वेनैकप्रदेशावगाहत्वासंभवादिति । कणः परिनिष्ठानं च इति पतनं तत्समयप्रसिद्धं येषु श्वमुक्तं अगुरुमघु च द्रव्यं सर्वमपि परमावधिः पश्यति । चशब्दात गुरुभवति । " तेयाभासादब्वाणमंतरा एत्थ लभ पट्ठवो "- लघु च सर्व पश्यति। जात्यपेर्क चैकवचनमन्यथा ोकप्रदेशावत्युपजीव्य पूर्व विनयेन पृष्टं तैजसनाषान्तराले यद्योम्यं कव्यं गाढानि कार्मणशरीराण्यगुरुनघूनि गुरुलधूनि च सर्वाएयपि तत्कतमस्वरूप कतिप्रदेशावगाढं चेति । अस्य शिष्यप्रश्नस्य गु- व्याण्यसौ पश्यतीत्यवगन्तव्यमिति । तथा तेजसशरीरविषयेरुणा औदारिकवर्गणाः प्ररूपयता दत्तमुत्तरमिति । श्ह च गुरु- ऽवधा कालतो भवपृथक्त्वं परिच्चेद्यतयाऽवगन्तव्यम् । पतऽक्त Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) अभिधान राजेन्द्रः । मोहि नवति । यस्तैजसशरीरं पश्यति स कालतो जवं पृथक्त्वं च द्वाज्यामारज्यानवज्यः सर्वत्र रूष्टव्यम् । इह च य एव हि प्राक् तेजस पश्यतः पल्पोपमसंरूपेषनागरूपोऽसंख्येयः काली निहितः । स एवानेन जवपृथक्त्वेन विशेष्यते । इदमपि च नवपृथक्त्वं तेनासंपेषकालेन विशेष्यते । नवपृथक्त्यमभ्य एव स पल्येोपमासंख्येयनागः कालो नाधिकः एतन्मध्य एव पृथकत्वं न दिस्तादिति आह नन्वेकप्रदेशाथगाढस्य परमाण्वादेरतिसूक्ष्मत्वात्तदुपलम्भे वादराणां कार्मणशरीरादीनामुपलम्नो गम्यत एवेति व्यर्थस्तेषां पृथगुपन्यासोऽथवा एकप्रदेशावगाढमित्ययि न वक्तव्यम् । रूपगतं बनते सर्वमित्यस्य वक्ष्यमाणत्वादत्रोच्यते । यः सूक्ष्मं परमायादि पश्यति तेन वादरं कार्मणशरीरायवश्यमेव यो या बादरं पश्यति तेन सूक्ष्ममवश्यं ज्ञातव्यमित्ययं न कोऽपि नियमो यस्मा "तेषाभासा दन्याणमंतरेत्यादि । वचनात्पशायगुरु पश्यन्नप्यवधिर्म गुरुधूपस्थूलमपि घटादिकं च मनः पर्यायानी मनोद्रव्याण्यपि सूक्ष्माणि पश्यति चिन्तनीयं घटादिस्यूनमपि न पश्यति । एवं विज्ञानविषयवैचित्र्य संभव सति संशयव्यवच्छेदार्थमेक प्रेदशावगाढग्रहणे सत्यपि विशेष्यविशेषणोपादानमदोषायैवेति । अथ च एकप्रदेशावगाढग्रहणेन परमारवादियं गृहीतम काणच तु 33 पर्यन्तं कार्मणशरीरपणेनापतिं कर्म वर्गणोपरितनयं तु सर्वमप्यगुरुलघुग्रहणेन संगृहीतम शब्दसूचितागुरुलघुग्रहणेन घटपटादिकं गृहीतमित्येवं समस्तपुसास्तिकायविषयत्वं परमावधेराविष्कृतं नवति । एवं च सति रूपगतं लभते सर्वमित्येतद्वक्ष्यमाणमस्यैव नियमार्थे ऽष्टव्यमेवेस्वेतदेव दि रूपगतं नान्यदित्य प्रपञ्चेनेति नियुकिगाथार्थः । अथ जाष्यम् । पे कम्म यचापि । सरओ गुरुलहूई पि ॥ सो जयपुहुतमेगजवे । गेसुं बहुतरए, समरिज्ज न न ए सई सव्वे ॥ गतायें पथ नरम (पगमवेति ) एकस्मिन् विनिये समुपधेऽवधी तीतमनागतं च पथग्भवपृथकत्वं पश्यति ( एगपरसोगार्ड, पे अगुरुन दव्वाणि य, ते व सरीरं पार्स, पास यदि यदि पुनत स्वाप्यातीत जयपृथक्त्वस्य मध्ये मनेकेभवेयानमुत्पन्नं स्यात्तदा तेन पूर्ववािन् भव क्स्त्वादधिकानपि च बहुतरामतीतानागतनवान् स्मरेत् । स्मृतिज्ञानेन जानीयात् । न तु पृथक्त्वान्तर्वर्तिन श्व तान् सर्वान् साहादधिज्ञानेन पश्यति भवत्यमेवात्स्य तीति भावः ॥ अत्र प्रेरकः प्राह ॥ एगपएसोगाढे, लिए किं कम्म यं पुणो जणियं । एगपरसोगाडे, दिहे का कम्मर चिंता ॥ अगुरुल हुगणं पिव, एगपसावगाहओ सिर्फ । सव्ववासिद्धमित्रो, रूवगयं जाइ सव्वं पि ॥ गतार्थैव। नवरमेकप्रदेशावगाढे भणिते किमिति । कार्मणशरीरं पुनरप्यवधिविषयत्वेन प्रणितम् कृतः कारणात्पुनने भणनीयमित्याह ( एगपएसोगाढे दिडे इत्यादि ) शेषमनिगूढार्थमेवेति । अत्र गुरुराह ॥ ओहि एगोगाढे लिए, विसेस सेसए जहारंभे । सहयरं पितो, परं न मृण पढाई ॥ जड़ वा मणो त्रियो नं-त्थि दंसणं सेसर ति शूले वि एगोगाढे गहिए, तह सेसे संसो होज्जा | उपसंहरन्नाह ॥ इय नाणविसयव चित्त संभवे संसयावणो यत्थ । जणि बेगोगा, के विसेसे पयस्संति ॥ केचित्कार्मणशरीगुरुच्यादीन् विशेषान् प्रदर्शयतिबाडुस्वामिन इति । प्रकारान्तरेण समाधानमाह ॥ गोगादरगहणे, गादओ कम्मियं ति जा सव्वं । दुवरं अगुरुस, च सह गुरुमईपि ॥ एवं वा सम्बाई, गढ़ियाई तेसि देवनियमत्यं । सम्यरूयगयंति य एवं चिय नावरमस्थि ॥ नियममेव दर्शयति ( इत्यादि तदेव परमाद के रूपगतं नातः परं किमपि रूपगतमस्तीति गाथानयकार्थः । तदेवं परमावधेयतो विषय उक्तः । अथ क्षेत्रकाली षयभूतौ प्राह । परमोड़ि व संखेचा, योगवित्ता समा असंखेखा । रूवयं लहइ सव्वं, खेत्तोत्रमियं अगणिजीवा । परमयासायवधिध परमादधिः। क्षेत्रो संस्थान लोकमा नाणि खयमानीति गम्यते । बजत इति संबन्धः । काम्नतस्तु समा उत्सर्पिण्यवसर्पिणीरसंखेख्येया एव लभते । द्रव्यतस्तु रूपगसे मूर्तजातं सर्व परमाण्वादिभिन्नं पुत्राका ययथेः । अनते पश्यति । मातस्त्वसंख्येयांस्ता पर्यायामिति। - कमयेयानि सोकमाषाणि समनि परमावाधिः पश्यतीतितदसंख्येयकं नूनमधिकं संवेदतो नियतमानार्थमादा उपमानमुपमनाचे निष्ठाप्रत्ययः क्षेत्रस्योपमितं क्षेत्रोपमितं प्रागभि दिसावाग्निजीवाशिवाचे - श्रतो येऽसंख्येया लोकाः प्रोक्तास्ते प्रागभिहितस्वावगाहनाव्यवस्थापितोत्कृष्टसंख्येय सूक्ष्मबादराग्निजीवसूच्या परमावधिमतो जीवस्य सर्वतो भ्रम्यमाणया यत्प्रमाणं क्षेत्रं व्याप्यते तत्प्रमाणाः समयसेवा इति मद नतु रूपगतं ते सर्वम गाथायामर्थतोऽमिद्दितमेवेति किमर्थ पुनरचानितिमयते विस्मरणस्य प्रेर्यमिदम भगतिविदितत्वाधवा अ रूपगतमित्येतत्प्रस्तुत क्षेत्रका सष्यविशेषणतया व्याख्यायते । तद्यथा । लोकमात्रासंख्येय खएडा संख्यातोत्सर्पिण्यत्रसर्पिणीप्रस्तुत क्षेत्रकाद्वयं रूपगतं रुपियानुगतमेवमतेन तु के कोरमूर्तत्वादयस्तु पिव्यविषयत्वादिति नियुक्तिगाथार्थः । 1 अथ नाष्यम् । खित्तमसंखज्जाई, लोगसमाई समा न कालं च । दव्वं तु सव्वरूवं, पास तेसिं वएज्जाए || क्षेत्रमवधिः पश्यति कियदित्याह । असंख्येयानि लोकसमानि कल्यानि खानीति गम्यते कार्य पास पश्यति किप तमित्याह । समा उत्सा: मसंदेया इति येनानापि संबध्यते । द्रव्यं तु सर्वरूपं पश्यति । जावं तु तेषामेव पण पर्यायान् वयमाणसंख्येयान् जानाति । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५३) अभिधानराजेन्द्रः । ओहि अथ प्रेरकः प्राह । तोवमाणमुत्तं, मग णिजीवेहिं किं पुणो भणियं । तं चिय संखाश्यायं, लोगमित्ताइ निदिडं ॥ आह । ननु यदानिजवैः क्षेत्रोपमानम क्षेत्रोपमितं तभिर्युक्तिकृता " सव्वबहुश्रगणिजीवा निरंतरं जन्तियं नरिजंसु " इत्यादिगाथायां प्रागेवोक्तं प्रतिपादितं किमर्थं पुनरप्यत्र “ खे तो मित्रं अगणिजीवा " इत्यनेन गाथावयवेन भणितम् । अत्रोत्तरमाद । ( तं चियेत्यादि ) तदेव प्रागुकमझिजीवैः क्षेत्रोपमानं क्षेत्रोपमितमिह परमो हि " असंखेजा " इत्यादिवचनादलोके लोकमात्राणि संख्यातीतानि खएमानि नवन्तीति नियतमानतया निर्दिष्टम् । न पुनरपूर्वतयेति भावः । इह " रुवगयलद्दर सम्यमि" त्येतद्भाष्यकृता " दव्वं तु सव्वरूवं पास " इति वचनादवधे - व्यतो विषयप्रतिपादनपरं व्याख्यानम् । अथ " एगपरसोगाढमि " स्यादिनैव अन्यतो ऽवधिविषयस्यो करवात् क्षेत्रकालयोरेव विशेषत्वलक्षणेन प्रकारान्तरेण व्याख्यातुमाह । हवा दव्वं जणि, इह रूवगयं ति खेत्तकालदुगं । रूवाणगयं पेच्छ, न य तं चिय तं जत्रो अमुत्तं ॥ अथवा " एगपएसोगाढं परमोडी लहर कम्मगसरीर " मिस्यादिनैवावधिविषयभूतं षव्यं भणितमतो रुपगतं लभते । सर्वमित्येतदवधेर्द्रव्यतो विषयानिधायकतया न व्याख्यायते । तर्हि कथमिदं नीयत इत्याह (इहेत्यादि ) इह यदसंख्येयलोकख - एमा संख्यातोत्सर्पिएयवसर्पिणीलकणं क्षेत्रकालद्वयमवधिविषयत्वेनोक्तं तद्रूपगतमिति रूपगतं लभते । सर्व कोऽर्थ इत्याह । रूपानुगतं तत्स्वरूपिश्रव्याणां दर्शनात् रूपिद्रव्यसंबन्धमेव प्रेक्कृते । न पुनस्तदेव क्षेत्रकालद्वयं केवलं पश्यति । यतस्तदमूर्तमूर्तविषयश्चावधिरिति । अथ विनेयानुग्रहार्थे प्रासङ्गिकं किञ्चिदनिधित्सुर्वदयमाणं व संबन्धयितुमाह ॥ परमोहिभाणविओो, केवलिमत्तो मुहुत्तमित्तेण । मक्खक्स मित्रो, भणियो तिरियाण वोच्छामि ॥ परमावधिज्ञानेन वेतीति परमावधिज्ञानवित् तस्य परमावधिज्ञान विन्दः । परमावधौ समुत्पन्ने स्वति किलान्तर्मुहूर्तेनाश्यमेव केवलज्ञानमुत्पद्यते । केवलज्ञानसूर्यस्य हृदयपदवीमासादयतः प्रथमप्रजास्फोटकaपं परमावधिज्ञानमतस्तदनन्तरमवश्यं भवत्येव केवलज्ञानभास्करोदयमिति । तदेवं प्रणितो मनुष्य संबन्धी कायोपशमिकोsवधिरिदानीं तिरश्वामनुवक्ष्यामीति गाथाचतुष्टयार्थः । यथाप्रतिज्ञातमेवाह । आहारंतपलंभो, उक्कोसेणं तिरिक्खजोणीसु । गाय जसमोही, नरपसु य जोयकोसो ॥ आहारक तैजसयोरुपलक्कणत्वाद्यान्यौदारिकवैक्रियाहारकतैजसद्रव्याणि यानि च तदन्तरालेषु तदयोग्यानि प्रव्याणि तेषां लाभः परिच्छेदः उत्कृष्टत स्तिर्यग्योग्यानि मत्स्यादिषु भवन्ति । एतद्रव्यानुसारेण क्षेत्रकालभावाः स्वयमभ्यूमा इति । तदेवं यदुक्तम् । " काउं भवपश्चइया खओवसमियाकाश्री वि" तत्र क्षायोपशमिकप्रकृतयोऽभिहिताः । विशे० । (११) भवप्रत्ययाद्देवनारकाणाम | अथ भवप्रत्ययाः प्रतिपाद्यास्ताश्च सुरनारकाणां भवन्ति । तश्राल्पवक्तव्यत्वात्प्रथमं नारकाणामाह ( गाउपत्यादि ) नरकेषु पुनर्नारकाणामुत्कृष्टावधिः । क्षेत्रतो योजनं पश्यति For Private ओहि जघन्यतस्तु गव्यूतं तत्र योजनप्रमाणो रत्नप्रभायां गव्यूतमानस्तु सप्तमपृथिव्यां द्रष्टव्यमिति नियुक्तिगाथार्थः । अथ भाष्यम् । ओरालय वेजव्विय, आहारगतेयगाइ तिरिएसु । नकोसे पिच्छर, जायं च तदंतरानेसु ॥ भणि खओवसमि, भवपचओ सचरिमपुढवीए । गायमुकोसेणं, पढमाए जोयरणं होइ ॥ गतार्थे एव । नवरं भणितः क्षायोपशमिकोऽवधिः । श्रथ भवप्रत्ययो भएयते ( स चरिमपुढवीपत्ति ) सचरमायां सप्तमपृथिव्यामुत्कृष्टतो गब्यूतं प्रथमायां योजनं भवतीति । विशे० । ऐरइया णं भंते ! केवतियं खित्तं ओहिला जातिपासंति ? गोयमा ! जहनेणं अगाजयं नकोसेणं चत्तारि गाउया तं श्रहिणा जाणंति पासंति ॥ 'नेरइयाणमित्यादि ' सुगमं नवरं जघन्येनाई गयूतमिति । सप्तमपृथिव्या जघन्यपदमपेक्ष्य उत्कर्षतश्चत्वारि गव्यूतानि रत्नप्रभायां गव्यूतपदमाश्रित्य | (१२) अधुना प्रतिपृथिवीविषयं चिन्तयन्नाह । रयणावपुढविणेरझ्या णं भंते ! केवइयं खेत्तं प्रोहिला जाणंति पासंति ? गोयमा ! जहां अट्ठाई गाउयाई उकासेणं चत्तारि गाउयाई । प्रहिणा जाणंति पासंति । सकरण्पना पुढवी ऐरइया जहोणं । तिनि गाडयाई उकोसे हि जाति पासंति । वालुयप्पनापुढविणेरया जहां इज्जाई गाउयाई उक्को सेणं तिनि गाउयाई श्रोहिणा जाणंति पासंति । पंकप्पा पुढविणे रणिया जहां दोहि गाउयाउको सेणं अड्डाइज्जाई गानयाई ओहिणा जाणंति पासंति। धूमप्पना पुढविणेरइयाणं पुच्छा, गोयमा जहणं दिव गाउयं उकोसेणं दो गाउयाई महिला जाणंति पासंति । तमापुढवि पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं गाउयं नकोसेणं दिवकुं गाडयं श्रहिणा जाणंति पासंति । श्रहे सत्तमाए पुच्छा, गोयमा ! जहां गाय उक्कोसेणं गाजयं श्रोहिणा जाणंति पासंति || प्रशा० ३५ पद । विशे० । तदेवं सामान्येन नारकजातिमधिकृत्याभिहितमुत्कृष्टमवधिक्षेत्रप्रमाणम् । श्रथ तदेव रत्नप्रभादिपृथिवीविभागेनाह । चत्तारिगाउ, अट्ठाई तिगाउयं चेव । अाजा दोन्निय, दिवमेगं च नरए || इह रत्नप्रभायां नरकावासेषु नारकाणां चत्वारि गन्यूतान्युत्कृष्टमवधिक्षेत्रप्रमाणं भवति । शर्कराप्रभायां वर्द्ध चतुर्थस्य येषु तान्यर्द्धचतुर्थानि गत्र्यूतानि वालुकाप्रभायां गव्यूतत्रयं, पङ्कप्रभायामर्के तृतीयस्य येषु तान्यर्कतृतीयानि गव्यूतानि, धूद्वेग, तमायां द्वितीयस्थाई यत्र तद्य गव्यूतं स समपृथिव्यां पुनर्नरकेषु नारकाणामेक गव्यूतमुत्कृष्टमवधिकेत्रप्र माणं भवतीति निर्मुक्तिगाथार्थः । सप्तस्वपि पृथिवीषु प्रत्येकमु प्रादधिकेत्र प्रमाणादर्द्धगव्यूते अपनी जघन्यमवधि क्षेत्रप्रमाणं भवति । तच नियुक्तिकृता नोक्तमतो भाष्यकारः प्राह । Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५४) अोहि अभिधानराजेन्द्रः। प्रोहि अछुटाईयाई, जहमयं अफगानयं ताइ । एमेणं अंगुलस्स असंखेज्जइजागं उक्कोसेणं । अहे सत्तमाए जं गाउयं तिभणियं, तपइ उक्कोसयजहएणं ॥ पुढवीए हेडिवे चरिमंते । तिरिय जाव असंखेज्जदीवसमुद्दे अझैत्कृष्टानि सार्धानि त्रीणि गव्यूतानि रत्नपनायां जघन्यमव. उर्ल जाव सयाई विमाणाई ओहिणा जाणंति पासति । धिक्केनप्रमाणं शर्कराप्रभायां त्रीणि गव्यूतानि । वालुकाप्रभाया अणुत्तरोववाइयदेवाणं भंते ! केवइयं खेत्तं ओहिणा जामईतृतीयानि, पङ्कप्रनाय ।धूमप्रनायां साई, तमायां गव्यूतं, णंति पासंति । गोयमा ! संभिन्नलागनालिं ओहिणा जासप्तमपृथिव्यामर्धगन्यूतं, जघन्यमवधिकेत्रप्रमाणम् । उक्तं च । अत्र चपूर्वम (रयणप्पनेत्यादि) आह । यद्येवमर्धगव्यूतं जघन्य- णंति पासंति ॥ मवधिकत्रं तर्हि "गाउयजहएणमोही नरएसुय"इत्येतद् व्याहत्य- नवनपतिन्यन्तराणां जघन्यपदे यानि पञ्चविंशतियोजनानि तात इत्याह (जं गायमित्यादि) यत् गव्यूतं जघन्यमुक्तं तदुत्कृष्टम- नि येषां सर्वजघन्यं दशवर्षसहस्रं प्रमाणमायुस्तेषां षष्टव्यानिन ध्ये यजघन्य तत्प्रति तदाश्रित्योक्तमित्यदोषः । श्दमुक्तं भवति । शेषाणामाहाच नाण्यकृत"पणवसिजोयणादसवाससहस्सिया सप्तस्वाप पृथिवीषु यद्गव्यूतचतुष्टयादिकमुत्कृष्टमवाधिकेत्र तन्म- विई जेसिमिति"मनुष्यचिन्तायामुत्कृष्टपदे यान्यलोके लोकप्रमाणध्ये सप्तमपृथिवीनारकाणां गव्यूतलक्षणमवधिोत्रं स्वस्थानमु- मात्राणि खण्मानितानिपरमावधिमपेक्ष्य अष्टव्यानि।तस्यैवैतावस्कृष्टमपि शेषपृथिव्युत्कृष्टापेक्तयासर्वस्तोकत्वाजघन्यमुक्तमिति।। द्विषयसंजवात् । एतत्सामर्थ्यमात्रमुपवर्यते । यद्येतावति केने गाथार्थः । विशे। अष्टव्यं नवति तर्हि पश्यति यावदिह स्कन्धानव पश्यति । यदा असुरादिविषयकंत्रज्ञानम् । पुनरलोकेऽपि प्रसरमवधिरधिरोहते। यथा यथाऽनिवृतिमासादयअसुरकुमाराणां जंते ! ओहणा केवतियं खेत्तं जाणं-1 तितथा तथा लोके सूदमान सूक्ष्मतरान् स्कन्धान पश्यति।यावदति पासंति । गोयमा ! जहएणणं पणवीसं जोयणाई उ- न्ते परमाणुमपि। उक्तं च । “सामत्यमेत्तमुत्तं, दटुब्वं जर हवेज पेकोसेणं असंखेजे दीपसमुद्दे ओहिणा जाणंति पासंति । च्छज्ज । नेतं तं तत्थर, गिज्जउ सो रूविनिबंधणो नणिो ॥व टुंतो पुण ओहिं, लोगत्थं चेव पासईदव्वं । सुमुहयरंसुमुहयरं,पनागकुमाराणं जहन्नेणं पणवीसं जोयणा नकोसेणं असं रमोही जाव परमाणु" इथभूतपरमावधिकवितश्च नियमादखजे दीवसमुद्दे अोहिणा जाणति पासंति । एवं जाव | न्तर्मुहूर्तेन केवलालोकलक्ष्मीमालिङ्गति । यत उक्तं " परमोहीथणियकुमारा पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं ते ! केवति नाणविप्रो, केवनमंतो मुहुत्तमेत्तेण" इति वैमानिकानां यत् जघन्यपदेऽङ्गलासंख्येयभागप्रमाणं केत्रमुक्तं तत्र पर आह । नन्वयं खेत्तं श्रोहिणा जाणंति पासंति । गोयमा! जहन्न अंगु-1 ङ्गासासंख्येयभागमात्रकेत्रपरिमितोऽवधिः सर्वजघन्यो भवति । लस्य असंखेजइभागे उकोसेणं असंखेजे दीवसमुद्दे म-1 सर्वजघन्यश्चादधिस्तियङ्मनुष्येष्वेव न शेषेषु यत आह । नागुस्सा णं भंते ! ओहिणा केवतियं खेत्तं जाणंति पास- ध्यकृत् स्वकृतटीकायाम् । उत्कृष्टो मनुष्येष्वेव नान्येषु मनुष्यति ति । गोयमा ! जहनेणं अंगुलस्स असंखेजश्नागं उ र्यम्योनिष्वेव जघन्यो नान्येषु शेषाणां मध्यम पवेति । तत्कथ मिह सर्वजघन्य उक्तः उच्यते । सौधर्मादिदेवानां पारजाविको:कोसेणं असंखेज्जाइं अलोए लोयप्पमाणमत्ताई खमाई प्युपपातकालेऽवधिः संभवति । स च कदाचित्सर्वजघन्योऽपि ओहिणा जाणंति पासंति । वाणमंतरा जहा नागकुमारा। उपपातानन्तरं तु तद्भवजस्ततो न कश्चिद्दोषः प्राह । दुःखमन्धजोइसियाणं नंते! केवतियं प्रोहिणा जाणंति पासंति । कारनिमग्नजिनप्रवचनप्रदीपो जिनभगणिकमाश्रमणः “वेमाजहन्नण वि संखेजे दीवसमुद्दे उक्कोसेण वि असंखेजे दी-1 णियाणमंगुस-नागमसंखं जहन्नो हो । नववाए परिभविश्रो, वसमुद्दे सोहम्मदेवा णं भंते ! केवतियं खत्तं ओहणा जाणं तनवजो हो तो पच्या॥ नहुंजाव सयाई, विमाणा इति" - वं यावत्स्वकीयानि विमानानि स्वकीयविमानस्तूपध्वजादिक ति पासंति । गोयमा ! जहन्नमं अंगुलस्य असंखेजइभा यावदित्यर्थः ( सं भिन्नलोगनालित्ति) परिपूर्णचतुर्दशरज्ज्वागं नकोसेणं अहे जाव इमीसे रयणप्यनाए पुढवीए हे. त्मिका लोकनामीमिति भावः । प्रशा०३३ पद । हिले चरिमंते तिरियं जाव असंखेज्जे दीवसमुद्दे उहूं जाव पुनर्विशेषतस्तदेव दर्शयन्नाह । सयाई विमाणाई अोहिणा जाणति पासंति । एवं ई- सक्केसाणा पढम, दोचं व सणंकुमारमाहिंदा । साणगदेवा वि सणकुमारदेवा वि एवं चैत्र नवरं अहे जा- तचं च बंजलंतग-मुक्कसहस्सारयचनत्थिं । व दोच्चाए सकरप्पभाए पुढवीए हिडिल्ले चरिमंते । एवं आणयपाणयकप्पे, देवा पासंति पंचमि पुढविं । माहिंदगदेवा वि । बंजलागलंतगदेवा तच्चाए पुढवीए हि- तं वेव आरणच्चुय, ओहीनाणेण पासंति ।। द्विवे चरिमंते । महामुक्कसहस्सारदेवा चउत्थीए पंकप्प-1 छटिमटिममझिम-गेविन्जा सत्तमि च वरिक्षा । जाए पुढवीए हिहिल्ले चरिमंते । आणयपाणयारणअ- संनिप्पलोगनालिं, पासंति अणुत्तरा देवा ॥ चुयदेवा अहे जाव । पंचमाए धूमप्पनाए पुढवीए हेडिब्बे तत्र शकश्चेशानश्च शकेशानौ सौधर्मशानकल्पदेवेन्झौतापक्ष क्विताश्चेह सौधर्मेशानकल्पनिवासिनः सामानिकादयो देवा चरिमंते। हेहिममजिकमगेवेज्जगदेवा अहे जाव उट्ठीए तमाए अपि गृह्यन्ते । ते ह्यवधिना प्रथमां रत्नप्रनान्निधानां पृथिवीं पपुढवीए देहिल्ले चरिमंते उवरिमगेविजगदेवाणं भंते ! श्यन्तीति क्रिया द्वितीयगाथायां च वक्ष्यति । तथा द्वितीयां च केवतियं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति । गोयमा ! जह- पृथिवीमग्रतः संबध्यते । सनत्कुमारमाहेन्द्रावपि तृतीयचतुर्थ Jain Education Interational Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोहि कल्पदेवाधिप। अत्रापि च तदुपहितास्तत्कल्पनिवासिनः सामानिकादयो देवाः परिगृहीयां पृथिवीमयपिना पश्यन्ति तथा तृतीयां व पृथिवी ब्रह्मलोकान्तकदेद्रोपतिरकल्पनयासिनो देवाः सामानिकादयः पश्यन्ति तथा शुत्रसहस्रारसुरेन्द्रोपहितास्तत्र पानोपा मानिकादयो देवाचतुर्थी पृथिवीं पश्यन्ति । तथा अनतप्राणतयो देवाः पश्यन्ति पञ्चमी पृथिवीं तामेारणात देवलोकयोः संबन्धिनो देवा विशुद्धतरां बहुपर्यायां चावधिज्ञानेन पश्यन्ति स्वरूपकथनमेवेदं न तु व्य पिज्ञानस्यैवेह विचारवितुं प्रस्तुतत्वाद्व्यवच्छेद्याभावादिति । लोकपुरीयास्थाने भवानि विमानानि प्रेवेयकाणि तत्राधस्त्य मध्यमत्रैवेयका विमानवासिनो देवा अधस्त्वमध्यमैवेयका उच्यन्ते । ते तमःप्रभाभिधानां पृथिवीं पश्यन्ति । तथा सप्तमीच पृथिवीमुपरितनभैवेषका देवाः पश्यन्ति । ततः संभित्रां चतसृण्यपि दिक्षु स्पशानेन ज्यानां कन्याचोलसंस्थानां लोकनाडीमवधिना पश्यन्ति । श्रनुत्तरविमानवासिनो देवाः एष क्षेत्रतो नारकाणां देवानां च भवप्रत्ययावधेर्विषय उक्तः । पतदनुसारतो इत्यादयोऽप्यवसेया इति तदेवमचो वैमानिकायप्रतिपाद्य विप्रतिपादयचाह । एए सिमखेला तिरियं दीवा य सागरा चैव । बहुबहुरमुरिमग्गा च सफप्पयूलाई । एतेषां शक्रादीनाम संख्या निर्वग्द्वी पाध जम्मूडीपादयः स मुद्राश्च लवणसागरादयः क्षेत्रतोऽवधिपरिच्छेद्यतयाऽवसेया इति वाक्यशेषः । तदेवं द्वीपसमुद्रासंख्येयकं बहु बहुतर पश्यति । उपरिमा एचोपरिमकाः उपर्युपरिवर्तिदेवलोक निवासिनो देवा इत्यर्थः । तथा ऊर्ध्वं स्वकल्पस्तूभादेव यावत् क्षेत्रं ते पश्यन्ति न परतः आदिशब्दात् ध्वजादिपरिग्रह इति तदेवं वैमानिकानामवधिक्षेत्र मानमभिधायेदानीं सामान्यतस्तद्वर्न्य देवानां प्रतिपादय (१२५) अभिधानराजेन्द्रः । संखेना जोषणा खलु देवाणं असागरे ऊ । सेण परमसंखिया, जहणार्य पणावी तु ॥ देवानामर्थ सागरोपमे न्यूने आयुषि सति संध्येयानि योज नानि अवधिपरिक्षेश्मयसेवं ततः परं संपूर्ण सागरो पमादिके आयुषि सति पुनरसंख्येयानि योजनान्ययधिक्षेत्रम गन्तव्यम् । तमुत्पथिक्षेत्रमथ जघन्यमाह जमि स्यादि) दशवर्षसहस्रस्थितीनां भवनपतिष्यन्तराणां जघन्य मवधिक्षेत्रं पञ्चविंशतियोजनं ज्योतिष्कवैमानिकानां तु जघन्यं माध्यकार एव चयतीति नितिगाथापञ्चकार्थः । अथाऽनन्तरगाथाभाष्यम् । माछियवज्जा, सामनमिता विउ विसेसो । महे तिरियम्पि, सहाणवसेा विणेो ॥ इदं च "संगवेजयोजनात्यिादि" कमाक्षेत्रमा मानिनां भवनपत्यादिदेवानां सामान्यमविशेषेण इएव्यम् । तथापि तूर्ध्वमवधिः तिर्यक्त्वं तेषां देवानां कयाचिद्दिशा हीनाधिकावधिक्षेत्रलक्षणो यो विशेषः स इहैव । " तप्पागारे पलग पडहगेत्यादि 'वक्ष्यमाणावधिक्षेत्र संस्थानवशेन विशेय इति । अत्र पदुक्तम्" जयं पछवीसं तु "चि| अधुना ज्योतिष्कवैमानिकानां जघन्यमभि चित्राह । 35 ओहि पणवीसजोयणाई, दसवरिससहस्सिया ठिई जेसिं । दुविहो वि जोइसाणं, संखेो विसेसेां ॥ मणियाणमंगुल - नागमसंखं जहमत्रो होइ । वाए परजवियो, तब्जवजो होइ तो पच्छा ॥ पञ्चविंशतियोजनानि वज्जघन्यमयथितेषयुकं येषां दे वानां दशवर्षसहस्रप्रमाणा स्थितिः तेषामेव विशेयम् । ते च भवनपतिभ्यन्तरविशेषा एव ज्योतिष्काणां पुनर्जन्य उत्कृष् द्विविधोऽप्यवधिः। स्थितिविशेषेण क्षेत्रतः संख्येयान्येव योजनानि विशेषादिकं भवति । ज्योतिष्का जम्योप पल्योपमाष्टभागस्थितिर्न तु दशवर्षसहस्राणि । उत्कृष्टतस्तु वर्षलकाधिकं पल्योपममतो बह्वायुष्कत्वेन महर्द्धिकत्वादुत्कृष्टं धन्योऽयवधिस्तेषां संख्पेषान्येव योजनानि भविष्यन्ति । केवलं जघन्यक्षेत्राएं बृहत्प्रमाणं इष्टव्यम्। " संजजो खलु देवानामित्यादि " मेवामीषामुत्कृष्टमवधिक्षेत्रमुकं के. वलं जघन्यभणनप्रस्ताषात् पुनरपि तदुक्तमित्यदोषः । वैमानिकानां तु जघन्योऽवधिः केत्रतोऽङ्गलासंख्येयमानो भवति । श्रयं चोत्पादसमय एव पारभाविको विज्ञेयः। ततः पश्चात्तावज्ञाविक हति गाथायार्थः । ७०१ अथायमेवाधिषाप्रादिभेदभिन्नो भवति । तानुपदर्शयन्नाह । उक्कोसोम, मस्सतेरिच्छिएमु य जसो । ढकोसलोगमियो, परिवाद परं अभिवाह || यह प्रज्यतः क्षेत्रतः कामतो जावतश्चोत्कृष्टोऽवधिमुनुष्येष्वेव न देवादिषु । तथा मनुष्यास्तिर्यञ्चश्च तेष्वेव जघन्यो न तु सुरनारकेषु तत्र च सोमतोऽसोगगताथ तम योऽसी समस्तलोकमात्रदर्शी उत्कृष्टः मात्रशब्दोऽवच्छेदार्थः स प्रतिपतनशीलः प्रतिपाती श्रप्रतिपात। च भवति । ततः परं येनालोकस्यैको ऽप्याकाशप्रदेशो दृष्टः। सोऽप्रतिपात्येव भवति । क्षेत्रपरिमाणद्वारेऽपि प्रस्तुत विनेयानुग्रहार्थ प्रतिवास्यतिपातिरूपाभिधानमित्यदोषः । इति नियुक्तिगाचार्थः ॥१०२॥ उक्त क्षेत्रपरिमाणद्वारम् । विशे० ॥ (१३) अथ संस्थानद्वारमनिधित्सुराह ॥ बुिगागारजहनो, वट्टो उक्कोसमायओ किंचि । अजमाको य, खेरायो अगठाणो ॥ सदाकारो जति तदेवाद ( योति ) सर्वतो वृत्त इत्यर्थः " जापश्या सिमाहारग स्सेत्यादिना " प्रतिपादितस्य पनकावगाहना क्षेत्रस्य एतदाकारत्वादिति । उत्कृष्टावधिस्तु परमावधिः किंविदायतः किमपि प्रदीघो न तु सर्वथा वृत्त इत्यर्थः जीवसुदेवमिच्रीरस्यापा मस्तकान्तं ब्रम्यमाणाया एताकारभावादिति । न जघन्यो माप्युत्कृष्ट मध्यम इत्यर्थः। अयं पुनः तः अनेकानि संस्थानानि यस्येत्यनेक संस्थानो भवतीति निखिगाचार्यः ७०३ श्रथ भाष्यम् ॥ पण वियागारो, तेरा जहन्नावही तयागारो | इयरो सेढिपरिक्खे, व श्रोत्रसद्दाणुवत्तीए ॥ ७०४ ॥ तर उत्कृट अधिमान्यदेदानुयामिजीव चिदायत इति शेषः । शेषं सुगमम् । ७०४ । विशे० ॥ अथ मध्यमावधेर्यदनेक संस्थानत्यमुक्तं तद्विशेषतो दर्शयन्नाह ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोहि भोहि अन्निधानराजेन्धः। नेरइयाणं भंते ! ओहि किं संगिए परमत्ते ? गोयमा ! अह सव्वकालनियओ, कादाइको विसेसाणं । तप्पगारसंठिए परमत्ते । असुरकुमारणं पुच्छा । गोयमा ! गतार्था एव । नवरं (अह सम्बकालेत्यादि ) अथ नारकभवनपागसंविए। एवं जाव थणियकुमाराणं पंचिंदियतिरिक्ख पत्यादीनां तिर्यग्मनुष्याणां चावधिसंस्थाने विशेष उच्यते। कः पु. मरसावित्याहासर्वकालनियतोऽवधिसंस्थानमाश्रित्यामीयां नारजोणियाणं पुच्छा । गोयमा! नाणासंगणसंठिए परमत्ते? कनवनपत्यादिदेवानां शेषाणां तिर्यम्मनुष्याणां कदाचित्कोऽपि एवं मणुस्साणं वि वाणमंतराणं पुच्छा । गोयमा ! पमह- प्रवति इदमुक्तं जपति । तपाद्याकारसमानतया नारकभवनपसंगणसंविए पम्मत्ते ? जोइसियाणं पुच्छा । गोयमा!| त्यादीनामवधेः संस्थानमुक्तं तदङ्गीकृत्य तेषामवधिः सर्वकालं झरिसंगणसंठिए परमत्ते ? सोहम्मगदेवाणं पुच्छा । नियतोऽवस्थित एष प्रवति । न त्वन्याकारतया परिणमति । तिर्यग्मनुष्याणां तु येनाकारेण प्रथममुत्पन्नोऽवधिः केषांचितेगोयमा ! उसमुइंगारसंठिए पन्मत्ते? एवं अच्चुयदेवाणं | नैवाकारेण सर्वकासं नवति । केषांचित्त्वन्याकारेण परिणमती. गेवेजयदेवाणं पुच्छा । गोयमा ! पुप्फचंगेरिसंठिए पप्पत्ते? | ति । अथ यदुक्तम् “तिरियमणुएसु प्रोहीत्यादि" तम्बाचिअणुत्तरोववाश्याणं पुच्छा। गोयमा ! जबनालिया संहिए | ख्यासुराह। ओही पमत्ते ॥ प्रशा० ३३ पद ॥ नाणागारो तिरिय-मणुएसु मच्चासयनूरमणे च । तप्पागारे पञ्चग-पमहगारीमुइंगपुप्फजवे । तत्थ वमयं निसिद्धं, तस्सिह पुण तं पि होजाहि ॥ तिरियमणुएसु ओही, नाणाविहसंविओ जणिओ॥ तत्र स्वयंनूरमणे तस्य मत्स्याकारविषये वायं निषिकम् । तप्र उपकस्तस्येघाकारो यस्यासौ तप्राकारोऽवधि रकाणां इह पुनस्तियङ्मनुष्येषु तस्यावधिरित्येषमप्यावृत्यायोज्यतोसमन्तव्यः । तप्रश्च किलायतव्यस्रो भवति। पखको धान्याधारनूतो दपि वनयमाकारमाश्रित्य नवेच्छेषं सुगममिति । तदेवं संस्थाने त्रैव प्रतीतः स चोर्वायतः। उपरि च किंचित्संक्किप्तस्तदाका प्रोक्तेऽपि कयाऽपि दिशा बहुरवधिः कयाऽपि तु स्तोक इति रोऽवधिर्भवनपतीनां पटहक पातोद्यविशेषःप्रतीत एव स च ना न ज्ञायते । अत एतद्भवनपत्यादीनां दर्शयन्नाह ॥ त्यायतोऽध उपरिच समः तदाकारोऽवधिय॑न्तराणां उभयतो भवणवश्वंतराणं, अहिं बहुगो अहोय सेसाणं । विस्तीर्णचर्मावनकमुखोमध्ये संकीर्णो ढकालकण भातोद्यविशेषो। नारगजोइसियाणं, तिरिय ओरालिश्रो चित्तो । झलरी तदाकारोऽवधिज्योतिष्काणां मृदङ्गोऽप्यातोद्यमेव स चो नारकज्योतिष्काणामवधितिर्यग्बहुस्तिर्यग्मनुष्याणां तु संबन्धी ायतोऽधोविस्तीर्ण उपरि च तनुकस्तदाकारोऽवधिः सौध. अवधिरौदारिकावधिरुच्यते । अयं पुनचित्रो नानाप्रकारः केषांमाद्यच्युतान्तकल्पनिवासिदेवानां पुष्पेति सूचनात् सूत्रमिति चिदूर्च बहुरन्येषां त्वधो परेषां तिर्य केषांचित्स्वल्प इति भावः। कृत्वा सप्तशिखापुप्पभृता चङ्गेरी पुष्पचक्रेरी परिगृह्यते । तदा शेष सुगममिति गाथार्थः । इत्यवासितं संस्थानद्वारम। कारोऽवधिप्रैवेयकविमानवासिदेवानां (जवेन्सि)यथो यवनालकःसच कन्याचोलकोऽवगन्तव्यः । अयं च मरुमएमलादिप्रसि (१४) अथ झानलकण दर्शनविभङ्गलकणद्वारदश्चरणकरूपेण कन्यापरिधानेन सह सीवितो नवति । येन परि यं युगपदनिधित्सुराह । धान न खिसति कन्यानां मस्तककृपक्केपेणायं प्रतिप्यते । अयं सागारमणागारा, प्रोहिविभंगा जहन्नया तुला। चोर्डः सरकञ्चुक इति व्यपदिश्यते । एतदाकारोऽवधिरनुत्तर- नवरिमगे विजेसु अ, परेण श्रोही असंखेज्जा ॥ सुराणां भवति । तिर्यग्मनुष्येषु पुनरवधिर्नानाविधसंस्थानो भ हावधिविचारे प्रस्तुते एतच्चिन्त्यते। यत किमिह ज्ञान किं वति । यथा हि स्वयंभूरमणमत्स्याःसर्वैरप्याकारैः समये नणि घा दर्शनं को वा विभङ्गः किं वा परस्परतस्तुल्योऽधिकं चेतास्तथा तिर्यग्मनुध्यष्ववधिरपि किं च स्वयंनूरमणमत्स्यानां ति । तत्र यो वस्तुनो विशेषरूपप्राहकः स साकारः स च ज्ञानवयाकारता निषिका । तिर्यग्मनुष्याणां पुनरवधिस्तदाकारो- मिश्रं सम्यग्दृष्टर्मिथ्यादृष्टस्तु स एव विभङ्गज्ञानम् । यस्तु साऽपि भवतीति नियुक्तिगाथार्थः । ७५०। मान्यरूपग्राहकोऽयमनाकाराग्रहणात्स च दर्शनम् । तदिह गाथाअथ भाष्यम् । यां साकारग्रहणेनावधिशानं गृहीतमनाकारग्रहणेन तु अवनेरइयभवणवणयर-जोइसकिप्पालयाण मोहिस्स । धिदर्शनं विनङ्गग्रहणे न तु विभङ्गज्ञानम् । अत एव दर्शनकागेविजणुत्तराण य, होता गिइयो जहा संखं ॥ नविभङ्गसकणं द्वारत्रयमिदं भवति । तत्र चावधिज्ञानदर्शने तपतास्तप्रादिसमाना आकृतयो नारकाद्यवधेर्यथासंख्यं अष्टव्याः।। था विमङ्गज्ञानं तस्य च संबन्धे यत्केगंचिन्मतेनावधिदर्शन ते च तश्च यथासंख्यमेवेति । अय तप्रादिस्वरूपं व्याचिख्यासुराह । पृथकस्वस्थाने परस्परापेक्वयाऽपरस्थाने चावधिविभङ्गयोहानतप्पेण ममागारो, तप्पागारो मचाययत्तंसो। दर्शने भवनपतिदेवेन्य आरज्य यावदुपरितनग्नैवेयकविमानानि तावज्जघन्यान्यामारज्य यावदुपरिवेयकविमानोचितावधिक नघाय उयप्पल्लो, नवरं च सकिंचि संखित्तो। विनोत्कृष्टता प्राप्तिस्तावक्षेत्रादिलक्षणं विषयमाश्रित्य तुल्ये नचायो समो विय, पमहो हिहो वरिपई एसो। जवतः। इदमुक्तं भवति भवनपतिदेवेत्त्य प्रारज्य यावपरितनचम्पावणफविधिएण-वनयरूवा य कमरिया ॥ ग्रैवेयकविमानवासिनो देवास्ताघधे जघन्यतुल्यस्थितयो देवास्तउद्धायो मुइंगो, हेट्टारूंदे तहोवरि तणुओ। संवन्धिनी जघन्ये अवधिविनाकानदर्शने केत्रादिविषयरूपं वि षयमाश्रित्य परस्परतस्तुल्ये भवतः । मध्यमतुल्यस्थितीनां च पुप्फसिहावलिरइया, चंगेरी पुष्फयंगेरी ।। मध्यमे ते तथैव तुल्ये भवतः । उत्कृष्टतुल्यस्थितीनां तु उत्कृष्ट जरनाल उत्तिभणि ओ, नज्मोसरकंचुओ कुमारीए। ते तथैव तुल्ये नवतः । परेण (श्रोहि असंखेजेत्ति ) वेयकवि Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५७) प्रोहि अभिधानराजेन्डः। भोहि माने त्यस्तु परतोऽनुत्तरबिमानेष्ववधिज्ञानावधिदर्शनरूपोऽवधि नन्वयधेरबाह्या भवन्त्यवध्युपलब्धक्षेत्रस्याभ्यन्तरे नारकाव नवति । न तु विनङ्गकानमिथ्याप्टेरव सद्भावादनुत्तरसुरेषु दयो वर्तन्त इति प्रथमपक्षे व्याख्यातम् । एवं चोक्ते सति प. च मिथ्यादृष्टेरभावात् स चानुत्तरसुरावधिः केत्रतः कालतश्चा- | श्यन्ति सर्वत इति । किमर्थ भएयते । ये ह्यवधिप्रकाशितक्षे. संख्ययोऽसंख्यातविषयो जवति बन्यन्नावस्त्वनन्तविषय इति । प्रस्य मध्ये वर्तन्ते ते सर्वतः पश्यन्त्येचेति गतार्थत्वादतिरिइह च तिर्यग्मनुष्याणां तुल्यस्थितीनामपि कयोपशमतीयमन्द- च्यते । एयेदमिति पराभिप्रायः । अत्र सूरिराह । (उZइस्यादि) तादिकारणवैचित्र्यात् केत्रकामविषयेऽप्यवधिविनाकानदर्शन- सन्तता निरन्तरालाः सर्वा दिग्विदिग्लक्षणा दिशः प्रकाशयोविचित्रता। न पुनस्तुल्यतैवेतीह देवेष्वेव तयारियं प्रतिपादि-. विषयभूता यस्यावधेरसौ सन्ततदिक्कोऽवधिरबाह्यावधिरितेति विनायनीयमिति नियुक्तिगाथार्थः । त्यर्थः । न विद्यतेसन्ततदिक्कोऽवधिर्यस्यासौ असन्ततदिकोऽव अथ भाप्यम् । धिमान् बाह्यावधियुक्तः साध्वादिरित्यर्थः। श्रयं यस्मान (उ य सविसेसं सागारं, तं नाणं निविसेसमणगारं । इति) न पश्यति कथं सर्वतः किम्भूतः सन्नित्याह । अवधिद्योतं दंसणं ति ताई, मोहिविनंगा ण तुझाई।। तितक्षेत्रस्यान्तर्मध्येऽपि स्थितस्तस्मात्कर्तव्यं (पासंति सञ्चश्रो खल्विति ) इदमुक्तं भवति । "फडोही वा असंबद्धो" इत्यनेन आरब्ज जहपायो, उवरिमगविज्जगावसाणाणं । प्रन्थेन यः प्राक् प्रतिपादितो द्विविधो बायावधिः फडकावधिः परोहीनाणंचिय, न विभंगमसंखयं तं च ॥ असंबद्धवलयाकारक्षेत्रप्रकाशकायधिश्वेत्यर्थः । तत्साध्यागातार्था एव । गतं ज्ञानदर्शनविनहारत्रयम् । विशे० ॥ दिरवभ्युपलब्धोत्रस्यान्तःस्थितोऽपि न सर्वतः पश्यत्यन्तराअथ देशद्वाराभिधानायाह । लादर्शनादतः तद्यवच्छेदार्थ कर्तव्यम् । पश्यन्ति सर्वत इति (१५) देशतः सर्वतश्चायधिः। प्राह । नन्वयमसन्ततदिवावधेरयाह्यावधिरेव न भवति । याह्या णेरइयाणं भंते ! कि देसोही सन्चोही? गोयमा देसोही। षधित्वेनैव प्राक् प्रतिपादितत्वात् न तु किमेतद्व्यवच्छेदपरेण नो सव्वोही। एवं जाव थपियकुमाराणं । पंचिदियति- "पासंतीत्या" धुपादाननेत्यसमयपरिभाषितमबाह्यावधित्षमत्र रिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा! देसोही नो सवोही। नास्ति । लोकरूढं त्ववधिप्रकाशितक्षेत्रमध्यवर्तित्वमात्रमत्रापि मणुस्साणं पुच्छा । गोयमा ! देसोही वि सम्वोही विद्येत । इत्येतद्यवच्छेदार्थ “पासंतीत्या" दि स्थितमित्यलं वि. स्तरेणेति । अथ द्वितीयव्याख्यानं तत्र प्रेय चाह । वि वाणमंतरजाशसियवेमाणियारणं । जहा ऐरइयाएं । निययावहिणो अभिं-तरत्ति वा संसयावणोयत्यं । देशावधिसर्वावधिचिन्तायां मनुष्यवर्जाः सर्वेऽपि देशावधयो मनुष्यास्तु देशावधयोऽपि भवन्ति । सर्वावधयोऽपि परमाव तो सव्वोजिहाणं, होउ किमनंतरग्गहणं ॥ धेरपि तेषां संभवात् प्रज्ञा ३३ पद। वा इत्यथवार्थः । स च व्याख्यानान्तरसूचकः । तत्र नारकादणेरइयदेवतित्यं-करा य ओहिस्स बाहिरा इंति। योऽयधेरबाह्याभ्यन्तरा भवन्तीति कोऽर्थ इत्याद । नियतायधयो नियमेनैषामवधिर्भवत्येवेति । तर्हि 'पासंतीत्यादि' किमर्थमि. पासंति सचओ खलु, सेसा देसेण पासंति ।। त्याह ( संसथावणोयत्थंति ) किमेते देशतः पश्यन्त्याहोश्विनारका देवास्तीर्थकराश्चावधिज्ञानस्याबाह्या भवन्ति । अ सर्वत इत्येवंभूतशंसथापनोदार्थ पश्यन्ति सर्वतः खल्विति वध्युपलब्धस्य क्षेत्रस्यान्तर्वर्तिनः । अभ्यन्तरवर्तिन एव भव वाक्यशेषः । यद्येवं ततः संशयापनोदार्थ सर्वतोऽभिधानमेन्तीत्यर्थः । अत एव बाह्यावधय एवैते प्रतिपाद्यन्ते। अवधि वास्तु किमन्यन्तरग्रहणेनेति । अत्रोत्तरमाह । प्रकाशितक्षेत्रस्य प्रदीपा इव निजनिजप्रभापटलस्य नैते बहिभवन्तीत्यर्थः । तथाऽवधिना पश्यन्त्यवलोकयन्ति । खलुशब्द अभितरत्ति तेणं, निययावहिपोक्सेसया भइया। स्यावधारणार्थत्वात्सर्वत एव सर्वास्वेव दिक्षु विदिक्षु च नतु भवपच्चयाइवयसा, सिद्धे कालस्स नियमोयं ।। देशत । इत्यर्थः शेषास्तिर्यग्मनुष्या देशेनेत्येकदेशेन पश्यन्ति । यदि सर्वतो ग्रहणेन नारकादीनां देशदर्शनं निराकृत्य संशतत्राचाक्यावधारणविधेरिष्टतः प्रवृत्तेः शेषा एव देशतः प- यो निरस्त इति षे । तेन तर्हि भो प्रेरक अभ्यन्तरा अबाह्या इश्यन्ति । न तु शेषा देशत एवेति द्रष्टव्यं शेषास्तिर्यग्मनुष्याः त्यनेन नियतावधयो नियमेनाऽवधिमन्तो नारकंदवतीर्थकराः सर्वतो देशतश्च पश्यन्तीति भावः । अथवा पूर्वार्धमन्यथा अवशेषास्तु तिर्यम्मनुष्या नजनीया अवधियुक्तास्तद्विरहिता वा व्याख्यायते । नारकदेवतीर्थकरा अवधेरबाह्या भवन्ति । इति भवन्तीति प्रतिपादितं अष्टव्यम् ।सर्वग्रहणेन हि सर्व देशदर्शनकोऽर्थोऽवधिज्ञानवन्त एवामी भवन्ति । अवधिज्ञानं नियमे- विषय एव संदेहो निवर्त्यते । नियतावधित्वं पुनरमीषा न बनैषां भवतीत्यर्थः । तत्र किममी तेन सर्वतः पश्यन्ति देशतो ज्यते । अतस्तत्प्रतिपादनार्थमवधेरबाह्या जवन्तीत्येतचनमि-- घेति संशये सत्याह। "पासंतीत्या" द्युत्तरार्द्धम् । अस्य व्याख्या तिनावः । तत्रैतत्स्याद्भवप्रत्ययो नारकदेवानामित्यादिवचनातथैवेति नियुक्तिगाथार्थः । अथ प्रथमं व्याख्यानं तावद्भा तथा। "तिहिं नाणेहिं समग्गतित्थयरा जाव होति गिहवासे" ध्यकारोऽप्याह । इत्यादिवचनाच सिमेव । नारकदेवतीर्थकराणां नियतावधिओहिमाणक्खित-जितरगा होंति नारयाईया। त्वं तत्किमनेनेत्याशङ्कयाह भवप्रत्ययादिवचसा सिकेऽमीसबदिसोवहिविसो, तेसिं दीवप्पनोवम्मो ॥ षां नियतापधित्वे "ओहिस्स बाहिरा होति" कालस्य नियमोऽयं विधीयते श्दमुक्तं भवति भवप्रत्ययादिवचनासिद्ध्यति नियमेन उक्ताथैव । चालणाप्रत्यवस्थाने प्राह । नारकादीनामावधिमत्वं परं न ज्ञायते किमाभवकयममीषाअन्जितरत्ति भणिए, भष्मइ य पासंति सबो खलु | मवधर्भवति आहोश्विस्कियन्तमपि कासं नूत्वाऽसौ प्रतिपततीति उया जमसंततदिसो, अंतो वि विओ न सव्वत्तो।। । ततश्च"ओहिस्स बाहिरा होतीत्य" नेन काननियमः क्रियते सर्व Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५७). अोहि अभिधानराजेन्द्रः। दा सर्वकालममीषामवधिर्भवति। नत्वन्तरालेऽपिप्रतिपततीति । संबद्धो उ अलोए, नियमा पुरिसे वि संबद्धो। आह। यद्येव तीर्थकृतां सर्वकालावस्थायित्वमवधेविरुयते के- तिम्रोऽपि गताः। नवरं दूरान्धकारमित्यादिप्रतिफक्षितदीपस्य वलोत्पत्तौ तदभावान तेषां केवनोत्पत्तावपि वस्तुतस्तत्परिच्छे दर्शनं तदिव विच्छिन्नं ( तदंतरमबाहत्ति ) तयोर्देहावधिप्रकादस्याप्यनष्टत्वात्सुतरां केवलज्ञानेन संपूर्णानन्ततकात्मकर- शक्षेत्रयोरन्तरं तदन्तरं तबाधोच्यत इति । अवसितं केत्रद्वारस्तुपरिच्चित्तेः । वनस्थकालस्य वा विवक्कितत्वाददोष इत्यवं म् । विशे०। प्रज्ञा०। विस्तरेणेति “ सेसा देसेण पासंती" त्येत याचिख्यासुराह । मेरझ्याणं भंते ! ओहिस्स किं अंतो बाहिं ? गोयमा! सेसञ्चिय देसेणं, न न देसेणेव सेसया किं तु । अंतो नो वाहिं । एवं जाव थणियकुमाराणं | पंचिंदियारेदेसेण सव्वउच्चिय, पिच्छति नरातिरिक्खा य॥ रिक्खयोणियाणं पुच्चा। गोयमा ! नो अंतो बाहिं । मणुगताथैवेति गाथापञ्चकार्थः । गतं देशधारम् । विशे० । तं। स्साणं पुच्छा, गोयमा ! अंतो वि बाहि वि। वाणमंतरजोअथ केत्रहारम् । (१६) केत्रगत्यादिद्वाराणि तत्र केत्रहारमभिधित्सुराह । इसियवेमाणियाणं जहाणेरझ्याणं । संखेजमसंखेजो, पुरिसमवाहाए खेत्तो ओही। तथा नैरयिकनवनपतिव्यन्तरजोतिष्कवैमानिकाः। तथा भवस्था भाव्यादवधर्मध्यवर्तिनो न पुनर्वहिः किमुक्तं जवति । सर्वतः प्रसंवच्छमसंबछो, लोगमलोगे य संबछो॥ काशिविनसाविधयो जवन्ति । नतु स्कारधयो विच्चित्रा(खेत्तोत्ति ) श्द केत्रतोऽवधिमति जीवे प्रदीपे प्रभापटलमि वयोवा तिर्यकपञ्चेम्ब्यिास्त्ववधेरन्तन विद्यन्ते। किंतु बहिरत्रा व संबको लग्नो नवति । जीवावधवेत्रादारज्य निरन्तरं षष्टव्यं प्येष भावार्थः । तिर्यकपश्चेन्द्रियास्तथानवस्वानाव्यात् । स्पर्द्धवस्तुप्रकाशयतीत्यर्थः । कश्चित्पुनरतिप्रकृष्टतमो व्याकुलान्तरा कावधयो विचिन्ना अपान्तराने सर्वतः प्रकाश्यवधयो वाभवन्ति वर्तिप्रदेशमुखच दूरस्थितमित्यादि प्रतिफवितदीपपनेव जी स्पद्धकाद्यवधियोग रति जावः । प्रज्ञा० ३३ पद। बेऽसंबको भवति कया हेतुभूतया ऽसंबक इत्याह । मकारस्या गतिद्वारं विभणिषुराह । माक्षणिकत्वात्पुरुषायाधयेति । पूर्णः सुखमुःखानामिति पुरुषः । पुरि शरीरे शयनाद्वा पुरुपो जीवः । भवाधनमबाधा अन्तरान गश्नरइयाईया, हेट्ठा जह वरिणया तहेहा वि । मित्यर्थः पुरुषादयाधापुरुषाबाधा तया हेतुभूतयाऽसंबरू इति हे. की एसा य वणि-ज्जइ ति तो सेसियाओ वि॥ त्वर्थे तृतीया स च संबद्धोऽसंबरूचावधिः केत्रतः कियान भव. गतिर्नरकगत्यादिका प्रादिशब्दादपरोपीछियादिद्वारकापः तीत्याह । संख्येयोऽसंख्येयश्च । योजनाऽपक्कया संख्ययान्यसंख्ये- प्राफ प्रतिपादितस्वरूपोऽत्र परिगृह्यते। ततश्च नारकादिगत्यादियानि वा योजनानि प्रत्येकं भवन्तीत्यर्थः। कया सहेत्याह ।पुरु- द्वाराणि यथाधस्तात्पूर्व मतिज्ञानप्ररूपणाप्रस्तावे "गर शंदियपाबाधयत्येवं सहार्थे तृतीया। पुरुषाबाधापदमत्रापि योज्यते। न कार जोप वेए कसायबेसासम्मत्तनाणे" त्यादिना तथा "संतकेवसमवधेः संख्येयान्यसंख्येयानि या योजनानि धा भवन्ति । किं पयपरूवणया दक्वपमाणं" चेत्यादिना च प्रतिपादितानि । तथेहातर्हि पुरुषाद्यन्तरावरूपा वाधा साप्येतावन्माना नवतीत्यर्थः । इदं प्यवधिप्ररूपणायां वक्तव्यानि।यस्तु विशेषस्तं भाष्यकारः स्वयचान्तरमसंबक पवावधी भवति न तु संबके तत्र संबकत्वेनैव तद- मेव वत्यति । एषा चावधिलकणा ऋद्धिः सिद्धान्ते वर्यत संभधादिह वा संबद्ध अवधौ अन्तरे चतुर्भङ्गिका संख्येयमन्त- श्त्यतोऽनेन संबन्धेन शेषा अप्यामोषध्यादिका ऋष्योन वरं संख्ययोऽवधिः १संख्येयमन्तरमसंख्येयोऽवधिः२ असंख्येयम-| एर्यन्त ति नियुक्तिगाथार्थः। न्तरं संख्येयोऽवधिः ३ असंख्येयमन्तरमसंख्येयोऽवधिरित्येवं च-1 । अथ गत्यादिषु द्वारेषु चिन्त्यमानस्यावधिज्ञानस्य मतिझानास्वारोऽपि भङ्गकाः संनवन्ति । ४ । संबत्ववधौ विकल्पाभावः। द्यो विशेषस्त भाष्यकारः प्राह। तमुत्थानहेतोरन्तरलकणस्य द्वितीयपदस्य तत्रानावादिति ।। जे पमिवज्जति मई, ते बहिनाणं पि समहिया अधे। अयं चावधिोंके अलोकेऽपि च संबको जवतीत्याह (खोगम वेयकसायाईया, मणवज्जवनाणिणो चेव ।। बोगे य संबछोत्ति ) श्द सोकशब्दन कोकान्तो गृह्यते अत्रापि च नङ्गकचतुष्टयम् । तत्र यो लोकप्रमाणोवधिः स पुरुषे संबछो सम्मासुरनेरझ्या-माहारा जे य होंति पज्जत्ता । जयति लोकान्ते च । यस्तु झोकदेशवर्ती अज्यन्तराऽवधिः स | तेच्चिय पुव्वपवमा, वियन्नासएणीय मोत्तणं ॥ पुरुषे संबद्धो न लोकान्ते ।२। लोकान्ते संबद्धो न पुरुष इति शू- ये मतिज्ञानस्य प्रतिपत्तारः प्रागुक्ता श्हावधिज्ञानस्यापि प्रन्योऽयं नङ्गः । यो दि लोकान्ते संबकः स पुरुषे नियमासंघद्ध | तिपत्तारस्ते एव रुष्टव्याः केवनमत्राधिका अन्येऽपि केचित्ते एव भवति न त्वऽसंबरू इत्येताकासंभवः । ३।न लोकान्ते अवगन्तव्यास्तद्यथा(वेयकसायाश्यत्ति) वेदातीताः कषायातीता नापि पुरुषेऽसंबद्धो बाह्यावधिः यस्त्वलोके संबकः स पुरुष सं- चावेदका अकधायिणश्चेत्यर्थः । तथा मनःपर्यायज्ञानिनश्चेत्येते बरू पव जवतीति । ४ । तत्र भङ्गकानाव इति नियुक्तिगाथा- मतिज्ञानस्य पूर्वप्रतिपन्ना एवोक्ताः । ३६ ववधेरमी प्रतिपत्तारो र्थः। भय भाष्यम्। अवन्ति। यतः श्रेणिध्ये वर्तमानानां वेदकानामकषायाणांच केषांओही पुरिसे कोई, संबको जड़ पभावदीवम्मि । चिदवधिज्ञानमुत्पद्यते। येषां वानुत्पन्नावधिज्ञानानां मतिश्रुतचारिदरंधयारदीवय-दरिसणमिव कोइ विचिप्लो ॥ अवतां प्रथममेव मनःपर्यायज्ञानमुत्पद्यते । ते मनःपर्यायशानिनोसंखिज्जमसंखिज, देहायो खेत्तमंतरं कानं । ऽपि केचित्पश्चादवधिज्ञानस्य प्रतिपत्तारो भवन्ति । अपरञ्चासंखेज्जासंखेज, पेजेज तदंतरमबाहा । नाहारका अपर्याप्तकाश्च मतिपूर्वप्रतिपन्ना एवोक्तान तु प्रतिपद्य मानकाः । श्ह तु येप्रतिपतितसम्यक्त्वास्तिर्यस्मनुष्येच्यो देवसंबद्धासंबछो, नरसोयं तेसु होइ च उभंगो । नारका जायन्ते । तेऽवधिज्ञानस्य प्रतिपद्यमानकेष्वपि प्राप्यन्ते । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) भोहि अनिधानराजेन्द्रः। ओहिणाण श्त्याद। "सम्मासुरत्ति" ननूनः प्रतिपद्यमानकेषु विशेषः पूर्वप्र- ___ पइदवं संखाइ य, पज्जायाई च सव्वाई ।। तिपन्नेषु का वार्तेत्याह (तेश्चियपुवपवनेत्यादि ) य एव मति- जघन्यतो मूर्तिमन्ति न्याएयवधिज्ञानी पश्यतीति संटङ्कः । झानस्य पूर्वप्रतिपन्ना उक्ता अवधिज्ञानस्यापि त एवष्टव्याः। कथंसूतानीत्याह ( अंगुनेत्यादि ) अङ्गालसंख्यातीतनागविषयाकिं सर्वथा नेत्याह । (वियलेत्यादि ) विकलेन्छिया न संझिप णि आवलिकासंख्यातीतनागविषयाणि चेत्यर्थः। विशे० । इन्छियतिरश्चश्च मुक्त्वेत्यर्थः । एते हि सास्वादनसम्यग्दृष्टयो विवरीयवेसधारी, विजंजणसिकदेवया एव । मतिकानस्य प्रतिपन्ना उक्ताः । अवधेस्तु न प्रतिपद्यमानका नापू. वप्रतिपन्ना भवन्तीति नावः । इति गाथाद्वयार्थः । अथसितं छाश्यसवियसेवी, बीयादीओ वि पञ्चक्खा ।। गत्यादिद्वारम् । विशे० ॥ (आमर्पोषभ्यादिऋछिवर्णनम् शक्ति पुढवीइतरुगिरिया, सरीरादिगया य जे नवे दव्वा । शब्द) परमाणुसुहसुक्खा-दयो य ओहिस्स पञ्चक्खा ।। (१७) अवधेः संक्केपसरूपणा प्रस्तावना च। नेपथ्यपरावर्त्ततो गुटिकाप्रयोगतः स्वपरावर्ततो वर्णपरावर्ततदेवं प्रसङ्गायाती शेषौ प्रतिपाद्य अवधिज्ञानं च सप्रसङ्गं तो विपरीतं घेषं धारयन्तीति विपरीतवेषधारिणस्ते।तथा ये वि. विस्तरतः प्ररूप्योपसंहरन्वक्ष्यमाणसंकेपप्ररूपणस्य प्रस्तावना द्यासिका अञ्जनसिका देवतया वा आच्छादिताये च तैःसेविच कर्तुमाह। तसेविनो ये च वीजादयः कुशलादिन्यस्ते सर्वेऽवधिकानिनः । भणिश्रो वहिणो विसओ, तहा वि तस्सं गडं पुणो जण। प्रत्यकाः । तथा यानि पृथिव्यां यानि च तरुषु यानि च गिरुषु संखवरुईण हियं, अव्यामोहत्थमिटुं च ॥ गाथायामेकवचनं समाहारत्वात् । न्याणि यानि च शरीरादि- . प्रणितः प्ररूपितः"ओहीखेतपरिमाणे संगणे" इत्यादीमांसपे गतानि न्याणि ये च परमाणवो ये सुखदुःखादय इन्द्रियमन:णापि पूर्वोक्तप्रन्येनावधेः स्वरूपाधन्वितो विषयो व्यकेत्रादि शरीरस्वास्थ्यास्वास्थ्यरूपास्तेऽप्यवधेः प्रत्यकाः। कस्तथापि तत्संग्रहविषयसक्केपप्ररूपणं पुनरपि नंणत्यत्रान्तरे अच्चतमणुवलका, वि ओहिनाणस्स हाँति पच्चक्खा । देववाचको नन्द्यध्ययनसूत्रकारः। अनेन चेदं सूचितं नन्द्यत्ययन- अोहिमाणपरिगया, दबा असमत्तपज्जाया ॥ सूत्रकारणे प्रथमं विस्तरतोऽवधिकानं प्ररूप्य पर्यन्ते पुनरपि सं- अत्यन्तं चक्षुरादिना अनुपलब्धा अपि पदार्था अवधिमाकेपतस्तद्यथा ॥ विशे। नस्य भवन्ति प्रत्यक्षा अवधिज्ञानेन च व्याणि परिगतानि "तं समासयो चउन्विहं परमत्तं तं जहा। दवो खेत्त- परिणतानि भवन्त्यसमाप्तपर्यायाणि न समस्ताः पर्याया द्रओकालो भावो तत्थ दवओ णं श्रोहीनाणी व्याणां ज्ञातुं शक्यन्ते इति भावः । यदि हि समस्तान पर्यायान् जहन्नेणं अताई रूविदबाई जाणइ पास । नकोसणं जानीयान्नूनं स केवलीभवेत् । वृ०८ उ० । भावतस्तु प्रति कव्यं चत्वारो गुणा धर्माः पर्याया येषां तानि चतुर्गुणानि प. सव्वाइं रूविदव्वाई जाणइ पास । खेत्तो णं ओहिना श्यति । इदमुक्तं भवति । जघन्यतोऽवधिज्ञानी द्रव्यतः क्षेत्रणी जहन्नणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं जाणइ पासइ । तश्चाद्धालासंख्येयभागाक्षेत्राऽभ्यन्तरवर्तीनि मूर्तव्याणि पउकोसणं असंखेजाई अनोगे सोगप्पमाणमित्ताई खंमाई | श्यति। कालतस्त्वेतावन्याणामावलिकासंख्येयभागाऽभ्यन्तजाणइ पासइ । कालो णं प्रोहीनाणी जहन्नेण पाव- रवर्तिनोऽतीताननागतांश्च पर्यायान्पश्यति । भावतस्तु प्रतिलियाए असंखिज्जइभागं जाणइ पास । उकोसेणं असं द्रव्यं चतुरः पर्यायान्पश्यतीति । उत्कृष्टतस्तु द्रव्यतः क्षेत्रत श्वासंख्येयलोकाकाशखएमावगाढानि सर्वाएयपि मूर्तद्रव्याणि खिजाओ उस्स प्पिणीओ ओसाप्पिणीयो अईयमणागयं पश्यति। एतानि चैकस्मिन्नेव लोकाकाशे अवगाढानि प्राप्यन्ते। च कालं जाण पास। भावो णं श्रोहीनाणी जहने- शेषलोकाध्वगाढानामुपदर्शनं शक्तिमात्राऽपेक्षयैवोच्यते। कालणं अणंते भावे जाण पासइ । नकोसेणं वि अणंते तस्त्वेषांखव्याणामसंख्यातोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमान्तर्गतान तीताऽमागतांश्च पर्यायान्पश्यति । भावतस्त्वेकैकं द्रव्यमाधिजावे जाणश्पासइ । सव्वभावाणमणंतभागं जाणइ पास। त्यासंख्येयपर्यायापयेतानि पश्यति । इह च दर्शनक्रियासाश्रोहीभवपच्चइओ, गुणपञ्चइओ य वमित्रो विहो। तस्स मान्यमात्रमाश्रित्य पश्यतीत्युक्तं विशेषतस्तु जानाति पश्यतीति य बहुविगप्पा, दव्वे खेते य काले य ।१ । नेरइयदेवति- च सर्वत्र कष्टव्यम् । तदेवं जघन्यत उत्कृष्टतश्च प्राग्विस्तरतः त्य-करा य ओहिस्स बाहिरा हुंति । पासंति सम्वोखलु, प्रोक्तोऽवधिविषयः। इदानीं तु स एव संक्षेपत उक्तस्तद्भणने व सप्रसङ्गमवधिशानं समाप्तम् । विशे० प्रा०म०प्र०कर्मा सेसा देसण पासंति । । सेत्तं ओहिनाणं । प्रवणसम्म अवधिज्ञानवति जीवे अवध्यवधिमतोरभेदात् । अवधिोत्रप्ररूपणेन गतार्थीकृतेति न पुनरुक्तिजयाउपन्यस्ता। प्रव०१५ द्वा०। ननु नन्दिसूत्रकारेणापि किमिति विषयः पुनरपि प्ररूपितः पुन:- | | ओहिजुय-अवधियुत-त्रि० अवधिलब्धियुक्के, क०प्र०। पुनरुत्तस्य प्रसङ्गादित्याशङ्कघाह (संखेवेत्यादि ) यस्मादपि संकेपरुचीनां हितमिदं संकेपनणनमतस्तेषां हितार्थ मन्दमती- मोहिणाण-अवधिज्ञान-न० अवधिः (अनन्तरोदितस्वरूपः) नामच्यामोहाथै चेष्टमेतदिति । तमेव विषयसंग्रहमाद । स एव शानमवधिना वा मर्यादया मूर्तद्रव्याण्येष जानाति नेतराणीति व्यवस्थया शानमवधिज्ञानम् भ०८श २ उ०। दध्याई अंगुलावलि, संखेजाश्यभागविसयाई । अवध्युपलक्षितं शानमप्यवधिः । प्रव० २१६ द्वा०। पं० सं०। पेच्छइ चउगुणाई, जहन्नो मुत्तिमंताई। भवधिश्वाऽसौ सानञ्च अवधिज्ञानम् । इन्द्रियमनोनिरपेक्षे उकोसमसंखाई, मोगस्थिगुलसमानिबचाई। आत्मनो रूपिद्रव्यसाक्षात्कारकारणे शानभेदे, स्था०२ ठा० । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) अहिणाण अभिधानराजेन्द्रः। अोहिमरण उत्त।नं० (ोहि शब्दे सर्वमुक्तम् )" णो केवलणाणे दु- विस्तीर्णत्वेन महानिधानानीति महामुख्यरत्नादिमत्वेन प्रहरीणाः विहे पन्नते तं जहा श्रोहिनाणे चेव मणपज्जवणाणे चेव" | स्वामिनो येषां तानि। तथा प्रहाणाः सेक्तारः सेचकास्तेन्वेवोपस्था०२ ठा। युपरिधनप्रोपकाः पुत्रादयो येषां तानि । तथा अथवा प्रहीणा: श्रोहिणाणजिए-अवधिकानजिन-पुं० अवधिज्ञानेन जिनोऽ सेतवस्तदनिशाननूताः पालयस्तन्मार्गा वाऽतिचिरन्तनतया प्रवधिज्ञानजिनः । जिनशब्दो विशुद्धावधिप्रदर्शकः। विशुकाऽव तिजागरकाभावेन च येषां तानि नहीणसेतुकानि । किं पहुना धिज्ञाने, व्य० १ ०। स्था। निधायकानां यानि गोत्रागाराणि कुलगृहाणि तान्यपि प्रही णानि येषामथवा तेषामेव गोत्राणि नामान्याकाराश्चाकृतयस्ते श्रोहिणाणावरण-अवधिज्ञानावरण-न० अवधिज्ञानस्य प्राकप्रदर्शितरूपस्य आवरणमवधिज्ञानावरणम् । ज्ञानावरणकर्म प्रहीणा येषां तानि प्रहीणगोत्रागाराणि प्रहीणगोत्राकाराणि वा एवमुच्छिन्नस्वामिकादीन्यपि। नवरमिह प्रहीणाः किंचिन्सत्ताणस्तृतीयायामुत्तरप्रकृती, । कर्म । उत्त० । पन्त उच्छिन्ना निर्नष्टसत्ताका यानीमानि अनन्तरोक्तविशेषणानीओहिदसण-अवधिदर्शन-न० अवधिरेव दर्शन रूपिसामान्य. ति । स्था० ५ ग०। (प्रामादिशब्दव्याख्या स्वस्वशब्दे) ग्रहणमवधिदर्शनम् । पं० सं० १ द्वा० । अवधिना रूपिमर्या प्रोहिदसणावरण-अवधिदर्शनावरण-न० रूपवद् व्यं सादया दर्शनं सामान्यांशग्रहणमवधिदर्शनं कर्म । अवधिदर्शनावरणीयस्य वयोपशमान्यां जायमाने सामान्यग्रहणस्वभावे मान्यप्रकारण मर्यादासहितं दृश्यत इति । अवधिदर्शनं तदर्शनभेदे, स्था० ७ ठा०। दावृणोतीति अवधिदर्शनावरणम्। उत्त०३६अ। अवधिना रूपि(अवधिदर्शनकोनः ) मर्यादयाविधेरेब वा करणनिरपेको बोधरूपो दर्शनं सामा म्यार्थग्रहणमवधिदर्शनम् तस्यावरणमवधिदर्शनावरणम् । दपंचहिं गणेहिं अोहिदसणे समुप्पन्जिनकामे वि तप्पढ शनावरणकर्मजेदे, स्था० एगास। मयाए खनाएज्जा । तं जहा अप्पनूयं वा पुढविं पासित्ता भोहिमरण-अवधिमरण-न अवधिर्मर्यादा ततश्चाऽवधिमा तप्पढमगाए स्वनाएज्जा। कुंथु कुंथुरासिनूयं वा पुढविं पासित्ता मरणमवधिमरणम् । भरणनेदे, यानि हि नारकादिनवनिबन्धतप्पढमयाए खजाएज्जा । मह महालयं वा महोरगसरीरं नतया आयुःकर्मदनिकान्यनुनूय म्रियते।मृतो वा यदि पुनस्तान्येपासित्ता तप्पढमयाए खजाएजा । देवं वा महिहियं जाव वानुनूय मरिष्यते । तदा तदवधिमरणमुच्यते। तद्रव्यापेकया पुमहेसक्खं पासित्ता तप्पढमयाए खभाएज्जा । पुरेसु वा पु नस्तद्ग्रहणाबाध यावजीवस्य मृतत्वात् सम्नवति च गृहीतो ज्जितानां कर्मदलिकानां पुनर्ग्रहणं परिणामवैचित्र्यादिति ॥ राणाई महश् महालयाई महाणिहाणाई पहीणसेनयाई तफेदा यथा । पहीणगोत्तगाराई नच्छिमसामियाई उच्चिासेउयाई न मोहिमरणणं भंते ! कविहे पणत्ते? गोयमा ! पंचविहे शिमगोत्तागाराइंजाइं इमाइंगामागारनगरखेमकव्वडमझ पामत्ते तं जहा दब्बोहिमरणे खेतोहिमरणे जाव जावोहिबदोणमुहपट्टणासमसंबाहसंनिवेसेसु सिंघामगतिगचउक्क मरणे । दम्वोहिमरणेणं नंते ! कइविहे पस्मत्ते ? गोयमा ! चक्करनउम्मुहमहापहपहसे णगरसिझमणेसु मसाणमुम्मा चबिहे पामते तं जहाणेरइए दव्योहिमरणे जाव देवगारगिरिकंदरसंतिसेलोवहाणजवणगिहेसु संनिक्खित्ताई दव्वोहिमरणे । सेकेण?णं भंते! एवं उच्च प्रश्यदव्योहिचिट्ठति ताई वा पासित्ता तप्पढमयाए खभाएज्जा इच्चिए मरणे ? गोयमा ! जणं णेरइया ऐरश्यदचे वट्टमाणा हिं पंचहि गणेहिं ओहिदसणे समुप्पज्जिउकामे तप्प जाई दवाई संपयं मरेंति ज ण णेश्या ताई दबाई अढमयाए खभाएज्जा ॥ णागए काले पुणो वि हरिस्सति । से तेणष्ण गोयमा ! व्यक्तन्नवरमवधिना दर्शनमवलोकनमर्थानामुत्पत्तुकामं भवितुकामं तत्प्रथमतायामवधिदर्शनोत्पादप्रथमसमये (खानापज्ज जाव दचोहिमरणे एवं तिरिक्खजोणियमणुस्सदवेदव्वोहित्ति ) स्कानीयात क्षुच्येत् स्खलतीत्यर्थः । अवधिदर्शने वा स- मरणे वि । एवं एएणं गमएणं खेत्तोहिमरणे वि । कालोमुत्पत्तुकामे सति अवधिमानिति गम्यते । वन्यदल्पभूतां स्तो- हिमरणे वि नबोहिमरणे वि भावोहिमरणे वि। कसत्वां पृथिवीं दृष्ट्वा वाशब्दो विकल्पार्थः। अनेकसत्वव्याकुला- नैरयिकाच्याणि सांप्रतं म्रियन्ते त्यजन्ति तानि च्याएयनागचूरिति सम्भावना वा न कस्मादल्पसत्वनूदर्शनात् । श्राकिमेत- तकाले पुनस्ते नारका इति गम्यम् । मारिष्यन्ते त्यक्ष्यन्तीति यदेवमित्येवं कुज्येदेवाकीणमोहनीयत्वादिति भावः। अथवा नूत- त्तनैरयिकाव्यावधिमरणमुच्यत इति शेषः " से तेणमि" शब्दस्य प्रकृत्यर्थत्वादल्पलतामल्पां पूर्व हि तस्य बही पृथिवीति त्यादिनिगमनम् ज०१३ श०७ १०। “एमेव मोहिमरणं,जाणिसम्नावनासीदिति १ तथात्यन्तप्रचुरत्वाकुन्यूं कुन्यूराशिभूतां कु- मओ ताणि चेव मरइ पुणो"श एवमेव यथा वीचिमरणं - न्यूराशित्वप्राप्तां पृथिवीं दृष्ट्वात्यन्तविस्मयभयाज्यामिति २ तथा व्यक्केत्रकालभवनावनेदतः पञ्चविधं तथैवमवधिमरणमपीत्यर्थः (महश्महालयति ) महान्ति महन्महोरगशरीरं महाहितनुं बा- तत्स्वरूपमाह । यानि मृतः संप्रतीतिः शेषस्तानि चैव (मर पुह्यद्वीपवर्तियोजनसहनप्रमाणं दृष्ट्वा विस्मयाद्भयाद्वा ३ तथा- णत्ति) तिव्यत्ययेन मरिष्यति। पुनः किमुक्तं भवति । अवधिर्मदेवं महर्षिकं महाद्युतिक महानुनाग महाबलं महासौख्यं दृष्ट्वा र्यादा ततश्च यानि नारकादीनि भवान्त ! बन्धनतयायुःकर्मदलिविस्मयादिति ।। (पुरसुवेत्ति) नगराधेकदेशनूतानि प्राकारा- कान्यनुनूय म्रियते पुनर्यदि तान्येवानुनूय मरिष्यति । तदा 5. वृत्तानि पुराणीति प्रसिद्ध तेषु पुराणानि चिरन्तनानि (नराक्षा- व्यावधिमरणं तद्न्यापेक्वया पुनस्तद्हणावधि यावज्जीवस्य इंति) क्वचित्पाउस्तत्र मनोहराणीत्यर्थः। (महइमहालयाईति)। मृतत्वातू संभवति हि गृहीतोज्जितानामाप कर्मदद्धिकानां नान Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोहिमरण अभिधानराजेन्द्रः । अोहोवहि पुनर्ग्रहणपरिणामवैचित्र्यादिति । एवं केत्रकालादिष्वपि नाव- ओहय-अवधूत-त्रि० उदहिते, वृ०१ उ०। ना कार्या । प्रव०१५७ द्वा०। उत्त। ओहोवहि-ओघोपाधि-पुं० श्रोधः संकेपः स्तोकः लिङ्गकारकः श्रोहीर-नि-का-धा० अदा० प्रचक्षायने, ईषत्स्वापे, निजा अवश्यं ग्राह्यः उपधिः । उपधिनेदे, निचू० २२० । ओतेरोहीरोही ७।४।१२ । इति निपूर्वस्य बातेरोहीरादेशः । घोपधिनित्यमेव यो गृह्यते नुज्यते पुनः कारणेन स उच्यते । थोहारक, णिहार, निजाति, प्रा०। तदुक्तम् " ओहेण जस्स गहणं, जोगो पुण कारणा स ओहोश्रोहीरमाण-निघाण-त्रि० प्रचलायमाने, प्र० ११ २० ११ / वही "ध०३ अधि। ओघेन सामान्येन नोगे अनोगे वा यस्य उ०। वारंवारमीषन्निकां गच्छति, शा०१०। पात्रादेर्ग्रहणमादानं भोगःपुनः कारणानिमित्तेनैव भिकाटनादिश्रोहीरिय-अवधीरित-त्रि० परिजूते, प्राचा०२ अ०१ उ० ।। नास प्रोघोपधिरनिधीयते । पंवा (उबहिशब्देऽस्य गणना ओहणण-अवधनन-न० अपूर्वकरणेन निन्नग्रन्थे भेदापादने, आ-| प्रमाणं च दर्शितम्) [ीकारः प्राकृते न भवतीति तदादयः चाए अ०१० शब्दा नोपदर्शिताः] इति श्रीमत्सौधर्मवृहत्तपागच्चीय-कलिकालसर्वइश्रीमट्टारक-जैन श्वेताम्बराचार्य श्री श्री १००० श्रीविजयराजेन्सूरिविरचिते अनिधानराजेन्छे ओकारादिशब्दशङ्कलनं समाप्तम् Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ककार कोशः मादेवि गावित, राजान, प्यकुल अनिधानराजेन्मः। कश्लासा कतिपय-त्रि कति-अयच्-पुक् च । डाहवौ कतिपये ८।१॥५०॥ इति यस्थाने वः। कतिशब्दार्थे, प्रा० । कइ (य) अवपश्मत्ति-कैतवमझ (शा) प्ति- स्त्री० कैतवानि कपटानि नेपथ्यभाषामार्गगृहपरावादीनि (पन्नत्तित्ति) प्रज्ञाप्यन्ते याभिस्ताः कैतवप्राप्तयः । यद्वा कैतवानां दम्भानां प्रकृष्टाः ज्ञप्तयो ज्ञानानि कमलश्रेष्ठिसुतापद्मिनीवत यासु ताः ktikdile कैतवप्रसप्तयः । यद्वा कैतवेषु प्रशाया बुद्धेराप्तिरादानं यासु ताः। स्त्रीषु " कइयवपन्नत्तीण, ताणं अनायसीलाणं” तं० । क-क-पुं०कै-शब्दे,कक-दीप्ती, वा म+ब्रह्मणि, विष्णौ,कामदेवे, | कइ (य) अवपेमागारितडी-कैतवनमागीरतटी-स्त्री० कुशि ध्यकुलबालकपातिकामागधिकागणिकावत् कैतवप्रेमभ्यां अग्नी, वायौ, यमे, सूर्ये, आत्मनि, दके, प्रजापती, राजान, गिरितट्यामिव पातिकायां स्त्रियाम् , " कइयवपेमगिरितकामग्रन्थौ, मयूरे, मेदिनी।विहगे, शब्दचि। चित्ते, देहे, का डीओ"तं०। ले, घने, मेघे, शब्दे, अनेकार्थकोशः प्रकाशे च एका० शिरसि, | न जल्ने, सुखे च न० मेदिनी। केशे, पुं०-धरणिः ॥ को ब्रह्मा कइ ( य) अविया-कैतविकी-स्त्री० कैतवन निर्वृत्ता ठक। त्मप्रकाशार्ककेकीवायुयमाग्निषु । २१ । कं मौलिसुखतोयेषु कः कपटेनात्मन्यन्यन्मनस्यन्यदयाचीत्यादिलक्षणेन निर्वृत्तायांत्रिशब्दः सर्वलिङ्गकः। सर्वनामगुणोक्तो यम्तस्यरूपं त्रिलिङ्गकम् १ याम, व्य०४ उ०॥ का स्यात्पितामहे ब्रने, मारुते शमने नले । सितवणे मयूरे कइउद-शुके, देशी। च, हरावात्मनि वारिधी ।। वसावाहतिशब्दे च प्रकाशे पुंसि काकसई-निकरे, देशी०। कश्यते । एकाकत्ति कम मे पावं" कश्त्ययं वर्णः कृतं मया पाप-कडकोर-निकरे देशी। मित्येवमन्युपगमे वर्तते । आम द्वि० । किमादेशः ककारः केपे, यथा को राजा यो न रक्कति । नि०चू०१०। । कइक-कपिध्वज- पुं० कपिलजेऽस्य तैलादित्वात् द्वित्वे कअ-कृत-त्रि० क-क्त-+निष्पादिते, “माझाए कभं । अह-| द्वितायतुययारुपारपूर्वः दाराह । हात चतुथस्यापाराद्वतीयः। वा यं काकज्जो" प्रा० । कइद्धो, कांधो, अर्जुने, प्रा० । कश्म-कतम-त्रि० किम इतम् । मध्यमकतमे द्वितीयस्य ८।२। क (य) अग्गह-कचग्रह-पुं० कगचजतदपयवां प्रायो मुक ४८। इति द्वितीयस्यात इत्वम् । कतमः। कश्मः प्रा० । बहनां । । ७७ । इति चमुक अवर्णों यश्रुतिः इति कगचजेत्यादिना लुकि सति शेषोऽयोऽवर्णात्परो बघुप्रयत्नतरय-1 मध्ये जात्यादिभिर्निर्धारणार्थ प्रश्नविषये एकस्मिन् पदाकारश्रुतिर्भवति । कयम्गहो, कचग्रहः । रत्यथै स्त्रियाः केशाकर्ष थे, वाच. णे, प्रा। कश्रव-कैरव-न० के जले रौति-रु-अच्-अलुक समासः । कअर-कतर-त्रि० किम् सतरन् द्वयोर्मध्ये निर्धारणाथै प्रश्न केरवो हंसस्तस्य प्रियम् अण्-वैरादौ ८।१५२। इति ऐत इराविषये एकस्मिन् पदार्थ, प्रा० ! वाच०॥ देशः । कदरवं केरवं' प्रा० । कुमुदे, शुक्लोत्पले,अमरः । शत्री, पुं० । कैतवे, न० मेदि०। कइ-कति-त्रि० बहुव० । किं परिमाणमेषां-किम् इति । किम्प्र कश्लास-कैला(सश-पुं० के जले लासो लसनं दीप्तिरस्य अलुक माणे, सू०प्र० ९ पाहु । कियत्संख्येषु. विशे० । संख्यापरिमाणविशेषविषयप्रश्नविषयेषु पदार्थेषु, वाच । समासः। केलासः स्फाटिकस्तस्येव शुभ्रःए।केलीनां समूहः चत्तारि कर परमत्ता तं जहा दवियकइ माउयका पन्ज अग कैलं तेनास्यतेऽत्र प्रास्-श्राधारे-घञ्-वैरादौ वा ८।१। ५२ । इति ऐत इत्वं वा प्रा० । जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्ववकइ संगहका॥ तस्य लवणसमुद्रे,दक्षिणापरस्यां कैलासस्यानुवेलन्धरनागराकतीति प्रश्नगर्भापरिच्छेदवत् संख्यावचनो बहुवचनान्तस्तत्र जस्यावासपर्वते, जी० ३ प्रति० । प्रवृत्तिनिमित्तं कैलाशे। द्रव्याणि च तानि कति च व्यकति कति व्याणीत्यर्थः। 5- कैलाशप्रभाणि उत्पलादीनि । कैलाशनामा च तत्र देवः व्यविषयो वा कतिशब्दो अव्यकति । एवं मातृकापदादिष्वपि पल्योपमस्थितिकः परिवसति । ततः कैलाशः (तस्य) दक्विनवरं संग्रहाः शालियवगोधृमा इत्यादि स्था० ३ ग०२१०। णापरया कैज्ञाशा राजधानी (जी०) (अनुवेलंधरशब्दे तद्वर्णक कपि-पुं० वानरे, ज०३ श०६०॥ उक्तः) तदधिपेऽनुवेलन्धरनागराजे,(जी०)नन्दीश्वरवरद्वीपस्य कवि-पुं० कवते नवं नवं जणति भङ्गीवैदग्भ्यादि सहितैः पाका | पूर्वार्णाधिपती महर्डिके पख्योपमस्थितिके देवे च जी०३ प्रतिक तिरेकरसनीयरसरहस्यास्वादमेकुरितसहृदयहृदयानन्दैनिःशे- शिवकुवरयाः पभाषावैशारद्यहृद्यैर्गद्यपद्यप्रबन्धैर्वर्णनां करोतीति कविः । गद्य कश्लासभवण-कैलाशजवन-न० क० स० । कैलाशरूपे श्रापद्यप्रबन्धरचके, अष्टमः प्रवचनप्रभावक एषः॥ध०५ अधिक श्रये, पिं०। कैलाशपर्वतो मेरुः “तत्थ जाणि देवभवणाणि" मन्दकाव्यकर्तरि, । अनु०॥ रस्थदेवालयेषु, "केलासभवणा एते आगता तुझकामहिं" नि. कइअव-कैनव-न० कितवस्य भावः कर्म वा प्रा । अइदै- चू०१३२०आईतग्रन्थे प्रायस्तालव्य एव कैलाशशब्दो दृश्यते । त्यादौ च ८॥१॥ इत्यैतः अइ इत्यादेशः।कइअब,कैतवम,माग कश्लासा-कैलासा-स्त्री० कैलासनानोऽनुवेबन्धरनागराजनेपथ्यमार्गगृहपरावादी, कपटे, दम्भे, तं०॥ स्य कैलासाख्यस्यावासनूतायां राजधान्याम, जी०३ प्रतिः । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६३) कश्माह अभिधानराजेन्द्रः। कंखफाप कडमाह-कतिपय-त्रि० कति अयच-पुक्-च! माहयौ कतिपये ८1 सिहा । मच्चेसणं कियायंति" ढङ्कादयः पक्तिविशेषाः आमा सानिमाया श्रया आमिषजीबिनो मत्स्यप्राप्ति प्रति ध्यायन्ति । सूत्र.१७० परिमिते च प्रा। ११ अ० । लोमपक्विविशेषे, । जी०१ प्रति० । प्रशा। कवि-(का) या कैतविका-स्त्री. कलाचिकायाम, झा०१ अ०) कंकग्गहणी-कग्रहणी-स्त्री० पुं० कङ्कः पक्तिविशेषस्तस्येव काम-कीदृश-वि० कस्येव दर्शनमस्य-किम्-दृशा-कञ्- | अ- ग्रहणी गुदाशयो यस्य स तथा । नोरोगवर्चस्के. औका कङ्कप्रहपभ्रशे-अतांडश्सः । ८।४।३। इति दादेवयवस्य मित अश्स णी श्रमणो नगवान महावीरः उत्तरकुर्वादिमनुष्याःसुषमसुपभाइत्यादेशः। मिवाट्टियोपः । किम्प्रकारे, प्रा० । मुपमयोर्भरतक्केत्रजा मनुष्याश्च कङ्कग्रहण्यः (णयः) प्रश्न १ कइसंचिय कतिसश्चित-त्रि० कतीत्यनेन, संख्यावाचिनो वा अध० ६०४०।जी। दयः संख्यावन्तोऽनिधीयन्ते । अयश्चान्यत्र प्रश्नविशिष्टसंख्यावा कंकम-कडूट-पुं० कं देहं कटति क-कट-मुम्-च । ककि लाल्ये चकतया रूढोपीह संख्यामात्रे अष्टव्यः । तत्र नारकाः कति सं अटन्-वा- । वाच० कवचे, राज। जीमा औ० । प्रा० ख्याताः एकैकसमये ये उत्पन्नाः सन्तः सञ्चिताः कत्युत्पत्तिसा म०प्र० । “सहकंकमवमेंसगा ति" सह कङ्कटैः कवचैरवतंसधावृद्ध्या राशीकृतास्ते कतिसञ्चिताः । स्था०३ ग० । एक कैश्च शेखरकैः शिरस्त्राणर्वा ये ते तथा भए २०३३ उ०। ज्ञान समये संख्यातोत्पादन विमितेषु नैरयिकादिवैमानिकपर्यन्तेषु, कंकडुग-काटुक-पुं० दुइछेद्यमाषे, तघ्त् दुर्व्यवहारिणि च । ज०२० श०१० उ० । (उववायशब्दे वक्तव्यतोक्ता) "मा कित्ते कंकमुकं कुणिमं पक्खुत्तरं न वचाई" इति तस्य दी. काहसिय-कपिहसित-न० अनभ्रे, सहसा विद्युति, आकाशे, प्यम् “ कंको विवमासो सिकिं न उबेर जस्स ववहारो" वानरमुखसशस्य विकृतमुखस्य हसने, अनन्ने या विद्युत्सहसा यस्य व्यवहारः काङ्कटक श्य माप श्व न सिसिमुपयाति तत्कपिहसितमन्ये स्वाहः कपिहसितं नाम यदाकाशे वानर- स काटकव्यवहारयोगात् काङ्कटका व्य० ३०। . मुखसहशस्य विकृतमुखस्य हसनम् । न.३ श०६ १०। कंकण-कण-न० कं शुनं कणति कम् कण-अच् । रक्तदवरककउ-कुतस्-अव्य कुतसः कउ कहंति हु८ । ३ । १६ । इति रूपे, ज०११ श०१० उ० करतूषणे, षणमात्रे,शेखरे च । कमित्य करदेश महतोगनिदोका.. व्ययं जलार्थकं तस्य कणः जलकणे, पुंगा वाच। पना बति" तस्मादित्यर्थे, प्रा० । कंक (य)त-कडूत-पुं० ककि-अतन् । केशसंमयनार्थे रुयुक्रत-पुं० । सयूपे यझे, " सयूपो यज्ञ एव हि ऋतुरु- पकरणे, सूत्र१श्रु०४ अ० नागवलावृक्के, तक गती, अतच । पूषो. च्यते। यूपरहितस्तु दानक्रियायुक्तो या इति । विशे० । प्रा. | अल्पविषे, कुण्मुन्ने सर्प, पुं० स्त्री० जातित्वात स्त्रियाम् ङी म०प्र०। "बरं कृपशसाद वापी, वरं वापीशताततः । वरंक. केशप्रसाधन्याम, गौरा० जीप ' वाचः तुशतात् पुत्रः, सत्यं पुत्रशताद् वरम्" स्था०४ ग० ३ ०। सं-1 कंकतिग्गाम-कतिग्राम-पुं० माघराजवंश्यानां पुरण्टिरित्तमराकरपे, ब्रह्मणो मानसे पुत्रे, ऋषिभेदे, वैश्वदेवनेदे, इन्द्रियेषु | जादीनां काकतीयानामनिजनग्रामे, ती० । कल्प० । विष्णौ, रुचेराधिक्ये, प्रज्ञायाम, स्तवनादिकर्मणि च वाच।। कंकतिन्ज-काकतीय-त्रि० माघराजवंशज नृपतौ, माघराजस्य करव-कौरव-पु. स्त्री० कुरोरपत्यादि-उत्सा० अञ् तद्देशस्य रा- कतिग्रामवास्तव्यत्वाद् वंशजाः पुरण्टिरित्तमराजपिमिकुशिमजा अए । तेषु भवो वा अण । अनः पौरादा च ।।१।६२ मराजप्रोल्मराजरुषदेवगणपतिदेवपुत्र। च रुद्रमहादेवी पञ्चत्रिशति पौरादित्वात् औतः अनुरादेशः प्रा० । कुरुवंश्ये, तद्देशनृपे, शद्वर्षकृतराज्यस्ततः श्रीप्रतापरुद्र एते च काकतीया इति कुरुसम्बन्धिनि, तद्देशनवे च त्रि. स्त्रियां ङी वाचः। प्रसिकाः ती। कल्पा कउल-करीषे, देशी। कंकलोह-कडुलौह-नकङ्कायसि, "कर्तिकां कङ्कलोहस्य.गोपिकउसन-कौशल-न० कुशनस्य भावः युवा० अ पौरादौ चेति तां चाददे तदा" अर० क । उदायी नृपः कङ्कायाकर्तिका कपरकर्तनेन विनाशितः स्थाठा । औतः अनुरादेशः। दकतायाम, I प्रा०। कंकेल्लि-कडुलि-पुं० कडू- वा. एल्वि-पृषो । अशोकवृ. कउह-ककुद-पुं० न० कस्य देहस्य मुखस्य वा कुं नूमि ददाति के, प्रव० ३० हा लप० । रक्ताशोके, दर्श। दा-क- । ककुदे हः ८ । १ । २५ । इति ककुदे दस्य हः । कउहं कक्कसार-दधोदने, देशी० । प्रा०। वृषजस्य स्कन्धासनोन्नतदेहावयवे, अनु। नित्ये, देशी। नपचिहे ग्बादी, पर्वताप्रभागेच । वाच। कंकोम-कर्कोट-पुं० कर्क-ओट-बादावतः ७।१। २६ इति कउद्द-ककुल्-स्त्री के प्रकाशं स्कुन्नाति स्कुन्न विप् पृपाद प्रथमस्वरस्यानुस्वारागमः । नागदे, प्रा० ।। कंकोलम-कडनेपम-पुं० कङ्कः पक्तिविशेषस्तस्याहारणोपमा यत्र रादित्वात्सिसिः । ककुभो हः ।१।२१ । ककुनशब्दस्या समध्यमपदापात् कङ्कोपमः । तिर्यगाहारनेदे, अयमों यथात्यव्यजनस्य होनवति । कउहा, प्रा० दिशि, शोभायाम, च हि कस्य दुर्जरोऽपि स्वरूपेणाहारः सुखभक्ष्यः सुखपरिणामम्पकमालायाम, शास्त्रे, रागिणीभेदे, प्राणे च । वाच । श्व जबति एवं यस्तिरश्चां सुखभक्ष्यः सुपरिणामश्च स कोपम को-कतस्-अव्य० किम्-तस् । संस्कृते किमः कुः । कस्त्र- इति स्था०४०४ उ०। तसोश्च । ३ । ७१ । इति किमः कः । कस्मादत्य- ककस-दध्योदने, देशी। थे, प्रा०। कंखज्झाण-काडाध्यान-न० अन्यान्यदर्शनग्रहः काङ्गा तद्कंक-कडु-पुंछ ककि-अच् । पक्तिविशेषे, प्रश्न अधण्द्वा०१०। ध्यानम, "कवित्रा इत्थं पिइह यं पि" इति घदतो मरीचेरिव सूत्र० । स्था० । अणु० ।" जहा ढंकाय कंकाय कुबलामगुका- परदनशनस्याने, पातु! Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंखण अनिधानराजेन्द्रः। कंखामोहणिज्ज कखण-काडण-न० अन्यान्यदर्शनग्रह, ध०२ अधिः। "जीवाणमि" त्यादि व्यक्तमवरं जीवानां सम्बन्धि यत् ( कंखा मोहणिज्जत्ति) मोहयतीति मोहनीयं कर्म तचारित्रमोहनीयमपि कं (खप्प ) खाप ओस-काङ्क्षाप्रदोष- पुं० क-स- काङ्गा भवतीति विशिष्यते कांकाऽन्यान्यदर्शनग्रहः उपत्रकणत्वाचामिथ्यात्वमोहनीयोदयसमुत्थोऽन्यान्यदर्शनग्रहरूपोजीवपरिणा स्य शङ्कादिपरिग्रहस्ततः कांकाया मोहनीयं कांकामोहनीयं मि. मः स एव प्रकृष्टो दोषो जीवदूषणं काङ्क्षा प्रदोषस्तदू विषयं उ. थ्यात्वमोहनीयमित्यर्थः (कमेत्ति) कृतं क्रियानिष्पाद्यमिति द्देशः । जीचेन नदन्त ! काङ्कामोहनीयं कर्म कृतमित्याद्यर्थनिर्णयाथें भगवत्याः प्रथमशतस्य तृतीये उद्देशे,भ०१ श० १०॥ प्रश्नः उत्तरन्तु (हंता कमेत्ति ) अकृतस्य कर्मत्यानुपपत्तेः।वह च कांका दर्शनानन्तरं गृहो गृद्धिर्वा सैव प्रकृष्टो दोषः कांकाप्रदोषः वस्तुनः करणे चतुर्भङ्गी दृष्टा यथा देशेन हस्तादिना वस्तुनो कांकाप्रद्वेषं वा रागद्वेषयोर्नवति (पतत्कय एवान्तकरो भवती देशस्याच्छादनं करोति । अथवा हस्तादिदेशेनव समस्तस्य वति अंतकिरियाशब्दे) स्तुनः। अथवा सर्वात्मना वस्तुदेशस्याथवा सर्वात्मना सर्वस्य वस्तुन इत्येवं कांक्कामोहनीयकरणं प्रति प्रश्नयनाह ( से भते! कंखा-काङ्गा-स्त्री० काति-भावे अ+। अप्राप्तविविधार्थप्रार्थ इत्यादि) (सेत्ति) तस्य कर्मणः अदंत! किमिति प्रमे देशेन नायाम, ध. ३ अधिः । कांका गृहिराशक्तिरित्येकार्थाः । जीवस्यांशेन देशः काङ्कामोहनीयस्य कर्मणोंऽशः कृत इत्येतं० । जोगेच्गयाम् , सूत्र०१७०१५ अ०॥ध्याद्यनिला, न को भङ्गः। अथ देशेन जीवांशेनैव सर्व कानामोहनीयं कृतमिति त०१६मा अभिवाषातिरके, उपा०२०। कमाऽहिंसा द्वितीयः। नत सर्वेण सर्वात्मना देशः काङ्गनमोहस्य कृत इति तृती दिगुणलेशदर्शनाद् (ध०५ अधि०) मिथ्यात्वमोहनीयोदयसमु यः। उताहो सर्वेण सर्वात्मना सर्व कृतमिति चतुर्थः। भत्रोत्तरम् स्थेऽन्यान्यदर्शनग्रहरूपे जीवपरिणामे, ज०१श०१०। आ (सब्वेणं सब्वे कमेत्ति)जीवस्वाभाब्यात्सर्वस्वप्रदेशावगाढततु झा० । श्रा० । प्रव०। सूत्र० । संथा० । नपा० । पश्चसु देकसमयबन्धनीयकर्मपुगसबन्धने सर्वजीवप्रदेशानां व्यापार इदर्शनातिचारेषुधितीय एषः । जीता तद्भेदाः कांक्वणं कांका त्यत उच्यते सर्वात्मना सर्व तदेककालं करणीयं काहामोहनीसुगतादिप्रणीतदर्शनेषु ग्राहोऽनिलाष इत्यर्थः तथा चोक्तं "कंखा यं कर्म कृतं कर्मतया बकमत पव च भङ्गत्रयप्रतिषेध इति अत अन्नान्नदसणग्गहों" सा पुनर्षिभेदा देशकांचा सर्वकांका च । देश एवोक्तम् । " एगपएसो गाद, सवपएसेहिं कम्मुणो जोमां । का कैकदेशविषया एकमेव सौगतं दर्शनं कांवति चित्तजयोत्र बंध जहुत्तहे, तिए पएसोवगादति ॥१॥" जीवापेक्वया कर्मप्रतिपादितोऽयमेव च प्रधानो मुक्तिहेतुरित्यतो घटमानकमिंद द्रव्यपेकया च य एके प्रदेशास्तेष्ववगाढ़सर्वजीवप्रदेशव्यापारन दूरापेतमिति । सर्वकांका सर्वदर्शनाम्येय कांवति अहिं त्वाञ्च तदेकसमयबन्धनार्ह सर्वमिति गम्यम् । अथवा सर्व यसादिप्रतिपादनपराणि सर्वाण्यव कपिलकणनताकपादादिमता त्किञ्चित्काङ्कामोहनीयं तत्सर्वात्मना कृतं न देशेनेति जीवानानीह लोके च नात्यन्तक्लेशप्रतिपादनपराएयतः शोभनान्येवेति।। मिति सामान्योक्ती विशेषो नाऽवगम्यत इति विशेषाषगमाय अथवैदिकामुष्मिकफलानि कांवति प्रतिषिका चेयमईद्भिरतः नारकादिदएमकेन प्रश्नयत्राह ॥ प्रतिषिकानुष्ठानादेवनां कुर्वतः सम्यक्त्वातिचारो जवाति । परश्याणं भंते ! कंखामोहणिजे कम्मे कमे ता कमे तस्मादिकान्तिकात्यन्तिकान्यावाधमपवर्ग विहायान्यत्राकांक्षा न कार्येति । आव०६अ। जाव सव्वेणं सव्वे को एवं जाव वेमाणियाणं दंडो काङ्कनयामुदाहरणम् । जाणियव्यो । राजाऽमात्यौ हयाकृष्पी, कौचिदण्यटवीं गता। (नेरश्येणमित्यादि) भावितार्थमेव क्रियानिष्पाचं कर्मोक्तं तत् जकतुः क्षुधितौ तत्र, वनस्पतिफलानि तौ ॥१॥ क्रिया च त्रिकालविषयाऽतस्तां दर्शयन्नाह ॥ मिलितेषु स्वसैन्येषु, ततः स्वस्थानमीयतुः । जीवाणं भंते ! कंखामोहणिज्जं कम्मं करिंसु ? हंता राझोचे सूएकत्सर्व-धान्यानि पच मत्कृते॥२॥ करिंसु तं भंते ! कि देसेणं देमं करिंसु एएणं अभिन्नावसिनिपुर्वलापास्तिः,प्रेक्षणे स्याद्यथा तथा । वेणं दमओ जाव वेगाणियाणं एवं करंति एत्थ वि दंमअझनेऽपीति मत्वा प्राक, कदनं कांक्वयाऽहरत् ॥३॥ ओ जाव वेमाणियाणं एवं करिस्संति एत्थ वि दमओ ततः कदनशुलेना-त्याहारान्मृतधाग्निशि । कृत्वा मन्त्री पुनर्वान्ति, विरेकादीनि पथ्यलुक्॥४॥ जाव वेमाणियाणं एवं चिए चिर्णिम चिणंति चिणिस्संति निराकांकः सुखी जातो, भोगानां नाजनं चिरम् । नवचिए नवचिणिंसु नवचिणंति नवचिणिस्संति नदीरेंआक०|आ००। प्रवका मोहनीये कर्मणि, सकापरब्यवि- सु उदीरति उदीरिस्संति वेदेंसु वेदेति वेदिस्संति णिज्जरेंस पयानिलाषरूपे चतुर्विशे गौणादत्तादाने,प्रश्नअध० द्वा०३। णिजति णिज्जरिस्संति । गाहा। कडे चिए य उवचिए, कंखामोहणिज-काडामोहनीय-न० मोहयतीति मोहनीयं कर्म तश्चारित्रमोहनीयमपि भवतीति विशिष्यते कांकाऽन्यान्यदर्शन उदीरिया वेदिया य णिज्जिमा । आदितिए चउजेया, ग्रहः । सपलवणत्वाच्चाऽस्य शङ्कादिपरिग्रहः । ततः कांकाया तियभेया पच्छिमा तिमि ॥ मोहनीय कांकामोहनीयं मिथ्यात्वमोहनीये,॥ "जीवाणमि" त्यादि व्यक्तनवरम् (करिसुत्ति) अतीतकाले रुतजीवाणं भंते ! खामोहणिजे कम्मे कडे ? हंता कमे से बन्तः उत्तरन्तु इन्ताऽकार्पुस्तदकरणे अनादिसंसाराभावप्रसङ्गाभंते ! किं देसेण देसे कडे देसेणं सब्वे को सवेणं देसे त् एवं (करंति) सम्प्रति कुर्वन्ति । एवं ( करिस्संति) अनेन च नविष्यत्कालताकरणस्य दर्शितेति कृतस्य च कर्मणश्चयादयो कडे सव्वेणं सव्वे कडे ? गोयमा ! णो दसोणं देसे कमेणो भवन्तीति तान् दर्शयन्नाह (एवं चिए इत्यादि) व्यक्तनवरं बयः देसणं सव्वे कमेणो सम्वेणं देसे कमे सब्वेणं सव्वे कमे। प्रदेशानुन्नागादेव नमुपचयस्तदेव पौनःपुन्येन अन्ये त्वाहुः।च Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६५) अभिधानराजेन्द्रः । कखामोहणिज कम्पादनमाचमुप नयन्तु चितस्याचामु er] वेदनार्थे निषेकः स चैवं प्रथमस्थितौ बहुतरं कर्मदनिकं तितो द्वितीयायां विशेषीनमेष पापकृशयां विशेषयति उच"मोसमचार पदमा ६ बहुतरं दव्वं । सेसं विसेसहीणं, जावुक्कोसं ति सव्यासि" १॥ उदीरणमनुदितस्य करणविशेषादयप्रवेशनं वेदनमनुजवनं निर्जरणं जीवप्रदेशेभ्यः कर्मप्रदेशानां शातनमिति । सू सदगाथा जयति सा च "कमेचिपत्यादि, भावितार्था चनवरं ( श्रतिपत्ति) कृतचितोपचितलक्षणे (चउनेयत्ति ) सामाम्यक्रियाका प्रक्रियामेा नियमेयसि ) सामान्यक्रियाविरहात (पमिति उदीरितदिनि मोति शेषः (तिमिति ) त्रयस्त्रिविधा इत्यर्थः नन्वाये कृतचिनोपचितान्युक्तान्युत्तरेषु कस्मानोदी रितवेदितमिश्रणांनी ति उच्यते कृतं चिपचिर्त कम विरमध्ययतिकरणादीनां त्रासकामानतिरिक्तचिरावस्था धन्य तादीन्युक्तान्युदीरणादीनां तु न चिरावस्थानमस्तीति त्रिकाना कियामा तान्यनिहितानीति जीवा का मोहनीयं कर्म वेदायन्तीत्युक्तम् । अथ तद्वेदनकारणप्रतिपादनाय प्रस्तावयन्नाह ॥ वेदनं जीवा णं नंते ! कंखामोहरिणज्जं कम्मं वेदेति ? हंता वेदति कहां भंते! जीवा खामोड़णिज्जं कम् वेदोत १ गोपमा ! तेहि तेहि कारणेहिं संकिया कंखिया वितिर्गिच्छिया भेदसमावपगा कलुससमावपगा एवं खलु जीवा खामोलि कम्पं वेदेति । (जया जंते! इत्यादि) जीवाः कांकामोहनीयं कर्म वेदयन्तीति प्रानिति किं पुनः प्रश्नः उच्यते वेदनोपायप्रतिपादनार्थम् । उक्तञ्च "पुव्वभणियं वि पच्छा, जं भन्न तत्थ कारणं अस्थि । पभिसेहो य अमा, देवविसेसो॥ १॥ तेहिं विन्ती धिकसंसर्गादिर्विस पेटवीप्सायां कारणः शङ्कादिहेतुभिः किमित्याह । शङ्किता जिनोक्तपदार्थान् प्रति सतो देशतो वा संजाता कांहिता देशतः सर्वतो वा स जातान्यान्यदर्शनाः (वितिगिनियति विचिकित्सितार सज्जा फलविषशङ्काः भेदसमापना इति किमिदं निशासनमा होमित्येवं जिनशासनस्यरूपं प्रतिमतेची भावं गता अनध्यवसायरूपं वा मतिनङ्गङ्गताः। अथवा यत एव शङ्कि विशेषण एवं माता कलुषमा ने तदेवमित्येवं मतिविपर्यासं गताः । एवमिति उक्तेन प्रकारेण ( खमुत्ति) वाक्यालङ्कारे निश्चये अवधारणे वा एतश्च जीवानां कांकामोदमनमित्यमेवावसेयं निवेदितान्तस्य च सत्यत्वादिति । भ० १ ० ३ ० । (तदेव सत्यमिति सूत्रं सचशब्दे श्रत्थित शब्दे च उक्तम् ) तद्बन्धो यथा । जीवा जंते! कंस्लामो कति हंता गो यमाचंतिक जंते ! जीवा कंसामोहणितं कम्म बंधंति हंता गोयमा ! पमादपच्चयं जोगनिमित्तं च से णं जंते ! पादे किं पचड़े गोपमा जोगपबड़े से हां भंते जाए किं परहे गोपमा बीरियप्यवड़े से णं जंते ! पीरिए कंखामोह विज्ज किं पव हे गोयमा ! सरीरप्पवहे । से णं भंते ! सरीरे किं पत्र हे ? गोमा ! जीव पव हे एवं सह अस्थि उट्ठाणे वा कम्मे वा वलेइ वीरिएड या पुरिसकारपरकपेड़ वा ॥ " जीवाणं नंते ! कं खेत्या " दि ( पमायपञ्चयत्ति) प्रमादप्रत्ययाप्रमत्तताल करणाद्धेतोः प्रमादश्च मद्यादिः । श्रथवा प्रमादग्रहणेन मिथ्यात्वाविरतिकपायलक्षणबन्धुढे मुत्रयं गृहीतम् । इच्यते च प्रमादेर्भावोऽस्य यदाह " पमाओय मुणिं देहि, भ frages | अन्नाणं संसओ चेव, मिच्छणाणं तदेव य ॥ १ ॥ रागो दोस्रो मन्नंसो, धम्मम्मि य अणायरो | जोगाणं प्पणीहाणं, अट्ठा वजियव्यत्ति तथा योगनिमितञ्च योगा - मनःप्रभृतिव्यापारास्ते निमित्तं हेतुर्यत्र तत्तथा बन्धन्तीति क्रियाविशेषणं वेदमेतेन च योगाख्यश्चतुर्थः कर्म्मवहेतुरुक्तः चः समुच्चये । अथ प्रमादादेरेव हेतुफल नावदर्शनायाद "सेमि” त्यादि (प्रमाण किं पवत्ति) प्रमादोऽसौ कस्मात्प्रयति पति वा पाठान्तरेण किप्रभवः (जोगप्पचदेसि ) योगो मन प्रतिव्यापारस्तत् प्रत्यचप्रमादस्य म द्याद्यासेवनस्य मिथ्यात्वादित्रयस्य च मनःप्रतिव्यापारस ये भावात (रियपति) पीला वीर्यान्तरायक ययोपशम समुधोजीव परिणाम विशेष ( सरीरप्पत्रदेति ) वीर्य द्विधा करणमकरणञ्च । तत्रालेश्यस्य केवलिनः कृत्स्नपोश्वयोः केवलं दर्शनोपयुञ्जानस्य योसावपरिस्पन्दोऽप्रतियो जीवपरिणामविशेपस्तदिनाधिक्रियते यस्तु मनोवाक्कायकरसायनः ससेश्यजीयको जीवप्रदेशपरिस्यन्दात्मको व्यापारोऽसौ सकरणं वीर्य तच शरीरमपदं शरीरं विनाभावादिति जीवति इ यद्यपि शरीरस्य कर्मापि कारणं न केवल एव जीवस्तथापि को जीवन जीवप्राधान्यजीव शरीरमित्युकम अथ प्रसङ्गत गोशालक निषेचना एवं सति प वमुचन्यायेन जीवस्य काङ्गामोहनीय कर्मबन्धकत्वे सति अस्ति विद्यते न तु नास्ति यथा गोशालकमते नास्ति जीवानामुत्थानादि पुरुषार्थासाधकत्वान्नियतित एव पुरुषार्थसिद्धेः । यदाह " प्राप्तव्यो नियतियला येस योऽर्थ सोऽवश्यं भवति नृणां शुभाशुभ या भूतानां महति कृतेऽपि हि लेनाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः " इति ॥ १ ॥ एवं हि श्रप्रमाणिकाया निरभ्युपगमः कृतो भवति । अध्यक्ष कारापलापश्च स्यादिति । ( उड्डाणे इवति) उत्थानमिति वेति वाच्ये प्राकृतत्वात्सन्धिलोपाभ्यामेवमिदेशस्तत्र उत्थानसूर्यभवनंइतिः विकलये समुचये या करने इवत्ति ) कर्मे उत्क्षेपणापक्षेणादि ( बले इवन्ति ) बलं शारीरः प्राणः । ( वीरिए इवत्ति ) वीर्य जीवोत्साहः ( पुरिसक्कारपरकमे इवति ) पौरुषाभिमानः पराक्रमश्च स एव पुरुषकारश्च साधिताभिमतप्रयोजनः पुरुषकारपराक्रमः । अथवा पुरुषकारः पुरुषक्रिया सा च प्रायः स्त्रीक्रियाऽतः प्रकर्षवती भवति । तदतिविशेषेण पराक्रमस्तु शत्रुनिराक रणमिति मोहनीयस्य वेदनं वन्धकास हेतुक उक्तः । अथ तस्यैषीणामन्यथ ततमेव दर्शयन्नाह । , से भंते! पणा चैव उदीरे अप्पणा चैव गरहर अपणा चैत्र संवरइ ? हंता गोयमा ! अप्पणा चैव Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) अभिधानराजेन्द्रः । कंखामोहणिज्ज तं चेत्र उच्चारयन्त्रं जं तं नंते ! अपणा चैव नदीरई - पणा चैव गरह अपणा चैव संवरइ तं किं उदिष्टां दीरे १ दिनं उदीरेइ २ अणुदिनं उदीरणा जवियं कम्मं उदीरे ३ नदयाांतरं पच्छा कडं कम्पं उदीरेइ ४ गोयमा ! नो उदिष्ां उदीरेइ १ नो अणुदिनं उदीरेश श् अणुदिनं उदीरणा जवियं कम्मं नदीरेइ ३ नो उदयातरपच्छा कर्म कम्मं उदीरेइ ४ जं तं जंते ! अणुदिनं नदीरणा भवियं कम्पं उदीरेइ तं किं उट्टारगेणं कम्मेणं बलेणं वीरिए पुरिसकार पर कमेणं अणुदिनं उदीरणानवियं कम्पं उदीरे उदाहुतं गृहाणं कम्मेणं अबलेणं अवीरिणं पुरसकारपरक्रमेणं अणुदिनं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरे गोयमा ! तं उट्ठाणेण वि कम्मेण वि रिसकारपर कमेण वि अणुदिनं उदीरणाभवियं कम्पं उदीरे णो तं अणुट्टाणेणं प्रकम्पेणं अवलेणं अत्रीरिणं अपुरिसक्कारपर कमेणं अणुदिनं उदीरणा जत्रियं कम्पं उदीरेइ एवं स अत्थि उाणे वा कम्मे वा बलेड़ वा वीरिएड् वा पुरिसकार - परकमेइ वा ॥ " से पूणमित्यादि (अप्पणा चैवत्ति) श्रात्मनैव स्वयमेव जीवोsa कर्म्मणो बन्धादिषु मुख्यवृत्यात्मन एवाधिकार उक्त नापरस्य, आह च "अमेत्तो वि ण कस्सर, बंधो परवत्युपच्चया प्रणिओत्ति" उदीरयति करणविशेषेणाकृष्य भविष्यत्कालवेद्यं कृपणाय उदयावलिकायां प्रवेशयति तथा (गरहइति ) आत्मनैव गढ़ते निन्दतीत्यतीतकालकृतं कर्मस्वरूपतस्तत्कारणगईणद्वारेण वा जातविशेषबोधस्सन् तथा ( संवरप्ति ) संवृगोति न करोति वर्तमानकालिकं कर्मस्वरूपतस्तद्धेतुसंवरणद्वारेण वेति गर्दादौ च यद्यपि गुर्वादीनामपि सहकारित्वमस्ति तथापि न तेषां प्राधान्यं जीववीर्यस्यैव तत्र कारणत्वाद्वर्वादीनाञ्च वीर्योख़ासनमात्र एव हेतुत्वादिति । श्रथोदीरणामेवाश्रित्याड् । “जं तं भंते!" इत्यादि व्यक्तन्न चरम् । अथोदीरयतीत्यादि पदत्रयोदेशकेऽपि कस्मात् "तं किं उदिमां उदीरे' इत्यादि नाद्यपदस्थैव निर्देशः कृतः उच्यते उदीर्णादिके कर्म विशेषणचतुष्टये उदीरणामेवाश्रित्य विशेषणस्य सद्भावादितरयोस्तु तदजावादेवं तर्ह्यद्देशसूत्रे गर्हते संवृणोतीत्येतत्पदद्वयं कस्मादुपात्तमुत्तरत्रानिर्देश्यमानत्वात्तस्येति । उच्यते कर्मण उदीरणायां गर्हासंवरणौ प्राय उपाय वित्यभिधानार्थमेवमुत्तरत्रापि वाच्यमिति प्रश्नार्थश्वेहोत्तरत्र व्याख्यानाद्बोद्धव्यः । तत्र ( नो उदिष्ां उदीरेत्ति) उदीत्वादेव उदीर्षस्याप्युदीरणे उदीरणाविरामप्रसङ्गात् ( नो अदिमां उदीरेइत्ति ) इहानुदी चिरेण भ विष्यदुरीर्णमभविष्यदुदीरणश्च तन्नोदीरयति तद्विषयोदीररणायाः संप्रत्यनागतकाले वा भावात् ( श्रदिसं उदीरणाभवियं कम्म उदीरइन्ति ) अनुदी स्वरूपेण किं त्वनन्तरसमये एव यदुदीरणाभविकं तदुदीरयति विशिष्ट योग्यताप्राप्तत्वात् तत्र भविष्यतीति भवा. सैव भविका उदीरणा भविकाऽस्येति प्राकृतत्वादुदीरणा भविकमन्यथा भविकोदीरण मिति स्यादु For Private कंखामो हाणिज्ज दीरणायां वा भव्यं योम्यमुदीरणाभव्यमिति (नो उदयाणंतरं पच्छा कत्ति ) उदयेनानन्तरसमये पश्चात्कृतमतीततां नीत यत्तत्तथा तदपि नोदीरयति । तस्यातीतत्वादतीतस्य चासत्वादसतश्चानुदीरणीयत्वादिति । इह च यद्यप्युदीरणाहिग्कालस्वभावादीनाङ्कारणत्वमस्ति । तथापि प्राधान्येन पुरुषवीर्यस्यैव कारणत्वमुपदर्शयन्नाह ( जं तमित्यादि ) व्यक्तन्नवरम | उत्थानादिनोदी रयतीत्युक्तम् । तत्र च यदापनं तदाह ( एवं स इति ) एवमुत्थानादिसाध्ये उदीरणे सतीत्यर्थः शेषं तथैव hiarमोहनीयस्योदीरणोक्ता । अथ तस्यैवोपशमनमाह । से भंते! अप्पा चेत्र जवसामेइ अप्पणा चैत्र गरह अपणा चैव संवर ? हंता गोयमा ! एत्थ वि तह जाणियां नवरं अणुदिनं उवसामे सेसा पडिसेहियव्वा तिष्मि । जं तं भंते ! अणुदिनं उवसामे तं किं उट्ठाणेणं जाव पुरिसक्कार परकमेइ वा से णूणं भंते ! अप्पणा चैव वेदे पणा चैव गरदइ ? हंता गोयमा ! एत्य वि सच्चे वि परिवाडी गवरं उदिष्ां वेदेइ नो अणुदिनं वेदेश | एवं जाव पुरिसकार परकमे वा से गूणं जंते ! अप्पणा चैत्र णिज्जरेइ अप्पणा चैव गरहइ हंता गोयमा ! एत्थ वि सव्वे वि पमिवाडी गवरं उदयाणंतरं पच्छा कर्म कम्मं निज्जरेइ एवं जाव परकमे का | " से पूणमित्यादि " उपशमनं मोहनीयस्यैव यदाह "माहस्वोवसमो, खश्रवसमो चउरहघाईणं । उदयक्खयपरि गामा, श्रहवि होति कम्माणं " ॥१॥ उपशमश्च उदीर्णस्य क्षयोऽनुदीर्णस्य विपाकतः प्रदेशतश्चाननुभवनं सर्वथैव विकम्भितोदयत्वमित्यर्थः । श्रयञ्चानादिमिथ्यादृष्टेरोपशमिकस्य सम्यक्त्वस्य लाभे उपशमश्रेणिगतस्य वेति ( अणुदि उवसामे इत्ति ) उदीर्णस्य त्ववश्यं वेदनादुपशमनाभाव इति उदीर्णे सद्यत इति वेदनसूत्रं तत्र ( उदि वेपइति ) अनुदीर्णस्य वेद्नाभावात् । श्रथानुदीर्णमपि वेदयति । तर्हि उदीदीयोः को विशेषः स्यादिति वेदितं सन्निजीर्यते इति निर्जरात्रं तत्र ( उदयासंतरं पच्छा कडेत्ति ) उदयेनानन्तरसमये यत्पश्चात्कृतमतीतताङ्गमितं तत्तथा तनिर्जरयति प्रदेशेभ्यः शातयति नान्यदननुभूतरसत्यादिति उदीरणोपशमवेदननिर्जरणसूत्रोकार्थसंग्रहगाथा “तइरणं उदीरेती, उवसामैतिय पुणो विवीपणं । वेइति निज्जरंति य, पढमच उत्थेद्दि सव " ॥ १॥ अथ काङ्क्षामोहनीयवेदनादिकं निर्जरान्तसूत्रप्रपञ्चं नारकादिचतुर्विंशतिदएडके नियोजयन्नाह । रयाणं जंते ! कंखामोह णिज्जं कम्मं वेदेति हंता वेदंति । जहा प्रोहिया जीवा तहा नेरइया जाव यणियकुमारा | पुढविकाइयां जंते ! कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेति । कहां ते! पुढविकाइया कंखामोह णिज्जं कम्मं वेदेति ? गोयमा सिणं जीवा णं णो एवं तक्काइ वा समाइ वा पमाइ वा मुणे वा वहइ वा ग्रहणं कखामोहाणिज्जं कम्म Ha गुर्ण जंते ! तमेव सचं नीसंक | Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६७) कंखामोहणिज्ज अभिधानराजेन्मः। कंखामोहणिज्ज जंजिणेहिं पवेश्य सेसं तं चेव जाव पुरिसक्कारपरकमेवा॥ ते चागमे मनःपर्यायज्ञानमिति, किमत्र तत्वमिति ज्ञानतः शङ्काएवं जाव चनरिंदियाणं पंचिदियतिरिक्खजोणिया जाव मिह समाधिः। यद्यपि मनोविषयमप्यवाधिज्ञानमस्ति, तथापि न मनःपर्यायज्ञानमवधावन्तर्भवति जिन्नस्वभावत्वात्तथा हिमवेमाणिया जहा ओहिया जीवा। नापर्यायज्ञानं मनोमात्रझव्यग्राहकमेवादर्शनपूर्वकश्च अवधि"नेरझ्याणमि"त्यादि शह च "जहा प्रोहिया जीवा"इत्यादिना। झानन्तु किञ्चिन्मनोऽव्यव्यतिरिक्तव्यग्राहक किञ्चिश्चोभयग्रा"इंता वेयंति कह णं ते ! नेरश्याणं काखमोहणिजं कम्मं वेयंति हकं दर्शनपूर्वकञ्च न तु केवबमनोडव्यग्राहकमित्यादिबहुवक्तगोयमा! तेहि तेहिं कारणेडि" इत्यादि सूत्रम् । निर्जरासूत्रान्तं स्त व्यमतोऽवधिज्ञानातिरिक्तम्नवति । मनःपर्यायज्ञानमिति तथा दनितकुमारप्रकरणान्तेषु प्रकरणेषु सूचितं तेषु च यत्र यत्र जीव र्शनं सामान्यबोधस्तत्र च यदि नामेम्झियानिन्द्रियनिमित्तः सापदं भागधीतं तत्र तत्र नारकादिपदमध्येयमिति । पञ्चेन्छिया मान्यार्थविषयो बोधो दर्शनं तदा किमेकश्वभुदर्शनमन्यस्त्वचण मेव शङ्कितत्यादयः काङ्कामोहनीयवेदनप्रकारा घटन्ते नै कुर्दर्शनमथेन्द्रियानिन्छियभेदा दस्तदा चकुष इव श्रोत्रादीनाकेन्द्रियादीनामतस्तेषां विशेषेण तद्वेदनप्रकारदर्शनायाह ॥ "पु. मपि दर्शनभावात् षमिन्छियनोइन्द्रियजानि दर्शनानि स्युन हे दविकाश्याणमि" त्यादि व्यक्तनवरम् (एवं तक्काश्यत्ति) एवं एवेति । अत्र समाधिःसामान्यविशेषात्मकत्वाद्वस्तुनः क्वचिहिशेवक्ष्यमाणोल्लेखेन तकों विमर्शः स्त्रीसिङ्गनिर्देशश्च प्राकृतत्वात् षतस्तन्निर्देशः क्वचिच्च सामान्यतस्तत्रचक्षुर्दशनमिति विशेषतो(समाश्वत्ति) संझार्यावग्रहरूपं झानम ( पम्माश्यत्ति) प्रज्ञा ऽचकुर्दर्शनमिति च सामान्यतो यच्च प्रकारान्तरेणापि निअशेषविशेषविषयं ज्ञानमेव (माणेश्वत्ति) मनःस्मृत्यादिशे- देशस्य सम्भवे चकुर्दर्शनमचकुर्दर्शनश्चेत्युक्तं तदिन्छियाषमतिनेदरूपम् (वश्वत्ति) वाग्वचनम् (सेसं तं चेवत्ति) णामप्राप्तकारित्वप्राप्तकारित्वविभागान्मनसस्त्वप्राप्तकारित्वेऽपि शेषं तदेव यदौधिकप्रकरणेऽधीतं तश्चेदं “हंता गोयमा? तमेव प्राप्तकारीन्छियवर्गस्य तदनुसरणीयस्य बहुत्वात्तदर्शनस्याचसचं नीसंकं जं जिणेहिं पवेश्यं से गुणं ते! एवं मणं धारेमा- क्षुर्दर्शनशब्देन ग्रहणमिति । अथवा दर्शनं सम्यक्त्वं तत्र च णे" इत्यादि तावद्वाच्यं यावत् सेणूणं भंते ! अप्पणा चेव निज- शङ्का “ मिच्चत्तं यमुदिन्नं, तं खीणं अणुदियं च उवसंतम्मि" रे अप्पणा चेव गरिहा" इत्यादेः सूत्रस्य (पुरिसक्कारपरक्कमे- इत्येवं लक्षणम् । क्कायोपशमिकमौपशमिकमप्येवं बक्कणमेव । श्वत्ति)पदं(एवं जाव चारिदियत्ति ) पृथ्वीकायप्रकरणवदप्का- यदाह-“ खीणम्मि उइमम्मि, अणुदिनं ते य सेसमिच्चत्ते । यादिप्रकरणानि चतुरिन्छियप्रकरणान्तान्यध्येयानि तिर्यकप- अंतो मुदुत्तमेत्तं, नवसमसम्मं बह जीवों" ॥१॥ ततोऽनयो. चेन्जियप्रकरणादीनि तु वैमानिकप्रकरणान्तानि । औधिकजीव- न विशेष उक्तश्चासाविति । समाधिश्च कयोपशमो हघुदीर्णस्य प्रकरणवत्तदभिशापेनाध्येयानीत्यत एवाह"पंचेदिएत्यादि" जयतु कयोऽनुदस्य च विपाकानुनावापेक्वया उपशमप्रदेशानुन्ननाम शेषजीवानां काडामोहनीयवेदनं निर्ग्रन्थानां पुनस्तन्न स-| बतस्तूदयोऽस्त्येव उपशमे तु प्रदेशानुभवोऽपि नास्तीति। उक्तश्च म्भवति, जिनागमावदातबुद्धित्वात्तेपामिति प्रश्नयनाह। "वेएसंतकम्म, खोवसमिएसु नाणुजावं सो। उवसंतकसा अस्थि ण नंते ! समणा निग्गंया कंखामोहणिज्ज क- प्रो पुण, वेदे ण संतकम्मं पि" ॥१॥ तथा चारित्रं चरणं म्मं वेदंति ? हंता अस्थि । कहणं नंते ! समणा निग्ग तत्र च यदि सामायिक सर्वसावद्यविरतिकणं दोपस्थापनी यमपि तल्लकणमेव महावतानामवद्यविरतिरूपत्वात्तत्कोऽनयोथा कंखामोहणिज कम्मं वेदंति ? गोयमा ! तेहिं तोहिं नेद उक्तश्वासाविति । अत्र समाधिः ऋजुजमवक्रजमानां प्रथकारणेहिं नाणंतरेहिं देसणंतरोहिं चरितंतरेहिं लिंगंतरे- मचरमजिनसाधूनामाश्वासनाय वेदोपस्थापनीयमुक्तं व्रतारहिं पवयणंतरेहिं पावयणंतरोहिं कप्पंतरेहिं मग्गंतरोहिं पणे हि मनाक सामायिका शुझावपि व्रताखएमनात् चारित्रिणो मयंतरेहिं जंगंतरेहिं णयंतरेहिं णियमंतरोहिं पमाणंतरेहि वयश्चारित्रस्य व्रतरूपत्वादिति बुद्धिः स्यात्सामायिकमात्रे तु संकिया कंखिया वितिगिजिया भेदसमावएणा क तदाछौ भग्नं नश्चारित्रं चारित्रस्य सामायिकमात्रत्वादित्येवम नाश्वासस्तेषां स्यादिति । आह च “ रिचवक्कजमापुरिसे, य रासुससमावक्षा एवं खलु समणा निग्गंथा कंखामोहणिज्जं णसामाइए वयारुहणं। मणयमसुळे य जो, सामए हुंति हुवकम्मं वेदंति से णणं भंते ! तमेव सचं नीसंकं जं जिणेहिं | याई" ॥१॥ तथा बिङ्गं साधुवेषस्तत्र च यदि मध्यमजिनैर्यथा पवइयं हंता गोयमा ! तमेव सच्चं नीसंकं एवं जाव पु- लब्धवस्त्ररूपं लिङ्गं साधूनामुपदिष्टं तदा किमिति प्रथमचरमरिसक्कारपरक्कमेइ वा, सेवं भंते ! तेत्ति । पढमसए त जिनाज्यां सप्रमाणधववसनरूपं तदेवोतं सर्वज्ञानामविरोधि वचनत्वादिति ? अत्रापि ऋजुजम्यक्रजम्ऋजुप्रइशिष्यानाइओ उद्देसओं सम्मत्तो।। श्रित्य जगवतां तस्योपदेशस्तथैव तेषामुपकारसम्नवादिति "अत्थिणमि" त्यादि काक्वाध्येयमस्ति विद्यतेऽयं पक्षो यत, समाधिः । तथा प्रवचनमत्रागमस्तत्र च यदि मध्यमजिनप्रवचश्रमणा व्रतिनः अपिशब्दः श्रमणानां काडामोहनीयस्यावेदन- नानि चतुर्यामधर्मप्रतिपादकानि कथं प्रथमेतरजिनप्रवचने पञ्चसम्भावनार्थस्ते च शाक्यादयोऽपि भवन्तीत्याह । निर्मान्थाःस- यामधर्मप्रतिपादके सर्वज्ञानामविरुकवचनत्वादत्रापि समाधिबाह्यान्यन्तरग्रन्यान्निर्गताः साधव श्त्यर्थः (नाणंतरेहिति) एक चातुर्यामोऽपि तत्वतः पञ्चयाम एवासौ चतुर्थवतस्य परिग्रस्मानानादन्यानि झानानि झानान्तराणि तैनिविशेबनविशेषे- हेऽन्तर्भूतत्वाद्योषा हि नाम परिगृहीता तुज्यत इति न्यायादिति । बुवा शङ्किता श्त्यादिभिःसम्बन्ध एवं सर्वत्र तेषु चैवं शङ्कादयः | तथा प्रवचनमधीते वेत्ति घा प्रावचनः कालापक्कया बहास्युर्यदि नाम परमाएवादिसकमरूपिजव्यावसानविषयग्राहक-| गमः पुरुषस्तत्र एकः प्रावचनिक एवं कुरुते, अभ्यस्त्वमिति खेन संख्यातीतरूपाण्यवधिज्ञानानि सन्ति तत्किमपरेण मनःप- | किमित्यत्र तत्वमिति ? समाधिश्चेद, चारित्रमोहनीयक्योपशमययिज्ञानेन तद्विषमभूतानां मनोषव्याणामवधिनैव दृष्टत्वादुच्य- विशेषेण उत्सर्गापवादादिभावितत्वेन च प्रावनिकानां विचि Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंखामोहणिज्ज अभिधानराजेन्द्रः। कंचणगपव्यय त्रा प्रवृत्तिरिति नासौ सर्वथाऽपि प्रमाणमागमाविरुरु प्रवृत्तेरेष- साधुत्वेन मन्तरि, स्था० ३ ०४०। "खंदर कश्चायणसगोप्रमाणत्वादिति । तथा कल्पो जिनकल्पिकादिसमाचारस्तत्र ते पिंगलए णिमात्थेणं वसाल) सावरणं णमक्खेवं पुछिए यदि नाम जिनकल्पिकानां नाम्न्यादिरूपो महाकष्टः कल्पः कर्म- समाणे संकिए कंखिए " इदमिहोत्तरं साधु अतः कथमत्रोत्तर कयाय तदा स्थविरकल्पिकानां वस्त्रपात्रादिपरिजोगरूपो यथा- लप्स्ये इत्युत्तरसानाकाडावान् कांक्तिः । भ० २श०१३० । शक्तिकरणात्मको कटस्वनावः कथं कर्मक्षयायेति ? इह च स. भक्तपान परसमयपाखएममतपरिझानान्यद्वस्तुदर्शनसमुत्पन्नाभि माधिः द्वावपि कर्मक्वयहेतू अवस्थानेदेन जिनोक्तत्वात्कएकष्ट- लाषे, “कंखियस्स कंखं चिंदित्ता भवति" दोषानिर्घातनाविनयः । योश्च विशिष्टकर्मवयं प्रति अकारणात्वादिति । तथा मार्गः पूर्व- दश०४ अ०। पुरुषक्रमागता सामाचारी तत्र केषाश्चिद् विश्वैत्यवन्दनानेकविध कंगु-कङ्ग-स्त्री० मुखमङ्गति मृगरावा-कु-शकवावाचा वृकायोत्सर्गकरणादिकावश्यकसामाचारी तदन्येषां तु न तथे हचिरसि धान्यविशेष, जं. ३ वक० । नि० चूछ । स्था । ति किमत्र तत्वमिति ? समाधिश्च गीतार्थाशउप्रवर्तिताऽसौ | सर्वापि न विरुद्धा आचरितमकणोपेतत्वादाचरितलकणं चेदम् प्राचा० । स० । उदकङ्गो, दश ६ अ श्यामाकादौ, सूत्र। "असढेण समानं, जं कत्थर केण असावजं । न निवारियमम्मे २ श्रु०२ अ । पीततामुत्रे च । जं० २ वक० । हिं, बहुममुमयमेयमायरियति" तथास क गुलया-कालता-स्त्री० बल्लीनेदे, प्रका०१पद। गमे आचार्याणामभिप्रायस्तत्र च सिम्सेनदिवाकरो मन्यते ।। कंगुलिया-कलिका-स्त्री लघुवृछनीतिकरणालकणे जिनकेवलिनो युगपज्ज्ञानं दर्शनञ्चान्यथा तदावगणकयस्य निरर्थ- भवनोत्कृष्टशातनाभेदे, ध०२ अधि० । प्रव०। कता स्याजिननप्रगणिकमाश्रमणस्तु जिन्नसमये ज्ञानदर्शने जी-कंचण-काञ्चन-न० काचि दीप्तौ भावे ख्युट । दीप्ती, कात्रिवस्वरूपत्वाद्यथा तदावरणक्कयोपशमे समानेऽपि क्रमेणैव मति- दीप्तौख्य स्वर्ण, अमर पद्मकेशरे, मेदि० नागकेशरपुप्फे, धने, श्रुतोपयोगी न चैकतरोपयोगे इतरक्कयोपशमानावस्तस्कयोप- राजनि। चम्पके, नागकेशरवृक्के, उदुम्बरे, धतूरे, स्वनामशमस्योत्कृएतः षट्षष्टिसागरोपमप्रमाणत्वादतः किं तत्वमिति? ख्याते वकेच पुं० मेदि० । स्वार्थे कन् काञ्चनवृक्के, काञ्चनइह च समाधिः यदेवमतमागमानुपाति तदेव सत्यमिति। मन्तव्य | मिव कायति के-क-हरिताले, न० रजनि । शालिने मितरत्पुनरुपेतणीयमथाबहुश्रुतेन नैतदवसातुं शक्यते तदैवं काञ्चनस्य विकारः अ काञ्चनविकारे, विकाचि बन्धने नावे जावनीयमाचार्याणां सम्प्रदायादिदोषादयं मतभेदो जिनानान्तु ल्यु बन्धने, न० काञ्चिदित्यव्ययार्थे, अन्य वाच । मतमेकमेवाविरुद्धञ्च रागादिविरहितत्वात् । प्राह च "अणुव कंचण(पु)र-काञ्चनपुर-न० कलिङ्गाख्यार्यदेशस्य प्रधाकयपराणग्गह-परायणा जंजिणाजुगप्पवरा। जियरागदोसमोहा, यणन्नहावाश्णो तेणं ति" || १ || तथा अङ्गाहादिसंयोगभङ्ग ननगरे, प्रव० २७४ द्वा० । प्रज्ञा " कत्रणपुरं कलिंगा" सूत्र कास्तत्र च द्रव्यतो नामैका हिंसा न भावत इत्यादिचतुर्नङ्गयु १ श्रु०५ अ० १३० । "कलिंगविसए कंचनरं नाम नयरं" ता न च तत्र प्रथमोऽपि भङ्गो युज्यते। यतः किन व्यतो हिं दर्शगजग्मुस्ते काञ्चनपुरं, तत्रापुत्रो नृपा मृतः। श्रा०का श्रावण सा र्यासमित्या गच्चतः पिपीलिकादिव्यापादनं न चेयं हिंसा कंचणकुंमिया-काञ्चनकुण्डिका-स्त्री०सुवर्णकुमिकायाम, श्रातल्लक्कणायोगा तथा हि-"जो उ पमत्तो पुरिसो तस्स उ जोगं | व० ४ अ० । पमुच जे सत्ता । वावजंती नियमा,तेसिं सो हिंसश्रो होत्ति"चणकम-काञ्चनकट-नवत्समित्राऽनिधानाधोसोकनिवा॥१॥ उक्ता चेयमतः शङ्का न चेयं युक्ता पतगाथोक्तहिंसाबक- सिदिकमारीनिवासभूते सौमनसस्य वनस्कारपर्वस्य षष्ठे कूणस्य अन्यन्नावहिंसाश्रयत्वात् । अव्यहिंसायास्तु मरणमात्रत- टे, स्था७ टा। या रूढत्वादिति । तथानया । व्यास्तिकादयस्तन यदि ना __ जम्बुद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य प्राच्यां दिशि, रुचकवरपर्वतस्य म व्यास्तिकमतेन नित्यं वस्तु पर्यायास्तिकमतेन कथं तदेवा- तृतीये कुटे, यत्र आनन्दानिधाना दिक्कमारा महत्तारका पारण नित्यं विरुरूत्वादिति शङ्का श्यञ्चायुक्ता ब्यापेक्वयैव तस्या सति जम्बूमन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणस्यां दिशि रुचकपर्वतस्य नित्यत्वात् पर्यायापेक्वया चानित्यत्वात् दृश्यते चापेक्कयैकत्रैकदा विरुझानामपि धर्माणां समावेशो यथा जनकापेक्षया य | द्वितीये कूटे, यत्र सुप्रतिज्ञाऽऽख्या दिक्कमारी परिवसति स्था। एव पुत्रः स एव पुत्रापेक्कया पितेति । तथा नियमोऽभिग्रहस्तत्र ग। सनत्कुमारदेवोकस्थे विमानभेदे च । स० । यदि नाम सर्वविरतिसामायिकंतदा किमन्येन पौरुष्यादिनियमेन कंचणकोसी-काश्चनकोशी-स्त्री० कञ्चनमय्यां प्रतिमायाम् कैनव सर्वगुणावाप्तेरुक्तश्चासाविति शहा यचायक्ता काचकोसीपविट्ठदंत उपा०२०। यतः सत्यपि सामायिके युक्तः पौरुष्यादिनियमो प्रमादवनित-कंचणग-काश्चनक-पुं० काञ्चनपर्वतवास्तव्यमहर्जुिकदेवेषु, स्वादिति प्राह च "सामाश्ए वि हुसावज-चायरूवे गुणक-1 जी, ३ प्रति०। रं पयं । अपमायवुहिजणगत्त-सेण आणाश्रो विमेयंति" ॥१॥ कंचणगपबय-काश्चनकपर्वत-पं० काञ्चनकानिधानगिरिषु, तथा प्रमाणं प्रत्यवादि तत्रागमप्रमाणमादित्यो मेरुपरियोज-! भ० १४ श००। तेषु हि उत्पलादीनि काञ्चनप्रभाणि कानशतैराभिः सञ्चरति चक्षुःप्रत्यकश्च तस्य नुवो निर्गच्छतो उचननामानाश्च देवास्तत्र परिवसन्ति तत्काञ्चनप्रजोत्पत्रादियोग्राहकमिति किमत्र सत्यमिति सन्देहः। अत्र समाधिन हि सम्य गात् काञ्चनकानिधदेवस्वामिकत्वाश्च ते काश्चनका इति ते क प्रत्यक्कमिदं दूरतरदेशतो विचमादिति ॥ प्रथमशते तृतीयो चोत्तरकुरुषु नीलवदादिप्हदानां पूर्वस्या पश्चिमायाञ्च दश दशेद्देशकः ॥ ज०१श०३ उ० । ति उत्तरकुरुवक्तव्यताशेषे आवदितम् प्रतिवर्णनम् जी०३प्रति कंखिय-काडिन्त-त्रि० देशसर्वकाङ्कायुक्त, दश० ३ ० । तेषां संख्या जवदीवेणं दीवे दो कंचणपव्ययसया पामत्ता साना मतान्तरमपि साध्विति बुद्धी, स्था०४ ग० । मतान्तरस्याऽपि उत्तरकुरुषु शीतानदीसम्बन्धिनां पञ्चानां नीसवदादिदानां Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) अभिधान राजेन्द्रः । स्थित कंटयाइ उद्धरण पुषादेर्जन्मोत्सये भृतादिनिः स्वामिनोऽङ्गानात्कारेण गृहीते यत्रे, देमयं चौपचिमेवे, स्त्री० गोरा० ङीप् मेदि० कीरीशवृके, रत्नमा० 1 कंचु परिक्खिचिया- कञ्चुकपरिक्षिप्तिका - स्त्री० कञ्चुको वारवाणः परिक्षिप्तो विकिप्तो विस्तारितो दर्षातिरेकम्यूरीनूतशरीरतया दवा सा तथा हर्षवनिबन्धनवरयाणायाम, प्र० ६ श० ३३ ०० । कंचु (नि० म्युक-मयये इनिः+अन्तःपु रवरो वृद्धी, विप्रो गुणगणान्वितः । सर्वकार्य्यार्थकुशलः कञ्चु कीनि इत्युक्त अनुसरे, याच अन्तःपुरप्रयो जननिवेद के प्रतीहारे च । न०९ श० ३३ उ० झा० । आ भा मध्ये सामेनोन ८ । ४ । ६२ । इति शौरसैन्यामिनो नकरस्यामन्त्रये सौ परे श्राकारो वा भवति जो कंचुश्श्रा । भो कञ्चुकिन प्रा० । विषधरे, विशे० । जारे, यवे, चणके च । तुषरूपकञ्चुकावृत्तपत्य भावरूपचे राजनि पा कंचुइज्ज - कञ्चुकीय - पुं० प्रतीहारे, प्र० ११ श० ११ ४० । आ० कंचगव्य क्रमव्यवस्थितानां प्रत्येकं पूर्वापरतद्वयोर्दश दश काञ्चनकानिधाना गिरयः सन्ति ते च शतं प्रवन्त्येवं देवकुरुष्वपि शीतोदा गया सम्बन्धिनां निषदादीनां पञ्चानां दानमिति - देवं द्वे शते एवं धातकी एक पूर्वादिष्वप्यतस्तेष्विति ॥ भ० १४ श० ८ ० । 66 कंच गोरसरीर-काञ्चनगौरशरीर- वि० काञ्चनगीरं शरीरं यस्य । सुवर्णत्विषि, दर्श० । कंच स्थल काञ्चनस्थल १० भरतवर्षे बोडविषये स्वनाम ख्याते नगरे, “ इव भारहे वासे कंचणत्थवं नाम नयरं तत्थ सुर्वणो नाम साथवाही "दर्श कंचणवलाणग-काञ्चनवलानक न० चतुरशीतितीर्थ मध्य गे तीर्थ अमृतमधिनामा श्रीमृतनिधिः ती०] कल्प० । कंचणमवस्थ - काशनगृह जि० काञ्चनस्य मू वृद्धो वा वर्णो यस्य स तथा । स्वर्णप्रजे मेर्वादौ, "से पव्वर (मेरु) समपगासे, विरायती कंत्रण मठवन्ने " सूत्र० १श्रु० ६ अ० । कंचणमणिरयणयूजियाग-काञ्चनमणिरत्नस्तूपिकाक – त्रि० काञ्चनं च मणयश्च रत्नानि च काञ्चनमणिरत्नानि तेषां तन्मयो यापिका शिखर पतवर्णदमयशिष कंचणमणिसमूह-काञ्चनमपिसमूह ५० सुवर्णरत्नप्रकरे, म० ६० । राजकजिय-काजिक-धारना, कल्प० ॥ कंचणमाला - काञ्चनमाला श्री० एतनुः सुताया वासवदत्ताया धात्र्याम्, यया कुष्ठिन उपाध्यायस्य काणाया वासवदत्ताया दृष्टिसंयोगो दृष्टः । आव०४ अ० आ० । कः । श्र० चू० । कंचरणरुइ - काञ्चनरुचि- पुं० सौराष्ट्रतिलकनूतायां रत्नसंच - यांग सारनाम सार्थवाहस्य काम्यनशिखानामा यामुत्पन्ने पुत्रे, दर्श० ( चश्य शब्दे देवव्यन कुणप्रस्तावे तकथा ) महाविजयवैनाढ्या सन्नतिलकनगरे सुवर्णसारश्रेष्ठिनः काम्ययायामुपने पुत्रे व दर्श० । कंचणसिहा काम्चनशिखा स्त्री० वारसाचादाय काम्यनचिमातरि वर्षा० । कंचलिया-काञ्चनिका श्रीदामपमासिकायाम चौ०० कंचि (ची) - काचि (श्री)- श्री० काचिन् कर्मणि इन्- कट्यारणविशेषे, श्री० प्रश्न० रशनायाम् कटिबन्धदासदी कर्तरिचमा पु " ! ०२४० मुले निष्यमाणे सोये दे० ना० कंजुष कम्बुक-पुं०कचि प्रीतिन्ययोर्वाक+मणनोज्यने० २५ इतित्रस्थाने व्यञ्जने परेऽनुस्वारः । प्रा० । वर्गेऽन्त्यो वा 5||३०| इति अनुस्वारस्य वा मः । “कञ्चुओ कंचुओ” प्रा० पाउस ए अ० विपचरनिमौके, वि. शे० वारवाणे, भ० श० ३ ० । चोलके, स्तनाच्छाद के वस्त्रे, वाच० । स च निर्ग्रन्थीभिर्यथा धाय्य यावांश्च तदेतदाइ "देति अल्प दरोदे कंत" देयमाश्रित्य स्वहस्ते मातृतीयस्तप्रमाणः पृत्येन तु दुस्तमानः सविता वजयतः कसाबरूः कञ्चुकः क्रियते स वोरोरुहौ हृदयति किं नूती अनुसी गाढपरिचादि विभि ताम् वृ० ३ ० ० नि० चू । वस्त्रमात्रे, वर्षापकगृहीताङ्ग "देशी भासा आरना भन्नति " नि० चू० १० । ध० । वृ० 1 कंजियपथ-कानिकपत्र०का पारिवादिशाके, वृ० १ ० । कराट कंटइल - कण्टकिल - पुं० कण्टक अस्त्यर्थे शल्लच् वंशभेदे, काकुले, सूत्र० १ ० अ० कण्टकवति, प्रश्न० १ ० १० । कंटइल्ल - कएट किन्- त्रि० प्राकृते अस्त्यर्थे इल्लः कण्टकवति, प्रा० अण्डा० १२० किमि०१० मत्स्ये, शब्दर० । स्त्रियां ङीप् खदिरवृके, पुं० । शब्दमाला० । मदनवृक्के, रत्नमा० | गोकुरे, वंशे, वदरवृक्के च राजनि० । क एटकयुक्तमात्रे च त्रि० । वाचः । कटय- कण्टक- पुं० न० कटि- एवुल । दुःखोत्पादके, उत्त० १ ०किलाडू, ०६०० १ ० ) शल्ये, विपा० अ० । चञ्चूत्रशूलादौ व्य०४ उ० । एककाच यतो बकपटकादयो भावतः परकादिकुतयः ०४ प्र०कटका सर्वे शीतोष्णादयो स्थानविघ्नहेतवः पो० ३ विव० । प्रतिस्पर्किनि गोत्रजेशश्री, "अकंटयं श्रोहयकंटयं ज्ञा० १ श्र० । क्षुद्रशत्रौ स्या । रोमान्समः मत्स्यासनाम्युनर्माण केन्द्र तं च कण्टकम्" वाच० ॥ कंटपयोंदिया--कएटकलोन्दिका ० कटकशाखायाम्, आ चा० २ ० १ अ० ५३० । सूत्र० । - कंटपाइ सरकण्टकाकर न० टन शरीरादेः पृथकरणे | निग्धस्य पादं विसायं वा कंटगं वा दीरे वा सक्कारे वा परियावज्जेज्जा तं च निग्गथे नो संवाइज्जा नो हरितए वा विसोहित्तए वा तं निग्गंधी नीरमाण वा विसोमाणी वा नाइकमा निर्मावस् य अम्मि पा वा बीए वा रए वा परियावज्जेज्जा तं च निम्गंधी नाम वा Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७०) अभिधानराजेन्ः | कंटयाइ उकरण इज्जा नीत्तिए वा विसोहित्तए वा तं निग्गंथी नीहरमाणी वा विसोमाणी वा नाइकमा निग्गंधीए आह पाई सिक्खाणं वा कं वा हीरए वा सकारे वा तं च निगंथी नो संवाइज्जा नीहरितए वा विसोहित्तए वा तं निगंथे नीह्रमाणे वा विसोहेमाणे वा नाइकमइ निग्गंधी ए अत्यम्मि पाणे वा वीए वा रए वा जावति निग्गंथे नीहरमाणे वा चिसोमा वा नाश्कम । अस्य सूचतुष्पस्य संन्धमाह । पायं गता अण्णा, यानि का कविता इमे सुता । आरोवणा गुरु ति य, तो उ सोमसमग्रमा । प्रायः प्रायेण कल्पिकानि नो कल्पन्ते इति निबन्धप्रतिपादकानि सूत्राणि शहाध्ययने गतानि इदानीमित ऊर्द्धमिमानि कल्पिसूत्राणि लभ्यन्ते या विनापायां सूत्रेणानुयातः प्रतिषेधः क्रियते । एवं वैकल्पिकन्यासूत्राणीत्यर्थः अथ किमर्थमत्र सूत्र एवानुका तेत्याह" धारोपणा" स्यादि यदि कारणे निर्मन्थस्य निर्भन्ध निर्भया या निधः कटकादिकं महरति तदा चतुर्गुरु एवमारोपणा गुरुका महती तेन कारणेनान्योन्यं परस्परं समनुज्ञा सूत्रेषु कृता । आह । यदि सूत्रेणानुज्ञातं ततः किमर्थमर्थतः प्रतिषिध्यते इत्यत आह । । जह चैव य पमिसे, होति अणुचा तु सम्यसुते तह चैव अणुखाए, परिसेहो अत्यतो पुत्रं || यचैव सूत्र ते सर्वयर्थतोऽनु भवति तथैव येषु सूत्रेषु साक्कादनुज्ञानमनुज्ञा कृता तेषु पूर्वमर्थतः प्रतिषेधस्ततोऽनुज्ञा क्रियते । अथवा प्रकारान्तरेण संबन्धस्तमेवाह । तद्वाणे वा वृत्तं निम्गंथी वा जता छ ण तरेज्जा । सो जं कुरणति दुहद्दो, तहा उवट्टणे मा वज्जे ॥ अथवा तत्स्थानं तस्य प्राणातिपातादिकर्तुः स्थानं प्रायश्चित्तं सम्यक् प्रतिपूरयतोऽभ्याख्यानदातुर्भवतीत्युक्तम् । श्रआपि निषेधः कण्टकादिकं यदा उन तरेन शक्रयात् सदा यदि निधी तस्य कराडकादिनीहरणं न करोति तदा सनि पीडितो बदामराम करोति तत्यानं प्रायश्चित्तं सा निधी आपले अत इदं सूत्रमार भ्यते अनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या । निर्ग्रन्थस्याधः पाद पादतले स्थायी कटको या हीरो वा पा पर्या पदविशेवसथ कटकादिकं निर्झयो नशा वा निष्काशयितुं वा निःशेषमपनेतुं ततो निर्ग्रन्थी नीहरन्ती या विशोधयन्ती वा नातिक्रामति आशामिति गम्यते इति प्रथमसूत्रम् । द्वितीयसूत्रे निर्ग्रन्थस्यादिण लोचने प्राणा वा मशकायः सूक्ष्मा बीजानि या सूक्ष्माणि शामाकादीनि रजो वा सचितमचितं या पृथिवीरजः पर्यापतेत् प्रविशेत्प्रा एयादिकं निर्ग्रन्थो न शक्नुयात् नीहर्तुमित्यादि प्राग्वत् तृतीचतुर्थसूत्रे निर्ग्रन्धीविषये एत्रमेव व्याख्यातव्ये इति सूत्रचतुष्यार्थः । अथ निर्युक्तिविस्तरः पाए अच्छि विग्गे, समयाणं संजएहिं कायव्वं । समणी समीहिं, पोछे होंति चडगुरुगा || २ || कंटयाइड करणा पादे यदि वा विलम्बे काटकककादी भ्रमणानां संयतमहरणं कर्त्तव्यम् श्रमणीनां पुनः श्रमणीभिः कार्यम् । अथ व्यत्यासेन कुर्वन्ति तदा चतुर्गुरवः । एते चापरदोषाः । अणत्तो वि व कुसि, तो कंटो खितं जाओ । दिपि हरति दिहिं कि पुण अदिमितरस्स ॥ संयतः संयत्याः कटकमाकन केतवेन पथाभावेन अपावृत उपविसेत् ततः ला तं यथावस्थितं पश्यन्ती कण्टकस्थानादन्यत्रान्यत्र शल्योद्धरणादिना कुट्टयेत् खन्यादित्यर्थः । ततः साधुब्रूयात् अन्यत एव त्वं कुट्टयसि कण्टकश्वान्यत्र प्रसमस्ति एवमीक्षितं संजातम् । सा प्राह इतरस्य पुरुपस्य संबन्धि सामारिकं दृष्टमपि भुक्तभोगिन्याः खिया अने को विलोकितमपि दृष्टिं हरति किं पुनरम भुक्तभोगिन्यास्तस्याः सुतरां दृष्टि हरतीत्यर्थ एवं कथायां प्रतिनम नादयो दोषाः । यदा तु निर्धन्धो निर्धन्याः कण्टकमुद्धरति तदाऽयं दोषः । कंटककए उधर, घरिणतं अवलंब मे गतित्तम्मि । सूवविसीसे पिछेहि थयो फुरति ॥ काचिदार्थका कैतवेनेाके पादे कण्टकं चकुषि च कणुकमुकरणीयमित्यर्थः । मामवलम्बय मम मि वशेन भूमिर्भ्रमति शूलं चावस्ति शीर्षे मम समायाति तेन स्तनः स्फुरति तपनं प्रेरय एवं मिश्रकथायां साचारिविनाशः । एए चैत्र दोसा कहिया वा वेदादिसु । य " -- पान जंबुसी उद- पारणं लोगिगी रोहा ॥ एतदचानन्तरोक्ता दोषाः श्रीवेदविषया आदित्रेषु कृतानिर्गतस्त्रीपरिकाध्ययनादिषु सविस्तरं कथिताः अत्र चाङ्गापास कहीतोष्णजम्बुपातेनोपतिप्रीकिक सहायाः कथा तय था "रोहा नामं परिव्वाश्यतो पाए वालगो दिट्ठो सो ताए अभिरुश्रो तीए चिंतयं विनाणं से परिक्खामि सो य तया जंबूतरुवगरुडो ती फलाणि य णईओ तेण भन्न किं चहाणि देमि उयाहु सीयलाणि त्ति । ताप जणइ उहाणि तओ [सेमी] पाडियाणि नतिया खाहिति ताए पुमि धूनि अवणेनं स्वयाणि पच्चा सा भूणइ कई भणसि उहाणि तेण भन्न जं वएहयं होश्डं फुमिओ सायलीकजर साबुका | पच्छा भणइ माइठाणेणं कंटश्रो मे लग्गोत्ति से रूरिमारोती सचियं सदसि विडीओ कंटकं पत्रोत्ता भणश् न दीसर कंटको ति । तीए तस्स परडी विएडा एमं तेसि दास्यब्यं कंटयउद्धरणेणं तीए खलीकओ । एवं साहूणो विपचादोसा ठप्प किं । मिच्छत्ते उड्डाहो, विराणा भावफास संबंधी | मादी दोसा, नमते य नेपल्वा ।। !मथ्यात्वं नाम निर्झन्थ्याः कण्टकमुकरन्तं दृष्ट्वा लोको ब्रूयात् य धायादिनस्तथा कारिणोध्मी न भवन्ति उड्डाड़ो या | मिपा गृहीता नमन्यदाप्यनयोः सत्यं भविष्यति। विराधना वा संयमस्य जवति कथमित्याह रपृशन्तं शरीरसं स्पर्शणा भयोरपि भावसंबन्धो भवति । अतो नुक्तभोगिनोरतभोगिनां तयोः प्रतिगमनादयो दोषा हालायाः । अथ मिथ्यात्वपदं नाधयति । दिट्ठे संकाभोय - धारिगणातीयगामबहिया य । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७१) कंटयाश्नद्धरण अनिधानराजेन्डः। कंटयाइनुद्धरण चत्तारि छच लहुगुरु, छेदो मूझं तह दुगं च ।। इत्थी दिय मिहिणि अम्पतिल्यीय । तस्यां कण्टकमुकरन केनचित् एस्तस्य शङ्का किमियं मैथुना- संबंधिएतरावा, थमिति सकणा यदि भवेत् तदा चतुलघु नोजिकायाः कथने चतुर्गुरु, धाटितवेदने षट्बघु शातिज्ञापने षट्गुरु प्रामावहिः वइणी एमेव दो एते ॥ कथन बेदः । ममादित्रयं पुनरित्थं मन्तव्यम् । गृहस्थपुरुषोऽन्यतीर्थिकपुरुषश्चेति द्वयं गृहस्थी अन्यनीथिंकी चेति वा द्वयम् । संबन्धिनी इतरा वा असंबन्धिन वतिनी एवं आरक्खियपुरिसाणन, काहणे पावति नवे मूलं । वा द्वयमेतेषां द्विकानामन्यतरेण कुले नागादे कारणे कारयितव्य. प्रणवट्ठो सेठीणं, दसमं वणिपस्स कथितम्मि॥ म। आह श्रमणानामभावे सूत्रनिपाते नवतीत्युक्तम् । कदा पुनरआरक्तिकपुरुषाणां कथने मूत्रं प्राप्नोति । श्रेष्ठिनः कथने अनव- सौ साधूनामनावो नवतीत्याह ॥ स्थाप्यं नृपस्य कथने दशमं पाराश्चिकम् पते संयतानां संयतीनां तं पुण मुमारले, वग्वादिनया अकुसझेहिं वा । च परस्परं कएटकोकरणे दोषा उक्ताः। कुसझे वा दूरत्थे, ण वयइ पदं पि गंतुं जे ।। एए चेव य दोसा, असंजतिकाहि पच्छकम्मं वा । साधवो न भवन्तीति । यदुक्तं तत्पुनरित्यं संभवति । शुन्यारण्य गिहिएहिं पच्चकम्म, तम्हा समणेहिं कायव्वं ॥ प्रामादिभिर्विरहिता अटवी दुधारण्यं वा व्याघ्रसिंहादिभयाकुएत एव दोषा असंयतिकानिः कएटकोकरणं कारयतो मन्त- सं तयोः साधनामजावो भवेत् उपलकणत्यादशिवादिनिः कारव्याः। पश्चात्कर्म वा कायेन हस्तप्रवासनरूपं तास भवति। गृहि- गैरेकाकी संजात इत्यपि गृह्यते। एषा साधूनामसदसत्तासदनिस्तु कारयतः पश्चात्कर्म जवति न पूर्वोक्ता दोषा अतः श्रमणैः । सत्तातु सन्ति साधवः परमकुशाला कराटकोकरणे अदकाः। अथवा श्रमणानां कएटकोकरणं कर्त्तव्यम् । अत्र परः प्राह। यः कुशलः स दूरस्थो दूरे वर्तते स च कएटकविरूपादः पदमएवं सुत्तं अफलं, सुत्तनिवातो अ असति समणाणं । पि गन्तुं न शक्नोति ततः पूर्वोक्ता यतना कर्तव्या । गिहिरपतिस्थिगिहिणी, परउत्थिगिणी तिविहलेदो । अथ सामान्येन यतनामाह ॥ यदि संयतीनिन कारथितव्यं तत एवं सूत्रमफलं प्राप्नोति सू परपक्वपुरिसगिहिणी, असोयकुममाण मोत्तु पमिपक्वं । रिराह । सूत्रनिपातः श्रमणानामनावे मन्तव्यः। तत्र च प्रथमं गृ- पुरिसजयं तमणुष्मे, होति सपक्खेतरा बत्ते ।। हिनिः कण्टकोकरणं कारणीयं तदनावे अन्यतीर्थिकैस्तदप्राप्तौ इह प्रथमं पश्चाई व्याण्याय ततः पूर्वा व्याख्यास्यते। ये यत. गृहस्थाभिस्तदसंनवे परतार्थिकीभिरपि कारयितव्यम्। एषु च प्र- मानाः संविनाः सानोगिकाः पुरषास्तैः प्रथमं कारयेत् । तदभावे त्येक विविधो भेदस्तद्यथा । गृहस्थस्त्रिविधः पश्चात्कृतःश्रावको मनोईरसाम्भोगिकैस्तदानावे ये श्तरे पार्श्वस्थादयस्तै कारये. यथाभकश्च । एवं परतीर्थिकोऽपि त्रिधा मन्तव्यः। गृहस्थपर- त्। एषा स्वपके यतना भणिता। भथैष स्वपको न प्राप्यते । ततः तीर्थिकी च त्रिविधा स्थविरा मध्यमा तरुणीचेति । तत्र गृह- "परपक्चे"श्त्यादि पूर्वाळम् । परपक्के गृहस्थान्यतीर्थिकरूपे स्थेन कारयन् प्रथमं पश्चात्कृतेन ततः श्रावकेण ततो यथाभद्र- प्रथम पुरुषैस्ततो गेहिनीभिरपि कारयेत् । तत्राप्यशौचवादिभिः कणापि कारयति । स च कएटकाकर्षणानन्तरं प्रझपनीयो मा कुशलश्च कारापणीयम् । अतएवाह । अशौचवादिकुशलानां प्रइस्तप्रक्षालनं कार्षीः एवमुक्ते यद्यसौ अशौचवादी तदा हस्तं तिपक्का ये शौचवादिनोऽकुशवाश्च तान् भुक्त्वा कारयितव्यम् । हस्तनैव प्रोञ्चति प्रस्फोटयति वा । अथ शौचवादी ततः।। प्रयतेऽपि न प्राप्यन्ते तदा संयतीभिरपि कारयेत् । तत्रापिप्रयम जइ सीसम्मि ण पुञ्चति, तणुपोतेसु वत्थमा वि पप्फोडे । । मातृनगिन्यादिनि लबद्धाभिस्तदभावे असंबन्धिनानिरपि स्थतो से अमेसि असती, दवं दलति मा दगं घाते ॥ विरामध्यमातरुणीभिर्यथाक्रमं कारयेत् ॥ यदि हस्तं शीर्षे वा तनौ वा पोतेषु वा वस्त्रेषु न प्रोन्नति न वा कथं पुनस्तया कएटक उकरणीय श्त्याह ॥ प्रस्फोटयति गृहं गतो हस्तं प्रकासयिष्यामीति कृत्वा ततः (से) सलुकरणणखेण व, अच्छि व वत्थुतरं व इत्थीम् । तस्य अन्येषामसत्यभावे प्राशुकमात्मीयं द्रवं हस्तधावनाय नूमीकतलोरसु, काऊण सुसंवमा दो वि ॥ ददाति मा दकमकायं घातयेदिति । वा गृहस्थानामभावे पर शस्योद्धरणेन नखेन वा पादं न संस्पृशन्ती कएटकमुद्धरति। श्रतीर्थकेनापि कारयेदेवमेव पश्चात् कृतादिक्रमेण कारयेत् तेषा थैवं न शक्यते वस्त्रान्तरितं पादं नूमौ कृत्वा यद्वा काष्ठे वा तमभावे गृहस्थाभिरपि कारयेत् । कथमित्याह । ले वा करी वा कृत्वा उद्धरेत द्वावपि च संवतीसंयती सुसं माया भगिणी धूया, अज्जिय णतीय सेसतिविधाओ। । वृतावुपविशतः। एष स्त्रीषु कण्टकमुहरन्तीषु विधिरवगन्तव्य आगाढे कारणम्मि, कुसलेंहि दोहि कायव्वं ।। एमेव य अच्चिम्मि, चंपादिलुतो गवरि णाणतं । या तस्य निर्गन्थस्य माता भगिनी दुहिता आर्यिका वा पिताम निग्गंथीण तहेव य, वरिं तु असंवुमा काई॥ ही नप्तृका वा पौत्री तया कारयितव्यम्। पतासामभावे याःशेषाः एवमेवादिसूत्रेऽपि सर्वमपि वक्तव्यम् नवरं नानात्वं चम्पारटा. अनालबकास्त्रियस्ताभिरपि कारयेत् । ताश्च त्रिविधाः स्थवि. न्तोऽत्र भवति । यथा किल चम्पायां सुभ्रदया तस्य साधोश्चरा मध्यमास्तरुण्यश्च । सत्र प्रथम स्थविरया ततो मध्यमयात कुषि पतित तृणमपनीतं तथाऽन्यस्य साधोश्चकुषि प्रविष्टस्य तस्तरुण्यापिकारयितव्यम् । आगाढे कारणे कुशमाभ्यां द्वाभ्या तृणादेः कारणे निर्गन्थ्या अपनयन संनवतीति रष्टान्तन्नावार्थः। मपि कण्टकोद्धरणं कर्तव्यं कारयितव्यमित्यर्थः॥ निर्ग्रन्थीनामपि सूत्रत्रयं तथैव वक्तव्यं नवरं काचिदसंवृतानके पुनस्ते द्वे इत्याह। वति ततः प्रतिगमनादयो दोषा भवेयुः। द्वितीयपदे निर्ग्रन्थ्यस्तागिहिअम्मतित्थिपुरिसा, सां प्रागुक्तविधिना कण्टकादिकमुकरेत् । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंटयापह अभिधानराजेन्दः । कंडरीय कंटयापह-काटकपथ-पुं० कण्टकाना यौनचरकसांख्यादानां प- राठौष्ठविप्रमुक्तम्, व्यक्ते, बालभूकभाषितबद् पदव्यक्तं न भवन्थाः कण्टकपथः । श्राकारः प्राकृतिकः अथवा कण्टकैः कुती- तीत्यर्थः । अनु। थिकैराकीणों व्याप्तः कुत्सितः पन्थाः काटकपथः । उत्त० १० | कंट-काएम-पुं० न० कनी दीप्तौ.ड, तस्य नेत्वम् किश्च दीर्घः। ०। कपटकाश्च व्यतो वखुबकएटकादयो नावतस्तु चरका | दण्डे, बाणे, पर्वणि, कुत्सिते, वर्ग, अवसरे, जले, अमरः । दिकुश्रुतयस्तैराकुलः पन्थाः कण्टकपन्था प्राकारी लाक- वृक्षस्कन्धे, स्तम्बे, निर्जने, धरणिः । नाडीवृद्ध वृक्षभेदे, णिकः । उत्त०४ अकएटकाकीर्णे पथि, व्य०१०। "अ- | मेदि० । श्लाघायाम, हेमचं० । वाच । प्रज्ञा० । स० विषविसोहियकंटयापह, रत्तिभोसि पदं महानयं" उत्त० १० १०॥ यखण्डे, आव०४ अानाले, शा० २ अ० प्रशा० । समूहे, कंटिया-काएटका-स्त्री० कएटकशिस्त्रायाम् पृ०१ उ० "तं वत्यं "सिरिदामकंडं" शा०८०दण्डश्चात्र षोडशहस्तमितो कंटियाए लग्गं ताइ संधितं " आ० चू०१ अ० । वंशः वंशादिदएडश्च संधिविच्छिन्नैकस्त्रएडास्थिन, न. कण्डकंठ-कएउ--पुं० कण ३० उस्य नत्वम् ! कठि-अच्-गले, वाच० स्यावयवो विकारो वा विल्वा प्रणा । काएडावयवे, तद्विग्रीवापुरोजागे, " संकरपुसंपरिदरियको" अत्र च कएचैकपा कारे च । त्रि० । अङ्कोटवृक्षे, पुं० शब्दचिवाचा एकादशकारशब्द इति कए परिधृत्येत्युच्यते उत्त०१०प्र०का देवलोकस्थे विमानभेदे च न० स० । मदनवृत्के, समीपे, होमकुरामाद्वाोऽहनिमितस्थाने, कएउध्वनौ, कंमंत-कएडयत्-त्रि० उदुखले तण्डुलादिकं छएटयति “कध्वनिमात्रे च हेमचं० वाच० । गलनाले च हेमचं० ॥ डंती" पिं० । ओ०। ध० ॥ कंउकुव-कएकूप-पुंर कण्ठे कूप श्व । कण्ठस्थे गर्ताकारे प्रदे- कंमंतिया-कएडयन्तिका-स्त्री० फएडयन्ती-कन्-अनुकपाशे, नत्र संयमात क्षुत्तृपोर्जयो भवति घण्टिकाश्रोतःप्लावना- पाम्, तण्डुलादीन् उस्खलादौ क्षोदयन्त्याम, ज्ञा०७ अ०। नप्तिसिस्तदुक्तं करवकूपे कुत्पिपासानिवृत्तिः" घा० २६द्वा०।कंमका ग]-काण्डक-न० कापड-स्वार्थे-क खरडे कर्माशे। कंठगयपाणसेस-कागतप्राणशेष-पुं० गते गतः कएग अथ किमिदं कण्डकमिति प्रश्ने घूमहे कण्ड कमिव कण्डकतः करगतश्चासौ प्राणशेषश्च कएलगतप्राणशेषः । मरणान्तक- मुपमानार्थः । यथा लोके ताराःखएडभागशः कण्डकमित्यभिष्टे, ग० २ अधिः । धीयन्ते । तथा कर्मतरोरपिखएडं कएडकमिति सिद्धम् । श्रा कंठमणिसुत्त-कएउमणिसूत्र-नकावस्थरत्नमयदधरके,कल्प। घ०१०प्राथमद्विइक्षुपोतलिकादिदण्डके, प्राचा०२श्रु कंठमुरय-कण्ठमुरज-पुं० अाजरणविशेषे, का०१०। दशा पल्योपमाऽसंख्येयभागलक्षणे, (पं० सं०) समयपरिभाषकंगमुही-कएउमुखी-स्त्री० कण्ठासन्नतरावस्थाने मुरजाकारे याऽङ्गलमात्रक्षेत्राऽसंख्येयभागगतप्रदेशराशिसंख्याप्रमाणे संआभरणे, भ० श. ३३ उ०।ौ । यमश्रेणी, वृ०३ उ० (सेढि शब्दे उदाहरणम् ) स्वनामख्याते सन्निवेशे, यत्र प्रालम्भिकातः कृतसप्तमवर्षारात्रः श्रीधीरः कंउचिसुद-कावविशुक-न० यदि स्वरः कण्टे वर्तितो भ- | प्रस्थितः । प्रा० चू०१०।। वति अस्फुटितश्च ततः सम्भवति गेयस्य कण्ठकरणविशुद्धे | कंडच्गरिप-काण्डागरिक-पुं० स्वनामख्याते प्रामे, प्रामागाने, रा०। कंठसुत्त-कएलसूत्र-न० "यं कुर्वते वक्षसि वल्लभस्य, स्तना धिपतौ च । “कपडच्छारिउसहितो सयंवउरस्स बलवंतु"। काएडाच्छारिको नाम प्रामो प्रामाधिपतिर्वा व्य०७ उ०। भिघातं निविडोपघातात् । परिश्रमार्ताः शनकैर्विदग्धास्तस्कएठसूत्रं प्रवदन्ति तज्ज्ञाः" इत्युक्तलकणे सुरतबन्धे, वाच. कमरीय-कण्डरीक-पुं० मूलदेवसाहाय्येन धने गच्छतः कस्यगलावलम्बिसंकलनकविशेषे च । १०। भ० । चित्पुरुषस्य स्त्रीहारके, नं० ( उप्पत्तिया शब्दे कथा ) साकेतकंगाकवि-कएकएिल-अव्य कण्ठे कराठे गृहीत्वेत्यर्थे, "कं नगरवास्तव्यस्य पुण्डरीकनृपस्याऽनुजे, श्रा० क० । आव० । ठाकंठियवयासेति" यद्यपि व्याकरणे युद्धविषय एवंविधोऽध्य श्रा०चू० ( स च यशोभाख्यस्वभार्यालिप्सयाऽग्रजेन मायीभाव इप्यते । तथापि योगविभागादिभिरेतस्य साधुशब्दता रित इत्यलोभ शब्दे उदाहृतम् ) पुष्कलावतीविजये पुण्डरी किणीनगरीश्वरस्य महापारागस्य पद्मावतीकुक्षिसम्भूते पुत्रे, दृश्यते । शा०२०। पुण्डरीकस्याऽनुजे च उत्त०१० अ०भा००। कंग्यिा-कएिलका-स्त्री० कण्ठो भूष्यतयाऽस्त्यस्याः ठन् गला तत्कथा चैवम् । भरणभेदे, हेमचं। पृष्ठकायां च जी०३ प्रति०। कंठग्गय-गएटोग्रक) कण्डोद्रत-पुं० न० कएठश्चासावुन- जति णं ते! समणेणं भगवया महावीरेणं अट्ठारसकश्चोत्कटः कएठोग्नकः कण्ठस्य चोग्रत्वं यत्तत्कण्ठोनवम्।। मस्सणायज्जयणस्स अयमढे पाहात्ते एगृणवीसतिमल्स केकपठादू वा यदुतमुमतिः स्वरोफमलक्षणा क्रिया तत् गान्धा- अहे पत्ते एवं खलु जंबूसमणेणं भगवया महावीरेणं रस्वरस्य स्थाने यत्प्राप्य मान्धारस्वरो विशेषमासादयति।। तेणं कालेणं तेणं समएणं हेव जंबुद्दीवे दीवे पुन्ववि iiiim anी "कंटुग्गएण गंधारं" स्था० ७ ठा० । देहे सीताए महानईए उत्तरिखे कूले नीलवंसस्स दाहिकंचेगुण-कएनेगुण-त्रि कण्ठे गुण इव कराठेगुणम् । फ- णणं उत्तरिलस्स सीतामुहवणसमस्स पञ्चच्छिमेणं गए से. ण्ठसूत्रसदृशे, प्रश्न अध. ६०३ कंठोट्ठ-कएगेष्ठ-न० कएठश्चौष्ठश्च कएठौष्टम् प्राण्यङ्गत्वात्स-1 लगस्स बक्खकारपन्च तस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं पुक्खमाहारः कण्ठोष्ठसमुदाये, अनु०॥ लावती नाम विजये पन्नते तत्थ णं पुमरीगिणीमाम राकंवोटविष्पमुक-कएठौष्ठविप्रमुक्त-न० कएठौष्ठेन विप्रमुर्क क-। यहाणी पन्नत्ता नवजोयणवित्थिन्ना सुवालसजोयणाया Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७३ ) अभिधानराजेन्द्रः । कामोद पिज्ज मा जाव पच्चक्खदेवलोगनूचा पासाइया । ४ । तीसें पुंरीगिणीए नयरीए उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए नालेवणे नामं उज्जाणे । तत्थ एणं पुंडरीगिणीए नयरीए महापतमे नामं राजा होत्या तस्स गं पनमावती नामं देवी होत्था । तस्स णं प मस्स रन्नो परमावइदेवीए अन्नया वे कुमारे होत्या । तं जहा पुंडरीए य कंकरीए य । सुकुमापाणिपाया जाव सरूवा पुंडरीए युवराया । तेणं कालेणं ते समय महापउमे राया निग्गए धम्मं सोचा पुंडरीयं रज्जे वेत्ता पत्र पुंमरीए राजा जाता कंमरीए युवराया महापनमे अणगारे चोदसपुब्वा अहिज्जति । तते णं थेरा बहिया जणवयविहारं विहरंतर णं महापनमे बहुणि वासाणि जाव सिद्धे तर पं थेरा अन्नया कयाई पुणरवि पोंकरीगिणीए नयरीए नलिणवणे उज्जाणे समोसढे पोंमरीए राया निगते कंमरीए महाजणसद्द सोच्चा जहा महाबलो जात्र पज्जुवासति थेरा धम्मं परिकहते पोंमरीए समगोवासए जाए जाव पडिगते । तए णं कंमरीए उठाए जति उठाए उट्ठेत्ता जाव से जयेय तुम्भे वयह जं नवरं पोंमरीयं पुच्छामि ततेणं जाव पव्वयामि महासुहं देवाणुपीया मा परिबंध करे । तए णं से कंमरीए राया जात्र येरे नर्मस नर्मसत्ता अंतिया पडिनिक्खमइ पमिनिक्खमइत्ता तमेव चा घंटं श्रासरहं फुरहंति दुरहंतित्ता जाव पच्चोरुहर पच्चोरुहत्ता जेणेव पोंमरीए राया तेणेव उवागच्छति उवागच्छतित्ता करयल जाव पुंडरीयं एवं बयासी एवं खलु देवापिया ! मए थेराणं तिए धम्मे निसंति से धम्मे विरुइए तर देवाणुप्पिया जाव पव्वतिए । ततेां पुंडरी कंमरीए य एवं वयासी मा णं तुझं जाउया इयाणि मुंगे जाव पव्वयाहिं हं तुमं महारायाभिसिएणं अभिसिंचयामि । तए गं से कंकरीए पुंडरीयस्स रमो एतमहं नो आढाति जायं तुसिणीए संचिइति तए एां पॉमरीए राया कंमरीए कंमरीयं दो पि तच पि एवं वयासी जाव तुसिणीए संचिति । तए णं पुंडरीए कंभरीथं कु. मारं जाहे नो संवाएति बहुहिं आघवणाहि य पचवणाहि यता कामए चेव एतमहं अणुमन्निच्छा जाव निक्खा जिसे अभिसिंचति जाव थेराणं सीसभिक्खं दक्षयंति दलयं तित्ता पव्वइए अणगारे जाए एकारसंगवीतए णं थेरा जगवंतो अनया कयाइं पुंमरीगिणीओ नयरीओ नलिएवणाओ उज्जाणाश्रो पमिनिक्खमति पमिनिक्खमतित्ता बहिया जणवयविहारं विहइंति । तए णं तस्स कंडरीयस्स अणगारस्स तेहि अंतेहिं य पंतेहिं य जहा सेलगस्स जाव दाहकक्कतिए या वि विहरंतित थेरा अन्ना कयाई जेणेव पुंडरिगिणी तेणेव ! For Private कंखामोहाणिज्ज उवागच्छति नवागच्छतित्ता नलिएणवणे समोसढे पुंमरीए निग्गति निम्गतित्ता धम्मं सुखेति सुणेतित्ता तए णं पुंम ए राया धम्मं सोचा जेणेव कंमरीए अणगारे तेणेव उवागच्छति जवागच्छतिचा कंडरीयं वंदति नमसंति नमसंतित्ता ivira अणगारस्स सरीरं सव्वावाहं सरोगं पासइ पासइत्ता जेणेव थेरा भगवंतो तेथेच उवागच्छति जवागच्छतित्ता थेरा जगवंते वदंति नमसंति एवं वयासी अह णं जंते ! कंमय अगारस्स अहापव्वतेहिं ओसहे निसज्जेहिं जानेइत्थं उट्टामि तं तुब्ने एां मम जाणसालासु समोसरह । तते येरा भंगवंतो पुंरुरीयस्स परिसुणंति परिसुएतित्ता जाव उपसंपज्जित्ता णं विहरति । तए णं पुंडरीए जहा मंडए सेलगस्स तहेव जाव वल्लियसरीरजाते तए णं येरा भगवंतो मरीयं आपुच्छंति बहिया जणययविहारं विहति तए णं सेकंडरीए ताओ रोयायं कायो विप्पमुके समाणे तंसि मणुनंसि असणं पाणं खाइमं सातिमंसि समुच्चिए गिफिए गढिए अज्जोववने नो संचाएति मरीयं पुच्छित्ता वहित्ता अब्युज्जएणं जाव विहरएतत्थेव प्रसन्ने जाए तए गं सा पोंमरीए इमीसे कहाए बद्ध समाणे हा अंतेउर परियाल संपरिवुडे जेलेव कंमरीए अणगारे तेणेव उवागच्छति उवागच्छतिना कंमरीयं तिखुतो आयाहिणं पयाहिणं करेति करेतित्ता बंद मं सति एमसतित्ता एवं वयासी धन्नोसि णं तुमं देवाणपिया कयपुने कलक्खणे सुलदे गं देवाप्पिया तत्रमाणस्य जम्मजीवियफले जे गं तुमं रज्जं व जाव - तेनरं च विच्छ विच्छमइत्ता विगोवइ विगोवइत्ता जाव - पव्व । अहं णं अहने कयपुन्ने रज्जे य जाव तेरे माणस्सए य कामभोगेसु मुच्छित्ते जाव अज्जोव वने नो संचाएमि जाव पव्वत्तए तं धनेसि णं तुमं देवाप्पिया ! जात्र जीवियफले ततेां से कंमरीए अणगारे पुंमरीयस्स एतमहं नो आढाति जाव संचिति । तए णं से कंमरीए पुंमरीए दो पि तच पि एवं वृत्ते समाणे प्रकामए संवसे लज्जाए गारवेण पुंमरीयं आपुच्छति आपुच्छतित्ता येरेहिं सिक बढ़िया जलवयविहारं विहरति तते यां से कंमरीए थेरेहिं सद्धिं किंचि कालं नग्गं उग्गेणं विहरिता ततो पच्छा समत्तणपरिसंते समत्त निविने समणतणनिभच्छिए समणगुणमुक्कजोगी थेराएं अंतियाओ सणियं पञ्च्चोसकति पच्चोसकतित्ता तेणेव पुंमरीगिणी नयरी जेणेव पोमयस्सरमो तेणेव उवागच्छति नवागच्छतित्ता असोगणियाए असोगवर पायवस्त आहे पुढवी सिलापट्टगं से लिसीय णिसीयइत्ता हयमणसंकप्पे जावज्झियायमाणे संचिद्वति । तते णं तस्स पोंमरीयस्स अम्मघाती Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७४ ) अभिधानराजेन्द्रः । कंखामोहणिज्ज जेणेव असोगवणीया तेथेव उवागच्छति जवागच्छतित्ता कंमयं अणगारं असो गवरपायवस्त अहे पुढवीसिलापयंसि हयमसंप्पं जावज्जियायमाणं पासइ पासइत्ता जेणेव पुंमरीए राया तेणेव जवागच्छति उवागच्छत्ता पोंमरीयं एवं बयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! तव पियभावए कंमरीए अणगारे सोगणियाए सोगवरपावस हे पुढसिलावदृए हयमणसंकप्पे जावज्जियाय भित्तए णं से पोंमरीए अमधाएइ एतमहं सोच्चा सिम्म तहेव संभंते समाणे नहाए उट्ठेति अंतेउरपरिवा परमे जेणेव असोगवणियाए जाव कंमरीयं तिक्खुत्तो एवं बयासी घमेसि गं तुमे देवाणुप्पिया ! जाव पइए अह णं असे अपुन्ने जाव नो पव्वइए तं धali तुमं देवाप्पिया ! जाव जीवियफले तते एां कंडएमरी एवं वृत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठति दोपि तच पि जाव चिट्ठेति । तए णं पोंडरीए कंमरीए एवं बयासी हो भंते! भोगेहि हंता अस्थि अट्टो । तए णं से पमरीएकोहुँवियपुरिसे सहावेति सद्दावेतित्ता एवं बयासी खिप्पामेव जो देवाप्पिया ! कंडरीयस्स महत्यं जाव राया जिसे उबडवेह जाव रायाजिसेएवं अनिसिचंतितए | णं पुंमरीए सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति करेतित्ता सयमेव चाज्जामं धम्मं परिवज्जति पडिवज्जतित्ता कंमरयिस्स संतियं आयारजं मं गिएहति गिएहतित्ता इमं एयारूवं निरहं अभिगिएइति कप्पति मे थेरे वंदित्ता नर्मसित्ता थेराणं अंतिए चाउज्जामं धम्मं नवसंपज्जित्ताणं विरइ । ततो पच्छा आहारं आहारितए कट्टु इमं एतारूवं अभिग्गहं अनिगिरिहत्ताणं पोंमरीगिणीओ पमिनिक्खमति पडिनिक्खमतित्ता पुव्वाणुपुत्रि चरमाणे गामागामं दूतिज्जमाणे जेणेव थेरा भगवंता तेणेव पहारेच्छ । गमाए तर णं तस्स कंडरीयस्स रनो तं पणीयं पाणभोयां हारियं समाणस्स अतिजागरण य अतिजोयल प्प संगेण य से आहारे णो समं परिणते तते णं तस्स सकंडरीयस्स रनो तंसि हासि अपरिणममाणंसि पुव्वग्नावरतकासमयंसि सरीरगंसि वेयणा पाउन्नूता उज्जला विउला पगाढा जान दुरुहीआ सा पित्तज्जरपरिगयसरीरा दाहवकंति एया वि विहरति । तते णं से कंकरीए राया रज्जे य रहे य तेरे य जाव अज्जोववन्ने अहट्टवसट्टे अकामे अवसन्वसे कालमा कालं किच्चा आहे सत्तमाए पुढवीए उक्कोसकाला इयं नरयंसि नेरइयत्ताए उववने एवामेव समणाउसो जा पड़ए समाणे पुणरवि माणुस्सए कामजोगे यासादिति जाव णुपरियस्मिंति । जहा व से कंकरीए राया तते For Private कंखामोहणिज्ज से पुंकरीए अणगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति नवागच्छत्ता येरे जगवंते वंदंति नमसंति थेराणं तिए दो पि चाज्जामं धम्मं पमिवज्जइ बदुखमए पारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेति करेंतित्ता । जात्र माणसी लुक्खं पाणं जोयणं पमिग्गर्हति पमि - ग्गहंतिता अहापज्जतमं तिकट्टु पाडनियत्तए जेणेव थेरा भगवंतो तेलेव उवागच्छंति जवागच्छंतित्ता जत्तपाणं पडिदंसे पमिदंसेत्ता थेरेहिं भगवंतेहिं अन्नगुनाते समाणे अनुत्थी ४ विलमित्र पन्नगनूएवं अप्पाणेणं फासुए सणिज्जं असणं ४ सरीरको डगंसि पक्खिति । तते णं तस्स पोमयस्स असणं ४ काला कंतं रसं विरसं सीयं सुक्खं पाणभोयणं आहारियरस समाणस्स पुव्वरत्तावरत मसि धम्मजागरीयं जागरणमाणस्स से आहारे यो समं परिणमति तते णं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूता उज्जला जाव दुरुहीया । सापित्तज्जरपरिगयसरीरदाद्दव कंतीए विहरति । ततेां से पमए । थामे असे वीरिए अपुरिसकारपरकमे करयल जाव एवं वयासी नमुत्थुणं अरहंताणं जाब संपत्तेणं जाव नमोत्थुणं थेराणं भगवंताणं मम धम्मायरियाणं धम्मोवएसिया पुत्रि पियणं मए थेराणं अंतिए सच्चे पारणाइ-. are पञ्चकखाए जाव मिच्छादंसणसले पच्चक्खाए जान आलोय पमिति कालमासे कालं किच्चा सव्वट्टसिधे उववमे । ततो अंतरं उब्वट्टित्ता महाविदेहे वासे सिज्जति जात्र दुक्खाणमंत करेंति । एवामेव समरणानुसो ! जाव पव्वइए समाणमा स्सएहिं कामजोगेहिं नो सज्जति नो रज्जति जान नो विष्परिघातमावज्जति । से णं इह भवे चेव बहुएं समलेणं ४ अच्चणिजे पूइणिज्जे बंदणिज्जे सकारणिजे समाए णिज्जे कलाणमंगलं देवयं चेश्यं पज्जुवासणिज्जे तिकट्टु परलोए वियणं नो आगच्छति । बदूणि ममणाणि य तज्जणाणि य तालणारी य जाव चउरंतसंसारकं तारं जाव वियव तिस्सति जहा व से पुंडरीए आए गारे । एवं खलु जंबूसमणं भगवया महावीरेणं आदिगरे तित्थगरे जाव सिद्धिं नामघेज्जद्वाणं संपत्ताणं एगूणवी - सातमस्स नायज्ायणस्स अयमट्ठे पत्ते । एवं खलु जंबूसमणेणं जगवया महावीरेणं जाव सिद्धिगति नामजं संपत्ताणं बस अंगस्स पढमस्स सुयक्खंधस्स प्रथमट्ठे पण ते त्ति बेमि । इति कंमरीकपुं मरीकाध्ययनं एगूणवीसतिमं समत्तं । इदं सर्वं सुगमं नवरमै । उपनयविशेषोऽयं “ वास सदस् पि जई, काऊ संजमं सुविउ पि । अंते किलिनाषो, न विसुकर कंमरीश्रो व्व ॥ १॥ " तथा " अप्पेण वि कालेणं, के जह गहियसीलसामन्ना | साइंति निययकजं, पुंमरीयमहारिस Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७५) कंखामोहणिज्ज अनिधानराजेन्डः। कंता व्व जहा ॥२॥श्त्येकोनविंशतितमंशात विवरणतः समाप्तमि- त्येनासंबन्धप्रसापचापनमाक प्रयन् कानमिन्युपचयंते,म्या । ति । झा०१ श्रु०२० अ०ामहा। सूत्र। आ० म०वि०। प्रा०कंमूविणटुंग-कामविनटाइ-त्रिका कृतदिग्वाभिवा विकृतचू० सं०। स्था०॥ शरीरे, अप्रतिकर्मशरीरतया या क्वचिट नोगमम्भचे मनकुमारकमवा-काडवा-स्त्री० करटिकास्ये वाद्यविशेषे, अपशतं कराम वद्विनष्ठा, "मुंमा कंद्रावणगा, उजला असमाहिना " मूत्र वानामष्टशतं कएमवादकानाम् । राम्। श्र० ३ ० उ०॥ कंडिय-कणिमत-त्रि० बलातिवलिकया जटिते, श्रा०म०हित-कान्त-त्रि: कन दीरतौ कम बा-कः । दीने. "कंत बलवत्या गमया बटिते, तं। सणा" कान्तं दीप्तं प्रियं जनानां प्रमोदोत्पादक दर्शनं रूप कंडियायन-करिमकायन-न० वैशाल्या नगा बहिस्ताश्चैत्ये, येषां ते तथा स० । कल्प। कमनीये, "मम्मिसोमाकारकनापि. भ० १५ श० १ न०॥ यदंसणं" इशिवसौम्याकारं कान्तश्च कमनीयमत एय प्रियं द्रकंडिल्ल-काएिडल्य-पुं० माएमगोत्रान्तर्गतकाएिमल्यगोत्रप्रवर्तके | तृणां दर्शनं रूपं यस्य स तथा तम् न.११ टा० ० । ऋषौ, तझोत्रजेषु च । स्था० अग। प्रज्ञा० । कल्प० । स्थानकाम्ये, और । शुभवणों पेनबाट यिकंडिझायण-कशिमल्यायन-पुं० स्वनामण्याते ऋषौ, तद्गोत्रे शिष्टवर्णादियुक्ते. जीप्रति । स्था। शोनमाने, दश.२ शतन्निग्नकत्रम् “ सतनिसया णक्खत्ते कंमिल्लायणसगोत्ते पाल अ० । मनोहारिणि, पो. ए विवः । " बबने हियपनयणकंत" ते" चं० प्र० १० पाहु । कल्पना प्रौला पुनरनिलषणीये, दशा०१०अाअन्ता अनिलषिते, का०१ ० । अभिप्रेते, आचा०२ श्राघृतपरकीपदेवे, कंमु-कएड-धा० कण्ड्वादि० गात्रविघर्षणे नर्धहनुमत्कएयवातू सू० प्र०१ए पाहु । पत्यौ, चन्द्रे, वसन्ते, हिजझवृक्के, कुङ्क मे, न. ले ।१।२१ एषु ऊत उत्वम् जवतीत्युत्वम् । कंसुअप्रा०। " नाय्र्या, प्रियङ्गवृक्के च । स्त्री० मेदि । भवेत् कान्तायुगरसहकरमयति ( ते ) काष्ठादिना गात्रस्य कएमूत्यपनोदं विधत्ते यैर्यभौनरसालगौ, इत्युक्तक्षवणे १८ उन्दोभेदे, स्त्री० कामदेवआचा०११० एअ०२०॥ भेदे, पुं० वाच। काटु-स्त्री० कमि मृगएवादि. उः। गात्रविघर्षणे तत्कारके कंततर-कान्ततर-त्रि कमनीयतरे, यथा कृष्णवस्तुवर्णके जीरोगे, वाच०। पाकसंस्थाने च । जी. ३ प्रति० । “कंमुसु य मूताापमाऽभिधीयते । “एतो कंततराए चेव मणुमतराए चेव" पयणएसु य पयं ति" सूत्र०१ श्रु०५ अ०। अतिस्निग्यमनोहारिकासिमोपचिततया जीमूतादेः कमनीयतकंडुग-कान्दविक- पुं० मिष्टान्नविक्रेतरि, “ राया चिंतेइ कतो रकाः जी० ३ प्रति० ॥ कंमुयस्स जलकंतरयणसंपत्ती" आ०म० द्वि। “पृष्टः कान्द कंतप्प-कन्दर्प-पुं० चूलिकापैशाचिके, तृतीयतुर्ययोराद्यनिविको राशा, कुतस्ते तदिदं बद" । आ० का। तीयौ ८।४।२४ । इति तृतीयस्य प्रथमः । कामे, प्रा० । कंमु (दु ) गगइ-कण्डु [न्दु] कगति-स्त्री० जीवगतिनेदे, कएकस्येव गतिः कएलुकगतिः किमुक्तं भवति यथा कन्दुकः कंतरूव-कान्तरूप-त्रि० कमनीयस्वरूपे, विपा०२ श्रु० १ ० स्वप्रदेशं पिरिमत ऊर्ध्व गच्छति तथा जीवोऽपि कश्चित्परभ- | कतावसयामउसुकुमालकुम्मसाठयावासहचरणा-कान्तविशघायुष उदये परलोक गच्छन्नुदये परलोकं स्वप्रदेशानेकत्र संपी- दमृउसुकुमारकूर्मसंस्थितविशिष्टचरणा-स्त्री० कान्तौ कमनीयौ ज्य गच्छति पं०सं०। विशदौ निर्मलौ मृदू अकग्निौ सुकुमारावकर्कशौ कूर्मसंस्थिता कंमू-कएम्-स्त्री० कण्मूय-क्विप्-अलोपयझोपौ सम्पदा० किए | कूर्मवन्नती विशिष्टौ विशिष्टल कणोपेतौ चरणौ यासा ताः । वाच०। करमूतौ, झा० ५ ० । खाम, सूत्र. १ श्रु० ३ ० सर्वतकणसंपन्नवरणासु युगझस्त्रीषु, जी०३ प्रति। १० । का० । स्था० ॥ कंतस्सर-कान्तस्वर-त्रि० कान्तः स्वरो यस्य स कान्तस्वरः । कंमइ-कएति-स्त्री० कपमूमशब्दः कपड्वादिषु पठ्यते ततः | कमनीयस्वरे, प्रशा० ३ पद । क्तिन् । पो०४ विव०। अलोपयलोपौ करामूयने, वाच०। आशैश- कंता-कान्ता-स्त्री कामिन्याम, द्वा०२२ द्वा-। कमनीयशब्दायां षात्करकएमोः, कएमूतिरभवत्ततः। प्रा० क०॥ वाचि, ज०श्वका भाअष्टानां योगपीनां षष्टयाम्, । कान्ता तु कंडूश्य-कएमूयित-न० नखैर्विरोखने, सूत्र० १श्रु० ३ अ० ३ ०। ताराभा तदवबोधस्ताराभासमानोऽतः स्थित एव प्रकृत्या निरकम्यग-कएमयक-त्रि० कएम्यत इति कण्डूयकः गात्रषिघर्ष- तिचारमत्रानुष्ठान शुझापयोगानुसारिविशिष्टाऽप्रमादसचिवविनिके, स्था५ ग०१०। योगप्रधानगभीरोदाराशयमिति । द्वा०२० द्वा० । अस्याःफलम् । कंभूयण-कएमयन-न ख‘गविनोदनप्रवृत्तौ, पंचा०४ विव। धारणाप्रीतयेऽन्येषां, कान्तायां नित्यदर्शनम् । करणे ल्युट कएमयनसाधने, स्त्रियां की वाचा नान्यमुत्स्थिरतावेन, मीमांसावहितोदया ॥८॥ कंडून-कए मूल-पुंग कण्डू-अस्त्यर्थे लन् । करमूकारके शुरणे, (धारणेति)कान्तायामुक्तरीत्या नित्यदर्शनम तथा धारणा वदयराजमिका कपड्युक्ते, त्रि० वाच० । "स्वयं विवादग्रहिले वित माणलवणाऽन्येषां प्रीतये भवति । तथा स्थिरभावेन.मान्यमुएमापाएिमत्यकएफूलमुने जनेऽस्मिन् " वितएमापाएिमत्येन दित्यत्र हर्षस्तदा तत्प्रतिभासानावात् हितोदया सम्यकानफकामूलमिव कपमूलं मुखं सपनं यस्य स तथा तस्मिन् करामूः ला मीमांसा च सठिचारामिका भवति । खजूः करमूरस्याऽस्तीति कण्डूसं सिध्मादित्वान्मत्वर्थीयो सप्रत्ययः यथा कितान्तरुत्पन्नकृमिकुबजनितां कण्डूर्ति निरोकुमपा देशबन्धो हि चित्तस्य, धारणा तत्र सुस्थितः। रयन् पुरुषोव्याकुलतां कलयति एवं तन्मुखमवि वितएमापाएिड | प्रियो भवति जूतानां, धर्मकायमनास्तथा ॥ ए॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंता अनिधानराजेन्फः। कंतिकंदली (देशेति ) देशे नाभिचक्रनासाग्रादौ बन्धी विषयान्त- त्वमेव तथाऽपितदंशे प्रमादसहकारित्वमपि तेषाम् ।कान्तायां रपरिहारेण स्थिरीकरणात्मा हि चित्तस्य धारणा यदाह "देश- तु धारणया ज्ञानोत्कर्षान्न तथात्वमपि तेषां गृहिणामप्येवंविबन्धश्चित्तस्य धारणा" तत्र धारणायां सुस्थितः मैत्रादिचित्तप- धदशायामुपचारतो यतिनाव एव चारित्रमोहोदयमात्रारकेवलं रिकर्मवासितान्तःकरणतया स्वज्यस्तेयमानियमतया जितास- न संयमस्थानलानो नतु तद्विरोधपरिणामो सेशताऽपोत्याचार्या नत्वेन परिहतप्राण विझेयतया प्रत्याहन्छियमामधेन ऋजुका- णामाशयः॥ यतया जितद्वन्द्वतया सन्तताज्यासाविष्टतया च सम्यग् व्यव- मीमांसा दीपिका चास्या, मोहध्वान्तविनाशिनी। स्थितः जूतानां जगद्वोकानां प्रियो भवति । तथा धम्मैकाग्रमना जवति । तत्त्वालोकेन तेन स्या-न्न कदाप्यसमञ्जसम् ॥ १६ ॥ मीमांसा सहिचारणा दीपिका चास्याः कान्ताया मोहध्यान्तअस्थामाक्षेपकज्ञानान, न भोगा नवहेतवः। विनाशिनी अज्ञानतिमिरापहारिणी तत्वालोकेन परमार्थप्रकाश्रुतधर्मे मनोयोगा-चेष्टाशुफेर्यथोदितम् ॥ १० ॥ शेन तेन कारणेनन कदाप्यसमञ्जसं स्यादज्ञाननिमित्तको हि अस्यामिति । अस्यां कान्तायां कायचेष्टाया अन्यपरत्वेऽपि श्रु- तद्भाव इति। द्वा० २० द्वा० विमले, स्त्रीत्वविशिष्टेऽर्थे च । नं०३ तधर्मे आगमे मनोयोगान्नित्यं मनःसंबन्धादाकेपकझानानि- कंताजुस-कान्ताजष-त्रि० कामिनीसहिते, द्वा०२२० द्वा०॥ त्यप्रतिबन्धपचित्ताकपकारिज्ञानान्न नोगा इन्धियार्थसंबन्धा बन्धा | कंतार-कान्तार-पुं० कान्ता अभीया परा व ग्रन्थयोऽस्य । कस्य भवहतवो जवन्ति चेपायाः प्रवृत्तेः शुद्धेमननिर्मल्यात् यथोदितं जनस्यान्तं कान्तं मनोइंवा रसमृच्छतिगच्छति ऋ-अण-उप० हरिजलसूरिभिर्योगरष्टिसमुच्चये । साक्षुभेदे, भावप्रका कोविदारवृक्के, वंशे च । राजनि कस्या मायाम्भस्तत्वतः पश्य-अनुद्विग्नस्ततो जुतम् । सुखस्यान्तमृच्छत्यत्र ऋ-आधारे घञ् । बिद्रे, मेदिन अटव्याम, तन्मध्येन प्रयात्येव, यथा व्याघातवर्जितः॥११॥ नि०चू०१ १० प्रवामहत्यामटव्याम्, वृ०३ २० ओ० स्थान मायाम्भस्तत्वतो मायाम्भस्तेनैव पश्यन् अनुनिस्ततो माया अध्वनि, यत्र नक्तपानादिलाभो न सम्नवति । जीत। "कंतार म्भसो दुतं शीघ्रं तन्मध्येन मायाम्भोमध्येन प्रयात्येव न न प्रया. नाम परम्म जत्य जत्तपाणं ण सब्जति" नि० चू० १ उ० । ति यर्थत्युदाहरणोपन्यासार्थः व्याघातवर्जितो मायाम्भस्त्वेन | निर्जले, सन्नये, बाणरहिते अरण्यप्रदेशे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। व्याघातासमर्थत्वात् । दुष्टस्वापदानुकूले महारपये, तंजाअरण्ये, आव०६० स्थान नोगान् स्वरूपतः पश्य-स्तथा मायोदकोपमान् ।। कंतारकवारचारयसम-कान्तारकपाटचारकसम-त्रि० अरण्यनुजानोऽपि ह्यसङ्गः सन्, प्रयात्येव परं पदम् ।। १२॥ कपाटकारागृहतुल्ये, “कंतारकवाडचारयसमाणं" (इत्थीमोगानिन्छियार्थसंबन्धान स्वरूपतः पश्यन् समारोपमन्तरेण णम) अयमाशयः यथा गहनवनं व्याघ्राधाकुलं जीवानां भतथा तेनैव प्रकारेण मायोदकोपमानसारान्तुजानोऽपि हिक योत्पादकं भवति तथा नराणां नाय्र्योऽपि भयं जनयन्ति धनसक्किप्तानसंगतः सन् प्रयात्येव परं पदं तथाऽमभिष्यतया जीवितादिविनाशहेतुत्वेनेति । यथा प्रतोल्या कपाटे दत्ते केनापरवशभावात् । ऽपि गन्तुं न शक्यते तथा मरे नारीकपाटहृदये दसे सति जोगतत्वस्य तु पुन-ननवोदधिलङ्कनम् । केनापि कुत्रापि धर्मवनादौ गन्तुं न शक्यते यथा च जीवानां कामायोदकदृढावेश-स्तेन यातीह कः पया ॥१३॥ रागृहं दुःखोत्पादकं भवति तथा नराणां मार्योऽपि इति।तं. भोगतत्त्वस्य तु भोगं परमार्थतया पश्यतस्तु न भवोदधिमानं कतारगइहाणनूया-कान्तारगतिस्थानलूता-स्त्री० कान्तारे मायोदकहढावेशस्तथा विपर्यासात्तन यातीह कः पथा यत्र मा. दुष्टस्वापदाकुले महारण्ये गतिश्चैकाकित्वेन गमनं स्थानं चैयायामुदकबुकिः। काकित्वेन वसनं तयोर्भूतास्तुल्याः । स्त्रीषु, तासां दारुणमम तत्रैव जयोद्विग्नो, यथा तिष्ठत्यसंशयम् ! हाभयोत्पादकत्वात् । त। कंतारजत्त-कान्तारजक्त-न० कान्तारमरण्यं तत्र भिक्कुकाणां मोक्षमार्गेऽपि हि तथा, जोगजम्बालमोहितः ॥१४॥ निर्वाहार्थ यद्विहितं तत् कान्तारभक्तम् । भ०५श०६७० । समायायामुदकदृढावेशस्तत्रैव पथि त्रयो द्विग्नः सम् यथेत्युदा- साध्वाद्यर्थमटव्यां संस्क्रियमाणे भोजने, स्था० ठा० । एतहरणोपन्यासार्थस्तिष्ठत्यसंशयं तिष्ठत्येव जलवुफिसमावेशा- व पाश्चयामिकानामकल्प्यम् । भ० श० ३३ उ०। मोकमार्गेऽपि हि झानादिसवणे तिष्ठत्यसशयं जोगजम्बालमो- ति-कान्ति-स्त्री-कम-कामे-कन्-दीप्तौ-या भाव क्तिन् । हितो नोगनिबन्धनदेहादिप्रपञ्चमोडित इत्यर्थः । धर्मशक्तिं न हन्त्यस्यां, भोगशक्तिबलीयसीम् । दीनौ, शोभायाम, । वाच । औष। प्रभायाम, ज्ञा० १६ अ०। कमनीयतायाम, सूत्र. २ श्रु०१०। पञ्चयां गौणाऽहिंहन्ति दीपापहो वायु-ज्वन्तं न दवाननम् ॥ १५॥ सायाम् । तस्याः कमनीयताकारणत्वात् । प्र०सं०द्वा०१ अस्यां कान्तायां कर्माक्तित्वेन निर्बलानोगशक्तिरनवरतस्व- अ०। इच्छायाम, स्त्रीणां शृङ्गारजे सौन्दर्य्यगुणभेदे," शोभा रसप्रवृत्तत्वेन वलीयसी धर्मशक्ति न हन्ति विरोधिनोऽपि निर्व- प्रोक्ता सैव क्रान्तिमन्मथाप्यायिता" मन्मथोन्मेषेणातिविस्तीर्णबस्याकिंचित्करत्वात् अत्र दृशन्तमाह । दीपापहो दीपविनाशको शोभैव कान्तिरुच्यते इति व्याख्यातं सा०६०। चन्दमसःकवायुज्यन्तं दवान न हन्ति प्रत्युत बनीयसस्तस्य सहाय-| लाभेद, वाच०। तामेवा नम्बते। इत्थमत्र धर्मशक्तेरपि बलीयस्या अवश्यभोग्यकर्म-कंतिकदली-कान्तिकन्दली-स्त्री० गङ्गासमुद्रप्रवेशतटसंस्थिकये जोगशक्तिः सहायतामवालम्बते न त निर्बलत्वेन तांविरुण- तस्य जयसुन्दरनगरेश्वरजयवल्लभनामराजस्य भाय्यायाम, कीति । यद्यपि स्थिरायामपि ज्ञानापेक्या भोगानामकिंचित्कर-- दर्श। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपुरी अन्निधानराजेन्छः। कंदप्पिय कंतिपुरी-कान्तिपुरी-स्त्री० काञ्चीपुर्य्याम, वाच० । अन्य- कान्दी सा चासौ भावना च पुंवद्भावः।संविष्टभावनानेदे, प्रव० स्यां स्वनामख्यातायां पुर्य्याम, "कंतिपुरी भयवं" (पार्श्वना- ७३द्वा० । सा च०॥ थः प्रतिमारूपः) "पुणो गमिस्सा तो अंजलहिम्मि" ती । कंदप्पे १ कुक्कुइए, कंतिमई-कान्तिमती-स्त्री०कोशलपुरस्थनन्दनाभिधानश्रेष्टिनो असीले ३ आविहासणकरे य ४॥ दुहितरि, प्रा०म० द्विः । श्रा००। (मायाशब्दे उदाह- विम्हावितो ५ अपरं, रणम् ) अप्सरोभेदे, चन्ने, कामदेवभेदे च पुं० कान्तियुक्ते कंदप्पभावणं कुणइ ॥ त्रिक वाचा कन्दप्पै कौकुच्यः शीलत्वे हास्यकरणे परविस्मयजननेऽपि कंतिविजय-कान्तिविजय-पुं० श्रीमन्मानविजयवाचकेन वि च विषये नवति कन्दर्पः कंदर्पविषया भावना कान्दपिकीवृतस्य धर्मसङ्ग्रहस्य प्रथमादर्शलेखके स्वनामख्याते गणिनि, त्यर्थः । अनेकविधा पञ्चप्रकारा। ततः उच्चैः स्वरेण हसनं तथा "मानाराधनमतिना, ज्ञानादिगुणान्वितेन वृत्तिरियम । प्रथमा परस्परं परिहासस्तथा गुर्वादिनापि सह निप्रबक्रोक्त्यादयः दर्श लिखिता, गणिना कान्त्यादिविजयेन" ध०४ अधि। स्वेच्गलापांस्तथा कामकथाकथनं तथा एवं चैवं च कुर्वति विकंथग-कन्यक-पुंजात्यावे अश्वविशेषे,उत्त०२३१० । स्था। धानबारेण कामोपदेशस्तथा कामविषया प्रशंसा च कंदर्पशब्देकथारियावण-कन्थारिकावन-न० स्वनामख्यातेऽवन्तीपु नोच्यते यदुक्तं " कहकहकहस्स हसणं, कंदप्पो अणिहुया य य॑न्तर्गते बने, यत्र सुकुमारोऽनशनेन मृतः महाकालमन्दिरं संलावा । कंदप्पकहाकहणं, कंदपवएपसंसा य" तथा कुकुच यत्र प्रा० का (अणिस्सयोवहाणशब्दे तद्वर्णनमुक्तम्) - चो भएमचेरा तस्य भावः। कोकच्यं तद द्वधा कायकोकच्यं वाकंथेर-कन्थेर-पुं० वृक्षभेदे, “मीढलमंजिटुकंकल्लिकुमारिकं- कौकुच्यं च । तन कायकोच्यं यत्स्वयमहसन्नेव भूनयनादिनिथेरवेरकुहा य” ल प्र। देहावयवैर्हासकारकैस्तथा चेष्टां करोति यथा परो हसतीति कंद-कन्द-पुं० न० कन्दति कन्दयति कन्दयते कदि-अन्न-णि यमुक्तं "तुमनयणवयणदसण-च्चपहिं करचरणकन्नमाईहि । च-घञ् वा० । विसे, रा०। जी० । मूलानामुपरि वृक्षावयववि तं तं करे जह ह-स्सए परो अत्तणा अहस्सं वा " कोकुच्यं शेषे, औ०। ज्ञा० । रा०। सूरणादिलक्षणे, द० ५ ० । स्था० तु यत्परिहासप्रधानस्तैस्तैर्वचनजाविविधजीवविरुतैर्मुखातोऔ०। ज्ञा। स्कन्धाधोभागरूपे, प्रश्न०सं० द्वा०५ अ०भूम द्यवादितया च परं हासयतीति । यमुक्तं च “ वाया कक्कया ध्यगे वृक्षावयवे, प्रव०४ द्वा०। (कन्दाश्च सूरणकन्दाद्या द्वा पुण, तं जंपर जेण हस्सए अन्नो । नाणाविद जीवरुप, कुक्कर त्रिंशत् ते च अणंतकाइयशब्दे दर्शिताः अनन्तजीवत्वमपि तत्रै. मुहत्तरए चेव" तथा दुर्घ शीझं स्वनायो यस्य स दुःशीलस्तवोक्तम् ) सूरणे, गृञ्जने, मेघे, पुं-मेदि । जायो पुःशीलत्वं तत्र यत्संचमावेशवशादपालोच्य तं तं कंदणया-क्रन्दनता-स्त्री० महता शब्देन विरवणरूपे ार्त भाषते यच्च शररकाले दर्षे धुरप्रधानवत्रीवर्द श्व तं तं गध्यानस्य प्रथमे लक्षणे, ग० १ अधि० । स्था० । मो०।। च्छति यश्च सर्वत्रासमीवितं कार्य द्रुतं द्रुतं करोति । यच्च स्वकंदप्प-कन्दर्प-पुं० कं सुखं तस्मै तत्र वा दृप्यति कम्-दृप नावस्थितोऽपि तीव्रोद्रेकवशादर्पण स्फुटतीव एतद् फुःशीलवं अन् कुत्सितो दर्पोऽस्माद् वा । कामदेवे, अमरः । कन्दर्पः काम- यमुक्तं " भास दुय ऽयं गच्छए य दरिउ व्व गो व्व सोसस्तकेतुर्विशिष्टो वाक्प्रयोगोऽपि कन्दर्प उच्यते। रागो कात्प्रहा- रए । सयदयपुयकारी,फुट्ट दविओ वि दप्पेणं" तथा भारमसमिश्रे मोहोद्दीपके नर्मणि, श्रा० । व्य० । अयं चातिचारः प्रमा- श्व परेषां न्द्रिाणि विरूपवेषनाषाविषयाणि निरन्तरमन्वेषयन् दाचरितलकणोऽनर्थदएमभेदव्रतस्य सहसाकारादिना उपा० चित्रैस्तादशैरेव वेशवचनैर्यत् अष्ट्रणामात्मनश्च हासं जनय१ अ०। इह चेयं सामाचारी श्रावकेण न तादृशं वक्तव्यं येन | ति तत् हास्यकरणम् । यमुक्तं " वेसवयहि हासं, जणयंतो स्वस्य परस्य वामोहोडेको भवति अट्टाहासोऽपि न कल्पते अप्पणो परोसें च । अहहासणोति भन्न३,घयणो व्य ग्ले नियकर्तुं यदि नाम हसितव्यं तदैतदेवेति ध० १ अधि० । आव० । च्छतो""घयणोत्ति" नएमः तथा इन्द्रजात्रप्रभृतिभिः कुतूहलैः श्रा००। पञ्चा०। प्रव०। पं०व० । अट्टाहासहसने, ग० । प्रहेलिका कुहेटकादिनिश्च तथाविधग्राम्यत्रोकप्रसिद्धैर्यत्स्व१ अधिः । आतु० । "कंदप्पकबहकेलिकोसाहलप्पिया" औषत। यमविस्मयमानो वालिशप्रायस्य जनस्य मनोविचममुत्पादयति कन्दर्पः कामप्रधानः । कन्दर्पः कामोद्दीपनवचनचेष्टा " जी० तत्परविस्मयजननं यमुक्तम् “सुरजालमाश्यहिं तु, विम्हयं कु३ प्रति । कन्दर्पः कामस्तत्प्रधानः । निरन्तरं नर्मादिनिरततया ण तबिहजणस्स । तेसु न विम्हय सयं, आहट्टकुहे पर्दि विटप्राये देवविशेषे, प्रव० ७३ द्वा०।१०। प्रश्न । कन्दर्पकथा- च" अत्र" आहट्टत्ति" प्रहेलिका कुहेक अाभाणकप्रायः प्रकरणशीले, आतु० । स्था०। कामसम्बन्धिनि कषाये, कन्दर्प- सिक एव प्रव०७३ द्वा० । वृ० । दशा। पं०व०। पति, त्रि० वृ०१०॥ कंदप्पिय-कान्दर्पिक-न कन्दर्पस्तवृद्धिः प्रयोजनमस्य उक् । कंदप्पकहाकहण-कन्दर्पकथाकथन-न०कामकथाग्रहे, पंवा कन्दर्पबुझिसाधने वैद्यकोक्ते वाजीकरणादिके विधानभेदे, वाच. कंदप्पदेव-कन्दर्पदेव-पुं० कन्दर्पोऽट्टाहासहसनं कन्दर्पकरण- कन्दर्पः परिहासः स येषामस्ति तेन वा चे चरन्ति ते कन्दर्पिशीलाः कन्दर्पाः कन्दर्पाश्च ते देवाश्च कन्दर्पदेवाः । कान्दर्पिकदे- काः कान्दर्पिका वा । व्यवहारतश्चरणवत्स्वेव कन्दपकोकच्यावेषु, तत्स्वरूपं तु " कहकहस्स हसणं" इत्यादिगाथयाऽग्रे व- दिकारकेषु, भ०१ २०२१० । तथा हि (कहकहकहस्स हसणं, यतेति ॥ इत्यादि चतस्रोऽपि कंदप्पन्नावणाशब्दे दर्शिताः) कामकन्दर्पकंदप्पभावणा-कान्दर्पजावना-स्त्री०कन्दर्पः कामस्तत्प्रधाना नि प्रधानकेलिकारिषु नानाविधहास्यकारिषु, औ०। हास्यकारिषु रन्तरं नादिनिरततया विटप्राया देवविशेषाः कन्दर्पास्तेषामिय | भएमप्रायेषु देवविशेषेषु च प्रश्न द्वा०२ अध०२०। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७७) कंदप्पिया अन्निधानराजेन्षः। काम्पिल्य कंदप्पिया-कन्दर्षिकी-स्त्री० कन्दर्पः कामस्तत्प्रधानाः षङ्गप्राया | कंदिय-क्रन्दित-न० ऋदि-नावे-क्त-। आह्वाने, मेदि० । योधानां देवविशेषाः कन्दर्प नच्यन्ते तेषामियंकान्दर्पिकी। असंकिष्टना- चीत्कारशब्दकरणे, शब्दरा ध्वनिविशेषकरणे,प्रश्न०प्रध०१द्वा० बनानेदे, वृ० १ उ० (कन्दप्पभावणा शब्दे व्याख्यातम्) ११०अव-श्राक्रन्दौच प्रश्नसं०रद्वा०५अाव्यन्तरकायानामुपरि कंदप्पुवएस-कन्दर्पोपदेश-पुंविधानद्वारेणैवं कुर्वति, हास्या- व्यन्तरजातिविशेषे, पुं०प्रश्न०अध०१द्वा०प०औ० । प्रव० । दिप्रवर्तने, पं० व०। कंदियसद्द-ऋन्दितशब्द-पुण्प्रोषितनर्तृकाणां विरहिनीनां मकंदभोयण-कन्दनोजन-न० नुज्यत इति भोजनं कन्दः सूर- तृवियोगःखाजाते,(उत्त० १६ अ0) आफन्दरूपे शब्दे, "क णादिस्तस्य भोजनं तदेव वा जोजनमिति । कन्दाहारे, तश्च पा- | दियसई वा सुणमाणस्स बंनचेरस्स तं कहं" उत्त०२ अ०॥ श्वयाभिकानां प्रतिषिरूम स्था०९ गगन कंदिसिय-कान्दिशिक-त्रिका दिशं यामीत्याह तदाहेति मा कंदमंत-कन्दवत्-त्रि कन्दो मूलानामुपरि वृत्तावयवविशेषः शब्दादिन्यः उपसंख्यानात् उक् पृषो मयू०प्राकृतिगणत्वात ससोऽस्यास्ति मतुष्प्रत्ययश्चेह नूम्नि प्रशंसायां वा । कन्दप्रचुरे, मासः। कदि-वैकल्ये नाव-इन् । कन्दिः वैवव्यम् । शोकसेप्रशस्तकन्दे च औ० । का। चने करणार्थत्वादश्रुपातार्थकता नावे-घश् कन्दिश्च शोकः अकंदमाण-क्रन्दत-त्रि० शोकान्महाध्वनि मुञ्चति, झा० ए ०।। श्रुपातश्च विद्यते अस्य वा अण् । जयद्रुते पत्नायिते, अमरः। कंदमून-कन्दमूल-न०कन्दरूपं मूसमस्य । मूलके, राजनिाश्त कान्दिशीका शतानीका कामिन्द्याः परतोऽगमत्" श्रा० क०। रेतरद्वन्तः । कन्दे मूत्रे च "उदरिपत्थयणा सश्यत्ययणा तेसिं कंदु-कन्मु-पुं० स्त्री० स्कन्द-ब-सलोपश्च. । मएलकादिपचनकंदमूबफया" वृ०२ उ01 भाजने, वि० ३ ० । सेह्याञ्च प्रश्न अध०१ द्वा० १७० । तएमु. कंदर-कन्दर-न० कम जोन दीर्यते ह-कर्मणि-अप्राई- लादेर्भर्जनपात्रमात्रे च । सूत्र० १ ध्रु० ५ ०। के, अङ्गारे च राजनिक रन्धे, झा०२ अामिविवरे, न० एO कंदुकुंजी-कन्दुकुम्नी-स्त्री० सोहमयपाचनजामविशेषे, सत्ता ३३१०। कुहरे, "विसमगिरिकंदरकावसामिविट्ठा"विपा०१श्रु० १७ अ०। ९७ अ ३० । संस्कृतायां गिरिगुहायाम, आचा०श्श्रु० २०२ उ० । कंदुग-कन्तुक-पुं० कं सुखं दादति-दा-कुरसंझायाम् कन् । कझा० । दाम, स्त्री० प्रौला प्रभ। कन्दरसन्निकृष्टदेशादौ,त्रि०कं पु-यावादिकुमारक्रीमनकत्वेन कन् वा। वस्त्रादिनिर्मिते गोसागजशिरो दीर्यतेऽनेन करणे अप्-अङ्कशे, मेदि०। कारे क्रीडासाधने गेन्द इति प्रसिकेऽर्थे, वाच० (कन्मुगगकंदरकम्मायतण-कन्दरकर्मायतन-म० यत्र कन्दरपरिकर्म क्रि- त्यादिशब्दाः कंमुगादिप्रकरणे उक्ताः ) साधारणवनस्पतिवियते तादृशे स्थाने, आचा०२ श्रु०२०२०।। शेषे, पुं० प्रज्ञा० १ पद। कंदरगिह-कन्दरगृह-न0 गिरिगुहायां, गिरिकन्दरे च । स्था० कंदुट्ठ-उत्पा-न- गोणादयः ८।२।७४ । इति उत्पसस्थाने ५ वा0। भ01 निपातः । प्रा० । कमले, को। कंदरविल-कन्दरविल-न0 गुहातकणे रन्धे, "हिंगुलयधाउ | कंसोल्लिय-कंदपक-त्रि० जलोपसेकं विना कन्दुपाके, पकं कंदरबिलवंतस्स" उपा० २ अ० । तएमुखादिशुष्कतया भ्रष्टतएमुनादौ, औ०।म कंदरी-कन्दरी-स्त्री० गुहासु, झा० १ ०।। कंप-कम्प-पुं-कपि-चने घ+गात्रादिचलने, वेपथौ, कम्पश्चकंदल-कन्दल-त्रि० कदि-अवच-कलापे, उपगगे, कस बनं सच वातादिना प्रेरणात् स्थावरस्य म्यादेर्भवति देहाडेध्वनौ च मेदि० । अपवादे, शब्दर० । वाम्युद्धे, कपाले चधर स्तु मनसो विकारनेदेन वातादिधातुना व शासनात् भवति बाणिः । ओले, पुं० जावप्र०। प्रत्यग्रनतायाम, झा० अ०। प्ररोहे च च०। उक्तं च "प्रकामं वेपते यस्तु कम्पमानस्तु गच्छति । कला पषजं तं विद्यान्मुक्तसन्धिनिबन्धनम्"आचा०१ श्रु०६अ०१० न० "सजज्जुणनीवकंपुयकंदबसिविंधकबिएसु" झा०१०। कम्प्य-त्रि० कपि-णिच्- कर्मणि-यत+कोज्ये, चाल्ये, आतु। कंदलग-कन्दलक-पुं० एकखुरचतुष्पदस्थलचरपश्चेन्जियतिर्य कंपण-कम्पन-न०चबने, मेदिका णिच् ल्युट्रकम्पयितरि, त्रि० ज्योनिकजीवविशेषे, प्रज्ञा०१पद। कंदलसिलिंध-कन्दलसिलिन्ध्र-पुं० कन्दलप्रधाने वृक्षविशे शिशिर ऋतौ, पु०प्रस्त्रनेदे, सान्निपातिकज्वरनेदे च वाचलाभाथे, ज्ञा० ए ०। वे-प्यु शीतजलाच्छेदनादिना शीतकाले गात्रोत्कम्पजनमे,स० कंदली-कन्दली-स्त्री० कन्दस-गौरा० ङीष्-मृगनेदे, गुल्मभेदे कंपमाण-कंपमान-वि० चलनस्वप्नावे, कल्प० । उत्त० । च मेदि। कन्दनेदे, उत्त० ३६ अ० । गुरुचन्नेदे, प्रका० १ पद । कंपिन-कम्पिन्न--पुं० कपि-ल्लxरोचने, वृक्कोंदे, स च करहरितन्नेदे, आचा०१ श्रु०१०५30 वलयभेदे,प्रज्ञा०१ पद । न जनेदः स्वार्थ कद कम्पिल्लकोऽप्युक्तार्थे वाच० । द्वारवत्त्याकंदनीमत्थय-कन्दलीमस्तक-न० कन्दलीमध्यवर्तिनि गर्भे, मन्धकवृष्णेर्धारण्यामुत्पन्ने षष्ठे पुत्रे, अयं च नेमिजिनाआचा०२९०१ अ० ज० । कन्दव्या मस्तकसदृशेऽवयवे, य न्तिके गृहीतप्रव्रज्यः शत्रुजये सिरू शत अन्तगमदशाचित्वाऽनन्तरमेव ध्वंसमुपयाति प्राचा०२ श्रु० १ अ०० उ०॥ ङ्गस्य प्रथमवर्गे षष्ठेऽध्ययने सूचितम् तत्र गौतमकुमारचरितकलीसीसग-कन्दलीशीर्षक-नकन्दनीस्तवके, आचा० २ बद्भावनीयम् अन्त०१वर्ग । श्रु०१ अ०८ २०। काम्पिल्य--न० पञ्चानाख्यार्यक्केत्रराजधान्याम, प्रझ०१ पद । कंदाहार-कन्दाहार-पुं० कन्दमात्राहारके वानप्रस्थनेदे, औ०।। का० । प्रव० । उत्त० । आ०चू । श्राव० । स्त्र० । काम्पिल्यकनि । प्रा० म०प्र०। रूपः । काम्पिल्यपुरे जातामा तीर्थकृन्महाराजादीनां सङ्ग्रहेणो Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) कंपिलपुर अभिधानराजेन्द्रः। कंबल लेखः स चैवं," गंगामूलहिअसिरि-विमसजिणाययणमणदरसि- | "पंचानेसु जणवएसु कंपिल्लपुरं णयरं तत्थ पुम्मुदो राया" रिस्स । किमि समासेणं, कंपिलपुरस्स कप्पमह । अस्थि - | उत्त०ए०। राजगृहापरनामके नगरे च । यत्र खएमरक्काहेव जंबहीवे दीवे दक्खिणानारहखंमे पुव्वदिसाए पंचाला ना. ऽनिधानः श्रावकैः सामुच्छेदिकनिहवाः संबोधिताः । विशेः । मजणवओ । तत्थ गंगा नाम महानश्तरंगभंगपक्खासिज्जमा- प्रा०म० द्वि०। णपायारनित्तियं कंपिल्लनाम नयरंश्तत्थ तेरसमो तित्थयरो कंबल-कम्बल-पुं० कम्ब-कलच्-कुंकुत्सितं शिरोऽम्बु वा ब. विमलनामा स्वागुकुन्नपई व कयवम्मनरिंदनंदणो सामा देवी अति बल संबरे, अच्-वा सर्पभेदे, कृमौ च । जले, उत्तरासने कुचिसिप्पमुत्ता हलोवमो वराहलंछणो जश्चकणयवन्नो पउणो ३ | च मेदि०। मृगनेदे, पुंस्त्री जटा सानायाम, विपा०२०। तत्थ तस्सेव नगवओ चवणजम्मणरजाभिसेअदिक्खाकेवल- पौर्णिके, आचा०१ श्रु०६० २००। करपे, वृ०१० । नाणमक्खणाई जाया श्तुचि तत्थ पएसे पंचकल्याणयं नाम वर्षाकल्पादो, द०६अ। कर्णामये जीनादी, ज०१३श०एel नयर रूढं ४ जत्थ तस्सेव भगवो सूअरसंग्णाणत्थणं पफुध वासोविशेष,प्रश्नसं २ द्वा०४अ०भाविके, पात्रनिर्योगे, प्राचा देवहि महिमा कया । तत्थ य सुअरवित्तं पसिद्धिमुवगयं तत्थ १ श्रु०२ अ० । तथा केवलोमिकाशरीरसंपर्के संमृजजीवानयरे दसमो चक्कवट्टी हरिसेणो नाम संजाओ । ५ तहा दुवाब- नामुत्पत्तिरस्ति न वेति । अत्र केवग्लिशरीरसंपर्के वस्त्रापेकया षट्समो सव्वनामो बंभदत्तनामा तत्थेव समुप्पन्नोतिहा वीरजि पद्यो बहवः तत्पद्यन्ते इत्यकराणि दग्रन्थे स्मरन्ति नेतराणीति णनिव्वाणो दोहिं सपर्हि वीसाए समदिदि बरिसाणं मि ही०। (वत्थशब्दे तहणम्) स्वनामख्याते गोवृषे, सचाऽनशहिसाए नयरीए लच्छिहरे चेइए महागिरीणं आयरियाणं को नेन मृत्वा नागकुमारेषूपपन्नः । तत्कथा चैवम् ॥ मिन्नो नाम सीसो तस्य आसमित्तो नामं सीसो भएप्पवाय महराए जिणदासो, आजीरविवाहगोणनववासो। पुग्वे नेउम्मियवत्युम्मि छिन्नच्छेयणे य वत्तव्वयाए आलावगं पढंतो विप्पमिवन्नो चउत्थो निन्हवो जाओ। समुश्वदिढेि प भंडीरमित्तवच्चे, जत्ते नागोहिआगमणं ॥ रुर्वितो पयं कंपिल्वपुरमागओ तत्थ खंमक्खा नाम समणावा व्याख्या कथानकाजोया सा चेयर। सगाते असुंकपाला तेहिं भएणं ग्ववत्तीहि य पडिवोहिमओ७ इहास्ति जम्बूद्वीपान्त-भरतक्षेत्रमण्डनम् । श्त्य संजयो नाम राया होत्था सो अपारदीपगओ कंसरुज्जा- नगरी मथुरा नाम, यथा कामितकामधुक् ॥ १॥ णामिएहि एवं पासंतो तत्थ गद्दजानिं प्रणगारं पासित्ता सं जिनदासो घणिक तत्र, श्रावकः परमार्हतः। विग्गो पब्वश्त्ता सुगरं पत्तो इत्थेव नयरे गागलीकुमारो पि अर्हद्धर्मः सदा यस्य, मानसे राजहंसति ॥ २॥ ही चंपादिवसालमहासासाणं भाणिज्जो पिठरजसवर्षणं पुत्तो जिनदासी प्रिया तस्य, प्रियङ्करणदर्शना। प्रासी सो मतेहिं माउलोहि श्तोय राम्रो पाहवित्ता पिट्ठी चंपा धर्मे रङ्गः स कोऽप्यस्या, न यो योगभृतामपि ॥३॥ रज्जे पहिसित्ता । तेसिं च गोअमसामिपासे दिक्खा गहिया एकान्तरदिनोपात्तै-कान्तरब्रह्मचारिणी । कालकमेणं गागली वि अम्मापिनसहिओ गोयमसामिपासे जि कुमारत्वेऽप्यभूतां तौ, गुरूणामुपदेशतः ॥ ४॥ णदिक्खं पडितलो सिको अश्त्येष नयरे विमानारयणवि दैवयोगात्तयोरेवा-भवत्पाणिग्रहस्ततः। विममुहत्तणपसिकेण नामधिज्जेण म्मुहो नाम नरवई कोमुई व्रतभङ्गभयाज्जातो, तौ नित्यं ब्रह्मचारिणौ ॥५॥ महसवे इंदकेभलंकिअविनृसि महाजणजणियइहिसक्का- तौ त्यक्तारम्भसंरम्नौ, प्रत्याख्यातचतुष्पदी। रंदटुं दिणंतरे तं चेव भूमि पमियं पापहिं विलुप्पमाणं अणा कलान्तरार्जितद्रव्यौ, धर्मकमैंककर्मठौ ॥६॥ ढामाणं दहण शकिअणिहिंसमुपेहिकणिय पत्तेयबुद्धो जाओ। धान्यैः प्रतिदिनानीत, कर्मकृत्प्रगुणीकृतैः। १० । इत्येव पुरे दो वक्षमहासई दूरयनरिंदमहाधूया पंचएहं पं- गोरसैगर्गोकुलायातैः, प्रत्यहं कृतभोजनौ ॥७॥ सवाणं सयं चरमकासी११३त्थेव पुरेधम्मरुई नरिंदो अंगुखिजग त्रिसंध्यं कृतदेवाओं, गुरुव्याख्यारसोर्जिती। रययुक्खेमियनरिंदविवनमंसणदोसुज्जावणेणं पिसुणेहि कोवि सायं प्रातः प्रतिक्रान्ति-कारिणौ प्रतिवासरम् ।।८।। एण कासीसरेण वि गहिओ वेसमणेण धम्मप्पभावणं सबलवा (कलापकम्) हणं परचकं गमणगामणं कासीए नेउं नित्यारिओ तस्सेव स तदानीं जिनदास्याश्च, गोकुलिन्याश्च चेतसोः। म्माणभायणं जामो १२ श्चाए अणेगसंवहाणगरयणनहीणं एवं उपप्रयाग मेलोऽभू-मङ्गायमुनयोरिव ॥ ६॥ मयरं महातित्थं इत्थ तित्थजसाकरणणं प्रविअनोआजिणसास- निमन्त्रितौ गोकुलिकै-विवाहोपक्रमेऽथ तौ। गप्पजावणं कुणंता अजिति इह सोअपरसोइअसुहाई तित्थयर- ऊचतुः क्वापि नायावो, धर्मों वाध्येत नौ यतः ॥ १० ॥ नामगुत्तं "चंपिच्चियकुकम्मरिउणा,कंपिद्धपुरस्स पवरतित्थस्स। वस्त्राभरणकुप्यादि-विवाहायोपकारि यत् । कप्पपढ़तअसढाइ य, जण जिणप्पड़ोसूरी॥१॥" ति का- तथा कर्पूरकस्तूरी-कुङ्कमाद्यं च गृह्यताम् ॥ ११ ॥ म्पिल्यपुरकल्पाती । मबयवत्याः पितरि, उत्त०१३ अ०॥ ते तदर्पितमादाय, विवाहं व्यधुरद्भुतम् । कंपिल्लणयर-काम्पिल्यनगर-न०पाञ्चालप्रधाननगरे, “ कंपिल्ले मध्यं वैवाहिकं तेषां, जो शोभातिशायिनी ।। १२ ।। नयरे राया उदिमबलवाहने नामेण संजो नाममिव्वं उ पणि विवाहातिक्रमे तेऽथ, तयोर्निर्याय्यमार्पयन् । गए" उत्त० १० अ०। हर्षोत्कर्षेण शाल्यादि-भोजनौ द्वौ च गोवृषौ ॥ १३ ॥ आददे सर्वमप्यन्यद्, गोवृषौ नेच्छतः पुनः । कंपिल्लपट्टण-काम्पिल्यपत्तन- न० काम्पिल्यपुरे, “समुच्छेषं। अनिच्छतोरपि तयो-वच्वा तौ तत्र ते ययुः ॥१४॥ वदन सोऽय, ययौ काम्पिल्यपत्तनम्" आ००। दध्यौ श्राद्धोऽथ मोक्ष्ये चे-तबोको वाहयिष्यति । कंपिल्लपुर-काम्पिल्यपुर- न. पाश्चालजनपदेषु प्रधाननगरे, प्रासुकैश्वारिपानीयै-स्तदासातामिहाप्यम् ॥ १५ ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) कंबल अभिधानराजेन्यः । कंसाला अथ कर्मकरं चके, स तयोः प्रतिचारकम् । तोऽप्यवगाहावतिष्ठते केवलं घनप्रतरमात्रकृतो विशेषः । प्रदेशयथैतौ सुखमेधते, पुत्रकाविववच्चको। १६ ।। संख्या तूनयत्रापि तुल्या। उकश्चायमर्थोऽन्यत्रापि नेत्रपटमधिविधत्ते पुस्तकव्याख्यांस भक्तार्थ च पर्वसु । कृत्य "जह खलु महप्पमाणो, नेत्तपमो कोमिओ महम्मम्मि ।ततत् श्रुत्वा भद्रकी जाती, गावी तावपि संशिनौ ॥ १७ ॥ म्मि वि ताविं शश्चियु फुस पएसे इति" प्रशा० १५ पद । न श्राद्धो यहिनेऽनाति, नाश्नातस्तत्र तावपि । कंबु-कम्बु-पुं० न० कम् अन् बुक चकम्ब गतौ मृगएवा-उन्-वा ततस्तौ प्रति भावोऽभू-द्यथा साधर्मिकाविमौ १८॥ वाच । शङ्ख, ध०२ अधि० । स्था० । “जलोयणरट्टयाए कंबुकम्बलः शवलश्चेति, कृतोल्लापननामको। गं मेद्वेडं ताव अमोण खग्गं" आठ म6ि0॥ संजातान्यधिकस्नेह-स्तयोः सारां व्यधात्पराम् ॥१६॥ कंबुवर-कम्बुवर-पुं० प्रधानाङ्के, “कंबुवरसरिसगीवा" कम्बुअनन्यसदृशौ स्थाना, धाना तेजोमयाविव । वरेण प्रधानशीन सहशी उन्नतवचित्रययोगान्यां समाना ग्रीहरोक्ष्ण इव मूर्ती द्वे, अनापृच्छचैव गोवृषौ ॥ २० ॥ घा कएठो येषां ते तथा तं० । जी0। भण्डीरमणयात्रायां, बाहकलिकुतूहली। वयस्यो जिनदासस्य, तौ निनाय परेद्यवि ॥ २१ ॥ कंबोय-कम्बोज-पुं०हस्तिभेदे, शङ्खनेदे, मेदि० । पञ्चनदं समारबाहकेली ततस्ताभ्यां कृत्वा जयमवाप्य च । ज्य म्लेच्चगइक्विणपूर्वतः कम्बोजदेश इत्युक्ते देशे च वाच । तदेवानीय तत्रैव, विमुच्य ब्रजति स्म सः॥२२॥ "सबसि जहा से कंबोयाणं प्राश्ने कंथए सिया" यथा काम्बोचैत्यादथागतः श्रेष्ठी, श्रान्तौ तौ वीक्ष्य दु:खितौ। जानां काम्बोजदेशोद्भवानामश्वानां मध्ये उत्त० ११ अ०। धूलीधूसरसर्वाङ्गी, तोत्रतोदोत्थशोणितौ ॥ २३ ॥ कंस-कंस-पुं० न० कम्-स. कांस्ये, स्वर्णरजतादिनिर्मिते पानज्ञात्वा तयोमित्रकृतं, दुष्कृतं तच्च तादृशम् । पात्रे, बाढक इति प्रसिके परिमाणे च अस्त्री० वाच०। करोटिक्षालायित्वा तदङ्गानि, चारिचारिमढौकयत् ॥ २४॥ कादी पात्रे, दश० ६ अ० कृष्णमातुझे मथुराराजे, प्रश्न०१ अध. तौ न चारिमचारिष्टा-मयातां वारि वा न च । वा.४ अ01(तत्कथा सर्वा बसुदेवहिएड्याः समवसेया) अष्टातिर्यग्वैद्यमथाका--दर्शयत्तावुवाच सः ॥ २५ ॥ शीतिमहाग्रहाणां द्वाविंशे त्रयोविंशे व महाग्रहे, स्था० ५ग० भद्र ! भद्रौ मृदू पतौ, त्रुटितावतिखेदनात् । ३ उ० । “दो कंसात्ति" सूत्रात्तौ द्वाविति गम्यते स्था० देहि पर्यन्त पाथेय-मेतयोः ससितं पयः ॥ २६ ॥ २०३ न०कल्प० । सूत्र०। तं विमृज्य तदाऽऽनाय्य, ढोकयामास तत्पुरः। कांस-पुं०कम्-स०मांसादिष्वनुस्वारे ७१७० । इति भातोऽत्वं पपतुस्तौ न तदपि, ज्ञात्वा पर्यन्तमात्मनः ॥ २७ ॥ प्रा०। मांसादेर्वा । ।१।२९ । इति अनुस्वारस्य वा सुक् । झुवृषावनशनेच्छौ तौ, विदित्वा ऽनशनं ददौ । कि अत्वं न प्रा० | कंसाधिष्ठितन्नोजदेशान्निजने नरादौ, वाचा पर्यन्ताराधनां श्रेष्ठी, कारयामास चाखिलाम् ॥ २८॥ कांस्य-कंसाय पानपात्राय हितं कांसीयं तस्य विकारः। यश्चकृतात्मकृत्यं कृत्यचौ, नमस्कारश्रुतौ रतौ। स्रोपावाच.त्रिपुकतान्नसंयोगजे,प्रश.अध.द्वा.प.स्थलकञ्चोतो विपद्योदपोता, देवी नागकुमारकौ ॥ २६ ॥ सकादिरूपेधातुभेदे, ग.१ अधि.कच्यमानविशेषेच जपा.अ.। श्रा० क०। (ताभ्यां नौस्थं श्रीवीरमुपसर्गयन् सुदाढः पराजित इति वीरशब्द) कंसणाज-कंसनान-पुं० मष्टाशीतिमहाग्रहाणां त्रयोविंशे प्रहे, कंबलरयण-कम्बलरत्न-न0 उत्कृष्टकम्बले, “ उपहे करे सीयं, सू०५० २० पाहु० । च० प्र० । कस्प० । अस्य कसवर्ण श्त्यपर नाम कल्प० । सीए उपहत्तणं पुण करे । कंबनरयणादीणं, एस सहावो मु कंसताल-कांस्यताल-न0 कंसालियाख्ये पातोद्यभेदे, जी० ३ णेयन्त्रो" सूत्र० १७० १३ अ01 प्रति० । "अटुसयं कंसानियाणं" रा०। प्राचा० । श्रा० चू०। कंबलसाम्य-कम्बलशाटक-पुं० कम्बनरूपे शाटके, कंसपत्ती(पाई)-कांस्यपात्री-स्त्री० कांस्यनाजनविशेषे, स्था० कंबलमामणेणं नंते ! आवेदियपरिवेढिए समाणे जाव- VTO "कंसपाई व मुक्कतोए" कांस्यपात्रीव मुक्तं तोयमिव तोयं तियं उवासंतरं फुसित्ताणं चिट्ठ विरखे वि य णं समाणे स्नेहो येन स तथा। यथा कांस्यपात्र तोयेन न लिप्यते तथा तावड़यं चेव नवासंतरं फुसित्ताणं चिट्ठति हंता गोयमा ! | जगवान् स्नेहेन न लिप्यते श्त्यर्थः । कल्प० । कंसपाय-कंसपात्र-न० तिलकादिकांस्यभाजने, “कंसेसु कंसकंबलसामएणं आवेदियपरिवेढिए समाणे यावति य चेव पाएसु, कुममोपसुवा पुणो। तुजतो असणपाणा, श्रायरो परिचिट्ठति ।। जस्स"दश०६ अ० प्राचा०।। कम्बलशाटकः कम्बलरूपः शाटकः कम्बलशाटक ति व्यु- | कसभायण-कांस्यभाजन--न० कांस्यपाच्याम, "सुविमनवरकत्पत्तः । आवेष्टितः परिवेष्टितो गाढतरं सम्बेल्लितः एवंभूतः सभायणं चेव मुक्कतोए" प्रश्न० २२० द्वा० ५ अ01 सन् यावत् अवकाशान्तरं यावत् आकाशप्रदेशानित्यर्थः। स्पृ-कंसवम-कंसवणे-joमष्टाशीतिमहाग्रहाणां प्रयोविशे महाग्रहे, ष्टा अवगाह्य तिष्ठति (विरल्लपवीति) विरचितोऽपि विरली- "दो कंसवमा" कसनाभ इत्यपरं तस्य नाम चं० प्र०२० पाहु०॥ कृतोऽपि तावदेवाकाशान्तरं तावदेवाकाशप्रदेशान् स्पृष्ट्वा ति कंसवधाभ-कंसवर्णाभ-पुं० अष्टाशीतिमहाप्रहाणां चतुर्विशे ठति नगवानाह । "हंता गोयमा"इत्यादि हन्तेति प्रत्यवधारणमेवमेवैतत् गौतम ! यत् “कम्बलसामएणमि"त्यादि तदेवमेषो- ग्रह आहे "दोकंसवमाभा" स्था०श्ग०३ २०। चं0 प्र0सू० प्र० । त्र संपार्थः यावत् एवाकाशप्रदेशान् सम्बल्लितः सन् कम्ब-कंसाला-कंसताला-स्त्री० द्वादशानां तूर्यनिघोषाणां सप्तमे, बशाटकोऽवगाह्यावतिष्ठते तावत् एवाकाशप्रदेशान् विततीक- निघोष, श्री० । नं० । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१) कंसालिया अनिधानराजेन्छः। कक्कि कंसालिया-कांस्यतालिका-कांस्यताने, जी० ३ प्रतिः । ककरणया-ककरणता- स्त्री० शय्योपक्ष्यादिदोषोद्भावनगर्नप्रकंसिया-कंसिका-खी०ताले,का० १७ अ० अौ०। आ० म0प्र0 लयने, स्था० ३ ग० ३ ० (एषा च साधूनामाहता) कंसिकातालव्यमध्यन्नतिकाख्ये वादित्रे, आचा०५श्रु०। ककराश्य-कर्करायित-न० विषमा धर्मवतीत्यादिशय्यादोषोचाककारखकारगकारघकारङकारपविभत्ति-ककारखकारगका- रणे, आव० ४ ० । “अहो विसमा सीतला धम्मिना दुग्गंरघकारडकारमविभक्ति-न० फवकृतिरूपनर्तकमएमलाभि- धादि कक्कराश्तं" कुत्सितं रसितं कुरसितं कक्करसरसितं कनयरूपे पञ्चदशे नाट्यविधी, रा०। कराश्तम् । आ० चू०४०। ककुध-ककद-न0 गोणादयः। ८।२।७४ । इति निपातनात द-1 ककस-कर्कश-पुं० कम्पिल्यवृक्के, अमरः। वृक्के,खने च देम० । घटितस्य धटितः वृषाङ्गे, प्रा०। साहसिके कगेरे च त्रि0 अमरः । अश्लथाङ्गतया कग्नेि, ककुह-ककुद-न० गोणादित्वादस्य धः। तस्य ः।चिहे, "राय " णिरुवहयसरसजोब्वणकक्कसतरुणवय नावमुवगयाओ" क कशोऽश्लथाङ्गतया यस्तरुणः औ० । प्रश्न । " विपुला कक्कसाककुहा" राकां नृपतीनां ककुदानि चिह्नानि स्था० ५ ग.१००। पगाढा चंमा दुहा तिच्या दुरहियासत्ति" एकार्थाः । विपा० प्रधाने च । का०१७ अ० औ०। १ श्रु०१०। परुषे, प्रव०५द्वा० कर्कशव्यमिव कर्कशः। फक-फन्क-पुं० कल-क-तस्य नेत्वम् घृततैलादिपाकसंस्कारवि अनिष्टे, भOU०३३३० सपाला नम्रताया अनावानिष्ठरे, उपा० शेषे विभीतकवृत, विष्ठायाम् ,किट्टे, पापे च मेदि० । तुरुप्कनाम- १०। कर्कश-टापा फर्कशेव कर्कशा । कर्कशस्पर्शसंपादितायां गन्धरव्ये राजनि० । घृततैलादिपाके देये श्रोषधिभव्यभेदे,वा- चएडायां वा वेदनायाम, स्था0 ए ग० । किमुक्तं नवति यथा च०। चन्दनकस्कादौ,प्रसृत्यादिषु रोगेषु कारपातने प्रात्मनः श- कर्कशपाषाणसंघर्षः शरीरस्य खएमानि नोटयति एवमात्मप्रदेरीरस्य देशतः सर्वतो वा सोनादिभिरुद्वर्तने, प्रव० ५ द्वा०। शान् बोटयन्ती या वेदनोपजायते साकर्कशा रा । चर्विताकलोधादिजन्यसमुदायेन शरीरोद्वर्तनके, सूत्र० १ श्रु० ९ १०। रायां वाचि, । प्राचा०२ श्रु०४ अ० १ उ० । वृश्चिकालीवृक्के, "ककं उब्वनणय" व्यसंयोगेन वा कक्कंक्रियतेनि० चू०१०। राजनि०॥ पापे वचनेच्छायाम् सप्तमे गौणमोहनीये कर्मणि, स० । फरकं कक्कसविअडफुडाडोवकरणदच्छ-कर्कशविकटस्फुटाटोपकरणहिंसादिरूपं पापं तन्निमित्तो यो वञ्चनाभिप्रायः स कल्कमेवो दक्ष-पुं० कर्कशो निष्ठरो नम्रताया अन्नावादधिकटो विस्तीणों यः च्यते भ०१५२०५301 स्फुटाटोपः फणामम्बरं तत्करणे दकः । फणविकाशनिपुणे ककगुरुग-कल्कगुरुक-न०मायायाम, प्रइन०१अधद्वा०२०। सर्प, उपा० २०॥ कक्कगुरुगकारक-कल्कगुरुककारक- पुं० मायाकारके चौरभेदे. कक्कसवेयणिज्ज-कर्कशवेदनीय-न० कर्कशरीष्षुःखैवेद्यन्ते या. प्रश्न #२ द्वा०२ अ० ॥ नि तानि कर्कशवेदनीयानि । स्कन्दिनाचार्यसाधूनामिवेति । ककम-कर्कट-पुं० कर्क अटन् चिर्भटके, प्रव० ४ द्वा० । पंचा० । असातवेदनीयेषु कर्मसु ॥ श्रुधामनकबत्तुलफलके, वृक्कनेदे, जन्मजन्तुन्नेदे, कुबीरे, पकि अत्थि पं भंते ! जीवाणं कक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जभेदे, अलावूवृके व मेदि० ॥ ति? हंता अस्थि ।कहणं नंते ! जीवाणं ककसवेयणिज्जा ककडग-कर्कटक-न० कर्कट-श्व कायति-कै-क-यन्त्रन्नेदे, कर्कटो वृक्क व कायति के क भेदे, शब्दचिन्ता०। स्वार्थे कन् कु कम्मा कजति गोषमा! पाणाइवाएणं जाव मिच्छादमणसीरे अमरः । हृदयस्थे वायुविशेषे च । “ आसस्स णं धावमा- सोणं । एवं खलु गोयमा! जीवाणं ककसवेयणिज्जा कम्मा णस्स हिययास जगयस्स अंतरा पत्थ णं ककमर नामं वाए कजति । अस्थि णं नंते ! नेरइयाणं ककसवेयणिज्जा समुच्छिए जेणं आसस्स धावमाणस्स खुक्खु त्ति करे" भ० कम्मा कजति गोयमा ! एवं जाव वेमाणियाणं । भ० १० श० ३ उ। ककमजल-कर्कटजल-न० ६ त० चिटकमध्यवर्तिजले, प्रव० ७ श० ६ १०॥ ४ द्वा० । कर्कटाख्यफनविशेषरसमिश्रोदके च । पञ्चा०वि०॥ कक्कमरि-कर्कसूरि- पुं० उकेशगच्चीये देवगुप्तसूरिशिध्ये ककडजलाइ-कर्कटजलादि-न० कर्कटकानि चिमटकानि तन्म- सिद्धसूरेर्गुरौ, हेमचन्छाचार्यकुमारपाझराजाज्यामयमन्यनुज्ञातः ध्यवर्ति जन्तं तदादिर्यस्य तत्कर्कटजनादिकम् । कर्कटाण्यफल- चैत्यवासिसाधून पराजिग्ये मीमांसाजिनचैत्यवन्दनविधिपञ्चप्रविशेषरसमिश्रोदकादिपानके,पञ्चा० ५विव० । आदिशब्दात्ख- माणिकाख्यान् ग्रन्थांश्च व्यरीरचत जै० १०॥ जूरजावाचिञ्चिणिकापानके कुरसादिपरिग्रहः।एतत्सर्व पानक-ककसेण-कर्कसेन-पुं० जम्बूद्वीपे डीपे जरते वर्षेऽतीतायामुत्सम् प्रव० ४ द्वा०। पिण्यामुत्पन्ने पञ्चमे कुल करे, स्था०१ वा०॥ ककमिया-कर्कटिका-स्त्री० चिर्भटिकायाम, "पंचुवरिकक्कमिया ककि-कल्कि-पुं०कल्कोऽस्यास्तीति ! चतुर्मुखापरपर्याये श्रीवीपंच तह खाश्मं पंचा० १० विव० । पिं०।। रतीरविराधके पाटलिपुत्रेश्वरे, तचरित्रं यथा-दुष्षमायाः । कक्कमी-कर्कटी-स्त्री० कर्कट-डीए । शाल्मली, मेदि० । स, श "जो ब्व एगूणवीसाए सएसु चउद्दसाहिएसु बरिसेसु वश्कग्दरल० । देवदालीलतायाम, घोषिकावृक्के, राजनि० । उत्त० । तेसु चन्दसदोआले विक्कमवरिसे पामझिपुत्ते नयरे चित्तसुरूककर-कर्कर-पुं० कर्कर-हासे, दर्पणे, मेदि० । चूर्णसाधने कुछ- हमीए अकरते विट्टिकरणे मयरलग्गे वहमाणे जसरसमयंतरे पाषाणखएमे कङ्करे, रढे, कग्नेि, त्रि० मेदि० । मुझरे, शब्दचि मग्गविणभिहाणस्स गिह जसदचाप भयर चमालकुल "कक्रेहिं विधा" प्रा० म० द्वि० । रायस्स जम्मो इविस्स एगे एवमाहंसु । वीराओश्गूणवीस Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) अभिधानराजेन्द्रः । कक्क सहि वरिसाण अट्ठावीसाए पंचमासहि होही चालकुनम्मि sia निवो। तस्स तिनि नामाणि भविस्संति तं जहा रुद्दो कक्की चम्मुहो । तस्स जम्मे महराए राममहुमडणभवण कच्छविगूढं चिद्रुमाणं तं पमिस्सर दुब्जिक्खड़ मरपोर्ट बज्रणो पीमिजिहिओ अट्टारसमे वरिसे कन्तियसुकपक्खे ककिणो रज्जानिसेश्रो भविस्स । जहमुआ उ नाउ नंदरायस्स सुव थोनं पंचगावसो गिरिहस्स६ । वम्मयनाणस्स य पवित्तस्स । दुठे पास्सिर सिडे य निग्गहिस्स पुढवीं साहित्या उसमे वरिसे तिखंगसंमादिवई भविस्सर । सव्वओ खणित्ता खणित्तित्ता निहाणाणि गिण्डिस्सर । तस्स भंगारे नचनवसुकोकोमीयो चउद्दससहस्सा गयाणं सत्तासी लक्वाणं श्रसाणं पंचकोमीओ पाइकाएं हिंदुचतुरक्ककापुराणं तस्सेव एगच्छन्तं दविणत्थं रायमम्गं वाणितस्स पहाणमई लवणदेवी नाम गावी पयडी होऊण गोयरचरियागए साहूणो सिंघेहिं घट्टि । तेहि पामिवयायरियस्स कहिए इत्थ पुरो जाबादसग्गो धराणियं दोहिति तेहि आइसिस्संति । तम्रो के वि साहुणो अन्नत्थे विहरिस्संति के वि वसी पडिबंधारणा वाहिति तग्गहणत्थं पयमीनविस्सं सप्तरसाहबुद्धीए सम्वत्थं निहाणाणि । तो गंगाए पुरं समयां पिपलादिज्जिही राया संघो उत्तरदिसिठियं महत्थतं रुहि बट्टिस्संति राया तत्थे व नवं नगरं निवेसिस्सर सव्वे वि पासंकत्तेण दंमिज्जित्ति साहूणं सगासाओ भिक्खत्थलं स ममगंतो काउसम्मानसासणदेवया निवारिज्जी हा पंचासं वरिसाई सुनिक्त्रं दम्मेण कयाणंदो णो लज्जिहिर एवं निकंद्रयं निक्कंटयं रज्जमिव हुंजित्ता बासीश्मे वरिसे पुणो सव्वपासंभे दमिता सम्वलो निरुणं कार्ड निक्खा सादृहिंतो मोहिश् ते अर्दिते कारागारे विविस्सह । तओ पामिन्वयायरियपमुडाओ सासणदेविमार्ण कार्ड काउस्सग्गोवाहितीए विबोहिओ जाव न पष्ठपिहितओ आसणकंपेण नाउं माहणरुवो सबको आगामिस्सछ । जया तस्स वि वयणं न पमिवज्जिदेि तया सक्केण चत्रेमा डओ मरिनं नरप गमिस्स । तओ तस्स पुत्तं धम्मदत्तं नामे रज्जे वविज्जिस्सर संघस्स सुत्थयं श्राइसियसद्वाणं सक्को गमिहा ती० । श्रदं चिन्त्यम् । विविधतीर्थकल्पे कल्किसमयो य इत्थं प्रतिपादितः पुष्पमायाः प्रारम्नवर्षादेकोनविंशतिवर्षशते चतुदशाधिके ( १६१४ ) चतुश्चत्वारिंशदधिकचतुर्दशशते च विक्रमसंवत्सरे प्रतिपदाचार्य्यसमये पाटलिपुत्रे नगरे कल्कि भविष्य | ति तदनन्तरमे कोनविंशतिवर्षसहस्राणि जिनधर्मो वत्स्यति स शङ्कामञ्चति । संप्रति विक्रमसंवत्सरस्य एकोनविंशशताध्यावर्तमानत्वेन चतुर्दशशत्या अतीतत्वेन तत्र जातस्य कल्किनृपतेः कापीतिहासेऽश्रवणात् सिद्धान्तविरोधाच्च । सिकान्ते हि कल्कि नृपतिसमये श्राज्ञाभङ्गः प्रायश्चित्तव्युच्छित्तिश्च प्रतिपादिता न चेदानीमाज्ञा भग्ना प्रायश्चित्तं वा व्युच्छिन्नमिति न जातः कल्किः किंतु नविष्यति । तथा च महानिशीथे । से जयवं केवइयं कालं जात्र एस आणा पत्रेश्या ? गोयबा ! जाव णं महायसे महासत्ते महाणुभागे सिरिप्प अणगारे । से भयवं ! केत्र णं कालेां से सिरिप्पजे अणगारे भवेज्जा गोयमा ! होही दुरंतपंतलक्खणे दव्वे रोहे चंडे उग्गपर्यडदमे निम्मरे निकिये । नि For Private ककोडय घणे नित्तिसे करयपावमई प्रणारिए मिच्छादिट्ठी । कक्की नाम राया सेसेणं पात्रे पाहुडियं नमामिनकामे सिरिसमा संघ कयत्येज्जा जाव णं कयत्थे ताव णं गोयमा ! जे के तत्थ सीलद्धे महाणुजागे अचलियस - ते तोवहाणअणगारे तेसिं च पामिहेरियं कुज्जा सोहम्मे कुलिसपाणिए रावणगामी सुरवरिंदे एवं च गोयमा ! देविंद दिए दिपच्चएणं सिरिसमरणसंघे गिडिज्जा ॥ कुणए पासंकधम्मे जाव णं गोयमा ! एगे विइज्जो - हिंसालक्खणं खंतादिदसावहधम्मे एगे अरहा देवाहिदेवे एगे जिणलये एगे वंदे पूए दक्खे सकारे सम्मा महाजसे महासत्ते महाणुभागे दहसीलव्वयनियमधारए हा साहू । तत्थ गं चंदमित्र सोमलेसे सूरिए इव तत्रतेयसी पुढवी इन परिसहोवसग्गसहे मेरुमंदरघरे व निष्पकं विए अहिंसालक्खण खंतादिदसविहे धम्मे । से णं सुसमणगणपरिवुढे निरन्नगयणयलको मुईजोगजु ते इव गहरिवखपरिवरिए गढ़वईवंदे अहिययरं विराएज्जा । गोयमा ! से णं सिरिप्प अणगारे जोगो एवंतिकालं जाव एसा आणा पत्रेइया [ महा० ] सेनयवं वश्यं कालं जाव इमस्स विहीणं पायच्चित्तमुत्तस्सागुडाणं वहिही ? गोयमा ! जात्र णं कक्की नाम रायले निहिणं गच्छ एवं जिलाययए मंडियं च सुदं सिरिप्पभे अणगारे जयवं न पुच्छा गोयमा ! उठ्ठे न केइ पुरिसे पुनजागे होही । जस्स णं इमो सुयक्खंधं नवइसमेज्जा महा० ७ ० ॥ तत्वं पुनर्बहुश्रुतगम्यम् । पौराणिकानान्तु कल्किरम्य एवयतः स स्वगुणोत्कर्षमनुप्राप्ते कलौ सुरप्रार्थितो विष्णुः सम्भले ग्रामे विष्णुयशसो विप्रस्य गृहे सुमत्यां संभविष्यति सर्वाधमोचारान् दण्डयित्वा पुनः कृतयुगं स्थापयिष्यति । सर्वान् वेदधर्मान् प्रवर्तयिष्यति इति विभिन्न ग्रामपितृकर्मादिक उक्तः । वाच० । कक्किए-कल्किन्- पुं० कल्कोऽस्याऽस्ति कल्किशब्दार्थे, बुरूः कल्कीच ते दशणवाच०|"कक्किणो रजा हिसेश्रो नविस्स” ती० ॥ कक्किपुत्त - कल्कि पुत्र- पुं० धर्मदत्ते कल्किनृपात्मजे, ती० ॥ कक्किय-- कल्किक- न० मांसकपरिजापिते मांसे, मांसं कल्कि - कमित्यपदिश्य संज्ञान्तरसमाश्रयणान्निर्दोषं मन्यन्ते सूत्र० १५० ११ अ० ॥ कक्केरण - कर्केतन - पुं० मणिविशेषे, " श्रागासकेसकज्जकक्केयणरंदणीयसिकुसुमप्पगासे " रा० रत्नविशेषे, औ० । “सोभमाणकक्केयणदनील मरगय मसार गल्लमु खमंगणं" जं० ३ वक्व० कक्कोम (ल) -कर्कोट- पुं० बबीनामवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० १ पद | फलन कक्कोलानि फलविशेषाः प्रश्न० सं २ द्वा० ५ ० । तच्च सुरभि जवति । आचा० १ ० १ अ० ५ ० ॥ ककोमय-कर्कोटक - पुं० खनामख्यातेऽनुवेलन्धरनागराजे, तदा Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ककोडय अनिधानराजेन्छः। कच्च वासपर्वते च । कोटकानिधानोऽनुवेबन्धरनागराजवासनूतः | कच्चूर-कचेर-न० तिक्तव्यविशेषे, ध०२ अधि०। पर्वतो लवणसमुझे ऐशान्यां दिश्यस्ति तनिवासी नागराजः कच्छ-कक्ष-पुं० कश्-हिंसादौ-प । गेऽक्ष्यादौ ।। १७ । कर्कोटका भ० ३ श० ६०० जी०। (विस्तरत उत्तरकुरुड़ादेतद्वक्तव्यता शेषे आवेदितम्) इति संयुक्तस्य छः । प्रा० । शरीराऽवयव विशेष, बनगहने च भ०३श०६०।झा० ॥ कक्खंतर-कक्षान्तर- न0 कवाया अन्तरं कक्वान्तरम् । वृ०१उ०। कच्छ-पुं० केन-जनन-वृणाति दीप्यते गद्यत वा बृ-उद-या मः स्तनान्तरे, ककयाऽन्तरिते च । यथा स्तम्भेनान्तरितं स्तम्भान्तरम् । नि० चू०१५ ३०॥ वाच । नदीजलपरिवेष्टिते वृतादिमत्प्रदो, न० १०८ उ०। सूत्रानद्यासननिम्नप्रदेश,मूलकवासुङ्कादिवाटिकायाम, प्राचा करवगा-कक्षिका-स्त्री० ककायां जवा । ककागतकेशबतायाम, २ श्रु०३ अतिरे, नौकाङ्गे च पुं० परिधानाञ्चले, स्त्री हेम। "कक्खगकलिय" कवायां जवाः काक्षिकास्ततकेशलतास्ता वाराह्यां चीरिकायां च स्त्री० मेदि । तुन्नवृत, हेम० । मुखसं. निः कबितम् । त। पुटे, आकाशाच्छादने,कूर्मकपरे च निरुवा नगवदृषभदेवेन सह कक्खम-कर्कश-त्रि० स्तब्धताकारणे दृषदादिगते स्पर्शविशेष, | प्रवजिते बमिपितरि, स च महाकच्छेन वात्रा सहितः भगअनु० । स्था० । " एगे कक्खो " कर्कशः कविनोऽनमनलवणः वति प्रतिमास्थिते आहारमसनमानस्तापसपथप्रवर्तकोऽनूत स्था० १ ०१ ० । कर्कशस्पर्शपरिणते पाषाणादिवत् प्रशा०१ यत्सुतो नमिः वैताब्यगिरेर्दविणविद्याधरणे राजा जातः कल्प. पद । कर्कशस्पर्श, प्रज्ञा० २ पद । बनवत्वान्निष्ठरे, “नक्का- श्रा०म०प्र० प्रा० काचू (उसनशब्दे सक्तमेतत्) फुडकुमिलजमुक्षकक्खवियम्फमामोवकरणदच्छे" झा० अ०। सिन्धुसागरसङ्गमसमीपे देशोंदे, “कच्छनुजः भरतः जाव सिंकर्कशद्रव्य श्वानिटे, प्रश्न० सं०२द्वा०५ अाकग्नेि, "कक्खम- धुसागरं तो ति सव्वं पवरकच्छंच उअवेऊण पमिणिभत्तो। बफासा" कर्कशः कचिनो वज्रकएटकादप्यधिकतरः स्पर्शो ये. इसमरमाणिज्जे नूमिनागे तस्स कच्चस्स मुहणिसम्मे" ०३ षां ते तथा । सूत्र० २ श्रु०२० । अतिपरुष, विशे) । का० । वका महाविदेहे वर्षे विजयकेत्रभेदे, तक्तव्यता चैवम् । तीवकर्मोदये वर्तमाने, “कक्खडो तिब्धकम्मोदए बट्टमाणो" | कहिणं भंते ! जंबुद्दीव दीव महाविदेहे वासे कच्चे णाम नि० चू० ए ०। कक्खपमिग्गहरयहरण-कताप्रतिग्रहरजोहरण-न० कक्का विजए परमत्ते? गोअमा! सीआए महाणईए उत्तरेणं णीविप्तप्रतिग्रहकरजोहरणध्ये, “ अतिमुत्ते कुमारसमणे अम्मया | लवंतस्स वासहरपन्चयस्स दक्खिरणेणं चित्तकूमस्स वक्खाकयाई महावुहिकायांस निवयमाणसि कक्खपमिग्गहरयहरण रपव्वयस्म पञ्चच्चिमेणं मानवंतस्स बक्खारपव्ययस्स पुरमायाए बहिया संपछिए विहाराए" इत्युक्तः कवायां प्रतिग्रहकं छिमेणं एत्थ णं जंबूदीवे दीव महाविदेहे वासे कच्चे णामं रजोहरणं चादायैव गोचरचर्यायै गन्तव्यमिति । ज०१श०४३० । विजए परमत्ते उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविचमेपकक्खरोम-कक्षारोमन्-न० दोबजे केशे, । "परूढणहकेसक लिअंकसंगणसंगिए गंगासिंधृहिं महाहिं वेयवेणं पञ्चक्खरोमानो ति"ओ। “कक्खरोमाई कप्पेज वा संठवेज वा" श्राचा०२ श्रु०१३ अ०। एणं उभागपविजत्त सोलसजोअरणसहस्साई पंच य वाणनए कक्खा-कला-स्त्री का-सा उरोबन्धने " उप्पीमिकक्खा " जोश्रणसए दोमि अ एगृणवीसईनाए जो अणस्स आवि०१९०२ अ । हृद्यरज्ज्वाम, झा० १६ अ० ।ौ“पी यामेणं दो जोअणसहस्साई दोलि अतेरमुत्तरे जोश्रणगुक्षयकक्खवत्यवत्यिप्पएसा" जं. वक०५ नुजमूले, “क-| सए किं चि विसेसणे विक्खनेणं ति। क्वणिक्खुमं" ककैव दोर्मूयमेव निष्कुटं कोटरं जीर्णशुष्कवृक्क- (कहिणं ते!त्ति) कदन्त! जम्बूद्वीपे महाविदेहे वर्षे कच्गे वद्यत्र तत्ककानिष्कुटम् त। उत्तरीयवस्ने, काञ्च्याम, हस्ति- नाम विजयः प्राप्तः गौतम! शीतामहानद्या उत्तरस्यां नीलवतो बन्धने, मध्यबन्धने च । विश्व० । मध्ये, संशयकोटौ तुल्यता- वर्षधरपर्वतस्य दक्विणस्यां चित्रकूटस्य सरसवतस्कारपर्वतस्य याञ्च । वाच। पश्चिमायां माल्यवतो गजदन्ताकारवक्तस्कारपर्वतस्य पूर्वस्याकक्खापुम-कक्षापुट-पुं० सारसंग्रहानन्थे, हेम। म् । अत्रान्तरे महाविदेहे वर्षे कच्चगे नाम चक्रवर्तिविजेतव्यकच्च-कच्च-त्रि० आमे, आमगोरससंपृक्तं कश्चमुग्धदाधितक्रसं- नूविजागरूपो विजयःप्रज्ञप्तः सर्वात्मना विजेतव्यश्चक्रवर्तिनामिलितम् । ध०२ अधिक। मिति विजयः अनादिप्रवाहनिपतितय संज्ञा तेनेदमवर्तमानदकचंत-कृत्यमान-त्रि० पीड्यमाने, सूत्र०१ ०२२०१ उ०। र्शनं न तुसाक्षात्प्रवृत्तिनिमित्तोपदर्शनमिति । उत्तरदकिणाच्या मायतः पूर्वापरविस्तीर्मः पल्यङ्कसंस्थानसंस्थितः आयतचतुरन कच्चायण-कात्यायन-पुं० कतस्याऽपत्यं कात्यः गर्गादर्यअिति त्वात् । गङ्गासिन्धुन्यां महानदीज्यांवैताख्येन च पर्वतेन पम्भायश् प्रत्ययः । तस्यापत्यं कात्यायनः।नं। कौशिकगोत्रविशेष गप्रविजक्ता षदखएमकृत इत्यर्थः। एवमन्येऽपिविजया भाब्याः। जूते पुरुष, तदपत्यसंतानेषु च “जे कोसिया ते सत्तविहा प-| परं शीताया नदीच्या कच्चादयः शीतोदाया गाम्याः पनादयोगममत्ता तं जहा ते कोसिया ते कच्चायणा " स्था०७ ग०॥ ङ्गासिन्धुन्यां षोढा कृता । शीताया याम्याश्वादयः शीतोदाया उकच्चायणसगोत्त-कात्यायनसगोत्र-त्रि० कात्यायनगोत्रीयैः दीच्या वप्रादयो रक्तारक्तवतीच्यामिति उत्तरदक्षिणायतेति विसमानगोत्रे, “ मुझे नक्खत्ते कञ्चायणसगोत्ते पप्सत्ते" सू०प्र० वृणोति षोमायोजनसहस्राणि पश्चयोजनशतानि विनवत्यधि१० पाहु०। । "सावत्थीए णयरीए गहभाखिस्स अंतेवासी | कानि द्वौचैकोनविंशतिनागौ योजनस्यायामेन । अत्रोपपत्तिर्यथा खेदए नाम कश्चायणसगोत्ते परिवायए परियस " भ० विदेहविस्तारात् योजन (३३६७४) कला (४) रूपात् शीतायाः १श०१०। शीतोदाया वा विष्कम्भो योजन (400) रूपः शोध्यते शेषस्थाः Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८४) कच्छ अभिधानराजेन्द्रः। कच्छ लत्यते यथोक्तं मानमिति । यद्यपि शीतायाः शीतोदाया वा | रपर्वतस्य पूर्वस्याम् । अत्रान्तरे जम्बूद्वीपे यावद्दक्षिणार्द्धकसमप्रवेशे एव पशतयोजनप्रमाणो विष्कम्भोऽन्यत्र तु ही- च्छो नाम विजयः प्रक्षप्तः । उत्तरेत्यादिविशषणद्वयं प्राग्वदोनो हीनतरस्तथापि कच्चादिविजयसमीपे उभयकुलवर्तिनो भ्यम् । अयौ योजनसहस्राणि द्वे च एकसप्तत्युत्तरे योजनशते रमणप्रदेशावधिकृत्य पञ्चयोजनशतप्रमाणो विष्कम्नः प्राप्यते | एक चैकोनविंशतिभागं योजनस्यायामेन एतदङ्कोत्पत्तिषोडशइति । प्राचीनप्रतीचीनति विवृणोति द्वियोजनसहस्र हेच सहस्रपञ्चशतद्विनवतियोजनकलाद्वयरूपात कच्छविजयमानायोजनशते त्रयोदशोत्तरे किंचिढ्ने । अत्राप्युपपत्तिर्यथा इह तू पञ्चाशद्योजनप्रमाणवैताब्यव्यासेऽद्धीकृते भवति । शेष महाविदेहेषु देवकुरुमेरुजाशालवनववस्कारपर्वतान्तरनदीवन- प्राग्वत्। मुखव्यतिरेकेणान्यत्र सर्वत्र विजयाः। ते च पूर्वापरविस्तृता- | अयं च कर्मभूमिरूपोऽकर्मभूमिरूपो वेति निर्णेतुमाह । स्तुल्यविस्तारास्त्वत्रैकस्मिन् दक्षिणभागे उत्तरभागे वाऽष्टौ | दाहिणमुकच्छस्स णं नंते ! विजयस्स केरिसए आयावक्रस्कार गिरय एकैकस्य पृथुत्वं पञ्चयोजनशतानि सर्ववक्क- | रजावपमोबारे पत्ते? गोयमा! बहसमरमाणिज्जे मिनास्कारपुपुत्वमीलने चत्वारि योजनसहस्राणि अन्तरनद्यश्च पद | गे पप्पत्ते तं जहा जाव कत्तिमेहिं चैव अकत्तिमेहिं चेव । दापकैकस्याश्चान्तरनद्या विष्कम्नः पञ्चविंशतियोजनातं ततः सर्वान्तरनदीपृथुत्वमीलने जातानि सप्त शतानि पञ्चाशदधिका हिणकच्चे क नंते ! विज्जए मागाणं केरिसए आयानि (७५०)द्वे च वनमुखे एकैकस्य वनमुखपृषत्वमेकोनत्रि- रभावपडोआरे परमत्ते गोयमा ! तेति णं माणुाणं - शच्चतानि द्वाविंशदधिकानि (२०२५) उभयपृथुत्वमीलने विहे संघयणे जाव सन्चदुक्खाणमंतं करोति ।। जातानि अपञ्चाशच्चतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि ( ५ (दाहिणह इत्यादि) दक्षिणार्धभरतप्रकरण इवेदं निर्विशेष १४) मेरुपृयुत्वं दशसहस्राणि (१००००) पूर्वापरभशास व्याख्येयम् । अत्र मनुजस्वरूपं पृच्छति “ दाहिण" इत्यादि चनयोरायामश्चतुश्चत्वारिंशत्सहस्राणि (४४०००) सर्वमीस कएठ्यम् । अथास्य सीमाकारिणं वैतादयति नाम्ना प्रतीत ने जातानि चतुःषष्टिसहस्राणि पञ्च शतानि चतुर्नवत्याधिकानि गिरि स्थानतः पृच्छति ॥ ( ६३५) पतज्जम्बूद्वीपविस्तारात् शोधिते च सति जातं कहि णं ते! जंबुद्दीव दीवे महाविदेहे वासे विकच्छे विजए शेयं पचत्रिंशत्सहस्राणि चत्वारि हातानि परुत्तराणि (३५४०६) एकैकस्मिंश्च दक्षिणे उत्तरे वा नागे विजयषोमश निर्भा वेअ णाम पव्वए परमत्ते? गोयमा! दाहिणकच्छविजयगे हते लब्धानि द्वाविंशतिशतानि किंचिदूनत्रयोदशाधिकानि स्स उत्तरेणं उत्तरहकच्चस्स दाहिणणं चित्तकूमस्स पञ्चच्चि( २२१३) त्रयोदशस्य योजनस्य पोमशचतुर्दशनागात्मक- मेणं मालवंतस्स पुरच्चि मेणं एत्थ णं कच्छे विजए वेअले त्वात् । एतावानेकैकस्य विजयस्य विष्कम्नः । अयं च भर णाम पव्वए पामते पाईणपडीवायए उदीपदाहिणविच्चिो तवद्वैतात्येन विधाकृत इति तत्र तद्विवक्षुण्ड । कच्छस्स एं विजयस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ एं वेत्र दुहा वक्खारपन्चए पुढे पुरच्चि मिलाए कोमीए जाव दोहिं हैणाम पन्चए पामते जे एं कच्छं विजयं दुहा विजयमाणे वि पुढे भरहवेअकृससिसए। णवरं दो वाहाओ जीवाधाभयमाणे चिट्ठइ तं जहा दाहिणकच्चं च उत्तरकच्छंच। पटुं च ण न कायव्वं विजयविक्खंभसरिसे आयामेणं विक्वं(कच्चस्स णमित्यादि ) कच्चस्स विजयस्स बहमध्यदेशभा. भो नच्चत्तं नव्वेहो तह चेव विज्जाहरसेढीमो तहेव णवरं गे वैतादधपर्वतः प्राप्तः यः कच्छ विजय द्विधा विनस्तिष्ठति पणपसवणं विजाहरगणहरा वासा पसत्ता प्राभिागसेतद्यथा दक्विणार्ककच्छं चोत्तराईकच्चं च। च शब्दो उन्नयोस्तु ढीओ नत्तरिलाओ सेढीओसीआए ईसाणस्स सेसाओ सल्यकक्ताद्योतनार्थो । दक्विणार्द्धकच्छ स्थानतः पृच्छन्नाह।। कस्स कूमासिके १ कच्चे २ खंडग ३ माणी वेअपु कहिणं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे दाहिणहकच्चेणा- मई तिमिसमुहा ७ कच्चे ज्वेसमणे हवे होंति कूडाई । मं विजए पामते ? गोयमा! यकृस्स पव्वयस्स दाहिणणं 'कहिणमित्यादि' स्पष्टं नवरं द्विधा वक्तस्कारपर्वती माल्यवसीआए महागाईए नत्तरेणं चित्तकूडस्स वक्खारपव्वयस्स चित्रकूदवकस्कारौ स्पष्टः इदमेव समर्थयति । पूर्वया कोट्या पञ्चच्छिमे मालवंतस्स वक्खारपब्वयस्स पुरच्छिमेणं एत्थ यावत्करणा "त्पुरच्चिमिखं वक्वारपव्वयं पञ्चच्छिमिवार कोडीणं जंबुद्दीचे दीवे महाविदेहे वासे दाहिणकच्छणामं वि. ए पश्चच्चिमिवं वक्वारपवयमिति" बोध्यं तेन पौरस्त्यं वक्त स्कारं चित्रकूटनामानं पाश्चात्यया कोट्या पाश्चात्य वक्तस्कार जए पामते उत्तरदाहिणापए पाईणपड़ीणविस्थिरो अट्ट- माल्यवन्तमत एव घान्यां कोटिज्यां स्पृष्टः भरतवतात्यसहजोमणसहस्साई दोमि अ एगसत्तरे जोअणसएकं च ए- शका रजतमयत्वात् रुचकसंस्थानसंस्थितत्वाश। नवरं द्वे जीगृणवीमइभागं जोअणस्स आयामेणं दो जोअणसहस्साई वा धनुःपृष्ठं च न कर्तव्यमवक्रकेत्रवर्तित्वात् लम्बभागश्च न भरतवैतात्यसदृश इत्याह । विजयस्य कच्छादेयों विष्कम्नः किदोषि अतेरसुत्तरे जोअणसए किंचि विसेमूणे विक्खं- ञ्चिदूनत्रयोदशाधिकद्वाविंशतिशतयोजनरूपस्तेन सदृश आयाभेणं पलिअंकसंहिए। मेन । कोऽर्थः विजयस्य यो विष्कम्नविभागःसोऽस्यायामविभाग ( कहि णमित्यादि) क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे इति विष्कम्भः पञ्चाशद्योजनरूपः । नच्चत्वं पञ्चविंशतियोजननाम्नि वर्षे दक्षिणाईकच्छो नाम विजयः प्रज्ञप्तः गौतम ! | रूपमुध्धः पञ्चविंशतिकोशात्मकस्तथैव भरतवैतात्यवदेवेत्यवैताव्यस्य पर्वतस्य दक्षिणस्यां शीताया महानद्याः उत्तरस्यां थः। उच्चत्वस्य प्रथम दशयोजनातिक्रमे विद्याधरश्रेण्यौ तथैव चित्रकूटस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमायां माल्यवतोवक्षस्था नवरमिति विशेषः पञ्चपञ्चाशत् विद्याधरनगरावासाः प्रता: Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) अभिधानराजेन्द्रः । एकैकस्यां श्रेणौ दक्षिणश्रेणी उत्तरथेणी जरतवैताव्ये तु दक्ति- तंवेणं उत्तरकच्चविजए उसहकडे णामं पच्चए पामत्ते अणतः पञ्चाशत्तरस्तु षटिनगराणीति भेदः आभियोग्यश्रेणौ। हजोअणाई उठं उच्चत्तेणं तं चेव पमाणं जाव रायहाणी तथैवेति गम्यं कोऽर्थः विद्याधरश्रेणियामुई दशयोजनातिक्रमे दक्विणोत्तरभेदेन द्वे भवतः । अत्राधिकारात् सर्ववैताळ्या से वरिं उत्तरेणं नाणिअव्वा । कहि गं भंते ! उत्तरकजियोग्यश्रेणिविशेषमाह । उत्तरदिकस्था भाभियोग्यश्रेणयः | चे विजये गंगाकुंडे णामं कुंमे पप्पत्ते ? गोयमा ! चित्तशीताया महानद्या ईशानस्य द्वितीयकल्पेन्जस्य शेषाः शीत। कुमरस वक्खारपब्वयस्स पञ्चच्चिमेणं उसहकूमस्स पन्चदक्किणस्थाः शक्रस्थाद्यकल्पेन्द्रस्य । किमुक्तं भवति शीताया यस्स पुरच्चिमेणं णीलवंतस्त वामहरपव्वयस्स दाहिणिले उत्तरदिशि ये विजयवैताख्यास्तेषु या अजियोग्यश्रेणयो णितचे पत्थ एणं नुत्तरसकच्छे गंगाकुंडे णामं परमत्ते सहि दकिणगा वा उत्तरगा वा ताः सर्वाः सौधर्मेन्द्रस्येति बहुवचनं चात्र विजयवर्ति सर्ववैतात्यश्रेण्यपेक्षया द्रव्यम् । अथ कूटानि जोअणाई आयामरिक्वंनेणं तहेव जहा सिंधु जाव ववक्तव्यानीति तद्देशमाह। कूमा इति' व्यक्तम्। अथ तन्नामान्याह । णसंमेण य संपरिक्खित्ता ॥ सिके इत्यादि पूर्वस्यां प्रथमं सिहायतनकूटं ततः पश्चिमदिश- "कहिणमित्यादि” व्यक्तं परं नितम्बः कटकासाघवार्थमतिदेशमवलम्ब्येमान्यष्टावपि कूटानि वाच्यानि तद्यथा द्वितीयं दक्कि- माह । “भरहसिंधुकुंकसरिसं सव्वं अव्यं इत्यादि" सर्वगताणकच्छार्डकूटं तृतीयं खएडप्रपातगुहाकूटं चतुर्थ माणीति - यम् । गागमेन व्याख्यानयत् । तत्रैव ऋषभकटवक्तव्यमाद । दैकदेशे पदसमुदायोपचारात् माणिभकूटं शेष व्यक्तं परं वि- "कदि णमित्यादि" प्राग्वत् । अथ गङ्गाकुराष्डप्रस्तावनार्थमाह । जयवैताव्येषु सर्वेष्वपि द्वितीयाप्टमकूटे स्वस्वदक्विणोत्तराई- “कहि णमित्यादि" सिन्धुकुएमगमो निर्विशेषः सर्वोऽपि चाविजयसमनामके यथा द्वितीयं दकिणकच्चाईकूटमष्टममुत्तरक- च्यः परं ततो गङ्गानदीखएमप्रपातगुहाया अधो वैताढ्यं वैताध्याकूटम् इतराणि भरतवैताठ्यकूटसमनामकानीति ॥ त्यदक्किणे भागे शीता समुपसर्वतीति । ननु भरतनदीमुख्यअथोत्तराईकच्चं प्रश्नयति ॥ त्वेन गङ्गामुपवर्य सिन्धुरुपवर्णिता इह तु सिन्धुमुपवर्य इति कहिणं जंते ! जंबूदी दीवे महाविदेहे वासे उत्तरकुक- कथं व्यत्ययः उच्यते। यह मानबद्धवस्कारतो विजयप्ररूपणायाः छणाम विजए पत्ते गोयमा ! वेअहस्स पव्वयस्स न प्रक्रान्तत्वेन तदासन्नत्वात्सिन्धुकुण्डस्य प्रथमं सिन्धुप्ररूपणा ततो गङ्गाया इति । त्तरेणं पीलवंतस्स वासहरपब्वयस्स दाहिणणं मालवंत नामनिमित्तमाद । स्स वक्खारपब्वयस्स पुरच्छिमेणं चित्तकूमस्स बक्खारप से केणटेणं नंते ! एवं वुच कच्छे विजए ? गोव्वयस्स पच्चच्छिमेणं एत्य णं जंबूदीवे जाव सिमंति अमा ! कच्छे विजए वेअफुस्स पब्वयस्स दाहिणेणं तहेव ऐअव्वं । सीआए महाणईए उत्तरेणं गंगाए महाणईए पञ्चच्छिमेणं "कहिणमि" त्यादि व्यक्तं तथैव दक्षिणाकच्छवज्झेयं यावत् सिछ्यन्तीति । अथैतदन्तर्वर्ति सिन्धुकुरामं वक्तव्यमित्याह॥ सिंधुए महाणईए पुरच्छिमेणं दाहिणकच्चविजयस्स बकहिणं भंते ! जंबूदीवे दीवे महाविदेहे वासे नत्तरक- हुमजदसभाए एत्थ णं खेमा णामं रायहाणीए परमत्ता च्छे विजए सिंधुकुंमे णामं कुंडे परमत्ते ! गोअमा! मालवं विणीश्रा रायहाणी सरिसा भाणिअव्वा । तत्थ एं खेतस्स वक्खारपन्चयस्स पुरछिमेणं उसभकुंमस्स पञ्चच्चि माए रायहाणीए कच्छे णामं राया समुप्पज्जा महया हि. मेणं पीलवंतस्स बासहरपब्वयस्स दाहिणिवे णितंवे। मवंतं जाव सव्वं भरहो नअवण भागिमव्वं निक्खमणएत्य जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे उत्तरकच्छविजए | वज से सव्वं भाणिअव्वं जाव भुंजए माणुस्सए सुहे कसिंधुकुंडे णाम कुमे परमत्ते सढि जोप्रणाणि आयामवि च्छणामधेजे अकच्चे इत्य देवे जाव पलियोमट्टिई परिक्खंनेणं जाव भवणं अहो रायहाणि अणेअब्बा । - वसइ स एएण्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ कच्छे विजए रहसिंधुकुंकसरिसं सव्वं ऐअव्वं जाव तस्स णं सिंधुकुम- जाव णिच्चे। स्स दाहिणिलेणं तोरणेणं सिंधु महाणई पढा समाणी केनार्थेन नदन्त ! एवमुच्यते कच्छे विजयःकच्चविजयः गौतम! उत्तरकच्चविजयं एजेमाणी एजेमाणी सत्तहिं मालिला कच्छे विजये वैतात्ये दकिणस्यां शीताया महानद्या उत्तरस्यां गङ्गायाः महानद्याः पश्चिमायां सिन्धोर्महानद्याः पूर्वस्यां द. सहस्सेहिं कूरेमाणी आरमाणी अहे तिमिसगुहाए विणाः कच्छविजयस्य बहुमध्यदेशन्नागे मध्यखएडे | भ. वेअपव्ययं दालयित्ता दाहिणकच्चविजयं पज्जेमाणी त्रान्तरे केमा नाम्नी राजधानी विनीताराजधानीसदृशी एजेमाणी चोदसएहिं सबिलासहस्सेहिं समग्गा दाहिणेणं | जणितव्या । विनीतावर्मकः सर्वोऽप्यत्र वाच्य श्त्यर्थः । सीइमहाणई समप्पेइ सिंधुमहाणई पवहे अमूले अनरह- तत्र केमायां राजधान्यां कच्चो नाम राजा चक्रवर्ती समुत्पद्यते सिंधुसरिसा य माणेणं जावदोहिं वणसमेहिं संपरिक्खित्ता।। कोऽर्थः यस्तत्र षट्खएमनोक्ता समुत्पद्यते स तत्र सोकैः कच्च कहि णं नंते ! उत्तरकच्चविजए उसजकूड़े णाम प शति व्यवहियते । अत्र वर्तमाननिद्देशेन सर्वदापि यथासंनवं चक्रवर्ग्युत्पत्तिः सूचिता न तु जरत श्व चक्रवर्युत्पत्ती कानव्यए पछत्ते गोअमा! सिंधुकुंमस्स पुरच्छिमेणं गंगाकुंमस्स नियम इति 'महया हिमवंतेत्यादिकः' सर्वी ग्रन्थो वाच्यः यापञ्चच्छिमेणं णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणि णि- घत् सर्व भरतस्य केत्रस्य ' उअवणमिति ' साधनं शेषः निष्क्र Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) कच्छ अभिधानराजेन्दः । कच्छा मणं प्रवज्याप्रतिपत्तिस्तद्वयं भणितव्यं नरतचक्रिणा सर्वविर- रूपं चेत्थम् “ठिनु व विधरिंगण जं तं कच्छरिंगियं नाम" तिर्ग्रहीता । कच्छचक्रिणस्तु तहहणेऽनियम इति । कियत्पर्य-| स्थितस्योद्धस्थाने " न तित्तीसं नयराए " इत्यादि सूत्रमुच्चारन्तमित्याह । यावद्धड़े मानुष्यकाणि सुखानि । अथवा कच्छना- यन् उपविष्टस्य वाऽऽसीनस्य अहो कायं काय" इत्यादि सूत्रं मधेयश्चात्र कच्छे विजये देवः पश्योपमस्थितिकः परिवसति तेना- भणतः कच्छपस्येव जलचरजीवविशेषस्यरिङ्गणमग्रतोऽभिमुथेन गौतम ! एवमुच्यते कच्छराजस्वामिकत्वात्कच्छदेवाधिष्ठित- खं यत्किचिच्चलनं तद्यत्र करोति शिष्यस्तदादिकं कच्छपरिनितं स्वाच्च कन्यविजयः इति यावशित्य इत्यन्तमन्योन्याश्रयनिवारणा- | नामेति ॥ वृ०३ उ०। श्राव। प्रवः । श्रा० चू। र्थक सूत्रं प्राग्वदेव योजनीयमिति गतः प्रथमो विजयः । जं.कउन्ज (वी)-कच्छपी-स्त्री० कच्छभः जातित्वात् ङी४ वकः । स्था। "दो कच्चा" दक्षिणोत्तराविति प्रतिनाति छ । कच्छपस्त्रियां चक्षुरोगभेदे च वाचा वाद्यविशेषे, प्रश्न स्था गर । कच्चवजय समुत्पद्यमान राजान, तदाध संकरद्वा०५ ० "अट्ठसयं कच्छभीणं"राया नारदवीणायाम, छातरि देवे च जं०४ वक्त। "हत्थकच्छभीए" प्रति । पुस्तकभेदे च । न० पुं०। “कच्छकच्छकूम-कच्च कूट-नण्माल्यवद् वनस्कारपर्वतस्थेचतुर्थे कूटे, , कच्छविते तणुप्रो मझे पिहलो मुणेयब्वो" वृ० ३ उ०। स्थाएग। कच्चविजयविभाजकवैताठ्यपर्वतस्य कूटद्वये, द०। जीतानि.चू० । धाव० । कच्छपीपुस्तकं उ. तत्र दकिणकच्कूटं द्वितीयमुत्तरकच्छकूटमटमम्, स्थाएगा भयोः पार्श्वयोरन्तःपर्यन्तभागे तनुका सूदमो मध्यभागे पृथुलो जंग। चित्रकूटस्य बकस्कारपर्वतस्य तृतीये कूटे, जे० ४ वक्त॥ | कच्छपीपुस्तकं शेयम् । स्था०४ ठा०२ उ०। काह-कच्छकाथ-पु वनगहनाना कुाथत्य शटन, न० | कच्छरी-कत्सरी-खी० गुच्छविशेषे, प्रशा० १ पद । ३ २०६०। कच्ग-कला-स्त्री० छोऽक्ष्यादौ ८।२।१७ । इति संयुक्तस्य कच्छगावई-कलकावती-स्त्री० कच्छा एव कच्चकाः मालुकाः | | छः । प्रा०ा शरीरावयवविशेषे, भ० ३ श० ६ उ० । अन्तःकच्चादयः सन्त्यास्यामतिशायिनः इति अनजरेति सूत्रे झरा-1 पुरभागे, समूहे, स्था०७ ठा० । इन्द्राणां कक्षाः। दीनामाकृतिगणत्वेन सिमिः। महाविदेहे वर्षे चतुर्थविजयभेदे चमरस्स णं अमुरिंदस्स असुरकुमारग्लो दुमस्स पायत्ताकहि एंजते ! महाविदेहे वासे कच्छगावतीणामं विजए| णियाहिवइस्स सत्त कच्छाओ पामत्तानो तं जहा पढमा पाहणते ? गोयमा ! पीनवंतस्स दाहिणणं सीआए महा कच्छा जाच सत्तमा कच्छा। चरमस्स एं अमुरिंदस्स असुरगाईए उत्तरेणंदाहिणावतीए महाणए पञ्चच्चिमेणं बम्ह कूड कुमाररमो दमस्स पायत्ताणियाहिवश्स्स पढमाए कच्चाए स्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं महाविदेहवासे कच्छगावतीणाम चन सहिदेवसहस्सा परमत्ता जावश्या पढमा कच्छा तविनए पछत्ते उत्तरदाहिणायए पाईणपमीणविच्छिले विगुणा तच्चा कच्ग एवं जावश्या बट्ठा कच्छ तच्चिगुणा सेसं जहा कच्छस्स विजयस्स जाव कच्छगावई अइत्थदेवे ।। सत्तमा कच्छा एवं बलिस्स वि नवरं महद्दमे सहिदेवसा(टीका सुगमत्वान्न व्याख्याता) जे०४ वक्का । स्था० । “दो हस्सिो सेस तं चेव । धरणस्स एवं चेव नवरमहावीसं कच्छगावई" दक्किणोत्तरजेदेनधित्वम् । स्था०२०३चा कच्चगायतीविजयाधिपतौ राजनि, तदधिष्टायके देवेच। जं०४वका देवसहस्सा सेसं तं चेव जहा धरणस्स एवं जाव महाघोकच्चन-कच्छप-पुं० स्त्री० कच्छमात्मनो मुखसंपुटं पाति स सस्स नवरं पायत्ताणियाहिवई अन्ने ते पुव्वजणिया । हि किञ्चिद् दृष्ट्वा शरीर एव मुखसंपुटं प्रवेशयति संपुटे हि क-1 सकस्स एं देविंदस्स देवरलो हरिणेगमेसिस्स सत्त कच्चाच्छशब्दः प्रसिद्धः। प्राणिवाच्यकच्छपुट इति कच्छन कटाहन ओ पापत्ताओ तं जहा पढमा कच्छा एवं जहा चमरस्स इतराङ्गानि पाति वा अथवा कच्छेन मुखसंपुटेन पिबतीति कच्छपः । स्वमाकाशं छादयति कच्छः खच्छः खच्छदः अयमपी तहा जाव अच्चुयस्स नाणत्तं पायत्ताणियाहिवईणं ते पुतरो नदीकच्छः एतदीयमुदकं तेन छाद्यते इति निरुक्तोक्तेः वनाणिया । देवपरिमाणमिमं सक्कस्स चउरासीइदेवसहकच्छं पाति कच्छेन पाति वा कच्छेन पिबतीति वा पा-उ- स्सा। ईसाणस्स असीइदेवसहस्साई देवाश्माए गाहाए अवाचा पकारस्य भकारः प्राकृतत्वात् । प्रज्ञा०१ पद । कूर्भे, गुगंतव्वा।' चळरासीइ असीई,वावत्तरिसत्तरीय सट्ठी य । जलचरपञ्चेन्द्रियंतिर्यग्योनिकभेदे, उत्त० ३६ अ । प्रश्न) । कच्छपा द्विविधा अस्थिकच्छपमांसकच्छपभेदात् । प्रश्न०१) पन्ना चत्तालीसा, तीसा वीसा दससहम्सा ।। १ ।। जाव অঘ্য চাই স্ব। মঙ্গা। अच्चुयस्स लहुपरक्कमस्स दसदेवसहस्सा जावइया बट्ठा से कि तं कच्छभा ? दुविहा परमत्ता तं जहा अस्थिक कच्छा तन्विगुणा सत्तमा कच्छा। (कच्छत्ति)। समूहो यथा धरणस्य तथा सर्वेषां नवनपतीच्छभा य मांसकच्छभा य सेत्तं कच्छभा । प्रा० १पद० बाणां महाघोषान्तानां केवलं पदात्यनीकाभिपतयो ये झेयास्ते नवरमस्थिकच्छपा मांसकच्छया इति येऽस्थिबहुलाः क-1 जस्वला क च पूर्वमनन्तरसूत्रे जणिताः (नाणतंति)शकादीनामानतप्राणते. चवपास्तेऽस्थिकच्छपाः ये मांसबहुलास्ते मांसकच्छपाः | न्यान्तानामेकान्तरितानां 'हरिणेगमेसी' पादान्तानीकाधिपतिरीस। वि. । जीव० । सूत्रः । राहो, राहुदेवस्य अध्म शादीनांमारणाच्युतन्कान्तानामेकान्तरितानां लघुपराक्रम इति । कच्छप इति नाम, भ० १२ श०६ उ० । चं० । कुबेरनिधिभेदे | देवेत्यादि । देवा प्रथमकन्छासंबन्धिनोऽनया गाथयाऽवगन्तव्याः मल्लबन्धभेदे च । पुं० । मेदि०। (चरासीगाहा) चतुरशीत्यादीनि पदानि सौधर्मादिषु क्रमे कभरिंगिय-कच्छभरिनित-न सप्तमे वन्दनदोष, तत्स्व- ण योजनीयानि नवरं विशीतपदमानतप्राणतयोयोजनीयं तयोहि Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) कच्छा अभिधानराजेन्द्रः। कन्जकारणभाव प्राणताभिधानस्येन्द्रस्यैकत्वात् "दसति" पदं वारणाच्युतयोर्यो- तयोभवः । हेतुहेतुमद्भावे, यथा घटदगडयोरत्र घटस्य दजनीयमच्युतान्निधानस्येन्स्यै कत्वादिति । स्था० ७ वा० । एडं प्रति कार्यत्वं दण्डस्य घटं प्रति कारणवम् । अथात्र कच्चगवई-कच्छकावती--स्त्री-कच्छकावतीबिजये, “महाकच्छ- सत्कार्यासत्कार्यवादसदसत्कार्यवाद प्रदिदर्शविषया मतसं पुरस्चिमेणं कच्छावईए पश्चच्छिमेणं" जं० ४ वक्त। ग्रहमाह । तत्र असतः सज्जायते इति बौद्धाः । प्रागुत्पत्तेरसकच्छावईकूम-कच्छावतीकूट-न० महाविदेहे ब्रह्मकूटस्य चतु- कारणव्यापारादुत्पद्यते इति नैयायिकादयः । प्रागुत्पत्तेः सदथै कुटे, । ज० ४ वक्त। पि कारणब्यापारादभिव्यज्यते प्रति सासचादयः । तत्र सतो विवर्त इति वेदान्तिनः । परिणाम इति साह्वयाः कथंचित् सत् कच्छ (च्छ ) कच्छु (च्छ) स्त्री- कप- हिंसायां कपच्छश्चे कथंचिदसदुत्पद्यते इति आर्हता इति वाच । ति उणा० ऊ छश्च पृषो-वा इस्वः । “सूदमाः बाह्याः पिएमका तत्रासत्कार्यवादमसंजावयन् सत्कार्यवादी कापिस आह । स्तापवत्यः पामेत्युक्ताः कएमुमत्यः सदाहाः । सैव स्फोटैस्ती नन्वेतत्कुतो ज्ञायते प्रागुत्पत्तः सत्कार्यमिति हेतुकदम्बकसद्भावदाहरुपेता, केया पाएयोः कच्छुरुग्रा स्फिचोश्च" इत्युक्तलकणे दात् । तत्सद्भावश्च "असदकरणादुपादान-ग्रहणात्सर्वसंम्नयारोगन्नेदे, वाच । जी0। व्य) । तीवकरामूतिकारके फसविशेषे, भावात् । शक्तस्य शक्यकरणा-कारणावाच्च सत्कार्य" मितीप्रश्न सं०२ द्वा० ५ ० । निचून श्वरकृष्णेन प्रतिपादितः। अत्र चासदकरणादिति प्रथमो हेतुः कच्सुखसराभिनूय-कच्छूक खसराभिजूत-त्रि० कच्चः पामा सत्कार्यसाधनायोपन्यस्तः एवं समर्थितः यदि हि कारणात्मनि तया कसरैश्च खसरैरभिनूता व्याप्ताः ये ते तया । पामारो- उत्पत्तेः प्राक् कार्य न भविष्यत्तदा नतत्केनचिदकरिष्यत् । गार्तेषु, जं० २ वक्त । भ०। यथा गगनारविन्दप्रयोगः । यदसत्तन्न केनचिस्क्रियते । यथा कच्छुडिय-कक्षापुटिक-नि० कलाप्रदेशे पुटा यस्य स ककापु- नभोनलिनम् असञ्च प्रागुत्पत्तेः परमतन कार्यमिति व्यापकधिटिकः । गृहीतोजयामोटके, वृ० २ ल०। रुद्धोपलब्धिप्रसङ्गः । न चैवं भवति । तस्माद्यक्रियते तिलाकन्जुल [बकच्चूर-त्रि० कच्छूरस्त्यस्य कच्चा हस्वश्च ।। दिनिस्तैलादिकार्य तत्तस्मात्प्रागपि सदिति सिर्फ शक्तिरूपेणोवाच० । कण्डूतिमति, प्रश्न सं.२द्वा० ५ ०। वि० । त्पत्तेः प्रागपि कारणे कार्यम् । व्यक्तिरूपतया च तत्तदा कापिकच्छूरोगयुते पुरुष, पुं०स्त्री०। पामरे च त्रि०मेदि० वाच०। गु रपि । नेष्यते उपादानग्रहणादिति द्वितीयहेतुसमर्थनम् । यद्यसल्मविशेष, प्रज्ञा०१ पद । जं। द्भावे कारणे कार्य तदा पुरुषाणां प्रतिनियतोपादानग्रहणन्न स्यात् । शालिफनार्थिनस्तु शाझिबीजमेवोपाददते न कोयकच्चुलणारय-कच्छुरनारद-पुं० स्वनामख्याते तापसे, मा० बीजं तत्र यथा शालिबीजादिषु झाल्यादीनामसत्वन्तथा यदि ५१०। प्रति०॥ कोवबीजादिष्वपि किमिति तुल्ये सर्वत्र शाअिफलादीनामकज-कार्य-त्रि० कृ० कर्मणि एयत् । जय्य- जः ८।२।। सत्वे प्रतिनियतान्येव शालिबीजादीनि गृह्णन्ति न कोऽयबी२४ । इति संयुक्तस्य जः। प्रा० । ततो द्वित्वम् । असंयोगस्यै जादिकं यावता कोवादयोऽपि शालिफार्थिनिरूपादीयेवेति नियमातू-कगचजतदपयवां प्रायो लुगिति न लुक् प्रा०। रनसत्वाविशेषात्। अथ तत्फबान्यत्वात्तैस्ते नोपादीयन्ते यद्येकृत्ये, नि० "किं कज्जं भम्पति जंतु कीरती तेणं" यत्कृत्वाऽति- बं शाझिबीजमपि शालिफार्थिना तत्फलशून्यत्वानोपादेयं वय॑ते । प्रयोजने, प्रा०चू०१ अ० वि० कारणे, व्य०२ उ०। स्यात । कोषवबीजवन चवं नवति तस्मात्तत्र तत्कार्यमस्तीति काय॑ नाम प्रयोजनं ततोऽधिकृतप्रवृत्तेः प्रयोजकत्वात्कारणम्।। गम्यते । सर्वसनवाभावादिति तृतीयो हेतुः । यदि ह्यसपतश्चान्यत उक्तम् "कारणं ति वा कज्जति वा एग" व्य०२ देव कार्यमुत्पद्यते तदा सर्वस्मात्तणपश्चादेः सर्व सुवर्णरजताउ० । निष्पाये, यदर्थ चेष्टते तत्कार्यम् कर्म । अशिवादिके, दिकार्यमुत्पद्येत सर्वस्मिन्नुत्पत्तिमति भावे तृणादिकारणनावा"अशिवाइयं कज्जं भन्नति" नि० चू०१०। कुलगणसजविषये त्मताविरहस्याविशिष्टत्वात्पूर्व कारणमुखेन प्रसङ्ग उक्तः संप्रकृत्ये, व्य०१ उ० । व्यापारे, प्रव०१द्वा० । कर्मणि, सूत्र० २ ति तु कार्यधारणेति विशेषः । न च सर्व सतो भवति तस्मा. श्रु०५अथा इदं वन्दनप्रकारेण कार्य द्विविधा । वन्दनकाय्य कर्य दयं नियमस्तत्रैव तस्य सद्भावादिति गम्यते । स्यादेतत्कारणा• कार्य च । तत्र वन्दनकार्य द्विधा अभ्युत्थानं कृतिकर्म च का- नां प्रतिनियतेष्वेव कार्येषु शक्तयः प्रतिनियतास्तेन कार्यस्यार्यकार्य कुलकार्यादिभेदादनेकविधम् । कार्यमवश्यकर्तव्य सत्वेऽपि किंचिदेव कार्य क्रियते न गगनाम्नोरुहं किंचिदेव रूपं यत् कार्य तत्कार्यकार्यमिति व्युत्पत्तेः । वृ०३ उ। वोपादानमुपादीयते तदेव समर्थ न तु सर्व किंचिदेव च कुतकजंतर-कार्थ्यान्तर-न० अन्यत् कार्यम् । प्रागादिष्टका-- श्चिद्भवति न तु सर्व सर्वस्मादित्यसदेतद्यतः शक्ता अपि हेतदपरकायें, “ कजंतरेण कजं तेणं कालंतरे च कजंति "प- वः कार्य कुर्वाणाः शक्यक्रियमेव कुर्वन्ति नाशक्यं कुर्वन्तीति ये ञ्चा०१२ विव०। नैतत्प्रतिषिध्यतेनवता किंवसदपि कार्य कुर्वन्तीत्यतावदुच्यते कजकज-कार्यकार्य- त्रिक० स० कुलकार्यादिभेदादनेक तञ्च तेषां शक्यक्रियमेवासदेतदकारित्वाभ्युपगमादेवाशक्यविधेऽवश्यकर्त्तव्यरूपे काये, वृ०३ उ०।। क्रियं कुर्वन्ति तथा हि यदसत्तन्नीरूपं तच्चशविषाणादिवदनाकजकर-कार्यकर-पुं० श्रादिष्टकार्यनिर्वाहके राकोऽष्टादश धेयातिशयं यच्चानाधेयातिशयं तदाकाशवदविकारि तथातूतं वा सु श्रेणिवन्यतमे, चं०प्र० १३ पक्ष०ा प्रयोजननिष्पादके, त्रि. समासादितविशेषरूपं कथं केनचिच्चक्येत कर्तुम् । अथ सद"न वा गेहे पविते कृवखणणं कज्जकरं। जइ पुण दमणं ख- वस्थाप्रतिपत्तेविक्रियत एव तदेतदप्यसद्विकृतावात्महानिप्राप्तेः गण, वा पुवकयं होति" आ० म०प्र०॥ ततो विकृताविष्यमाणायां यस्तस्यात्मा नीरूपास्यो वय॑ते तस्य कज्जकरण-काव्यकरण-न०प्रयोजनविधाने, प्रश्न०१ द्वा०३० हानिः प्रसज्येत न ह्यसतः स्वन्नावापरित्यागे वा नासद्रूपता परिकजकारणजाव-काय्यकारणभाव-पुं० काय्ये च कारणं च | त्यागापरित्यागे वा न सदसदूपतां प्रतिपन्नामिति सिद्धयेदन्यदेव Jain Education Interational Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) कज्जकारणभाव थन्निधानराजेन्द्रः। कज्जकारणभाव हि सदूपमन्यच्चासदृपंपरस्परपरिहारेण तयोरवस्थितत्वात्तस्माद्य- स्केनचिदभिनिर्वत्यैत तदा निर्वर्तकस्य शक्तिर्व्यवस्थाप्येत निर्चदसत्तदशल्यक्रियमेवातस्तथानूतपदार्थकारित्वान्युपगमे कार- | य॑स्य च कारणं सिकिमध्यासीतेति नान्यथा कारणभावानां णानामशक्यकारित्वमेवान्युपगतं स्यान्न चाशक्य केनचित्कियते। साध्याभावादेव सत्कार्यवादेनयुक्तिसंगतोन चैतदुरटं च तस्मान्न यथा गगनाम्नोरुहः । सतः शक्तिप्रतिनियमादित्यनुत्तरमेतदेतेन सत्कार्य कारणावस्थायामतिप्रसङ्गविपर्ययः पञ्चस्वपि प्रसशक्तस्य शक्यकरणादिति चतुर्थोऽपि हेतुस्समार्थतः। कार्यस्यैव- साधनेषु योज्योऽपि च सर्वमेव हि साधनं स्वविषये प्रवर्तमयोगाश्च किं कुर्वत्कारणं नवेत्ततः कारणनावोऽपि बीजादे - मानं द्वयं विदधाति स्वप्रमेयार्थविषये उत्पद्यमानी संशयविषवकल्पत इति पञ्चमहेतुसमर्थनमस्यार्थः । एवं यथोक्ताकेतुचतु- सिौ निवर्तयति । स्वसाध्यविषयं च निश्चयमुपजनयति । न ध्यादसत्कार्यवादे सर्वथापि कार्यस्यायोगारिक कुर्वतीजादिरवि- चैतत्सत्कार्यवादे युक्त्या संगच्छते । तथा हि संदेहविपर्याद्यमानकार्यत्यागनाम्जवन चैवं जवति तस्माद्विपर्यय इति सिर्फ सौ नवद्भिः किं चैतन्यस्वभारी अज्युपगम्येते आहोश्विबुद्धिप्रागुत्पत्तेः सत्कार्यमिति ॥ मनःस्वरूपी तत्र यदि प्रथमः पक्कः स न युक्तश्चैतन्यरूपतया अथैतदसत्कार्यवादी दूषयति । तयोर्भवद्भिरनन्युपगमादन्युगमे वा मुक्त्यवस्थायामपि चैतन्यायदेतदसदकरणादित्यादिक्षणमभ्यधाथि तत्सत्कार्यवादेऽपि | ज्युपगमात्तत्स्वजावयोस्तयोरप्युत्पत्त्यनिवृत्तेरनिर्मोकप्रसङ्गःसातुल्यं तथा हि असत्कार्यवादिनाऽपि शक्यमिदमित्थमभिधातुं धनव्यापारात्तयोरनिवृत्तिश्च चैतन्यवन्नित्यत्वात् । द्वितीयपकोन सदकरणामुपादानग्रहणात्सर्वमंजवानावाच्छक्तस्य शक्यक- ऽपि न युक्तः बुद्धिमनसोनित्यत्वेन तयोरपि नित्यत्वानिवृत्तरणात्कारणनावाच्च सत्कार्यमिति । अत्र च न सत्कार्यमिति | योगान्न च निश्चयोत्पत्तिरपि साधनात्संनवति । तस्या अ. व्यवहितेन संबन्धो विधातव्यः । कस्मारूदकरणादुपादानग्रह- पि सर्वदावस्थितेरन्यथा सत्कार्यवादो विशीर्येत इति । णादित्यादेतुसमूहादुभययोर्यश्च दोषस्तमेकः प्रेर्यो न भवति । साधनोपन्यासप्रयासो विफलः कापिलानां स्ववचनविरोधश्च तथा हि यदि दुग्धादिषु दध्यादीनि काज्यादिना विभक्तेन रूपेण | प्राप्नोति । तथा दि निश्चयोत्पादनार्थ साधनं ब्रुवता निश्चयस्यादध्यवस्थावत्सन्ति तदा तेषां किमपरमुत्पाद्यं रूपमवशिष्यते य- सत उत्पत्तिरङ्गीकृता भवेत् सत्कार्यमिति च प्रतिज्ञा या सा तैर्जन्यं स्यात् न हि विद्यमानमेव कारणायत्तोत्पप्तिकं भवति | निषिमेति । स्ववचनविरोधः स्पष्ट एव साधनप्रयोगवैयर्थ्यता प्रकृतिचैतन्यरूपवत् । अत्र प्रयोगो यत्सर्वात्मना कारणे सन्नत- प्रापदिति निश्चयोऽसन्नव साधनामुत्पद्यत इत्यङ्गीक्रियते । तकेनचिजन्यं यथा प्रकृतिश्चैतन्यं वा तदेवं वा मध्यावस्थया सिदकरणादित्यादेतुपञ्चकस्यानकान्तिकता स्वत एवाज्युकार्य स तु सर्वात्मना परमनेन कीरादौ दध्यादीति व्यापकवि- पगता भवति निश्चयवत्कार्यस्यासत एव उत्पज्याविरोधात् । तरुकोपलब्धिप्रसङ्गः । न च हेतोरनेकान्तिकताऽनुत्पाद्यातिश- | था हि यथा निश्चयस्यासतोऽपि करणं तमुत्पत्तिनिमित्तं च ययस्यापि जननीयत्वे सर्वेषां जन्यत्यप्रसक्तिश्च विपर्यये वाधकम् । था विशिष्टसाधनपरिग्रहो न च यथा तस्य सर्वस्मात्साधनानाप्रमाणजनितस्यापि पुनर्जन्यत्वप्रसङ्गात् तदेवं कार्यत्वानिमता- सादेः संभवो यथा चासन्नप्यसौ शक्ती हेतुर्निवय॑ते यथा च नामकार्यत्वप्रसक्तिः । सत्कार्यवादाभ्युपगमे कारणातिशयाना- कारणनावो हेतूनां समस्ति तथा कार्येऽपि भविष्यतीति कथं मपि मूसप्रकृतिबीजदुग्धादीनां पदार्थानां विवक्वितमहदायडूर-| मानकान्तिकनिश्चयेनासदकरणादित्यादिहेतवः । न च यद्यपि दभ्यादिजनकत्वं न प्राप्नोत्यविद्यमानसाध्यत्वात् मुक्तात्मवत् ।। प्राक् साधनप्रयोगात्सन्नेव निश्चयस्तस्यापि न साधनवैयर्य प्रयोगो यदविद्यमानसाध्यं न तत्कारणं यथा चैतन्यं विद्यमान- | यतः प्रागनभिव्यक्तो निश्चयः पश्चात्साधनेच्यो व्यक्तिमासादयसाध्यवाभिमतः पदार्थ इति व्यापकानुपलब्धिः । प्रसङ्गसाधनं तीत्यनिव्यक्त्यर्थ साधनप्रयोगः सफल इति नानर्थक्यमेषामिति चैतत् द्वयमप्यतो नोभयसिसोदाहरणेन प्रयोजनं भोग प्रत्या- वक्तव्यं व्यक्तरसिकत्वात् । तथा हि किं स्वभावातिशयोत्पत्तिस्मनोऽपि कर्तव्यान्युपगमे मुक्तारमा उदाहर्तव्यः । न च प्रथ- रभिव्यक्तिरभिधीयते आहोश्वित्तद्विषयं ज्ञानम् उत तपलमप्रयोगे अभिव्यक्तादिरूपेणापि सविशेषेण हेतापादीयमाने म्भावारकापगम इति पकाः तत्र न तावत्स्वानावातिशयोत्पत्तिसिकता नह्यस्माभिरभिव्यक्त्यादिरूपेणापि सत्यमिप्यते कार्य- रभिव्यक्तिर्यतोऽसौ स्वन्नावातिशयो विश्चयस्वनावाद व्यतिस्य किं तर्हि शक्तिरूपेण निर्विशेषणे तु तस्मिन्ननैकान्तिकता यतो- रिक्तः स्यादव्यतिरिक्तो वा । यद्यव्यतिरिक्तस्तदा निश्चयस्वरूपऽजिव्यक्त्यादिलकणस्यातिशयस्योत्पद्यमानत्वान्न सर्वस्य का- वत्तस्य सर्वदेवावस्थितेर्नो व्यक्तियुक्तमती । अथ व्यतिरिक्तस्तयत्वप्रसङ्गो नविष्यति । अत एव द्वितीयोऽपि हेतुरसिद्धो विद्य- थापि तस्यासाविति संबन्धानुत्पत्तिस्तथा ह्याधाराधेयलक्षणोजमानत्वात्साध्यस्याभिव्यक्युटेकान्द्रकाद्यवस्थाविशेषस्येति च- न्यजनकस्वभावोऽसौ भवेत् । न भवेत्प्रथमः परस्परमनुपकार्योपक्तव्यम् । यतोऽत्र विकल्पच्यं किमसावतिशयोऽभिव्यक्त्याद्य- कारयोस्तदसनवाऽपकारान्युपगममेवोपकारकस्यापि नपृथ-- वस्थातः प्रागासीदाहोश्विन्नेति यद्यासीन तय सिम्तादिषणं ग्नावे संबन्धासिकिः । अपरोपकारकल्पनायां चानवस्थाप्रशप्रयोगव्योपन्यस्तहेतुद्वयस्य । अथ नासीदेवमप्यतिशयः कथं क्तिः। अथ पृथम्नाय च साधनोपन्यासधैयर्थ्यनिश्चयादेवोपहेतुभ्यः प्रादुर्भावमश्नुवीत असदकारणादिति भवद्भिरज्युप- कारपृथग्जूतस्यातिशयस्योत्पत्तेः । न चातिशयस्य कश्चिदागतत्वात् । तत्स्थितं सत्करणान्न सत्कार्य यथोक्तनीत्या सत्कार्य- धारो युक्तो मूर्तत्वेनाधःप्रसर्पणानावादधोगति प्रतिबन्धकत्वेवादे साध्यस्याभावादुपादानग्रहणमनुपपन्नं स्यात्तत्साध्यस्याफ- नाधारस्य व्यवस्थानात् । जन्यजनकभाववतणोऽपि न संबन्धो बबायैव प्रेकावद्भिरुपादानपरिग्रहानियतादेव क्वीरादेर्दध्या- युक्तः सर्वदेव संबन्धाण्यस्य कारणस्य सन्निहितत्वान्नित्यमनिदीनामुद्भव इत्येतदप्यनुपपन्नं स्यात्साध्यस्यासंभवादेव यतः शयोत्पत्तिप्रसत्तेः। न च साधनप्रयोगापेकस्य निश्चयस्यातिशसर्वस्मात्संभवाभाव एव नियताजन्मेत्युच्यते तश्च सत्कार्यवा- योत्पादकत्वं युक्तमनुपकारिण्यपेकायोगात् उपकारान्युपगमे दपके न घटमानकम् । तया शक्तस्य शक्यकारणादित्येतदपि वा दोषः पूर्ववद्वाच्यः। अपि चातिशयोऽपि पृथग्भूतः क्रियमाणः सत्कार्यवादे न युक्तिसङ्गतं साध्याभावादेव यतो यदि किंचि- किमसत् क्रियते आहोश्वित्सन्निति कल्पनाघ्यम् । असत्वं पूर्व Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७ए) कज्जकारणनाव अनिधानराजेन्छः। कम्जकारणनाव पत् साधनानामनैकान्तिकता वाच्या सत्वं च वैययसाधनं ल्ये सत्कारित्वे किमिति सर्वस्य सतो हेतुर्न भवतीत्यसत्कार्यतत्राप्यभिव्यक्त्यच्युपगमे केनानिब्यक्तिरित्यायनवस्थाप्रसङ्गो वादिनोऽप्येतदभिधातुं शक्यमेव न च तन्मते किंचिदस्ति ये. पुर्निवार इति । व्यतिरेकपकोऽपि संगत्यसंनवादसंनवी अतो न तन्न क्रियते न च कारणशक्तिनियमात्सदपि नभोम्बुरुहाणिन स्वजावातिशयोत्पत्तिरभिव्यक्तिनापि तद्विषया झानोत्पत्ति- न क्रियत इत्युत्तरमभिधानीयमितरन्न तदुक्तं " त्रैगुण्यस्यास्वरूपा अभिव्यक्तियुक्तिसंगता तद्विषयज्ञानस्य भवदभिप्रायेण विशेषेऽपि, न सर्व सर्वकारकम् । यद्वत्तद्वदसत्वेऽपि, न सर्व नित्यत्वात् । न वा हि तद्विषयस्यापि संवित्तिः सत्कार्यवादि- सर्वकारकम्"। अभ्युपगमवादेन च यद्वत्तद्वदिति साम्यमुक्तं मतेन नित्यैव किमुत्पाद्यं तस्याः स्याद अपि चैकैव भवन्मतेन सं. न पुनस्तदस्ति । तथा हि सत्यपि कार्यकारणयोर्भेदे कस्यचि. विदासर्गप्रलयादेका बुझिरिति कृत्यता । सैव च निश्चयस्तत्र स्किचित्कारण भवति स्वहेतुपरम्परायातत्वात्तथाभूतस्वभाव. कोऽपरस्तउपमनोनिव्यक्तिस्वरूपो यः साधनैः संपाद्येत । प्रतिनियमस्याभेदे च तयोरेकस्यैकतैकस्मिन्नेव काले हेतुत्वम न च तद्धिस्वभावात्तहिषया संवित्तिः किंतु मनःस्वभावेति हेतुत्वं वाऽन्योन्यविरुद्धं कथं संभषेत विरुद्धधर्माभ्यासनिबन्धवक्तव्यम् । बुद्धिरुपलब्धिरध्यवसायो मनःसंवित्तिरित्यादी- नत्वाद्वत्स्तुभेदस्य । तदुक्तं "भेदे हि कारणं किंचि-द्वस्तुधर्मनामनीन्तरत्वेन प्रदर्शथिप्यमाणस्वात् । तद्विषयोपसम्भाव- तया भवेत् । अभेदे तु विरुध्येत, तस्यैकस्य क्रियाक्रिये"॥१॥ रणकयशक्षणाऽप्यभिव्यक्तिर्न घटां प्राञ्चति द्वितीयस्योपलम्भ- अथासत्कार्यवादिनः कारणानां प्रतिनियताः शक्तयो न घटन्ते स्यासंभवेनोपलम्नावरणस्याप्य नावात् । न ह्यसत आवरणं कार्यात्मकानामवधीनामनिष्पत्तेन ह्यवधिमतः सद्भावःसंभयुक्तिसंगतं तस्य वस्तुसद्विषयत्वात् । न वा सतस्तदावरणस्य वति प्रयोगश्चात्र ये सद्भूतकार्यावधिशून्या न ते नियतशक्तयो कुतश्चित्कयो युक्तः सत्वेऽपि तदावरणस्य नित्यत्वान्न वयः सं- यथा शशशृङ्गादयः सद्भूतकार्यावधिशून्याश्च शालिबीजादयो भवतीति । भावनवणेऽपि वयस्तस्यायुक्तोऽपरित्यक्तपूर्वरूपस्य | भावा इति ब्यापकानुपलब्धिः। सत्कार्यवादे तु कार्यावधिसद्भातिरोभावानुपपत्तेः तद्विषयोपसम्भस्यासत्वेऽपि नित्यत्वान्नावर- वाद्युक्तः कारणप्रतिनियमः। उक्तं च । “अवधीनामनिष्पत्ते-निणसंभव इति कुतस्तत्वयानिव्यक्तिः । न चाद्यावरणक्यः के- यतास्ते न शक्तयः। सत्वे च नियमस्तासां, युक्तः सावधिको न नचिद्विधातुं शक्यस्तस्य निःस्वभावत्वात्ततोऽभिव्यक्तरघटमा- विति" असदेतत् तोरनैकान्तिकत्वात् । तथा ह्यवधीनानत्वात्सत्कार्यवादपके साधनापन्यासवैयर्थ्यम् । एवं बन्धमो- मनिप्पत्ती क्षीरस्य दध्युत्पादने शक्तिरिति व्यपदेशः केवल कानावप्रसङ्गश्च तत्पक्के। तथा हि प्रधानपुरुषयोः कैवल्योपलम्न | मा नद्यत्पुनरनध्यारोपितं सर्वोपाधिनिरपेकं वस्तुस्वरूपं यदननक्कणतत्वज्ञानप्रापुर्जावे सत्यपवर्ग कापिरज्युपगम्यते तत्र न्तरं पूर्वमहटमपि वस्त्वन्तरं प्रादुर्भवति तस्य प्रतिषेध एव ।न तत्वज्ञान सर्वदाऽवस्थितमेवेति सर्वदेहिनोऽपवृक्ताः स्युः च शब्दविकल्पानां यत्र व्यावृत्तिस्तत्र वस्तुस्वन्नावोऽपिनिवर्त. अत एव न बन्धोऽपि तत्पके संगतो मिथ्याज्ञानवशाद्विबन्ध इष्य- ते यतो व्यापकस्बजावः कारणं वा व्यावर्तमानं स्वव्याप्यं स्वते तस्य च सर्वदा व्यवस्थितत्वात्सर्वेषां देहिनां बरूत्वमिति कार्य वाऽऽदाय निवर्तत इति युक्तं तयोस्तान्यां प्रतिबन्धात् कुतो मोकः । लोकव्यवहारोच्छेदश्च सत्कार्यवादान्युपगमे । न च पयसो दधिशक्तिरित्यादिव्यपदेशो विकल्पो वा नावातथा हि हिताहितप्राप्तिपरिहाराय लोकः प्रवर्तते न च तत्पके नां व्यापकस्वजावः कारणं वा येनासौ निवर्तमानः स्वभाव: किंचिदप्राप्य हेयं वा समस्तीति निर्व्यापारमेव सकसं जगत्स्या- स्वभावं निवर्तयेत् तद्व्यतिरेकेणापि नायसद्भावात् यतो व्यपदेदिति कथं न सकलव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गः I निषिके च सत्का- शाविकल्पाश्च निरीकस्वभावे वस्तुनि यथाज्यासमनेकप्रकाराः र्यवादेऽसत्कार्य कारण इति सिद्धमेव सदसतोः परस्परपरि- प्रवर्त्तमाना उपनच्या पकस्यैव शब्दादे वस्यानित्यादिरूपेण हारस्थितत्वेन प्रकारान्तरासंन्नवात्तथापि परोपन्यस्तपक्ष- भिन्नस्य समयस्थायिनिर्वादिनिर्व्यपदेशाद्विकल्पनात्वात्तत्तादाणस्य दूषणानासताप्रतिपादनप्रकारो सेशतः प्रदर्श्यते ।। त्म्ये वस्तुनश्चित्रत्वप्रसक्तिर्व्यपदेशविकल्पवत् शब्दविकल्पानां तत्र यत्तावदुक्तं परेणासत्कर्तुं नैव शक्यते निःस्वभावत्वादिति वस्तुरूपवदेकत्वप्रसङ्गः। न ह्येक चित्रशक्त.मतिप्रसङ्गात्ततःशतदसिद्धं वस्तुस्वभावस्यैव विधीयमानत्वाभ्युपगमात्तस्य च | क्तिप्रतिनियमात्किचिदेवासद्विधीयते न सर्वमित्यनैकान्तिकोऽपि नेरुप्यसिद्धेः । अथ प्रागुत्पत्तेनिःस्वभावमेव तन्न तस्यैव निः- नैरूप्यादिति हेतुः उपादानग्रहणादित्यादिहेतुचतुष्टयस्यात पवास्वभावत्वायोगात् । न च तत्तत्स्वभाव एव निःस्वभावो नैकान्तिकत्वम् । तथा हि यदि कार्यसत्वकृतमेव नियतोपादायुक्तो वस्तुस्वभावप्रतिषेधलक्षणत्वान्निःस्वभावत्वस्य । न च नग्रहणं कचित्सिकं नवेत् तथैव स्याद्यावता कारणशक्तिप्रतिक्रियमाणं वस्तुत्पत्तेः प्रागस्ति येन तदेव निःस्वभावं सिये- नियमकृतमपि प्रतिनियततोपादानग्रहणं घटते एव सर्वस्मात्सत । न च वस्तुविरहलक्षणमेव धर्मिणं नीरूपं पक्षीकृत्य नैरू- वस्य संनवोऽपि कारणशक्तिप्रतिनियमादेव च न भवति सर्वप्यादिति हेतुः पक्षीक्रियत इति वक्तव्यं सिद्धसाध्यताप्रसङ्गात् स्य सर्वार्थक्रियाकारिजावत्वस्यासिकेः । यदपि कार्यातिशयमियतो न वस्तुविरहः केनचिद्विधायकेन तथाऽभ्युपगतः। अनै- त्यायुक्तं तदप्यनिप्रायापरिज्ञानादेव यतो नास्माभिरनाव चरपकान्तिकश्चायं हेतुर्विपक्षे वाधकप्रमाणप्रदर्शनात्कारणशक्तिप्र- द्यत इति निगद्यते विकारापत्तौ तस्य खन्नावहानिप्रसक्तिरापद्ये. तिनियमाद्धि किंचिदेवासक्रियते यस्योत्पादको हेतुर्विद्यते । त किं तु वस्त्वेव समुत्पद्यत इति प्राक् प्रतिपादितम् । यस्य तु शशश्टङ्गादे स्त्युत्पादकस्तन्न क्रियत इति अनैकान्त तच वस्तु प्रागुत्पादादसमुपलब्धिलकणं प्राप्तस्यानुपलब्धेर्निएव यतो न सर्व सर्वस्य कारणमिष्टम् । न च यद्यदसत्तत्त- एपन्नस्यातिप्रसङ्गतः कार्यत्वानुपपत्तेश्चेत्युच्यते । यस्य च क्रियत एवेति व्याप्तिरभ्युपगम्यते किं तहि यद्विधीयत उत्प- कारणस्य सन्निधानमात्रेण च तत्तथान्तमदेति तेन तक्रित्तेः प्राक् तदसदेवत्यभ्युपगमः । अथ तुल्येऽपि असत्कारित्वे यत इति व्यपदिश्यते न व्यापारसमावेशात्किचित्केनचिहेतूनां किमिति सर्वः सर्वस्यासतो हेतुर्न भवतीत्यभिधीयते क्रियते सर्वधर्माणामव्यापारत्वात् । नाप्यसत्किचिदस्ति यअसदेतत् भवत्पक्षेऽप्यस्य चोद्यस्य समानत्वात् । तथा हि तु । नाम क्रियते । असत्वस्य वस्तुस्वभावप्रतिवन्धनकणत्वात् । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) कज्जकारणभाव अभिधानराजेन्धः। कजकारणभाव अपि च यद्यत्कार्यातिशयं तत्तदसन्न क्रियत इत्यनिधीयते तद- धारकं व्यवस्थाप्येत न च कारणमेव कार्यावारकं तस्य तदुपकावि सर्वस्य भावनिष्पत्तरकार्य तिशयमेवेति कथं क्रियते । ततः रकत्वे प्रसिदः न ह्यालोकादिरूपज्ञानोपकारकं तदावरफत्वेन शक्तस्य शक्यकरणादित्ययमत्यनैकान्तिकः । सत्कार्यवादे च वक्तुं शक्यम्। किं च आवारकस्य मूर्तत्वे कारणमूर्तत्वे च न काकारणभावस्याघटमानत्वात्कारणभावादित्ययमप्यनैकान्तिकः । रणरूपस्य तदन्यन्तरप्रवेशो मूर्तस्य मूर्तेन प्रतिघातादप्रतिघाते अथवा कार्यसंजवस्य सतः प्राक् प्रतिपादितत्वादसत्कार्यवाद च यथा कार्य कारणाज्यन्तरप्रविष्टत्वात्तेनावृतमिति नोपलभ्यते एव चोपादानग्रहणादिनियमस्य युज्यमानत्वादुपादानग्रहणादि- तथा कारणस्याप्यनुपलब्धिप्रसङ्गः अप्रतिघातेन तदनुप्रविष्टत्वात्यादिहेतुचतुपयस्यसाध्यविपर्ययसाधनविरुकताऽवसया । यद्य- विशेषात् । अथान्धकारवत् तद्दर्शनप्रतिबन्धकत्वेन तदावारकं सदेवोत्पद्यत इति भवतां मतं तत् कथं सदसतोरुत्पादः सूत्रे नन्वेवमदर्शनेऽपि तस्य स्पर्शापनम्नप्रसङ्गस्तस्याप्यन्नावे तस्याप्रतिपिद्धः उक्तं च । तत्रानुत्पन्नाश्च महामतेः सर्वधर्माः सदस-1 सत्वमिति तदावारकं तत्स्वरूपविनाशकत्वं प्रसक्तम्।नच पटातोरनुत्पन्नत्वादिति वस्तूनां पूर्वापरकोटिशून्यक्कणमात्रावस्था- देरिव घटादिकं प्रति कारणस्य कार्यायारकत्वमिति न स्पोयी स्वभाव पव सत्पाद उच्यतेन तत्वान्तरं प्रतिकणेन तन्मात्र- पलब्धिः पटध्वंस श्व मृत्पिएमध्वंसे तदावृतकायोपलब्धिप्रसजिज्ञासायां न पुनर्वैभाषिकपरिकल्पिता जातिः संस्कृतलक्षणा | ङ्गात् एकानिव्यङ्गयोपलब्धेच नवेदकप्रदीपव्यापारात तत्संप्रतिषेत्स्यमानत्वात्तस्याः। नापि वैशेषिकादिपरिकल्पितसा-| निधानव्यवस्थितानेकधादिवत् । किं च कारणं कार्यस्य सत्वे मान्यसमवायः स्वकारणसमवायो वा निषेत्स्यमानत्वात्तयोः स कान श्व कथमसौतेनावियते नापि मृत्पिगमकार्यतया पटापरमतेन नित्यस्य च जन्मानुपपत्तेः। “सत्तास्वकारणाश्लेष-कर-| दिवत् घटो व्यपदिश्येत असत्वे च नावृतिरविद्यमानत्वादेवैकाणाकारणं किन्न । सा सत्तास च संबन्धो, नित्य कार्यमयेह कि", न्तसतः करणविरोधादसत्करणादिन्यो न सत्कार्यसिकिः ।प्र. मिति ॥१॥ स एवमात्मक उत्पादो नासतस्तादात्म्यन संबध्य- तिक्किप्तश्च प्रागेव सत्कार्यवाद इति न पुनरुच्यते । अनर्थान्तरभूते सदसतोर्विरोधात् न ह्यसत्सद्भवति । नापि सत्ता पूर्वभा-| तपरिणामवादोऽपि प्रतिक्षिप्त एव न ह्यान्तरपरिणामाभावे विना संबध्यते तस्य पूर्वमसत्वात्कल्पनाबुद्ध्या तु केवनं सत्ता परिणाम्येव कारणलक्षणोऽर्थः पूर्वापरयोरकत्वविरोधान्न च परि वस्तु संबध्यते न प्रसन्नाम किंचिदस्ति यत्पत्तिमा विवोत् । णामाभावे परिणामिनोऽपि भावो युक्तः परिणामनिबन्धनत्वात् असदुरपद्यत इति तु कल्पनाविरचितब्यवहारमात्रं कल्पनाबीजंतु | परिणामित्वस्यानिन्नस्य हि पूर्वापरावस्थाहानोपादानात्मतया ए प्रतिनियतपदार्थानन्तरोपसन्धस्य रूपस्योपलब्धिलवणं प्राप्त- कस्य वृत्तिलकणपरिणामोनयुक्तियुक्तस्तन्नैकान्ताभेदे कारणमेवा स्योत्पत्यवस्थातः प्रागनुपनधिस्तदेवमुत्पत्तेः प्राकार्यस्य न नर्धान्तरकार्यमित्ययमध्येकान्तो मिथ्यावाद पव कार्योत्पत्तिसत्वं धर्मो नाप्यसत्वं तस्यैवाभावात् । अपि च पयःप्रभृतिषु काले कारणस्याविचलितरूपस्य कार्यादिव्यतिरिक्तस्य सत्वे कारणेषु दयादिक कार्यमस्तीति यदि कल्पते तदा वक्तव्यं किं पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गात् तद्यतिरिक्तस्य तस्य सद्भावे कारणस्य प्राव्यक्तिरूपेण तत्तत्र सत् अथ शक्तिरूपेण तत्र यदि व्यक्तिरूपेणेति तनस्वरूपेणैवाप्यस्थितत्वात् अकारणकार्योत्पत्तिर्भवेत् कारपकः स न युक्तः कीराद्यवस्थायामपि दध्यादीनां स्वरूपेणोपल णस्य प्राक्तनकारणस्वरूपापरित्यागात् । परित्यागे षा कार्यकाधिप्रसङ्गात् नापि शक्तिरूपेण यतस्तदूपं दध्यादेः कार्यानुपल- रणस्वरूपस्वीकारेण तस्यैवावस्थितत्वादनेकान्तसिद्धः । व्यधिनकणरूपात् किमन्यदाहोश्वित्तदेव । यदि तदेव तदा पूर्वमेवो- तिरेके च कारणाकार्यस्य पृथगुपलम्भप्रसको न च तदाधपलब्धिप्रसङ्को दध्यादेः । अथान्यदिति पक्कस्तदा कारणात्मनि तत्वेन तस्योत्पत्तेने तत्प्रसङ्ग इति वक्तव्यमवयविनः समधाकार्यमस्तीति अभ्युपगमस्त्यक्तो नवेत् । कार्याद्भिन्नतनोः शक्ति- यस्य च निषत्स्यमानत्वानिषिद्धत्वाच कारणाद्यतिरिक्तं तत्रानिधानस्य पदार्थान्तरस्य सद्भावान्युपगमातथा हि दुग्धे सदेव कार्यमित्ययमपि पक्षो मिथ्यात्वमेव । तथा हि एकान्तयाऽऽवितविशिष्टरसवीर्यविपाकादिगुणसम्पत्किमेतदेव द. तो निवृत्ते कारणे कार्यमुत्पद्यत इत्यत्र कारणनिवृत्तिः । सद्ध्यादिक कार्यमुच्यते कीरावस्थायां च तदुपलब्धिलकणमा- पासदूपा घेति वक्तव्यं सद्रूपत्वेऽपि न तावत्कारणस्य नित्यसमनुपमन्यमानमसद्यवहारविषयत्वमवतरति यच्चान्यच्चक्ति- त्वप्रसाक्तिःनिवृत्तिकालेऽपि कारणसद्भावातानचाविचलितरूपं तत्कायमेव न भवतिन चान्यस्य भावेऽन्यत्सद्भवत्यतिप्रस- स्वरूपमृत्पिण्डसद्भावे घटोत्पत्तिर्दृष्टा कार्यानुत्पत्तिप्रसक्ते ङ्गात् । न चोपकारकल्पनया तहापदेशसद्भावेऽपि वस्तुव्यवस्था नापि कार्यरूपा तन्निवृत्तिः कारणनिवृत्तौ कार्यस्यैवानुत्पसम्स्तु (पुस्तकान्तरे शब्दस्तु वस्तु इति ) प्रतिबन्धाभावात्त- तेरेवं च कार्यानुत्पादकत्वन कारणस्याप्यसत्वमेय । न चोद्भावेऽपि वस्तुसद्भावासिके सम्म । अने। त्पत्तिरेव कारणनिवृत्तिरिति कारणनिवृत्तेने कार्योत्पत्तिरिति सदसत्कार्यवादी सैकान्तिकस्त्वाह । योकान्तेन कारणे कार्य- नाय दोषः कार्यगतोत्पादस्य कारणगतविनाशरूपत्वायोगाद्भिमस्ति तदा कारणस्वरूपवत् कार्यस्वरूपानुत्पत्तिप्रसक्तिन दि प्राधिकारणत्वात् कारणनिवृत्तेश्च कार्यरूपत्वे कारणं कार्यरूसदेवोत्पद्यते उत्पत्तेरविरामप्रसङ्गात् । न च कारणव्यापारसा- पेण परिणतमिति घटस्य मृत्स्वरूपवत्कपालेष्यप्युपलब्धिप्र. फल्यं तद्यापारनिर्वय॑स्य विद्यमानत्वात् तथा हि कारणव्यापा- सङ्गः । नाप्युभयरूपा तन्निवृत्तिम॒त्पिण्डविनाशकाले विवरः किं कार्योत्पादने आहोश्चित् कार्याभिव्यक्ताकुत तदावरणवि- क्षितमृत्पिएडघटव्यतिरिक्ताशेषज्जगदुत्पत्तिप्रसक्तिः । अथासनाश ति पक्काः । तत्र न तावत्कार्योत्पादने तस्य सत्वे कारक- द्रूपा तन्निवृत्तिस्तथापि यदि कारणाभावात् कायोत्पादप्रसक्तेव्यापारवैफल्पादसत्वे स्वान्युपगमविरोधादभिव्यक्तावपि पक्क- निर्हेतुकः कार्योत्पाद इति देशकालाकारनियमः कार्यस्य न दयेऽप्येतदेवदूषणम्। आवरणविनाशेऽपि न कारकव्यापारःसतो स्यात् अभावाच कार्योत्पत्तौ विश्वमदरिद्रं भवेत्। नापि कार्याविनाशाभावादसतो भावस्योत्पादवत् तन्त्र सत्कार्यवादे कार- भावरूपा तभिवृत्तिः कार्यानुत्पत्तिप्रसङ्गात् । नाप्युभयाभावकव्यापारसाफल्यम् । न चान्धकारपिहितघटाद्यनुपनम्नेऽन्धका- स्वभावा द्वयोरप्यनुपलब्धिप्रसक्तेः । नाप्यनुभयाभावरूपा विरोपलम्भवत् कार्यावारकोपत्रम्भो येन प्रतिनियतं किंचित्तदा- वक्षितकारणकार्यव्यतिरिकेण सर्वस्यानुपलब्धिप्रसक्के कारण Jain Education Interational Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) अन्निधानराजेन्द्रः | कज्जकारणभाव स्योपलब्धिप्रसक्तेध कारणभावाभावरूपा न तन्निवृत्तिः कारतस्यानुगतव्यावृत्तताप्रसक्तेरत एव ससर्प स्वपररूपापेक्षयाऽनेकान्तवादिभिर्वस्त्वभ्युपगम्यते पररूपेणास्य सत्वे वस्तुनो निःस्वभावताप्रसक्तेः स्वरूपवत् । पररूपेणापि सत्वे पररूपताग्रसते एकरूपापेक्षयेव सदसत्यविरोवादन्यथा वस्वेव न भवेत् । नापि कार्यभावाभावरूपा कार्यस्योत्पत्यमुत्पत्युभयरूपताग्रसको तथा चसिसायता केवलोपपोदोषप्रसधि नापि कार्यकार गोभयभावरूपा प्रत्येकपक्कोदितसकलदोषप्रसक्तेः परस्परव्यपदेश्यकार्यकारणभावानायरूपकारणनिवृत्यभ्युपगमेऽनेकान्तवाद प्रसक्तिश्च । नाप्यनुभयनावाभावरूपा अनुनयरूपस्य वस्तुनोमावा व निवृत्तेः सत्यमेकान्तनाषाभावयोर्विरोधात् । - नुजयनावरूपत्वे तु तस्याः कारणस्याप्रच्युतत्वात् । तथैव चो सङ्गः अपि च कारयनिवृत्तिस्तत्स्य रूपाभिनिषा या यद्यनिषा निवृतिकालेऽपि कारणस्योपसङ्गतः कारणात्मकत्वात् । स्वकालेऽपि वा कारणस्योपलब्धिर्न स्यात् तस्य तनिवृत्तिरूपत्वाणि कारणस्य निवृतिरिति संवन्धाभावादभिधानानुपपत्तिः संकेतवशादभिधानप्रवृत्तावप्याधेयनिवृतिकालेऽधिकरणस्य सत्वमसत्वं वेति वक्तव्यम् । सत्वे कारणविनाशानुपपत्तिः आधेयनिवृत्त्या करणस्वरूपस्याधारस्याविरोधे विरोधे वा कारण तनिवृत्योपगपद्यासंभवादसत्वेऽयधिकरणविरोधोऽतोऽधिकरणत्वायोगात् तस्य वस्तुधर्मत्वा दय कारणनिवृत्तेनांधिकरणमपि तु तहेतुस्तसिरकावत् तत्कार्यत्वप्रसङ्गात् । तदनभ्युपगमे कारणस्य तकेतुत्वप्रतिज्ञाहानिरकार्यस्य तकेतुत्वविरोधे वन्ध्याया अपि सुतं प्रति देतुत्वप्रसकेः न च कारणदेव कारणानिवृतिः कारणान न्तरभावित्वविरोधात् न च कारणहेतुका तनिवृत्तिः कार समानकालं तदुत्यतिप्रसङ्गतः प्रथमहणे एव कारणस्यानुपलब्धियेत् तनिवृत्याविरुत्वात् । न च कारणनिवृतिः स्वदेतुका स्वात्मनि क्रियाविरोधात् न च निर्हेतुकेय कारणान तरमेव तस्यानावविरोधात् श्रतोदेशादिनियमाभावात् । अथ कारणं निवृत्तेरेतुः कारणं या किं तु स्वयमेव न भवति । न्यत्र किं स्वसत्तासमय एव स्वयं न नवत्याहोश्विदुत्तरकालमिति विकल्प गतिः । यदि प्राक्तनविकल्पस्तदा कारणानुत्यतिप्रसङ्गः प्रथमकृण एव निवृत्याकान्तत्यायनाननवृतिरप्यनुत्पन्नस्य विनाशात् नापि निवृ चिमवनेोत्पन्नानुत्पन्नतया कारणस्वरूपा भयभयोरविरोधात् स्वयमेव नावो न भवेदिति वचो घटते नान्यथा । न च जन्मान्तरं प्रावाभावस्य नावात्मकत्वात्तदव्यतिरिक्त एवाभावो न न्वेवमपि जन्मानन्तरं स एव न भवतीत्यनेनाभावस्य नायरूपतैवोकेत्युत रकालमपि कारणानिवृत्तेस्तथैवोपज्ञयादिसङ्गो भावस्याभावात्मकत्वान्नायं दोष इति चेन्नायापि पर्युदासाभावात्मकत्वं जावस्य प्रसज्यरूपाभावात्मकत्वं वा । प्रथमपके स्वरूपपरिहारेण तदात्मकता प्रतिपद्यते अपरिहारेण वा प्रथमपके स्वभचनप्रतिषेधपर्ययसानत्वान्न पर्युदासानायात्मको प्रावो भवेन्न ersसौ तथा ताकप्रमाणाभावात् । तथा भूतनावग्राहकप्रमाणाभ्युपगमे च प्रसज्यपर्युदासात्मको प्रावो भवेदित्यनकान्तप्रसिद्धिपत्रेऽपि न पर्युदासोऽनिधिकस्तास्वरूपत्वात् पूर्षनावस्वरूपवत् । प्रसज्यरूपाभावात्मकत्वेऽपि जावस्य प्रतिषिध्यमानस्याश्रयो वक्तव्यो न भवेत् मृत्पिण्डलकणमाश्रयस्तस्य कज्जकारणभाव प्रतिषिध्यमानस्य चाश्रयत्वानुपपत्तेर्मापि घटल कार्यमाश्रयः कारण निवृत्तेदि प्रारपरस्यासत्येनायमिति प्रत् प्रत्ययविषयत्वे चायं ब्राह्मणो न तदन्योऽयमिति वचः प्रसज्यपर्युदासो व्यवहारो दृष्टो नान्यथेति प्रतिषेधप्रधानविभ्युपसर्जनविधिप्रधान प्रतिषेधोपसर्जनयोः शब्दयोः प्रवृत्तिनिमित्तधर्म्मइयाधारनृतं द्रव्य विषयत्वेनान्युपगन्तव्यमन्यथा तद्योगात् । तथा चानेकान्तवादापत्तिरयत्न सिकेति तथाभूतस्य वस्तुनः प्रमाणवायातस्य निषेदुमशक्यत्वात् कान्तेन घटस्योत्पतेः प्रागस्तित्वे क्रियायाः प्रवृत्यभावः सात्सद्भा तावनवस्थाप्रसक्तेः कारणेऽप्येतदविशेषतस्तद्वत्प्रसङ्गद्वयोरप्यावप्रसङ्गो न चैतदस्ति तथा प्रतीतेस्तन्न मृत्पिरमे घटस्य सत्यं कान्तोऽसत्यं मृत्पिणमस्व कथंचिरूपतया प रिणती सर्वाना पिण्डनिपूर्वोकदोषो न नि परसद सत्ययोराधारभूतमेकं यं मृतणमेकाकारतया भूमिप योः प्रतीयमानमच्युपगन्तव्यम् । न च कारणप्रवृत्तिः कारणगता मृदूपता तन्निवृत्तिकाले च कार्यगता सा परेच मोयाताया एकत्वं भेदप्रतिपत्तावपि मृत्विएमघररूपतया कथंचिदे कवत्वस्यावाधितप्रत्ययगोचरत्वात् । उपलभ्यत एव हि कुम्नका व्यापारस्वपकं मृद्रव्यं पिएमाकारपरित्यागेन शिविकायाकारतया परिणममानम् । न हि तंत्रेदं कार्यमाधेयभूतं भिन्नमुपजातं पङ्के पजवदिति प्रतिपत्तेः नापि तत्करणनित्यतया दमो त्पादितघटं नापि तत्कर्तृतया कुविन्दव्यापारसमासादितात्मज्ञान पटवत् नापि तदुपादानतया भनोत्पादिसाम्रफलवत् । तस्मात्पूर्वपर्ययविनाश उत्तरपर्यायोत्पादात्मकस्तद्देशकालत्वादुत्पादात्मवत् । श्रभावरूपत्वाद्वा प्रदेशस्वरूपघटाद्यभाववत् प्रागभावानावरूपत्वाद्वा घटस्वात्मवत्ता एवमनज्यु - पगमे पूर्वपर्यायस्य ध्वंसादुत्तरस्य चानुत्पत्तेः शून्यताप्रस - किरतरपययोत्पादाभ्युपगमे या सत्यादः पूर्वपर्ययमध्वंसात्मकः प्रागभावाभावरूपत्वात् प्रध्वंसाभाववन्न च प्राकनपर्यायविनाशात्मकाचे उत्तरपर्यायभवनस्य द्विनाशपर्यायस्योमज्जनमसरिभाषाभाषमात्रत्वानभ्युपगमाच । पुनस्तस्य प्रतिनियतपरिणतिरूपत्वात् भावाभाषोभयरूपतथा प्रतिनियतस्य वस्तुनः प्रादुर्भावे मुङ्गरादिव्यापारानन्तरमुपलभ्यमानस्य कपालोदभावस्य नाहेतुकता न बो भयस्यैकव्यापारादुत्पत्तिविरोधस्तथा प्रतीयमाने विरोधासि - द्वेः । ततस्तद्विपरीत एव विरोधसिद्धेरुभयैकान्ते प्रमाणानवतारात् तथात्मकत्वेन प्रतीयमानप्रतिहेतोर्जनकत्वविरोधे घटक्षणसत्तायाः स्वपरविनाशोत्पादकत्वं विरुध्यते । एवं चाकारणघटक्षणान्तरोत्पत्तिर्भवेत् । न च विनाशस्य प्रसज्यपर्युदासपचयेऽपि व्यतिरिकादिविकल्पतो हेयोगातुकता युक्ता सताहेतुत्वेऽपि तथा विकल्पनस्य समानत्वेन प्रा. प्रदर्शितवत्यपि विनाशस्य निर्हेतुकत्वात्स्वभावादनुबन्धितेति निरन्वयक्षराक्षषिता भावस्येति नान्ययस्तद्यसङ्गतं विनाशसोदेविनाशस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वा य क्षसिद्धे वस्तुन्यनुमान विपरीत धमीपस्थापकत्वेन प्रामाएयमात्मनाशात्करोति । व विनाशं प्रति तद्धेतोरसामर्थ्यात् क्रियाप्रतिषेधाच्च स्वरसवृतिविनाश इति नान्ययस्तदप्यसंगतं विनाशहेतोर्भावाभावीकरणसामर्थ्यात् यथा हि भाष बीकरोति अन्यथा स्वयमेव नाशेऽपि भाचानां द्वितीय स्वय मेव भावी भवतीति भवेत्। यथा हि निष्पन्नभावस्य नाभावो Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) कज्जकारणभाव अभिधानराजेन्द्रः। कज्जकारणभाव नाम कश्चित्संबन्धी यद्यन्योऽभावो भवन निष्पन्नस्य भावस्य त. कणिकवाद्यन्युपगतक्कणस्यासंबन्धान्तरसन्निधामासग्निधानकृत। दातेन तस्य संबन्धासिद्धेःपूर्ववदर्शनप्रसङ्ग इति स्वयमेव भावो स्वभावनेदः । अन्यथाऽनेकसामग्रीसन्नियातिन एकतपस्यैन भवतीत्यभिधीयते । तथा न निष्पन्नस्य भावस्य भावो नामा- कदा यिनक्कणानेककार्योत्पादनेऽनेकत्वाप्रसक्तिर्भवेत् । दृश्यते न्यः कश्चित् तेन तस्य संयन्धासिद्धर्न भावस्य सत्ता भवेदिति च प्रदीपकणस्य समानजातीयकणान्तरकजनं चक्षुर्विज्ञानादस्वयमेव हेतु निरपेक्षो भावो भवतीत्येतदपि वक्तव्यम्। यदि पुन-1 नेककार्यनिवर्तकत्वमेकस्य नानासामध्युपनिपातिन इति । स्तत्र न किंचिद्भवतीति क्रियाप्रतिषेधमात्रमिति न हेतुव्यापार: क्रमेणाप्यवणिकस्य तदविरुकं यथा चैकवणस्य स्वपरकार्याकथं तर्हि तदवस्थस्य भावस्य दर्शनादिक्रिया न भवेदिति पेकयैकदा जनकत्वाजनकत्वे अविरुके तथाऽक्वणिकस्यापि सवक्तव्यम् । स एव न भवतीति चेत्तर्हि तस्योद्भवनं करोति वि- हकारिकारणसन्निधानासन्निधानान्यां क्रमेण कार्यजनकत्वेन नाशहतुरित्यभ्युपगन्तव्यमिति तद्धेतूनामकिंचित्करतयाऽन- विरोत्स्यते । विज्ञप्तिपरमाणुपक्केपि यथैको ज्ञानपरमाणुः संबपेकणीयत्वमनुपपनमत एवापेक्वणीयत्वोपपत्तिर्भावस्यान्यथा भ्यन्तरजनितस्वभावभेदेऽप्यनिनः अन्यथा दिपटूयोगात्सासहानवस्थानलकणविरोधासिके प्रतिनियतव्यवहारोच्छेदप्र- वयवत्वकल्पनयाऽवस्तुत्वप्रसक्तेः सेनावनादिवत् । स्वसंविदि सक्तिः । अपि च यदि नाम स एव न जवति तथापि प्रध्वंसा- निर्विकल्पिकायामप्रतिजासतः सर्वप्रतिभासविशेषवत् एवमक्काभावः प्रागभावाभावात्मक उत्तरकार्यवदन्युपगन्तव्यस्तस्यापि णिकोऽपि क्रममाव्यनेकतत्सहकारिसंबध्यन्तरसन्यपेक्ककार्यजतदनन्तरमुपलम्भात् । एतावान् विशेषो विनाशप्रतिपादनानि- नगस्वजावभेदेऽप्यभिन्नोऽज्युपगन्तव्यो जनकत्वनेदऽप्यभिन्नप्राये सति तत्प्राधान्येतरोपसर्जनविवकायां विनष्टो भाव इति स्वजाव शति नाकणिकेऽर्थक्रियाविरोधो न च कणक्कयेऽध्यकप्रयुज्यते । प्रतिपत्तिरपि तथैव विनाशोपसर्जनेतरप्राधान्यविव. प्रवृत्तिव्यतिरेकेणाकणिके अर्थक्रियाविरोधः सिध्यतीतरेतराकायामुत्पन्नानि कपालानीति प्रतिपत्तिरपि तथैव । परमार्थतस्तू. श्रयप्रसक्तः। तथा ह्यकणिकत्वेऽर्थक्रियाविरोधात् प्रतिकणविजयात्मकमन्यथा पूर्वोक्तदोषानतिवृत्तः । न च कारणस्य निर- शरारुष्वध्यकप्रवृत्तिसिमिस्तस्याश्वाक्कणिके अर्थक्रियाविरोधन्वयविनाशे कार्यदलस्यात्यन्तासती उत्पत्तिर्घटते विनष्टस्य स- सिकिरिति । न चावणिकवादमतेऽप्ययं समानो दोषः कासाकाशक्तिविरहिणः कारणस्य कार्यक्रियायोगादविनष्टस्वसत्ता- न्तरस्थायिनि भावेऽध्यक्षप्रवृत्तिनिश्चयादेव कृषिकत्वेऽर्थक्रियाकाले कार्यनिवर्त्तने हेतुफबयोः सह भाव इति तद्व्यपदेशः स- विरोधस्य सिकेर्न च कणिकेऽध्यकवृत्तिरपजातैव केवलं भान्येतरगोविषाणयोरिव न नवेत् । स्वकाले पश्चात्कार्यस्य नावे न्तिकारणसभावान्न निश्चितेति वक्तव्यं विहितोत्तरत्वात् । न तदाकारणस्य स्वसत्तामत्यजतः कणक्यपरिक्कयोऽनिष्टोऽनुषज्यते चैककणिकस्यार्थक्रियाकरणलक्षणं सत्वमन्यस्य सत्तासंबन्धाकिच कारणसत्तासमये कार्यस्याभवतः स्वयमेव पश्चाद्वत- देःसत्वस्य परेणानन्युपगमादसत एकान्तकणिकाकणिकवस्तदकार्यत्वप्रसक्तिश्च । तथा हि यस्मिन्नसति यन्न नवति अस-| देकान्ताकणिकेष्वप्यर्थक्रियालवणं सत्वं पूर्वोपर्शितन्यायेन तिच भवति तत्तस्य न कार्यमितरच न कारणं यथा कुझान- व्यावृत्तं संबन्धनकणस्य च सत्वस्यातिव्याप्तित्वासंभवादिदोस्य पटादिः । कणक्यपक्षे च प्रथमवणे कारणानिमतभावस- पष्टत्वादसत्वमित्येकान्ताक्षणिका अप्यसन्तो नावा इत्युत्पाद्भावेन भवति कार्यमसति तस्मिन् द्वितीयकणे नवति चेति न दव्ययध्रौव्यलकरणमेव नावानामन्युपगन्तव्यमिति नैकान्ततः तत्सत्कार्यमितरच तत्कारणमिति हेतुफानाबानावस्य तन्मात्र- कारणेषु कार्यमसदिति न तदिति पक्को मिथ्यात्वमिति स्थितम् । निवन्धनत्वात् । प्रत पव कणिकादर्थक्रिया व्यावर्त्तमाना स्वव्याप्य- अपरस्तु कार्यकारणभावस्य कल्पना शिल्पिविरचितस्वात् । सत्वनक्कणमादाय निवर्तत इति यत्र सत्वं तत्रावणिकत्वसिकिमा- तनुभयव्यतिरिक्तमद्वैतमात्रं तत्वमित्यन्युपपन्नस्तन्मतमपि मिसादयति। नच कार्यकालेऽजवतोऽपिकारणस्य प्राक्तनानन्तरवणे थ्याकार्यकारणोनयशून्यत्वात् खरविषाणवदद्वैतमात्रस्य व्योमोभावित्वात्कारणत्वं कार्यकाले स्वयमेवाजवतोऽकारणान्तरवत् का- त्पन्नतुल्यत्वात् सम्म। रणत्वयोगात् । कार्यस्य च कारणकाले प्रात्मनैवानवतः । कार्यान्तरवत् तत्कार्यत्वानुपपत्तेः कणिकस्य च प्रमाणाविषयत्वान्न तत्र जे संतवाए दोसा, सकोलूया वयंति संखाणं । कार्यकारणभावकल्पनायुक्तिसङ्गता न चानुपलब्धेऽपि तत्र कार- संखाए असव्वाए, तेसि सव्वे पि ते सच्चा ।। णनावाव्यवस्थाऽतिप्रसङ्गान्न चरणकयमीकमाणोऽपि सदृशा- यानेकान्तसद्वादपके ब्यास्तिकाज्युपगमपदार्थान्युपगमे शापरापरोत्पत्त्यादिवन्नोपनकयतीति वक्तव्यं यतो नाध्यक्कात् क- क्योलूका दोषान्वदन्ति सांख्यानां क्रियागुणव्यपदेशोपलम्यादिणक्यसकणस्तत्र कार्यकारण जावं व्यवस्थापयितुं शक्नोति प्रसङ्गादिलकणास्ते सर्वेऽपि तेषां सत्या श्त्येवं संबन्धः कार्यः । नाप्यनुमानात कणिकत्वं व्यवस्थापयितुं समर्थस्तस्य स्वांश- ते च दोषा एवं सत्याः स्युः । यद्यन्यनिरपेकतयाज्युपगतपदामात्रावलम्बितया वस्तुविषयत्वायोगात् । न च मिथ्याविकल्प-| र्थप्रतिपादकं तच्छास्त्रं मिथ्या स्यात् नान्यथा प्रागपि कार्यावस्थानाभ्यवसितं कणिकत्वं वस्तुनो व्यवस्थापितं नवति यदप्यक्त- त एकान्तेन तत्सत्वनिवन्धनत्वात्तेषामन्यथा कथंचित्सत्वे अनेपिके क्रमयोगपद्याज्यामर्थक्रियाविरोधादित्यायुक्तं तदपि स. कान्तवादापत्तेर्दोषान्नाव एव स्यात् । सांख्या अप्यसत्कार्यदोहकारिसविधानवशावकणिकस्य क्रमेणार्थक्रियां निर्वतयतो. पानसदकरणादीन यान् वदन्ति ते सर्वे तेषां सत्या एव एकान्ता ज्युक्तमेव । यदप्युक्तं तत्करणस्वनावश्चेदकणिकः प्रागेव तत्कर- सति कारणाभावात् अन्यथा शशशृङ्गादेरवि कारणव्यापारादुणप्रसङ्गः पश्चादिति स्वजावाविशेषादिति तदप्ययुक्तं यतो न वै त्पतिः स्यात् । अथ शशशृङ्गस्य कारणाभावः अस्यन्तानावरूपकिंचिदेकं जनकं सामग्रीतः फलोत्पत्तेः । अवणिकश्च सामग्री- त्वात् तस्य इति चेत् तदेव कुतः कारणाभावादिति चेत्सोऽयसन्निधानापेक्या कार्यनिर्वर्तनस्वनावः केवबस्तु तदकरणस्व- मितरेतराश्रयदोषो घटादीनामपि च मृत्पिएमाषस्थायामसत्वेऽजावः न च तदा भावि कार्याकरणादवस्तुत्वप्रसक्तेरत एकत्र | पि कुतः कारणसद्भावः प्रागसत्वादेव तत्र कारणसद्भावः सति कारणान्तरापेक्कानपेक्वाभ्यां जनकत्वाजनकत्वेऽविरुके यतो न | कारणव्यापारासम्नवादिति चेत् । असदेतत् घटस्य मृत्पिएमाव Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९९३ ) अभिधानराजेन्द्रः | कज्जकारणभाव स्थायां सत्ये भागन व स्थायोगाद खत्वेऽपिस्य तद नुपपतेः श्रथास्योत्पत्तिगान स्पेति नेतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । तथा हि यावदस्य प्रागभावत्वं न तावदुत्पत्तिसिद्धिः यावच्च नोत्पत्तिसिद्धिर्न तावत्प्रागभावित्वसिद्धिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्यम् अथ कारणस्य कार्यशून्यताप्रागन्नावः प्रागेव सिद्धः सतत् अकारणस्यापि कार्यशून्योपलम्भात् तत्संबन्धात् घटस्य तत्कार्यताप्रसक्तेः । तथा हि यस्य प्रागभावित्वं तस्य कार्यता तच्च कार्यशून्यं पदार्थान्तरं कारकाभिमतादन्यत् । अपि च तत् प्रागभावस्वभावं प्राप्तं तत्संबन्धेन व घटादेः शशशृङ्गादिव्यवच्छेदेन कार्यता श्रभ्युपगतेति सूत्रपिण्डकार्यतापि घटस्येवं भवेत् न च तदन्वयव्यतिरेकस्तस्यैव तत्र प्रतिभासनात् । न च कारणस्वरूपमेव प्रागभावो निर्विशेषणस्य स्वरूपमात्रस्य कार्येऽपि सद्भावात् । तस्यापि प्रागभावरूपताप्रसक्तेः तथा प्रतीत्यभावात् न तद्रूपतेतितन प्रतीति मात्रादनपेक्षात् वस्तुस्वरूपाद्वस्तुव्यवस्थायोगात् । ततो मृत्यादिरूपतया वस्तु गृह्यते अध्यक्षादिना न पुन स्तद्व्यतिरिककारणादिरूपतायास्तस्यास्तत्राप्रतिभासनात्। प्रतिमासनेऽपि विशिष्ट कार्यापेक्षया कारणत्वस्य प्रतिपक्षी का प्रतिमासमन्तरेण तस्याप्रतीतेरसतस्तदानीं कार्यस्याप्रतिभासनात् प्रत्यक्षस्यासग्राहकत्वेन भ्रान्तता प्रसक्तेः । तदा तत्कार्यस्य सत्वशक्तिः स्यादिति । कथमसति कारणव्यापारः प्रतीयेत तन्नासतः कार्यत्वं युक्तम् । नाप्यसत्कारणं कार्ये तदानीमसति कारणे तस्य तस्य तत्कृतत्वायोगात् वमात्रावयायिनः कारणस्य भाव मात्र व्यवस्थितेत्यत्र व्यापारायोगात् । अथ - दनन्तरं कार्यस्य भावात् प्रागभावित्वमात्रमेव कारणस्य व्यापार असदेत समस्तभावलक्षणानन्तरं विवक्षितकार्यस्य सद्भावात् सर्वेषां तत् सर्वकाल भावित्वस्य भावात् तत्कारणरासकः । अथ सर्वभावक्षणाभावेऽपि तदभावे इति न तस्य तत्कार्यता नविकेषु भावेषु विपक्षिताभाव एव सर्वत्र दि बादाध्यासितकार्यसद्भावात्तदपेक्षयाऽपि तस्य कार्यता भवे क्षणिकस्य कार्यस्य सद्भावेऽपि पुनमेधनसंभव स्य तदेव भावादन्यदा कदाचिदप्यभावान्न च विशिष्टभावज्ञणधर्मानुविधानातस्य तत्कार्यताव्यवस्था सर्वथा चतर्मानुविधाने तस्य तस्य कारणरूपतापतेस्तत्प्राक्कालावता तत्कार्यताम्यतिक्रमात्। कथंचिद्धर्माविधाने अनेकान्तवादापतेर सत्कारणं कार्यमित्यभ्यु पगमव्याघातात् । अथ सन्तानापेक्षः कार्यकारणभाव इत्ययमदोषो न सन्तानस्य पूर्वापराध्यतिरेकेणाभावात् भावे वा तस्यैव कार्यकारणरूपस्यार्थकियासामर्थ्यात् सत्वं स्यान्न क्षणानामर्थक्रियासामर्थ्याविकलतया नवेत् । अथ तत्संबन्धिनः सन्तानस्य कार्यकारणत्वे तेषामपि कार्यकारणभावो न भिन्न कार्यकारणभावादपरस्य संबन्धस्याभावात्सन्तानस्य च सर्वजगत्कणानन्तरजावित्वेन सर्व सन्तानताप्रसक्तिः स्यात् । किं च तस्यापि नित्यत्वे कृणकायेत्वे सत्कार्यवादसनिः णिकत्वे चान्याप्रस्तिस्प सत्कार्यासतिरेक कार्यतानिबन्धनं कणिकपड़े संजयतीति प्रतिपादितमेव न चानाप्यपरसन्तानप्रकल्पनया कार्यकारणजावप्रकल्पनं 'युक्तममवस्थाप्रसक्तेः । तथा हि सन्तानस्यापि कार्यताभ्युपगमे कणिकत्वान्न कार्यरूपताः सन्ता कज्जकारणभाव नान्तरमत्रापि कार्यतानिबन्धनमभ्युपगन्तव्यं तत्रापि च ऋणिकरवे कार्यताप्रसिद्धेस्तन्निबन्धनमपरं सन्तानान्तरमभ्युपगमनीयमित्यनवस्था परिस्रव किंच शिकावायुपगमादिनो यदि जिन्नातो सत्यमभिमतं तदा तत्कार्यस्याप्यपरकायदयात् सत्यसिद्धिरित्यनवस्थाप्रशक्तेर्न कचित् सत्वन्यवस्था स्यादिति कुतस्तद्व्यवच्छेदेनासत्कार्यमिति व्यपदेशः । अथ ज्ञानलक्षणकार्य सद्भावातोः सत्वव्यवस्थितिः । ननु ज्ञानस्थापि कथं यत्ताव्यवस्थापकत्वं हयकार्यत्वादिति चेत्नु किं तेनैव ज्ञानेन ज्ञेयकार्यता स्वात्मनः प्रतीयेत उत ज्ञानान्तरेण न ताय तस्य प्रागसत्याप वा तत्कार्यतावगतिः । अथ ज्ञानकालत्वेऽपि ज्ञानस्य शेयकायेता नवेयमविशेषायस्यापि हानकार्यतायगतिः स्यादिति राययस्थापकं प्रसज्येत। न च समानको स्तम्भकुम्भयोः कार्यकारणती पन्त प्रकृतेऽपि सा न स्यादध केवलस्यापि कु मनस्य टरकार्यता नस्यापि केवलस्य ऐकानि स्तस्य ततोऽन्यत्वव्य निचार इति चेत् । ननु कुम्नोऽपि कुतोऽन्यः सन नवेद प्रत्यभिज्ञासमानं निस्वतायनस्यैव भवेदिति तत्कार्यवाद। न च प्राय निहा नवतः प्रमाणं पूर्यापररूपाधिकरणका न हि पूर्वापरप्रत्ययान्यामपरपूर्वरूपतः नाप्येप्रत्ययेन पूर्वापर रुपद्वयस्य क्रमेण ग्रह एकस्याक्रमस्य क्रमवद्रूपग्राहकतयाऽप्रवृ तेः । न च स्मरणस्य द्वयोर्वृत्तिः संभवति न वास्य प्रमाणता नच पूर्वापरस्य क्रमेण ग्रह एकस्याक्रमस्य क्रमवद्रूप ग्रह कतया प्रवृत्तेः न च स्मरणस्य द्वयोः प्रत्यययोः परस्परपरिहारेण वृत्तौ तत उत्पद्यमाने मरणमेकत्वस्य वेदकं गुरुम। तग्राहिता णरूपताप्रशक्तेः । न चात्माऽप्येकत्वमवैति प्रत्यकादप्रमाणवशेनावेदकत्वात्तस्य चैकाच प्रमाणनिरपेक ग्राहकः स्थापमद सूयवस्थामपि तस्य तादकत्वोपपतेः॥ तथाप्येकचिमाणा प्रसिद्धं ताकयेन तस्या प्रतीतेः । न च बौरूस्यात्मा अन्यथा वस्तु नित्यमस्ति कणिकाः सर्वसंस्कारा इति वचनात्त तेनैवात्मनः प्रमेय कार्यकाल नाप्यनेन तस्यापि स्वप्रमेयकायगती प्रागवृत्तितयाऽसामर्थ्या त्। तत्रणमपि कार्य हेतोः खत व्यवस्थापयितुं समये कणिकान्तवादे अध्यकस्य यथोक्तन्यायेन पौर्वापर्ये अप्रवृशेरत एव मानुमानस्यापि पर्यापर्ने प्रवृत्तिस्तस्य पूर्वका प्रत्यक्षाप्रति पये परसोकादावियार्थविकल्पनामात्रत्वेन सर्वनस्याभ्युपगमात् तना सत्कार्यवादः प्रमाणसङ्गतः। सत्कार्यवाद स्तु प्रागेव निरस्तत्यादयुक्त एव तयादि नित्यस्य कार्यकारि त्वं तत्र स्यात्तच्चायुक्तं नित्यस्य व्यतिरेकाप्रसिकितः कार्यकार सामर्थ्यासिके । न हि सर्वदेशाधिनः कचित्का व्यापारविरक्षिणः सामर्थ्यमवगन्तुं शक्यम् अथ सर्वदेशाच्या पिनस्तस्य तत्र सामर्थ्यं प्रविष्यति तदसयतः सर्वदेशा ज्यातिः तस्य तथा प्रतीतेर्यद्यवसीयते सर्वकाला व्याप्तिरपि तस्य तत वाच्युपगमनीया स्यात् । अभ्युपगम्यते एवेति चेन्नन्वेवं कतिपदेशकाला हिरण्यप्रतिपतेरेवानुपपत्तेः निरंशेकरूपता जावानां समायाता । न च तदेवं कार्यजनकता प्राक् प्रतिक्तिवाचकान्तमित्ययापकापके प्रमाणप्रवृत्तिरित्यत प्रति पादितमन वासति कार्ये निर्विषयत्वात्कारणव्यापारसंवाद सत्येव तत्र तेषां व्यापारोऽतो न दृष्ट्वा श्रुत्वा ज्ञात्वा वा हेतूनां कार्ये व्यापारस्तेषां जगत्यने संजवात् । न चार Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९४) कज्जकारणभाव अभिधानराजेन्द्रः। कज्जकारणभाव इयमाना जमेश्वरादिहेतुकमकृष्टोत्पत्तिकं नूरुहादि संजवतीति | बन्धित्वेऽप्यवयविनस्तथा भावाभावात्। अथावयविनोऽपि विभिप्राक प्रतिपादितेन चासतः कार्यस्य विज्ञानं न ग्राहक- मानेकरूपसंबन्धित्वमभ्युपगम्यते तथापि चित्रैकरूपप्रतिज्ञासामसत्पकादिबुके प्रवृत्तेः । अन्यथा कथं कार्यार्थप्रतिपादिता नुपपत्तिरनेकरूपसंबन्धित्वस्यैव तत्र सद्भावात्सूत्रध्याघातश्चैवं चोदना भवेत् । किं च यदि सत्येव काय कारणव्यापार- स्यात् । अविनुनि द्रव्ये समानेन्द्रियग्राह्याणां विशेषगुणानामस्तदोत्पन्नेऽपि घटादिकायें कारणव्यापारादनवरतं तनुत्पत्तिप्र- संभवादिति सूत्रेणानिधानात् । श्रव्यापके पटादिजव्ये एकेन्छिसक्तिस्तत्राविशेषात् । अथानियक्तत्वानोत्पन्ने पुनरुत्पत्तिरुत्पत्ते- यग्राह्याणां शुक्रादीनां विशेषगुणानामसंभवोऽनेन सूत्रेण प्रतिरतिव्यक्तिरूपत्वात् तस्याश्च प्रथमकारणव्यापारादेव निवृत्तत्वात पादितः स च ब्याइन्यत । किं च शुक्कादीनामेकत्र पटादाबनेकनन्वभिव्यक्तिरपि यदि व्यज्यमानैवोत्पद्यते उत्पन्नाऽपि पुनः स्वरूपाणां सद्भावान्युपगमे व्याप्यवृत्तित्वमव्याप्यवृत्तित्वं वा। पुनरुत्पद्येत । अथाविद्यमाना तदा असमुत्पत्तिप्रसक्तिन चाभि- अव्याप्यवृत्तित्वे शेषाणामाश्रयव्यापित्वमिति विरुध्येत । पाश्रयव्यक्तावष्यसत्यां कार्य श्व कारणव्यापारोऽज्युपगन्तुं युक्तः । व्यापित्वेऽप्येकावयवसहितेऽप्यवयविन्युपलज्यमाने अपरावयस्वसिद्धान्तप्रकोपप्रसङ्गातं । अथ सतः कारणात् कार्यमिति स वानुपलब्धावप्यनेकरूपप्रतिपत्तिः स्यात् सर्वरूपाणामाश्रयव्याकार्यवादोऽसतो हेतुत्वायोगात् तथाऽज्युपगमे वा शशशृङ्गादे पित्वात् । अथ शुक्लाद्यनेकाकारं चित्रमेकं तद्रूपं यथा शुक्लादिरपि पदार्थोत्पत्तिप्रसक्तिरत्यन्ताजावप्रागभावयोरसत्वेनाविशे को रूपविशेषः कथं तानेकाकारमेकरूपविरुकं भवेत् । चित्रपात् । न च प्रागभावी पासीदिति हेतुत्यन्ताभावीति वक्त करूपाभ्युपगमस्य चित्रतरत्वात् । अथ चित्रैकरूपस्य तस्य प्रव्यं यतो यदा न हेतुरन्यदा हेतुरिति प्रसक्तस्ततश्चदं प्रसक्तम् । त्यक्केण प्रतीतेन विरोधस्तर्हि सदसपैकरूपतया कार्यकारणरूअसन् हेतुः संश्चाहेतुरिति ततः सन्नेव हेतुस्तस्य कार्ये व्या पस्य वस्तुनः प्रतिपत्तौ विरोधः कथं भवेन च चित्रपटादाबपारात् । नासंस्तत्र तदयोगादतदप्यस यतः सतोऽपि कारण पास्तशुक्लादिविशेष रूपमात्रं तपक्षम्भान्यथानुपपत्त्यास्तीत्यस्य प्राक्तनरूपापरित्यागात न कार्य प्रति हेतुता प्राक्तनावस्थाव ज्युपगन्तव्यं चित्ररूपः पट इति प्रतिभासावप्रसक्तेः । अथ परत् । अथ तदा व्यापारायोगाकेतुताऽसदेतहापारेण कार्य प्रति स्परविरुद्धानां शुक्लादिरूपाणां चित्रैकरूपानारम्नकत्वमेव कारतस्य हेतुत्वे सोऽपि व्यापारः कुतस्तस्येति पर्यनुयोगासंभवा- णगुणानामित्यज्युपगमः शुक्लाजुक्लमित्यादिप्रतीतेः कथं तहि दू व्यापारवत्पदार्थत्वात् । ननु तत्रापि व्यापारोऽयं परब्यापारात् कारणगतक्शुक्लादिरूपाविशेषेभ्यः कार्यरूपमात्रस्यापास्ततद्विशेतदा व्यापारपरम्पराव्यवहितत्वात् कारणस्य न कदाचित्कार्यो- षस्योत्पत्तिवेत् तेज्यस्तस्यासमानत्वात् । अथ तमतरूपमात्रेत्पादने प्रवृत्तिः स्यात् अनन्तरव्यापारापरम्परापर्यवसानं यावत् ज्यस्तदूपमात्रस्योत्पत्तेन दोषोऽसदेतत् शुक्मादिरूपविशेषव्यकस्यचिदनवस्थानादसतः कारणात् कार्योत्पत्तिश्च स्यात् । तिरेकेण रूपत्वादिसामान्यमपहाय रूपमात्रस्यास्याभावात भथ कारणस्वरूपमेव व्यापारस्तत्काल एव कार्य तेन नानवस्था- सामान्यस्य च नित्यत्वेनाजन्यत्वान्न च रूपमात्रीनबन्धनश्चित्रनाप्यततः कारणात्कायोत्पत्तिः । नन्वेवं कारणसमानकाले का- रूपः पट इति प्रतिनासो युक्तः शुक्लादिप्रत्ययस्यापि तन्निवयै स्यात् तथा च सव्येतरगोविषाणवत् कुतः कार्यकारणभा- न्धनत्वेन शुक्वादिरूपविशेषस्याप्यन्नावप्रसक्तेः । न चावयवगतवाथ कार्यभावकाले कारणस्य न सदभावस्तर्हि चिरतरन- चित्ररूपात् पटादिचित्रप्रतिजासोऽवयवेष्वपि तपासंनवात ष्टादिवत्तत्कालावंसिनोऽपि कुतः कार्यसद्भावः कार्योत्पत्तिकाले। न चान्यरूपस्यान्यत्र विशिष्टप्रतिपत्तिजनकत्वं पृथिवीगततदनन्तरभाविनः सत्ता चेत्तर्हि कार्योत्पत्तिः । कार्योन्नतिकार्य- चित्ररूपमात्रमेव तत्र स्यात् वितौ रूपमनेकप्रकारमिति विरुध्येत कारणयोः समानकालता च स्यात् । तथा कुतः कार्यकारणभा- अनेकप्रकारं हि शुक्लत्वादिभेदनिन्नमुच्यते रूपमात्रं च शुक्लादोन च सतः कारणतः कार्योत्पत्तिरित्यज्युपगमवादिनः का- दिविशेषरहितं तस्य शुक्लादिविशेषेष्वनन्तर्भावात् कथं न विर्योत्पत्तिकाले कारणस्य सत्वं बौकस्यैव सिमविचलितरूपस्य रोधः। यदापि शुक्वाद्यनेकप्रकाररूपाभ्युपगमे किती तत्र विशेच तस्य सद्भावे तदापि न कार्यवत्त्वाविकलकारणत्वात् ।। पपरिदाराभिधानं किनाविभुनिऽव्ये समानेन्द्रियग्राह्याणां विशेप्राग्वत् तदा तद्वत्त्वे वा पूर्वमपि तद्वत्वं स्यादविकलकारणत्वात्। षगुणानामेकाकाराणामसंभवो न त्वनेकाकाराणां तेषामुपलम्जातदवस्थावन्नैकान्तसत्कार्यवादोऽसत्कार्यवादो वा युक्तोऽनेक- तु एकाकाराणामेकत्र बहूनां सद्भावे एकेनैव शुक्लादिप्रतिपत्तेजदोषष्टत्वात् । अथैकान्तेन सदसतोरजन्यत्वादजनकत्वाञ्च का- नितत्वादपरतद्भदकल्पनावैयर्थ्यप्रसङ्गान्न तदभ्युपगमः । न चैर्यकारणभावानावात् । सर्वशून्यतैव तक्तमयुक्तं सर्वमिति चे- वमनेकाकाराणामिति तदप्यसंगतं व्याप्याव्याप्यवृत्तित्वविकत्यादिना कथंचित् सदसतोर्जन्यत्वाच्च । न चैकस्यैव सद- ल्पद्वयेऽपि दोषप्रतिपादनात् । अथ याप्यवृत्तित्वेन विरोधदोषः सद्रूपत्वं विरुकं कथंचिद्भिन्ननिमित्त-पक्कस्य सदसत्वस्यै- शेषाणामाश्रयव्यापित्वमेवेत्यवधारणानभ्युपगमात् नन्वेवं सूकत्राबाधिताध्यक्तः प्रतिपत्तेर्न चाध्यक्के प्रतिपन्ने वस्तु- क्मविवरप्रतिष्ठालोकोद्योतितान्यतरपटविभागवृत्तिरूपदेशस्य प्रनि विरोधोऽन्यथैकचित्रपटे ज्ञाने चित्ररूपतायाचित्रपटे च चि- तिपत्तौ यदि तदारज्य पटावयविनः प्रतिपत्तिस्तदाधेयाशेषशुत्रैकरूपस्य को विरोधः स्यात् तथा च अक्वायनेकप्रकारं पृथि- क्लादिरूपप्रतिपत्तिरपि नवेत् । आधेयप्रतिपत्तिमन्तरेण तदाव्या रूपमिति वैशेषिकस्य विरुकानिधानं जवेत । अथ तदवयवानां धारत्वस्य प्रतिपत्नुमसक्तेः । न चान्यतरान्यतमरूपाधारधब्यबाक्साधनेकरूपयोगिताऽवयविनस्त्वेकमेव रूपं तत्तदवयवाना- तिरिक्तं तस्य तदन्यरूपाधारत्वमनेकमनेकस्वभावयोगिनः पटमप्यवयवित्वेनानेकप्रकारकप्रतियोगित्वविरोधात् । अथ प्रत्ये- स्थानेकत्वप्रसक्तेः स्वभावनेदसवणत्वाद्वस्तुनेदस्यान्यथा तदकमवयवेषु शुक्मादिकमेकैकं रूपं तर्हि तदवयवादिष्वप्येकैकमे- योगात् । तदनेकत्वेऽपि तस्यैकत्वे कथं नानेकाकारमेकं स्यात् । वरूपं यावत् परमाणव इतिविभिन्नघटपटादिपदाथेष्विवचित्र- अथ तत्प्रतिपत्तौ भवेद् विप्रतिपत्तिस्तहि निराधारस्य रूपस्य पटे नीलपीत शुक्लरूपा पते भावा इति प्रतिपत्तिः स्यातून पुन- प्रतिपत्तो गुणरूपता विशीर्यत व्याश्रयादिलक्षणयोगित्वात्तचित्ररूपः पट श्त्यवयवावयविनोरन्ययात् अवयवानामनकरूपसं-- स्य न च तद्पताप्रतिपत्ती तलवणयोगिता तस्यावगन्तुं शक्या Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) कज्जकारणभाव अन्निधानराजेन्द्रः। कजकारणभाव प्रमेयव्यवस्थायाः प्रमाणाधीनत्वात् अणुपरिमाणयोगित्वे चाल्प- तौ द्रव्यपास्तिकनयौ भजनया परस्परस्वन्नावाविनानूतततरपटादिरूपस्य परमाणोरिवाऽव्यरूपताप्रसक्तिस्तस्यैव तद्यो- योपनीती सदसद्रूपैकान्तव्यवच्छेदेन तदात्मकैककार्यकारणागित्वात् मत पवैकावयवसहितस्य पटस्यैवोपक्षम्नात् एकरूपो- दिवस्तुप्रतिपादकत्वेनोपयोजितौ यदा भवतस्तदा सम्यग्दर्शपक्षम्नेऽप्याश्रयाव्यापितया शेषरूपाणामनुपलम्नाश्च प्रतिभासा- नमनुत्तरं नास्त्यस्मादन्यपुत्तरं प्रधानं यस्मिस्तत्तथाभूतं नवतः जाव इति यत्तं तदपि निरस्तम् एकरूपोपाध्यपकाराङ्गशक्य- परस्पराविनिर्भागवर्तिव्यपर्यायात्मकैकवस्तुतत्वविषयरुच्याजिन्नस्य पटद्रव्यस्यानिश्चयात्मनाऽध्यक्केपेण ग्रहणे अशेष- त्मकबोधितावबोधस्वन्नावत्वात् । यदात्वन्योऽन्यनिरपक्तव्यपरूपोपाध्युपकारकशक्यनिन्नात्मनस्तस्यैकरूपतया प्रहणात् यायप्रतिपादकत्वेनोपनीतौ नवतो न तदा सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते । उपकार्यग्रहणमन्तरेणोपकारकत्वग्रहणस्यासंभवात् । शक्ती- यस्मात् संसारनाविजन्मादिःखविमोक्कमात्यन्तिकं च श्लेषं नां ततो भेदे संबन्धासिद्धेरपरोपकारकशक्तिप्रकल्पनायामनव- द्वावपि ती प्रत्येकंन विधत्तः मिथ्याज्ञानात्सम्यगक्रियाभतया श्रा स्थाप्रसक्तः कथं नाशेषोपकार्यरूपप्रतिभासाश्चित्रप्रतिभासप्र- त्यन्तिकनवोपजवानिवृत्यसिकिः। तद्विपर्ययकारणत्वात् । तचासक्तिः। एतेन तन्तूनां नीलाद्यनेकरूपसंबन्धित्वात् पटेऽप्यनेक- सकृत्प्राक् प्रतिपादितमिति न पुनः प्रतन्यते ततः कारणात्कार्य रूपारम्भकत्वेन किंचित्साधकं प्रमाणं कारणगुणपूर्वप्रक्रमेण कथंचिदन्यदत एव सदसदूपतया सच्चासचेत्यमुमेवार्थमुपसंतथाविधस्य रूपस्योत्पादादित्यपि प्रत्युक्तम् । एकावयवप्रति- हारद्धारेणोपदर्शयन्नाह । भासे चित्रप्रतिभासोत्पत्तिप्रसङ्गस्यैव बाधकत्वात् । यदपि भ पत्थि पुढवीविसिडो, घडोत्ति जं तेण जुज एगेण । वतु वा एकं पटे चित्रं रूपं नीलादिरूपैरेकरूपभावात् । यथा। हि शुक्लादिर्विशेषो रूपस्य तथा चित्रमपि रूपविशेष एव जं तुप घडत्ति पुव्वं,ण आसि पुढवी तो अम्मा १४८ चित्रशब्दवाच्य इति तदूपगतमेव । अनेकाकारस्यैकत्वे चित्र। नास्ति व्यनूतपृथ्वीत्वादिन्यो विशिष्टो भिन्नो घटः सदादिकशब्दवाच्यत्वे याभ्युपगम्यमाने सदसदनेकाकारानुगतस्यै- व्यतिरिक्तं स्वभावतया तस्यानुपरम्नात् ।किं च यदि सत्वादयो कस्य कारणादिशब्दवाच्यत्वेनाभ्युपगमाविरोधात् । यथा च धर्मा घटादेकान्ततो भिन्नाः सोऽपि वा तेच्यो निन्नः स्यासदा बहूनां तन्त्वादिगतनीलादिरूपाणां पटगतैकचित्ररूपारम्भक- न घटस्य सदन्वितत्वं स्यात् । स्वतोऽसदादेरन्यधर्मयोगेऽपि त्वं दृष्टवादविरुद्धं तथाऽनेकाकारस्यैकरूपत्वं वस्तुनो रटत्वा- शशशृङ्गादेरिव तदयोगात् । सदादेरपि घटाद्याकारादाद्यन्तनेदे देव विरुद्धमभ्युपगन्तव्यमत एवैकानेकरूपत्वाश्चित्ररूपस्यैका- निराकारतयाऽत्यन्तानावस्येवोपनम्नविषयत्वायोगात् । शेयत्वघयवसहितेऽवयविन्युपलभ्यमाने शेषावयवावरणे चित्रप्रति- प्रमेयत्वादिधर्माणामपि सदादिधर्मेभ्यो नेदे असत्वं सदसदादेभासाभाव उपपत्तिमान् । सर्वथात्वे तत्रापि चित्रप्रतिभासः | स्तु तेच्यो भेदे शेयत्वादसत्वमेवोपनम्नः सत्तेति वचनात् ततः स्यात् अवयविव्याश्या तदूपस्य वृत्तेर्न चावयवनानारूपोपल- सदादिरूपतया उपनयमानत्वात् घटस्य तेयो निन्नरूपताम्भसहकारीन्द्रियमवयविनि चित्रप्रतिभासं जनयतीति तत्र न वनिनिभान जनयतीति न्युपगन्तव्या प्रमेयव्यवस्थितेः प्रमाणनिबन्धनात् । यत्पुनः पृथुसहकार्यभावात् । चित्रप्रतिभासानुत्पत्तिरिति वाक्यमवयवि- बुध्नोदराद्याकारतया पूर्व सदादि नासीत् ततोऽसावन्यस्तेच्यो मोऽप्यनुपलब्धिप्रसन्नात् न हि चाक्षुषप्रतिपत्या गृह्यमाणरूप- घटरूपतया प्राक् सदादेरनुपक्षम्नात् प्रागपि तद्रूपस्य सदादा तयाऽवयविनोवायोरिव ग्रहणं दृष्टं न च चित्ररूपव्यतिरेकेणा- अनुपलम्भायोगातू | दृश्यानुपलम्नस्य वा जावव्यभिचारित्वापरं तत्र रूपमात्रमस्ति यतस्तत्प्रतिपत्त्या पटग्रहणं भवेत् । न इतपतायां च विरोधाऽनावात् प्रतीयमानायां तदयोगादबाधिचावयवरूपोपलम्भोऽवयविरूपप्रतिपत्तौ अक्षिसहकारी तद्भा- तप्रत्ययस्य च मिथ्यात्यासंजनावाधानिरहस्य च प्रागेवोपपादिवेवा तदवयवरूपोपलम्भाक्षिसहकारीति तमन्तरेण न स्यादि- तत्वात् सदेकान्तवादवत् । सम्म० । ति पूर्वपूर्वावयवरूपोपलम्भापक्षपरमाणुरूपोपलम्भाभावात् । सदसत्कार्यवादश्च केषांचिन्नयानां सत् केषांचिदसदिति सतज्जन्यदयणुकाद्यवयविरूपोपलम्भासंभवात् । न क्वचिदपि कसने सदसत्कार्यवाद इत्येवं भाष्यकृद् व्याख्यानयति । कपोपलब्धिः स्यात्तदभावे च नावयन्युपलब्धिरिति तदाश्रित सम्मत्तनाणरहिअस्स-नाणमुप्पज्जइ त्ति ववहारो। पदार्थानामप्युपलम्भाभावात् सर्वप्रतिभासाभावः स्यात् । तत एकानेकस्वभावं चित्रपटरूपवद्वस्त्वभ्युपगन्तव्यम् ॥ वैशेषि नेच्छा य न उ जासइ, नप्पज्जडू तेहिं सहियस्स ।। कण बौकेनापि चित्रपटप्रतिभासस्यैकानेकरूपतामभ्युपगच्छ पातनयैव व्याख्याता अन तावद्यवहारो निश्चयस्य दूषणमाह । ता एकानेकरूपं वस्त्वभ्युपगतमेव । श्रथ प्रतिभासोऽप्येकाने ववहारनयं जायं, न जायए भावो कयघडो व्च । करूपो नाभ्युपगम्यते तहि सर्वथा प्रतिनासाभावः स्यादित्य- अह वा कयं पि कज्जइ, कजउ निचं नयसमत्ती ॥ सकृदावेदितं तत एकान्ततोऽसति कार्ये न करणव्यापारस्तेमा यदि हन्त ? सम्यग्दृष्टिकोनी च सम्यक्त्वज्ञाने प्रतिपद्यत इति भ्युपगन्तव्योऽसति तत्र तदन्नावात् । नापि सति मृत्पिण्डे त त्वयाऽज्युपगम्यते तर्हि जातमपि तत्सम्यक्त्वं ज्ञानं चासौ पुनरमन्तरेणापि ततः प्रागेव निष्पन्नत्वात् न च मृत्पिण्डे कारक- प्यत्पादयतीति सामर्थ्यादापन्नम् न च जातं विद्यमानं पुनरपि व्यापारः पृथुबुनोदराद्याकारता प्रतिपद्यत इति कारकव्यापार- जायते न केनापि ततः क्रियत इत्यर्थः । कुत इत्याह । जावतोफलयोरैक्यविषयत्वे अनेकान्तवादसिद्धिस्तस्मात् द्रव्यास्तिक- विद्यमानत्वात्पूर्वनिष्पन्नघटवदित्येतद्यवहारनयमतमसत्कार्य-- पर्यायास्तिकाभ्यां केवलाभ्यां सहिताभ्यामन्योऽन्यनिरपेक्षाभ्यां वादित्वात्तस्य प्रमाणयति चासौ यद्विद्यमानं तन्न केनचिकिम्यवस्थापितं वस्त्वसत्यमिति तत्प्रतिपादकं शास्त्रं सर्व मिथ्ये यते यथा पूर्वनिष्पन्नो घटः विद्यमाने च सम्यग्दष्टेः सम्यक्त्वति व्यवस्थितम। अमुमेवार्थमन्वयव्यतिरेकाभ्यां द्रढीकर्तुमाह कानेऽतो न तत्करणमुपपद्यते । अथ कृतमपि क्रियते तदि क्रिते न भयणोवणीया, सम्मदसमगुत्तरं होति । यतां नित्यमपीति कियानुपरमप्रसङ्गः न चैवं सत्येकस्यापि जं भवदुक्खविमोक्रखं, दो दिन पुरोतिपाडेकं ।।१४७॥ कार्यस्य कदापि परिसमाप्तिरिति प्रस्तुतस्यानिनिबोधिकस्यापि Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कज्जकारणभाव अनिधानराजेन्डः। कजकारणभाव प्रतिप्रत्यनवस्थेति । अपि च यदि कृतमपि क्रियते तदाऽन्येऽपि सत्वाद्यविशेषान्न चैवमेकस्यापि कार्यनिष्पत्तियुज्यते स्वरविषादोषाः । क इत्याह । णकल्पेवा सति कार्ये समुत्पाद्य क्रियावैकल्यमित्यादि कि तुल्या किरियाइवेफनं वि य-पुन्चमजूयं च दीसए होतं । एवासति कार्येऽमी दोषा नेत्याह । कटतरा बा दुष्परिहार्या वा। दीस दीहो य जहा, किरियाकानो घडाणं सतो हि कार्यस्य केनापि पर्यायविशेषेण करणं संभवत्यपि यदि कृतमपि क्रियत इत्यज्युपगम्यते तर्हि घटादिकार्ये - लोकेऽपि सतामाकाशादीनां पर्यायविशेषाधानापेकया कारण स्य रूढत्वात्तथा च तत्र वक्तारः समुपलभ्यन्ते " आकाशं कुरु त्पाद्ये क्रियायाश्चक्रन्चमणादिकाया वैफल्यं निरर्थकता प्राप्नोति। पृष्ठं कुरु पादौ कुर्वित्यादि" खरविषाणकल्पे त्वसति कार्ये न केकार्यस्य प्रागेव सत्त्वात् । किं चाध्यकविरोधः सत्कार्यवादे यतः नापि प्रकारण करणं संभवति । ततः कष्टतरास्तत्राऽमी दोषा पूर्वमृत्पिएमावस्थायामभूतमविद्यमानं पश्चानु कुम्भकारादिव्यापारे घटादिकार्य नवजायमानं दृश्यतेऽतः कथमुच्यते सत्प इति नावः । ययुक्तं "पुष्वमन्यं च दीसप होतमिति" तत्राह। द्यते इति यस्मिन्नेव समये प्रारज्यते तस्मिन्नेव निष्पद्यतेऽतो। (पुत्रमित्यादि) उत्पत्तः पूर्व च यद्यनूतं सर्वथाऽविद्यमानं कार्यनिष्पन्नमेव तत् क्रियते । क्रियाकालनिष्ठाकारयोरजेदादिति चे मुत्पद्यत इतीप्यते तहि ते तव मतेन किं खरविषाणमपि पूर्व. नैवम् । कुत इत्याह (दीसइत्यादि) दीर्घोऽसंख्येयसामयिको मतूतं पश्चात्पद्यमानं न दृश्यते प्रागसत्वाविशेषादिति यदुक्तम् घटादीनामुत्पद्यमानानां क्रियाकालो लगन्नालोक्यते यस्मात्ततो "दीस दोहोय जहा किरियाकामो इति" तत्राह । न यस्मिन्नेव समये घटादि प्रारज्यो तस्मिन्नेव समये निष्पद्य पइसमउप्परमाणं, परोप्परविलक्खणाण सुबहणं । ते मृदानयनतपिएमविधानचकारोपणशिवकादिविधानादिचि- दीहो किरियाकालो, जश्दीस किं च कुंजस्स ॥ रकालेनैव तत्पत्तिरिति । नवतु दीर्घक्रियाकालः कार्य चार- समये समये प्रत्युत्पन्नानां परस्परविवकणानां सुबहूनामसंम्भसमयेऽप्युपलभ्यत इत्याह । ख्येयानां मृत्खननसंहरणपिटकरासनपृष्ठारोपणावतारणाम्भ:नारंभे चित्र दीसइ, न सिवादकाए दीसइ तदंते । सेचनपरिमर्दनपिएडविधाननमणचकारोपणशिवकस्थासकोयह न समणाइ काटे, नाणं जुत्तं तदंतम्मि ५७। शकुसूत्रादिकार्याणामिति शेषः । यदि दी? काधीयान् क्रिया कालो दृश्यते तर्हि किमत्र हन्त? कुम्नस्य घटस्यायातम् । श्दमुयदि क्रियाप्रथमसमय पव कार्य निष्पद्येत तदा तत्तत्रैवोपनज्येत । न चारम्भसमय एव तद्दश्यते । नापि शिवकाद्यझायां कं भवति प्रतिसमयं निन्ना पव क्रियाः भिन्नान्येव च मृत्पि एमशिवकादीनि कार्याणि घटस्तु चरमैकक्रियाकणमात्रन्नाव्यष। शिवकास्थासकोशकुसलादिका क तर्हि दृश्यत इत्याह । - ततश्च प्रतिसमयनिन्नानामनेककार्याणां यदि दीर्घः क्रियाकालो इयते घटादिकार्य तस्य दीर्घक्रियाकालस्यान्तः परिसमाप्तिस्तदन्तस्तम्मिन्निति । तस्मात क्रियाकाअपर्यन्त एव तस्य सत्वं भवति तर्हि चरमैकक्रियाकणमात्रनाविनि घटे दीर्घक्रियाकायुज्यते न तु पूर्वमुपक्षज्यमानत्वात् । यस्मादेवमित्यतो न गुरु लप्रेरणं परस्याइतामेव सूचयतीति। यदुक्तं "नारंभे रिचय दीससन्निधाने सिकान्तश्रमणचिन्तने हननादिक्रियाकाले ज्ञानमाभि ईत्यादि" तत्राह। निबोधिकं युक्तं किं तु तस्य श्रमणादिक्रियाकालस्यान्तस्तदन्त- अस्मारंभे अां, कह दीस जह घमो पडारने। स्तस्मिन्नेव तयुक्तं तत्रैवोपनत्यमानत्वादिति प्रस्तुतोपयोगः । सिवकादो न घटओ, किह दीसइ सो तददाए । तदेवं न क्रियाकाले कार्यमस्त्यनुपलभ्यमानत्वातिक तु तन्निष्ठा इह "नारंने चिय दीस" इत्यत्र नवतोऽयमभिप्रायो यचुत मृकाझ पव तदरित तत्रैवोपलन्यमानत्वात्ततीन प्रतिपाद्यमानं प्र. चक्रचीवरकुम्भकारादिसामन्याः प्रथमेऽपि प्रवृत्तिसमये । तिपन्न कार्य क्रियाकाल पव तस्य प्रतिपद्यमानत्वान्निष्ठाकान घटः किं नोपाज्यतेऽनुपलम्भाञ्चायमसंस्तत्र पश्चात्पद्यते । एएव च प्रतिपन्नत्वात् । क्रियाकाबनिष्ठाकालयोश्चात्यन्तं भेदात्त तच्चायुक्तमेव यतो न प्रथमे प्रारम्भसमये घटः प्रारब्धः किं तु स्मास्मिथ्याहटिरज्ञानी चसम्यक्त्वज्ञाने प्रतिपद्यते न सम्यम्दृष्टिआनी इति व्यवहारनयः । चक्रमस्तकमृत्पिएमारोपणादीन्येवारब्धानि अन्यारम्भे चान्य कथं दृश्यते न दृश्यत एवेत्यर्थः। यथा पटारम्भ घटः । यमुक्तं अत्र निश्चयनयः प्रतिविधानमाह। "न सिवादकापत्ति" तत्राद "सिवकादो त्यादि" शिवकादिनिच्छाओ नाजायं, जाय अभावत्तो खपुष्पं च ।। काले घटो न दृश्यत इत्युक्तं तदेतद्युक्तमेव यतः शिवकादयो अह व अजायं जायइ, जायउ तो खरविसाणंपिए घटो न नवनवतो यत एव शिवकादिकालोऽसौ अतः तदबायां निश्चये जवो नैश्चयिको नयः प्राह । यथा जातं न जायते कृत. तत्काले कथमसौ घटो दृश्यतामन्यारम्नकालेऽन्यस्य दर्शनाघटवदिति जवता असत्कार्यवादिनाऽनिधीयते तथा वयमपि नुपपत्तेरिति । यदुक्तं "दीस तदंतम्मि" इति तत्राह । सत्कार्यवादिनो बूमः । नाजातं जायते अत्रेकारलोपः। नाऽविद्य- अंतिच्चिय प्रारको, ज दीसइ तम्मि चेव को दोसो। मानमुत्पद्यत इति प्रतिज्ञा अभावत्वादविद्यमानत्वादिति हेतुःख- अकयं व संपइ गए, किह किरइ किह व एसम्मि ।। पुष्पवदिति दृष्टान्तः। अथमपि विपर्यये बाधामाह। अथाजातमाप अन्त्य एव क्रियाक्वणे प्रारब्धो यदि घटस्तस्मिन्नेव दृश्यते तर्हि जायते जायतां ततः स्वरविषाणमपि अभावाविशेषादिति। अपिच निचकिरिया दोसा, नणु तुदा असइ कट्टतरगा वा। को दोषो न कश्चिदित्यर्थः। अतः किमुच्यते। यतोऽन्यसमय एवो पलभ्यते नान्यत्र ततोऽयं पूर्वमसन्नेव क्रियत इति स हि पूर्व प्र. पुचमभूयं च न ते, दीसह किं खरविसाणे वि॥श्या थमादिक्रियाकणेषु नारब्धो न च दृश्यते । अन्त्ये तु क्रियाक्षणे ननु नित्यकरणादयः सत्कार्यवादे ये दोषाः प्रदत्तास्ते भस- | प्रारब्धो दश्यते च तस्मिन् क्रियासमये क्रियमाणः कृत एव सति कार्ये असत्कार्यवादेऽपीत्यर्थः। तुल्याःसमानास्तथा त्रा- मयस्य निरन्तत्वात यश्च कृतं तत्सदेव ततः सदेव क्रियते नासत् पि शक्यते वक्तुं यद्यसक्रियते तर्दि क्रियतां नित्यमेव अ- | यच सत्तमुपलभ्यत एवेति स्थितम् । अथ यस्मिन्समये क्रियमाणं Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) कज्जकारणभाव अभिधानराजेन्द्रः। कज्जकारणभाव तस्मिन्नेव कृतं नेष्यते तत्राह(अकय वेत्यादि)अकृतं घासंप्रतिसमये नन्ताः स्कन्धा अनन्तप्रदेशास्ततश्च ते क्रमेण प्रतिसमयमेव चक्रियमाणसमये यदीप्यते तर्हि ततेऽतीते समये कथं क्रियतां लन्ति तत्र योऽसावाद्यचलनसमयस्तस्मिंश्चलदेव तश्चसितमुतस्य विनष्टत्वेनासत्वात्कथं वा इष्यत भविष्यत्यन्तरागामिनि समये च्यते कथं पुनस्तवर्तमानं सदतीतं भवतीत्यत्रोच्यते यथा पट क्रियतां तस्याप्यनुत्पनत्वेन असत्वादेव । अथ व्यवहारषादी सत्पद्यमानकाले प्रथमतन्तुप्रवेशे उत्पद्यमान एवोत्पन्नो भव यात्क्रियासमयः सर्वोऽपि क्रियमाणकालः तत्र च क्रियमाणं तीति उत्पद्यमानत्वं च तस्य प्रथमतन्तुप्रवेशकालादारज्य पट वस्तु नास्त्येव उपरतायां तु क्रियायां योऽनन्तरसमयः स कृत- अत्पद्यत इत्येवं व्यपदेशदर्शनात्प्रसिम्मेवोत्पन्नत्वं तूपपत्त्या प्रकाबस्तत्रैव कार्यनिष्पत्तेरतः कृतमेव कृतमुच्यते न क्रियमाण- सान्यते । तथा हि उत्पत्तिक्रियाकाब एव प्रथमसन्तुप्रवेशेमिति । साध्वेतत्कि त्विदं प्रष्टव्योऽसि किं नवतः क्रियया कार्य ऽसावुत्पन्नो यदि पुनर्नोत्पन्नोऽनविण्यत्तदा तस्याः क्रियाया क्रियतेऽक्रियया वा । यदि क्रियया तर्हि कथमियमन्यत्र कार्य वैयर्थ्यमभविष्यन्निष्फलत्वादुत्पाद्योत्पादनार्था हि क्रिया जयत्वन्यप्रेति न हि खदिरे गंदनक्रिया पत्राशे तु तत्कार्यनूतच्छद इ न्ति यथा च प्रथमे क्रियाकणे नासावुत्पन्नस्तथोत्तरेष्वपि कस्युच्यमानं शोभां बिभर्ति । किं च क्रियाकाले कार्य न भवति णेष्वनुत्पन्न एवासौ प्राप्नोति । को ह्यत्तरकणक्रियाणामात्मनि पश्चात्तु भवतीत्यनेनैतदापद्यते यदुत क्रियैव हतका सर्वानर्थमूस- रूपविशेषो येन प्रथमसमये नोत्पन्नस्तदुत्तराभिस्तूत्पाद्यते।अतः मेपा कार्यस्योरिषत्सोर्विघ्नहेतुत्वाद्यावयेषा प्रवर्तते तावद्वराकं सर्वदैवानुत्पत्तिप्रसङ्गः दृष्टा चोत्पत्तिरन्त्यतन्तुप्रवेशे पटस्य कार्य नोत्पद्यते अतः प्रत्युतासौ तस्य विनततैव ततस्त्वदभिप्रा- दर्शनात् । अतः प्रथमतन्तुप्रवेशकाल एव किश्चिदुत्पन्नं पटस्य यण विपर्यस्ततयैव प्रेक्कावन्त एतान् प्रारम्भन्त इति क्रियैव । यावश्चोत्पन्न न तऽत्तरक्रिययोत्पाद्यते । यदि पुनरुपायेत तदा कार्य करोति केवलं तद्विरामे तनिष्पद्यत इति चेत्तर्हि हन्त !| तदेकदेशोत्पादन एव क्रियाणां कालानाञ्च क्वयः स्यात् यदि हि कस्तस्यास्थ विरोधो येन तत् कुर्वन्त्या अध्यस्यास्तत्कालमतिवा- तदंशोत्पादननिरपेका अन्याः क्रिया भवन्ति तदोत्तरांशानुक्रमणं ह्य पश्चानिप्पद्यते न पुनस्तत्कालेऽपि क्रियोपरमेऽपि जायमानं युज्येत नान्यथा तदेवं यथा पट उत्पद्यमान एवोत्पन्नस्तथैवाकार्यम् । तदनारम्भेऽपि कस्मान्न भवति क्रियानारम्भतपरम- संख्येयसमयपरिमाणत्वाऽदयावलिकाया आदिसमयात्प्रभृति योरर्थतोऽनिन्नत्वादिति । अथाक्रिययेति द्वितीयः पक्कस्तर्हि हि- चरदेव कर्मचसितम् । कथं यतो यदि हि तत्कर्म चलनानिमु मवन्मेरुसमुकादिवत् घटादयोऽध्यकृतका एव प्राप्तास्तद्वत्तेषा- सीनूतमुदयावलिकाया अादिसमय एव न चलितं स्यात्तदा मपि कारणनूतक्रियामन्तरेणैव प्रवृत्तेः। तपःस्वाध्यायादिक्रिया- तस्याद्यस्य चलनसमयस्य वैयर्थ्यं स्यात्तत्राचलितत्वात् यथा च विधानं च मोकादीन् प्रति साध्वादीनामनर्थकमेव स्यात् क्रिया- तस्मिन् समये न चलितं तथा द्वितीयादिसमयेष्वपि न चलेत मन्तरेणैव सर्वकार्योत्पत्तेः अतः तूष्णीभावमास्थाय निष्परिस्पन्द- को हि तेषामात्मनि रूपविशेषो येन प्रथमसमये न चलितमुत्तरेषु नानिनिराकुमानि तिष्ठन्तु त्रीएयपि चुवनानि क्रियारम्भविरहेणा- चलतीति।अतः सर्वदैवाचनप्रसङ्गः। अस्ति चान्त्ये समवे चरनं प्यैहिकामुमिकसमस्तसमीहितसिकेः । न चैवं तस्माक्रियैव स्थितिपरिमितत्वेन कर्माभावान्युपगमात् अत आवलिकाकासाकार्यस्य की तत्काल एव च तद्भवति न पुनस्तदुपरमेऽतः दिसमय एव किश्चिश्वलितं यच्च तस्मिंश्चलितं तन्नोत्तरेषु समक्रियमाणमेव कृतमिति स्थितम् । विशे० प्रा०म०प्र० । निश्चित येषु चलति यदि तु तेष्वपि तदेवाचं चलनम्नवेत्तदा तस्मिन्नेवं चैतत्तयाविधसूत्रोपसम्भात् । तथा हि । चलने सर्वेषामुदयावनिकाचानसमयानां क्यः स्यात् । यदि दि से गुणं भंते ! चलमाणे चलिऐ१ उदीरिजमाणे उ तत्समयचलननिरपेकाण्यन्यसमयचलनानि भवन्ति तदोत्त दीरिए २ वेदिज्जमाणे वेदिए ३ पहेजमाणे पहीणे । रचलनानुक्रमणं युज्येत नान्यथा तदेवं चनदपि तत्कर्म चलि तम्भवतीति ॥१॥ तथा (उदीरिजमाणे नदीरिएत्ति ) उदीबिजमाणे निये ५ निज्जमाणे निम्मे ६ दज्जमाणे दरू | रणा नाम अनुदयप्राप्तं चिरेणागामिना कालेन यद्वेदितव्यं कर्म७ मिन्जमाणे ममे ८ णिज्जिरिजमाणे णिजिले ए इंता दसिकं तस्य विशिष्टाध्यवसायसवणेन करणेनाकृष्योदये प्रोपगोयमा!चलमाणे चलिए जावाणिजरिजमाणे णिज्जिये।। णं सा चासङ्खधेयसमयवर्तिनी तया च पुनरुदीरणया उदीरणाअथ केनाजिप्रायेण जगवता सुधर्मस्वामिना पञ्चमाङ्गप्रथमश प्रथमसमय एवोदीर्यमाणं कर्म पूर्वोक्तपटदृष्टान्तेनोदीरितम्न वतीति ॥ २॥ तथा ( वेइज्जमाणे वेश्पत्ति ) वेदनं कर्मणो नोतकप्रथमोद्देशकस्यार्थानुकथनं कुर्वतैवमर्थवाचकं सूत्रमुपन्यस्तं गोऽनुनय श्त्यर्थस्तच वेदनं स्थितिकवाऽदयप्राप्तस्य कर्मण नान्यानीति ? अत्रोच्यते इह चतुषु पुरुषगर्थेषु मोकाख्यः पुरुषा उदीरणाकरणेन चोदयमुपनीतस्य भवति तस्य च वेदनाकाथों मुख्यः सर्वातिशायित्वात् तस्य च मोकस्य साध्यस्य सा सस्थासङ्खधेयसमयत्वादाधसमये वेद्यमानमेव चेदितम्भवतीति। धनानां च सम्यग्दर्शनादीनां साधनत्वेनाव्यभिचारिणामुभयनि ॥ ३ ॥ तथा । (पहेजमाणे पहीणेत्ति) प्रहीणं तु जीवप्रदेशैः यमस्य शासनाच्यास्त्रं सद्भिरिष्यते । उभयनियमस्त्येवं सम्यग सह संश्लिष्टस्य कर्मणस्तयः पतनमेतदप्यसंख्येसमयपरिमादर्शनादीनि मोकस्यैव साध्यस्य साधनानि नान्यस्यार्थस्य मो. णमेव तस्य तु प्रहीणस्यादिसमये प्रहीयमाणं कर्म प्रहीणं स्याकश्च तेषामेष साधनानां साध्यो नान्येषामिति । स च मोको दिति ॥ ४ ॥ तथा (बिजमाणे वित्ति)। दनं तु कर्मणो विपककयात्तद्विपक्षश्च बन्धः स च मुख्यः कर्मभिरात्मनः स. दीर्घकासानां स्थितीनां हस्वताकरणं तच्चापवर्तनान्निधानेन कम्बन्धस्तेषां तु कर्मणां प्रकयेऽयमनुक्रम उक्तः "चत्रमाणे इत्या रणविशेषेण करोति । तदपि च वेदनमसंख्येयसमयमेष तस्य दि" तत्र (चममाणत्ति)।चलत् स्थितिकृयाउदयमागच्चत. स्वादिसमये स्थितितश्विद्यमानं कर्म चिन्नमिति ॥५॥ तथा । बिपाकाभिमुखीभवद्यत्कर्मेति प्रकरणगम्यम् तच्चलितमुदित- (निज्जमाणे भिमत्ति) नेदस्तु कर्मणः गुन्जस्याशुजस्य मिति व्यपदिश्यते । चमनकालो ह्यदयावलिका तस्य च काल- वा तीवरसस्यापवर्तनाकरणेन मन्दताकरणं मन्दस्य चोहर्तनास्यासङ्ख्थेयसमयरवादादिमध्यान्तयोगित्वं कर्मपुस्लानामप्य- करणेन तीव्रताकरणं सोऽपि चासंख्येयसमय एव ततश्च तदा. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2000) निधानराजेन्द्रः । कज्जकारण नाव समये रसतो निद्यमानं कर्म निम्नमिति ॥ ६ ॥ तथा । ( दप्रमाणे ति दाहस्तु कर्मकलिकारूणां ध्यानाग्निना - दूपापनयनम कर्मत्वजननमित्यर्थः । तथा हि काष्ठस्याग्निना दग्धस्य काष्ठरूपापनयनं जस्मात्मना व जवनं दाहस्तथा कर्ममोऽपीति तस्याप्यन्त मुंह से पतिं चेतासंस्थेयसमयस्यादिसमये दह्यमानं दग्धमिति ॥ ७ ॥ तथा ( मिजमाणे ममेति ) त्रियमाणमायुः कर्म मृतमिति मरणं मां यस्तश्चासंख्येय समयवत्तिं भवति तस्य च जन्मनः प्रथमसमयादारभ्यार्थी चिकमरणेनानु मरणस्य भावान्प्रियमाणं मृत मिति ॥ ८ ॥ तथा । (जिरिजमाणे णिजिन्ति ) निर्जीर्यमाणं नितरामपुनवेन की समान निर्जीर्ण कीणमिति व्यपदिश्यते निर्जरणस्यासंख्येयसमयभावित्वेन तत्प्रथमसमय एव प नियतिले नियोपपद्यमानत्वादिति पत व सर्वपदेषु सम्जावनिको वाच्यः ॥ ६ ॥ तदेवमेतान्नव प्रश्नान गौतमेन जगवता भगवान् महावीरः पृष्टः सम्मुवाच । (दन्तेत्यादि ) अथ कस्माद्भगवन्तं गौतमः पृच्छते विरचि द्वादशाङ्गतया विदिततविषयत्वेन निखिल संशयातीतत्वेन च सर्वज्ञकल्पत्वात्तस्य श्राह च "संखाईए उ भवे, साद६ जं वा परो उ पुच्छ्रेज्जा । पयणं प्रणाश्सेवी, बियाण 99 रोति ॥ १॥ नैवमुक्तगुणत्वेऽपि उपस्थतया मनोग सम्भवात् । यदाह न हि नामानाभोगा, बद्मस्थस्येह कस्यचिन्नास्ति । यस्माज्ज्ञानावरणं, ज्ञानावरणप्रकृतिकर्मेति ॥ १ ॥ श्र थवा जानत एव तस्य प्रश्नः सम्भवति स्वर्क। यबोध संवादनामोगा शिष्याणां या स्ववासित्पादनार्थ सूत्ररचनाकल्पसम्पादनार्थे चेति तत्र ( हंता ! गोयमेत्ति ) इन्त इति कोमामाची मायदेशी आपला इत्यादि) प्रत्युधारन्तु वे चलित्यादीनां स्यानुपदार्थमा पुनराः "ला! गोपमा ! इत्यत्र हुन् ति एवमेनदित्यन्युपगमप य नामात्यादिप्रत्युरितमिति यात् ज्यानि पानि प्रतीतान्येव वमेतानि गय पदानि कर्माधिक मानसीका समानाधिकर जिज्ञासा पृष्ठानि नित नितान्येवानादीनि परस्परतः किं तुल्यनि नार्थानि वेति पृच्छां नियं च दर्शयितुमाह् । एएणं भंते! नवपदा किं एगडा गालाबोसा पाणावंजया उदाहु पाणड्डा णाणाघोसा णाखावंजणा। गोयमा ! चलमाणे चलिए उदीरिज्जमाणे उदीरिए वेइज्जमाणे वेइए पहेामाणे पट्टीने एवं पचारिपया एका खाणाघोसा खाणारंजणा उप्पा पक्रस विजमाणे हि निज्जमाणे जिणे दज्जमाणे दढे मिजमाण मए पिज्जरिज्ज - माणे शिजिये एवं पंच पदा खाण्डा गालापोसा णागावंजणा विगयपक्खस्स । "एएण नंते" इत्यादि व्यक्तं नवरम् । (एगट्ठत्ति ) एकार्थान्यनन्यविषयाणि एकप्रयोजनानि वा नाणा घो उदात्तादयः । ( नाणा वंजणेत्ति ) इह व्यञ्जनान्यक्कराणि । (उदाहुति) उताहो निपातो विकल्पार्थः (नाणठन्ति) भिन्नाभिधेयानि इह च चतुर्भङ्गी पदेषु दृष्टा । तत्र च कानिचिदेकार्थान्येकव्यञ्जनानि यथा कीरं कीरमित्यादीनि ||१|| तथाऽन्यानि एकार्थानि कज्जकारण जाव नानाव्यञ्जनानि यथा कीरं पय इत्यादीनि ॥ २ ॥ तथाऽनेकार्थान्येकव्यञ्जनानि यथाऽकंगव्यमाहिषाणि कीराणि ॥ ३ ॥ त धान्यानि नानार्थानि नामान्यजनानि यथा घटपटाि ॥ ४ ॥ तदेवं चतुर्भङ्गाखनवेऽपि चतुर्थभङ्गको प्रश्नसूत्रे गृहीत परिश्यमानानाय्य जनतया तदन्ययोरसम्माव निर्वाचनसूत्रे चनादीनि चत्वारि पद्वितीयः विद्यमानादीनि तु पञ्च पदान्याश्रित्य चतुर्थ इति । ननु चलि तादीनामर्थानां व्यकामानि चत्वारि पान्येका नागा (पति) उत्पाद भावे चप्रत्ययात्तस्य पक्षः परिग्रहोऽङ्गीकारः पपरिग्रह इति चातुपाचादिति उत्पपास्तृतीयात् दुत्पन्नपण उत्पादाङ्गीकारेण उत्पादाख्यं पर्यायं परिगृहकाश्रीन्येतान्युच्यन्ते । अथवा उत्पन्नपकस्य उत्पादाख्य वस्तु विकल्पस्थानिपायकानीतिशेषः सर्वेषामेवमुत्पादमात्यैकार्यकारि स्यादेकान्तमुतं मध्यभाषित्वेन तुल्यकारत्वार्थिकार्थिकत्वमिति भावः । स पुनरुत्पादाभ्यः पर्यायो विशिष्टः केवलोत्पाद एव यतः कर्मचिन्तायाङ्कर्म्मणः प्रहाणे फलध्यं केवलज्ञानमोक्षप्राप्ती तत्रैतानि पदानि केशादविषयत्यादेकार्यान्युक्तानि परमाद के वलज्ञानपर्यायो जीवेन न कदाचिदपि प्राप्तपूर्वो यस्माच्च प्रधानस्ततस्तदर्थ एव पुरुषप्रयातस्तस्मात्स एवं केनोपलिप पोऽभ्युपगतः एषाञ्च पदानामेकार्थानामपि सतामयम सामर्थ्यप्रापितक्रमो यदुत पूर्वन्तश्चलति उदेतीत्यर्थः । उदितञ्च वेद्यते अनुभूयतयर्थः । तथ दिया स्थितिकादयामु दारणा चयमुपनीतं भवानन्तरं सफ वाशीवादायातीत्यर्थः पश टीकाकारमतेन व्याख्यातमन्ये तु ध्यायान्ति स्थितियन्वाचार्य दोषित सामान्यकम्पत्वादेकार्थिकान्येतानि केवलोत्पादपकस्य च साधकानीति चत्वारि चना पदान्येार्थिकानीन्यु के शेषाण्यनेकाकिनीति सा मर्थ्याद वगतमा सुखावबोधाय साक्षात्प्रतिपादयितुमाह । “ि आमात्यादिपर्क नगरं ( नागति) नानार्थानि नामार्थत्वं स्वयं विद्यमानंविषमित्येतस्य स्थितिबन्धाश्रयं यतः सयोगिके अनन्तकाले योगनिरोधक दीयनामगोत्रायान तिसृणां प्रकृतीनां दीर्घकालस्थितिकानां सर्वापचत्यन्तमि कं स्थितिपरिमाणं करोति । तथा भिद्यमानं निनामित्येतत्पदमदुनावबन्धाय तत्र परिस्थितियातं करोति तस्मि नेव काले रसघातमपि करोति केवलं रसघातः स्थितिखएमकेन्यः क्रमप्रवृत्ते ज्योऽनन्तगुणाज्यधिकोऽतोऽनेन रसघातकरपेन पूर्वस्माद्यार्थ भयति तथा दमानं यमित्येतत्पदं प्रदेशका प्रदेशयन्धवनन्तानामनन्तप्रदेशानां स्कन्धानां मेवापाद प्रदेशबन्ध कर्मणः सत्पा रोच्चारण कालपरिमाणया संख्यातसमयया गुणश्रेणी रचना पूर्व रवितानां लेश्मस्थानादिसमुद्धिप्रक्रियामा प्रथम समयादारभ्य यावदन्त्य समयस्तावत्प्रतिसमयं क्रमेणासंख्यगुणानां कर्मपुमानां दहन दादोन नार्थ ने पूर्वस्मा त्पाद निन्नार्थे पदं भवति दादश्चान्यत्रान्यथा रूढोऽपीह मोक्षचिन्ताधिकारान्मोकसाधन उक्त्तलकण कर्मविषय एव प्राह्य इति । तथा त्रियमाणं मृतमित्येतत्पदमायुः कर्मविषयं यत श्रायुकानां प्रतिसमयं कृपो मरणमने च मरणार्थेन पूर्वपदेयो भिन्नार्यत्वाद्भिन्नार्थ पदं भवति तथा म्रियमाणं मृतमित्यनेनायुःको पतः कर्मे बिसी स्युच्यते कर्मिय Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१ ) कग्जकारणन्नाव अभिधानराजेन्डः। कज्जकारणनाव जीवादपगच्छन्नियत इत्युच्यते । तच्च मरणं सामान्येनोक्तमपि जमाबिचरिते च वेदनाभिन्नूतो जमानिः संस्तारकसंस्तविशिष्टमेवान्युपगन्तव्यं यतः संसारवर्सीनि मरणान्यनेकशोऽ- रणायााप्य तैरातः श्रमणैः संस्तृते प्रारूपयत् । नजूतानि दुःखरूपाणि चेति कि तैमरणरिद पुनः पदे पुन- सेज्जासंथारए किं कमेकजा ताणं समणा णिमाया नयं मरणमन्त्यं सर्वकर्मक्षयसहचरितमपवर्गहेतुनूतमिति । तं जमालि अणगारं एवं वयासी । णो खलु देवाणुप्पिया विवक्तितमिति । तथा निर्जीयमाणं निर्जीर्णमित्येतत्पदं सर्वकर्माभावविषयं यतः सर्वकर्मनि रणं न कदाचिदप्यनुभूतपू. णं सेज्जा संथारर कडे कज्जइ तए णं तस्स जमालिस्स वै जीवनेति अतोऽनेन सर्वकर्मानावरूपनिर्जरणार्थेन पूर्वपदेच्यो अणगारस्स अयमेयारूवे अन्नत्थिए जाव समुप्पजित्था जिन्नार्थत्वाभिन्नार्थ पदं भवति । अथैतानि पदानि विशेषतो ना जं णं समणे जगवं महावीरे एवमाइक्वइ जाव एवं परूनार्थान्यपि सन्ति सामान्यतः कस्य पक्कस्यानिधायकतया प्रवृ वेई एवं खबु चलमाणे चलिए नदीरिज्जमाणे उदीरिए तानीत्यस्यामाशङ्कायामाह (विगयपक्खस्सत्ति) विगतं विग जावणिजरिज्जमाणे णिजिले तं णं मिच्छा इमं च एणं मो वस्तुनोऽवस्थान्तरापेकया विनाशः स एव पक्को वस्तुधर्मस्तस्य वा पकः परिग्रहो विगतपक्कस्य वाचकानीति शेषः । पञ्चक्खमेव दीसा सेजा संथारए कज्जमाणे अकडे संथाविगतं विहाशेषकर्मानावोनिमतो जीवेन तस्याप्राप्तपूर्व रिज्जमाणे असंयरिए जम्हा णं सेज्जासंथारए कज्जमागे यतोऽत्यन्तमुपादेयत्वात्तदर्थत्वाच्च पुरुषप्रयासस्येति पतानि अकडे संथरिज्जमाणे असंथरिए तम्हा चलमाणे वि अचैवं बिगमार्थानि भवन्ति । छिद्यमानपदे हि स्थितिखएमनं विगम उक्तो, निधमानपदे त्वनुभावनेदो विगमो, दद्य चलिए जाव णिज्जरिज्जमाणे वि अणिजिले एवं संपेहे मानपदे स्वकर्मताजवन विगमो, म्रियमाणपदे पुनरायुष्का- संपेहेपत्ता समणे णिग्गंथे सदावेइ सदावेत्ता एवं वयासी भावो विगमो निर्जीयमाणपदे त्वशेषकर्माभावो चिगम, उ- जं पं देवाणुप्पिया ! समणे नगवं महावीरे एवमाइक्ख क्तस्तदेवमेतानि विगतपक्षस्य प्रतिपादकानीत्युच्यन्ते । ए जाव परूवेई एवं खलु चलमाणे चलिए तं चेव सव्वं जाव वश्च यत्पञ्चमाङ्गादिसूत्रोपन्यासे प्रेरितं यदुत केनाभिप्रायेणेदं णिज्जरिन्जमाणे अणिज्जिले तए एं तस्स जमालिस्स असूत्रमुपन्यस्तमिति तत्केवलज्ञानोत्पादसर्वकर्मविगमानिधानरूपसूत्राभिप्रायव्याख्यानेन निर्णीतमिति, पतत्सूत्रसंवादिसिकसे. णगारस्स एनमाइक्खमाणस्स जाव परूवेमाणस्स अत्येगनाचार्योऽप्याह “उप्पजमाणकावं, उप्पन्नं विगयं वि गतं । झ्या समणा णिगंथा एयमढे सदहति पत्तियंति रोयंति दवियं पम्मवयंतो, तिकाविसयं विसेसेत्ति ॥ १ ॥ उत्पद्य अत्येगइया समणा णिग्गंया एयमझु णो सदहंति णोपमानकासमित्यनेन आद्यसमयादारज्योत्पत्यन्तसमयं यावदुत्प नियंति णो रोयंति ॥ द्यमानत्वस्येष्ठत्वाद्वर्तमाननविष्यत्काविषयं द्रव्यमुक्तमुत्पन्नमित्यनेन तु प्रतीतकानविषयमेवं विगतं विगच्छदित्यनेनापीति गाढतरं ( किं कमे कजात्ति) किं निष्पन्न मत निष्पद्यते अततश्चोत्पद्यमानादि प्रज्ञापयन सभगवान् द्रव्यं विशेषयति । कथं | नेनातीतकालनिर्देशेन वर्तमानकालनिर्देशन च कृतक्रियमाणयोत्रिकासविषयं यया भवतीति संवादगाथार्थः । अन्ये तु कर्मेति द उक्तः । उत्तरेऽप्येवमेव तदेवं संस्तारककर्तृसाधुभिरपि पदस्य सूत्रेऽननिधानाचलनादिपदानि सामान्येन व्याख्यान्ति क्रियमाणस्थाकृततोक्ता ततश्चासौ स्वकीयवचनसंस्तारक कर्तृन कर्मापेक्वयैव तथा हि ( चलमाणे चक्षिपत्ति ) श्ह चलनम साधुवचनयोविमर्शात्प्ररूपितवान् क्रियमाणं कृतं यदन्युपगम्यते स्थिरत्वपर्यायेण वस्तुन उत्पादः (वेजमाणे वेश्एत्ति ) व्ये- तन्न सङ्गच्छते यहो येन क्रियमाणं कृतमित्यज्युपगतं तेन विद्यभ्यमानं कम्पमानं व्येजितं कम्पितमेज कम्पन ति वचनात् व्ये- मानस्य करणक्रिया प्रतिपन्ना तथा च बहवो दोषास्तथा हि यजनमपि तपापेक्योत्पाद एव ( उदीरिजमाणे नदीरिएत्ति ) स्कृतं तरिक्रयमाणं न जवति विद्यमानत्याश्चिरन्तनघटवत् । अथ श्होदीरणं स्थिरस्य सतःप्रेरणं तदपि चननमेव ( पहेजमाणे कृतमपि क्रियते ततः क्रियतां नित्यं कृतत्वात्प्रथमसमय श्वेति न पहीणेत्ति) प्रहीयमाणं प्रनुश्यन् परिपतदित्यर्थः प्रहीणं प्रष्ट च क्रियासमाप्तिनबति सर्वदा क्रियमाणत्वादिसमयवदिति । परिपतितमित्यर्थः । श्हापि प्रहीण चमनमेव चलनादीनां चै- तथा यदि क्रियमाणं कृतं स्यात्तदा क्रियावैफल्यं स्यादकृतविषय कार्थत्यं सर्वेषां गत्यर्थत्वात् ( उप्पामपक्खस्सति) चलनत्वादि- एव तस्याः सफलत्वात् यथा पूर्वमसदेव भवद् दृश्यते इत्यध्यक्तना पर्यायेणोत्पन्नत्वसवणपक्कस्यानिधायकान्येतानीति तथा छे. विरोधश्च । तथा घटादिकार्यनिष्पत्तौ दीर्घः क्रियाकालो दृश्यते दनददाहमरणनिर्जरणान्यकर्मार्थान्यपि व्याख्येयानि तयाण्यानं यतो नारम्भकास एव घटादिकार्य दृश्यते नापि स्थासादिकाझे च प्रतीतमेव जिन्नार्थता पुनरेषामेचं कुगरादिना लतादिविष- किं तर्हि तक्रियावसाने यतश्चैवं ततो न क्रियाकाले युक्तं कार्य वच्छेदस्तोमरादिना शरीरविषयो भेदोऽग्निना दावादिविषयो किं तु क्रियावसान एवेति ( भ. ए श. ३३ स० ) दाहो, मरणन्तु प्राणत्यागो, निर्जरा त्वतिपुराणी भवनमिति । | "अत्थेगश्या समणा निम्गंथा एयमटुं नो सद्दहंतिनि"।येच (विगयपक्खस्सत्ति) भिन्नार्थान्यपि सामान्यतो विनाशानि- न श्रद्दधति तेषां मतमिदं नाकृतमभूतमविद्यमानमित्यर्थः किधायकान्यतानीत्यर्थः । न च वक्तव्यं किमेतैश्वसनादिनिरिह नि- यते अभावात्खपुष्पवत् यदि पुनरकृतमप्यसदपीत्यर्थः क्रियते रूपितैरतस्वरूपत्वादेषामिति अतत्वरूपस्यासिकत्वात् तदसि- तदा खरविषाणमपि क्रियतामसत्वाविशेषात् । अपि च ये कृतरिश्च निश्चयनयमतेन वस्तुस्वरूपस्य प्रज्ञापयितुमारब्धत्वात्तथा करणपके नित्यक्रियादयो दोषा भणितास्तेऽसत्करणपक्केऽपि हि व्यवहारनयश्चशितमेघ चलितामति मन्यते निश्चयनयस्तु च- तुल्या वर्तन्ते । तथा हि नात्यन्तमसक्रियतेऽसद्भावात खरविषालदपि चलितम। अत्र बहुवक्तव्यं तश्च विशेषावश्यकादिहैवानि- गुमिव । श्रथ वात्यन्तासदपि क्रियते तदा नित्यं तत्करणप्रसङ्गो धास्यमानजमालिचरिताचावसेयमिति ॥ भ०१श.१०॥ नचात्यन्तासतः करणे क्रियासमाप्तिर्भवति तथात्यन्तासतः क. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००) कज्जकारणाभाव अभिधानराजन्यः। काजकारणभाव रणे क्रियविफल्यं च स्यादसत्वादेव खरविषाणवत् । अथवा वि- काझे तु शिवकादय पवारज्यन्तेऽन्यारम्ने चान्यन्न दृश्यते एवेति द्यमानस्य करणान्युपगमे नित्यक्रियादयो दोषाः कष्टतरका भ- व्यवहारवादी प्राह। वन्ति अत्यन्ताभावरूपत्वात् खरविषाण श्च, विद्यमानपके तु प- को चरमसमयनियमो, पढमे चिय तो न कीरए कज्ज । र्यायविशेषणार्पणात्स्यादपि क्रियाव्यपदेशो यथा याकाशं कुरु नाकारणंति कज, तं, तम्मि से समए । तथा च नित्यक्रियादयो दोषा न भवन्ति न पुनरयं न्यायोऽत्यन्ता प्रथमसमयादारज्य यद्यपरापराणि कार्याणयारज्यन्ते तार्ह सतिं खरविषाणादावस्तीति । यच्चोक्तं पूर्वमसदेवोत्पद्यमानं ह कोऽयं चरमसमयनियमोयेन विवक्तितं कार्य प्रथमसमय पवन श्यत शति प्रत्यक्षविरोधस्तत्रोच्यते यदि पूर्वमन्तं सद्भवद् ह क्रियते प्रकरणे च ततस्तत्तत्र न दृश्यते नन्यायकार्यवद्विवइयते तदा पूर्वमनूतं सद्भवत्कस्मात्त्वया खरविषाणमपि न दु-| कितमपि तत्रैव क्रियतां दृश्यतां चेति भावः । अत्र निश्वयः इयते यथोक्तं दीर्घः क्रियाकालो दृश्यते तत्रोच्यते प्रतिसमय प्रत्युत्तरमाह । नाकारणं कचित्कार्यमुत्पद्यते नित्यं सदसत्वप्रमुत्पन्नानां परस्परेण षड्विधवकणानां सुबह्वीनां स्थासकोशा सङ्गान्न च तत्कारणं (से) तस्य विवक्वितकार्यस्य तदन्त्यसदीनामारम्भसमयेष्वेव निष्ठानुयायिनीनां कार्यकोटीनां दीर्घः | मये पवास्ति न प्रथमादिसमयेष्वतो न तेषूत्पद्यते नापि रश्यक्रियाकालो यदि दृश्यते तदा किमन घटस्यायातं येनोच्यतेर त इति तदेवं क्रियाकाल एव कार्य जवति न पुनस्तदुपरमे इत्युइयते दीर्घश्व क्रियाकालो घटादीनामिति यश्चोक्तं नारम्भे एव | क्तम् । अथैवं नेष्यते तद प्रस्तुतमानिनियोधिकशानमेवाधिदृश्यते श्त्यादि । तत्रोच्यते कार्यान्तरारम्ने कार्यान्तरं कथं दृश्यतां कृत्योच्यते। पटारम्भे घटवत् । शिवकस्थासकादयश्च कार्यविशेषा घटस्व अप्पाए विन नाणं, जइ तो सो कस्स होइनप्पात्रो। रूपा न भवन्ति ततः शिवकादिकाले कथं घटो दृश्यतामिति ! तम्मि य जइ अप्पाणं, तो नाणं कम्मिकालम्मि ॥ किञ्च अन्त्यसमय एव घटः समारब्धस्तत्रैव च यद्यसौ दृश्यते तदा को दोषः । एवञ्च क्रियमाण एव कृतो जयति क्रियमाण उत्पादनमुत्पादः कार्यस्योत्पत्तिहेतुजूतः क्रियाविशेषस्तत्रापि समयस्य निरंशत्वात् । यदि च सम्प्रति समये क्रियाकालेऽप्य यदि मतिज्ञानं नेष्यते नवता क्रियमाणावस्थायामपि यदि कार्य कृतं वस्तु तदा अतिक्रान्ते कथं क्रियतां कथं वा एष्यति क्रि स्वया नाऽभ्युपगम्यत इति भावः । तर्हि सत्पाद्यमानस्यासत्वाययो उन्नयोरपि विनष्टत्वानुत्पन्नत्वेनासत्वादसम्बध्यमानत्वा त्स कस्योत्पादो जवत्विति कथ्यतां न ह्यविद्यमानस्य खरवित्तस्माक्रियाकाम पव क्रियमाणं कृतमिति । पादच "थेराणमयं | पाणस्यैवोत्यादो युक्तः यदि च तस्मिन् उत्पादकालेऽप्यज्ञानं नाकय-मनावओकीरप खपुष्पं च । अहव अकयं पि कीरइ, की-| तर्हि ज्ञानं कस्मिन् काले भविष्यतीति निवेद्यताम् । उत्पादोपरज तो खरबिसाणं पि" नश० १३ १० । इत्यादिविस्तरेण | रम इति चेन्ननु कथमन्यत्रोत्पादो ऽन्यत्र तूत्पन्नमिति । उत्पादोप्रत्यपादि (एष चैवार्थो गंगदत्तशब्दे परिणमन्तः पुजलाः परि परमे च भवत्कार्यमुत्पादात्प्रागपि कस्मान्न नवत्यविशेषादित्याणताः इत्यमायिदेवेन प्रतिपादितस्य भगवतानुमोदनात्पुष्टी धुक्तमेवेति यमुक्तम् " इय न सवेणाकाले नाणमिति" तबाह । भविष्यति) आह । ननु यदि क्रियासमयऽपि कार्य प्रवति को वसवणाइकालो, अप्पाश्रो जम्मि होज से नाणं । तर्हि तत्तत्र कस्मान्न दृश्यते एवेति चेन्नन्वहमपि किमिति सन्न नाएं च तदुप्पाओ, यदो विचरिमम्मि समयम्मि ।। पश्यामीत्याशङ्कयाह । वाच शब्दार्थे कश्च श्रवणादिकालो व्यवहारवादिन ! नवतोsपइसमयकजकोमी-निरविक्खो घमगयाभिलासोसि । निप्रेतो यत्र ज्ञानं निषेधयसि हन्त! त्वया मतिझानस्योत्पादसम य एव श्रवणादिकालोऽवगन्तव्यो यत्र (से ) तस्य शिष्यस्य पइसमयकजकालं, थूलमए घमम्मि लगएसि ॥ मतिज्ञाम नवेन्नापरः । अथादित आरज्य गुरुसन्निधाने धर्मइह ययस्मिन्समये प्रारज्यते तत्तत्र निष्पद्यते दृश्यते च के- श्रवणादय श्व मतिज्ञानस्योत्पादकालो नाऽपरोऽवगन्तव्य शति वसं स्यूला सूदमेक्षिकाबहितत्वाद्वादरदर्शिनी मतिर्यस्य तत्सं- चेन्नैवमित्याह । “नाण" मित्यादि ज्ञानं च मतिज्ञानबवणं तबोधनं हे स्थलमते! त्वं घटे अगसि किमित्याह । प्रतिसमयो- त्पादश्च तस्योत्पत्तिहेतुनूतः क्रियाशकणः एतौ द्वावपि धर्मश्रत्पन्नानां कार्यकोटीना कालः प्रतिसमयकालस्तं सर्वमपि घट- वणादिक्रियासमयराशेश्चरमसमय पव जवतो न प्रथमादिस. स्यैवायं समस्तोऽपि मृत्पिण्डविधानचक्रन्चमणादिक उत्पत्ति- मयेषु तेष्वपराणामेव धमीवबोधादिकार्याणामुत्पत्तेः । न च त. कान इत्येवमेकस्मिन्नेव घटे संघटयसीत्यर्थः। कथं जूतः सन्नि- द्वोधादिमात्रादपि सम्यम्झानोत्पत्तियुज्यते भव्येष्वपि तत्सद्भा. त्याही प्रतिसमयोत्पद्यमानासु मृत्पिण्मशिवकस्थासकोझादिका- वात्तस्माफिशिष्ट एव कस्मिंश्चिकर्मश्रवणादीमा चरमसमये सु सिद्धकेवलप्रभृतीनां झानजननादिकासु च कार्यकोटीपु नि- मतिज्ञानं तमुत्पादश्च अतो युक्तमुक्तम् “जुत्तं न दत्तमिति" |श्ररपेक्तः कुतः पुनरेतदित्याह । यतो घटगताभिलाषोऽसि त्वं स्माभिरपि क्रियाकालस्यान्तसमये एव तस्येष्यमाणत्वात्तस्मान्न घटोऽस्यां मृद्दगमचक्रचीवरादिसामन्यामुत्पत्स्यत इत्येवं केवलं सर्वेषु धर्मश्रवणादिक्रियासमयेषु मतिझानं नापि सर्वेषामपि ते. घटानिलाषयुक्तत्वाद्भवत इत्यर्थः । श्दमुक्तं भवति प्रतिसमय- षामुपरमे कित्येकस्मिस्तच्चरमसमये तदारज्यते निप्पद्यते च मपरापराण्येव शिवकादीनि कार्याण्युत्पद्यन्ते दृश्यन्ते च तानि अतः क्रियमाणमेव कृतम्। यदि कृतमपि क्रियते निश्चयवादच तथोत्पद्यमानानि त्वं नावबुध्यसे घटोत्पत्तिनिमित्तनूतैवेयं स्तईि पुनः पुनरपि क्रियतां कृतत्वाविशेषादतः करणानवस्थेति सर्वापि मुश्चक्रचीवरादिसामग्रीत्येवं केवलंघटोऽभिक्षापयुक्तत्वात् | चेन्नैवं क्रियाकासनिष्ठाकालयोरनेदादू । यदि हि तदुत्पादयित्री ततस्तन्निरपेक्त एव स्थूलमतितया सर्वमपि तत्कानं घटे बग- क्रिया प्रारब्धा सती उत्तरसमयेष्वपि प्राप्येत तदा स्यात्पुनयसि । ततश्च प्राक्तनक्रियाकणेष्वनुत्पन्नत्वात् घटमदृष्ट्वा एवं| रपि तत्कारणमेतच्च नास्ति यतोऽसौ तदुत्पादयित्री क्रिया न पे क्रियाकाझे घटबवणं कार्यमहं न पश्यामि । इदं तु नावग- पूर्व नाप्युत्तरत्रापि किं तु तस्मिन्नेव चरमसमये प्रारज्यते निष्ठां गमि यदुत चरमकियाकण एव घटः प्रारज्यते प्राक्तनक्रिया-1 च यातीति कुतः पुनरपि कार्यकारणमतो न तत्करणानवस्थेति Jain Education Interational Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कग्जकारणभाव अभिधानराजेन्द्रः। कहकोलंब विशे० । कारणशब्दे द्रव्य कारणप्रस्तावे कार्यकारणयोरभेदो | तोहनादिनिमित्तं भक्तादिदानमिति गम्यम् ग०१ अधिः । बेशतो दर्शयिष्यते ) कार्यस्य कारणानुरूपत्वमसार्वत्रिकम् । भ० । अयमर्थः कार्यश्रुतप्रापणादिकं हेतुं कृत्वा श्रुतं प्रापितोन च नियमतः कारणानुरूपं कार्य वैसादृश्यस्यापि दर्शनात् ।। हमनेनेति हेतोरित्ययों विशेषेण विनये तस्य चंतितन्यं तदनुतथा हि शङ्गाच्चरो जायते तस्मादेव सर्षपानुलिप्तात्तु तृणानी- | ठानं च कर्तव्यमिति स्था० ७ ठा० । ति । तथा गोसोमभ्यो दवी ततो न नियमः। आ०म०प्र०ावि-कज्जिय-कार्यिक-त्रि० कायोथिनि, व्य० ३ ००। १० सूत्र ( करणाये सुखसाध्यमाप कार्य विनोपायेन नसि. कज्जोवग-कार्योपग-त्रि० अष्टाशीतिमहाग्रहाणां पञ्चदशे महाध्यतीति गच्छसारणाशब्दे) कजपोयण-कार्यप्रयोजन-न० अवश्यकरणीयप्रयोजने, ग्रहे, 'दो कजोवगा' स्था०रना। वं०प्र०ाजं०। सू०प्र०ा कल्पणा प्रश्न अध० १० १० । कञ्चुभ-कञ्चुक-न० बगेऽन्त्यो वा १३० । इत्यनुस्वारस्य अः । चोलके, प्रा० । कजन्भास-कार्याभ्या (श) स-पुं० यदर्थ चेष्टते तत्कार्य तस्या कञका-कन्यका-खी० कन्या-कन् मागध्यां म्यण्यशजांप्रः। ज्याशः अध्यशनमच्याशः अशू व्यासावित्यस्य अनिपूर्वस्य । ४ाए। ति द्विरुक्तो नः । कन्याशब्दार्थे , प्रा० । घनन्तस्य प्रयोगः कार्याच्याशः। कार्यस्यासन्नतायाम, कार्यस्य कट्टर-कद्वर-न० कट-वर्षादौ वरच्-व्यअने, दधिसरे, रत्नमा० निकटीजवने, कर्म० “कजब्जासाणोमप्पवेसविसमीकयप्पवसं" (वीरियशब्दे व्याख्या ) असु केपेश्त्यस्य तु दन्त्यान्त्यः स च दन्नस्तु ससरस्यात्र तत्रं कट्टरमुच्यते वैद्यकोक्ते तक्रभेदे, कटुका याम, भावप्र०वाचा पुनः पुनरनुशीलने । खएमे, 'चित्तकट्टरेर वा' कट्टरं खंझ अनु०। कन्जमाण-क्रियमाण-त्रिविधीयमाने, पंचा०१७ विव० "कर्म कट्ट-कृत्वा-अव्य आपत्वात् क्त्वाप्रत्ययस्य दृप्रा० । विधाये त्यथे, स्था० ८ ग० । इति कट्ट इति कृत्वा दशा० ६ अ०। च कजमाणं च, आगमिस्सं च पावगं" सूत्र.१ भु०८ अ०। विशे०। (कजमाणे कमेत्ति सिकान्तः कजकारणनावशब्देदर्शितः) उत्त। प्राचा० । अनु० । विपा० । कल्प० । कहोरगपात्रभेदे, "ततो पासेहिं करोडगा कट्टोरगा मंकुया सिप्पाओ य विजकज्जया-कार्यता-स्त्री० तद्रूपेणाभिव्यक्ती, न० । ति" नि० चू० १ उ. कजल-कज्जल-न० कुत्सितं जतमस्मात् कोः कद । दीपशिस्त्रा कट्ठ-कष्ट-न कस-क्त- । कृच्छगहनयोः कषः श्तीण निषेधः । पतिते कृष्णप्रव्ये, जं० १ वक्व० । रा० । मस्याम्, झा० १ अ०। स्यानुयासंदष्टे । २ । ३४ । इति दृस्य उः । प्रा० । द्वितीकज्जलंगी-कज्जलागी-स्त्री० कजसगृहे, औ० । का०। यतुर्ययोरुपरि पूर्वः ७ । २। ए० । इति द्वितीयस्योपरि पूर्वः । कज्जलप्पना-कज्जलप्रजा-स्त्री० जम्बाः सुदर्शनायाः दक्विण- | प्रा०। दुःखे, झा० ए ० । क्लेशहेतुके, वि०७ अ० । पीमायाम, पूर्वस्यां पञ्चाशद्योजनान्यवगाद्य उत्तरस्यां नन्दापुष्करिण्याम, | व्यथायाम, पीमायुक्त, गहने, पीमाकारके, कष्टसाध्ये बहूपायेन जी० ३ प्रति० । । शाम्ये रिपुरोगादौ, । कष्टसाधने, पापे च । वाच । कजलावेमाण-प्लाव्यमान-त्रि० उपयुपरिप्नाव्यमाने "कज- काष्ठ-न० काशत्यनेन काश-क्थन् नेट् शस्य षः । समिदादिलावेमाणं पेदाए " आचा०५श्रु०३ अ.! तृणकाप्टे, उत्त० १५ अ० । स्था० । शमीवृक्तस्येन्धने, "कुसं काजवय-कार्यपद-पुं०जीवनदेतोर्मातापितृन्यांधियमाणे कज-| च जूर्व तणकट्ठमन्गि" उत्त० १२ अ० । दारुणि, पिं० । शाझावयेतिनामवोध्ये बालके, अनु० ।। दिस्तम्भे, नि० चू० ५००। "ससारमतिशुष्कं यत् , मुष्टिमध्ये कज्जवसो-कार्यवशतस-अव्य० कार्याङ्गीकरणत इत्यर्थे, न समेष्यति । तत्काष्ठ काष्ठमित्याहुः, खदिरादिसमुद्भवम् । इत्यु क्तलकणे दारुनेदे च वाच० । राजगृह वास्तव्ये स्वनामख्याते थेस्वकार्यसिद्धये ति फलितार्थे, पो०१ विव०। । ष्टिनि, तत्कथा धर्मनप्रकरणादवसेया आ०म० द्वि० । प्रा०चू। कजसम-कार्यसम-न० स्वनामके जात्युत्तरेऽनुमानदोषे, स करकम्म-काष्ठकर्मन-न० क्रियत इति कर्म काष्ठे कर्म काष्ठम्मः । कार्यसमं नाम जात्युत्तरमिति प्रतिपादितम् । यथोक्तं कर्म-काष्ठनिष्कुहिते रूपके, यत्र स्थापनाचार्यः क्रियते । अनु 'कार्यत्वान्यत्वलेशेन यत्साध्यासिकिदर्शनम्'।तत्कार्यसममिति ग। नि० चू० । प्रतिस्तम्भहादशादौ, आचा। श्रु०१०कार्यत्वसामान्यस्यानित्यत्वसाधकत्वेनोपन्यासेऽज्युपगते धार्म ५० । रथादौ, प्राचा० २ श्रु०१२ अ०। कर्म करणम् काष्ठनेदेन विकल्पनबदद्धिमत्कारणत्वे वित्यादेः कार्यत्वमात्रेण सा स्य कर्म । दारुमयपुत्रिकादिनिर्मापणे, झा० १३ अ०। ध्येऽभीष्व धर्मिभेदेन कार्यत्वादोर्विकल्पनात् आसादयतः सामान्येन कार्यत्वनित्यत्वयोर्विपर्यये बाधप्रमाणबसाद व्याप्तिसिझौ कट्ठकम्मत-काष्टकायत-न० काष्ठकर्मगृहे, यत्र काष्ठपरिकर्म कार्यत्वसामान्यशब्दादो धर्मिण्युपसत्यमानमनित्यत्वं साधय क्रियते । प्राचा०२ श्रु०२०। तीति कार्यत्वमात्रस्यैव तत्र हेतुत्वेनोपन्यासे धर्मविकल्पनं य. ककरण-काष्ठकरण-न०३यामाकस्य गृहपतेः केत्रे, " ततो त्तत्र क्रियते तत्सर्वानुमानोच्छेदकत्वेन कार्यसमं जात्युत्तरतामा- सामी ज भियगामं गतो तस्स बहिया वि याव तस्स चेश्यस्स सादयति । सम्म० ॥ अदरसामंते जुवालिए नदीए तीरे उत्तरिल्ले कूले सामागस्स कजसेण-कार्यसेन-पुं० जम्बूद्वीपे भरतकेत्रेऽतीतायामुत्सर्पि- गाहावश्स्स कहकरणं नाम खेत्तं" आ०म० द्वि० । प्रा० चू। एयां जाते पञ्चमे कुलकरे, स०। कट्ठकार-कष्टकार -पुं० कष्टं करोति कृ-प्र-अप० स०। सं सारे, त्रिका०। पीमाकारके, त्रि. वाच। कजहेउ-कार्यहेतु-पुं० प्रयोजननिमित्ते, चिकीर्षितकार्य प्र. ति आनुकूल्यकरणे, स्था० ४ गातीयान्तःकडे काष्ठकार-पु० काष्ठशिल्पापजीविनि, अनु० । प्रज्ञा पञ्चम्यन्तो वा “कजहेश्रो" लोकोपचारविनयभेदे, तत्र कार्यई-कढकोलंब-काष्ठकोसम्ब-पुं० शाविशाखानामवनतमनभाजनं Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TS 11 कहकोलंब अनिघानराजेन्द्रः। कंडगर वा कोलम्ब उच्यते । काष्टस्य कोलम्ब श्व काष्ठकोबम्बः। परि- संपधमिते वा तहप्पगारे उवस्सए" प्राचा-२ श्रु.२०। दृश्यमानावनतहृदयास्थिकत्वात् । काष्टमयकोलम्बसदृशे उद-कटोचम-काष्ठोपम-त्रि० विषमकाष्ठतुल्ये, प्रति० । रादौ, "कटुकोलंबे व से (धन्यानगारस्य) नदरं" अणु०॥ कम-कट-पुं० कट-कर्तरि-अच् ! हस्तिगण्डे, मदवर्षणा तथाकट्ठखाय-काष्ठखाद-पुं० काष्ठं खादतीति काष्ठखादः । काष्ठ त्वम । गण्डमात्रे, स्वेदवर्षणात्तथात्वम् वाच० । “कडतडाई" खादके घुणे, स्थापग। गण्डतटानि, शा०१अनलाख्ये तृणे, अमरः। आवरणकट्टखायसमाणभिक्खाग-काष्ठखादसमानभिक्षाक-पुं०निर्वि- कारके, त्रिग अतिशये, उत्कटे, शरे, समये, प्राचारे, मेदिक। कृतिकाहारतया काष्ठखादकघुणसमाने भिकी, स्था०२४ गा उशीरादितृणमात्रे, धरणिः । शवे, प्रेते, शवरथे, ओषधिभेदे, कघभण-काटघटन-न० षष्टितमे कलाभेदे, कल्प० । श्मशाने, हेमचंतष्ठकाष्ठे, शब्दर० । क्रियाकारकमात्रे,त्रि० कदम-काष्ठदल-न० तुवरीसूपे, "कदलं सिणेहवियलं जं"। हेमचं। युतक्रीडासाधनद्रव्ये च । वाच०। कटादिभिराताल०प्र०। नवितानभावेन निष्पाद्यमाने श्राशनविशेषे, कट इव कट इत्युकट्टपानया-काष्ठपाका-स्त्री. काष्ठनिर्मितपाकायाम, "क पचारात्तन्त्वादिमये आसनभेदे च । टुया उपाति वा जरग्गरवाहणत्ति वा । श्रा। चत्तारि कडा पसत्ता तंजहा सुंगकडे विदलकडे चम्मकमे कट्ठपीठय-काष्ठपीठक-न० काष्ठमयपीउके, निचू०१५ उ० । कंवनकडे ॥ कट्ठपुतलिया-काष्टपुत्तलिका-स्त्री० काष्ठकर्मणि, यत्र स्थापना- (सुंठकडेन्ति ) तृणविशेषनिष्पन्नः (विदलकडेत्ति) वंशशवश्यकं स्थाप्यते । अनु०॥ कलकृतः ( चम्मकडेत्ति) वईव्यतमश्चकादिः (कंवलकडेत्ति) कष्टपेज्जा-काष्ठपेया-स्त्री० मुशादियूपे, घृत..विततएकुलपयायां| कम्बलमेवेति । स्था०४ ठा। श्रा०म०प्र० । सान्तरवंशमये, वृ०२ उ० । वंशकटादी, वृ०१ उथा पर्वतैकदेशे, शा०१०। च । उपा०१। वृ०। संस्तारके च । श्राचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। कलय-काष्ठतृत-त्रि० अत्यन्तनिश्चेष्टतया काष्ठोपमे, उत्त०१०। कृत-त्रि० कृ.क्त. परिकर्मिते, कल्प० । अनुष्ठिते " कडं च कहमुद्दा-काष्ठमुघा-स्त्री० काष्ठस्येवाकारे काष्ठमयमुखबन्धने, कजमाणं च, आगमिस्सं च पावगं" सूत्र० १ श्रु० ८ अग "कद्रमुहाए मुहं बंध बंधश्त्ता" यथा काष्ठं कामयः पुत्त विहिते, उत्त०१ अन्तनिर्वर्तिते, श्राव०४ अ० उपालको ननाषते एवं सोऽपि मौनावलम्बी जातः यद्वा मुखर-ध्रा-1 जिते, उत्त०३ अा पूर्वपरिणामापेक्षया परिणामान्तरेण कृते, चादकं काउखएकमुभयपावयोप्रिोषितदवरकान्वितं मु भ० १२ श०४ उ० । निष्पादिते, सूत्र० १ श्रु० ३ १०३ उ० । खबन्धन काष्ठमुडा तया मुखं बध्नाति, नि०॥ इदानीं कृतपदनिक्षेपार्थ नियुक्तिकमाथामाह । कट्ठमूल-काष्ठमूल-न० चणकचवलकादिद्विदो, वृ०१०।। कट्ठमूलरस-काष्ठमूलरस-न० द्विदअरसेन परिणामिते पानके, | करणं च कारओ य, कर्मच तिएहं पिछकनिक्खेवी। ध० ३ अधि। काष्ठमूवं चणकचवनकादि हिदलं तदीयरसेन दव्वे खित्ते काले, भावण नकारो जीवो ॥४॥ यत्परिणामितं तत्कायमूत्ररसं नाम पानकम् इत्युक्तो वृ०११०। ( करणं चेत्यादि ) इह कृतमित्यनेन कर्मोपात्तं न चाकर्तृक कट्ठसगमिया-काटशकटिका-स्त्री० काष्ठभृतार्या शकटिका-1 कर्म भवतीत्यर्थात्कर्तुराक्षेपो धात्वर्थस्य च करणस्यामीषां धाम, भ०२ श०१उ०। त्रयाणामपि प्रत्येक नामादिः षोढा निक्षेपः। सूत्र० १ श्रु०१ कहसमस्सिय-काष्ठसमाश्रित-त्रि० काष्ठाद्याश्रिते, "संसे यया | अ०१ उ०। (अत्र करणनिक्षेपप्रदर्शनेन कृतनिक्षेपोऽपि सुबोधो कटुसमस्सिया य" सूत्र०९ श्रु०७ अ०। जविष्यतीति बुद्ध्या कृतनिकेपो न प्रादशि क्रियमाणं कृतमिति कट्टसिला-काष्ठशिला-स्त्री० काष्ठं चासौ शिले वायतिविस्ता- भगवक्तर्जमालिनाऽश्रमानं तऽत्तरं च कजकारणभावशब्दे राभ्यां शिला सा चेति काष्टशिला। स्था० ३ ठाकाष्टफल दर्शितमथ च जमालिशब्देऽपि किश्चिद्दर्शयिष्यते) क्रियानिकरूपे संस्तारकभेदे, पंचा०१८ विधः । श्राचा० । प्पाये, " से देसेणं देसे कमे देसे णं सच्चे कमे" भ०१७कट्ठसेज्जा-काष्टशय्या- स्त्री० काष्ठं स्थूलमायतमेव तद्रूपा ३ उ०। तैः विवक्कितपुरुषैः अन्यैर्वा श्रावकीकृते कुठे, कल्प० । शय्या तत्र या शय्या शयनम् । पाञ्चयामिकसाधुभ्योऽनुज्ञाते साधूनाधायोहिदप कृते निष्पादिते प्राधाकर्मणि , सूत्र०११०१ श्र०। “कमेसु घासमेसेजा, विन दत्ते स थ चरे" गृहस्थैः काष्ठशिलाशयने, स्था०३ ठा०४ उ०। परिग्रहारम्भधारणात्मार्थ ये निष्पादिता ओदनादयस्ते कृता कट्टहार-काष्टहार-पुं० त्रीन्द्रियजीयविशेपे, जी०१ प्रति । उच्यन्ते तेषु कृतेषु परकृतेषु परनिएितेषु इत्यर्थः । सूत्र० १ उत्त०। प्रज्ञान श्रु०१ अ०४ नु।" उवक्व मं तु कडं हो" उपस्कृतं तु अकट्ठा-काष्टा-स्त्री दिशि, स्था० २ ठा० अष्टादशनिमेषात्म के त्रादिबुद्धावादिकर्मविवक्तायां क्तः प्रत्ययः ततोऽयमर्थः । उप. काले, तं। प्रकप, मू०प्र०६पाहु.! सीमायाम, दारुहरि-| स्कतुमारब्धामति भावः कृतं भवति इत्यादिराधाकरमान्य द्रायां च । वाच०। कृतशब्दाथों विस्तरत नक्तस्ततएवाच्याम पिंका कृतयुगे चतुकहाइ-काष्टादि-त्रि० दारुपापाणप्रभृतौ, पंचा० ७ विव० । के, सूत्र १ श्रु२२ अ० । फलेच न साधिते, पक्के, पर्याप्नेच श्रादिशब्दाकाटक शर्करादिग्रहः । पंचा०१८ विवः । त्रिचतुरङ्गयुक्ते, पाशकनेदे, दासभेदे च पुं०-नावे, क्त-क्रिकट्टिय-काष्टिन-त्रि काष्ठादिभिः संस्कृते कुड्या दो, “कहिए| यायाम न कृतपूर्वीकटम् वाच । वा उकविण वा हो वा लित्ते या बहेवा महे वा सम्म वा कमंगर-कमर-न० कम भकणीयं शस्यादि गिरति अन्यन्तरे Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कडंगर अभिधानराजेन्द्रः । कडप्यणा निवेशयतिगृ-अच-निमम बुसे, मुगादेः फलान्यनामिकाकाष्ठे, कृतयुग्मश्च महायुग्मगशिभेदे, यो राशिश्चतुपकापहारेणापअमरः । वाच । स्था। ट्रियमाणश्चतुःपर्यवसितो जवत्यपहारसमया अपि चतुष्कापकर्मव-कटम्ब-पुं०कट-धातूनामनेकार्थवाद् वादने, अम्बच वा. हारेण चतुःपर्यवसिता एवासी राशिः कृतयुग्मकृतयुग्म इत्यदिवे, वाचः । स च द्वादशतूर्यनिर्घोषाणां चतुर्थः । शाम निधीयते । अपद्रियमाणऽध्यापेक्कया तत्समयापेक्वया चेति द्विपर। औ०। धा कृतयुग्मत्वात् भ० ३४ श०१ उ० । कडम्ब-शाकनाडिकायाम, कोणे, प्रान्तभागे च वाच । कमजुम्मकत्रिोय-कृतयुग्मकल्योज-पुं० क० स० महायुग्मकमक्ख-कटाक्ष-पुं० कटं गएममति व्य मोति अच् अपाङ्गह- राशिभेदे, यो राशिः प्रतिसमयं चनुप्केणापन्हियमाण एकपछौ, अमरः वाच । "सकमक्खदिछीओ" सकटाकाः सापा र्यवसानो नवति तत्समयाश्चतुःपर्यवसिता पवासावपड़ियमाङ्गा दृश्यश्चावलोकितानि झा० ए अ० । अर्फबीकणे च नं। णापेकया कलिः। अपहारसमयाऐश्या तु कृतयुग्म एवेति कृ. तयग्मकल्याजः । यथा जघन्यतः सप्तदश तत्र हि चनुप्कापकमग-कटक-पुं० न० कलाचिकाजरणे, प्रशा०२ पद । रा०।। हारणकोऽवशिप्यते तत्समयाश्चत्वार एयेतिन०३४०१ न० । " पयलिवरकमगतुमियके चरमउमकुंम" रानाप्रकोष्ठकाभरणविशेष, स० कङ्कणे, औ० । कणविशेषे, । उपा०२०। कमजुम्मतेोग-कृतयुग्मयोज-पुं० २.० स०महायुग्मराशिने. हस्तातरणविशेषे, “ बरकमगतुभियर्थभियनूए" औ० । अधि दे, यो राशिः प्रतिसमय चतुष्का पहारेणापहियमाणस्त्रिपर्यवनितम्ये “ विसमगिरिकमगको वसम्मिविट्ठा" झा० १० अ० । सानो भवति तत्समयाश्चतुःपर्यवसिता पवासौ अपहियमाणा"पब्वयकमगायमुञ्चते" प्रश्न अध०१द्वा०३ अागरामशैले, झा०४ पेक्षया योजः । अपहारसमयापेक्षया तु कृतयुग्म एवेति कृतयुअ० । स्कन्धावारे, वृ०२ उ०॥"कमगववि बिसे अप्पफोसि ग्मध्योजक्युच्यते । यथा जवन्यत एकोविंदातिस्तत्र हि या" पं० सू० ५ ० । चक्रे, अमरः । हस्तिदराममएमले सामु. चतुष्कापहारेण त्रयोऽवशिष्प्यन्ते तत्समयाश्चत्कार एवेति न. जलवणे, राजधान्यां च मेदिगनगाम,शब्दर वाचा कट ३४ श०१०। स्वार्थ क-कटशब्दार्थे, “पंसुसकमयाणं" अशुः। कमजुम्मदावरजुम्म-कृतयुग्मद्रापरयुग्म-पुं० क स । महाकडगघर-कटकगृह-नवंशदवनिर्मापितकटात्मके गृहे, व्या! युग्मगशिभेद, यो हि राशिः प्रतिसमय चतुष्कापहारेणापहियउ० । माणो द्विपर्यवसानो भवति तत्सम्याश्चतुःपर्यवसिता एवेति । कडगमई-कटकमयी--स्त्री कटो वंशकटादिस्तन्निष्पना कटक- असी अपहियमाणापेक्रया द्वापरयुग्मः । अपहारलमयापेकया तु मयी- वंशकटकादिमये चिलिमिक्षिकानेदे, निचू०१०। कृतयुग्म एवेति कृतयुग्मद्वापरयुग्मः । यथा जघन्यतोऽयादश तत्र हि चतुष्कापहारेण द्वारवाशप्येते तत्समयाश्चत्वार एवेति । कडगमदण-कटकमर्दन-न० सैन्येन किबिजेन वा आक्रम्य मर्द ज० ३४ २०१०। ने, ततो हि प्राणवधो भवतीत्युपचारात् प्राणवधे च । प्रश्न अध०१द्वा०१०। | कमजुम्मपएसोगाट कृतयुग्मप्रदेशावगाढ-त्रि. विंशतिप्रदेशाकमग्गिदच्य-कटाग्निदग्धक-त्रि० कटान्तर्चेष्टयित्वाऽग्निना द बगाढे, विंशतेश्चतुम्कापहारे चतुः पर्यावसितत्वात् । “परिमंमले ह्यमाने, दशा०६ अ० ।। णं भंते ! संठाणे किं कमजुम्मपद सोगाढे" ज०२५ श०३ उ० । कमच्छेज्ज-कटच्छेद्य-न० कटवक्रमाच्छेद्यं वस्तु यत्र विज्ञाने त कम्य जोग-कृतयोग-पुं० कृतसाधुव्यापारे, पं० २.१ द्वारा "तवे य कयजोगों" तपसि कृतयोगो नाम कर्कशतपोनिरनेक धा त्तथा । एकोनसप्ततितम कमानेदे,दञ्चन्यूनपटोद्वेष्टानादौ भोज भावितात्मा व्य० १०।। नक्रियादौ चोपयोगीति जं०७वकाशा०। "कमच्नेएण जोत्तब्वं। कमगच्छेदो नाम जो एगा न पासा उ समुद्दिस"पं०व०५ का कडजोगि ( ण् )-कृतयोगेन्-त्रि० सूत्रोपदेशेन मोजाधिरो. कडजुग-कृतयुग-न० अष्टाविंशत्यधिक सप्तदशलक्वपरिमिते का. धीकृतो न्यस्तो योगो मनोवाक्कायव्यापारात्मकः स कृतयोगःस लभेदे, लोके कृतयुगादीनि एवमुच्यन्ते " द्वात्रिंशश्च सहस्राणि, येषामस्ति ते कृतयोगिनः । आगमसमन्तमोकोपायकयोगयुक्ते कौ नक्कचतुष्टयम् । वर्षाणां छापरादौ स्या-देतद् द्वित्रिचतुर्गु षु , व्य० ३ उ०॥ चतुर्थादितपसि कृतयोगे, " कमजोगणाम णम्" स्था०४ ग० ३ ०। चउत्थादितवे कतजोगो" निचू. १०। गीताथ, कृतयोगी गीतार्थः स कतैव योगीति च नण्यते । वृ०१०। कतक्रिकडजुम्म-कृतयुग्म-पुं० न कृतं सिद्धं पूर्ण ततः परस्य राशिसं. ये, "जोगो किरिया सा कया जेण सो कमजोगी भम्मति" नि। शान्तरस्याभावेन न ज्योजःप्रभृतिवदपूर्ण यत् युग्मं समराशि चू० १ । अतः कृतयोगी नाम यो गृहवासे कर्तनं कृतवाविशेषः तत्कृतयुग्मम् । भ० १८ श०४० । युग्मराशिविशेषे, न् वृ०१३०। यो हि राशिश्चतुष्केणापट्रियमाणश्चतुःपर्यवसितो नवति स कृतयुग्म इति स्था०४०३ १० । क०प्र०। कृतयुग्मामत कडण-कटन-न० कटादिभिः कुख्यकरणे, ग.१ अधि० । प्रदेशासु दिक्षु की प्राचा० १ २० अ० १ उ० ( सर्वासां कमणा-कटना-स्त्री. तट्टिकारूपे गृहावयवे, " अगारेकिया दिशां प्रत्येक ये प्रदेशास्ते चतुपकेणापड़ियमाणाश्चतकावशेषा कुज्यिा कमणाफिया" भ०७०६०। जयन्तीति कृत्वा तत्प्रदशात्मिकाश्च दिश आगमसंझया कड | कटतम-कटतट-न० कटकैकदेशे. झापागण्डतंटे,ज्ञा श्र. म्मात्ते शब्दन कृतयुग्मादिविशेषणेन नैरयिकादीनामुपपात नव कम्पूयणा-कटपूतना-स्त्री स्वनामख्यातायां व्यन्ताम्. यपायशब्दनाभिधीयन्ते) या शालिसीसबहुशायकत्रामे शाबबने प्रतिमास्थितस्य श्रीवीकमजुम्मकडजुम्म-वृतयुग्मकृतयुग्म-पुं० न० कृतयुग्मश्चासौ | रजिनरय विनं कृतम् । श्रा० मा द्वि० । आःचू। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०४) कडगूढ श्रानिधानराजेन्द्रः। कमवा कममुढ-कृतमूढ-पुं० करणं कृतं तेन मूढः । किर्तव्यताव्याकु- माद । सुखमानन्दरूपं पुःखमसातोदयरूपमिति ताज्यां समले, भाचा० १० ११०। न्वितो युक्त इति । कमय-कटक-न० कलाचिकाभरणे, आ० म०प्र०ा वलये, स्था० ॥किञ्च॥ ३ ० ५ ० । अनीके, पर्वततटे, पर्वतदेशे, झा०१०। सयंरुणा कडे सोए, इति वृत्तं महेसिणा । क.मयंतरिप-कटकान्तरित- त्रि० कटान्तर्वतिप्रच्छन्नरक्षिते, | मारेण संथुया माया, तेण लोए असासए ॥७॥ "अन्नो कडयंतरिश्रो अन्नो पडयंतरे ठविश्रो" तं० । (संयन्नुणा इत्यादि ) स्वयं भवतीति स्वयंर्विष्णुरन्यो वा स कडयणिवेस-कटकनिवेश-पुं० स्कन्धाबारे. स्था० ६ ठा० । चैक एवादावनूत्तत्रैकाकी रमते द्वितीयमिष्टवांस्तश्चिन्तानन्तरकमयपल्लन-कटकपल्बल-न० पर्वततटव्यवस्थितजलाशय मेव द्वितीया शक्तिः समुत्पन्ना तदनन्तरमेव जगत्सृष्टिरदि त्यचं महर्षिणोक्तमभिहितमाएवं वादिनो लोकस्य कर्तारमन्युपगविशेषे, शा०१ श्रा तवन्तोऽपि च तेन स्वयंनुवा बोकं संपाद्यातिभारजयाद्यमास्यो कडयमद-कटकमर्द-पुं० सैन्यसंमदें, तेन कटकमदेन मार मारयतीति मारोऽभ्यधायि । तेन मारेण संस्तुता कृता प्रसाणार्थ चाशप्ताः अव्यक्तवादिनिवाः विशे० । स्था॥ धिता माया तया च मायया लोकामियन्ते न च परमार्थतो जीकम्वाइ (ए)-कृतवादिन-पुं० केनचित् ईश्वरेण धप्राना- वस्योपयोगबवणस्य व्यापत्तिरस्त्यतो मायैषा । यथाऽयं मृतदिना वा कृतोऽयं लोक इत्येवमभ्युपगमग्राहिले वादिनि, सूत्र | स्तथा चायं लोकोऽशाश्वतोऽनित्योऽविनाशीति गम्यते ॥ ७ ॥ १ श्रु० १०१ उ० । तेषां मतोपदर्शनायाह ।। (अएमकृत्वादिमतं स्वस्थाने उक्तम् ) अधुना एतेषां देवोप्तादिजगद्वादिनामुत्तरदानायाह । इण मन्नं तु अन्नाणं, इहमेगेसि आहियं । सरहिं परियाएहिं, लोयं व्या कमेतिया। देवउत्ते अयं लोए. बंभनत्ते ति आवरे ।। ५॥ तत्तं तेण वि जाणंति, ए विणासी कयाइवी ॥८॥ ईसरेण कमे लोए, पहाणा तहावरे ।। स्वकैः स्वकीयैः पर्यायैरभिप्रायैर्युक्तिविशेषैरयं लोकः कृत जीवाजीवरमाउत्ते, सुहदुक्खसमन्निए ॥ ६ ॥ इत्येवमब्रुवन्ननिहितवन्तः । देवोप्तो ब्रह्मोप्त ईश्वरकृतः प्रधानाइदमिति वक्ष्यमाणं तुशब्दः पूर्वेभ्यो विशेषणार्थः। अज्ञानमि- दिनिष्पादितः स्वयंनुवा व्यधायि तनिष्पादितमायया मियते । ति मोहविजम्भरामिहास्मिन् लोके एकेषां न सर्वेषामाख्यात- तथाऽएडजश्चायं लोक इत्यपि स्वकीयाभिरुपपत्तितिः प्रतिपादमिन्यभिप्रायः । किं पुनस्तदाख्यातमिति तदाह । देवेनोप्तो दे- यन्ति । यथाऽस्मदुक्तमेव सत्यं नान्यदिति। ते चैववादिनोवादिघोप्तः कर्षणेव बीजवपन बत्वा निष्पादितोऽयं लोक इत्यर्थः। | नः सर्वेऽपि तत्वं परमार्थ यथाऽवस्थितलोकस्वन्नावं नाभिजादेवी गुप्तो रक्षितो देवगुप्तो देवपुत्रो वेत्यादिकमज्ञानमिति । नन्ति न सम्यक विवेचयन्ति । यथाऽयं लोको च्यातथा ब्रह्मणा उगो ब्रह्मोप्तोऽयं लोक इत्यर्थः। परे एवं व्यव- र्थतया न विनाशीति निर्मूलतः कदाचन न चायमादित श्रास्थिताः । तथा हि तेषामयमभ्युपगमः । ब्रह्मा जगत्पितामहः रज्य केनचित् क्रियते अपि स्वयं लोकोऽनद्भवति नविष्यस चैक एव जगदवासीत्तेन च प्रजापतयः सृष्टास्तैश्च क्रमेणे- ति । तथा हि यत्तावमुक्तं यथा देवोप्तोऽयं झोक ति तदतत्सकलं जगदिति । तथेश्वरेण कृतोऽयं लोकः । एवमेके ई- सङ्गतं यतो देवोप्तत्वे झोकस्य न किंचितथाविधं प्रमाणमस्ति न श्वरकारका अभिदधति प्रमाणयन्ति वा सर्वमिदं विमत्य- चाप्रमाणकमुच्यमानं विद्वजनमनांसि प्रीणयति ॥ ईश्वरवादधिकरणभायोपपन्नं न तु भुवनकरणादिक धर्मित्वेनोपादीयते। खएमनं स्वस्थाने विस्तरतः कृतम् यदपि चोक्तं प्रधानादिबुद्धिमत्कारणपूर्वकमिति साध्यो धर्मः संस्थानविशेषवत्त्वा- कृतोऽयं लोक ति तदप्यसङ्गतं यतस्तत्प्रधानं किं मुर्तममर्त दिति हेतः । यथे। बटादिरिति दृष्टान्तोऽयं यद्यत्संस्थानवि- वा यद्यमूर्त न ततो मकराकरादेर्मूर्तस्योद्भवो घटते । न ह्याशेषवत्तत बुद्धिमत्करणपूर्वकं दृशम् । यथा देवकुलकूपादि सं- काशास्किचिपुत्पद्यमानमालक्ष्यते मूर्तामूर्तयोः कारणविरोधास्थानविशेषवञ्च मकराकरनदीधराधरशरीरकरणादिकं चि- दिति । अथ मूत तत्कुतः समुत्पन्न न तावत्स्वतो लोकस्यापि बाद गोचरापन्नमिति । तस्माद्बुद्धिमत्कार पूर्वकं यश्च समस्त- तथात्पत्तिप्रसङ्गात् नाप्यन्यतोऽनवस्थापत्तरिति । अन्यथाऽनुस्यास्य जगतः कर्ता स सामान्यपुरुषो न भयतीत्यसावीश्वर त्पन्नमेव प्रधानाद्यनादिनावेनास्ते तद्वद्वोकोऽपि किं नेष्यते । इति । तथा सर्वमिदं तनुभुवनकरणादिकं धर्मित्वेनोपादीयते। अपि च । सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रधानमित्युच्यते न बुद्धिमत्कारण पूर्वकामति । साध्यो धर्मः कार्यत्वाद् घटादिवत् चाविकृतात्प्रधानान्महदादेख्न्पत्तिरिष्यते भवतिः । न च विकतथास्थि-या प्रवृत्तेर्वास्यादिवदिति। तथा परे प्रतिपन्ना यथा तं प्रधानन्यपदेशमास्कन्दतीत्यतो न प्रधानान्महदादेरुत्पत्तिप्रधानादिकृतो लोव । सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः।। रिति । अपि चाचेतनायाः प्रकृतेः कथं पुरुषार्थ प्रति प्रवृत्तियेसा च पुरुषाथै प्रवर्तते। आदिग्रहणाचप्रकृतर्महान् ततोऽहंकार- नात्मनो भोगोपपत्त्या सृष्ठिः स्यादिति । प्रकृतेरय स्वन्नाव इति स्तस्माचगणः पोमशकस्तस्मादपि पोशकारपश्चन्यः पञ्चम-1 चेदेवं तर्हि स्वभाव एव बनीयान् यस्तामपि प्रकृति नियमयहातानीत्यादिकया प्रक्रियया सृष्टिर्भवतीति । यदि वा श्रादि- तितत एव च लोकोऽप्यस्तु किमदृष्टप्रधानादिकल्पनयेति । अग्रहणात्स्वानावादिकं गृह्यते । ततश्चायमर्थः । स्वनावेन कृतो थादिग्रहणात्स्वभावस्यापि कारणत्वं कैश्चिदिष्यत इति चेद. लोकः कराटकादिक्षायवत् । तथाऽन्ये नियतिकृतो लोको मयू- स्तु । न हि स्वन्नावोऽज्युपगम्यमानो नः कृतिमातनोति । तथा राङ्गादित्यादिनिः कारणैः कृतोऽयं लोको जीवाजीवसमायु- हि स्वभावः स्वकीयोत्पत्तिः सा च पदार्थानामिष्यत पवेति । तो जीवरुपयोगरावणस्तथा अजावेर्धर्माधर्माकाशपुफलादिकः तथा यमुक्तं नियतिकृतोऽयं लोक इति तत्रापि नियमन नियसमन्वितः समुध्यरा' परादिक इति । पुनरपि लोकं विशेषयितु- तिर्यथाभवनं नियतिरित्युच्यते सा चालोच्यमाना न स्व. . Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०५) अभिधानराजेन्द्रः | कमवाइ 1 भावादतिरिच्यते यचान्यचावि स्वयम्वोत्पादितो हो इति तद्यन्दमेव यतः स्वरिति किमुक्तं जयति किं यदाइसी भवति तदा स्वतन्त्रोन्यनिरपेक्ष एव प्रयति । अथादिभयम्भूरिति व्यपदिश्यते । यदि स्वप मस्तद्वलोकस्यापि भवनं किं नाभ्युपेयते किं स्वयंजुवा । अथानादिस्ततस्तस्यानादिनित्यस्य वैकरूपत्वात् अनुपपतिस्तथा वीतरागत्वात्तस्य संसारवेकियानुपपत्तिः । अथ सरागोऽसी सतोमदाराव्यतिरेकात विश्वस्याकती मूर्तीमूर्तादिकल्पाश्च प्राग्यायोग्य इति यदपि चात्राभिहितम नारा समुत्पादितः स च लोकं व्यापादयति तयकर्तृत्यस्यामितियालापमात्रमिति । दानमेतेषां देवसादिवादिनामहानत्वं प्रसाद तफ दिद शयाद । मनसमुपायं क्वमेव विजाणिया || , । समुप्पायमजाणता, कई नायंति संवरं ॥ १० ॥ मनोनुकूलं मनो शोभनमनुष्ठानं न मनोज्ञममनोज्ञमसदनुष्ठानं तस्मात्पादनयो यस्य त्वस्य तदमनोत्पादम् । पत्रकारोऽवधारणे। सचैव संबन्धनका अमनोहसमुत्पादमेव दुःखमित्येवं विज्ञानीयादवगच्छेयाः । एतदुकं प्रयति । सष्ठानादेव पुलस्योद्भवो भवति नान्यस्मादित्येवं व्यवस्थितेऽपि सत्यनन्तरोक्तवादिनोऽसदनुष्ठानोद्भवस्य दुःखस्य समुत्पादमजानानाः सन्तोऽन्यत ईश्वरादेईःखस्योत्पादतिमिच्छन्तः कथं केन प्रकारेण दुःखस्य संवर दुःखप्रतिघातनुं हास्यन्ति । निदानोच्छेदेन दि निदानिन वच्छेदो नवति । ते च निदानमेव न जानन्ति तत्वमजानानाः कथं दुःखोच्छेदाय पतिभ्यन्ते यज्ञयन्तोऽपि च दुःखोच्छेदनमवाप्स्यन्त्यपि तु संसार एव जन्मजरामर णेऽष्टवियोगाद्यनेकः वाताघाताद्भूषणे भूयोऽरही न्यायेनानन्तमपि का संस्थास्यन्ते ॥ १० ॥ सांप्रतं प्रकारान्तरेण कृतादिमतमेवोपन्यस्यन्ना। मुझे अपार आया, इहमेगेसिपाहिये । “पुणो किड्डापदेसेणं, सो तत्थ अवरा ।। ११ ।। हास्मिन कृतादिप्रस्तावे वैराशिका गोशालक मतानुसारिणो येषामेकविंशतिसूत्राणि पूर्वगतत्रैराशिक सूत्र परिपाठ्या व्यवस्थ तानि ते एवं वदन्ति । यथाऽयमात्मा शुको मनुष्यनव एव शुकाचारो भूत्वा या अपगताशेषमलङ्को मोकेऽपापको भवति । अपगताशेषकर्मा जयतीत्यर्थः । दमेकेषां गोशालक मतानुसा रिणामाक्यातम् । पुनरायात्मागुरूत्वाऽकर्मकत्वराशिया स्थो हूत्वा क्रीया प्रद्वेषेण वा स तत्र मोक्कस्थ एवाऽपराध्यति रजसाऽयमुक्तं भवति तस्य हि स्वशासनपूजासुपनन्यान्यशासनपराभवं योज्य की मोत्पद्यते प्रमोदः संज्ञा यते स्वशासनम्यकारदर्शनाचा द्वेषस्ततोऽसी की माद्वेषायाम गतान्तरात्मा नवज्यमानो जा मलीमसका कर्मगौरवाद्भूयः संसारेऽवतरति मस्यां चावस्थासकर्मकत्या तृतीयवस्थो भवति ॥ इद संबुडे मुणी जाए, पच्छा होइ अपावए । विडंबु जहा भुज्जो, नीरयं सरयं तदा ॥ १२ ॥ ( इहेत्यादि ) इहास्मिन् मनुष्यभषे प्राप्तः सन् प्रव्रज्यामभ्यु कमवाइ पेत्य संवृतात्मा यमनियमरतो जातः सन् पादपापो भवति । अपगताशेषकर्मकलो भवतीति भावः । ततः स्वशासनं प्रज्ञाप्य मुक्त्यवस्थो भवति । पुनरपि स्वशासनपूजादर्शनाशिकारोपध रागद्वेषोदयात्कलुषितान्तरात्मा विका दकपीरजस्कं सद्वातोद्वतरेसुनिवह संपूर्ण सरजस्कं म लिनं भूयो यथा भवति । तथाऽयमप्यात्माऽनन्तकालेन संसारोगाच्छुद्धाचारावस्थो भूत्वा ततो मोक्षाप्तौ सत्यामकर्मावस्थो भवति । पुनः शासनपूजानिकारदर्शनाद्रागद्वेषोदयात्सकर्मा भवतीत्येवं त्रैराशिकानां शिष्यायो भवत्वात्मोयास्वातं उकं च " दग्धग्धनः पुनरुपति भयं प्रमच्य निर्वाणमप्यनवधारितभीरुनिष्ठः । मुक्तः स्वयं कृतभवश्च परार्थशूरस्वच्छासनप्रतिहतेष्विह मोहराज्यमिति ॥१२॥ अपवितुमाह । तापीति मेधावी बंभचेरेण ते पसे । पुणो पावाडया सब्बे, क्वायारो सयं सयं ॥ १३॥ एतान् पूर्वोक्तान् वादिनोऽनुचिन्त्य मेधावी प्रज्ञावान् मर्यादाव्यवस्थितो वा एतदवधारयेत् । यथा नैते राशिश्रयवादिनो देवोशा दिलोकवादिनश्च ब्रह्मचर्ये तदुपलक्षिते वा संयमानुछाने वसेयुरवतिष्ठेचिति । तथा हि तेषामयमभ्युपगमो यथा स्वदर्शनपूजानिकारदर्शनात्कर्मबन्धो भवत्येवं चावश्यं तद्दर्शनस्य पूजायास्तिरस्कारेण चोभयेन वा भाव्यं तत्संभवाच्च कर्मोपचयस्तदुपचयाश्च शुद्ध्यभावः शुद्ध्यभावाश्च मोक्षाभावः । न च मुच्यनामशेषकर्म कलानां कृतकृत्यानामपतापयथावस्थितवस्तुतत्त्वानां समस्तुतिनिन्दानामपगतात्माऽऽत्मीयप रिग्रहाणां रागद्वेषानुपस्तावाच्च कुतः पुनः कर्मबन्धस्तस्माच्च संसारावतरणमित्यर्थः । श्रतस्ते यद्यपि कथञ्चिद् द्रव्यब्रह्मचर्ये व्यवस्थितास्तथाऽपि सम्यक् ज्ञानाभावान्न सम्यगनुष्ठानभाज इति स्थित सर्वेये प्राका स्वकं स्वकमात्मीयं दर्शनं स्वदर्शनानुरागादाख्यातारः शोभनत्वेन प्रख्यापयितार इति न च तत्र विदितषेधेनास्था विधेयेति ॥ १३ ॥ च पुनरन्यथा कृतादिमतमुपदर्शयितुमाह । सएसए बहाणे, सिद्धिमेव न अन्नदा अहो हे बसवती, सव्वकामसमपिए ||१४| ( सप सप इत्यादि) ते कृतवादिनः शैवैकदमिप्रभृतयः स्वकीये स्वकीये उपतिष्ठन्तेऽस्मिन्नियुपस्थानं स्वीयमनुष्ठानं दीक्षा गुरुचरणधूपादिका तस्मिन्नेव सिद्धिमशेषसांसारिकप्रपञ्चरहितस्वभावमभिहितवन्तो नान्यथा नान्येन प्रकारेण सिकरवाप्यत इति । तथा हि शैवा दीक्कात एव मोक इत्येवं व्यवस्थिताः एकदमिकाः पञ्चविंशतितत्वपरिज्ञानान्मुक्तिरित्यभिहितवन्तस्त थाम्पेऽपि वैज्ञान्तिका यानाध्ययनसमाधिमार्गानुष्ठानात्समु रूपन्त येवमन्येऽपि यथा स्वदर्शनान्मोक्षमार्ग प्रतिपादयन्ती ति । अशेषद्वन्द्वोपरमलकणायाः सिद्धिप्राप्तेरधस्तात्प्रागपि यावदयापि सिद्धिमा यतीति तावदिदेव जन्मन्यस्मदीयदनोकानुष्ठानानुभावादगुणैश्वर्यसद्भाव प्रति दर्शयति मा रमवशं वर्तितुं शीलमस्येति आत्मवशवर्ती वशेन्द्रिययुक्तं भव तिरासी सांसारिके स्वभावेरनियते सर्वे कामाला अर्पिताः संपन्ना यस्य स सर्वकामसमर्पितो यान् यान् कामान् कामयते ते तेऽस्य सर्वे सिध्यन्तीति यावत् । तथा हि । सिके Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कडवा अनिधानराजेन्मः। रारादष्टगुणैश्वर्यसिद्धिर्भवति । तद्यथा । अणिमा लघिमा गरिमा स्ताचिथिलकुक्केस्तूपरिष्टात्परस्परासम्मिलितास्तिष्ठन्त्ययञ्चप्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं प्रतिघातित्वं यत्र कामावसायित्वमि- कटाह इत्युच्यते प्रका० १ पद । ति ॥१४ातदेवमिदैवास्मदुक्तानुष्ठायिनोऽष्टगुणैश्वर्यनकणा सिद्धि-कडि (डी)-कटि (टी)-स्त्री० कट-श्न-चा ङीप । शरीर र्भवत्यमुत्र चाऽशेषद्वन्द्वोपरमलक्षणा प्रवतीति दर्शयितुमाह। स्य मध्यन्नागे, कटिरिव कटिः वृक्कादेमध्यन्नागे च। “घणकडित. सिका य ते अरोगा य, इह मेगेसिमाहियं । इच्छायं" जं०१वकाराग"अमिबाणचामरदमपरिमंभियकमीसिद्धिमेव पुरोका, सासर गढिमा नरा॥१५॥ पं" श्री श्रोणी, तं० जीबम्तः पिप्पल्याम, स्त्री० मेदिन्याचा (सिका यते इत्यादि ) ये ह्यस्ममुक्तमनुष्ठानं सम्यगनुतिष्ठन्ति | कार्डिअ-कटित-त्रि० कटः संजातोऽस्येति कटितः । कटान्ततेऽस्मिन् जन्मन्यएगुणैश्वर्यरूपां सिकिमासाद्य पुनर्विशिष्टसमा- | रेणोपर्यावृते, जं० १ वक्त० । काष्ठादिभिः कुड्यादौ संस्कृते, धियोगेन शरीरत्यागं कृत्वा सिफाश्चाशेषद्वन्द्वरहिता अरोगा ज. | प्राचा०२ (०२०१०। वन्ति । अरोगग्रहणं चोपनक्कणम् अनेकशरीरमानसद्वन्दैन स्पृश-कडिकड-कटित कट-पुं० क० स० कटान्तरेणोपावृते कटे, न्ति शरीरमनसोरजावादित्येवमिहास्मिल्लोके सिलिविचारे वा “घणकमिअकरच्छायं" जे०१ वक्व०. एकेषां शैवादीनामिदमाख्यातं भाषितम् । तेच शैवादयःसिकि-कम्तिम-कटितट-न० कार्टस्तटामिव कटितटम् । मध्यनागे, मेव पुरस्कृत्य मुक्तिमेवाङ्गीकृत्य स्वकीये श्राश्ये स्वदर्शनान्युप युष राजा गमे प्रन्थिताः संबका अध्युपपन्नास्तदनकृला युक्तीः प्रतिपादयन्ति । नराश्व नराःप्राकृतपुरुषाशास्त्रावबोधविकसाः स्वाभि कमितडजायण-कटितटयातन-न० श्रोणिभागपीमने, तं। प्रेतार्थसाधनाय युक्तीः प्रतिपादयन्त्येवं तेऽपि परिममन्याकमिवंधण-कटिबन्धन-ज० कटिप्रदेशे वस्त्रादिन्य बन्धनरूपे बरमार्थमजानानाः स्वग्रहप्रसाधिका युक्तिमुदापयन्तीति । तथा न्धनेदे, “सामाश्मपुव्वमिच्छा-मि छात्रो काउरसम्ममिव्यासचोक्तम् ।"भाग्रही वत निनीषति युक्ति,तत्र यत्र मतिरस्य निर्वि- संभणियपलंबिध, भुअकुप्परधरिअपरिहणो "|१॥ इतिवृहत्य, टश । पकपातरहितस्य युक्ति-यंत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ॥१५॥ तिक्रमणहमग गाथामाश्रित्य केचन मतिनःप्रश्नयन्ति। यत् श्रीसांप्रतमेतेषामनर्थप्रदर्शनपुरःसरं दूषणाधित्सयाह। मन्तः कटिदवरकबन्धनं कुर्वन्ति तत्कुत्र शास्त्रे प्रोक्तमस्तीति प्रअसंवुडा अणादीयं, नमिहिंति पुणो पुणो ॥ में आवश्यकत्तिधर्मरत्नप्रकरणवृत्त्यादौ श्रीआर्यरक्किसूरिभिः स्वपितुः कटिदवरको बन्धित इति प्रोक्तमस्ति तेन तदाचरणकप्पकालमवज्जति,गणा आसुरकिदिवसिया त्तिवेमि।१६। या सांप्रतमपि बध्यत शति वृरुवादः श्येनप्र० ३२० २३६ प्रण। (असंवुमा इत्यादि) ते हि पाखएिमका मोकानिसन्धिनः समु कमिपट्टय-कटिपट्टक-पुं० धौतिकवस्त्रे, " मा धंदह अंते वंदित्थिता अपि असंवृता इन्छियनोइन्छियैरसंयता इहाप्यस्माकं ला कला | हिंति ममं न मुया कमिपट्टयं " प्रा०म० द्विः । “कमिपट्टए भइभियानुरोधेन सर्वविषयोपनोरमदमुत्र मुक्त्यवाप्नेः। तदेवं मु य बिसी" कटीपट्टकं स परिधाय निहली शिखा तस्य कग्धजनं प्रतारयन्तोनादिसंसारकान्तारं मिष्यन्ति पर्यटिष्यन्ति सव्या वृ०४०० । स्वदुश्चरितोपात्तकर्मपाशाः पाशावशापिताः पौनःपुन्येन नारकादियातनास्थानेषूत्पद्यन्ते । तथा हि नन्द्रियैरनियमितैरशेष कमिपत्त-कटिपत्र-न० कटी एव पत्रं प्रतलत्वनावयवस्यरूपद्वन्द्वप्रच्युतिलकणा सिकिरवाप्यते । यायणिमाद्यष्टगुणलवणे तया च सर्गादिवृतदनम् । कतिपत्रम् ।शकटीनागे, "धस्स दिकी सिकिरभिधीयतेसापि मुग्धजनप्रतारणाय दम्भकल्पवोत। कमिपट्टस्स श्मेयारुवे वष्या" अणु०३ वर्ग० । यापि च तेषां बाबतपोऽनुष्टानादिना स्वर्गावाप्तिः साप्येवं प्रा कमिबंधण-कटिबन्धन-ज० चोलपट्टके, “से कप्पश् कडिबन्धर्ण यो भवतीति दर्शयति । कल्पकालं प्रभूतकासमुत्पद्यन्ते संभव- | धारित्तप" कटिबन्धनं चोलपट्टकम् कर्तुम्स च विस्तरेण चतुन्ति । असुरा असुरस्थानोत्पन्ना नागकुमारादयस्तत्रापि न प्रधा रकुलाधिको दैर्येण कटीप्रमाण इति श्राचा०१ श्रु०० ००० नाः किं तर्हि किल्विपिका अधमाःप्रेष्यता अल्पर्धयोऽल्पनोगाः | कमिनिल-कटिज-न० शरीरैकदेशजाविनि कुष्ठनेदे, वृ०३उ०। स्वल्पायुःसामर्थ्याद्युपताश्च भवन्तीति सूत्र०१ श्रु०११०४०। कमिस-कटिच-पुं० कट् वा श्ल- । कारववे, ततः स्वार्थे कन् कमसमागा-कटशलाका-स्त्री० कटमयशलाकायाम, “कम्सु तत्रैव अमरः । वाच । महामहने, व्य०२२० । उपकरणनेदे, बरूमाणस्स, तेण बूढा कटसलागा" आ०चू०१०। आम नानाविधोपकरमा तानकसशकटिब्वादिजातितः दश०६ अका द्विवंशशबाकायाम, विपा०१ श्रु० ६ ० । विशे० । उद्गमोत्पादनारूपे, झानादिरूपे,०४ न० । कमहू-कडढू-पुं० वृक्तविशेषे, " कडहूवागादीर्हि "वृ०१०। कमिन्द्रदेस-कटिझदेश--पुं० महागहनप्रदेशे, व्य०२०। कडाइ-कृतादि-पुं० कृतयोगिनि, “पमिसेविन कमाई होइ समत्थो कमिसत्त-कटिनसत्र-न० कट्याभरणे, “कमिमुत्तमुकयसोहे" पसत्येसु कमाई नामकृतयोगी तिक्खुत्तो की जोगो अलाभे कटिसूत्रेण कट्याभरणेन सुष्ट कृता शोभा यस्य स तथा।०३ पणगहाणी तो गेएहति" नि०चू०१० परिकर्मितेषु, कल्पना वक्ताकाऔ०। कटिधाय्ये कासरचिते धातुमये कडाह-कटाह-पुं० कटमान्ति कट-ग्रा हन् म-पिचरविशेषे, | वा सूत्रे, वाच । पिं० लोहमयनाजनविशेष, उपा०३ अ० जायमानङ्गाग्राहि- कडु-कटु-न० पु० कटात सदाचार कडु-कटु-न० पुं० कटति सदाचारमावृणोति रसनामावृणोति पशिशी, मेदिका नरकभेदे, हारा० । खपरे, शब्द। सूर्ये, स्तुपे, वर्षति सावयति नासादितो जलम् कट-अन् । अकाये, अमकच्चे च इति केचित् वाच० । षट्पांशुलिकात्मके देहावयवे, । दूषणे, विश्व०। वाच० । गझामयादिप्रशमने मरिचनाग"उप्पंसुलिए कमाहे" पृष्ठिवंशे शेषषट्सन्धित्यः षट्पांशुखि- राधाश्रिते रसविशेषे, यदबादि “कटुर्गलामयं शोफं, हन्ति युका निर्गत्य पाइवेद्वयमावृत्य हृदयस्योजयतो वकः पञ्जरादध- क्योपसेवितः। दीपनः पाचको रुच्यो, वृङ्हणोऽतिकफाऽपहः।। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2019) अभिधानराजेन्द्रः । कमु I कर्म० ज० म० । तद्धति, धमरः स्त्रियां वा प् । परुषे मत्सरिणि, सुगन्धौ च । त्रि० । मेदि० श्रप्रिये, त्रिका० । दुर्गन्धौ शब्दमा० । वाच० । कांगर | कमेवर चिय-कलेवरचित पुं०] कोचरतया चिते पुत्रे ०१ 3 श० एड० । कमेवर संघाट-कलेवरसंघाट पुं० मनुष्यशरीरयुग्मे, रा० कट्टु कृष्-धा० विलेखने, आकर्षणे च । ज्या० पर० सक-अनिट् । कृषेः कटुसायाञ्चाणञ्चाणञ्च्चापवादञ्छा । ४ । ८६ । इति कादेशः । " कर करिस" प्रा० ॥ कमु - कृत्वा -- अव्य० शेषं शौरसेनीवत् ३०१ इत्यधिकृत्य “कृ गोडरुमः । इति शौरसैन्यां डकुअ श्रादेशः । विधायेत्यर्थे, प्रा० । कमुइया - कटुकी - स्त्री० कटु-स्वार्थे कन् गौरा० ङीप् । स्वार्थिकः कः । वल्लीविशेषे, "कंगूलया कडइया" प्रशा०१ पद । कष्टिकरण -कुवा-श्रव्य ० श्राकृष्य पतित्वेत्यथ । पं० ० । करुन कटुतेन नको, तैले च "अनोडालस्य देश कहिलमाण-कृष्यमाण-त्रि आकृष्यमाणे माणणि - 66 २।५५ इति तेलस्य डे इत्यादेशः "कल" सापले, “सुरहिजलेण कडुपल्लं प्रा० । रयतलं " श्रीकृष्यमाणनरक एवं तत्रं पातालम् प्रश्न० १ अध० द्वा० ३ ० । कडुन [य] कडक - पुं० कटु स्वार्थे कन् वैशयन्दनकृति रसविशेषे, " बगे कहुए " स्था० १ डा० यो कवि-कृष्ट त्रि० आकर्षित " । जिह्वाग्रं बाधते उद्वेग जनयति शिरो गृहीते नासिकां च खाचयति स कटुकः सुश्रु० तद्वति, वाच० । मरिचादौ, जं० ३ वक्ष० । शुण्ठमरिचसहसे कटुकरसपरिणते इन्ये उत्त० २६ अ० प्रा० आईकतीमनादौ, श्राचा० २ श्रु० १ ० १ उ० | झा० । वृ० । ० पहचानिऐ " असुभकडुयफरुसचंडफल विवागो " प्रश्न०२ सं०६०५ अ० । दारुणे असुन्दरे, प्रश्न ०१ अध०द्वा०१ अ० अनिष्टार्थे, प्रश्न०२ सं० द्वा०२ श्र० । चित्तोद्वेगकारिण्याम् भाषायाम्, आचा० २ श्रु०४ श्र०१०। तादृश्यां वेदनायां च | या हि पितप्रकोपपरिकलितस्य रोहिण्यादिकमन्यमिघोषभुज्यमानमतिशयेनाप्रीतिजनिकेति भावः । स्त्री० रा० प टोले, पुं० राजनिol सुगन्धितृणे, शब्दर०। कुटजवृक्षे, अर्कवृक्षे राजसर्षपे च पुं० हारा। एडीपिप्पलीमरिचरूपे, त्रिकटुके, न० मेदि० बाच० दण्डपरिच्छेदकारिणि, पुं० "दो सावष्ायस्य गोठियस्स डंडपरिच्छेयकारी कडगो भार नि० ५ उ० । चू० "" कमुग ( ये ) तुंबी - कटुकतुम्बी-स्त्री० कडई तँबी इति प्रसि विपाकः खायां कटुरसपरिणतायां तुम्म्याम, प्रज्ञा० १७ पद० । कमुगदुक्ख - कटुक दुःख न० दारुण दुःखे, प्रश्न ०१ श्रध०द्वा०१०। कडुग (य) फलदंसग - कटुकफलादर्शक - त्रि० असुन्दरफलादर्शके, प्रश्न० १ श्रध०द्वा०१ अ० । कमुग (य) फल विवाग- कटुकफलविपाक पाकोऽपि स्वादतो विशिष्यते फलरूपो विपाकः कटुकः विपाको येषान्ते तथा विपाकावस्थायां कटुकेषु कामभोगेषु भ० श० ३३ उ० । कमुगोसहाइजोग— कटुकोपधादियोग – पुं० नागराचीचसम्बन्ध आदिशब्दात्तारशिरावेधादिग्रह। पंचा० ६ विच० । कमुच्छ्रय— कटुच्छुक – १० परिवेषणाद्यभाजन विशेषे भ० ५ ० ७ उ० । कडुणाम- कटुनामन् — न० रसनामकर्मभेदे, यदुदयाञ्जन्तुशरीरं मरिचादिवत् कडु भवति वरकडुनाम कर्म० । कमेवराइगय-कृतेतरादिगत०] कृताकृतादिविषये ह मयाकृतमितरदकृतमादिशब्दादिदं मयोश्वरितमिदमनुच्चरितमेतत एतद्गत एतद्विषयः न हि मनोविभ्रमे कृतेतरादिसंस्कारो भवति । पो० १४ विच कमेवर कलेवर-म० मनुष्यशरीरे, रा० " तारे पुण्याणि यि कमेवरे पण्फो मियं ते सव्वे पमिया " श्रा० म० प्र० । "चक्कडिय" प्रश्न० १ अध० ६० १ अ० । कर्षिते, उच्चारिते, " सुत्तम्मि कढियम्मि " व्य० ५ ० । कतु का काव्य पडित्यर्थे “ नमोकार -कृष्ट्वा “कड्डेत्तु पवित्वा नमस्कारम् पं० व० । कढोकड कृष्टापकृष्ट-न० कर्षापकर्षणे, उत्त० १ श्र० । कढ कथ धा० वाकूप्रबन्धे, कथवर्धाढ । ४ । १ । इत्यन्त्यस्य ढः कढई, कथयति प्रा० । कथ धा० निष्पाके, ज्या० पर० स० सेट् कथेरट्टः ८|४|१९| इति । श्रट्टदेशानावे कढ कथति काथं पचतीत्यर्थः । प्रा० । कविता कठिन-जि० - मूरे निहुरे, कठोरे, स्वधे च मेदि० । स्थास्याम्, स्त्री० हारा० न० गुमस्य शर्करायाम्, विश्वः । वाच० । कर्कशोदये कर्मणि, औ० । " कठिणकम्मपस्थरतरंगरिंगतं " कठिनानि कर्कशानि दुर्भेयानीत्यर्थः । कमीणिव ज्ञानावरणादीनि क्रिया वा ये प्रस्तराः पाराणास्तैः कृत्वा तरङ्गरङ्गधीचिभिश्चलन् प्रश्न ०१ श्रध०द्वा०३ अ० तस्य भावः त्व 0 नित्यम् । कविमनाचे ० कविता तद्भावे श्री यन काठिन्यं तद्भावे, न० काविन्यञ्च द्रव्यस्य आरम्भसंयोगविशेषात् स्पर्शविशेषः समदादेस्तु दुर्बोधत्यम् स्वनामा मह पुं० "कोरी उप्पासो जिवसनिवसयिका सपुतो जसा कुछ कठिणो मरिस] " ती० । वंशकटादी, न०चा० २ ० २ श्र ३ ० । शरस्तम्बे, वृ० १ ० । कटिग कठिनक-२० अनाशयजे तृणविशेषे, पर्णे ० २ सं० द्वा० ६ अ० । " कठिणहियप कठिनहृदय-पुं स्त्री० घृतपलिष्ठे व्य०५४० करणका पुं० कण निर्मीने भम् । शाल्यादेः कणिकायाम, आचा० २ ० १ ० उ० । तमुले उत्त० १० प्र० । म्ले च्छभेदे, साधारणशरीरवादरवनस्पतिमेदे, प्रा० १ पद स समे महाग्रहे च पुं) "दो कणा" स्था०२ ग० चं०प्र० । कल्प० । काके-कम किकेतु-पुं० तेतनिपुरे "जंबूरीचे दीवे मारहे वासे तेयलिपुरं नाम णयरं कणइ केऊणाम राया" दर्श० । काइपुर - कनकपुर न० जनकमहाराजभ्रातुः कनकस्य निवासस्थाने, “ जणय महारायस्य नाचणो कणयस्य निवासघाणं क ण पुरं वट्ट" ती कणइर--कणाविल-त्त्रि० । कणाकीर्णे, " कणहरअकुडिल वुग्गय , गणा" जी०३ प्रति० कांगर-कनर पुं० जलगते बोरिस्थनिकरणपापा विपा० १ श्रु० ६ ० । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००) कणकणग भनिधानराजेन्डः। कणगप्पन्न कणकणग--कणकरणक--पुं) प्रष्टाशीतिमहाग्रहाणां नवमे महा-] खरं तत्संस्तायास्तथा तानिः, " जहा य कणयगिरियचचिया प्रदे, "दो कणकणगा” स्था०२ ग० । कल्प० । चं० प्र०) | सिया चत्तानीसं जोअणुच्चा कणमगिरिम्मि रमणिज्जे दीसकणकणारव-कणकणारव-पुंकणकणेति शब्दे, मा० म० प्र०) | ति" अं०१०॥ कणकुंमग-कणकुण्डक--न० पुं० कणास्तएनास्तेषां सम्मिश्रो कणगघंटिया-कनकघएिटका--स्त्री० स्वर्णमयनघुघण्टिकायावा कुएमकः तत्तादेनोत्पन्नः कुक्कुसः कणकुएमका सत्त०१मा म, औ०। अजये. तपसलक्ष्यभतनाजने, कणगघडिय-कनकघटित-त्रि० स्वर्णनिर्मिते, "कणगघमियन। "कणकुंमगचइताणं विटुंजसूयरो" उत्त० १२० । । सुत्तगसुखरूकचं" कनकघटितसूत्रकेण सुष्तु बकाकक्कोरुबन्धकणग-कणक-पुं० विन्दी, शनाकायाम्, औ०। वाणविशेषे, प्र- नं यस्य स तथा तम् ज०७श० उ०॥ अ०१ अध०द्वा१०। “सत्तिकणगवामकरगहिय" प्रश्न.१ अध०/ कणगजाल-कनकजाल-न० कनकः पीतसुवर्णविशेषस्तन्मयं द्वा०२० । ०। अष्टमे महाग्रहे, "दो कणगा" स्था०म०।। जाखं दामसमूहः रा०। सर्वात्मना हममये सम्बमाने दामसकल्प० । चं०प्र०। "कणगपयरसंबमाणमुज्जासमुज्जलं" कल्प01| मूहे, रा०॥ कणग-कनक-न कनी दीप्ती । कृआदि बुन् । णो णः | कणगाय-कनकध्वज-०रस्तिनागरमा Hamar शए । स्वरात्परस्यासंयुक्तस्यानादेर्नस्य णो भवतीति नस्य णः। धीश्वरे, येनाऽङ्गारमर्दकशिष्यजीवा दिवं गत्वा च्युता वसन्तप्रा० । देवकाञ्चने, श्रा०म०द्विलापीतसुवर्णे, भ० २०३३ उ०।। पुरेश्वरपुत्राः स्वसुताः स्वयम्बरे आहूताः पंचा० ५ विव० । श्रौल। सुवर्णमात्रे, चं० प्र०१ पाहु0 1 नि० । श्रीधा सू० प्र०) (विस्तरतः अंगारमदक शब्दे उक्तम् ) तेतलिपुरनगराधिपतेः कनकं घटिताघटितप्रकाराज्यां द्विविधम् । कल्प० ।धृतवरही-| कनकरथस्य पद्मवतीनामनार्यया पुत्रत्वेन परिकल्पिते तेतत्रिमुतपाधिपती, पुं) सू० प्र०१७ पाहु० । द्वा० । निपतति । नामामात्यभार्यायाः पोट्टिनायाः कुक्तिसम्न्ते पुत्रे, प्रा० चू० । रेखारहिते ज्योतिःपिएमके, औ० । पन्नाशवृक्के, नागकेशरे, ध-| १ अ० प्रा० म० द्वि० । का0। दर्श० । तेतझिसुतशब्दे कथा । सूरे, काञ्चनामवृक्के, कालीयवृक्के चम्पकवृक्के च। पुं० मेदि। कणगणान-कनकनान-पुं० वज्रसेनस्य राझो मङ्गयावतीनाम के च पुं० राजनिः । लाकातरी, शब्दमा० । पाश्चात्य- भार्यायामुत्पन्ने बाह्यपरनामके पुत्रे, प्रा० चूः १ अ0 । भा० म० नंदे, कनकस्येदं परिमाणम् अप कानकम् । तत्परिमाणे | प्र०। (सन्न शब्दे ललिताङ्गदेववक्तव्यतायामुक्तम् ) निकादी, त्रि० घाच. । कनकरसच्चरिते वने, भाचा०।कगणिगल-कनकनिग (म)-न निगडाकारे सौवर्यपा५ श्रु०५ म०१ २०॥ दाजरणविशेषे, औ०॥ कणगकंत-कनककान्त-न० कनकस्येव कान्तं कान्तियेषां तानि कणगणिज्जुत-कनकनियुक्त-त्रि कनकविच्चरिते,जी०३ प्रतिका कनककान्तानि | स्वर्णप्रभेषु वस्त्रेषु, प्राचा०२ श्रु०५ अ० १-1 मा समुद्रविशेषाधिपतौ च द्वी। कणगत्तरतान-कनकत्वगरक्ताल-त्रि० कनकत्वगिव रक्ता आ नाः कन्यो येषां तानि । सत्तप्तकनकवणेषु, “सोहम्मीसाणे कणककुसल-कनककुशल-पुं० तपागच्चीयश्रीदीरविजयसूरि देवा केरिसयावष्मेण पम्पत्ता तं जहा गोयमा! कणगत्तरत्ताना" शिष्ये, अनेन सं० १६५२ वर्षे [ बमनगरे ] जक्तामरस्त्रोत्रस्य | जी० ४ प्रति०। टीकारचिता - जै० इतिदा० द्विपञ्चाशदधिकषोमशशततमे।। करणगपट्ट-कनकपट्ट-पुं० कृतकनकरसपट्टे, आचा० १०५० कणगड-कनककूट-न० महाविदेहवर्षस्थविद्युत्प्रनयकस्कार- १३० । “कणगेण जस्स पट्टा कता तं कणगपढें । अहवा कणपर्वतस्य पद्मकूटनाम्नश्चतुर्थकूटस्य दक्षिणपश्चिमायां षष्टस्य गपट्टात्मिका" नि० ० अ०। सौवस्तिककूटस्योत्तरतः पञ्चमे कूटे, यत्र वारिषेणादिकुमारी- कणगपयर-कनकमतर-न० सुवर्णपत्रे, कल्प०। देवता ज०४वका स्था० । कनकं कनकमयं कूटं महत् शि कणगपुर-कनकपुर-न० स्वनामण्याते नगरे, “कणगपुरंणयर से खरं यस्य तत्तथा स्वर्णमयशिखरयुते, जी०३ प्रति० । रा०। यासे यनजाणे वीरजहो जक्खो पियचंदो राया" विपा०२ कणगकेन-कनककेतु-पुं० अहिच्छत्रायाः स्वनामख्याते नृपती, "श्र श्रु०६ अ०। हिच्चत्ताए णयरीए कणगकेऊ नाम राया होत्था" झा०१४१०कपगपुलगणियसपम्हगोर-कनकपुलकनिकषपद्मगौर-पुं०ककणगखइय-कणकखचित-त्रि० सुवर्णमपिमते, औ०। कनक-1 नकस्य सुवर्णस्य पुलको लवस्तस्य यो निकषः कनकपट्टको रेरसस्तवकाश्चिते वस्त्रादौ च-आचा०२ श्रु०५ अ०१० । “कण- खारूपस्तथा पद्मप्रहणेन पद्मकेशराण्युच्यन्ते अवयवे समुदायोकसुत्तेण फुण जस्स पामिपातंकणगखचितं" नि००७ उ०) पचारात् कनकपुनकनिकषवत् पद्मवञ्च यो गौरः स कनकपुनकणगखल-कनकखल--न पुं० स्वनामख्याते तापसाश्रमे, यत्र कनिषकपद्मगौरः । अथवा कनकस्य यः पुत्रको भवत्वे सति चएमकौशिकप्रबोधाय श्रीविरजिनो गतः । कल्प० । “ताहे सा- विन्पुस्तस्य मिकषो वर्णतः सदृशः कनकपुनकनिकपः । तथा मी उत्तरचावालं वश्च तत्थ अंतरा कणखलं नाम आसमपदं"। पद्मवत् पन्नकेशरबत् यो गौरः ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः । आ० म० द्वि० । आ० चू० । “स्वाम्यपि श्वेतवीं गच्च-नूचे गो रा० जे० वि० । वृद्धव्याख्या तु कनकस्य बोहादेयः पुनकः पैरसावृजुः । पन्थाः किन्त्वत्र कनक-खमाख्यस्तापसाश्रमः।। सारो वर्णातिशयस्तत्प्रधानो यो निकयो रखा तस्य यत्पदमसदविषाहिना रुको-ऽप्रचारः पक्किणामपि ग०२ अधि०। । बहुनखं तध्द्यो गौरः स कनकनिकषपदमगीरः । प्रतिशयितकरणगगिरि-कनकगिरि-पुं० मेरौ, कनकप्रचुरे पर्वतान्तरे च।। गौरवर्णविशिष्टपुरुषे, झा० १ ०। "कणगगिरिसिहरसंसियाहि" कनकगिरमेरोरन्यस्य वायचिकणगप्पभ-कनकप्रभ-पुं धृतवरद्वीपदवे, सू० प्र० १६ पाहु । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) कपागप्पन्न अभिधानराजेन्द्रः। कणगावली द्वी०।देवानन्दसूरिशिष्ये प्रद्युम्नसूरिगुरौ,अयं च विक्रमसंवत्सरा- फारे तपसि च । तत्स्वरूपं च कनकमयमणिकमयोनूपणविशेष. दद्वादशशताधिकनवतितमे वर्षे विद्यमान आसीत् । जै० ०। कल्पनया तदाकारं यत्तपस्तत्कनकावतीत्युच्यते। तत्स्थापना चैकणगफुल्लिय-कनकफद्धित-न०कनकस्तवकिते वस्त्रे, “कणगेण वं चतुर्य षष्टमटम चोत्तरार्धेणास्थाप्य तेषामधोऽष्टावष्टमानि च. जस्स फुद्विताओ दिमायो तं कणगफुद्धियं" नि० चू० ७ उ०॥ त्वारिचत्वारि पदियेनाऽवस्थापनीयानि उन्नयतो रेखाचतुकपागविमापग-कनकविकापक-पुं० दशमे महाग्रहे, "दो कणक- केण नवकोष्टकान्विधाय मध्यमे शून्यं विधाय शेषेप्वष्टसु तानि विमापगा" स्था० २ ग०। स्थापनीयानि । ततस्तस्याधोऽधश्चतुर्थादीनि चतुस्त्रिंशत्तमपर्य न्तानि ततः कनकावलिमध्यनागकल्पनया चतुस्त्रिंशदष्टमानि ताकणगफुसिय-कनकस्पृष्ट-न० स्वर्णसंपृक्ते वस्त्रे, आचा० २ श्रु० नि चोत्तरार्धन त्रीणि चत्वारि पञ्च पद पञ्च चत्वारि त्रीणि ५० १२० । द्वे चेत्येव स्थाप्यानि । अथवाऽप्टानिः पम् भिश्च रेखानिः पञ्चकणगफुसिया-कणकफुसिया- स्त्री० कणो बेशस्तन्मात्रक त्रिंशत्कोउकान्विधाय मध्ये शून्यं कृत्वा शेषेषु तानि स्थापनीपानीयं कणकं तस्य फुसिया फुसारम् । पानीयफुसारे, "कणग- यानीति । तत उपयुपरि चतुस्त्रिंशत्तमादीनि चतुर्थान्तानि ततः फुसियमित पमिनिवडर नो से कप्प" कल्प० ।। पूर्ववदष्टावष्टमानि । ततोऽष्टमं षष्ठं चतुर्थ चेति चतुर्थादीनि कणगमय-कनकमय-त्रि० कनकस्य विकारो मयद, स्वर्णवि- च क्रमेणकोपवासादिरूपाणीति । अत्र चैकस्यां परिपाट्यां विकारे, वाच । सौवणे, स्था० एम०। कृतिभिः पारणकं द्वितीयस्यां निर्दिवकृतिकेन तृतीयायामलेपकृता करणगमंजरी-कनकमञ्जरी-स्त्री० स्वनामख्यातायां चित्रका- चतुर्थी वा चाम्वमिति। अत्र चैकैकस्यां परिपाट्यामेकसंयत्सरा रसुतायाम्, वा मृत्वा कनकमाला खेचरी जाता उत्त० अ० मासाः पञ्च दिनानि च द्वादश परिपाटी चतुष्टये तु संवत्सकणगमाला-कनकमाला-स्त्री०बैतात्यपर्वते,तोरणानिधे पुरे दुः। राः पञ्च मासा नव दिनानि चाष्टादशेति । औ०॥ दशक्तेः खेचरस्य पुज्याम्, उत्त० अ०। तवृत्तं नग्ग(३) शब्दे । इच्छामि एं अज्जो तुज्केहिं अज्मणुमाया समाणीकसिंहरथस्य राको महिषी स्वसंपन्धं कथयन्ती कनकमञ्जरी- गावनिं तवोकम्म उवसंपजित्ता विहरति । ते एवं नाम्न्याश्चित्रकरसुतायाः कनकमासाजन्मचरिते मणिष्यति ) मेघपुरनगरराजस्य मकरध्वजस्य देव्यां च । दर्श० । ( तश्चरि जहा रयणावली तहा कणगावनी वि नवरं तिसु हाणेसु तंदीपपूजादृष्टान्ते) अजमातिकरे जहारयणावलीए छट्ठातीए एकाए परिवामीए कणगमूल-कनकमल-न० विश्वमूझे, अत्त० २ १०॥ एगे संवच्छरे पंच मासा वारस य अहोरत्ता चउएहं पंच कणगरह-कनकरथ-पुं० स्वनामख्याते तेतसिपुरनगरेश्वरे, वरिसा नव मासा अट्ठारसदिवसा सेसं तहेव नव वासा आ० म० दि० प्रा० चू० । शा० । (तेतलिसुत शब्दे कथा) वि- परियातो यावणित्ता जाव सिका।। जयपुराधीश्वरे, स्था० १० ग०। (यस्य वैद्यो धन्वन्तरिनाम ज- रयणावली कमणं, कीरइ कणगावली तवो नवरं । न्मान्तरे समुम्बरदत्त श्रासीदित्युदुम्बरदत्त शब्दे उक्तम् ) यं कजा दुग्गतिगपए, दाडिमपुप्फेसु पयगे य । महापमस्तीर्थकरो मुएमयित्वा प्रवाजयिष्यति तस्मिन् राजनि च परिवामिचनके वरि-स पंचगदिणगणमासतिगं । स्था०७ ग०। कणगरुयग-कनकरुषक-त्रि० काश्चनकान्ती, प्रश्न० १ अध०। पढमपवुत्तो कज्जो, पारणयविही तवप्पणगे ॥३॥ द्वा०४ अ०॥ कनकमयमणिकनिष्पनो भूषणविशेषः कनकावली तदाकारस्थाकणगलया-कनकलता-स्त्री० । चरमस्यासुरेन्द्रस्य सोमलोक- पनया यत्तपस्तत्फकनवतीत्युच्यते । एतच ककनवसीतपोरत्नावपालस्य द्वितीयाग्रमहिण्याम, स्था०४ ग०॥ सीतपःक्रमेणैव क्रियते।नवरं केवलं दामिमपुष्पयो पदके च त्रिककागसंतापय-कनकसन्तानक-पुं० एकादशे महाग्रहे, "दो पदे त्रिकाणां स्थापना उपवासद्वयसूचकणगसंताणया" च०प्र०२० पाहु० । स्था०। कल्प० । सू० प्र०। काः द्विकाः कर्तव्याः । शेषं पुनः सर्वम राशा |३४||१| पितथैवेति । अस्मिश्च तपसि काहसिकाकणगसमाणणाम-कनकसमानतामन-पुं० कनकेन सह एक ५१३४ यास्तपोदिनानि द्वादशदामिमपुष्पयो - देशेन समानं नाम येषां ते कनकसमाननामानः । कण १ क २३४५१ त्रिंशत्सरिकायुगले द्वे शते द्विसप्तत्युत्तरे णक २ कणकणक ३ कणवितानक ४ कणसन्तानका ५ ख्यम पदके षट्षष्टिः सर्वसंख्यया त्रीणि शग्रहाहेषु, सू० प्र० २० पाहु० । जं0। चं० प्र०। तानि चतुरशीत्यधिकानि अष्टाशीतिश्च पारणकदिवसास्तत्प्रकणगसत्तरि-कनकसप्तरि-स्त्री० लौकिकश्रुतभेदे, अनु० । केपाश्चत्वारि दिनशतानि द्वासप्तत्युत्तराणि सर्वपिएमेषु वर्षमेकं कणगसुंदरि-कनकमुन्दरी-स्त्री० । मथुरायां जातायां सिंहराज त्रयो मासा द्वाविंशतिर्दिवसाः अत्रापि पूर्ववचतुर्भिर्गुणने वर्षामहिण्याम " इत्थं संखरान कलावई अपंचमजम्मे देवसीहक- णि पञ्च मासी द्वौ दिनानि चाष्टाविंशतिरिति । अन्तकृद्दशादिषु णयसुदरीनामाणो समणो वासया रजसिरि तुंजित्था" ती०। तु कनकावल्या पदके दामिमद्वये च द्विकस्थाने त्रिका उक्ताः । करणगा-कण (न) का-स्त्री० चतुरिन्छियजीवविशेषे, जी०१ रत्नावल्यां च द्विका इति । तथा प्रथमतपसिलघुसिंह निष्कीमिप्रति ! नामस्य राकस्येन्स्य तृतीयानमहिष्याम् , भ० १० श० ते यः सर्वरस आहारादिकः पारणकविधिरुक्तः स एव तपःप५ उ0 | स्था०॥ चकपि लघुवृहत्सिहनिष्क्रीमितमुक्तावलीरत्नावलीलकणे कर्तकणगाव (लि) बी-कनकाव (लि) ली-स्त्री० कनकमयम- व्यः । पतञ्च सर्व यथायथं भवितमेवेति प्रव०२७१ द्वा० । । णिकनिष्पन्ने नूषणविशेषे, प्रव० २७१ द्वा० कल्पनया तदा- प्राचा०जी०। स्वनामख्याते द्वीपे समुझे च । तत्र द्वीपे कन Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१०) कणगावली अनिधानराजेन्द्रः। कएन कावलिजाकनकावनिमहाजौ देवौ समुझे कनकावनिवरकन- के परस्परमेकान्तविभिन्नं (मिच्छनि ) आ० म०प्र०। (आसा कावनिमहावरौ देवौ जी० ३ प्रति॥ सम्मतिगायानामर्थः वेसेसिपशब्दे तन्मतस्योद्भावनपुरःसरं दू. कणगाव लिपविजत्ति-कनकावलिपविभक्ति-म० नाट्यविधि- | षणेन स्पष्टीनविष्यति) नेदे, रा॥ | कणासि-कणासिन्- पुं० कणादमुनौ, नं०। कणगावलिभद-कनकाचविना--पुं० कनकावलिद्वीपदेवे, जी कणि (मि) आर-कर्णिकार-पुं० कर्णिकारे वा ॥२॥ ३ प्रतिक इति रलोपे द्वित्वविकल्पः । वृक्तविशेषे, प्रा० ॥ कणगावनिमहानद-कनकावलिमहाभ-पुं० कनकावलिस- कणिक (य)-कणिक-पुं० कणो विद्यतेऽस्य अस्त्यर्थे नन्। मुघदेवे, जी० ३ प्रति। गोधूमचूर्णे, राजनि० । अतिसूक्वांशे अग्निमन्यवृक्के च स्त्री० कणगावनिमहावर-कनकावनिमहावर-पुं० कनकावलिवर- | मेदि। स्वार्थे उन अल्पार्थे, कणैव स्वार्थे कन् कणिका ।जीरसमुपदेवे, जी० ३ प्रतिः ॥ के, मेदि० । अल्पांशे, तण्डुलनेदे, रायमुकुटः । वाच0। गोधूकणगावशिवर-कनकावलिवर-पुं० स्वनामख्याते द्वीपे, समुझे | मचूर्णेच। कट्ठयघटितोऽपि तत्र वृषोदरादित्वात्साधुत्वम् । यथा च तत्र हीपे कनकावलिवरलकनकावलिवरमहाभौ देवी किन मोदकः कणिकागुरुघूतकटुभारमादिद्रव्यवास्था०४ग समुझे कनकावलिबरकनकावलिमहावरी देवी जी०३ प्रति। काणक्कमच्च-कणिकमत्स्य-पुं०मत्स्यभेदे, जी०१प्रति०। प्रज्ञान कणगावनिवरजद्द-कनकावलिवरभ-पुं० स्वनामख्याते, क- कणिट्ठ-कनिष्ठ-त्रि० अतिशयेन युवा अल्पो वा इष्ठन् । कनानकावलिवरद्वीपाधिपतौ, जी. ३ प्रति०॥ देशः । अतितरुणे, अत्यल्पे, अनुजे, पुं० स्त्री० दुर्घलाङ्गलौ, अकणगावशिवरमहाजद-कनकावलिवरमहाजन-पुं० कनका- ल्पाली, स्त्री० मेदि० । कनिष्ठस्य भार्यायां अल्पवयस्कायां वनिवरहीपाधिपतौ देवे, जी० ३ प्रतिः । स्त्रियों, स्त्री० तत्र पुंयोगलक्षणं ङीषं वयोवाचिलक्षणं च वाकपागावलिवरोनास-कनकावन्निवरावभास-पुं० स्वनामख्याते धित्वा अजादिपाठात टाप् अत्यल्पपरिमिते, त्रि०वाचा प •यण लघौ, ग०२ अधिः । जघन्ये च त्रिकर्म० । द्वीपे, समुद्रे च । तत्र द्वीपे कनकावलिवरावनासनद्रकनकाव कणिट्ठअर-कनिष्ठतर-त्रि० श्रातिशयिककनिष्ठे, प्रा० । शिवरावभासमहानदी देवौ । समुझे कनकावशिवरावनासवरकनकावलिवरावभासमहावरी देवी जी० ३ प्रति० ।। कणिठ्ठग-कनिष्ठक-त्रि० कनिष्ठ-स्वार्थे कन् । कनिष्ठशब्दार्थे, कणगाव शिवरोनासनद्द-कनकावलिवरावभासभष-पुं० क- | वाच० । “जेठकणिटुगा" ज्येष्ठकनिष्ठकाः वृक्षा लघवश्च नकावशिवरावभासद्वीपे देवे, जी0 ३ प्रति)। उत्त०२२ अ०। कणगावलिवरोभासमहाजद्द-कनकावलिवरावभासमहान्द्र कणिय-कणित-न कण आर्तस्वरे, भावे क्तः १ पीडिताना पुं० कनकावलिवरावभासद्वीपदेवे, जी० ३ प्रति० ॥ शब्द, कर्तरि क्तः तत्कर्त्तरि, त्रि० । वाच० । कण-भावे-क्तः । कणगावन्निवरोजासमहावर-कनकावलिवरावनासमहावर ध्वनौ, आव० ४ ०। पुं० कनकावलिबरावभाससमुखदेवे, जी0 ३ प्रति० ॥ कणिया-कणिका-स्त्री० । शाल्यादेः कणे, प्राचा० २ श्रु०१ कणगावलिवरोजासवर-कनकावलिवरावनासवर-पुं० कन अ०८ उन कणिता स्त्री० वीणाविशेषे जी० ३ प्रतिः । कावलिवरावभाससमुदेवे, जी०३ प्रति० ॥ कणीणिगा-कनीनिका-स्त्री० कन-कनि वा ईनन् संज्ञायां कणगुत्तम-कनकोत्तम-पुं०पौरस्त्यचतुर्थशिस्त्ररिकूटाधीश्वरे, द्वी0 | कन् आप इत्वम्। अक्षितारायां, कनिष्ठाङ्गलौ च मेदि। कर्पूरे, "अंगारो कणीणिगा कजलं च णयणम्मि" क० । कापूपलिया-कनपूपमिका-स्त्री० कणिकानिः कृतायां पूप कणीयस्-कनीयस्-त्रि० अयमनयोरति युवा अल्पो वा ईयझिकायाम, प्राचा०२ श्रु०१ अ0। सुन् कनादेशः । द्वयोर्मध्ये अल्पतरे, युवतरे, वा वाच० । ककाजक्ख-कणभक्ष-पुं० कणादौ वैशेषिकसूत्रकारे, आव० निष्ठे, लघौ, "जा णं ममं सहोदरकणीयसे भाउए भविस्सह" ६० । कण गप्यत्र, आचा० १ श्रु० १०॥ अन्त०। प्रा० म० द्वि०। कणवियाणग-कणवितानक-पुंदशमे महाग्रहे,सू० प्र०२० पाहुन काय-कणक-न० पुं० त्वगाद्यवयवे "सुकणुयं" आचा० २ कणवीर-करवीर- पुं० करं वीरयति चु) वीर-विक्रान्तौ अण। श्रु० १ अ० उ०। करवीर णः ५३॥ इतिरस्य णः प्रा०ा वृतभेदे,राका प्रशास -40वतः कर्णिकारे ८६८ कर्णिकारे। इतः कणाद (य)-कणाद-पुं० कणमत्ति-कण-अद्-वैशेषिकसू सस्वरव्यञ्जनेन सह ए वा भवति " कणेरो कम्मिश्रारो" त्रकारे काश्यपगोत्रे ऋषिभेदे, वाच० । सूत्र० । मिथ्याहाहः क वृक्षभेदे, प्रा० । संस्कृते कणेर इति कर्णिकारवृक्षे घेश्यायां, णादवत् कणादेनापि हि सकलमप्यात्मीयं शास्त्रं द्वाज्यामपि हस्तिन्यां च स्त्री० उणादिकोषः । वाच । अव्यास्तिकपर्यायास्तिकनयाच्यां समर्थितं तथापि तन्मिथ्यास्वविषयप्रधानतया परस्परमनपेक्कयोः सामान्यविशेषयोरभ्युपग कणेरु करेणु-स्त्री० के मस्तके रेणुरस्याः करेणू वाराणस्योमात् । उक्तश्च"ज सामनविससे, परोप्परं वत्थुतो य सो भि रणोर्व्यत्ययः ८।२।.६॥ इति रणोयत्ययः कणेरू स्त्रीलिङ्गनिने ! मंतर अच्चंतमंतो, मिच्छादिछी कणादो ब्व । दो विनए- देशात्पुसि न भवति । एसा करणू हास्तन्याम, हि नीय, सत्यमलुगेण तह वि मिच्चत्तं । जं सविसयप्पहाणं, त-कएअ-कएक-पुं० कति अन्- प्राकृते अणनो व्यञ्जनेणण अन्नोन्ननिरविक्खो॥" अथ यदि नाम सामान्यविशेषादि- ११२५। ति णस्थानेऽनुस्वारः। तस्य वर्गेऽन्त्ये वा । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२११) अभिधानराजेन्द्रः । कण्ठम १ । ३० । इति उपरत्वात्त धर्भ्यः पञ्चमो णः । गले, एवमत्र अनुस्वाकरणािकारादिशब्दा उदाहारथी प्रा कमरिया - कन्दरिका—स्त्री० [कन्दर गौरा डीए स्पार्थे कः । प्राकृते "कन्दरिकानिन्दियाले एड छ। २ । ३ इति संयुक्तस्य एमः । कएमरिआ गुहायाम्, । काम क० गते आर्यनेम कर्ण करणे अ-की-ते शब्दा वायुनाऽत्र कृ-नन् वा श्रोत्रशब्दज्ञानसाधने इन्द्रिये, वाच० उत्तरपणे ०२०"जय कम्पपूर - कर्णपूर-पुं० कर्णे पूरयति कर्ण- -पूर- अण-कर्णाजरणविशेषे शा० भ० नीलोत्पले शिरीष अशोक पते पुष्पैः स्त्री कर्णस्य भूषा जयतीति तेषां तथान्यम् वाच० । कपूर-कर्णपूरक-पतिस्ववृके, वाचा स्वार्थे कन् पुष्पमये कर्णाभरणविशेषे, झा०८० सी भच्छ्रसणिज्ञ" तदाचारे गोलके अस्य उप गा किसनाथा "नकोणास कष्पमणणिकर-कर्णमनोनितकर ६० प्रति या प्रार्णा मेदि० कि र्णमनसो सुखोत्पादके, जं० १ ० जी० । कोटिसंयोजकरे एवाजेदे, चाच० प्रथमकोटिभागे, चं० प्र० २ कर्णमझ - कर्णमल - कर्णग्यादौ नि० ० ३ ० । लेप्मणिनं पाहु| कुटिले - कर्णोऽस्ति यस्य प्राशस्त्येन श्रर्श० श्रच् लम्बकर्णे, अरिये च शि० बाय० । कृष्णदासुदेवसमये जाते देशराज कापणा-कर्मवेदना प्रकर्णयोः पमारूपे रोगभेदे, विद्या० १ धानीबारे सच डौपदीस्वयम्बरे आहूत "त पण तुमंगरा ० का उज्जकान्यकुज-पुं० देशभेदे, सब देशो गङ्गायमुनयोर्मध्ये अन्ततः देशाने नगरभेदे " फिर सिरिन जगरे जपको नाम मगमो हुत्या ती कहर - कर्णकुटर प्रति कम्पग कर्ण गतिखी० मेरुसन्धिन्यां दधरिकायाम अथ केयं कगतिते। आमेोरेकस्मिन् प्रदेशे सम श्रेणिव्यवस्थिते मेरोरेष प्रदेशे या दयरिका प्रदीप्यते सा कर्णगतिः । ज्यो० १० पाहु० । अ० । उपा० जी० । ० । कम्पकनकन०करपलेणगं चूलोवणयणं रा० ॥ भ० । कास-कम्यस्यादिनिपातात् कन्या कन्यत्वेन काम्यत्वेन सीयते भवसीयते सोयेक निरन्द "रामस्य कन्यसो जाता" रामा० स्त्रियां, वयोवाचित्वात् ङीष् । श्रधमे, त्रि० वाच| "कमसत्ति कामसमज्जिमजेठा" सूत्रत्वाकमिति याच उत० [अ०] (सूत्यादि उता संस्तः कन्यशब्दो नास्तीति जाति) काकुली कशी श्री० कस्य कुतीय लके तन्मध्याकाशे च वाच० । कर्णायत्याम्, “उमुहक"कर्जमुखे कशकुल्यो कर्णायती पोती तथा शा०८ श्र० पुं० । कसर-फशर करुगामिनि शरे ०६० कमसुह - कर्णमुख - त्रि० कर्णसुखदायके, रा० । श्रौ० । प्रतिशायाम, कागा कन्यका स्त्री० [अज्ञाता कन्या महातार्थे कन् पिका दित्वात् त्वम् "दशमे कन्यका प्रोक्ता” । इति स्मृत्युक्तायां दशमयां खियाम्, तस्थादशमद रजोताहा सत्यात्तथात्यम कन्या स्वार्थे कन् । कन्याशब्दार्थे वाच० "श्या णि निदाए दोहं कणगाणं वितिया" आव० ४ श्र० । कमजयसिंहदेव - कर्णजयसिंहदेव गुर्जरपरिश्रीशासकेोकमासोक्ख कर्णसौख्यत्र कौती ०० ये राज विक्रमादित्यात्यधात् "अदन सुलतानम्लेच्छराजात् प्राग्यातः ती० । कामदेव कर्णदेव पु० विक्रमसंवत्सरस्य त्रयोदशतायापरा जाते प्रशावल्याः पुत्रे सौराष्ठदेशजे राजभे, यो हि हम्मीरयुवराजेन सोमनाथार्थे नाशितः । ती कपा (हा) र कर्णधार - पुं० कर्णमरित्रं धारयति -अण्-उपस- नाविके, निर्यामके, झा० अ० । आव० । ज्ञा० " मश्कन्न धाराणं " आ० म० हि । कापाचरण-कमावरणदीपमेदे वासिनि मनुष्ये च अन्तरद्वीपशब्दे वर्णक उक्तः प्रज्ञा० १ पद०प्र०स्था० नं कष्पपा (लि (ली ) कर्णपालि (सी) स्त्री००६ कर्णपाल के कर्णाशभेदे (कारमाता या मांसपेशी भेदः वाय० । कर्णोपरितन नागभूषण विशेषे, प्र० । कापी कर्णपीठ कर्णाभरणविशेषे महादजी मममयल कपीवधारी " कर्णौ एव पीछे आसने कुरामचारात्कर्णपीठे सुटे पृष्टे गरम कपोलटे की काय ते गमकतेच ते वि शेषणपदकर्मधारयः प्रदे च केयूरे बाभ 01 गोमालिय पारयति रणविशेषाः यः स तथा । अथवा अङ्गदे च कुएमले च मृष्टगणमतले कर्णपीठे च कर्णाभरणविशेष नूते धारयति यः स तथा स्थान ६ ठा० औ० । 66 कसोपवमिया-कस्रोतःप्रतिज्ञा स्त्री० श्राकर्णनार्थम् इत्यर्थः । नि० चू० १६ उ० श्राचा० । कम्पसोडणकर्मशोधन० कयोलनिःसार - करणभेदे, "कमाए सोहरा पुराणमलेगा संतु दु क्खेज जस्स कन्ना ण सुरोज व सो तु गिरहेज्जा " पं० भा० । श्राचा" जे मिक् सोहरागस्स उत्तरकरणं यमेव करे करतं वासा इज" नि० चू० ४ उ० 3 कष्णा - कन्या - स्त्री०कन् यत् श्रन्या० नि० कन्यायाः कनीनचेति निर्देशात् वयसि प्रथमे इति न ङीप् वाच । श्रपरिणीतायां स्त्रियाम् उपा० १ श्र० । कुमार्य्याम, पञ्चा० १ विव० । मेषा - दितः पराशी, घृतकुमाम मेदि स्थूलसायाम पा कन्दे राजनि "श्री वेदकन्या "इत्युकल क्षणे चतुरक्षरपादके छन्दोभेदे च । वाच० । कामागोमालिय-कन्यागोम्पलीक० कन्या कुमारी गीध बहुला भूमि भूरिति इन्द्रन्तासु विषयेऽलीकम कन्यागोभूम्यलीकमलदेवत्वति च वशात् । स्थूलकमृपावादविरमणाख्य तृतीयाणुव्रता तिचारे, पञ्चा० १विव । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१२) कामाचोलय अनिधानराजेन्द्रः। करमाणयपीय कामाचोन्नय-कन्याचोलक-न० जवनालके, नं० । रायपुत्ताणं धाडीसमागया णयरं सव्वश्रो विश्वत्थं एवं पायकामाम-काट-पुं०"रामनाथं समारभ्व, श्रीरङ्गातं किलेश्वरि! मपभावो सामीभावपूइओ जाव तेरेसयपंचासीए संवच्चरो कर्णाटदेश इत्युक्तो, राज्यसाम्राज्यदायकः । शक्तिसङ्ग उक्ते तम्मि वरिसे आगएणं वियवंसजाएणं घोरपरिणामेणं देशभेदे, वाच । कल्प। सावया साहुणो य बंदीए काउविमविया सिरिपासनाहकमाण यणीय-कन्यानयनीय-न० चोलदेशप्रधाने नगरे, तत्र विवं सेलमयमग्गं सा पुण सिरीमहावीरपमिमा अखंडिया श्रीवीरप्रतिमा चिरपूजिताऽऽसीत् तवृत्तं चेत्थम् । चेव सगममारोविया विद्वीपुरमाणे जण गलका वा दहिपणमिय अमियगुणगणं, सुरगिरिवीरं जिणं महावीरं। य मुरत्ताणो किरिश्रागओ संतोजं आइसित्तं करिस्सामोत्ति कन्नाणयपुरट्ठिय, तप्पडिमाकप्प किमपि वोच्चं ॥१॥ ठिया पम्मरसमासे तुरुक्कवट्टीए जो वसमागो काल कमेण चोबदेसावयंसो कमाणयनयरे विकमपुरवत्यन्वपहू जिण - देवगिरिनयराओ जोगिणिपुरं सिरिमहम्मदसुरत्ताणो अवइसूरीचुवपिनो साहू माणदेवकाराविया वारहसयति नया विहिणा जाणवयं विहरिता संपत्ता ठिबीसाहापुरे तीसे विक्कमवारिसे आसाढसुघदसमी गुरुदिवसे सिरिजि खरयरगच्छगलंकारसिरिजिणसिंहमूरिपइडिया सिरिजिणएए वसूरिहिं अम्ह वि य पुव्यायरिएहिं पहिया धम्माण पहरिणो कमेण महारायसभाए पमियगुच्छाए पच्छुसीलसमुग्घायजाई रसोबलघडिया तेवीसपत्रपरिमाणा नह याए को नाम विसडियरो पंमियउत्तरायएण पुढो जोइमुत्तिसग्गणे विघंट व्व सदं कुणंति सिरिमहावीरपमिमा सु सियधाराधरेण तेसिं गुणत्थइपारदा तओ महाराएणं मिणाया से णानकवालाभिहाणपुटविधाउ विसेसेणं तं चेव पेसिय सबहमाणाविया पोससुचवियाए संकाए सन्निहिया पामिहरा सावयजणाणं संघेणं चिरं पूइया जाव सूरिणा नहिओ तेण हि महारायाहिरायो अच्चासने वारहसयमयाले विकमाञ्चसंवच्छरे बाहुवीणकुलप्पईवे नववेसिओ कुसलाइवत्तं पुच्छिय आवणिो अहीणसिरिपुहविरायणरिंदे सुरत्ताणसहवदीने तं निहणंतीए र चकवो आसिव्वाअो विरिं अकृत्तीए जाव एगते गोट्टी कया ज्जप्पहाणेण परमसावरण सिटिरामदेवेण सावयं संघस्स तत्येव रत्तिं वसित्ताए पुणो पाहुया संतुट्टेण महाणरिंदेण सेहो पिहिलो जहा तुरकसंजायं सिरीमहावीरपमिमा प गोसहस्सदविणजायं पहाणपुज्जाण वत्यसयं कंवलसयं च्छन्ना धारेयव्वा तो सावएहिं दाहिमकुलमंमणं कयं वा अगुरुचंदणकप्पूराइगंधदबाई व दानमाढत्ताणि तो समंमविना मंकिए कयं वासच्छलिए विनलवाअोलुया गुरूहिं साहूणं एयं न कप्पत्ति संबोहिऊण महारायं ज्करे उविया जाव तत्थढिया जाव तेरस इक्कारसे विक्कमवरि पडिसिक्के सव्वं वत्थं पुणो रायाहिरायस्स मा अप्पत्तियं से संजाए अश्दारुणे मुग्जिक्खे अणिव्वहंतो जाजो होहित्ति। किंचि कंबलवत्था गुरुमाइहिं अंगीकयं रायान्निनाम सुत्तहरो जीवियानिमित्तं सुनिक्खदेसं पइ सकुमुंबो च ओगेणं तो नाणादेसंतरागयं पंडिएहिं सह वायगुडिं लियो कन्नानयणीया उ पढमपयाणयं थोवं कायब्बति कलि कारवित्ता मयंगयहत्विजुयलं प्राणावि एमम्मि गुरुणो ऊण कयं वासत्यलेववत् रयाणं पुच्छो अफरते देवयाए अन्नम्मि य सिरिजिण देवायरिए आरोवित्ता वजंतामुं तस्स सुमिणं दिन जहा इत्य तुमं जत्य पुत्तोसि तस्स हिडे अट्ठसुस्सरतारणियगयणभेरीतुं पूरिजमारणेसु जमलसंखेसु भगवो महावीरस्स पडिमापत्तिए मुहथिए चिट्ठ तु धुमंतेसु मुयंगमहलकंसालटोझाश्सद्देसु पदंतेसु नट्टपट्टेसु वा मए वि देसंतरं न गंतव्वं भविस्स इत्येव ते निब्वाहोत्ति। नवासमेया चउन्विहं संघसंजत्ता य सूरिणो पोसहसालं तेण समं पमिबुकेण तं गणं पुत्ताईहिं खणाधियं जाव दिट्टा पट्टविया सावएहिं पवेसमहूसवो विहिरो दिमाइ महादाणाई सा पमिमा तो हतुटेण नयरं गंतूण सावयसंघस्स पुणो पातसाहिणा समप्पियसयलसेयंवरदसणउववरनिवेइयं । सावएहि महूसवपुरस्सरं परमेसरो पाविसि उण क्खाणक्खमं पुरुसाणं पेसिया चनद्दिसिं गुरुहिं तस्स पाडच्छंठाविप्रोचेश्यहरे पूज्ज तिकालं । अणेगवाविप्रो चेइ- दिया जाया सासणुन्नई । अन्नया मग्गिहिं सूरिहिं सिरियहरे पूज्ज । तिकालं अणेगवारं तुरक नवद्दवामुक्को त- सत्तुंजयगिरनारफलवकीपमुहतित्थाणं रक्खाणत्थं फुरमाण स्स य सुत्तहारस्स सावएहि वित्तनिव्वाहो कारिओ पडि- दिन्नं तक्खणं चेव सव्वनोमेणं पसियंतं तित्थेसु मोइया माए परिगरो गवसिओ वित्तहिं न लछो कत्थ वि घलप- गुरुवयणाणतरे अणेगे वंदितो रायाहिरायेण रविसोमवारिसरे चिट्ठः । तत्थ य पसस्थिसंवच्छराई विहिअसंभाविज रदिने गुरुणो वाचाराउझं वरिसंतेजनहरे भेट्टिो मुरत्ताणणे अन्नया एहावणेएं स वुत्तो भयवओसरीरे पसेरुपसरंतोदि कदमखरंटिया पाया गुरूणं हायिया माहाराएण हो लूहिज्जमाणो वि जाव न विरमिज्जइ ताव नायं सद्देहिं ज मलिककापूरयासाप्रो पवरसिवयखंडेण तो आसीहा कोवियो वच्चो अवस्मयं इत्य होही जाव पनाए जय वाए दिये वयाणा कव्वे य वक्खाणीए अईव चमकारि Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१३ ) अभिधानराजेन्द्रः । कायणीय चित्तो जाओ महाराओ महारणरिंदो अवसरं नाऊण मग्गसिर सुस्म रूवकह णत्थं पुत्रं सा जगवओ महावीरस्स पमिमादिमो य ताओ सुकमारगोडीओ काऊ एगच्छतवसुहाविवयणा आणविया जुगलका वादकोसाओ मओ सूयगाण मह्निकाणं खंधे काऊण सयलसन्नासमक्खं प्र अ श्राणावि दडूणं च समप्पिया गुरूणं । तो महूसवपजावरण पुवं सुक्खा साडिया पवेसिया सयल संघेणं मलिकताजनसराईए चेइया घाझ्या गुरुर्हि वासक्खेवो पूज महापूयाई तो महारायस्स आएसें सिरिजिणदेवसूरिणो अप्पनरसेटिनी मंगवे ठावित्ता पढिया कमेण गुरुणो महरट्ठमंगले दिसा रायाहिराएण सात्रय - संघसहियाणं गुरूणं च सहकारिरहतुरयगुपिणी सुक्खासाई सामग्गी अंतराबणगरे सुपजावणं ता पए संघेणं समाहिज्जमाणा पुन्नतित्थाई नम॑ता सूरिणो कमेण पत्ता देवभिरिनगरं संघेणं पवेसमहूसको कओ संघपूया य जाव जाया पयद्वाणपुरे य जीवंतसामि मुरिणसुव्वयपमिमा संघ - वइजगसीसाहसादेवप्पमुहसंयमतएहिं जत्ता कया प दिल्लीए विजयकट्टए जिणदेवसूरीहिं विदिट्ठो महाराप्रदिप सुरत्ताणसराइत्ति तीसे पामं वियं तत्थ चत्तारिसाई सावयकुलाई निवासत्थं इत्याणि तत्थ काराविय पोसहसाला कलिकालचकवट्टिणा चेइओवट्ठावित्र्यो तत्थ सो चैत्र देसे सिरिमहावीरो तिकालं महरिहपूया पयारेदिं भगवंतं परतित्थिवासे सेयंवरभत्ता य सावया दद्दू महम्मदसाहिक सासणुभयं एवं पंचमका कलिं तिजणा ११ वित्रं पहियविंवं, वीरजिणेसस्स धुयकिलेसस्स । आदंवसूरियमिणं - मणनयरणाणं जयइ निच्चं । कन्नाजयपुरसं ठय- देवमहावीरपडिमकप्पो य । मिहिओ मुणीसरे, जिलसिंहमुदिसीसेणं ॥ ३ ॥ श्री कन्यानयमहावीरेति नामा कल्पः । परिशेषवृत्तं तु । यह विज्जातिलयमुणी, आरसा संघतिलयसूरीणं | परिसेसलवं जंप, कंनाणयवीरकप्पस्स || १ ॥ तहाहि जद्दारिया सिरिष्पहरिणो सिरिदनत्ता वादनरे सादुलो सालसह जाव अचलकारित्र्य चेइआएं तुरकेहिं कीरमाणं भंगं फुरनाणदंसणपुत्रं निवारित्ता सिरिजिणसासपजावणातिसयं कुणंता पामिच्छगाणं सिद्धं तवायांदिता तवस्साणं गाणंगपविट्ठागमतवाई कारिता विशेयाणं अवरगच्छीयमुखीणं पियमारणवागरणकव्वनायालंकाराई सत्याई जणंता उन्भडवायजमवायाणं वादविदाएं महता जाव से संवच्छर तिगमइकमंति । इश्रो सिरिजा गिणिपुरे सिरिमहम्मद साहिसगाहिराउ कहिं । 1 For Private कमायणीय वि अवसरे पत्याए पडिअगुट्टीए सत्यविचारसंसयमावनो सुमरे गुरूणं गुणे जइ । जइ ते जट्टरया संपयं महासुहालंकरणं हुंता तो मज्झमणोगय समत्थसंसयसयसल्बुकरणे हेलाए खमंता नूरंग विष्पड़ तब्बुद्धिपराजिप्रोउ चैव भूमिमुज्झितं गयणदेममीणो इत्थं गुरूणं नूव किज्जमाणगुण विन्भाणावइअरे अवसरत्तू तक्कालं दे लतावादादागता जलमलिको भूमिश्रन मिलिग्रभालट्टो विभवे । महाराय ! संति ते तत्थ महप्पाणो परं नयरनीरमसहमाना किसिगा गाढं वहति तो संजरिगुरुगुणपब्भारेण नृमिनाहपासो चेव सीदो आइहो जो मल्लिक ! सिग्धं गंतूण 5वीरखाने लिहावेसु फुरमा - रणं फासे । उत्थ जहा तारिससामग्गीए चेव भट्टारया पुण इच्छति । तो तेल तव कए पेसिअं फुरमाणं कमेण पत्तं सिरिउतावादीवाणे भणियं च सविषयं नयरनायगे सिरिकुतूहलखा तेण भट्टारयाएं सिरिपालसिंहपुरमाणागमा चुलीपुरं पइत्थाएं वाहाणं तत्र दिएदसगन्तरे सन्नत्रिण जिहसि वारसीए रायजोगे संघस थिअपरिसाए गम्ममाणा पत्थिश्रा महया वित्थरेणं गुरु करेण वाणे ठाणे महूसवसयाई पाउन्नावयंता वि समदूतमादप्पं दलंता सयलंतराल जणवय जाग्नय एकोऊदह्यमुप्पायंता धम्मट्ठालाई उकरंता दूर उकंवा वि संला समागच्छंत प्रायरिश्रवग्गेहिं वंदिज्जमाणा पत्ता रायचूमिमंगणं सिरिश्रह्नावपुर दुग्गंत उत्ततारिसए जावणाए गुरिसा सहिए हुमिलक्खुकयं विष्पमिवत्तं मुणिऊण ता चैत्र गुरूणं सीसुतमेहिं रायसनामंगणेहिं गुरुगुणालंकि - देहेहिं सिरिजिणदेवसूरीहिं विभत्तेण भुवइणा सम्मुहं पविद्याविण बहुमाणं फुरमाणेण मलिकप्पवपित्र्सयलसत्यअवत्थुणो विसेस जिणसासणं पजावयंता ब मासं च्छित्र पत्यिज्जा अल्लापुर पुणो त्रि धरणीना सिरिसिरोह मज्झानयरे संमूह पेसियम सिएसिणदेवस व्यायवत्यदसण अलंकारिश्रा जाव हम्मीरवीररायहाणी परिसरे देसे सुसंपत्ता । इयो चिरोवचिप्रभत्ति भिमुहमा गएहिं दंसण निमित्तिओ विक्रमयकुडं एहाएहिं बंधनमप्पाणं मन्नमाणेहिं प्रायरिज संघसावयविंदेहिं परिअरिया भद्दविय मिन्त्री आए जाया रायसभामंडला जुगप्पहारणुतक्खणं आणंदभरनिब्ज रेहिं नयरेहिं हि अनुत्थाणमिवाय रंतेरण सिरिमहम्मदसाहपातसाहे पुच्छिया कोमलगिराए कुलपत्तिं वंचिओ असेसिहं गुरूणं कारावि घर गिराए धरित्र्यो अहिए अचंतादरपररेण गुरुर्हि पितकालकविहिनवासीत्रयणदाणेन चमकारि नरेसरमाएसं पसियायमहामदसारं वि Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) करपाणयाणीय अभिधानराजेन्द्रः। करमाणयगीय सालसालं पोसहपानं अट्ठाय महीनाहेण गुरूगं सह गम- तोसिआ पीइदाणण विनसा जकरिया दाणेणं वीणाण णाय पहाणपुरिसाणं दुअरायाणो सिरीदीनारपमुहा म- होइलोया चालिया। पुणनया मग्गसिरमासे पुनदिसजयहामद्विका य पणमंति सयसाहस्सा विरुक्कंठिा सावयलो- जत्तापस्थिएण अप्पणा सह नरिंदोण करिश्रा ठाणे ठाणे या मिनिआ य वीरदसणलालसा नयरलोआ संगया य को- वंदामो अणाइणा जिणधम्मपत्नावण नकरिअं सिरिमऊहलेणं पगइजाएवयजणा तो वि दिविंदेहि जोगायनि- हुरातित्थं संतोसिया दाणाईहिं दिअवराइणो निचं पाहिं थुवंता भूवानप्पसाइअभूरिजेरीवेणुवीणामदलमुइंग- वासूणं संघावारे कति मन्त्रमाणेण महीनाहेण खोजे जहा गडुपमहजमलसंखमुग्गनाइ विउसवाइअरावाणं दिअंतरावं मलिकेण सहिं आगरा नगराओ परिपेसिआ रायहार्णि विणिम्मचिंताविप्पवग्गोहिं वेअज्मणीहिं युणिजंता गंधद- पा सच्चपश्ना गुरुणो महिऊण सिरिहत्थिणारजुत्ता फुव्वेहिं मुहवाहिअग्गजमाणमंगला पत्ता तकाझं सिरिमुर रमाणं समागया तिअघाणे मुणिवाणो तओ मेलिऊण चताणसराइपोसहसालंकया य बच्छा नयणमहसवा संघपुरि- नविहं संघ काऊण य पुत्तवाहिमसहिस्स साहुवोहित्यस्स सेहं चेइओ अजद्दवयसि अमइया दिणे सयलसंघकारि- संघवत्ततिलयं पहिआ आसुहत्ते सायरिआइपरिवाएअमहसवसारं सिरिपजोसवणाकप्पो पत्ता य वाणे गणे सिरिहत्थिणाउररजंतगुरुणो विहिहाणे विहिट्ठाणे संघवइआगमणप्पभावणा बेहारंजित्रा सयादेससंघा मोइआ अ- वोहित्यणमहसवा संपत्ता। तिक्खनूमि कयं च वचावणयं णेगे रायवंदिवद्धा रायदिज्झसयसाहस्तसावया इअर- ठाविआणि तित्यगुरूहि अहिरणवकारियपइडिआणि सिलोगा य करुणाए उम्मोइया काराहिंतो दीना दावित्रा य रिसंतिकुंथुअरजिणविंवाणि अंविा पमिमा य चेइअट्ठाअपइहाणं पइट्टा कया य काराविआ य अणेगणेगरा- णेसु कया य संघवच्छनाइमहूसवा संघवइणा संघण य पूश्या यवंदीबद्धा रायदिज्सयसहस्सामो जिणधम्मप्पभावणा | वत्यनोअणतंबोलाहिं वणीमगसत्था आगयमित्तेहिं जएवं णिचं रायसनागमणपंडिअवाइअविंदविजयपुव्वं प ताओ समागए महाराए पवटुंति ऊसवा चेवसहीसु संभावणाए पगट्टमाणाए कमेणं बासारत्तचनमासीये वइक्कं- माणे गुरुणो नत्तरोत्तरमाणवाणेण मिरिसव्वभोमो वताए अन्नया फग्गुणामासे दन्लता वादान आगच्छंतीए। जंति । पदिसं सूरिसब्बलृमाणं पभावणा सरोजसपमहा मगदूमई जहानामधिज्जाए निजजणणीए संमुहं पट्टिएण | विहरांति निरुवसग्गं सव्वदेसेसु सेअंबरा य दिअंबरा य राचनरंगसमूहसत्तट्टेण सुरनाणेण अब्भुत्याणपुरस्सरं चा- याहिरायदिनफुरमाणहत्था खरतरगच्छालंकारगुरुप्पसालिया गुरुणो अप्पणा समं वमथूणठाणे सिडिआ जणणी यात्रो सगसिन्नपरिजूए विदिसिचक्केकयाई गुरुहि फरमामहाराएण दिन्नं सव्वेसिं महादाणं परिधाविया सब्बे प- एगहणेण अकुतोलयाई सिरिसत्तुंजयगिरिनारफलवधिहाणकवाश्वत्थाई कमेण पत्तो महसवमई रायहाणिस- प्पमुहतित्थाई नजोइन्वाइकिच्चेहि सिरिपालित्तयमहम्माणिया गुरुणो कत्थ कप्पूराईहिं तओ चितसिअदुवाल- सवाइसिफसेनदिवायरहरिजद्दसूरिहेमचंदमूरिप्पमुहा पुसीए रायजोगे महारायाणमापुच्चिअपातसाहिदत्तसाव्याण व्वपुरिसा किं बहुणा सूरी चक्कवट्टीणं गुणेहिं आवजिगयाए कया नंदी तत्थ दिक्खिया पंच सीसा मालारोवण- अस्स नरिंदस्स पयडाए व पयदृति सयधम्मकजा भावई सम्मंतारोवणाई णि अधम्मकिच्चाई कयाणि निधि जति पइपच्चूसं चेइअवसहीसु जमलसंखा किजति धम्मचित्तं थिरं देवनंदनेन बंजदत्तेन आसाढमुच्छदसमीए अपइ- एहिं वीरविहारे वजंतगहिरसुद्दलमयंगजुम्गलतालपिखणट्ठियाणि अणिहियवक्कारियाणि तेरसविवाणि महावि- यसारमहापूजाओ वासिंति सिरिमहावीरपुरो भविअत्यरेण तत्य विवकारावएहिं बहूअं वित्तं विसो साहुम लोअउग्गाहिजमाणकप्पूरागरुपरिमलुग्गरो दिसिचकं संचहरायतएण अजयदेवेण त्ति। तहा अन्नया नरिंदेण दरो रंति हिंदुअरज्जे व दूसमसुसमाए इच अजरज्जे वि निच्चं समागमेण गुरूणं कटुंति वितिऊण पदिन्नासयमेव दूसमाए जिणसासणप्पभावणाए रायणसिद्धाए मणिणो निअपासायमासे सोहंतजवणराई अभिणवसराई आश्ट्ठा किं च बुहति गुरूरणं पायपीठे किंकरा इव पंचदंसणिणो य बसि। तत्थ सावयसंघा भट्टारयसरा इति कयं सेसयं न- सपरिवारा पभिच्छति पडिच्चगा व गुरुवयम् सेवंति अ रिंदण णामं कारिओ । तत्येव वीरविहारो पोसहसाला य निरंतरं जाव सादसहिया गुरूणं दंससुग्गइहपरलोकपातसाहिणा तो तेरससयनवासिअवरिसे आसाढकिएह जस्थिणो परतित्थियो निश्चिअब्जयणाओ गच्छति निचं सत्तमीए सुमहत्ते महीवइसमाइनीयनवाइअसंपदा य पय- रायसभाए गुरुणो मोआवंति वितिवग्गं उपायंति जिणुमिज्जमाणअमागमहसवसारं सयं नरिंदण दाविज्जमाणम- त्ताणुसारजुत्तिजुत्तवयणेहिं निरंतरं रायमणे कोऊहवं हादाणं गाइजमाणमंगलं पविद्या पोसहसाल भट्टारया सं- महावरियासवारिनणा पयर्टति पए पए पभावणं गंगोदय Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमाणयणीय अनिधानराजेन्द्रः। काह सच्चित्ता धवलिं तिनि अजसचंदिमाए दिअंतरालाई यत्र अन्येषामपीति दीर्घ इति । "कर्णीरथस्था रघुवीरपत्रीम"। उज्जीवति । वयणामएहिं जीवलोगं सदंमणिणो परदंस रघुावाचा "विदिमउत्तचामरवालवीयणिया कामीरहप्पयाया वि होत्था"कीरथः प्रवहणविशेषस्तेन प्रयातं गमनं यस्याः णियो अवहंति सिरिडिअं गुरूणं आणं समग्गवावारेम। सा तथा । कीरथो हि ऋछिमता केपांचिदेव भवतीति सोवक्खाणित्ति अणन्नसाहारणभंगीए सपरिसचं तं जुग्गप्प- ऽपि तस्यास्तीत्यतिशयप्रतिपादनार्थोऽपि शब्दः झा०५ अः। हाणा एअारिसा पनावणा एगरिसा पयमं चेव परिभा- कएह-कृष्ण-पुं० कृप-नक् । सूक्ष्म श्न प्ण महणवर्णएहः साश विज्जमाणा निचं पि वट्टमाणा कित्तियमित्ता अप्पमईहिं ७५ । इति संयुक्तस्य णकाराकान्तो हकारः । प्रा० । वर्णनेदे, कहेनं सका केवनं जीवंतु बच्चरकोमीओ पनावयंतु कृष्णो वर्ण इति सामान्यं तस्य च नमराडारकोकिलकज्जलासिरिजिणसासणं सुचिरं इमे सूरिवरा जिणप्पहसूरीहिं दिषु प्रकर्षाप्रकर्षविशेषाद नेदाः । कृष्णः कृष्णतर: कृष्णतम इत्यादि प्राचा०१ श्रु०१ अ०२ न० । कृष्णवर्णाञ्जनवत् झा० णं गुणलेसवुईए पजावणं गति परिसो से परिकहिज्जा २० कालवणे, तं०। कृष्णवति. "किण्ड इतीकारवद्रूपं बाकन्नाणयवीरकप्पस्स ।। इति कन्यानयनीयश्रीमहावीरकल्पः। हुल्येन अपलन्यते इति तत्रैव वर्णकं वदयामि जी०३ प्रति० । कमाडभट्टदिवागर-कर्णाटभट्टदिवाकर-पुं० दक्षिणापथप्रसिद्ध अवसर्पिण्यां वसुदेवाद्देवक्यां जाते नवमवासुदेवे, स०। आव०। विद्वद्वर, ती0 (स च दक्षिणापथादागच्छन् श्रीवृद्धवादिसूरि प्रव० । ( अस्य आजन्मकथा वसुदेवहिएमचा प्रतिपादितः तत एवाऽवधार्या पञ्चाङ्गयां तदनुप्रकरणेषु च किश्चित्किञ्चिदुपबमिर्जितो व्रतं ग्राहितश्चेति कुमुंबेसरशन्दे वक्ष्यते) ब्धं वृत्तं सन्दर्जवशादितस्ततः स्थापितम्। यथा कस्मिन् समये कमापिउत्त-कन्यापितृत्व-न) कन्याजनकत्वे, “जातेति चिन्ता कस्य जिनस्यान्तरे जात इत्यन्तरशब्दे-अवरकाङ्गगमनमिति महतीति शोकः, कस्मै प्रदेयेति महान विकल्पः । दत्ता सुख अच्छेर दोपदी शब्दयोः पितृनामायुर्गत्यादि वासुदेवशब्दे नेमिस्थास्यति वा न वेति, कन्यापितृत्वं खलु नाम कष्टम"ध० र ॥ जिनेन सह बलपरीवणादि नेमि शब्द-सांग्रामिक्यादि भेरीप्राकपालिय-कन्यालीक-न० कन्या अपरिणीता स्त्री तदर्थम- प्तिकथा भेरी शब्दे ) अग्रमहिण्यश्चाग्रमहिषाशब्दे नवरमिह । लीकं कन्यालीकम, उपा०१ अ० कुमारीविषये असत्ये, प्रभ० तणं कालेणं तेणं समयणं वारावती णाम णयरी होत्ति १ अध० द्वा०३ अ०। यथा द्वेषादिभिरविषकन्यां विषकन्यो दुवालसजायणायामा नवजोषणावित्थिामा वेसवणमतिणिविषकन्यामविषकन्यां वा सुशीलां वा दुःशीलां दुःशीला वा म्माया चापीकरपागारा णाणामणिपंचवष्णकविसीप्सरा मंसुशीलामित्यादि वदतो भवति ध०३ अधि० । आव० । तच्च स्थूलकमृषावादविरमणातिचारेषु, लोकेऽतिगर्हितत्वादुपातं डिता सुरमा अबकापुरीसंकासा पमुदितपकीनिया पञ्चक्खं तेन सर्वत्र मनुष्यजातिविषयमलीकमुपलक्षितम् उपा०१०।। देवलोयभया पासादीया ४ तीसे णं वारवतीए णयरीकाणावली-कर्णावली-स्त्री कर्णः कुटादयस्तेषामावली संह- ए बहिया नसरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थणं खेए णाम तिर्यासां तास्तथा । कुटादिकर्णसङ्घाते, अणु० ३ वर्ग। पन्वते होत्था । वमो तत्थ एं रखए पनते णंदणवणे कमिया-कर्णिका-स्त्री० कर्ण-वुज् अत इत्वम् । कर्णाभरणने- णामं नजाणे होत्या । वमो सुरप्पिए णामं जक्खायदे, करिशुएमाग्रवार्तन्यङ्गासाकारे पदार्थे, क्रमुकादिवृत्तपरम्परा- णे होत्या । पोरायणे सेणं एगेण वणसमेण असोगवरपायाम, (बटा ) करमध्याङ्गबौ, मेदिलेखन्याम, हारा० । अ यवे तत्थ पं वारवतीए एयरीए कहे णामं वासुदेवे राया निमन्थवृक्के, राजनि० । वाचः । वीजकोशे, न. ११ श०२ उ०। उन्नतसमचित्रविन्मुकिन्याम्, प्रज्ञा०२ पद । मध्यम परिचस महया रायवमत्रो से तत्थ सेमुद्दविजयपामोएमलिकायाम् नं० शाल्यादिबीजस्य मुखमूबे बोके या तुषमुख- क्खाणं दसएहदसाराणं बलदेवपामोक्खाणं पंचएहमहावीमित्युच्यते । स्था० ग० । कोणविभागे, स्था०० ज०।। राणं पज्जूाणपामोक्खाणं अट्ठट्ठाणं कुमारकोमीणं संवमो"अट्ठ कमिये" कर्णिकाः कोणाः अनु० । क्खाणं सहीए इंतसाहस्सीणं महासेणं पामोक्खाणं छकमियार-कर्णिकार-पुं० कर्णि नेदेन करोति क-अ- नप- स० प्पमाए बलवयसाहसीणं वीरसेणपामोक्खाणं एगवीसाए (गणियारी)वृतजेदे, पाराग्वधवृतनेदे च शोधनरूपमनभेदक- वीरसाहसणं उग्गसेनपामोक्खाणं सोलसएहरायसाहसीणं स्वात् तयोस्तथात्वम् वाचावाप्रज्ञाका स्था० गोशासस्य रूपिणीपामोक्खाणं सोनस एहं देवीसाहस्सीणं अणंगसेमहलिपत्रस्य दिक्चरभेदे, भ०१४ श०१० न०। कर्णिकारस्य। पुष्प, न० का0 ए अ०। णं पामोक्खाणं अणेगाणं गणितासाहस्सीणं अणेसिंच बकप्पीरह-कर्णीरथ-पुं० कर्णः सामीप्येनास्त्यस्य कर्णी स्कन्धः हुणं राईसर जाव मत्थवाहेण वारवतीए एयरीए अचभतेन : शोभा यस्य न समासान्तः कप । स चासौ रथो रथरूपं रहस्स य समंतस्स आहेवच्चं जाव विहरति । वाहन कर्म । स्कन्धवाह्ये याने, (पालकी) श्त्यादौ, । शब्द- (गयसुकुमार शब्दऽपि वृत्तम् ) आर्यकृष्णाचार्ये,येन वोटिकचि०। अन्या व्युत्पत्तिर्दर्शिता यथा कर्णसाध्यक्रिया उपचारात् । मतप्रवर्तकः शिवनतिर्दीक्वितः श्रा०क। दिगम्बरमतोत्पत्तिमूल कर्णः । कर्णोऽस्यास्तीति शनि की चासौ रथश्च शब्दमात्रे- सहस्रमल्लस्तस्य गुरुः किं नामेत्यत्र कृष्णाचार्य इति आवश्यकण रथो न वस्तुतो रथः । यद्वा सामीप्यात् कर्णशब्देन स्कन्धो वृत्तौ तदधिकारे उक्तमस्ति ही । “पुच्छसिवनु पि य, कोबक्ष्यते सोऽस्यास्ति वाहनत्वेन इनि कर्णी चासौ रथश्च नन्न- सिय पुज्जत कएहे य" कल्प० । श्रेणिकभार्यायाः कृष्णाया Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कण्ह आत्मजे, नि० (तस्य वक्तव्यता निरयावनिकायाश्चतुर्थेऽध्ययने सुचिता प्रथमाध्ययनोक्तकाल वक्तव्यतावशेया) परब्रह्मणि, वेदव्यासे, अर्जुने, मध्यमपाएमचे च । कृष्णवर्णत्वात् कोकिले, विश्वः । काके, मेदि० करमर्दकवृके, शब्दर० नीले वर्णे, तद्वति त्रि० अमरः । कालागरुणि, राजनि० । अशुभकर्मणि, न० । स्रौपद्याम्, नीवृक्के, पिप्पल्याम, द्राक्कायाम, स्त्री० मेदि० । नीलपुनर्नवायाम्, कृष्णजीरके, नीलाञ्जने, बौहे, मरिचे च पुं० जटाधरः । चन्द्रयात्मके मासे, कृष्णसारमृगे, पुं० [स्त्री० वाच० । " करणं वासुदेवे दस धई उऊं उच्चतेणं दस वाससयाई सव्वाउयं पालयिता तच्चाए वालुयप्पभाष पुढवी नेरक्ष्यत्ताए नववन्ने " स्था० १० वा० । ( २१६ ) अभिधानराजेन्द्रः । कण्हराइ अक्खाडगसमचउरंस संठा संविया अह राई पक्ष-ओजा पुरच्छिण दो पञ्चच्चि मेणं दो दाहिणेां दो उत्तरेणं दो पुरच्छिमजंतरा कण्हराई दाहिणं बाहिरं कहराई पुट्ठा दाहिए अंतरा कएहराई पञ्चच्चिमवाहिरं कहराई पुट्ठा पच्चच्छ्रिमन्तरा कएहराई उत्तरवाहिरं कहराई पुट्ठा उत्तरब्जंतरा कण्हराई पुरच्चिमवाहिरं कहराई पुट्ठा दो पुरच्छिमपञ्चच्छिमाओ बाहिरात्री हराई छ संसाओ दो उत्तरदाहिणबाहिरा कएहराई सादोपुर मपच्चच्छिमाओ अनंतराओ argराई चरंसाओ दो उत्तरदाहिणाओ अभंतराओ कहराई ओ चउरंसा “ पुव्बावरा व लंसा, तसा पु दाहिणुत्तरावज्झा | अवसेसा चउरंसा, सव्वा विय कहराई" भ० ६ ० ५ उ० । कहकंद - कृष्णकन्द- पुं० क-स-साधारणशरीरवनस्पतिभेदे, श्राचा० १ ० | कन्दविशेषे, उत्त० १ अ० | जी० । प्रज्ञा० । कृष्णः कन्दोser नीलोत्पल्ले, न० त्रिका० । वाच० । कहकप्रियार- कृष्णकर्णिकार - पुं० कृष्णवर्णे कर्णिकारे, जी० ३ प्रति० ३ उ० । कल्हकुमार - कृष्णकुमार - पुं० श्रेणिक भार्य्याया कृष्णाया आत्मजे, नि० (तद्वक्तव्यता निरयावलिकायाश्चतुर्थेऽध्ययने सुचिता तत्रैव प्रथमाध्ययनोक्तकालकुमारवन्नैया ) कहगोमि (ए) कृष्ण गोमिन् - पुं० कृष्णशृगाले, " कहगोमी जहा चित्ता, कंटकं वा विचित्तयं " । कृष्णगोमी कृष्णष्टगालो यथा स कृष्णादिभी रेखाभिश्चित्रा विचित्रवर्णा भवति । व्य० ६ ० ॥ कल्हणाम (म्) - कृष्ण नामन् - न० वर्णनामकर्मभेदे, यदुदयाज्ज तुरं कृष्णं भवति राजपट्टादिवत्तत्कर्मापि कृष्णनाम, कर्म० । कहपक्खिय- कृष्णपाक्षिक-पुं० कृष्णपकोऽस्यास्तीति कृष्णपाक्विकः । सूत्र० २ ० २ ० । कूरकर्मणि, श्रा० । अधिकतर - संसारनाजिनि, वक्तं च " जेसिं वो पुग्गल - परिपट्टो सेसो य संसारो । ते सुक्कपक्खिया खबु, अहिए पुण कएहपक्खीओ” ॥ १ ॥ प्रज्ञा० ३ पद । पं० सं० । यो० वि० | स्था० ( सुक्कयशब्दे दमक उक्तः ) कह परिव्वायग-कृष्ण परिव्राजक - पुं० परिवाजकभेदे, नार यणभक्तिके च । श्र० । कहबंधुजीव-कृष्णवन्धुजीव- पुं० कृष्णवर्णकुसुमे बन्धुजीववृक्षे, जी० २ प्रति० ३ उ० । कहनूम-कृष्णनूम-पुं० कृष्णा भूमिर्यत्र अच्- समा० कालवर्णमृत्तिकायुक्ते देशे, हेम० । सकलसूत्रार्थग्रहणधारणसमर्थ कृ भूप्रदेश तुल्ये विनेये, श्रा० म०प्र० (अस्य स्वरूपं सिस्सशब्दे " बुट्टे वि दोम्पामहे, न करहभोमा व उबट्टए उदयं " इतिगाया घनदृष्टान्ते स्पष्टीभविष्यति ) कटराइ - कृष्णराज - स्त्री० कृष्णवर्णपुङ्गल रेखायाम्, भ० ६ श० ५ उ० । कालकपुलपङ्की, स्था० ८ ठार | कृष्णराजयश्च कति केत्याह । कणं भंते! कहराई पम्मत्ताओ ? गोयमा ! अ कहराई पत्ताओ ! कइ एां जंते ! एया अट्ट कएहगई पत्ता ? गोथमा ! उपिं सकुमारमाहिंदा कप्पा हिडिं वंजलोए कप्परिट्टे विमाणे पत्थ मे । एत्थ णं For Private ( उप्पिमित्यादि) सुगमं नधरम् ( उत्पिरि) उपरि (हि ंति) अ. धस्ताद्ब्रह्मलोकस्य रिष्ठास्यो यो विमानप्रस्तटस्तस्येति भावः । श्राखादकवत्समं तुल्यं सर्वासु दिक्षु चतुरस्त्रं चतुष्कोणं यत्संस्थानांसंस्कारस्तेन संस्थिता श्राखाटकसमचतुरस्रसंस्थानसंस्थिताः कृष्णराजयः कालपुफलपङ्कयस्तद्युक्त क्षेत्रविशेषा श्रपि तथोच्यन्त इति । यथा च ता व्यवस्थितास्तथा दर्श्यन्ते ( पुरच्क्रिमेणंति ) पुरस्तात्पूर्वस्यां दिशीत्यर्थः । द्वे कृष्णराजी एवमन्यास्वपि द्वे द्वे तत्र प्राक्तनीयका श्रभ्यन्तरा कृष्णराजी सा दाक्षिणात्यां बाह्यान्तां स्पृष्टा स्पृष्टवती एवं सर्वा पि वाच्यस्तथा पौरस्त्यपाश्चात्ये द्वे बाधे कृष्णराजी पडत्रे षट्कोटिके उत्तरादाक्षिणात्ये द्वे बाधे कृष्ण राज्यस्त्रे सर्वाश्चतस्त्रोऽपीत्यर्थोऽभ्यन्तराश्चतुरस्त्राः स्था० ८ ठा० । कण्हराई णं भंते । केवइयं आयामेणं केवइयं विक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पसत्ताओ ? गोयमा ! असंखेजाई जोयसहस्साई प्रायामेणं संरेबज्जाई जोयणसहस्साइं विक्खंनेणं असंखेज्जाई जोयणसहस्साइं परिक्खेवेणं पपत्ता | कहराई जंते ! के महालिया पत्ता ? गोमा ! यणं जंबूदीवे जाव श्रमाणं बीईवएज्जा अत्थे गइ कहराई बीवएज्जा अत्थे गइए कण्हराई णो महालया गोयमा ! करहराईओ पताओ । अस्थि भंते ! करहराईस गेदाइ वा गेहवणाइ वो इण सम | अस्थि णं नंते ! कएदराई गामाइ वा जाव सवेिसा वा यो इणट्ठे समहे । प्रत्थि एणं नंते! हराई नराला बलाढ्या संसेइ ! हंता अस्थि । तं भंते! किं देवो ? गोयमा ! देवो पकरेइ नो १ असुरो नो नात्रो अस्थि णं ते! कहराईसु बादरे थणियसद्दे २ जहा उराला तहा अत्यि णं जंते ! कहराई वायरे आटकाए बायरे अगणिकाए वायरे वणप्फकाए ! यो इण्डे समट्ठे रास्सत्यविग्गहगइसमाच्यएणं । अस्थि णं जेते ! चंदिमसूरिम ? यो इणडे समट्ठे | अस्थि शंकरहराईसु चंदानाइ वा ? Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१७). काहराइ अभिधानराजेन्द्रः। कत्ता णो णड्डे समढे । कएहराई णं भंते ! केरिमियानो कएहवमिसय-कृष्णावतंसक-न० ईशानसत्कस्वनामस्याते वि. वरणं पसत्ताओ? गोयमा कालाओ जाव खिप्पामेव मानभेदे, शा०२० अ०॥ वीईवएज्जा । कएहराईणं भंते !कड नामधेजा पाहणता?| कएहसप्प-कष्णसर्प-पुं० नित्यकर्म स० कृष्णवणे सर्पजातिगोयमा ! भट्ठ नामधेज्जा पामत्तातं जहा कएहराई वा मे भेदे, जी०३ प्रति०२ उ०ास्त्रियां जातित्वेऽपिसंयोगोपधत्वात हराईइ वा मेघाइ वा माधवईइ वा वायफलिहाइ वा वाय-1 टाप । ओषधिभेदे, वाच । राहौ च । यतः कणसर्प इति त स्य गौणं नामधेयम् सू० प्र० २० पाह। पनिक्खोजाइ वा देवफनिहाइ वा देवफलिक्खोलाइ वा। कएहसिरि-कृष्णश्री-स्त्री० रोहीरनगरे दत्तस्य सार्थवाहस्य (नो असुरत्ति ) असुरनागकुमाराणां तत्र गमनासम्नवात्। (कएहराइत्ति ) पूर्ववत् (मेघराजीति वा) कालमेघरेखातु जाव्यां, देवदत्ताया मातरि, विपा०१० अ०॥ ल्यत्वात् मेघेति वा तमिस्रतया षष्ठनरकपृथ्वीतुल्यत्वात् (मा कएहा-कृष्णा-स्त्री० फौपद्याम्, प्रति। ईशानस्य देवेन्सस्य घवत्त वा) तमिस्रयैव सप्तमनरकपृथिवीतुल्यत्वात्(वायफ देवराजस्य प्रथमानमहिन्याम, जी । ती । भ० (भवान्तरबबिहाइ वत्ति ) वातोऽत्र वात्या तद्वा तमिनत्वात्परिधश्च दु-| क्तव्यता अम्गमडिसीशब्दे उक्ता)थेणिकनार्यायां कृष्णकुमारमातलक्यत्वात् सा वातपरिघः (वायपरिक्खोने वत्ति) वातो रि, नि। विजयपुरनगर वासवदत्तस्य राक: पट्टराश्याम, चि० त्रापि वात्या तद्धा तमिस्रत्वात्परिकोभहेतुत्वात्सा वातपरिक्को । १७०४० । भाभीरविषये वहन्त्यां नधाम, "पानीविनति (देवफविहार व त्ति) देवानां परिघ इवार्गव उलञ्चय षये वराहाए वहए य नदीए अंतरा तावसा परिवसांत" यत्र त्वाद्देवपरिघ इति (देवपबिक्नोभेवत्ति) देवानां परिक्को ब्रह्मद्वीपः । श्रा० म०वि० । प्रा० चू०। नि०० प्रा० क०। भहेतुत्वादिति । कएहइ-कचित-अव्य० क्वचिदर्थे, दशा० ए अकस्मादित्यर्थे, कएहराईनो णं भंते ! किं पुढविपरिणामाओ आनजी "बुरूपुत्ताणिया गट्ठी न निक्कसिज्ज कन्हुर" सत्त०२०। कएहुरहस्सिय-कचिद्राइस्यिक-त्रि० क्वचित्कार्ये मएमलप्र. वपोग्गलपरिणामायो ? गोयमा ! पुढविपरिणामाओ वि | शादिके रहस्य येषां ते क्वचिडाहस्यिकाः । तथाविधेषु आरनो आउपरिणामाओ जीवपरिणामाप्रो वि पोग्गलपरि- एयकेषु पाखएिमकेषु, सूत्र० १ श्रु०१० । दशा०॥ णामाओ वि। कएहराईसु णं नंते ! सव्वे पाणाभूया जी-कत्ता-कर्तन- न० कृत् भावे ट्युट्-वेदने, आ० चू०५ श्र० । वा सत्ता नववस्मपुब्बा ? हंता ! गोयमा ! असई अदुवा सूत्र० । विदारणे, उत्त्रोटने, सूत्र. १ ध्रु०५ अस। कर्तरि अणंतरक्खुत्तो नो चेव णं वायरआनकाइयत्ताए बादर ल्युद-शिथिलीकरणे, करणे ल्युट-फर्तनसाधने, त्रि. स्त्रियां गणिकाइयत्ताए वा बादरवणप्फइकाइयत्ताए वा एयासिणं डीम् । कर्तनी, कृत्-कर्त्तरि-प्युट-भेदकर्त्तरि, त्रि. याच० । | कत्तयंती-कर्त्तयन्ती-स्त्री० कर्ता वस्त्रादिनिन्दन्त्याम, "कअट्ठएहं कएहराईणं अट्ठसु जवासंतरेसु अट्ठ लोगंतियविमा तैयन्त्या निष्ठीवनलिप्तौ हस्तौ" आव०४०। णा परमत्ता तं जहा अच्ची अच्चिमाली वश्रोयणे पभंकरे चं- रिम कर्तरिमएम- पुं० कर्ता मुएमने, मुएिमते व त्रि. दाने सुराने सुक्काने सुपइहाले मज्जे रिटामे ज०६श०५उन "अरूमासिए कत्तरिमुंमे" यदि कर्स- कारयति तदा पके एतासामष्टानां कृष्णराजीनामष्टस्ववकाशान्तरेषु राजीद्वयम पक्के गुप्तं करणीयं तत्र प्रायश्चित्तं निशीथोक्तम् । कल्प० । ध्यसकणेष्वष्टौ लोकान्तिकविमानानि भवन्ति एतानि चैवं प्रश कत्तरी-कर्तरी-स्त्री० कृत्-घम् । कतै राति ददाति ग-कत्यामुच्यन्ते अन्यन्तरपूर्वाया अग्रेऽचिर्विमानं तत्र सारस्वता गौरा० डी-तस्याऽधूर्तादौ८।२।३०। इति तस्य धूर्तादित्वादेवाः पूर्वयोः कृष्णराज्योर्मध्ये अर्चिालीविमाने आदित्या देवा नटः । प्रा०। कृपाएयाम्, पत्रवस्त्रादेशेदनसाधने अस्त्रभेदे, अज्यन्तरदक्षिणाया अग्रे वैरोचने विमाने बाह्यदक्विणयोर्मध्ये शु. (कतरनी) "करमध्यगतश्चन्यो,सग्नं वा कृरमध्यगम् । कर्तरीनाजङ्करे वरुणा अज्यन्तरपश्चिमाया अप्रे चन्जाने गर्दतोया अप- मयोगोऽयम्" इति ज्योतिषोक्ते योगभेदे, कृत् अरिः कर्तरिरित्यरयोर्मध्ये सुराने तुषिता अन्यन्तरोत्तरा अग्रेऽङ्गामे अन्याबाधा प्यत्र स्त्री स्वार्थ, कन् कर्तरिकाऽप्यन नी. वाच०। आव०। उत्तरयोर्मध्ये सुप्रतिष्टाने आग्नेयाःबहुमध्यनागे रिष्टाने विमाने | कत्तवार-कर्तवार- त्रि० कचवरप्राये असारे, ध०२ अधि०। रिष्टा देवा इति । स्था० ८ ग । कत्तवीरिय-कार्तवीर्य-पुं० कृतवीर्यस्यापत्यम् अण्-कृतवीर्यनृएएसि णं अहसु लोगंतियविमाणेस अट्ठविहा लोगंतिया। पापत्ये, परशुरामस्य मातृष्वसुः पुत्रे, प्रा० क० । आ०म० । देवा पलत्तातं जहा सारस्सयमाइच्चा वएही वरुणा य गद्द- आ००। (स च यमदग्निमुनेः समाहरन् परशुरामेण मारितोया य तुसिया अब्बावाहा अग्गिचा चेव बोधव्वा ।। तः इति कोह शब्दे उदाहरिप्यते ) अस्यैव पुत्रो नाम्ना सुनूमोऽस्या०८ ग०॥ ष्टमश्चक्रवर्ती जातः । साप्रा० चू। श्राव।। ईशानस्याप्रमहिण्याञ्च । जी०४ प्रतिकाती० (प्रवान्तरचरि कत्तव्य-कर्तव्य-त्रि० कृ-अावश्यके, तव्य कर्तुं योग्ये, “मासै रष्टनिरहा च, पूर्वेण वयसाऽऽयुषा । तत्कर्त्तव्यं मनुष्येण, त्रमग्गमहिषीशन्दे उक्तम्) यस्यान्ते सुखमेधते" ॥ श्रा० चू० १०॥ कएहारीस-कृष्णर्षि-पुं० शकावती नगरीजाते स्वनामख्याते | कत्ता-क (तो) तृ-त्रि० कृ-तृकर्मणां कारक, कतृशब्दस्य * तपस्विनेदे, "एसा संखावई नाम नयरी महातपसिस्स सुग- दत्तत्वारकारस्य च प्राकृतेऽभावात् नामावस्थारूपं विभक्तिरहिहियनामधिज्जस्स कएहरिसिणो जम्मनूमि ति"तीर्थ दर्शयितुमशक्यं सत्यामेव विभक्तौ प्राकृतलवणप्रवृत्तश्च एवं Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२८) कत्ता अभिधानराजेन्द्रः। कत्तिय मात्रादिशब्देष्वपि केयम् । अर्थप्रदर्शकशब्दस्य शैलीप्राप्तसम्प- पराजविष्यदिति विचिन्त्याष्टाधिकसहस्रेण वणिक्पुत्रैः सह नत्वसंरक्षणायान्यथापि क्वचिद्दर्शितम् आ० मा द्विा स्वतन्त्रः चारित्रं गृहीत्वा द्वादशाङ्गीमधीत्य द्वादशवर्षपर्यायैः सौधर्मेऽका यः स्वतन्त्रं स्वाधीनकरणं स कर्ता यथा घटस्य कर्ताकु- नूतु । गैरिकोऽपि निजधर्मतस्तद्वादनं ऐरावतोऽनयत् । ततः म्नकारः । अप० "कारिरित्यस्य रूपान्तरम"कारि भोरं च सय- कार्तिकोध्यमिति ज्ञात्वा पलायमानं धृत्वा शक्रः शीर्षच्यारूढः शस्स कम्मस्स" कारं निर्वतकं कर्मणः। श्राव.४ अादर्श ऋभापनार्थ रूपद्वयं कृतवान् शक्रोऽपि तथा एव रूपचतुष्टयं कत्ति-कृत्ति-खी० कृत्यते-कृत-कर्मणि-क्तिन् । चर्मणि, I नि० चकार । ततश्चावधिना ज्ञातस्वरूपः शक्रस्तं तर्जितवान सर्जिचू० १३०। औ० । वृ०। तश्च स्वानाविकं रूपं चक्रे ति कल्प प्रा० चू० । आव० ती कत्तिम-कृत्रिम-न०क-वित्रः कर्म च । विमनवणे,मेदि काच- तेणं कालेणं तेणं समएणं मुणिसुव्बए अरहा आदिगरे बवणे, तुरकनामगधन्ये च राजनिसिल्ह के.पुं० मेदि०। जहा सोलसमसए तहेव समोसले जाव परिसा पज्जुवास क्रियया निष्पत्रमात्रे, त्रिवाचा "कत्तिमेहिं चेव प्रकत्तिमेहि तए णं से कत्तिए सेट्ठी मी से कहाए बद्धढे समाणे हद्वतुवेव"जं०१यकः । तु एवं जहा एक्कारसमसए सुदंसणे तहेव णिग्गो जाव कत्तिय-कार्तिक-पुकृत्तिका नक्षत्रेण युक्ता पौर्णमासी-कृत्तिका-| अण्-की-कार्तिकी साऽस्मिन् मासे अण-पके-उकामासने, पज्जुवासइ तहेणं मुणिमुव्बए अरहा कत्तियस्म सेहिस्स यन्मासीयपौर्णमास्यां कृत्तिकानकत्रसंबन्धः सम्जवति वाचा धम्मकहा जाव परिसा पमिगया तएणं से कनिए सेट्ठी प्रा० म०प्र०। उत्त० स्था/स० । स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, मुणिमुव्वयस्स जाव णिसम्म हह उहाए उडे उडेतत्कथानकं चैवम् । इत्ता मुणिसुन्बय जाव एवं वयासी-एवमेयं ते ! जाव तणे काणं तेणं समरणं विसाहा णाम एयरी होत्था वाम से जहेयं तुज्के वदह जं णवरं देवाणुप्पिया ! णेगमट्टओ सामी समोसढेवा पज्जुवास तेणं कालणं तेणं समएणं सहस्सं पापुच्छामि जेटपुत्तं कुटुंबे ठावेमितएणं अहं देवाणुसके देविंदे देवराया वजपाणी पुरंदरे एवं जहा सोलसमसए प्पियाणं अंतियं पन्चयामि अहामहं जाव मा पमिबंध करे। विइयउद्देसए तहेव दिव्वेण जाणविमाषण आगो णवरं तए णं से कत्तिए सेट्ठी जाव पमिणिक्खम पडिणिक्खमइत्ता एत्थं प्राजिमोगा वि अत्थि जाव वत्तीसविहं नट्टविहं न जेणेव हत्यिणापुरे णयरे जेणेव सए गिहे तेणेव नवागवदसे उबईसेपत्ता जाव पीमगए जंतति । भगवं गोयमं छइ उवागच्चत्ता णेगमट्ठसहस्सं सद्दावेइ सद्दावेश्ता एवं समणं भगवं महावीरं जाव एवं वयासी जहा तइयसए | वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए मुणिमुब्वयस्स अरईसाणस्स तहेव कूमागारसाला दिटुंतो तहेव पुन्चजवपु- हो अंतियं धम्मं हिस्संते सेवियधम्मं इच्छिए पडिच्छिए च्छा जाब अभिसपणागया गोयमादि समणे जगवं महा- अनिरुइए तएणं अहं देवाणुप्पिया ! संसारजयनबिग्गे वीरं भगवं गोयम एवं वयासी एवं खलु गोयमा! तेणं का- जाव पन्चयामि तं तुब्ने देवाणप्पिया ! किं करेह लेखं तेणं समएणं इहेच जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे हथिणा- किं वसह किं ने हियच्चिय किं भेसामत्थे बएणं णेगमट्ठउरे पापं एयरे होत्या वमओ, सहसंबवणे उज्जाणे वसओ सहस्सं तं कत्तियं सेटिं एवं क्यासी जइ णं देवाणप्पिया ! तत्य णं हत्यिणानरणयरे कत्तियणामं सेट्ठी परिवसइ अले संसारभयउबिग्गा भीया जाव पव्वयाहिसि अम्हं देवाजाब अपरिजूए णेगम पढया सणिए ऐगममट्ठसहस्सं बहसु णुप्पिया ? किं असे प्रारंबे वा आहारे वा पटिबंधे वा कम्जेमु य कारणेसु कुटुंबेसु य एवं जहा रायप्पसेणइज्जे अम्हे विणं देवप्रणाषिया संसारनयुधिग्गा भीया जचित्ते जाव चक्रवूलूए णेगमट्ठसहस्सस्स सीयस्स य कुमुवस्स म्ममरणाणं देवाणुप्पिएहिं सकिं मुणिमुब्वयस्स अरहयाहेवचं जाव कारेमाणे पालेमाणे समणे वासाए अनिगय- ओ अंतियं मुमे वित्ता आगाराओ जाव पव्ययामो । जीवाजीवे जाव विदरः ॥ भ०१७ श० २०॥ तए णं से कत्तिए सेधी णेगमट्ठसहस्सं एवं वयासी । जइ (निरुपयोगिनी टोकेति न गृहीता) अत्र वृत्तान्तरम् । तथाहि णं देवाणुप्पिया! संसारजयुब्विग्गा जीया जम्ममरणापृथिवीभूषणनगरे प्रजापालो नाम राजा कार्तिकनामा श्रेष्ठी तेन णं मए साई मुणिसुब्बय जाव पन्चायद । तं गच्छह णं श्राकप्रतिमानां शतं कृतं ततः शतक्रतुरिति ख्यातिः। एकदाच गैरिकपरिवाजको मासोपचासी तत्रागतः एकं कार्तिकं विना तुब्ने देवाणुप्पिया ! सएमु सएसु गेहेसु विपुलं असनं सर्वोऽपि लोकस्तद्भक्तो जातः तश्च ज्ञात्वा कार्तिकोपरि गैरिको जाव उवक्खडावेह मित्तणाइ जाव जेडपुत्तं कुटुंबे गवेह रुष्टः । एकदा चराझा निमन्त्रितोऽवदत् । यदि कार्तिकः परिवे- गवईत्तातं मित्तहाइ जाव जेट्टपुत्तं पापुच्छेह प्रापुच्छता षयात सदा तव गृहे पारणं करोमि राज्ञा तथेति प्रतिपद्य का प्ररिससहस्स वाहिणीओ सीयायो दुरूहह पुरूहत्ता मित्त सिकायोक्तम् । यत्त्वं माहे गैरिकं नोजय ततः कार्तिकेणोक्तं जाव परिजणेणं जेट्टपुत्तेहि य समणुगम्ममाणमग्गा सन्धिराजन! भवदाइया नोजयिष्यामि ततः श्रेष्टिना नोज्यमानो गैरिको पृष्टोऽसीति अद्यख्या मासिकां स्पृशंश्चेष्टां चकार । हिए जाव रवणं अकालपरिहीणं चेव ममं अंतियं पाउन्भवह श्रेष्धी दल्यो यदि मया पूर्व दीका गृहीता जविप्यत् तदाऽयं तएणं ते णेगमट्टसहस्सं पि कत्तियस्स सेहिस्स एयमटुं वि Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२ ) कत्तिय अनिधानराजेन्डः। कद्दम णएणं पमिसुऐति पडिसुतित्ता जेणेव साई साइं गिहाई । पधिमग्रहीत् । कत्तिको कङ्कलोहस्य गोपितांचादे तदात्रा०का तेणेव उवागच्छति नवागच्छइत्ता विपुलं असणं जाव उव- स्था०एम० । कृत्तिका स्त्री कृन्तति-उग्रत्वात्-कृत-ति कनक्खमावेति नवक्खमा तिता मित्तणाइ जाव तस्सेव मि किश्च । अनिजिदादिषु दशमे नको वाच । कृत्तिकानक्षत्रस्या ग्निर्देवता “कत्तियाए अग्गिदेवयाए" ज्यो०६पाहुणस्था। जं०। तणाइ जाब पुर ओ जेट्ठपुत्तं कुडुंबे ठानि गतित्ता तमि "कत्तियाइ यासत्तनक्खत्ता पुन्बदरिया" पं० सं० । “कत्तिया तणा जाव जेट्टपुत्ते य आपुच्छंति प्रापुच्छतित्ता पुरि- णक्खत्ते उत्तारे" पं०सं० । स्था० "दो कत्तियाओस्थाश्चा०। ससहस्सवाहिणीअो सीयारो पुरुहंति पुरूहंतित्ता मि "कत्तियाणवायत्ते सव्ववाहिगाओ मंत्राउए दसमे ममले चार तणातिणियगपरिजणेणं जेट्टचुत्तेहिं य समणुगम्ममाणम चर" स्था० १००। कार्तिकी-स्त्री० कृत्तिकायां जय कार्ति की । कार्तिकमासमाविन्यां पूर्णिमायाम्-चं०प्र०१० पाह। ग्गा सावित्री जाव रवेण अकालपरिहीएं चेव कत्तियस्स पूर्णिमाशब्दे वक्तव्यता । कृतिकान कत्रेणोपत्रवितो यः कार्तिसेहियस्स अंतियं पानभवंति तए णं से कत्तिए सेट्ठी को मासः सोऽप्युपचागत कार्तिको तस्यां नवा कार्तिकी कृविपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं जहा मंगदत्तो जाव मि. सिकानकत्रपरिसमाप्यमानकार्तिकमा सन्नाविन्याममावास्यायाम् तणाइ जाव परिजणेएं जेहपुत्तं ऐगमट्टसहस्सेण य समांग चं० प्र०१० पाहु । सू०प्र० । आव०। म्ममाणमग्गे सबिट्टीए जाव रवेणं हरियणापुरं एयरं म कत्तियासणिच्छरसंवच्चर-कृतिकाशनैश्चरसंवत्सर- पुं० शनैज्झ मज्झेणं जहा गंगदत्तो जाव आलितणं भंते ! लो-1 श्वरसंवत्सरजेदे, यस्मिन् संवत्सरे कृतिकानकत्रेण शनैश्वरो योग मुपादत्ते, जं०७ वक। ए पलितेणं भंते ! लोए प्रालित्तपलितेणं भंते ! लोए कत्तिवविय-कृत्रिम-त्रि सद्भावरहिते, “कत्तिववियाहि उवहि जाव आणुगामियत्ताए जविस्सइ । इच्छामि णं भंते ! णे | पहाणाहिं" सूत्र १ श्रु०४ अ०। गमट्ठसहस्सेणं साफ सयमेव पव्वावियं मुमावियं जाव मा-कत्तो-कतस-अव्यतो दो तसो वा ७ ।। १६० । इति तसः इक्खयं । तए णं मुणिसुब्बए अरहा कत्तियं सेटिं णेगमट्ठ- प्रत्ययस्य स्थाने तो प्रा० किमः कस्तसोश्च । ३ । २७१ । सहस्सोणं सकिं सयमेव पञ्चावेइ जाव धम्ममातिक्खंति ए इति किमः कः कत्तो कदो कस्मादित्यर्थे, कत्तो तं चक्कवट्टी वं देवाणुप्पिया गंतव्वं एवं चिट्टियन्वं जाव संजमियव्वं ।। वि प्रा । आ० म० द्वि०। तए णं से कत्तिए सेट्ठी णेगमट्टसहस्सेण सकिं मुणिसुब्ब-1 कत्य-कथ्य-न० यत्र कथिकादि गीयते तस्मिन् गेयभेद. जी. ३ प्रति०२ उ०० । रामकथायां साधु कथ्यम् ज्ञाताध्ययनयस्स अरहनो इमं एयारूवं धम्पिय उवदेसं सम्म संपडिव वत् । काव्यभेदे, स्था०४ गाअनन्तवनस्पतिदे, आचा०१ जइ। तमाणाए तहा गच्छइ जाव संजमा । तएणं से कत्ति- अ०५०। प्रशा। एसेहीणेगमहसहस्सेण सहिं अणगारे जाव रियासमिए कुत्र- अव्य० किम्-सप्तम्यास्त्रज् तस्य स्थ-किमः कस्त्रतजाव गुतवंभयारी तएणं से कत्तिए अणागारे मुणिमुब्ब सोश्च । ३७१ । ति किमः कः । कत्थ, प्रा० (क) कस्मियस्स अरहो तहारूवाणं थेराणं अंतियं सामाइयमाश् नित्यर्थे व्य० १ उ. “कहिं बोहिं चमत्ताणं, कत्थ गंतूणं सिज्जा" औ०। याई चउद्दसपुब्बाई अहिज्जइ अहिज्जत्ता बहूई चनत्थछ कत्थइ-कचित-अन्य० क्वचित् । गोणादयः ।।७४ । इति हट्ठमं जाव अप्पाणं जावेमाणे बहुपमिपुरमाई वान्नसवा निपातनात् कत्थर, प्रा० । कुत्रचिदथें, " अणत्थकत्थ" साइंसामराणपरियागं पानण पाउणइत्ता मासियाए संबहे | अनु०। पंचा। पाए अत्ताणं कोसेइ कोसेइत्ता सहिजताई अणसणाई कत्थत-कत्थ्यमान-त्रि० कथ-कर्मणि यक । गमादीनां द्वित्यम बेदे बेदेइत्ता आलोइयपमिकते जाव किच्चा सोहम्मे कप्पे GINGइति थस्य द्वित्वं तत्सन्नियोगेन यमुक । वाचा प्रवध्यमाने, प्रा०। सोहम्मवटेंसए विमाणे नवयायसनाए देवसणिज्जंसि कत्थरी-कस्तरी-स्त्री०कसति गन्धोऽस्याः दूरतः कस्-करयातुद जाव सके देविंदत्ताए नववो । तए णं सक्के देविंदे देव च मृगमदे मृगनाभिजाते गन्धव्यन्नेदे, स्वार्थ कन् । कस्तूरिका राया अहणोवव सेस जहा गंगदत्तस्स जाव अंतं का- तत्रैव वाच । कल्प० । संथा। हित्ति एवरं विश्दोसागरोधमाई पम्पत्ता सेवं ते! तेत्ति। कम-कर्टम- पुं०कर्द-श्रम जम्बाले.स्था०३वामपके,स्थाठा0। ज० १७ श० २ उ० ॥ यत्र प्रविष्टः पादादिनाऽऽक्रष्टुं शक्यते कष्टेम वा शक्यते स्था० षष्ठतीर्थकरस्य पूर्वभवे जीवे, स । शरवणसंनिवेशे जातेत ४०। “अवश्टुनिसुद्धनिम्पफालियपगलियरहिरकयनूमिपस्विवरे, स चानशनं कृत्वा शरीरं ब्यसृजतति अनशनशब्दे - कद्दमयचिविखनपहे" प्रश्न०१ अध० अ० कारणे-अम-पापे, तम संथा० ॥ कृत्तिकासु जातः कार्तिकः कृतिकानकत्रोत्पन्ने श्रीणादिकः तस्य कुत्सितशब्दहेतुवात् तथात्वम् । मांसे, न० शब्दचि। तत्सेवने हि नदारशब्दो जायते शति तस्य तथात्वम् पुत्रादी, अनु० । कृत्तिकानामयं पोष्यत्वेन अण् अनौ । निषिक्त वाचततः ऋश्यादि-चतुरर्थ्यां कःकर्दमपङ्कसन्निकटदेशादी,त्रि० रुडतेजोजाते स्कन्द देवे, कार्तिकेयोऽप्यत्र वाच । कर्दमो जातोऽस्य तारका-इतच् कर्दमितः । जातकर्दमे, त्रि० कत्तिया-कत्तिका-स्त्रीकर्ताम् , गृहीतोपधिमित्युक्ते,स एवो| अर्श मत्वर्थे-अच् । कर्दमयुके, त्रि० कई मिन् पुं० तद्युक्ते, Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१०) कदम अनिधानराजेन्दः । कप्प त्रि० मुमवृत्त, पुं० वैद्य० । तस्य कर्दमसमीपजातत्वात्तथात्वम् । अस्य चैवमुपोद्धातः। पृषोद० कमीत्यपि तत्रार्थे वाच० । प्रकटीकृतनिःश्रेयस-पदहेतुस्थविरकल्पजिनकल्पम् कदमउवमा-कर्दमोपमा-स्त्री० कर्दमसारश्ये, “ अहधा अंजु नमा शेषनरामर-कल्पितफलकल्पतरुकल्पम् ॥ १॥ खुत्तो कदम चमाइ पक्खिव कोठे सवो सो आहारो अप्पा नत्वा श्रीवीरजिनं, गुरुपदकमलानि बोधविपुलानि । वा" बुनुक्कया आर्ताय कर्दमोपमया गृहादिकोष्ठे प्रतिपति कर्द- कल्पाध्ययनं विवृणोमि, बेशतो गुरुनियोगेन ॥२॥ मोपमानामपि कर्दमपिएमानां कुर्यात् कुक्ति निरन्तरं स स- भाष्यं क्व चातिगम्भीरं, क्व चाहं जमशेखरः। वोऽप्याहारः वृ०६०। तदत्र जानते पूज्या, ये मामेवं नियुज्यते ॥ ३॥ कदमग-कर्दमक-त्रि० कर्दमे कायति प्रकाशते के क-शालिभेदे, अद्भुतगुणरत्ननिधी, कल्पे साहायकं महातेजाः। वाच । जम्बूद्वीपस्य बाह्याद् वेदिकान्ताद् आग्नेय्यां विदिशि दीप श्व तमसि कुरुते, जयति यतीशः स चूर्णिकृत् ॥४॥ द्वाचत्वारिंशद्योजनातिक्रमे विद्युत्प्रनविद्युजिह्वस्यानुबेनन्धरा- वह शिष्याणां मङ्गलबुद्धिपरिग्रहाय शास्त्रस्यादौ मध्येऽवसाने वासपर्वतस्याधिपती देवे, स्था०४ ग० जी० । लवणसमुझे, चावश्यं मङ्गसमनिधातव्यम्। यत श्रादिमङ्गलपरिगृहीतानिशाआग्नेय्यां विद्युत्मनपर्वतस्तत्र कर्दमको नाम नागराजः न. ६ स्त्राणि पारगामीनि जवन्ति । मध्यमङ्गलपरिगृहीतानि शिष्यबुउ०३श। रिवारोपितानि स्थिरपरिचितान्युपजायन्ते। पर्यन्तमङ्गलसमझकद्दभन्नित्त-कर्दममित-त्रि०३ त० पङ्कन मिते खरएिटते, वृ०१० इतानि शिष्यप्रशिष्यपरम्परागमनतः स्फीतीभवन्ति । उक्तंच। कध-कथम-अन्य धः शौरसेन्याम् ८।४। ६६ । थस्यधः शौर- तं मंगलमादीए, मज्के पजंतए य सस्थस्स । सेन्याम् । केन प्रकारेणेत्यर्थे, प्रा०। पढमं सत्थत्था वि-घ पारगमणाय निद्दि१॥ कधितून-कथयित्वा-अव्य० पैशाच्यां क्त्वस्तूनः । ४ । ११॥ तस्से वय निजत्थं. मन्किमयं अंतिम पि तस्सेव । इति स्वा प्रत्ययस्य स्थाने तुन इत्यादेशः उक्त्वत्यर्थे, । प्रा०। अवोच्छित्ति निमित्त, सिस्सपसिस्सादिवसस्स॥ काप-कल्प-कृत-णिच् अच् समथे, यथा वर्षाटप्रमाणश्चरण- तत्रादिमङ्गलं पापप्रतिषेधत्वादिदं सूत्रम् ॥ परिपामने कल्पः समर्थः इत्यर्थः। वृ०१उगवलकल्पं केवनपरि- "नो कप्पति निग्गंथाणं वा निगंथीणं वा आमे तालपलंये पूर्णः स चासौ कल्पश्च स्वकार्यकरणे समर्थः इति केवलकरपाके- अभिन्ने पझिगाहित्तए" इति मध्यमङ्गलमा कप्पति निमांथाणं वन एव या कल्पः तंहा.१३अ.वर्णानायाम, यथाऽध्ययनमिदमनेन वा णिग्गंधीण वा पुरछिमेणं जाव अंगमगाहातो पत्तए "पवकल्पितं वर्णितमित्यर्थःवृ.१.न. कल्पनायाम,स्था. ठावेदने,यथा | मादिपर्यवसानमङ्गलम् “उब्विहा कप्पठिती पमत्ता" इत्यादि। केशान कर्ता कल्पयति छिनत्तीत्यर्थः वृ.। नि०० श्राचा तश्च मङ्गलं चतुर्का वक्ष्यमाणस्वरूपम् । तत्र यन्नो आगमतोनाकरणक्रियायाम, यया कल्पिता मयाऽस्या जीविका कृता इत्य- वमङ्गलं तद् विविधं सूत्रभणितं सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिभणितं च र्थः । वृ०१० । आचारे, स्था०३या। औपम्ये, यथा सौम्येन ते- नाप्यनणितमित्यर्थः । सूत्रस्पर्शिकनियुक्तेर्भाष्यस्य च संप्रत्येकजसा च यथाक्रममिन्दुसूर्यकल्पाः साधवः०१३०। केवलकटपं प्रन्थत्वेन जातत्वात् । अथ कः सूत्रमकार्षीत् । को वा नियुक्ति केवलोपमम् इह कल्पशब्द औपम्य गृह्यत इति प्रा.म०प्र०ा"उम्गते को वा भाष्यमिति उच्यते । इह पूर्वेषु यन्नवमं प्रत्याख्याननामकं य कप्पा" कल्पाः सदृष्टाः प्रश्न सं०द्वा०२ अ० अधिवासे, पूर्व तस्य यत्तृतीयमाचाराख्यं वस्तु तस्मिन् विंशतितमे प्रावते यथा सौधर्म कल्पवासी शकः मुरेश्वरः उक्तंच “सामर्थ्य वर्ण- मूलगुणेषु उत्तरगुणेषु वा परार्धेषु दशविधमालोचनादिकं प्रायनायांच, वेदने करणे तथा । औपम्ये चाधिवासे, च कल्पशब्द श्चित्तमुपवर्तितं कामक्रमणे च दुषमानुभावतो धृतिबलधार्यविबुधाः" वृ० । पं० ना० । प्रा० म० द्वि० । स्था। कल्पाध्य- बुच्चायुःप्रनृतिषु परिहीयमाणेषु पूर्वाणि दुरवगाहानि जातायननामके वेदग्रन्थविशेषे, जी० १ प्रति० । इह सर्वेष्वप्यर्थेषु नि ततो मा जूनायश्चित्तव्यवच्छेद इति साधूनामनुग्रहाय चतुईगृह्यते सर्वत्रापिघटमानत्वात्तथा हि सामर्थ्य तावदेतावदेतत्क- शपूर्वधरेण भगवता मध्याहस्वामिना कल्पसूत्र व्यवहाल्पाध्ययनमधीत्यातीचारमलिनस्य साधोः समर्थः प्रायश्चित्तेन रसूत्रं चाकारि । सभयोरपि च सूत्रस्पर्शिकनियुक्ती ५मे । विशोधिमापादयितुं वीतेऽपि यावन्तः प्रायश्चित्तप्रकारास्तान् अपि च कल्पव्यवहारसूत्रे सनियुक्तिके अल्पग्रन्यतया महाधार्ग यतीदमध्ययनम् । अथवा मूलगुणांश्च कल्पयति वर्णयतीति र्थत्वेन पुषमानुभावतो हीयमानमेधाऽयुरादिगुणानामिदानीकल्पः। उक्तंच । " कप्पम्मि कप्पिया खयु, मूत्रगुणा चेव उत्स- तनजन्तूनामल्पशक्तीनां गत्वे पुरवधारे जाते ततः सुखरगुणा य । ववहारे वहरिया, पायच्चित्ता नवते य" बेदनेऽपि ग्रहणधारणाय भाष्यकारो भाष्यं कृतवान् । तच सूत्रस्प तपःशोधिमतिकान्तस्य पनकादिच्छेदनेन पर्याय नित्ति | शिकनियुक्तयानुगतमिति सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति प्यं चैको प्रकरणेऽपि यहत्तं प्रायश्चित्तं तत्र तथा प्रयत्नं करोति कल्पाध्यय- न्थो जातः। एष शास्त्रस्योपोद्धातोऽनेन चोपोद्धातेनानिहितेन सूनवेत्ता यथा तत्पारं नयति । अथवा कल्पयति जनयत्याचार्य प्रादयोऽर्था व्यक्ता भवन्ति । यथा दीपेनापवरके तमसि संच कमिति कल्पस्तथाहि करोत्याचार्य कल्पाभ्ययनवत्ता सम्य " वत्ती भवंति अत्था, दीवेणं अप्पगासउब्बरए । वत्ती नवंति गिति औपम्यपि कल्पाध्ययनवेदनात भवति पूर्वधराणां कल्प अत्था, नवघाएणं तहा सत्थे" उपोद्धाताभिधानमन्तरेण पुनः सदृश इति कल्पस्तथाहि कल्पाध्ययनेऽधीते जबति पूर्वधरस शास्त्रं स्वतोऽतिविशिष्टमपि न तथाविधमुपादेयतया विराजते। दृशः प्रायश्चित्तविधाचाचार्यः । अधिवासेऽपि कल्पाध्ययनवत्ता यथा नभसि मेघच्छन्नश्चन्डमाः। उक्तं च"मेघच्चन्नो यथा चन्छो, कल्पे मासकल्पे वर्षाकल्पे वा कारणमन्तरेण परिपूर्म कारणवशत नराजति नभस्तले। उपोद्धातं विना शास्त्रं नराजात तथाविधम्" कनर्मातरिक्तं च। अथवा कल्पे स्थविरकल्पे जिनकल्पे वाधिवस- तत्र सूत्रभणितम् । “नो कप्पति निगंथाणं वा निग्गंथीणं वा तीति कल्पः वृ०१० (कल्पव्यवहाराध्ययनयो दोचवहारशब्दे) । आमे तालपलबे" इत्यादि सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिभाणितमिदम् । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२१) अनिधानराजेन्द्रः। कप्प कप्प काऊण नमोकारं, तित्थयराणं तिलोगमहियाणं। अधारः परोपकारकरणैकदीवादीवितसुगृहीतनामधेयःमीप्रद कप्पव्यवहाराणं, वक्खाणविहिं पवक्खामि ।। बाहुस्वामी सकर्णकर्णपुटपीयमानपीयूषायमाणललितपदकलिकृत्वा विधाय नमस्कारं प्रणामं केन्य इत्याह । तीर्थकरेज्यस्तीर्य तपेशलाझापकं साधुसाध्वीगतकल्प्याकल्प्यपदार्थसार्थविधिप्रते संसारसमुफोऽनेनेति तीर्थ घादशाङ्गं प्रवचनं तदाधारः सं तिषेधरूपकं यथायोगमुत्सर्गापवादपदपदवीसूत्रकवचनरचनागघो धा तत्करणशीलास्तीर्थकरास्तेज्यो गाथायां षष्टी चतुर्थ्यर्थे भैपरस्परमनुस्यूताभिसम्बन्धुरपूर्वापरसूत्रसंदर्भ प्रत्याख्यामाख्यप्राकृतत्वामुक्तं च"हीविजत्तीए जन्नर चनत्थी ति" किं वि नवमपूर्वान्तर्गताचारनामकतृतीयवस्तुरहस्यनिष्पन्दकल्पं कल्पशिष्टेज्य इत्याह । त्रिलोकमहितेन्यः त्रयो लोकाः समाहृताः सम नामधेयमध्ययनं नियुक्तियुक्तं निगूंढवान् अस्य चस्वल्पग्रन्थमहाघसरणे त्रयाणामपि सम्नवात् । तथा हिसमागच्चन्ति जगवतां थतया प्रतिसमयमवसर्पिणीपरिणतिपरिहीयमाणमतिमेधातीर्थकृतां समवसरणेष्वधोलोकवासिनो भवनपतयस्तिर्यग्लो धारणादिगुणग्रामाणामदयुगीनसाधूनां दुरवबोधतया च सकलकवासिनो वानमन्तरतिर्यक्पञ्चेन्डियज्योतिका कर्कलोकवासि त्रिलोकीसुभगंकरणकमाश्रवणनामधेयोनिधेयैः श्रीसदासगनः कल्पोपपन्नका देवास्त्रिलोकेन महिता प्रजिताः त्रिभिर्वा लो णिपूज्यैः प्रतिपदप्रकटितसर्वज्ञाझाविराधनासमुद्भुतप्रत्यपायजालं कैर्महितात्रिलोकमाहितास्तेभ्यः नमस्कारं कृत्वा किमित्याह । क निपुणचरणपरिपालनोपायगोचरविचारवाचासं सर्वथाषणकरल्पश्व व्यवहारश्च कल्पव्यवहारौ तयोर्व्याख्यानविधिमनुयोगवि- णेनाप्यदृष्य नाण्यं विरचयांचक्रेश्दमप्यतिगम्भीरतया मन्दमेधसां धि प्रकर्येण भृशं वा वक्ष्यामि । (कल्पव्यवहारयोर्नेदो ववहार-| पुरवगममवगम्य यद्यप्यनुपकृतपरोपकृतिकृता चूर्णिकृता चर्णिशब्दे ) (अनुयोगशब्देऽस्यानुयोग उक्तः) वृ०१०। रासूत्रि तथापि सा निविमजमिमजम्बालजालजटिनानांमारशां स च षम्विधः। जन्तूनां न तथाविधमवबोधनिबन्धनमुपजायते इति परिजाव्य नाम छबिहकप्पो, दब्बे वासिपरसुमाईसु । शब्दानुशासनादिविश्वविद्यामयज्योतिःपुअपरमाणु घटितमूर्ति निः श्रीमलयगिरिमुनीन्द्रर्षिपदिविवरणकरणम्पचक्रमे सदपि खित्ते काले जहुव-कमम्मि जावे उ पंचविहो ॥ कुतोऽपि हेतोरिदानी परिपूर्ण नावलोक्यते इति परिभाव्य मन्दनामनिष्पन्ने निक्केपे कल्प इति नाम । स च घोढा तथा नाम मतिमौसिमणिनाऽपि मया गुरूपदेशं निश्रीकृत्य श्रीमलयचिरकल्पः स्थापनाकल्पो द्रव्यकल्पः केत्रकल्पः कालकल्पो भावक चितविवरणादू विवरीतुमारज्यते । (०१०).पीठिकाल्पश्च । तत्र नामस्थापने प्रतीते व्यकल्पो येन वासीपरश्वा-! समाप्तौ काव्यम् ॥ दिना ज्येण कल्पते तहअन्यकल्पम् । केत्रकल्पो यथा केत्रोपक्रमः। चारित्रलूपालनिवासहेतु-प्रासादकल्पे किन कल्पशास्त्रे । कालकल्पो यथा कालोपक्रमः भावकल्पः पञ्चविधः पञ्चप्रका सुवर्णबहा सुरसावगाढा, समर्थिता संप्रति पीरिकेयम् ॥ रस्तमेवाह । इति कल्पपीठिका परिसमाप्ता। समाप्ते प्रबम्बसूत्रे काव्यम् । छविह सत्तविहे वा, दसविह वीसइविहे य वायाला । दुर्गस्थानबहुत्वभीरुकतया मन्दापि दातुं पदाजस्स उ नस्थि विजागो, मुव्वत्तजलंधकारो सो॥ न्येतच्चूर्णिनिशीथर्मियुगलीयष्टिद्वयीदर्शनात् । भावतः कल्पः षड्विधः सप्तविधो दशविधो विंशतियिधो द्वाच-1 प्रेर्य प्रेर्य पदे पदे निजगवीविप्रप्रचारं मया, त्वारिंशद्विधश्च एते पञ्चापि प्रकाराः पञ्च कल्पे व्याख्यातास्त-1 कल्पे यत्प्रकृतं प्रनम्बविषयं तमोचरे चारिता । था ज्ञातव्या यस्य त्वेष विज्ञागः पञ्चप्रकारो नावकल्पपरिझानं | मासकल्पसमाप्तौ काव्यम् ॥ नास्ति (से) तस्य सुव्यक्तं जमान्धकारः॥ (वृ०१०) चूर्णिश्रीकृष्नाष्यप्रभृतिबहुतिथग्रन्थसानिरामासूत्रनियुक्तिभाष्यचूर्णिवृत्तिकृतां नामानि वृत्तिकारौ च द्वौ रामादर्थप्रतानस्त्वरितमवचितैः सूक्तिसौरज्यसारैः । तत्र कियती वृत्तिः केन कृतेत्यपि चाह । चेतःपट्टे निधाय स्वगुरुशुचिवरैस्तन्तुनिर्गुम्फितेयं, नतमघवमौसिमएमन-मणिमुकुटमयूषधौतपदकमसम् । श्रीकल्पे मासकल्पप्रकृतिविचरणम्रङ् मया भव्ययोम्या। सर्वज्ञममृतवाचं, श्रीवीरं नौमि जिनराजम् ॥१॥ समग्रस्य कल्पाध्ययनस्य प्रथमाइशकस्यान्त्यसूत्रस्य वा काने चरमचतुईशपूर्वी-कृतपूर्वीकल्पनामकाध्ययनम् । दृष्टान्तः। सुविहितहितकरसिको, जयति श्रीभषाहुगुरुः॥॥ अथ नियुक्तिविस्तरः कल्पेऽनस्पमनस्य, प्रतिपदमर्पयति योऽर्थनिकुरम्बम् । जो एतं न विजाइ, पढमुद्देसस्स अंतिमं सुत्तं । श्रीसलदासगणये, चिन्तामणये नमस्तस्मै ॥३॥ अहव ण सबज्य णं, तत्थ उ नाणं इमं हो ॥ शिवपदपुरपथकल्पं, कल्पं विषममपि ध्वमारात्रौ । सुषमीकरोति यच्चू-णिदीपिका स जयति यतीन्द्रः॥४॥ यश्चाचार्य!पतत्प्रस्तुतं प्रथमोहेशकस्यान्त्यं सूत्रं न जानाति । आगमपुर्गमपदसं-शयादितापो विबीयते विपुषाम् । अथवा सर्वमपीदं कल्पाभ्ययनं यो न जानाति तत्राचार्य इदं वयद्वचनचन्दनरसै-मलयगिरिः स जयति यथार्थः॥५॥ क्यमाणज्ञानमुदाहरणं प्रवति । आह किमर्थं प्रथमोद्देशकस्याश्रुतलोचनमुपनीय, ममापनीय जमिमजन्मान्ध्यम् । न्त्यसूत्रं न जानातीत्युक्तम् ? उच्यते। यैरदर्शि शिवमार्गः, स्वगुरूलपि तानहं वन्दे ॥६॥ ज्जालितो पदीवो, चाउस्साबस्स मज्भागम्मि। ऋजुपदपकतिरचनां, बालशिरशेखरोऽप्यहं कुर्वे। पमुहे वा तं सव्वं, चानस्सालं पगासेति॥ यस्याः प्रसादवशतः, श्रुतदेवी साऽस्तु मे वरदा ॥ ७॥ चतुःशामस्य गृहस्यमध्यन्नागे प्रमुख चा प्रवेशनिर्गममुखे प्रदीश्रीमसयगिरिप्रभवो, यां कर्तुमुपाक्रमन्त मतिमन्तः। पो ज्वासितः सन् तचतुःशासं सर्वमपि प्रकाशयति पयमसाकस्पशाखटीका, मयानुसंधीयतेऽस्पधिया ॥७॥ त्रापि सकमान्ययमवर्तिनि प्रस्तुतसूत्रे यदिदं प्रथमोद्देशकस्या श्रीमदावश्यकादिसिकान्तप्रतिवरूनियुक्तिशालसंसूत्रणसू- त्यसूत्रन जानातीत्युक्तं तन्मध्यदीपकमवगन्तव्यम् । यद्वायस्मा Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) कप्प अभिधानराजेन्डः। कप्प द्यत्र प्रथमोद्देशके समासतः सर्वाऽपि सामाचारी समर्थिता । तत- लिनमाढतो सो सुणगाहिं पारद्वो नीलीरागरंजणपमितो श्चतुःशालप्रमुखो ज्वालितप्रदीप श्वेदमन्त्यदीपकमवसातव्यम्। कहं वि ततो उत्तियो नीलवमो जातो ।तं अन्नारिसरजसरक्खा ततश्चेदमुक्तं भवति यः पन्न कल्पाध्ययनं प्रथमोद्देशकं वा जा- सियालाई पासिन भणंति को तुमं पुरिसा सो नण । अहं नाति स गणपरिवती भगवद्भिर्नानुझातः। श्दमेव प्रचिकटयिषु- सब्वाहि मिगजाइहिं स्वसट्टमो नाम मिगराजा कतो। ततो अहं स्तत्राचार्ये कातमिदं भवतीति पदं व्याख्यानयति । एत्थमागतो पासामि ताव को मंन नमति । ते जाणंति अपुवो जो गणहरो न जाणति, जाणंतो वा न देसती मग्गं। एयस्स वामो अवस्सं एस देवेहिं अणुग्गहितो। तओ प्रणितं सो सप्पसीसयमिव, विणस्सति विजपुत्तो वा । अम्हे तव किंकरा संदिसह किं करेमो । खसट्टमोभणति।हत्थियः कश्चिमणधरो मार्ग यथोक्तसमाचारीरूपं न जानाति जा- वाहणं देयदिशो विजो वियरति । अस्मया सियालेहिं उच्चनाति वा परं न शिष्याणां तं मार्गमुपदिशति स सर्पशीर्षकमिव इयं ताहे खसट्टमेणं तं सियालसद्दावमसहमाणेण उम्मश्यं । धैद्यपुत्र श्व वा विनश्यति । तत्थ श्मं कलियं उदाहरणं । एगो ततो हथिणासोसियालोत्ति नाउं सोमाए घेतं मारितोजहासो सप्पो निश्चं पत्रायं अप्पाणं जहासुहं विहर ताहे से पुग्मो भ- | सियालो अणुए विणट्ठो एवं तुमं पि विणिस्सिहिसि त्ति किंच मति । तुम निश्चमेव पुरतो गच्छसि अन्यश्च । तुत्तिया जो मम किं करेसि, तुम सयं सुछ अजाणमाणी । सीतुण्डवासेयमहंधकारे, णिचं पिगच्छामि जओमणासा। मुतं तया किंन कयाइ मूढे, जं वाणरो कासि सुगहियाए।। गतव्वए सीसग कंचिकालं, अहं पिता होज पुरस्सरातो पढ पुच्चिके यदि नाम एत्थं तुबत्तिका नीता मम संमुखं चलियं जो शीर्षक नित्य मप्यहं भवत्पृष्ठनमा सती यतो यतो मां नयसि ततः स्वकं स्वीय वीर्यमजानती मम किं करिष्यसि न किमपीति तत्र शीते वा जुष्णे वा वर्षे वा निपतति तमोऽबकारेवा बहालतमः जावः। परं मूढ़े ! त्वया किं न कदाचिदप्येतत् संविधान संश्रुपटविलुप्ते प्रदेशे गच्छामि किंकरोमि परं सांप्रतं कंचित्कार ग- तम् । यदू वानरः सुगेहिकायाः शकुनिकायाः संमुखमावृतः सन् न्तव्ये गमने अहमपि तावत्ते तव पुरस्सराजवेयम्। शीर्षकं प्राह ।। कृतवान् । अत्र कथानकम् “वासेण पडिवजंतं रुक्खम्गे वानरंध ससकरे कंटइले य मग्ग, बजेमि मोरेणनलादिए य॥ | रितं सुघरा नाम समणिया भणति तश्यं तिए संती रेतणं विलेय जाणामि अहदुछे,माता विमृराहि अजाणि एवं।। मेत्तणार आणेळणं तरुक्खसि हरमि वसहीकताणिवत्ता तत्व हे पुच्चिके ! सशर्करान् शर्करायुक्तान् कण्टकाकुझांश्च मार्गान् बसामि निरूविगाए हत्थ सामि रमामि य वासारत्ते पणविय बर्जयामि । यत्र च मयूगन्नकुशादीश्चात्मोपावकारिणः पश्यामि उल्लामिश्र दोलयामि वा तरवसंविधानृमिअत्थतवमाणुसगस्स तत्र न गच्छामि। बिलानि वाऽमूनि अदुष्टानि अमूनि च पुष्टानि जारिसा हिदयप व विमाण हत्था विमाणं च जीवितं च मोइत्येवमह सम्यक जानामि । त्वं पुनरेतेषां मध्यादेकमपि न जा हफलं तुन्न विसहसि धारपहारे न य इच्चसि गेहमप्पणो मासि । अतस्त्वमेवमजानती मा तावत् । (विसूरादित्ति) खिदे. कानं घानर!तुमे असुहित्ते अम्हे विरतिं न विंदामो तह दोश्चं रोरविसूरावित्यादेशे मा खेदमनुन्नवेत्यर्थः ॥ पुच्चिका प्राह । सवितो तीए वानरो पावो रोसेण धमधमंतो उप्पिमिओ तं गतो सालं आकंपितम्मि तापादयम्मि फिरीमत्तिगता सुघरा अणम्मि तं जाणगं होहि अनाणिगाहं, पुरस्सरा मेव जवाहि मका मुमम्मिरिती ऋफिऋते सीतवातेणं इतरो बियाणे घेसूणं पाएसो अहमं गलियासएणं,लग्गाअंसीसग! वच्च पच्छा। दवस्स सिहरानत्तणयं पक्कं अंचिऊण तो तुब्भती कुवितो शीर्षक ! त्वं झायको नव अहमझायिकापि स्थास्यामि पुरस्स. नूमीगतम्मि तोणिऽयं । अह नरगती वानरा पायो सघरे अब. रा परं नवामि त्वं मे पश्चाद् ब्रज । शीर्षकं प्राह । हितहिदए सुण तवे जहा अहिरिया सिणयसिसमभाहरियाण अकोविए होन पुरस्सरा मे, अझं विरोहेण अपंमितेहिं। वसिसममंसोहिया वणिट्ठा वासुघरे अजसुविराजावदृसिलो ग बंसस्स छेदं अमुणे इमस्म, दट्टण जो गच्छसितोगतासि । ततीसु जहा सो वानरो सुघमाए पडिचोओ समाणो तीरो चे. अकोविदे! मूख ! भव मे मम पुरस्सरा श्रमपरिमतैः सह व पमिणी तुमं पिमए हितोवएसणाणु संसिया वि मम चेविरोधेन चवितेन परं हे अमुणे ! अझे ! अस्य मदीयवंशस्य घोपरि सूयति अत एपोक्तम् "उपदेशो न दातव्यो, यादृशे ताददमपि दृष्ट्वा यदि गच्छसि ततस्त्वमपि गतासि बिनधासीत्यर्थः। शे जने । पश्य वानरमूर्खण, सुगृही निर्ग्रही कृतः" किं चान्यत् । अस्य कार्यस्य पर्यवसानं पश्चात्वमपि जयसीति भावः। अपिच। न चित्तकम्मस्स विसेसमंधो, संजाणते णावि मियंककति । कुलं विणासेड़ सयं पयाता, किं पीढसप्पीकह दृतकम्मं, अंधो कहिं कत्थ यदेसियव्व।। नदी व कूलं कुतमा न नारी। यथा अन्धश्चित्रकर्मणो विशेष रमणीयकं न जानीते नापि मृणिबंध एसो गहि सोमणो ते, गाङ्कस्य चन्ऽमसः कान्तिम् एवमपि चक्करहिततया मार्गे गन्तुं न जानामीति भावः । तथा पीठेन सर्पितुं गन्तुं शीलमस्येति जहा सिगासरस व गाइतब्वे ।। स्वयमात्मनन्देन प्रयाता प्रवृत्ता कुलटा स्वैरिणी नारी कुल पीठसी क्वच दतकर्म संदेशहारकत्वं क चान्धः क च देश कत्वं मार्गदर्शकत्वम् । यथा सर्वथैवाघटमानकमिदं तथा नवच बिनाहायति । कथमित्याह ! नदीच कूब नदी स्वरं महत्तरं त्या अपि निष्प्रत्यूहं गमनमिति भावः । एवं शीर्षकेणोक्ते सति प्रवृत्ता सती कूत्रमुजयमपि पातयति तथैपापि कुलध्यमित्यर्थः। सा ब्रवीति । न चायमीदृशो निर्वन्धः कदाग्रहःशोजनः परिणामसुन्दरोनधि ता। यथा शूगालस्य गातव्ये उन्नदितव्ये नियन्धो न शोननः सं बुछीवसंहीणवला वयंति, किं सत्तजुत्तस्स करे बुट्टी। जात इत्यत्र खसट्टनामाण्यानकम् । किं ते बहाणे व मुता कतावी, वसुंधरेयं जह वीरभोज्जा। "पको सियालो रत्ति घरं पविट्ठो घरमाणसेहि चेतितो निच्च- बुकिदवणं यदलं तकीनववा निःसत्वा एव वदन्ति यतः स Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२३) कप्प अनिधानराजेन्छः। कप्प स्वयुक्तस्य बुद्धिः किं करोति सत्त्वेनैव कार्यसिदः किं वा त्वया तं हुं हातं वैद्यरहस्यम् । अतः किमर्थमव तिष्ठामीति । अथान्तरकदाचिदिये कथा नैव धुता यथा वसुन्धरेयं वीरनोग्या तक्तम्। मसौ श्लोकं गृहीत्वा स्वकमात्मीयं देशमुपैति ।। " नेयं कुरक्रमायाता, शासने लिखिता न वा । खमेना- अहागतो सो उभयम्मि देसे, सण तं चेव पुराणवित्ति । क्रम्य तुजीत, वीरजोग्या वसुन्धरा" अथ शीर्षकमाद । रमो नियोगेण सुते चिगिच्छं, कुव्वंतु तेणेव समं विणडो॥ असंसयं तं असुणाण मग्गं, गता विधाणे दुरतिकमम्मि । अथानन्तरं स वैद्यपुत्रः स्वके देशे समागतः सन् राज्ञः सइमं तुमे वाहति वामसीले, अमेवि जंकाहिसि एक्यातं ।। मीपे तामेव चतुराणां वृत्ति लब्ध्वा अन्यदा राज्ञो नियोगेन सुअसंशय निस्सन्देहं त्वमझानां मूर्खाणां मार्गमात्मोपघातरूपं तस्य राज्ञः पुत्रस्य पूर्वोक्तलोकप्रमाणेन चिकित्सा कर्तुमारब्धगता। क सतीत्याह । विधाने पुरतिक्रमे सति विधानं नाम यद्येन वान् । ततोऽसौ राजपुत्रस्तदीयया अप्रयोगक्रियया विनष्टः गज्ञा यदा प्राप्तव्यं तद् दुरतिक्रमं नान्यथा कर्तुं शक्यते। उक्तं च "बु- चापरे वैद्याः पृष्टाः किमेतेन सम्यक्प्रयोगेण क्रिया कृता उतापकिरुत्पद्यते ताहक, व्यवसायाश्च तादृशाः । सहायास्तादृशा प्रयोगेणेति ततोऽसौ तेन राज्ञा शरीरेण दएमेन दएिमतः पवझेया, यारशी नवितव्यता" अत एव तदवश्यंभावितया ना- माचरिते राजपुत्रेण समं विनष्ट इत्युक्त एप रष्टान्तः । अथ गास्मन्मनो दुनोत परंवामशीले प्रतिकृतं एव गामिनि । मामिदमे- थोपनयः । यथाऽसौ वैद्यपुत्र एकभविकं मरणमनुप्राप्तः एवं य व वाधते यदज्ञानादात्मव्यतिरिक्तानस्मादृशानेकघातं करिप्यास प्राचार्य श्दं कस्पाध्ययनं न जानाति एकदेश वा जानन् गणं आत्मना सह मारयसीति जावः। परिवर्तयति स गम्नीरसंसारसागरं परिमन्ननेकानि जनितव्यसा मंदबुद्धी अह सीसकस्स, सच्छंदमंदा वयणं अकाउं।। मर्तव्यानि प्राम्येति । (वृ०१०) प्रथमोद्देशकसमाप्तौ काव्यम् । पुरस्सरा होतु मुहुत्तमेत्तं, अपेयचक्खू सगमेण खुप्मा ॥ कल्पे माणिक्यकोशे जिनपतिनृपतेः सूरिजिस्तनियुक्तै स्तस्यैवान्यकतानैर्नयपथनिपुणैश्चित्यमानाधिकारे। सा पुचिका मन्दबुद्धिः सदुद्धिविकला। अथानन्तरं शीर्षकस्य पेटा उद्देशकाः स्युः पमिह गहनता मुद्रिता अर्थरत्नैः, वचनमकृत्वा स्वच्छन्दमतिप्रवृत्ता मन्दागमनक्रियायामासाब पूर्णा सूत्राद्यपेटाप्रकटनविषये कुञ्चिकैपाऽस्तु टीका ॥ सा मैटिकया पुरस्सरा जूत्वा गन्तुंधवृत्ताः। ततः किमनूदित्याह । हितीयोद्देशकसमाप्तौ काव्यम् ॥ अपेतचचोचनरहिता सा पुरो गच्चन्ती मुहूर्तमात्रेण शकटेन द्वतीयीकोद्देशकोऽयं मयापि, स्पष्टीचके सद्गुरूणां प्रसादात् ॥ क्षुणा आक्रान्ता विपत्तिमुपगता एष रसान्तः। अयमर्थोपनयः ।। सूते नाम्जोविन्दुनिस्यन्दमिन्दु-नावश्चन्द्रज्योत्स्नया चुम्बितःकिम्। जे मजकदेसे खलु देसगामा,अतिप्पियं ते सुत्लयं तु तुब्नं ।। तृतीयोद्देशके समाप्ते काव्यम् ॥ रुक्खयहिंडेहिं सुताविया मो,अम्हं पितो संपइ होउ दो।।। चूर्णीवचोभिः फलकैः सुयोजित-गुरुप्रतिष्ठानयुतैःससूत्रकैः । ये अगीतार्थाः शिष्यास्ते आचार्यान् जणन्ति भदन्त ! ये खबु तृतीयकोद्देशकबारिधि सता, तरी तरीतुं विधृतिः कृता मया ॥ मध्यदेशे प्रार्यक्षेत्रे देशा मगधादयो प्रामाश्च तत्प्रतिबकास्तेषु चतुर्थोद्देशकस्यान्ते काव्यम् । भगवतामतिप्रियमतीवविह रोचते परंवयमेषु देशेषु रुवान्नमात्र, श्रीचूर्णिकारवदनाजवचोमरन्दमानेन हिएमनया चेतस्ततः परिजमणरूपयासुष्ठतिशयेन तापिता निष्पन्दपारणकपीवरपेशलश्रीः । दग्धांशदेहाः संजाताः अतोऽस्माकमपि तावत्संप्रति नन्दो भवतु उद्देशके मम मतिनमरी तुरीये, स्वच्चन्दन यत्र यत्र रोचते तत्र विहरिष्यामः इति । गुरवो ब्रुवते । टीकामिषेण मुखरत्वमिदं वितेने ॥ पञ्चमोद्देशकस्यान्ते काव्यम् ॥ दहोषही तेणगसावगेहिं, पदुद्रुमेत्तेहि य तत्य तत्थ ।। श्रीमच्चूर्णिवचांसि तन्तब इह शेयास्तथा सद्गुरोजता परिभंस धुअंतदोस.तदा विनाणस्सह मे विसेसं ॥ राम्नायेनत्रकस्तुरीबुधजनो यास्त्युद्भवा चातुरी। जो नका! यूयं प्रत्यन्तदेशे विहरन्तो यदा देहस्तेनैः शरीरह- श्त्येतैर्विततान साधकतमैः श्रीपञ्चमोद्देशके, रैरुपधिस्तेनैरुपकरणहरैःश्वापदैःसिंहव्याघ्रादिभिःप्रद्विष्टास्तैस्तै जाम्यापोहपटीयसीमहमिमामष्टिीकापटीम् ॥ श्च तत्र तत्रोपहृताः सन्तः संयमात्मविराधनादिना परिशमा. संप्रति प्रस्तुतशास्त्रोक्तविधिवपरीत्यकारिणमपायान् दर्शप्स्यथ ततो विज्ञास्यथ मे मदीयं विशेषं यथा दानशोभनं कृत- यन्नाह । मस्माभिः यदेवं गुरूणां वचनमनवगणय्य स्वच्छन्दसाविहारः कृत पखंबादी जाव ठिता, उस्सग्गववातियं करेमाणे । इति । यस्तु गणधरो न जानाति जानानो वा शिष्याणां मार्ग नो. अववाते उस्सग्गं, पासायणदीहसंसारी ।। पदिशति स तषामनुवृत्त्या सन्मार्गमतिक्रम्यानायेदशे विहरन् प्रलम्बसूत्रादारज्य यावदिदं परिधकल्पस्थितिसूत्रं तावद्य तैरेव शिष्यैः सह विनाशमाविशति यथा सर्पशीर्षकं पुच्चिका-] उत्सर्गापवादविधिः सूत्रतोऽर्थतधोक्तस्तत्रोत्सर्गे प्राप्ते भापसहितं विनष्टमिति । अथ वैद्यपुत्रदृष्टान्तमाह ॥ वादिकी क्रियां कुर्वाणोईतामाशातनायां वर्तते अहत्यकप्तस्य वेजस्स एगस्स अहेसि पुत्तो, मतम्मि ताते अबधीयविज्जो ।। धर्मस्य शातनायां वर्तते आशातनायां वर्तमानो दीर्घसंसारी गंतुं विदेसं अह सो सिझोग, घेत्तुणमेगं सगदेसमेति ॥ भवति यस्मात् प्रसम्बसूत्रादारज्य पविधकल्पस्थितिसूत्रं यावएकस्य वैद्यस्य पुत्र प्रासीत् । स च ताते पितरि मृते सति उत्सर्गे प्राप्ते उत्सर्गः कर्तव्यः अपवादे प्राप्ते अपवादविधिर्यतअनशीतविद्य इति कृत्वा राज्ञः सकाशावृत्ति न लजते। ततो वैद्य नया कर्तव्यः । एवं कुर्वतां गुणमाह । कशास्त्रपउनाथै विदेशं गत्वा तत्र कस्यापि वैद्यस्य पार्थे एकं उब्बिह कप्पस्म विति, नाउं जो सहहे करणहुत्तो। श्लोकं शृणोति स्म । “पूर्वाह्ने वमनं दद्या-दपराहे विरेचनम् । पवयणविहीसुरक्खि-तो इह परभववित्थरष्फलदो।। वान्तिकेष्वपि रोगेषु, पथ्यमाहुर्विशोषणम् ॥” ततस्तेन चिन्ति- विधकल्पस्य सामायिकादिरूपस्य प्रस्तुतशास्त्रार्थसर्वस्व Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ) अभिधानराजेन्द्रः । कप्प त भूतस्य स्थिति कल्पनीयविवर्जनरूपणं त्या गुरूपदेशेन स गवरामादीन् श्रधीत प्रतीतिपथमारोपयेत् न के किं तु करणयुक्तोऽनुष्ठानसंपन्नो भवेत् तस्यात्मैवं सम्यग्ज्ञानथकानचारित्र समन्वितः साक्षात्प्रवचनविधिर्भवति । यथा समुद्रो रत्ननिधिर्भवति एवमसावपि ज्ञानादिरत्नमयस्य प्रवचनस्य विपिरियर्थः । स च प्रवचनविधिः सुप्रनामसंयमविरक्षितः सहि परजयविस्तरकादो भवति । ह भवे विस्तरेण चरणवैक्रियामथैौषधिप्रभृतिविविधसन्धिरूपं फ ददाति परभवेऽप्यमुत्तर विमानानुपपातकुक्षं प्रत्यायाति प्रभृतिकं विस्तरेण फलं प्रयच्छति । अथेदं कल्पाध्ययनं कस्य न दातव्यं को वाऽपात्राय ददतो दोषो भवतीत्यत आह । जिरहस्खेवारे, णिस्साकरण व मुनोगी व गतिविम्मि सो संसारे भमति दीहे ॥ पापानि रहस्यमुच्यते भिनं प्रकाशितमयोग्यानां द स्पेन स निरस्यः अगीतार्थानामपवादपदानि कथयतीत्यर्थः । तत्रैवंविधे नरे तथा निश्राकारो नाम यः किंचिदपवादं लब्ध्वा तदेव निक्षां कृत्वा भगति यथैतदेवं करणीयं तथाऽन्यदण्येवं कर्तव्यं तत्र तथा मुक्ताः परित्यक्ता योगा ज्ञानदर्शनचाव्यापारा येन स मुक्तयोगी ईशे पायेन दातव्यं यस्तु ददाति स पधिगतिविले पृथिवीकायादित्रसका यान्तष्ट्रय परिभ्रमणगने दीयें अपारे संसारे भ्राम्यति । अथ कीदृशस्य दातव्यं को वा पात्रे ददतो गुणो नवतीत्यत श्राह । अरहस्तधारण पारए प्रकरणो तुलासमे समिते । कप्पा पालणादी - वर य आरोहणच्छिन्नसंसारी ॥ नास्त्यपरे रहस्यान्तरं यस्मान्तर रहस्यमतीव रहस्यं वेदसास्त्रार्थतत्वमित्यर्थः । तथा धारयति अपात्रेभ्यो न प्रयच्छति यः स रहस्यधारकः । पारगः सर्वस्यापि प्रारब्धश्रुतस्य पारगामी न पट्टा करणो नाम मायावियुको या बधो विदितानुष्ठानं करोति तुझासो नाम पथमा न मार्गतो न वा पुरतो नमति एवं यो रागद्वेषविमुक्तो मानापमानसुखदुःखादिषु समः स तुलासम उच्यते। समितः पञ्चभिः समितिभिः समायुक्तः विगुणोपेतस्येमध्ययनं य पर्व ददना कल्पस्य जगतस्य तदानविधेरनुपालना कृता भवति । अथवा कल्पे कल्पाध्ययने यद्भणितं तस्यानुपाअनां यः करोति तस्य दातव्यम् । एवं कुर्वता दीपना अन्येषामपि मार्गस्य प्रकाशना कृता भवति । यथाऽन्यैरपि एवंगुणवते शिष्याय श्रुतप्रदानं कर्त्तव्यम् । अथवा ( दवणन्ति ) यो यो स्पानां नामनात स्पेन व्याख्यानं करोति तस्येदं दात यदि वा दीपना नाम सोन्यानामुत्सर्गे दीपयति । अपवादयम्यानामपवादोगपति उनयोग्यानामुि दीपयति । प्रमादिनां वा दोषान् दीपयति श्रप्रदादिनां गुणान् दीपयति य एतस्यानुपादानायां व वर्तते तस्य ज्ञानदर्शनचारित्रमयी जघन्या मध्यमोत्कृष्टश वाऽऽराधना भवति । ततश्वाराधनया विन्नारीरी जवति । संसारसंत तेर्व्यवeg करोति तस्यां च व्यवच्छिन्नायां यत्तदयमव्याबाधमपुनराति स्थानीयुक्तोऽनुगमः । ०००० नन्दी संदर्भमूले सुतरमहापीनिकारक न्य देशापयेदमस कपः । सार्थक कल्पकल्प मेऽस्मि कप्प नाक्रष्टुं षष्ठशाखाफलनिव हम सावकुशीवाऽस्तु टीका ॥ ६ ॥ समाप्ता चेयं सुखावबोधिनी नामकल्पाध्ययन टीका । सौवर्णा विविधार्थरत्नकक्षिता पते षमुद्देशकाः, श्रीकल्पेऽर्थनिधौ मदाः सुकलशा दौर्गत्य दुःखापड़ाः । दार्णिकारतात श्वाथ गुहा नीता खातमभी मया मतिमतामर्थाः स्फुटार्थी॥१॥ श्री कल्पसूत्रममृतं विधोपयोगयोग्यं जरामरणदारणखदारि तं मतिमता मथितात् श्रुताच्छेः, श्रीभद्रबाहुगुरवे प्रणतोऽस्मि तस्मै ॥ २ ॥ येनेदं सूत्रं ममुकुलचाकोमलं मजुलानि निर्दोषापहाभिः स्फुट विषय विभागस्य संदर्शिकानिः । उत्फुलोद्देशपत्रं सुरसपरिमलोहारसारं वितेने, तं नि:संबन्धवधुं मुनिमधुपं भास्करं प्राप्यकारम् ॥ ३ ॥ श्रीकल्याण्ययनेऽस्मि प्रतिगम्भीराय नाप्यपरिकलिते । श्री नमः कृति ॥ ४ ॥ श्रुतदेवताप्रसादादिदमध्ययनं विवृता कुशलम् । यदवापि मया रोग प्रायां मममम ॥ ५ ॥ ममनपगभीरनीर- त्रिोत्सर्गापवादवादः । युक्तितरत्नरम्पो जिनागमो निधियति ॥ ६ ॥ श्री जैनशासनमनस्तस तिग्मरामि श्रीपद्मचन्द्र कुलपद्मविकाशकारी । स्वज्योतिरावृतदिगम्बरमम्बरोऽभूत्, श्रीमान् धनेश्वरगुरुः प्रथितः पृथिव्याम् ॥ ७ ॥ श्रीमच्चैत्रपुरे कमरा नमदारप्रतिष्ठाकृतस्तस्माच्चैत्रपुरप्रबोधतरणिः श्रीचैत्रगच्छोऽजनि । तत्र श्रीवमेन्द्रसूरिगुरुर्भूभूषणं नासुरज्योतिःसनरोनगिरि कामेावत् ॥ ५ ॥ तत्पदाम्बुजम समभवत्पमाऔरीर सदूपणगुणत्यागग्रतः । कालुष्यं च जमोद्भवं परिहरन् दूरेण सन्मानसस्थायी राजमरावणिवरः श्रीदेवनः प्रभुः ॥ ११ ॥ शिष्टाः शिष्यापस्तत्पदरखोर विश्वस्ताङ्गाः सुविदितपिता ब तत्राद्यः सच्चरित्रानुमतिकृतमतिः श्रीजगश्चन्द्रसूरिः, श्रीमद्देवेन्द्रसूरिः सरव्रतर सचित्तवृत्तिद्वितीयः ॥ १२ ॥ तृतीयशिष्याः पारिषाय परीषदा होज्यमनः समाचकः । जयन्ति पूज्या विजयेन्दुसूरयः, परोपकारादिगुणौघसूरयः ॥ १३॥ प्रौढं मन्मथपार्थिवं त्रिजगतीजैत्रं विजित्येषुषां येषां चैत्रपुरे तत्र मसा प्रक्रान्तकान्तोस । स्थे मेरा सर्वसत्वं मही, सोमसम्म कमजोऽकृत प्राभृतम् ॥ १४ ॥ चापं चापं प्रवचनवचो वीजराजीं विनेयदेवे के सुपरिमलिते शब्दशास्त्रादिसारैः । यैः क्षेत्रः शुचिगुरुजनाम्नाय वाक्सारिणीतिः, सिवा तेनेयामन्दि संज्ञानसत्यम् ॥ १५ ॥ वैरप्रमतैः मन्त्रजायै तालमाधाय विस्ववश्यम अनुरूपकपाणमयोन्तमार्थः सत्पुरुषः सत्यधनैरधि ॥१२॥ किंबहुना || मावह्नितं विश्वम्भरामराम, Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२५) कप्प अभिधानराजेन्सः। या निःशेषविशेषविकजनताचेतश्चमत्कारिणी। घतो देतोरेकान्ततस्तु सर्वथैवाविरुको युक्तः गुजरूपत्वात् सततस्याःभीषिजयेन्दुसूरिसुगुरोनिष्कृत्तिमायागुण समाप सदाऽप्यास्तां कदाचित् क्रियमाणो विधीयमानः। प्रथमघेणेः स्याचदि वास्तवस्तवकृतौ विज्ञः स वाचां पतिः ॥१७॥ भ्यमानामपि तथा नविष्यतीत्याहाशात पवागमादेवतेषां सर्वे सत्पाणिपङ्कजरजःपरिभूतशीर्षाः, पांजिनसाधूनाम धाकावीच ऋजुजडत्वादिकं वक्ष्यमाणमिति शिभ्यानयो दधति संप्रति गच्चन्नारम । गाथार्यः । तृतीयौषधप्रतिपादनायाह । श्रीषज्रसेन इति सद्गुरुरादिमोऽभूत, वाहिलवणइ नावे, कुणइ अभावे तयं तु पढमं ति । श्रीपचन्छसुगुरुस्तु ततो द्वितीयः ॥ १० ॥ वितियनवणेति न कुणति, तइयं तु रसायणं होते ।। ४।। तातीयीकस्तेषां, विनेयपरमाणुरनणुशास्त्रेऽस्मिन् । श्रीकेमकीर्तिसूरि-विनिर्ममे विवृतिकल्पमिति ॥ १५ ॥ किस कस्यचिन्नरपतेः पुत्रोऽत्यन्तवल्लभो बतूच स च तस्य सश्रीविक्रमतः कामति, नयनाग्निगुणेन्दुपरिमिते (१३३३) धर्षे।। ततारोग्यसंपादनाय आयुर्वेदविशारदविविधवैद्यानाहूयोवाच । भो! निपग्वरा ! मम तनयस्य यथा रुजोन नवन्ति तथा यतध्वज्येष्ठश्वेतदशम्यां, समर्थितैषा च घनाः॥२०॥ मेते च तच्चस्तथैव प्रतिपन्नवन्तस्ततश्च ते यथोपदेशमौषधाप्रथमादर्श सिविता, नयप्रभप्रतियतिभिरेषा । गुरुमन्ये गुरुभक्ति-नरोद्वहनादानम्रितशिरोभिः ॥ २१ ॥ नि संस्कृत्य राजानमुपतस्थुः । राजा च तान् प्रत्येकमीषधगुणान् इह च सूत्रादर्शषु, यतो भूयस्यो वाचना विलोक्यन्ते । पप्रच्च तेऽपि तान् क्रमेणाचण्युस्तत्र च व्याधि रुजमपनयत्यविषमाश्च भाष्यगायाः, प्रायः स्वरूपाश्च चर्णिगिरः ॥२२॥ पहरति प्रयुज्यमानं नावे व्याधेरिति गम्यते। तथा करोति विधत्ते ततः सूत्रे या भाष्ये वा, यन्मतिमोहान्मयाऽन्यथा किमपिः। अनावे पुना धेरसद्भावे तत्कं व्याधि तुः पुनरों लिखितं घा विवृतं वा,तन्मिथ्यामुष्कृतं भूयात् ॥२३॥१व्य०६उ०। योजित एच प्रथममाद्यमिदमौषधमिति शब्दः समाप्तौ । तथा दिद्वितीयमौषधमपनयति हरति व्याधि सन्तमसन्तं तु न करोव्यवहारे, अनुष्ठाने, सूत्र०१ श्रु०३ अ०५० । कल्पत इति कल्पः। न्याय्ये, विधी, आचारे, चरणकरणव्यापारे, आव०४० तिम विधत्ते । तथा तृतीयं तु तृतीय पुनरौषधं व्याधि सन्तं सततासेवनीय समाचारे, जी०१ प्रतिकल्पो नीतिमर्यादा हत्वा असन्तं चाकृत्वा रसायनं भवति । वयस्तम्भादिगुणाकरं विधिः सामाचारीत्यर्थः । पं०व० । ज्ञा० प्रा० म०वि०। स्था। स्यादिति गाथार्थः । एवं दृष्टान्तमनिधाय दान्तिकानिविशे०जीतं स्थितिमर्यादा व्यवस्थेति हि पर्यायाः। नं०। पं० धानायाह। पापंचा०००। सच स्थितास्थितन्नेदाद् अनेकधा भिन्नः। एवं एसो कप्पो, दोमानावे वि कज्जमाणो उ । पंचा। अनन्तरप्रायश्चित्तमुक्तं तच स्थितादिकल्पयुताः साध- सुंदरजावा तु खल, चारित्तरसायणं णेओ।॥ ५ ॥ वो पति वहन्ति चेति स्थितादिकल्पस्वरूपं बिभणिषुर्मङ्गला- एवमिति तृतीचौषधवदेषोऽनन्तरोक्तः कल्पः स्थितकल्पो चनिधानाया। दोषानावेऽप्यपराधासत्वेऽप्यास्तां दोषसद्भावे क्रियमाणो विधीणमिमण महावीर, ठियादिकप्पं समासो वोच्छं । । यमानः सन् तुः पाद पूरणे सुन्दरनावात् खलु शोभनत्वादेव पुरिमेयरमज्झिमजिण-विजागए तो वयणनीतीए ॥१॥ चारित्रस्य चरणशरीरस्य रसायनमिव पुष्टिकरणाचारित्ररसा पमं झेयोऽवसय इति गाथार्थः। दशधा यतः करूप इत्युक्तमथैमत्वानिवन्ध महावीरं वर्षमानजिनं स्थितादिकल्पमवस्थिसानवस्थितसमाचारं समासतःसंकेपेण पदयेऽनिधास्ये (पुरिमे तदर्शनायेदमाद । ति) पूर्वः प्रथम इतरोऽन्तिमः मध्यमाः शेषा द्वाविंशतिस्ते च आचेलकद्देसिय, सिज्जायररायमिकिकम्मे । ते जिनाच तैयों विभागः स्थितादिविभजनं स तथा ततः पूर्वे वजेट्ठपमिकमणे, मासं पज्जोसवणकप्पो ॥ ६ ॥ तरमभ्यमजिनविजागतःह चमध्यमग्रहणस्योपलक्कणत्वाद्विदह भविद्यमानं चेदं वस्त्रं यस्यासावचेत्रकस्तद्भाव भाचेमक्यम्। जिनसंग्रहोहश्यो यतो वक्ष्यति "एवं खुविदेहजिणकप्पीति"व-1 सद्देशेन साधुसंकल्पेन निवृत्तमौदेशिकमाधाकर्म शव्याया घस. चननीस्या कस्पादिस्तत्र न्यायेनेति गाथार्थः । तत्र स्थितकल्पप्र- त्या तरति संसारसागरमिति शय्यातरः स च राजा च नृपश्चतिपादनायाह । क्रवादिस्तयोः पिएमा समुदानमिति शय्यातरराजपिएमः रुदसहा होइन कप्पो, एसो पुरिमेयराण ठियकप्पो । तिकर्म बन्दनकमेतेषां च समाहारद्वन्द्वत्वात्सप्तम्येकवचनम् । सययासेवणभावा-ट्ठियकप्पो णिश्चमज्जाया ॥५॥ ततश्चाचेसक्यादिषु यथास्वं विधिनिषेधाज्यां स्थितास्थिताः दशधा दशनिः प्रकारैरुथतः सामान्यन स चाचेलक्या साधवो भवन्तीत्यतोऽयमाघकल्पः । एतेष्वेव च प्रथमचरमजिदिर्घश्यमाणः । तुशब्दः पुनरर्थः निन्नक्रमच कल्पो व्यवस्था नसाधवः स्थिता पवेति स्थितकरूपस्तेषां तथा व्रतानि महाव तानि ज्येष्ठो रत्नाधिकः प्रतिक्रमणमावश्यककरण सप्तम्येकवएष तु एष पुनः सामान्यकल्पः पूर्वतराणामादिमान्तिमजिनसाधूनां स्थितफल्पोऽवस्थितकल्प मुच्यते कुतः सततासेघननाधा चनं प्राम्बत् (मासमिति ) प्राकृतत्वादनुस्वारः परि सर्वथा व सनमेकनिवासो निरुक्तविधेः पर्युषणमेतदृद्वयलकणः कल्प निरन्तरावरणसद्भावादिति । तत्वत एतनिरूप्याथैनमेष पर्यायत प्राह । स्थितकल्पो नित्यमर्यादेति गाथार्थः । श्राचारः मासपर्युषणकल्पस्तत्र च स्थितास्थित इत्यादि ति अथ किमयं नित्यमासेव्यत इत्याद । गाथासमासार्थः । सक्तः स्थितकल्पः। अथास्थितकल्पानिधानायाह ॥ ततियोसहकप्पो यं, जम्हा एगंततो उ अविरुको । सुअअडिओ उ कप्पो, एतो मज्झिमजिणाण विमेयो। सययं पि कजमाणो, प्राणायो चेव एतसि ॥३॥ को सययसेवणिजो, अणिञ्चमेरासरूवो त्ति ।। ७॥ तृतीयौषधकल्पो वक्ष्यमाणौषधतुल्योऽयमेव स्थितकल्पोयस्मा- षट्सु दर्शयिष्यमाणरूपेषु पदेषु अस्थितस्तु अनवस्थितः पुनः Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६ ) अभिधानराजेन्द्रः । कप्प कल्पसमाचारः (पतोत्ति ) पतेज्य एव दशज्यः पदेज्यो म ध्यानाम् मध्यमजिनानामित्यर्थः विज्ञेयो ज्ञातव्यः । कुतो स्थितोऽयमित्याद नो नै सततं सेवनीयः सदा विधेषो दशस्थानकापेक्क्या एतदपि कुत इत्याह । अनित्यमर्यादास्वरूपोऽनियतव्यवस्थास्वभाव इति इत्यादिदान स्थानानां मध्यात् कानिचित् स्थानानि कदाचिदेव पालयन्तीति भाव इति गाथार्थः । षट्स्ववस्थितः कल्पः । पचा० १७ विव० (इति अट्टिकम्प शब्दे उक्तम्) वृ० । जीत० । कल्प० (अचेल - क्यादिकल्प अचेलगादिशब्देषु याः ) वृक्ष पं०मा०मा०म० द्वि० । परः प्राह । ननु सर्वेषां सर्वज्ञानां सदृश एव हितोपदेशस्ततः कथं पञ्चयामिकानां चतुर्यामकानां च विदशकल्याकम्प्यविधिः । तत्रोच्यते कालानुभावेन विनेषानामपरापरं तथा तथा स्वनावपरिणामं विमल केवलकृपा विक्रोक्ती द्भिरित्यं कल्पयाकल्यविधिवैचित्र्यमकारि । तथा चाह । पूर्वसाधुकाः ऋजुजाः पश्चिमसाधवो वक्रजमा मध्यमा ऋजुप्राकाः एतेषां च त्रिविधानामपि साधूनां नटक्कादृष्टान्तमाह । तेन प्ररूपणा कर्तव्या द्विविधानामेव साधूनां मा गतानां गृदिण उन्मादिदोषान् कुर्युस्तत्रापि विद्या निदर्शन कर्तव्यम् । तत्र नटप्रेक्षणकदृष्टान्तं तावदाह । नडपेच्छं दणं, अवस्सा ओयरणा मे कप्पे | कावादी सो पेच्छति एा ते वि पुरिमाणतो सच्चे ॥ कश्चित्प्रथमतीर्थकर साधुर्भिक्कां पर्यटन नटस्य प्रेक्षां प्रेक्षणकं वाकियन्तमपि कामवलोक्य समागतः स च ऋजुत्वेनावश्यमाचार्याणामालोचयति । यथा नटो नृत्यन् मया विलोकितः आचार्यैरुकं वा नटाच लोकाना साधूनां कर्तुं न कल्पते । ततो यथादिशन्ति प्रगवन्तस्तथैवेत्यनिधाय भूयोऽपि निकामद कायाकादिकमसी मेकते कायाको नाम बेपपरावर्तकारी नटविशेषः आदिशब्दाशी प्रतिपरिग्रहः ततस्तचाचिगु वो णन्ति । ननु पूर्व वारित आसीः । स प्राह । नट एव रुष्टुं वारितो न कायाकः । एष तु मया कायाको दृष्टः । एवं यायन्मानं परिस्फुटेन वचसा वार्यते तावन्मात्रमेवैते वर्जयन्ति न पुनः सामर्थ्योक्तमपरस्य तादृशस्य प्रतिषेधं प्रतिपद्यन्ते यदा तु भरतेन तवेति तेऽपि कायाकादयो न कल्पन्ते तदा सर्या नपि परिहरन्ति । अतः पूर्वेषां साधूनां सर्वेऽपि नटादयो न क स्पन्ते मिति प्रथममेोपम एमेव उम्गमादी, एकेक निवारितरे गिए । सच्चे विण कप्पंति, वारितो जाव जियं वज्जे ॥ पवमेव नमेोनैव प्रकारेण पूर्वतीर्थकर साधुर्यक प्रमादिदोष निवार्यते ततोऽयमेवाश्राकर्मादिकं दोषं निवारितस्वमेव पतितस्तु पूतिकर्मकृतादीन् ही यदा तु सर्वेऽप्युनमदोषा न कल्पन्ते इति वारितो भवति । तदा सर्वानपि यावज्जीवं वर्जयति । अथ संज्ञातकं गमनपदं व्याचष्टे ॥ सन्नायगा वि उज्ज-तणाय कस्स कंत तुज्जमेयं ति । मम किप्पर, कीतं मस्स वा एगो || प्रथमतीकरती यदा साधुः संज्ञातकं कुतं गच्छति तदा ते संज्ञातकाः किचिदाधाकर्मादिकं कृत्वा साधुना कस्पार्थे युष्णानिरिदं कृतमिति पृष्टाः सन्त ऋजुत्वेन कथयन्ति । युष्मदर्थमेतदिति । ततः साधुर्भणति ममोद्दिष्टं नक्तं न कल्पते । एवमुक्तः कप्प स गृही की तमन्यद्वा दोषजातं कृत्वा दद्यात् उद्दिष्टमेवान प्रतिषिद्धं न क्रीतादिकमिति बुरुया अथवा अन्यस्य साधोरथीयाधाकर्म कुर्यात् ममोद्दिष्टं न कल्पते इति भगता तेनात्मन एवाधकर्म प्रतिषिद्धं नान्येषामिति बुरुधा । सम्बनई णिमिद्धा मा उपजयचि उग्गमा ऐसि । इति कथिते पुरिमाणं सच्चे सब्बेसि या करेंति ॥ यदा तु तेषां गृहिणामग्रेऽभिधीयते सर्वेऽप्युमा दोषाः सर्वेषां यतीनां निषिकान कल्पन्ते मास्माकमिति तेषां दोषा इति कृत्वा तत एवं कथिते भणिते गृदिणः सर्वेषामपि साधूनां स र्वानप्युनमदोषान्न कुर्वन्ति । श्रथ पूर्वेषां तीर्थे ये श्राकादय उद्गमदोषकारिणस्तेऽपि ऋजुजका इति । अथ ऋजुजरुपदल्याख्यानमाह । उज्जुत्तरां से आलो - यणाए जमत्तणं से जं भुज्जो । तज्जातीए न यारणति, गिहूं। वि अन्नस्स अनं वा ॥ ऋजुत्वं (से) तस्य प्रथमतीर्थकरसाधोरेवं मन्तव्यं यदेकान्तेयकृतं कृत्वा गुरूणामवश्यमालोच्चयति । यत्पुनर्जू यस्तजातीयान् दोषान् वर्जयति तेन तस्य जमत्वं रूष्टव्यम् । गृहिणोऽपि यकस्य निवारितं तदन्यस्य निमित्तं कुर्वन्ति अभ्या कृतादिकं दोषं कुर्वन्ति । एतेषां जडत्वम् । यत्तु पृष्टाः सन्तः प रिस्फुटं खङ्गायं कथयन्ति तेषामृत्चम् । अथ मध्यमानाम्प्रतां भावयति । 7 नज्जुतरां से आलो - यणाए पुणो न सेमवज्जणया । संयगा वि दोसे करेंत असे असिं ॥ रहस्यपि यत्प्रतिसेवितं तदवश्यमानोचयिष्यामीत्यामोचनया मध्यमतीर्थकर साधूनामृजुत्वं मन्तव्यं यत्पुनः शेषाणां तजातीयानामर्थानां स्वयमज्यूहा ते वर्जनां कुर्वन्ति ततः प्रज्ञा तेषां प्रतिपत्तव्या । ते हि नटकावलोकनं कर्तुं कल्पन्ते इत्युक्ताः प्राज्ञतथा स्वचेतसि परिजावं भावयन्ति । यथैतन्नटावलोकनं रागपनिबन्धनमिति कृत्या परिष्ट्रिय तथा कायाकनर्तकयादिव नमपि रागद्वेषनिबन्धविचिन्त्य यन्ति का अपि तेषामिदमुद्दिष्टभकं मम न - स्युक्त्वा चिन्तयन्ति यचैतस्यायं दोषो कल्पनी यस्तथा अपेि तजातीयाः सर्वेऽप्यकल्पनीया यथा चैतस्य ते कल्पनीयास्तथा सर्वेषां मध्यमसाचून न कल्पन्ते एवं विचिन्त्यान्यानुमदोषाच कुर्वन्ति । अन्येषां च साधूनां हि तेन कुर्वन्ति । अथ वक्रजमव्याव्यानमाह । बँका उण साहृतिय, पुट्ठा न भणंति उएहकंटादी | पाहुन सफल गिरियो विउ वाउलंते न ॥ पश्चिमतीर्थकर साधवो वक्रत्वेन किमप्यकृत्यं प्रतिसेव्यापि न कथयन्ति नालोचयन्ति यतनया जानन्तोऽजानन्तो वा भू यस्तथैवापराधपदे प्रवर्तन्ते नालोकर्म कुर्यादा रास्त तो गुरुभिः पृष्ठाः किमियती वेलां स्थितास्ततो भवन्ति । उनातितापिता वृक्षादिच्छायायां विश्रामं गृहीतवन्तः कटको वा लग्न श्रासीत् । स च तत्र स्थितैरपनीतः । श्रादिशदादन्यदप्येवंविधमुत्तरं कुर्वन्ति इति गृहिणोऽन्याधामंदी फते पृष्टा भन्ति प्रार्णका भागतास्तदर्थमिदमुपस्कृतमस्माकं वा ईदृशे शाल्योदनादौ भक्ते श्रद्य श्रद्धा समजनि । उत्यो वा अपामुकोऽस्माकम एवं गृहिलो वक्रजडत Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) कप्प अभिधानराजेन्द्रः । कप्प या साधून व्याकुलयन्ति व्यामोहयन्ति सद्भावं नाख्यान्तीत्य- | भवन्ति । स्त्रीत्वपि प्रायो मायानिवन्धनमथवा मातृवादन मार्थः । एतेन कारणेन चतुर्यामिकपश्चयामिकानामाधाकर्मग्रह- योच्यते । ततश्च तस्याः स्थान विशेषो मातृस्थान मायिनां वा रो विशेषः कृत इति प्रक्रमः । वृ०४ उ०। स्थानमिति माथिस्थानं मायैव प्रायो वाहुल्येन केषांचित्तन्न संअथ कथमेते एतत्स्वभावा इत्याह । नवत्येवेतिप्रायोग्रहणम् । असकृदप्यनकशोऽप्यास्तामेकदाखुर्वाकालस्सहावा नच्चिय, एए एवंविदा ज पाएण । क्यालंकारे कालदोषेण दुष्पमानुनायेनेति गाथार्थः। होंति उ उओ जिणोहि, एएसिं श्मा कया मेरा॥४४॥ व्यतिरेकमाह। कालस्वभावादेव कालसामर्थ्यादेव एते साधव एवंविधा इहरा जण समणत्तं, अमुकनावा न हंदि विमेयं । स्तु एवंप्रकाराः पुनः ऋजुजडत्वादिधर्मका इत्यर्थः । प्रायेण लिंगम्मि वि भावेणं, मुत्तविरोहा जो जणियं ॥४॥ बाहुल्येन न तु सर्वे तद्विधा एव भवन्ति स्युः ( अउप्रोत्ति) इतरथा त्वन्यथा पुनः कपायान्तरसङ्गतमातृस्थानसंनवे इत्ययस्मादेवमत एव जिनैराप्तरेतेषामृजुजडादिसाधूनामियमु- थः न श्रमणत्वं न साधुत्वं कुत इत्याह । अशुद्धभावात् अप्रशस्ता क्तस्थिता स्थितकल्परूपा कृता विहिता (कयाइमत्ति) पा- ध्यवसायान् अनन्तानुबन्यादिसंगतमातृस्थानरूपान् हंदीत्युपप्रठान्तरम् (मेरत्ति) मर्यादेति गाथार्थः। अथ ऋजुप्रज्ञानामस्तु शने विज्ञेयं ज्ञातव्यं लिङ्गेऽपि व्यलिङ्गो रजोहरणादौ सत्यास्तां चरणं ऋजुप्रसत्वादः ऋजुजडादीनां तु न युक्तमित्यत आह ॥ तदनावे यदि अन्यविङ्गमस्ति कथं न श्रमणत्वमित्यत आह । एवं विहाण वि इह, चरणं दिहं तिलोगणाहिं। भावेन परिणामापेक्वया एतदेव कुत इत्याद । सूत्रविरोधात जोग्गाण थिरो नावो, जम्हा एएसि सुको उ॥४५॥ प्रागमोक्तार्थविरुद्धत्वात् । सूत्रविरोध एव कुत इत्याह । यतो यस्माद्भणितमुक्तमागम इति गाथार्थः । अत्थिरो उ होइ इयरो, यदुक्तं तदेवाह। सहकारिवसेण ण उण तं हणइ । सव्वे विय अश्यारा, संजनणाणं तु उदयो होति । जला जायइ उएहं, मूलच्छेज पुण होइ, वारसएहं कसायाणं ।। १० ।। वजं ण न चया तत्तं पि ॥४६॥ सर्वेऽपि च समस्ता अपि न तु केचिदेवातिचाराः सर्वविरत्यति. एवं विधानामपि ऋजुजडत्वादियुक्तानामप्यास्तामृजुप्रज्ञाना क्रमाः संज्वलनानां तु संज्वलनाख्यकपायाणामेवोदयतो विपामिह प्रक्रमे चरणं चारित्रं दृष्टमवलोकितं त्रिलोकनाथैर्जिनैः केन जवन्ति स्युः । मूझेनाष्टमप्रायश्चित्तेन विद्यतेऽपनीयते यकिं सर्वेषामित्याह ।योग्यानामुचितानां प्रवज्यायां कुत एतदेव दपराधजातं तन्मूत्र तत्पुनर्नवति स्यात् द्वादशानामनन्तामित्याह । स्थिरः स्थायी भावोऽध्यवसायो यस्मात्कारणादेते नुवन्यादीनां कषायाणां क्रोधादिभावानामुदयतः इत्यतः संषामृजुजडादीनां शुद्धस्तु प्रशस्त एवेति । अस्थिरस्तु अस्था म्वलनसंगतमेघ मातृस्थानं चरणाभावकारकं न स्यानद्भायोपि यी पुनः कादाचित्क इत्यर्थः । भवति स्यादितरोऽशुद्धः । अथ च चरमसाधवश्चरणवन्तः स्युरिति गाथार्थः । इप्षमायां केचिकथमसौ स्यादित्याह । सहकारिवशेन तथाविधसामग्रीसाम चारित्रमेव न मन्यन्ते अतिचारबाहुल्यात्तच्च नयतो व्यवहारध्येन न तु स्वत एव । तर्हि शुद्धभावस्वभावचरणोपहतिर्भ नाये साकेपः । समाधिरिडोक्तः । केसिंचिय भाएसो, दंसणविष्यतीत्याह । न पुनस्तच्चरणं हन्ति विनाशयति । अत्र दृष्टा माणेहिवट्टए तित्थं । वोच्छिन्नं च चरितं, वयमाणे नारिया न्तमाह । ज्वालनादर्जायते स्यादुप्णं तप्तं वज्रं कुलिशं न तु चनरो" चतुर्गुरुकः प्रायश्चित्तविशेषः वस्तुस्थानविशेषः तथा न पुनस्त्यजति मुञ्चति तत्त्वमपि स्वभावमपि वनवमपीत्य "न विण तित्थनियंथेहि, न तित्थाय नियंथया । छकाय संजमो र्थः । अपिः समुच्चये इति गाथावयार्थः ॥ जाव, ताव अणुसजणा दोएई” अव्यवच्छेदो वककुशीतयोर्माइय चरणम्मिठियाणं, होइ अणानोगनावो वक्षणो। यिकच्छेदोपस्थापनीययोर्वेत्यर्थः । “जोनणश्नत्थि धम्मो, न य ण न तिब्बसंकिलेसा, अयोति चारित्तभावो वि ॥॥ सामश्यं न चेव य वयाई । सो समणसंघवजो, कायब्वो समइतिहटान्तोक्तन्यायेन चरणे चरित्रे स्थितानामाश्रितानां जवति णसंघेण" तथा पूर्वसाध्वपेक्कया हीनतरक्रियापरिणामत्वेऽपि पु. स्यादनाभोगभावतः विस्मरणसद्भावात् स्वननातिक्रमचा- प्षमासाधूनां साधुत्वमेव । यदाह "सत्थपरिमाछकाय, अहिरित्रस्य न तु नैव तीवसंक्वेशामुत्कटपुरध्यवसायादपैति नश्य- गमो पिमउत्तरकाए । रुक्खवेव सहे गोवे, जो है सो बीयपुति चारित्रभावोऽपि चरणपरिणामः पुनस्ताव सक्लेशस्याजावादे क्खरणी" अयमर्थः पूर्व शस्त्रपरिहाध्ययनमुत्थापना हेतुरासीवेति गाथार्थः । नन्वेवमृजुजडानांयुक्तश्चरणानपगमो वजडानां दधुना पटायाधिगमः । षटुजीवनिकायिका पर्व पिएमग्रहणहे. तु कथमसावित्याह तुराचारो दशकालिकं च। तथोत्तराध्ययनान्याचारस्योपरीचरिमाण वि तह ऐयं, संजलणकसायसंगयं चेव ।। दानी तु दशकालिकस्येति पूर्व वृत्ताः कल्पवृक्का अधुना चूता दयोऽपि ते तथा शोधिः पाएमासिकी प्रागधुना च पञ्चकल्या माइट्ठाणं पायं, असई पि हु कामदोस्रेण ॥४॥ णकदशकल्याणकादिनिन च सा न भवतीति गाथार्थः । चरमाणामप्यन्तिमानामपि न केवत्रमाद्यानामेव तथेति यथा एवं चरमसाधूनां चरण व्यवस्थाप्यातिप्रसङ्गवारणायाह । द्यानामनाभोगजन्यस्खलना चरणस्यावाधिका तथा तद्वयं ज्ञातव्यं चरणावाधक मातृस्थानमिति योगः । किं सर्व नेत्याह । सं. एवं च संकिलिट्ठा, मारहाणम्मि पिच तद्विच्छा ।। ज्वलनकषायसंगतमेव अल्पतरकषायोङ्गवमेवन स्वनन्तानुबन्धा आजीवियजयगत्था, मूढाणो साहुणो होया ।। ५१॥ दिगतं किं तदित्याह (मारहाणंति) मातरः स्त्रियोऽनिधीयन्ते ता- एवं चोक्तनीत्या संज्वलनव्यतिरिक्तकषायोदयेन श्रमणत्वमिसां स्थानमाश्रयोमातृस्थानं माया स्त्रियो हि प्रायो मायाश्रिता | त्येवंतवणया संक्लिष्टाः संक्तिचित्ताः कायान्तरोदयान् Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२८) कप्प अभिधानराजेन्द्रः। कप्प मातृस्थाने मायायां नित्यं तद्विपसा सदैव तत्पराः परजनपराय- भाकारितास्तत्र प्रथमो वैद्य आह । मदीयमौषधं विद्यमानं व्याणत्वात् । भाजीवनमाजीविका निर्वाहस्तद्भावनाथा यद्भयं चिदन्ति रोगानावेचन गुणं न दोषं च करोति । राजा प्राह । भीतिस्तदाजीविकानयं तेन प्रस्ताः अभिनूता ये तथा गृह- भस्मनि हुततुल्येनानेन औषधेन किम् । द्वितीयः प्राह । मदीयस्थैर्विज्ञातनिर्गुणत्वाधनादिविरहिता वा कथं निर्वक्याम इत्य- मौषधं रोगसद्भावे रोग हन्ति रोगाभावे दोषं प्रकटयति । राकोभिप्रायवन्त इत्यर्थः । मूढाः परसोकसाधनवमुण्येनेह सोकप्र- तं सुप्तसोत्थापनतुल्येन अनेनापि औषधेन पर्याप्तम् । तृतीतिबद्धत्वानो नैव साधवो झेया ज्ञातव्या इति गाथार्थः । यः प्राह । मदीयमौषधं सद्भावे रोग हन्ति तदभावे च शरीरे उक्तविपर्ययमाह । सौन्दर्य बोर्जपुष्टि करोति । राज्ञोक्तं इदमौषधं समीचीनं तदसंविग्गा गुरुविणया, णाणी दंतिंदिया जियकसाया ॥ यमपि कल्पे दोषसद्भावे दोषं निहन्ति । दोषाभाषे न धर्म जवविरहे उज्जुत्ता, जहारिहं सादुणो होति ॥५॥ पुष्णाति । कल्प०। पं० घ०। प्रथैतस्मिन् दशविधे कल्पे यः प्रमाद्यति तस्य संविग्नाः संसारजीरवः मत एष गुरुषु संसारोत्तरणोपायो पदेशकेषु विनताः प्रणताः गुरुविनताः । अत एव शानिनः सुप्र दोषमभिधित्सुराह । सन्नगुरूवितीर्णभुतकानाः अत एव च दान्तन्द्रिया जिताका जित एवं ठियम्मि मेरं, अष्ट्रियकप्पे य जो पमादेति । कपाया निगृहीतक्रोधादिनावाः भवविरहे संसारवियोगे विधेये सो कति पासत्थे, गणम्मि तगं विवज्जेज ।। उद्युक्ता उद्यता ज्ञानक्रियारूपत्वात्तदुद्यमस्य यथाई यथायोग्य एवमनन्तरोचनीत्या या स्थितकल्पे अस्थितकल्पे च मर्यादा देशकालाद्यपेकया ऋजुजमवक्रजमऋजुप्रइत्वानुरूपं वा ।न सा सामाचारी भणिता तां मर्यादां यःप्रमादयति प्रमादेन परितु वक्रजमत्वे सति ऋजुप्रझत्वोचिता इतरे चेति स्वभावः सा. हापयति स पार्श्व पार्श्वस्थसके स्थाने वर्तते । ततस्तकं वर्जयेत् धयो यतया नवन्ति स्युरिति गाथार्थः । स्थितास्थितकल्पप्रक- तेन सह दानग्रहणादिकं संजोगं न कुर्यादिति प्राधः । कुत रणं विवरणतः समाप्तमिति ।। श्त्याह। अथैतस्यैव निगमधारणेदं पर्ययुक्ततामाह । पासत्थसंकिलिई, ठाणं जिणेहि वुत्तं थेरेहि य । एवं कप्पविनागो, तश्प्रोमहणाणो मुणेयन्यो। तारिसं तु गवसंतो, से विहारे न मुज्जति ।। जावत्यजुत्त एत्य उ, सव्वत्थ वि कारणं एयं ॥४१॥ पार्श्वस्थं पाश्र्वस्थसक्तं स्थानमपराधं पदं संक्लिष्टमशुएवमुक्तनीत्या कल्पविनाग आचेवक्यादि स्थितास्थितकल्प कंजिनस्तीर्थकरैः स्थविरैश्च गौतमादिनिः प्रोक्तं ततस्तारशं तया विनजनं कुत श्त्याह । तृतीयौषधज्ञानत उक्तौषधविशेषो- स्थानं गवेषयन् स यथोक्तसामाचारीपरिहापयिता बिहारे न दाहरणेन ( मुणेयवोत्ति ) ज्ञातव्यः । किविध इत्याह । भावा शुध्यति । नासौ संविग्नविहारीति भाषः । र्थयुक्त पेदंपर्ययुक्तो न यादृच्छिकः अत्र तु शह पुनः कल्पविभागे पासत्यसंकिलिहूं, ठगणं जिणेहि वृत्तं थेरेहि य । सर्वत्रापि दशस्वपि पदेषु न तु क्वचिदेव कारणं विभागहेतुरेत- तारिसं तु विवज्जतो, से विहारे विमुज्झति ।। दयमाणमिति गाथार्थः॥ पार्श्वस्थं स्थानं संक्निष्टं जिनःस्थविरैश्च प्रोक्तं तत्तारशंस्थातदेयाह। नं विवर्जयन् स यथोक्तसामाचारी का विहारे विशुध्यति । पुरिमाण दुविमोको, चरिमाणं दुरापालओ कप्पो॥ । शुद्धो भवति यतश्चैवमतः। मजिकमगाण जिणाण, सुविसोजको सुहणुपालो य॥३॥ जो कप्पगिति एयं, सद्दहमाणे करोति सहाणे। पूर्वपामाद्यजिनसाधूनां सुर्विशोध्यो पुःखेन शुद्धिप्रकर्षमाप तारिसं तु गवेसज्जा, जतो गुणाणं ण परिहाणी॥ णीयः ऋजजमत्वेन तेषां बहुभिश्चोपदेशः समस्तहेयार्थज्ञान य पनामनन्तरोक्तां कल्पस्थिति श्रद्दधानः स्वस्थाने करोति संजवेनातिचारपरिहारसंन्नवात् चरमाणामन्तिमजिनसाधूना स्वस्थानं नाम स्थितकल्पे अनुषर्तमाने स्थितकल्पसामाचापुरनुपायो पुःखानुपाजनीयः स एव दुरनुपालकः तेषां व. रीमस्थितकल्पे पुनरस्थितकल्पसामाचारों करोति ताशं कजइत्वेन तेन व्याजेन हेयार्थसेवासं नवात् कल्प आचेल संविग्नविहारिणं साधु गवेषयेत् । तेन सहैकत्र संभोगं कु-- क्यादिसमाचारः । मध्यमकानां जिनानां च व्यक्तं सुविशोध्यः त् यतो यस्मात् गुणानां मूलगुणोत्सरगुणानां परिहाणिन भवराधिनाया तपामृजुत्वन यथापादष्टानुपासनात सुखेनानु- ति । इदमेव व्यक्तीकर्तुमाह। पाल्यत इति सुखानुपाबस्तेषां प्राइत्वेनोपदेशमात्रादप्यशेषहे। ठियकप्पम्मि दसविधे, ठवणे कप्पे य इविहममपरे । यार्थान्यहनेन तत्परिहारसमर्थात्वचः समुच्चय इति गाथार्थः । _अय विंशोध्यत्वादिष्वेव देतुमाह । उत्तरगुणकप्पम्मि य, जारिसकप्पो ससंनोजे ॥ उज्जजमा पुरिसाखबु, मादिणाण उ होति विमेया ।। स्थितकल्पे श्रावलिक्यादौ दशविधे स्थापनाकल्पे विव क्ष्यमाणे द्विविधाऽग्यतरस्मिन् उत्तरगुणकल्पवयः सहकल्पस्तुवक्कजडा नण चरिमा, नजुपना मन्तिमा भणिया॥४॥ ल्यसामाचारीकः स संभोग्यः संभोक्तुमुचितः । वृ०६ ऋजयोऽशनास्ते च ते जमाश्च विशिष्टानुवैकल्य्येनोक्तमात्रग्राहिण उ० (पर्युषणाकल्पप्रतिपादके कल्पसूत्रमामके दशाभुतऋजजमाः पूर्व श्राद्यतीर्थसाधवः खबुर्वाक्याबद्वारार्थः नटादि- स्कन्धस्याष्टमेऽध्ययने) विशे०। कल्प० । कल्पन्ते समर्था भज्ञानात् नर्तकप्रभृत्युदाहरणात् पंचा १७ विवः) (उदाहर- वन्ति संयमाध्वनि प्रवर्तमाना अनेनापि कल्पः । व्यवहाराध्ययपण व्याण्यातम् ) ः ॥ अयं च दशप्रकारोऽपि कल्पो दोषा-! ने, व्य०१ उ० । भावेऽपि प्रियमाणस्तृतीयौपधवत् हितकारको भवति । तथा पञ्चकल्पेऽधिकारास्तत्र कप्पहारं। दि के नविपतिना स्वपुत्रस्य अनागतचिकित्सार्थ त्रयो वैद्या। कमेण हु इदाणि किं पुण, उकमकरणं वहतव्यंति नाऊणं। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२० ) अभिधानराजेन्द्रः | कप्प किं पुरण कप्पज्जपणे, वन्निज्जइ भन्नती सुणसु ॥ ता वज्जे अनिविदिता, उ अच्छा तहिय ते उसमासेणं । कप्पे य कप्पिए चैत्र, कप्पणिज्जे ति आवरे || फाए एस णिज्जेय, संजमे चेति तावरे । बालए बागए चैव, चम्पपट्टे ति आवरे ॥ पहए किमिए चैत्र, धातुए मे सते त्तिय । उवसंपया चरितस्स, चरिते कइ विदेश् य ॥ नियंता क पत्ता, कह समोतारणाति य । ववहारे कस्स पन्नत्ते, कदं पमिसेवरणा वि य ॥ देसभंगे कहं वत्ते, सव्वजंगे ति यावरे । पच्छिते कं तिवि, वृत्ते ब्रट्टा ति यावरे || पंचाणे चउट्ठाणे, तिट्ठाणेति ति यात्ररे। पं० भा०पत्र० २ व्विह कप्पसिमो, लिक्खेवो छव्त्रिदो मुव्वो । मंत्रणा दविए, खित्ते काले य जावे य। पं० भा०|| एसो तु जाबकप्पो, हवा पापादितो पुणे तिविहो । दंसणपढमं जम्मति, लालचरित्ता तदावत्ता। पं.जा. १० पत्र. इयरो मनसंघयणा, सुत्तस्सत्यो तु होति परमत्थो । संसारसजावो वा नानातो मुणितपरमत्था || दोहग्गहततिपादी, पडिमाइहि गहण चपाणस्स । दोहिं तु परिमाहिं, गिएहंते वत्यपाताई ॥ Goat दजिग्गा पुच्छा, रयणावलिमादिगा य बोधव्त्रा । एते सुविदितजावा उ, वेंति जिणकप्पियविहारं । पं०भा० । एत्तो उथेरकप्पं, समास मे निसामेहि । तिविम्मि संजमम्मि उ, बोधव्वो होति येरकप्पो तु ॥ सामाझ्यछेदपरिहारिए य तिविहम्मि एयम्मि | तियअडिए व कप्पे, सामाइयसंजमो मुणेयव्वो । छेदपरिहारिया पुण, यिमाओ हवंति वितकप्पे । एतेसु थेरकप्पो, जह जिणकप्पीए अग्गहो दोसु ॥ गहणं च जिग्गहाणं, पंचहि दोहि च ए तह इत्तं । बाले बुढे सेहे, अगीतत्थे णाणदंसणप्पेही ॥ पुन्नसंघयणम्मिय, गच्छे य इएहेसणा भणिता । जद संजवंत सेसा, खेत्तादिवित्ना सियव्वदारा तु ।। उवरिं तु मासकप्पे, वित्थरितो विजासते तेसिं । दारं इति एस थेरकप्पो पं० ना० पत्र० १२ | पं० चू० ॥ एष लिङ्गकल्पः । उपधिकल्पमाह । सत्तविह कप्प एसो, समाराती वहिओ सविभवेणं । एतो दसविहकप्पं, समास मे णिसामेहि । कप्पयकष्पविकप्पे, संकष्पुत्रकल्प तह य णुकप्पे | कप्पे अप्पे, दुकप्पे दहा सुकप्पे य । पं० भा० ॥ वृत्तो दस विहकप्पो, अदुरणा वीसतिविहं तु वोच्छामि । तस्स तु दाराइणमो, समहिता तीहि गाहाहिं || For Private कण कप्पे णाम, णाकप्पो पदवियकप्पो य । खेत्ते काले कप्पो, दंसणकप्पो य सुतकप्पो य ॥ जाईण न चरित-म्मि य कप्पो उबही तब संभोगे । आलोचउवसंपद, तहेव उद्देहाम्रो । प्राणमिव कप्पो, अवामी तह य होतिठितकप्पो । पोय तहा, जिएथेरणुवाललाकप्पो । पं०भा० दत्रे भावे तदुभय- करणे वेरमणमेत्र माहारे । णिचे असंतरमयं पति अतेि चैव । गण जिथे रज्जुस - मेत्र सुत्ते चरित्तमायणे ॥ उद्देसवा पच्णिा य परिवत्र पहाय । जो जाते चिएह-मचिएह संत्राणमेव वयणे य । उबवायनिसीय, वत्रहारो खेत्तकाले य । उबही संभोगलिंग-कप्पपडिसेवलाय अणुवासो । अणुपाक्षणा अहा, उत्रणा कप्पे यबोधव्वे । पं०भा० ( समाप्तकल्पोऽसमाप्तकल्पो विहारो विहारशब्दे ) कृत्ये, "पं परियाणामि कप्पं नवसंपजामि " आव० ४ श्र० । ध० | स्थविरकल्पादीनां व्यवस्थायाम्, पा० । श्रा० चू० । संथा। पं० ० नं० | कल्प० ( कल्पस्य षट् प्रस्ताराः प्रस्तारशब्दे ) क्ल्पाभ्ययनोतसाधुसमाचारे, । (सूत्रम्) कप्परस पनिमंयू पत्ता तं जहा कुकड़ए संजमस्त निमंधू मोहरिए सच्चवगणस्स पलिमंधू चक्खुलालए इरि या हियस पलिमंधू तिलए एसणागोयरस्स पन्निमंधू इच्छालोन्त्रए मुत्तिमग्गस्म पलिमंधू निज्जा नियाण करणे मोक्खमग्गस्स पनिथू सवत्थ भगवता अनियाणया पमत्था अथ नियुक्तिविस्तरः पलिमये शिक्वेवो, णामधिकरणम्मि कारगकम्मे य । Goaपमियो एमेव य, भावम्मि चउवि ठाणेसु ॥ जीवानुकरणे साधकतमेश्रधिकरणे आधारे कारकः कर्त्ता तस्मिन् तथा कर्मणि च व्याप्ये सव्यतः परिमन्धो भवति । तथा हि करणे येन मन्धानादिना दभ्यादिकं मध्यते श्रधिकरणे यस्यां पृथिवीकाय निष्पन्नायां मन्थन्यां मथ्यते । कर्त्तरि यः पुरुषः स्त्री वा दधि विनोडयति । कर्म्मणि तन्मथ्यमानं यनवनीतादिकं भवति एष चतुर्विधो व्यपरिमन्थः । एवमेव ( भावेति ) नाववियः परिमन्थः चतुर्ष्वपि करणादिषु स्थानेषु भवति । तद्यथा करणे येन कौत्कुच्यादिव्यापारेण दधितृव्यः संयमो मथ्यते अधिकरणे यस्मिन्निति मध्यन्ते । कर्त्तरि साधुः कौत्कुच्यादिनावपरिणतस्तं संयमं मध्नाति, कर्म्मणि यन्मथ्यमानं संयमादिकमसंयमादितया परिणमते एष चतुर्विधोऽपि परिमन्धो जीवादनन्यत्वाज्जीव एव मन्तव्यः । अथ करणे व्यभावपरिमन्धं नाकारोsपि नावयति । दव्वम्मि मथिते खलु तेरा मंथिज्जए जहा दहिए । दधिल्लो खलु कप्पो, मंथित ति को प्रदीहिं ॥ व्यपरिमन्थो मन्थिको मन्धान इत्यर्थः । तेन मन्थानेन यथा दधितुल्यः खत्रु कल्पःसाधुसमाचारः कौत्कुचिकादिभिः प्रकारै Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३०) अनिधानराजेन्डः। कप्प मथ्यते विनाश्यत इत्यर्थः । तदेवं व्याख्यातं परिमन्थपदम् । तापि स्निग्धमधुरा आहारादिसंयोजनबकणा कर्तव्या । अलवृ०६०। षद कल्पस्य प्रतिमन्यवः प्रकप्तास्तद्यथा कौत्कु- ज्यमाने वा ग्लानाप्रायोग्ये औषधादा व्यतिन्तिणिकता हा कट चिकः संयमस्य प्रतिमन्युः १ मौखारिकः सत्यवचनस्य प्रति- न सच्यते ग्लानयोग्यमत्रेत्येवंरुपा कार्य। । इच्छालोभे पुनरिमन्युः २ चकुनोत्र श्योपथिकस्य प्रतिमन्युः ३ तिन्तिणिकः दं द्वितीयपदं वैद्यस्य दानार्थ ग्मानार्थ वाऽऽहार उपधिश्वातिएषणागोचरस्य प्रतिमन्युः ४ इच्छालोलो मोक्षमार्गस्य प्रति- रिक्तोऽपि ग्रहीतव्यः । श्रादिशब्दादाचार्यादिपरिग्रहः । गणचिमन्युः ५ निदानं सिद्धिमार्गस्य प्रतिमन्युः ६“कुक्कश्य " न्तके वा गच्छोपग्रहे हेतोरतिरिक्तमुपधि धारयेत् । एवं ताबग्निप्रभृतिशब्दानां व्याख्याऽन्यत्रान्यत्र । दान पदं वजीयत्वा शेषेषु सर्वेष्वपि म्यानत्वमङ्कीकृत्य द्वितीयसांप्रतमेतेप्येव द्वितीयपदमाह। पदमुक्तम्। विश्यपदं गेलन्ने, अच्छाणे चेव तह य श्रोमम्मि । संपति तदेवाध्वनि दर्शयति । मोत्तण चरिमपदं, पायव्वं जे जहि कमति ॥ अवेक्खंतो वक्षनया, कहेति वा सस्थियातिपत्तीणं । द्वितीयपदं म्यानत्वे अध्वनि तथा अवमे च भवति तच चरम- विजं प्राइसुतं वा, खेदभवा वा प्रणाजोगा । पदं निदानकरणरूपं मुक्त्वा ज्ञातव्यं तत्र हितीयपदं न जवती अध्वनि स्तनानां सिंहादीनां वा भयादप्रेकमाण श्तश्चेतश्च त्यर्थः । शेषेषु तु कौत्कुचिकादिषु यद्यत्र क्रमते तत्तत्रावतारणी विलोकमानोऽपि व्रजेत् यदि वा अध्वनि गच्छन् सार्थिकानायमेतदेव नाक्यति। मायतिकानां वा सार्थचिन्तकानां धर्म कथयति येन ते श्रावृत्ताः कमिवेयणमवतंसे, गुदफागरिसाभगंदलं वा वि। सन्तो भक्तपानाद्युपग्रहं कुर्युः । अथवा विद्या काचिदनिनवगृगुदकीलगसकारा, ण तरति हामणो होने ॥ हीता सा मा विस्मरिष्यतीति कृत्या तां परिवर्तयन्नतूपेकमाकटिवेदना कस्यानिःसहा अवतंसो वा पुरुषव्याधिनामको | णो वा गच्छेत् श्रादिश्रुतं पञ्चमनं तद्वा चौरादिभये परावर्तरोगो भवेत् । एवं गुदयोः पाको अासि भगन्दरं गुदकीसको यन् व्रजेत् खेदो नाम श्रमस्तेनातुरीभूतो भयाद्वा संचान्त र्याभवेत् । शर्करा कृच्छ्रमूत्रको रोगः स च कस्यापि नवेत्ततो न यामुपयुक्तो न भवेदिति (अणाभोगत्ति ) विस्मृतिवशात् सशक्नोति बझासनो जवितुं स्थातुं एवंविधे ग्लानत्वे अभीक्षणप-| हसा वा नेर्यायामुपयोगे कुर्यात्।। रिस्पन्दनादिकं स्थामकौत्कुचिकत्वमपि कुर्यात् ।। संजोयणापलं वा, तिगाण कप्पादिगो य अतिरेगो। नव्वत्तेति गिलाणं, ओसहकजे व पत्थरे बुजति । । ओमादिए वि विहुरो,जाइज्जा जं जहे कमति ।। वेवति य खित्तचित्तो, वित्तियपदं होति दोमं तु ॥ अध्वनि गच्चन हारादीनां संयोजनामपि कुर्यात प्रलम्बादीनां ग्वानमुद्वर्तयति एकस्मात्पार्श्वतो द्वितीयस्मिन् पायें करोति विकरणकरणाय पिप्पलकादिकमतिरिक्तमप्युपधि गृहीयाद्वाधाश्रीपधकार्ये या औषधदानहेतोस्तमेव ग्लानमन्यत्र संक्रम्य न रयेा अथवा परलिङ्गेन तानि ग्रहीतव्यानि ततः परलिङ्गयस्तत्रैव स्थापयति । यस्तु क्तिप्तचित्तः स परवशतया प्रस्तरान पाषाणान् विपति वेपते वा चशब्दात सेदितमुखवारित्रादि मपि धारयेत् । कल्पा अर्णिकादयस्तदादिक श्रादिशब्दात्पाकं प्रकरोति पतत् द्वितीयपदं यथाक्रम द्वयोरपि शरीरनापाको त्रादिकश्च पुर्वन उपधिरतिरिक्तोऽपि ग्रहीतव्यः । तदेवमध्वनि स्कुचिकयोर्भवति । द्वितीयपदे भावितम् । एवमवमं पुर्भिकं तत्रादिशब्दादशिवादिमौखरिकत्वे अपवादमाह । कारणेषु वा विधुरे प्रात्यन्तिकायामापदि पञ्चविध परिमन्युमतुरियगिलाणाहरणे, मुहरितं कुज्ज वा उपक्खे वा। ङ्गीकृत्य यद्यत्र द्वितीयपदं क्रमते तत्तत्र योजयेत् । एवं निदानपद मुक्त्वा पञ्चस्वपि कौत्कुचिकादिषु परिमन्युषु द्वितीयपदमुक्तम् ओसहविजं मंतं, मेलिजा सिग्घगामि त्ति ॥ वृ० ६ उ० ( निदानव्याख्याऽन्यत्र ) कल्पप्रतिसेवनायाम, त्वरितं खाननिमित्तमौषधादेराहरणे कर्तव्ये द्विपक्के संयतप जीत । पुशलम्बने, यतनादिविषये, पंचा० १५ विव० । अप्रके संयतीपले च मौखरिकत्वं कुर्यात् । कथमित्याह । एप शी- मादे, "अप्पमायाकप्पो भवति उवभोगपुवकरणो" क्रियालकप्रगामी अत औषधमानेतुं विद्यां मन्त्रं वा प्रयोक्तं ( मेलिजत्ति)। णोऽप्रमादः नि चू० १० । तथाविधसमाचारप्रतिपादके प्रेर्यतां व्यापार्यतामित्यर्थः । (नि०) यज्ञादिविधिशास्त्रे वेदाङ्गे, कल्प० । अनु०। झाला आव०। अचाउरकजे वा, तुरियं वन वावि रियमुवोगो। श्रा० मद्विग द्वादश्यां गौणानुझायाम, नं। निश्रायाम, व्य०४ वेजस्स वा वि कहण, भणति विसमूनोमाओ॥ । संख्यान दे, कल्पश्येदः क्रकचेन काचस्य तहिषयं संअत्यातुरस्य वा खानस्य कार्ये त्वरितं गच्छेत् न चापि नैवेर्या ख्यानं कस्प एव परिपाट्या क्रकचव्यवहार इति प्रसिद्धमिति यामुपयोगं दद्यात् । वैद्यस्य वा कथनं धर्मकथां कुर्वन् गच्छेत् । स्था०१०चा० । प्रावरणरूपे प्रच्छादके,०३०जिनकयेन स प्रवृत्तः सम्यक मानस्य चिकित्सां करोति । नये वा ल्पिकानां त्रयः कल्पाः। मन्त्रादिकं परिवर्तयन् गच्छति विपं वा केनापि साधुना नक्तित अथ गच्छवासिनां कल्पप्रमाणमाह। तस्य मन्त्रणापमार्जनं कुर्वन् विषवैद्या वानवगृहीतानां परिवर्त कप्पा आयपमाणा, अकवाइज्जाउ वित्थमा हत्या । यन् शूलं वा कस्यापि साधोरुद्भवति तदा प्रमार्जयन् गच्चति । एवं मज्झिममाणं, उक्कोसं होति चत्तारि॥ तितिणिया व तदच्छा, अलब्जमाणे विदव्यतितिणिता।। कल्पा आत्मप्रमाणाः साहस्तद्वयप्रमाणायामा अतृतीयावेजे गिलाणगादि तु, अहासंबंधी य अतिरित्तो॥ श्व हस्ता विस्तृताः पृथुत्रा विधेयाः पतन्मध्यमं मानं प्रमाणं भतस्य म्लानस्य उपलकणत्वात् आचार्यादेश्वाचार्याय तिन्तिणि- वति उत्कर्पतो देन चत्वारो हस्ताः । पतदादेशद्वयं मन्तव्यम्। Jain Education Interational Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३१) कप्प अभिधानराजेन्द्रः। कप्प अत्रैव कारणमाह। प्रावृताः कल्पाः संजायन्ते महिकाधूमिका (वासत्ति) वर्षों वृसंकुचियतण आय-प्पमाणसुयाण न सीयसंफासो। टिः (वसत्ति) अवश्यायः प्रतीतः रजोऽपि सचित्तमीषदाताहो पेवाएथरे, घेणुब्बियपाणाइ रक्खा य ॥ म्रनभसः पतति प्रतीतमेव आदिशब्दात्प्रदीपतेजःप्रभृतीनां प. यः श्रमणो बसन् स संकुचितपादः स्वप्तुं शक्नोति तस्य तथा रिग्रहः। एतेषां च महावातादितानां रवानिमित्तं कल्पाःसंजास्वयमेव शीतस्पर्शो न भवति । अतस्तस्यात्मप्रमाणः कल्पोऽनु यन्त इति । तथामृतस्य संवरणं संवरः आच्छादन नभनं यझातः यस्तु स्थविरो वयसा वृकः स कीणब नत्वान्न शक्नोति सं हिनयनं तदर्थ च चेतो जलप्रच्छादनपटिकादि वस्त्रमनिमतं कुचितपादः शयितुमतस्तस्यानुग्रहार्थ दैध्येण आत्मप्रमाणाद ग्वानप्राणोपकारि च तदभिमत परमगुरूणामेवं मुखधात्रिकाबैषमङ्गलानि विस्तरतोऽप्यर्फतृतीयहस्तप्रमाणादन्यर्थिकानि रजोहरणादिचोपकरणं समयानुसारतः संयमोपकारित्वन यो ज्यं नणनीयम् ॥ विदो०(पत्र ॥४)॥ इन्सामानिकत्रयषमङ्गलानि विधीयन्ते एवं विधीयमाने गुणमुपदर्शयति ( मुह खिशादिव्यवहाररूपे आचारे, प्रझा०१पद । प्रय। तद्युक्ते देओपेवणत्ति) शिरपादान्तप्रवणद्वयोरपि पाश्चयोर्यकल्पस्य प्रे वलोके, न ५ श०४ उ । स्था)। सौधर्मादौ, स्था०२ ठा० । रणमाक्रमणं तेन स्थविरस्य शीतं न भवति । अनुचितो जावितशैक्क इत्यर्थः तस्यापि स्वप्नविधावनभिज्ञस्य कल्पप्रमाण (ते च सौधर्मादय इत्थं वैमानिकदेवानां स्थान प्ररूपणे गणमेव ज्ञातव्यम् । अपि च एवं प्राणिनां रक्का कृता भवति न मण्मू शब्दे वदयन्ते, ते घादश सौधर्मः १ ईशानः २ सनत्कुमारः ३ कप्लुन्या कीटिकादयःप्राणिनः प्रविशन्तीति जावः। श्रादिश- | माहेन्ड ४ ब्रह्मलोकः५ लान्तका ६महाशुक्रः सहस्रार प्रामतः ब्दाहीर्घजातीयादयोऽपि न प्रविशन्ति तेनात्मनापि रक्का कृता | एप्राणतः १० श्रारणः ११ अच्युतः१। प्रशा०१ पद ( पतेयां जवति । वृ० ३ उ० । ध। मानादि सर्वगणशब्दे ) एतेषु, । पञ्चवस्तुवृत्तौ तु तत्प्रयोजनं चेत्यम् । दस कप्पा इंदाहिहिया परमत्ता तं जहा सोहम्मे जावसतगहणानलसेवा, णिवारणा मुक्कधम्मधरणहा। हस्सारे पाणए अच्युए । एएसु णं दसकप्पेमु दस इंदा दिटुं कप्पग्गहणं, गिन्माणमरणट्ठया चेव ।। पछत्तातं जहा सके ईसाणे जाव अच्चुए। एएसिणंदतुणग्रहणाननसेवावारणार्थ तथाविधसंहनिनां धर्माधर- सएहं इंदाणं दस परियाणिया विमाणा पनत्ता तं जहा णार्य कल्पग्रहणं जिनः प्रज्ञप्तं ग्बानमृतप्रच्छादनार्य चेति २० पालए पुप्फए जाव विमन्नवरे सव्वत्रो भद्दे । ३ अधिः। पं०व०नि० चू० । श्रो०। ( दसेत्यादि ) सौधर्मादीनामिन्दाधिष्ठितत्यमेतेष्विन्त्राणां अथ परप्रश्नमाशङ्कयोत्तरमाह । निवासादानतारणयोस्तु तदनधष्ठितत्वं तन्निवासानाचात् स्वाकं संजमोवयारं, करेइ वच्छाइ ज मई सुणसु । मितया तु तावप्यधिष्ठितावोत मन्तव्यं यावत्करणात् "ईसाणे २ सीयत्ताणं ताणं, जलणतणगयाण सत्ताणं ।। सणकुमारे ३माहिदे ४ बंजलाए ५ संतगे६सक्केति"७ दृश्यमिति । तह निसि चाउकालं, सज्झायमाणसाहणमिसीएं। यत पवैते इन्द्राधिष्ठिता अत एवैतेषु दशेन्डा भवन्तीति दर्श यितुमाह । (एएसु इत्यादि ) शक्रः सौधमेन्द्रः शेषा देवलोकमहिमहियावासोसो, रयाश् रक्खानिमित्तं च ॥ समाननामानःशेष सुगममिति। इन्डाधिकारादेव तद्विमानान्याह। मयमंवरुज्मणत्यं, गिनाणपाणोवगारिचानिमयं । (पते इत्यादि) परियाणं देशान्तरगमनं तत्प्रयोजनं येषां तानि मुहपोत्तियाइ चेवं, परूवणिज जहाजोग्गं ।। पारियाणिकानि गमनप्रयोजनानीत्यर्थः। यानं शिविकादि सदासंसत्तसत्तगोरस-पाणयपाणीयपाणरक्खत्यं । काराणि विमानानि देवाश्रया यानविमानानि न तु शास्वतानि नगराकाराणीत्यर्थः । पुस्तकान्तरे यानशब्दो न दृश्यते पालक परिगलणपाणघायण, पच्छा कम्माश्याणं च ।। इत्यादीनि सक्रादीनांक्रमेणावगन्तव्यानि यावत्करणात् “सोमणपरिहारत्यं पत्तं, गिलाणवालाद्वग्गहत्यं च । से ३ सिरिवच्छे ४नंदियावत्ते कामकमे पीश्गमे जमणारमे हाणमयधम्मसाहण-समया चेवं परोप्परो ॥३॥ इति" अष्टव्यमिति । प्रानियोगिकाश्चैते देवा विमानीभवके नाम संयमोपकारं करोति वस्त्रादिकमिति यदि तव मतिः न्तीति । (स्था) एवंविधधिमानयायिनश्चेन्द्राः प्रतिमादिकातहि कथ्यते । शृणु सौत्रिकौर्मिककल्पैस्तावच्छीता नां सा स्तपसो भवन्तीति। धनां त्राणमार्तध्यानापहरणं क्रियते । तथा ज्वलनतृणादीन्धन- दोसु कप्पेस कप्पत्थियात्रओ पणत्तानो तं जहा सोहम्मे गतानां सत्त्वानां वाणं रक्षणं क्रियत श्तीहापि दृश्यम् । इदमुक्तं चेव ईसाणे चेव । दोसु कप्पेसु देवा ते कस्सा पन्नत्ता तं भवति यदि कल्पा न भवेयुस्तदा शीतार्ताः साधवोऽग्नितृणा जहा सोहम्मे चेव ईसाणे चेव । दोसु कप्पेसु देवा कायपदोन्धनज्वानं कुर्युस्तत्करणे चावश्यंभावी तसतसत्वोपघातः । कल्पैस्तु प्रावृतैरेष न भवत्येव । अम्नितृणादिज्ववनमन्तरेणापि रियारगा पप्पत्ता तं जहा सोहम्मे चेव ईसाणे चेव । दोस शान्तातिनिवृत्तिरिति । तथा “कालचनक्कं नको-सयण जहन्ने कप्पेसु देवा फासपरियारगा पात्ता तं जहा सणंकुमारे तियं तु बोधव्यमित्यादि" वचनात्समस्तरात्रिजागरणं कुर्वद्भिः चेव माहिदे चेव । दोसु कप्पेसु देवा रूवपरियारगा पसाधुनिश्चत्वारः कामा प्रहीतव्याः तच हिमकणप्रवर्षिणि शीते सत्ता तं जहा वंभलोए चेव लंतए चेव । दोसु कप्पेसु पतति चतुष्कासं गृहतामृपीणां कल्पाः प्रवृत्ताः सन्तो निर्विघ्नं स्वाध्यायध्यानं कुर्वन्ति शीतार्त्यपहरणादिति तथा(महीसिम देवा सहपरियारगा पसत्ता तं जहा महासुके चेव सहावातोरिकप्ता सचिस्ता पृथिवी तस्याः पतन्त्या रकानिमित्तं | हस्सारे चेव ।। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कप्प अन्निधानराजेन्धः। कप्पन कल्पयोर्देवलोकयोः त्रियः कल्पनियो देव्यः परतो न सन्ति एषणीये, स्था० ३ ठा० । प्राो, पंचा० १२ विधः । रचनीये, शेषकपव्यमिति नवरं (तेकलेसत्ति) तेजोरुपा लेश्याः ये- प्रारोप्ये, अनुष्टये, विधेये, पाच । सारणीकूपादौ च “सापान्ते तेजोसेश्यास्ते च सौधर्मेशानयोरेव न परतः तयोश्च तेजो- रणीकूवादिओ षिकप्पा भन्नत्ति" नि००१ उ०। लेश्या पव मेतरे माह च " किराहा नीला काऊ, तेऊलेसा य कप्प-कल्पक-त्रि०कल्पयति रचयति आरोपयति वा कृपभवणवतरिया। जोश्ससोहम्मीसाणे, तेकलेसामुणेयचत्ति" ११ णिच्-एवु-रचके, आरोपके च कर्चुरे, नापिते, पुं० तस्य के(कायपरियारगति) परिचरन्ति सेवन्ते स्त्रियमिति परिचारकाः शवेशरचकत्वात् तच्छेदकत्वात् तथात्वम् । कल्प-स्वार्थ कन् कायतः परिचारकाः कायपरिचारका एवमुत्तरत्रापि नवरं स्प कल्प शब्दार्थे च वाचल। कपिलधिप्रसुते, शकटालसुतपूर्षजे, शादिपरिवारकाः स्पर्शादेवोपशान्तवेदोपतापा नवन्तीत्यभि तत्तं चेत्थम्। प्रायः पामतादिषु चतुर्यु कल्पेषु मनःपरिचारका देवा जब इतश्च कपिलो विप्रो, वसति स्म पुरादहिः । न्तीति वक्तव्यम् । स्था०२ ग०। आगताः साधवः साय-मन्येास्तगृहे स्थिताः॥२०॥ अस्थिभंते ! सोहम्मीसाणे एं कप्पाणं अहेगेहाइ वा जानन्त्येते न वा किंचि-दित्यप्रातीद् द्विजःस तान् । गेहरबाइ वा ? नो श्णढे समढे । अस्थि णं भंते ! उरा प्राचार्यः कथितं तच, श्रावकोऽभूत्तदैव सः॥२१॥ लावलाहयाति अस्थि । देवोपकरेइ असुरो वि प- अथान्यदा गृहे तस्य, स्थिताः केऽपि सुसाधवः । करोइनो नानो एवं थणियस वि । अस्थि णं भंते ! बा जातमात्रः सुतस्तस्य, रेषतीदोषदृषितः ॥१२॥ पात्रकानि सुसाधूनां, धृतः कल्पयतामधः । दरे पुढविकाए बादरे अगणिकाए?णो णहे समढे णाम नष्टा सा व्यन्तरी तस्य, कल्प इत्यभिधाऽभवत् ॥२३॥ स्थविगहगइसमावमाएणं | अस्थि णं चंदिम जाव ता. सर्वविद्यः स जज्ञेऽथ, पितरौ मृत्युमापतुः । रारूवा ! गोयमा ! णो इणहे समटे । अस्थि णं नंते ! नैच्चदानं च संतोषी, दत्ते विद्यास्तदर्थिनाम ॥२४॥ गामा व जाव सभिवेसाइ वा? गोयमा ! नो इणडे स- तत्रास्त्येको द्विजः कल्प-गमनागमनाध्वनि । कन्याजलोदरियस्ति, तस्य तस्या धरोऽस्ति न ॥२५॥ महे। अस्थि णं ते! चंदाना वा ? गोयमा ! णो सदस्यौ कल्पकस्यैता-मुपायेन ददाम्यहम् । पणढे समटे एवं सर्णकुमारमाहिंदेसु एवरं देवो एगो प कृत्वा कूपं गृहछारे, तन्मभ्ये तामथाविपत् ॥ २६॥ करेइ । एवं भलोए वि एवं बंगलोगस्स नबरि सबहिं दृष्ट्वा कल्पकमायान्त-मन्युस्तेन पूछतम् । देवो पकरेइ पुच्चियन्यो य बायरे आनकाए बायरे अग- कपिला भोःपपातान्धो, य करति तस्य सा ॥२७॥ णिकाए बायरे वणस्सइकाए अन्नं तं चेव गाहा “तमु तच्छ्रुत्वा कृपया कल्पो, धावित्वा तां समाषत् । कायकप्पपणए, अगणीपुढवी य अगणिपुढवीसु। पाकर सोऽथ तेन द्विजेनोक्तः, सत्यसन्धो भवेदिति ॥२०॥ जनापवादभीतेन, प्रपन्ना कल्पकेन सा । तेनवणस्सा, कप्पुवरम्मि कएहराईसु" ॥१॥ पश्चादौषधयोगेन, कृता रतिरिवापरा ॥२॥ "देवोपकर इत्यादि " इह च बादरपृथिवीतेजसोनिषेधः विद्वान् कल्पभुतो राक्षा, सोऽथाहूयायधीयत । सुगम एवं स्वस्थानत्वात्तथाऽब्वायुवनस्पतीनामनिषेधोऽपि मन्त्री भवेति सोऽवादीत, बुब्धः पापं करोत्यदः ॥३०॥ सुगम एव तयोरुदधिप्रतिष्ठितत्वमाऽब्वनस्पतिसम्भवाद्वा नाहं परिग्रहं कुर्वे, भोजनाच्छादने विना । योश्च सर्वत्र भावादिति (एवं सणकुमारमाहिदेसुत्ति) इहा- दस्यौ राजा विना मन्तुं, नासौ ग्रहमुपेक्ष्यति ॥३१॥ तिदेशतो बादराऽवनस्पतीनां सम्भवोऽनुमीयते स च तम तद्वनरजको राका, प्रोक्तश्चेदधुनाऽर्पयेत् । स्कायसद्भावतोऽवसेय इति । एवं "बंभलोयस्स उपरि सब वस्त्राणि माऽर्पयिष्ठाम्त-त्प्रियया प्रेरितोऽन्यदा ॥ ३२॥ हिंति" अच्युतं यावदित्यर्थः। परतो देवस्यापि गमो नास्तीति रखमायार्पयामास, वस्त्राणीन्यमहोपरि। तत्कृतबलाहकादेर्भावः । (पुच्छियञ्चो यत्ति) यादरोडका तदिने मार्गितस्तानि, इवोऽर्पयिष्यामि सोऽवदन ॥१३॥ योऽग्निकायो बनस्पतिश्च प्रष्टव्यः । अत्र "तं चेवत्ति"बच. एवं वर्षध्ये याते, तृतीयेऽन्दे पुनः पुनः । नानिषेधश्च यतोऽनेन विशेषोक्तादन्यत्सर्व पूर्वोक्तमेव घाच्य- माग्गितोऽप्यर्पयनैव, रुष्टः कस्पोऽवदत्ततः ॥ ३४॥ मिति सूचितम् । तथा प्रैवेवकादीपत्प्राग्भारान्तेषु पूर्वोक्तं सर्व नाहं कल्पोऽस्मि वेत्तानि, रञ्जयाम्यसृजा नते। गेहादिकमधिकृतवाचनायामनुक्तमपि निषेधतो ध्येयमिति । अन्येयुः क्षुरिकापाणि-र्गतोऽथ रजकप्रियाम् ॥ ३५॥ भ०६ श०० उ०। भोजनान्तरं पात्रादिधावने, ग.१ अधिः। कचेऽाकान्यर्पयास्य, सार्पयत्रजकोदरम् । (पात्रप्ररूपणायां तं विकाशयिष्यामि ) कल्पते समर्थो भवति पाटयित्वा तदसृजा-रज्जयत्तानि कल्पकः ॥३६॥ स्वक्रियायै विरुद्धलक्षणया समथों भवति या पत्र तद्भार्योचे नृपादेशा-नादादोषोऽस्य कस्ततः । कृपू सामये विरुद्धलक्षणया असामर्थे वा आधारे घञ् क- कल्पकोऽचिन्तयाज्ञो, यन्मयाऽऽप्ता न मन्त्रिता ॥ ३७॥ ल्पयति सृष्टिं विनाशं वा पत्र कृप णिच् आधारे अच् । प्र. तमाः कैतवमिदं, प्राग्वृजिष्यं पुरा यदि। प्रणो रात्रिरूपे जगतां चेधाराहित्यसंपादके प्रलये, तस्य दि- नानविष्यत्तदेतन्मे, ततो गच्छाम्यहं स्वयम् ॥ ३० ॥ नरूपे जगतां चेपासंपादके व कालभेदे, पाच० । युक्ते, क- मा यासं तटैरात्त-स्तद्ययौ कानृपान्तिके। ल्पन्ते युज्यन्ते युक्तमेतत्तथा स्था०२ ठा। राजोऽज्युत्थाय तं स्माह, तन्मदुक्तं विचिन्तितम् ॥ ३ ॥ कल्प्य-त्रि० कृप-णिन्-यत्-कल्पनीये, प्रश्न अध०१द्वा।। सोऽवदजवदादेशं, कुर्वे मन्त्री कृतस्ततः । •For Private &Personal use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कप्पा तं दृष्ट्कोपनृपं नष्टा, रजका रावकारिणः ॥ ४० ॥ राज्ये सर्वेश्वरः कल्प-जातो जाताऽय संततिः । नाथा मालिकाय जा ४१ ॥ यत्रानरणशस्त्रादि गुणक्रियते । दानाद्युपात्ततद्दासी-मुखाद् ज्ञात्वा पुरातनः ॥ ४२ ॥ मन्व्याख्यद्भू जो देव, हत्वा त्वां कल्पकः सुतम् । राज्येनमस्ति सामग्री सारगीयते ॥ ४३ ॥ पुरुषाः प्रेषिता 'राज्ञा, सामग्री तेऽप्यची कथन् । कल्पकः सम्योऽथ केपितोऽपरे ॥ ४४ ॥ जनतेसेटिकामम्भसो घरम कल्पोऽवक् स्यात् किमियता, यः कुलोद्धरणक्कमः ॥ ४५ ॥ चैरनिर्यातने वाऽलं, शुक्तां सोऽन्नमिदं सुधीः । सैकं नोन शक्तिस्त तेऽमुकान्ना दिवं ययुः ॥ कल्पर्क सहारा प्रतिपन्धिनृपास्ततः । पाटी ॥ ४७ ॥ दध्यौ नन्दः स मन्त्री चेन्त्स्याद् द्विषो नाययुस्ततः । राजाचे कोऽपि किं कूपे, भक्तं गृह्णाति तत्प्रदाः ॥ ४८ ॥ राजांचे तदासोऽपि महामतिः । ततो मञ्चिकया कृष्टः, कृशः पिङ्गश्च कल्पकः ॥ ४८५ ॥ कृतस्नानादिसंस्कारः, प्राकारेऽदर्शि कल्पकः । भीतास्ते कपका सर्वे, मृगेन्द्रादिव फेरवः ॥ ५० ॥ कल्पो दूतेन तानूचे, मिलितैः सरितोऽन्तरे । निसृष्टार्थे विशिष्टैर्वः, करिष्ये सन्धिविग्रहम् ॥ ५१ ॥ नावमाथागु गङ्गान्तः कल्यकोऽप्यगात् । करस्यस्योपधस्तथा ॥ ५२ ॥ तिष्ठेत्किने कल्पको दस्तया । अथ कई च विनस्य दधिकुएमस्य किं जयेत् ॥ ५३ ॥ एवमादर्शयन्नुक्त्वा तान् व्यामोह्य निवृत्तवान् । विशिष्टास्ते विलास्तु, जम्मु नृपान्तिके ॥ ५४ ॥ अज्ञातकल्पाभिप्राया, आख्यंस्ते प्रलपत्यसौ । तत्प्रपचेन नष्टास्ते, नन्दः प्रोक्तोऽथ मन्त्रिणा ॥ ५५ ॥ हस्त्यश्वाद्याच्छिनत्तेषां पृष्टि कृत्वा प्रणश्यताम् । पुनर्मन्त्री कृतः कल्पः, कल्पद्वेषी विनाशितः ॥ ५६ ॥ सान्दा पन्त । श्रा० क० ११६ पत्र० । श्राच० आ० चू० । कष्पकरण कल्पकरण-म० नोजनोच्छिष्टपाणांघाने ० ५० (का) ( २३३ ) अभिधानगजेन्थः । - रूपकाल-कल्पकाल-पुं० प्रकाले, "कपकायति" सूत्र० १ ० १ ० । कप्पट्ट - कल्पस्य पुं० समयपरिभाषया वालके, व्य०७०। किम्भरूपे, न० व्य० 9 उ० । वृ० । कपट्टिइ-कल्पस्थिति श्री - समाचारे, अवस्थाने, कल्पस्य मय्र्यादायाम, वृ० ६३० । तिविद्या कप्पा पत्ता तं जहा सामाइयकप्पडिई वेदोवाकपट्टिई णिन्त्रिसमा कप्पाई । हवा ति विहा कप्पा पछतातं जहा णिविकपट्टिई निएकप्पडिई वेरकपडिई स्वा० ३ ० । कपट्टिइ सङ्कलने छ । (सूत्र) पति नातं जहा मामायसं नमकप हिती बेदोवडावरयसं जमकपट्ठिती निव्विसमाणकष्पर्ति । निडिकाइयकप्पडित किप्पडित चेरकट्टितीति वेमि।। पड़िया पद्मकारा कल्बे कल्पशास्त्रोकमा समाचारे स्थि तिरवस्थानं कल्पस्थितिः । कल्पस्य वा स्थितिर्मर्यादा कल्पस्थितिः प्रप्ता तीर्थंकरगणधरैः प्ररूपिता तयधेत्युपन्यासार्थः सामायिक संकल्पस्थितिसमो रागादिदोषरहितस्तस्था यो लाभो ज्ञानादीनां प्राप्तिरित्यर्थः । समय एव सामायिकं सर्वसावद्यविरतिरूपं तत्प्रधानाः संयताः साधवः तेषां स्थितिः सा-मायिक संकल्पस्थितिः १ तथा पूर्वपर्याछेदेनोपस्थापनीय मारोपणीयं यत्तच्छेदोपस्थापन व्यतितो महातारोपणम त्यर्थः । तत्प्रधाना ये संयताः तेषां कल्पस्थितिः बेदोपस्थापनीयसंयतकल्पस्थितिः २ निर्विशमानाः परिहारविकल्पं वदमानास्तेषां कल्पस्थितिर्निर्विशमानयस्थिति निर्विष्टकायिका नाम परिहारविशुद्धि तो निर्दिष्टमाथि तिचा काय देते निष्कायिका इति युज्यते स्तेषां कल्पस्थितिः जिना गच्छनिर्गताः साधुविशेषास्तेषां कल्पस्थितिः जिनकल्पस्थितिः । ५ । स्थविरा श्राचार्यादयोग प्रतिनास्तेषां कल्पस्थितिः स्थविरकल्पस्थितिः । इतिरध्ययनपरिसमाप्तौ ब्रवीमि । तीर्थकरगणधरोपदेशे सकलमपि प्रस्तुतशास्त्रोत कल्प्या कल्प्यविधिं जणामि न पुनः स्वमनीषिक येति सूत्रपार्थः । संप्रति विस्तरार्थं विभणिषुर्भाष्यकारः कल्पस्थितिपदे परस्यानियमाशङ्कां परिहरन्नाह आहारो इ ठाणं, जो चिट्ठा माहिति ते वृद्धी । वत्रहारपमुच्चेत्रं, त्रियरेव तु शिच्छर वाणं ।। कल्पस्थितिरिति सूत्रे यत्पदं तत्र कल्प आधार इति कृत्वा स्थानं यस्तु तत्र कल्पे तिष्ठति स स्थितेरनन्यत्वात् स्थितिः । ततश्चैषं पृथग्भावानियत्वेन स्थितिस्थानयोः परस्परप्रत्ययमापन्नमिति ते तच बुद्धि: स्यात्सूत्रे व्यवहारं व्यवहारमयं प्रती त्यैवं स्थितिस्थानयोरन्यत्वम निश्चयतस्तु निश्चयाभिप्रायेण ये व स्थितिस्तदेव स्थानं तुशब्दाद्यदेव स्थानं सैव स्थितिः । कथं पुनरित्यत आह । टाएस्स होति गम, परिपक्खो वह गती लिई पहुं एतावता सकिरिए, जवे ठाणं च गमणं च ॥ सक्रियस्य जीवादिश्यस्य पतावदेव क्रियाद्वयं भवति स्थानी वा गमनं वा । तत्र स्थानस्य गमनं प्रतिपक्को भवति तत्परिणतस्य स्थानानावात् । ततः किमित्याह । वाणस्स होति गमणं, पडिपक्खो तह गती लिई पत्तुं । यगमणं तु गतिमतो, होति पुणो एवमितरंपि ॥ स्थानस्य गमनं प्रतिपक्को प्रवति न स्थितिः । स्थितिरपि गतिप्रतिपक्को न स्थानमेवं स्थितिस्थानयोरेकत्वम् तथा न च नैव गमनं गतिमतो इन्यात्पृथक् व्यतिरिक्तं भवति । एवमितरदपि स्थानं स्थितमतो द्रव्यादव्यतिरिक्तं मन्तव्यम् । इदमेव व्यतिरेकद्वारेणति । जइ गमरणं तु गतिमतो, होज्ज पुणो तेरण सोण गच्छेजा । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३४) कप्पट्टि अभिधानराजेन्द्रः। कप्पडुम जह गमणातो असाण, गच्छति वसुंधरा कसिणा॥ मार्जनार्थ हस्तन्यस्ते वस्त्रखण्डे, कपायरक्ते वस्त्रे च । वाचन यदि गमनं गतिमतः पुरुषादेः पृथग्भवेत ततोऽसौ गतिमान्न वस्त्रमात्रे, ध०२ अधि। प्रव० ।। गच्छेत् । रातमाह । यथा गभनादन्या पृथग्नता कृत्स्ना सं- कार्पट-पु०कर्पट एव स्वार्थेऽण कार्पटः स इचाकारोऽस्त्यस्य पूर्णा वसुन्धरा न गच्छति कृत्स्नाग्रहणं बघुप्रभृतिकस्तदवयवो अच् वा जीर्णवस्त्रखण्डे, तादृशवस्त्रयुक्त कार्यार्थिनि, त्रि० । गच्छेदपीति झापनार्थमेवं स्थानेऽपि नावनीयं यत एवमतः वाचः । तदाकारयुक्ते जतुनि, हेमचं० । वाच । स्थितमेतत् कप्पडिय-कार्पटिक-त्रि० कर्पट-अस्त्यर्थे ठञ् । कर्पटवस्त्रयुक्त ठाणट्ठियणाणतं, गतिगमणाणं च अत्यतो णत्थि। । भिक्षुकादौ, शब्दरत्न । वाच। श्राचा । कर्पटैश्चरतीति काबंजणणाणतं पुण, नहेव वयणस्स बायो य ।। पंटिकः। भिक्षाचरे, पुं० वृ०१उ०"भंडीवहि लगभरवह, उदस्थानस्थित्योगतिगमनयोश्चार्थतो नास्ति नानात्वमेकार्थत्वा रिकयप्पडियसमयो" निचू०१६ उ० । "बंभदत्तस्स एगो हाजननानात्वं पुनरस्ति । यथैव वचनम्य वाचश्च परस्परमर्थ कणडिश्रो अोलम्गाई" श्रा०म० द्वि० । नि० चू० तो नास्ति नेदः । शन्दतः पुनरस्तीति । अथवा नात्र स्थितिश कप्पण-कल्पन-न० कृप-भावे ल्युट छेदने, पाटने, सूत्र०१श्रुक ब्दोऽवस्थानवाची कि तु मर्यादा वाचकस्तथा चाह । ५०। श्राचा०। कृप सामये-णिच्-भावे ल्युट । रचनाअहवा जो एस कप्पो, पलंवमादी बहुधा समक्खातो।। याम, विधाने, आरोपे च । वाच। छटाणा तस्स ट्ठिई, वित्तित्ति मेरित्ति एगट्ठा ।। कप्पणा-कल्पना-स्त्री० कृप-णिच्-भावे युच रचनायाम, विअथवा यः एष प्रस्तुतशास्त्र प्रअम्बादिको बहुधा अनेकदिधः धाने, आरोहणाय गजसज्जीकरणे, हेमचं०। वाचा सप्रभेद प्ररूपणायाम, नि०चू०१ उ०। विकल्पे, कृप्तिभेदे. "छेयापकम्पा समाख्यातस्तस्य षद् स्थाना पदप्रकारा स्थितिः। स्थि रिश्रोवए, समइकप्पणा त्रिकप्पहि" श्री०। व्यतिरेकव्याप्तिक्षातिरिति मर्यादेति चैकार्थों शब्दौ । नूयोऽपि विनेयानुग्रहार्थ नाधीनेऽनुमानभेदे, इति नैयायिकाः अर्थापातिरूप प्रमाणान्तरे, स्यितोवैकार्थिकान्याह। इति मीमांसका वेदान्तिनश्चाहुः ॥ पतिद्वा गवणा ठाणं, ववत्था संगिति द्विती। कप्पणामेत्त-कल्पनामात्र-न० इयं कल्पनैव केवला वितताअवट्ठाणं अवस्था य, एगट्ठा चिटणाइ च ।। र्थप्रतिभासरूपान पुनस्तत्र प्रतिभासमानोर्थोऽपीत्येवं रूपायां प्रतिष्टा स्थापना स्थानं व्यवस्था संस्थितिः स्थितिः अवस्थान | केवलायां कल्पनायाम, ध०१अधि०। वाऽवस्था चैतान्यकार्थिकानि पदानि । तथाहि "चिट्टण" मूळ-कप्पणिज-कल्पनीय-त्रि० उसमादिदोषवजिते, आव०६उ०॥ स्थानमादिशब्दाग्निषदनं त्वम्वर्तन तानि त्रीण्यपि स्थितिविशेषरूपाणि मन्तव्यानि । सा च कटपस्थितिः बोढा तद्यथा ॥ जंज जोग्गत्तीणं, आहारादी तहेव सेहाए । सामाइयएच्छेदो, णिव्विसमाणे तहेव निविहो। एयं तु कप्पणिजं, अपरिग्गहणा अकप्पम्मि । जिणकप्पे थेरेसु य, बबिहकप्पप्तिी होत्ति ।। हारे य पलवादी, सलोममजिणादि होत्ति उवहीए। सामायिकसंयतकल्पस्थितिश्छेदोपस्थापनीयसंयतकल्पस्थि- सेज्जाए दगसाला, अकप्पसेहा य जे अन्ने ॥ तिनिर्विशेषमानकल्पस्थितिस्तथैव निर्विकल्पस्थितिः जिनक- केरिसय कप्पणिज्ज, फासुयगं फासुयं तु केरिसगं । ल्पस्थितिः स्थविरकल्पस्थितिश्चेति पड्डिधा कल्पस्थितिः । जीवं ज ज दव्वं, तंपियजं एस णिज्जंतु पं०भा०॥ वृ०६० पत्र० ए१ । स्था० । पूर्वपश्चिमसाधूनां पञ्चमहावतरू कप्पणिज्जेति दुविहं जीवमर्जावं कप्पणिजमकप्पणिज्जं पायां मध्यमसाधूनां महाविदेहसाधूनां च चतुर्थ्यामलकणायां तत्थ सर्जावं कप्पणिज्जमकप्पियं च तत्थ सज्जीवमकप्पियं कल्पावस्थितौ, वृ०४ न०। ( कप्प शब्दे चैतज्ञाषितम् ) श्राहारसपुरिसु बीसं इत्थीसु दस नपुंसगेसु तधिवरीय ककप्पडिय-कल्पस्थित-पुं०कलगे दशविधे आचेवक्यादौ स्थिताः प्पियं तत्थ अजीवं आहारोवहिमाइ जाव दंतसोधणयं उग्गकस्पस्थिताः । पञ्चयामधर्मप्रतिपन्नेषु, वृ० ४ न० । पूर्वपश्चिम- मुप्पायणा सणासुद्धे कप्पियं अपरिहणं । न तद्विपरीतमकसाधुष, (यत्कल्पस्थितानामर्थाय कृतमकल्पस्थितानां चाय ल्पिकम् पं०चू। कृतं तत्कापस्थितानां कल्पते इत्यकप्पठिय शब्दे नक्तम) श्राचा- | कप्पणी-कल्पनी-स्त्री० कल्पते विद्यते यया सा कल्पनी । शर्यपदानुपालके, "पायरियाण पदानुपायगो कप्पठितो भ- विशेषे, आचा०१ श्रु०१ अ० । कतिकाविशेषे, प्रश्न अध०१पति" नि चू०१० उ० । स्थविरजातसमाप्तकल्पादिव्यव अ० "खुरोहिं तिक्खधारेहि, बुरियाहि कप्पणीहि य । कप्पिो स्थिते आलोचनादानयोग्य, तदन्यस्य हि अतिचारविषया जुगु फाणिया जिन्नो, उक्कत्तो य अणेगसो” उत्त० १० अ०। प्सैव न स्यात् ध०२ अधि०। पंचा। कप्पतरु-कल्पतरु-पुं० ललोप । अनादौ शेषादेशोदित्वम् ।। कप्यष्ट्रिया-कल्पस्थिका-स्त्री० तरुणस्त्रियाम, वृ०१०।बा जए। इति पकारस्य हित्वम् प्रा० । देवतरुनेदे, स्मृतिनिबन्धननिकायां च व्य०४ ००। जेदे, शारीरकनायटीका भामिनीव्याख्यातरूपे प्रन्थे च वाच। कप्पट्ठी-कल्पस्था-खी० कुलवध्वाम, व्य० ३ ० (तहटान्तो कप्पत्थि-कल्पस्त्री-स्त्री० कल्पयोदेवलोकयोः खियः। देवीषु, वेदोपशमे स चनद्देस शब्दे नावितः ) बालिकायाम, हितरि स्था०३ वा०। ( कल्पस्त्रीणां वक्तव्यता कप्प शब्द) च। व्य०६उ०। |कप्पद्दम-कल्पद्रुम-पु० देवतरुभेदे, संकल्पविषयफलदातृत्वाकप्पम-कर्पट-पु.न. कृ-कर्मणि-विन्-कर-पट-कर्म-लक्तके, त्तस्य कल्पद्रुमत्वम् वाचा मयुरायां तीथि जिने, “मपुरायां जीर्णवस्त्रखण्डे, मलिनवस्त्रे, करस्थः पटः शक । धर्मादि| कल्पद्रुमः" ती। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३५ ) श्रनिधानराजेन्द्रः । कप्पप्पकपि कप्पप्पaप्पि - ( ) कल्पप्रकल्पिन्- पुं० कल्पग्रहणेन दशाश्रुतस्कन्धकल्पव्यवहारा गृहीताः प्रकल्पग्रहणेन निशीधकल्पः क ल्पश्च प्रकल्पश्च कल्पप्रकल्पम् तदेषामस्तीति कल्पप्रकल्पिनः । दशा कल्पव्यवहारादिसुत्रार्थधरेषु, "कप्पप्पकप्पो न सुए आलोया चेति ते इति खुत्ता " व्य० प्र० १ ० कप्पपायव-कल्पपादप-पुं० कल्पद्रुमे, पो० १५ विव० । कप्पपाल - कल्पपाल - पुं० कल्पं सुराविधानकल्प संकल्पं मद्याभिलावा तत्पायिनां पालयति । पाल्-अए । शोणिमके सुराजाव, हेमचं० । वाचः । ज० ॥ कप्पपाहुम- कल्पप्रभूता - न० कस्यचित्पूर्वस्यान्तर्गते ग्रन्थावेशेषे, कल्पप्राभृततः पूर्वकृतः श्रोभवादना श्रोवज्रेण ततः पादबिताचा ततः परम । इतोऽप्यद्धृत्य सकेपात् प्रणातः कामितप्रदः । श्री शत्रुंजयकल्पोऽयं, श्राजिनप्रभसूरिभिः” । ती ०१ कल्प० । कप्पपईव - कल्पप्रदीप - पुं० खरतरगच्छालङ्कारश्री जिनप्रनसूरिविरचित तीर्थकल्पे, । ती० ५६ कल्प० । कप्पर - कर्पर- पुं० कृप - रन् लत्वानावः । कपाले, वृ० ४ उ० । "तम्मि नगरे कपरेण निक्ख हिंडर" श्र०म० द्वि० । कर्कतं वृणोति विशे० | श्रावण । नि० नृ० । शीर्षोद्धोस्थान, श्र मरः शस्त्रभेदे, कटाहे च मेदि० उदुम्बरे वृके, शब्दे च । वाच० कप्परुक्ख - कल्पवृक्ष - पुं० मद्यादिव्यतिरिक्तसामान्यकल्पितफलदायित्वेन कल्पना कल्पस्तत्प्रधानो वृक्तः । मत्ताङ्गादिसप्तविधकल्पवृकाणां सप्तमकल्पवृकजातो, स्था० ७ ० । कल्पवृक्कमात्रे, से चदश । “मत्तं गया य १ भिंगा' २ तुमियंगा ३ दीन४ जोर ५ वित्तगा |६| वित्तरसा ७ मणिगंगा एहागारा ए अनियणाय १०” प्रव० १७१ द्वा० ( एतेषां व्याख्या मत्ताङ्गादिशब्दे संपूर्ण वर्णके उक्ता ) चैत्यवृक्के च स्था० ३ ० । कप्पवंस - कल्पवंश-पुं० कपिलसुतकल्पस्य नन्दामात्यस्यान्वये, "सहाभून्नन्दसन्तत्या, मन्त्रिता कल्पसन्ततेः ! अथाऽभून्नवमे नन्दे, मन्त्रिराट्र कल्पवंशजः " । प्रा० क० । कप्पवर्डिसय-कल्पावतंसक - पुं० सौधर्मेशान कल्पप्रधाने विमाने, तत्रोपपन्ने देवे च नि०) (तद्वक्तव्यता कप्पावरुंसियाशब्दे ) " सोहम्मीसाणकप्पेसु जाणि कप्पप्पहाणाणि विमाणाणि ता-णि कप्पaसियाणि " पा० । कप्पवमिंसया - करपावतंसिका - स्त्री० कल्पावतंसकदेवप्रतिय ग्रन्थपतौ, नि० 1 नं० | " पा० । सोहरमीसाणकपेसु जाणि कम्पप्पाणाणि विमाणाणि ताणि कप्पवासयाणि । ते सुया देवीओ जातेण तयाविसेसेस उववन्नाओ व पत्ताओ एवं जासु सवित्थरं वन्निजर तो कल्पावतंसिकाः प्रोच्यस्त इति । कल्पातंसिका नाम कल्पावतंसकदेवप्रतिवद्धग्रन्थपरुतिः सा च निरयात्रत्रिका श्रुतस्कन्धगतद्वितीयो वर्गः अनुसरापेपातिकदशाङ्गस्य उपाङ्गम, जं० रा० । जति णं भंते ! समणं भगवया जाव संपत्तेणं नवं गाणं पदमस्स वग्गस्स निरयावलियाणं श्रयमट्टे पत्ते दोस भंते ! वग्गस्स कपवमेंसयाणं समणेणं जाव कति अ कप्पववहार ज्या पत्ता ? एवं खलु जंबूसमलेणं जगत्रया जाव संपत्ते कप्पवयाणं दस अज्जयणा पन्नत्ता तं जहा पउमे १ महापउमे २३ सुन ४ पलमनद्दे ५ पनुमसेणे ६ पनमगुम्मे ७ नलिणिगुम्मे ८ आनंदे ॥ नंदणे १० नि० । कप्पव (व्व) बहार - कल्पव्यवहार-पुं० कल्पश्च व्यवहारश्च कल्पव्यवहारौ । कल्पव्यवहाराध्ययनयोः । कप्पव्ववहाराणं, वक्खाणविद्धि पत्रक्खामि वृ० १ ८० । आयारदसाकप्पो, ववहारो नवमपुव्वणीसंदो | चारित रक्खण्डा, सुयकमस्सुवरि व चित्ताई || अंगदसा महाविङ, उवासगादीप तेण तु विसेसो । आयारदसाउ इमो, जेणेत्थं वहियायारी ।। दसकपव्ववहारा, एगसुतक्रवंधक इच्छंति । केई च दस एक, कप्पव्वाहारवीसं तु ॥ रयणागरयाणीयं एवमं पुत्रं तु तस्स नीसंदो । परिगाल परिस्सावो, एते दस कप्पववहारा | किं कारण निज्ज्दा, चरित्तसारिस्स रक्खण्डाए । खल्लियस्स तेहिं सोही, कीरति तो होति निरुपहतं ॥ सूयकडूवर ववित्ता, जम्हा तू पंच वासपरियायो । सूर्यकममहज्जति तु, तो जोग्गो हीति सो तेसिं ॥ अकंपा वोच्छेदो, कुसुमा जेरी तिमिच्छपारिच्छा । कप्पे परिसा यता, दिघंता आदिसुत्तपि ॥ उस्सप्पिणी सत्राणं, हाणिं णाऊण आउगवलाणं । होहिं तु वर्धक, पुव्वगताम्म पहीणम्मि || ཞུ खेत्तस्स य कालस्य य, परिहाणि गहरणधारणाणं च । बलविरिए संघयणे, सद्धा उच्छाहतो चेत्र । किं खेत्तं कालो वा संकुयती जेा तेण परिहाणी ॥ भएइ न संकुयंती, परिहारणी तेसि तु गुणेहिं । मणियां दूसमाए, गामा होहित्ति तमसाणं || सामाइय खेत्तगुण-हाणी काले वि ऊ होति । माहाणी समए ता परिहार्यते उवरहमादीया || दव्वादी पज्जाया, अहोरत्तं तत्तियं चैव । दूसमजावणं, साहू जोग्गा कुलभा खेत्ता । काले वय दुब्नक्खा, अन्निक्खणं हात्ति ममरायं ॥ दूसमजावेण य, परिहाणी होति सहबलाणं । तणं मणुणं पितु, आउग्गमेहादिपरिहाणी | ( दारं ) संघ पिय हिय, ततो यहाणी घितिबलस्स नवो विरियं सारीरवलं, तं पि य परिदानिसत्तं च । हृायंति य साओ, गहणे परियट्टले यमनुयाणं । उच्छाहो उज्जोगो, अशालमत्तं च एगट्ठा । इय णानं परिदाणी, अणुग्गदट्ठाए एस साहूणं । णिज्जूढ कंपाए, दिहं तेर्हि इमेहिं तु । For Private Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३६) कप्पववहार अभिधानराजेन्द्रः। कप्पसत्त पगरणे चेडणुकंपा, दवि दहि होयगारीणं । इत्यर्थः । शन्जियनियमो नोदियविसयपयारनिरोडो वा सोईजह न मे बीयभत्तं, राहादिएहं जहणवयस्स । दियपत्तेसु धा प्रत्येसु रागदोसनिग्गहो जाव फासिदियं नो ई दियं अकुसबभणनिरोहो वा कुसत्रमणो इरणं वा मणसो या एवं अप्पत्त चिय, पुव्वगतं के मा हु मारहिंति । एगत्तीभावकरण कोहस्स उदयनिरोहो वा उदयपत्तस्स वा नो उ परिऊण ततो, हेटाओ तारियं तेहिं ( दारं )। विफसीकरण जाव लोभस्स तपसा नियमेन ज्ञानेन च संप्रयुक्तो मा यदु वोच्छिन्जिहिती, चरणणुओगोत्ति तण णिज्जूढं । वृक्तः । किं च सम्यग्दर्शनचारित्रतपोनियमः संयमस्तं समयवोच्चिएहे बहुयम्मी, चरणालावो भविजाहि ॥ कादेव तत्पुरुषः समासः । ज्ञानदर्शनतपश्चारित्रात्मक एव वृक्तः कहं पुण तेण गेहं तु, दिएहाई तत्थिमो तु दितो । केवन्नममितझानी केघृत अमितश्रिभावे धातुप्चेच भूवादिप रिपवितस्य केवृतमति अलच्प्रत्यये कवलमिति भवति । केवलं जह कोइ दुयारो होसु, सुरनिकुसुमो न कप्पदुमो ॥ कृत्स्नं प्रतिपूर्ण समग्रं साधारणमनन्तविषय असंख्येयप्रदेशमतीपुरिसा केइ असत्ता, तं आरोहणकुसुमगहणट्ठा । तानागतवर्तमानजावावभासकमिति पर्याया। समाने केवलं ज्ञानं तेसिं अणुकंपट्टा, कोइ समत्तो समारुज्झ॥ भावप्रमाणनूतं जीवादयः पदार्धाः प्रमेयममितझानी इत्यर्थः । घेत्तुं कुसुमासुहगह-ण हेतुगं गंथिचं दझे तेसिं । ततस्तेन जगवता नाबाहुना पूर्वरत्नाकरश्रुतसमुद्रात्प्रयत्नेनाहृतः उद्धृतमित्यर्थः न तु स्वच्छया तेनासौ श्रुतकर्ता ऋषीत्यपदिश्यते तह चोइसपुचतरं, आरूढो जवाहू तु । ऋषीत्ययं स्थानार्जवायति ऋषिः यस्मादसौ भगवता नार्जवे अणुकंपट्ठा गुथितुं, सूयगरुडस्एप्परिव वेवीरा । सम्यग्दर्शनशानचारित्रात्मक निर्वाणमार्गे व्यवस्थितः यादि(दारं) तं पुण तो वएसेण, वेव गहितं ण सेच्छाए । भिश्च समितिभिर्युक्तः इत्युका ऋषिः “से पुण अप्पणो इच्छाप अएिहह गहिए दोसो, असाहगा होंति नाणमाईणं । सुत्तं अत्थं वा करे तस्स सुत्ते च बहु अत्थे चढ गुरु आ णाश्य विराहणादिहंतो वंदणजेरी य वासुदेवस्स असिवप्पकेसवरीणीतं, वक्खातं पुव्वसामए । समणे सा कृता कंथा पच्चा अहया न प्पसमे एव सच्छंदविअहवा तिगिच्छओ तु, जाण हियं वा वि ओसहं देजा। गप्पिए सुत्तं मोक्त्रस्त असावकं भवति । वितिया पसत्था नतोहिं तु ण वा कज, सिघी विवरीयए नवति ॥ प्पत्ती बने यथा दोएह वि नेरीण कप्पववहारा पुण पुरिसं पपं० जा०॥ रिक्खिकण दिजंति जहा आश्सुए पुरिसा परिसा। परियासेनघआयारदसा जम्हा तेण भगवता आयारपकप्पा दसाकप्पा णकुमग गाहा एवं सुसिस्सदिजंति" तत्र शैनघनविष्कुएढचाव्यवहाराय नवमपुवनीसंदलता निजूढा तेनासी पूजाईः। श्या. सनीमशकमार्जारादयः अनर्हाः हंसमेसजबूकादयो योग्याः। यारपकप्पइति विधिः । यस्मात्तत्र दसविधो आचारः झानद तस्मिन्कल्पे किं वय॑ते वर्णनीयं वयं गमनीयं दर्शनीयमिर्शनचारित्रतपोवीर्याचारश्च प्रकल्प्यते ख्याप्यते प्रज्ञाप्यत इत्यर्थः त्यर्थः । नच्यते कप्पे य कप्पिए चेव गाहा कल्पो नाम नीइत्यतः आचारप्रकल्पः दशाकल्पव्यवहाराणांपूर्वोक्तं निरुक्तंचा तिर्मर्यादा व्यवस्था आचरणमित्यनान्तरम् पं० चू०॥ रित्र इति । चारित्तरक्खणघा गाहा पञ्चप्रकार चारित्रं सा- कप्पविमाणेववत्तिया-कल्पविमानोपपत्तिका-स्त्री० कल्पेषु देमायिकाद्यम् । अथाख्यातपर्यवसानं तस्य रक्कणार्थ नूति वलोकेषु न तु ज्योतिश्चारे विमानानि देषावासविशेषाः। प्ररज्वाः परिपालनार्थमित्यर्थः सूत्रकृताङ्गस्योपरि व्यवस्थापितः ।। थवा कस्पाइच सौधर्मादयो विमानानि च तऽपरिवर्तित्रैवेयकाकिमर्थ सूत्रकृनाङ्गस्योपरि व्यवस्थापितः पादौ च न व्यव दीनि कल्पविमानि तेषु उपपत्तिरुपपातो जन्म यस्याः सकाशात स्थापितमुच्यते। सूत्रोपदेशादिति यस्माद्यवहारसूत्रे तृतीयोहे सा कल्पविमानोपपातिका। केवल्याराधनाजेदे, ज्ञानाचाराधनाशकेऽप्युक्तम् । त्रिवर्षपर्यायस्य कल्प्यतेप्राचारप्रकल्प ति। तथा याम, एषा च श्रुतकेवल्यादीनां भवतीति स्था० ३ ग०(व्याव्यवहारस्यैव दशमोद्देशके सूत्रमस्ति त्रिवर्षपर्यायस्य कलप्यते ख्या आराहणा शब्देऽवसेया) सूत्रकृताङ्गमुद्देष्टुमेतदर्थ सूत्रकृताङ्गस्योपरि कृत इति । किं कारणं तेण जगवता नवमात्रओ पुवायो नाणिो नच्यते।उस्साप्प- कप्पसुत्त-कल्पसूत्र-न० दशाभुतस्कन्धान्तर्गतेऽष्टमेऽध्ययने, प. णिसमणाण गाहा जम्हा उस्सप्पिणीदोसेण परिहायति साहण रम्परया केत्रे, चतुर्मासीस्थितसाधवः श्रेयोनिमित्तमानन्दपुरे आन्यं बलं बुकीयो य एतन्निमिस उवम्गहकराजविस्संति पु- सभासमकं वाचनादनुसङ्घसमकं पञ्चन्निदिवसः नवनिः कणैः ब्बगए परिहीणे । किं च खेत्तस्स य काबस्स य गाहा । खे- श्रीकल्पसूत्रं वाचयन्ति कल्प० । अत्र हीरविजयसूरि प्रति पते ताव उस्सपिणि चेव पच्च परिहाणी गहणधारणाणं च रिमतविष्णुऋषिगणिकृतप्रश्नो यथा नवतणः कल्पसूत्र वाच्यते तहा बनवीरिय बलं शारीरं वीरियं वीर्य व्यवसायो वा तहा कैश्चिदधिरपि वाच्यते तदक्कराणिक्वसन्तीति प्रश्न उत्तरं नवसंघयणसझा मेधाउयं च खेत्तदोसेण य। परिहायति गाहा। क्वणैः श्रीकल्पसूत्र वाच्यते परंपरातः अन्तर्वाध्यं मध्ये नवकणअणुकंपा चोच्छेर नक्तं च । सिम्सेनमाश्रमणगुरुनिः। पालाइ विधानाकरसद्भावाश्च अधिकव्याख्यानैस्तद्वाचनं तु तथाविधसुणणुकंपा संखमिकरणम्मि गाहा वोच्छेयम्मि पाञ्चाओ मेथपी- विहितगच्चपरंपरानुसारि अक्तरानुसारि च नावसीयते इति । यनतंरना दिराई जणवयस्स। कुसुमोइति तवनियमनाणरुक्वं तथा यदा चतुर्दश्यां कल्पो वाच्यते अमावास्यादिकोबा अमागाहा भेरीचंदणकंथा ते इचित्ति पालगिदाणे गाहा ते जग- वास्यायां प्रतिपदि वा कल्पो वाच्यते तदा षष्ठतपः कविधेयमिचता अणुकंपिएण मा वोच्चिजिस्संतीति कांतं रोहमिव पा- | तिप्रश्ने उत्तरमाह । यदाचतुर्दश्यां कल्पो वाच्यते प्रत्याद्यत्र षष्ठदवं आरुह्य अप्पणा माबिताणि कुसुमाणि अवेसिं च दत्ताणि तपोविधाने दिननैयत्यं नास्तीति यधारुचि तद्विधीयतामितिको तवो ज्वालसविहो णियमा इंदियनोईदियनियमत्ति ग्रहो निरोध। ऽत्राग्रहः ही। तदेवं समुपस्थिते पर्युषणापर्वणि मङ्गलनिमित्त Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३७) कप्पसुत्त अनिधानराजेन्द्रः। कप्पसुत्त पञ्चभिरेव दिनैः कल्पसूत्र वाचनीयं तच्च यथा देवेषु इन्द्रः र्या तया च बहुप्रार्थित एकः पुत्रः प्रसृतः । स च बालक प्रासतारासु चन्छः, न्यायप्रवीणेषु रामः, सुरूपेषु कामः, रूपवतीषु ने पर्युषणापर्वणि कुटुम्बकृतामष्टमवार्तामाकार्य जतस्मृतिः रम्भा, धादित्रेषुभम्भा, गजेषु ऐरावणः, साहसिकेषु रावणः, बु- स्तन्यपोऽपि अष्टमं कृतवान् ततस्तं स्तनपानमकुर्वाणं पर्युषितकिमत्सु भन्नयः,तीर्थेषु शत्रुजयः,गुणेषु विनयः,धानुष्केषुधनंजयः मावतीकुसुममिव म्लानमालोक्य मातापितरी अनेकान् उपायांमन्त्रेषु नमस्कारस्तरुषु सहकारस्तथा सर्वशास्त्रे शिरोमणि श्वक्रतुः । क्रमाश्च मूी प्राप्तं बालं मृतं ज्ञात्वा स्वजना भूमी भावं बिभर्ति । यतः "नार्हतः परमो देवो, न मुक्तेः परसंपदम्। निक्षिपन्ति स्म । ततश्च विजयसेनो राजा तं पुत्रं तहःखेन त. न धीशत्रुजयात्तीर्थ, श्रीकल्पान्न परं श्रुतम्"।१। तथायं कल्पः पितरं च मृतं विज्ञाय तद्धनग्रहणाय सुनटान्प्रयामास । इतसाक्षात्कल्पद्रुम एव । तस्य च अनानुपूर्व्या उक्तत्वात् । श्रीवी- श्व अष्टमतपःप्रनावात्प्रकम्पितासनो धरणेन्छः सकलं तत्स्वरूरचरित्रं वीजम् , श्रीपार्श्वचरित्रमङ्करः, श्रीनेमिचरित्रं स्कन्धः, | पं विझाय नूमिस्थं वात्रकममृतच्छटया आश्वास्य विप्ररूपं कृश्रीऋषभचरित्रं शाखासमूहः, स्थावरावली पुष्पाणि, सामाचा- त्वा धनं गृहतस्तानिवारयामास । तत् श्रुत्वा राजाऽपि तत्रागरीशानं, सौरभ्यं फलं मोक्षप्राप्तिः । किं च वाचनासाहाय्यदा- त्योवाच । भो नूदेव ! परम्परागतमिदमस्माकमपुत्रधनग्रहणं ना-साक्षरथुतेरपि।विधिनाऽऽराधितः कल्पः, शिवदोऽन्तर्भ- कथं निवारयसि । धरणोऽवादीत् । राजन् ! जीवत्यस्य पुत्रः ।। वाष्टकम्" ११ एगग्गचित्ता जिणसासणम्मि,, पभावणा पूअप- कथं कुत्रास्तीति राजादिभिरुक्ते भूमिस्थं जीवन्तं बालकं सारायणा जे । तिसत्तवारं निसुगंति कप्पं, भवामवं गोश्रम ! ते कात्कृत्य निधानमिव दर्शयामास । ततः सर्वैरपि सविनयैः स्वातरंति"।२। एवं च कल्पमहिमानमाकर्ण्य तपःपूजाप्रभाव. मिन् ! कस्त्वं कोऽयमिति पृष्टे सोऽवदत् । अहं धरणेन्द्रो नागनादिधर्मकार्येषु कष्टधनव्ययसाध्यषु आलस्यं न विधेयं स- राजः कृताएमतपसोऽस्य महात्मनः साहाय्यार्थमागतोऽस्मि । कलसामग्रीसहितस्यैव तस्य वाञ्छितफलप्रापकत्वात् । य- राजादिनिरुक्तं स्वामिन् ! जातमात्रेण अनेन अष्टमतपः कथं कृथा वीजमपि वृष्टिवायुप्रभृतिसामग्रीसद्भावे एच फलनिष्पत्ती तम् । धरणेन्द्र उवाच राजन् ! अयं हि पूर्वनवे कश्चिद्वणिकपुत्रो समर्थ नान्यथा एवमयं धीकल्पोऽपि देवगुरुपूजाप्रभावनासा- बाल्येऽपि मृतमात्रक आसीत्। स च अपरमात्रा अत्यन्तपीड्यधर्मिकभक्तिप्रमुखसामग्रीसद्भावे एव यथोक्तफलहेतुः । अन्य- मानो मित्राय स्वं दुःखं कथयामास सोऽपि त्वया पूर्वजथा" इक्को वि नमुकारो, जिणवरवसहस्स वद्धमाणस्स ॥ सं- न्मनि तपो न कृतं तेनैवं पराजवं बसे । इत्युपदिष्टवासारसागराश्रो, तारे नरं व नारि वा"। इति श्रुत्वा किंचि- न् । ततोऽसौ यथाशक्ति तपोनिरत आगामिन्यां पर्युषणामत्प्रयाससाध्ये कल्पश्रवणेऽपि नालस्यं भवेत् कल्प० । कल्प- वश्यमष्टमं करिष्यामीति मनसि निश्चित्य तृणकुटीरे सुष्वासूत्र केन वृत्तम् । अथ पुरुषविश्वासे वचनविश्वास इति श्री. प। तदा च लब्धावसरया विमात्रा आसन्नप्रदीपनकादग्निकल्पसूत्रस्य प्रमाणता वक्तव्या । स च चतुदर्शपूर्वविद्युगप्रधान- कणस्तत्र निक्तिप्तस्तेन च कुटीरके ज्वलिते सोऽपि मृतः । अश्रीभद्रबाहुस्वामी दशाश्रुतस्कन्धस्य अष्टमाध्ययमतया प्रत्या- एमध्यानाच अयं श्रीकान्तमहेन्यनन्दनो जातस्ततोऽनेम पूर्वख्यानप्रवादाभिधानात् नवमपूर्वात् उद्धृत्य कल्पसूत्रं रचित- जवचिन्तितमष्टमतपः। सांप्रतं कृतं तदसौ महापुरुषो बघुका वान् । ( कल्प० ) तस्मादतन्महापुरुषप्रणीतत्वान्न सामान्य अस्मिन् नवे मुक्तिगामी यत्पाबनीयो नवतामपि महते उपकागम्भीरार्थ च । यतः "सब्वनईणं जा हुज, वालुआ सव्वोदहीण- राय नविष्यतीति उक्त्वा नागराजः स्वहारं तत्कएचे निक्तिप्य जं उदय । तत्तो पणतगुणियो, अत्थोइ कस्स सुत्तस्स" ॥१॥ स्वस्थानं जगाम । ततः स्वजनैः श्रीकान्तस्य मृतकार्य विधाय "मुखे जिह्वासहसं स्यात्, हृदये केवलं यदि । तथापि कल्प- तस्य नागकेतुरिति नामदत्तम् । क्रमाञ्च स बाल्यादपि जितेन्द्रिमाहाम्यं, वक्तुं शक्यं न मानवैः”।२। अथ तस्य श्रीकल्पस्य यः परमश्रावको बभूव । एकदा च विजयसेनराजेन कश्चित् अ. वाचने श्रवणे च अधिकारिणो मुखवृत्त्या साधुसाव्यस्तत्रा चौरोऽपि चौरकलङ्केन हतो व्यन्तरो जातः स समग्रनगरविधापिकालतो रात्री विहितकालग्रहणादिविधीनां साधूनां वाच ताय शिला रचितवान् । राजानं पादप्रहारेण रुधिरं वमन्तं सिंहानं श्रवणं च साध्वीनां निशीथचूायुक्तविधिना दिवाऽपि त- सनाद्भूमौ पातयामासातदाच नागकेतुः कथमिमं सङ्गप्रासादवि. था श्रीवीरनिर्वाणादशीत्यधिकनवशत (१०) वर्षातिक्रमे ध्वंसं जीवन् पश्यामीति बुद्ध्या प्रासादशिखरेप्रारुह्य शियां पामतान्तरेण च त्रिनवतियुतनवशत ( ६६३ ) वर्षातिक्रमे णिना दक्षे ततः स व्यन्तरीऽपि तत्तपःशक्तिमसहमानः शिवां ध्रुवसेननृपस्य पुत्रमरणार्तस्य समाधिमाधातुमानन्दपुरे- संहृत्य नागकेतुं गतवान् तद्वचनेन नपानमपि निरुपम कृतसभासमकं समहोत्सवं श्रीकल्पसृत्व वाचयितुमारग्धम् । ततः वान् । अन्यदा च स नागकेतुर्जिनपूजां कुर्वन् पुष्पमध्यस्थिप्रभति चतर्विधोऽपि सः श्रवणोऽधिकारिवाचनेत विनियो तसर्पण दष्टोऽपि तथैवाव्यग्रो भावनारूढः केवलहानमासादिगागुष्ठानः साधुरये । श्रथ अस्मिन् वार्षिकपर्वणि कल्पश्रवण- तवान् । ततः आसन्नदेवतापितमुनिवेषश्चिरं विहरति स्म । एवं वत् । इमान्यपि पञ्च कार्याणि अवश्यं कार्याणि तद्यथा चैत्य- नागकेतुकथां श्रुत्वा अन्यैरपि अष्टमतपसि यतनीयम् । इति परिपाटी १ समस्तसाधुवन्दनं २ सांवत्सरिकप्रतिक्रमणं ३ मि. श्रीनागकेतुकथा । अथ श्रीकल्पसूत्रे त्रीणि वाच्यानि यथा थः साधर्मि कलमापणम् ४ अष्टमं तपश्च ५ एषामपि कल्पश्रवण- | पुरिमचरिमाणं कप्पो, मंगलं वच्माणतित्थ स्मि । वहाञ्चितदायकत्वमवश्यं कर्तव्यत्वं जिनानुसातत्वं च झेय- इह परिकहिया जिण-गणहराश्थेरावनीचरितं ॥२॥ म । तत्र अष्टमं तपः उपवासत्रयात्मकं महाफाकारणं रत्नत्रय- (पुरिमचरिमाणति ) ये श्रीऋपभवीरजिनयोः (कप्पत्ति )। धदान्यं शल्यत्रयोन्मूलनं जन्मत्रयपावनं कायवाङ्मानसदोषझो- अयं कल्पः आचारः यवृष्टिर्भवतु मा वा परमवश्यं पर्युषणा पकं विश्वत्रयायपदापर्क निःश्रेयसपदाऽभिमाषुकैरवश्यं क- कर्तव्या । उपलकणत्वात् कल्पसवाचनीयं च ( मंगसमित्ति) तव्यं नागकेतुवत् । तथा हि चएमकान्ता नगरी तत्र विजय-- एकः अयमाचारः अपरं च मङ्गलं मङ्गलकारणं जवति । वर्षमासेनो नाम राजा श्रीकान्ताख्यश्च व्यवहारी। तस्य श्रीसखीभा- नतीर्थे कस्मादेवमित्याह । यस्मादिह परिकथितानि (जिणत्ति) Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) कणसुत्त अभिधानराजेन्द्रः। कप्पसुबोहिया जिनानां चरितानि १ (गणहराश्थेरावक्षित्ति) गणधरादिस्थवि- स्यानुकानं च? इत्यत्र कारणे तद्वाचन कैश्चिक्रियमाणमस्ति अरावनी १चरित्तत्ति) सामाचारी ३ कल्प० । कराणि तु नोपनज्यन्ते ही० । शेषकाले साधवः श्राद्धश्राहीसमणस्स भगवो महावीरस्स जाच सव्वदुक्खप्पहीण जनेषु एवत्सु श्रीकल्पसूत्रं पठन्ति पाग्यान्त किं वा एकान्ते एवेति प्रश्ने । साधवः स्वेच्या कल्पसूत्रं परन्तः पाव्यन्तश्च सस्स नव वाससयाई वइकताई दसमस्स य वाससयस्स न्ति । अत्रान्तरे कश्चित् श्राकादिन्दनार्थ समागतस्तदा शनैः पअयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छेइ वायणंतरे पुण अयं उनपाउनाकराणि न ज्ञातानि सन्ति परं श्रासादिकमुद्दिश्य पठतेएनए संवच्छरे काले गच्चइ ति दीस। नं च पर्युषणापर्व बिना न शुद्धयतीति । श्येन०४उवा०६१ प्र० । "समणस्सणं श्त्यादितो दीसह" इति पर्यन्तं यत्र जगवतोनि- कप्पसुबोहिया-कल्पसुबोधिका-स्त्री०पर्युषणाकल्पस्य श्रीषिव॒तस्य नववर्षशतानि व्यतिक्रान्तानि दशमस्य वर्षस्य शतस्या- नयगणिविरचितटीकायाम तदारम्ने, सकलपरिमतपर्णत्परंयं अशीतितमः संवत्सरः कालो गच्चति । यद्यपि एतस्य सूत्र- परापुरुहूतपरिझतश्री ५ श्रीसौजाग्यविजय (ग) गुरुभ्यो नमः स्य व्यक्तो जावार्थो न ज्ञायते। तथापि यथा पूर्वटीकाकारा- "प्रणम्य परमश्रेय-स्करं श्रीजगदीश्वरम् । ख्यातं तथा व्याख्यायते । तथा हि अत्र केचिद्वदन्ति । यत्कल्प- कल्पे सुबोधिकां कुर्वे, वृत्ति बास्रोपकारिणीम॥१॥ सूत्रस्य पुस्तकबिखनकाबज्ञापनाय इदं सूत्रं श्रीदेवर्किगणिक- यद्याप बह्वयष्टीकाः, कल्पे सन्त्येव निपुणगणगम्याः । माश्रमणैः लिखितम् ।तथा वायमर्थः। यथा श्रीवीरनिर्वाणादशी- तदपि ममायं यतः, फलेपहिः खल्पमतिबोधात् ॥॥ त्यधिकनववर्षशतातिक्रमे पुस्तकारूढः सिकान्तो जातः । तदा यद्यपि भानुद्युतयः, सर्वेषां वस्तुबोधिका बयः। कल्पोऽपि पुस्तकारूढो जाताति तथोक्तं “वबहीपुरम्म नयरे' तदपि महीगृहगानां, प्रदीपिकैबोपकुरुते डाक् ॥३॥ देवकिप्पमुहसयससंघेहिं । पुच्छ आगमसिदिओ, नवसयअसी नास्यामर्थविशेषा, न युक्तयो नापि पद्यपाएिकत्यम् । इमो वीराओ" ॥१॥ अन्ये वदन्ति । "नवशताशीतितमे, वर्षे केवलमर्थव्याख्या, वितन्यते बालबोधाय ॥४॥ धीरनाङ्गजार्थमानन्दे । सङ्घसमकं समहं, प्रारब्धं वाचितुं विज्ञैः" हास्यो नास्यां सङ्गिः, कुर्वन्नेतामतीक्ष्णबुद्धिरपि । ॥१॥ इत्याद्यन्तर्वाच्यवचनात् श्रीवीरनिर्वाणादशीत्यधिकनव यमुपदिशन्ति त एव हि, शुन्ने यथाशक्ति यतनीयम् ॥ ५ ॥ वर्षशतातिकमे कल्पस्य सनासमकं वाचना जाता तो झाप कल्प०१०। यितुमिदं सूत्रं न्यस्तमिति । तत्वं पुनः केवलिनो विदन्तीति अथ प्रशस्तिः ॥ (वायणंतरे पुणेत्यादि) वाचनान्तरे पुनरयं त्रिनवतितमः सं- आसीद्वारजिनेन्द्रचन्द्रपदवी कल्पद्रुमः कामदा, धत्सरः कालो गच्चतीति दृश्यते । अत्र केचिद्वदन्ति । वाचना- सौरज्योपहतप्रबुरुमधुपः श्रीहीरसूरीश्वरः । न्तरे कोऽर्थः प्रत्यन्तरे " तेणउए" इति दृश्यते। यत्कल्पस्य पु- शाखोत्कर्षमनोरमः स्फुरफुरुच्चायः फलप्रापक-, स्तके शिखनं पर्षदि वाचन वा अशीत्यधिकनववर्षशतातिक्रमे श्वश्चन्मूलगुणः, सदातिसुमनाः श्रीमन्मरुत्पूजितः ॥१॥ इति कचित्पुस्तके लिखितं तत्पुस्तकान्तरे त्रिनवत्यधिकनवशत- यो जीवाभयदानमिएिकममिषात स्वायं यशोमिएिडमं, वर्षातिकमे ति दृश्यते इति भावः । अन्ये पुनर्वदन्ति । अयम- षम्मासान्प्रतिवर्षमुग्रमखिले चूमएमोऽवीबदत् । शीतितमे संवत्सरे प्रति कोऽर्थःपुस्तके कल्पलिखनस्य हेतुनूतः भेजे धार्मिकतामधर्मरसिको म्लेच्छाग्रिमोऽकन्धरः, अयं श्रीवीरात दशमशतस्य अशीतितमसंवत्सरबतणःकालो श्रुत्वा यद्वदनादनाविलमतिर्धर्मोपदेश शुभम् ॥२॥ गच्छति । “वायणंतरे इति" कोऽर्थः। एकस्याः पुस्तकलिखनरू- तत्पट्टोन्नतपूर्वपर्वतशिरःस्फूर्तिक्रियां हर्मणि, पाया वाचनाया अन्यत्पर्षदि वाचनरूपं यद्धाचनान्तरं तस्य पु. त्रिः श्रीविजयादिसेनसुगुरुभव्येष्टचिन्तामणिः॥ नहेंतुनतो दशमस्य शतस्यायं त्रिनवतितमः संवत्सरः । तथा शुभैर्यस्य गुणैर्गुणैरिव घनरावेष्टितः शोभते, चायमर्यः । नवशताशीतितमवर्षे कल्पसूत्रस्य पुस्तके लिखनं भूगोलः किल यस्य कीर्तिसुदृशः क्रीमाकृते कन्दुकः ॥३॥ नवशतत्रिनवतितमवर्षे च कल्पस्य पर्षद्वाचनेति । तथोत्तम । येनाकव्यरपर्षदि प्रतिभट्टान्निर्जित्य वाग्वैभवैः, भीमुनिसुन्दरसूरिनिः स्वकृतस्तोत्ररत्नकोशे “वीरात्विनन्दाङ्क- शौर्याश्चर्यकृतावृतापरिवृता लक्ष्म्या जयश्रीकनी । VE३ शराचीकर-स्त्वञ्चत्यपूते ध्रुवसेनभूपतिः। यस्मिन्महैःसं- चित्रं मित्र ! किमत्र मित्रमहसस्तनास्य वृद्धा सती, सदि कल्पवाचनामाद्यां तदानन्दपुरंन का स्तुते"। १ । पुस्त- कीर्तिः प्रत्यपमानशङ्कितमना याता दिगन्तानितः॥४॥ कलिखनकाअस्तु । यथोक्तः प्रतीत एव "बलहीपुरम्मि नयरे" विजयतिलकसूरिभूरिरिप्रशस्यः, इत्यादिवचनात् । तत्वं पुनः केवलिनो विदन्तीति षष्ठः कणः समजनि मुनिनेता तस्य पट्टेच्छचेताः, कल्प० ६ का अत्र श्रीहीरविजयं प्रति विष्णुऋषिगणिकृत- हरहसितहिमानी हंसहारोज्वलश्रीप्रश्नो यथा राजगृहे नगरे गुणशिवाण्ये चैत्ये श्रीमहावीरेण स्त्रिजगति वरिवर्तिस्फूर्तियुग्यस्य कीर्तिः॥॥ श्रीकल्पसूत्र प्रकाशितमिति कल्पाध्ययने उक्तमस्ति । कल्पसत्र. तत्पट्टे जयति क्षितीश्वरततिस्तुत्यापिङ्केह वृत्यादौ तु श्रीनप्रवाहुस्वामिनिः प्रणीतमिति कथं संगच्छते सूरिरितदुःखवृन्दविजयानन्दः क्षमाभृद्विभुः। इति तत्रोत्तरमाह । अत्र श्रीमहावीरेण कल्पसूत्रमर्थतः प्रका- यो गौरैर्गुरुभिर्गुणैर्गणिवरं श्रीगौतमं स्पर्द्धते, शितं सणधरैः सूत्रतो निबऊ तदनु श्रीभत्रबाहुस्वामिनिन- लब्धीनामुदधिर्दधीयितयशाः शास्त्राब्धिपारङ्गतः॥६॥ चमपूर्वाद्दशाश्रुतस्कन्धमुकरद्भिस्तदष्टमाध्ययनरूपत्वेन श्रीकल्प- यश्चारित्रमखिन्नकिन्नरगणैजेंगीयमानं जगसूत्रमपि उद्धृतमिति न किंचिदनुपपन्न मिति (ही) इदं च यो. ज्जाग्रजन्मजराविपत्तिहरणं श्रुत्वा जयन्तीपितुः। गं विनाऽपि वाच्यते हीरविजयसूरि प्रति प्रतिजगमानिगणि- बाच्छापूर्तिमियर्तियुग्ममथ तल्लेभे सहस्रं स्पृहा, कृतप्रश्नः । कथंचित्कारणे योगोद्वहनं विना कल्पसूत्रवा वन-- | वैयन्यं गुणरागिणोनिमगुणनामाभिरामात्मनः ॥७॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कप्पसचोदिया किम् श्रीगुरोः प्रवरी विनेयो, जातौ शुभौ सुरगुरोरिव पुष्पदन्तौ । श्री सोमसोमविजयाभिधवाच केन्द्रः, सत्कीर्त्तिकीर्तिविजयाभिधाय ( २३५ ) अभिधानराजेन्द्रः । ॥५॥ सौभाग्यं यस्य भाग्यं कलयितुममलं कः क्षमः सक्षमस्य, नो त्रित्रं यश्चरित्रं जगति जनमनः कस्य चित्रीयते स्म । चक्राणां मूर्खमुख्यानपि विबुधमरणोन् हस्तसिद्धियंदीया, चिन्तारत्नेन भेदं शिथिलयति सदा यस्य पादप्रसादः ||६|| पादप प्रसिद्धमहिमा वैरङिकामी, पृष्टः शाब्दिक प्रतिभजय्यो न वस्तार्किकः ॥ सिद्धान्तमिन्दर कलिकलाकराः । शश्वत्सर्वपरोपकाररसिकः, संवेगवारांनिधिः ॥ १० ॥ विचारनारनामयेव प्रश्नोत्तरायनशास्त्र वेथाः । अशोक या सर्वदेवा तस्य स्फुर्तीजन्य विनयविजयो विनेयः, सुवोधिकां व्यरचयत्कल्पे ॥१२॥ ( चतुर्भिः कलापकम् ) समशोधयंस्तथैनां, परित संविग्नसहृदयावतंसाः । ॥११ ॥ अमित हर्षवाय वंशे मुकामसिमाना ॥१३॥ धिषणानिर्जिता सर्व प्रभूतकर्तिक । श्रीभावविजयवाचक कोटीशः शास्त्रवसुनिकषाः ॥ १४ ॥ ( युग्मम्) रशिरसनिधिवर्षे ज्येष्ठे मासे समुपके। गुरुपुष्ये बालोऽयं सफलोज द्वितीयायाम्। १५ । श्रीरामविजयपत शिष्यधीविजय विबुधमुख्यानाम् । अभ्यर्थना हेतु विज्ञेयाऽस्या इसी बिवृत्तेः ॥ १६ ॥ यावकात्री मृगाकी धरणिधरनरश्रीफलैः पूर्ण गर्न, sagaौघदर्जे निषधगिरिमहाकुङ्कुमामत्र चित्रम् । जम्बूदीपानिधानं हिमगिरिराजतं स्थानमतइसे सुधाधिपरिवितानात्कल्पवृत्तिः ॥ कल्प० कप्पसूय- कल्पश्रुत-न० कल्पनं कल्पः स्थविरादिकल्पः तत्प्रतिपादकं तंत या "खुपसू महाकपसूर्य" कमल्पग्रन्यमार्थि तीयं महाप्रन्थं महार्थे च नं० । कप्पाकप्प - क ( ल्प्या) कब्पा (ल्प्य ) ल्प-न० कल्पो विधिराचार इत्यर्थः । श्रकल्पश्चाविधिः । अथवा कल्पो जिनकल्पस्थविरकल्पादिरकल्पस्तु चरकादिदी का । अथवा कल्प्यं ग्राह्यमकल्यमितरत् । ततः समाहारद्वन्द्वात्कल्पाकल्पं कल्याकल्प्यं कपनीयाsकल्पनीयधर्मे, 'जंभवे भक्तपाणं तु, कप्पाकष्पम्मि संकि यं' कल्प्य कल्ययोः कल्पनीयाकल्पनीय धर्मविषय इत्यर्थः दश० ५० कल्प/कल्पप्रतिपादकमध्ययनं कल्पाकल्पम् । उत्कालिकविशेषपूगफला चूर्णानि काल्पिते न वेति प्रहनः अयोत्तरम पूगफलमा ने चूर्णानि च केवलानि विहतु न कल्पन्ते इति गच्छप्रवृत्तिः २ श्येन० २ उल्ला० २ प्र० । कप्पाकप्पविष्णु कल्पकल्पविधिज्ञ शिकल्यो नीतिर्मदा विधिः सामाचारीत्यर्थः कल्पस्याकल्पस्य च विधिज्ञः कल्पनीयाकल्पनीय "जे घेरा भगवंतो रुपाकव्यचिदिवं कप्पा कम्पाक-पुं० सूतोऽयंता प्राप्ते भिक्षौ न्य० ४ ४० कप्पिय विधि, "कप्पा या परिपरश्यथिराम्रो” कल्पाकेन शिरो अबन्धन कल्पन भी० । कप्पावीत-कल्पातीत पुं० ततः प्रतिकान्ताकल्पाती ताः । श्रधस्तनाधस्तनग्रैवेयकादिनिवासिषु श्रहमिन्द्रेषु बैमा - निकदेवेषु प्रज्ञा० १ पद । ज० । जिनकल्पस्थविरकल्पाज्याम न्यत्र, न० २५ श० ६ ० । I कप्पावंत कल्पयत् वि० बेदयत "बच्चामा कप्पा या - त्रि० संवावेज्ज वा कष्पावत” वा । नि० चू० १७ उ० । कपास कार्यास पुं० नं० प्-वेदने बाय् कार्पासिक वस्त्रयोनी ने अमर वा कर्पासनावयववत् कल्पनीये रोमादी, “उप कप्पासति उत्पत्तिपसा ब्रामाणगमुराभांति तस्स रोमा कप्पणिज्जा कप्पासो अहवा पाव कप्पासो पोकावणी तस्स फलं तस्स पम्हा कप्पाणिज्जा कप्पासो प्रति" नि० चू० ३ ० । कर्पास प्र० कपस्या अवयचः विश्वास कर्पासीविकारे सूत्रादौ वाच० ॥ कप्पासत्थि - कार्पासास्थि- पुं० त्रीन्द्रियजीवभेदे, जी०१ प्रति । कप्पासिय कार्पासिक पनि हकप निष्पन्ने पादौ वाच० । कर्पाससूत्रे च न० । अनु० । कपासी- कार्पासी स्त्री० कपस गोरा कर्पासक, चाचः । गुच्छ्रावृन्ताकोशल की कर्पास्वादयः इति तस्या गुच्छ भेदत्वम् ! आचा० १ श्रु० १ ० १ ० । कप्पिय फस्पित भ० ए विस्थिते सूत्र ०१ ०२ अ० । श्राचा० । बुद्ध्या व्यवस्थापिते, विपा०१ श्रु० १ श्र० । यथास्थानं विन्यस्ते, जं० ३ व० | कल्प० "कल्पियहारकहारतिसरयं” कल्पितो विन्यस्तो हारोऽष्टादशसरिकोऽर्द्धहारो न सरिकरित्रसरिकं प्रतीतमेव यस्य स तथा तं ज्ञा० । रचिते, औ०। स्वयुकिल्पमा ०१० सर्जि "देवमर्शचिकप्पिर्थ" देवमत्या स्वर्गियातुर्येण विविधमनेकप्रका रेण कल्पितं सर्जितम जं० ३ वक्व० । आरोहणार्थ सज्जित गजे, वाच० ब्रिन्ने, "जंतो पीलणफुरंत कप्पिया" प्रश्न० श्रध०१०॥ कल्पिक - पुं० योग्ये, व्य०८ ० ॥ । विहोय कपि खलु दव्ये भावे यायन्यो । आगमणो आगम, दव्वपि य कप्पियो जवे डुविहो । आगमतो अवछतो, यो आगमत्तो इमो होइ । जाएगसरीरजविए, तव्वतिरित्ते य होति नायव्वो । आणगमपगसरीरं जपिओ पुए सिक्खिड़ी जो तु । वतिरित्तो एगविधा तं निहोय बोधव्वो । जावो वि होत्ति दुविहो, आगमे णो आगमे चैव ॥ आगमओ उडतो को आगमो य मिसाईयां | इम्म कपिल पात्रेतुं च हाणं ॥ जं जं जोग्गजतीं, आहारादी तहेव सेहाए ॥ पं०भा० । "कसिरीजविसरांरवेरसो बालविदो - वत्तेयचो " पं० - चू०॥ संप्रति कल्पिकद्वारमाह । सुत्ते प्रत्ये तनय उन्हविचारले वयि । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपिय सिज्जा वत्थे यार, प्रोग्गहणविहारकप्पे य ॥ पिको दशविधस्तद्यथा सूत्रे २ तनयास्मन् श्रार्थोनयलक्षणे ३ उपस्थापनायां 8 विचारे ५ पात्रले ६ पि७८ वस्त्रे पात्रे १० ११ बिहार कल्ये १२ ए प्रतिज्ञारगाथा समासार्थः (सूत्रका व्याख्याऽन्यत्र सुतकपिया दे यरमिह अहाते थे शब्दे) । राजय उचही विचारले व सेज्ञा बन् हारकण्णेय । एव श्रोडनिप्पन्ने निक्खेवे पुग्वं वन्निया इह तु । नदीरणमेतं तत्त सुतकप्पित्र आवासगमाश जाव सूयकमो जहा ववहारस्स दसमुद्दे से अरुणोचवाय गरुलोवधाय जाघ सुत्ताणुगामी परियागं नाऊणं परिणामं च तहा तहा दिज्जइ सुत्तं श्र स्थं वि आवासगमार जाव सूयकडो दसमाइपरिणामगाण दिउथो उजयकपि सुत्य नभोमो उचावरणक यो अप्पत्ते अंकवेत्ता गाहा ज६ आवासरमार जाव बज्जीवपरि उश्वतगुरु दोि गुरु तवेण कालेन तवगुरू तो अहमदसमडुवालसमका गुरु गिएकालेर सुते पडिए आदिगुरु कालनहु सीतकाले वासासु वा ऋ पढिएसुत्ते य अपरिस्थिओ तामनसद्दहर पुढविमाईणि चउगुरू तबलहू तवचउगुरू सवलदुगं च जन्न अणुग्धाश्यं प्रमुच्च गुरुयं अणुग्धाश्यं नाम बट्टे चउत्थे आयंबिलेच कर पारणए पुरिमच्छ निव्वीग एगासणाइकरतेन म पनि परिणिप डावेश कि परिहरन परिहरदोई पि तबकाले पाइयं पुण एवं बारसंविदं विकपि जहा पेडियाए भणियं "। (२४०) निधानराजेन्द्रः | - अथ कल्पिकद्वारमुपसंहरन्नाह । एवं दुपालसहि, जिलोव महोबएसेणं । जो जाणिक कप्पं, सदहणायरणयं कृण ॥ सो भवियसुलभवोही, परित्तसंसारित्र पयणुकम्मो । अचिरेण न कानेणं, गच्छइ सिद्धिं धुयकिलेसो ॥ । नमनन्तशदितं द्वादशविधं सूत्रार्थादिभिर्द्वादशप्रकारं कल्पं साधुः समाचारं जिनोपदिष्टं सर्वज्ञैरुक्तमित्यनेन स्वमनीषिकाव्युदासमाह । यथोपदेश उपदेशवैपरीत्येन ज्ञात्वा अयुष्य श्रद्धानं य एष कल्पः प्ररूपितः स निःशङ्कमेवमेव नान्यथा जनपदत्वादिति णमाचरणं च यथाभ्यस्तरं द विधस्यापि कल्पस्यानुपालनं यः करोति स सिद्धिं गच्छतीति संटः कथंभूत इत्याह भव्यसिद्धिगमनयोन्यो न खलु अभय्यस्यैवंविधकल्पविषयानि सम्यक्षानश्रद्धानाचरणानि समुपजायन्ते । भच्योऽपि कदाचिदधिकः स्यादित्याह । सुलभ सुप्राबोधिरहेदर्मासिस्वासी सुलभबोधिका । असावपि दीर्घसंसारीत्याह । परीतः परिमितः संसारो यस्वासी पतसांसारिकः। अयमपि गुरुकर्मा भवेदित्याह । प्रकर्षेण तनु प्रकृतिस्थिति प्रदेशानुभावैरल्पीयः कर्म यस्यासौ प्रतनुकर्मा । एवं विथोऽसायचिरेणैव कालेन जयन्यतस्तेनैव भयहनत्कर्षतः समभवग्रह सिद्धि मोक्षं गच्छति । धुतवेशः सन् विश्यन्ते बाध्यन्ते शारीरमान सैर्दुःखैः संसारिणः सत्वा पभिरिति क्लेशाः कर्माणि । धुता अपनीताः क्लेशा ये नासी घुनकेशः क्षीणाकर्मेति भावः तदेवं व्याख्यानं कल्प कद्वारम् वृ० । ( १११ पत्र ) १ उ० । कप्पेऊण कपिउदाहरण- कापतोदाहरण-२० काल्पनिकोदाहरणे, यथा अयोग्यशिष्यविषये मुशैलघनदृष्टान्त उपान्तः स च काल्पनिको मुलधनयोः परयमाणप्रकारोऽहङ्कारादिनं सं भवति तयोरचेतनत्यात केवलं शिष्यमतिविताना ती क ल्पयित्वा दृष्टान्तेनोपान्तौ । नं० । कपिया-कल्पिकी (का) स्त्री० सकारादन्यज्ञानदर्शनादीन्यधिकृत्य संयमादियोगेष्वसंस्तरत्सु प्रतिसेवने नि० ० १ उ० (अस्या मूलगुणोत्तरगुणविषयत्वं परिसेवणाशब्दे स्पभविष्यति ) । कल्पका ० ० सौधर्मादिकल्पगतयकव्यतागोचरा ग्रन्थपद्धतिषु, पा० । ताश्च निरयावलिकाश्रुतस्कन्धगतः प्रथमो वर्गः । श्रन्तकृद्दशाङ्गस्योपाङ्गम जं० १ वक्ष० । निरयावलकेति चास्या नामान्तरम् । पदमस्स णं ते! बगस्स उर्वगाणं निरपावलियाणं स मां भगवया जाव संपनेण का अझरणा पत्ता ? एवं खलु जंबूसमणं उर्वगाणं परमस्स वग्गस्स निरयात्रलियाणं दस अथणा पन्नत्ता तं जहा काले १ सुकाले २ महाकाले रेकडे ४ कएडे ५ महा महाकडे ६ वीरकण्डे ७ बोधव्वे रामकहे ८ तहेव य पिउसेणकएहे ( नवमे दसमे महाकहेउ १० ॥ प्रथमवर्गो दशाध्ययनात्मकः प्रज्ञप्तः । अध्ययनदशकमेवाह। का लेमनामनां पुत्राणां नामानि यथा काल्या अयमिति कालः कुमारः । एवं सुकाल्याः कृष्णायाः महाकृष्णाया वीरकृष्णायाः रामकृष्णायाः महासेनकृष्णाया अ यमित्येवं पुत्रनाम वाच्यं इह काल्या अपत्यमित्याद्यर्थः प्रत्ययेनोत्पाद्य काल्यादिशब्देष्वपत्यार्थे यत् प्राप्याकालस्तु कालादिनाम्ना सिद्वैरेव वाच्यः । कालः १ तदनु सुकालः २ महाकालः ३ कृष्णः ४ सुकृष्णः ५ महाकृष्णः ६ वीरकृष्णः ७ रामकृष्णः पितृकृष्णः ए महासेनकृष्णः १० दशम इत्येवं दशाध्ययना निरयापतिकानामके प्रथम इति नि० । कप्पियाकपिय-क (स्पा ) हप्याक ( स्प ) हन०क उपाकम्पप्रतिपादके तत्कालविशेषे पा० नं० कप्पुत्त - कपोत - न० कल्यास्यस्य बेदग्रन्थस्य संवादकवचने, " कतमेवमा अविपमिमासु विनियोषाणं "जी० १ प्रतिश कप्पुर कप्पुर गुं० सानामख्याते म्लेच्छराजे येन त्रयोदशशतेरिंशदधिकेषु विक्रमर्वेषु गतेषु हिन्दुदेशे उपच कृतः ती० १७ क० । कप्पूर - कर्पूर- पुं०: न० कृप् ऊर - लत्वाभावः । घनसारे, ध० २ अधि० । गन्धद्रव्यविशेषे, झा० १७ अ० । आचा० । कप्पूरपूया कर्पूरपूजा-स्त्री० कर्पूरेणार्तिक्य करणे, धूपोरकेपणाः पोपवासस्य लत्फलम् । कर्पूरपूजया चात्र, मासकपणजं फलम् " ती ० १ ० । ( वेश्य शब्द पूया शब्दे चोदाहरणादि वयामि ) | कप्पे कण-कम्पत्वा य० विशोध्येत्यर्थे, “का एएक्किकस्स " पं० ६२ । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४१) कप्पेमागण अनिधानराजेन्डः। कमढग कमाण-कल्पयत-त्रि कुर्वाणे, औ० । झा० । सूत्र) । " अस लम-पुं० वात् ७।२।६। इति किलिन्तवत् इन्वं वाचिकम्मेण चेच वित्ति कप्पेमाणे" वृत्ति जीविका कल्पयमानः कुर्वा- त्वान्न प्रा) । “योऽनायासः श्रमो देह-प्रवृतः श्वाससंगतः। क्रमः णस्तच्चील इत्यर्थः विपा०१ श्रु०३ अ० । दशा। स इति विझेय इन्जियार्थप्रवाधकः" इत्युक्तबकणे श्रमभेदे वाच। कपोचिय-कल्पोचित-पुं० संहननश्रुतादिसंपदुपेतत्वेन प्रति- कमल-कपाडल-पुं० न० मएमनं मगमः कस्य जनस्य मगमं माकल्पप्रतियोग्ये, पंचा० १ए विव०॥ लाति-बा-कु-अर्द्धादि । करके, अमरः। वाचा कुण्डिकाकप्पोवग-कल्पोपग-पुं० कल्प आचारःस चेहेन्सामानिकस्त्र- याम, प्रश्न) अध०४अ)। नि।। तापसपानीयपात्रे, जं.)२ यस्त्रिंशादिव्यवहाररूपम्तमुपगताः । सौधर्मशानादिदेवलोक- वकः । पकवृक्के, वाच।। निवासिषु वैमानिकदेवेषु, कलगोत्पन्नान् दर्शयति । कमकरण-क्रमकरण-न) शरीरनिप्पत्युरकालं वासयुथस्थवि से किं तं वेमाणिया माणिया विहा पामत्ता तं जहा| रादिक्रमेणोत्तरोत्तरेऽवस्थाविशेष, सूत्र०अ०१ मा कप्पोवग्गा कप्पाईया य से किं तं कप्पोवग्गा कप्पोव- कमजोग-क्रमयोग-पुं० परिपाटीव्यापारे,"इमेण कमजोगेणं, भग्गा वारसविहा पामत्ता तं जहा सोहम्मा ईसाणा सणं- त्तपाण गसए" दा० अ० । योगक्रमे,-पु० अस्मिन् योगे कुमारा माहिंदा बंगलोया लंतया महामुक्का सहस्सारा एतावत्याचाम्बानि श्यन्ति निर्विकृतिकानि इत्थं घा देशादयः आणया पाणया पारणा अच्चुया ते समासो दुवि क्रियन्ते तथा विकृतयः काः कुल योगे करू पन्ते न घेत्येचं प्रमे, वृ०१ उ. हा पामत्ता तं जहा पज्जत्तगा य अप्पज्जत्तगा य से तं कमढ़-कम-पुंकम- अन् । गे ढः | १ | 0 | इति - कप्पोवग्गा ॥ स्य ढः प्रा० । कम, स्त्रियां जातित्वात् डी । बंशे, शब्दरका (सोहम्मा ईसाणा श्त्यादि) सौधर्मदेवलोकनिवासिनः सौधर्माः शकीवृक्के, पुं० धरणिः । याच० । पाश्वप्रनिजिते तपस्थिईशानदेवलोकवासिनः ईशानाः एवं सर्वत्रापि भावनीयम् । तत्र | नि, तकृत्तं चेत्थम- अन्येधुवावस्थः स्वामी एकस्यां दिशि गतात्स्थ्यात्तद्यपदेशो यथा पञ्चादेशनिवासिनः पञ्चामा इति प्र. तः पुप्पादिपूजापकरणसहितान्नागरांश्च नागरीनिरीश्य पते का० १ पद (७७ पत्र०) | क गन्तीति कंचित्पप्रच्च । स ाह प्रनो ! कुत्रचित् अस्ति कप्पोववामग-कल्पोपपन्नक-पुं० कटपेषु सौधर्मादिषु उपपन्नाः देशवास्तव्यो दरिको मृतमातापितृको ब्राह्मणपुत्रः कृपया लोकल्पोपपन्नाः चं० प्र०१६ पाहुए। सौधर्मादिदेवलोकोत्पन्नेषु वै- कैर्जीवितः कमग्नामासीत् । स च एकदा रन्नाभरान्वीत य पहा! मानिकदेवेषु, ज० ७ वक० । स्था० । एतत् प्रागजन्मतपसः फलमिति विचिन्त्य' पञ्चान्यादिमहाककफल-कटफल-पुं० कटात श्रावृणोत्यन्यरसं कट क्विप-कट फ. पानुष्टायो तपस्वी जातः सोऽयं पुर्या बहिरागतोऽस्ति तं पूजिसमस्य कगट मतदपशषस क पामूर्व बुक् ८।२। ७७ इति तुं लोका गच्चन्तीति निशम्य प्रन्नुरपि सपरिवारस्तंद्र ययौ। टलुक प्रा० । कटुरसतया अन्यरसावरकफलके कायफन इति तत्र काष्ठान्तर्दधमानं महासप्प झानन विज्ञाय करुणारससमख्याते श्रीपर्णीवृत्त, अमरः । डो भगवानाह । अहो मूढ! तपस्विन : किं दयां बिना वृथा कफ-कफ-पुं० केन जोन फाति फल-म । शरीरस्थेधातुभेदे, कष्ट करोषि । यतः “ कृपानदीमहातीरे, सर्व धर्मास्तृणाङ्कराः। तस्यां शोषमुपेतायां, कियन्नन्दन्ति ते चिरम्"। इत्याकाय क्रद्धः वाच । “कफो गुरुर्हिमः स्निग्धः प्रक्लेदी स्थिरपिच्चिनः" ।त. कमठोऽवोचत् । राजपुत्रा हि गजाश्वादिक्रीमा कतु आनन्ति स्य कार्यश्च " श्वतत्वशीतत्वगुरुत्वकएरु-स्नेहोपदेहस्तिमितत्वलेपाः । उत्सधसंपानचिरक्रियश्च, कफस्य कर्माणि वदन्ति धर्म तु वयं तपोधना एवं जानीमस्ततः स्वामिनाऽग्निकुएमात् ज्वाकाष्ठमाकृप्य कुगरेण द्विधा कृत्या च तापव्याकुलः सर्पो तझाः" ।१ । स्था०४०॥ निष्काशितः । स च जगवन्नियुक्तपुरुषमुखान्नमस्कारान् प्रत्याकबंध-कबन्ध-" मनुष्याणां सहस्रेषु, हतेषु हतमूर्द्धसु । त ख्यानं च निशम्य तत्वणं विपद्य धरणेन्छो जातः । अहो ज्ञानी दावेशात्कबन्धस्या-देकोऽमूर्धा क्रियान्वित " इत्युक्तलक्षणे शि शति जनैः स्तूयमानः स्वामी स्वगृहं ययी । कमऽपि तपस्तरोहिते क्रियासहिते देहे, अस्त्री० श्रमरः । तदेहस्य शिरःशू प्या मेघकुमारेषु मेघमाझी जातः १५४ कल्प० । ती । जले, न्यत्वेऽपि धायोः सम्यग्निस्सरणानावेन वायुना संबन्धसत्वा न. "जडो तु होत्ति कमढं खरंटो न जो मझो तं कमद नाति" त क्रियानव इति बोध्यम् प्रश्न अध) ३ अ० । मेघे, जले, नि० चू० ३ ०। साधुजनप्रसिद्धे पात्रनेदे, "नुजामो कमढराक्षसभेदे, वाच०। गादिसु" कमढगं णाम करोटगागारं अगेण कज्जति कमकं कजध-कभन्न-न। कपाले, घटादिकपरे,श्रणअन्तका"कन नाम शुष्कोपेन सबाह्यान्यन्तरमितकांस्यकट्टोरकाकारं साधुखसंगाणसंगिए" नपा०२०॥ भाएडम्' नि० चू० १०।। कम-क्रम-पुं० क्रम नावकरणादी यथायथं घञ् मान्तत्वाद कमढग-कमक-न० चोलपट्टकस्थाने प्रायिकाणां धाय्ये च. द्धिः । पादविकेपे पादे, हेमचं० । वाच । पिं० अर्हत्क्रमाम्नोज तुर्दशे औधिकोपधौ, " चउद्दसे कमढए होति" वृ०३ उ० । जवमहतां श्रीतीर्थकराणां क्रमाश्चरणाः । व्या०५ अध्या० । पौर्वापर्ये, द्वा०२६ द्वारा परिपाट्याम् अनुक्रमे, नि० चू०१ ला "कमढगं अटुगमयं कंसभायएसंगणसंचियं चोलपटाये श्रा० म०प्र० । वृथा उत्त० । श्राव०। विशे०। "पुवाणुपुचि न चोहसमं भवति" नि०चू२२ उ०। तच्चाष्टकमयमेकैकं संयकमो" यह क्रमस्तावत् द्विविधः पूर्वानुपूर्वी वा पश्चानुपूर्वी च । तीनां निजोदरप्रमाणेन विज्ञेयम् वृ०३ उ०। अनानुपूर्वी किन कर्म एव न भवति असमन्जसत्यात, विशे० कमढगमाणं जदर-प्पमाए ओ संजईण विष्णेयं । मादायाम, स्था० ४ ग०। नियमे च वृ० १ उ०। सइ गहणं पुण तस्स, बहुसगदोसा मा तेसि ॥२४॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमढग कमगमानं स्वरूपसंबन्धि उदरप्रमाणतो निजोदप्रमाणेन संयतीनां विशेयं सदा ग्रहणं पुनस्तस्य कमठकस्य लहुसकदोषादित्यल्पत्वापराधादासां संपतीनां लम्पनग्रहणी अमा कुशलपरिणामभावादिति गाथार्थ पं० प०। कमी-कमडीतून स्थिले कम मन्दयती व्य० २ उ० । कम (न) णक्रमण न० कमु पादविशेषे भावे खुद गती प्रतिक्रमणं प्रति निवृत्तिक्रमे प्रवर्तने आ०० अ० प्र० श्राचार | ( पडिक्कमण शब्दे तथा व्याख्या) कमणि क्रमणीय त्रिक्रमणा, श्री० । कमणिया क्रमणिकाखी० उपानहि ० २४० म कयोरपि उपानहशब्दे चारणमुरुम) कमणि-क्रमणी मत्- त्रि० सोपानत्के, “गविज्ज भूमिगतोइ कमणिलो " भूमिगतान् गर्व करोति श्रहो श्रहं सोपानत्को व्रजामि वृ० ३ उ० ॥ कमपि क्रमभिन्न- न० त्रयोदशे सूत्रदोगे, यत्र क्रमो नाराध्यते यथा स्पर्शनरसनत्राणचक्षुः श्रोत्राणामर्थाः स्पर्शरसमरूपशब्द इति वक्तव्ये स्पर्शरूपशब्दगन्धरसा इति व्यात् इत्यादि विशे० ॥ श्र०म० द्वि । अनु२ । यथा वा " धरणीधरहीन्द्रपसागरान् गम्भीरनयनमुखवत स्थैर्जयति " वृ० १ २ । ( २४२ ) अभिधानराजेन्द्रः । - - कममरण - क्रममरण - न० पूर्वस्पृष्टाकाशप्रदेशादिभ्यो ऽयवधा नतः प्राणपरित्यागे कर्म० । कमल-कम-कम-वृपदिकसंस्कृत | । देव प्राकृते प्रा० लोख पैशाच्या ८४७ इति सस्थाने लकारविधानात् पैशाच्यामप्यादेशान्तरं न० प्रा० । हरिविशेपे, "फुण्यकमल कोमलुम्मीलियं "फुलं विकसितं तथ तदुत्पत्य कमलो हरिष कम लोलकली तयो कोमलमकठोरं दानां नयनयोधोन्मीलितमुन्मीलनं यत्र प्रभाते ततथा "अनु० प० शा० । विपा० ॥ श्र०। दशा०] सूय्यंवोध्ये, ज्ञा० श्र० । पद्मे, न० कल्प० । कमलं पद्ममरविन्दं पङ्कजं सरोजमिति पर्यायाः विशेष | चतुरशीतिकमलातसहस्रे ००२ पाडु कालस्य पिशाचेन्द्रस्याग्रमहिष्याः कमलाया श्रनन्तरपूर्वमनुव्यभवे पितरि पुं० शा० २ श्र० । धूर्ताख्यान कल्पितपोतनपुरे - सिंह राशः कमलाभार्थ्याने दर्शकम भेजे, सलिले ताप्रे, हेम० सारखपचिणि । पाटलवर्णे, तद्वति, त्रि० वाच० । कमलायाः कालाप्रमहिष्याः सिंहासने, न० ज्ञा० २ श्रु० | २ पाहु० । कमलकलाब कपझकलाप पुं० कमलस, कल्प० । कमला रिरायमाण-कमलकलापपरिराजमान त्रि०कमलसमूहेन सर्वतः शोनमाने, प० । कमलतिल या कमलतिलका स्त्री० रथसेनस्य रायसी कुक्षिसम्भवाय पुण्याम, दर्श० (तस्याः स्वयंवरादि ममणवल्लह शब्दे) कमलप्पभ-कमलमन - पुं० स्वनामख्याते श्राचार्ये, कमलप्र कमलगागम भाचार्येण तीर्थमान दोन विफलीकृतमिति प्रने । अकस्मात् स्त्रीसंघट्टे जाते लिङ्गिभिः प्रश्ने कृते चतुर्थवतस्य प्रशस्तत्व त्रिरूपण त्र कृणप्रमादेन तद्विफलीकृतमिति प्रसि द्धिः श्येन० ३ उला० १६४ प्र० । कमलप्पा- कमलपना-श्री० कास्य पिशाचेन्द्रस्याप्रमदि घ्याम्, स्था० ४ ० न० (तस्या भवान्तर मथामहिसी शब्दे उक्तम्) | कमलमियमकााग्रमहिष्याः कमलादे कमलायां राजधान्याम् स्वनामख्याते नवने, झा० २ श्रु० । कमलमिरी - कमलश्री - स्त्री० कालाग्रमहिष्याः कमलाया मातीरे [झा० २ ० । कमल से कम छन् पुं० कमनाम हिनि, सं०] (यस्य सुता पद्मिनी - पउमिण शब्दे कथा ) तस्यान्यस्य वा ऋऋजुव्यवहारे यथार्थ मणने कथा ध० र० । o ★ कमला कमला- स्त्री० कालस्य पिशाचेन्द्रस्याग्रमहिष्याम, स्था० [४] वा० भ० भवान्तरमामडिसी शब्द उत्तम तया कल्पितपोतनपुर राजवजूसिंहस्य भार्य्यायाम, दर्श०] लक्ष्म्याम्, को बनाम जम्बीर उन्दोनेक वृत्तरत वल्यां द्विषोक्तम् यथा “ द्विगुणनगणसहितः, सगण इह हि विदितः। फणिपतिमतिचिमा शितिष जयति कमला सुन प्र मिता सगवाविदिता कम गुरुते यदि सत् कवयो विलसन्मतयो - ऽभिधया कमलेति तदा कन्यन्ते" वाचः। कमलागर - कमलाकर - पुं० कमलानामाकर उत्पत्तिस्थानम् । पद्महाय अनुपान समूदे च वाचण कमलागरखं (मं) मोहय-कमलाकर (प) एक छ कमलाकरा = हदादयस्तेषु यानि खएमानि नलिनीखरामानि कमवनानि तेषां बोधको यः स कमलाकरख एमबोधकः कमलवन" Яа विकाश के सूर्ये "कमनागरमोहम्म रे २ श० १०० । कल्प० । दशा० । झा० । 3 - कमलापीड (मेल) कमी (मेघ) पुं० [जरतचक्रवर्तिखनापतिसत्के अश्वरत्ने, जं० ३ वñ० । ( तस्य वर्णको भरह शब्दे आपातकिरातविज्ञाधिकारे। कमलामेला कमनाला त्री० देवपुत्रनिषधात्मज्ञसागरचजार्थ्यायाम्, विशे० आ० म० प्र० आ० क० आव० ( (aस्या उद्वाहः अनुयोग शब्दे उदाहृतः ) । कमलासण - कमलासन - पुं० कमलमासनं यस्य । चतुरानने प्रह्मणि, वाच० । पुत्रि किर नारयरिसिणा कमलासगो पु ०२८० ॥ मग कमलाङ्गन० चतुरशीतिमहातसह ज्यो कमाल-कमलोबल १० कमलपरिमरिमते, "खरं या क - - मलुजलं " व्य० ४ ० । कमवोच्छिज्ज माणबंधोदया क्रमव्यवच्छिद्य रोदया श्री० क्रमेण पूर्वबन्धः पचादय इत्येषं रूपेण व्यवद्यमान वासवाः कमप्यविद्यमानवत्योदयाः कर्मप्रकृतिभेदे, पं० सं०। (ताश्च पमशीतयः कम्म शब्दे वक्यन्ते ) । कमसो क्रमम् कारकार्थवृते क्रमात् वीप्सायां शब् कर्म कर्म क्रमेण क्रमेणेत्यादिकेऽर्थे याच पं० [सं० कमेलगागम-क्रमेलका गम-पुं० उष्ट्रागमने श्रजां निष्काशयतः 2 - - Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमेलगागम कमेल कागमन्यायः । यथा कश्चित् क्षेत्रादजां निष्काशयति तत्र aasaari निष्काशितायामपि राष्ट्र आपतितः अस्य वि. यो यथा जिनानामस्य महानिशीथप्रामाण्यस्यायुपगमस्वीकारे सत्यन्ति जिनप्रतिमाचनस्य तत्रानुज्ञानात् प्रति० ॥ कम्प - कम्प - पुं०कपि चलने घञ् मकारस्यानुस्वारः तस्य । घर्गेत्यो वा = १ । ३० इति मः । प्रा० । गात्रादिचलने, वेपथौ, वाच० । कम्नी (म्ही) र कश्मीर पुं० कलश० ईरन-मुट् च आत्कश्मीरे १। १०० । इति श्रात्वम् । कश्मीरे स्नो वा ८ । २ । ६० इति कर्म - शब्दे संयुक्तस्यम्भो वा जयति कम्भारो कम्हारो । देशभेदे, प्रा० । ततो जवादी कच्छा० अण् काश्मीरः तद्देशभवे, श्रि० कामनोऽस्य वशिला अम् पित्रादिक्रमेण तद्देशवा सिनि त्रि खियामुजपत्र की तस्य राजन्यपि तथा बहुषु तु तस्य लुक् कश्मीराः स्त्रियां जर्गादित्वान्न बुकू वाच० ॥ कम्म-कृ-धा० कुरेण केशकल्पने, चुरे कम्मः । ४७२। विषयस्य कृतो कम्म श्यादेशो या भवति 'कम्म' क रोति इत्यर्थः प्रा० ॥ कर्मन्न० निर्वर्तते प्रभृति का विशे । भावे मनिन् क्रियायाम्, स्था० ४ ठा० उत्त० | आचा विशे० | योगो व्यापारः कर्म क्रियेत्यनर्थान्तरम् विशे० । सूत्र० । भ्रमणादिक्रियायाम्, स्था०वा० उत्त० प्रव० उपा० | दश० । आचार | प्रश्न० । संयमानुष्ठानरूपायां क्रियायाम, सूत्र० १ ४० १ अ० । अनुष्ठाने, श्राचा० १० ५ अ० १ ३० | सूत्र० | सावद्यानुष्टाने, सूत्र० १० २० । (१) वयं तेषां स्वरूपनिरूपण । ( २ ) कर्म्मशिल्पयोर्भेदः । (३) नैयायिकारणयोः कम्मैपदार्थनिरूपणम् । (४) नामादितः कर्मनिक्षेपमुक्या त्या शब्दादित आधाकम्मैस्वरूपनिरूपणम् । (५) कम्प्रेस्वरूपनिरूपणम (६) पुण्यपापात्मकस्य कर्मणः सिद्धिः । (७) श्रकर्म्मवादिनो मास्तिकस्य मतनिराकरणम् । (८) कम्मैणोत्वं तत्राक्षेपपरिहारी च (2) जनविवेश पुनरपि कर्मसिद्धि निरूपणम् । (१०) जीवकर्मणोः संबन्धः । (११) कोरनादित्यम् । (२४३) अभिधानराजेन्द्रः | (१२) जगच हेतुत्वं नेश्वरादीनाम | (१३) स्वभावादिनिराकरणम (१४) पुण्यपापयात्मकत्यविचारः । (१५) पुयपापयोः पृथग्लक्षणम् । (१६) कर्मणश्चतुर्विधत्वम् । (१७) कर्मणि या दिगोष्ठामा हिल नियमतनिरूपणम् । (१८) कर्मविषये शास्त्रान्तरीयमतं निरूप्य पुनरपि पूर्वोक्तचतुसिंधत्वमेव प्रतिपादितम् । (१६) कृतकृत्यादिना वैविध्यं निरूप्य नामादितः अष्टविधत्वम् । (२०) कर्मण: अयावयन्धिप्रकृतिनिरूपणम् । (२१) ध्रुवाभ्रुवबन्धिनीनां भङ्गकास्तयोः सत्तानिरूपणं च । (२२) कर्मणः सर्वातिदेशातिप्रकृतिद्वारनिरूपणम् । (२३) क्षेत्रविपाकादिप्रकृतिप्रतिपादनम् । (२४) प्रकृतीनां पतयः । कम्म (२५) ज्ञानवदर्शनावरणमोहनीयादी प्रकृतीस्तो वच्य स्थित्यादिप्ररूपणम । (२१) सम्पादन] मिथ्यात्व वेदनीयरूपादिवेदनीयादीनां आयुरश्च पृच्छां निरूप्य नामादिपृच्छाकलापप्रतिपाद नम् । (२७) तीराहारकद्विकषोः मतान्तरेण स्थिति निरूपणम् । ( २० ) ज्ञानावरणीयादिकर्मणां जघन्यस्थितिबन्धः कस्मिन् स्वामिनि ज्यादतिनम (२१) अविरतसम्पादन स्थितिनिरुपणम् । (३०) ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः श्रविभागपरिच्छेदनिरूपणम् । (२२) कृतीनां चार प्रकृतिस्थानानि - न्तीति निरूपणम् | (३२) कर्मबन्धे कर्मप्रकृतिवन्धविचारः । ( ३३ ) किं कर्म वेदयते काः कर्मप्रकृतीनातीति उदयेन सह संबन्धस्य चिन्तनम् । (२४) उत्तरप्रकृति संवेधादिचिन्तनम् । (३५) क्रियावादिनः कर्म्मचिन्तातः प्रनष्टा इति प्रदर्श्य तन्मतनिरूपितम् । दूषणञ्च (३६) सोपक्रमनिरुपक्रमकर्मवैविध्ये उदाहरणम् । (२०) कम्मेपविचारं प्रतिपाद्य सम्यग्ज्ञानकर्मम पनि वेधनम् । (१) कर्मणीभ्यं तत्स्यरूपनिरूपणञ्च । विषयात्मालिया शुद्धं वचोत्तरम् । प्रधानं कर्म तत्रत्यं मुक्स्यर्भपतनाथपि ।। २१ । दिपवेण गोचरेणात्मना स्वरूपानुबन्धेन णेन शुद्ध त्रिधा त्रिविधं कर्मानुष्ठानं यथोत्तरं प्रधानं यद्यत उतरं तदपेक्षया प्रधानमित्यर्थः । तत्रार्थ विकर्म मु क्त्यर्थं मोको ममातो नूयादितीच्या जनितं पतनाद्यपि भृगुपायपि यादिना शस्त्रपादनगृपृष्ठपणादिपातोपायः परिगृह्यते। किं पुनः शेषं स्वाहिंसक मित्यपि शब्दार्थः । स्वरूपतोऽपि सामय-मादेयाशपलेशतः । शुभद्वितीयं तु ओकदृष्टया यमादिकम् || २२ ॥ स्वरूपत श्रात्मना सावद्यमपि पापबहुलमपि श्रादेयाशयस्योपादेयमुक्तिभावस्य लेशतः सूक्ष्ममात्रशलकणाच्छुभं शोभनमेतत् । यदायुपादेयमद्वितीयं तुस्व रूपशुकं तु लोकदृष्ट्या स्थूलव्यवहारिणो लोकस्य मतेन यमादिकं यमनियमादिरूपं यथा जीवादित्यमानानां पूरणादीनां प्रथमगुणस्थानवर्तिनाम् । तृतीयं शान्तस्यादस्तभ्यसंवेदनानुगम् । दोषहानिस्तमोनू म्ना, नाद्या जन्मोचितं परे ॥ २३ ॥ शान्ता पायादिविकारनिशेषरूपया तस्यसंवेदमनुगं जीवादितत्त्वसम्यक्परिज्ञानानुगत मदोऽयमाद्येव तृतीयमनुब कर्म आया विषयानुष्ठानासमोनू म्नाऽऽत्मघातादिनिय नाहान बाहुल्येन दोपहानिमक सामवाचकपरिहाणि भवति। यत आह । “श्राद्यन्न दोषविगम स्तमोवाहुल्ययोगत" इति परे पुन राचार्याः प्रत्रकृते । उचितं दोषविगमानुकूत्र जात्यादिकुलादिगु Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४४) अभिधानराजेन्द्रः । कम्म णयुक्तं जन्म ततो भवति । एकान्तरनिरवद्ये मोके स्वरूपतोऽती- दात् जारवाहनादिपरिग्रहः । कर्म घटकारलाहकारादिभेद वसावास्य कर्मणस्तस्याइतुत्वेऽपि मुक्तीच्चायाः कथंत्रित्सा- नायप्रधानोऽयं निर्देशो घटकारत्वलोह कारत्वादिभेदं कम्म पुनः। रूप्येप तहेतुत्वात् तद्वारतया प्रकृतोपयोगादिति हामीषामा-1 च दाब्दः पुनः शब्दार्थः शिल्पमिति । श्रा० चूअनाचार्य कर्म शयः। तदाह "तदयोग्यजन्मसंधान-मत एके प्रचकते । मुक्तावि- साचार्यकं शिल्पम यदि वा कादाचित्कं कर्मनित्यमध्यस्यमानं चापि यत् श्लाघ्या, तमःयकरी मता" । तस्याः समन्तभ- शिल्पमिति कर्मशिल्पयोर्नेदः प्रथमं जगवता प्रषभस्वामिना इत्वा-दनिदर्शनमित्यद" इति।। सर्वाणि कृष्यादीनि कर्माणि देशितानि आ०म०दि। मुक्तीच्छापि सतां श्लाघ्या, न मुक्तिमशं त्वदः। (३) न्यायमतसिद्धे पदार्थनेदे, तच्च पञ्चविधम् । " पतो कम्मं तयं च पंचविहं उक्खेवणमक्खेवणपसारणाद्वितीयात्साऽनुवृत्तिश्च, सा स्थाईदरचूर्णवत् ॥२॥ कुंचणागमण" कर्म पञ्चविधं तद्यथा उस्क्वेपणमवकपणमाकुडचनं चक्ताशयमेवाह "मुक्तीच्छापीति"द्वितीयात्स्वरूपालानुष्टानात | प्रसारणं गमनमिति।आ०मद्वि० । प्रा००। सू०प्र० । घिशे० । सा तु वृत्तिश्चोत्तरत्राप्यनुवृत्तिमती च सा दोषहानिः स्यादई. क्रियते का निर्वस्य॑ते ति कर्म । क्रियायाम, यथा कुम्नं प्रति रचूर्णवन्मएककादयत् । निरनुवृत्तिदोषविगमे हि गुरुलाघ कर्तृव्यापारः । विशे० । कतुरीप्सिततमं कर्म इति परिभाषिते वचिन्तारप्रवृत्यादिकं हेतुस्तदभावाच्चात्र सानुबन्ध एव | कारकमेदे. विशे० । यथा कुम्भकारः कर्तुरीप्सितमत्या क्रियदोपविगम इति भावः । तदुक्तम् "द्वितीयादोषविगमो, नत्वकान्तानुबन्धवान् । गुरुलाघवचिन्तादि, न यत्तत्र नियोगतः"। माणः कुम्भः कर्म । अg०११ अष्ठ । "कर्मनियों घट पव क्रियमाणफ्रियया व्याप्यमान इति" प्रा० चू०१ मा हस्तककुराजचन्धमायं त-निर्विवेकमदः स्मृतम् ।। मणि, सूत्र० १५० अ०। तृतीयात्साउनुबन्धा सा, गुरुनाघरचिन्तया ॥२५॥ (४) नामादितः कर्मनिकेपादि। तत्तस्मा सानुवृत्तिदोपविगमाददो द्वितीयमनुष्ठानं निर्विवेकं नाम उवणाकम्म, दव्वकम्मं च नावकम्मं च । विवेकरहितं कुराजयप्रप्रायं कुत्सितराजाधिष्ठितनगरप्राकारतुल्यं तत्र लुरानाकोपऽवस्यैवात्राकानदोषोपघातस्य दुर्नि- दवम्मि तिणदसिता, अधिकारी भावकम्मेणं । वारत्वादिति भावः । तृतीयादनुवन्धकानुष्ठानात्सा दोषहानिः नामकर्म स्थापनाकर्म अव्यकर्म भावकर्म चेति चतुर्दा कर्मणो सानुबन्धा उत्तरोत्तरदोषापगमावहाऽत एव दोषाननुवृत्तिमती। निकेपः । अत्र नामस्थापने कुम्मे व्यकर्मशरीरजव्य शरीरव्यतितदुक्तं " तृतीयाद्दोषविगमः, सानुबन्धो नियोगतः। " गुरुला- रिक्तं तु तृणं वा दशिकानां बन्धनं वा अपसवणमिदं तेन कुम्नघपचिन्तयेत्युपलकणमेण दृढप्रवृत्याद। काररथकारादिगतमपि व्यकर्म मन्तव्यम् । यद्वा व्यतिरिक्तं . गृहाधनूमिकाकल्प-मतस्तद् कैश्चितुच्यते । व्यकर्म विधा कर्मप्रव्यं नोकर्मव्यं वा कर्मव्यं ज्ञानावरणानदग्रफलदवेन, मतमस्माकमप्यदः ॥२६।। दि कर्मपर्यायमापन्नाः कर्मवर्गणापुत्राः। यद्वा यज्ञानावरणादिअतः सानुबन्धदोपहानिकरत्वात्सनृतीयमनुष्ठानं कैश्चित्तीर्था के कर्मबळं न तावदुदयमागच्चति तत्कर्मव्यं नोकमनव्यमातरीयगुडस्याद्यभूमिका दृढपीच्यन्धरूपा तत्कल्पं तत्तुल्यमुद कुञ्चनप्रसारणोत्पेकणावोपणगमननेदात्पञ्चधा । जावतो द्विअफग्नदत्वेनोदारफदायित्चम तस्याद एतदुक्तमस्माकमपि मत धा । भागमतो नोआगमतश्च श्रागमतः कर्मपदार्थज्ञाने आपम्। यथा हि गृहाद्यमिकाप्रारम्भदाय नोपरितनगृहं नङ्गफलं युक्तं नोश्रागमतोऽष्टविधो ज्ञानावरणादिकर्मणामुदयः वृ०४ सपद्यते किं तु तदनुवन्धप्रधानमेव तत्वसंवेदनानुगतमनुष्ठानमु. १०। ६३४ पत्रा नि०चूग प्राचाराङ्गनिर्युक्तौ तु॥ त्तरोत्तदोपविगमावहमेघ नवति न तु कदाचनाप्यन्यथारूप- नामवाणाकम्मं, दव्वकम्म पोगकम्मं च । मिति द्वा०१३ द्वा० । “कर्माक्लकृष्णं, योगिनविविधमितरे- समुयाणरियाव हिय, आहाकम्यं तवोकम्मं ॥ २ ॥ पाम" शुजफदं कर्मयागादिशक्यं,अजफदं ब्रह्महत्यादि, कृ किइकम्मजावकम्मे, दसविहकम्मे समासो होइ । णमुनय संकीर्ण, शुक्लकृष्णं तत्र शुक्लं दानतपःस्वाध्यायादि अविहेण उ कम्मेण, इत्थं होइ अहिारो॥ ३ ॥ मतां पुरुगणां,कृष्णं नारकिर्ष, वृक्नकृष्णं, मनुष्याणां,योगिनां तु विसकणमिति । द्वा० १६ द्वा०। जीवनवृत्ती, नपा०१०। जी नामकर्म कमधिगून्यमनिधानमा स्थापनाकम्मै पुस्तकपविकाथै प्रारम्भे, पंचा०१ विव०।"कम्माणि तणहारगादीणि' प्रादा कर्मवर्गणानां सद्भावासद्भावरूपा स्थापना । ब्यकर्मश्रा० चू० १ ० । महारम्भादिसंपाये, स्था० ३ ० । अ व्यतिरिक्तं द्विधा द्रव्यकर्म नोव्यकर्म च । तत्र तत्र व्यकर्मनानायके कृप्यादी, स्था०५ टा। पि । कल्प० । प्रा०चू। कर्मवर्गणान्तःपातिनः पुयाः बन्धयोम्या वध्यमाना बहाश्चतु(२) अनाचार्य कर्म साचार्यकं शिल्पमथवा कादाचित्कं धोंदीरणा इति । नोऽध्यकर्म कृपिबलादिकर्म । अथ कर्मशिल्पं कादाचित्कं वा कर्म शिल्पं नु नित्यव्यापारः भ० १२ वर्गणान्तःपातिनः पुत्रा व्यकम्र्मेत्यवाचिकाः पुनस्ता वर्गणा श०५०। सर्वकालिकं कर्म तं । तत्र कर्म सिकादिव्या ति संकीर्तन्ते (आचा०) (प्रयोगकर्मसमुदानकर्मणोर्गणा स्वचिण्यासया कर्मादिस्वरूपं प्रथमतः प्रतिपादयात । स्वस्थाने अष्टच्या ) तत्र प्रयोगकर्मणेकरूपतया गृहीतानां कम वर्गणानां सम्यरा मूसोत्तरप्रकृतिस्थित्यनुनावप्रदेशबन्धभेदेनामकम्प जमणायरिओ-बदस मिप्पमन्नहानिहियं । र्यादया देशसर्वोपघातिरूपया तथा स्पृष्टनिधत्तनिकाचितावस्थकिसिधाथि जाइयं, घयलोहाइजेयं वा॥ याचस्वीकरणं समुदायः तदेव कर्म समुदानकर्म तत्र मूसप्रकृति६६ पत् अनाचार्योपदेशज सातिदायमनन्यसाधारणं कर्म त- बन्धो ज्ञानावरणीयादिरुत्तरप्रकृतिवन्धस्तूच्यते उत्तरप्रकृतिबन्धो कमेट परिगृहाने । यन पुनः कर्म सातिदायमाचार्योपदेशजं प्र. झानावरणीयं पञ्चधा मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलावरणदा. ग्थनिबर्ड वा तत् शिल्पम् । तत्र कृषिवाणिज्यादि प्रादिश- तू प्राचा०१ श्रु०प्र०१०। (पिथिककर्म शरियावहिय Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४५) अन्निधानराजन्छः। कम्म शब्दे) अधुना प्राधाकर्म यदाधाय निमित्तत्वेनाश्रित्य पूर्वो. नो जीवं विना युक्तिमत् ।" अन्यत्राप्युक्तम् । “अात्मत्वेनाशिक्तमतप्रकारमपि कर्म वध्यते तथाऽऽधाकर्मेति । तच्च शब्दस्प- एस्य, वैचित्र्यं तस्य यशात् । नरादिरूपं तच्चित्र-मदएं कर्मसंशरसरूपगन्धादिकमिति तथा हि । शब्दादिकामगुणविषया- झितम्" पौराणिका अपि कमसिद्धि प्रतिपद्यन्ते तथा च ते पाहु। भिष्वङ्गवान् सुखलिप्सुर्मोहोपहतचेताः परमार्थासुखमयेष्वपि "यथा यथापूर्वकृतस्य कर्मणः,फलं निधानस्थमिवावतिष्ठते । तथा सुखाध्यागेप विदधाति तयुक्तम् । “दुःखात्मिकेषु विषयेषु सु. तथा तत्प्रतिपादनोद्यता, प्रदीपहस्तेघ मतिः प्रवर्तते" यत्त. खाभिमानः, सौख्यात्मकेषु नियमादिषु दुःखबुद्धिः । उत्कीर्णव- पुराकृतं कर्म, न स्मरन्तीह मानवाः। तदिदं पारामध्येष्ट देव. पदपतिरिवान्यरूपा, सारूप्यमेति विपरीतगतिप्रयोगात् " ए. मित्यभिधीयते । मुदितान्यपि मित्राणि, सुकुमाश्चैव शत्रवः । न तमुक्तं भवति । कर्मनिमित्तनूता मनोझेतरशदादय एवाधाक' है।मे तत्करिष्यन्ति, यन्न पूर्वकृतं वया। बौछा अथाहुः “इत म्त्युच्यन्ते इति । तपःकर्म तस्यैवाटप्रकारस्य कर्मणो बद्ध- एक न वा कल्पे, शक्त्या में पुरुषो हतः । तेन कर्मविपाकेन , सृष्टनिधत्तनिकाचितावस्थस्यापि निर्जरातुनूतं बाह्यान्यन्तर- पादे विज्ञोऽस्मि निक्कयः । तदपि च कर्मपुद्गलस्वरूपं प्रतिपभेदेन द्वादशप्रकार तपःकर्मोच्यते। कृतिकर्म तस्यैव कर्म- त्तव्यं नामूर्तममूर्तत्वे हि कर्मणः सकाशादात्मनामनुग्रहोपघाणोपनयकारकमई सिकाचार्योपाध्यायविषये अवनामादिरूपमि- तासंजवात् श्राकाशादिवत् यदाह ( कर्म०) " तुल्यप्रतापोद्यतिनावः कर्म पुनरबाधामुखय स्वोदयनादीरणाकरणेन चोदी- मसाहसानां, केचिद्वजन्ते निजकार्यसिकिम । परेन नां मित्र.नि. माः पुत्राः प्रदेशविपाकेन्यो भवक्केत्रपुद्गलजीवेष्वनुभावं ददतो गद्यतां मे, कर्मास्ति हित्वा यदि कोऽपि हेतुः ॥१॥ विचित्रदे. नावकर्मशब्दनोच्यन्ते इति । तदेवं नामादिनिकपण द्रव्याधा- हाकृतवर्मागन्ध-प्रजावजातिप्रभवस्वभावाः केन क्रियन्ते भवनेऽ. कर्मोक्तमिह तु समुदानकर्मोपात्तेनाष्टविधकर्मणाधिकार इति ॥ निवा-श्चिरन्तनं कर्म निरस्य चित्राः॥२॥ विवध्य मासानव गाथासकलेन दर्शयति । " अविहण उ कम्मण, पत्थ होईप- गर्भमध्ये, बहुप्रकारैः कवयादिभावैः । उद्वर्त्य निष्काशयते सहिगारेत्ति" गाथा कण्ठ्यमिति गाथाद्वयपरमार्थः । कर्मनिके- विन्याः, को गर्भतः कर्म विहाय पूर्वम्” यो० विका प उक्तः । आचा० १ श्रु० २ ० १ २० । [७] अकर्मवादिमतनिराकरणम् । (५) श्रथ कर्मशब्दं व्युत्पादयन्नाह । पौालिकावानिति नास्तिकादिमतमत्यसितुम् । तथा दिना स्तिकस्तावन्नामिष्टवान् स प्रष्टव्यः किमाश्रयः परलोकिनोऽभाकीर जिएण हेउहिं. जेण तो भंत ! जामइ कम्मवि। बादप्रत्यक्त्वाद्विचारातमत्वात्साधकाभावाद्वा हटान्नावो भवेक्रियते विधीयते अजनचूर्णपूर्णसमुझकवनिरन्तरपुमयनिचि. तू । न तावत्प्रथमः पक्कः परसोकिनः प्राक्प्रसाधितत्वात् । नाप्यते लोके कीरनीरन्यायेन वयपः पिण्डबका कर्मवर्गणा व्य प्रत्यवत्वाद्यतस्तत्तवाप्रत्यकं सर्व प्रमातणांचा प्रथमपके त्वमात्मसंबकं येन कारणेन ततस्तस्मात्कारणात्कर्म भएयते । इति पितामहादेरप्यभावो नवच्चिरातीतत्वेन तस्य तवाप्रत्यक्त्यात् संबन्धः । केन क्रियते इत्याह । जीवन जन्तुना तत्र जीवति इ तदनावे नवतोऽप्यभावो भवेदित्यहो नवीना वादवैदग्धी । द्वितीजियपञ्चकमनोवाक्कायवनत्रयोच्चासनिःश्वासायुर्वक्वणान् दश यकल्पोऽप्यल्पीयान् सर्वप्रमातृप्रत्यक्षमएनिष्ट क्व निष्णातं नवप्राणान् यथायोगं धारयतीति जीवः । क इत्थंभूत इति चेत तीति वादिना प्रत्येतुमशक्तः प्रतिवादिना तु तदाकसनकुशनः उच्यते । यो मिथ्यात्वादिकलुषितरुपतया सातादिदनीयादि केवली ककीकृत एव विचाराकमत्वमप्यक्कम कर्कशतकस्तर्यकर्मणामनिनिर्वर्तकस्तत्फलस्य च विशिष्टसातादेरुपभोक्ता नर माणस्य तस्य घटनात्। ननु कथं घटते तथा हि तदनिमित्तं कादिजवेषु च यथा कर्मविपाकोदयं संसर्ता सम्यगदर्शनझानचा सनिमित्तं वा भवेत् । न तावदनिमित्तं सदा सत्वासत्वयोः रित्रसंपन्नरलत्रयाच्यासप्रकर्षवशाच निःशेषकर्मीशापगमतः प प्रसङ्गात् । “नित्यं सत्वमसत्वं वा, हेतोरन्यानपेक्क्षणात्" यदि रिनिर्वाता स जीवः सत्त्वः प्राणी आत्मत्यादिपर्यायाः । उक्तं च पुनः सनिमित्तं तदापि निमित्तमदृष्टान्तरमेव रागद्वेषादिकषाय"यः कर्ता कर्मनेदानां,भोक्ता कर्मफत्रस्य च । संसर्तापरिनिर्वाता, कानुष्यं हिंसादिक्रिया वा प्रथमे पकेऽनवस्था व्यवस्था । द्विस ह्यात्मानन्यत्रकण" इति। कैः कृत्वा जीवेन क्रियते इत्याह । हेतु तीये तु न कदापि कस्यापि कर्माभावो भवेत् । तता रागरे। निर्मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगबवणश्चतुर्भिःसामान्यरूपैः । “प षकषायकामुष्यस्य सर्वसंसारिणां नावात् । तृतीयपकोऽप्यसमिणीयत्तणनिन्हव-पोसग्वघाय अंतराएण | अच्चासायणया पपादः पापपुण्यहेतुत्वसम्मतयो हिंसाईत्पूजादिक्रिययोयनिए, आवरणदुर्ग जीवो जण" इत्यादिनिर्विशेषप्रकारैरिहैवव चारदर्शनातू । कृपणपशूपरंपराप्राणप्रहारकारिणां कप:घटनाक्ष्यमाणः। तदयमत्र तात्पर्यार्थः। क्रियते जीवन हेतुभिर्येम कारणेन पटीयसां पितृमातृमित्रपुत्रादिघोहिणामपि केषांचिचपलचाततः कर्म नण्यत इति ॥ कर्म उत्तर पुण्यपापात्मके कर्मणि,सा रुचामरश्वेतातपत्रपार्थिवश्रीदर्शनात् । जिनपतिपदपङ्कजपूजा[६] अथ कर्मसिलिं दर्शयति । परायणानां निखिलप्राणिपरंपरापारकरुणाकृपाराणामपि केषांकथमेतत्सिकिरिति चेत् श्हात्मत्वेनाविशिष्टानामात्मनां यदिदं चिदनेकोपवदारिख्यमुखाक्रान्तत्वावलोकनादिति । अत्र ब्रूमः देवासुरमनुजतिर्यगादिरूपं दमापतिरङ्कमनीषिमन्दमहादि- पक्षत्रयमप्येतत्कवीक्रियत एव प्राच्यादृष्टान्तरवशयोगो हि प्राण। रिजादिरूपं वा वैचित्र्यं तन्न निर्हेतुकमेष्टव्यमा प्रापत्सदा नावा- रागद्वेषादिना प्राणव्यपरोपणादिकुर्वाणः कर्मणा बाध्यते। न च नावदोषप्रसङ्गः। “नित्यं सत्वमसत्वं वा, देतोरन्यानपेकणात्" प्रथमपकेऽनवस्थादौस्थ्यमूसवयकरत्वान्नावात् । वीजादूरादिसहेतुकत्वान्युपगमे च यदेवास्य हेतुस्तदेवास्माकं कर्मेति मत- सन्तानवत् सन्तानस्यानादित्वनष्टत्वात् । द्वितीयेऽपि यदि मिति तत्सिरिः । यदबोचामः श्रीदिनकृत्यटीकोमा जीवस्थापना. कस्यापि कर्माभावो न भवेन्मा भूत् सिद्ध तावदष्टं मुक्तिवादे धिकारेऽमुमेवार्थम "क्ष्मानृषङ्ककयोर्मनीषिजड्यो सपनाप- तदनायोऽपि प्रसाधयिष्यते । तृतीये तु या हिंसावतोऽपि योः, श्रीमदुर्गतयोबझाबनवतोनी रोगरोगार्तयोः । सौनाम्यासु-। समकिरईत्पूजावतोऽपि दारिद्याप्तिः सा क्रमेण प्रागुपात्तस्य भगत्वसंगमजुषैस्तुल्येऽपि नृत्वेतरम् । यत्तत्कर्म निबन्धनं तदपि पापानुबन्धिनः पुण्यस्य पुण्यानुबन्धिनः पापस्य च फलम् । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिधानराजेन्द्रः। ततक्रियोपात्तं तु कर्म जन्मा तरे फशिष्यतीति नात्रनियतकार्य- ७ परिण। एतत्सर्व विस्तरेण जगवता श्रीवीरेणाग्निमृति द्वितीय कारणभावव्यभिचारः । साधकाजावादपि नादृष्टाभावः । प्राक् गणधरं प्रति साधितम तस्मिन् जगवानाह॥ प्रसाधितप्रामाएययोरागमानुमानयोस्तत्वसाधकयो वात् । किं मन्ने अत्थि कम्मं, न यादु नस्थित्ति संसओ तुम्नं। तथा च शुभः पुण्यस्य अन्नः पापस्येत्यागमः । अनुमानं तु वेयपयाण य अत्यं, नयाणसी तेसिमो अत्यो । साधनानां कार्यविशेषः । सहेतुकः कार्यत्वात् कुम्भवत्" दृष्टश्च हे अग्निभूते ! गौतम ! स्वमतन्मन्यसे चिन्तयसि यदुत किसाध्वीसुतयः-4मयोस्तुल्यजन्मनोः । विशेषो वीर्य विज्ञान यते मिथ्यात्वादिहेतुसमान्वितेन जीवेनति कर्म ज्ञानावरणादिकं राग्यारोग्यसंपदाम्" न चायं विशेषो विशिष्टमदृष्टकारणमन्त तत्किमस्तिवोत नस्वयमनुचितस्तव संशयःअयं हि नवति विरुरेण यदूचुर्जिनभगणितमाश्रमणमिश्राः" जो तुलसाहणाणं, वेदपदनिबन्धनो वर्तते तेषां च वेदपदानां त्वमर्थ न जानासि फले विसेसो न सो विणा हे । कजत्तणो गोयम ! घडोब्व तेन संशयं करोपि तेषां च वेदपदानामयं वदयमाणकणोऽर्थ देऊ य से कम्म ” अथ यथैकप्रदेशसंजवानामपि बदरीकाट शति अत्र नाष्यम् । कानां कौटिल्याजवादिविशेषो यथा चैकसरसीसनूतानामपि कम्मे तुह संदेहो, मनसि तं नाणगोयराईयं । पङ्कजानां नीडधवनपाटनपीतशतपत्रसहस्रपत्रादि दस्तथा तुह तमणुमाणसाहण-मणुलश्मयं फलं जस्स | शरीरिणामपि स्वभावादेवाय विशेषो भविष्यति तदप्रशस्यं हे श्रायुष्मन्नग्निभूते ! शानावरणादिपरमाणुसंघातरूपे ककएटकपङ्कजादीनामपि प्राणित्वेन परेषां प्रसिस्तद्दष्टान्तावष्ट मणि तव संदेहो यतः प्रत्यक्षानुमानादिसमस्तप्रमाणात्मम्जस्य पुत्वादाहाबकतारोहदोहदादिना वनस्पतीनामपि प्रा कशानगोचरातीतमेतत्त्वं मन्यसे तथाहि न तावत्प्रत्यक्ष कर्म णित्वेन तैः प्रसाधनात् । अथ गगनपरिसरे मकरकरितरगतरङ्ग अतीन्द्रियत्वात् खरविषाण वदित्यादिप्रमाणविषयातीतत्वं प्राकुरङ्गभृगाराङ्गाराद्याकाराननके प्रकारान् बिभ्रत्यत्राणि न च ग्वज्जीवस्येव कर्मणोऽपि समानप्रायत्वात् भावनीयमिति ततान्यपि चेतनानि यः समन्तानि तद्वत्तनुन्नाजोऽपि राजरङ्कादयः दैतत्सौम्य !मा मंस्थास्त्वं यतो मम तावत्प्रत्यक्षमेव कर्म सन्विति चेत्तदसत् तेषामपि जगदपवशादेव देवपदवीपरिसरे तवाप्यनुमानं साधनं यस्य तदनुमानसाधनं वर्तते तत्कर्म विचरतां विचित्राकारस्वीकारातू कश्चायं स्वन्नावो यद्वशाजगद्वै न पुनः सर्वप्रमाणगोचराततिं यस्य किमित्याह । (अणुभू चिध्यमुच्यते । किं निर्हेतुकत्वं स्वात्महेतुकत्वं वस्तुधर्मो वस्तु इमयं फलं जस्सति) सुखदुःखानामनुभूतिरनुभवनं तन्मयं विशेषो वा आद्यपके सदा सत्वस्यामत्वस्य वा प्रसङ्गः द्वितीये तदात्मकं फलं यस्य शुभाशुभकर्मण इति अनेन वेदमनुमानं आत्माश्रयत्वं दोषः। अविद्यमानो हि भावात्मा कथं हेतुः स्यात् चितमस्ति । सुखदुःखानुभवस्य हेतुः कार्यत्वादङ्करस्येवेति । विद्यमानोऽपि विद्यमानत्वादेव कथं स्वोत्पाद्यः स्यात् । वस्तु अथ यदि भवतः प्रत्यक्ष कर्म तर्हि ममापि तत्प्रत्यक्षं कस्मान्न धर्मोऽपि दृश्यः कश्चिददृश्यो वा दृश्यस्तावदनुपनम्नवा भवतीति चेत्तदयुक्तं न हि यदेकस्य कस्यचित्प्रत्यक्षं तेनापरधितः । अदृश्यस्तु कथं सत्वन वक्तुं शक्यः अनुमानात तु स्यापि प्रत्यक्षेण भवितव्यं न हि सिंहसरभहंसादयः सर्वतन्निर्णये अनुमानमेव श्रेयः वस्तुविशेषश्चेत् स्वनावो स्यापि लोकस्य प्रत्यक्षा न च ते न सन्ति बालादीनामपि त. नूतातिरिक्तो नूतस्वरूपो वा प्रथमे मृतॊऽमूर्तो वा मूर्तो त्सर्वस्य प्रसिद्धत्वात्तस्मादस्ति कर्म सर्वज्ञत्वेन मया प्रत्यऽपि दृश्योऽश्यो वा दृश्यस्तावत् दृश्यानुपक्षम्नबाधितः श्र क्षीकृतत्वाद्भवत्संशयविज्ञानवदिति न च वक्तव्यं त्वयि सर्चदृश्यस्त्वदृएमेव स्वभावनाषया बभाषे|अमूर्तः पुनः परः परलोकि शत्वमस्मान् प्रत्यसिद्धम्। “कह सचमुत्तिम, जेणाहं सब्धसंनः को नामास्तु न चादृष्टविघटितस्य तस्य परलोकस्वीकार ई सयच्छेदी। पुच्चसु वजं न जाणसी"त्यादिना प्रागेव प्रतिवित्यतोऽप्यदृष्टं स्पष्टं निष्टङ्कयते । भूतस्वरूपस्तु स्वभावो नरेप्रदरिद्रतादिवसदृश्यभाजोर्यमबजातयोरुत्पादकस्तुल्य एव | हितत्वात्कार्यप्रत्यक्षतया भवतोऽपि च प्रत्यक्षमेव कर्म । विलोक्यते इति कौतस्कुतस्तयोर्विशेषः स्यात् तद्दर्शनात्तत्राह तथा घटादिकार्यप्रत्यक्षतया परमाणव इति यदुक्तम् । “ तुह एनूतविशेषानुमानेन नामान्तरतिरोहितमदृष्टमेवानुमितिसिक तमणुमाणसाहण" भिति तदेवानुमानमाह । मिष्टं मितोऽपि बानशरीरं शरीरान्तरपूर्वकमिम्मियादिमत्वात्त अस्थि सुह सुक्खहेक, कज्जायो बीयमंकुरस्सेव । रुणशरीरवत् । न च प्राचीननवातीततनुपूर्वकमेवेदं तस्य त सो दिहो चेव मई, वतिचारओ न तं जुत्तं ॥ द्भवावसान एव पदुपवनप्रेरितातितीवचिताज्वलनज्वालाकहा जो तुझसाहणाणं, फले विसेसो न सो विणा हे। पप्लुष्टतया भस्मसा-द्भावादपान्तरालगतावभावेन तत्पूर्वकत्वा-1 कजतागो गोयम ! घमोव्य हेऊ य सो कम्म । नुपपत्तेः न चाशरीरिणो नियतगर्भदेशस्थानप्राप्तिपूर्वकः शरीर- प्रतिप्राणिप्रसिद्धयोः सुखदुःखयोर्हेतुरस्ति कार्यत्वादङ्करस्येव ग्रहो युज्यते नियामककारणाभावात् स्वप्नावस्य तु नियामकत्वं वीजमिति । यश्चेह सुखदुःखयोर्हेतुस्तकमवत्यस्ति तदिति प्रागेध व्यपास्तं ततो यच्छरीरपूर्वकं बालशरीरं तत्कर्ममयमि- स्यान्मतिः स्रक्चन्दनाङ्गनादयःसुखस्य हेतवो दुःखस्य त्वहिति पौफलिकं चेदमदृष्टमेष्टव्यमात्मनः पारतन्त्र्यनिमित्तत्याझिग- विषकएटकादय इति दृष्ट एव सुखदुःखयोहंतुरस्ति किमहडादिवत् क्रोधादिना व्यभिचार प्रति चेन्न तस्यात्मपरिणामरू- पृस्य कर्मणस्तद्धेतुत्वकल्पनेन । न हि दृष्टपरिहारेणादृष्टकपस्य पारतन्त्र्यस्वभावत्वात्तन्निमित्तभूतस्य तु कर्मणां पौबि- ल्पना सङ्गत्वमावहत्यतिप्रसङ्गात्तदयुक्तं व्यतिचारात्तथा हि कत्वात् एवं सीधुस्वादनोद्भवचित्तवैकल्यमपि पारतन्यमेव त- (जो तुल्लेत्यादि ) इह यस्तुल्यसाधनयोरिटशब्दादिविषयकेतुस्तु सीधुपौलिकमेवेति नैतेनापि व्यभिचारः ततो यद्योग- सुखसाधनसमायोरनिष्टार्थसाधनसंप्रयुक्तयोश्च द्वयोबहनांचा रात्मविशेषगुणलक्कणं, कापिझैः प्रकृतिविकाररूपं, सौगतैर्वास- फले सुखदुःखानुभवनलक्षणविशेषस्तारतम्यरूपो दृश्यते । नास्वजावं, ब्रह्मवादिभिरविद्यास्वरूपं, चादृष्टमवादि । तदपास्तं नासौ अदृष्टमपि हेतुमन्तरेणोपपद्यते कार्यत्वाद्धटवद्यश्च तत्र विशेषतः पुनरमीषां निवेधो विस्तराय स्यादिति न कृतः रत्ना- विशेषाधायको दृष्यहेतुस्तमौतम! कर्मेति प्रतिपद्यस्वेति । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्म समानान्तरमा कर्मसाधनाया। बालसरीरं देहं तर इंदियामत्ता | जो जुहोमिकम् ॥ शरीरान्तरपूर्वकमार्थ वासशरीरमिन्द्रियादिमत्या शरी यदिति आदिशब्दासुखः खित्यप्राणापाननिपोन्मेजय i यतो न जन्मान्तरासीतशरीरमेकं तस्याप्यनन्तरागतसत्क स्वानुपपत्तेः नयाहरीरिनो निगदेशस्थानप्रासपूर्वका श राहो युज्यते नियामक कारणाभावात् नापि स्वभावो नि यामकस्तस्य तिरस्करिष्यमाणत्वात् यच्चे बालशरीरस्य पूर्वेशरीरान्तरं तत्कर्मेति मन्तव्यं कार्म्मण शरीरमित्यर्थः जोपणकम्मर्ण आहारे जो इत्यादि वचनादिति । अनु मानान्तरमपि तत्सिकये प्राह ॥ किरिया , दाणाईणं फलं किसीएव्व । तं चिप दाणाश्फलं मणयसावा जइ बुकी ॥ किरिवासामा उ जं फलमस्सावि तं मयं कम् । तस्स परिणामरूत्रं, सुहदुक्खफलं जो भुज्जो ॥ (दाणा सति इह दावादिक्रियाणां फजमस्ति ( किरिया उति सतनारायांना चदर्शनादित्यर्थः । यथा कृषिक्रियायाः । इह या चेतनारम्यक्रिया तस्याः फलं दृष्टं यथा कृष्यादिक्रियायाः चेतनाख्याश्च दानादिक्रियास्तस्मात्फलवत्यः यश्च तासां फलं तत्कर्म्म । या तु निष्फ ar क्रिया सा सचेतनाख्धाऽपि न भवति यथा परमाण्वादिक्रियाः सचेतनारब्धाश्च दानादिक्रियास्तस्मात्फलवत्यः । स्यादे " 33 ( २४७ ) निधानराजेन्द्रः । 66 कान्तिकोऽयं हेतुबेतनारन्यानामपि कासादिक याणां निष्कत्वदर्शनान्तदयुकं करवानिप्रायेणैव तदारम्भात्। यथ कचिचिष्फत्वमपि दृश्यते तत्सम्पानाद्यभावेन सामग्रीवैवाद्य मयदिसामग्रधिकतथा दानादिक्रिया अपि निष्फला इष्यन्त एवेत्यदोषः । यदि चात्र परस्यैवंभूता बुकः स्यात्कर्या इत्याद ( तं चियेत्यादि) तदेव दानादिकिया णां फलं यस्मादशापिसादादिदमुकं जबति कृपयादिक्रियाः दृष्टवान्याद्यवातिफला दृष्टा: श्रतो दानादि पिष्टमेव मनसादादिकं अं भविष्यति। किमदूकमैणसानेन तोयं देतुः व त्र वयं ब्रूमः “किरिया समझाउ इत्यादि" अस्यापि मनः प्रसादस्य यत्फलं तन्मम कर्म्म सम्मतम् । ननु मनःप्रसादस्यापि कथं फन्नमभिधीयत इत्याह ( किरियासामभाउ ति ) ६६मुक्तं नवति मनःप्रसादोऽपि क्रियासाम्यान्मनः प्रसादस्यापि फलेन भवितव्यमेव यच्च तस्य फलं तत्कर्मैवेति न कश्चिद्यनिचारः । यतः कर्म सकस्मात्किमित्याह सुखदुः फलं (जयति मुखर पं फलं सुख दुःखफलं यतो यतो यस्मात् यस्मात्कर्म्मणः सकाशाज्जायते । कथं नूयः पुनरपि कथंभूतं यत्सुखः खफलमित्याह । तस्यैव कर्मणस्तजनकत्वेन यत्परिणमनं परिणास्तदुपमिति । एतदुकं नयति यतः काकणं तत्परिणतिरूप सुख प्राणिनां समुपजायते तत्कर्म मन प्रसादक्रियाया श्रपि फलमभिमतम् । श्रड् नन्यनन्तरगाथायां दानादिक्रियाफलं कर्मेति वदता दानादिक्रियैव कर्म्मणः कारणमुक्तम् । अत्र तु म. असादक्रिया तत्कारणमुच्यत इति कथं न पूर्वापरविरोध इति । सत्यं किंतु मनःप्रसादादिनिकम्मेनः कारणं के कम्म वनं तस्या अपि मनः प्रसादादिक्रियाया दानादिक्रियैव कारणमतः कारणकारणे कारणोपचाराददोष इति । पुनरपि माशङ्कय परिदारमाह । होज माणो विती, दाणा किए ज फलं युकी तं न निमित्तत्ता उ, पिंमध्य पमस्स विले ॥ न परस्य यद्येवंभूता वृद्धिः स्यात्कथंनृता इत्याह । ननु मनोकृतिर्मनः प्रत्यादि कियाया दृष्टरूपा दानादिक्रियैव फलं न एं कर्मेति नावः । अयमभिप्रायः दानादिक्रियातो मनःप्रसा दाइयो जायन्ते तेभ्यमानादिपरिणामः पुनरपि दानादिक्रियां करोति एवं पुनः पुनरपि दाक्रिपतेः सेम नःप्रसादादेः फलमस्तु तत्तु कम्मेति ज्ञावः । दृष्टफल मात्रेणैव च रितार्थत्यात्मिकल्पनेनेति हृदयम्। तदेतन्न तो मि मित्सत्यान्मनः प्रसादादिक्रियां प्रति दानादिक्रियायानिमि रणत्वादित्यर्थः । यथा मृत्पिएको घटस्य निमिष्ठं तस्य फलं वक्तुमुचितं दूरविरुरूत्वादिति पुनरपि दृष्टान्तीकृत कृप्यादिक्रियावटम्भेनैव सर्वासामपि क्रियाणां दृफन्नमात्ररूपतामेव साधयन्नाह प्रेरकः । एवं पिफिया, किरिया न कम्मफला पसत्ता ता । सा तं मेतफले चिय, जह मंसफल पशुविणासो ॥ नन्वेवमपि मयुपन्यस्तकृत्यादिक्रिया निदर्शनेनाति स दानादिकापि क्रिया एकदेव प्रशस्ता नकर्म भवति । यथा कृप्यादिक्रिया दृष्टमात्रैणैवावसितप्रयोजना नवति तथा दानादिक्रिया अधिपादिकं किंचिदृष्टमात्रेणैवावसित प्रयोजना नयति तथाफलमस्तु किमएका कल्पनेन किं यह नासा किया सर्वाऽपि सम्मानफलेय मायि युज्यते नाट एफला यथा एमांसमात्र पविनाशकिया न हि पशुचिनाशनक्रियामाचफलार्थ कोऽप्यारभते। किंतु मांसभक्षणार्थमतस्तन्मात्र फलैव सा तावतैवावसितप्रयोजनत्वादेवं दानादिक्रिपया अपि मानिन्यदिति । अस्यैवार्थसमर्थनार्थे कारणान्तरमाह । 1 पायं च जीवलोगो, वह दिफलानु वि किरियासु । दिफला संमा, वट्टनासंखनागे पि ॥ लोकोऽपि च प्रायेण दृष्टमात्रफलास्वेव कृषिवाणिज्यादिक्रियासुप्रासु बुननादि कियासु तदसंख्येयभागोपि न वर्त्तते कतिपयमात्र एव लोकस्ता प्रत्य र्थः । ततश्च हिंसादीनामशुभक्रियाणामदृष्टफलाभावाच्छुकियाणामपि दानादीनामदृष्टफलाभावो भविष्यति इति परानिप्रायः । इति भगवानाह । सोम्म ! जो च्चिय जीवा, एय दिट्ठफलास पवति । अफलाय तम्दा, दिडफलाओ नि परिवजा ॥ दे सौम्य ! यत एव जीवा न टफ स्वनकिया प्रवर्त्तन्ते अफला पुनर्दानादिका किया स्पल्या प्रय तेनैव तस्मादेव कारणात्ता अपि कृषिहिंसादिका दृष्टाक्रियाः अदृष्टफला अपि प्रतिपद्यस्वाभ्युपगच्छ । इदमुक्तं भवति । यद्यपि कृषिहिंसादिक्रिया कर्त्तारो दृष्टफन मात्रार्थमेव ताः समारभन्ते नाधम्र्म्मार्थ तथापि ते अधर्म्मलणं पापरूपमदृष्टफलमश्नुवत एव अनन्तसंसारिन्यानुपपतेस्तेद यानिमित्तमनभिषितमप्यष्टं पापकृणं फलं [अन्त Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४० ) अभिधानराजेन्द्रः । णामेव कम्म सारं परिभ्रमन्तो ऽनन्ता तिन्ति दानादिक्रियानुष्ठातार स्तु स्वरूपाः श्रदृष्टुं धर्मरूपं फलमासाद्य क्रमेण मुच्यन्त इति । ननुदानादिकियानुष्ठानिदधमाखितं तसे पां भवतु वैस्तु कृषिहिंसादिक्रियाकर्तृभिरफ नाखितं तत्तेषां कथं प्रयतीति चैतदयुकं कार स्वकार्य जनयत् कस्यायाम किंकरणतया स्वकार्ये जनयत्येव | प्रज्ञातमपि हि कोडवादिवीजं क्वचिद्भदेशे पतितं जल्लादिसामग्री सद्भावेऽविकलकारणतां प्राप्तं च श्रा शंसाभावेऽपि स्वकार्य जनपद अधिक कारणभूताका कृषि हिंसादयोऽधम्मं जनस्तरमाशंसात कोपयुज्यते नच दानादि क्रियायामपि विवेकिनः फन्नाशंसां प्रकुर्वते तथाप्यविककारणतया विशिष्टतरमेघ ता धर्मफलं जनयन्ति तस्माच्छुजाया श्रनुभायाश्च सर्वस्या अपि क्रियाया श्रदृएं शुभाशुभं फलमवेवेति प्रतिपत्तव्यम् अनन्तसंसारिजी यस सान्यथानुपप तेरिति स्थितम् । तदेव प्रतिपादयितुमाह । इयरहा अहिरहिया सधे मुज अयने । दिट्ठारंभी चेव, किझेसबद्दल नवेज्जाहि ॥ इतरथा यदि कृषिहिंसाद्यद्युभक्रियाणामदृष्टं फलं नाभ्युपगम्यते तदा तत्कर्त्तारो दृष्टफलाभावान्मरणानन्तरमेव सर्वेऽप्ययत्नेन मुच्येरन् संसारकारणाभावान्मुक्तिं गच्छेयुस्ततश्च प्रायः शून्य एव संसारः स्यादित्यर्थः । यश्चादृष्टारम्भोऽदृष्टफलानां दानादिक्रियाणां समारम्भः स एव वेशबहुतः संसारं प्रति भ्रमणकारणतया पुरन्तः स्यात् । तथाहि ते दानादि क्रियानुष्ठातार दनुवन्धि विदयुस्ततो जन्मान्तरे द्विपाकमनुजवन्तस्ते प्रेरिताः पुनरपि दानादिक्रियास्वेव प्रवरस्तो भूयस्तत्फलसंचयात द्विपाकानुभूतिः पुनरपि दानादि किया इत्येवमनन्तसन्ततिमयः संसारस्तेषां जयेत्तस्यादित्यमप्यस्तु कात्र किलास्माकं बाधा श्रत्रोच्यते । इयमत्र गरीयसी भवतां बाधा यकृषिहिंसाद्यद्युम क्रियानुतृणामसंन्यासाचे सर्वेषां मुक्ति गमनेोऽपि सारे कामोपभ सत्फलविपाकानुनविनश्येत दानादिशुभदातारः इन विपाकानुनयितारपण केवलाः सर्वोपज्येरन् । न चैवं तस्मात्किमित्याह । जमणिभोगजाजो, बहुतरगा जं च नेह मइपुत्रं । अणिफलं, कोइ विकिरियं समारभइ || तेण परिवज्जकिरिया, अदिगंतियफला सव्वा । दिगंतफला, सावि अदिहाणुभाने य ।। यस्मादनिभोज बहुतरा यांखः कम्मविपाकजनिताः दुखनाज एव प्राणिनः प्रचुरा इहोपलभ्यन्ते शुभकर्मविपाकनिबन्धनसुखानुभवितारस्तु स्वल्पा पति ना तेन तस्माकारणात्सौम्य ! प्रतिपद्यस्व गुना श्रयुजा वा सर्वा अपि क्रियाएं शुभाशुभं कम्मरूपमेकान्तिकं फलं यस्याः सारकान्तिकफलेत्युत्तरगाथायां संबन्धः इदमुक्तं येन दुःखिनोऽत्र बहवः प्राणिनो दृश्यन्ते सुखिनस्तु स्वल्पास्तेन ज्ञायते कृषिवाणिज्यसादिक्रियानिबन्धना शुभकरुपा दृष्टविपाको दु विनामितरेषां तु दानादिक्रिया हेतु शुभकर्मकाविया क इति व्यत्ययः कस्मान्न भवतीति चेडुच्यते । अद्भुत क्रियारम्ि अन त्यानुष्ठातृणामेव स्वपति नन्वशुन क्रियारम्भकाणामपि यद्यदृष्टफलं नवति तत्किमिति दानादिक्रियारम्भक यतदारम्भकोऽपि कु यो दृश्यत इत्याद जंचनेत्यादि) यस्माप्रेमनिष्टर्भ क यस्याः सा अनुष्टानिष्टका तामित्यंत क्रियां मतिपूर्वमाशंसायुकपूर्विक कोऽपि समारभत तो न कोऽपि तदाशंसां कुर्वाणो दृश्यते तस्मात्सर्या किया - कान्तिकफलेति प्रतिपस्येति पुनरपि कर्षत्ता (तिल) दृष्टं धान्यादेषामादिकमकान्तिक मनवश्यंभावि फलं यस्याः कृषिवाणिज्यादिक्रियायाः सादृष्टानैकान्तिकता सर्वाऽपि क्रियाभयति। सर्वथा अि क्रियायादृष्टफलं तावदेकान्तेनैव यति दृष्टनैकान्तिकमेव कस्यचिद्भवति कस्याश्चित्यर्थः तदृष्ट फलस्यानैकान्तिकत्वमदृष्टानुजावेनैवेति प्रतिपत्तव्यम् । नहि समानसाधनारब्धतुल्यक्रियाणां द्वयोर्बहूनां वा एकस्य दृष्टफविचायस्य तु तद्देतुमन्तरेणोपपतिना एतदेव प्रागुतमेवेति किमि प्रयासेन प्रागेव साथतमेव कर्म्म कया युक्त्येत्याह “अहवा फक्षा उ कम्मं, कज्जन्तओ पसाहियं पुत्रं । परमाणवो घमस्स व, किरियाण फलं त यं भिन्नं" अथवा "जो तुलसाहाणं, फले विसेसो न सो विणा देवं । कज्जन्त्तणो गोयम, ! घमो व हेऊ य सो कम्म" मित्यस्यां गाथायां प्रागस्माभिः कर्म्म प्रसाधितमेव कुत इत्याह । फसाधनानां फले विशेषस्तस्मादित्यर्थः ततोऽपि विशेषात्का किरियात कर्ज मि सर्वासामपि क्रियाणामवृष्टं फलमित्येवमिदापि साम्पते। कथं तान्यः क्रियायो नि कर्मणः कार्य किया कारणत्वात्कार्यकारणी परस्परं नेदादिति भावः विशे० आ० म०धि० । । (0) कर्मणो मूर्त तत्र तायदापपरिद्वारी प्राद आइ नए मुत्तमेव पुणं पिय कलमुतिमत्ता इह जह मुचचाओ, पमस्स परमायवो मुता ॥ आमेरको ननु यदि कार्याणां शरीरादीनां दर्शनाकारण भूकम् साध्यते तर्हि कार्याणां मुन्यात्कमपि मूर्त प्रति आचार्य उत्तरमाह " मुत्तं चिपत्यादि " यदस्माभिः यत्नेन साधयितव्यं तद्भवतापि परसिकान्तानभिज्ञयाल बुद्धितयानिष्टाऽऽपादनानिप्रायेण साचितमेष तथा दिवमपि मोमे सत्कार्यस्य पारीरादेर्य तस्य तस्य का रणमपि मूर्त्त यथा घटस्य परमाणवः । यदमूर्त्त कार्य न तस्य कारणं यथा ज्ञानस्यात्मेति समवायिकारणं बेदाधिक्रियतेन निमित्तकारणभूता रूपालोकादय इति श्राह । ननु सुखकर्मकार्यमस्तेयमन हि तदयुतेन वा मूर्त्तत्वमपि सामा कम्म चिककारणं समधिक्रियतेन नितिकारणं सा मत्वादात्मैव समवायिकारणं कर्म पुनस्तेषामन्नपानादिविषादि यक्ष निमित्तकारणमेवेोप इति । कण मूर्त्तत्वसाधनाथ देवन्तराख्याह । तह सुसंचितीओ, संबंधेवाओव वज्भवलाहारणाओ, परिणामात्र य विलेयं ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४० ) अभिधानराजेन्द्रः । कम्म आहार वानलदिव, घमो व्त्र नेहाइकयबलाहाणो । स्त्रीरमिवोदाहरणाई कम्मरूवित्तगमणाई | इट् प्रथमगाथोपन्यस्तहेतुचतुष्टयस्य द्वितीयगाथायां यथासंयं चत्वारो दृष्टान्ता ऽष्टव्यास्तत्र मूर्त्ते कर्म्म तत्संबन्धे सुम्नादिसं वित्तरि यत्संबन्धे सुखादि संवेद्यते तम्मूर्त्त दृष्टं यथा अशनाद्याहारः यथा न तत्संबन्धिनादि संविदस्ति यथाकाशादिसंबन्धि तस्मात्तत्संबन्धिसुखादिसंवेदना कस्मेति ॥ १ ॥ थापत्संबन्धे दोषो भवति स दृष्टं यथा नो मि तिवेदनस्तस्मान्मृतमिति ॥ २ ॥ - था मूर्त कर्म्म आत्मनो ज्ञानादीनां च तद्धर्माणां व्यतिरिक्तस्वे सति बाह्येन पकचन्दनानादिना बनस्थोपचयस्याधीयमा नत्वाद्यथा स्नेहाचादितबलो घट इह यस्य नात्मविज्ञानादेः सतो बाह्येन वस्तुना बलमाधीयते तन्मूर्त्त दृष्टं यथा स्नेहादिना पाधीयते व बाह्यमित्यादिहेतुने वस्तुनिकम्मे उपचपणं व तस्मात-मूर्णमिति । ३ तथा मूर्त्त कर्म्म आत्मादिव्यतिरिक्तत्वे मतिपरिणामत्वात्कीरमिवेति | ४ । एवमादीनि हेतूदाहरणानि कर्मणो रूपित्वगमनादीनि । अत्र परिणामित्वासिकिमाशङ्कयोत्तरमाह । अहमयमसिको अर्थ, परिणामओ चिसो विकज्जाओ । सिबो परिणामो से, दहिपरिणामादिव पयस्स ॥ श्रथ परिणामित्वादित्यसिकोऽयं हेतुरिति मतं जवतः । एतदप्ययुकं यतः सोऽपि परिणामः सिरुः (कजाओति) कम्म कार्यदेः परिणामित्यदर्शनादित्यर्थः । ३ यस्य कार्य परिणा म्युपलभ्यते तस्यात्मनो अपि परिणामित्वं निश्चीयते यथा दस्तकादिभावेन परिणामात्पयसोऽपि परिणामित्वं विज्ञायत एवेति । [] जगत् कर्मसिद्धिः तत्र यत्पूर्वे सुखःखादियेचित्र्यदर्शनात केतुभूतं कर्म्म साधितं तत्र पुनरप्यग्निनू तिराह । जाइविरागाणं, जह वेचित्तं विद्या वि कम्मेण । तह जड़ संसारीणं, हवेज्ज को नाम तो दोसो ॥ आह ननु यथाऽनादिविकाराणामन्तरेणापि कर्म वैचित्रयं यते तथा तेनैव प्रकारेण संसारिजीवस्कन्धानामि दिभावेन वैविध्यं यदि कर्म विनापि स्याद्यतः को नामदोषो भवेन्न कोऽपीत्यर्थः । भगवानाह । कम्मम्मि व को भेओ, जह बज्झक्खंधचित्तया सिद्धा । तह कम्म पोग्लायपि, विचित्तया जीवसहियाएं || विकाराणां गन्धर्वनगरेन्द्रधनुरादीनां गृहदेवाकुलाकारतरुकृष्णानीतरादिभावेन वैषम्यमिष्यते सीम्य वा स्यापि शब्दाचाहिं कर्मण्यपि को भेदः को विशेषो येन तत्र वै नाभ्युपगम्यते । न च हन्त ! यथा सफललोकप्र क्षणामधर्वपुरदण्डादीनां वाास्कन्धानां वि चिषता भवतोऽपि सिद्धा तथा तेनैव प्रकारेणान्तराणामपि कर्म्मस्कन्धानां पुफलमयत्वे समानेऽपि जीवसहितत्वस्य विशेपवतो वैचित्र्यकारणस्य सद्भावेऽपि सुखदुःखादिजनकरूपतया विचित्रता किमिति नेष्यते यदि हाम्रादयो वा बाह्यपु नानारूपतया परिणमन्ति तर्हि जीवैः परिगृहीता सुतरां तथा परिणामस्यन्तीति भावः । कम्म एतदेव भाषयति । वाणचित्तया जइ, पडिवन्ना कम्मणो विसेसेल । जीवाणुगयस्स मया, जत्तीए वि चित्तनत्थाएं || यदि हि जीवापरिगृहीतानामपि वाद्यानामनादिफलानां ना नाकारपरिणतिरूपा चित्रता त्वया प्रतिपचात जीवानुगतानां कर्म्म फलानां विशेषत एवास्माकं भवतश्च सा सम्मता भविष्यति । भक्तयो विच्छित्तयस्तासामिव चित्रन्यस्तानामभिप्रायश्चित्त्रकरादिशिल्पिजीवपरिगृहीतानां लेप्यकाष्टकम्मीजुगतपुरलानां या परिणामचित्रता दिवसा परिणतेन्द्रधनुरादिपुलपरिणाम चित्रता सकाशाद्विशिरैवेति प्रत्यक्षत एव दृश्यते। तो जीषपरिगृहीतायेन फलानामपि सुखदुःखादिवैचित्र्यजननरूपा विशिष्टतरा परिणामचित्रता कथं न स्यादिति । अत्र परः प्राह । तो जइ तामेतं चिय, हवेज का कम्मकप्पणा नाम । कम्पनचिय सएडपरम्भंवरा नवरं ॥ एवं मन्यते परो पथभ्रादिविकाराणामिव कलानां विचित्र परिणतिरभ्युपगम्यते। ततो वा सफलत नुमात्रमेवेदं सुरूपकुरूप सुखदुःखादिभावत एवाभ्रादिविकारद्विरूपतया परिणमतीत्येतदेवास्तु का नाम पुनस्तदेखि यहेतुभूतस्यान्तरङ्गगुणकल्पस्य कम्र्म्मणः परिकल्पना स्वभावादेव सर्वस्यापि पुलपरिणामविश्वस्य सिद्धत्वादिति भगवानाह ( कम्मं पीत्यादि ) श्रयमभिप्रायः यद्यभ्रादि विका राणामि तनोविश्यमभ्युपगम्यते तर्हि ननु कम्मति रेव काम्शरीरमेवेत्यर्थः केवलं सक्ष्णतराती दभ्यन्तरा य जीवेन सहातिसंचिता यथाऽनादिधिकारबाह्यस्थूलतो तो वैचित्र्यमभ्युपगम्यते तथा कर्म तनोरपि तत्किन्नाभ्युपगम्यते इति भावः । श्रप्रेर्यमाशङ्कय परिहारमाह । को तर विणा दोसो, लाए सव्वा विप्पमुक्कस्स । देहग्गहणाजावो, तो य संसारवोच्छ्रित्ती ॥ प्रेरका ग्राह ननु वाह्याया: स्थादियं प्रयत्वादेवाप्रादिविकारवदन्युपगच्छामः श्रन्तरायास्तु कर्मरूपायाः सू दमतनोर्वैचित्र्यं कथमिच्छामस्तस्याः सर्वथाऽप्रत्यक्षत्वात् । भ सदनभ्युपगमे दोषः कोऽध्यापति ततोऽपरे ताज्युपगन्तव्या तर्हि निवेद्यतां कस्तया विना दोषोनुषज्य ते । श्राचार्यः प्राह । मरणकाले स्थूलया दृश्यमानतन्दा सर्वथा विप्रमुक्तस्य जन्तोरभवान्तरगत स्थूल तनुग्रहणनिबन्धनभूतां सूदमकर्मतनुमन्तरेणात देहमणामणो दोषः समापयते न हि निष्कारणमेव शरीरान्तरग्रहणं प्रयुज्यते ततश्च देदान्तरग्रहणानुपपत्तेर्मरणानन्तरं सर्वस्याप्यशरीरत्वादयोनैव संसाव्ययः स्यातोऽपि च किं स्यादित्याद सच्चे विमोची, निकारणओ व्य सव्यसंसारो । जवमुक्का च पुणो, संसरणमखासासो ॥ ततः संसारव्यवच्छेदानन्तरं सर्वस्यापि जीवराशमी कापत्तिर्भवेत् । श्रथाशरीराणामपि संसारपर्यटनं तर्हि निष्कारण एव सस्यापि संसारः स्यामुक्ता च सिद्धनामित्यं पुनरकरमानिष्कारण एव संसारपातः स्यात्तथैव च तनुसंसरणं ततश्व मोकेऽप्यनाश्वास इति ॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५०) अभिधानराजेन्द्रः। जीवकर्मणोः सम्बन्धस्तत्र पुनः प्रकारान्तरेण प्रेयमाह। अनादिः कर्मणः सन्तानः इति प्रतिज्ञा देहकर्मणोः परस्पर मुत्तस्सामुत्तमया, जीवण कहं हवेज संबन्धो । हेतुसद्भावादिति हेतुः बीजाङ्करयोरिवेति दृष्टान्तः । यथा सोम! घमस्स व नभसा, जह वा दबस्स किरियाए॥ बीजेनाडूरो जन्यते अकरादपि क्रमेण बीजमुपजायते एवं देहेन कर्म जन्यते कर्मणा तु देह इत्येवं पुनः पुनरपि परस्परमनाननु मूर्स कमेति प्राग भवद्भिः समर्थित तस्य च मूर्तस्य च क. र्मणोऽमूतेन जीवेन सह कथं संयोगलकणः समवायसबन्धः दिकालीनहेतुदेतुमद्भावादित्यर्थः । वह ययोरन्योन्य हेतुहेतुमस्यादतः कर्मसिद्धावप्येतदपरमेव रन्ध्र पश्यामः । नगवानाह द्भावस्तयोरनादिसन्तानो यथा बीजाङ्करपितृपुत्रादीनां तथा च सौम्य ! यथा मूर्तस्य घटस्यामूर्तेन नभसा संयोगलक्षणः सं देहकर्मणोः। बन्धस्तथा अत्रापि जीवकर्मणोः । यथा वा द्रव्यस्थाङ्गल्यादेः ११ततोऽनादिकर्मसन्तान इति वेदोक्तद्वारेणापि कर्मसाधयन्नाह । क्रियया आकुचनादिकया सह समवायसवणः सवन्धस्तथात्रा कम्मे वा सइ गोयम ! जमग्निहोत्ताइसग्गकामस्स । पिजीवकर्मणोरयमिति । वेयविहियं विहीणइ, दाणाइफलं च सोयाम्मि । (१०) प्रकारान्तरेण जीवकर्मणोः संबन्धसिद्धिमाह । कर्मणि वा सति गौतम ! अग्निहोत्रादिना स्वर्गकामस्य थेअहवा मञ्चक्ख चिय, जीवोव निबंधणं जह सरीरं । दविहितं यत्किमपि स्वर्गादिफलं तहिन्यते स्वर्गादेः शुभकचिट्ठइ कप्पयमेवं, नवंतरे जीवसंजुत्तं ॥ महेतुत्वात्तस्य च भवतोऽनन्युपगमाहोके च यद्दानादिक्रियाअथवा यथेदं बाह्यं शरीरं जीवोपनिवन्धन जीवेम सह संबन्धः णां फलं स्वर्गादिकं प्रसिधं तदपि विहन्येत अयुक्तं वेदे "किरिप्रत्यकोपजन्यमानमेव तिष्ठति सर्वत्र चेष्टते । एवं भवान्तरं ग याफलनावा उ दाणारं ण फलं किसी एब्वेत्या" दिना प्रतिविचता जीवेम सह संयुक्तं कार्मणशरीरं प्रतिपद्यस्व । अथ ब्रूषे हितत्वादिति । विशे० ( ३० ६ पत्र०) प्रा० म० । धम्माधर्मनिमित्तं जीवसंबळं बाह्यशरीरं प्रवर्तते तर्हि पृच्छा अत्र प्रसङ्गातू मो भवन्तं तावपि धर्माधम्मो मृत्तौ वा भवेसाममूर्ती वा । य वत्थस्स णं ते ! पोग्गलोवचए किं सादीए सपज्जवदि मूर्ती तर्हि तयोरप्यमूर्तेनात्मना सह कथं संबन्धः । अथ सिए सादीए अपज्जवसिए अणादिए सज्जवसिए अणादीतयोस्तेन सहासौ कथमपि जवति तर्हि कर्मणोऽपि तेन सार्ध- ए अपज्जवसिए ? गोयमा! वत्थस्स णं पोग्गलोवचए सामयं कस्मान स्याद् । अथामृतौ धर्माधम्मौ तर्हि बाह्यमूर्तस्थूनशरीरेण तयोः संबन्धः कथं स्यान्मूर्तयोर्भवदभिप्रायेण संब. दीए सपज्जवसिए नो सादीए अपज्जवसिए नो अणादीधायोगात न वा संबद्धयोस्तयोर्बाह्यशरीरचेष्टानिमित्तत्वमु ए सपज्जवसिए नो अणादीए अपज्जवसिए । जहा णं त्पद्यतेऽतिप्रसङ्गाद् । अथामूर्तयोरपि तयोर्बाह्यशरीरेण मूर्तेन नंते ! बत्थस्स पोग्गलोवचए सादीए सपज्जवसिए नो सासहेप्यते संबन्धस्तहिं जीवकर्मणोस्तत्सनावे कः प्रद्वेष इति । दीए अपज्जवसिए नो अणादीए सपन्जवसिए नो अणादी___ अथ परावकेपपरिहारौ प्राह । ए अपज्जवसि ए तहा णं जीवाणं कम्मोवचए पुच्छा गोयमुत्तणामुत्तिमओ, उवघायाणग्गहा कह होज्जा। मा ! अत्येगश्याणं जीवाणं कम्मोवचए सादीए सपजजह विमाणाईणं, मारायाणो सहाईहिं ।। वसिए अत्थेगपए अणादीए सपज्जवसिए अत्यंगइए ननु तिमता कर्मणाऽमूतिमतो जीवस्य कथमाहादररितापा अणादीए अपज्जवसिए नो चेव णं जीवाणं कम्मोवचए द्यनुग्रहोपघातौस्यातांनामूर्तस्य मनसो मूतैर्मलयजज्वलनज्वासादिभिस्तौ युज्यते इति भावः । अत्रोत्तरमाह "जह विमाणाई सादीए अपज्जवसिए से केणटेणं ? गोयमा ! इरियावहिणमित्यादि" यथा अमूर्तानामपि विज्ञानविविदिषां धृतिस्मृ- यवंधयस्स कम्मोवचए सादीए सपज्जवसिए भवसिफियस्स त्यादि जीवधर्माणां मूतैरपि मदिरापाने हृत्परविषपिपीलिका- कम्मोवचए अणादीए सपज्जवसिए अचवीस द्धियस्स जिभक्तैिरुपधातः क्रियते पयःशर्कराघृतपूर्णभेषजादिभिस्त्वनु कम्मोवचए अणादीए अपज्जवसिए से तेणहेणं ॥ ग्रह श्त्येवमिहापीति । एतच्च जीवस्यामूर्तत्वमन्युपगम्योक्तम् । सादिघारे "इरियावहियबंधस्सेत्यादि" र्यापथो गमनमार्गयदि वा अमूत्तोऽपि सर्वथाऽसौ न भवतीति दर्शयन्नाह । स्तत्र नवमेर्यापथिक केवलयोगप्रत्ययं कम्मेत्यर्थः । तद्वन्धकस्यो अहवा नेगंतोयं, संसारी सबढ़ा अमुत्तोत्ति । पशान्तमोहस्य कीणमोहस्य सयोगिकेवहिनश्चेत्यर्थः । ऐर्यापजमणाइकम्मसंतइ-परिणामावन्नरूवो सो॥ थिककर्मणो हि अबसपूर्वस्य बन्धनात्सादित्वम् अयोगावस्थाअथवा नायमेकान्तो यात संसारी जीवः सर्वथाऽमृत इति । यां श्रेणिप्रतिपातेधा प्रवन्धनात्सपर्यवसितत्वम न०६२०३० कुतो यद्यस्मादनादिकर्मसन्ततिपरिणामापन्नं वह्नयः पिएम (१२) नश्वरादयो जगद्वैचित्र्ये हेतवः कर्मानायुपगमे च यदीश्वन्यायनान्यादिकर्मसन्तानपरिणतिस्वरूपतां प्राप्तं रूपं यस्य स रादयो जगद्वैचित्र्यकार इष्यन्ते तदप्ययुक्तमिति दर्शयन्नाह ॥ तथा। ततश्च मूर्तकर्मणः कथंचिदनन्यत्वान्मृतोऽपि कथंचि- कम्ममणिच्छतो वा, सुछ चिय जीवमीसराई वा । जीव इति मूर्तेन कर्मणा भवत एव तस्यानुग्रहोपघाती नभ मासि देहाईण, जं कत्तारं न सो जुत्तो। सस्तु मूर्तत्वादचेतनत्वाच्च तौ न भवत एवेति । कर्मणोऽनादित्वं तत्र कथं पुनः कर्मणोऽनादिसन्तान इत्याह। कर्म वाऽनिच्चन्नग्निभूते ! गौतम ! यं कर्मरहितत्वाच्युद्ध मेव जीवमात्मानमीश्वराव्यक्तकालनियतियदृच्छादिकं वा देहासंताणोणाई उ, परोप्परं हेनहेगन्नावाओ । दीनां कतारं मन्यसे तत्राप्युच्यते । नासौ शुरुजीवेश्वरादिकदेहस्स य कम्मरस य, गोयम ! बीयंकुराणं च ।। र्ता युज्यत इति कुत इत्याद ॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५१) अनिधानराजेन्द्रः। उवगरणाभावा उ, निच्चेहामुत्तयाइ उ वा वि। त्वादेव चोपकरणसहितकर्तृनिर्वयमेव शारीरादिकं घटादिवदिईसरदेहारंभे, वितुल्लया वा णवत्था वा ।। ति गम्यत एव । नच गर्भाद्यवस्थासु कर्मणोऽन्यपकरणं घनायमीश्वरजीवादिरकर्मा शरीरादिकार्याण्यारभने उपकरणा दतश्युक्तमेव । अथ वस्तुनो धर्मः स्वनायोऽन्युपगम्यते। तथाऽ. प्यसौ यद्यात्मधर्मो विज्ञानादिवत्तहिन शरीराकारणमसाबमूजावाहएमाद्यपकरणरहितकुवाजवत नवकर्म विना शरीराद्यार. म्भिजीवादीनामन्यपकरण घटते।गर्नाद्यवस्थास्वन्योपकरणा तत्वादाकाशवदप्यनिहितमेव । अथ मूवस्तुधम्मोऽसौ तर्हि सम्नवाजुकशोणितादिग्रहणस्याप्यकर्मणाऽनुपपत्तेः। अथ वा सिद्धसाधनाकर्मणोऽपि पुङ्गलास्तिकायपर्यायविशेषत्येनारमाऽन्यथाप्रयोगः क्रियते "निच्चेठेत्यादि" नाकम्मशिरीराधारजते नि जिरज्युपगतत्वादिति । अपि च "पुरुष एवेदग्ध सर्वमित्यादि"वे. श्चेष्टत्वादाकाशवत्तथाऽमूर्त्तत्वादादिशब्दादशरीरत्वान्निप्किय दवाक्यश्रयणाद्भवतः कर्मास्तित्वसंशयः। एषां हि वेदपदानाम यमर्थस्तव चेतसि विपरिवर्तते पुरुष आत्मा एक्कारोऽवधारणे त्वात्सर्वगतत्वाद् वाऽऽकाशववे। तथा एकत्वादेकपरमाणुवदित्यादि । अत्रोच्यते शरीरवानीश्वरः सवीर्यपि देहादिकार्याण्या स च पुरुषातिरिक्तस्य कर्मप्रकृतीश्वरादेः सत्ताव्यवच्छेदार्थः । दं सर्व प्रत्यकं वर्तमान चेतनाचेतनस्वरूपं ग्वमिति वाक्यारभते नन्दीश्वरदेहारम्नेऽपि तर्हि तुल्यतापर्यनुयोगस्य। तथाह्यका नारमते निजशरीरमीश्वरो निरुपकरणत्वाद्दरामादिरहि बङ्कारे यद्भतमतीतं यच्च नाव्यं नविष्यन्मुक्तिसंसारावपि स एवेतकुशलवदिति । अथान्यः कोऽपीश्वरस्तच्चरीरारम्नाय प्रवर्त त्यर्थः । "उतामृतत्वस्येशान इति" उत शब्दोऽप्यर्थे अपिशब्दश्च ते। ततः सोऽपि शरीरवानशरीरो वा। यद्यशरीरस्ताई नारभते समुच्चये अमृतत्वस्य चामरणस्वभावस्य मोवस्येशानः प्रचरिनिरुपकरणवादित्यादि सैव वक्तव्यता अथ शरीरवांस्तहिं तच्च त्यर्थः। “यदन्नेनातिरोहति" चशब्दस्य लुप्रस्य दर्शनाच्चान्नेनारीरारम्भेऽपि तुल्यता सोऽप्यकर्मा निजशरीरं नारजते निरु हारेणारोहत्यतिदायेन वृधिमुपैति । यदेजति चनति पश्वादि यपकरणत्वादित्यादि । अथ तच्चरीरमन्यः शरीरवांस्तर्हि तच्छ- नेजति न चन्नति पर्वतादि यहरे मेादि यदु अन्तिके उशब्दोऽवरीरारम्भेऽपि तुल्यता नारभतेऽतस्तस्याप्यव्यक्तस्याप्यन्य इत्येव- धारणे यदन्तिके समीपे तदपि पुरुष एवेत्यर्थः। यदन्तमध्येऽस्य मनवस्था अनिष्टं च सर्वमेतत्तस्मान्नेश्वरो देहादीनां कर्ता । किं चेतनाचेतनस्य सर्वस्य यदेव सर्वस्याप्यस्य बाह्यतः तत्सर्व पुरुतु कर्म सद्वितीयो जीव एव निष्प्रयोजनश्चेश्वरो देहादीन्कुर्व- पपवेत्यतस्तयतिरिक्तस्य कर्मणः किन सत्ता दुःश्रख्या इति ते न्नुन्मतकल्प एव स्यात् । सप्रयोजनकर्तृत्वे पुनरनीश्वरप्रसङ्गः। मतिः । तथा विज्ञानघन एवैतेच्यो नूतेज्य इत्यादीन्यपि वेदानि नचानादिशुरूस्य देहादिकारणेच्छा युज्यते तस्यारागविकल्प- कानावप्रतिपादकानि मन्यसे त्वम् । अत्राप्येवकारस्य कर्मा. रूपत्वादित्याद्यत्र बहु वक्तव्यं गहनताप्रसङ्गात्तु नोच्यत इत्य- | दिसत्ताव्यवच्छेदपरत्वात्तदेवमेतेषां “पुरुष एवेदमित्यादीनां " नेनैव विधानेन विष्णुब्रह्मादयोऽपि प्रत्युक्ता द्रष्टव्या इति ॥ विज्ञानघनादीनां च वेदपदानां नायमर्थो यो जवतश्चेतसि वर्तते ८१३ ] स्वभावदूषणं विवङ्गः शङ्कान्तरं प्रतिविधातुमाह । तेषां पदानामयं जावार्थः पुरुष एवेदं सर्वभित्यादिभिस्तावत्पुरुष. अह व सहावं जामसि, विप्माणघणो इवेय वुत्ताहन । स्तुतिपराणि जात्यादिमदत्यागहतोद्वैतनावप्रतिपादकानि च तह वहदोस गोयम, ! ताणं वप्पमाणपयमत्थो॥ वर्तन्ते । न तु कर्मसत्ताब्यवच्छेदकानि वेदवाक्यानि हि कानि चिद्विधिवादपराणि कान्यप्यर्थवादप्रधानान्यपराणि तु अनुवादअथ "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेन्य" इत्यादि वेदवचनश्रव पराणि "तत्राग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकाम" इत्यादीनि विधिबादपराणात्स्व नावं देहादीनां कर्तारं मन्यसे । यतः केचिदाहुः “सर्वहेतुर्निराशंसं, भवानां जन्म वर्ण्यते। स्वन्नाववादिभिस्ते हि, नाहुः णि । विशे० ( अर्थवादवर्णनमन्यत्र) "तस्मात्पुरुष एवेदं सर्वभिस्वमपि कारणम्" जीवकएटकादीनां, वैचित्र्यं कः करोति हि। त्यादीनि" वेदपदानि स्तुत्यर्थवादप्रधानानिष्पव्यानि । विज्ञान घन एवैतेज्य इत्यत्राप्ययमर्थः विज्ञानघनास्यः पुरुष एवायं दूमयुरचन्द्रिकादिर्वा, चित्रः केन विनिर्मितः । कादाचित्कं यदत्रा तेन्योऽर्थान्तरं वर्तते स च कर्ता कार्य च शरीरादिकमिति स्ति, निःशेषं तदहेतुकम् । यथा कण्टकतैहण्यादि, तथा चैते सु प्राक साधितमेव । ततश्च कर्तृकार्याज्यामर्थान्तरकरणमनुमीयखादयः" तदेतद्यथा त्वं मन्यसे गौतम ! तथाऽन्युपगम्यमानं ब ते । तथाहि यत्र कर्तृकार्यभावस्तत्रावश्यंभावि करणं यथाऽयहुदोयमेव तथा हि यो देहादीनां का स्वन्नावोऽज्युपगम्यते स किं वस्तुविशेषो वा अकारणता वा वस्तुधर्मो वेति त्रयी गति स्कारादयः पिरामसद्भावे सदृशः यच्चावात्मनः शरीरादिकार्या. स्तत्र न तावद्वस्तुविशेषस्त ड्राहकप्रमाणानावादप्रमाण कस्याप्य निवृत्ती करणनावमापद्यते तत्कौनि प्रतिपद्यस्व । अपि च साज्युपगमे कापि मान्युपगम्यते तस्यापि त्वदन्निप्रायेणाप्रमाण कादव कर्मसत्ताप्रतिपादकानि श्रूयन्त एव वेदवाक्यानि तद्यथा। कत्वात् किं च वस्तुविशेषः स स्वभावो मृत्तों वा स्यादमूतों "पुषयः पुण्येन कर्मणा पापः पापेन कर्मणेत्यादि" तस्मादागवा यदि मूर्तस्तर्हि स्वन्नाव ति नामान्तरण कमैवोक्तं स्यादथामू मादपि सिहं प्रविपद्यस्व कर्मेति ।। विशे०। कल्पस्थाकाअष्ट०। स्तर्हि नासौ कस्यापि कर्ता अमूलत्वान्निरुपकरणत्वाच्च (१४] तस्य पुण्यपापद्वयात्मकत्व विचारः ॥ व्योमवदिति। नच सूर्तस्य शरीरादिकार्यस्यात्तं कारणमनुरूप मनसि पुणं पावं, साहारणमह व दो विजिन्नाई। माकाशवदिति । अथाकारणतास्वन्नाव इध्यते तत्राप्यभिदध्महे। होजन ता कम्म चिय, सजावो भवपवंचो यं ।। नन्येवं सत्यकारणं शरीराधुत्पद्यत इत्ययमर्थः स्यात्तथा च स- यह केचित्तीथिकानामयं प्रवादः पुण्यमेवैकमस्ति न पापति कारणानावस्य समानत्वाद्युगपदेवाशेषदेहोत्पादप्रसङ्गः । म् । अन्य स्वाहुः पापमेवैकर्मस्ति न पुण्यम् । अपरे तु वदन्ति । अपि चेत्थमहेतुकमाकस्मिकं शरीराद्युत्पद्यत इत्यभ्युपगतं भवे अभयमध्यन्योन्यानुविधस्वरूपभेव कर्मणि कल्पं सन्मिश्रसुखःदेतचायुक्तमेष यतो यद हेतुकमाकस्मिकं न तदादिमत्प्रतिनिय- खाण्यफलहेतुः साधारणं पुण्यपापाख्यमेकं वस्त्विति । अन्ये ताकारं यथा प्रचादिधिकारः आदिमत्प्रतिनियताकारं च श- तु प्रतिपादयन्ति स्वतन्त्रमुजय विविक्तसुखदुःखकारणं (होजरीरादि तस्मानाकस्मिकं किन्तु कर्महेतुकमेव प्रतिनियताकार-त्ति) भवेदिति । अन्ये पुनराहुसंशतः कम्मैव नास्ति स्वभाव Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) कम्म अभिधानराजेन्द्रः। कम्म सिकः सर्वोऽप्ययं जगत्प्रपञ्चः । अतस्त्वमप्येतानेव विकल्पान्म- पापे तत्कार्यभूतयोः सुखदुःखयोयौंगपद्येनानुभवाभाषादन्यसे । एतेषां च विकल्पानां परस्परविरुकत्वात्संशयदोबामा- तोऽनेनैव भिन्नकार्यदर्शनेन तत्कारणभूतयोः पुण्यपापयोर्भिरुढोऽसि त्वमिति। ननु येषां पुण्यमेवैकमस्ति न पापं तत्मते कथं प्रताऽनुमीयते इति ( होजवेत्यादि ) अथवा स्वभावत एव कस्यापि दुःखोपपत्तिरित्याह। विनापि पुण्यपापाभ्यां भवसंभूतिर्भववैचित्रस्य संभवः कैश्चिपुस्मुक्करिसे मुजया, तरतमयोगावगरिसओ हाणी। दिष्यते तदेवं दर्शिताः पश्चापि पुण्यपापविषया विकल्पाः। तस्सेव खए मोक्खो, पत्थाहारोवमाणाप्रो ॥ एतैश्च भ्रमितमनोभिः संशयो न कर्तव्यः। एकस्यैव चतुर्थवि. पुनातीति पुण्यं तस्योत्कर्षे वेशतो लेशतश्च वृद्धी शुभता ! कल्पस्यादेयत्वाच्छेषाणां चानादेयत्वादत एव प्रत्यासत्तिन्याप्रवति सुखस्यापि क्रमशो वृधिभवति । तावद्यायफुत्कृष्टं स्वर्ग यमङ्गीकृत्य पञ्चमविकल्पं तावत् दूषयितुमाह (भमईत्यादि) सुखमित्यर्थः । तस्यैव पुण्यस्य तरतमयोगापरतो हानिः भण्यतेत्रोत्तरं न स्वभावतो भवेदिति त्रयो विकल्पास्तत्र सुखस्य मुखं नवति । इदमुक्तं जवति । यथा यथा पुण्यमपचीयते यदि वस्तुरूपोऽयमिति प्रथमो विकल्पस्तर्हि तत्कोऽसौ स्व. तथा तथा जीवानां क्रमेण दुःखमुत्पद्यते यावत्सर्वप्रकर्षप्राप्तं ना भावो नास्ति अनुपलम्भात्खपुष्पवदिति । अत्राप्यनुपलभ्यरकपुःखं तस्यैव च पुण्यस्य सर्वथा कयो मोक इति पतश्च सबै मानोऽप्यस्त्यसावित्याशङ्कयाह । पल्याहारोपमानाद्भावनीयम् । तथाहि यथा पथ्याहारस्य क्रमेण अच्चतमणुवलको, वि अह तउ अत्यि नस्थि किं कम्म। वृक्षौ सुखवृहियथा च पथ्याहारस्य क्रमेण परिहारे सरोगता हेन च तदस्थि तेजो, नणु कम्मस्स वासए एव ।। भवत्येवं पुण्योपचये दुःखोत्पत्तिः सर्वथा पथ्याहारस्य परि कम्मरस वा निदाएं, होज सनावोचि होउ को दोसो। हारे च मरणवत्पुण्यक्षये मोक्ष इति । केवलपापाभ्युपगमे सुखसंभवः कथमित्याह । एइनिययगारान, न य सो कत्ता घडस्सेव ।। पावकरिसेह मया, तरतमजोगावगरिसओ सुजया । मुत्तो अमुत्तो व तो, जइ मुत्तो तो भिहाणो भित्रो। तस्से व खये मोक्खो, अपत्यनुजोवमाणाओ। कम्मति सहाप्रोत्ति य, जइ वा मुत्तो न कत्ता तो॥ इहापथ्याहारोपमानाद्वैपरीत्येन भावना कार्या। तथा हि यथा देहाणं तोमपि व-ज्जुत्ता कजाई उ य मुत्तिमया । क्रमेणापथ्यवृद्धी रोगवृद्धिस्तथा पांशयत्यात्मानं मलिमयतीति अह सो निकारणया, तो खरसिंगाहो होंतु ॥ पापं तस्य वृद्धौ दुःखवृद्धिरूपाऽधर्मता मन्तव्या क्रमेण दुःखं अह वत्थुणो सधम्मो, परिणामो तो सकम्मजीवाणं । वर्द्धते यावदुत्कृष्टं नारकदुःखभ । यथा वा पथ्यत्यागात्क्रमेण रोगवृद्धिस्तथा क्रमेण पापस्यापकर्षात्सुखस्य वृद्धिर्यावदुत्कृष्ट पुन्नेयराभिहाणो, कारणकज्जाणुमेश्रो सो। सुरसौख्यम् । यथा च पथ्याहारस्यासर्वथा परित्यागात्परमा- किरियाणं कारणाओ, देहाईणं च कज्जनाबाओ। रोग्यमुपजायते एवं सर्वपापक्षये मोक्ष इति । कम्मं महतिहियंति, पडिवज्जत्तमवि नूयव्वं । [१५] अथ साधारणं पुण्यपापाख्यमेकमेव संकीर्म तं चिय देहाईणं, किरियाणं पि या सुजासुनचायो । वस्त्विति तृतीयविकल्पं भावयन्नाह । पभिवजपुम्मपावं, सजावो जिनजाईयं ॥ साहारणवस्मादिव, अह साहारणमहेगमत्ताए। उकरिसावगरिसो, तस्सेव य पुराणपावक्खा ॥ पताश्च गाथाः प्रायोऽग्निभूतिगणधरवादे व्याख्याता एव सु"अह साहारणमिति" अथ साधारण संकीमपुण्यपापा गमाश्च नवरं ( कारणकजाणु मेरो सोत्ति) सच जीवकर्मणोः ख्यवस्तु इत्यर्थः । कथंभूतं पुनरिदमधगन्तव्यमिहत्याह (सा पुण्यपापानिधानः परिणामः कारणेन कार्येण चानुमीयते कारहारणवमादिवत्ति ) यथा साधारण तुल्यं हरितालगुलिका णानुमानात्कार्यानुमानाच्च गम्यत इत्याह । पतदेवानुमानद्वयमाह. दीनामन्यतरन्मीलितं वर्मकद्वयम् आदिशब्दात् यथा मेचकम "किरियाणं कारणाश्रोत्यादि" दानादिक्रियाणां हिंसादिक्रियाणिनरसिंहादि वा तयेदमपि पुण्यपापाख्यसंकीर्णमेकं वस्त्वि- णांचकारणत्वात्कारणरूपत्वादस्ति तत्फननूतस्तत्कार्यरूपपुण्यत्यर्थः । ननु यद्येकं वस्त्विदं तर्हि पुण्यं पापं चेति परस्परवि पापात्मकं जीवकर्मपरिणामः यथा ऋष्यादि क्रियाणां शासियरोधे वस्तुविषयमाख्याद्वयं कथं लभते इत्याह "अहेगमत्ताए वगोधूमादिकम नक्तं च 'समासु तुल्यं विसमासु तुल्यं, सतीइत्यादि" अथ तस्यैवैकस्य संकीर्णपुण्यपापाण्यवस्तुन एकया ध्वसञ्चाप्यसतीषु सञ्च। फलं क्रियास्वित्यथ यनिमित्तं, तहेहिनां पुण्यमात्रया एकेन पुण्यांशेनेत्यर्थः । उत्कर्षतो वृद्धौ सत्यां पु सोऽस्ति नु कोऽपि धर्मः" एतत्कारणानुमानम् (देहाणमिगयाख्या प्रवर्तते एकया तु पापमात्रया एकेन पापांशेनेत्यर्थः। त्यादि) देहादीनां कारणमस्ति कार्यरूपत्वासेषां यथा घटस्यउत्कर्षतो वृद्धौ सत्यां पापाख्या प्रवर्तते अपकर्षे ऽपि पुण्या- मृद्दगडचक्रचीवरादिसामग्रीकसितकुनालः। नच वक्तव्य दृष्ट शस्य पापाख्या प्रवर्तते पापांशस्य त्वप्रकर्षे पुण्या प्रवर्तत इति एवमातापित्रादिकस्तेषां हेतुः रष्टहेतु साम्येऽपि सुरूपेतरादिनाचतुर्थ पञ्चमं च विकल्पवृद्धिकृत्यमाह। वेन देहादीनां वैचित्र्यदर्शनात्तस्य चादृष्टकर्मास्यहेतुमन्तरेणाएवं चिय दो जिन्ना-ई होज्जा वा सभावो चेव । भावत एव पुण्यपापभेदेन कर्मणो द्वैविध्यं शुनदेहादीनां पुण्यभवसनई जम्पइ, न सनावओ होज्ज जो जिमयो ।। कार्यत्वादितरेषां तु पापफलत्वामुक्तं च " इह दृष्टहेत्वसंजवि, होज्ज सहावो वत्यु, निकारणया च वत्थुधम्मो वा । कार्यविशेषात्कुलानयन्त्रमिव । हेत्वन्तरमनुमेय, सत्कर्म शुन्नारानं कषुः" पतत्कार्यानुमान तथा मदभिहितमिति च कृत्याऽग्निजइ वत्थु नत्थि तो, अणुवलकीन खपुष्पं च ।। तिवस्वमपि कर्म प्रतिपद्यस्व । सर्ववचनम्नमाण्यादित्यर्थः । एवमेव केषांचिन्मतेन द्वे अपि भिन्ने स्वतन्त्रे स्यातां पुण्य- तदपि पुण्यपापविनागेन । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्म (२५३) अभिधानराजेन्द्रः | इतरदपि पुण्यपापयोः साधनाय प्रमाणमाह । मुखदुक्खकारणमरूवं कलस्त भाव व परमाणवो घस्स व, कारणमिह पुराणपावाई | अस्त्यवश्यं सुखदुःखयोरनुरूपं कारणं कार्यत्वासयोर्यबे कार्य तस्यानुरूपं कारणं भवत्येव यथा घटस्य परमाणवस्तश्च तयोरिहानुरूपं कारणं सुखस्य पुण्यं दुःखस्य पापमिति । प्रेरकः प्राह । सुक्खकारणं जइ, कम्पं कस्स तदरूवं च । पचमरूवं तं पिह, ग्रह रूवं नागुरूवं तु || नतु यदि सुखदुःखयोः पुण्यपापात्मकं कर्म कारणं तच्च यदि कार्यस्य सुखरूपस्यानुरूपं सदृशमिष्यते ताई सुखदुःखयोरात्मपरिणामत्येनारूपत्वात्तदपि पापात्मक कम् रूपतया प्राप्नोति अथ रुपयचा मानुरूपं स्वत्वादिति । अत्रोत्तरमाह । न हि सव्वहा पुरूवं, निर्भ वा कारणं अ मयं ते । किं कज्जकारणचण - महवा वत्थुत्तणं तस्स ॥ न हि सर्वथा कार्यानुरूपं कारणमिष्यते येन सुखदुःखवत्कर्मरूपनायेकान्तेन सर्वधः कारणं कार्य मेष्टव्यम् (अतित्ति) अथ ते तन्मतमेकान्तेन सर्वैरपि धम्मैः कारणं कार्यानुरूपमेव निनं वा नम्वनुरूपमेवेति तर्हि सर्वथाऽनुरूपत्ये एकस्य कारणत्वे अपरस्यापि कारणत्वादेकस्य कार्यस्यापि कार्यातियो कार्यकारणत्वं न किंचित द्वयोरपि वस्तु सर्वथा जेहानिप्रसङ्गादिति तस्माकान्तेनातुरूपता मननुरूपता था कार्यकारणयोः किं सर्दि सव्वं तुला तुझं, जइ तो कज्जाणुरुवया केयं । सोम्म ! सपनाओ, कर्ज परपजओ सेसो ॥ न केवल कार्यकारण पव तुझ्यातुल्यरूपे किं तु सकलमपि त्रिभुवनान्तर्गतं वस्तु परस्परं तुझ्यातुल्यरूपमेव पुनः त्कस्यापि एकान्तेन तुल्यमतुल्यं वा । लब्धावकाशः परः प्राह ( जईत्यादि) यद्येवं ततः केयं कार्यानुरूपता कारणस्य विशेषतो विध्यते येनोच्यते "सुदुक्ख कारणमादि" यदि दिनानुरूपं स्वान्तत्वं तं तदा त्वेका ततो न किंचिदनुरूपं मायनरूपं किंतु सर्वे सर्वेण तुल्यातुल्यरूपमेव तदा किमनेन विशेषेण । अत्रोच्यते ( जमित्यादि) सौम्य ! तुल्यातुल्यत्वे सर्वगते अपि यद्यस्मात्कारणस्य कार्य स्वपययस्तस्मात्कारणं कार्यस्पदानुरूपमुच्यते कार्यपा सर्वोऽपि पदार्थः कारणस्य परपर्याय इति तं प्रति विवक्तितं कारणमसमानरूपमनिधीयते । श्रह ननु कथं प्रस्तुते सुखदुःखे कारणस्य स्वपर्याय उच्यते । जीवपुण्यसंयोगः सुखस्य कार तस्य सु प एच दुःखस्यापि जीवपापसंयोग कार णमतस्तस्यापि दुःखं पर्याय एव । यथा च सुखं शुनं कल्याणं शिवमित्यादीन् व्यपदेशान् लभते तथा तत्कारणतं पुण्यस्क यमपि यथाच दुःखमशुभमकल्याणमशिवमित्यादिसं प्रति तथा तत्कारणभूतं पापइन्यमपीति । विशेषतोऽ पुण्यपापे सुखदुःखयोरनुरूपकारणत्वेनोते इति । अय पर प्रेकिस्तदवकाश हेतोः पृच्छति। किं जह मुत्तममुत्तस्स कारणं तह सुदाइ कम्मं । कम्म दिs सुहाsकारण - मन्नाइ जहेह तह कम्पं ॥ किं यथा मूर्ख भीमादिकममूर्तस्य स्वप्रतिज्ञाविज्ञानस्य कार तुस्तायोः पुण्यपापात्मकं कम्म सूर्तमेव स कारणं यथा प्रत्यक एव दृष्टमन्नादिकमादिशब्दात्त्रचन्दनाङ्गनादिविपकटकादिकमिद सुखदुःखयोः मूर्त सत्कारणं त कम्मपि तयोरिति नावार्थः । ततः किमिति चेदुच्यते । होल तय किं मया न तुसादणाणं पि । फलभेदो सो वस्सं सकारणं कारणं कर्म ॥ मनु तदेवादि वस्तु तस्य सुखा कारणमस्तु किम हटेन तेन कर्मणा परिकल्पना पा तुल्यान्यन्नादीनि साधनानि येषां ते तुल्यसाधनाः पुरुषास्तेषामपि फले सुखदुःखणे कार्यभेदः फननेदो महान् दृश्यते । आदि के कस्याप्याहादोऽन्यस्य तु रोगाप श्यत इत्यर्थः तुयानादिसाधनानामोवश्यमेव सकारणो निष्कारणत्वे नित्यं सत्वासत्वप्रसङ्गाद्यच तत्कारणं तददृएं कर्म इति न तत्कल्पनानर्थक्यमिति । मूर्त्त च तत्कर्म कुत इत्याह । यत्तो चिप तं मुमुपादाय कुंजो । देहार कज्जमुत्ता-इओ नलिए पुणो भइ || यत एव तुल्यसाधनानां कर्मनिबन्धनफलभेदोऽत एवोच्यते मूर्त्तकम् स्यदेदादेवंाधान कारित्वात्कुम्नवद्यथा निमित मात्रभाषत्ये घटादीनां बलमाधते एवं कर्णम त्यर्थः अथवा सूर्ण कम्मे मूर्तेन चन्दनादिना स्पष क्षणस्य चतस्याधीयमानाकुम्भ मूत्ये तैलादिना यलस्याधीयमानत्वात्कुम्भो मूर्त्तः । एवं स्रक्चन्दनादिना उपचीयमामत्वात्कमपि समिति नाथः। यदि वा मूर्ख कम्मे देदास्त्का येस्य मूत्रपरमाद्यथा घटादेस्तत्कार्यस्य दर्शनात्परमाणवो मूर्त्ताः एवं देहादेस्तत्कार्यस्य मूर्त्तस्य दर्शनात् कम्मपि मूर्त्त एवं प्रणितेन पुनर्मपति परः किमित्याह । तो कि देहाई, मुलचणम्रो तयं इच्छ मुतं । अह सुहदुक्खाईं, कारणभावादरूवं ति || ततः किं देहादीनां कर्मकार्याणां मूर्त्तानां दर्शनान्तकर्म मूर्त भवत्वाहोश्वित्सुखदुःखक्रोधमानादीनां जीवपरिणामभूतानां त कार्याणाममूर्त्तानां दर्शना सत्कारणता बेनामूर्तमस्तु कर्मेत्येवं मूर्त्तत्वमूर्तीचान्यामुनयथापि तत्कार्यदर्शनाकि मूर्त वा कम् नवत्विति निवेद्यतामिति । एवं प्रेरकेणोचे सत्याह । न सुहाई देउ, कम्पं नियकिं तु तावा जीवो वि । होइ समवाय कारण-मिपरं कम्म ति को दोसो ॥ सुखादीनां कर्म के कारण न भवति किं तु जीवोऽपि तेषां समवायिकारणं भवति कम् पुनरेतसमवायिकारणं भवतीति को दोष पदमुक्तं प्रयति सुखादेश्मूर्त समयाविकारणस्य जीवस्यामूर्त्तत्यमस्त्येय असमवायिकारणस्य तुक कर्मणः सुखाद्यमूर्त्तत्वेन मूर्खत्वं न भवतीत्यपीति न दोष इति । तदेवमुक्तमर्थमुपसंद केवलपुण्यलक्षणं प्रथमविकल्पं दूधचितुमाह । इय रूविते दुख-कारणाने व कम्पणो सिको। पुष्पाव गरिसमेत्ते, दुक्खबहुलत्तणमजुत्तं ॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५४) अभिधानराजेन्द्रः । कम्म शयेयं पविकल्पोपन्यस्तस्वनाववाद निरासेन पुण्यपापात्मकस्य कर्मणः सुखदुःखकारणत्वे रूपित्वे च सिद्धे पुण्यापकर्षमात्रेण 'यत् दुःखबहुलत्वं प्रथमविकल्पोपन्यासे प्रोक्तं तदयुक्तमिति कुतोऽयुक्तमित्याह । कम्मपरिणयं तदवस्तं परिसा | सोक्खप्यारिसनूई, नह पुण्यगरिसप्पनया || तत् दुःख वाकर्षजनितं न प्रयति पकर्म्मप्रकर्षअनितं प्रकर्षानुभूतित्वादप्रकर्षानुभवरूपत्वादिति हे तुः यथा सौख्यप्रकर्षानुभूतिः स्वानुरूपकर्म्मप्रन वा इति दृष्टान्तः । , उपपस्यन्तरमाह । वह महापरिसंग जावादिया न वयं । विवरीयवसाय-बलध्यगरि अवेक्खेख ॥ तथेत्युपान्तरार्थः वह देदिनांकेपुण्याप कर्षमात्रजनितं न भवति कुत इत्यत्र हेतुमाह । बाह्यानि यान्यनिष्टादारादीनि साधनानि तेषां यस्तदनुरूपः प्रकर्षस्तस्याङ्गभावात्कारणजावादिति । विपर्यये बाधकमाह । इहेत्यादि तद्दुः वमन्यथा यदि पुरावापकर्षमात्रजन्यं प्रवेत्तदा पुण्यसंपादनादिकायां कुर्वतः शुभाशुभकाययोग इति त हारापचयमात्र प्रवेश तु पापोदयसंपाद्यानिष्टाहारादिरूप विपरीत साधनानां यद्वले सामर्थ्य पस्य स्वानुरूप यः प्र 66 स्तमकेत | इदमत्र हृदयं यदि पुण्यापकर्षमात्रजन्यं दुःखं भ वेता यादवाप्येष्टा दारादिसाधनापकर्षयात्रादेव प्रवेन्न चैतदस्ति इष्टविपरीतानिष्टाहारादिसाधनसामर्थ्यादेव तद्भावादिति । अपि च ॥ " देहो नोपचयको पुकारेसे व मुतिमताओ। होज्ज सुजही तर, कहमसुभयरो महल्लो व ॥ यो तित्यादिवेदः केवलपुष्पापपयमाषकृतो न प्रयति मूर्तिमत्वाद्यथा पुण्यापकर्षस्तज्जन्योऽनुत्तरसुरचक्रवर्त्यादिदेहः यश्च पुण्यापचयमात्रजन्यः स मूर्त्तिमानपि न नवति यथा न कोऽपि यदि च पुण्यापचयमात्रेण देहो जन्येत तदा हीनतरः शुभ एव च स्यात्कथं महानराजतरश्च भवेन्महतो महापुण्योपत्रयजन्यत्वादशुभस्य वा शुभकर्म्म निर्वर्तित्वात्पुण्येन पुनरणीयत्रापि देोजयेत। ननुचितः अवसाद सु सवेनापि सोच घटो भवति न त मासिकस्ताप्रादिति अथापकीयपाप दूषयि तुमाह । युकं कुत इत्याह यदिदमुकं भवति इह द्विविधो योगो यतो भावतय तत्र मनोषायोगप्रवर्तका नि द्रव्याणि मनोवाक्कायपरिस्पन्दात्मको योगश्च द्रव्ययोगः यस्वेतदुभयरूपयोगहेतुरध्यवसायः सभावयोगस्तत्र शुभाशुभरूपाणां यथोचिन्तादेशनाकायचेशनको द्विवि ऽपि द्रव्ययोगे व्यवहारनयविवक्षादर्शनमात्रेण भवेदपि शुभाशुभत्वोपलक्षणो मिश्रभावः न तु मनोवाक्काययोगनिबन्धनाध्यवायरूपे भावकरणे भावात्मके योगेऽयमभिप्रायः । द्रव्ययोगो व्यवहारदर्शनेन शुभाशुभरूपोऽपीयते नतु - योऽपि भोभो वा केवल समस्ति यथोचितादेशना दिप्रवर्त्तकद्रव्ययोगानामपि शुभाशुभमिश्ररूपाणां तन्मतेनाभावात्मनोवाक्काययोगनिबन्धनाध्यवसायरूपे भावकरणभावयोगे शुभाशुभरूपो मिश्रभावो नाति नियनयदर्शनस्यैषागमेऽत्राशुभान्यगुभानि वाध्यवसाया शुभाशुभाभ्यवसायस्थानरूपस्तृतीयो राशिरागमे कचिदीष्यते येनाध्यवसायरूपे भावयोगे शुभाशुभत्वं स्यादिति भावस्त स्माद्भावयोग एकस्मिन्समये शुभोऽशुभो वा भवति न तु मिश्रस्ततः कर्मापि तत्प्रत्ययं पृथक् पुण्यरूपं पापरूपं वा बध्यते न तु मिश्रमिति स्थितं तदेव समर्थया एवं चिय विवरी, जोएना सव्यपावपचस्त्रे वि । न व साहारण, कम्मं तकाराजाना ॥ सर्वपापानि तु पुण्यं पापापमात्रजन्यत्वात्सुखस्ये त्येतस्मिन्नपि पक्के एवमेव केवल पुण्यवादोक्तदूषणाद्विपरीतगत्या सर्व योजयेत्तथा पापापानि सुभा स्याल्पीय सोऽपि दुःखजनकत्वान्न हाणीयानपि विषवः स्वा स्पहेतुर्भवति तस्मात्तमेषामपि सुखन्यू वाच्यमिति पृथक सुखदुःखयोः कारण य साधारणेऽपि संकीर्णे पायेने कुत इत्याह । नयेत्यादि न च साधारणरूपं संकीर्णस्वभावं पुएयपापात्मकमेकं कर्मास्ति तस्यैवं नृतस्य कर्म्मणः कारणानादत्र प्रयोगो नास्ति संकीणरूपं कर्म अपमानयंविध कारवालापुत्रवदिति हेतोरसित परि सुभम बातमीसं जंच आणोवरमे चि । झेसा भासा वा सुभम वा तथ्यो कम्मं । ध्यानं यस्मादागमे एकदा धर्मगुरुभ्यानात्मकं शुभमा षात्मकमया निर्दिषं न तु शुभाशुभरूपं यस्माथ ध्यानो परमेऽपि लेश्या तेजसीप्रभूतिका शुभा कापोतीप्रमुखावा - भा एकदा प्रोक्ता न तु शुभाशुभरूपा भ्यानलेश्यात्मिका स्वभा योगास्ततस्तेऽप्येकदा शुभ अशुभा वा भवन्ति न तु मिश्रास्वतोभावयोग निमिकमध्येकदा पुण्यात्मकं सुर्भवन्यते पापात्मक मशुभं वा वध्यते न तु मिश्रमपि । अपि च । पुण्यग्गद्दिये च कम्मं परिणामवसेन मीसइयं नेज्जा । इयरेयभावा सम्मामित्याइ न उग्गणे ॥ इत्यथवा एतदद्यापि सम्नाव्यते यत्पूर्व गृहीतं पूर्व बर्ष मि कम्म कम्पं जोगनिमितं, सुनो सुभो वा भवेगसमयपि । होज्ज न त उभयरूचो, कम्मं पितो तरूवं ॥ मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतव इति पर्यन्ते योगाभिधानात्सर्वत्र कर्म्मबन्धहेतुत्वस्य योगाविनाभावात् योगानामेत्यमिति योगनिमित्तमुच्यते स च मनोवा कायात्मको योग एकस्मिन्समये शुनोऽशुभो वा भवेच तूमयरूपोऽतः कारणानुरूपत्वात्कार्यस्य कर्म्मापि तदनुरूपं शुभं पुण्यरूपं वध्यते । ननु संकीर्णस्वभावमुभयरूपमे कमिहैव वध्यत इति प्रेरकः प्राह ॥ न मवइकायजोगो, सुजासुभा एगसमयम्मि दीसंत । दव्वपि मीसजावो, जवेज्ज न जावकरणम्मि ।। ननु मनोवाक्काययोगाः शुभाशुभाष मिश्रा इत्यर्थः। एकस्मिन् समये दृश्यन्त तत्कथमुच्यते शुभोऽशुभी वा (पगसमयस्मि ति) तथा हि किञ्चिदविधिना दानादिवितरणं चिन्तयतः शुभप्रभो मनोयोगस्तथा किमप्यविधिनदानादि दिशतः शुभाशुभो वाम्योगस्तथा किमप्यविधि Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५५) अन्निधानराजेन्द्रः। ध्यात्वलकणे कर्म परिणामवशात्पुञ्जत्रयं कुर्वन्मिश्रतांसम्यमि- नविभागेन स्थापयतीत्यर्थः । कुतश्त्याह (परिणामासयसनावथ्यात्वपुञ्जरूपतां नयेत्प्रापयेदिति। इतरेतरनावं वा नयेत्सम्यः । चत्ति) हाश्रयो द्विविधः कर्मस्वाभाशुभत्वस्य तस्य द्विविधपत्वमिथ्यात्वञ्चति । इदमुक्तम्नवति पूर्वबझात् मिथ्यात्वपुमक्षा- स्याप्याश्रयस्वनावः परिणामश्चाश्रयस्वन्नावश्च परिणामाश्रयस्वद्विशुद्धपरिणामं संशोधयित्वा सम्यक्त्वरूपतां नयेदविरुपीर- नावी तान्यामेतत्कुरुते । इदमुक्तं भवति जीवस्य शुजोऽशुभो णामं तु समुत्कर्ष नीत्वा सम्यक्वपुजनान् मिथ्यात्वपुजे संक्र- वा परिणामोऽध्यवसायस्तद्वशाद ग्रहणसमय एष कम्मणां मय्य मिथ्यात्वरूपतां नयेदिति पूर्वगृहीतस्य सत्तावर्तिनः कर्म- शुभत्वमशुभत्वं बा जन यति तथा जीवस्यापि कर्माश्रयनूनण इदं कुर्यात् । ग्रहणकाले पुनर्न मिश्रः पुण्यपापपरुषतया सं- स्य स कोऽपि स्वनावोऽस्ति येन शुनाशुभत्वेन परिणमयतेव कीर्णस्वभावं कर्म वनाति । नापि इतररूपतां नयतीति विशे०। कर्म गृह्णाति तथा कर्मणोऽपि शुनाशुभ नावाद्याश्रयस्य स स्व(पुण्यपापप्रकृतयः अत्रैव कम्मशब्दे वक्ष्यन्ते ) तदेवं पुण्यपापे नावः स कश्चिद्योग्यता विशेषोऽस्ति येन शुनाशुभपरिणामा-- पृथव्यवस्याप्येदानीं तयोरेव पृथग्नकणमाह । न्धित जीवेन गृह्यमाणमेवैतद्रूपतया परिणति उपत्रकणं चैत-प्रसोहणवमाश्गुणं, सुजाणुभावं च जं तयं पुणं । कृतिस्थित्यनुनागवैचित्र्यं प्रदेशानामल्पब हुनागचित्र्यं च जीवः विवरीयमसुनपावं, न बायरं नाइसुहमं च ॥ कर्मणो ग्रहणसमय एव सर्व करोतीत्युक्तञ्च "गहणसमयम्मि जीवो,चप्पाए य गुणे सवपव्वय । सव्वजियाणंतगुणे,कम्मपपशोजनाः शुजा वर्णादयो गन्धरसस्पर्शलकणा गुणा यस्य त सेसु सव्वसु।भाउय नागो थोवो,नामे गोए समो तओ अहिगो। चोभनवर्णादिगुणं तथा यच्छनानुभावं शुनविपाकमित्यर्थः। श्रावरणमंतराय-सरिसो अहिगोयमोपविसञ्चो वरिवेयणीयभातत्पुण्यमभिधीयते । यत्पुनरतः पुण्याद्विपरीतलकणमशुभं व गो, अहिगो क कारणं किं तु । सुहऽक्खकारणत्ता,विईविसेसेण दिगुणमाभविपाकं चेत्यर्थः। तत्पापमुच्यते। पतच्चोभयमपि सैसासुत्ति " एतत्सर्व कर्मणो ग्रहणसमये आहारदृष्टान्तेन कथंनूतमित्याहन मेदिनाचन परिणतस्कन्धवदतिवादरं सू. जीवः करोतीति । आहारदृष्टान्तमेव नावयति । चमेण कर्मवर्गणा व्येण निष्पन्नत्वान्नाविपरमाएवादिवदतिसूक्ष्मवदिति । प्राह ननु तत्पुण्यपापरूपं कर्मद्वयं गृह्णानो जीवः परिणामासयवसओ, धोणुस्य जह पओ विसमहिस्स । कीदृशं गृह्णाति कथं च गृह्वातीत्याह ।। तुझो वि तदाहारो, तह पुलापुमपरिणामो । गिएहइ त जोग्गं चिय, रेणु पुरिसो जहा कयम्भंगो। (तदादारोत्ति) तयोरहिधेन्वोराहारस्तदाहारः स तुल्योऽपिएगक्खेत्तोगाढं, जीवो सचप्पएसेहिं ॥ पुग्धादिको गृहीतः परिणामाश्रयवशाद्यथा धेन्वाः पयो दुग्धं तस्य पुण्यपापात्मकस्य कर्मणो योग्यमव कर्मवर्गणागतं - नवति। अस्तु स एव विषं विपरूपतया परिणमति। तथा तेनैव व्यं जीवो गृह्णाति । न तु परमाएवादिकमौदारिकादिवर्गणागतं | प्रकारेण पुण्यापुण्यपरिणामः इदमुक्तं जयति अस्ति स कश्चिवा योग्यमित्यर्थः। तदप्येककेत्रावगाढमेव गृह्णाति न तु स्वावगा त्तस्याहारस्य परिणामो येन तुल्योऽपि सन्नाश्रयवैचिच्याद्विचिढप्रदेशेज्यो जिन्नप्रदेशावगाढमित्यर्थः । तच्च यथा तैसादिक प्रतया परिणमति आश्रयस्याप्यहिधेनुबकणस्यापि तत्तन्निजतान्यङ्गः पुरुषो रेणुं गृह्णाति । तथा रागद्वेषक्लिनस्वरूपो जीवो- सामर्थ्य येन तुल्योऽपि गृहीत आहारस्तदूपतया परिणमति । ऽपि गृह्णाति न तु निर्हेतुकमिति भावः । इदं च सर्वैरपि स्वप्रदे- तथा पुण्यपापयोरुपनययोजना कृतैवेति । अथवा अयमेवाहारशैर्जीबो गृह्णाति न तु कैश्चिदित्यर्थः । उक्तं च । दृष्टान्तो नाव्यते तद्यथा। एगपएसोगाद, सबपएसेहिं कम्मणो जोग्गं । जह वेगसरीरम्मि वि-सारासारपरिणामयामे । बंधइ जदुत्तहेर्ड, साइयममाप्यं वा वि ॥ अविसिहो आहारो, तह कम्मसुजासुभविभागो॥ उपशमश्रेण्या प्रतिपतितो मोहनीयादिकं कादि बध्नाति ।। धेनुविषधरयोः निन्नशरीरे आहारस्य परिणामवैचित्र्यं दार्शशेषस्त्वनवाप्तोपशमश्रेणिजीवो नाद्यमेव बनातीत्यर्थः इति। तम्।वा इत्यथवा यथा एकस्मिन्नपि पुरुषादिशरीरे विशिष्टेऽप्येअथ प्रेरकः प्राह । करूप आहारो गृहीतस्तरक्कण एव सारासारपरिणामतामेति । अविसिट्टपोग्गलपणो, लोए थूलतणकम्मपविभागो। रसासग्मांसा हि रसपरिणामं मूत्रपुरीषरूपखलपरिणामं च युगजुजेज्ज गहणकाले, सुनामुनविएयणं कत्तो॥ पदागच्चतीत्यर्थः। तथा कर्मणोऽप्यविशिष्टस्य गृहीतस्य परिणानववशिष्टैः प्रत्याकाशप्रदेशमनन्तानन्तशुभाशुनादिभेदनाव्यव मवशात् शुन्नाशुजविनागो अष्टव्य इतिातदेवं पुण्यपापयोर्बवणास्थितैः पुमलैर्घनो निरन्तरं व्याप्तो यो लोकस्ततश्च ग्रहणकाले गृह दिभेदं प्रसाध्य तद्भेदनूतप्रकृतिनेदेनापि तयोर्नदमुपदर्शयन्नाह ! तो जीवस्य स्थूलसूक्ष्मकर्मप्रविभागो युज्येताततो"न बायरं नाइ सायं सम्म हास, पुरिसरसुभाननामगोत्ताई। सुहम चे" ति विशेषणमुपपन्नमेतद्विशेषणविशिष्वादन्यस्य स्व पुनं सेस पावं, नेयं सचिवागमविवाग ।। जावत एव जीवरग्रहणाद्यनु गुनाशुभविवेचनं तत्समयमात्र सातवेदनीयं शोधितमिथ्यात्वपुलरूपं सम्यक्त्वं हास्यं पुरुषरूपे कर्मग्रहणकाले तत्कण एव गृहतो जीवस्य कुतः संजाव्यतेन कुतश्चिदिति परस्याभिप्रायः। ततश्च "सोहणवामाश्गुणमि" वेदो रतिः शनायुर्नामगोत्राणि चेत्येतत्सर्व पुण्यमनिधीयते। तत्र त्यादिविशेषणं न युज्यत इति प्रेरकाकृतमिति । आचार्यः प्राह । नारकायुर्वज शेषमायुस्त्रयं शुग्नं देवद्विकयश कीर्तितीर्थकर नामाद्याः सप्तत्रिंशत्प्रकृतयो नामकर्माणि गुभाः।गोत्रे पुनरुचैर्गोत्रे अविसिह चिय तं सो, परिणामासयसनाव उक्खिप्पं । शुभमेतोः षट्चत्वारिंशत्प्रकृतयः किल शुभत्वात्पुण्याः । अन्ये तु कुरुते सुन्नमसुनं वा, गहणे जीवो जहाहारं ।। मोहनीयन्नेदात्सर्वानपि जीवस्य विपर्यास हेतुत्वात्पापमेव मन्यस जीवस्तत्कर्मग्रहणे ग्रहणकाले शुनाशून्नादिविशेषणावि | न्ते ततः सम्यक्त्वादस्य पुरुषवेदरतिवर्जा द्विचत्वारिंशदेव प्रकृ. शिष्टमपि गृह्णन् कि तत्कणमेव शुनमशुभं वा कुरुते शुभाशु- तयः पुण्यास्तद्यथा ॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५६) अनिधानराजेन्डः। कम्म सो यं उच्चारो यं, नरतिरिदेवालयाइ तह नामे । सो समणो पवईओ, तिहिं सहखंमियसरहिं॥ देवदुगं मणुयगं, पणिंदजाईयतापणगं ॥ गतार्था इति चतुश्चत्वारिंशनाथार्थः विशे। (१६) कर्मणश्चतुविधत्वम् । अंगोवंगाणतिगं, पढमसंघयणमेघ सिच्चयणं । पुण्यपापयोः पृथक्त्वख्यापर्क सूत्रे । मुन्नवणणाई सुचटकं, अगुरुलढू तह य परघायं ।। एगे पुम्मे एगे पावे (स्था० १ ठा०) घउबिहे कम्मे ऊसासं पायावं, उज्जोयविहागई विप्पएसत्था । परमते तं जहा सुने णामं एगे सुत्नेसुभेणाममेगे असुने अतसवायरपज्जतं, पत्तेयथिरं सुनं सुभगं ॥ सुभेणाममेगे ।। चउबिहे कम्मे पलते तं जहा सुनेणामसुस्सर आपज्ज जसं, निमेण तित्थयरमेव एआन । मेगे सुभविवागे सुनेणाममेगे असुजविवागे असुनेणामबायालं एगई न, पुणंति जिणेहिं नपिया उ ।। मेगे सुजविवागे असुभेणाममेगे अमुनविवागे ।। शेषास्तु या घशीतिप्रकृतयस्तत्सर्वमशुनत्वात्पापं विज्ञेयं सम्य- क्रियत ति कर्म ज्ञानावरणीयादितत शुनपुण्यप्रकृतिरूपं पुनः क्वं कथमशुत्रं कथं तत्पापमिति चेपुच्यते रुचिरूपमेव हि सम्य- | शुभं शुभानुबन्धित्वाद्भरतादीनामिव शुग्नं तथैवाशुनमनभानुबक्वं शुनं तत्वेन विचार्यते किं तु शोधितमिथ्यात्वपुलरूपं तचा न्धित्वात् ब्राह्मदत्तादीनामिव अशुभं पापप्रकृतिरूपं शुम्नं शुभानुशङ्काद्यनर्थहेतुत्वानानमेव अशुजवाञ्चपापं सम्यग्ररुचेश्चातिश- बन्धित्वात दुःखितानामकामानिर्जरावतां गवादीनामिव अशुनं येन नानाचारकत्वाऽपचारमात्रमेवेदं सम्यक्त्वमुच्यते परमार्थत- तथैव पुनरशुभमराजानुबन्धित्वान्मत्स्यबन्धादीनामिवेति तथा शु स्तु मिथ्यात्वमेवैतदित्यवं प्रसङ्गेनाश् च पुण्यपापलकणमुजय- सातासातादित्वेनैव बद्धं तथैवोदेति यत्तत्शुनविपाकं यत्तुबर्फ मपि सविपाकमविपाकं च मन्तव्यं यथा बढ़तथैव विपाकतः शुनत्वेन संक्रमकरणवशात्तदेति च शुभत्वेन तत् द्वितीयं भवति किंचिवेद्यते किंचिदनुमन्दरसं नीरसंवा कृत्वा प्रदेशोदयेनावि- च कर्मणि कान्तरानुप्रवेशसंक्रमानिधानकरणवशायुक्तं च पाकं वेद्यत इत्यर्थः । तदेवं पुण्यं पापं च देन व्यवस्था "मूत्रप्रकृत्यजिमानः संक्रमयति गुण उत्तराः प्रकृतीः । न त्वात्मा प्य निरस्तः संकीर्णपुण्यपापपकः । श्तश्चायमुक्तः सर्वस्यापि मूर्तत्वा-दभ्यवसानप्रयोगणेति" ॥१॥ तथा मतान्तरं "मोत्तूणमासन्मिश्रमुखःस्वाख्यकार्यप्रसंगान चैतदस्ति देवादीनां केवलं उयं खलु, वंसणमोहं चरित्तमोहं च । सेसाणं पयमीण, उत्तरसुखाधिक्यदर्शनान्नारकादीनां केवलपुःसप्राचुर्यनिर्मयान्न विहि संकमो भणिोति " ॥१॥ यदछमशुभतयोदेति च शु. च सर्वथा सन्मित्रैकरूपस्य हेतोरस्पबहुत्वमेदेऽपि कार्यस्य भतया तत् तृतीयं चतुर्थ प्रतीतमिति तृतीयं कर्मसूत्रमत्रत्यद्विप्रमाणतोऽल्पबहुत्वं विहाय स्वरूपतो भेदो युज्यते । न हि तीयोद्देशकबन्धसूत्रवत् केयमिति चतुर्विधकर्मस्वरूपम्। स्था० भचककारणप्रभवं कार्यमन्यतमवर्णोत्कटं घटते तस्मात्सुखा- ४ ग०४३०॥ तिशयस्यान्यनिमित्तमन्यच्च दुःखातिशयस्येति । न च सर्वथैव (१७) अथ कर्मणोऽबस्पृष्टवादिगोष्ठामाहिलनिह्नवमतम् ॥ रूपस्य संकीर्णपुण्यपापवणस्य हेतोः सुखातिशयनिबन्धन किं कंचुउव्व कम्मं, पइप्पएसमह जीवजंते। पुण्यांशवृहिर्दुःखातिशयस्य कारणपापांशहान्या सुखातिशयप्रभवाय कल्पयितुं न्याय्या पुण्यांशपापांशयोंनेदप्रसंगात्तथा हि परदेस सव्वगयं, तदंतरालाणवत्थाओ॥ यत् कावपि न बढ़ते तत्ततो भिन्न यथा देवदत्तवृक्षावण्यव- अह जीवबहिंतो ना-गुवत्तएतं भवंतरानम्मि । ईमानो यज्ञदत्तो न वळते पुण्यांशवृधौ पापांशस्तस्मात्ततो नि- तदणुगमाजावा उ-बज्झंगमञोच्च मुच्चत्तं ।। मोऽसाविति तस्मान्न सर्वथैकरूपता पुण्यपापांशयोर्घटते कर्मसा एवं सम्वविमोक्खो, निकारणो वि सव्वसंसारो। मान्यरूपतया यद्यसी तयोरिष्यते तदा सिद्धसाध्यता सातयश:कीादेः पुण्यस्य, असातायशःकीादेस्तु पापस्य, अस्माभि जवमुक्काणं च पुणो, संसरणमउप्रणासासो ॥ रपि कर्मत्वेनैकताया अज्युपगमात्तस्मात्पुण्यपापर.या विविक्ते ननु “पुढो जहा अबको कंचरणमित्यादि " गाथायां कञ्युएव पुण्यपापे स्त इति। ततः सुखदुःस्ववैचित्र्यनिधन्धनयोः पुण्य कमिव स्पृष्टमेव जीवे कर्म न तु बकामिति यदुच्यते। भवता पापयोर्यथोक्तनीत्या साधितत्वान्न कर्तव्यः तत्संशयः किं पास तद्विचार्यते किं कञ्चुकवत्स्पृष्टं कर्म जीवस्य प्रतिदेशं वृत्तं सत्वे पुण्यपापयोर्वेदोक्तनीत्या साधितस्याग्निहोत्रादेः लोकप्रसि उच्यते । आहोश्विजीवपर्यन्ते त्वक्पर्यन्त एव वृत्तं स्पृष्टमिष्यत कस्य च दानादेवैफल्यं स्यादिति दर्शयन्नाह । इति द्वयी गतिः तत्र यदि प्रतिप्रदेश वृत्तत्वात्स्पृमिष्टं तीर्ड जीवे सर्वगतं कर्म प्राप्नोति । ननोवत् कृतः सर्वगतमित्याह । असइ बहि पुनपावे, जमग्गिहोत्ताइ सग्गकास्स । तदन्तरालेत्यादि तस्य जीवस्यान्तरानं मध्यं तदन्तरानं तस्यानतदसंबई सव्वं, दाणाइफलं च लोयाम्म ॥ वस्थातस्तस्य कमांज्याप्तस्यानवस्थानादनुकरणादित्यर्थः । न पुण्यपापयोरसत्वे यदेतदहिरग्निहोत्राद्यनुष्टानं स्वर्गकामस्य हि प्रति प्रदेशं वृत्तो कमणि जीवस्य कोऽपि मध्यप्रदेश उकयश्च दानहिंसादिफलं पुण्यपापात्मकं लोके प्रसिहं तत्सर्वमसंब ति येन कर्मणस्तत्रासर्वगतत्वं स्यात्तस्मादाकाशेनैव कर्मणा कं स्यात्स्वर्गस्यापि पुण्यफलत्वात्पुण्यपापयोश्च भवदनिप्राये जीवस्य प्रतिप्रदेशं व्याप्तत्त्वात्तस्य जीवे सर्वगतत्वं सिद्धमेव णासत्वात्तस्मादन्युपगन्तव्ये एष पुण्यपापे तदेवं वेद पदवचन एवं च सति साध्यविकत्वात्कञ्चुकदृष्टान्तोऽसंबक एवं प्राप्नोप्रामाण्याद्युक्तितश्च चिन्नस्तस्य संशय इति। ततः किं कृतवानसा. ति साध्यस्य यथोक्तस्पर्शनस्य कञ्चुके भावादिति द्वितीयं वित्याह। विकल्पमधिकृत्याह " अहेत्त्यादि" अथ जीवस्य बहिस्त्वक्प र्यन्ते वृत्तत्वात्कञ्चुकवत्स्पष्ट कर्मेष्यते तर्हि भवाद्भवान्तरं सं. चिन्नम्मि संसयम्मि, जिणेण जरमरणविप्पमुक्कण । कामतोऽन्तराले तन्नानुवर्तते तदनुवृत्तिन प्रानोति त्वक्पर्यन्त तासा Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५७) कम्म अनिधानराजेन्द्रः। तत्वेन तदनुगमाभावाद्वाह्याङ्गमत्रवदिति सुव्यक्तमेव वासाना- रणे बहिरन्तश्च क्रमेणैव वेदना स्यान्न चैतदस्ति लगुमाद्यानिघामपि प्रतीतत्वादिति नवत्वननुवृत्तिः कर्मणो जवान्तराने को दोष ते बहिरन्तश्च युगपदेव घेदनादर्शनात्तस्मान कर्मणः संचरण इत्याह (एवमित्यादि ) एवं कर्मणोऽननुवृत्ती सत्यां सर्वेषामपि मुपपद्यत इति । कर्मणः सचरणे दूषणान्तरमप्याह । जीवानां विमोक्षः संसाराभावः प्राप्नोतीति संसारकरणस्य कर्मणोऽभावादथ निष्कारणोऽपि संसार इष्यते तर्हि ये न नवंतरमन्नेइ य, सरीरसंचारन गद निनो ब्व । ग्रततपोब्रह्मचर्यादिकष्टानुष्ठानानि कुर्वते तेषामपि सर्वेषां चलियं निम्नारय चिय, भणियमकम्मं च जं ममए । संसार एव स्यात् निष्कारणत्वाविशेषानिष्कारणं च जायमानं किन यदि संचरिष्णु कौन्युपगम्यते तर्हि मृतस्य तद्भवान्त. भषमुक्तानामपि सिद्धानामपि पुनरपि संसरणं संसारः रमन्वेति प्रघान्तरे तस्यानुगमनं न प्रामोतीत्यर्थः। शरीरे सञ्चर. स्यादिति मुक्तावप्यनाश्वास इति । किंच त्वक्पर्यन्तवत्तिनि णादिति हेतुः अनिषदिति दृष्टान्तः।इह यच्चरीरे बहिरन्तश्च संकर्मणीप्यमाणे अपरोऽपि दोषः क इत्याह । घरतिन तद्भवान्तरमन्वेति यथोच्चासनिश्यासानिलः तथा च क. र्म तस्मान्न भवान्तरमन्वेतीति । प्राह नयागमऽपि "चसमाणेदेहंतो जा वियणा, कम्माभावम्मि किनिमित्ता सा। चमिपत्ति" पचनात्कमणधजनमुक्तम् ॥ विशे० ॥ (कार्यकारनिकारगा वि ज तो, सिको वि न वेयणारहितो।। णभाषः कज्जकारणभावशब्दे दर्शितः ) चननं च संचरणमेयोजइ वज्झनिमित्ता सा, तदनावे सा न होज तो अंतो। ध्यते तरिकमिति तदिह निषिध्यते तदयुक्तमाभिमायापरिकानादिदिघा य सा सुबहुसो, बाहिं निव्वेयणस्सा वि। स्याह । “चनियमित्यादि " नेरय जाध माणिए जीवात्रो चभियं कम्मं निजर"इत्यादिषचनात्तथा"निजिजमाणं निजिजइ वा विभिन्नदेस, पि वेगणं कुण कम्म एवं तो।। समिति" घचनाथ यद्यस्मात्समये भागमे चलितं कर्म निर्माकहमन्नसरीरगयं, न वेयणं कुण अन्नस्स ॥ णमुक्तं तदकमैव भणितं तच्च मध्ये गतमपि न वेदनां जनयितुयदि कञ्चुकवदहिरेव घर्तते कर्म तदा देहस्यान्तमध्ये या मझमकर्मणो नभः परमाएवादेरिव तत्सामर्थ्याभावात्तस्मादिशलगुल्मादिवेदना सा किंनिमित्तेति वक्तव्यं साध्यं तत्कारण स्थमनेकदोषपुष्टत्वादयुक्तं कर्मणः संचरणमित्यतो मध्ये व्यवभूतस्य कर्मणोऽभावादथ निष्कारणाऽपि देहान्तर्वेदनाऽभ्युप स्थितं कर्मास्तीति स्थितम् । गम्यते ततस्तर्हि सिद्धोऽपिन बेदनारहितःस्यानिष्कारणत्वा मध्ये कावस्थानसाधनार्थमेव प्रमाणयन्नाह । विशेषादिति । अथ बाह्यवेदनानिमित्ता साऽन्तर्वेदनाऽभ्युपग- | अंते वि अस्थि कम्मं, वियणासम्भावान सय व्य । म्यते बहिर्वेदना हिलगुडघातादिजन्या प्रादुर्भवतीति मध्येऽपि घेदना जनयत्येवेति यदि तवाभिप्रायस्तर्हि तदभावे लगुडघा मिच्छत्ताईपच्चय-सब्नाबाउ य सव्वत्थ ।। तादिजन्यवेदनाविरहे साऽन्तर्वेदना न भवेन्न जायेत अस्त्वेष अन्तर्मध्येऽप्यस्ति कर्मेति प्रतिज्ञा वेदनासद्भावादिति हेतुः त्वचीमिति चेत्तदयुक्तं यतो दृष्टासौ सुबहुशःशूलादिप्रभवाऽन्तर्षेदना वेति रटान्तः।इह यत्र बेदनासद्भावस्तत्रास्ति कर्म यथा त्वक्पर्यकस्यत्याह । “बाहिमित्यादि" बहिनिवेदनस्यापि बहिर्लगुडा न्ते,अस्ति चान्तर्वेदना ततः कर्मणाऽपि तत्र नवितव्यमेवेति । किविघातजन्यवेदनारहितस्यापीत्यर्थः । यदि ह्ययं नियमः स्याद्यदु च मिथ्यात्वादिभिः प्रत्ययैः कर्म बध्यते ते च जीयस्य यथा त बहिर्ल गुडघातादिवदनासद्भाव एवान्तर्वेदना प्रादुरस्ती बहिःप्रदेशेषु तथा मध्यप्रदेशेष्वपि यथा मध्यप्रदेशेषु तथा ति तदा स्यादपि त्वदभिप्रेतं न चैवं यतोऽनुभूयते दृश्यते च बहिःप्रदेशेष्वपि सर्वत्र सन्ति तेषामध्यघसायविशेषरूपत्वादध्यबहिर्वेदनाभावेऽपि यथोक्तान्तवेदना तत्कारणभूतेन मध्ये क घसायस्य च समस्तजीगतत्वादिति । तस्मास्मिथ्यात्वादीनां मणाऽपि भाव्यमिति सिद्धोऽस्मत्पक्ष इति । अथैव मन्यसे बहि कर्मबन्धकारणानां जीवे सर्वत्र सद्भावात्तत्कार्यत्तूतं कापि स्वक्पर्यन्तवर्त्यपि कर्म मध्येऽपि शूलादिवेदनां जनयति न सर्वत्रैव तत्रास्ति न पुनर्वहिरवे तस्माद्वययः पिएमकीरनीरापुनमध्ये कास्ति तदयुक्तं यतो यदि बहिर्वतिविभिन्नदेशस्थि- दिन्यायाजीवेन सहाधिभागेनैव स्थितं कर्मेति प्रतिपद्यतां मितमपि कर्मान्यस्मिन्मध्यलक्षणे देशान्तरेधेदनांकरोतीत्यभ्युप- थ्यानिमान इति आह । ननु यदि जीवकर्मणोरविनागस्तगम्यते एवं तर्हि कथं केन हेतुना अन्यशरीरगतं कर्म अन्यस्य हिं सद्वियोगाभावान्मोकानाव इत्युक्तमेव दूषणामत्याशङ्कयाह । यज्ञदत्तादेर्वेदनां न करोति। ननु करोतु नामैवमपि देशान्तरत्वा अविभागठियस्स वि से, विमोयणं कंचनोवलाणं च । विशेषादिति भावः । अत्र पराभिप्रायमाशय परिहर्तुमाह । नाणं किरियाहि कीरइ, मिच्चत्ताईहि वायाणं ।। अह भे संचर मई, न बहिं तो कंचुगो म्व निच्चत्थं । (से) तस्य कर्मणो जीवेन सहाविभागेन स्थितस्यापिकाकंचुगवं पि वेयाणा, सव्वाम्म विहीसई देहो ॥ चनोपमयोरिव विमोचनं वियोगो ज्ञानक्रियाज्यां क्रियते। तथा मथ भवतो मतिः एकस्य देवदत्तशरीरस्य बहिरन्तश्च सञ्च- तस्यैव कर्मणो मिथ्यात्वादिभिरादानं ग्रहणं जीवेन सह संयोगो रति तत्कर्म ततस्तत्र बहिरन्तश्च घेदनां जनयति न शरीरान्तरे | विधीयत इत्यर्थः । दमत्र हृदयम् । इह जीवस्याविभागेनावस्वाधारशरीरे बहिरन्तश्च संचरणादन्यशरीरे वसंचरणादिति। स्थान विधा विद्यते आकाशेन सह कर्मणा च । तत्राकाशेन अत्रोच्यते (न बहिमित्यादि) ततस्तईि सर्पस्य कञ्चुकव- सह यदविभागावस्थानं तन्नवियुज्यत एव सर्वर्द्धिमवस्थानात्। ज्जीवस्य बहिरवे कर्म नित्यं तिष्ठतीति नित्यस्थमिति यद्भ- यत्न कर्मणःसहाविनागावस्थानं तदप्यनव्यानां न वियुज्यते जवतो मतं तन्न प्रामोति किं तु कदाचिदहिः कदाचित्त्वन्तः क. व्यानां तु कर्मसंयोगस्तथाविधज्ञानतपःसामग्रीसद्भावे वियुर्मणः सञ्चरणान्युपगमात्कञ्चुकवन्नित्यं बहिरेव तिष्ठतीति नि- ज्यते वह्नयोषध्यादिसामग्रीसत्वे काञ्चनोपासंयोगवदिति । यमस्याघटनालवत एव तदिति नावः । किंच कर्मणः सञ्च-| तथाविधज्ञानादिसामग्रयनावे तु भव्यानामपि कर्मयोगः कदापि Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५० ) अभिधानराजेन्द्रः | कम्म न नियम व णं जयसिद्धिर विरहित बोए जस्सि इति पचनास भव्याः कथं ते व्यपदिश्यन्ते इति चेमुच्यते। योग्यतामात्रेण न च योग्यः सर्वोऽपि वियुत्पते प्रतिमादिपर्याय योग्यानामपि तथाविचारापाणादीनां तथापि सामादियादित्य विस्तरेण प्रागेपणधरवादे अस्पार्थस्य विस्तरेणोत्यादकर्मजीववियुज्यते अयोग्याविभागेनावस्थितत्वादित्यनैकान्तिकमुपायतोयाविगि नरकाशनोपलादिभियंनिसारात् ननु प्रस्तुत जीवकर्मविभागः केनोपायेन विघटित इति न्यभिनिमेष ज्ञान क्रियोपायतः इति मिथ्यादिभिर्हि जीवकर्मसंयोगः क्रियते मिथ्यात्वादिविपक्कनूताश्च सम्यग्ज्ञानादयोऽतस्तैस्तद्वियोगैर्युकियुक्त एवं नमेोजनादिनादिभिस्तजनिता संयोगवदिति । अयादेवादिषु देवादियुद्ध्यानगमनचन्द नासिकयाभिवस्य कर्मणा तेन तु दद्यादानशीपालन समितिया दिक्रियास्तद्वियोग - स्याशङ्कयाह ॥ कह वा दाणे किरिया - साफ नेह तच्विधायम्मि | किं पुरिसगारस, तस्से वा सज्यमेगंतो ॥ असुनो तिव्वाईओ, जह परिणामो तदज्जणे भिमयो । तह तव्त्रिहो च्चिय सुभो, किं नेट्टो त्रियोगे वि ॥ वाशब्दो युके कथं वा हन्त कर्मणः आदाने ग्रहणे क्रियाणां साफल्यम ययेय न तु दद्यादानादिक्रियाणां तद्विघाते साफल्यमिति प्रेर्यते किमत्र राज्ञामाज्ञा प्रभवति न तु युक्तिः । किं चेदमपि प्रयोऽसि किं पापस्थामध्यावृतपुरुपकारसाध्यं एतो " हापि संबध्यते एकं कर्मणः श्रादानमिष्यते एकं तु यत्तस्य निर्जरणं तत्तस्यैव संयमादिस्थानविदितपुरुपकारस्यासाध्य मिष्यते “ मेवेश्वर जयतः स्वेच्छारूपसंहरा (तोति) तस्माद्यथा येन प्रकारेण तीव्रमन्दमध्यमभेदभिन्नोऽशुनपरिणामस्तदर्शने तस्य कर्मणमुपादानं देतुर्नवतोऽ भिमतस्तथा तेनैव प्रकारेण तद्विध एव तीव्रादिभेदभिन्नशुभप रिणामोऽशुभविपक्षत्वात् कर्माजनयिक योगे तुः किं नु युक्तियुक्तत्वादेव पति नायः । तस्मानीबेन सहाविनागस्थितस्यापि कर्मणः सिको वियोग इति । विशे । श्र० म० द्वि० । कर्मविषये शाखान्तरीयमतम् । विषाकर्मादि, पतश्च नवकारणम् । ततः प्रधानमेवैतत् संज्ञाभेदमुपागतम् ॥ " अपियेति" अविद्या वेदान्तिनां फ्रेश सांख्यानां कर्म जैनानाम, श्रादिशब्दाद्वासना सौगतानां पाशः शेवानाम्, यतो यस्माच्चकारो वक्तव्यान्तरसूचनार्थः । भवकारणं संसारहेतुस्ततस्तस्मादविद्यादीनां भयकारणमाद्धेतोः प्रधानमेवैतदस्मदज्यु पगतं कारणं सत्संज्ञामेदं नाम नानात्यमुपागतम् । द्वा० १६ ० यो०वि० । “कम्मति प्ति वा कलुसांत या वजंति वारं ति वा पंको त्ति वा मझो त्ति एगठिया इति" व्य ०१ ४० । अय कति कर्मत्याशङ्कचाद परसपरसा तं चउदा मोपगस्स दितो । कम्म तत्कर्म पूर्वव्यवशिष्टायें मनुष चतुःप्रकारं चतुभेद जवतीति शेषः । कथमित्याह ( पयरिसपरसत्ति ) इह गम्ययपः कर्माधारे इति पञ्चमी यथा प्रासादात्प्रेते इति । ततश्च प्रकृतिस्थितिरप्रदेशमा प्रकृतिबन्धस्थितिबन्धरसबन्धप्रदेशबन्यतयेत्यर्थः । तत्र स्यनुभागबन्धानां यः समुदायः स प्रकृतिवन्धः अध्यवसाय विशेष तस्य कर्मदसिकस्य यत् स्थितिका नियमनं स स्थितिबन्ध कर्मलानामे वा धात्यात या यो रसः सोऽनुभागबन्धो रसबन्ध इत्यर्थः । कर्मपुत्रञ्जानामेव यग्रहणं स्थितिरसनिरपे कदलिकसंख्याप्राचान्ये करोति प्रदेशः "विश्वधस्स विई, परसबंधे पपसगढ़णं जं । साण रसो अनागो, त समुद्र पगाजे" अन्य समुदायस् रिस्थतिकालायचारणम अनुभागो रसः प्रोका प्रदर्स " यः इदं च प्रकृतिस्थितिरसप्रदेशानां स्वरूपं मोदकस्य कणिका मिलकस्य दृष्टान्ताद् दृष्टान्तेन भावनं यमदन्तादित्यत्र तृती पार्थे पञ्चमी । यदाद पाणिनिः स्वकृतणे व्यत्ययोप्या सामिति । यथा वातविनाशिषव्यनिष्पन्नो मोदकः प्रकृत्या वातमुपशमयति । पितोपशमकद्रव्यनिर्वृत्तः पित्तं कफापहारि समुद्भूतं कफमित्येयं स्वभावा प्रकृतिः स्थितिस्तु तस्यैव क स्यचिद्दिनमेकम, अपरस्य तु नियम एवं पावकस्यचिमा सादिकमपि का नवति ततः परं विनाशादिति । रसः पुनः मधुरादिरूपस्तस्यैव कस्यचिदेकगुणोऽपरस्य द्विगुणो पस्य त्रिगुण इत्यादिकः प्रदेशाश्च कणिकादिरूपास्तस्यैव कस्यचिदेकप्रसूतिप्रमाणाः सम्यस्य तु प्रकृतिमा qपरस्य सेटकादिमाः एवं कर्मणोऽपि पचनानादिच्छादनस्वनावा प्रकृतिः अपरस्य दर्शनावरणरूपा श्रन्यस्य आह्रादादिप्रदान कणा कस्यचित्सम्यग्दर्शनादिविघात जननस्वनावेत्यादि । स्थितिश्च तस्यैव कस्यचित्रित्सागरोपमकोटाकोटीरूपा अपरस्य तु सप्ततिसागरोपमकोटाकोटिनकपेत्यादि । रसस्वनुनामशब्दवाच्यस्यैवैक स्थान द्विस्थानत्रिस्थानादिरूपः प्रदेशा अल्पयतरहुतमादिरूपा इति कर्म० । 1 5वि कम्मे पत्ते तं जहा पदेशकम्मे चैव अणुभाकम्मे पेव (स्था० २ डा० ) चपि कम्मे परणचे तं जहा पगडीकम्मे किम्मे अणुभावकम्मे पदेसकम्मे । स्था० ४ ० / (१५) मूत्युत्तरप्रकृत्यादिना हैकि निरूप्य नामादितोऽविधत्यमा । मूलपगड उत्तर-पग अडपंचसयमेये ि मूलप्रकृतयः सामान्यरूपा अष्टावष्टसंख्या यत्र तन्मूलप्रकृत्यष्टम उत्तरप्रकृतीनां मूलप्रकृतिविशेषरूपाणामत्पञ्चाशतं दा यस्य तदुत्तरप्रकृत्यष्टपञ्चाशच्छतभेदमिति । कर्म० । श्राचा० । सूत्र० । उत्त० । नं । भ० पा० प्रा० श्रावण श्रन्त० | पं० [सं० । अथ कर्मप्रकृतय उच्यते कम्मा बोकामि, आपुर्ति जहक ॥ जेहिं बद्धो अयं जीवो, संसारे परिवत्तई । १ १ हे जम्बूस्वामिन्! अहं यथाक्रममानुपूर्व्या अनुक्रमेण तानि श्रष्ट Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) कम्म अभिधानराजेन्डः। कम्म कर्माणि वक्ष्यामि । क्रियन्ते मिथ्यात्वाविरतिकपाययोगै? तुभिः निमित्ते नवतः । तथा हि ज्ञानावरणमुपचयोत्कर्षप्राप्त विषाजीवेन ति कर्माणि असंख्यानि। यद्यप्यानुपूर्वी त्रिविधा वर्तते । कतोऽनुभवन् सहमसूदमतरवस्तुविचारासमर्थमात्मानं जानानः तथापि यथाक्रम पूर्वानुपूर्या प्राकृतत्वात् तृतीयास्थाने प्रथमा । खिद्यते नुरिझोका झानावरणकर्मक्षयोपशमपाटवोपेतश्च सूदमतानि कानि कर्माणि यैरष्टनिः कर्मबको नियन्त्रितोऽयं जीवः सूक्ष्मतराणि वस्तूनि निजप्रया विन्दानो बहुजनातिशायिनसंसारे चतुतिन्त्रमणे परिवर्तते विविधान् पर्यायान् । मात्मानं पश्यन् सुखं वेदयते । तथाऽतिनिविदर्शनावरणविनाणावरणं चेव, दंसणावरणं तहा । पाकोदये जात्यन्धादिरनुभवति दुःखसंदोई बचनगोचरातिका. वेयणिज्जं तथा मोई, आनकम्मं तहेव य ॥ न्तदर्शनावरणकयोपशमपटिष्टतापरिकरितश्च स्पटचकुरायुपेतो यशावद्वस्त निकुरम्बं सम्यगवत्रोकमानो वेदयते अमन्दमानन्दनामकम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य । संदोहम । तत एतदर्थप्रतिपत्त्यर्थ दर्शनावरणानन्तरं वेदनीयएवमेयाइ कम्माई, अट्टे व न समासो । ग्रहणं वेदनीयं च सुखदुःखे जनयतीन्यभीपानीविषयसं. युग्मम् । एवममुना प्रकारेण एतानि अष्टौ कर्माणि समासतः | बन्धे चावश्यं संसारिणां रागद्वेषौ तौ च मोहनीयहतुको तत संकेपतो ज्ञेयानि इति शेषः । एतानि कानि तत्र प्रथमं ज्ञानावर- एतदर्थप्रतिपत्तये वेदनीयानन्तरं मोहनीयग्रहणं मोहनीयमूढा. णं कर्म चैव पादपूरणे । तथा द्वितीयं दर्शनावरणं दर्शनं श्व जन्तवो बहुरम्नाः परिग्रहप्रवृति कर्मादानासक्ता नरकाद्यायुसम्यक्त्वमावृणोतीति दर्शनावरणं प्रतीहारवत् सम्यक्त्वनूपं कमारचयन्ति । ततो मोहनीयानन्तरमायुर्ग्रहणं नरकाद्यायुप्को. न दर्शयति । २ । तथा वेदनीयं वेद्यते सातासाते अनेनेति धे। दये चावश्य नरकगत्यादीनि नामायुदयमायान्ति । तत आयुदनीय मधुलिप्तखङ्गधारातुल्यं तृतीयं कर्म । तथा पुनर्मोहं मु- रनन्तरं नामग्रहणं नामकर्मोदये च नियमानुचनीचान्यतरगोह्यते मूढो नवति जीवोऽनेति मोहो मद्यचत् चतुर्थ मोहनीयं । त्रकर्मविपाकोदयेन नवितव्यमतो नामग्रहणानन्तरं गोत्रग्रहणं मोहाय योग्यं मोहनीयं कर्म शेयम् । तथैव च आयाति स्वकी- गोत्रोदये चोच्चैः कुलोत्पन्नस्य प्रायो दानाभान्तरायादिकयायावसरे इत्यायुः गतिनिस्सरितुमिच्छन् अपि जीयो निर्गन्तुं न पशमो नवति राजप्रकृतीनां प्राचुर्येण दानवाभादिदर्शनात् नीशक्नोति यस्मिन् सति निगडबह श्व तिष्ठतीत्यायुषः स्वन्नावः चैः कुशोत्पन्नस्य तु दानवानान्तरायाधुदयो नीचजातीनां तथा पञ्चममायुष्कर्म तथा नामयति चतसृष गतिषु मवानान् दर्शनात् । तत एतदर्थप्रतिपत्त्यर्थ गोत्रानन्तरमन्तरायग्रहणपर्यायान् प्रापयति जीवं प्रति इति नाम चित्रकारवत् नामक- मिति । कर्म०॥ में षष्ठं झेयम् । गोऽयन्ते आहूयते बघुना दीर्घेण वा शब्देन जी नैरयिकाणां कर्मप्रकृतयः । वाउनेनेति गोत्रं कुम्नकारवत् घटकाशशरावकुएमकादिभाण्ड- नेरझ्याणं ते ! कति कम्मपगडीओ ? पमत्तानो। कृद्भवति इदं गोत्रकर्म सप्तमम् । तथाऽन्तर्मध्ये दातृग्राहकयो गोयमा ! एवं चेव । एवं जाव वेमाणियाणं प्रका० विचासे आयातीत्यन्तरायो यथा राजा कस्मैचिहातुमुपदिशति तत्र भाण्डागारिकोऽन्तराले विश्नकृद्भवति ताहगन्तरायं कर्म - ट्रमं नवति । अत्र चाष्टानां कर्मणामादौ ज्ञानावरण दर्शनावरणं च इत्थं कर्मणां मूलप्रकृतीरुक्त्वोत्तरप्रकृतीराह । प्रतिपादितम् । तत्र आत्मनः स्वभावस्तु शानदर्शनरूप पवास्ति नाणावरणं पंचविह, सुयं आनिणिवोहियं । अतस्तदावरणमादावुक्तम् । यान्यां कर्मन्यां जीवस्य स्वभाव | ओहिनाणं च तश्यं, मणनाणं च केवलं ।।४।। आवियते अतस्तयोर्मुख्यत्वं ज्ञानदर्शनयोश्च समानत्वेऽपि अ- शानावरणं कर्म पञ्चविधं कथितं श्रुतज्ञानावरणम् । तथा तरङ्गत्वेन विशेषतो ज्ञानोपयोगे एव सर्वसम्धीनां प्राप्तिःस्यात् आमिनिबोधिकं मतिज्ञानं तदावरणं द्वितीयम् । तृतीयमवतस्मात् ज्ञानस्य प्राधान्यादादौ तदावरणमुक्तं तदनु सामान्य धिज्ञानावरणम् । तथा मनोज्ञानं मनःपर्यायज्ञानावरणं चतुज्ञानोपयोगत्वाद्दर्शनावरणमुक्तम् । एवं शेषकर्मणामपि विशे र्थम् । तथा पञ्चमं केवलज्ञानावरणम् । बस्तु स्वयमेव शेयः ।३। (उत्त०३३ अ०) । नन्वित्थं कानावर अथ दर्शनावरणस्य द्वितीयकर्मणो भेदानाह । णाशुपन्यासे किंचिदस्ति प्रयोजनमुत यथाकथञ्चिदेव प्रवृत्त निदा तहेव पयसा, निद्दानिदा य पयलपयला य । इति ? अस्तीति घूमः किं तदिति चेपुच्यते । इह ज्ञानं दर्शनं च जीवस्य स्वतत्त्वनुतं तदनावे जीवत्वस्यैवायोगात् चेतनाम तत्तो व थाणगिछी, उ पंचमा होइ नायव्वा ॥ ५॥ कणो हि जीवस्ततः स कथं ज्ञानदर्शनानावे भवेत् ज्ञानदर्श निद्रा सुखजागरणरूपा । तथैव प्रचला द्वितीया स्थितस्यो. नयोरपि च मध्ये प्रधानं ज्ञानं तद्वशादेव सकलशास्त्रादिविचा पविष्टस्य समायाति । तृतीया निद्रानिद्रा दुःखप्रतिबोधा । रसन्ततिप्रवृत्तेः । अपि च सर्वा अपिलब्धयो जीवस्य साका चतुर्थी प्रचलाप्रचला । चलमानस्य या आयाति सा प्रचला. रोपयुक्तस्य जायन्ते न दर्शनोपयोगोपयुक्तस्य । “सब्बाओ ल प्रचला । ततः पञ्चमी स्त्यानगृद्धिनाम्नी शेया स्त्याना पुष्टा कीयो, सागारावोगावउत्तस्स नो अणागारोवोगाव गृद्धिलॊभो यस्यां सा स्त्यानगृद्धिः । अथवा स्त्याना संहता उत्तस्सेति" वचनप्रामाण्यात् । अन्यश्च यस्मिन् समये सकल उपचिता ऋद्धिर्यस्यां सा स्त्यानर्द्धिः यस्या उदये हि वासुदेकर्मविनिर्मुक्तो जीवः संजायते तस्मिन् समये कानोपयोगोपयु वार्द्धबलः प्रबलरागद्वेषवांश्च जन्तुर्जायते । अत एव दिनचिक्त पवन दर्शनोपयोगोपयुक्तो दर्शनोपयोगस्य द्वितीयसमये तितार्थसाधिनी इयं पञ्चमी भवति । ५।। ऽभावात् । ततोज्ञानं प्रधानं तदावरणकं ज्ञानावरणं कर्म ततस्तत् चक्खुमचक्खुओहिस्स, दरिसणे केवझे आवरणे । प्रयममुक्तं तदनन्तरं च दर्शनावरणं ज्ञानोपयोगात् च्युतस्य दर्श- एवं तु नवविगप्पं, नायव्वं दरिसणावरणं ॥६॥ नोपयोगेऽवस्थानात् । एते च ज्ञानदर्शनावरणे स्वविपाकमुपद- ' एवं तु अमुना प्रकारेण नवविकल्पं नवविधं दर्शनावरणं कर्म शयन्ती यथायोगमवश्यं सुखपुःखरूपवेदनीयकर्मविपाकोदय- ज्ञातव्यम दर्शनं सम्यक्त्वमावृणातीति दर्शनावरणम् । पश्च Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - (२६०) कम्म अभिधानराजेन्द्रः। निद्राः पूर्वगाथायामुक्ताः । चत्वारोऽमी भेदास्ते के उच्यन्ते यदा दर्शनप्रकृतिषु मोहो प्रपति अथवा प्रौपशमिकादिकं मोह(चम्बुमचफ्लुओहिस्स दरिसणे इति ) तत्र चक्रनुमचक्खु- यति तदापि सम्यक्त्वमोहनीयमुच्यतेोप्रथमिथ्यात्वमोहनीयस्थओहिस्सेत्येकं पदं चक्षुश्च प्रचक्षुश्च अवधिश्व चकुरचक्षुरव- रूपमुच्यते। सम्यक्त्वान्नावे मिथ्यात्वम् अगुरुदलिकस्यरूपं यत. धिस्तस्य चक्षुरचक्षुरवधेरावरणं चक्षुरचक्षुरवधेरित्यत्र प्राकृ- स्तत्वे प्रतत्वरुचिरतत्वे तत्वरुचिरुत्पद्यते तन्मिथ्यात्वं तत्र मुहाते तत्वात् द्वन्द्वे एकत्वं पुस्त्वं च दर्शने रूपसामान्यग्रहणे यदावरणं इति मिथ्यात्वमोहनीयम् । यन्नु सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीयं ततु च पुनः केवले केवलज्ञाने यदावरणम् एवं नवविधम । चक्षुषा शुद्धाशुद्धदलिकरूपं यस्माजिनधर्मोपरि रागोऽपि न भवति रश्यते प्रायते इति चतुर्दशनं तदावृणोति आच्छादयतीति द्वेषोऽपि न भवति अन्तर्मुहूर्तस्थितिरूपं यथा नारिकेरद्वीपचक्षुर्दर्शनावरणम् ।। तथा चक्षुपोऽन्यदचतुः श्रोत्रवक्त्ररस. घासिपुरुषोऽन्योपरि राग्यपि न भवति द्वष्यपि न भवति ता. नास्पर्शरूपमिन्द्रियचतुष्कं तेन अचक्षुषा दृश्यते इति अच- हक स्वभावं मिश्रमोहनीय तृतीयमुच्यते । एतास्तिनः प्रकृखुर्दर्शनं तदावृणोतीति अचक्षुर्दर्शनावरणं रूपवद्रव्यं सामान्य- तयो दर्शने सम्यक्त्वे । अथ दर्शनस्य सम्यक्त्वस्य च मोहप्रकारण मर्यादासहितं दृश्यते इति । अवधिदर्शनं तदावृणो- नीयकर्मणो शेया इति शेषः । सम्यक्त्वस्य अज्ञानं सम्यक्त्वतीति अवधिदर्शनावरणम् । एवं त्रयो भेदाश्चतुर्थं पुनः केवले मोहनीयं मिथ्यात्वस्य प्रज्ञानं मिथ्यात्वमोहनीयं मिश्रस्य मोहो केवल दर्शनेऽप्यावरणं शेयं केवलं सर्वव्यपर्यायाणां सामान्येन मिश्रमोहनीयमिह हि सम्यत्वमिथ्यात्वमिश्ररूपाः जीवस्य धर्मा स्वरूपं दृश्यते इति केवलदर्शनं तत्र यदावरणं केवलदर्शना- उच्यन्ते ।। दर्शनमोहनीयं त्रिविधमुक्त्वा । अथ चारित्रमोहघरणम् । एवं निद्रापञ्चानां निद्राचतुर्णामावरणानां च एक- नीयभेदानाह (चरित्तेत्ति) गाथापूर्वमेवोक्ता । अथान्धयः त्रीकरणात् नवविधं दर्शनावरणं हातव्यमित्यर्थः। ६ । तीर्थकरैश्चारित्रमोहनं कर्म द्विविधंव्याख्यातं चारित्रे चारित्रग्रवयागीय पि दुविहं, सायमसायं च शाहयं । प्रहणे मोहयति मूढं करोति इति चारित्रमोहनम् । तत्र हि चारित्रमोहनं यत्र चारित्रफल जानन् अपि तन्नाद्रियते तद सायस्स य बहभेया, एमेवासायस्स वि ॥७॥ द्वैविध्यमाह । कषायमोहनीयं प्रथमं कषायाः क्रोधादयश्चवेदनीयं कर्म अपि हिविध वेदितुं योग्यं वेदनीय कर्म हिने स्वारस्तैर्मोहयतीति कषायमोहनीयम् ।१ । तथा नोकषायैर्नदमाख्यातं कथितमेकं सातं च पुनरसातम् । तत्र साद्यते शा वभिर्दास्यादिषटुवेदत्रिकरूपैर्मोहयतीति नोकषायमोहनीयम रीरं मानसं च सुखमनेनेति सातं सातावेदनीयं ततोऽन्यदसा- ।१०।तत्र यत्प्रथम कषायमोहनीयं कर्म तत्षोडशविधं भवति । तमलातावेदनीयमित्यर्थः । तु पुनः सातस्यापि सातावदनी कषाया हि क्रोधमानमायालोभाः प्रत्येकमनन्तानुबन्धाःप्रत्यायस्यापि यहवोऽनुकम्पादयो भेदा भवन्ति । एवमसातस्यापि प्र. ख्यानाप्रत्याख्यानसंज्वलनरूपैश्चतुभिर्भेदैः षोडशभेदाः भवसातावेदनीयस्यापि बहवः पर्तिशोकसन्तापादयो दा भव- न्ति । अथ नोकषायज मोहनीय कर्म सप्तविधं नवविधं घा न्ति इति शेषः ॥ ७॥ भवति हास्य १रत्य२ रति ३ भय ४ शोक ५ जुगुप्सा ६ वेदत्रमोहणिजं पि दुविहं, दसणे चरणे तहा । याणां च सामान्यावगणनया एकत्वमेव गम्यते हास्यादिदंसणे तिविहं वुत्तं, चरणे विहं नवे ॥८॥ पएं घेदश्च एवं सप्तविधम् । यदा हि त्रयो वेदाः पुंस्त्रीनपुंस. करूपाः गएयन्ते तदा नवविधं नोकषायजं मोहनीय भ. सम्मत्तं चेव मिच्चत्तं, सम्मामिच्छत्तमेव य । वतीत्यर्थः । ११। एयाओ तिन्नि पयमीओ, मोहणीज्जस्स दंसणे || अथायुष्कर्मप्रकृतीराह । चरित्तमोहणं कम्मं, सुविहं तु विपाहियं । नेरक्ष्यतिरिक्खा उ, मणुस्सा न तहेव य । कसायमोहणिज्जं च, नो कसाय तहेव य ॥ १०॥ देवा न चउत्थं तु, पाउकम्मं चनविहं ॥१३॥ सोलमविहजेएणं, कम्मं तु य कसायजं । आयुष्कर्म चतुर्विधं भवति यथा नैरयिकतिर्यगायुः निरये सत्तविहनवविहं, वा कम्मं नो कसायजं ॥ १० ॥ भवा नैरयिकाः नैरयिकाश्च तिर्यञ्चश्च नैरयिकतिर्यञ्चस्तेषातिसृणां गाथानामर्थः । मोहयति जीवं घृर्णयति मधवत् पर मायु रयिकतिर्यगायुः आयुश्शब्दस्य प्रत्येक संबन्धः । तथैव घशं करोतीति मोहस्तवई मोहनीयं कर्म अपि द्विविधं भवति तृतीयं मनुष्यायुश्च पुनश्चतुर्थ देवायुः । एवं चतुर्विधमादर्शने तथा चरणे दर्शने दर्शनविषये मोहनीयं तथा चरणे चर युर्भवति ।१२। णविषये मोहनीयम । तत्र दर्शनं तस्यरुचिरूपं चरणं विरतिरू ___ अथ नामकर्मप्रकृतीराह । पम् । तत्रापि दर्शने यन्मोहनीयं तत्रिविध तीर्थकरैरुक्तं चर नामकम्मं तु सुविहं, मुहं अमुहं च पाहियं । णे चारित्रे यन्मोहनीय तद्विविधं घेत॥ ॥रश्यन्ते झायन्ते सुहस्स बहुभया, एमेव असुहस्स वि ॥ जीवादयः पदार्थाः अनेनेति दर्शनम् । तत्र मोहयति मृढीकरो- नामकर्म द्विविधं व्याख्यातं शुभं च पुनरशुभं शुननामकर्म अशुनतीति दर्शनमोहनीयं त्रिविधं सम्यक्त्वम् १ मिथ्यात्वं २ सम्यग्- नामकर्म एवं द्विविधम् । तत्र शुजस्य गुभनामकर्मणो बहुम्नेदाः मिथ्यात्वं ३ मिश्रमित्यर्थः । एव पाइपूरणे सम्यक्त्वमोहनीयं मि- सन्ति । पचभवानस्य अशुजनामकर्मणोऽपि बहुभेदा नवन्ति । श्यात्वमाहेनीयं मिश्रमोहनीयम् । तत्र सम्यक्त्वं हि मिथ्यात्व- तत्र शुन्नस्य उत्तरोत्तरजेदतोऽनन्तन्नेदत्वेऽपि मध्यमापेक्कया सस्यैव पुबा अशुरूपुस्माः अत्यन्तविशुका नवन्ति तदा सम्य- | सत्रिंशद्भदा नवन्ति ते चामी मनुष्यगति १देवगति २ पञ्चन्द्रिक्यं कथ्यते । तत्सम्यक्त्वमेव दर्शनं कथ्यते दर्शनसम्यक्त्वयो- यजात्यौ ३ दारिक ४ वैक्रिय ॥ श्राहारिक ६ तैजस कार्मण ८ नोमान्तरमत्र गृह्यते । यदा सम्यक्त्वं मिथ्यात्वप्रकृतित्वं नजति समचतुरस्त्रसंस्थान९वज्रऋषभनाराचसंहननी १०१११दारिकासम्यक्त्वस्थ अतीचारा लगन्ति तदा मिथ्यात्वं भवति । ड्रोपाङ्गा १५ हारकाङ्गोपाङ्ग १३ प्रशस्तवर्ण १४ प्रशस्तगन्ध Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६१) निधानराजेन्द्रः । कम्म १५ प्रशस्तरस १६ प्रशस्तस्पर्श १७ मनुष्यानुपूर्वी २० देवा२०२० पराघ २१ मा २२ सपो २३ धोत २४ प्रशस्तविहायोगति २५ त्रस २६ बाद २७ पर्याप्त २८ प्रत्येक २९ स्थिर ३० शुभ ३१ सुभग ३२ सुस्वरा ३३ देय ३४ यशःकीर्ति ३५ निर्माण ३६ तीर्थकरनामकर्म ३७ एताः सर्वा अपनाया सुजनामकर्मणः प्रकृतयो] शेषाः। तथा अ शुभनामकर्मणो मन्यममेदपि चतुखिंशदाय द्यथा । नरकगति १ निर्यग्गत्ये २ केन्द्रिय ३ द्वीन्द्रिय ४ त्रीईन्द्रिय ५ चतुरिन्द्रियजाति ६ ऋषभनाराच ७ नाराचा ८ नाराच ९ कीलिका १० सेवार्तकसंहननानि ११ न्यग्रोधमण्डसंस्थान १२ सादि १३ वामन १४ कुब्ज १५ हुएमका १६ प्रशस्तवर्णा १७ प्रशस्तगन्धा १० प्रशस्तरसा १० प्रशस्तस्प शे २० नरकानुपूर्वी २१ तिर्यगानुपू २२ व्युपघाता २३ प्रश स्तविहायोगति २४ स्थावर २५ सूक्ष्म २६ साधारणा २७ प यता २० स्थिरा २० जुन ३० दुभंग ३१ ःस्वरा ३२ नादेया ३३ यशः कीर्तिरूपाः ३४ एताइच श्रगुननरकत्वादि निबन्धनस्वेन अशुभाः । श्रत्र च बन्धसंघाते शरीरज्यो वर्णाद्यवान्तरमैदाः वर्णादिभ्यः पृथग् नविवक्ष्यन्ते एताः प्रकृतयस्तु मध्यमविवकया प्रोक्ताः उत्कृष्टविवया तु १०३ प्रोक्ताः सन्ति १३० उत्त० ३३ ० ( नामक मतीनामपि भेदानामादिशब्देषु ) अथ गोत्रकर्मकृत्यनकि गोयं कम्मं वि, उच्चनीयं च आहियं । अहो एवं नीयं पि आहिये। १४ । गोत्रं कर्म द्विविधं उच्चं च पुनर्नीचं च । तत्र उच्च मुच्चैर्गोत्रमि क्ष्वाकुजात्यादि उच्चैर्युपदेश हेतु जातिकुल रूपया श्रुत तपोलानाचिन्नुत्यादयमत्रं भवति (एवमिति) मेच जातिमानिवन्धहेतुत्वाश्रीमपि नी चैत्रमपि नी. पदेशरेराण्यात १४ - अथान्तरायप्रकृतीराद दाणे लाने भोगे य उ-बनोगे वीरिए तहा | पंचमिंतरायं, समासेण वियाहियं ।। १५ ।। अन्तसमासेन संकेपेण पञ्चविधं ध्यायतं तत्पि माह । दाने लाभे भोगे उपनोगे तथा वीर्य एतेषु पञ्चसु अन्तरायत्वात् पञ्चविधमन्तरायम् । तत्र दीयते इति दानं तस्मिन् दाने, लभ्यते इति आमस्तस्मिन् लाभे समुज्यते पुष्पादारादिपदा नोगतस्मिन्गे शुकादीनि इति उपनोगस्तस्मिन् उपजोगे । तथा विशेषेण ईर्यवेद्यतेऽनेनेति वीर्य तस्मिन् वीर्ये सर्वत्रान्तरायमिति संबध्यते । विषयभेदात्पञ्चविधमन्तरायम् । यत्र यस्मिन् सति चतुरे ग्रहीतरि देये वस्तुनि तस्य फलं जानन्नपि दाने न प्रवर्तते तद्दानान्तरायम् १ यस्मिद् [विशिऽपि दातार सते याचनानिपुणो ऽपि या फोन लन्तम २ वाद सत्यपि जो शोति तद्भोगान्तरायम् ३ वेनोपभोग भोग्य वस्तुनि सत्युपोतुं न शक्यते तदुपभोगान्तरायम् ४ यद्वतवान् नीरोगस्तरुणोऽपि तृणमपिनोति तस्य पुरुषस्य दीर्यान्तरायं कर्मम उत्त०३३ ॐ प्रज्ञा० न० पं० सं० ( इहावश्यकत्वात्तरप्रयः नाममा संकीर्तने दर्शिता यथास्थानं तु विस्तरे व्याख्याताः ) कम्म अयमत्र संग्रहः । सावरणनामाणं दो एहं कम्मारणं एकावन्नं उत्तरकम्मपगमीओ पछताओ । दर्शनावरणस्य नयनारिहादित्येकपात्। नाणावरणिज्जस्स नामस्म अंतरायस्स एतेसिं सिएह कम्मपगमी याच उत्तरपगमीओ पाचाओ। दंसणावरणिज्जनामानुयाणं तिरहं कम्मपगडीणं पपन्नं उत्तरपगडीओओ । (सत्यादि) दर्शनावरणीयस्य प्रकृतयो नाचत्यात त्येषं पश्यपाशदिति । स० । नाणावर ज्जिस्स वेयणिय आउचनामांतराइयस्स एएसि पंचदं कम्मपगमीणं अट्ठावन्नं उत्तर पगमीओ पताओ। ( नाणेत्यादि ) तत्र ज्ञानावरणस्य पञ्च वेदनीयस्य द्वे आयुषनयारिंशदन्तरायस्य पचेतिष्टा शदुत्तरप्रकृतयः ॥ मोहसिन रजा सचदे कम्पपगडीने एगुणसचरिं उत्तरपगमी पत्ताओ । मोहनीयवर्णानां कर्मणामेकोनसप्ततिरुत्तरप्रकृतयो भवन्तीति कथं ज्ञानावरणस्य पञ्च दर्शनावरणस्य नव वेदनीयस्य द्वे आयुपत्र नाम्नो विचार अन्तरायस्य पचेति ॥ छाई कम्मपगडीणं आमतवरिवज्जाणं सत्तासीद उत्तरपगमीओ पान्ताओ। सप्ताशीतिरुत्तरप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः कथं दर्शनावरणादीनां प शितिः चितिस्तासां मनेोकसंख्या स्यादिति ॥ आउयगोत्तज्जाएं बराई कम्मपगमीणं एकारण उइउत्तपीओ पत्ताओ । युवजन पचामिति ज्ञानावरण वेदनीयमोमीनामान्तरायाणां क्रमेण पञ्च नाति हि पञ्च दानामिति । स०६७ स० । कम्मपगमणं सत्तण्उइ उत्तरपगमीओ पमत्ता ॥ या नास्ति तदेवमुक्ताः सर्वकर्मणामुत्तरप्रकृतयः (२०) संप्रति तासामेयाययन्वित्यादिविभागप्रतिपादनार्थ माइ । नमिव जिर्ण धनबंधोदयसनापायपरियता । सेयर चउह विवागा, बुच्छं बंधविहसामीय ॥ १ ॥ धियादि पये प्रति संबन्धः तनमस्तस्य कमित्याह जिनं रागद्वेपमोहादिवैरिवारजेारं वी तराग परमामय दिमाकरमित्यर्थः धनेन परमा भीष्टदेवतानमस्कारेण ऐकान्तिकमात्यन्तिकं । अनेन च शास्त्रपरिसमाजयतीति प्रत्यस्थोत्तरक्रियासापेकत्वात्तरक्रियामाई । भवबन्धोदयादि वक्ष्ये (कर्म० ) बन्धश्च उदयश्च सह वग्धोदय सन्ति । ततो ध्रुवशब्दस्य प्र. Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्म स्येकं संबन्धात्राणि बन्धोदयन्ति यासां ताः यसत्यः (पा) सर्वपातिन्यो देशवासिन्यर्थ (पु. ति प्रकृतयः परियत्ति परिवृता परावर्तमानाः ) ( सेवरचि) सेतराः प्रतिपवित्राः नाया थोऽयं धनयन्धिन्यः १ अनुवाद अभ्रुवोदयाः ४ ध्रुवताका अलका ६ सर्वदेशघातिन्यः ७ श्रघातिन्यः पुण्यप्रकृतयः ६ पापप्रकृतयः १० परावर्तमानाः ११ अपरावर्तमानाश्चेति १२ । द्वादश द्वाराणि वक्ष्ये (कर्म० ) - अत्ययीः र कम अनुपयुक्तत्वात् व्याख्या यते) (चदिविवागति) चतुषविपाका છે ये तथा चिति विधानानि विधाने बन्धस्य विधा बन्धविधा प्रकृतिवन्धस्थितिबन्धरबन्धप्रदेश बन्धकणांस्तान् वक्ष्ये । एष च प्रकृत्यादिस्वभावश्चतुर्विघोषकर्मणा उपादानकाल एप बन्यत इति बन्धश्चतुर्विधः सिदो भवति । तथा ममरुकमणिन्यायेन बन्धशब्द इहापि योज्यते ततो बन्धः स्वामित्येन वक्ष्ये । कः कस्याः प्रकृतेः स्थितेर्वाकः कस्यामस्य तीव्रमन्दादिरूपस्य कश्च कस्य प्रदेशाग्रस्य जघन्यत्यादिलक्षणस्य बन्धक इत्यादि स्वामित्वेन वक्ष्ये । चशब्दादुपशमधिकण्यादिकं बच्चे कर्म० पं० [सं० अ ययोदेश निर्देश इति न्यायात्प्रथमतो धिमी प्रकृती स्यासुराह । बचतेयकम्मा - गुरुलहु निम्मणोवघायन यकुच्छा | मिच्छत्तकसायावर - णा विग्धधुवबंधि सगवत्ता ॥ २ ॥ प्राकृताचाङ्गिचचकव्यत्ययेन बन्धिन्यः प्रकृतयः ( समयसति) सप्तचारिहारसंख्या भवन्ति । तथा दिपर्णेोपलकि तं चतुष्कं वर्णचतुष्कं वर्णरसस्पर्शलणं ततो दच च तैजसं च कार्मणं चागुरुप्रभु बेत्यादि वे वर्णचतुष्क सकार्मणा गुरु घुनिर्माणोपघातभयकुत्साः । कुत्सा जुगुप्सा तथा मिध्यात्वं कषायाश्च आवरणानि च मिथ्यात्वकषायावरणानि । तत्र वर्ण तेजसकार्मणा गुरुपुनिर्माणानि इत्येतान नामप्रकृतयः । जयं कुत्सा मिथ्यात्वं कषायाः षोमश इत्येताः एकोनविंशतिमोहनीयप्रकृतयः । श्रावरणानि ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणनवकस्वरूपाणि चतुर्दश । विघ्नमन्तरायं दानलाभभोगोपनोगवीर्यान्तरायनेदात्पश्ञ्चविधमित्येवं सप्तचत्वारिंशदप्येबन्धिन्यो निजतु सद्भावेऽवश्यवन्धसङ्गावादिति उका भुवन्धिन्यः प्रकृतयः । ( २६२ ) अभिधानराजेन्द्रः । तीरनग तरंगगसंपण जाइगइल गइ पुजिगुस्सा | उज्जयाय परघात - तसवीसा गोयवेयरिणयं ॥ ३ ॥ डासाइनुपलदुगरे । उपरि अधुवबंधा | भंगा अवाइसाई अनंतसंगुत्तरा चरो ॥ ४ ॥ तनयः शरीराणि औदारिकवैकिया दारक कृष्णानि ततस्तेज कार्मणयोवन्धित्वेनानित्या उपाङ्गानि मदारिकापाङ्गवैकियाङ्गोपाङ्गाहारकाङ्गोपाङ्गरूपाणि त्रीण्याकृतयः संस्थानानि समचतुरनन्त्रोच परिम मसादिजयामन एमा क्याः पटु संहननानि अस्थिनिचयात्मकानि वज्रऋषभनाराय - - कम्म ऋपननारायनारायानाराम की सिकायांतला पटु । यावत् एकेन्द्रियवेद्रिया पय गतयो देवमनुष्यतिर्यगार कक्ष णाय ततः खगतिर्थिहायोगतिः प्रशस्ता प्रशस्त द्विधा (पु) पदैकदेशे प समुदायोपचारादानुपूज्य देवानुपूर्णमनुजानुपूर्वतिर्यगानुपूर्वी नरकानुपूर्वीरुपायतः जिननामतीर्थकरनाम भ्यास नाम उच्छ्वासनामेत्यर्थः उद्योतनाम आतपनाम पराघातनाम (तसीत) प्रसेनोपसहिता विंशतिवसविंशतिखदशकं स्थावरदशकयर्थः । मोत्रम उच्चगोत्रीयमेदेन द्विया वेदनीयं सातवेदमीयमसात वेदनीयमिति द्विधा स्पादियुगल हास्यरस्यतिशोकानियम् वेदाः स्त्रीपुंसकरूपास्वयः । श्रपि देवायुर्मनुजा स्तिर्यगार्नर का रिति वारि इत्येतास्त्रिसप्ततिप्रकृतयोऽधुवबन्धिन्यो भवन्तीति शेषः । एता तथा सां निजदेतुसङ्गावेऽप्यवश्यबन्धानाचादभुवन्धित्य दि पं पुनरेकेन्द्रियप्रायोग्यप्रकृति सहचरितमेव परायातोच्द्रासनाः पर्यासनाचैव सह बन्धो नापर्यासनखाऽसोयत्वं नान्यदा उद्यतं तु तिर्यग्गतिप्रायोग्यबन्धनेनैव सह बध्यसे आहारकद्विजिननासी अपि यथाक्रमं संयमसम्यपत्यप्रत्य येनैव बध्ये नान्यथेत्यवदधित्व होपशरीरोपाधिकादीनां प्रकृतीनां विपत्याभिजहेतु सद्भावेऽपि नावश्यं वन्ध इत्यवन्धित्वं सुप्रतीतमेन । उता अध्ययन्धिन्यः प्रकृतयः । कर्म० । पं० सं० । 1 (२१) सन्धिम्ययन्धिनीनांना प्रथाघवार्थ यमाणयतीनां भङ्गकान्बन्धमाधिय चचिन्तयन्नाह (भंगा अणादसाई इत्यादि ) ना भङ्गकाश्चस्यारो नवन्ति कथमित्या अनादिसादयोऽनन्तखान्तोत्तराः। 1 इदमुकं भवति । अन्यादिसद्दी यादी येते धनादिसा दयः प्राकृतत्वादादिशब्दस्य लोपः अनन्तसान्तशब्दाः उत्तरे उत्तरपदे येषां ते ऽनन्तसन्तोत्तरास्ते लुग्वेति सूत्रेण पदशब्दस्य सोफः यदि नाभा अहिस्सादयोऽनन्तसान्तोत्तराः सन्तरचत्वारो भवन्ति । तद्यथा अनाद्यनन्तः १ अनादिसान्तः २ साधनन्तः ३ सादिसान्तइवेति ४ उक्ता जङ्गाः । अथ यत्रोदये बन्धे वा ये भङ्गका घटन्ते तानाह । पदमविद वबंधितइयवज्जजंगतिगं । मिच्छम्पि तिनि भंगा, दुहात्रि अधुवा तुरिय जंगा ॥५॥ प्रथमद्वितीयाचनाद्यनन्तै अनादिसान्तलक्षणी प्रवोदवा प्रकृतिषु भङ्गकौ भवतः । तथा हि न विद्यते आदिर्यस्य अनादिकालात् सन्तानभावेन सततं प्रवृते सोऽनादिरनादिश्वासायनन्तरच कदाचिदप्यनुदयाभावादनाद्यनन्तः । श्रयं च भङ्गको निर्माण स्थिरा स्थिरागुरु घुमशुमतैजस कार्मणवर्णचतुष्कनपञ्चकान्तरायम्यदर्शनकाि नां प्रयोदयानामभयद यसो भन्यानां प्रयोदयप्रत्ययो न कदाचिद्भविष्यतीति तथा धनादिश्चासी सान्तश्चानादिसान्तः । तत्र ज्ञानपञ्चकान्तराय पञ्चकदर्शनचतुकरूपाणां चतुमतीनामनादि कालात्संन्ताननादेनानादि स न् यदा कोणमा चरमसमये उद्योद्यते तदा अपनादिसान्तनङ्गक निर्माणस्थिस्थिर पुराना जसका मेरावर्ण चतुष्करणानां द्वादशानामपि नामवोदयकृत Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्म अभिधानराजेन्द्रः । कम्म सततोदयेनानादिरुदयो भूत्वासयोगिकेवलिचरमसमये यदोद- यतस्तेषां न कदाचिन्मिथ्यात्वोदयविच्छेदः समपादि संपयव्यवच्छेदमनुभवति तदा नादिसान्तभङ्गक ति। ध्रवन्धिनीषु त्स्यति वेति । अनादिसान्तस्त्वनादिमिथ्यादृष्टस्त प्रथमतया पूर्वोक्तस्वरूपासु सप्तचत्वारिंशत्संख्यासु तृतीयवनजङ्गत्रिकं भ. सम्यक्त्वहाभे मिथ्यात्वस्याभावात् सादिसान्तः पुनः प्रवति । तथा हि यो बन्धोऽनादिकालादारज्य सन्ताननावेन स- तिपतितसम्यक्त्वस्य सादिके मिथ्यात्वोदये संपन्ने ततं प्रवृत्तो न कदाचन व्यवच्छेदमागे न चोत्तरकालं कदाचिदू पुनरपि सम्यक्त्ववाभान्मिथ्यात्वोदयाभावे संनवतीति (दुहा व्यवच्छेदमाप्स्यते सोऽनाद्यनन्तोऽ नव्यानामेव जवति । यस्व- वि अधुवा सुरिअनंगत्ति) द्विधापि द्विनेदा अपि बन्धमाश्रित्योनादिकायात्सततं प्रवृत्तोऽपि पुनर्बन्धव्यवच्छेदं प्राप्स्यति असाय- दयमाश्रित्या-वा अध्यवन्धिन्योऽध्रवोदयाइचेत्यर्थः । तुरीयश्चनादिसान्तोऽयं नव्यानाम् । साधनन्तबकणस्तु तृतीयभङ्गका तुर्थो भङ्गः सादिसान्तल कणो यास ताः तुरीयभङ्गा भवन्ति । शून्य एव न हि यो बन्धः सादिर्भवति स कदाचिदनन्तः संजव तत्राध्यबन्धिनीनां पूर्वोक्तत्रिसप्ततिसंख्याप्रभृतीनामध्रवबन्धितीति तृतीयभङ्गकवर्जनम् । यः पुनः पूर्व व्यवच्छिन्नः पुनवन्धनेन त्वादेव सादिसान्तसक्वणः एक एव नङ्गो भवति । तथाऽध्योसादित्वमासाद्य कालान्तरे भूयोऽपि व्यवच्छेद प्राप्स्यति सोऽयं सादिसान्त इत्येवंस्त्ररूपं साद्यनन्तलकणतृतीयशून्यभनव दयानामुदयः सहादिना नदयविच्छेदे सति तप्रथमतयोदयजितनङ्गकत्रयं ध्रवबन्धिमीषु नवति । सूत्रेऽपि पुंस्त्वं प्राकृतत्वा भवनस्वनावेन वर्तत इति सादिः । सादिश्चासौ सान्तश्च त् । प्राकृते लिङ्ग व्यभिचार्यपि जवति यदाह पाणिनिः स्वप्राक पुनरुदयव्यवच्छेदात्सपर्यवसानश्च सादिसान्तस्ततश्चाध्रुवोदतसकणे निङ्ग व्यजिचार्य्यपीति । तत्र प्रथमभङ्गकस्तासां सर्वा दयानामयमेवैको नङ्गो भवति नान्यो ध्रुवत्वादेवेति भावः । सामप्य नव्याश्रितः सुप्रतीत एव ध्रवबन्धिनीः प्रति तद्वन्धस्या- नक्ताः सनावार्था ध्रवबन्धिन्योऽभवबन्धिन्यश्च प्रकृतयः प्रसनाद्यनन्तत्वादिति । द्वितीयभङ्गकस्तु ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनाव- ङ्गतो ध्रुवानवोदयानां प्रकृतीनां नङ्गकाइच। रणचतुष्कान्तरायपञ्चकाकणानां चतुर्दशप्रकृतीनामनादिका संप्रति ध्रवोदयप्रकृतिद्वारनिरूपणायाह ! लात्संन्तानभावेनानादिस्तत्सूक्ष्मसंपरायचरगसमये यदा बन्धो निमिणयिरायिरगुरुल-दु सुहसुहतेअकम्म चउवना । व्यवद्यिते तदा जवति । श्रासामेव चतुर्दशप्रकृतीनामपशान्तमोहे यदा अबन्धकत्वमासाद्यायुःकयेणासाकयेण बा नाणंतरायदंसण-मिच्छ धुवउदयसगवीसा।६। प्रतिपतितः सन् पुनर्बन्धेन सादिबधं विधाय नूयोऽपि सू (निमिणत्ति ) प्राकृतत्वान्निर्माणं स्थिरास्थिरम् ( अगुरुत्ति) दमसंपरायचरमसमये बन्धव्यच्छेदं विधत्ते तदा सादिसान्त अगुरुनघु शुभाशुभं तैजसं कार्मणं चतुर्वर्णगश्वरसस्पर्शलकणसवणश्चतुर्थः । चतुर्दशानां च प्रकृतीनां तृतीयभङ्गको न मित्येता द्वादश नाम्नो ध्रवोदया ज्ञानावरणपञ्चकमन्तरायपञ्चक बत्यते इति संस्वलनकाय चतुष्कस्य तु सदैवाप्तानादिव दर्शनचतुष्कं मिथ्यात्वमिति सप्तविंशतिप्रकृतयो ध्रुवोदया नित्यो न्धभावो यदा तत्प्रथमतया अनित्तबादरादिवन्धव्यवच्छेदं दयाः। सर्वासामपि स्वोदयव्यवच्छेदकालं यावद्व्यवच्छिन्नोदयविधत्ते तदाऽनादिसान्तस्वभावस्तस्य द्वितीयो भङ्गायदा ततः।। त्वादिति अनिहिता ध्रवोदयाः प्रकृतयः । प्रतिपतितः पुनर्वन्धेन संज्वधनवन्धं सादि कृत्वा पुनरपि काला इदानीमध्वोदयाः प्रकृतीराइ । न्तरेऽनिवृत्तिबादरादिभावं प्राप्तः सन् तान् जन्त्स्यति तदा सा. थिरमुभियर विण अधुव-बंधी मिच्छा विण मोहधुवबंधा । दिसान्तस्वरूपः संज्वलनचतुष्कस्य चतुर्थ इति । निझामचला. तैजसकामणवर्णचतुष्कागुरुलघूपघातनिर्माणभयजुगुप्सास्वरू निदोषघायमीसं, सम्म अ पणनवइ अधुवुदया। ७। पाणां त्रयोदशप्रकृतीनामनादिकालादनादिबन्धं विधाय यदा इतरशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धात् स्थिरेतरशुभेतरप्रकृतिचतुष्कं अपूर्वकरणाकायां यथास्थानं बन्धोपरमं करोति तदा द्वितीयो विना स्थिरमस्थिर शुभमशुभं विना शेषा एकोनसप्ततिसंख्याभङ्गकः । यदा तु ततः प्रतिपतितः पुनर्बन्धविधानेन सादित्वमा- अध्ययन्धियः प्रकृतयस्तथा हि तैजसकर्मिणवर्ज शरीरत्रिकसाद्य भूयोऽपि कालान्तरेऽपूर्वकरणमारूढस्य बन्धाभावस्तदा मङ्गोपाङ्गत्रयं संस्थानषद् संहननषटु जातिपञ्चकं गतिचतुष्क चतुर्थ इति । चतुर्णा प्रत्याख्यानावरणानां बन्धो देशविरतगुण- विहायोगतिद्विकमानुपूर्वीचतुष्कं जिननाम मच्चासनाम न्योस्थानकं यावदनादिस्ततः प्रमत्तादौ बन्धोपरमात्सान्त इति द्वि- तमातपं पराघातं त्रसबादरपर्याप्तकप्रत्येकसुजगसुस्वरादेययतायो नङ्गः । ततः प्रतिपतितो नूयोऽपि बन्धनेन सादित्वमासाद्य | शकीर्तिस्थावरसमापर्याप्तकसाधारणपुर्भगःस्वरानादेयाययदा पुनः प्रमत्तादाववन्धकोभवति तदा चतुर्थो भनका अप्रत्या | शःकीर्तिरुपमुश्चोत्रं नीचैर्गोत्रं सातासातवेदनोयं हास्यरती ख्यानावरणानां त्वविरतसम्यदृष्टिं यावदनादिबन्धं कृत्वा यदा दे अरतिशोको सीपुंनपुंसकरूपं वेदत्रयमायुश्चतुष्कमिति । तथा शविरतादी प्रवन्धको नवति तदा द्वितीततः प्रतिपतितो भू- मिथ्यात्वं विना मोद्भवबन्धिन्योऽष्टादश तद्यथा पोमश योऽपि तानेव बन्नाति पुनस्तेषां यदा देशविरतेवबन्धको ज- कपायाः जयं जुगुप्सा निकापञ्चकमुपघातनाम मिश्रं सम्यवति तदा चतुर्थ इति । मिथ्यात्वस्त्यानिित्रकानन्तानुबन्धिनां क्त्वमिति पश्चनवतिरध्रवोदया व्यवभिन्नस्याप्युदयस्य पुत मिथ्यामिरनादिवन्धको यदा सम्यक्त्वायाप्तौ बन्धोपरमं क- नरुदयसमावादिति । यथेचं मिथ्यात्वस्याप्यध्रवोदयतैव युगेनि तदा तिीयः । पुनर्मिथ्यात्यगमनेन तान् बध्वा यदा नू ज्यते सम्यक्त्वप्राप्ती व्यवस्छिन्नस्यापि तदुदयस्य मिथ्यायोऽपि सम्यक्त्वनामे सति नूयोऽपि बन्धं न विरुध्यते तदा च त्वगमने पुनः सजायादित्यत्रोच्यते प्रासां च प्रकृतीनां येषु तुर्थः । इत्येवं ध्रववन्धिनानांनङ्गकत्रयं निरूपितमिति । तथा मि गुणस्थानकेषु गुणप्रत्ययतोऽद्याप्युदयव्यवच्छेदो न विद्यते थ्यात्वस्य ध्रुवोदयस्य भङ्गाः । अनाद्यनन्ता १ नादिसान्त १ अथवा व्यकेत्रकाद्यपेक्वया तेप्येव गुणस्थानकेषु कदाचिदसौ सादिसान्त ३ स्वनावारत्रयो नवन्ति । तत्रानाद्यनन्तोऽनव्यानां भवति कदाचिनेति ता पवाधुत्रोदया यथाभिप्राया मिथ्याह Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६४) कम्म अनिधानराजेन्फः। कम्म टेरारज्य कीणमोहं यावदुदयो व्यवच्चिन्नो वर्तते । अथ च न | धिक्कारत्ति) वैक्रियैकादशकं देवगति १ देवानुपूर्वी २ नरकगति ३ सततमसी जवतीनि मिथ्यात्वस्य तु नेदं सक्कणं यतस्तस्य यत्र। नरकानुपूर्वी ४ वैक्रियशरीर ५ वैक्रियाङ्गोपाङ्ग ६ बैकियसंप्रथमगुणस्थानके नाद्याप्युदयव्यवच्छेदस्तत्र सततोदय एव न घातन ७ वैक्रियवैक्रियबन्धन ज्वैक्रियतैजसबन्धन । वैक्रियकाकादाचित्क इति ध्रयोदयतैव तस्येति । उक्तमध्वोदयप्रकृतिहा- मणबन्धन १० वैक्रियतैजसकामणबन्धनं ११ जिननामायुश्चतु रम् । कर्म । कम् (हारसगत्ति)प्राकृतत्वादाकारलोपः प्राहारकसप्तकम् । संप्रति ध्रुवसत्ताकाधवसत्ताकप्रकृतिद्वारद्वयं निरूपयन्नाह ॥ श्राहारकशरीरापहारकाङ्गोपाङ्गारहारकसंघाता ३ हारकबन्धना४ तसवनवीससग-तेयकम्मधुवबंधिसेसवेयतिगं । हारकतेजसबन्धना ५ हारककार्मणबन्धना ६ हारकतैजसका मणबन्धनाख्यम् ७ उचैर्गोत्रमित्येता अष्टाविंशतिसंख्याः प्रकृतआगितिगवेयणियं, मुजुयलसगउरलसासचक ॥८॥ यो ध्रवसत्ताका उच्यन्ते। अयमिद भावार्थः सम्यक्त्यं मिथं चा खगइतिरियजुगनीयं, धुवसत्तासम्ममीसमणुयदुर्ग । अभव्यानां प्रनूतभव्यानां च सत्तायां नास्ति कषांचिदस्तीति । विउविकारजिणाउ, हारसगुच्चा अधुवसत्ता ॥६॥ तथा मनुष्यद्विकं वैक्रियकादशकमित्यतास्त्रयोदश प्रकृतयस्तेजोइह बिंझतिशब्दस्य प्रत्येकं योगात्रसविंशतिश्च तत्र त्रसेनोप- वायुकायिकजीवमध्यगतस्योद्वर्तनाप्रयोगेण सत्तायां न बज्यन्ते सविता विशतिस्त्रसविंशतिस्तथा हि त्रसबादरपर्याप्तकप्रत्ये- तत श्तरस्य तु भवति । तथा वैक्रियैकादशकमर्समाप्तत्रसत्वकस्थिर राजसुभगसुस्वरादेययशःकीर्तिनामेति त्रसदशकम। स्था- स्य संबन्धाभावाद्विहितैतद्वन्धस्य स्थावरजावं गतस्य स्थितिवरसूक्मापर्याप्तकसाधारणास्थिरागुनगर्भगदुःस्वरानादेया-1 क्येण वा सत्तायां न बज्यते तदन्यस्य संभवत्यपि । तथा सयश-कीर्तिनामेति स्थावरदशकमुन्नयमीलने त्रसविशतिरियम-1 म्यक्त्वहेतौ सत्यपि जिननाम कस्यचिद्भवति कस्यचिन्नेति । च्यते। वर्णविंशतिरियं कृष्णनीललोहितहरितसितवर्णभेदात्पश्च तथा देवनारकायुषी स्थावराणां तिर्यगायुष्कं त्वहमिन्डाणां वर्णाः । सुरज्यसुरनिगन्धनेदेन द्वौगन्धौ तिक्तकटुकपायाम्लमधुर | देवानां मनुजायुष्कत्वं पुनस्तेजोधायुसप्तमपृथिवीनारकाणां सर्वभेदात्पञ्च रसाः। गुरुलघुमृदुखरशीतोष्णस्निग्धरूकस्पर्शनेदाद- थैव तद्वन्धानावात्सत्तायां न बज्यत अन्येषां तु संभवत्यपि । तप्रौ स्पर्शाः । सर्वमीलनेन वर्णविंशतिरित्युच्यते वर्णेनोपनविता था संयमे सत्यपि आहारकसप्तकं कस्यचिद्वन्धसद्भावे सत्तायां विंशतिरिति कृत्वा (सगतेयकम्मत्ति तैजसकार्मणसप्तकं (कर्म०)। स्यात्तदनावे कस्यचिन्नति । तथाच्चैर्गेत्रमसप्राप्तत्रसत्वस्य संब(धुवबंधिसेसत्ति) वर्णचतुष्कतैजसकार्मणस्योक्तत्वाच्चेषा ए- न्धानावाद्विहितैतद्वन्धस्य स्थावरनावं गतस्य स्थितिकयेण वा कचत्वारिंशत् ध्रुवबन्धिन्यः।तथा हि अगुरुलघुनिर्माणोपघातन- सत्तायां न लभ्यते तेजोवायुकायिकजीवमध्यगतस्योद्वर्तनप्रयोगेयजुगुप्सामिथ्यात्वकषायपोमशकज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरण -1 ण वा सत्तायां न बज्यते इतरस्य तु भवतीत्यासामध्रवसत्ताकनवकान्तरायपञ्चकमिति । वेद त्रिकं स्त्रीपुनपुंसकलकणम् । ता । उक्तं ध्वसत्ताकाधवसत्ताकप्रकृतिद्वारद्वयम् । कर्मः। [प्रागितिगत्ति]"तणुवंगागिसंघयगजागखगश्त्यादि" | संप्रतिगुणस्थाकेषु कासांचित्प्रकृतीनां ध्रवाध्रवसत्तां गाथात्रसंज्ञा गाथोक्तमाकृतित्रिकं गृह्यते। तत प्राकृतयः संस्थानानि षट् संहननानि षट् जातयः पञ्चेत्येवमाकृतित्रिकदाम्देन सप्तदश येण निरूपयन्नाह। भेदा गृह्यन्ते वेदनीयं सातासातन्जेदात हिंधा। द्वयोर्चुगलयोःसमा- पढमतिगुणेसु मिच्छ, नियमा अजयाइअट्ठगे जज । हारो वियुगलं हास्यरत्यरतिशोकरूप [ सगनरबत्ति ] प्रौदा सासाणे खनु सम्म, संतं पिच्छाइ दमगे वा । १ । रिकसप्तकम् औदारिकशरीरौ १ दारिकोङ्गापाङ्गौ २ दारिकसंघातनी ३ दारिकबन्धनौ ४ दारिकतैजसबन्धनौ ५ दा. प्रथमा आधास्त्रयस्त्रिसंख्या गुणा गुणस्थानकानि प्रथमत्रिगुरिककामणबन्धनौ ६ दारिकतैजसकार्मणबन्धनरूपम् ७ ( सा. णास्तेषु प्रथमत्रिगुणेषु मिथ्यात्वं मिथ्यात्वनक्कणा प्रकृतिनियसचनुत्ति ] उच्चासचतुष्कमुच्चासोद्योतातपपराघाताख्यम मान्निश्चयेन सद्विद्यमानं सत्तायां प्राप्यत इत्यर्थः । अयताय[ खगतिरिगत्ति ] द्विकशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धात् खग टके अविरतसम्यग्दृघिदेशविरतप्रमत्तसंयताप्रमत्तसंयतापूर्वकतिद्विकं प्रशस्तविहायोगत्यप्रशस्तविहायोगतिमवणं तिर्य रणानिवृत्तिबादरसूक्मसंपरायोपशान्तमोहवकणेषु अगुणस्थाभगतिद्विकं तिर्यगतितिर्यगानुपूर्वीरूपं [नीयत्ति] नीचैर्गोत्रमि नेषु जाज्यं विकल्पनीय कदाचिन् मिथ्यात्वं सत्तायामस्ति स्येतास्त्रिंशदुत्तरशतसंख्याः प्रकृतयो ध्रुवसत्ताका अभिधीयते । कदाचिन्नास्ति । तया हि अविरतसम्यग्दृश्यादिना पिते नास्ति नपशमिते त्वस्ति सास्वादने खनु नियमन ( सम्मति ) सध्रुवसत्ताकत्वं चासां सम्यक्त्वज्ञानादर्वाक सर्वजीवेषु सदैव सद्भावात् । अथानन्तानुबन्धिनां कषायाणामुज्ज्वलनसंजवा म्यक्त्वं सम्यग्दर्शनमोहना यत्रकणा प्रकृतिः सद्विद्यमानं सर्वदेव दध्वसत्ताकतैव युज्यते अतः कथं ध्रुवसत्ताकप्रकृतीनां सभ्यत इत्यर्थः । यत श्रीपशमिकसम्यक्त्वाद्धायां जघन्यतः समयावशेषायामुन्कएतः षमावत्रिकावशिष्टायां सास्वादनो त्रिंशदधिकशतसंख्या संगच्छते मैवं वाच्यो यतोऽवाप्न बज्यते । तत्र च नियमादशाविंशतिसत्कर्मैवासाविति भावः । सम्यवत्त्वागुत्तरगुणानामेव जीवानामेतद् द्विसंयोगो न सर्वजी- मिथ्यात्वादिदशके मिथ्यादृष्ट्यादिषु सास्वादनवर्जितोपशावानामधुवसत्ताकता या न वाप्तोत्तरगुणजीवापेक्क्यैष चिन्त्यते अ- न्तमोहपर्यवसानगुणस्थानकेषु दशसंख्येषु वा विकल्पेन भजनतोऽनन्तानुवन्धिनां ध्रुवसत्ताकतैव। यदि वोत्तरगुणप्राप्त्यपे- या सम्यक्त्वं सत्तायां स्यावच्यते स्यान्न वेति । तथा हि मिकया अध्रवसत्ताकता ककी क्रियते तदा सर्वासामपि प्रकृतीनां थ्यादृष्टौ जीवनादिपदिशतिसत्कर्मण्युदलितसम्यक्त्यपुळे या स्यानानन्तानुबन्धिनामेव यतः सर्वा अपि प्रकृतयो यथास्थान- मिश्रेऽप्युदलितसम्यम्दाने अविरतादौ चोपशान्तमोहन्ति कीमुत्तरगुणेषु सत्सु सत्ताव्यवच्छेदमनुभवन्स्येवेति। तथा(सम्मत्ति) सप्तके सम्यग्दर्शनमोहनीयं सत्तायां न प्राप्यते अन्यत्र मर्यसम्यक्त्वमिश्रं मनुजद्विकं मनुजगतिमनुजानुपूर्वी रूपम् । (विउ- त्र अत्यत इति । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६५) अभिधानराजेन्द्रः। सासणमीसेसु धुंब, मीसं मिच्चाइनवसु भयणाए। हारकतैजसकामणबन्धनलक्षणं ७ चा विकल्पेन भजनया सर्वप्रादुगे अणनियमा, भइया मीसाइनवगम्मि ।११। गुणेषु सर्वगुणस्थानकेषु मिथ्याष्टिप्रभृत्ययोगिकेवलपर्यवसाने षु । सूत्रे चैकवचनं प्राकृतत्वात्ततश्च सर्वगुणस्थानं केषु विकसास्वादनं च मिथं च सास्वादनमिश्रं तयोः सास्वादनमिथः ल्पनया सत्तां प्रतीत्याहारकसप्तकं प्राप्यते । श्दमत्रयम् । यो। बहुलं च प्राकृतवशात् यदाहुः प्रजुश्रीहेमचन्बसूरि योऽप्रमत्तसंयतादिः संयमप्रत्ययादाहारकसप्तकबन्धं समारोह पादाः द्विवचनस्य बहुवचनं यथा “हत्था पाया" इत्यादौ । सास्वा ति, यश्च कश्चिदबिशुकाध्यवसायवशाऽपरितनगुणस्थानके. दनगुणस्थाने सम्यग्मिध्यादृष्टिगुणस्थाने चेत्यर्थः । ध्रवमवश्यं ज्योऽधस्तनगुणस्थानकेषु प्रतिपतति स आहारकसप्तकं न बधाभावन मिश्रं सम्यग्मिध्यादर्शनमोहनीयं सदिति पूर्वोक्तगाथा त्येव तद्वन्धं विनैवोपरितनगुणस्थानकेष्वध्यारोहति तदधस्तनेषु तो ममरुकमणिन्यायादिहापि संबध्यते । श्दमत्र हृदयम् । साखा- सत्तायां नावाप्यते इति तथा (विति गुणेविणा तित्थंति) कोदनो नियमादष्टविंशतिसत्कर्मैव भवति मिश्रस्त्वष्टाविंशतिस- लिकनलकन्यायेन सर्वगुणेषु चेत्यत्रापि संबन्धनीयं सर्वगुणस्थाकर्मा विसंयोजितसम्यक्त्वः सप्तविंशतिसत्कर्मा मुदलितानन्ता- नकेषु द्वितीयतृतीयगुणस्थानके विना सास्वादनमिश्रगुणस्थानुवन्धिचतुष्करचतुर्वंशतिसत्कर्मा वा तत गतेषु सत्ता- नकरहितेषु द्वादशस्वित्यर्थः । वा विभाषया भजनया तीर्थस्थानकेषु मिश्रं सत्ताऽवश्यं लभ्यते पविशतिसत्कर्मा तु करनाम सत्तायां प्राप्यत इति । कश्चिश्व बद्धतीर्थकरनामकर्मामिश्रो न संभवत्येव मिश्रपुञ्जस्य सत्तोदयाच्यां व्यतिरेकेण ऽप्यविशुझिवशात् मिथ्यात्वमपि गच्चलि तदा स्वास्वादनमि. मिश्रगुणस्थानकाप्राप्तेरिति मिथ्यात्वादि नवसु सास्वादन- श्ररहितेषु द्वादशगुणस्थानकेषु तीर्थकरनामकर्म सत्तायामवासम्यग्मिथ्यात्वरहितेषु मिथ्यादृष्ट्याद्युपशान्तमोहपर्यवसान- प्यते तीर्थकरनामसत्ताको हि मिश्रसास्वादनभावं न प्रतिपद्यते नवगुणस्थानकेन्वित्यर्थः । भजनया विकल्पेन मिश्रं स्या- स्वन्नावादेवेति तद्वचनात् । यदुक्तं वृहत्कर्मस्तवभाष्ये "तित्थय. सत्तायामस्ति स्यान्नेति । किमुक्तं भवति यो मिथ्यादृष्टः पट्टि- रेण विहीणं, सीयालसयं तु संतए हो । सासणयम्मि तिसत्कर्मा ये वाऽविरतिसम्यम्दृष्ट्यादय उपशान्तमाहान्ताः उ गुणे, संगमीसे य पयमीणं"। यः पुनर्विशुरूसम्यक्त्वेऽपि क्वायिकसम्यग्दृष्टयस्तेषु मिश्रं सत्ताया नावाप्यते अन्यत्र प्राप्यत सति तन्न बध्नाति तस्य सर्वगुणस्थानकेषु सत्वातून बनते यतो इति । तथा आद्यद्विके प्रथमगुणस्थानकयुगझे मिथ्या दृष्टिसा- ऽनयोः संयमसम्यक्त्ववकणस्वप्रत्ययसद्भावेऽपि बन्धाभावा स्वादनगुणस्थानकद्वय इत्यर्थः (अणत्ति ) अनन्तानुबन्धिनः प्र- नावश्यं सत्तासंभवः । यदुक्तं कर्मप्रकृतिसंग्रहण्याम् (आहाथमकपायाः क्रोधमानमायालोनाख्या नियता अवश्यंभावन स- रगतित्थयरा भजत्ति)पाहारकसप्तकतीर्थकरनाम्नी सत्ता प्रति. त्तायामवाप्यन्ते। यतो मिथ्यादृष्टिसास्वानसम्यग्दृष्टी नियमेनान- भाज्येति भावः । एवमाहारकसप्तके तीर्थकरनामनि च प्रत्येक न्तानुबन्धिनो बध्नाति इति भावः । तथा प्राज्या वक्तव्या विक- सत्तारूपेणावतिष्ठमाने मिथ्यादृटिरपि जन्तुर्भवतीति । निश्चितल्पनीया मिश्रादिनवके सम्यग्मिथ्यादृष्टिप्रभृत्युपशान्तमोहपर्य- मुभयसत्तायामसौ भवति न वेति विनेयाशङ्कायामाह (नोभवसाननवगुणस्थानकेष्वनन्तानुबन्धिनः सत्तामाश्रित्य नक्तव्या यं सते मिच्छत्ति) नो नैवोभयस्याहारकसप्तकतीर्थकरनामइत्यर्थः । श्यमत्र भावना । विसंयोजितानन्तानुबन्धिनश्चतुर्वि- कणद्धिकस्य सत्वे सद्भाये सति (मिच्नेति ) मिथ्यादृष्टिनवेत् शतिसत्कर्मणः सम्यम्मिश्यादृष्टेः कोणसप्तकस्यैकविंशतिसत्कर्म- कोऽर्थः उभयसत्तायां मिथ्यात्वं न गच्चतीति जावः। तर्हि केवणोऽनन्तानुबन्धिरहितचतुर्विंशतिसत्कर्मणो वद्धविरतसम्यम्ह- सतीर्थकरनामसत्तायां कियन्तं कालं मिथ्यादृष्टिनवतीत्याह । ध्यादेरनन्तानुबन्धिनः सत्तायां न सन्ति तदितरस्य तु सन्ती- (अंतमुहुत्तं भवे तित्थेत्ति ) अन्तर्मुहूर्तमन्तर्मुहर्तमात्रकानं प्रवे. ति । एताव शेषकर्मग्रन्थाभिप्रायेणोक्तम् । कर्मप्रकृत्यभिप्रायेण ज्जायत (मिच्छत्ति ) श्त्यस्यात्रापि संबन्धान्मिथ्यादृष्टिर्भवतीति पुनः श्रीशिवशर्मसूरिपादा एवमाहुः । व सतीत्याह (तित्यत्ति) तीर्थकरनामकर्मणि सत्तायां वर्तमाने वीयतापसु मीसं, नियहाणनवगम्मि भश्यध्वं । इति गम्यते । श्दमुक्तं नवति यो नरके बहायुषको वेदकसम्यम्हसंजोयणा उ नियमा, उसु पंचसु हुँति जयब्वा ॥ बिरुतीर्थकरनामकर्मा संस्तोत्पित्सुरवश्यं सम्यक्त्वं परिपूर्वा सुगम चोत्तराईस्येयमकरगमनिका । संयोजयत्यात्म त्यजति उत्पत्तिसमनन्तरमन्तर्मुहूर्तादूर्ध्वमवश्यं सम्यक्त्वं प्र. नोऽनन्तकालमिति "रस्यादिन्यः कर्तरी" त्यनाटि प्रत्यये सं तिपद्यते तस्यायमुक्तप्रमाणः सत्यते इति उक्तं सप्रतिपकं योजना । अनम्तानुषन्धिकषायाः । तुः पुनरर्थे नियमा न द्वयो।। ध्रुवसत्ताकप्रकृतिद्वारम् । ६.० । मिथ्याट्रिसास्वादनयोः सत्तामाश्रित्य भवन्ति यत एतावस्या- (२२) अधुना सप्रतिपकं सर्वदेशघातिप्रकृतिद्वारं प्रतिपादयबाह। मनन्तानुबन्धिनौ बज्नीत इति पञ्चसुपुनर्गुणस्थानकेषु सम्यग्मि- केवलजुयावरणा, पण निदा वारसाइमकसाया। थ्याट्रिप्रभृतिष्वप्रमत्तसंयतपर्यन्तेषु सत्तां प्रतीत्य भक्तव्याः। मिच्छत्ति सव्वघाई, चननाणतिदसणावरणा ॥१३॥ यदि उद्वलितास्ततो न सन्ति इतरथा तु सन्तीत्यर्थः। तदु- संजलणनोकसाया,विग्धं इय देसघाइ य अघाई । परितनेषु पुनरपूर्वकरणादिषु सर्वथैव तत्सत्ता नास्ति यतस्तदनिप्रायेण विसंयोजितानन्तानुबन्धिकषाय एवोपशमश्रेणिमपि पत्तेय तट्ठाऊ, तसवीसा गोयफुगवन्ना ॥ १४ ॥ प्रतिपद्यत इति । केवलजुगलं केवलज्ञानकेवनदर्शनरूपं तस्यावरणे आच्छादके कर्मणी केवबजुगवावरणे केवलज्ञानावरणं केवल दर्शनावरणं आहारसत्तंग वा, सधगुणे वितिगुणे विणा तित्थं ।। चेत्यर्थः। पञ्च निकाः। निझापनिजानिद्रा २ प्रचमा ३ प्रचमा४ नोनयसंते मिच्ने, अंतमुदुत्तं नवे तित्थे । १२। स्त्यानरूपाः५ द्वादशेति संख्या आदिमकषायाः संज्यमनापेआहारकसप्तकमाहारकशरीरापहारकाङ्गोपाङ्गारहारकसंघात- क्या प्रथमकषायाः क्रोधमानमायालोननामैकैकशोऽनन्तानुबजा ३ हारकवन्धना । हारकतैजसवन्धना हारककामणबन्धना६ नभ्य१प्रत्याख्यानावरण २प्रत्याख्यानावरणलवणनामात्रयेण द्वा. Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६ ) अभिधानरराजेन्रू: । कम्म श्र दात्वं मिध्यात्यनेन प्रकारेण सर्वमपि स्वाचार्य गुणं घातयन्तीत्येवंशलाः सर्वघातिन्यो विंशतिसंख्या भवन्तं । - त्यक्करार्थी भावार्थः पुनरयम् इह केवलज्ञानावरणस्य स्त्रावार्यकेवलज्ञानत्रण गुणः स च यद्यपि सर्वात्तथापि सर्वानस्यानन्तमामोत चरणे तस्य सामानावाद यदा देवाचकवराः । " सव्यजीवाणं पि य णं अक्खरस्स श्रणंतभागो निवुग्धामिओ चिति" कथं तर्हि सर्वात्यमिति । यथा च तिबहुसदपटलेम नातितरामुन्नतेन बहुतराया श्रावृतत्वात्स सूर्याप्रतिवचना प्रवर्तते। अ काप्रसरतिमेमु होपहा चंदपुराणमिति वचनादनुना त्याच तथापि प्रका वनज्ञानावरणावृतस्यापि केवलज्ञानस्यानन्तभागोऽनावृत एवास्ते । यदि पुनस्तदध्यावृणुयात्तदा जीवोऽजीवत्वमेव प्राप्नुयात् । यदुक्तम् नन्द्यध्ययने जर पुण सो वि श्रावरिज तो णं जीवो अजीवन्त पाविज " सोऽपि चावशिष्टोऽनन्तनागो जघरानातदिनकरनसर दिभिर्माधिमन पर्यायानावरणैराधियते तदा काविभिगोयामामात्रा वतिने अन्यथा जीवत्वप्रसङ्गान्मतिज्ञानादिविषयां या पनजानी सकेपारणोदयो न भवति कि समितिज्ञानावरणापति केावरणस्य सम स्तवस्तुस्तोम सामान्याचा सर्वे इन्तीति सर्वा भयमपि सामर्थ्यांनावाति सोऽ पानानन्तनागश्च कुरचकुरचिनय शे पो जलधरदृष्टान्तादचार्यस्तथैव यच्चक्रुर्दर्शनादिविषयानर्थादोन किं शनावरणात केलावरण के पलदर्श नावरणकये सत्यपि मतिज्ञानादिचकुर्दर्शनादिविषयाणामर्थाना धमावृणोति सर्वघात 1 श्चित किञ्चिद्वेत्ति तत्र धाराधरनिदर्शनं वाच्यम् । तथाऽनन्तानुबन्धिनोऽप्रत्याख्यानावरणाः प्रत्याख्यानावरणाश्च प्रत्येकं चत्वारो यथाक्रमं सम्यक्त्वं देशविर तिचारित्रं सर्वविरतिचारित्रं स मेव घ्नन्तीति सर्वघातिनो द्वादशापि कषायाः । यः पुनस्तेषां योऽप्ययोपादारादिचिरमणमुपलभ्यते तत्र पारिवाहष्टान्तो वाच्यः । तथा मिथ्यात्वं तु जिनप्रणीततत्वनानस्वरूपं सम्यक्त्वं सर्वमपि हन्तीति सर्वघाति । यन्तु तस्य प्रबलोदयेऽपि मनुष्यपश्यादिवस्तुधानं तदपि परोदाहरणादयसेवमिति प्रावि सर्वपातिन्यः संप्रति देशघातिभ्यो भाग्यन्ते चढ़ना णातिदंसणावरणत्ति ] आवरणशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धान्मतिकानावरणतज्ञानावरणावधिज्ञानावरणमनः पर्यायज्ञानावरणल aणं दर्शनावरणत्रिकं चक्षुदर्शनावरणाऽचकुर्दर्शनावरणाव चिदर्शनावरणरूपमिति । संयतात्वारः क्रोधमानमायासोना नोकपाया हास्यरस्परतिशोकजयजुगुप्साखी वेदपुंवेदन पुंसक वेदस्वरूपा नवपञ्चविधमन्तरा दानलाभभोगोपभोग वीयांन्तरायलक्षणमित्यमुना दर्शितप्रकारेण देशघातिन्यः पञ्चविंशतिसंख्याः भवन्तीत्यक्षरार्थः । भावार्थस्त्वयं मतिज्ञानावरणादिचतुष्कं केवलज्ञानावरणावृतं ज्ञानदेशं हन्तीति देशघा कम्म तीदमुच्यते । मत्यादिज्ञानचतुष्टयविषयभृतानर्थान् यन्नावबुध्यते स हि मत्यावरणाद्युदय एव तद्विषयभूतांस्त्वनन्तगुणान् यत्र जानीते स केवलज्ञानावरणस्यैवोदय इति चक्षुरधिदर्शनावरणान्यपि केवलदर्शनावर सामावृतकेवलदर्शनैकदेशमातृवन्तीति देशघातीनि तथा हिर वचिदर्शनविषयभूतानेवार्थान् एव तदुदाच पश्यति तदधि भूतांस्त्वनन्तगुणान् केवलदर्शनावरणोदयादेव न समीक्षते । तथा संज्वलना नव नोकपायाश्च लब्धस्य चारित्रस्य देशमेव प्रतीति देशप्रातिनस्तेषां मोगुणानामती बारजनकत्वात् । यदवदि श्रीमदाराध्यपादः । " सव्वे विय श्रइयारा जलवा तु उदयो दुति मूल पुरा हो, बा रसहं कसायाण " मिति दानान्तरायादीनि पञ्चान्तरायाएयपि देशघातीत्येव तथा हि दानलाभभोगोपभोगानां तावद ग्रहणचारणयोग्यान्येवइया विषयस्तानि व समस्तइलास्तिकायस्यानन्तरूपे देश एवं वर्तन्ते। अतो दु नानि पुलस्तिकायदेशयतीनि द्रव्याणि महानु मुमोच न शक्नोति तानि दानलाभभोगोपभोगान्तरायाणि तापदेशयातीत्येव यन्तु सर्वलोकयसनि इव्याणि न ददाति न लभते न भुझे नाप्युपभुनानान्तरायायात् । किं तु तेषामेव ग्रहण चारणाविषयत्वेनारायानुष्ठानत्यादिति मन्तव्यम् । बीर्यान्तरायमपि देशघात्येव सर्व वीर्ये न घातयतीति कृत्वा तथाहि सूक्ष्मनिय श्रीयन्तरायकर्मोऽभ्यु दवे वर्तमानस्याप्याहारपरिगमनकर्मलियन्तरम मनादिविषय एतावान पर्यान्तरायकर्मक्षयोपशम क्षयोपशमविशेषतश्च निमोदजीवादी धनप्रति नित्यादिति चेत् । उच्यते केवलाने शेषाबोधलानान्माने केनोदिति निद्रापमपि सर्वस्य स्वावस्थापिक मो दस्ताव बहु बहुत बहुतमं च तारतम्यतीति । केवलिनश्च संभूतं सर्वभीतिदेशघातीदम् । यदि पुनः सर्वघाति स्यात्तदा यथैव मिथ्यात्वस्य कपाद्वादशकस्य च उद्वे शायी सम्पत्वगुणं देश संयमगुणं च जघन्यमपि न लभ्यते तथैव तदुदवेऽपि तदा जघन्यमपि वीर्यगुणं न लभेत न चैवमस्ति दे प्रीतिस्थिमित्युक्ताः सर्व देशघातिन्यः । संप्रतिप क्षभूता अघातिनीयांचिख्यासुराह (अधाईइत्यादि) - तिन्य एताः पञ्चसप्ततिसंख्याः प्रकृतयोऽभिधीयन्ते तद्यथा ( पत्ते यत्ति ) प्रत्येकं प्रकृतयः पराधातोच्वासात पोद्योता गुरुलघुतीर्थकर निर्माणात तया श गोपलम "बंगादिसंपणार सगइपु प्पिस "लक्षणं तत्र समय औदारिकदेकियाहारकतैजस कार्मणलक्षणाः पश्च । उपाङ्गानि त्रीणि । श्रकृतयः संस्थानानि षट् । संहननानि पद् । जातयः पञ्च । गतयश्चतस्रः । लगती है। पूर्व्वानुपूतस्रः एतन्य के प्रकृतयः प शत् । श्रपि चत्वारि । त्रसविंशतिस्त्रसदशकस्थावरदशक मीलनात (गोदुगति) गोत्रशब्देनोपलक्षितं किं (गोय देषणीयमिति ) गाथांशेन प्रतिपादितं गो मिति सातासामेद छेदनीयं द्विधा । तदेवं गोत्रकिशन प्रकृतिचतुष्टयमभिधीयते ( वन्नत्ति ) वर्णगन्धरसस्पर्शख्य:अतः प्रकृतयो] इत्येताः प्रकृतयोऽपानियोन कंचन शानादिगुणं पातयन्तीति कृत्वा केवलं सर्वदेशघातिनीभिः सह सेयमाना एतानियोऽपि सर्वघातिर सविपाकं दर्शयन्ति । देशघातिनीभिः सह पुनर्वेद्यमाना देशघातिरसं यथा स्वयम Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) कम्म अभिधानराजेन्द्रः । कम्म चौरश्चौरैः सह वर्तमानश्चौर इवावभासते । यदभाणि "जाण गोत्रवेदनीयरूपं तत्र गोत्रमुच्चैोवनीचैर्गोत्रदा द्वेधा । वेदनीन चिसो घाइ-त्तणम्मि ताणं पिसव्यघाइरसो । जाया यं सातासातभेदेन द्विन्नेदमिति दुगोयशब्देन प्रकृतिचतुष्टयं गृघाइसगासेण, चोरया बेह चोराणमिति" उक्तं सप्रतिपक्षसर्व- ह्यते (जिननामतसियरतिगत्ति) त्रिकशब्दस्य प्रत्येक संबन्धात देशघातिद्वारम् । कर्म । पं० सं०। प्रसत्रिकं त्रसवादरपर्याप्तकरूपम् । श्तरत्रिक स्थावरत्रिकं स्थासंप्रति पुण्यपापप्रकृतीविवरीपुराह । वरसूदमापर्याप्तकरणम् (सुभगडुब्नगचत्ति) चतुःशाब्दसुरनरतिगुच्चसायं, तसदमतावंगवश्रचउरंसं । स्य प्रत्येकं संबन्धात् सुभगचतुष्कं सुन्नगसुस्वरादेययशाकीर्ति. परघासत्त तिरिया, वाचनपणिदियमुजखगई ।।१५।। रूपं दुर्भगवतुष्कं उभंगदुःस्वरानादेयायशःकातिलकणम् त्रिकशब्दस्य प्रत्येकं योगात् सुरत्रिकं सुरगतिसुरानुपूर्वीसु. (सासंति) उच्छ्वास (जातिगत्ति) जातिशब्देनोपलवितं त्रिकं रायुलक्षणं नरत्रिकं नरगतिनरानुपूर्वीनरायुर्लक्षणं ( उच्चत्ति ) जागश्खग इति" गाथावयवोक्तं जातित्रिकं तत्र जातय एउच्चैर्गोत्रं सातं त्रसदशकं सबादरपर्याप्तप्रत् कस्थिरशुभशु केन्द्रियद्वीन्छियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियाख्याः पञ्च । गत. भगसुस्वरादेययश-कीर्तिलक्षणं तनवः औदारिकवैक्रियाहा यः सुरनरतियङ्नरकरूपाः चतस्रः । खगतिः प्रशस्ताप्रशस्तधिरकतैजसकामणरूपाः पञ्च उपाङ्गानि औदारिकाङ्गोपाङ्गवैकि हायोगतिभेदेन द्विधा । इत्येवं जातित्रिकशब्देन एकादश प्रकृतयाङ्गोपाङ्गाहारकाङ्गोपाङ्गलक्षणानि त्रीणि ( वइत्ति ) वज्रऋ यो गृह्यन्ते । इत्येता अष्टासप्ततिप्रकृतयः । जीव एव विषाकः पभनाराचसंहननं चतुरस्रं समचतुरनं ( परघासत्तत्ति ) परा स्वशक्तिदर्शनलकणो विद्यते यासां ताः जीवविपाका ज्ञातव्या.. घातसप्तकं पराघातोच्यासाऽऽतपोद्योतागुरुलघुतीर्थकरनाम स्तथाहि पञ्चविधज्ञानावरणादयो जीव एवाज्ञानी स्यान्न पुनः निर्माणरूपम् । तिर्यगायुः वर्णचतुष्कं वर्णगन्धरसस्पर्शाख्यं शरीरपुफलादिषु तत्कृतः कश्चिदुपघातोऽनुग्रहो वाऽस्तीति । एवं पञ्चेन्द्रियजातिः शुभगतिः प्रशस्तविहायोगतिरिति । नवविधदर्शनावरणोदयः जीव पवादर्शनीनयति सातासातोदया जीव एव सुखी दुःखी वा संपद्यते अष्टाविंशतिविधमोहनीयोदयावायापुमपगई, अपढमसंठाणखगसंघयणा । जीव एवादर्शनी अचारित्री वा जायते। पञ्चविधान्तरायोदयाजीव तिरिग असायनोआ-बघायइगविगलनरयतिगं ॥१६॥ पवन दानादि कर्नु पारयति । उचीवनीचैर्गोत्रगतिचतुष्क थावस्दसवन्न चउ-कयाय पणयालसहियवासीई। जातिपञ्चकविडायोगतिविकजिनत्रसवादरपर्याप्तकस्थावरसूपावषयमित्ति दोमु वि, वनाशहा सुहा असुहा ॥१७॥ क्ष्मापर्याप्तकसुन्नगचतुष्कदुर्भगचतुष्कोच्चासनामोदयाज्जीव ए वतं तनावमनभवतिन शरीरपुरा इति । इत्येताः सर्वा अपि सुरत्रिकप्रभृतयःशुभखगतिपर्यन्ता पता द्विचत्वारिंशत्संख्याः पुण्याः शुभाः प्रकृतयः पुण्यप्रकृतयः उच्यन्ते । उक्ताः पुण्यप्र जीवविपाकिन्यः पुरुब विषाकिन्य इतिाया अपि केत्रविपाका उक्ता कृतयः कर्म । (पापप्रकृतिविचारः पापपगइ शब्दे) पराव याश्च भवबिपाकाः पुत्रविपाकाश्च वक्ष्यन्ते ता अपि परमातमानप्रकृतयस्तद्भणने च समर्थितं परावर्तमानापरावर्तमान थतो जीवस्यैव पारम्पर्येणानुग्रहमुपघातं च कुर्वन्ति केवलं मुप्रकृतिद्वारद्वयम् । तदेवं समर्थितं “धुवबन्धोदयसंघाताय ख्यतया केत्रनवपुलेषु तद्विपाकस्य वियक्तित्वातद्विपाका उ"पुनपरियत्तासेयर इति" मूलद्वारगाथोपन्यस्तं द्वारद्वाद च्यन्ते इति । आयूंपि चत्वारि नारकायुष्कादीनि पुंस्त्वं च प्राकशकं संप्रति यदुक्तम् । “चउहविवागा पुच्छमिति " तवशात् प्राकृते हि लिङ्गमतन्त्रमेव यदयादि प्रवादिसर्पदर्पसौ. तद्विणिषुः। पर्णेयैः श्रीहेमचन्द्रसूरिपादैः स्वप्राकृतलवणे विङ्गमतन्त्रमिति (२३) प्रथम क्षेत्रविपाकाः प्रकृतीराह । भवन्ति कर्मवशवर्तिनः प्राणिनोऽस्मिन्निति भवो नारकादिप( खित्तविवागाणुपुव्वीउत्ति ) क्षेत्रमाकाशं तत्रैव विपाक र्यायः स च पूर्वायुर्विच्छेदे विग्रहगतरप्यारज्य बेदितव्यो यदाह उदयो यासां ताः क्षेत्रविपाकाः श्रानुपूर्व्यश्च ता नारकतिर्यक नगवान श्रीसुधर्मस्वामी भगवत्याम् “ नेरश्प नेरपसु उववनरामरानुपूर्वीलक्षणा यतस्तासां चतसृणामपि विग्रहगताये. जत्ति" तस्मिन् भवे नारकतिर्यग्नरामररूप एव विपाक नदवोदयो भवतीति । उक्तं च । वृहत्कर्मविपाके । “नरपाउयस्स यो विद्यते येषां तानि नबविपाकानि तथा हि यथासंजवं उदए, नरए वक्ोण गच्छमाणस्स। नरयाणुपुब्बियाए,हि उ-1 पूर्वभवबछान्यागामिनि नवे विपच्यन्त इति भावः । ननु दो अन्नहिं नत्थित्ति, एवं तिरिमणुदेवे, तेसु विवकेण ग यथायुषां देवादिनवेऽवश्यं विपाको भवत्येवं गतीनामप्यतस्ता च्छमाणस्स । तेसिमणुपुब्वियाणं, तहिं उदो अन्नहिं नथि" अपि भवविपाकिन्यः प्राप्नुवन्ति । अनोच्यते आयुर्यद्यस्य भव स्य योग्य निब तत्तस्मिन्नेव नवे वेद्यते इत्यायुपो जयविपा॥२॥ ननु विग्रहगत्यभावेऽप्यानुपूर्वीणामुदयः संक्रमणकरणेन विद्यते । अथ कथं क्षेत्रविपाकिन्यस्ता न गतिवज्जीवविपा कित्वं गतयस्तु विभिन्नभवयोग्या निबका अध्यकस्मिन्नपि भवे किन्य इत्यत्रोच्यते । विद्यमानेऽपि संक्रमे यथा तासां क्षेत्रप्रा सर्वाः संक्रमेण संवद्यन्ते तथा हि मोकगामिनोऽशेषा गतयोम नुष्यनवे कयं यान्ति, तो नवं प्रति गतीनां नैयत्यानावान्न जधान्येन स्वकीयो विपाकोदयो न तथान्यासामतः क्षेत्रविपा वविपाकिन्यः किं तु जीवविपाकिन्यः एवेत्युक्ता जीवविपाका किन्य एवेति उक्ताः क्षेत्रविपाकाः प्रकृतयः । कर्म०। पं० सं०। ___ सांप्रत जीवविपाका भवविपाकाः प्रकृतीराह । जावधिपाकाश्च प्रकृतयः। इदानीं पुझयविपाकिनीः प्रकृतीः प्रचिकटयिषुराह । घणघाइदुगोयजिणणाम,तसियरतिगसुभगभगच उसासं। नामधुवोदयच उत्ता-बघायसाहारणियजोयतिगं । जाइतिगजियविवागा, आऊ चनरो भवविवागा २० पुग्गलविवागिबंधो, पयइटिपरसपएसत्ति ॥२१॥ धनघातिन्यः प्रकृतयः सप्तचत्वारिंशत् तद्यथा ज्ञानावरणं पञ्च- । नाम्नो नामकर्मणो वर्णचतुष्कमिति ( चनुत्तत्ति ) तथा धा, दर्शनावरणं नवधा, मोहनीयमष्टाविंशतिधा, अन्तरायं प-] ध्रचोदया नित्योदयानाम ध्रवोदया द्वादश प्रकृतयस्तद्यथा निर्माणउचधेति । (दुगोयत्ति) गोयवेणिय" मिति वचनात् गोत्रद्विका स्थिरास्थिरागुरुवघुशुभाशुभतैजसकामणवर्णचतुष्कमिति [च Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .(२६०) कम्म अभिधानराजेन्द्रः। कम्म उत्तणुत्ति] तनुशब्देनोपत्नक्तिं चतुष्क " तवंगागिसंघय- उपशमे मोहनीयस्यौपशमिके भावे जाते सति सम्यक्त्वादि. " इति गाथावयवन प्रतिपादितं तनुचतष्कं तत्र तैजसकाम- सम्यक्त्वमापशमिकमादिशब्दाच्चारित्रं च सर्वविरतिरूपमौपशणयोर्धवोदयमध्ये पग्तित्वादिह तनवः औदारिकवैक्रियाहारक- मिकं भवति चतुएणी घातिकर्मणां कायौपशमिके नावे वर्तमाने सकणास्तिनः परिगृह्यन्ते उपाङ्गानि नोणि, प्राकृतयः संस्थाना- | गुणाश्चारित्रादयो ज्ञानदर्शनबाजादयः प्रामुष्पन्ति । तत्र चारिनि पट्, संहननानि षट्, तदेवं तनुचतुष्कशब्देन पता अष्टादश त्रं देशविरतिरूपं सर्वविरतिरूपं वा सर्वविरतिरूपमिति सामाप्रकृतयो गृह्यन्ते । नपघातं साधारणमितरच तत्प्रतिपक्कनूतं प्र यिकं दोपस्थापन परिहारविशुद्धिक सूक्ष्मसंपरायं वा यथात्येकं [जोयतिगंति] 'लज्जोयायवपरघात्ति' वचनादुद्योता- ख्यातं तस्योपशमे कये वा सन्नवात् । ज्ञानं मतिथुतावधिमनः तपपरघातलक्कण मित्यताः षट्त्रिंशत्प्रकृतयः [ पुमालविवाग- पर्यायवकणं न केवलज्ञानं तस्य कायिकत्वात् । दर्शनं चक्षुरयसि] पुद्गलषु शरीरतया परिणतेषु परमाणुषु विपाक उदयो घिदर्शनरूपं तत्रेदं चिन्त्यतेन केवलदर्शनमपि तस्य कायिकत्वात् । यासां ताः पुझसधिपाकिन्यः शरीरपुद्गलेष्वेवात्मीयां शक्ति दर्श- सम्यक्त्वं वायोपशामिक सुप्रतीतम् दानाभादयो दानाजयन्तीत्यर्थः । तथा हि निर्माणस्थिरास्थिराधुदयाचरीरतया प- भोगोपनोगवीर्याणि । आह ज्ञानदर्शने परित्यज्य किमिति चारिरिणतानां पुद्गलानामङ्गप्रत्यङ्गादिनियमनं दन्ताख्यादीनां स्थिर-॥ श्रादयो गुणा इति अभिहितम? उच्यते चारित्रसद्भावे ज्ञानदर्शनत्वं जिह्वादीनामस्थिरत्वं शि:प्रनृतीनां शुजत्वं पादानामशुभ- योरवश्यंनाव इतिज्ञापनार्थ तथा कायिके भावे ज्ञानेसति केवा. त्वमित्यादि तनूदयाच्चरीरतया पुस्ला एव परिणमन्ते अङ्गोपा- दयः केवलझानकेवलदर्शनचारित्रज्ञान अध्यादयः। तत्र ज्ञानावरश्रोदयाच शिरोग्रीवाद्यवयवविनागो जायते प्राकृतिनामोदयात्ते- णकये केवलज्ञानं दर्शनावरणकये केवनदर्शने मोहनीयकये चारियेवाकारविशेषाः संपद्यन्ते संहननोदयात्तेषामेव बज्रऋषभना- त्रमन्तरायक्वये दानादिनन्धयः सकसकर्मक्यपरिनिवृतत्वमिति राचादितया विशिष्टा परिणतिर्नवति। नपघातसाधारणप्रत्येको औदयिके पुनर्जावे विजृम्नमाणे तेन तेनौदयिकेन नावेनैव व्यद्योतातपादीनामपि सर्वेषां शरीरपुद्रलेष्वेव स्वविपाकस्य दर्श- पदेशो भवति यथा प्रबलझानावरणोदये अज्ञानी प्रवनदर्शनाव. नात्सुप्रतीतमेवासां पुदलविपाकित्वमिति । उक्ताश्चतुर्विधविपा- रणोदये अन्धो बधिर एकानचेतनाविकल इत्यादि वेदनीयोदये काः प्रकृतयः। कर्म० 1 पं० संग इह पुनविपाकिनीनामौदयि- सुखी पुःखी वा। क्रोधाद्युदये क्रोधी मानी मायावी योनीत्यादि । कमावत्वमुक्तं ततस्तत्प्रसङ्गेन शेषप्रकृतीनामपि यथासंभवं भा- नामोदये नारकतिर्यङ्मनुष्यदेव एकेन्द्रियोद्धीन्द्रियस्त्रीन्द्रियश्चघानभिधिसुराह। तुरिन्द्रियः पञ्चेन्द्रियस्त्रसो बादरः पर्याप्त इत्यादि । उच्चैर्गोत्रोदये मोहस्सेव नवसमो, खाओसमो चनएह घाईणं । कृत्रियपुत्रोऽयं श्रेष्टिपुत्रोऽयमित्येवमुच्चैःकारं प्रशंसागों व्यपदेशो खयपरिणामियउदया, अट्टएह वि होति कम्माणं ॥ नीचैर्गोत्रोदये वेश्यासुतोऽयं श्वपाकोऽयमित्यादिरूपतया निन्दाप्रधानां कर्मणां मध्ये मोहस्यैव मोहनीयस्यैवोपशमो विपाक गर्भो व्यपदेशः । अन्तरायोदये अदाता अनाभी अजोगीत्यादि । प्रदेशरूपतया विविधस्याप्युदयस्य विष्कम्भणं नान्येषामुपशम संप्रति पारिणामिकभावगतविशेषप्रतिपादनार्थमाह । वह सर्वोपशमो विवक्तितोन देशोपशमस्तस्य सर्वेषामपि क- नाएंतरायदंसण-वेयणियाणं तु भंगया दोन्नि। मणां संजवात् । तथा उदयावलिकाप्रविष्टस्यांशस्य कयणानु- साक्ष्मपज्जवसाणो, वि होइ सेसाण परिणामो ॥ दयावमिकाप्रविष्टस्योपशमेन विपाकोदा धनकणेन नि. ज्ञानावरणान्तरायदर्शनावरणवेदनीयानामपवादापेक्वया सामा. तः कायौपशमिकः । स च चतुर्णामेव घातिलगां झानावरण न्यतः पारिणामिके जावे चिन्त्यमाने द्वौ भको लन्यते । तद्यथा दर्शनावरणमोहनीयान्तरायरूपाणां भवतिन शेषकर्मणां च. अनाद्यपर्यवसानोऽनादिपर्यवसानश्च । तत्र नव्यानधिकृत्यानादिसुर्णामपि च केवलज्ञानावरण केवनदर्शनावरणरहितामां तयो सपर्यवसानस्तया हि जीवकर्मणोरनादिः संबन्ध इत्यादेरभावाविपाकोदयविष्कम्भानावतः क्कयोपशमानवात् । कयपारिणा दनादिमुक्तिगमनसमये च व्यवच्छेदान्सपर्यवसानः। अभव्यानमिकौदयिकनावा अष्टानामपि कर्मणां नवन्ति । तत्र कय प्रा. धिकृत्यानाद्यपर्यसानः तत्रानादित्वनावना प्राग्वत् । अपर्यवसानत्यन्तिकोच्छेदः स च मोहनीयस्य सूदमसंपरायगुणस्थानकस्य त्वं कदाचिदपि व्यवच्छेदानावात शेषकर्मणां मोहनीयायुर्नामगो. चरमसमये शेषाणां तु त्रयाणां घातिकर्मणां वीणकषायगुण प्राणां परिणाम सादिपर्यवसानोऽपि नवति । भास्तामनाद्यपस्थानस्य अघातिकर्मणामयोगिकेवलिनः । तथा परिणमनं परि र्यवसानोऽनादिपर्यवसानरूप इत्यपिशब्दार्थः । इह गाथापूर्याणामः परिणाम एव पारिणामिकः जीवप्रदेशैः सह संबहतया मिश्रीनाघनमिति भावः । यद्वा तत्तदूजव्यक्षेत्रकाबाध्यवसायापे *तुशब्दो भिन्नक्रमवापुत्तराके सेसाणेत्यत्र योज्यते स च कया तथा तथा संक्रमादिरूपतया यत्परिणमनं स पारिणामि विशेषार्थसंसूचकत्वादमुं विशेषं सूमयति । मोहनीयायु मगोको जावः । उदयस्तु प्रतीत एव सर्वेषामपि संसारिजीवानामपि त्राणां काश्चिदेवोत्तरप्रकृतीरधिकृत्यायं सादिपर्यवसानलकणअष्टानामपि कर्मणामुदयदर्शनात्। एष चार तात्पर्यार्थः मोहमी स्तृतीयो नङ्गः प्राप्यते । काश्चित्पुनरधिकृत्य पूर्वोक्तावेव द्वौ नही यस्य कायिकक्कायोपशमिकौपशमिकौदयिकपारिणामिकलक्षणाः तथा ह्यौपशमिकसम्यक्त्वावाप्तौ सम्यक्त्वसम्यम्मिथ्यात्वयोः पञ्चापि भावाः संभवन्ति । झानावरणदर्शनावरणान्तरायाणा संनवः । पञ्चेछियत्वप्राप्तौ वैक्रियपटूस्य सम्यक्त्वप्राप्ती तीमौपशमिकवाः शेषाश्चत्वारः नामगोत्रवेदनीयायुषां कायिकी धरनाम्नः संयमावातावाहारकद्विकस्येति सादिपर्यवसानता दयिकपारिणामिकलवणास्त्रय इति ।। अनन्तानुबन्धिमनुप्यतिको श्चोत्रादीनामुदलितानामपि भूयोऽपि संप्रति यस्मिन भावे ये गुणाःप्रापुषन्ति तत्र तानुपदर्शयन्नाह । बन्धसंजवादायुःप्रकृतीनां च पर्यायेण जवनात स्फुटैव सादिप र्यवसानता। अप्रत्याख्यानक्रोधाद्यौदारिकशरीरादिनीचैगोत्रलसम्मत्ताइउवसमे, खाअोवसमे गुणा चरित्ताई। कणाः पुनरुत्तरप्रकृतीरधिकृत्य नव्यानामनादिसपर्यवसानः खइए केवलमाई, नव्ववएसो उ अोदइए ॥ अजव्यानामनाद्यपर्यवसान इति धावेव भनौ । यदापि Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६ए) कम्म अनिधानराजेन्द्रः। मूलप्रकृतिविषया प्रत्येकं चिन्ता तदाप्येताचेच द्वौ भना- कानि बिस्थानकानि विस्थानकामि चतुःस्थानकानि च । अथ विति । माह कायोपशमिको प्रावः कर्मणामुदये सति | किमिदं रसस्यैकस्थानकत्वद्विस्थानकत्वादि उच्यते । इह शुप्रवत्यनुदये वा? न तावदये विरोधात् । तदादिकायोपश- नप्रकृतीनां रसक्कीरखण्डादिरसोपमोऽशुनप्रकृतीनां तु निम्बमिको भाव उदयावलिकाप्रविष्टस्यांशस्य कये सत्यनुदितस्य घोषातक्यादिरसोपमः पदयति च "घोसायनिबुवमो, असुचोपशमविपाकोदय विष्कम्नलकणे प्रावति नान्यथा ततो जाण सुभाण स्वीरखमुवमों"। कीरादिरसश्च स्वाभाविक एकयादयः कथं वयोपशमः वायोपशमश्चेत्कथमुदय इति । अथा- स्थानक उच्यते द्वयोस्तु कर्षयोरावर्तने कृते सति योऽवशिष्यते नुदय शति पकस्तथा सति किं तेन कायोपशमिकेन भावेन उद- एकः कर्षः स द्विकस्थानकः त्रयाणां कर्षाणामावर्तने कृते सति याजाचादेव विवक्तितफलसिके । तथा हि मतिज्ञानादीनि का- एकः कर्षोऽवशिष्टः विस्थानकश्चतुर्णी कर्षाणामावर्तने कृते नावरणाद्युदयाभावादेव सेत्स्यन्ति किं कायोपशमिकनावपरिक- सत्युछरितो य एकः कर्षः स चतुःस्थानकः । एकस्थानकोऽपि ल्पनेन । उच्यते उदये क्कायोपशमिको भावो न च तत्र विरोधो य-चरसो जललपविन्मुचुलकप्रसृत्यजसिकरककुम्भस्रोणादिप्रतबाह । “ उदये वि य अविरुको मानवसमो अणेगमे उत्ति" पान्मन्दमन्दतरादिभेदत्वं प्रतिपद्यते । एवं द्विस्थानकादयोजर भव तिण्ड एसो, पदेसनदयम्मि मोहस्स" वह कानावर- ऽपि तथा कर्मणामपि चतु:स्थानकादयो रसा प्रावनीया: णीयादीनि कर्माण्यासर्वक्वयात ध्रुवोदयानि ततस्तेषामुदय एष प्रत्यकमनन्तरभेदभिन्नाश्च कर्मणां चैकस्थानकरसात् द्विस्थानकयोपशमो घटते नानुदये उदयानावे तेषामेवासंभवात् तत उ- कादयो रसा यथोत्सरमनन्तगुणाः। पदयति च । “अनंतगाणिया दय एव विरुकः कायोपशमिको जावः। यदपि विरोधोद्भावनं कमे नियरे" तत्र सर्वघातिनीनां देशघातिनीनां वा प्रकृतीनां कृतं यद्युदयः कथं वयोपश, इत्यादि तदप्ययुक्तं देशघातिस्प- यानि चतुःस्थानकरसानि त्रिस्थानकद्विस्थानकरसानि वा स्पकंकानामुदये ऽपि कतिपयदेशधातिस्पर्धकापेक्कया यथोक्तकयो- कंकानि तानि सर्वघातिनीनां सर्वघातीन्येव देशघातिनीनां तु पशमाविरोधात् सचक्कयोपशमो नैकवस्तारुयक्षेत्रकालादि- मिश्राणि कानिचित् सर्वधातीनि कानिचिद्देशघातीनि । शेषासामग्रीतो वैचित्र्यसंभवादनेकप्रकारः। सदय पव वा विरुक एष णि त्वेस्थानकरसानि स्पर्ककानि सर्वाएयपि देशघातीन्येकायोपशमिको भावो यदि जयति तर्हि नसर्वप्रकृतीनां किं तुत्र. व तानि च देशघातिनीनां संजवन्ति न सर्वघातिनीनां कृता याणामेव कर्मणां ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणां मोहनीयस्य स्पर्ककप्ररूपणा ॥२७॥ तर्हि का वातेति चेदत आह । मोहस्य मोहनीयस्य प्रदेशोदये संप्रति यथौदयिको मावः शुको जवति यथा च वयोपकायोपशमिको नावो विरुको न विपाकोदये यतोऽनन्तानुब शमानुविद्धस्तथोपदर्शयति । न्यादिप्रकृतयः सर्वघातिन्यः सर्वघातिनीनां च रसस्पर्ककानि निह एसु सब्बधाई, रसेसु फडेनु देसमाईणं । साण्यपि सर्वघातीन्येव न देशघातीनि सर्वधातीनि चरसस्पकानि स्वघात्यं गुणं सर्वात्मना नन्ति न देशतस्तेषां विपाको जीवस्स गुणा जायं-ति भोहिमणचक्खुमाई य ॥२॥ दयेन कयोपशमसंनवः किं तु प्रदेशोदये। ननु प्रदेशोदयेऽपि क अवधिकानावरणप्रभृतीनां देशघातिनां कर्मणां संबन्धिषु सर्वयंकायोपशमिकनावसंनवः ? सर्वघातिरसस्पर्ककप्रदेशानांस घातिरसस्पीकेषु तथाविधविवाद्धाभ्यवसायविशेषबोन निस्वधात्यगुणघातनस्वभावत्वात्तदयुक्तम वस्तुतत्वापरिका न्दितेषु देशघातिरूपतया परिणमितेषु देशघातिरसस्पर्क फेयपि नात् ते हि सर्वघातिरसस्पर्धकप्रदेशास्तथाविधाभ्यवसायवि चातिस्निग्धेश्वल्परसकृतषु तेषां मध्ये कतिपयरसस्पर्ककगतशेषतो मनामन्दानुभावीकृत्यविरलविरसतया वेद्यमानदेशघा स्योदयावत्रिकाप्रविएस्यांशस्य कये शेषस्य चोपशमे विपाकोतिरसस्पर्क केवन्तः प्रवेशिता न यथावस्थितमात्ममाहात्म्य दयविष्कम्भरूपे सति जीवस्यावधिमनःपर्यायज्ञानचक्षुर्दर्शनाप्रकटयितुं समस्ततो न ते क्योपशमहन्तार इति न विरु बयो गुणाः क्कायोपशमिका जायन्ते प्रापुर्नवन्ति । किमुक्तं नवध्यते प्रदेशोदये कायोपशमिको भावः “ अणेगभेदोत्ति "| ति । यदा अवधिज्ञानावरणीयादीनां देशघातिनां कर्मणां सर्वइत्यत्रेतिशब्दस्याधिकस्याधिकार्थसंसूचनात् मिथ्यात्वाद्यदि घातीनि रसस्पर्सकानि विपाकोदयमागतानि धर्तन्ते तदा तद्विहादशकषायरहितानां शेषमोहनीयप्रकृतीनां प्रदेशोदये पिपा षय औदयिक एक एव भावः केवलो नवति । यदा तु देशघाकोदये था कयोपशमोऽविरुरू ति द्रष्टव्यम् । तासां देशघाति तिरसस्पर्क कानामुदयस्तदा तदुदयादौदयिको भावः कतिपयात्वात् तत्राप्ययं विशेषस्ताः शेषा मोहनीयप्रकृतयो भ्रवोदयास्त नां च देशघातिरसस्पर्ककानां संबन्धिन उदयावमिकाप्रविध स्यांशस्य कये शेषस्य चानुदितस्योपशमे क्कायोपशमिक शति तो विपाकोदयानाचे क्कायोपशमिके भावे विज़म्भमाणप्रदेशो क्योपशमानुविद्ध औदयिकनावः । मतिश्रुतावरणचतुर्दर्शनावइयसंनषेऽपिन ता मनागपि देशविघाप्तिन्यो जवन्ति बिपाको रणप्रकृतीनां तु सदैव देशघातिनामेव रसस्पर्धकानामुदयो न दये तु प्रवर्तमाने कायोपशमिकनावे मनामानिन्यमानकारित्वा-1 सर्वघातिनां तेन सर्वदापि तासामौदयिककायोपशमिको भावी देशघातिन्यो जवन्ति ॥२६॥ सन्मिश्री प्राप्येते न केवल मौदयिकः।इह प्राक् प्रकृतीनां रसश्चइह प्रकृतीनामौदयिको भावो द्विधा प्रवति तद्यथा शुखः तुरादिस्थानक उक्तस्तत्प्रसङ्गेन संप्रति यासां प्रकृतीनां यावकायोपशमिकानुविरुश्च । तत पतव्यकीकरणाय प्रथमतः न्ति बन्धमधिकृत्य रसस्पर्ककानि भवन्ति तासां तावन्ति निस्पर्ककप्ररूपणामाद । दिदिक्कुराह। चउतिहाणरसाई सम्बधाईणि होति फडाई । आवरणमसव्वग्छ, पुंसंजलणंतरायपगडीओ। दुहाणि याणि मीसाणि, देसघाईणि सेसाणि ॥२७॥ चउठाणपरिणयाओ, तिचउगणरसा उ सेसा ॥ रसस्पर्ककानि कर्मप्रकृतिसंग्रहाधिकारे बन्धनकरणेऽनुभागव- आवरण कानावरणं दर्शनावरण च । तत्कथनूतमित्याह अस. न्धावसरे स्वरूपतोऽभिधास्यन्ते तानि चतुर्का तद्यथा एकस्थान- | वनं सर्व झानं दर्शनं वा हन्तीति सर्वघ्नं सर्वघातिनां च प्र Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७०) अभिधानराजेन्द्रः । कम्म क्रमात केवलज्ञानावरणं केवलदर्शनावरणं च । न विद्यते सर्वप्नं यत्र तत् सर्व केवलज्ञानावरण के प्रदर्शनाच णरहितमित्यर्थः । एतदुकं नवति केवलज्ञानावरणं च जातिविशेषाणि मतिश्रुतावधिमनः पर्य्यायज्ञानावरणलक्षणानि - घरवार ज्ञानावरणानि केवलदर्शनावरणयजति शेषाणि चक्षुरचुरवचिदर्शनावरणरूपाणि त्रीणि दर्शनावरणानि । तथा पुंजतरायति ) पुरुषयेदः चत्वारः संय कोचादयः पचविधमन्तराय दानान्तरायादि सर्वसंख्या सप्तदश प्रकृतयश्चतुःस्थानपरिणता एकद्विशिचतुःस्थानकरसपरि णताः प्राप्यन्ते । बन्धमधिकृत्यासामेकस्थानको द्विस्थानकः त्रिस्थानकः चतुःस्थानको वा रसः प्राप्यते इति भावः । तत्र यावनाद्यापि श्रेण प्रतिपद्यन्ते जन्तवस्तावदासां सप्तदशानामपि प्रनीनां वयवसायसंजय द्विस्थान अनुस्थान या र 1 तु प्रतिरक्षा अनिवृत्तिवादः सं येयेषु नागेषु सत्सु ततः प्रतासां तीन नात्यन्तं चशुद्धाध्यवसाय योगतः एकस्थानकं रसं बध्नन्ति तत एवं बन्धमधिकृत्य मनुःस्थानपरिणता प्राप्यन्ते शेपास्तु सप्तदशयतिरिकाः शुभ अशुभापा ( चिरुणासि ) बन्धमधिकृत्य विस्थानकरसास्त्रिस्थानकर साश्चतुःस्थान कर साश्च न तु कदाचनायेकस्थानकरसाः कथमेतद्धसेवमिति चेत् श् विधा प्रकृतयः । तद्यथा गुना अशुभाश्च तत्र शुभप्रकृतीनामेकस्थानकर सबन्धसंभवोऽनिवृत्तिवाद र संपरायाकायाः संख्येयेज्यो प्रायः परतो नार्यातयोग्य साधानासंभवात् पर सोऽप्युपाः प्रकृतीव्यतिरिष्य शेषा अशुभप्रकृतयो बन्यमेव नायान्ति देवदत्। येऽपिच रण केवदर्शनावरणे बन्धमायातस्तयोरपि सर्वघातित्वात् द्विस्थानक एव रसो वन्धमागच्छति नैकस्थानकः सर्वघातिनीनां जघन्यपदेऽपि द्विस्थानकर सबन्धसंभवात् । यास्तु शुभाः प्रकृतयस्तासामत्यन्तषि वर्तमानश्चनः स्थानकमेव राति न त्रिस्थान द्विस्थानकं या मन्दमन्दतरविको वर्तमान स्थान या बनातिविस्थानकं वा यदास्यतविरुसंशाकायां वर्तते तदा तस्य शुभप्रकृतयो बन्धमेव नायान्ति कुतस्तइतरसस्थानचिन्ता वा अपि च नरकगतिप्रायोग्य बनतो ऽतिसं. क्रिएस्यापि वैकियतेजसादिकाः प्रकृतयो मायान्ति तासामि तथा स्वाभाव्यात द्विस्थानकस्यैव रसस्य बन्धो नैकस्थानकस्य यत्तच्चाग्रे स्वयमेव वक्ष्यति परमिह प्रस्तावाक्तम् तत इह शेपत्रकृतीनामेकस्थानकरसवात्समिनमुि त्रिचतुःस्थानपरिणताः शेषाः प्रकृतयः इति । तदेवमुक्तानि विज्ञागशः प्रकृतीनां रसस्थानानि ॥ २८ ॥ संप्रति यानि रसस्थानानि येभ्यः कषायेज्यः उपजायते तानि तथापयति । उप्पल पालुपननरेद्वामरिससंपराए । पालाई अनुजाण, सेसपाणं तु बनायो ॥ २९ ॥ अनानामशुभप्रकृतीनां चतुःस्थानादिकः चतुःस्थानका त्रिस्थानको द्विस्थानक एकस्थानकश्च रसो वन्धमायाति यथाक्रममुपलभूमियाका रेखासह शेषु संपरायेषु कषायेषु । इयमत्र नाचना । उपलः पापाणस्तखा सदशैरनन्तानुबन्धसंहैः संस्कृती मनुधानरसन्धः क्रियते दिनकरातपशोषितत कागजूरेखा सदृशैः प्रत्याख्यान संगैस्त्रिस्थानक - कम्म रसबन्धः सिकता कणसं इतिगतरे खासदृशैः प्रत्याख्यानावरणसंकैर्द्विस्थानकरसबन्धो जलगत रेखासदृशैः संज्वलन संरकस्थाकरवन्धः संभवति चतुर्थपादे सदस्याधिकार्थ सुचनात् पूर्वोक्तानामेव सप्तदशसंख्यानामवसेयो न सर्वाशुनप्रकृतीनाम् (सेसयाणं तु वचासो इति ) शेषाणां शुनप्रकृतीनां व्यत्यासो विपर्यासो वोरुव्यः स चैवमुपनरेखा सौः संपर्थिविस्थानक रसबन्धो दिनकरातपरेखा सदृशैस्त्रिस्थानकर सबन्धः सिकतागतरेखासी पतस्थानकरवन्धः ॥ २९ ॥ संप्रति रसस्वरूपमेव शुभाशुभप्रकृतीनामुपमाद्वारेण प्ररूपयति घोसायनिनमो, सुजाण सुभाण खीरखंडुवमो । एगद्वाणो न रसो, अांतगुणिया कमेनियरे ॥ ३० ॥ अनानामशुभप्रकृतीनामेकस्थानको रसो घोषातकी निम्बोपो पोषाक नम्बरसोऽतीयविपाककटुक इति भावः शुभा नां शुभप्रकृतीनामेकस्थानकरस तुल्यः प्राथमिको स्निकरः शुनपतीनां द्विस्थानको न भवति प्रागेव भाषिततो यद्यप्येकस्थानको रख युनयत्रापि साम्बे तथापि मेकस्थानकरसनुल्या प्राथमिको द्विस्याक एकस्थानको वेदियोपमः कीरखरमर सोपमः परममनःप्रह्लादहेतुरिति । यावत् तस्माश्च एकस्थानकात् रसादितरे द्विस्थानकादयो रसाः क्रमेण अनन्तगुपिता भवगन्तव्याः । तद्यथा एकस्थानकाद् द्विस्थानकोऽनन्तगुणस्तस्मादपि वानको न ततोऽपि गुणः श्यम प्रावना इकस्थानकोऽपि रखो मन्दतरादिभेदादनन्तभेदत्वं प्रतिपद्यते एवं प्रत्येकं द्विस्थानकादयोऽपि । एतच प्रागपि सपम्यमुदितं शुभप्रकृतीनां यः सर्वजन्य कथा नको रसः स निम्बघोषातकीरसोपमः । यश्च शुभप्रकृतीनां सजघन्यद्विस्थानकरसः स करणएडादिरसोपमः शेषाणि शुभकृतीनामेकस्थानकरसोपेतानि तु द्विस्था नकरसोपेतानि स्पर्धकानि यथोत्तरमनन्तगुणान्यसेवानि ततोऽ यशुनप्रकृतीनां द्विस्थानक त्रिस्थानकचतुःस्थानकानि शुनप्रकृतीनां त्रिस्थानकारिपकानि मेसनन्तगुणानि भावनीयानि तदेवमुतं सकमपि प्रसन्तानुस२०१ संप्रति द्वारगाथाच शब्दसूचितं यत् प्रकृतीनां ध्रुवाभुवससा -- कत्वं तदभिधित्सुराह । उच्चं तित्थं सम्मं, मी उन्निद्वकमाऊ णि । मदुगआहारदुर्ग, अहारस अध्रुवसत्ता न ॥ ३१ ॥ तीर्थकरनाम सम्यक्त्वं सम्यग्मिथ्यात्वं देवगतिदेवानुपूर्वीनरकगतिनरकानुपूर्वीवैक्रियशरीरवै क्रियाङ्गोपाङ्गलकबैंक नरकायुभूतीनि चापि मनुष्यकं मनुष्यगतिमनुष्यानुपूपल कृष्णमाहारद्विकमाहारकशरीराहारूपमित्येतदश प्रकृतयोऽवसताका अथवा कदाचिद्धयन्ति कदाचि भवन्ति इत्येवमाता याता अभ्रवसत्ताकाः । तथा हि उच्चैगोत्रं वैक्रियपदक मित्येताः सप्त प्रकृतयोऽ प्राप्तत्रसत्वावस्थायां न जवन्ति त्रसत्वे तु प्राप्ते भवन्ति । यद्वा त्रसत्वावस्थायां लब्धा अपि स्थावरज्ञावं गतेनावस्याविशेषं प्राप्योद्वल्यन्ते ततोऽधवसत्ताकाः । तथा सम्यक्त्वं सम्यग्मिथ्यात्वं च यावन्नाद्यपि तथा भव्यत्वं परिपाकमायाति तावन्न भवति तथा भव्यत्वपरिपाकसंज्ञवे च भवति प्राप्तं वासन्मिथ्यात्वं गतेन भूयोऽप्युल्यते अमत्र्यानां च तत्सर्वथा न Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७१) अभिधानराजेन्द्रः। कम्म नवति ततस्तदप्यधवसत्ताकं तीर्थकरनामसम्यक् तथाविध- | मनति न शेषकानम् । तीर्थकरस्याहारकद्विकस्य च यथाविशुहिविशेषसमन्विते नवति । श्राहारद्विकमपि तथारूपे संयमे क्रम सम्यक्त्वे संयमे च सामान्यतो निजवन्धेहतौ विद्यसतिबन्धमायाति न तदनावै। अपि च बकमपि तदा विरतिप्रत्यय- मानेऽपि कदाचिदेव वन्धः शेषाणामपि नरकदिकादीनां सप्तषतो नूयोऽप्युद्वर्तते मनुष्यद्विकमपि तेजोजवं वायुभवं वागतेनोद्वन- | टिप्रकृतीनां स्वबन्धहेतमजावेऽप्यवश्यं बन्धानावः सुप्रतीत पच ते ततस्तीर्थङ्करनामादीन्यप्यध्वसत्ताकानि । देवनवे नारकायुनी- तदेताः सा अपयधववन्धिन्यः याः पुनर्निजबन्धहेतुसमावे स. रकभवे देवायरानतादिदेवाना तिर्यगायुस्तेजोवायुजवे सप्तमपृ- त्यनजनीयबन्धा अवश्यभाविबन्धाता धववन्धिन्यो मतिझानाथिवीनारकभवे वा मनुष्यापुन सत्तायामिति चत्वार्यप्यायूंधि वरण यादयस्ताइच प्रागवे प्रतिपादिताः ॥ ३३॥ अध्वसत्ताकानि शेषास्तुत्रिंशत्तरदातसंख्याका-प्रकृतयोऽध्रु. (२४ ) संप्रति ध्रवोदयानां प्रकृतीनामथमाचिख्यासुः वसत्ताकाः । प्राह अनन्तानुबन्धिनामपि कपायाणामुलनास- - प्रयमत उदय हेतुमुपदशयति । जवादभ्रवसत्ताकतैव युज्यते कथमुक्ता भ्रवसत्ताकता? तदप्ययुक्त- दव्वं खेतं कालो, भवो य भावो य हेयवो पंच । मभिप्रायापरिज्ञानातू । इह यानि कर्माणि प्रतिनियतामेवाबस्थामधिकृत्य बन्धमायान्ति न सर्वकालं यानि च विशिष्टगु-| हेलममासेणुदनो, जाय सव्वाण पगणं ॥३४॥ णावाप्तिमन्तरेण तथाविधनवप्रत्ययादिकारणवशतः जननयो इह सर्वासां प्रकृतीनां सान्यतः पञ्च उदयनवस्तद्यथा - ग्यानि जवन्ति तान्यभ्रवसत्ताकान्यनिग्रतानि विशिष्टगुणप्रतिप व्यं केत्र कालो जयश्च नावश्च । तत्र च्यं कर्मपुत्ररूपं यदि त्तितः सत्ताकयात् विशिष्टगुणप्रतिपत्त्या सर्वेषामपि कर्मणां स वा बाह्यं किमपि तथाविधमुदयप्रापुनीवनिमित्तं यथा शूयमाणं त्ताच्छेदसंभवात् । अनन्तानुवन्धिनश्चानवाप्तसम्यक्त्वादिगु दुर्नापितजापापुलव्यं क्रोधोदयस्य केत्रमाकाशं कामः ल. णानां सर्वजीवानामप्यविशेषेण सकलकार्य विद्यन्ते उद्वलना च मयादिरूपो भयो मनुष्यादिभवः नावो जीवस्य परिणामविशेषः । तेषां विशिष्टसम्यक्त्वादिगुणप्रतिपत्तिनिवन्धनान सा सामान्य. पते च नैकैकश उदय हेतवः किं तु समुदितास्तथा वा हेनुमभवादिप्रत्यया ततो न ते अध्वसत्ताकाः । श्होञ्चर्गोत्रादीनि क मासेन समुदायन उक्तस्वरूपाणां अव्यादीनां हेतुना समासेन मर्माणि विशिष्टावस्थाप्रतिनानि बन्धसंभवात्तथाविधविशिष्टगुण समुदायेन जायते सर्वासांप्रकृतीनामुदयः केवलं कापि अयादिप्रतिपत्तिमन्तरेण चोदवनयोगादध्रवसत्ताकानि भवन्ति नान्य सामग्री कस्याश्चित्प्रकृतेरुदयहेतुरिति न हेतुत्वव्यनिचारः। नक्ता उदयहेतवः ॥ ३४॥ था ॥ ३१॥ __ संप्रति ध्रुवत्वमुदयमधिकृत्य चिन्तयन्नाह । तत एतत्प्रसङ्गतःश्रेण्यारोहाभावे या उद्घलनयोग्याः प्रकृतयस्तासां परिमाणमाह । अवोच्छिन्नो उदो, जाणं पगईण ता धुवोदइया । पढभकसायसमेया, एयारो आउतित्यवज्जाओ। वोसिनो विहु संभवइ, जाण अधुवोदयो ताओ ॥३॥ सत्तरसुचलणाओ, तिगेसु गइआणुपुबीओ ॥३॥ यासां प्रकृतीनां स्वोदयकालव्यवच्छेदादांक अव्यवच्छिन्नोऽपता एवानन्तरोक्ता अष्टादश प्रकृतयः आयुश्चतुष्टयतीर्थकर नुसन्तत उदयस्ता ध्रवोदया मतिज्ञानावरणादयः । यासां पुनः नामवर्जाः प्रथमकषायसमेता अनन्तानुबन्धिचतुष्टयसहिताः स प्रकृतीनां व्यवच्छिन्नोऽपि विनाशमुपगतोऽपि हु निश्चितं तप्तदश उद्धननयोग्या वेदितव्याः । यास्तु शेषाः षट्त्रिंशत्प्रकृतय थाविधद्रव्यादिसामग्रीविशेषरूपं हेतुं संप्राप्य भूयोऽप्युदय उपउनयोग्यास्ताः श्रेण्यारोहे एव नान्यत्र ततो नेह प्रतिपादिताः जायते ता अधयोदयाः सातवेदनीयादयः ॥ ३५ ॥ किं त्वये प्रवेशसंक्रमाधिकारे वदयन्ते । तथा यत्न कुत्रापि देव- सांप्रत सर्वघात्यसर्वघातिशुभाशुभलकणमाह । विकं मनुष्यत्रिकमित्येवं त्रिकमुपादीयते तत्रन तद्गतिस्तदानुपू- असुलसुभत्ताघाइ-ताणा रसोयो मुणिजाहि । / तदायुरिति त्रिकमवगन्तव्यम् । तदेवमुक्ताः सप्रतिपक्काः सविसयचायणजेए-ए वा वि घाइत्तणं नेयं ॥३६॥ ध्रयसत्त काः प्रकृतयः । अशुलत्वं शुभत्वं च घाति संवेदेशभेदनिम्नं प्रकृतीनां रसंपति द्वारगाथोपन्यस्तानां ध्रुवबन्ध्यादिपदानामर्थ स्पष्टयि- सन्नेदतो मन्धीथाः। तथा हि या विषाकदारुणकटुरसाः प्रकृततुकाम आह । यस्ता अशुभाः यास्तु जीवप्रमोद हेतुरसोपेतास्ताः शुभाः। तथा नियहेनसंजवे विहु, भाणिज्जो जाण होइ पयडीणं । याः सर्वथा सर्वघातिरसस्पर्ककान्विताः ताः सर्वघातिन्यो याबंधो ता अधुवाओ, धुवा अभयनिजबंधा उ ।। ३३ ॥ स्तु देशघातिरसस्पर्द्धकाधितास्ता देशघातिन्यः । प्रकारान्तरेण सर्वघातित्वं च प्रतिपादयति सविषयो झानादिलवणो गुणस्तयासां प्रकृतीनां निजबन्धहेतुसंभवेऽपिबभो भजनीयोविकल्प स्य यत्पातनं तस्य यो भेदो देशकात्यविषयस्तेन वाहाद: नीयो भवति यया कदाचिद्भवति कदाचिन्न ताःअध्रवाः अध्रुवबधिन्यस्ताश्चेमास्तद्यथा नरकद्विकमाहारद्विकं गतिचतुष्टयं जाति पवान्तरद्योतने यपिः समुच्चये घातित्वं सर्वघातित्वं देशघाति त्वं च झेयं सर्वस्वविषयघातिन्यः सर्वघातिन्यः स्वविषयैकदेपञ्चकं विहायोगतिद्विकमानुपूर्वीचतुष्टयं संस्थानषदं संहननष शघातिन्यो देशघातिन्यः एतच्च प्रागेव भावितमिति न नूयोनाहूं सादिविंशतिरुच्चासनाम तीर्थकरनामातपनाम उद्यो व्यते ॥३६।। इह रसनेदतः प्रकृतीनां सर्वघातित्वं देशघातित्वं च तनाम पराघातनाम सातासातवेदनीये आयुश्चतुष्प्रयं द्विविधं झेयमतो रसमेव सर्वदेशघातित्वेन प्ररूपयति । गोत्रं हास्यरतिशोका वेदत्रयमिति पता हि त्रिसप्ततिसंख्याका: प्रकृतयो निजबन्धहेतुसंजवेऽपि नावश्यं बन्धमायान्ति तथा जो घाए सविसयं, सयझं सो होइ सवयाइ रसो । दि पराघातोच्चासनाम्नोरविरत्यादिनिजबन्धहेतुसंवेऽपि यदा निच्छिद्दो निको तणु, फलिहब्नहारअविमलो ।।३।। पर्याप्तकनाम बध्यते तदा बन्धमायातो नाम पर्याप्तकनाम ।। यः स्वविषयं ज्ञानादिकं सकलमपि घातयति स्वकार्यसाधनं बन्धकाले प्रातपनामाप्यकेन्द्रियप्रायोग्यप्रकृतिबन्धे वन्धमाग- प्रत्यसमर्थ करोति स रसः सर्वघाती जवति स च ताननाजन Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७५) कम्म अभिधानराजेन्द्रः। कम्म बत् निश्चिद्रो घृतमिवातिशयेन स्निग्धः डावायत्तनुकस्तनुप्रदे- शेषास्तु गत्यादयो बन्धमुदयं वा सजातीयप्रकृतिबन्धोदयनिशोपचितः स्फाटिकाचहारवच्चातीव निर्मनः। म्ह रसः केवलो| रोधतः प्रपद्यन्ते ततस्ता उभयथापि परावर्तमानाः ॥४१॥ न भवति ततो रसस्फर्द्धकसंघात एवंरूपो नष्टव्यः ॥ ३७॥ संप्रति विपाकतश्चतुर्धेति तदुक्तं तद्व्याख्यानयन्नाह । देशघातिरसस्वरूपमाह। दुविहा विवागो पुण, हेउविवागा उ रसविवागाउ । देसविघाश्त्तणो, श्यरो कमकंबलसुसंकासो। एकका वि य चव्हा, जो चसद्दो विगप्पेणं ॥४२॥ विविहबहुद्दिनरिओ, अप्पसिणेहो अविमलो या विपाकतो विपाकमाश्रित्य प्रकृतयो द्विविधा द्विप्रकारा इतरो देशघाती देशधातित्वात्स्वविषयकदेशघातित्वाद्भवतिए-] प्रवन्ति । तद्यथा हेतुविपाका रसविपाकाश्च । तत्र हेतुवं विविधयहुनिषभृतस्तद्यथा कश्चिद्वंशदलनिर्मापितकट श्वा- तो हेतुमधिकृत्य विपाको निर्दिश्यमानो यासां तातिस्थरछिदशतसंकुलः कश्चित्कम्बल व मध्यमविवरशतसं-1 हेतुविपाकाः । रसतो रसमुररीकृत्य विपाको निर्दिश्यमानो याकुलः कोऽपि पुनस्तथाविधमसृणवासोवदतीवसूदमविवरसंव- सांता रसविपाकाः। रसविपाका अपि पुनश्चतुर्का चतुःप्रकातः (कडकंबलंसुसंकास) इति कटो वंशदलनिर्मापितः, कम्बल रास्तत्र पुसकत्रभवजीवहेतुभेदाश्चतुर्विधा हेतुविपाकास्तद्यथा कर्णामयः अंशुक्र वस्त्रं तत्संकाशस्तथा स्वरूपतोऽपस्नेहःस्तो- पुलविपाकाः केत्रविपाका भवविपाका जीवविपाकाश्च | ताश्चकस्नेहो विनागसमुदायरूपोऽधिमलश्च नेमल्यरहितति गा-| प्रागेवोक्ताः। तथा चतुनिदधेकस्थानकरसभेदाच्चतुर्विधा रसथार्थः॥ ३८ ॥ विपाकास्तद्यथा चतुःस्थानकरसाख्रिस्थानकरसा द्विस्थानकप्रथातिरसस्वरूपमाह । रसा एकस्थानकरसाइच । एकस्थानकादिनेदभिन्नइच रसः जाणं न विसओघाइ-तणम्मि ताणं विसघाइरसो। प्रागेवोक्तः । ननु विपाकतो द्विधा प्रकृतयो भवन्तीति द्वारगाजायइ घाइसगासण-चोरया चेव चोराणं ॥ ३ ॥ थायांनोपात्तं तत्कथमिदानीं विब्रियते तदयुक्तमनुपात्तत्वात सियासां प्रकृतीनां घातित्वे घातित्वमधिकृत्य न कोऽपि विषयः के तथा चाहयतश्चशब्दोऽपि विकल्पेन यथाऽतो यस्माद् द्वारगाम किमपि गाः प्रकृतयो ज्ञानादिकं गुणं घातयन्तीत्यर्थः। तासा थायां प्रकृतयश्चेत्यत्र चशब्दो विकल्पेन विकल्पलक्षणेनार्थेन बोरुव्यस्ततोऽयमों विपाकतश्चतुर्का प्रवत्यन्यथा वा । तत्रामपि घातिसकाशेन सर्वघातिप्रकृतिसंपर्कतो जायते सर्वघाती रसः । अत्रैव निदर्शनमाह । यथा स्वयमचौगणां सतां चौर न्यथात्वं हेतुरसभेदान द्वैविध्यरूपं अष्टव्यमिति । ४२ । संपर्कतश्चौरता ॥३६॥ संप्रति यमुक्तम् प्राग देशघातिकं तत्संज्व संप्रति हेतुविपाकत्वमेव नावयन्नाह। सननोकपायाणां विनावयन्नाह । जा जं समेच हे, विवागनदयं उवेति पगईओ। घाइखोवसमेणं, सम्मचरित्ताइ जाइ जीवस्स । ता तबिवागसन्ना, सेसाभिहाणाई सुगमाई ॥४३॥ ताणं हर्णति देसं, संजलणा नोकसाया य ॥ ४०॥ याः प्रकृतयः संस्थाननामादिका यं पुस्लादिवकणं हेतुं कारणं मिथ्यानन्तानुबन्यादीनां क्षयोपशमेन ये जाते जीवस्य सम्य- समेत्य संप्राप्य विपाकोदयमुपयान्ति सास्तद्विपाकसंज्ञा यथा कवचारित्रे तयोर्देशमेकदेशविपाकोदयं प्राप्ताःसन्तः संज्वलनाः संस्थाननामादिकाः प्रकृतयः औदारिकादीन पुत्लान् संप्राप्य क्रोधादयो नोकपाया हास्यायो नन्ति मानिन्यभावमुत्पादय- विपाकोदयमाधिश्रयन्ते ततस्ताः पुनविपाकाः आनुपूर्व्यश्च न्तीति नावः । ततः संज्वलना नोकषायाश्च देशघातिनः । एवं तथात्रापि क्षेत्रं प्राप्य विपाकोदयं गच्छन्तीति क्षेत्रविपाकार. ज्ञानदर्शनदानादि सत्येकदेशघातित्वान्मतिकानावरणीयादयो- त्यपि शेषाभिधानानि तु ध्रवसत्कर्माध्रवकर्मोद्वलनादीनि सुगऽपि प्रकृतयो देशविघातिन्यो नावनीयाः ॥ ४०॥ मानि ततो न विशेषतो विभाव्यन्ते एवमुक्ते सति पुलविपासंप्रति परावर्तमानप्रकृतीनां सक्कणमाह। कत्वमधिकृत्य यत्परस्य वक्तव्यं तदनूद्य प्ररूपयति ।। विनिवारिय जा गच्छप, बंधं उदयं च अन्नपगईए । अरश्रयणं उदो, किं न भवे पोग्गमाणि संपप्प । साहु परियत्तमाणी, अणिवारेंती अपरियत्ता ॥४१॥ अप्पुढेहि वि किं नो, एवं कोहाइयाणं पि वा। या प्रकृतिरन्यस्याः प्रकृतेर्बन्धमुदयं वा निवार्य स्वयं बन्धमु- मनु यदि याः प्रकृतयः पुमलान् संप्राप्य विपाकोदयमधिश्रदयं वा गच्चति साहु निश्चितं परावर्तमानाश्च सर्वसंख्यया एक- यन्ति ताः पुलविपाकास्तहि रत्यरत्योरप्युदयः किन पुनवतिस्तद्यथा निकापञ्चकं सातासातवेदनीयौ षोमश कषायाः लान् संप्राप्य भवति तयोरपि पुलानेव संप्राप्योदयो भवति वेदश्रयं दास्यरत्यारतिशोका आयुश्चतुष्टयं गतिचतुष्टयं जातिप- इति भावः । तथा हि कण्टकादिसंस्पर्शादरतेर्विपाकोदयः पुश्वकमौदारिकद्विकं वैक्रियद्विकमाहारद्विकं पद संहननानि षट् | प्पादिसंस्पर्शात्तु रतेः । नतस्ते अपि पुलविपाकिन्यौ युक्तेस्थानानि चतन आनुपूज्यों विहायोगतिहिकमातपनाम उ-| न जीवविपाकिन्याविति एवं परेण काका प्रश्ने कृते सत्याचाचोतनाम प्रसादिविंशतिः उच्चैगोत्रं नीचैर्गोत्रं च । कथमेताःप- योऽपि काका प्रत्युत्तरमाह (अप्पुछे हि विकिंनो) अत्र सप्तम्यर्थ रावर्तमाना ति चेदुच्यते श्ह यद्यपि षोमश कषायाः पञ्च नि- तृतीया अस्पृष्टेष्वपि पुझलेष्वपि किं तयो रत्यरत्योर्विपाकोदयो काश्च धुवबन्धित्वात् युगपदपि बन्धमायान्ति न परस्परसजी- न भवति भवत्येवेति भावस्तथा हि कण्टकादिस्पर्शव्यतितीयप्रकृतिवन्धनिरोधपुरस्सरं तथापि यदोदयमयन्ते तदा स- रेकेऽपि प्रियाप्रियदर्शनस्मरणादिना दृश्यते रत्यरत्योर्विपाकोजातीयप्रकृत्युदयं विनिवार्यैव नान्यथा तत पता एकविंशतिर- दयस्ततोन पुलविपाकिन्यो किंतु जीवविपाकिन्यौ एवं परोपपि प्रकृतयः उदयमधिकृत्य परावर्तमानाः स्थिरशुनास्थिराशुन्न- न्यस्तपूर्वपकव्युदासेन क्रोधादीनामपि जीवविपाकित्वं नाप्रकृतयो युगपदप्युदयमश्नुवते परं स्थिरशुभे अस्थिराशुभवन्ध- वनीयम्।संप्रति नवविपाकित्वमधिकृत्य परो ब्रूते नन्वायुषां यथा मस्थिरायने स्थिरगुनबन्धं निरुध्य तमपेक्ष्यैताः परावर्तमानाः स्वस्थजब एवं विपाकोदयो भवति नान्यत्र तथा गतीनामपि Jain Education Interational Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७३) अभिधानराजेन्द्रः । न खलु गतयोऽपि स्वस्वभवव्यतिरेकेणान्यत्र विपाकोदयम- नावरणरूपस्य किं नैकस्थानकं रसं निवर्तयति केवलद्विक धिश्रयन्तीति सुप्रतीतमेतत् जिनप्रवचनतत्ववेदिनां ततो ग- हाशुभमतिविशुद्धकश्च बन्धेषु क्षएकश्रेण्यारूढः सूक्ष्मसंपरातयोऽप्यायुर्वद्भवविपाकाः किं नानिधीयन्ते ॥४४॥ यस्ततो मतिज्ञानावरणीयादेरिव संभवति केवलद्विकस्याप्ये. एवं परेणोक्ते सति सूरिः परोक्तमन्द्य प्रतिषेधयति । कस्थानकरसबन्धः स किं नोक्त इति प्रष्टुरभिप्रायः । तथा आनन्द भवाविवागा, गईन आउस्स परजवे जम्हा । हास्यादिषु षष्ठीसप्तम्योर) प्रत्यभेदात् हास्यादीनां हास्यरतितो सब्बहा वि उदयो, गईण पुण संकमेण स्थि॥४॥ भयजुप्सानामशुभत्वात् अपूर्वाऽपूर्वकरणो हास्यादिवन्धकानां आयुर्वतयो भवविपाका न जवन्ति यस्मादायुषः परभवे मध्ये तस्यातिविशुद्धिप्रकर्षप्राप्तत्वात् शुभादीनां च शुभप्रकसर्वथाऽपि संक्रमेणाप्युदयो न भवति ततः सर्वथा स्वनव तीनां मिथ्याटिरतिसंक्लिष्टः संक्लेशप्रकर्षसंभवेऽशुभप्रकृतीना मेकस्थानकोऽपि रसबन्धः संभाव्यते इति कथमेकस्थानक व्यजिचाराजावादायूंषि नवविपाकानि व्यपदिश्यन्ते । गतीनां पुनः परभवेऽपि संक्रमेणोदयोऽस्ति ततः स्वभवव्यभिचारान्न रसं न बध्नाति येन पूर्वोक्ता एव सप्तदश प्रकृतयश्चतुखिद्ववे कस्थानकरसा उच्यन्ते न शेषाः प्रकृतयः ।। ४८ ॥ ता जवविपाकिन्यः । संप्रति केत्रविपाकित्वमधिकृत्य परप्रश्नमपाकर्तुमाह । अत्र सूरिराह ।। जलरेहसमकसाए, वि एगवाणी न केवगस्स । आणुपुन्नीण नदओ, किं संकमेण नत्यि संते वि । जह खेत्तहेउओ ताण, न तहा अन्माण सविधागो॥४६॥ जं अणुयं पि दु भणियं, आवरणं सम्बधाई से ॥४ए। ननु यदि गतीनां स्वस्वभवन्यतिरेकेणाप्यन्यत्र भवान्तरे संक्र जलरेखासमेऽपि जलरेखातुल्येऽपि कषाये संज्वलनलक्षणे मेणोदयोऽस्तीति कृत्वा स्वन्नवव्यभिचारान्न ता भवविपाकिन्यः । उदयमागते न केवलद्विकस्य केवलज्ञानावरणकेबलदर्शनावमुख्यन्ते किंतु जीवविपाकिन्यस्त नुपूर्वीणांस्खयोम्यक्त्रव्यतिरे रणरूपस्यकस्थानिको रसो भवति कुत इत्याह यत् यस्मात केणाम्यत्र किमुदयः संक्रमेण नास्ति न विद्यते येन ता नियमतः ( से ) तस्य केवलद्विकस्य तनुकमपि सर्वजघन्यमपि श्रावकेत्रविपाकिन्यो व्यवहियन्ते अन्यत्राप्यस्ति संक्रमेणोदयस्सतः। रणं रसलक्षणं हु निश्चितं सर्वघाति भणितं तीर्थकरगणधरैः स्वकेत्रव्यभिचारान्न ताः केत्रविणाकिन्यो वक्तुमुचिताः किं तु | सर्वजधन्योऽपि रसस्तस्य सर्वघाती भणित इति भावार्थः । जीवविपाकिन्य पवेति परस्याभिप्रायः। अत्रोत्तरमाह ( संते सर्वघाती च रसो जघन्यपदेऽपि द्विस्थानक एव भवति नैवित्यादि) सत्यपि स्वयोग्यवेत्रव्यतिरेकेणान्यत्र संक्रमोदये यथा कस्थानकस्ततो न केवलस्यैकस्थानकरसबन्धसंभवः ॥ ४६॥ तासां केवहेतुका स्थविपाकः स्वविपाकोदयप्रादुर्भावस्तथा ना संप्रति हास्यादिप्रकृतीरधिकृत्योत्तरमाह । न्यासां प्रकृतीनामित्यसाधारण क्षेत्रसवणहेतुख्यापनार्थ केत्र- सेसासुजाण विन जं, खबगियराणं न तारिसा सुकी। विपाकिन्य उच्यन्ते। न सुजाणं पि टु जम्हा, ताणं बंधो विमुज्झतो ॥१०॥ जीपषिपाकित्वमधिकृत्य परप्रश्नमपनुदन्नाह । शेषाशुभानामपि प्रागुक्तमतिज्ञानावरणीयादिसप्तदशप्रकृतिसंपप्प जीयकाने, नदयं का न जंति पगईओ। व्यतिरिक्तानामानप्रकृतीनां नैकस्थानकरससंभवो यद यस्माएपमिणमोहहेनं, आसिच्च विसेसया नस्थि ।।१७॥ तू कारणात् वपकेतरेषां कपकस्यासर्वकरणस्येतरयोरप्रमत्तप्रमनुकास्ताः प्रकृतयो या जीवं कालं चाश्रित्य नोदयमधि- मत्तसंयतयोन तादृशी शुद्धिर्यत एकस्थानकरसबन्धो यदा त्वे. गच्छन्ति सर्वा अपि जीवकालावधिकृत्य गच्छन्तीति भावः कस्थानकरसम्बन्धयोन्या परमप्रकर्षप्राप्ता विशुकिरनिवृत्तिवादरजीवकालयोरुत्तरेणोदयासंभवात् ततः सर्वा अपि जीवधि संपराकायाः संख्येयेज्यो नागेन्यः परतो जायते तदा बन्धने पाका एवेति प्रष्टुरभिप्रायः। अत्राचार्य श्राह ( एवमिणमि. च ता पायान्तीति नासामेकस्थानको रसः । तथाशुनानामपि त्यादि ) अोधतः सामान्येन हेतुं हेतुत्वमात्रमाश्रित्य एवमेतत् मिथ्यादृष्टिसंक्निष्टो हु निश्चितं नैकस्थानकं रसं बभाति ययथा त्वयोक्तं तथैव विशेषितं त्वसाधारणं तु हेतुमाश्रित्य स्मात्तासां शुभप्रकृतीनामतिसंक्लिष्टे मिथ्यादृष्टी बन्धो न प्रवति एतन्न भवति जीवः कालो वा सर्वासामपि प्रकृतीनामुदयं कि तु मनाक विशुध्यमाने संकेशोत्कर्षे च शुजानामधिकृतानामेप्रति साधारणस्ततस्तदपेक्षया चेत् प्रकृतीनां चिन्ता क्रियते कस्थानकरसबन्धसंभवो न तदनावे ततस्तासामपि जघन्यप'तर्हि सर्वा अपि जीवविपाका एव कालविपाका एष वा ना देऽपि द्विस्थानक एव रसो नैकस्थानकः। यस्त्वतिसंक्किोऽपि स्त्यत्र संदेहः । परं कासांचित् प्रकृतीनां क्षेत्रादिकमप्यसाधा- मिथ्यादृष्टौ नरकगतिप्रायोग्या वैक्रियतैजसादिकाः शुजाः प्रकृतरणमुदयं प्रति हेतुरस्ति ततस्तदपेक्षया क्षेत्रविपाकत्वादिव्य- यो बन्धमायान्ति तासामपि तथा स्वाभाव्यात् जघन्यताऽपि द्विपदेश इत्यदोषः। स्थानक पव रसो बन्धमधिगच्चति नैकस्थानकः ॥५०॥ ____ संप्रति रसमधिकृत्य परं पूर्वपक्षयति । अत्र परः प्रश्नयति । केवलदुगस्स मुहुमो, हासाइस कहं न कुणइ अपुवो। उकोसठिई अज्व-साणहि एगगाणिो होति । सुजमाईणं मिच्छो, किलिडओ एगठाणिरसं ॥४८॥ मुभाणं तं नजं विश, असंखगुणिया उ अणुभागा॥५१॥ ननु यथा घेण्यारोहे अनिवृत्तिघादरसंपराद्धायाः संख्येयेषु ननु सर्वासामपि शुजानामशुजानां वा प्रकृतीनामुत्कृष्टा स्थि-. भागेषु गतेषु सत्सु परतोऽतिविशुद्धिसंभवान्मतिशानावर- तिरुत्कृष्टे संक्लेशे वर्तमानस्य नवति नान्यथा । नक्तं च । “सणीयादीनामशुमप्रकृतीनामेकस्थानकं रसं बनाति तथा क्षप- व्यणिमुक्कोसगो उक्कोससंकिलेसणं" ततो यैरेवाध्यवसायैः शुकश्रेण्यारोहे सूक्ष्मसंपरायश्चरमद्विचरमादिषु समयेषु वर्तमा- मप्रकृतीनामुत्कृष्टा स्थितिनवति तैरेवाध्यवसायैरेकस्थानकोऽपि नोग्तीवाविशुद्धत्वात्केवलद्विकस्य केवलज्ञानावरण केवलदर्श- रसो भविष्यति ततः कथमुच्यते न शुभानामपि प्रकृतीनामक Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्म ( २७४ ) अभिधानजेन्द्रः । त स्थानकरसबन्धः । अत्रोत्तरमाह " तनेत्यादि यस्मात् स्थितिरसंस्थेयगुणा एवानुमाया। तुरेचकारार्थः । कोऽत्र भाव इति चेडुच्यते । इह प्रथमस्थितेरारज्य समयसम वृद्ध्या सर्वसंकलन परिभाव्यमानाः असंख्येयाः स्थितिविशेषा कवस्थिताव पर विशेष प्रतिस्थितिविशेषमसंरुपेया ये रसस्पर्ककसंघातविशेषास्ते तावन्तो विस्थानकरसच पटते नैकस्थानकस्येति न शुभप्रवृतीनामुपस्थिति बन्धोऽप्येकस्थानकरसबन्धः ॥ ५१ ॥ संप्रति सत्कमपिनकर्तुमा दुमिह संतकम्, वासूयं च स धुवसंतं चिय पढमा, जो न नियमा वि संजोगा ||२|| द्वारगाथोपन्यस्तेन चशब्देनेदं सत्कर्म द्विविधं द्विप्रकारं सूतथा ध्रुवमधुवं च । तत्र यत्सर्व संसारिणामनवाप्तोत्तरत्वत्कर्म प्रागेवोतम गुणानां सत्कर्मकृतस्य चतुरतरसंख्यास्ताचेमास्तद्यथा नावरण खातासातावेदनीये मियोम कमाया नयनोपायाति जातिपञ्चकमदारिकं तैजसकार्मणे संस्थान संहननप वर्णादिकं विहायोग तिद्विकं परायातासात पोद्योतागुरुलघुनिर्माणोपासनामानि प्रमादिविंशतिवेगोत्रमन्तरायपञ्चकमिति पुनरवाप्तगुणा नामपि कदाचिद्भवति कदाचित्कर्म एवं च सति यत्परेणोच्यते नन्वनन्तानुबन्धिनामप्युद्धलना संभवतीति कथं तेपामध्रव सत्कर्मता नानिध।यत इति तद्पास्तमवगन्तव्यम् । तथा चाह "ध्रुवसंतमित्यादि" यतो यस्मात्कारणात् न प्रथमानामनतानुयन्धिनां पायाणां नियमात् गुणप्राप्तमन्तरेणावश्यंभा वितया विसंयोगो विसंयोजना भवति किं तु उत्तरगुणप्राप्तिवशात नवोत्तरगुणप्राविशतः सतोपरमः प्रकृतात् व्यपदेशहेतुरन्यथा सर्वासामपि कर्मप्रकृतीनां तत्तदुत्तरगुणयोगतः सतोपरमोऽस्तीति सर्वा प्रयाकर्मव्यपदेशयोम्या भवेदस्ति तस्माद् प्रथमा अनुबन्धिनः पाया अवसन्त एवं सम्यक्त्व सम्यग्मिथ्यात्वतीचे कराहारकद्विकानि तत्रगुणप्राप्तावेव सतां अनन्ते अतस्तानि सुप्रतीतान्येषा ध्रुवताकानि ।। ५२ । इदं वक्ष्यमाणप्रकृतिस्वरूपप्रतिपादकमन्यकर्तृकं धारगाथाद्वयमस्ति तच मन्दमतीनां सुखावहेतुरतस्तदपि स्यिते । अणुदयउभय-धिणी न उभबंधउदयवोच्छेया । संतरम्भपनिरंतर पंधा (उ) दयसंकमुकोसा || ५३॥ अदयसंकपट्ठा, उदए गुदए य बंध नकोसा । उदयपओ तितिचउदुसयाओ ॥ ५४|| - प्रकृतत्रिया तद्यथा स्यानुदययन्धिन्यः स्वदयन्धिन्यः उपवन्धि तत्र स्वस्यानुदये एव बन्यो विद्यते वास ताः स्वानुदयबन्धिन्यः । स्वस्योदय एव बन्धो विद्यते यासां ताः स्वोदययन्धिन्यः । तथा उपस्मिन् दयेऽनुदये या बन्धोऽस्ति यासां ता उभयवन्धिन्यः । पुनरष्यन्यथा त्रिधा प्रकृतयस्तद्यथा समायवच्द्यिमानबन्धोदयाः क्रमायवदिद्यमानयोः कम्म उत्क्रमव्यवच्छिद्यमानबन्धोदयाश्च । तत्र समकमेककालं व्यवच्छिद्यमानो बन्धोदयो यासां ताः समकञ्यवच्छिद्यमानबन्धोदयाः । ताइच " उभ" इत्यनेन पदेन गृहीताः । तथा क्रमेण पूर्व कधः पश्चादुदय इत्येवंरूपेण व्यवच्छिद्यमानौ कन्धोदयौ यासां ताः कमन्यवच्द्यिमानब-धोदयाः। ताश्च बंपर गृहीताः । तथा रकमेण पूर्वमुदयः पश्वाद्वय इत्येवंणेन व्यवच्छिद्यमानौ बन्धोदयौ यासां ता उत्क्रमव्यवच्छिद्यमानबन्धोदयापिताश्च"उदय" इत्यनेन संदताः पुनरप्यन्यथा त्रिधा प्रकृतयस्तद्यथा “संतरउभयनिरंतरबंधाउत्ति " सान्तरबन्धाः उभयवन्धा इति सान्तरनिरन्तरबन्धाः निरन्तरबन्धाश्च । पतासांसणं स्वयमेवाचार्योऽये वदतीति नाभिधीयते पुनरप्यन्यथा चतुर्द्धा प्रकृतयस्तथा चाह । “उदयसंकमुक्कोसा ६त्यादि" उदयसंकमोत्कृष्ट "असं कमठा इति" मनुसं को बंधकोसा इति उ अनुवयोरच तथा पुनरम्यया द्विधा प्रकृतयस्तथा उदयवत्योऽनुदयवत्यश्च " तिति इत्यादि " एताः सर्वा अपि प्रकृतयो यथाक्रमं त्रित्रिचतु नयन्ति तारच तथैव पूर्वदिशा। संप्रत्येताः सर्वा अपि क्रमेण वक्तव्यास्तत्र प्रथमतः स्वानुदयोदयोजयबन्धिनीः प्रकृतीर्निदि दिक्षुराद । देवनिरयवेनव्वि-यकमा हारजुयलतित्थारणं । बंधो अदयकाले धुवोदयाणं तु उदयम्मि ॥ ५५ ॥ देवायुर्नरक्युर्देवगतिदेवानुपूर्वी नरकगति नरकानुपूर्व किय शरीरक्रियाङ्गोपाल कृणं वैक्रियप डुमादारकाद्विकमाहारकशरीरमाहारकाङ्गोपाङ्गरूपं तीर्थङ्करनामैतासामेकादशप्रकृतीनां बन्धः स्वस्वानुदयकाल एव तथा हि देवगतित्रिकस्य देवगतौ वर्तमानस्योदयो नरकस्य नरकगती कियकि स्योभयत्र । न च देवा नारका वा एताः प्रकृतीर्थघ्नन्ति तथा भवस्वाभाव्यात् । तीर्थकरनामापि च केवलज्ञानप्रामागच्छति न च तदानीं तस्य बक अपूर्वकरणगुणस्थानक एव तस्य बन्धव्यवच्छेदात् । आहारककरणव्यापृतश्च युपीयनेन प्रमादनावतस्तदुत्तरकायत तु तथाविधायि शुद्ध्यनावतो मन्दसंयमाव स्थानवर्तित्वान्नाहारक द्विकबन्धमारभते ततः सर्वा अपि स्यानुदयन्धिन्यः प्रयो कोनावरणपञ्चकदर्शनावरणान्तराय चकमिष्यत्यनि माणकार्मणस्थिरास्थिरवर्णादिचतुष्कागुभाशुभ कानां सप्तशतिकृतीनामुदय एव सति बध उपजायते अयोदयतया तासां सर्वदाद्यभावात् श्रतो भयोदयाः स्वोदय शेषास्तु निद्राफच जातिचकसंस्थानचदननपापोन कषायपराधातोपघातातपोद्योता - ससातासात वेदनीयोश्चनीचैर्गोत्र मनुष्यत्रिकतिर्यकृत्रिकौदारिकविकप्रशस्त प्रशस्तविहायोगतित्रस बादरपर्याप्त प्रत्येक स्थावरस्मापर्याप्तसाधारसमुख रानगादेवयशः कीर्तिःस्वरभंगानायकीर्तिपादपशीतिसंख्याः स्वोदयानुबन्धयः तथा हताः प्रकृतयस्तियां मनुष्याणां वा यथायोगमनुये उदये वा बन्धमायान्ति ततः स्वोदयानुदयबन्धिम्य - च्यन्ते ॥ ५५ ॥ संप्रति समव्यवद्यिमानधोद्या दिमतीरनिधित्सुराद । गयचरिमलो पुर्व-मोहहास अरवीणं । सुमतिगवणं सपुरिसवेषाण बंधुया ।। ५६ ।। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७५) अभिधानराजेन्धः । वोचिजति समं चिय, कमसो सेसाण उकमेणं तु । र्ति प्रमत्ते देवायुषांप्रमत्ते देवद्धिकबक्रियद्विकयोरपूर्वकरणे ब न्धव्यवच्छेद उन्नयव्यवच्छेदस्तु पालामप्यधिरतसम्यम्हण प्राअट्ठएदमजससुरतिग-वेउव्वाहारजुयलाणं ।। ५७॥ हारकद्विकस्य पुनरपूर्वकरणे बन्धव्यवच्छेद उदयव्यवच्छेदोऽगतोऽपनीतश्चरमो लोभः संज्वनरूपो यस्य सः गतचरमसोनः प्रमत्तसंयते तत पता अष्टावपि उत्क्रमबन्धव्यवच्चिद्यमानवस चासौ ध्रवबन्धिप्रकृत्यात्मको मोहश्च गतचरमलोभभुववन्धि- न्धोदयाः। . मोहः मोहनीयसक्ताः संज्वलनलोनहीनाः पञ्चदशकपायमि सांप्रत सान्तरादिप्रकृतीः प्ररूपयति । थ्यात्वभयजुगुप्सारूपाः अष्टादश ध्रवबन्धिन्य इत्यर्थः तासां धुवबंधिणी न तित्थगर-नाम आउयचउकवावन्ना । तथा हास्यरत्यरतिमनुजानुपर्छणां तथा सूदमापर्याप्तसा एया निरंतरायो, सगवीमुनसंतरा सेसा ।। ५८ ॥ धारणरूपसूक्ष्मत्रिकातपनाम्नोः सपुरुषवेदयोः पुरुषवेदसहि झानावरणपञ्चकान्तरायपञ्चकदर्शनावरणनवकपायपोमशकतयोः सर्वसंख्यया विशतिप्रकृतीनां सममेव समकालमेव मिथ्यात्वजयजुगुप्साऽगुरुबघुनिर्माणजसकामणोपघातवर्णादिबन्धोदयौ व्यवस्चियेते तथा हि सूक्ष्मक्रियातपमिथ्यात्वानां मिथ्याष्टावनन्तानुबन्धिनां सासादने मनुष्यानुपूर्वी द्वि चतुष्टयरूपाः सप्तचत्वारिंशद् ध्रुवबधिन्यः तीर्थकरनाम आतीयकषायाणामविरते प्रत्याख्यानावरणकषायाणां देशविरते युश्चतुष्यमिति द्विपञ्चाशत्संख्याः प्रकृतयो निरन्तरा वक्ष्यमाणहास्यरतिनयजुगुप्सानामपूर्वकरणे संज्वनत्रिकपुवेदयोरनिवृ शब्दार्था बदितव्याः । तथा वक्ष्यमाणाः सप्तविंशतिप्रकृतय तिवादरसंपराये बन्धोदयौ समकमेव व्यवच्छेदमाप्नुतः (उभ) इति उभयाः सान्तरनिरन्तरा इत्यर्थः शेषास्तु एकचत्वातत पताः समकव्यवच्छिद्यमानबन्धोदयाः शेषाणां तूक्तवत्य रिंशत्प्रकृतयः सान्तराः। माणब्यतिरिक्तानां षडशीतिप्रकृतीनां क्रमेण बन्धोदयौ व्यव अधुना पूर्वोद्दिष्टाः सप्तविंशतिप्रकृतीरुपदर्शयति । च्छिद्यते तद्यतः पूर्व बन्धस्य व्यवच्छेदः पश्चादुदयस्य चउरंसनसनपरघाय-नसासपुंमगलसायमुभखगई। तथा हि ज्ञानावरणपञ्चकान्तरायपञ्चकदर्शनावरणचतुष्ट- वेनबिउरलसुरनर-तिरिगोयमुसरतसतिचउ ॥ ६५ ॥ यानां सूक्ष्मसंपरायचरमसमये बन्धव्यवच्छेदः उदयव्यवच्छेदः समचतुरस्त्रसंस्थानं वर्षजनाराचसहननं पराघातनाम उक्षीणकपायचरमसमये निद्राप्रचलयोः बन्धव्यवच्छेदोऽपूर्व- ख़ासनाम पुरुषवेदः पञ्चेन्द्रियजातिः सातवेदनीयं शुभबिहाकरणप्रथमभागे उदयव्यवच्छेदः क्षीणकषायद्विचरमसमये योगतिः वैक्रियद्विकमौदारिकद्धिक सुरद्विकं मनुष्यद्विकं तिर्यतथा असातवेदनीयस्य प्रमत्ते सातवेदनीयस्य सयोगिचर- द्विकं गोत्रधिकं (सुसरतिच नत्ति ) यथाक्रममत्र संख्यासंख्ये. मसमये तथा असातवेदनीयचरमसमये बन्धव्यवच्छेद उद- ययोजना सुस्वरत्रिकं सुस्वर सुनगानादेयरूपं त्रसचतुष्कं त्रयव्यच्छेदः पुनरुभयोरपि सयोगिकेवलिचरमसमये अयोगि सबादरपर्याप्त प्रत्येकवकणमित्येताः सप्तविंशतिप्रकृतयः साकेवलिचरमसमये वा। तथा चरमसंस्थानस्य मिथ्यादृष्टौ म- न्तरनिरन्तराः। ध्यममंस्थानचतुष्टयाप्रशस्तविहायोगतिदुःस्वरनाम्नां सासा- ___ सांप्रतं सान्तरादिव्यपदेशनिबन्धनामाह। दने औदारिकाद्वकप्रथमसंहननयोरविरतसम्यग्दृष्टौ अस्थिराशुभया प्रमत्त तैजसकामणसमचतुरस्रसंस्थानयर्णादिचतु: समयान अंतमुटुत्त-नक्कोसो जाण संतरा ताओ। कादिगुरुलघुचतुष्टयप्रत्येकस्थिरशुभसुस्वरनिर्माणानामपूर्व वंधे हियम्मि उभया-निरंतरा तम्मि उ जहन्ने ॥६०॥ करणषष्ठे भागे बन्धव्यच्छेदः। पुनरासां सर्वासामपि प्रकृती यासांप्रकृतीनां जघन्यतःसमयमात्रबन्ध उत्कर्षतः समयादारनामष्टाविंशतिसंख्यानां सयोगिकेवलिचरमसमये तथा मनु ज्य यावदन्तर्मुहूर्त न परतस्ताःसान्तरानिधानाः बन्धमधिकृत्याप्यत्रिकस्य बन्धव्यवच्छेदोऽविरतसम्यग्दृष्टौ पञ्चेन्द्रियजाति न्तर्मुहूर्तमध्येऽपि सह अन्तरेण अवधानेन व्यवच्छेदलकणेन प्रसबादरपर्याप्तसुभगादेयतीर्थकरनाम्नामपूर्वकरणषष्ठभागे य वर्तन्ते यास्ताः सान्तरा ति व्युत्पत्तिबझात्ताश्चेमास्तद्यथा । शकीयुचर्गोत्रयोः सूक्ष्मसंपरायचरमसमये उदयव्यवच्छेदः। असातवेदनीयस्त्रीवेदनपुंसकवेदहास्यरत्यरतिशोकनरकद्विकापुनरासांद्वादशानामपि प्रकृतीनामयोगिकेवलिचरमसमये।तथा हारकद्विकाद्यरहितसंस्थानपञ्चकाद्यरहितसंहननपञ्चकजातिस्थावरैकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजातीनां नरकत्रिकस्यान्तिमसंहनन- चतुण्यातपोद्योताप्रशस्तविहायोगतिस्थिरशुभयशाकीर्तयःस्थास्य नपुंसकवेदस्य मिथ्यादृष्टौ बन्धव्यवच्छेद उदयव्यवच्छेदः वरादिदशकं च । एता हि जघन्यतः समयमात्र बभ्यन्ते उपुनर्यथाक्रम सासादने अविरतसम्यग्दृष्टावप्रमत्तसंयते अनिवृ- कर्षतः अन्तर्मुहूर्त परतस्तु निजबन्धहेतुसमावेऽपि तथास्वासिवादरसंपराये तथा तिर्यगानुपूर्वीदुर्भगानादेयानां तियर्गति- भाव्यतस्तद्योम्याध्यवसायपरावर्तनेन नियमतः प्रतिपक्कप्रकृतीर्वतिर्यगायुरुद्योतनीचैर्गोत्राणां स्त्यानचित्रिकस्य चतुर्थपञ्चमसं- भनाति ततः सान्तराअनिधीयन्ते । तथा यासांप्रकृतीनां जघन्यतः हननयोतिीयतृतीयसंस्थानयोश्च बन्धव्यवच्छेदःसासादन- समयमात्रं बन्धमुत्कर्षतः समयादारज्य नैरन्तर्यणान्तर्महर्तस्योस्य सम्यग्दृष्टौ उदयव्यवच्छेदःपुनर्यथासंख्यमविरते देशविरते पर्यपि असंख्ययं कालं यावत् ता उभयाःसान्तरनिरन्तरा इत्यप्रमत्तसंयतेऽप्रमत्तसंयते उपशान्तमोहे तथा अरतिशोकयोर्बन्ध र्थः । बन्धमधिकृत्यान्तर्मुहूर्तमध्ये सान्तराश्च निरन्तराश्चेति व्यवच्छेदःप्रमत्तसंयते उदयव्यवच्छदोऽपूर्वकरणे संज्वलनलो- कृत्वा ताश्च प्रागुक्ताः समचतुरस्रादयः सप्तविंशति प्रकृतयः भस्य बन्धे व्यवच्छेदोऽनिवृत्तिवादरसंपरायचरमसमये नदयव्य- ताहि जघन्यतः समयमात्र बध्यन्ते ततः सान्तरा उत्कर्पतो च्छेदः सूक्ष्मसंपरायान्तिमसमये तत एता पमशीतिरपि प्रकृतयः ऽनुत्तरसुरादिभिरसंख्येयमपि कायं ततोऽन्तर्मुहूर्तमध्ये व्यवक्रमव्यवविद्यमानबन्धोदयाः । तथा अष्टानामयशःकीर्तिसुरत्रिक- च्छेदानावान्निरन्तराः। (तम्मि उ जहन्ने इत्ति ) जघन्ये इति वैक्रियद्विकाहारकविकरूपाणामुत्क्रमेण प्रागुदयस्य व्यवच्छेदः जघन्येनापि याः प्रकृतयोऽन्तमुहत यावत् नैरन्तर्येण बध्यन्ते ता पश्चाद्वन्धस्यवंरूपेण व्यवच्चियेते बन्धोदया। तथाहि प्रयशकी-| निरन्तराः । निर्गतं बन्धमधिकृत्यान्तर्मुहूर्तमध्ये अन्तर व्यवधान Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७६) अनिधानराजेन्द्रः। कम्म व्यवच्छेदो यकान्यः ता निरन्तरा ति व्युत्पत्तेः ताश्च प्रागुक्ता रनामातपनामानि पञ्च निद्रा इत्येता पञ्चदश प्रकृतयोऽनुदयध्रुवबन्धिन्यादयः ता हि जघन्येनाप्यतमुहूर्त वावदवश्यं नैरन्त- बन्धोत्कृष्टाः शेषाः पुनरनायुष आयुश्चतुष्टयरहिताः पञ्चेन्धियेण वध्यन्ते शति । तदेवमुक्ता निरन्तरादिप्रकृतयः ॥ ६० ॥ यजातिवैक्रियद्विकहुएमसंस्थानपराघातोचासोद्योतविहायोगसंप्रत्युदयबन्धोत्कृष्टादिप्रकृतीर्विवकुः; तयोऽगुरुवघुतैजसकामणनिर्माणोपधातवर्णादिचतुष्कान्यस्थि-- प्रथमतोऽभिधानकारणमाह । रादिषट् प्रसादिचतुष्कमसातवेदनीयं नीचैर्गोत्रं षोडशा कषाया जदए व आदए वा, बंधामो अन्नसंकमाओ वा ।। मिथ्यात्वं ज्ञानावरणपञ्चकमन्तरायपञ्चकं दर्शनावरणचतुएयमि त्येताः षष्टिः प्रकृतय उदयबन्धोत्कृष्टाः पतासामुदयप्राप्तानां स्वविइसंत जाण भवे, नकोसं ता तदक्खाश्रो ॥ ६१ ॥ बन्धनतः उत्कृष्ट स्थितिरवाप्यते पता उदयबन्धोत्कृष्टानिधानाः यासां प्रकृतीनामदये वा अनुदये वा बन्धादन्यप्रकृतिदलिक थायुषां तु न परस्परसंक्रमो नाप बध्यमानायुर्दनिकं पूर्ववरूसंक्रमतो वा स्थितिसत्कर्मोत्कृष्टं जवति तास्तदाख्यास्तदनु स्यायुष उपचयाय नवति तत पकेनापि प्रकारेण तिर्यग्मनुष्यारूपसंज्ञका वेदितव्यास्तद्यथा । यासां प्रकृतीनां विपाकोदये युषोरुत्कृष्टा स्थिति वाध्यते इति ते अनुदयबन्धोत्कृष्टादिसंसति बन्धादुत्कृध स्थितिसत्कर्मावाप्यते तानदयबन्धोत्कृष्टसंझाः झाचतुष्टयातीते । देवनारकायुषी तु यद्यपि परमार्थतोऽनुदयबयासां तु विपाकोदयानावे बन्धादुत्कृष्टस्थितिसत्कर्मावाप्तिस्ता न्धोत्कृष्ट तथापि प्रयोजनाभावतः पूर्वसूरिनिः संज्ञाचतुष्टयातीअनुदयबन्धोत्कृष्टा यासां पुनर्विपाकोद ये प्रवर्तमाने सति संक्र ते विवकिते इति तयोरपि प्रतिषेधः । मत उत्कृष्टं सत स्थितिकर्म बज्यते न बन्धतस्ता उदयसत्कर्मों संप्रत्युदयवत्यनुदयवत्योः प्रकृत्योर्सकणमाह । स्कृष्टाभिधानाः। यासां पुनरनुदये संक्रमतः उत्कृष्टस्थितिलाभ चरिमसमयम्मि दलियं, जासिं अन्नत्थ संकमे तानो। स्ता अनुदयसंक्रमोत्कृष्याख्याः॥६१ ॥ अणुदयवयइयरा उ, उदयवई होति पगईओ॥६५॥ तत्रानुपूर्यप्यस्तीति ख्यापनाय प्रथमत नदयसंक्रमोत्कृष्ठाख्याः प्रकृतीः कथयति । यासां प्रकृतीनां दलिकं चरमसमयेऽन्त्यसमये अन्यत्रान्यासु प्रकृतिषु स्तिबुकसक्रमेण संक्रमयेत संक्रमय्य चान्यप्रकृतिमाणुगइसायं सम्मं, थिरहासाइछ वेयसुजखगई। व्यपदेशेनानुभवेत् न स्वोदयेन ता अनुदयवत्योऽनुद यवतीसंहाः रिसहचनरस्सगाई, पडुच्च नदसंकमुक्कोसा ॥६॥ श्तरास्तु प्रकृतयः उदयवत्यो नवन्ति यासां दक्षिकं चरमसमये मनुष्यगतिः सातवेदनीयं सम्यक्त्वं स्थिरादिषटुं स्थिरशुभ-| स्वविपाकेन वेदयते। सुनगसुस्थरादेययश-कीर्तिलकणं हास्यादिषटुं हास्यरतिशोक संप्रति ता एवोदयवतीरनिधातुकाम माह । भयजुगुप्सालकणं वेदत्रिकं पुन्नपुंसकत्रीवेदरूपं शुन्नविहायोगति नाणंतरायानग-दसणचउ वेयणीयमपुमित्थी । वज्रर्षभनाराचादीनि संहननानि समचतुरस्रादीनि पञ्च संस्थानानि नचाँत्रमित्येतास्त्रिंशत्प्रकृतय उदयसंक्रमोत्कृष्टाः श्रा चरिमुदयनच्चवेयग-उदयवई चरिमलोजो य ॥६६॥ सां हि प्रकृतीनामुदयप्राप्तानां या विपक्कनूता नरकगत्यसातवे झानावरणपञ्चकमन्तरायपञ्चकमायुश्चतुष्टयं दर्शमनुष्यं सादनीयमिथ्यात्वादयःप्रकृतयस्तासामुत्कृष्टांस्थिति बश्या भूय आ तासातवेदनीये स्त्रीनपुंसकवेदो चरमोदया मामनवकरूपासामेवोदयप्राप्तानां वध्यमानासु चैतासु अनन्तरबहनरकगत्यादि- स्ताश्चमा मनुष्यगतिः पञ्चेन्डियजातिस्त्रासनाम बादरनाम पर्याविपक्के प्रकृतिदलिकं संक्रमयति शुनप्रकृतीनां स्थितिः स्व- तकनाम शुजनाम सुस्वरनाम श्रादेयनाम तीर्थकरमाम तथा बन्धेन स्तोकैव भवति अशुभानामुत्कृष्टा ततः संक्रमतः आसा उच्चैोत्रं वेदकसम्यक्त्वं चरमझोनः संज्वलनशोभः इत्येतामुत्कृपा स्थितिरवाप्यते इत्येता उदयसंक्रमोत्कृष्टाभिधानाः॥६॥ इचतुखिशत प्रकृतयः उदयवत्यस्तथा हि कानावरणपञ्चकासांप्रतमनुदयसंक्रमोत्कृष्टाः प्रतिपादयति । न्तरायपञ्चकदर्शनावरणचतुष्टयरूपाणां चतुर्दशप्रकृतीनां कीणमणुयाणुपुवीमीसग, आहारगदेवजुगलविगलाणि ।। कषायान्त्यसमये चरमोदयानां च नामनवकलवणानां साता सातवेदनीययोरुश्चोत्रस्य च सर्वसंख्यया द्वादशप्रकृतीनामयोमुहुमा तिगं ति अ-णुदयसंकमाणउक्कोसा ॥१३॥ गिकेवलिचरमसमये संज्वलनलोभस्य सूक्ष्मसंपरायान्यसमये मनुष्यानुपूर्वी सम्यग्मिथ्यात्वमाहारकयुगलमाहारकाङ्गोपाङ्ग वेदकसम्यक्त्वस्य स्वरुपणपर्यवसानसमये स्त्रीनपुंसकवेदयोः लकणं देवयुगलं देवगतिदेवानुपूर्वीरूपं विकलत्रिकं विकले कपकश्रेण्यामनिवृतिवादरसंपराकायाःसंख्येयेषु भागेष्वतिकाजियजातित्रिकम द्वीम्ब्यित्रीयचतुरिन्द्रियजातिरूपं सूदम न्तेषु तदयान्तरसमये आयुषां च स्वस्वभवचरमसमये स्ववेदत्रिक सूत्मापर्याप्तसाधारणलक्षण तीर्थङ्करनाम पतास्त्रयोदश नमस्ति तत पता नदयवत्योऽनिधीयन्ते । यद्यपि सातासातवेप्रकृतयः अनुदयसंक्रमोत्कृष्टा यत पवासामुत्कृष्टा स्थितिः स्व दनीययोः स्त्रीनपुंसकवेदयोश्चानुदयवतीत्वमपि संजवति तथाबन्धतो नावाप्यते किं तु संक्रमतः संक्रमतोऽप्युत्कृष्टा स्थिति ऽपि प्रधानमेव गुणमवलम्ब्य सत्पुरुषा व्यपदेशं प्रयच्छन्तीति स्तदावाप्यते यदा पतद्विपकप्रकृतीरुत्कृष्टस्थितीचा तदनन्त उदयवत्यः पूर्वपुरुषैरुपदिष्टाः शेषास्तु चतुर्दशोत्तरशतसंख्या रमेतासु वध्यमानासु तद्दसिकं संक्रमयति एतद्विपक्कप्रकृतीनां च उत्कृष्धस्थितिवन्धकः प्रायो मिथ्यादृष्यादिमनुष्यो नच तदा अनुदयवत्यः तासां दलिकस्य चरमसमये अन्यत्र संक्रमणतः स्वविपाकवेदनाभावात् नथाहि चरमोदयसंझा नामनवकमरकनीमासामदयोऽस्तीत्यनुदयसंक्रमोत्कृष्टाः॥ ६३॥ तिर्यगद्विकैकद्वित्रिचतुरिन्छियजातिस्थावरसूक्ष्मसाधारणातपोसंप्रत्यनुदयवन्धोत्कृष्टोदयबन्धोत्कृष्टप्रकृती राह । द्योतवर्जाः शेषा नान एकसप्ततिप्रकृतयो नीचैर्गोत्रं चेत्येता नारयतिरिटरसगुं, बेवढेगिंदिथावरायावं । द्विसप्ततिप्रकृतीः सजातीयासु परप्रकृतीवयमागतासु चरमनिदा अणुदयजेट्ठा, उदउक्कोसा पराणान ॥६॥ समये स्तिवुकसंक्रमेण प्रतिप्य परप्रकृतीव्यपदेशनानुनवत्ययोनरकतिर्यगहिकौदारिकतिकसेवातसंहननैकेन्डियजातिस्थाव- गिकेवली एवं निजामचने कोणकषायः तथा मिथ्यात्वं सम्यङ् Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७७ ) अभिधानराजेन्द्रः । कम्म मिथ्यात्वं तदपि सम्यत्वे प्रतिकालेऽनुभति अ गन्तानुबन्धिनां कृपणसमये तबियमानासु चारित्रमोदकृतिषु गुण संक्रमेण संकम्प उद्यावलिकामुक्ती षु प्रकृतिषु स्तिवक संक्रमेण संक्रमयति स्थावर सूक्ष्म साधारणातपोद्योतकचिचतुयजातिनरक शिकतिर्यखिकरूप नामत्रयोदश प्रकृतीभ्यमानायां यशः कीर्तिगुणसंक्रमेण संक्रमस्य ताखामुद्यावलिकागतं दलिकं नाम्न उदयमागतासु प्रकृतिषु स्तिकसंक्रमेण प्रय सद्यपदेशेनानुप्रयति स्यान कमपि दर्शनावरणचतुष्टये प्रथमतो गुणसंक्रमेण संक्रमयति तत उद्या संक्रमेण संक्रमयति क पायान् दास्यादिष पुरुषवेदं संयनकोत. रम्य प्रकृतिषु मध्ये महिपति तत पता वर्षा अपि चतुर्दशोत्तरशतसंख्याः प्रकृतयोऽनुदयवत्यः । इति श्रीमहाय गिरिविरचितायांची कार्या बन्धयाविधानं तृतीयं द्वारं समाप्तम् । ( वन्यशब्देऽनुभागप्ररूपणे आसां धर्मः प्ररूपयिष्यते ) कर्मणां संवेधा (२५) बहानाचरणं सेः सह। जस्स णं जंते । नाणावरणिनं तस्स दंसण वरणिज्जं जस्स दंसणावरणिज्जं तस्स नाणावरणिजं ? गोयमा ! जस्स दाणावर तस्स दंसणावरणिजं नियमं अस्थि । जस्स दंसणावरणिज्जं तस्स वि नाणावरणि नियमे प्रत्थि । १ । जस्त णं भंते ! नाणावरणिज्जं तस्स जिस पणिज्वं तस्स नाणावर णिज्जं ? गोषमा ! जस्स नागावरणिज्जं तस्स वेयणिज्जं नियमं प्रत्थि । जस्स पुण वेयणिज्जं तस्स नाणावर णिज्जं सिय प्रत्थि सिय नत्थि २ । जस्स पुण जंते ! नाणावर णिज्जं तस्स मोहणिज्जं जस्स मोह णिज्जं तस्स नाणावरणिज्जं ? गोयमा ! जस्स नाणावरणिज्जं तस्स मोहणिज्जं सिय प्रत्थि सिय नत्थि जस्स पुरण मोहणिज्जं तस्स नाणावर णिज्जं नियमं अत्थि । जस्सां भंते । नाएाबरणिनं तस्स आउ एवं जहा वेवणिज्जेण समं जशियं वहा आउष्ण विसमं भाणिय एवं नामे वि एवं गोरण व सर्व अंतराइएणं जहा दंसणावरणिज्जेण समं तहेव नियमं परोप्परं नाणियष्याणि । अवधि केवलिनं च प्रतीत्यायलिनो हि वेदनीयं ज्ञानावरणीयं व्यास्ति केवलिनस्तु वेदनायमस्ति न तु ज्ञानावरणीयमिति । ( जस्स नाणावरणिजं तस्स मोह णिज्जं सिय अस्थि सिय नत्थि ति ) अकपकं कपकं च प्रतीत्य अकूपकस्य ज्ञानावरणीयं मोहनी चारित पस्त मोये यावत्केवलहान बोल्द्यते तावज्ज्ञानावरणीयमस्ति न तु मोहनीयमिति । एवं च यथा ज्ञानावरणीयं वेदनीयेन सममधीतं तथा आयुषा नाम्ना गोत्रेण च साध्येयमुक्तप्रकारेण भजनायाः सर्वेच्येतेषु भावात् । अन्तरायेण च समं ज्ञानावरणीयं तथा वाच्यं यथा दर्शनावरणीयं निर्भर्जनमित्यर्थः एतदेवा" जापनिज्जेण सममित्यादि" ( नियमा परोपरं प्राणियव्वाणि त्ति) कोऽर्थः "जस्स नाणावरणिज्जं तस्स नियमा अंतराश्यं जस्स अंतराश्यं तस्स नियमा कम्म नाणावर णिज्ज" मित्येवमनयोः परस्परं नियमो धाव्य इत्यर्थः । अथ दर्शनावरणं शेषैः षभिः सह चिन्तयन्नाह । जस्स णं जंते ! दंसणावरणिनं तस्स वेपणि जस्त चेय णिज्जं तस्स दंसरणावर णिज्जं ? जहा नाणावर णिज्जं उवरिमेहिं सचाहिँ कम्मेहिं समं भणियं तदा सणावरणि पि परिमे िवा कम्मेहिं समं णि जाव अंतराइए । जस्स णं जंते ! वेयाणिज्जं तस्स मोह णिज्जं जस मोह लिज्जं तस्स वेय णिज्जं ? गोयमा ! जस्सं बेयणिज्जं तस्स मोहणिज्जं सिय प्रत्थि सिय नत्थि जस्स पुण मोहणिज्जं तस्स वेय णिज्जं नियमं श्रत्थि । जस्स णं भंते! बेयणिज्वं तस्स प्राउयं एवं एवाणि परोप्परं निमं जहा उस समं एवं नामेण वि गोए वि समं भाणियन् । जस्स णं जंते! वेषचिन्तं तस्म अंतराश्यं पु गोवमा ! जस्स वेयाणि तस्स अंतरार्ष सिय अ त्थि सिय नत्यि । जस्स पुण अंतराइयं तस्स वेपणिज्जं नियमं प्रत्थि । ( जस्लेत्यादि ) श्रयञ्च गमो ज्ञानावरणीयगमसम एवेति 66 66 ' जस्स णं नंते वेयणिज " मित्यादिना तु वेदनीयं शेषैः पsaभिः सह चिन्त्यते तत्र त्र जस्स वेयणिजं तस्स मोहणिजं लिय अत्थि सिय नत्थि त्ति " अक्कीणमोहं कीणमोदं च प्रसीत्य मीमोदस्य दि वेदनीय मोहनीयं चास्ति मो 39 तु वेदनीयमस्ति न तु मोहनीयमिति पयमेयाणि परोप्परं नियमंति ) कोऽर्थः यस्य वेदनीयं तस्य नियमादायुर्यस्यायुस्तस्य नियमादनीयमित्येवमेते यायेत्यर्थः एवं नाम गोत्राभ्यामपि वाच्यम् । एतदेवाह " जहा आज पणेत्यादि अन्तरायेण तु प्रजनया यतो वेदनीयमन्तरायं चाकेवलिनामस्ति केवलिनां तु वेदनीयमस्ति न त्वन्तरायमेतदेव दर्शयतो " जस्स वेयणिजं तस्स अंतराश्यं सिय अस्थि सिय नत्थिति । अथ मोहनीयमन्यैश्चतुर्भिः सह चिन्त्यते । जस्स णं भंते ! मोहणिज्जं तस्स आउयं जस्स प्राउयं तस्स मोहणि गोयमा ! जस्स मोह विजं तस्स आह नियमं श्रत्थि । जस्स पुरा आउयं तस्स मोहाणिज्जं सिय अस्थि सिय नत्थि एवं नामं गोयं अंतराश्यं च भाणिय । जस्स पुजेते ! आउ तस्स नाम पुच्छा गोषमा ! दो वि परोप्परं नियमं एवं गोवेण वि समं भाणिय जस्स नंते ! आयं तस्स अंतराश्यं पुच्छा गोपमा ! जस्स आउयं तस्म अंतराश्यं सिप अस्थि सिय नस्थि । जस्स पुण अंतराइयं तस्स आउयं नियमं श्रत्थि । जस्स णं येते! नामं तस्स गोषं जस्स गोर्थ तस्स नाम गोपमा ! जस्स नामं तस्स नियमा गोयं जस्स गोअं तस्स नियमा नामं । जस्स णं भंते ! नामं तस्स अंतराइयं पुच्छा गोयमा ! जस्स नाम तस्स अंतराइयं सिय अवि सिप नत्थि जस्स पुरण अंतराइयं तस्स नामं नियमं प्रत्थि । जस्स Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (290) अभिधानराजेन्द्रः । कम्म णं जंते गोयं तस्स अंतराश्यं पुच्छा गोवमा ! जस्स गोयं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि सिप नात्थ जस्स पुरा अंतराष्यं तस्स गोवं नियमं अस्थि ॥ ७ ॥ यस्य मोहनीय तस्यायु नियमाकेवलिनश्च यस्य पुनरायुस्तस्य मोहनीयं भजनया यतोऽङ्गीणमोहस्यायुमहनीयं चास्ति कीणमोहस्यत्वायुरेवेति ( एवं नाम गोयं अंतराश्यं च भाणियवंति ) अयमथों यस्य मोहनीयं तस्य नाम गोत्रमन्तरायं च नियमादस्ति यस्य पुनर्नामादित्रयं तस्य मोहनीयं स्यादस्त्य कीणमोहस्येव स्वान्नास्ति कीणमोदस्येवेति धारभिः सह चिन्त्यते (जस्स णं भंते! भामित्यादि दो विपरोप्परं नियमति ) कोऽर्थः । " जस्स श्रावयं तस्स नियमा नाम जस्स नाम तस्स नियमा आउयं " इत्यर्थः । एवं गोत्रेणापि (जस्स आवयं तस्स अंतराश्यं सिय अत्थि सिय नत्थि त्ति ) यस्वायुस्तस्यान्तरायं स्यादस्यकेचित् स्यात केव वदिति "जस्स णं भंते ! नाम " इत्यादिना नाम अन्येन द्वयेन सह चिन्त्यते । तत्र यस्य नाम तस्य नियजाजोत्रं यस्य गोत्रं तस्य नियमानाम | तथा यस्य नाम तस्थान्तरायं स्यादस्त्यकेवजिवत्स्यानास्ति के सिवदिति । एवं गोत्रान्तराययोरपि भजना भावनीयेति भ० श० १० उ० । इत्युक्तं प्रकृतिकर्म । अथ स्थितिकर्म त कर्मणा स्थितिनियेको नाणावर जिस्म णं भंते! कम्मस्स केवलियं का लिई पणता ? गोषमा ! जहन्नेणं अंतोनं उकोसे तीसं सागरोमोडोमीओ तिष्ठि य वाससहस्साई अवाहा अवाणि वा कम्पनि कम्मणिसेगो । ज्ञानावरणीयस्य मतिनावधिमन्तःपर्यायकेव झावरणभेदतः पञ्चप्रकारस्य कर्मणो भदन्त ! कियन्तं कालं यावत् स्थितिः प्रज्ञप्ता एवमुक्ते जगवानाह । गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्त तच सर्वलघु सूक्ष्म संपवस्य रूपकस्य स्वगुणस्थान चरमसमये पतं मानस्य क्तिन्यम् उत्कर्षत्रित्सागरोपमकोटी कोटया सा च मिथ्यादृरुत्कृष्टे संदेश वर्तमानस्याव सातव्या तदेवं नियता प्रागुक्तस्य प्रश्नस्योत्तरसिद्धिः । इदमपुण्याकरणं त्रीणि वर्षसहस्राणि अवाधा अथाधोना कर्मस्थितिः कर्मनिकनिषेक इति । किमर्थमिति ने स्थितिवियदर्शनार्थी तथा हि द्विविधा स्थितिः कर्मरूपतावस्थानलक्षणा अनुयोग्या च । तत्र कर्मरूपतावस्थानां स्थितिमधिकृत्येदमुनम विशत्सागरोपमकोटी कोटय इति । अनुजवयोग्या च वर्षसहस्रत्रयोना यत [आ] चीणि वर्षसहस्राव्यायाचा मुकं नयति ज्ञानावरणीय कर्मचत्कष्टस्थितिकं धन्धं सत् बन्धसमयादारभ्य त्रीणि वर्षसहस्राणि यावन्न किंचिदपि स्वादयते जीवस्य वाधामुत्पादयति तावत्का समध्येकयेकात अनिषेकः तथा चार अवधनावाचा परिदना अनुभचयोग्य कर्मस्थिति किमुकं भवति कर्मनिषेकः स चैवं प्रथमस्थितीत द्विती यस्थिती विशेष पर्व विशेष विशेषता यावत् स्थितिचरमसमयः । एतावता व यदुक्तमग्रायणीयाख्ये द्वितीये पूर्वकर्मप्राते बन्धविधाने स्थितिबन्धाधिकारे चत्वार्यनुयोगद्वाराणि तद्यथा स्थितिबन्ध-स्थानप्ररूपणा बाधाक एमकप्ररूपणा उत्कृष्टनिषेकप्ररूपणा अल्पबहुत्वप्ररूपणा चेति तत्रोत्कृ/बाधापत्ररूपणा उत्कृष्टनिषेकप्ररूपणा च दर्श कम्म ता भवति । श्राबाधाकालपरिज्ञापनी यश्चायं यस्य यावत्यः सागरोपमकोटी कोट्यस्तस्य तावन्ति वर्षशतान्याबाधा । यस्य पुनः सागरोपमकोटको मध्ये स्थितिस्तस्यायुर्वस्यान्तर्मुहुर्तमा युवस्तु जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमबाधा तत्कर्षतः पूर्वकोटी त्रिभागः । तत एवमवधाकालं परिभाव्याबाधाविषयाणि स्वयं भावनीयानि । तत्र निद्रापञ्चकविषयं सूत्रमाह । निचयस्स भते ! कम्पस केवइयं का लिई पत्ता : गोयमा ! जहण्येणं सागरोवमस्स तिनि सत्त भागा पक्षियोवमस्य असंखेन्नइनागेणं कणता कोसेणं तीसं सागरोवमकोकाकोमीओ तिन्नि वाससहस्साई प्रवाहा अवाणि वा कम्पईि कम्पनिसेगो । अत्र जघन्यतः त्रयः सागरोपमस्य सप्त भागाः पल्योपमासंस्थेयजागोनाः । काss भावनेति चेदुच्यते पञ्चानां ज्ञानावरणप्रकृतीनां चतसृणां दर्शनावरणकृतीनां दर्शनादीनां ज्वलनजनस्य पञ्चानामन्तरायप्रकृतीनां च जघन्य स्थितिर सातावेदनीयस्य सकषायिकस्य द्वादश मुहूर्ताः । इतरस्य तु द्वौ प्रथमसमये पो द्वितीय समये वेदनं तृतीयसमयेत्यकर्मी भवनमिति यशः । गोत्रयोरष्ठ मुहूतः । पुरुषस्याष्टी संचासराणि संयमनकोधस्य ही मासीनमनस्यैको मासः संज्वलनमायाया श्रमासः शेषाणां तु प्रकृतीनां या या स्वकीया स्थितिस्तस्या चायाः सप्ततिसागरोपमकोटी कोटी प्रमाणाया मिथ्यात्यस्थित्या भागे हते यज्यते सत्पल्योपमा संश्येषमागहीनं जघन्यस्थितिपरिमाण त निद्राको स्थि तत्सामरोपमकोटी कोट्यस्तासां मिध्यात्सतिसागरोपमकोटी कोटी प्रमाणया भागे द्रियमाणे शून्यं शून्येन पातयेदिति वचनात् लब्धाश्चात्र ये सागरोपमस्य सप्त नागाः ते पल्योपमसंख्येयभागहीनाः क्रियन्ते ततो भवति यथोक्तं जघन्यस्थितिपरिमाणमिति ॥ दर्शनचतुष्कस्य । दंसणचटकस्स णं भते ! पुच्छा गोपमा ! जहन्ने अंतोद्रचं उफोसेणं तसं सागरोवमकोमीकोमीओ तिन्नि य वाससहस्सं अवाहा ॥ वेदनीयस्य । सातवेदणिज्जरस इरियावहियबंधनं पश्य अजयकोसे दो समय संपरायबंध पहुच्च जहणं बारस मुहुत्ता नकोसेणं पन्नरस सागरो वमकोकाकोमी पन्नरसय वाससहस्साई अवाहा। असातावेद णिज्जस्त जहन्नेणं सागरोवमस्स तिन्नि सत्त जागा परियोवमस्स प्रसंखेभागेण करणता उकोसेण ती सागरोमोकोमी तिन्निवाससहस्सा वाहा । सम्मत्तवेदणिज्जस्स पुच्छा गोपमा ! महुम्मेणं अंतो उसे छावधिसागरोचमाई सातिरेगाई । ( सायायनिज्जरस इति) “इरियादिबंध पच अज समोसे दो समय संपश्यधर्ग पहुंच जसे पारस मुडुत्ता" इति प्रागेव भावितम् । असात वेदनीयस्य जघन्यास्त्रयः सत भागाः पत्योपमासंस्थेष भागोमा निद्रापश्च भावनीया Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) अभिधानराजेन्द्रः । कम्म स्तस्याप्युत्कर्षतः स्थितिः त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् (२६) सम्यक्त्व वेदनीयस्य । सम्म वेदणिज्जस्स पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोतं उक्कोसेणं बावहिसागरोवमाई सातिरेगाई || सम्यक्त्वस्य जघन्यतः स्थितिपरिमाणमन्तर्मुहूर्तमुत्कतः षट्षष्टिसागरोपमाणि सातिरेकाणि तद्वेदनमधिकृत्य वेदितत्र्यं न बन्धनमाश्रित्य सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोर्बन्धाभावात् मिथ्यात्वपुरुला एव हि जीवेन सम्यक्त्वानुगुणविंशोधित स्त्रिधा क्रियन्ते तद्यथा सर्वविशुद्धा श्रर्द्धविशुका अविशुकाच तत्र ये सर्वविशुस्ते सम्यक्त्व वेदनीयव्यपदेशं लभन्ते येऽईविशुद्धास्ते सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीयव्यपदेशमविशुका मिथ्यात्ववेदनीयम्यपदेशमतो न तयोर्वन्धसंभवः । यदा तु तेषां सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्व पुनानां स्वरूपतः स्थितिश्चिन्त्यते तदाऽन्तमुहूर्तोना सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा वेदितव्या । सा च तावता यथा भवति तथा कर्मप्रकृतिटकिायाः संक्रमणकरणे भणितमिति ततोऽवधार्यम् । मिथ्यात्वस्य । मिच्छतवेदणिज्जस्स जहन्नेणं सागरोवमं पलि ओवमस्स संखेज्जइ जागेण ऊणगं उक्कोसेणं सत्तरिको माकोडीओ सत्तवाससहस्साई अवाहा ऊणिता व सम्मामिच्छतवेदणिजस्स जहन्नेणं अंतोमुडुतं उक्कोसेण त्रिअंतोमुदुत्तं ॥ मिथ्यात्ववेदनीयस्य जघन्या स्थितिरेवं सागरोपमं पल्योपमासंख्येयप्रागोनमुत्कर्षतः तस्योत्कृष्टस्थितः सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीयस्य जघन्यत तत्क तो वा अन्तर्मुहूर्त बेदनापेकया पुरुलानां स्ववस्थानमुत्कर्षतः प्रागेवोक्तम् । कषायस्य । कसायवारसगस्स जहन्नेणं सागरोत्रमस्स चत्तारि सत्तजागा पलिभो मस्स संखेज्जइभागूणता उक्कोसेणं चत्तालीसं सागरोषमकोडाकोमीओ चत्तालीसं वाससयाई वादा जान निसेगो ॥ कषायद्वादशकस्यानन्तानुबन्धिचतुष्टयाप्रत्याख्यानचतुष्टयप्रस्याख्यानावरणचतुष्ट्यरूपस्य प्रत्येकं जघन्या स्थितिश्चत्वारः सागरोपमसप्तभागाः । पल्योमासंख्येयभागोना उत्कर्षतस्तेषां स्थितः चत्वारिंशत्सागरोपमकोटी कोटी प्रमाणत्वात् । कोहलणे पुच्छा गोयमा ! जहनेणं दो मासा उक्कोसेयं चालीस सागरोत्रमकोकाकोडीओ चत्तालीसं वाससयाई जाव निसेगो । माणसंजलये पुच्छा गोयमा ! जणं मासं टकोसेणं जहा कोहस्स । मायासंजलणाए पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अमासं उकोसेणं जहा कोइस्स | मोजसंजणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुटु नकोसे जहा कोहस्स || संज्वलनानां व जघन्या स्थितिर्मासद्वयादिप्रमाणा क्षपकस्य स्वबन्धचरमसमये ऽवसातव्या । इत्थवेदस्स पुच्छा गोयमा ! जहभेणं सागरोवमस्स दिवसत्तभागं पलिओमस्स असंखेज्जइनागेणं ऊणसं For Private कम्म उकोसेण पन्नरस सागरोवमको माकोमीओ पन्नरसवाससयाई वाहा । पुरिसवेदस्स णं पुच्छा गोयमा ! जहां राई कोसेणं दमसागरोत्रमकोकाकोमीओ दसय वाससयाई अवाहा जाव निसेगो । नपुंसगवेदस्स गं पुच्छा गोपमा ! जहां सागरोवमस्स दोन्नि सत्तभागा पलित्रमस्त्र्यसंखेज्जनागणं करणं नक्कोसेणं वीसं सागरोवमको कोमीओ वीम य वाससयाई अवादा || वेदस्य जघन्या स्थिति ईसागरोपमस्य सप्त भागाः पल्योपमासंख्येयभागोनाः कथमिति चेदुच्यते त्रैराशिककर - गवशात् तथा हि यदि दशानां सागरोपमकोटीकोटीनामेकः सागरोपमः सप्त भागाः लभ्यन्ते ततः पञ्चदशभिः लागरोपमकोटीकोटीभिः किं लभ्यते राशित्रयस्थापना | १० | १ | १५ । अत्रान्त्येन राशिना पञ्चदशलक्षणेन मध्यो राशिरेकलक्षणो गुण्यते जाताः पञ्चदशैव एकस्य गुणने तदेव भवतीति व चनात् तेषामाद्येन राशिना दशकलक्षणेन भागहरणं लब्धाः सार्द्धाः सप्त भागाः इति । हासरतीणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं सागरोत्रमस्स एकं सत्तभागं पवित्रमस्स असंखेज्जइ भागेणं ऊएं उक्कोसेणं दससागरोत्रकोमा कोमीओ दस य वाससयाई प्रवाहा अरतिभयसोग डुगुंब्राणं पुच्छा गोयमा ! जहनं सागरोवमस्त दोन सत्तभागा पलि ओवमस्स असंखेज्जइना गेणं ऊता उकोसेणं वीमसागरोवमको माकोमीओ वीसयवाससयाई अवाहा || ( हासरइभयसो यदुगंछाणं जहन्नुकोसविई भाणियव्वा इति ) हास्यरतिभयशोकजुगुप्सानां जघन्योत्कृष्टा व स्थितिर्वक्तया साच सुप्रसिद्धत्वानोक्ता कथं वक्तव्येति खेदुच्यते । " हासरईणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं एगो सागरोवमस्स सन्तभागो पलिश्रवमस्स श्रसंखेज्जभागेण ऊणो उक्कोसेणं दससागरोवमकोडाकोडीओ दसवाससयाई अवाहा जाव निलेगो इति" शेयमिति । आयुषः । नेरइया यस्स एणं पुच्छ । गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहர் स्साई अंतोगुत्तमन्नहियाई उकासेणं तित्तीसं सागरोत्रमाई पुत्रको मितिजागमन्महियाई । तिरिया उयस्स पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतामुदुत्तं नकोसेणं तिन्नि पलिप्रोमाई पुव्वकोमीतिभागमन्महियाई एवं मणुस्साजयस्स वि देवाउयस्स जहा नेरइयाजयस्स वितित्ति ।' तिर्यगायुषि मनुष्यायुषि च त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटी त्रिभागाभ्यधिकानि यदुक्तं तत्पूर्व कोट्यायुष स्तिर्यम्मनुष्यानुबन्धिकानधिकृत्य वेदितव्यम् । अन्यत्रैतावत्याः स्थितेः पूर्वकोटिजिनागरूपाया अबाधायाश्वासज्यमानत्वात् प्रका० २३ पद । प्रय० । नामकर्मणः पृच्छा | निरयगतिनामएणं जंते ! कम्मस्स पुच्छा गोयमा ! जहणं सागरोवमसहस्स दो सत्तनामा पलिओवमस्स Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्म ( २८० ) अभिधानराजेन्द्रः । असंखेज्जइभागेणं कणता उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोमाकमी वीसवाससयाई प्रवाहा तिरियगतिनामाए जहा नपुंगवेदस्स | मणुयगतिनामाए पुच्छा गोयमा ! जहनेणं सामरोवमस्स दिवकुं सत्तभागं पलिप्रोत्रमस्स असंखेज्जभागऊणगं उकोसेणं पनरससागरोवमकोडाकोमीओ पनरसवाससाई अवाहा देवगतिनामाए पुच्छा गोयमा ! जहां सागरोत्रमसहस्तएवं सत्तभागपविमस्स असंखेज्जश्भागेणं ऊ गं उक्कोसेणं जहा पुरिसवेदस्स । " तिरियगश्नामाए जहा नपुंसकवेयस्स” इति जघन्यतो द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागौ पल्योपमासंख्येयनागहीनौ उत्कर्षतो विंशति सागरोपमकोटी काट्य इत्यर्थः । मनुष्यगतिनाम्नी । "जणं सागरोवमस्स दिवस त्तसागं पत्नियोवमस्स असंखेज्जनागेण ऊणगं ति" श्रत्र जावना स्त्री वेदवङ्गावनी या "दिवसत्तभागमि" त्यादौ तु नपुंसकनिर्देशः प्राकृतत्वात् नरकगतिनाम्नो जघन्यतः सागरोपमसहस्रस्य द्वौ सप्तन्नागौ किमुक्तं भवति सागरोपमस्य द्वौ सप्तजागौ सहस्रगुणितौ चेति तडुत्कृष्टस्थिते वैिशतिसागरोपमकोटी. कोटीप्रमाणत्वात् तद्बन्धस्य च सर्वजघन्यस्यासंझिपञ्चेन्द्रियस्य नावात् । श्रसंक्षिपञ्चेन्द्रियकर्मबन्धस्य च जघन्यस्य च श्रयमर्थो वैक्रियक चिन्तायां देवगतिनाम्नो जघन्यतः सागरोपमसहस्रैकः सप्तभागः एकसागरोपमस्य सप्तभागसहस्रगुणित इति भावः । तस्य हि उत्कृष्टा स्थितिर्दशसागरोपमकोटीकोटयः ततः प्रागुक्तकारणवशादेव सागरोपमस्य सप्तनागो लब्धः बन्धोऽपि चास्य अघन्यतो ऽसं शिपञ्चेन्द्रियस्येति सहस्रगुणितः । देवगतिनामसूत्रे " ठक्कोसेणं जहा पुरिसस्स वेयस्स इति " " दससागरोपमको डाकोमीओ दसवाससमा अवाडा अवाहूणिया कम्महिई कम्मनिसेगो इति " वक्तव्यमिति भावः । जातिनाम्नः । एगिं दियजातिनामाए पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेणं सागरोवमस्स दोसि सत्तभागा पक्षियो मस्त असं खेज्जइनागेणं ऊणगा उक्कोसेणं वीसं सागरोत्रमकोकाकोमीओ वीसयवाससाई अवाहा । वेई दियजातिनामाए पुच्छा ? गोयमा ! जहन्ने सागरोवमस्स नवपणतीस भागा पनिओTHER श्रसंखेज्जइजागेणं ऊणता उक्कोसेणं अडारससागरोमकोडाकोडीओ अट्ठारसवाससयाई अवाहा । तेइंदियजातिनामाएं जहन्नेणं एवं चेत्र कोसेणं अट्ठारससारोमको कमी अट्ठारसवाससयाई अवाहा । चरिं दिजातिनामाए पुच्छा ! गोयमा ! जहन्नेणं सागरोमस्स नवपतीसतिजागा पक्षियोवमस्स असंखेज्जइनागेणं कणता उकोसेणं अट्ठारससागरोत्रमकोडाकोमी ओ अहारसवासमयाई अवाहा। पंचिंदियजातिनामाए पुच्छा ! गोमा ! जहनेणं मागरांवमस्स दोषि सतजागा पलि प्रोवमस्म असंज्जभागेणं कणता उक्कोसेणं वीसं सागमको सयवाससयाई अवाहा। ओरानियमरीरात्रि एवं चैव ॥ For Private कम्म द्वीन्द्रियजातिनामसूत्रे "जशेणं सागरोवमस्स नवपणवीसभागा पतित्रोवमस्स असंखेश्भागेणं कणता इति " द्वीन्द्रियादिनाम्नो चुत्कृष्टा स्थितिरष्टादश सागरोपमकोटाकोटयः "अट्ठारससुमविमन तिगे ” इति वचनात् । ततोऽष्टादशानां सागरोपमकोटाकोटीनां मिथ्यात्वस्योत्कृष्ट्या स्थित्या सप्ततिसागरोपमकोटाकोटी प्रमाणाया भागो व्हियते नागश्च न पूर्यते ततः शून्यं शून्येन पात्यते जाता उपरि अष्टादशाधस्तात् सप्ततिस्तयोरूर्हेनापवर्त नाल्लधा नवपञ्चत्रिंशद्भागास्ते पल्योपमासंख्येयजागोनाः क्रियन्ते श्रागतं सूत्रोक्तं परिमाणमिति । एवं त्रिच - तुरिन्द्रियनामसूत्रे अपि नावनीये । विसरीरनामाएणं भंवे ! पुच्छा ! जहनेणं सागरोवमसहस्स दो सत्तागा पालियवमस्स असंखेज्जइनागेणं कणता उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोमीओ वीसयवाससयसयाई अवाहा । आहारगसरीरनामाए जहां तो सागरोवमकोकाकोडीए नक्कोसेणं अंतोसागरोवमकोकाकोमीए तेयाकम्मगसरीरनामाए । जहनेणं दोपि सत्तभागा पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणता नकोसे वीसं सागरोवमकोकाकोमीओ बीसयवाससयाई अवाहा | सरीरबंधणनामाए वि पंचद वि एवं चैव सरीरसंघातनामाए वि पंचएह वि जहा सरीरनामाए कम्मस्स वितित्ति ।। वैक्रियनामसूत्रे " जहनेणं सागरोवमसहस्स दो सत्तभागा पलिश्रवमस्स श्रसंखेज्जइभागेणं ऊणता इति" इह वैकियशरीनान उत्कृष्टाविंशतिसागरोपमकोटी कोट्यः स्थितिस्ततः प्रागुक्तकरणवशेन जघन्यस्थितिचिन्तायां तस्या द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागौ लभ्येते परं वैक्रियषट्मकेन्द्रिया विकलेन्द्रियाश्च न बध्नन्ति किंत्वसंशिपञ्चेन्द्रियास्ततो जघन्यतोऽपि बन्धं कुर्वाणा एकेन्द्रियबन्धापेक्षया सहस्रगुणं कुर्वन्ति "पण - वीसा पन्नासा सयं सहस्सं च गुणकारो” इतिवचनात् । ततो यौ द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागौ प्रागुक्तकरणवशालब्धौ तौ सहस्रेण गुण्यन्ते ततः सूत्रोक्तं परिमाणं भवति सागरोपमस्य द्वौ सहस्रौ सप्तभागानां सागरोपमसहस्त्रस्य द्वौ सप्तभागाविति ह्येकोऽर्थः । आहारकशरीरनाम्नो जघन्यतोऽप्यन्तः सागरोपमकोटाकोटी उत्कर्षतोऽप्यन्तः सागरोपमकोटाकोटी नवरं जघन्याडुत्कृष्टं संख्येयगुणं द्रष्टव्यम् । अन्ये त्वाहारकचतुष्कस्य जघन्यतो ऽन्तर्मुहूर्त मिच्छन्ति तद्ग्रन्थः " पुंत्रेय अठवासा, अ मुहुत्ता जसुच्च गोयाणं । साए वारस आहार-वग्गपवरनाण किंचूणं " । १ । ( अत्र किंचूणमिति ) अन्तर्मुहूर्तमित्यर्थः । तत्र तत्वं केवलिनो विदन्ति । यथा च शरीरपञ्चकस्य जघन्यत उत्कर्षतश्च स्थितिपरिमाणमुक्तं तेनैव क्रमेण शरीरबन्धनपञ्चकस्य शरीरसंघात पञ्चकस्य वक्तव्यं तथाचाह । “सरीरबंधननामाप वि पंचएह वि इति" । वइरोस भनाराय संघयणनामाए जहा रतिनामाए। उसभनाराय संघरणनामाए जहन्नेणं सागरोपमस्स उप्पएलतीस जागा पलिओमस्स असंखेज्जनागेणं ऊणता कोसेणं वारससागरोवमकोडाकोमीओ वारस वाससयाई Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०१ ) अभिधान राजेन्द्रः । कम्म वादा | नारायसंघयणनामाए जहन्नणं साग रोबमस्स मत्तपणती सइजागा पलिश्रवमस्स असंखेज्जइजागेणं ऊष्णता उक्कोसेणं चोदससागरोपमकोडाकोमीओ चोदसवासयाई अवाहा । नारायसंघयणनामस्स जहनेणं सागरोवमस्स पणती सड़भागा पलि ओवमस्स संखेज्ज मागेणं करणता टक्कोसेणं सोनससागरोवपकोडाकोओ सोलसवाससाई अवाहा । कीलियासंघयणं पुच्छा ? गोयमा ! जनेणं सागरोवमस्स नवपणतीस - भागा पविमस्स असंखेज्जइनागेणं कणता नकोसे अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीच्यो अट्ठारसवाससयाई अवाहा । बेवसंघयणनामस्स जहनेणं सागरोवमस्स दोषि सच भागा पलियोवमस्स असंखेज्जनागेणं ऊणता उक्कोसें वीसं सागरोवमको माकोडीओ वीसयवाससयाई वाहा | एवं जहा संघयणनामाए (छ) मणिया एवं छ मंगण विभाणियन्त्रा । (व श्रोसमनाराय संघयणनामाए जहा रामाए इति) वज्रनाराचसंहनननाम्नो यथा प्राक् रतिनाम्नो मोहनीयस्योक्तं तथा वक्तव्यम् । "वश्रो सहनाराय संघयणनामाए नंते! कम्मस्स के वश्यं कालं ठिई पत्ता गौतम ! जहनेणं पक्कं सत्तभागपलिश्रोत्रमस्स श्रसंखेज्जर नागेणं ऊणं उक्कोसेणं दससागरोवमकोमाकोमीओ इति" ऋषभनाराचसूत्रम् "सागरोवमस्स छप्पन्नती भाग पलिश्रोत्रमस्स श्रसंखेजइभागेण ऊणता इति" ऋषभनाराचसंहननस्य ह्युत्कृष्टा स्थितिर्द्वादश सागरोपमकोटी कोट्यः तासां मिथ्यात्वस्थित्या सप्ततिसागरोपमकोटी कोटी प्रमाणया भागो हियते तत्र भागहारासंभवात् शून्यं शून्येन पातयित्वा छेद्यछेदकराश्योरर्खेनापवर्त नाल्लब्धाः सागरोपमस्य षट् प त्रिंशद्भागाः पल्योपमासंख्येयभागहीनाः क्रियन्ते एवं नाराचसंहनननाम्नो जघन्यस्थितिचिन्तायां सप्त पञ्चत्रिंशद्भागाः पल्योपमासंख्येयभागहीना उत्कृष्टा स्थितिश्चतुर्द्दशसागरो. कोटी कोटी प्रमाणत्वात् । अर्द्धनाराचसंहनननाम्नोऽष्टौ पत्रिंशद्भागाः पल्योपमासंख्येयभागोना उत्कृष्टा स्थितिः षोडशसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् । कीलिकासंहनननाम्नो नव पचत्रिंशद्भागाः पल्योपमासंख्येयभागहीनाः उत्कृष्टस्थितेरष्टादश सागरोपमकोटाकोटीप्रमाणत्वात् परिभावनीयाः । सेवार्त संहननसूत्रं तु सुगमम् । यथा संहननषद्स्य स्थितिपरि माणमुक्तं तेनैव क्रमेण संस्थानष्ट्रस्यापि वक्तव्यं तथा चाह । " एवं जहा संघयणनामा छ नणिया एवं संठाणा छ भा शिव्या.” उक्तश्चायमर्थोऽन्यत्रापि " संघयणे संठाणे, पढ़मे दस उवरिमेसु दुगवुडी इति " वर्णनामपृच्छा ! सुकिवननामाए पुच्छा ? गोयमा ! जहनेणं सागरोवमस्स एवं सतभागं पलिआवमस्स असंखेज्जनागं ऊपगं उक्कोसेणं दससागरोवमकीडाकोमीयो दसवाससयाई अवाहा । हालहवानामाए पुच्छा ? गोयमा ! जहभेणं सागरोवमस्स पंच महावीस जागा पविमस्स असंखेज्जइ भागेणं कम्म aणता नक्कोसेणं अद्धते रस सागरोत्रमको माकोडीओ - तेरसवाससयाई अबाहा । लोहियवन्ननामाए पुच्छा ? गोमा ! जहनेणं सागरोवमस्स व ग्रहावीस जागा पमिस्स असंखेज्जइभागेणं ऊरणता उक्कोसेणं पन्नरसागरोवमको माकोमीओ पनरसवीससयाई अवाहा | ननामा पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नें सागरोत्रम - स्स सत्तावीस जागा पक्षिश्रवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊरणता उक्कोसेणं अट्ठारससागरोन मकोडाकोमीओ अकारसवाससयाई श्रवाहा । कालवन्ननामाए जहा जेवहसंघयणस्स ॥ दार्णिनामसूत्रे "जभेणं सागरोवमस्स पंच भठवीसजागा पल्लि ओवमस्स असंखेज्जश्नागें ऊणगा" इति हारिरुवर्णनाम्नो हि साकी घादश सागरोपमकोटीकोटयः तथात्रोक्तमम्यत्रापि । "सुकि सुरजिम हुराण दस उ तहा सुनगउरह फासाणं । श्राजपा विदा लिहपुत्राणं " तासां मिथ्यात्वस्थित्या सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणो नागो हियते तत्र शून्यन पातना तेनोपरितनो राशिः सांशः इति सामस्त्येन चतुर्भीगकरणार्थ चतुर्भिर्गुण्यते जाता पञ्चाशत् अधस्तनोऽपि सप्ततिकणश्वेदराशिः चतुर्भिर्गुण्यते जाते द्वे शते श्रशीत्यधिके ततो भूयोऽपि शून्येन पातनाल्लब्धाः पञ्च अष्टाविंशतिभागाः ते पल्योपमासंख्येयनागहीनाः क्रियन्ते । श्रागतं सूत्रोक्तं परिमाणम् । श्रनेनैव गणितक्रमेण लोहितवर्णनाम्नो जघन्य स्थितिः षट् श्रष्टाविंशतिनागाः पत्योपमासंख्येयभागहीनाः उत्कर्षतस्तस्य स्थितेः पञ्चदशसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् । नीलवनाम्नः सप्ताष्टाविंशतिनागाः पल्योपमासंख्येय भागढीनाः तत्कर्षतस्तस्य स्थितेः साईसप्तदश सागरोपम कोटी कोटीप्रमाणत्वात् परिभावनीयाः " कालवपनामाए जहा ठेवसंघयणस्सत्ति" सेवार्तसंहननस्येव जघन्यतो द्वौ सागरोपमस्य सप्तनागी पल्योपमासंख्येयनागहीनौ उत्कर्षतो विंशतिसागरोपमकोटी कोटयः कृष्णवर्णनाम्नोऽपि वक्तव्या इति भावः । सुभिधनामाए जहा सुविमनामस्स भिगंध नामाए जहा संघयणस्स ॥ सुरभिगन्धनाम्नः शुक्लवर्णनाम्नः श्व “सुकिकासुर भिमडुराण दस" इति वचनात् सुरभिगन्धनाम्नो यश्च सेवा संहननस्य तच्चानन्तरमेवोक्तमिति न पुनरुच्यते । रसाणं महुरादी जहा बन्नाणं जणियं तदेव परिवामी जाणियन्त्रं फासा जे अपसत्था तेसिं जहा देवहस्स जे पसत्था तेर्सि जहा सुकिवन्ननामस्स, अगुरुन्न हुनामाए जहा वहस्स एवं नवघातनामाए वि एवं चैव ॥ रसानां मधुरादीनां परिपाट्या क्रमेण तथा वक्तव्यं यथा वर्णानामुक्तं तच्चैचं मधुररसनाम्नो जघन्यस्थितिरेकः सागरो - पमस्य सप्तभागः पल्योपमासंख्येयभागहीन उत्कर्षतो दशसागरोपमकोटी कोट्यो दशवर्षशतान्या बाधा अबाधाकालीन कर्मदलिक निषेकः अम्लरसनाम्नो जघन्यतः पञ्च सागरोपमस्याष्टाविंशतिनागाः पत्योपमा संख्येयनागहीनाः उत्कर्षतोऽई त्रयोदशसागरोपमकोटी कोटयः तं च दशवर्षशतान्यावाधा कटुकरस For Private Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८२) अभिधानराजेन्द्रः । कम्म नाम्तो जघन्यतः सागरोपमस्य सप्ताष्टाविंशतिज्ञागाः पल्योपमासंपेनागीना उत्कर्षतः साः सप्तदशसागरोपमकोटी कोटयः सार्क सप्तदशशतान्याबाधा । तिक्तरसनाम्नो जघन्यतः सागरोपमस्य ही सहभागी पस्योपमासंध्यभागी उक तो विशयायाचा अवाकादीना कर्मदनिकनि येकः इति । स्पर्शा द्विविधास्तद्यथा प्रशस्ता अप्रशस्तान । प्रशस्ता मृलघुस्निग्धोष्णरूपा अप्रशस्ताः कर्कशगुरुशीतरूपाः । प्रशस्तानां जघन्यतः स्थितिरेकः सागरोपमस्य सप्तभागः पल्योपमासंख्येयभागहीन उत्कर्षतो दशसागरोपमकोटाकोटयो दशवर्षशतान्याबाधा अबाचाकालहीना कर्मस्थितिः कर्मलिकमिषेकः । अप्रशस्ता जघन्यतो ही सागरोपल्य ! नागी पोपमासंस्वेयनागहीनी उत्कर्षतो विशाम रोपमकोटीको विवशतान्यायापाकालीन कर्मस्थिति कमंदलिक निषेकः । तथाचार "फासा जे असत्या तेसिं जड़ा सेवरस से पत्तेजिननामस्सेति" ॥ निरादीनामा पुच्छा गोयमा जहन्ने सागरी-मस्त दो सनजागा, पलिओमरस दाखेज्जभागऊणया उको पीसं सागरोचमकोडाकोमीओ वीसवाससयाई अवाडा तिरियापुत्रीए पुच्छा गोषमा ज नेणं सागरोपमस्स दो सचजागा पनि ओस्खेज्जभागेणं कणता उकोसेबी सागरोषमकोकाकोडीओ बीसवासमा प्रवाहा मणुषानृपुच्चीए पुच्छा ? गोमा ! जहन्ने सागरोत्रमस्स दिव सत्तजागं पलिओमस्स असंभाग कागं उकोसेणं पन्नरससागरोमोडाकोमीओ पन्नरस व वाससाई अवादा। देवाणुपुनए पुच्छ गोमा जम्ने सागरोवमसहस्सगं सत्त जागं पलिओ मस्त असंखेज्जभागेणं ऊपगं उक्कोसेणं दसागरोवमकोडाकोमीओ दस य वासराबाई अवाहा॥ नरकानुपूर्वीनाम्नो जघन्यतः सागरोपमसह सस्य द्वौ सप्तनागी डी सागरोपमस्य सहभागी सदस्यताविति नायः । भावना नरकगतिवद्भागिता मनुष्यानुपूर्वीनाम" दत्रेण सागरोबमस्स दिवकुं सत्तनागं पलिश्रवमस्त असंखेजभागेणं ऊणगति । तदुत्कृष्टस्थिति पञ्चदशसागरोपमकोटोकोटिप्रमाणत्वात् "ती कोकाकोडी - साधनावरण अंतरायाणं । मिच्छेसयरी इत्थी मणदुगसयागुपनरस " देवानुपूर्वीनाम्दोऽपि जघन्यत एकसागरोपमस्य ससभागासहस्वगुणिताः पत्योपमासंख्येयजागनाः कर्षतो हि तत्स्थितिदेश सागरोपमकोटी कोटी प्रमाणत्वात् । तथाचोक्तम् “पुंहासरई बच्चे, सुभखगइत्थिराइबकदेव पुगे । दस सेसाणंवीसा, एवइयाबाहावामसया बन्धश्चास्य जघन्यतोऽसंशिपञ्चे ये इति ॥ 33 33 उस्सासनामाए पुच्छा ? गोपमा ! जहा तिरियाणुपुब्बीए आयवनामाए वि एवं देव जोपनामा चि । सस्यहायोगतिनामा पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नं सागरोत्रमस्स सभा को दससागरोत्रमकोकाकोटीओ दस य बसाई अवाहा । अप्य सत्यविहायोगतिनामस्स पुच्छा ! कम्म गोषमा ! जहन्न सागरोपमस्स दोसि सरना पस मस्त असंखेजमागेणं कणता उसेणं बीस मागरोदयकोटाकोमीओ बीस य वाससाई थाहा नसनामाए थाबरनामा य एवं चैत्र । सुडुमनामाए पुच्छा ? गोगमा ! जम्नेणं सागरोवमस्स नवपतीसहजागा पक्षिओमस्स प्रसंखेनागेणं ऊणता उकोसेणं मडारससागरोत्रमका माकोडी अहारसवाससयाई अवाहा । बादरनामाए जहा अप्यसत्यविद्ययोगतिनामस्स एवं पचननामाए त्रि । अपज्जत्तनामाए जहा मुहुमनामस्स पत्तेगसरीरनामाए वि दो सजनागा साधारणसरीरनामाए जहा म स्स थिरनामाए एवं सतना अधिरनामार दो मुननामाए एगो अशुननामाए दो सुनगनामाए एगो -दुजगनामाए दो सुस्सरनामाए एगो दुस्सरनामाए दो आदेज्जनामाए एगो अनादेज्जनामाए दो जसोकित्तीनामाए जन्ने मुद्दत्ता उक्कोसेणं दमसागरोनमकोकाको दसवाससा प्रवाहा । अजसो कित्तिनामाए जहा प्पसत्य विहायोग तिनामस्स एवं निम्माणनामाए त्रि । नित्यगरनामाए पुच्छा गोषमा ! जहन्नं अंतोसागरोत्रम - कोमाकोमीए उक्को से वि अंतोसागरोवमकोकाकोमीए एवं जत्य एगो सचजागो सत्य कोसे दस सागरोचमकोडाकोमीओ दस वाससयाई अवाहा । जत्य दो सत्तनागा तत्थ वीसं उक्कोसेणं सागरोवमकोडाकोमीओ बीस य वाससचाई अवाहा ।। तथा सूक्ष्मा नाम सूत्रे जघन्यतो नवसागरोपमस्य पञ्चत्रिंशद्भागाः पल्योपमासंख्यंयभागहीना द्वीन्द्रियजातिनाम्न इव जावनीयाः । सूक्ष्मनाम्नो हत्कर्षतः स्थितेराशसागरोपमकोटीको"अङ्गारस सुमविगलतिग " इति वचनात् एवमपर्याप्तसाधारणनाम्नोरपि भावनीथम्। बादरपर्याप्तप्रत्येकानां तु जघन्यतो ही सागरोपमस्या पल्योपमासं नागांनी तो विशतिसागरोपमको कोपस्तथा 'बायरनामाए जड़ा अप्पसत्यविढायोगश्नामाए एवं पज्जसनामापविइत्यादि" स्थिरगसुस्वरादेय पण चानां नाम्नां जघन्यतः स्थितिरेकः सागरोपमस्य सप्त भागाः पत्योषमासंख्येयनागोना । यशः कीर्त्तिनाम्नस्तु जघन्यतोऽष्टौ मुहर्त्ताः मुहुत्ता जसु गोय " मिति वचनात् उत्कृष्टाः पुनः पक्षामपि दशसागर पमकोट कोटयः “चिरा देवडुगे" इति वच नात् । अस्थिरामदुर्भगः स्वरानादेयायशः कीर्त्तिनाम्नां तु जघन्यतो ही सागरोपमस्य सप्तभागौ पत्योपमासंपेषभागहोगी तो विशतिसागरोपमकोटी कोटयः पयं निर्माणा मनोऽपि वक्तव्यं तीर्थकर नाम्नो जयन्तोऽप्यन्तः सागरोपम टीकोटी उत्कर्षतो यन्तः सागरोपमकोटीकोटी । ननु यदि जघन्यतोऽपि सार्थकरनाम्नो ऽन्तः सागरोपमकोटी कोटी प्रमाणा स्थितिस्तारं तावत्याः स्थितेस्तिर्यग्यभ्रमणमन्तरेण रचितु मशक्यत्वात् कियन्तं कालं तीर्थकरनामसत्कर्माऽपि तियेग् नवेत् । स चागमे निपिकस्तथा चोकम" तिरिषसु नत्थि 66 66 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७३) कम्म अनिधानराजेन्फः। कम्म नित्थयर--नामसंतति देसियसमए । कयतिरिश्रो न होही, अथ सप्तभागः परिपूर्णः मिथ्यात्वस्य जघन्यत एकं सागरोपमं पसागरोवमकोमीकोमीप" इति ततः कयमेतदिति चेदुच्यते श्ह य- ल्योपमासंख्येयनागहीनमुत्कर्षतरतदेव परिपूर्णः । सम्यक्त्ववेदनिकाचिते तीर्थकरनामकर्म न तत्तियग्गतोसत्तायांनिषिकं यत्पु- नीयस्य सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीयस्य च नदि किचिदपि बन्नन्ति नरुद्वर्त्तनापवर्तनासाध्यं तद्भवदपि तिर्यमातो न विरोधमास्क- न किंचिदपि वेदमानतयाऽऽन्मप्रदेशैः सह बन्धयन्तीति भावः । न्दति तथाचोक्तम् "जमिह निकाश्यतित्य-तिरियानवेन निसेहिय | पकेन्द्रियाणां सम्यक्त्ववेदनस्य सम्यग्मिथ्यात्ववेदनस्य चाससंतं । श्यरम्मि नस्थि दोसा, उच्चसावट्टणा सेसे" ॥१॥ इति । म्नवात् यस्तु साकाद् बन्धः सम्यग्मिथ्यात्वयोन घटत पवेति जच्चागोयस्स पुच्चा, ? गोयमा ! जहन्नणं अट्ठ मुहुत्ता प्रागेवाभिहितम् । उकोसेणं दसप्तागरोयमकोडाकोमीयो दसवाससयाई अ- एगिदियाणं कसायवारसगस्स किं बंधति ? गोयमा ! बाहा । नीयागोयस्स पुच्चा? गोयमा! जहा अप्पसत्यवि- जहन्नेणं सागरोवमस्स चत्तारि सत्तभागे पलिओचमस्स हायोगतिनामस्म । अंतराइएणं पुच्छा? गोयमा जहन्नेणं| असंखेज्जइलागेणं ऊणए उकोसेणं तं चेव पमिपुमं बंघति अंतोमुटुत्तं उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोमाकोमीओ तिन्नि एवं कोहसंजनणाए वि जाव लोहसंजलणाए वि । इत्थीय वाससहस्साई अबाहा अबाहाणिया ।। वेदस्स जहा सातावेदणिज्जस्स एगिदिया पुरिसवेदस्स गोत्रान्तरायसूत्राणि सुप्रतीतानि नवरम् "अन्तरायस्सणं जहन्नं सागरोवमस्स एगं सत्तभागं पलिअोवमस्स असं. पुच्ग इति" । पञ्चप्रकारस्यापीति वाक्यशेषः। निर्वचनमपि पअप्रकारस्यापि कष्टव्यं तदेवमुक जघन्यत उत्कृष्टतश्च सामान्यतः खेज्जइभागेणं कणयं उक्कोसेणं तं चैव पमिपुन्नं बंधति । सर्यासां प्रकृतीनां स्थितिपरिमाणम् ।। एगिदिया नपुंसगवेदस्स जहन्नं सागरोवमस्स दो सत्तसाम्प्रतमेकेन्डियानधिकृत्य तासां तदभित्सुराह । भागे पलिअोवमस्स असंखेज्जभागेणं करणए उक्कोसेणं एगिदियाणं नंते ! जीवा नाणावरएिजस्स कम्मस्स किं ते चैव पमिपुन्नं बंधति । हासरती जहा पुरिसवेदस्स अबंधs ? गायमा ! जहन्नेणं सागरोवमस्स तिन्नि सत्तभा- रतिजयसोगदुगुंछा जहा नपुंसगवेदस्स ।। गे पसिनोवमस्स असंखेजलागेणं ऊणए नकोसेणं ते चेव काययोशकस्य जघन्यतश्चत्वारः सागरोपमस्य सप्तभागाः पमिपुरमे बंधति । एवं निहापंचगस्स वि दंसणचउकस्स वि पल्यापमासंख्ययभागहीना उत्कर्षतस्त एव परिपूर्णाः। पुरुषवे. " पगिदियाणं नंते ! जीवाणं नाणावरणिजस्स किं बंधति" दहास्यरतिप्रशस्तविहायोगतिस्थिरादिषट्रप्रयमसंस्थानप्रशमइत्यादि। अत्रेयं भावना यस्य कर्मणो या या उत्कृष्टा स्थितिः प्राग मंहनन शुक्लवर्णसुरभिगन्धमधुररसोचैगोत्राणां जघन्यत एक लिहिता तस्यास्तस्या मिथ्यात्वस्थित्या सप्ततिसागरोपमकोटी. सागरोपमस्य सप्तभागाः पल्योपमसंख्येयनागहीनः उत्ककोटीप्रमाणया नागे हते यवच्यते तत्पल्योपमासंण्ययभागही पंतः स एव परिपूर्णः द्वितीयसंस्थानसंहननयोजघन्यतः षट् ना जघन्या स्थितिः। सैव पट्योपमासंख्येयभागरहिता उत्कृष्टेति पञ्चत्रिंशद्भागाः पट्योपमासंख्ययन्नागहीनाः सत्कर्षतस्त पव तदेतत् परिभाब्य सकलमप्येकेन्द्रियगतं सूत्रं स्वयं परिभावनी परिपूर्णाः त्रयः संस्थानसंहननयोजघन्यतः सप्तसागरोपमस्य यम् । तथापि विनेयजनानुग्रहाय किंचिल्लिख्यते । ज्ञानावरण पञ्चत्रिंशद्भागाः पल्योपमासंख्येयभागहीनाः उत्कर्षतस्त एव पञ्चकदर्शनावरणनवकासातवेदनीयान्तरायपञ्चकानां जघन्यत परिपूर्णाः । हारिजवर्णाम्बरसयोर्जघन्यतः पञ्चसागरोपमस्याणापकेन्द्रियाणां स्थितिबन्धयः सागरोपमस्य सप्त जागाःपल्यो- विशतिनागाः पल्यापमासंख्येयभागहीना उत्कर्षतस्त एव परिपमासंस्थय भागहीना उत्कृतस्त एव परिपूर्णास्त्रयः सागरो पूर्णाः । नीलवर्णकटुकरसयोःसप्तसागरोपमस्थाधाविंशतिभागाः मस्य सप्त भागाः॥ पल्योपमासंख्ययत्नागोनाः उत्कर्षतस्त एव परिपूर्णाः । नपुंसकएगिदियाणं भंते ! जीवा सायावेयणिज्जस्स कम्मस्स किं बेदनकजुगुप्साशोकरतितिर्यगौदारिकद्विकचरमसंस्थानचरमसं हननकृष्णवर्णतिक्तरसागुरुलघुपराघाताच्यासोपघातत्रसबादरबंधति ? गोयमा ! जहन्नं सागरोवमस्स दिवढे सत्तभागं पर्याप्तप्रत्येकास्थिराशुभदुर्जगदुःस्वनादेयायश-कीर्तिस्थाः परापसिनोवमस्स असंखेजइनागं कणयं उक्कोसेणं तं चेव पडि तपोद्योताः शुन्नविहायोगतिनिर्माण केन्द्रियजातिपञ्चन्छियजापुणं बंधति । असायावेदणिज्जस्स जहा नाणावरणिज्जस्स तितेजसकार्मणानां जघन्यतो द्वौ सागरोपमस्य समजागौ पएगिंदियाणं भंते ! जीवा सम्मत्तवेयणिज्जस्स कम्मस्स किं ल्योपमासंख्येयभागहीनी उत्कर्पतम्तावेव परिपूर्णाविति । नैर बंधति? गोयमा! पत्थि किंचि बंधति। एगिदियाणं ते! यिकद्धिकदेवद्विकवैक्रियचतुष्टयाहारकचतुष्टयतीर्थकरनाम्नां त्वकोन्छियाणां न बन्धः ॥ जीवा मिच्छत्तवेयणिजस्स कम्मस्स किं बंधति ? गोयमा!| नरक्ष्याउय देवानय निरयगतिनाम बेनव्वियसरीरनाम जहन्नेणं सागरोवमं पत्रिोवमस्स असंखजइनागेणं कणं उक्कोसेणं तं चेव पडिपुन्नं बंधति । एगिदियाएं जंते ! जीवा आहारिकसगरनाम नेरइयाणुपुवनिाम देवापुपुच्चीनाम सम्मामिच्छत्तवेयणिज्जस्स किंबंधति ? गोयमा ! नत्यि तित्थगरनाम एतानि पदानि बंधति । तिरिक्खजोणियाजकिंचि बंधति ॥ यस्स जहन्नं अंतोमुहुत्तं उक्कोसणं पुब्बकोमी सत्तहिं वासातावेदनीयस्त्रीवेदमनुष्यानुपूर्वी जघन्यतः सासागरोपमस्य | ससहस्सेहिं वासमहस्सतिलागेण अभिडियं बंधति एवं सप्तनागः पल्योपमासंख्येयभागहीन उत्कर्षतः स एव साई- मणुस्साउयस्स वि । तिरियगश्नाभाए जहा नपुंसयवेयस्स Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०४) अभिधानराजन्यः । मणुयगतिनामाए जहा सातावेदणिज्जस्स । एगिदियजा- माणया नागे हते यवज्यते तत्पञ्चविंशत्या गुपयते गुणितं व तिनामाए पंचिंदियजातिनामाए जहा नपुंसगवेदस्स । बे सत् यावद्भवति तावत्पल्योपमासंख्येयजागहीनं द्वीन्द्रियाणां बन्धकानां जघन्यस्थितिपरिमाणं तदेव परिपूर्णमुत्कृष्टस्थितिइंदिय तेइंदियजातिनामाए जहन्नं सागरोवमस्स नवपण परिमाणं तद्यथा ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणनवकासातवेदतीसइजागो पलिप्रोवमस्स असंखेजइनागेणं गणए ज-| नीयान्तरायपञ्चकानां त्रयः सागरोपमस्य सप्तभागाः पञ्चविंकोसेणं ते चेव पमिपुन्ने बंधति । चनरिदियनामाए वि शत्या गुणिता वस्तुवृत्या पञ्चविंशतेःसागरोपमाणां त्रयः सप्त. जहन्नं सागरोवपस्स नवपणतीसभागे पलि ओवमस्स अ जागाः पल्योपमासंख्येयनागहीना जघन्यस्थितिबन्धपरिमाण संखेज्जनागणं कणए उक्कोसेणं ते चेव पडिपुन्ने बंधति त एव परिपूर्णा उत्कृष्टमित्यादि। एवं जत्थ जहन्नगं दो सत्तनागा तिन्नि वा चत्तारि वा तेइंदियाणं ते! नाणावरणिज्जस्स किं बंधंति ? गोयमा ! सत्त जागा अठावीसइभागा नवंति तत्थ णं जहन्नेणं ते जहन्नं सागरोवमपन्नासाए तिन्नि मत्तभागा पलिअोरमचेव पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइलागणं जणगा भाणियन्ना स्स असंखेज्जनागेणं उणया उक्कोसेणं ते चेव पडि पुन्ने - उक्कोसेणं ते चेव पडिपुन्ना बंधांत । नत्थ जहन्नेणं एगो धंति एवं जस्स जइ जागा ते तस्स सागरोवमानासाए स हभाणियव्या । तेइंदियाएं ते! मिच्छत्तवेदणिज्जस्स कबा दिवटो वा सत्तजागो तत्य जहरेणं तं चेव पलियोवमस्स असंखेज्जइजागं ऊणयं नाणियव्वं उक्कोसेणं तं म्मस्स किं बंधंति ? गोयमा ! जहणं मागरोवमपन्नासं पतिचेव पमिपुन्नं बंधति । जसोकिचिनुच्चामायाणं जहन्न सा ओवमस्स असंखेज्जइलागणं ऊणयं कोसेणं त चेव पमि पुन्नं बंधंति। तिरिक्खजोणियाउ यस्स जहणं अंतोमुदुत्तं गरोवमरस एगं सत्तलागं पलिअोवमस्स असंखजइलागं ऊपायं उक्कोसेणं ते चेव पमिपुन्नं बंधति । अंतराइयस्स नकोसेणं पुवकोडिसोनसेहिं राइंदियतिनागेण य अहियं णं नंते ! पुच्छा ? गोयमा ! जहा नाणावरणिज्जं जाव बंधति । एवं मणुस्साउयस्स वि सेसे जहा बेदियाणं उक्कोसेणं ते चेव पमिपुन्नं बंधति ॥ जाव अंतराश्यस्स ॥ आयुश्चिन्तायामपि एकेन्द्रिया देवायु रयिकायुर्वा न बध्नन्ति नीन्द्रियबन्धचिन्तायां तदेव नागरब्धं पञ्चविंशत्यातथा नवस्वानाध्यात् किंतु तिर्यगायुर्मनुष्यायुवा तदपि च ब गुण्यते। नन्तो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त वध्नन्ति उत्कर्षता पूर्वकोटिप्रमाणं ना. चररिंदियाणं भंते ! जीचा नाणावरणिज्जस्स किं बंधति धिक केवलमुत्कृष्ट चिन्त्यते इत्येकेन्द्रिया द्वाविंशतिवर्षसहस्र गोयमा! जहम सागरोवमसयस्स तिएिण सत्तजागा पलिप्रमाणायुषः स्वायुषश्च त्रिभागावशेषपरजवायुर्वघ्नन्तः परिगृह्यम् इति सप्तवर्षसहनाणि वर्षसहस्रत्रिभागोत्सराएयधिकानि अोषमस्स असंखेज्जनागणं ऊणए उकोसेणं ते चेव प. सज्यन्ते ततस्तिर्यगायुर्मनुष्याझुश्चिन्तायां सूत्रोक्तं परिमाण-| मिषुम्मे बंधति । एवं जस्स जइ भागो ते तस्स सागरोवममिति । स्स तेण सह भाणियब्यो । तिरिक्खजोणियाउयस्स कम्मसम्पति द्वीन्द्रियानधिकृत्य तमनिधित्सुराह। बेइंदियाणं भंते ! जीवा नाणावरणिजस्स कम्मस्स किं स्स जहां अंतोमुदुत्तं उकासेणं पुच्चकोमिंदोहिं मासेहिं अबंधति ? गोयमा ! जहन्नं सागरोवमपणवीसाए तिन्नि हियं । एवं मणुस्साज्यस्स वि सेसं जहा बेदियाणं नवरं सत्तभागा पलिअोवमस्स असंखेज्जइनागेण ऊपता नको मिच्छत्तवेदणिज्जस्स एं जहन्नं सागरोवमसयं पलिओव मस्स असंखेज्जहभागेणं ऊणयं कोसेणं ते चेव पमिन्ने सेणं तं चेव पडिपुन्ने बंधति । एवं निदापंचगस्स वि एवं बंधति सेसं जहा बेईदियाएं जाव अंतराइयस्स । असन्नीजहा एगिदियाणं जाणियं तदा बेइंदियाण वि जाणियव्यं णं भंते ! जीवा पंचिंदिया नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं नवरं सागरोवमपणवीसाए सहजाणियबा। पलि ग्रोव बंधति ? गोयमा ! जहन्नं सागरोवमसहस्सं तिन्नि य सत्तमस्स भसंखेजश्भागेणं ऊणा सेसं तं चेव । जत्थ एगि भागे पनिोवमस्स असंखेज्जइजागेणं ऊणए उक्कोसणं ते दिया न बंधति सत्य एते वि नबंधीत घेईदियाणं भंते !। जीवा मिच्उत्तवेदणिज्जस्स किं बंधति ? गोयमा ! जह चेच पडिपुणे एवं सो चेव गमी जहा बेइंदियाणं नवरं सा गरोवममहस्सेण समं नाणियव्यो जस्म जई भागत्ति । मिनं सागरोवमपणवीसं पलिप्रोवमस्स असंखज्जभागेणं च्चत्तवेयणिज्जस्स जहन्नं सागरोवमसहस्सं पमिनं । नेऊरणयं नकोसेणं तं चेव पडिपुन्नं बंधति । तिरिक्सजोणियान्यस्स जहन्नं अंतोमुहुत्तं उक्कोसणं पुधकोकिं च हिं रक्ष्याउयस्स जहणणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तमम्नदिवासेहिं अहियं वंति । एवं मास्सामयस्स वि सेप्सं जहा याई उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जभागं पुच्चकोमिएगिदियाएं जाव अंतराइयस्स ।। तिभागमब्दहियं वंधति । एवं तिरिक्खजोणियाउयस्स वि अत्रेय परिजाचा यस्य यस्य कर्मणो या या स्थितिरुकृपा प्रा नवरं जहएणं अंतोमुहुत्तं एवं मणुस्साउयस्स वि । देवाउगमिहिता तस्या मिथ्यान्यस्थित्या सतिसागरोपमकोटीकोटीप्र- यस्स जहा नेरइयान यस्स । असन्नीणं चंते : जीवा पंचिं Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) कम्म अभिधानराजेन्दः । दिया निरयगतिनामाए कम्मस्स किं बंधति ? गोयमा ! हारगसरीरस्स तित्थगरनामाए य जहन्नेणं अंतोसागरोवमहणं सागरोवमसहस्सं दो सत्तभागे पलिअोवमस्स श्र- मकोडाकोमीओ उकोसेण वि अंतासागरोवमकोडाकोडीए संखेज्जइभागे उक्कोसेणं ते चेव पडिपुणे । एवं तिरियगतिए बंधति पुरिसवेदस्स नहप्नं अट्ठसंवच्छराई उक्कोसेणं दसवि मायगतिए वि एवं चेव नवरं जहमेणं सागरोवमसह- सागरोवमकोमाकोमीओ दसवाससयाई अबाहा । जसोकिस्सदिवई सत्तभागं पलिओवयस्स असंखेज्जइलागे ऊण- त्तिनामाए उच्चागोयस्स एवं चेव नवरं जहन्नणं अट्टाहुत्ता, गं उकोसणं तं चेव परिपुम्मं बंधति । एवं देवगतिनामाए अंतराइयस्स जहा नाणावरणिज्जस्स सेसएसु सन्चेसुगधेविनवरं जहएणं सागरोवमसहस्सं एगं सत्तजागं पलिमो. सुसंघयणेसु संगणसु बन्नेस गंधेस य जहन्नं अंतोसागरोवमस्म असंखेजजागं उक्कोसेणं तं चेव पडिपुराणं। वेउब्विय वमकोकाकोमीओ उकोसंजा जस्स ग्रोहिया ठिई नणिया तं मरीरनामाए पुच्ा ? गोयमा ! जहएणणं सागरोवमसह- बंधति नवरं इमं नाणचं अबाहा प्रबाहा गणितान बुच्चंति एवं स्सं दो सत्तज्ञागे पलिभोवमस्स असंखेज्जभागे उ- आणुपुवीए सन्नेसिं जाव अंतराइयस्स ताव भाणियध्वं । णगं नकोसेणं दो पदिपुराणे सम्मत्तसम्मामिच्छत्त- संझिपञ्चेन्द्रियबन्धकसुत्रं ज्ञानावरणीयादिकर्मणां जघन्यतः आहारसरीरनामाए नित्ययरनामाए य न किंचि बं- स्थितिवत्योऽन्तरादिपरिमाणं कपकस्य स्वस्वबन्धचरमसधति अवसेसं जहा बेइंदियाणं नवरं जस्स जत्तिया भा मये प्रतिपत्तव्यः निंबापाचकासातवेदनीयमिथ्यात्वकषायद्वाद शकादीनां तु कपणादाग धन्ध इति तेषां जघन्यतोऽप्यन्तःसागगा तस्स ते सागरोवमसहस्सेण सह जाणियव्वा सव्वेसि | रोपमकोटीकोटीप्रमाण नकृष्टो मिथ्यादृप्टेः सर्वसंक्निष्टस्य नवरं आणुपुन्नीए नाव अंतराइयस्स ॥ तिर्यग्मनुष्यदेवायुषां स्वस्वबन्धकेऽतिशुरूस्येति प्रा०२३ पद । चतुरिन्जियवन्धचिन्तायां सहस्रोण आह च कर्मप्रकृतिसंग्रह- | कर्म (कर्मणो रागद्वेषतारतम्यादु बन्धवैचित्र्य सित्तचित्त शब्द) णिकारैः "पणवीसा पन्नासा, सयं सहस्सं च गुणकारी। क- (२७) अधुना तीर्थकराहारकद्विकयोः प्राग्निरूपितामपि मसो विगल प्रसन्नीणमिति” । तदेतदनुसारेण सूत्रं स्वयं जघन्यां स्थिति पुनर्मतान्तरेणाद। निगमनीयं सुगमत्वात् नवरं "सागरोवमपणवीसाए तिनि सत्त- “केरसुरासम" इत्यादि कोचदाचार्याः सुरायुपा देवायुष्केभागा पलिश्रोवमस्स असंखेजनागणं ऊणगा शति" अत्रेयं ण दशवर्षसहस्रप्रमाणेन समं तुल्यं सुरायुम्समं देवायुस्तुल्यगणितजावना पाचविंशतिसागरोपमाणां सप्तनिर्नागे दियमाणे स्थितिकं जघन्यतो बध्यते किंतदित्याह (जिणंति) तीर्थकरना. यमभ्यते तत् त्रिगुणीकृत्य पल्योपमासंख्येयनाहीनः क्रियते ।। मकर्मवते तथा च तैरज्यधायि "सुरतारयाणं दसवाससहएवं सर्वत्रापि यथायोग गणितभावना कर्तव्या॥ स्साहसतित्थाणं" (लहुत्ति) जघन्या स्थितिः सतीर्थयोस्तीर्थसन्नीणं भंते ! जीवा पंचिंदिया नाणावरणिज्जस्स क- फरनामयुक्तयोरित्यर्थः तथा (पाहारंति) आहारकाहारकशरीम्पस्स किं ? बंधति । गोयमा! नहम्मं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं राहारकापालवणमन्तर्मुहर्स जघन्यतोवध्यते किंचिदनं मु हर्सस्थितिकं जघन्येन यध्यते इति ब्रुवते तथा च तैरुक्तम् "भादतीसं सागरोचमकीमाकोमोश्रो तिन्नि य वाससहस्साई रकविग्यावरणाण कि चूर्णति" किंचिदून मुहूर्त अघन्या स्थितिभवाहा । सन्नीणं भंते ! पंचिंदिया निदापंचगस्स किं रित तिर्यम्मनुष्यायुषोर्जघन्या स्थितिः। बंधति ? गोयमा ! जहां अंतो सागरोवमकोमाकोमीए (२८) यह संझिपञ्चेन्द्रियसूत्रे ज्ञानावरणीयादिकर्मणां जघन्यः रकोसेणं तीसं सागरोबमकोमाकोडीओ तिनि य वास- स्थितिबन्धोऽन्तर्मुदादिपरिमाण उक्तः स कस्मिन् स्वामिनि सहस्साई भबाहा । दसणचउकस्म जहा नाणावरणि- मन्यते शति जिज्ञासुः पृच्छति । जस्स सातावेदणिज्जस्म जहा ओहियाई जणिया तहेव नाणावरणिजस्स नंते ! कम्मस्म जहन्ने मितिबंधए जाणियब्वा । इरियाबहियबंधयं पमुच संपराइयबंधयं च ।। के ? गोयमा ! अन्नयरे सुदुमसंपराए उवसामए वा खवगए असातवेदणिज्जस्स जहा निदापंचगस्स सम्मत्तवेदणिज्ज-1 वा एसणं गोयमा ! नाणावरणिजस्स कम्मरस जहन्नस्स सम्मामिच्छत्तवेदणिज्जस्स य जा अोहिया ठिई न- हितिबंधए तनहारते जहन्ने एवं एतेणं अनिझाषेणं मोणिया तं बंधति । मिच्छत्तवेदणिज्जस्स जहन्नं अंतोसा- हान यवज्जाणं सेसकम्माणं भाणियव्वं मोहणिज्जसणं गरोवमकोमाकोमीए उकोसेणं सत्तहिं सागरोवमकोडाको- जंते ! कम्मरस जन्नहितिबंधए के ? गोयमा ! अन्नयरे मीनो सत्त य वाससहस्साई अवाहा | कसायवारसगस्स वायरसंपराए उवमामएका खवए वा एसणं गोयमा! मोहजहां एवं चेव उकोसं चत्तालीसं सागरोवमकोडाकोमी- णिज्जस्स कम्मस्स जनहितिबंधए तब्वरित्ते अजहन्ने। ओ चत्तालीस य बाससयाई अबाहा । कोहमाणमायासो- | "नाणावरणिज्जस्स" इत्यादि सुगर्म नवरमन्यतरसूक्मसम्पराय भसंजलणाए य दो मासा मामो अच्छमासो अंतीमुटुत्तो। इति यमुक्तमस्य व्याख्यानं कपक उपशमको वा सूक्ष्मसम्प राय इह ज्ञानावरणस्य बन्धः कपकस्य उपशमकस्य च जघएयं जहन्नगं नकोसगं पुण जहा कसायबारसगरम चउएह न्यतोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणस्ततोऽन्तर्मुहुर्तत्वाविशेषात् उपशमको विश्रामयाणं जा ओहिया विई नणिया तं बंधति । पा- वा सम्मको वा इत्युक्तमन्यनापिकपकापेकया उपशमकस्य Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धति जापति देवी (२७६० अनिधानजेन्द्रः। कम्म बन्यो द्विगुणो घेदितव्यो यत आह कर्मप्रकृतिसंग्रह णकार: त्तोवनत्तो सम्मदिट्टी वा मिच्छट्टिी वा कएहसेसे वा सु" स्खवगुण सामगपमिवय-माणो दुगुणा तहिं तहिं बंधो " । कलेसे वा नाणी वा अन्नाणी वा उक्कोसणं संकिशिपशति ततो वेदनीयस्य साम्परायिकबन्धचिन्तायां जघन्यस्थितिबन्धकपकस्य बादश मुद्दा उपशमकस्य चतुर्विशतिर्नामगोत्र रिणामे वा असंकिलिट्ठपरिणामे वा एरिसरणं गोयमा! मयोर्जघन्यतः कपकस्याष्टौ मुहर्ता उपशमकस्य षोमश परमुप णूसे उक्कोसकाझट्टिइयं अान्यं कम्मं बंधति । केरिसियाणं शमकस्यापि जवन्यो बन्धः शेषबन्धकापेक्षया सर्वजघन्य इति भंते ! मणुस्सीओ उक्कोसकानहितियं आउयं कम्मं बंतत्सूत्रेष्वपि “ अन्नयरे सुहमसंघराए उपसमे वा खवगे वा " धति ? गोयमा कम्मभूमिए वा कम्मतमिपलिभागी वा इति वक्तव्यं तथा च वक्ष्यति “एएणं अभिलावेणं माहान्य जाव मुत्तोवउत्ता सम्माद्दिट्ठी सुकलेसा तप्पाओग्गविमुजफवाजाणं सेसकम्माणं भाणियब्वति" उपसंहारसूत्रे “ तचरित्ते अजहने" इति तद्व्यतिरिक्त कपकोपशमकसूक्ष्मसंपरा माणपरिणामा एरिसियाणं गोयमा ! मास्सी आनयं यध्यतिरिक्तो जघन्यो जघन्यस्थितिबन्धकः । कम्मं बंधति । अंतराइयं जहा नाणावरणिज्ज । इति पन्नआनयस्स णं ते! कम्मस्स जहन्नहितिबंधए के ? गो- वणाए भगवईए कम्मति पदं तेवीसइयं सम्मत्तं ॥ यमा ! जे णं जीवे असंखप्पाघापविढे सम्बनिरुके से | आयुबन्धकसूत्रे " जे जीवे असंखिप्पछा पवि" इत्यादि इह आनए सेसे सव्वमहतीए आन्यवंधछाए तीसे पं पाउ द्विविधा जीवाः सोपक्रमायुषो निरूपक्रमायुषश्च तत्र देवा नैर यिका असंख्येयवर्षायुषस्तियमनुष्याः संख्येयवर्षायुषोऽप्युत्तमबंधचाए चरिमकालसमयंति सचजहन्नियं अपज्जत्ताप पुरुषाश्चक्रवर्त्यादयश्चरम शरीरिणश्च निरुपक्रमायुष एव शेषाज्जत्तियं निबत्ते एसएं ? गोयमा! आउयकम्मस्स जह- स्तु सोपक्रमा अपि निरुपक्रमा अपि उक्तं च “ देवा नेरश्या न्नहितिबंधए तब्बडरित्ते अजहन्ने । नकोसहितियानएणं वा, असंखवासानया य तिरिमणुया। उत्तमपुरिसा य तहा, भंते ! नाणावरणिज्ज कम्मं किं नेरइयो बंधति तिरिक्खजो- चरमसरीरा य निरुवकमा ॥ सेसा संसारत्था, जश्या सोवकणिो बंधति तिरिक्खजाणणी बंधति मणुस्सो बधति मा च श्यरे वा । सोवक्कमनिरुवक्कम-भेो नणिो समासेणं" ॥१॥ तत्र देवा नैरयिका असंख्येयवर्धायुषस्तिर्यम्मनुष्याश्च षमणुस्सी बंधति देवो बंधति देवी बंधति ? गोयमा ! नेर एमासावशेषायुषः परजविकायुर्यन्धका ये पुनस्तिर्यग्मनुष्याइओ वि पंधति जाव देवी वि बंधति । करिसए ण भंते !! संख्येयवर्षायुषोऽपि निरुपक्रमायुषस्ते नियमात त्रिभागावशेषा रए उकोसकालहिश्यं नाणावरणिज्जस्स कर्म बंधति | युषः परभवायुर्वघ्नन्ति ये तु सोपक्रमायुषस्तस्य तस्त्रिनागागोयमा ! सन्नी पंचिं दिए सव्वाहिं पजत्तीहिं पज्जत्ते घशेषत्रिभागावशेषाबुषो यावदसंक्षेप्यासाप्रविष्टा ति । तत सागारे जागरे सुत्तोवनत्ते मिच्छादिट्ठी कराहलेसे उकोस आह “जेणं जीवे" इत्यादि यो णमिति वाक्यालंकारे जीवो ऽसंकेप्यासाप्रविष्टः प्रिनागादिना प्रकारेण या संक्वेप्तुं न शक्यसंकिनिट्रपरिणामे ईसमज्झमपरिणामे वा एरिसरणं ? ते साऽसंक्षेप्या सा चासौ अधा च असंक्षेप्याका तां प्रविष्टः गोयमा ! णेरइए उक्कोसकाअद्वितियं नाणावराणिज कम्म असंवेष्यामाप्रविष्टः ततश्च आह (से) तस्यासंकेप्यासाप्रविबंधति । केरिसरणं ते ! तिरिक्खजोणिए उक्कोसकाल- एस्य जीवस्यायुः सर्व निरुद्धमुपकर्महेनुभिरनिसंकिप्तीकृत - द्वितियाणं नाणावरणिज्जं कम्मं बंधति ? गोयमा ! कम्म- युर्धन्धनिर्वतनमात्र एव काबस्तस्यास्ति न परतो जीवनकाल शति जावः । एवं तदेव स्पष्टतरमाह "सेससवमहंतीए आनमिए वा कम्मनूमिगपलिभागी वा सन्नीपंचिंदिए सम्वा यबंधकाए" इह सर्वमहती आयुर्वन्धाडा अष्टकर्षप्रमाणा तस्याः हिपज्जत्तीहिं पज्जत्तए सेसं तं चेव जहाणेरइयस्स । एवं शेष पककर्षप्रमाणस्तावन्मानं सर्वनिरुद्धं तस्यायुर्वर्तते ति तिरिक्वजोणिणी वि मणूसे विमणूमी वि ।देवो देवी जावः ततोऽसंकेप्यामाप्रविष्टः स इत्थंनुतस्तस्या आयुर्बधामहा ऐरइए एवं आनयवजाणं सत्तएहं कम्माणं उक्को कायाश्चरमकालसमये चरमकालावसरे पककर्षप्रमाणा चरमसमयकासग्रहणेन परमनिरूःसमयः परिगृह्यते, किंतु यसकालहिइयाणं भंते ! आउयकम्मं किं णेरइओ बंधति ? थोक्तरूपः कालः तेन होनेन कालेनायुबन्धस्यासनवात् यत गोयमा ! नो णेरो बंधति तिरिक्खजोणिओ पंधति । उक्तं प्राक व्युत्क्रान्तपदे "जीवाणं ते! इिनाम निहिताग्य मस्सो वि बंधति माणुस्सी वि बंधति नो देवो बंधति नो। कहिं प्रागरिसेहिं पकरे ? गोयमा ! जहन्नेणं उक्कोसेणं श्र. देवी बंधति । केरिसरणं भंते ! तिरिक्खजोणिए उक्कोसका- महि गरिसोहि" ति एकेन वा कणायुनिवर्तयति सर्वजघअहिश्य आउयं कम्मं बंधति गोयमा ! कम्पनृमिए वा क न्यं यत आह ( सवजहन्नियामाते ) सर्वजघन्यां सर्वप्रधी स्थितिमिति गम्यते निर्वर्तयति बध्नातीति जावः किं विशिष्टाम्मभूमिगपलिभागी वा सन्नी पंचिदिए सव्वाहि पज्जत्तीहि मित्याह पर्याप्तापर्याप्तिकां शरीरेन्छियपर्याप्तिनिवर्तनोच्चा-- पज्जत्तए सागारे जागरे सुत्तोव नत्ते मिच्छविट्ठी कण्हवेस्स सपर्याप्तस्य निर्वतनसमां कथमेतदवसेयं तत्सर्वजघन्यामपि उक्कोससंकिलिपरिणामे एरिसरणं गोयमा ! तिरिक्खजो- स्थितिनिर्वर्तनसमर्थी न ततो हीनतरामिति चेत् उच्यते । यु. णिए उकोसकासाहितियं आनयं कम्मं बंधति । करिसरणं क्तिवशात्तथाहि इह सर्व एव देहिनः परजवायुर्बभ्या प्रियन्ते नान्यथा परभवायुषश्च बन्ध औदारिकवैक्रियाहारके वा योगे नंते ! मणूसे उक्कोसकालद्वितियं आउयकम्मं बंधति ? गो वर्तमानस्य न कार्मणे औदारिकादिमिश्रे वा तथाचाह मूबटीयमा! कम्मनूमिए वा कम्मनूमिगपलिभागी वा जाव सु- काकार: “जगारालियाईणं तिण्डं सरीराणं कायजोगे वह Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) कम्म अभिधानराजेन्द्रः। कम्म माणो आउयबंधमोर कम्मए उरालियामिस्सी वा इति औ- मिति। तथा आहाराद्विकमाहारकशरीराहारकाङ्गोपाङ्गलकणम । हारिककाययोगश्च विशिष्टो भवति शरीरेमियपर्याप्त्या पर्या- (अप्पमत्तत्ति) अप्रमत्तसंयतोऽप्रमत्सनावाभिवर्तमान प्रति बिसस्य न केवनं शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य तत पतत्सिद्धं शरी- शेषो रश्यः उत्कृष्टस्थितिकं बनाति प्राभा हीयं स्थितिरिरपर्याप्या शन्यिपर्याप्त्या च पर्याप्तस्य मरणं नान्यथति सर्व- त्युत्कएसंक्शेनेवोत्कृष्टा बध्यते तदन्धक अप्रमत्तयतिरजघन्यामापे स्थिति निवर्तयति शरीरैन्छियपर्याप्तिनिवर्तन- प्रमत्तन्नावानिवर्तमान एवोत्कृष्टक्वेशयुक्तो लज्यते स्तीत्थं विसमर्थो न ततोऽपि हीनतरामिति। (एसपं गोयमे) त्याद्युपसंहार- शिष्यते। तथा अमरायुर्देबायुष्कं प्रमत्तसंयतःपूर्वकोट्यायुरप्रमवाक्यं तदेवमुक्तो जघन्यस्थितिबन्धकः । सम्प्रत्युत्कृष्टस्थितिबा समावानिमुखो वेद्यमानपूर्वकोटिकणायुषो नागद्वये गते सन्धकं पृच्चति "उकोसेषं कालहिए णं ते! नाणावरणिज्ज ति तृतीयजागस्याद्यसमये नस्कृयस्थितिक पूर्वकोटित्रिनागाधिकम्मं किं नरश्यानो बंधईत्यादि" सुगमं नैरयिकसूत्रे(सागारि- कत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमलक्षणं बध्नाति पूर्वकोरित्रिजागस्य हिइति) साकारोपयुक्तः (जागरे इति) जाग्रत् नारकाणामपि कि- तोयादिसमयेषु बनतो नोत्कृएं लज्यते अवाधायाः परिगक्षियानपि निभानुभवोऽस्ति तत उक्त जाग्रदिति (सुत्तोवन इति) तत्वेन मध्यमत्वप्राप्तरित्याधसमयग्रहणम अप्रमत्तानावाभिमुखभुतोषयुक्त साभिपज्ञानोपयुक्तः इति नावः तिर्यग्योनिकसूत्रे ताविशेषणं तर्हि किमर्थमिति चेपुच्यते शुभेयं स्थितिविशुमा (कम्मभूमिगपलिभागी च ) कर्ममियाः कर्मभूमिजातास्ते- बध्यते सा चास्य अप्रमत्तभावाभिमुखस्यैव बभ्यत इति तर्षप्र. पां प्रतिभागः सादृश्यं तदस्यास्तीति कर्ममिगप्रतिभागी क. मत्त पव कस्मादेतद्वन्धकत्वेन नोच्यते इति चेपुच्यते अप्रमममिगसदृश इत्यर्थः कोऽसाविति चेपुच्यते । या कर्मभूमि- तस्यायुन्धारम्ननिषेधात् “देवाउयं पमत्तो" इति वचनात् । जा तिर्यकत्री गर्मिखो सती केनाप्यपहत्याकर्मजूमौ मुक्ता तस्यां प्रमसेनैवारन्धमायुर्वन्धमप्रमत्तः कदाचित्समर्थयते " देवान्यं जातः कर्मसूमिगसदृशः अन्ये तु व्याचकते कर्मचूमिग एव चकं नायब अप्पमत्तमि " इति वचनात् । शेषाणां पोरबदा नाप्यकर्मनूमौ बीतो जवति तदा स कर्मनूमिगप्रति- शोत्तरशतसंख्यकर्तानां ज्येष्ठस्थितिमुत्कृष्टस्थिति मिथ्याष्टिः जागी व्यपदिश्यते इति उत्कृष्टस्थितिकायर्वन्धचिन्तायां नैर सर्वपर्याप्तिपर्याप्तः सर्वसंक्लिष्टो पनाति यतः स्थितिराभासंयिकतिर्यग्योनिकलीदेवदेवानां प्रतिषेधस्तासामुत्कृष्टस्थितिषु | कोशप्रत्ययावसंक्निष्टश्च बन्धकेषु मध्ये मिथ्यारष्टिरेव जयतीनारकादिपूत्पत्यभावात मबुध्यसूत्रे ( सम्मदिछी मिच्छदि१) ति जावः । अत्र च प्रायोवृत्त्या सर्वसंक्तिएत्वमुच्यते यावता या शत) द हे उत्कृऐ आयुषी तथा सप्तमनरकपृथिव्या तिर्यङ्मनुध्यायुषी उत्कृष्ट तत्प्रायोग्यो विशुद्धो बध्नातीति 5gबुर्वनाति तदा मिश्यावृष्टिः यदा पुनरनुपरसुरम्युस्तदा सम्य- | व्यं तयोः शुभस्थितिकत्वेन विशुकिजन्यत्वात् नक्तं च "सब्बग्दृष्टिः (कराहलेसेवा ) नारकायुर्वन्धकः (सुक्कलेसा वा इति)। विण को-सम्रो उ चक्कोससंकिलेसेण । विवरीए य जहनो, अनुत्तरसुरायुर्वन्धकः सम्यग्दृष्टिरप्रमतवतिः उत्कृष्टपरिणामो पानगतिगवजसेसाणं" ति ननु यदि विशुकित श्दमायुष्कनारकायुर्वन्धकस्तत्प्रायोग्यविशुध्वमाचपरिणामोऽनुत्तरसुरायुर्व इयं वध्यतेहि मिथ्याः सकाशात्सास्वादनो विशुरूतरःप्रान्धकः मानुषी दु सप्तमनरकपृथिवीयोग्यमायुने बध्नाति अनु प्यते स कस्मादेतद्वन्धकत्वेन नोक्तो नच वक्तव्यं तियङ्मनुष्यातरसुरायुस्तु बनातीति तत्सूवं सर्व प्रशस्तै नेयम् । श्हातिवि युषी सास्वादनो न बध्नाति तद्वन्धस्य सप्ततिकादिष्वस्यानुकाशुरुः आयुबन्धमेव न करोतीति तत्यायोम्यग्रहणं शेष कण्ठ्यम् । नात्तथा चोक्तमायुःसंवेधलङ्गकावसरे सप्ततिकाठीकायो तिर्यप्रका० २३ पद । कर्म० । गायुषा बन्धो मनुष्यायुष उदयस्तियङ्मनुष्यायुषी सती पप (२९) प्रथोत्तरप्रकृतीनाश्रित्योत्कृष्टस्थितिबन्धस्वामित्वमाह । विकल्पो मिथ्यादृष्टेः सास्वादनस्य वा मनुष्यायुपो बन्धो मनुअविरयसम्मो तित्थं, आहारदुगामरान अपमत्तो। ध्यायुष नदयो मनुष्यमनुप्यायुषी सती एषोऽपि विकल्पो मिमिच्छादिही बंध, जिठि सेसपयडीणं ॥४॥ ध्यादृष्टः सास्वादनस्य वा तस्कथमुक्तं " मिहिकी बंधा जि छवि सेसपयमीणमिति” । अत्र प्रतिविधीयते सत्यामपि हि भविरतसम्यक्त्वोऽविरतसम्यम्हतिः "व्याख्यानतो विशेषप्रति सामान्यतोमनुध्यतिर्यगायुर्वन्धानुज्ञायामसंख्येयवर्णयुष्कयोग्यपत्तिरिति" न्यायान्मनुप्यः पूर्व नरकवायुको नरकं जिगमिषुरवश्यं मिथ्यात्वं यत्र समये प्रतिपद्यते ततोऽनन्तरेऽाक मुत्कएं प्रस्तुतायुध्यं सास्वादनो न निवर्तयति सास्वादनस्य स्थितिबन्धे (तित्थंति) तीर्थकरनाम उत्कृष्टस्थितिकं बध्नाति गुणप्रतिपातानिमुखत्वेन गुग्णाभिमुखविशुरू मिथ्याहष्टेः सका शाद्विगुफाधिकस्यानवगम्यमानत्वात् शास्त्रान्तरेऽपि च मिथ्या“तित्थयरम्मि मणूसो, अविरयसम्मो सभप्पेश" इति वच रप्टेः सकाशादविरतादय एव यथोत्तरमनन्तगुणविशुकाः पनात् । इयमत्र भावना तीर्थकरनाम्नो ह्यविरतसम्यग्दृष्ट्यादयो व्यन्ते न सास्वादनः। नचै तन्निजमनीषिकाशस्पिकल्पितं यदाहः ऽपूर्वकरणावसाना बन्धकान भवन्ति किन्तूत्कृष्टा स्थितिरुत्कृष्ट. श्रीशिवशर्मसूरिपूज्याः “सबुकोसविणं, मिच्चहिट्ठी उ बंधनो संक्लेशेन बध्यते स च तीर्थकरनामबन्धकेप्वविरतस्यैव यथोक्तविशेषणविशिष्टस्य बन्यत इति शेषव्युदासेन अस्यैवोपादा जणियो। आहारगतित्थयरं, देवा वा विमुत्तूणं" इह पूर्व संनमिति भावः । तत्र तिर्यञ्चस्तीर्थकरनाम्नः पूर्वप्रतिपन्नाः प्र क्किप्टो मिथ्यावृष्टिः पोशोत्तरप्रकृतिशतस्योत्कृष्ठस्थितिबन्धकः तिपद्यमानकाच जयप्रत्ययेनैव नवन्तीति मनुष्यग्रहणम् । बद्ध सामान्यनैवोक्तः स च नारकादिनेदन चिन्त्यमानश्चतुर्का भवतीर्थकरनामकर्मा च पूर्वमबरूनरकायुनरकं न बजतीति पूर्व नर ति ततो नारकास्तिर्यञ्चो मनुष्या देवाश्च मिथ्यादृष्टयः पृथकबकायुप्कस्य ग्रहणम् कायिकसम्यग्दृष्टिश्च श्रेणिकादिवत्स केषां कर्मणां स्थितीरुत्कृष्टा बध्नन्तीति नेदतश्चिन्तयन्नाह । म्यक्त्वेऽपि कश्चिन्नरकं प्रयाति किं तु तस्य विशुरुत्वेनोत्कृष्ट विगल सुहमाउगतिगं, तिरिमण्यामुरविउम्बिनिरयदगं । स्वित्यबन्धकत्वात्तस्या एव येह प्रकृतत्वानासौ गृह्यतेऽतस्ती- एगिदि थावरायव-आईसाणसुरुक्कोसं ॥४३॥ थकरनामकर्मोत्कृष्टस्थितिबन्धकत्वान्मिथ्यात्रिमुखस्यैव ग्रहण- किशनस्य प्रत्येक संबन्धात् विकलविकंदीवियत्रीन्डिय Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) भनिधानराजेन्धः। कम्म चतुन्जियजातिलकणं सूक्ष्मत्रिकं सदमापर्याप्तसाधारणरूपम ङ्गोपाङ्गबनणप्रकृतिद्वयस्योत्कृष्टस्थितिबन्धका देवा ईशानादुपभायुखिक देवायुर्वज नारकतिर्यग्मनुष्यायुवकणम् । द्विकशब्द- रितनसनत्कुमारादय एष पटव्याः। ईशानान्ता देवास्ते हि स्यापि प्रत्येकं संबन्धात् सुरद्विकं सुरगतिसुरानुपूर्वी स्वरूपं वै- तत्प्रायोग्यसंकोशे वर्तमानाः प्रकृतप्रकृतिद्वयस्योत्कृष्टतोऽप्यक्रियाद्विक वैक्रियशरीरवैक्रियाङ्गोपाङ्गलकणं नरकद्विकं नरक- प्टादशकोटीकोटीलकणां मध्यमामेव स्थिति रच्यन्ति । अथ गतिनरकानुपूर्वीलकणमित्येतासांपञ्चदशप्रकृतीनामुत्कृष्टांस्थि- सर्वोत्कृष्टसंक्लेशा गृह्यन्ते तāकेन्द्रियप्रायोम्यमेव निवर्तयेयुनति नरकतिर्यङ्मनुष्या एव मिथ्यादृष्टयो बन्नन्ति न देवनार-- चैकेन्छियप्रायोग्यबन्धे पते प्रकृती अध्येते तेषां संहननोपानाजाका होतासां मध्ये तिर्यक्मनुष्यायुद्धयं मुक्त्वा शेषास्त्रयोदश यात् । “सुरनरश्या एगिदिया जे सम्वे असंघयणा" इति वचप्रकृतीनवप्रत्ययेनैव न बध्नन्ति तिर्यमनुष्यायुधोरपि दे- नात् । सनत्कुमारादिदेवाः पुनः सर्वसंक्लिष्टा अपि पञ्चेन्डियवगुर्वादिप्रायोग्य कृष्टस्निपल्योपमलकणः स्थितिवन्धः प्रकृत- तिर्यप्रायोग्यमव बन्नन्ति नैकेन्द्रियप्रायोम्यं तेषामेकेन्छियेधूस्तत्र च देवनारका भवप्रत्ययादेव नोत्पद्यन्ते इत्येतद्वन्धोऽप्य- त्पत्यभावात्तस्मात्प्रस्तुतप्रकृतिद्विकस्य विंशतिसागरोपमकोटी. मीषां न संनवति तस्मादेते तिर्यङ्मनुष्यायुषी उत्कृष्टस्थितिके कोटी प्रणामुत्कृष्टस्थिति सर्वसंक्लिप्टाः सनत्कुमारादय पव पूर्वकोट्यायुषस्तियमनुष्या मिथ्यातपयस्तत्प्रायोग्या विशुधाः बस्नन्ति नाधस्तना देवा इति। तदेवं जिननाम अाहारकद्धिकदेवा स्वायुस्त्रिनागाचसमये वर्तमाना बध्नन्ति सम्यम्हष्टेरतिविशु युर्विकात्रिकसूहमत्रिकायुप्फत्रिकदेवद्विका वैक्रियाद्विकनरककमिथ्याऐश्व देवायुर्वन्धः स्यादिति मिथ्यादृष्टित्वतत्प्रायोग्य द्विकैफेन्छियजातिस्थावरनामातपनामतिर्यनिष्कौदारिकद्विकोविशुरूरवरूपविशेषणद्वयं नारकायुषः पुनरेत एव तत्प्रायोग्यसं द्योतनामसेवार्तसंहननलकणानामधार्विशतिप्रकृतामामुत्कृष्ट-- क्लिष्टा वाच्याः अत्यन्तशुरूस्यात्यन्तसंक्लिष्टस्य चायुर्वन्ध स्थितिबन्धस्वामिन उक्ताः। शेषप्रकृतीनां तु का वातत्यास्य सर्वथा निषेधादिति नरकद्विकक्रियद्विकयोस्क पव स. शङ्कचाह ( सेसच नगश्यत्ति ) भणिताष्टाविंशतिप्रकृतिज्यः संक्निष्टाः पूर्वोत्कृष्टस्थितेर्बन्धका वाच्याः । विकक्षजातित्रि शेषाणां द्विनवतिसंख्यप्रकृतीनां मिथ्यादृष्टयश्चतुर्गतिका अप्युकसदमविकयोस्तत्यायोग्यसंक्त्रिपारव्याः अतिसंकिपा हि | स्कृष्टां स्थिति बध्नन्ति तत्रैतासु मध्ये वर्णचतुष्कतैजसकार्मणाप्रस्तुतप्रकृतिबन्धमुल्बध नरकप्रायोग्यमेव निवर्तयेयुर्विशुद्धा गुरुलघुनिर्माणोपघातभय जुगुप्सामिथ्यात्व करायचोदश कहास्तु विशुक्रितारतम्यात्पञ्चेन्डियतियप्रायोग्यं वा मनुष्यप्रायो. नावरणपञ्चकदर्शनावरणनवकान्तरायपञ्चकलकणानां सप्त व्यं वा देवप्रायोग्य वा बन्धयेयुरिति त प्रायोग्यसंकटेशग्रहणम । चत्वारिंशतो भ्रवन्धिप्रकृतीनां पूर्वव्यावर्णितस्यरूपाणां देवदिकस्यापि तत्प्रायोग्यसंक्लिष्टा अष्टव्याः। अतिसंश्लिपानामधोवर्तिमनुष्यादिप्रायोग्यबन्धप्रसङ्गाद्विशुको पुनरुत्कृष्ट तथा अध्रवबन्धिनीनामपि मध्ये असातारतिशोकनपुंसकवेदबन्धाभावादिति भाविताः पञ्चदशादिप्रकृतयः । तथा पकेन्द्रिय पञ्चेन्द्रियजातिहुसंस्थानपराघातोच्यासाशुनविहायोगति-- जातिस्थावरनामातपनामलक्षणस्य प्रकृतित्रिकस्य मा ईशानातू प्रसवादरपर्याप्तप्रत्येकमस्थिराशुनपुःस्वरभंगानादेयायशः-- ईशानदेवनाकमभिव्याप्य सुरा देवाः। कोर्थः नवनपतयो व्यन्त- कीर्तिनीचैर्गोत्रलकणानां च विंशतेः प्रकृतीनां सर्वोत्कृष्टसंकोरा ज्योतिप्काः सौधर्मशानदेवाः ( उकासंति) उत्कृप्यां स्थिति शेनोत्कृष्टां स्थिति चतुर्गतिका अपि मिथ्यारश्यो बध्नन्ति बध्नन्ति तथादि शानाऽपरितनदेवा नारकाच एकेन्द्रियेषु नी शेषाणां त्वधवबन्धिनीनां सातहास्यरतिस्त्रीबुवेदमनुष्य -- स्पद्यन्त इत्येकेन्छियप्रायोग्यान्येतानि न बनन्त्येवेति तनिषेधः।। विकसेवार्तवर्जसंहननपञ्चकहुएमबर्जसंस्थानपञ्चकप्रशस्त-- तिर्यग्मनुष्यास्त्वेतावति क्लेशे वर्तमाना एतद्वन्धमतिक्रम्य | विडायोगतिस्थिरशुनगुनगमुस्वरादेययशाकीयुगोत्रसक-- भरकमायोग्यमेव बधन्तीति तेषामपि निषेधः । ईशानास्तु णानां पञ्चविंशतिप्रकृतीनां तद्वन्धके तु तत्प्रायोग्यसंक्सिशदेवाः सर्वसंकियष्टा अप्येकेन्द्रियप्रायोश्यमेव बनन्त्यतस्त पव चतुर्गतिका अपि मिथ्यादृष्टयः उत्कृष्ठां स्थिति धनन्तीति उका स्थायरैकेन्द्रियातपलकणप्रकृतित्रयस्य विंशतिसागरोपमकोटी- उत्तरस्थितिबन्धस्वामिनः । अथ जघन्यस्थितिबन्धस्वामिन कोटीशकणामुत्कृप्टस्थिति बन्नन्तीति । आह “आहारजिणमपुब्धो" इत्यादि आहारकद्विकं जिननाम (लदुत्ति) लघुस्थितिकं जघन्यस्थितिकं करोतीति शेषः । क तिरिउरलगुज्जोय, ट्विट्टमुरनिरयसेसचउगश्या । इत्याह ( अपुन्वित्ति ) पदैकदेशे पदसमुदायोपचारादपूर्वोऽपृआहारजिणयपुबो, नियहिसजलणपुरिसलदु ॥४॥ करणकपकस्तद्वन्धस्य चरमस्थितिबन्धे वर्तमान स्थितिमाद्विकशब्दस्य प्रत्येक संबन्धात तिर्यब्कि तिर्यम्पतितियंगानुपू श्रिन्येत्यर्थः तद्वन्धकवस्यैवातिविशुरूत्वात् । तिर्यामनुष्यदेथारूपमौदारिकद्धिकमादारिकशरीरीदारिकाङ्गोपाङ्गसक्षामुद्या वायुर्वर्जकर्मणां च जघन्यस्थितेर्विस्प्रित्ययत्वात् । तथा तनाम सेवार्तसंहनननाम इत्यतासांषमा प्रकृतीनामुत्कृष्टस्थिति (अनियविसंजलणपुरिसबहुत्ति) संज्वलनानां क्रोधमानमायामुरनारका बध्नन्तिसर्वत्र विभकिलोपःप्राकृतत्वात नमनुष्यति लोजलकणानां चतुर्णा पुरुषस्य पुरुषवेदस्य च (सदुत्ति ) येश्चः ते हितद्वन्धाहसंक्लेशे वर्तमाना एतासांपप्रकृतीनात्कृष्टतो लघुस्थिति जघन्यस्थितिबन्धम् ( अनियट्टित्ति ) अनिवृत्तिध्यष्टादशकोटीकोटिलक्षणामेघ मध्यमा स्थितिमुपर चयन्ति बादरकपकस्तद्वन्धस्य यथा खचरमस्थितिबन्धे वर्तमानः करोति तद्वन्धकेच्चस्यैवातिविशुद्धत्वादिति । प्रथाज्यधिकसंक्शे वर्तमाना गृह्यन्ते तर्हि प्रस्तुतप्रकृतिबन्धमतिक्रम्य नरकमायोग्यमुपरचयेयुः । देवनारकास्तु सर्वोत्कृष्ट सायजसुच्चावरणा, विग्यं सहुमो विउवि ब असन्त्री। संक्नेशा अपि लियातिप्रायोग्यमेव बध्नन्ति न नरकगतिप्रा- सभी वि आउबायर, पज्जेगिंदी उ सेसाणं ॥ ४५ ॥ योग्यं तत्र सेपामुत्पस्यभावात्तस्मादेवनारका पव संक्लिष्टाः।। सातं सातवेदनीयं (जसुत्ति ) यशःकीर्तिमाम ( उच्चति) प्रस्तुतप्रकृतिकटुस्य विंशतिसागरोपमकोटीकोटीलकणामुत्कृष्टां उचैर्गोत्रम (आवरणति) ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणचतुष्के स्थिति रचयात भत्र सामान्योक्तावपि सेवासंहननौदारिका- विप्नमन्तरायपञ्चक (मुहमत्ति ) सूचनसंपरायपकश्वरक Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (200) अभिधानराजेन्द्रः । कम्म स्थितिबन्धे वर्तमानो लघुस्थिति करोति सम्यकेयस्यैवातिविशुद्धत्वात् (विवि बनसंनित्ति ) वैक्रिय नरकाद्विकं वैकियदेवद्विषणम असंही तिर्यक्पचेन्द्रिय सर्वप पर्यासी लघुस्थितिकं करोति विमुतं भवति वैकिय हि नामग्रकृतयः नाम्नाथ डी सानागी पत्योपमध्ये भागन एकेन्द्रियाणां जघन्या स्थितिः प्रतिपादिता सा च सहस्रगुणिता सागरोपमसतनागसहखद्रयप्रमाणा वैक्रियषङ्कस्य जघन्या स्थितिर्भवति वैविपद्स्य जयन्यस्थितियन्यायि वेन्द्रिया एव नैकेन्द्रियादयस्ते वासंशिपञ्चेन्द्रिया जघन्यां स्थितिमेतावतीमेव बध्नन्ति न न्यूनामपि यदुक्तम | 66 " "ये सहसा अि पक्षिया संखसूणं, विई अवाहूणिय निसेगो ” ॥ अस्यागमानिका " वागुफोसेट, मिच्नुकोसिया इत्यनेन करणेन यलब्धं तत्सहस्रतामितं सहस्रगुणितं ततः पल्योपमासंख्येयांशेन भागेन न्यूनं सद्वैयिषङ्के देवगतिदेवानुपूर्वीनरकगतिनरकापूर्वी शिवशरीरवे कियाङ्गोपाङ्गनणे जपत्यस्थितेः परिमाणमव सेयम् । कुत इत्याह यद्यस्मात्कारणात् तेषां किन कर्मणामसंचिपवेन्द्रिया व जयस्थि तिबन्धकास्ते च जघन्यां स्थितिमेतावतीमेव बध्नन्ति न न्यूनान्तमुहूर्तमबाधा अबाधा हीनाच कर्मस्थितिः कर्मद लिकनिपके इति । किंच एताः षट्प्रकृतयो यथासंभवं नरक देवलोकप्रायोग्या बध्यन्ते न देवनारकासहिमनुष्यै केन्द्रियन्द्रियनरकेषु देवोके नोत्पद्यन्त एवेति तेषामेतदवन्यासंनवः । तिर्यग्मनुष्यास्तु संज्ञिनः स्वनावादेव प्रकृतप्रकृतिषद् स्य स्थिति मध्यमामुत्कृष्टां बा कुर्वन्तीति तेऽपी होपविताः ( संनी विश्रान्ति ) संज्ञी अपि शब्द ततः संज्ञी असंज्ञी वा आयुकातुप्रकार मपि जघन्यस्थितिकं करोति तत्र देवनारकायुषोः पञ्चेन्द्रियतिर्यमनुष्या मनुष्यति नरेन्द्रादयो जयस्थि तिकर्त्तारो ष्टव्याः । उक्ताः पञ्चत्रिंशत्प्रकृतीनां जघन्यस्थितिवन्धस्वामिनः । शेषाणामाह ( वायरपजेगिंदिओ से सारांत ) शेषाणां भणितोरितानां निपञ्चका सातावेदनीयानन्तानुय न्धिचतुष्काप्रत्याख्यानावरण चतुष्क प्रत्याख्यानावरणचतुष्कनपुं देवी वेद दास्यादिवमिध्यात्वमनुष्यगतितिर्यग्गतिजाति पत्यकौदारिकशरीरीदारिकाद्वोपासका संहननापसंस्थानषवर्ण चतुष्कमनुजानुपूर्वी तिर्यगानुपूर्वी प्रशस्ता प्रशस्वायतपासात पोतागुरुपुनिर्माणोपधा-तत्रसनवक स्थावरदर्शकनी चैर्गोल कणानां पञ्चाशीतेः प्रकृतीनां बादरः पर्याप्तस्तद्वन्धकेषु सर्वविशुरू एकेन्द्रियः पल्योपमासंस्य नागहीन सागरोपमद्विसप्तन्नागादिकां जघन्यां स्थिति क रोति । अन्येोकेन्द्रियास्तथाविधविभावादस स्थि तिमुपकल्पयन्ति विकलेन्द्रिय पञ्चेन्द्रियेषु शरिरधिकाऽपि अन्य केवलं तेऽपि स्वभावादेव महत स्थितिमुपरचयन्तीति शेषपरिहारेण यथोनै केन्द्रियस्यैव प्रणमिति प्रतिपादितं जघन्यस्थितिबन्धमाधियस्यामित्यम् (कर्म) । (बन्धशब्दे स्थितिबन्धस्तावे गुणस्थानके स्वरूप चिन्ता ) ( अनुभागकर्म तच्चाऽनुभागशब्दे दर्शितम् ) प्रज्ञा० । प्रदेशकर्म तत्र वा कर्मस्पदलिकं जीवो गृह्णाति तदाह । अंतिमच फासदुगंध- पंचभर सकम्मधलं । कम्म सव्वाजयतगुणरस-मजुत्तमतयपएसं ॥ ७८ ॥ जीवः कर्मस्कन्धदलं गृह्णातीत्युत्तरगाथायां संबन्धः । तत्र (अंतिमत्ति ) अन्ते वा श्रन्तिमाः पश्चादावन्ताग्रादिम इतीमप्रत्ययः अन्त्याः पर्यन्तवर्तिनः अन्तिमत्वं च "फासागुरुन डुमिउखवरसीज एहसिद्धिरुक्खड” इति कर्मविपाकस्तत्र प्रतिपादितक्रममाश्रित्य ज्ञेयं चत्वारश्चतुः संख्याः स्पर्शः शीतोष्ण स्निग्धरूक्कलक्षणा यस्य कर्म स्कन्धदलस्य कर्म स्कन्धद्रव्यस्येत्यर्थः तदन्तिमचतुःस्पर्शम् भयमत्राशयः अमीषां चतुणी स्पर्शानां मध्याको परमार [ः केनाप्यविरुद्धेन संयुक्तस्तत्र विद्यते तथा दि स्पर्शतीययोगतः कचित्परमास्तत्र नयति कथन शीतस्पद्वययुक्तः परमः कच्चिनिशीतस्प योपेतः कश्चित रूक्षोष्णस्पर्शद्वयसमन्त्रित इत्यतः स्कन्धव्यमनव्यानन्तगुणपरमाणुनिवृत्तं सिकानन्तभागवर्त्तिपरमाणुकलितम विस्पर्शयतपरमाणुसतिया चतुःपरोस युक्तं संगच्छतु एवं गुरुलघुमृडुकठिनस्पर्शवन्तश्च ये परमाणवरते कर्मस्कन्धव्येन भवन्तीत्यतश्च प्रज्ञप्तिकर्म्म प्रकृत्याद्यभिप्रायेोकं काय तुला वदवस्थितं भवत्यपरौ च स्निग्धोष्णौ स्निग्धशीतौ वा रूक्कोणी रुकशीती वा इति तथा सुरभिरणी गन्धौ यस्त प्रत्येकं संबन्धात्पञ्चेति पञ्चसंख्या वर्णाः कृष्णनीललोहितद्वारि । क्लबणा यस्य तत्पञ्चवर्णम पञ्च रसास्तिक्तकटुककषायाम्लमधुरस्वरूपा यस्य तत्पञ्चरसम् । कार्मणवर्गणाप्रधानाः स्कन्धाः कर्मस्कन्धास्त एव यथा स्वकालं दलनाधिशरारुनया तू दलनिफलाविशरणे इति वचनाद्दत्रं दलिकं कर्मस्कन्धद ततोऽपि तत् द्विगन्ध अन्तिमप गन्धम अन्तिम स्पर्शद्विगम्य तत्यवर्ण म स्पर्शद्विगन्धपञ्चवर्णम् अन्तिमचतुःस्पर्शद्विगन्धपञ्चवर्णे च पञ्चरसं व मन्तिमचतुःस्पर्शद्विगन्धपञ्चवर्णपरसम् पतिमः स्पगन्धपञ्चवर काम चतुःस्पर्शद्विगन्धपञ्चवर्णपारसकरकन्द क स्कन्धग्रहणेन एतत्सूचयति ये कर्म्मस्कन्धास्त एव चतुःस्पर्शबन्तो जीवन गृह्यते औदारिकवैकियाहारकशरीरयोग्यास्तु स्कन्धा अष्टस्पर्शी एव गृह्यन्ते इति तैजसाद्याश्च ये ग्रहणप्रायोग्यास्तेपे सर्वे स्पर्शचन्तन जवेन गृह्यन्ते इति म न्तव्यम् । वर्णगन्धराः पुनरोद्वारिकादमां सर्वेषामपि स्कन्धानां प्रमाण एवं नयन्ति च पंचरसहि परिणाया अफासदो गंधा जीवाहारण जोगा, चादिसेसिया परि" आहारकस्कन्धेभ्य उपरितनातैजसाथा: स्कन्धा ग्रहणप्रायोग्याः सर्वे चतुःस्पर्श भवन्तीत्यर्थः । तथा सर्वजीवेभ्योऽनो गुणो येषां ते सर्वजीवानन्तगुणाः । रस्य ते विपाकानुभवेनास्याद्यत इति रखोऽनुभागस्तस्यापोश: रसाणवः सर्वजीवानन्तगुणाश्च ते रसाण्यश्च सर्वजीवानन्तगुणाः रसाणवस्तैर्युक्तं समन्वितं हृदमत्र हृदयम् इह सर्वजघन्य रसस्यापि पुफलस्य रसः केवलिप्रज्ञया छिद्यमानः सवजीवानन्तगुणान् भागान् प्रयरुकृति ते च जागा अतिसुदमतया परभागानावानिशा श्रंशा रसाएव इत्युच्यन्ते रखायो भागा रसपरिच्दाभावपरमाण इति पर्या याः। ते च रसाएयः प्रतिस्कन्धं सर्वकर्मपरमा 46 सर्वजी Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) कम्म अन्निधानराजेन्द्रः। कम्म वानन्तगुणा विद्यन्ते तैश्चैवं विधै रसाणुनिर्युक्तं परिगतं कर्म-| च्छेदा पएणत्ता एवं सचजीवाणं एवं जहा नाणास्कन्धदलिकं जीवो गृहातीति एतदुक्तं भवति निम्बेक्षुर- | वरणिज्जस्स अविभागपलिच्छेदा भाणिया तहा अट्ठएह साद्यविधयणैस्तण्डुलेषु प्रत्येकं यथारसविशेषं तत्तद्रूपं पक्ताजनयति तथा अनुभागबन्धाध्यवसायैः सर्वस्कन्धेष्वभव्या वि कम्मपगडीणं भाणियव्वा जाव वमाणियाणं नन्तगुणकर्मप्रदेशनिष्पन्नेषु प्रतिपरमाणुसर्वजीवेभ्योऽनन्त अंतराइयस्स। गुणान् रसविभागपलिच्छेदान् जीवो जनयताति । तथा "अविभागपलिच्छेदेहित्ति” तत्परमाणुभिः । (अणन्तए एसन्ति ) अनन्ता अभव्यानन्तगुणाः सिद्धेभ्योऽनंत- एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स एगमेगे जीवप्पएसे नाणागुणहीनाः प्रदेशाः पुममा यत्र तदनन्तप्रदेशम् । इदमुक्तं भ वरणिज्जस्स कम्मस्स केवइएहिं अविनागपलिच्छेदेहि धति । अभव्येभ्योऽनन्तगुणैः सिद्धेभ्योऽनन्तगुणहीनैः परमा-1 आवेढियपरिवेढिए ? गोयमा ! सिय आवेदियपरिवेढिए गुभिनिष्पन्नमेकैकं कर्मस्कन्धं गृह्णाति तानापि स्कन्धान प्रतिसमयमभव्येभ्योऽनन्तगुणान् सिद्धानामनन्तभागवर्तिन एव सियनो आवेढियपरिवेढिए । जइअविढियपरिवदिए नियमा गृहातीति॥ अणंतेहिं एगमेगस्स णं भंते! नेरझ्यस्स एगमेगे जीपप्पएसे एगपएसोगार्ड, नियसव्वपएसओ गहेइ जिओ।। नाणावरणिज्जस्स कम्मरस केवइएदि अविमागपलिच्चेथोवो आनतदंसो, नामेगो एसमो अहिओ ॥ ७ ॥ देहिं आवेढियपरिवेढिए ? गोयमा ! नियमं अणंतेहिं जहा एकस्मिन् प्रदेशेऽवगाढमेकप्रदेशावगाढमेकप्रदेशावगार्ड येष्वा नेरश्यस्स एवं जाव वेमाणियस्स नवरं मणूसस्स जहा काशप्रदेशेषु जीवोऽवगाढस्तेष्वेव यत्कर्मपुमलद्रव्यं तद्रागादि स्नेहगुणयोगादात्मनि लगति यदाह वाचकमुख्यः " स्नेहा जीवस्स एगसेगस्स णं नंते ! जीवस्स एगमेगे जीवभ्यक्तशरीरस्य, रेणुनाश्लिष्यते यथा । रागद्वेषानुरक्तस्य, कर्मब प्पएसे दरिसणावरणिज्जस्स कम्मस्स केवइएहिं एवं जहेव न्धस्तयाध्वम्" नत्वनन्तरपरंपरप्रदेशावगाढं भिन्न देशस्थस्य नाणावरणिज्जस्स तहेव दंगो नाणियव्यो जाव वेमाणिकर्म पुद्गलद्रव्यस्य ग्राह्यत्वपरिणामाभावात् यथाहि देहिनः यस्स एवं जाव अंतराश्यस्स भाणियव्वं । नवरं वेयणिस्वप्रदेशस्थितान् योग्यपुझबानात्मभावेन परिणमयति इत्येवं ज्जस्स आनयस्स नामस्स गोयस्स ! एएर्सि चउण्ड जीवोऽपि स्वक्षेत्रस्थमेव अव्यमादत्ते नत्वनन्तरपरम्परप्रदेशस्थम् एतच्च द्रव्यं गृह्यमाणं जीवन नैकेन प्रदेशेन न व्यादि वि कम्माणं मास्सस्स जहा नेरश्यस्स तहा जाणिभिर्वा प्रदेशः किन्तु सर्वेरप्यात्मीयप्रदेशैरित्येतदेवाह निजा यव्वं सेसं तं चेव । आत्मीयाः सर्वे समस्ताः प्रदेशा निजसर्वप्रदेशास्तैर्निजसर्व- तत्परमाणुभिः (आवेढियपरिवेढियत्ति) आवेष्टितपरिवेप्रदेशतः श्राद्यादेराकृतिगणत्वात्तास्प्रत्ययः निजसर्वप्रदेशैः वेष्टितोऽत्यन्तं वेष्टित इत्यर्थः आवेष्ट्य परिवेष्टित इति वा (सिय कर्मस्कन्धदलिकं गृहातीत्यर्थः । जीवप्रदेशानां सर्वेषामपि श- नो श्रावेढियपरिवढिएत्ति ) केवलिनं प्रतीत्य तस्य क्षीणकाअलावयवानामिव परस्परं संबन्धविशेषभावात् । तथाहिए- नावरणत्वेन तत्प्रदेशस्य ज्ञानावरणीयाविभामपरिच्छेदैरावेकस्थ जीवस्य समस्तलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणाः प्रदेशा एनपरिवेष्टनाजावादिति (मणूसस्स जहा जीवस्सत्ति) “सिय बर्तन्ते मिथ्यादिबन्धकारणोदये च सति एकस्मिन् जीवप्रदेशे आवेढियत्यादि" वाच्यमित्यर्थो मनुष्यापेक्कया श्रावेष्टितपरिवेस्वक्षेत्रावगाढग्रहणप्रायोग्यद्रव्यग्रहणाय व्याप्रियमाणे सर्वथा टितत्वस्य तदितरस्य च सम्भवात् । एवं दर्शनावरणीयमोहत्मप्रदेशा अनन्तरपरम्परतया तव्यग्रहणाय व्याप्रियन्ते यथा नीयान्तरायेष्वपि वाच्यं वेदनीयायुष्कनामगोत्रषु पुनर्जीवपदहस्ताग्रेण कम्मिश्चिद्वाह्ये कटादिके गृह्यमाणे मणिबन्धकर्परां- एव भजना वाच्या सिद्धापेक्षया मनुष्यपदे तु नासौ तत्र वेदशादयोऽपि तद्ग्रहणाय अनन्तरपरम्परतया व्याप्रियन्ते इति । नीयादीनां भावादित्येतदेवाह नवरं " वेयणिज्जस्सत्यादि " कर्म०५ क०॥ भ०८ श० १० १० । उत्त० (बन्धाइ शब्देषु प्रदेशबन्धाद्यधिनाणावरणिज्जस्स णं नंते ! कम्मस्स केवइया अवि- कारेऽन्यत्) भागपलिच्छेदा पएणता? गोयमा ! अर्णता अविनाग प्रथमतः करणाष्टकमभिधित्सुराह । पलिच्छेदा पएणत्ता॥ बंधण १ संकमणु २ ब्व-ट्टणा य ३ अववट्टणा धन(अविभागपलिच्छेदेति ) परिच्छिद्यन्त इति परिच्छेदा अं दीरणया ५ उवसामणा ६ निहत्ती ७ निकायणाचशास्ते च सविभागा अपि भवन्त्यतो विशेष्यन्ते अविनागाश्च तिकरणाइं २ ते परिच्छेदाश्चेत्यविनागपरिच्छेदा निरंशा अंशा इत्यर्थस्ते इह करणशब्देन सह पर्यन्ते सामानाधिकरण्याभिधानात च ज्ञानावरणीयस्य कर्मणोऽनन्ताः कथं ज्ञानावरणीयं याव- प्रत्येकं करणशब्दोऽभिसंबन्धनीयः तद्यथाबन्धनकरणं संक्रमतो ज्ञानस्याविभागभेदानावृणोति तावन्त एव तस्याविभाग-| करणमित्यादि । क० प्र०ा प्रदेशापमुक्त्वा कर्मणां केत्रं वदन्ति परिच्छेदा दलिकापेक्कया वाऽनन्ततत्परमाणुरूपाः ॥ नेरझ्याणं भंते ! नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स केवइया सबजीवाणं कम्मं तु, संगहेबदिसागयं । .. सव्वेस वि पएसेसु, सव्वं सन्वेण वरूगं ॥१८॥ अविभागपलिच्छेदा पएणता ? गोयमा ! अणंता अ कर्म ज्ञानावरणीयादिकं सर्वजीवानां पकेन्द्रियादीनां संग्रहे विजागपलिच्छेदा पाणता एवं सव्वजीवाणं जाव | संग्रह कियायां योग्यं तु दिशागतं स्यात् षमां दिशां समावेमाणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! प्रणेता अविनागपति- हारः पदिशं तत्र गतं षदिकस्थितमित्यर्थः । तत्र चतनः Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) कम्म अभिधानराजेन्दः । पूर्वाद्या दिशः ऊर्धाधो दिग्द्वयं चेदमेवं दिग्पटूमत्र पदि प्रथमानुयोगपूर्वगतचूलिकारूपपञ्चप्रस्थानः तत्र पूर्वेषु मध्ये रागतं कर्म द्वीन्छियादिजीवान् एव अधिकृत्य संग्रहक्रियायां द्वितीये अग्रायणीयाभिधाने चतुईशवस्तुसमान्वते पूर्वे यत्पयोग्यं स्यादिति नियमः एकेन्द्रियाणां तु आगमेत्यादि दिकस्थं शमं वस्तु विंशतिप्रानृतपरिमाणं तस्य चतुर्थ यत् कर्मप्रकृकर्म ग्रहणक्रियायां योग्यमपि उक्तमस्ति । अपरत्रागमे च त. तिनामकं चतुर्विशत्यनुयोगद्वारमयं प्रानृतं तस्मादिमे त्रयोबदाह " एगिदिया गं भंते! तेयाणं कम्म पुग्गलाणं गमणं करे- ग्धादयः सूत्रकृता लेशतो वक्ष्यन्ते ततोऽन्य बन्धोदयसत्प्रकृतिमाणे किं तिदिसिं करेइ गोयमा ! सिय तिदिसिं सिय चउ- स्थानानां संक्षेपो दृष्टिवादस्य निस्यन्दरूपः अनेन च प्रकरहिसि सिय पंचदिसि करेह वइंदियाणं भंते ! पुच्छा गोयमा! णस्य सर्वविन्मूलता ख्यापिता द्रष्टव्या दृष्टिवादो हि भगदिया जाव पंचेंदिया नियमा छद्दिसिं करे" कथं संग्रह- पता परमाईन्त्यमहिम्ना विराजमानेनचीरबर्द्धमानस्वामिन क्रियायां योग्यं केन सह कियद्वा स्यादित्याह सर्वैरप्यात्मप्र- साक्षादर्थतोऽभिहितः सुत्रतस्तु सुधर्मस्वामिना सन्निप्यन्ददेशैः सर्वज्ञानावरणादि सर्वेण प्रकृतिस्थित्यादिना प्रकारेण रूपं चेदं प्रकरणमतः सर्वविन्मूलमिति । ननु बन्धोदयसत्प्रबद्धकमन्योऽन्यं सम्बन्धतया क्षीरोदकवत् प्रात्मप्रदेशैः क्लिष्टं कृतिस्थानानां संक्षेपोनिधातव्यः किं प्रत्येकमाहोश्वित् संवेतदेव बद्धकं कर्म संग्रहे योग्यं जवति नत्वन्यत् । भात्मा हि धरूप उच्यते संवैधरूपस्तथा चामुमेव संवैधरूपं संक्षेप वि. सर्वपकृतिप्रायोग्यपुमलान् सामान्येन प्रादाय तान् पुद्गलान् चक्षुः शिष्यान् प्रभ कारयति ॥ | अध्यवसायविशेषात् पृथग् ज्ञानावरणादिरूपत्वन परिणमयति । यत्र हि आकाशे जीवोऽवगाढस्तत्र ये आकाशप्रदेशा कइबंधतो बेअइ, कइक वा संतपयमिगणाणि। मात्मन्याश्रितास्तेषु ये कर्मपुम्लादिरागादिस्नेहयोगत मा- मयुत्तरपगईसुं, जंगविगप्पा उ बोकव्वो ॥३॥ स्मनि लगन्ति ते एव कर्मपुङ्गला जीवानां संग्रहयोग्यान तुक्षे- कतिशब्दः परिमाण पृच्छायां कति कर्मप्रकृतीबंधनन् कति त्रान्तरावगाढाः कर्मपुद्गला जीवानां संग्रहणाऱ्या भिन्नदेशस्था- फर्मप्रकृतीवेदयते कति वा तथा बनतो वेदयमानस्य प्रकृनां ग्रहणयोग्याभावात् “ सवेसु पपसेसु" इति प्राकृतत्वात तिसत्कर्मस्थानानि प्रकृतिसत्तास्थानानि एवं शिष्यैः प्रकृते तृतीया बहुवचनस्थाने सप्तमीबहुवचनं भिन्नप्रदेशस्थाः क. सत्याचार्योंऽस्मिन् विषये भंगजालमानकप्रकारं वचोमात्रण मेंपुद्गलाः कथं ग्रहणयोग्या नवन्ति भत्र दृष्टान्तो यथाऽग्निः- यथावत्प्रतिपादयितुमशक्यं जानानः सामान्येनैव प्रत्युत्तरमास्वप्रदेशस्थान् प्रायोग्यपुद्गलान् आत्मसात् करोति एवं जी- ह मूले प्रकृतिषु ज्ञानावरणादिरूपासु उत्तरप्रकृतिषु च मतिषोऽपि स्वप्रदेशस्थान् कर्मपुशलान् आत्मसात् करोति कि. शानावरणादिश्रुतज्ञानावरणादिरूपासु उभयीषु च वक्ष्यमाणचिद्विदिस्थितमपि कर्म आत्मा गृह्णाति परमल्पत्वान्न विव. स्वरूपासु प्रत्येकं बन्धोदयसत्तासंवेधमधिकृत्य चिन्यमानाक्षितम् उत्त० २३ अ० कर्मणामुदय उदय शब्द ( एवं चईरणा सु वचोभङ्गः संभवति ते चास्मिन् प्रकरणे यथावत् वैविक्त्ये शब्दे उदारणा बन्धो बन्ध शन्दे ) एवं बन्धनादिकरणाष्टकं न प्रतिपाद्यमानाः सम्यग्वोद्धन्याः । तत्र मूलप्रकृतयोऽष्टौ तयावद् व्यक्तिकरणम्। यथा ज्ञानावरणं दर्शनावरणं वेदनीय मोहनीयम् । मायुः अथ बन्धोदयसत्तास्थानानां संवेधः ॥ नाम गोत्रमन्तरायं च (कर्म)। मिकपएहि महत्य, बंधोदयसंतपयमिठाणाणि । तत्र मूलप्रकृतीनामुक्तस्वरूपाणां बन्धम्प्रतीत्य चत्वारि प्रकवुच्छ सुणु संखवं, नीसंदं दिट्टिवादस्स ।। १ ॥ तिस्थानानि । तद्यथा अप्टौ सप्त षट् एकश्च । तत्र सर्वप्रकृ. प्रकृतीनां स्थानानि द्विव्यादिप्रकृतिसमुदाया इत्यर्थः स्थान- तिसमुदायोऽष्टौ एतासां च बन्धो जघन्यतोत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तशब्दोऽत्र समुदायवाची बन्धोदयसत्तासु प्रकृतिस्थानानि- प्रमाणः आयुषि हि बध्यमाने अष्टानां प्रकृतीनां बन्धः प्राप्यते बन्धोदयसत्ताप्रकृतिस्थानानि तेषां संक्षप बदये तं च वषय- प्रायुषश्च बन्धोऽन्तर्मुहर्तमेव कालं भवति न ततोऽप्यधिकम् । माणशृणु शूपिवति क्रियापदं च शेतृणां कथंचिदनाभोगव- तथा त पवाटावायुर्वजाः सप्त एतासां च बन्धो जघन्येनान्तशतः प्रमादसंभवेऽप्याचार्येण नोद्वेजितव्यं किन्तु सुमधुर- महत यावत् उत्कर्षेण च त्रयविंशत्सागरोपमानि पएमासोपचोभिः शिक्षानिबन्धनैः श्रोतृणां मनांसि प्रसाद्य यथाईमा- नानि अन्तर्मुहर्मोनपूर्वकोटित्रिभागान्यधिकानि । तथा ता गमार्थो निवेदनीय इति ख्यापनार्थ तदुक्तम् "मणुवत्तणापसहा एवाप्टावायुर्मोहनीयवर्जाः षट् । एतासां च बन्धो जघन्येनेपायं पावंति जोगयं परमं । रयणं पियगुकरिसं, उन्वेश् सोह- कं समयं तथाहि एतासामुक्तरूपाणां षम्यां प्रकृतिरूपाणां षमा भ्मगुण गणेणं । एत्थ य पमायखलिया. पुषभासेण कस्ससव प्रकृतीनां बन्धःसुदमसंपराये सर्वोपशमश्रेण्या कश्चिदेकं समय न होति । जो ते वणे सम्मं, गुरुत्सणं तस्स सफलंति । को भूत्वा द्वितीयसमये भवक्षयेण दिवं गतः सन्नविरतो भवनामसारहाणं, स होज जो भद्द वाश्णो दमणे । दुई वि य जो | ति अविरतत्वे चावश्यं सप्त प्रकृतीनां बन्ध इति षष्मां बन्धो जपासे, दम तं सारहिं विति" संक्षेपस्यैव विशेषणार्थमाह ।। घन्यनै समयं यावत् नत्कर्षेण त्वन्तर्मुहूर्त सूक्ष्मसंपरायगुणमहार्थो महान् प्रभूतोऽर्थोऽभिधेयो यस्य स महार्थः ननु संक्षे- स्थानकस्यान्तर्मुहूर्तप्रमाणत्वात् तथा सप्तानां प्रकृतीनां बन्धपाविस्तरार्थसंग्रहस्ततः स महार्थ एव भवाति किमर्थमिति | व्यवच्छेदे एकस्या धेदनीयरूपायाः प्रकृतन्धः स च जघन्येनविशेषणं तदयुक्तं संक्षेपस्य अन्यथाऽपि संजवात् तथाह्याभ्या के समयमेकसमयभावोपशमश्रेषयामुपशान्तं मोहगुणस्थानालापकसंगण्यसंग्रहण्यः संकेपरूपा दृश्यन्ते न च महार्थस्त ने प्रागुक्तप्रकारेण जावनीयः उत्कर्षेण पुनर्देशोनां पूर्वकोर्टि तात्पर्यार्थस्याल्पीयस्त्वात् । ततस्तत्कल्पनममुं संकेपं नाबासी यावत् । सर्वोत्कर्षतः कस्या वदितव्य इति चेत् सध्यते यो द्विनेयजन श्त्यमहार्थत्वाच्छङ्कापनोदार्थ महार्थति विशेष- गर्भवासे माससप्तकमुषित्वा ऽनन्तरं शीघ्रमव योनिनिष्कमणणम् पुनरप्यमुं विशेषयति निःस्यन्ददृष्टिवादस्य रप्टिवादमहा जन्मना जातो वर्षाष्टकाचोपरि संयम प्रतिपन्नः प्रतिपत्यनन्तरे संवस्य विन्दुभूतं निःस्यन्दकल्पं रप्टिवादो हि परिकर्म तत्र च कपकणिमारुह्योत्पादितकेवलज्ञानदर्शनस्तस्य सयोगिके Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) अभिधानराजेन्द्रः। कम्म बनिनो वेदितव्यः तदेवं बन्धमाश्रित्य प्रकृतिस्थानप्ररूपणा । सत्तविहबंधगा य अहविहबंधए य अहवा मत्तविहबंधगा कर्मः। पं० सं०। य अहविहवंधगा य तिन्नि भंगा। एवं जाव थणियकुमाबन्धेन बन्धस्य सम्बेधः। संप्रति कस्यां प्रकृतौ वध्यमानायां कतिप्रकृतिस्थानानि बन्धमाश्रित्य प्राप्यन्ते इति निरूप्यते तत्रा रा । पुढविकाझ्याणं पुच्छा ? गोयमा ! सत्तविहबंधगा वि युषि बध्यमाने अष्टावपि प्रकृतयो नियमेन बध्यन्ते मोहनीयेऽत अहविहबंधगा वि । एवं जाव वणस्सइकाइया वि । विगबध्यमाने अप्टौ सप्त वा तत्राष्टौ सर्वाः प्रकृतयस्ता एवायुर्व- लिंदियाणं पंचिदियतिरिक्खजोणियाण य तियभंगो सचे जर्जाः सप्त ज्ञानावरणदर्शनावरणनामगोत्रान्तरायेषु बध्यमानेषु विताव होजा सत्तविहबंधगा अहवा सत्तविहबंधगा य अअष्टौ सप्त षट् । तत्राष्टौ सप्त च प्रागिव मोहनीयायुर्वर्जाः षट् विहबंधए य अहवासत्तविहबंधगाय अट्ठविहबंधगाय ।। ताश्च सूदमसंपराये प्राप्यन्ते वेदनीये तुवध्यमाने अष्टौ सप्त षद पका च तत्राप्यौ सप्त षट् च प्रागिव एका तु सैव वेदनीयरूपा "जीवाणं भंते!" इत्यादि इह जीवाः सप्तविधबन्धकाः अgप्रकृतिःसा चोपशान्तमोहगुणस्थानकादौ प्राप्यते । उक्तं च 'आ विधबन्धकाश्च सदैव बहुत्वेन बज्यन्ते षट्विधबन्धकस्तु कदाबम्मि अहमो देछ, सत्त एकच गए । बज्झतयम्मि बझं चित्सर्वथा न जवति परमासान यावदुत्कर्षतस्तदन्तरस्य प्रतिति, सेसएसु सत्स?" कर्मः। पं० सं०।। पादनात् यदापि बन्यते तदापि जघन्यपदे एको वा द्वौ बानसम्प्रति किं कर्म बध्नन् कानि कर्माणि बध्नातीति बन्धसंबंध स्कर्षतोऽयाधिकं शतम् । तत्र यदेकोऽपि न लभ्यते तदा प्रथविचिन्तयिषुः प्रथमतो ज्ञानावरणीयेन सह सम्बन्धं चिन्तयति। मो भङ्गः यदा त्वेको बन्यते तदा द्वितीयो बदूनां लाभे तु तु. तीय इति । नैरयिकाः षड्विधबधन्का न भवन्ति अष्टविधबन्धजीवे णं भंते ! नाणावरणिज्जं कम्मं बंधमाणे का का अपि कदाचित्कास्तत्र यदैकोऽप्यष्टविधबन्धको न बज्यते कम्मपगडीओ बंधा ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अ-1 तदा सर्वेऽपि तावमवेयुः सप्तविधबन्धका इति भङ्गः । यदा विहबंधए वा गबहबंधए वा ॥ खेकोऽविधबन्धकस्तदा द्वितीयो यदा तु बहवस्तदा तृतीय "जीवणं भंते" इत्यादि सुगमं नवरं सप्तविधवन्धक आयुर्वन्धा- इति पतदेव भङ्गत्रिकं दशस्वपि नवनपतिषु भावनीयम् प्रथिनावकाले अष्टविधबन्धकमायुरपि बघ्नन् षट्टिधबन्धको मोहा- व्यादिषु पञ्चसु सप्तावधबन्धका आप अप्पावधबन्धका अपात्येक मुबन्धाभावे स च सूक्ष्मसंपरायः उक्तंच-" सत्तविह बंधगा एव भङ्गोऽविधबन्धकानामपि सदैव तेषु बहुत्वेन बभ्यमानत्वात् होति, पाणिणो आयूवजमाणं तु तह सुहमसंपराया, गन्धि- द्वित्रिचतुरिन्डियतिर्यकपञ्चेन्द्रियसूत्रेषु भङ्गत्रिक नैरयिकवत् । हबंधा विणिहिट्ठा ॥ मोहाउ य वजाणं, पयमीणं तेज बंधगा| मणसाणं ते ! नाणावरणिजस्स पुच्छ ? गोयमा ! प्रणिया" इति । एकविधबन्धकस्तु न लभ्यते एकविधबन्धका सव्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा ? अहवा सत्तविहहि उपशान्तकषायादयस्तथाचोक्तम् "उघसंतखीणमोहा, केव-1 बंधए य अविहबंधए य श्अहवा मत्तविहबंधगा य अहविलिणो एगविहं बंधो । ते पुण दुसमयग्यिस्स, बंधगा न उणं संपरायस्स"॥१॥ न चोपशान्तकषायादयो ज्ञानावरणीयं हनंधगा य ३ अहवा सत्तविहबंधगा बबिहबंधए य ।। कर्म बध्नन्ति तदबन्धस्य सूक्ष्मसम्परायचरमसमय एष व्यव अहवा सत्तविहवंधगा य बिहबंधगाय ५। अहवा सत्तच्छेदात् किंतु केवलं सातवेदनीयमिति । विहबंधगा य अट्ठविहबंधगे य बिहवंधए य ६ । अहएतदेव नैरयिकादिदएमकक्रमेण चिन्तयति। वा सत्तविहबंधगा य अट्टविहवंधगे य छबिहबंधगा य ७। णेरझ्याणं ते! नाणावरणिज कम्मं बंधमागणे कइ कम्म-1 अहवा सत्तबिहबंधगा य अट्टविहबंधगा य बिहबंधए य पगमीयो बंधा ? गोयमा! सत्तविहबंधए वा अट्टविह-| अहवा सत्तविहबंधगाय अट्ठविहबंधगा य गविहवंबधए वा एवं जाव वेमाणिए नवरं मणुसे जहा जीवे । धगा यह । एवं एते नव जंगा सेसा वाणमंतराया जाव "नेरयाणं भते!" इत्यादि वह मनुष्यवर्जेषु शेषेषु पदेषु सर्वेवपि द्वावेव भङ्गको कष्टव्यौ सप्तविधबन्धको वा अष्टविधव वेमाणिया जहा ऐरझ्या सत्तविहादिबंधया भणिया तहा न्धको वा इति नतु तृतीयः । षट्टिधबन्धक इति तेषु सूदमसंप- भाणियव्वा । एवं जहा नाणावरणं बंधमाणा जहिं भरायगुणस्थानासंनयात् । मनुष्यपदेषु त्रयोऽपि वक्तव्याः तत्र णिया दसणा वरणं पि बंधमाणा तहिं जीवादिया एगत्तसूक्मसंपराये त्यसंभवात् तथाचाह “एवं जाव वेमाणिए। न पोहत्तेहिं भाणियन्वा ॥ बरं मासे जहा जीवे" ति उक्त एकत्वेन दएमकः। सम्प्रति बहुत्वेनाइ। मनुष्यसूत्रेनङ्गनवकमष्टविधबन्धकस्य च कदाचित् सर्वथाऽजीवा ण भंते ! नाणावरणिज कम्मं बंधमाणा कइ क-1 प्यभावात् तत्राष्टविधषाविधबन्धकाभावे सर्वेऽपि तावद्भवेयुः सप्तविधबन्धका इति प्रथमो भगः सप्तविधबन्धकानां सदैव म्मपगमीओ बंधति ? गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्जास बहुत्वेन प्राप्यमाणत्वात् एकाष्टविधबन्धकाभावे द्वितीयसप्तसविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य अहवा सत्तविहबंधगा य विधबन्धकाश्चाष्टविधबंधकश्च बह्वष्टविधवन्धकभावे तृतीयसमहविहबंधगे य अहवा सत्तविहबंधगा य बिह बंधगे य प्तविधबन्धकाश्चाष्टविधबन्धकाश्च । एवमेवाष्टविधबन्धकानावे अहवा सत्तविहबंधगाय बिहबंधगाय । ऐरइयाणं भंते! पविधबन्धकपदेनाप्येकत्वबहुत्वान्यां द्वौ भनाविति हिकसं योगे चत्वारो भङ्गाः त्रिकसंयोगेऽप्यष्टविधबन्धकद्विधबन्धनाणावरणिज्ज कम्मं बंधमाणा का कम्मपगमीश्रो बंधति? कपदयोः प्रत्येकमेकवचनबहुवचनान्यां द्वौ भङ्गाविति चत्वार गोयमा ! सव्वे वि लाव होज्जा सत्तविहबंधगा अहवा इति । सर्वसंख्यया नव व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका नैरयिकयत्। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५३) अभिधानराजेन्द्रः। यथा च ज्ञानावरणीय चिन्तितं तथा दर्शनावरणीयमपि चि- यति तच्चिन्तायामेकवचनबहुवचने च सर्वत्रामङ्गक नामगोत्रान्तयितव्यम्। म्तरायसूत्राणि ज्ञानावरणीयसूत्रवत् प्रज्ञा० २५ पद । वेयणिज्जं बंधमाणे जीवे कइ कम्म ? गोयमा ! सत्तवि- बन्धवेदीसम्पति किं कर्म वेदयेते काः कर्मप्रकृतीर्वजीतश्त्युहबंधए वा अढविहबंधए वा बिहबंधए वा एगविहबंधए दयेन सह सम्बन्धस्य सम्बन्धं चिन्तयिषुरिदमाह । चा एवं मणूसे वि सेता नारगादीया सत्तविह अविह जीवे णं भंते ! नाणावरणिज्ज कम्मं वेदेमाणे का कबंधगा जाव वेमाणिए । जीवाणंजते ! वेयणिज्ज कम्मं बंध म्मपगमीओ बंध ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अवविपुच्छा, सव्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा य अववि हबंधए वा गविहबंधए वा एगविहबंधए वा ॥ “जीवे णं भते" इत्यादि सुगर्म नवरं ज्ञानावरणीयं कर्म घेदहवन्धगा य एगविहवन्धगा य बिहवन्धगा य श्र दयमान पकविधवन्धक उपशान्तमोहः कोणमोहो वा न तु सहवा सत्तविहबंधगा य अविहबंधगा य एगविहबंधगा| योगिकेवली तस्य ज्ञामावरणीयोदयानाचात् । य । अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य एगविह- जीवाणं ते ! नाणावरणिज कम्मं वेदमाणा कइ कम्मबंधगा य । विहबंधए य । अहवा सत्तविहबंधगा य पगमीयो बंधति ? गोयमा ! मम्वे विताव होज्जा सत्तविअट्ठविहबंधगा य एगविहबंधगा य छबिहबंधगा य अ- हवंधगा य अट्ठविहबंधगा य । १ । श्रहवा सत्तविहवंधबसेसा नारगादिया जाव वेमाणिया जाहिं नाणावरणं गा य अहनिहबंधगा य छबिहबंधए य ।। अहवा बंधमाणा वंधति ताहिं नाणियव्वा नवरं मणूसाणं ते ! सत्तविहबंधगा य अहविहबंधगाय छबिहबंधगा य ।३। वेदणिज्ज कम्मं बंधमाणा कइ कम्मपगमीओ बंधति गो- | अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य एगविहबंधगे यमा ! सव्वे वि ताव होज्जा सप्तविधबंधगा य एगविह-| य। ४ । अहवा सत्तविहबंधगा य अविहवंधगा य एबंधगा य? अहवा सत्तविहबंधगा य एगविह बंधगा य अह गविहवंधगा य । ५। अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहविहबंधए या अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य बंधगा य छबिहबंधगे य एगविहबंधगे य । ६ । अहवा अविहबंधगा य ३ । अहवा सत्तविहबंधगा य एगविह- सत्तविहवंधगा य अहविहबंधगा य छबिहबंधए य एगविबंधगा य विहबंधए य ।। अहवा सत्तविहबंधगा य दबंधगा य । ७ । अहवा सत्तविहबंधगा य अवविहबंधगा एगविहबंधगाय गन्धिहबंधगा या अहवा सत्तविहबंधगा| य बिहबंधगा य एगविहबंधगेय । । अहवा सत्तविहवंय एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधए य अविहबंधए य ६। धगा य अट्ठविहबंगा य उबिहबंधगा य एवं एते नव भंगा अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधगाए अवसेस्साणं एगिदियमणुस्सवज्जाणं तियभंगो जाच वेमाणिपबिहबंधगा य७। अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहब- | याणं एगिदियाणं सत्तविहबंधगा य अहविहबंधगाय ॥ भगा य अहविहबंधगा य बिहबंधगे य । अहवा सत्तवि बहुवचनचिन्तायां षट्विधबन्धकाः सूक्ष्मसम्पराया एकविधहपंधगा य एगविहवैधगा य अट्टविहबंधगा य उब्धि हबंधगा बन्धका उपशाम्तमोहकीणमोहाः कादाचित्का एकत्वादिना च यए। एए नव भंगा। मोहणिज्ज बंधमाणे जीवे कइ कम्म- जाज्या इत्युभयेषामप्यनावे सप्तविधबन्धका भपि अपविधवन्ध पयमीयो बंध? गोयमा! जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो जीवे का अपित्वेको भङ्गो द्वयानामपि सदैव बढ़त्वेन सन्यमानत्वा त ततःषविधवन्धकपदप्रक्केपे एकवचनबहुवचनान्यां द्वौ भनौ गिदिया सत्तविहबंधगा वि अढविहबंधगा वि जीने णं भंते ! | एवमेव द्वौ जावेकविधषन्धकप्रोपेऽपि उन्नयोरपि युगपत् प्र. आउयं कम्म बंधमाणे कई कम्मपगमीयो बंधइ ? गोयमा! | केपे पूर्ववच्चत्वार इति संख्यया नव नैरयिकादिषु तु पदेबके नियमा अट्ठ एवं नेरइए जाव वेमाणिए । एवं पुहत्तेण वि।। न्द्रियमनुष्यवर्जेषु बहुवचमचिन्तायां नङ्गत्रिकमष्टविधवन्धका नां कादाचित्कतया एकत्वादिनानाज्यतया च सन्यमानत्वात् । नामगोयंतराइंबंधमाणे जीवे कइ कम्मपयमीओ बंध गोष एकेन्द्रियेषु त्वजन सप्तविधबन्धकाष्टविधषन्धका अपीति मा ! जाहिं नाणावराणज्जं बंधमाणे बंधइ ताहिं नाणियन्यो उभयेषामपि सदा बढ़त्वेन प्राप्यमाणत्वात् । एवं नेरइए जाव वेमाणिए। एवं प्रहत्तेण विजाणियव्वं ॥ मणस्साणं पुच्छा ? गोयमा! सन्चे विताव होज्जा सत्तविघेदनीयचिन्तायाम् “एकविधबंधए वा इति" उपशान्तमोहा।। हवंधगा अहवा सचविहबंधगा य अढविहबंधगे य अहवा दि शेष प्राग्वत् । मनुष्यपदविषयाचन्तायामपि त एवं प्रागुक्ता सत्तविहबंधगा य अविहबंधगा य अहवा सत्तविहबंधगा नव भङ्गाः सप्तविधयन्धकानां च सदैव बहुत्वनावस्थिततया भनान्तरासम्भवान्मोहचिन्तायां जीवपदे पृथिव्यादिषु पदेषु च य छबिहवंधए य एवं छविहबधएण व समं दो नंगाप्रत्येकमक एव भङ्गः । सप्तविधवन्धका अपि अष्टविधबन्धका एगविहबंधएण वि समं दो नंगा अहवा सत्तविहवंशशा य अपि उभयेषामाप सदैव बहुत्वेन सन्यमानत्वात् । षधि अट्ठविहबंधए य बिहबंधए य चउभंगा अहवा सत्तावहबन्धकस्तु मोहनीयबन्धको न भवति मोहनीयबन्धो ह्यनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थानकं यावत् पविधवन्धकास्तु सूदमसं बंधगा य अट्ठविहवन्धएय एगविहवन्धएय चनंगा अहवा. पराय इति आयुर्वन्धकस्तु नियमादष्टविधबन्धक इति तचिन्त- सत्त विहवन्धगाय छबिहबंधए य एगविहबंधए य चागा Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०७४) अभिधानराजेन्द्रः । कम्म हवा सत्तविहबंधगा य अविबंध य एगविहबंधएय गंगा भट्ट एवं एते सतावीमं भंगा एवं जहा नावान ररिणज्जं तहा दरिसणावरणिज्जं अंतराइयं पि जीवे एां भंसे कम पैदेमा का कम्मपगडीओ बंध ? गोमा ! सत्तविहबंध वा अडविहबंधए वा छव्विहबंधए या विधवा अपए वा एवं मवि अवसेसा नारयादिया सप्तविधगा अधिगा एवं जामणिया मनुष्येषु तु गतिमङ्गा अष्टविधयन्धकपचन्धकवि धवन्धकानां कादाचित्कतया एकत्वादिना भाज्यतयाच बज्यमानत्वात् तत्रमीषामजावे सप्तविधबन्धका इत्येको नङ्गः ततोएक दो पहि इतिसप्ततोऽष्टविधयन्धकपट्टिवन्धकपदमपेचत्वारोऽपि खन्दा एकोनविंशतिः च रातो धन्धकपन्धकविबन्धकपदान उष्टाविंशतिः सप्तविंशतिः । यानि मोदनीयं कर्म वेदयमानो जीव सप्तविधबन्धकोऽविधयन्यकः पट्टिबन्धको वा सूक्ष्ममम्पयावस्थायामा मोहनदास पवं मनुष्यपदेऽविष व्यं नरकादिषु तु पदेषु सप्तविधवन्धकोऽष्टविधबन्धको वेत्येवं वक्तव्यं सूक्ष्मसम्परायत्वाभावतः षविधबन्धकत्वासम्भवात् । बहुवचनचिन्तायां जीवपदे नङ्गत्रिकं तत्र सूक्ष्मसम्परायाः कदाचित् इतरे ये सदैव त्वेन ि पाये सप्तविधयन्धका अष्टा पीयेको भस्ततः पचिकन यांनी प्रातिकादिषु स्तमितकुमार पर्यवसाने सप्तविधयन्धकाः सदा बनावस्थिताः । यस्तु कादाचित्क एकत्वादिना च भाज्या इति श्रष्टविधबन्धका - स्पेको मङ्गः ततोऽन्धक ज्यां द्वाविति पृथिव्यादिषु सप्तविधा जीवा णं भंते! वेदणिज्जकम्मं वेदेमाणा कइ कम्मपयडी- त्रिचतुरिन्द्रियतिर्यक्पञ्चेन्द्रियेषु व्यन्तरज्योतिष्क वैमानिकेषु च अपीति उभयेषामपि तेषु सदा बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् । द्विगोमासव्ये वि तार होत मत्तविहारविवत् किं मनुष्येषु यसप् विधाय एगविहबंधगा य अहवा सत्तविहगाय अविधा व एगविरंगा व चिड़ धर य अवा सत्तविधगाय अहिधगा य एगविगाय गाय पण मिमं दो जंगा ने यत्रा | अहवा सत्तविधगा य श्रविबंधगा य एगविबंगावर य अबंध‍ य चलनंगा एवं एते नव भंगा ए दियाणं अनंगयं नारगादीणं तियजंगा जाव मालिया नवरं मस्सारणं पुच्छा, सव्वे वि ताव होज्जा सत्तविधाय एगविहबंधगा य अहवा सत्ताविह बंघगाय विधाय बविहबंधए य अट्ठविहबंधए य अधए य । एवं एते सत्तावीसं जंगा जाणियव्वा जहा कि रिया पाणावाविश्यस्स एवं जहा वेदखिलं तहा आउयं नाम गोयं च भाणियम्यं मोहणिज्जं वेदमाणे जहा बंधे नाणावर शिज्जं तहा नाशियन्वं । वेदनीयसूत्रे एकविपबन्धकसंयोगकेवल्यपि तस्यापि वेदनीयोदयन्यसम्भवात् तस्ययोगाभावतो वेदनीयं वेदयमानस्यापि तद्बन्धासम्भवात् वेदनीयसूत्रे एकवचनबहुवचनचिन्तायां जीवपदे नव भङ्गाः तत्र सप्तविधव काष्टविधबन्धकैकविधबन्धकानां सदैव बहुत्वेन वज्यमानत्वात् । बहुवचनात्मके इतरपदद्वयानाचे एकस्ततः परिधबन्धकपद्मषे एकवचनबहुवचनाभ्यां एवमेव कविबन्धकपदप्रकेपे चत्वार उभयपद प्रदेष इति मनुष्यपदे सप्तविंशतिः त हि सप्तविधबन्धका पकेन बहुत्वेन सदाऽवस्थिता इतरेषु त्रयोऽप्यधिकधका अधकाकादाचिकाकत्यादिना च प्रयास्ततस्तेषामनाये सप्तविधयन्धका अध्येकविधकापत्को भङ्गः ततोकिएकचनाच्य हो पवेकविन्चक इति पद तथा पानांचा एकैकस्मिन विकसंयोगे कम्म एकवचनबहुवचनाभ्यां चत्वार इति विकसंयोगे द्वादश त्रिकसंयोगेशतः सर्वतः मो बंधे को भङ्गः ततोऽष्टविनाय दीपकपद्म एकचनवनायां बयारः उजयपदप्रक्षेपे इति तथाचाह । " मोहणिजं वेपमाणे जहा माणावरणियं तदा भाणियन्नमिति "इतिश्रीमलयगिरिविरचि तायां पर्विंशतितमं वेदबन्धाख्यं पदं समाप्तम् प्रज्ञा० २६५६० । कि कर्मदयमानः कति कर्मप्रकृती स्योदयेन सह संबंधं चिन्तयति । O जीवेणं जंते ! नाणावर णिज्जं कम्पं वेदेमा कति कम्म पगमीओ वेदेइ ? गोयमा ! सत्तविहवयेर वा अडविहवेपरवा एवं मस्से व अवसेसा एगचेण विपुलेख विनियमा कम्यपगमओ वेदे जाव वेमणिया । सप्तविधवेदक उपशान्तमाह कीणमोदी वा तयोमीयो दयासंयत् षास्तु सूक्ष्मसम्परायादिराविधक म तुष्पदेवि वाच्यं नैरयिकादयस्तु नियमादविधवेदाः । जीवाणं भंते! नाणावरणिज्जं कम्पं वेदेमाणे कइ कम्मपथमीओ वेदेति गोषमा सम्बे वि तात्र होज्ज - विवेदगा अहवा विहवेदगा य सत्तविहवेद य - हवा विवेदगाय सत्तविहवेदगा य। एवं मणुस्सा वि । दरिसणावर णिज्जं अंतराइयं च एवं चैव भाणियवं वेदणिउपनामगोपाई वेदेमाणे कड़ कम्मपन वेदे ? गोयमा ! जहा बंधगा वेदगस्स वेयणिज्जं तहा जाणिवाणि जीवेणं जंते! मोहणिजे कम्पं वेदे माया कई कम्मपगमीओ वेदे १ गोषमा ! नियमा अ कमी वेदे | एवं ऐरइए जाव वैमाणिए । एवं पुते वि बहुतायां जीवपदे मनुष्य सर्वेऽपि तावद्भवेयुः श्रष्टविधवेदका इत्येको जङ्गः ततः सप्तविधव Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) अनिधानराजेन्डः। कम्म न्धकस्यैकस्य भावे द्वितीयो बहूनां नावे तृतीयः शेषेषु तु नैर- पि सत्ता झानावरणदर्शनावरणान्तरायाणां सत्ताया मष्टायिकादिषु पदेषु अष्टभङ्गमष्टविधवेदका इति । सप्तविधवदकत्व- नां सप्तानां वा तत्राष्टानामुपशान्तमोहगुणस्थानकं यावन्मोहस्य तत्रासम्नवात् एवं दर्शनावरणीयान्तरायसूत्रेऽपि वक्तव्ये नीये कीणे समानां सा च कोणमाइगुणस्थानके वेद यायुनामवेदनीयसूत्र जीवपदे मनुष्यपदे च प्रत्येकमष्टविधवेदको वा स- गोत्राणां सत्तायामष्टानां सप्तानां चतसृणां वा सत्ता तत्राष्टानां तविधवेदको वा चतुर्विधवेदको वेति वक्तव्यं शेषेषु तु नैरयि- सप्तानां च नावना प्रागिव चतसृणां सत्ता वेदनीयादीनामेव कादिषु अष्ठविधवेदक इत्येतेषामुपशान्तमोहत्वाद्यवस्थासम्ज-1 साच सयोगिकेवलिगुणस्थानके च द्रष्टव्या । कर्म। चात् तत्रैव वेदनीयसूत्रे बहुवचनचिन्तायां जीवपदे भनुप्यपदे सम्प्रति बन्धोदयसत्ताप्रकृतिस्थानानां परस्पर च प्रत्येकं भङ्गत्रिकं तत्राष्टविधवेदकाश्चेत्येको नङ्गः एष सर्वथा बन्धप्ररूपणार्थमाह ॥ सप्तविधवेदकानामन्नावे ततः सप्तविधवदकपदप्रकेपे एकवच- अविह सत्तब बं-ध गेसु बरे व उदयसंतंसा । नबहुवचनान्यां द्वौ नाविति शेषेषु तु नैरयिकादिषु स्थानेष्वभ एगविहे तिविकप्पा, एगविगप्पा अ अवंधम्मि । ३ । कमष्टविधवदका इति । एवमायुर्नामगोत्रसूत्राण्यपि जावनीयानि मोहनीयं कर्म वेदयमानो नियमादष्टविधवेदक इति जी अष्टविधबन्धकसप्तविधबन्धकषमिधबन्धकेषु प्रत्येकमुदये सत्तायां चाऽष्टौ काणि प्राप्यन्ते कथमिति चेदुच्यते इह अष्टविधववादिषु पञ्चविंशती पदेष्वेकवचनचिन्तायां बहुवचनचिन्तायां च सर्वत्राप्यनङ्गकम् । अष्टौ कर्मप्रकृतीर्वेदयते वेदयन्ते वा| न्धका अप्रमतान्ताः सप्तविधवन्धका अनिवृत्तिवादरसंपरायप र्यवसानाः पद्रिधबन्धकाश्च सूदमसंपरायाः। एते च सर्वेऽपि प्रशा०२७ पदान। सरागाः सगगत्वं च मोहनीयोदयापजायते उदये च सत्यव. सम्प्रति उदयमाश्रित्य प्रकृतिस्थानप्ररूपणा क्रियते नदयम्प्रतित्रीणि इयं सत्ता ततो मोहनीयोदयसत्तासंभवात् सप्तविधाष्टविधषप्रकृतिस्थानानि तद्यथा अष्टौ सप्त चतस्रः। तत्र सर्वप्रकृति समुदा द्विधबन्धकेववश्यमुदये ससायां वा अष्टौ प्राप्यन्ते पतेन च योऽष्टी तासांच नदयोऽभव्यानधिकृत्य अनाद्यपर्यवसितोभव्यान प्रयो नङ्गा दर्शिताः । तद्यथा अष्टविधो बन्धोऽष्टविध उदधिकृत्यानादिसपर्यवसानःउपशान्तमोगुणस्थानकान् प्रतिपतिता नधिकृत्य पुनः सादिसपर्यवसानःसच जघन्येनान्तर्मुहर्त्तप्रमाणः योऽष्टविधा सत्ता एष विकल्प आयुर्बन्धकाले एष च मिथ्या दृष्पयादीनामप्रमत्तानामवसेयोन शेषाणामायुर्वन्धासंभवात्तथा उपशमश्रेणीतःप्रतिपतितस्य पुनरप्यन्तर्मुहूर्तम् कस्यापि उपश सप्तविधो बन्धोऽएविध उदयोऽष्टविधा सत्ता एषविकल्प मणिप्रतिपत्ते उत्कर्षेण तु देशोनापार्द्धपुलपरावतः तथा ता श्रायुबंधभावेपपच मिथ्यादृष्टयादीनामनिवृत्तिबादरसंपरायाणाएवाष्ठौ मोहनीयवर्जाः सप्त तासामुदयो जघन्येनैकं समय तथा मवसेयः । तथा षड्विधो बन्धोऽप्टविध उदयोऽष्ट विधा सत्ता हि सप्तानामुक्तरूपाणां प्रकृतीनामुदय उपशान्तमोह वीण एष विकल्पः सूदमसंपराया (एगविहो तिविगप्पोत्ति) एकविमोहे वा प्राप्यते तत्र कश्चिदुपशान्तमोहगुणस्थानके एकं समयं धे एकप्रकारबन्धे एकस्मिन् केवलिवेदनीये बध्यमान इत्यर्थः । स्थित्वा द्वितीये समये जवक्षयण दिवं गच्छन्नविरतो भवति विकल्प इति समाहारहिगुत्वऽप्यार्षत्वात्पुस्स्वानर्देशः पयो पिकअविरतत्वे चावश्यमष्टानां प्रकृतीनामुदय स्ततः सप्तानामुदयो स्पा भवन्तीत्यर्थः । तद्यथा एकविधो बन्धः सप्तविध उदयःजघन्येनैकं समयं यावत्प्राप्यते उत्कर्षेण तु अन्तर्मुहुर्त उपशा एविधा सत्ता एष विकल्प उपशान्तमोहगुणस्थानके प्राप्यते ततमोहगुणस्थानकस्य कीणमोहगुणस्थानकस्य वा सप्तोदयहेतो प्रमोहनीयस्योदयो न विद्यते सत्ता पुनरस्ति तथा एकविधो रान्तौ हूर्तिकत्वा त्तथा घातिकर्मवर्जाश्चतस्रः प्रकृतयः बन्धः सप्तविधा सत्ता एष विकल्पः कोणमोहे गुणस्थानके प्रातासामुदयो जघन्येनान्तर्मुर्तिक उत्कर्षेण देशोनपूर्वको प्यते तत्र माहनीयस्य निःशेषतोऽपगमात् तथा एकविधो बन्धटिप्रमाणः तदेवं कृता उदयमधिकृत्य स्थानप्ररूपणा । श्चतुर्विध उदयश्चतुर्विधा सत्ता एष पुनर्विकल्पः सयोगिकेवसंप्रति कस्याः प्रकृतेरुदये कति प्रकृतिस्थानान्युदयमा लिगुणस्थानके प्राप्यते तत्र मोहनीयस्य निः शेषतोऽपगमात् । श्रित्य प्राप्यन्ते इति निरूप्यते । तत्र मोहनीयस्योदये अष्टा तथा एकविधो बन्धश्चतुर्विध उदयश्चतुर्विधा सत्ता एष पुनर्विनामुदयः मोहनीयवर्जानां त्रयाणां घातिकर्मणामुदये अ कल्पः सयोगिकेवासिगुणस्थानके प्राप्यते तत्र घातिकर्मणामवप्टानां वा तत्राप्टानां सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकं यावत् सप्ताना यवशोपगमात् चतसृणां चाघातिप्रकृनीनामुदये सत्तायां प्रामुपशान्तमोहकीणमोहे वा वेदनीयायुर्नामगोत्राणामुदये अष्टानां प्यमाणत्वात् (एगविगप्पो प्रबंधम्मित्ति) अत्र बन्धानावे एकसप्तानां चतसृणां वा उदयः। तत्राष्टानां सूक्ष्मसम्परायं यावत् व विकल्पस्तद्यथा चतुर्विध उदयश्चतुर्विधा सत्ता एष चायोगि सप्तानामुपशान्तमोहे कीणमोहे वा चतसृणामेतासामेव वेदनी केवनिगुणस्थानके प्राप्यते । तत्र हि योगाभावात् बन्धो न भयादीनां सयोगिकेवत्रिन्ययोगिकेवसिनि च । सम्प्रति सत्ताम पति उदयसत्ते चाघातिकर्मणां नवतः तदेवं मूलप्रकृतीरधिकृत्य धिकृत्य प्रकृतिस्थानप्ररूपणा क्रियते सत्ताम्प्रति त्रीणि प्रकृति बन्धोदयसत्प्रकृतिस्थानानां परस्परं संबंधे सप्तविकस्पा सक्ताः स्थानानि तद्यथा अष्टौ सप्त चतनः । तत्र सर्वप्रकृतिसमुदायो कर्म पं०सं। ऽध्यौ एतासांचाष्टानां सत्ताअभव्यानधिकत्य अनादिपर्यवसाना जीवस्थानेषु विवृण्वन्नाह। नव्यानधिकृत्यानादिसपर्यवसाना तथा मोहनीये कोणे सप्तानां सत्ता । सा च जघन्योत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तप्रमाणा सा हि कीय सत्तट्ठबंध अठुदयसंततेरससुजीवगणेस । मोहे कीणमोहगुणस्थानके चान्तमहूर्तप्रमाणमिति घातिकर्मच- एमि पंचदीभंगा होति केवतिणो ॥ ४ ।। तुष्टयनये च चतसृणां सत्ता सा च जघन्येनान्तर्मुहुर्तप्रमाणो यह जीवस्थानानि चतुर्दश तद्यथा अपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियः पत्कर्षण पुनर्देशोनपूर्वकोटिमाना कृता सत्तामधिकृत्य प्रकृति- याप्तसूक्ष्मैकेन्धियः अपर्याप्तबादरैकेन्द्रियः पर्याप्तबादरैकेन्द्रियः स्थानप्ररूपणा । संप्रति कस्यां प्रकृती सत्यां कति प्रकृतिस्थाना- अपर्याप्तद्वीन्द्रियः पर्याप्तद्वीन्द्रियः अपर्याप्तत्रीन्द्रियः पर्याप्तत्रीन्छिनि सत्तामधिकृत्य प्राप्यन्ते प्रतिनिरूप्यते मोहनीयसप्ताष्टानाम- यः अपर्याप्तचतुरिन्धियः पर्याप्तचतुरिन्छियः अपर्याप्तासैझिप Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) अभिधानराजेन्डः। कम्म चन्द्रियः पर्याप्तासंझिपश्चन्द्रियः अपर्याप्तसंक्षिपञ्चन्छियः पर्या- | काले एतेषां वायुर्वन्धयोग्याध्यवसायस्थानसंजवात् बन्धः - संक्षिपञ्चेन्द्रियः इति एतानि च सप्तषशीतिकवृत्तीच्याख्या-| पपद्यते । तथा सप्तविधो बन्धः अष्टविध भुदयः अष्टविधा स. तानीति नेह यो व्याख्यायन्ते । तत्र त्रयोदशसु आयेषु जीव- त्ता एष विकल्प आयुर्वन्धकावं मुक्त्वा शेषकालं सर्वदा बन्यस्थानेषु प्रत्येकं द्वौ द्वौ विकल्पौ भवतः। तद्यथा सप्तविधो बन्धो ते तदेव मूत्रप्रकृतीरधिकृत्य बन्धोदयसत्प्रकृतिस्थानानां परस्परं एविध उदयः अष्टविकल्पः आयुबन्धकासं मुक्त्वा शेषकानं | संवेध नक्त स्वामित्वं च उत्तरप्रकृतिषु सम्बेधाकर्म०पं०म०॥ सर्वदैव लज्यते अष्टविधो बन्धः अष्टविध उदयः अष्टविधा ___ सम्पतिज्ञानावरणीयस्य तत्तल्यत्वादन्तरायस्य चोत्तरप्रकृतीसत्ता एष विकल्प आयुर्वन्धकाने एष चान्तमौहर्तिकः आयुर्व- रधिकृत्य बन्धादिस्थानप्ररूपणार्थमाह । वकालस्य जघन्येनोत्कर्षण चान्तमुहूर्त प्रमाणत्वात [ एगम्मिपंचनंगत्ति ] एकस्मिन पर्याप्तसंक्षिपञ्चेन्द्रियबवणे पश्चनंगा न. बंधोदयरांतं सा, नाणावरणंतराइए पंच । वन्ति तत्रादिमौ द्वौ नंगौ प्रागिव नावनीयौ त्रयस्तु शेषा इमे ष बंधो चरमे वि उदय संतंसा होति पंचेच ।। ७ ।। निबन्धः अष्टविधा सत्ता अष्टविध उदय एष विकल्पः सू- कानावरणे अन्तराये च प्रत्येकबन्धोदयसत्तारूपाः अंशाः पञ्च एमसंपरायस्य उपशमश्रेण्यां वर्तमानस्य वेदितव्यः तथा ए. पञ्चप्रकृत्यात्मकाः । इदमुक्तं भवति । ज्ञानावरणे बन्धमुदयं कविधो बन्धः सप्तविध जदयः अष्टविधा सत्ता एष विकल्प च. सत्तां चाधिकृत्य सदैव पञ्चप्रकृतयो मतिज्ञानावरणथुतानावर पशान्तमोहगणस्थानके प्राप्यते । तथा एकविधो बन्धः सप्त- णावधिज्ञानावरणमनःपर्यवज्ञानावरणरूपाः प्राप्यन्ते नत्वेकद्वित्रविध उदयः सप्तविधा सत्ता एष च कीणमोहस्थानके तथा यादिकाधुवं बन्धादित्वात् । अन्तरायेऽपि बन्धमुदयं सत्तां चा द्वौ द्वौ भंगौ भवतः केवनिनः तद्यथा एकविधो बन्धः चतुर्विध धिकृत्य प्रत्येक सदैव दानान्तरायलाभान्तरायन्नोगान्तरायवीर्यासदयः चतुर्विधा सत्ता । एष च विकल्पः सयोगिकेवलिनो ब- न्तरायरूपाः पञ्च प्रकृतयःप्राप्यन्ते नत्वकद्वियादिका धवषन्धाभाभावे चतुर्विध उदयः चतुर्विधा सत्ता एष विकल्पो योगि- दित्वादेव । तथा च मतिज्ञानावरणान्तराये च बन्धादिषु प्रत्येकेवबिनः । इह केवनिग्रहणं संझिव्यवच्छेदार्थ द्वौ भंगौ जवतः के- कमेव पञ्च प्रकृत्यात्मकं प्रकृतिस्थानमिति । संप्रतिसंबंध उच्यते पनिनो नतु संझिन इत्यर्थः अत एव केवलग्रहणादिदमवसीयते झानावरणस्य बन्धकाझे पश्च विधो बन्धः पञ्चविध उदयः प केवलिमनोविज्ञानरहितत्वात् संझी न नवतीति ॥ श्वविधा सत्ता । एवमन्तरायस्थापि एष एव विकल्पो द्वयोरपि सम्प्रति तानेव सप्तविकल्पान् गुणस्थानेषु चिन्तयन्नाह । सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकं यावदवगन्तव्यः । बन्धानावे पुनीअट्ठसु एगविगप्पो, उस्सु वि गुणसन्निएसु दुविगप्पा । नावरणे अन्तराये च प्रत्येकं पञ्चविध उदयः पञ्चविधा सत्ता तथा चाह बन्धश्चरमेऽपि बन्धाभावेऽपि झानावरणान्तराययोपत्तेयं पत्तेयं, बंधोदय संतकम्माणं ।।५।। स्तथेति समुच्चये उदयसत्ते भवतः पञ्चैव पञ्चप्रकृत्यात्मिके इह गुणस्थानकानि चतुईश तानि च षमशीतिकवृत्तौ सवि. पर न त्वेकद्वियादिके धुवोदयसत्ताकत्वात् । एष एव विकल्पो स्तरमभिहितानीति नेह भूयोऽनिधीयन्ते । तत्र अष्टगुणस्थान द्वयोरप्युपशान्त मोहे कीणमोहे च प्राप्यते । मकेषु सम्यम्मिथ्यादृष्ट्यपूर्वकरणनिवृत्तिबादरसूक्ष्मसंपरायो सम्प्रति दर्शनावरणस्योत्तरप्रकृतीरधिकृत्य । पशान्तमोहकीणमोहसयोगिकेवबिबवणेषु प्रत्येकं बन्धोदय बधादिस्यानप्ररूपणार्थमाह । सत्कर्मणामकविकल्पो भवति तद्यथा सम्यग्मिथ्यादृष्ट्यपूवैकरणानिवृत्तिबारेषु सप्तविधो बन्धः अष्टविध उदयः अ बंधस्स य संतस्स य, पगइहाणाइ तिन्नि तुल्लाई। पविधा सत्ता । अथैतेषु अष्टविधोऽपि बन्धः कस्मान्न भवति ? उदयट्ठाणा ज्वे, चनपणगं दंसणावरणे ।। ७ ॥ नच्यते स्वभावत एव पतेषामायुर्घन्धयोग्याध्यवसायस्थानशून्य- दर्शनाबरणाख्ये द्वितीयकर्माणि बन्धस्य सत्तायाश्च परस्परं त्वात् सूक्ष्मसंपराये पनिधो बन्धः अष्टविध उदयः अष्टविधा तुल्यानि तुल्यस्वरूपाणि त्रीणि प्रकृतिस्थानानि भवन्ति तद्यथा सत्ता सूक्ष्मासंपरायो हि बादरकषायानाथादायुर्मोहनीयं च न नय षट् चतस्रः तत्र सर्वप्रकृतिसमुदायो नव ता एव नव स्त्यानबध्नाति ततश्च पनिध एव बन्धो भवति । उपशान्तकषायस्य किंत्रिकहीनाः पद पताश्च षट् निषा प्रचसाहीनाश्चतनः । तत्र एकविधो बन्धः सप्तविध जदयः अष्टविधा सत्ता । यत उप नव प्रकृत्यात्मक बन्धनस्थानं मिथ्यादृष्टौ सासादने वा । तशान्तमोहकषायोदयाभावात् न झानावरणानि बध्नाति किंतु चामव्यानधिकृत्यानाद्यपर्यवसानं कदाचिदपि व्यवच्छेदाभावावेदनीयमेव केवलं ततस्तत्रैकविध एव बन्धो भवति मोहनी त् । भव्यानधिकृत्यानादिसपर्यवसानं कालान्तरव्यवच्छेदसंना यस्य चोपशान्तत्वेनादयाभावादुदयः सप्तविधः कीणमोहस्य पात् । सम्यक्त्वात्प्रतिपत्त्य मिथ्यात्वं गतानां सादिसपर्यवसाएकविधो बन्धः सप्तविध उद्यः सप्तविधा सत्ता: अत्र मोहनी नं तश्च जघन्यतोऽन्तमुदतकालं यावत्कर्षतो देशेनोपर्यापुय कोणत्वात् उदये सत्तायां च न प्राप्यते ततः सप्तविधा स- गलपरावर्त षट्प्रकृत्यात्मकं बन्धस्थानं सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणत्ता सयोगिफेवसिनि एकविधो बन्धः चतुर्विध उदयः चतुर्वि- स्थानकमारज्यापूर्वकरणस्य प्रथम नागं यावत् तच जघन्यतोधा सत्ता केवली हि चतसृणामपि धातिप्रकृतीनां क्येण भव- ऽन्तर्मुहूर्त कालमुत्कर्षतो द्वे षट्पष्टीसागरोपमानां सम्यक्त्वति ततस्तस्य चतुर्विध पवोदयश्चतुर्विधैव च सत्ता । अयोगिक- स्यापान्तरासे सम्यग्मिथ्यात्वान्तरितस्यैतावन्तं कासमवस्थामसं. वसिनो बन्धो न भवति योगाजावात् ततश्चतुर्विध उदयश्चतुर्वि- भवात् तत कर्क तु कश्चित् कपकणि प्रतिपद्यते मिथ्यात्वम् भा सत्ता । तथा षट्सु गुणसंझितेषु गुणस्थानकेषु मिथ्यादृष्टि- कश्चिपुर्नमिथ्यात्वे च प्रतिपने सति अवश्यं नवविधो बन्धः सासादनाविरतसम्यग्दृष्टिदेशविरतिप्रमत्ताप्रमत्तरूपेषु प्रत्येक चतुःप्रकृत्यात्मकं तु बन्धस्थानमपूर्वकरणहितीयभागादारबन्धोदयसत्कर्मणां द्वौ द्वौ विकल्पो नवतः तद्यथा अष्टविधो ज्य सूक्ष्मसंपरायं यावत् जघन्येनैकं समयमुत्कर्षतोऽन्तबन्धः अष्टविध उदयः अष्टविण सत्ता एष विकल्प आयुर्थन्ध- महर्तम् एकं समय यावत् कथं प्राप्यते । इति चेत् उच्यते Jain Education Interational Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) अनिधानराजेन्धः। कम्म उपशमश्रेण्यामपूर्वकरणस्य द्वितीयभागप्रथमसमये चतुर्विध श्रेणि प्रतीत्य चतुर्विधः पञ्चविधो वा उदयः नवविधा सत्ता बन्धमारभ्यानन्तरसमये कश्चित्कालं करोति का कृत्वा दिवं क्वपकश्रेणिमधिकृत्य पुनरुदयश्चतुर्विध एव कारणमत्र प्रागेधोगतः सन् अविरतो भवति अविरतत्वे च षट्विधो बन्ध इत्ये- क्तम् । केचित्पुनः कपककोणमोहेष्वपि निद्राप्रचलयोरुदयमिकसामायिकी चतुर्विधस्थानस्य स्थितिः। तथा नवप्रकृत्यात्म- च्छन्ति तत्कर्मप्रकृत्यादिग्रन्थैः सह विरुध्यते इत्युपेक्षते यावश्चकः के सत्तास्थानं दर्शनावरणस्य कालमधिकृत्य द्विधा अनाद्य- कपकश्रेण्यामपि स्त्यानर्द्धिनिकं न कीयते तावत्सत्ता नवधिपर्यवसितमनादिसपर्यवसितंच तत्रानाद्यपर्यवसितमभव्यानां धैव सा नवर्कित्रिके तु कोणे षविधा तथाचाह (चउबंधुदए छकदाचिदप्यव्यवच्छेदात् अनादिमपर्यवसितं तु न भवति । संसा यत्ति) श्द अंश ति सत्कर्माऽनिधीयते यदाह चूर्णिकृत् । नवप्रकृत्यात्मकसत्तास्थानव्यवच्छेदो हि कपकश्रेण्यां भवति अंश इति"संत कम्मं जन्नई"चतुर्विधे बंधे चतुर्विध उदयः अनिमच क्षपकश्रेणीतः प्रतिपातो भवतीति पतश्च सत्तास्थानमुप- वृत्तिबादरसूक्मसंपरायगुणस्थानकाकायाः संख्येयेज्यो जागेच्या शमश्रेणिमधिकृत्योपशान्तमोहगुणस्थानकं यावदवाप्यते कप-| परतःस्त्यानिित्रके वीणे षविधा सत्ता एष धिकल्पस्तावत्प्राप्य. कश्रेणिमधिकृत्य पुनरनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानकस्य प्रथ-| ते यावत्सूक्ष्मसंपराकायाश्चरमसमयः परतस्तु न प्राप्यते बन्धामं भागं तथा षट्प्रकृत्यात्मकं सत्तास्थानं जघन्येनोत्कर्षण चा- भावात तदेवं चतर्विधवन्धकस्य त्रयो विकल्पास्तद्यथा चतुर्विधी न्तर्मुर्तप्रमाणं तच्चानिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानकम्य द्विती- बन्धश्चतुर्विध नदयो नवविधा सत्ताएष उपशमश्रेण्यांचा पायत यभागादारज्य कीणमोहगुणस्थानकस्य द्विचरमसमयं यावद- स्त्यानर्द्धित्रिकं न कीयते चतुर्विधो बन्धः पञ्चविध नदयः नवबसेयं चतुःप्रकृत्यात्मकं त्वेकसामायिक वीणकषायचरमसमय- विधा सत्ता । एष उपशमश्रेण्यां कपकश्रेण्यां तु पञ्चविधोदयप्रावित्वादिति । उदयस्थाने पुनः भवतः तद्यथा चतनः पञ्च स्यानावात् तथा चतुर्विधो बन्धश्चतुर्विध उदयः पसिधा सत्ता च तत्र चतनश्चक्षुर्दर्शनावरणाचकुर्दर्शनावरणावधिदर्शनाव- एष विकल्पः कपकघेण्यां स्त्यानधित्रिकक्कयानन्तरमवसेयः "रणकेवनदर्शनावरणरूपाः । पतासां च समुदायो ध्रुवोदय इति घरयबंधे" इत्यादि उपरते व्यवच्छिन्ने बन्धे चतुर्विधः पञ्चएकप्रकृतिस्थानम् । पतासु च चतसषु मध्ये निकादीनां पञ्चा- विधो वा उदयः नवविधा सत्ता एतौ च द्वौ विकल्पावुपशान्त नांप्रकृतीनां मध्यादन्यतमस्यां प्रकृती प्रक्किप्तायां पञ्च नहि निद्रा- मोहगुणस्थानके प्राप्येते उपशमश्रेण्यां हि निकाप्रचन्नयोरुदयः दयो द्वियादिका युगपदयमायान्ति कित्वेकस्मिन् काले ए- संभवति स्त्यानदित्रिकं च न कयमुपगच्छति ततश्चतुर्विधः कैवाऽन्यतमा क चित्, निकादयश्च ध्रुवोदया न भवन्ति का- पञ्चविधो वा नदयो नवति नवविधा च सत्ता प्राप्यते तथा च. सादिसापेकत्वात् अत इदं पञ्चप्रकृत्यात्मकमुदयस्थानं कदा- तुर्विध उदयः षद्विधा सत्ता एष विकल्पः कोणकषायस्य द्विचिवज्यते तदेवमुक्तानि दर्शनावरणस्य बन्धोदयसत्तामधिकृत्य चरमसमयं यावदवाप्यते । तथा चतुर्विध उदयश्चतुर्विधा सत्ता स्थानानि । संप्रति संवेधमनिधित्सुराह । एष विकल्पः कोणकषायम्य चरमसमये निजाप्रचसयोचिरवीयावरणे नववं-धगेसु चउपंचनदयनवसंता । मसमये पव कपितत्वात् । तदेवं दर्शनावरणे सर्वसंख्यया एकाछचउबंधे चेवं, चनबंधुदए लंसा य ।।।। दश विकल्पाः । यदि पुनः कपककोणकषायेम्वपि निकाप्रचननवरयबंधे चउपण, नवंसचउरुदयछच्च चसंता। योरुदय इष्यते तर्हि चतुर्विधो बन्धः पञ्चविध उदयः पद्रिया सत्ता बन्धाभावे पश्चविध उदयः पविधा सत्ताइत्येतो द्वौ विकवेयणियाउयगोए, विभज्ज मोहं परं वोच्छं ॥१०॥ स्पो अधिको प्राप्यते इति त्रयोदश ज्ञातव्याः वेदनीयस्य संघद्वितीयावरणं दर्शनावरणं तस्मिन् द्वितीयावरणे नववन्धकेषुस न्धस्तत्र वेदनीयायुगोत्रेषु संवेधविकल्पोपदर्शनार्थमाह ( वेयकलदर्शनावरणोत्तरप्रकृतिबन्धकेषु मिथ्यारटिसासादनेषु (च णियाउयगोपविभज्जत्ति) वेदनीये प्रायषि गोत्रे च यथागमं उपचन्दयत्ति) उदयश्चतुर्विधः पञ्चविधो वा तत्र चतुर्विधश्चक्षु- बन्धादिस्थानानि संवेधमाश्रित्य विभजेत् विकल्पयत् तत्र दर्शनावरणाचक्षुर्दर्शनावरणकेवबदर्शनावरणरूपः स एव नि- वेदनीयस्य चान्येनैक बन्धस्थानं तद्यथा सातमसातं वाऽनयोः द्रापञ्चकसत्तान्यतमप्रकृतिप्रपात्पञ्चविधः । सत्तामधिकृत्य परस्परविरुकत्वात् सत्तास्थाने द्वे तद्यथा वे एकं च । तत्र यापुनःप्रतिस्थानं नव नव प्रकृत्यान्मकं तदेव नवविधबन्धकेषु नौ वि. घदेकमन्यतरत न कीयते तावत् अपि सती छान्यतमस्मिथ कल्पी दर्शितौ तद्यथा नवविधो बंधश्चतुर्विधा सत्ता एष विकल्पो- कीणे पकमिति । सम्प्रति संवेध उच्यते असातस्य बन्धः - निद्रोदयानावे निद्रोदयेच नवविधो बन्धः पञ्चविध उदयो नव- सातस्योदयः सातासाते सती । अथवा असातस्य बन्धः सातविधासत्ता (उचउबंधेचेवं ति) पम्बन्धेचतुर्बन्धेच एवं पूर्वोक्त- स्योदयः सातासाते सती । एतौ धौ विकल्पी मिथ्यादृष्टिगुणप्रकारण उदयसत्तास्थानानि पोदितव्यानि इदमुक्तं जवात ये घ- स्थानकात प्रभृति प्रमत्तगुणस्थानकं यावत् प्राप्यते न परतः विधवन्धकाः सम्यग्मिध्यादृष्टयविरतसम्यग्दष्टिदशविरतप्रमत्ता. परतोऽसातस्य बन्धानावात् तथा सातस्य बन्धः असातस्योप्रमत्ताः कियत्कारमपूर्वकरणाइच तेषां चतुर्विधः पञ्चविधो वा दयः सातासाते सती एतौ द्वौ विकल्पो मिथ्यादृष्टिगुणस्थानउदयःनवविधासत्तापतेन च द्वौ विकल्पौ दर्शितौ तद्यथाषद्विधो कादारज्य सयोगिकेवलिगुणस्थानकं यावत्संनयतः ततः परतो बन्धश्चतुर्विध उदयो नवविधा सत्ता अथवा पद्विधो बन्धः पञ्च- बन्धानावे असातस्योदयः सातासाते सती अथवा सातस्योविध उदयो नवविधासत्ता। एतौच द्वौ विकल्पी कपकं मुक्त्वान्यत्र दयः सातासाते सती पती द्वौ विकल्पावयोगिकेवलिनि द्विचसर्वत्रापि प्राप्यतेवपके त्वेक एव विकल्पस्तद्यथा पद्विधो बन्ध- रमसमयं यावत् प्राप्यते चरमसमये तु असातस्योदयः असाचतुर्विध सदयो नवविधा सत्ता कपकस्य हि अत्यन्तविशुरुत्वेन तस्य सत्ता यस्य द्विचरमसमये सातं कीणं यस्य त्वयात द्विनिडाप्रचलयोनोंदयः सनवात तक्त सत्कर्मग्रन्थे "निद्दागस्स चरमसमये कोणं तस्यायं विकल्पः सातस्योदयः सात सत्ता नदओ, खीणगखवगेय परिवज्ज" तथा चतुर्विधबन्धकेप कि । पतौ चायपि विकल्पावेकसामायिकौ सर्वसंख्यया वसीययत्कालमपूर्वकरणेषु अनिवृत्तिबादरसूक्ष्मसम्परायेषु चोपशम- स्याही नातथा आयुषि सामान्ये नेक बधस्थानं चतुणॉमन्यत. Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२ ) अभिधानराजेन्द्रः। कम्म मत् परस्परविरुकत्वेन युगपदू द्वित्रायुषां बन्धानावात् उदयस्था- तु व्यवच्चिन्ने मनुप्यायुष उदयो नरकमनुष्यायुषी सती एक नमप्येकं तदपि चतुर्णामन्यतमत् युगपद द्वित्रायुषामुदयानावात विकल्पोऽप्रमत्तगुणस्थानकं यावत् मनुष्यायुष उदयो मनुष्यमद्वे सत्तास्थान तद्यथा द्वे पकं च । तत्र चतुर्णामन्यतमत् याव नुष्यायुषी सती पष विकल्पःप्राम्वत् मनुष्यायुष उदयो देवमनुदन्यतरभवायुर्न बध्यते परभवायुषि च बळे यावदन्यत्र परभ-| प्यायुषी सती एष विकल्प उपशान्तमोहगुणस्थानकं याचत वेनोत्पद्यते तावद् द्वे सती । संप्रति संवेध उच्यते तत्रायुषस्ति- देवायुषि बद्धेऽप्युपशमश्रेण्यारोहसंभवात् सर्वसंख्यया मनुष्यास्रोऽवस्थास्तद्यया परजवायुर्वन्धकासात् पूर्वावस्था परभवा- णां नव भङ्गाः तदवमायुपि सर्वसंख्यया अष्टाविंशतिनाः। युर्बन्धकालावस्था परभवायुर्वन्धोत्तरकासावस्था च । तत्र नैर- तथा गोत्रे सामान्येनैक बन्धस्थानं तद्यथा उच्चैर्गोत्रं नीचैर्गोत्रं यिकस्य परजवायुर्वन्धकानात् पूर्वनरकायुष उदयो नरकायुषः वा परस्परविरुद्धत्वेन युगपद्वन्धाभावात् उदयस्थानमप्येकं तसत्ता एष विकल्प आद्येषु चतुर्यु गुणस्थानकेषु शेषगुणस्थान- दपि द्वयोरन्यतरतू परस्परविरुरुत्वेन युगपद् द्वयोरुदयानाकस्य नरकेष्वसंजवात् परभवायुबन्धकाले तिर्यगायुपो बन्धो वात् हे सत्तास्थाने तद्यथा हे एकं च । तत्र चोरनीचर्गोत्रे नारकायुष उदयो नारकतिर्यगायुषी सती एष विकटपो मिथ्या समुदिते द्वे तेजस्कायिकावस्थायामुच्चैोंने सद्वलिते एकम् । दृष्टेः सासादनस्य वा द्वयोरेवाद्ययोर्गुणस्थानकयोस्तिर्यगायुषो अथवा नीचैर्गोत्रे अयोगिकेवलिद्विचरमसमये कोणे एकम् सबन्धसंभवात् । अथवा मनुष्यायुपो बन्धो नारकायुष उदयो म्प्रति संवेध उच्यते नीचोत्रस्य बन्धः नीचर्गोत्रस्योदयः नीनारकमनुष्यायुष। सती एष विकल्पो मिथ्यादृष्टः सासादनस्या- चैर्गोत्रस्य सत् एष विकल्पस्तेजस्कायिकवायुकायिकेषु सत्यविरतसम्यम्हटेर्वा बन्धोत्तरकालं नारकायुष उदयो नारकतिर्य- ते तद्भवादद्वत्तेषु वा शेषजीवेवेकद्वित्रिचतुस्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियेषु गायुष। सती एप विकल्प आद्येषु चतुर्वपि गुणस्थानकेषु ति। कियत्कालं नीचैर्गोत्रस्य बन्धः नीचर्गोत्रस्योदयः सरचनीचैर्गो र्यगायुबन्धानन्तरं कस्यापि सम्यक्त्वे सम्यग्मिथ्यात्वे वा गमन- त्रस्य बन्धः उच्चैर्गोत्रस्योदयः उच्चनीचैर्गोत्रे सती पती च संभवात् । अथवा नारकायुष नदयो मनुष्यनारकायुषी सती। द्वौ विकल्पी मिथ्यादृष्टिषु सासादनेषु वा न सम्यग्मिथ्या इह नारका देवायु रकायुश्च भवप्रत्ययादेवन बध्नन्ति तत्रो- दएचादिषु तेषां नीचैर्गोत्रबन्धानावात् । तथा उच्चैर्गोत्रस्य स्पत्यजावात् । ययुक्तम् "देवा नारका वा देवेसु नारकेसु बिन बन्धो नीचर्गोत्रे सती एष विकल्पो मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकादाउविवज तित्ति" ततो नारकाणां परजवायुबन्धकाले बन्धोत्तर- रज्य देशविरतिगुणस्थानकं यावत् प्राप्यते न परतः परतो काने च देवायुनारकायुज्या विकल्पाजावात सर्वसंख्यया प- नीचैगोत्रस्योदयानावात् तथा उच्चैगोत्रस्य बन्ध उधोत्रञ्चैव विकल्पा जवन्ति पर्व देवानामपि पञ्चविकल्पा नावनीया स्योदयः उच्चनीचैर्गोत्रे सती एष विकल्पो मिथ्यारष्टेरारभ्यनवरं नरकायुःस्थाने देवायुरिति वक्तव्यं तद्यथा देवायुष उदयः सुक्ष्मसंपरायगुणस्थानकं यावत् न परतः परतो बन्धानावात ब. दवायुषः ससा इत्यादि । तथा तियंगायुष उदयस्तियंगायुषः । धानावे जच्चैगोत्रस्योदयः उचनीच गोत्रे सती एष विकल्प उपसत्ता एष विकल्प आयेषु पञ्चसु गुणस्थानकेषु शेषगुणस्था- शान्तमोहगुणस्थानकादारज्यायोगिकेवनिद्विचरमसमयं यावदनकस्य तिर्यदवसंजवात् । एप विकल्पः परनवायुर्वन्धकालात् | वसेयः । उच्चैौत्रस्योदयः उचैर्गोत्रं सत् एष विकल्पोऽयोगिकेपूर्व बन्धकाले तु नारकायुषां बन्धस्तिर्यगायुष उदयः नारक- वनिचरमसमये तदेवमेते गोत्रस्य सर्वसंख्यया सप्त जमाः (पतिर्यगायुषी सती एष विकल्पो मिथ्याऐरन्यत्र नारकायुषो रं मोई वोच्छ) अतः परं मोहं वक्ष्ये मोहनीयस्य बन्धादिबन्धानावात् । अथवा तिर्यगायुषो बन्धस्तिर्यगायुष नदयः तिर्य- स्थानानि बक्ये इत्यर्थः "गोअम्मि सत्त नंगा, अट्ठ य भंगा गायुषी सती एप विकल्पो मिथ्यादृष्टेः सासादनस्य वा नान्यस्य हवंति वेअणिए । पण नव नव पण भंगा, आउचन के वि कमसो सम्यग्दे श घिरतस्य तिरश्चोऽविरतस्य च देवायुष एव बन्धसं- उ ॥११॥" श्यं गाथा मूत्रपुस्तकेषूपलज्यमानापि टीकापुस्तके जवात् । अथवा देवायुपो बन्धस्तिर्यगायुष उदयः देवतिर्यगायुष।। नास्तीति नास्मानिः स्वाक्करैः प्रकाशिता, नापि व्याख्याता। सती एष विकल्पो मिथ्यादृष्टेः सासादनस्याविरतसम्यग्दृष्देश- तत्र प्रथमं बन्धस्थानप्ररूपणार्थमाह ॥ विरतस्य वा न सम्यग्मिथ्यादृष्टेः तस्यायुबन्धासंभवात् एते चत्वा. रा विकल्पाः परजवायुर्वन्धकाले । बन्धे तु व्यवच्छिन्ने तिर्यगायुष वावीसएकवीसा, सत्तरसा तेरसेव नव पंच। उदयोनारकतिर्यगायुषी सती एषविकल्प प्राद्येषु पञ्चसु गुणस्था चउतिगदुगं च एकं, बंधट्ठाणाणि मोहस्स ॥ १५॥ नेषु नरकायुर्घन्धानन्तर सम्यक्त्वादावपि गमनसंनवात् अथवा मोहस्य दश बन्धस्थानानि तद्यथा द्वाविंशतिः एकविंशतिःस तिरंगायुष नदयो तिर्यकतिर्यगायषी सती अथवा तिर्यगायुष तदश त्रयोदश नव पंच चतस्रः तिम्राटे एकाच तत्र सम्यग्मिथ्या उदयो दवतियंगायुपी सती एतेऽपि त्रयो विकल्पा आयेष पञ्चस । त्वे बन्धे न भवतो नच त्रयाणा वेदानां युगपद्वन्धः कित्येककागुणस्यान के सर्वसंख्यया तिरइचा नव विकल्पाः चतसृष्वपि लमेकस्यैव हास्यरतियुगलारतिशोकयुगले अपि न युगपद्वन्धगलतिरश्चामुत्पादसंजवात तथा मनुष्यायुध उदयो मनुप्या. मायातः कित्वेकमेव युगलं ततो मोहनीयस्योत्कर्षतः प्रनूतप्रकृयुरः सत्ता पप विकल्पोऽयोगिके वासनं यावत् । तथा नारकायुषो तिबन्धो द्वाविंशतिः सा च मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके प्राप्यते ततः वन्धे मनव्यायुप उदयः नारकमनुष्यायुषी सती एष विकल्पो मि- सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानके मिथ्यात्वस्य बन्धाभावात् । ध्यारष्टे सासादनस्य वा । मनुष्यायुपो बन्धो मनुष्यायुष उदयो एकविंशतिः यद्यप्यत्र नपुंसकवेदस्यापि बन्धो न जवति तथापि मगुष्यमनुप्यायुषी सती एप विकल्पो मिथ्यादृष्टेः सासादनस्य तत्स्थाने खीवेदः पुरुषवेदो चा प्रतिप्यते श्त्येकविंशतिरेव बन्धः। वा: मनुध्यायुपो बन्धो मनुष्यायुप उदयो मनुष्यमनुष्यायुषी सती ततो मिश्राविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकयोरनन्तानुबन्धिनामपि एष विकल्पो मिथ्यादृष्टेः सासादनस्य वा देवायुषो बन्धो म. बन्धानावात् सप्तदश । ततोऽपि देशविरतिगुणस्थानके प्रत्यानुप्यायुष चदयो देवमनुष्यायुषी सती एप विकल्पो प्रमत्तगुण- क्यानकषायाणां बन्धाभावात् यो देशघिरतस्ततोऽपि प्रमत्ताप्रस्थानकं यावत् पते चत्वारो विकल्पाः परजवायुर्वन्धकाले बन्धे मत्तापूर्वकरणेषु प्रत्याख्यानावरणानां बन्धानावात् तत्र यद्यप्य Jain Education Interational Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२ ) कम्म अभिधानराजन्यः । कम्म रतिशोकरूपं युगलं प्रमत्तगुणस्थानके एव व्यवच्छिन्नं तथापि लनमाने कपिते है ततोऽपि संज्वलनमायायां कपितायाभेका तत्स्थाने हास्यरतियुगलं प्रतिप्यते इत्यप्रमत्तापूर्वकरणयोर्नवक- प्रकृतिर्भवतीति । तदेवमुक्तानि सत्तास्थानानि । पतेष पुनर्वन्धोबन्धो न विरुध्यते ततो हास्यरतिजयजुगुप्साऽपूर्वकारणचरमस- दयसत्तास्थानेषु प्रत्येकं संवेधेन बहवो नङ्गा भवन्ति तांश्च मये बन्धकानाश्रित्य व्यवच्चिद्यते इति अनिवृत्तिबादरसंपरायगु- नङ्गान् यथावत्प्रतिपाद्यमानान् सम्यग्जानीहि ॥ णस्थानके प्रथमभागे पञ्चानां बन्धः द्वितीयत्नागे पुरुषवेदस्य तत्र प्रथमतो बन्धस्थानेषु नङ्गनिरूपणार्थमा ॥ बन्धाभावात् चतसृणां बन्धः तृतीयन्नागे संज्वलनक्रोधस्य बन्धा- वापीसे चउए-गवीसे सत्तरस तेरसे दो दो। भावात् तिसृणां चतुर्थनागे संज्वलनमानस्य बन्धाभावात् नव बंधणे उ दोन्नि उ, एकेक्कमो परं भंगा ॥ १६ ॥ द्वयोः पञ्चमभागे संज्वलनमायाया अपि बन्धाभावात् एकस्याः संज्वलनलोभप्रकृतेर्वन्धः ततः परं बादरसंपरायोदयानावात् द्वाविंशती द्वाविंशतिबन्धे पविकल्पा नवन्ति । तत्र छावितस्था अपि न बन्धः तदेवमुक्तानि मोढनीयस्य बन्ध स्थानानि । शतिरिय मिथ्यात्वं षोमश कपायास्त्रयाणां वेदानामन्यतमो वेदः हास्यरतियुगलारतिशोकयुगनयोरन्यतरत् युगलं जयं जुगुप्मा संप्रत्युदयस्थानान्यभिधित्सुराह । च । अत्र भङ्गाः षट् । तथाहि हास्यरतियुगले अरतिशोकयुगो एकं व दो व चउए, एत्तो एक्काहिया दसुक्कोसा। च प्रत्येकं द्वाविंशतिः प्राप्यते इति तौ च द्वौ नौ त्रिष्यपि वेदेषु श्रोहण मोहणिजे, उदयहाणाणि नव इंति ।। १३ ।। प्रत्येक विकल्पेन प्राप्यते इति द्वौ त्रिभिर्गुणिती जाताः षट् तेच अोघेन सामान्येन मोहनीये उदयस्थानानि नव नवन्ति तद्यथा द्वाविंशतिर्मिथ्यात्वेन विना एकविंशतिनंबरमत्र द्वयोरेन्यतरो वेद एक द्वे चत्वारि अतश्चतुष्का त्वेकाधिका उदयविकल्पास्ता- इति वक्तव्यम् ।येच एकविंशतिबन्धकाःसासादनसम्परयस्ते घदवगन्तव्या यावत्कर्षतो दशदशक (१।२।४ ।६। च स्त्रीवेदं वा वघ्नन्ति पुरुपवेदं वा, न नपुंसकवेदं नपुंसकवेद७।।ए।१०) मुदयस्थानं भवतीत्यर्थः । कर्म० ॥ वन्धस्य मिथ्यात्वोदयनिवन्धनत्वात् सासादनानां च मिथ्यापतानि चानिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानकादारज्य पश्चानुपू- त्वोदयानावात् । अत्र च भङ्गाश्चत्वारः तथा चाह (चवीसा ा किंचिद्भाव्यन्ते तत्र चतुर्णी संज्वलनानामन्यतमस्योदये एक- गत्ति) एकविंशती एकविंशतिबन्धे चत्वारो भङ्गा तत्र हास्यमुदयस्थानं तदेव वेदत्रयान्यतमवेदोदयप्रक्केपे द्विकं तत्रापि रतियुगवारतिशोकयुगलान्यां प्रागिव द्वौ नङ्गी तो च प्रत्येक हास्यरतिस्पयुगलप्रक्केपे चतुष्कं तत्रैव जयप्रकपात्पश्चर्फ जुगु- स्त्रीवेदे पुरुषवेदे च प्राप्यते इति द्वौ द्वाभ्यां गुणिती जाताप्साप्रपात्वदूं तत्रैव चतुर्णी प्रत्याख्यानावरणकषायाणामन्यत- श्चत्वारः सैव चैकविंशतिरनन्तानुबन्धिचतुष्टयबन्धानावे सप्तदश मस्य प्रवेपे सप्तकं तत्रैव वा प्रत्याख्यानाधरणकषायाणामन्यत- नबरमत्र वेदेषु मध्ये पुरुषवेद पवैको वक्तव्यो न स्त्रीवेदं बध्नन्ति मस्य प्रक्केपे अष्टकं तत्रैव चतुर्णामनन्तानुबन्धिकषायाणामन्यत- सद्वन्धस्याऽनन्तानुबन्ध्युदयनिमित्तत्वात् सम्याग्मिथ्या यादी मस्य प्रकेपे नवकं तत्र मिथ्यात्वपक्केपे दशकम् । एतच सामा- नांचानन्तानुबन्ध्युदयानावात् । अत्र च हास्यरतियुगलाभ्यां न्येनोक्तं विशेषतस्त्वग्रे सूत्रकृदेव सप्रपञ्चं कथयिष्यतीति तत्रैव प्रागिव दो जङ्गौ ता एव सप्तदश प्रकृतयोऽप्रत्यास्यानकषायचतु. भावयिष्यते । तदेवमुक्तान्युदयस्थानानि । कर्म। पं० सं०॥ एयरहितास्त्रयोदश अत्रापि प्रागिव छौ नती तथाचाह (सत्तसंप्रति बन्धस्थाने संवेधस्थाने च प्रतिपिपादयिषुराद ।। रसतेरसे दो दो) सप्तदशबन्धे त्रयोदशबन्धके द्वौ भङ्गौ तौ च अट्ठगसत्तगछच्चउ-तिगदुगएगाहिया जवे वीसा । प्रमत्ते द्वावपि रुपव्यौ । अप्रमत्तापूर्वकरणयोस्त्वक एव नङ्गस्ततेरसवारिकारस, इत्तो पंचाइ एकूणा ॥ १४ ॥ प्रारतिशोकरूपस्य युगलस्य बन्धासंभवात् तथा ता एवं नय हास्यरातियुगल नयजुगुप्साबन्धव्यवच्छेदे पञ्च अत्रक एव जनः संतस्स पगइनाणा-इं ताणि मोहस्स होति पन्नारस । पवं चतुखिोकबन्धेष्वपि प्रत्येकमेकैक एवं मझो वाच्यः । बंधोदयसंते पुण, जंगविगप्पा बहू जाण ॥ १५ ॥ तथाचाह ( एकक्कमो परं भंगा ) अतो नवकविंशतिरष्टकसप्तकषटूचतुनिलेकाधिका । तथा त्रयोदशET- बन्धात्परं पञ्चादिपु नङ्गाः प्रत्येकमेकैकः एकैकसंख्या दशैकादशकात् सत्तास्थानात् एकोनानि एकैकोनानि पञ्चादीनि वेदितव्या मकारस्वलाकणिकः अमीषां च छात्रिंशत्यासत्तायाः प्रकृतिस्थानानि मोहनीयस्यावगन्तव्यानि तानि च | दिबन्धस्थानानां कालप्रमाणमिदं द्वाविंशतिबन्धस्य कासा सर्वसंख्यया पञ्चदश भवन्ति । इदमन तात्पर्य्यम् । मोहनीये उजव्यानधिकृत्यानाद्यपर्यवसितः नव्यानधिकृत्यानादिसपर्यवसि पञ्चदश सत्ताप्रकृतिस्थानानि तद्यथा अष्टाविंशतिः सप्तविंश- तः सम्यक्त्वपरिजधानधिकृत्य जघन्येनान्तर्महतप्रमाणा सत्कर्षतिः षट्विंशतिश्चतुर्विशतिः त्रयोविंशतिर्वाविंशतिः त्रयोदश द्वाद- | तो देशोनोपार्द्धपुशलपरावतः एकविंशतिवन्धस्य कालो जघश एकादश पञ्च चतमः तिसः द्वे एका च । तत्र सर्वप्रकृतिस-| न्येन समयमात्र उत्कर्षतः षमावलिकाः सप्तदश । बधस्य मुदायोऽष्टाविंशतिः । तत्र सम्यक्त्वे उद्वलिते सप्तविंशतिस्त- कानो जघन्मेनान्तमुहर्त उत्कर्षतः किचित्समधिकानि प्रयस्त्रिंशतोऽपि सम्यग्मिम्यात्वे नलिते पक्विंशतिः अनादिमिथ्यादृष्टिी सागरोपमाणि । तथाहि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि अनुत्तरसुरपशितिः अष्टाविंशतिः सत्कर्मणोऽनन्तानुबन्धिचतुष्टयक्वये चतु- स्य प्राप्यन्ते अनुत्तरसुरभवाञ्च व्युत्वा याबदद्यापि देशविरलिस विशतिः ततोऽपि मिथ्यात्वे पिते त्रयोविंशतिः ततोऽपि सम्य. वविरतिं च न प्रतिपद्यते तावत्सप्तदश बन्ध पवेति किचित्सप्ताग्मिथ्यावे कपिते द्वाविंशतिः ततः सम्यक्त्वे कपिते एकविंश- धिकानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि त्रयोदश बन्धस्य नव बधस्य तिः ततोऽष्टस्वप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंझकेषु कषायेषु की- च कालः प्रत्येकं जघन्वेनान्तर्मुहर्तमुत्कर्षतस्तु देशोना पूर्वकोट। गेषु त्रयोदश ततो नपुंसकवेदे कपिते द्वादश ततः स्त्रीधेदे क- यतस्त्रयोदश बन्धा देशविरतौ नवकबन्धस्तु सर्वावरतिश्चोकपिते एकादश ततः षट्मुनोकपायेषुक्की णेषु पश्चततोऽपि पुरुषवेदे पतोऽपि देशोनपूर्वकोटा प्रमाणा पश्चादिषु पुनर्बन्धस्थानेषु काकोणे चतस्रः ततश्च संज्वलनकोधे कपिते तिम्रस्ततोऽपि संज्व लः प्रत्येक जघन्यनक समयमुत्कर्षण चान्तर्मुहूर्तय । एकसम Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३००) कम्म अनिधानराजेन्छः। कम्म यता कथमिति चेत् उच्यते चपरामश्रेण्यां पञ्चविधं बन्धमारभ्य न्यप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनक्रोधादीनामन्यतमे च चत्वारः कोद्वितीये समये कालं कृत्वा देवलोक याति देवसोके च गतः स- धादिकास्त्रयाणां वेदानामन्यतमो वेद व योयुगलयोरन्यतरत् सचिरतो भवति अविरतत्वे च सप्तदश बन्ध श्वेकसमयता एवं युगसमेतासां सप्तप्रकृतीनामुदय एकविंशतिबन्धे भ्रवः । अत्र चतुर्विधबन्धादिष्वपि नावनीयम् । तदेवं कृता काननिरूपणा।। प्रागुक्तक्रमण नङ्गकानां चतुर्विंशतिः । तथा तस्मिन्नेव सप्तके __ संप्रत्येतेपामेव बन्धस्थानानां मध्ये कस्मिन् कियन्ति भये घा जुगुप्सायां वा किप्तायामष्टानामुदयः । भत्र हे चतुर्विप्रागुक्तान्युदयस्थानानि भवन्तीत्येतनिरूप्यते। शती ननकानां भयजुगुप्सायां युगपत् प्रक्तिप्तयोर्नवानामुदयः । दस वाव से नवइग-चीसे सत्ताइ उदयकम्मंसा । अत्र चैका नङ्गानां चतुर्विंशतिः सर्वसंख्यया एकविंशतिबन्धे गईनव सत्तरसे, तेरं पंचाइ अट्ट व ॥१७॥ चतम्रश्चतुर्विंशतयः अयं च एकविंशतिबन्धः सासादने प्राप्यते । सासादनश्च द्विधा श्रेणिगतोऽणिगतश्च । तत्राणिगतं सा- . चत्तारि आइतववं-धगेसु उक्कोसमत्त उदयसा । सादनमाश्रित्यानि सप्तादीनि उदयस्थानान्यवगन्तव्यानि । पंचविहबंधगे पुण, नदो दोण्हं मुणेयन्वो ॥१८॥ यस्तु श्रेणिगतस्तत्रादेशद्वयीं केचिदाहुः अनन्तानुयन्धिसत्कर्मस. द्वाविंशतिबन्धे सप्तादीनि दशपर्यन्तानि चत्वार्युदयस्थानानि हितोऽप्युपशमणि प्रतिपद्यत तेषां मनानन्तानुबन्धिनामप्युप्रवन्ति तद्यथा सप्त अपी नव दश । तत्र मिथ्यात्वमप्रत्याख्या- पशमता जवति पतच्च सूत्रेऽपि संवादि तमुक्तं मृत " अणदंनावरणसंज्वलनक्रोधादीनामन्यतमे त्रयः क्रोधादिका यत एक- सनपुंसनपुंसत्थी" इत्यादि श्रेणीतश्च प्रतिपतन् कश्चित्सासादस्मिन् क्रोभे वेद्यमाने सर्वेऽपि क्रोधा बभ्यन्ते समजातीयत्वात् । नभावं चोपगते यथोक्तानि त्रीरयुदयस्थानानि भवन्ति । अपरे एवं मायालोभानामुदयः परस्परं विरोधादित्यन्यतमे त्रयो पुनराहुः अनन्तानुबन्धिनःकपयित्वैवोपशमणि प्रतिपद्यते न तत्र गृह्यन्ते । तथा त्रयाणां वेदानामन्यतमो वेदः हास्यरतियुगला- कर्म तेषां मतेन श्रेणीतः प्रतिपतन सासादनो न भवति तस्यारतिशोकगुलयोरन्यतरत् युगलमेतासां सप्तप्रकृतीनां द्वाविंश- नन्तानुबन्ध्युदयासंतवात् । अनन्तानमन्भ्युदयसहित सासातिबन्धक मिथ्यारावुदयो धुवः । यत्र भङ्गाश्चतुर्विशतिः तद्यथा दन इष्यते "अनंतानुबंधुदयरहितस्स, सासणनायो न संजयहास्यरतियुगले अरतिशोकयुगझे च प्रत्येकमेकैको भनःप्राप्य- ति" इति वचनात् । मथोच्यते यदा मिथ्यात्वं प्रत्यभिमुखो न ते इति द्वौ नौ तौ प्रत्येकं त्रिष्वपि बेदेषु प्राप्यते इति द्वी चाद्यापि मिथ्यात्वं प्रतिपद्यते तदानीमनन्तानुबन्ध्युदयरहितोऽत्रिनिगुणिती जाताः पद ते च प्रत्येकं त्रिवपि क्रोधादिषु चतु- पि सासादनस्तेषां मते न भविष्यतीति किमत्रायुक्तं तदयुक्तमेव पुं प्राप्यन्ते इति पद चतुभिर्गुणिता जाताश्चतुर्विशतिः तस्मिन्नेव सति तस्य षमादीनि नवपर्यन्तानि चत्वार्युदयस्थानानि भवेयुः सप्तके नये चा जुगुप्सायां वा अनन्तानुबन्धिनि वा प्रबिसे न च भवन्ति सूत्र प्रतिषेधात् । तैरण्यनज्युपगमाच्च । तस्मादअधानामुदयः । अत्र नयादौ प्रत्येकमेकैका चतुर्विंशतिः प्राप्यते नन्तानुबन्युदयरहितः सासादनो न नवतीत्यवश्यं प्रत्येयम् । इति तिम्रश्चतुर्विंशतयोऽत्र द्रव्याः । ननु मिथ्यारष्टरवश्यमन- (गईनवसत्तरसे ) सप्तदशके बन्धस्थाने घमादीनि नवपर्यमतानुबन्धिनामुदयः संनवति तत्कयमिह भिध्याष्टिः सप्तोदये न्तानि चत्वायुदयस्थानानि नवन्ति तथा षट् सप्त अटी अष्टदिये वा कस्मिश्चिद नन्तानुबन्ध्युदयरहितः प्रोक्तः । उच्यते नव सप्तदशा बन्धकादिये सम्यग्मिथ्यारटयोऽविरतसम्यहसम्यग्दरिना सता केनचित् प्रथमतोऽनन्तानुबन्धिनो विसं- ग्रष्टयश्च । तत्र सम्यग्मिथ्यारपीनां श्रीएयुदयस्थानानि तद्यथा यो जिताः एतावतैव च सविस्रान्तो न मिथ्यात्वादिक्कयाय उद्यु- सप्त अष्टौ नव । तत्रानन्तानुबन्धिवर्जास्त्रयोऽन्यतमे क्रोधादयः कवान् तथाविधसामग्रयभावात् ततःकालान्तरे मिथ्यात्वं गतः प्रयाणां वेदानामन्यतमो बेदः द्वयोर्चुगलयोरन्यतरत युगलं ससन् मिथ्यात्वप्रत्ययतो भूयोऽप्यनन्तानुबन्धिनो बध्नाति ततो म्यग्मिथ्यात्वं चेति सप्तानां प्रकृतीनामुदयः सम्यस्मिथ्यादृष्टिषु बन्धावलिका यावन्नाद्याप्यतिक्रामति तावत्तेषामदयो ननवति ध्रुवः । अत्र प्रागुक्तक्रमेण भङ्गकानां चतुर्विंशतिः अस्मिन्नेव बधायनिकायां स्वतिकान्तायां जवेदिति । ननु कथं बन्धावलि. सप्तके नये वा जुगुप्सायां वा प्रक्किप्तायामष्टानामुदयः । अत्र च कातिक्रमेऽप्युदयःसजवति यतोऽचाधाकासकये सत्युदयः अवा- द्वे चतुर्विशती नङ्गानाम् । भयजुगुप्सयोस्तु युगपत्प्रक्किप्तयोधाकाबश्वानन्तानुबन्धिनां जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षेण तु चत्वारि नंबानामुदयः अत्र चैका चतुर्विशतिर्भङ्गकानां सर्वसंख्यया वर्षसहनाणीति नैष दोषः यतो बन्धसमयादारज्य तेषां ताव- सम्यम्मिथ्यादृष्टीनां चतनश्चतुर्विशतयः अविरतसम्यग्दृष्टीनां सत्ता जवात सत्तायां च सत्यां बन्धे प्रवर्त्तमाने पतङ्गहता सप्तदश पन्धकानां चत्वार्युदयस्थानानि तद्यथा षट् सप्त पतझहतायां च शेपसमानजातीयप्रकृतिदनिकं सक्रान्तिःसंका- अष्टौ नव तत्रोपदशकसम्यम्दष्टीनां कायिकसम्यग्हणीनां च अविमद्विदमिक पतप्रकृतिरूपतया परिणमते ततः संक्रमाचति- रतसम्यग्दृष्टीनामनन्तानुबन्धिवर्जारूयोऽन्यतम क्रोधादिकाः कायामत तायामुदयस्ततो बन्धावसिकायामतीतायामुद योनि- प्रयाणां वेदानामन्यतमो वेदःच्योर्युगमयोरन्यतरत् युगसमिति घीयमानो न विरुध्यते । तथा तस्मिन्नेव सप्तके जयजुगुप्सयो षमामुदयो भ्रवः अत्र प्रागिव प्रङ्गकानामेका चतुर्विशतिः अस्थवा भयानन्तानुबन्धिनाः यद्धा जुगुप्सानन्तानुबन्धिनोः प्रकि- स्मिन्नेव षटू भये वा जुगुप्सायां वा घेदकसम्यक्त्वे वा प्रक्षिप्ते तयोर्नचानामुदयः अत्राप्येकैकस्मिन् विकल्पे प्रागुक्तक्रमेण जङ्ग- सत्तानामुदयः। अत्र भयादिषु प्रत्येकमेकैका चतुर्विंशतिः प्राकानां चतुर्विशतिः प्राप्यते इति तिरश्चतुर्विशतयो द्रष्टव्याः । प्यते इति तिम्रश्चतुविंशतयः । नयजुगुप्सावेदकसम्यक्त्वेषु युग तया तस्मिन्नेव सप्तके जयजुगुप्सानन्तानुबन्धिषु प्रक्किप्तेषु पत्प्रतिप्तेषु नपानामुदयः । अत्र चैका नङ्गानां चतुर्विंशतिः भवि. दशानां च उदयः अत्रैव ननकानां चतुर्विशतिः सर्वसंख्यया रतसम्यग्दृष्टीनां सर्वाश्चतुर्विंशतयोऽष्टौ सर्वसंख्यया सप्तदशवद्वाविंशतिबन्धे अशी चतुर्विशतयः (नवपक्कवीसत्ति) एक- धे द्वादश चतुर्विशतयः ( तेरेपंचाअवात्त) त्रयोदशके बविशती एकविंशतिबन्धसप्तादीनि नव पर्यन्तानि त्रीणि उदय- ग्धस्थाने पञ्चादीन्यपर्यन्तानि चत्वार्युदयस्थानानि भवन्ति स्थानानि जवन्ति तद्यथा सप्त भष्टी नव तत्र सप्त अन-तानुब. तद्यथा पञ्च षट् सप्त भछ । तत्र प्रत्याख्यानावरणसंज्वलनको Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्म धादीनामन्यतमी ही कोधादिको प्रयाणां वेदानामन्यतमो दो द्वयोर्युगलयोरन्यतरत् युगम्नमित्तासां पञ्चानां प्रकृतीनामुदयत्रयोदशः अत्र प्रागुक्रमेण भङ्गकानामेका चतु विंशतिः प्रयजुगुप्सावेदकसम्यक्त्याना मन्यसमस्मिन्द्रजिते पक्षा मुदयः अत्र जयादित्रयो विकल्पाः एकैकस्मिन् विकल्पे नङ्गकानां चतुवैिशतिरिति तिब्रतुशतक तथा तमिव पायके नगुप्सयोरथवा प्रयवेदसम्पाद सम्यक्त्वयोः प्रक्तितयोः सप्तानामुदयः । अत्रापि तिस्रश्चतुर्वि शतयो नङ्गकानां जयजुगुप्सा वेदकसम्यक्त्वेषु पुनर्युगपत् प्रतिसेषु अशनामुदयः अत्र का चतुर्वशविकानां सर्वसं रूपया प्रयोद्ाबन्धे असे चतुर्विंशतयः "चारीत्यादि" नवबन्धकेषु प्रमत्तादिचतुरादीनि सपर्यन्तानि वारियरूपविनागस्थानानि चदयस्थानानीत्यर्थः । तद्यथा चतस्रः पञ्च षट् सप्त तत्र संज्वलनक्रोधादीनामन्यतम एकः क्रोधादिकः त्रया णां वेदानामन्यतमो वेद द्वयोगलयोरन्यतरत युगल मित्येतासां तां कृतीनामुदयः कायिकसम्पदा औपशमिक सम्पन्टषु चाप्रमत्तादिः काकानां चतुर्थिशक्तिः । चतुष्के नये या जुगुप्सायां वा वेदसम्यत्वे वा प्रतिप्ते पञ्चानामुदयः । श्रत्र मङ्गकानां तिस्त्रश्चतुर्विंशतयस्तथा तमिव चतुष्के नयप्सयोरथवा भयवेदकसम्प त्वयोः प्रप्तियोः षष्णामुदयः अत्रापि तिस्रश्चतुर्विंशतयो भङ्ग कानां भयजुगुप्सावेदकसम्पत्येषु तु युगपत् प्रक्षिषु मुदयः अत्र कानामेका चतुर्विंशतिः सर्वया दये ऽष्टौ चतुर्विंशतयः ( पंचविहेत्यादि ) पञ्चविधषन्धकेषु पुनरुदयो द्वयोः प्रकृतिद्वयात्मकमुदयस्थानमिति भावः । तत्र चतुर्णा संज्वनानामेकः कादियां वेदानामन्यतमः । त्र निलादेश (३०१) अभिधानराजेन्द्रः । तो चतुधाई, एकेकदा हति सम्बेवि । बंधो चरिमेवि तहा. उदयाजाये वि वा होज ।। १५ ।। इतः पञ्चकन्यादनन्तरं चादयः सर्वेऽपि प्रत्येकमेककोया कैदया नयन्ति तपाः। तचादिचतुर्विधो बन्यो भवति पुरुषचयवच्छेदे सति पुरुषस्य च युगपबन्धोदयकाको व जयति स च चतुर्ण संज्वधनानामन्यतमः अत्र चत्वारो नङ्गाः यतः कोऽपि संज्वलन क्रोधेनोदयप्राप्तेन श्रेणि प्रतिपद्यते कोऽपिसंज्वलन मानेन कोऽपि संज्वलनमायया कोऽपि संज्वलनलोभेमेति चत्वारो भङ्गाः । रुढ केचिच्चतुर्विधबन्धसंक्रमणकाले त्रबाणां वेदानामन्यतमस्य वेदस्योदमिच्छन्ति ततस्तमनच तुर्विधयन्धकस्यापि प्रथमकाले द्वादशधिकोदयभङ्गा सज्यन्ते तदुक्तं पञ्चसंग्रहमूलटीकायाम् चतुर्विधबन्धकस्याप्याद्यविभागे त्रयाणां वेदानामन्यतमस्य वेदस्यादयं केचिदिच्छन्ति श्र सश्चतुर्विधवन्धकस्यापि द्वादशद्विकोदवादनुजानीहि "इति तथा च सति तेषां मतेन सर्वसंख्यया द्विकोदयश्चतुर्विंशतिनङ्गा भ घसेयाः ! संज्वलनक्रोध बन्धव्यवच्छेदे सति त्रिविधो बन्धः तप्राप्येकविध पयोदय भयो भङ्गाः परमत्र संयोध वजानां त्रयाणामन्यतम इति वक्तव्यम् । यतः संज्वलनकोधोदये सत्यवश्यं संज्वलनक्रोधस्य बन्धेन भवितव्यम् "जे वेयइ " इति वचनात् तथा च सति चतुर्विध एव बन्धः प्रसक्तस्ततः संज्वनक्रोधस्य बन्धे व्यवच्छिद्यमाने उदयोऽपि व्यवच्छिद्यते 66 कम्म इति त्रिविधे बन्धे एकविध उदयस्त्रयाणामन्यतम इति वक्तव्यं संज्वलनमानबन्धव्यवच्छेदे सति त्रिविधो बन्धः । तत्राप्येकविध एवोदयः केनं समाया बोभाया " इति वक्तव्यं युक्तिः प्राणिवात्राप्यनुसरणीया । अा द्वौ भङ्गी संज्वलनमायाबन्धव्यव च्छेदे एकस्य संज्वज्ञनलोजस्य बन्धस्तस्यैव च उदयः को भङ्गः । इह यद्यपि चतुरादिषु बन्धस्थानेषु संज्वलनानामुदयमधिकृत्य न कश्चित् विशेषस्तथापि बन्धस्थानापेकया भेदोsस्तीति नङ्गाः पृथगग्रे गणयिष्यन्ते तथा बन्धोपरमेऽपि बन्धाभावेऽपि मोदनीयस्य सुसंस्थानके एकविध भवति स पलोस्यावसेयः सूक्ष्म किट्टवेदनास ततः परमुदयाभावेऽपि उदयेऽपगतेऽपि उपशान्त कषायमधिकृत्य मोहनीयं सद्भवति एतश्च प्रसङ्गागतमिति कृत्योक्तम् अन्यथाबन्धस्थानोदयस्थानेषु परस्पर संवेधेन चिन्त्यमानेषु तेषं सकर्माभिधानमुपयोगीति । संप्रति दशादिषु वनेषु यावन्तो भा प्रवन्ति तावन्तो निर्हिदि कुराह । एकगडफेकारस-दससचपकका व एएचबीसगया, बारदुगेकम्पि एकार || २० || दशादन्यस्थानान्यधिकृत्य यथासंख्यं संख्यापदयो जना कर्तव्या सा चैवं दशोदये एका चतुर्विंशतिर्नवोदये षट् तद्यथा द्वाविंशतिबन्धे तिस्रः एकविंशतिबन्धे मिश्राविरतिसम्यतिस्रः एकविंशतिबन्धे शिवन्धे च प्रत्येकं द्वे द्वे प्रयोदशबन्धे चैका । तथा सप्तोदये दश तत्र द्वाविंशतिथे एकविंशतिबन्धे मिश्रसप्तदशबन्धे व प्रत्येकमेका अविरतसम्यग्दृष्टिसप्तदशबन्धे त्रयोदशबन्धे च प्रत्येकं तिस्रः नवकवन्धेखेका । तथा षमुदये सप्त तत्र चाविरत सम्यम्टष्टिसतदशबन्धे एका त्रयोदशबन्धे नवकबन्धे च प्रत्येकं तिनः । तथा पञ्चकोदये चतस्रः तत्र त्रयोदशबन्धे एका नवबन्धे तिस्रः चतुष्कोदये एका चतुर्विंशतिः ( एए चडवी सगयति ) पते अनन्तरोका पकादिकाः संख्याविशेषाः चतुविशत्यभिधायकता अनन्ताविशतयातव्या इत्य थे। पता सर्वसंख्या चत्वारिंशत् तथा ( बारगेति ) द्विकोदये चतुर्विंशतिरेका भङ्गकानाम् एतच्च मतान्तरेणोक्तमयथास्वमतेादर्शनकारी प कोदये एकादश नङ्गास्ते चैवं चतुर्विधे चत्वारः त्रिविधबन्धे त्रयो द्विविधबन्धे द्वौ एकविधबन्धे एकः बन्धाभावे चैक इति । सम्प्रत्येतेषामेव भङ्गानां विशिष्टतरसंख्या निरूपणार्थमाह । नवपंचाणउसर, उदयविगप्पेहि मोहिया जीवा । " चार चार पर्याविदशएहि विशेया ॥२१॥ द दशादिषु द्विपर्यवसानेषु उदवस्थानेपूपस्थाननकानामेकचत्वारिंशचतुर्विंशतयो अवास्तव एकचत्वारिंशच त्या गुण्यते गुणितायां सत्यां जातानि नपाशीत्यकिविको भाः एकादशसु नि तानि पश्चनवत्यधिकानि नयन्ति । एतास्थानवि थायोगं सर्वे संसारिणो जीवा मोदमापादिता याः । संप्रति पदसंख्या निरूपणार्थमाह अनुसरिपन्ति ) इह पदादीनि नाम मिथ्यात्वमप्रत्याख्यानक्रोधप्रत्याख्यानावरणझोप येवमादीनि । ततो दादशास्थानरूपा प दानि राजादिमध्ये पायान्युपगमाद्वा वृद Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०२ ) अभिधान राजेन्द्रः । कम्म कोसति [दस्य परनिपातः हिताः संसारिणो जीवा विज्ञेयाः । एतावत्संख्याभिः कर्मप्रकृतिनिर्यथायोगं मोहिताः संसारिणो जीवा ज्ञातव्या इत्यर्थः । अत्र कथमेकसप्तत्यधिकैकोनसप्ततिसंख्यानि पदानां शतानि जवन्तीत्युच्यते इढ दशोदये दश पदानि दश प्रकृतय उदयमा गता इत्यर्थः । एवं नवोदयादिष्वपि नवादीनि पदानि भावनीयानि ततएको दशभिनय दया पर नवनि रोदयाकीकादश अभिः समाया एकादश सप्तनिः षट् चदयाः सप्त त्रिः पञ्चकोदयाश्चत्वारः पञ्चभिः चतुरुदय एक द्विकोय एको द्वाभ्यां गुणविन्यासक मीयन्ते ततो जाते द्वे शते नवत्यधिके पतेषु च प्रत्येकमेका प्राप्यते इति गु णितेषु सत्सु कदापी: कसंख्यान्येव पदानां शतानि भवन्ति । इयं च उदयस्थानसंख्या ये मतान्तरेण चतुर्विधबन्धसंक्रमणकाले द्विकोदये द्वादश भट्टा उक्तास्तानधिकृत्य दिव्या यदा पुनरेते य तामुपदसंख्या नवसीयस एडिं, उदय विगप्पेहि मोहिया जीवा । उत्तर सीयाला, पर्यावदस एहिं विभेया ॥ २२ ॥ उदयविकल्पैरुयशीत्यधिक नवशतसंख्यस्तथा दशोदयादिरूपवृन्दास्तद्रतानां पदानां शतैः सप्तचत्वारिंशदधिकैकोनसप्ततिसंसर्वेऽपि संसारिणो जीवा मोहिता मोहमायादिता विशेषाः। तदयस्थानेषु पूर्वेककारण परिसंख्यायमानेषु ये मतान्तरेणोक्ताश्चतुर्विधबन्धस्थाने द्विकोदये द्वादश नङ्गास्तेऽ पसार्यन्ते ततो नव शतानि श्रशीत्यधिकानि उदयविकल्पानां प्रतिपदेषु परिसंख्यायमानेषु मतान्तरोद्वादशमगानिशितान्यपनयन्ते ततो या पदानां संख्या भ वति । इह दशादय उदयास्तद्भङ्गाश्च जघन्यत एकसामायिका तत्कर्ष आन्तर्तिकाः । तथाहि चतुरादिषु दशोदय पर्यन्तेववश्यमन्यतमो वेदोऽन्यतरत् युगलं वेद्यते वेदयुगलयोश्च मध्ये परदादाराज्य परावर्त्तते पञ्चसंग्रहम् टीकायां वेदेन युगलेन वा श्रवश्यं मुहूर्त्ताद राज्य पुरावर्त्ति तयमिति तदा सर्वेक द्विकोदयैको दयाश्च श्रान्तमदृर्त्तिकाः सुप्रतीता एव यदा वितेि उदये न वा एकं समयं वर्तित्वा द्वितीये समये गुणस्थानान्तरं गच्छति तदा अवश्यं बन्धस्थानभेदात् स्वरूपती या नित्रमुदयान्तरं मातरं या यातीति सर्वेऽप्युद्या भङ्गाश्च जघन्यत एकसामायिकास्तदेवं बन्धस्थानानामुदयस्यानैः सह परस्परं संवेध उक्तः । सत्तास्थानस्य बन्धस्थानेन सद् संवेधः । । तथा सम्पतितास्थानः सह तमनिधिसुराह ॥ तिन्नेव य वावसे, गवसे वीस सत्तरसे | छचेव तेरनववं घगे पंचैव गणाई ॥ २३ ॥ पंचविच उसे जाए पंचेव पत्तेयं पत्तेयं, चत्तारि उ बंधवे च्छेए ॥ २४ ॥ द्वाविंशतौ द्वाविंशतिबन्धे त्रीणि सत्तास्थानानि तद्यथा अष्टाविं शतिः सप्तविंशतिः पविंशतिश्च । तथाहि द्वाविंशतिबन्धो मिथ्याप्रेश्वत्वार्युदयस्थानानि तद्यथा सप्ताष्टौ नव दश । तत्र सप्तोदयाविंशतिरेक सत्तास्थानं यतः सप्तादयोऽन कम्म दयानाये भवति अनन्तादुपन्युदयेन पूर्व सम्दमः सथा अधिनः चलता ततः कालान्तरेण परिणामी सूर्याप मारभ्य मिध्यादन्यावलिकाका ना दरहितः प्राप्यते नान्यः स चाटविंशतित्विशतिरेवैकं सप्तोदये सत्तास्थानमप्रोदय श्री रायपि सत्तास्थानानि द्विधा अनुराध न्ध्युदयसहितश्च । तत्र योऽनन्तानुबन्ध्युदयरहितोऽष्टादयस्तत्र प्रा क्यापाशतिरेव सत्ता स तु यपि सत्तास्थानानि तत्र यावन्नाद्यापि सम्यक्त्वमुद्दलयति तावदष्टाविंशतिसत्कम चद्वलिते सप्तविंशतिः मिश्रमोहनीये निमिष्यायां पतिः न नान्युपाविंशतिरेय अनुबन्दसहित तु श्रपि सतास्थानानि दशस्वन्तासहित एव जयति ततस्तत्रापि त्रीणि सत्तास्थानानि भावनीयानि (अति) की कविताशतिरेकं सत्तास्थानम् | एकविंशतिबन्धो हि सासादनसम्यम्हप्रेर्भवति सासादनत्यं च जीवस्योपशमिक सभ्यक्त्वात् प्रध्यवनश्योपजायते सम्पमध्य सम्यक्त्वं मिश्रं मिथ्यात्वं च । ततो दर्शनत्रिकस्यापि सत्कर्मतया प्राप्यमाणत्वात् एकविंशतिबन्धेविष्यस्थान रेकं सत्तास्थानं भवति । ( सत्तरेस उश्चैष ) सप्तदशबन्धे पट् सत्तास्थानानि तद्यथा प्राविशतिः सवितात्रयोविंशतिद्वविंशतिरेकविंशतिश्च । सप्तदशबन्धो हि द्वयानां जयति तद्यथा सम्यग्मिथ्यादृष्टीनामविरतसम्यग्दृीनां च । तत्र सम्यग्मध्यादृष्टीनां श्रीस्थानानि तथा सप्तमष्टीन अविरत सम्यम्टष्टीनां चत्वारि तद्यथा पट् सप्त श्रष्टौ नव । तत्र पदयोऽविरतानामीपशमिकसम्यम्टष्टीनां कायिकसम्यग्दृष्टमां वा प्राप्यते । तत्र पशमिकसम्यग्टष्टीनां द्वे सत्तास्थाने तद्यथा अष्टाविंशतिश्चतुविशतिश्व तत्राष्टाविंशतिः प्रयमसम्बो पादप प्रतिपद्यते उपशान्तानुपामा तु विशतिरुतानन्ता नां त्वेकविंशतिरेव । कायिकसम्यक्त्वं हि सप्तकवये नवति सप्तसुरेकविंशतिसत्कर्मेति सर्पसंख्या श्रीणितास्थानानि शतिः सप्तोदये मिश्र दृष्टीनां त्रीणि सत्तास्थानानि तद्यथा श्रष्टाविशतिः सप्तविंशतिशतिः योऽष्टावितिः सरकी सन् सम्पातिना विना सता प्रथमं सम्यक्त्वमुद्वलितं सम्यग्मिथ्यात्वं च नाद्यायुद्धवितुमारज्यते श्रनान्तरे परिणामवशतः मिथ्यात्वादिनिवृत्य सम्यमथ्यात्वं प्रतिपद्यते तस्य सप्तविंशतिः। यः पुनः सम्यग्द ष्टिः सन्ननन्तानुबन्धिनो विसंयोज्य पश्चात्परिणामवशतः सम्यमिथ्यात्वं प्रतिपद्यते तस्य चतुर्विंशतिः । सा चतसृष्वपि गतिषु प्राप्यते पतिका अपि सम्यन्योऽनु विसंयोजयन्ति तडुक्तं कर्मप्रकृत्याम् " चउगश्या पंजत्ता, तिनि विजयाजयंति करणो तिद्धि सहितरकरणं उवसमो व इति अत्र ( तिनिचित्ति ) श्रविरता देशविरताः सर्ववरना वा यथायोगमिति अनन्तानुबन्धिविसंयोज - नानन्तरं च केचित्परिणामवशतः सम्यग्मिथ्यात्वमपि प्रतिपद्यन्ते ततचतसृष्वपि गतिषु सम्यग्मिथ्यादृष्टीनां चतुर्विंशतिः " Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०३) अभिधानराजेन्द्र कम्म संभवति अवरतसम्यग्दष्टीनां तु सप्तोदये पञ्च सत्तास्थानानि तथा अष्टाविंशतिशत द्वाविंशतिरेकवि शतिश्च । तत्राष्टाविंशतिरोपशमिकसम्यग्दृष्टीनां वेकसम् नाचतुर्वितिरप्युभयेषां नयरमनन्नुबन्धिविसंयोजना नन्तरं प्रयोविंशतिसम्यदृष्टीनामेव तथाहि कश्चिन्मनुष्यो वर्षाष्टकस्योपरि वर्त्तमानो वेदकसम्यदृष्टिः क पणायायुद्यतस्तस्यानन्तानुबन्धिषु मिथ्यात्वे च कपिते सति त्रयोविंशतिः मिश्रे कपिते द्वाविंशतिः । स च विंशतिसत्कर्मा सम्यक्त्वं कपयन् तच्चरमया से वर्त्तमानः कश्चिपूर्वायुष्कः कालमपि करोति का कृत्याचत ग तीनामन्यतमस्यां गतावुत्पद्यते । तदुक्तम् ! " पठवगो उ मस्लो, निद्धवगो चउसु वि गईसु " ततो द्वाविंशतिश्वरायगतिषु प्राप्यते कविंशतिस्तु द्वाधिकसम्या मेव यतः साविकम्य सकेस सायमिकविशतिरेवमपि म प्रायोरूपायन्यूनातिरिकानि सप्तास्थानानि भावनीयानि एवं नवोदयेऽपि । नवरं नवोदयोऽविरतानां वेदकसम्यग्दष्टीनामेव संभवतीति कृत्वा तत्र चत्वारि सत्तास्थानानि वाच्यानि । तथा विंशतिशयोविंशतिद्वति एता न च प्रागिवावगन्तव्यानि ( तेरनवबधगेसु पंचेच गणाणि - त्ति ) त्रयोदशबन्धकेषु नवबन्धेषु च प्रत्येकं पञ्च पञ्च सत्तास्थानानि यथा महाविंशतिधनुविशतिस्त्रय रेकविंशतिश्च । तत्र त्रयोदशबन्धका देशविरतास्ते व विधा तिर्यग्यो मनुष्यात येतेषां चयस्थानेषु के एव सत्तास्थाने तद्यथा श्रष्टाविंशतिश्चतुवैिशति तत्राविंशतिश निकसष्टी कम्पन " । तत्रापशमिकसम्यग्दष्टानां प्रयमसम्यक्त्वात्पाद कालथी तदानीमन्तकरणका वर्तमानः कचित् देशवि गर्नमपि प्रतिपद्यते कश्चिन्मनुष्य पुनः सर्वविरतिमपि त 5कं शतकदणी उपससम्मदी अंतरकरणे विश्रो कार देसविर ई पमत्तापमत्तभावं पि गच्छ‍ सासाय. णी पुण न किमपि लत्ति " वेदकसम्यग्दृष्टीनां त्वष्टाविशतिः सुतास्तुतिः पुनरन्तानुबन्धिषु विसयोजितेषु वेदकसम्यग्दृष्टानां वेदितव्या । शेषाणि तु सर्वाण्यपि श्रपदिशत्यादीनि सत्तास्थानानि विरधों न संजयन्ति तानि हि काम्ययमुपायतः प्राप्यन्वयः काि सम्यक्त्वमुत्पादयन्ति किंतु मनुष्या एव । अय मनुष्याः का किसम्यक्त्वमुत्पाद्य यदा तिर्यक्षुत्पद्यन्ते तदा तिरश्चोऽप्येकविंशतिः प्राप्य पत्र तत्कथमुच्यते पाणि दीि सर्वाण्यपि भवति तद्युक्तं यतः काम्यस्ति संगमध्ये न पु मध्ये समुत्पद्यते । नच तत्र देशविरतिः तदभावाच्च न तत्र त्रयोदशबन्धकत्वम् अथ त्रयोदशबन्धे सत्तास्थानानि चिन्त्यमा मानपत्र वितरदितिर्यक्षु न प्राप्यते तदुक्तं वीसा तिरिया संजपसुन संभव क प्रासंखेजवासानसुतिरिक्खेभु खाइगसम्महिही उबवज्जर असंखेवामा नपसु उववज्जेज्ञा तस्म देसविर नस्थिति" ये च मनुष्या देशविरतास्तेषां पञ्चकोदयं त्रीणि सत्तास्थानानि तथाविशतिशत वंशतिष्ट्रोदये सप्तये कम्म 1 च प्रत्येकं पञ्चापि सत्तास्थानानि । अष्टकोदये त्वेकविंशतिवर्षानिशेषानियाचारितानि चाविरतसम्यन्दमानुसारे ण भावनीयानि । एवं बन्धकानामपि प्रमत्ताप्रमत्तानां प्रत्येकं चतुष्कोदये त्रीणि त्रीणि सत्तास्थानानि तद्यथा श्रष्टाविंशतिश्चतुर्विंशतिरेकविंशतिश्च । पञ्चकोदये षट्रोदये च प्रत्येकं पञ्च पञ्च सत्तास्थानानि सप्तोद ये त्वेकविंशतिवर्णानि शेषाणि चत्वारि स सास्थानानि पापानि (पंचविस उपव बिधे चतुर्विधे च बन्धे प्रत्येकं षट् सत्तास्थानानि । तत्र पञ्चविधे बन्धे श्रमूनि तद्यथा अष्टाविंशतिश्चतुर्विंशतिरेकविंशतित्रयोदश द्वादश एकादश च । तत्राष्टाविंशतिश्चतुर्विंशतिश्चौपशमिकसम्यग्दृष्टेगपशमः किम्रुपशमश्रेण्यां कपक एयाम् पुनरष्टौ कषाथा यावन्न कीचन्ते ताव देकविंशतिरष्टसु कषयेषु कीनेषु पुनस्त्रयोदश ततो नपुंसक कीणे द्वादश ततः स्त्रोवेदे कीणे एकादश पञ्चादीनि तु सत्तास्था नानि पञ्चविधधन्धे न प्राप्यन्ते यतः पञ्चविधबन्धः पुरुषवेदे बध्यमाने भवति यावश्च पुरुषवेदस्य बन्धस्तावत्पट् नोकषायाः सन्त एवेति । चतुर्विधवन्धे पुनरमूनि षट् सत्तास्थानानि तद्यथा अष्टाविंशतिश्चतुर्विंशतिरेकविंशतिरेकादश पञ्च चतस्रः । तत्रा ष्टाविंशतिचतुर्विंशत्येकविंशतयः उपशमश्रेण्यामेकादशादयः auranयां प्राप्यन्ते । इसकवेदेन पकश्रेणी प्रतिपन्नः स च स्त्रीवेदनपुंसक वेदौ युगपत् कपयति । स्त्रीवेदनपुंसकसमा पुरुषवेदस्य बन् दन्तरं च पुरुषवेदस्य वन्यच्छेदस्ततस्तदनन्तरं पुपये दास्यादिषङ्के युगपत् कपयति यावच्च न कीयते तावडुजयन्त्रापदोदरहितस्यैकोट्ये वर्तमानस्य एकादशकं सत्तास्थानमा पुरुषस्यादिस्तु युगपत् कीयमाणयोश्चतस्त्रः प्रकृतयः सन्ति । एवं च न स्त्रीवेदेन नपुंसकवेदेन वा कपकं प्रतिपन्नस्य पञ्चप्रकृत्यात्मकं सत्तास्थानमचाप्यते । यः पुरुषवेदेन कपकश्रेणि प्रतिपद्यते तस्य षट् नोकषायाः autoers youदस्य बन्धय्यद जयति ततस्तस्प चतुर्विधयन्काले एकादशरूपं सत्तास्थानं न प्राप्यते किंतु पञ्चप्रकृत्यात्मकं पञ्चसमयाद्धाया ऊनावनिकाद्विकं यावत् सत्यो वेदितव्याः ततः पुरुपवेदे कीणे चतस्रस्ता अप्यन्तर्मुहूर्त कालं यावत् सत्योऽवगन्तव्याः (सेसेसु जाण पंचैव पत्तेयं पत्तेयंति) शेषु विचिद्विविधैविधेषु बन्धेषु प्रत्येक पक्ष पचस सास्थानानि ताि तिरेकः तदिमान राममधिकृत्य वेदितव्यानि शेषे तु हे कपकश्रेण्यां ते चैवं संज्व क्रोधस्य प्रथमस्थितावावलिका शेषायां बन्धोदयादारणा युपदच्छेदमायान्ति व्यासु च तासु बन्धस्त्रिविधो जातः संज्वलनक्रोधस्य च तदानीं प्रथमस्थितिगतमावलिकामात्र समयद्वयोनाधिकाद्विकबद्धं च दलिकं मुक्त्वा अन्यत्सर्व सियोकाधिकमात्रेण कालेन प पयास्यति यावच्च न याति तावच्चतस्रः प्रकृतयस्त्रिविधबन्धे सत्यः कीर्णे तु तस्मिन् तिस्रः ताश्चान्तर्मुहुर्त्तकालं यावदवगन्तव्याः द्विविधबन्धे पुनरमूनि पञ्च सत्तास्थानानि तद्यथा अष्टाविंशतिश्चतुर्विंशतिरेकविंशतिः तिस्रः द्वे च । तत्राद्यानि श्रीणि प्राविशेष पकवा तु रण युगपद्यते तावन्यो जयति संयतमानस्य च प्रथमस्मिनाकामा Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०४ ) अभिधानराजेन्द्रः | कम्म i समयद्वयोनावलिकाद्वयबमं त्र दलिकंसद् अन्यत् सर्व कीणं त दपि समयद्वयोनाafa काद्विकमात्रेण कालेन यमापत्स्यति याव च नाद्यापि कीयते तावत्तिस्रः सत्यः कीर्णे तु तस्मिन् घे ते अप्यन्तर्मुदुकानं यावत्सत्यौ । एकविधबन्धे पुनः पञ्च सत्तास्थानान्यमूनि तथा अष्टाविंशतिश्चतुविशतिरेकविंशतिः एका । तत्राद्यानि त्रीणि प्राणियोपशमश्रेण्यां शेषे तु द्वे कपक " संज्वलनमायायाः प्रथमस्थिताया पलिका बन्ध यो युगपद्यच्छेदान्तिव्यवािसु तासु बन्ध एकविध प्रथति संज्वलनमायायास्तदानीं प्रथमस्थितिगतमावलिकामात्रं समयद्वयोनावलिकाद्विकवच सदस्ति श्रन्यत्समस्तं कीणं तदपि च तत्समयद्वयोनावलिकाद्विकमात्रेण कालेन कयमुपगमिष्यति याचश्च न कयमुपयाति तावद्र द्वे सती कीणे च तस्मिन्नेका प्रकृतिः संज्वलन होमरूपा सती (बचारि बंधोप्रे बन्धाभावे सुमपरायणाने सत्वारि सत्तास्थानानि यथार्थातिरेकविंश तिरेका च । तत्राद्यानि त्रीणि प्रागिवोपशमश्रेष्याम् एका तु संज्वलनप्रकृतिः कपकश्रेण्यां तदेवं कृता संबेधचिन्ता । संप्रत्युपसंहारमाह । दसनवपन्नरसाई, बंधोदयसंतपय डिठाणाई | भणिया मोहणिज्जे, एतो नामं परं वोच्छं ॥ २५ ॥ बन्धोदयत्प्रकृतिस्थानानि यथा दश संख्यानि प्रत्येकं संवेधद्वारेण च गणितानि इतः परमत ऊई नाम वक्ष्ये नामनो बन्धस्थानानि वक्ष्ये । तत्र प्रथमती बन्धस्थानप्ररूपणार्थमाह । सपनवीसा, उच्चीसा वीस गुणतीसा | श्री संगती समेकं बंधद्वाणाणि नामस्स ।। २६ ।। नाम्नोऽy बन्धस्थानानि तद्यथा त्रयोविंशतिःपञ्चविंशतिः षशि तिरशविंशतिरेकोनत्रिंशत् त्रिंशत् एकत्रिंशत् एका च । अमृनि तिर्वमनुष्यादिगतिप्रायेोग्यता भनेकप्रकाराणि ततस्तथैवोपदश्यन्ते । तत्र तिर्यग्गनिप्रायोग्यं बध्नतः सामान्येन पञ्च बन्धस्थानानि तद्यथा त्रयोविंशतिः पंञ्चविंशतिः पशितिरियं तिर्यगानुपूर्वी एकेातिरीहारिक तेजस कार्मणानि एमस्थानं वर्णगन्धरसस्पर्शाः अगुरुलघू उपघातनाम स्थावरनाम सूक्ष्मवादयोरेकतरमपनाम प्रत्येक साधारणयोरेकतरम स्थिरनाम भजनाम दुर्भगनाम श्रनादेयनाम अयशः कीर्तिनाम निर्माण नाम पतासां त्रयोविंशतिप्रकृतीनां समुदाय एकं बन्धस्थानम्। एतच्चापर्याप्तप्रायोग्यं बघ्नतो मिथ्यादृष्टेरव सेयम् । अत्र जङ्गाश्चत्वारः तथाहि बादरनाम्नि बध्यमाने एका त्रयोविंशतिः प्रत्येकनाना सहावाप्यते द्वितीया साधारणनाम्ना एवं सूक्ष्मनाम्यपि बभ्यमाने द्वे त्रयोविंशती सर्वसंख्यया चतस्रः । एषैव त्रयोविंशतिः परतोवाससहिता पञ्चशितिः प्रत्येकामा सदाप्यते ि तीया साधारणनाम्ना नवरमेवमभिवपनीयम् तिर्यगानुपूर्वी केन्द्रितः दारक जसकर्मणानिस्थानं वर्णादि चतुष्टयमगुरुलघू उपघातनाम पराघातनाम उच्चासनाम स्थावमामामयोरेकतरं पर्यास प्रत्येक साधारणयेोरेकतरं शुभाशुभयोरेकतरं यशःकीयोरेकत रमयशःकीित्योरेकतरं दुर्जगनामाना निर्माणमिति । एतासां पतिप्रकृतीनां समुदायः एक स्थायोग्य बनतो मिथ्या दृष्टेरवगन्तव्यम् । अत्र भङ्गा विंशतिः । तत्र बादरपर्याप्तप्रत्येकेषु यमानेषु स्नानयश की यशः कलिङ्गा कम्म तथाहि बादरपर्याप्रत्येक सिनेषु बध्यमानेषु यशः की स एका द्वितीयोऽस्वती ही देन पत्रममपदेनापि नसतो स्थिरपदेन लब्धाः । एवमस्थिरपदेनापि चत्वारो लभ्यन्ते ततो जाता] भष्ट्री एवं पर्याप्तबादरेषु साधारमेषु बध्यमानेषु स्थिरा स्थिरशुभाशुभयशः कीर्तिपदैश्चत्वारः यतः साधारणेन सह यवाः कीर्तिन्धो न जवति "नो सुमतिगेण जस ” इति वचनासतस्तदाश्रिता विकल्पा न प्राप्यन्ते तदेवं सर्वसंख्यया पञ्चविंशतिबन्धेशि च पञ्चविंशतिरात पोद्योतान्यतरसदिता - तिनंवरमेवमभिपनीया तिथंगतितिर्वानुपूकेन्द्रियजातिरौदारिकतैजसकार्मणानि हुएमसंस्थानं वर्णादिचतुष्टयमगुकलधू पराधातवासनाम श्रातपोद्योतयोरेकतरं बादरनाम पर्यातनाम प्रत्येकनाम स्थिरास्थिरयोरेकतरं शुभाशुभयेोरेकतरं गमनादेयं यशवतरे निर्माणम एतासांपातिप्रकृतीनां समुदाय के स्थान प सामान्यतरसहितं नो मियारवगन्तव्यम् । अत्र नङ्गाः षोमश ते चातपोद्योतस्थिरास्थिरशुभाशुभयशःकीर्तिपदैरवसेयाः श्रातपोद्योताच्यां च सह सूक्ष्मसाधारणबन्धो न जवति ततस्तदाश्रिता विकल्पा न प्राप्यन्ते एकेन्द्रियाणां सर्वसंख्यया भङ्गाचत्वारिंशत् तदुक्तम् "बत्तारि वीस सोस, मेगा पििदवाण नाग" हीन्द्रियायोग्यं धन्यस्थानानि श्रीणि तद्यथा पचविंशतिरेकोनशत तिर्यग्गतिरितानुपूर्वीन्द्रजातिरिकजयकर्मणानि संस्थानं सेचाड मनीदारिकापा वर्णादिचतुष्यमगुरुत्रघूपधातनाम त्रसनाम बादरनाम अपर्याप्तकनाम प्रत्येकनाम अस्थिरमशुभदुर्भगमनादेयमयशः कीर्त्तिनिर्माणमिति एतासां पविशति समुदाय स्थानथाप कद्वीन्द्रियप्रायोग्यं बध्नतो मिथ्यादृष्टेरव सेयम् । अपर्याप्त केन सह परावर्त्तमानता पत्रबन्धमायान्तीति या अनेक एव भङ्गः न पचविशति पराघातासाप्रास्तवि हायोगतिपर्याप्तक दुःस्वरसहिता अपर्याप्तकरहिता एकोनत्रिशद्भवति नयरमेयमेव वयं तितितियेनानुपूर्वीन् यजातिरौदारिकशरीर मौदारिकाङ्गोपाङ्कं तैजसकार्मणे दुरामसंस्थानं सेवा संहननं वर्णार्दचतुष्टयम गुरुलघु पराघातमुपघातमुद्वानाम अप्रशस्तावहायोगतिः सनाम यादरनाम पर्याप्त कं प्रत्येकं स्थिरास्थिर पारेकतरं शुभाशुभ येोरेकतरं परं दुगमनादेवं यशःकरे निर्माणमिति । पतानामे कोनत्रिशत्तीनां समुदाय [प] बन्धस्थानं तपर्याप्तद्वीन्द्रियप्रायोग्यं बघ्नतो (मथ्यादृष्टेः प्रत्येतव्यम् । श्र खिरास्थिरनाभवशीपर भङ्गाः सेव एकोनत्रिंशत् उद्योतसहिता बिपि वा भ सर्व संख्यया सप्तदश एवं श्रीन्द्रियप्रायोग्यं चतुरिन्द्रियप्रायोग्यं 66 बनतो मिष्यारस्थानानि यानि नवरं श्रीन्द्रियाणां जातिरलिपनीया बहुतकं सप्तदश सर्वसंख्यया एकपञ्चाशत् । उक्तं च एगश्रहविगलि दिया गयश्न तिरहं पि" तिर्यग्गतिपञ्चेन्द्रियप्रायोग्यं बध्नतस्त्रीणिबन्धस्थानानि तद्यथा पञ्चविंशतिः एकोनविशत् शत् । तत्र पश्यविशतिद्वन्द्रियायोग्य बनत च वैदितव्या नवरं द्वीन्द्रियजातिस्थाने पञ्चेन्द्रियजातिर्वतव्या तत्र को कोरियनुपूर्वी पचेकि Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्म ( ३०५ ) अभिधानराजेन्द्रः । यज्ञातिरीहारिकाङ्गो जसकार्मणे यां संस्थानानामेकतमत् संस्थानं पां संद्नानामेकतमत्संहननं वर्णादिचतुष्टयम गुरु उपघातं पराघातमुच्वासनाम प्रशस्ता प्रशस्त विडायोगत्योरेकतरं त्रसनाम बादरनाम पर्याप्तकनाम प्रत्येकं स्थिरास्थिरयोरेकतरं भानयोरेकतरं सुभगर्भगयोरेकतरं दुःस्वरमुखरयेोरेकतरम् आदेयानादेययेोरेकतरं यशः कीर्त्ययशःकी त्योंरेकतरं निर्माणमिति । एतासामेकोनत्रिंशत्प्रकृतीनां समुदाय एकं बन्धस्थानम् । एतच मिथ्यादृष्टेः पर्याप्ततिर्यक्पञ्चेन्द्रियप्रायोग्यं बनतो दिदि पुनः सासादन] बन्धको नयति तहिं तस्य पञ्चानां संस्थानानामन्यतमत्संस्थानं पञ्चानां संहननानामन्यत मत्संहननमिति व योनत्रिशतिसामान्येन पि संस्था पनि प्रशस्तविहायोगतियां स्थिरा स्वराज्य गुनानाभ्यां सुभगादुर्भगाभ्यां सुखर दुःस्वराभ्यामादेयानाभ्यां शीशी तियां जड़ास्वारिंशच्छतसंख्याकादितव्याः कोनशत उद्योतसहि तात्रिंशद्भवति अत्रापि मिथ्यादृष्टिसासादनानधिकृत्य तंथैव वि शेषोऽवगन्तव्यः सामान्येन च भङ्गाः प्राधिकर तसंख्याका बतंच "गुणती से तीखे वा, गंगा बट्टाड़िया पाल सया । पंचिदियतिरियोगे-वणवी से बंधभंगेक्को " सर्वसंख्यया ज्ञानवतिशतानि सप्तदशाधिकानि । तथा मनुष्यगतिप्रायोग्यं बध्नतस्त्रीणि बन्धस्थानानि तद्यथा पञ्चविंशतिरेकोनत्रिंशत् त्रिंशत् । तत्र फलविंशतिथा ग्रामपर्याप्तद्वीद्रयायोग्य बनतोऽभिदिता तथैवान्यानवरमत्र मनुष्यगतिमनुष्यानुपूर्वी इति वक्तव्यम | एकोनत्रिंशत् त्रिधा एका मिथ्यादृष्टीन् बन्धकानाश्रित्य वेदितव्या द्वितीया सासादनान् तृतीया सम्यग्मिथ्याह अविरतसम्यष्टी या तथा द्वे प्राणिव भावनीये । तृतीया पुनरियं मनुष्यगतिर्मनुष्यानुपूर्वी पञ्चेन्द्रियजातिरौदारिकमौदारिकाङ्गोपाङ्गं तैजसकार्मणे समचतुरस्रसंस्थानं वज्र नाराचसंहननं वर्णादिचतुष्टयमगुरु धूपघातामु सनाम प्रशस्तविहायोगतिस्त्रसनाम बादरनाम पर्याप्तकनाम प्रश्येकं स्थिस्थिरयेोरेकतरं शुनयोरेकतरं सुस्वरमावे. शकश की थैरेकतरं निर्माणमिति । अस्यां कोनाशति प्रकारायामपि सामान्येन पनि संस्थानः पतिः संहननेः प्रशस्ताप्रशस्त विदा योगतियां स्थिरास्थिराभ्यां गर्मासुदुःस्वराज्यामादे पानादेयाच्यां यश-की यश कीि ज्यामाधिकषट्चत्वारिंशसंख्या वेदाः वसुली सेव तीर्थकरसद्विता चित्र स्थि रास्थिरनाभवशकीयशः कीर्त्तिपरष्टी भङ्गा सर्वसं या मनुष्यगतिप्रायोग्यबन्धस्थानेषु भङ्गाः षट्चत्वारिंशता नि सप्तदशाधिकानि । उक्तञ्च "पपुर्व सयम्मिएको, गयाबस या उ ोत्तरं । गुत्तीसेद्धन सव्वे, बायालसया उ सत्तरस तथा देवगतिप्रायोग्यं बध्नतचत्वारि बन्धस्थानानि तद्यथा श्रष्टाविंशतिः एकोनाशत् त्रिंशत् एकत्रिंशत् । तथा श्रष्टाविंशतिरियं देवगतिर्देवानुपूर्वी पञ्चेन्द्रियजातिक पाङ्गं तैजसकार्मणे समचतुरस्रसंस्थानं वर्णादिचतुष्टयमगुरुलघू पराघातमुपघातमुच्छ्रासनाम प्रशस्त विहायोगतिस्त्रसनाम वादरनाम पर्याप्तकनाम प्रत्येकं स्थिरास्थिरयोः गुनाभयोरेकतरं सुन सुस्वरमादेयं यशःकीकीरेकतरं निर्माणमिति । एतासां समुदायः एकं बन्धस्थानम् । पतच मिथ्यादृष्टिसास्वादनमिश्राविरतसम्पम्टष्टिदेश विरतान कम्म सर्वविरतानां देवगतिप्रायोग्यं बध्नतामवसेयम् । श्रत्र स्थिरा स्थिरशुभाशुनयशः कीर्त्ययशः कीर्त्तिपदेरष्टौ भङ्गाः एषैवाष्टशार्थशतिस्तीर्थकर सहिता एकोनत्रिंशद्भवति अत्रापि त एवाष्टौ भङ्गाः नवरमेनां देवगतिप्रायोग्यां बघ्नतोऽविरतसम्यम्टष्टधादयो बध्नन्ति त्रिंशत पुनरियं देवगतिर्देवानुपूर्वी पञ्चेन्द्रियजातिक्रियाङ्गोपाङ्गमाहारकमाहारको तेजसकामं समचतुरस्रसंस्थानं वदिचतुष्टयमगुरुल पराघातमुपघातमुच्वासनाम प्रशस्त विहायोगतिस्त्रसनाम बादरनाम पर्याप्त कनामापर्यातकनाम प्रत्येकं स्थिरं शुभनाम शुभगनाम सुखरनाम अनादेपनाम यश कीर्त्तिनाम निर्माणनामेति । एतास त्रिंशत्प्रकृतीनां समुदाय एकं बन्धस्थानम् । एतच देवगतिप्रायोग्यं नतोऽप्रमत्तसंयतस्यापूर्वकरणस्य वा वेदितव्यम् । अत्र सर्वाण्यपि शुभान्येव मणिबन्धमायान्तीति कृत्वा एक एव भङ्गः । एवैव त्रिंशत्तीर्थकरसहिता एकत्रिंशद्भवति । श्रत्राप्येक एव च भङ्गः सर्वसंख्यया देवगतिप्रायोम्यबन्धस्थानेषु भक्ताः अष्टादश । तदुक्तम् " अष्ठ एकेकमभंगा अट्ठारस देवजायेसु " तथा नरकगतिप्रायोग्यं बध्नत एकं बध्नस्थानमाविशतिः । सा चेयं नरकगतिर्नरकानुपूर्वी पचे न्द्रिया जातिः वैक्रियाङ्गोपाङ्गं तैजसकार्मणे हुएडसंस्थानं वर्णदिवश्यमगुरुल उपघातं पराधातमुदासनाम विहायोगतिः श्रसनाम बादरनाम पर्याप्तकनाम प्रत्येकनाम अस्थिरमशुभं दुर्भगं दुःखरमनादेयमयशः कीर्त्तिर्निर्माणमिति । एतासामष्टाविंशतिप्रकृतीनामेकं बन्धस्थानमेतच्च मिथ्यादृष्टेरवसेयम् । अत्र त्रीण्यप्यशुभान्येव कर्माणीत्येक एव भङ्गः एकं तु बन्धस्थानं यशःकीर्तिलक्षणं तच्च देवगतिप्रायोग्यबन्धे व्यवच्छिन्ने पूर्वकरणादीनां त्रयाणामवगन्तव्यम् । संप्रति कथित बधस्थाने कति भद्राः सर्वसंख्या प्राप्यन्ते इति चिन्तायां विरूपणार्थमाह चउपरण वीसा सोलस, नव वाएउइयसयाई अरुयाला । याताया- लसया एकिकबंध विह| ||२७|| विशत्यादिषु बन्धस्थानेषु यथासंख्यं चतुरादिसंख्या बन्धविधयो बन्धप्रकारा बन्धभङ्गा वेदितव्याः । तत्र ये विंशतिबन्धस्थानेषु भङ्गाश्चत्वारस्ते चैकेन्द्रियप्रायोग्यमेव बघ्नतोऽवसेयाः अन्यत्र त्रयोविंशतिबन्धस्थानस्याप्राप्यमाणत्वात् । पञ्चविंशतिबन्धस्थाने पञ्चविंशतिः भकेन्द्रियायोग्य प विशति बनतो विशतिः । अपर्याप्तद्वित्रिचतुरिन्द्रियतिर्यक्प वेन्द्रियमनुष्यप्रायोग्य बनतामेकप्रति सर्वसंविशतिः षड्विंशतिबन्धस्थानेषु यथासंख्यं चतुरादिसंख्या बन्धविधयो बन्धप्रकारा बन्धनङ्गा वेदितव्याः । तत्र त्रयोविंशतिबन्धस्थाने भ ङ्गात्वारः केन्द्रियायोग्यमेव तो वसेयाः । ते भार पोश से केन्द्रियायोग्यमेव बोध्यसेवाः अन्यत्र पतिबन्धस्थानस्याप्राप्यमाणत्वात् भष्टाविंशतिबन्धस्थाने भङ्गा नव । तत्र देवगतिप्रायोग्यामष्टाविंशतिं बघ्नतोऽष्टौ नरकगतिप्रायोग्यां तु बध्नत एक इति एकोनत्रिंशद्वन्धस्याने भङ्गाः श्रष्टचत्वारिंशदधिकानि द्विनवतिशतानि तत्र क्यिप्रायोग्यामेोनत्रिशतं बनतोऽष्टाधिकानि षट्चत्वारिंशच्छतानि मनुष्यगतिप्रायोग्यामपि बनतोऽष्टाधिकानि षट्चत्वारिंशच्छतानि द्वित्रिचतुरिन्द्रियप्रायोग्यां देवगतिप्रायोग्यां चतीर्थकरसद्वितां बां प्रत्येकमप्याविति विंशतिबन्धस्थाने मङ्गा एकचत्वारिं Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्म अभिधानराजेन्यः । कम्म शकतानि । तत्र तिर्यपञ्चेन्जियप्रायोग्यां त्रिंशतं बनतोऽक्रियं कुर्वतः प्राणापानपर्याध्या पर्याप्तस्य उच्चासे क्षिप्राटाधिकानि षट्चत्वारिंशच्छतानि द्वित्रिचतुरिन्द्रियप्रायोग्यां | गुक्ता पश्चविंशतिः पर्दिशतिर्भवति तत्रापि प्राग्वदेक एव मनुष्यगतिप्रायोग्यामाहारकसहितां त्रिदातं वध्नत एक इति । भङ्गः तेजस्कायिकवायुकायिकयोरातपोद्योतयश कीतीनामुतथा एकत्रिंशद्वन्धस्थाने एकः एकविधे चैकं सर्वसंख्ययासर्व | दयाभावात् तदाथिता विकल्पा न प्राप्यन्ते सर्वसंख्यया पट्टिबन्धस्थानेषु भारयोदशसहस्राणि नव शतानि पश्चचत्वारि- शतौ त्रयोदश भङ्गाः। तथा प्राणापानपर्याप्त्या पर्याप्तस्य उच्चाशदधिकानीति। तदेवमुक्तानि सप्रनेदं बन्धस्थानानि । ससहितायां पढिशतौ श्रातपोद्योतयोरन्यतरस्मिन् प्रक्षिप्ते सति संप्रत्युदयस्थानप्रतिपादनार्थमाह। सप्तविंशतिर्भवति अत्र भङ्गाः पद। ये प्रागातपोद्योतान्यतरसवीसिगवीसा चनवी-सगा य एगाहिया य इगतीस । हितायां पतिशतीप्रतिपादिताः।सर्वसंख्ययाचैकेन्द्रियाणां भङ्गा द्विचत्वारिंशत् उक्तं च "एगिदिय उदएसु, पंच य पक्कार सत्त उदयटाणाणि भवे, नव अट्ठ य हुंति नामस्स ।। २८ ॥ तेरस य । छकं कमसो भंगो, वायाला होति सब्वे वि" द्वीन्द्रियाउदयस्थानानि द्वादश तद्यथा विशतिरेकविंशतिश्चतुर्विशत्या- णामुदयस्थानानि षट् तद्यथा एकविंशतिः पदिशतिरटाविंशतिदय एकाधिका पकैकाधिकाःतावद्वक्तव्या यावदेकत्रिंशत् तद्यथा एकोनत्रिंशत् त्रिंशत् एकत्रिंशत् । तत्र तिर्यग्गतिस्तियंगानुपूर्वी चतुर्विंशतिः पञ्चविंशति पविंशतिःसप्तविंशतिरष्टाविंशतिरेकोन दीन्द्रियजातिस्त्रसनाम बादरनाम पर्याप्तापर्याप्तयोरेकतरं दुर्भगत्रिंशत् त्रिंशत एकत्रिंशत् तथा नव अष्टौ चएतानि चैकेन्डियाद्यपे. मनादेयं यश-कीर्त्ययशाकीरकतरमित्येतानव प्रकृतयो द्वादकया नानाप्रकाराणीति तान्याश्रित्य सप्रपञ्चमुपदर्यते। तत्र ए- शसंख्यानिर्धवोदयाभिः सह एकविंशतिः। एषा चापान्तरालगती केन्द्रियाणामुदयस्थानानि पञ्च तद्यथा एकविंशतिश्चतुर्विंशतिः वर्तमानस्य द्वान्छियस्यावाप्यते अत्रभङ्गात्रयः तद्यथा अपर्याप्तपञ्चविंशतिः किंशतिः सप्तविंशतिः। तत्र तैजसकार्मणे अगुरुलघु कनामोदये वर्तमानस्य अयशाकीर्त्या सह एकः । पर्याप्तनामोस्थिरास्थिरे शुनाशुभे वर्णगन्धरसस्पर्शा निर्माणमित्येता द्वादश दये वर्तमानस्य यश-कीर्त्ययशःकीर्तिच्यां द्वाविति ततस्तस्यैव प्रकृतय उदयमाश्रित्य धुवाः । एतास्तियग्गतिस्तिर्यगानुप्रवर्ती च शरीरस्य औदारिकमौदारिकाङ्गोपाङ्गं हुएमसंस्थान सेवार्तस्थावरनामैकेन्द्रियजाति/दरसूक्ष्मयोरेकतरमपर्याप्तपर्याप्तयो-- संहननमुपघातं प्रत्येकमिति पद प्रकृतयः प्रक्तिप्यन्ते तिर्यगानुपूर्वी रेकतरं दुर्भगमनादेयं यशःकीर्त्ययशाकीयॉरन्यतरन्नवप्रकृ चापनीयते जाता पक्विंशतिः । अत्रापि नहास्त्रयस्ते च प्रागिर तिसहिता एकविंशतिः । अत्र भङ्गाः पञ्च बादरसूदमाज्यां द्रष्टव्याः । ततः शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य अप्रशस्तविहायोगप्रत्येक पर्याप्तापर्याप्ताभ्यामयशःकीा सह चत्वारः बाद तिपराघातयोः प्रक्किप्तयोरष्टाविंशतिः । अत्र यशःकीर्त्ययशःरपर्याप्तयशःकीर्तिभिः सह एक इति सूक्ष्मापर्याप्ताज्यां सह कीर्तियां द्वौ नङ्गी अपर्याप्तकप्रशस्तविहायोगत्योरत्रादयाभायशकीर्तेरुदयो न भवतीति कृत्वा तदाश्रिता विकल्पा | वात् ततः प्राणापानपर्यप्या पर्याप्तस्य उच्चासे किप्त एकानन प्राप्यन्ते एष चैकविंशतिरेकेन्द्रियस्थापान्तरालगतौ वर्त्त-- मानस्यवेदितव्या ततः शरीरस्थस्यौदारिकशरीरं हुएमसंस्थान त्रिंशत् अत्रापि तायव द्वौ भङ्गो । अथवा शरीरपर्याप्त्या पर्यामुपघातं प्रत्येकंमिति चतस्रः प्रकृतयः प्रक्षिप्यन्ते तिर्यगानु प्त्यस्य उच्चासे अनुदिते उद्योतनाम्नि तदिते एकोनविंशत् अत्रापूर्वी चापनीयते ततश्चतुर्विंशतिर्भवति अत्र च भङ्गा दश पि प्रागिव द्वौ नङ्गी सर्वेऽप्येकोनत्रिंशत् चत्वारो जङ्गाः ततो नाषापर्याप्त्या पर्याप्तम्य उच्चाससहितायामेकोनविंशति सुस्वतद्यथा बादरपर्याप्तस्य प्रत्येकसाधारणयशकीर्त्ययश-कीर्ति रदुःस्वरयारकतरास्मिन् प्रक्तिप्ते त्रिशत भवति । अत्र सुस्वरपु:पदैश्चत्वारः अपर्याप्तबादरस्य प्रत्येकसाधारणाभ्यामयशःकीर्त्या सह द्वौ सूक्ष्मस्य पर्याप्तापर्याप्तप्रत्येकसाधारणैर्यश: स्वरयशःकीर्तिपदैश्चत्वारो भङ्गाः । अथवा प्राणापानपर्याप्स्या कीर्त्या सह चत्वार इति दश । बादरवायुकायिकस्य वैक्रिय पर्याप्तस्य स्वरे अनुदिते नद्योतनाम्नि तूदिते त्रिंशद्भवति अत्र कुर्वत औदारिकस्थाने वैक्रियं वक्तव्यं ततश्च तस्यापि चतु यशकाययशःकीर्तिविकल्पाल्यांद्वौ भनौ सर्वेत्रिंशतिषम्भनाः विशतिरुदये प्राप्यते केवलमिह बादरपर्याप्यैका यशकीर्त एकोनविंशति सुस्वरपुःस्वरयोरकटरस्मिन् उद्योते च किप्ते एकत्रिंशत् सुस्वरफुःस्वरयशःकीर्त्ययशःकीर्तिपदैश्चत्वारोनङ्गाः पदैरेक एव भङ्गः । तैजस्कायिकवायुकायिकयोः साधारणयशकीलुदयो न भवतीति तदाश्रिता विकल्पा न प्राप्यन्ते।स पवं सर्वसंख्यया द्वाविंशतिर्भङ्गाः । एवं त्रीयाणां चतुरिवसंख्यया चतुर्विशतेरुदये एकादश भास्ततः शरीरपर्या छियाणां च प्रत्येकं षट् उदयस्थानानि नायनीयानि नवरं पया पर्याप्तस्य पराघाते क्षिप्ते पञ्चविंशतिः । अत्र भङ्गाः षट द्वीजियजातिस्थाने हड्रियाणां श्रीन्द्रियाणां श्रीजियजातद्यथा बादरस्य प्रत्येकसाधारणयशकीय॑यश कीर्तिपदैश्व तिश्चतुरिन्जियाणां चतुरिन्जियजातिरनिधातव्या प्रत्येक ना त्वारः सूक्ष्मस्य प्रत्येकसाधारणाभ्यामयशःकीर्त्या सह द्वौ। द्वाविंशतिरिति सर्वसंख्यया विकलन्द्रियाणां जनाः पतिः। तथा बादरवायुकायिकस्य वैक्रियं कुर्वतः शरीरपर्याप्त्या प तमुक्तम् “ तिगतिगपुगचउच्चन, विगबाण सहि हो र्याप्तस्य उच्चासे अनुदिते पराघाते क्षिप्ते पञ्चविंशतिर्भवति तिएह पि " प्राकृततिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणामुदयस्थानानि पद अत्र च प्राग्वदेक एव भङ्गः सर्वसंख्यया पञ्चविंशती सप्तभङ्गाः तद्यथा एकविंशतिः पविशतिः अष्टाविंशतिः एकोनत्रिंशत प्राणापानपर्याप्या पर्याप्तस्य उच्चासे क्षिप्त द्विशतिः अत्रापि त्रिंशत् एकत्रिंशत् । तत्र तिर्यगतिस्तिर्यगानुपूर्वी पञ्चेन्जियजाभङ्गाःप्रागिव षट् । अथवा शरीरपयाापर्याप्तस्य उच्चासे अनु तिस्त्रसनाम बादग्नाम पर्याप्तापर्याप्तकयोरेकतरं सुभगदुर्भगदिते पातपोद्योतयोरन्यतरस्मिन्नुदिते शितिर्भवति अत्रापि योरेकतरमादेयानादेययोरेकतरं यशाकीर्त्ययशःकीोरेकतरमिभङ्गाः षट् । तद्यथा बादरस्योद्योतेन सहितस्य प्रत्येकसाधार- त्येतानव प्रकृतयो द्वादशसंख्यानिर्धवोदयानिःसह एकविंशतिः णयशकीय॑यश-कीर्तिपदैश्चत्वारः श्रातपसहितस्य च प्रत्ये- एषा चापान्तराबगतौ वर्तमानस्य तिर्यक्पश्चेन्जियस्य वदितकस्य यश-कीर्त्ययश-कीर्तिपदै बादरवायुकायिकस्य वै- व्या । अत्र नङ्गा नव । पर्याप्तकनामोदये वत्तमानस्य सुनगर्भ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्म (३०७ ). अभिधानराजेन्द्रः । चा गाज्यामादेयानादेवाच्यां यशः कीर्ययशः कीर्त्तिज्यां भङ्गाः। नमो वर्तमानस्य दुर्भगानादेयाश की तिंनिरेकः । श्रपरे पुनराहुः सुभगादेययुगल दुर्भगानादेययुगला यशःकीयशःकीर्त्तिज्यां च चत्वारो भङ्गाः अपर्याप्तकसातोद लोक इति सर्वसंख्या पक्ष यमुत्तरत्रापि मतान्त रेण भङ्गम्यं स्वधिया परिभावनीयम् । ततः शरीरस्थस्य अनुनय प्रदारिकमीदारिकायां संस्थानमा तत्संस्थानं पां संहननानामेकतमत्संहननमुपघातं प्रत्ये कमिति प्रतिष्यते ततो जाता पविशतिः । अत्र भङ्गानां द्वे शते एकोननवत्यधिके तत्र पर्याप्तस्य पनि संहननः सुनग गाज्यामापादेयाय यशकीर्तिभ्यां शङ्गानामाशीत्यधिके पतसंस्थानसेवा दुर्ज गानदेयायशः कतिपदेरेक इति । अस्यामेव किंशती शरीरपर्यायापर्यासस्य पवित्रन्यतरविगत तायामाविशतिः तब ये प्राक पान द्वे शते भङ्गानामशत्यधिके उके ते श्रत्र विहायोगतिद्विकेन गुणितं अवगन्तव्ये । तथाच सत्यत्र भङ्गानां पञ्च शतानि षट्सप्तत्यधिकानि भवन्ति ततः प्राणापानपर्याप्त्या पर्याप्तस्य बच्चासे किसे एकोनत्रिंशत् अत्रापि भङ्गाः प्रागिव पञ्च शतानि षट्सप्तत्यधिकानि । अथवा शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य उच्छासे धनुदिति अत्रापि नाप दातानि पत्यधिकानि सर्वनामकोश दि पञ्चाशदधिकानि एकादश शतानि । ततो जायापर्याप्त्या पर्यामस्य सुस्वरषुः स्वरयोरन्यतरस्मिन् प्रतिप्ते त्रिशद्भवति । श्रत्र ये प्रपञ्चशतानि षट्सप्तत्यधिकानि तानि तान्वेष स्वरद्विकेन गुण्यन्ते ततो जातानि द्विपञ्चाशदधिकानि एकादश शतानि । अथवा प्राणापानपर्यादया पर्याप्तस्य स्वरे अनुदिते उदिता भङ्गानाशानिपतत्यधिकानि सर्वसंख्या त्रिशति भङ्गानां सप्तश शतानि अशविंशत्यधिकानि । ततः स्वरसहितायां त्रिंशति उद्योतनानि प्रक्किम एकत्रिंशद्भवति । श्रत्र ये प्राक स्वरसहितायां त्रिशति भङ्गा द्विपञ्चाशदधिकैकादश संख्या उक्तास्ते पञ्चाशदत्रापिया सर्वसंख्या प्राकृतिक पञ्चेन्द्रियाणामुदयभङ्गा एकोनपञ्चाशच्छतानि षडधिकानि । इदानीं वैक्रियतिरश्चामुदयस्थानानि पश्ञ्च तद्यथा पञ्चविंशतिः सप्तविंशतिरष्टाविंशतिरेफोन तत्र क्रिया समचतुरमुपघातं प्रत्येकमिति पय प्रकृतयः प्राति यामेकविंशतौ प्रक्षिप्यन्ते तिर्यगानुपूर्वी चापनीयते ततः पञ्चविंशतिर्भवति । अत्र सुभगादुर्भगाभ्यामादपानादेयाभ्यां यशकीवेशः कीर्तिभ्यां चा भङ्गाः। ततः शरीरपर्याप्त्या पर्या तस्य पराघाते प्रशस्तविहायोगतौ च प्रक्षिप्तायां सप्तविंशतिः अत्रापि प्रागिवाट भङ्गाः । ततः प्राणापानपर्याप्त्या पर्याप्तस्य उच्चासनाम्नि प्रक्षिप्ते श्रष्टाविंशतिर्भवति । अत्रापि प्रागिवाट भः । अथवा शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य उच्अनुदिते उद्योतन वृदिते अष्टाविंशतिर्भवति तत्राप्यभङ्गः सर्व संख्या अष्टाविंशती भङ्गाः षोडश । ततो भाषापर्याप्त्या पर्यातस्य उच्ाखसहितायां समरे ि अत्रापि प्रागिवाष्टौ भङ्गाः । अथवा प्राणापानपर्यात्या पर्यातस्य स्वरे अनुदिते उद्योतनानि तुदिते एकोनत्रिंशत् अत्रापि प्रागिवाथै भङ्गाः सर्व संख्यया एकोनत्रिंशति पोडश । कम्म ततः सुस्वरसहितायामेकोनत्रिंशति उद्योते क्षिप्ते त्रिंशत् श्रत्रापि प्रागिवाष्टौ भङ्गाः । सर्वसंख्यया वक्रियं कुर्वतां पदप ञ्चाशत् भङ्गाः । सर्वेषां तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां सर्वसंख्या एकोनपञ्चाशच्छतानि द्विपट्ट्यधिकानि भङ्गानामवसेयानि । सामान्येन मनुष्याणामुदयस्थानानि पञ्च तद्यथा एकविंशतिः पविशतिः अष्टाविंशतिः एकोनत्रिंशत् त्रिंशत् । एतानि सर्वाण्यपि यथा मा पिम्येन्द्रियाणामुनियाजापानीस्थाने मनुष्यगतिमनुष्यानुपूर्व्यं वेदितव्ये । एकोनत्रिंशच्च उद्योतरहित। वव्या वैक्रियाहारका मुक्त्वा शेषमनुष्याणामुद्योत दयाभावात् ततः एकोनत्रिंशति भङ्गानां पञ्च शतानि पद्मसत्यधिकानि । त्रिंशत्येकादश शतानि द्विपञ्चाशदधिकान्यव गन्तव्यानि । सर्वसंख्यया प्राकृतमनुष्याणां परिशतिशतानि द्विकाधिकानि भङ्गानां भवन्ति वक्रियमनुष्याणामुदयस्थानानि पञ्च तद्यथा पञ्चविंशतिः सप्तविंशतिः अष्टाविंशतिः एकोनत्रिंशत् त्रिंशत् । तत्र मनुष्यगतिः पञ्चेन्द्रियजातिक्रियाङ्गोपाङ्गं समचतुरस्त्रमुपघातं त्रसमाम बादरनाम पर्यासकलाम सुभगादुर्भगयोरेकतरम आदेयानाययारेकतरं यशःकीयशः की स्योरेकतरं त्रयोदश प्रकृतयो द्वादशसंख्याभिर्भुवोदयाभिः सह पञ्चविंशतिः । श्रत्र सुभगादुर्भगादेयानादेशः कशः कीर्तिपदैरौ भङ्गाः देशविरतानां संयतानां च चत्रियं कुर्वतां सर्वप्रशस्त एक एव भङ्गो वेदितव्यः ततः शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य पराघाते प्रशस्तविहायोगता च प्रक्षिप्तायां सप्तविंशतिः । अत्रापि त एवाथै भङ्गाः । ततः प्राणापानपर्याज्या पर्याप्तस्य उच्चासे क्षिप्ते श्रष्टाविंशतिः । अत्रापि प्रागिवाष्टौ भङ्गाः । ततः प्राणापानपया पर्याप्तस्य अथवा संयतानामुत्तरवक्रियं कुर्वतां शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तानामुच्चासे अनुदितेशिक भ संयताना दुर्भगानादेयायशीयाभावात् सर्वसंख्या श्राविशता भङ्गा नव । ततो भाषापर्याच्या पर्याप्तस्य उच्छ्वाससुरेस एकोनविंशद्भवति । अत्रापि प्रागिवाथै भङ्गाः । श्रथवा संयतानां स्वरे अनुदिते उनदिएको बति अपि माकि भङ्गः सर्वसंख्या एकोनत्रिंशति भङ्गा नव । सुस्वरसहितायामेोति संघनानि प्रतिमे विशुद्धयति अपि प्रागिवैक एच भङ्गः सर्वसंख्यया वैक्रियमनुष्याणां भङ्गाः प चत्रिंशत् । श्राहारक संयतानामुदयस्थानानि पञ्च तद्यथा पञ्चविशतिः समविशतिः विंशतिः एकोनविंशति । तत्र आहारकमहारको समययसंस्थानमुपघातं प्रत्येकमिति पञ्च प्रकृतयः प्राच्यां मनुष्यगतिप्रायो मनुष्यानुपूर्वी नापनीयते ततो जाता पञ्चविंशतिः । केवलसिंह एतानि सर्वाण्यपि प्रशस्तान्येव भवन्ति । श्राहारकसंयतानां दुर्भगानादेयायशः की दयाभावात् । श्रत एक एवात्र भङ्गः । ततः शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य पराघाने प्रशस्तविहायोगता व प्रक्षिप्तायां सप्तर्वि शतिः अत्राप्येकएव भङ्गः। ततः प्रागापानपर्याप्त्या पर्याप्तस्याari जिते अष्टाविंशतिर्भवति अत्राप्येक एव भङ्गः । अथवा शरपा पनि अष्टाविंशतिर्भवति अत्राप्येक एवं भङ्गः । ततो भाषापर्याच्या पर्याप्तस्य च्वाससहितामाविशतौ सुस्वरे किप्ते त्रिंशजयति अत्राध्येक एव भङ्गः । अथवा प्राणापानपर्यापर्यासस्य खरेऽनुदिते तोक्न दिएको Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (100) अभिधान राजेन्द्रः । कम्म विशत् येक एवम सर्वसंख्या कोनो नको तो भाषापर्या पर्याप्तस्य सुस्वरसहितायामे फोनत्रिंशति - घोते किसे शिपति अप्येक एव भङ्गः सर्वसंपदा आहा रकशरीरिणां सप्त भङ्गाः । केवलिनामुदय स्थानानि दश तद्यथा विंशतिरेकविंशतिः शितिः सप्तविंशतिरशविंशतिरेकोनत्रि त्रिशत् शत् नमनुष्यगतिः पचेकि यजातिनाम बदनाम पर्याप्त सुभगमादेयं यश कीर्त्ति रित्येतयोनिदानः स विशतिः बबैको अङ्गः पाच सार्थकरकेपनि समुद्रागस्य कार्मणकाययोगे वर्तमानस्या से विशतिस्तीर्थकरनामसहिता एकदि शतिः । अत्राप्येको नङ्गः एषाऽपि तीर्थकर केवलिनः समुद्धातगतस्य कार्मणकाययोगे वर्त्तमानस्य वेदितव्या । तथा तस्यामेव विशताचीदारिकशर रिणां संस्थानानामेकतम संस्थानमोदारिकाङ्गोपाङ्गं वज्रर्षभनाराचसंहननमुपघातं प्रत्येकमितिषट् प्रकृतयः प्रक्विप्यन्ते ततः प्रविशतिः एषा च तीर्थकर केवलिनः श्रदारिकमिश्रका योगे वर्त्तमानस्य वेदितव्या । अत्र पनिः संस्थानः पर भङ्गा भवन्ति परं ते सामान्य मनुष्ययस्थानेष्वपि संजवन्तीति न पृथक गए पंप शितिस्तीर्थकरसदिता सप्तविंशतिर्भवति एषा तीर्थकर केवल्लिन औदारिक मिश्रकाययोगे वर्त्तमानस्यावसेया अत्र संस्थानं समचतुरस्रमेव वयं तत एक एवात्र भङ्गः सैव पराधातास प्रशस्ता प्रशस्तविहायोगत्यन्यतरवि हा योगति सुस्वरःस्वराज्यतरस्वरसहित] विशति एषा व तीर्थकरस्य सयोगिकंपनि श्रीवारिक काययोमे वर्त्तमानस्यावगन्तव्या ।भत्र संस्थानप प्रशस्तविहायोगति सुस्वरदुःस्वरसद्वितैश्चतुर्विंशतिर्ज ङ्गास्ते च सामान्यमनुप्योदय स्थानेष्वपि प्राप्यन्ते इति न पृथक भएयन्ते 1 वशिस करनामसहिता एकविंशद्भवति सा वसयोगिनिस्तीर्थकरस्यौदारिककाययोगे वर्तमानस्यायसेवा प शिवायोगेन पति उसेऽपि च मिर एकोनशत् । तीर्थकरकेलिः प्रागुका त्रिशत् वाग्यो गे निरुके सत्ये कोनत्रिंशद्भवति त्रापि षनिः संस्थानैः षम्भकाः प्राप्यन्ते विहायोगतिद्विकेन बद्धा द्वादश ते च प्रागिव न पृथग् गणयितव्याः । तत उच्च्छा से निरुद्धे सति अष्टाविंशतिः श्र त्रापि संस्थानगताः षक् जङ्गाः न पृथग्गणयितव्याः सामान्ये मनु स्थान गृहीत्य तथा मनुष्यगतिः पञ्चेन्द्रियजातिस्त्रनाम बादरनाम पर्यातकनाम सुनगमादयं यशःकीर्त्ति स्तीर्थकरनामति नदिया ततोऽयोगिकेवनिध रमसमये वर्तमानस्य प्राप्यते स एष तीर्थरामर तोलेद यः । इट् केवल्युदयस्थानमध्ये विंशतिरेकविंशतिः सप्तविंशति शशि एकत्रिंशन्नवाष्टरूपेष्वष्टसुदयस्थानेषु प्रत्येकमकैको नङ्गः प्राप्यते इत्यष्टौ भङ्गाः। तत्र विशत्यष्टकयोर्भङ्गायकृतशेषेषु यस्थातीतः पङ्ग स रुपया मनुष्याणामुदयस्थानेषु पशशिपादधिकानि देवानामुदयस्थानानि पद् तद्यथा एकविंशतिः प विंशतिः सप्तविंशतिरष्टातिरेको दे नमतिदेवानुपूर्वी पञ्चेन्द्रियजातिनाम बदनाम भ गर्भगयोरेकतरमादेयानादेययोरेकतरं यशः कीर्ययशकीयोंरेकतरमिति नव प्रकृतयो द्वादशसंख्यानिर्घुयोदयाजिः सह एकविशतिः सुभगभंगारे यानादेययशः कात्यशःकी सिंप रटी नाः पुर्नगानादयायशः की सीनामुदयः पिशाचादी कम्म नामवगन्तव्यः । ततः शरीरस्थस्य वैक्रियाङ्गोपाङ्गमुपघातं प्रत्येकं समचतुरस्रसंस्थानमिति पञ्च प्रकृतयः प्रविष्यन्ते देवानुपूर्वी चापनीयते ततो जाता पञ्चत्रिंशतिः श्रत्रापि त एवाष्टौ भङ्गाः । ततः शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य पराघाते प्रशस्तविडायोगती न प्रतियां सप्तविंशतिः भात पाटी भया देवानामग्रस्तविहायोगतेरुदयाभावात् तदाश्रिता विकल्पा न भवन्ति । ततः प्राणापानपर्याप्त्या पर्याप्तस्पासे हि महाविंशतिः प्रापि त पवाष्टौ भङ्गाः । अथवा शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य च्वा अनुदिते उद्योतनानि तुदितेऽष्टाविंशतिः अत्रापि प्रागिवाट भ ङ्गाः । सर्व संख्यया अष्टाविंशतौ भङ्गाः पोमश । ततो भाषापर्याया पर्याप्तस्य सुस्रे किले को प्य स्वरोदयो देवानां न भवतीति कृत्या सदाधिता विकल्पान भवन्ति । अथवा प्राणापानपर्याप्त्या पर्याप्तस्य सुस्वरे भनुदित उद्योतनानि तुदिते एकोनत्रिंशद्भवति उत्तरक्रियं हि कुर्वतो देवस्योद्योतयन्यते श्रापित वाट सर्वसंख्य या एकोनत्रिंशति पोश भङ्काः । ततो नाषा पर्याप्त्या पर्याप्तस्व सुस्वरसहितायामेको त एवाष्टौ भङ्गाः सर्वसंख्यया देवानां चतुः षष्टिङ्गाः । नैरयिका णामुदयस्थानानि पञ्च तद्यथा एकविंशतिः पञ्चविंशतिः सप्तविं शतिरष्टाविंशतिरेको रक न्द्रियजातिस्त्रनाम बादरनाम पर्याप्तकनाम दुर्भगनाम अनादेयमयशः व प्रः कीर्त्तिरित्येता नव प्रकृतयो द्वादश संख्याभिर्भुवोदयानिः सद् एकविंशतिः श्रत्र सर्वाण्यपि पदानि श्रप्रशस्तान्येवेति कृत्वा एक एव भङ्गः । ततः वैक्रियं वैक्रियाङ्गोपाङ्गं हुएक संस्थानमुपघातं प्रत्येकमिति पञ्च प्रकृतयः प्रतिप्यन्ते नरकानुपूर्वी चापनीयते ततः पञ्चविंशतिर्भवति श्रत्राप्येक एव जङ्गमाततः शरीरपर्याप्त्या पर्यातस्य पराघाते विहाय गतौ च प्रतिमायां सप्तविंशतिरत्राप्येक एव भङ्गः । ततः प्राणापानपर्याच्या पर्याप्तस्य उच्चासे किप्ते अष्टाविंशतिस्तत्राप्येक एव भङ्गः । ततो नाषापर्याप्त्या पर्याप्तस्य दुःस्वरे किसे एकोनत्रिंशत् अत्राप्येक एव भङ्गः सर्वसंख्या नैरयिकाणां पञ्च भङ्गाः । सकनोदयस्थानमङ्गाः पुनः सप्तसप्ततिशतानि एकनवत्यधिकानि ॥ सम्प्रति कस्मिन्नुदयस्थान कति नङ्गाः प्राप्यते इति चिन्ताय निरूपणार्थमाह । ||20|| एकबयालेकारस, तेत्तीसा बस्मयाणि तेतीसा । बारस सत्तरससया ढिगाणि विषेयसी अणतीसेकारस, सयासत पंचमी | एकेक च वीसा ददयं ते उदयनिही ॥ ३० ॥ विशत्यादिष्वष्टपर्यन्तेषु द्वादशसूरयस्थानेषु यथासंख्यमेकादिसंख्या उदयविवयः उदयप्रकारा उदयनङ्गा इत्यर्थः । तत्र विशताको भङ्गः स चातीर्थकरकेवल्लिनो ऽवसेयः । एकविंशती द्विचत्वारिंश केन्द्रात् पचविकलान त्य नव पचेन्द्रियानधिकृस्य नव मनुष्यानप्यधिकृत्य नव तीर्थकरमधिकृत्यैका सुरानधिकृत्यष्टी नैरधिकानधिकृत्यैक इति चतुर्दशतावेकादश से चैकेन्द्रियानवाधिकृत्य प्रा प्यन्ते श्रन्यव चतुर्विंशत्युदय स्थानस्याप्राप्यमाणत्वात् । पञ्चवितीय केन्द्रियानधिकृत्य सप्त वैकियतिर्यक्प वेन्द्रियानधिकृत्य सष्टीवैमनुष्यानधिकृत्यष्टी आदारक संयतामाश्रित्यैकः देवानधिकृत्यष्टी गैरकानधिकृत्यैक इति यत्तिपन्द्रियानामित्यप्रयो Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०५ ) निधानराजेन्द्रः । कम्म दश विकलेन्द्रियानधिकृत्य नव प्राकृततिर्यक्पञ्चेन्द्रियानधिकृस्य द्वे शते एकोननवत्यधिके प्राकृतमनुष्यान कोननवत्यधिके इति पट् शतानि सप्तकेन्द्रियागाश्रित्य पट् वैक्रियतिर्यक्पञ्चेन्द्रियानधिकृत्याष्टौ वैक्रियमनुष्यानधिकृत्याष्टौ श्राहारकसंयताद्यधिकृत्यैकः केवलिनमधिप्रत्येक देवानधिकृत्त्येक इति यगलू निशान विकलेन्द्रियाधिकृत्य पर प्राकृतिकपद्रयानधिकृत्य पचशतानि प सप्तत्यधिकानि वैक्रियतिर्यक् पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य षोमश मनुध्यानचित् पश्चशतानि धिकानि वैकियमनुष्यान धिकृत्य नव आहारकसंयतानधिकृत्य द्वौ देवानधिकृत्य पोश मारकामधिफत्येक इति को पचान दश शतानि षट्सप्तत्यधिकानि वैशिवमनुष्यानधिकृत्य नय भाहारकसंपतानधिकृत्य तीर्थकरमधिकृत्यैकः देवानधि कृत्य षोमश नारकानधिकृत्यैक इति त्रिशति एकोनत्रिंशच्छतानि सप्तदशाधिकानि नत्र विकलेन्द्रियादश निर्य पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य सप्तदशश तान्यष्टाविंशत्याधकानि निद्रपानचित्याष्टी मनुष्यामनधिकृत्य द्विपा शदधिकान्येकादश शतानि वैकियमनुष्यानधिकृत्येक आहारकसंयतानधिकृत्यैकः केवविनमधिकृत्यैकः देवानधिकृत्याष्टौ । एकविंशत्येकादश शतानि धिकानि त विकलेन्द्रि बाचित्यद्वारा पिवेन्द्रानधिकृत्य द्विपञ्चाशदधिका न्येकादश शतानि तीर्थकरमधिकृत्यैकः एको नवोदये एकोऽष्टोदये सर्वोदयस्थानेषु सर्वसंख्यया सप्तसप्ततितान्ये कनवत्यधिकानि इति तदेत्रमुकानि सप्रभेदमुदयस्थानानि द्वितीयगाथाया अ थेः कमिदं नापाटीकायामन्यथा प्रतिभातीति तच्छाय व्याख्यायते एकोनत्रिंशच्छतके सप्तर्ति चैकादशशतके पञ्चषष्ट्य पिकांस दिएकोनशतानि सदापिकानि भवन्ति सानीधमविकलेन्द्रियाणामशदश ति पञ्चेन्द्रियाणामष्टाविंशत्यधिकानि सप्तदश शतानि मनुयाणां द्विपञ्चाशदधिकान्येकादश शतानि वै क्रियतिरश्चाम वैक्रियमनुष्याणामेकमादारकाणामेकं केवलिन एकं देवानामी एवं पूर्वोक्ता संख्या तथैकत्रिंशदयं विकलेन्द्रियाणां धिकान्येकादश शतानि केयजिन एकमित्थं पञ्चधिकान्येकादश शतानि एकैको नवोदये केवलिनो जयति तो नवोदयेोदये बैंको भङ्गः विंशत्यस्थानादारज्योदयादस्था नानि एवं ससंख्यया एकनवत्यधिकानि तानि सप्तसहस्राणि भवन्ति । I सम्प्रति सत्तास्थानप्ररूपणार्थमाह । तिन गुणन, अमसीसी असी गुलामी | अ य उप्पन्नत्तरि, नव ग्रह य नामसंताणि ॥ ३१ ॥ नाम्नो नामकर्मणो द्वादश सत्तास्थानानि तद्यथा त्रिनवतिर्द्विनव तिरेकोननवतिरष्टाशीतिः षमशीतिः अशी तिरेकोनाशी तिरटसप्ततिः षट्सप्ततिः पञ्चसप्ततिः नव अष्टाविति । तत्र सर्वप्रकृतिसमुदाय नियतिर्द्धिनतिरेकोननवतिरए सेव तीर्थंकररहिता द्विनवतिचिनवतिवादारकशरीरादार काङ्गोपाङ्गादारकसंघाताहारकबन्धनरूपचतुष्टयेन रहिता एकोपवि सीकररहिता अतः ततो नरकगतिरानुपूप्यरचना कम्म देवगतिदेवानुपूर्व्यारुद्वत्रितयोः षकशीतिः अथवा श्रशीतिः । तत्कर्मणो नरकगतिप्रायोग्य बनतो नरकगतिनरकानुपूर्वीचेविरारीरकियाङ्गोपाङ्गदेष्टिय संघातकियद्यन्धनबन्धे मशी ति अथवा अशीतिः। तत्कर्मणो देवगतिप्रायोग्य तो देवग तिदेवानुपूर्वीक्रियचतुष्यथेति नरकनिर कानुपूर्वीक्रिय चतुष्टयो हलने अथवा देवगतिदेवानुपूर्वीवैक्रियचतुष्टयोद्वह्नने कृते अशीतिः । ततो मनुजगतिमनुजानुपूर्व्योरुनितयोरटसप्ततिः । तान्य कृषकाणां सत्तास्थानानि | कृपाण पुनरमृति निरकगतिरानुपूर्वी तिर्यगतिस्तिर्यगानुकेन्द्रियजातिर्जीन्द्रियजातिस्त्रीन्द्रियजातिश्चतुरिन्द्रियजाति-घरातपोद्योतसाधारणरूपे प्रयोदशके की अशीतिर्भवति वितेको एकोनाशीतिः एकोननवतेः कीणे प् श्रष्टाशीतेः कीणे पञ्चसप्ततिर्मनुष्यगतिः पञ्चेन्द्रियजातिस्त्रसनाबादपर्याससुभगादेव यश कीर्त्तितीर्थकराणीति नवकं सत्तास्थानं तच्चायोगिकेवस्तीर्थकरस्य परमसमये वर्तमानस्य प्राप्यते तदेव तीर्थकर के जिनकारमसमये तीर्थकरनामरहितमकमिति मुनि सानानि ॥ सम्प्रति संवेधप्रतिपादनार्थमुपक्रमते । अपचारसपारस, बंपोदयसंतपय मिठाणाणि । भोणा एसेो य जत्य जहासंभवं विभजे ॥ २२ ॥ नाम्नो बन्धोदयसत्ताप्रकृतिस्थानानि यथाक्रममौ छादश द्वादशसंख्याकानि तानि बोधेन सामान्येन प्रादेशेन च विशेषेण च यथासंभवं यानि यत्र यथा संजयन्ति तानि तत्र तथा विभजेतू विकल्पयेत्। उत्तरप्रन्यानुसारेण प्रबन्धस्थान बनत एतावन्ति उदयस्थानानि पतायन्ति च सत्तास्थानानीति सामान्यं मिथ्याचादिषु गुणस्थानेषु गत्यादिषु च मार्गणास्थानेषु प्रत्येकं एतावन्ति उदयस्थानानि एतावन्ति च सप्तास्थानानि एवं तेषां परस्परं संवेधः इत्यादेशः । श्रत्र प्रथमतः सामान्येन संपत्ति कुर्वा ॥ नवपंचोदयसंता, तेवी से पानी सीसे । अ चरबीसे, नपचितसतसम्म ॥ २३ ॥ एगेगमेगती से, एगे एगुदय असंतम्मि । बरयबंधी दस दस वेयगतम् गाणि ॥ २४ ॥ प्रयोविंशतिशत पाशतिबन्धे च प्रत्येकंनयन उदयस्थानानि । पञ्च पञ्च सत्तास्थानानि तत्र त्रयोविंशतिबन्धोऽपप्रायोग्ये एव तद्बन्धकाश्च एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रि यचतुरिन्द्रियतिर्यक्पञ्चडिया मनुष्याश्च ।। । एतेषां च त्रयोविंशतिबन्धकानां यथायोगं सामान्येन नवोदयस्थानानि तद्यथा एकविंशतिअतुर्विगतिः पञ्चधिमतिः पतिः समविगतिरहाविंशतिरेकोनात् त्रिंशत् एकत्रिंशत् । तथा त्रयोविंशतिबन्धकानामेकविंशत्युदयोऽपान्तरालगतौ वर्त्तमानानामेकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिति पञ्चेन्द्रियमनुष्याणामवसेयः तेषामपर्यातकेन्द्रियाणां वैकिषतिर्यग्मनुष्याणां च मिथ्यादृष्टीनां पदाः। पर्यतकेन्द्रियाणां पर्याप्तापर्यासचितुरिन्द्रियतिर्यक्पन्द्रियमनुष्याणां च मिथ्यादृष्टीनां सप्तविंशत्या पर्यायरिन्द्रियविषयन्द्रियमनुष्याणां मिध्यानामेकदा विकलेन्द्रिय तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां मिथ्यादृष्टीनामुक्तशेषाः त्रयोविंशतिबन्धका न प्रवन्ति । तेषां च त्रयोविंशति Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१०) कम्म अनिधानराजेन्छः। बन्धकानां सामान्येन पञ्च सत्तास्थानानि तद्यथा द्विनव- कसम्यम्हष्टीना बेदकसम्यम्दृष्टीनां वा पञ्चेन्धियतिर्यग्मनुष्यातिरष्टाशीतिः षरशीतिरशीतिरष्टसप्ततिश्च । तत्रैकवि- णामपान्तरालगतौ वर्तमानानामवसेयः। पञ्चविंशत्युदयः प्राहाशत्युदये धर्तमानानां सर्वेषामपि पञ्चापि सत्तास्थानानि रकसंयतानां वैक्रियतिर्यग्मनुष्याणां च सम्यग्दृष्टीनां मिथ्याहकेवलं मनुष्याणामष्टसप्ततिवर्जाति चत्वारि सत्तास्थानानि वक्तः टीनां वाहिशत्युदयः कायिकसम्यग्दृष्टीनां वेदकसम्बग्दृष्टीनां व्यानि यतोऽष्टसप्ततिर्मनुष्यानुपूर्ध्या उद्वबितायाः प्राप्यतेन च मनु- वा पञ्चेन्द्रियतियग्मनुष्याणां शरीरस्थानां सप्तविंशत्युदयः प्याणां तद्धवनसंजयः । चतुर्विशत्युदयेऽपि पञ्चापि सत्ता- आहारकसंयतानां वैक्रियतिर्यग्मनुष्याणांतुसम्यम्दृष्टीनां मिथ्यास्थानानि केवलं वायुकायिकस्य वैक्रियं कुर्वतश्चतुर्विशत्युदये दृष्टीनां वा अष्टाविंशत्यकोनत्रिंशदयावपि यथाक्रमं शरीरपवर्तमानस्याशीत्यष्टसप्ततिवर्जानि त्रीणि सत्तास्थानानि यत- र्याप्त्या पर्याप्तानां प्राणापानपर्याप्त्या चापर्याप्तानां तिर्यग्मनुष्याणां स्तस्य वैक्रियपटू मनुष्यद्विकं च नियमादस्ति यतो वैक्रियं हि कायिकसम्यग्दृष्टीनां वेदकसम्यम्दृष्टीनां का।तथा श्राहारकसंयसाकादमुन्नवत् वर्तते इति न तउद्धवयति तदनावाश्च न देवद्धि- तानां वैक्रियतिर्यग्मनुष्याणां च सम्यम्हष्टीनां वा मिथ्यादृष्टीनां कनरकद्धिके अपि समका वैक्रियपटूस्योद्वलनसंजवात्तथा स्वा- वाध्वसेयौ। त्रिंशदुदयस्तिर्यग्मनुष्याणां सम्यग्दृष्टीनां मिथ्यादृष्टीभाव्यात् वैकियषट्रे चोलिते सति पश्चात् मनुष्यहिकमुस- नांचातथा आहारकसंयतानां वैक्रियसंयतानांच एकत्रिंशदुदयः यति न पूर्व तथा चोक्तं चूर्णौ " वेब्धियछकं उबले पच्छा पञ्चेन्द्रियतिरश्वां सम्यग्दृष्टीनां मिथ्यादृष्टीनां वा नरकगतिप्रायोमायदुर्ग उम्बने"श्त्यशीत्यष्टसतिवर्जसत्तास्थानसंजयः। पञ्च ग्यां त्वष्टाविंशति बघ्नतांत्रिंशदुदयः । पञ्चेन्द्रियतिम्मनुष्याणां विंशत्युदयेऽपि पश्च सत्तास्थानानि तथाऽसप्ततिरवैकियवायुका- मिथ्यादृष्टीनामेकत्रिंशदुदयः । पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मिथ्याहशामष्टायिकतैजस्कायिका अधिकृत्य प्राप्यते नान्यान् यतस्तैजस्का- विशतिबन्धकानां सामान्येन चत्वारि सत्तास्थानानि तद्यथा यिकवायुकायिकवोऽन्यः सर्वोऽपि पर्याप्तको नियमान्मनुष्यग- द्विनवतिः एकोननवतिरष्टाशीतिःषमशीतिश्च । तत्रैकविंशत्युदये तिमनुष्यानुपूज्यों बनाति तथा चाह चूर्णिकृत् “तेउवा उधजो घर्तमाना देवगतिप्रायोग्याऽपार्विशतिर्बन्धकानां द्वे सत्तास्थाने पजत्तगो मणुयगई नियमा बंध" ततोऽन्यत्राटसप्ततिर्न प्रा- तद्यथा द्विनवतिरष्टाशीतिचा पञ्चविंशत्युदयेऽध्यष्टाविंशतिबन्धप्यते । पशित्युदयेऽपि पञ्चापि सत्तास्थानानि नवरमष्टसप्तति- कानामाहारकसंयतक्रियतिर्यग्मनुष्याणां सामान्यन ते एवढे रवैक्रियवायुकायिकतैजस्कायिकानां द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाणां सत्तास्थाने । तत्र आहारकसंयतो नियमादाहारकसत्कर्मा तत. वा तेजोवायुभवादनन्तरगतानां पर्याप्तापर्याप्तानां ते हि यावन्म- स्तस्य द्विनवतिःसत्तास्थानं शेषाश्च तिर्यश्चो मनुष्या वाऽऽहारकसनुष्यगतिमनुष्यानुपूव्यौ न बध्नन्ति तावत्तेषामष्टसप्ततिः प्राप्यते कर्माणः तदहिताश्च भवन्ति ततस्तेषां अविसत्तास्थाने। षनान्येषाम् ।सप्तविंशत्युदये अष्टसप्ततिवर्जानि चत्वारि सत्तास्था- सिंशतिसप्तविंशत्यष्टाविंशत्येकोनविंशवृदयध्वपि ते एव वे सनानि। सप्तविंशत्युदयो हि तेजोवायुवर्जपर्याप्तबादरैकेन्द्रियवैकि- सास्थाने सामान्येन वेदितव्ये । त्रिंशदुदये देवगतिनरकगतिप्रायतिर्यग्मनुष्याणां तेषां चावश्यं मनुष्यद्विकसंजवादप्रसप्ततिर्न योग्याष्टाविंशतिबन्धकानां सामान्येन चत्वारि सत्तास्थानानि प्राप्यते । अथ कथं तेजोवायूनां सप्तविंशत्युदया न भवन्ति ये- तद्यथा द्विनवतिरेकोननवतिः अष्टाशीतिः पडशीतिश्च । तत्र द्विनतर्जनं क्रियते उच्यते सप्तविंशत्युदय एकेन्द्रियाणामातपोद्यो- नवतिः अष्टाशीतिश्च प्रागिव नावनीया । एकोननवतिः पुनरेवं साम्यतरप्रोपे सति प्राप्यते ।नच तेजोवायुष्वातपोधोतोदयःसं- कश्चिन्मनष्यस्तीर्थकरनामसत्कर्मा वेदकसम्यग्दृष्टिः पूर्वबद्धनप्रवति ततस्तद्वर्जनम्।अष्टाविंशत्येकोनत्रिशदेकत्रिंशत् त्रिंशऽदये- रकायुष्को नरकाभिमुखः सम्यक्त्वात् प्रतिपत्य मिथ्यात्वं गतः बुनियमादष्टसप्ततिवर्जानि चत्वारि चत्वारि सत्तास्थानानि भ- सस्य तदा तीर्थकरनामबन्धाभावानरकगतिप्रायोम्यामष्टावंशष्टाविंशत्युदयो हि पर्याप्तविकलेजियपञ्चेन्धियतिर्यग्मनुष्याणा- तिं बनतः एकोननवतिः सत्तायां प्राप्यते । षमशीतिस्त्वेवं इह मेकत्रिंशत्रुदयश्च पर्याप्तविकन्छियपञ्चेन्द्रियतिरश्चां ते चाव- तीर्थकराहारकचतुष्कदेवगतिदेवानुपूर्वीनरकगतिनरकानुपूर्वीश्यं मनुष्यगतिमनुष्यानुपूर्वीसत्कर्माण इति । तदेवं त्रयोविंशति- वैक्रियचतुष्टयरहिता त्रिनवतिरशीतिर्भवति तत्सत्कर्मा पञ्चेन्द्रियथायोगं नवाप्युदयस्थानान्यधिकृत्य चत्वारिंशत्संख्यानि नव- यतिर्यग्मनुष्यो वा जातस्सन् सर्वाभिः पर्याप्तितिः पर्याप्तो यदि न्ति पञ्चविंशतिपदिशतिबन्धकानामप्येवमेव केवलं पर्याप्तके- विशुकः ततो देवगतिप्रायोग्यामष्टाविंशति बन्नाति तद्वन्धे च देयिप्रायोग्यपश्चविंशति (पशिति) बन्धकानां देवानामकविंश वद्विकं चैक्रियचतुष्टयं सत्तायां प्राप्यते इति तस्य षमशीतिः । तिपञ्चविंशतिसप्तविंशत्यष्टाविंशत्येकोनत्रिशस्त्रिंशपषु षट्सूद अथ सर्वसंक्निष्टस्ततो नरकगतिप्रायोम्याऽष्टाविंशतिस्तद्वन्धे यस्थानेषु बिनवतिरष्टाशीतिश्चेति द्वे द्वे सत्तास्थाने वक्तव्ये । नरकद्विकं वैक्रियचतुष्टयं चावश्य बन्धमानत्वात् सत्तायां प्राप्यअपर्याप्तविकोन्जियतियंपञ्चेन्द्रियमनुष्यप्रायोग्यां तु पञ्चविंश- ते इत्येवमपि तस्य षमशीतिः । एकत्रिंशदुदये त्रीणि सत्तास्थातिं देवा न बन्नन्ति अपर्याप्तेषु विकलेन्द्रियेषु तिर्थक्पञ्चेन्नियेषु नानि तद्यथा द्विनवतिरष्टाशीतिः पमशीतिश्चैकोननवतिरिह न मनुष्येषु च मध्ये देवानामुत्पादानावात् । सामान्येन त्रयोविंशतिब प्राप्यते एकत्रिंशदुदयो हि तिर्यक्पञ्चेन्षियेषु प्राप्यते न चतिर्यकु न्धे पञ्चविंशतिबन्धे षड्विंशतिबन्धे च प्रत्येकं नवाप्युदयस्थाना तीर्थकरनाम सद्भवति तीर्थकरनामसत्कर्मणां तिर्यच चोत्पादान्यधिकृत्य चत्वारिंशत् सत्तास्थानानि । अष्टाविंशती बध्यमानाया नावात् । षमशातिसत्तास्थानन्नावना च प्रागिव वोदितव्या । तदे. महावुदयस्थानानि तद्यथा एकविंशतिः पञ्चविंशतिः षभिंशतिः वमष्टाविंशतिबन्धकानामष्टावुदयस्थानान्याधिकृत्यैकोनत्रिंशत् सं. सप्तविंशतिरष्टाविंशतिरेकोनत्रिंशत् त्रिंशदेकत्रिंशत् । श्ह द्विधा ख्यानि सत्तास्थानानि भवन्ति (नवसत्तिगुणतीसतीसम्मि) एअष्टाविंशतिर्देवगतिप्रायोग्या नरकगतिप्रायोग्या च । तत्र देव- कोनविंशति त्रिंशति च बध्यमानायांप्रत्येक नव नव उदयस्थानागतिप्रायोग्याया बन्धेऽधाप्युदयस्थानानि नानाजीवापेकया प्राप्य- नि सप्त च सत्तास्थानानि । तत्रोदयस्थानान्यमूनि तद्यथा एन्ते नरकगतिप्रायोग्यायास्तु बन्धे हे तद्यथा त्रिंशत् एकत्रिंशत् ।। कविंशतिश्चतुर्विंशतिः पञ्चविंशतिः पक्विंशतिः सप्तविंशतिरष्टातत्र देवगतिप्रायोग्याटाविंशतिबन्धकानामेकविंशत्युदयः कायि- विंशतिरेकोनत्रिंशत् त्रिंशत् एकत्रिंशत् । तत्रैकविंशत्युदयः Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्म ( ३११ ) निधानराजेन्द्रः । पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्यप्रायोग्यामे कोनत्रिंशतंभ बनतापर्या--- मैकेन्द्रियविकलेन्द्रिय पञ्चेन्द्रियतियग्मनुष्याणां देवनैरयिकाणां च चतुर्विशस्युयः पर्वताप दासकेन्द्रियाणां पचवित्यः पर्यातकेन्द्रियाणां देवरकाणां वैकियति म्मनुष्याणां मिथ्यादृष्टीनां षशित्युदयः पर्याप्तै केन्द्रियाणां पर्याप्तापर्याप्तविकलेन्द्रियतिर्यक् पञ्चेन्द्रियमनुष्याणां सप्तविंशत्युदयः पर्याद्रियाणां देवनैरधिकायां वैकियतियंमनुष्याणा मष्टाविंशत्युदयः एकोनत्रिंशदयश्च चिकन्द्रियतिपन्चे प्रियमनुष्याणां वैक्रियतिग्मनुष्य देवनैरयिकाणां चाशयः विकलेन्द्रियमनुष्याणां देवानामुद्योतवेद कानामेकत्रिंशदयः प विकतचेन्द्रियाणामुद्योतयेद कानम् । तथा दे यगतिप्रायोग्यामेकोन िबनतो मनुष्याविरतसम्पन्नदयस्थानानि पञ्च तद्यथा एकविंशतिः पतिरष्टाविंशति कोशिश आहारकसंघतानां वैयितानां च इमानि पञ्च उदयस्थानानि तद्यथा पञ्चविंशतिः सप्तविंशतिरष्टाविंशतिरेकोनविंशत् विशत् । असंयतानां संयतासंयतानां च वैक्रियं कुर्वतां मनुष्याणां त्रिंशद्वर्जीनि चत्वार्युदयस्थानानि । शिरकमा जयति पनि चेत् उच्यते संतामुक्त्वा अन्येषां मनु कुर्यामुयोदयानाया। सामान्येनैकोनत्रिशद्वन्धे सप्त सत्तास्थानान्यमूनि तद्यथा विनवतिः द्विनवतिरेकोननवतिः प्रष्टाशीतिः पशतिरशीतिद्रवतिपय सा 1 केन्द्रियचिकलेन्द्रियश्विन्वेन्द्रियाणामेकविंशत्युदर्त मानानां पञ्च सत्तास्थानानि तद्यथा द्विनवतिः श्राशीतिः षमशीतिरशीतिरहसति । एवं चतुवैिशतिपविशतिषशापि कम्यम् सप्तविंशत्यष्टाविंशत्ये कोन कतिपनि पत्यार बयारि सत्तास्थानानि ज्ञावनीयानि । यथा त्रयोविंशतिबन्धकानां प्रागुक्ता । तथा अत्रापि कन्या मनुजयतिप्रायोग्यामे फोनविगतं बनता यद्रियतिर्यक्पचेन्द्रियाणां तिर्यग्गतिमनुष्यगतिप्रायोग्यं पुनर्वघ्नतां मनुष्याणां च स्वोदयस्थानेषु यथायोगं वर्तमानानामष्टसप्ततिवर्जीनि तान्येव चत्वारि सत्तास्थानानि वेदितव्यानि । देवनैरािणां तिर्यक्पञ्चेन्द्रिय मनुष्यगतिप्रायोग्यामेोनत्रिंश तं स्वस्यादयेषु वर्तमानानां द्वे द्वे सत्तास्थाने तथा द्विनवतिरपाशीतिय केवलं नैरस्य मिपाकरकर्मणो मनुष्यगतिप्रायोग्य मे कोनविंशतं यतः स्वोदयेषु प सु यथायोगं वर्तमानस्यैकोननवतिरेका व्यापततीशंक रनामसहितस्याहारचतुरहितस्यैव मिथ्यात्वगमनासंजयः " सभसंति व न मिच्छो " शति वचनात् ततस्त्रिनवतेराहारकचतुष्केपनी सत्येोमनचतिरेव तस्य सत्तायां यदेवप्रायोग्यको करनामसहित बनतः पुनरवि रतस्य सम्यन्नरेमनुष्यस्यैकविंशत्युदये वर्तमानस्य द्वे सत्तास्थाने तथा नगरेकोननवति एवं पवित शतिसप्तविंशत्याविंशत्ये कोनविंशतेि ए द्वे सत्तास्थाने वक्तव्ये । आहारकसंयतानां पुनः स्वस्वोदये वर्तमानानामेकमेव त्रिनवतिरूपं सत्तास्यानमवगन्तव्यं तदेवं सामान्यनेकविंशत्युदये सप्त सत्तास्थानानि च स्युदये पञ्च पद सप्त सप्त सप्तये पाविशत्युदये पम्पको त्रिश दये पस्, एकत्रिंशदये चत्वारि, सर्वसंख्यया चतुःपञ्चाशत् स कम्म स्थानानि तथा तिर्यग्गतिप्रायोग्यामे फोनविज्ञानामेकेन्द्रि विकलेन्द्रिय तिर्यक्पचेयमनुजवनैराधिकाणामुदयस्याना निज्ञापितानि तथा शितमन्युतसहित तिर्यग्गतिप्रायोग्यां बनतामेकेन्द्रियादीनामुदयास्थानानि प्राचीन मनुष्य गतिप्रायोग्य तीर्थंकरनामसहितां त्रिशर्त बनतां देवनैरथिकावामुपसत्तास्थानाम्युच्यन्ते तत्र देवरूप यथोक बिन त एकविंशत्युदये वर्तमानस्य द्वे सत्तास्थाने त्रिनवतिरकोननवतिश्च । एकविंशत्युदये वर्तमानस्य नैरयिकस्यैकं सत्तास्थानमेकोननवति त्रिनवतिरूपं तस्य सत्तास्थानं न भवति तीर्थकरादारक सत्कर्मणो नरकेापाभावात्। उक्तं च चूर्णी "जस्स तित्थगराहारगाणि जुगवं संति सो नरपसुन उववजह" इति एवं पञ्चविशतिसप्तविंशत्यष्टाविंशत्ये कोनाशयपि भा वनीयं नवरं नैरयिकस्य त्रिंशदयो न विद्यते त्रिंशदयो दि उद्योगे सति प्राप्यते न च नैरधिकस्योद्योतोदयो भवति तदेवं सामान्येन त्रिशइन्धकानामेकविंशत्युदये सप्त चतुर्विंशत्युदये पञ्च पञ्चविंशत्युदये सप्त षग्मिशत्युदये पञ्च सप्तविंशत्युये पद अष्टाविंशत्यये पर एकोनत्रिशद पर दिये षट् एकत्रिंशदु चत्वारि सर्वसंख्या द्विपम्या (पगमेती सति) कति बध्यमानायामेकमुदयस्थानं त्रिंशत् यतः एकत्रिंशत् देवगतिप्रायोग्यां तीर्थकराहारकद्विकसहितां बध्नतोयमन्तसंयतस्थापूर्वकरणस्य वा प्राप्यते न तेर वा कुर्वन्ति ततः पञ्चविंशत्यादय चदद्या न प्राप्यन्ते इति एकं संसास्थानम् चिनवतिः तीर्थकराहारक पप सशाभयातू (पगे गुदय भट्टसंतम्मि ) एकस्मिन् यशःकीर्तिरूपे कर्मणि बध्यमाने एकमुदयस्थानं त्रिंशत् एका हि यशःकीर्ति बध्नाति अपूर्वकरणादयस्ते चातिविशुयायिमाहारकं वा नाते ततः शिपाई म्युदयस्थानानहानि प्राप्त स्थानानि तद्यथा त्रिनयतिर्द्विनयतिरेकोननवतिः प्रष्टाशीतिः अशीतिः एकोनाशीतिः षट्सप्ततिः पञ्चसप्ततिश्च । तत्र यानि चत्वारि सत्तास्थानानि उपशमश्रेण्यमाथवा कूपकश्रेण्यां यावदनिवृतिवादगुणस्थाने त्या त्रयोदश नामानि न कीयन्ते प्रयोदशसु च नामसु कीणेषु नानाजीवापेक्कयोपरितनानि चत्वारि यन्ते तानि च तावल्लभ्यन्ते यावत् सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानम् । ( चवरयबंधे दस दस वेयगसंतम्मि गणाणि ) उपरते बन्धे बन्धानाव इत्यर्थः (वेयगन्ति ) वेदनं वेदः वेद एव वेदकः वेदेवदये इत्यर्थः सत्तायां च प्रत्येकं दश दश सत्तास्थानामि तथा मूनि दश उदयस्थानानि तद्यथा विंशतिरेकविंशतिः षमिशतिः सप्तविंशतिः अष्टाविंशतिरेकोनत्रिंशत् त्रिंशत् एकत्रिंशत् नव अष्टौ च । तत्र विंशत्येकविंशतीयथासंख्यमतीर्थकरतीर्थकरयोः सयोगिकेवलिनोः कार्मणकाययोगे वर्तमानयोः शितिसप्तविंशत तयोरेवीदार काययोगे वर्त्तमानयोरेव तीर्थकरस्य स्वभावस्थस्य त्रिंशत्त खरे कोनोऽपि तिस्तीर्थकरस्य स्वनावस्थस्य एकत्रिंशत् तस्यैव स्वरे निरुके सति त्रिंशत् बच्चासेऽपि निरुके एकोनत्रिंशत् एवं च द्विधा त्रिंशदेकोनत्रिंशती प्राप्येते । प्रयोगिनस्तीर्थकरस्य चरमसमये वर्त्तमानस्य नोया तीर्थकरस्यायोशेदयाः दश सत्तास्थानानि तद्यथा निवतिनिवतिरेकोननवतिरष्टाशीतिरशीतिरेकोनाशीतिः पट्सप्ततिः पतिः नव अट्टी च तत्र विशाद ये द्वे सत्तास्थाने एकोनाशीतिः पाच Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१२) कम्म अभिधानराजेन्डः। कम्म सप्ततिश्च एवं निंशत्यष्टाविंशत्युदयेऽपि अष्टव्या । एकविंश- च्छेदात् (करणं पर एत्थ अविगप्पोत्ति) इद केवलिनो मनोवित्युदये श्मे वे सत्तास्थाने तद्यथा अशीतिः षट्सप्ततिश्च एवं ज्ञानमधिकृत्य संझिनो न जवन्ति जन्यमनःसंबन्धात पुनस्तेऽपि सप्तविंशत्युदयेऽपि । एकोनविंशति चत्वारि सत्तास्थानानि तद्यथा संझिनोव्यवन्द्रियन्ते नक्तंच चूर्णी "मणकरणे केवसिणो वि अस्थि अशीतिः पट्सप्ततिरेकोनाशीतिः पञ्चसप्ततिश्च यत एकोन-| तेण संनिणो वुचंति मणोविन्नाणं परुच्च तेन सन्निणो वंति त्रिंशत्तीर्थकरस्यातीर्थकरस्य च नवति । तत्राद्ये वे तीर्थकरम- | त्ति" तत करणं अव्यमनो रूपं प्रतीत्य यःसंझी सयोगिकेवली धिकृत्य वेदितव्ये अन्तिमे द्वे अतीर्थकरमधिकृत्य । त्रिंशदुदयेऽष्टौ घाभवस्थस्तस्मिन् । अत्रज्ञानावरणेऽन्तराये च अधिकल्पानामसत्तास्थानानि तद्यथा त्रिनवतिनियतिरेकोननवतिः अष्टाशी- जावः । आमूलं तदुच्चेदे सति केवशित्वनावात् । तिः अशीतिः एकोनाशीतिः पट्सप्ततिः पञ्चसप्ततिश्च । तत्राद्या- ___ सम्प्रति दर्शनावरणं जीवस्थानेषु चिन्तयति नि चत्वार्युपशान्तकपायस्य कृपकस्य च त्रयोदशकं न कीयतेश्र- तेरे नव चउपणगं, नव सत्तेगम्मि जंगमिक्कारा । न्यानि चत्वारि कोणत्रयोदशकस्य केवसिनो वा श्राहारकसत्क- वअणिअाउगोए, विजज मोहं परं बुच्छ ॥ ३७॥ मणस्तीर्थकरस्याशीतिस्तस्यैवातीर्थकरस्यैकोनाशीतिः श्राहारक चतुष्टयरहितस्य तीर्थकरस्य कोणकषायस्य सयोगिकेवलिनो वा पर्याप्तसंझिपञ्चेन्द्रियवर्जेपु शेपेषु त्रयोदशसु जीवस्थानेषु न यविधो बन्धश्चतुर्विधः पञ्चविधो वा उदयो नवविधा सत्ता षट्सप्ततिः तस्यैवातीर्थकरस्य पञ्चसप्ततिः । एकत्रिंशदये हे नवविधो बन्धः पञ्चविध उदयो नवविधा सत्तेत्यती द्वौ सत्तास्थाने तयथा अशीतिः षट्सप्ततितीर्थकरकेवलिनो वेदि विकल्पो ( पगम्मि भंगमिक्कारत्ति ) एकस्मिन् पर्याप्तसंहितव्ये अतीर्थकरकेवक्षिन एकत्रिंशदुदयस्यैवानावात् । नवोद पञ्चेन्डियरूपे एकादश नास्ते च तथा प्राक सामान्यग ये त्रीणि सत्तास्थानानि तद्यथा अशीतिः षट्सप्ततिर्नव च तत्राद्ये संवेधचिन्तायामुक्तास्तथैवात्राप्यन्यूनातिरिक्ता वक्तव्याः (वे. द्वे यावद द्विचरमसमयं तावदयोगिकेवलिनस्तीर्थकरस्य बेदि अणिमानगोए विभज्जति) वंदनीय आयुपि गोत्रेच यानि बतव्ये चरमसमये तु नव । अटोदये त्रीणि सत्तास्थानानि तद्यथा धादिप्रकृतिस्थानानि तानि यथाक्रमं जीवस्थानेषु विभजेत् विक एकोनाशीतिः पञ्चसप्ततिरष्टौ च । तत्राद्वे अयोगिकेवलिनोऽतीर्थकरस्य द्विचरमसमयं यावत् वेदितव्ये चरमसमये त्वष्टा रूपयेत् । तत्रेयं वेदनीयगोत्रयोर्विकल्पनिरूपणार्थमन्तर्भाग्यगाथा विति । एवं बन्धकस्य दशाप्युदयस्थानानि जवन्ति तदेवमुक्ता पज्जत्तगसनियरे, अट्टचनकं च वेयणियनंगा। उत्तरप्रकृतीनां बन्धोदयसत्तास्थानभेदाः संबंधश्च ॥ संवेधस्वा सत्तयतिगं च गोए, पत्तेयं जीवगणेसु ॥ ३०॥ मित्वं गुणस्थानानि चाधिकृत्य स्वामी निदश्यते। पर्याप्त संझिनि वेदनीयस्यायौ नलास्तद्यथा असानस्य बन्धः तत्रोक्त क्रमेणैवैषां जीवस्थानानि। असातम्योदयः सातासाते सती, अथवा असातस्यबन्धः सात स्योदयः सातासाने सती एतौ द्वौविकल्पी मिथ्याष्टिगुणस्थातिविगप्पपगश्वगणे-हिं जीवगुणसन्निएसु ठाणेसु।। नकात प्रभृति गुणस्थानकं यावत् न परतः परतोऽमातस्य बन्धाजंगा पलंजियव्वा, जत्थ जहा संजवो नवद ॥२५॥ जावात् । तथा सातस्य बन्धः असातस्योदयः सातासाते सती त्रयो विकल्पा बन्धोदयसत्तारूपास्तेषां संबन्धीनि स्थानानित्रिप्र- अथवा सातस्य बन्धः सातस्योदयः सातासाते सती । एती व कृतिस्थानानि त्रिविकल्पप्रतिस्थानानि तेर्जीवसंहितेषु गुण- द्वौ विकल्पो मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकादारभ्य सयोगिकेवलिगुसंझितेषु च स्थानेषु जीवस्थानेषु गुणस्थानेषु चेत्यर्थः । णस्थानकं यावत् प्राप्यते ततः परतो बन्धानावे असातस्योदयः भङ्गाः पूर्वोक्तानुसारेण वदयमाणानुसारेण च प्रयोक्तव्याः । सातासाते सती अथवा सातस्योदयः सातासाते सती पती द्वी कथमित्याह ( जत्थ जहा संभवो भव ) यत्र येषु जीवस्थानेषु विकल्पी अयोगिकेवलिनि द्विचरमसमयं यावत् प्राप्येते चरमस. गुणस्थानेषु च यथा सनवो नवति यथा घटना नवति तत्र तथा मये तु भसातस्योदयः असातस्य सत्ता यस्य द्विचरमसमये सातं प्रयोक्तव्याः यो यत्र यथा नङ्गे घटतेस तत्र तथा कर्तव्य इत्यर्थः । कीणं यस्य त्वसानं द्विचरमसमये कीणं तस्य सातस्योदयःसाततत्र प्रथमजीवस्थानान्यधिकृत्य प्रतिपादयति । स्य सत्तेति सर्वसंख्यया अष्टौ भनाइह सयोगिकेवझी अयोतेरससु जीवसंखे-वएसु नाएंतरायतिविगप्पो। गिकेवली च व्यमनोनिःसंबन्धात्संही व्यवदियते ततः संक्रिनि पर्याप्त वेदनीयस्याप्पी जनाः उच्यमानान विरुद्धयन्ते इतरेषु प. एकम्मि तिविगप्पो, करणं पइ एत्थ भविगप्पो ॥३६॥ र्याप्तसंझिव्यतिरिक्तेषु त्रयोदशसुजीयस्थानेषु प्रत्येक प्रत्येकं च. सक्किप्यन्ते संगृह्यन्ते जीवा एनिर्सित सकेपा अपर्याप्तफेन्द्रिय त्वारो भा भवन्ति तद्यथा असातस्य बन्धः असातस्योदयःसातास्वादयोऽवान्तरजातिनेदाः । जीवानां संकेपाः जीवसकेपाः साते सती अथवा सातस्य बन्धः सातस्योदयः सातासाते सती जीवस्थानानीत्यर्थः । पर्याप्तसंझिपञ्चेन्जियवर्जेषु शेषेषु त्रयोदशसु । असातस्य बन्धः सातस्योदयः सातासाते सती सातस्य बन्धःभ जीवस्थानेषु ज्ञानावरणान्तराययोर्चन्धोदयरूपास्त्रयो विकल्पा- सातस्योदयः सातासाते सती"सत्सय तिगंच गोप" इति गोने स्तद्यथा पञ्चविधो बन्धः पञ्चविध उदयः पञ्चविधा सत्ताझाना- गोलस्य संझिनि पर्याप्ते सप्त भङ्गाः तद्यथा नीचैर्गोत्रस्य बन्धोनीवरणान्तराययोधुवधन्धोदयसत्ताकत्त्वात् (तिविगप्पो इति)| चैगोस्योदयः नोचैर्गोत्रं सत् एष विकल्पस्तेजोपायुभवावृत्य द्विगुसमाहारत्वेऽप्यार्षत्वात्पुंस्त्वनिर्देशः ( एगम्मि तिथिगप्पो) | तिर्यक्पश्चेन्द्रियसंझित्वेनोत्पन्ने कियकासं प्राप्यते उचैर्गोत्रस्य एकस्मिन् पर्याप्तसंझिपञ्चेन्जियसवणे जीयस्थाने त्रयो विकल्पा बन्धः नीचेगोत्रस्योदयः उच्चनीचैर्गोत्र सती अथवा नीचैर्गोत्रस्य जवन्ति दौ वा विकल्पौ । तत्र त्रयो विकल्पा इमे पञ्चविधो| बन्धः नगोत्रस्योदयः उच्चनीचैगोत्रेसती एतौ च विकल्पी पर्याप्ने धन्धः पञ्चविध नदयः पञ्चविधा सत्ता। एते च सूक्ष्मसंपरा-| संझिनि मिथ्यारणीसासादने वा प्राप्यतेन सम्यग्मिथ्यारवादी यगुणस्थानकं यावत् प्राप्यन्ते ततः परं बन्धच्छेदे उपशान्तमोहे तस्य नीचैर्गोत्रवन्धाभावात्। तथा उधेगोत्रस्य बन्धः नीचैर्गोत्रकीणमोहे व द्वौ विकल्पौ तद्यथा पञ्चविध उदयः पञ्चविधा स्योदयः तश्चनीचैोत्रे सती एप विकल्पो मिथ्यादृष्टिगुणस्थानसत्ता अत्रान्यो भनो न संभवति नदयसत्तयोर्युसपत् व्यव- कादारभ्य देशविरतगुणस्थानकं वा यावत्प्राप्यते न परतः परतो Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्म (३१३) अभिधानराजेन्द्रः । चैत्रस्योदयाभावात् । तथा उच्चैर्गोत्रस्य बन्धः उचैर्गोत्रस्योदयः उच्चनीगोत्रे सती विकल्पः समपराय स्थानकं यावदवसेयः परतो बन्धान्नावात् । गोत्रस्योदयः सती। एष विकल्प उपशान्तमोगुणस्थानकादारज्य सयोगिकेवलिनि द्विचरमसमयं यावदवाप्यते । उच्चैर्गोत्रस्पोदया सत् पप विकल्पोऽयोगिकेयरिमसमये इतरेषु पुनः पर्याप्त संज्ञित्र्यतिरिक्तेषु त्रयोदशसु जीवस्थानेषु प्रत्येकं त्रयस्त्रयो भङ्गास्तद्यथा fast बन्धः नीचैस्यो यः सत्यं च विकल्पस्तेजोवायुषु बनानन्तरं सर्वका तेजोवायु बाहुल्य समुत्पन्नेषु वा वृधिदिदिका प्राप्यते नान्येषु तथा नी त्रस्य बन्धः नोचैर्गोत्रस्योदयः उच्चनीचैर्गोत्रे सती तथा उच्चैर्गोत्रस्य बन्धो नीचैर्गोत्रस्योदयः उच्चनीचैर्गोत्रे सती शेषा विकल्पा न संभवन्ति तिगुना संप्रत्यायुषो नङ्गा निरूप्यन्ते तन्निरूपणार्थं चेयमन्तर्नाप्यगाथा पजता पजन्तग-समणा पात अमणसेसेसु । श्रष्ठावीसं दसगं, नवगं पणगं च श्रातस्स ॥ ३५ ॥ समनाः संज्ञी तत्र पर्याप्ते संज्ञिन्यायुपणे भङ्गाः अष्टाविंशतिः । अप र्याप्त संहिनि मङ्गानां दशकं पर्याप्ते अमनसि असंज्ञिनि पञ्चन्द्र भङ्गानां नव दोघेच्येकादशसु जीवस्थानेषु पुनङ्गानां प्रत्ये पञ्चकमिति । तत्र संज्ञिनि पसे हमे अविशति । नैरायकस्य नरकायुष उदयो नरकायुः सत् अयं परन्नवायुर्यन्धकालात्पूर्व परजवायुर्वन्धकाले तिर्यगायुषो बन्धः नरकायुष उदयः नरकतिर्यगायुषी सती अथवा मनुष्यायुषो बन्दः नरका ग्रुप सदयः नरक मनुष्यायुषी सती। अथवा नरकायुष उदयः नरकमनुष्यायुषी सती । इह नारका देवायुर्नारिकायुश्च जवप्रत्ययादेव न बन पाया तो शारका परभवान् का बन्धोतरका व देवारकाभ्यां विसर्व संख्या पच विकल्पाः । एवं देवानामपि पञ्च विकल्पा भाव नया नवरं नारकाःस्याने देवायुरिति वकम्यम तथा देवायुप उदयः देवाः सन्ता इत्यादि तथा सिगाप उदयः तिर्यगायुषः सत्ता अयं विकल्पः परजवायुर्वन्धकालात्पूर्व परनतु नरकापो बन्धस्यंगायुष उदयनर गायत्री सती अथवा नियंगामुप बन्धतियेगा उद्यः ति तिगायुषी सती अथवा मनुष्यायुषो वन्यः तिरंगा उदयः मनुष्यतियं गायुषी सती । अथवा देवायुषो बन्धः तिर्यगायुषन्दयः देवतिर्यगायुषी सती परवान्यागाथुष उदय नरकबिता अथवा तिर्यगायुष खुषी सती। अथवा तिर्यगायुष उदयो मनुष्यतिर्यगायुषी सती अगादेवतयंगायुषी सती। सर्वसंयया सिं पर्याप्ततिरयां नव विकल्पाः । एवं मनुष्याणामपि नव जगा जाव नीयाः केवलं तिर्यगास्थाने मनुष्ययुरित्यभिधातव्यम् - द्यथा मनुष्यायुष उदयो मनुष्यायुषः सत्ता इत्यादि । तदेवं सर्वसंख्या संहिनि पर्याप्ते प्राविंशतिनं अपयमे संहिनि श्रा यो दश प्रास्ते मे तिर्यगादतिगायुषः सत्ता अयं विकल्पः परभवायुर्वन्धकालात्पूर्व परभवायुर्वन्धकाले तिर्यगायुपो बन्धस्तिर्यगायुष उदयः तिर्यक्तिर्यगायुषः सत्ता । अथवा मनुप्यायुबन्धस्गिापयो मनुष्यतिर्यगायुषी सती परजवायुबंधोतरका नियंगा उदयः तिर्यगायुषी सती अथवा तिर्यगात्र यो मनुष्य सती वयं रिप कम्म प्तसंज्ञिनः पञ्च भङ्गाः एवं मनुष्यस्यापि पञ्च वक्तव्याः। सर्वसंख्य या दश शेषा न भवन्ति सिंह सिमनुष्य या देवनारकी नयापि स देवारका बना तो दशैय यथोक्ता भङ्गाः । तथा ये प्राकू संज्ञितिरश्चां नव भङ्गा उक्तास्ते वासंझिपर्याप्तेऽपि नव भङ्गा वक्तव्याः ततोऽसंज्ञी पर्याप्तस्तिर्यगेव भवति न मनुष्यादिः ततोऽत्र तदाश्रिता भङ्गा न प्राप्यन्ते । तथा ये पर्याप्तसंङ्गितिरश्चां पञ्च नङ्गाः प्रागुक्तास्तएव भङ्गाः शेषेष्वप्येकादशसु जीवस्थानेषु वक्तव्याः सर्वेषामपि देवादित्यादाभावाचा (मोदं परंपोच्छेवि परं मी जीवस्थानेषु पये । अपंप एगे, एगडुगं दस य मोहबंधगए । तिग च नव उदयगण, निगतिगपचरस संतम् ||४०| असु पञ्चसु एकस्मिंश्च यथाक्रममेकं वे दश च मोहनीयप्रकृतिबन्धगतानि स्थानानि जयन्ति तत्रासु पर्याप्ता पर्याप्तसूक्ष्मा पर्याप्तवा दरीद्रयप्रियचतुरिन्द्रयसंङ्गिपञ्चेन्द्रियरूपेषु एकं बन्धस्थान द्वाविंशतिरूपम् । द्वाविंशतिधेयं मयात्मश कषायाः प्रयाणां वेदानामन्यतमो वेदः हास्यरतियुगार विशोक युगयोरन्यतरत्युभयं चेति। अत्र विभिन् युगनाज्यां षम् भङ्गाः नवन्ति पर्याप्तबादरवित्रिचतुरिन्द्रियासंशिपञ्चेन्द्रियरूपेषु पञ्चसु जीवस्थानेषु इमे द्वे द्वे बन्धस्थाने तथा द्वाविंशतिरेकविंशतिध । तत्र द्वाविंशतिः प्रावि साजेदा बा सैयद्वाविंशतिमिध्यात्वना कति साकेषांचित करण पर्याप्तावस्थायां बाससि ज्यते न सर्वेषां शेषकाले या । अत्र चत्वारो भङ्गाः यत इह नपुंसकयेदो बन्यमायातिमध्यादयानावात् स्य च मिथ्यात्वदयनिबन्धनत्वात् ततो द्वाभ्यां वेदाभ्यां युगमायां चत्वार एवं भङ्गाः एकस्मिंश्च पर्याप्तसंज्ञिरूपे जीवस्थाने द्वाविंशत्यादीनि दश बन्धस्यानानि तानि च प्राग्वत्सप्तभेदानि वक्तव्यानि "लिंग यदि इति पथोक जीवा नेषु प्रत्येकं श्रीणि त्रीणि उदयस्थानानि तद्यथा अझै नव दश च । यन्तु सप्तकमुद्दयस्थानमनन्तानुबन्ध्युदयरहितं तन्न प्राप्यते तेषातेषामनपुंसकवेदे एव, न स्त्रीचंद पुरुषवेदौ । ततोऽष्टोद ये मिथ्यात्वं क्रोधा दीनामन्यतमः कोपादिका नपुंसकयेोऽन्यतरत युगकोधादिनिज्यांगसाज्यांना अ मचयमन्तानुषभ्युदय पये या जुगुप्सायां या प्राप्तायां मोदक मी प्राप्त नोदबेङ्गाः पोमश जुगुप्सयोस्तु युगपत प्रतियो ही सर्व जयस्थानेषु प्रा तथा पशु जीवस्थानेषु प्रत्येकं यारिचारिक स्थानानि तद्यथा तप्त अष्टौ नत्र दश । तत्र सासादनकाले एकविशतिबन्धेानपरूपाणि त्रीणि हृदयस्थानानि वेदमातेपामुदयप्राप्तो नपुंसक वेदस्ततोऽन्यतमे चत्वारः क्रोधादिका नपुंसकवेदोऽभ्यतरयमिति समय एकविंशतिय भुत्र प्रानिबाट भङ्गा । तो ये प्या प्रतिमा अभय भङ्ग सर्वसंख्या सासादनाचे शिव सामानावाभावे पुनः यथा अष्टौ नव दशच । एतानि प्रागिव प्रावनीयानि चूर्णिकारस्वपिसिके श्री वेदान यथायोगमुदाि Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः । चति ततस्तन्मतेन तस्य द्वाविंशतिको एकविंशतिबन्धे च प्र- नौ तदेवं द्वे द्वे जदयस्थाने अधिकृत्य द्वयोरपि प्रत्येकं त्रयस्त्रयो त्येकमेकैकस्मिन् सप्तादा उदयस्थाने ब्रिभिदैश्चतुर्विशतिर्नङ्गाः। भङ्गाः। विकलेन्डियासंझिसंश्यपर्याप्तानां प्रत्येकमिमे द्वे द्वे उदअवसयाः । एकस्मिन् पर्याप्त संझिरूपे जीवस्थाने नवो- यस्थाने तद्यथा एकविंशतिः मिंशतिश्च । तत्रैकविंशतिरपर्याप्तदयस्थानानि तानि च मागिव सप्तनेदानि वक्तव्यानि द्वीन्छियाणामिदं तैजसं कार्मणमगुरुबघू स्थिरास्थिरे शुभाशुभे (तिगतिगपन्नरस संतम्मित्ति ) अष्टमु पूर्वोक्तरूपेषु जीवस्थानेषु वर्णादिचतुष्टयनिर्माणं तिर्यग्गतिास्तर्यगानुपूर्वी हीन्द्रियजातिश्रीणि सत्तास्थानानि तद्यथा अष्टाविंशतिः सप्तविसतिः नसनाम बादरनाम पर्याप्तकनाम ऽर्भगमनादेयम यशःकीर्तिरिशितिश्च । पञ्चस्वाप चोक्तरूपेषु जीवस्थानेषु तान्येव ति एषा चैकविंशतिरपान्तगगतौ वर्तमानस्यावसेया । अत्र त्रीणि त्रीणि सत्तास्थानानि एकस्मिन् पर्याप्तसंझिनि पञ्चेन्द्रि- सर्वाग्यपि पदान्यप्रास्तान्येवेति कृत्वा एक एव नङ्गततःशरीरयरूपे जीवस्थान पुनः पञ्चदश सत्तास्थानानि तानि च प्रागि- स्थस्यौदारिकमौदारिकाङ्गोपाङ्गं हुएमसंस्थान सेवार्तसंहननमु. व सप्तदानि वक्तव्यानि । संप्रति संवेध नुच्यते। तत्राएमु जीव- पघातं प्रत्येकमिति प्रकृतिषट् प्रतिप्यते तिर्यगानुपूर्वी चापनीयते स्थानेषु द्वाविंशतिबन्धस्थानं त्रीयुदयस्थानानि तद्यथा अष्टौ ततः पशितिर्नवति। अत्राप्येक एव भङ्ग एवं त्रीन्छियादीनामनव दश च । एकैकस्मिन् उदयस्थाने त्रीणि सभास्थानानि त. प्यतगन्तव्य नवरं द्वीन्द्रियजातिस्थाने त्रीन्छियजातिरित्युश्चारणीद्यथा अष्टाविंशतिः सतविंशतिः पविशतिश्च । सर्वसंख्यया नव यं तदेवमपर्याप्तद्वीन्द्रियादीनां प्रत्यकें द्वे द्वे उदयस्थाने अधिकृत्य सत्तास्थानानि पवमुक्तरूपेषु । जीवस्थानेषु है बन्धस्थान त- द्वौ द्वौ नौ वेदितव्यो केवलमपर्याप्तसंहिनश्चत्वारः यतो द्वौ भङ्गाघथा द्वात्रिंशतिरेकर्षिशतिश्च । तत्र द्वाविंशतिवन्य प्रागुक्तान्ये- पपर्याप्तसंझिनस्तिरश्चः प्राप्यते द्वौ चापर्याप्तसंझिनो मनुष्यस्येघ त्रीयुदयस्थानानि एकैकस्मिश्च उदयस्थान तान्येव पूा- ति प्रत्येकं सप्तानामपर्याप्तानां पञ्च पञ्च सत्तास्थानानि तद्यथा तानि त्रीणि त्रीणि सत्तास्थानानि एक विशतिबन्धे अनि त्री- द्विनवतिः अष्टाशीतिः पाशीतिः अशीति रष्टसप्ततिश्च । एतेषां एयुदयस्थानानि तद्यथा सप्त अष्टौ नत्र । एकैकस्विच उदयस्थाने च स्वरूप प्रागिव इष्टव्यम् “पणचटपणगति सुहमा " इति एकैकं सत्तास्थानमाविंशतिः । पकविंशतिबन्यो हि सासादन- संबध्यते सूक्ष्मस्य पर्याप्तस्य पञ्च बन्धस्थानानि तद्यथा त्रयोजावमुपागतेष प्राप्यते सासादनाश्वावश्यमाथिशतिसत्कर्माण- विशतिः पञ्चविंशतिः पड्विंशतिरेकोनत्रिंशत् त्रिंशत् एतानि च स्तेषां दर्शन त्रिकस्य नियमतो जावात् । ततस्तेषु सत्ता स्थानमा- तिर्यङ्मनुष्यप्रायोम्यान्येव रुष्टव्यानि तत्रैव सूदमपर्याप्तस्योविंशतिः एकविंशतिबन्धे त्रीणि सत्तास्थानानि द्वाविंशतिबन्धे त्पादसंजवात् । एतेषां च स्वरूपं प्रागिध सम्रपञ्च इष्टव्यम् । च नव इति । सर्वसंख्यया पञ्चसु जीवस्थानेषु प्रत्यकं द्वादश द्वा- उदयस्थानानि चत्वारि तद्यथा एकविंशतिश्चतुर्विशतिः पञ्चदश सत्तास्थानानि भवन्ति एकस्मिन् संझिपर्याप्त पुनर्जीवस्थान विशतिः पशितिः । तत्रैकविंशतिरिय तैजसं कामणमगुरुक्षघू संवेधः प्रागुक्त एव सप्रपञ्चो जटव्यः । कर्म०६क० । स्थिरास्थिरे शुभाशुने वर्णादिचतुष्टयंनिर्माणं तिर्यम्गतिस्तिसंप्रति नामकर्मजीवस्थानेषु चिन्तयवाह ॥ यंगानुपूर्वी एकेन्द्रियजातिः स्थावरनाम सदमनाम पर्याप्तकनापणदुगपणगं पणचन-पशगं पणगा हयंति तिन्नेव । म दुर्भगमनादेयमयशःकीर्तिरिति । एषा चैकविंशतिः सूदमपाणछप्पणगं बच्छ-प्पणगं अहदसगं ति ॥ ११ ॥ पर्याप्तस्यापान्तराक्षगतौ वर्तमानस्य बदितव्या । अत्रैको जङ्गः प्रतिपकपदविकल्पस्यैकस्याप्यभावात् । अस्यामेवैकसत्तेव अपजता, सामी सुहमा य बायरा चेव । विशती औदारिकशरीरं हुएमसंस्थानमुपघातं प्रत्येकसाधारविगलिंदिया उतिनिन,तह य असनीय सत्रीय।४।। णयोरकतरमिति प्रकृतिचतुष्टयं प्रक्तिप्यते पञ्चविंशतिः तिर्यगानुअनयोर्गाथयोः पदानां यथाक्रम संपन्धस्तद्यथा “ पणदुगप- पूर्वी चापनीयते ततश्चतुर्विंशतिर्भवति । सा च शरीरस्थस्य जगति सामी सत्तेव अपज्जत्ता" बन्धोदयसत्ताप्रकृतिस्थाना- प्राप्यते तत्र प्रत्येकसाधारणाभ्यां द्वौ नङ्गौ ततः शरीरपर्याप्या मां यथाक्रम पञ्चकं द्विकं पञ्चकं च प्रतिस्वामिनः सवापो- पर्याप्तस्य पराघाते क्किप्ते पञ्चविंशतिः अत्रापि तावेव द्वौ नङ्गो ताः । श्यमत्र भावना सप्तानामपर्याप्तानां पञ्च पञ्च बन्धस्थानानि ततः प्राणापानपर्याप्त्या पर्याप्तस्याच्यासे किसे पविशतिरत्रापि द्वे द्वे उदयस्याने पञ्च पञ्च सत्तास्थानानि रात्र बन्धस्थानान्य- तावेव द्वौ भङ्गौ सर्वसंख्यया सूक्ष्मपर्याप्तस्य चत्वार्युदयस्थानामूनि त्रयोविंशतिः पञ्चविंशतिः पढिशतिरेकोनत्रिंशत् त्रिंशत् न्यधिकृत्य भङ्गाः सप्त पञ्च सत्तास्थानानि तद्यथा द्विनवतिः अ. अपर्याप्ता दि सप्तापि तिर्यग्मनुष्यप्रायोग्यमेव बध्नन्ति न देवन- टाशीतिः षमशीतिः अशीतिःअएसप्ततिश्च । केवलं पञ्चविंशत्यु. रकप्रायोग्यं ततो ययोक्तान्येवेह बन्धस्थानानि प्राप्यन्ते न न्यूना- दये घमिंशत्युदये च प्रत्येकं यः साधारणपदेन सह नङ्गस्तत्राटधिकानि च । तिर्यग्मनुष्यप्रायोग्यानि प्रागिव सप्रपञ्चं वक्तव्या- सप्ततिवर्जानिचत्वारिसत्तास्थानानि वक्तव्यानि। शरीरपर्याप्या नि उदयस्थाने पुनरपर्याप्तसूक्ष्मवादरैकेन्द्रिययोरिमे एकविंश- हि पर्याप्तस्तेजोवायुवर्जः सर्वोऽपि मनुष्यगतिमनुष्यानुपूव्या नितिश्चतुर्विंशतिश्च । तत्रापर्याप्तयादरस्यैकविंशतिरियं तिर्य- यमात् बध्नाति पञ्चविंशतिपमिंशत्युदयौ च शरीरपर्याप्या प. गगतिस्तिर्यगानुपूर्वी तैजसकार्मणागुलधुवर्णादिचतुष्टयमेके- र्याप्तस्य नवतः ततः साधारणस्य सूक्ष्मपर्याप्तस्य पञ्चविंशत्युछियजातिः स्थावरनाम बादरनाप्त अपर्याप्नकनाम स्थिरा- | | दये शित्युदये चाटसप्ततिर्न प्राप्यते प्रत्येकपदे पुनस्तेजोवायुस्थिरे शुजारने दुर्भगमनादेयमयशःका निर्माणमिति- | कायिकावप्यन्तर्भवत ति तदपकया तत्राष्ट्रसप्ततिःज्यते । तएषा चैकविंशतिरपान्तराजगतौ वर्तमानस्य प्राप्यते यत्र च देवं साधारणपदानुगौ पञ्चविंशतिसत्को द्वौ नगी चतुःसत्तास्थाएक एव भङ्गः उनयोगप तस्यामेकविंशतो औदारिकशरीरं | नकी शेषास्तु पञ्च भङ्गाः पञ्च सत्तास्थानकाः " पणगाहिहुएमसंस्थानमुपघातनाम प्रत्येकसाधारणयोरेकतरमिति प्रक- चंति तिन्नेव" अत्र बादरा इति संवध्यते पर्याप्तबादरैकेन्द्रियस्य तिचतुष्टयेऽपि प्रदिप्ते तिर्यगानुयो चापनीतायां चतुर्विशतिः । | पश्व वन्धस्थानानि तद्यथा त्रयोविंशतिः पञ्चविंशतिः पशितिरकोअत्र प्रत्येकसाधारणाच्या सूक्ष्मापर्याप्तस्य च प्रत्येक द्वौ द्वौ । नत्रिंशत् त्रिंशत् पतानि तिर्यग्मनुष्यप्रायोग्यानि तानि च प्रागिव Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१५) अभिधानराजेन्द्रः। कम्म द्रष्टव्यानि । उदयस्यानानि पञ्च तद्यथा एकविंशतिश्चतुर्विशतिः रयोरेकतरस्मिन् विप्ते त्रिशङ्गवति अत्र नङ्गाः सुस्वरपुःस्वरयशः पञ्चविंशतिः पमिशतिः सप्तविंशतिः। तत्रैकविंशतिरियं तैजसं कीर्त्ययश-कीर्तिपदैश्चत्वारः । अथवा उच्चाससहितायामकोनकार्मणं गुरुवधू स्थिरास्थिरे शुभाशुभे वर्णादिचतुष्यनिर्माणं त्रिंशति स्वरोनुदिते उद्योतनाम्नि तूदिते त्रिंशत् अत्रोद्योतयशःतिर्यग्गस्तिर्यगानुपूर्वी एकेन्द्रियजातिः स्थावरनाम बादरनाम पर्या- कीर्त्ययशाकीतिपदैौ नौ सर्वसंख्यया त्रिंशति षम भङ्गाः ।स्व. तकनाम पुर्नगमनादेयमयशःकीर्तिरिति । एषा कविंशतिः। रसहितायामेव त्रिंशत् । अत्र सुस्वरपुःस्वरयशकीर्त्ययशःकीर्तिपर्याप्तबादरस्यापान्तरालगती वर्तमानस्यावसेया । अत्र यशः, पदैनङ्गाश्चत्वारःसर्वसंख्यया पर्याप्तद्वीन्द्रियस्य जड़ा विंशतिःसत्ता कीर्त्ययशःकीर्तियां द्वौ भङ्गो ततः शरीरस्थस्यौदारिकशरीरं स्थानामि पञ्च तद्यथा द्विनवतिरष्टाशीतिःषमशीतिरशीतिरष्टसप्त हुपमसंस्थानमुपघातनाम प्रत्येकसाधारणयोरेकतरमिति प्रकृति- तिश्च । अत्र यावेकविंशत्युदये द्वौ भङ्गी यौ च मिशन्युदये एतेच. चतुष्टयं प्रक्तिप्यते तिर्यगानुपूर्वी चापनीयते ततश्चतुर्विंशतिर्भ- स्वारः पञ्च सत्तास्थानकाः यतोऽएसप्ततिस्तेजोवायुजवामृत्य प. वति । अत्र प्रत्येकलाधारणयशकीर्त्ययशःकीर्तिपदैश्चत्वारो प्तिद्वीन्छियत्वेनोत्पन्नानधिकृत्य कियत्कासं प्राप्यते शेषास्तु षोअङ्गाः। वैकियं कुर्वतः पुनर्यादरवायुकायिकस्यैकः यतस्तस्य सा- मश नाश्चतुःसत्तास्थानकास्तेष्वष्ठसप्ततरप्राध्यमाणत्वात् । ते. धारणयश-कीर्ती उदयं नागच्छतः।अन्यच्च वायुकायिकचतुर्विशता जोवायुवर्जा हि शरीरपर्याप्त्या नियमतो मनुष्यगतिमनुष्यानुपूबौदारिकशरीरस्थाने वैक्रियशरीरमिति वक्तव्यं शेषं तथैव व्यों बध्नन्ति ततःसप्तविंशत्युदयेष्वष्टसप्ततिर्न प्राप्यते एवं त्रीन्द्रियसर्वसंख्यया चतुर्विंशतौ पञ्च नङ्गाः । ततः शरीरपर्याप्त्या चतुरिन्छियाणामपि पर्याप्तानां वक्तव्यम् (उच्चप्पणगं ति ) अत्र पर्याप्तस्य पराघाते प्रतिते पञ्चविंशतिरत्रापि तथैव पञ्च "असन्नी य" इति संबध्यते असंझिपञ्चेन्छियस्य पर्याप्तस्य षभङ्गास्ततः प्राणापानपर्याप्या पर्याप्तस्योच्चासे किप्ते सिंशतिः । म्बन्धस्थानानि तद्यथा त्रयोविंशतिः पञ्चविंशतिःषविंशतिरष्टाविअत्रापि तथैव पञ्च भङ्गाः । अथवा शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्यो- शतिरकोनत्रिंशत् त्रिंशत् । असंझिपञ्चेन्डियाहि पर्याप्ता नरकगजासेऽनुदिते सातपोद्योतान्यतरस्मिश्चोदित मिशातिः । अत्रा- तिदेवगतिप्रायोग्यमपिबध्नन्ति ततस्तेषामष्टाविंशतिरपिबन्धस्थातपेन प्रत्येकयशःकीय॑यश-कीर्तिपदेद्वौं भनौ साधारणस्यातपो- नं लभ्यतेषरुदयस्थानानि तद्यथा एकविंशतिःक्तिशतिः अष्टाधिदयाभावात् तदाश्रिती चिकल्पो न भवतः । उद्योतेन प्रत्येकसा- शतिः एकोनत्रिंशत् त्रिंशत् एकत्रिंशत् । तत्रैकविंशतिरियं तैजसं धारणयशकीर्त्ययश-कीर्तिपदश्चत्वारःसर्वसंख्यया मिशता- कार्मणं गुरुनघूस्थिरास्थिरे शुभाशुभेवर्णादिचतुष्टयनिर्माणतिर्यकादश भङ्गाः ततः प्राणापानपर्याप्त्या पर्याप्तस्य उच्वाससहि- गतिस्तिर्यगानुपूर्वी पञ्चन्छियजातिरसनाम बादरमाम पर्याप्ततायां पशितो आतपोद्योतयोरन्यतरस्मिन् प्रति सप्तविंशतिः। कनाम सुभगदुर्नगयोरेकतरमादेयानादेययोरेकतरं यशाकीर्त्ययअत्र प्रागिवातपेन द्वौ उद्योतेन सह चत्वार इति सर्वसंख्यया शाकीयोरेकतरमिति एषा चैकविंशतिरसंझिपञ्चन्धियस्यापर्या सप्तविंशती षम भङ्गाः सर्वे बादरपर्याप्तस्य नना एकोनत्रिंशत प्तस्थापान्तरालगतौ वर्तमानस्य प्राप्यते अत्र सुजमपुर्नगादेयासत्तास्थानानि पञ्च तद्यथा द्विनवतिरष्टाशीतिः पाशीतिरशी-1 नादेययशःकीर्त्ययश कीर्तिभिरष्टौ भङ्गाः ततः शरीरस्थस्य औरष्टसप्ततिश्च । श्ह पञ्चविंशत्युदये मिंशत्युदये च प्रत्येकायशः- दारिकमौदारिकाङ्गोपाङ्गं बयां संस्थानानामकतमत् संस्थानं षकीर्तिज्यामेकैको द्वौनङ्गी यौ च द्वौ भङ्गावकविंशतो ये च वैकि- मां सहननानामेकतमत् संहननमुपधातं प्रत्येकमिति प्रकृतिष₹ यवादरवायुकायिकवाश्चतुर्विशती नङ्गाश्चत्वारस्ते सर्वेऽपि सं-| प्रतिप्यते तिर्यगानुपूर्वी चापनीयते ततः पग्निंशतिः । अत्र परुभिः ख्ययाऽटौ पञ्चस्थानकाः शेषास्त्वेकविंशतिसंख्यकाश्चतुःसं- संस्थानः षमभिः संहननैः सुन्नगपुर्नगाज्यामादेयानादेयाच्या स्थानकाः । “पणउप्पणगंति" अत्र "विकसिंदिया उ तिनि " यश-कीर्त्ययशःकीत्तिन्यां च द्वे शते भङ्गानामटाशीशत्यधिइति संबध्यते विकलेन्द्रियाणां त्रयाणां पञ्च बन्धस्थानानि तद्यथा के। ततः शरीरपर्याप्प्या पर्याप्तस्य पराघाते प्रशस्ताप्रशस्तत्रयोविंशतिः पञ्चविंशतिः पशितिरेकोमत्रिंशत् त्रिंशत् पता- विहायोगत्योरन्यतरविहायोगतौ च प्रक्किप्तायामशविंशतिः न्यपि तिर्यग्मनुष्यप्रायोग्यानि तानि च प्रागिव अष्टव्यानि षट श्रत्र पाश्चात्या एव भङ्गा विहायोगतिद्विकेन गुण्यन्ते ततो उदयस्थानानि तथा एकविंशतिः पञ्चविंशतिः मिशतिरको- भङ्गानां पञ्च शतानि षट्सप्तत्यधिकानि भवन्ति । ततः प्राणानत्रिंशत् त्रिंशत् एकत्रिंशत् तत्र पर्याप्तद्वीन्द्रियस्यैकविंशतिरियं पानपर्याप्त्या पर्याप्तस्योच्चासे किप्ते एकोनत्रिंशत् । अत्रापि तैजसं कार्मणमगुरुबघू स्थिरास्थिरे शुभाशुभे वर्णादिचतुष्टयनि- भङ्गानां पञ्च शतानि षट्सप्तत्याधिकानि । अथवा शरीरपर्याफ्या र्माणं तिर्यम्गतिस्तियंगानुपूर्वी द्वीन्छियजातिस्त्रसनाम बादरनाम पर्याप्तस्य उच्चासेऽनुदिते उद्योते तूदिते एकोनत्रिंशत् । अत्रापि पर्याप्तकनाम दुर्भगमनादेयं यशःकीर्त्ययाःकीोरेकतरमिति | पञ्च शतानि षट्सप्तत्यधिकानि नङ्गानां सर्वसंख्यया एकादश एषा चैकविंशतिः पर्याप्तद्वीन्द्रियस्यापान्तरालगतौ वर्तमानस्या- शतानि द्विपञ्चाशदधिकानि ततो नापापर्याप्त्या पर्याप्तस्यो. वसेया अत्र द्वौ भङ्ग यश-कीर्त्ययश-कीर्तियां ततःशरीस्थस्य वाससहितायामेकोनविंशति सुस्वरफुःस्वरयोरेकतरस्मिन् औदारिकाङ्गोपाङ्गं हुएमसंस्थान सेवात्तसंहननमुपघातं प्रत्येक- | प्रक्रिप्ते त्रिशद्भवन्ति । अत्र पाश्चात्यान्युनासनब्धानि नङ्गानां मिति प्रकृतिपटू प्रतिप्यते तिर्यगानुपूर्वो चापनीयते ततः पनिं- पञ्च शतानि षट्सप्तत्यधिकानि सुस्वरद्विकेन गुण्यन्ते ततः शतिवति । अत्रापि तायेव द्वौ नौ । ततः शरीरपर्याप्त्या पर्या- एकादश शतानि द्विपञ्चाशदधिकानि नवन्ति । अथवा प्राणातस्य पराघाते प्रास्तविहायोगता प्रक्किप्तायामष्टाविंशतिः अत्रापि पानपर्याप्या पर्याप्तस्य स्वरेऽनुदिते द्योतनाम्नि तदिते तावेव द्वौ भङ्ग।। प्राणापानपर्याप्या पर्याप्तस्योच्यासेक्तिप्तेपकोन- त्रिंशद्भवन्ति अत्र भङ्गानां पञ्च शतानि षट्सप्तत्यधिकानि सर्वसं. त्रिंशत् अप्रापितावेव द्वौ भनौ अत्रापि तस्यामेवाटाविंशती नच्चा ख्यया त्रिंशति नङ्गाः सप्तदश शतानि अष्टाविंशत्यधिकानि सेऽनुदिते द्योतनानि तूदिते एकोनत्रिंशत् अत्रापि तावेव द्वा ततः स्वरसहितायां त्रिंशति नद्योते प्रक्तिप्ते एकत्रिंशद्भवति पत्र नगी सर्वसंख्यया एकोनत्रिंशत् चत्वारो भङ्गाः। ततो नापापर्या- नङ्गानामेकादश शतानि हिपञ्चाशदधिकानि सर्वसंख्यया च्या पर्याप्तस्य उच्चाससहितायामेकोनविंशति सुस्वर:स्व- पर्याप्तासंझिपञ्चेन्द्रियस्यैकोनपश्चाशच्चतानि चतुरधिकान्यसं Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१६ ) अभिधानराजेन्ड कम्म झिपञ्चेन्द्रियाश्च वैक्रियलब्धिहीनत्वात् वैक्रियं नारजन्ते ततस्तदांश्रिता उदयविकल्पा न प्राप्यन्ते । सत्तास्थानानि पञ्च तद्यथा द्विनवतिः श्रष्टाशीतिः षमशीतिः अशीतिः अष्टसप्ततिश्च तत्रैकविंशत्यमा अझै भङ्गाः परुविंशत्यसाधा शीत्यधिकशतद्वय संख्याः पञ्च सत्तास्थानकाः शेषाः सर्वेऽपि चतुःस्थानकाः । युक्तिरत्र प्रागुक्ता इष्टव्या ( अदसगं ति ) संहिपम्चेन्द्रियपर्याप्तस्य सर्वाणि बन्धस्थानानि तानि चा विशतिचतुर्विशतिनवाष्टरहितानि सर्वाण्यप्युदयस्थानानि ता विनिवाहिकेवल द केन्द्रियाणामत एते वयन्ते । अवनी कित इति कृत्वा तदयनिषेधो नवाष्ट्ररहितानि सर्वाण्यपि सत्तास्थानानि तानि च दश अत्राप्येकविंशत्युदयभङ्गा अष्टौ पर्मिश त्युदयभङ्गाश्चाप्राशीत्यधिकशतद्वय संख्याः पञ्च सत्तास्थानकाः शेषाञ्चतुः सत्तास्थानकाः । सम्प्रति संवेधश्चिन्त्यते । सूक्ष्मैकेयोविंशतिबन्धकान मे सत्तास्थानानि तद्यथा निवतिराशीतिः शीतः अशीतिः अष्टसप्ततिश्च । एवं चतुर्विंशस्ये सर्वसंख्या दश एवं प वंशतिशत्कोनत्रिंशद्वन्धकानामपि द्वे द्वे उदयस्थाने अधिकृत्य प्रत्येकं दश दश सत्तास्थानानि अवगन्तव्यानि सर्वसंख्या पञ्चाशत् । एवमन्येषामपि षष्णामपर्याप्तानां ज्ञावनीयं नवरमामी आत्मांचे उदयस्थाने प्रागुरुस्वरूपे व पर्या विंशतिबन्धकानामेकविंशत्यादिषु चतुष्प्युवस्थानेषु प्रत्येकं पञ्च पञ्च सत्तास्यानानि सर्वसंख्या विंशतिः एवं पञ्चविंशपिरकोनत्रिंशन्धानामपि ततः प्तानां सर्वसंख्यया सत्तास्थानानां शतं बादरैकेन्द्रियपर्याप्तानां त्रयोविंशतिबन्धकानामेकविंशतिचतुर्विंशतिषविशत्युदयेषु पञ्च पञ्च सत्तास्थानानि सप्तविंशत्युदये चत्वारि सर्वसंख्या चतुर्विंशतिः एवं पञ्चविंशतिः परिहाल्थेकोनत्रिशतत्रिंशद्वयकानामपि प्रत्येकं चतुर्विंशतिश्चतुर्विंशतिः सत्तास्थानानि सर्वसंख्या पर्याप्तवादरै केन्द्रियाणां विंशतिशतं सत्तास्थानानाम् । का प्रयोविंशतिबन्धकानामेकवियु च पञ्च पञ्च सत्तास्थानानि श्राविंशत्येकोनत्रिंशदे दियेषु प्रत्येकं चत्वारि चत्वारि सर्वसंख्यया पविशतिः । एवं पञ्चविंशतिशत्यको नत्रिंशद्वन्धकानां प्रत्येकं पविशतिः पचिशतिः सत्तास्थानानि सर्वसंख्यया त्रिंशच्चतम् । एवं प्रयाणां चतुरयाणामपि पर्याप्तानां वयम् अपिचेन्द्रियाणामपि पर्याप्तानां त्रयोविंशतिबन्धकानामेकविंशत्युदये च प्रत्येकं पञ्च पञ्च सत्तास्थानानि श्रष्टाविंशत्येकोनत्रिंशत्रिंशदेकत्रिंश येषु तु चत्वारि चावारीति सर्वसंख्या परातिः । पयि शतिमित्ये कोनत्राधिकानामपि व्य तिबन्धकानां पुनस्तेषां द्वे एवोदयस्थाने तद्यथा त्रिंशदेकत्रिंशच तत्र प्रत्येकं त्रीणि त्रीणि सत्तास्थानानि तद्यथा निवतिरष्टाशोतिः षमशीतिश्च । श्रष्टाविंशतिर्हि देवगतिप्रायोग्या ततस्तस्यां बध्यमानायामवश्यं वैक्रिययादि बन्यते स्वष्टसप्तती न प्राप्येते सर्व संख्यया पर्याप्ता संशिपञ्चेन्द्रियाणां पत्रिंशदधिकं सत्तास्थानानां शतं पर्याप्तसंज्ञिन्वेन्द्रियाणां त्रयोविंशतिष न्धकानां प्रागिव पविशतिः सत्तास्थानानि वाच्यानि । एवं पञ्चविंशतिबन्धकानामपि नवरं देवानां पञ्चविंशतिबन्धकानां पञ्चसप्तविंशत्येव सत्तास्थाने तथा दिनतिराशीविश्वपते पतिशतिसप्तविंशत्यष्टा कम्म विशत्येकोनत्रिंशदयेष्वपि प्रत्येकं बध्ये त्रिंशदुदये पत्यारि तद्यथा द्विनवतिरेकोननवतिरष्टाशीतिः षकशीतिश्च । एतेषां च भावना प्रागेवाष्टाविंशतिबन्धे संवेध चिन्तायां विस्तारेण कृते ति न जूयः क्रियते विशेषाभावात् ग्रन्थगौरवनयाश्च । एकविंशदये त्रीणि सत्तास्थानामि तद्यथा द्विनवतिरप्राशीतिः पडशीतिश्च । सर्वसंख्यया श्रष्टाविंशतिबन्धकानामेकोनविंशतिः सत्तास्थानानि एकोनत्रिंशद्वन्धकानां सत्तास्थानानि पचविंशतिबन्धकानामिव भावनीयानि तानि च त्रिंशत् नवरमंत्र विशेषो जयते अविरतसम्यम्यगतिप्रायोग्यामेोन बन एकविंशतिरात्याविशत्येोत्ये द्वे सत्तास्थाने भवतः । तद्यथा त्रिनवतिरेकोननवतिश्च । पञ्चविंशत्युदये सप्तविंशत्युदये च वैक्रियसंयतासंयतान धिकृत्य ते एव द्वे द्वे सत्तास्थाने । अथवाऽऽहारक संयतानधिकृत्य पवित्र तीर्थकर मिथ्यामधिकृत्यैकोननवतिः सर्वाणि तु सवै कोशिकानां साधनानि चतुरद्विकानामपि सप्तास्थानानि पञ्चविंशतिबन्धकानामिव भावनीयानि तानि च केवलं देवानां मनुजगतप्रायोग्यांतीकरतां यामेकविंशतिपचविशतिदेशत्वष्टाविंशत्येको गत्रिंशदुदयेषु प्रत्येकं द्वे द्वे सत्तास्थानेतद्यथा द्विनवतिरेकोननवति एतानि च द्वादश ततः सर्वसंख्यया त्रिंशइन्धकानां द्विस्यादित्सतास्थानानि पत्रिइन्धकानाम सतास्थानानि तद्यथा त्रिनवतिद्विनवतिरेकोननवतिः अष्टाशीतिः पमशीतिः एकोनाशीतिः षट्सप्ततिः पञ्चसप्ततिश्च तत्रायानि चत्वायुपशमश्रेण्यामथवा रूपकमेवयां याचनाद्यापि त्रयोदश नामानि कीयन्ते तेषु तु क्षीणेषु उपरितनानि चत्वारि सतास्थानानि राज्यन्ते बन्धाभावे संहिपर्याप्तानामष्टी स तास्थानानि तानि तानि समाद्यानि चत्वारि कीणमोद गुणस्थाने तदेवं सर्वसंख्यया संकिपर्याप्तानां सत्तास्थानानामाधिके। यदि पुनन्यमनसं बन्धादत्र केवलिनोऽपि संज्ञिनो वित्रयन्ते तदानीं केवलसत्कानि पर्श्विशतिसत्तास्थानान्यपि प्रवन्ति तद्यथा केबलिनां दश उदयस्थानानि तथा विशतिः एकविंशतिः पशितिः सप्तविंशनिःश्रष्टाविंशतिः एकोनत्रिंशत् त्रिंशत् एकत्रिंशत् नव अष्टौ च । सत्र विंशत्युदये द्वे सत्तास्थाने तद्यथा एकोनाशीतिः पञ्चसप्ततिश्च । एते एवमित्युदयाष्टाविंशत्युदययोरपि प्रत्येकं ये एकविंशत्येऽपि मे साथाने मशीतिः पतिका से , सप्तविंशत्युदयेऽपि एकोनत्रिंशदये याचारि सत्तास्थामानि । तद्यथा प्रशीतिः षट्सप्ततिः एकोनाशीतिः पञ्चसप्तति । एकोनत्रिंशदुदयो हि तीर्थकरे मतीर्थकरे च प्राप्यते तत्र तीर्थकमधिका सास्थाने तीर्थकरमधिकृत्य पुनर न्तिमेश चत्वारि पूर्वोनि एवं एकत्रिंशदतिः षट्सप्ततिश्च । नवोदये मीणि तद्यथा श्रशीतिः षट्सप्ततिः नव च । तत्राद्ये द्वे तीर्थकरस्यायोगिकेवलिनो द्विचरमसमयं यायत् चरमसमये स्वशविति सर्वसमुदायेन संहिनां चतुद धिके द्वे शते सत्तास्थानानां तदेवं जीवस्थानान्यधिकृत्य स्वामित्वमुक्तम् । संप्रति गुणस्थानान्यधिकृत्याद नातरायतिविहम - वि दससु दो होति दोसु ठाणेमु । मिच्छासाणे वीए, नत्र चउपरण नत्र य संतंसा ।। ४६ ।। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६७) कम्म अन्निधानराजेन्द्रः। मिथ्यादृष्टिप्रभृतिषु सूक्ष्मसंपरायपर्यन्तेषु दशसु गुणस्थानेषु बन्धोदयसत्तास्थानानि यथागमं गुणस्थानकेषु विभजेत् विकझानावरणमन्तरायं च त्रिविद्यमपिबन्धोदयसत्तापक्कया विप्र- स्पयेत् । तत्र वेदनीयगोत्रयोर्नङ्गनिरूपणार्थमियमन्तर्भाष्यगाथा । कारमपि भवति मिध्यादृष्टयादिषु दशसु गुणस्थानकेषु ज्ञाना- चनमस्सु दोनि सत्तसु, एगेचन गुणिसु वेयणियनंगा । वरणस्यान्तरायस्य च पञ्चविधो बन्धः पञ्चविध उदयः पञ्चवि- गोप पण चन दोतिसु, एगसु दोनि एकम्मि ।। ४६ ।। धा सत्ता इत्यर्थः । ध्योः पुनर्गुणस्थानकयोरुपशान्तमोहकी- मिथ्यादृष्ट्यादिषु प्रमत्तसंयतपर्यन्तेषु षट्सु गुणस्थानेषु प्रबमोहरूपयोद्धे उदयसत्ते स्तः न बन्धः बन्धस्य सूदम-1 त्येकं च चेदनीयस्य प्रथमाश्चत्वारो भङ्गास्ते चेमे असातस्य संपराये व्यवच्छिन्नत्वात् । एतदुक्तं नवति बन्धानावे उपशा बन्धः प्रसास्योदयः सातासाते सती, असातस्य बन्धः सासतमोहे कीणमोदे वा ज्ञानावरणीयान्तराययोः प्रत्येकं पञ्चविध स्योदयः सातासाते सती, सातस्य बन्धः असातस्य दयः साउदयः पञ्चविधा सत्ता नवतीति परत उदयसत्तयोरप्यभावः तासाते सती, सातस्य बन्धः सातस्य उदयः सातासाते सती (मिच्चासाणे वीपत्ति ) द्वितीये द्वितीयस्य दर्शनावरणस्य तथा अप्रमससंयतादिषु सयोगिकेवविपर्यन्तेषु सप्तसुगुणस्थामिध्यादृष्टौ सासादने व नवविधो बन्धः चतुर्विधः पञ्चविधो नके द्वौ भौ तौ चानन्तरोक्तावेव तृतीयचतुर्थी ज्ञातव्यौ पते वा उदयः नवविधा सत्ता इति द्वौ विकल्पौ द्वयोर्गुणस्था- हि सातमेव बन्नन्ति नासाम तथा एकस्मिन् अयोगिकेवझिनि नकयोस्त्यानिित्रकस्य नियमतो बन्धात् ( नव य संतसत्ति) चत्वारो भङ्गाः ते चेमे असातस्योदयः सातासाते सती अथया नाच सत्तांशाः सत्ताभेदाः सत्प्रकृतय इत्यर्थः । एतेन च द्वौ सातस्योदयः सातासाते सती, एतौ द्वौ विकल्पावयोगिकेवलिनि विकल्पो दर्शितो तद्यथा नवविधो बन्धः चतुर्विध उदयः नववि- हिचरमसमयं यावत्प्राप्यते चरमसमये तु असातस्योदय सातघासत्ताअथवा नवविधो बन्धःपञ्चविध उदयो नवविधा सत्ता।। स्प सत्ता यस्य द्विवरमसमये सातंकीणं, यस्य त्वसातं टिचरममिस्साइनियट्टीओ, उच्चउ पण नव य संतकम्मंसा। समये कीणं तस्यायं विकल्पःसातस्योदयःसातस्य सत्ती(गाए चउंबंधतिगे चन पण, नवंसद्सु जुयलछस्संता ॥४४॥ इत्यादि) गोत्रे गोत्रस्य पञ्चजहाःमिथ्यादृष्टी ते चेमे नानैर्गोत्रस्य मिश्रादिषु मिश्रप्रभृतिषु गुणस्थानकेषु अप्रमत्तगुणस्थानकप-1 बवानीचेगोत्रस्योदयः नोबैगोत्रसत्एप विकल्पस्तेजस्कायियन्वेषु निवृत्तौ च अपूर्वकरणे च अपूर्वकरणाकायाः प्रथमसं कवायुकायिकेषु सत्यते तद्भवामुढत्तेषु चाशेषजीवेषुकियत्कासं नीचर्गोत्रस्य बन्धः नीचर्गोत्रस्यादयः उच्चनीचैोत्रे सती अथवा ख्येयतमनागे चेत्यर्थः परतो निकाद्विकबन्धव्यवच्छेदेन पनिध मीचैर्गोत्रस्य बन्धः उच्चैर्गोत्रस्योदयः उच्चनीचेगोत्रे सती अथवा बन्धासंजवात् तत एतेषु षट्विधो बन्धः चतुर्विधः पञ्चविधो वा उचैर्गोत्रस्य बन्धः नीचैर्गोत्रस्योदयः नच्चनीचैगों सती उच्च\चदयः नवविधा सत्ता इति द्वौ विकल्पो ( चउबंधतिगे चन-- पणनवसत्ति ) इहापूर्वकरणामायाः प्रथमे सङ्खधेयतमे भागे अस्य बन्धः उच्चैर्गोत्रस्योदयः उच्चनीचैगोत्रे सती। सासादनस्य प्रगते सति निघायचलयोबन्धव्यवच्छेदो भवति ततः अत थमवर्जाः प्रथमो हि भनस्तेजोवायुकायिकषु बन्यते तद्भवादुहुन्य कर्दमपूर्वकरणेऽपि चतुर्विध एव बन्धः । ततस्त्रिके अपूर्वकर नेषु वा कियत्कालं नच तेजोवायुषु सासादनभावो अज्यते नापि णानिवृत्तिवादरसूक्ष्मसंपरायरूपे चतुर्विधो बन्धश्चतुर्विध उदयः तद्भवादुकृत्तेषु तत्कालम् । अतोऽत्र प्रयमन प्रतिवेधः । तथा त्रिए पञ्चविधो वा उदयः ( नवसति ) नवविधा सत्तेति प्रत्येक मिश्राधिरतदेशविरतेषु चतुर्थपञ्चमरूपी द्वौनी नवतःन शेषाः दो द्वौ विकल्पो ( अंस इति ) सत्ताऽभिधीयते । एतश्योक्तमुप मिश्रादया हि नीचेगात्रं न बध्नन्ति अन्ये त्या वते देशविरतस्य पञ्चम एचको भङ्गः “सामन्नणं च य जाईप उच्चायस्स चदशमश्रेणिमधिकृत्य कपकश्रेण्यां गुणस्थानकत्रयेऽपि पञ्चविध यो हो” इति वचनात् ( एगठसुत्ति ) प्रमत्तसंयतप्रभृतिषु श्रस्योदयस्य सूदमसंपराये च नवविधायाः सत्तायाः अप्राप्य ष्टमु गुणस्थानेषु प्रत्येकमेकैको नङ्गःतत्र प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणमाणत्वात ( सुजुयलस्संतित्ति ) इद कपकोण्यामनिवृत्तियादरसंपरायाफ्रायाः संण्येयतमषु नागेषु एकस्मिन् भागे निवृत्तियादरसूदमसंपरायेषु केवलः पञ्चमो नङ्गः तेषामुच्चर्योसंख्येयतमे अवत्तिष्टमानेस्त्यानद्धित्रिकस्य सत्ताम्यवच्छेदोन प्रस्य च धन्धोदयसंनवात् । उपशान्तमोहे कोणमोह सयोगिकेबति ततस्तदनन्तरमनिवृत्तिवादोऽपि पमिधा एव सत्ता नवति पलिनि च बन्धानावात प्रत्येकमयं विकल्पः उचैगोत्रस्योदय: तत माह (दुमुत्ति ) द्वयोरनिवृत्तिबादरसूक्मसंपयययोः सच्चोत्र सती (दानि एक्कम्मित्ति) एकस्मिन् अयोगिकेवसिनि युगलमिति बन्धोदयावुच्येते चतुगिति चानुवयते ततश्च- डौनङ्गो उच्च प्रस्योदयः उच्चनीचैर्गोत्रेसती एष विकल्पश्चरतुर्विधो बन्धः चतुर्विध उदयः (स्संतत्ति) षभिधा सत्ता । अत्र मे द्विचरमसमये त्वेषविकल्पः उच्चैगोत्रस्योदय: उगोत्र सत् । पञ्चविध उदयो न प्राप्यते कपकारणामत्यन्तविशुरुतया निका- नीचैर्गोत्रं हि द्विन्चरमसमये एव कोणमिति चरमसमये न तत्प्राद्विकम्योदयानाचात् उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णीवुदीरणाकरणे प्यतासंप्रत्यायुजङ्गा निरूप्यन्त तनिरूपणार्थ चेयमन्तर्भाध्यगाथा। "इदियपज्जत्तीए अगंतरे समये सब्बो वि-निद्दापयतमवीरणेन- अठच्छाहिगवीसा, सोजसवीस च वारसदासु । वनवरं खीणकसायखवगे मुतणं तेसु उदोनस्थित्ति कान" दो चम्सु तीसु एक, मिनासु अाउगे नंगा ॥४॥ मिथ्यारण्यादिषु गुणस्थानकेष्वयोगिकवलिगुणस्थानकपर्यन्तेषु उवसंते चल पण नव, खीणे चनरुदय छच्च चउ संता। क्रमेणते अशाधिकविंशत्यादयः श्रायुषि नङ्गाः। तत्रभिध्याइष्टिबेयणिअाउगोए, विजज मोहं परं वोच्छं ॥ ४५ ॥ गुणस्थानकेष्यष्टाधिका घिशतिरायुषो नङ्गाः मिश्यारष्टयो हि उपशान्तमोहे बन्धो न भवति तस्य सूक्ष्मसंपराये पच व्यव- चतुगतिका अपि संभवन्ति तत्र नरयिकानधिकृत्य पञ्चतिरश्चोऽ जिन्नत्वात् ततः केवलश्चतुर्विधः पञ्चविधो वा उदयो नवविधा धिकृत्य नव मनुष्यानप्यधिकृत्य नव दवानधिकृत्य पञ्चपत सत्ता उपशमकोपशान्तमोहा ह्यत्यन्तविका न भवन्ति तत- च प्रागेव सप्रपञ्च नाविता तिन ने नूयो भाव्यन्ते । सास्तेषु निद्राद्विकस्याप्युदयः संभवति । कोणे कोणमोहे चतुर्वि- सादनस्य पमधिका विंशतिः यतस्तियश्च मनुष्या वा साधा सचा (धेयणिप्रयानगोए विजजनि ) वेदनीयायुर्गोत्राणां सादनभावे पर्तमाना नारकायुध्नन्ति ततः प्रत्येकं तिरश्चा Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१७) अनिधानराजेन्मः। मनुष्याणां च परजवायुर्वन्धकाले एकैको भङ्गो न प्रा- नानि तद्यथा पञ्च चतस्रः तिनः वे एकाच प्रकृतिरिति । ततोप्यत इति षशितिः । सम्यम्मिश्यादृष्टः घोमग सम्बम्मिथ्यादृष्ट-| ऽनिवृत्तिस्यानात् परं सूक्मसंपरायादौ बन्धोपरमो बन्धाभावः । बोहि आयुर्वन्धमारजन्ते ततः आयुर्बन्धकाले नारकाणां यो द्वौ संप्रत्युदयस्थानप्ररूपणार्थमाह । मङ्गी ये च तिरश्चां चत्वारो ये च मनुष्याणामपि चत्वारः यौ सत्ताइ दस उ मिच्छ, सासायणमीसए नवुक्कोसो। चदेवानां द्वा तानेतान् हादश वर्जयित्वा शेषाः पोश नवन्ति छाई नवउविरई, देसे पंचाइ अटेव ।। ४ ।। अविरतसम्यम्हप्टेविशतिर्भङ्गाः कयमिति चेदुच्यते तिर्यग्मनु विरए खोवममिए, चउराई सत्त छच्च पुचम्मि । प्याणां प्रत्येकमायुर्वन्धकाले ये नरकतिर्यग्मनध्यगतिविपयात्रयस्त्रयो नङ्गाः यश्च देवनरयिकाणां प्रत्येकमायुबन्धकाले ति- अनियहिवायरे पुण, एको व दुवे व उदयंसा ।। ५०।। बग्गतिविषय पकैको भङ्गः तानविरतसम्यग्रष्टयो न बध्नन्ति एग मुहुममरागो, वेए इअवेयगा भवे सेसा । ततः शेषा विशतिरेव भवन्ति । देशविरतेद्वादश ना यतो भंगाणं न पमाणं, पुबुद्दिष्टेण नायव्वं ५१ ।। देशविरतिस्तियम्मनुष्याणायेव भवति ते च तिर्यमनुष्या दे. मिथ्यादः सप्तादीनि दशपर्यन्तानि चत्वार्युदयस्थानानि शविरता आयुर्बनतो देवायुरेव बध्नन्ति म शेषमायुस्ततस्तिर. जवान्त तद्यथा सप्त अटी नव दश । तत्र मिथ्यान्वमप्रत्याख्याइचां मनुष्याणां च प्रत्येक परभवायुर्वन्धकासात्पूर्वमकैको नङ्गः नावरणप्रत्याख्यानावरणसंज्यलनक्रोधादीनामन्यतमे त्रयः परजवायुबन्धकालेऽपि चैकैक भायुर्वन्धोत्तरकालं च चत्वार क्रोधादिकाः त्रयाणां वेदानामन्यतमो वेदः हास्यरतियुगलार. इचत्वारः । यतः केचित्तियञ्चो मनुष्याश्चतुर्णामकमन्यतमदायु- तिशोकयुगलयोरन्यतरद्युगप्रमित्येतासां सप्तप्रकृतीनामुदया बंश्वा देशविरति प्रतिपद्यन्ते ततस्तदपेक्या यथाक्ताश्चत्वारो ध्रवः । अत्र चतुर्भिः कपायस्त्रिभिदैर्धाज्यां युगमाभ्यां भङ्गाजनाः प्राप्यन्त सर्वसंख्यया हादश (दोसुत्ति) द्वयोः प्रमत्ता श्चतुर्विशतिस्तस्मिन्नेव सप्तके भये वा जुगुप्सायां वाऽनन्तानुबप्रमत्तयोःप्रत्येक पट नकाः प्रमत्ताप्रमत्तसंयता हि मनष्या एव। न्धिनि च प्रतिम अशानामुदयः अत्र भयादौ प्रत्येकमेकैका नवन्ति ततः भायुबन्धकालात् पचमकः आयुर्वन्धकानेऽध्ये कः । चतुर्विंशतिः प्राप्यते इति तिनश्चतविशतयः। तथा तस्मिन्नेव प्रमत्ताप्रमत्ता हि देवायुरेबैकं बध्नन्ति न शेषमायुबन्धात्तरकालं सप्तक भयजुगुप्सयोरथवा भवानन्तानुयन्धिनार्यद्वा जुगुप्सानच प्रागुक्ता देशविरत्युक्तानुसारेण चत्वार र्शत (दो चन न्तानुबन्धिनोः प्रतियोनवानामुदयः अत्राप्य कैकस्मिन् विकसुत्ति) चतुर्यु अपूर्वकरणेऽनिवृत्तिवादग्सुक्ष्मसंपरायोपशान्तमो स्पे भङ्गानां चतुर्विशतिः प्राप्यते इति तिमश्चतुर्विशतयः । हरूपेषु गुणस्थामकेषुपशमणिमधिकृत्य प्रत्येक द्वी द्वौ भङ्गा तथा तस्मिन्नेव सप्तक भयजुगुप्सानन्तानुबन्धिषु युगपत्यक्षितद्यथा मनुष्यायुष उदयो मनुष्यायुषः सत्ता एष विकस्पः परभ तेषु दशानामुदयः अत्रैका जङ्गकानां चतुर्विंशतिः सर्वसंख्यया वायुबन्धकालात्पूर्वमथवा अनुष्यायुष उदयो मनुष्य दवायुषी मिथ्याशावणे चतुधिशतयः । सासादने मिथे च सप्तादीनि सनी एप विकल्पः परजवायुर्वन्धोत्तरकासम। पते वायु- नवोत्कणि नवपर्यन्तानि त्रीणि त्रीणि उदयस्थानानि तद्यथा ने बनन्ति अतिविशुरुत्वात् पूर्वबळायपि सपशमणि प्र. सप्त अष्टी नव अत्र सासादने अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्यातिपद्यन्त देवायुष्येव नान्यायुषि तमुक्तं कर्मप्रकृती "तिसु रूपानावरणसंज्वानोधादीनामन्यतम चत्वारः क्रोधादिकाः आनंगसु बकेमु जेण संदि न आरुह " तत उपशम)- प्रयाणां वेदानामन्यतमो वेदः द्वयोईि युगलयोरन्यतरद् युगणिमधिकृत्य एतेसु कौ द्वावेवनगौ पूर्वबहायुष्कास्तु न विपकथे- लमित्येतासां सप्तप्रकृतीनामुदयो धुवः अत्र प्रागिका भङ्गानां णि प्रतिपद्यन्ते तत उपशम्श्रेणिमधिकृत्यत्युक्तं पकण्यां चतुशितिः । तनोनये वा जुगुप्सायां वा प्रक्रिप्तायामदयः। त्वेतेषामकैको भङ्गस्तद्यथा मनुष्यायुष उदयो मनुष्यायुषः स- तत्र द्वे चतुर्विशती नकानां भयजुगुप्सयोस्तु प्रक्किप्तयोनतति (तिसुरकंति) त्रिषुकीणमाहसयोगिकेवल्ययोगिकेवलिक- वोदयः अौका नङ्गकानां चतुर्विंशतिः सर्वसंख्यया सासादने पेषु प्रत्येकमेकको भङ्गस्तद्यथा मनुष्यायुष मदयो मनुष्यायुषः स- चतम्रश्चतुर्विशतयः मिश्रे अनन्तानुबन्धिवस्त्रियोऽन्यतम त्ता शेगन संभवन्ति तदेवमायुषो गुणस्थानकेनङ्गा निरूपिताः। क्रोधादयः त्रयाणां वेदानामन्यतमो वेदः द्वयोर्तुगत्रयोरन्यतरद संप्रति मोहनीय प्रत्याह ( मोहं परं यु) युगलं मिश्रमिति सप्तानां प्रकृतीनामुदयो ध्रवः अत्रैका चतुर्विअतः परं मोहनीयं वक्ष्य । शतिभड़कानां सर्वसंख्यया मिश्रेऽपि चतस्रश्चतुर्विंशतयः गुणगणगेमु अहसु, एकेकं मोहबंधगणं तु । (गई नव न अविरएत्ति ) अविरतसम्यग्दण पड़ादीनि नवपपंचानियहिगणा, बंधोवरमो परं तत्तो ४७॥ यन्तानि चत्वारि उदयस्थानानि भवन्ति तथा षट् सप्त अटी नव । तत्रानन्तानुबन्धिबर्जास्त्रयोऽन्यतमे क्रोधादिकाः प्रयाणां मोहनीयसत्कबन्धस्थानेषु मध्ये एकैकं बधस्थानं मिथ्यार- | वेदानामन्यतमो वेदःद्वयोगुगबयोरन्यतरत युगलमिति षामांप्रयादिषु गुणस्थानकेषु भवति तद्यथा मिथ्याधिशतिःसा- कृतीनामुदयाऽविरतस्योपशमिकसम्यग्दृष्टेः कायिकसम्यम्हा सादनस्यकविंशतिः सम्यग्मिथ्यादृष्टेरविरतसम्यग्दृष्टश्च प्रत्येक धुवः अत्रैका चतुर्विशतिर्भङ्गकानां ततो नये वा जुगुप्सायां सप्तदश देशविरतस्य त्रयोदश प्रमत्ता प्रमत्तापूर्वकरणानां प्रत्येक वा वेदकसम्यक्त्वे वा प्रक्किमे सप्तानामुदयोऽत्र तिम्रश्चतुनव नव । एतानि च द्वाविंशत्यादीनि नवपर्यन्तानि नव बन्ध विशतयः । तथा तस्मिन्नेव पटू जयजुगुप्सयोर्भयवेदकसम्यस्थानानि प्रागेव सप्रपञ्च जावितानीति न नूयो जाव्यन्ते विशे क्त्वयोर्जुगुप्सावेटकसम्यक्त्वयोर्वा युगपत प्रतिप्तयोरशनामुदयः पाजावात् केवलमप्रमत्तापूर्वकरणयोजङ्ग एकैक एव वक्तव्यः भत्रापि तिम्रश्चतुर्विशतयः । तथा तस्मिन्नेव षटू भयजुगुप्सयोअरतिशोकयोर्बन्धस्य प्रमसगुणस्थानके एव व्यवच्छेदात् । वेदकसम्यक्त्वे च युगपत्प्रक्तिप्ते नवानामुदयः अत्रैका चतुर्विशप्राक प्रमत्तापेक्या चवकबन्धस्थाने द्वी नङ्गा दर्शिती (पंचा- तिनकानां सर्वसंख्यया अविरतसम्यग्हशवष्टौ चतुर्विशतयः। नियहिवाणे ) अनिवृत्तिवादरसंपरायगुणस्थानके पञ्चबन्धस्था- (दसे पंचाइअोव) देश देशविरते पश्चादीनि अपयन्सानि - Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्म अभिधानराजेन्द्रः। वारि उदयस्थानानि तद्यथा पञ्च षट् सप्त अनौ तत्र प्रत्याख्या- संप्रति मिथ्यादृष्ट्यादीन्यधिकृत्य दशादिप्येकपर्यवसानेषु नावरणसंज्वनक्रोधादीनामन्यतमौ द्वौ क्रोधादिको त्रयाणां वेदा- भङ्गसंख्यानिरूपणार्थमाह । नामन्यतमो वेदः द्वयोर्युगयोरन्यतरयुगप्रमिति पञ्चानां प्रक- एकगछमिकियारि-कारस एकारसे व नव तिन्नि। तीनामुदयो देशविरतस्य कायिकसम्यहरोपशमिकसम्यम्हणे. एए चउवीसगया, बारगं पंच एक्कम्मि ।।५।। - जयति । अत्रैका भङ्गकानां चतुर्विंशतिस्ततो नये वा जुगु इह दशादीनि चतुरन्तानि उदयस्थानान्यधिकृत्य यथासं. प्सायां वा वेदकसम्यक वे चा प्रक्रिप्ते षष्मामुदयः अत्र तिनः। रूयमेकादिसंख्यापदयोजना कर्तव्या सा चैवं दशोदये एका चतुर्विदातयः । तथा तस्मिनेव पञ्चके भय जगुप्सयोर्यद्वा जगु चतुर्विंशतिः नवोदये षट् । तत्र मिथ्यादृष्टौ तिम्रः सासादने सावेदकसम्यक्वयोरथवा भयवेदकसम्यवन्ययोयुगपतित मिथे अविरते च प्रत्येकमेकैका। श्रष्टोदये एकादश । तत्र मियो सप्तानामुदय. अत्रावितिधनुर्विदातयः । तथा तस्मिन्नेव ] ध्यादृष्टौ अविरते च प्रत्येक तिनःतिस्रः । सासादने मिश्रेच पश्चके भयजुगुप्सयोर्वेदकसम्यक् च यगपत प्रविष्यानामु प्रत्येकं देवे। देशविरतौ चैका । सप्तोदये चैकादश । तत्र मिथ्यादयः अत्रका चतुधिशतिर्भकानां समस्यया देशधिरतेऽपो ही सासादने मिश्रे प्रमत्ते अप्रमते च प्रत्येकमेकैका । अबिचतुधिशतयः । तथा विरते कायोपशमके प्रमत्त चेत्यर्थः विरतो रतो देशविरते च प्रत्येकं तिस्रः तिनः । षडदये । एकादश । हिश्रेणेरधस्ताद्वर्तमानः कायोपभिका विरत ति व्यन्हियते तत्राविरतसम्यग्दृष्टौ अपूर्वकरणे च प्रत्येकमेकैका देशविरते ततश्च प्रमत्ते अप्रमत्ते च प्रत्येक चतरादीनि मनपर्यन्तानि च प्रमत्ते प्रत्येक तिस्रः अप्रमत्ते च प्रत्येकं तिस्रः तिम्रः पञ्चकोस्वारि उदयस्थानानि जम्न नद्यधः चतनः पन्च षट सप्त । दये नव । तत्र देशविरते एका प्रमत्ते अप्रमत्ते च प्रत्येक तत्र कायिकसम्यारोपशामकसम्यादृष्टेवा प्रमत्तस्याप्रमत्त-| तिम्रः तिस्रः अपूर्वकरणे द्वे चतुरुदये तिस्रः । प्रमत्ते अप्रमत्ते म्य च प्रत्येक संञ्चामक्रोधादानामन्यतमः एकः क्रोधादिः त्र अपूर्वकरणे च प्रत्येकमेका । एते व अनन्तरोक्ता एकादिकाः याणां वेदानामन्यतमो वेद योगायोरन्यतरतू युगलमिति संख्याविशेषाश्चतुर्विंशतिगताश्चतुर्विशतिसंख्याधायिका पता चतसृणां प्रकृतीनामुदयः । अत्रैका चतुविशतिर्भकानां ततो अनन्तरोक्तचतुर्विंशतयो ज्ञातव्या इत्यर्थः । पताश्च सर्वसंजये वा जगप्सायां वा वेदकसम्यक्त्वे वा प्रक्प्तेि पञ्चा-1 स्यया द्विपञ्चाशत् द्विके द्विकोदये भङ्गा द्वादश एकादये पश्च। नामुदयः अत्र तिनः चतुर्विशतयो नङ्गकानाम् । तथा तस्भि पते च प्रागेव भाविताः। श्रेव चतुष्के भयजुगुप्सयोर्जुगुप्मारकसम्यक्त्वयोरथवा जय संप्रत्येतेषामेव भङ्गानां विशिष्टतरसंख्यानिरूपणार्थमाह । वेदकसम्यक्त्वयोयुगपत्प्रकिप्पयोः षामामुदयः अत्रापि तिम्रश्चनुविंशतयः । तथा तस्मिन्नेव चतुष्के जयजुगुप्सायेदकसम्यक्त्वेषु बारस पणसट्ठिसया, उदयविगप्पेहिं मोहिया जीवा । युगपत प्रतिमेष समानामुदयः अत्रैका चतुर्विशतिर्भकानां चलसीई सत्तुत्तरि, पयविनसएहि विसोया ॥५३॥ सर्वसंख्यया प्रमत्तस्याप्रमत्तस्य च प्रत्येकमष्टावष्टी चतुर्विंश- इह दशादिषु चतुःपर्यवसानेषु उदयस्थानेषु भङ्गकानां द्वि. तयः ( छथ पुर्वाम्म ) अपूर्वकरणे चमुरादीनि षटपर्यनानि पञ्चाशचतुर्विंशतयो लब्धास्तता द्विपञ्चाशत् चतुर्विशल्या त्राणि उदयस्थानानि तद्यथा चतस्रः पञ्च पद तत्र संज्वलन- गुण्यते गुणितायां च सत्यां द्विकोदयभा द्वादश क्रोधादानामन्यतम एकः क्रोधादिःत्रयाणांवेदानामन्यतमोबेदः एकोदयभङ्गाः पञ्च प्रक्षिप्यन्ते ततो द्वादश शतानि दयोयुगलयोरन्यतायुगलमित्येतामां चतसृणां प्रकृतीनाम- पञ्चष-यधिकानि भवन्ति एतैरुदयविकल्पैर्यथायोगं सर्वे दयोऽपूर्वकरणे ध्रुवः अत्रका चतुर्विशतिर्भकानां ततो भये संसारिणो जीवा मोहिता मोहमापादिता विझयाः । संप्रति वा जुगुप्मायां पञ्चानामुदयः अत्र द्वे चतुर्विशती भङ्गका- पदसंख्यानिरूपणार्थमाह (चुलसीसत्तुत्तरित्ति) इह पदानि नाम । मयजुगुप्सयोयुगपत् प्रक्षिप्तयोः पासामुदयः अत्रैका नाम मिथ्यात्वं प्रत्यास्यानक्रोधः अप्रत्याख्यानावरणक्रोधः श्त्येभड़कानां चतुर्विशतिःसर्वसख्यया अपूर्वकरण चतश्चतुर्वि- वमादीनि ततो वृन्दानां दशाद्युदयस्थानरूपाणां पदानि पदवृशतयः अनिवृत्तिबादरे पुनरेको द्वौ वा उदयांशी उदयभेदी न्दानि आर्यत्वात राजदन्तादिषु मध्ये पाठाभ्युपगमाद्वा वृन्दउदयस्थाने इत्यर्थः अत्र चतुर्णी संज्वलनानामन्यतम एकः शब्दस्य परनिपातः । तेषां सप्तसप्तत्यधिकचतुरशीतिशतसंक्रोधादिः प्रयाणां वेदानामन्यतमो घेदः इति द्विकोदयः । अत्र ख्यमोहिताः संसारिणो जीवा विझेयाः । एतावत्संख्यानिः त्रिभिदेश्चतुर्भिः संज्वलनद्वादश भेदाः। ततो वेदोदयव्य- कर्मप्रकृतिनिः यथायोग मोहिता जीवा ज्ञातव्या इत्यर्थः । बच्छेदे एकादयः स च चतुर्विधबधे त्रिविधबन्धे द्विविध- अथ कयं सप्तत्यधिकानि चतुरशीतिशतानि पदानां भवन्ति बन्धे एकविधवन्धे च प्राप्यते । तत्र यद्यपि प्राक् चतुर्विधबन्धे नच्यते इह दशोदये दश पदानि दश प्रकृतयः उदय समागता चत्वारः त्रिविधबन्धे त्रयः द्विविधवन्धे द्वौ एकविधवन्धे एकः इत्यर्थः । एवं नवोदयादिवपि नवादीनि भायनीयानि ततो इति दश भङ्गाः प्रतिपादितास्तथाप्यत्र सामान्येन चतुखिो- दशोदयो दशनिर्गुण्यते जाता दश नवोदयः परिगणितो जाताकबधापेक्षया चत्वार एव भङ्गा विवच्यन्ते (पगं मुहमसरागे इचतुःपञ्चाशत् अष्टोदय एकादशनिर्जाता भपाशीतिः सप्तोबय इति ) सूक्ष्मसंपराये बन्धाभावे एक किट्टीकृतसंज्वलन- दय एकादशभिर्जाता सप्तसप्ततिः पादय पकादशतिर्जाता लोभं वेदयते अत्रैक पव भङ्गः एवमेकोदयभाः सर्वसंख्यया षट्पष्टिः पश्चकोदय नवभिर्जाताः पञ्चचत्वारिंशत् चतुरुदयश्चपञ्च । तथा शेषा उपरितना उपशान्तमोहादयः सर्वेऽप्यवे- त्रिनिगुणितो जाता हादश एते सर्वेऽप्येकत्र मील्यन्ते जातानि दकाः "भंगाणं च पमाण" मित्यादि तत्र मिथ्याश्या- द्विपञ्चाशदधिकानि त्रीणि शतानि । एतानि चतुशितिगुणिदिषु गुणस्थानकेषु उदयस्थानभङ्गानां प्रमाणं पूर्वोदिन पूर्वो- तानि अप्टचत्वारिंशदाधिकचतुःशतयुता-यष्टसहस्राणि प्राप्यन्त केन प्राक सामान्योक्तमोहनीयोदयस्थानचिन्ताधिकारोक्तन । इति चतुर्विशत्या गुण्यन्ते ततो द्विकोदयपदानि द्वादगगुणिताप्रकारेण कातव्यम् । नि चतुर्विंशतिः पकोदयपदानि पञ्च प्रतिप्यन्ते ततस्तेषु प्र. Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषं द्योतयति ( ३२० ) अभिधानराजेन्द्रः | कम्म किलेषु धिकानि यथोकसंख्यान्येय पदानां शतानि । संप्रति मिष्यत्यादिषु प्रत्येक मुदयभङ्गनिरूपणार्थ माध्य रुदन्वधामाद । अट्ठगच उचउचर-टुगा य चउरो य हौति चवीसा । मित्रा अता, बारस पणगं व अनियट्टी ॥ ५४ ॥ मिथ्यावादयोऽपूर्व करणान्ता ग्रादिचतुर्विंशतयो भवन्ति किमुतं नयति मिध्यादृत्यादिष्य पूर्वकरणपर्यवसानेषु गुणस्थानकेषु तुतियो यथासंख्यमादिसंख्या भयन्ति तत्र मिथ्यादृष्ावष्टौ सासादने चतस्रः मिश्रे च चतस्रः ( चनुरहगत्ति ) अविरतादिषु मत्तान प्रत्येक मी अपूर्वकरणे चतखः पाप्रागेव भाविता अनिवृत्तिबादरे द्विकोदये द्वादश नङ्गा एकादये पञ्च मासूम पराये इति संप्रत्येतेषामेवोदयङ्गानामुदयपदानां च योगोपयोगादिभिर्गेणनार्थमुपदेशमाद | कम्म क्रियकारिणां वैश्रियमिश्रमवाध्यते एम पर चूर्णिकृता तशात्र विवचितमित्यस्माभिशेन विवति । एयमुतराषि चूर्णिकारमार्गानुसरणं परिज्ञावनीयम् । तथा सासादनस्य कार्मणाप्रयोगे कि दारिकायांग प्रत्येकं धन सम्यमिध्यादृष्टवैकियफाययोगे यायोगे देशविरतस्य वैकिये वैक्रियमिश्रकाययोगे च प्रत्येकमष्टायष्टी प्रताप किये वि प्रत्येकमवीतसंयतस्य वैश्रियायोगे अष्ट सर्वसंध्या चतुरशीतिचतुर्विंशतयः । चतुरशीतिधनुषिशत्या गुणिता जातानि पाकशाधिकानि विंशतिशतानितानि च पूर्वराशी प्रतिप्यन्ते । तथा सासादनस्य वैक्रियमिश्रे वर्तमानस्य ये चारोऽप्युदयस्थानविकल्पास्तद्यथा सप्तोड़य एकविधः मोदय द्विविधा नवोदयः एकविधः श्रत्र नपुंस दोन पिकाययोग नपुंसकयेदेषु मध्ये सदस्योत्याभावात् येच अतिसपस्ट एक्रियमिधे कार्मणका योगे च प्रत्येकमावष्ट उदयस्थानविकल्पाः एखु वेदो न सज्यते वैक्रिययोगिषु स्त्रीवेदेषु मध्ये अविरतसम्यरुत्पादाभावात् एतच्च प्रायोवृत्तिमाश्रित्योक्तमन्यथा कदाचित् वेदेष्वपि मध्ये नमुन्यादो भवेदिनि उ चू कया विसृजत्थि वे अगेसु वि उच्छे मीसगस्स ति" प्रम ससंय तस्य" आहारक काययोगे आहारक मिश्रकाययोगे च प्रमत्तसंयतस्पाहारककाययोगे ये प्रत्येक स्थानविकल्पाच दि आदार दितुति "आहारं चोदम पुत्रिणो उ" इति वचनात् न च स्त्रीणां चतुपुर्वस्याधिगमः संभवति प्रतिषेधात्म प्राप्यन्तेन तुच्छा गारवबड़वा, चलिदिया दुव्वला व धिय । अश्वसेस जयणा, श्रवासो नोत्थीणं ॥ नषादो नाम याद एते सर्वेऽभ्युदयस्थामसि संख्या वयारिंशत्कारण ई बन्धी ततः प्रत्येकं प्रोमश षोमश भङ्गाः ततश्चतुश्चत्वारिंशत् पराभिगुण्यजातानि शताधिक शीरीदारिकमको गे ये अस्थानविकल्पास्ते वेदसदिता ये मध्ये विरतसम्यग्टरुत्पादानावात् एतच प्राहुर्यमाधित्योकं तेन भलिस्वाम्यादिजिर्न व्यभिचारः । एतेषु चैकेन पुरुषवेदेन प्रत्येकमाची भङ्गान्ते जाता खाच पूर्वराशी गितारण शत्यधिकम (१४१६०) पावती मिध्या यादिषु सूक्ष्म संपरायपर्यवसानेषु गुणस्थानकेषु उदयनङ्गा ये गुणितास्ते प्राप्यन्ते तदुक्तम् " चल दस य सहस्सा, सयं च गुणदशरं उदयमाणं संप्रतिपदवृन्दानि गणितानि प्रायन्ते तत्र पद्मरूपणार्थायमन्यथा ॥ वर्त्तसं, बत्तीसं सहिमेव वाघन्ना । चायालदोसु वीसा, मिच्छामासु सामन्नं ॥ ५६ ॥ मिथ्यादपादिष्यपूर्वकरणपर्यवसानेषु यथासंख्यमपादिसंख्यानि पदानि भवन्ति तथाहि मिथ्यावाद स्थानानि तद्यथा सप्त अष्टौ नव दश । तत्र दशोदय एक दशनिर्गुण्यते जाता दश नवोदयास्त्रयो नयनिः जाता सप्तविंशतिः 39 जोगोषओगलेसा, दगुनिया काव्या जे जत्य गुणहाणे, वंति ते तत्थ गुणकारा ५५ ॥ मिथ्याचादिगुणयोगपयोगाइ यस्तै भङ्गा गुणिताः कर्त्तव्या इत्यर्थः । कतिसंख्यैर्गुणयितव्या इत्यत श्राह यो पनि गुणस्थानके यायन्तो जयन्ति नान्तस्तस्मिन गुणस्थान के गुणकरास्तैस्तस्मिन् गुथाउन गुणयितव्या इत्यर्थः । तत्र प्रथमतो योगगुणननाचना क्रियते इड मिथ्यादृष्ट्यादिषु सूक्ष्म संपरा पर्यवसानेषु सर्वसंख्ययोदयभ झः पञ्चयानिशा ताम्योगययमो योगचतुष्यदारिकाययोगाः सर्वोच्वमित्यादि गुणस्थानके संनियनसतो जानिएका दशसहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चाशीत्यधिकानि । तथा मिथ्याकाययोगे अत्रापितः प्राप्यन्यमि औदारिकामिश्रे कार्मणकाययोगे च प्रत्येकं चतस्रः चतस्रः एताअ या अनन्तानुबन्ध्युदयसहितास्ता एव द्रष्टव्याः । यास्त्वनन्नानुषयुदयरहितास्ता अन प्राप्य किं कारणमति दुच्यते। ये पूर्व वेदम्पष्टिना सता विसंयोजिता विसंयोज्य त्र परिणामपरावृत्या सम्यक्त्वात्प्रच्युमिध्यात्वं गतेन भूयोऽप्यनन्तानन्त स्व मिथ्यादृष्टेन्धायलिकामात्रं यावदनन्तानुबन्ध्युदयो न प्राप्यते न शेषस्य अनन्तानुबन्धिनश्च विसंयोज्य भूयोऽपि मिथ्यात्वं प्रतिपद्यन्ते जघन्यतो ऽच्यन्तमुतविशेषायुध् न्युयरहितस्य मिष्यार कालकरणप्रतिषेधात्तथो *"कुण जो कानमिति" ततस्तस्मिन्नेव नवे वर्तमानो मिस्वप्रत्ययेन भूयोऽप्यनन्तानुबन्धिनो बध्नाति बन्धावलिकाभि व प्रवेदयते ततोऽपान्तराञ्जगतौ वर्त्तमानस्य भवान्तरे वा प्रथममुत्यन्नस्य मिथ्या सतराधिक स्पाः न प्राप्यन्ते । अथ च कार्मणकाय योगेऽपान्तराह गतौ औदारिमिश्रका योगे वैक्रियमिश्रकाययोगे च भवा नरे उत्पद्यमानस्य ततः कार्मणकाययोगादौ प्रत्येकं चतस्रः चतस्रश्चतुर्विंशतयो समुन्दरहिता प्राप्यन्ते वैयिक्षिकाययोगो भवा न्तरे प्रथमत एवोत्पद्यमानस्य भवतीति यदुक्तं तद्वाहुल्यमाथि - त्योक्तमन्यथा तिर्यम्मनुष्याणामपि मिथ्यानामपि मिध्यादृशां वै . Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) अभिवानराजेन्सः । कम्म अष्टोदयात्रयोऽधनिः जाता चतुर्विशहिः सप्तोदयश्चैकः सप्तन्निः मिश्रस्य वाधार उदयस्थानविकल्पा अविरतसम्यम्ह ऐरौ जाताः सप्त सर्वसहपया भएपष्टिः पवं द्वात्रिंशदादीमामन्येषामपि | देशविरतस्याप्यष्टौ सर्वसंख्यया विंशतिः। सा च पहिरुपयोउदयपदामांभावना कर्तव्या।सर्वसंस्षयात्रीणि शतानि द्विपश्चा- गैर्गुण्यते जातं विंशतिशतम् । तथा प्रमत्तस्याही उदयस्थानशदधिकानिपतानि चतुर्विशतिगतानीति चतुर्विशत्या गुण्यन्तेजा- | विकल्पाः अप्रमत्तस्याप्यष्टौ अपूर्वकरणस्य चत्वारः सर्वे मितान्यष्टचत्वारिंशदधिकानि चतुरशीतिशतानि द्विकोदया द्वादश लिताविंशतिः। सासप्तभिरुपयोगैगुण्यते जातं चत्वारिंशचतं द्वाभ्यां मुण्यन्ते जाता चतुर्विंशतिःएकोदयपदानि पञ्च सर्वसंख्य सर्वसंख्यया त्रीणि शतानि विंशत्यधिकानि येत्वाचार्या मिश्रेऽपि पाएकोनत्रिंशत्साच पूर्वराशौ प्रतिप्यते ततो जातानिसप्तसप्त- मत्यमानश्रुताझानविभङ्गज्ञानचक्षुरचकर्दर्शनरूपान् पञ्चैवोपस्यधिकानिचतुरशीतिशतानि।पतानि वाम्योगचतुष्टयमनोयोगच. योगानिच्छन्ति तेषांमतेन त्रीणि शतानिषोडशोत्तराणि एतानि तुझ्यौदारिककाययोगसहितानि प्राप्यन्तेति नवभिर्गुण्यन्ते ततो | चतुर्विंशतिगतानीति चतुर्विशत्या गुण्यन्ते ततो जातानि अशीजातानिषट्सप्ततिसहस्राणि द्वेशते त्रिनवस्यधिक ततो वैक्रियका- त्यधिकानि षट्सप्ततिशतानि । मतान्तरेण पञ्चसप्ततिशतानि ययोगे मिथ्या रष्टषष्टिसंख्यानि उदयपदानि एतानि च प्राम्वत् चतुरशीत्यधिकानि । ततो द्विकोदयभङ्गा द्वादशएकोदयभङ्गाः भावनीयानि । वैक्रियमिधे औदारिकमिश्रे कार्मणकाययोगेच पञ्च सर्वे मिलिताः सप्तदश तेसप्तभिर्गुण्यन्ते जातमेकोनर्विप्रत्येकं पत्रिंशत्पत्रिंशत् उदयपदानि । वैक्रियमिश्रादौ हिस- शाधिकं शतं तत् पूर्वराशौ प्रक्षिप्यते ततः पूर्वराशिर्जातो नवनदयपदान्यनन्तानुबन्युदयसहितान्येव प्राप्यन्तेन शेषाणि कारणं वत्यधिकानिसप्तसप्ततिशतानि । मतान्तरेण सप्त व्युत्तराणि । प्रागेयोक्तं ततःषत्रिंशद्भवन्ति। तथा ोकोऽष्टोदयो द्वौ नवोदयौ उक्तं च “ उदयागुवोगेसु सगसयरिसया तिउत्तरा होति" एको दशोदयोऽनन्तानुबन्धिसहितःप्राप्यते ततोऽष्टोदय एकोऽ एतावन्त उपयोगगुणिता उदयभङ्गाः। संप्रति पदवृन्दानि उपयोप्रनिर्माता अष्टनवोदयी द्वौ नवभिःजाता अष्टादश दशोदय एको गगुणितानि भाव्यन्ते तत्रोदयस्थानपदानि चतुर्विशतिगतानि दशभिर्गुण्यते जातादश एवं सर्वसंख्यया पत्रिंशत् । एवमन्य "अट्ठी वत्तीसमित्यादीनि" यानि प्रागुक्तानि तानि यथायोगत्रापिभावनास्वधिया कर्तव्या। सासादनस्य वैक्रियकाययोगौ- मुपयोगैर्गुण्यन्तेतत्रमिथ्यारष्टेरष्टषष्टिरुदयस्थानपदानि सासा. दारिकमिश्रे कार्मणकाययोगे च द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशत् सम्यग्मि- दनस्य द्वात्रिंशत मिलितानि शतं तत्पञ्चभिरुपयोगैर्गुण्यतेजाध्यारऐक्रियकाययोगे द्वात्रिंशत् अविरतसम्यग्दृष्टेचक्रियका- तानि पञ्चशतानि सम्यग्मिथ्यादृष्टात्रिंशत् अधिरतसम्यग्दृष्टः ययोगे षष्टिः देशविरतस्य वैक्रियामश्रवैक्रियकाययोगे च प्र षष्टिः देशविरतस्य द्विपञ्चाशत् सर्वसंख्यया चतुश्चत्वारिंशदधिक स्येक द्विपञ्चाशत् प्रमत्तसंयतस्य वैक्रिये वैक्रियमिश्रेच प्रत्येक शतम् एतच्च पनिरुपयोगैर्गुण्यते जातानि चतुःषष्ट्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशत् । अप्रमत्तसंयतस्य वैक्रियकाययोगे चतुश्च अष्टा शतानि तथा प्रमत्तस्य चतुश्चत्वारिंशत् अप्रमत्तस्यापि त्वारिंशत् सर्वसंख्यया षट् शतानि । एतानि चतुर्विंशत्या गु चतुश्चत्वारिंशत् अपूर्वकरणस्य विशतिः सर्वसंख्यया एयन्ते जातानि चतुर्दश सहस्राणि चत्वारिंशच्छतानि एतानि जातमष्टाधिकं शतमेतत्सप्तभिरुपयोग ण्यते जातानि सप्त च पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते । तथा सासादनस्य वैक्रियमिश्रे द्वा शतानि षट्पञ्चाशदधिकानि सर्वसंख्यया विंशत्यधिकान्येकत्रिंशदुदयपदानि एषु नपुंसकवेदो न लभ्यते युक्तिरत्र प्रागे विंशतिशतानि । अन्ये तु मिथ्यादृष्टाविव मिश्रेऽपि पञ्चोपयोवोक्ता । अविरतसम्यग्रवैक्रियमिश्रे कार्मणकाययोगे प्रत्येकं गानिच्छन्ति तन्मतेन सर्वसंख्यया अष्टाशीत्यधिकानि विंशतिषष्टिः मत्र खोवेदो न लभ्यते कारणं प्रागेवोक्तम् । प्रम शतानि ततश्चतुर्विंशत्या गुण्यन्ते जातानि पञ्चाशत्सहस्राणि तसंयतस्याहारककाययोगे चतुश्चत्वारिंशत् अत्रापि स्त्रीवेदो अष्टौ शतानि प्रशीत्यधिकानि । मतान्तरेण पञ्चाशत्सहस्रान लभ्यते युक्तिरत्र प्रागेवोक्ता सर्वसंख्यया द्वेशते चतुरशीत्य णि शताधिकानि द्वादशोत्तरशतानि । ततो द्विकोदयपदानि चधिक एतानि चोक्तप्रकारेण द्विवेदसहितान्येव प्राप्यन्ते इति द्विवेदसंभवः । षोडशभिर्गुण्यन्ते जातानि चतुश्चत्वारिंशद तुर्विंशतिरेकोदयपदानि पञ्च सर्वे मिलिता एकोनत्रिंशत् सा धिकानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि तानि पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते सप्तभिरुपयोगैगुण्यते जाते द्वेशते व्युत्तरेते पूर्वराशौ प्रक्षिप्येते अविरतसम्यम्हरौदारिकमिश्रकाययोगे षष्टिरुदयपदानि ए ततो जातः पूर्वराशिः एकपञ्चाशत्सहस्राणि ज्यशीत्यधिका निमतान्तरेण पुनः पञ्चाशत्सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चदशोतानि पुरुषवेद पव प्राप्यन्ते न स्त्रीवेदनपुंसकवेदयोः कारण त्तराणि । उक्तं च “पन्नास सहस्सा तित्तिसया चेव पन्नारा" मत्र प्रागेवोक्तं तत एतानि अष्टभिर्गुण्यन्ते जातानि चत्वारि शतानि अशीत्यधिकानि एतान्यपि पूर्वराशौ प्रतिप्यन्ते ततो एतावन्त्युपयोगगुणितानि पदवृन्दानि । संप्रति लेश्यागुणिता जातः पूर्वराशिः पञ्चनवतिसहस्राणि सप्त शतानि सप्तदशा उदयभङ्गाःभाव्यन्ते । तत्र मिथ्यादृष्टयादिप्वविरतसम्यग्दृष्टिपधिकानि। एतावन्ति योगगुणितानि (सत्सरसा सत्त सया पण यन्तेषु प्रत्यकं घट् लेश्याः देशविरतिप्रमत्तेषु तेजःपद्मशुक्लरूपानउसहस्सपयसंखा) संप्रत्युपयोगगुणिता उदयभङ्गा भा स्तिस्रः कृष्णलेश्यायास्तु देशाविरत्यादिप्रातपत्तरेभावात् ।अपूव्यन्ते । तत्र मिथ्याहटश सासादने च प्रत्येक मत्यज्ञानश्रुताशा चकरणादौ एका शुक्ललेश्या मिथ्यारश्यादिषु अपूर्वकरणपनविभङ्गमानचक्षुरचक्षुर्दर्शनरूपाः पञ्च पञ्च उपयोगाः सम्य- यन्तेषु च ये चतुर्विंशतिगता उदयस्थानविकल्पा अष्टचतुरादिग्मिध्याहश्चविरतसम्यग्दृष्टिदेशविरतानां मतिश्रुतावधिज्ञान- संख्यास्ते यथायोग लेश्याभिर्गुण्यन्ते तद्यथा मिथ्याररावुदचक्षुरचक्षुरवधिदर्शनरूपाः प्रत्येक षट् षट् प्रमसादीनां सूक्ष्म- यस्थानविकल्पाःसासादनस्य चत्वारः सम्यग्मिथ्यारवत्वारः संपरायान्तानां त एव पट् मनःपर्यवज्ञानसहिताः सप्त सप्त। अविरतसम्यग्हाटेरटी मिलिता जाताचतुधिशतिः सा च पमिलेंमिथ्याहएचादिषु चतुर्विशतिगता उदयविकल्पाः "अगच-। श्याभिर्गुण्यते जातं चतुश्चत्वारिंशत् शतम् । तथा देशविरता उचउच उरटुगा य" इत्यादिना ये प्रागुक्तास्ते यथायोगमुपयो- स्याष्टौ प्रमत्तस्याप्यष्टी अप्रमत्तस्यापि चाष्टौ सर्पसंख्यया चतुगैगुण्यन्त तद्यथा मिथ्याऐरष्ठौ सासादने च चत्वारः मि. विशतिः सा त्रिनिदयाभिगुण्यते जाता हिसप्ततिः। अपूर्धकरणे लिता द्वादश । पते पञ्चभिरुपयोगैर्गुणयन्ते जाता षष्टिः । तत्र | चतस्रः अत्रैव सेझ्या एकेन च गुणितं तदेव भवतीति चत्वारः। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२२ ) अभिधानराजेन्द्रः । कम्म एवं सर्वे मिलिता विशा इति चतुविशत्या गुण्यन्ते जातानि अशीत्यधिकानि द्विपञ्चाशच्छ तानि । ततो द्विकोदया द्वादश एकोदयाः पञ्च मिलिताः सप्तदश से पूरा प्रयतेोयधिकानि शच्छतानि एतावन्ति वेश्यागुणिता उदयभङ्गाः। संप्रति लेइयागुपितानि पदानि माध्यन्ते तत्रोदयस्थानपदानि चतुर्विंशति गतानि मिष्पादृष्टी अष्टषष्टिः सासादने द्वात्रिंशत् सम्यायीयाप्रावपि द्वात्रिंशत् अविरत सम्यग्दृष्टौ षष्टिः सर्वसंख्यया द्विनवत्यधिकं शतम् तपश्यानियतेत जातान द्विपचाशदधिकान्येकादश शतानि तथादेतद्वाशत् प्रमतं चत्वारिंशत् प्रथमसेऽपि समुच मिति: कवारिंशदधिकशतच तिसृनानिर्गुण्यन जानित्यानित्यारि शतानि करणे शक्ति या एका सेवा विशतः संख्य जानित्यानि दश शतानि तानि चतुरा गतानीति चतुर्विंशत्या गुण्यन्ते जातानि अष्टविंशतसहस्राणि तितो द्विकोकोदयान्येको प्रति जातानि सहस्राणि शतेधिके प गुणितानि पदानि उ "गणा ते सयाच उदयाण होति लेसाणं । अडतीस सहस्सा, पयाण सय दो य सगतीसा" तदेवमुक्तानि सप्रपञ्चमुदयस्थानानि । साप्रतं सत्तास्थानाम्यभिधीयन्ते । तिनेगे एगेग, तिगमी से पंचचउसु तिगपुत्रे । एकार वायरम्य दुवे पड तिथि उपसते ||५|| एकस्मिन् मिध्यादृष्टी प्रीणि सामानि तथा तिः सप्तविंशतिः प्रविशतिः । अत्र भावना प्रागेवोक्ता । तथा म सासादने एकं सत्तास्यानं तद्यथा अष्टाविंशतिः मिथे उपास्थानानि तद्यथा अष्टाविंशतिः सप्तविंशतिः चतुवैिशतिः । तथा चतुर्ष्वविरतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तरूप प्रत्येकं पञ्च पञ्च ससास्थानानि तद्यथा श्रष्टाविंशतिश्चतु तपोविंशतिद्वदिशतिरेकविंशतिः । निवृते पूर्वकर त्रीणि सत्तास्थानानि तद्यथा अप्राविशतिश्चतुर्विंशतिरेकविशतिश्च । तत्राचे द्वे उपशमश्रेण्यामेकविंशतिः क्कायिकसम्यग्द रुपशमश्रेण्यां कपकथेत्यां या ( एक्कार बायरम्मिति ) बादरे निवृतिपादरे एकादश सत्तास्थानानि तद्यथा श्रष्टाविंशतिश्चतुविशतिरेकविंशतिस्त्रयोदश द्वादश एकादा पञ्च चतस्रः तिस्रः द्वे एकाच । तत्राद्ये द्वे श्रपशमिकसम्यग्दृष्टेरेकविंशतिः कायिक सम्य ग्दृष्टेरुपशमश्रेण्याम् अथवा कपकश्रेण्यामपि यावत्कषायाष्टकं न कायाकेतु को नपुंसक का द्वादश ततः स्त्रीवेदे कोण एकादश ततः षट्सु नोकषायेषु कीणेषु पञ्च ततः पुरुषवेदे कांणे चतस्रः संज्चन्तनको कीणे तिस्रः संज्वलनमाने कीणे द्वे ततः संज्वलनमायायां कीणायामेकेति (सुमे चउप्ति ) सूक्ष्मसंपराये चत्वारि सत्तास्थानानि तयथा अविशतिधशतिरेकादशतिरेका च । तत्राद्यानि प्रीति उपशमण्यामेका प्रकृतिः पापान् शान्तमोहे आणि सत्तास्थानानि तद्यथा अष्टाविंशतिध शतिरेकविंशतिः प्राद्भावना | संप्रति संवेध उच्यते । तश्रमिध्यादृष्टौ द्वाविंशतिर्बन्धस्थानं चत्वारि उदयस्थानानि तद्यथा सप्त श्रप्रै नव दश । तत्र सप्तोदये अष्टाविंशतिरूपमेकं स कम्म 1 तास्थानम् । अष्टादिषु तृदयस्थानेषु प्रत्येकं त्रीणि सत्तास्थाना निहित पशविध सर्वच्य या दश सादने शितिर्यन्थस्थानं स्थानान तद्यथा सप्त अष्टौ नव । पतेषु प्रत्येकमेकं सत्तास्थानं तद्यथा श्र ष्टाविंशतिः सर्वसंख्यया त्रीणि सत्तास्थानानि । सम्यग्मिथ्याहटबन्धस्थानं सप्तदश श्रीग्युदयस्थानानि तद्यथा सप्त अष्टा नव एतेषु प्रत्येकं त्रीणि त्रीणि सत्तास्थानानि तद्यथा अष्टाविंशतिः सप्तविंशतिश्चतुर्विंशतिश्च । सर्वसंख्यया नव । अविरतसम्यदृष्टौ बन्धस्थानं सप्तदश चत्वारि उदयस्थानानि तद्यथा पट् सप्त अष्ट नव तत्र प्ररुदये ।णि सत्तास्थानानि तद्यथा अष्टाविंशतिश्चतुर्वि शतिः एकविंशतिश्च । सप्तोदये पञ्च सत्तास्थानानि तद्यथा अष्टाविशतिधयति पोविंशतिद्वाविंशतिरेकविंशतिः एतान्येव पदमोदये चार तथा अष्टाविंशतिशत त्रयोविंशतिद्वाविंशतिः। सर्व संख्यया सप्तदश देशविरते त्रयोदशबन्धस्थानं चत्वारि उदयस्थानानि तद्यथा पञ्च पट् सप्त अ तत्र पञ्चकोदये त्रीणि सत्तास्थानानि तद्यथा अष्टाविंशतिश्चतुर्वि शतिरेकविंशतिः प्रमुदये पञ्च सत्तास्थानानि तद्यथा अष्टात्रिंशतिश्चतुर्विंशतिस्त्रयोविंशतिद्वाविंशतिरेकविंशतिश्च । तान्येव पञ्च सप्तोदये। अदये त्वेकविंशतिवर्जीनि चत्वारि सत्तास्थानानि तद्यथा अष्टाविंशतिश्चतुर्विंशतिस्त्रयोविंशतिघांविंशतिश्व प्रमत्ते नवस्थानिवार्युदयस्थानानि तथा बाचा पट् सप्त । तत्र त्रीणि सत्तास्थानानि तद्यथा अष्टाविंशतिश्चतुर्विंशतिरेकविंशतिश्च । पञ्चकोदये पत्र सत्तास्थानानि तद्यथा अटाविंशतिश्चतुवैिशतिस्त्रयोविंशतिर्द्धाविंशतिरेकविंशतिश्व एवं सप्तदये एकविंशतिवर्जीनि चत्वारि सत्तास्थानानि तथा अपदिशनिश्वतुविशतिस्त्रयोविंशतिद्धविशतिससंख्यया सप्तदश । एवमप्रमत्तेऽपि बन्धादये सत्तास्थानसंवेधोऽ न्युनानतिरिकन अपूर्वकरणे बन्धस्थानानि नच श्रीयु दयस्थानानि तद्यथा चत्वारि पञ्च पद् एतेषु प्रत्येकं त्रीणि त्रीणि सत्तास्थानानि तद्यथा श्रष्टाविंशतिश्चतुर्विंशतिरेकविंशतिः स र्वसंख्यया नव । श्रनिवृत्तिबादरे पञ्च बन्धस्थानानि तद्यथा पञ्च चत्वारि त्रीणि द्वे एकं च । तत्र पञ्चके बन्धस्थाने द्विकोदये पर सतास्थानानि तद्यथा अष्टाविंशतिशत शतिस्त्रयोदश द्वादश एकादश । चतुष्के बन्धस्थाने एकादये पट् सत्तास्थानानि तथा भाविनिशितपिका दश पञ्च चत्वारस्त्रिके बन्धस्थाने एकोदये पञ्च सत्तास्थानानि तद्यथा अष्टाविंशतिश्चतुर्विंशतिरेकविंशतिचत्वारि त्रीणि । के बन्धस्थाने एकोदये पञ्च सत्तास्थानानि तद्यथा भष्टाविंशतिश्व तुवैिशतिरेकविंशतिथि द्वे एकस्मिन् यन्चे पकोड़ये पञ्चस सास्थानानि तद्यथावितिविशतिपोविंशति एकं च । सर्वसंख्यया सप्तविंशतिः सत्तास्थानानि बन्धानावे सूक्ष्म संपराये एकोदये चत्वारि सत्तास्थानानि तद्यथा अष्टाविंशतिश्वतुर्दशातिरेकविंशतिरेकं च उपशान्तमनस्तस स्थानानि पुनरपि तथाविंशतितुविशतिरेकविंशति सर्वत्रापि च यथास्थानं जावना यथा प्रागधस्तात्संवेधचिन्तायां कृत तथा ऋषि कर्मम्या देयं चिन्तितं गुणस्थानकेषु मोहनीयं संप्रति नामविचिन्तयिषुराह उभयछ कतिगमन, दुर्गदुर्ग तिगदुगं ति अट्ट च । दुग बच्चन डग पण चन, दुग चल चक्र पणग एग चड ५८ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२३) अभिधानराजेन्धः। एगेगमइगेग-मट्ट छउमत्थकेवनिजिणाणं । त् । तत्रैकेम्ब्रियाणां षट् वैक्रियतिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणामटौ वैक्रिय मनुष्याणामष्टौ देवानामष्टौ नारकाणामेकः । अष्टाविंशत्युदये एगं चन एगं चन, अट्ठ चन दुउकमुदयंसा॥ ॥ एकादश शतानि नवनवत्यधिकानि तत्र विकलेन्द्रियाणां पर मिप्यारी नाम्नः षट् वभस्थानानि तद्यथा त्रयोविंशतिः पञ्च तिर्यपञ्चेन्डियाणां पञ्च शतानि षट्सप्तत्यधिकानि । वैफियविंशतिः पामशतिरष्टाविंशतिरेकोनत्रिंशत् त्रिंशत् । तत्रापर्याप्त तिर्यक्पञ्चन्छियाणां षोमश मनुष्याणां पञ्च शतानि षट्सप्तत्यकैकेन्द्रियप्रायोग्य बनतस्त्रयोविंशतिस्तस्यां च बध्यमानायां धिकानि । चैक्रियमनुष्याणामष्टा देवानां षोमश नारकाणामेकः। बादरमुकाप्रत्येकसाधारणैताश्चत्वारः। पर्याप्तकैकेन्ज्यिप्रायोग्य एकोनधिशदये सप्तदश शतान्येकाशीत्यधिकानि । ता वि. पर्याप्तद्वित्रिचतुरिन्छियतिर्यक्पञ्चेन्सियमनुष्यप्रायोग्यं च बनतः कलेन्छियाणां द्वादश तिर्यपञ्चेन्ड्रियाणामेकादश शतानि हिपपञ्चविंशतिः। तत्र पर्याप्तकैकेन्द्रियप्रायोग्यायां पञ्चविंशतो म्चाशदधिकानि। वैक्रियतिर्यपञ्चेन्द्रियाणां पोरुश मनुष्याबध्यमानायां नङ्गा विंशतिः। अपर्याप्तद्वित्रिचतुरिन्छियतिर्यकपञ्चे णां पञ्च शतानि पट्सप्तत्यधिकानि वैक्रियमनुष्याणामष्टी छियमनुष्यप्रायोग्यायां तु बध्यमानायां प्रत्येकमेकैको नल इति देवानां षोश नारकाणामेकः । त्रिशदये एकोनशिच्चतानि सर्वसंख्यया पञ्चविंशतिः पर्याप्तकैकेन्द्रियप्रायोभ्यं बनतः पमि चतुर्दशाधिकानि । तत्र विकछियाणामादश तिर्यपञ्चेन्छशतिः तस्यां च वध्यमानायां नङ्गाः षोमश देवगतिप्रायोग्यां याणां सप्तदश शतानि अष्टाविंशत्यधिकानि । वैक्रियतिर्यक्पनरकगतिप्रायोग्यां वा बनतोऽष्टाविंशतिः । तत्र देवगतिप्रायो ञ्चेन्द्रियाणामष्टौ मनुष्याणामेकादश शतानि द्विपञ्चादशधि-- ग्यायामष्टाविंशतौ अष्टौ भङ्गाःनरकगतिप्रायोग्यायां वेक इति ।। कानिदेवानामष्टौ । एकत्रिशदये एकादश शतानि चतुःषध्य. सर्वसंख्यया नव । पर्याप्तद्वित्रिचतुरिन्जियतियक्पञ्चेन्द्रियमनु धिकानि। तत्र विकलेन्द्रियाणांद्वादश तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणामेकाध्यप्रायोग्य बनतामेकोनत्रिंशत् तत्र पर्याप्तद्वित्रिचतुरिन्डियप्रा दश शतानि द्विपञ्चाशदधिकानि । सर्वसंख्यया सप्त सहस्राणि योग्यायामेकोनत्रिंशति वध्यमानायां प्रत्येकमष्ट नङ्गाः । तिर्य सप्त शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि । मिथ्यारष्टेः षट् सत्तास्थानापम्चेन्द्रियप्रायोग्यायां त्वशाधिकानि षट्चत्वारिंशच्कृतानि म नि तद्यथा द्विनवतिरेकोननवतिरष्टाशीतिः षमशीतिरशीतिरनुष्यगतिप्रायोग्यायामपि अष्टाधिकानि षट्चत्वारिंशच्चतानिस प्रसप्ततिः । तत्र द्विनवतिः चतुर्गतिकानामपि मिथ्यारधीनामसंख्यया एकोनगिति बन्धे चत्वारिंशदधिकानि घिनवतिश वसेया । यदा पुनर्नरकेषु बद्धायुष्को वेदकसम्यग्दृष्टिः सन् तीतानि अत्र तीर्थकरसहितदेवगतिप्रायोग्यायामप्टी जनान प्राप्यन्ते र्थकरनामसहितं परिणामपरावर्त्तनेन मिथ्यात्वं गतो नरकेषु सम्यक्त्यानावे तीर्थकरनामकर्मणो बन्धाभावात् । पयाप्तहित्रिच समुत्पद्यते तदा तस्यैकोननवतिरन्तमुहूर्त कालं याचवज्यते तुरिन्ज्यिप्रायोग्यायां त्रिंशति प्रत्येकमष्टौ भनाः। तथा तिर्यक्पञ्चे। उत्पत्तेरूळमन्तMदू नन्तरं तु सोऽपि सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते । न्द्रियप्रायोग्यायांत्वष्टाधिकानि षट्चत्वारिंशच्चतानि सर्वसंख्यया श्रष्टाशीतिश्चतगतिकानामपि मिथ्यादृष्टीनाम् । पाशीतिरशीतिविशति द्वात्रिंशदुत्तराणि पद चत्वारिंशतानि या च मनुष्यगति चैकेन्द्रियेषु यथायोग देवगतिप्रायोग्ये नरकगतिप्रायोग्ये चोहप्रायोग्या तीर्थकरनामसहिता त्रिंशत् या च देवगतिप्रायोग्या आ बिते सति बज्यते अशीतिश्चैकेन्द्रियेषु विनवतेस्तीर्थकरनादारकद्विकसहिताते उभे अपिमिथ्यादृष्टेन बन्धमायातः। तीर्थक म्न्याहारकचतुष्के वैफियपद्धे नरकद्विके चोद्वलितेसतिलायते रनाम्नः सम्यक्त्वप्रत्ययत्वादाहारकनाम्नस्तुसंयमप्रत्ययत्वात्। ततः एकेन्द्रियजवाऽकृत्य विकलेन्द्रियेषु तिर्यक्पञ्चेन्द्रियेषु उक्तं च “सम्मत्तगुणनिमित्तं, तित्थयरंसंजमेण आहारमिति।" मनुष्येषु वा मध्ये समुत्पन्नानां सर्वपर्याप्तिभावामप्यन्तप्रयोविंशत्यादिषु च बन्धस्थानेषु यथासंख्य मुहूर्त कालं याववभ्यते परतोऽवश्यं वैक्रियशरीरादिबन्धभङ्गसंख्यानिरूपणार्थमाद ।। संभवात् । अष्टसप्ततिस्तेजोवायूनां मनुष्यगतिमनुष्यानुपूर्योचन पण वीसा सोनस, नव चत्ताला सया य बाणउइ । रुनितयोः प्राप्यते तेजोवायुभवामुकृत्य विकलेन्छियेषुतिबत्तीमुत्तरछाया-लसया मिच्छस्स बंधविही ।। ६० ॥ र्यपञ्चेन्द्रियेषु वा मध्ये समुत्पन्नानामन्तर्मुहुर्त कालं यावसुगमा तथा मिथ्या व उदयस्थानानि तद्यथा एकवि- त् परतोऽवश्यमिति मनुष्यर्गातमनुष्यानुपूज्योबन्धसंजवात् । शनिश्चतुर्विंशतिः पञ्चविंशतिः पशितिः सप्तविंशतिरष्टा-1 तदेवं सामान्येन मिथ्याऐबन्धोदयसत्तास्थानान्युक्तानि । विंशतिरकोनत्रिंशत् त्रिठातू एकत्रिंशत् पतानि सवाण्याप नाना संप्रति संवेध उच्यते । तत्र मिथ्यादृष्टेस्त्रयोविंशति यन्नतः जीवापेक्रया यथा प्राक सप्रपश्चनुक्तानि तथाऽत्रापि वक्तव्यानि | प्रागुक्तानि नवाप्युदयस्थानानि सप्रनेदानि संजवन्ति केवलमेककेव समाहारकसंयतानां वैफ्रियसंयतानां केवलिनां च संबन्धीनि। विंशतिपञ्चविंशतिसप्तविंशत्यष्टाविंशस्येकोनत्रिंशत्रिंशद्रूपेषुषन वक्तव्यानि तेषां मिथ्यारप्टित्वासंजवात् सर्वसंख्यया मिथ्या-1 ट्सु नदयस्थानेषु देवनरयिकानधिकृत्य ये भङ्गाः प्राप्यन्ते ते दृष्टी सदयस्थानभङ्गाः सप्त सहस्राणि सन शतानि त्रिसनत्यधि- न संभवन्ति । त्रयोविंशतिर्हि अपर्याप्तकैकेन्द्रियप्रायोग्या नच कानि। तथाहि पकविंशत्युदये एकचत्वारिंशत् तत्रैकेन्डियाणां देवा अपर्याप्तकैकेन्द्रियप्रायोग्यं बध्नन्ति तेषां तत्रोत्पादानावापञ्च द्वीन्द्रियाणां नव तिर्यकपञ्चेन्द्रियाणां नव मनुष्या- तु। नापि नैरयिकास्तेषां सामान्यतोऽप्येकेन्द्रियप्रायोग्यबन्धासंत्रणां नव देवानामौ नारकाणामेकः। तथा चविशत्युदये एका- वात् । ततोऽत्र देवनैरयिकसत्कोदयस्थानजङ्गा न प्राप्यन्ते सत्तादश तेच एकेद्रियाणामेव अत्र चतुर्विशत्युदयस्याभावात् । प- स्थानानि च पञ्च तद्यथा द्विनवतिरष्टाशीतिः परशीतिरशीतिउचविंशत्युदये द्वाशित तत्रैकेन्द्रियाणां सप्त वैक्रियतियफ्पञ्चे- रसप्ततिश्च। तत्रैकविंशतिचतुर्विशतिपञ्चविंशतिषविंशत्युदयेषु प्रियाणामटौ वैफियमनुष्याणामष्टो देवानामष्टौ नारकाणामेकः। पञ्चापि सत्तास्थानानि नवरं पञ्चविंशत्युदये तेजोवायुकायिकपमिंशत्युदये पट्शतानि तौकेन्द्रियाणां त्रयोदश विकलेन्छि- मधिकृत्याएसप्ततिःप्राप्यतापसिंशत्युदये तेजोवायुकायिकास्तेजोयाणां नव निर्यपञ्चडियाणां वे शते एकोननवत्यधिके मनु- | वायुजवादुकृत्य विकलेन्द्रियतिर्यक्पञ्चेम्पियेषु मध्ये समुत्पन्नाव्याणामपि द्वे शते एकोननवत्यधिके । सप्तविंशत्युदये एकत्रिश- नविधाकृत्य सप्तत्रिंशत्यष्टाविंशत्येकोनविंशत्रिशदेकत्रिशदूपेषु Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२४) अन्निधानराजेन्दः । कम्म पाचसु असततिवानि शेषाणि प्रत्येकं चत्वारि चत्वारिसत्ता वतिरष्टाशीतिः चाशीतिरशीतिरेतानि विकलेम्ब्यितिर्यपस्थानानि । सर्वसंख्यया सर्वाण्यप्युदयस्थानाम्यधिकृत्य त्रयोवि ऽचेन्द्रियमनुष्यानधिकृत्य वेदितव्यानि एकोननबतिस्तु नप्राप्यशतिबन्धकस्य चत्वारिंशत्सत्तास्थानानि । एवं पञ्चविंशतिष ते यतःसा मिथ्याऐः सता बद्धतीर्थकरनाम्नो मिथ्यात्वं गमिंशतिबन्धकानामपि वक्तव्यं केवमिह देवोऽप्यात्मीयेषु सर्वे. तस्य नैरयिकस्य प्राप्यते।नच नैरयिकस्य त्रिंशदुदयोऽस्ति। एकप्वप्युदयस्थानेषु वर्तमानः पर्याप्तकैकेन्द्रियप्रायोग्यां पञ्चविंशतिं त्रिंशदुदयेऽप्येतान्येव चत्वारि तानि च विकलेन्डियतिर्यक्पञ्चेवशिति चवन्नातीत्यवसेय नवरं पञ्चविंशतिबन्धे बादरपर्याप्त छियानधिकृत्य इष्टव्यानि । सर्वसंख्यया मिथ्यारऐरेकोनत्येकस्थिरास्थिरयभाशुभऽभगानादययशःकीर्त्ययशः कीति त्रिंशतं बनतः पञ्चचत्वारिंशत् सत्तास्थानानि । या तु देवपदैरष्टौ भङ्गा अवसया न शेषाः सूक्ष्मसाधारणापर्याप्तषु मध्ये गतिप्रायोग्या एकोनत्रिंशत् सा मिथ्यारप्टेन बन्धमायाति कादेषस्योत्पादानावात् । सत्तास्थाननावना पञ्चविंशतिबन्धे पति रणं प्रागेवोक्तम् । मनुष्यदेवगतिप्रायोग्यवर्जी शेषां त्रिंशतं विशतिबन्धे च प्रागिव कर्तव्या सर्वसंख्यया चत्वारिंशत् सत्ता कलेन्द्रियतिर्यक्पञ्चेन्द्रियप्रायोग्यां यन्नतः सामान्येन प्रागुक्तानि स्थानानि । अष्टाविंशतिबन्धकस्य मिथ्यादृष्टे उदयस्थाने नवोदयस्यानानि एकोननवतिवर्जानि पश्च सत्तास्थानानि । एकोतद्यथा त्रिंशत् एकत्रिंशत् । तत्र त्रिंशत् तिर्यक्पञ्चेन्डियमनुष्या ननवतिस्तुन संजवति सत्कर्मणस्तिर्यम्गतिप्रायोग्यबन्धाऽऽरम्ननधिकृत्य एकत्रिंशत तिर्यक्पञ्चेन्द्रियानेय अष्टाविंशतिबन्धकस्य चत्वारि सत्तास्थानानि तद्यथा द्विनवतिरेकाननवतिः अष्टाशी संभवात् तानि च पञ्च सत्तास्थानानि एकविंशतिचतुर्विशतिपतिः षमशीतिः । तत्र त्रिंशदये चत्वापि तत्राप्येकोननयतिः चविंशतिपहिंशत्युदयेषु प्रागिव नावनीयानि । सप्तविंशत्यक्ष विंशत्येकोनत्रिशनिशदेकत्रिंशदूपेषु पञ्चसदयस्थानेषु अष्टसप्तयो नामवेदकसम्यग्दृष्टिबद्धतीर्थकरनामपरावर्सनेन मिथ्यात्वं तिवानि प्रत्येक शेषाणि चत्वारि चत्वारि सत्तास्थानानि भावगतो नरकाजिमुखो नरकगतिप्रायोग्यामष्टाविंशति बनाति नीयानि अष्टसप्ततिप्रतिषेधकारणं प्रागुक्तमनुसरणीयम । सर्वतमधिकृत्य वेदितव्या शेषाणि पुनस्त्रीणि सत्तास्थानान्यधिशेषेण तिर्यग्मनुष्याणामेकत्रिंशदुदये एकोननवतिवानि श्रीणि स संख्यया मिथ्यात्रिशतं बध्नतः चत्वारिंशत् सत्तास्थानानि त्तास्थानानि । एकोननवतिर्हि तीर्थकरनामसहिता न च तीर्थ मनुजगतिदेवगतिप्रायोग्यात्रिंशत् मिथ्याडऐन बन्धमायात मनुः करनाम तिर्यकु संभवति सर्वसंख्यया अष्टाविंशतिबन्धे सप्त स. जगतिप्रायोग्या हि त्रिंशत् तीर्थकरनामसहिता, देवगतिप्रायोग्या तास्थानानि देवगतिप्रायोग्यवर्जी शेषामेकोनत्रिशतं विकलेन्धि स्वाहारकद्विकतीर्थकरनामसहिता ततः सा कथं मिथ्यादृष्टेर्ययतियक्पञ्चेन्जियप्रायोग्यां मनुष्यगतिप्रायोग्यां च बनतो मि न्धमायाति । तदेवमुक्तो मिथ्यार्घन्धोदयसत्तास्थानसंवेधः। च्याप्टेः सामान्येन नवापि प्राकृतानि सदयस्थानानि । पद स. संप्रति सासादनस्य बन्धोदयसत्तास्थानान्युच्यन्ते (तिगसत्तात्तास्थानानि तद्यथा द्विनयतिरेकोननयतिरष्टाशीतिः परशीतिर गत्ति) त्रीणि बन्धस्थानानि तद्यथा अष्टाविंशतिः एकोनहित शीतिरष्टसप्ततिः । तत्रकविंशत्युदये सर्वाण्यपीमानि प्राप्यन्ते त्रिंशत् । तत्राष्टाविंशतिधा देवगतिप्रायोग्या नरकगतिप्रायोतत्राप्येकोननवतिबरुतीर्थकरनामानं मिथ्यात्वं गतं नैरयिकमधि ग्या च । तत्र नरकगतिप्रायोग्या सासादनस्य न बन्धमायाति देकृत्यावसेया। द्विनवतिः अष्टाशीतिश्च देवनैरयिकमनुजविकलेन्द्रि वगतिप्रायोग्यायाश्च बन्धकास्तिर्यक्पञ्चेन्डियमनुप्याइच। तस्यां यतिर्यपञ्चेन्द्रियानधिकृत्य,पाशीतिरशीतिश्च विकलेन्धियति चाष्टाविंशती बध्यमानायामौ भनाः । तथा सासादना एकेयक्पञ्चेन्छियमनुजैकेन्द्रियानधिकृत्य वेदितव्या। भष्टसप्ततिरेके छियविकलन्द्रियतिर्यपञ्चेन्छिया मनुष्या देवा नैरयिकाइच छियविकतन्द्रियतिर्यक्पञ्चेन्छियानधिकृत्य, चतुर्विशत्युदयेए तिर्यक्पञ्चेन्द्रियप्रायोग्यां मनुष्यगतिप्रायोग्यां वा एकोनत्रित फोननवतिवानि शेषाणि पञ्च सत्तास्थानानि तानि चैकेन्धि बनान्त न शेषाम् । अत्र च भङ्गाः चतुःषष्टिशतानि । तथाहि पानेवाधिकृत्य वदितव्यानि अन्यत्र चतुर्विंशत्युदयस्यानावात् । सासादना यदि तिर्यक्पञ्चेन्द्रियप्रायोग्यामष्टाविंशतिप्रायोग्यामेपञ्चविंशत्युदयेऽपि षट् सत्तास्थानानि तानि यथैकविंशत्यु कोनत्रिशतं बध्नन्ति तथापि न ते हुएमसंस्थान सेवा च संदननं दये भावितानि तथैव भावनीयानि। पहिशत्युदये एकोननयतिव बन्नन्ति मिथ्यात्वोदयाभावात् ततश्च तिर्यक्पञ्चेन्द्रियप्रायोण्याजानिशेषाणि पञ्चसत्तास्थानानि तानि प्रागिव भावनीयानि पको मेकोमत्रिंशतं बध्नतः पञ्चभिःसंस्थानः पञ्चनिः संहननः प्रशस्ता. ननवतिस्तु न अन्यते यतो मिथ्यादृष्टेःसत एकोननवतिनरकेषत्प प्रशस्तविहायोगतिभ्यां स्थिरास्थिराज्यां शुभाशुनाभ्यां सुन्नगयमानस्य नैरयिकस्य प्राप्यतेन शेषस्य निच नैरयिकस्यपशि दुभंगभ्यां सुस्वरदुःस्वराभ्याम् आदेयानादेयाभ्यांयशाकीययश: त्युदयः संभवति । सप्तविंशत्युदये अष्टसप्ततिवर्जानि शेषाणि पञ्च कीर्तियां चना द्वात्रिशच्चतानि | पवं मनुष्यगतिप्रायोग्यासत्तास्थानानि। तत्रैकोननवतिः प्रागुक्तस्वरूपं नरयिकमधिकृत्य मपि बनतो हात्रिशच्चतानि। ततः सर्वसंख्यया चतुःपष्टिशताद्विनवतिरटाशीतिश्च देवनैरयिकमनुजविकलेन्छियतिर्यक्पञ्चे. नि ततः सासादना पकेन्छिया विकन्डियाः तियक्पञ्चेन्द्रिया छियानधिकृत्य पाशीतिरशीतिश्च एकेन्धियविकलेन्डियतिर्य देवा नैरयिका वा यदि त्रिंशतं बध्नन्ति तहि तिर्यक्पानेन्द्रियपञ्चेन्द्रियमनुष्यानधिकृत्य अष्टसप्ततिश्वन संनयति ततः स. प्रायोग्यामेवोद्योतसहितां न शेषाम, तां बनतां च प्रागिव भमविशत्युदये तेजोवायुवर्जानामेकेन्क्रियाणामातपोद्योतान्यतरस ङ्गानां द्वात्रिंशच्छतानि । सर्वबन्धस्थानभङ्गसंख्या अष्टाधिकानि हितानां नारकादीनां वा भवति । नच तेषामष्टसप्ततिस्तेषामवश्यं पावतिशतानि । मनुप्यद्विकबन्धसंजवात् । पतान्येव पञ्च सत्तास्थानान्यष्टाविंश उक्तभङ्गसंख्यानिरूपणार्यमियमन्त प्यगाथा। त्युदयेऽपि तत्रकोननवतिर्द्विनवतिरष्टाशीतिरशतः प्रागिव अहसया चनसट्ठी, बत्तीस मया सासणे आ। भावनीयाः पमशीतिरशीतिश्च विकलेन्द्रियतिर्यक्पञ्चेन्ज्यिमनु- अहावीसाईसु, सबाणहाहि असमई॥ ६१॥ प्यानधिकृत्य वेदितव्या । एवमेकोनत्रिंशदयेप्येतान्येव पञ्च- सासादनस्योदयस्थानानि सप्त तद्यथा एकविंशतिश्चतासत्तास्थानानि भावनीयानि विशऽदये चत्वारि तराथा छिन- शतिः पञ्चविंशतिः पशितितिरेकोनत्रिशत् त्रिशदेकांशत् । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२५) अभिधानराजेन्द्रः। कम्म तत्र एकविंशत्युदय एकेन्द्रियविकन्छियतिर्यफ्पञ्चेन्द्रियमनु- शदेकत्रिंशत् । अष्टाविकातिर्हि सासादनस्य बन्धयोग्या प्रवति न्यदेवानाधिकस्य वेदितव्यः नरकेषु सासादनो नोत्पद्यते इति कृत्वा देवगतिविषया च । न च करणापर्याप्तसासादनो देवगतियोग्यां तद्विषय एकविंशत्युदयो न गृह्यते तत्रैकेन्द्रियाणामेकविंशत्युद बन्नाति ततः शेषा उदया न संनवन्ति । अत्र मनुष्यानधिकृत्य थे वादरपर्याप्तकेन सह यशाकीर्त्ययश-कीर्तियां यौ द्वौ नाता त्रिंशदये हे अपि सत्तास्थाने तद्यथा हिनवतिरष्टाशीतिश्च वेव संनवतःन शेषाः सूदमेवपर्याप्तकेषु च मध्ये सासादनस्यो तिर्यपञ्चन्छियान् सासादनानधिकृत्याप्टाशीतिरेव यतो द्वित्पादाभावात् । अत एव विकलेन्द्रियाणां तिर्यक्पञ्चेन्क्रियाणांम नवतिरुपशमश्रेणीतः प्रतिपततो बन्यते नच तिरश्चामुपनुष्याणां च प्रत्येकमपर्याप्तकेन सद य पकैको भङ्गः सहनसं शमश्रेणिसंनवः । एकत्रिंशदयेऽप्यष्टाशीतिरेव यत एकत्रिंशभवति किंतु शेषा एव । ते च विकलेजियाणांद्वी द्वाविति षट् ति उदयस्तिर्यक्पञ्चन्द्रियाणां न चतिरश्चां द्विनवतिःसंभवति प्रार्यकपञ्चेन्द्रियाणामष्टौ मनुष्याणामष्टा देवानामप्यष्टौ सर्वसंस्य गुक्तयुक्तेः । एकोनत्रिंशतं तिर्यक्पञ्चन्छियमनुष्यप्रायोम्यां वनया एकविंशत्युदये द्वात्रिंशद्भङ्गाश्चतुर्विशत्युदये एकेन्द्रियेषु मध्ये तः सासादनस्य सप्ताप्युदयस्थानानि । तत्र एकेन्द्रियविकसेन्किउत्पन्नमात्रस्य अत्रापि यादरपर्याप्तकेन सह यशः कीर्त्ययशःकी यतिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्यदेवनैरयिकाणां सासादनानां स्वीयस्थीतिज्यां यो द्वोनो तावेव संनवतःन शेषाः सूदमेषु साधारणेषु योदयस्थानेषु वर्तमानानामेव सत्तास्थानानामष्टाशीतिः नवरं तेजोवायुषुचमध्ये सासादनस्योत्पादासनवात् । पञ्चविंशत्युदयो मनुष्यस्य त्रिंशदये वर्तमानस्योपशमश्रेणीतः प्रतिपततः सा. देवेषु मध्ये उत्पन्नस्यावश्यं प्राप्यते न शेषस्य । तत्र चाष्टा भङ्गाः सादनस्य हिनवतिः । एवं त्रिंशद्वन्धकस्यापि वक्तव्यं सर्घाएयुते च स्थिरास्थिरशुभाशुजयशः कीर्त्ययश कीर्तिपदैरवसेयाः । दयस्थानान्यधिकृत्य सामान्येन सर्वसंख्यया साप्तादनस्याष्टा(नापाटीकायां सुलगनगादेयानादेययश-कीर्त्ययश-कीर्तिपदैः दशसत्तास्थानानि। संप्रति सम्यग्मिध्यादृष्टेबन्धोदयसत्तास्थानाप्रष्ट भङ्गाः प्रतिपादिताः ) षट्त्रिंशत्युदयो विकन्छियतिर्य न्यभिधीयन्ते (गतिगत्ति)तत्र बन्धस्थाने तद्यथा अष्टाविंशपञ्चेन्छियमनुष्येषु मध्ये उत्पन्नमानस्य अत्राप्यपर्याप्तकेन सद तिरकोनविंशत् । ततः तिर्यग्मनुष्याणां सम्यग्मिथ्यादृष्टीनां देवय पकैको भङ्गः स न संभवति भपर्याप्तकमध्ये सासादनस्यो गतिप्रायोग्यमव बन्धमायाति ततस्तेषामष्टाविंशतिः तत्र नमः त्पादानावात शेषास्तु संनवन्ति ते च विकलेन्द्रियाणां प्रत्येक द्वौ वाविति पद । तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां हे शते अष्टाशील्यधिके, भप्टौ । एकोनत्रिशतं मनुष्यगतिप्रायोग्यां बनतां देवनरयिका णामत्राप्यष्टी भङ्गाः ते च सजयत्रापि स्थिरास्थिरशुनागुभयशः मनुष्याणामपि द्वे शते अप्पाशीत्यधिके सर्वसंख्यया पकिंशत्युदये। पञ्च शतानि घशीत्यधिकानि सप्तविंशत्यष्टाविंशत्युदयौ न कीर्त्ययशः कीर्तिपदैरवसेयाः । शेषास्तु परावर्तमानप्रकृतयः संत्रवतस्तौ दि उत्पस्यनन्तरमन्तर्मुहर्ते सति भवतः सासादन शुभा एव सम्यग्मिथ्यारष्टीनां बन्धमायान्ति ततः शेषा नङ्गाः न प्राप्यन्ते । सर्वसंख्यया षोमश भङ्गाः त्रीण्युदयस्थानानि भावस्योत्पस्यनन्तरमुत्कर्षतः किञ्चिदूनषमावलिकामा कासं तत एती सासादनस्य प्राप्यते। एकोनत्रिंशदुदयो देवनैरयिकाणां तद्यथा एकोनत्रिंशत् त्रिंशत् एकत्रिंशत् । तकैत्रोनत्रिंशति स्वस्थानगतानां पर्याप्तानां प्रथमसम्यक्त्वात् प्रच्यवमानानां देवानधिकृत्याष्टौ भङ्गा नैरयिकानधिकृत्यैकः सर्वसंख्यया प्राप्यते । तत्र देवस्यैकोनत्रिंशदये नङ्गाः अष्टौ नरयिकस्यैक नव । त्रिंशति तिर्यपञ्चेन्द्रियानधिकृत्य पर्याप्त्यपर्याप्तियोइति सर्यसंख्यया नव । त्रिंशदुदयस्तिर्यग्मनुष्याणां पर्याप्तानां ग्यानि द्विपञ्चाशदधिकानि पकादश शताति मनुष्यानधिकृत्य प्रथमसम्यक्त्वात् प्रच्यवमानानां देवानां वा उत्तरवैक्रिये वर्स- एकादश शतानि द्विपञ्चाशदधिकनि।सर्वसंख्यया त्रयोविंशतिमानानां सासादनानाम् । तत्रतिरश्चां मनुष्याणां च त्रिंशदये शतानि चतुरधिकानि । एकत्रिंशदुदयस्तिर्यपञ्चेरियानधिप्रत्येक द्विपञ्चाशदधिकान्येकादश शतानि । देवस्याप्टौ सर्व- कृत्य तत्र भङ्गाः द्विपञ्चाशदधिकान्येकादश शतानि सर्वोदयस्थासंख्यया प्रयोविंशतिशतानि द्वादशाधिकानि । एकत्रिंशत्रुदय-| ननङ्गसंख्या चतुस्त्रिंशच्चतानि पञ्चषष्ट्याधिकानि । संप्रति संस्तिर्यक्पचन्द्रियाणां पर्याप्तानां प्रथमसम्यक्त्वात प्रच्यवमाना वेध उच्यतेसम्यस्मिथ्यारष्टरष्टाविंशतिबन्धकस्य द्वे उदयस्थानाम् । अत्र जला एकादश शतानि द्विपञ्चाशदधिकानि । ने तद्यथा त्रिंशत् एकत्रिंशत् । एकैकस्मिन्नुदयस्थाने द्वे वे सगचसिगारबत्ती-स सयगतीसिगारनबनन। सास्थाने तद्यथा द्विनवतिरष्टाशीतिश्च । एकोनत्रिंशद्वन्धकम्य सत्तरिगसि गुत्तिस, चनदश्गारचउसट्टि मिच्दया ॥६२॥ एकमुदयस्थानमेकोनत्रिंशत् अत्रापि द्वे सत्तास्थाने तदेवमेकै(श्य गाथा लिखितपुस्तकेष्वनुपलज्यमानापि मुखितपुस्तकेष् कस्मिन् उदयस्थाने द्वे द्वे सत्तास्थाने ति सर्वसंख्यया षट् । पनत्यते इति व्याख्ययापिसोपयोगापि अस्मत्पुस्तके नास्तीतिन संप्रत्यविरतसम्यग्दृष्टेबन्धोदयस्थानान्यनिधीयन्ते(तिगठचउत्ति) ज्यास्यायते त्रुटितेति न संनावयामः किन्तु ग्रन्थकारैरेव न गृही त्रीणि बन्धस्थानानि तद्यथा अष्टाविंशतिरकोनत्रिंशत् त्रिंशत् । तति निश्चिनुमः । तत्वं केवनिनो विदन्ति) तत्र तिर्यग्मनुष्याणामविरतसम्यग्दृष्टीनां देवगतिप्रायोग्यं च उक्तरूपाया एच जनसंख्याया निरूपणार्थमाह।तत्रान्त ध्यगाथा बनतामष्टाविंशतिः तत्राप्यष्ट। भङ्गाः अविरतसम्यग्दृष्टयो हि बत्तीस दोनि अह य, बासीसिया य पंच नव नदया। तिर्यग्मनुष्या न शेषगतिप्रायोग्यं बध्नन्ति तेन नरफगतिप्रायोग्या बारहिया तेवीसं, बावनिक्कारस सया य॥६३॥ अष्टाविंशतिर्न सज्यते मनुष्याणां देवगतिप्रायोग्यां तीर्थकरससुगमा सर्वभङ्गसंख्यया सप्तनवत्यधिकानि चत्वारिंशतानि दितां बध्नतामेकोनत्रिंशत् । अत्राप्यष्टौ जनाः। देवनैरयिकाणां सासादनस्य द्वे सत्तास्थाने तद्यथा द्विनवतिरष्टाशीतिश्च । तत्र मनुष्यगतिप्रायोग्यं बध्नतामेकोनत्रिंशत् अत्रापित एवाटी भङ्गाः द्विमवतिर्य आहारकचतुष्टयं बध्या उपशमश्रेणितः प्रतिपतन तेषामेव मनुष्यगतिप्रायोभ्यां तीर्थकरसहितां बनतां त्रिंशत् प्रसासादननावमुपगच्छति तस्य लज्यतेन छोपस्य अप्यागीतिश्व- प्रापि त पवाटी नङ्गाः (सळसंख्यया द्वात्रिंशत) एवमत्राष्टाधुदयतुर्गतिकानामपि सासादनानाम् । संप्रति संवेध उच्यते सत्रा- स्थानानि तद्यथा एकविंशतिः पञ्चविंशतिः मिशतिः सप्तविंशतिः प्टाविंशति बन्नतः सासादनस्य उदयस्थाने तद्यथा त्रि. अष्टविशतिरेकोनत्रिंशत् त्रिंशत् एकत्रिंशत् । तत्रैकविंशत्युदयो Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२६) अभिधानराजन्धः। कम्म नैरयिकतिर्यक्पञ्चेन्डियमनुष्यदेवानधिकृत्य घेदितव्यः। कायिक- तिरष्टाशीतिश्च । सर्वसंख्यया चतुःपञ्चाशत् । संप्रति देशविरतसम्यग्दष्टेः पूर्वबझायुष्कस्य एतेषु सर्वेष्वपि तस्य संभवात् ।। स्य बन्धादिस्थानान्युच्यन्ते ( सुगरकचनकति ) देशविरतस्य भविरतसम्यग्दृष्टिश्चापर्याप्तषु नोत्पद्यते ततोऽपर्याप्तकोदयवर्जाः द्वे बन्धस्थाने तद्यथा भष्टाविंशातिरेकोनत्रिंशत् तत्राष्टाविंशतिर्मनुशेषा भङ्गाः सर्वेष्वपि वेदितव्याः। ते च पञ्चविंशतिः तत्र तिर्य- प्पतिर्यक्पञ्चेन्द्रियस्य वा देश विरतस्य देवगतिप्रायोग्या । तत्राष्ट्री पञ्चेन्द्रियानधिकृत्याष्टौ मनुष्यानधिकृत्याप्टौ देवानप्यधिकृत्या- भङ्गाःसैवतीर्थकरसहिता एकोनत्रिंशत् सा च मनुध्यस्यैव ।न टौ नैरयिकानधिकृत्यैकः । पञ्चविंशतिसप्तविंशत्युदयौ देवान् | निरश्चांतीर्थकरसत्कर्मबन्धानाधात् अत्राप्यष्टौ जनाः षट् सदयनैरयिकान् वैक्रियतिर्यग्मनुष्यांश्चाधिकृत्यावसेयौ । तत्र नैरयि- स्थानानितद्यथा पञ्चविंशतिः सप्तविंशतिरष्टाविंशतिः एकोनत्रि. कक्कायिकवेदकसम्यग्दृष्टिा देवस्त्रिविधसम्यग्हपिरपि। नुक्तंच शत् त्रिंशत् एकत्रिंशत् तत्राद्यानि चत्वारि चत्वारि वैक्रियतियम्मचू!"पम्मवीस सत्तबीसोदया य देवनेरए वेचब्धियम्मि ति. नुष्याणामत्र पकैको भङ्गःसर्वपदानां प्रशस्तत्वात त्रिंशत्स्वन्नारियमणुप पमुश्च नेरगोवाश्गवेयगसम्मादिछी देवा तिविहस- वस्थानामपि तिर्यग्मनुष्याणामत्र भङ्गानां चतुश्चत्वारिंशच्चतम् । म्मादिट्ठी वि तिभंगा" निशत्युदयस्तिर्यग्मनुष्याणां कायिकये- तश्च पनि संस्थानैः पतिःसंहननैः सुस्वरपुःस्वराज्यांप्रशस्ता प्रश दकसम्यदृष्टीनाम औपशमिकसम्यन्टटिश्चतिर्यग्मनुष्यषु मध्ये स्तविहायोगतियां च जायते ऽभगानादेयायशःकीतीनामुदयों नोत्पद्यते इति त्रिविधसम्यग्दृष्टीनामिति नोक्तं वेदकसम्यग्दृष्टानां गुणप्रत्ययादेवन जवतीति तदाश्रिता विकल्पान प्राप्यन्ते तिच तिरश्चां द्वाविंशतिसत्कर्मणां वेदितव्यः। अष्टाविंशत्येकोनधि- यंग्मनुष्याणां प्रत्येकमकैको जङ्गः ( सर्वसंख्यया नवाशीत्याधिशदुदयी नैरयिकतियग्मनुष्यदेवानां त्रिंशदयस्तिर्यक्पञ्चेन्डिय- कं शतद्वयम् ) एकत्रिंशत् तिरश्चां अत्रापि त पव भङ्गाः मनुष्यदेवानामेकत्रिंशत्रुदयस्तिर्यपञ्चेन्द्रियाणाम् । अत्र नङ्काः (सर्वसंख्यया त्रिचत्वारिंशदधिकं चतुःशतम) अत्र चत्वारि मात्मीया आत्मीयाः सर्वेऽपि रुटब्याः । चत्वारि सत्ता- सत्तास्थानानि तद्यथा त्रिनवनिवतिरेकोननयतिरष्टाशास्थानानि तद्यथा विनवतिनिवतिरेकोननवतिरष्टाशीतिश्च ।। तिश्च तत्र योऽप्रमत्तोऽपूर्वकरणो वा तीर्थकराडारकं बच्चा तत्र योऽप्रमत्तसंयतोऽपूर्वकरणो वा तीर्थकराहारकसहिता- परिणामहासेन देशविरतो जातस्तस्य त्रिनवतिः । शेषाणां मेकत्रिशतं बचा पश्चादविरतसम्यदृष्टिदेवो जातस्तमधि- भावना अविरतसम्यम्हरिव कर्तव्या । संप्रति संबंध उकृत्य त्रिनवतिः यस्त्वाहारकं त्या परिणामपरावर्तनेन मि-| च्यते तत्र मनुष्यस्य देशविरतस्याष्टाविंशतिबन्धकस्य पश्चथ्यात्वमुपगम्य चतसृणां गतीनामन्यतमस्यां गतात्पन्नस्तस्य दयस्थानानि तद्यथा पञ्चविंशतिः सप्तविंशतिरष्टाविंशतिरेतत्र तत्र गतौ भूयोऽपि सम्यक्त्वं प्रतिपक्षस्य द्विनवतिर्देवमनु- कोनत्रिंशत त्रिंशत् । एतेषु च प्रत्येक हे सत्तास्थाने तय. ध्येषु मध्ये मिथ्यात्वमप्रतिपन्नस्यापि द्विनवतिः प्राप्यते एकान- था द्विनवतिरष्टाशीतिश्च । एवं तिरश्चोऽपि नवरं तस्य पफत्रिमवतिः देवनैरयिकमनुष्याणामविरतसम्यष्टीनाम् । ते दि - शदयोऽपि वक्तव्यः । तत्रापि चेते एव द्वे सत्तास्थाने एकोनात्रयोऽपि तीर्थकरनामसत्कर्माणोऽप्युत्पद्यन्ते इति तिर्यङ् न गृहीतः शान्धो मनुष्यस्येव देशविरतस्य तस्योदयमानान्यनन्तरोक्तान्येअधाशीतिश्चतुर्गतिकानामविरतसम्यग्दृष्टीनाम् । संप्रति संबंध व पऊन तेषु प्रत्येक वे वे सत्तास्थाने तद्यथा त्रिनयतिरेकोननउच्यते । तत्राविरतसम्यग्दृष्टेरष्टाविंशतिबन्धकस्य अष्टाचप्यु- पतिश्च । तदेवं देशविरतस्य पञ्चविंशत्यादिषु त्रिशत्पर्यन्तेषु दयस्थानानि तानि तिर्यङ्मनुष्यानधिकृत्य तत्रापि पञ्चविंशति- चत्वारि चत्वारि सत्तास्थानानि एकत्रिंशदये दे सत्तासप्तविंशत्युदयो । बैफियतियङ्मनुप्यानधिकृत्य एकैकस्मिन् - स्थाने सर्वसंख्यया द्वाविंशतिः ॥ संप्रति प्रमत्तसंयतस्य क. दयस्थाने देवे सत्तास्थाने तद्यथा द्विनवतिरष्टाशीतिश्च । एको- न्धादिस्थानान्युच्यन्ते ( दुगपणचत्ति) प्रमत्तसंयतस्य द्वषनत्रिंशत् द्विधा देगतिप्रायोग्या मनुष्यगतिप्रायोग्या च । तत्र दे. न्धस्थाने तद्यथा अष्टाविंशतिरकोनत्रिंशत् । पत देशविरतस्येघगतिप्रायोम्या तीर्थकरनामसहिता तां च मनुष्या एष बन्नन्ति घभावनाये । पञ्च उदयस्थानानि तद्यथा पञ्चविंशतिः सप्तम निर्यश्चः एतेषां च उदयस्थानानि सप्त तथा एकवि- विशतिरशविशतिरेकोनत्रिंशत् त्रिंशत् (नापाटीकायां तत्राद्याशतिः पञ्चविंशतिः पविंशतिः सप्तविंशतिराधिशतिरेकोनत्रि- नि चत्वाार आहारकसंयतस्य वैशियसंयतस्य वेदितव्यानि शत् त्रिंशत्। मनुष्याणामेकत्रिशन जयति एकैकस्मिन्नुदयस्थाने इत्थमुपमन्यते अवशिष्टः कस्यत्यनुक्तमतो निस्सारमिम सत्तास्थाने तद्यथा त्रिनबतिरेकोननवतिश्च । मनुष्यगतिप्रायो- प्रमीणीमः ) एतानि सर्वाएयप्याहारकसंयतस्य चैकियसयतस्य म्यां चैकोनत्रिशतं बनता देखनैरयिकाणां तत्र नैरयिकाणा- वा वेदितव्यानि । त्रिंशत् स्वभावस्थसंयतस्यापि तत्र वैकियमुदयस्थानानि पञ्च तद्यथा एकविंशतिः पञ्चविंशतिःसप्तविंश-1 संयतानामाहारकसंयतानां च पृथक पञ्चविंशतिसप्तविंशत्यहतिरष्टाविंशतिरेकोनत्रिंशद्देवानां पञ्च तावदेतान्येव न त्रिंशत् सा | ये प्रत्येकमेकैको (द्वी द्वौ इति भाषापुस्तके) भङ्गः अष्टाविंशतौ च उद्योतवेदकानामवगन्तव्या पकैकस्मिन् द्वेन्दयस्थाने तद्यथा | एकोनविंशति द्वौ द्वौ त्रिंशति चैकैकः सर्वसंख्यया चतुर्दश । द्विनवतिरष्टाशीतिश्च मनुष्यगतिप्रायोग्यां त्रिंशतमविरतसम्य- त्रिंशदयः स्वप्नावस्थस्यापि प्राप्यते ततश्चतुश्चत्वारिंशच्चतम् म्हटयो देवा नैरयिकाश्च बध्नन्ति तत्र देवानामुदयस्थानानि षट तश्च देशविरतस्यैव भावनीय सर्वसंख्यया अष्टपञ्चाशदधिक तान्येवं एकविंशतिः पञ्चविंशतिः सप्तविंशतिः अष्टाविंशतिः शतम् चत्वारि सत्तास्थानानि तद्यथा त्रिनवतिर्विनवतिरेकोनएकोनत्रिंशतत्रिंशत् तेषु उदयस्थानेषु प्रत्येक वे सत्तास्थाने नवतिरष्टाशीतिश्च । संप्रति संवेध उच्यते अष्टाविंशतिबन्धकस्य त्रिनवतिरेकोननधतिश्च नैरयिकाणामुदयस्थानाति पञ्चतेषुप्रत्ये- पञ्चस्वप्युदयस्थानेषु प्रत्येकं द्वे द्वे सत्तास्थाने तद्यथा द्विनवतिकं सत्तास्थानमेकोमनवतिः तीर्थकराहारकसत्कर्मणो नरकेष- रष्टाशीतिश्च । तनाहारकसंयतस्य हिनवतिरेव पाहारकसत्कत्पादानावात् । तदेवं सामान्यन एकविंशत्यादिषु त्रिंशत्पर्यन्तेषु मर्माह्याहारकशरीरमुत्पादयतीति ततस्तस्य हिनवतिरेष यैफियउदयस्थानेषु सत्तास्थानानि प्रत्येकं चत्वारि चत्वारितद्यथात्रिन- संयतस्य पुढे प्रापि तीर्थकरनामसत्कर्मणश्चाष्टाविंशति बनातपतिः द्विनवतिरेकोननवतिरष्टाशीतिश्च । एकत्रिंशदये द्वे मव- | त्रिनवतिरेकोननवतिः तथाहारकसंयतस्य त्रिनवतिरेव तस्यैको Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्म ( ३२७ ) अभिधानराजेन्द्रः | किस्मती करा द्वारकाय पतस्य न मातरेवं प्रमत्तसंयतस्य सर्वेष्वप्युदयस्थानेषु प्रत्येकं चत्वारि बाबा समान प्राप्यन्ते एककस्य पम्स्वपि यस्थानेषु प्रत्येक स्थाने त्रिनवतिरेकोननवतिश्वा सर्वसंख्यया विंशतिः। इदानीमप्रमत्तसंयस्य बन्धादीन्युच्यन्ते ( चन्दुगच उप्ति) अप्रमत्त संयतस्य चस्वारिबन्धस्थानानि तद्यथा अष्टाविंशतिरेकोनत्रिंशत्रिंशदेकत्रिंश ताये प्रमत्तसंयत्तस्येव भावनीचे सेवाविंशतिराहारकद्वि कसहिता त्रिंशत् आदारकाधिक तीर्थंकर सहिता त्वेक त्रिंशत् पतेषु चतुर्ष्वपि बन्धस्थानेषु जङ्ग एकैक पत्र वेदितव्यः अस्थिरायजायशः कीर्तीनामप्रमत्त संयतबन्धानावात् द्वे उदयस्थाने तद्यथा एकोनत्रिंशत त्रिंशत् तत्रैकोनत्रिंशत् यो नाम पूर्व प्रमत्तसंयतः सन् आहारकवैक्रियं वा निर्वर्त्य पश्चादप्रमत्सनायं गच्छति तस्य प्राप्यते । श्रत्र द्वौ नङ्गौ पको वैकियस्यापर आहारकस्य । एवं त्रिंशदयेऽपि द्वौ भङ्गौ स्वभावस्यस्याप्रमत्त संयतस्य त्रिशत्रुदयो भवति तत्र जङ्गाः षट् चत्वारिंशच्छतं सर्पसंख्य या भटचत्वारिंशच्चतम् । सत्तास्थानानि चत्वारि तद्यथा त्रिन बतिर्द्विनवतिरेकोननवतिः अष्टाशीतिश्च । अष्टाविंशतिबन्धकस्य द्वयोरप्युदय स्थानमष्टाशीतिरेकोनत्रिंशद्बन्धकस्यापि द्वयोरप्युद[यस्थानपोरेकैकं सत्तास्थानम् एकोननवतिः करा द्वियोरप्युदयस्थानयोरकैकं सत्तास्थानं द्विनवतिः एकाशद्वन्धकस्यापि द्वयोरप्युदयस्थानयोरेकैकं सत्तास्थानं त्रिनवतिः । यस्य हि तीर्थकरमाहारकं वा सत्स नियमात्तदध्नाति तेन एकैकस्मिन् बन्धे एकैकमेव सत्तास्थानम् । सर्वे अ । संप्रत्यपूर्वकरणस्य कन्यादीन्युध्यन्ते ( पणगति) अपूर्वकरणस्य पञ्च बन्धस्थानानि तद्यथा अष्टाविंशतिः एकोनत्रिंशत् त्रिंशत् एकत्रिंशत् एका च । तत्राद्यामि चत्वारि अप्रमत्त संयतस्यैव व्यानि एका तु यशःकीर्तिः सा च देवगतिप्राय बन्धयय सति वेदितव्या तत्र प्रत्येकमेको प्रङ्गः सर्वसंख्या पञ्चतत्र प्रत्येकवन्धस्थाने एकस्था नको बसिंह ननस्य संस्थानविकल्पैः पम् भङ्गा स्तद्यथा पशितिरष्टाविंशतिरेकोनत्रिंशत् त्रिंशत् एकत्रिंशत् एकाच माद्यानि चत्वारि अप्रमत्तसंस्थानपरस्तादा स्तविहायोगतिभिवैिशतिः भाषा कायाप चङ्गाः शुभाशुभगतियां द्वादश तथा सुस्वर-स्वराज्य चतुवैिशतिः प्रोक) मन्ये त्वाचार्या मुह नयुक्त न त्वन्यतमसदेननयुक्ता युपशमणि प्रतिपद्यते सन्मवेन द्विसमतिः। एवमनिवृत्तिवादरपरायोपशान्तमदेष्वपि द्रष्टव्यम् । चत्वारि सत्तास्थानानि तद्यथा निवति त्रिनव तिरेकोननवतिरष्टाशीतिका अष्टाविंशत्येकोनत्रिशशिदे कत्रिंशद्बन्धकानां त्रिंशदये सत्तास्थानानि यथाक्रममष्टाशीतिरेकोननवतिर्द्विनवतिस्त्रिमयतिका | एकविधबन्धकस्य त्रिंशदुदये चत्वार्यपि सत्तास्थानानि कथमिति चेदुच्यते । इद् अाविशत्येकाशिदेशिइन्धका प्रत्येकं देवगतिप्रायोग्यबन्धव्यवच्छेदे सत्येक विधबन्धका भवन्ति । श्रष्टाविंशत्यादिवन्धकानां च यथाक्रममष्टाशीत्यादीनि सत्तास्थानानि तत एकविधबन्धे चत्वार्यपि सत्तास्थानानि प्राप्यन्ते । संप्रत्यनि[वृतिवादबन्धस्थानान्युच्यन्ते ( योगमहत्ति) अनिवृतिवाद कंबन्धस्थानं यश-की सरेक मुदवस्थानं त्रिति अस सास्थानानि तद्यथा त्रिनवतिर्द्विनवतिरेकोननवतिरष्टाशीतिर कम्म शीतिरेकोनाशीतिः षट्सप्ततिः पञ्चसप्तति । तत्राद्यानि चबार्युपशमयां कपकलेल्यां या यावन्नाम त्रयोदशकं न ज्ञायते त्रयोदशसु च नामसु यथाक्रमं की निय चत्वारि सत्तास्थानानि भवन्ति बन्धोदयस्थाने भेदाभावात् । अनीति नाभिधीयते सूक्ष्मपरायस्य बधा दीन्युच्यन्ते (गमति) सूक्ष्मसंपरायस्य एकं बन्धस्थानं यश-कीर्तिः एकमुपस्थानं त्रिशत् सत्तास्थानामि तानि यानिवृतियादरस्येव वेदितव्यानि राजधानि चत्वार्युपशमश्रेण्यामेव उपरितनानि तु रूपकश्रेण्याम् (उमत्थ केवसिजिणाणमित्यादि) स्थजिना उपशान्तमोदाः कीणमोड़ा केवलिजिनाः सयोगिकेवलि जिना प्रयोगिकेवनिनश्च तेषां यथाक्रममुदयसत्तास्थानानि " एकं चऊ " इत्यादीनि । तत्रोपशान्तमोहस्य एकमुदयस्थानं त्रिंशत् चत्वारि सत्तास्थानानि । तद्यथा त्रिनवतिः द्विनव तिरेकोननवतिरष्टाशीतिश्च । कीणकषायस्य एकमुदयस्थानं मातुर्विंशतिरेन भनाराय ननस्यैव पप्रेयासंभवात् तथापि तीर्थकर सक मंणः मोहस्य सर्वसंस्थानादिप्रशस्तमित्येक एव भङ्गः । चत्वारि सत्तास्थानानि तद्यथा अशीतिः एकोनाशीतिः पट्सततिः पञ्चसप्ततिश्च । एकोनाशीतिपञ्चसप्तती अतीर्थकर सत्कर्मणो वेदितव्ये अशी तीर्थकर्मणः सयोगिकेवलिनोऽप्रावुदयस्थानानि तद्यथा विंशतिरकेविंशतिः प-ि शतिः सप्तविंशतिरातिको विकशित् । एतानि सामान्यतो नाम्न उदयस्थानचिन्तायां सप्रपञ्चं निरूपितानीति न नूयो विव्रियते । अत्र चत्वारि सत्तास्थानानि तद्यथा अशी तिरकोनाशीतिः षट्सप्ततिः पञ्चसप्ततिः । संवेध उच्यते स च चतुर्दशसु जीवस्थानेषु पर्याप्तसंहिद्वारे यथा कृतस्तथावापि नावयितव्यः । अयोगिकेवलिनो द्वे उदयस्थाने तद्यथा नव अष्टौ च । तत्रानोदये नाणि सत्तास्थानानि तद्यथा एकोनाशीतिः पचसप्ततिः अष्टौ च । तत्राद्ये द्वे याबद् द्विचरमसमयस्तावत्प्रायेते चरमसमये त्रीणि सत्तास्थानानि तद्यथा अशीतिः षट्ससतिर्नव च । तत्राद्ये द्वे यावद् द्विवरमसमयः चरमसमये नव । तदेवं गुणस्थानकेषु बन्धोपसारथानान्युकानि । सांप्रतं गत्यादिषु मार्गणास्यानकेषु विचिन्तितेषु प्रथमतो गतिषु तावचिन्तयन्नाद | तु दो कच, पण नय कारक उद्या । नेरयासु संता, ति पंच एकारस चडकं ||६|| नैरयिकतिर्यग्मनुष्य देवानां यथाक्रमं द्वे षट् भष्टौ चत्वारि बन्धस्थानानि । तत्र नैरयिकाणामिमे द्वे तद्यथा एकोनत्रिंशत् त्रिंशत् । कोनविंशत् मनुष्यगतितिर्यगातिशयोग्या दिसम् तिर्यक्पञ्चेन्द्रियप्रायोग्या उद्योतसदिता मनुष्यगतिप्रायोग्या तु तीर्थकर सहिता जङ्गाभ्व प्रागुक्ताः सर्वेऽपि रुष्टव्याः । तिरश्धां बन्यस्थानानि तद्यथाः पञ्चविंशतिः शिति रष्टाविंशतिरेकानविंशतानि प्रावि सप्रभेदानि व कव्यानि केवलमेकोमा करादारकसहिता सा न वक्तव्या तिरयां तीर्थकराहारकबन्धासंजवात् । मनुष्याणाम बन्धस्थानानि तद्यथा त्रयोविंशतिः पञ्चविंशतिः षम्विंशतिरष्टाविंशतिरेकोनविंशत्रिंशदेकत्रिंशत् एका च। पतास्यापि प्राणिव सम्प्रभेदानि यानि मनुष्याणां चतुतिका योग्यबन्धसंभवात् । देवस्य चत्वारि बन्धस्थानानि तद्यथा पञ्च Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२७) अन्निधानराजेन्छः। कम्म कम्म विंशतिः मिशतिरेकोनविंशत् विंशत् । अत्र पञ्चविंशतिः प- त्रिंशतं मन्नतः पास्वपिउदयस्थानेषु प्रत्येकमेकैकं सत्तास्थानविंशतिश्च पर्याप्तवादरप्रत्येकसहितमेकेन्छियप्रायोग्य बनतो वे- मेकोननवतिः सर्वबन्धस्थानोदयस्थानापेकया सत्तास्थानानि दितव्या । अस्थिरास्थिरशुभाशुभयशःकीर्तिभिरौ भङ्गाः चत्वारिंशत् । संप्रति तिरपच संवेध उच्यते । प्रयोविंशतिपशितिरातपोणेतान्यतरसहिता भवति ततोऽन जङ्गाः षोश बन्धकस्य तिरश्च एकविंशत्यादीनि चतुरुदयस्थानानि तानि एकोनतिशत मनुष्यगतिप्रायोग्या तिर्यक्पाचेन्छियप्रायोग्या च चानन्तरमेवोक्तानि । तत्राद्येषु चतुर्वेकविंशतिचतविशतिपञ्चसप्रमेवाऽवसेया। त्रिंशत्पुनस्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियप्रायोग्या उद्योत- विशतिषाशतिरूपेषु प्रत्येक पथ सत्तास्थानानि तद्यथा द्विनबसदिता अष्टाधिकषट्चत्वारिंशतसंख्यभेदोपता प्रागिव व- तिरष्टाशीतिः पमशातिरशीतिरष्टसप्ततिः । इहाटसप्ततिस्तेजोधाकन्या । या तु मनुष्यगतिप्रायोम्यतीर्थकरनामसहिता तन स्थि- यन् तद्भवादुद्वत्तान्वाधिकृत्य चेदितव्या शेषेषु तु सप्तविंशत्यादिरास्थिराभागुजयशःकीर्ति २ निरौ नङ्गाः ।संप्रति उदयस्था- षु पञ्चसूदयस्थानेषु अष्टाविंशत्यादिषु पञ्चसुदयस्थानषु प्रष्टन्यभिधीयन्ते (पण नव पक्काररकगनदयत्ति) नैरयिकाणांपञ्च सप्तांतवोनि चत्वारि ससास्थानानि सप्तर्विशत्याधुदयेषु दि (दयाः)उदयस्थामानि तद्यथा एकविंशतिः पञ्चविंशतिः सप्त नियमतो मनुष्यगतिद्विकसंवादएसप्ततिर्न बज्यते । एवं पञ्चविशतिरदाविंशतिरेकोनत्रिंशत् । एतानि सप्रनेदानि प्रागिव वक्त विंशत्येकोनविंशत्त्रिशद्वन्धकानामपि वक्तव्यं नवरमेकोनविंशन्यानि । तिरश्चां नव उदयस्थानानि तद्यथा एकविंशतिश्चतुर्वि तं मनुष्यगतिप्रायोग्यां चध्नतः सवप्युदयस्थानेष्वटसप्ततिव. शतिः पाविंशतिः मिशतिः सप्तविंशतिरष्टाविंशतिरेकोनत्रि जानि चत्वारि चत्वारि सत्तास्थानानि अष्टाविंशतिबन्धकस्य शत त्रिंशदेकत्रिंशत् । एतानि च एकेन्द्रियविकलेन्जियसवैक्रि अष्टावुदयस्थानानि तद्यथा एकविंशतिः पञ्चविंशतिः पशियविक्रियतिर्यक्पञ्चेजियानधिकृत्य सप्रनेदानि प्रागिब वक्त तिःसप्तविंशतिरष्टाविंशतिरेकोनत्रिंशत विंशत् एकत्रिंशत् । तत्र व्यानि मनुष्याणामेकादशोदयस्थानानि तद्यथा विशतिरेकवि एकविंशतिषकिंशत्यष्टाविंशत्येकोनत्रिंशत्तत्रिंशदूपाः पश्च उदशतिःपञ्चविंशतिः षमिंशतिः सप्तविंशतिरष्टाविंशतिरकोनत्रिंश याः क्षायिकसम्यग्दृष्टीनां वेदकसम्यग्दृष्टीनां वा द्वाविंशति सत्कर्मणां पूर्वबद्धायुषामवगन्तव्याः । एकैकस्मिश्च द्वेने त्रिंशदेकत्रिंशत् नव अौ । एतानि च स्वजावस्थमनुष्यवैक्रि सत्तास्थाने तद्यथा द्विनवतिरष्टाशीतिश्च । पञ्चविंशतिसप्तविं. यमनुष्याहारकसंयतः तीर्थकरादारकसयोगिकेवनिनोऽधिकृत्य शत्युदया वैक्रियतिरश्चां वेदितव्यौ तत्रापि ते एव द्वे द्वे सत्ताप्राग्वतावनीयानि । देवानां षट् उदयस्थानानि तद्यथा एफविंशतिः पञ्चविंशतिः सप्तविंशतिरष्टाविंशतिरेकोनत्रिंशत् त्रिंशत् । स्थाने त्रिंशदेकत्रिंशदुदयौ सर्वपर्याप्तिपर्याप्तानां सम्यग्रष्टीनां एतान्यपि प्रागिव सप्रपञ्चमुक्तानि न नूय उच्यन्ते । संप्रतिस चाऽवसेयौ । एकैकस्मिश्च त्रीणि त्रीणि सत्तास्थानानि तद्यथा त्तास्थानान्यनिधीयते (ति पंच पक्कारस चउक्कंति) नैरयि द्विनवतिरष्टाशीतिः षडशीतिश्च । षडशीतिमिथ्यारशामवगकाणां सत्तास्थानानि त्रीणि तद्यथा द्विनवतिरेकोननवतिरया न्तव्या सम्यग्रष्टीनां च न संभवति तेषामवश्यं देवद्विकादि. शीतिश्च । एकोननवतिबकतीर्थकरनाम्नो मिथ्यात्वं गतस्य नैर बन्धसंभवात् तदेवं सर्वबन्धस्थानसर्वोदयस्थानापेक्षया सत्ता स्थानानां द्वे शते अष्टादशाधिके । तथाहि प्रयोविंशतिकेयूत्पद्यमानस्यावसेया त्रिनवतिस्तु न संभवति तीर्थकरदारकसत्कर्मणो नरकेषूत्पादानावात् । तिरश्चां पञ्च सत्तास्थानानि पञ्चविंशतिषविंशत्येकोनविंशत्रिंशद्वन्धकेषु प्रत्येकं चत्वारिं शम्चत्वारिंशदष्टाविंशतिबन्धे चाष्टादश । संप्रति मनुष्याणां तद्यथा द्विनवतिरष्टाशीतिः षमशीतिरशीतिरष्टसप्ततिश्च । तीर्थकरसंबन्धीनि कपकसंबन्धीनि च सत्तास्थानानि संवन्ति संवेधांउच्यते तत्रमनुष्यस्य त्रयोर्षिशतिबन्धकस्य उदयाः सप्त तद्यथा एकविंशतिः पञ्चविंशतिः षकिंशतिः सप्तविंशतिरष्टार्षितीर्थकरनाम्नः कपकण्याश्च तिर्या असंभवात् । मनुष्याणा शतिरेकोनत्रिंशत् त्रिंशत् शेषाः केवल्युदया इति न संभवन्ति मेकादश सत्तास्थानानि तद्यथा त्रिनवतिनिवतिरकोननवति प्रयोविंशतिबन्धकस्य पञ्चविंशतिसप्तविंशत्युदयौ च वैक्रियकाराशीतिः षमशीतिरशीतिरेकोनाशीतिः षट्सप्ततिः पञ्चसप्त रिणी वेदितव्यौ एकैकस्मिश्चत्वारि चत्वारि सत्तास्थानानि तय तिनव अष्टौ च । अष्टसप्ततिश्च न संभवति मनुष्याणाम था विनवतिरष्टाशीतिः षडशीतिरशीतिश्च पञ्चविंशतिसप्तविंशवश्यं मनुष्यद्विकसंभवात् । देवानां चत्वारि सत्तास्था त्युदये च द्वेवे सत्तास्थाने तद्यथा द्विनवतिरष्टाशीतिश्च शेषाणि नानि तद्यथा विनवतिर्विनवतिरकोननवतिरष्टाशीतिः शेषाणि तु सत्तास्थानानि तीर्थकरक्षपकोणकेवलिशेषगतिप्रायोग्यातुन संजवन्ति शेषा हि कानिचिदेकेन्द्रियसंवन्धीनि कानि नीति न संभवन्ति सर्वसंख्यया चतुर्विशतिः एवं पञ्चविंशतिचित् क्वपकसंबन्धीनि ततः कथं तानि देवानां भवितुमई. पशितिबन्धकानामपि वक्तव्यं मनुजगतिप्रायोग्यां चैकोनत्रिस्ति । संप्रति संवेध उच्यते । नैरयिकस्य तिर्यमातिप्रायोग्यामे. शतं त्रिंशतं च बनतामप्येवमेव । अयाविंशतिबन्धकानां सप्तोकोनत्रिशतं बनतः पञ्च उदयस्थानानि तानि चानन्तरमेवो दयास्तद्यथा एकविंशतिः पञ्चविंशतिः पक्विंशतिः सप्तविंशतिरेकानि तेषु प्रत्येक वे दे सत्तास्थाने तद्यथा द्विनवतिरष्टाशीतिः। कोनविंशत्रिंशत् एकत्रिंशत् तत्र एकविंशतिषविंशत्युदयो तीर्थकरसत्कर्मणस्तिर्यम्गतिप्रायोग्यमन्धानवात् एकोननव अविरतसम्यग्दृष्टेः करणापर्याप्तस्य पञ्चविंशतिसप्तविंशत्युदया तिन सत्यते मनुष्यगतिप्रायोग्यां त्वेकोनत्रिशतं बध्नतः पधख क्रियाहारकसंयतस्य चायविंशत्येकोनविंशती अविरतसम्यपि उदयस्थानेषु प्रत्येकं त्रीणि भीणि सत्तास्थानानि तद्यथा म्हष्टीनां वैक्रियकारिणामाहारकसंयतानांचत्रिंशतसम्यग्दृष्टीनां द्विनवतिरेकोननवतिरष्टाशीतिः । तीर्थफरसत्कर्मा हि नरक). मिथ्यारष्टीनांवा एकैकस्मिन् द्वे द्वे सत्तास्थाने तद्यथा द्विनवतित्पन्नो यावन्मिथ्याष्टिस्तावदेकोनत्रिशतं बध्नाति सम्यक्त्वं प्रति रष्टाशीतिश्च । आहारकस्य द्विनवतिरेव त्रिंशदुदये चत्वारि पन्नस्त्रिंशतं तीर्थकरनामकर्मणोऽपि बन्धात् । तिर्यग्गतिप्रायो- सत्तास्थानानि तद्यथा द्विनवतिरेकोननवतिरष्टाशीतिः षडम्यामुद्योतलहितां त्रिशतं बनतः पशखपि उदयस्थानेषु प्रत्येक शीतिश्च । तत्रैकोननवतिः नरकगतिप्रायोग्यामष्टाविंशतिं बालवे सत्तास्थाने तद्यथा द्विनवतिरष्टाशीतिश्च । एकोननवत्य- तो मिथ्यारऐरवसेया सर्वसंस्वया अष्टाविंशतिबन्धे पोडश भावनावना प्रागिव भावनीया। मनुम्पप्रायोभ्यां तीर्थकरसहितां । सत्तास्थानानि देवगतिप्रायोग्यामेकोनत्रिशतं तीर्थकरसहितां Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (320) अभिधानराजेन्द्रः । कम्म बघ्नतः सप्त उदयस्थानानि तानि चाष्टाविंशतिबन्धकानामिव व्यानि नवरं त्रिंशदुदयः सम्यग्दृष्टीनामेव वक्तव्यः यत एकोनत्रिंशद्वन्धस्तीर्थकरनाम चबन्धमायाति सम्यग्दृष्टीनामिति सर्वेष्वपि च उदयस्थानेषु द्वे द्वे सत्तास्थाने तद्यथा त्रिन वतिरेकोननवतिश्च । आहारकसंयतस्य त्रिनवतिरेवं सर्वसंख्या चतुर्दश । आहारकद्विकसतिविंशत्याहारकयन्यदे तोर्विशिष्टसंयमस्याभावात् द्वयोरप्यस्थानयोः प्रत्येकमेकं सः सास्थानं विनयतिः एकत्रिंशन्धकस्य एकं सत्तास्थानं त्रिनवतिः । एकविधबन्धकस्य एकमुदयस्थानं विशत् असतास्थानानि यथा विनयतिः द्विनयतिरेको ननवतिः अष्टाशीतिः अशीतिः एकोनाशीतिः षट्सप्ततिः पञ्चसप्ततिश्च । सर्वबन्धोदयस्थानापेकया सत्तास्थानानां शतमेकोनद्यधिकं तद्यथा त्रयोविंशतिपञ्चविंशतिषविंशतिषु चतुपतिर्विशतिः सत्ता अष्टाविंशतियन्ये पोडश मनुजगति तिर्यगतिप्रायोगीकोनचतुविशतितिः । देवगतिप्रायोग्य तीर्थकरसहितैकोनत्रिंशद्वन्धे चतुर्दश एकमेव प्रकृतिअशाविति न्यावे उद यस्थानसत्तास्थानयोः परस्परसंवेधः सामान्यतः संवेधचिन्तायामि वेदितव्यः । संप्रति देवानां पञ्चविंशतिबन्धकानां षद्स्वपियस्थानेषु प्रत्येकं स्थान तथा राशीतिक एवं परास्येको मन्धिकानामपि चम् उद्योतसहितां तिर्यक्पञ्चेन्द्रियप्रायोम्यां शतमपितामेवमेव, तीर्थकरसहितां पुनस्त्रिंशतमर्थान्मनुष्यगतिप्रायोग्यां बतां पद्स्वपि उदयस्थानेषु द्वे द्वे सत्तास्थाने तथा त्रिनय तिरेकोननवतिय सर्वसंख्या सत्तास्थानानि पतिदेव गतिमाश्रित्योक्तम् । संप्रतीन्द्रियमाश्रित्यानिधीयते । गविगोंदियसगले, पण पंच य अ ठाणा । पण केकारुदया, पण पण वारस य संताणि ।। ६५ ।। पके प्रिय विकलेन्द्रियन्द्रियाणां यथाक्रमं स्थापि पञ्च अष्टौ । तत्रैकेन्द्रियाणां पश्ञ्च बन्धस्थानानि तद्यथा त्रयोविशतिः पञ्चविंशतिः पतिरेकोनत्रिंशत्तदेवमति प्रायोम्यामेकोनविंशतं वज्र्जयित्वा शेषाणि सर्वाण्यपि सर्वगतिप्रायोम्यानि बन्धस्थानानि सप्रनेदानि वक्तव्यानि । विकलेन्द्रि arrierमपीत्येवं पञ्च पञ्च बन्धस्थानानि । पञ्चेन्द्रियाणां ( त्रयोविंशतिः पचविंशतिः पट्टिशतिरछतिरक विदेशिदेवेति सर्वप्रम्यानि सप्रदानि प्रष्टव्यानि । संप्रत्युदयस्थानान्युच्यन्ते (पणकारुदयति केन्द्रियधिकद्रियपचेन्द्रियाणां यथाक्रमं पचपाउन केन्द्रियाणामति प उदवस्थानानि तद्यथा एकविंशतितुशिपिविशतिः शितिः शितिः पतानि प्रभेदानि प्रायिनि। विकलेन्द्रियापद उदयस्यानानि तद्यथा एकविंशतिः पि शतिरष्टाविंशतिरेको नदेशितान्यपि प थानानि तचैत्यानि पञ्चेन्द्रियाणाममुन्यादशोदयस्थानानि तथासतिरेकविंशतिः पञ्चविंशतिः शितिः सप्तविंशतिरष्टाविंशतिरेकोनत्रिंशत् त्रिंशत् एकत्रिंश. नवा केन्द्रविकलेन्द्रियसत्कोदयस्थानानि वर्जपिया शेषाणि सर्वापि पचेन्द्रियाणां समनेनि वक्तव्यानि । कम्म संप्रति सत्तास्थानात्युच्यन्ते (पण पण वारस य संतारिशि ) एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियपध्चेन्द्रियाणां यथाक्रमं पञ्च पञ्च द्वाद श सत्तास्थानानि । तत्रै केन्द्रियचिकलेन्द्रियाणां पञ्च इमानि तद्यथा द्विनवतिरशशीतिः पमशीतिरशीतिरष्टसप्ततिश्च । पञ्चे तिनकोशीरशीतिरेकोमाशीतिरएस सात पटसमतिः पश्यति चेति ) सर्वास्यपि सत्तास्थानानि तदेयं सामान्यतो बन्धोदयसत्तास्थानाम्युकानि संप्रति संवेष उपकेन्द्र त्रयोविंशतिबन्धकानामाद्येषु चतुर्षुदयस्थानेषु पूर्वोक्तानि पञ्च पञ्चतास्थानानि समादयति पाणि चरचार एवं पञ्चविंशतिपयेोनत्रिंशद्वन्धकानामपि प्यं सर्वसंख्या सत्तास्थानानि विमलेन्द्रयाणां त्रयोविंशतिबन्धकानामेकविंशत्युदये पकिंशत्युदये च पञ्च पन्यास्थानानि शेषेषु दयस्थान पाणि वारि चावारि सत्तास्थानानि एवं पतिशत्येकनित्रिंशद्वन्यकाममा स स्थानानि त्रिंशं दातम् । पञ्चेन्द्रियाणां त्रयोविंशतिबन्धकानां पदयस्थानानि तथा एकविंशतिः पदातिरष्टाविंशतिशतानि मनुष्यांश्चाधिकृत्य भावनीयानि । त्रैकविंशत्युदयेषु च पञ्च पञ्चानन्तरोक्तानि सत्तास्थानादिशेषेषु समतिवनि शेषाणि चत्वारि पारि सतास्थानानि सर्वसंख्या पशि तिः ससास्थानानि । पञ्चविंशतिबन्धकस्या उदयानाम तद्यथा एकविंशतिः पञ्चविंशतिः प्रविशतिः सप्तविंदातिराविंशतिशत् त्रिंशदेशित्। इहेकविंशत्यु पश पुदये च पञ्च पञ्चानन्तरोकानि सत्तास्थानानि पञ्चशत्ये सप्तविंशत्युदये च द्वे द्वे सत्तास्थानेतद्यथा द्विनवतिरष्टाशीतिश्च शेषेष्टाविंशत्यादिषु चतुर्षुदयस्थानेषु प्रत्येकमष्टसप्ततिवज्जीनि शेषाणि चत्वारि चाचार संस्थानानि सर्वश सत्तास्थानानि । एवं पविंशतिबन्धकानामपि श्रष्टाविंशतिव न्धकानामष्टावुदयस्थानानि तद्यथा एकविंशतिः पञ्चविंशतिः ए विंशतिः सप्तविंशतिरष्टाविंशतिरेकोनत्रिंशत् त्रिंशत् एकत्रिंशत् तानि तिर्यक्पदानि एकदि शरपादिष्ये कोनशत्पर्य प्रत्येक सत्तास्थाने तद्यथा द्विनवतिरष्टाशीतिश्च | त्रिंशदये नत्वारिं द्विनवतिरष्टाशीतिः परशीतिशांति एकनवतस्करको मिज्यादर्नरकगतिशायोग्य बनतो मनुष्यस्यादयेा शेवासि दु यः सामान्येन तिम्रो मनुष्याम्यधिकृत्य दि शदये ।णि तद्यया द्विनवतिरष्टाशीतिः षडशीतिश्च एतानि तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणामवसेयानि श्रन्यत्र पञ्चेन्द्रियस्य सत एकवामशतिमिष्याराणामवसेया न सम्यग्दृष्टीनां सम्यग्दृष्टीनामवश्यं देवद्विकबन्धसंगातिसंभवात् अत्र सर्पसंख्या सत्तास्थानाम्येकोनविंशतिः एकोनत्रिंशद्वन्धकस्य तान्येवाष्टावुदयस्थानानि तत्रैकये सप्त सप्तसत्तास्थानानि यथाशि नवतिराशीतिः पडशीतिरशीतिः पतितिरेकोननवतिः। तत्र तिर्यग्गतिप्रायोग्यामेकोनत्रिंशतं बघ्नतः आधानि प ञ्च, मनुष्यगतिप्रायोग्यां बध्नत श्राद्यानि चत्वारि देवगतिप्रायोग्य बनतोऽन्तिमे हे अत्येकशिदा वन पद्ध Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३०) अनिधानराजेन्डः। नि चत्वारि। पचविंशतिसप्तविंशत्युदययोः पुनरिमानि चत्वा- न्थप्रकरणतोऽवसेयः) कर्म०६का इह यन्धोदयसत्कर्मणां संके. रि सत्तास्थानानि तद्यथा द्विनवतिस्निनवतिरकोननवतिर- धश्चिन्तितः सोऽपि सामान्यन ततो बन्धोदयसत्कर्मसु विशेषटाशीनिश्च । सर्वाङ्कस्थानानि । सर्वसंख्यया पुनरेकोनत्रिंश- जिज्ञासायामतिदेशमाह । २१ २५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१ द्वन्धे चतुश्चत्वारिंशत् दुरहिगमनिपुणपरम-स्थरुहरबटुभंगदिवायाभो । ७४ ७४ ६ ६ ६४ सत्तास्थानानि त्रिंशद्वन्धकस्यापि तान्येवाटायुदयस्थानानिता अत्या अगमरियव्वा, बंधोदयसंतकम्माणं ॥११॥ न्येव प्रत्येकं सत्तास्थानानि केवलमिहकर्विशत्युदये श्राद्यानि दुःखेन महता कष्टेन प्रमाणनयनिक्केपादिभिरधिगमो निपुणः द्विनवत्यष्टाशीतिपशीत्यशीत्यएसप्ततिरूपाणि पञ्च सत्ता सूक्ष्मबुझिगम्यः परमार्थो यथावस्थितार्थो रुचिरः सूक्ष्मतस्थानानि तिर्यम्गतिप्रायोग्यामेघ त्रिशतं बध्नतो वेदितव्यानि रार्थः । तत्र पटुप्रज्ञानां मनःप्रहादकरो बहुनको बहुविकल्पो दृष्टिबादस्तस्माद्वन्धोदयसत्कर्मणां विषयेऽथा विशेषरूपा अनुन मनुष्यगतिप्रायोग्यां तस्यास्तीर्थकरनामसहितत्वात् । देवगतिप्रायोग्या तु त्रिंशदाहारकद्विकसहिता सा एकविंशत्युदये न सर्तव्या शातव्याः । इह तु संक्तिप्तरुचिसत्वानुग्रह प्रवृत्ततया संभयति त्रिनवत्येकोननवती मनुध्यगतिप्रायोम्यांत्रिशतं बध्नतो ग्रन्थगौरवजयानोच्यन्ते कर्म०६का पं०सं०। "विहं समेञ्च देवस्य वेदितव्ये परिंशत्युदये च तान्येध पञ्च सत्तास्थानानि । महावी, किरियमक्खायमणेलिसं" (द्वे विधे प्रकारावस्येति किं तत्कर्म तचाप्रत्ययं सांपरायिकं च प्राचा०।११०९१०। षमिंशत्युदयो दि तिरश्चां मनुष्याणां वा पर्याप्तावस्थायां न च (विशेषतो व्याख्या उबहाणसुय शब्दे) "संपरायणियच्छति" तदानी देवगतिप्रायोग्याया मनुष्यगतिप्रायोग्यायात्रिंशतो बन्धोऽस्तीति त्रिनयन्येकोननवती न प्राप्येते शेषं तथैव सर्वाड द्विविधं कर्म इर्यापथं सांपरायिकं च सूत्र०१ श्रु०। स्थापना २१ २५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१ चतुर्विधं कर्मचयं न गच्छति भिकुसमये इति तदभिधित्सुराह। ७ ४ ()५ ४ ६ ६ ६ ४ ।। अहावरं पुरक्खायं, किरियावाइदरिसणं । सर्वसंख्यया त्रिंशद्वन्धे द्विचत्वारिंशत्सत्तास्थानानि एकत्रिंशद्ध- कम्मचिंतापणहाणं, संसारस्स पवकृणं ॥ न्धकस्य एकविधबन्धकस्य च उदयसत्तास्थानसंवेधस्तद्यथा अथेत्यानन्तयें अज्ञानवादिमतानन्तरमिदमन्यत पुग पूर्वमाप्राग्मनुष्यस्योक्तस्तथैव वक्तव्यः । तदेवमिन्द्रियापयधिकृत्य सं ख्यातं कथितं किं पुनस्तदित्याह । क्रियावादिदर्शनम् । क्रियैव वेध उक्तः। चैत्यकर्मादिका प्रधान मोक्ताङ्गमित्येवंवदितुं शीलं येषां ते इयकम्मपगश्वगणाई, सुहबंधुदयसंतकम्पाणं । क्रियावादिनस्तेषां दर्शनमागमः क्रियावादिदर्शनम् । किंभूगइयाइएहिं अट्ठसु, चउप्पगारेण नेयाणि ॥६६॥ तास्ते क्रियावादिन इत्याह । कर्मणि ज्ञानाधरणादिके चिन्ता इत्युक्तेन प्रकारेण बन्धोदयसत्तानां संबन्धीनि कर्मप्रकृतिस्था- पर्यालोचनं कर्मचिन्ता तस्याः प्रणष्टा अपगसाः कर्मचिन्ताप्रनानि सुष्टु अत्यन्तमुपयोगं कृत्वा गत्यादिभिः (प्रकारैर्याच्यानि) णष्टाः। यतस्ते अविज्ञानाद्युपचितं चतुर्विधं कर्मबन्धं नेच्चन्त्यतः गइदिए य काए, जोए वेए कसायनाणे य । कर्मचिन्ताप्रणास्तेषां चेदं दर्शनं दुःखस्कन्धस्यासातोदयपरंपसंजमदंसणसेमा, भवसम्मे सन्निाहारे ।। ६७ ॥ राया विवर्धनं जवति । कचित्संसारवर्धनमिति पाः। तेशेवं इत्येवरूपैश्चतुर्दशभिर्मार्गणास्थानैरएसु अनुयोगद्वारेषु । प्रतिपद्यमानाः संसारस्य वृझिमेव कुर्वन्ति नोच्छेदमिति । मंतपयपरूवाणया, दव्वपमाणं च खत्तफुसणा य । (३५) यथा ते कर्मचिन्तातो नष्टास्तथा दर्शयितुमाह । कालंतरं च भावे, अप्पाबहुयं च दराई ।। ६८।। जाणं कारण पानट्टी, अबुहो जं च हिंसति । इत्येवंरूपेषु ज्ञातव्यानि तत्र सत्पदप्ररूपणया संवेधो गुण पुट्ठो संवेदर परं, वियत्तं खु सावज ॥२५॥ स्थानकेषु सामान्येनोक्तो विशेषतस्तु गतीन्द्रियाणि चाश्रित्य ए यो हि जाननवगच्छन् प्राणिनो हिनस्ति कायेन चानाकुट्टी तदनुसारेण काययोगादिभिर्मार्गणास्थानेषु वक्तव्यःप्रमाणादी- कुट्टच्छेदने । पाकुट्टनमाकुट्टः स विद्यते यस्यासावाकुट्टी नाकुम्यानुयोगद्वाराणि कर्मप्रकृतिप्रानृतादीन ग्रन्धान सम्यक् प- दृयनाकुट्टी । इदमुक्तं भवति । यो हि कायादनिमित्तात् केवलं रिजान्य वक्तव्यानि ते च कर्मप्रकृतिप्रानृतादयो ग्रन्था न सं- मनोव्यापारण प्राणिनो व्यापादयति न च कायेन प्राण्यवयवानां प्रति वर्तन्ते इति लेशतोऽपि दर्शयितुं न शक्यन्ते। यस्त्वदंयुगी- बेदनभेदनादिके व्यापारे वर्त्तते न तस्याऽवद्यम। तस्य कोपचनेऽपि श्रुते सम्यग्गतस्तमभियोगमास्थाय पूर्वापरौ परिभाव्य यो न भवतीत्यर्थः। तथाऽबधोऽजानानः कायव्यापारमात्रेण यं दर्शयितुं शक्नोति तेनावश्यं दर्शयितव्यानि प्रशोन्मेषो हिस- च हिनस्ति प्राणिनं तत्रापि मनोव्यापाराभावान्न कर्मोपचय इति तामयापि तीवतीव्रतरक्षयोपशमन्नावेनासीमो विजायमानो अनेन च श्लोकार्थेन यदुक्तं नियुक्तिकृता यथा "चतुर्विधं कर्म सक्ष्यमाणो लक्ष्यते । अपिनान्यदपि यत्किचिदपि कुम्ममापतितं नापेचीयते भिक्षुसमय इति" तत्र परिझोपचितमधिकोपचितातत्तेनापनीय तस्मिन् स्थानेऽन्यत् समीचीनमुपदेष्टव्यं सन्तो ण्यं भेदष्यं साकादुपातं शेषं स्वीर्यापथस्वप्नान्तिकभेदस्य हि परोपकारकरणकरसिका भवम्तीति कथं पुनरष्टस्वनुयोग चशब्दनोपात्तम् । तत्रेरणमीर्या गमनं तत्संबद्धः पन्था र्यापथद्वारेषु बन्धोदयसत्तास्थानानि ज्ञातव्यानीत्याह अतुःप्रकारेण स्तत्प्रत्ययं कमर्यापथम् । एतदुक्तं भवति । पथि गच्छतो प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशरूपेण प्रकृतिगतानि बन्धोदयसत्ता यथाकथञ्चिदनभिसंधैर्यत्प्राणिव्यापादनं भवति कर्मणश्च योन स्थानानि प्राय उक्तानि एतनुसारेण स्थित्यनुभागप्रदेशगतादी- नवति । तथा स्वप्नान्तिकमिति । स्वप्न एव लोकोक्त्या स्वन्यपि भावनीयानि । इह बन्धोदयसत्तास्थानसंवेधे चिन्त्यमाने प्नान्तः स विद्यते यस्य तत्स्वप्नान्तिकं तदपि न कर्म बन्धाय नदयग्रहणेनोदीरणाऽपि गृहीता अष्टव्या। उदये सत्युदीरणाया यथा स्वप्ने जुजि क्रियायां तृप्त्याजावस्तथा कर्मणोऽपीति कथं अपि भावात् (एतद्विशेषतो वर्णनं सप्ततिकानामकषष्ठकर्मग्र-] तर्हि तेषां कम्र्मोपचयो नवतीत्युच्यते। यासौदन्यमानःप्राणी Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३१) कम्म अनिधानराजेन्डः। भवति हन्तुश्च यदि प्राणित्येवंज्ञानमुत्पद्यते तथैनं हन्मीत्येवं स्तपिशितं भुजानोऽपि चशब्दस्याशब्दार्थत्वादिति । तथा मेच यदि बुछिः प्रादुःस्थादेतेषु च सत्सु यदि कायचेष्टा प्रवर्तते धाव्यपि संयतोऽपीत्यर्थः तदेवं गृहस्थो निक्षुर्वा शुक्राशयः पितस्यामपि यद्यसौ प्राणी व्यापाद्यते ततो हिंसा । ततश्च कर्मो- शिताश्यपि कर्मणा पापेन नोपलिप्यते नाश्लिष्यत इति यथा पचयो नवतीत्येषामन्यतराभावेऽपि न हिंसा न च कर्मचयः । चात्र पितुः पुत्रं व्यापादयतस्तत्रारक्तद्विएमनसः कर्मबन्धो न अत्र च पञ्चानां पदानां द्वात्रिंशद्भङ्गा नवन्ति । तत्र प्रथमझने भवति तथाऽन्यस्याप्यरक्तद्विष्टान्तःकरणस्य प्राणियधे सत्यपि हिंसकोऽपरेवेकत्रिंशत्स्वहिंसकः। तथा चोक्तं । "प्राणी प्राणि- न कर्मबन्धो जवतीति । झान, घातकचित्तं च तफ़ता चेष्टा । प्राणश्च विप्रयोगः पञ्चलि सांप्रतमेतद्दूषणायाह। रापद्यते हिंसा" किमेकान्तेनैव परिझोपचितादिना कर्मोपचयो मणसा ये पउस्संति, चित्तं तेसि ण विज्ज । न भवत्येव काचिदव्यक्तिमात्रेति दर्शयितुं श्लोकपश्चाईमाह । ( पुरोत्ति ) तेन केवलमनोव्यापाररूपपरिझोपचितेन केवल अणवज्जगतहं तेसिं, ण ते संवुडचारिणो ॥२॥ कायक्रियोच्छेदेन वाऽविज्ञोपचितेनेर्यापथेन स्वप्नान्तिकेन च ये हि कुतश्चिनिमित्तान्मनसाऽन्तःकरणेन प्रपुष्यन्ति प्रद्वेषचतुर्विधेनापि कर्मणा स्पृष्ट ईयत्सुप्तः संस्तत्कर्माऽसौ स्पर्शमा मुपयान्ति तेषां वधपरिणतानां शुरूं चित्तं न विद्यते सदेपं यसैश्रेणैव परमनुन्नति न तस्याधिको विपाकोऽस्ति कुड्यापतित रभिहितं यथा केवतमनःप्रद्वेषे ऽप्यनवा कर्मोपचयाभाव इति सिकतामुष्टिवत्स्पर्शानन्तरमेव परिशदतीत्यर्थः । अत एव तस्य ततस्तेषामतथ्यमसदर्थाभिधायित्वं यतो न ते संवृत्तचारिणो चयाभावोऽभिधीयते न पुनरत्त्यन्ताभाव इति । एवं च कृत्वा मनसोऽशुरुत्वात् । तथाहि कर्मोपचये कर्तव्ये मन एव प्रधानं तदव्यक्तमपरिस्फुटं खुरवधारणे अव्यक्तमेव स्पष्टविपाकानुल कारणं यतस्तैरपि मनोरदितकेवाकायच्यापारे कर्मोपचयाभाचानावात् । तदेवमव्यक्तं सहावद्यम गोण वर्तते तत्परिकोपचि. वोऽनिहितः ततश्च यद्यस्मिन् सति भवत्यसति तु न भवति तादिकमेति ॥२५॥ तत्तस्य प्रधानं कारणमिति । ननु तस्यापि कायचेष्टारहितस्याऽ ननु च यद्यनन्तरोक्तं चतुर्विधं कर्म नोपचयं याति कथ कारणत्वमुक्तम् सत्यमुक्तम् । अयुक्तं तक्तं यतो भवतवैवं नावतर्हि कर्मोपचयो भवतीत्येतदाशङ्कवाद । शुद्ध्या निर्वाणमभिगच्छतीति भणता मनस पवैकस्य प्राधान्य संति मे तउ आयाण, जेहिं कीरइ पावगं । मभ्यधायि तथाऽन्यदप्यभिहितम् "चित्तमेव हि संसारे रागा दिक्लेशवासितम् । तदेव तैविनिर्मुक्तं भवान्त इति कथ्यते" तथा अनिकम्मा य पेसा य, मणसा अणुजाणिया २६ ।। म्यैरप्य भिहितम् "मतिविनवमनस्त्वे यत्समत्वेऽपि पुसा, परि( सन्ति मे इत्यादि ) सन्ति विद्यन्ते अमूनि त्रीणि आदीयते णमसि शुभांशैः कल्मषांशैम्त्वमेव । निरयनगरवर्त्मप्रस्थिताः स्वीक्रियते अमीभिः कर्मत्यादानानि । एतदेव दर्शयति । यैरा- कष्टमेव,घुपचितानशक्त्या सूर्यसंभेदिनोऽन्ये" १ तदेवं भदानः क्रियते विधीयते निष्पाद्यते पापकं कल्मषं तानि चामूनि | वदत्यपगमेनैव क्लिष्टमनोव्यापारः कर्मबन्धायेत्युक्तं जवति । नतद्यथा अनिकम्येत्यानिमुख्यन वध्यं प्राणिनं क्रान्स्वा तद्धाता- थेर्यापथेऽपि यद्यनुपयुक्तो घातितवान् ततोऽनुपयुक्ततैव क्लिभिमुखं चित्तं विधाय यत्र स्वत एव प्राणिनं व्यापादयति त- प्रचित्ततेति कर्मबन्धो भवत्येव । अथोपयुक्तो याति ततोऽप्रमत्त. देकं कर्मादानम् । तथाऽपरं च प्राणिघाताय प्रेष्यं समादिश्य स्वादबन्धक एव तथा चोक्तम् "उच्चालिय पिपाप, रियासमियत्प्राणिव्यापादनं तदू द्वितीय कर्मादानमिति । तथाऽपरं व्या यस्स संकमट्टाए । वावजेज कुलिंगी, मरेज तं जोगमासज्ज ॥१॥ पादयन्तं मनसाऽनुजानीत इत्येतत्तृतीयं कर्मादानम् । परिझोप ण य तस्स तन्निमित्तो, बंधो सुहमो विदेसिनो समये। अणचितादस्यायं दः तत्र केवलं मनसा चिन्तनमिह त्वपरेण व्या- यजो उपयोगे, ण सम्बनावेण सो जम्हा" ॥२॥ स्वप्रान्तिके ऽप्यपाद्यमाने प्राणिन्यनुमोदनमिति ॥२६॥ तदेवं यत्र स्वयंकृतकारि- शुद्धचित्तसद्भावादीषद्वन्धो भवत्येव स च नवतोऽप्यन्युपगत तानुमतयः प्राणिघाते क्रियमाणे विद्यन्ते क्लिष्टाध्यवसायस्य पवाव्यक्तं तत्सावद्यमित्यनेनोति तदेवं मनसोऽपि विष्टस्यैकस्यैव प्राणातिपातश्च तत्रैव कर्मोपचयो नान्यत्रेति दर्शयितुमाह । ब्यापारबन्धसद्भावात् यमुक्तं भवता प्राण प्राणिशानमित्यादि एते उ तन आयाणा, जेहिं कीरइ पावगं । तत्सर्वं प्नवत इति । यदप्युक्तं पुत्रं पिता सामारज्येत्यादि तएवं जावविसोहीए, निव्वाणमभिगच्छद ॥२७॥ दयनालोचिताभिधानं यतो मारयामीत्येवं यावन्न चित्तपरिणा(एएउ इत्यादि) तुरवधारणे एतान्येव पूर्वोक्तानि त्रीणि व्यः | मोऽभूत्तावन्न कश्चिद्व्यापादयति एवंनूतचित्तपरिणतेध कथमस्तानि समस्तानि वा आदानानि येईष्टाध्यवसायव्यपेक्वः पापकं संक्लिष्टता चिक्तसंक्लेशे चावश्यंभावी कर्मबन्ध इत्युन्जयोरपि कमोपचीयत इति । एवं च स्थिते यत्र कृतकारितानुमतयः प्रा संवादोऽत्रेति । यदपि च तैः कचिमुच्यते यथा परव्यापादितणिव्यपरोपणं प्रति न विद्यन्ते तथाभावशुद्ध्या अरक्तद्विष्टबुख्या पिशितभक्षणे परहस्ताकृष्टाङ्गारदाहाभाववन्न दोष इति तन्नपिप्रवर्तमानस्य सत्यपि प्राणातिपाते केवलेन मनसा कायेन वा शितनकरणेऽनुमतिरप्रतिहता ऽस्माञ्च कर्मबन्ध इति । तथा चामनोभिसन्धिरहितेनोजयेन वा विशुद्धबुझेर्न कर्मोपचयम्तदना. न्यैरप्यभिहितम् । “अनुमन्ता विशसिता, संहर्ता क्रयविक्रयो। वाञ्च निर्वाणं सर्वद्वन्द्वोपरतिभावमभिगच्छत्यभिमुखेन प्राप्नो- संस्कर्ता चोपभोक्ता च, घातकश्चाष्ट्रघातकाः" यच्च कृतकारितातीति । भावशुध्या प्रवर्तमानस्य कर्मबन्धो न भवतीत्यत्रार्थे नुमतिरूपमादानत्रयं तैरनिहितं तज्जैनेन्द्रमतलवास्वादनमेव ते. दृष्टान्तमाह। रकारीति । तदेवं कर्मचतएयं नोपचयं यातीत्येचं तदभिधानाः पुत्तं पिया समारब्न, आहारेज असंजए। कर्मचिन्तातो नष्टा इति सुप्रतिष्ठमिदमिति ॥२५॥ नुंजमाणो य मेहावी, कम्मणा नो विलिप्पइ ॥ २० ॥ अधुनतेषां क्रियावादिनामनर्थपरंपरां दर्शयितुमाह ॥ पुत्रमपत्यं पिता जनकः समारज्य व्यापाद्याहारार्थ कस्यांचि इच्चेयाहि य दिट्ठीहिं, सातागारणिस्सिया। तथाविधायामापदि तदुद्धरणार्थमरक्तहिष्टोऽसंयतो गृहस्थ- सरणं ति मन्नमाणा, सेवंती पावगं जणा॥३०॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३२) कम्म अभिधानराजेन्द्रः। इत्येताजिः पूर्वोक्ताभिश्चतुर्विधं कर्म नोपचयं यातीति दृष्टि- णामं पयरे होत्या। तत्थ णं रायगिहे एयरे सेलिए णाम भिरज्युपगमैस्ते वादिनः सातागौरवनिश्रिताः सुखशीलतायामासक्ता यत्किचनकारिणो यथावब्धभोजिनश्च संसारोकर राया होत्या।तत्यणं रायगिहस्स बहिया नत्तरपुरिच्चिमे दिसमर्थ शरणमिदमस्मदीय दर्शनमित्येवं मन्यमाना विपरीता मीभाए एत्य एं गुणसेलिए णामं चेहए होत्था तेण कालेणं नुष्ठानतया सेवन्ते कुर्वन्ति पापमवद्यमेवं वतिनोऽपि सन्तो जना तेणं समएणं समणे नगवं महावीरे पुव्वाणुपुन्नि चरमाणे श्व जनाः प्राकृतपुरुषसदृशा इत्यर्थः ॥ ३०॥ जाव जेणेव रायगिदेणयरे जाणे व गुणसेलाए चेइए तेणेव स. अस्यवार्थस्योपदर्शकं दृष्टान्तमाह। जहा अस्साविणिं णावं, जाश्अंधो दुरूहिया । मोसले अहापमिरुवं नग्गहं गिएिडत्ता संजमेणं तवसा अ. इच्छई पारमागंतुं, अंतरा य विसीयई ॥ ३१ ॥ प्पाणं भावेमाणे विहरइ परिसा णिगया सेणिओ विणिग्गओ (जहा अम्माविणिमित्यादि ) आ समन्तात्स्रवति तच्चीला धम्मो कहिओ परिसा जिग्गया। तेणं कालेणं तेणं समएणं श्राम्राविणी सच्चिद्रेत्यर्थः । तां तथाजूतां नावं यथा जात्यन्धः समणस्स जगवत्रो महावीरस्स जेटे अंतेवासी इंदनई णाम समारुह्य पारं तटमागन्तुं प्राप्तुमिच्छत्यसौ तस्याश्च स्राविणी-] अणगारे अदूरसामंते जाव शुक्कझाणोवगए विहरति । त्वेनोदकप्तत्वादन्तगले जसमध्य एच विषीदति बारिणि । तए णं से इंदई जायसवे एवं यासी। कह एणं नंते ! निमज्जति । तमेव च पञ्चत्वमुपयातीति ।। ३१ ॥ सांप्रतं तद्दान्तिकयोजनार्थ माह । जीवा गुरुयत्तं वा बइयत्तं वा हव्वमागच्छति गोयमा! से एवं तु समणा एगे, मिच्छादिही अणारिया । जहानामए केइ पुरिसे एगमहं सुकं तुंब निच्छिदं निरुवयं संसारपारकरखी ते, संसारं अणुपरियट्ट तित्ति वेमि ॥ दब्भेहि य कुसेहि य वेढे वेदेश्त्ता मट्टियालेवेणं सिंपति उयथाऽन्धः सचिवां नाय समारूढः पारगमनाय ना तथा रहे दलयति दल यइत्ता मुकं समाणं दोचं पिहियकुसेहि श्रमणा एके शाक्यादयो मिथ्या विपरीता दृष्टियेषां ते मिथ्याह य वेढे वेढेश्ना मट्टियालेवेणं विपइ लिंपइत्ता नएहं सुकं टयः । तथा पिशिताशनानुमतेरनार्याः स्वदर्शनानुरागेण संसा समाणं तचंपि दब्नेहि य कुसे हि य वेढोत मट्टिया सेवेणं रपारकाशिगो मोवानिलाषुका अपि सन्तस्ते चतुर्विधर्मचयानभ्युपगमेनानिपुणत्वानासनस्य संसारमेव चतुर्गतिसंसर- डिंप३ । एवं खलु एएणं उवाएणं अंतरा वेढेमाणे अंतरा गरूपमनुपर्यटन्ति । नयो नूयस्तत्रैव जन्मजरामरणादौ गत्यादि- लिपेमाणे अंतरा मुकावेमाणे जाव अहहिं मट्टियावेहिं क्लेशमनुजवन्तोऽनन्तमपि कालमासते न विवक्षितमोक्कसुखमा आलिंपति अत्याहंसितारगंसिय अपारमपोरसियंसि उ. प्नुवन्तीति नवीमीति पूर्ववदिति ॥३२ ।। सूत्र०१थु०१अ०२०) दगसि पक्खिवेज्जा से गेणू गोयमा से तुंबे तेसिं अट्ठएहं (३६) सोपक्रमनिरुपक्रमादिना कर्मवैविध्यमाह । कर्मभेदाः सोपक्रमनिरुपक्रमादयस्तत्र यत्फलजमनाय सहोप मट्टियालेवेणं गुरुयत्ताए नारियत्ताए गुरुयनारियत्ताए उक्रमेण कार्यकारणाभिमुख्येन वर्तते यथोष्णप्रदेशे प्रसारितमाई प्पि सलिलमतिता अहे धरणितले पहाणे नवति । एवावस्त्रं शीघ्रमेव झुप्यति निरुपक्रमं च विपरीतं यथा तदेवाईवासः | मेव गोयमा ! जीरावि पाणाइवाएणं जाव मिच्छादसणसपिएमीकृतमनुष्णे देशे चिरेण शोषमेतीति द्वा०२६ द्वा० ॥ वेणं आणुपुरेणं अट्टकम्मपगमीअो समुन्जिणित्ता तासि अस्योदाहरणम् ॥ ननु तीर्थकरा यत्र विदरन्ति तत्र देशे पञ्चविंशतियोजनानि आदेशान्तरेण द्वादशानां मध्ये तीर्थ गुरुयत्ताए नारियत्ताए गुरुयभारियत्ताए कालमासे कालं करातिशयान्न वैरादयोऽना नयन्ति यदाह " पच्चुप्पन्ना किचा धरणितममतिवत्तित्ता अहेणरगतलपट्ठाणो जवति रोगा, पसमंति इइवेरमा ओ । अइधुहि अणावुट्टी न हो एवं खलु गोयमा! जीवो गुरुयत्तं हव्यमागच्चति । अहणं दभिक्खममरं वेति" तत्कथं श्रीमन्महावीरे भगवति पुरिम- गोयमा ! से तुंवे तेसिं पढमिश्वगंसि मट्टियालेसितिताले नगरे व्यवस्थित एवाभग्नसेनस्य पूर्ववणितो व्यतिकरः तसि कुहियंसि परिसभियं सि इसिं धरणितलाश्रो उप्पासंपन्न इत्यत्रोच्यते सर्वमिदमर्थानर्थजातं प्राणिनां स्वकृतक ताणं चिति । तयातरं च णं दापि मट्टियामेवे जाव मणः सकाशादुपजायते । कर्म च द्विधा सोपक्रमं निरुपक्रम च तत्र यानि धैरादीनि सोपक्रमसंपाद्यानि तान्येव जिनाति- नप्पश्त्ताणं चिट्ठइ । एवं खनु एएणं उवाएणं तेमु अहसु शथादुपशाम्यन्ति सदोषधात्साध्यव्याधिवत् । यानि तु मट्टियामेवेमु तित्तेसु जाव विमुकबंधणे अहेधरणियलमवनिरूपक्रमकर्मसंपाद्यानि तान्यवश्यं विपाकतो वेधानि नोपक्रमकारणविषयाणि असाध्यव्याधिवत् । अत एव सर्वाति इत्ता नप्पि सविसतलपट्टाणे भवइ । एवामेव गोयमा ! शयसंपत्समन्वितानां जिनानामप्यनुपशान्तवैरभावा गोसा- जीवा पाणातिवायवेरमणेणं जाव मिच्छादसणसल्लवेरमलफादय उपसर्गान् विहितवन्त इति । विपा० ३ अ०। णेणं आणुपुब्वेणं अहकम्मपगडीओ खवेत्ता गगणतलमजह भंते ! समणेणं लगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पंच- प्पइत्ता उपि लोयग्गपश्टाणा नवंति एवं खल गोयमा ! मस्सणायज्यणस्स अयमढे पासते लट्ठस्स ए भंते णाय- जीवा लहुयत्तं हव्यमागच्छंति एवं खलु जंबूसमणेणं भगज्जयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अहे वया महावीरेणं जाव संपत्तणं उस्स गायज्जयणस्स पालने एवं खलु जंबू तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे। अयमढे पन्नते त्ति वोमि ।। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्म अनिधानराजेन्डः। सर्व सुगम नवरं निरुपहत वातादिभिर्दभैरप्रभूतैः कुशैर्मू- द्यथा गुरुकाणि लधुकानि मिश्रकाणि च गुरुलघूनीत्यर्थः । लभूतैर्जात्या दर्भः कुशभेद इत्यन्ये (अत्याहंसित्ति) अस्ताधे श्र- तत्र यानि तिर्यगूई वा प्रक्षिप्तान्यपि स्वभावादेवाधो निप्रगाधे इत्यर्थः पुरुषः परिमाणमस्येति पौरुषिकं तनिषेधाद पौरु- तन्ति तानि गुरुकाणि यथा लेष्ट्रप्रभृतीनि । यानि तूर्खगतिविकं मखेपानां संबन्धाद् गुरुकतया गुरुकतैव कुतः भारिकतया स्वभावानि तानि लघुकानि यथा प्रदीपकादीनि । यानि तु मलेपजनितभारवत्वेनति भावः। गरुकभारिकतयेति त धर्म- नाधोगतिस्वभावानि न वा ऊज्ञेगतिस्वभावानि किताह तियमप्यधोमज्जनकारणताप्रतिपादनायोक्तम् (उप्पि) उपरि 'अ- र्यग्गतिधर्मकाणि तानि गुरुलघूनि यथा मारुतो वायुस्तत्मवाता' अतिपत्यातिक्रम्य (तित्तसिति ) स्तिमिते आईतां गते भृतीनि एवं जीवानां कर्माण्यपि त्रिविधा भवन्ति गुरूणि लततः कुथिते कोथमुपगते ततः परिसटिते पतित इति । इह गाथे घूनि गुरुलधूनि वा । तत्र यैरमी जीवा अधोगति नीयन्ते "जह मिउसे वालितं, गुरुयं तुंबं अहो वयर एवं । पासवकय तानि गुरुकाणि यैस्तु त एवोर्द्धगतिं प्राप्यन्ते तानि लघुकानि कम्मगुरू, जीवा वचंति अहरगई॥१॥ तं चेव तिब्वमुक्कं, जल्लोष यैः पुनस्तिर्यग्योनिकेषु वा मनुष्येषु धा गति कार्यन्ते तानि रिंग जाइ लहुनायं । जह तह कम्मविमुक्का, लोयम्गपयहिया | गुरुलघुकानीति तदेचं व्यवहारनयाभिप्रायेण समर्थितः कहोति"ज्ञा०६अ। मणां गुरुत्वलघुत्वगुरुल घुत्वपरिणामः । श्रथ परः प्राह । श्राह गुरुलघुकमगुरुमघुकं वा व्यं भयति नचैकान्तगुरुकं| ननु जीवास्तावत् स्ववशा एव झानावरणादिकं कोपच्चिनचैकान्तबघुकमित्यागमेऽभिधीयते ततः कर्मणां गुरुतया जी न्वन्ति ततो गतिरपि तेषां स्ववशतया किं न प्रवर्तते यद वा अधो गच्छन्ति लघुतया तूई मिति कथं न विरुभ्यते उच्यते | कर्मोदयवलादूर्द्धमधस्तिर्यग्वा नीयन्ते । उच्यते। इह हि यदागमे गुरुलघुकमगुरुलघुकं वा अन्यमुक्तं तनिश्चयतः कम्म चिणंति सवसा, तरसुदयम्मि न परवसा होति । "विईया पयउ सम्वत्थ पमिसिका"गुरुकं लघुकं मिश्रं गुरुकल रुक्खं पुरुहइ सबसो, विगनइ स परवसो तत्तो।। घुकमिश्रं गुरुलघुकमित्यर्थः । एवं व्यवहारतश्चतुर्द्धा अव्यम्। जीवाः स्ववशाः स्वतन्त्रा पव मिथ्यात्वाविरत्यादिभिः कर्म तत्र पुनरेतेषां मध्ये ये प्रथमहितीयपदे ते सर्वत्रापि निश्चयनयमताश्रितेषु सूत्रेषु प्रतिषिद्धा । तथाहि स निश्चयनयो अवी चिन्वन्ति बध्नन्तोत्यर्थः परं तस्य कर्मण उदये ते जीवाः परति नास्त्येकान्तेन गुरुस्वन्नावं किमाप वस्तु पराभिप्रायेण गु. वशा भवन्ति । श्रथ कश्चित्पुरुषो वृक्षमारोहन स्ववशः स्वारुत्वेनाभ्युपगतस्थापि लभ्यादेः परप्रयोगाद दिगमनदर्शना भिप्रायानुकूल्येनारोहति स च कुतश्चिद दुष्प्रमादात्ततो विगत । एवमेकान्तेन लघुस्वभावमपि नास्ति इति सम्धेरेपि वाप्पा लन् परवशः स्वकाममन्तरेणैव विगलति । आह यद्येवं ततः देकरताड़नादिना अधोगमनादिदर्शनात् । तस्मादिय वस्तुनः किं संसारिणो जीवाः सर्वथैव कर्मपरपशा एव । उच्यते ना. परिभाषा यत्किमप्यत्र जगति बादरं वस्तु न सर्व गुरु लघु शे यमेकान्तो यत श्राह। पं तु सर्वमप्यगुरुलघुकमिति । इदमेव व्यत्तीकुर्वनाह । कम्मवसा खलु जीवा, वसाई कहिं वि कम्माई । जातेयगं सरीरं, गुरुनहृदव्वाणि कायजोगा य । कत्थइ धणिो बन्नवं, धारणो कत्यई बलवं ॥ मणसा अगुरुनहु, अरू विदम्बा ग सव्वे वि ।। कर्मवशाः खलु प्रायेण अमी संसारिणो जीवाः परं कुत्रचिऔदारिकशरीरादारभ्य तैजसशरीरं यावत् यानि च्याणि प्रबलधृतिबलादिसद्भावे कर्माण्यपि जीववशानि।अमुमेधार्थ यश्च तेषामेव संबन्धात्काययोगः शरीरव्यापार एतत्सर्वं गुरु दृष्टान्तेन दृढयति यथा कुत्रचिज्जनपदादौ धनिको व्यवहामधुकमिति निर्देशम् । यानि तु मनोभाषाप्रायोग्याएयुपलक्कण रको बलवान् कुत्रचित्पुनः प्रत्यन्तग्रामादौ धारणिकः ऋणधात्वादानयनकर्मणा प्रायोग्याणि तदपान्तरालवर्तीनि च व्याणि रकोऽपि बलवान् । इयमत्र भावना । यदि जनपदमध्यवर्ती अविद्यमानविभवो वा धारणिकस्तदा धनिको बलीयान् । यानि च सर्वाण्यपि धर्माधर्माकाशजीवास्तिकायहकणान्यरू अथ धारणिका प्रत्यन्तग्रामे वा पल्ल्यांचा गत्वा स्थितः नवा पिद्रव्याणि तदेतत्सर्वमगुरुलघुकम् । तस्य तथाविधं किमपि द्रव्यमस्ति ततो धारणिको बलवान् अहवा बायरबोंदी, कलेवरा गुरुलहू भवे सच्चे। भवति । एष दृष्टान्तः । अथार्थोपनयमाह । मुहमाणंतपदेमा, अगुरुलहू जाव परमाणू ॥ धणियसरिसं तु कम्म, धारणिगसमा न कम्मिणा होति । अथवेति प्रकारान्तरद्योतने यादरा बोन्दि शरीरं येषान्ते बादरबोन्दयो बादरनाम कर्मोदयधर्तिनो जीवा इत्यर्थः तेषां स. संतासंतपणा जह, धारणिगधिइवलं तणु ॥ म्बन्धी नि यानि कलेवराणि यानि या पराएयपि चादरपरिण एवंविधधनिकसदृशं कर्म धारणिकसमानाः कर्मिणः सकर्मका तानि तत्राम्भोधरादीनि शकचापगन्धर्वपुरप्रनृतीनि वा वस्तू जीवा जवन्ति सुखपुःखोपभोगादि ऋणधारकत्वात्तेषामिति नि तानि सर्वाण्यपि गुरुलघून्युच्यन्ते यानि तु सूक्ष्मनामकर्मो भावः । यथा च सन्तो विद्यमानविभवा असन्तोऽविद्यमानधिव्यवर्तिनां जन्तूनां शरीराणि यानि च सूक्ष्मपरिणामपरिणतानि जवा धारणिका जवम्ति सत्रच विद्यमानविनवे धारणिक ध-- अनन्तप्रादेशिकादीनि परमाणुपुलं यावत् व्याणि तानि निकस्य यदि कार्य भवति तदा राजकुजवलेन तं धारणिकं धृ. सर्वाण्यगुरुबघूनि। स्वा स्वलज्य व्यं बनादपि गृह्णाति स च धारणिकस्तस्मिन् अथ व्यवहारनयमतमाह । रुच्ये दत्ते सति अनणीनवति । अथ सोऽविद्यमानविभवस्त तो खनिकेन स्ववीक्रियते स्ववशीकृतश्च तत्पारसम्ध्यण वर्तववहारनयं पप्प न, गुरुया लहुया य मीसगा क्षेत्र । मानो मुसहं दासत्वादि महापुःखोपमिधातमनुभवति । एवलहुगपदीवमारुय, एवं जीवारण कम्माई॥ मत्रापि धृतिबलं (तणुत्ति] शारीरं च बल बकाभिमामयता व्यवहारनयं प्राप्याङ्गीकृत्य त्रिविधानि द्रव्याणि भवन्ति त. कल्पमयसयम् । इदमुक्तं नवति यस्य जीवस्य बजकुश्पसमानं Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३४ ) अभिधान राजेन्द्रः । कम्म विशिषं मनःशियन पदाराच शारीरं बलं भवति स धनिकसदृशं कर्म रूपयित्वा सुखेनैवानृ वति । यस्य तु धृतिबलं शारीरवल वा न भवति स तेन कर्मणा वशं क्रियते वशीकृतश्च तत्परतन्त्रतया वर्तमानां विविधशारीरमानसः खोपनिपातमनुभवति । आह धृतिसंहननवत्रोपेतो यत्कर्म कृपयति तत्किमुदीर्यानुदीर्य वा कृपयतीत्युच्यते । महणालो कालं, जह लिओ एवमेव कम् तु । उदयानुदिच्चखवणा, होज्ज सिया आउवज्जेसु ॥ धनको द्विधा सरिसहिष्य या सहिष्ः स विवर्ति का प्रतीकमेव कम किं. त्रित्वकालमूर्ती किंचित्पुनस्तामन्तरेणापि स्वधिपाकं दर्शयया कर्मणः कृपणाप्रति पेतस्य भवेत (सिपतिदेव प्रयति न स नस्य वस्तुनः कर्म देश पसर्पतः कर्मन शे कर्मणामनुदं । णीनामपि कृपणं भवति आयुषः पुनरुदीर्णस्यैव अपणमिति नाथः तदेवं धनधारणिका कर्मरुभयोरपि तुल्यमेव यथायोगं बलीयस्त्वं द्रष्टव्यम् । उक्तं च "हजयः सर्वनाशश्च कृष्णणे, गायतारश्चरमजिनपतेर्मल्लिनाथेऽवलत्वम निर्वाण नाग्देऽपि प्रशमपरिणतः स्याच्चिलातीसुतेऽपि इत्थं कर्मात्मवीर्ये स्फुटमिह जयतिस्पर्धया तुल्यरूप" उक्तं प्रपञ्चं भावाधिकरणम् । वृ०१. उ०५ सह कलेवर रे वद चिन्तय, स्ववशता हि पुनस्तव फुलेना । बहुतरं च सहिष्यसि कर्म है, परशो नच गुण आचा० १ ० २ ० १ उ० । कम्माण पूर्ण चिकणारं महिचा बरा गाट्ठियं पिपुरिसं, पंथो उप्पहं तिम्रो आचा०६२०३३० ॥ तां यः स्वत एव मोड सलिलो जन्मालचालोऽशुनो । रागद्वेष कषाय सन्ततिमहानिर्विघ्नवी जस्त्वया । कुसुमितः कः । मोदानी यदि सम्यगेव फलितो दुः खैरधोगामिभिः । पुनरपि सहनीय दुःखपाकस्तथाऽयं । न खलु जयति नाशः कर्म्मणां संचितानाम् । इति सह गणयित्वा यद्यदा याति सम्यक्, सदिति वद विवेकोऽन्यत्र भूयः कुतस्त्यः । आचा० १ ४.२ अ. । शुभानि कर्माणि स्त्रयं कुर्वन्ति देहिनः । स्वयमेवोपज्यन्ते, दुः खानि च सुखानि च. उत्त० १ अ० । यदि क्रियते कर्म तत्परोपज्यते । मूलसिषु वृक्षेषु फलं शाखासु जायते सू० २ ० १ ० दग्धे वीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति 'नाङ्कुरः । कर्मवीजे तथा दग्धे, न रोहति नवाङ्कुरः स्या० ॥ क्लेशाः पापानि कर्माणि भेदानि नो मते । योगादेव क्षयस्तेषां न भोगादनवस्थिते ।। ३२ ॥ ततो निरुपस्थान-मनन्तमुपविष्ठते । 1 परहितं परमानन्दमेदुरम् ।। ३२ ।। शातित पावकानि बहुभेदानि विचित्राणि कर्माणि ज्ञानावरणीयानि क्लेशा उच्यन्ते उत्तः कर्मक्रय एव क्लेशहानिरिति भावः । तत्तु "नामुक्तं कीयते कर्म, कपकोरिर अकर्म शुभाशुन कम्म मिति देवकर्मणां ये तस्याप्यपुरुषार्थत्वमनियारिषभ योगादेव हामायासमुप स्पां नानापार्जितानिन जोगाइनयस्थले भोग मकर्मान्तरस्यापि भोगनाश्यास्थानमा विनोस् न कतिमा यो योगाधीनं कायव्यूढबलास्यत्स्थत इति चेन्न प्रायचित्तादिनापि कर्मनाशोपपतेः कर्मणां जोगेतरनाश्यत्वस्यापि व्ययस्थिती यांगनापिताशसंभल्पनेप्रमा णाभावात् । कर्मणां ज्ञानयोगनाश्यतया "ज्ञानाम्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुतेऽर्जुनेति" जवदागमैनापि सिकत्वात् । नरादिशirसत्वे शुकरादिशरीरानुपपत्तेः कायव्यूहानुपपत्तेर्मनन्तरप्रवेशादिकल्पने गौरवाच्च । ये त्वाहुः पातजलाः "अम्नेः स्फुलिङ्गामि कायदयमेकादेव विद्याप्रयोजका नानाचिन्तनां परिणामांऽस्मितामात्रादिति " तडुकं " निर्मा चित्तान्यस्मितामात्रात् प्रवृत्तिभेदे प्रयोजकचितमेकमनेकेपामिति " तेषामप्यनन्तकालमचितानां कर्मणां नानाशरीरोपप्रोगलाइनमोह एव तानां युगपदुतितामा नुपपत्तेरिति निरुपक्रमकर्मण एव जोगेकनाश्यत्वमाश्रयणीयमिति सर्वमवदातम् ३१ (तत इति) सुगमम् ३२ द्वा०२६ द्वा०| ( ३७ ) कर्मक्षय विचारः । तस्य सम्यग्ज्ञानस्य सत्यार्थत्वेन बलीयस्त्वान्निवृत्ते च मिथ्याकालो न भवन्ति कारणाभावे कार्यस्थानु दानवे तत्कार्याप्रतियते तदभावे पापात्परिक गतिसंचि नयोश्च तयोः प्रायस्तत्पज्ञानादेयवन्धन समिको ग्निमाकुरुते णात् ज्ञानाग्निरसम्मणि भस्मसान्कुरुते तथा" भयोपजोगाइप्रिये "नातं । यते कर्म कल्पकोटिशतैर" त्यागमस्ति तथा पा योरेकार्थकये प्रामाण्यमुपभोगाच प्रयेऽनुमान्यास कुन्ति । पूर्वकमयुपजोगादेव कीयन्ते कर्मत्वाद्यद्यत्कम्मं दुपारपरी कम्त मे तस्मादुपभोगांव कीयत इति । न चोपनोगात्मकय कम्मान्तरस्यावश्यभावात्संसारानुष्छेदः समाधिस वानस्यायतकसामयत्यादियुगपद ताशेषज्ञोगस्य कर्मान्तरोत्पत्ति निमित्त मिथ्याज्ञानजनितानुसग्वानविकलस्य नृपतिमो नाक यानुपपतोऽपि तदतिया प्रवृत्तेोपदेशादातुरस्यैयौ पध्यायाचरणे ज्ञानमप्येवमशेषशरोत्पतिद्वारेोपभोगात्क णां विनाशःयापारादग्निरिवोपचर्यत इति व्याक्येयम् । ननु सामाज्यं तत्यज्ञानिनां कर्म्मविनाशस्तत्वज्ञानादिसर योगादिति ज्ञानेन कर्म्मविनाशे प्रसिोदाहरणानाया तू नच मिथ्याज्ञानजनितसंस्कारस्य सहकारिणोऽभाषाद्विमानान्यपि कर्म्मणि न जन्मान्तरशरीराण्यारभन्त इत्यभ्युपगमोदितकार्यस्य कमलकस्य कार्यस्तुनः प्रज्ञयान्नित्यत्वप्रसक्तेः । अथानागतयोर्द्धर्माधर्म योरुत्पत्तिप्रतिषेध त्यानिमित्तकानुष्ठानं कथं प्रत्यवायपरिहारार्थ सद्तं नित्यनैमिति कैरेव दुमि हामी कयासेन तु पाचपेत् सत्यविज्ञानः कैवल्यं लभते नरः" ॥ केवलं काम्ये निषिद्धे प्रवृतिप्रतिषेधस्तद्तं " नित्यनैमित्तिके कुर्यी - स्प्रत्यवायजिहासया । मोक्कार्थी न Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३५) भनिधानराजन्नः। कम्मकरण प्रवतेत, तत्र काम्यनिषिद्धयोरिति " सम्म १५५ पत्र. ॥ सज्ञानानोत्तरकामं तु शैलेश्यवस्थायामशेषकर्मनिर्जरणाअस्य खण्डनम् । पायां सर्वक्रियाप्रतिषेध एवाभ्युपगम्यत इति न तनिमित्तो ध. यनुनमारग्धकार्ययोर्धर्माधर्मयोरुपभोगात्प्रायः संचित- माधर्मफलप्रापुनावः । प्रवृत्तिनिमित्तेरात्यस्तिक्यास्तस्कयोयोश्च तत्वज्ञानादित्यादि तदपि न सङ्गतमुपभोगात्कर्मणः तुत्वसिद्धः सम्म० तथा मूर्तः कम्मभिरमूर्तस्य जीवस्य पढेषयःप्रक्षये तदुपभोगसमयेऽपरकर्मनिमित्तस्याभिलाषपूर्वकमनो- पिण्डन्यायेन कथं सम्बन्ध इति प्रश्न अरूपिभिः सह रूपिणांमवाकायव्यापारस्वरूपस्य संभवादविकलकारणस्य प्रचुरतर योगसंबन्धस्संभवत्येव यथाऽकाशेन सह परमाणूनां पक्षिणां या कर्मणः सद्भावात्कथमात्यन्तिकः कर्मक्षयः सम्यग्ज्ञानस्य तु वह्नण्यापिएमन्यायेन तु संबन्धविशेषो व्यवस्थाप्यते न तुरूपिहमिथ्याशाननिवृत्त्यादिक्रमेण पापक्रियानिवृत्तिलक्षणचारित्रो यनियतः संबन्ध इति न किंचिदनुपपन्नम् । ४०८ श्येन ३ उल्लापबृंहितस्यागामिकर्मानुत्पत्तिसामर्थ्यवत्संचितकर्मक्षयेऽपि | कम्मओ-कर्मतस्- अव्य० कर्मणः सकाशादित्य, न.१२ मामर्थ्य संभाव्यत पय यथोष्णस्पर्शस्य भाविशीतस्पर्शानुत्प-1 श०५श सो समर्थस्य पूर्वप्रवृत्ततरस्पर्शादिध्वंसेऽपि सामर्थ्यमुपलब्धं कम्मंत-कर्मान्त-पं० कर्महतो, "तहप्पगाग सावज्जा अवोहिया किन्त परिणामिजीवाजीवादिवस्तुविषयमेष सम्यग्ज्ञानं न कम्मंता परपाणपरियावणकरा कज्जति" सूत्र०२ १०१ पुनरेकान्तनित्यात्मादिविषयं तस्य विपरीतार्थग्राहकत्वेन कम्मंतसाला-कर्मान्तशाला-स्त्री० न० "सुहादिया जत्थ कम्म मिथ्यात्वोपपत्तेर्यथा चैकान्तवादिपरिकल्पित आत्माद्यों न विज्जति सा कम्मतसाला" कृधादि यत्र परिकम्यते साकसंभवति तथा स्थान निवेदयिष्यते। मिथ्याज्ञानस्य च मुक्तिहेतुत्वं परेणापि नेष्यत एवातो यदुक्तं यथैधांसीत्यादि' तत्सर्वं न्तिशाला इत्युक्तलकणायां शामायाम, कर्मान्तगृहमप्यत्र नि. चू०० उ०। प्रश्न । संवररूपचारित्रोपबंहितसम्यग्ज्ञानाग्नेरशेषकर्मक्षयसामर्थ्य मभ्युपगम्यते तत्सिद्धमेव साधितम् । यश्चोपभोगादशेषकर्म- | कम्मस-कमाश-पु० कमन्नदषु, न. १५ श० १०॥ | कम्मंस-कर्माश-पुं० कर्मनेदेषु, न० १५ श० १ ० । व्याक्षयेऽनुमानमुपन्यस्तं तत्र यदेवागामिकर्मप्रतिबन्धे सामर्थ्य पारांशेषु, औ०। सम्यग्ज्ञानादि तदेव संचितक्षयेऽपि परिकल्पयितुं युक्तमिति पढमसमयजिणस्स ण चनारि कम्मंसा खीणा नवंति प्रतिपादितं सर्वज्ञसाधनप्रानावेवोपभोगात्तु प्रक्षये स्ताकमा तंजहा णाणावरणिज्जं दरिसणावरणिज्ज मोहणिज्जं अंअस्य कर्मणः प्रचुरतरकर्मसंयोगसंचयोपपत्तेन तदशेषक्षयो तराइयं । नप्पन्नणाणदंसणधरेणं अरहा जिणे केवनीचयुक्तिसंगतः। कर्मत्वादिति च हेतुः सन्तानत्ववदसिद्धाद्यने तारि कम्मंसे वेति तंजहा वेयणिज्जा आनयंणाम गोयं ।। कदोषदुष्टत्यान्न प्रकृतसाधकः । प्रसिद्धत्वादिदोषोद्भावनं च प्रथपः समयो यस्य म तथा स चासी जिनश्च सयोमन्तानत्वहेतुदूषणानुसारेणातिसंख्यानेन निवर्तयितुमश-- गिकेवलिप्रथमसमयजिनस्तस्य कर्मणः सामान्यस्यांशा झाक्यत्वान्मानसो विकल्पः। तथा हनुमानवलात्क्षणिकत्वं विकल्पयतोऽपि नानेकत्वप्रत्ययो विवर्त्तते शाक्यान्ते तु प्रतिसं नावरणीयादयो नेदा ति । उत्पन्ने प्रावरणक्षयाज्जातेकानदर्श ने विशेषसामान्यबोधस्वरूपे धारयतीति उत्पन्नशानदर्शनधग्यानेन विचारयितुं कल्पना न पुनः प्रत्यक्षबुद्धयस्तस्माद्यथाऽश्वं विकल्पयतोऽपि गोदर्शनान गोप्रत्ययो विकल्पस्तथा रोऽनेनानादिसिद्धकेवलज्ञानवतः सदाशिवस्यासद्भावं दर्श यति न विद्यते रह एकान्तो गोप्यमस्य सकनसनिहितम्यस्वयमेव वाच्यं न पुनरुच्यते ग्रन्थगौरवभयात्। यश्च समाधि घहितस्थूलसूक्ष्मपदार्थसार्थसाकारकारित्यादित्यरहा देवादिबलादुत्पन्नतत्वज्ञानस्येत्यादि तदप्ययुक्तमभिलाषरूपरागाद्य पूजाहत्वेनाईन्या। रागादिजेतृत्वान्जिनः । केवलानि परिपूर्णाभावे हपभोगासंभवात् संभवेऽपि चावश्यंभावि ऋद्धिमतो निशानादीनि यस्य सन्ति स केवलौति । सिरूत्वस्य कर्मकपभवदभिप्रायेण योगिनोऽपि प्रचुरतरधर्माधर्मसंभवोऽतिभो। णस्य च एकसमये सम्भयात् स्था०४ 101 (के देवाः कियता गिन इव नृपत्यादेवैद्योपदेशप्रवर्तमानातुरदृष्टान्तोऽप्यसंगतः कालेनाऽनन्तान् कर्माशान क्षपयन्तीति खवणा शब्द) तस्यापि नीरुग्भावाभिलाषण प्रवर्तमानस्योषध्याद्याचरणे कम्मकह-कर्मकृत-त्रि०३ त-कर्मनिर्वतिते, ७२० कर्मकरणाधिवीतरागत्वासिद्धेः । नच मुमुक्षोरपि मुक्तिसुखाभिलाषेण प्र करणे, "इत्थीप पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणीप मेहणवसिए वर्तमानस्य सगगत्वं सम्यग्ज्ञानप्रतिबन्धकरागविगमस्य मर्वज्ञतान्यथानुपपत्त्या प्राक्प्रसाधित्तत्वाद्भयोपग्राहि कर्मनि नाम संजोए समुप्पज्जई" - नामकर्मनिवर्तितायो योनी, श्रथमित्तस्य तु बाह्यबुद्धिशरीरारम्भप्रवृत्तिरूपस्य सातजनकस्य वा कर्म मदनोद्दीपको व्यापारस्तस्कृतं यस्यां सा कर्मकृतान. १०५०।शलेश्यवस्थायां मुमुकारभावात् । प्रवृत्तिकारणत्वेनाभ्युपगम्य कम्मकर-कर्मकर-त्रि० कर्म करोतीति कृ-ट-चेतनेन कर्ममानस्य मोक्कमुखाभिवापस्याप्यसिन मुमक्षो रागित्वम् । प्रसिद्धश्च भवतां प्रवृत्यनावो नाविधर्माधर्मप्रतिबन्धकः य कारके, स्त्रियां जीप--वाच । प्राचा० । औ० । प्रा० म० इस जाविधर्माधर्माभ्यां विरुद्धो हेतुः स पथ संचिततत्कये द्वि०। भृतके, वृ०१ उ० । लोकहितादिकर्मकरे, दशा ऽपि युक्त इति प्रतिपादितमत एव सम्यम्झानदर्शनचारित्रात्मक श्रा कर्माश्रित्य करे, प्रा० म० द्वि० । (करशम्दे तम्निक्केपे पव हेतु विभूतकर्मसंबन्धप्रतिघातकत्वान्मुक्तिप्राप्त्यबभ्यका. विवृतिः) ताच्छील्ये-दासे कर्मकरणशाने, स्त्रीयां डीप कर्हिरणं नान्य ति तेन यदुक्तं तत्वज्ञानादिभिन्न ताक्तमेव । य. सायाम्-कृ-मन-कर्म हिंसां करोतीति । देवादी, यमे, पुं० मेदिका स्वितरेषामुपनोगादिति तदयुक्तमुपनोगासत्वयानुपपत्तेः प्रति सर्वप्राणिहिंसायां तस्याधिकृततया च तस्य तथात्वम् सर्वा पादितत्वात् । यत्नु नित्यनैमित्तिकानुष्ठानं केवलज्ञानोत्पत्तेः प्रा बतायाम, स्त्री० मेदिन काम्यनिषिकानुष्ठानपरिहारण ज्ञानावरणादिदुरितक्कयनिमित्त-कम्मकरण-कर्मकरण-न० कर्मविषयं करणं बन्धमम संक्रमास्खन केवलहानप्राप्तिहेतुत्वेन प्रतिपादितं तदिष्टमेवास्माकं केव- दिनिमित्तजूते जीवयीये, भ० ६ श०१३० । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३१) निधानराजेन्द्रः । कम्मकारि कम्प (का) कारि कर्मकर्तृ-पुं० []] [ विवृत्तिः स्याने कर्मकर्तृत्ववा स्वभावे कर्मणि, क्रियमाणं तु यत्कर्म स्वयमेव प्रसिध्यति । सुकरैः स्वैर्गुणैः कती कर्मकर्त्तेति तद्विदुः” यथा देवदत्त भोदनं पचतीति कर्त्तवदत्तस्थाविषया पय्यते यदनः स्वयमेव अकर्म कर्मणा देशात गात्मनेपदा दयः याच० । कर दिसिं पोगाला चिज्जति" पुद्गलाश्चीयन्ते कर्मकर्त्तरि प्रयेोगः स्वयं वयनमा गच्छन्तं । त्यर्थः प्रज्ञा० २१ पद. | कम्म किन्निस-कर्म किल्विपत्र कर्मणा यनुरूप 66 टितेन किल्विषाः श्रधमाः कर्मकिल्विषाः । कर्मभिर्मलिनेषु, किल्विषकर्मन् । किल्विषाणि क्लिष्टतया निकृष्टान्यशुनानुबन्धीनि कर्माणि येषां ते किल्विषकर्म्मणः । प्राकृतत्वात् पूर्वपरनिपातः शुभकर्म उत्त०३ अ० एवमाजसु पाणिणो कम्मकिञ्चिसा । न निविज्जति संसारे, ससु व खसिया " उत्त० ३ ० । ( चउरंगशब्दे व्याख्या ) कम्मक्खंध -- कर्मस्कन्ध- पुं० कार्मणवर्गणाप्रधानेषु स्कन्धेषु, कर्म २५ क० ॥ कम्मसंपल-वस्कन्दल २० कार्मणवर्गणाधाना क धाः कर्मस्कन्धास्त पच यथा स्वकालं दलनाद्विशरामभवनात् दलं त्रिफला विशरणै इति वचनात दलं दलिकं कर्मस्कन्धदः म । कर्मदलिके, कर्म० क० ( यादृशं कर्मस्कन्धदलिकं जीवो गृह्णाति तदेतत्क स्मशब्दे उक्तम ) ॥ कम्मकरवय-कर्मक्षय पुं० ज्ञानावरणीयाद्यष्ट्रवियोगे, पा० ॥ श्राचा०| कम्मवखयकरणी कर्मकरीषः क्रियतेऽनयेति कर्मक्कयकरणी करणे ऽनट् । कर्मक्कयसाधिकायाम, ध्य०१० कम्मखयसिक-कर्मकुपसिक पुं० "सो कम्प - जा सव्वखणकम्मंसो" स कर्मकयसिको यः सर्वक्षीणकर्माशः । सर्वे निरवशेषाः कीणाः कर्माशाः कर्मभेदा यस्य स तथा इत्यु ० - लक्षणे कीणकर्मा के नावसिद्धे, आ० म० द्वि० । आ० क० । श्र० चू० । ( सिरुशब्दे तस्य विवृतिर्भविष्यति ) कम्ममः कर्मगति क्रियते इति कर्म ज्ञानावरणादिपा रिभाषिकं क्रिया या । कर्म च तप्रतिश्वासौ कर्मगतिः । ग मनं गच्छति प्राप्नोति गति कानावरणादिरूपे पतिती मनक्रियायां च " विदगगई ब्रह्मणगई, कम्म गईश्रो समासश्रो दुविहायवेययाविगमापण्य" २०१ ० [ विहंगमशब्दे व्याख्या ] कम्मगुरुया–कर्मगुरुता–स्त्री० कर्मणां गुरुता । कर्ममहत्तायाम्, म० ए० ३२ ३० । कम्मगुरुसं भारिपता-कर्मारिका गुरोः सना स्त्री० रिकस्य च जायो गुरुसम्भारिकता गुप्ता सम्मारिका त्य थेः । कर्मणां गुरुम्भारिकता कर्मगुरुम्भारिकता कर्मणा मतिप्रकर्षावस्थायाम् भ० ९० ३३ उ० । 1 कम्मग्गंथ - कर्मग्रन्थ - पुं० कर्मप्रतिपाद के कर्म विद्याकादिग्रन्थप तंत्र प्रथमः कर्मविपाका श्रीमदेवे सूरिविरचितस्तस्यैव टीका समलङ्कृतः । प्रत्थमानं द्वाशीत्युतराशताचिकमे कसहस्रम ( १८०२ ) द्वितीयः कर्मस्तवस्तेनैव देवेन्द्रसूरिणा विरचित सम्मानं च (३०) अधिि कम्मणि दाया तृतीया कस्तो बन्धस्यामि देवेन्द्रसूरिनिखितंयमान मेको नपचधिकं (४५) चतुःशतम् । चतुर्थः परुश | तिशास्त्रं देवेन्द्रसूरिणा कृतं व्याख्यातं च तन्मानमष्टाविंशतिशतम् [ २८०० ] पञ्चपः शतकः शिवशर्मसूरिणा कृतः पूर्वमग्रायणीय पूर्वादुद्धृत्य ततो देवेरणा विरचितीति प्रत्यमानं चचारिंश सरविशताधिकं चतुःसहस्रम (४३४०) पाइ चन्द्रमहन्तरकृतो मलयगिरिविरचितटीकासमन्वितस्तन्मानं नवाशीत्युत्तरषट्शताधिकं त्रिसहस्रम् [३६८९] सर्वग्रन्थमानम् देशसहस्रम कर्म अत्र श्रीहीरविजयप्रतिप जगमालिगचिकृतयः कर्मप्रधन्मदरा साडीति सत्यं नवेति ? उत्तरम् पष्ठकर्मग्रन्थकर्त्री चन्द्रमहत्तरा साभीतिप्रदमध्येति प्रतिभाति यतस्तट्टीकायामाचार्येोचमस्ति । तथैव तदवचुर्णी चन्द्रमह तरकृतप्रकरणं व्याख्यायते इत्युक्तम् । ही० । कम्मरण-कर्मचन- पुं०] कर्मैव जीवस्वभावावरणाद् धन-कर्मधनः श्राच० ४ श्र० । ज्ञानावरणादिकर्ममेघे, द० अ० । उक्तंच "स्थितः शीतांशुषज्जीवः, प्रकृत्या भावशुद्धया । चन्द्रि कावश्व विज्ञानं, तदाचरणमभ्रवदिति " श्राव० ४ श्र० । कबहुले, त्रि०नि०० ६ उ० । कम्मचिंता-कर्मचिन्ता - स्त्री० शानावरणादिके कर्मणि पर्य्यालोचने, सूत्र० १ ० १ ० २ उ० । कम्मचिंतापण्ड - कर्मचिन्ताप्रनष्ट-स्त्री० कर्मणि ज्ञानावरणादिके चिन्ता पर्यालोचनं तस्याः प्रनष्टा अपगताः कर्मचिन्ताप्रनष्टाः । कर्मभिशताशून्येषु, “कम्मचिंतापणट्ठाणं, संसारस्लपवणं " सूत्र० १ ० १ ० २ उ० । कम्पजए कर्मजनन - न० कर्मबन्धकरणे, नि००२ उ० । कम्मजोग- कर्मयोग- पुं० [क्रियाऽऽचरणायोगइये, तंत्र विंशतिकानुसारेण लक्षणादिकं निरूप्यते तत्र स्थानरूपं कायोत्सस्मोदि । जैनागमोक्रकियाकरसे, करसरसासनमुद्रारूपमु चविंशतिकायाम् "छाणावसच्छालं वरणर हिश्रो तग्मि पंचहा एसो दुर्गमिच्छ्रकम्मजोगो, तहा तिथं शाजोगी " अ कर्म | कर्मसु योगः कौशलम् फलसाधनस्यापि कर्म शोकसाधनत्वापादनरूपे कौशलभेदे पुं० कमनीयतादेशी डा " १४ श्र० । कम्मजोरिण - कर्मयोनि - स्त्री० साङ्ख्यमतप्रसिद्धेपदार्थे, वृत्तिश्रद्धासुखविविदिषाविशतिभेदात् पञ्च कर्म योनयः स्था० । ६- न० ज्ञानावरणदर्शनावरण वेदनीयमोहनीकम्मट्ठग-कर्माष्टकयायुर्नामगोत्रान्तरायाये कर्मणामष्टसंख्या के गणे, क०प्र० । कम्पाल कर्मस्थान १० अवस्कारादिकर्म - कारस्थाने, श्राचा० १ श्रु० ६ श्र० २ उ० | कम्प:ि- फर्मस्थिति खी० कर्माचानाले भ० ६ ०३ उ० ( बचा दर्शितं कम्म शब्दे मेयोपादानमात्ररू पायामचस्थानरूपायां या अवस्थिती सम० कः कर्म 1 लेभ्यः सकाशात् स्थितिर्येषां ते कर्मतिः कर्मस्थितिकेषु नैरविकादिवैमानिकान्तेषु भ० १४ ० ६ ० कम्म लिदाण- कर्मनिदान-पुं० कर्म निदानं नारकत्वनिमित्तं कर्मयम्धनिमित्तं वा येषां ते कर्मनिदानाः । तथाविधेषु नार Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३७) कम्मणिदाण अभिधानराजेन्द्रः। कम्मपगमि कादिवैमानिकपर्यन्तेषु, भ. १४ श६ उ०। तदनु सुधर्मा स्वामी, जम्बूप्रनवादयो मुनिवरिष्टाः । कम्मणिबत्ति-कर्मनिवृत्ति-स्त्री० कर्मणो शानावरणादितया श्रुतजलनिधिपारीणा, त्यांसः श्रेयसे सन्तु ॥ ४॥ निष्पत्ती, क्रमाप्राप्ततपाचार्ये--त्यभिख्याभिचनायकाः। काविहा णं भंते ! कम्मणिबत्ती पणत्ता गोयमा ! समजूवन् कुले चान्, श्रीजगच्चन्द्रसूरयः ।। ५ ॥ अमविहा कम्मणिव्यत्ती पणत्ता तंजहा णाणावरणिज्ज जगज्जनितबोधानां, तेषां शुरूचरित्रिणाम् । कम्मणिबत्ती जाव अंतराइयकम्मणिवत्ती। णेरझ्याणं विनेयाः समजायन्त, श्रीमद्देवेसूरयः॥ ६॥ स्वान्ययोरुपकाराय, श्रीमद्देवेसरिणा। भंते ! कइविहा कम्मणिवत्ती पमत्ता. तंजहा णाणावर कर्मस्तवस्य टीकेयं, सुखबोधा विनिर्ममे ।। ७॥ णिजकम्मणिबत्ती जाब अंतराइयकम्मणिबत्ती य एवं विवुधवरधर्मकीर्ति--श्रीविद्यानन्दिसृरिमुख्य बुधैः । जाव वैमानियाणं ज०१५ श०८ न० । स्वपरसमयैककुशलै--स्तदैव संशोधिता चेयम् ॥ ८॥ कम्मणिसेग-कर्मनिषेक-पुं० कर्मदलिकस्यानुभवनार्थे रचना यदितमल्पमतिना-सिद्धान्तविरुद्धमिह किमपि शाखे। विद्वद्भिस्तत्त्वज्ञैः, प्रसादमाधाय तच्छोध्यम् ।। ए॥ विशेषे, भ०६ श० ३ उ० । ( यथा कम्म शम्दे दर्शितम्) कर्मस्तवसूत्रमिदं, विवृण्वता यन्मयाऽर्जितं सुकृतम् । कम्मरण-कार्मण-न० कर्मणो विकारः कार्मणं विकारेऽप्रत्ययः सर्वेऽपि कर्मबन्धा-स्तेन त्रुट्यन्तु जगतोऽपि १० कम्म०९क०। यद्वा कमैव कार्मणं प्रशादिभ्योऽएप्रत्ययः। कर्मजशरीरे, कर्म। कम्मदव्व-कर्मव्य-10 कर्मवर्गणाप्रव्ये, प्राचा० १ ० ८ (कम्मज शब्दे विवृतिः) अ०१०॥ कम्मत-कर्मा-त्रि इतः पूर्वाचरितः कर्मभिःखिते, कर्मभिः | | कम्मदोस-कर्मदोष--पुं० कमैव दोषः कर्मणि दोषः कर्महे तुदों रुप्यादिभिरार्ताः । कृप्यादिकर्मकर्तुमसमर्थे, "कम्मत्ता दु- षो वा । पुष्टे पापजनके हिंसादौ कर्मणि, कर्मजन्ये पापादौ, भगा चेव, इच्चारं सुसढो जणा" एतैः पूर्वाचरितैः कर्मभि सकलकर्महेतौ मिथ्याझानजन्यवासनारूपे दोघे, नैया०वाच । रार्ताः पूर्वस्वकृतकर्मणः फलमनुभवन्ति । यद्वा कर्मभिः कृ गुणप्रतिबन्धककर्मविपाके च । पंचा० १४ थिय।। प्यादिभिरास्तित्कर्तुमसमर्था उद्विग्नाः सन्तो यतयः संवृत्ता | ता | कम्महम-कमद्रुम-पुं० द्रुमन्वेनोप्रेरिते कर्मणि, "तो यः स्वत इति सूत्र. १ श्रु. ३ अ.१ उ०। एव मोहसलिले जन्मालवावोऽशुभो, रागद्वेषकपायसन्ततिकम्मत्यय-कर्मस्तव-पुं० देवेन्द्रसूरिविरचिते स्वनामख्यातेक महान् निर्विनवीजस्त्वया । रोगैरङ्करिता विपत्कुसुमितः कर्मअन्धे, तदधिकाराः “बन्धोदयोदीरणसत्पदस्थ, निःशेषक द्रुमः सांप्रतं, सोदानो यदि सम्यगप फलितो दुःखरधोगामिमौरिबलं निहत्य । यः सिद्धिसाम्राज्यमलंचकार, श्रिये स वः भिः॥१॥ आचा०१ श्रु० २ १०४ उ० । श्रीजिनवीरनाथः १" "नत्वा गुरुपदकमलं, गुरूपदेशाद्यथा कम्मधारय-कर्मधारय-पुं० तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधाध्रुतं किंचित् । कर्मस्तवस्य विवृति, विधे स्वपरोपकाराय २ रयः इति लक्विते समासभेदे, तत्रादावेष मङ्गलार्थमभीष्टदेवतास्तुतिमाह । से किं तं कम्मधारए ? कम्मधारए धवनो वसहो धवलतह युणिमो वारजिणं, जह गुणना सु सयाकम्माई। बमहो किएहो मियो किएहमियो सेतो पमो सेतपडो रत्ती बंधुदयोदोरणया, मत्तापत्ताणि खवियाणि ॥शा तथा तेन प्रकारेण स्तुमोऽसाधारणसद्भूतसकलकर्मनिर्मू पमो रत्तपमो सेत्तं कम्मधारए । धवलश्चासी वृषनश्च धवनवृषभ इत्यादि अनु० ॥ तथा समालक्षपणलक्षणगुणोत्कीर्तनेन स्तवनगोचरीकुर्मः कं चीरजि साधिकार कर्मधारयसमासप्रयोजनं न प्रतिनाति यतस्तस्य नम् (कर्म०) यथा येन प्रकारेण " अभिनयकर्मग्गहणं, तत्पुरुषसमासात्पृथग्नकणाभाव इति प्रश्ने जरती चासी गौश्व बंधो पोहेण सत्तवीससयं । तित्थयराहारदुग-यज्ज मिच्छम्मि जरावी इत्यत्र कर्मधारयसमासत्यात् पुंवत्कर्मधारये इत्यनेन सत्तरसय "मित्यादि वक्ष्यमाणेषु गुणस्थानेषु परमपदप्रासा पुंवझावस्तत्पुरुषवाच गोस्तत्पुरुषादियट् समासान्तः टिस्वाश दशिखगरोहणसोपानकल्पेषु व्याख्यास्यमानस्वरूपेषु मिथ्या. मी प्रत्ययः इत्येकत्र समासदयप्रयोजनसद्भावस्तथा विशेषणं दृश्यादिषु सकलानि समस्तानि मतिज्ञानावरणप्रभृत्युत्तर- विशष्यणकार्य कर्मधारयश्चेति पृथग्यकणसद्भावाच्चन काप्रकृतिकदम्बकसहितानि कर्माणि ज्ञानावरणीयादिमूलप्रकृति प्याशड्डेति १३८ श्यन०२ उल्ला० । रूपारायटी कर्माणि च स्वोपज्ञकर्मविपाके विस्तरेण व्याख्यातानिकजूतानि 'बन्धुदओदीरणया सत्तारत्ताणित्ति' कर्मका (वि कम्मपटिय-कर्मप्रतिष्ठित-त्रि० कर्माश्रिते, "जीवा कम्मपइदोषत उपयोगानाधान सर्वतो व्याख्यायने) पर्यन्ते । इति श्रीदे दिया" कर्मवशवर्तित्वात् स्थाग बेन्झमरिविरचितायां स्वोपरकर्मस्तबटीकायां सत्ताधिका: कम्मपग ( य)मि-कर्मप्रकृति-स्त्री० कर्मणो मूलनेदे, समाप्तस्तत्समाप्तौ च समर्थिता लघुकर्मस्तवटीका ॥ करण भंते! कम्मपगमीओ पाम ताओ ? गोयमा! अट्ठकसत्ताधिकारमेनं, विवृण्वता यम्मार्जितं सुरुतम् । म्मपगमीओ पमत्तानो तजहाणाणावरणिज्जं जाव अं. निःशेषकर्मसत्ता-रहितस्तेनास्तु लोकोऽयम् ॥ १ ॥ विष्णोरिव यस्य विभोः, पदत्रया व्यानशे जगन्निग्विनम् । तराश्यं जाव वेमाणियाएं ॥ भ० १६ श० ३० । (कम्मशब्देऽत्र यक्तव्यं सर्वमावदितम् । भवरम) कर्ममलपटलमुक्तः, स श्रीधीरो जिनो जयतु ॥२॥ कुन्दोज्ज्वलकिर्तिनीः, सुरजीकृतसकलविष्याभोगः । जीवा णमट्ठकम्मपयमीओ चिणंमु वा चिणंति वा चिशतमखरातविनत पदः, श्रीगौतममणधरः पातु ॥३॥ पिस्संति वा नजहा नाणावरणिजं दरिसणाचरणिज्जं वे. Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३८ ) अभिधानराजेन्द्रः । कम्मम यणिज्जं मोहणिज्जं आउयं नामं गोयं अंतराइयं ॥ " जीवा णमित्यादि" प्रागिव व्याख्येयं नवरं चयनं व्याख्यानान्तरेणाफलनमुपचपनं परिपोष बन्धनं निर्माणमुदीरणं करणेनाकृष्य दलिकस्योदये दानं वेदनमनुभव उदय इत्यर्थः । निर्जरा प्रदेशेभ्य शटनमिति ॥ स्था० ८ ठा० । कर्मजेदप्रतिबवक्तव्यता के त्रयस्त्रिंशे उत्तराध्ययने, उत्त० ४ श्र० । बन्धनाकिरणाटकप्रतिपाद के स्वनामस्याने प्रत्ये, तत्रादी। प्रणम्य कमचकमित्राशमरिएनेमिम । कर्मप्रकृत्याः कियतां पदानां सुखावबोधाय करोमि टीकाम् |१| अयं गुणसमय यदस्मदादिदी किचित उपाधिसंपर्कवाद्विशेषो, लोकऽपि दृष्टः स्फटिकोपनस्य ||२|| इह शिष्टाः कचिदिष्टे वस्तुनि प्रवर्तमानाः सन्त इष्टदेवतानमस्कारपुरस्सरमेव प्रवर्तन्तेनायमान शिष्ट प्रति समय परिपालनाय तथा बेयांसि विद्यानि भवन्ति उ तन्त्र । " श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि । अधेयसि प्रवृत्तानां कापि यान्ति विनायका" इति । इदं च प्रकरणं स म्यग्ज्ञानहेतुत्वात् श्रेयोभूतमतो मा भूदत्र विघ्न इति विघ्नविनायकोपास्त देवतानमस्कार तथा नापूर्वकारिणः कवि प्रयोजनादिविरहे प्रवर्तन्ते ति प्रज्ञायतां प्रवृत् प्रयोजनादिकं च प्रतिपिपादयिषुरादाविदमाह क० प्र० । संप्रति प्रकरणप्रज्ञाननिबन्धनां विशिष्टफल संप्राप्तिमाह । करोदयतिरिकरणसंजमुरोषा । कम्मडगुदयनिडा-मणियम डिं मुर्वेति ॥ ४७३ ।। करणानामुक्तस्वरूपाणामुदचसत्तयोश्च सम्यक्परिज्ञानयुक्त करणं (जमुजोपत्ति ] तासां कग्योदयसत्तानां या निर्जरा तस्याः करणं निर्वर्तनं तदर्थे संयमं प्रति उद्योग उद्यमो येषां ते निर्जराकरणसंयमोद्योगाः ते इत्यंभूताः सन्तमित्याह ) कर्माष्टकांदयसत्ता निष्ठुजनितं कर्माप्रकस्य श्रष्टानां कर्मणामुदयनिबन्धस्याप्युपलकणं ततोऽयमर्थः बरोदयमसाज्ञयेण जनितमुत्पादितं यत् ( मणि ंति ) मनस इष्टम थवा ( श्रणिति ) न विद्यते निष्ठा पर्यवसानं यस्य तत् श्र निम् । अष्ठमपर्यवसानं सुखमुनयत्रापि तत् (उपयंति प्राप्नुवन्ति तस्मादयमिह प्रकारेण मेकाि निरन्तरमन्यासः करणीयः कृत्वा च यथाशक्तिसंयमाध्वनि प्रतिप्रवृत्तेन च सता संशिप्यवसाय रूपकुपथपरि हारे यत्न आस्थेय इति । संप्रत्याचार्य आत्मन श्ररूत्यं परिहग्नू अन्येषां बहुश्रुतानां प्रकरणार्थपरिज्ञावनाविषये प्रार्थनां कद्र प्रेयतां प्रकरविषये उपादेयुरिमा प्रकर गस्य परंपरा सर्वपित इस कम्पनी जहामुहं नीयमध्यमदणावि । मोहियाोगकथं, कहं तु वरदिष्विायन्नू ॥४७४ || अल्पमतिनाऽपि अल्पबुद्धिनाऽपि सता इत एवमुक्तेन प्रकारेगुरुचरणकमा पर्युपासनां कुर्वता गुरुपादमुझे यथा मया श्रुतं कर्मतिनामाभूत राहि पूर्वाणि तत्र च द्वितीयमाचायणीयानिधानमनेकवस्तु समन्वि तं पूर्वे पञ्चमं वस्तुविंशतिप्राभृतिपरिमाणं तत्र कर्मप्रकृत्यास्यं चप्रभृतं यद्वामतस्मात् प्रकरणं तम् आकृमित्यर्थः । अस्मिश्च प्रकरणे यत् किमपि स्खलितं तदनाभोगकृतजति उस्यस्यदि कृतप्रयत्नस्याप्याय कम्मपयमिरांगह " अत्र 1 रणसामर्थ्यात् नो अनाजोगादिः संभवति तत श्राभोगः संभवति आभोगजनितं यत् किमपि स्खलितं तत् शोधयित्वा श्रपनयन्तु ये वरा उत्कलितबुद्ध्यतिशयसंपन्ना दृष्टिवादशा द्वादशकाविदस्ते ममोपरि महत । मनुग्रह बुद्धिमास्थाय तत्रान्यत् पद्मगमानुसारि प्रविष्य कथयन्तु यथेदमंत्र पदं समीचीनं नेदमिति । न पुनरुपेक्कारूपोऽप्रसादस्तैः कर्त्तव्यः। इयमत्र भावना । कम्मपयम उ " इत्यादिना प्रत्थेन प्रकरणस्य सर्वच न्मूलता ख्यापिता द्रष्टव्या । दृष्टवादो हि जगवता साकादर्थतोऽभिहितः सूत्रेण वस्तुतस्तु सुधर्मस्वामिना दृष्टिवादान्तर्गतं च कर्मप्रकृतिभूतं तस्मादपिपास विन्मूलम् । इह शास्त्रस्यादौ मध्ये अवसाने च मङ्गलमवश्यम भिधातव्यम् आदिमा हामध्ये परिमा शिनियति मध्यमाभिधान प्रशिष्यादिपरंपरागमनेन स्थैर्यमा पर्यन्तमसाभिधानप्रभावतः पुनः शिष्यांशध्यादिभिरवचार्यमाणं तेषां चेतसि सुप्रतिष्ठितं भवति द मलम "सिर्फ समयम तु " अकरणअरणुन्नाइ श्रयोगधरे पणिवयामीति " ॥ संप्रति पुनरवसानमङ्गलमाह 1 जस्सवरसासावयव फरिमपविकसियविमलमकरणा । मिले कम्ममइले सो मे सरणं महावीरो ॥ यस्य भगवतो महावीरस्य वरमनुत्तरं यत् शासनं तदवयवसंस्पर्शात् प्रकर्षेण विकसिता उद्बोधं गता विमला अपगतमिथ्याज्ञानत्त्वरूपमला मतिकिरणा मतिरेय किरणास्ते कर्ममालिनः कर्मनो मलीमसान् श्रसुमतो विमलयन्ति विमलीकुर्वन्ति स भगवान् महावीरो धर्द्धमानस्वामी मे मम संसारभयनीतस्य शरणं परिवादेर्माय । कर्मजगतो अनुबन्ध कलेशाय वृक्षपापरीतः । क्षयाय तस्योपदिदेश रत्न-त्रयं स जीयाज्जिनवर्कमानः ॥ निरस्तवान्तं सत्पदार्थकम्। नित्योदयं नमस्कुम जैन सिकान्त भाकरम् ॥ पूर्वान्तर्गनकर्मकृपेन तिरियमधिमनः नावा ततः सेा विषमार्थयुक्ता, काव्यशास्त्रार्थकृत तथापि सम्यग्गुरुसंप्रदायात्, किंचित् स्फुटार्थी विवृता मयैषा ॥ ४ ॥ कर्मप्रकृतिनिधानं, बह्नर्थे येन मादृशां योग्यम् । चक्रे परोपकृतये, श्रीचूर्णिकृते नमस्तस्मै ॥ ५ ॥ एनाम तिगम्भीरां, कर्मप्रकृति विवृएवता कुशलम् । यदवापि मलयगिरिणा सिद्धिं तेनाश्नुतां लांकः ॥ ६ ॥ श्रन्तो मङ्गलं मे स्युः सिद्धाश्च मम मङ्गलम् । मङ्गलं साधवः सम्यग्जैनो धर्मोऽस्तु मङ्गलम् ॥ ७ ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचिता कर्मप्रकृतिटीका समाप्ता क० प्र० । आग्रायणीयाभिधानद्वितीयपूर्वस्य पदमवस्तुसत्तु प्रा. घृत, क० प्र० । कम्मपयडिसंगह - कर्मप्रकृतिसंग्रह - पुं० कर्मप्रकृतिलक्षणस्य प्र न्यस्य बन्धविधिलकणस्यार्थाधिकारस्य संग्रहो यत्र स तथा पञ्चसंग्रह ग्रन्थस्य पञ्चमाधिकारे, पंसं० संप्रति कर्मप्रकृतिसंप्रदोमेघातयः कर्मप्रकृतिश्च शास्त्रान्तरं महाततो Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मपगडिसंगह न मारयमेोमः स्वमतिप्रभावतः संग्रहीतुं शक्यते किन्तु कर्मप्रकृतिमानृताभिधशास्त्रार्थ पारगामिविशिष्टतधरोपदेशपा पतस्ततोऽवश्यमिह ते नमस्करणीया इति । पं० सं० | ते भ्यो नमस्कारं प्राक्तनप्रन्येन सह वक्ष्यमाणग्रन्थस्य संबन्धं च प्रतिपिपादयिषुरिदमाह । कम्मभूमग 1 द्योतयन्तीति तेषां तथात्वम् । यथोक्तं हरिणा "क्रियाया द्योतको नार्य, सम्बन्धस्य न वाचकः । नापि क्रियापदाक्षेपी, सम्बन्धरय तु भेदकः" इति " अधिपरी अनर्थकावित्यादेस्तद्द्योतकत्वाभावेऽपि योग्यतया तथात्वम् वाच० । कम्मप्पसंग - कर्मप्रसङ्ग-पुं० कर्म एयभ्यासे, श्रा०म० द्वि० । कम्पष्पमंगसरा- कर्मप्रसक्त-भिकर्मकृप्याद्यनेकप्रकार तस्य सोऽनुष्ठानं तत्र प्रस्तावितः । कृष्यादिकर्मनिरते, चाचा० १ ० १ ० ६ ० । नमिक सुयहणं, बोच्चं करणाणि वंधणाई णि । संकमकरणं बहुसो, दिसियं उदयमंतं जं ॥ मत्वामृतधरेभ्यः सकलभूतमहार्णयपारगामिन्यः शयनादिनिषेडुलमिति सूत्रेण संप्रदानसंज्ञायां चतुर्थी यथा पत्ये शेते प्रणम्य शाखेषु गरी चतुर्थी "विमीयन श्रचचत्थिति" प्राकृतलक्षणा षष्ठी श्रुतधरेज्यो नत्था किमित्याह करणानि वीर्यविशेषरूपाणि बन्धनादीनिबन्धनसंकमणोनापवर्तनो दीरणोपशमनानिधत्तनिकाचनारूपाणि पं०सं६६ पत्र. कम्मपवासय-कर्मस्थापनाशन० कर्मस्थापनातिपादनपरे भगवत्या एकोनत्रिंशत्तमे शते भ० १० श० । ( श्रत्रत्या वक्तव्यता बंभ शब्दे ) कम्पपरिकर्मपरिहाखी० कर्मकारापरिज्ञाने'फारसा परिमादादति" इति परिक्षा" कर्मबन्धोदय सत्कर्मताविधानतः परिज्ञाय सर्वशः सर्वैः प्रकारैः कुशलाः प्रत्याख्यानपरिज्ञामुदादरन्ति यदि वा मूलोतग्रहकारैः सर्वैः परिवेति मूलकारा असे उत्तरप्रतिप्रका अपरं तम्यनुभागप्रदेशकारदिदान्यसत्कार का परिहा तिजारे ४० "कम्मभूमियाओ पारसविकम्पनु कर्माज्युदय पुं० ज्ञानावरचा कर्मणामयुधाताओं जा पंच भरहे पंच परवसु च महावि दये, "कर्माभ्युदयो भावोपसर्ग इति " सूत्र० १ ३श्र०१उ० । देहेसु " जी० ३ प्रति० । कम्पजारियता कर्मचारिकता श्री० भारोऽस्ति येषां तानि कम्पपरिसारणा कर्मपरिशाटना ०६० कानावरणादीभारिकता कर्मणी भारिकता कर्मभारिकता । नां कर्मणां जीवप्रदेशेभ्यः पृथक्करणे, सूत्र० १ श्रु० १ अ० । कर्मणो भारे, भ० ६ श० ३३ उ० । कम्पपादय कर्मपादप-पुं० पायथा सर्व कम्यपग-कर्मभूमक पुं० कर्म कृषिवाणिज्यादिमानं पादपानांमी प्रतितानि एवं कर्मपादपानसरे या कर्मप्रधान भूमि त्यसमासान्तो कायरूपाणि मूलानि प्रतिष्टितानि । आचा० १० २ ० १ ० । स्थयः । कर्ममा एच कर्मभूमकाः । कर्मभूमिजेषु मनुष्येषु प्रज्ञा० १ पद । जी० ० ० ० । कम्मपुरिस-कर्मपुरुष कर्मानुष्ठानंाना पुरुषः कर्मपुरु कम्पबंध - कर्मवन्ध-पुं० ति कर्महानादरणीयादिसणं तस्य बन्धः । कर्मणो विशिष्टरचनयाऽऽत्मनि स्थापने, कर्मला arssत्मनो बन्धः श्रात्मनः स्वस्वरूपतिरस्करणलक्षणे कर्मशा बन्ध, भाव० ३ श्र० । श्रा० चू० । ज्ञानावरणीयाद्युपश्लेषे, जीवानु० । ( श्रविज्ञानाद्युपचितस्य चतुर्विधकर्मणो बन्धचिन्ता कम्मशब्दे ता प्रतिपादिरूपादे वरमिह विवेदस्य हरिविजयसूरिकृतमुतरम्यया कस्य विज्ञानतोऽनिनिचिदस्य संसारवृद्धिहेतुः कर्मध यानुतानभिनिविष्टस्य मानुयायियों वाऽजानतइति प्र उत्तरमाह अत्र व्यवहारेण जानतः कर्मबन्धो भूयानित्यवसीयते । तथा कश्चिदजानन् हिंसादिना कर्म चिनोति कश्चिन्तु जानन् इत्यनयोः कस्य कर्मबन्धदार्व्यमिति प्रश्न उत्तरमाह अत्र उ प्रयोरपि कोधादिपरिणामस्या फर्म दमन्दम्बे तु मन्दत्वं भवति । ई० । 1 - - कर्ममा ः । कर्मकारादिके, सूत्र० १ ० ४ श्र० १० । कर्माणि - महारम्भसंपाद्यानि नरकावुष्कादीनि सद्जैनपरः पुरुषः कर्मपुरुषः समपुरुषदे, "कम्मरसा वासुदेवा"कर्म ( ३३५) अभिधानराजेन्द्रः । - - I ब्दाभिधेयाः वासुदेवादयः स्था० ३ aro | कम्मपना कर्मवादन कर्महानादरणीयादिकमप्रकारे सत्यकथै प्रकृतिस्थिनाप्रदेशादिभिः समरतीति कर्मप्रवादम नं० । ज्ञानावरणादिकमष्टविधं कर्म प्रकृतिस्थित्यनुभाग देशादिनिनंदेरी सरोसर मे तत्कर्मप्रचादम । अमेरिका को तिश्च सहस्राणि स० २०० पत्र | नं०। द० । स्था० । “कम्मप्पवापुव्यस्स णं वीसं वत्थू पत्ता " स० । विशे० । कम्पप्पवयणिज्ज - कर्मप्रवचनीय- पुं० कर्म क्रियां प्रोक्तवान् इति कर्मप्रवचनीयः । कर्त्तरि जुते चानीयर् । कर्मप्रवचनीया इत्यधिकृत्य पाणिन्युक्ते अन्यादिषु शब्देषु, ते हि संप्रतिक्रियांन कतिपयन्ति किन्तु यानिपितसम्बन्धविशेषं - सम्प्रति कर्मभूमिकप्रकृतिप्रतिपादनार्थमाह । १ से किं तं कम्ममा कम्मभूमना पसारसविता पा तंजा पंचहिं जरदेहिं पंचहिं एवएहिं पंचहि महाविदेहो । ते समासो दुबिहा पछता तंजहा श्रायरिया य मिलक्खू य ॥ ( सेकितमित्यादि) अथ के ते कर्म्मभूमिकाः सूरिराह । कर्मभूमिकाः पञ्चदशविधाः प्रज्ञप्तास्तच्च पञ्चदशविधकत्वं क्षेत्रनेदात् तथाचार | "पंच जरतेहि" इत्यादि पञ्चनिर्भरतैः पञ्चभिरैनिर्माविभिद्यमानाः पञ्चदशविधा भवति च पञ्चदशविधाः समासतो द्विधा प्रमास्तद्यथा श्रार्या म्लेच्छाश्च । तत्रारात् हेयधर्मे ज्यो याताः प्राप्ता उपादेयधरित्यायः पृषोदरादय इति रूपनिष्पत्तिः । म्लेच्छा अव्यक्तभाषासमा चारा म्लेच्छ अव्यक्तायां वाचि इति वचनात् जाषाग्रहणं चोपलक्षणं तेन शिष्टासम्मतसकलव्यवहारा म्लेच्छा इति प्रतिपक्षव्यम् । प्रा० १ पद. । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४०) कम्मनमि अभिधानराजेन्द्रः । कम्मया कम्मनूमि-कर्मचामि- स्त्री० कृषिवाणिज्यतपःसंयमानुष्टानादि- कर्मजं शरीरमिति । अत एवैतदन्यत्र कार्मणमित्युक्तम् । कर्मणो कर्मप्रधाना भूमयः कर्ममयः । भरतपञ्चकैरवतपञ्चकमहाधि। विकारः कार्मणमिति तथा चोक्तम् । देहपञ्चकमवणासु नूमिषु, नं० । भ० । प्रज्ञा० । पञ्चदशकम- कम्मविगारो कम्मण-मट्टविचितकम्मनिप्पन्न । भूमयो यत्र तीर्थकरादय नत्पद्यन्ते प्रव० १ द्वा०। स्था। सम्बेसि सरीराणं, करिणजूनं मुणेयव्यं ॥१॥ ताः पञ्चदशैवम् ॥ अत्र (सब्वेसिमिति) सर्वेषामौदारिकादीनां शरीराणांकारजंबृदी दीवे तो कम्मतमिओ पत्ताओ तंजहानरहे ण नूतं वीजनूतं कार्मणशरीरं न खल्वामूलसमुचिन्ने भवाप श्वप्ररोहबीजभूते कर्मणि वपुषि शेषशरीरप्राचुर्नावः । इदं च एरवए महाविदेहे एवं धायसंमे दीवे पुरच्छिमछे जाव कार्मजं शरीरं जन्तोगत्यन्तरमकान्तौ साधकतमं करणं तथाहि। पुक्खरवरदीववरूपच्छिमके। कर्म नेनैव वपुषा तैजससहितेन परिकरितो जन्तुमरणदेशमपपकं भरतकेत्र जम्बूद्वीपे द्वे धातकीखएमे द्वे च पुष्करवरद्धी- हायोत्पत्तिदेशमभिसर्पति। ननु यदि नैजससहितकामणवपु:पार्क एवं भरतानि पञ्च एवं महाविदेहा ऐरवतानि च प्रत्येक परिकरितो गत्यन्तरं संक्रामति तर्हि स गच्छन् आगच्छन् वा पश्च पञ्चेति प्रय०६३ द्वा० ॥ कस्मान्न दृष्टिपथमवतरति ? उच्यते कर्मपुत्रानां चातिसूदमकाविहे णं भंते ! कम्मतमीओ पमत्तानो ? गोयमा!| तया चतुरादानियागांचरत्वात् तथाच परतीथिकैः प्रज्ञाकरपएणरसकम्मजूमीअो पम्पत्ताओ तंजहा पंच भरहाई पंच गुतरप्युक्तम् “अन्तरा भवदेहोऽपि, सूहमत्वानोपलभ्यते । निकामन प्रविशन्चाऽपि, नानावोऽनी कणादपीति" प्रज्ञा० २१. एरवयाई पंच महाविदेहान० २०२०८००। पद. । जी॥ कर्म० । अनु० । श्राव०। कम्मनूमिग-कर्मचूमिग-पुं०कर्मभूमिजाते, प्रज्ञा० २३ पद.।। कार्भक-न० कर्मपरमाणुकेषु भवं कार्मकम् । कार्मणशरीरे, ककम्मनूमिगपलिभागि ( ए )-कर्मभूमिप्रतिभागिन्-पुं० कर्म- | भ. ३ क० । भूमिगाः कर्मभूमिजानास्तेषां प्रतिनागः सादृश्यं तदस्याम्ती- __ कम्मगसरीरो नंते ! काविहे पाणते ? गोथमा : पंचति कर्म नूमिगप्रतिनागी । कर्म नूमिगसदृशे, कोऽसाविति चेषु. विहे पक्षात्ते तंजहा एगिदियसरीरे जाव पंचिंदियसरीरे च्यते या कर्मनूमिजा तिर्यस्त्र। गर्मिणी सती केनाप्यपहत्याकर्म नूमी मुक्ता तस्यां जातः कर्ममिगम्मदृशः । अन्ये तु एवं जहेच तेयगसरीरस्स भेदो संठाए ओगाहणा नाणिव्याचकते कर्म जूमिग एवं यदा केनाप्यकर्म तूमौ नीतो भवति या तहेव निश्वसेसं भाणियव्वं जाव आणत्तरोववाइयत्ति तदा स कर्म तमिगप्रतिभागी व्यपदिश्यते इति प्रज्ञा० २३ पद. ॥ प्रा० २१ पद.। कम्ममिय-कर्मजमिज-पुं) स्त्री० कृप्यादिकर्मप्रधाना मिः | कम्मय प्रो-कर्मकतम-श्रव्य० इह कप्रत्ययः स्वार्थिकः कर्माकर्ममिः । नरतादिका पञ्चदशधा तत्र जाताः कर्ममिजाः । प्रित्येत्यर्थे, पंचा० १ विव० । कर्म नूमिजातेषु मनुष्येषु, तेषां स्त्रीपु, स्त्री स्था० ३वा जी। कम्मय (ण) कायनोग-कार्भक(ण) काययोग-पुं० कार्मणमेव कम्ममन-कर्ममल-पुं० त्याज्यत्वेन मझोपमिते कर्मणि, " उदयं कायस्तेन योगः कार्मणकाययोगः । काययोगभेदे, कर्म. १० । अश्कम्ममलं हरजा" सूत्र०७ प्र०१ उ० । विशे० ॥ कम्मयग-कर्मजक-न० कर्मणो जातं कर्म कर्मात्मकमित्यर्थः। कम्ममत-कम-पुं० कर्माण्येव मल्लः सुन्नटः कर्ममल्लः । अ-1 तदेव कर्मजकं जाती वा स्वार्थ क इति प्राकृतलकणात कप्रशाचत्वारिंशदुत्तरप्रकृतिरूपे कर्मणि, " हंतूण कम्ममलं सिमि- त्ययः । कार्मणशरीरे, पं० सं० । पागा तु मे लछा" संथा० । कम्मय-(ण) णाम-कार्मक ( प ) नामन्-न० कार्मककम्ममास-कर्ममाम-पुं० श्रावणमासे, तत्र हि त्रिंशात्रिन्जिवा (ण) नियन्य नाम कार्मक ( प ) नाम । शरीरनामनेदे , य नितथाहि कर्मसंवत्सरस्त्रीणि शतानि षष्ट्यधिकानि तेषां द्वाद- दयात् कार्मणप्रायोग्यान पुजलानादाय कार्मणशरीररूपतया शनिहते भवति यथोक्तं कर्ममासपरिमाणम् । ज्यो०१ पाहु०।परिणमयति परिणामय्य च जीवप्रदेशः सहान्योन्यानुगमरूपतया कम्ममामय-कर्ममाषक-पुं० प्रतिमाननेदे,तत्स्वरूपं चेत्थम्। पंच संबन्धयतीति । कर्म०१ 01 गजा एकः कर्ममापकः अथवा चतस्रः काकाय पणः कर्म कम्मय(ण वग्गणा-कामक(ण)वर्गणा-स्त्री.कर्मणा नामकोत्तरमापकः । यदिवा प्रयो निष्पावका एकः कर्ममापकः । अत्र ने प्रकृत्या निर्वृत्तं कार्मणम् । झानाद्यष्टविधर्मस्वप्रायोग्यपुफलानां दो नास्ति गुजापञ्चककाकरणोचतुष्कनिष्पावत्रिकाणामेकमान गृहीतानां तत्तद्रुपेण परिणामजनकमित्यर्थः तत्र वर्गणा । शानावत्वात् प्रतिमानशब्दे सूत्रेण सटीकेन दर्शयिष्यमाणत्वात् । अनु। रणाद्यविधर्मपरिणामहेतुके दलिके, कर्म०२० [वगणास्था० श्राव०॥ शन्दे स्वरूपं वक्ष्यते ] कमाय-कर्मक-न० कर्म-स्वार्थे क-कार्मणशरीरनामकर्मोदयनिवये अशेषकर्मणां प्ररोहभूमौ अाधारस्ते संसार्यात्मना गत्य कम्मया-कर्मजा-स्त्री. अनाचार्यकं कर्म साचार्यकं शिल्पम् । अथवा कादाचित्कं शिल्पं सार्यकालिकं कर्म । कर्मणो जाताः ग्तरसंक्रमणे साधकतमे कार्मणवर्गणास्वरूपे शरीरोदे, स्था० कर्मजाः । कृषिवाणिज्यादिकान्यासपभवे बुद्धिभेदे, नं० ३५ ग०२०॥ कर्मज-न० कर्मणो जातं कर्मजम् । कार्मणशरीरे , जी० १ पत्र. । झा । अथ कर्मजाया बुद्धलक्षणमाह । प्रतिः । किमुक्तं भवति कर्मपरमाणय एवात्मप्रदेशैः सह ये क्षा नवोगदिसारा, कम्मपसंगपरिघोलणविसाला। रनारवदन्योऽन्यानुगताः सन्तः शरीररूपतया परिणमन्ते ते साहुकारफलवई, कम्मसमुत्था हव बुझी ।। ए॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४१) कम्मया भनिधानराजेन्षः। कम्मवाद (उपभोगेत्यादि ) उपयोजनमुपयोगो विवक्कितकर्मणि मन-| वा वर्णकुञ्चिकया गृह्णाति यावन्मात्रे प्रयोजनमिति । उता सोऽनिनिवेशः सारस्तस्यैव विवक्तितकर्मणः परमार्थः उप-| कर्मजा बुद्धिः । नं0 ३६ पत्र. । श्रा० क० । प्रा० म०बि० । योगन दृष्टः सारो यया सा उपयोगटसारा । अभिनिवेशाप- कम्मरय-कर्मरजस-न० कर्म शानावरणाचटप्रकारं तदेव जीलम्भकर्मपरमार्था इत्यर्थः । तथा कर्मणि प्रसङ्गोऽज्यासः परिघोलनं विचार: ताज्यां विशामा विस्तारमुपगता कर्मप्र वस्य गुण्डनेन मालिन्यापादनाद्रजो भरायते नं०। आत्मरसापरिघोलनविशाला । तथा साधु कृतं सुष्ठ कृतमिति विद्वद्भयः जनाद्रजउपमिते कर्मणि, दश० ४ ० । प्रशंसा साधुकारस्तेन युक्तं फलं साधुकारफलं तद्वति साधु कम्मरितु-कर्मरिपु-पुं० रिपुत्वोपमिते कर्मणि, "कम्मरिषुजकारपुरःसरं चेतनादिलानरूपं तस्वाः फलमित्यर्थः । सा तथा एण सामाइयं लब्भति" श्रा० चू० १ अ०। कर्मसमुत्था भवति बुभिः ।। कम्मलाघव-कर्मलाघव-न० भावतो लाघवे, प्राचा०१० अस्या विनेयजनानुग्रहाय उदाहरणैः स्वरूपं दर्शयति ॥ ६ श्र० ३ उ०। हेरनिए कारिसए, कोलिय मोवे य मुत्तिघयपवए । कम्मलेस्सा-कमलेश्या-कर्मणः सकाशाद्या लेश्या जीवपरितुम्नायवइ पूइ-ए य घडचित्तकारे य ॥१०॥ णतिः सा कर्मलेश्या । भ० १४ श. १ उ० । कर्मणो योग्या "होरणि" इत्यादी षष्ठव्यर्थे सप्तम। ततोऽयमों (हिरमिति)| लेश्या कृष्णादिका कर्मलेश्या (श्लिष श्लेषणे ) इति वचनात् हैरएयकस्य कर्मजा बुद्धिः । एवं सर्वत्रापि योजना कार्या । कृष्णादिलेश्यायाम्, भ०१४ श० उ० । भावलेश्यायाम, हैरण्यको हि स्वविज्ञानप्रकर्षप्राप्तोऽन्धकारेऽपि हस्तस्पर्शवि- भ० १४ श० १ उ०। शेषेण रूपकं यथावस्थित परीक्षते (करिसगेत्ति) अत्रोदाहर-1 र कम्मव-नप-नुज्-धा० श्रात्म० रुधादि-उपभोगे, " वोपेन णम् । कोऽपि तस्करो रात्रौ वणिजो गृहे पद्माकारं स्वातं खातवान् । ततः प्रातरलक्वितः तस्मिन्नेव गृहे समागत्य जनेभ्यः कम्मवः मा४।११ उपेन युक्तस्य भुजेः कम्मव इत्यादेशो वाभप्रशंसामाकायति तत्रैकः कर्षकोऽब्रवीत् किं नाम शिक्षितस्य पति । कम्मवइ उपहुंजइ उपभुड़े। उपभोगं करोति प्रा०। दुष्करत्वं यद्येन सदैवाभ्यस्तं कर्म स तत्पकर्ष प्राप्तं करोति कम्मवणविनावसु-कर्मवनविभावसु-पुं० कर्मवनस्य भानावनात्र विस्मयः । ततः स तस्कर एतद्वाक्यममर्षवैश्वानरसंधु रणादिसमुदायरूपस्य विभावसुरिवाग्निरिव तद्दाहकत्वेन । कणसममाकएर्य जज्वाल कोपेन । ततः प्रवान् कमपि पा कर्मक्षपणहेती केवलिप्रझते धर्मे, सू० प्र०१ पाहु०। कोऽयं कस्य वासक इति ज्ञात्वा तमन्यदारिकामाकृष्य गतः।। कम्मवाइ (ण) कमवादिनक्षेत्रे तस्य पार्श्वे रे मारयामि त्वां सम्प्रति । तेनोक्तं किमिति | वदितुं शीलमस्य । कर्मणो जगद्वैचित्र्यवादिनि, यतो हि प्रा. सोऽवादीत तत्त्वया तदानीं मम खातं न प्रशंसितमिति कृत्वा, णिनो मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगैः पूर्व गत्यादियोसोऽब्रवीत्सत्यमेतत् यो यस्मिन् कर्मणि सदैवान्यासपरः स ग्यानि काण्याददते पश्चात्तासु तासु विरूपरूपासु योनिषु तद्विषय प्रकर्षवान् भवति । तत्राहमेव दृष्टान्तः । तथा ह्यमून् उत्पद्यन्ते कर्म च प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशात्मकमवसेयमिति । मुमान हस्तगतान् यदि जणसि तर्हि सर्यानप्यधोमुखान पातयामि अनेन च कालयदृच्छानियतीश्वरात्मवादिनो निरस्ता द्रष्टव्याः पद्वा ऊर्फमुखान् अथवा पार्श्वस्थितान् इति । ततः सोऽधिकतरं श्राचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। विस्मितचेताः प्राह । पातय सर्वानप्यधोमुखान् इति विस्तारितो अस्य मतम् । जन्मान्तरोपात्तमिष्टानिष्टफलदं कर्म सर्वजगभूमौ पटः पातिताः सर्वेऽप्यधोमुखाःमदाजातो महान्विस्मयः द्वैचित्र्यकारणमिति कर्मवादिनस्तथा चाहुः " यथा यथा चोरस्य प्रशसितं नूयो नूयस्तस्य कौशलमहो विज्ञानमिति वदति पूर्वकृतस्य कर्मणः, फलं निधानस्थमिवावतिष्ठते । तथा चौरः। यदि नाधोमुखाः पातिताः अभविष्यन् ततो नियमात् तथा तत्प्रतिपादनोद्यता, प्रदीपहस्तेव मतिः प्रवर्तते" तथा त्वामहममारयिष्यमिति कर्षकस्य चोरस्य च कर्मजा बुद्धिः। च " स्वकर्मणा युक्त एव, सर्वो हृत्पद्यते नरः । स तथा (कोलियत्ति) कौलिकस्तन्तुवायः स मुटचा तन्तूनादाय कृष्यते तेन, यथाऽयं स्वयमिच्छति” तथाहि समानमीजानाति एतावद्भिः कण्डकैः पटो भविष्यति (डोएत्ति)। हमानानां समानदेशकालकुलाकारादिमतामर्थप्राप्त्यप्राप्तिना दर्वी वकिर्जानाति एतावदत्र मास्यतीति (मुत्तित्ति ) म- निमित्तेऽप्यनिमित्तस्य देशादिना प्रतिनियमायोगात् । न व णिकारो मौक्तिकमाकाशे प्रक्षिप्य सूकरवालं तथा धारयति परिदृश्यमानकारणप्रभवस्तस्य समानतयोपलम्नानचैकरूपयथा पततो मौक्तिकस्य रन्ध्रे स प्रविशतीति (घयत्ति) घु- स्वकार्यभदस्तस्याहतुकत्वप्रशक्तेरहेतुकत्ये च तस्य कार्यस्यातविक्रयी स्वविज्ञानप्रकर्षप्राप्तो यदि रोचते तर्हि शकटेऽपि | पि तद्पतापत्तेः । भेदाच्चेदव्यतिरिक्तस्य तस्यासत्वात् ततो स्थितोऽधस्तात् कुण्डिकानालेऽपि घृतं प्रक्षिपति (पवयत्ति) यनिमित्ते पते तद्दष्टकारणव्यतिरिक्तमदृष्टकारणं कर्मेति । असप्लवकः स चाकाशस्थितानि करचरणानि कराति (तुणगत्ति) देतत् कुलालादेर्घटादिकारणत्वेनाध्यक्तः प्रतीयमानस्य परिसीवनकर्मकी स च स्वविज्ञानप्रकर्षप्राप्तस्तथा सीवति यथा हारेण परादृष्टकारणप्रकल्पनया तत्परिहारेण पराइष्टकारणकप्रायो न केनापि लक्ष्यते (वइत्ति )वर्द्धकिः सच स्वविक्षा- ल्पनया अनवस्थाप्रसङ्गतः क्वचिदपिकारणप्रतिनियमानुपपत्तेः। नप्रकर्षप्राप्तोऽमित्वाऽपि देवकुलरथादीनां प्रमाणं जानाति नच स्वतन्त्रं कर्मवैचित्र्यं कारणमुपपद्यते तस्य कर्बधीनत्वात् । (पूइयत्ति) श्रापिकः स चामित्वाऽप्यपूपानां दलस्य मानं नचैकस्वभावात् ततो जगद्वैचित्र्यमुपपत्तिमत्कारणवैचित्र्यमजानाति (घमत्ति) घटकारः स्वविज्ञानप्रकर्षप्राप्तः प्रथमतः न्तरेण कार्यवैचित्र्यायोगात् । वैचित्र्ये वा तदेककार्यताप्रच्युतेप्रमाणयुक्तां मृदं गृह्णाति (चित्तकारत्ति) चित्रकरः स च रनेकस्वभावत्वे च कर्मणो नाममात्रनिबन्धनैव विप्रतिपत्तिः। कपकतूलिकाममित्वाऽपि रूपकप्रमाणं जानाति तावम्मान प.पकासरचनावादेरपि जगद्वैचित्र्यकारणत्वेनार्थताऽभ्युपग Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४२ ) अभिधानराजेन्द्रः । कम्मवाइ मात् नच तेन चेतनवताऽनघिष्ठितमचेतनत्वाद्वास्यादिवत् वर्तते अथ सहायक पुरुषो न र्दिकर्मकान्ला दः पुरुषस्य तदधिष्ठायकत्वेन जगद्वैचित्र्यकारणत्वोपपत्तेः नच केवल किंचिद्वस्तु नित्यानित्यं साकार्यकृत् संवत्स पादित कर्मकान्तवादोऽपि सुसंगतः सम्म नत्री० १८४ पत्र. सूत्र० ॥ कम्मवावार - कर्मव्यापार-पुं० श्रज्ञानादिजनकज्ञानावरणादिलकणसामर्थ्य, पञ्चा० ३ विव० । कम्पवाहिकिरिया - कर्मव्याधिक्रिया- स्त्री० कर्मरोगचिकित्सायामू, इय कम्मवाहिकिरियं वज्रं भावश्र पवारस " पंचा१६ विव० । 66 कम्पनिस्सरण कर्मयुत्सर्ग-पुं० ज्ञानावरणादिकर्मातून ज्ञानप्रत्यनीकत्वादीनां त्यागे, भ० २५ २०७०। तदा यथा । से किं तं कम्म विस्सगे ? कम्मचिस्सगे अडविले पम्मत्ते तंजहा पाणावर णिज्जकम्मविनस्मग्गे दरिसणावरणिकम्मवि अग्रकम्मविसग्गे मोहणीकम्पनि आउकम्मविउ नामकम्पविद्य सग्गे गोप्रकम्मविनस्सग्गे अंतरायकम्मविसग्गे सेतं कम्पferari | कम्मविपकर्मगति-श्री० अनुमान कर्मणां स्थितिमाथि त्यविगमे, भ० श० ३२ उ० । कम्मविवाग-कर्म विपाक ०६त्मक कर्मणा फले, स० । स्था० । सव्वो पुव्यकया, कम्मा पावर फलविवागं । श्रवराहेसु गुणेसु य, निमित्तमित्तं परो होइ" सूत्र०१ श्रु० १२ ० ( किरियाबारशब्दे व्याख्यास्यामि ) पुनरपिनाय प्राणियां संसारनिद्वैम्पो 66 स्पस्यर्थमभिचित्कामा तं सुह जहा तहा संति पाणा अंधा तमसि वियाहिया तामेव सयं असयं अतिजन्त्र उच्चावए फासे पडि संवेदेति एवं पवेदितं । संति पाए। पासमा रसगा द‍ उदयचरा आगासगामिधो पाणापाणे किलेसंति पासलोए महज हुक्खा हु जेतवो सत्ताका मारावा - लेणवहं गच्छति सरीरेण भंगुरेणं अड्डे से क्ले इति वाले पति एते रोगे वहु मा अउरा पारितावरणाल पास त तेहिं एवं पासमुखी महब्भयं णातिवातेज्ज कंच आवाज समो (समयादि) पिकं यथावस्थितं तथैवमावेदयतः शृत यूयं तद्यथा नारकतिर्यग्नरामरलक्षणाश्चतस्रो गतस्तत्र नरकगतौ चत्वारो योनिलाः पञ्चविंशतिकुल कोटिल कास्त्रयस्त्रिशत्सागरोपमायुत्कृष्टा स्थितिर्वेदनाश्च परमाधार्मिकपरस्परोदीरितस्वानाविकःखानां नारकाणां या नवन्ति ता वाचामगोचराः । यद्यपि लेशतश्चिकथयिषोरनिधेयविषयं न वागवतरति तथापि कर्मविपाकावेदनेन प्राणिनां चैराग्यं यथा स्यादित्येवमर्थः इलोकैरेव किंचिदभिधीयते । कम्मविवाग "श्रवणलवनं नेत्रोद्धारः करक्रमपाटनम् । हृदयदहनं नासाच्छेदप्रतिक्षणदारुणम् ॥ कालविभेदनम | नवदने परैः समन्तभक्षणम् ॥ तीक्ष्णैरसिद्भिर्दतैः कुन्तैर्वियमैः परस्वधैश्वकैः । परशुत्रिशू प्रभुभर तोमरवासी एमी जिः ॥ संज्ञितताशिरखा-चिनजानकर्णनासौष्ठाः । नियोनि ॥ निपतन्त चत्पतन्तो, विचेष्टमाना महीतले दीनाः । नेते चातारं नैरविकाः कपटसन्धाः ॥ विरूपणाः कृतान्त परशोस्तीक्ष्णेन धारासिना, कन्दन्तो विषचत्रिभिः परिवृताः संभणण्यावृतिः । पादादत्रियाः, कुम्भीषु जपानद्यतनयो पास्वान्तर्गताः । भृज्यन्ते ज्वलदरी हुनपाला भिराराविनो दीप्ताङ्गारनिभेषु वज्रभवनेष्वङ्गार केषुत्थिताः । दन्तेदिन्द पश्यन्तः कृपणा दिशो विशरणास्त्राणाय को नो भवेदिति” वृधातून सोनला द्वादश कु लकोटीलाः स्वकायपर का यशस्त्राणि शीतोष्णादिका वेदनाः । तथाsकायस्यापि सप्त योनिलक्काः सप्त च कुलकोटिका वेदना अपि नानारूपा एव । तथा तेजस्कायस्य सप्त योनिलक्षास्त्रयः कुलको पूर्ववदनादिकमायो सम सप्त च कुल कोटिल का वेदना अपि शीतोष्णादिजनिता नानारूप एव प्रत्येक वनस्पदंश पोनिला साधनस्तु देश उभयरूपस्यास्थास्तच गतोऽस माननन्तमपि कालं दनदनमोटनादिजनिता नानारूपा वेदना अनुभवन्नास्ते । विकलेन्द्रियाणामपि द्वौ द्वौ योनिल कुलकोयस्तु द्वीन्द्रियाणां सप्त, श्रीन्द्रियाणामष्टौ चतुरिन्द्रयाणां नव दुःखं तु सीतोष्णादिजनितमनेकपा मिति पतिराम चारो योनिलाः करकोटिवास्तु जलचराणामत्रयादेश पत्रिणां द्वादश, चतुष्पदान दश, उर:परिसर्पाणां दश, भुजपरिसर्पाणां नव, वेदनाश्च नानारूपा यास्तिरां संभवन्ति ताः प्रत्यक्का एवेति । उक्तं च "लुञ्जि हिमायुष्णभवादितानां पराभियोगव्यसनातुराणाम अहो नियामतिदुःखितानां सुखानु कल वामेन "दिव्यादि मनुष्यगतावपि चतुर्दश योनित्रका द्वादश कुलकोटलका वेदनामदेवजूता इति । दुःखं स्त्री कुचिमध्ये प्रथममिह नवे गर्भवाले नराणां, वालय पानमिश्रम् । तथापि दुःखं भवति ययसारः, संसारे रे मनुष्यादि । यायाव्यतिरोगेोऽमृत्युः । शोकवियोगायोग कुन हिमोष्णा निलशीतदादा- प्रियादियोगैः प्रियविप्रयोगैः । सीवाननिजादास्य यरोगादिनिरतः इत्यादि पिचा योनिः शितिः कुछकोटिलास्वापयामासरच्यवनभयशस्व नमनसःखानुषङ्ग एवं सुबाभासाभिमानस्तु केवमित्युकं च "देवेषु च्यवनवियोगडुःखितेषु, कोपर्यामदमदनानिपाति Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४३) कम्मविवाग मभिधानराजेन्मः। कम्मविवागदसा तेषु । आर्या नस्तदिह विचार्य संगिरन्तु, यत्सौख्यं किमाप नि- शमं विधातुम् । यद्येवं ततः किं कर्तव्यमिति दर्शयति । अलं वेदनीयमस्ती" त्यादि तदेवं चतुर्गतिपतिताः संसारिणो मा पर्याप्तं तव सदसद्विवेकिन एभिः पापोपादानभूतैश्चिकित्सानारूपं कर्मविपाकमनुजवन्तीत्येतदेव सूत्रेण दर्शयितुमाह । विधिभिरिति । किच " एवं इत्यादि " एतत्प्राण्युपमर्दादिकं ( संतिपाणा इत्यादि ) सन्ति विद्यन्ते प्राणाः प्राणिनो वा चक्कु- पश्यावधारय हमुने! जगत्रयस्वभाववेदिन् ! महहद्भयहे. सिन्डियविकला जावान्धा आपि सदसद्विवेकविकलास्तमस्यन्ध- तुत्वाद्भयम् यद्येवम् । ततः किं कुर्यादिति दर्शयति नातिकारे नरकगत्यादी भावान्धकारेऽपि च मिथ्यात्वाविरतिप्रमाद- पातयेन्न हन्यात्कंचन प्राणिनं यत एकस्मिन्नपि प्राणिनि कषायादिके कर्मविपाकापादिते व्यवस्थिताः। किश्च व्याख्या- हन्यमानेऽष्टप्रकारमपि कर्म बध्यते तच्चानुत्तरसंसारगतामेव इत्यादि तामेवावस्थां कुष्ठाद्यापादितामेकोन्डियापर्याप्त- मनायेत्यतो महाजयमिति । यदि वा " एए रोगे बहु णचे" कादिकां वा सकृदनुनूय कर्मोदये तामेवासकृदनेकशोऽतिग- त्यादिको ग्रन्थः कामानधिकृत्य ज्ञेयः । एतान् रोगरूपान् त्योच्चावचांस्तीवमन्दान् स्पर्शान् दुःखविशेषान् प्रतिसंवेदय कामान् बहून् ज्ञात्वा आसेवनाप्रझयेत्यातुराः कामेच्छान्धा न्स्यनुन्नवत्येतच तीर्थकृद्भिरावेदितमित्याह "बुझोहिं इत्यादि " अपरान् प्राणिनः परितापयेयुरित्यादिना प्रक्रमेणेति आचा) बुढेस्तीर्थकृद्भिरतदनन्तरोक्तं प्रकर्षणादौचाऽऽवेदितमेतञ्च वक्ष्य- १ श्रु० ६ ० १ ० । अष्ट० । झानावरणादिकर्मणां तत्तदामाणं प्रवेदितमित्याह"संतीत्यादि"सन्ति विद्यन्ते प्राणाःप्राणिनो वरणःखदायकत्वनक्कणे विपाके, दर्श० " पयइहिडप्पावासका वास शब्दकुत्सायां वासन्तीति वासकाः । भाषाल- सा-भावनिन्नं सुहासुहविरसं । जोगापुनावजणिअं, कब्धिसंपन्ना द्वीन्द्रियादयस्तथा रसमनुगच्छन्तीति रसगाः कटु-1 म्मविवागं विचितिज्जा" आव०४ अ०(काण शब्दे व्यास्या) तितकषायादिरसवेदिनः संझिन इत्यर्थः इत्येवं नृतः कर्मवि. कर्मणां झानावरणादीनां विपाकोऽनुभवः कर्मविपाकः । कर्मपाकः संसारिणा संप्रेक्ष्य इति संबन्धस्तथा “नदये इत्यादि" विपाकप्रतिपादके प्रथमे कर्मग्रन्थे, "दिनेशवद्ध्यानवरप्रतापैरनउदके नदकरूपा पवैकेन्डिया जन्तवः पर्याप्तकापर्यप्तक-] न्तकाबप्रचितं समन्तात् । योऽशोषयत्कर्मविपाकपत देवो मुदे भेदेन व्यवस्थिताः । तथोदके चरन्तीत्युदकचराः पुतर- वोऽस्तु स वर्षमानः ॥१|ज्ञानादिगुणगुरूणां, धर्मगुरूणां प्रणम्य कच्छेदनकलोणकत्रसमत्स्यकच्चपादयः । तथा स्थलजा पदकलम । कर्मविपाके विवृति, स्मृतिबीजधिवृकये विदधे ।। अपि केचन जलाश्रिता महोरगादयः पक्षिणश्च केचन तम्त- तत्रादावेवाभीष्टदेवतास्तुत्यादिप्रतिपादिकामिमां गाथामाह । दृष्टयो द्रष्टव्याः । अपरे त्वाकाशगामिनः पक्षिण इत्येवं सिरिवीरजिणं वंदिअ, कम्मविवागं समासो वुच्छं। सर्वेऽपि प्राणाः प्राणिनो परान् प्राणिन श्राहाराद्यर्थ मत्सरा कीरइ जिएणहे उहि, जेणं तो जन्नए कम्मं ॥१॥ दिना वा क्लेशयन्त्युपतापयन्ति । यद्येवं ततः किमित्यत आह श्रिया सकलत्रिनुवनजनमनश्चमरकारकारि मनोहारि परमा"पास इत्यादि " पश्यावधारय लोके चतुर्दशरज्ज्वात्मके हत्यमहामहिमविस्तारि " अशोकवृतः१ सुरपुष्पवृष्टि, २.र्दिकम्मेविपाकात्सकाशान्महद्भयं नानागतिदुःखक्लेशविपाका व्यो ध्वनि ३ श्चामर ४ मासनं च ५। भामएमलं ६ उन्मुभि ७ स्मकमिति किमिति कर्मविपाकात्मकं महद्भयमित्याह “बहू रातपत्र ८ सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणामिति" स्पष्टाष्टप्रातिहाइत्यादि" बहूनि दुःखानि कर्मविपाकापादितानि येषां जन्तूनां यशोजया चतुस्त्रिंशदतिशयविनूत्या वा समन्वितो वीरः श्रीते तथा हुर्यस्मादेवं तस्मात्तत्राप्रमादवताभाव्यं किमित्येवं भूयो वीरः स चासो रागद्वेषमोहप्रभृतिवैरिवारपराजयाज्जिनेश्व भूय उपदिश्यत इत्यत आह । “सत्ता इत्यादि" यस्मादना श्रीधीरजिनस्तं श्रीवीरजिनं श्रीवर्षमानस्वामिनं वन्दित्वा दिभवाभ्यासेनागणितोत्तरपरिणामाः सता गृद्धाः कामेष्वि विशुद्धमानसप्रणिधानसमन्वितेन वाग्योगेन स्तुत्वा काययोंगेन च्छामदनरूपेषु मानवाः पुरुषा इत्यतो न पुनरुक्नदोषानुषङ्गः । च प्रणम्य छुञ् स्तुत्यभिवादनयोरिति वचनात् एतेन मङ्गलाकामासक्लाश्च यदवाप्नुवन्ति तदाह "अबलण इत्यादि "ब र्थमनीटदेवतायाः स्तुतिरुक्ता क्त्वाप्रत्ययस्य चोत्तरक्रियामालरहितेन निस्सारेण तुषमुष्टिकल्पेनौदारिकेण शरीरेण प्रभ पेकत्वाऽत्तरक्रियामाह कर्मविपाकं वक्ष्ये । तत्र कर्मणां ज्ञानारेण स्वत एव भङ्गशीलेन तत्सुखाधानतया कोपचित्याऽनेकशो बधं गच्छन्ति । कः पुनरसौ विपाककटुकेषु का धरणादीनां विषाकोऽनुन्जकः कर्मविपाकस्तं कर्मविपाकं वदये मेषु यो रतिं विदध्यादित्याह "अट्टे इत्यादि " मोहोदयादा ऽनिधास्ये। अनेनाभिधेयमाह । कथमित्याह समासतः संक्तपे ण विस्तरेण पुष्पमानुभावापचीयमानमेधार्यलादिगुणानामेदं. तोऽगणितकार्याकार्यविवेकतोऽसुमान् । बहु दुःखं प्राप्तव्यमने युगीनजनानां विस्तराभिधाने सति उपकारासंभवात्तउपकारार्थ नेति बहुदुःख इत्येनं कामानुपङ्गं प्राणिनां क्लेशं याति वालो च एष शास्त्रारम्नप्रयासः । पतेन संक्तिप्तरुचिसत्वानाश्रित्य रागद्वेषाकलितः प्रकर्षण करोति प्रकरोति तजनितकर्मवि प्रयोजनमाचष्टे । संबन्धस्त्वर्थापत्तिगम्यः स चोपायोपेयल करणः पाकाचानेकशो बध गच्छति । यदि वा रोगेषु सत्सु इत्येत साध्यसाधनलकणो गुरुपर्वक्रमकणो वा स्वयमन्यूह्य इति वृदयमाणं बालोऽनः प्रकरोति तदाह “एए इत्यादि" एतान् कम्म०१ क०॥ गण्डकुष्ठराजयदमादीन् रोगान् बहनुत्पन्नानिति शात्वा तद्भगोगवेदनाया श्रातुराः सन्तश्चिकित्सायै प्राणिनः परितापये कम्मविवागदसा-कर्मविपाकदशा-स्त्री० बहुव० कर्मणोऽशुनयुावकादिपिसितासिनः किल क्षयव्याध्युपशमः स्यादि स्य विपाकः फवं कर्मविपाकस्तत्प्रतिपादिका दशा अध्ययनात्मत्यादिवाक्याकर्णनाज्जीविताशया गरीयस्यपि प्राण्युपमर्दे कत्वादशाः कर्मविपाकदशाः । विपाकश्रुताख्यस्यैकादशाङ्गस्य प्रवर्तेरझैतदवधारयेयुर्यथा स्वकृताबन्ध्यकर्मविपाकोदयारे प्रथमश्रुतस्कन्धे, द्वितीयश्रुतस्कन्धोऽप्यस्य दशाध्ययनात्मकः तत्तदुपशमाञ्चोपशमः प्राण्युपमर्दचिकित्सया च किल्विषानु-1 कर्मविपाकप्रतिपादकश्च । नचासाविहानिमतः स्थानाङ्गेऽस्या पङ्ग एवेत्येतदेवाह “णालं इत्यादि" पश्यैतद्विमलविवेकाबा विवृतत्वात् । इति । पा० । इयं विवृतिः। लोकनेन यथा नालं न समाश्चिकित्साविधयः कर्मोदयोप- कम्मविवागदसाणं दस अज्कयणा पयत्ता तंजहा । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मविवागदसा भनिधानराजेन्द्रः। कम्मविसद्धि मियापुत्ते य गुत्तासे, अंमे सगमे इयावरे ।। सुतो दन्दिषेणो युवराजो विपाकश्रुते च नन्दिवर्कनः श्रूयते स माहणे नंदिसेणे य, सूरिए य जदुंबरे ॥१॥ च राजद्रोदव्यातकरे राज्ञा नगरचत्वरे तप्तस्य सोहस्य द्रवेण स्नानं तद्विधसिंहासनोपवेशनं क्षारतैमनृतकलशै राज्यानिधेसहमुद्दाहे आमलए, कुमारे लेच्छईतिय ।। कश्च कारयित्वा कष्टमारण परासुतान्नीतो मरकमगमत् । स (मिगेत्यादि ) श्लोकः सार्बः मृगा मृगग्रामाभिधाननगर-| च जन्मान्तरे सिंहपुरनगरराजस्य सिंहरथाभिधानस्य दुर्योधराजस्य विजयनाम्नो भार्या तस्याः पुत्रो मृगापुत्रस्तत्र किल ननामा गुप्तिपालो बनूव । अनेकविधयातनानिर्जनं कदर्थयित्वा नगरे महावीरो गौतमेन समवसरणागतं जात्यन्धं नरमवसो- मृतो नरकं गतवानित्येवमर्थ षष्ठमिति ॥६॥ (सोरियाले) सौरिक्य पृष्ठो भदन्तान्योऽपीहास्ति जात्यन्धो जगास्तं मृगापुत्रं कदत्तो नाम्ना मत्स्यबन्धपुत्रःसच मत्स्यमांसप्रियो गलविलम्नजात्यन्धमनाकृतिमुपदिदेश । गौतमस्तु कुतूहलेन तदर्शनार्थ | मत्स्यकण्टको महाकष्टमनुनूय मृत्वा नरकं गतः । स च जन्मातहं जगाम मृगादेवी च बन्दित्या गमनकारणं पप्रच्छ । गौ- न्तरे नन्दि पुरनगरराजस्य मित्राभिधानस्य श्रीको नाम महानतमस्तु स्वत्पुत्रदर्शनार्थमित्युवाच । ततः सा नूमिगृहस्थं तदु. सिकोऽभूत जीवघातरतिर्मासप्रियश्च मृत्वा चासौ नरकं गतबाटनतस्तं गौतमस्य दर्शितवती । गौतमस्तु तमतिघृणा- यानिति सप्तमम् ॥७॥ इदं चाध्ययनं विपाकश्रुतेऽष्टममधीतम् । स्पदं दवाऽगत्य च भगवन्तं पप्रच्छ । कोऽयं जन्मान्तरेऽभवत् (उडुंबरोत्त) पाटलीखएमे नगरे सागरदत्तसार्थवाहमुत उदुम्बप्रगवानुवाच अयं हि विजयवर्द्धमानकानिधाने खेटे मकायी- रदत्तो नाम्नाऽनूत् । सच पोमशनी रोगैरेकदाऽभिन्नतो महाकत्यभिधानो सञ्चोपचारादिभिर्कोकोपतापकारी राष्ट्रकूटो बनूव । प्टमनुनूय मृतः । स च जन्मान्तरे विजयपुरराजस्य कनकरथततः षोडशरोगातकाभिनुतो मृतो नरकं गतस्ततः पापकर्मधि- नाम्नो धन्वन्तरिनामा वैद्य आसीत् । मांसप्रियो मांसोपदेश पाकेन मृगापुत्रो लोष्टाकारोऽव्यक्तेन्छियो पुर्गन्धो जातः । ततो चेति कृत्वा नरकं गतवानित्यष्टमम् ॥७॥ (सहसुद्दाहेत्ति) सह मृत्वा नरकं गत इत्यादि तद्वक्तव्यता प्रतिपादकप्रथममध्ययन साऽकस्मादुद्दाहः प्रकृष्टो दाहः सहसोद्दाहः सहस्राणां वा सो मृगापुत्रमुक्तमिति । (गोत्तासेत्ति) गास्त्रासितवानिति गो- कस्योद्दाहः सहस्रोहाहः (श्रामपत्ति) रश्रुतेश्रुतिरित्यामरकः पासोऽयं हि हस्तिनागपुरे भीमाभिधानकूटग्राहस्योत्पलानि- सामस्त्येन मारिरवमर्थप्रतियकं नवमम् । तत्र फिल सुप्रतिष्ठे धानाया भार्यायाः पुत्रोऽभूत् । प्रसवकाले चानेन महापापस- नगरे सिंहसेनो राजा श्यामानिधानदेव्यामनुरक्तस्तद्वचनादेवत्वेनाराज्यात् गावस्त्रासिता यौवने चायं गोमांसान्यनेकधा ज- कोनानि पञ्चशतानि देवीनां तां मिमारयिष्ण ज्ञात्वा कृषितः कितवान् । ततो नारको जातस्ततो वाणिजग्रामनगरे विजय- सन तन्मातृणामेकोनपञ्चशतान्युपनिमन्य महत्यगारे श्रावास सार्थवाहभद्राभार्ययोरुज्झितकानिधानः पुत्रो जातः । स च दत्या भक्तादिग्निः सम्पूज्य विश्रब्धानि सदेवीकानि सपरिवाराकामध्वजगणिकार्थे राक्षा तिप्रशो मांसच्छेदनेन तत्स्वादनेन च णि सर्वतो द्वारबन्धनपूर्वकमग्निप्रदानेम दग्धवांस्ततोऽसौ राचतुष्पथे विझम्ब्य व्यापादितो नरकं जगामति गोत्रासवक्तव्य- जा मृत्वा षष्ठयां च गत्वा रोहीतके नगरे दत्तसार्थवाहस्य 5ताप्रतिबद्धं द्वितीयमध्ययनं गोत्रासमुच्यते । इदमेव चोज्झति- हिता देवदत्सानिधानाऽजयत् । सा च पुष्यनन्दिना राजा परिकनाम्ना विपाकश्रुते उज्झितकमुच्यते इति ॥२॥ (अंडेत्ति) णीता स च मातुर्नक्तिपरतया तत्कृत्यानि कुर्वनसानासतया च पुरिमताबनगरवास्तव्यस्य कुक्कुटाद्यनेकविधाएमजभारामव्यव- भोगविनकारिणीति तन्मातुवल ल्लोहदएकस्यापानप्रशपात्सहहारिणो वाणिजकस्य निनकाभिधानस्य पापविपाकप्रतिपाद- सा दादनबधो व्यधायि राज्ञा चासौ विविधविमम्बनाभिधिमकमण्डमिति । स च निन्नको नरकङ्गतस्तत कृतोऽजग्नसेन- म्य विनाशितेति विपाकश्रुते देवदत्तानिधानं नवममिति । मामा पल्लीपतिर्जातः । स च पुरिमतालनगरवास्तव्येन निरन्तरं तथा (कुमारेत्ति ) कुमाराः राज्यार्दा अथषा कुमाराः प्रथमदेशलूषणातिकोपितेन विश्वास्यानीय प्रत्येकं नगरचत्वरेषु वयस्थास्तान (सेच्चायति ) लिप्सुश्च पणिजम्माश्रित्य दशतदप्रतः पितृव्यपितृव्याप्रभृतिकं स्वजनवर्ग विनाश्य ति- ममध्ययनामति शब्दश्च परिसमाप्तौ निम्नक्रमश्चेति । अयमत्र लशो मांसच्छेदनरुधिरमांसभोजनादिना कदर्थयित्वा निपा- भावार्थो यदुत पुरे नगरे पृथिवीश्रीनामगणिकाऽभूत्सा तित ति विपाकवते वा नग्नसेन श्तीदमध्ययनमुच्यते ३ (स. च बहून् राजकुमारबणिकपुत्रादीन् मन्त्रचूर्णादिभिर्वशीकृत्यो. गडियावरेत्ति) शकटमिति चापरमध्ययनं तत्र शाखाञ्जन्यां न- दारान् भोगान् वृक्तवती षष्ठयाच गत्षा वर्कमाननगरे धनदेषगयों सुनदास्यसार्थवाहनकानिधानतद्भार्ययोः पुत्रः शकटः । सार्थवादुहिता भरित्यनिधाना जातोति सा च विजयराजसच सुषेणानिधानामात्यन सुदर्शनाभिधानगणिकाव्यतिफरे परिणीता याऽतिशूलेन कृच्चूं जीवित्वा नरकं गतेति । अत एष सगणिको मांसदादिनाऽत्यन्तं कदर्थयित्वा विनाशितः । स विपाक,श्ते अञ्जु इति दशममध्ययनमुच्यत इति स्था० १ ग01 च जन्मान्तरे उगनपुरे नगरे निकान्निधानच्छगलिको मांसप्रि कम्मविवेग-कर्मविवेक-पुं० कर्मनिर्जरायाम, प्राथ० ६ ० । म आसीदित्येतदर्थप्रतिबलं चतुर्थमित्ति ॥ ४ ॥(माहणेत्ति) कौशाम्ब्यां वृहस्पतिदत्तनामा ब्राह्मणःसचान्तःपुरव्यतिकरेल- कम्मविस-कर्मविष-न० कर्मैव विषमात्मनो विकारहेतुत्वात् दायनेन राक्षा तथैव कदयित्वा मारितो जम्मान्तरे चासा- कर्मविषम् । विषत्वोपमिते कर्मणि, पंचा०४ विष०। बासीन्महेश्वरदत्तनामा पुरोहितः। सच जितशशे राकः शत्रु कम्मविसुद्ध-कर्मविशुक-पुं० क्रियत इति कर्म ज्ञानाधरणादिजयाथै ब्राह्मणादिनिहोमं चकार तत्र प्रतिदिनमेकैकं चातुर्वपर्य लक्षणं तेन विशुको वियुक्तः कर्मविशुद्धः कर्मफलङ्करहिते,"कदारकमष्टम्यादिषु द्वौ द्वौ चतुर्मास्यां चतुरश्चतुरः पएमास्याम म्मधिसुकाण सम्वसिद्धाणं " दश०१०। यावष्टी संवत्सरे पोमश घोमश परचक्रागमेऽष्टशतमष्टशतं परचक्रं च जीयते तदेवं मृत्वाऽसौ नरक जगामेत्येवं ब्राह्मणवक्तव्य- कम्मविसति-कविशषि-स्त्री० प्रदेशापक्षयाऽशुभानां कर्मताप्रतिवर्क पञ्चममिति ५ (नंदिसेणयात) मथुरायां श्रीदामराज- जांघिगती, भ० ९२० ३२ ००। | Jain Education Interational Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मचिसोहि कम्मविसोहि-कर्मविशोधि - स्त्री० रसमाश्रित्य कर्मणां विगमे, ज० ९ श० ३२ उ० । ०१० कम्मविणण - कर्मविधूनन- १० कर्मणां विधूनने ६ ० १ उ० । प्र० [ धृताध्ययनस्य द्वितीयोदेशके नक्तम् ] कम्मत्रीय - कर्मवीज - न० व जत्वोत्प्रेचिते कर्मणि, “श्रज्ञानपांशुपिहितं पुरातनं कर्मी जमविनाश तृष्णाभिषिकं मु तिजमा जन्तोः “द पंजे यथावन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः । कर्मवीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्कुरः " आ० म० द्वि० । सूत्र० । ज्ञापनायाः पञ्च " कम्मकर्मवेदककर्म ( ३४५ ) अभिधानराजेन्द्र - - विंशतितमे पदे, प्रा० २५ पद । कम्मस - कल्मष - न० कर्म शुभाशुनं स्यति सो-क-पत्रस्य लः । " सर्वत्र लवरामचन्द्रे ८२७६ इति लुक्-द्वित्वम् प्रा० । पापे, को०] । मलिने, त्रि० जटाधरः । " जन्मन्यृके यदि स्यातां, वारौ नौमशनैश्चरौ । स मासः कल्मषो नाम, मनोदुःखप्रदायकः " दीपको मासनेदे, वाच । कम्पसंगर के सि-कमसंगर के लिए फर्म कृत मोहास्त्र वैफल्य-ज्ञानचर्म विभर्ति यः । क भीस्तस्य क्व वा भङ्गः कर्मसङ्गर केलिषु " अ० ३३ पत्र. । कम्मसंयच्छर-कर्मसंवत्सर - पुं० कर्म लौकिको व्यवहारस्तत्प्रसंवत्सरः कर्मसंसः ऋतुसंवत्सरे, पण शतानि पानि परिपूर्णम्यहोरात्रानां भवन्ति । लोको हि प्रायः सर्वोऽप्यनेनैव संवत्सरेण व्यवहरति तथा चैततं मामधिकृत्यान्यत्रोक्तम् "कम्मो निरंसयाए, मासो ववहारकारगो लोए । सेसा ३ संसयाए, वबहारे दुकरा घिनुं " सू० प्र० १० पाहु० । जो० । कम्पनमजय कर्ममनन कर्मसमनलक्षणार्थप्रतिपादके नगवत्याः अप्राविशे शतके, ज० २० श० । ( अत्रत्या वक्तयता बंध शब्दे ) कम्मसमारंभ - कर्मसमारम्भ-पुं० ६ त० ज्ञानावरणाद्यष्टकारस्य कर्मणः उपादानती उपार्जनोपाये, आचा० १ ० १ २०१ उपघातमांसाननिनादिके सावधानठाने, सूत्र० २ ० १ ० । कम्पसह - कर्मसह - त्रि० कर्मविपाक सहिष्णी, सूत्र० १ श्रु० २ अ० १ उ० । कम्मसाला - कर्मशाला - स्त्री० कुम्भकारघट्याम, यत्र कुम्नकारो घटादिभाजनानि करोति ०२५० कम्मसिद्ध कर्मसिद्ध ० "कम्मं जमणा परित्युक्त कर्मणि निष्ठां गते म० शि० । सम्प्रति कर्मनि सोदाहरणमसुराह 9 जो सन्त्रकम्मकुसलो, जो वा जत्य सुपरिनिट्टिय होइ । गिरिको वित्र स कम्ममिद्धोति विशेो ॥ यः कश्चित् सकर्मकुशलो यो या यत्र कम्मणि सुपरिनिष्ठितो भवत्येव कस्मिन्नपि कर्म्मणि सह्यगिरिसिद्धक व सक मंसिरु इति विज्ञेयः । कर्म्मसिद्धो ज्ञातव्य इत्यर्थः । एष गाथाकरार्थः । भावार्थः कथानकादवसेयः। तच्चेदं " कोकणे एगम्मि गोस ] ओलिता विविसमे गुरु कम्मार भारवाहि त्ति काऊण रक्षा समारणत्तं एएसि मए वि पंथी दायव्यो न उण एएहिं कस्स वि । इतो य एगो सिंधवतो पुराणो सो पडिभज्जतो चिंतेइ तेढिं जामि जहिं कम्मैण एस जीवो नजर सुहं न विंद सो तेसिं मिलितो । सो गंतुकामो रथणिपज्जबसाणे जण कुरुक्कपरिवोडियल । सिद्धओ भणः सिद्धियं देहि मम जह सिकयं सिद्धया गया। सज्ज यं " अत्र कुहुरुक्कः " बहु भारं घढन्। अन्ना साहू तेण मग्गेण आगच्छति तेरा तेर्सि साहूमग्गो चिनो वेरुद्धा राउले गया रायाणं चन्नवेति । श्रहं राया वि मग्गं देश भारेण दुक्खाविज्जंताणं एस पुण समणस्स रित्तस्स मग देइ | राणा भणियं अरे डुडु ! ते कहं मम आणा सुप्रिया । तेण भणियं देव ! तुमे गुरुभारवाहि त्ति का ऊण मे य माणत्तं रक्षा आमंति पमिसृणंतेण भणियं जइ एवंता सो गुरुतरवाहा कह जे सो अवासमंतो महारसीगसहस्वनिन्नरं भारं वहति जाम एवं वोढुं न पारिश्रो पत्यंतरा धम्मकहा तेण कहिया ते महाराया बुज्छंति नाम नारा ते श्रिय बुज्छंति वासमतेहि मीत्रभरो वोढव्यो जावज्जीवं अवसामो राया मनुको सो व संवेगतो पुणरपि पञ्जाव अम्तो पो कम्मसिको" ॥ ग्रा० म० द्वि० आ० चू० ॥ कम्पय कर्महन शि० कर्ममग्ने प० ६ ० ॥ कम्माजीव- कर्माजीव- पुं० कर्म कृप्याद्यनाचाय्र्यकं वा सूचादिनोपद ततो प्रकादिग्राद के आजीव नामकेपणा दोष था. जा. कम्मा कर्माछेदक० कर्मसा दके, पंचा० १५ वि० । - कम्मादान - कर्मादान - न० कर्माणि ज्ञानावरणादीनि श्रदीयते यैस्तानि कर्मादानानि । अथवा कर्माणि च तान्यादानानि च कर्मदेतव इति विग्रहः भ० श० ५ उ० कर्मोपादानहेतुषु, उत्त० ११ ० ॥ भ० । “जे इमे समणोपासगा जयंति तेसि णो कप्पति इमाई पणरस कम्मादाणाई सयं करेंतर वा० इंगालकम्मे " इत्यादि । भ० ८ श०५ उ०] कर्मादानानीत्यन्यायधीयनोपायानावेऽपि तेषामुकानावरणीयादि महेतुत्वादादानानि कर्मादानानि ज्ञातव्यानि स०६० ( उपभोगः परिभोगवय शब्दे विवृतः ) कर्मणां ज्ञानावरणादीनामादानम् प्रस्थान ती प्रत ७ वर्ग तथा भगवा श्राद्धानां पञ्चदशकमीदाननिषेधे प्रो रायनं कल्पते नचेनि प्रोत्साहन निषेध आधुनिको यो पवादपदे तु परिहाराशक्ती शकटालादीनामिव तानि कल्पन्तेऽपीति १०४ श्येन १ उल्ला० । कम्मायक–कर्मात-पुं० फिटेक पं० सू० कम्माययण फर्यायतन १० कर्मणानावरणानामायतनम् । बन्धस्थान तौ, अन्त० ७ वर्ग० ॥ कम्मा (रिय) यरिय-कर्मार्य पुं० दौयिक सौत्रिकादी कर्मखामा पद तो मेदः) कम्मार - कर्मकार - पुं० गणपुत्रजाद्यपनेतर, जं० २ ० । हारिक प्रति०२० कम्मर पुं० कर्म ऋच्छति ऋ-अ-वंशभेदे, कर्मरङ्गवृके च राजनिः। कर्मप्राप्तरि, त्रि० स्वार्थे कन् तत्रैव वाच० । अयस्कारे Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मार कम्मार श्वादायालाप संमासलोहाणं " विशे० । लोहकारे, नि० ० १ ४० । (सिद्धिः कम्मासरीरकायप्यगशब्दे ) कम्मारग्गाम-कर्मारग्राम - पुं० ज्ञातखएकोद्यानसमीपे स्वनाम - ख्याते ग्रामे यत्र भगवान् वीरः ज्ञातखएकात् प्रस्थितः श्रा०यू० १० ॥ श्र० म० द्वि । ( ३४६ ) अन्निधानराजेन्डः । कम्मारदारय-कर्म्मारदारक- पुं० बोहकारदार के, जी०३ प्रति० ॥ कम्मार भिक्य - कर्मकारभिक्षुक- पुं० देवद्रोणी वाहकभिक्षुविशेथे, वृ० ३५० । कम्मासरीरका भोग - कार्मणशरीरकामयोग पुं० काय प्रयोगदे, कार्मणशरीरायप्रयोगे चित्र समुद्रागस्य च केविनस्तृतीयचतुर्थपञ्चममयेषु भवति उ "कार्मणशरीरयोग चतुर्थ पञ्चमै तृतीये च " भ० ८ श० १३० । ( अब मूलपुस्तके कम्मासरीरकाययोमाहातये वोक्तं वस्तुतस्तु कम्म (ण) यसरी रेति यकारप्रकरणे पवोपयुज्यते भाषत्वाद्यकारलोपः दीर्घे कम्मासर|रोति । अथवा कगजेत्यादिना यकारलोपे उभयोरकारयोदायें कम्पासरीरेति ) कम्प (ए) का ३० कर्मादियादि व्यापायुकेको वाचानुपतिकर्माि नि, सूत्र० १० ० सपापे, सूत्र० १ ० ७ ० । कम्पिदिय कम्र्मेन्द्रिय-न० कर्मणां वचनानां निमित्त यम् । चचनादिकर्मकरेषु यागादिषु वाक्पाणिपादपायूपस्थानि कर्मेन्द्रियायाः । वचनादानविहरणोदा प श्वानाम्” वाच० [पषामिन्द्रियत्वनिराकरणमिदिय शब्दे उक्तम] कमिया कार्मता त्री० कर्म विद्यते यस्यासी कर्मच स्तत्ता । कर्मवत्वे, न० १ ० १ उ० । कार्मिक अन्धेस्याः कर्मणां विकारः फार्मिक - कर्म अ शेत्रे, “ कम्मियाए संगियाए देवा देवलोगेस उववज्जंति " कीणेन कर्मशेषेण देवत्वावाप्तिरित्यर्थः । भ० १ ० १ उ० । कम्म्बीस-कर्मोन्मिश्रक-२० कामेन शरीरेोन्मिश्रके ध्यासे अवश्यसंयुके । चारि सरीरणकम्मुम्मी सगा पत्ता तंजहा ओरालिए पेडदिए आहार पर ॥ ( कम्मी गति ) कार्मगेन हारी रेणोमिधकाणि न के बलानि यचौदारिकादीनि त्रीणि वैक्रियादितिरमिश्रकाण्यपि भवन्ति नैवं कार्मणेनेति शरीराणि कार्मणेनोन्मिश्राणीत्युक्तम् । स्था० ४ ० ३ ० । कम्मुरलग कमदारिकदिन का चोदारिक डिके, श्रदारिकलकणे च । पं० सं० । कम्मोदय-कर्मोदय- पुं कर्मणामुदयः । कर्मणामुदितत्वे, भ० ए श० ३२ उ० । कम्मोदय यज्झा - कर्मोदयप्रत्ययध्यान- न० कर्मणामुदयः प्रत्ययो हेतुर्यस्य ध्यानस्य तत्कर्मोदयप्रत्ययध्यानम् । कर्मोदयप्रत्ययेन वा ध्यानं कर्मोदय प्रत्ययध्यानम् । प्रथमं शुभपरिणामतोऽपि पचातत्किम यतोऽशुभ परिणामध्ये पथा न्तकाले इभ्यस्य श्रातु० ६ प० । कम्मोपा] (वा) विशम्मुकमोपाधिविनिर्मुक्त-कर्मखामोपाधिकानामन्यद्रव्याणां कुतश्चित् सङ्गतानामुपाधिः साह | कयंत 66 तेन विनिर्मुको रहितः कर्मोपापविनिर्मुकः सिद्धे, ० २१ पत्र (पर्यायार्थिकनयस्य पञ्चमन्द स्वरूपेचितः) कम्मोत्रग-कर्मोपग- पुं० कर्म ज्ञानावरणादिपुलरूपमुपगच्छति बन्धनद्वारेणोपयातीति कर्मोपगः ज० १४ श० ६ उ० । श्राशुकर्मवद्धे, कर्मढौ किते, सूत्र० १० ५ श्र० । तवक्कमा कमोगा कम्मणियाणं तत्थबुक्कमा रुक्खजोशिपसु दक्खसाए विहृति " ( सूत्र ) तथाविधेन वनस्पतिकायसम्भवेन क र्मणा प्रेर्यमाणास्तेष्वेव वनस्पतिषु उप सामीप्येन तस्यामेव च पृथिव्यां गच्छन्तीति कमोपगा नरयन्ते ( सूत्र ) ते हि कर्मवशगा वनस्पतिकायादागत्य तेष्वेव पुनरपि वनस्पतिषु उत्पद्यन्ते न चान्यत्रेोप्ता अन्यत्र नविष्यन्नीति । उक्तं च कुसुमपुरोले वीजे, मथुरायां साहू समुद्भवति । यत्रैव तस्य बीजं तत्रैवोत्पद्यते प्रसवः 99 सूत्र० २ श्रु० ३ ० । कम्मोत्रसंति - कर्मोपशान्ति-स्त्री० श्रशेषद्वन्द्व वातात्मक संसारराजनूतानां कर्मणामुपशमे आया० १५० २० कम्मोहि-कमपि पुं० उपधायते पोष्यते जो 66 कर्म एवोपधिः कर्मोपधिः । उपधिनेदे, स्था० ३ ० १० ( व्याख्या उवहिशब्दे ) कम्हलय-कश्म० पा० २० कम्हा कस्मात् किम-उस-उसे ३६६ इति दी इत्यादेशः । कुत इत्यर्थे, प्रा० कम्हार कश्मीर पं० "०० इकारस्य श्राद् भवति प्रा० । “ कश्मीरम्भो वा ६० इति संयुक्तस्य मनो वा । कम्नारो कम्हारो प्रा० । नवमे ऋषभदेवपुत्रे तदधिष्ठित देशभेदेव कय-कच- ० ० ० हृहस्पतिपुत्रे, शुष्क, मेघे, शब्दमा० । हस्तिन्याम्, स्त्री० मेदनी० भावे घ० बन्धे, शोभायां च । वाच० । 66 कृत - त्रि० कृ कर्मणि - कः । ऋतोऽत् ८ । १ । २६ । इति ऋतोत्वम् प्राग् । विहिते, "कयको जयमंगल पाच्छत्ता" विपा० १ श्रु० २२० प्रश्न० । श्राचा० । निर्वर्तिते, अज्यस्ते, आच० ४ श्र० । निष्पादिते, संधा० । "अनुगायकथयरवेश्या " रा० | तु० | "कयाहाराओ” कृतोऽभ्यवहृत श्राहारो यका निस्तास्तथा । श्रौ | अर्जिते श्रतु० । उत्पन्ने, प्रा० म० ६० अर्थ, प्रयोजने "अत्थकए" अर्थकृते अर्थार्थम् दश० ए ० । सूत्र० अनुष्ठिते, स० । श्राचरिते, सूत्र० १ श्रु० १३ ० ॥ क्रय - पुं० की भावे० अच्- क्रयणं क्रयः । लाभार्थमल्पमूल्येन वस्तुग्रहणे धातु (कीयपशब्दे कोण पत्रपाश द्युपभोगो निषेत्स्यते ) 7 कर्यजलि - कृताञ्जलिपुं० इतोऽजलिर पत्रोयो येन । 66 'कथंलज्जाबुवृक्के, सम्पुटीकृतहस्ते, त्रि० धरणि वाच० । जी सयंबुद्धं सरणमुपगतो " आ० म०प्र० । “कथंजलि मा " कृताञ्जलिपुटाः श्रा० म० प्र० । कलाकृती यम, "तीसे णं कथंगबार णामं नयरी होत्था" न० २ वस्तीनगरी समीपवतियां नगनयरीए अदूरसामंते सावत्थी ० १ ४० श्रा० म० द्वि० । कयंत कृतान्त-पुं कृतः अन्तो विपर्ययनाशो निश्चयो विषयप Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) कयंत अन्निधानराजेन्द्रः। कया रिच्छेदो वा येन । सिकान्ते, वाचा "नियमादिव्यज्ञानमुत्पद्य- तीयः सहायो न कृतवान् तथापि योग्यतया स कृतकरणीय ते ति जवतां कृतान्तः" अने। कृतं निष्पादितं बलपि कार्य- इव इष्टव्यः । व्य०४ उ० । मन्तं नयतीति व्युत्पत्त्या कृतघ्ने, यमे तत्तुल्यप्रदेशे, "कयंतस्स कयकिञ्च-कतकत्य-त्रि० निष्ठितार्थे, षो०२ विवः । सोना तिक्खरोसो अहिग वा" वृ०१ उ० । पापे, प्राग्जवज- कयकिरिय-तिक्रिय-त्रि० कृता शोभना गृहकरणादिक्रिया येन न्ये दैवे अमरः। शनी, सक्कितबकणया हित्वसंख्यायां च वाच।। स कृतक्रियः। सुकृतगृहकर्मणि, सूत्र. १ श्रु०९ अ०। प्राचा कर्यव-कदम्ब--पुं० समूहे, कल्प० । वृक्तविशेष, रा० । प्रका० ।। कृता स्वच्यस्ता क्रिया संयमानुष्ठानरूपा येन स कृतक्रियः । "घणपत्तलच्छाया बहुलफुल्लश् जाम्बुकयबु" प्रा०। शत्रुञ्जये पर्व संयते, सूत्र०१ श्रु०२ १०३ उ०।। तेच. ती०१ कल्प० । कयकोग्यमंगलपायच्छित्त-कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्त-त्रि० कयकज--कृतकार्य-त्रि० विहितसमस्तवसतिप्रमार्जनादिव्या कृतं कौतुकं मषीपुण्मादि मङ्गलंदध्यक्तचन्दनादि पते च प्रायपारे, नि० चू०२० उ०। श्चित्तपुःस्वप्नादिप्रतिघातत्वेनावश्यकार्यात्वाद्येन स तथा। कौकयकरण-कृतकरण-त्रि. अज्यस्तक्रिये, पं०५०४ द्वा० । प्रक-1 तुकमङ्गलरूपप्रातः कृत्यं कृतवति, उपा० ७०। " कयवालरणानुरोधात् धर्नुबंदकृताज्यासे सहस्रयोधिनि, वृ० १२० । कम्मा कयकोउयमंगलपायच्चित्ता सुझप्पा भ०२ श०५ उ०। बदुशो विहितचौरानुष्ठाने, “कयकरणबद्धबक्खा०" प्रश्न. आश्र. कल्प० । तं० । विपा०। ३द्वा० षष्ठाटमादिभिर्विविधतपोविधानः परिकर्मितशरीरे, कयग-कतक-पुं० कस्य जलस्य तको हासो यस्मात्, वृकभेदे, कयकरणा इयरे वा, सावेक्खो खलु तहेव निरवेक्खो । राजनि। तस्य फलम-श्रण । तस्य लुक तत्फले,नपुं० "जलप्रनिरवेक्खो जिएमादी, मावेक्खो आयरियमादी ॥ । सादि कतकस्तत्फलं कतकं स्मृतम्" भावप्र०वाच०। कतकोकृतकरणा नाम पठाटमादिभिर्विविधतपोविधानैः परिकर्मित- वृक्तस्तत्फलं कतकम् श्राव० ३ अ०। शरीरा इतरे अकृतकरणाः षष्ठाएमादिभिस्तपोधिशेषैरपरिक- कृतक-त्रि० कृतं करणं भावे क्तः । तत पागतः कन् । कृतमय मितशरीराः । तत्र ये कृतकरणास्ते द्विविधास्तद्यथा सापेक्षाः स्वार्थे कः कृन्तति स्वरूपं कृत कन् वा कृत्रिमे, करणाजाते, वि. खलु तथैव निरपेक्काः । सह अपेका गच्छस्येति गम्यते येषां ते म्बवणे, न० अमरः। वाचा एतावत्कालं त्वद्दास इत्यन्युपगमिते सापेका गच्चवासिनः । निर्गताः अपेक्वा येज्यस्ते निरपेक्षास्ते दासभेदे, पुं० "तं पडिविक्किण ततो कयगा नणंति" प्रा० म० त्रिविधा जिनादयः तद्यथा जिनकल्पिकाः शुरूपरिहारिका यः | प्र०ा भयगमतं वा बसन्नत्तं वा कयगन्नत्तंचा निच०एन० थालन्दकल्पिकाश्च एते नियमात्कृतकरणा अकृतकारणानाम- सुवर्णे, झा० १०॥ भ्यतमस्यापि कस्पस्य प्रतिपस्ययोगात् । सापेक्षा अपि त्रिविधा कयग्गह-कचग्रह-पं० मैथुनप्रथमसंरम्ने, रभसवशान्मुखचुम्बन प्राचार्यादयस्तद्यथा प्राचार्या उपाध्याया जिक्रयश्च । एते प्रत्ये नाद्यर्थ युवत्याः पञ्चाङ्गनिनिः केशेषु ग्रहणे, आ०म०प्र०ाजीके द्विधात्वात्पम् भवन्ति तद्यथा आचार्या कृतकरणा अकृतकर वा० " कयग्गहगड़ियकरयल पन्भविमुक्केणं" इह मैपुनसणाश्च । उपाध्याया अपि कृतकरणा अकृतकरणाश्च भिक्षवोऽपि कृतकरणों अकृतकरणाश्च । तत्रकृतकरणानां चिन्स्यमानत्वाद. मारम्भे यावतेः केशेषु ग्रहणं स कचग्रहस्तेन गृढीतम् । तथा स्यां गायायामेते कृतकरणा ग्राह्याः । करतलात विमुक्तं सत् प्रभ्रष्टं करतबप्रभ्रष्टविमुक्तम् प्राकृतत्वा त्पदव्यत्ययः रा० ३६ प० । कचानां ग्रहो यत्र । केशकर्षणेन अथ किंस्वरूपाः कृतकरणा इति कृतकरणस्वरूपमाह। धर्षणे, वाच। टुमाइएहिं, कयकरणा ते उभे य परियाए । कयग्घ-कुतघ्न-त्रि० कृतं हन्ति हन्-टक । कृतोपकारस्यापकारअहिगयकयकरणतं, जो मायतगारिहा केई ।। के, वाच । कृतं वस्त्राभरणपात्रादि प्रदत्तं नान्त सर्वथा नाशकृतकरणानाम येषठाएमादिभिस्तपोविशेषैरुजयपर्याया श्राम- यन्तीत्येवंशीलाः कृतघ्नाः। स्त्रीषु, तं०। ज्यपर्यायादीक्षापर्यायावेत्यर्थः। परिकमितशरीरास्ते ज्ञातव्यास्त- कयज्ज-कढय-पुं० योनृत्यात्मपीमाभ्यामर्थ सचिनोति न तु कद्विवकणा इतरे सामर्थ्यादकृतकरणा। अत्रैव मतान्तरमाह"अहि- चिद व्ययति तस्मिन्, ध०१ अधि। गएत्यादि "केचिदाचार्या ये अधिगतास्ते नियमात् कृतकरणा | कयम (न्न )-कृतज्ञ-त्रि० स्वल्पमाप उपकारमैहिक पारश्त्यधिगतानां कृतकरणत्वमिच्छन्ति कस्मादिति चेदत आह । त्रिकच परकृतं जानाति न निहते इति कृतज्ञः प्रव०१४ "जोगायतगारिहा इति" निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां वि परोपकाराविस्मारके एकोनविंशश्रावकगुणविशिष्टे श्रावके, ध० भक्तीनां प्रायो दर्शनामिनि वृक्षवैयाकरणप्रवादात हेतावत्र प्रथ र०ादर्शक कृतघ्नो हि सर्वत्राप्यमन्दा निदां समासादयतीति मा ततोऽयमर्थः यतस्तैमहाकल्पश्रुतादीनामापतका योगा नदहदास्तत पायतकयोगाहीं अनयन्निति नियमतोऽधिगताः कृ. अकृतघ्नस्य गुणवत्त्वम् । प्रव०२४ द्वा० ॥ तकरणा इति तदेवं कृता पुरुषभेदमार्गणा व्य. १उ०। सांप्रतमेकोनविंशस्य कृतज्ञतागुणस्यावसरस्तत्र परेण कृतमुवन्यं प्रायश्चित्तं पच्छित्त शब्द)नि० ० । “गीयत्था कयकरणा, पकारमविस्मृत्या जानातीति कृतज्ञः । प्रतीत एष ततस्तं फलपोढा परिणामिया य गंभीरा" कृतकरणा अनेकबारमालाचनायां | द्वारेण व्याचष्टे। सहायभवनात् व्य० ४ उ०।। बहु मन्नइ धम्मगुरूं, कयकरणिज-कृनकरणीय-त्रि कार्याणि कृतवति, कृतक परमुवयारि नि तत्तबुद्धीए। रणा नाम गीतार्थतया परिणामकतया चान्यदाऽपि अन्यैः स तत्ता गुणो णु बुट्टी, हानक सदशानि कार्याणि कृतवन्तः । यद्यपि च कदाचित् वि.। गुणारिहो तेणिह कयन्न् ॥१६॥ Jain Education Interational Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४०) कया अनिधानराजन्नः। कयाम बहु मन्यते सगौरवं पश्यति धर्मगुरुं धर्मदातारमाचार्यादिकं दीस खेयरसामाहि, तेहिं वर मित्तनवियचं । । । परमोपकरीममायमुद्धतोऽहमनेनाकारणवत्सलेनातिघोरसंसा- तयणु घणकोउगेणं, पुरो गंतुं लयागिहस्संते । रकूपकुहरे निपतन्नित्येवंप्रकारतया तत्वबुच्या परमार्थसार- श्रासीणं तं मिहुणं, नियंति ते परमसुंदेरं । । । मस्या स हि भावयत्येवं परमागमवाक्यम् ।"तिराहं दुप्पडियारं रत्तो य पुवे पुरिसा, कठ्यिकरवानभीसणकरम्गा । समणाउसो तंजहा अम्मापिऊणं १ भट्टिस्स २ धम्मायरियस्स हण हण हणत्ति भरिणेप, दयागिहस्सुवरि संपत्ता।१०। य ३ तत्थ सयंपाश्रो वि यणं के पुरिसे अम्मापियरं सयपा. एगण ताण वुत्तं, रे रे निवज होसुतं पुरिसो। गसहस्सगेहिं तिल्लेहि अझगिता सुरहिणा गंधोदपणं उ- सुमरेसु छदेव, कुणसु सुदि व जियलोयं । ११ । व्यट्टित्ता तेहिं उदगेहि मज्जापिता सबालंकारविभूसियं क- तं सुणिय पुरियगुरुको-वपसरमिसमिसंतअहरदलो । रित्ता मणुन्नं थालीपागसुरूं अट्ठारसबंजणाचलं नोयणं भोया- वविगियम जिक्रमनरो, विणिम्गो खग्गवम्गकरो। १२ । चित्ता जाव जीवं पिचिमिसयाए परिवहिजा तेणा वि तम्स तो मुकहब अमि, खमकसंभंतखेयरीविदं । अम्मापिउस्स दुप्पमियारं हवइ । अहणं से तं अम्मापियरं जायं तेसिं गयणं, गणम्मि अदारुणं जुज्कं । १३ । केवलि पन्नत्ते धम्मे आघवत्ता पन्नवत्ता परूवित्ता गयित्ता जो पुण बीओ पुरिसो, अयागिई सो पविघ्महिलसा । भवइ । तेणामेव अम्मापिउस्स सुपमियारं भवइ समणाउसो. तत्तो मिहुणनरिथी, जयकपंता विणिक्खता । १४ । केइ महच्चे दरिई समुक्तसिजा तए णं से दरिद्दे समुक्किटे स. दहं च जण विमनं, पुरिमुत्तम ! रक्त रक्ख मनीयं । माणे पच्छा पुरं च णं विपुलमइसमनागप यावि विहरिजा तए सो आह हो सुनद्दे, वीसत्था नस्थि तुज्क भयं । १५ । णं से महब्बए अन्नया कथाइ दरिहा हुए समाणे तस्स दलिहस्स इत्तो तम्गहणन्थं, पत्तो सो स्नेयरो गयणमम्गे । अंतियं हन्धमागच्छिज्जा । तए णं से दरिद्दे तस्स भट्टिस्स स विमलगुणतुघ्वणदे-घयाइ अह त्यभिओ सहसा । १६ । व्वस्समवि दल इजा तेण वि तस्स छप्पमियारं हवइ । अह सो विय नुज्जंतनरो, विजियो मिहुणगनरेण य पयाणो । से तं भहि केवलिपन्नत्ते धम्मे श्राघवश्त्ता पन्नवदत्ता परूविसा ठावदत्ता भवति । तए णं से तस्स भट्टिस्स सुपमियारं तप्पुठीए बग्गो, जियकासी मिहणगो सो वि । १७। जयरा। केर तहारुवस्स समणस्स या माहणम्स या अंतियं भंनियनरेण दिडो, संजाया तयएतस्स गमाणिच्छा। पगमवि आरियं धम्मिय सुबयणं सुच्चा निसम्म कालमासे कालं तं नातं देवीए, ऊमित्ति उत्तभित्रो सोउ । १८ । किया अभयरेसु देवलोपसु देवत्ताय उववन्ने । तए णं लम्गो य तेसि पिटु, त्तिविनि पत्ता असणपदम्मि । से देये तं धम्मायरियं मुन्निक्खाश्रो वा देसाश्रो सुनिक्वं देसं अह वाला रुयश् इहा, म मुत्तं नाह ! कत्थ गयो । १९ । साहरिज्जा कंतारामओ वा निकतारं दीहकालिपण वा रोगाय. इत्थंतरम्मि जयच्चि, परिगो आगो मिहणपुरिसो । केण अन्निभूयं विमोइज्जा । तेण वि तस्स धम्मायरियस्स दु- जाया य हट्ठा, सा वाला श्रमयसित्त व्य ।। २० ।। प्पडियारं हयाह । अहणं से तं धम्मायरियं केलिपन्नते धम्मे सो नमिय जणइ विमलं, तं चिय बंधू तुमेव मह मित्तं । श्राघवश्त्ता पलवइत्ता परूवित्ता वित्ता भवइ । तए णं तस्स जं एसा मऊ पिया, हीरंती रक्खिया धीर!॥२१॥ धम्मायरियस्स सुप्पडियारं हवा त्ति । वाचकमुण्येनाप्युक्तम् विमझो वि भणेइ अतं, कयन्नु सिररयणसंभमेण इदं । "तुष्षतिकारी माता-पितरौ स्वामी गुरुश्च लोकेऽस्मिन् । तत्र किंतु इमं वुत्तत्तं, कहेसु एसो वि श्य भणई ॥२२॥ गुरुरिहामुत्र च, सुमुकरतरः प्रतीकारः" इति । ततस्तस्मा अस्थिह चेयकृगिरि-दसंगिए रयणसंचए नपरे । कृतज्ञताजायजनितगुरुबहुमानात् गुणानां क्वान्त्यादीनां शना- राया मणिरहनामो, कणयसिहा भारिया तस्स ॥२३॥ दीनां घा वृवितीति गम्यते । गुणा) गुणप्रतिपत्तियोग्य ताणं च अत्थि पुत्तो, घिणयपरो रयणसेहरो नाम । म्तेन कारणेनेह धर्माधिकारविचारे कृतज्ञ उक्तशक्तार्थों धवल धूया न कुन्नि पवरा, रयणसिहा मणिसिहा य तहा ॥२४॥ राजतनूजविमलकुमारवत् । तच्चरितं पुमरिदम् । रयणसिहा ससिणेहं, परिणीया मेहनायनयरेणं । पुरमत्थि वकमाणं, सुबद्धमाणं सिरीहि पउराहिं। तेसिं च अहं पुत्तो, नामेणं रयणचूमुत्ति ॥ २५ ॥ बहुविहमहन्तकहाण, कारणं बद्धमाणं च ॥१॥ श्रमियप्पहखयरेणं, परिणीया मणिसिहा उ तेसि पि। रभसवसनमिरनिवनियह, जसबसेविजमाणकमकमलो। संजाया पुन्नि सुया, अचसो चयत्रो य पवलवला । २६ । रजजरधरणधवलो, धवनो नामेण तत्थ नियो । २ । तह रयणसेहरस्स वि, रइकंता नामियाइ दश्याए । सययं सुहासिणी सुम-णसंगया किं तु अश्मयकुलीणा। जाया एसा किर चूय मंजरी बदहा धूया । २७ । देवी इव देवीकमल-सुंदरी नाम तस्सस्थि । ३ । सब्वेहि वि वाजत्ते, सह पंसुक्की लिएहि अम्हेहिं । नीसेसकलाकुसलो, सरुव्वसरलो विमुक्तकलिलमलो। गहिया उ नियन्त्रकम-समागयाश्री य विजाश्रो । २८ । साणं तणो विमलो,कयन्नुया हंसवरकमलो । ४ । चंदणभिहाणनियमित्त-सिरुपुत्तस्स संगमवसेण । किर सामदेवसिहिस्स, नंदणो बहलियाई कुलभवणं । जाप्रो मह माउलो, अच्चंतं जश्णधम्मरओ। २। जाओ य वामदेवु त्ति, तस्स मित्तं महामणो। ५। तेणं महासएणं, जणणं। जणगो य मज्म अहयं च । कश्या विकीत्रणकप. अन्नम्नं कालियन्व नेहेण । कहिकर्ण जिणधम्म, गिहिधम्मधुरंधरा बिहिया। ३० । कीवानंदणनामे, उज्जाणे दो वि ते पत्ता । ६ । निहिछो ह अह चंदणेण पासिनु लक्खणं कि पि । तत्थ नरमिहुणपयपं-तिमुत्तमं वामुयागयं दई । विजा चक्की होही, एसो खलु दारगो अरा। ३१ । सणुलक्खणनिउणमई, मित्तं पश् संपए विमलो । ७ । तो विमलो मित्तेणं. वुत्तो संवयइ सुम्भ तं वयणं । जाण श्मा पयपती, नक्कुसकमलकलसकयसोहा । सो भण न मे वयणं, किंतु इमं आगमुदिऊँ ।३२ । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४९) कया अभिधानराजेन्द्रः। कयाम पुण भणइ रयणचूमो, तुडेण माचलेण मम दिना । तं अइसयरमणीयं, बिंब उरुफुरियपुरियगिरिसंबं । तो चूयनंजरी परि-णिया मए सा इमानद।३३। अणमिसनयणहि, पिच्छेनं धवलनिवतणो ॥५७॥ तत्तो य अचबचवला, कुविया न य में चयंति परिहषिउं । परिसरुवं विवं, पुब्बं पिमए कहिं चिदिति । नूपन्यग्दिमग्गण-पणमका निम्गमति दिणे । ३४ । चिंतंतो मुच्छाप, पडिओ धरतीयले सहसा ॥ ५८॥ ग्लघायजाणणत्थे, फुडक्यणो नियचरो पत्तो मे। श्रह पवणपयारपणं, पच्चागयचेयणो पुणो कुमरो। सो अन्नदिणे सहसा, भागंतु मम य कहित्था । ३५। अडायरेण पुटो, खयरेणं किं तुए यति ॥५६॥ जह देव दोस मिसा, काली विज्जा तहत्थि श्य मंतो। तो रयणचूमचरणे, नवहरणे पणमि धवलपुत्तो । झुकिचिहि सदेगो, वीओ पुण तुह पिय दरिही । ३६ । हरिसनरनिम्भरंगो, एवं थुणि समाढतो ॥६॥ को बंधवेहि सरिसं, जुज्झिस्सा चितिमण पवमहं । तुं माया तुं च पिया, तुं भाया तुं मुहं तुम देखो। प्रवितेसि निग्गहखमो, इत्थ निही म्हिायगेहे।३७ । तु परमप्पा जी,पिमझतुंचेव खयरवर!॥६॥ ते दो वि मप जिणिया, न य इणिया नायझत्ति काकण । जेण इमं सुरनरसु-पत्रकारखं दुरियतिमिररविधियं । इत्तो य परं तुम्ह वि, पाय सब्यं पि पच्चक्खं ।३८। विध जुगाइदेयस्स, इंसियं मह तए सामि ॥६॥ नाधारं तेण इम, मह जीयं धारियं तए भया । एयं दसतेणं, तुमए मह दंमिश्रो सुगइमग्गो। सयला वि धरा धरिया, जस्सुबयारे मई एवं ।३६ । च्छिन्नं च दुक्खजालं, विणिम्मियं परमसोजन्नं ॥६३॥ उक्तंच 'दो पुरिसे धरिउधरा,महवा दोहिं पिधारिया धरणी।। खयरो वि भणे अहं, परमत्थं इत्थ किं पिन जाणे। नवयारे जस्स मई, उवयरिन जोन संफुस।४। विमलो वि आह सामिय, संजायं जाइसरणं मे ॥६॥ तो दिज्जन आपसो, तुम्न पियं किं करेज एस जणो। पुवनवेमु वि बहुसो, जिणदिवे बंदिप मर नाह । अह दंतकंतिधवलिय -धरवली जंपए विमलो ।।। संमत्तनागदसण-चरणं परिपालियं सुख ॥६५॥ भो रयणचूम चूमा-मणी तुप्रासि कत्तु झोयम्मि । मितीपमोयकरुणा-मजत्थगुणहि नाविप्रो अप्पा । सब पि तप विहिय, पयकं तेणे नियरहस्सं । ४२ । इच्चा मए सरियं, जाईसरणेण सव्यं पि ॥६६॥ यतः। वचःसहस्रेण सतां न सुन्दरं, तं मझ कयं तुमए, जं परमगुरु कुणंति भो नद!। हिरण्यकोट्यापि न वा निरीक्षितम् । ध्य जपतो कुमरो, पमिश्रो खयरिंदचत्रणेमु ॥६॥ अवाप्यते सजन झोकचेतसा, अलमित्थ संलमेणं, तितु उमाविउंच निवतणयं । न कोटिनकरपि भावमीलितम् । ४३ । साहमियं ति वंदितु, सहयिषयं जंपए खयरो॥६॥ तो सप्पणयं नणियं, खयरेणं कुमर ! मऊ पसिळण । भो भो नरिदनंदण.! संपन्नं मह समीहियं सव्यं । गिबहसु श्म सुरयणं, चिंतामणिरयणसारिच्चं ४४। जं एवं तुह जत्ती, जिणनाहे निच्चला जाया ॥६॥ अपर धवसंगरूहो, दिन्नं तु मए य गहियमिणं । ठाणे य एस हरिसो, पयमुक्करिसो कुमार! तुह जम्हा । अस्थत तुहेव पासे, मुच्चन असंतमंजर। ४६ । मुतं दुहाविमुत्ति, नन्नत्थ रमंति सप्पुरिमा ॥७॥ मा अनिरीहभावं, नाविमत्रस्स विमअन्नावस्स । नक्तंच “ अज्ञानान्धाश्चटुअवनितापाङ्कविकेपितास्ते, सच्चेन अंचवे तं, रयणं बधइ रयणचूडं ।४६। कामे सक्ति दधति विभवामोगतुङ्गार्जने वा। पुट्ठोय वामदेवो, अंबापिउनाममाझ्यं सब्छ । विस्चित्तं नवति हि महामोक्षसौख्यकतानं, कुमरम्स संतियं कह- सहरिसो खेयरवरस्स । ४७ । नाल्पम्कन्धे चिटपिनि कषत्यशभित्ति गजेन्द्रः॥७२॥ तं सुणिय विमबचरियं, अच्चरियकरविचितए खयरो। किंच नियत्नावसरिसं, फलामह मिच्छति पाणिणो पायं । पमिनबगरामि अह यं, जिणबिबं दंसिय श्मस्सा ४८। मुणो कयण हरी, नु वस करिकुंजदलणेण ॥७२॥ तो नणियं स्त्रयरणं, कुमारवर ! अस्थि काणणे इत्थ । उत्तालको नच्च, वाहिदवं पप्प मूसो अहियं । मम मायामहकारिय-माइजिणिदस्स चेइहरं ॥ ४६॥ खंजर करी अवन्ना-३ भोयणं निवइदिन्नं पि ॥ १३॥ तं मम काउ पसाय, कुमरयरो दहअरिहए इगिंह । पुब्धि तुम मुरयणे, पत्ते मत्थ नावमवीणो। पति भणिय सम्वे, जिणभवणानिमुहमह चमिया ॥ ५० ॥ नहु सक्रिय यो मए तुद, हरिसपियारो माग पि ॥ ७४॥ भसयसंनिविटुं, बहुविहदुमसंगयं च उज्जाणं । श्रणा तं पुण जाओ, हरिसनमभिजमाणरोमंचो। नहु (ह) सुरसरि बहीहि व, मनोहरं धरपमागाहिं ॥ १ ॥ जिणपवयणस्स लाजो, पुरिसुत्तम! साद माह असि ॥५॥ पाउन्नपाहि कंत्रण-पयद मेहिं च दंतुरं व सया। परमित्थ जगनेव, गुरुत्तमारोवणीययं कुमर !। नवार विरायमाणं, चामीयरविमलकबसेणं या ज बुको सि सयं चिय, निमित्तमित्तं जणो परो ।। ७६॥ कत्थइ पद्ववियं पिव, रोमं च पवं च अश्चियं व कहिं । सोयंनियदेवेडिं, सहसंकुदा जिणेसरा जवि । संवम्मियं व करथ चि, कन्ध वि वित्तं च किरणेहिं ॥५३॥ योहिजति तहा वि. तेसिं न हु इंति ते गुरुणो ॥ ७ ॥ गणहाणे वियरिय-हरिचंदणवासगोह कयसोहं । तह चेव श्मो वि जणो, जाणिजउ तो भणे नियतणी। सुसिविहसंधिभावा, इसिलाइच्चनिम्माधियं ॥ ५४॥ संबुझाण जिणाणं, हे विन हुँति ते देवा ॥ ७ ॥ बहुसानमंजियाहि, विसिहचिहाहि सोहमाणाहिं। तं पुण मऊ सिरिरिस-हनाह पडिमाश्दमणवसणं । घरबच्चराहि सययं, अहिट्ठियं मेरुमिहरं व ॥ ५५॥ सद्धम्मलंभणेणं, फुमं गुरु होसि नणियं ॥ ७२ ॥ पर्षविहजियभवणं, पत्ता दिघा य रिसहनाहस्स । ओ जेण सुरूधम्मम्मि, नाविओ संजपण गिहिणाया। पण्डिमा अपमिमरूषा, नमिया हिश्शेहि तेहि तो॥५६॥ सो चेव तस्स जायइ, धम्मगुरू धम्मदाबायो॥ ८॥ Jain Education Interational Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कयपू उत्रियं च सुपुरिसाएं, काउं विणयाश्यं सदगुरुम्मि । साहम्मियमित्तस्स वि, नणियं किर बंदपाईयं ॥ ८१ ॥ परदेश नरवरंगो जंगरको विव सच्चेखि होस गुरु ८२ ॥ प्रण कुमारो गुणगण-घभियाण कयं तु याणसु नराणं । पयंत्रिय इह लिगे, जं गुरुणो पूयणं निश्वं ॥ ८३ ॥ स महप्पा सो धन्नो, सकयन्नू सो कुब्भवो धीरो । सोनुवणदणिजो, सो तवसी पंमिश्रो सो उ ॥ ८४ ॥ दामत्तं सत्तं सेवगभाव व किंकरतं च । अणवश्यं कुयंतो, जो सुगुरूणं न लज्जेइ ॥ ८५ ॥ निश्चियमणवयणतणू, सुकयत्था गुणगुरुण सुगुरुण । जेवियर सवयं ॥ ८६ ॥ समत्तदाय गाणं, पुष्पमियारं नवेसु बहुसु । सव्वगुणमेनियाहि वि, चवयारसहस्सकोमी हिं ॥ ८७ ॥ नो सुपुरिस ! बुको ढं तुन प्रसारण गिरिहई दिक्खं । तु मह तापमुद्दा, बढ्वे रह बंधवा संति ॥ ८८ ॥ जर पिमिवोदो जाय तो भयामि ककियो। ता व सुगुरुं मे, अड हिडो भणइ खर्यारिंदो ॥ ८६ ॥ धना जलनरभरियंयुवा समपोसो । जर पर कह कि सो इह, तो परिवोदिज्ज तुह बंधू ॥ ए० ॥ कुमरे तो जणियं, सो दिठो कत्थ ते महाभाग ! | सोभागे ॥ ९९ ॥ जं अस्य अमीर, सपरियणेणागरण मे इत्थ । पविसंतेणं जिणमंदिर किम दिडुं सुमुणिविंदं ॥ २ ॥ तस्मय मज्जे गो, साहू मसिसियला कसिण देहो । गिरिवरभरो मेलु लो ॥ १५ ॥ आखु व्व लयकन्नो, डुबिरालु व्व पिंगनयणजुश्रो । पवग व्य विधिरुनासो, मिय व्व श्री हकंतु हो ॥ ९४ ॥ गोरो परो व गणधरो । धम्मं वागरमाणो, विहो ममहुरदेवं ॥ ए५ ॥ , अरिगुणनंद मे विनिये इमं दिया। जह पयस्स भगवओ, गुणापुरुवं न रुवं ति । ९६ । नो जिणं, निपमिमं पटावे पूर्ण च ग्वणमित्रोणं साहू ण वंदणत्थं विणिक्खनो । ६७ । ता सो चे वरणी, उवविधो विमलकणय कमलम्मि | स्वमुक व्य अणंगो, ससहर इव रोहिणीरहिओ । ६८ । मुनष्यदा पलड़नियतमपसरो । मिगो । ६८ । नीमुपनयणो अइउन्नय सरखना सियावंसो । कंबविधिवतो, नवपल्लवश्ररुणश्रहरुहो । १०० । केमरकिसोरी, विमाच्छलजयि मुरारपरिपरि दिदी ॥ १०१ ॥ सो विनियमए कह, एस खणेणं अणेरेिसो जाओ हवा चंदणगुरुणा, कहिया से विविडली ओ ॥ १०२ ॥ , 1 (३५०) अभिधानराजेन्द्रः । 19 तथाहि । श्रमोसहि १ चिप्पोसहि २ खेलोसटि ३ जल्लधोसटी चेव ४ सयोसहि भिन्ने ६ ओहि ७रिश्रमविलम६६१९ | १०३ | धारण १० आसीविस ११ के चत्र य १२ मणनाणिणो य १३ पुग्वधरा १४ | भरत १५ चकवडी, १६ बलदेवा १७ वासुदेवाय १७ । १०४ ॥ कयम सीमा १०१ कोयुद्ध २० पयासारी २१ तह बीयबुद्धि२२ तेयय, २३ आहारग२४सीयलेसा य२५ । १०५ ॥ वेवी देवलखी, २६ श्रखीणमहाणसी २७ पुलाया य २० परिणामतयय सेणं पाई ति लीओ ॥ १०६ ॥ परिणामोसो परिमाण विष्णुसो वादि । अत्रे विमति वि, भासति पति पासवणं ॥ १०७ ॥ नेवि बहू, जेर्सि सब्वे त्रि सुरहिणो वथवा । गोममस्था सेति तोहिया १०० जो गुण-इ सम्बविस व सम्पोि सुर बहु एवं सद्दे, भिन्ने संभिन्न सोश्रो सो ॥ १० ॥ रिउसामनं समत - गाहिणी रिउमई मणोनाणं । पापं विससयविमुढं, घममित्तं चितियं सुराइ ॥ ११० ॥ णि माणं नाही मला चितयमख धर्म, पसंग जवस ॥ १११ ॥ असयचरणसमत्था, अंत्राविज्जाहिं चारणमुणीश्रो । अंधादि जाइ पढमो, निस्संकाउं रविकरे वि ॥ ११२ ॥ एगुप्पारण गयो, रुयगवरम्मि तो परिनियतो । पण नंदिरमेश, इदं तश्यपण पुणो उनुं ॥ ११३ ॥ पढमेण परुगवणं, वीउपापण नंदणं पर। तचप्पारण तओ, इह जंघाचारणो ए६ ॥ ११४ ॥ पढमेण माणसुतर, नगंस नंदोसरं तु बीपणं । ए तय तपणं, कयचेश्ययंदणो रहयं ॥ ११५ ॥ पढमेण नंदणवणे, बीउप्पारण पंमगवणम्मि । ए हूं तरणं, जो विज्जाचारणो होइ ॥ ११६ ॥ आसीदाढा तम्गय-महाविसा सीबिसा नवे दुबिहा। ते समजाश्रण प्रगता चचिदविगप्पा ॥ ११७ ॥ खीरमसप्पिसानो चमाणत्रयणा तया सवा हुंति । कुयधन्नसुनमाल-सुधा कुट्टी ॥ ११० ॥ जो सुत्तपरण बहुं, सुयमणुधाररा पथाणुसारी सो । जो अत्थपत्थं, अणुसरइस बीयबुद्ध ॥ ११॥ समो जहमंतर मुकोसेणं तु जाय बम्मासा । आहारसरीराणं, उक्कोसेणं नव सहस्सा ॥ १२० ॥ चत्तारिय वारा उ, चउदसपुत्री करेश श्राहारं । संसार तो राम्रो १२१ ॥ तिरथयर रिद्धिवं सत्य (१) भोगवादे लंबा (२) संसयवुच्छेयत्थं, (३) गमणं ( ४ ) जिणपायमूलम्मि ॥ १२१ ॥ रमणी १ मवगयत्रेयं, 1 २ परिहार ३ पुला य ४ मप्पमसं च ५। चउदसपुवि ६ आहा-रंगं च ७न कया संद्र६ ॥ १२३ ॥ वेलद्धी, अणु व्व सुहमा खगेण जायंति । कंचणगिरि व्य गुरुणो, लहुदेडा श्रक्कतूलं व ॥ १२४ ॥ पम पमको श्रो, पकुणति घडा उ घमसहस्साई । चितयमित्तं रूवं, कुणति भणिरण किं बहुखा ॥ १२५ ॥ अंतमुरपतिबारे तिरियमाणम्। देसमा सवा कालो १२६ ॥ अक्खीणमहाणसिया, भिक्खं जेणाणियं पुणो तेण । परिजुत्तं चिय खिज्जइ, बहुपदि वि न उण अन्नेहिं ॥ १२७ ॥ नवसियरा उति भयसिद्धियमहिलाण वि, जत्ति य जायंति तं बुच्छं ॥ १२८ ॥ अरिहंत चक्कर के सब, बल ४ सभिन्ना यचारणा६पुब्वा |७| 1 1 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५१) कया अभिधानराजेन्तः । कया गणहरप्पुलायएआहा-रगंच१०न हु भवियमहिलाणं॥१२॥ नट्ठो नटुविवेगो, तो पएसा उ सिट्ठसुश्रो ॥१५४ ॥ अभवियपुरिसाणं पुण, दसपुग्विद्वाउ केवलितं च । दवदवपरहिं तिहिं वा-सरोहिं अडवीसजोयणे गंतुं । उज्जुमशविउलमई, तेरस एया उन हु हुंति ॥ १३० ॥ जा छोडा मणिगंठिं, ता पिच्छह उपलसकलं सो ॥१५॥ अभवियमहिमाणं पिहु, एया नहु हुँति भणियलद्धीओ। हा हा हो हो म्हि, निमुच्छिो निवडिश्री धरणिपिढे । महुखीरासवलद्धी, वि नेव सेसा उ अविरुका ।। १३१॥ पञ्चागयचेयनो, विविहपलाये करेसी य ॥१५६॥ ता नणं घेउब्विय-लकिपभावेण निम्मियं पहुणा । तत्थुज्जु वि गंतूणं, गहेमि तं रयणमियविचितेउं । पुधि विरूवरूवं, श्मस्स साहावियं तु श्मं ॥१३२ ।। वलिओ सदेसभिमुहं, मुहं मुहं मणसि झूरंतो ॥ १५७ ॥ तो विम्हिएण गुरुणो, मुणिणे य मप जिवंदिया सव्वे । इत्तो य नमियदेवं, जिणभवणाश्रो विणिग्गहो कुमरो। दिनोय तोहि कयसिव-सुहलानो धम्मलानो मे ॥१३३ ।। मिसमपासित्तु तो, गवेसए काणणाईसु ॥ १५८ ॥ गुणिणा य सुहारसवरि--ससुंदरा देखणा खणं तेसि। सव्वत्थ वि अनियंतो, चउद्दिसि पेसए निए पुरिसे। पुहो य मुणी एगो, किं मामा एस मुणिनाहो ॥१३४॥ सो पत्तो एगेहि, उवणीअो कुमरपासम्मि ॥१५॥ भणियं च तेण मुणिणा, अम्ह गुरू एस नुवणविक्खाओ। अद्धासणे निवेसिय, पुट्ठो कुमरेण कहसु मे मित्त । बुहनामा द्धिनिही, विहर अणिययविहारेण ॥१३५ ॥ तं सुणिय अहं हिलो, नमिउं गुरुणो गओ सगणम्मि । ज अणुनूयं तुमए, सुहदुक्खं तो वि इय आह॥१६०। परउवयारिकगुरू, गुरू वि अन्नत्य विहरित्था ॥१३६ ।। तया जिणनमणत्थं, चेइगिहं तो गश्रो नमुं कुभरो। तेण भणेमि अहं तो, बुहसूरी जश् य पर इह कह वि। जिभवणदारदेसे, अह यं पुण जाव चिट्ठामि ॥१६॥ तो तुज्क बंधवर्ग, सुहेण धम्म पि बोहिन्ज ॥१३७ ॥ ताव सहस त्ति पत्ता, एगा खयरी य कढ़ियकिवाणा । जं मह परिवारस्स य, धम्मे विजय मे वि तस्या वि । सरीरसाए तीए, गयणे उप्पाडिओ य अहं ॥१६२॥ घिहियं विसविरूवं, तेणं परिहियकयमणेणं ॥ १३० ॥ नीओ य दूरदेसे, इत्तो अन्ना विश्रागया खयरी। विमलो भणे सुपुरिस,! अभत्थिय इत्थ सो समणसीहो। सा मह रूवविमूढा, उद्दालेउं समाढत्ता ॥१६३१ तुम इथिय आणेओ, पवं ति पवज्जए खयरो ॥१३॥ ताणं जुझंतीणं, पडिअो हं महीयले तो नट्ठो। तो अंसुपुग्नवयणो, कुमरं श्रापुचि रयणचूमो। पत्तो य तुह नरोहि, निवनंदण तं च मिलिश्रो सि ॥१६४॥ संपत्तो सहाण, सुमरंतो विमलगुणनिवहं ॥१०॥ तेण निदंसियससिणे-हवयणरयणाइरंजिश्रो कुमरो। कुमरो वि जिणं थुणिउं, निग्गंतूणं जिणिदभवणाश्रो । पभणइ रुहरं जायं, जं दिट्ठीए तुमं दिट्ठो ॥१६॥ पभणेइ मित्त ! एयं, रयणं इत्योवगोवेहि ॥ १४१ ॥ इत्थंतरम्मि वामो, अकंतो इव महामहिधरेणं । गुरुए कहिं चि कज्जे, उवजुबिहिई इमं महारयणं । दलिश्रो विव वजेणं, पडिअोवेयणसमुग्धाए ॥१६६॥तथाहिगेहे नीयं एमेव, जाइ ही पुण अणायरओ ॥ १४२ ॥ उप्पन्ना सिरषियणा, णलंति अंगार पचलियदसणा। जं पाणवेद कुमरात्ति, भणियं तत्थेव गुविलदेसम्मि । संजायमुयरसूलं, भग्गंतारायणं सहसा ॥१६७॥ सो गोवा तं रयणं, अह पत्ता दो वि सगिहेसु ॥१४३॥ तो आदम्रो विमलो, गुरुओ हा हा रो समुच्छलियो। लहुलीवसो पविसिय, बुद्धी चिंतइ सामदेवसुओ। पत्तो धवलनरिंदो, किं किं ति जणो बहू मिलिश्रो ॥१६८।। वंचित्तु विमलकुमरं, हरेमि गंतुं तयं रयणं ॥ १४४ ॥ पाहूयावरविज्जा, तर्हि पउत्ता उ विविहकिरियानो। अगणियकुमरुवयारे, अरिणयतइया वि चेव सो पावो। न य जाओ को वि गुणो, सरियं विमलेण अह रयणं ॥१६॥ जत्थ निहित्थं चिट्ठा, रयणं पत्तो तमुहेसं ॥ १४५ ॥ तं सव्वरोगहरणं, ति तत्थ गंतूण पिच्छए जाव । तत्तो उक्खणिउं तं, तत्थ बलं वत्थ वेढउं खविडं। तमदटुं च विसन्नो, मित्तसमीवं पुणो पत्तो ॥१७॥ अन्नत्थ निहियरयणं, गिहपत्तो चिंता निसाए ॥ १४६ ॥ अह एगा वुत्थिी , वियंभिया मोडियं नियं अंगं । नहु साहु मप विहियं, जं रयणं नाणियं तयं गेहे। उविलियं भुयजुयं, केसा विहुमुक्कलीहूया ॥१७॥ गिरिहहिह को वि अन्नो, केण वि दिटुं धुवं होही ॥१४७॥ मुक्का सिक्काररवा, अइविगरालं पयासियं रुवं । इचाइ वागजालं, परिचितंतस्स तस्स पावस्स । भीओ जणो य पुच्छर, हेभयवइ! कहसु का वि तुमं ॥१७२॥ वारिगयस्स गयस्सव, न मणागवि आगया निदा ॥१४॥ सा श्राह अहं वणदे-वय म्हि एसो मए कत्रो एवं । उट्टित्तु सो पभाए, तुरियं तुरियं गश्रो तर्हि गणे। जं इमिणा पावेणं, सरलो वि पवंचित्रो विमलो ॥१७३॥ जागिरिहस्सइ रयणं, ता कुमरो तग्गिहे पत्तो ॥१४॥ इयरयमालजालं, तं रयणं विणिहियं अमुगदसे। उज्जाणगयं सुणिउं, च वामदेवं लहुं कुमारो वि। ता चूरिस्सं सज्जण-जणवाम वामदेवं ति ॥१७॥ पत्तो तहिं चि दिट्ठो, आगच्छंतो य इयरेण ॥१५॥ तो विमलेणं देविं, अब्भत्थिय मोरयो निययमित्तो। तो अइसंभंतेणं, तेणं विस्सरियरयणठाणणं । सो धिद्धिक्कारहो, जाओ बहुश्रो तणाश्रो वि ॥१७५ ।। भीएण सुन्नहियपण, गिरिहउं उवलक्खडंतं ॥१५॥ तह वि हु विमलकुमारो, गंभीरिमविजियअंतिमसमुद्दो। खिवियं कडिवट्टीप, पुट्ठो विमलेण कीस संभंतो। पुव्वं पि व तं पिच्छइ, न हुदंसइ कत्थइ वियारं ॥१७६॥ दाससि वयसु तुह विरह-भावो सो यि पञ्चाह ॥१५२॥ अन्नदिणम्मि समित्तो, कुमरो पत्तो जिणिदभवणम्मि । तं संटविउ कुमारो, पत्तो जिणमंदिरे समं तेणं । पूइतुं रिसहनाई, एवं थुणिउं समाढत्तो ॥१७७॥ मज्झम्मि गो विमलो, ठिो य वालो यहि तहिं देसे १५३ | सिरिरिसहनाह ! तुह पय-नहकतीश्रो जयंतु तिजयस्स नामा कुमरेल प्रह-ति संकिरो भीयमाणसो धणियं । जंती उवज्ञपिंजर, भावं भावारिजीयस्स ॥१७८ ।। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५२ ) अभिधानराजेन्द्रः । कया खुद कमकमलं विमलं, दहुं दूराउ देवपदिवसं । धन्ना कलिमलमुक्का, रायमरालु व्ष धावंति ॥ १७६ ॥ असरिसभवदुइदंदो-लिपीलियाएं जियाण जर नाह ! | यि को सर, सीता व दिसनाहो ॥१८०॥ तिम पिच, सम्मं तुह पवय परिणाम । अजरामरभावं खलु, लहंति लहु लहुयकम्माणो ॥ १८१ ॥ देव वरमाणदंसण बुद्दाबि तुह दंसणेण देणं । नीरेण धीरा प स खयमे मालिनं ।। १८२ ॥ " द समर सामिय, फिलिकम्मो वि सिझर जीवो। किं न हु जायद कणगं, लोहं पि रसस्स फरिसें ॥ १८३॥ पडु ! तुह गुणथुणणेणं, विसुद्धचित्तारा भवियसत्ताणं । घणनीरेण व जंबू-फलाइ विगलं ति पावाई ॥ १८४ ॥ सपणे नये भाले माले हवे तुह नमये । तापक्खीभावं, लहु महुति जई स वियरेसु ॥ १८५ ॥ इय संघु सि देविंद-विंदवंदियजुगारजिणचंद ! | मह देसु निष्पकं भवे भवे नियपर नर्त्ति ॥ १८६ ॥ जानंद पिढमं । चंदु व्व विमललेसो- पंचगं कुणइ पणिवायं ॥ १८७ ॥ नासपती बप। तं सुणिय विमलविहियं, थयं पहिलो जण एवं ॥ १७८ ॥ नो 'साहु साहु सुपुरिस, ! निम्तिो ते भवोपही एस | जस्सेरिसी जिगि, जन्ती विष्फुरद अकलंका ॥१०९ ॥ ततो न दे, रुप्परं दाश्ये कार्ड | मणिपीढच्चा, हिठा ते दोषि उबविडा ॥ १५० ॥ यह पुच्छितगुकुल, खयरिंदो भणर जो महाभाग ! | जं मह कालविलंब, जाओ हेनुं सुणसु तत्थ ॥ १०१ ॥ तश्या तुम्ह सयासा पत्तो सपुरम्मि पणमिया पियगे । हरियो १०२ ।। अकं तम्मि दिणे, मह सयणगयस्स सरियजिणगुरुणो । निदागया निसार य, दव्वश्रो भावओ न उण ॥ १०३ ॥ मो भुषणेसरभलय ! उम्र एवं सुणनओ ययणं । बुको नियमि पुरो, रोहिणियमुद्ध उ विज्जाओ ॥ १९७४ ॥ तु धीरधम्मथिरभाव-रंजिया पुन्नपेरिया अम्हे । सिद्धाउ ति णित्ता, मह श्रंगे अपविठा उ ॥ १६५ ॥ सोस विडियो मे खयर भिसेओ । बोली के विदिणा, नवरज्जं संठवतस्स ॥ १६६ ॥ ॥ सुमरिय तु आएसं परिमि नृरिमंरले बई। दिएर बुद॥ १५७ ॥ 29 1 यि तु पुनो, सयलो वि दु तरस समणसहस्स । तुम्हाणरणुग्गा, श्रश्रा श्ट सो पहू रहि ॥ १६८ ॥ इय कारणान अह यं, कालविलंवेण कुमर ! छह पत्तो । इयजा कोइ खयरो, ता पत्तो तत्थ सो भयवं ॥ १५६ ॥ परियं बात्रि पराओ। विमलखयराइसहियो, पत्तो गुरुचरणनमणत्थं ॥ २०० ॥ तिपयाहिणीकरेउ. सपरियणो पणमिऊण गुरुपाए । भत्तिनरपुल गो, उयविधो उचियदे सम्मि ॥ २०९ ॥ अथ राजा गुरो रूपं भुवनानन्ददायकम् । साकानिरीक्ष्य निर्व्याजं व्याजहार सविस्मयः ॥ २०२ ॥ मगनीदशे रूपे, राज्यभारोचितेऽपि हि । कुतो वैराग्यता पूज्य जगृहे दुष्करं व्रतम् || २०३ ।। अवबुध्य ततस्तेषां प्रतिबोधं विशेषतः । वाचस्पतिमतिच सुपाचेति यतिप्रभुः ॥ २०४ ॥ राजन् ! राजकराकार - जैनमन्दिरसुन्दरम् । प्रभूतवृत्तं वृत्तान्तं पुरमस्ति धरातलम् ॥ २०५ ॥ राजा शुभविपाकाख्य-स्तत्र शत्रुवनाननः । सदा नमोगा देवी सीता २०६ ॥ क्रमात्तयोः समुद्भूतः सद्भूतगुणमन्दिरम् । केतकीपत्र पवित्र चरित्रस्तनयो बुधः ॥ २०७ ॥ नाभिप्रायतूपस्य, पुत्रिकां धिषणाभिधाम | स्वरापास्त सदीयने ॥ २०८ ॥ तथाऽशुभविचाको स्ति तस्यैव नृपतेः । भार्या परिणतिस्तस्य, तथा मन्दाह्वयः सुतः ॥ २०५ ॥ अन्योऽन्यदखीदारी, बुधमन्द महमुदा । एकदा निजक परिकडितुमीयतुः ॥ २९० ॥ तस्यान्ते ददृशे ताज्यां, विशालो जानपर्वतः । लम्बनील केशालि - वनराजिविराजितः ॥ २.११ ॥ श्रधस्ताद्भाल शैलस्य, वरापवरकच्या । शेतःस्फुरकान्ता नासिकानामिका गुदा ॥ २१२ ॥ सहावा प्रायाभिन शिशुना समम् । शिश्या जगतानामन्या, मन्दो वैध मुदा करोत् ॥ २१३ ॥ दध्यौ बुधस्तु शुद्धात्मा, सतामन्यस्त्रिया सद् । श्रालापोऽपि न युक्तः स्यान्मित्रतायास्तु का कथा ॥ २१४ ।। तन्मे जगताप देवाण स्वक्त्रादिगुहामध्य वास्तव्योऽईति पालनम् ॥ २१५ ॥ एवं ध्यात्वा बुधः कृत्वा, प्राणेन सह मैत्रिकाम 1 उजाच्यामपि 'मन्दस्तु, स्वस्वसद्म समीयतुः ॥ २१६ ॥ अथो भुजंगता दोषात् सुगन्धााणलम्पटः । श्रमन्दमन्दधर्मन्दो, प्राप दुःखं पदे पदे ॥ २९७ ॥ तोड विचारों बुधदारका कथंचिन्निरगाहा देशदर्शनकाम्यया ।। २१८ ॥ बहिरङ्गात्तरङ्गेषु भूरिदेशेषु भूरिशः । सभूरिकौतुको प्रान्त्वा, तागान्निजमन्दिरे ॥ २१६ ॥ समाते । संतुष्टं राजकं सर्व, भृशमानन्दितं पुरम् ॥ २२० ॥ महाविमर्देन सम कय साज्ञायि मैविका तेन, घ्राणेन बुधमन्दयोः ॥ २२१ ॥ ततः पितरमेकान्ते, विचारः प्रोचिवानिति । तात घ्राणेन ते मैत्री, न जध्या शृणु कारणम् ॥ २२२ ॥ तदहं तातमस्यांचा - नापृच्छ्रय निरगां गृहात् । देशान् र सात देशेषु भूरिषु ॥ २२३ ॥ श्रन्यदा भवचक्राख्ये, संप्राप्तोऽहं महापुरे। तत्र राज्यपथेऽपश्य मेकां प्रवरसुन्दरीम् ॥२.२४|| सात जातो, प्रमोदपुलकाद्वितः । मानवेद्र सिजने ॥ २२५ ॥ सोऽपि मांजरे सिके वाऽमृतसेवेन प्राप्तराज्ये ॥ २२६ ॥ ततः कृतप्रणामो ऽहं प्रोक्तो दत्ताशिषा तया । कस्त्वं वत्स! मयाऽप्युक्तं, धिषणावुधनूरहम् ॥ २१७ ॥ अवातरौ मात देशकालिकया गतः । अधोसा मां पर प्रोजे ह। २२८ ॥ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५३) अभिधानराजेन्द्रः। कयता कयम धन्याऽस्मि कृतकृत्याऽस्मि, यद दृष्टस्त्वं मयाऽनघ!। त्वं न जानासि मां वत्स! सघुर्मुक्तोऽसि यत्तदा ॥ १२ ॥ अहं हि बुधराजस्य, सर्वकार्येषु संमता। धिवणाया वयस्याऽस्मि, नाम्ना मार्गानुसारिता ॥ २३० ।। मतो मे भागिनेयस्वं, सुन्दरं कृतवानसि । यदेशदर्शनाकावी. नगरेऽत्र समागमः॥२३१ ॥ येनेदं नगरं दृष्ट, नूरिवृतान्तसंयुतम् । तेन वत्सेवितं सर्व, नुवनं सचराचरम् ॥१३२॥ मयोक्तमम्ब ! यद्येवं, तन्मे संदर्शयाधुना । पुरमेतत्तथैवाम्बा, मम सर्वमदीहशत् ॥ २३३ ॥ प्रथैकत्र मया दृष्ट, पुरं तत्र महागिरिः । तच्छिखरेऽतीव रम्य, निविष्टमपरं पुरम् ॥१३४ ।। मयोक्तमम्ब! किं नाम, पुरमेतदवान्तरम् । किंनामायं गिरिः चि, शिखरे दृश्यते पुरम् ॥ २३५ ॥ अम्बा जगाद बरसेदं, पुरं सात्विकमानसम् । विवेकोऽयं गिरिया-मप्रमत्तत्वमित्यदः ॥ २३६ ॥ इदं तु भुवनख्यातं, वत्स! जैनं महापुरम् । तव विज्ञातसारस्य, कथं प्रष्टव्यतां गतम ॥२३७॥ यावस्सा कथयत्येवं, तात! मह्यं फुटाक्षरम् । तावज्जातोऽपरस्तत्र, वृत्तान्तः श्रूयतां स तु ॥ २३८॥ गाढं प्रहारनिर्मिन्नो, नीयमानः सुविज्वलः । पुरुषैर्वेष्टितो व्यक्षि, मयैको राजदारकः ॥ २३६ ॥ मयोक्तं दारकः कोऽयं, किं वा गाढप्रहारितः। कुत्र या नीयते लग्नः, के चामी परिवारकाः ॥२४॥ अम्बिका स्माह हेवत्स,! विद्यतेऽत्र महागिरौ । राजा चारित्रधर्माख्यो, यतिधर्मा च तत्सुतः॥२४१॥ तस्यायं संयमो नाम, पुरुषः प्रौढपौरुषः । एकाकी च क्वचिद् दृष्टो, महामोहादिशत्रुभिः ॥ २४२ ॥ बहुत्वादथ शत्रूणां, प्रहारर्जर्जरीकृतः । श्रय निस्सारितो वत्स, ! रणभूमेः पदातिभिः ॥ २४३ ॥ प्रक्षिप्य डोलिकायां च, नीयतेऽसौ स्वमन्दिरे । अस्य चात्र पुरे जैने, सर्वे तिष्टन्ति बान्धवाः ॥ २४४ ॥ ततोऽहं कौतुकाक्षिप्त-स्तात! मात्रा समं क्षणात् । तेषामनुसमारूढो, विवेकगिरिमस्तके ॥२४५ ॥ अथ तत्र पुरे जैने, राजमण्डलमध्यगः। हरचित्तसमाधाने, मण्डपे स महानृपः ॥२४६॥ सत्यशौचतपस्त्याग-ब्रह्माकिंचनतादयः । अन्येऽपि मण्डलाधीशा, अम्बया दर्शिता मम ॥ २४७॥ इतश्च तैर्नरैस्तूर्म, समानीतः स संयमः । दर्शितोऽस्य नरेन्द्रस्य, वृत्तान्तश्च निवेदितः ॥ २४८ ।। तद्धेतुकस्ततस्तात, ! मोहचारित्रभूभुजोः। तदा महाहवो जो विश्वस्यापि भयंकरः॥२४॥ क्षणाश्चारित्रभूपालः, सबलो बलशालिना । जिग्ये मोहनरेन्द्रेण, नद्या स्वस्थानमाश्रयत् ॥२५॥ ततः परिणतं राज्यं, महामोहमहीपतेः । चारित्र वर्मराजस्तु, निरुद्धो व्यन्तरे स्थितः ॥२५१ मार्गानुसारिताऽवादीदू, दृष्टं वत्स! कुतूहलम् । पर दृष्टं मयाउप्युक्त-मम्बिकायाः प्रसादतः ॥२५॥ केवल कलहम्यास्य, मूलमम्ब : परिस्फुटम् ।। अहं विज्ञानुमिनछामि, प्रोम्बा पुर॥५३॥ रागकेशरिराजस्य, मन्त्री प्रोस्साहसाहसः । त्रैलोक्यमपि विषया-भिलाष इति विश्रुतः ॥ २५४ ॥ अनेन मन्त्रिणा पूर्व, विश्वसाधनहेतवे। मानुषाणि प्रयुक्तानि, पश्चात्मीयानि सर्वतः ॥ २५५ ॥ स्पर्शनं रसना घ्राणं, दृकश्रोत्रमिति नामतः । जगञ्जयप्रवीणानि, विश्वाद्वैतबलानि च ।। २५६ ॥ कापि तान्यभिभूतानि, संतोषेण पुरा किल। चारित्रधर्मराजस्य, मन्त्रपालेन लीलया ॥२५७॥ तनिमित्तः समस्तोऽयं, जातोऽमीपां परस्परम् । कलहो वत्स! साटोप-मन्तरङ्गमहीनुजाम् ॥२५८ ॥ मयाऽवाच्यथ पूर्ण मे, देशदर्शनकौतुकम् । साम्प्रतं तातपादानां, समीपे गन्तुमुस्सुकः ॥२५६॥ मात्रोक्तं गम्यतां वत्स, ! निरूप्य जनचेष्टितम् । अहमप्यागमिष्यामि, तत्रैव तव संनिधौ ॥ २६० ॥ ततोऽहमागमं क्षिप्तं, निश्चित्येदं प्रयोजनम् । ततस्तातामुना मैत्री, ब्राणेन न तवोचिता २६१ ॥ यावनिवेदयत्येवं, विचारो निजघीजिने । मार्गानुसारिता ताव-दागाधलभूपतेः ॥ २६२ ॥ समर्थितं तया सच, विचारकथितं वचः। स्यजामि घ्राणमित्येवं, वुधस्यापि, हृदि स्थितम् ।। २६३ ।। इतो तुजङ्गतायुक्तो, घ्राणलालनलाबसः। मन्दः सुगन्धिगन्धानां, सदान्वेषणतत्परः॥२६४ ।। तत्रैव नगरे श्राम्यन्, लीलावत्या निजस्वसुः । देवराजस्य भार्याया, ययौ गेहे कदाचन ॥२६५ ॥ सपत्नीपुत्रघातार्थ, तस्मिन्नेव कणे तया। आत्तो मोम्बकरासन्धः, संयोगो मरणात्मकः ॥ २६६ । तां गन्धपुटिका द्वारे, मुक्त्वा लीलावतीगृहे। प्रविवेश स च प्राप्तो, मन्दं सा तेन वीक्विता । २६७ ॥ ततो भुजंगता दोघा-गेटयित्वा पुटीमसौ। तान् गन्धान सहसाऽजिन-प्राणैश्च मुमुचे कणात् ॥२६॥ तं मन्दं घ्राणदोषेण, विपन्नं वीक्ष्य गुरुधीः। विरक्तः प्रावजर्म--घोषाचार्यन्तिके बुधः । २६९ ॥ स क्रमेण समस्ताङ्गो-पाङ्गापूर्वविशारदः। अनेकलब्धिवार्यधि--संप्राप्तसुरवैनवः॥ २७० विहरत्र संप्राप्तः, स एषोऽहं नरेश्वर!। बतहेतुः पुनर्जरे, तन्मे मन्दस्य चेष्टितम ॥ २७१ तच्छुत्वा विस्मयस्मेर--लोचनो धवनो नृपः। विमनाया जनाः सर्वे, कृताजनय ऊचिरे ।। २७२ ।। अहो जगवतो रूप-महो मधुरिमा गिराम । अहो परोपकारित्व--महो वोधनचातुरी ।। २७३ ।। अहो सदा स्वयं बोध-बन्धुरैकधुरीणता। या जगवतोऽमुष्य, चरित्रं सर्वमप्यहो ॥२७४ ।। अह सविसेसं राया, संवेगगो पयं पए कुमरं । तु वच्च! गिण्ड रज्जं, वयं तु दिक्खं गहिस्सामो॥२७॥ जण कुमारो किं ताय, तुह अहं शह अणिटुओ तणओ। रज्जपयाण मिसेणं, जेणमिमं खिवसि भवप्रवडे ॥ २७६ ॥ तं सुणिय मणे तुझो, धवलो विमलस्स महरयं बंधु । कमलं कयलिदनच्छं, नियरज्जभरम्मि संग्व॥२७७ ॥ विमलकुमारेण समं. अंतेनरपवरमंतिमाश्जुनो। गिसिवुहमरिमयासे. गिरवर दिक्खं घवलरायो॥२७॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५४) कयामू अभिधानराजेन्द्रः। कयपडिका इथंतरम्मि नटो, मुठी बंधित्तु वामदेवो सो। स्तत्सत्यकरणता चेति गुरुविनयः । यो हि गुरुकृतमुपकारमा हु कुमारो दिक्खं, बझाविमं गाहस्सत्ति ॥२७॥ मात्मविषयं विवेकसंपन्नतया जानाति यथाऽस्मास्वनुग्रहकुमरमुणिणा वि किमिणं, ति पुच्छिउं जगए समणसीहो। प्रवृत्तः स्वकीयकलेशनिरपेक्षतया सार्वदिवं महान् प्रयास। विमझअनिम्मलचरिए-णिमिणा किं पुच्छिए गंते ॥२०॥ शास्त्राध्ययनपरिज्ञानविषयः प्रतं काझं यावत् कृत इति सकृतक नियकजविग्घजणगे, इमस्स चरिए वहीरणं कुणसु । उच्यते। अथवाऽल्पमप्युपकारं नृयांसं मन्यते । अथवा कृताकश्यरो वि पाह एवं, जे पुरजा प्राणवंति ति ॥ २८१ ॥ तयोोकप्रसिहयोर्विभागेन कृतस्य मतिपाटवाद् विशेषं विअह कयकिञ्चं अप्पं, मन्नंतो रयणचूमखयरिंदो। षयं स्वरूपं परिच्छिनात्त न पुनर्जमतया कृतमाप साकात नमिउं गुरुपयकमलं, संपत्तो निययनयरम्मि ॥ २८२॥ प्रणानिकया वा न वा न वेति ततस्तद्नावः कृतज्ञता तेषु गु. चितर कुमारसाहू, कयन्नुसिरसेहरो कया वि मणे । रुषु कृतज्ञतासहितं चित्तं कृतइताचित्तम् पो०१३ विवा"एवं परवयारपरतं, अहो अहो रयणचूडस्स ॥२३॥ गुरुबहुमाणो, कयएणुया सगलगच्छगुणवुडी" गुरुममुश्चता पढमजिणनाहदंसण-पवरवरत्तारजण पढम पि । कृतज्ञता चाराधिता भवति प्रधानश्चायं पुरुषस्य गुणो लोकेऽपि जयभीमकृयकुहरे, निवडतो रक्खिनो तश्या ॥२८४॥ गीयते । तथाहि "स कलाकलापकुशलः, स पएिमतः सकलसिरि बहमुर्णिदर्दसण-दसणपायणेण पुण अहणा। शास्त्रवेदी सः । निःशेषगुणगरिष्ठः। कृतज्ञता यं समाश्रयते" श्रह य तह पस जणो, सिद्धिपुरीसंमुहो विहिरो ॥२८॥ लोकोत्तरेऽपि एकविंशतिगुणमध्ये पठित एवेति । ५००। इय चिततो निच्चं, कमेण निधियअटुकम्ममनो। कयत्थ-कृतार्थ-त्रि० कृतोऽर्थःप्रयोजनं येन । कृतस्वप्रयोजने, विमलो तह धवलनिवो-अहविमनपयं समापत्तो ॥२०६॥ न०१श० उ०का। आ० म०प्र० । कृतकृत्ये, आचार्योताया स वामदेवो, दिक्खागाहणभया तो नहो। पाध्यायप्रवर्तकस्थविरगणावच्छेदकलकणपदपञ्चकयोग्बतकंचणपुरम्मि पत्तो, ठिो गिहे सरलसिस्सि ॥ २८७ ॥ या शिष्याणां निष्पादनेन निष्ठिताथे, "कृतार्थानां निरपेक-यतिसिट्ठी सो य अपुत्तो, तं सव्वत्थ वि गणेश पुत्तं च । धर्मोऽतिसुन्दरः" ध०४ अधिः। अंतद्धणं पि दंसर, अइसरलो तस्स कुमिलस्स ॥ २० ॥ कृतास्त्र-त्रि० कृतं शिक्कितमस्त्रं येन । शिक्षिताने, वाच० । कश्यावि सो निसाए, अंतरूणमुक्खिणित्तु अन्नत्थ । कदर्य-पुं० कुत्सितोऽर्थः " कोः कद्ततःतत्करोतीति णिच् । हट्टान उबश्छन्नं, वहेरिश्रो दंडपासीहिं ॥ २० ॥ ता नग्गओ दिणयरे, मुझो मुटुति तेण पुक्करियं । कदर्थयति कुत्सितमर्थ करोतीत्यर्थः । ततः क्तः कदर्थितः कुमिलिमो पनूयलोओ, सरलो जाओ विसन्नमणो ॥२०॥ सितार्थीकते, वाच० । " गोसासो वि कयत्यियपुषिमाए दिमा कुणसु सि!ि खेयं, लद्धो चोरु त्ति भणिय पासीहिं । वसतो पुच्छ" श्रा०म० द्वि० । ल्युट् कदर्थनम् कुत्सितार्थे, बंधिनु बामदेवो. नीओ नरनाहपासम्मि ॥२१॥ करणे-युच्-कदर्थना तत्रैव स्त्री० । वाच० । घटना कवर्थना कुविपण तेण वज्को, आणत्तो सरझसिक्षिणा तत्तो। आचा० १ श्रु०८ अ०१ उ०। दाऊण पहूयधणं, कहकहमवि मोइओ पसो॥२॥२॥ कयदाण-कृतदान-कृतं दानमनेन तत्प्रयोजनमिति प्रत्युपकातो निदिज्जर सोए, कयग्घचूमामणी श्मो पावो । राथै यहानं तत्कृतदानमित्युच्यते। दानभेदे, उक्तं च “ शतशः जेण नियजणयतुल्लो, वीससिनो वंचिो सरबो॥२९३॥ कृतोपकारो, दानं च सहस्रशो ममानेन । अहमपि ददामि किअन्नदिणे निवगिह,भिनं केणावि सिरूविजेण । श्चित, प्रत्युपकाराय तहानमिति" १ स्था० १० ग०। न य लक्खिओ य एसो, तो कुवित्रो नरवई वाढं ॥२४॥ कयदिधम्म-कृतदृष्टधर्म-त्रि० कृत प्राचरितो दृष्टो व्यवसिएयं तु वामदेवस्स, कम्ममियं जंपिउं तयं पाये। तोऽवगतश्च धर्मो येन स तथा । ज्ञातश्रुतधर्मे, " भिक्खमुयचे ओबंधावर सो विदु, मरिन पत्तो तमतमाए ॥२०॥ कयदिट्ठधम्मे, गामं च णगरं च अणुप्पविस्सा " सूत्र० तत्तो अणंतकासं, भमियनवे कहवि बहियनरजम्मं । १ श्रु. १३ अ०। होउं कयन्नुपवरो, सिवं गो वामदेवो वि" ॥२६॥ कयधि-कृतधि-त्रि० कृतोपरिकर्मिता तत्वोपदेशपेशवैस्तच्चा"इत्येवं च कृतज्ञतागुणसुधां संतापनिर्वापिकां। स्त्राच्यासप्रकर्षेण संस्कृताधीबुर्येिषां ते कृतधियः। विपश्चिददुष्प्रापामजरामरास्पदकरी प्रार्थी बुधानामपि । पेषु पुरुषेषु, "त्वमेवातस्त्रातस्त्वयि कृतसपर्याः कृतधियः"स्या। पायं पायमपायमुकतनवः स्फारीनवत्समदा, कयपंजलि-कृतपाञ्जलि-त्रि० प्रणत्यर्थ कृतप्राञ्जलिवति,कभोजव्या भवताऽनिशं विमलवनिःशेषतृष्णोज्जिताः ॥२६॥ उक्तः कृतज्ञ श्त्येकोनविंशतिमो गुणः ध०र०॥ यपंजनिअभिमुहो, त जाणसु नासणालुद्धं " श्राव०६अ। गुरुविहितोपकार, स्वार्थे कः कृतनकस्तत्रैव पंचा०२१विव० कयपमिका-कृतप्रतिकृति-स्त्री. विनयात्प्रसादिताःसूरयः श्रुतं कयगुया-कृतज्ञता-स्त्री कृतस्य इता ज्ञान परोपकृतस्य अनि- दास्यन्तीत्यभिप्रायेणाशनदानादियनरूपे लोकोप्रचारविमयभेहवे , ( ध०) कतइतासु दाक्तिण्य, सदाचारः प्रकीर्तितः " दे, पंचा० १६ विव० सं०1"कयपमिकई तहय" कृते भक्ताध०। एवं हि तस्य महान् कुशललामो भवति अत एव कृतोप दिनोपचारे प्रसन्नाः गुरवः प्रतिकृति प्रत्युपकारं सूत्रादिदानेन कारं शिरसि जारमिव मन्यमानाः कदाऽपि न विस्मरान्त सा में करिष्यन्ति नो नामैकेव निर्जति जतादिदाने यत्नः कार्यः। धवस्तदुक्तम् । प्रथमवयसि पीतं तोयम स्मरन्तः, शिरसि श्रुतप्रापणादिकं निमित्तं कृत्वा श्रुतं प्रापितोऽहमनेनेति हेतोनिहितभारा नारिकेरा नराणाम् । उदकममृतकल्पं दाराजीवि- रित्यर्थः विशेषेण विनये बर्तितव्यम् ध० ३ अधिः । ताम्तं, नहि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति" इति । ध०१ "कज्जे पमिकिती चेव" कृते काबें यः क्रियते विनयःस भधिः । परोपकारपरिक्षाने, द्रा० । कृतहता चिचे आझायागे- प्रतिकृतिरूपत्वात् प्रतिकृतिरूपे च घिनये, व्य०१3०( आक्षे. Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५५) कयपडिक अभिधानराजेन्डः। कयवयकम्म पपरिहारौ विणयशब्दे वक्ष्यति) उपकृते सति प्रत्युपकारे च पुरच्छिमेणं सीयाए महाणईए उत्सरेणं अट्ट दीहयेयचा अट्ठत"कयपमिकई पसते गुणो दीवेज्ज" कृतप्रातिकृतये प्रति एके- मिस्सगुहायो अट्ठ कयमालगा देवा" स्था०८ ठा० श्रा०म०प्र०। नैकस्योपकृतं गुणा धोत्कीर्तिताः स तस्यासतोऽपि गुणान् प्र. कातिताः स तस्यासतोअप गुणान् प्र- | कयमोहत्यवेफ-कृतमोहाखवैफल्य-त्रि• कृतं मोहस्य - त्युपकारार्थमुत्कीर्तयतीत्यर्थः स्था० ४ ठा०४ उ०। । स्त्रस्य वैफल्यं निष्फलत्वं येन । मोहरूपास्त्रस्य विदारपेन कयपमिकइया-कृतप्रतिकृतिता-स्त्री० कृते भक्तादिनोपचारे निष्फलताऽपादके,“ कृतमोहात्रवैफल्यं, शानचर्म बिभर्सि प्रसन्ना गुरवः प्रतिकृति प्रत्युपकारं सूत्रादिदानतः करिष्यन्तीति यः। क भीस्तस्य क वा भङ्गः कर्मसङ्गरकेलिषु" अष्ट०१४०। भक्तादिदानं प्रति यतितन्यमित्येवं रूपे लोकोपचारविनये, कयर-कतर-त्रि०किम्-डतर-पूयोर्मध्ये जात्यादिभिर्निर्धारस्था०७ गग णार्य प्रश्नविषये, वाच० । किम्भूते, " कयरे मग्गे अक्खाए कयपमिकयय-कृतप्रतिकृतक-त्रि० कृते उपकृते प्रतिकृतं प्रत्यु माहणेणं मइमया" सूत्र० १ ० ११ १० । " कयरे जे ते पकारः तद्यस्यास्तीति स कृतप्रतिकृतिकः । कृतप्रत्युपकर्तरि | सोपरिया मच्छवधा" प्रश्न आश्र० १ द्वा।। स्था०४०४ उ०। कदर-पुं० कं जलं रणाति ह-अच्-श्वेतखदिरे, तस्य सेषकयतिकिरिया-कतप्रतिक्रिया-स्त्री. अभ्यापितोऽहमनेनेति नात मशिनम्य Terma नात् मुखस्थितस्य श्लेष्मणा संहतरूपजलस्य दारणात् पाच. बुध्या भक्तादिदाने, गा० १ अधिः । कयरिवुफला-कचरिपुफला-स्त्री० कचस्य रिपुः फलमस्यशकयपवयणप्पणाम-कृतप्रवचनप्रणाम-त्रि० कृतो विहितः प्रव-! टीवृक्षे , राजनि वाच । घनशब्द दर्शयिष्यमाणार्थस्य प्रवचनस्य प्रणामो येन स कृत- कयन-कदल-पुं० वृषा० कला रम्भावृते, मेदिायाच०। प्रवचनप्रणामः । नमस्कृतप्रवचने, " कयपवयणप्पणामो वो- कदलीफले. न०। ७०१उ डिम्बिकायाम, शाल्मलिवृक्षेच छ चरणगुणसंगहं सयलं" विशेगा"कयपवयणप्पणामो वुच्छ स्त्री० मेदि०। अजादेराकृतिगणत्वात् टाप वाचः। पच्छित्तदाणसंखेवं" जीत०। (श्त्युभयत्र कयपवयणेत्युक्त्या उभयोगप विशेषावश्यकजीतयो यकृदेक एव जिनभरूगणि कयाक्खण-कृतलक्षण-त्रि० कृतानि सार्थकानि लक्षणानि कमाश्रमणः स्वशैली सूचितवान् )। देहचिहानि येन स कृतलक्षणः। भ. श० ३३ उ०। कृतफकयपुष्प-कृतपुण्य-त्रि० जन्मान्तरोपात्तसकते, शा०१०। उ- लवच्छरीरलक्षणे, शा० १० भ० । नि। पार्जितशुभकर्मणि, पंचा० ६ विवानि । पायसदानेन देव कलिघरग-कदल्लीगृहक-नक कदलीमयगृहे, जी० ३ प्रतिक सोकं गत्वा च्युतेराजगृहे नगरे धनवहस्य श्रेष्ठिनः पुत्रे, (साम २ उहा। इयशब्द दानेन तबाभेऽस्य वक्तव्यता वक्यते) कयलिसमागम-कदलीसमागम-पुं० स्वनामख्याते प्रामभेदे कयपुन-कृतपूर्व-त्रि० पूर्वकृते, सूत्र०१ भु० १५०। यत्र मालिसुतस्य गोशालस्य दधिसम्मिश्रं क्रूरं भोजनमभूत् कयबलिकम्म-कृतवलिकर्मन्-त्रि० कृतं निष्पादितं स्नानानन्तरं श्रामणद्वि० । प्रा०चू०।। बलिकर्म स्वगृहे देवतानां पूजा येन स कृतबलिकर्मा । तं० कयली-कदल्ली-स्त्री० काय जलाय दल्यते तत्त्वगादौ जलवा२०५० भ० । देवतानां विहितबसिविधाने, विशे। हुल्यात् गौरा डीप रम्भावृते, अमरः पाच० । बलयानि कयमिकम्मत-कृतनूमिकर्मान्त-न० कृतं भूमिकर्म छगणलेप- केतकीकदल्यादीनि श्राचा० १ श्रु० १०२ उ० । शा। नादिकर्मान्तेषु प्रान्तप्रदेशेषु येषां तानि कृतभूमिकर्मान्तानि । वैजयन्त्याम, कदल्याकारवस्त्ररूपत्वात्तथात्वम् । हस्तिपताछगणलेपादिना संस्कृतप्रान्तेषु, “बलयाणि पामसामिम ज- कायाम्, हारा। मृगमेदे च वाचा तगाय कयनूमिकम्मंता" वृ०२०। कयलीखंज-कदलीस्तम्न-पुंण् कदलीवृक्षे, " कयलीसंभाकयमंगना-कृतमाला-स्त्री० स्वनामण्यातपुर्याम, "कयमंगला- तिरेगसंठियणिव्वणसुकुमालमउयकोमलप्राइविमलसमसंहपुरीए, धणसिद्विसुया उबालविहवासी । जयसुंदरीति तीसे, त सुजायवट्टपीवरनिरंतरोरु " कदलीस्तम्भाभ्यामतिरेकेभत्तिजुया भायरा पंच" संथा० । णातिशायितया संखितं संस्थानं बयोस्ती कदलीस्तम्भातिरकयमाल-कृतमाल-पुं० कृता मालाऽस्य प्रारम्बधे, कर्णिकारे कसंस्थिती निर्वणी विस्फोटिकादिकृतकतरहितौ सुकुमाराव च । अमरः । वाचायके, जं । मालां कृतवति, त्रि०वाचा कर्कशौ मृदू अकउिनौ कोमलौ दृष्टिसुन्नगौ अतिविमलौ सकयमालय-कृतमालक-पुंजरते वर्षे, दीर्घवैताख्यसत्कतमिन- र्वथा स्वानाविकागन्तुकमललेशेनाप्यकलङ्कितौ समसंहतीसगृहाधीश्वरे देवे, स्था. २०३ उ० । येन चक्रवर्तिनस्तत्र ग मप्रमाणौ सन्तौ संहती समसंहतौ सुजातौ जन्मदोषरहिती च्छन्तः सक्रियन्ते इतरे राजानो नाइयन्ते यथा जरतचक्रिणो वृत्तौ वर्तुसौ निरन्तरावुपचितावयवतया अपान्तरालवर्जितो जययात्रायाम् श्रा०चू०1"तए णं से चक्करयणे पञ्चच्चिम- ऊरू यासां तास्तथोक्ताः जी० ३ प्रति०1 दिसि तिमिसगुहाभिमुहे पयाया वि दोत्या जाव तीए गुहा ते कयवम्म-कृतवर्मन्-पुं० प्रयोदशतीर्थकरस्य पितरि, साावा अदरसामंते खंधावारकरणं तदेव अहमभत्तंसि परिणम कयवयकम्म-कृतव्रतकर्मन्-पुं० कृतमनुष्ठितं व्रतादीनां कर्म त. माणसि कयमानप देवे चसियासणे वागते जाव पीतिदाणार थाणुवतं शानबागप्रतिक्षणं येन प्रतिपन्नदर्शनेन स कृतनवीरयणस्स विजग्गचोदसं झालंकारंकमगाणि य जाव भाभ तकर्मा । प्रतिपत्राणुवतादौ, द्वितीयश्रावकप्रतिमा प्रतिपत्रे,। ग्णाणि य" श्रा००१ बाकोणिको राजा कृत्रिमाणि रत्नानि | तद्भेदा यथारुत्वा भरतक्षेत्रसाधन प्रवृत्तः कृतमालयक्षेण गुहाद्वारे व्यापादितः स्था० ४.३ उ० आर० । देवेच "मंदरस्सा तत्यायमणिजाणण, २ गिग्रहण ३ पंडिसेवणेसु ४ उ. Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कयवयकम्म अनिधानराजेन्द्रः। कर ज्जुत्ता। कयवयकम्मो चउहा,भावत्थो तस्सिमो होइ।३४॥ कया-कदा-अन्य० कस्मिन् काझे, "कया णं अहं अप्पं वा बहूं, तत्र तेषु षट्सु सिङ्गेषुमध्ये कृतवतकर्मा चतुर्दा चतुदो भ- वा" स्था० ३ ठा०४०। वतीति संयन्धः । तानेव भेदानाह । प्राकर्णनं श्रवणम १ ज्ञान-किया-कदाचित-अन्य कदाचमार्थे, सूत्र.१ भु०१ ०३ २०। मवयोधः २ ग्रहणं प्रतिपत्तिः ३ प्रतिसेवनं सम्यक् पालनम्। | “नडेसि कयाइ ति" कदाचिदिति वितथिः । अहमेवं मन्ये ततोद्वन्द्वस्तेषुवतानामिति प्रक्रमाम्यते उद्युक्त उद्यमवान् भा- यत नष्टस्त्वमसीति भ० १५ श०१३० । कदाचनदियोवार्थः पदं तस्य चतुर्विधस्याप्ययमासनं भणियमाणो नव- अन्यत्र वाच० । तीति १३ ध०र० ५६40101(आकलनादिशब्देषु तव्याख्या) कयाकय-कुताकृत-त्रि कृतश्वासावकृतश्च कृताकृतः मयूरव्यंसकयवर-कचवर-पुं० प्रवकरे, शा०७० श्लणतृणधूल्या- कादय इति समासः । नैगमनयमतेन कृते शेषाणामकृते, भा० दिपुज्जरूपे (राआचा०) गुहमसे, आव०१. "बहुमुसिर- म० विकिञ्चित्कृते किञ्चिवकृते च । कृतं कार्य च अकृतं कादव्वसंकरो कययरो जम्पति" नि० चू०७० । रणं च समा० कार्यकारणयोः, तेन नविशिष्टेनाऽनम्" कयवरणिस्सिय-कचवरनिश्रित-पुं० यत्र तृणधूलिसमुदाय- पा। कृते प्रकृते च । भाव-क्त-करणाकरणयोः, म०द्विश्वाच० स्तमिश्रितः कृमिकीटपतङ्गादी जीवभेदे, भाचा०१ ० १ कयागम-कृतागम-त्रि० कृतपरिकाने, व्य०१०।त भागमो अ०४ उ०। येन प्रागमकर्तरि, वाच । कयवरोकिया-कचवरोधिका-श्री. अवकरशोधिकायाम, याभरण-कचाजरण-न० केशाभरणे, औ०। झा० ७ १० । गृहदास्याम, वाच। कर-कु-धा० तना० भ०सक० अनिट् । वर्षस्यार:४३३ कयविकय-क्रयविक्रय-पुं०मूल्येन वस्तुनो ग्रहणपाहणयो,गा | श्त्यन्तस्य अरादेशः कर-करोति, प्रा०। जत्थ य मुणिणो कयवि-कयाइँ कुव्वंति संजमग्भट्टा। कर-पुं० वर्षांपले, रश्मी, कीर्यते विक्षिप्यते क-करणे-अपतं गच्छं गुणसायर । विसं वदूरं परिहरिज्जा ॥ पाणी, हस्तिशुपके च । तयोर्जलादिक्षेपसाधनत्वात्तथात्वम् कयत्र गणे मुनयो व्यसाधवः क्रय मूख्येन वनपात्रौषधशिया मंणि अप-किरणे, मेदि० । वाचा जं."तुसारगंधारपीवरदिग्रहणं विक्रयं चमूल्येनान्येषां वनपात्रादिकार्याणां कुर्वन्ति करः" का०१६ अ.। औ० । गवादीनां प्रतिवर्षे राजचशम्दादन्यैः कारयन्ति अनुमादयन्ति वा किंभूता मुनयः संयम देये व्ये झा० १ ० । कल्प० । राजदेयभागे, प्रव०२ म्रहाः दूरीकृतचारित्रगुणाःगुणसागरेति गोतमामन्त्रणं तं गच्छ द्वा। पि० । हेत्वादी-कर्मोपपदे-कृ-कर्तरि, भटू तत्कर्मकारके, विषमिव हालाहसमिव दूरतः परिहरेत् सम्मुनिः। अब विषस्यो त्रि यथा श्रेयस्करः इत्यादि पात्र। पमा देशसाम्ये यतो बिषादेकमरणं भवति संयमचएगच्छा अस्य निकेपः। स्वनन्तानि जन्ममरणानि नवन्तीति गाथानन्दः ग० २ अधि०। नामकरो उवणकरो, दबकरो खेत्तकालभावकरो। कयविक्कय (यंका ) काण-क्रयविक्रयध्यान-10 क्रयणं क्र- एसो खलु निक्लेवो, करणस्स उ छम्विहो होइ ।। यो सानार्थमल्पमूल्येन बहुमूल्यवस्तुग्रहणं विक्रयणं विक्रयः नामकरः स्थापनाकरः "खेत्तकालनावकरो" इति करशम्दः बहुमूल्येनारूपमूल्यवस्तुग्रहणम् । क्रयश्च विक्रयश्च क्रयविक्रयौ प्रत्येकमभिसंबध्यते केत्रकरः कालकरो नायकरः । एष खलु तयोर्ध्यानम लोहमूल्येन स्वर्णकुशप्राहिलोभनन्दस्येव ध्यान करणं करस्तस्य निक्षेपः पट्टिधो जवति । तत्रनामस्थापने खुभेदे, प्रातु। मत्वादनाहत्य व्यकरमभिधित्सुराह ।। कयविकयसमिहिउवरय-क्रयविक्रयमबिध्युपरत-त्रि० क्रय- गोमहिसुट्टपसूणं, छगलीणं पि य करा मुणेयव्या । विक्रयसनिधिज्यः उपरतो विरतः अव्यभावनेवभिन्नक्रयविक्र- तत्तो य तणपत्राले, भुसकटिंगारकरमेव ॥ थपर्युषितस्थापनेन्यो निवृत्ते, दश०१०। सीनंबरजंघाए, बलिवकरे घमे य बम्मे य । कयविहंग-कृतविभङ्ग-त्रि कृता विहिता वृकादिरेव (विहंग बोधगकारयजणिए, अट्ठारसमाकरुप्पत्ती॥ नि) विभागा यस्य । स्वएमशः कृते, प्रश्न प्राध० ३ द्वा। गोमहिपोष्टपशूनां ग्गलीनामपि च करा ज्ञातव्याः। तत्र गो. कयविहव-कृतविनव-त्रि० कृतसफलसंपदि, का० १ ० । करयाचनं यथा पतावतीषु गोषु विक्रीतास्वेका गौतम्येति । कयबीरिय-कृतवीर्य-पुं० कार्तवीर्यार्जुनपितरि,यो हि स्वभा यदि वा गोविक्रयस्वरूपं रूपकयाचनं गोकरः ।। एवं महिषर्याव्यतिकरे यमदम्निना बिनाशित: सूत्र १७०० अ०। करः। ५ उष्ट्रकरः ३ पशुकरः। गली नरभ्रा तस्कर गलीवीर्यान्विते, त्रि. वाच। करः५ ततस्तृणविषयः करस्तृणकरः ६ पक्षालकरः७ तथा धुकयवीरिवायार-कृतवीर्याचार-त्रि० विहितस्वशक्तिव्यापारे, सकरः काष्ठकःए अङ्गारकरः१० सीता सावपतिःता. पंचा० ४ विष। माश्रित्य करो जागो धान्ययाचनं सीताफरः १९ उम्बरो देहली कयवेयहिय-कृतवितर्दिक-न० रचितवोदिके, शा०१०। मौका तद्विषयः करो रूपकयाचनम् उम्बरफर १२ पवं करा १३ वलीवर्दकरः १४ घटकरः १५ कर्मकरः १६ बुल्लगोजोजन तकयव्यय-कृतवत-पुं० स्त्री० उपस्थापिते, “गवेसऊमाघकयव्य देव करः बुखगकरः स चायं ग्रामेषु पञ्चकुलादीनधिकृत्य प्रसाजे सम्बे" व्य०४ उ०। सिक एब १७ अष्टादश करस्योत्पत्तिः स्वकल्पनाशिल्पनिर्मिज्यसपरिय-कतसपर्य-त्रि० कृता कर्तुमारग्धा सपर्या सेवावि- सापर्वोक्तसप्तदशकरव्यतिरिक्तःस्वेच्या कल्पितोऽयादशःकरः धिस्ते कृतसपर्याः । सेवितुं प्रवृत्तेषु, स्था। स चौतिक इति प्रसिः । उक्तो द्रव्यकरः। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर (३५७) अनिधानराजेन्द्रः । करकंडु संप्रति केत्रकरादीनभिधित्सुराह। स्तचरित्रमेवम् विनष्पापाया चम्पायां नगर्यो दधिवाहननामा खेत्तम्मि जम्मि खेतो, काझे जो जम्मि होइ कालम्मि । नपोऽनृत् तस्य चेटकमहाराजपुत्री पद्मावती प्रिया जाता सात न्यदा गर्भिणी बनय गर्नानुभावेन च तस्या ईदृशं दोहदमुत्पन्न विहो य होड जावे, पसत्यो तह अप्पसत्थो य ।। अहं पुवेपधरा भी धृतातपत्रा गजाग्रभागारूढाः आगमे में. यो यस्मिन् के शुल्कादिरूपो विचित्रः करः स क्षेत्रे केत्रवि चगमि सज्जया इदं दोहदं भूपतेः पुगे वक्तुमशक्ता साकृशाङ्ग। पया करः । तथा यो यस्मिन् काले भवति तुटिकादानादिरूपः बनून । राजाऽन्यदा तस्याः कृशाकारणं एम् । अतिनिवकरः स काले काबकरः । द्विविधश्च नवति भावे भावकरः । न्धेन सा स्वदोहदं कथयामास गजा अत्यन्तं तुटस्तां पट्टहदैविध्यमेव दर्शयति प्रशस्तस्तथा अप्रशस्तश्च । तत्र प्रशस्तप स्तिस्कन्धे समारोप्य स्वयं तच्चिरसि ग्धं धृतवान् तारश एव ांगते प्रशस्तसद्भाव इति आदावप्रशस्तमेवानिधित्सुराद । राजा गजारूढा राझी पश्चाद्भागे स्थितो बने ययौ । तस्मिन्समये कलहकरो ममरकरो, असमाहिकरो अनिम्बुड़करो य । तत्र जलदारम्भी बनय तत्र सल्लुकीप्रमुखविविधवृक्तपुष्पगएसो उ अप्पसत्यो, एकमाई मुणेयन्बो ॥ न्धेजलसिक्त मृगन्धश्च विलीनूतः स करी मदोन्मत्तः स्ववाआह उक्तप्रयोजनसद्भावादुद्देशेऽप्ययमेवादावप्रशस्तः क- सभूमि स्मरन् अरबी प्रति अधावत् । अश्वधारैः पदातिभि. स्मानोपन्यस्तः उच्यते इह समुत्क्षुम्मः प्रशस्त एव नाव प्रासेव- श्वासी न स्पृष्टः तेन गजेन गर्नान्वितया कदलीकोमवशरीरनायोग्यो नेतर इति स्थापनार्थमादी प्रशस्त उक्त श्त्यदोषः। तत्र या राश्या साध स राजा महाटव्यां नीतः। समविषमोमतदकलहोवाचिकंजामनं तस्करणशीलः प्रशस्तक्रोधाद्यौदशिक- रासन्नाननेकभावान् पश्यन भूपतिर्वटमकमायातं दृष्ट्वा भायी भाववशतः कलहकरः । कायवानोभिर्विचित्रं तामनं ममरं प्रतीदमबदन हेल! पुरःस्थस्यास्य बटस्य शाखामकामवनतत्करणशीलो डमरकरः । तथा समाधानं समाधिः स्वास्थ्य 'म्बेथास्त्वमहमप्येकां शाखामाश्रयिष्यामि गजस्तु एवमेव यातु न समाधिरसमाधिरस्वास्थ्य निबन्धना सा सा कायादिचेणा- एवमुक्त्या राजा बटशाखायां लग्नः राज्ञीत जयव्यग्रा बटाव. नरकरणशीलोऽसमाधिकरः निवृतिः सुखमनिवृतिःपीडा तत्क- लम्ब कर्तुमक्तमा हस्तिनाग्रतो नीता! राजा तु बटादुत्तीर्य रणशीलोऽसमाधिकरः एप नुशमस्यावधारणार्थत्वादेष एव शनैः शनैमिखितसैन्यः पत्नीविरहदुःखितश्चम्पायां प्रविष्टः । जात्यपेक्षयान तुव्यक्त्यपेकया एवमादिर्यक्त्यपेक्याऽन्यः प्रश- राही उष्टेन तेन हस्तिना महतोमटवीं नीता तृषाकुलः स हम्मा स्तो भावकरो ज्ञातव्यः। सम्प्रति प्रशस्तंभावकरमन्निधित्सुगह । चमुर्दिनु पानीयं पश्यन् एकं सरोदृष्ट्वा तत्पाव्यामवतीर्य याचदप्रत्यकरो यहियकरो, गुणकरो कित्तिकरो जसकरोय । धः पतति तावासाराझी वृक्षावलम्बेन तस्कन्धादुत्ततार गजस्तु प्रीमतापितः सरोऽन्तविवेश । राझी कान्तारं दृष्ट्वा नृशम्नीता अभयकरनिबुडकरो. कुलकरतित्यंकरतकरो॥ सत। मनसि एवं चिन्तयामास । क च तन्नगरं क च सा श्रीक मह अर्थो नाम विद्यापूर्वधनार्जनं शुभमर्थ इति सच प्रशस्तवि तन्मन्दिरं कसा मुखशय्या दुष्कर्मणां विपाकात सर्व मे गतम्। चित्रकर्मक्कयोपशमाविर्भावतस्तकरणशीसोऽर्थकरः । एव हि. अथवाऽत्र बने विचित्रस्वापदैश्चेत्प्रमादवशगाया मम मृत्युभतादिष्यपि भावनीयं नवरं हितं परिणामपथ्य यत्किश्चित्कुशला- विप्यति तदा मम दुर्गतिरेवेति मत्वाऽप्रमत्ता सती आराधनां नुबन्धि, कीर्ति नपुण्यफला, गुणा ज्ञानादयः, यशः पराक्रम- व्यधात् । सुकृतानि अनुमोद्य सर्वजीवेषु तमां कृत्वा चानकृतं पराक्रमसमुत्थः साधुवाद इति जावः । अनयादयः प्रकटा- शनं साकारं प्रपेदे नमस्कारं ध्यायन्ती तत उत्थाय साप र्थाः। नबरमतकर इत्यत्रान्तः कर्मणां तत्फन्तस्य या संसा- कया दिशा गच्छन्ती पुरस्तादेकं तापसं ददर्श। तापसेनेयरस्य परिगृह्यते । उक्तो भावकरः आमद्वि० प्रा०चूवाचण मेवं पृष्टा वत्से त्वं कस्य पुत्री कस्य प्रिया प्राकृत्यैव त्वं मया करंज-करज-पुं कं शिरः जलं वा रजयति अण. नक्तमाले, भूरिभाग्या शाता इयं का तवावस्था कथय वयम् अभयाः प्रशा.१ पद.। "करओ नक्तमालश्च, करजश्चिरबिस्वकः । घृत- शमिनः स्मः । सा राशी तापसं निर्विकारं निर्मलकरंज्ञाया पूर्णकरोऽन्यः, प्रकीर्यः पूतिकोऽपिच॥ स चोक्तः पृतिकरजः, स्ववृत्तान्तं शकलं जगी । एतस्याः रायाः पितुश्चेटकराजस्य सोमवल्कश्च स स्मृतः। करजः कटुस्तीणो, वीरयोष्णो योनि- मित्रेण तेन तापसेन उक्तं वत्से ! स्वया नातः परं चिन्ता दोपहत् ॥ कुष्ठोदावर्तगुरुमार्श-व्रणकृमिकफापहः"। उदकीर्य- कार्या अयम्भवः सर्वविपदामास्पदं सर्ववस्तूनामनित्यता पर्याये तु स्त्रीत्वमपि गौरा की तत्तैलगुणाश्च "करजतेसं चिन्तनीया एवं प्रतियोध्य सा राशी तेन तापसेन स्वाश्रम सुस्निग्धं, वातहत स्थिरदीप्तिकृत् । नेत्रामयवातरोग-कुष्टकरामू नीता । तस्याः प्राणाशा फलःकारिता । अथ स्वदेशसीम्नि तां विचिका नाशयेत् तीक्ष्णमुष्णं च, सेपनाश्चमंदोषहताराजनि नीत्वा स तापस एवं जगाद हेपुत्रि ! अतः परं हलकृष्टा वाच० बाचा । स्वाथै कन् करजकोऽप्यत्र पुं० वाच ॥ सावद्या धरा वर्तते सा मुनिभिोलाया ततोऽहं पश्चाद्वकरंग-करएम-पुं० वंशे, पिछकएमथाजं अणु। लामि अयं मार्गो दन्तपुरस्य वर्तते तत्र दन्तवनामा राजा करंमग-करण्डक-पु. करएम-स्वाथै कन् । वंशके, तं० । ब वर्तते इतः सुसार्थेन त्वं पुरे गच्छ । एवं निगद्य स तापसः साजरणादिस्थाने, समुके, स्था०४ ग०४ ना निचला (स्वपा. स्वाश्रमं जगाम रात्री तु पुरान्तःसाध्युपाश्रये जगाम साध्या कवेश्यागृहपतिराजकरएमकव्याख्या पायरियाले कता)। पृष्ट तया सकलोऽपि वृत्तान्तः कथितः। साध्वी तस्या एवमुपकरंब-करम्ब-पुं. दधियुक्तकनिष्पन्ने इधिविषये विकृतिगते, देशं ददौ अस्मिन् वने दुःखागारे संसारे सुखाभास एव स-- द्वेषां सर्वोऽपि भवनिस्तारोभवद्भिस्त्याज्य पर साध्वी वचमा प्रव०४ द्वा०।१०॥ वैराग्यं गता सा तदेव दीक्षां जग्राह स्वजनविश्नभिया सती करकंमु-काकए-पुं० स्वनामख्याते प्रत्येकयुद्ध, "करकराक सम्तमपि गर्भ न जगी। कालान्तरे तस्या उदरवृद्धा साध्या सिंगेमु" श्रीवासुपूज्यजिनपतिकल्याणकपश्चकास्तेययं प्रथम- पएं किमेतनयेति तयो तं मम पूर्वावस्थासम्भवा गर्भो वर्त Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५०) करकंमु अनिधानराजेन्द्रः। करकंडु ते मया तु प्रतविघ्नभयानोक्तः । ततो महत्तरा साध्वी ता पढेऽभिषिक्तः क्रमान्महाप्रतापोऽभूत् अन्यदा स वंशप्रति. साध्वीमुद्दाहभयेन एकान्ते संस्थापयामास । काले सा पुत्रं | वादी विप्रस्तं भूपं निशम्य प्रामाभिलाषकः सन् करकरसुनप्रसूय रनकम्मलेन संधीतं पितृनाममुद्राङ्कितश्च कृत्वा श्मशा. पपर्षदि प्राप्तः करकरासुनोपलक्ष्य तस्य विप्रस्योक्तं तव यदिष्टं ने दामुमोच श्मशानपतिर्जनंगमस्तं बालकं तथाविधमा- तत्कथय ब्राह्मणेनोक्तं मद्गृहं चम्पायां वर्तते तेन तद्विषयग्रा. लोक्य गृहीत्वा च अनपत्यायाः स्वपल्याः समर्पयत् । सा ममेकमहमीहे। अथ करकएकुनृपतिश्चम्पापुरनाथस्य दधिवाश्रमणी गुप्तचर्यया तं व्यतिकरं सात्वा महसराया अग्रे एच- हनभूपतेः अस्मै द्विजाय त्वद्विषयग्राममेकं देहीति आक्षां प्रा. माचस्यौ मृत एव बालो जातस्ततो मया त्यक्तस्ततःस बालो हिणोत्, साहारिण करकरमुनृपस्य दूतं विस्मितचित्तः कु. लोकोत्तरकान्तिर्जनंगमधानि दत्तापकर्णिकनामा ववृधे । सा द्धश्च चम्पापतिर्दधिवाहनः प्राह । अरे स म्लेच्छबालो साध्वी सततं बहिर्वजन्तीपुत्रस्नेहन मातङ्गयासह कोमलायापैः मृगतुल्यः करकएसिंहतुल्येन मया सह विरुध्यते परवस्त्वसङ्गति चक्रे स बालकः प्रतिवेश्मिकबालकैस्सह क्रीडन् महाते. भिलाषभवस्य पातकस्य तव स्वामिनःशुमित्खड्गतीर्थमानं जसाभृशं राजते प्रागर्भब हुशाकाद्यशनदोषेण तस्य बालकस्य दास्यति एवमुक्त्वा दधिवाहनेन तिरस्कृतः स दृतस्तत्र कएमूलतादोषोऽनयत् स्वयं राजचेष्टां कुर्घाणः स बालः पर- गत्वाकरकरारुनृपाय यथार्थमवदत् । करकरारुनृपोऽपिप्रकामं बालैः सामन्तीकृतैदेहकएकूमपाकारयति । ततो लोकः क्रवः स्वसैन्यपरिवृतश्चम्पापुरसमीपे समायातः । दधिवाहकरकरमूरिति नाम दत्तम । सा साध्वी तदनविलोकनार्थ नोऽपि पुरी दुर्ग सज्जीकृत्य स्वयं बहिनिस्ससार उभयोः सैन्ये मातङ्गपाटके निरन्तरं याति निकालब्धं मोदकादि तस्मै ददा. सजीभूते यावचोडूं लग्ने तावत्साध्वी तत्रागत्य करकण्डूति श्रमणत्वेऽप्यपत्यजा प्रीतिस्तस्या पुस्तरेति बाबकोऽपि त. नृपति प्रति एवमूचे अहो करकण्डूनृप ! त्वया अनुचितं स्या दृष्टायां बहु विनयं करोति प्रीतिश्च दधाति । स बालकः ष पित्रा सह युद्धं किमारब्धं करकराडूनृपः प्राह हेमहासति! सवर्षः पितुरादेशात श्मशानं रकति। अन्यदा तस्मिन् इमशा कथमेष दधिवाहनोऽस्माकं पिता साध्वी स्वस्वरूपमखिलने रकृति सति कोऽपि साधुघुसाधु प्रति तच्छमशानस्थ मूचे। पार्यो मातरं दधिवाहनश्च पितरं मत्वा करकगहनृपो सुलकणं वंशं दर्शितवान् । उक्ताश्च मूसतश्चतुरङ्गलमिमं वंश जहर्ष तथापि करकण्डूनृपोऽभिमानात् स्वपितरं दधिवाहनं मादाय यः स्वसमीपे स्थापयति सोऽवश्यं राज्यं प्राप्नोति । इदं नन्तुं नोत्सहते तदा साध्यपि दधिवाहनसमीपे गता दधिसाधुवचस्तेन बालकेन तत्रस्थेनैकेन द्विजेन च श्रुतं द्विजस्तुतं बं. वाहनभृत्यैरुपलक्षिता दधिवाहनभूपाय राशी साध्वीरूपा शमाचतुरङ्गमूनं नित्वा यावद् गृहाति तावत्करकएमुना तत्क समागतेति वर्धापनिका दसा । अथ दधिवाहननृपोऽपि तां रात् स वंशो गृहीतः स्वकरे गृहीत्वा काहं कुर्वतो द्विनस्य साध्वीं मनाम गर्भवृत्तान्तं प्रपच्छ साध्वी ऊचे सोऽयं ते तनयः करकपमुना उक्तम् । मपितृश्मशानवनात्थं वंशं नाहमन्यस्मै दास्येस ब्राह्मणः करकएमुबालश्चेति द्वावपि विवदन्ती नगरा येन सह त्वया युद्धमारब्धम् । अथ दधिवाहननृपः प्रीतात्मा पादचारी करकराडूनृपं प्रति गत्वा वत्स! उत्तिष्ठेत्युक्त्वा तमुधिकारिपुरो गतौ नगराधिकारिभिर्भणितमहो बाल ! तवायं स्थाप्य पाश्लिष्य च शिरसि अजिघ्रत हर्षा जलसहितैस्तीवंशः किं करिष्यति स प्राह ममायं राज्यं दास्यति तदाधिकारिणः स्मित्वा एवमूचुर्यदा तब राज्यं भवति तदा स्वयाऽस्य र्थजलैः पुत्रोऽयं राज्यद्वयेऽपि दधिवाहनेनाभिषिक्तः दधिवा. ब्राह्मणस्य एको ग्रामो देयः शिशुस्तयोऽङ्गीकृत्य स्वगृहम हत्तः कर्मविनाशाय स्वयं दीक्षां गृहीतवान् । करकण्डूनृपो गात । स विप्रोऽम्यविप्रैः संजय तं बालं हन्तुमुपाक्रमत तं द्वि राज्यद्वयं पालयामास चम्पायामेव स्ववासमकरोत् । तस्य जोपक्रम झात्या करकरा मुपिता जनङ्गमः स्वकलत्रपुत्रयुक्तस्तं गोकुलानि इष्टानि आसन् संस्थानाकृतिवर्णविशिष्टानि गोकुदेश विहाय अनेशत् । सकुटम्बः स जनङ्गमः क्षितितलं का लानि कोरिसंन्यानि तेन मेलितानि स तानि निरन्तरं पश्यन् मन कञ्चनपुरं जगाम । तत्र अपुत्रे नृपे मते सचिवैरधियासित प्रकामं प्रमोदं लभते । अन्येशुः स्फटिकसमान एको गोवत्स स्तेन गोकुलमध्ये दृष्टः अयं कण्ठपर्यन्तदुग्धपानैः प्रत्यहं प्रो. स्तुरगः करकराहुं दृष्ट्वा हेषारवं कृतवान् तं सलकणं दृष्ट्वा नगरलोका जयजयारावश्चक्रुः । अवादितान्यपि वाद्यानि स्वयं पणीय इति गोपालान् स ादिष्टवान् अन्यदा स मासैः पुष्टनिनःस्वयं चं शिरसि स्थितम् । ततोऽमात्यैरपि नवीनानि तनुर्बलशाली घनघर्घरशम्देन अन्यवृषभान् त्राशयन् भूपतिना वस्त्राणि परिधाय स करकापुस्तमश्चमारोहा यावनगरा रएः तथापि भूपतेस्तस्मिन् वृषे प्रीतिरेव बभूव । साम्राज्यलोकैः परमप्रमोदेन पुरान्तः प्रवेश्यते तावद्विप्रास्तं म्लेच्छगे कार्यकरणव्यग्रो भूपतिः कतिचिद्वर्षाणि यायोकुले नायातः ऽर्यामात कृत्वा न मेनिरे तदा क्रुः स शिशुस्तं वंशदएम र. अन्यदा तद्दशनोकराउः स नृपतिस्तत्र समायातः स वृषः नमिव करे जग्राह । अधिष्ठातृदेवैयोम्नि इति घुष्टम य मंरा क इति गोपालान् नूपतिः प्रपच्छ गोपार्जराजीर्णपतितदशजानमवगणयिष्यति तस्य मूर्ध्नि असौ दएमः पतिष्यति इत्यु नो हीनबलो वत्सैघटितदेहः कृशाः सदर्शितः तं तथाविधं क्त्वा सुरास्तधिसि पुष्पवृष्टि चक्रः । भीताः सन्तो विप्रा- रक्षा प्रवाशां विषमां विचारयन् करकराराजा एवं चिन्तस्तस्य स्तुति कृत्वा वारंवारमाशीर्वादमुश्चरन्ति करकरामु यति यथाऽसौ वृषनःपूर्वावस्था मनोहर परित्यज्य इमां वृ. खेमुवान अहो ब्राह्मण ! एते भवद्भिश्चारमाया गर्हितास्ततः द्धावस्था प्राप्तः तथा सर्वोऽपि संसारी संसारे नवां नवामवसर्वेऽप्यमी वाटधानवास्तव्याश्वारा मारा. संस्कार पणाः स्थामामोति मोके चैव एकावस्था मोक्षस्तु जिनधर्मादेव प्राकार्याः संस्कारादेव बागो जायते न तु जास्था कश्चिद बामणो। प्यते अतो जिनधर्ममेव सम्यगाराधयामीति परं वैराग्यं प्राप्तः । भवतीति भवदागमवचनात । श्रथ ते ब्राह्मणाः प्रकाम | करकएमू राजा स्वयमेव प्राग्नवसंस्कारोदयात् प्रतिबुद्धः। जीताम्ततो वाटधानवा. या धारना ब्राह्मणीकृताः ।। सद्यः शासनदेव्यर्पितलिङ्गस्तृणवाज्यं परित्यज्य प्रवज्यां शप सवेन कञ्चनपुरे प्रवेशितः २ कर दरमात्यैर्नृप- उक्तं च " श्वेतं सुजातं सुविनतगृहं, गोप्टाङ्गणे वीक्ष्य वृपं ज Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करकंड (३५) अभिधानराजेन्सः । करण रार्तम् । भूचि वृधिञ्च समीक्ष्य बोधान, कसिङ्गराजर्षिरवाप यथा क्रियते तदिति करणं क्रियते पास्मिन्निति था करणमिधर्मम्"१ ति करकरमूचरित्रम् उत्स० ए तिला आवा त्यादि तच्च करणं नामादिभेदात्वविधमिति । नी० प्रा० चू। आ० का (करकण्ड इति दीर्घान्तोऽप्ययम) अथ मामस्थापनाकरणमाह। करकचिय-क्रकचित-त्रि० करपत्रविदारिते काष्ठादी, अनु० । नाम नामस्स नाम-यो चा करंति नामकरणंति । करकडि-करकटि-स्त्री० कठिनायाम, "अंधाओ करकटीयो" उरणाकरणं नासो, करणागारो व जो जस्स ॥ कदिने निर्मासे इत्यर्थः उपा. २ ०। हस्तयोर्वके कटीदेशे, (नामं ति) नामैव करणमिति सामानाधिकरणं एव्यम् । "बकरकमीजुपणियत्थे" करयोर्हस्तयोद्धं कटीदेशस्ययुगं अथवा नाम्नः करणं नामकरणं नामतो वा करणं मामकरणं युग्मम् । विपा०५०। "करणंति" इत्ययं करणशब्दः प्रत्येकं योजनीयः स च योजित करकय-क्रकच-न० करपत्रे, प्रश्न मात्र १० जीन सूत्र। पय [नामकरणंति द्वारपरामर्शः (ग्वण ति) स्थापनाकरणमुकरकरसुंठ-करकरशुएठ-पुं० सृषधिशेषे, “एरंटे कुरुविदे क च्यत इत्यर्थः । किं तदित्याह । करणस्य करणशम्दस्य म्यासः रकरसुं तह विनंगू य" प्रका० १ पद । करणन्यासः। अथवा यो यस्य करणस्य दात्रादेराकारः काकरकरिग-करकरिक- पुं० पश्चाशीतितमे महापदे , " दो ष्ठादी विन्यस्तः स स्थापनाकरणमिति । अथ द्रव्यकरणमनिकरकरिगा" स्था.२ग ३३० करः करिकश्चेति द्वौ धित्सुव्यकरणशम्दस्य व्युत्पादनार्थमाह । ग्रही तत्र करस्यशीतितमः करिकश्चतुरशीतितम इति "अंगा- तं तेण तस्स तम्मि व, संभवो व किरिया मया करणं । सप वियालए इति" पाने अङ्कानुसारात ज्ञायते परं (स्था०२० दन्बस्स व दव्वेण व, दव्वम्मि य दबकरणंति ॥ ३३०) सूत्रानुसारात्करकरिक इति पनाशीतितमस्य विशिष्ट संझा स्पष्ट प्रतीयते बन्छ०२० पाहु । कल्प० । क्रियते तदिति करणमिति करणशब्दः कर्मसाधनः क्रियतेऽ. करकुडिया-करकुटिका-स्रो निन्द्यचीवरिकायाम्, "बज्ळकर नेनेति करणसाधनः, तस्य ऽज्यस्य कृतिः करणमिति प्रावसा धनः, क्रियतेतस्मिन्नित्यधिकरणसाधनः। तत्र कर्माकरणाधिकरकुमिजुयं णियत्थं " बस्य यत्करकुटिकायुगं निन्धचीवरिकाद्वयं तनिवसितो यः स तथा विपा. २० । णपक्षेषु व्यं च तत्करणं च व्यकरणमिति कर्मधारय पव समासः इत्येतत्स्वयमेव पटव्यम् (संनवश्रो व किरिया मया करग-करक-पुं० न० किरति विक्तिपति कति वा जनमत्र - करणमिति ) अथवा सनावतो यथासंनवमपरं षष्ठीतकृ. वा-कृषादिसंज्ञायां खुन् । कमरामली, वाच । वार्धटिका त्पुरुषादिकं समासमपक्ष्य क्रियैव मतं करणं सर्वकारकमियाम्, अणु.३ वर्ग० । जलाधारे, मदिराभाजने, सूत्र०१६० पाद्यत्वाद्धात्वर्थस्थति तमेव षष्ठीतत्पुरुषादिकं समासं दर्श४ २० घनोपले, जी०१ प्रतिउ०१। कग्निादके, यति । द्रव्यस्य करणं भव्यकरणं हव्येण वा करणं व्यकरणं दश०४ अ० । प्राचा० । वीनूतास्वप्सु, ध० ५अधिः । व्ये करणं द्रव्यकरणमिति अस्य च द्रव्यकरणस्यागमतो नोपक्किभेदे, पुं० स्त्री० । करजभेदे, रत्नमा० स्वार्षे कन् रा- आगमतश्चेत्यादिविचारः सुकर एव तावद्यावद् शरीरभव्यजकरे, दस्ते च. पलाशवृक्के, हारा० । कोविदारके, व- शरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यकरणं व्याख्यायते तच द्रव्यकरणं विधा कुलवृत, करीरे, नारिकेलास्थनि च राजनि । वाच।। संज्ञाकरण नोसंशाकरणं च । तत्र संझाकरणमाह । करगगीवा-करकग्रीवा-स्त्री. वार्घटिकाग्रीयायाम्, अणु०३वर्ग०। दव्वकरणं तु सपा-करणं पेबुघरणाइयं बहुहा । करग्गहमह-करग्रहमह-पुं० पाणिग्रहणमहोत्सवे, अष्ट.२७ अष्ट. समा नामं ति मई, तं नो नाम जमनिहाणं ॥ करच्चिय-कराक्षिप्त-त्रि कराकृष्टे, प्रभ० पाश्र० ३ द्वा० । जं वा तदत्थविगले, कीरइ दवं तु दविणपरिणाम । करञ्ज-ना-धा० भजेवेमयमुसुमूरसरसूमविरपविरजकरजं पेलुकरणाइनदितं, तदत्यमुबं न वा सहो। नीरजाः वा इति भम्जेः करम्जादेशःकरजजनक्ति प्राण जान तदत्य विहीण, तो किं दबकरणं पनत्तेण । करम-करट-पुं० किरति मदम-क-अटन् गजगए में, काके, पुं० दव्वं कीरइ सम्मा, करणति य करणरूनी न॥ स्त्री० अमरः स्त्रियां डीप कुशुमवृक्के, पु० निन्धजीविनि, त्रि स्त्रियां करदा दुईरुढे, पुरुचंचमतकं वादिनि, वाघभेदे च पुं० कश्यकरणं तु यत्तावत्संझाकरणं तत्पेलुकरणादिकं बहुधाब मेदिनस्वार्थे कन् काके, पुं०सी० शब्दरा स्त्रियां ङीपस्तेयशा हुभेदं तत्र लाटदेशे रुतसंबन्धिनी या पूणिकेति प्रसिका सैव खप्रवर्तके, बाचा रक्तपादपवादके,मा० ० १ अा नि००। महाराष्ट्रकविषये पेबुरित्युच्यते तस्याः करणं निर्वर्तकं वंशादिकरमी-करटी-स्त्री० वाद्यभेदे, " असयं करमीणं अटुसयं मयी शलाका पेलुकरणम् । श्रादिशब्दा "कुटकरणं पालका दि" तथा वा करणं बालानामधीयानानां वर्तनकं तथा काकरमीवायगाणं" ०२ वक्षः। गडकरणमुषकरणविशेषरूपं काएमकरणं परिगृह्यते । एषमकरडयनुत्त-करमुकचुक्त-न० मृतकभोजने मांसादी, पिं०। न्यदपि लोके प्रसिर्फ संज्ञा विशिष्टं करणं संज्ञाकरण वेदितव्यकरस-करण-न० कुनाबादौ ल्युट् । क्रियायाम, मानन संझानामैवोच्यते ततश्च संडाकरणनामकरणयोर्विशेकरणपदस्य शब्दार्थ भेदाँश्चाह । षो न प्राप्नोतीति परस्य मतिर्भवेचदेतन्नो नैव युक्तं यस्मात्करकरणं किरिया जावो, संजवो चेह छब्बिई तंच! | नित्यकरत्रयारमकमा धानमात्रमेव नामन तुरुध्यम अथवा नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले य जावे य ।। पत्तदविकले वस्तुनि सकेतभात्रतः करणामिसि माम कियते करणं क्रियते भायो वा नावमामिह वास्यम (संभवयो- सनामवरणरूपेण यदु ज्यणं गमनं नम्परिणामम्तत्स्वभावमहत्ति) अथवा संभवतो यथासंभयमिद दादायी वनाव्यस्त भिधीयते हि यस्मान्न तत्पेसुकरणादिव्यं तदर्थशून्य करण Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६०) निधानराजेन्द्रः । करण शब्दार्थविकलं पूर्णिकादिकरणपरिमान्निशब्दः करणानिधानाः इति नामकरणाकरणयद इति । यह ननु यदि तदर्थविहानं करणशब्दार्थरहितं संज्ञाकरणं न भवति तत किरातत्किमिति विचारे इदं पठ्यते नतु भावकरणमेवेत्य निप्रायः उच्यते यतस्तेन पेरणा संहार सिकादिकले नि से तो व्यस्य करणं द्रव्यकरण मिति व्युत्पस्यर्थमाश्रित्य द्रव्यकरणमिदमुच्यते । संज्ञाकरणं त्विदं करणरूढितो भएयते करणसंज्ञातो लोकेऽस्य रूढत्वादित्यर्थः । अथ मोहाकरणमाह । नोकरणं पुण दव्यस्मादकरास पि । तरिया जावाओ, पओगओ वीससाओ य ॥ साइयमाणाइयं वा अजीवद्रव्याण वीसमा करणं । धमाधम्मनया, अणासंघायणाकरणं ॥ नोकरणं यस्य प्रयोग विस्वसाथ भवति कथंभूत मित्याह । श्ररूढकरण संशमप्यरूढा अप्रमिका करणमिति संज्ञा यत्तदरूढकरणसंज्ञमपि अत एव करणसंज्ञायास्तत्राभावानोसंज्ञायामुय कर करणमिदमित्यर्थः यदि क रणसंज्ञा तत्र नास्ति तर्हि करणमपि कथमुच्यते इत्याह (स किरिया भावाओत्ति) सा चासौ करणलक्षणा क्रिया च तत्क्रिया तस्याः सद्भावादिति । इदमुक्तं भवति । यद्यपि शरीरानेन्द्रघनुराद करणसंज्ञा नास्ति तथापि प्रयोगविनितकरणकिया विद्यते अतरत पेमेणं करणत्वं न विरुभ्यत इति । तथा जीवव्याणां विस्रसाकरणं साधनादि च भवति तत्र धर्माधर्मास्तिकायनभसां संघातनाकरणं प्रदेशानां परस्परं संहत्यवस्थानकरणरूपमनादिरूपं विज्ञेयमिति । अत्र परः प्राह । न करmमणायं च विरुद्धमवि भन्नए न दोसो त्ति । अनोनसमाहा, जमि करणं तं निव्वन्ती ।। ननु कृतिर्निस्तुनः करणमुच्यते तच्च साधेव भवति घटकटकटादिकरणच तक करणमनादि चेन्युच्यमानं वि. रुरुमेव माता मे वन्ध्येत्यादिवचनवदिति । नण्यते अत्रोसर नायं दोषोपरमार्मास्तिकायादेः प्रदेशानामन्योन्यं परस्परं यत्सम्यगाधानं समाधानमनादिकानात्संत्यावस्थानं धातूनामनेकार्थत्यासदेवकरणमनिप्रेतं न पुनरपूर्वादिता धम्मनिकायादिप्रदेश तस्यानादित्वं न किंचितेमादिकालीनत्वादस्येति । श्रथवा धर्माधर्मनभसां सादिकमपि करणं भवतीति दर्शया अब परपच्चयाउ, संजोगादि करण नभोई। माइयमुना पलाया देसओ वापि ॥ अथवा उपचारान्ननःप्रभृतीनां करणं सादिकं विज्ञेयम् उपपरप्रत्ययादादिवस्तुत्यर्थः । कथंभूतं करणं संयोगादि आदिशन्दाद्विनागादिपरिग्रहः। द मुक्तं भवति । श्राकाशादीनां घटादिसंयोगादयः साक्ष्यः सपर्य चमानाश्च ततो यत्तेषां घटादिनिः सद् संयोगादिकरणं तत्सादिकं जयत्येव । श्रथवा पर्यायरूपतया सर्व वस्तु जनानां भय देता करण श्रित्य नभः प्रभृतीनामपि करणं सादिकं बोरुव्यमिति । तदेवमरूपिणामज | यरूव्याणां साधनादि च वित्रसाकरणमुक्तम् । ग्रम रुप्यजीवद्रव्यादि। चक्खूममचक्खूस, पिय साई य रूविवीससाकरणं । अभिई, बहुहा संघायनेषकार्य ॥ इन्द्रधनुः परमसुप्रीयाणां विसाकर णं चक्रुर्थी दृश्यते इति चाक्षुषमभ्रादीनां चक्षुर्गोचरातीतमपरमसंघात दुधा बहुभेदं सादिकं नयति अम्रादीनां केचित् सम्यन्ते के वियतनामापा भवन्ति एवं द ध्वपि वाच्यं परिणामास्तु स्कन्धाद्भेदकृतमेव करणं भेदादरिति वचनादिति करणं चेह कृतिः स्वनावत एव निर्वृतिर्गृह्यते न पुनः क्रियत इति करणमिति । विशे० । संप्रतिमेषविशेषेण प्रतिपादयति । संपायनेयतदुभयकरण इंदा उ होइ पचवस्वं । प्रमाणं पुण हत्थादीण पचसं ॥ संघातः संहननं नेदो विघटनं तच्छब्देन संघातजेदो परामृश्येते तत् उभा करणं - यते इति करणं कर्म्मसाधनः करणशब्दः संघातभेदतदुभयकरणम् इन्द्रादिस्लम मस्त फारम पमस्पर्थः । तथाहि । अाचलाः संहन्यन्ते एष कचित् निम्प कहिन्यन्ते मद्यते केषि संधानकरणम् । चणकादीनामादिशब्दासायि धानन्ता एकान्तानां पुनः करणमिति वर्त्तते यस्थाद। मामादिशस्वमतानेकभेदेप्रतिपादनार्थः । यमापमित्यर्थः । कं विस्रसाकरणम् । आ० म० द्वि० । अथ प्रयोगकरणमाह । होइ उ एगो जीव-व्यायारो तेरा जं विशिम्मा ! सज्जीवमजीवं वा, पयोगकरणं तयं बहुहा ॥ सज्जीवं मृलुरकरां मूल करण जमाईयं । पंच देहाणं, उत्तरमाई तिस्सेव ।। - प्रयोजनं प्रयोगो भवति क इत्याह । जीवव्यापारस्तेन यद्विनिमीणं निम्मीपणं तत्प्रयोगकरणं भरायते तच सज्जीवमजीवं व बहुधा भवति । सन् विद्यमानो जीवो यत्र तत्सज्जीवं प्रयोगकरणं पञ्चानामौदारिकादिशरीराणां रुष्टव्यम् इदं च मूलकरणोत्तरकरणभेदात् द्विविधम् । अत एवाह (सज्जीवं मूमुत्तरकरणंति ) सज्जीवं प्रयोगकरणं द्विभेदं तद्यथा मूलकरणमुक्तरकर (करणमा ति ) पञ्चानामपि शरीरा णां याचं पुल संघातकरणं तम्मूलकरणं वेदितव्यम् ( उत्त रमाइतिपति) उतरकरणत्वादित्रिकस्य प्रधानामेयौहारिक वैकियाहारकरीराणां भवति नतु तेजसका रित्यर्थः । गम्यस्याद्यशरीरस्य शिरतरःप्रयङ्गानि क रचरणान्पाई नि चोपाङ्गानि भवति तथापि पि लकरण कियथोत्तरकरणमिति विप्रागेन बथ्यतामित्यत्राड् मलकरणं शिरोरु, पिट्टीचा दोदरोरु निम्माणं । उत्तरमवमेमाणं करणं के माइकम्मं च ।। शहीद राय Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६१) अन्निधानराजेन्धः। करण तणानामष्टानामङ्गानां निर्माणं निष्पादनं तन्मूल करणम् श्रव- रेहिं विणिदिई" इदं च क्षुदकनवग्रहणं द्वाच्या विग्रहसमयाशेषाणं तु करणचरणाहल्यादीनामुपालानां यनिर्माणं त- ज्यामेकेन च संघातसमयेन न्यून संघातपरिशाटः सक्कणस्योतरकरणं तथौदारिकवैफियशरीरयोः केशनखदशनादिसंस्का- भयस्य जघन्यस्थितिमानं जघन्यतोऽपि संघातपरिशाटोजयमेररूपं यत्केशादिकम तदपि तयोरुत्तरकरणमिति । तावन्तं कात्रं भवतीत्यर्थः । अत्राह कश्चिद् ननु "विदिसान. अपरमप्यौदारिकवैक्रियशरीरयोरुत्तरकरयां दर्शयन्नाह । दिसिं पढमे य, वीए पविसे लोगमऊमि । तइए नपिधावर, संठवणमणेगविहं, दोएई पढमस्स भेसएहिं पि । मामियहिं जायइ चउत्थे" तिवचनाद्यदा अधस्त्रसनाड्या बाईणं करणं, परिकम्मं तश्य नस्थिव्व ।। बहिर्दशार्फ लोके असनाच्या बहिरेव निगोदादिजीवश्चतुर्भिः यिनष्टकर्णायषयवसंघातादिरूपमौदारिके केशाधुपरचनरूपं समयैरुत्पद्यते तदा विग्रहगतावपान्तरालगतौ श्राधास्त्रयः समतु संस्थापनं वैक्रिये इत्येवं द्वयोराद्यशरीरयोः संस्थापनं सं याश्चतुर्थस्तु संघातसमय इत्येवं चतुर्भिरपि समयै!नं क्षुल्लक नवग्रहणं संघातपरिशाटोनयस्य जमन्यकालः प्राप्यते तत्किस्करणमनेकविधं मयति । प्रथमस्य पुनरौदारिकशरीरस्या मितीह त्रिभिरेव समयैyनं कसकनवग्रहणं जघन्यतस्तत्काल भ्योऽपि विशेषः क इत्याह भेषजैरपि लकपाकतैमादिभिर्य उक्तः । सत्यं किंत्वस्यां चतुःसमयायां विग्रहगती य आधः सदीनां विशेषापादनं तत्तस्योत्तरकरणम् । तृतीये स्वाहारक मयः स इह परभवप्रथमसमयेन विवक्षितः किंतु पूर्वभधचरशरीरे केशनस्वदन्तादिपरिकर्म नास्त्येव स्वरूपेणैव विशिष्टत्वा मसमय पव पूर्वभवशरीरस्य तत्र मुच्यमानत्वान्मुच्यमानं चाप्रयोजनाभाषाश्चेति । विशे०। उत्त। श्रामणद्वि० । सूत्र। मुत्तमिति ग्ययहारनयमताश्रवणादिति । अथवा प्रसजीवसंबअथवा प्रकारान्तरेणापि त्रिविधं जीवप्रयोगकरणं धिन्येवेहापान्तराजगतिर्वित्र किताखसजीपाश्चोत्करतोऽपि त. विज्ञेयं कथमित्याह । तीयसमये नत्पत्तिस्थानं प्राप्नुवन्तीत्यदोष इति ताबद्भयमबगसंघायणपडिसाकण-मुभयं करणमहव सरीराणं। खामः तत्वं तु बहुश्रुता विदन्तीति । इह चैतानि सुख कभवनआदाणं मुयणसमयं, तदंतरावं च कालो सिं ।। दणानि एकस्मिन्नुच्चासनिःश्वाससातिरेकाणि समद श मन्तअथवादारिकशरीराणां संघातनं परिशाटनं संघातपरिशाटो- व्यानि यत उक्तम् "खुहागभवम्गणा सत्तरस हपंति प्राणुपाप्रयवकणमुभयं चेत्येवं त्रिविधं करणं विज्ञेयम् । तत्र पूर्वभ- | णम्मी" त्यादि। विकमौदारिकादिशरीरं परित्यज्य अप्रेतनभवे पुनरपि त-| अथ पल्लतियमित्याद्युत्कृष्टसंघातपरिशाटोनयकालभावनामाद । तो यत्पुझलाना संघातनं ग्रहणं स संघातः। यस्तु नदेवौदारि. उक्कोसो समऊणो, जो सो संघायणासमयहीणो। कादिशरीरं परित्यज्यतश्चरमसमये सर्वथा तत्पुमनानां परि- किह न समय विहीणो, परिसामसमए वणीयम्मि । स्थागः। सदूल रुजाविशरणगत्यवसादनेविति धातोः पुमलानां इह यो देवकुर्वादिषूत्पन्न औदारिकशरीरस्य प्रथमसमये संपरिशाटनमवसादनं परिशाटः सखातनपरिशाटसमययोश्वापा घातं कृत्वा श्रीणि च पट्योपमानि उत्कृष्टमायुः परिपाल्य निन्तरालसमयेषु सर्वेष्वपि संघातपरिशाटोभयं द्रष्टव्यं सर्वत्र यते तस्य संघातसमयन्यूनानि त्रीणि पल्यापमानि उत्कृष्टसंपूर्वगृहीतपुमलानां मोचनादन्येषां च ग्रहणादिति । तत्राद्यशरी घातपरिझाटोभयकालः प्राप्यते । अत्राह ननु कथमेके नैव समरत्रयस्य संघातपरिशाटोभयलकणं त्रिविधमपि करणं भवति । तेजसकार्मणयोस्तु संघातो न भवत्येव परित्यक्तयोस्तयोः पु येन न्यूनोऽयमभिधीयते यावता यथा शरीरग्रहणप्रथमसमये नर्ग्रहण.दिति । अथ संघातादीनां कासप्रमाणमनिधित्सुराह सर्वतस्तथा तन्मोकसमये सर्वपरिशाटोऽपि भयति ततस्त. (सिति) एतेषां संघातपरिशाट्योन्जयानां कालोऽनिधीयते कि स्मिन्नवि परिशाटसमये अपनीते समयदयहीन एव प्रामोतीति। यानित्याह (पादाणंमुयणसमयंति ) आदानमौदारिकादिश अत्र प्रतिविधिसुराह । रीरपुमलाना प्रथम ग्रहणं संघातनं संघात इत्यर्थः । अयमेक- भन्नइ जवचरिमम्मि कि, समये संघायमारणे चेव । मेष रूमयं भवति ततः परं संघातपरिशाटोभयप्रवृत्तेः मोचनं परभवपढमे सामण-मन्तश्णो न कालोत्ति ।। पुलानां परिशाटनं परिशाटः सोऽप्येकमेव समयं नवति । तदा भण्यते अत्रोत्तर भवस्य चरमेऽपि समये संघातपरिशाटोनन्तरालं संघातपरिशाटोभयलक्षण मिह गृह्यते तस्य कालो घ- यमेव प्रवर्तते यत्त शरीरपुमलानां केवलं परिशाटनमेव तत्पक्यत इति शेषः ।चशब्दात्संघातादीनामन्तरालकासश्च पश्यत रभवस्य प्रथमसमये एव मन्तव्यम् (परभवपढमे सामणमिति) इति श्यमिति। निश्चयनयमताश्रयणादतस्तेन परिशाटसमये न न्यून संघातपतत्रादारिकशरीरस्य संघातपरिशाटोजयकालमाह। रिशाटोभयकालो न भवतीति । सूहागजवरगहणं, तिसमयहीणं जहनमुजयस्स । अत्र व्यवहारनयवादी प्रेरयति । पवतियं समऊणं, उक्कोसोराक्षकालो यं ।। जह परपढमे सामो, निविग्गहयो य तम्मि संघाओ। अत्र संघातपरिशाटोभयस्य जघन्यकाले प्रतिपाये तणुसच्चसामसंघाय-णा उ समए विरुष्काउ॥ विग्रहेणोत्पादनीये ते एवाह । दी विग्गहम्मि समया, समओ संघायणाय ते हुण। ननु निश्चयनयवादिन! यदि पर नवप्रथमसमये शाटोऽज्युपग म्यते निर्विग्रहतश्च ऋजुश्रेषयौ चोत्पद्यमानस्य तम्मिन्नेव समखुडागभवग्गहणं, सबजहन्नहिई कालो ।। ये संघात इष्यते तदा त्वहो सर्वशाटसंघानी युगपदेकस्मिन्नेय रह यत्पञ्चाशदधिकाबलिकाशतद्वयमायुषो जघन्यस्थितिरूपं समये बिरडी तव प्राप्नुतः सर्वशाटस्य र्पूवनवशरीरसंबन्धिसुखकनवग्रहणमुच्यते। तथा च वृद्धोक्तम् "दो य सया उपमा, त्वात्सर्व संघातस्य भवान्तरगतशरीरविपर्ययस्वावद्वयशरीर मावलियाणं तु खुडुनवमाणं । जियरागदोममोहोहिं, जिणव- योर्यशपत् सत्यस्य दूरचिरुकत्वादिति । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६२) करण अभिधानराजेन्दः । करण निश्चयनयवादी प्रतिविधानमाद । अथ तेषामेवान्तरकासमनिधित्सुः संघातस्य जम्हा विगच्छविगयं-णं विगयमुप्पज्जमाण मुप्पन्ने । तावजघन्यमन्तरकालमाह । तो परनवाइसमए, मोक्खादापाए न विरोहो ।। संघायंतरकालो, जहन्नो खुड्डयं ति समकणं । यस्मात्पूर्वभवशरीरं परभवाद्यसमये विगच्छद्विगतमुत्पद्यमानं दोविग्गहम्मि समया, तश्यसंघायणा समओ ।। स्वतनजवशरीरमुत्पन्नं क्रियाकालनिष्ठाकानयोरभेदात्ततस्तत्र ते दू णं खुड्डन, धरिनं परनवमचिग्गहेणेव । मोक्कादानयोरिष्यमाणयोर्न कश्चिद्विरोधो मुच्यमानस्य मुक्तत्वे गंतूए पढमसमये, संघायस्स न स विनेओ।। नैकस्यैवानेतननवशरीरस्य सजावादिति । अपिच मरणसमयः परभवाद्यसमयत्वेनाभ्युपगन्तव्य एवान्यथा दोषसंभवादित्याह। एकदा औदारिकशरीरस्य संघातं कृत्वा पुनस्तत्संघातं कुर्व तस्त्रिभिः समययूनं क्षुल्लकनवग्रहणं जघन्योऽन्तरकासः प्राचुइसमये नेह भवो, इह देहविमोक्खओ जहा तीए । प्यते स च यदा कश्चिदे केन्द्रियादिजीयो मृतः समयध्यं विजइ न परनवो वि तहिं, तो सो को होउ संसारी॥ ग्रहे कृत्वा क्षक्षकभवग्रहणायुप्को पृथिव्यादिषूत्पन्नम्तृतीयलच्युनिसमये इह भवपरजवशरीरायुः पुलपूर्वपरिशाटसयये मये श्रौदारिकस्य संघातं कृत्वा यथोत्रिभिः समयैर्म्युनकुनावदिह नबो न भवति इह भवदेहस्यायुपश्च मुच्यमानत्वान्मु लकभवग्रहणं संघातपरिशाटोभयं विधाय मृतो निर्विग्रहेणैव जुश्रेण्या अग्रेतननवे पृथिव्या दिघूत्पन्न औदारिकशरीरस्य न्यमानस्य च सर्वथा विमोक्षान् क्रियाकासनिष्ठाकालयोरनेदा संघातं करोति तदा तस्य जन्तोसैदारिकशरीरसंघातस्य च दिति ( जहा नीपत्ति ) यथा अतीनजन्मनीह भवो नास्त्यत्रत्यदेहाभावात्तथा च्युतिसमयेऽप्यसौन जयत्येव इह भवदहा त्रिसमयन्यूनक्षुल्लकनवग्रहणलवणो जघन्योऽन्तरकालो वि केयः । ह च जघन्यान्तरकावस्य प्रतिपादयितुं प्रस्तुतत्वात्प्रभावस्थाविशेषादित्यर्थः। एवं च सति यदि तस्मिश्च्युतिसम धर्म विग्रहेणानेतनभवे तु निर्षिग्रहेणोत्पादितोऽन्यथा मध्यमाये परभवोऽपि नवता नाभ्युपगम्यते तदाऽसौ संसारी जीवः न्तरकालप्रसङ्गादिति । को जवतु । इह भवत्वस्य तावद्युक्तित एव निषेधात्परभवत्वस्य तु त्वयाप्यनभ्युपगम्यमानत्वात्संसारित्वेन च मुक्तव्य अथौदारिकस्यैवोत्कृष्टसंघातान्तरकासमाह । पदेशाभावान्नियंपदेश पवासौ स्यादिति । उक्कोसं तेत्तीसं, समयाहियपुवकोमिसहियाई । व्यवहारनयवादी प्राइ। सो सागरोवमाई, अविग्गहेणेव संघायं ।। ना जह विग्गह काले, देहाभावे पि परनवग्गहणं ।। काऊण पुव्वकोमि, धरि सुरजेठमाउयं तत्तो । देहाभावम्मि वि हो-जेव भयो वि को दोसो॥ नोत्तूण इहं तइए, सभए संघाययं तस्स ।। ननु यथा विग्रहकाले विग्रहेण परभवगमनकाले पारभवि- सागरोपमाणीत्यस्य व्यवहितः संबन्धः ततश्च त्रयस्त्रिंशत्साकदेहानायेऽपि जीवस्य परभवग्रहणं नारकादिपारभरिकव्य- गरोपमाणि समयाधिक पूर्वकोट्यधिकान्यौदारिक संघातान्तरपदेशः तथा च्युतिसमयेऽपी भवशरीराभाचपीह जवो यदि मुत्कृष्टं भवतीति गम्यते । कदा पुनरय संघातान्तरकालो बजबेदिह नवव्यपदेशोऽपि यदि स्यात्तहि को दोषो न कश्चि- ज्यत इत्याह । स उक्तलकणः काल इह तृतीयसमये संघातन्यायस्य समानत्वादिति । यतः यौदारिकशरीरस्य संघातं कुर्वतो लभ्यत इति द्वितीय-- निश्चयवादी प्रतिविधानमा । गाथायां संटङ्कः । किं कृत्वा इत्याह कुतश्चित्पूर्वजयादधिग्रहणेह जं चिय विग्गहकालो, देहाभावे वि नो परभवो सो। तावन्मनुष्यभवे समागत्य प्रथमसमये संघातं कृत्वा पूर्वकोर्टि विधृत्य पूर्वकोटिप्रमाणमिहायुष्कं परिपाल्य ततश्च ज्येष्टमाचुइसमए उ न देहो, न विग्गहो जइस को हेऊ ॥ युष्कं त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमलक्षणमनुत्तरसुरोवनुभूय ततश्च्युदन्त यत एवापान्तरालगती जीवस्य विग्रहकालोन तु पूर्वज त्या समयद्वयं विग्रहे विधायेनि अत्र च विग्रहसत्कसमयध्यघकालः तत एव देहाभावेऽप्यसौ परभवसंबन्धित्वेन व्यपदेश्यः मध्यादेकं प्राक्तनपूर्वकोट्यां प्रतिष्यते एवं च सति त्रयस्त्रिंशत्सा परभवायुष उदीर्णत्वात्पूर्वभवायुषस्तु प्रागेव निर्जीर्णत्वाभिरा. गरोपमाणि समयाधिकपूर्वकोट्यधिकानि उत्कृष्टमौदारिकशरीयुपश्च जीवस्य संसारे असंनवादिति । च्युतिसमये तु न पूर्व- रसंघातान्तरं सिर्फ भवति । अस्य चोपल कणत्वात्पूर्वकोट्याजये देहः तस्य त्यत्तत्वान्नापि विग्रहोचकाभावाद्यद्येवं तर्हि स | युषो मत्स्यस्याप्रतिष्ठाननरके समुत्पद्येत्थं पुनर्मत्स्येषूत्पन्नस्येदच्युतिसमय हत्यारत्रिकनवसमयानां मध्यात्को नवविति मन्तरं मन्तव्यमिति । कथ्यताम् । ननु प्रोक्तं मया यथा विग्रह काले परजयदेहानावे अथौदारिकस्यैव संघातपरिशाटोनयस्य अपि परभवस्तथा च्युतिसमये हत्य देहभावेऽपि शहनवोऽस्तु जघन्यमुत्कृष्टं चान्तरकालमाह । को दोषोऽसत्यमुक्तमिदं त्वया नतु युक्तं दृष्टान्तदान्तिकयोधैंपम्याद्यधादिच्युतिसमये इहत्यदेहाभावस्तथा इहत्यायुषोऽप्य नभयंतरं जहनं, समो निबिग्गहेण संघाए । भावस्तस्यापि निर्यमाणस्य तत्र निर्मित्वात्ततः कथमसौ परमं स तिसमयाई तेत्तीसं न्यहिनामाई ।। युतिसमय श्ह भयो जवतु इहत्यायुप्कोदयानावाद्विग्रह कासे संघातपरिशाटोजयस्यैकः समयो जघन्यमन्तरं भवति क नि. तु युक्तं परभवायुष्कोदयसद्भावादिति तस्मात्परजयश्च्युतिस- विग्रहेण मंघाते सति । इदमुक्तं नवति । इह औदारिकशरीरीमयः परभवायुप्कोदयाधिग्रहकालवदन्यथा तस्य निर्व्यपदेश- श्रायुःपर्यन्तं यावत्संघातपरिशाटोभयं कृत्वा अग्रेतनभवे अविप्रसङ्गादतः "परभवपढमे सामणमिति” स्थितम् । तदैव औदा- ग्रहेणोत्पद्यौदारिकस्यैव संघातं कृत्वा पुनरपि तऽभयमारजते रिकसंघातपरिशाटोभयानां कान का। तस्य स एवैकः संघातसमयो जघन्य मुभयान्तरं भवति परमं Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६३) करण अभिधानराजेन्द्रः । सूत्रूटमेतदन्तरं स हि त्रिनिः समयैर्वर्तते त्रिसमयान त्र- स्मिन्प्रथमसमये संघातो भवतीत्यर्थः । अथवा देवादीनां देवयस्त्रिंशदधिनामानि सागराभिधानानि सागरोपमाणि न-| नारकाणां बैक्रियशरीरग्रहणस्यादायकस्मिन् समये संघातो चन्तीत्यर्थः। जवतीति । कदा पुनरेतानि प्राप्यन्त इत्याह । अथोत्कृष्टं वैक्रियसंघातकालमाह। अणुभविनं देवाइसु, तेत्तीसमिहागयस्स तश्यम्मि। उकोसो समयदुर्ग, जो समय विउब्बियमश्रो विश्ए । समये संघायसामण, विहं सामतरं वोछ । समए सुरेसु वच्चर, निविग्गहओ तयं तस्स ॥ देवादिष्वादिशब्दादप्रतिष्ठाने वा प्रत्रिशासागरोपमाएयनु उन्कएसंघातकालः समयद्वयं भवति ( तयं तस्सत्ति ) तथ भूयेहागतस्य तृतीयसमये संघातयतो सज्यन्ते । अयमत्र मा समयद्वयं तस्य भवति य औदारिकशरीरी समयमेकमुत्तरवैपार्थः । इह कश्चिन्मनुष्यादिःस्वनवचरमसमये संघातपरिशा क्रियं कृत्वा मृतो द्वितीयसमये निर्विग्रहेण ऋजुगत्या सुरेषु रोनयं कृत्वा अनुत्तरसुरवप्रतिष्ठाने वा यदा प्रयस्त्रिंशत्सागरो- वजति तत्र च प्रथमसमये क्रियस्य संघातं करोति तस्यैको पमाण्यनुनूय पुनरपीह समयद्वयविग्रहेणागत्य तृतीयसमये श्री. वैफियसंघातसमयोऽत्रत्यद्वितीयस्तु देवसंबन्धीति । दारिकस्य संघातं कृत्वा तत उभयमारभते तदा द्वौ विग्रहस श्रथ वैक्रियस्यैव जघन्यमुत्कृष्टं च संघातपरिशाटाजयकाममाह। मयावेकश्च संघातसमयो देवादिभवसंबन्धीनि च त्रयस्त्रिंशत्सा नभयजहन्नं समो, सो पुण दुसमयविउव्वियं मयस्स । गरोपमाण्युत्कृष्टोभयान्तरे प्राप्यन्त इति । तदेवमौदारिकविपयस्य संघातस्योभयस्य जघन्यमुत्कृष्टं चान्तरमुक्त.म् । अथ प परमियराई संघा-यसमयहीणाई तेत्तीसं॥ रिशाटस्य तदभिधित्सुराह (विहमित्यादि) विविध जघन्य वैफियसंघातपरिशाटोजयस्य शाटस्य च जघन्यतः समयो मुत्कएं च शाटस्यान्तरं वक्ष्यत इति यथाप्रतिज्ञातमेवाह । भवति स च समयः समयद्वयं वैक्रियं कृत्वा मृतस्य कष्टव्यः । खुड्डागभवग्गहणं, जहन्नमुक्कोसयं च तेत्तीसं । इदमुक्तं भवति केनचिदौदारिकशरीरिणा उत्तरवैक्रियमारब्धं सच तत्र प्रथमसमये संघातं द्वितीयसमये तु संघातपरिशातं सागरोवमाइं, संपुन्ना पुब्धकोडी य ॥ टोनयं कृत्वा यदा म्रियते तदा तस्य संघातपरिशाटोजयस्य हौदारिके शाटस्य चान्तरे जघन्यतः कुलकभवग्रहणं भवति समयलक्षणो जघन्यः कालः प्राप्यत इति परमुत्कृष्टमुभयस्य उत्कृएं तु तत् शाटान्तरं पूर्वकोट्यधिकानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोप स्थितिमानंतरीतुं लहयितुमशक्यान्यतराणि सागरोपमाणि एमाणि भवन्ति । अत्राह नन्वतन्नावगच्छामो जघन्यपक सम केन संघातसमपेन हीनानि प्रयस्त्रिंशदनुत्तरसुरेवप्रतिष्ठाननर योन कुलकभवग्रहणमाप्ते उत्कृष्पकेऽपि समयोनपूर्वकोट्यधिक-| के वा बोकव्यानीति। तदेवं क्रियसंघातस्य चोनयस्य चकात त्रयस्त्रिशत्सागरोपमावाप्तेरिति तथाहि यः क्षुल्लकभर ग्रहणायु उक्तः परिशाटस्य त्वेकसमयसक्षणकामः स्वयमेव दृष्टव्यः। केषु वनस्पत्यादिपूत्पद्यते स "पर नवपढमे साउणमिति" वच अथ चैक्रियसंघातस्य जघन्यमन्तरकालमाह । नात्तस्य कुल्लकनवग्रहणस्यादिसमये प्राकनौदारकशरीरस्य सर्वशाट करोति ततः कुद्वक नवग्रहणं पर्यन्ते मृतः समयोनं संघायंतरसमओ, समयविउब्धियमयस्म तइयम्मि । कुल्लकभवग्रहणं प्राप्नोति । उत्कृष्टपकेऽपि संयतमनुष्यः कश्चि- सो दिवि संघायणओ, तइए व मयस्स तश्यम्मि ।। न्मृतो देवभवाद्यसमये औदारिकस्य सर्वशाट कृत्वा प्रयस्त्रिं- वैक्रियसंघातस्य देववैक्रियसंघातस्य च जघन्यमन्तरं समयो शत्सागरोपमाण्यनुत्तरसुरेष्वायुरतिवाद्यैव पूर्वकोट्यायुष्कषु भवति। स च औदारिकशरीरिणःसमयमेकमुत्तरवैफियं कृत्वा मनुष्येषत्पद्य मृतो यदा पुनरपि भवाद्यसमये औदारिकस्य स- मृतस्य द्वितीये समये विग्रहं विधाय तृतीयसमये दिवि देववंशाट करोति पूर्वकोटिमधाद्यसमयो देवभवायुप्के विप्यते तदा लोके संघातयतो वैक्रियशरारसंघातं कुर्वतो विझेयः । अत्र हि श्रीदारिकस्य शाटस्य चान्तरे उत्कृष्टतः समयानपूर्वकोट्यधि- प्राक्तनोत्तरक्रियसंघातस्य देववैक्रियसंघातस्य च विग्रहसकानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि बज्यन्ते तत्कथमिदं नेतव्यमि- मयोऽन्तरं भवति । अथवा तस्यौदारिकशरीरिणः समयवयं ति सत्यमुक्तं किंविद कल्बकभवग्रहणाद्यसमये परिशाटो ने- तूत्तरवैफियं कृत्वा तृतीयसमये मृतस्य निर्विग्रहेण च दिषि ध्यते किंतु पूर्वजवचरमसमये बिगदविगतमिति व्यवहार- समुत्पन्नस्य कस्मिन्नेव तृतीयसमये देववैक्रियसंघातं कुर्षतः नयमताश्रयणादेव भवाद्यसमयपरिशाटो न कियते किंतु सं- एकः संघातपरिशाटोमयसमयः संघातान्तरं भवतीति । पतचरमसमये। अत्रापि व्यवहारनयमताश्रयणात्तत एवं जघन्य अय क्रियसंघातपरिशाटोभयस्य शाटस्य पदे उत्कृष्टपदे चादौ व्यवहारनयमताश्रयणे पर्यन्ते तु निश्चयन च जघन्यमन्तरकालमाह । यमताङ्गीकारे सर्वमपि नाप्यकारोक्तमविरोधेन गच्छतीति वृक्षा नभयस्स चिर विउब्धिय-मयस्स देवेमु विग्गहगयस्स । न्याक्वन्ते तत्वं तु गम्तीरमापितानां परमगुरव एव विदन्ति । सामस्संतमुहुत्तं, तिराह वि तसकालमुक्कोसं ॥ तदेवमादारिकसंघातपरिशाटोजयानां कालोऽन्तरं चोक्तम् । अथ वैक्रियशरीरस्य जघन्यसंघातकायमाह । उन्नयस्य चैक्रियस्यसंबन्धिनः संघातपरिशाटलकणस्य समवेउब्वियसंघाओ, ममत्रो सो पुरण विउवणाईए। य एको जघन्यमन्तरं भवतीत्यस्याहारः । कस्य जोरिदमचा प्यत इत्याद चिरमन्तर्मुहर्तमानं कालं विकुळ चैक्रियवपुषि स्थिओरालियाणमहवा, देवाईणाइगहणम्मि । त्वा मृतस्य देवेप्यऽविग्रहगतस्य जन्तोः संघातसमयोऽन्तरे वैक्रियशरीरस्य संघातो जघन्यतः एकसमयः स च ( ओरा- प्राप्यते । अयमत्र जावार्थो य औदारिकशरीर। वैक्रियलन्धिमालियाणांत ) औदारिकशरीरिणामुत्तरक्रियलब्धिमतां तिर्य- नुपकालपतक्रियशरीरः परिपूर्ण तिर्यड्मनुष्यवैक्रियस्थितिकाम्मनुष्याणां विकुर्वणमुत्तरवैक्रियकरणं तस्यादिविकुर्वणादि- लं यावन्मंघानपरिझाटौ विधाय म्रियते अधिग्रहेण च सुरालये स्तस्मिन्वैक्रिय तिरश्चो मनुष्यस्य वा उत्तरवैफियं कुर्वत पक- सम्पयप्रथमसमये यैक्रियसंघातं करोति द्वितीयादिसमयेधु Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६४) अभिधानराजेन्द्रः । करण प सु संघाटपरिशादौ तत्संबन्धिन उभयस्य चान्तरे स एवोक्तः संघातसमयो भवतीति । ननु यद्येवं तर्हि 'विर वियिमस्से' स्त्र चिरग्रहणमपार्थकमिह हि मनुष्यादिषु यश्चिरं स्तोकं वा कायापरिशादी करा अधिश दिवि समुत्पयमे तेनैव प्रयोजनं किं विशेष सत्यम् । किंतु प्रथममयेरणनिषेधार्थमित्यमुक्तम्] यदि वा अन्तरक्रिया तानन्तरं भावयता सप्रयोजनत्वाद् द्वितीयादिसमयेध्याकस्मि फखमाप्तवैक्रियस्यापि मरणमुत्र त्यसमाप्त कियस्यापि प्रयोजनमिति व्यापार रिपूर्णतमनुष्यादिवाकयस्थितिकामानुज्ञामपि कृतधानाचार्य इत्यष (सारस्वतमुति) का किय सर्वशादं कृत्वा पुनरपि तत्सर्वशादं कुर्वतोऽन्तर्मुहूर्त्त जघन्यमजयति कथमिति बेच्यते कश्चिदीदारधिमान कचित्यजकियं शरीरं सर्वस्य सर्वपरिशायं विधाय पुनरौदारिक शरीरमाश्रयति तत्र चान्तर्मुहूर्त स्थित्वा पुनरप्युत्पन्नप्रयोजने वैक्रियं करोत्यन्तर्मुहूत तंत्रस्थ पुनरज्यौ दारिकमागच्छ है क्रियस्य सर्वशार्ट के रोति किरतमन्तद्वयं नयन नापि वृहत्तरमेकमवान्तर्मु विततो यु ज्यते जघन्यं वैक्रियशादान्तरमन्तर्मुहूर्तमिति तदेवं वैक्रियसंघातोभयशादान्तरं जघन्योत्तरकाल उक्तः अथ त्रयाणामप्येते'गमुत्कृष्टमन्तरकालमाढ । " तिएहवित्यादि " इह यदा कश्चिजीव शरीरस्य संघातादिषयं कृया वनस्प तत्रानन्तकालमतिबाह्य तत उद्वृत्तः पुनरपि कचिद्वै क्रियश रीरमासाद्य तत्संघातादित्रयं करोति तदा तत्संबन्धेन संघातपरिशरोजयत् कृणस्य प्रयस्यापि स नानन्तत्सर्पिष्यव सर्विपर्णीरूपो वनस्पतिकालो अन्तरे भवतीति । अथाहारकशरीरसंघात परिक्षा यानां कालोऽन्तरं च वक्तव्यं तत्राह । श्राहारोभपकालो, दुविहो अंतरतियं जहति । तोको समय परियहणं च । आहारकारसंघातः परिशारा प्रत्येकं समाधिको भयनि स च सुगमत्वाप्राथायां न लिखितः स्वयमेव तु द्रष्टव्य इति । संघात परिशादभवास्तु द्विविधः सं मतपरिणायानां यदन्तरधिकमन्तरात्र्यं जघन्यंरसम का समानमवगन्तव्यं तदेवान्त गृच्च तारतम्येनावसेयमिति। आहारशरी लस्थितिकमेव जयत्यतस्तत्संबन्धिनः संघातपरिशाटो प्रयस्य जघन्यत उत्कृष्टतश्चान्तर्मुहूर्त्त काल भावित्वाश्च सिरुमेवेति एकदा चाहारकरी प्रयोजनसिक परित्यज्य चतुर्दशपूर्वरो अन्यतोऽमरपयोजन स्त कर रयत परिशायानां प्रवति जयत्यमतमिति । उत्कृष् त्वन्तरं त्रयाणामपि संघात परिशाटोभयानां किंचिन्यूनार्द्ध पुरुभवति इदं च वयपूर्वपर आहारक कृत्या प्रमादारप्रतिपक्षी वनस्पत्यादिषु यथोकका स्थित्या पुनरपि चतुईशपूर्व बरखमवाप्याहारकशरीरं करोति तस्य द्रष्टव्यमिति । अथ तेजस फार्मणविषयं संपादिविचारं विकीगढ़। सेयाकम्पारणं पुरम, संतालालाइयो न संघाच्यो । करण भव्वाण होज सामो, सेलेसी परिमसयस्मि ॥ उभयं प्रणानि भव्वा दोन फेसिथि अंतरमनाइ भाषा अगो जसको पुनः संघातस्तावन्न प्रवत्येव तयोरनादिका सात्संतानेन 'प्रवृत्तत्वात्संघातस्य तु गृह्यमाणशरीरप्रथमसमय त्यादिति प्रागकं सर्वपारोऽपि तेजस फार्मरव्यानां न भवत्येव तस्य त्यज्यमानशरीरविषयत्वात्तेषां च तत्या गानापानांतु केचिचरमसमये भा च सामयिको द्रष्टव्यः भयं तु संघाटपरिक्षणम आविश्व निधनं वादिनिधने न विद्यते आदि निधने यस्य तदनादि निधनमेवाभव्यानां भवति तस्यागाभावाद्भन्यानां तु केषांचि सिगमनसमये सातमुभयं भवेदानीं सर्वथा तत्यागाव न्तरं तु (सिति ) एतयोर्न जत्रत्येव श्रमन्यानामनादिनिधनवयोमानां तु निधनत्वेऽत्यन्तवियोगेन स्तङ्गणानायास्पकस्य पुनर्ब्रहणाचान्तरासंभवादिति सं घातपरिशादवय्यता समाप्ता देवमुक्तं स यप्रयोगकर श्रथाजीवप्रयोगकरणमभिधित्सुराह । वाणं करणं मे पमसंखसगमनाएं | संघाय परिसारण, उभयं तदनोभयं चैव ॥ जीवन करणं ज्ञेयं किं तदित्या संचालन सम्म परे परिशानामेव केवलं श्लक्ष्णीकरणं शङ्खस्य समयं संघातपरिशालणं तत्क्षणकी सिकादियोगाच्चकदस्य (नो भयंति ) संपातपरिशाोभयनिषेधः स्वगाथाः केवलोकेकरण दि भावेन तदभावादिति मन्यदपि बीयप्रयोगादजीवानां क्रियते तत्करणमिति दर्शयचाह । जं जं निलीवाणं, कीर भीवरपयोग भोतं तं । बाइकमा वा विदजीकरणं ति ॥ एवं यद्यदजीवानां वस्त्रकाष्ठपाषाणादीनां जीवप्रयोगाजीवव्यापारेण कुसुमानिदिकियते पुतलिका दे पम्मद या विधीयते समीकरणमिति । देवमुकं द्रव्यकरणम् । विशे० । उत्तः । सूत्र० । श्रथ क्षेत्रकरणमभिधित्सुराह । इह दव्वं चेव निवासमेतपज्जायभावओो खेचं । जनजं न तस्स, पफरणं निवत्तिय मिि होज व पापा प जाओ ने दन्यभो भो । उवयारमेत्तवा, जद सोए सालिकरणाई | खेत्ते व जत्य करणं, तिखित्तकरणं तहं जहासिद्धं । खेत्तं पुन्नमिणं पुन- करण संबंधमत्तणं ॥ इह अव्यमेव सननः क्षेत्रं भएयते कुत इत्याह । “निवासेत्यादि " मात्रशब्दस्य व्यवहितः प्रयोगो निवासपर्यायनावमात्रत इत्यर्थः । रुदमुकं नवति हि निवासगत्योः इति चिन्ति तिजवा जीवाधायेत्यीणादिके प्रत्यक्षेत्रमित्य मादन्यद्रव्यमपि नजः केश्मुच्यते तस्य चन निष्पादन करणं नामितमस्येति । यदि तस्य करणं नास्ति तर्हि करणभेदेषु पाठः किमर्थमित्याशङ्कयाह । ( दो चेत्यादि) भवेद्वा शेषस्याऽपि करणं ( पायाति) घटपटादिसंयोगवियोगादिपर्यायानाधिश्वेत्यर्थः । पयया हि Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६५) करण अभिधानराजेन्द्रः। करण सर्वेषामपि वस्तूनामनित्या श्त्यतस्तेषां करणमपि संभवति यदि | वत्येकादश करणानि कामविशेषरूपाणि चतुर्यामप्रमाणानि । कनामपर्यायाणां करणं संनयति तर्हि व्यस्य किमापातमित्याह | रणत्वं तेषां तत्रक्रियासाधकतमत्वादिति गाथार्थः उत्त०४० पर्यायो येन च्यादनन्योऽनिन्नस्तेन पर्यायस्य करणे द्रव्यस्या- अथ कालकरणं वाच्यं तत्र कालस्याग्यकृतिमत्वात्करणं नापिकरणं भवत्येवेति नपचारतो वा केत्रस्य करणं भण्यते(ज- स्ति व्यपर्यायत्त्वविवक्कया तस्य तद्भवेद्वा इति दर्शयति । ह बाए सालिकरणा इति) यथा लोके वक्तारो जवन्ति शालि- जं वत्तणाइरूवो, कालो दन्चस्स जेव पज्जाओ। केत्रमिकुक्षेत्र वा मया कृतमित्यादि । अथवा केत्रस्य करणमिति तो तेण तस्स तम्मि व, न विरुषं सव्वहा करणं ।। षष्ठीतत्पुरुषो न क्रियते किंतु केत्रे करणं केत्रकरणं सप्तमीतत्पुरुव शति दर्शयन्नाह ( खेत्त वेत्यादि ) अथवा यत्र केत्रे करणं यस्मात्प्रागुक्तस्वरूपो वर्तमानादिरूपः कालो व्यस्यैव पर्या यः पर्यायश्च व्यादनिम्नस्ततो यथा व्यस्य तथा तस्यापि पुण्यादेस्तत्क्षेत्रकरणं यथा लोकोऽपिसिकमेतत्पुण्यमिदमुज्जय करणं न विरुकम् । कथमित्याह । तेन कालेन तस्य वा तस्मितशत्रूजयादिक्षेत्रं पुण्यकरणसंबन्धमात्रेण तत्र हि ये दानानशनादिकं कुर्वन्ति तेषां महत्पुण्य भवतीत्यतः पुण्यस्य तत्र न्वेत्यादिन्निः सर्वथा सर्वैरपि प्रकाररिति ! करणात्पुण्यकेत्र तदिति, विशे० । श्रा० म०द्वि० उत्त। अथवा ज्योतिष्कमार्गप्रसिकमेवेह कालकरणं पुनः केत्रकरणम् । गृह्यत इति दर्शयति । ण विणा आगासेणं, कीरइज किंचि खेतमागासं। अहवेह कालकरणं, बवाइ जोसियगइविसेसणं । वंजपपरियावां, बच्चुकरणमादियं बहुहा ।। उत्तनि सत्तविहं तत्थ चर-चउविहं थिरमहक्खायं ।। आह नित्यत्वात् केत्रकरणं न संगच्छते तत्कथं क्षेत्रकरणसं अथवा ववबालवादिरूपं चन्द्रादित्यादिज्योतिषिकदेवगतिवि. भव नच्यते न विनाकाशेन क्रियते न निर्वय॑ते यदिति यस्मा शेषण यशवति तदिह काबकरण गृह्यते । तत्र च वादिरूपे किचिदित्यल्पमपियाकं स्कन्धाद्यतस्तत्प्राधान्यादद्रव्यकरण कालकरणं सप्तविधं चरम् अन्यान्यतिथिषु भावाच्चतुर्विधं तु मपि केत्रकरणमुच्यते इत्युपस्कारः ननु यथाकाशेन विनान कि स्थिरमाख्यातं नियतास्वव तिथिषु भावादिति । चिक्रियते तदाकाशकरणेनैवास्तु कथं केत्रकरणतोच्यते केत्रमि तत्र यत्सप्तविधं चरं तदाह । ति केत्रशब्दवाच्यमाकाशं तथा च पर्यायशब्दत्वादनयोरिस्थ- वयं च बालव चेव, कोजवं थीविनोयणं । मनिधानममुष्टमेवेति भावः तच्च व्यजनशब्दस्तस्य पर्यायो गरादि वणियं चेव, विट्ठी हवा सत्तमा।। ऽन्यथान्यथा च भवनं व्यञ्जनपर्यायः तमापन्नं प्राप्त व्यञ्जनप-यापन्नम् (उच्चुकरणमाइयत्ति) प्रक्रमान्मकारस्य चाग अस्य सप्तविधस्यापि चरस्य करणस्यानयनोपायमाह । मिकन्वादिकुकेत्रकरणादिकं बहुधा बहुप्रकारमेकत्वेऽपि केत्र पक्खत्तिहउ दुगुणिया, दुरूवरहिया य सुक्तपक्खम्मि । स्य इकुक्षेत्रादिकरणरूपेणाभिसापस्य बहुप्रकारत्वात्तथा च सं सत्तहिए देवसियं, तं चिय रूपवाहियं रत्ति ॥ प्रदायः "वंजणपरियावत्तं नाम ज खेत्तंति अभिमप्पति तं जहा कृष्णस्य शुक्लस्य वा प्रस्तुतपकस्य यास्तिथयोऽतिक्रान्ताउच्नुखेत्तकरणं सालिखत्तकरणं तिलखेत्तकरणं” तिलस्खेतक- स्ता द्विगुणीक्रियन्ते ततश्चागतराशेः सप्तनिर्भागो व्हियते एवं रणमेवमादि अथवा यस्मिन् केत्रकरणं क्रियते वर्ण्यते वा तत् च कृते यत्करणमागच्चति तत्प्रस्तुततिथौ कृष्णपक्षे देवसिकं केत्रकरणमिति गाथार्थः । उत्त०४०। विज्ञेयम् । रूपाधिकं तु तदेव रात्रौ यथा कृष्णदशम्यां द्विगुसाम्प्रतं कालकरणानिधित्सयाऽऽह । णितायां विंशतिनवति ततः सप्तन्निीगे हृते षम् शेषा भवन्ति । कालो जो जावश्ओ, कीरइ जम्मि जम्मि कालम्मि। तथा चेदं षष्ठं वणिजानिधानं दैवसिकं करणं लब्धं रूपे तनप्रओहेण णामतो पुण, करणा एक्कारस हवंति ॥ क्विते रात्रिगतं विष्ट्यनिधानं सप्तमं करणं लभ्यते पवम न्यत्रापि कृष्णपके द्रष्टव्यम् । शुक्वपके विशेषमाह । (कामोजो इत्यादि) कालस्याभिमुख्य करणं न संजवतीत्यौपचारिकं दर्शयति कामो यो यावानिति । यः कश्चिद घटिका ( दुरूवरहिया य सुक्कपक्खम्मिति ) शुक्लपक्के द्विगुणिततिदिको नलिकादिना व्यवद्यि व्यवस्थाप्यते तद्यथा षष्टघुदक थिराशे पात्येते ततो देवसिकं करणमागच्छति सप्तभिश्च भागो पलमाना घटिका द्विर्घटिको मुहर्त्तस्त्रिंशन्मुहर्तमहोरात्रमित्यादि न पूर्यते ततस्तदैवसिकं षष्ठं करणं लब्धं रूपे तु प्रतिते सप्तम तत्कालकरणमिति । यद्वा यत् यस्मिन् काले क्रियते यत्र वा काले विष्टधनिधानं रात्रिगतं करणं लज्यते एवमन्यान्यपि शुक्ल पके करणं व्याख्यायते तत्कालकरणमेतदोघतः[सूत्र०१ श्रु.१अ.१च.] भावनीयानि । इह च लोकप्रसिद्धकरणनयनोपायोऽन्योऽपि वि. एतमाथाव्याख्या प्रकारान्तरेणाह (कालोगाहा ) कासो यः द्यते । तद्यथा " तिहिगुणी य किहिं कणीसत्तर्हि हरणं सेसं समयादिवत्परिमाणः यत्करणनिष्पत्त्यपक्काकारणत्वेन व्या करणमिति" युक्तः केवल मिह मासतिथयो द्विगुणियितध्या प्रियते। किमुक्तं भवति यस्य भोजनादेविताघटिकाद्वयादिका- यदागच्चती तजानिगतकरणं रूपे तु पातिते दिवसगतं लेन निष्पत्तिस्तस्य स एव कालकरकणं तत्रैव तस्य साधकतम द्रष्टव्यमिति। स्वेन विवक्तित्वात् । यदि वा यत्करणं क्रियते निष्पाद्यते यस्मिन् अत्र चतुर्विधस्थिरकरणमाद। यस्मिन् काले तस्य स एव कालः करणम् । कालकरणमत्रा- सउणिचउप्पयनागं, किंपुग्धं करणं थिरचनहा । धिकरणसाधकत्वेन विवक्तितत्वातू करणशब्दस्य श्रोधोनेतिमा बहनचउद्दसरत्ति, सनणि सेसं तियं कमसो । मादिविशेषानपेक्वमेतत्कालकरणं तथाच वृद्धाः "कानकरणं जं कृष्ण चतुर्दशीरात्रौ सदाबस्थितं शकुनिनामकं करणं भवति जं जावतिएण कालेण कीरति जम्मि वा"'कालमिति' श्दापि अमावस्यायां दिवसे चतुष्पदं रात्रौ नागं प्रतिपदि दिवा किंस्तुघ्नं कालस्याकृत्रिमत्वेन करणसंभवादित्थमुपन्यासनामतः पुनर्भ- शेषरजनीदिनयोर्यथोक्तोपायतश्चरकरणमवसेयमिति । विशे०॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण ( ३६६ ) अभिधानराजेन्द्रः । करणानां भेदानाह । कति णं भंते! करण पष्मत्ता ? गोयमा ! एक्कारस करणा पम्पत्ता तंजहा वरं बालवं कोलवं थीविलोभणं गराइ वज्जि विट्ठी मणी च उप्पयं नागं किंयुग्मं एतेसि एां भंते ! एकारसहं करणाणं कति करणा चरा कति करणा थिरा पत्ता ? गोमा ! सत्त करणा चरा चत्तारि करणा थिरा पना तंजाबचं वालवं कोलवं थीविद्योगं गरार्दिवणिज्जं विट्ठी एतेसि णं सन करणा चरा । चत्तारि करणा बिरा पत्ता जहा सजणि चउष्पयं पागं कियुगं एते चत्तारि करणा थिरा पाना । एतेसि णं जंते ! चरा थिरा कया जवंति ? गोमा ! सुकपक्वस्स पडिवाए राम्रो बने करणे व वितिश्राए दिवा चालवे करणे जवन रात्र कोलने करणे व ततिआए दिवा थीविलोणं करणं भव राम्रो गराई करणं भवः चत्थीए दिवा वणिजं राम्रो विट्ठी पंचमी दिवा ववं राम्रो बालवं छट्ठीए दिवाकोलवं राम्रो थीविलोणं सत्तमीए दिवा गराति रा वणिजं मीए दिवा विट्ठी रात्रवं एवमीए दिवा वालवं राम्रो कोसत्रं दसमीए दिवा थीविलोअणं राम्रो गराई एक्कारसीए दिवा वणिजं राओ विट्ठी करसीए दिवा बवं राम्रो बाल तेरसीए दिवा कोलवं राम्रो श्रीविनोउसी दिवा गरातिं करणं राम्रो वणिज्जं पुलिमाए दिवा विधीकरणं राम्रो ववं करणं भवः । बहुलपक्खस्स परिवार दिवा वासवं राम्रो कोसवं वितियाए दिवा थीविलो राम्रो गरादिं ततियाए दिवा वणिजं ओवी चनत्थी दिवा वयं राम्रोवालवं पंचमीए दिवा कोलवं राम्रो यी विलो बट्टीए दिवा गराई राम्रो वणिज्जं सत्तमीए दिवा विट्ठी राम्रो बवं प्रमीए दिवा बालवं राम्रो कोलवं णत्रमीए दिवा थीविलोप्रणं राम्रो गराई दसमीए दिवा वणिज्जं राम्रो बिट्ठी एकारसीए दिवा ववं राम्रो वालवं वारसीए दिवा कोलवं राम्रो थीविलोप्रणं तेरसीए दिवा गराई राम्रो वणिज्जं चउदसीए दिवा विरा सण अमावसाए दिवा चउप्पयं राम्रो लागं सुकपक्खस्स पमित्राए दिवा किंधुग्धं करणं जवइ । कति ? दन्त ! करणानि प्रप्तानि गौतम ! एकादश करणानि प्रप्तानि तद्यथा घवं बालवं कौलवं स्त्रीचिलो वनं अन्यत्रास्य स्थाने तैतिलमिति गरादि श्रन्यत्र गरं वणिजं विष्टिः शकुनिः चतुपदं नागं किंस्तुघ्नमिति । एतेषां चरस्थिरत्वादिव्यक्तिप्रश्नमाह (पतेसि णं इत्यादि) एतेषां जदन्त ! एकादशानां करणानां मध्ये कति करणानि चराणि कति करणानि स्थिराणि प्रज्ञप्तानि । चकारोऽत्र गम्यः जगवानाह गौतम ! सप्त करणानि चराणि श्र नियततिथि नावित्वात् । चत्वारि स्थिराणि नियत तिथि नावित्वात् तद्यथा वचादीनि सूत्रोकानि ज्ञेयानि एतानि सप्त करणा For Private करण निचराणिइत्येतनिगमनवाक्यम्। चत्वारि करणानि स्थिराणि प्रशप्तानि तथथा शकुन्यादीनि सूत्रोक्तानि एतानि चत्वारि करणानि स्थिराणि प्रज्ञप्तानि इति तु निगमनवाक्यम् । प्रारम्भकनिगमनवाक्यद्वयभेदेन नात्र पुनरुक्तिः । एतेषां स्थाननियमं प्रष्टुमाह (पतेसिणमित्यादि) सर्व चैतनिगदसिद्धं नवरं दिनरात्रिविजागेन यत् पृथक् २ कथनं तत् करणानां तिथ्यर्कप्रमाणत्वात् कृष्णचतुर्दश्यां रात्रौ शकुनिः अमावस्यायां दिवा चतुष्पदं रात्रौ नागं शुक्लपक्षप्रतिपदि दिवा किंस्तुघ्नं चेति चत्वारि स्थिराणि । स्वेव तिथिषु भवन्तीत्यर्थः । जं०७ वक्ष० त० ॥ सूत्र० । श्रा० म० द्वि० । षु कर्तव्यमाह । व? वासवं चतह को लवं३ च थीझोयं ४गराई ए च । वणियं ६ विडीय तहा, ७ सुपमित्रए निसाई य ॥ ४२ ॥ सउणि चउप्पयनागं, किंयुग्गं च करणा धुवा हुंति ॥ किन्हचन्द्रसरति, सउली परिवज्जए करणं ॥ ४३ ॥ कान तिहिं जिणं, जन्हे गोसाहए न पुण काले || सत्तहिं हरिजभागं, जं सेसं तं भवे करणं ॥ ४४ ॥ वय वालने चैत्र, कोलवे लिए तहा ॥ नागे चप्पण्या वि, मेहनिकम करे ॥ ४५ ॥ चट्टा कुज्जा, अणुभं गणिवायए । सम्मिय विडीए, असणं तत्थ कारए ॥ ४६ ॥ ( दारम् ४ ) गुरुमुक्का सोमदिवसे सेहनिक्खवणं करे । चनवद्वावणं कुज्जा, अणुनं गशिवायए || ४७ ॥ रविजोमकोण दिवसे, चररणकरणाणि कारए । तो कम्माणि कारिज्जा, पावगमणाणि य ॥४८॥ (दारम्५) रुद्दो उ मुहुत्ताणं, आईच्छिन्नवइगुलच्छाओ । सेवई सही, वारसमित्तो हवइ ज्जुत्तो ॥ ४० ॥ छच्चेव य आरभमो, सावितो पंच अंगुलो हो । चत्तारि य वइरिज्जो, दुच्चैव य सासू होइ ॥ ५० ॥ परिमलो महत्तो, असीवि मज्झति तेट्ठिए दो । दो होइ रोहणी पुण, बलो य चनरंगुलो होइ ॥ ५१ ॥ विजय पंचगुलियो, बच्चेव य नेरिओ हवइ जुत्तो । वरुणो य हव वारस, अज्जमदे वो हव सट्टी ||२|| ears लाई, पुण हो भगोत्तर अत्थमणावलए ॥ एए दिवसमुहुत्ता, रत्तिमुहुत्ते अओ बुच्छं ॥ ५३ ॥ as वियणो, पमोयणो अज्जमित्तहासीणो । रक्खसपा साइज्जो, सोमो वंभो बहसमइया ॥ ५४ ॥ विल्हू तहा पुणो रि, तो रत्तिमुहुत्ता वियाहिया । दिवसमुदुत्तगईए, छायामारणं मुणेयव्त्रं || ५५ || मित्ते नंदे तह मुट्ठिए य, अभिइ चंदे तत्र य । वरुणग्गो वेससाणे, आणंदे विजए य ॥ ५६ ॥ एए तो सेह निक्खमणं करे ।। Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण (३६७ ) अभिधानराजेन्द्रः । चनवद्वावणाई च, अणुन्नागशिवायए ।। ५७ ॥ वंभे व लय वाउम्मि, उसमे वरुणे तहा । असणं पायवगमणं, उत्तमहं च कारए || ए८ ॥ (दारम् ६) पुन्नामधिज्ज सउणसु, सेहनिक्खमणं करे । श्रीनामे सन्रणेसु, समाहिं कारए विक || २ || नपुंसएम सवसु, सव्वकम्माणि वज्जए । वोमेसेसु निमित्तेमु, सव्वारंभाणि वज्जए ।। ६० ॥ तिरियं वाहतेसु, दाणागय गरे । पुष्फिए फलिए बच्चे, सभायं करणं करे ॥ ६१ ॥ दुमखं वाहिरंतेसु. सेवट्टावणं करे । गयाणवाहरंतेमु, उत्तमहं तु कारए ।। ६२ ।। विलमूले वाहतेसु, वारणा तु परिगिन्हए । उपयम वयंते, सजणे भरणं जये ।। ६३ ।। पकतेसु सजणे, हरिं तुहिं च वागरे । (दारम् ७) चन्नरासिविलग्गेसुं, सेहनिक्खमणं करे ।। ६४|| धिररा सिविलग्गेसुं, चनवडावणं करे । सुये संधान्नाओ, उद्दिसे य समुद्दिसे ।। ६५ ।। विसरीरविलग्गेसु, सज्झायं करणं करे । रविहोराविसग्गे, सेहनिक्खमणं करे ।। ६६ ।। चंदहोराविलग्गेमु, सेही संगई करे । समुद्दे कोलगे, वरणं करणं तु कारए ।। ६७ ।। कूपदिकालग्गेमुं, उत्तमहं तु कारए । एवं लग्गाणि जाणिज्जे, दिकाणे सुम्मसंसओ ॥ ६८ ॥ सोमग्गहावलग्गेसु, सेहनिक्खमणं करे ! क्रूरग्गहविलग्गेसु. उत्तमहं तु सारए || ६७ ॥ राहु विलग्गे, सव्वकम्माणि वज्जए । विलग्गेमुपसत्येमु, सुवसत्याणि आरभे ॥ ७० ॥ अप्पसत्थेसु, लोगेसु, सव्वकम्माणि वज्जए । बिलग्गणिज्जाजाणिज्जा, गहणं जिणनासिए ॥ ७१ ॥ न निमित्ता विवज्जति, न मिच्छा रिसिभासियं । ( दारम् ८) दुद्दिणं निमित्तणं, आसो उ विरणस्सइ ॥ ७२ ॥ दिणं निमित्तं देसो न विश्णस्स । जाय अपाइया जामा, जं च जंपति बालया ॥ ७३ ॥ जं वित्थओ य भाति, नत्यि तस्स वड़क्कमो । तज्जाए य तज्जायं, तन्निनेण य तन्निनं ॥ ७४ ॥ तारूवेण य तारूवं, सरिसं सरिसेण निहिसे इत्थी पुरिसनिमित्तेसुं, सेहनिक्खमणं करे ।। ७५ ।। नपुंसकनिमित्ते, सव्वकज्जाणि वज्जए । वामित्सु निमित्तेसु, सव्वारंजे विवज्जए || ७६ ॥ निमि कित्ति मे नत्थि, निमित्ते भाविमुज्जए । करण जेण सिद्धा बियाणंति, निमित्तप्पायलक्खणं ॥ ७७ ॥ निमित्सु सत्थे, बसु चलिए य । निक्मणं कुज्जा, उत्रद्वावणाणि य ॥ ७८ ॥ गणसंगहरणं कुज्जा, गणहरे इत्ययात्रए । सुधाणुन्ना, अणुन्नागणिवायए ॥ ७ ॥ निमित्तेसु पसत्थेस सिट्टिलेसु वलेसु य । सव्वकज्जाणि वज्जिज्जा, अप्पसाहरणं करे ॥ ८० ॥ अत्थे निमित्तेसु, सुपसत्याणि साहए । अप्पमत्यनिमित्तेसृ. सव्वकज्जाणि वज्जए || ८१ ॥ दिवस तिविप्रो, तिहिओ बलिं तु सुब्बा रिक्खं । नक्खत्ता करणमाहंसु, करणा गहदिणी वली ॥ ८२ ॥ गहादिणान मुहुत्तो, मुहुत्ता सनणो बली । सउ बलविगो, तओ निमित्तं पहाणं तु ॥ ८३ ॥ विलग्गा निमित्ताओ, निमित्तं बलमुत्तमं । नंतं संविज्जं लाए, निमित्ता जं बले भत्रे ॥ ८४ ॥ एसा वलावनविही, समास कित्ति सुविड़िएहि । ओगे नाणगव्भो, नायव्वो अप्पमत्तेहिं ॥ ८५ ॥ गणिविज्जा पयन्नं सम्मत्तं द०१० ४ पय० ॥ अथवा भावकरणमाह । जावस्स व जावेण व, जावे करांति भावकरणंति । तं जीवाजीवाएं, पज्जयविसेस बहुद्दा || भावस्य पर्यायस्य करणं भावकरणं जावेन वा करणं तच्च जी वानां पर्यायविशेषतः पर्यायविशेषानाश्रित्य बहुधा बहुभेदं भवति तत्राल्पवक्तव्यत्वाद जीवनावकरणं तावदाह । अपरप्पगओगजं जं, अजीवरूवाएँ पज्जयावत्थं । तमजीवभावकरणं, तपज्जाय परणवक्वं ॥ परप्रयोगाज्जातं परप्रयोगजं न परप्रयोगर्ज स्वभाविकमित्यर्थः यदप्रयोगजं तदजीवनावकरणम् इति संबन्धः कथंजूनमित्याह । श्रजीवरूपादिपर्याया रूपं वाऽवस्थास्वरूपं यस्या - जीवभावकरणस्य तदर्जीवरूपादिपर्यायावस्थं परप्रयोगमन्तरेणैव यदाज्यजीवानां स्वजाविकं रूपरसगन्धस्पर्श संस्थानादिपर्यायकरणं तदजीवभावकरणमित्यर्थः, विशे० । तत्थ जमजीवकरणं, तं पंचविहं तु गायव्वं । वस्परसगंधफासे, संत्राणे चैत्र होड़ पायन्त्रं ॥ पंच पंचविहं दुहिद्वहिं च पंचविहं । उत्तः नि०। तत्र तयोर्म्मध्ये यदजीवकरणं तत्पञ्चविधं पञ्चप्रकारमेव ज्ञातव्यमव सेयमिति गाथार्थः । एतदेव स्पष्टयितुमाह (बगादा) वर्णरसगन्धस्पर्शसंस्थानं चैवोभयत्र विषयसप्तमी ततो वर्णादिविषयं नवति ज्ञातव्यमजीवकरणमिति प्रक्रमस्तत्र वर्णः कृष्णादिः रसः पञ्चविधस्तिक्तादि गन्धो द्विदः सुरभिरितरच स्पर्शोऽविधः कर्कशादिः संस्थानं पञ्चविधं परिमरामलादि तद्भेदात्करणमप्येतद्विषयमेतावद्भेदमेवात पवाह "पविधमित्यादि " ननु द्रव्यकरणात्कोऽस्य विशेष उच्यते इह For Private Personal Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण पर्यायापेकया तथा जवनमभिप्रेतं व्यकरणे तु व्यस्यैव तथा तोत्पादयति कमतापेक्षयेति विशेषः । उक्तं च 'अपरपश्रोगजं जं, श्रजीवरूपादि पज्जया वत्थं । तमजीवभावकरणं तप्पाणावक्वं ॥ को दविस्साकरणाउ, विसेसो इमस्स ण भणियं । घट पज्जवविक्खाए, दव्वष्ठियनयमयं तं च" इति गाथार्थः ॥ ननु तर्हि व्यवित्रसाकरणादस्य को भेद इत्याशङ्कयाह । (तप्पज्जायपणावेक्खति ) तेषामजीवानां पर्याया रूपादयस्तपर्यायास्तेषामप्राधान्येन विकणं तत्पदार्पणं तस्थायेका यत्र तत्पर्ययार्पणापेक्रम् । इदमुक्तं भवति । पूर्व द्रव्यप्राधानिसाकरणमि तु रूपादिपर्यायान्यमपे क्ष्यैतदेव जावकरणामभिहितमिति इदं च 'तप्पज्जायपणात्रेक्ख' मित्यनेन दत्तमप्युत्तरमनवगच्छतः परस्य मतमाशङ्कयाह । को दव्यं समाकरणाउ विमेसा इमस्स नए भणियं । इह पज्ञायाक्खा, दव्यडियनयमयं तं च ॥ गतार्था । अयाजीयकरणमाह । इह जीवभावकरणं, सुयकरणं सुयाजिहाणं च । करणं वियझोपसोउत्तरं चैव ॥ (३६० ) अभिधानराजेन्द्रः । वावद्धं च पुणो, सत्यासत्योत्रए सभेया उ । एके सदनिसी-हकरणभेयं मुणेपव्वं ॥ जीवस्य जावो जीवभावस्तस्य करणं जीवनावकरणं तच द्विविधं श्रुतज्ञानभावकरणं मोलामा मोनानाकरणं चेत्यर्थः । आह ननु यथा श्रुतज्ञानं जीवस्य नावस्तथा शेज्ञानान्यपि विद्यन्ते ततो मत्यादिज्ञानभावकरणमपि कस्मानोक्तम् । सत्यं किंतु यथा परायत्तत्वाद् गुरुपदेशादिना श्रुतशानं क्रियते नैवं शेषशानानि तेषां स्पाचरणायोपज्यां स्वत एव जायमानत्वादेवं सम्पादयोऽपि जीवभावानेका स्मरायतास्तेषां नरकादिप्यन्ययाभावादिति । तानक रणमपि द्विचिकिकं लोकोत्तरं पुनरद्विधा बद बरूं च । तत्र गद्यपद्यरूपतया रचितं बद्धम् । इदं च शास्त्रो पदेशरूपं भवति यत्पुनरशास्त्रोपदेशरूपं कण्ठादेव स्तूयते तदबरूम् । इदं च बद्धं च एकैकं द्विधा भवति शब्दकरणं निशीथकरणं चेति । अथ शब्दकरणस्य निशीथकरणस्य च व्याख्यानमाह । उचीच सदकरणं, पगासपाठं च सरविसेसो वा । गूढतं तु निर्स रहस्मृनत्यमहवा जं ॥ ( उत्तीउ सद्दकरणंति ) उक्तिविशेषः शब्दकरणमथवा प्रका शप शब्दकरणं यदि वा उदात्तादिस्वरविशेषः शब्दकरणमु च्यत इति । गूढो गुप्तोऽनवगम्यमानोऽर्थोऽस्य तद्गुढार्थ पुननिशीथकरणमुच्यते । अथवा यहस्यसूत्रार्थे तन्निशीथक रणमुच्यते यथा निशीथाध्ययनं रहस्पमप्रकाश्यं सूत्रमर्थ श्च यस्य तहस्यसूत्रार्थमिति समासः । किं पुनस्ती किक लोकोत्तरं या मित्याह । लोए अणिवद्धाई, अनिडियपच्चड्डियाइँ करणाई | पंचादेसाई, मरूदेवाईक उतरिए || लोके अनिवान्युपदेशमात्ररूपाणि न पुनः शास्त्रविद्धानि मवानां करणविशेष निकादित्यादीनि पानि लोफेसरे स्वनयानि पञ्चान्यदेशानां योनि (म करण देवा) मग्यादेश आदी येषां तानि मरुदीन पञ्चादेशशतानि यथा अत्यन्तस्थावरा श्रनादिवनस्पतिकायाडुनृत्य मरुदेवी प्रथम जनमाता सिद्धेति । वक्तं "उसीस करणामित्यादि" तत्र प्रेयं परिहारं चाह । भावकरणादिगारे, किमिदं सराकरणं । भाइ तत्थ विभावो, विवक्खि तव्विसिहो उ ॥ महिनावकरणाधिकारे किमस्तुनेन शब्दादिव्यकरणोपन्यासेन श्रादिशब्दगतानकद संग्राहकः भष्यतेोत्तरं तथापि शब्दयकरणे भाव एव भावभूतमेव विहितं कथंभूतो भावस्तद्विशिष्टः शब्दविशिष्टः । श्रयमभिप्रायः प्रकाशपावादि के शब्दकरणेऽपि न केवलं शब्द एव विवचितः किं तु यतस्य कारणरूपं कार्यरूपं च भावतं तदेव शब्दविशिष्टमिद विवमित्यदोष इति इतरणम अथ नोकरणमाह । नोमुयकरणं दुहिं गुणकरणं कुंभणाभिदाणं च । गुणकरणं तवसेजम करणं मुवृत्तरगुणं वा ।। जो शब्दस्य सर्वनिषेधवचनातयतिरिक्तं यत्तपःसंयमा दिरूपस्य जीवनायस्य करणं तस्रोतभावकरणमत द्विविधं गुणकरणं तथा (जुंजणाभिहाणं ति) युज्यन्त इति योगामनःप्रनृतयस्तेषां यत्करणं यद्योजनाभिधानं करणमिति तत्र गुणकरणं तपःसंयमयोः करणम् । अथवा मूलगुणकरणमुत्तरगुणकरणं व गुणकरणमुच्यत इति । अथ योगकरणव्याख्यानमाह । मायकायकिरिया पनरसविदा उ जुजा करणां । सामाश्यकरणमिणं, किं नामाईण होला । सत्यादिभेदततुर्विधं मनः चतुर्विधं वचनमोदारिक मिश्रादिनेदात्सप्तविधः कायः इत्येवमेतत्क्रियाऽपि पञ्चदशविधा योजना करणत्वेनावगन्तव्या तदेवमवसितं भावकरणम् । तदवसाने चोकं नामादिभेदतः षड्विधमपि करणमिति, विशे० । श्र० म० द्वि० । उत्त० । श्राव० । प्रकारान्तरेण भावकरणप्रतिपादनायाह । जावे पयोगीसम, पयोगसामूलउत्तरे देव | उत्तरकम जो बच्चादी जोणाई ॥ १४ ॥ (भावे पओगेत्यादि) भावकरणमपि द्विधा प्रयोगविस्वसामेदात् । तत्र जीवाश्रितं प्रायोगिकं मूलकरणं पञ्चानां शरीराणां पर्याप्तिस्तानि हि पर्याप्तिनामकर्मोदयादौदायिके भावे वर्त्तमानो जीवः स्ववीर्यजनितेन प्रयोगेण निष्पादयति । उत्तरकरणं तुगाथापश्चाद्धेनाह। उत्तरकरणं क्रमधुतयौवन वदिचतूरूपम त क्रमकरणं शरीरनिष्पत्युत्तरकालं बालयुवस्थचिरादिक्रमेणोतरोत्तरोऽवस्थाविशेषः करणं तु व्याकरणादिपरिज्ञानरूपोऽवस्थाविशेषोऽपरकलानां परिज्ञानरूपश्चेति । यौवनक रणं कालकृतो वयोऽवस्थाविशेषो रसायनाद्यापादितो वेति । तथा वर्णगन्धरसस्पर्शकरणं विशिष्टेषु भोजनादिषु सत्सु यविशिष्टचांद्यापादनमित्यतश्च पुलविपाकित्वादीनामजीवाश्रितगपि द्रष्टव्यमिति ॥ १४ ॥ इदानीं वित्रसाकरणमभिधित्सयाऽऽह | वादिया या दिएस जे केइ वीससा मेला | ते हुंति थिरा अधिरा, बायात मादी || १५ ।। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) करण अभिधानराजेन्डः। करण (वमा इत्यादि ) वर्णादिका इति रूपरसगन्धस्पर्शास्ते यदा वादिलब्धिकलापसंबन्धस्तं धारयन्तीत्यनेकयोगधरास्तेषां परेषामपरेषां वा स्वरूपादीनां मिलन्ति ते वर्णादिमेलका वि- प्रभाषितमिति सूत्रकृताङ्गाऽपेक्षया नपुंसकता । साधवश्चात्र ससाकरणम् । ते च मेलकाः स्थिरा असंख्येयकालावस्था- गणधरा एव गृह्यन्ते तदुद्देशेनैव भगवतामर्थप्रभाषणादिति । यिनोऽस्थिराश्च क्षणावस्थायिनः। संध्यारागार्मेन्द्रधनुरादयो ततोऽर्थ निशम्य गणधरैरपि वाग्योगेनैव कृतं तच्च जीवस्य भवन्ति । तथा छायात्वेनातपत्वेन च पुजलानां विस्रसापरि- स्वाभाविकेन गुणेनेति । स्वस्मिन् भावे भवः स्वाभाविकःप्रा. णामत एव परिणामो भावकरणम् । स्तनप्रच्यवनानन्तरं दु- कृत इत्यर्थः प्राक़तभाषयेत्युक्तं भवति न पुनः संस्थ ग्धादेश्व प्रतिक्षणं कठिनाम्लादिभावेन गमनमिति ॥ १५॥ लिदापप्रकृतिप्रत्ययादिविकारविकल्पनानिष्पन्नयेति ॥१६॥ सांप्रतं श्रुतज्ञानमधिकृत्य मूलकरणाऽभिधित्सयाऽऽह । पुनरन्यथा सूत्रकृद् निरुक्तमाह । मूलकरणं पुण सुते, तिविहे जोगे सुन्नासुभकाणे। अक्खरगुणमतिसंघा-यणाए कम्मपरिसामनाए य । ससमयसुएण पगयं, अज्झवसाणेण य सुहेणं ॥१५॥ तदुनयजोगेण कयं, सुत्तमिणं तेण मुत्तगडं ॥२०॥ (मूलेत्यादि ) श्रुते पुनः श्रुतग्रन्थे मूलकरणमिदं त्रिविधे | (अक्सरेत्यादि ) अकराणि अकारादीनि तेषां गुणोऽनन्तगयोगे मनोवाकायलक्षणे व्यापारे शुभाशुभे च ध्याने वर्तमान मपर्यायत्वमुच्चारण वाऽन्यथाऽर्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वात् ग्रंन्धरचना क्रियते । तत्र लोकोत्तरैःशुभाशुभभ्यानावस्थितै मतेर्मतिमानस्य संघटना अक्षरगुणेन मतिसंघटना भावश्रुतस्य प्रैन्थरचना विधीयते लोके त्वशुभध्यानाश्रितैर्ग्रन्थग्रन्थनं क्रि कव्यश्रुतेन प्रकाशनमित्यर्थः । अक्षरगुणस्य वा मत्या बुध्या संयत इति लौकिकग्रन्थस्य कर्मयन्धहेतुत्वात् कर्तुरशुभध्यायित्वमवसेयम् इह तु सूत्रकारस्य तावत्स्वसमयेन शुभाध्य घटना रचनेति यावत् तयाऽक्करगुणमतिसंघटनया । तथा कबसायेन च प्रकृतं यस्मासणधरैः शुभध्यानावस्थितैरिदमङ्गी मणां ज्ञानावरणादीनां परिशाटना जीवप्रदेशेज्यः पृथक्करणकृतमिति ॥१६॥ तेषां च ग्रन्थरचना प्रति शुभध्यायिनां कर्म रूपा तया च हेतुभूतया सूत्रकृताङ्गं कृतमिति संबन्धः । तथाहि द्वारेण योऽवस्थाविशेषस्तदर्शयितुकामो नियुक्तिकृदाह । यथा यथा गणधराः सूत्रकरणायाद्यमं कुर्वन्ति तथा तथा लिइअणुजावे बंधण-निकायणनिहत्तदीहहस्सेसु ।। कर्मपरिशाटना प्रवति यथा यथा च कर्मपरिशाटना तथा तथा ग्रन्थरचनायोद्यमः संपद्यत इति एतदेव गाथापश्चान दर्शयति संकमउदीरणाए, उदये वेदे उवसमे य ॥१७॥ (तदुभयोगेनेति ) अक्करगुणमतिसंघटनायोगेन कर्मपरिशाट"ठिन इत्यादि " तत्र कर्मस्थितिं प्रति अजघन्योत्कृष्टस्थिति- नायोगेन च यदिवा वाग्योगेन मनोयोगेन च कृतमिदं सत्र तेन भिर्गषधरैः सूत्रमिदं कृतमिति । तथाऽनुभावो विपाकस्तद- सूत्रकृतमिति, सूत्र०१थु०१ अ० श्ह "करणेजएयअंते" इपेक्षया मन्दानुभावैस्तथा बन्धमङ्गीकृत्स्य शानावरणीयादिप्रक- | त्यादिगाथायाः समनन्तरं "नाम ग्वणादविए" इत्यादिका बतीर्मन्दानुभावा बध्नद्भिस्तथाऽनिकाचयद्भिरेवं निधत्ताव- यो गाथा नियुक्ती रश्यन्ते ताश्च नाघ्यकारण प्रक्वेपरूपत्वास्थामकुर्वद्भिस्तथा दीर्घस्थितिकाः प्रकृतीर्लघीयसीजनयद्भि- दिना केनापि कारणेन प्रायो न लिखिताः केवलं तदर्थ एव स्तथोत्तरप्रकृतीबध्यमानासु संक्रामयद्भिस्तथोदयवां कर्म- नायगाथाभिलिखितस्तदत्र कारण स्वधियाऽन्यूह्यमिति । तदेणामुदीरणां विदधानैरप्रमत्तगुणस्यैस्तु सातासातायूंप्यनुदी- वं व्याख्यातं “करणे भए अंते" इत्यादिगाथायाः करणारयद्भिस्तथा मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजात्यौदारिकशरीरतदङ्गो- क्वणम् । करणं चेह सामायिकस्यैव प्रस्तुतं करोमि नदन्त !सापानादिकर्मणामुदये वर्तमानैस्तथा वेदमङ्गीकृत्य पुंवेदे सति मायिकमिति संबन्धादतस्तदेवं सामायिककरणमप्युत्पन्नविनेतथा (उवसमेत्ति) सूचनात्सूत्रमिति क्षायोपशमिकाभावे यवर्गव्युत्पादनार्थ सप्तभिरनुयोगद्वारैः। कृता विशे०६७२ पत्र. । वर्तमानैर्गणधारिभिरिदं सूत्रकृताङ्गमन्धितमिति ॥१७॥ (कृतादिभिः पुनर्निरूपणं सामाइकशब्दे कारयिष्यते) इदाणि साम्प्रतं स्वमनीषिकापरिहारद्वारेण करणप्रकार- करणं कति विहं ति (दारं) प्रायदियस्य चउव्विहं तंजधा उद्देमभिधातुकाम आह । सणाकरणं वायणाकरणं समुसणाकरणं अणुयाकरणं सिसे सोऊण जिणवरमतं, गणहारी कान तक्खोवसमं । । विहु उद्दिसिज्जमाणकरणं चश्नमाणकरणं अपविजमाणअफवसाणेण कयं, सूतमिण तेण सूयगमं ॥१॥ करणं दारम् । दएमकः। "सोऊणेत्यादि" श्रुत्वा निशम्य जिनवराणां तीर्थकराणां मतमभिप्रायं मातृकादिपदं गणधरैर्गीतमादिभिः कृत्वा तत्र प्र कइविहाणभंते ! करणे परमत्ते गोयमा ! पंचबिहे करणे न्थरचने क्षयोपशम तत्प्रतिबद्धं कर्म क्षयोपशमाहत्तावधान- पम्पने तंजहा दबकरणे खेत्तकरणे कालकरणे भावकरिति भावः । शुभाध्यवसाये च सता कृतमिदं सूत्रं तेन सू- रणे गरइयाणं ते ! कइविहे करणे पपत्ते गोयमा पंचप्रकृतमिति ॥१८॥ विहे करणे पप्मत्ते तंजहा दव्वकरणे जाव जावकरणे एवं इदानी कस्मिन् योगे वर्तमानस्तीर्थकृद्भिर्भाषितं कुत्र जाव वेमाणिया । काविहाणं ? भंते ! सरीरकरणे पापत्ते वा गणधरैर्लन्धमित्येतदाह । गोयमा! पंचविहे सरीरकरणे परमत्त जहा ओरालिय-- बइजोगेण पत्नासिय-मणेगजोगंधराण साहर्ण । तो वयजोगेण कयं, जीवस्स सनावियगुणेण ||१६|| सरीरकरणे जाव कम्मा सरीरकरणे एवं जाव वेमाणिया "वाजोगेत्यादि" तत्र तीर्थकृद्भिः क्षायिकशानवर्तिभिर्वा जस्स जइ सरीराणि कविहोणं जते ! इंदियकरणे पसत्ते योगेनार्थः प्रकर्षेण भाषितः प्रभाषितो गणधराणां ते च न | गोयमा ! पंचविहे पपत्ते तंजहा सोइंदियकरणे जाव फाप्राकृतपुरुषकल्पाः किं त्वनेकयोगधराः। तत्र योगः क्षीरा सिंदियकरणे एवं जाव वमाणिया जस्स जा इंदियाइं एवं Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण एएणं कमें भासाकरणे चडव्हेि, मणकरणे चविदे, कसाय करणे हे सार सत्तविर चलिहे लेस्साकरणे करणे, वेदकरतिविपतंजहा इत्थिबेदकरणे पुरिसवेदकरणे एपुसदकरणे एएस रपादिदंगा जान चेमाशिया जस्स जे अत्यि तं तस्स सन्धं भणियन्वं । कवि णं ? भंते ! पाणानि वायकरणे पत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पत्ते तंजा एगिदिय पाणावायकरणे जात्र पंचिदियपाणाइवाकरणे एवं शिरवसेसं नाव मागिया कवि एणं जंते! पो लेकर गोपमा पंचविहे पोग्गले कर पाते तं जहा वन्नकरणे गंधकरणे रसकरणे फासकरणे संतापकरणे करणे एां भंते! कविले पण गोयमा ! पंचवटे प महाकालवण करणे जाव किरणे एवं जेदो गं धकरणे विहे रसकरणे पंचविहे फासकरणे अवि संठाकरं भंते ! कविहे पन्नते ? गोयमा ! पंचविहे प पतंगा परिमल सेवा करो जाव आयकरणे सेवं जंते जंतेत्ति । जाव विहरड़ । दव्वे खेत्ते काल, भवे य जावे य सरीरकरणे य । इंदियकरणे जासा, मणे कसाए समुम्याएँ ।। १ ।। राणालेस्सादिट्टी, एमाणाइया व्यकरणे य | पोग्गलकरणे वम्मे, गंधरसफाम संगणे || एपावीसमस्सावमो उद्देसो सम्मनो । ( भ० ) "कविमित्यादि तेऽनेनेति करण कियाया साधकतमं कृतिर्वा करणं क्रियामात्रं न अन्यस्मिन् व्याख्याने करणस्य निर्वृतेन भेद स्पान्निरपि क्रियारुपत्या करमारम्ननिर्वृतिस्तु कार्यस्य निष्पतिरिति (इक रत्ति) व्यरूपंकरं दात्रादि द्रव्यस्य वा कटादेव्येण या शाकादिनाच्या पात्रादी करणं व्यकरणय ( बेसकरणेति मे करं शेषस्य या इन्देः करणं क्षेत्रेण वा क्षेत्रे वा करणं स्वाध्यायादेः क्षेत्रकरणम् (कालकरत्ति ) काल एव करणं कालस्य वाऽवसरादेः करणं कालेन काले वा करणं कानकरणम् (भवकरणंति ) भवो नारकादिः सपत्र करणं तस्य वा तेन वा तस्मिन्वा करणम् एवं जायकरणमपि शेषं तु उद्देशकसमाप्ति यावत्सुगममिति एकोनविंशति तमशते नवमः भ०१६ ० ० उ० । निष्पादने, श्रासेवने, आव० [अ०] । संयमञ्यापारे, झा०१ श्र० । समाचरणे, ध०र० । व्यापारे, आचा० १ ० ० ० १ ० । अनुष्ठाने, स्था० ३ वा० ४ न० । प्रश्न । विधाने, औ० । स्थाः । सूत्र० । " करणतिगं" करणाधिकं करणकारणानुमोदन व्य० १० उ० तिविहं करणं कृतं कारितमनुमोदितं च ० ० २०४० उपाये "एतो आउट्टी, वोच्छं जहकमेण सूरस्स । चंदस्सय बहुकरणं जद दिदि" सपकरणं सायम् पो० १२ पाहून जयवीविशेषे कर्मणामी करणानि "बंधन १ नं. कम २ वट्टणा य ३ श्रववट्टणा ४ उदीरणया । उवसाममणा ६ निहत्ती, ७ निकायणाचेति करणाई" क०प्र०१ क०) (बन्धनादिकरणानां व्याख्या J दे ( ३७० ) अभिधानराजेन्द्रः | " , करण संप्रत्यष्टानामपि करणानां येऽध्यवसायास्तेषां परिमाणनिरूपणार्थमाह । योगा कसायदया, विश्धोदीरणा व संकमया । जवसामण्णाइसु अज्झब- साया कमसो अमखगुणा । ३८७ | स्थितिबन्धे उपलणमेतत् अनुभाग या ये प्रयो सर्वे स्लोकाः प्रकृतिप्रवेशबन्धोपयोगः इति साबित न गृहोते अनुज्ञागबन्धनस्थ बन्धे कपायोदयाः स्तोका इति । किमुक्तं भवति बन्धन करणाध्यवसायाः सर्वस्तोकास्तेभ्य उदीरणाध्यवसाया श्रसंख्येयगुणाततोऽनि संक्रमाध्यवसायायेगुणाः संक्रग्रहणेन चोसयोः तत उपशास पशमनाध्यवसाया असंख्येयगुणास्ततोऽपि निघत्ताध्यवसाया असंख्येयगुणानियगुणाः इति श्रीमलयगिरिविरचितायां कर्मप्रकृतिटीकायां करणाएकं समाप्तम् तदेवमुक्तानि करणानि, क०प्र. १०८ पत्र. पं० [सं०] मलशास्त्रप्रसिद्धे श्रङ्गभङ्गविशेषे, औ० क्रियते येन तत्करणम् । मननादिक्रियासु प्रवर्तमानस्यात्मन उपकरण तथा तथा परिणा स्थान तिथि कर पाने जडामणकर व करणे कायकरथे एवं रश्याणं विगलि जानेमाणियाणं ॥ मनस एव करणं मनःकरणमेत्रमितरे अपि एवमित्याद्यतिदेशस्त्र पूर्ववदेव भावमिति अथवा योगप्रयोग करण । दानां मनःप्रभृतिकमा योगकरणसूत्रेयमितिमिति नार्थभेदोऽन्ये पाणामध्येच मेकार्थतयां आगमे बहुशः प्रवृत्तिदर्शनात् । तथाहि योग पञ्चदशविधः शतकादिषु व्याख्यातः प्रज्ञापनायां त्वेवमवायं प्रयोगशब्दनोक्तस्तथाहि तिविहे गं मंते ! पाओगे पत्ते गोयमा ! पारस विदेत्यादि तथा आवश्यके श्रयमेव करणतयोक्तस्तथाहि जुंजकरण तिविहूं, मरणवश्कार य मणसि सच्चाइ । सट्टाणे तेसि नेओ, चनचउहां सतहा चेव त्ति " स्था० ३ ० । क 66 कवि नंते करणे पाने गोयमा ! चटप करणे पत्ते तंजा मणकरले वयकरणे काय करणे कम्म करणे | नेरइया एवं भंते ! कविहे करणे पत्ते गोयमा ! विदे करणे पत्ते तं जहा मएकरणे जात्र कम्मकरणे । एवं पंचिदिणंसदों व करो ने एगिंदियाएं दुवि कायकरणे य कम्मकरणे य। विगबिंदिआणं वक रणे कायकरणे कम्मकर नेरा अंते! किं करणओ असायं देवणं वेति प्रकरण असायं देयणं वेदंति ? गोयमा ! नेरइया णं करण असायं वेयणं वेदंति पो प्रकरण असायं येणं वेदंति से केाणं ? गोवमा ! रयाएं चव्वि करणे पत्ते तंजहा मण करणे वय (इ) करणे कायकरणे कम्मकरणे इथे पठनदेणं करणेयं नेरया करणओ असा प वि यो अकरणओ से तेा हेां असुस्कुमाराणं किं करणओ अफराओ गोपमा ! करणओ यो अकर Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) करण अभिधानराजेन्द्रः। करण णो से केणटेणं ? गोयमा ! अमुरकुमाराणं चउबिहे | इयरेमि पढम चिय, भम्म करणं ति परिणामो ॥ करणे पासते तंजहा मणकरणे वकरणे कायकरणे कम्म- इह नव्यानां त्रीणि करणानि जवन्ति तद्यथा यथाप्रवृत्तकरकरणे इथेतेणं सुनेणं करणेणं असुरकुमारा करणओ णम् अपूर्वकरणम् अनिवृत्तिकरणं चेति । तत्र येन अनादिसंसायं वेयणं वेदंति नो अकरणओ एवं जाव थणियकु सिप्रकारण प्रवृत्तं यथाप्रवृत्तं क्रियते कर्मक्षपणमनेनेति कर णं सर्वत्र जीवपरिणाम एवोक्यते यथाप्रवृत्तं च तत्करणं च मारा | पुढाचिकाइयाणं एवामेव पुच्चा णवरं एच्चेएणं सु यथाप्रवृत्तकरणमेवमुत्सरत्रापि करणशब्देन कर्मधारयः । अना. जासुभेणं करणेणं पुढविकाइया करणो वेमायाए वेयणं दिकालात्कर्मकपणप्रवृत्तोऽध्यवसायविशेषो यथाप्रवृत्तकरणवेदंति नो अकरणो उराझियसरीरा सव्वे सुजामुन्नेणं मित्यर्थः । अप्राप्तपूर्वमपूर्वस्थितिघातरसघाताद्यपूर्वार्थनिवर्तवेमायाए देवा सुभेणं सायवेयणं वेदति, ज०६ श०१ उन कं वा अपूर्वनिवर्तनशीलं 'निवत्ति' आसम्यग्दर्शनमानान्न निवप्रकारान्तरेण करणत्रैविध्यमाद।। तत इत्यर्थः । एतानि त्रीपयपि यथोत्तरं विशुरुविशुरुतरवि शुद्धतमाध्यवसायरूपाणि नव्यानां करणानि नवन्ति इतरेषां स्वतिविहे करणे पप्पत्ते तंजहा आरंजकरणे संरंजकरणे भव्यानां प्रथममेव यथाप्रवृत्तकरणं भवति नेतरे द्वे ति एतेषां समारंजकरणे णिरंतरं जाव वेमाणियाणं । करणानां मध्ये कस्यामवस्थायां किं भवतीत्याह । (तिविहे इत्यादि ) प्रारम्भणमारम्नः पृथिव्याद्युपमईनं तस्य जा गंठी ता पदम, गंविं समइच्चिओ अपुव्वं तु । कृतिः करण स एव वा करणमित्यारम्भकरणमेवमितरे अपि अनिअट्टिकरण पुण, सम्मत्तपुरक्खमे जीवे ॥ वाच्ये मवरमयं विशेषः संरम्भकरणं पृथिव्यादिविषयमेव म अनादिकालादारज्य यावइन्धिस्थानं तावत्प्रथमं यथाप्रवृत्तनःसंक्लेशकरणं समारम्भकरणं तेषामेव संतापकरणमिति । करणं प्रचति कर्मकपणनिबन्धनस्याऽध्यवसायमात्रस्य सर्वदेव श्राहच " संकप्पो संरंभो, परितावकरो नवे संमारंभो । श्रा भावात् अष्टानां कर्मप्रकृतीनामुदयप्राप्तानां सर्वदेव कपणादिरंभो उद्दयो, सुद्धनयाणं तु सध्यसिं" ति ॥२॥ इदमारम्भा ति ग्रन्धितुं समतिकामतो निदानस्यापूर्वकरणं भवति प्राक्तदिकरणत्रयं नारकादीनां वैमानिकान्तानां भवतीत्यतिदिशन्नाह | नाद्विशुद्धतराध्यवसायरूपेण तेनैव अन्धेर्नेदादिति । अनिवृत्ति(निरंतरमित्यादि ) सुगम केवलं संरम्नकरणमसंशिनां पूर्वभ करणं पुनः सम्यक्त्वं पुरस्कृतमाभिमुखं यस्यासौसम्यक्त्वपुरस्कृवसंस्कारानुवृत्तिमात्रतया भावनीयमिति, स्था०३ ग०१ उ०।। तोऽभिमुखसम्यक्त्व इत्यर्थः तत्रैवंनूते जीव भवति तत ए. __पुनरपि प्रकारान्तरेण करणत्रैविध्यमाद। यातिशुरुतमाध्यवसायरूपादनन्तरं सम्यक्त्वलाभादिति गाथातिविहे करणे पछत्ते तंजहा धम्मिए करणे अधम्मिए दशकार्थः, विशे० प्रा०म०प्र० । कर्मपं० सं०। आचा। करणे धम्पियाधम्मिए करणे ॥ अष्ट। योपिक (यथा प्रवृत्यपूर्वकरणानिवृत्तिकरणानां फमः कृतिः करणमनुष्टानम, तश्च धार्मिकादिस्वामिनेदेन त्रिविधं उवसमसेणिशब्दे उक्तः) (गंठिभेदशब्दे प्रन्थिनेदप्रस्ताये पषां तत्र धार्मिकस्य संयतस्येदं धार्मिकमेवमितरत् नबरमधार्मि चर्चाऽनिधास्यते) नागरकादिप्रारम्भयन्त्रे, दश ६ अ० । कोऽसंयतस्तृतीयो देशसंयतः अयवा धर्मे भावधर्मे वा प्रयोज क्रियत इति करणम् उत्तरगुणे, सूत्र०२१० ११०। पिएमनमस्येति धार्मिकःविपर्ययस्तु इतरत्। एवं तृतीयमपि, स्था०३ विशुद्ध्यादौ, आव० ३ अ०।। ठा०४ मा क्रियते येन तत्करणम् ।क्रिया प्रतिसाधकतमे, करो पिंमविसोही ४ समिई, ५ तीति करणः कृत्यल्युटो बहुलमिति' (पाणि०) वचनात् कर्तरि जावण १२ पडिमाय १२ इंदियनिरो हो । ल्युट् कर्तरि, तत्र "तइया करणम्मि कया" करणे तृतीया कृता | पमिस्रहण २५ गुत्तीरो ३, विहिता यथा नीतं शस्यं तेन शकटेन । कृतं कुरामं मयेति, स्था० अभिग्गहा ४ चव करणं तु ॥ ८ ठा० । अनु० । करणे, येन का कार्य निर्वतयति, श्रा०चू० वस्त्र१पात्रश्वस ३ त्याहारगुहिलक्षणा चतुर्धा पिएमविकि: १ ज । "कजपसाहगतमं करणम्मि उ मिदमाई" कार्यप्र 'इरियासमिई १.भासासमिई २ एसणासमिई३ श्रायाण ममत्तसाधकतमं कारणं करणमुपादाननिमित्तभेदाद द्विन्नेदं तत्र घटे निक्खेवणासमिई ४ उचारपासवणखेलजल्लासिंघाणपारिठावणि मृस्पिएममुपादानं दण्डादिनिमित्तम् । अष्ट० ११ अष्ट । औ०। यासमिई' इति समितिः। अनित्यताभायना १ अशरणभाषमा २ "श्याणि करणे एगत्ते जहा दात्रेण अनाति पिप्पलकेण भवनावना ३एकत्वनावना४ अन्यत्वनावना ५ अशोचभावना बा दसाकप्पणं करेति पुहत्ते दात्रैलुंनंति परसूर्हि वा रुक्खे आभवनावना ७ संवरभावना निर्जरानावना धर्मस्वरण्याकति" नि० चू०१ना विशेष स्यााचकुरादिप्यिन्द्रियेषु, तताभावना १० लोकभावना ११ बोधिन्नावना १५तिभावना। जं०२ वक्ता “करणं द्विविधं शेयं, बाह्यमान्यन्तरं बुधैः । य- चारस भिक्खुपमिमाओ पमत्तानो तंजहा मासियभिक्खुपमिथा मुनाति दात्रेण, मेरुं गच्छति चेतसा" स्था०१०। करणं मा१दोमासिया २ तिमासिया ३चनमासिया ४ पंचमासिद्विधा अन्तः करणं बहिः करणं च । अन्तः करणं मनो, बहिःकर या ५ ग्मासिया पमिमा ६ सत्तमासिया पमिमा ७ सत्तराईदिपं पञ्चेनियाणि, षो० १५ विव० स्था० प्रा० म०प्र० प्रश्न। या भिक्खुपमिमा ८ दोच्चा सत्तराईदिया भिक्खुपमिमा ९त. नं । श्राचा।" तबट्टोवउत्ते तदप्पियकरणे" करणानि तत्सा च्चा सत्तराईदिया जिक्रबुपमिमा १० अहोराइया निक्खुपमिधकतमानि आवश्यकदेहरजोहरण मुखबस्त्रिकादीनि, अनु०।। मा ११ एगराइया भिक्खुपडिमा १२ इति प्रतिमा । मनोकामनाइषु आचाण क्रियते कर्मकपणमनेनेति करणम्, विशे० सम्यक्त्या शब्द १ रूप २ गन्ध ३ रस ४ स्पर्शेषु ५। श्रोत्र १ चतुर्कीधनुगुणे विशुरूरूपे जीवपरिणामविशेषे, प्रा० म०प्र०। ण ३ जिह्वा ४ त्वगिन्छिय ५ विषयीभूतेषु यगद्वेषवर्जनात्पश्चकरणं अहापबत्तं, अपुवमनियट्टिमेव भव्वाणं । । धेन्द्रियनिरोधः। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७२) करण अभिधानराजेन्द्रः। करयल दिद्विपमिन्नेहएगा, छउकृपक्खोडतिगतिगतरिया । हे प्रदन्त ! करणसत्येन जीवः किं जनयति करणे प्रतिलेखअक्खोमपमज्जणया, नवनवमुहपुत्तिपणवीसा ।। नादिक्रियायां सत्यं यथोक्तविधिना आराधनं करणं सत्यं तेन करणसत्येन जीवः किं फलमुपार्जयति तदा गुरुराह हेशिभ्य ! प्रथमं रधिप्रतिलेखना १ ततः पाश्वद्वयेऽपि त्रयस्त्रय कर्द्धप्र- करणसत्येन करणशक्तिं क्रियासामध्यें जनयति पुनः करणसत्ये स्फोटाः कायोः पवमलगयद्भिरास्फोटा गयद्भिः प्रथमार्जना- वर्तमानो जीवो यथा वादी तथा कारी प्रवति फ्रियासत्यः भ परस्परं त्रिकत्रिकान्तरिताः प्रत्येकं नव नव कार्याः एवमष्टा- पुमान् यादृशं सूत्रार्थ पति तादृशं क्रियाकलापं । बददश इति मुखवस्त्रिकाप्रतिलेखनाः पञ्चविंशतिः स्युः " पाया- ति तथैव करोति इति भावः । (उत्त० ) करणे सत्यं दिणेण तिअतित्र, वामेयर बाहुसीसमुहहियए । अंसुगहो पिटे, करणसत्यं यत्प्रतिलेखनादिक्रियां यथोक्तां सम्यगुपयुक्तः कुचउम्प्पयदेह पणवीसा" इति प्रतिलेखनाःपञ्चविंशतिः मनोवा- रुते तेन करणशक्ति तन्माहात्म्यात्पुरानध्यवसितक्रियासामकायगुप्तिरूपास्तिस्रो गुप्तया व्यक्केत्रकामभावभेदाचत्वारोऽ- यरूपां जनयति । तथा करणसत्ये वर्तमानो जीवो यथाभिग्रहाः इति कारणमिति गाथाबंदः। ग०१ अधि०। औश नं०। वादी तथा कारी चापि भवति । स हि सूत्रमधीयानो यथा पाचूप्रा. म. द्वि० । प्रव० । ज्ञा० । सम्म०प्र०। एव क्रियाकलापं बदनशीलः करणशीलोऽपि तथैवेति । उत्त० उपधी, करणमुच्यते उपधिर्भएयते, नि० ० १०॥ तपो- २९ श्राव। नियमवन्दनाद्यनुष्ठाने, ध० २ अधि० । आधरे ल्युट् केत्ररूपे देहे, अमरः। करणाश्रयत्वात्तस्य तथात्वम् । "उपमानमनू करणाओग-करणानुयोग-पुं० क्रियन्ते इति करणानि । तेद विलासिनां, करणं यत्तवकान्तिमत्तया" कुमा०ा भावे-ल्युट | षामनुयोगः करणानुयोगः। द्रव्यानुयोगभेदे, तथाहि "जी षद्रव्यस्य कर्तुर्विचित्रक्रियासु साधकतमानि कालस्वभावक्रियायाम, वैश्येन शूषायामुत्पन्ने वर्णशङ्करजातिभेदे, वाच । नियतिपूर्वकृतानि नैकाकी जीवः किश्चन कर्तुमलमिति मृहकरणो (तो)-करणतस्-अव्य० प्रयोगत इत्यर्थे " अत्थतो व्यं च कुलालश्चक्रचीवरदण्डादिककरणकलापमन्तरेण न घप करणतो य सेहविहित्ति" स्था० ३ ग०। टलक्षणं कार्य प्रति घटत इति तस्य तानि करणानीति - करणकया-करणकृता-स्त्री० करणं क्रिया तया कृता यथा | व्यस्य करणानुयोग इति, स्था० १० ठा। प्रवृत्त्यपूर्वामिवृत्तिकरणसाभ्यक्रियाविशेषकृतायामुपशमनायाम, | करणाणुपालग-करणानुपासक-पुं० अनु पश्चात्पालकः पिण्डक०प्र०ए४ पत्र। विशुख्यादेः करणस्य पूर्वर्षिपरंपराक्रमेण पालके, वृ० ३ उग करणगुण-करणगुण-पुं०कलाकौशले, प्राचा०१०१०१ 301 करणापज्जत्त-करणापर्याप्त-पुं० करणैरपर्याप्तेषु, ये पुनः करणचरणप्पहाण करणचरणप्रधान-त्रि० चारित्रप्रधाने, नि। | करणानि शरीरेन्द्रियादीनि न तावनिवर्तयन्ति अवश्य पुरकरण्जड-करणजम-पुं० करणं किया तस्यां जडः करणजडः स्ताभिवर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्ताः" कर्म०१०। पं०सं०। समितिगुप्तिप्रत्युपेकणादिक्रियां पुनः पुनरुपदिश्यमानामप्यतीव करणालस-करणासस-त्रि० करणालसे, धर्म प्रत्यनुधमे, जमतया गृहीतुमशक्ते, ध० ३ अधि० । आव० । "एवं केर जपंति इसीरससायगारवपरा बहवे करणालसा करणहग-करणाऽष्टक-न० करणानां वीर्यविशेषरूपाणामष्ट परुर्वेति धम्मवीमंसएणं मोसं" प्रश्न० आभ०२द्वा०। कंकरणाटकम् । वम्धनादा,"कम्मट्ठगस्स करणगुदयसंताणि | कराण-कर करणि-करणि-पुं० सारश्ये, अनु०। घोटामि" क० प्र०। कराणिज्ज-करणीय-त्रि० कृ-अनीयर् “वोत्तरीयानीयकृघेजः करणाणिप्फम-करणानिष्पन्न-त्रि० निमित्तनिष्पने, “चिंघणा रा४८ इति यकारस्य द्विरुको जः वा करणिज्जं करणी णिप्पणति वा करणणिप्पणत्ति वा णिमित्तणिप्पमत्ति पाए- करणीयम् प्रा० । क करणीयम् प्रा० । कर्तव्ये, प्रयोजने, शा० ३० । श्राचा। गढ़" आ० चू०१०। अनुष्येये, दश०१० अ० । कर्नु योग्ये, न० । अवश्यंकर्तव्ये, करणतिय-करणत्रिक-न० मनोवाकायलक्षणे करण- जीत० । व्य० । सामान्येन कर्त्तव्ये, आव०४०। अये, दश०१० अ०। करणीज्जकिरिया-करणीयक्रिया-स्त्री० पद्येन प्रकारेण करकरणपजत्त-करणपर्याप्त-पुं० शरीरेन्द्रियादीनि निर्वतित- णीयं तत्तेनैव क्रियते नान्यथा इत्येवंरूपे क्रियाभेदे, तथा हि घटो मृत्पिण्डादिकया पव क्रियते न पाषाणसिकतादिकयेति पति पर्याप्तनेदे, कर्म०१ क । करणया-करणता-स्त्री० संयमस्याऽनुष्ठाने, नश० ३३ ३० सूत्र. २ ० २ ०। करणोदयसंता-करणोदयसत्ता-स्त्री० करणेषदये, सत्तायां च करणवीरिय-करणवीर्य-न० क्रियावाव्ये, यथा घटकरणाक. "करणोदयसत्ताणं सामित्तो घेहि सेसगं नेयं" क०प्र०। यावीये पटकरणक्रियावीयम्"एवं जत्थ जत्थ डहाणकम्म करणोवाय-करणोपाय-पुं० क्रियते विषिधावस्था जीवस्याबलसत्ती जवति तत्थ तत्थ करणवीरिय मनोवाकायकरणवीरिय" नि०० १००। नेन । कियते वा तदिति करणम् । कर्मप्लवकक्रियाविशेषो वा करण करणमिव करणं स्थानान्तरप्राप्तिहेतुतासाधात्कमैव करणसच्च-करणसत्य-न० प्रतिलेखनादिक्रियाविषये निरालस्ये तदेवोपायः कर्मरूपे हेतौ, मिथ्यात्वादिके कर्मबन्धहेतौ च । करणसत्यस्य फलं प्रश्नपूर्वकमाह । "अज्झवसाणणिवत्तिएणं करणोवारणं एवं खलु ते जीवा करणसरचे णं ते! किं जणयइ करणसच्चेणं करणस परभवियाउयं पकरेति" भ०२५ श०८ उ० । ति जलयइ, करणसच्चे वट्टमाणे जीवे जाहवाई तहा कारी करत ( य ) ल-करतल-नहस्तस्य तले करस्तलमिव हस्ते, या विजया। । वाच। प्रभाभ० । उपचारादू हस्तवाचे करो हस्तस्तस्य Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करयल अनिधानराजेन्द्रः । करिएव्य तलं करतलम् । “हस्तशंखं पूरेतित्ति वुत्तं भवति अम्मतरं ब्दे अगुमनाचिनि दस्य रो भवति द्रुमविशेषभिन्ने कद नीशवा करतलेन वाद्यं करोति" नि०चू०१उ०। दार्थे, करली. अद्रुम इति किम् कथनी. केली, प्रा० । करत (य) लपग्गहिय-करतलप्रगृहीत-त्रि० करतलाभ्यां | करवंदण-करवन्दन-न० अनिर्जरा) करं मन्यमानेन बन्दनरूपेप्रकर्षण गृहीते, व्य० १ उ० । “ करयलपरिग्गहियं दसामहं- चन्दनकस्य पमिशे दोषे, "करमिव मा दितो वंदणयं बारमत्थए अंजलि कड जपणं वद्धावइ " रा० ६७ पत्र. । हंति अंकहति" आव०३ अ०। वन्दनकं ददत् करमिव राजकरत (य) लपन्जविप्पमुक्क-करतलमभ्रष्टविप्रमुक्त-त्रि० देयत्नागमिष मन्यते श्रईतः कर इति,वृ०३ उ० कर श्व राजकरतलात् विप्रमुक्तं सत् प्रभ्रएं करतलविप्रमुक्तम् । प्राकृत देयभाग इचाईत्प्रणीतो वन्दनकरोऽवश्यं दातव्य इति धिया त्यात्पदव्यत्ययः। ततो विशेषणसमासः। हस्ततलाविप्रमने बन्दनम्, ध०२अधि० । प्रा० च। सति प्रभ्रष्टे, रा० ३६ पत्र. । जी। करवीर-करवीर-पुं०करं वीरयति चुरा० वीरविकान्ती, अणा कृपाकरत (य) लमाश्य-करतलमेय-त्रि० मुष्टियाह्ये, कल्प० ।। णे, खड़े, स्वनामख्याते वृतजेदेच, मेदि। श्मशाने, हेम० आचा. करत ( य) अपरिमिय-करतलपरिमित- त्रि० मुष्टिप्राो, | करसी-इमशान-न० गोणादयः । ७ ।। ७४ । इति श्मशानऔराशा । "करयलपरिमियपसत्यतिबलियबलि- शब्दस्थाने निपातः । पितृवने, प्रा० यमझा" करतलपरिमितो मुष्टिग्राह्यः प्रशस्तःप्रशस्तलक्षणो-करसेवण-करणासेवन-नर्णद्वय द्वन्द्वसमासः प्राकृतशैल्या कपेतस्त्रिबलिको बलिकत्रयोपेतो रेखात्रयोपेतो बलवान् मध्यो रणासेवनस्थाने, “करसेवणम्" करणे, प्रासेवने च । संप्राप्तका मध्यभागो यस्याः सा" करतलपरिमितप्रशस्तत्रिबलिकब- मभेदे, तत्र करणं सुरतारम्भयन्त्रं चतुरशीतिनेदं वात्स्यायनप्रलिकमध्या, रा०१५ पत्र.। सिरूम् । आसेवनं मैथुनक्रिया, प्रव० १७० द्वा०। अथवा करण करपत्त-करपत्र-न० करात् पतति, पत्-ट्रन् । ककचे, दारुभे- नागरकादिप्रारम्भयन्त्रम आमेवनं तु मैथुनम | दश०१चूलि । दके अस्त्रभेदे, विपा०६ अगशाला स्था। करावेव पत्रं पाहनं करमग-करहेटक-पुं०तीर्थभेदे, “करहेटके उपसर्गहरःपा यत्र जलक्रीडायाम् , जटाधरात्तत्र हि हस्ताभ्यां जलमुत्तोल्य | र्श्वनाथः " ती ४५ कल्प० । परस्परं क्रीड्यते, वाच । करादयण रिंद-करादयनरेन्छ-पुं० स्वनामख्याते धोकराजे, करपत्तदारण-करपत्रदारण-न० नरके करपत्रेण नारकदेहदा "जत्थ महोवा पृ- समुद्दवसीया करादवरिंदकुत्रसंभूया रणे, सूत्र०१ श्रु.१०। रायाणो ?जत्ता अजवि नियदवयस्स पुरहमहग्घमुलं पन्नाणीकरप्पहार-करपहार-पुं० करेणाभिघाते, कल्प० । अं प्रलंकिअं विभूसियं महातुरंगमं ढोअंति" ता०३७ कल्प० । करंवय-करम्बक-पु० तथा दमा पर्युषितौदनमेकीकृत्य करम्ब-करान-करान-पुं० कराय विक्केपायाऽऽलति प-मोति कर लाको विहितःस तृतीयदिने यतीनां कल्पते नवेति प्रश्ने । उत्तर- तिला-क-धा-सर्जरसयुक्त तैले, कृष्णकुटेरके, तुझे, दन्तुरे, उ. म दना तक्रेण वा द्वितीयदिनौदनो द्वितीयदिने तृतीयदिने तदन्ते, जयानके, त्रि० मेदि० । प्रा०म० द्वि०। शारिघौषवा करम्बको विहितःस तृतीयदिने साधूनां विहर्तुं कल्पते धौ, स्त्री राजनि० । गौरा०डीए । दन्तरोगभेदे, पुं० कस्तुरीमृगे, इति परंपरास्तीति १८ (सेन०३ उ० ) तथा केवलदुग्धराद्ध- पुंस्त्रो० स्वार्थे-कन् करालकः उक्तार्थे, तुलस्याम, पु० वाच०। बैरेयी पर्युषिता साधूनां गृहीतुं न कल्पते करम्बकस्तु नवीन- करामनामके वैदेहराजे, "राएमक्यो नाम भोजः कामात । ब्रातकादिसंस्कारार्हत्वात्कल्पत इति १२२ सेन० ४ उ० । ह्मणकन्यामनिमन्यमानः सबन्धुराष्ट्रो विननाश करालजनकश्च करन (8)-करन-पुं०-अभच् करे भाति मणिबन्धात् । वैदेहः, ध०१ अधिक। कनिष्ठापर्यन्ते करस्य बाह्यदेश, अमरः। करिशावके, उष्ट्रशि- | कराव-कारि-धाकृ-णिच् क्रियायां प्रवर्तने, “गेरदेवाचावे । शौ, गन्धद्रव्यभेदे, उष्टमात्रे, पुंस्त्री० मेदि० वाचा प्रश्न०।। ३।४९ इति णेः स्थाने, अत-पत-श्राव-भावे-पते चत्वार श्रादेकरजिउत्त-करभ्यागुप्त-त्रि० करज्यां प्रक्षिप्य रक्तेि, वृ०२०। शाः। कारेई । करावई । करावेद, प्रा०। अस्य जावकर्मणि । ते. करजी-करजी-स्त्री० करभ ङीष् उप्रपाम, पि० । घटसंस्था- च बुगावीक्तभावकर्मसु । ३१५२ । णे: स्थाने लुगाची इत्यानसंस्थिते धान्याधारे, वृ० २ ०। देशी नवतः ते जावकर्मविहिते च प्रत्यये परतः । कारिअंककरजीखीर-करभीक्षीर-न० उष्ट्रीमुग्धे,“पाहारओ पंचगवज्ज- | राविनंजावकर्मणोः कारीअर करावीअश् । कारिज करा णेणं, मोक्तः इति केचित्तत्र । असणं पलाएहुं करजीवीरं गोमांसं विज्ज । अदेल्लुक्यादेरत श्राः।३।५३ । इति णेरदेखोपेषु मचं चेत्येतत् पञ्चकवर्जनन मोकं वहन्ति, सूत्र०१७०७ अ० (एत कृतेषु आदेरकारस्य या भवति । एति कारेई सुकि कारीअं का. रीअ कारिज्जछ, प्रा०। निराकरण 'कुसील' शब्दे) करय-करक-पुं० धनोपले, प्रशा०१ पद । सूत्र०। वाघटिकावा- करावण-कारापन-न० क्रियायां प्रवत्तने, प्रश्न संव। ३ द्वा०। रके, उपा० ७ ० । अनु०। करि ( ण् )-करिन-पुं० स्त्री० करः शूएमः प्राशस्त्येनास्त्यस्य कररुह-कररुह-न पुं० करे रोहति रुह-क-प्राकृते, गुणाद्याः । इनि । हस्तिनि, वाचा प्रश्ना क्लीवे षा ८।७। ३४ । इति या क्रीवत्वम् । कररहं कररुहो। करिअ-कृत्वा-श्रव्य० कृO-पत्वा कृगमोम ०८।४।७१ति प्रा० नखे, अमरः । कृपाणे च, वाच। कृधातोः परस्य क्वाप्रत्ययस्य मित अमुझं इत्यादेशो वा कमश्र करनाघव-कराघव-न० चतुस्त्रिशत्तमकलायाम्, कल्प०। । पक्के करिश्रकरण, प्रा०। करली-कदली-स्त्री. कवड्यामद्रुमे । ८।१।२२। कदलीदा-करिएन-कर्तव्य-त्रि०कृ-नव्य) अपभ्रंशे, "तक्यस्य एव्यउं Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७४) करिएव्वउं अभिधानराजेन्द्रः। कलन एम्बई पवाः ।४ । ३८ । इति तव्यप्रत्ययस्य एव्यवं दिवाच० करमद्दबट्टरुसग करीरए रावणमहत्थे, प्रशा.१ पद। पम्ब एवा इत्येते त्रय आदेशा भवन्ति । करणीये,"म- तत्सन्निकृष्टदेशादी, त्रि० स्त्रियां कोष पाच०। हकरियम्बई कि पिण विमरिएट्यउ परदिउज"प्रा०। करीरपाणग-करीरपानक-न० करीरसंमर्दैन कृते पानकभेदे, करिसु-कुर्वत्-त्रिः कृतवति, स्था० ८ ठा। | श्राचा०२ श्रु० १ ० ० । करिंमृगसय कृतवच्छत-न करिसु इत्यनेन शब्देनोपलक्षितं करसिंग-करीपाङ्ग-न० अम्युद्दीपनकारणे, उत्त० १२ । शनं प्राकृतमाषया “करिंसुगसयंति" भगवत्याः सप्तविंशे करेंत-कुर्वत-त्रि० कृ-शतृ- चर्मकारे, भृत्ये, विश्व० । कतरि शतके, भ. २७ श.। (तत्रत्या वक्तव्यता बम्धशब्दे) | त्रि० स्त्रियां ङीष् वाच० । प्रश्न । करित्ता-कृत्वा-अव्य० विधायेत्यर्थे, "दुक्कराई करित्ताणं दुकोण-करोणा-पुं० क-एणु. के मस्तके रोएरस्य वा गजे, अमरः। स्सहाईसहेर य " दश० ३ श्र०। कणिकारवृके, विश्वः। याचा हस्तिन्याम, स्त्री००१०स० करिदण-कृत्वा-श्रव्य विधायेस्यथे, प्रा०। स्वार्थे कन् करेणुकाऽप्यत्र स्त्री रायमुकुटस्तु करण्शयं दीर्घाकरिय-करिक-पुं० केवलानुसारेण चतुरशीतितमे महाग्रह, न्तं पठित्वा हस्तिनि, पुं० स्त्री त्याह । वाच० । चं०प्र० २० पाहु । सू० प्र० । कल्प० । करेणुदत्त-करेणुदत्त-पुं० ब्रह्मदत्तचक्रिणः पितृवयस्ये प्रादकरिश-करील-न प्रत्यग्रकन्दले, अणु० ३ वर्ग । किमिदं त्तचक्रिणा लन्धे कन्यारवे, स्त्री. चत्त०१३ अ० । मंभृतवंशकरिलमामिपं चेति, विशे० । करोणुसेणा-करोणसेना-स्त्री ब्रह्मदत्तचक्रिणा लब्धे कन्यारत्ने, करिस-कृष्-धा० विलेखने, आकर्षणे च, भ्वा० पर० अनिद् उत्त० १३ अ.। 'बुषादीनामरिः'८।४।३४ इति ऋस्थाने अरिः करिसई कर्षति करता-कर्तुम्-अव्य विधातुमित्यर्थे, म श०२० "कृपेः! कटुसाअट्ठाञ्चाणञ्छापञ्छाइञ्छा" ८४८६ कृपेरेते करमाए-कुर्वत-कुर्वाण--त्रि० विदधाने, “पक्खुत्रिय महासमुपडादेशा था भवन्ति । कट्टइ साअट्ठइ अञ्चइ श्रण छह अप- हरवभूयं पिवे करेमाणे" श्रौ। उछइ आइञ्छ । पने करिसई प्रा० । करोमग-करोटक-पुं० कटोरके पात्रग्नेदे, “ततो पासोहि ककरिस-कर्ष-पु. पलचतुर्भागे, "अर्द्धतृतीयानि धराणि एकः | रामगा कदोरगा मंकुया सिप्पाच पट्टावजंति" नि००१२० सुवर्णः सचैकः सुवर्णः कर्ष इत्युच्यते, ज्यो० २ पाहु । षोड-| योगशास्त्रप्रवर्तके गणिनि, गोपेन्द्रादीनां गोपेन्छयाचककरोट कगणिप्रभृतीनाम् , पं०व०। श माषः कर्षः अशीतिगुजप्रमाण इत्यर्थः "दशाईगुलं प्रव. दन्ति मापं, माषाहयैः षोडशभिश्च कर्षम । लीला सन्मिते करोडिय-करोटिक-पुं० कापालिके; का० अ०। औलादीघसुवर्णे च विभीतकवृक्ष, पुं० शब्दर कृष् भावे घम् । श्राक ककारादिरध्यत्र, ज्ञा० १ अ0। पणे, तुदा० कर्ष-भावे घन विलेखने, वाच । स्था। करोमिया-करोटिका-स्त्री. अतीयविशाप्रमुखायां कुरिमकरिसग-कर्षक-त्रि कृष् विलेखने एवुत्र कृष वले, उत्त० | कायाम, अनु० । स्थगिकायाम, झा० १ ० । मृण्मयभा. ३० । " हेरखिए करिसए (कर्षकोऽभीक्षणयोगेन फलनि- जनविशेष च, श्री०। ध्पत्ति जानाति इति कम्मयाशब्दे उदाहृतम्) प्रा. म०वि०। करोडियाधारि (ए)-करोटिकाधारिन्-पु० स्थागकाधारिकरिसण-कर्पण-न० तुदा-कृष-भावे ल्युट् लालादिना भूमे- णि, न० ११ श० १ 30 । लेखने, हेमावाचा कषौ, प्रश्न आश्र०१ द्वावा. कृषभाः | करोमी-करोटी-स्त्री० कपाले, ज्ञा०००। वे ल्युर आकर्षणे, क्षीरिणीवृक्ष, राजनि। गौरा० कोण वाच। करिसच-कार्य-त एकस्य कर्षस्य पलचतुर्भागरूपस्याः कल-कम-धा० संख्याने, सक०शब्द, अक०भ्वा-श्रात्मा सेट। वाच । कलसंख्याने धातयोऽर्थान्तरेऽपि इति संझानेऽपि अर्द्धकर्षरूपपरिमाणसूचिकायाम तुलारेखायाम, ज्योर पाहु० 'कल'जानाति संख्यानं करोतीति वा, प्रागविशे० प्रवकलकरिसावण-कर्षापए-पु० कर्षणापगयते क्रीयते रूप्यके, षोड. गती संख्यायां च अद० चुरा सक० सेट्-कलयति (ते) यामा शपणपरिमाणकर्षस्य षोडशमाशकमितत्वेन पोडशभिः पणै कर-पुं० रसोर्बशौ ।४।७ इति मागध्यां रस्थाने सः स्तस्य क्रयणात तत्संख्यासाम्यात् तथात्वं ततः प्रज्ञादि० स्वार्थे हस्ते, प्रा. श्रण । कार्यापणोऽप्यत्र अर्द्धर्चादि तेन पुं० न० वाच० "जहा पगो करिसावणो तहा यहवे करिसावणा" अनु० । तं०। कल-पुं० कल शब्दे, घ-नि0 अवृद्धिः । अत्यन्तश्रवणश्यकरिसिय-कृशित-त्रि० । तनुके, दुर्वले, सूत्र०५ श्रु० ३ अ०। हरे अव्यक्तध्वनी. मधुरे,झा० अ० व्याकुलशब्दसमूहे, चं०प्र० १० पाढ० "कलरिभियमहरतंतीत नतालककुहवंसाभिराम" करिसुत्तरा-कतरा-स्त्रो० कर्णोककर्षवृकिसूचिकायां रेखा शा० १७ १० । कलाये, त्रिपुटाण्ये वृत्तचणकेवा, जं०२ वक्षः याम् , कर्णोत्तराकांद्यककर्षवृद्धिसूचिकाश्चतस्रो रेखा जब- धान्यविशेषे, न.१५ ० १४० । प्रहा। कम-मदे अचमन्ति तद्यथा द्वितीयकर्षरुपपरिमाणसूचिका तृतीया द्विकर्षस्- स्य लः शुक्रे, चरमधातौ, न० मेदि० कोलिवृक्ष, ०शालविका चतुर्थी त्रिकर्षसूचिका पञ्चमी चतुःकर्षसूचिका पलसू. के. पं० राजनि। अजीणे, मेदि० कियाऽस्त्यस्य अच-कहाचिकेत्यर्थः, ज्यो०२ पादु । न्वितेऽवयवे च, वाच । करीर-करीर-पु० कृ ईरत-घटे, मेदि । वंशाङ्करे, अमरः।। कल-कालक-पुं० काल-स्वार्थ कः "वाऽव्ययोत्खातादावदाअङ्करमात्र, जावप्र० । गूढपत्रे , मरुनूमिजे , अष्ट्रप्रिये वृकभेदे , तः ८।१।६७ इत्यादेरातोऽत् वा कलो , कालो का भावप्रका चीरिकायाम, झिल्ल्याम, हस्तिदन्तमूले, स्त्री० जणा. सशध्दार्थे, प्रा० । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलंक कलंक - कलङ्क - पुं० कलयति क्विप्-कलं चाडसाबङ्कश्च कं ब्रह्माणमपि यति गति किगत अाहे. अपवादे दिवान माविका मेदि० वाच। मत्रको कपका आव० ४ २ । स्वनामख्याते विद्व वे, तथा चाढ कलंकः "भेदानेदात्मके ज्ञेये, नेदा मैदा सिन्ध यः " आ०म० द्विन ततोऽस्त्यर्थे इति कलंकिन् तद्युक्ते स्त्रियां ङीप् ततः तारका०जातार्थे इतन कलंकितः । जातकलंके, त्रि० वा० कांकण कलंकन कलंकस्य करणे, अज्यायाने अस दोषस्यारोपणे, प्रव०८ द्वा० । कलंकणिम्पुक्क - कलंक निर्मुक्त- दि० कलंकरहिते, घ० २ अधि कलंकल - कलङ्कस - वि० अशुभवस्तुनि संथा० । कलंकी नाव - कलङ्कलीजात्र- पुं० संसारगर्नादिपर्यटने, श्राचा० १ ४० । असमञ्जसत्वे, औ० । कसंतकान्त-वि० क्लमे, “अव्यकांताचं बहुविषसो चक्कतो " आय० ३ ४० । 41 कलंद कलन्दन कुमके, श्री० उपा० जाती जात्यार्य्यविशेषे, स्था० ६ ठा० । कलंब-कदम्य पुं०] कन्दुकरणे विशेषे श्र० प्र० कलंबोउपिसायाणं " स० । तस्य नेदाः "मीपोमहाकदम्बः स्यात्, धाराकदम्ब इत्यपि । द्वितीयो ऽल्पप्रसारश्य, वृत्तपुष्पः कदम्बकः । हारिद्रस्तुरजोबलः । 'धूलीकदम्बको धारा-क दम्बः षट्पद प्रियः | वृत्तपुष्पः केशराख्यः, प्रावृषेण्यः कदम्बकः। नीपो महाकदम्बोऽपि तथा बहुफनो मतः । इति नरतः याच० कलंबवीर कलम्पवीरन० शस्त्रविशेषे विपा० १०६० कलाकदम्बवालुकाश्री० कम्यपुष्पाकारा वालुका कदम्बबालुका, नरकनद्याम, प्रश्न० श्राथ० १ द्वा० । सूत्र० । महादयसिंकासे, मरुम्मि घरयालुए। कलंबवालुवा य, दो असो, उत्त० १९ ० । कलंबचीरिया-कदम्बचीरिका-ख० गुण सदर्भा तुणविशेषे, दप्यतीव तुदकः । भतः • कलंबचीरियापत्तेः वा कुंतगो वा तोमरसिया” दुःस्पर्शयेनोपमानम् ज०३ प्रति० उ० । स्थान कदम्बवीरिति प्रतिभाति विषा ०६ कलंबुआ - कन्नम्बुका - स्त्री० नालिकायाम्, पुष्पप्रधानवृकमेदे, सृ० प्र० ४ पाडु | जल रहने दे. आचा० १ ० १ ० ५ ० । कदम्बपुष्पाकार मांसगोलके, विशे० स्वनामस्या च । यत्र भगवतो महावीरस्य कालहस्तिना उपसर्गः कृतो मेघेन च तद्भात्रा पूजा कृता श्रा०म० द्वि० आ०यू० । कमुपुष्कलम्बुकापुष्प-म० नालिकापुचे, त 6. 1 दाक्षि मपुष्पमिति साध्यते । सू० प्र० ४ पाहु० । कलक-कलक-पुं० [स्त्री० फल-दुरा० (३७५) अभिधानराजेन्द्रः । " मत्स्ये हेम ० । स्त्रियां जातित्वात् ङीप् याच० । स्कन्दकाचार्यशियाणां वादे पराजिते द्विजाती, येन तेषामेकोनपञ्चशतानि क्षुयानि अनशनं प्रापितानि, संथा० । कलकल - कलकल - पुं० कनप्रकारः गुणवचनत्वात् प्रकारे द्विमोबाइले, वाचवचने, रा० विषाण श्र० भ० उपलभ्यमानवच सविभागे ध्वनौ भ० ए० ३३ ८० जी० । कलमसालि [झा० । औ० । व्याकुलशब्दसमूहे, सू० प्र०१७ पाहु० । जं० ॥ " कलकलं णं वयणं छग्नंति " कलकलशब्दयोगात् कलकलम्, प्रश्न० श्र० १ द्वा० । कलस्य शालवृकस्य कला यत्र शालनिर्थ्यासे, मेदि० । वाच० । " कलकलंत - कलकलायमान त्रि० कलबोलं कुर्वाणे, कलकलं कुर्वति, प्रश्न० श्राश्र० ३ द्वा० " कलकतबोलवहलं कलकलायमानो यो बोलो ध्वनिः स बद्दलो यत्र स तथा, श्र० कलकतवार परिसित्तगाढ ज्यंत गत्ता कलकलायमानक्षारेण यत्परिषिक्तं परिषेकः तेन ( गाढमत्यर्थ ) मज्जतन्ति । दह्यमानगात्रं येषान्ते तथा, प्रश्न० श्रश्र० ६ द्वा० । कलकतवेयरणी- कलकलायमान वैतरणं । - स्त्री० कलकलायमानं यन् त्रपुकादि तद्द्भुता वैतरण्यभिधाना या नदी साककलायमान वैतरण। नरकनद्याम् प्र० श्राश्र० १ द्वा० । कलकल नरिव - कलकल नृन चूर्णादिभृ १ ० ६ अ० । 64 कलकलरव - कलकलरव-पुं० कलकल लक्षणे रवे, हसंतरुसंत कलकत्त्ररवे " प्रश्न श्र० ३ द्वा० । कलण - कल्लन -न० कन्त्रयत्यनेन कलगती गत्यर्थस्य-ज्ञानार्थन्या दाने करणे ः रूपानुमा नातू तथात्वम् । ग्रहणे, मासे, ज्ञाने व घाय० । संशय्यने, सं ख्याने च विशे० । “ कं जलं नाति चत्पत्तिसाधनत्वेन तथा सन्नमति नम्-वा-रु | वेतसवृक्के, पुं० राजनि। तस्य जलसमीपजातत्वात् तत्स्रोतमा नमनाच्च तथात्वम्, बाच० । कलत्त - कलत्र - न० गढसेचमे अन् श्रदेश्च कः डस्य लः क त्रायते बैंकः कम शासने वा अत्र नमस्य हो वा भार्यायाम, वाच दारेषु, आव०४ ० "मित्तकलभाई सेवई " प्रश्न आ श्र० २ द्वा० । ग्रा० । नितम्बे, श्रमरः । नृपाणां दुर्गस्थाने, देमचं०, वाच० ॥ कलभा कलना स्त्री० बालावस्थायाम्, शा० १ अ० । त्रिस्वरमनोज्ञानने, स्त्रियां कलभागण फलजानन त्रिस्परमा खियां भाव णीः व्य० ७३० । 33 कलम- कलम - ० कलते अराणि कल-कमच लेखन्यां, जटाधरः । वाच० | "कलमावणगोस्तित्ति " "कमा महामलगप्पमाणं गे पदंति नि० ० १ ३० । शात्रिजेद, स च कलमः कविविख्यातो जायते स वृहद्धने कश्मीर देश एवोक्तो महात" मुलगभैकः इति जावप्र० । उत्खातप्रतिरोपितधान्यभेदे च० "आपापद्मप्रणताः, कन्त्रमा इव तं रघुम" कलयति परस्वं कल्-श्रमन चौरे, पुं०, श्राचा० । श्राम० द्वि० | 46 कलम कलमझ कझ मल- पुं० अपवित्रमले " रागेण न जाणंति चराया कलमलस्स णिरुमणं " तं० । जठरव्यसमडे, 'कलमलजम्बालाए' कलमलो जरद्रव्यसमूहः स एव जम्बालः, स्था० ३ ० ३ ० | कर्दमो यस्यां सा तथा हारीरसत्काऽगुनव्यविशेषे कलमलाहिचासक्वबहुजणसाहरणा नस्य शरीरसका शुभद्धव्यविशेषस्याऽधिवासेनावस्थामेन :खा दूरूपा ये ते तथा । बहुजनानां साधारणाभाग्यत्वेन ये ते तथा । ततः कर्मधारयः भ० ए० श० ३३ उ० । कलमसाधि-कलमशाली-पुं० पूर्वदेशन सिके उपा०१०) शालिविशेषे, जं० २ क्ष० । " सयरा Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलमसालगिव्वत्तिय कलसाले शिष्यनिय कलमशालीनिर्वर्तित० कलमशा कलहप्पिय-कलमय लिमये, जी० ३ प्रति० ३४० । कलमोयण कलमोदन कलमशालिकूरे व्य० १० ० । कलन-काल-पुं० २० कलाकल गर्न मरः राजेमाने गर्भावयवभूते तोविकारे या उत्पत्ति में, एवं "सत्ताहं कललं हो, सत्ताहं दो बुब्बुयं "सप्तारावण यावत् शुकशोणितसमुदायमा कल भवति सं०॥ कास- फलश-पुं० क मधुरोऽयकं यनितिगत वा-मः। घटे, वाच० । भृङ्गारे, रा० । महाघटे, जं० २ ० । अस्याष्टमङ्गलेप्यन्तर्गणना। रा० ॥ श्र० । जं० । विवाहादौ, उवे यो मण्ड्यते तस्यैव माङ्गलिकत्त्वात् प्रणम, संथा० कलसंग (सिंव ) लिया- कलसङ्गलिका - स्त्री० ' करत्ति ' कलाया धान्यविशेषः तेषां " संगलियन्ति " फालेका अ० ३ वर्ग० । कलायानिधान्य फलिकायाम, भ० ७ श० १ ३० । कलसय फलशफ पुं० फारविशेष उपा०७० कल मि-कलश खं०] निपराम् अमरः। घटे, हेमचं ||२३|| प्रव० २ द्वा० । कल-कल-०२० (३७६ ) अभिधानराजेन्द्रः । 1 अस्य कृदिकारान्तत्यादा कत्यप्युभयत्र" वादः । कारिया-कलशिका-श्री० लघुतरे कलशे, अनु० खातोयविधाने, आ०० १ ० । ० । कलसीपुर- काशीपुर न० पुरभेदे येन घोषवती सेना, यस कलसीपुरे चारिता धामहस्तेन, कृत्रियः सेवेम (ग) बान् " 3 कार्म हन्ति वाएग ० दाबाचा मः, वाचः । घन्धाधिकरणे, सूत्र० १० १२ अ० । वचनरादौ भ० ३ ० ६ ० । श्रातुर । परस्परं राठौ, पिं० । प्रश्न० । जी० | प्रब० औ० । प्रज्ञा० | दशा० स्था० । वाचिकभरमने, श्र०म० द्वि० प्रश्न | कलौ प्रव० ३८ द्वा०| वाग्युद्धे, प्रति० ॥ जीन द० | उत्त० | युग्गहोत्ति वा कलहोत्ति वा संगणत्ति वा विवादोत्ति " नि० १६ ० । (श्रहिगरणशब्दे वक्तव्य तोक्ता) चू महताशब्देनान्योऽन्यमसमञ्जनापणे, पतच कोकामिति ( भ० १२ श० ५ उ० ) क्रोधे, उत्त० ८ ० तपे गौमोहनीय कर्मणि, स० सङ्ग्रामे च श्राचा० १० ५ ० ४०| कल इंझाप-कलध्यान न० कलहो वाचिकाराटिः तस्य भ्यानं कलहध्यानम् । रुक्मिणी सत्यनामयोर्व्यतिकरे, कलहप्रिननुपश्येव कमलामेलादिव्यतिकरे नारदस्य या दुयने, तु० । कलहंस कलहंसपुं. खिका हंसा कलहंसा राजहंसे क० जी० प्रा० नृपधे मेदि० नो सः वास इंस भेदे, स्त्रियां जातित्वात् ङीष् वाच० कलकर फलड़कर पुकलो वाचिकं नरमनं तत्करणशीलः प्रशस्त क्रोधाद्यौदयिक नाववशतः कलहकरणशीले, श्रा०म० द्वि० कलह हेतुभूत कर्तव्यकारिणि प्रश्न० सं० २ द्वा० ॥ स० । " कलहकरी समाहिकरे " श्राक्रोशादिना येन फल हो भवति तत्करोति सचैवं गुणयुक्तो हि असमाधिस्थानमादर्श प्रवति, दशा० १ अ० आ० यू० आष० । कलहकार-कलहकारक शि० जिनके विसायसमेताओ दवति कलहकारगा, अनु० । I - कला वयसरसंपन्ना भवंति कलहपिया" स्था० ७ ० सारिकापविण्याम, स्त्री० राजनि०, वाच० । राषि कसमिस कलमित्र - २० कलहानन्तरं जाते मित्रे ०४. कलहाभिदि ( ) - कहाभिनन्दिन् त्रि० महर्षिनारद स्थानिनि कलहप्रिये, नं० । 66 सहासंगकर-कार-संग्रामास सम्बन्ध कल्नदासंगस्तत्करः युद्धसंसर्गकृति, कब्रहः क्रोध आसङ्गो रागइत्यतः रागद्वेषकारिणि, आचा० १०५ श्र० ४ ० । कला-कला-स्त्री० कन्न श्रच्. टाप् विज्ञाने, ताश्च कलनीयभेदादू द्वितियति । मेगस्स णं रच पारंपावरपुरवरसा हस्सीओ पनाओ वाचनारिकाओ पाओ संजहा लेर गणियं रूपं ३ न ४ गायं ५ बाइ ६ ग रयं ७ पुक्खरगयं समता जये १० जणवा ११ पोरकचं १२ अडाव १२ दगमट्टि १४ अअवि १५ पाणवी १६ वत्थविही १७ सयणविही १८ श्रजं १६ पहेलियं २० मागहियं २१ गाई २२ सिलोगं २३ गंधजुत्ति २४ मधुसित्यं २५ आजरणविही २६ तरूणीपढिकम् २७ इत्यीक्खणं २८ पुरिसवखणं २६ झ ३० व ३१ गोल ३३ मिंडयलक्खणं ३४ च २२ कुकरलवणं ३५ उचलनखणं ३६ खणं ३७ असिसवर्ण ३८ मसिक्स ३६ कामणिनखणं ४० चम्मलवणं चंदलवणं सूरचरियं राहुचरिथं गहचरियं सोभागकरं दोजागकरं विज्जागयं मेंलगयं रहस्यं ४१ सभासंचारं ४२ मूढे ४२ धावा रमाणं ४४ नगरमार्थ ४५ वत्मानं ४६ संघनित्रेसं ४७ नित्रे ४० नगरनिवेस ४० ईसत्यं रूप्पवायं ५० सिक्ख ५१ हत्थिसिक्खं ५२ धणुव्वेयं ५३ हिरापा ५४ पागं ५५ मणिपा २६ धातुपा ५७ बहुजुद्धं ५० लयाजुद्धं ५६ मुट्ठिजुषं ६० जुद्धं ६१ निजुद्धं ६२ का ६३ सुतखे ६४ यखेदं ६५ नासिय खेम ६६ चम्मखेमं ६७ पत्तज्जं ६८ कमगज्जं ६६ सजी ७० निजी ७१ रु ७२ स०] १३० पल अत्र 'लेड' मित्यादीनि द्वासमति पदानि राजप्रश्रीयानुसारेण द्वितीयान्तानि प्रतिभासन्ते इत्यत्रापि व्याख्यायां तथैव दर्शयिष्यन्ते समवायाङ्गानुसारेण च विभक्तिव्यत्ययेन प्रथमान्ततया स्वयं योजनीयानीति । तत्र लेखनं लेखोऽक्षरविन्यासस्तद्विपया कला विज्ञानं लेख एवोच्यते तं भगवानुपदिशतीति प्रकृते योजनीयम् । एवं सर्वत्र योजना कार्या । स च लेखो द्विया लिपिविषयभेदात् । तब लिपिरष्टादशस्थानोला अथया लाटादिदेशभेदतस्तथाविधविविप्रपादिवानेकविधेति । तथापि यत्रय काष्ठन्तलोतानरजतादयोऽ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७७) कला अभिधानराजेन्द्रः। कला तराणामाधारास्तथा लेखनोकिरणस्यूतन्यूतच्छिन्नभिन्नद- तीयतकणं " सास्नाविकातिरका मूषिकनयनाश्च न शुभदा ग्धसंक्रान्तितोऽक्षराणि भवन्तीति । विषयापेक्षयाऽप्यनेकधा गावः" इत्यादिकम् ३६ कुर्कुटलकणं "कुर्कुटस्त्वृजुतनूरुहाङ्गलिस्वामिभृत्यपितृपुत्रगुरुशिष्यभार्यापतिशत्रुमित्रादीनां लेखवि. स्तानवक्त्रनखचूमिकः सितः" इत्यादिकम् ३७ उत्रलकण यथा षयाणामप्यनेकत्वात्तथाविधप्रयोजनभेदाच अक्षरदोषाच । चक्रिणां उत्ररत्नस्य ३० दएमलकणम् "यथाऽऽतपत्राशवेत्र" अतिकाय॑मतिस्थौल्यं, वैषम्यं पतिवकता । अतुल्यानां च | चापवितानकुन्तध्वजचामराणाम् । व्यापात १ तन्त्री २ मधु ३ सादृश्य-मविभागः पदेषु च” इति १ तथा गणितं संख्यानं | कृष्ण ४ वर्ण-क्रमोत्क्रमेणैव हिताय दएमः॥१॥ मन्त्रि भूरधन ३ संकलिताद्यनेकभेदम्पाटीप्रसिद्धम् २ रूपं लेप्यशिलासुवर्ण-1 कुल क्षयावहा, रोग५मृत्यु ६जननाश्च पर्वन्निः। व्यादिभिद्धिमणिवस्त्रचित्रादिषु रूपनिर्माणम् ३ नाट्यं साभिनयनिरभि कबिवतिःक्रमाद्,द्वादशान्तविरतैः समैः फलम्॥२॥ यात्राप्रसिनयभेदभिन्न ताण्डवम् ४ गीतं गन्धर्वकलागानविज्ञान किर्द्विषतां विनाशो, लाभः ३प्रमूतो वसुधागमश्च ॥३॥ वृतिः मित्यर्थः ५ वादितं वाद्यं ततविततादिभेदभिन्नम् ६ स्वरगतं पशूना ५ मभिवाञ्चितार्य ६-रूयादिष्वयुग्मषु तदीश्वराणाम् " गीतमूलभूतानां षम्जऋषभादिवराणां ज्ञानम् ७ पुष्करगतं ४ इत्यादि ३६ असिलवणम् “ अङ्गुबशताउंमुत्तम, ऊनः स्यापुष्करं मृदङ्गमुरजादिभेदभिन्नं तद्विषयकं विज्ञानम् वाद्यान्तर्ग त्पञ्चविंशतिः खगः । अङ्गालमानाज्ञयो, प्रणोऽशुभो विषमतत्वेऽप्यस्य यत् पृथक्कथनं तत्परमसंगीताङ्गत्वख्यापनार्थम् ८ पर्यस्थः "१ अत्र व्याख्या अङ्गलशतार्द्धमुत्तमः खगः पञ्चसमतालं गीतादिमानकालस्तालः स समोऽन्यूनाधिकमात्रि विंशत्यहासमानजनितः। अनयोः प्रमाणयोर्मध्यस्थितः प्रथमकरवेन यस्माद् ज्ञायते तत्समताल विज्ञानम् "क्कचित्तालमान तृतीयपञ्चमसप्तमादिप्वगुलेषु स्थितः स अशुन्नः अर्थादेव मिति" पाठः । द्यूतं सामान्यतः प्रतीतम् १० जनवादं छूतवि. सप्ताङ्गलेषु द्वितीयचतुर्थषष्ठाटमादिषु यः स्थितः स शुभः शेषम् ११ पाशकं प्रतीतम् १२ अष्टापदं सारिफलकद्यूतं त मिश्रेषु समविषमाङ्गलेषु मध्यम इत्यादि ४० मणिनकद्विषयककला १३ पुरःकाव्यमिति पुरतःपुरतः काव्यं शीघ्रक ण रत्नपरीका अन्थोक्तकाकपदमक्षिकापदकेशरादित्यशर्कवित्वमित्यर्थः१४ (दगमट्टिामित्ति) दकसंयुक्तमृत्तिका विवे रतास्वस्ववर्णोचितफलदायित्वादिमणिगुणदोषविज्ञानम् ४१ कद्रव्यप्रयोगपूर्विका तद्विवेचनकलाऽप्युपचाराद्दकमृत्तिका काकणी चक्रिणो रत्नविशेषस्तस्य लक्षणं विषहरणमानोताम् १५ अन्नविधि सूपकारकलाम १६ पानविधि दकम मानादियोगप्रवर्तकत्वादि ४२ वास्तुनो गृहनमोर्वद्या वात्तिकाकलया प्रसादितस्य सहजनिर्मलस्य तत्संस्कारकर- स्तुशास्त्रप्रसिद्ध गुणदोषविज्ञानम् ४३ स्कन्धावारस्य मानम् । णम्, अथवा जलपानविधि जलपानविषये गुणदोषविज्ञान- "एकेभैकरथास्यश्वाः, पत्तिः पञ्च पदातिका । सेना सेनामुखं गुमित्यर्थः यथा “ अमृतं भोजनस्यार्द्ध, भोजनान्ते जलं विषम् " ल्मो, वाहिनी पृतना चमूः १ अनीकिनी च पत्तेः स्या-दिभाद्यैइत्यादि १७ वस्त्रविधि वस्त्रस्य परिधानीयादिरूपस्य नवको- स्त्रिगुणैः क्रमातू ।दशाकिन्योऽकौहिणीत्यादि" ४४ नगरमानं द्वाणदेविकादिभागयथास्थाननिवेशादिविज्ञानं वा अनादिवस्तु दशयोजनायामनवयोजनव्यासादिपरिझानम्। उपनक्कणाश्च का. अनन्तविज्ञानान्तर्गतमिति नेह गृहाते १८ विलेपनविधि य. शादिनिरीक्षणपूर्वकसूत्रन्यासयथास्थानवर्णादिव्यवस्थापरिझा क्षकर्दमादिपरिशानम् १६ शयनविधि शयनं शय्या पल्य- नम् ४५ चारो ज्योतिश्चारस्तद्विज्ञानम् ४६ प्रतिचारः प्रतिद्वादिस्तद्विधिः स चैवं “कर्माङ्गलं यवाटक-मुदरास- कलश्चारो ग्रहाणां वक्रगमनादिस्तत्परिझानम् । अथवा प्रतितं तुषैः परित्यक्तम् । अङ्गलशतं नृपाणां, महती शय्या चरणं प्रतिचारो रोगिणः प्रतीकारकरणं तज्ज्ञानम् ४७ व्यूह जयाय कृता ॥१॥ नवतिः सैव पमूना, द्वादशहीना त्रिष- युयुत्सूनां सैन्यरचनां यथा चक्रव्यूहे चक्राकृतौ तुम्बारकपरिध्याटूहीना च । नृपपुनमन्त्रिबलपति-पुरोधसां स्युर्यथासंख्यम् ॥२॥ दिषु राजन्यस्थापनेति ४० प्रतिव्यहं तत्प्रतिद्वन्द्विनां तभोपाअर्धमतोऽष्टांशोनं, विष्कम्भो विश्वकर्मणा प्रोक्तः । आयामध्यं- यप्रवृत्तानां ब्यूहम्४ाए सामान्यतो व्यूहान्तर्गतत्वेऽपि प्रधानान्शसमः, पादोच्यायः सकुक्तिशिराः" ३ इत्यादिकं विज्ञानम् । श्रीनिह व्यूह विशेषानाह चक्रव्यूह चक्राकृतिसैन्यरचनामित्यर्थः अथवा शयनं स्वप्नः तद्विषयको विधिस्तं यथा पूर्वस्यां शिरः कु- ५० गरुमव्यूहंगामाकृतिसैन्यरचनामित्यर्थः ५१ एवं शकटब्यूहम् र्यादित्यादिकं विधिम् , २० श्रार्या सप्तचतुष्करगणादिव्यवस्था- ५२ युद्धं कुर्कुटानामिव मुण्मामुण्डि शृङ्गिगामिव शृङ्गाङ्गि निबळां मात्राछन्दोरूपाम् २१ प्रहेलिकां गूढाशयपद्यम् २२ युयुत्सयाउनयोर्वल्गनम् ५३ नियुद्धं मयुरुम् ५४ युकातिमागधिकां रसविशेषम् । तल्लक्षणं चेदम् "दिसाघसुदुन्निटगणा, | युद्धं खङ्गादिप्रकेपपूर्वकं महायुद्धं यत्र यं प्रति इन्द्विहतानां समेसु पोटो तो दुसु वि जत्थ। लहु उंकगणो बहु-कगणात पुरुषाणां पातः स्यात् ५५ दृष्टियुद्धं योधप्रतियोधयोश्चक्षुषोनिमुणह मागहिअं" ति २३ गायां संस्कृतेतरभाषानिबद्धामा- निमेषावस्थानम् ५६ मुष्टियुद्धं योधयोः परस्परं मुटया हननम् । र्यामेव २४ गीतिका पूर्वार्द्धसदृशाऽपरार्द्धलकणामार्यामेव २५ | ५७ याहुयुद्धं योधप्रतियोधयोरन्योऽन्यं सारियाहोरिव बिश्लोकमनुनविशेषम् २६ हिरण्ययुक्तिं हिरण्यस्य रूप्यस्य युक्तिं भन्सया वल्गनम् ५८ लतायुद्धं यथा लता वृतमारोहन्ती यथोचितस्थाने योजनम् २७ पवं सुवर्णयुक्तिम् २८ चूर्णयुक्ति आमूलमाशिरस्तम्बवेषि तथा यत्र योधः प्रतियोधशरीरं गाढे कोष्टादिसुरभिद्रव्येषु चूर्णीकृतेषु तत्तदुचितद्रव्यमेलनम् २६ निपीड्य नूमौ पातयति तल्लतायुरूम ५५ ( ईसत्थंति ) प्राकृतश्राभरणविधि व्यक्तम् ३० तरुणीपरिकर्म युवतीनामनङ्गश शैल्या इषुशास्त्र नागबाणादिदिव्यास्त्रादिसूचकं शास्त्रम् ६० तक्रियां वर्णादिवृद्धिरूपाम् ३१ स्त्रीपुंसलवणे सामुद्रिकप्रसिके (ग्रुपवायंति ) सरुः खङ्गमुष्टिस्तदवयवयोगात सरश३२ । ३३ हयलकणं दीर्घग्रीवारिकूट इत्यादिकमश्वशकणवि- देनात्र खड्ग नुच्यते अवयवे समुदायोपचारस्तस्य प्रवादो यत्र झानम् ३४ गजलकणं " पञ्चोन्नतिः सप्त मृगस्य देय-मप्रैव शाखे तत् सरुप्रवादंखड्गशिक्षाशास्त्रमित्यर्थः । प्रश्नव्याकरणे हस्ताः परिणाहमानम्। एकद्विवृद्धावथ मन्द्रभद्रौ, संकीर्णनागो तु" सरुपगम्" इति पाठः ६१ धनुर्वेदे धनुःशास्त्रम् ६२ हिनियतप्रमाणः" १श्त्यादि ज्ञानम् ३५ । (गोणलक्खणंति) गोजा- रपयपाकसुवर्णपाको रजतसिफिकनकसिकी च ६३, ६४ (सु. Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७०) कला अभिधानराजेन्द्रः । कलि त्तखमंति) सूत्रखेवं सूत्रकीमाम् अत्र खेलशब्दस्य खेम' इत्या- प्रयोगः सम्भवेन्न का" ॥१॥दश०३ अमात्रायाम, च० प्र०१ देशः ६५ एच वट्टखेलमपि ६६ एतत् कलाद्वयं लोकतः प्रत्ये- पाहु । अंशे, स्था० १० ग० । पलद्वयात्मके काले, धात्वाशतव्यम् (नालिपाखेति ) नालिकाखेलं द्यूतविशेष मा नूदि- यान्तरस्थे देहस्थे धातुक्लेदभेदे, एकमात्रात्मकलघुवणे, "स्यु. प्रदायाद्विपरीतपाशकनिपतनमिति नालिकायां यत्र पाशक: पा- विषमेऽष्टौ समे कलाः" ऋणप्रयोगे, मूबधनादधिके आयत्वे. त्यते तग्रहणे सत्यपि अनिनिवेशे निबन्धनत्वेन नालिकाखे. नाधमणेन उत्तमाय दीयमाने वृद्धिरूपे, मेदिका रजसि, नौलनप्राधान्यज्ञापनार्थ भेदेन ग्रहः ६७ पत्रच्छेद्यम् अष्टोत्तरशत- कायाम , कपटे च, विश्वः । वाच । “कलाकुसलसब्धकालपत्राणां मध्ये विवक्तिसंख्याकपत्रच्छेदने हस्तलाघवम ६८ कट- लालियसुहोचिया " कलाकुशससर्वकानबालितसुखोचिता: कोय कटवत् क्रमाच्यं वस्तु यत्र विज्ञाने तत्तका इदं च म्यू. कलाकुशलाश्च ताः सर्वकाझं लाविताश्चेति कलाकुशलसर्वकानपटोद्वेएनादौ भोजनक्रियादौ चोपयोगि ६६ ( सजीवंति) समालितास्ताश्च ताःसुखोचिताश्चेति विग्रहः । कलाकौशल्यसजीवकरणं मृतधात्वादीनां सहजस्वरूपापादनम् १० (नि- सार्वकालिकासनशाबिनीषु सुखोपनोगयोग्यास राजपुत्र्यादिषु, जीवंति) निर्जीवकरणं हेमादिधातुमारणं रसेन्द्रस्य मूर्गप्रापणं भ० ९श० ३३ उ०॥ वा ७१ शकुनरुतम् अत्र शकुनपदं रुतपदं चोपत्रक्कणं तेन वस- कलातीत-कलातीत-त्रि. त्यक्तकदाग्रहे विपश्चिद्भेदे, यो. मतराजाद्युक्तसर्वशकुनसंग्रहः गतिचेष्टादिगवलोकनादिपरिग्रहश्च ७२ इति द्वासप्ततिः पुरुषकता, ॥ चतुःषष्टिः स्त्रीकलाः कया (य)द-कलाद-पुं० कक्षामंशमादत्ते आ-दा० कन्स्व(ताश्च इत्थीशन्दे स्त्रीपुरुपकवानां परस्परं सांकर्येऽपि न पुनरुक्ततेत्यपि तत्रैव ) ताश्च प्रथमं श्रीऋषभस्वामी महाराजबासे सकारे, अमरः। अबङ्कारघटनाथै गृहीतधनस्यांशहरणात्त स्य तथात्वम्, वाचा प्रश्न । झा० कलादनाम्ना प्रसिके मूवसन् “लेहाइआरो गणि अप्पहाणामो सनणरुपजवसाणा विकारदारके, यस्य नद्रायां स्वना-यामुत्पन्ना पोट्टिला नाम्नी ओ वावत्तरिकलाश्रो नपदिदेश" जं० २ वक० । दारिका तेतलिपुत्रेण परिणीतेति, शा० १४ अ० । श्रा०म० (दं जम्बूद्वीपप्रज्ञन्यनुसारेण व्याख्यातम् । परन्तु जम्बूद्वीप- | प्रझनिम्नलिखितकलानामर्थेषु समवायाङ्गस्य निम्नलिखित प्र० । आ० चूल। (तेतलिपुत्नशब्दे कथा) कलानामस्तात्पर्यविचारतो यथासंभवं लज्यन्ते । तथाहि । कलाय-कलाय-पुं० कामयते अय-अ-वृत्तचणके, प्रक. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तः(१५)पञ्चदश्यां कत्रायां समवायाङ्गस्य (२५)पश्च १५६ द्वारा निचू। गा अणु। “कलाया वट्टचणगा" स्था. विशकसाया मधुरादिषमसप्रयोगरूपोऽर्योऽतनवति। एवमङ्कक- | ५०४०। दशा।"कलायरूवे" उपा०१०। मेण । १६-२४ गन्धव्यविरचनम् । २७-२६ अानूषणानां वि कलायरि-कलाचार्य- पुंलिप्यादिकलाशिकणोपाध्याये, रचनघटनपरिधानानि । ३४-५१ अश्वशिका । ३५-५२ गजग यो० वि० । तिशिका । ३७-३८ मेपलकणज्ञानम् । ४१-४१ च-ग्रहणादि- कलाव-कलाप-पुं० कब मात्रामाप्नोति प्राप्-श्रण-"पोवः" । ज्ञानं चर्मगुणदोषझानं च । ४२-३५ चक्ररत्नलकणम् । ४३- ११२३१ । इति पस्य वः। प्रा० । समूह, ज्ञा० ११० । जं । प्रा. वस्तुस्थापनविधानम् । ४४-४७ कटकनिवासविधानम् । ४५-| म०प्र० । “आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्धारियदामकावा" प्रशा० १२,४६ नगराका, नगरनिवेशविधिश्च । ४६-४१ सूर्यराहुग्रहाणा- २पद । “सूपाकलावसंगणसंगिए" प्रज्ञा०२१पद । सा श्री मुदयास्तादिफलज्ञानम् । ४७-४२,४२ सौनाग्यदौर्भाग्यविद्या- शिखरामे, 'उक्खिसचंदगाश्यकलावे'ज्ञा०३ अ० ग्रीवाजरणविमन्त्ररहस्यविज्ञानं, सजाप्रवेशविधानं च । ६४-५६,५७ मणिर-| शेष, नपा०७ श्र०। झा० ।ौ० । शरपूर्णे चर्ममये भस्त्ररूिपे नादिपाकः, ताम्रादिधातुपाकश्च । ६७-६७ चर्मविधिविशेषवि- | तूणे, शरे, धनुषि, विदग्धे, वाच० । झानम् । १२-११ जनवादः (सोकैः सहालापसंलापविधिः)। अय- मान-कयावती स्त्री० शहराजभाायाम, या पञ्चमे भवे मेवोभयोजेदः,अन्यत्सर्वसमानम्। नन्वेवं परस्परग्रन्थभेदात्सूत्राप्रामाण्यामतिवेन । अन्यासामन्यास्वन्तर्भावमिच्छद्भिर्ग्रन्थकान कनकसुन्दरीनाम्नी मथुरायां राझ्यभूत्, ती कल्प। ताः पृथकतयोपात्ताः । यथा 'व्यूह' इति सामान्यकलायामेव, कझावग-कलापक-पुं० कलाप स्वार्थे--कन् कबापाथै, हस्तिप्रतिव्यूहशकटब्यूहादीनामन्तीवभिच्चद्भिः समवायाङ्गकारैः पृ. स्कन्धबन्धे, हेमचं० । एकवाक्यतापने श्लोकचतुष्क, न० "कथक्तया नो पात्ताः। विशेषतयाऽऽवश्यकतां दर्शयद्भिर्जम्बूप्राप्ति सापकं चतुर्निश्च" कलापिनो मयूरा यस्मिन् काले सोपि कालः कारैः पृथक्तया निर्दिष्टाः। द्वासप्ततिसंख्यायामभयोरपि साम्य कलापी नपचारात् तस्मिन् काले देये ऋणे, न सिका०कौ०। मिति नविरोधमनावना : वस्तुगया भगवद्भिः किरूपतया का | वाच । ग्रीवाभरणे, ना प्रश्न संव०५द्वा। उपदिऐति तु केवलिन एव विदन्ति न तु चर्भचक्षुष्का इति ) | कलावि (ण) कलापिन्-पुं० कलापो बहोऽस्यास्ति इनि मयूरे, कल्पना प्रा. म. द्विा प्रवाति झा०ा विपा० प्रश्न औका कलापशब्दार्थवति, त्रि० वाच । सूत्र। कानन्याश्च नोग्रागमतो नीकिकभावश्रुतेऽन्तर्भवन्तीतिमिथ्याह कलासवाम-कलासवर्ण-न० कलानामंशानां सवर्णनं सवर्ण कप्रणानत्वात्तेषां लौकिकनावश्रुतत्वम् तथाहि 'नारहं रामायणं' सहशीकरणं यस्मिन् संख्याने तत् कयासवर्णम्। संख्यानभेद, इत्युपक्रम्य 'अदया बाबत्तरिकमा चत्तारि वया संगोवंगा' इति स्था० १० ग०। सूत्र०।। नत्र कलनानि वस्तुपरिझानानि कत्रास्ताश्च हिसप्ततिः समवायाङ्गादिग्रन्थप्रमिकाः । अनु।" चनसहिकलापं-- कलि-कनि-पुं० कल-शब्दादौ इन् चतुर्थयुगे, वाच० । कयौ मिया चनधिगणियगुणावया " चतुःपग्रिकला गीतनृत्या लकचतुष्टयं वर्षाणाम, स्था०४ ग०२ उ० (परसमयाभिप्रायादिकाः जनोचिता वात्स्यायनप्रमिकाः" ज्ञा०३0"क- तमुक्तम्) जघन्ये कालविशेष, अनु। एकके, सूत्र०१श्रु०२ लानां प्रहगादेव, सौभाग्यमुपजायते । देहाकाली स्वपेक्ष्यासां, अ०२ उ०प्रथमेनझे, "कलीणामपढमभंगे" नि०चू०१५ न. Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७५ ) अभिधानराजेन्थः । कलि कलिजुग १ श्रु० १ ० । कलदे, प्रव० ३ द्वा०, शूरे, युद्धे च, हेम० । वाच० | स्वनामख्याते कलिं ( लि) कनुस - कलिकलुष-न० कल दहेतुकलुषे, विपा० कली नाम युवपुरुषे येन धर्मस्य 'वामपोहस्स' भारी परीक्षिता, दर्श० ( मूढशब्दे उदाहरणम् ) चम्पानगर्थ्याः समीपे पर्व्वतभेदे, पतमेदे "पायरी मारे कार्यवरना अमी होत्या नाइदूरे तत्थ कली नाम पञ्चओ " ती० ५४ कल्प | कलिओप-कहयोग (स) पुं० कलिना एकेन आदित युग्माद्वपरिवर्तिना ओजो विषमराशिविशेषको इति युग्मराशिविशेषे ( भ० ) " जे करणं अदहारणं रमाणे अरमाणे गपचयसिए सेतं कलिओए " ज०१८ श० ४ उ० । स्था० । कलिगकम जुम्म कम्पोनकृतयुग्म पुं० महासुमराशिनेदे "जेणं रासीच करणं अवहारेणं अहीरमाणे चउपज्जयसिए जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कनिओगा सेत्तं कलिश्रो कमजुम्मे" कल्पोज रुतयुग्मे चतुरादयः ० ३४ ० १ ३० कझिओग कलियोग- कस्योजकल्योज-पुं० महायुग्मराशिभेदे, " जेणं रासीचउक्करणं श्रवहारेणं अवही रमाणे पगपज्जवसिए जेणं तस्स रासिस्स श्रवहारसमया कलिओगा सेतं कलिओगकलिओगे" कल्योजकल्योजे तु पञ्चादयः भ० ३४ श० १ ० । कलिगते योग- कल्यो जत्र्योज-पुं० महायुग्मराशिभेदे, "जेणं रासीवकणं भवहारेण प्रयमाणे पिजयसि जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलियोगा सेत्तं कलिश्रोगतेओगे" (भ० ) कल्योजत्र्योजराशौ सप्तादयः भ०३४८० १ ० ॥ कलियगदावरजुम्म- कस्योजद्वापरयुग्म- पुं० महायुग्मराशिभेदे, " जेणं रासीचचक्करणं श्रवहारेणं अवहीरमाणे उपजबसिए जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलियोगा सेत्तं कसिश्रोगदावरजुम्मे" कल्योजद्वापरे पमादयः भ० ३४ २०१ उ० कलिंग कलिङ्गपुं० श्री के मूर्ध्नि लिङ्गमस्य धूम्पारे पि श्रमरः । तस्य मस्तके पीतचिह्नवत्त्वात्तथात्वम् स्त्रियां जाति संयोगाति वा समय मुम् च । पूतिकरज्जे, हेमचं० । कुटजे, तस्य फलम् अण् तस्य हुए इन शिरीषके, प्लवते च मेदिया। देशभेदे यत्र काञ्चनपुरं नगरम् । प्रशा० १ पद | कल्प० । प्र० । दर्श० । सूत्र० । आचा० । कलिंगराय - कलिङ्गराज-पुं० कलिङ्गजनपदातां राजनि श्राव ० 3 ४ श्र० कलिंज कजि-पुं० [कंवा अजति रोधनेन 'लजि भने' अ-कटे, म० तस्य गृहायापरणेन वातरोधनात्तथात्वम वाच० । "कलिजो णाम वंसमया कमवलोसठती विभाति" नि०यू० १७४० । कलिंग - कलिम्ब - पुं० वंशकपर्याम वृ० ४ उ० । नि० चू० । "कलिंबो वंसकप्परी" ग०२ अधि० शुष्ककाष्ठे, भ०८०३००। कमकरंद कलकरएम पुं० कलीनां दानां करमक श्व नाजनविशेष श्व कत्रिकरण्डः । एकोनविंशे गौणपरिग्रहे प्रश्न० आश्र० ५ द्वा० । झिकल कलकलह-पुं० राडीक " कलिकलहचेटुकरणं "कलिकग्रह राकहो न तु रतिकलहः । प्रश्न० श्राश्र० ३ द्वा० । 1 कनिकुंम फलिकुद १० कपितस्याथोभूमिस्थे सरोवरे, तत्कल्पश्चायम् । चंगजणवए कर कंडुनियपालिज्जमणार चंपान यरीप नारदूरे कायंबरी नाम अमवी होत्था तत्थ काली नाम वो तस्स श्रहो भूमीप कुंडं नाम सरवरं । तत्थ जूहादिवई महिहरो नाम हरी होत्या या उमाविहारे हो पाससामी समीपदे काउसो तियो सोह नाहो पहुं पितो जाओ दिले 'अदाहं विदे हेमधरो नाम माहणो । प्रदेसि जुवाणा वि डाय मा श्रवहसंति. १ तश्रो वेरोण नमिरसादस्स साहियो साहाप यं विनोमरिटं कामो अहं दिट्टो सुप्पसद्रेण पुड्डो अकारणं मर जड़हिए वृत्ते तेषा गुरुपासे नीलो गाड़ियो सम्मतं अंकयासणेण नियाणं मए कयं जहा नवंतरे उद्घो हं हुन ति । मरिऊण हत्थी जाओ ढं । इढ नवणे तओ इमं जगवंतं पज्जुवासामिति चिति ततो चैव सरवराम्रो घित्तुं सरसकम हिं जिप परिचालिअस्वसम्मत अलका महि पंत जाओ। मानो सोच्या क कंमू राया तथा तत्थागओ । न दिठो सामी । राया अव श्र प्याणं विदेश धनो खो हस्थी जेण भवं पृश्यो तु ति एवं सतस्स पुरयो घरदिष्यभावेण नत्थ प्यमाणा पमिमा पात्रभूया तो तुठो राया जय जय ति भणतो ती णम पूअ अ चेइअं तत्थ कारे तत्थ तिसकं पुप्फाणि संथु पिक्खणयं च कारेंतेण रम्ना कनिकुंमतित्थं पयासिअं । त्यसो इत्थी वंत सानिज्छं करेइ पव्वए य पूरे नवजंतीप मुदतानि कलिकुंममेतेय कम्मरे पासे जरा नाम यासी जो गति भया तहा कलिकुंमनियों क लिकुंडो । एसा कलिकुंडस्स उत्पत्ती । ता० १५. कल्प | कलिकुपने नागडे ( हदे ) च श्री पार्श्वनाथः ती ४५ कल्प । कलिगिरि-फलिगिरि पं० समये कलिपर्वते यस्योपत्यकावर्ति कुण्डं नाम सरः, ती० ३५ कल्प | कलियुग कलियुग न०क०स०] राहुशिरोरुवा करुपेयुगे शेषे वाय - कलियुगोत्पत्ति के एवम् । तेणं कालें तें समपणं समणे जगवं महावीरे पाण्यकप्पठिए फुत्तरविमाणे वीससागरोवमाइं श्राउं परिपालित्ताश्रो बुम्रो समाणो निमाणोचओ इससे भर पास अनासापिंचहवासायास सेसे उत्थप श्ररए आसाढ उत्तरफग्गुणं । रिक्खे मा हमे नयरे उस मारिया देनदा सिसीहगयवसहाच उद्दस महासु मिणसंसश्रो वनो । त स्वासणारे साइडे वेगवेसण तेरसीए तमिम चैव रिक्खे खत्तिश्रकुंमगामे जयरे मित्रो देवीए तिसक्षाए गभविणिमयं काउं गव्भम्मि साहरियो । माउप सिहं नाई मलमासे सम्मापि नाटं समणो दोरिन गटबाजग्गदो नयहं मासा अट्टमासराइंदिया अंते चित्तसियतेरस अकरते तम्मि चेव रिक्खे जाहोम पवमानामो मेरुप्यसुरभया इंद Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३००). अभिधानराजेन्ऊः । कलिजुग यावरणपणा पदा जोगा अम्मापक देवतगरहिं तीसं वासाई आगारवा से वसित्ता संच्चरि दाणं दाहा सिवियाए एगामी पावसेच ममासिरक सिमी मित्र परिसे उणं अवर नायसंदपणे बाणिं पायसेणं पाराविमो पंच दिव्वाई पाउब्याई ततो वारसवासाई तेरस पद से नरसुरतिरियकोवसणे सहिता उगं च तवं चरिता जंभियग्गामे गोदोहिसणं उनले सेवनक्खत्ते व साहसुदसमीप पतिगे केवलनाणं पत्तो । इकारसी मरियमपाचा महसेनयति प इंद भूप्पमुडा गणहरा दिक्सित्रा सपरिवारा वयविहिणाओ भ यवओ बायालीसं वासा चनम्मासीश्रो जायाओ तंजहा एगा श्र गापासु, दुवास देखाशीवाणियगामेसु स नादारायगिहेसु छ मिहिलाए दो नदिया, पगा श्राभियाए एगा परिश्रमी, एगा सावत्थीए, चरमा पुण मज्झिमपावाप, इ तिथपासरो अरज्जसनार सुक्कसाबाप आसि । तत्थ श्राउसेसं जाणतो साम बोलपटरा देस करेह तत्थ दिमाग पालो राया अठरा सुदिठाणं सुमिणाणं फलं पुच्छे जयवं वागरे ते अ इमे । पढमो ताव चलपासापसु गया चिठंति तेसु पतेसु वि तेन गिति केवि तहा निगच्छंत जहा तप्परुणाओ विवसति यस्स समिर फलं एवं समहिवासाच पसायत्थाणी संपयाणं सिणेहाणं निवासाणं च श्रविरता. ओ हं जो दुस्समाए पुष्पजीविश्श्वाश्वयणाश्रो गया धम्मत्थीसावया इयरपरम समय गिहत्थेदितो पमन्तण ते श्र गिहवासाए पहिंति देगा निति वय जे अविहिदिमेषं तत्र ते विनिमित गिहिं संकिले समये आगया भग्गपरिणामा भविस्संति विरला यारो भागमाशुमारचं मिहिका मध्ये आगए वि श्रवगणिठण कुलीणन्तणेण निव्वहिस्संति त्ति पदमसुमित्थो । बीश्रो पुण घ्मो बहवो वानरा तेसिं मज्जे जूहाहित्रइणो ते मज्जाणं अप्पाणं विलिपंति श्रन्नो वि तो लोगो इस ते जणंति न एश्रमखुई गोसीसचंदणं खु एयं विरला पुण वानरा न लिप्पंति । ते अलित्तेर्हि खिसिति ति । एयरस फलं पुग्ण इमं वानरत्थाणीया गच्छिलगा श्रप्पमत्तत्तेणं परिणामतेणं च जूहादि यई गच्छा हिप आयरिमाणो प्र सुवणंतु ते अकस्माद सायलेवणं नवलेवणं वरेण लोगहसणं तेसि य वयणहीला । ते भणिस्संति न एयं गरदियं किं तु धम्मंग. मयं विरला तद रोहेणावि न सावजे पर्याष्टिर्हिति । ते य तेहि खिसिज्जिदिति जह एअवग्गी अकिचिकरा यत्ति । बीयसुमित्थो || २ || ओ पुण इमो सज्झायखीरतरुणं हिठे बहवे सीहोया पतरूया चिति ते व लोप पति अदिगमति य बंबूलाणं च हिडे सुगन्ति । फलं तु पयस्सेमेरी साहूणं विहरणपादनानं खित्ता य सावया वा सहमतिबमाता धम्मोनमादाण सोहरावण ते संपति बासीह पानीयायासि पासन्थोसलाई किराओ ने सीहासगाय ते पाणं जणरजणत्थं पसंतं दरिसिंहिति । तहालिंगेहि पसंसिद्धिरिति अहिगमिस्संति प्र तव्वयकरणाओ य ते अत्थयकयाई केई धम्मसद्धगा बेहारुपरिहारच दूति ते तेतिमाविधानंच सुरुमा ध्र कलिजुग पडिहासिस्संति अभिक्रां सुद्धधम्महणे मंसिरति त जेसु कुलेसु दूरजंति ते पडिहासिस्संति श्रवाप दूसमवासेरा धम्मगच्छा लहपोगा इव भविस्संति त्ति ॥ ३ ॥ चउत्यो पुरा एवं केवि कागा पाए तड़े तिसाए अभिभूया मायासरं बहुं तत्थतुं पथिद्वारा विनिसियान एवं जलंति ते असता तत्थ गया विण्ट्ठायंति। फलं तु इमं वावी बाणासु खाडुराई अहगंभीरा सुभाविअत्था उस्सन्माच्या श्र कुसला अगलिगहिलो राया इइनाएण कालोचिश्रधम्मनिरवा अरिस्सियस्सिया तत्थ कागसमा अइयंकजा अणेगकलंकोवहया धम्मट्ठी ते अजयधम्मसद्धाए श्रभिभूया मायासरप्पाया पुण पुव्वुत्तविवरीया धम्मधारिणो अईवकगुडाणनिरया वि व परिणाओ चापपत्ता अक म्मबंधो ते दई धमिया तत्त fa गीयत्थे ते भणिहिति जहा न एस धम्मसग्गो किं तु तथाभासोयं तहवि ते अहंता के जाहिंति विशिरिसहिंति संसारे पडवेयं बाहिति ते अ मूढसाहया भवि तिति ॥ ४ ॥ पंचमो मो अगसाचगाउले सिमे वणे मज्भे सीहो मनो चिट्ठा न य तं को विसिगालाई विसासेकाले ताथ मसीहकलेवरे कीडगा उपपन्नाहिति भवियं दते सियालाई उपहति सि फलंतु एयस्स सीहो पवयणं परवाहमयदुद्धरिसत्ताओ वणं पविरलसुपरिFarधम्मिश्रणा भारहवासं सावयगणा परतित्थिश्रार पचपणपश्चणीया तेहिं एवं मति एवं पचयणमम्हारां पूजासक्कारदाणाइवुच्छेयगरंतो जहा तहा फिट्टो त्तिविसमं श्रमन्त्यजरासंकुलं तं च पचवणं मधे असयवगमेयं नि भावं भविस्सर तहा वि पच्चणीया भए न तं उवविहंति किर इत्थ परप्परं संगई श्रत्थि सुट्ठियत्तंवत्ति कालदोसेणं तत्थ कीमगप्पाया पवयनिंदद्या समयंतरीयाई उप्पतिर्हिति पवमेति निरश्से मे णं वद्दविस्संति पत्रयणंति ॥ ५॥ छडो पुर्ण इमो पउमागरा सरागाई अपठमा गभगजूदा वा पउमा पुण रुक्करुट्टियाए ते विविरला न तहा रमणिजत्ति फलं तु परमागरत्थाणीयाणि धम्मखित्ताई सुकुलाई वा तेसि धम्मो पयस्सिइ ते विप्पतिदोसाणुओ लोपण खिसिज्जमाणा ईसाइदोसडडे तेण न स कज्जं साहिस्संतित्ति ॥ ६ ॥ सन्तमो इमो को विकरसगो 5विष घुणक्पा बारे सम्म बी · या मनतो किणित्ता य खित्तेसु ऊसराइसु पयपर तम्मज्जे स मागयं विरलं सुद्धं बीयं श्रवणे सुखित्तं च परिहरति एयरस फलं श्मं करिसगत्थाणीया दाणधम्मरु ते य पुग्वियका जाणगं मत्ता अप्पा उम्गाणि वि संघनन्ता दाणाणि पापाणिमसंता ताणचि अपत्ते वाहिति इत्थचमंगो गो मुदो प्रप्पा म किचिषं देवं भव तं वपोर्हिति सुपतं वा समाग यं परिहरिस्त परखाणि दाणाणि दायमा गाइगाय नविस्सं ति । श्रन्ना वा वक्खाणं अनीया असादृणो ते वि साहबुद्धी विद्धा गिटिस्संति श्रद्वासु श्रविहीपसु श्र वाविस्संति जहा दुनियको को करिसओ अवीसम्रो श्रवीयाणि बीया णि मतो तहा वेश तत्थ वा ठावेश जहा जत्थ य की ममावा खज्जति वोप्पडाणा वा विणस्संति अन्नहा वा परोस्स - विज्ञाणि जयंति पर्व प्रयाणधम्मसद्धि आपला पि Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७१) कलिजुग अभिधानराजेन्द्रः । कलिजुग सीए अबहुमाणअभत्तिमाईहिं तहा कारिस्सांत जहा पुन्नपस-| रिहिसंपन्नस्स दावं तं व्यजीविस्संति ततो दविणगहमारणा व्वं अक्खमाई होहिंति ॥ ७॥ अट्टमो आएसो पासायसिडरे। तो अग्गउ जुत्तं पच्छिएण सलिबवीसानियवालुयाए रज्जु खीरोदभरिआ सत्तासंकियंगा वा कलसा चिटुंति अने य | उ वलंता के वि दिट्ठा खणमित्तेण ताश्रो रन्जुश्रो वायायवसं. भूमीए बोयमा प्रोगालसयकलिया कालेण ते सुदकलसा नि- जोपण सुक्खलिया तो महावणा पुच्छिपहि भणि दियहाणाओ चलिआ बोयम्घडाण उवरि पमिया वि जग्गत्ति एहिं महाराय! एयरस फलं जं दविण किच्छवत्तीए लोया विढफलं तु कलसत्थाणीया सुसाहुणो पुथ्वं उग्गहविहारेण विहरं. विस्संति तं कलिजुगंमि चोरग्गिरायदंदाईपहिं विणस्सिहरु ता पुजा होऊण कालाश्दोसो नियसंयमत्था उंट मिश्रा उस- पुणरवि अग्गो बलिपणं धम्मपुत्तेणं दिलं श्रह वोमपलुहिनं श्रीच्या सीयलविहारिणो पायं नविस्संति श्यरे पुण पासत्था-1 जलं कुवे पतं तत्थ वि वुत्तं माहणेहिं देव जं दव्यं पयायो अई भूमिट्टियाचेव नूमिरयोगाबप्पाय असंयमाणसयकलिआ | सिमसिकिसिवाणिजाईहिं उयजिहिति तं सव्वे रायउले गबोयम्घणप्पाया निसन्नपरिणामा चेव होहिंति ते य सुसाहुणो| रिगहित्ति अन्नजुगेसु किर रायाणो नियदव्वं दाऊण लोअं टसंता अनविहाराखतानावाओ बोयमघणकप्पाणं पासत्था-| मुहि अरिंसु पुणो पुरनो बच्चंतेण निव एगरायचंपयं तरूं ईणं वरिपीमं करिस्संति ते य सखित्तकमणेण पीमिया संता च एगंमि पएसे दिट्ठा तत्थ समीपायवस्त वेश्याबंधनंमणगंनिबंधसत्तेण सुद्धरयं तेसिं संकिलेसं साय होहिंति तो परुप्प- धमल्लारपूत्रा गीयनट्टमहिमा य जणण कीरमाणी पलोइया रविवाय कुणंतो वा वि संजमाओ जसिस्संति "क्के तवगारवि-1 अरस्स तरुणो उत्तायारस्स वि महम हिमकुसुमसमिरुस्स वि श्रा, अन सिदिबा सधम्मकिरियासु । मच्छरवासणदुन्निवि, वत्तं वि को विन पुछिइत्ति तस्स फलं वरवाणियं विप्पोह होहिंति अपुठ्धम्माणो ॥१॥" के पुण अगहिवेगहिनव्वराय- जहा गुणवत्ताणं महप्पाणं सज्जाणाणं न पूआ भविस्ख न य अखाणगविहीए कामाश्दोसे वि अप्पाणं निग्वाहस्संति तं रिद्धिं पाहिति निम्गुणाणं पाविट्ठाणं खलाण पूआ सकारो च अक्वाणयमेवं पन्नवंति पुब्वायरिया पुन्वि किर पुहवीपुरीए श्वी य कलिजुगे भविस्स भुज्जो पुरोपविठियम राणा दिट्टा पुणो नाम राया तस्स मंत। सुबुद्धीनाम अन्नया लोगदेवो नाम एगा सिला तुहमच्छिद्दबहवालग्गाबणेणं अंतरिक्खठिा नेमित्तिो आगो सो य बुझिमंतिणा आगमेसि कालं पुट्ठो तत्थ वि पुढेोहि सिद्धं सुत्तकठेहिं जहा महाभाग! कबिकाले तेण नणि मासाणंतरे इत्थ जबहरो वरिसिस्स तस्स जलं सिलातुल्लं पावं विउवं नविस्सइ बाबासरिसो धम्मो पयजो पाहि सो सम्यो वि गहग्घत्थो भविस्स कित्तिए वि ट्रिही परं तिचियस्स वि धम्मस्स माहप्पण कंचिकालं निच्चकाले गए सुबुही नविस्स तज्जलपाणेण पुणो जणा सुस्थि रिस्सति लोओ तस्सि वि तुट्टे सव्वं वृमिस्सइ दूसमसुसमाजविस्संति तओ मंतिणा तं राणो विनत्तरमा विपमहघोसेण ए पुब्बसूरीहिं पझोइया विक्खाए कलिजुगामाहप्पमित्थं साहियं वारिसं गहत्थो जणो आश्टो जणेण वि तस्संगहो कत्रो मा- ___ "कूआबाहाजीवण-तरुफलविहगा वि वत्थधावणया। सेण बुझो मेहो तं च संगहियं नीरं कालेण निवि लापहि लोहे विधज्जकलिमल-सप्पगरुमश्नपूश्राय ॥१॥ नवोदगं चेव पाउमादत्तं तओ गहिनीना सवलोत्रा सामं- हत्थंगुलिदुगघट्टण-गयगद्दभसगमबालसिलधरणं । ताई गायंति नश्चंति सुत्थाए वि चिटुंतो केवलं राया अमञ्चो एमाई बाहरणा, लोअंमि वि कालदोसेण ॥२॥ असंगहि अं जलं न निहियति तं चेव सुत्था चिति तश्रो सा- अयघरकलहकुलेयर-मेराअगुसुरुधम्मपुढविदिई । मंताईहिं विसरिसचिठे रायामश्चे निरिक्खिकण परप्परं मंति- वालुगचक्कारंनो, एमाध्आइ सहेण ॥ ३॥ अं जहा गहिवो राया मंतीया एए अम्हाहितो वि विसरिसाया- कलिभवयारे किलिनि-जएसु चउसु पि पंवेसु तह । रा तो एए अवसारिऊण अवरे अप्पतुल्लायारे रायाणं बवा- नोवहाइकहाए, जामिगजोगंमि कमिणाप्रो ॥४॥ विस्सामो मंतीण तेसि मत नाऊण राणो विन्नवेशरमा बुत्तं तत्तो जुहिलेणं, जियम्मि ठिश्दाश्ए तम्मि । कहमेए हुतो अप्पारक्खियब्बो विदं हि नरिंदतुखं हव मंति- एमाई अटुत्तर-सएण सिंघानियहि त्ति" ॥५॥ णा भणियं महाराय! अगहिहिं पि अम्हेहिं गहिल्ली होऊण ग एयासिं गाहाणं अस्थो कृवेण आवाहो उवजीविस्स । राया यव्वं न अनहा मुक्खो तओ कित्तिमबहिल्ली होउं ते राया मच्चा कूवणत्थाणीश्रो सव्वेसि बनखत्तिवाससुदाणं भरणीयत्ततोर्स मज्जे निसंपर्य रक्खंता चिति तो ते सामंताई तुहा णेण आवाहतुवाणं कलिजुगदोसानो अत्थग्रहणं करिस्से १ अहो राया मचा वि अम्हसरिसा संजायत्ति उवारण तेण तेहिं तहा तरूण फलनिमित्तो वहो ो भविस्स फलं तुम्हा अप्पारक्खिो तो कालंतरेण सुहबुठी जाया नवोदगे पाए स- पुत्तो तरुतुल्लम्स पिउणो वहपारयं उद्देसं गंधणपत्तलेहणा न. व्वे लोगा पगश्मावमा मुच्छा संवुत्ता एवं दूसमकाले गीयत्था - प्पाइस्सर २ वच्छियातुल्लार कमाए विकमाइणा गोतुला जकुलिंगीहि सरिसा होऊण बटुंता अप्पणो समयं भाविणं | गणी धावणतुला उवजीवणं करिस्सइ ३ बोमई कडाही पडिवालितो अप्पाणं निव्वाहश्स्संति एवं भावि दूसम- तिस्सावि वका सो सुगंधितिल्लघयपागठवित्राए कसमअस्स विनसिअसूअगाणं अपई सुमिणाणं फलं सामिमुहायो पिसियाणो पागो हविस्सास जाश्वग्गपारेहारेण अनालबसोकण पुन्नपाबनरिंदो पवनो सिवंगओ एयं च दृसमासमवि केसु परजणेसु आदाणं भविस्सात्तिभावो ४ सप्पसरिसेसु निबसिनं लोश्या वि कलिकालब्बवएसेणं पक्षविति जहा पुब्धि दापसु धम्मवझेस दाणाइसक्कारो गरुमप्पायेसु पुज्जेसु धम्मकिर दाबरजुगउप्पनेणं रम्मा जहुट्टिवेणं रायवामित्रागएणं चारिसु अपूया य भविस्सइ ५ हत्थस्स अंगुलिगेण घट्टण कन्थ वि पएसे बछियाए हिहो एगा गावी थणपाणं कुणती ववणं भविस्सह हत्थतुल्लस्स पिठणो अंगुलिगतुल्लेहिं बहुपु. दिघा तं च अच्छेरयं दहण राइणा दियवरा पुछा किमयंति तेहिं तेहिं लयगघरकरणाइओ घट्टणं नाम लोओ भविस्स६ गयभणि देव! अागामिणो कलिजुगस्स सूयगमेयं इमस्स अ- वोढव्वं सगमं गहभवोढव्वं भविस्सह गयत्थाणीपसु उच्चकुनुभस्स फसमिणं कलियुगे अम्मापिअरो कम्पयं कस्स वि लेसु गहनत्था य सगवाहणोचिएसु कबहो नायलो वा भवि Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिजुग स्य नीयकुत्रे गहनत्यागीएस मेरा नाई भविस्सर ७ बालबका सिला धरिस्सर अणुम्मि सुहुमयरे बालप्पासु धम्मे सत्थाणुसारिणिसिलातुल्लाप पुढवीप निश्निवासिलोअस्स लिई निव्वणं भविस्स 5 जहा वालुयाए चक्को तथा गहि नसीर जाओ विवाणकिसिसेवा स फनपाचिस एसेसगाहा थोकहाण गोकि पंचपंडया दुजोरणदूसासणाओ भाइसर गंगेयदोणायरिपसु अ संगामसीसे निइएस चिरं रज्जं परियालि कलियुगपचिसकाले महापहं पट्टिया कवि इसे पता तो ती जहिले भीमाइयो पापहरपारि असे निरुदियानतो मुस्सु धम्मलाइ पुरिस कार्य कल श्रीमतोय तेरा भीमो रेजा गुरुपिश्रमहा संप धम्मत्वं पहियो तु ता फेरिस ह धम्मो तओ भीमो कु तेण सह जुज्जिनमारदो जहा जहा भीमो वा तदा कली बहुतम्रो निजि कला जीमो एवं बीयजामे अज्जुखो तइचनत्थजामेसु नकुल सहदेवा तेण अहिखित्ता रुहा निज्मिया य तो सावसेसाए निसाय उहि दिले तुझे कलां से उरतीय चैव निजिओ कली सो संकोअनेउं सरावमज्झे विश्रो य भीमाईणं इंसिओ । एस सो जेण तुम्भे निज्झिया एमा हिंताणं अन्तरसपण महाजारहे वाले सिरहा कमिदं सियति । श्रलं पसंगेण । ती २१ कल्प० । कति-कमि (नि०तिविशेषे ० कलियदह-कलिदन्द० हस्तिनापुरस्थे हवमेदे, सी० 1 ा (३०२ ) अभिधान राजेन्द्रः | " ४ कल्प० । कलिय-कलित० कर्मणि, स० स्था -- प्रश्न० । " सुंदरथणजघणवयण करचरणणयणलायमा विलासकलिया " विपा० १० २ ० रा० जंग औए उपेते, बहुग्वजपेय कलि " प्रश्न० आश्र० २ द्वा० । आचार । विदिते, प्राप्ते, मेमेदिते ते सदगुदी के विचा रिते, वडे, च जावे क्तः ज्ञानलाभादौ न० वाच० । कण-करुण० करोति मन आनुकूल्याय उनन् “रि प्रादौ बः८ | १ | ५४ इति रस्य लः प्रा०] करुणोत्पादके, । त्रिपाο१ श्र० ७ अ० प्रश्न० 1 दयास्पदे, प्रश्न० आश्र० ३ द्वा०] विपाल दीने, सूत्र० १० १ ० १ उ० । “ कुत्सितं रौत्यनेनेति निरुकिवशात्करणः । करुणास्पदत्वात्करुणः । प्रियविप्रयोगादिदुः. शोकप्रकर्षस्वरसविशेषे अनु अथ हेतुतो लक्षणातश्च करुणरसस्वरूपमाह । पिपिवाहिविशिवाय संभमुपणो । सोलिवियपराहाय, लिंगो रसो करुणो ।। १६ ।। प्रियविप्रयोगबन्धन्यथान्याधिविनिपातसंमेयः समुत्पन्नः करुणो रस इति योगस्तत्र विनिपातः सुतादिरसंभ्रमः प रचकादिभयं शेषं प्रतीम् । किं लक्षया इत्याह । शोचितलिपि प्रम्लानरुदितानि लिङ्गानि लकणानि यस्य स तथा । तत्र शोचितं मानसो विकारः शेषं विदितमिति । उदाहरणं यथा । परका फिलामि अयं वाहागयपष्णु अत्थि बहुसो तस्स विभोगे पुचया, दुबई जाये ||१७|| कलुसाललचेय श्रम प्रियविप्रयोगभ्रमितां बालां प्रति वृद्धा काचिदाह तस्य कस्यचिप्रियतमस्य वियोगे पुत्रिकेयं ते मुखं जातं कथं भूतम (पायलामिति) प्रध्यातं प्रियजनविषयमतिचिन्तितं तेन क्लान्तम् (वाहागय पप्फुअस्थियंति) वाष्पस्यागतमा - गमनपव्याप्ते अक्षिणी यंत्र तत्तथा बहुशो ऽनवण मिति ॥ १७ ॥ अनु० ३४० पत्र० कामनेदे, मनुष्याणां करुणा मनोवस्था तथाविधत्वात्तु नत्वेन को णितादिप्रभवदेहाश्रितत्वेन च शोचनात्मकत्वात् करुणो हि रसः शोकस्वनावः करुणः शोकप्रकृतिरिति वचनादिति, स्था• ४ ० ४ ० । वृक्षभेदे, पुं० वाच० । कनवभिया करुणमसिङ्गा श्रीकरणार्थमत्येयं प्रतिज्ञाने, "कलुणपरियाप जाएजा धम्मिदार जायणाए जाएजा" आचा० २ ० ३ ० ३ ० । काविणीय-करुण विनीत शि० करुणाचिनयपूर्वके "म णबंधणेहि गेहिं कबुणावणीयमुवगसिताणं " सूत्र० १ ० ४ अ० १० । कणा - करुणा स्त्री० रुपायाम, पो०४ वि० [दीनादिष् कम्पायाम्, ध० १ अधि० । करुणा दुःखहानेच्छा, मोहादुःखितदर्शनात् । संवेगाच स्वभावाच्च, प्रीतिमत्स्वपरेषु च ॥ ( करुरोति) - खहानस्य दुःखपरिहारस्येच्छा सा मोहादडानादेका यथा महानयाचिता पश्यवस्तुप्रदानाभिलाषक्षक्षणान्या च दुःखितस्य दीनादेर्दर्शनात् तस्य लोकप्रसिकाहारवस्त्रशयनासनादिप्रदानेन संवेगान्मोक्षानिलापाथ सुखितेष्वपि स त्वेषु प्रीतिमा सांसारिक परिस्थानामपरा पुनरपरेषु च प्रीतिमन्ता संबन्धविक्षेषु सर्वेष्येष स्वभावाच प्रवर्तमाना केवलिनामि भगवतां महामुनीनां सर्वानुग्रहपरा यणानामित्येवं चतुर्विधा । तदुक्तं " मोढासुखसंवेगान्य हितयुता चैव करुणेति " द्वा० । षो० ४ विव० । कलुस - कलुष - पुं० [स्त्री० कल उप च सुषहिंसायां कस्य जलस्य मुषो घातक इति वा । महिषे, राजनि० | स्त्रियां जातित्वात् । ङी अच्छे, श्राबिले, त्रि० श्रमरः । गर्हिते, त्रि० शब्दचिण भ समर्थ, वाच० । प्रीतिवर्जिते, स्था० ४ ० ४ उ० द्वेष लोभादिलणे पापे, नपुं० स०] प्रश्न० | सूत्र ० "कम्मति वा खहंति वा वोणांत कलु संति वा वेति वा वरंति वा पंकोसि वा मलोति वा एते गठित्ता" नि० ०१२ उ० प्र० चू०| कासाये. पुं० “कमुससय क्विो चउन्विहो कोहादि एक्कारो" नि० ० १ ३० । कसम्म (ण) - कपकर्मन् २० मित्रोदादिव्यापाररूपे मीमसे कर्मणि, प्रश्न० आश्र० ३ द्वा० । कलुससमावय- कलुषसमापद्म-त्रि. प्रतिमालिन्यमुपगते, झा०३५. एवमिदं सर्व जिनशासनोक्तमन्यथा वेति कलुषसमापन्ने, स्था० ४ ० ३ ० । “ स संकिते जाव कमुससमावणे णो संचार सि" कलुषं समापन्नः प्राक्तननिश्वयविपर्य्ययलक्षणं गोशालक मतानुसारिणां मतेन मिथ्यात्वं प्राप्त इत्यर्थः । अथवा कलुषाव जितोऽहमनेनेति खेदरूपमापन्न इति, उपा०६ श्र० । सदिययपहृदय विहा० १६० कबुसान (वि) लचेय- कलुषाकु (वि) लचेतस् - त्रि० क - Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७३) कसुसाउसचेय अभिधानराजेन्द्रः। कल्लाणग लुषेण द्वेषलोनादिलक्षणपापनाविलमाकुलं वा चेतो यस्य स कल्यं किलारोग्यमुच्यत इतियचारोग्यं तथ्यं निरूपचरितं तथा कलुषितमनस्के, स०। निर्वाणमेवमवगन्तव्यमथवा कारणे कार्योपचागत्तत्साधनं द. कलेवर-कलेवर-न० कसे शुक्रे घरं श्रेष्ठम् । तत्पन्नत्वेऽपि । शनकानचारिप्रवक्कणं निर्माणकारणमवसेयम् । अणशब्दस्तु शुचि सप्तम्या अलुक । शरीरे, स्था०५ ०१० शरीरं वपुः अणधातोरुभवार्थत्वाच्छब्दार्थो गत्यर्थों घा द्रष्टव्य इति । तकायो देहः । कलेवरमित्यादयस्तु शरीरपायाः विशेगमृत- तश्च कल्यं यथोक्तमारोग्यमणति गच्छत्यन्तनूर्तेन एयर्थेन घा शरीरे, प्रश्न आश्र०३ द्वा०। आवामनुष्यशरीरे, जं०१ यक्का। परान् गमयति बुध्यते स्वयं बोधयति वा परान् शब्दार्थत्वेऽवि कलेवरसंघाड-कलेवरसंघाट-पुं० मनुष्यशरीरयुग्मे, संघाटश- कल्ययति स्वयं भणति परैश्च भाणयति यस्मात्तस्मानकल्याणः दोयुग्मवाची यथा साधुसंघाट इति, जी. ३ प्रति०२ उ० । स चेहाचार्यो गुरुयोकव्य इति । अथवा कलधातुः शम्दार्थः कोमय-कलेमुक-न० तृणविशेषे, सूत्र० २ ०२०। संख्यानार्थो वा कलशब्दसंख्यानयोरिति धातुणगत्तस्य कल्य. मिति निपात्यते । ततश्च कल्यं शब्दं शास्त्र संख्यानं वा गणितं कद्ध-कल्प-नकलयति चेष्टामत्र या कल्पते कलगती कर्म- | वस्मादणिति शम्दयति प्रतिपादयति युध्यते बोधयति वा सेन णि यत् यद्वा कलासु साधुः प्रत्यूषे, अमरः। वाच० । आ०म०प्र० तस्मात्कल्याणो गुरुरित्येतदेवाह । भौ०। तं०। प्राप्राकाश्ये, रा०प्रभाते, अनु० । कल्पमिति अहवा कलसहत्थो, संखाणत्यो य तस्स कवंति । भ्यः, का०१०। " ते एवं कवं पुण मानक्षिणं पमिचिहसि मा वा वहिसि" प्रा०म०६० । विशे०। श्री० । कल्प० । नीरो सई संखाणं वा, जमणइ तेणं व कवाणो॥ गत्वे, का० १ ० । “ कल्लं किलारोग्गं"कल्यं किलारोग्यमु गतार्था, विशेल ६८१ पत्रका स्था० । ध० श्राव । सुखस्तदि च्यते । "तं तच्चं णिवाणं कारणकज्जोवयारात्रो" यच्चारोग्यं किमिति सुहशब्दे नीरोगताकारणे, का० १ अ० । इहलोकहिते, तथ्यं निरुपचरितनिर्वाणमवगन्तव्यमथवा कार्य कारणोपचा उत्त० १ अ०। कल्याणहेतौ, चं०१८ पादु। उत्त० । कल्याणहेतुरात् तत्साधनदर्शनशानचारित्रलकणं निर्वाणमवसेयमिति त्वादभ्युदयहेती, औ० । प्रधाने, आo चू0 ५ अ० । माषपर्याम् विशे० । संथा० । स्था० आव० । निरामये, सज्जे, समर्थे, 3 वाच० । गवि च, प्रज्ञा०१ पद०। गुक्तेच, त्रि0 अमरः। वाकश्रुतिवर्जिते उपायवचने, कल्याणवचने, | कद्वाणकमय-कल्याणकृतक-ना मगरभेदे, पुधि किर कद्वाण च त्रि०, मेदि० । सुरायाम्, मेदि० । शुभात्मिकायां वाण्याम, __ कडए नयरे परमट्टी नाम राया रज्ज करे । ती० २५ पत्र । स्त्री० अमरः। हरीतक्याम,स्त्री० शब्दरणमधुनि, नण्डेम.वाचा | (नासिकपुरशब्दे कथा ) कसरीर-कस्पशरीर-न० नीरोगदेहे, स्था० ३ ठा० ३ उ० । कद्माणकम्म-कल्याणकर्मन्-न० शुभकर्मणि, सन्ति जीवापटुशरीरे, स्था० ४ ठा० ३ उ० । नां कल्याणि कर्माणि इति कालोदायि प्रश्नः । ('अमजुस्थिय' कक्षाकर-कल्पाकल्प-न० कल्पे च आकस्पे च । कल्पाक- शब्दे तुषणः ) ० ७० ६ ० । न्पम् अनुदिनमित्यर्थे, “कद्वाकल्लिं कोहालियानोय" विपा० कराणकारिण]-कल्याणकारिन्-त्रि० कल्याणकरणे म३ अ०। प्रतिप्रजातम्, उपा०७ अ०। अंत झा०। ङ्गलकरणे, शा०१६ अ०। कद्वाण-कस्याण-त्रि. कल्पोऽत्यन्तनीरुक्तया मोक्तस्तमान- कल्लाणग-कल्याणक-पुं० "कवाणगपवरगंधमवाणुरेवणधर" यति प्रापयतीत कल्याणः मुक्ति हेती, उत्स० ३ अ० । एकान्त. कस्याणकानि मङ्गल्यानि प्रचुराणि मूल्यादिना वस्त्राणि परिहिसुकान्तसुखावहे, जी०३ प्रति०२ उ० श्रेयसि, ज०२ ०१ तानि निवसितानि येन ताम्येष वा परिहितो निवसितो यः 01 निःश्रेयसे, स्था०६ ग० । पुण्ये कर्मणि, स०। प्राचा० । स तथा कल्याणकं च प्रवरं च । पागन्तरेण प्रवरगन्धं च मास्य शुने, शुखदायके, उत्त० अ० । शोभने, उत्त० ३ ० । स्व- मालायां साधु पुष्पमित्यर्थः । अनुझेपनं च श्रीखरामादिविलेश्रेयसे, पंचा०१३ विष०ा सूत्र। सुख शुनं कल्याणं शिवमिः । पनं यो धारयति स तथा स्था०म०। उपा० । कल्याणत्यादीन् व्यपदेशांखभते, विशे० । सुकृते, सूत्र०२ श्रु०१०। कमकल्ये, स्था० ० ठा0 श्रेयसि, पंचा० विव० । तत्त्ववृत्त्या तथाविधविशिष्टफलदायिनि अनर्थोपशमकारिणि, जिनानां पञ्चकल्याणकान कल्याणान्येय जी० ३ प्रति० २२० । रा०ा फलवृत्तिविशेषे, मा० १ ०। यथे स्वरूपतः फतवाह । प्रार्थफलसंप्राप्ती, सूत्र० २७०५40 | मङ्गले, स्था० ४ ठा० ३ 30 | माङ्गल्ये, संथा० । नपढ़वाभावे, कल्पना ऐहिकाऽभ्युदये, पंच महाकल्लाणा, सबोस जिणाण होति णियमेण । पंचा० १८विव० । दशा समृद्धिहेतुत्वादी, स्था० । "कल्ला भुवणच्छरय जूया, कवाणफला य जीवाणं ॥ ३० ॥ शाहिं वाहि" कल्याणप्राप्तिसूचिकानिः,भ० ए श० ३३ उ०। गन्ने जम्मे य तहा, णिक्खमणे चेव पाणणेवाणे । अं० । शुभार्थप्राप्तिसूचिकाभिः औ० । कल्याणानि समृद्धयस्त नुवणगुरूण जिणाणं, कमाणा हॉति णायव्वा३१॥ कारिणीभिः कल्प० । का० । पञ्चैव महाकल्याणानि परमश्रेयांसि सर्वेषां सकलकासनिखिस भदंतो कल्लाण-महो य कवं किनारोग्गं । लनरलोकनाविनां जिनानामहतां भवन्ति नियमेनावश्यंनाघेन तं तच्चं निव्वाणं, कारणकज्जोवयार ओवा वि ।। तथावस्तुस्वजावत्वात् जुवनाश्चर्यनूतानि निखियभुवनामृत जूतानि त्रिजवनजनानन्दहेतुत्वात्तथा कल्याणफलानि च निःश्रे तस्साहणमणसहो, सइत्थो अहव गच्चत्यो । यससाधनानि चः समुच्चये जीवानां प्राणिनामिति गर्भे गर्भाकक्षमणशत्ति गच्चइ, गमयइ वुक व वोहाइ वत्ति । धाने जन्मन्युत्पत्तीचः शब्दः समुच्चये तथेति वाक्योपप निभणइ भणावेश जम्ह-तो कद्वाणो सचायरियो। कमणे अगारवासानिर्गमे चैवेति समुच्चयावधारणाथावुत्त Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८४ ) अभिधानराजेन्द्रः । कलापाग रत्र संभत्येते ज्ञाननिय समाहारद्वत्वात्केाशानन स्योरेव च केषां गदिया गुरुणंनानामर्हतां किमित्याह । कल्याणानि स्वःश्रेयसानि भवन्ति पानीति गाथायार्थः ततध तेसु यदि धा, विदाई करिति भत्तिया । जिजत्तादिविहाणा, कलाणा अप्पणो चेव ||३२|| तेषु च पुनर्दिनेषु दिवसेषु येषु गर्भादयो बभूवुर्धन्या धर्मधनं लब्धारः पुण्यभाजः इत्यर्थः । देवेन्द्रादयः सुरेन्द्रप्रभृतयः कुन्तिमा बहुमाननम्राः किमित्याह निया सप्तामृतिः कृत इत्याद विधानादिपिना अथवा जिनयात्रादिविधानानि कि भूतं जिनवावादीस्याह । कल्याणं स्वः श्रेयसं कस्येत्याह । आत्मनः स्वस्थ चैत्रशब्दस्य समुच्चयार्थत्वेन परेषां नेति गाथार्थः यत एवम् । इय ते दिशा पसस्था, ना सेसेहिं पिते काय जिणनसादिसहरिमं ते य इमे माणसा ॥ ३२॥ इत्यतो देतोः पूर्वोक्ता जीवानां कल्याणफलत्वादिकणाः । ते इति जनगायन्तिदिनादिवसाः दिनशब्दा पुगेऽप्यस्ति प्रास्ताः श्रेयांसः किमित्याह ताइति प स्मादेवं तस्मात् शेषरपि देवेन्द्रादिव्यतिरिमन केवमिन्द्रादिभिरेवेत्यपिशब्दार्थः तेषु मर्नादिकल्पादिविधेयं जिनयात्रादि वीतरागोत्सवपूजाप्रभृतिकं वस्तु सहर्ष सप्रमोदं यथा नवति कानि च तानि दिनानीत्य नेषु जिहासायां सर्वजिनधनच वतुमशक्यत्वाद र्त्तमानतीर्थाधिपतित्वेन प्रत्यासन्नत्वादेकस्यैव महावीरस्य तानि विवक्षुराह ( ते यत्ति ) तामि पुनर्गर्भादिदिनानि इमान वयमाणानि मानस्य महावीरजनस्य भवतिर्थ तान्येवाह । आमाडगुडी येते तह तेरसी चैव । मग सर किएहदसमी, वइसाहे सुहदसमी य ॥ ३४ ॥ कयिकिय चरिमा गम्भादिणा जहकर्म एते । इत्युत्तरमारणं, चउरो तह सातिणा चरमो ||३५|| आपादमसे शुरूपस्य पद नमेवं चैत्रमासे तथेति समुच्चये। शुद्ध त्रयोदश्येवेति द्वितीयं चै केन्यवधारणे। तथा मार्गदशमीति तृतीयम्। वैशाख दशमीति चतुर्थ चशब्दः समुच्चयार्थः । कार्तिक कृष्णे चरमा पञ्चदशीति पञ्चमम् एतानि किमित्याह । गर्भादिदिनानि ग भेजन्मनिष्कमणाननिर्वाणदिवसा यथाक्रमेतन्न कान्येषां च मध्ये हस्तोत्तरयोगेन हस्त उत्तरो यासां हस्तो पलकिता या उत्तरा स्तोत्तरा उत्तरफाल्गुन्पस्तानियोगः सं बन्धचन्द्रस्येति हस्तोत्तरायोगस्तेन करणनूतेन चत्वार्याद्या निदिनानि वन्ति तथेति समुच्चये स्वातिना स्वातिन कत्रेण युक्तः ( चरमोत्ति ) चरमकल्याणकदिनमिति प्रकृतत्वादिति गायाद्वयार्थः । अथ किमिति महावीरस्यैवैतानि दर्शितानीत्याद अहिगयतित्यविहाया भगवंत शिदंसिया इमे तस्स । सा वि एवं विय, नियणियतित्थेषु विश्लेया | ३६ | अधिकृततीयविधाता वर्तमानप्रवचनकली भगवान्महावीर इति तोर्निशितान्याने इमानि कल्याणक दिनानि तस्य व कलाणगतव मानजिनस्य अथ शेषाणां तान्यतिदिशश्राह शेषाणामपि न यमानस्यैव ऋषभादीनामपि वर्तमानाय सर्विस नरता पेक्षा वयमेवेह तीर्थे वर्क मानस्येव निजनितीर्थेषु स्वकीयवचनावसरेषु विनितानि मुख्य विधेय तयेति च यान्येव गनदिदिनानि जम्बूद्रपिभारतानामृष भादिजिनानां तान्येव सर्वभरतानां सर्वैरावतानां च यान्येव च एतेषामस्यामवसर्पिष्यां तान्येव व्यत्ययेनोत्स पिण्यामपीति गाथार्थः ॥ ३६ ॥ पंचा विच० ( कल्याणकेषु यात्राविधानं अजाण शब्दे उत्तम ) अथ षट्कल्याणकवादी प्राह । 66 35 ननु " पंचइत्युत्तरे साइणा परिनिव्युमेत्ति ” इति वचनान्महाथरस्य पर कल्याणक संपथमेवमेवम् एवमुच्यमाने " उसमें अरडा कोसलिए पंच उत्तरासादे अभी छठे होत्थति" जम्बुई। पप्रज्ञप्तिवचनात् श्रीॠषभस्यापि षट् कल्याणकानि वकव्यानि स्युः न च तानि स्वयापि तथोच्यन्ते तस्माद्यथा पत्रउत्तरासादे इत्यत्र नक्षत्रसाम्यात् राज्याभिषेको मध्ये गणितः परं कल्याणकानि तु "अनीश्व" इत्यनेन सह पञ्चैव तथाऽत्रा पि "पंचहत्तरे" इत्यत्र नक्कत्रसाम्यात् गर्नापहारो मध्ये ग गितः परं कल्याणकानि तु "साइणा परिनित्र्युमे" इत्यनेन सह पश्चैव तथा श्रीसाचाराटीकाप्रति पंच वस्तून्येव व्याख्यातानि न तु कल्याणकानि कि च । श्री हरिमसूरिकृतयात्रापञ्चाशकस्य अभयदेवसूरिकृतायां टीकायामपि आषाढशुरूषां गर्भसंक्रमः १ चैत्रशुरूयोदश्यां जन्म २ मार्गदशम्यां व्रतम ३ वैशाखशुद्धदम्यां कार्तिक्यामावस्यायां मोक्कः ५ एवं श्रीवीरस्य पञ्च कल्याणकानि उक्तानि । अथ यदि षष्ठं स्यात्तदा तस्यापि दिनमुक्तं स्यात् श्रन्यच्च नीच्चैर्गोत्रविपाकरूपस्य प्रतिनिन्द्यस्य अश्वरूपस्य गनपहारस्यापि कल्याणकायकथनमनुचितम्। अथ 'पंग्रहत्थुत्तरे " इत्यत्र गर्भाषणं कथमुक्तमितिचेत् सत्यम् हि भगवान् देवानन्दाकुको अवतीर्णः प्रसुती असंगतिः स्यात्तन्निवारणाय " पंचहत्युत्तरेति " वचनमित्यलं प्रसंगेन । कल्याणकानि पञ्चैव कल्प०सु० । पञ्चकल्याणक शोध्या प्रतीचाराः ( पंचकलागशब्दे ) काम्पिल्यपुरस्य नगरस्य राशो ग्रह्मदत्तस्य आहारे, मि०यू०१ ४० | महाविदेहेषु कल्याकरिष्यादिकमिदमेवान्यद्वेति प्रझे उत्तरमाह । महाविदेहेषु कल्याणकतिथ्यादिकमिदमेवेति न सम्भाव्यते यदा श्रप्रत्यती कृतां च्यवनादिकल्याणकं तदा तत्र दिवससद्भावात् तस्प्रति पादान्यपि नोपलभ्यन्ते, ही० २ पत्रसुश्रुतोके ओषधिभेदयुक्ते लागयत-कल्याणकत ० तो ओषधिभेद घृतभेदे नि०यू० ११० (तनिर्माणविधिः सु एव वाचस्पतौ च ) कल्लाएगजन्ता- कल्याणकयात्रा - स्त्री० कल्याणकदिवसेषु कदयाजिनोत्सये, पंचा०विय० । कलारणगतव-फस्याकतपस् न० तपोविशेषे, प्रब. द्वा । तथाधिमासि कल्याणानि वै पाधात्ये या मासि क्रियन्ते केचन परपाक्षिका वदन्ति प्रथमश्रावणकृष्णपक्षे द्वितीयश्रावणशुद्धपाणकतयोवियते तत्सङ्गतिथं वेति प्रने । उत्तरम्। देवकमासापेक्षया वृद्धिप्राप्तं विमुच्य कल्याणकतपःकरणं युक्तिमदिति सेन १५१०३ उ तथा चैत्रमासी कल्याण Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०५ ) निधान राजेन्द्रः | कलाण गतव । क कादि तपः प्रथमे द्वितीये वा मासि कार्यत इति प्र उत्तरम् कखाल-कल्पपाल पुं० मद्यवणिजि, "कलाप प्रथम चैत्रासितद्वित। यचैत्रसितपक्षायां चैत्रमाससंवर्क स्पाकादि तपः श्रीतातपादेरपि कार्यमाण एमस्ति तेन तथैव कार्यमन्यथा भारूपदवृद्ध मासकृपणादितपांसि कुष क्रियन्तामिति ११८ सेन० ३ उल्ला० । (तक्तव्यता पंचकाणशब्देवयते ) कलाणगवत्थपरिहिय-कल्याणकवस्त्रपरिहित-त्रि० कल्याणकं कल्याणकारि प्रवरवस्त्र परिहितं यैस्ते कल्याणकवस्तुपरि दिताः । सुखादिदर्शनानिष्ठान्तस्याऽच पाक्षिकः परनिपातः परिहितप्रचरकल्पास जी०३ प्रति० २ ० । कचाणावर कल्याणनगर नगदेशे नगरमे, “खो देखे कल्लारे संकरो नाम राया जिरहनसो हुन्था " ती० ५१ कल्प० । 66 कल्याण दियह कल्याणदिवस-२० पञ्चमहाकल्याणीप्रतिवरू दिने, अणुरुवं कायन्वा जिणारा कल्लाण दियहेसु पंचा० ए विवo | कचाणपरंपरा-कन्याणपरम्परा स्त्री० माङ्गन्यपदार्थसन्तती 39 कञ्जाण पुक्खल विसालमुहावह - कल्याणपुष्कल विशाल सुखाबहुविकल्याणं पुष्कलं संपूर्ण न तदस्य किन्तु विशालं बि स्तीर्णमेवं सुखमावहति प्रापयतीति कल्याणपुष्फलचि शामसुखावहः । अपवर्गसुखप्रापके, "कलारा क्लासासुहाबहस्स को देवदाणवणारंदगणश्चियस्स । धम्मस्स सारमुपलम्भकरे पमायं ० २ अधि०। कञ्जाणफल - कल्याणफल- त्रि० निःश्रेयससाधने, पंचा० ९ विव. । कफविभाग- कल्याणफलविपाक १० कल्याणस्य पुश्य " संधा० । घ० । कल्लाएपावय-कल्याणपापक- न० दृष्टाऽनिष्टफले शुभाशुभे.. कर्मणि, उपा० २ ० । स्य कर्मणः फलं काय्र्य विपाच्यते व्यक्तीक्रियते यैस्तानि कस्थाणफलविपाकानि । पुण्यफल विपाकेषु अवनव्याकरणेषु अध्ययनेषु श्री भगवान परापना कहाणफल विवागाई वारिता सिके" स० ११६ पत्र. । कल्याणभायण - कव्याणभाजन— न० रोहिकाद्यभ्युदयपात्रे, पंचा० ११ विव० । कल्लाणविजय - कल्याण विजय - पुं० हीरविजयसूरिशिष्ये, प्रमो दं येषां सद्गुणां विति वशः सुधां पार्थ पाये कि मिह निरपायं न विबुधाः । श्रमीषां ( हीरविजयसूरिणां ) षट्तर्किदधिमथनमन्थानमतयः, सुशिष्योपाध्यायाः बरिह हि कल्याणविजयाः । द्वा० ३१ द्वा० न० । कचाणसागर-कल्याणसागर - पुं० श्रञ्चल गच्छीये धर्ममूर्त्याचार्यस्य शिष्ये अमरसागरस्य गुरौ, भयं च विक्रम संवत् षट्सप्तत्यधिकशततमे वर्षे विद्यमान श्रासीत् जामनगरवास्तव्यं बालनगोत्रं वर्धमानशाहनामानं गृहपति प्रतिबोध्य तत्र जिनालयमकारयत् प्रातिष्ठिपश्च स्वयमिति तत्र शिलासु लिखितमस्ति, जै० ६० । कमाथि (ख) कल्याणिन् भ० कल्याण निः स्याणपति, स्त्रियों की सालानामोषधी, राजनि० । वाच० | पंचा० । कवडिजक्ख लिंक पपान किल समुच्चारिते सुरा विनस्पति अनु कल्लाल्लत्त-कल्पपालत्व न० रसवाणिज्ये, “रसवाणिज्जं कला लक्षणं तत्थ सुरापाणे बहू दोसा मारणकोसवहादी तम्हा म कप्पर " श्राव० ६ अ० । कल्लुग ( य ) - कल्लुक - पुं० द्वीन्द्रियनेदे,जी०१ प्रति०। “कसुकाः पाषाणेषु प्रेमियजातिविशेषा भवन्ति " वृ० ४ उ० । कल्लुरिया कल्लुरिका- स्त्री० खाद्यकापते आम०क्रि० । कन्नोमय - कस्वोटक - पुं० गोरहके, ( दम्ये वृषभे ) आचा० २ श्रु० ४ ० २ ० । करलोस कल्लोल पुं० या ओह-कम असं मोल चप यस्माद् वा महोम, औ० । स्थान को० । हर्षे ख । वैरिणि, त्रिo मेदि० वाच० । 1 कल्हार कहार - न० के जले हाते हाद अच् पृषो दस्य रः होल्हः ८|२| ७६ | हस्थाने लकाराक्रान्तो लः प्रा० । सौगन्धिके, श्री. म० प्र० प्रा० । -कमल-१० "मोग्नुनासिके यो बा ४७ मकार अनुनासिको वः । श्रन्त्याकारस्योत्वमिति दुभिः । कवलू कमलम् पद्मे, प्रा० 1 कवचिया - कवचिका स्त्री० कलाचिकायाम, भ०११ श० ११ उ. कपट्टिकर्थित शि० कदर्थाने "कर्थिते व १ २४ | कदर्थिते दस्य वो भवतीति । दस्य वः । वृत्तप्रवृत्तमृत्तिका - पतनकदर्थिते टः | २ | १० एषु संयुक्तस्य टो भवति इति टः कुत्सितार्थीकृते प्रा०| कवम-कपट - स्त्री० कप अटनं कं ब्रह्माणमपि पटति माच्छाद यति पद-अच्-वा-अर्चादि श्रमरः । वाच० वेषादन्यथात्वेन कियमाणे छद्मनि, ज्ञा० ९ अ० । वञ्चनाय वेषान्तरादिकरणे, प्रश्न० श्र०२ द्वा । ज्ञा. । कपटमिति, कैतवमिति शवतापि चेति एकाश्री प्र२ द्वा० देशभाषानेपथ्यादिविषयकरणं पयथापादभूतिया नटेन वा परापरचेपपरावृत्याययोपाध्याय संघादकात्मार्थं चत्वारो मोदका अवाप्ताः सूत्र० २ ० २ डा० । दशा० । कव कप पुं०] पर्यपूरले किए “सम्मईषितर्दिधिष्ठा कपर्द मर्दितेर्दस्य ८|२| ३६ | एषु देस्य मः | हरजटायाम, प्रा० । स्वार्थे कः घराटके, श्राव० ५ श्र० । कबडिजक्ख - कपर्दि ( क ) यक्ष-पुं० स्वनामख्याते यभेदे, " सिरिसि सुंजयसिहरे, परिश्रं पक भिऊण रिसहजिणं । 39 ॥ १ ॥ तस्सेव यस्स पुच्छं, कवमिजक्खस्स कपमहं अत्थि वालकजणवर पालिताणयं नाम नयरं तत्थ कवड़ि नामधिल गामो मह सरोसोमयागी यणपरधणहरणपररमणीरमणार पावठाणपवसत्ता तो क्षण होनामिया वडियार नजार सद दिख गामास्का | अक्षया तस्स मंचयद्वियस्सा पण विदिद्रिय प्रणामं कार्ड विष जोडि करते भय! किमित्यागमनकारणं तुम्हाणं । श्रम्ह घरे बुद्धदहिश्रघयतकार पचरमत्थि जेण कजं तं श्रासह साहुहि प्रणिश्रं न अम्हेमागया किंतु अम्हगुरुणो सपरिवारा चिति घरे Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७६) कवड्डिजक्ख अनिधानराजेन्डः। कविट्ठ रेण विणतं दिमो मए उघस्सओ आगच्छंत सूरिणो चिटुंतु कवल-कवल-पुं० केम जलेन चलते बल चलने अच् । प्रासे, श्राहासुई केवलं अम्हाणं पावनिरयाणं धम्मोवएसो न दाय- कुक्कटाण्डकप्रमाणो बद्धोऽशनपिण्डः कवोभिधीयते प्रव. ब्बो ति। साहहि भणि एवं होउ ति । तओ आगया गुरूणो द्वारा प्रावत्तिा विशेा औ०। दिमाटनिकेण तवित्रा वासा चाउम्मासि कुणति संतय सज्जाय सोसात गट्ठमा- एमुखेन कवलो भवति तं०(कवलप्रमाणमाहारशब्दे उक्तम्) ईहिं नियत' कामणअइक्कंते वासारते परेणए मुक्कलावित्ति श्रामद्वि० । मत्स्यनेदे, शब्दचि । वाच। भयहरं गुरुणो सो तेसि सव्यपणत्तणो परितुट्ठो नियनयर | कवनि-कवलि-स्त्री० गुमादिपाकभाजने, विपा०१ श्रु०३ अ०। सीमसंधि जाव बोलाविउं पट्ठविश्रो पत्ताए सीमसंधीए सूरिहिं कवाम-कपाट-पुं० न० कं वातं पाटयात तद्गात समास पटजंपियं जोमयहरत्तए अम्हाणं उवस्सयदाणाश्णा बहूवयारो कओ प्रो संप किंचि धम्मोवएस देमो जेणा पच्चुवयारो णिन्-अण् । प्रतोलीद्वारसत्के, प्रका०२ पद । द्वारस्थगने, दश कओ हवह । मयहरेण भणिय नियमो न ताव मह निव्वहर। ५०।१०। जी0 । प्रश्नाराका स्थान द्वारयन्त्रे, दश०५ किंच मंतक्सरं वसह । तो सरिहि अणुकंपया पंचपरमि अ० । “वक्कगबमुसंधिवरोहसयग्धिजमलकवामघणदुप्पावहिनवकारमहामंतो सिक्वाविप्रो । जलजलणधनणाइ पनावो | रणा" रा०। शाासा । अ तस्स उववनियो । पुणो गुरूहिं भणियं पश्दिअहं कवामग-कपाटक-न० कपाटमिव कपाटकम् क उपमार्थः। सेतुंजयदिसाए होऊण तुमए पणामो कायब्वो मयहरेण तह कपाटसंस्थानेनावस्थिते आत्मप्रदेशचये, यथोजयोः प्राक् प्रत्ति पमिवज्जिकण गुरुणो पणमिळण नियघरे आगयं सूरिणो त्यग्दिशोस्तिर्यग् विस्तीर्णमवागुदग्दिशोर्हस्वमूर्द्धाधोदिशोरुअन्नत्थ विहरिया । अह कमेण तं पंचपरामिट्रिमंत जवितो नि च्छ्रितं कपाटमिति शम्द्यते तथा समुद्धातकरणवशान्निर्गतानामायमं च निव्वाहिंतो काल अश्वाहेइ अन्नया नियधरणीय कम- त्मप्रदेशानां पूर्वापरदक्किणोत्तरासु विच कपाटसंस्थानेनावस्थाहं कारण गेहाओ नीसारिओ आरुहिरो लगो सितंजगिरि- नान् कपाटकन्वसिद्धिः प्रा० चू०१०। (तत्करणं ससिहरं जाव मज्जभरियं भायणं करे धरित्ता वारुक्खगयाए मुग्धायशब्द) मज्जपाणं करि कामो उवविठ्ठो ताव गिज्ममुहरष्ट्रिय अहिगर- कवामभयअ-कपाटभृतक-पु० क्षितिखानके, प्रोन्द्रादिर्यस्य स्वलविदूमज्जपणे पमिश्रो दिट्ठो। तं दट्ठण विरत्तमणो मज्जं कर्माप्यते द्विहस्ता त्रिहस्ता वा त्वया मिः खनितव्यैतावत्ते निश्रमे नवविरत्तो श्रअणसणं काऊण तक्खणं आजिणंद धनं दास्यामीत्येवं नियम्यति " कवालकुमाश्हत्थमियं कम्मचलणकमलं नवकारंच संभरंतो सहकाणेण मरणसंपत्तो ति- एत्ति य धणेण एचिरकाबुब्व ते कायध्वं कम्म जं विति" स्थमाइप्पणं नवकारप्पभावणं च कवड़िजक्खो अप्पनो ओ- स्था० ४ ठा० १ उ०। हिनाणेण पुवानवं संजरिया आइजिणिदं आइच्छह सा य तस्स कबाल-कपाल-न०० कं-जलं शिरो वा पालयति पान-प्रण इयर माणत्ता तत्थ आगंतूण अप्पाणं निदंती अ-| घटकर्परादौ, श्राचा०१ श्रु० ६ ०३ तासूत्रा भाण्डखण्डे, णसणं करित्ता जिणंदं सुमरती कालधम्ममुवगया जाया तस्से- सूत्र.२०२०। समूहे, च मेदि । शिरोस्थि, यतीनां व करिवरत्तेण ण वाहणं कवहिजक्खस्स चउसु वि अदंमेसु भिक्कापात्रे, अण्डादीनामवयवे च । भर्जनपात्रभेदे च, वाच०) कमेण पासं कुमुदविणवासणिया वीयपूरा चिठंति पुणो सो कवि-कपि-पुं० वानरे, अमरः । अष्ट० । सिल्हके, गन्धद्रव्यओहिणा प्राभोपळण पुन्वभवगुरूणं पायमूले पत्तो बंदित्ता जो भेदे, तस्य कपिजातत्वात् वाराहे, धात्रिकायाम, रक्तचन्दने मियकरयलो विन्नवेश जयवं तुम्ह पसाएण परिसा मए रिद्धी लद्धा संपयं मह किं वि किश्चमाश्सह गुरुणं जंपियं इत्थ ति तद्वर्णे, पिङ्गले, च पुं० तवर्णवति, त्रि०वाच । त्थे निच्चं तुमप वाएयव्वं तिकालं जुग्गइनाहो अंचिअब्बो ज कवि-पुं० काव्यकारिणि, स्था० ७ ठा० । कविरपि च प्रवत्तागयभवियजणाणं मणवविअफलं पूरेयन्वं सयलसंघस्स वि. चनस्य उद्भावकः, आचा० १ श्रु०५ अ० ३ उ० । खलीने, ग्घा अवह रिव्वा । तो गुरूणं पाए बंदिश तहति पमिव स्त्री० मेदि० । वा ङीप् स्तोतरि, त्रि0 वाच । ज्जिय गो जक्खाहिवो विमलगिरिसिहरं करे जहा गुरूव कविंजल-कपिञ्जल-पुं० स्त्री० कपिरिव जवते ईषत् पिङ्गलो “श्य अंबादेवीए, कवड्डिजक्खस्स जनवरायस्स । विहि- वा कमनीयं शब्दं पिञ्जयतीति निरुक्तेः पृषो० पक्षिभेदे, चाश्रकप्पजुगजिणप्पह-सूरीहि वुध्वयणाओ॥१॥कपर्दियकक- तके, राजवल्स। जलयाचनाय तस्य शब्दकरणात् तथात्वम ल्पः, ती० ३० कल्प.। तित्तिरी, त्रिकावाच० जी०प्रशाााचा प्रश्नणसूत्र। कवण-किम्-पुं०"किमः काई कवणौ वा ।।8। ६३ । अपनशे | कविंजलकरण-कपिजलकरण-न० कपिजलानुदिश्य यत्र किमः स्थाने कवणादेशः कुत्सिते, जिशासिते, वितर्कविषये, किञ्चित् क्रियते तथा यत्र स्थाप्यत्र तत्र तस्मिन् स्थाने, “कवाच । “जन सुआवश्दई, घरुका अहो मुह तुज्ज । वय वोयकरणाणि वा कविजलकरणामि वा अक्षयरांस सहप्पणज्जुखमझ तउ, सहिए सो पिउ होइन मज्"प्रा०। | गारंसि यो उचारं पासवणं वोसिरेज्जा" श्राचा०२ भ्र० । कवय-कवच-पुंगईभारमे वृक्के, पटवाघेच मदि०सन्नाह,गा- कविगच्छु-कपिकच्च-स्त्री० कपीनामपि कच्छून्यस्मात् ५ ५० अत्राणे, योनियुद्धकाले शस्त्राघातरक्षणार्थमढ़ेधार्ये लोडा-| कराडूतिजनके बल्जीविशेषे, जी० ३ प्रति० । प्रशा०। दिनिर्मिते वर्मणि, पुन० अमरः।वाचा सन्माहविशेषे, औ०। कविठ्ठ-कपित्थ-पुं० कपिस्तिष्टत्यत्र तत्फलप्रियत्वात् स्था-कतनुत्राणविशेषे, प्रश्न आश्र० ३ द्वा० जी०। झाग आ०म०प्र०।। पृषो० वाच०। (कवीठ) बहुबीजकवृक्षभेदे, प्राचा०१ श्रु०१ "कंटके संणद्धवष्वम्मियकवयत्ति"ज्ञा०१० सुत्रास्त्रियां अ५ उ०। जी। जं० प्रशा। उत्तास्य फले, न. "श्रङीप् तन्त्रोक्ते मन्यसाधनाङ्गे, वाक्यसंघनेदे, च वाच०। कविटुगसंठाणसंट्टिया" प्रशा०२पद । करिव लम्बते Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०७ ) अभिधानराजेन्खः । कविह 1 33 । कपित्थम, अनु । कायोत्सर्गदोषभेदे " सुप्पर आराम कुण अपद्वं कविट्ठे व " प्राच० ५ ० । षदपदिकानां भयेन कपित्थव साकारत्वेन संयत् जङ्घादिमध्ये पदं कृत्वा तिष्ठ त्युत्सर्गे इति कपित्थदोषः, प्रब० ५ द्वा० । कविल-कपिल पुं० सांख्यशास्त्रप्रवर्तके मुनौ वाच० कापिलानां देवतरि औ० । सूत्र० । कपिलानां शास्त्रं द्विविधं सेश्वरं निरीश्वरं च तत्र सेश्वरं सांख्यं भगवदवतारः कपिलः प्राणीतघाम् निरीश्वरं सांख्यं तु श्रग्यवतारः कपिल इति सांख्यशास्त्रानुयायिनः बा० समय विदस्तु अपगतरोगस्य च मरीचे कपिलो नाम राजपुत्रो धर्मया तदन्तिकइतिकचिते साधु साह यद्ययं मार्गः किमिति भवतेतदङ्गकृतम्। मरीचिरा" पापो सोदित्यादि विज्ञाषा पूर्ववत् कपिलोsपि कम्र्मोदयात्साधुधर्म्मानभिमुखः खल्वाह तथा पि किं भवदर्शनेनास्येव धम्मं इति मरीचिरपि प्रचुरकर्मा - वयं न तीर्थकरोक्तं प्रतिपद्यते वरं मे सहायः संवृत्त इति संविवाह कपिला (पार्थ पति) अपिशब्दस्यैवकारार्थस्वाभिरुपचरितः खल्वत्रैव साधुमार्गे ( इहई पित्ति ) स्वल्पस्त्वत्रापि विद्यत इति गाथार्थः । स ह्येवमाकर्यः तत्सकाशएव प्रवजितः ॥ ५ ॥ ( आ० म० ) कपिलोऽपि ग्रन्थार्थपरिज्ञानशून्य एव तद्दर्शितक्रियारतो विजहार आसुरनामा व शिष्योऽनेन प्रवाजित इति तस्य स्वमाचारमात्रं दिदेश एवमन्यानपि शिष्यान् शिष्यप्रवचनानुरागतत्परो मृत्यलोको पत्पचिसमनन्तरमेवावधि प्रयुक्तवान् किं मया हुतं या दानं येनेवर दिव्या देव प्राप्त स पूर्वनये विज्ञाय चिन्तयामास मम शिष्यो न किंचिद्वेत्ति तत्तस्योपदिशामि तत्यमिति तस्मै श्राकाशस्थपञ्चवर्णमलकस्था जगाद "विलोकिक अन्तर्दितः कथितवान किमव्यक्ताव्यक्तं प्रभवति ततः षष्टितन्त्रं जातं तथाचाहुस्ततानुसारिणः प्रकृतेस्ततो ऽहंकारस्तस्मा पो कः । तस्माद्विमापन्या पञ्चभूतानीत्यादि "भ विस्तरेण प्रकृतं प्रस्तुम इति गाधार्थः, श्रा० म० प्र० प्रा० चू० । (संखशब्दे सर्वमतमुपपादयिष्यामि) जीर्णे भोजनमात्रेया, कपि लः प्रणिनां दया। बृहस्पतिर विश्वासः पञ्चानः स्त्रीषु माम् । Monogol काश्यपब्राह्मणस्य यशानाम्न्यां ब्राह्मण्यां जाते पुत्रे, कपिनिक्षेपमाह । निक्खेवो कविम्मि, चउविह दुविहो य होइ दव्वम्मि | आगम नो आममतो, नोआगमतो य सो विवि ॥ निक्षेपो म्यासः कपि कविविषयप्रकारे नामस्थापना इव्यभावभेदातपातद्विविधोद्विभेदो भवति स्य इति रूपविषये वैविध्यमेवाद भागमतो नोभागमतस्तत्रागमतो ज्ञातानुपयुक्तो नो आगमतश्च स द्विविधस्त्रिभेद इति गाथार्थः॥ वैविध्यमेवाह । जागसरी रजविए, तबइरिते य सो पुणो तिविहो । एगनवियत्रकाय, अभिमो नाम गोए य ॥ कपिलशब्दार्थहशरीरं पश्चात् कृतपर्यायं शरीरमित्युच्यते तदेव द्रव्यकपिला (भधिवत्ति ) भव्यशरीरं पुरस्कृतकपिलशब्दार्थज्ञानात्मकपर्यायं द्रव्यकपिलस्तदव्यतिरिक्तध सः । तद्व्यतिरिक्तः द्रव्यकपिलः पुनस्त्रिविधस्त्रिविध्यमेवाह । एकभविको वायुकोऽभिमुखनामगोत्रचेति गाथार्थः । कविल भाषकपिलमाह । कविलानामगो तो जानतो भवे कविल्लो | ततो समिकियमिण प्रणं काविलिति ।। कपिलार्नामगोत्रं वेदयन् अनुभवन भावतो भावमाश्रित्य भवेत्कपिलस्ततस्तस्मात् समुत्थितमिदं प्रस्तुतमध्ययनम् ( काचिलित ) कापिलीयमित्युच्यते इति गाथार्थः । कथं पुनरिदं कपिलात्समुत्थितमित्याह । कोसंवि कासवजसा, कविलो सावधि इंद्रदले य इन्भेय सालिम, मिडियसेणई राया ||८०|| कविलो निज्जिय परिवे-सिया य आहारमिनसंतुहो । वावारित्र्य दुहिमा-सएहिं सो निग्गतो रति ॥६॥ दक्खित्तं पच्छेत्ती, वो य हतो य अपि उ रन्नो । राया से देइ वरं, किं देमी केण ते अट्टो ||| भोको भगति । जहा लाहो वहा छोड़ो, झाहाओोटो पक्हुइ । दो मासकजय कजं, कोमीए विन हिये ||१|| कोडी विमज्जो -त्ति भएइ राया पहट्टमुहवन्नो । सो वि चक्रण कोडिं, जाउं समणो समियपात्रो ॥६२॥ उम्मासे मत्यो महारस जोयणाइ रायगिछे । जयमुदाइकमदामाण पंच सया ||२३| श्रासामक्षरार्थः सुगम एव नवरं (निजियपरिवेसियायत्ति) नैतिकपरिबेषितथा प्रतिदिनभिर्युक्रभलदाण्या वा चारि ति) व्यापारितो नियुक्तः (दुहिं मासेहिं ति) द्वाभ्यां मापकाभ्यां ताद चतुर्थी (दक्षिणति) प्राकृतत्वात् दक्षिण (प मुहचयति मह प्रधान मुखवर्णो मुखड़ाया यस्य स तथा मुखस्य प्रहृष्टत्वादुपचारात्तद्वर्णोऽपि प्रहृष्टः उक्तः । यद्वा प्रहृमुखस्वेष मुखय यस्य स तथा मयूरव्यंसकादित्वात्स मासो मानसत्वाच हर्षादीनां मुखस्यापि दृष्टत्वं रूढित इति भावनीयम् उदासजातीनाम् अतिशेषे अतिशये होही अट्टोमो नि) भविष्यत्यर्थः प्रयोजनमयं पूर्वसंगतिकबीरशतपञ्चप्रतिबोधलक्षणइति ज्ञात्वा व सचिनंति) अण्णा मार्गस्तमने विरामनिप्रायो उच्चगमनचित्तं तत्क रोतीच करोति सत्यतो हि केवलत्वेनामनस्कत्वा तस्याभिप्रायकरण संभवः (धम्मवति) त्यामध तस्तेषां धर्मः स्यादित्येवमर्थ ( गीयन्ति ) चस्य गम्यमानत्वात् गीतं च स्वरगामानुगतगीतिका निबरूमिदमेवाध्ययनं करोतीति योगो वर्तमाननिर्देश सत्रस्य त्रिकायगोचरतामा य दिया गीतमिति स्वराद्यनुगमनेन शब्दितमिदमध्ययनमिति वार्थः कथानकादय सेयस्तव व संप्रदायः २३० ८ श्र० । यथा कौशाम्ब्यां नगर्यो जितशत्रू राजा राज्यं करोति तत्र काश्यपो ब्राह्मणः चतुर्दशविद्यास्थानपारगः पौरा णां राज्ञश्वातीव सम्मतः तस्य राज्ञा महती वृत्तिदत्ता काश्यपब्राह्मणस्य यशा नाम्नी भार्या वर्त्तते तयोः कपिलनामा पुत्रोऽस्ति तस्मिन् कपिले वाले एव सति काश्यपो ब्राह्मणः कालं गतः वदधिकारो ऽन्यस्मै ब्राह्मणाय दतः । सोऽभ्या प्रियमाणेन नगरान्तर्व्रजति । एकदा तं तथा व्रजन्तं दृष्ट्वा यश भृशं सरोद कपिलेन पृष्टं मातः किं रोहयति सा प्राह बल Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३००) अभिधानराजेन्द्रः । कविल 1 तव पिता ईश्या ऋद्ध्या पुरान्तभ्रमन्नभूत मृते च तव पितरिस्वचाविसिति श्रयं पदं प्राप्तस्ततो रोदिमि after a अहं भणामि यशा श्राह पुत्र ! अत्र तव न कोपाठविष्यति तवां त्यांत्यप मित्र इन्द्रदत्तो ब्राह्मणस्त्वां पाटयिष्यति । कपिलः श्रावस्त्यां त समीपं गतः तेन पृष्टं कस्त्वं कुत श्रायातः । कपिलेन सर्वे स्वस्वरूपमूचे तेन मिवात् सविशेषं पाठ्यते परं खड़े भोजनं तस्य कारयितुं न शक्यते ततोऽनशानामा यो व्यवहारी प्रार्थितः यथाऽस्य त्वया निरन्तरं नोज्यं देयं त्वत्प्रसादानिश्विन्तोऽसौ पठति तेनापि प्रतिपक्षम् कपिः शात्रिदे प्रत्यहं भुजे इन्द्रदत्तगुरुसमीपेऽज्येति शालिभ I का दास वर्तते देवयोगान्तस्यामसी रोड अम्पदा सा गर्भिणी जाता कपिलं प्रत्याह । अहं तव पत्नी जाता ममोदरे स्वर्भो जातः श्रतस्त्वया मे भरणपोषणादि कार्यम् । कपिलस्तद्वचनश्रवणाद् भृशं स्विन्नः परमामधृतिं प्राप न च तस्वां राश्री निद्रां प्राप । पुनस्तया भणितं स्वामिन् ! खेदं मा कुर्या: म उक्तमेकमुपायं शृणु । श्रन धननामा श्रेष्ठी वर्त्तते तस्य यः प्रथमं प्रभाते गत्वा वर्द्धापयति तस्य सुवर्ण माषद्वयं ददाति त तत्वमद्य प्रज्ञाते गत्वा प्रथमं वर्षापय यथा सुवर्णमाषद्वयं प्राप्नुयाः । कपिलस्तस्या वचः श्रुत्वा मध्यरात्राघुत्थितस्तस्य धाम्नि अपरः कश्चिन्मा प्रथमं यायादिति त्यौत्सुक्येन गच्छन कपिलः पुरा रक्षकै गृहीतः चीरधिया पदः प्रभाते पुरस्वामिनः पुरो भीतः पुरः स्वामिना पृएं कन्यं किमर्थमरात्री निर्गतस्तेन सकलं स्वरूपं प्रकटीक तम् । सत्यवादित्वात्तस्य तुष्टो राजा प्राह । यत्वं मार्गयसि तदहं ददामि। स प्राह । विमृश्य मार्गयिष्यामि राजा प्राह । या हि अशोकवनिकायां विचारय स्वष्टम् । कपिलस्तत्र गत इति चिन्तयितुमारब्धवान् चेदहं सुवर्णमाषद्वयं मार्गयामि तदा तस्या दास्याः शाटिका मात्रं जायते न तु आभरणानि । ततः सहस्रं मार्गयामि । तदापि तस्य श्राभरणानि न जायन्त ततो व मार्गयामि तदापि मम जात्यनुरोगजेन्द्रप्रवररथादिसामग्री न जायते ततः कोटिं मार्गयामीति चि. स्यश्रेय स्वयं संवेगमागतः। सुवर्णमाषद्वयार्थ निर्गतस्यापि मम कोट्यापि तुहिने जातेति चिगियां तृष्णामिति विचार्य स्वमस्तके लोचं कृतवान् । शासनदेवतया तस्य रजोहरणादिलिङ्गमर्पितं कपिलो द्रव्यभावाभ्यां यतिर्भूत्वा राशः पुरः समागतः राज्ञा भणितं त्वया विचारितम् । श्रह स लाहो तहा लोहो, लाहालोहो पवइ । दोमासकणयं कज्जं, कोडीए वि न निट्टिय " मिति । विचार्याहं त्यक्ततृष्णः संयमी जातः। राम्रो कोटिमपि तवाहं ददामि तेनोकं सर्वोऽपि परिग्रहो मया युत्सु न मे कोट्यापि कार्यमित्युक्त्वा स श्रमणस्ततो विहृतः षण्मासान् यावत् छद्मस्थ एवासीत् पश्चाकेवली जातः । इतश्च राजगृहनगरान्तरालमार्गे बलभद्रप्रमुनाधीराः सन्ति एतेषां प्रतिबोध मतो भविष्यतीति ज्ञात्वा स कपिलः केवली गतः तैर्दृष्टः प्रोक्ताः । भोः श्र मरणः ! नृत्यं कुरु केवली प्राह । वादकः कोऽपि नास्ति ततः स्ते पतचौरास्तालानि कुयन्ति कपिलवली गायति । उत्त० ८ ०। तभीतवृत्तमाह । 16 जहा अ] साभि संसारम्मि दुक्खपराए । किं नाम होल में कम्पर्य, नेलाई दुग्गरं न गच्छेजा ॥ कविल " 2 सोहि गवान् । कपिलनामा स्वयं सुरुवोरसंघात संबोधनायेष संगीता लक्षणं चेदमजं रिपुवं चिय, पुणो पुणो व्वकम्मबंधेसु । धुवयंति तमिह तिविहं, कप्पाय चचपयं उपयंति ” तत्र ध्रुवो य एकास्पदप्रतिबको न तथा वस्तस्मिन् संसार इति संबन्धः भ्रमति हास्मिननेकेचावयस्थानेषु जन्त इति तेषां कचिदनुपूर्वस्याभावायाच रंगभूमिर्न सा काचित, शुका जगति बि द्यते । विचित्रैः कर्म्मनेपथ्यै, यंत्र सत्वैर्न नादित " मिति । सास्वतं नित्यमविद्यमानं सास्वतमरित्यशास्वतस्तस्मिन् । संसार एवासास्वतं हि सफलमिह राज्यादि तथा आद हारिलवाचकः " चलं राज्यैश्वर्ये धनकनकसारं परिजनो, नृपत्वं चाञ्च चक्षममरसौख्यं च विपुलम् । चसं रूपारोग्यं चलमि वरं जीवितमिदं जनो दृष्टो यो वै जनयति सुखं सोऽपि हि चलः । " यद्वा ध्रुवो नित्यो न तथा ध्रुवस्तास्मिन्नवं च कियत् कालावस्थायित्वमप्यासक्येत । अत श्राह शश्ववनाश्वतो न तथा शारदतस्तस्मिन् शश्वद्भपने दि यादिकृणावस्थितिरपि संप्रवेत्तनिषेधे तु तस्या अपि निषेधात्पर्यायार्थतया तडित्संपात क्षणमात्रावस्थाविनीत्युक्तं प्रचति एकार्य वा पदमुपदेशत्वादतिशयस्यापकत्वाश्च न पौनरुक्त्यम् । व पुनरीहारी संसरन्त्येतस्मिन् स्वकर्मवशवर्त्तिनो जन्त इति संमारस्तस्मिन् ( दुःखपरापत्ति ) प्रचुराण्येव प्रचुरकाणि प्रभूतानि दुःखानि शरीरमानसानि यस्मिन् स तथा । तस्मिन् प्राकृतत्वाच्च सूत्रे एवं निर्देशो यद्वा दुःखानां प्रचुर आयो लाभो यस्मिन् स तथा तस्मिन् किमिति प्रझेनामेति संभावनायां वाक्याकरे या नये स्यात्कियत इति कर्म तदेव कम्र्मकमा पत् कीमित्याह येन कर्मणा देवी तृतीया समित्यात्मानं निर्दि शति दुर्गति नरकादिकां न गच्छेयं न यायाम् पठन्ति (जेशाहं दोगती व मोच्चेज प्ति) सुगममत्र भगवतः निशयत्वे मुक्तिगामितया दुर्गत्य सत्वेऽपि च प्रतिवाध्य पूर्वसंगति कापेक्षमित्थमभिधानम् । नागार्जुनीयास्तु प्रथमपदमेवं पठन्ति (अधुमि मोगणार ) तत्र मुह्यतेऽनेन जानन्नपि जन्तुरिति मोहो दर्शनमोनीयादि तेन गहनो गुषिलो मोरगना सव मोहगहनस्तस्मिनिति सूत्रार्थः। एवं च जगतो ते येनमेव ध्रुवकं प्रत्युप्रायन्ति तालं च कुट्टयन्ति तैा प्रत्युते 1 भगवानाह । 66 विमहितपुत्रसंजोगं न सिहं कवि कुविज्जा । सिह सिणेहकरेहिं, दोसपदोसेहिं मुच्चए निक्खू 121 विदाय विशेषेण स्मरणात्मकेन हित्वा कमित्याद पुरा परिचिता मातृपितादयः शब्देनोच्यते ततस्तै पा दन्यै स्वजनधनादिभिः संयोगः संबन्धः पूर्वसंयोगस्तं ततः किमित्याह स्नेहमिष्यद्वारे कु जति) कुर्वीत तथा च को गुण इत्याह । (असिणेह ति) प्राकृतत्वाद्विसर्जनीयलोपे स्नेढे विद्यमानप्रतिबन्धः (सिणेहकरोति) मुख्यन्यवाद पेर्गम्यमानत्याच्या स्नेह करणशीलेच्यपि पुत्रकलादियास्तमन्यत्यपिशब्दार्थो दोपपरपराधस्था त निरतिचारवारित्र दो हि कलत्राणविष्यङ्गादोपपद्मतिवाररूपमाप्नुयात् निक्षुरीत साधुः पागन्तरश्च दोषप्रदोषैस्तत्र दोषैरिहैव मनस्तापादिनिः प्रदोचैश्व पर नरकागत्यादिभिरिति सूत्रार्थः । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३ ) कविल भभिधानराजेन्द्रः । कविल पुनर्यदसौ कृतवांस्तदाह । स्ते च तदासक्तस्य विचित्रक्लेशा अपत्योत्पत्तौ च तत्पालतो नाणदंसणसमग्गे, हियनिस्सेसा य सव्वजीवाणं । नोपायपरतया व्याकुलत्वादयस्तैर्विषमो विषादं गतो भोगामि षदोषविषमः प्राह च" जयाय कुकुमवस्स, कुतत्तीहि विहतसिं विमोक्खमद्वाए, जासई मुणिवरो विगयमोहो ॥ हम्मद । इत्थीव बंधणे वझो, पसस्था परितप्पति । पुत्तदारततोऽनन्तरं नाषते मुनिवर इति संबन्धः । स च कीदृग् ज्ञा परिकिन्नो, मोहसंताण संतो। पंकासन्नो जहा नागो, पसयतेऽनेन विशेषात्मना वस्त्यिति ज्ञानं दृश्यते सामान्यरूपेण व स्थापरितप्पई" (हियनिस्सेयसबुकिंवोच्चत्ति) हित एकान्तपथ्यो स्त्विति दर्शनं तान्यां प्रस्तावात् केवलान्यां समनः समन्वितो निःश्रेयसो मोक्कोऽनयोः कर्मधारये हितनिःश्रेयसौ । यद्धा यदि वा प्राकृतत्वात्समग्रे परिपूर्ण ज्ञानदर्शने यस्यासौ सम्यग् हितो यथानिसषितविषयाघाप्त्याऽज्युदयो निश्रेयसः स एव ज्ञानदर्शनः किमर्थमसौ जापत इत्याह ( हियनिस्सेसा इति) तयोईन्दूस्ततश्च तत्र तयोर्वा बुकिस्तत्प्राप्युपायविषया मतिस्तसूत्रत्वारितः पथ्योभावारोग्यहेतुत्वान्निःश्रेयसो मोको हितश्चा- स्यां विपर्यस्तो विपर्ययवान् स चा विपर्यस्ता हितनि सौ निःश्रेयसश्च हितनिश्रेयसस्तस्मै । यहा प्राकृतत्वादेव नि:- शिर्यस्य सः विपर्यस्तहितनिःश्रेयसबुद्धिर्वा विपर्यस्तशब्दस्यशेषं समस्तं हितं सम्यकतानादि तस्यैव तत्वतो हितत्वात्। न परनिपातः प्राग्वत् । यद्वा विपर्यस्ता हिते निःशेषा बुड़ियततो निःशेषं च तद्धितं च निःशेषहितं तस्मै । कथं नाम निःशे स्य स तथा बासश्वाकः (मंदिपत्ति) सूत्रत्वान्मन्दो धर्मकापाहतावातः स्यादिति चशब्दो भिन्नक्रमस्तषामित्यत्र योज्यते । र्यकरणं प्रत्यनुद्यतो मूढोमोहाकुलितमानसः स एवंविधःकिमिकेषां सर्वजीयानामशेषप्राणिनां तेषां च पञ्चशतसंख्यचौराणां त्याह । बध्यते श्लिष्यतेऽर्थात् ज्ञानावरणादिकर्मणा मविमोक्कणमधविधकर्मणः पृथक्करणं तदेवार्थः प्रयोजनं विमोक- विकेव (खेले ) श्लेष्मणि रजसेति गम्यते । इदमुक्तं भवति णार्थः तस्मै तन्निमित्तं भाषत इति वर्तमामनिर्देशः प्राग्वद्यद्वा यथाऽसौ तस्निग्धतागन्धादिभिराकृष्यमाणा तत्र मज्जति मभवति सतामतीतः प्राप्तो यो नाम वर्तमानत्वमिति वचनात्त मा च रेवादिना बध्यत एवं जन्तुरपि भोगामिषे मग्नः कर्मस्यापि तदा वर्तमानतैवेति तत्कालत्वस्य विवक्षितत्वानदोषः ऐति सूत्रार्थः । ननु यद्येवममी भोगाः कर्मबन्धकारणं किं नैमुनिवरो मुनिप्रधानः । विगतो विनष्टो मोहो यस्य यस्माद्वा स तान् सर्वेऽपि जन्तवस्त्यजन्तीत्याह। तारा शह च विगतमोहवचनेन चारित्रमुक्तं ननु " हियनिस्से सुप्परिचया श्मे कामा, णो सुजहा अधीरपुरिसेहिं । साय सवजीवाणं ती" त्युक्तः “तेसिं विमुक्खणट्ठा इति"अतिरि. च्यते न तानेवोद्दिश्यास्य नगवतः प्रवृत्तिरिति प्रधानत्वात्पुन अह संति मुन्वया साहू, जे तरंति अतरं वणिया वा।६। म्तद्विमोकणार्थताभिधानम् । दृश्यते हि ब्राह्मणः आयाता वि- दुःखेन कृच्छ्रेण परित्यज्यन्ते परिहियन्ते इति दुपरित्यजा शिष्टोऽप्यायात इति सामान्योक्तावपि पुनः प्रधानस्याभिधान- | इमे प्रत्यक्षत उपलभ्यमानाः कामभोगा नो नैव (सुजहत्ति) मिति सूचार्थः। सूत्रत्वात्सुखेनानायासेन हीयन्ते इति सुहानाः सुत्यजा विषयदसौ भाषते तदाह । संपृक्तस्निग्धमधुरान्नवत् । कैरधीरपुरुषैरवुद्धिमद्भिरसत्वैर्वा नरैः पुरुषग्रहणं तु ये ताबदल्पवेदोदयतया सुखेनैव त्यकार: सव्वं गंथं कलहं च, विप्पजहे तहविहं जिक्तु । संभवन्ति तैरप्यमी न सुखेन त्यजन्त इत्यास्तामतिदारुणस्त्री. सम्बेसु कामजाएसु, पासमाणो न लिप्पई ताई ।। पण्डकवेदोदयाकुलितैः स्त्रीनपुंसकैरिति । यह दुष्परिसर्वमशेष ग्रन्थं बाह्यमान्यन्तरं च । तत्र बाह्यं धनाद्यान्यन्तरं त्यजा इत्युक्त्वा पुनर्न सुहाना इत्युक्तं तदत्यन्तदुस्त्यजताख्यामिथ्यात्वादि कलहहेतुत्वात् कलहः क्रोधस्तं चशब्दात् मा- पकं प्रपञ्चितशविनयानुग्रहाकं चेत्यपुनरुक्तमेव । अधीरग्रहनादीचाज्यन्तरं ग्रन्थरूपत्वेऽपि चैयां पृथगुपादानः बहुदोष- णेन तु धीरेः सुत्याज्या एवेत्युच्यते अत एवाह अथेत्युपन्यासे ख्यापनार्थम् (विप्पजहोत्त) विप्रजयात्परित्यजेत्तथाविध- | सन्ति विद्यन्ते शोभनानि सम्यग्ज्ञानाधिष्ठितत्वेन व्रतानि हिमिति कर्मवन्धहेतुं नतु धर्मोपकरणमपीत्यनिप्रायः । पागन्त- साविरमणादीनि येषां ते सुव्रताः । शान्त्या चोपलक्षिताः सु. रश्च तथाविधो भिक्षुर्यतिः तस्यैवंविधधर्माईत्वादेवमनिधा- व्रता शान्तिसुव्रता। इह चसन्तीति शेषः। साधयन्ति पौरुषेनमन्योक्त्या वास्त एवैवमुच्यते ततश्च किं स्यादित्याह । सर्वे-| यीभिः क्रियाभिर्मुक्तिमिति साधवो ये किमित्याह ये तरन्ति प्वदोषेषु कामजातेषु मनोजशब्दादीनां प्रकारेषु समूहेषु वा | परंपरावाप्त्यातिकामन्ति कमतरं तरीतुमशक्यं विषयगणं (पासमाणोत्ति) पश्यन् प्रेकमाणो विपार्क कटुकात्मकं तद्वि- भवं चाक इव वणिज इष चशब्दस्यैवार्थत्वात् । यथाहि वपयं दोषमिति गम्यते न लिप्यते कर्मणा नोपदिह्यते कामदोष- हिजोतरं नीरधियानपात्रादिनोपायेन तरन्त्येष मेतेऽपि धीरा कस्य तेषु प्रायः प्रवृत्तेरभावादिति नायः तायते त्रायते वा रक्त- व्रतादिनोपायेनोक्तरूपमतरमधीरैरेवोक्तनीतितोऽस्य दुस्सरति पुगतिरात्मानमेकेन्डियादिप्राणिनो पाऽवश्यमिति तायी त्वात् । पठन्ति च (जे तरंति वणिया व समुई ति ) स्पष्ठम पायी वेति सूत्रार्थः। इत्थं ग्रन्थत्यागिनो गुणमाभिधाय व्य- उक्तंच केनचित् "विषयगणः कापुरुष, करोति वशवर्तिनं तिरके दोषमाह । न सत्पुरुषम् । बध्नाति मसकमेव हि, लूतातन्तुनमातङ्ग" जोगामिसदोसविसन्ने हि-अणिस्सयसचिवोच्चत्थे।। मिति सूत्रार्थः । किं सर्वेऽपि साधवोऽतरं तरन्त्युत नेत्याह । वाले य मंदिए मूढे, वज्झा मत्यि जाव खेलंमि ॥ समणा मु एगे वयमाण, पाणवहमिया अयाणंता । सुज्यन्त इति भोगा मनोहाः शब्दादयस्ते च ते आमिष चात्य- मंदा निरयं गच्छति, वाला पावियाहिं दीहीहिं ॥७॥ न्तगृझिहेतुतया जोगामिषं तदेव दूषयत्यामानं पुःखलकणवि- श्राम्यन्ति मुक्त्यर्थ विद्यन्त इतिश्रमणाःसाधवो मु' इत्यमाकारकरणेन भोगामियदोषस्तस्मिन् । विशेषण सत्रो निमनो। त्मनिर्देशार्थत्वाद्वयमित्येके केचन तीर्थान्तरीया बदमानाः स्वाभोगामिषदोषविषयः । यद्वा भोगामिपादोषा नोगामिषदोषा- भिप्रायमुद्दीपयन्तो "भासनोपसंभागमानयत्नषिमत्युपमन्त्र Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९७ ) अभिधानराजेन्द्रः । कविल णेषु वदः” । १ । १ । ४७ । इत्यनेन ( पाणिनिवचनेन ) आत्मने पदम् । प्राणा उक्तरूपास्तेषां बधो घातस्तमजानन्त इति संबन्धो मृगा इव मृगाः प्राग्वदशा श्रजानन्त इति शपरिशया के प्राणिनः । के वा तेषां प्राणाः कथं वा वध इत्यनवबुध्यमानाः प्रत्याख्यानपरिज्ञया च तद्वधमप्रत्याचक्षाणोऽनेन च प्रथमत्रतमपि न वित्यास्तां शेषाणीत्युक्तं भवत्यत एव मन्दा इव मन्दा मिथ्यात्वमहारोगग्रस्ततया निरयं पाठान्तरतो नरकं वा प्रतीतं गच्छन्ति यान्तिबाला हेयोपादेयविधे कविक लत्वात् (पायियाहिंति ) प्रापयन्ति नरकमिति प्रापिकास्ताभिर्यद्वा पापा एव पापिकास्ताभिः परस्परविरोधादिदोषात् खरूपेणैव कुत्सि नाभिः मा हिंस्यात्सर्वा भूतानीत्याद्यभिधाय श्वेतं छागमाल भेत वायव्यां दिशि भूतिकाम " इत्यादिपरस्परावरुद्धार्थाभि धायिनीभिः पापहेतुभिर्वा पापिकाभिर्दृष्टिभिर्दर्शनाभिप्रायरूपाभिः “मालभेत इन्द्राय एवं मरुभ्यो वैश्यं त पसे शूद्रम" यथा “यस्य बुद्धिर्न लिप्येत, हत्वा सर्वमिदं जगत् । आकाशमिव पन न स पापेन लिप्यते " इत्यादिकानिर्द यादमवहिष्कृताभिस्ततानां हि विविधयकलचेपादिधारिणामपि न केनचित्पापात्परित्राणम् । तथा च वाचकः " धर्मवल्कलचीराणि, कूर्चमुण्डजटाशिखाः । न व्यपोहन्ति पापानि सोधकी तु दयादमा " विति सुत्रार्थः । अत एवाह । सूत्रकृत् । नहु पारणं प्रणुजाणे, मुञ्चव्व कयाइ सव्वदुक्खाई । एवायरिहिं अक्खायं, जेहिं सो साधुधम्मो पत्तो ॥ (नहु) नैव प्राणबधं प्राणघातं मृषाभाषाद्युपलक्षणं चैतत् (अनुजाणेत्ति) अपिशब्दस्य लुप्तनिर्दिष्टत्वादनुजानन्नप्यास्तां कुर्वन् कारयन् वा मुच्येत त्यजेत । संभावने लिए ततो मुक्तिसंभावनापि नास्तीत्युक्तं भवति कदाचित् कपि काले कैर्मुच्यते इत्याह (सम्यदुक्त्राति) दुःखयन्तीति दुःखानि कर्माणि सर्वाणि च तानि दुःखानि च सर्वदुःखानि तैः सुयत्ययाच्च तृतीयार्थे पडी । यद्वा सर्वदुः सैर्नरकादिगतिनाविभिः शरीरमानसे: कोशस्ततः प्राणातिपातनि वृत्ता एव चान्तरं तरन्ति न वितर इत्युक्तं भवति किमेतत् स्वयेोध्यते इत्याद (पायरिपदिति) पवमुक्तप्रकारेणायैः सकलदेवो दूरं यातैस्तीकरादिभिराचार्यैष्यात कथितम् । ये कशा इत्याह वैरार्थं राचार्येय साध दिसामित्यादिः प्रज्ञतः प्ररूपितोऽयमित्यनेन चात्मनि वर्तमा तेषां महाप्य चीराणां प्रथमं निर्दिशतीति सूत्रार्थः । यद्येवं ततः किं कृत्यमित्याह । पाणे य णाइवाज्जा, सेसमीपत्ति बुच्चई । ताई तो से पावयं कम्मं, निज्जाइ उदगं व थलाओ ॥ ( पाणे य णाश्वापत्ति) च शब्दो व्यवहितसंबन्धस्ततश्च प्राणामिन्द्रियपञ्चकादीनातिपातयेत् स्वयमिति गम्यते । च शब्दात्करणानुमत्योरपि निषेधो मृपावादादिक चैतत् किमिति प्राणान्नातिपातयेदित्याह या प्राणान्नाति पातयितास समितः समितिमानियुच्यतेऽभिधीयते कीदृशः सत्यादावश्यं प्राणिधता समितत्वेपि को गुण क यते तत इति तस्मात्समतत्वात् (से) पापकर्माशुभम् नवरणादि निर्माति निर्गच्छति । पति "निछा" इति अत्र च देशीपदत्वादधो गच्छन्ति किमिवोदकमिव कु ! कविल तस्थादत्युन्नतप्रदेशादनेन च पूर्वपदस्य कम् को न लिप्यते त्रायीति च बद्ध्यमानस्येति न पौनरुक्त्यं पापकग्रहणं चास्यावश्यतया नावख्यापकं पुण्यस्य हि संहननादिदोषात् मुक्त्यनवाप्तेर्देवाद्युत्पत्तौ संभवोऽपि स्यादेवान्यथाहि पुण्यस्यापि स्वर्णनिगरुप्रायतया विनिर्गम एव विमुक्तिरिति सूत्रार्थः । यतं "प्रासान्नातिपातयेति" तदेव स्पष्टयितुमाह । जगनिस्सिए भूपहिं तसनामे थावरेहिं च । नो सिमारभे दमं मासा वयसा कायसा चैव ॥ १० ॥ जगलोकमवतान्याधितानि जगन्निःनि तेषु जन्तुषु ( तसनामेसुत्ति ) त्रसनामकर्मोदयवत्सु धीन्द्रियादिषु स्थावरेषु तन्नामकर्मोदयवर्त्तिषु पृथिव्यादिषु चः समुचये (नो) ने खिति तेषु प्रतीतेः प्रारभेत कुर्या इएमनं दमं स चेहातिपातात्मकस्तं ( मणसा वयसा कायसाबेनिसा वचसा कायेन शम्शे " स्ततश्च यथा मनसा वचसा कायेन च दएकं नारभयेत नवा रभमाणानप्यन्याननुमन्येत एवोऽवधारणे भिन्नक्रमश्चात एव नो इत्यस्यानन्तरं योजितः । पठ्यते च " जगनिस्सियाण ज्याण तसणं थावराण य । नो तेसिमारभे दंमंति तार्थमेव । अपरे तु "जगनिस्सीपदित्यादि" तृतीयान्तदेवाधीषते । तत्र च जगनिश्रितैर्भूतैस्त्रसैः स्थावरैश्च हन्यमानोपीति शेषो नैव प्यारजेत जयनी आवक पुश्यत्र च संप्रदायः "द जेणीए सावगसुश्र चोरेहिं हरिउं मालवगे सूयगारस्स हत्थे विको लावगे मारयसु ण मारयामीति इत्थी पादन्तासणं सीसारक्खकरणं चेति" स एवं प्राणत्यागेपि सत्वानुपरोधी पवमन्नयैरपि यतितव्यमिति सूत्रार्थः उका मूलगुणाः । संप्रत्युत्तरगुणा वाच्यास्तेष्वप्येषणा समितिप्रधानेति तामाह । सुकेणाच्चा, तस्य विल भिक्खु अप्पाणं । जायाए घासमेसिज्जा, रसगिका ए निक्खाए ॥ १२ ॥ शुकाः त्यो दोषरहिता इत्यर्थः । ता ता पणा प्रेरणाद्याः चणादिदेषणाः सप्त संशयास्तद्यथा “संस मसंसठा, तहअप्पेलवडा चेव । उम्गहिया पग्गहिया, उज्जियमाय सप्तमिया" एतासु च शुद्धैषणाः पञ्च जिनकल्पिकामेकं भवति तदधिकारे" पंचसु गहो दो अभिड़ो ति" तांश्च ज्ञात्वाऽवबुध्य किमित्याह । ज्ञानस्य फलं विरति रिति । तत्रैषणासु स्थापयेन्निवेशयेद् निकृत इत्येवं धर्मा तत्साधुकारी वेति भिक्षुः सन्नात्मानं स्वं किमुक्तं भवत्यनेषणापरिहारेण एषणा शुद्धमेव गृह्णीयात्तदपि किमर्थमित्याह । ( जायापति) यात्रा संयम निर्वहणानिमित्तं (घासंति) प्रासमेपयेप्रवेषयेदुक्तंहि "जह सगमक्खोवंगो, कीरश नरवहणकारणा णवरं । तह गुणभरवणत्थं आहारो बंभयारीणं" ति । एषणाशुद्धमप्यादाच कथं भोक्तव्यमिति प्राणामाद रसेषु स्निग्धमधुरादिषु गृद्धो गुद्धिमान् रसगृको न स्यान्न जवेत् । (भिक्खाएसि) भिक्षादी निशाको वा अनेन रागपरिद्वार उक्त द्वेषपरि हारोपलक्षणं चैव ततश्च रागद्वेषरहितो जीतेत्युक्तं भवति बक्कं "रागोसविमुको, जिजा निखरापेहीति" सूवागभी अरूका रसेषु यत्कुर्यातदाह । पंताणि चैव सेविज्जा, सीयं पिमं पुराणकुम्मासं । पुलावा, जवणा ए सेवर मंथुं ॥१२॥ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) अभिधानराजेन्छ । कविल प्रान्तानि नीरसान्यन्नपानानीति गम्यते चशब्दादन्तानि वा पवावधारणे स च निन्नक्रमः " सेविजा " इत्यस्यानन्तर 5ष्टव्यः । ततश्च प्रान्तान्यन्तान्यन्नानि च सेवेतैव न तु साराणी ति परिस्थापनापेक्षा प्रान्तानि चैव सेवेत तस्य तथाविधानामेव ग्रहणानुज्ञानात् । कानि पुनस्तानीत्याइ (सी. पति) सीता शीतलः पिएक आहारः शीतश्चापि एमश्च शीतर्षिमस्तम् । शीतोऽपि शाख्यादिपिएकः सरस एव स्यादत आह पुराणः प्रभूतवर्षघृताः कुमाषा एते हि पुराणा अत्यन्त साश्च भवन्तीत्येवमुपणं तत्पु राजमुना (अ) स्था (सं) मुमापादिका निष्पन्नमतिनिष्पतिरसे वा पुलकमसारं यनादि चा समुचये ( जेवणत्ति ) यापनार्थ शरीरनिर्वाहार्थे वासमुच्चयेउत्तरत्र योक्ष्यते ( सेवपति ) सेवेतोपनीत । यापनार्थमि त्यनेन पतचितं यदि शरीरयापना भवति तदेव निषेवेत । यदि तोकादिना तापवनस्यासतो न निषेवेत अपि गच्छ्गतापेकमेतन्निर्गतश्चैतान्येवानामपि निषे बेत "मंथुं" वा वदरादिचूर्णमतिरुक्तया चास्य प्रान्तत्वं सेवे तेति संबन्धः । पठ्यते च "जं वण्ठापनिसेवर मंथुत्ति" तथैव नवरं मंयुमित्यत्र शब्दो सुप्तनिर्दिो थ्यो ऽसारच स्तूपल कर्ण चोभयत्र धुमहरा पुनः क्रियाभिधानं देवा शान्यसूनि सेवेत कियनेकचापीति व्यापनार्थमिति सूत्रार्थः । यदुकं शुद्धपणा स्वात्मानं स्थापयेति तद्विपर्यये वाचकमाह जे लक्खणं च सुत्रिणं, अंगविज्जा य जे पनंजंति । नहु ते समणा बुच्चति, एवं आयरिएहिं अक्खायं ॥ १३ ॥ ये इति प्राग्वणं च शुभाशुभसूचकं पुरुषलक्षणादिरूढितस्तत्प्रतिपादकं शास्त्रमपि लक्षणं तद्यथा " अस्थिवर्थाः सु मां त्वचि जोगाः खियोऽक्षिषु गती यानं स्वरे चाहा, सर्व सत्ये प्रतिष्ठितं " स्वयं चेत्यत्रापि रुदितः स्वमस्य शुभाशु भफलसूचकं भफल सूचक शास्त्रमेव तद्यथा "अलंकृतानां या बा षव्याणां, जिवारणयोस्तथा । वृषभस्य च शुक्लस्य दर्शने प्राप्नुयाद्यशः” तथा "सूत्रं वा कुरुते स्वप्ने, पुरीषं वा विलोडितम् । प्रतिवुळे तदाकश्चिलभते सोऽर्थनाशनम् " ( अंगविजं च त्ति ) अङ्गविद्यां च शिरःप्रनृत्यङ्गस्फुरणतः शुभाशुभसूचिकां शिरःस्कुरणे " किररज्ज” मित्यादिकां प्रणवमायाबीजादिवर्णविन्यासा त्मिक या यज्ञा संगान्यविद्यावर्णितानिमान्तरिकादीनि "विद्या हिलिहिलिमातङ्गिनी स्वाहा” इत्यादयो विद्या नवादप्रसिकास्ततश्चाङ्गानि च विद्यास्वाङ्गं विद्याः प्राग्वद्वचनव्यत्ययश्चः सर्वत्र वाशब्दार्थो ये प्रयुज्यते व्यापारयन्ति पुनर्वे इत्युपादानं लकणादिभिः पृथक् संबन्धसूचनार्थे ततश्च प्रत्येकमपि लक्षणा दीनि प्रयुञ्जतेन तु समस्तान्येव ते किमिवाद "न हु " नैव त एवं विधाः श्रमणाः साधन उच्यन्ते प्रतिपाद्यन्ते इह च पुटालम्बनं विनैतयापारेण एवमुच्यते अन्यथा करवीरलता - भ्रामकतपस्विनोऽप्येवंविधावापत्तेरेवमाचैराचायख्यातं क पितमनेन यथायस्थितयस्तुवादितयाऽऽत्मनि परापवाददोष व्यपोहत इति सूत्रार्थः ते यन्ति तदाह । इह जीवियं अनियमिता, पन्ना समादिजोएहि । वे कामजोगरसा गिका, उपपचंति आमुरे काए |१४| इहास्मिन् जन्मनि जीवितमसंजमजीवितमनियम्य द्वादशविधतपोविधानादि अभियनय प्रभृताः केभ्यः समाधिजोगे अनियन्त्र्य प्रभृष्टाश्च्युताः कविल च्यः समाधिश्चितस्वास्थ्यं तत्प्रधाना योगाः शुभमनोवाक्कायव्यापाराः समाधियोगाः । यद्वा समाधिश्च शुनचित्तैकाग्रता योगाश्च प्रथमेव प्रायुषेणादयो व्यापाराः समाधियोगास्तेयो नियन्त्म हि पदे पदे तदस इति तेऽनन्तमुक्ताः कामभोगेष्वभिहितस्वरूपेषु रसोऽत्यन्ताशक्तिरूपस्तेन गुस्तेष्वेवानिकावन्तः कामजोगरस गुफाः । यद्वा रसाः पृथ गेवरादयो मधुरादयो वा प्रोगान्तगतत्वेऽपि पृथगु पादानमतिविषयतापनार्थमुपपद्यते जायते श्रसुरेसुरसंबन्धिनिकाये असुरनिकाय इत्यर्थः । इदमुक्तं भवत्येवं विधा कञ्चित् कादाचित्कम दुष्ठानमनुतिष्ठन्तो ऽप्यसुरेध्येयोत्प द्यन्त इति वार्थः । ततोऽपि यता किमा ततो विउट्टित्ता, संसारं बहुं अणुपरियर्हति । बहुकम्मले वलिताणं, बोड़ी होइ मुखड़ा तेर्सि ||१५|| ततोsपि खासुरनिकायानुकृत्य तत्परित्यागेनान्यत्र गत्वा संवारं चतुर्गतिरूपं " बहुशब्दस्य बहुतापे घृतं श्रेय " इत्यादिषु विपुलवाचिनो दर्शनाद्वहुं विपुलं विस्तीर्णमिति यावद्वहुं प्रकारं वा तुरशीतियोगिता परिसिति श्रपरियत्ति सातत्येन पीत्यर्थः पठन्ति "अधरति ति" स्पष्टम् । किं च बहूनि च तानि अनन्ततया कर्माणि च क्रियमाणतया हानावरणादीनि बहुकम्मणि तानि लेप श्व कोपो बहुकर्मणां वा लेप उपयो] बहुकलेपस्तेन लिशास्तेषां बोधि प्रेत्य जिनधर्मावातिर्भवति जायते सुदुर्लभाऽतिशयपुरापा तेषामिति ये लक्षणादि प्रत्युञ्जते पठन्ति बोही अत्यमा लेखिति) बोधियंत्र संसारेसुदुर्लभा तेषां तमनुपरियन्तीति योजनीयम् । यतश्चैवमुत्तरगुसविधाय दोषतस्तदाराधनायामेव पतितव्यतित भाष इति सूत्रार्थः । श्रह किममी व्यश्रमणा जानन्तोऽपि एवं लक यादि प्रमुख उच्यते शोभतोऽत एव तदाकुलितमनो प्रयुञ्जते । 35 दुष्पूरतामाह । कसि पि जो इमं लोयं, पमिपुत्रं दलिज्ज एकस्स । तेनावि से न सिना, इति प्रए इमे आया || कृत्स्नमपि पूर्वमा सुरेन्द्रादिरमं प्रत्यकं लोकं जगापरपूर्ण धनधान्यहिरण्यादिभृतं ( दलेति ) दद्यात् किं बहुन्य इत्याह (एकस्वति) कस्मै कस्मैचित्य तेनापि धनधान्यादिभृतसमस्तलोपदायकेन हेती तृतीया (से) इति स न संतुष्येन दुष्येत् किमुक्तं भवति ममैतावद्ददताऽनेन परिपूर्णता इति न तुष्टिमाप्नुयात्। उहि "ना ष्ठेषु, नदीभिर्वा महोदधिः । नचैवात्मार्थसारेण, शक्यस्तर्पचितुं कचित् ॥ यदि पूर्णोऽपि जम्मूदीपः कथंचन । अपर्याप्तः प्रहर्षाय, लोभार्त्तस्य जिनैः स्मृतः " इतिरेवमर्थे एवममुनोक्तन्यायेन दुःखेन कृब्रेण पूरयितुं शक्यो पुष्पूरो दुःपूरक (इमेति) भयं यभामा जीन परिस्वायाः परिपूरितुमशक्य त्यादिति सूत्रार्थः किमिति न संतुष्यतीति स्वसंविदितं हेतुमाह । जहा लाजो तहा लोभो, लाजा लोभो पहुई । दो मासक क, फोटीए वि न निडियं ॥ १७॥ यथा येन प्रकारेण लाभो गार्द्धमनिकाङ्गेति यावत् प्रयतीति शेषः किमेवमित्याह लाभाोभः प्रवर्द्धते प्रकर्षेण वृद्धि म । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३ ) कविल श्रभिधानराजेन्द्रः। कविसीस जते इह च लानालोभः प्रवर्फत इति वचनाद्यथा तथेत्यत्र तरिहिंति जेन काहिंति, वीप्सा गम्यते ततश्च यथा यथा लाजस्तथा तथा सोनो भव तेहिं आराहिया दुवे लोग त्तिवेमि ॥२०॥ तीत्युक्तं भवति । लाभालोभः प्रवर्कत इत्यपि कुत इत्याह । द्वाज्यां द्विसंख्याकाभ्यां माषाभ्यां पञ्चरत्तिकामानाभ्यां क्रियते इतीस्यनेन प्रकारेण एषोऽनन्तरमुक्तरूपो धर्मो यतिधर्म श्रानिष्पाचत इति द्विमाषकृतमार्षत्वाद्वर्तमानकाले क्तः कार्य प्र- ङिति सकलतत्स्वरूपाभिव्याप्याख्यातः कथितः ख्यातकेनेयोजनं तच्चेह दास्यां पुष्पतांबूलमूल्यरूपं कोट्यापि सुवर्णा- त्याह । कपिलेनेत्यात्मानमेव निर्दिशति पूर्वसंगतिकत्वादमी तलकात्मिकया न निष्ठितं न निष्पन्न तमुत्तरोत्तरविशेषवा- मचनतः प्रतिपद्यतामिति चः पूरसे विशुद्धप्रक्षेन निर्मलाछात इति जाव इति सूत्रार्थः। वबोधेनातोऽर्थसिद्धिमाह ( तरिहिंति ) तरिष्यन्ति भवासंप्रति यदुक्तं हिमाषकृतं कार्य कोट्यापि न निष्ठितमिति र्णयमिति शेषः । ये इत्यविशेषामिधानं तुःपूरणे ततोऽविशेतत्र तदनिष्ठितिः स्त्रीमूलेति तत्परिहार्यतोपदर्शनायाह । षत एव तरिष्यन्ति ये करिष्यन्त्यनुष्ठास्यन्ति प्रक्रमादमुं ध नेमन्यच्च तैराराधितौ सफलीकृतौ द्वौ द्विसंख्यौ लोकानो रक्खसीसु गिभिजा, गंमवच्छामु णेगचित्तासु । विह लोकपरलोकावित्यर्थः । इह महाजनपूज्यतया परत्र च जाश्रो पुरिसं पलोभित्ता, खेलंत जहा व दासेहिं ।१०। निःश्रेयसाभ्युदयप्राप्त्येति सूत्रार्थ इति परिसमाप्तौ वषीमिनो नैव राकस्य श्व रावस्यः स्त्रियस्तासु यथाहि रावस्यो ति । नयाश्च प्राग्वदिति । उत्त० ८०भरतखण्डजकृष्णरक्तसर्वस्यमपकर्षन्ति जीवितं च प्राणिनामपहरन्त्येवमेता अपि वासुदेवसमकालीने धातकीखण्डान्तर्गतपूर्वार्धभारतवर्षसतत्वतो हि ज्ञानादीन्येव जीवितं स्वार्थश्च तानि च ताभिरपक्कि- | कचम्पानगा भवे वासुदेवे, मा०१६ अास्था० (येन वियन्त एव तथा च हारिलः " वातोद्तो दहति हुतचुम्देहमे जितापरकाधीशपानाभस्य कृष्णवासुदेवस्य शशम्दः नराणां, मत्तो नागः कुपितभुजगश्चैकदेह तथैव। ज्ञानं शीलं वि- श्रुतः श्रावितधेति द्रोपदी (दुवा) शब्देवक्ष्यते) सुस्थितानयविनवौदार्यविज्ञानदेहान् , सर्वानर्धान् दहति वनिताऽमुष्मि- चार्य्यस्य जुद्रके शिष्ये, येन शय्यातरणिका (कन्या) निकानहिकांश्च ॥(गिनेजति) गृवेदनिकाङ्कावान् भवेत् । कीर- मित्तं शिच्छिन्ने तृतीयवेद उत्पन्नः वृ० ४ उ०। (पडि. शीषु ( गम्वच्छासुत्ति ) गएममिह चोपचितपिशितपिएमरू- सेवणाशब्दे कथा ) नम्दामात्यस्य कल्पकस्य पितरि, प्रा. पतया गलत्पूतिरुधिराईतासंभवाच्च तपमवाझामे कुचा- का श्राव० । श्रा०यू०। (कप्पशब्दे उक्तम् ) पक्षिविशेष, वुक्ती ते बकसि यानां तास्तथाजूतास्तामु वैराग्योत्पादनार्थ झा० १७ १०ी । प्रभा वर्णविशेष, उपा० २ ०। चेस्थमुक्तम । तथा अनेकान्यनेकसंख्यानि चश्वसतया चित्तानि अनु० । तद्वर्णचति, पिकले, त्रिका उपा०२ १०। कपिलपुमनांसि यासां तास्तासु अनेकचित्तासु आहच “अन्यस्याडू पायां शिशपायाम, स्त्री०, राजनिक रेणुकानामगन्धद्रव्ये कसलसि विशदं, चान्यमालिङ्गध शेते, अन्यं वाचा वपयति हस- पिलवर्णायां खियां तुटावेष वर्णवाचिस्वेऽपि अनुदातत्याभात्यन्यमऽन्यं च रौति । अन्य द्वेष्टि स्पृशति कशति प्रोप्ते चा- यात् । कुकुरजातिस्त्रियां तु जातित्वात् की वाच। न्यमिष्ट, नार्यो नृत्यत्तडित श्यधिक चञ्चला बालिकाश्च" तथा| कविलकविल-कपिलकपिल-त्रि अतिकडारे, उपा०२मः। (जाओत्ति) याः पुरुष मनुष्यं कुलीनमपीति गम्यते प्रलोच्य त्वमेष शरणं त्वमेव च प्रीतिकृदित्यादिकाभिर्वाभिर्विप्रतार्य कविलदंसण-कपिलदर्शन-न० शायशाले, " अमर्ततनो क्रीमन्ति ( जहा पत्ति) वाशब्दस्येवकारार्थत्वाद्यथैव दासैः भोगी, नित्यः सर्वगतोऽक्रियः। अकर्ता निर्गुणः सूदम मात्मा रे ह्याग मा वा त्वं मायासीरिस्यादि विवक्तिप्रभृतिनिःक्री कपिलदर्शने" गा० (पतन्निराकरणं संखशब्द) मानिर्विसन्तीति सूत्रार्थः। कविलपतियकेस-कपिलपतितकेश-पु. कपिलाः पलिताच पुनस्तासामेवातिदेयतां दर्शयन्नाद । शुक्लाः केशा येषां ते तथा । अतिवृशेषु, ज०७ श०६०। नारीसु नो पगिभिज्जा, इत्थीविप्पयहे अणगारे । | कविलय-कपिलक-पुं० राहुदेवस्य कृत्स्नपुझलभेदे, सू० प्र० धम्मं च पेसलं नच्चा, तत्थ दृविज्ज भिक्खुमप्पाणं ॥ २० पादु०।०प्र०। नारीषु नो नैव प्रगृख्येत्पशब्द आदिकर्मणि ततो गृहिमारजे कविला-कपिला-स्त्री० स्वनामख्यातायां ब्राह्मण्याम, "अदि तापि न किं पुनः कुर्यादिति भावः ( इत्थीविप्पयहित्सि ) स्त्रियो कालसोयरिपसूर्ण मोपहिं जदि य कविसं माहणि निक्खं दीविविधैः प्रकारः प्रकर्षेण च जहाति त्यजतीति स्त्रीविप्रजहः वावेहि" आ० चू०४०। "उणादयो बहुम्"३/३११। शति बहबषचनाचः। यदा-कवि (वे) लय-कवियक-न० मण्डकपचनिकायाम, सं(इत्यित्ति) खियो ( विप्पजहेत्ति) विप्रजह्यात्पूर्वत्र नारीन. था। "भत्ते कविहे विंदुपचिते" वृ०५ उ० । “पच्या गोवादणान्मनुष्यस्त्रिय एबोक्ता इह च देवतिर्यक्संबन्धियोऽपि साणं जं जेण कवेलं असाय" प्रा०म० दिमावा जास्था । त्याज्यतयोच्यन्ते इति न पौनरुक्त्यमुपदेशत्वाद्वा । अनगारः कवि (वे)लयावाय-कवेल्लकापाक-पुं० कवमुकानि प्रतीप्राम्बत् किं पुनः कुर्यादित्याह धर्ममेव ब्रह्मचर्यादिरूपं चस्याव- तानि तेषामापाकः । भाएडपचनस्थाने, स्था०००।जी। धारणार्थत्वात्पेसल मिह परत्र चैकान्तहितधेनातिममोई शात्वा कविसीस-कपिशीर्ष-न० कपीमां प्रियं शीर्षमप्रम् , शाक० । अवबुभ्य तति धम्म स्थापयनिवेशयेद्भिक्षुर्यतिरात्मानं विषया-| भिलाषनिषेधे इति सूत्रार्थः । अध्ययनार्थोपसंहारमाह। प्राकाराने, त्रिका। कपीनां प्राकाराप्रवासित्वं लोकसिद्धम् स्वार्थे कः तत्रैव, वाचा "कविसीसपषट्टरभ्यसंठियविरायइति एस धम्मे अक्खाए, माणा" कपिशीर्षकैः वृत्तरचितैर्वर्तुलीकृतैः संस्थितैर्विशिष्टसं. कक्तेिण च विमुच्छपहरण । स्थानवनिर्विराजमाना शोजमाना या सा तथा ।का०९प्रकाराol Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५३) कविहसिय अनिधानराजेन्षः। कस कविहसिय-कपिहसित-न० नभास विकृतिरूपस्य वानरमुख- | तोविकारविशेषाः इत्यर्थः । उक्तं च " बाह्यार्थालम्बनो वस्तुसशस्य अट्टाहासे, व्य० ७ ० । औ० । श्रा० चू । नि०. विकारो मानसो भवेत् । स भावः कथ्यते सद्भि-स्तस्योत्कर्षों चू०। आव० । आकस्मानभसि ज्वअद्भीमशब्दे, जी। रसः स्मृतः " | काव्येषूपनिवद्धा रसा काव्यरसाः । वीरशृङ्गाकवाय-कपोत-पुं० स्त्री० पारावते, पिं० विपा । उपासच रादिषु रसेषु,। त्रिधा गृहकपोतवनकपोतचित्रकपोतनेदात, वाचः। से किं तं एवनामे पवनामे व कबरसा पलसा तंजहा कबोयकरण-कपोतकरण-न० कपिञ्जलानुहिश्य यत्र किश्चित् | “वीरो सिंगारो अ-स्तुभ रोदो अ होइ बोकव्यो। क्रियते तथा यत्र स्थाप्यते तस्मिन् स्थाने, प्राचा० २ भु। वेलणओ बीभच्छो, हासो कलणो पसंतो अ॥ (अनु०) कोयपरिणाम-कपोतपरिणाम-त्रि० कपोतस्येव पक्तिविशेष (वीरादिशब्देषु व्याख्या) स्येव परिणाम प्राहारपरिपाको येषां ते कपोतपरिणामाः। श्रा- | साम्प्रतं नवानामपि रसानां संक्षेपतः स्वरूपं कथयन्नुपसरनाह हारपरिपाकसक्कोदरामिषु, कपोतस्य हि जठराग्निः पाषाणल- एए नवकबरसा, बत्तीसा दोसविहिसमुप्पामा । वानपि जरयतीति (जन) श्रुतिः, तं० । प्रभ० । जी०। गाहाहि मुणेअव्वा, हवंति मुचा व मीसा वा ।। २० ।। कबोयसरीर-कपोतशरीर-न० कपोतकदेदे, कूष्माएमफले, च सेत्तं नवनामे। "खेतीए गाहावतीए मम प्रधाए दुवे कवोयसरीरा वक्खमिया एते नव काव्यरसा अनन्तरोक्तगाथाभिर्यथोक्तप्रकारेणैव मुतेहि णो अहो दुवे कवोया" सिंहानगारं प्रति वीरजिनः इत्यादेः णितव्या ज्ञातव्याः । कथंभूताः "श्रलियसुवधायजणय, निरत्थभूयमाणमेवार्य केचिन्मन्यन्ते । अन्ये त्याहुः कपोतकः पक्तिविशे- यमुवत्थयंचयं हल" मित्यादयोऽत्रैव वदयमाणाः। यद्वा त्रिषस्त वे फले वर्णसाधातू ते कपोते कूष्माण्डे हस्खे कपो. शत्सूत्रदोपास्तेषां विधिर्विरचनं तस्मात्समुत्पन्नाः । इदमुक्त भतके तेच ते शरीरेच वनस्पतिजीवदेहत्वात् कपोतकशरीरे । वत्यलीकतालक्षणो यस्तावत् सूत्रदोष उक्तस्तेन कश्चिद्रसो अयवा कपोतकशरीरे इव धूसरवर्णसाधादेव कपोतकशरीरे | निष्पद्यते यथा “ तेषां कटतटभ्रष्ट-गजानां मदविन्मुनिः। प्राव कूष्माण्डफसे एव ते उपस्कृते संस्कृते, भ० १५ २०१०।। र्तत नदी घोरा, हस्त्यश्वरथवाहिनी" ॥१॥ इत्येवं प्रकार कवोल-कपोल-पुं० सौ कप्-श्रोलच्. गरडे, गवे, उपा० सूत्रमलीकतादोषदुष्टं रसश्चायमद्भुतः ततोऽनेनालीकतालक्षणेन २० । “पीणमंसमकवोसदेसभागा" पीनौ पुष्टौ यतो मां- सूत्रदोषणाद्भुतो रसो निष्पन्नस्तथा कश्विास उपपातलक्षणेन सलौ उपचिती कपोललवणी देशभागौ मुखावयवी येषां ते, सूत्रदोषेणानिवर्तते यथा समव प्राणिति प्राणी, प्रीतेन कुपितेन जं० २ वकः । औ०। च। चित्तैर्विपक्षरक्कैश्च, प्रीणिता येन मार्गणा' इत्यादिप्रकारं सूत्र कच-काव्य-न० कवेरनिप्रायः काव्यम् । रस्ये, अनु० । कवेः परोपघातलकणादोषदुष्ट वीररसवायम् । ततोऽनेनापघातलभृगपुत्रस्यापत्त्यं यम्-शुक्रे, अमरः । कवेरिदं य कविसंबन्धि- कणेन सूत्रादोषेण वीररसोऽत्र निर्वृत्त इत्येवमन्यत्रापि यथासंजनि, कत्-वर्णने, स्तुतौ, च। कर्मणि-एपत् । वर्णनीये, स्तुत्ये, च वं सूत्रदोषविधानाद्रसनिष्पत्तिर्वक्तव्या प्रायो वृत्ति चाश्रित्यैवमुनिका स्त्रियां टाए शारिवादौ तु काव्यशब्दस्य यअन्तस्यैव ग्रह तं तपोदानविषयस्य वीररसस्य प्रशान्तादिरसानां च क्वचिदणात् ततः स्त्रियां कीन् । कवेः कर्म भ्यम्-कविकृद्गद्यपद्यात्मके वृत्तादिसूत्रदोषानन्तरेणापि तिष्पत्तेरिति । पुनः किंविशिष्टा प्रन्ये, वाच । अमी जवन्तीत्याह (हवंति सुका वा मीसा धत्ति) शुका वा चबिहे कव्वे पपाते तंजहा गजे पज्जे कत्थे गेये। । मिश्रा वा जवन्ति क्वचित्काव्ये शुद्ध एक एव रसो निष्पद्यते कचित्तु व्यादिरससंयोग इति भाव इति गाथार्थः।अनु०३४१पत्र कएथ्य चैतनवरं काव्य ग्रन्थः गद्यमच्छन्दोनिवर्क शत्रपरिशाध्ययनवत् पy छन्दोनिवर्क विमुक्ताध्ययनवत् । कथायां कव्वलिंग-काव्यलिङ्ग-न० हेतोर्वाक्यपदार्थतेति लक्विते असाधु कथ्यं ज्ञाताध्ययनवत् । गेयं गानयोग्यम् । इह गद्यपद्या- थाऽलङ्कारमेदे, प्रति०१७ पत्र। म्तीवेऽपीतरयोः कथा गानधर्मविशिष्टतया विशेषो विवक्षित कव्वसत्ति-काव्यशक्ति-स्त्री० एकोनविंशतितमायां स्त्रीकनाइति । स्था०४०४०।" णट्टविही णामयविही, कब्ब- याम, कल्प। स्स चउब्धिहस्स अप्पत्ती। संखेवमहाणिहिम्मि, तुडियंगाणं कन्वर-कर्वर-पुं० चित्रे, शा० अ०। आचा० । शबबे, त्रि० । च सम्वेसिं " स्था०ए ठा०।। स्था० ५ ग० ३ उ०। कन्चइत्त-काव्यवत्-त्रि० काव्य-मतुप्-“प्रास्विल्लोद्वालवन्तम कव्वुरय-कर्वरक-पुं० षोमशे सप्तदशे वा महाग्रहे, “दो कब्यु. न्तेत्तेरमणामतोः ।।।५ए । इति मतुपः स्थाने इत्तादेशः रया" स्था० २ ० ३ ० ० प्र० ज०। कल्प। काव्यविशिष्टे, प्रा०। कस-कश-पुं० त्रासजनकायाम, (उत्त० १०) चर्मयष्टि कब्बड-कट-न० कर्व-अट-क्षुल्लकप्राकारवेष्टिते, अभितः पर्व कायाम, प्रश्न० आश्र०१द्वा० । उत्त। वृते, जं० २ वक्व० । महाक्षुषसन्निवेशे, दश० १ चूवि०। कर्वट कष-पुं० न० कष-अच् । कष शिषेति दएमकधातुर्दिसार्थः। जनावासे कुनगरे, उत्त० ३० अ०। स्था० । रा० । प्रश्न० । कपम्ति कष्यन्ते च परस्परमस्मिन् प्राणिनः इति कषः। कर्म०कल्प० । औ० । का० । आचा। अनु० । जकातद्वासिनि जने, १क01 श्रा० म० प्र०ा प्रवः । आचा। कष्यतेऽस्मिन् प्राणी च त्रि०। कबाडी, उत्त० ३०१०। पुनः पुनरावृत्तिभावमनुन्नवति कषोपलकष्यमाणकनकवदिति कलरस-काव्यरस-पुं० कवेरभिप्रायः काव्य रस्यन्ते अन्तरा कषः । कपति हिनस्ति "पुंसि संझायां घःप्रायेण" ।३।३।११८ स्मनाऽनुभूयन्ते इति रसास्तत्सहकारिकारणनिधानोगताश्चे- तिप्रायग्रहणान् घः। अन्यथा हलन्तत्वासश्चेति घञ् स्यात Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) अनिधानराजेन्द्रः। कस कसाय दर्श० १७० पत्र. संसारे, उत्त०४ अ०प्राचा० । कषति देहिनं अत्रैवोदाहरणमाह । कष इति कषम, स्था०४ वा०१ उ०। कपयन्ते वाध्यन्ते प्रा. जह पंचहिंबहुएहिं व, एगा हिंसा मुसंविसंवाए । णिनोऽनेनेति कषम् कर्माण जावे च घः, विशेष स्वर्णवर्णरूप चाओकाणम्मित्र, काएअव्वं अगारा ॥७१।। झानार्थे पाषाणनेदे, अनादेस्तीदणीकरणसाधने, शाणाख्येऽर्थे च अमरः। वाच। यथा पञ्चनिः कारणैः प्राण्यादिग्निः बहुभिर्वैकेन्द्रियादिभिकसर-कष्ट-न० कप क्त-नेट् “ यस्तष्टा रियसिनसटाः कचित्" | रेका हिंसा यथोक्तं "प्राणी प्राणिज्ञानं, घातकचित्तं च ता ताचेष्टा । प्राणैश्च विप्रयोगः, पञ्चभिरापद्यते हिंसा" तथाऽन८।४।२३ । इति टस्थामे सटादेशः पीमायाम् : प्रा०।। स्थिमतां शकटलरेणैको घात इति तथा मृषा विसंबादे वाकसपट्टिय-कपपट्टक-पुं० कषे, ज० ॥ श०२ उ० । स्तब इत्याह । “ असन्तोऽपि स्वका दोषाः, पापशुद्ध्यर्थमीकसण-कसन-पुं० कसति हिनस्ति कम ब्युर कासरोगे, बू-| रिताः । न मृषायै विसंवाद-विरहात्तस्य कस्यचित्" इत्यादी ताभेदे, वाच। विचारे तथा ध्याने च ध्यातव्यमकारादि यथोक्तं "ब्रह्मोकाकृष्ण-पुं० "कृष्णो वर्णे वा ७।२।११० कृष्णवर्णवाचिनि संयु रोऽत्र विज्ञेयो, एकारोविष्णुरुच्यते। महेश्वरो मकारस्तु, वयक्तव्यञ्जनात्पूर्वावदितौ वा भवतः। कसणो कसिणो कण्हो वर्ण | मेकत्र तत्वतः" इति गाथार्थः । पं००४ द्वा० । इति किम विष्णौ कएहो, प्रा०। कसा-कषा-स्त्री. अश्वादितामनसाधिकायां चर्मयष्टिकायाम, कसणफणि ( प ) कृष्णफणिन्-पुं० "फो भहौ" । १। विपा०६अ। श्रा०का । झा० । ३६ । इत्यस्य प्रायिकत्वान्न फस्य नः कृष्णसर्प, प्रा। कसाइ (ए)-कपायिन्-पुं० कषाया विद्यन्ते यस्याऽसौ ककसपट्टय-कषपट्टक-पुं० निकषे, अनु०। षायी, सूत्र० १ श्रु०६अ। क्रोधमानमायालोनिनि, सूत्र० १ कसप्पहार-कशप्रहार-पुं० वर्द्धतामने, झा०२०। श्रु०५ अ० । प्रज्ञा कसर-कसर-पुं० ( कामूकृत) खसरे, "कच्छकसराभिनूया" कसाश्य-कपायित-त्रि. कषायोदयं प्राप्ते, व्य०६०। प्रा० ज० २ वक० । भ० । म०द्वि प्रतिषधयाबाहुल्येनोपवणने | कसाइयमेत्त-कषायितमात्र- त्रि० नदीर्णमात्रक्रोधादिकषाये, धर्मशुद्धिभेदे, विविप्रतिषेधौ कष इति विधिरविरुककर्तव्या- | "ज अज्जियं चरित, देसूणाए वि पुवकोमीए । तं पि कसाइर्थोपदेशक वाक्यं यथा 'स्वर्गकेवलार्थिना तपो ध्यानादि कर्त्त- यमेत्तो, नासेर नरो मुहुत्तेणं" वृ० १ उ०।। व्यं' समितिगुप्तिशुका क्रिया इत्यादि प्रतिषेधः पुनः 'न हिंस्यात्स कसाअोवगय-कषायोपगत-नक्रोधायुदयवशगमने,ध.३ अधि. बजतानि नानृतं वदेत्' इत्यादि ततो विधिश्च प्रतिषधश्च विधिप्रतिषेधो किमित्याह कपः सुवर्णपरीक्वायामिव कषपट्टके रेखा कसाय-कषाय-पुं० न० कषति कण्ठम् आय-अर्द्धर्चादि । शयोः इदमुक्तं जवति । यत्र धम्म उक्तलकणो विधिःप्रतिषधश्च पदे स८।१।२६० इति षस्य सः, प्रा०। रक्तदोपाद्यपहर्तरि बिपदे सुपुष्कल उपलभ्यते स धर्मः कषशुद्धः। न पुनरन्यधर्म- भीतकामलककपित्थाद्याश्रिते रसविशेषे, यदनाणि “ रक्तदोषं स्थिता सत्वा असुरा श्य विष्णुना उच्छेदनीयास्तेषां हि वधे कफ पित्तं, कषायो हन्ति सेवितः। रूकः शीतो गुरुग्राही, रोदोषो न विद्यते इत्यादिकवाक्यगर्भ इति । ध०१ अधि०।। चकश्च स्वरूपतः ॥१॥ कल्प० जं० प्रश्नः । अनु'एगे कअथास्य खवणमाह । साए' अन्नरूचिस्तम्जनकृत्कषायः स्था० १ ० । तक्षति बल्ला सहमो असेसविसओ, सावजे जत्थ अस्थि पमिसेहो।। दौ, दश०५ अातं० मुझादौ, का०१७ मा कृषन्ति वित्रिरागाइविअमणसहं, काणाइअ एस कसमुच्छो ॥६॥ खन्ति कर्मकेत्रं सुखदुःखफसयोग्यं कुर्वन्ति कलुषयन्ति वा जी बमिति निरुक्तविधिना कषायाः । श्रोणादिक आयप्रत्ययो निसूक्ष्मो निपुणोऽशेषविषयः व्याप्त्येत्यर्थः सावद्ये सपापे य पातनाच ऋकारस्य प्रकारः । यदि वा कलुषयन्ति शुद्धस्वभात्रास्ति प्रतिषेधः श्रुतधर्मे । तथा रागादिविकुट्टने सह समर्थ वं सन्तं कर्म मलिनं कुर्वन्ति जीवमिति कषायाः पूर्ववत् आयध्यानादि च एष शुरुः श्रुतधर्म इति गाथार्थः। प्रत्ययो निपातनाञ्च कमुषशब्दस्य णिजन्तस्य कषायादेशः उक्तं इत्थं लक्षणमनिधायोदाहरणमाह । च "सुहदुक्खबहुसहियं, कम्मखेत्तं कसंति जं जम्हा । कलुजह मणवयकाएहिं, परस्स पीमा ददं न कायन्वा । संति जं च जीवं, तेण कसाइत्ति वुच्चंति " प्रा० १३ पद । झाएअव्वं च सया, रागाइविपक्खजानं तु ॥६॥ कम्मं क सं नवो वा, कसमाओसिं जो कसाया तो। यथा मनोवाक्कायैः करणनूतैः परस्य पीमा दृढं न कर्तव्या कसमाययंति व जो, गमयत्ति कर्म कसायत्ति ।। कान्त्यादिनेदेन तथा ध्यातव्यं च सदा विधिना रागादिविप आउच्च उवायाणं, तण कसाया जो कसस्साया । कजालंतु यथोचितमिति गाथार्थः। व्यतिरेकतः कषशुछिमाह । जीवपरिणामरूवा, जेण उ नामाइ नियमो यं ।। थूलो ण सन्यविसो, सावजे जत्थ होइ पमिसेहो। कपशिषेत्यादि हिसार्थो दएमकधातुः कष्यन्ते याभ्यन्ते प्राणि नोऽनेनति कर्ष कर्म भयो वा तदायो बाम एषां यतस्ततः रागाइविअडणसहं, न य झाणाई वि तदसुच्छो ॥७॥ कषायाः क्रोधादयः । अथवा यथोक्तं कषमायधातोर्यन्तस्यास्थूलोऽनिपुणः न सर्वविषयः अव्यापकः सावध वस्तुनि यत्र पयन्ति गमयन्ति प्रापयन्ति यतस्ततः कषाया इति । अथवा भवति प्रतिषेध आगमे रागादिविकुट्टनसमर्थ न च ध्यानाद्यपि प्राय उपादानहेतुः पूर्वोक्तस्य कपस्याय उपादानं हेतवो ययत्र स तदयुद्धः कपाशुरुः इति गाथार्थः। स्मात्ततः कषायाः विशे० उत्त कम्यतेऽस्मिन्प्राणी पुनःपुन Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) कसाय अभिधानराजेन्द्रः। कसाय रावृत्तिभावमनुनपति कपोपक्षकध्यमाणकनकवदिति । कषः रसन्नावकषायावाह। संसारः तस्मिन्नासमन्तादयन्ते गच्चन्त्येनिरसुमन्त इति कषायाः रसो रसो कसायो, कसायकम्मोदो य जावम्मि । यद्वा कषाया श्व कपाश यथाहि तुबरिकादिकषायकलुषिते सो कोहाइ चलछा, नामाइचनबिहेक्केको । वाससि, मजिष्ठादिरागः श्लिष्यति चिरं चावतिष्ठते सवैतत्कलुषिते आत्मनि कर्म संबध्यतेचिरं स्थितिकंच जायते तदाय हरीतक्यादीनां यो रसः स रसतः कषायो रसकरायः । नात्तत्वात्तस्थितेः । उक्तहि शिषशर्मणा “जोगावपमिपएसं, क्कषायस्तु मोहनीयकम्र्मोदयस्तजानितश्च कषायपरिणामः । मितिअणुभाग कसायो कुणईत्यादि"॥३१॥ उत्स०४ अ० सच क्रोधादिभेदाचतुर्दा । क्रोधादिरपि प्रत्येक नामादिभेकर्म० । प्राचा० । दर्श। पं००।३० । पं० सं० । उत्त। दाच्चतुर्विध इति । पा० । मोहनीवकर्मपुझसोदयसम्पाद्यजीवपरिणामेषु क्रोधमान अथ नामादिकपायाणां को नयः कमिच्नतीत्याह । मायालेनेषु, स्था० १ ग0 । विशे। भावसदाइनया, अढविहमसुधनेममाई या। तेषां कपायाणां सामान्येन येन यस्मानामादिकोऽष्टविधत्व- नाएमुप्पत्तीओ, सेसा जं पञ्चयविगप्पा ।। नियमोऽयमन्यत्र प्रसिहस्तेनासौ उच्यत इति शेषः क श्त्याह । नावकषायमेव शुद्धत्वाच्छन्दतया इच्छन्ति नामादिकषायान् नाम उवणा दविए, उप्पत्ती पच्चए य आएसे ।। शेषास्तु ऋजुसूत्रवर्जा नेगमादिनयाः शुका अशुद्धाश्च । रसनावे कसाए वि य, पख्वहा तेसि मा होइ॥ तत्राधिकास्तथा अपविधमपि नामादिकषायमिच्छन्ति ये तु अत्र नामस्थापने जुम्मे अव्यकषायविचारोऽपि सुकरो नवरं विशुकास्तथा ऋजुसूत्रनयाश्चैतेऽसर्वेऽप्यादेशोत्पत्तिकषायौ नव्यशरीरव्यतिरिक्ताम्यकषायमाह। नेच्चन्ति कुत इत्याह । (जे पञ्चयधिगप्पत्ति) यद्यस्मादेतीद्वा वपि प्रत्ययकषायविकल्पौ प्रत्ययकषायान निद्यते तथा हघुत्प दुपिहो दबकसाओ, कम्मदव्वे य नो य कम्मम्मि । त्तिकषायः कषायोत्पत्तौ प्रत्यय इत्युक्तमेव । तथा आदेशकपाकम्मदव्वकसाओ, चनबिहो पोग्गलाणुइया ।। योऽपि कैतवकृतोऽन्यकषायोत्पत्ती प्रत्ययो नवत्येवेति न तस्मा सभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्विविधो व्यकषायः कर्मव्यक- तौ जिन्नाविति। पायो नोकर्मद्रव्यकषायश्च । तत्र कर्मव्यकषायो “जोग्गा अथ नामादिके द्रव्यक्रोधे शरीरजव्यशरीरव्ययका बन्नंतगाये" त्यादिना प्रागुक्ताः। अनुदिताश्चतुर्विधामला तिरिक्तं व्यक्रोधमाह। ज्ञातव्याः। नोकर्मजन्यकषायमुत्पत्तिकषायं चाह । दुविहो दबक्कोहो, कम्मदव्ये य नोय कम्मम्मि । सजकसायाश्रो, नोकम्मदब्बउ कसाओ य। कम्मदब्वे कोहे, तज्जोग्गा पोग्गलाणुश्या ।। खेत्ताइसमुप्पत्ती, जत्तोपनवो कसायाण ।। नो कम्मदव्वकोहो, नो न चम्मारनीलिकोहाई । नोकर्मद्रव्यतोऽयं कषायः क इत्याह । सर्जकषायादिकः सर्जा बिजीतकहरीतक्यादयो वनस्पतिविशेषा नोकर्मजव्य जं कोहवेयणिजं, समुइमं भावकोहो सो॥ कराया इत्यर्थः । केबादिकं वस्तु (समुप्पत्तित्ति ) उत्पत्तिक इनव्यशरीरव्यतिरिक्तो क्रोधो द्विधा कर्मषश्यक्रोधो नोकपायः किं सर्व नेत्याह यतः क्षेत्रादेः कषायाणां प्रनवः। श्दमु मजव्यक्रोधश्च । तत्र योग्यादयोऽनुहिताश्चतुर्विधाः पुत्राः तं भवति । यतः केत्रादिशब्दाव्यादेर्वा सकाशारकषायोन्पत्ति कर्मजन्यक्रोधः । नोकर्मव्यक्रोधस्तु ( कोहित्ति) प्राकृतशभवति तत्वेषाव्यादिकं वस्तु कषायोत्पत्तिहेतुत्वादुत्पत्तिक ब्दमाश्रित्य चर्मकारः चर्मकीयो नीलक्रोधादिश्च झेयः। भापाय उच्यते । भवति न च्यादेः सकाशात्कषायोत्पसिः उक्तं वक्रोधमाह । यत्क्रोधवेदनीयं कर्म विपाकतः समुदीर्णमुदयच "किं पत्तो कटुयर, जं मूढो वाणुगम्मि अप्फझियो । खाणु मागतं तजनितश्च क्रोधपरिणामः स भावक्रोध इति । एवं स्स तस्स रूस, न अप्पणो दुप्पश्रोगस्स" ति। मानादयोऽपि नामादिभेदाद्यथायोगं चतुर्विधा वाच्याः। अथवा प्रत्ययकषायमाह। पृथगनन्तानुबन्धादिभेदात्सर्वेऽपि क्रोधादयश्चतुर्विधाः झेयाः होइ कसायाणं बंध कारणं जं सपच्चयकसान । इति दर्शयन्नाह। सद्दामात्ति केई, न समुप्पत्तीए भिन्नो सो ॥ माणादओ वि एवं, नामाई चनधिहा जोग्गं । कषायाणां यदन्तरङ्गमविरत्यास्रवादिकं बन्धकरणं सोऽन्तर- | नेयापिहप्पिया वा, सव्वे पंताणबंधाई॥ ङ्गकषायकारणरूपः प्रत्ययकवायो नवति। अन्ये तु केचिद्वहिरङ्ग गतार्था । तत्रानन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानावरणाप्रत्याण्यानावरएव शब्दरूपादिविषयग्रामः प्रत्ययकषायः इति ब्याचकते त- णसंज्वलनरूपाणां क्रोधादीनां पश्चानुपूज्या प्रत्येकं स्वरूपमाह । वायुक्तं यत उत्पत्तिकषायानासौ भिद्यते व्यादेरिय तस्मा जलरेणुनमिपव्यय-राईसरिसो चउब्बिहो कोहो । दपि बहिरङ्गात्कषायोत्पतरिति । तिणिसिलयाकट्ठिय, सेलत्यंभोवमो मायो ।। श्रादेशकषायमाह। आएसयो कसाओ, कइयवकयनिउमिभंगुरायारो।। मायावलेहगोम-त्तिमिढसिंगघणवंसमूलसमा । केई चित्ताइगन-ट्ठवणाणत्थं तसेसो य ।। लोहो हरिदृखंजण, कद्दमकिमिरागसा माणो ।। योऽन्तरङ्गकषायमन्तरेणापि कुपितोऽयमित्त्वादिरूपणादिश्यते पक्खचाउमासवच्छर, जावजीवाणुगामिणो कमसो। स आदेशकपायः । सचेह कैतवकृतभृकुटिभडाराकारो नटादि- देवनरतिरियनारय-गइसाहणदेयवो नेया॥ द्रव्यः । केचिनु तद्रूपधरश्चित्रादिगतो जीव आदेशकषाय इति एताः स्थानान्तरेवत्तिप्रतीतार्थत्वान्नेह व्याख्यायन्त इति । व्याचक्षते तच्चायुकं स्थापनानान्तरत्वात्तस्येति । विशे० प्रा०मद्विः । श्रा० ०। उत्त० श्राव । श्रा० । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८६) कसाय अभिधानराजेन्धः । कसाय चत्तारि कसाया परमत्ता तंजहा कोहकसाए माणकसाए गल्पतमानार्जवत्वेनान्यापि नावनीयेति । श्यश्चानतानुवन्यमायाकसाए लोभकसाए एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । प्रत्याख्यानावरणसंज्वलनरूपा क्रमेण शेया, प्रत्येकमित्यन्ये । तेनैवानन्तानुबान्धन्या उदयेऽपि देवत्वादि न विरुध्यते एवं यथा सामान्यतश्चत्वारः कषायास्तथा विशेषतो नारकाणा मानादयोऽपि । वाचनान्तरे तु पूर्व क्रोधमानसूत्राणि ततो मायामसुराणां यावश्चतुर्विशतितमे पदे वैमानिकानामिति । स्था०४ सूत्राणि । तत्र क्रोधसूत्राणि "चत्तारि राईनो पन्नत्तानो तंठा०१०। भ० । प्राचा० । प्रज्ञा०। आवर्तदृष्टान्तेनैते भेदाः। जहा पम्वयराई पुढविराई रेणुराई जलराई एवामेय चनबिहे कोहे" इत्यादि । मायास्त्राणि "चाधीतानि फलसूत्रे अनुपचत्तारि आवत्ता पमत्ता तंजहा खरावन्ते उन्नयावत्ते गू-। विष्टस्तदयवर्तीति स्था०४ ठा०२०।। ढावते आमिसावत्ते । एवामेव चत्तारि कसाया परमत्ता चत्तारि थंभा पलत्ता तंजहा सेलथंभे अट्टिथंभे दारुथंभे तंजहा खरावते समाणे कोहे उन्नयावत्तसमाणे माणे गू तिणिसलयायने । एवामेव चलबिहे माणे पपत्ते तंजहा ढावत्तसमाणा माया आमिसावत्तसमाणे लोभे । खरावत्त सेलथंजसमाणे जाव तिणिसलयार्थभसमाणे । सेझथंभससमाएं कोहमणुप्पविढे जीवे कालं करेइ णेरइएमु उव माणं माणं अणुप्पविढे जीवे कालं करेइ णेरइएसु उवयबज्जा उन्नयावत्तसमाणं तं चेव गृढावत्तसमाणं मानमे जर एवं जाव तिणिसलयायजसमाणं माणं अणुप्पविहे चेव आमिसावत्तसमाणं लोभमणुप्पवितु जीवे कालं करे जीवे कालं करेइ देवेसु उववज्जइ । णेरइएमु उववजइ। शिलाविकारः शैलः स चासौ स्तम्भश्च स्थाणुः शैलस्तम्न सुगम चैतनवरं खरो निष्ठरोऽतिवेगितया पातक छेदको या एवमन्येऽपि नवरमस्थि दारु च प्रतीसं तिनिशो वृक्षविशेषश्रावतमावतः स च समुजादेश्वऋविशेषाणां चेति खरावर्स - स्तस्य लता कम्बा तिनिशलता साचात्वन्तमृद्वीति मानस्वापि नत उछूितः सचासावावर्तश्चेति उन्नतावतः स च पर्वतशि शैक्षस्तम्भादिसमानता तद्वतां नमनानावविशेषाझियेति । मानो खरारोहणमार्गस्य वातोत्कलिकाया वा । गूढश्चासावावर्स बेति ऽप्यनन्तानुबन्यादिरूपः क्रमेण दृश्यः । तत्फलसूत्रं व्यक्तम् । गूढावतः स च गेन्मुकदवरकस्य दारुग्रन्थादेर्वा । आमिषं मांसादि तदर्थमावतः शकुनिकादीनामामिषावर्त शति । एत चत्तारि वत्था परमत्ता तंजहा किमिरागरत्ते कद्दमरागरते समानता च क्रोधादीनां क्रमेण परोपकारकरणदारुणत्वात् खंजणरागरते हलिहरागरत्ते । एवामेव चउब्बिहे लोभे पत्रतृणादिवस्तुन श्व मनस उन्नतत्वारोपणात् अत्यन्तले- पपत्ते तंजहा किमिरागरत्तवत्थसमाणे कद्दमरागरत्तवत्थक्ष्यस्वरूपत्वात् अनर्थशतसंपातसंकुलेऽप्यवपतनकारणत्वा समाणे खंजणरागरत्तवत्यसमाणे हलिद्दरागरत्तवत्थसमाणे । चेति । श्यं चौपमा प्रकर्षवतां कोपादीनामिति तत्फलमाह किमिरागरत्तवत्थसमाणं लोनमणुप्पविहे जीवे कालं करे ( खरावत्तेत्यादि ) अशुभपरिणामस्याशुभकर्मबन्धनिमित्ततया दुर्गतिनिमित्तत्वादुच्यते (रइएसु उबवजत्ति) स्था० नेरइएमु उववज्जइ । तहेव जाब हलिद्दरागरत्तवत्थसमाणं ४०४ उ०। सोनमणुप्पविढे जीवे कालं करे देवेसु उववज्जइ। कषायस्वरूपं दर्शयितुकामः क्रोधस्योत्तरत्रोपदर्शयिष्यमा कृमिरागे वृरूसंप्रदायोऽयं मनुष्यादीनां रुधिरं गृहीत्वा केणत्वान्मायादिकषायत्रयप्रकरणमाह । नापि योगेन युक्तं भाजने स्थाप्यते ततस्तत्र कृमय उत्पद्यन्ते ते चत्तारि केअणा पत्मत्ता तंजहा बंसीमूलकेअणए मेढ- च वाताभिलाषिणश्चिद्रमिर्गता भासन्ना भ्रमन्तो नीहारलासा विसाणके अणए गोमुत्तिकेअणए अविदेहणियाकेमणए। मुञ्चन्ति ततः कृमिसूत्रं नएयते तच्च स्वपरिणामरागरस्जिएवामेव चान्विहा माया पमना तंजहा बंसीमूलकेअणस तमेव भवति । अन्ये जणन्ति ये रुधिरकृमय सत्पद्यन्ते तान् तत्रैव मृदित्वा कचवरमृत्तार्य तषसे किञ्चित् योगं प्रतिप्य पमाणा जाय अवलेहणियाकेअणसमाणा । सीमूलके-- दृसूत्रं रजयन्ति स च रसः कृमिरागो नएयते । अनुत्तारीति अणसमाणं मायं अणुप्पविटे जीवे कालं कर णेरइएसु तत्र कृमीणां रागो रक्षकरसः कृमिरागस्तेन रक्तं कृमिरागरक्तमेव नववज्जा मेढविसाणके अणसमाणं मायामणुप्पबिहे जीवे | सर्वत्र नवरं कईमो गोवाटादीनां खञ्जनं दीपादीनां हरिद्रा प्र. कालं करे तिरिक्खजोणिएसु उववज्जा । गोमुत्तिभं तीतवेति । कृमिरागादिरक्तवस्तुसमानता च लोभस्यानन्तानुजाव कालं करेइ माणुस्सेसु जववज्ज अवलेहणिया जाव बन्यादि तजेदवतां जीवानां क्रमेण दृढहीनहीनतरहीनतमानुदेवेमु नववज्ज। बन्धित्वात् । तथाहि कृमिरागरकं वसं दग्धमपि न रागानुप्रगट किन्तु केतनं सामान्येन वर्क वस्तु पुपकरमस्य चा बन्धं मुञ्चति तद्भस्मनोऽपि रक्तत्वादेवं यो मृतोपि मोजानु बन्ध न मुश्चति तस्याभिधीयते सोभः कृमिरागरक्तवखसमासम्बन्धि मुष्टिग्रहणस्थानं वंशादिदबकं तच्च वक्रं भवति केचलमिह सामान्यन वकं वस्तु केतनं गृह्यते तत्र वंशीमूलं च नोऽनन्तानुबन्धी चेति । एवं सर्वत्र भावना कार्येति । फलसूत्रं तत्केतनं च वंशीमूलकेतनमेव सर्वत्र नवरं मेहविषाणं मेपशृङ्गं स्पष्टम् स्था०४०२ उ01 (श्ह कषायप्ररूपणागाथा: अनु. गोमूत्रिका प्रतीता (अवलेहणियक्ति) अवलिख्यमाणस्य वं. पदमेवोक्ताः) शशत्राकादेर्वा प्रतन्वी त्वक् साधलेखनिकेति । वंशीमूलकेत चतुःप्रतिष्ठिताः क्रोधादयः। नकादिसमता तु मायायास्तद्वतामनार्जरभेदात्तथाहि यथा कति पतिहिए एवं भंते ! कोहे पन्नतेगोयमा! चउवंशीमूलमतिगुपिलवक्रम कस्यचिन्मायापीत्येषमल्पाल्पत | पाहिए कोहे पसते तंजहा आयपतिहिए परपरहिए त Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०७ ) अभिधानराजे कसाय दुभयपडिए अप्पडिए एवं नेया जाय बेमाणियाणं दंमओ एवं माणेणं दंमओ, मायाए दंमप्रोमोमेणं दंडओ कतिषु कियत्प्रकारेषु स्थानेषु प्रतिष्ठितो भदन्त ! क्रोधः नगवाह चतुःप्रतिष्ठितस्तद्यथा श्रात्मप्रतिष्ठित इत्यादि । भ्रात्मन्येव प्रतिष्ठिता मात्मप्रतिष्ठितः किमुतं प्रयति स्वयमा चरितस्य ऐहिकं प्रत्यपाय मवबुध्य यदा कश्चिदात्मन एवोपरियति तदा प्रतिष्ठितः कोषः प्रतिष्ठितः इति । यदा पर उदीरयति आक्रोश को तदा किस पिको उपजायते इति स परप्रतिष्ठित इति । नैगमनयदर्शनमेतत् । नैगमन मितिष्ठितं मन्यते यथा जीवा जिपसम्पदर्शनमित्यादयोऽ भङ्गः सम्यम्दर्शनस्याधिकरणचिन्तायामावश्यके तयति आत्मपररूपप्रतिष्ठित पदा करितथाविधापराधवशादात्मप रविषयक्रोधमाधत्ते इति । श्रप्रतिष्ठितो नाम यदेषः स्वयं 5इचरणमाक्रोशादिकं च कारणं विना निरालम्बन एव केवलकोध वेदनीयादुपजायते स हि नात्मप्रतिष्ठितः स्वयं दुश्चरणानावतश्वात्मविषयत्वानावात् । नापि परप्रतिष्ठितः परस्यापि निरपराधतया अपराध सम्भावनाया श्रभावतः क्रोधात्रम्ब योगाने कापि कदाचिदेवो मेदनीयादुपजायमाना कोपस्तथा च स पश्चात ते बो मे निष्कारणको नेपधरूपं भाषतेन नती ति । श्रत एवोक्तं पूर्वमहर्षिभिः सापेक्षाणि निरपेक्षाणि च क मणिफलकेोपक्रमं यथायुष्कामति पर्व मानमावालोना प्रपि श्रात्मपरोभाइच मावनीयाः । तदेवमधिकरणभेदेन भेद उक्त । संप्रतिकारणभेदतो भेदमाह । कोहुप्पची जवति ? गोयमा ! च कहि णं भंते वा कोहुप्पती वइ | तंजा खित्तं पच्च वत्युं पमुच सरीरं पमुख नहिं पश्य एवं नेरयाणं जा पमुच्च । मायाणं एवं माणे वि मायाए विलोजेण वि । एवं एते वि चत्तारि भगा | कतिविणं जंते ! कोड़े पत्ते १ गोमा ! चत्रि को पम्मते, तंजा अ ंतापुबंधी को पच्चक्खाणावरणे कोहे पच्चचखाणावर कोहे संजणे को एवं रयाणं जाव बेमाणियाणं एवं मामायाए लोगं एए वि चत्तारि दंडया | नित्येभिरिति स्थानात करणानि फनिभिः किख्यार्थ निरोपयति गाना स्था ? नैः तान्येव स्थानान्याह । ( खेत्तं पदुच्च इत्यादि ) तत्र नैरयिकारक प्रत्यरिन तिर्यक्षेत्रं मनुष्याणां मनुयत्र देवानां देवम (पशुचेति वस्तुं सचेतनम या शरीरं प्रतीत्य संस्थितं विरूपं वा उपथितय लियोपकरणं तस्य तहिना अन्यमामन्यथा वा प्रतीत्य एवं नैरयिकादिदमकसूत्रमपि प्रज्ञा० १४ पद । अन यमनुबध्नाति अविधियं करोतीत्येवं सीसोऽनन्तानुबन्धी नोवा यस्येत्यनन्तानुबन्धी सम्यग्दर्शनसह नाव मादिस्वरूपोपशमादिरपि चारित्रमा | कसाय स्य न चोपशमादिभिरेव चारित्र अल्पत्वात् यथा अमनस्को न संज्ञी किंतु महता मृत्रगुणादिरूपेण चारित्रेण चारित्री मनः संज्ञया संविद एवं त्रिविधं दर्शनमोहन चारित्रमोहनीयमिति । ननु "पढमिल्लयाण उदये नियमे" इत्यादिविरुध्यते चारित्रावारकस्य सम्यक्त्वावारकत्वानुपपत्तेरन प्रविधं दर्शनमोहनीयमेकविंशतिविधं चरित्रमोहन मिति मतं संगतमामात पदमा दि तदनन्तानुबन्धिनां न सम्यक्त्वावारकतया किंतु सम्यक्त्वसहभाव्युपशमाद्यावारकतया श्रन्यथाऽनन्तानुबन्धिनिरेव सभ्यक्त्वस्यावृतत्वात् किमपरेण मिथ्यात्वेन प्रयोजनमावृतस्याप्याव रणेऽनवस्थाप्रसङ्गात्तस्माद्यथा “केवलियणाणजो, जन्नत्थखप कसायाणं ति " वह कषायाणां केवलज्ञानस्यानावारकर पि कपायकयः केवलज्ञानकारणतयोक्तस्तस्मिन्नेव तस्य भावादेवमन्तानुबन्धियोपशम एव सम्यक्लाउ च्यते तस्मिन् सति तस्य भावाचतोऽनन्तानुबन्धिपूदितेषु मिथ्यात्ययोपशममुपयाति तदभावाब न सम्यमिति । यच्च सप्तविधं सम्यग्दर्शनमोहनीयमिति मतान्तरं तत्सम्यत्यसतित्वेनोपशमादिगुणानां सम्यकयापारादिति म न्यामहे इत्यादि । न विद्यते प्रत्याख्यानमव्रतादिरूपं यस्मिन् सोऽप्रत्याख्यानो देशविरत्यावारकः । प्रत्याख्यानमामयोदया सर्वविरतिरूपमेवेत्यर्थः । वृणोतीति प्रत्याख्यानावरणः। संज्वलयति दीपयति सर्वसाद्यविरतिमासम्पाते वा संज्वलति दीप्यत इति संज्वलनः । यथा ख्यातचारित्रावारक एवं मानमायाला भेष्वप्यनन्तानुबन्ध्यादि भेदचतुष्टयमध्ये - तव्यमिति । एषां निरुक्तिः पूज्यैरियमुक्ता अनन्तान्यनुबध्नन्ति, यतो जन्मनि नूतये । श्रतोऽनन्तानुबन्धाख्या, क्रोधाद्येषु प्रदर्शिता ॥ १ ॥ नाल्पमप्युत्सहेद्येषां प्रत्याख्यानमिहोदयात् । द्विता निशा ॥ २ ॥ सर्वसा दविरतिः प्रत्याख्यानमुदाहृतमसायरसंज्ञातस्तुषु विवेशिता ॥ ३ ॥ शब्दादीन् विषयान् प्राप्य, संज्ववन्ति यतो मुहुः । अतः संचलनानं चतुर्थानामिहोच्यते ॥ ४ ॥ स्पा ४ ठा० १ ० । 66 संप्रत्येषामेव विशेषतः किचित्स्वरूपं प्रतिषिपादयिषुराद | जाजीव परिसमास, पक्खगानरयतिरियनर अमरा । सम्माणुमव्व विरई, खायचरितघायकरा ।। १८ ।। "यावसायजीवितावर्णमानाबटयाचारक देवकुमेवेयः ६ । २ । २७१ इति प्राकृतसूत्रेण वकारलोपे च जायजीवं च वर्षे च चतुर्मास पायावयवचनुमा 15 ति यावज्जीववर्ष चतुमांसपगाः "नाम्नो गमेः खमौ विहायसस्तु विद” शंत ड प्रत्ययः। इदमुक्तं भवति । यावज्जीवानुगानन्तानुबन्धिनः वर्षेगा अप्रत्याख्यानावरणचतुर्मासगाः प्रत्याख्या नावरणपगाः संज्यन्ननः । इदं च परुसवणेण दिन सोय इइ मासतव " मित्यादिवच्चबारनयमाधित्यभ्यने अन्यथा दि बालप्रभृतीनां प कादिपरतोऽपि संज्चनाद्यवस्थितिः श्रूयते अन्येषां च संयतादीनां मासवर्षादिकाले प्रत्याख्यानावरणानामप्रत्याख्यानावरणानामनन्तानुबन्धिनां चान्तर्मुहुर्तादिकं कालमुदयः भूपते इति । तथा नरकगतिकार सत्यानन्तानुबन्धिनः कपाया अपि नरका भवन्ति च कारणे कार्योपचाराद्यथा आ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०८ ) निधानराजेन्द्रः । कसाय युतं योदकं पाइरोग इति । एवं तिर्यमातिकारणत्वातिर्यञ्चोsप्रत्याख्यानावरणाः नरगतिकारणत्वान्नराः प्रत्याख्यानावरणाः | अमरगतिकारणत्वादमराः संज्वलनाः । एतदुक्तं भ वति । अनन्तानुबन्ध्ये मृतो नरकगतावेगच्छतियाख्यानावरणोदये मृतस्तिर्यक्षु प्रत्याख्यानावरणोदये मृतो मनुयेषु संज्वलनोदये पुनर्मृतोऽमरेष्वेव गच्छति । उक्तश्चायमर्थः पचानुपय अत्रापि "पक्रमासवत्सर-वामिणो भजिया। देवनरतिरियनारय, मत्साहयो नेपा" दिव्यवहारनयमधिकृत्योच्यते अन्यथा हि भक्तानुयु दयवतामपि मिध्यादृशां केषांचिपरिमयेयपूत्पत्तिः - यते अप्रत्याख्यानावरणोदयवतामचिरतसम्यग्दृशां तिर्यग्मनुtयाणां चासुरेषूत्पत्तिः प्रत्याख्यानावरणोदयवतां च देशविरतानां देवगतिः अप्रत्याख्यानावरणोदयवतां च सम्यग्दृष्टिदेवानां मनुष्यगतिः । तथा ( समंति) सम्यक्त्वं च सव्वविरहति) विरतिशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धात् अविरत देशरतिः सर्वविरति यथाव्यातचारित्रं च "सम्मा" सर्वविर तिर्यथास्यातचारिचाणि तेषां घातो विनाशः "सम्मा" सर्व विरति यथाख्यात चारित्रघातस्तं कुर्वन्तीत्येवंशीलाः संमाणुसर्वविरतियथाख्यात चारित्रघातकराः । एतडुक्तं भवति । श्रनन्तानुबन्धिनः ः कषायाः सम्यक्त्वघातकरा यदाहुः श्रीभद्रबाहुस्वामिपादाः पढमिल्नुयाण उदए, नियमा संजोयणा कसा याणं । संमदंसणलंभं, नवसिद्धीया विन लति " अप्रत्या ख्यानावरणा देशविरतिघातकराः न सम्यक्त्व स्येत्यर्थालुब्धम् । यदाहुः पूज्यपादाः बीयकसायादप, अप्पश्चकखाणनामधिजानं सम्मदंसणसंभं बिरियाधिरियं न य अहंति" प्रत्या क्यानावरणास्तु सर्वविरते घातकाः सामर्थ्यादेशविर तंच " 'तइयकसायादप, पच्चक्खाणावरणनामधिज्जाणं । देसिक्कदेसविरयं चरितलंनं न उ बहंति " संज्वलनाः पुनर्यथाख्यात चारित्रस्य घातका न सामान्यतः सर्वविरतेः उक्तं च श्रीमदाराध्यपादैः "गुणाणं संभं न सहर मूलगुण घाइ चदए । संजलगाणं उदय, न लहइ चरणं श्रहखायमि " ति । अय जलरेखादिटान्तेन किचित्सविशेषक्रोधादि 66 66 कपायाणां स्वरूपं व्याचिख्यासुराह । जलरे पुढविपव्वय - राई सरिसो चउब्विहो कोहो । तिसिलयाकड, सेवत्थंभोवमो माणो ॥ १७ ॥ छह राजिशब्दः सदृशशब्दश्च प्रत्येकं संबध्यते ततो जबराजिसदृशस्तावासंज्वलनः कोषः यथा यएपादि मिलमध्ये राजीचा क्रियमाणा प्रमेय निवर्तते तथा यः कथमप्यु प्राप्तोऽपि सत्वरमेव व्यावर्त्तते स संज्वलनः क्रोधोऽभिधीयते । रेजिस प्रयाख्यानावरणको अर्थ संग्लनको धापेकया तीव्रत्वाणुमध्य विदितरेखावश्विरेण निवर्तत इति भावः । पृथिवी राजीसदृशस्त्वप्रत्याख्यानावरणः यथास्फुटितपृथिवी संबन्धिन राजी कचवरादिभिः पूरिता कापनीयते एवमेषोऽपि प्रत्याख्यानावरणापया करेन] विनियतं प्रति भाषः । विलित पर्वतराजसदृशः पुनरनन्तानुबंधो क थमपि निवर्त्तयितुमशक्य इत्यर्थः । उता कोषः । इदानीं मानोऽभिधीयते तत्र तितोपमः संग्लनो मान यथा तिनिसो वनस्पति विशेषस्तत्संबन्धिनी लता नेव नमत्येवं यस्य मानस्योदये जीयः स्वामहं मुया सुखेनैवनमति स संज्वलनमानः । यथा स्तब्धं किमपि काष्ठमग्निस्वे कसाय दादिबहुपायैः कम नमस्येवं यस्य मानस्योदये जीयो क टेन नमति स काष्ठोपमः प्रत्याख्यानावरणो मानः यथाऽस्थि हडुं बहुतरैरुपायैरतितरां महता कष्टेन नमत्येवं यस्य मानस्योदये जीवोऽप्यतितरां महता कष्टेन नमाने सोऽस्थ्युपमोऽप्रत्याख्यानावरणो मानः । शिलायां घटितः शैलः शैलश्चासौ स्तम्भश्च शैलस्तम्नस्तदुपमस्त्वनन्तानुबन्धी मानः कथमप्यनमनीष इत्यर्थः । मनः। अथ मायामी व्याख्यानया । मायाले दिगोमुचि, मिडसिंगपणसमूहमा । बोड़ो हलखंजण कदमकिमिराग साहित्यो (सामाणो) २० मायाऽबलेखिकासमा संग्लन धनुरादीनामुयमानानां लेखिका त्या पतति यथासौ कोमलत्वात् सुखेनेव प्राज्ञ्जलीक्रियते एवं यस्या उदये समुत्पन्नापि हदयकुटिलता सुखेनैव निवर्तते सा संज्वलनी माया गौर्यलॉवस्तस्य मार्गे गच्छतो यकतया पलिता सुत्रधारा गोसूत्रिकाऽभिधीयते यथाऽसौ शुका पथनादिकमक नापनीयते वयं यचमिता कुति कष्टेनापतिसा गोमु विकासमा प्रत्याख्यानावरणी माया ॥१॥ एवं मायाव्यप्रत्याख्यानावरणमायायां भावना कार्या नवरमेषा कष्टतरनिवर्त्तनीया नशीमान्तानुबन्धिमी माया यथा निधिमवंश मलस्य कुनिदा एवं निता मनः कुटिलता कथमपि न निसानामा त्यर्थः । तथा लोनो हरिद्वारागसमानः संज्वलनः यथा वा हरिद्वाराः सूर्यातपस्पर्शादिमात्रादेव निर्तते तथाऽब मत्यर्थः । कष्टनिपीयो दीपादि जनसमानः प्रत्याख्यानावरणलोभः । कष्टतरापनेयो वस्त्र विलग्ननिबिडकर्दमसमानोऽप्रत्याख्यानावरणलोभः । कृमिरागरक्तपदसुत्ररागसमानः कथमव्यपनेतुमशक्योऽनन्तानुलोभ इति कर्म०१ क० । श्राश्रा० श्रातु । पं० सं० । स्था० । विशे० । सम्पति एतेषामेव क्रोधादीनां निवृत्तिभेदतोऽपस्थानेदतब्ध भेदमाह । 1 कतिविद्धे णं भंते ! कोहे पत्ते ? गोयमा ! चव्वि कोहे पत्ते तंजा जोगणिव्वत्तिए अणाजोगनिव्वतिए उवसंते अनुत्रसंते । एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । एवं माणेण वि मायाए वि सोभेण विचचारि दंगा । यदा परस्यापराधं सम्यगवबुध्य कोपकारणं च व्यवहारतः पुष्टमवलम्ब्य नान्यथास्य शिकोपजायते इत्याजोग्यकोपं च विधत्ते तदा स कोप आजोग निर्वर्त्तितः । यदा त्वेनमेवं तथाविधमुहूर्त्तवशाद्गुणदोषविचारणाशून्यः परवशीभूय कोपं कुरुते तदा स कोपो नाभोगनिवेशितः उपशान्तोऽनुदयायका अनुषशान्त उदयावस्थः। एवमेतद्विषयं दाएकसूत्रमपि नावनीयम् एवं मान माया लोभाः प्रत्येकं चतुःप्रकाराः सामान्यतो द एमकक्रमेण च वेदितव्याः । सम्पति फलमेदेन काययतिनां भेदमभिधातुकाम जीवाणं ते! कतिहि वाहि अ कम्मपगडीओ चि जिंसु ? गोषमा ! चल गये अ कम्मपगमीओ चिणि तंजा को जान लोभेनं एवं नेरइयाएं जाव Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३एए) कसाय अभिधानराजेन्द्रः। कसाय वेमाणियाणं । जीवेणं भंते ! कतिहिं गणेहिं अट्ठ कम्मपय रा इति" इयञ्च देशनिर्जरा अष्टब्या कषायजनितत्यान्न सर्वनिडीयो चिणंति ? गोयमा ! चनहिं गणेहिं तंजहा कोहेणं जरा । सा हि निष्कषायस्य सर्वनिरुरुयोगस्य मोक्तप्रासादमजाव लोभेणं एवं नेझ्या जाव वेमाणिया जीवेणं भंते ! धिरोहतो भवति न शेषस्यात एव चतुर्विशतिदएकसूत्रमद विरुद्धं देशनिर्जरायाः सर्वकालं सर्वेषामपि नावात् । सम्प्रति कतिहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगमीओ चिणिस्संति ? गोयमा! यत्पदमधिकृत्य प्राक् सूत्राण्युक्तानि तानि विनेयजनानुग्रहाय चनहिं ठाणेहिं अट्ठकम्मपगमीत्रो चिणिस्संति तंजहा। सङ्कहणिगाथया निर्दिशति । "आयएइहिए" इत्यादि प्रथम कोहेणं जाव लोनेणं । एवं नेरझ्या जाव वेमाणिया । जी सामान्यसूत्रे सुप्रतीतमिति न संगृहीतं द्वितीयमात्मप्रतिष्ठितपवाणं भंते ! कतिहिं गणेहिं अट्ठ कम्मपगमीअो उवचि दोपलकितं सूत्रं ततोऽनन्तानुबन्धिपदोपलादितं तदनन्तरमानो गपदोपलवितं ततश्चयोपचयबन्धोदीरणवेदनानिर्जराधिपयाणि जिंसु ? गोयमा ! चनहिं गणेहिं अट्ठ कम्मपगडीअो उब क्रमेण सूत्राणि । अत्र"चिणेति" उपचयसूत्रोपलक्कणम । प्रज्ञा चिणिंसु तंजहा कोहेणं जाव लोणं एवं नेरइया जाव १४ पद। स्था० । जी01 "मूवं संसारस्स य, होति कसाया अणंवेमाणिया । जीवाणं पुच्चा? गोयमा ! चनहिं गणेहिं उ-| तपत्तस्स । विणओ गणपउत्तो, मुक्खविमुक्खस्स मोक्खस्स" वचिणंति कोहेणं जाव लोभेणं एवं नेरझ्या जाव वेमा दश० अ० । “कसायहिं करेज्जा गच्छवज्को" प्रायः। महाय ७ अ० । " कोहं माणं मायं, सोहं च महज्याणि चत्तारि । णिया एवं उवचिणिस्सति । जीवाणं नंते ! कतिहिंग जो रंभ सुरूत्था, एसो नोदिअपणिही ॥ जस्स वि य दुष्पऐहिं अटकम्मपगमीश्रो बंधिसु ? गोथमा ! चनहिं ग- णिहिआ, होति कसाया तवं चरंतस्स । सो वालतबस्सो विष, णेहिं अट्ट कम्मपगमीओ बंधिसु तंजहा कोहेणं जाव लो- गयण्हाण परिस्सम कुणइ । सामन्त्रमणुचरंतस्स, कसाया जस्स भेणं एवं नेरइया जाव वेमाणिया बंधिसु बंधति बंधिस्संति उक्कमा होति । मन्नामि उच्छफुलं, व णिप्फलं तस्स सामम् ॥ उदीरेंसु उदीरंति उदीरिस्संति वेदिमु वेदंति वेदिस्संति दश० अ०। (पणिहिशब्दे व्याख्यास्यन्ते) "अकसायं तुच रितं, कसायसयितो न संजओ हो " (इति अहिगरणशब्दे निजरेंमु निजरंति निजरिस्संति । एवं एते जीवादीया उपपादितम् )। वेमाणिया पज्जवसाणा अट्ठारस दंडगा जाव वेमाणिया काहें माणं च मायं च, लोभं च पाववतुणं । निजरेंसु निजरांति निजरिस्संति " आतपतिहिति खेत्तं, वमे चचारि दोसाई, इच्छतो हियमप्पणो ।। ३७ ।। पडुच्च अणंताणुबंधियाजोगे । चिण उबचिणबंधउदी-रण क्रोध मानं च मायां च लोभं च पापवईनं सर्व पते पापहे. वेद तह णिजरा चेव "। तव इति पाण्वर्द्धनव्यपदेशः । यतश्चैवमतो वमेचतुरो दोषाजीवा भदन्त! कतिभिः स्थानरष्टौ कर्मप्रकृतीचितवन्तःचयनं नेतानेव क्रोधादीन हितमिच्छन्नात्मनः पतद्वमने दि सर्व सदि. नाम कषायपरिणतस्य कर्मपुझोपादानमात्र भगवानाह । गौ ति सूत्रार्थः । अवमने विह बोके पत्रापायमाह । तम! चतुर्भिः स्थानस्तद्यथा क्रोधेन मानेन मायया लोनेन । कोहो पीई पणासेइ, माणो विणयनासणो। एवं नैरयिकादिदएमकोऽपि वक्तव्य एष दएमकोऽतीतकाल - विषयः पवं वर्तमानकालभविष्यत्कालविषयावपि वाच्यो, ए माया मित्ताणि नासेइ, सोनो सम्बविणासणो ॥३८॥ धमुदयबन्धोदोरणवेदननिर्जराविषया अपि प्रत्येकं त्रयस्त्रयो द- क्रोधः प्रीति प्रणाशयति क्रोधान्धवचनतस्तदुच्छेददर्शनात् एमका बाच्या इति सर्वसंख्ययाऽष्टादश दएमकास्तत्रोपचयो मानो विनयनाशनः अवलेपन मूर्खतया तदकरणोपलब्धेर्माया नाम स्वस्वाबाधाकालस्योपरिज्ञानावरणीयादिकर्मपुफलानां वे. मित्राणि नाशयति कौटिल्यवतस्तत्त्यागदर्शनात् । लोभः सर्वदनार्थ निषेकः । सचैव प्रथमस्थितौ सर्वमनूतं द्वितीयस्यां विनाशनः तत्वतखयाणामपि तद्भावभावित्वादिति सूत्रार्थः। स्थितौ विशेषहीन, ततोऽपितृतीयस्यां विशेषहीनम् एवं विशे. यत एवमतः। हीन विशेषहीनं तावद्वाच्यं यावत्तत्कालबध्यमानायाः स्थिते- उसमेण हणे कोहं, माणं मदवया जिणे । श्वरमा स्थितिरेतश्च सविस्तरं कर्मप्रकृतिटीकायां पञ्चसंग्रह- मायं चज्जवभावेणं, लोभं संतोसो जिणे ॥३॥ टीकायां चानिहितमिति ततोऽवधार्यम् । बन्धनं नाम ज्ञानावर- उपशमेन शान्तिरूपेण हन्यात् क्रोधमुदयनिरोधोदयप्राप्ताणीयादिकर्मपुमलानां यथोक्तप्रकारेण स्वस्वाबाधाकालोत्तर- फलीकरणेन एवं मान माईवेनानुत्थिततया जयेत् उदयनिकाले निषक्तानां यदभूयकषायपरिणतिविशेषानिकाचनमुदीर- रोधादिनैव मायां च ऋजुभावेनाशठतया उदयनिरोधादिणामुदीरणाकरणवसतः कर्मपुद्गलानामनुदयप्राप्तानामुदयावलि नैव एवं लोभं सन्तोषेण निःस्पृहत्वेन जयेत्तदुदयनिरोधोदकानां प्रवेशन तदपि हि किञ्चित्तथाविधकषायपरिणतिवशाक यप्राप्ताफलीकरणेनेति सूत्रार्थः। यतीति "चउहिं नाणेहिं उदीरहिंसु उदीरंति सदीरिस्संती" क्रोधादीनामेव परलोकापायमाह । त्युक्तम् । अन्यथा कषायव्यतिरकेणापि काणमोहोदये शानाव कोहो यमाणो य अणिग्गहीया, रणादीनामुदीरिका वर्तन्ते इति वेदना स्वस्वाबाधाकानक्कया माया य लोभे य परमाणा। उदयप्राप्तस्य उदीरणाकरणेन वा उदयमुपनीतस्य कर्मण उपभोगः निर्जराः कर्मपुलानामनुभूयानुभूय कर्मत्वापादान चत्तारि एए कसिणा कसाया, मात्मप्रदेशः संधिष्टानां ज्ञानावरणीयादिकमपुतानामनुभूया सिंचिंति मनाइँ पुणन्नवस्स ॥४०॥ नुनूय शातनमिति भावः । उक्तश्च "पुवकयकम्मसामण मिज्ज कोधश्च मानवानिगृहीतौ उच्छृङ्खलौ माया च लोभन वि. Jain Education Interational Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०० ) अभिधानराजेन्द्रः | कसाय वर्द्धमानी वृद्धिं गच्छन्ती चत्वारि पते कोपादयः कृताः संपूर्णाः कृष्णा वा क्लिष्टा वा कपायाः (सिंचिति ) अशुभभावजन मूलानि तथाविधकर्मरूपाणि पुनर्भवस्य पुनर्जन्म तरोरिति सूत्रार्थः । दश० ८ श्र० । ( पञ्चमहावनधारणमपि पायियो निप्पलं स्यादतस्तत्साफल्यापादनार्थ कपायनि रोधी विधेय इति धम्मशब्दे सुदृढमुपपादयिष्यते ) अथ गाथात्रयेण कपायानाश्रित्य गणस्वरूपमेवाह । जत्थ मुरण कमाया, जगडिजंता वि परकताएहिं । इच्छति समु सुनिवि पंगु चैव ||२७|| यत्र गच्छे मुनीनां कषायाः परकषायैः ( जगडिजनाविति ) पीडादिकमाणा अपि समुत्थानुं नेच्छति फन्द कायार्थशिष्याः १ र २ मादीनामि ३ स्ववीये दर्शयितुं नोत्सहन्ते । श्रत्र कपायाणां स्वातन्त्र्यदिव क्षितया कर्तुत्वं यथा उत्पद्यते घटः इत्यत्र कुम्भकारेणोत्पद्यमानस्यापि घटस्य स्वातन्त्र्यविवक्षितयैव कर्तृत्वमिति । अत्र यथा सुनियि सुखः पङ्गलः ) पादविकलः समुत्थानेनोत्सहने गीतम ! स गः स्यादिति शेषः इति ६७ ॥ स्कन्दकाचाय्र्यशिष्यादीनां सम्बन्धः स्वस्वशब्दे ) तरानी, संसारगम्भवमही । न उदीरंति कसा मुणी तयं गच्छं ||८|| यत्र गच्छे धर्मस्यान्तरायः कसायोदीर गाजन्यो विघ्नः नस्पाङ्गीनाः तथा संसारगर्भवसतिभ्यः संसारमध्यबसनेभ्यो भीताः कविद्वितीया' इति प्राकृतसूत्रेण पञ्चम्यर्थे पष्ठी एवंविधा मुनयो मुनीनां कषायान क्रोध १ मान २ माया ३ लोभरूपान मोई साया इहपरलोकयोर्महापापात् गीतम ! संगति अत्र फोधफले पफोदाहरणम् । ग० २ अधि० । (तच्च चण्म कोसियशब्दे ) ( कपाया एव दुष्प रंपराया मूलबीजमिति जिनकप्पियशब्दे ) कपायाणां दुरंत त्वम् । तथाच एतदेव दुरन्तं कषायसामर्थ्यमुकीर्तयन्नाह । उपसा वणीया, गुणमयाणिचरितसरिसं पि परिवार्यति कसाया, किं पुणा से संसरं गच्छे | उपशमनमुपस्पशब्दात् क्षयोपशममपि उपनीता के नोपशममुपनीता इत्याह गुणैर्महान् गुणमहान् तेन महता नृपशमकेन प्रतिपातयन्ति कायाः संसारके तमेवोपशमकं कथंनूनमित्याजिनासिशमपि जनस्य केनिधारित्रेण कृत्या स्तुयोजनारियो द्वयोरपिकवायोरहि तचारित्रयुक्तत्वात् । तमेवं जूतमपि प्रतिपातयन्ति अधोपशा सन्तः कषायाः कथं स्वस्वरूपमुपदर्शयन्तीत्युच्यते ह यथा नस्मच्छन्नोऽग्निः स्वरूपेणाद्यापि सत्यात्पयनादिसद्का रिकारणान्तरमासाद्य पुनः स्वं स्वरूपमुपदर्शयति । यथा वा अञ्जनद्रुमो धनदवध्यामितोऽप्यन्तः सारस्याद्यापि सचेतनस्वादुदकसेकादिकारण सामग्रीमचाप्य पुनरप्यदूर पुष्पपत्रप्रथा स्वादिरूपं निजस्वरूपमुपदर्शयति पयमुपशान्ता अपि कपाया स्वरूपेणाद्यापि सन्त इति । तथाविधं किंचिनिमित्तमासाद्य स्वं स्वरूपं प्रकटयन्ति ततोऽन्तनियमन प्रतिपतति । उक्तं "दवदूमियंजणदुमो, गरच्छन्नो गणि व्व पच्चयतो । दाबेज सहवं, नह सफा (४) जो प्रतिपति कसायगिति तश्च संसारं पर्यदति तथाहि सतावत भवे एव निर्वाणं न लभने उत्कर्षतस्तु देशोनमपरायणमपि संसारमनुबनाति । उक्तं च "तम्मि भवे निव्वाणं न लभ उक्कोसतो व संसारं पोबारपरिय देणं कोहिभिज्जा" तीर्थ करोपदेशोऽत औपदेशिकं गाथाध्यमाह । जड़ उवसंतकसातो, लहड़ तं पुणो विपमिवायं । न हु जे वीसमय धोने विक्रमायसेसम्म ॥ arrrri amrोवं, अग्गीथोवं कसायथोवं च । न हु जे वीससिपच्वं थोपि तं बरं होई ॥ हु पशान्तक पायोन भूयोऽपि प्रतिपान भने स्पोकेन भवद्भिर्विश्वति । मेवा सभापति (अधोमित्यादि ) ऋणस्य स्तोकं ऋणोकं व्रणस्नोकमग्निस्तोकं कायस्तोकं चड्डा न हु नैव (जे) भवद्भिर्विश्वसितव्यं यतः स्तोकमपि ततः ऋणादिबहु प्रनृतं भवति तथा चानेकदोपसंभवः । तथाहि ऋणं प्रवर्द्धमानं गच्छता कालेनातिप्रभूतं स तदासत्वमुपनयति यथा वणि सागिया प्रणसिन अि स्वोककालेन मरणम् वह्नियनादिसामग्रीसम विरोदन सर्वस्यापि ग्रामनगरादेर्दाहं पायाः पुनः प्रयमाना जयन्तमिति उर्फ "दासप्तं देश अणं, अचिरा मरणे वणो विमतो। सव्वरस दाइमम्गी, देति कसाया जयमणंत" I श्रा० म० प्र० । कसायअकिलेस- कसायाक्रेश-पुं० श०१०३. कसायकुमी कपायकुशी ५० कपाः संचलना दयलक्षगे की कायशः कुलदे, (बुशीलशदेस्य पञ्चविधत्वम् ) प्रव० ए३ द्वा० भ० । कसायजय-कषायजय - पुं० कषायाः क्रोधमानमायालोजलकणा अन्वारस्तेषां जयोऽनिभवः । शेषादीनामुदिताविक करणे नादितानां चानुत्पादनेन निये संयम जयपा तु तत्तद्दोषप्रतिपसेवादिना स्वात्तथादिधक्षमा मानो मार्दवेन २ मायार्जवेन ३ लोभः संतोषेण ४ रागो वैराग्येण ५ द्वेषो मैया ६ मोहो विवेकेन ७ कामः स्त्रीशरीराशीचभावनया में मत्सरः परसंपदुत्कर्षेऽपि चित्तानावाधया विषयाः संयमेन १० श्रशुभमनोवायोगा गु११ मादोऽप्रमादेन १२ अविरतिरित्या १३ च सुसेन जीयन्ते । ध० २ अधि० । कसायापि कषायनटित क्रि० क्रोधाद्यभिभूते " केई क सायनडिया, तंपि हीति मुडमई " जीवा० १८ पत्र. 置 यदुदयाजकसायाम कषायनामन्न० रसनामकर्मभेदे शरीरं विभीतकादिवत् रूपायं भवति तत्कपायनाम कर्म० ९क० । , कसायव्विति कपायनित स्त्री० जीवनिर्वृतिमेदे विहाणं जंते ! कसायणिव्वत्ती पत्ता ? गोयमा ! किसायव्विती पता जहा कोडकसायणियी नाव लोकसायनिन्दनी एवं नाव माडिया भ० १६ श० ० उ० । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कह (४०१) कसायपच्चक्खाण अन्निधानराजेन्धः । कसायपच्चक्खाश-कषायप्रत्याख्यान-न० क्रोधादिप्रत्या- नीयकर्माश्रये समुद्धातविशेष, प्रज्ञा०३६ पद । तथाहि तीनख्याने. तान (क्रोधादीन न करोमीति प्रतिज्ञाने, भ०१७ कषायोदयाकुलो जीवः स्वप्रदेशान् बहिर्विक्षिपति तैः प्रदेशवश० ३ उ०। उत्त०। दनोदरादिरन्ध्राणि कर्णस्कन्धाद्यन्तरालानि वा पूर्यायामतो कसायपच्चक्खाणेणं नंते ! जीवे किं जणय? कसाय विस्तरतश्च देहमात्रक्षेत्रमभिव्याप्य वर्तते तथाभूतश्च प्रभृतान् पच्चक्खाणेणं वीयरायनावं जणयह वीयरायनावं पमिवन्ने कपायकर्मपुफलान् परिशाटयति, प्रव० २२६ द्वा० । स० । प्रज्ञा आचा। स्था० ( समुग्धायशब्दे एतमाश्रित्य दण्डक य णं जीवे समसुहदुक्खे नवइ ।।३६।। वक्ष्यामि) हेस्वामिन् ! कषायप्रत्याख्यानेन जीवः किं जनयति । गुरु कमायाईय-कपायानीत-पुं० अकपायिणि, विशे। राह हेशिष्य ! कषायप्रत्याख्यानेन क्रोधमानमायालोभत्यागेन जीवो वीतरागभावं जनयति । प्रतिपन्नवीतरागभावो कसायाता-स्त्री० कषायात्मन्-त्रि० क्रोधादिकषायविशिष्ट आजीवः समसुखदुःखो भवति । उत्त० २६ श्र। त्मा कषायात्मा अक्कीणानुपशान्तकपायाणामात्ममेदे, ज०१५ कसायपमिक्कमण-कसायप्रतिक्रमहा-न० कषायाणां प्राग्निरू-| श०१० उ०। पितशब्दार्थानां क्रोधादीनां प्रतिक्रमणे, आव० ४ ०। (प-1 | कसाहि-कशाहि-पुं० मुकुनिसर्पभेदे, प्रशा०१ पद । डिक्कमणशब्दे उदाहरणं वक्ष्यामि) कसिण-कृत्स्न-त्रि० कृत-कस्म “ईश्रीही कृत्स्नक्रियादिष्टचामिकसायपरिणाम-कषायपरिणाम-पुं० कषन्ति हिंसन्ति पर- तू ८॥१०॥ इति संयुक्तस्यान्स्यव्यञ्जनात् पूर्व प्रकार: प्रा०। स्परं प्राणिनोऽस्मिन्निति कषः संसारस्तमयन्ते अन्तर्भतण्य- सम्पूणे, आचा० २ श्रु०१ अ० १ उ० । सूत्र । नत्त । "कर्थत्वात् गमयन्ति प्रापयन्ति ये ते कषायाः। "कर्मण्यऽण् । ३।२ सिणो णाम संपुप्पो" आ० चू०२० । नि००। सर्वश१। त्यण् प्रत्ययः । कषाया एव परिणामः कषायपरिणामः। ब्दार्थे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१०। (वत्थशब्दे कृत्स्नवस्त्रनिजीवपरिणामभेदे, प्रशा० १२ पद । केपः) परिपूर्णे, श्रा०म० द्वि० । निरवशेषे, व्य०१०। "ककसायमोहणिज्ज-कपायमोहनीय-नम्मोहनीयकर्मभेदे, कर्म०/ सिणे अणंते केवलणाणे" कृत्स्नं सकलपदार्थविषयत्वात् , स्था० १०० (मोहनीयशब्दे व्याख्या)। १ ठा० उ०।जने, कुक्को, पुं० वाच०। कृषा-त्रि० क्लिष्टे, दश०० अ०। मयूरग्रीवसन्निभे, कृष्णवर्ण, कसायवयण-कषायवचन-न० क्रोधप्रधानकटुकवचने, सूत्र नि० चू०२० परमकालिमोपेते, " आणामियचावरुश्रतणु१U०३ १०१ उ०। कसिणसिरूनूया" जी० ३ प्रति० २२० । औ० । श्यामवणे, कसायवारसंग-कषायद्वादशक-न० अनन्तानुबन्धिचतुटयाप्र कल्प० । असिते, प्रश्न आश्र०४ द्वारा (कृष्णवस्तुगुणान् नेमित्याख्यानचतुष्टयप्रत्याख्यानावरणचतुष्टयरूपे कषायाणां द्वा- शब्दे कथयिष्यामि ) क० । नि० चू० । दीर्घदशानां पञ्चमेदशसंख्याञ्चिते गणे, प्रशा० १३ पद। (कषायाणां स्थिति ऽध्ययने च. स्था० १० वा० ।। ठिईशब्दे वक्ष्यामि ) कलिणगुणोववेय-कृत्स्नगुणोपपेत-त्रि० अशेषगुणान्विते, प. कसायविजयजय-कषायविजययुत-विक्रोधादिकषायपरि ऽचा० १४ विव०। भवनशीले, कर्म. १ क । कसिणभपुडागम-कृत्स्ना (ष्णा) भ्रपुटागम-पुं० कृत्स्नकसायविजयतव-कषाय विजयतपस-न० कपायाणां क्रोधमा स्य कृष्णस्य वाऽभ्रपुटस्याऽपगमे, "विराइकम्मघणम्मि अवगए नमायालोभलक्षणानां चतुर्णा विजयोशेषेणाभिभवनं य कसिणब्जपुझावगमे व चंदे" विराजते शोभते कर्मघने झानास्मादिति कृत्वा तपोभेदे, कषायविजयतपः प्राह । घरणीयादिकर्ममेघेऽपगते सति निदर्शनमाह । कृत्स्नानपुटाएक्कासणगं तह, निविगइयमायंविखं अजत्तट्टे । पगम इव चन्द्रमा इति यथा कृत्स्ने कृष्णे वाऽभ्रपुटेऽपगते स. इह होइ लयचउकं, कसायविजए तवच्चरणे य ॥ ति चन्छो विराजते शरदि तद्वदसावपेतकर्मघनः समासादिएक्कासनकं निर्विकृतिकमाचामाम्लम् । अभक्तार्थश्चोपवास | तकेयनासोको विराजते इति, दश । अ०।। इत्येका लता प्रतिकषायं चैकैका लता क्रियते एतत्काय-कसिमंजम-कृत्स्नसंयम-पुं० सर्वथा प्राणवधविरतौ, पंचा. विजयं तपश्चरण कषायाणां क्रोधमानमायालोभलक्षणानां च- ६ विव०। तुर्णा विशेषेण जयोऽभिभवनं यस्मादिति कृत्वा अस्मिश्च | कसिणा-कृत्स्ना-स्त्री० आरोपणाभेदे, कृत्स्ना पुनर्यत्र कोषो तपसि चतस्रो लताः षोडश दिवसानि प्रव०, २७१ द्वा०। न क्रियते । कोषस्त्वयमिह तीर्थे पएमासान्तमेव तपस्ततः कसायसंकिलेस-कषायसंक्लेश-पुं० कषाया एव कषायैर्वा षमा मासानामुपरि यान् मासानापन्नोऽपराधी तेषां कपणमना संक्लेशः कषायसंक्लेशः । संक्लेशभेदे, स्था० २ ठा० १ उ। रोपणं प्रस्थे चतुःसेटकातिरिक्तधान्यस्यैव काटनमित्यर्थः । कोकसायसंलीणया-कषायसंलीनता-स्त्री० कषायाणामनुदीर्णा- पानावेन सा परिपूर्णेति कृत्स्ना इत्युच्यत इति भावः, स्था० नामुदयनिरोधेन उदीर्णानां च निष्फलीकरणेन कषायविष ५ ठा0 १ उ० । नि० चू० । (आरोपणाशब्दे विवृतिः) । यायां संलीनतायाम्, "सहेसु भदयया, वपसु सो य विस- कसेरु-क (शे) सेरु-पुं० कस उ ए रुगागमः । कशेरौ, श. यमुवगएसु । तुट्टेण व हटेण व, समणेण सया ण होयव्यं" करस्य प्रिये जलकन्दभेदे, च । कशेरुनेदे आचा। प्रज्ञा प्रव०७ द्वा०। राजनिवाचा कसायसमुग्घाय-कषायसमुद्धात-पुं० कषायैः क्रोधादिभिर्हेतु-कह (ई) कथम-अव्य० किम्प्रकारे, थमु कादेशश्च "मांसादेभूतैः समुद्धातः कषायसमुद्धातः । कषायाख्यचारित्रमोह- र्वा" ८।१।२९ श्त्यनुस्वारस्य लुम्बा प्राकृते कह कह वा। Jain Education Interational Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहं (४०२) अनिधानराजेन्द्रः। कहा प्रा० । शौरशेन्यां तु“यो धः"८।४।६६ शौरशेन्याम् थस्य सांप्रतं कथामाह। थो वा कहं कधं, प्रा० । केन प्रकारेणत्यथै, सूत्र० १ श्रु० ६ अत्थकहा कामकहा, धम्मकहा चेव मीसिया य कहा। अ०।कहं मुत्ता भत्तारेण सव्वं कहेति" नि १ उ० । एता एक्केका वि य, ऐगविहा होइनायव्वा ॥ १४॥ "कहं चरे कई चिके, कहं मासे कहं सए। कह चुंजतो नासतो, (अत्थकहेति) विद्यादिभिरर्थस्तत्प्रधाना कथा अर्थकथा । पापं कम्मं न बंध"। कथं केन प्रकारेण, दश० ३ ०। । एवं कामकथा धर्मकथा चैवं मिश्रा च कथा अत आसां ककहकहा-कथकथा-स्त्री० कथं कथमपि कथा रागकथादिका थानामेकैकापि च कथा अनेकविधा जवति ज्ञातव्योपन्यस्तगाविकथायाम, आचा०१ श्रु० ८०६०। थार्थः १६४ द०नि०३ अ० (अत्यकथादिशब्दषु अर्थकथादिकहंवि-कथमपि-अव्य कथं च अपि च द्वन्द्वस० पदद्वय- व्याख्याः ) ( अन्तर्गृहे धर्मकथा न कर्तव्येति अंतरगिहशब्दे) मित्येके केनचित्प्रकारेणेत्यर्थे, अतिकष्टेनेत्यर्थे च श्रा० । अत्रैव प्रक्रमे कथामाह । कहकह-कहकह-पुं० अनुकरणम प्रमोदकलकसे, "देवकहक- तवसंजमगुणधारी, जं चरणरया कहिंति सम्भावं । इत्ति"देवकृतप्रमोदकलकलः । स्था० ३ ठा०१ 30। आचा। सबजगजीवहियं; सा न कहा देसिया समए ॥१६॥ प्रज्ञा० । प्रश्न० । प्रमोदनरवशतः स्वेच्चावचन!लकोलाहले, तपःसंयमगुणान् धारयन्तीति तच्चीलाश्चेति तपःसंयमगुणप्रा० म. प्र.। धारिणः यं कंचन चरणरताश्चरणप्रतियका न त्वन्यत्र निदानाकहकह (ग) नय-कहकह (क) नत-त्रि० कहकहेत्यनुकरणं दिना कथयन्ति सद्भावं परमार्थ किंविशिष्टमित्याह । सर्वजगकहकहेति नूतं प्राप्तं कह कहनूतम् । निरन्तरं तत्तद्विशेषद जीवहितं न तु व्यवहारतः कतिपयसत्वहितमिति । तुशब्दशनतः सम्पलितप्रमोदभरपरवशसकलदिकचक्रवासवर्तिप्रेत- स्यावधारणार्थत्वात् सैव कथा निश्चयतः देशिता समये निर्जकजनकृतप्रशंसावचनबोलकोलाहलव्याकुनीभूते, रा०। हर्षा राख्यफलसाधनात् कर्तृणां श्रोतृणामपि चेतःकुशलपरिणामनिदृहासादिनाऽव्यक्तवर्णकोलाहलमये, कर्म० २ क०। बन्धना कथैव नो चेताज्यति गाथार्थः । कहग-कथक-त्रि० सरसकथाकथनेन श्रोतृरसोत्पत्तिकारके, इहैव विकथामाह। जं०२ वक्ष० । सरसकथावक्तरि, कल्प० म०। औ० । मिग चू०। जो संजओ पमत्तो, रागद्दोसवसगो परिकहे। प्रश्न । रा० । अनशनिनः पुरतो धर्मकथके, प्रव०७२ द्वा० । सा उ विकहा पवयणे, परमत्ता धीरपुरिसेहिं ॥१७॥ करण-कथन-न० प्रज्ञापने, ध० १ अधि० " परूवणत्ति वा यः संयतः प्रमत्तः कषायादिना प्रमादेन रागद्वषवशगतः सन्न कहणत्ति वा वक्खाणमग्गोत्त वा एगट्ठा" आ०चू० १०॥ तु मध्यस्थः परिकथयति किंचित् सा तु विकथा प्रवचने सा कहणविहि-कयन विधि-पुं० कथनप्रकारे,। पुनर्विकथा सिमान्ते प्राप्ता धीरपुरुषैस्तीर्थकरादिभिः । तथा आणागिजो अत्यो, आणाए चेव सो कहेअन्यो विधपरिणामनिबन्धनत्वात्कर्तृश्रोत्रोरिति । श्रोतृपरिणामभेदे तु दिवतिअदिटुंता, कहणविहि विराहणा इहरा ।। ७१॥ तं प्रति कथान्तरमेवैवं सर्वत्र भावना कार्येति गाथार्थः । आज्ञा आगमस्तह्राह्यस्तद्विनिश्चयोऽर्थः अनागतातिप्रान्तप्र- सांप्रतं श्रमणेन यथाविधा न कथनीया तथाविधामाह । त्याख्यानादि पाइयवागमेनैवासौ कथयितव्यो न दृष्टान्तेन तथा सिंगाररसुत्तुझ्या, मोहकुवियफुफुगाइसहसिं ति । दान्तिकः दृष्टान्तपरिच्छेद्यः प्राणातिपाताद्यनिवृत्तानामेते जं सुपमाणस्स कई, समणेण न सा कहेयव्या ॥२१॥ दोषा भवन्येवमादिदृष्टान्तात् दृष्टान्तेन कथयितव्यः । कथने शृङ्गाररसेन मन्मथदीपकेन उत्तेजित्ता अधिकं दीपिता केत्याऽयं विधिरेप कथनप्रकारः प्रत्याख्याने वा। यद्वा सामान्येनवाशा ह मोह एव चारीत्रमोहनीयकर्मोदयसमुत्थात्मपरिणामरूपः ग्राह्योऽर्थः सौधर्मादिराशयवासौ कथयितव्यो न दृष्टान्तेन तत्र तस्य वस्तुतोऽसंभावात् । तथा दार्धान्तिक उत्पादादिमानात्मा कुपितः फुफुकाघट्टितकुकुझा ( हसहसितित्ति ) जाज्वल्यमाना जायत इति वाक्यशेषः यां एयतः कथां मोहोदयो जायत वस्तुत्वाद् घटवदित्येवमादिदृष्टान्ताकथयितव्य एष कथनवि इत्यर्थः । श्रमणेन साधुना न सा कथियतव्या आकुलभावनिधिः । विराधना इतरथा विपर्यायेऽन्यथाकथनविधेरप्रतिप बन्धनत्वादिति गाथार्थः। तिहेतुत्वात् अधिकतरसंमोहादिति गाथार्थः ॥ ७१ ॥ इति कथनविधिः । आव०६अ। यत्प्रकारा कथनीया तत्प्रकारामाद । कहणिज्ज-कथनीय-न0 उत्तराध्ययनज्ञाताधर्मकथादौ कथ्ये, समणेण कहेयन्वा, तव नियमकहा विरागसंजुत्ता । पूर्वर्षिचरितकथानकप्रायत्वात्तस्य, सूत्र० १ ० १ ० १ उ० । जं सोमण मणूसो, वच्चा संवेगाणिवेयं ॥२१६ ॥ कहप्पगार-कथम्पकार-त्रि० किम्प्रकारे, भ०५ श० ६ ०।। श्रमणेन कथयितव्या किंविशिष्टेत्याह तपोनियमकथा अनश नादिपञ्चाश्रवविरमणादिरूपा सापि विरागसंयुक्ता न निदानाकहवि-कथमपि-श्रव्य० कृच्छादित्यर्थे, प्रश्न आश्र० १ द्वा०। दिना रागादिसंगता अत एवाह यां कथां श्रुत्वा मनुष्यः श्रोता कहा-कथा-स्त्री०कथ णि-अ0) 'स्फटिकनिकषचिकुरेषुहः' इत्य व्रजति गच्चति (संवेयणीवेदंति )संवेग निर्वेदं चेति गाथार्थः। तः ह इत्यनुवर्त्य 'खघथधभां' ८ | ११८॥ इति थस्य हः, प्रा० कथाकथनविधिमाह । तन्नामोश्चारणतद्गुणोत्कीर्तनतच्चरितवर्णनादिकायां वचनपछ अत्यमहंती विकहा, अपरिकिलेसबहुला कहेयव्वा । त्याम, ध०२ अधिः । स्था० । अनु०। प्रश्न । ग० । बसुदेवचरितचेटककथादी, वृ०१ उ० वाक्यप्रबन्धे, शास्त्रे, स० "ति हंदि महया चमगर-तणेण अत्यं कहा हण ॥२२०॥ विहा कहा पक्षता तंजहा अत्धकहा धम्मकहा कामकहा " महार्थाऽपि कथा अपरिक्लेशबहुया कथयितव्या नातिविस्तस्था०३०३ उ०। रकथनेन परिक्लेशः कार्य इत्यर्थः किमित्येवमित्याह हन्दीत्यु Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा भनिधानराजेन्धः। काश्यजोग पदर्शने महता चमकरत्वेन अतिप्रपञ्चकथनेनेत्यर्थः किमित्या- संयोग इति पूर्वमेव हस्वत्वे पश्चादादेशे कर्षापणशब्दस्य वा ह । अर्थ कथा हन्ति नावार्थ नाशयतीति गाथार्थः । भविष्यति । प्रा०ा "रहोः" ।८।२।६३ इति हस्य न द्वित्वम् विधिशेषमाह। प्रा० अशीतिरत्तिके ताम्रिके, कर्षे, वाच । खेतं कालं परिसं. सामत्थं चप्पणो वियाणेत्ता। कहासेसा-कथाशेषा-स्त्री० उज्जयिनीप्रत्यासनग्रामवास्तव्यसमणेण न अणव जा, पगयम्मि कहा कहेयव्या ॥२१॥ भरतनटदुहितरि, श्रा० क० । (बुद्धिसिद्धशब्दे कथा) के भौमादिभावितं कालं कीयमाणादिलक्षणं पुरुषं पारिणा- | कहाहिगरण-कथाधिकरण-न० कथा वाक्यप्रबन्धः शास्त्रमिकादिरूपं सामर्थ्य चात्मनो ज्ञात्वा प्रकृते वस्तुनीति योगः मित्यर्थस्तबूपाण्यधिकरणानि कथाधिकरणानि । कौटिल्यभ्रमणेन त्ववद्या पापानुबन्धरहिता कथा कथयितव्या नान्यथे- शास्त्रादिषु प्राण्युपमर्दनप्रवर्तकत्वेन तेषामात्मदुर्गताधिका. ति गाथार्थः । उक्ता कथा । दश० नि० ३ अ० "णि- रित्वकरणात् । कथया क्षेत्राणि कृषतः गानमसूयतेत्यादि सम्म भासीय विणीय गिद्धि, हिंसमियं वा ण कहं क कयाऽधिकरणानि तथाविधप्रवृत्तिरूपाणि । असत्प्रवृतिषु, रेज्जा" गृद्धिं गाय विषयेषु शब्दादिषु विनीयापनीय निश- कथा च अधिकरणानि च द्वन्द्वः । राजकथादिकायां कथाम्यावगम्य पूर्वोत्तरेण पालोच्य भाषको भवेत् तदेव द्रढ- याम, यन्त्रादिषु कलहेषु वा अधिकरणेषु, स० । “जे कहायति हिंसया प्राण्युपमर्दरूपया अन्वितां युक्तां कथां न कु- हिगरणाई संपउंजे पुणो पुणो" स०।। या॑त् । न तत्प्रयात् यत्परात्मनोरुभयोर्वा बाधकं वच इति कहि-क-अब्य० प्राकृते किम्-डि " नवाऽनिदमेतदो हिम" भावः तद्यथा “ अश्नीत पिबत स्वादत मोदत हत छिन्दत ८।३।६० इति किमः स्थाने हिमादेशः प्रा० । किमः कादेशः। प्रहरत पचते" त्यादि कथां पापोपादानभूतां न कुर्यादिति कस्मिन्नित्यर्थे, जी०३ प्रतिका "कहि जंबुद्दीवे दीये"क(सूत्र०) नैयायिकसम्मते वादाद्यात्मके पदार्थभेदे, “तिनः स्मिन् देशे, इत्यर्थः भ० श.१ उ०। “से काहिं खाणं भंते! कथा वादो जल्पो वितण्डा चेति "तत्र प्रमाणतर्कसाधनोपा. सिद्धा परिवसंति" क देशे, औ० । “कहिं पडिहया सिद्धा, लम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयवोपपन्नः प्रतिपक्षपरिग्रहो कहिं सिद्धा पइट्ठिया । कहिं वोदिं चइनाणं, कत्थ गंतूण वादः । स च तत्वज्ञानार्थ शिष्याचार्ययोर्भवति । स एव सिज्झइ" औ० । “कहिं अापविटे" कानुप्रविष्टः कानुविजिगीषुणा सार्ध छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो लीन इति भावः रा। काले तु " हे डालाइश्रा काले" जल्पः । स एव प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डेति । (पतत्ख. ८३।६॥ इति ः स्थानेडाहे डाला इश्रा इत्यादेशत्रये काहे एडनं यथा ) तत्रासां तिसृणामपि कथानां भेद एव नोपप काला करआ। पक्षे कहिं कस्सि कम्मि कत्थ। कस्मिन् काले, द्यते यतस्तत्वचिन्तायां तत्वनिर्णयार्थ वादो विधेयो न छल इत्यर्थः प्रा। जल्पादिना तत्वावगमः कर्तु पार्यते। छलादिकं हि परवञ्चना- कहिय-कथित-त्रि० कथ-गौणकर्मणि क्त-तदसमनिव्याहारे र्थमुपन्यस्यते । न च तेन तत्वावगतिरिति । सत्यपि भेदे मुण्ये कर्मणि क्त-उक्ते, वाच । श्राख्याते, पंचा० १७ विवः । नैषां पदार्थता यतो यदेव परमार्थतो वस्तुवृत्त्या वस्त्वस्ति श्राव०। प्रतिपादिते, सूत्र०१ श्रु० ३ १०२ उ०। उपदिष्टे, सू० तदेव परमार्थतयाऽभ्युपगन्तुं युक्तं वादास्तु पुरुषेच्छायशेन प्र०१ पाहु० । कर्णतोऽर्थतश्चोक्ते, व्या किश्चिद्रूपेण प्रतिपादिभवन्तोऽनियता वर्तन्ते न तेषां परमार्थतेति । किंच पुरुषे ते गौणे कर्मणि क्तः यस्यावबोधाय कश्चिदर्थः प्रतिपाद्यते च्छानुविधायिनो वादाः कुक्कुटलावकादिष्वपि पक्षप्रतिपक्षप [ पक्षप्रतिपक्षप- तस्मिन्नर्थे, त्रि०ा भावे क्त-कथने, न० वाच। रिग्रहेण भवन्त्यतस्तेषामपि तत्वप्राप्तिः स्यान्न चैतदिष्यत | कहेता-कथयित-त्रि० कथ णिच् । शीलार्थे तृन् कथनशाले, इति । सूत्र०१ श्रु० १२ अ० समवाया) तु पञ्च प्रतिपादिता तत्र चतुर्थी प्रकीर्णकथा सा चोत्सर्गकथास्तिकनयकथा वा । "शथिकहं जत्तकहं रायकहं कहेत्ता नवह" स्थाग०२ उ०। तथा निश्चयनयकथा पश्चमी साचापवादकथा पर्यायास्तिक-1 काअव्व-कत्तव्य | काअव्व-कर्तव्य-त्रि० कृ--तव्य-'श्राकृगोनूतनविष्यतोश्च'। नयकथा वेति । स० १२ स० । “ धादो जप्पवितंडा, पइसाग- ४।२१३ इति तव्ये परे कृधातोराकारान्तादेशः। करणीये,प्रा। कहा य णिच्छयकहा य । संजोगविहिविभत्ता, कधपडिवंधा | काइँ-किम-त्रि० "अपनशे किमः काइँ कवणौ" ८।१।१७। इति विछट्ठाणा ॥२३१॥ बादं जप्पवितंडं, सब्वे हि वि कुणति स- | काई प्रादेशः। “जश्न सुआवर दृश्यरु, का. अहो मुहतुज्छु। मणिवज्जेहिं । समणीण विपडिकुटा, होति सपरे वि तिरिह | वयणजु खंड तन सहिए, सो पिउ होइन मज्झ" प्रा० । कहा ॥२३२॥ उसग्गपइसकहा, अववातो होति णिच्छय | काइय-कायिक-त्रि० कायेन शरीरण निवृत्तः कायिकः। कायकधा तु । अहवा ववहारणया, पइमासुद्धा य णिच्छहगा।२३३। कृते, आव०४०। विशे० । हस्तपादादिके संघट्टे, सुत्र० ५ (संभोगशब्दे सव्याख्याका इमा वक्ष्यन्ते) नि०चू०५ उसका श्रु०२ अा शारीरिके इमापिङ्गादिप्राणतत्वे, स्था० एम०। कहापबंधण-कथाप्रबन्धन-न० कथा वादादिका पञ्चधा कायः प्रयोजन प्रयोजकोऽस्यातिचारस्येति कायिकः । कायातस्याः प्रबन्धनं प्रबन्धेन करणं कथाप्रवन्धनम् वादादिकथा जातेऽतिचारे, "जो मे अश्यारो की काश्ओ वाइप्रो माणसिप्रबन्धकरणे, तत्र सम्भोगाऽसम्भोगी भवतः । स०१२ स०।। ओ" प्रा००४ अाकाये भवं कायिकं रोगादो, उस०३२ अ01 नि० चू० (कथाशब्दे उक्तम्) काइयजोग-कायिकयोग-पुं० कायेन निवृत्तः कायिकः योजन कहाकहण-कथाकथन-न० पञ्चपञ्चाशतमे स्त्रीकलामेदे,कल्प योगो व्यापारः कर्म क्रियेत्यनर्थान्तरम् । कायिक्या क्रियायाम, कहावण-का (क)ोपण-न० कर्षस्येदं खार्थे वा अए।। विशे० । " गिरहश्य कापणं, निसिर तह वाइएण जोगेतेन श्रापण्यते प्रा-पल-कर्मणि घः “कार्षापणे दा७१ कार्षा- जं । एगतरं च गिराहसि निसिर एगंतरं चेव" विशे०। पणे संयुकस्य हो भवति । काहावणो कथंकहावणो हुस्खः । (भाषाशब्दे विवृतिः) Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०४) काश्या अभिधानराजेन्डः । कालसग्ग काइया-कायिकी-स्त्री० चीयत इति कायः शरीरं काये भवा (५) तृतीयविधानमार्गणामूलद्वारावयवस्य सह्याख्योक्ता। कायेन निर्वृत्ता वा कायिकी । भ० ३ श० १ उ० । प्रज्ञा० । (६) चतुर्थ कालपरिमारपमूलद्वारमुक्तम् । क्रियाभेदे, कायचेष्टायाम, सस्था०। ध०। हस्तादिव्यापा- (७) पञ्चमं भेद परिणाममूलद्वारं नवभेदेनान्वितं बहुविस्तरणे, प्रति० । कायव्यापारे, रवृत्त्या सम्यग्निरूपितं देवसिकरात्रिकावश्यकसूत्रालाकाइया किरिया दुविहा, पन्नत्ता तंजहा अणुवरयकाय पकानि सत्योक्तानि, व्युत्सर्गातिचाराः, मुनेः क्रिया, किरिया चेव दुप्पउत्तकायकिरिया चेव ।। प्रतिलेखनाविधिश्चोक्तः। कायिकी द्विधा (अणुवरयकायकिरिया चेवात्त) अनुपरत (G) नियतानियतकायोत्सर्गावुक्तौ।। म्याधिरतस्य सावधात् मिथ्यादृऐःसम्यग्दा कायफियोरकेपा (1) केषु केषु कार्येषु कियच्यासमानव्युत्सर्गमत्र द्वारगादिल कणा कर्मबन्धनिबन्धनमनुपरतकायक्रिया तथा (दुप्पउ था सद्व्याण्यया समन्निहिता। त्तकायकिरिया चेवत्ति) कुष्प्रयुक्तस्य उष्प्रयोगवतो पुष्पणि (१०) षष्ठासम्नाममूत्रद्वारमत्र दान्तिकयोजनां मायावतो हितस्येन्द्रियाण्याश्रित्येशानिएविषयप्राप्तौ मनाक् संवेदनिर्वेदग दोषांश्च प्रतिपाद्य बयोबबमधिकृत्य चतुर्नलघुक्ता । मनेन तथाऽनिन्छियमाश्रित्याऽशुभमनःसंकल्पद्वारेणापवर्गमार्ग (११) सप्तमं सवनामकं मूत्रद्वारमत्र ह्यक्तहेतुनिः कारकाणां प्रति दुर्व्यवस्थितस्य प्रमत्तसंयतस्येत्यर्थः। कायक्रिया दुष्प्रत्यु कूटमनुष्टानमुक्तम् । क्तकायक्रियेति । ।। स्था०२ नम०१ उ० प्रज्ञा प्रा० म०द्वि० (१२) अष्टम विधेमूत्रद्वारमत्र कथं कयारीत्या कायोत्सर्गे स्थातव्यमिति विधिः। आ०चू० । सा पुनस्त्रिधा अविरतकायिकी प्रणिहितकायिकी उपरतकायिकी । तत्र मिथ्यादृष्टेरविरतसम्यग्दृऐश्चाद्या अ (१३) नवमद्वारम् कायोत्सर्गस्य 'घोडगवयखभाई' इत्याचे विरतस्य कायिकी नत्क्षेपादिलकणा क्रिया कर्मबन्धिनिबन्धना कोनविंशतिदोषव्याख्यागर्भितम्। अविरतकायिकी एवमन्यत्रापि षष्ठीसमासो योज्यः। द्वितीया (१४) दशमं कस्येति मूबद्वारमत्रोक्तदोषरहितस्यायं ध्युत्सर्गः प्रमत्तसंयतस्य सा पुनर्द्विधा । इन्द्रियदुष्प्रणिहितकायिकी यथोक्तफाको भवतीत्युक्त्या त्रिधोपसर्गसहिष्णोरेवानोइन्छियदुष्प्रणिहितकायिकी च । तत्राद्येन्डियैः श्रोत्रादिभि यं नवतीति प्रदर्शितम्। १प्रणिहितस्य शानिष्टविषयप्राप्ती मनाक अग्रे निर्वेदद्वारणा (१५) एकादशं फलस्यात्रहिकामुत्रिकबोकापेक्षया द्विधा फर्स पवर्गमार्ग प्रति दुर्व्यवस्थितस्य कायिकी । एवं नोइन्छियेण सुदर्शनादिनिदर्शनपूर्वकं, कर्मवयफलमतिचारे प्रायमनसा पुप्पणिहीतस्याशुभसंकल्पद्वारेण दुर्व्यवस्थितस्य का श्चितं च समनिहितम् । यिकी । तृतीया अप्रमत्तसंयतस्य उपरतस्य प्रायः सावधयो (१) कायोत्सर्गशब्दार्थाः । गेन्यो निवृत्सस्य कायिकी । गता कायिकी (आव० अ०) ध० देहस्य कृताकारस्य स्थानमौनध्यानक्रियाव्यतिरेकक्रियान्तमोचे मूत्रपुरीषयोः " आहारमोयमसिणाई मोपत्ति काश्य राध्यासमधिकृत्य परित्यागे, ल०। प्रति०। अतिचारशुध्यर्थे बोसिरिन दध ण गेएहति" नि० चू०१ उ० । वलीचदिका- कायस्य व्युत्सर्जने, कायममत्ववर्जने, उत्त० २६ अ० । यपरिश्रमसाध्यायाम, मूलधनाविरोधेन प्रत्यहमविरोधेन प्र- धर्मकायातिचारव्रणशोधके, आवश्यकश्रुतस्कन्धस्य अध्यत्यहमधमर्णदेयपणपादादिरूपायां वा वृधौ, च । वाचः। यनविशेषे च, पा०। काउ-काकु-स्पी० कक-नए-" जिन्नक एउध्वनिधीरैः, काकुरि (२) प्रायश्चित्तभेषजेनापराधवणचिकित्सा संपाद्य वैचित्यभिधीयते” इत्युक्तलक्षणे शोकनीत्यादिनियनेर्विकारे, वि येण दशधा प्रायश्चित्तनेषजं समभिहितम् । रुद्धार्थकल्पके, नत्रादौ शब्दे, च उदा.) "गुरुपरतन्त्रतया वत, तत्र कायोत्सर्गवक्तव्यता कायोत्सर्गाध्ययनात्संगृह्यते । दूरतरदेशमुद्यतो गन्तुम । अलिकुलकोकिलसितैष्यति सखि ! तत्रेदं कायोत्सर्गमध्ययनमारभ्यते अस्य चायमभिसंबन्धः सुरनिसमयेऽसौ" नेष्यति अपि तईि एष्यत्येवेति काका व्यज्यते अनन्तराध्ययने वन्दनाद्यकरणादिना स्खलितस्य निन्दा श्त्युक्तम् वाचा आचा। प्रतिपादिता । इह तु स्खलितविशेषतोऽपराधवणविशेषसंकाउँ-कर्तुम्-श्रव्य० कृ तुमुन् “श्राः कृगो नूतनविप्यतोश्च" ८।४ भवादेतावता शुद्धस्य सतः प्रायश्चित्तभेषजेनापराधवण२१३ । इति कृ-धातोरन्त्यस्य आ । विधातुमित्यर्थे, प्रा०। कृत्वा चिकित्सा प्रतिपाद्यते यथा प्रतिक्रमणाध्ययने मिथ्यात्वाविधायेत्यर्थे, तं०॥ दिप्रातक्रमणद्वारेण कर्मनिदानप्रतिषेधः प्रतिपादितः । यथा काउंबर-काकोमु (2)म्बर-पुं० काकमीषजनमत्र काकस्य चोक्तम् । “ मिच्छत्तपडिक्कमणं, तहेव असंयमे पडिकमणं । प्रियः नदु (मु) म्बरोघा । उमुम्बरभेदे, शब्दरत्ना० । स्वार्थे कसायाण पडिक्कमणं, जो याणमप्पसत्थाण" मित्यादि । इह कन् अत श्वम्, स्वार्थिकप्रत्ययस्य प्रकृतिलिङ्गव्यतिक्रमः। तु कायोत्सर्गकरणात् प्रागुपात्तकर्मक्षयः प्रतिपाद्यते व. काकोमुम्बरिकाप्यत्र स्त्री० अमरः । वाच०। प्रशा। जी। क्ष्यते च "जह करगो णिकितइ, दारुइतो पुणो विवञ्चंतो। काउसग्ग-कायोत्सर्ग-पुं० कायः शरीरंतस्योत्सर्गः षष्टीसमा इअ किंतंति सुविहिश्रा, काउस्सग्गेण कम्माई । काउस्सग्गे सः ( कायोत्सर्गशब्दस्य सूचिरूपेण पञ्चदशाधिकाराः यथा) जह मुट्ठिय स्स भजति अगुवंगाई। इअभिदंति सुविहिया, श्र(१) कायोत्सर्गशब्दार्थाः टविहं कम्म संघाय" मित्यादि । अथवा सामायिके चारित्र(२) प्रायश्चित्तभेषजेनापराधवणचिकित्सा संपाद्य वैचित्र्येण मुपवर्णितं चतुर्विंशतिस्तवे त्वहद्गुणस्तुतिः सा च ज्ञानदर्शदशधा प्रायश्चित्तभेषजं समनिहितम्।। नरूपा एवमिदं द्वितयमुक्तम् । अस्य च वितथासेवनमैहिका(३) व्यभावयोर्नेदेन वणद्वैविध्यमनेकभेदभिन्नेनोक्तम् ।। मुष्मिकापायपरिजिहीर्षुणा गुरोनिवेदनीय तच वन्दनपूर्व(४) कायोत्सर्गमधिकृत्येकादश मूलद्वाराणि निर्युकृयुक्तानि। मित्यतस्तनिरूपितं निवेद्य भूयः शुभोऽवस्थानेषु प्रतिक्रमण Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काउस्सग्ग (४०५) अभिधानराजेन्द्रः | मासेवनीयमित्यनन्तराध्ययने तन्निरूपित इह तु तथाप्यशुद्धस्यापराधवणचिकित्साप्रायश्चित्तभेषजं प्रतिपाद्यते । ) तत्र प्रायश्चित्तमेषजमेव तावद्विचित्रं प्रतिपादयचाह । आलो अण १५ डिकमणे, श्मीस ३ विवेगे वह मिस्सग्गे५ । तत्र ६ ७ मूल प्रणव-वाय पारंचिए चैत्र || १ || (आलोयति आलोचनाप्रयोजनतो हस्तशताद्वहिर्गम नादौ गुरोर्विकटना १ ( पडिक्कमणेत्ति) प्रतिक्रमणं प्रतिक्रमणे सहसा समित्यादी मिध्यादुष्कृतकरणमित्यर्थः २ (मांसति मिश्रशब्दादिषु रागादिकरणे विकटना मिथ्याऽष्ठतावित्यर्थः ३ (वियेगेति वियेकः अनेपणीयस्य नकाः कथं तस्य परित्याग इत्यर्थः ४ तथा ( विनस्सगेत्ति ) तथा व्युत्सर्गः स्वाद कायोत्सर्ग इति भावना ५ ( तवेत्ति ) कर्मतापनात्तपः पृथिव्यादिसंघट्टनादी निर्विकृतिकादि ६ (पति) तपसा मस्य भ्रमणममिति हृदयम् ७ (मूलेलि) प्राणातिपातादी पुनर्वतारोपणमित्यर्थः (अणवतात) दस्ततालादिप्रमाददोषदुतपरिणामावाद्वतेषु नावस्थाप्यते त्यनवस्थाप्यस्तद्भावोऽनवस्थाप्यता च (पारंचिए थेयति पुरुषविशेषस्य स्वलिङ्ग र जपल्याद्यासेवनायां पारंचिक भवति पारं प्रायश्चित्तान्तमञ्चति गच्छति इति पारंचिकं न तत ऊर्ध्वं प्रायश्चित्तमस्तीति गाथार्थः ॥ १ ॥ एवं प्रायश्चित्तने बजमुक्तम् । ( ३ ) सांप्रतं व्रणः प्रतिपाद्यते स च द्विनेदः व्यवणो भावप्रणश्च । व्यग्रणः शरीरक्षतलक्षणः। श्रसावपि द्विविध एव तथा चाह । वो कायम वो घुम्नवागंतुगो नायल्यो । गंगस्स कीर, सल्बुकरणं न इरस्स ॥ २ ॥ द्विविधो द्विप्रकारः ( कायम्मि वणोत्ति ) न्रीयत इति कायः शरीरमित्यर्थः तस्मिन् व्रणः कृतलक्षणः । द्वैविध्यं दर्शयति । तस्मिन्योऽस्येति गादिरागन्तुका गन्तुका गन्तुक कियते ज्योर नेतरस्य तद्भवो वास्येति गाथार्थः | २| यद्यस्य यथोद्भियते उत्तरपरिकर्म च क्रियते द्रव्यवणे एव तदभि तो तिक्खमो, असोशिओ केवलं तयालग्गो । नरिओ अवणिज्ज, सलो न मलिज्ज वाच || ३ || सम्म बीए मलिन परं प्रदरस । नफरामलपुर-दूरगए नई अम्मि || ४ || (तरणुओ ) तनुरेव तनुकः कृश इत्यर्थः । न तीक्ष्णतुरुमतीऋणमुखमिति भावः । न यस्मिन् शोणितं विद्यत इत्यशोणितं केवलं नवरं त्वमाहात्यलिनमुत्य प्रणिज सो परिय प्राकृताऽत्र पुलिङ्गनिर्देश: ( - मलिज्जर वणो ) न च मृज्यते व्रणः अल्पत्वाच्कल्यस्येति गाथार्थः ॥ ३॥ प्रथमशल्पजेऽयं विधिः । द्वितोपादिशल्पजे पुनश्यं (लग्गु तिम्मिगाड़ा) लग्नमुतं तस्मिन् द्वितीये चास्मिन् अदूरगते शल्ये इति योगः मनारा दृढलग्न इति भावना । अत्र ( मबिज्जति परंति ) मृज्यते यदि परं मण इति उकरणं श ल्यस्य मर्द्दनं व्रणस्य पूरणं कर्णमन्नादिना तस्यैवैतानि क्रियन्ते दूरतरगते तृतीये शल्ये इति गाथार्थः ॥ ४ ॥ उ कानरसग्ग माने तो उ-करिङ गाति सोशियं चत्ये। रुज्जर लहुंति चिट्ठा, वारिज्ज पंचमे वरिंणणो ॥ ५ ॥ मा वेदना भविष्यतीति तत तस्य शस्यं गालयति शोणितं चतुर्थे शल्ये इति तथा रुध्यतां शीघ्रमिति चेष्टा परिस्यन्दनादिलकृष्ण वा निषिध्यते पञ्चमे उड़ते वणो ऽस्यास्ती ति वणी तस्य प्रणिनः रौषतरत्वाच्चल्यस्येति गाथार्थः । ५ । रोवणं बडे, हिश्रमिभोजमा वा । तित्तिमित्तं द्विज्जइ, सत्तमए पूइसाई || ६ || रोहयति वणं षष्ठे शस्ये उड़ते सति हितमितभोज] हितं पथ्यं मितं स्ताकें अनुजानी या तथा बावच्छयेन दूषितं (तयमिति याचिते सा राज्ये उड़ते कि पू तिमांसादीति गाथार्थः ॥६॥ सहनिय प्रायमाणे गोणसभानखिच्चाइरफिए वापि । कीर तदंगळे, स अडिओ सेसरक्खडा ॥ ७ ॥ तथापि च (अट्टामाति) अतिष्ठति सति विसप्त स्वयः । गोनसनचितादरस्फिके वापि क्रियते तच्छे दः सहाच्या परार्थमिति गाथार्थः। एवं तावद्द्रव्यमणचिकित्सा च प्रतिपादिता ॥७॥ अधुना भाववणः प्रतिपाद्यते । मुलुतरगुणस्त्र ताइको परयचरणपुरिसस्स । अवराहसफ्नो भाववणो होइ नायव्वो ॥ ८ ॥ इयमन्यकर्ता सोपयोगा वेति व्याख्यायते मूलगुणाः प्राणातिपातादिविरमणका उत्तरगुणाः पिएमविनयः पत एव रूपं यस्य स मूलगुणोत्तरगुणरूपः तस्य तायिनः परमस्यास्य चरणपुरुषस्येति समासान्तस्यापराधी गोचरादिगोचराः त एव शल्यानि तेज्यः प्रभवः संभवो यस्य स तथाविभावव्रणो भवतीति ज्ञातव्य इति गाथार्थः ||८|| साम्प्रतम स्यानेकमेदभिन्नस्य प्रणस्य विचित्रप्रायतिभेषजेन विकि निक्खारिचाइ सुज्जइ, अचारो कोई विश्रमणाए उ । विश्ओ समिश्र मिति, कीस सहमा अगुतो वा ॥ ए॥ निर्यादित्यविचारः कञ्चिद्विफटनयेाचनये त्यर्थः । आदिशन्दाद्विगृह्यते चाऽतिचार पत्र प्रण एवं सर्वत्र योग्यम् (वितिम्रोति प्रत्युपेकित खेल विवेकादौ हा असमितोऽस्मीति किमिति सह सागुतो वा मिथ्या पुष्कृतमिति चिकित्सेत्ययं गाथार्थः ॥ ६ ॥ सदाइएस रागं, दोर्स व पणे गतवणो । नाउं असणिज्जं जत्ताइ विगिंचणचनत्थे ॥ १० ॥ शब्दादिष्विष्टानिष्टेषु राग द्वेषं च मनसा गतः अत्र ( तयव - होति ) तृतीयो प्रणः मिश्रमेपजचिकित्सा जालोचनाप्रतिक मोर्चाला अनेषणीयभक्त्यादिविधिना - तु इति गाथार्थः ॥ " उस्सग्गेण वि सुज्जर, अमारो कोइ कोइ न तत्रेां । ते विमुज्जमा, अविसेसो विसोहिं ति ॥ ११ ॥ कायोत्सर्गेणापि शुद्ध्यति अतिचारः कश्चित्कुस्वप्नादि कश्चित तपसा पृथिव्यादिसंघट्टनादिजन्यो निर्विकृतिकादिना षण्मासं Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०६) काउस्सग्ग अभिधानराजेन्द्रः। कालस्सग्ग तेनाप्य शुध्यमानं तथाभूतं गुरुतरं दविशेषा विशोधयन्तीति सौ नवतीति ( नवसग्गभियुंजणे वितिश्रो ) उपसा दिव्यागाथार्थः ॥ ११ ॥ एवं सप्तप्रकारनावतणचिकित्साऽपि प्रदर्शिता दयस्तैरभियोजनमुपसर्गाजियोजन तस्मिन्नुपसानियोजने मुनादीनि तु विषयनिरूपणहारेण स्वस्थानादवसेयानि नेह हितीयोऽभिनयकायोत्सर्ग इत्यर्थः । दिव्याद्यभिभूत पय महावितन्यन्ते इत्युक्तमानुषङ्गिकम् । प्रकृतं प्रस्तुमः। एवमनेनानेकरूपे- मुनिस्तदैवार्य करोतीति हृदयम् । अथवा उपसम्मेणाभियोजन ण संबन्धेनायातस्य कायोत्सर्गाध्ययनस्य चत्वायनुयोगद्वाराणि | सोढव्यमथोपसस्तिद्भयं न कार्यमित्येवंचूतं तस्मिन् द्वितीय वक्तव्यानि तत्र नामनिष्पन्ने निक्केपे कायोत्सर्गाध्ययनमिति शति गाथार्थः ॥४॥ कायोत्सर्गाध्ययनं च। इत्थं प्रतिपादिते सत्याह चोदकः कायोत्सर्ग दि साधूनां नो(४) कायोत्सर्गमधिकृत्य द्वारगाथामाह नियुक्तिकारः । पसर्गाभियोजन कार्यम् ॥ निक्खेवे १ गहविहाण, मग्गण ३ काल ४ नेअपरिमा- इहरह वितान जुज्जर, अभियोगो किं पुणाइ उस्सग्गे। णे ५। असढ ६ सढे ७ विहि ८ दोसा, हकस्स ति १० नणु गब्बेण परपुरं, अभिगिज्जइ एवमेधे पि ॥४३॥ फलं च ११ दारा ॥१॥ श्तरथाऽपि सामान्यकायेंऽपि तावत्कचिदवस्थानादौन युज्य(णिक्खेवेत्ति) कायोत्सर्गस्य नामादिसवणो निकपः कार्यः ! तेऽनियोगः । कस्यचित्कर्तु (किं पुणा उस्सम्मेत्ति) किं पुनः (एगहित्ति) एकार्थकानि वक्तव्यानि ( विहाणमग्गत्ति) विधा कायोत्सर्गकर्मक्कयाय क्रियमाणे स हि सुतरां गर्वरहितेन नं नेदोऽभिधीयते भेदमार्गणा कार्या ३ (कालभेदपरिणामेत्ति) कार्यः। अनियोगश्च गर्यो वर्तते नन्धित्यसूयया गर्येणाभियोकालभेदपरिमाणमभिभवकायोत्सर्गादिना वक्तव्यम ४ भेदपरि गेन परपुरं शत्रुनगरमभिगृह्यते यथा तमर्वकरणमसाधु एवमेमाणमुत्थितादिकायोत्सर्गभेदानां च यावत्तपस इति ५ (असम तदपि कायोत्सर्गेऽभियोजनमशोननमवति गाथार्थः ॥४३॥ ति) असग्कायोत्सर्गका वक्तव्य ६ स्तथा सश्च बक्तव्यः७ इत्थं चोदकेनोक्ते सत्याहाचार्यः! (विहित्ति) कायोत्सर्गकरणविधिर्वाच्यः (दोसत्ति) कायो मोहपयमीजयं अभि-जवितुं जो कुणाइ कानसग्गं तु । सर्गदोषाश्च वक्तव्याः (कस्सत्ति) कस्य कायोत्सर्ग इति वक्त- जयकारणे नतिविहे, नाभिभवो नेह पडिसेहो।। व्यम् १० (फलं चत्ति) ऐहिकामुष्मिकभेदफयं च वक्तव्यम् ११ मोहप्रकृतितो जयं मोहप्रकृतिभयम् । अथवा मोहप्रकृतिश्चासौ (दाराशत्ति) एतावन्ति द्वाराणीति गायासमासार्थः ॥ १२ ॥ जयंमिति समासःमोहनीयकमजेद इत्यर्थः। तथा हास्यरत्यरकाए जसग्गम्मि अ, निक्खेवे हंति उनि न विगप्पा। तिजयशोकजुगुप्सापटू मोहनीयभेदतया प्रतीतं तत् अनिभएपसिं दुएईवी, पत्तेअपरूवणं वुच्छं ।। १३॥ वितुमभिनूय कश्चित्करोति कायोत्सर्गम् । तुशब्दो विशेषव्यासार्थ तु प्रतिद्वारं नायकदेवानिधास्यति (काएत्ति १३) णार्थः नान्यत् किंचन बाह्यमनिनूयेति भयकारणे तु त्रिविधे तत्र काय कायस्य उत्सर्गः कायोत्सर्गविषयश्च एवं निपानि- बाह्ये (भयकारणेति) दिव्यमनुष्यतिर्यम्भेदभिन्ने सति तस्य नाकेपविषयौ नवतः द्वायेव विकल्पो धावेव नेदौ अनयोद्वयोरु निभवः नाभियोगः । अथ इत्थंभूतोऽप्यभियोगः इत्यत्रोच्यते त्सर्गविकल्पयोः प्रातिकी प्ररूपणां वक्ष्य इति गाथार्यः ॥१३॥ (णेहपमिसेहो) इत्थंभूतस्यानियोगस्य नैव प्रतिषेध इति ( कायशब्दनि हेपः कायशब्दे वक्ष्यते । उस्तग्गशब्दे उत्सर्ग- गाथार्थः ॥ ४४॥ किंतु । निकेप उक्तः) प्रागारेऊण परं, रणिन्य जइ सो करिज नस्सगं । ___ अधुना इह एकार्थकान्युच्यन्ते तरेय गाथा। जुज्जए अनिभवो तो, तदनावे अभिनवो कस्स ॥४५॥ नस्सग १ विउस्सरण ३ उज्झणा य, (श्रागारऊणत्ति) आकार्यरेक्क यास्यसि इदानीमेवं परमन्यं ३ अवकिरण ४ छहण ५ विवेगो६। कंचन ( रणिय ) संग्राम इव यदि स कुर्यात्कायोत्समो युज्यवजण ७ चयणु म्मुअणा, ह ते अनिभवस्ततः तनावे पराजावे अनिभवः कस्यचिदितिमा थार्यः॥४५॥ तत्रैतस्माद्भयमपि कर्माशोवर्सते कर्मणोऽपिचापरिसाडण १० सामणा चेव ॥४॥ भिभवः चोदकोक्तः खत्वेकान्तेन नैव कार्य एत्येतश्चायुक्तम् यतः। उत्सर्गः व्युत्सर्जना उज्जना च वकिरणं गईनं विवेकः ब. अट्ठविहं पि अकम्मं, अरिनूअं तेण तज्जयटाए । जनं त्यजनम् उन्मोचना परिशातना शातना चैवेति गाथार्थः । मूलद्वारगाथायामुक्तान्युत्सगैकार्थकानि ततश्च कायोत्सर्ग शति अब्भुजिया न तवसं-जमं च कुव्वंति निगंथा ॥४६|| स्थितं कायस्य उत्सर्गः कायोत्सर्ग इति । अष्टविधमप्यष्टप्रकारमपि चशब्दो विशेषणार्थस्तस्य व्यव(५) श्दानी मूलद्वारगाथागतविधानमार्गणाद्वारावयवार्थ हितः संबन्धः ( अविहं मिश्र कम्मं अरिजूतं च ) ततश्चाय. व्याचिख्यासयाह । मर्थः यस्मादज्ञानावरणीयादि अरिनूतं शत्रुनूतं वर्तते भवति उस्सग्गे निक्खेवो. चउक्को छक्को अकायव्यो । बन्धनत्वात् चशब्दादचेतनं चेतनकारणं न तज्जयार्थ कर्म जयनिमित्तम (अनुठियाउत्ति) आनिमुख्येनोस्थिता एव ए. निक्खेवं काऊणं, परूवणा तस्स कायव्वा ॥४१॥ कान्तेन गर्वविकला अपि तपोकादशप्रकारं संयमं च सप्तदशसो उस्सग्गो ऽविहो, चेट्टाए अतिभवे अणायन्वो। प्रकारं कुर्वन्ति निर्ग्रन्थाः साधव इत्यतः कर्मजयार्थमेव स्यानिक्खारिआइपढमो, जवसम्गाभिनंजणे वीभो ॥॥ दिति नावनापि कायोत्सर्ग कार्यवेति गाथार्थः ॥ ४६॥ कायोत्सर्गो द्विविधः ( चेडाएअभिभवेयणायव्यो ) चेष्टाया तथा चाह। मनिभावेच कासव्यः । तत्र (भिक्खायरियादि पढमो) निक्षा तस्स कसाया चसारि, नायगा कम्मसत्तुसिअस्स । चर्यादी विषये प्रथमचेष्टा कायोत्सर्गस्तथादिचेष्टाविषय एवा काउसम्गमनंग, करेंति तो तज्जयटाए ॥४७॥ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०७) कानस्सग्ग मभिधानराजेन्द्रः । काउस्सग्ग तस्य प्रकृतशत्रुसैन्यस्य कषायाः प्राग्निरूपितस्वरूपाश्चत्वारः स्तेति गाथार्थः ॥५२॥ रह ध्यायति च शुभध्यानमित्युक्तं तत्र क्रोधादयो नायकाः प्रधानाः [काउस्सम्गमनंगं करेंति तो| किमिदं ध्यानमित्यत आह । तज्जयहाएत्ति] कायोत्सर्गमपीमितं कुर्वन्ति साधवस्ततस्त- अंतोमुत्तकालं, चित्तस्सेगग्गया हबह काणं । जयनिमित्तं तपःसंयमवदिति गाथार्थः ॥४७॥ गतसूलगाथायां । तं पुण अट्ट रुदं, धम्म सुकं च नायव्वं ।। ५३ ।। विधानमार्गणाद्वारम् । विघटिको मुहर्तः जिन्नो मुहूर्त इत्युच्यतेऽन्तर्मुहर्सकासं चि(६) अधुना काअपरिमाणवारावसरस्तत्रेयं गाथा । तस्यैकाग्रता भवति ध्यानमिति कृत्वा तत्पुनरात रौद्रं धर्म संवच्चरमुक्कोस, अंतमुदुत्तं च अनिभवस्सग्गे । शुक्रंच ज्ञातव्यमिति । तथा च स्वरूपं यथा प्रतिक्रमणाभ्यचेचा उस्सग्गस्सउ, कालपमाणं उपरि वुच्छं ।। ४८॥ । यने प्रतिपादितं तथैव रुष्टन्यमिति गाथार्थः ॥ ५३॥ " संबच्छर" इत्यादि संवत्सरमुत्कृष्टकालपरिमाणं तथा च तत्थ न दो पाइला, काणा संसारवट्टणा भणिया । बाहुबलिना संवत्सरकायोत्सर्गः कृत इति (अंतोमुहुत्तं च) अ-| सुन्नि य विमुक्कहेऊ, ते हहिगारो न इयरेहिं ॥५४॥ मिभवकायोत्सर्गे अन्तर्मुहर्त जघन्यकालपरिमाणमभिभवका- निगदसिका। सांप्रतं यदा भूतो यत्र यथा स्थितो यच्च श्यायोत्सर्ग इति चेष्टा कायोत्सर्गस्य तु कालपरिमाणमनेकभेदनि यति तदेतदनिधित्सुराह। मम् ( उपरि वोच्चंति ] उपरिष्टावक्ष्याम इति गाथार्थः ॥४७॥ संवरियासबदारो, अव्यावाहे अकंटए देसे। उक्तं तावदोघतः कायोत्सर्गपरिमाणद्वारम् । काऊण थिरं गणं, ठिो निमन्नो निवन्नो वा ॥५॥ (७) अधुना भेदपरिमाणमधिकृत्याह । चेाणमचेअणं वा, वत्थु अवलंघिउं घणं मणसा । उसिउस्सिो अ१ तह न-स्सिो भए उस्सित्र कायइ सुअमत्यं वा, दविअं तप्पजए वा वि ॥५६॥ निसनो चेव शनिसननसिनो निसनो,५निस (संवरियासवदारोत्ति )संवृतानि स्थगितानि आश्रवद्वाराणि अगनिसनो चेव ६ ॥ ४॥ निवन्नुसियो ७ निव प्राणातिपातादीनि येन स तथाविधः ध्यायति (अब्वायाधे अन्नो, ८ निवन्नगनिबन्नगो अनायव्यो ।। एएसिं तु कंटए देसत्ति) अव्यावाधे गन्धर्वादिलक्षणभावाव्यायाधाविपयाणं, पत्तेअपरूवणं वोच्छं ।। ५०॥ कले अकण्टके पाषाणादिद्रव्यकण्टकविकले देशे भूनागे कथं उत्सतोत्सृतः १ उस्मृतश्च २ उत्सृतनिषम्मः ३ निषश्मोत्सृतः४ व्यवस्थितो ध्यायति (काऊण थिरं गणं ग्तिो गिसो निनियम निषाणनिषाण ६ श्चैवेति गाथासमासार्थः ॥ ४ ॥ वसो वा ) कृत्वा स्थिरं निष्पकम्पनं स्थानमवस्थितविशेषस[णिवणुसिउगाहा ]निवनोत्सृतः ७ निपन्नः निपन्न- क्वणं स्थितो निषसो निधनो वेति प्रकटार्थः । चेतनं पुरुषादि निपन्न एव ज्ञातव्यः । एतेषां तु पदानां प्रत्येकं प्ररूपणं वक्ष्ये अचेतनं प्रतिमादि वस्तु अवलम्ब्य विषयीकृत्य घनं रढमनसा इति गाथासमासार्थः ॥५०॥ अन्तःकरणेन ध्यायति "सुयं वा अत्थं वा" ध्यायतिसंबध्यतेसूत्रं अवयवार्थमुपरिष्टाद्वदयामः तत्र । गणधरादिनिबद्धम् अर्थ वा तमोचरम् किंचूतमर्थमित्यत आह उस्सिअनिस्सन्नगनिव-न्नगे अ इक्किक्कगम्मि पदे। [दवियं तप्पज्जवेयावि व्यं तत्पर्यायान् वा इह च यदा सूत्र ध्यायति तदा तदेव सूत्रगतधर्ममालोचयति न त्वर्थ यदार्थन दवेण य जावेण य, चनकन यणा उ कायन्या ।।५।। तदा सूत्रमिति गाथाद्वयार्थः ॥५६॥ मत्सृतनिषमनिपन्नेषु एकैकस्मिन्नेव पदे [दवेण य भावेण अधुनाप्रकटप्रकृत एव कुचोधपरिहारायाह । य] व्यनावाल्यां चतुष्कनजना कार्या । "चटक्कभयणा उ का. यन्या" अन्यतः उत्सृतः कर्मस्थानस्थः जावतः धर्मशुक्लध्यायी तत्थ उ नणिज्ज कोई, झाणं जो माणसो परीणामो । १ अन्यस्तु व्यत उत्सृतःचर्द्धस्थानस्थो न भावत उस्मृतः तं न जव जिणदिटुं, काणं तिविहे वि जोगम्मि ॥५७।। भ्यानचतुष्टयरहितः कृष्णादिवेश्यां गतपरिणाम इत्यर्थः २ अ- तत्र भणेत यात कश्चित् किं ब्रूयादित्याह । (काणं जी माणन्यस्तु न व्यत उत्सृत चर्द्धस्थानस्थो नावत उत्सृतः धर्म-| सो परिणामोत्ति) ध्यानं यो मानसा परिणामः ध्यै चिन्तायाशुक्लभ्यायी ३ अन्यस्तु न जन्यतो नापि भावतः । इत्ययं प्रती मित्यस्य चिन्तार्थत्वादित्थमाशङ्कयोत्तरमाह । तन्न जवति [जितार्थ पवमन्यपदचतुर्जनकावपि वक्तव्याविति गाथार्थः ।। ५१॥ णदि8 काणं तिविहे वि जोगम्मि) तदेतन्न भवति तत्परेणाइत्थं सामान्येन नेदपरिमाणे निदर्शिते सत्याह चोदकः । ननु भ्यधायि कुतः यस्माजिनदृष्ट ध्यानं त्रिविधेऽपि योगे मनोवाकायोत्सर्गकरणे कः पुनर्गुण इत्यत्राहाचार्यः।। कायलकण इति गाथार्थः ॥५७॥ किंतु कस्यचित्कदाचित्पादेहमइजमुछी, सुहदुक्खतितिक्खया अणुप्पेहा।। धान्यमाश्रित्य नेदेन व्यपदेशः प्रवर्तते तथा चामुमेव न्याय झाय अ सुई काणं, एगग्गो कानस्सग्गम्मि ॥५॥ प्रदर्शयन्नाह। (देहमजसुछित्ति ) देहजमशुद्धिश्लेष्मादिप्रहाणतो मति बायाई धाकणं, जो जाहे होइ उक्कडो धाऊ । जाड्याकिस्तथावस्थितस्योपयोगविशेषतः (सहदक्सतिति कुविउत्ति सो पवुच्चइ, न य इअरे तत्थ दो नत्यि ।।५।। कम्त्रयत्ति) सुखदुःख तितिका सुखपुःखातिसहनमित्यर्थः [श्र- वातादिधातूनामादिशब्दाद्वातपित्तलेप्मणां यो यदा भवत्युपुष्पहा) अनित्यत्वाचनुत्प्रेक्षा च तथा ऽवस्थितस्य प्रवति । स्कटः प्रचुरो धातुः कुपित इति स प्रोच्यते उत्कटत्वेन प्राधातथा [कायश्य सुई काणंति] ध्यायति च शुभध्यानं धर्ममुक्त- न्यात (न य श्यरे तत्थ दो नस्थिति) न चेतरीतत्र द्वौ नास्त लक्षणम् एकाग्र एकचित्तः शेषन्यापाराभावात्कायोत्सर्गे इति इति गाथार्थः ॥७॥ शहानुत्प्रेक्षाध्यानादौ ध्यानोपरमे च नवतीति कृत्वा भेदेनोपन्य- एमेव य जोगाणं, तिएहवि जो जाहि नकमो जोगो। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४००) अनिधानराजेन्दः । काउस्सग्ग कानस्सग्ग तस्स तहिं निदेसो, इअरे तत्थि क दो व न वा ॥५६।। प्रयः अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनोदयवन्तस्तत्र जीएवमेव च योगानां मनोवाकायानां त्रयाणामपि यो यदा - | वजव्ये सति न चातीताद्यपेक्कया तत्सद्भावः प्रतिपाद्यते । यत स्कटः योगस्तस्य योगस्य तदा तस्मिन्काले निर्देशः (इतरेत- आद [ न य ते न संति तहिअं] न च ते अप्रत्याख्यानाबरणाथिक दो वन वा) इतरस्तत्रैको भवति द्वौ वा भवतः न वा दयो न सन्ति तदा किंतु सत्येव नच प्राधान्यं तेषामतो न व्यप. जयत्येव । श्यमत्र नावना केवलिनः वाचि नत्कटायां का देशः। श्राद्यस्यैव व्यपदेशः [ तहेयं पि] तयैतदप्यधिकृतं वेदि. योऽप्यस्ति अस्मदादीनां तु मनः कायोन वेति केवलिनः पव तव्यमिति गाथार्थः ॥६३॥ शमेश्यवस्थायां काययोगनिरोधकाले स एव केवल इत्यनेन च अधुना खरूपतः कायिक मानसं च ध्यानमावेदयनाद । शुभयोगोत्कटत्वं तथा निरोधश्च द्वयमपि ध्यानमित्यादि वेदित- मा मे एअउ काओ चि, अचलो काइअं हवइ जाणं । व्यमिति गाथार्थः ॥ ५ ॥ इत्थं य उत्कटो योगस्तस्यैवेतरा- एमेव य माणसिनं, निरुघमणसो हव काणं ॥६४॥ ऽसद्भावेऽपि प्राधान्यात सामान्येन तमनिधायाधुना विशेषेण मा मे मम [ एअउ काउत्ति] पजतु कम्पतां कायो देड इति त्रिप्रकारमप्युपदर्शयन्नाह। एवमचलत एकाग्रतया स्थितस्येति भावना । किं कायेन निकाए वि अ अज्कप्पं, वायाइमएस्स चेव जह हो । वृत्तं काायकं भवति ध्यानम् एवमेव मानसं निरुकं मनसोजकायवयमणो जुत्तं, तिविहं अप्पमाइंस ॥६॥ वति ध्यानमिति गाथार्थः॥६॥ कायेऽपि च अध्यात्मनि वर्तत इत्यध्यात्म ध्यानमित्यर्थः । ए इत्थं प्रतिपादिते सत्याह चोदकः । काग्रतया एजनादिनिरोधात् ( वायाएसि ) तथा चाचि अ जह कायमणनिरोहे, जाणं वायाजुजश्न एवं । ध्यात्म तथा एकाप्रतयैवायतन्नामानिरोधात् [मणस्स चेव जह होइत्ति] मनसचैव यथा नवत्यध्यात्मम् । एवं कायेऽपि वाचि तम्हा वई उ जाणं, न हो को वा वि मेमृत्य ।।६५॥ चेत्यर्थः । एवं वेदनानिधायाधुनकदैवोपदर्शयन्नाह “कायवा ननु यथा कायमनसो निरोधे ध्यानं प्रतिपादितं नवता [वामनोयुक्तं त्रिविधमध्यात्ममाख्यातवन्तस्तीर्थकरा गणधराश्च याए जुजा न एवंति ] वाचि युज्यते [ण एवंति ] नैवं कदावक्ष्यन्ते च "नंगियं सुयं गुणं ते यश तिविहे जोग" मिति चिदप्रवृत्यैव निरोधानावात् । तथाहि न कायमनमी यथा सगाथार्थः॥६०॥ दावृत्ते तथा वागिति । [ तम्हावति तु काणं नहोई ] तस्माद्वापरान्युपगतध्यानसाम्यप्रदर्शनेनानभ्युपगतयोरपि गध्यानं न भवत्येव तुशब्दस्यैवकारार्थत्वा व्यवहितप्रयोगाच्च ध्यानतां प्रदर्शयन्नाह । को या विशेषोऽत्र येनेत्यमपि व्यवस्थिते सति वाक्प्राधान्यं जजइ एगग्गं चित्तं, धारयो वा निरंभो वा वि। यतीति गाथार्थः। जाणं हो ना तहो, अरेसु वि दोमु एमेव ।।६।। इत्यं चोदकेनोक्ते सत्याह गुरुः । हे प्रायुष्मन्योकाग्रचित्तं क्वचिद्वस्तुनि धारयतो वा स्थिरतया मा मे चलन ति तणू, जह तं जाणं णिरेइणो हो। देहव्यापिविषवत इति निरुम्भतो वा चित्तनिरुधानस्य वा अजया भासविवजिस्स, वाकाणमेवं तु ॥६६॥ तदपि योगनिरोध इव केवलिनः किमित्याह ध्यानं भवति मा. मा मे चलतु कम्पतामितिशब्दस्य व्यवहितः प्रयोगः । तं द. नसं यथा तथा इतरयोरपि द्वयोर्वाक्काययोरेवमेव एकाग्रधार यिष्यामः तनुःशरीरमेवं चलनक्रियानिरोधेन यथा तट्यानं णादिनैव प्रकारेण तवक्षणयोगध्यानं भवतीति गाथार्थः॥६॥ [णिरियणो होत्ति] निरेजनस्य निष्कम्पस्य भवति [अजयाभाइत्यं त्रिविधे ध्याने सति यस्य यदोत्कटत्वं तस्य तदेतरस- सविविजिस्स वाश्यं काणमेवं तु] अयतो नाषाविवर्जिनो दुष्टझायेऽपि प्राधान्याध्यपदेश इति सोकोत्तरानुगतश्चायं न्यायो वाक्परिहर्तुरित्यर्थः । वाचिकध्यानमेव यथा कायिकं तुशब्दोवर्तते तथाचाह । ऽवधारणार्थ इति गाथार्थः। देसिअदंसिअमग्रमे, वच्चंतो नरवई बहइ सदं। साम्प्रतं स्वरूपत एव वाचिकध्यानमुपदर्शयन्नाह । रायत्ति एस बच्चइ, सेसे अणुगामिणो तस्स ॥६॥ एवंविहा गिरा मे, वत्तव्वा एरिसा न बत्तव्वा । देशयतीति देशकः अग्रयाय। देशकेन दर्शितो मार्गः पन्था अवेयालिप्रवक्कस्स, भासओ वाइअंकाणं ॥६॥ यस्य स तथोच्यते ब्रजन् गच्छन् नरपती राजा लभते शब्दं| एवंविधेति निरवद्या गीर्वागुच्यते मेति मया वक्तव्या। [एप्रामोति । शब्दं कि नृतमित्याह (रायत्ति एवं बचा त्ति) रिसित्ति ] ईटशी सावद्या न वक्तव्या [इयवेयाजियवकस्स राजा एष व्रजतीति न चासो केवलः प्रभृतलोकानुगतत्वान्नच भासंतो वाचिभ्रं जाणं ] पवमेकाग्रतया विचारितवाक्यस्य तदन्यव्यपदेशस्तेषामप्राधान्यात् तथा चाह [ सेसा अणुगा- सतो भाषमाणस्य वाचिक ध्यानमिति गाथार्थः ॥६॥ मिणो तस्सत्ति ] शेण अमात्यादयः अनुगामिनोऽनुयातारस्त- एवं तावद्यवहारभेदेन त्रिविधमपि ध्यानमावेदितम धुनेकदैव स्य राज्ञः इत्यतःप्राधान्याजाजेतिव्यपदेश इति गाथार्थः॥२॥ एकत्रैव त्रिविधमपि दर्श्यते। अयं लोकानुगतो न्यायः अयं पुनर्लोकोत्सरानुगतः । मणसा वावारंतो, कायं वायं च तप्परीणामो। पडमिल्युगस्स उदए, कोहस्सिअरेवि तिनि तत्थ त्थि।। भंगिमसुअं गुणंतो, वट्टइ तिविहे विकाणम्मि || न य ते न संति तहिअ, नयपाहणं तहेअं पि ॥६३॥ | मनसाऽन्तःकरणेनोपयुक्तः सन्व्यापारयन्कायं देहं च वाचंच प्रथम एव प्रथमेल्लुकः । प्रथमत्वं चास्य सम्यग्दर्शनाख्यप्रथ. भारती च [तप्परिणामोत्ति ] तत्परिणामो विवक्तितश्रुतपरिमगुणघातिस्वात्तस्य प्रथमेल्लुकस्य उदये कस्य क्रोधस्य अन- | णामः । अथवा तत्परिणामो योगत्रयपरिणामः । स तथाविधः प्रताहुबन्धिन इत्यर्थः। [इयरे वि तिनि तत्य त्थिा शेषा अवि शस्तो योगत्रयपरिणामो यस्यासी तत्परिणाम इति । तदधि Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०ए) काउस्सग्ग अभिधानराजेन्दः । काउस्सग्ग कश्रुतदृष्टिवादान्तर्गतमन्या तथाविधः [गुणतोत्त ] गुणयन् ऊष्मावशेषोऽपि मनागपि उष्ण इत्यर्थः शिखी अग्निः भूत्वा वर्सते त्रिविधेऽपि ध्याने मनोवाक्कायव्यापारलकण इति गा- बग्धेन्धनः प्राप्तकाष्ठादिः सन्पुनवनति [ अत्ति ] एवमव्यक्तं थार्थः ॥६८॥ अवसातमानुषङ्गिकं साम्प्रतं भेदपरिणामं प्रतिपा- चित्तं मदिरादिना भूत्वा व्यकं पुनर्भवत्यग्निवदिति गाथार्थः । दयता उत्थितोत्थितादिनेदो यो नवधा कायोत्सर्ग उपन्यस्तः इन्थं प्रासंगिक किवदप्युक्तम् अधुना प्रक्रान्तवस्तुशुमिः किस यथायोग व्याख्यायत इति । तत्र यते । किं च प्रक्रान्तं कायिकादिविधध्यानं यत उक्तं "भंगियधम्मं सुकं च दवे, काय काणाइ जो वियो संतो। सुयं गुणेतो. वट्टर तिविहे विकाणम्मि"इत्यादि एवं च व्यवस्थिते एसो कानस्सग्गो, उसिउसिनो होइ नायव्वो ॥६॥ "अंतो मुहुत्तकालं, चित्तमेगग्गया भवति काणं" यमुक्तमस्माधर्म शुक्लं च प्राक्प्रतिपादितस्वरूपमेते द्वे ध्यायते ध्याने यः द्विनयस्य विरोधाशङ्काव्यामोहः स्यादतस्तदपनोदायाशङ्कामाह कश्चिस्थितः सन् एष कायोत्सर्ग स्थितो नवति ज्ञातव्यो य पुण पुव्वं च जदुत्तं, चित्तस्सेगग्गया हव भाणं । स्मादिह शरीरमुत्थितभावोऽपि धर्म शुक्लं ध्यात्वा उत्थित श्रावनमणेगग्गं, चित्तं चित्र तं न तं झाणं ।। ७५॥ एवेति गाथार्थः ॥६६॥ गतः खल्वेको नेदः । पुनस्त्रिबिधे ध्याने सति पूर्व च यमुक्तं चित्तस्यैकाग्रता भव___ अधुना द्वितीयः प्रतिपाद्यते । ति भ्यानम् । “अंतोमुहुत्तकालं चित्तस्सेगग्गया नवति काणं" धम्म सुकं च दुवे, न विकायइ नवि अ अट्टरुदाई। शति वचनात् चशब्दादनेतन कर्द्धमुक्तम् “भंगियसुयं गुणेएसो कानस्सग्गो, दव्बुसिनो होइ नायव्यो ।।७।। तो, वह तिविहे वि जाणम्मि" तदेतत्परस्परविरुकं कथं यत. त्रिविधे ध्याने सति प्रापनमनेकविषयं ध्यानमिति तथाहि मनधर्म युक्त च द्वे नापि ध्यायति नापि प्रातरौद्रे एष कायोत्सर्गो सा किंचिद्ध्यायति वाचाऽभिधत्तेकायेन क्रियां करोतीत्यनेकाअन्योत्थितो भवतीति ज्ञातव्य इति गाथार्थः। ग्रता । अत्राचार्य श्दमनात्य सामान्यनानेकाग्रचित्तं हृदि कृत्या कस्यां पुनरवस्थायां न शुनं ध्यानं ध्यायति काकाह "चित्तंचियतं न तं जाणं" यदनेकाग्रं तश्चित्तमेव न तद्ध्यानाप्यशुभमित्यत्रोच्यते। नमिति गाथार्थः । श्राह-उक्तन्यायादनेकानं त्रिविधं ध्यानं तपयसायं तसु सुत्तो, नेव सुहं काइ काणमसुहं वा। स्मात्तर्दि ध्यानत्वानुपपत्तिर्नाभिप्रायपरिज्ञानात् तथाहि । अब्बावारिअचित्तो, जागरमाणो वि एमेव ॥७२॥ मणसहिएण उ कारण, कुण वायाइ भासई जं च । प्रचलायमान ईषत्स्वपन्नित्वर्यः [सुत्तेति ] सुष्टु सुप्तः स खनु एअच्छि भावकरणं, मणरहिअं दबकरणं तु ।। ७६ ।। नैव शुनं ध्यायात ध्यानं धर्म शुक्वलक्षणं अशुभं वा आर्तरी मनःसहितेनैव कायेन करोति यदिति संबध्यते उपयुक्तो यजलकणं न व्यापारितं क्वचिद्वस्तुनि चित्तं येन स अव्यापारि करोतीत्यर्थः । वाचा जायते यच्च मनःसहितया एतदेव जावकतचित्तः यश्चिरं जाग्रदपि एवमेव शुभं ध्यायति नाप्य शुभमिति गाथार्थः ॥७२॥ किं च रणं वर्तते । जावकरणं च ध्यानं मनोरहितं तु द्रव्यकरणं जअचिरोववनगाणं, मच्छिा अब्बतमत्तसुत्ताणं। वति । ततश्चैतमुक्तं जवतीहानेकाग्रतैव नास्ति सर्वेषामेव मनः प्रभृतीनामेकविषयत्वात् । तथाहि स यदेव मनसा ध्यायति तओहारिअमवत्त, च हो पाएस चित्तंति ॥७२॥ देवाभिधत्ते तत्रैव च कायक्रियेति गाथार्थः। नचिरोपपन्नका अचिरोपपन्नकास्तेषामचिरोपपन्नानामचिर इत्थं प्रतिपादिते सत्यपरस्त्वाह । जातानामित्यर्थः । मूतिाव्यक्तमत्तसुप्तात्मनां मूञ्चितानाम जइ ते चित्तं काणं, एवं जाणमवि चित्तमावन्नं । निघातादिना अव्यक्तानामव्यक्तचेतसां मसानां मदिरादिना तेन किर चित्तझाणं, अह ने काणमन्नं ते ।। ७७॥ सुषुप्तानां निजया इहाव्यक्तानामिति यदुक्तं तत्राव्यक्तचेतसः यदि ते तव चित्तं ध्यानम् "अंतो मुत्तकासं, चित्तस्सेगग्गअव्यक्तास्तत्पुनरव्यक्तं कीदृशमित्याह [श्रोहामियमब्धत्तं च हो पारण चित्तं तु] स्थगित विषादिना तिरस्कृतस्वभावमव्यक्तं या हवइ झाणं" इति वचनात् । एवं भ्यानमपि चित्तमापन्न च अव्यक्तमेव चशब्दोऽवधारणे नवति प्रायश्चित्तमिति प्रायो ततश्च कायिकवाचिकध्यानासंभव इत्यनिप्रायस्तेन किन चिप्रहणादन्यथाऽपि संजवतीति गाथार्यः। स्यादेतत् एवंनूतस्यापि त्तमेव ध्यानं नान्यदिति हृदयम् । अथ नैवमिष्यते मातृत्कायि. चेतसो ध्यानताऽस्तु को विरोध इत्यत्रोच्यते । तदेवं यस्मात् ॥ कवाचिके ध्याने न नविष्यत इति इत्थं तर्हि ध्यानमन्यत्ते तव चित्तादिति गम्यते यस्मान्नावश्यं ध्यानं चित्तमिति गाथार्थः। गाढावणलग्गं, चित्तं वुत्तं निरअणं काणं । अत्राचार्य आह अभ्युपगमादिदोषम् तथाहि । सेसं न होइ जाणं, मनअमवत्तं भमं तं च ।। ७३ ।। नियमा चित्तं झाणं, चित्तं झाणं न या विभअव्वं । गादालम्बने लग्नं गाढासम्बनलग्नम् । गाढासम्बनमेकासम्बने स्थिरतया व्यवस्थितमित्यर्थः । चित्तमन्तःकरणमुक्तं भणितं जह इरो होइ दुमो, मुमो अखइरो अखरो वा ७८। निरेजनं निष्पकम्पं ध्यानं यतश्चैवमतः शेषमस्मादन्यत्तन नवति "निअमा झाणं चित्तं चित्तं कार्य" इति पागन्तरं व्याख्याभ्यानं किंनूतम [मन्यमवत्तं भमं तं च] मृदुभावनायामकठो म्तरे नियमान्नियमेन उक्तलकणं चित्तं ध्यानमेव [काणं विरमव्यक्तं पूर्वोक्तं भ्रमत्वानवस्थितं चेति गाथार्थः । श्राह, यदि भइयवं] ध्यानं तु चित्तं न चाप्येवं विनक्तव्यं विकल्पनीयम् । चित्तं ध्यानं न नवति वस्तुतः अव्यक्तत्वात्कथमस्य पश्चादपि अत्रैवार्थे दृष्टान्तमाह “जह खश्रो होइ दुमो, दुमो अखइरो व्यक्तता इत्यत्राह। अखरो वा ] यथा खदिरो भवति द्रुम एव दुमस्तु खदिरः अखदिरो वा धवादि चेत्ययं गाथार्थः। अन्ये पुनरिदं गाथाद्वयउम्हासेसो वि सिही, हो अकिंधणो पुणो जन्ना। मतिकान्ते गाथां चैवाकेपद्वारेणान्यथा व्याचक्षते यमुक्तं इअ अन्वतं चित्तं, होउं बत्तं पुणो होइ।। ७४ ॥ "चित्तं चिय तं न तं जाणंति" इत्येतदसत्कथम् “यदि ते / Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काउस्सग्ग अभिधानराजेन्द्रः। कानस्सग्ग चित्तं झाणं, एवं काणमवि चित्तमावन्नं । सामान्येन " तेन | नमो अरिहंताणं करेमि भंते ! सामाइयं० इच्छामि किर चित्तकाणं, अह नेयं काणमन्नं ते " चित्तात् अत ऊर्य गमिकामस्सग्गं जो मे देवासिओम् ॥ पाठान्तरेणोत्तरगाथा " नियमा काणं चित्तं, चित्तं काणं न "करेमि नंते ! सामाइयं" इत्यादि यावत् “अप्पाणं बोसिया विभइयवं" । यतो व्यक्तादि चित्तं न ध्यानमिति । 'जह रामि" । अस्य संहितादिलकणा व्याख्या यथा सामायिकाभ्यखबरों' इत्यादि निदर्शनं पूर्ववत् अलं प्रसङ्गेन । प्रकृतं प्रस्तुमः। यने तथाऽवगन्तव्या पुनरभिधाने च प्रयोजनं वक्ष्यामः । इदप्रकृतश्च द्वितीय उत्थिताभिधानकायोत्सर्गोंद इति स ब्या मपरं सूत्रम् "इच्छामि गमि कानस्सगं जो मे देवसिओ प्राइख्यातः नवरं तत्र ध्यानचतुष्टयध्यायी लेश्यापरिगतो वेदि यारो को" इत्यादि यावत् "तस्स मिच्छामि इक्कम" अस्य तव्य इति । व्याख्या तबकणं चेदं संहिताचेत्यादि तत्रश्च्छामि स्थातुंकायोश्दानी तृतीयः कायोत्सर्गनेदः प्रतिपाद्यते । त्सर्ग यो मे दैवसिकोऽतिचारः कृत इत्यादि । संहितापदानि तु अट्ट रुदं च दुवे, काय झाणा जो सियो संतो। इच्छामि स्थातुं कायोत्सर्ग यो मया दैवसिका अतिचारः कृत एसो काउस्सग्गो, दबुसिओ जावो निसन्नो ॥७६ ॥ इत्यादीनि । पदार्थस्तु “श्षु श्च्छायाम्" इत्यस्योत्तमगुरुकवनिगदसिव । चनस्य "इषुगमियमां कः७३।७७" इति नत्वे इच्छामीति जवति अधुना चतुर्थकायोत्सर्गन्नेदः प्रदश्यते तत्रेयं गाथा। इच्छाम्यभिलषामि स्थातुमिति 'टा गतिनिवृत्ती' इत्यस्य तुमुन्प्रधम्मं सुकं च दुवे, कायइ झाणा जो निसन्नो अ। त्ययान्तस्य स्थातुमिति भवति । कायोत्सर्गमिति 'चिम् चयने एसो कास्सग्गो, निसन्तुसिओ होइ नायवो ॥७॥ अस्य घअन्तस्य 'निवासचितिशरीरोपसमाधानेम्वादेश्चक ३।३। निगदसिव । नवरं कारणिक एव म्मानस्थविरादिनिषम ४१' इति वीयत इति कायःदेह श्त्यर्थः 'सृजविसर्गे' उत्पूर्वस्य घनि उत्सर्गोनवति । शेषपदार्थों यथा प्रतिक्रमण इति पदविकारी वेदितव्यः वक्ष्यते अत्रान्तरत इत्यादि । अधुना पञ्चमका ग्रहस्तु यानि समासभाञ्जि पदानि तेषामेव भवति नान्येषामिति योत्सर्गजेदः प्रदर्यते । नात्र इच्छामि स्थातु कायस्योत्सर्गः कायोत्सर्गः शति तं शेधम्मं सुकं च दुवे, न वि झायन वि अ अट्टरुद्दाई । षपदविग्रहो यथा प्रतिक्रमण एव चालना प्रत्यवस्थानं च यथाएसो कानसग्गो, निसन्नो होइ नायव्यो ॥ ८१ ॥ संभवमुपरिष्टाद्वक्ष्यामः । अधुना षष्ठः कायोत्सर्गजेदः प्रतिपाद्यते। तथेदमन्यत्सूत्रम् । अट्ट रुदं च दुवे, काय काणाइ जो निसनो उ । तस्सुत्तरीकरणेणं पायच्छित्तकरणेणं विसोहीकरणेणं एसो काउस्सग्गो, निसन्नगनिसन्नगो नाम ।। २॥ विसखीकरणेणं पावाणं कम्माणं निग्घायणघाए गमि अधुना सप्तमः कायोत्सर्गभेदः प्रतिपाद्यते । काउसग्गं अन्नत्युससिएणं नीससिएणं खासिएणं छीधम्म मुक्कं च दुवे, काय काणाइ जो निवन्नो उ । एणं जंभाइएणं उम्मुएणं वायनिसग्गेणं जमलीए पित्तएसो काउस्सग्गो, निवन्नुसिओ होइ नायव्यो ॥८॥ निगदसिका। नवरं कारणिक एव खानस्थविरादियों निष्प मुच्छाए मुहुमेहिं अंगसंचालेहिं सुहहिं खेलसंचालेहिं सुहुनोऽपि कर्तुमसमर्थः स निषनकारी गृह्यते । मेहिं दिहिसंचालोहिं एवमाइएहिं आगारोहिं अजग्गो अ__साम्प्रतमष्टमकायोत्सर्गभेदो निदर्यते । विराहियो दुज्ज मे काउस्सम्गो जाव अरिहंताणं जगवंताणं धम्म सुकं च दुवे, न वि कायइ न वि य अट्टरुदाई। । नमुक्कारेणं न पारेमि ताव कार्य गणेणं माणेणं जाणेणं एसो कानसग्गो, निवन्नो होइ नायब्बो ।। ॥ अप्पाणं वोसिरामि ॥ निगदसिका । इहापि च प्रकरणानि निषन्नः सन्धर्मादीनाम- | अस्य व्याख्या। तस्योत्तरीकरणेन तस्येति तस्यानन्तरप्रस्तुध्यापयतीत्यवगन्तव्यम् । तस्य श्रमणयोगसंघातस्य कथंचित्प्रमादात् खएम्नादिनाधः___ अधुना नवमः कायोत्सर्गभेदः प्रतिपाद्यते । कृतस्य उत्तरीकरणेन हेतुनूतेन "गमि काउस्सगे" नियोगः अट्ट रुदं च दुवे, कायइ काणा जो निवन्नो उ । तत्रोत्तरद्वारण पुनः संस्करणद्वारेणोत्तरीकरणमुच्यते अनुत्तरएसो काउस्सग्ग्गो, निवन्नगो होइ नायचो ।। ५ ॥ मुत्तर क्रियत इति उत्तरीकरणं कृतिः करणमिति । तत्र प्राय श्चित्तकरणहारेण भणतीत्यत आह [पायच्छित्तकरणणं] प्रायअतरंतो निस्सन्नो, करिज तह वि अ सह निवन्नो उ। श्चित्तशब्दार्थ वक्ष्यामस्तस्य करणं प्रायश्चित्तकरणं तेन अथ संबाहुवस्स एवा, कारणि समत्य वि निसन्नो ॥८६॥ वासादीनि प्रतिक्रमणवासनानि विशुझौ कर्त्तव्यायां मूलकरनिगदसिद्धा [ अतरंतोगाहा ] निगदसिद्धैव नवरम् [ कार- गामिदं पुनरुत्तरकरणमतस्तेनोत्तरकरणेन प्रायश्चित्तकरणेनति णिसमन्थो वि निसन्नोत्ति ] यो हि गुरुवयावृत्यादिना व्यावृत्तः क्रिया पूर्ववत्प्रायश्चित्तकरण च विशुद्विारेण भवत्यत आह । कारणिकः समर्थोऽपि निषन्नः करोतीति । इत्थं तावत्कायो- [विसोहीकरणणं] विशोधनं विशुद्धिरपराधमलिनस्यात्मन त्सर्ग नुक्तः । अत्रान्तरे अध्ययनशब्दार्थो निरूपणीयः स चान्य- | इत्यर्थः तस्याः करणं तेन हेतुनूतेनेति । विधिकरणं च विशत्रान्यतणनिरूपितत्वान्नेहाधिकृतः। गतो नाम निष्पन्नो निक्केपः।। ल्याः करणद्वारण जवत्यत आह [विसल्लीकरणणं ] विगता साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्य निक्केपस्यावसरः । स च नि शल्यानि मायादीनि यस्यासौ विशल्यस्तस्य करणं तेन तावत् सति भवति सूत्रं च सूत्रानुगम इत्यादि प्रपञ्चो व- हेतुनूतेन [पावाणं कम्माणं निग्घायणघाए वाभि काउस्सग्गं] क्तव्यः यावत् तश्चेदं सूत्रम् । | पापानां संसारनिबन्धनानां कर्मणां ज्ञानावरणादीनां निर्घात Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४११ ) अभिधानराजेन्ऊः । कानरसग्ग मार्थ निर्घातननिमित्तं व्यापत्तिनिमित्तमित्यर्थः किं तिष्ठामि । कायोत्सी कायस्पोरस कायोत्सर्गः कायपरित्याग इत्यर्थः । एतदुक्तं भवति अनेकार्थत्वादातून तिष्ठामीति करोमि कायो त्सर्गव्यापारवतः कायस्य परित्याग इति भावना । किं सर्वथा नेत्याह [ अन्नत्थुससिएणंति ] अन्यत्रोच्वसितेन उच्चसि तं मुक्त्वा येोऽन्यो व्यापारस्तेन व्यापारवत् इत्यर्थः ॥ एवं सर्वत्र भावनीयम् । तत्र तच्तं तेन [ति] अनिखितेन खासियत कासितमिति प्रतीतम [] ते तदपि प्रतीतमेव [जापति ] नितेन वियदस्य पदम जृम्भितमुच्यते [ उड्डणंति ] उध्मात प्रतीतं [ वायनिसभोयं ] अपानेन वालनिर्गमीत भरायते तेन [ममलीपत्ति ] भ्रमल्या इयमाकस्मिकी शरीरभ्रमिलकणा प्रसीतेव [ पित्तमुच्ाति ] पिसमुयापिप्रायात्मना जयति [सुमेदि अंगचाहे ] सुमेरङ्गसंचारलकर्गात्रविचलनप्रकारै रोनोप्रमादिभिः [ सुडुमेहिं खेलसंचासेहिं ] मै खेलसंचारैः यस्मात्संयोगिवीर्यः स पञ्चतया तेन खेलं भवति [ सुमेहिं दिट्टिसंचालेहिं ] सूक्ष्मैर्दृष्टिसंचारनिर्निमेषादिभिः [श्यमा आगारेहिं अभग्गो अदिराहिमो हुआ मे काउरो ] पवमादिनिरित्यादिशब्द वा मः । श्रक्रियन्त इत्याकाराः श्रगृह्यन्ते इति भावना सर्वथा कायोत्सर्गापवादे प्रकारार्थः तैराकारविद्यमानैरपि न लोभनः सर्वधाविनाशन विराधितोऽधिराधितोऽचिराधितो देशभन्नोऽभिधीयते मे या कायोत्सर्गः क्रियते याच दिल्या [ जाता भगवंताणं नमोकार न पारेमि ] याद भगवतां नमस्कारेण न पारयामि यार्यादिति कालाव धारणमशोकाथमहाप्रातिहार्यादिरूपां पूजामईतीत्यतस्त बामतां भग ऐश्वर्यादिलक्षणः स विद्यते येषां ते नगवन्तस्पां भगवत संप्रमो नमस्कारेण [ नमो अरिहंताणंति ] अनेन पारयामि पारं गच्छामि तावत्किमित्याह [ तावकार्य ठाणेणं मोणे गाणे अप्पा बोसिरामि] तावच्छन्दन का लनिदर्शमाह । कायो देदः स्थानेनोर्द्धस्थानेन तथा मौनेन वाग्निरोधलक्षणेन तथा ध्यानेन शुभेन [ अप्पारांति ] प्राकृतशैल्या आत्मीयमन्येन पठनयेयेनमालाप व्युत्सृजामि परित्य जामि इयमत्र भावना कार्यस्थाने मौनध्यानक्रियाव्यतिरेकेण क्रियाऽत्राराभ्या सधारेण ब्युत्सृजामि नमस्कारपातं यावत्प्रल जो निश्चाप्रसरः प्रशस्त ध्यानानुगस्तिष्ठामि तथा च कायोत्सर्गपरिसमाप्तौ नमस्कारमपवतस्तद्भङ्ग एवं अष्टव्य ह त्येष तावत्समासार्थः। अवयवार्थ तु जाष्यकारो वक्ष्यति । श्रव० ५० कायोत्सर्गे का गतिरिति जघन्यतोऽपि तावदोषास मानमिद व प्रमादसदिरामदापहतचेतसा यथावस्थितं नगवचनमनालोच्य तथाविधजनासेवनमेव प्रमाणयतः पूर्वापरविरुरुमित्थमभिदधति उत्सूत्रमेतत् साध्वादिलो के नानाचरि तत्वात् तथायुतम अधिकृतकायोत्सर्गस्येवार्थान्तराभावात् उक्तार्थतायां चोक्तविरोधात् । श्रथ नवत्वयमर्थः कायोत्सर्गकरणे न पुनरयं स इति किमर्थमुशरणामति वाच्यं व न्दनार्थमिति चेन्नानर्थत्वात् । अत एवोच्चारणेनातिप्रसङ्गः । का योत्सर्गयुमेयवन्दनमिति चेत्कग्यस्ता स इति जलम्बमात्रः क्रियत एवेति चेन्न तस्य नियतप्रमाणत्वात् चेाभिभ भेदेन द्विप्रकारत्वादुकं च " सो उस्सग्गो दुविहो, चेहाए । " काउस्सग्ग श्रभिभवेय नायवो भिखारियापदो उपसभ जणो वीओ " अयमपि च्युतदोरेवान्यतरः स्यात् अन्यथा कायोत्सर्गस्य बाणीयोऽप्युतमानत्वात् । उतं च उद्देस सत्तवी, अस्सवणियाय अट्ठे व । ये उस्सासा पढवण, पमिक्कमणाइ अन्नायं " न गृहीत इति चेतनादिशब्दावरुद्धत्वामुपन्यस्तगाथासूत्रस्योपधादन्यत्रापि चागमे सूत्रोपगत एवानुकासि च "गोतगादी, लोsयदेसिए य अश्यारे । सव्वे समाणइत्ता, दियए दोसे च वेयाहि " अत्र खत्रिकामात्रो के आदिशब्दे पापकरणादिपरिप्रोऽवसीयते सुप्रसिद्धत्वात्प्रतिदिय सोपयोगाच्य 1 नोक्तमिति अनियतत्वात् । समानजातीयोपादानादिह तग्रहणमस्येव समानजातीयं च मुखयस्त्रिकायाः शेषोपकरणामिति चेत् तत्रापि तन्मानकायोत्सर्गल क्षण समानजातीयत्वमस्त्येवेति मुच्यतामभिनिवेशः। न चेदं साध्वादिलो के नाना चरितमव कचिदायरणोपलब्धी आगमविदाचरणश्चनभूत मनाचरितमपि प्रमाणं तद्वरुणायोगादुकं असण समा जेके असायचं शिवारियमसेि मयमेयमायरियं न चैतदसावद्यं सूत्रार्थस्य प्रतिपादितत्वात् । तस्य चाधिकतरगुणान्तरभावात्तथाकरणविरोधात् । न चान्यैरनिवारितं तदासेवनपरेरागमविद्भिरिए न बहुमतमपीति भावनीयम ययोदिका योत्सर्ग इति होच्छ्राससमानार्थम् । न पुनर्हेयनियमः । यथा परिणामे स्थापने वास्तानि यानि स्थानवा नियम दोषप्रतिको या एजन्सीजं तत्परमेश्वर मत इत्थमेवोपयोगसिप कमांच च " दाहरणात तो विद्यारुपम समानुपाति च यच ममानुष्यं प्राप्य सुन्दरं पिता पुनः संप्रवर्त्तते ॥१॥ विद्या तद्विषयेषु महात्मन तत्व मनोचि प्रवर्त्तते ॥ २ ॥ विषग्रस्तस्य मंत्रेच्यो, निर्विषाङ्गोद्भवो यथा । विद्याजन्मन्यलमोह-चैव हि ॥ ३ ॥ जैवे मार्गे स एवासी या नित्यमवेदितः नतु मोहविषमस्त इतरस्मिि येतरत] III] क्रियाहाना के योगे सानी स्पृहस्य सर्वत्र सर्वत्र यानम्प्रादुः शिवाध्वनि ||५|| इतिवचनात् अवसितमानुषंगिक स्तुमः स हि कायोत्स ततो नमो अरहंताणंति नमस्कारेणोत्सार्य स्तुतिम्पठत्यन्यथा प्रतिज्ञानङ्गः। जाय भरता इत्यादिवाश्च प्रतिम स्कारायैरुत्यादययै तद्धनिधानेऽपि दोषसंभवात् तदन्यमन्त्रादौ तथा दर्शनादिति । अथ बहवस्तत एक एव स्तुतिं पठत्यन्ये तु कायोत्सर्गेणैव तिष्ठन्ति यावत् स्तुतिपरिसमाप्तिः चैवं वृद्धा वदन्ति, यत्र किलायतने देववन्दनञ्चिकीर्षितं तत्र यस्य भगवतः सन्निहितं स्थापनारूपं तम्पुरस्कृत्य प्रथमं कायोतथा शोजनभावजन कम तस्योपकारित्वाससः सर्वेऽपि नमस्कारोच्चारणेन पारयन्तीति व्याख्यातो बन्दना कायोत्सर्गः ॥ ल० ॥ तच्छामि स्पातुं कायोत्सर्गमित्याद्यसूत्रावयवमधिकृत्याह परः कायोत्सर्गस्थानं य कार्यप्रयोजनरहितत्यापपर्य यदित्यत्रोच्यते प्रयोजनरहितत्वमसिद्धम् ॥ यतःकाउसम्मम्मि डिपो, निरेाकाभो निरुकचयपरो । जाइ सुहमेगमणो, मुणि देवसिआइआइआरं ॥ ८७ ॥ 46 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१२) कानस्सग्ग अन्निधानराजेन्द्रः। कानरसम्म परिजाणिऊण य जो, सम्मं गुरुजणपगासणेणं तु ।। श तथा चोक्तं भावयितव्यमनित्यत्वमसरणत्वं तथैकतान्यत्वे सोहाइ अप्पगंसो, जम्हा य जिणेहिं सो जणिो । अशुचित्वं संसारः कर्माश्रवः संवरविधिश्च निर्जराणां लोकविस्तारो धर्मःस्वाख्याततत्त्वचिन्ता च बोधे सुदुर्लभत्वं (काउस्सम्म गाहा) इह च संबन्धगाथाद्वयमन्यकर्तृकं तथापि च भावना द्वादश विशुद्धाः अथ वा पञ्चविंशतिर्भावना सोपयोगमिति कृत्या व्याख्यायते कायोत्सर्ग उक्तस्वरूपे स्थि यथा प्रतिक्रमणे वितथाचरणं वाऽऽसामविधिनासेवनामित्या. तः सन्निरेजकायो निष्पकम्पदेह ति नावना निरुकवाक्प्रस दि (गुत्तित्ति ) गुप्तिर्वितथाचरणे सत्यतिचारः ताश्चमा नोरो मौनव्यवस्थितः सन् जानीते सुखमेकमना एकाग्रचित्तः | गुप्तिप्रमुखास्तिस्रो गुप्तयः यथा प्रतिक्रमणे वितथाचरणमपि सन्कोऽसौ मुनिः साधुः किं देवसिकाद्यतिचारम् । आदि गुप्तिविषयं यथा समितिष्विति गाथार्थः ॥ १० ॥ शब्दाद्वा क्रियाग्रह इति गाथार्थः ॥ ७ ॥ ततः किमित्याह इत्थं सामान्येन विषयद्वारेणातिचारमभिधायाधुना (परिमाणिऊणत्ति ) परिझाय अतिचारं यस्मात्कारणात स ____ कायोत्सर्गगतस्य मुनेः क्रियामभिधित्सुराह । म्यगशठभावेन गुरुजनप्रकाशनेनेति हृदयम् तुशब्दादिष्टप्रा गोसमुहणंतगाई, श्रामोए देसिए अई पारे । यश्चित्तकारणेन च शोधयत्यात्मानमसी अतिचारमलिन कालयतीत्यर्थः । तच्चातिचारपरिज्ञानमविकलकायोत्सर्गव्यव सव्वे समापश्ना, हिअए दोसे विज्जाहि ||११|| स्थितस्य भवत्यतः कायोत्सर्गस्थानं कार्यमिति । कि च य- गोसः प्रत्यूषो भण्यते (मुहणंतगाईत्ति ) मुखवत्रिका प्रास्माजिनैर्भगवद्भिरयं कायोत्सर्गों भाणतः उक्तः तस्मात् कायो- दिशब्दाच्छषोपकरणादिग्रहस्ततश्चैतदुक्तं भवति गोसादात्सर्गस्थान कार्यमिति गाथार्थः ॥ ८ ॥ रभ्य मुखवस्त्रिकादौ घिषये ( पालोए देसिए अाभायतश्चैवमतः। रोत्ति ) अवलोकयेनिरीक्षेत दैवसिकानतिचारानविधिना प्रत्युपेक्षितादीनिति ततः ( सब्बे ) सर्वानतिचारान्मुकाउस्सग्गं मोक्खप-हदेसिओ जाणिकण तो धीरा । खवत्रिकाप्रत्युपेक्षणादारभ्य यावत्कायोत्सर्गमवस्थान्तरम् दिवसाइआरजाण-ट्ठमिइ ठायंति उस्सगं ।। नए॥ (समापइत्ता ) समाप्य बुध्यवलोकनेन समाप्ति नीत्वा एतामोकस्य पन्थास्तीर्थकरैरेव भण्यते तत्प्रदर्शकत्वात्करणे का-| वानेव नातः परमतिचारोस्तीति हृदये चेतास दोघान्प्रतिषेधयोपचारात्तेन मोकपथेन देशित उपदिष्टः मोकपथदेशितस्तं करणादिलक्षणानालोच्य स्थापयेदिति गाथार्थः ॥ (जाणिकणंति ) दिवसाद्यतिचारपरिझानोपायतः विज्ञाय ततो काउंहिए दोसे, जहक्कम जाव ताव पारे । धीराः साधवः दिवसातिचारज्ञानार्थमित्युपत्रकणं राध्यति ताव मुहुमाणुपाणू, धम्म मुक्कं च झाइज्जा ॥६॥ चारज्ञानार्थमपि ( वायति उस्सगं ) तिष्ठन्ति कायोत्सर्ग [काउंहिअयेत्ति] कृत्वा हृदये दोषान्यथाक्रममिति प्रतिषेधकुर्वन्ति कायोत्सर्गमित्यर्थः । यतश्च कायोत्सर्गस्थानं कार्यमेव नानुलोम्येन पालोचनानुलोम्येन च प्रतिषेधनानुलोम्यं नाम ये सप्रयोजनत्वात्तथाविधवैयावृत्यवदिति गाथार्थः। यथा सेविता इति अालोचनानुलोम्यं तु पूर्व यद्यत् आलोचितं साम्प्रतं यदुक्तं दिवसातिचारङ्गानार्थमिति तत्रौघतो विषयद्वा तत्तत्पश्चाद्गुरुरिति ( जाव ताव पारेइत्ति ) यावत्तावत्पारयति रेण तमतिचारमुपदर्शयन्नाह । गुरुर्नमस्कारेण (ताव सुहुमाणुत्ति) तावदितिकालावधारसयणासणन्नपाणे, चेअजसिज्जकाइनचारे । । णार्थ सूक्ष्मप्राणापानः सूक्ष्मोच्चासनिःश्वास इत्यर्थः (धम्मसमिईजावणगुत्ती, वितहायरणे अारो || || सुकं च भाइज्जा ) धर्मः ध्यानप्रतिक्रमणाध्ययनोक्लस्वरूपः शयनीयवितधाचरणे सत्यतिचारः । एतमुक्तं नवति संस्ता शुक्लं च ध्यायेदिति गाथार्थः॥ १२॥ रकादरविधिना ग्रहणादी अतिचार इति [श्रासणत्ति) आ देसिअराइअपक्खे, चाउम्मासे तहेव वरिसे अ। सनवितथाचरणे सत्यतिचार: पीठकादरविधिना ग्रहणादाव शकिके तिन्नि गमा, नायव्या पंचसेएसु ।। ६३ ।। तिचार इति भावना [ अन्नपाणेत्ति ] अन्नपानवितथाचरणे देवसिके प्रतिक्रमणे दिवसेन निर्वृत्तं देवसिकं ( राइयत्ति) सत्यतिचारः अन्नपानस्याविधिनाऽग्रहणादावतिचार इत्यर्थः रात्रिके (पक्खियत्ति ) पाक्षिके चातुर्मासिके (तहेव वरिसे[चेतियत्ति ] चैत्यवितथाचरणे सत्यतिचारः । चैत्य- अत्ति ) तथैव वार्षिके च वर्षेण निर्वृत्तं वार्षिकं सांवत्सरिकविषये च वितथाचरणमविधिना बन्दने अकरणे चेत्यादि । मिति भावना एकैकस्मिन्प्रतिक्रमणे देवसिकादौ त्रयो गमाः [जत्ति] यतिवितथाचरणे सत्यतिचारः यतिविषयं च वितथा ज्ञातव्याः पञ्चस्वेतेषु दैवसिकादिषु कथं त्रयोगमाःसामायिक चरणं यथाई विनयाद्यकरणमिति (सेज्जत्ति ) शय्याधितथा- कृत्वा कायोत्सर्गाकरणं सामायिकमेवंकृत्वा प्रतिक्रमणं साचरणे सत्यतिचारः शय्या वसतिरुच्यते तद्विषयं वितथाचरण- मायिकमेव कृत्वा पुनः कायोत्सर्गकरणमिह यस्माद्दिषसामविधिना प्रमार्जनादौ स्यादिसंसक्तायां वा वसती। इत्यादि दितीर्थ दिवसं प्रधानं च तस्मादेवसिकमादाविति गाथार्थः कायिकावितथाचरणे सत्यतिचारः वितथाचरणं वाऽस्थरिमले ९३ ॥ अवाह चोदकःकायिकान्युत्सृजतः । स्थएिमले वाऽप्रत्युपक्षिते बेत्याह (उ- आश्मकाउस्सग्गो, पमिकमं ताउ काकान । वारेत्ति) उच्चारः वितथाचरणे सत्यतिचार: उच्चारः पुरीषो भएयते चितथाचरणं चैतद्विषयं यथा कायिकं (समि सामइयतो किं करे-हवीअंतअंच पुणे विउस्सग्गो॥ तित्ति ) समितिर्वितथाचरणे सत्यतिचारः समितयः श्रेयः स व्या-(प्राइमकाउस्सग्गेत्ति ) प्रथमकायोत्सर्ग कृत्वा सा मायिकमिति योगः ॥ मितिप्रमुखाः पञ्च यथा प्रतिक्रमणे वितथाचरणं वा समविधिनासेवनमनासेवनं चेत्यादि ( भावणेत्ति ) भावना वि पमिकमं ताव बीयं, काउं सामाइयं तिरोगोतो । तथाचरखे सत्यतिचारः भावनाश्वानित्यत्वादिगोचरा द्वाद- किं करेह तश्यं सा-पश्यं पुणो वि रस्सग्गोय ॥५॥ Jain Education Interational Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१३) कानस्सग्ग अभिधानराजेन्द्रः । काउस्सग्ग चालना चेयमत्रोच्यते सव्वं पावं कम्म, नामिज्जइ जेण संसारे ॥ २०१।। समभावम्मि विअप्पा, उस्सग्गं करिअ तो पडिकमई। व्यतो नायतश्च द्विविधा शुद्धिः,शल्यं च (कमिकं तु) एकैएमेव य समभावे, ठिस्स तइयं तु नस्सग्गे ॥१६॥ कम् । शुकिरपि । व्यन्जावभेदेन द्विधा शल्यमपीत्यर्थः। तत्र द्रव्यहद समन्नावव्यवस्थितस्य नावप्रतिक्रमणं नवति,नान्यथा,ततश्च शुहिर्जलादिना वस्त्रादेः,भावशुद्धिः प्रायश्चित्तादिना प्रात्मनः। समजावे रागद्वेषमध्यवीत्तनि स्थित प्रात्मा यम्यासौ स्थिता एवं अन्यशल्यं कएटकशिलीमुस्खफलादि:माधहाल्यं तु मायादिशस्मा,(उस्सगं करिय तो पमिकमइ) दिवसाचारपरिशानाय कायो ल्यम् । सर्व ज्ञानाबरणीयादि कर्म पापं वर्तते। किमिति ?-भ्रात्सर्ग कृत्वा गुरोरतिचारजाझं निवेद्य तत्प्रदत्तप्रायश्चित्ससमना म्यते येन कारणेन तेन कर्मणा जीवः संसारे तिर्यङ्नरनारकावपूर्वकमेव ततः प्रतिक्रामतीति। एवमेव च (समभावे विपस्स मरभवानुभवलक्षणे; तथा च दग्धरज्जुकपेन नवीपमाहिणा प्र. तश्यं तु उस्सग्गे) एवमेव समजावस्थितस्य सतश्चारित्रशुद्धि रूपेनापि सता केवलिनोऽपि न मुक्तिमासादयन्तात दारुणं रपि भवतीति कृत्वा तृतीयं सामायिक कायोत्सर्गे प्रतिक्रान्तो. संसारभ्रमणनिमित्तं कर्मेति गाथार्थः ॥ २०१।। सरकालभाविनि क्रियत इति गाथार्थः ॥ १६ ॥ साम्प्रतमन्यत्रोच्चसितेनेत्यवयवं यिवृणोतिप्रत्यवस्थानमिदमथवा नस्सासं न निरंभइ, आभिग्महिमोवि किम चेट्टाओ। सज्झायमाणतवओ-सहेसु उपएसथुइपयाणेसु । सजमरणं निरोहे, सुहुमुस्सासं तु जयणाए ।। २०२।। संतगुणकित्तणेसु अ, न हुंति पुणरु तदोसा न ॥१६॥ ऊः प्रबलो वा श्वासः उच्चासः, तं (न निरुभइ ति) ननिरुमित्तिमिउमद्दवत्त, छत्ति प्रदोमाण गयणे होई। णद्धि, (श्राभिम्गहिरो वि) अभिगृह्यत इत्यभिग्रहः,अभिग्रहण मित्ति अमेराइ विप्रो, दुत्तिगंग मि अप्पाणं ॥१७॥ निवृत्तः आभिग्रहिकः कायोत्सर्गः, तदव्यतिरकात् ततोऽप्याकत्ति कमं मे पावं, मत्तिअमेवेमि तं च उवसमेणं । निग्रहिको भएयते । असावप्यभिनयकायोत्सर्गकार्यपीस्यएसो मिचोकम-पयक्खरत्थो समासणं ॥१॥ र्थः । (किनुन चेट्ठाओ त्ति) किंपुनश्चेष्टाकायोत्सर्गकारी । स तु सुतरां न निरुणीत्यर्थः । किमित्यत श्राह-( सञ्जमरएं निरोसमायगाहा निगदसिद्धा (१६६)इदानीं "जो मे देवसिओ अइ हे त्ति) सद्यो मरणं निरोधे सुच्चासस्य, ततश्च (सुहुमुस्सासं भारोको" इत्यादिसूत्रमध्ये व्याख्यातत्वादनारस्य "तस्स मि. तु जयणाए त्ति) सूक्ष्मोच्चासमेव यतनया मुश्चति, नोस्वच्यामि दुकर्म ति" सूत्रावयवं व्याविदयासुराह-मित्तिमिउ गा णं, मा नूत्खयघात इति गाथार्थः ॥ २०२॥ हा। १७७) कत्तिकडं मे गाहा तिगाथायुगलकं यथा सामाविकाध्ययने व्यापयातं तथैव द्रव्यमिति ॥१६॥ अधुना खासितेनेत्यादिसूत्रावयवार्थ प्रचिकटयिषयेदमाहसाम्प्रतं तस्योत्तरकरणमिति सूत्रावयवं विवृपाशाह- कासखुजभिए मा, दु. सत्थमनिझोऽनिलस्स तिव्यएहो। खंमिअविराहिआणं, मूलगुणाएं सउत्तरगुणाणं । असमाही अनिरोहे, मा मसगाई अ तो हत्ये ॥२०३॥ उत्तरकरणं कीरइ, जह मगमरहंगगेहाणं ॥१६६।। इह कायोत्सर्गे काशशुतजृम्भितानि नाऽयतनया क्रियन्ते । समितविराधिताना-खएिमताः सर्वथा भग्नाः, विराधिता किमिति-(माहु सत्थमनिलोऽनिक्षस्म त्तिबुण्हो शि) मा शस्त्रं देशतो भनाः, मूलगुणानां प्राणातिपातादिनिवृत्तिरूपाणां, सह भविष्यति काशितादिसमुयोऽनिलो वायुरनिलस्य बाह्यस्य वा. उत्तरगुणः पिएमविशुद्ध्यादिभिर्वर्तन्त इति सोत्तरगुणाः, ते योः। किनूतः-तीनोरणः,बाह्यानिलापेक्षया अत्युष्ण इत्यर्थः। न षामुत्तरकरणं क्रियते, आलोचनादिना पुनः संस्करणमि- चन क्रियन्ते, निरुध्यन्त एव (असमाहीय निरोहे त्ति) असमात्यर्थः । दृष्टान्तमाह-यथा शकटरथाङ्गगेहानां बहित्रचक्रगृ. धिश्च, चशब्दान्मरणमपि संभाव्यते, कासितादिनिरोधे सति । हाणामित्यर्थः। तथा च शकटादीनां खरिमतविराधितानामक्ष. तथा-मामशकादयश्च कासितादिसमुद्भवपवनश्लेष्मादिनिहता वेलिकादिनोत्तरकरणं क्रियत इति गाथार्थः ॥ १ ॥ मरिष्यन्ति, जृम्जिते चा बदनप्रवेशं करिष्यन्ति; ततो हस्तः अधुना प्रायश्चित्तकरणेनेति सूत्रावयवं ब्याचिख्यासुगद अग्रतो दीयते इति, यतनेयमिति गाथार्थः । २०३॥ पावं दिइ जम्हा, पायच्छित्तं ति जन्नई तेणं । आह-निश्वसितेनेति सूत्रावयवो न व्याख्यात इति किमत्र पारण वा वि चित्तं, विसोहई तेण पच्छित्तं ॥ २०॥ करणम ? । उच्यते-उच्छ्रसितेन तुल्ययोगौमत्वादिति । पापं कर्मोच्यते, तत्पापं चिनत्ति यस्मात्करणात् प्राकृत शैल्या | इदानीमुझारितेनेत्यादिसूत्रावयवं ब्याचिण्यासुराह"पायच्चित्तं ति"एयते तेन कारणेन । संस्कृते तु पापंचिन-1 वायनिसग्गुग्गारे, जयणा सदस्स नेव य निरोहे । तीति पापच्चिदुच्यते । प्रायशो धा चित्तं जीयं शोधयति कर्मम उग्गारे वा हत्थे, भमनीमुच्छासु अनिवसे ॥ ३०४ ।। लिनं विमलीकरोति तेन कारणेन प्रायश्चित्तमित्युच्यते । प्रायो बाहुल्येन चित्तं स्वेन रूपेण अस्मिन्सति भवतीतिप्रायश्चित्तम। घातनिसर्ग उक्तस्वरूपः, समारोऽपि । तत्रायं विधिः यतना शप्रायोग्रवण संवरादेरपि तथाविधचित्तसद्भावादिति गाथार्थः ॥ ब्दस्य क्रियते न निसृष्टं मुच्यत इति । (णेव य णिरोहे सि ) अधुना "विसोहीकरणेन"इत्यादिसूत्रावयवं नैव च निरोधः क्रियते, असमाधिभाबादेव । उकारे या हस्तो. व्याचिख्यासयाऽऽद ऽन्तरं दीयत इति । (भमलीमुच्छासु अनियसे त्ति) भ्रमीमू योश्च निवेशे मा सहसा पतितस्यात्मविराधना भविष्यतीदब्वे जावे अदुहा, सोही सद्धं च इकमिकं तु। तिगाथार्थः ॥ २०४॥ १०४ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१४) काउस्सग्ग अभिधानराजेन्द्रः। काउस्सग्ग साम्प्रतं सूधमैरङ्गसंचारैरित्यादिसुत्रावयवव्याचि भधुनौघतः कायोत्सर्गविधि प्रतिपादयनादख्यासयाऽऽह ते पुण समरिउ चिअ, पासवणुच्चारकाननूमीभो । वीरिप्रसजोगयाए, संचारा सुहुमवायरे देहे । पेहित्ता अत्यमिए, तं तुस्सगं सए गणे ॥२०॥ बाहिं रोमंचाई, अंतो खेलानिलाईआ ॥ २०५॥ ते पुनः कायोत्सर्गकर्तारः साधवः ससूर्य एव दिवसे प्रसववीर्यसयोगतया कारणेन संचाराः सूक्ष्मबादरदेहे अवश्यं | णोच्चारणकालभूमी प्रत्युपेक्ष्य,द्वादश प्रस्रवणभूमयाालयपभाविनः, वीर्य बीर्यान्तरायक्षयोपशमक्तयजं खल्वात्मपरिणामो रिनोगाअन्तः षट्,षट् बहिः। एवमुच्चारनूमयोऽपि द्वादशाप्रमाणे भरायते। योगास्तु मनोधाकायाः, तत्र वीर्यसयोगतयैव अतिचा- चाऽसा तिर्यग् जघन्येन हस्तमात्रम,अधश्चायतवान्यचेतनम, राः सूक्ष्मवादरा भवन्ति,न केवलं वीर्यादिति । देह एव च सति उत्कृष्टतस्तु स्वाहिसं द्वादशयोजनमानम् । नचतेनाधिकारातिप्रवन्ति नादेहस्य,तत्र (बाहिं रामंचाई) बहिःरोमाश्चादयः, आदि. नस्तु कालभूमयः कालमएमलाख्याः,यावच्चैनमन्यं च श्रमणशब्दादुत्कम्पग्रहः । (अंतो खेलानिनादी पा) अमध्ये समाः योगं कुर्वन्ति कालवेलायां तावत्प्रायशोऽस्तमुपयात्येव सश्लेष्माऽनिझायो विचरन्तीति गाथार्थः । २०५॥ विताततश्च ( अत्यमिए तं तुस्सगं सए गण त्ति) उक्तम । मधुना सूक्ष्मैरीष्टिसंचारैरिति सूत्रावयवं व्याख्यानयति अन्यथा यस्य यदैव व्यापारपरिसमाप्तिर्भवति स तदैव सामा यिकं कृत्वा तिष्ठतीति गाथार्थः ॥२०॥ पालोअचलं चक्खं, मणुव्व तं दुक्करं थिरं का । अयं च विधिः केनचित्कारणान्तरे गुरोर्व्याघाते सतिरूपे तयं खिप्पड़, सन्नावो वा सयं चलइ ।।२०६।। जइ पुण निव्वाघाओ, आयस्सं तो करंति सव्वे वि। भासोकनमवलोकः, ततस्तस्मिन्नवलोके चलं चञ्चलं, दर्शनसायसमित्यर्थः। किं चक्षुर्नयन, यतश्चैवमतो मनोवत् अन्तःक सवाकहणवाघा-ययाइ पच्चा गुरू ठंति॥१०॥ रणमिव,तचक्षुर्दुष्करं स्थिरं कर्तु, न शक्यते इत्यर्थः । यतो रुपै. यदि पुनर्नियाघात एव सर्वेषामावश्यकं प्रतिक्रमणं, ततः कुर्वस्तदातिप्यते, स्वन्नावतो वा स्वभावेन वा नैसर्गिकेन, स्वयं न्ति सर्वेऽपि सहव गुरुणा (साइकहणवाघायया पच्चा चमत्यात्मनैव चलतीति गाथाऽर्थः ॥ २०६॥ गुरू ठंति) इति निगदसिद्धमिति माथार्थः ॥२१०३ यस्मादेवं तस्मात् यदा च पश्चाद् गुरवस्तिष्ठन्ति तदान कुण निमेसजतं, तत्थुवोगेण माण काइज्जा। सेसा न जहासत्ति, आपुच्छित्ता ण ठंति सहाणे । पगनिसिं तु पवन्नो, जासढू अणि मिसच्चे चि॥२०७॥ मुत्तत्यसरणहेऊ, आयरिऍ ठिअम्मि देवसि ॥११॥ शेषास्तु साधवः, यथाशक्ति शक्त्यनुरूपं, यो हि यावन्तं कालं न करोति निमेषयनं कायोत्सर्गकार ।किमिति ( तत्वभोगेण माण मापज्जा) तत्र निमेषयत्ने य उपयोगस्तेन सता स्थातुं समर्थः " आपुच्छित्ता तु गुरुं ठंति सट्टाणे सामायिक मानध्यानं ध्यायेत अभिप्रेतमिति (एगनिसिं तु पवनो का सह काऊण। किंनिमित्तम् ? (सुत्तत्यसरण हे उं) सूत्रार्थस्मरणहेतुम। (प्रायरिपॅग्यिम्मि देवसिय त्ति) आयरिए पुरओ ठिए तस्स साभणिमिसत्थो वि) पकरात्रिकी तु प्रतिमा प्रतिपन्नो महासत्वः माश्यावसाणे देवसियं अश्यारंचितंति'। अन्ने भणति-"जाभा. भ्यायति समर्थः, अनिमिषाकोऽपि अनिमिषे अकिणी यस्य सः यरियो सामाश्य करताहे ते वि तहटिया चेव सामाश्यसुत्तभनिमिषाक्षः, निश्चलनयन इति गाथाऽर्थः ॥२०॥ मणुपेहंति, गुरुणा सह पच्चा देवासयं ति" गाथार्थः ॥२११॥ मधुना एवमादिभिराकारित्यादि सूत्रावयवं शेषास्तु यथाशक्तीत्युक्तम,यस्य कायोत्सर्गेण स्थातुं शक्तिव्याचिख्यासुराह रेव नास्ति स किं कुर्यादिति ततं विधिमभिधित्सुराहगणी र नाचिदेज व,श्वोहिअखोभाइ ३ दीहडकेवा४।। जो हुज्जउ असमत्थो, वालो बुलो गिलाण परितंतो। श्रागारहि अजग्गो, उस्सग्गे एवमाईहिं ॥ २०७॥ | सो विगहाइविरहिओ, झाइज्जा जा गुरू वंति ॥२१॥ यदा ज्योतिः स्पृशति तदा प्रावरणाय कल्पग्रहणं कुर्वतोऽपि यःकश्चित्साधुर्भवेदसमर्थः कायोत्सर्गेण स्थातुम् । स किंभूत म कायोत्सर्गभङ्गः । आह-नमस्कारमेवाभिधाय किमिति तद- इल्याह-बालो वृद्धः ग्वानः परितान्तोऽतिपरिश्रान्तो गुरुवयावप्रहणं न करोति येन तद्भङ्गो न नवति। तच्यते-नात्र नमस्का- त्यकरणादिना असावपि विकथादिरहितः सन् ध्यायेत्सूत्रार्थरेण पारणमेवा विशिष्टं कायोत्सर्गमानं क्रियते, किंतु यो यत्परि- म । (जा गुरु ठंति ) यावत् गुरुवस्तिष्ठन्ति कायोत्सर्गमिति माणो यत्र कायोत्सर्ग उक्तस्तत ऊर्द्धमिति समाप्तेऽपि तस्मिा- गाथार्थः ॥१२॥ मस्कारमपग्तो जङ्ग इत्यर्थः। अपरिसमाप्तेऽपिच परतो भक्त। भाचायें स्थिते देवसिकमित्युक्तं ततं विधिमभिधित्मुरादपव । स चात्र न भवतीत्येवं सर्वत्र जावनीयम । (उच्छिदेज वा जा देवसियं मुगुणं, चिंतेइ गुरू अहिंमिश्रो चेहें। त्ति) मार्जारी मूषिकादिर्वा पुरतो यायात्तत्राप्यग्रतः सरतो न कायोत्सर्गभङ्गः। (बोहियखोजात्ति) बोधिकाः स्तेनकास्तेभ्यः बहुवावारा इअरे, एगगुणं ता विचिंतंति ॥ २१३॥ कोनः संभ्रमः, आदिशब्दालाजादिकोजः परिगृह्यते । तत्रास्था- निगदसिद्धा। नवरं चेष्टा व्यापाररूपाऽवगन्तव्या ॥२१३॥ नेऽप्युच्चारयतो वा न कायोत्सर्गभङ्गः। (दहमके व ति) पब्बइमाण व चेह, नाऊण गुरुं बहुं बहुविहीअं । सर्पदष्ट वात्मनि परे वा साधौ सहसाऽऽकाएक एपोचार. यतः तथैव । आक्रियन्त इत्याकारा, तैराकारैः, अभन्नः स्या कालेण तदुचिएणं, पारे य थोवचेको वि ॥२१॥ स्कायोत्सर्गः, एवमादिभिरिति गाथार्थः ॥ २०८॥ नमोकार चनचीसग-किडकम्मालोअणं पमिकमणं । Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१५) कानस्सग्ग अनिधानराजेन्डः। काउस्सग्ग किइकम्मरालोम-दुप्पमिकते अउस्सग्गे ॥१५॥ ये प्रथम कमयन्ति सर्वे साधवः, यदि ज्येष्ठोऽसौ पर्यायेण,प्र. (नमोकारे त्ति) "कास्सग्गसंमत्तीए नमोकारेण पारेति,नमो न्यथा ज्येष्ठेऽसति ज्येष्ठमसापि कमयति, विनागोत्पन्ने शिष्यअरिहंताणं ति । (चउवीसगति) पुणो जेहिं इमं तित्थं देसियं कादिश्रकाभङ्गनिवारणार्थ कदाचिदाचार्यमेवेति गाथार्थः। तेर्सि तित्थगराणं ससभाईणं चउवीसत्थएण उकित्तण करेंति; आयरिय-नवज्काए, काऊणं सेसगाण कायव्वं । 'लोगस्सुज्जोयगरे'त्ति भणियं दोइ । (किकम्मति) ततो वंदिन उप्पमिवाडीकरणे, दासा सम्मं तहाऽकरणे ।। ७३ ॥ कामा गुरुं संडासयं पडिलेहिता उवविसंति । ततो मुहणंतगं आचार्योपाध्याययोः कृत्वा, कमणमिति गम्यते । शेषाणां सापमिसेहिय स सीसोवरि यं कायं पमति,पमजित्ता परेण विगएणं तिकरणपरिसुरू किकम्मं करेंति, वंदणगमित्यर्थः । धूनां यथारत्नाधिकतया कर्तव्यम् । उत्परिपाटीकरणे, विप र्ययकरणे इत्यर्थः । दोषा आज्ञादयः। सम्यक तथा प्रकरणे, उक्तं च-"आसोयणवागरण-स्स पुच्छणे पूयणाइसज्काए । अबराहे य गुरूणं,विणो मूलं च वंदणगं" ।। इत्यादि । (आलोण विकलकरणे च दोषा इति गाथार्थः।। णं ति) एवं च बंदित्ता उत्थायोजयकरगहियरओहरणअहाव- जा दुचरिमो त्ति ता हो-ई खमणं तीरिए पमिकमणे । षयकावा पुव्वं परिचिंतिए दोसे जदाराणियाए संजयभासा आइज्जं पुण तिएहं, गुरुस्स दोएहं च देवसिए ।।७।। ए जहा गुरू सुणेश, तदा पवमाणसंवेगा मायामयविप्पमुक्का अप्पणो विमुकिनिमित्तमालोपंति"। उक्तं च यावत् द्विचरम इति, द्वितीयश्च स चरमश्च कमणापेकया ता. वद्भवति कमणं; तीरिते प्रतिक्रमणे, पचित प्रतिक्रमणे इत्यर्थः । "विणएण विषयमूलं, गतूणायरियपायमूलम्मि । प्राचरितं पुनस्रयाणां गुरोर्द्वयोश्च शेषयोर्दवसिक इति गाथार्थः॥ जाणाविज सुविदिभो, जद अप्पाणं तह परं पि॥१॥ माचरितकल्पप्रवृत्तिमाहकयपावो वि मणसो, बालोश्यनिदिओ गुरुसगासे। विसंघयणाणं, मह हाणि च जाणि येरा। दोइ मरेगलदुओ, ओहरिअरु व्य भारयदो" ॥२॥ सेहगीअत्थाणं, ग्वणा आइसकप्पस्स ॥ ७ ॥ तथा धृतिसंहननादीनां हानि च ज्ञात्वा स्थविरा गीतार्थाः, शिष्यसप्पना ऽणुप्पन्नो, मायामामग्गो निहंतव्वा । कागीतार्थोयोर्विपरिणामनिवृत्यर्थ स्थापनां कुर्वन्तीति । स्था-- पालोयणनिंदणगरि-हणादि ण पुणो ति या वितियं ॥ ३॥ । पना प्राचरितस्य कल्पस्यति गाथार्थः ॥ तस्स य पायचित्तं, जम्मग्गविक गुरू उवश्संति । अथवासं तह अणुचरियव्ध, अणवत्थपसंगभीएणं" ॥४॥ असढेण समाश्य, जंकत्यइ केण असावज । (पडिकमणं ति ) “आलोइकण दोसे, गुरुणा पडिदिन्नपाय न निवारिअमोहिं, अ बहुमणुमयमेअमाइमं ॥ ७६ ॥ चित्ता तो। सामाश्यपुचग्गं, समभावे ठाकण य पमिक्कम ति" || सम्ममुवउत्ता परंपपण पामक्कमणं कति प्रणवत्थ भशन समाचरितं यत्किंचिद् कुत्रापि व्यादौ केनचित्प्रपसंगभीया । अणवस्थाए पुण उदाहरणं-तिलहारगकप्पागो माणस्थेन असावा न निवारितमन्यैश्च गीतार्थेश्वारुत्वादेषेत्थं त्ति। (कित्तिकम्म ति)"तओ पडिकमित्ता स्वामणानिमित्त यहनुमतमेतदाचरितमिति गाथार्थः। पमिकमणनिवयणस्थं वदति । तभो पायरियमादी पमिकमण असुमेवार्थ विशेषेणाहस्थमेव दसेमाणा खामेति"। विअहणपञ्चक्खाणे, मुए अ रयणाहिआ विउ करिति । उक्तं च मजिकोण करेंती, सो चेव य तेसि पकरेई ॥७॥ " मायरियउवझाप, सीस साहम्मिए कुलगणे वा। विकटनप्रत्याख्यानयोरित्यत्र विकटनमालोचनम, प्रत्याश्यानं प्र. जे मे केश कसाया, सब्वे तिविहेण स्वामेमि ॥१॥ तीतम् । श्रुते चोद्दिश्यमानादौ रत्नाधिका अपि तु ज्येष्ठार्या भ. सवस्स समणसंघ-स्स भगवो अंजसिं करिय सीसे। पि कुर्वन्ति, बन्दनमिति प्रक्रमाद् गम्यते। मध्यम इति, कमण सम्वं खमावश्ता, खमामि सम्बस्स मदयं पि ॥ २ ॥ श्त्यर्थः । न कुर्वन्ति, अपितु स एवाचार्यस्तेषां रत्नाधिकानां सब्वस्स जीवरासि-स्स भावो धम्मनिहियनियाचित्तो। करोति वन्दनमिति गाथार्थः॥ सब्वं त्रमावश्त्ता, समामि सब्वस्स भहयं पि" ॥३॥ इत्यादि। खामिंतु तो एवं, करेंति सव्वे वि नवरमणवजं । 'पुरानोइप दुप्पडिकते य कास्सग्गो' ति एवं वामेत्ता सिम्मि पुरालोअ-चप्पमिकंतस्स उस्सग्गं ॥७॥ मायरियमारं, तो 'पुरानोश्रं वा होज्जा दुप्पडिकंतं वा होजा अणाभोगादिणा कारणेणं । ततो पुणो वि कयसामाश्या च कमयित्वा ततस्तदनन्तरम,एवमुक्तेन प्रकारण, कुर्वन्ति सर्वेऽपि रित्तचिसोहणत्यमेव कारस्सगं फरेति ति" गाथार्थः । साधवः,नवरमनवचं,सम्यगित्यर्थः। रेखायांदुरालोचितऽपति कान्तयोः,एतनिभिसमिति भावः। कायोत्सर्गमिति गाथार्थः॥ भाव०५ मा भत्रापि कायोत्सर्गकरणे प्रयोजनमाहएवंविहपरिणामा, जावेणं तत्थ नवरमायरियं । जीवो पमायबहुलो, तम्भावनाविओ अ संसारे । खामंति सब्बसाइ, जइ जिट्ठो अन्नहा जेहें ।। ७॥ । तत्थ वि संजाविज्जइ, मुहमो सो तेण उस्सग्गो॥७॥ पवंविधपरिणामाः सन्तो भावेन परमार्थेन, तत्र नवरमाचा- जीवः प्रमादबहुमतद्भावनानावित एव प्रमारभावनाभाषित Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काउस्सग्ग स्तु, संसारे तचैव यतोऽन्यासपाठ्यातत्राप्यालोचनादी संभाव्यते सूक्ष्मोऽसौ प्रमादः ततश्च दोष इति, तेन कारणेन तज्जयाय कायोत्सर्ग इति गाथार्थः ॥ चोपs इंदि एवं उस्सगम्मिविस होइ अणवत्या । भाइ तज्जयकरणे, का प्रणवत्था जिए तस्मि ||८०|| चोदयति शिक्षकः- हन्दि यद्येवं कायोत्सर्गेऽपि सः सूक्ष्मः प्रमादो भवति ततश्च तत्रापि दोषः । तद्यथा अपरकरणं तत्राप्येष एव वृत्तान्त इत्यनवस्था । एतदाशङ्कयाह भएयते, प्रतिवचनम् तज्जकरणे अधिकृतसूक्ष्मप्रमादजयकरणे प्रस्तुते, काऽनवस्था ?, जिते तस्मिन् सूक्ष्ममा इति गाथार्थः ॥ तत्य वि जो तो जीव तेणेव य सयाकरणं । 5. सन्चो वि साहुजोगो, तं खलु तप्पच्चणीओ ति ॥८१॥ तत्रापि इतरायो पूर्वोक्यापतितः सूक्ष्मः प्रमा सापि जीवने तिर क्रियते यदितरेण तदुत्तरका नाविना कापसासरे स्वात्वं सदा कायोत्सर्गकरणापत्तिरित्याशक्क्याह स च सदाकरणं, कायस्य कुत इत्याह-सर्वोऽपि साधुयोगस्पो कः श्रमणव्यापारः यस्मात् । खलुशब्दो विशेषणार्थः, भावप्रधान इत्यर्थः इति ममादायनीक भगव डुक्तानुपूर्व्या विदितानुष्ठानयन्तो विनिर्जित्य प्रमादं वीतरागा भवन्ति । इत्थं जेयतया एव तस्य भगवद्भिर्ज्ञातितस्त्वा इति यदुवक्तव्यमित्यक्षं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः ॥ सूचागाहा एस चरिसम्गो, देखणी तो हो । ( ४१६ ) निधानराजेन्द्रः | अनायस्व चरो, सिकाएं हुईय किकम् ||८२|| पत्रपत्रिकायोत्स्वर्गस्तदा दर्शनशुद्धिनिमित्तं तृतीयो भव ति । प्रारम्भ कायोत्सर्गापेक्षया तस्य तृतीयत्वम् । श्रुतज्ञानस्य चतुर्थः पयमेव सिकानां स्तुति तदनुकृतिक द मिति सुचागाथासमासार्थः ॥ अवयवार्थमाह 1 सामाइअपुष्यं करिति तं परिचसोहुणनिमित्तं । पियधम्मभीरू गाणं ॥२॥ सामायिकपूर्वक प्रतिकमोत्तरकालनाविनं कायोत्स पन्ति वारिषशोधननिमित्त विशशः सन्त इत्याह-धर्माsaurौरवः पञ्चाशदुच्चासप्रमाणमिति गाथार्थः ॥ कसारिक विड़िया, सुद्धचरिता स्वयं पफाईना | कति तमो वेश्म वेददेमं तस्सां ॥ ४ ॥ उत्सार्य विधिना - 'एमो अरहंताणमिति' अभिधानल कणेन, शुचारित्राः सन्तः, स्तवं 'लोकस्योद्योतकररूपं,' प्रकृष्य, पतित्वेत्यर्थः कर्षन्ति पठन्तीत्यर्थः । ततस्तदनन्तरं दमकं कर्षन्ति ततः कायोत्सर्गे कुर्वन्तीति गाथार्थ ॥ किमर्थमित्याह दमणकनिमितं करिति पणवीप्यमाणं । ऊसारिकरण विहिणा, कति सुप्रत्ययं ताहे ॥ ८५ ॥ दर्शनशु निमित्तं कुर्वन्ति पञ्चविंशत्युच्छ्रासप्रमाणेन उसायं विधिना पूजेन फर्मन्तिवस्त ततः पुष्करवरेत्या दि' लक्षणमिति गाथार्थः ॥ काउस्सग्ग सुनारगं, करिंति पणवीसगं पमाणें । सुत्तइयारविसोहण - निमित्तमह पारिडं विहिणा || ८६ ॥ ज्ञानस्य कायोत्सर्ग कुपञ्चसमेव प्रमाणेन - नातिचारशोधननिमित्तम्, अथानन्तरं पारयित्वा विधिना पूर्वोनेति गाथार्थः ॥ चरणं सारो दंसण-नाणा अंगं तु तस्स निच्छयौ । सारम्मि अन सुद्धी पच्छावी ॥८७॥ किमित्याह सुद्धसयलाइ आरा, सिद्धाण ययं पति तो पच्छा । पुनभणिष्ण विहिणा, किकम्पं दिति गुरुराओ ||| शुद्धसकलातिचाराः सिद्धानां सबन्धिनं स्तवं पठन्ति 'सिद्धाएमित्यादि' वक्षणम्, ततः पश्चात् पूर्वभणितेन विधिना, कृतिकर्म्म चन्दमं ददति गुरोरप्याचार्यायैवेति गाथार्थः ॥ पं० व० ३ द्वार ॥ एस चरितुस्सग्गो, दंससुऍ तइगो होइ । सुनाएस्स चलत्थो, सिद्धाए थुई अ विइकम्मं ||२२|| (एस चरितस्सग्गो ति) चरित्तातियारविसुद्धिनिमित्तोनिणियं होइ । श्रयं च पंचासुरलासपरिमाणो, ततो णमोक्कारेण पारेता विसुद्धचरिता विसुद्धचरितं देमिसयाणं दंसविसुदिनिमित्तं स नामुकित करेति वारिसविसोहियं इयाि दंसणविसोहिजत्ति कट्टु तं पुण नामकित्तणमेव करेतियोगोगरत्यादि, अयं चतुर्विंशतिस्तयतुविशति स्तवे न्यक्षेण व्याख्यात इति नेद पुनर्व्याख्यायते ||२२|| चतुर्विंशविसावं यानिधाय दर्शन विशुकिनिमिमेय का योत्सर्ग चिकीर्षन्तः पुनरिदं सूत्रं पठन्ति - सूत्रम् सम्बलोए अरिहंतचेप्राणं दणवतियाए पूपणवत्तियाए सक्कारबत्तियाए सम्माणवत्तियाए बोदिलानबत्तियाए निरुवसग्गवत्तियाए सकाए मेहाए धिइए धारया अप्पेट्रा कमाणीए ठामि काउसम्मं ॥ श्रस्य व्याख्या-सर्वलोकेऽई चैत्यानां करोमि कायोत्सर्गमिति । तत्र लोक्यते दृश्यते केवलज्ञानभास्वतेति खोफ चतुर्दशर ज्वात्मकः परिगृह्यते इति । उक्तं च- "धर्मादीनां वृत्ति-द्रव्याणां भवति यत्र तत् क्षेत्रम् । तैर्द्रव्यैः सह लोक-स्तद्विपरीतं ह्यलोकारूपम” [यः सबै खल्वस्ति नेदनिषः सर्वशासी सो सर्वलोकस्तस्मिन्सर्वलोके होशो के चमराविभवनेषु तिम सन्त्येवाईच्चैत्यानि । ऊर्द्धशोके सौधर्मविमानादिषु सन्त्येवाईत्यानि तत्र प्रशोका महामतिदादिरूप पूजामतीस्पास्तेषां प्रमाणन्पदेयानि । इयमत्र भावना-चित्तमन्तःकरणं, तस्य भावे कमारी वा "वर्णरादि ७२२६॥ नि प्रतिमाः प्रशस्तसमाधिचि तोत्पादकत्वादत्यानि मयन्ते । तेषां किं करोमीत्तमपुरुषैकवचननिर्देशेनात्माज्युपगमं दर्श यति । किमित्याह-कायः शरीरं तस्योत्सर्गे कृत्या, स्थानं मानध्यानक्रियाव्यतिरेकेण क्रियान्तराध्यासमधिकृत्य कायस्य Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का उस्सग्ग अभिधानराजेन्सः । कानस्सग्ग परित्याग इत्यर्थः तं कायोत्सर्गमाह। कायस्योत्सर्ग इति षष्ठया उस्सग्गस्स गणविह। जधा ओहनिज्जुत्तीए" प्रा०चू०५०॥ समासः कृतः। अहंच्चैत्यानामिति प्रागुक्तम्। तत्किमहच्चैत्यानां । इदानीमेनामेव द्वारगाधां विशेषेण व्याख्यानयनाहकायोत्सर्ग करोति?, नेत्युच्यते-षष्ठयानिर्दिष्टं तत्पदं पदद्वयम- ननिसीयतुयट्टण, गणं तिविहं तु होइ नायव्वं । तिक्रम्य मराकप्युत्या वन्दनप्रत्ययमित्यादिभिरनिसबध्यते । नई नच्चाराई, गुरुमूलं पमिकमागम्म ।। १५ ॥ ततश्चाईच्चैत्यानां वन्दनप्रत्ययं करोमि कायोत्सर्गमिति द्रष्ट तत्र स्थान त्रिविध ज्ञातव्यम-ऊर्द्धस्थानं, निषीदनस्थानं, स्वग्य. न्यम् । तत्र वन्दनमभिवादनम, प्रशस्तकायवाचनःप्रवृत्तिरित्यर्थः। तत्प्रत्ययं तन्निमित्तं तत्फलं में कथं नु नाम कायोत्सर्गा निस्थानं च । तत्राद्यमूर्द्धस्थान व्याख्यानयनाह-( उहं) - देव स्यादिस्यतोऽर्थमिति । एवं सर्वत्र भावना कार्या । तथा श्वारार्थ ऊर्द्ध स्थानं कायोत्सर्गः। स तच्चारादीन् कृत्वा, आदि(पृयणवत्तियाए त्ति) पूजनप्रत्ययं पूजननिमित्तं,तत्र पूजनं गन्ध ग्रहणात्मवणं कृत्वा, ततश्च गुरुमूल आगत्य प्रतिक्रामतः माल्यादिभिरभ्यर्चनम् । तथा-(सक्कारवत्तियाए ति) सत्कारण काम, पथिकी प्रतिक्रामतो भवति ॥ त्ययं सत्कारनिमित्तं, तत्र प्रवरवस्त्राभरणादिभिरज्यर्चनं स पक्खे ऊसासाई, पुरो अविण यमग्गो वाऊ । स्कारः। आह-यदि पूजनसत्कारप्रत्ययं कायोत्सर्गः क्रियते, तत- णिक्खमपवेसवजण, जावासन्नो गिलाणाए ॥ ४१६॥ स्तावेव कस्मान्न क्रियेते ?। उच्यते-व्यस्तववादपधान- कायोत्सर्ग कुर्वता आचार्यपक्षके पकप्रदेशे न स्थातव्यम, यतः खात् । यदुक्तम् गुरुरुच्यासेनानिहन्यते । नापि पुरतः स्थातव्यम्, यतः पुरतः "दबत्यो य भाव-त्यो बहुगुणो सि बुकि सिया। अविनीतत्वमुपजायते गुरुमाछाच तिष्ठतः। नापि मागतः गुरोः अमिऊण जणवयणमिणं, छजीवाहियं जिणा चिंति ।।१।। पृष्ठतो, यतो गुरोर्वायुनिरोधेन मानता भवति । वायुयोऽपाउज्जीवकायसंजम-दव्वत्थएँ सो बिरुज्झती कसिणो। नेन निर्गच्छति । कथं पुनः स्थातव्यम् ?, यत्र निष्क्रमप्रवेशस्थातो कसिणसंजमे विउ, पुष्फाईयं न इच्छति ॥२॥ नं,तत् वर्जयित्वा कायोत्सर्ग करोति ( भावासन्नी त्ति ) यः उ. अकसिणपवत्तयाणं, विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो। धारादिना पीमितः स च निर्गमे रुद्धे संक्रामिरोध करोति, संसारपयणुकरणो, दन्वत्थपरूयदिटुंतो ॥३॥" ततश्च मानता भवति । अथ निर्गच्छति ततः कायोत्सर्गभङ्गः। अतः श्रावकाः पूजनसत्कारावपि कुर्वन्त्येव । साधवस्तु प्रश- भारे वेयण खमगुण्ह-मुच्छपरिताव छेदणे कलहो । स्वाभ्यवसायनिमित्तमेवेत्थमभिदधति । तथा-(सम्माणवत्ति अध्यावाहे गणे, सागारपमजणे जयणा ॥ १७ ॥ याए चि) सम्मानप्रत्ययं संमाननिमित्तम्, तत्र स्तुत्यादिनिर्गु तथा च मार्गे कायोत्सर्गकरणे एते दोषाः-निकामटित्वा णोन्नतिकरणं समानः, तथा मानसप्रीतिविशेष इत्यन्ये । अथ कश्चिदायातः साधुः, स च नारे सति यदि प्रतिवालयति तचन्दनपूजनसत्कारसंमाना एव किं निमित्तमित्यत श्राह-(बो ती वेदना भवति । तथा-कपकः कश्चिद्क्तं गृहीत्वाऽऽयातः, हिलाजवत्तियाए ) बोधिलाभनिमित्तं प्रेत्य जिनप्रणीतधर्मप्रातिधिलामो भएयते । अथ बोधिलाभ एवं किं निमित्तमित्य तथाऽन्यः नष्णसंतप्त पायातः । अनयाईयोरपि प्रतिवास यतो यथासंख्यं मुर्गपरितापौ भवतः। कपकस्य मूर्ना, उष्णुत पाह-(निरुवसग्गवत्तियाए ) निरुपसर्गप्रत्ययं निरुपसग. तप्तस्य परितापः । मथैते कायोत्सर्ग छित्त्वा प्रविशन्ति ततः प. निमित्तम, निरुपसों मोकः। अयं च कायोत्सर्गःक्रियमाणोऽपि रस्परं कनहो भवति । तस्मात् भव्याबाधे स्थाने कायोत्सर्गः धकादिविकलस्य नाभिलषितार्थप्रसाधनायालमित्यत आह कर्तव्यः, एतदोषभयात् । (सागारपमजणे जयत्ति) यदा तु (सफाप मेदाप धिप धारणाए अप्पेहाए यरूमाणीप ठा पुनः सागारिको भवति कायोत्सर्ग कुर्चतस्तदा अप्रमार्जनमेव मि कारस्सगं ति ) श्रद्धया हेतुभूतया तिष्ठमि कायोत्सर्गे, करोति, यतनया वा प्रमार्जयति-रजोहरणेन बाह्यनिषद्यया प्रन बलाभियोगादिना । श्रद्धा निजाऽभिमाषः । एवं-मेधया मृज्य कायोत्सर्गस्थानं, ततस्तां निषणं सगारिकपुरतः एकान्ते पटुत्वेन, न जमतया । अन्ये तु व्याचक्षते-मेधयेति मर्यादाव मुञ्चति, गते च तस्मिन् गृह्णाति । उक्तमूर्द्ध स्थानम् ॥ श्रोघ० । तित्वेन, नासमन्जसतयेति । एवं-धृत्या मनःप्रणिधानलकणया, "निव्वाघाते गयंता चेव पुन्वं सामायिकं कारित्ता सुत्तं अणुन पुना रागद्वेषाकुलतया । धारयया अहंदगुणाविस्मरणरूपया, पेहंति, जाव आयरिएण 'वोसिरामि'त्ति भणितं,ताहे इमे वि अगतु तच्छून्यतय, । अनुप्रेक्षया अईद्गुणानामेव मुहुर्मुहुरविच्यु तियारसुहमे भिया पडिलेहणादियं चितेति । अम्ले भमंति-जाहे तिरूपेणानुचिन्तनरूपया,ननु तद्वकल्पना वर्द्धमानयति प्रत्येकम पायरिया सामाइयं एगढिता ताहे ते तहप्तिा चेव अणुप्पेजिसंबध्यते।श्रद्धया वर्द्धमानया । एवं मेधयेत्यादि। एवं तिष्ठामि कायोत्सर्गम् । श्राह-उक्तमेव-प्रकरोमि कायोत्लंग,' सांप्रत 'ति हंति पढम सुतं चितेति । अत्राह-पत्थ किनिमित्तं कानछामीति' किमर्थमिति ? उच्यते-'वर्तमानसामीप्ये वर्तमानव. स्सम्गो कीरति, जेण रश्यस्स गिरवज्जता होति, सुई च द्वा' इति कृत्वा करोमि करिष्यामीति क्रियाभिमुख्यमुक्तम् । इदा पक्कगो चितेहिति? । उक्तं चनीं स्वासमतरत्वात क्रियाविशिष्टत्वात क्रियाकालनिष्ठाकालयोः "काउस्सग्गम्मि ठिो, नेरश्कायो निरुकवयपसरो। कश्चिददात्तिष्ठाम्येव । आइ-कि सर्वथा?; नेत्याह-अन्नत्थुस जाणइ सुहमेगमणो, मुणिदेवसिया अइयारं ॥८७। सिपणमित्यादि पूर्ववत् यावद्वासिरामित्ति।"एयं च सुत्तं पढित्ता परिजाणिऊण य जो, सम्म गुरुजणं पयासणेणं तु । पणीसुस्सासपरिमाणं काउस्सगं करति दसणसुखीप तइयं सो होर अप्पगं सो, जम्हा य जिणेहि सो भणिता" 1000 उट्ठाइत्ति"तृतीयत्वं चास्यातिचारासोचनविषयप्रथमकायोत्स सो काउस्सम्गो। गर्गापेकयेति। ततो-"नमोकारेण पारिता सुयनाणपरिट्रिनिमि कामस्सग्ग मोक्खपह-देसियं जाणिकण तो धीरा। तं अश्यारचिसोहणत्थं च सुयधम्मस्स भगवतो पराए भत्ती-1 दिवसाश्यारजाणण-डया वायति उस्सग्ग।८६/प्राव०नि०। प तप्परुवगनमोकारपुष्वगं थुई पदति" माव०५०॥"का- काउस्तम्ग मोक्वप इति देसितं जिणेहि, जेण णि Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (uts ) निधानराजेन्द्रः । काउसमा 9 1 रजता हो ति । भढया मोक्खपदो जैनशासनं, तम्मि देखितं विधेष तेन, मोक्स्खपहगेहिं वा जिणेहि दशितं जिगमिषूणां कर्तव्यतया । अदवा मोक्प दो णाणादीणि, तस्स दैसियं, देसयतीति देखियं तं देशयत्यर्थः । पवं जाणितूण ततो धीरा पी बुद्धिस्तया राजन्त इति धीराः । देवसियातियारस्स य पारजाकाउसमा ठाति सि एवं काम्सको हितेश मुणंतिमादि काउं जा पत्थ काउस्सग्गे ठितो ताव अप्पेतन्त्र, सभ्यं देवसिय चिंतेत्ता जावश्या देवसियाऽतियारा ते सव्वे समणेइत्ता ते दोसे आसोयणालोमे परिसेवणापुढोमे यठयेज्जा | तेसु संमत्तेसु धम्मसुक्काणि फाएजा जाव पहि उस्सारयति । श्रयरिया पुन अध्पणोच्चयं देवसियं चेटुं दोवारेचितैति ताव इमेहि एक्केसि चितिते होति । किं कारणं ?, त स्स अहिंमितिस्स अप्पा अतियारा, मिस्सादणिं हिंमिताणं च बहुतरा दिवसाहूणं किं निमित्त दिवस तिथं पो भवति । एवं पताश्रो तिथि गाधाओ दिवसे, एवं पक्लिए वि दिवसा चाउमावि दिवस दिवस विविध रचता दोस्रो, पब्चूसे रातिषा अतियारा पक्तियचात्तम्मा सिय संवरिया णत्थि । एतेन कारणेण दिबलमा पुरुष या केवलं दुगुणा पैदा योगतं पण अपरिमित उस्सारेतयं तं गमो णातूण अरिहंताणं ति भणित्ता पारेति । पच्छा पुर्ति नणति । सा य ती तित्यं दमा उस्सप्पिणी पदेखि खादसरावर व उपदेसो ते महती ती मा तो संधवो कायो। एतेण कारण काउसम्मातरं वडवीत् । सा य उवदि पहित्ता गुणवतो पडितिनिमित्तं समाणं संवेगसारं अचराचायण कालaar | बिणयमूहो धम्मो ति का वंदितुकामो गुरुं सडासयं पडिलेदित्ता उवेठो मुद्रणंतयं पडिलेहेति । से सीसं कार्य पापविशति कितिकम् काव्यं । तत्थ सुत्तगाहा आलोयणवागरण - पुणे पूयणाए सज्झाए । अवरा य गुरूणं, विगओ मूलं च वदणयं ॥ २१६ ॥ जित्ता अनुन्धाय जदारातिशिवार हार्दि स्थेरियहरणं गढाय अक्खत्रियं आलोएति जधा गुरू सुर्णेति उण तम्रो संजतभासाप पुञ्वरहर दोसे वागदेति गुरुस्स । तत्थ सुत्तगाधाम्रो 1 विवरण त्रिणयमूलं, गंतूणं साधुपादमूलम्मि । जाणावेज विडियो नह प्यारांत परं पि ।। २१७ ।। कयपावो विमाणूसो, लोइय जिंदिओ गुरुसंगासे । डोड़ अगल डुओ ओइरियमरी व भारवहो ||२१| उपमानुपछा, मायामन्तो हिंसा | आलोयरिश गरहणेहिं ण पुगोतिया वितियं । २१६ | जदिन अतियारो तादि भणितो म अमति ताथिया अतिपापात्मा श्रीहं ति तं च तदेव अणुचरितन्वं मा अणुवत्थादीया दोसा भविस्संति | पत्थ सुतगाधा तस्य पाय जम्मग्नविद् गुरू उपदिति । तं वह अपरितन्त्रं अत्पसंगजीते ॥१२०॥ अणवत्थाए उदाहरणं-तिलहारेण वेडे कदमलितपणं तेणपणं पसंगावणिवारणडाए आता चवालभित अधा न पुणे अतिवरति । एतेन कारणे पणानंतर आलोयणा श्रासोइए, पुणरवि सामाध्यं ववगयरागदी समोहं हो चिदिव सवितो समजाव तब्जावणाभावितो सुत्ने सुत्ते नववत्तो अणेसरेजा । पतेण श्रभिसंबंधेण आलोयणानंतरं सामाइयं, ततो खाणदंसणचरित्ताणं विकिपिडियायागरणतिचार किल्ला - करणातियारम्स जोवदेसस्स अ लढणा अतियारस्स वि तहा, परूवणातियारस य विसोहिनिमित्तं ववेक पडिक्कमणं पडिपदेणं अणुसज्जितव्यं, नवनत्तेण वि तं निंदामि, अायामिति, कामामेरा सम् जहा अप्पगो ठाति तहा कातव्यं । तत्थ सुत्तगाथा एते चैव जगतो भारी अभिषिषि । मिच्छादंस एमिणमो, बहुकागारं वियागादि ॥ एवा अविव पदं पदेशा पुणरवत्ति जवलिते, तो वेज्जति गयं पुब्वं ॥ दितेण विण्यमूलो धम्मो ति पुव्वन्त्तविहिणा वंदरामादपहिलोमायरियाबंद का सेगा वि खमावेतवा | काउस्सग्ग 64 तत्थ सुप्तगाथा श्रारिउवज्झाए, सीसे साइम्मिए कुलगणे वा । जेमे के कसाया. सध्ये तिविहेण स्वामेमि ||२२२ || यस समस्स नगरओ अंजलि करिय सीसे समाचा, समाय तुम पि ॥ २२२ ॥ मातरं समासमणा सतो मेसमा वि जीवा खमावेइतव्या । एवं विगतरागदोसमोह इति पुणत्रि सामान्य परिधि काउसो देशति । दि के वारिविराणाका लाला सुद्धा वा जोगनिगहो ति वा, पतेण कारणं चरितानियारविसोधिनिमित्तं सामाश्यं कठिण काउस्सग्गं दंरुगं च जाब तस्स उत्तरीकरणं जाव वोसिरामिति । एवं रिवज्जेणं णिरेजेलं तस्स प्रतीए काउस्सग्गो कायच्यो । केवचिरं कालं पमाणे । 'उसासाणं' सिलोगे चत्तारि पादा, पादे पादे ऊसासो । तत्य गाथा पादसमा उस्सासा, कालप्रमाणेण होति गातव्या । एतं कालप्रमाणं, उस्सग्गो होइ णानन्वो " ॥ तत्थेमा परिमाणगाथातो साए संतं गोसद्धं सायं वेयात्रिय संज्ञा तत्थ कम पढिते पतिसु वि काउस्समासु उस्साससतं भवति । तेर्सि पढमो चारिकाउस्ग्गो तत्थ पप्पास उस्सासणं उस्सारेसा विसुकचरितवाणं महामुनीनं महाजसा महाशा नियमो को थिरा अहिल Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१६) काउस्सग्ग ग्रान्निधानराजेन्द्रः। कानस्सग्ग मग्गो देसगाणं दसणसुद्धिणिमित्तं णामुक्त्तिणा कीरति । कि- ग्भागवति, तस्मिन् । तथा-धातकीखएमानि यस्मिन् स धातकीनिमित्तं , चरितं चिसोधितं । दीणि दंसणविसोधी कातब्ब खामोद्वापर,तस्मिश्च। तथा जम्ब्योपलक्षितस्तत्प्रधानो वाद्वीपो ति। एतेणाभिसंबंधेण चवीसत्थो सो पुब्बनणितो, तस्म जम्बूहापः, तम्मिश्च । एतवर्द्धतृतीयेषु द्वीपेषु महाकेत्रप्राधान्याविसोहणनिमित्तं का उस्सग करतो पराए जत्तीए भणति- कीकरणतः पश्चानुपूर्योपन्यासः। तेषु यानि भरतैरवतविदेहा. "सब्बलोप अरिहंतचेझ्याण बंदणवत्तियार"इत्यादि । अस्य नि । प्राकृनशैल्या त्वेकवचननिर्देशः । द्वन्द्वकवद्भावात् भरतैरव्याख्या-न केवलं च नवौसाणा, जे वि सम्चे पर सिद्धादी अरि- चतविदहमित्यपि नवति । तत्र धर्मादिकरान्नमस्यामि। "दुर्गतिदंता,चेदयाणि य, तेसिं चेव प्रतिकृतियकणानि । चिती सझाने. प्रसृतान् जीवान्, यस्माद्वारयते ततः। धत्तंचतान शुभे स्थाने, त. संज्ञानमुत्पद्यते काष्ठ कर्मादिषु प्रतिकृति दृष्ट्वा जया अरहंतप- माद्धर्म इति स्मृतः" ॥१॥स च द्विनेदः-श्रुतधर्मश्चारित्रधर्मश्च । भिमाए सा हति । अाले भणति-पता तिथगरा, तेसिं चेह- श्रुतधर्मेणे हाधिकारः तस्य भरतादिध्यादौ करणशीलास्तीर्थकयाणि अरिहंतचेदयाणि, अत्यतिमा इत्यर्थः । तसिं चंदना- रा एव अतस्तेषां स्तुतिरुक्ता । साम्प्रतं श्रुतधर्मस्योच्यते-(तमतिदिप्रत्ययं गमि का उस्सम्ममिति योगः। तत्र चन्द्यत्वात्ते- मिरपडलविद्धंसणस्स सुरगण इत्यादि ) तमः अझान देव पां वन्दनार्थ कायोत्सर्ग करेमि । श्रकाभिमानः सद्गण- तिमिरं, तमस्तिमिरम् अथवा-तमो बरूस्पृष्टनिधत्तं झानावरसमुत्कीर्तनपूर्वकं कायोत्सर्गेणैव पूजनं करोमीत्यर्थः। जधा रणीय निकाचितं तिमिरं, तस्य पटलं वृन्दं तमस्तिमिरपटलं, त. कोर गंवचुरणवासमलादीहि समन्यर्चनं करोतांति एवं स- द्विध्वंसयति नाशयतीति तमस्तिमिरपटल विध्वंसनस्तस्य,तथा कारवत्तियाए सम्माणवत्तियाए वि नावेतब्वं । णवरं स- चाज्ञाननिरासनैवास्य प्रवृत्तिः । तथा-सुरगणनरेन्द्रमहितस्य, कारो जधा वत्थाभरणादीहिं सक्कारेणं सम्माणो सम्माणणं । तथा चाग ममहिमानं कुर्वन्त्येव सुरादयः । तथा-सीमां मर्यादा के जगनि-बंदणादयो पाटिया आदरार्थ नचारिजंति ति।। धारयतीति सीमाधरः,सीम्नि वाधारयतीति तस्यति द्वितीया) भय बंदगादणि किमत्यमित्याह-" बोधिलाजवत्तियाए " कर्मणि षष्ठी। तं वन्दे । तस्य वा यन्माहात्म्यं तद्वन्द । अथवा-तस्य बोधे लाभो सम्मदसणादीदि पिप्पयागो सधीवाप्तिार चन्द इति वन्दनं करोमि । तथा घागमवन्त एवं मर्यादा धारयस्थाह-प्रेत्य सधर्मावाप्तिर्बोध लाभ इत्येतदर्थ बोधिलाभः । न्ति । किं भूतस्य ?, प्रकर्षण स्फोटितं मोहजानं मिथ्यात्वादि येन किमर्थमित्याह-" निरुवसम्गवत्तियाए " निरुवसम्गो मोक्खो, स तयोच्यते तस्यातथा चास्मिन्सति विवेकिनो मोहजालं विक्षतदर्थ 'पत्थय सिकाए मेहाप धितीए धारणाए अणुप्पेडाए यमुपयात्येव । इत्थं श्रुतधर्ममभिवन्द्याधुना तस्यैव गुणोपदर्शनघद्धमाण।ए गमि करेमि कानसम्ममिति " । तच्छन्दा- द्वारण प्रमादगोचरतां प्रतिपादयन्नाह-( जाजरामरणेत्यादि ) द्भक्त्यतिशयसामिलापता इत्यन्ये । संमत्ते तीवाभिनिवेश इ- जातिरुत्पत्तिः,जरा वाहानिः,मरणं प्राणत्यागः, शंका मनसो. त्यन्ये । ताप यकृमाणीए । एवं महाप । मेहा परुश्च न न घंघ- पुःखविशषः । जातिश्च जरा च मरणं च शोकश्चेति द्वन्द्वः । लश्तो । तद्गुणपरिज्ञानमित्यन्ये । अन्ये पुनः मेधाए त्ति जातिजरामरणशोकान्प्रणाशयत्यपनयति जातिजरामरणशोप्रासातणाविरहितो तत्व मग्गो द्वितो इति । वित्तीमणो सु- कप्रणाशनः तस्य । तथा च श्रुतधर्मोक्तानुष्ठानाद् जात्यादयः प्पणिहाणण दुरागाह प्राकुलो, धारणा य वोपदेसावि- प्रणश्यन्त्येव । अनेन चास्यानर्थप्रतिघातिवमाह । कल्यस्मरणं । अन्ये तु धारणाए ति अहंदगुणाविस्मरणरूपया, न मारोग्यमणतीति कल्याण, कल्यं शब्दयतीत्यर्थः । पुष्कलं तु तच्चून्यतया इति । अनुप्रेक्वा तद्गुणानामनुचिंतनं, चद्धमाणी संपूर्णम् । न च तदल्प, किंतु विशालं विस्तीर्णम, सुखं प्रतीत. वर्कमाना । केइ पुण अणुप्पहाए वहमाणीए ण पढंति । अन्ने पुण म। कल्याण पुष्कलं विशालं सुखमावहति प्रापयति कल्याणवनति-सद्धानिमित्तं श्रमार्थ श्रमानिमित्तं च गमि काउसस्स- पुष्कलविशालसुखावहः, तस्य । तथा च श्रुतधर्मोक्तानुष्ठामां । एवं मेढादिसु वि भावितब्वं । ठामि काउस्सगं इत्यादि नायुक्तलकणमपवर्गसुखमाप्यत एव । अनेन चास्य विशिपूर्ववत् । पणुचीसं उस्सासकाउस्सग्गा णमोक्कारेणं पारेति;ततो टार्थप्रसाधकत्वमाह-कःप्राणी देवदानवनरेन्द्रगणार्चितस्य श्रगाणातियारविसुद्धिनिमित्तं सुत्तणाणेणं मोक्वसाहणाणि तधर्मस्य सारं सामर्थ्यमुपलज्य इष्णा विज्ञाय कुर्यात् प्रमादम्। साहिज्जति त्ति काउं तस्स भगवतो पराए जत्तीए । एतप्पध- सचतनन चारित्रधर्मप्रमादः कर्नु न युक्त इति हृदयम् आह-सु गणमोकारवगं धुतिकित्तणं करेति।(अ० चू०५०) रगणनरेन्द्रमदितस्येत्युक्तं, पुनर्देवदानवनरेन्गणार्चितस्येति तद्यथा किमर्थमिति? अत्रोच्यते-तनिगमत्वाददोषः। तस्यैवगुणस्य भुपुक्खरवरदीव, धातइसमे अजंबुदीवे । तधर्मस्य सारमुपलभ्य कः सकर्णः प्रमाद। भवेश्चारित्रधर्म ति। यतश्चैवमतःजरहेरवयविदेहे, धम्माइगरे नमसामि ॥१॥ सिद्धे भो! पयतो 'णमो जिएमए' नंदी सयासंजमे, तपतिमिरपमन्त्रविदं-सणस्स सुरगणनरिंदमहिअस्स । देवनागसुवन्नकिन्नरगणस्सन्नूअनावच्चिए । सीमाधरस्स बंदे, पप्फोमिअमोहजालस्स ।। २ ।। लोगो जत्थ पइडिओ जगमिणं तेलुक्कमच्चासुरं, जाईजगमरणसोगपणासणस्स, धम्मो वउ सासओ विजयओ धम्मुत्तरं वदन ॥४॥ कमाणपुक्खा विसालमुहावहस्स । सुअस्स जगवो करेमि कालस्सग्गं । को देवदाणवनरिंदगण च्चि अस्स, सिके प्रतिष्ठिते प्रत्याख्याते भो इत्येतदतिशयिनामामन्त्रणं, धम्मस्स सारमुवान करे पमाय ।। ३ ॥ पश्यन्तु भवन्तः, प्रयतोऽहं यथाशक्त्यैतावन्तं कालं प्रकर्षण अस्य व्याख्या-पुष्कराणि पन्नानि तैवरसप्रधानः पुष्करवरः, पु- यतः इत्थं परसाक्तिक प्रयतो भूत्वा पुनर्नमस्करोति-'नमो जिकरवरश्वासौदीपाश्चेति समासः तस्या मानुषोत्तराचलार्धा- | नमते' अर्थाद्विभक्तिपरिणामः-नमो जिनमताय। यतश्चेवभूताऽद Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२० ) अभिधानराजेन्द्रः । काउस्सग्ग प्रयतो नन्दिः सदा सर्वकालं की, संयमे चारित्रे, मम जवत्वित्यस्याहार्यम् । किंभूते संयमे ?, देवनागसुवर्णकिन्नरगणैः सद्भूतनावेनार्चिते । तथा च संयमवन्तः श्रर्यन्त एव देवादि भिः। किंभूते जनमते, लोकमेव प्रतिष्ठित तथा जगदिदं यया केचिन्मनुष्यलोकमेव म म्यन्तेत्यत आह-मनुष्यासुरम, आधारायेव रूपमित्यर्थः । अमितः वृद्धिमुपाशा पत्र नित्यः तथा चोकमा देशादित्येा द्वादशा न कदाचिन्नासीदित्यादि । श्रन्ये पठन्ति धम्म वर्कतां शाश्वतमिति, अस्मिन्पक्षे क्रियाविशेषणमेतत् शाश्वतं वर्द्धताम् । श्रप्रयु त्येति सर्वकालमिति भावना । विजयतः कर्मपरप्रवादिविजयेनति हृदयम् । तथा धर्मोस चारित्रधर्मोत्तरं वर्षतु । पुनर्वृध्याऽनि मार्थिना प्रत्यहं हादिकार्यंत प्रदर्शनार्थम । तथाथ सीकर नामकर्म यतिपादयम्यागि सुस्म जगव करेमि काउस्सग्गं चंदवसियाए" इत्यादि प्राग्वत् यावद्रोसिरामि । पयं सुत्तं पढित्ता पण सुस्सासमेव काउसभ्यं करेति । श्राह च "सुयनाणस्स चत्थो ति" ततो न. मोहारेण पारिता सुरूचरणमुपातिवामंगनिमितं चरगाण सिद्धाणं प्रति कति भणियं यस काणं त्ति " | सा चेयं स्तुति: सिद्धाणं बुद्धाएं, पारगयाणं परंपरगया । लोगग्गमुत्रयाणं, णमो सया सव्वसिद्धाणं ॥ १ ॥ जो देवाण वि देवो, जं देवा पंजझी नमसंति । तं देवदेवमहियं, सिरसा बंदे महावीरं ॥ २ ॥ एको विनमुकारो, जिणवरवसहस्स वद्धमाणस्स । संसारसागराओ, तारेइ नरं व नारिं वा ॥ ३॥ ( सिकाएं बुद्धाणमित्यादि ) अस्य व्याख्या- सितं ध्यान मेतेषामिति सिद्धार्थः तेज्यः सि । ते च सामान्यतो विद्यासिका अपि जवन्त्यत श्राह - बु ज्यः; सूत्राचगताशेषाविपरीतत्वात् बुद्धा उच्यन्ते । तत्र केचिस्तथैव स्वागत पगम्यते। अत आह-परतेयः पारं पर्वतं संसारस्य प्रयोज नवातस्य वा गताः पारगताः, तेज्यः । तेऽपि चानादिसिद्धैकजगस्पतीच्या विसापयते इत्यत आह-परम्परगते यः परम्परा एकेनाभिण्यकार्थादागमात्प्रवृत्तोऽन्योऽन्येनाभिव्यक्तायोग्य इत्येवंभूतया गताः परंपरमताज्या प्रथमं नामियादागमात्रवृत शस्यते, अनादित्यात्स काउस्सग्ग पेतः श्रीमन्महावीरवकुर्वन्ति "जो देवा पण वि देवो जं देवा पंजली" इत्यादि । यो भगवान् वर्द्धमानः देवानामपि भवनवास्यादीनां देवः पूज्यत्वात् । तथा चाह-यं देवाः प्रा यो नमस्यन्ति विनय रचितकरपुटाः सन्तः प्रणमन्ति । (तं देवदेवमहिषे देवदेवाय पूजितं शिरसा स्यादरप्रदर्शनार्थमाह । बन्दे तं कम ?, महावीरम् । ईर-गतिप्ररयोरस्य विपूर्वस्यति कर्मगतिवा शिवमिति वा वीरः महांश्वासौ वीरश्च महावीरस्तम् ||२॥ इत्थं स्तुतिं कृत्वा पुनः फलप्रदशनमिदं पठति (एको वि नमोकारो जिरावर सहस्सेत्यादि) एकोऽपि नमस्कारो जिनवरवृषभस्य वर्द्धमानस्य संसारसागरातू तारयति नरं वा । नारि वा इयमंत्र भावना-सति सम्यग्दर्शने परया भावनया क्रियमाण एकोऽपि नमस्कारस्तथा जुताध्ययन हेतुर्भवति यथाभूतामिचाप्य निस्तरति भवदमित्यतः कारणे कार्योपचारादेवमुच्य ते; अन्यथा चारित्रादिषैफल्यं स्यात् । श्राव० ५ अ० श्रनेन तसत्कापेक्षा संपत्समन्वितैयमधर्मसाधतां सः। केवल साधकश्चायम सति च केवले नियमान्मोक्ष इत्युक्तमानुपतिकं तस्मान्नमस्कारः कार्यइत्यादकिय स्तुत्यर्थवादो यथा-कथा पूर्णाहुत्या सर्वान् कामानवाप्नोति, उत विधिवाद एव यथाऽग्निहो जुहुयात् स्वर्गकाम इति । किं वा अतः ?, यथाऽऽद्यः पकः ततो यथोक्तफलशून्यत्वात् फलान्तरभावे च तदन्यस्तुत्यविशेषामिवनेन च यज्ञस्तुतिरप्ययेति प्रतीतमेव । श्रथ चरम विकल्पः- ततः सम्यक्त्वा पुत्रतमहाव्रतादिचारित्रपालनवैयर्थ्यम्, तत एव मुक्तिसिः । न च फलासाधकामेष्यादिमांचे नेत्वात् " सम्पदर्शनानचारिणि मोकमार्गः" इति वचनादिति बोध्यते विधिवाद एवायम् । न च सम्यक्त्वादिवैयर्थ्यम्, तत्वतस्तद्भाव एवास्य भावात दीनारादिभ्यो भूतिन्याय एषः तद बन्ध्यहेतुत्वेन तथा तद्भावोपपत्तेः । श्रबन्ध्यहेतुश्चाधिकृतफलमिको भावनमस्कार इति अर्थवादकेऽपि न च स्तुतिः समानफले विशिष्ट हेतुत्वेनात्रैव यत्नः कार्यः: तुल्ययत्नादेव विषयभेदेन फलभेदोपपते वूलकल्पपादाऽऽदेः प्रतीतमेतत् । जगवन्नमस्कारश्च परमात्मविषयतयोपमाऽतीतो वर्तते । यथोक्तम् 66 कल्पद्रुमः परो मन्त्रः पुण्यं चिन्तामणिश्च यः। गीयते स नमस्कारस्तथैवापरिमताः ॥ १ ॥ कल्पदुमो महाभागः, कल्पनागो वरं फलम् । ददाति न च मन्त्रोऽपि सर्वदुःखविषापहः ॥ २ ॥ न पुण्यमयय न कामतः । तत्कथ्यते नमस्कार, एभिस्तुल्योऽभिधीयते” ॥३॥ इत्यादि । ०१ नि अति परि साना हो इकिको । अरियचदा ते पंचमं ॥ २७ ॥ पतास्तिस्रस्तुतयो नियमेनोच्यन्ते । केचित्तु श्रन्या अपि पवन्ति, नं च तंत्र नियम इति । "कितिक्रम्मं ति पुणेो सडासयं प डिसेविधिसंति होत्ति पहिंति स सीसोरि कार्य पमजित्ता चायरियस्स वंदणं करोति त्ति" गाथार्थः ॥ आह-निमित्तमिदं वन्दनमिति उच्यते प्रथमत्यानुपपतिरिति । अथवा कचिकर्मकृत्योपशमाद दर्शन दमाखानं हानाथरिमित्येवंभूतया परम्परागताः तेभ्यः । तेऽपि च कैश्चित्सर्व लोकापना एवोच्यन्ते । इत्यत आहमुज्यलोकमा तमुपगताः तेभ्यः यह कथं पुनरिह सकलकर्मविप्रान याति वासदेव कस्मान्न भवतीति पूर्व गवशाद्दण्मादिचक्रमणवत् समयमेवैकमविरुद्धेति । नमः सदासर्वकालं सर्वसिकेभ्यस्तीर्थकर सिकादिभेदनिनेभ्यः । अथवा सर्व सिद्धं साध्यं येषां ते सर्पास्तेभ्यः सर्वसिद्धनमस्कारं कृत्वा पुनरासनोपकारित्वाद्वर्त्तमानतीर्थाधि। 'सुकयं आणत्ति पिव लोप काऊ' ति जहा रह्यो मणूसा श्राणि सुकयं आपत्तिं पिव, बोए काकण सुकय किश्कम्मा । तो, गुरुथुड़ गहणे कए तिनि ||२८|| सामान्येन Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ४२१) कानस्सग्ग अनिधानराजेन्डः। कालस्सग्ग गाए पेसिया पणामं काऊण गच्चंति।तं च सुकयं काऊण पुणो एवं च पडिक्कमणकाझं तुलेति,जहा परिक्कमंताणं थुइअवसापणामपुन्वगंणिवति । एवं साहुणो वि गुरुसमाहिका वंदणपुम्व- णे चेव पमिलेहणवेला भव । गयं राश्यं । प्राय० ५ ० । गं चरितादिविसोहि काऊण पुणो सुकयकितिकम्मा संतोगुरु- शरय पमिक्कमेत्ता णं पमिक्कमहाकालं जाव सायं कणो निवेदेति-भगवं! कयंत पेसणं प्रायविसेहिकारणं ति बंदणं रिजा, वानसं पमुत्ते पुस्ममिणं वा कुसुमिणं चा जग्गाफाळण पुणो उक्कुया मायरियाभिमुहा विणयरयंजलिउडा चिति, जाव गुरु थुग्गहणं करेति। ततो पच्छा सम्मत्तीए पढ हएजा सएण ऊसासाण काउस्सग्गं रयणीए बीएज वा, मथुईप युति कति; ताओ धुतात्रो वतिरो तिनि कति त्ति। खासेज वा, फलहगपीढगदंमगण वा सुउक्तगपनरिया भाद च-वति य थुतीओ,गुरुथुइगहणे कपंतित्ति' गाथार्थः।२८ खमणंदिया वा राम्रो वा हासखेडं कंदप्पणाहवायं करेततो पाउसियं कत्तव्वं करेंति । एवं ताव देवसियं गये। ज्जा नवट्ठावणं । महा०७ अ०। श्याणि राइय; तत्थिमा बिही-पदम चिय सामाश्यं काहऊण इदाणि पक्खियं । तत्थिमा विही-जाहे देवसियं पडिक्कता चारितविसुद्धिनिमित्तं पणवीसुस्सासमितं काउस्सगं करे- जति निविहंगपमिक्कमणेणं ताडे गुरू निवेसंति, ती साट्र ति,ततो नमोकारेषं पारेत्तादंसणविसुमिनिमितं चमधीसत्थ- बदित्ता भणति-इच्छामि खमासमणो ! पक्खियं खामणगं ति। यं पढ़ति, पणवीसुस्सासपरिमाणमेव काउस्सगं करेंति । एत्थ एत्थ पढम खामणामुत्तं तं पुण इमंवि नमोकारेण पारेसा सुयनाणविमुकिनिमित्तं सुखनाणस्थय इच्छामि खमासमणो ! उवटिनोमि अजितरपक्वियं खाकति, कास्सगं च तस्सुमिनिमित्तं फरेंति । तत्थ य पादो. मेलं पएहरसएडं दिवसाणं पन्नरसएहं राईग जं किंचि अपसियं शुश्माश्मं अधिकयकाउस्सग्गपजंतमत्यारं चितेति।। पाह-किनिमित्तं पदमकाउस्सग्ग एव न चिंतिति । उच्यते त्तिय परपत्तियं भत्ते पाणे विणए वेयावच्चे पालाचे संहावे निदामचो न सरइ, अइआर माश्घट्टणं नुन्ने । उच्चासणे समासणे अंतरजासाए उरिजासाए जं किंचि किइअकरणदोसा वा, गोसाई तिनि नस्सग्गा ॥२२॥ मज्झ बिणयपरिहीणं मुहुमं वा वायरं वा तुब्ने जाणह अहं न याणामि तस्स मिच्छा मि मुक्कम । निदामतो निदाभिभूमो, न सर न संभरति, सुटु अश्यारं इदं च निगदसिम्मेव, नवरं अन्तरजामा-श्राचार्यस्य नामायघट्टणं नुने अंधयारे बंदणं ग्याणं कितिप्रकरणदोसा वा पमाणस्यान्तरे भाष्यते । उवरिभासा-इत्तरकालं तदेव किलाअंधयारे भदसणाओ मंदसद्धा वा ण वंदेति । एपण कारणेण धिकं भाष्यते। गोसे पच्चूसे आदीप, तिनि काउस्सग्गा भवंति, न पुण पान. तत्राचार्यो यदभिधत्ते तत्प्रतिपादयन्नाहसिए जहा एको ति।" तत्थ पढमो चरित्ते, दसणसुद्धी' वि अहमवि खामेमी १ तु-भेहि समं २ अहं च वंदामि ३ । श्रो हो। मुअनाणस्स च ताभो, नवरं चिते तत्थ इमं"। आयरिअसंलिअं४ नि-त्यारगओए गुरुणो अवयणाई।२३१। तइए निस्सारं, चिंतइ चरमम्मि किं तवं काही । (अहमवि खामेमि ति) अहमपि खामेमि, तुजेत्ति भणियं दोबम्मासा एगदिणा-इहाणि जा पोरिसि नमोवा ॥२३॥ छ । एवं जहन्नण तिन्नि, उक्कोसेणं सन्चे खामिज्जति । पतप निस्सश्यारं चिते ति व्याख्यात पचायमवयवः । च्छा गुरु उठेकण जहाराणियाए उठिी चेव नामेश्यरे नतो चितिऊण अड्यारं नमोकारेण पारेत्ता सिद्धाणं थुई वि जहारायणियाए सव्वे वि अवणयनत्तिमंगा भरगति देव. कारुण पुव्बजणिएण विहिणा वंदित्ता आलोपंति, ततो सा. सियं पमिळतं पक्खियं खामेमो पसरसराइं दिवसाणमित्यादि । माइयपुवयं पडिकमंति, ततो वंदणपुवयं खामिनि, ततो एवं सेसगा वि जहाराइणियाए खामेति । पच्छा वंदित्ता साभाइयपुब्वयं कानस्सां करेंति । तत्थ चितयंति-कम्मि भांति-देवसिय पनिषतं पक्खियं पभिक्कमावध । ततो य निगे निउत्ता वयं गुरुहितो तारिसं तवं पबजामो गुरुसंदिछो वा पक्खियं पडिक्कमणं कहा सेसगा जहाजारिसेण तस्स हाणी न नवद । ततो चिते-ग्म्मासं स्व सत्ति का उस्सग्गाइसंगिया धम्मझायोगया सुपति । कक्तिमणं करेमो, न सकेमो एगदिवसेण ऊणयं तहा बिन स. प मूसुत्तरगुणोह जं खंडियं तस्स पायचित्तनिमित्तं तिन्नि ऊकामो, एवं जाव पंच मासा, ततो चत्तारि, ततो तिन्नि, तो सासयाणि का उस्सगं करेति । 'वारस उज्जोयकरे' त्ति नणिय दोनि, ततो अरूमासं जाव चउत्थयं श्रायंबिलं एगठाणय पु हो । पारिए 'जोयकरे' थु कति । पच्छा उवधिट्ठा मुहरिमकं णिविगत्तिय नमोकारसहियं वत्ति। उक्तंच-(चरिमे किं णतगं पमिलोदित्ता वदति । ताहे परिकविण्याइयारं स्वामतवं काहिति) चरिमे काउस्सम्गे (छम्मासादेगृपं दाणी जाव ति। पच्छा जहारायाण पूसमाणं वा अतिक्कते मंगसिज्जे कजे पोरिसि नमो वा) एवं जं समत्थो का तमसन्नावा दियए करे बहु मन्नंति; सत्तुपरक्कमेण अखंडियणियबसस्स सांभणो ति, पच्छा वंदित्ता गुरुसक्खियं पवनंति, सब्वे य नमोक्कारइ. कारो गयो । अन्नो वि एवं चेव उट्रिो । सा समग उति, वोसिरावंति त्ति सीयति य । एवं पोरिस एवं पक्खियं विणोवयारं खामेति विलियखामणमुत्तेण,तश्चेदंमादीसु विभासा तितो तिन्नि युतीयो जहापुच्वं, नवरमप्पसइंग देति, जदा घरकोइबादी सचान उऐति; ततो देवे वदंति, सतो बहुबेवं संदिसावेति; ततो रयहरणं पडिलेइंति, पुणो इच्छामि खमासमणो ! पि यं च मे जं जे हटाणं तुभोहियं संदिसावेंति, पडिलेहति या तो वसहि पमिलेहिय हाण, हा अप्पायं कालेणं अजग्गजोगाणं सुसीलाणं सुबयाणं कालं निवेदेति । अन्ने भयंति-थुइसमणतरं कालं निवेति ।। सायरिअनबकायाणं नाणेसं दंसऐणं चरित्वेणं तवसा सूत्रम् Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२२) कानस्सग्ग अन्निधानराजेन्डः। काउस्सग अप्पाणं जावेमाणाणं बहुम्भेण ने दिवसो पोसहो प- ठिओ ति । पत्थ श्रायरिओ भण-नित्थारग ति। निधारक्खो वइकतो अन्नो अने कल्लाणेणं पज्जुबडिओ सिर गाहाहि ति गुरू भणंति पयाई वयणाई ति बकसेसमय गाथार्थः ॥ २३१॥ सा मणसा मथएण वंदामि ॥२॥ निगदसिद्धम् । आयरिओ भणह साहूहि समंति, साधूहिं एवं सेसाण वि साहणं खामणं बंदणं करेंति । अह्वा समं जमेयं भणियं ति, ततो चेइयवंदावणं साहवंदावणं च नि अइवियालो वाघाश्रो वा ताहे सत्तराहं पंचपदं तिपहं वा वेदिउकामा भणति पच्ग देवसियं पडिक्कमति । केई नणंति सामन्नेणं । अन्ने भणंति खामणाश्य । अन्ने चरिनुस्सम्मादियसे जा देसूत्रम वयाए य उस्सम्गं करेति पडिताणं गुरुसु बंदितेमु वकुमाइच्छामि खमासमणो ! पुचि चेश्याई बंदित्ता नमंस-1 णीश्रो तिमिम धुईप्रो आयरिया भएंति । श्मे वि अंजलिमइत्ता तुम्जन्नं पायमूले विहरमागेणं जे केइ बहुदेवसिया | उलियम्गहत्थाश्रो समत्ताए नमोक्कारं करेति । पच्छा सेसाहुपो दिट्ठा समणा वा बेसमगा वा गामाणुगामं दू सगा वि नति । तद्दिवसं ते सुत्तपोरिसी ण अत्थपोइज्जमाणा वा राशणया संपुच्छंति ओमराइणिया वं रिस। थुईओ भणंति, जस्स जत्तियाो पंति । एसा पदंति अजा बंदति अजियाओ बंदति सावया बंदंति क्खियपमिक्कमणविही मूलटीकाणुसारेण भणिया । अन्ने पुण श्रायरणाणुसारेण भणंति । देवसिए पमिक्कते स्वामिए य ततो सावियाओ बंदति अयं पि निस्सयो निकसायो ति कट्ट पदम गुरु चेव उहिता पवित्रयं सामेश जहारायणिसिरसा मरणसा मत्यएण बंदामि ॥३॥ याए, तो उवविसर । एवं सेसगा वि जहारायणियाए निगदमिकम् ; नवरं समणा चुम्वासी, वेसमणा वा णव खामेत्ता उवविसंति । पच्चा बंदित्ता नणंति-देवसियं पमिक्कत विक पबिहारी । बुवासी जघावनपरिक्खीणा नवविजागे पक्वियं पडिकमावेह इत्यादि पूर्ववत् । गयं पक्खियं । एवं खेतं काऊण बिहाति, णवकप्पविहारी पुण उउयके अद्धमा चाउम्मासियं पि, नवरं काउन्सम्गो पंचुस्साससयाणि । एवं सकष्येण विहरति । एए अट्ट विगप्पा वासाबासम्मि एगम्मि संबच्छरियं पि, नवरं काउस्सम्गो असहस्सुस्साणं ति । चाचेव चाणे कति । एस नवधिकप्पो । अत्राचार्यों नणति उम्मासियसंवच्चरिपसु सम्वे वि मूगुगुत्तरगुणाणं भालोयणं मत्थरण धंदामि अहं पितेसि । श्रन्ने नणंति-अहमवि वंदा- दाऊण पमिक्कमंति, स्वेत्तदेवयाए य उस्सगं करेंति। के पुण चावेमि त्ति । ततो अप्पग गुरूणं निवेदेति चमत्थखामणासु उम्मासिगे सेज्जादेवयाए वि काउस्सगं करेति, पभाए य तेण; तच्चेदम भावस्सए कर पंच कवाणगं गेरादंति, पुवगहिए य भभिमासूत्रम् हे निवेइंति, जर सम्मं नाणुपाक्षिो तो उस्सगं करेति । पुणोअहमवि वंदावेमि चेइयाई इच्छामि खमासमणो नव वि अगएहति निरजिम्गहणं ण बट्ट अत्यिो संवच्छरिए य आबस्सए कए पाउसिए पज्जोसवणाकप्पो फजिद, सो पुण ट्ठिोमि तुन्जएहं संतियं अहाकप्पं वा बत्थं वा पमिग्ग- पुचि चेव अणागच पंचरत्तेण कडिजा। एसा सामायारित्ति। हं वा कंबलं वा पायपुंजणं वा अक्खरं वा पायं वा गाई एतामेव लेशत उपसंहरनाह भाध्यकार:वा सिसोगं वा अवा हे वा पसिणं वा वागरणं वा चाजम्मासिअवरिसे, आलोअण निअम साउ दायन्या । तुम्भेहि य चियत्तेण दिन्नं मए अविणएण पमिच्चियं त- गहणं अजिग्गहाण य, पुबग्गहिए निवेएअं ॥२३२।। स्स मिच्छा मि दुकभं ॥४॥ चाउम्मासिअवरिसे, उस्सग्गो खित्तदेवयाए न । अहमवि वंदावेमि चेइगाई निगदसिद्धम, नवरं आयरिओ ज. पक्खियसिजमुराए, करिंति चउमासिए चेगो ॥२३॥ mइ-श्रारियर्सतियं ति अहंकारपरिवजणथं किं ममात्रेति । गाथाद्वयं गतार्थम । ततो जं वेणइया, तमणुसष्टुिं बहु मन्नंति पंचमखामणासुत्तेण; (८) अधुना नियतकायोत्सर्ग प्रतिपादयन्नादतञ्चेदम् देसिअराअपक्खि-चाउम्मासिअ तहेव वरिसे अ। सूत्रम् एएस हंति निश्रया, उस्सग्गा अनिअया सेसा ॥२३४॥ इच्छामि अहमवि पुब्वाई खमासमणो कयाई च मे किइक- निगदसिद्धा, नवरं शेषा गमनादिविषया ति ॥२३४॥ म्माई आयारमंतरेविणयमंतरे मेहिनो सेहाविप्रो संगहि- सांप्रतं नियतकायोत्सर्माणामोधत उच्चासमानं प्रतिपादयन्नाहओ नवग्गहिओ सारिश्रो वारिओ चोइओ पडिचोइओ साय सयं गोसर, तिन्नेव सया हवंति पक्खम्मि । चियत्ताम पमिचायणा उचट्ठिोहं तुन्न तव तेयसिरीए पंच य चाउम्मासे, अहसहस्सं च वारिसिए ॥२३॥ इमाओ चाउरतसंसारकंताराओ साहद्द नित्थरिस्सामि त्ति | चत्तारि दो पुवालस, वीसं चत्तारि हुँति उज्जोया। कट्ठ सिरसा मणसा मत्यएण बंदामि ॥ ५॥ देसिअराइअपविख-चानम्मासे अ वरिसे अ॥२३६॥ मलामि खमासमणो कथा च मे किइकम्माई आयारमंतरे पणवीसम तेरस, सिझोग पन्नत्तरं च बोधव्या । विणयमंतरे सेहिओ सेहाविप्रो संगहीओ उबग्गह।श्रो नाणा- सयमेगं पणुवीसं, वेवावन्ना य वारिसिए ।।२३७।। दिदि सारिओ हिए पवत्तिो वारिभो अहियाश्रो निव- (सायं ति ) सायं प्रदोषः,तत्र शतमुच्यासानां भवति चतुर्भित्तिओ चोइओ खलणाए पडिचोश्रो पुणो पुणो अच्चत्धं रुद्योतकरैरिति भावित एवायमर्थः प्राक । (गोसद्धं ति) प्रत्यूषे Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काउस्सग्ग अभिधानराजेन्द्रः। काउस्सग्ग पञ्चाशतः, तत्रोद्योतकरद्वयं भवति। शेष प्रकटार्थमिति गाथार्थः शय्यायां श्रमणापाश्रये,गमनमागमनं च प्रतिक्रमणीयं संभवति । ॥३५ || चसारि दो ऽवालसगाहा भाविताथों ।। ३६ ।। प्रधना उञ्चार प्रश्रवणयोस्तु हस्तशताद बहिर्गत्वा परिष्ठापने गमनालोकमानमुपदर्शयन्नाह-पणवीसमद्धतेरसगाहा निगद सि- गमनेऽन्तर्भावः। हस्तशताभ्यन्तरत एव तद्वत्सगें तन्मात्रपरिकैव, नवरं चतुर्भिरुच्चासैः श्लोकः परिगृह्यत इति ॥३७॥ उक्ता ठापने वा विचारविषयेषु च सर्वेष्वपि स्थानेषु कायोत्सर्गप्रानियतकायोत्सर्गवक्तव्यता । श्राव० ५ अ० । यश्चित्तस्य प्रमाणं नवति पञ्चविंशतिरुच्चासाः। (E) इदानीमनियतकायोत्सर्गवक्तव्यतामाह तत्र भक्त पाने वा कथं गमनमात्र प्रतिक्रमणीय संनवतीतत्रेय द्वारगाथा ति प्रतिपादनार्थमाहगमणागमणवियारे, मुत्ते वा सुमिणदंसणे रायो। वीसमण असइकाले, पढिमानिय वास संखमीए वा। नावा नसतारे, पायच्चित्तं वि नसाग्गो।। इरियाबहियट्ठाए, गमणं तु पडिकमंतस्स ।। गमनमुपाश्रयाद्,गुरुमूबा था बाहर्गमनं,नूयः स्वोपाश्रये गुरुपाद यदा भक्तार्थ पानार्थ वा निक्षाचर्या या ग्रामान्तरं गत्वा मा. मुसेवा बहिःप्रदेशात्प्रत्यावर्तनमागमनम् । गमनं च आगमनं च ग गंगमनसमुत्थपरिश्रमजयाय विश्राम्यति असति काले, अथमनागमनम् समाहारद्वन्द्वः गमनपूर्वकमागमनं गमनागमनम् । वा असति निकाकाने, यावत भिकावेशा नवति तावत् प्रतीगमनागमनं च गमनागमनं च गमनागमने,"स्यादावसंख्येयः"। कितुकामः।( पढमातिय त्ति) यदि वा कुधापीमितः सन् प्रय३।११११६॥ इत्येकशेषः। तयोस्तत्र यदानकार्यमन्यस्मिन्ग्रामे गतः मालिकां कर्तुकामो यत्र शून्यगृहादिषु प्रविशति (वास त्ति)प्रथसन् विश्रमणनिमित्तमासितुकामः अथवा यो वेत्ताऽद्यापि वेला वा तस्मिन्नन्यस्मिन् वा ग्रामे मिक्षामटतो दूरादू वर्षे पतितुमारजवति तावत्प्रतीकितुकामो,यदि वा प्रथमालिकां कर्तुकामो यदा ग्छ,ततश्वनं किमपि स्थानं प्रविश्य तत्रासितुकामः । (संखडीशून्यगृहादिषु प्रविशति तदैवमादिषु प्रयोजनेषु गमनमात्रेऽपि ए वा इति ) संखयां वा अप्रमाणायां ध्रुवं भूयात् लाभ ऐपिथिकीप्रतिक्रमणपुरस्सरं कायोत्सर्गप्रायश्चित्तम, तदन इति शास्वा कचिदन्यत्र प्रतीक्षितुमिच्छुर्भवति । तदा तस्येर्यातरं कार्यसमाप्ती भृयः स्वोपाश्रयप्रवशे अागमनमात्रे कायो पथिक्यर्थमैर्यापथिकपापविशुद्धचर्य गमनं प्रतिक्रामतो गसर्गः। शेषेष प्रयोजनेष्वपान्तराले विश्रमणासंभवे गमनाग मनविषयं प्रतिक्रमणं कुर्वतः कायोत्सर्गः प्रायश्चित्तम् । स च मनयोरिति । (वियारे इति ) विचारो नाम उचारादिपरिष्ठापन- कायोत्सर्गः पञ्चविंशतिरुच्चासप्रमाणः । उच्चासाश्च पाइसमाम, तत्रापि प्रायश्चित्तं कायोत्सर्गः । ( सुत्ते वा इति ) सूत्रेऽप्यत्र इति पञ्चविंशतः चतुभिर्भागे हृते षट् श्लोका एकपादाविषयेषु उद्देशसमुद्देशानुशाप्रस्थापनप्रतिक्रमश्नुतस्कन्धानपरिवर्त धिका लभ्यन्ते । ततश्चतुर्विशतिस्तवः "वंदे सुनिम्मलगरा" नादिग्वविधिसमाचरणपरिहाराय प्रायश्चित्तं कायोत्सर्गः । वा ति पादपर्यन्तः कायोत्सर्गे चिन्तनीय इति भावः । समुश्चये । ( सुमिणदसणे राओ इति) उत्सर्गतो दिवा स्वप्तुमेव ___ एमेव सेसएमु वि, होइ निसेजाएँ अंतरे गमणं । म कल्पते ततो रात्रिग्रहणम् । रात्रौ स्वप्नदर्शने प्राणातिपातादि. आगमणं जं तत्तो. निरंतरं गयागयं होई॥ सावद्यब हुले,कदाचिदनबद्यस्वप्नदर्शने वा अनिष्टसूचके, लपलकणमेतत्-दुःशकुने दुनिमित्तेषु वा तत्प्रतिघातकरणाय कायो एवमेव भक्तपानयोरिव शेषेष्वपि स्थानेषु शयनासनादिषु यावन्नाद्यापि वेला जवति तावद्यत्प्रतीक्षणं तदेतदत्रान्तरं,तस्मिन् त्सर्गकरणं प्रायश्चित्तम्। (नावा नसतारे इति) नौश्चतुर्दा । तद्यथा-समुनौः ,उद्यानी, अवयानी,तिर्यग्गामिनी च । तत्र समु. अन्तरे निषद्यायामुपवेशने केवलं गमनं प्रतिक्रमणीयं भवति । छनौः प्रवहणं, येन समुद्रो लयते। शेषास्तिस्रो नद्याम् । तत्रा. तथाहि-शयनं नाम संस्तारकादि, आसन पीठकादि, तथाचपि या नद्याः प्रतिश्रोतोगामिनी सा उद्यानी । अनुश्रोतोगा नार्थ कचनापि गतः , तत्र ग्लानचरितत्वादिनिः कारणैः शरीमिनी अवयानी । या पुनर्नदी तिर्यक नित्ति सा तिर्य रदुर्बलतया जातपरिश्रमो विश्रमितुकामः, संस्तारकादिप्रनुर्वा ग्गामिनी । तत्र यतनयोपयुक्तस्य यथायोगं चतुर्विधयाऽपि न विद्यते, कचिदन्यत्र गतत्वात्,ततस्तं प्रतीक्कितुकाम पथि कपापविशोधये गमन प्रति (आगमणं जं तत्तो शति) एव भ. मावा तथाविधप्रयोजनोत्पत्तिवशतो गमने सूत्रोक्तविधिना कायोत्सर्गः प्रायश्चित्तम् । नदीसंतारश्चतुर्विधः । तत्र पादाभ्यां नपानाद्यर्थ विश्रम्य कार्यसमाप्तौ ततः स्थानाद्यदा भूयः स्वोपा श्रये प्रत्यावर्तते तदा केवलमागमनं प्रतिक्रमणीयं नवति । यदि विधा । तद्यथा-संघट्टः, लेपः, तपरि च । तत्र जङ्घार्द्धप्रमाणे उदकसंस्पर्श संघट्टः । नानिप्रमाणे नदकसंस्पर्श लेपः। तत पुनरेतेवेव प्रयोजनेषु नोक्तप्रकारेणापान्तराले विश्रमणं नवति तदा निरन्तरे उक्तलक्षणस्यान्तरस्याभावे, गतागतं गमनागमनं उदकस्य उपरि संस्पर्श तदुपरि । चतुर्थो नदीसंस्तारो बाहूरुपदादिभिः । एतेष्वपि सर्वत्र यतनयोपयुक्तस्य प्रायश्चित्तं समुदितं प्रतिक्रमणीयं जायते । एवमर्हच्छ्रमणशय्यास्वपि गमकायोत्सर्गः । व्युत्सर्गः कायोत्सर्ग इत्यनन्तरम् । एष गा नागमनं च प्रतिक्रमितव्यं भावनीयम् । तद्यथा-पाक्विकादिषु जिनभवनादौ चैत्यवन्दनको गत्वा यदा नानादिदर्शननिमित्तथासंत्तेपार्थः। मैर्यापथिकी प्रतिक्रम्य विश्राम्यति, तदा केवलं गमनमेव प्रतिक्रसाम्प्रतमेनामेव गायां विवरीषुर्येषु स्थानेषु गमनमागमनं मणीयम् । ततः खोपाश्रये प्रत्यायातावागमनं विश्रमणासंभवे वा प्रतिक्रमणीय संभवति, यो वा विचारविषयो यत्प्रमाणं गमनागमनमिति । तथा-पाक्तिकादौ ये अन्यवसतिषु साधवच तत्र कायोत्सर्गः प्रायश्रित्तम, तदेतदुपदर्शयन्नाह स्तेऽवश्यं वन्दनीया इति विधिः, ततस्तत्र कोऽपि वन्दनको गतो भत्ते पाणे सयणा-सणे य अरहंतसमणसेज्जामु । यदा विश्राम्यति तदा गमनम, ततः स्वोपाश्रयप्रत्यागमने आगउचारे पासवणे, पणवीसं होंति उसासा ॥ १ ॥ नम् , विश्रमणानावे गमनागमनं प्रतिक्रमणीयमिति । चचारे भक्त पाने शयने प्रासने च (अरिहंतसमणसेज्जासु ) शति- प्रश्रवणेच हस्तशतादियुन्सृष्टेऽपान्तराले प्रायो विश्रमणाशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते । अहन्छुय्यायामईद्भवने, श्रमण- | संजवात् गमनाममनं समुदितं प्रतिक्रमणीयं नवति । यदाप्रप Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२४) कानस्सग्ग अभिधानराजेन्डः। काउस्सग्ग हस्तशतस्याभ्यन्तरे उचारं प्रश्रवणं तन्मात्र या परिष्ठापयति योत्सर्गे सूक्ष्मोच्चासादयो निरुध्यन्ते,तनिरोधस्य कर्तुमशक्यतदाऽपि विचार इति वचनात् ऐर्यापथिकीप्रतिक्रमणपुरस्सरः त्वात् । वर्तते कायिके ध्याने पतश्चैवमुच्यते, तस्य स्पष्टभुपनपञ्चविंशत्युवासप्रमाणः कायोत्सर्गः प्रायश्चित्तम् । क्ष्यमाणत्वात् । यावता पुनर्वाचिकमानसे शाप ध्याने कष्टव्ये । संप्रति 'सुत्त' इति पदं व्याचिख्यासुराह तथाचाहउद्देससमुद्देसे, सत्तावीसं तह प्रागुमाए । न विरुज्झंति उस्सग्गे, काणा वाश्यमाणसा । अट्ठेव य ऊसासा, पट्ठवणपमिक्कमणमादी । तीरिए पुण वुस्सग्गे, तिएहमन्त्रयरे सिया ।। उद्देशो वाचनासूत्रप्रदानमित्यर्थः । समुद्देशो व्याख्या, अर्थप्र- न विरुध्येते उत्सर्ग कायोत्सर्गे ध्याने वाचिकमानसे वामदानमिति भावः । अनुशा सूत्रार्थयोरन्यप्रदानं प्रत्यनुगमनमः | नोयोगयोरपि, विषयान्तरतो निरुध्यमानत्वात् । सूत्रे च द्विपतेषु तथेतिशब्दोऽनुक्तसमुथयार्थः । तेन श्रुतस्कन्धपरिवर्तने स्वेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वात् । उक्तं च-"बहुवयणे दुवयणअपरिवर्तने च कृते तदुत्तरकासमविधिसमाचरणपरिहारा- मिति" । तीरं संजातमस्येति तारितः परिपूणे सति सम्यम्विय प्रायश्चित्तं कायोत्सर्गः सप्तविंशत्युच्चासप्रमाणः पर्यन्तैक- धिना पारितः, तस्मिन् तीरिते कायोत्सर्गे, पुनस्त्रयाणां ध्यानापादहीनः समस्तश्चतुर्विंशतिस्तवस्तत्र चिन्तनीय इति भावः । नामन्यतरतु अन्यतमत्स्यात् न पुनस्त्रितयमपि । भङ्गिकश्रुतं (अट्टेव य इत्यादि) प्रस्थापन स्वाध्यायस्य, प्रतिक्रमणं कालस्य, गुणनव्यतिरेकेण प्रायोऽन्यत्र व्यापान्तरे ध्यानत्रितयाऽसंभतयोः करणे कायोत्सर्गः प्रायश्चित्तमष्टावेवोच्चासाः, अष्टोच्चा- वात् । अथवा कायोत्सर्गे किमन्येऽपि गुणाः संभवन्ति, किंवा सप्रमाणः । श्रादिशब्दात् मात्रकमपि परिष्ठाप्य ऐर्यापथिकीप्र- नेति ? । उच्यते-संभवन्तीति धूमः। तिक्रमणोत्तरकालं कायोत्सर्गोऽष्टोच्वासप्रमाणः करणीय इति तथाचाहद्रष्टव्यम् । पतञ्चास्यैव व्यवहारस्य चूर्णौ दृष्ट्वा लिखितमिति । मणसो एगग्गत्तं; जणय देहस्स हणइ जहत्तं । अत्रैवाऽऽक्वपमभिधित्सुराह कामस्सग्गगुणा खलु, सुहदुहममत्थया चेव ।। पुव्वं पट्ठवणा खबु, उद्देसाई य पच्छतो हुंति । कायोत्सर्गस्य गुणाः कायोत्सर्गगुणाः। कायोत्सर्गगुणाः खल्वपटवणुद्देसादिसु, अणाणुपुब्बी कया किं तु ॥ म।। तद्यथा-कायोत्सर्गः सम्याग्बाधिना विधीयमानो नाम मननु पूर्व प्रस्थापना खलु स्वाध्यायस्य क्रियते, पश्चादुद्देशादयो । नसश्चित्तस्य एकाग्रत्वमेकालम्बनतां जनयति । तच्चैकाप्रत्वं भवन्ति, ततः प्रस्थापनोद्देशादिषु प्रस्थापनाऽनन्तरमुद्देशादिषु | परमं ध्यानम; "जं थिरमज्जवसाणं तं काणमिति" वचनात् । व्यवस्थितेषु, किं तु इत्यावेपे । किमर्थ ननु अनानुपूर्वी अन-| देहस्य शरीरस्य, जमत्वं जाड्यं, हन्ति विनाशयति, प्रयत्नविशेस्तरगाधायां कृता, किमिति पश्चातगाथायां पूर्वमुद्देशादय उक्ता- षतः परमलाघवसंभवात् । तथा-कायोत्सर्गस्थितानां घासीस्तदनन्तरं प्रस्थापनमिति भावः ? । नैष दोषः; मतान्तरेणैवं. चन्दनकल्पत्वात् सुखदुःखमध्यस्थता सुखदुःखे च पररुदीसपाया अप्यानुपाः संभवात् ।। र्यमाणे रागद्वेषाकरणम, अन्यथा सम्यकायोत्सर्गस्यैवासंभवातथा चाह त् । उक्तं व्युत्सर्गार्ह प्रायश्चित्तम् । व्य० १3०। ध०। अज्कयणाणं तितयं, पुन्बुत्तं पट्टविजई जोहिं। जुज्जइ अकानपढिआ-इएमु दुछ अपडिच्चिाई। तेसि नदेसादी, पुच्चमतो पच्छ पटवणा॥ समणुनसमुद्देसे, कानस्सग्गस्स करणं तु ॥श्वर ।। पैराचारध्ययनानाम्, नपलकणमतत् । उद्देशकमाभृतादीनां युज्यते संगच्चते घटते अकालपठितादिषु कारणेषु सत्सु, चत्रितयं उद्देशसमुद्देशानुशालक्षणं, पूर्वोक्तं पूर्वप्रवर्तितं,प्रस्था अकाले पठितम, श्रादिशब्दात्कालेन परितमित्यादि । दुधुच प्रप्यते उद्देशादिषु कृतेषु पश्चात्तेषां प्रस्थापना वैरानार्यरुपवर्य तीच्चितादिषु दुष्टविधिना प्रतीच्छितम, आदिशम्दाकृतहील. ते, तेषां मतेनायमेव क्रम इति वाक्यशेषः । अतः प्राम्नापायां नादिपरिग्रहः। (समणुन्नसमुद्देसि त्ति) समनुशासमुद्देशयोः, पूर्वमुद्देशादय उक्ताः पश्चात्प्रस्थापनेति। समनुकायां समुद्देशे च कायोत्सर्गस्य करणं युज्यत एवंति संप्रति ‘सुत्ते वा' इति वाशब्दसमुश्चितं दर्शयति- योगः, अतिचारसंभवादिति गाथार्थः ॥ २४२ ॥ सम्बेसु खलियादीसु, झाएज्जा पंच मंगलं । जं पुण उदिसमाणे, अणइकंता वि कुणह उस्सग्गं । दो सिलोगे वि चिंतेज्जा, एगज्जो वा नि तक्खणं ॥ एस अकभी विदोसो, परिधिप्पः किं मुहा भंते!॥२४॥ इह यदि बहिर्गमने प्रयोजनानन्तरपारम्भे वा वस्त्रादेः स्व-| लनं जवति । श्रादिशब्दात शेषापशकुनदुनिमित्तपरिग्रहः । तेषु यत्पुनरुद्दिश्यमानाः श्रुतमनतिकान्ता अपि निविषयत्वादपराधसर्वेषु स्खलितादिषु समुपजातेषु तत्प्रतिघाट्यते विविधमपि, मप्राप्ता अपि (कुणह उस्सगं ति) कुरुत कायोत्सर्गमा एषः प्रकमुण्यतस्तु कायिकम्।। तोऽपिदोषः कायोत्सर्गशोभ्यः परिगृह्यते.कि मुधा भदन्त ! ततधाचाह त्परिगृह्यते,न कर्त्तव्यः त देशे कायोत्सर्ग इति गाथाऽभिप्रायः। कायचिटुं निरुभित्ता, मण वायं च सम्बसो। अत्राहाचार्य:वट्टई काइए काणे, मुहमुस्सासवं मुणी ।। पावुग्घाई कीरइ, उस्सग्गो मंगनं ति उसे । कायचेष्टां कायव्यापारं, तथा याचं च सर्वशः सरममा निरु- प्राणवहियमंगलाणं, मा हुज्ज कहंचिणे विग्धं ॥२४॥ भ्य कायोत्सर्गः क्रियते । ततः कायोत्सर्गस्थो मुनिः सूक्ष्मोच्चा- पाषुग्घादिगाहा निगदसिद्धा ॥ २४४॥ सवान् । उपलकणमततू-सूक्ष्मदृष्टिसंचासादयाँश्च, न बमका- 'सुमिणसणे राओ सि'द्वारं व्याश्यानयन्नाह Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२५ ) अभिधानराजेन्द्रः । काउस्सग्ग पाणवमुसावाए, अदत्त मेहुणपरिग्गहे चैत्र । सयमेगं तु णणं, उस्सामा जविज्जाहि ॥ २४५॥ सुमि पिपासावा प्रदत्ते मेणपर सेरिसमा समेत उसासा नवेशादि) मेहुणे दिडविपरियासियाए सयं इत्थिविपरियासिया - इसयं ति गाथाऽर्थः ॥ २४५ ॥ उक्तं च दिडीविपरिवासे, सयमेन विपरियासे । श्रयं वत्रहारे, अणजिस्संगस्स साहुस्स ॥२४६ ॥ 'नावा नसंतरे त्ति' द्वारत्रयं व्यचिख्यासुराहनावाए उत्तरिवं, वहमाई वह नई च एमेवं । संवारेण वजेण य, गंतुं पशवीस उसासा ॥२४७॥ गाथेयमन्यकर्तृकी सोपयोगा च निगदसिका । इदानीमुच्च्वा समानप्रतिपादनायाहपापसमा उस्सासा, कालपारोण ति तापन्ना । एका पमाणं, उस्सग्गो होइ नायव्वं ॥ २४८॥ निगदसिद्धा, नवरं पादः श्लोकपादः व्याख्याता गमनागमनेत्यादि २३८ द्वारगाथा ॥ (१०) अधुना द्वारगाथागतमशवद्वारं व्याख्यायते । इह विज्ञसेनाऽऽत्महितमिति कृत्यास्वला कायो कार्य अन्यथाकरणे अनेक दोषप्रसङ्गः । तथाचाद भाष्यकारः- जो खलु तीसइयारसे समरिवरिक्षेता पारणाइसमो सिमेव कृपानिधि से जड़े ॥२४९॥ इ यः कश्चित्साधुः खशब्दो विशेषणार्थः । त्रिंशद्वर्षः सन् खलुश*दलवानातङ्करहितश्च सप्ततिवर्षेणान्येन वृडेन साधुना पारकया समः, कायोत्सर्गप्रारम्नपरिसमाप्त्या तुल्य इत्यर्थ। विषम व उट्टकादाविव कूटवाई। विषमवादी बलीवर्दवत् निर्विशान पवासी जमस्तथा चात्मदिनमेच सम्यक्कायोत्सर्गकरणम्, स्वकर्म क्यफलत्वादिति गाथार्थः ॥४६॥ अधुना मामेव विचा समजमे व अजारो उखाणे किमु कृपवास्ति । अइजारेणं जज्जइ, तुत्तयघाएहि मरालो ॥ २५० ॥ समभूमावपि प्रतिभारो विषमवाहित्यात 'उखाणे किमुत कृवाहिस्स' ऊ पानमस्ति इत्युधानमुई तस्मिन्नुचाकसुतमित्यर्थः कस्य कूपादिनो तस्य च दोषद्वयम् । कथमित्याद - ( श्रश्भारेण भजर तुत्तयघा पहिय मरालो सि) श्रतिज्ञारेण भज्यते, यतो विषमवाहिन पतिमा जयति तु विषमवापतुः सगो प्रायिणगो मरालो गतिरिति गाथाऽर्थः ॥ २५० ॥ साम्प्रतं दार्शन्ति योजनां कुर्वन्नाहएमे बलसमग्गो, एकुणइ मायाइ सम्ममुस्सग्गं । मायामियं कम्पं पावर उस्सग्गस च ।। २५१ ॥ इयमन्यकर्तृका] सोपयोगा चेति व्याख्यायते । एवमेव मरालव१०१ काउस्सग्ग लीवर्दवत बलसमप्रः सन् न करोति मायया कारणेन सम्यक सामर्थ्यानुरूप कायोत्सः मायाप्रत्यये कर्म प्राप्नोति नियमत एव तथा कायोत्सर्गक्लेशं च निष्फलं प्राप्नोति । तथा निर्मायश्वाचे कारहितस्य ठानं फलीत गाथाऽर्थः ॥२१॥ अधुना मायातो दोषानुदयाद मायाए उस्सग्गं, सेसं च तवं कुच्यत्रो सहलो । कोनो विही, सकम्मसेसं अणिज्जरित्र्यं । २५ मायाको 3 शेषं तपः श्रनादि अतः सहिष्णोः समर्थस्य को अनो) कोऽस्याऽन्योऽनुभविष्यति किम स्वकर्मशेषमनिर्जरितम् । शेषता चास्य सम्यक्त्यप्रापयोक्त ष्टकर्मापेक्षयेति । उक्तं च-" सत्तरह पगडी, श्रभितरओ अ कोडिकोडीश्रो । काळणं भयराणं, जदि लहर चल पड़मयरं" ॥ श्रन्ये पठन्ति - " एवमेव य उस्सगं ति” । नचायमतिशो भनपात इति गाथाऽर्थः ॥ २५२ ॥ यतयेवमतः निक्कूमं सविसेसं, वया पुरूवं बलागुरूवं च । खाणुव्व उवदेदो, काउस्सगं तु वाइजा || २५३ ॥ निष्कूटमिति श्रशठम्, सविशेषमिति समबलादन्यस्मात्सकाशात् नचाहमहमिकया, किंतु क्योऽनुरूपं, बलानुरूपं च, स्थाणुरिबोदेो निष्कम्पः समहामित्र कायोत्तुलित तु शब्दादन्यच निक्कारनाद्येवंभूत एवानुतिष्ठेदिति गाथार्थः॥ २५३॥ इदानीं वयोबलं चाधिकृत्य कायोत्सर्गकरणविधिमभिधत्तेतरुणो बलवं तरुणो, दुव्वलो घेरो बन्नसमिद्धो । थेरो अबलो चउस वि, जंगेसु जहाबलं बाड़ ॥ २५४ ॥ तरुणो बलवान् १, तरुणश्च दुर्बलः २, स्थविरो बलसमृरूः ३, स्थविरोऽबलः केषु यथानु पमित्यर्थः, न त्वभिमानतः । कथमनेनापि वृद्धेन न तुल्यबलचताऽपि स्थातव्यम्, उत्तरत्रासमाधानम्लानादावधिकरणबलसंवादिति गाथार्थः ॥ २५४ ॥ गतं सप्रसङ्गमशठद्वारम् । ( ११ ) सांप्रतं शद्वारावसरस्तत्रेयं गाथापयलाय पमिपुच्छर, कंटग चीयार पासवण धम्मे । निमीलया करे कूर्म हवइ एयं ।। २५५ ।। कायोत्सर्गकरणवेलायां मायया प्रचलायति निद्रां गच्छति, प्र तिपृच्छति सूत्रमर्थं वा, कष्टकमपनयति । ( वियार ति ) पुरीषोत्सर्गाय गच्छति (पासवण सि) कायिकीं व्युत्सृजति । (धम्मेत्ति) धम्मं कथयति, निकृत्या मायया ग्लानत्वं वा करोति फूटं नयत्येतदनुष्ठानमिति गाथा ३२५२॥ गतं शरद्वारम् (१२) अधुना विधिद्वारमाख्यायते, तत्रेय गाथापुव्वं ठंति उ गुरुणो, गुरुणा उस्सारिश्रम्मि पारंति । वायंति सविसेसं तरुरणा अन्नविरिआओ || २५६ ॥ 'गुरुणो' इत्यादि प्रकटार्थम् । चउरंगुल मुहपत्ती, उज्जुए मव्वहत्य रयहरणं । वोसचदेहो, कारणं करिज्जाहि ॥। २७ ॥ (i) बङ्गुलानि पाया अंतर हो। (मु. Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२६ ) निधानराजेन्द्रः । काउस्सग्ग पति उदाहिणहत्येण मुहवो शिया सम्या रहण काव्यं । पण विदिशा (बोसह चत्तदेहो ति) ता पूत्रत् कामस्सग्गं करेजादि ति गाथार्थः ॥ २५७॥ गतं विधिरम ॥ आव० ५ अ० । श्र० चू । (१३) अधुना दोषद्वारावरस्तदं गाथाद्वयम् - घोमग या यखभे, कुड्डे माले सवार बहु नियमे । लंबुर यणी, संजर खल्लिणे अनायस कविडे २५६ सीप मूई, अंगुलिमुद्दा न वारुणी पेहा । एए कास्सग्गे, हवंति दोसा इगुणत्रीसं । २६०|| (नानी करवल कुप्पर ओसारिपारि दुई सकायोत्सर्गे भवन्ति दोषा एकोनविंशतिरितिका यस्य शरीरस्य स्थानमीनध्यानक्रियाव्यतिरेकेणातादयः किवान्नराज्य मावि रागो "नमो अ रिहंताणमिति" वचनात् पूर्वेस कायोत्सर्गः । स च द्वेधा-चेष्टायामभिनवेच वेष्टयां गमनागमनादाधादिप्रतिक मणभावी । श्रभिभवे च सुरादिविधीयमानोपसर्गजयार्थम । यडुकम् - "सो उस्सग्गो विहो, चेट्टाए अभिभवे य नायव्वो । भिक्खायरिया पढमो, उवसग्गऽभिजुजणे बीओ"त्ति । स च परति विधीयमाननिरतुर्भवति दोषाचैवे घोट कलतास्तम्भकुड्यमालावरी बधूनिगमल म्योत्तर स्तनोर्सिका सं यत। खलीनवायस कपित्थशीर्वोत्कम्पित मूकाङ्गुलि भ्रकुटीवारइत्येोतिः। इदानीनामनोऽनेितान् स्वयमेव विवृति आसो व विसमपाय, आनंदावित्तु वाइ उस्सग्गो । कंपइ काउस्सगे, अपर || २६१ ।। खं वा कुड्डे वा, आवङ्कंजिय कुण काउसग्गं तु । मात्रेय उत्तमं अनिय लाइ उस्सभां ॥ २६२ ॥ सबरी वसविरहिया, करेहि सागारियं जह उवे | ठइजण गुज्कदेसं, करेहि इस कुएइ उस्सगं ।। २६३ ॥ श्रवणामित्तमंगं, कानुस्सग्गे जहा कुलबहु व्त्र । नियमियओ विव चरणे, वित्यारिय अहव मेलविडं | २६४| कारण चोलप, विहीए नाहिमंमलस्सुवरिं । डाइ जानुमित्तं चि‍ संयुत्तरुसगं ॥ २६५ ॥ पच्छाइ उणवणे, चोलगपट्टेल बाइ नस्सरणं । माइक्खडा, अहवाऽणा जोगदोसेहिं ।। २६६ ।। मेत्ति पहिया, चलणे वित्थारिकण बाहिरओ । काउसो एको बाहिरी मुच्य ॥ २६७ ॥ गुट्टे मेलवि, वित्थरिय पहिया उ बाहिं तु । काउस्सगं एसो जणि नंतर ।। २६८ ।। पं वा पाउस | यखखिच जहा रहर अग्गओ कार्ड ।।२६।। भामेइ तहा दिहिं, चलचित्तो वायसो व्व उस्सग्गे । उप्पश्याण भए, कुणइय पट्ट कवि च ॥ २७० ॥ काठस्सग्ग सीसंपर्कप्रमाणो, जखाइडो न कुछ उस्सगं । मूड अंतो हेच जितमाई ।। २७१ ।। य, चालतो कुणइ तह य उस्समां । आलायनगड, संत्रण व जोगाएं ।। २७३ ॥ काउसम्मम्म ओ सुरा जहा दुमदुमे अव्वतं । अणुपेतो वह वानरो व चालेर हुइउडे ।। २७२ ॥ कुञ्चितस्यैकपादस्य घोटकस्येव स्थानं घोटकदोषः । कपोतादोषः । स्तम्बे वा कुड्ये वा अवष्टज्य स्थानं स्तम्भकुड्यदोषः । तथा माले उपरिभागे उत्तमाङ्ग समिति मदोषः । ब) पुलिन्दा यसवविरहिता कराभ्यां सामारिकं गु यथा स्थगयति, एवं स्यगयित्वा गुह्यदेशं कराभ्यां करोत्युत्सर्गमिनि शबरीदोषः अनमोल तिष्ठद करोत्युत्सर्गमिति वदोष विगनियन्त्रित ब स्वायांना मीलपिकवर्गमति नदोषः कृत्वा चोलपट्टमविधिना नाभिमण्डलस्योपरि अधस्ताच्च जानुमात्र तिष्ठति कायोत्सर्गे इति लम्बोत्तर दोषः । श्रवच्छाद्य स्थगयित्वा कतनी बोलपट्टेन देशादन] रक्षणार्थम् अथवा भो अज्ञान वा करोत्युत्सर्गमिति का द्विधा वाह्योकि दोषोऽभ्यन्तरोद्धिका दोषश्च । तत्र च द्वावपि हमे पाती रामागे विस्तार्य बाह्य बहिर्मुखं तिष्ठत्युत्सर्गे एवं वहिःशकटोद्धिकादोषो ज्ञातव्यः । तथा अगुष्ठौ मीलयित्वा विस्तार्थ पार्णी तु बाह्यतस्लिप भणितोऽज्यस्तरशकटोकिपा या पटीप वा बोलपट्टे संगतीय स्कन्देश्वोरुपरि प्रावृत्य तितो नमिव किमय रजो हरणमग्रतः कृत्वा तिष्ठत्युत्सर्गे इति खलीनदोषः । वात्र समुन्ना वाजिपः शिरीन दोषमाहुः । तथा दृष्टिं मयति चत्रचित्तो वायस श्वेतस्ततो नयनगो भ्रमणं दिनिराकरणं वा कुरुते उत्सर्ग इति वायसदोषः कायेन विचसाकारत्वेन सं यादिमध्ये कृत्तिकपदोषः । एवमेव मुबच्या स्थानमित्यन्ये भूताविष्टस्येव प कायोत्सर्गकरणं शीतदोष तथा मिनेन गृहस्थादिना कायरस प्रत्यासप्रदेशवर्तिषु हरितादिषु निवारणार्थ मूक एव किं शब्द कुर्वेस्तिष्ठत्युत्सर्गे इति मूकदोषः । तथाऽऽत्रापकगणनार्थमनुतथा योगो नाम स्थापना व्यापारान्तरनिपा I शेष तथोत्स द्यमानसुरेव बुरुडारामय्यकरावं करोतीति दोषः । वारुणीमत्तस्यैव घूर्णमानस्य स्थानं वारुणीदोष इत्यन्थे । अनुप्रेक्षमाणो नमस्कारादिकं चिन्तयन्नुत्सर्गतो वानर इव चायकोपनविि कु , कुपोषण की चितिपलिदोषो मेकविंशतिः । एकेान्यानपि कायोत्सर्गदोषान्ना: Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) काउस्सग्ग अनिधानराजेन्द्रः। कानस्सग्ग यथा यसहिगामोतं खिसंतितो जुअगंधरं कय ततोऽणेगसमण"निष्ठावन वपुःस्पर्शः, प्रपञ्चबहुला स्थितिः। समणीयोय पाओग्गनिमित्तमागच्चंति ततो तव्यनियसठियासूत्रोदितविधेयूँन, वयोऽपेवाविवर्जनम ॥१॥ ओ भणंति-एसासंजत्तेण दढं रतत्तिमित्तारोसे न पत्तिय। कालापेकाव्यतिक्रान्तिाकेपासक्तचित्तता। अन्नया कोई बलरूवादिगणपुनो तरुणनिक्खू पाश्रोग्गनिमित्त सोनाकुलितचित्तत्वं, पापकार्योद्यमः परः ॥२॥ गो । तस्स य बानय अमिछम्मि कणुग पयि। सुनहाप तं कृत्याकृत्यविमूढत्वं, पट्टकाद्युपरिस्थितिरिति"। जीहाए लिहिलण श्रवणीय,तस्स निमाले तिलो संकेतो। तेण इदानीमेतानुपसंहरनाह विदब्बनित्तचित्तेण ण जाणियो। सो नीसर ताव तब्बन्नियस कुगाहिं अत्थकागयम्स भत्तारस्स दंसिओ-पेच्छ इमं वीसत्थरएए काउस्सग्गं, कुखमाणेण विबुहेण दोसा उ । मियसंकंतं सभजाए संतग तिलगं ति। तेण विचिंतियं-किमिद. सम्मं परिहरियब्धा, जिणपमिसिक त्ति काऊण २७४! मेव पि होहेज्जा? अहवा बनवतोचिसया, अणेगभवम्भस्थगा य पते पूर्वभणिता दोषाः कायोत्सर्ग कुर्वता विबुधेन सम्यग प- किं न होइ तिमंदनेहो जाओ।सुनदाए वि कहंवि विदिओ पस रिहर्तव्याः, जिनस्तीर्थकरैः प्रतिषिद्धा निवारिता इति कृत्वा ।। बुत्तंतो। चितियं च तार-पावणिओ एस नडाहो कई फेरि जिनाझाकरणं हि सर्वत्र श्रेयस्करमिति । प्रव०५ द्वार । द्वा०। श्रोत्ति पवयणदेवयमभिसंधारिकण रयणीए काउस्सम ठिया। ध०। श्राव। आचू०। अह संनिदिया काइदेवया तीए सीलसमायारं नाकण आगया। (१४) साम्प्रतं कस्यति द्वारं व्याख्यायते । नत्रोक्तदोषर जणियं च तीए-किंतेपियं करेमिति? तीए भणियं-उहाई फेहितोऽपि यस्याऽयं कायोत्सर्गों यथोक्तफनो भवति तमु. मिहि । देवयाए भणिय-फेडेमि, पच्चसे श्माए नयरीए दाराणि पदर्शयन्नाह धंभेमि। ततो पाउलगेसु नगरेसु आगासत्या महिस्सामि । जाए परपुरिसो मणेण विण चितिश्रो सा इस्थिगा वालणीये पाणियं वासीचंदणकप्पो, जो मरणे जीविए असमसन्नो। छोढुं गंतूण तिनि वारे छंटेश, तो उग्धामाणि भबिस्संति । देहे अप्पमिबको, काउस्सग्गो हवा तस्स ॥२७५॥ ततो तुमं वि भासिर सेसनागरिगा िपच्छा जाएजासि, ततो वासीचन्दनकल्पः नपकार्यनुपकारिणोरपि मध्यस्थः । उक्तंच. उग्घाडिहिसि, ततो फिट्टिदि उडादो, पसंसंच पाविहिसि । त"जो चंदणेण बाहू, पाक्षिपश्वासिणा उ तत्थेइ । संघुण जोय हेव कयं,पसंसंच पता" "एय इहलोश्य कानस्सगफलं ॥ अन्ने निंदति, महरिसिणो तत्थ समभावो" ॥ अनेन परं प्रति माध्य भणति-"वाणारसीप सुभहाए कानस्सग्गो को, पसुगम्छुप्पस्थ्यमुक्तं भवति । तथा-यो मरणे प्राणत्यागलक्षणे, जीवितेच सी भाणियब्वा । राया उदिनोदिए त्ति । उदिनोदियस्स रनो प्राणसंधारणलकणे, चशब्दादिहरोकादीच समसंज्ञः, तुल्य मजा लोनागयतिवरोहियस्स च्यसग्गपसमणं जायं सेहिबुद्धिरित्यर्थः । अनेन चात्मानं प्रति माध्यस्थ्यमुक्त जवति । जजाए त्ति । चंपार सुदंसणो सेठिपुत्तो । सो साबगो मट्टतथा-देहे च शरीरे चाप्रतिबद्धश्चशब्दाऽधकरणादौ च का मिचउद्दसीसुचवारे उवासम्पमिमं पडिवजा। सोमहादेवीयोत्सगों यथोक्तफसो भवति तस्येति गाथार्यः ॥ २७५ ॥ प पत्थिजमाणे न इच्छर,मन्नया वोसट्टकाचदेवपमिम ति ब. स्थवडिओ चेमीहि अंतेवरं अतिणीओ, देवीप निबंधो को। तिविहाऽयुवसग्गाणं, दिव्वाणं माणुप्ताण तिरियाणं । नेच्छह पमुच्छाए । कोलाहलो कोरना वज्को प्राणतो,निज्ज. सम्ममहिपासणाए, काउस्सग्गो हवा मुद्धो ॥२७६॥ माणो मज्जाए से मित्तवतीए साविगाए सुय, सव्वाण जक्सत्रिविधानां त्रिप्रकाराणामुपसर्गाणां दिव्यानां व्यन्तरादिक- स्साराधणाए कारस्सगं दिया।सुदंसणस्स विय अटूखंडाणि तानां, मनुष्याणां म्लेच्छादिकृतानां, तैरश्चादीमा सिंहादिकृतानां। कीरंतुति संधे असी बाहिउं सब्वाण अक्खेण पुष्फदाम कमो। सम्यग्मध्यस्थभावेन अतिसहनायां सत्यां कायोत्सगों भवति मुको रना पूश्यो य । ताहे मित्तवतीए पारियं । तहा (सो शुद्धः, अविपरीत इत्ययः । ततश्वोपसर्गसहिष्णोः कायोत्सर्गों दास ति) सो दासो राया जहा नमोक्कारे (स्त्रायंत्रणे ति) भवतीति गाथार्थः ।२७६। कोविराहियसामने वग्गो समप्पो बट्टाए मारे। साइपढ़ा(१५) सांप्रत फलद्वारमभिधीयते । तच्च फलमिहलोक विया तेण दिशा आगो.श्यरेवि कारस्सग्गेण निता न भवा, परलोकापेक्षया द्विधा भवति । तथा चाह ग्रन्थकार: पच्छा तं दट्टण उवसंतो" । एतदैहिकंफलं। (सिद्धीसम्गोय शहयोगम्मि सुलदा, राया उदिओ अ सिभिज्जा य ।। रलोए) सिद्धिर्मोक्तः स्वर्गो देवलोकः। चशब्दाञ्चक्रवर्तित्वादि परलोके फलमिति गाथार्थः । आह-सिद्धिः सकलफर्मकसो दासखग्गथं नण, सिछीसग्गो अ परलोए ॥२७॥ यादवाप्यते; "कृत्स्नकर्मक्षयाम्मोक्षः" इति वचनात् । सा कथं इहलोके यत्कायोत्सर्गफलं तत्र सुभगोदाहरणम् कथम् ?-"व- कायोत्सर्गफलमितिाउच्यते-कर्मक्षयस्यैव कायोत्सर्गफलत्वात् संतपुरं नगरं,तत्थ जियशत्तू राया,जिणदत्तो सेठी, संजयस- परम्पराकारणस्यैवं विक्तितत्वात कायोत्सर्गफलत्वं कर्मवयस्य । ओ, तस्स सुभद्दा दारिगा धूआ अतीव रूविस्मिणी ओरालिय- कथम?, यत आह जाष्यकार:सरोरा साविगा य । स त असाहमियाण न देइ । तव्यन्नियसम्लेण चंपाओ वाणिजएण दिट्ठा । तीए रूबलोण कवड- जह कर गो निकितइ, दारुं इंतो पुणो वि वच्चंतो । सो जाओ। धम्म सुणेक, जिसाहुं य पूजे। अनया जावो अकिंतति सुविहिबा, काउस्सग्गेण कम्माई॥२७॥ समुप्पन्नो आयरियाण श्रासोयइ, तो वि अणुसासिओ, जिगदत्तेण वि से भावं नाऊण धूआ दिमा,वीवाहो कश्रो, चिरका- यथा(करगोत्ति)करपत्रं निकृन्ततिग्नित्तिविदारयति,किम, खस्स वि सोतंगहाय चपंगजो,गणंदसासुगमाइयाओ तवनि- दारु काष्ठं, किं कुर्वन् ?,श्रागच्छन्, पुनश्च बजनित्यर्थः। एवमेवं Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) काउस्सग्ग अनिधानराजेन्द्रः। काकलेस्सा छन्तन्ति सुविहिताः साधवः कायोत्सर्गेण हेतुभूतेन कर्माणि | प्रायश्चित्तध जीवो निर्वृतं स्वस्थाकृतं हदयं यस्य स निर्वतहद कानावरणादीनि । तथाऽन्यत्राप्युक्तम् यः । प्रशस्तसद्भावनया उपगतः सुखं सुखेन विहरति सुखानां "संबरेण नवे गुत्तो, गुत्तीए संजमुत्तमो । परम्परया विचरतिाक श्व?,अपहतभारो भारवाह श्वा यथासंजमानो तवो दोह, तवायो होइ निजरा॥ उतारितनारजरो भारवाहकः सुखं सुखेन विहरति, तथा का. निजराए सुतं कम्म, खविन्ज कमसो सदा। योत्सर्गेण प्रायश्चित्तविशुद्धि विधाय स्वस्थीकृतहदयो जीवः सुभावस्सगजुत्तस्स, काउस्सग्गे विसेसओं" ॥ इत्यादिगाथार्थः। खेन विचरतीति भावः । उत्त. २६० पाह-किमिदमित्थमिति ?, अत अाह कायोत्सर्गातिचारे प्रायश्चित्तम्कानस्सग्गे जह सु-टिअस्स भज्जति अंगुवंगाई । फिड्डियसयमुस्सारिय-भग्गे चेगास्वंदणस्सग्गे । इम भिदंति मुणिवरा, अढविहं कम्मसंघायं ॥ २७॥ निव्वीश्यपुरिमेगा-सणाइ सव्येसु चाचामं ॥ ५३॥ कायोत्सर्ग सुस्थितस्य सतःभज्यन्ते अङ्गोपाङ्गानि । (इत्ति) एवं स्फिटिते स्वयमुत्सारिते भने च एकादिवन्दिनोत्सर्गे निवृकृतिचिसनिरोधेन भिन्दन्ति विदारयन्ति मुनिवराःसाधवः अष्टविध कपुरिमाकाशनानि सर्वेषु चाचामाम्लमिति । अयं भावार्थ:मष्टप्रकार कर्मसंघातं ज्ञानावरणादिलक्षणमिति गाथार्थः ॥७॥ निद्राऽऽदिप्रमादवसतोगुरुभिः सह प्रतिक्रमणे स्फिटितेन मिलि त एकस्मिन्कायोत्सर्ग निवृकृतिक द्वयोः पुरिमा, प्रयाणामेभाह-यदि कायोत्सर्गे सुस्थितस्य भज्यन्ते अङ्गोपाङ्गानि काशनम् । तथा-गुरुभिरपारितेऽपि कायोत्सर्गे स्वयमात्मना ततश्च दृष्टापकारित्वादेवालमेतेनेत्यत्रोच्यते-सौम्य ! नैवम् प्रथममेव पारिते नग्ने वा कायोत्सर्ग अचिन्तयित्वाऽपि सर्व चिअसं इमं सरीरं, अन्नो जी त्ति एव कयबुद्धी । म्तनीयमन्तराल एव पारिते एकद्वित्रिसंख्ये कायोत्सर्ग यथासंसुक्खपगिकिलेसकर, लिंद ममत्तं सरीराओ ॥ २८० ॥ स्यं निवृकृतिकपुरिमाकाशनानि सर्वेष्वपि च कायोत्सर्गेष अन्यदिदं शरीरं निजकर्मोपात्तमालयमात्रमशाश्वतम, अन्यो स्फिटितत्वे भग्नत्वे च आचामाम्लम् । एवं चन्दनकेऽपि स्फिटितत्वं, पश्चात्पतितत्वे गुरोर्चन्दनक ददानस्य स्वयम प्रतः जीवोऽस्याधिष्ठाता शाश्वतः स्वकृतकर्मफसोपनोक्ताऽयम, श्त्ये प्रदत्तः, प्रदत्ते कृतापकृतत्वेन भग्ने वा यथासङ्ख्यमे कस्मिन् वंकृत बुद्धिः सन् दुःखपरिक्लेशकरं लिन्धि ममत्वं शरीरात् । द्वयेषु त्रिषु सर्वेषु प्राचामाम्लम ५॥ किंच-यधनेनाप्यसारेण कश्चिदर्थः संपद्यते पारोकिकः, ततः सुतगं यत्नः काय ति गाथार्थः ।। २८०॥ यस्तु कायोत्सर्गादीनि न कारयेत, तस्य किमित्याहकिंचैवं च भावनीयम् अकएमु य पुरिमासा-माचामं सबसो चनत्यं तु । पुचमपहिय थीडल-निसि वोसिरिणे दिया सुवणे ॥५३॥ जावइआ किर दुक्खा, संसारे जे मए समानूआ। अकृतेषु पुनः कायोत्सर्गेषु वन्दनकेषु च एकादिषु एकाद्वित्रिषु तत्तो इविसहतरा, नरएसु अणोवमा दुक्खा ॥२०॥ पुरिमैकाशनाचामाम्सानि (सव्यसो चउत्थं तु) सस्मिंस्तु प्रतहान निम्ममेणं, मुणिणो उवाद्धसुत्तसारेणं । तिक्रमणे अकृते चतुर्थ तु । तथा पूर्व संध्यायामप्रेक्तितस्थरिम से कानस्सग्गो नग्गो, कम्मखयाय कायया ॥ २२ ॥ निशि संझोत्सर्गे कृते चतुर्थम् । तथा दिवसे निद्राकृते चतुर्थयावन्त्यकृतजिनप्रणीतधर्मेण, किशब्दः परोक्षाऽऽगमवादसंसू म। जीत। ( कायोत्सर्गस्तु श्रावकस्यास्तीति 'श्रावस्सय' चकः। दुःखानि शारीरमानसानि । संसारे तिर्यक्नरनारका शन्दे द्वितीयभागे १५७ पृष्ठे प्रतिपादितमा व्याख्यानादौ कायोमरजवानभवलकणे, यानि मया अनुभूतानि, ततस्तेषयो दु त्सर्गकरणं 'वक्खाणविहि' शब्दादौ वक्ष्यते ) विषहतराणि अप्रतोऽप्यकृतपुण्यानां नरकेष सीमन्तकादिव-काउस्सम्गपडिमा कम्पोत्सर्गप्रतिमा-स्त्री० । पञ्चम्यामुपासकनुपमानि उपमारहितानि दुःखानि, दुर्विषहत्वं चैतेषां शेषगति- | प्रतिमायाम, उपा० १ अ.(म्वरूप चास्याः 'उवासगपडेिसमुत्थःखापेक्वयेति गाथार्थः ।। २०१॥ तस्मानिर्ममेन ममत्व- मा' शब्दे द्वितीय नागे १२०४ पृष्ठे समुक्तम् ) रहितेन मुनिना साधुना, किंभूतेन ?, उपलब्धसूत्रसारण वि. नना साधुना, किभूतन , उपलब्धसूत्रसारण वि. | काऊण (M)-कृत्वा-श्रव्य० । "क्त्वस्तुमत्तूणतुश्राणाः" ज्ञातसूत्रपरमार्थेन, किम् ?, कायोत्सर्गे उक्तस्वरूपे उग्रः शु. ।।२१४६ ।। इति त्वाप्रत्ययस्य तूणादेशः। 'कट्ट' इति तु भाभ्यवसायः प्रयाकर्मवयार्थ न तु स्वर्गादिनिमित्तं कर्तव्य इति गाथार्थः ॥२८२॥ इत्युक्तः कायोत्सर्गः। श्राव०५०। भार्षे । प्रा०२ पाद । "क्त्वास्यादेगस्थोर्वा" ॥८॥१॥२७॥ इत्य नुस्वारान्तादेशो वा । प्रा०१पाद । "भाः कृगो जूतभविष्यतोव" अधुना कायोत्सर्गफलं प्रश्नपूर्वकमाह ॥८।४।२१॥ इति कृगोऽन्त्यस्य स्वाप्रत्यये प्राकारान्तादेशः। काउस्सग्गे णं भंते ! जीवे किं जणयइ। कानस्सग्गे एं| विधायेत्यर्थे, प्रा०४ पाद । पश्चा० । तीयपडप्पन्नं पायच्चित्तं विसोहेइ । विसुधपायच्चित्ते य काउलेस्स-कापोतोश्य-त्रि० । कापोत लेश्या विद्यतेऽस्य, जीवे निव्वुयहियए ओहरियत्नरु व्य नारवहे पसत्थका- | कापोतलेश्यापरिणामवति जीवे, स्था० १ ० १ उ०। शोवगए सुहं महेणं विहर ॥१५॥ काउलेस्सा-कापोतलेइया-स्त्री.। कपोतस्य पक्षिविशेषस्य हे भदन्त ! कायोत्सर्ग भतीचारविशुख्यर्थ कायस्य व्युत्सर्ज वर्णेन तुल्यानि यानि द्रव्याणि, धूम्राणि इत्यर्थः। तत्साहाय्याद् नेन जीवः किं जनयति? गुरुराह-हे शिष्य ! कायोत्सर्गेण अतीतं जाता कापोतलेश्या। स्था१ ग १ उ० । वर्णतोऽतसीकुचिरकालसम्भूतं, प्रत्युत्पन्नम् आसन्नकाले वर्तमान प्रायश्चित्तम्।। सुमपारावतशिरोधराफशिनीकन्दलादिधमान्यतुल्यवर्गः, रउपचारात्मायश्चित्तादम् अतीचारविशोधयत्यपनयति।विगुरू- सवस्तरुणानघल्लकपिधादिसमधिकरसैः, गन्धतः कथितस Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२६) काठलेस्सा अन्निधानराजेन्फः। काकतालिज्ज रीसृपादिसमधिकगन्धैः, स्पर्शतः कठोरपलाशतरुपत्रादिसम- शे०।"चंदगुत्तपत्तो य, बिंदसारस नत्तो । असेोगसिरि. घिकस्पर्शः सकलप्रकृतिनिष्यन्दतः कपोताभद्रव्यनिष्पन्ने ले- णो पुत्तो, अंधी जायति कागणि" ॥६॥ ०१.० रूप. श्यानेदे, पा। कद्रव्यस्य अशीतितमे भागे, उत्त०७ पास। कामोदर-काकोदर-पुं० । स्त्री०। कुत्सितं कुटिलमकति, अक | काक [ग] णिमंसग-काकणिमांसक-न०। देदोत्कृत्तहस्खमांवक्रगती, अन्, कोः कादेशः। काकमुदरं यस्य ! वाच। दीक- | सस्वामे, विपा० १ श्रु० २ ० । दशा । देदोवृतश्लदणमांसरसविशेषे, प्रभ०१आश्रद्वार। तस्य नरसा कुटिलगा-| स्वएमे, औ०। मित्वात् तथात्वम् । स्त्रियां तु जातिवाङीष् । वाच। । काक [ग] हिरयण-काकणिरत्र-न० । काकणी सुवर्णकाभोली-काकोली-स्त्री० । काकोशशब्दाद् गीरादित्वाद् डी- मयी अधिकरणीसंस्थानेति तदपं रत्नम् । स. १४ सम० । । लतादे, बाच० । अनन्तजीवे कन्दलेदे, प्रशा० १ पद। चक्रवर्तिरत्नभेदे, " चतरंगुलप्पमाणा सुवावरकागणी नेया" काभोवग-कायोपग-पुं० । कायात्कायेषु चोपगच्छन्तीति का. स्था० ७ ठा० । काकणिरत्नमष्टसौवर्णिकं समचतुरस्रसंस्था नसंस्थित विषापहारसमर्थ, यत्र चन्द्रप्रभा सूर्यप्रभा वहिदीप्तिर्वा योपगाः । संसारिषु, "तेणातिसंजोगमविप्पहाय, कायोवगा: न तमःस्तोमपर्तुमनं समर्था, तत्र तमिस्रगुढायामपि निषिद्धपंतकरा भयंति"। सूत्र०२ भु०६०। तिमिरतिरस्करणदकं, यस्य दिव्यप्रभावकालिततया द्वादशयोकाक [ग]-काक-पुं०। बायसे, अप० ३ वर्ग । RIO | स्था। जनानि यावत् तमिठाधिसरविनाशका गभस्तयो विवर्षन्ते, प्रशा० । घूकारौ, तं० । पञ्चत्रिंशत्तमे महामहे, “ दो काका" यच सर्वकालं चक्रवर्ती निजस्कन्धावारे रात्रौ करोति, तदि स्था०२ ग०३ उ०। प्रकाशं दिवसालोकनूतं रजन्यामादधाति, यस्य च प्रनावेन काकं [ग] दिय-काकन्दिक-पुं० । काकन्दी नगरी, तद्भवः चकवर्ती द्वितीयमनरतमभिजेतुं सकलसैन्यसमेतस्तमिस्र गुहां प्रविशति। तथाहि-तत्र प्रविष्टः सन् पूर्वनित्तितटे पश्चिका०७ भाकाकन्यां नगर्या जाते, सुहस्तिनः दिशध्ये च । “सु. मभित्तितटे च प्रत्येक योजनान्तरितानि पत्रधनुःशताऽऽयामट्टियमुपडिबुदाणं कोमियकाकंदगाणं बग्घायचसगुप्ताणं " विष्कम्भान्युभयपाययोर्योजनोद्योतकराणि चक्रनेमिसंस्थानाकौटिककाफन्दिकाविति तु नामनी, अनेन सुस्थितसुप्रतिबुद्धौ नि चन्द्रमरामसप्रतिनिभानि वृत्तहिरण्यरेखारूपाणि गोमूत्रि. शति नामनी,कोटिशः सूरिमन्त्रजपात् काकन्द्यां नगर्या जातत्वाथ कान्यायेनकस्यां भित्तौ पञ्चविंशतिरपरस्यां चतुर्विशतिरित्येको कौटिककाकन्दिकाविति विशेषणम् । कल्प० ० ० । “तद नपश्चाशतं मरामसान्यासिखन बजति, तानि च मरामसानियानु च सुहस्तिशिघ्या, कौटिककान्दिकावजायेताम् । सुस्थि वच्चक्रवर्ती चक्रवर्तिपदं परिपालयति तावदवतिष्ठते, गुहाऽपि तसुप्रतिबुस, कोटिकगच्छस्ततः समन्त्॥१॥" ग०४ अधिक। तधोद्घाटिता तिष्ठति, उपरते तु चक्रिणि सर्वमुपरमति । काकं गं] दिया-काकन्दिका-स्त्री० । स्थविरादभनयशात् प्रव० २१२.द्वार । भनु० । श्रा० चू० । उत्त। ०। आदित्ययजारबाजसगोत्रात् निर्गतस्य नमुपाटिकगणस्य तृतीयशास्खाया- शसस्तु काकणीरत्नं नासीत् सुवर्णमयानि यज्ञोपवीतानि कृत. म, कल्प० ८ १०। वान् महायशःप्रभृतयस्तु केचन रुप्यमयानि केचन विचित्रपकाकंदी-काकन्दी-स्त्री० । नगरीभेद, शा०९१०। या पुष्पद- दृसूत्रमयानीत्येवं यदापचीतप्रसिद्धिः। श्रा० म०प्र०। न्तस्य तीर्थकरस्य जन्मभूमिः । स्था०५३०१२० । यत्र च जमा- एगमेगस्स एं रमो चाउरंतचक्कवट्टिस्स अट्ट सोवप्लिए सार्थवादीसुतो धन्यको नाम महावीरसमीपे धर्ममनुश्रित्य म-| कागिणिरयणे उत्तले दुवालसंसिए अध्कप्पिए अधिकरहाविनृत्या प्रश्नजितः । स्था० १० ठा० । मन्त। अणु। णसंठिए पपत्ते। काक[ग] जंघ-काकजड-पुं० । स्वनाम्ना स्यातिमागते पाट- एकैकस्य राज्ञश्चतुरन्तचक्रवर्तिन इत्यत्रान्यान्यकालोत्पन्नालिपुत्रेश्वरे, येन उज्जयिनीपतिः अवरुद्धो भयात् शून मृतः, | नामपि तुल्यकाकिणीरत्नप्रतिपादनार्थमेकैकग्रहणं, निरुपचरितत्सत्कर्मकर्मठेन तैललेपादापादितकाकश्यामजक्ताऽवाप्ता। तराजशब्दविषयज्ञापनार्थ राजग्रहणं, षट्स्सएमजरतादिनोक्तृप्रा००। ('सिप्पसिद्ध ' शब्द कथा वक्ष्यते) त्वप्रतिपादनार्थ चतुरन्तचक्रतिग्रहणमिति ; असावनिक काक (ग) जंघा-काकजला-स्त्री० । काकस्य जवाऽवयचो काकिणीरत्नं सुवर्णभानं तु चत्वारि मधुरतृणफलान्येकः श्वेत सर्षपः, षोडश श्वेतसर्षपा एकंधान्यमाषफलं, द्वे धान्यमाषफयस्याः । ने एका गुजा, पञ्च गुञ्जा एकः कर्ममाषकः, षोडश कर्ममाषकाः "काकजक्का नदीकान्ता, काकतिक्ता सुलोमशा । एकः सुवर्णः। एतानि च मधुरतृणफलादीनि जरतकालभाचीनि पारावतपदी दासी, काकाहाऽपि प्रकीर्तिता ॥ गृह्यन्ते, यतः सर्वचक्रवर्तिनां तुल्यमेव काकिणीरत्नमिति षट्नबं काकजका हिमा तिक्ता, कषाया फफपित्तजित् । द्वादशानि अष्टकर्णिकम्-अधिकरणीसंस्थितं प्रज्ञप्तमिति । तत्र निहन्ति ज्वरपित्ताम्र-ज्वरकपमूविपक्रमीन् " ॥ तलानि मध्यखपमानि, अस्रयाकोटयः, कर्णिकाः कोण विनागाः, इत्युक्तगुणे (वाच०) वनस्पतिभेदे,मा " काकजंघा तिवा" | अधिकरणी स्वर्मकारोपकरण प्रतीतमेवेति । इदं च चतुरहुल(धन्याऽनगारस्य जङ्गा ) सा हि परिदृश्यमाननायुकास्थलस- | प्रमाणम् । स्था० ८ ठा। विस्थाना च भवतीति तया जायोरुपमानम, अथवा काको काक[गाणिनक्खण-काकाणिलक्षण-न० ! कलानेदे, का. वायसः। अणु० ३ वर्ग। | कणिरत्नपरीक्षायाम, शा०१०।स। औ०। काक[ग] णि-काकणि-स्त्री०। क्षत्रियभाषया राज्ये, वि-कागितालिज्ज-काकतालीय-न० । काकागमनसमये ताल १०८ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३०) काकतालिज्ज प्राभिधानराजेन्द्रः। कादंबरी पतनमततितकं तदिव अवितकित सम्भवे यादृच्छिकागती, रायद्वितीयौ,"। ४।३२५ ॥ इति वर्णविपर्ययः पैशाच्याम. बाच० । यथा काकताबीयमवुहिपूर्वक, न काकस्य बुधिरस्ति | अतिशयदृढे, प्रा०४ पाद । मयि तासं पतिष्यति, नापि तालस्यानिप्रायः-काकोपरि पतिष्या काण-काण-पुं० । स्त्री० । कण निमीलने, संज्ञायां कर्तरि मि । आचा० १ श्रु० १ अ०१०। घम् । काके, वाच० । जिन्नकाके, दश ७ अ०। एकाक्के, काक(ग तुंम-काकतुएम-पुं०६०। काकास्ये, काकतुगमस्येव प्रव०११० द्वार । व्य०नि००। चतुर्विकले, वृ० १०॥ वर्णोऽस्त्यस्य अच् । कालागुरुणि, वाच० । अष्ट । "काणो निमम्नविषमोत्कटदृष्टिरेका, शक्तो विरागजनने जन नातुराणाम । यो नेव कस्यचिमुपैति मनःप्रियत्व-मालेल्यकर्मकाक[ग]धट्ठ-काकधृष्ट-त्रि० । काकवद्धृष्टे, “तत्थ एगो नण-| लिखितोऽपि किमु स्वरूपः ?" ॥ आचा० १ ध्रु०१ ० ३ उ० । ति कागधट्ठो भणति, " प्रा० चू०४०। आव० । काक[ग]पाल-काकपाल-पुं० । महाकुष्ठनेदे,प्रश्न०५ संव० द्वार। काणक [ग]-काणक-चिोरिते, " काणकमाहिसे वा" यथा चोरितमहिषः । प्रव० ११० द्वार । व्य० । व्याधिविशेषाकाक गपिंमी-काकपिएमी-स्त्री। अग्रपिरमे, प्राचा०२ श्रु० सच्छिद्रे, प्राचा०२ श्रु०१०० उ०। १५.६०। कानक-त्रि० । कनकस्येदमण् । कनकसम्बन्धिनि, कनकं फकागल-काका-न। ईषत् कलो यस्मात् , कोः कादेशः। लमिव उग्रफलमस्त्यस्य ण् । जयपालबीजे, वाच। प्रीवास्थे उन्नतप्रदेश, षष्टिकधान्यभेदे च । वाच० । अणु। काणक्खि-काणाक्ति-न० । अप्रशस्ते चतुर्नेदे, महा०४ अ०॥ काक ग] ल ली-काकलिली-स्त्री० । कल इन ईषत् क- | काणजिया-काणाक्षिका-स्त्री० । काणस्येवाक्तिकारिकायाम, लिः, को कादेशः, कृदिकारान्तत्वाद् वा ङीप् । सूदममघुरा- | “ तत्थ हसई गायति य अट्टहासे मुंचति काणच्छिया तो य स्फुटध्वनी, वाच० । सूक्ष्मकराठ्यगीतध्वनौ, स्था० १०म०। जहा विडो तहा करे" आ० म० द्वि) । बृ० । काकलं गलस्थोन्नतप्रदेशाकारः अस्त्यस्य अच् , गौरा० ङीप् । काणण-कानन-न० । कन् दीप्तौ णिच ल्युद, ल्युर्वा । स्त्रीपक्ककाकलाकारे स्तेयसाधने पदार्थ, काकं काकवर्णमर्धफले साति-गौरा० ङीष् । गुञ्जायाम् , वाच० । अभिनन्दनस्य स्य पुरुषपकस्य चैकतरभागेषु भोग्ये बनविशेषे, यत्परतः पदेव्याम्, श्रीअभिनन्दनस्य काकलीनाम्नी देवी श्यामकान्तिः प र्वतोऽटवी वा भवति तस्मिन्, ज्ञा०१०। सामान्यवृतजापासना चतुर्भुजा वरदपाशाधिष्ठितदविणकरद्वया नागाडूझालङ्क. तियुक्त नगराज्यर्णवर्तिनि, शीर्णवृक्तकलिते वा, अनु० । प्रश्न । झा० । भ०। औ० । सामान्यवृक्षवृन्दे, जी० ३ प्रति० । तवामपाणिद्वया च ! प्रव० २७ द्वार । बृहवृक्षाणामाम्रराजादनादितरूणां वने, 'काणगुजाणसाहिए' काकवच-काकवर्ण-पुं०। काकजवनृपे, यो हितैलेन जङ्घयो- उत्त०१६ अ०। कस्य ब्रह्मण आननम् । ब्रह्मणो मुखे, वाच। दग्धत्वात् काकश्यामजलः । प्रा०म० द्वि० । आ००। ('सि-| काणणदीव-काननकीप-पुं० । जनपत्तनमेदे, प्राचा० १९०० पसिद' शब्दे कथा वक्ष्यते) अ० ६००। काक गस्सर-काकस्वर-पुं० । लक्ष्णानाश्रये स्वरे, जं० काणिका-काणिका-स्त्री० । पाषाणमय्यः पक्केष्टका वा बलिका १ वक। महत्यश्च काणिका उच्यन्ते । इत्युक्तेऽर्थे, वृ० ३ उ० । कागिणि-काकिणी-स्त्री० । काकिणी चतुर्भागो माषकस्य काणिघर-काणिग्रह-न० । सोहमयेष्टकागृहे, व्य०४ उ० । इत्युक्त माषकचतुथभाग, पणचतुथभाग च । " वराटकाना | काणिय-काएय-न० । अतिरोगे, स च द्विधा-गर्भगतस्योत्पदशकद्वयं यत्सा काकिणी ताश्च पणः चतस्रः" । वाच० ।। द्यते जातस्य च । तत्र गर्भस्थस्य दृष्टिभागमप्रतिपन्नं तेजो जात्यरूपकाव्यस्य अशीतितमे नागे, उत्स० ७ ० । सुवर्ण धं करोति,तदेवैकाविगतं काणं विधत्ते, तदेव रक्तानुगतं रक्तामयेऽधिकरणीसंस्थाने, स० १५ सम० । अष्टसौवर्णिके कं, पित्तानुगतं पिङ्गाक्ष,श्लेष्मानुगतं शुक्लाकं,वातानुगतं विकचक्रवर्तिरने, “अहसोवनिक कागणिरयणं" आ० चू०२| ताक्ष, जातस्य च वातादिजनितोऽभिस्यन्दो भवति । तस्माञ्च म. । ('अंगुल ' शब्दे प्रथमभागे ४५ पृष्ठे प्रसङ्गाद्। सर्वरोगाःप्रादुःषन्तीति । उक्तं च-"वातात पित्तात्कफायतान्यास्यातैषा) दजिस्यन्दश्चतुर्विधः । प्रायेण जायते घोरः,सर्वनेत्रामयाकरः"॥ काकिनी-स्त्री०। पणपादे,मानपादे, वराटके च । वाच०। आचा० १ श्रु०६ अ०१०। कागी-काकी-स्त्री० । काकस्त्रियाम, काक्यपि हि किलक वारं | कादं [य] ब-कादम्ब-पुं० । स्त्री० । हंसभेदे, स्त्रियां जातिप्रसूते इति प्रसिकिः । व्य० ३ उ०। परिव्राजकविद्याविशेषे च। त्वेऽवि संयोगोपधत्वान्न ङीष् , किन्तु टाप् । तस्य च नीमा० क० । कल्प० । श्रा०म०। काकवर्णत्वात् वायसीलताया- लवर्णत्वम् । को, पुं० । वाणे, कदम्बस्येदम् अण् । कदम, काकोल्यां च । वाच । म्बसम्बन्धिान, त्रि० । कदम्ब एव स्वार्थेऽण् । कदम्बवृक्के, पुं० वाच० । प्रश्न । गन्धर्वभेदे च । प्रज्ञा० १ पद । काच्च-कच्च-त्रि०"स्वराणां स्वराःप्रायोऽपभ्रंशे"!=18|३२६ । इत्याकारः । पामे, प्रा०४ पाद । कादं यं] बग-कादम्बक-पुं० । कलहंसे, कल्प० ३ क्षः। काठ-गाढ-न० । गाह-क्त । “चूलिकापैशाचिके तृतीयतुर्ययो- | कादं [ यं] बरी-कादम्बरी-स्त्री० । कुत्सितं मलिनमम्बर Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम (४३१) कादंबरी अभिधानराजेन्द्रः। यस्य, कोः कदादेशः, कदम्बरो नीनाम्बरो बलभद्रस्तस्य प्रिया याणं, वीजच्छा कामा तिरिक्खजोणियाणं, रोद्दा कामा माणू । हसिप्रियायां मदिरायाम् , वाच० । कादम्बकदम्बकोट परश्याणं ॥ रमुत्पत्तिस्थानत्वेन बाति ला-क० । लस्य रः मत्वर्थे, र वेति कामाः शब्दादयः शृङ्गारा देवानामैकान्तिकात्यन्तिकमनोकत्वे. बोध्यम् । कादम्ब रस राति राक० गौरा० डीए । कोकिला न प्रकृष्टरतिरसास्पदत्वादितिारूपो हि शृङ्गारो,यदाद व्यवहारःयाम, सरस्वत्याम, शारिकायां च । वाणभट्टरचिते कथाभेदे, पुनायॊरन्योऽन्यरक्तयो रतिप्रकृतिःशृङ्गार इति। मनुष्याणां कसा च वाण नट्टेन सामि कृता, तत्पुत्रेण समाप्ति नीता। वाच । रुणा मनोकत्वस्यातथाविधत्वात, तुच्छत्वेन कण्हएनष्टत्वेन चम्पाया नगर्या नातिदूरेटवीभेदे, " चंपानयरीए नारे शुक्रणितादिप्रनवदेहाश्रितत्वेन च शोचनात्मकत्वात् । करुणो कायंबरी नाम अडवी हुत्था। तत्थ काली नाम पम्वो" हि रसशोकस्वभावः, करुणःशोकप्रकृतिरिति वचनादिति। तिती०१५ करप । अस्यांकरकरादुनामधेयो भूमएमलाखालः | रश्चां बीनत्सा जुगुप्सास्पदत्वात्। बीभत्सरसोहि जुगुप्सात्मकः। ती ३५ कल्प। यदाह-नवति जुगुप्साप्रकृतिर्बीभत्स इति । नैरयिकाणां रोद्राकापुरिस-कापुरुष-पुं० । कुत्सितपुरुषः, कोः का, कुद्रसत्वे कु- दारुणाः, अत्यन्तमनिष्टत्वेन क्रोधोत्पादकत्वतारौद्ररसोहि क्रोसितनरे, पं० १०१द्वार। झा०। प्रश्न। भ० । "तं तह दुल्लहलं धरूपः। यत पाह-रौद्रः क्रोधप्रकृतिरिति । स्था० ४ ठा ४ उ०। भं,विज्जुलयाचंचलं य माणुसत्तं। लक्ष्ण जो पमायक्ष, सो का ध० । उत्त० । कम जावे घञ् । कन्दपोजिलाषे, तं० । सूत्र० । पुरिसोन सप्पुरिसो"। प्रा०म० द्वि० "स्त्रीसन्निधौ परमकापु. अभिलाषे, उत्त०५ अ० । इच्छायाम, उत्त०१४ अ० । सूत्र। रुषा भवन्ति" सूत्र०२ श्रु०४ अ.५ उ० । कापुरुषस्येदम अण् । पाच । प्रज्ञा भोगतीवाभिलाषे, श्राव०६०। मदाभिलाकुत्सितपुरुष सम्बन्धिनि, त्रिका "कृत्वा कापुरुष कर्म, शूरोऽहमि षमात्रे, स्था०५ ठा०१ उ०। इच्छाऽनङ्गरूपे, सूत्र०१श्रु०१०१ ति मन्यसे " स्त्रियां ङीप् । भावे, कर्मणि च प्यम् । १०। यत आभिमानिकरसानुविद्धा सर्वेन्द्रियप्रीतिःस कामः । कापुरुष्यमान । वाच०। ध०१ अधि० । स्वेच्छायां, मैथुनसेवायां च । प्रज्ञा०२ पद । स्त्रीगात्रपरिष्वनादौ, सूत्र०२ श्रु० १ ० । अविचार्याऽऽत्मनः काफर-पारसीकशब्दः । इसलामाख्ययवनमताऽज्युपगन्तुम- परस्य वा पापहेतौ, ध०१अधि। तेन धर्मष्टे, " हिन्फुतुरुक्ककाफराणं " ती० १० कल्प । कामनिकेपःकाम-काम-पुं० । काम्यन्तेऽभिलप्यन्त एव न तु विशिष्टशरीर- नाम उवणा कामा, दव्यंकामा य भावकामा य । संस्पर्शद्वारणोपयुज्यन्ते ये ते कामाः । मनोकेषु शब्देषु संस्था- एसो खलु कामाणं, निक्खेवो चविहो होइ॥१६७ ।। नेषु वर्णेषु च । भ०। नामस्थापना कामा इत्यत्र कामशब्दः प्रत्यकमभिसंबध्यते। रूवी नंते ! कामा, मरूवी कामा? गोयमा! रूवी कामा कन्यकामाश्च भावकामाश्चा चशब्दौस्वगतानेकभेदसमुश्चयार्थी। समणाउसो ! नो अरूवी कामा। पष बसु कामानां निक्षेपश्चतुर्विधो भवतीति गाथार्थः ।।१६७॥ मपिणः कामा नो अरूपिणः, पुलधर्मत्वेन तेषां मूर्तत्वादिति । तत्र नामस्थापने क्षुमत्वादनात्य द्रब्यकामान्प्रतिसचित्ता भंते! कामा,अचित्ता कामा । गोयमा सचित्ता। पादयन्नाहविकामा अचित्ता वि कामा। सहरसरूवगंध-प्फासा जदयंकरा य जे दव्या । दुविहा य भावकामा, इच्छाकामा मयणकामा ।।१६।। सचित्ता अपि कामाः समनस्कप्राणिरूपापेक्षया अचित्ता. शब्दरसरूपगन्धस्पर्शा माहोदयाभिभूतैः सत्त्वैः काम्यन्त अपि कामा भवन्ति, शब्दद्रव्यापेक्वया असंकिजीवशरीररूपा इति कामाः, मोहोदयकारीणि च यानि द्रव्याणि संघाटकविपेक्षया चेति। कटमांसादीनि, तान्यपि मदनकामाख्यभावकामहेतुत्वाद्रव्यजीवानंते कामा,अजीवा कामा। गोयमा जीवा विकामा कामा इति । भावकामानाह-द्विविधाश्च द्विप्रकाराश्च भावप्रजीचा विकामा । जीवाणं भंते कामा अजीवाणं कामा।| कामा:-इच्छाकामाः मदनकामाश्च । तत्र पपणमिच्छा सैवचिगोयमा जीवाणं कामा नो अजीवाणं कामा। कविहेणं कामा तानिलाषरूपत्वात्कामा इच्छाकामाः । तथा-मदयतीति मद नश्चित्ते मोहोदयः, स एव कामप्रवृत्तिहतुत्वाकामाः,मदनकामापत्ता गोयमा! मुविहा परमत्ता । तं जहा-सदा यरूवाय। इति गाथार्थः १६८॥ (जीवेत्यादि) जीवा अपिकामा भवन्ति,जीवशरीररूपापेक्कया। श्वाकामान् प्रतिपादयतिअजीचा अपि कामा भवन्ति, शन्दापेक्षया, चित्रपुत्रिकारूपापे इच्छा पसत्थमपस-त्थिगा यमयाणम्मि वेयनवोगो । क्षया चेति (जीवाणमित्यादि ) जीवानामेव कामा जवन्ति, कामहेतुत्वात् । अजीवानां न कामा भवन्ति, तेषां कामासम्भवा तेणऽहिगारो तस्स उ, वयंतिधारा निरुत्तमिणं ।।१६।।। दिति। न०७ श०७ उ० शब्दरूपगन्धरूपे विषये, आतु०। इच्छा प्रशस्ताऽप्रशस्ता च । अनुस्वारोऽलाक्षणिकः मुखऔ० । दश । उपा० । स्था। कामौ शब्दरूपे सुखकारणत्वा सुखोचारणार्थः। तत्र प्रशस्ता धर्मेच्छा मोकेच्छा, अप्रशस्ता युद्धे. त् सुखम् । औ० । भ० । प्रा० चू। सूत्र०। प्राचा० । आव० । च्या राज्येच्छा । उक्ता इच्छाकामाः । मदनकामानाह-मदन श्त्युपलकणार्थत्वान्मदनकामे निरूप्य। कोऽसावित्यत पाह-वेदो. चनबिहा कामा परमत्ता। तं जहा-सिंगारा कखुणा वी पयोगः,वेद्यत ति वेदः स्त्रीवेदादिस्तदुपयोगस्तद्विपाकानुभवनच्छा रोद्दा । सिंगारा कामा देवाणं, करुणा कामा मण-| नम्, तझापारश्त्यन्ये । यथा-स्त्री वेदोदयेन पुरुषं प्रार्थयते इत्या Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३२ ) अभिधान राजेन्द्रः | काम दि । तेनाधिकार इति । मदनकामेन शेषा उच्चारितमदृशा इति प्ररूपिताः, तस्य तु मदनकामस्य वदन्ति धीरास्तीर्थकरगणधराः, निरुक्तमिदं वक्ष्यमाणलक्षणमिति गाथार्थः ॥ १६८ ॥ बिसयहेतुपसत्यं, अबुजां कामरागपमिवद्धं । कामपति जीवं धम्माओ तेण ते कामा || १७० ।। विषीदन्त्याबध्यन्ते एतेषु प्राणिन इति विषयाः शब्दादयः, तेज्यः सुखानि तेषु प्रशक्त आशक्तस्तं जीवमिति योगः । स एव विशिष्यते - भबुधः अविपश्चिद् जनः परिजनो यस्य स अबुधजनस्तम, अकल्याणमित्रपरिजनमित्यर्थः । श्रनेन बाह्यं वि सुखमशनुमा कामरागप्रतिद्धमिति कामाः मदन कामास्तेभ्यो रागाः विषयाभिष्वङ्गाः तैः प्रतिकको व्याप्तस्तम्भनेननन्तशक्तिहेतुमाद जनत्वात्कामरागप्रतिबद्धत्वाश्च विषयसुखेषु प्रशक्तमिति भावः । कि निरुकवावाद-पनीत्यायुकामयम्यपनयन्ति जीवमनन्तरविशेषितम कुतो धर्मात् योनित्याधात् येन कारणेन तेन सामान्येनैव कामरागाः, कामा इति गाथार्थः । अन्ये पठन्ति, 'उत्क्रामयन्ति यस्मादिति ' श्रत्र चाबुधजन एव विशेष्यः शेषं पूर्ववत् । अपि य से नामं कामा रोग भित्रियाविति । कामे पत्थेमालो, रोगे पत्थरे स्वबु जंतू ॥ १७१ ॥ अन्यदपि चैषां कामानां नाम किभूतमित्याह-कामा रोगा इति एवं पश्मिता बुवते । किमित्येतदेवमत श्राह - कामान् प्रार्थयमानोभलपन रोगात् प्रार्थयते जन्तुत्वादेव कारणे का बोपचारादिति गाथार्थः । दश० २ श्र० । (२४) भेदा: 1 कामो चव सविहो, संपतोता असंपतो संपतो चउदसदा, दसदा पुण होह संपत्तो || ७६ ॥ कामश्चतुर्विंशतिविघश्चतुर्विश्वतिभेदो जवति, तत्र प्रथमं तावसामान्येन द्विधा संप्राप्तः कामिनामन्योऽन्य संगमसमुत्थः, तथाऽसंप्राप्तश्च विज्ञानस्वरूपः रात्र संप्राप्यनुशा चतुर्दशप्रकारः, दशधा पुनः दशप्रकारो भक्त्यसंप्राप्त इति । तत्राल्पतरवक्तव्यत्वादसंप्राप्तं तावदाह तत्थ असंपसत्था, चिंता तह सह संचरणमेव । विक्कत्रय लज्जनासो, पमाय उम्पाय तब्जाने ॥ ७७ ॥ मरणं च हो दसये; संबसं पिय समासश्रो बोच्छं । दिडीए संपाओ, दिसेना व संजासो ॥ ७८ ॥ तत्र द्वयोः संप्रायोपेसंप्राप्तोऽपय ब धनमर्थ: परमात्मामा तथा विन्ता अहो ! रूपादयस्तस्वा गुम्सा हस्यसुरामेण चितनं तथा-कात सङ्गमानिलापः, तथा संस्मरणं संकल्पितरूपस्याले क्यादिदर्शनेनात्मनो विनोदनं तथातिरेके डासदस्य निरपेता तथा सामाशः गुर्वादिसमक्षमपि तद्गुणोत्कीर्तनं तथा-प्रमादस्तदर्थमेव सर्वारम्भेषु प्रवर्तनं, तमाटो नष्टचित्ततया भाल जालजस्पनं, तथा तद्भावः स्तम्नादीनामपिलिङ्गनादिदेश मध्यं च भवति दशमः कामकंत संप्राप्तकामभेदः । इदं च सर्वथा प्राणपरित्यागकणं न ज्ञाराज्यं शृङ्गाररसन्ति मरणमित्र मरणं निधेशवा प्राया काचिदित्यर्थः । इत्थमेव चानिनगुन भरतपुष्टि कृताऽपि व्याख्यातत्वादिति । अथ संप्राप्तं काममाह - ( संपत्तं पि असमासओ वोच्छं । दिडुंए संपाओ १ दिडी सेवा य२ संनासो३) संप्राप्तमपि कामं समासतः संक्षेपेण वक्ष्ये । तदेवाह - दृष्टिसंपातः स्त्रीणां कुत्राद्यवलोकनं १, तथा दृष्टिसेवा दावनावसारनरहेडिमेनम् २, तथा संभाषणमुचितकाले सरकघानिजल्यः ३ । हसितं च कोकगनेसनं, ललितं पासकादिक्रीमा, उपगूढं गाढतरपनि दशनच्छेदनविधि तः कररुक्षैर्विपादन प्रकारः, चुम्बनं वक्त्रसंयोगः, आलिङ्गनमीषस्पर्शनम्, श्रदानं कुचादिग्रहणम्, ( करसवणं ति ) प्राकृतल्या करणासेवने, तत्र करणं सुरतारम्भयन्त्रं चतुरशीतिभेदं वात्स्यायनप्रसिद्धम, आसेवनं मैथुन क्रिया, श्रीमा चाssस्यादावर्थक्रियेति । प्रव० १६६ द्वार । उस० ।" कहन्नु कुज्जा सामनं, जो कामे न निवारय । पप पर विसतो, संकप्पस्स वसंगओ " दश० २ ० । ( 'सामन्नपुञ्चय' शब्देव्याख्या ) "काम ! जानामि ते रूपं, संकल्पात्किल जायसे । न त्यां संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्वास ” |१| आचा० १० ५ ०४०|" सव्वमहानं पभयो, महागड़ो सोपाथी । कामग्गड़ो दुरप्पा, जेणऽभिभूयं जगं सव्वं" । महा० ७ ० । (यथा स्थूलन कामो विजितस्तथा 'धूलम' शब्दे ते कामो हि दुरतिक्रमः । कामाद्विविधाः - इच्छाकामा मदनकामाश्चतिच्छाकामा मोहनीयभेददास्यरत्युद्भवाः, मदनकामा श्रपि मोहनीयदे वेदोदयात्प्रादुःषन्ति । ततश्च द्विरूपाणामपि कामानां मोहनीयं कारणं तत्सद्भावे न कामोच्छदः । आचा० १० २ श्र० ५ उ० | मकरध्वजे व्य० १ उ० रौक्मिणेये, पुं० । बलदेवे, तस्य कामपालत्वात्तथात्वम्, महाराजचूत्रे, कर्मपूर्वकाल कमयतेः करिअ पदार्थाना वाच कालं जीवितुकामाः दीर्घकालमायुकाभिलाषिणः । चाया १ ० २ श्र० ३ ३० । रेतसि न० वाच० । कामं कामम् श्रयमनुमते ०१ ० ० ० । श्रवमतायें, नि० चू० १० ० । श्रवधृतार्थे, नि० चू० ५ ० । काममित्यघृतार्थे घृतमेतत् सूत्र० २ ० १ ० "कामं खलु अन सहो" नि० चू० ११ उ० । चोदकाभिप्रायसमर्थताऽभिप्रायेण कामशब्दप्रयोग वा प्राचार्येण योदकाभिप्राय हत्य तः कामशब्दप्रयोगः । नि०चू० १५. उ० । कामं चोदकाऽभिप्रायस्व अणुमयत्थे, ' नि० चू० १६ उ० । श्राव० । श्रा० चू० । काममित्युपगमे, यथा-म० २०० कामंग-कामाङ्ग पुं० । कामं कामोद्दीपनम मुकुलमस्य । श्राभट्ट जटाधरः । पाय स्नानादिषु कामोद्दीपनेषु ष० २ ० २ श्र० । इसियललिओढिय, दंत नह निवाय चुंबणं देव लिंगमादा, करसेवाऽगकीमा य ॥ ७७ ॥ · कामंदकि कामन्दकि० नीतिशास्त्रप्रयेत पाच स्था कामकंत-कामकान्त नः । स्वनामस्याते कामादिविमानभेदे. जी० ३ प्रति । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३३) कामकम अभिधानराजेन्द्रः। कामक्खंध कामकम-कामकम-न। षष्ठदेवलोकेन्स्य पारियात्रिकविमाने, चिन्तनीयं न चासीद्,बहुजनदयितेन प्रेम कृत्वा जनेन । हत हृदय स्था० १००। निरास क्लीच! संतप्यसे किं,न हि जम्गततोये सेतुबन्धाः कियन्ते"। इत्येवमादि। तथा (तिप्पा त्ति)" तितेपृ'करणार्थों । तेकामकहा-कामकथा-खी कामप्रधानायां कथायाम, दशा पते करति संचन्नति मर्यादातोभ्रस्यते,निर्मर्यादीनवतीति यावत् । साम्प्रतं कामकथामाह तथा-शारीरमानसैर्दुःखैः पीड्यते।तथा-परितः समन्ताद् बदिर न्तश्च तप्यते परितप्यते,पश्चात्तापं च करोति। यथा-पुत्रकलत्रादौ रूवं वो यं वेसो, दक्खत्तं सिक्खियं च विसएसु । कोपात् क्वचित समयाऽननुवर्तिते इति कोपात् परितप्यते।स. दिढ सुयमानूयं, च संथवो चेव कामकदा ॥१ ॥ ाणि चैतानि शोचनादीनि विषयविषावष्टब्धान्तःकरणानां दुःखावस्थासंसूचकानि । अथवा-शोचत ति यौवनधनमदरूपं सुन्दरं, वयश्वोदग्रं, वेष उज्ज्वलः,दाक्षिण्यं मार्दव,शिक्वितं मोहाजिभूतमानसो विरुधानि निषेश्य पुनर्वयःपरिणामेन मृत्युविषयेषु शिक्षा च कक्षासु, इष्टमद्भुतदर्शनमाश्रित्य, श्रुतं च अ कालोपस्थानेन वा मोहापगमे सति किं मया मन्दभाग्येन पूर्वनुभूतं च संस्तवश्च परिचयश्चति कामकथा । रूपेच वसुदेवादय | मशेषशिष्टाऽऽचीर्णः सुगतिगमनैकहेतुर्दुर्गतिद्वारपरिधो धर्मो ना. उदाहरणम् । वयसि सर्व एव प्रायः कमनीया भवति,लावण्यात् । चीर्ण इत्येवं शोचते इति । उक्तं च "नवित्री भावानां परिणतिमनाचक्नं च-"यौवनमुदयकाले, विदधाति विरूपकेऽपि लावण्यम्। लोच्य नियतां,पुरा हा! यत्किचिद्विहितमशुभं यौवनमदात् । पुनः दर्शयति पाकसमये,निम्बफलं चाऽपिमाधुर्यम्" इतिविष उज्ज्व प्रत्यासन्ने महति परलोकैकगमने, तदैवैकं पुंसां व्यथयति जरानाकामा ङ्गम; 'यं कञ्चन उज्ज्वल पुरुष रष्ट्वा स्त्री कामयते' इति जीर्णवपुषाम्"॥१॥ तथा कूरतीत्यादीन्यपि स्वबुच्या योजनीयानी. घचनात्।पर्व दाक्विण्यमपि, ‘पञ्चासत्रीषु मार्दवमिति वचनात् । ति। उक्तं च-"सगुणमपगुणं वा कुर्वता कार्यजातं,परिणतिरवधा. शिक्का च कलासु कामाङ्गम,वैदग्ध्यात्।उक्तं च-"कलानां ग्रहणा- यो यत्नतः पएिमतेन,। अतिरभसतानां कर्मणामाविपत्तेर्भवति देव,सौलाग्यमुपजायते। देशकालौत्वपेदयाऽऽसा,प्रयोगःसंजवेन वृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः" ॥१॥ इत्यादि । आचा०१ घा" ॥ अन्ये त्वाचनमूलदेवी देवदत्तां प्रतीत्येक्षुयाचनायां (०२०५०। प्रनतासंस्कृत-स्तोकसंस्कृतप्रदानद्वारेणोदाहरणमजिदधति । रटमधिकृत्य कामकथा। यथा-नारदेन रुक्मिणीरूपं दृष्ट्वा वासुदे | कामकुसल-कामकशन-पुं०। व्यवहारकुशलभेदे, स च यत्नेनाsवे कृता।थुनं त्वधिकृत्य यथा-पद्मनाभेन राज्ञा नारदाद्रौपदीरू नुवर्तते प्रियां बाह्यानुवर्तितया कलहाभावादिति निर्वृतिर्भवपमाकर्य पूर्वसंस्तुतदेवेभ्यः कथिता। अनुभूतं चाधिकृत्य का ति, तत भयलोफसिफिरिति । यदा च चैत्याभिगमनं करोति मकथा यथा-तरङ्गवत्या निजानुभवकथने । संस्तवश्च कामक तदा तां मुखशुद्धि कारयति, तद्गृहे स्नानं न विधत्ते, करोति चेत्तदा यथा तवशगो न भवति, तद्वशगतत्वेनोनयलोकहाथापरिचयः कारणानीति कामसूत्रपागत् । अन्ये त्वभिदधति. "सदसणान पेम्म, पेमाउ रती रती य विस्संनो । विस्संनाओ निः स्यादिति । दर्श। पणो, पंचविहं वर पेम्मं ॥” इति गाथार्थः ॥ १६८ ॥ उक्ना कामक्रम-कामकट-पुं० । काम एव कुटं शृङ्गं प्रधानमस्य । वेश्याकामकथा।दश०३ अ०। प्रिये,वश्यायाविनमे च । वाच 1 विमानभेदे, जी०३ प्रति । कामकाम-कामकाम-त्रि० । कामेन स्वेच्या कामो मैथुनसे- | कामक्खंध-न-कामस्कन्ध-पुं० । काम्यत्वात् कामाः मनोशवा येपां ते कामकामाः । अनियतकामेषु, प्रज्ञा०२पद । ब्दादयः, तद्धेतवः स्कन्धास्तत्तत्पुद्गबसमूहाः कामस्कन्धाः। जी० । कामे शब्दरूपयोः कामो वाञ्छामात्रं यस्यासौ कामका उत्त०४ श्र० शब्दादिद्रव्यस्कन्धेषु, उत्त। मः । शब्दरूपामिलाषुके, तं० । कामं काम्यं कामयते, कम् णिङ् अण् । मुप-स०। विषयमार्थ के, स्त्रियां ङीप ! वाच० । खेत्तं वत्थु हिरम्यं च, पसवो दास पोरुसं । चत्तारि कामखंधाणि, तत्थ से उववज्जई॥१७॥ कामकामि-कामकामिन-त्रि० । कामान् कामयितुमभिलषितुं | शीलमस्येति विषयप्रार्थनाशीले, आचा० । मित्तं व नायवं हो, नच्चा गोए य वप्लवं । अप्पायके महापन्ने, अभिजाए जसो बले ॥१॥ कामकामी खबु अयं पुरिसे से सोयति रति तिप्पति फिड्डति परितप्पति। किनिवासगत्योक्कियन्ति निवसन्त्यस्मिन्निति क्षेत्र,ग्रामाऽऽरा मादिसेतुकेतूभयात्मकं वा तथा वसन्यस्मिन्निति वास्तु, खातो. कामान् कामयितुमनित्रपितुं शीलमस्येति कामकामी। खलु- छितोजयात्मकम,हिरण्यं सुवर्णम,उपलक्षणत्वात् रूप्यादि च,पश क्यालङ्कारे । अयमित्यध्यक्षः,पुरुषो जन्तुर्यस्त्वेवंविधोऽविरत- वोऽश्यादयः, दास्यते दीयते एज्य ति दासाः पोप्यषर्गरूपाः चेताः कामकामी स नानाविधान् दुःखविशेषाननुभवतीति द- तेच. ( पारुस त्ति) सूत्रत्वात्पीरुपेय च पदातिसमूहः, दासशयति-(से सोयमित्यादि) स ति कामकामी ईप्सितस्यार्थ- पौरुषय.चत्वारः चतुःसंख्याः,अत्र हि क्षेत्र वास्त्विति चको,हिस्याप्राप्तौ तद्वियोगे च स्मृत्यनुबन्धः शोकस्तमनुजवति । अथवा रण्यमिति द्वितीयः, पशव इति तृतीयो, दासपौरुषेयमिति चशोचत इति काममहाज्वरगृहीतः सन् प्रलपतीति । उक्तम्-"ग- तथापित किमित्याह-काम्यत्वात्कामा मनाइशब्दादयः,तद्धतषः ते प्रेमावन्धे प्रणयवहुमाने च गलिते, निवृत्ते सद्भावे जन इव स्कन्धास्तत्पुलसमूहाः कामस्कन्धाः, यत्र भवन्तीति गम्यते । जने गच्छति पुरः। तमुत्प्रेक्योत्प्रेक्ष्य प्रियसखि ! गतांस्तांश्च प्राकृतत्वाचन निर्देशः । तत्र तेषु कुलेषु (से इति) स उपपद्यदिवसान,न जाने को हेतुर्दशति शतधा यनदयम् ?"॥इत्यादि ते जायते,अनेन चैकभङ्गमुक्तम्। शेषाणि नवाङ्गान्यादा मित्राशोचते। तथा (करसिहदयन विद्यते। तद्यथा-"प्रथमतरमथेदं णि सह पांसुक्रोमितादीनि सन्त्यस्येति मित्रवान्, कातयः स्वज १०६ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामक्खंध , नाः सम्स्यस्येति चतिमान् उदयेऽपि पूज्यतया गोत्रं कुलमस्येत्युश्चैर्गोत्रः । चः समुच्चये । वर्णः श्यामादिः स्निग्धस्वादिगुणैः प्रशस्यो ऽस्येति वर्णवान् । श्रल्पातङ्कः श्रान्तकावर विनोरोग इत्यर्थः महायेति महाम, पतिजातो सर्वजनाभिगमनीय नवति दुर्विनीतस्तु शेषगुणान्वितोऽपि न तथेति । अत एव च (जसो ) यशस्वी तथा च सति (बले त्ति ) बक्षी कार्यकरणं प्रति सामर्थ्यवान्, उभयसूत्रत्वान्मत्वर्थीयलोपः । एकैकोऽपि हि मित्रवत्वादिगुणस्त कार्याभिनिर्वर्तनकमः, किं पुनरमी समुदिताः शरीरसामर्थ्यवान् वेह बनीति । उत्त० ४ श्र० । कामगम-कामगम- त्रि । कामं स्वेच्छया गमो येषां ते कमगमाः । स्वेच्छाचारिषु जी० ३ प्रति० प्रा० । षष्ठदेवलोकेन्द्रस्य यानविमाने, जं० ५ ० । ० । कामगिE - कामगृह - त्रि० ७ त० कामेषु इच्छा मदनरूपेषु श्र भ्युपपन्ने, आचा० १ श्रु० ३ ० १ ० । कामगुण-कामगुण-पुं० । काम्यन्ते अनिलभ्यन्ते इति कामा, । तेच ते गुणाश्च पुलधर्माः शब्दादयः । स० ॥ सम० । पञ्चेन्द्रियसुखदेषु स्यमिष्यचन्दननाटकादे वीणाकलित काकलीगीतादिपदार्थेषु उत्त० १४ श्र० । श्राव० । श्राचा० । “पंच कामगुणा पाता । तं जहा-सहा रूवा रसा 33 गंधा फासा | स०५ सम० श्राचा० प्र० । स्था० । ( ४३४ ) अभिधानराजेन्द्रः । पंचे कामगुणे (पंचे अरे महादोसे ) । परिवज्जंतो गुत्तो, रक्खामि महव्त्रए पंच ||२७|| पंचेनि मनोरूपरसगन्धस्पर्शनेदात्पञ्चसं क्या एव यशोम्सरानिधानसमुच्चयार्थः के यह काम्बले रामाः प्राणिभिरमा इति कामाः मभिलपदार्थात एवात्मसंयमने कहेतुत्वाद् गुणाः स्वतन्त वात्मगुणोपयात कारणत्वाद्वा गुणाः कामगुणाः । अथवा-कामस्य मदनस्याभिलाषमात्रस्य वा संपादका गुणाः धर्मार्थपुरुसानां कामगुणाः, ते चाऽनर्थहेतवः । यदुक्तम " कलरजितमधुरगान्धर्वयोषिभूषणत्वाद्यैः । ओष हरिण इव विनाशमुपयाति ॥ १ ॥ गतिविधताका रहस्य जीवतिः । रूपावेशितचक्षुः शलभ श्व विपद्यते विवशः ॥ २ ॥ स्नानार्तिक-वर्तकपार्थिवासपटयासैः । गन्धमितमनको मधुकर इव नाशमुपयाति ३ मिष्टान्नपानमांसौ-दनादिमधुररसविषयगृद्धात्मा । मलयन्त्रपाशबको मीन श्य विनाशमुपयाति ॥ ४३ शयनासनसंबाधन-सुरतस्नानानुलेपनाऽऽशक्तः । स्पर्शव्याकुलितमति-र्गजेन्द्र श्व कयते मृदः ॥ इत्यतः स्नानादिकामगुणान् परिवर्जयन्निति योगः । पा० । आप मकरकेतुका ०४ द्वारकामस्य कामहतो वा गुणः । अनुरागे, विषये, आभोगे च । वाच० । कामग्गह- कामग्रह - पुं० | सुरता से वनोद्रेकादू विभ्रमे, पं००१ द्वार । कामजल - कामजल - न० । स्नानपीठे, श्राचा० २ श्रु० ५ श्र० १ उ० ।" सिणाणपीढं त् कामज नि० चू० ॥ ५ १३ उ० । , "" कामदेव काम-कामन० विमानभेदे जी० ३ प्रति० । कामज्झया-कामध्वजा स्त्री० । स्वनामख्यातायां गणिकायाम्, विपा० १ ० २ ० (पाणिग्रामवास्तव्यायां स्वामुि तकदारक अशक्तः; तथोक्तम् ' उज्झियय ' शब्दे द्वितीयभागे ७४६ पृष्ठे ) कामट्टि [ ए ] - कामार्थिन् - त्रि० । शब्दरूपार्थिनि, ज्ञा० १० कामनिय कामर्द्धिक-न० । वैश्यपाटिकगणस्य तृतीये कुले, कल्प क्षण | कामतिव्यराग- कामतीराग-० कामाश भिलाषः । स्वदारसन्तोषस्य तृतीयेतिचारे, ध० २ अधि० । कामतिन्याभिलास कामतीसा० कामाः शब्दादय स्तेषु सीमा कामनोऽध्यवसायत्यस्पदरसन्तोषस्य तृतीयेऽतिचारे, श्रा० । यतो वाजीकरणादिनाउनवरतसुरतसुखार्थममुपयति पा०वि० कामदुह कामदुध वि० कामं दोग्धि डुक घादेशः । श्र । दुह-क-घादेशः भीष्टसम्पादके, सुरभौ, गवि, स्त्री० । वाच० । अप्पा कामदुधा घेणू, अप्पा मे गंदणं वणं " । आत्मैव कामदुघा धेनुर्वर्त ते कामं दोग्धि पूरयतीति कामदुधा । जीवः शुभक्रियां करोति, सा शुभक्रिया, सुखदेत्यर्थः । उत्त० २० प्र० । - 66 कामदेव कामदेव पुं० काम एव देषः कन्दपै वाचका चित् बृहत्कुमारिका चाञ्छित वरलानाय कामदेव पूजार्थमारामे पुष्पाणि चोरयन्ती आरामपतिना गृहीता । स्था० ४ ठा० ३४० ॥ नि० चू० । स्वनामख्याते चम्पानगरीवास्तव्ये उपासक भेदे, स्पा० १० डा० । ती० 1 संधा० । - जणं ते! समणे० जाव सपंत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं पढमस्स श्रज्झयणस्स मट्टे पाते । दोयस्ते प्रकयणस्स के अपने एवं खलु जंबू ! तेणं कालें तेणं समएणं चंपा णामं यररी होत्या पुस्मभद्दे बेइजिपस राया, कामदेवे गाहा, भद्दा भारिया, छ हिराकोमीओ णिहाणपत्ताओ, बबुडि पत्थिर व्यया दस गोमाइस्सीए व समोसरणं जहा आदो तह निगओ हेब सावय धम्मं परिवज्जइ, सा चैव वत्तव्वया जाव जेट्ठपुत्तं कुटुंबे यता मित्तनाइ पुच्छित्ता जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उत्रागच्छत्ता जहा आणंदे० जात्र समणस जगच्च महावीरस्य अंतिए पम्पमा बसे विहरइ,तए णं तस्स कामदेवस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयं सि एगे देवे माई मिच्छदिट्टी अंतियं पाउन्नूर, तरणं से देवे एवं महं पिसायरूवं विव्वइ । द्वितीये किमपि द्विरूपते (पुण्यर सायरस कालमसि पूर्वरात्रश्चासावपररात्रश्चेति पूर्वरात्रावपररात्रः, स एव कालः स. मयः कालविशेषः ॥ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३५) कामदेव अभिधानराजेन्द्रः। कामदेव तस्स एं देवस्स पिसायख्वस्स इमे एयारूवे वल्मायासे केशा बालाः । एतदेव व्यनक्ति-कविलतेएणं दिपमाणा] पिपसत्ते-सीसं से गोकिलंजसंगणसंवियं सामिभसेल्लसरि- दीप्या रोचमानाः [ ट्ठियाकभल्लसंठाणसंधियं ] उष्ट्रिकासा से केसा कविलतेएणं दीप्पमाणा महानाध्याक- मृण्मयो महाभाजनविशेषः,तस्याः [कभलं] कपालं तसंस्थाभल्लसंगणसंठियं णिमालं मुंगुं सपुच्छं व तस्स नूमगाओ नं तद्वत्संस्थितम् [निडाल ति] अवाटम् । पाठान्तरे-[मदिच उहियाकनवसरिसोवमे] महोष्ट्रिकाकपालसदृशमित्यव समुल्ले फुग्गफुग्गाश्रो विगयीभच्छदसणाओ सीसिघमिविणि बेनोपमा उपमानवाक्यं यत्र तत्तथा। [मुंगुसपुच्छंच] तुजपग्गयाइं अच्छीणि विगयबीनच्छदंसहाई कमा जह सुप्प रिसर्पविशेषो मुंगु,साच 'खाडहिल्लत्ति' संभाव्यते,तत्पुच्च्यत्, कत्तरे चेव विगयवीजच्छदंसणिज्जा उरन्जपुमसंनिभा से ना- तस्येति पिशाचरूपस्य [भूमगाश्री त्ति भ्रवौ, प्रस्तृतोपमार्थमे. सा, कासरा जमलचुरीसंगणसांच्या दा वितस्स नासा व व्यनक्ति-[ग्गफुम्गाश्रोत्ति परस्परासंबद्धरोमिके,विकीणरोपुमया, घोडगाच्छं व तस्स मंसूई कविसाई विगयबीभ-| मिके इत्यर्थः पुस्तकान्तरे तु-[जटिलर्जाटलाच नि]प्रतीतं, (निसदसणाई उट्ठा उट्ठस्स चेव लंबा फालसरिसा से दंता गयबीभन्दसणााति) विकृतं भिन्सच दर्शन रूपं ययोस्त जिब्भा जह सुप्पकत्तरं चेव विगयबीभच्छंदसणिज्जा हल तथा । (सीसघडिविणिग्गयाइं) शीर्षमेव घट। तदाकारत्वात् शीर्षघटिः,तस्या विनिर्गते इव विनिर्गते शिरो घटीमतिक्रम्य व्यकुद्दालसंधिया से हणुया गल्लकमिद्धं च तस्स खटं फुटू कवि वस्थितत्वात्, अक्किणी लोचने, विकृतबीभत्सदर्शने प्रतीतम्, कलं फरिसं महवं मुइंगाकारोवमे से खंधे पुरवरकवाडोव- गौ श्रवणी यथा सूर्पकर्तरमेव सूर्पखएडमेव नान्यथाकारी,टप्परा. मे से वच्छे.कोट्ठिया संगणसंठिया दो वि तस्स बाहा, नि कारावित्यर्थः । विकृतेत्यादि तथैव, (उरम्भपुडसन्निभा) उरभ्रः सापाहाणसंठ.णसंगिया तस्स दो वि इत्या, निसालोढसं. ऊरणस्तस्य पुटं नासापुटं तत्संनिभा तत्सरशी नासा नासिका। पाठान्तरे-(हुरम्भपुरुसंगणसंठिया) तत्र हुरभो वाचविशेष गणसंठियाओ हत्येसु अंगुलीओ, सिप्पिंपुमगसठिया से स्तस्याः पुटं पुष्करं तत्संस्थाने संस्थिता. अतिचिपिटत्वेन समणहा,एहावियए पसेवनब्ब नरसि संवति दो वि तस्स थण-| स्वादिति [ मुसिर त्ति ] महारन्ध्रा [जमलचुल्लीसंठाणसंविया] या पार्ट्स अयकोट्टनन्य वत्तं पाणा कलंदसरिसा से णाभी सि-| यमलयोःसमस्थितद्वयरूपयोः चुल्ल्यार्यत् संस्थानं तत्संस्थिते कगसठाणसंविते से पोते, किस्मपुमसंठाणसंठिया दो वि | द्वे अपि तस्य नासापुटे नासिकाविवरे। वाचनान्तरे-महल्लकुव्व संठिया दो वितेकवोला] तत्र कोणमांसत्वात् जनतास्थित्वाच्च तस्स वप्तणा, जमलकोहियासमाणसंठिया तस्स दो विऊरू, कुच्चंति निम्नं काममित्यर्थः। तत्संस्थितौ दावपि [ से] तस्य अज्जुणगुच्छ व तस्स जाणूई कुडिलकुडिलाई विगयबीभ- कपोलो गरमी, तथा [घोमग ति] घोटकपुच्छवदश्वबालधिरछदसणाई जंघाओ करकमीओ लोमेहिं उबचियाओ, | वत्तस्य पिशाचरूपस्य श्मभूणि कृर्वकेशाः,तथा कपिझकपिनाअधरीसंठाणसंठिया दो वि तस्स पाया,प्रहरीलोढसंठाण नि अतिकडाराणि विकृतानीत्यादि। तथैव पागन्तरेण-[घोम्यपु. छ व तस्स कविलफरुसाओ उकुलोमाधोदाढियाओ] तत्र संठियाओ पाएसु अंगुलीओ, सिप्पिपुमसंटिया से पहा, परुष कर्कशस्पर्शे ऊर्द्धरोमिके,न तिर्यगवनते इत्यर्थः। दंट्रिके उत्तलमहमडहजाणुए विगयभग्गनुग्गभमुए अवदासियवय- रौष्ठरोमाणि, आष्ठौ दशनच्छदौ उष्ट्रस्येव लम्बी प्रलम्बमानौ । पाणविवरनिहालियअग्गजीहे सरमकयमालियाए लंदरमाला- ठान्तरण-चिट्टासे घोमगस्स जहा दोविलंबमाणा]तथा फाला परिणटुसुकयचिन्धे उलकन्नपूरे सप्पकयवेगच्छे अप्फोमते लोहमयकुशास्तत्सदृशाः, दीर्घत्वात् । [से] तस्य, दन्ता दशनाः अजिगज्जते नीममुक्कट्टहासेण णाणाविहपंचवन्नेहिं लोमेहिं जिह्वा, यथा सूर्यकर्तरमेव नान्यथाकारो विकृतेत्यादि तदेव । पा गन्तरे-"हिंगुलुयधानकंदरविलं व तस्स वयणं" इति रश्यते । उचिये एगं महं नीलुप्पलगवलगुलियअयसिकुसुमप्प तत्र हिल को वर्णद्रव्यं,तपोधातुर्यन तत्तथाविधं यत्कन्दरविगासं असिं खुरधारं गहाय जेणेव पोसहसाला जेणेच | बं गुहालकणं रन्धं तदिव तस्य वदनम् । [हलकुदाल सि] हलकामदेवे समणोवासए तणेव उवागच्छद, उवागच्छइत्ता स्योपरितनो भागः तत्संस्थिते तदाकारे अतिवकेदाधे मे] तस्य मसले को कविता लिकिस सिन [हमुय ति] दंष्ट्राविशेषे [गदकमिल्लं च तस्स ति] गल्ल एव क पोल एव,कडिलं मण्डकादिपचनजाजनं गल्लकडिलम् । चःसमुदेवस्स एवं वयासी चये। तस्य पिशाचरूपस्य [खटं ति गर्तरन्ध्राकारं निम्नमध्यतत्र (श्मे पयारूवे वामावासे पम्पत्ते त्ति) वर्णकव्यासो व. भागमित्यर्थः। [फुट्ट ति] विदीर्णमनेनैव साधम्र्येण कमिडमिकविस्तरः [ सीसं ति ] शिरः [से ] तस्य [गोकिलंज सि] त्युपमानं कृतं, 'कविवंति' वर्णतः 'फरुसं ति' स्पर्शतः 'महल्ल गवां चरणार्थ यवंशदलमयमहद्भाजनं तमोकिमजं मल्ले ति' महत्, तथा मृदङ्गाकारण मर्दलाकृत्योपमा यस्य स सि' यदुच्यते, तस्याधोमुखीकृतस्य यत् संस्थानं तेन संस्थि-| मृदङ्गाकारोपमः [ से ] तस्य, स्कन्धोऽसदेशः [ पुरवरे ति] तं, तदाकारमित्यर्थः । पुस्तकान्तरे विशेषणान्तरमुपलभ्यते-| पुरवरकपाटोपमं से तस्य,वक उरःस्थलं, विस्तीर्णत्वादिति। [विगयकप्पयनिभं ति] विकृतो योऽरञ्जरादीनां कल्प एव क- तथा कोष्टिका सोहादिधातुधमनार्थ मृत्तिकामयी कुशूमिका, स्पकच्छेदः, षण्ढं 'कप्परमि त्ति' तात्पर्यम, तन्निभं तत्सदशमि. तस्या यत् संस्थानं तेन संस्थितौ तस्य द्वापाप बाढू नुजी, ति। कचित्तु 'वियमकोप्परनिर्भ' ति दृश्यते, तश्योपदेशगम्यम्। स्यूसावित्यर्थः । तथा (निसापाहाणे ति) मुजादिदलनशिक्षा, [ सानिमसेसरिसं ] व्रीहिकणिशसूकसमाः [से] तस्य तवसंस्थितौ पृथुलस्वस्थूलत्वान्यां द्वावपि अग्रहस्ती जुजयार Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३६ ) अभिधानराजेन्ऊ: अभूतो करावित्यर्थः तथा (निवालोदो सि) शिलायुकः तत्स स्थानसंस्थिता हस्तयोर स्वाभ्याम तथा [सपिपुमं ति] युक्तिसंपुटस्यैकं दक्षं, तत्संस्थिताः [तस्स न[] ना हस्तान्तरे तु इदमपरमधी यते -[डयालगसंविओ उरो तस्स रोमविलोत्ति ] अत्र 'अमयाल ति अट्टालकः प्राकारावयवः संभाव्यते, तत्साधयै चोरसः कामत्वादिनेति । तथा [ एड्ावियर पसेवउत्ति ] नापिततत्प्रसेवक व नखशोधकक्षुरादिभाजनमिव उरसि वक्षसि [] मनीतिः तस्य स्तनको वक्कोजी, तथा [ पोट्टं ] जठरम् श्रयः कोष्ठकवल्लोहकुशूलवत वृत्तं वर्तु तथा पानं पारसकुविन्दावराणि पाययन्ति तस्य कन्दं कुराडं पानकन्दं तत्सदृशी गम्भीरतया [से] तस्य नाभिर्जठरस्य मध्यावयवः। वाचनान्तरेऽश्रीतम् [भग्गकर्मी विग ययं कपि सरिसा दो विता] भावि किसको पूतीयादिभाजनाधार दवरकमयमाकाशेऽवसंस्थानसंस्थित [ से ] तस्य नेत्रं मिथिद एकाकर्षणरज्जुः, तद्वद्दीर्घतया तंत्र शेफ यते तथा [दिसामंत सि] सुरागोणकरूपगोपुर संस्थानसंस्थितावित द्वावपि तस्य वृषणी पोत्रकौ । तथा [जमल कोट्टियत्ति ] समतया व्यवस्थापितकुगुलिसंस्थानसंस्थितापि तस् - जड़े तथा [अ] अर्जुनस्तृणविशेषः तस्य गुच्छं स्तबकस्तद्वत्तस्य जानुनी अनन्तरोक्तोपमान साभ्यम्यै व्यनति । कुटिले प्रतिवक्रे विकृतबीजत्दर्शने तथा, जल्वे जान्वोरधोवर्तिन् [करको सि] कठिने, निमसे स्पर्थ तथा रोमभिरुपचिते । तथा धरी पेषणशिला, तत्संस्थानसंस्थितौ द्वावपि तस्य पादौ । तथा अधरीसोटः शिला पुत्र कय्तत्संस्थान संस्थिताः पादयोरङ्गल्यः क्तिटस्थता [से] तस्य पादाङ्गुलिनखाः । आशाग्रानखाग्रं यावद्वर्णित पिशाचरूपम्। अधुना सामान्येन त नावाह[लममा] प्रस्तावे शब्देन गापाङ्गागवति तदुत्तरक्षणार्थ परका तदुच्यते तच्च गड्याः थबन्धनं भवति । एवं स बन्धनत्वावडर इव लडममा जानुनी यस्य तत्तथा। विविकारी भुपी यस्य पिशाचरूपस्य तत्तथा । इहान्यदपि विशेषणचतुष्टयं वाचनान्तरे तु धीयते - मस्सिमूलगमहिसकांवर ] मषीमूषिकामषिचत्कालकं [ भरियमेवन्ने] जलभृतमेघवर्ण, कालमेवेत्यर्थः [ब] प्रतीतं तत्तथा दा कृतं वदन करणं विवरं येन तत्तथा । तथान - निललिता निष्कासि ता अग्रजिह्वा जिह्वाया अग्रभागो येन तथा । ततः कर्मधारयः । तथा शर: कासः कृतमखिलमुडे या तथा। उन्दुरमालया मूषकराजा परिणद्धं परिगतं सुकृतं सुष्टुर चितं चिह्न स्वकीयन्नाध्वनं मेन तत्तथा । तथा मकुलाभ्यां बम्राज्यां कृते कर्णपूरे आभरणविशेषौ वेन तथा । सर्पाज्यां कतरास येन तथा पाान्तरे [मुलग विपच्छे प्ययो] चि शेव [ विच्छु ति ] वृद्धिकाः यज्ञोपवीतं ब्राह्मणकण्ठसूत्रम् । तथा [ अनिनमुनयनायसिनयंत्रणे ] मनिना: श्रविशीर्णा मुखनयननखा यस्यां सा तथा, सा च सैरकयाघ्रस्य चित्रा करा, धिमेति कर्मचारसा निवसनं परिधानं यस्य • कामदेव मुक्तः तलथा। [सरसरुहिरा सरसान्यांसा भ्यामवलिप्तं गात्रं यस्य तत्तथा । श्रास्फोटयन कर रास्फोटं कुर्वनभगर्जन् न मुञ्चन् भीमो मुल तो हासो हासवि शेषो येन तत्तथा । नानाविधपञ्चवर्णै रोमनिरुपचितमेकं महनीलोग लगुलिकाऽतसीकुसुमप्रकाशमसिं तुरधारं गृहीत्वा यत्र पौधशाला पत्र कामदेवश्रमणोपासकस्तत्रोपागच्छ ति स्मेति । इह गवलं महिषश्टङ्ग, गुलिका नीली, अतसी धान्यविशेषः, असि खङ्ग, क्षुरस्येव धारा यस्यातिच्छेदकत्वाद सौलरधारः । [ सुरुते रुद्रे कविप चमिक्किए मिलिमिलीयमाणे प्ति ] एकार्थाः शब्दाः कोपातिशयप्रदर्शनार्थाः । भो ! कामदेवा समोवासया अप्पत्थियपत्थिया रंसर्पतखया ही पुष्पचादसिया ! सिरिहिरिधितिकिचि ४ जाव पमित्रजिया धम्मकामया पुससम्ममोपखपम्पर्कखिया ४ धम्मपिवासिया ४ यो खबु कप्पड़ तव देपाo सीलाई बधाई बेरमलाई पञ्चलालाई पासोवासाई चालतए वा खोभंतस्स वा खंमित्तए वा जित्तएवा उज्जितए वा परिचइत्तए वा तं जइ ए तुमं अज्ज सीलव्या० जाव पोमहाववासाई एमसि ए भेजेसि तो अहं अज्ज इमेणं गीअप्पत्रेण० जाव असिणा खमास्वयं करोमि जहा णं तु असट्टे अकाले देव जीवयाओ वक्रोकिस ( अप्पत्थिय पत्थिया) अप्रार्थितप्रार्थिकः, दुरन्तानि पर्यवसानानि प्रान्तान्यसुन्दराणि लक्कणानि यस्य स तथा । (हाणसंपूर्ण देश जन्मकायस्य सहनपुरायचतुर्दश कामय कीर्तिवर्जितेति व्यक्तम् । तथा धर्म च श्रुतचारित्रलक्षणं कामयतेलिपति यः स धर्मकामः, तस्यामन्त्रणं हे धर्मकाम !, या एवं सर्वपदानि नवरं पुण्यशुनप्रकृतिरूपं कर्म स्वर्गः, तत्फलं मो धर्माभिलाषातिरेकापिपासा का एवमेतैः पदेरुत्तरोत्तराभिलाषप्रकर्ष एवोक्तः (णो खलु इत्यादि) नेकपालादीनि चलपितुमिति मेयितु देशा भङ्कं सर्वतः केवलं यदि त्वं तान्यद्य न चत्रयसि ततोऽहं त्वां खाएका स्वरमं करोमीति वाक्यार्थः । तत्र शीलान्यसुव्रतानि व्रतानि दिग्वादीनि विमलानि रागादिविरतयः प्रत्याख्यानानि नम स्कारसहितादीनि पौषधापयामाहारादिदेवतुधान्। (जितिए) भङ्गकान्तरकरणः कोभयितुमेतत्पालनविषयको तुडतुं देशो न स्य देशसिम्तपि त्यागादिति (अट्टदुद सट्टे ति) आस्य ध्यानविशेषस्य या (दस) घंटा दुर्निरोधी नीति दुर्घटनाः बा-आर्सेन दुखार्तदुःखार्तः तथा व शेन च विषयपारतन्त्र्येण ऋतः परिगतो वशाचैः । ततः कर्मधारय इति ॥ तर गं से कामदेवे समणोवासए तेणं दिव्वेणं पिसायरुवेणं एवं वृत्ते समाने अभीए प्रतस्थे अणुवि प्र एक्खुनिए अनलिए असंतेतुमणीए चिहड़, धम्म Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामदेव अनिधानराजेन्डः। कामदेव ज्कायोवगए विहर, तएणं से दिव्वे पिसायरूवे काम- इत्यर्थः। पृष्ठतः पृष्ठदेशे वराहः शूकरः स श्व वराहः, प्राकृतत्वादेवं समणोवासयं अभीयं अतत्यं जाव धम्मज्माणो. नपुंसकलिङ्गता। अजाया इव कुक्की यस्य तदजाकृति, प्रलम्बकुक्षी प्रसम्बत्वेन,प्रलम्बो दी| लम्बोदरस्येव गणपतेरिवाधरोष्ठः करचगयं विहरमाणं पास, पासइत्ता दोचं पि तचं पि कामदेवं श्व हस्तो यस्य तत्प्रलम्बोदराधरकरम् । अज्युझनमुकुला आयाएवं वयासी-हं नो कामदेवा समणोवासया अपत्थियप तकममला या मद्धिका विचाकरःतस्यायोमकुलस्तद्वत विमली स्थिया ! जइ एणं तुमं अज्ज जाव ववरोविजास तए णं से धव नौ दन्तौ यस्य । अथ वा प्राकृतत्वान्मल्लिकामुकग्रवदभ्युमताबुकामदेवे समणोपासए ताणं दिव्वेणं दोचं पितचं पिन नता विमलधवनदन्ती यस्य तदभ्युतमुकुलमटिकाविमलध वलदन्तं, काश्चनकोशीप्रतिष्ठदन्तं,कोशीति प्रतिमा,पानामितमीएवं वृत्ते समाणे अजीए जाच धम्मझाणोवगए विह पन्नामितं यच्चाप धनुस्तद्वद्या मलिता च विलासवती सम्बग्लिरइ, तर णं से देवे पिसायरूवे कामदेवं समणोवासयं तात्र वेबन्ती संकोचिता वा अग्रशुएडा शुएमाग्रं यस्य तत्तथा । अनीयं जाव विहरमाणं पासइ, पासइत्ता आसुरते ४ कूर्मवत् कूर्माकाराः प्रतिपूर्णाश्चरणा यस्य तत्तथा। विशतिनखतिवधियं भिनमि णिमाले साहट्ट कामदेवं समणोवासयं | मालीनप्रमाणयुक्तपुच्छमिति कराठ्यम् । नीलुप्पलजाव असिषा खंमाखंडं करेइ । तए णं से | तं से कामदेवे समापोवासए तोयं दिवेणं हत्थिरूवेणं एवं कामदेवे समणोबासए तं नजनं० जाव रहिया संवेयणं वुत्ते समाणे अनीए जाच विहरइ । तएणं से दिवे हस्थिसम्म सह जाव अहिवासेइ । तएणं से दिव्वे पिसायरूवे रूबे कामदेवं समणोवासयं अजीय नाव विहरमाएं पासइ, कामदेवं समणोवामयं अजीयं जाव विरहमाणं पास, पास पासइत्ता दोच्चं पि वच्च पि कामदेवं एवं वयासी-हंजो इत्ता जाव नो संवादे कामदेवं समणोवासयं निग्गंथाओ कामदेवा ! णो विहर । तसि दिव्वे हस्थिरूवे कामदेवं पावयणाओ चालित्तए वा खोनित्तए वा विपरिणामि समणोवासयं अजीयं विहरमाणं पासइ, पासइत्ता आसुरत्ते त्तए वा ताहे संते परितंते सणियं २ पच्चोसकर, पञ्चोसक्कड़ कामदेवं समणोवासयं सोंडाए गिएह, गिएहश्त्ता नऊं ना पोसहसालारो पमिणिक्वमझ, पमिणिक्खमइत्ता दि विहासं उबिहर, उनिहइत्ता तिक्खेहि दंतमुमलेहिं पमिच्चब्वं पिसायरूवं विप्पजहर, दिव्वं एगं महं हस्यिरूवं वि इ, पमिच्चइत्ता अहे धरणितनंसि तिकवृत्तो पाएमुझोले। उन्बइ, सत्तंगपयिट्टियं सम्म संठियं सुजायं पुरओ दग्ग तए णं से कामदेवे तं नजलं जाव अहियासेइ तए णं से दिपिट्ठतो वराह अयाकुच्चि पत्रंबकुन्छि पलंबलंबोदराध व्ये हत्यिरूवे कामदेवं जाव नो संचाएइ जाव सणिय पच्चोरकर अनुग्गतमउलमद्धियाविमनधवनदंतं कंचणकोसी-। सकइ, पञ्चोसकत्ता पोसहसालाओ पमिणिक्खमइ, पडिपविट्ठदंतं आणामियचावलत्रितसंवेसितअग्गसोंमें कुम्मप णिक्खमत्ता दिव्यं हत्यिरूवं विप्पजहर,विप्पजहइत्ता एगं डिपुन्नचलणं वीसइनखं अल्लीपापमाएजुत्तपुच्छं मत्तमेहमि महं दिव्यं सप्परूवं विउन्नइ, उग्गविसं दिट्ठीविसं महा व गुलुगुप्सतं मणपवणजणियवगं दिव्वं हस्थिरूवं विउ | कायं मसीमूसाकालगं नयण बिसरोसपुम्मं अंजणपुंजनिबड, जेणेव पोसहसाला जेणेष कामदेवे समणोवासए गरप्पगासं रत्तच्छं लोहियलोयणं जमनजुयलचंचलजी तेणेव उवागच्चइ, उवागच्चइत्ता कामदेवं एवं वयासी-हं धरणियझवेणिनूअं नुक्कमफुडकुमिनजटिलकवासविअडफुभो कामदेवा! तहेच भणइ० जाव ण भंजेसि तो ते अज्ज डामोवकरणदक्खं लोहागरधम्ममाणधमम्मितघोसं अअहं सोमाए गएहामि, गेएहामित्ता पोसहसानाओ णागलिअतिवपचंरासं सप्परूवं विनवित्ता जेयाचे पो. णीणेमि, पीणेमित्ता नहुं वेहामं उचिहामि, उबिहामि. सहसाझा जोणेव कामदेवे समणोवाम ए तेणेव उवागच्चश्, ता तिक्खेहिं दंतमुसलेहिं पमिच्छामि अहेधरणतससि उवागच्चश्त्ता कामदेवं समापोवास यं एवं बयासी-हं जो तिक्खुत्तो पाएसु लोसोमि जया णं तुमं अट्टहवसट्टे कामदेवा! जाव ण जेसि तो अजेच अहं सरसरस्स अकाले चेव जीवियाश्रो विवरोविज्जसि ॥ कायं पुरुहामि, दुरूहामित्ता पच्छिमेणं जाएणं तिक्खुत्तो अनीते इत्यादीन्येकार्थान्यांतजयप्रकर्षप्रदर्शनार्थानि । [तिव. लियं ति] त्रिवलिको भ्रकुटी दृष्टि रचनाविशेष सलाटे सं. गीवं वेटेमि, वेदमित्ता तिक्खाहिं विसपारंगयाहिं दाढाहत्य विधायेति चालयितुमन्यथाकर्तुम् । चलन च द्विधा-संशय हिं नरसि चेव निकुठूमि, जहा णं तुमं अट्टहट्टद्वारेण, विपर्ययद्वारेण च। तत्र कोनयिमिति संशयतो,विपरि- अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि । तए एं से कामणामयितुमिति च,विपर्ययतः श्रान्तादयः समानार्थाः । [सत्तंगप. देवे समणोवापए तेणं दिव्वेणं मप्परूयेणं एवं वुत्ते इयिं ति] सप्ताङ्गानि-चत्वारः पादाः, करः, पुच्छ, शिस्नं चेति समाणे अजीए जाव विहर । सो वि दोचं पि एतानि प्रतिष्ठितानि चूमौ बग्नानि यस्य तत्तथा। समं मांसोपचयात् संस्थितं गजलक्षणोपेत सकलाङ्गोपाङ्गत्वात् सुजातमि. तच्चं पि जप, कामदेवो जाव पिहर । तए व सुजात पूर्णदिन जातं पुरतोऽनत उदग्रमुच्चम्, समुचिततशिरणं से दिवे सपरूवे कामदेवं समणोवासयं अनीय जाव Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३८) अभिधानराजेन्ऊः । कामदेव पास, पासचा आसुरचे कामदेवस्य सरस्स कार्य दुरू हड़, रूहइत्ता पच्छिमभाएणं तिक्खत्तो गीवं वेढे वेढेइसा तिक्खाहिं विसपारंगपा दादाहिं रसव निकु । तए णं कामदेवे तं उज्जलो जाव अहियास । तर से दिव्वे सप्रू कामदेवं अनीयं पास, पासइत्ता जाहे नो संचान्नेति कामदेवं समणोबासयं निम्मंषाओ पश्याओ चालिन वा खोजिए वा विप्यरितए वा ता संते ३ सणियं २ पच्चासक्कत्ता पोसहसालाओ पडिक्खिम, पडिणिक्खमइत्ता दिव्त्रं सप्परूवं विप्पजहर पिप्पजहता एवं महं दिव्यं देवरूवं विव हारविराइयवत्थं० जाव दसदिसाओ उज्जोवेमाणं पनासेमाणं पास दिवं देवता कामदेवस्स पोसहसालं अणुपत्रिसर, अणुपविसइत्ता अंतरिक्खपडिवो सखिखिशियाई पंचत्रलाई पत्याई परिडिए कामदेव समणोवासयं एवं वयासी-हं जो कामदेवा समोवासपा घासणं तु देवा० संपुणे कपडे कपलक्खणे सुलणं तत्र दे० माणुस्सजम्मजीवियफले जस्स एं दे० तत्र निग्या पावयणाओ मेरु व्व परिवत्ती ला पता अभिसमागया || ! ' उग्गविसं इत्यादीनि सर्परूपविशेषणानि कचिद्यावच्छन्दोपात्तानि कचित्साक्षादुक्तानि दृश्यन्ते । तत्रोप्रविषं 5रधिसां विषं, चण्डविषमल्प कालेनैव दष्टशरीरव्यापक विषस्वादू घोरविषं मारकबाद, महाकार्य महाशरीरं मत्रीभूषाका अर्क, नयनविषेण विशेष रोपेण च पूरी नयनविपरोषपूर्णम् । श्रञ्जनपुञ्जानां कज्जलोत्कराणां यो निकरः समूहस्तद्वत्प्रकाशो यस्य तदञ्जनपुजनिकरप्रकाशं, रक्ताक्षं लोहितलोचनं, मलयोः समस्थयोग रत्यर्थ चलयोजि योर्यस्य तद्] यमलयुगलचञ्चलजिह्व, धरणीतलस्य वेणीच के शबन्धविशेष इव कृष्णत्वदं । घत्वाभ्यामिति धरणीतल वेणिभूतम्, उत्कटमनभिभवनीयत्वात्, स्फुटो व्यक्तो भासुरतया दृश्यत्वा कुटजटलः केशवायोगात् कर्कशो निठुरो नम्रताया अभावाद् विकटो विस्तीर्णो यः स्फुटाटोपः फणाडम्बरं तत्करणे दकः उत्कटस्फुटकुटिलजटिलकर्कशविकटस्फुटाटोपकरणदकम् । तथा -[ लोहागर धम्ममाणधमधर्मघोस ] लोहारकस्येव ध्मायमानस्य भस्त्रावातेनोद्दीयमानस्य धमधमायमानस्य धमधमेत्येवं शब्दायमानस्य घोषः शब्दो यस्य तत्तथा इदच विशेषणस्य पूर्वनिपातः प्राकृ तत्वादिति । [ गलियतिव्यपरो] अनाकखितोऽपरि मिलो नखितो वा निरोधमशक्यस्तीक प्रचरोऽति रोषेो यस्य तत्तथा । [ सरसरस्स त्ति ] लौकिकानुकरणनाथा । [प्राणं तिच्यर्थः [निकुमि [] निकट्ट यामि महषिम [उज्जत] पिलेनाप्यकलां विपुलां शरीरव्यापकत्वात् कर्कश कन्यमिचानां प्रादांत [] दुःखसुखमित्यर्थः किमुक्तं नया [दुराईयासं ति] दुरधिसामिति "हारचिराइ यवत्यमित्याद" याकरणादिश्यम-"कडतुमियमिय यंदकुंतल पी पारिविचितत्यान विचित्त मालाम उलिकवाणगपवरमला लेवणधरं नासुरबौदीकसंवणमासारं दिव्यं वर्षणं दिव्येणं घेणं हिमेणं फार दिवं संघयणं दिव्यं संज्ञाणेणं दिव्या दिव्या जुई दिव्या पहार दिव्या या दिव्याप अच्चीए दिव्यं तेषणं दिव्वाप लेसाए ति " कपनवर कटकानिविशेषास्तुनि बारास्ताभिरतिय स्तम्भिती स्वीकृती यस्य तन्तथा । अङ्गदे च केयूरे, कुकले च प्रतीतौ, घृष्टग एकतले घृष्टगएको पकर्णपीचानिधाने कर्णाजरणे च धारयति यत्र तत्तथा । तत्र विचित्रमालाप्रधानो मौलिमुकुटं मस्तकं वा यस्य तत्तथा । कल्याणकमनुपहतं प्रवरं वस्त्रं परिहितं येन तत्तथा । कल्याणकानि प्रवराणि माल्यानि कुसमानि अनुलेपनानि च धारयति तत्तया । 'भास्वर बौदीकं' दीप्तशरीरं, प्रज्ञम्बा या वनमाला आभरणावशेषस्तां धारयति यत्तत्तथा । दिव्येन वर्णेन युक्तमिति गम्यते । एवं सर्वत्र नवरम् ऋद्ध्या विमानवभूषणादिकया, युक्त्या प रिवारादि योगेन, प्रभया प्रभावेन, बायया प्रतिविम्बेनार्चिषा दीसिज्वालया, तेजसा कान्त्या, लेश्यया श्रात्मपरिणामेनोद्योतयन् प्रकाशयन् शोभयन्निति प्रासादीयं चित्ताह्लादकं दर्शनीयं यत्पइयच्चक्षुर्न श्राम्यति, अनिरूपं मनोइं, प्रतिरूपं द्रष्टारं २ प्रति रूपं यस्य विकुर्व्य वैकियं कृत्वा अन्तरिक्कं प्रतिपन्नः श्राकाशे स्थितः affar क्षुण्टिको पेतानि ॥ कामदेव एवं खलु देवा० सके देविंदे देवराया संयक्त सहस्सक्खे जा सकंसि सीहासांसि चउरासीतिए सामापियसादस्सीणं देवा जाव अहोसि च बहूणं देवाण य देवीख य मम्फगए एवमाइक्स्व एवं खलु देवा० जंबूद्दीने २ भार वासे चंपाए नपरी कामदेवे समणोवासए पोसह मालाए पोसढिए बंजचारी जाव दन्नसंथारोत्रगए समणस्स जगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपत्तिं उवसं० विहर | नो खलु से सका के देवेण वा दाणवेण वा गंधन्देश वा जाव निचाओ पावपणाओं पालिर वा खोजिए वा विपरित वा तर अहं सकस्स देविंदस्स देवरो एयम असद्दहमाणे ३ इहं दव्वमागप्रोतं अहो देवा इड्डी ६ ला ३ तं दिट्ठा णं देवा की जाव अभिसमसागया तं खामेमि णं देवाणु० खमं तु रुति दे० हाइजो करवाए ति कछु पायनमिए पंजलि मे एयमहं जुज्जो २ खामेइ, खामेड़ता जामव दिसं पाउब्यूए तामेव दिसं पभिगए, तए एं से कामदेवे समणोवास रुिवसग्गमिति कट्टु पडिमं पारई ॥ 'सके यादी यावत्करणादिदं व अपायी पुरन्दरे सयक सहस्से मघवं पावसासणे दा हिमोगादियां बसीसविमानसयस दरबादियां वाहणे सुरिंदे श्रयरंवरवत्थधरे आवश्यमानमउडे नवहेमचा " Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३१) कामदेव अनिधानराजेन्द्रः । कामदेव रुचित्तचञ्चलकुंडलविलिहिज्जमाणगंडे भासुरबोंदीपनंबवण-[ पमिणिक्खमत्ता चंप नगरि मऊं मजणं णिग्गच्चड, निमालधर सोहम्मे कप्पे सोहम्मडिसप विमाणे सन्नाए सोई गच्छइत्ता जेणेव पुस्मनदे चेहए जहा संखे जाव पज्जुवामाप सि" । शकादिशब्दानां च व्युत्पत्यर्थभेदेन भिन्नार्थता - या। तथाहि-शक्तियोगाच्छक्रः, देवानां परमेश्वरत्वाद् देवेन्छः, सइ, तए णं समणे जगवं महावीरे कामदेवस्स तीसे य देवानां मध्य राजमानत्वाच्चांभमानत्वादेवराजः, वज्रपाणिः कु जाव धम्मकहा सम्मत्ता कामदेवेइ समणे जगवं महावीरे विशकरः,पुरोऽसुरादिनगरविशेषस्तस्य दारणात् पुरन्दरः, तथा कामदेवं एवं क्यासी-से पूर्ण कामदेवा ! तुपं पुन्चरत्तावशतक्रतुशब्देनेह प्रतिमा विवक्विताः, ततः कार्तिकश्रेष्ठित्वे शतं रत्तकालसमयंसि एगे देवे अंतियं पानब्लूए तए णं से क्रतूनामभिग्रहधिशेषाणां यस्यासौ शतक्रतुरिति चूर्णिकारव्याश्या। तथा-पञ्चानां मन्त्रिशतानां सहस्रमणां भवतीति देवे एग महंपिसायरूवं विनम्बइ, बिउबइत्ता आमुरत्ते। तद्योगादसौ सहस्राक्तः, तथा-मघशध्देनेह मेघा विवनितास्ते एगं महं नलिप्पलसिं गहाय तुमं एवं बयासी-हं जो यस्य वशवर्तिनः सन्ति स मघवान्, तथा-पाको नाम बलवां- कामदेवाः! जाव जीवाओ ववरोविज्जामि तं तुमं तेणं देवेस्तस्य रिपुस्तब्छाशनात्पाकशासनः, लोकस्यार्द्धमर्द्धनीको द. णं एवंवुत्ते समाणे अभीए जाव विहरसि, एवं व. किणो योऽर्कलोकस्तस्य योऽधिपतिः स तथा । 'परावणों' ऐरा मगरहिया तिमि वि उक्सग्गा तहेव पमिउच्चारेयव्वा घणो हस्तीस वाहनं यस्य स तथा, सुष्ठ राजन्ते एते सुरास्तेषामिन्छः प्रभुः सुरेन्द्रः,सुरीणां देवानां वा इन्सु रेन्द्रः,पूर्वत्र दे जाव देवो पगिया से णणं कामदेवा अढे समढे धेन्द्रत्वेन प्रतिपादित्वात् । अन्यथा वा पुनरुक्तपरिहारः कार्यः। अ. हंता! अत्थि। रजांसि निर्मलानि अम्बरमाकांशं तद्वदच्छत्वेन यानि तान्यम्बरा [ जहा संखे ति यथा सङ्गः श्रावको जगवत्यामभिहितस्तथाणि तानि वस्त्राणि धारयति यः स तथा, प्रालिङ्गितमालमारो ऽयमपि वक्तव्यः, अयमन्निप्रायः-अन्ये पञ्चविधमभिगमं सचिपितस्रग् मुकुटो यस्य स तथा,नवे श्व नवहेम्रः सुवर्णस्य सम्ब तद्रव्यव्युत्सर्गादिकं समवसरणप्रवेशे विदधति, शमः पुनः पौधिनी चारुणी शोभने चित्रे चित्रवती चञ्चले ये कुएमले ता षधकत्वेन सचेतनादिषयाणामभावात्तन कृतवानयमपि पोभ्यां विलिण्यमानौ गएमौ यस्य स तथा । शेषं प्रागिवेति । पधिक इति शखेनोपमितः । यावत्करणादिदं द्रष्टव्यम्-"जे( सामाणियसाहस्सीणं) इह यावत्करणादिदं दृश्यम- व समणे जगवं महावीरे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छहत्ता "तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चतुएहं सागपालाणं अध्यहं समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तोप्रायाहिणं पयाहिणं करा, कभग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिएहं परिसाणं सतराहं अणिया. रेत्ता बंदणमंसद, एमसत्ता णश्चासम् णादूरे सुस्सूसमाणं सतराई अणियाहिवईणं चउपहं चनरासीणं आयरक्वदे णे अनिमुहे पंजलिन पज्जुवासहत्ति,तपणं समणे भगवं महावसादस्सीएणं"। तत्र त्रयस्त्रिंशाः पूज्याः महत्तरकल्पा लोक वीरे कामदेवस्स समणोवासयस्स तीस य महा महालीयाए पालाः पूर्वादिदिगधिपतयः सोमयमवरुणवैश्रमणाख्याः, अग्रम परिसाए" इत प्रारज्य श्रीपपातिकाधीतं सूत्रं तावद्वक्तव्यं याहिष्यः प्रधानभार्याः, तत्परिवारः प्रत्येक पञ्च सहस्राणि, सर्व वत् धर्मकथा समाप्ता परिपत प्रतिगता। तवं सकलशेषमुपमीलने चत्वारिंशत्सहस्राणि, तिस्रः परिषदोऽज्यन्तरा मध्यमा दर्श्यते "तपणंसमणे जगवं महाबीरेकामदेवस्स समणोवासयबाह्या च सप्तानीकानि पदातिगजाश्वरथवृषभभेदात् पञ्च सं. सतीसे य महामहालीयाए" तस्याश्च(महान्ती)महत्या इत्यप्रामिकाणि गन्धर्वानीकं नाट्यानीकं चेति सप्तानीकाधिपतयश्व र्थ इति।(परिसाए जश्ए परिसाए)तत्र पश्यन्तीति ऋषयोऽवसप्तवं प्रधानपतिः प्रधानो गजः, पवमन्ये ऽपि आत्मरक्वार्थम- ध्यादिकानवन्तः,मुनया वाचंयमाः, यतया धर्म क्रियासु प्रयतमाप्ररक्षकास्तेषां चतस्रः सहस्राणां चतुरशीत्य आख्याति सामा- नाः, "अगसयाने प्रणेगसयवंदपरिवारातो" अनेकशतप्रमान्यतो भाषते विशेषतः पतंदव प्रज्ञापयति प्ररूपयतीति पदद्वयेन णानि यानि वृन्दानि परिवारो यस्यास्तथा,तस्या धर्म परिकथयक्रमेणोच्यत इति । देवेण वेत्यादौ यावत्करणादेवं कष्टव्यम्- तीति सम्बन्धः। किंभूतो भगवन् ?, [ओहबने] ओघवले, याव"जक्खण वा रक्खसेण वा किन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महो- करणादव्यवच्छिन्नबलः अतिबलोऽतिक्रान्ताशेषपुरुषामरतिरगेण वा गन्धब्वेण वा” इति रुढीए' इत्यादि यावत्करणादिदं यम्बलः, महाबलोऽप्रमितबलः । एतदेव प्रपञ्च्यते-"अपरिमिदृश्यम्-"जुइ जसो वलं वीरियं पुरिसक्कारपरक्कमे त्ति नायं भु- यवलवीरियं" अपरिमितानि यानि बलादीनि तैर्युक्तो यः स ज्जो करणया तेनैव, 'प्रायं ति' निपातो वाक्यालङ्कार,अब. तथा । बलं शारीरं, प्राणः वीर्य जीवप्रभवः । "तेयमाहप्पकांतिधारण वा । भूयः करणतायां पुनराचरण, न प्रवतयिष्यते इ- जुत्ते' तेजो दीप्तिाहात्म्यं महानुभावता, कान्तिः काम्यता, ति गम्यते । " सारयनवघणणिनायमहुरनिग्घोसईदुनिसरे " शरतेणं कालेणं तेणं समएणं समाणे भगवं महावीरे समोस कालप्रभवाभिनवमेघशब्दवत् मधुरो निघोंषो यस्य दुन्दुभे रिव स्वरोयस्य स तथा । (उरोवित्थमाए) गलविवरस्य वर्तुरिए समणे जाव विहरइ, तए णं से कामदेवे समणोवा लत्वात् । (सिरे संकिन्नाए) मूर्द्धनि संकीर्णतायामस्य मूर्दास्थमए इमी से कहाए कट्टे समाणे एवं खलु समणे जाव लितस्वात, सरस्वत्येति सम्बन्धः । “कंटपीवट्ठीयाए अगरनाते" विहर। तं सेयं खलु ममं समणं भगवं महावीरं वंदित्ता व्यक्तवर्णघासेत्यर्थः। (अम्ममणाए) अनवरवञ्चमानयेत्यर्थः। "सणमंसित्ता तो पमिणियत्तस्स पोसहं पारित्तए त्ति कह वक्खरसन्निवायाप" सर्वाक्षरसंयोगवत्या पुनरुक्त्या ते परिपू. एवं संपेहेइ, संपेहेइत्ता मुझप्पा बेसाई वत्थाई अप्पम० र्णमधुरया (सबभासाणुगामिणीए सरस्साए भणित्या जोय णनीहारिला सरेणं) योजनातिकामिणा शमन “ मद्धमागमास्स वग्गुरापरिक्खित्ते सयाओ गिहा पमिणिक्खमइ, ही भासाए भासा अरहा धम्म परिकहे" भीमागधी Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४०) कामदेव अन्निधानराजन्मः। कामदेव भाषा यस्याम् , "रसोलशौ"॥८।४।२८८ ॥मागध्यामित्यादिक पीउधारी विचित्तहत्याजरणा विचित्तमाला मउलिमउडवि" मागधीभाषाबकणं परिपूर्ण नास्ति जाषते सामान्येननणनमिति। दीप्तानि विचित्राणि वा 'म उलि त्ति' मुकुटविशेषः " ककिंविधो भगवान् ,अर्हन् पूजितो पूजोचितःअरहस्यो वा सर्व- वाणपवरपत्थपरिहिया कल्लाणगपवरवत्थाणुलेवणधरा भास्वात्, कं?,धर्म श्रद्धेयझेयानुष्ठेयवस्तुश्रद्धानशानामुष्ठानरूपं, त- सरबोंदीपलंवणमासधरा दिव्वेणं वन्नेणं दिव्वेणं गंधेणं दिवेणं था-परिकथयात अशेषविशेषकथनेनेति। तथा "तेसिं सव्वेसि संघयणेणं दिवेणं संगणेणं दिवाए ढीए दिव्वाए जुईप पायरियमणायरियाणं अगिमाए धम्ममाइक्ख" न कवलं ऋ- दिव्याए पभाए दिवाए छायाए दिव्याए अश्चीए दिव्वेण तेपणं षिपर्षदादीनां ये वन्दनाद्यर्थमागतास्तेषां च सर्वेषामार्याणामा- दिव्वाए लेसाए दसदिसाए उज्जोएमाणा पभासेमाणा गइयदेशोत्पन्नानामनार्याणां म्लेच्छानामग्लान्या अखेदेनेति । "सा कल्लाणा किल्लाणा आगमेसि भद्दा पासाईया दरसणिज्जा विय गं अरुमागही भासा, तोस आयरियमणारियाणं अप्पणो अभिरूवा पडिरूवा तमाश्क्वात्त" यदिह धर्मफनं तदाख्याभासाए परिणामेणं परिणमइ" स्वभाषापरिणामेनेत्यर्थः। धर्मक- ति, तथा “ एवं खलु चाहिं गणेहि जीवा नेरइयत्ताए कथामेव दर्शयति-"अस्थि बोए अत्थि असोए एवं जीवा अजीवा बंधे म्मं पकरेंति" एवमिति वक्ष्यमाणप्रकारेणेति "रश्यत्ताए कमोक्ने पुस्मे पावे आसवे संवरेनिजरे"पतेषामस्तित्वदर्शनेन शून्य. म्म पकरता नरश्पसु उववज्जति । तं जहा-महारंजयाए महा काननिरात्माद्वैतकान्तकणिकनित्यवादिनास्तिकादिकुदर्शननि-- परग्गहाय पंचेदियवहेणं कुणिमाहारणं कुणमांत मांसं एवं च राकरणात्परिणामवस्तुप्रतिपादनेन सकलैहिकामुष्मिकक्रिया- एएणं अभिलावेणं तिरिक्खजोणिए सुमाइल्याए अलियवयणामनवद्यत्वमावेदितम्। तथा “अस्थि अरिहंता चकवट्टी बलदे- णेणं उक्कंचणयाए वचणयाए" तत्रमाया वश्चनबुकि, उत्कञ्चनं वा वासुदेवानेरड्या तिरिक्खजोणिया तिरिक्वजोणिणीउमाया मुग्धवचनं प्रवृत्तस्य समीपवर्तिविदग्धरक्षणार्थ कणमव्यापिया रिस देवा देवलोया सिझी सिका परिनिब्वाणे परिनि- पारतया अवस्थानं वञ्चनं विप्रतारणं "मणूसेसु पगश्भहब्बुया" सिका कृतकृत्यता, परिनिर्वाणं सकलकर्मकृतविकारवि- याप पगाविणीययाए साणुफ्कोसयाए अमच्छरियाए" प्ररहादतिस्वास्थ्यम्,एवं सिद्धपरिनिवृतानामपि विशेषोऽवसेयः। कृतिभरूकता स्वभावत एवापरोपतापता अनुक्रोशी।" दय. तथा-"अत्यि पाणाइवाए मुसावाए अदिनादाणे मेहुणे परिम्गहे देवेसु सरागसंजमेणं संजमासंजमेणं अकामनिज्जराप थाअस्थि कोहे माणे मायास्रोभे पिछे दोसे कलहे अम्भक्खाणे अरई | नतवोकम्माण तमाइक्खर" यदेवमुक्तरूपं नारकत्वादिनिबरई पेसुन्ने परपरिवाए मायामोसे मिच्चादसणसम्ले अधिपाणाइ-1 न्धनं तदाख्यातीत्यर्थः।। वाश्वेरमणे कोहविवेगे जाव मिच्छादसणसवविवेगे किं तथाबदुणा सव्व अस्थि नावं अत्थ ति वय सव्वं नस्थि नावं न "जहा नरया गमंती, जे नरया जाव वेयणा नरए । स्थि त्ति वयह सुचिन्ना कम्मा सुचिन्नफला भवंति" सुचरिता सारीरमाणासारं, दुक्खाई तिरिक्खजोणी ॥१॥ क्रिया दानादिकाः सुचीर्णफलाः,पुण्यफलाजवन्तीत्यर्थः। "दुश्चि माणुस्सं च अणिचं, वाहिजरामरणवेयणापनरं । श्रा कम्मा पुच्चिन्नफमाजवन्ति फुस पुम पावे" बनात्यात्मा देवा य देवलोप, देवेदि देवसोक्खाई" ॥२॥ शुभकर्मणी,न पुनः साधमते नैव न बध्यते "पच्चायंति" जीवः प्रत्यायन्ते, उत्पद्यन्ते इत्यर्थः "सफले कल्लाणे पावए" श्ष्टानिष्ट देवांश्च देवलोकान्, देवेषु देवसौख्यान्याख्यातीति । फलं, शुभाशुग्नं कर्मेत्यर्थः । “धम्ममाइक्खई" अनन्तरानं शेय- "नरगतितिरिक्खजोणि, माणुसभावं च देवयोगं च ॥ धोयज्ञानरूपमाचष्टे इत्यर्थः । तथा-"एमेव निग्गंथे पावयणे सिद्धिं च सिस्विसहि, जावणियं परिकहरु ॥३।। सो" इदमेव प्रत्यकं नैर्ग्रन्थं प्रवचनं जिनशासनं सत्यं सद्भूतं, | जह जीवा बज्ऊती, मुञ्चति जह य संकिलिस्सति । कपायादिशुद्धत्वान् सुवर्णवत्।"अणुत्तरे" अविद्यमानं प्रधान- जह दुक्खाणं अतं, करे। केई अपभिबझा ॥४॥ तरं"केवलिप" अहितीयं संशुद्धं निर्दोष “पमिपुरो"सद्गुणनृतं असा अख्यिचित्ता, जह जीवा दुक्खसागरमुवेति । "नेयाउए" नैयायिकं न्यायनिष्ठं "सल्लगत्तणे" मायादिशल्यक जह वेरम्गमुवगया, कम्मसमुग विहाडेति ॥५॥ तनं "सिद्धमग्गे" हितप्राप्तिपथः "मुत्तिमम्गे" अहितविच्युतरूपो आर्ताः शरीरतो पुखिता अतिना चिताः शोकादिपीमिताः यः "निम्याणमग्गे" सिद्धिक्षेत्राघाप्तिपथः "परिनिव्वाणमगे" भाताचा ध्यानविशेषादार्तितचित्ता इति। "जह रामेण कडाणं, काभायप्रभवसुखोपायः, "सबकुक्खप्पहीणमगे" सक- कम्माणं पावउ फलविवागो । जह य परिडीणकम्मा, सिका लपुःखक्षयोपायः, श्दमेव प्रवचन फलतः प्ररूपयति-"इ- सिद्धाश्रयमुवति" ॥६॥ अथानुष्ठेयानुष्ठानलकणं धर्ममाह-"तमेव त्थं हिया जीवा सिझति" निष्ठितार्थतया "बऊति" के-1 धम्मं दुविहमाइक्खिय" येन धर्मेण सिकाःसिकालयमुपयान्ति वलतया 'मुचंति' कर्मनिः"परिनिव्वायते" स्वस्थीभवन्ति । कि- स एवं धर्मो द्विविध आख्यात इत्यर्थः । "त जहा अपगारधमुक्तं भवतीति?, "सव्वदुक्खाणमंतं करे पगचा पुण एगजय- म्म अपागारधम्मो इह खलु सवाउ" सर्वान् धनधान्यादिप्रतारों" एकाा अद्वितीयपूज्याः संयमानुष्ठानं वा एका अस. कारानाश्रित्य ‘सब्वत्ताए' सर्वात्मना सर्वैरात्मपरिणामैरिदशी अर्चा शरीरं येषां ते एका ः ते पुनरे कैकेन वा येन सि. त्यर्थः। " आगाराश्रो अणगारियं पञ्चश्यस्संति सव्वाश्रो पा यन्ति ते भक्कारः निर्ग्रन्थप्रवचनसेवका दन्ता वा भट्टारका णाश्वायाो घेरमणं, एवं मुसावायाश्रो अदिनादाणाओ वेरभयत्रातारो वा, "पुब्बकम्मावसेसेणं अन्नतरसु देव लोगेसु दे- मणं मेहणालो वेरमणं परिग्गहराईभोयणाश्रो वेरमणं, एवं वत्ताप ववत्तारो नवंति, महछिएम महज्जपसु महाजसेसु अयमाउसो अरणगारसामाश्य धम्मे पत्ते, पयस्स धम्मस्स महाबलेसु महाणुजावेसु महासुक्नेसु पुरंगपसु चिरहिपसु सिक्खाए उवट्टिए निग्गंथे वा निम्गंथी वा विहरमाणा प्राणाए तेणं नस्थ देवा भवंति महलिया जाब चिरटिश्या हारविरा- पाराहए भवइ,आगारधम्म पुवालसविहं श्राश्क्वातं जहाश्यबस्थकडगतुमियर्थभियनूया अंगदकंडलमगडतलकत्र-पंचागुब्बयाई तिनि गुणब्बयाईचत्तारि सिक्खावयाई पंच Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४२) अभिधानराजेन्यः । कामदेव मुसावाया ब्याई ति । तं जहा धूलाओ पाणाइवायाश्रो वेरमणं, एवं रमणं आणि रमणं सदारत दि प्रियं भोगपरिभोगे परिमाणं । चत्तारि सिक्खावया । तं जहा सामाइयं देसावगासियं पोसहोववासी अतिहिसंविभागो पारतियलेटना कुणा चाराहना अमाउसो अगारसामा धम्मे पत्ते, पयस्स धम्मस्स सिक्खावर उ बठिए समणोबास समशोवासिया वा विहरमाणार आणाए राह नवतर ण से मडई महालिया मणूस परिसा समणस्स जगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हतु जाव हियया उडाए उडेइ. उद्देश्ला समणं भगवं महावीरं तिप्रावाहि पाि गया मुंमा भविता अगाराश्रो अशगारियं पञ्चश्या अत्थेगया पंचायं सिवाय दुवासविहं गिटिपपडिय • ' C 1 असा परिसा समर्थ भगवं महावीरं दिता नसता एवं पयासी सुयक्वा णं भंते ! निमांथे पावयणे एवं सुपक्ष" भेदतः सुभासिए वचनव्यक्ति सुबि सुष्ठु शिष्येषु विनियोजना 'सुभाषिते - नात् । " अत्तरे नंते ! निग्गंधे पावय एवं सुपहो धम्मं तं माणे वसमतं श्राक्खह " । क्रोधादिनिग्रहमित्यर्थः । "उचलमं श्राघ्क्खमाणा विवेगं श्राक्ख ह" बाह्यग्रन्थित्यागमिस्वर्थः । “विवेगं श्राइक्खमाणा वेरमणं आइक्खह" मनोनिवृत्तिमित्यर्थः । "वेरमणं आइक्खमाणा अकरणं पायाणं कम्माणं आइवह" धर्ममृपशमादिस्यरूपं ध इति हृदयम् । नत्थ के समघा माहणे वा जे परिसं धम्मस् माइक्खित्त ते प्रभु शिति शेषः। किमंगण यसो उत्तरतरं एवं बंदिता जामेव दि सि पाग्भूगा तामेव दिसि पडिगयत्ति अहे ससमट्टे ति" अस्वयेष इत्यर्थः । अथवा मयोदितवस्तुसमर्थः संगतः । इन्ता ! इति कोमलामन्त्रणवचनम् । - अमो समणे भगवं महावीरे बहने समये गंधे य पिपीओ य आमतेचा एवंववासी जड़ ता अशो समोपासनानिहिया निमश्का वसंता दिव्यास क्विज लिए उसमे समं स जाव अहियाचे सका समोहिं निम्नंधीहिं वालसँग गणिदिगं अहिज्जमाणेहिं दिव्यमाणुसतिरिक्ख जोगिएहिं ममं सहितए जन अहिया संतर तर गं से बहवे समझा ग्गिंथा य गिंथीय समस्त भगवओ महावीरस्स तह ि एमबिए पनि पटिसुइसा तर हां से कामदेवे समणोवासए ह तुट्ट० समणं भगवं महावीरं परिणाई पुच्छर अट्टमादियह समर्थ नगर्न महावीर तिक्खुतो वंदड़ मंसर, बीदत्ता णमंसित्ता जामेव दिर्सि पाठन्या तामेव दिसि पगिया, तरणं समये भगवं महावीरे अथवा चंशओ पमिवडिया जान० जाव विरइ । तर गं से कामदेवे समोवासए पढमं वासगपडिमं उवसंपज्जित्ता गं जाव विहरण, तए णं मे काम - देवे समणोवास बहु० जाय भावेता वीसं वासाई 29 " बहुहिं० १११ कामभोग समणोवासगपरियागं पाठणित्ता एक्कारस नवासगपकर्म सम्यं कारण फासेला मामियार संझेहगाए अाएं खिता माई नपाई अपनाए ए आलोय समाहिपसे कालमाने कार्य किना सोहम्मे क सोहम्मामसम्म महाविपापस्स उतरपुरच्छि मे णं अरुणाने विमाणे देवता उन तस्य णं गाणं देवाएं चत्तारि पलियोमा लिई पत्ता. कामदेवस्स विदेपारि पक्षियोमा लिई से जंते! कामदेवे तओ चैव देवलोगाओ उक्खणं चना कहिँ गमिति कहिँ उपनिर्हिति महाविदेहे वासे सिज्झिहिंति ॥ [अ] भार्या इति एादिति [सेहंति ति]ाकरणादिमति होते विशेषनाम 1 कार्या से मि खलु जंबू ! पत्ते ति क्खेव त्ति' निगमनवाक्यं वाच्यम्। तच्चेदम्- "एवं समणेणं जाय संपत्ते दोश्चस्स अज्जयस अयम चेमीति " । उपा० २ ० ध०र० संघ० । स्था० आ० म० । प्रापाटवंशावर्तस्य साधुहालोकस्यामजे, श्रीमद जिनन्दनस्य चैत्यं कारितम् । ती० ३२ कल्प | ऋषभदेवस्य पञ्चदशे पुत्रे, कल्प 9 क्षण । ( 'अहिणंदण' शब्द प्रथमभागे २००६ पृष्ठे कथा निरूपिता ) णंतरं चयइ, । गोयमा ! कामदेवजवण कामदेवजवन न० | काममन्दिरे, "पविरल सहिसमेया कामदेव भवणे, ममाश्रपुरायनमतरियस्स व्यस्स दर्श० । कामपरिग्गही कामपरिष कामपरिगृस्यामेव प्रतिक्रि च धर्मो न भूतो न भविष्यति । पालयन्ति नराः शूराः, शीबाः पाखण्डमाश्रिताः ॥१ ॥ गृहाश्रमाऽऽधाराश्च सर्वेऽपि पाखरिकन इत्येवं महामोहमोहिता इच्छामदन कामेषु प्रवर्तन्ते । श्राचा० २ श्रु० ५ ० १ उ० । कामपाल - कामपाल पुं० । कामान् पालयति । पान रणे श्र वलभडे, चाच० । द्वीपविशेषाधिपतौ द्वी० । कामप्पभ - कामप्रभ - न० | स्वनामख्याते चिम नमेदे,जी० ३प्रति०। कामफास- कामस्पर्श-पुं० सप्तचत्वारिंशे महाग्र, सू०प्र० - 1 २० पाहु० | कल्प० । कामभोग- कामभोग-पुं० इं० कामोत कामाः मोगा कामी मोना 1 1 गन्धरसस्पर्शाः कामजोगाः । स्था०४ वा० १४२ । यदि वा कामा इच्छारूपाः, मदनकामास्तु भोगाः । सूत्र० २ ० २ २ | कामानां शब्दादीनां यो जोगः । स्थाe are १३० । ददादिनोगे, मदनसेवायां च । ग १ अधि० । अथवा काम्यन्त इति कामाः मनोज्ञा इत्यर्थः ते च ते। भुज्यन्त इति जोगाः शब्दादय इति भोगाः । स्था० २ ० ४ उ० इच्छा मनकामाः शब्दादो विषयास्ते एव ज्यन्त इति भोगाः । सूत्र २ श्रु० १ श्र० । मनोपुस्था डा०३० मध येषु दश० १ ० ० म० । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामनोग (४४२) अनिधानराजेन्डः। कामनोग भेदाः लुयाउद्दालसाबिसएमु विहरप, एरयताणे उयचियखोमिकविहाणं ते कामजोगा पण्णत्ता?। गोयमा ! पंचविहा यदुगूलपट्टपमिच्छायणे रत्तंसुयसंमे सुरम्मे आपणगरुयकामजोगा पहलत्तातं जहा-सदा गंधा रूवा रसा फासा । जी छूरणवणीततूलफासे मुगंधवरकुसुमचुम्मसयणावयारकलिने वाणं नंते किं कामीलोगी। गोयमा! जीवा कामी विजोगी ताए तारिसाए नारियाए सधि सिंगारागारचारुवेवि।से केणटेणं लेते ! एवं वुच्चा जीना णं कामी वि भोगी साए संगतगयहसितभाणितचिहितसंबावविलामणिनवि। गोयमा ! सोइंदियचक्खिदियाई पमुच्च कामी,घाणिदि एजुत्तोवयारकुममाए अणुरत्ताए अविरत्ताए मणोणुकूयजिभिदियफासिंदियाई पमुच्च जोगी, से तेरणटेशं गोय- झाए एगंतरतियसत्ते अपत्थ कत्थाइ मरणं अकुबमाणे पुढे मा०! जावजोगीवि । नेरइया णं नंते ! किं कामी जोगी ।। एवं | सहफरिसरमरूवगंधे माणुसए कामजोगाए पच्चालवमाणे चेव । एवं थाणयकुमारा। पुढवीकाझ्याणं पुच्छा । गोयमा ! विहरिजा। ता सेणं पुरिसे वि उसमणे कामसमयसि केरिपुढविकाश्या नो कामी जोगी । से केण?णं जाव जोगी ? सये स ता सोक्खं पच्चणुजवमाणे विहरति । उराखंसमणाफासिंदियं पमुच्च से तिणणं जाव जोगी। एवं जाव वण नसो! ता तस्स एणं पुरिसस्स कामनोगेहिंतो एत्तोअपंतगुस्सइकाश्या, वेइंदिया एवं चेव, णवरं जिभिदियफासिंदि णविसिद्वतराए चेव वाणमंतराणं देवाणं कामनोगा वाणमंयाइं पडुच तेइंदिया वि एवं चेव,नवरं घाणिदियजिभिदि तराणं देवाणं कामनोगेहिंतो अणंतगुणविसिट्टतराए चेव यफासिंदियाई पडुच्च चनरिंदियाणं पुच्चा। मोयमा चउ• अमरिंदवन्जियाणं भवणवामीणं देवाणं कामनोगा असुरिदिया कामी वि जोगी वि।से केणटेणं जाव भोगी वि। रिंदवज्जियाणं देवाणां कामभोगोहिंतो एत्तो अणंतगुणगोयमा! चक्खिदियं पमुच्च कामी घाणिदियजिब्जिदियफा विसिट्टतरा चेव असुरकुमाराणां इंदत्तूयाणं देवाणं कासिंदियाईपमुच भोगी,से तेणटेणं जाव नोगी वि । अवसेसा पोगा प्रामा जहा जीवा जाव वेमाणिया। एएसिणं भंते जीवाणं काम- तगुणविसिहतराए चेव गहणक्खत्ततारारूवाणं कामभोगा जोगीणं नो कामीणं नो भोगी जोगीण य कयरे कयरे० गहणक्वत्ततारारूवाणं कामभोगेहिंतो अणंतगुणविसिजाव विसेसाहिया वा। गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा काम- इतराए चेव चंदिमसरियाणं देवाणं कामभोगा ता एरसिजोगी,नो कामी,नोजोगी अणंतगुणा,जोगी अणंतगुणा॥ एणं चंदिमसरिया जो सिंदा जोइसरायाणो कामभोगे प(सम्वत्थोवा कामभोग त्ति ) ते हि चतुरिन्छियाः पञ्चेन्द्रि राज्याः पञ्चान्द्र चणुजवमाणा विहरति ।। याश्च स्युः,ते च स्तोका एव । (नो कामी नो नोगि त्ति) सिद्धास्ते च तेभ्यो ऽनन्तगुणा एव । (भोगि त्ति )एकद्वित्रीन्द्रियास्ते (ता चंदिमेत्यादि) ताइति पूर्ववत,चजसूर्याः, णमितिवाक्याच तेच्यो ऽनन्तगुणाः, वनस्पतीनामनन्तगुणत्वादिति । भ० ७ लङ्कारे,ज्यौतिषेन्द्रा ज्यौतिषराजाः, कीदृशान कामभोगान्प्रत्यश०७०। नुभवन्तो विहरन्त्यवतिष्ठन्ते? । भगवानाह-(ता से जहेत्यादि) ज्योतिष्काणां कामभोगाननिधित्सुस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह- | 'ता इति' पूर्ववत्। सें' इत्यनिर्दिएस्वरूपो नाम,यथा कोऽपिपुरुषः ता चंदिमसूरिया णं जोतिसिंदा जोतिसरायाणो केरिमा प्रथमयौवनोमे यदलं शारीरप्राणस्तेन समर्थः प्रथमयौवनोकामभोगे पञ्चजवमाणा विहरति । ता से जहाणामं ते के त्यानबशसमर्थया भार्यया सह अभिरवृत्तविवाहः सन्, अथ पुरिसे पढमे जुन्वाण्टाए समत्थे पढमे जोवणबलसमत्थाए अर्थार्थी अर्थगवेषणया अर्थगवेषणनिमित्तं षोमशवर्षाणि याव तू विप्रोषितो देशान्तरे प्रवास कृतवान्, ततः पोमशवर्षानन्तरं जारियाए सम् िअचिरवत्तवीवाहे अत्यत्यी अत्थगवेसण स पुरुषो लब्धार्थः प्रभूतप्रापितार्थः, (अणहसमग त्ति) अनताए सोझसवासं विप्पवासिते से णं ततो लछट्टे कति कजेणं | घमकतं न पुनरपान्तराले केनापि चोरादिनाविलुप्त, समग्र - ति अणहसमग्गे पुणरवि णिययं घरं हव्यमागते राहाते कय- व्यं नाण्डोपकरणादि यस्य स तथा; स च पुनरपि निजकं गृहं वलिकम्मे कयकोग्यमंगलपायचित्ते सुक्छप्पा वेसाई मंगलाई शीघ्रमागतः, ततः स्नातः, कृतवत्रिकर्मा कृतकौतुकमजसप्राय श्चित्तः शुद्धात्मा, वेश्यानि वेषोचितानि प्रवराणि वस्त्राशि परिपवरवत्थाई परिहिते अप्पमहग्याभरणासंकियसरीरे मातां । हितो निवसितः [अप्पमहम्घाभरणासंकियसरीरे इति] अल्पैः थालीपाकसुकं अहारसबंजणाउलं जोयणं जुत्ते समाणे स्तौमहाधैर्महामूल्यैराभरणैरलंकृतशरीरो मनोकं कलमौद. तमि तारसगंसि वासघरंसि अंतो सचित्तकम्मे वाहिरित्तो दनादि,स्थात्री पिठरी तस्यां पाको यस्य तत्तथा,अन्यत्र हि पक्कंन मितघमढे विचित्तउबोअचिसियतले बहुमममुविजत्तनू- | सुपकं भवति,तत इदं विशेषण,शुकं भक्तदोषवर्जितंस्थालीपाक मिभाए मणिरयाणपणासितंधकारे कालागुरुपवरकुंदुरुकतु च तत शुद्धं च स्थाबीपाकशुद्धम् [अठारसबंजणानुसमिति] अ टादशभित्रोंकपतीय अनः शालनकतक्रादिनिराकुलम-अष्टादरुकधृवमघमघतगंछुछुयाजिरामे सुगंधवरगंधिए गंधवहिनते शध्यजनाकुलम् । अथवा-अष्टादशनेदं च तत् व्यञ्जनाकुलं च अतैसि तारिसगंसि सयणिज्जमि दुहतो उप्लते मजकेणं गंभीरे टादशभ्यजनाकुत्रं, शाकपार्थिवादिदर्शना दशझोपः। (स० साजिंगणवाहिए पम्पत्तगंडविजोयणे सुरम्मे गंगापुनिणवा- प्र०)एवंभूतं भोजनं भुक्तः सन् तस्मिन् तादृशे वासगृहे, किं विशि Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४३) कामनोग अन्निधानराजेन्द्रः। कामनोगासंसाप्पभोग थे?,इत्याह-अन्तःसचित्रकर्मणि,[दुमियघटुमटु ति]बहिः सुमिए | [उरावं समणाउसो !]हे जगवन्! हे श्रमण हे आयुष्मन् ! सदासुधापाधवलिते घृष्टे पाषाणादिना उपरिघर्षिते ततो मृष्टे मस्. रमत्यद्भुतं सातं सौख्यं प्रत्यनुभवन् विहरति।भगवानाह-"तस्स णीकृते, तथा विचित्रेण विविधचित्रयुक्तेनोहोचेन चन्मोदयेन ण मित्यादि"। [एत्तो] एतेज्यस्तस्य पुरुषस्य संबन्धियः का[चिलिय ति] दीप्यमानं गृहमध्यन्नागे उपरितनतलं यस्थ त- मनोगेभ्यः [अणंतगुणविसिहतराए चेव त्ति अनन्तगुणतया वि सथा,तस्मिन । तथा-बहुसमाप्रभूतसमः सुविजक्तः सुविच्छित्ति- शिष्टतरा एव व्यन्तरदेवानां कामभोगाः,व्यन्तरदेवकामनोगेन्योको भूमिजागो यत्र तस्मिन् । तथा-मणिरत्नप्रणाशितान्धकारे,तथा- ऽप्यसुरेन्जवर्जानां देवानां कामनोगा अनन्तगुणविशिष्टतराः,ते. कालागुरुप्रवरकुन्दरुक्कतुरुक्कधूपस्य यो गन्धो मघमघायमानं ज्योऽनन्तगुणविशिष्टतरा इन्भूतानामसुरकुमाराणां देवानां उद्धत इतस्ततो विप्रसृतस्तनाभिरामं रमणीयं तस्मिन् । तत्र कुन्द कामनोगाः, तेभ्योऽप्यनन्तगुणविशिष्टतरा ग्रहनक्षत्रतारारूपाणां रुक वीमातुरुक सिल्हकं । तथा-शोभनो गन्धःसुगन्धस्तेन कृत्वा | देवानां कामभोगाः, तेन्योऽप्यनन्तगुणविशिष्टतराः कामभोगाः वरगन्धिक,बरो गन्धो वरगन्धः सोऽस्यास्तीति वरगन्धिकम्।'अ चन्छसूर्याणामेतादृशां चन्द्रसूर्याज्यौतिषन्द्राः ज्योतिषराजाः का. तोऽनेकस्वरात ७।२।६. इतीकप्रत्ययः। तस्मिन्, अत एव गन्धव मनोगान् प्रत्यनुजवन्तो विहरन्ति । सू०प्र०२० पाहुनाचा प्र०। तिभूते तस्मिन् तादृशे शयनीये उभयत उभयोः पार्श्वयोरुन्नते “तणकण व नग्गी, लवणजलो वा नईसहस्सोहि । मध्येन च मध्यनागेन गम्भीरे, [सालिंगणवट्टीप ति] सहालि न इमो जीवो सक्को, तिप्पे कामभोगोहि "द०प०। नवां शरीरप्रमाणेनोपधानेन वर्तते यत्तत्तथा। [उनयो विजो “कुरुमं चोइसरजं, लोग अणंतभोगेण विनरेजा। यणे इति] उनयोः प्रदेशयोः शिरोऽन्तपादान्तलक्षणयोः, 'विजो एते य कामभोगे, कालमणंतं हं स नवभोगे। यणे' उपधानके यत्र तत्तथा। तत्र क्वचित् “पमत्तगंमविजोषण ति" पानसत्रैवं व्युत्पत्तिः-प्रझया विशिष्टपरिकर्मविषयया बु. अप्पुब्बं वि य मन्नर, जीवो तह वि य विसयसोक्खं । या प्राप्ते प्राप्ते,अतीव सुष्ठ परिकर्मिते इति भावः। गण्डोपधानके जह कच्चू लोकं तुय-माणो, पुहं मुणे सोक्खं ॥ मोहाउरा मणुस्सा, तह कामं दुहं सुहं वेति । यत्र तत्तथा। तत्र [उपचियखोमिअदुगूलपट्टपडिच्चायणे]उपचि जाणंति अणुहवंति य, अणुजम्मजरामरणसंभवे ऽक्खे। तं सुपरिकर्मितं वौमिकं दुकृतं कासिकमतसीमयं वा वस्त्रं नय विसएसु विरजति, गोयम दुग्गश्गमणपस्थिए जीवे"॥ तस्य युगतरूपो यः पट्टशाटकः प्रतिच्छादनमाच्छादनं यस्य महा०६ अ०॥ तत्तथा तत्र। [ रत्तंसुयसंबुडे ] रक्तांशुकेन मशकगृहानिधानन वस्त्रविशेषेण संवृते समंतत आवृत्ते [आश्णगरुयचूरनवणीय " न कामभोगा समयं वेति, न यावि भोगा विगयं उर्वति । ताफासे आजिनकं चर्ममयो वस्त्रविशेषः, स च स्वभावाद- जे तप्पो सोअपरिगही असो तेसु मोहा विगयं वे"। तिकोमलो जवति । रुतं च कार्पासोतं, बूरो वनस्पतिविशषः, अष्ट४ अष्टः । (जोगनोगाः 'नोगनोग' शब्दे सर्वेषामिछानवनीतं च म्रक्षणं तूलश्चार्कतूल इति द्वन्द्वः ! अत एतेषामिव णां वक्ष्यन्ते ) स्पर्शो यस्य तत्तथा तस्मिन् । (सुगंधवरकुसुमचुम्मसयणो-कामनोगतामय-कामनोगतषित-त्रि०। अप्राप्तकामभोगेच्छे, प्रययारकलिए)सुगन्धीनि यानि वरकुसुमानि,ये च सुगन्धाश्चू-| इम०४ आश्रद्वार। ः पटवासादयो,ये च एतद्व्यतिरिक्तास्तथाविधाःशयनोपचा कामजोगतिव्याभिनास-कामनोगतीवालाप-पुकामौशरास्तैः कलिततया तादृशया वक्तुमशक्यस्वरूपतया पुण्यवतां योग्यया, (सिंगारागारचारुवेसाए त्ति) शृङ्गारस्य पोषकः श्रा ब्दरूपे, भोगा गन्धरसस्पर्शाः,तेषु तीवाभीलापोऽत्यन्त तदध्यकारः सन्नावशेषो यस्य स शृङ्गाराकार इत्थंभूतश्चारुः शोभनो वसायित्वं कागभोगतीवाभिवापः । स्वदारसंतोषस्य चतुर्थेऽ. वेषा यस्याः सा तथानुता तया, [संगतगयहसियभणियचि. तिचारे, तत्त्वं च-स्वदारसन्तोषी हि विशिष्टविरतिमान् , तेन च यिसलाबविलासनिउणजुत्तोवधारकुसलाए ] संगतं गमनं तावत्येवमैथुनसेवा कर्तुमुचिता यावत्या वेदजनितवाधोपशाम्यसविलासं,चकमणमित्यर्थः। हसितं सप्रमोदं कपोलसूचितं ह. ति; यस्तु वाजीकरणादिनिः कामशास्त्रविहितप्रयोगैश्च तामधिसन,भणितं मन्मथाहीपिका विचित्रा भणितिः,चेष्टितं सकामम कामुत्पाद्य सततं सुरतसुखमिच्नति स मैथुनविरतिव्रतं परमाअप्रत्यक्षाघयवप्रदर्शनपुरस्सरं प्रियस्य पुरतोऽवस्थानं, संलापः थतो मसिनयति । को हि नाम सकर्णकः पामामुत्पाद्याऽग्निसेवाप्रियेण सह सप्रमोदं सकामं परस्परं संकथा । एतेषु विलासेन जनितसुखं वाञ्छदित्यतिचारत्वं कामनोगतोवानिलाषस्येति । शुभलीलया निपुणः, सूक्ष्मबुद्धिगम्योऽत्यन्तकामविषयपरमनै उपा.१० । आव० प्रा००। पुण्योपेत इत्यर्थः । युक्तो देशकालोपपन्न उपचारकुशलया श्र कामनोगमार-कामनोगमार-पुकामभोगैः सह मारा मदनो नुरलया कदाचिदप्यविरक्कया मनोऽनुकूनया भार्यया सामेका- | मरणं वा कामनोगमारः। विंशतितमे गौणाब्रह्माण, प्रश्न० ४ न्तेन रतिप्रसको रमणप्रसक्तोऽन्यत्र कुत्रापि मनोऽकुर्वन् अन्य- आश्रम द्वार। मनःकरणे हि न यथावस्थितमिष्टनार्यागतं कामसुखमनु- कामनोगासंसाप्प (प) प्रोग-कामनागाशंसाप्रयोग ०। काभवति। इष्टान् शब्दस्पर्शरसरूपगन्धरूपान् पञ्चविधान मानुपा- मौ शब्दरूपे, नोगा गन्धरसस्पर्शाः। अत्राशंसाप्रयोगः। यथा-मन मनुष्यभवसंबन्धिनः कामनोगान् प्रत्यनुभवन् प्रतिशब्दः श्रा- मास्य तपसः प्रजावात् प्रेत्य सौजाग्यादि नूयादिति । ध०२ अभिमुख्य । संवदयमानो विहरेदवतिष्ठेत। [ता से णमित्यादि]ता. धि०। यदि में मानुष्यकामनोगादिव्यापारा: संपद्यन्ते तदा वच्छब्दः क्रमार्थः, पास्तां तावदन्यदतनं वक्तव्यमिदं तावत्क- साध्विति विकल्परूप, चपा० १ अ०। जन्मान्तरे चक्रवर्ती थ्यता, स पुरुषस्तस्मिन् कानसमये कालेन तथाविधेनोपलकि- स्यां वासुदेवो महामाण्डलिकः सुजगो रूपवानित्यादि - तः समयोऽयसरः कालसमयस्तस्मिन् कीदृशं स्यात् रूपमा- कणे वा, अपश्चिममारणान्तिकसंलेखनाझोषणाराधनाया: पहादरूपं सौख्यं प्रत्यनुभवन् विहरति । एवमुक्ते गौतम पाह- | चमेऽतिचारे, ध०२ अधिः । उपा० । श्रा० । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४४) काममतिवट अभिधानराजेन्द्रः। कामिति काममवित्र-काममतिवर्त-पुं०। कामेविच्छामदनरूपेषु मतेर्नु- कामविणिच्चिय-कामविनिश्चय- विनिमयभेदे, स्था। कर्मनसो वा वर्तन प्रवृत्तिर्यस्यासौ काममतिवर्तः। कामाभि- ३ ० ३ ०। लाषुके, सत्र.१७०४०२०। कामसत्थ-कामशास्त्र-101 कामस्य स्वर्गादेः प्रतिपादक काममल्ल-कामया-पुं०1र्जयत्येन मद्धत्वोपमिते कामे, "ध शास्त्रम् । स्वर्गादेः प्राप्त्युपायप्रतिपादक शास्त्रे,कामस्य तवेष्टिन्यास्ते धम्दनीयास्ते, त्रैलोक्य तैः पवित्रितम् । यैरेष नुवनक्ले- तस्य प्रतिपादके शास्त्रे रतिशास्त्रे. वाचावात्स्यायनादिक शो, काममल्लो निपातितः" ॥५॥ पञ्चा०१ विव०। ते, घ० २ अधि० । सूत्र काममहावण-काममहावन-न। वाराणसीसमीपस्थे चैत्ये, “त- | कामसमणएण-कामममनोक- त्रिकामा इमामदनरत्थ णं जे से चउत्थे पट्टपरिहारे से णं बाणारसीए णयरीए पाः, सम्यग्मनोझा यस्य स तथा अथवा सह ममोर्तत इति पहिया काममहावणंसि चेश्यसि मंमियस्स सरीरं विप्पजहा. समनोमः । गमकत्वात्सापेकस्यापि समासः । कामैः समनोहः मि" । भ० १५ श० १ उ० । कामसमनोका, यदि वा कामान् सम्यगनु पश्चात सहानुबन्धा. कामयुग-कामयुग-पुंग लोमपक्किमेदे, जी०१ प्रतिः। प्रशा।। जानाति सेवत इति कामसमनोकः । अनरसंलग्नमनकामरय-कामरजम्-न० । कामः शब्दो रूपं, स एव रजः काम स्के, प्राचा० ११० २ ० ३ उ०। रजः । कामलक्षणे रजसि, औ०। कामासिंगार-कामगृङ्गार-न० । स्वनामख्याते विमानभेदे, कामरत-न । कामानुरागे, भ०१ श०५उ। जी०३ प्रति०। कामरागपमिवक-कामरागप्रतिबछ--त्रिता कामा मदनकामाः, | कामसिट्ठ-कामशिष्ट-न० । विमानभेदे, जी. ३ प्रति०। तेच्यो रागा विषयाभिष्वङ्गाः, तैःप्रतिबको व्याप्तः। मनसा विष. | कामसोक्ख-कामसाय--ना मनोमवाऽऽनन्दे,"अत्योपायसुखेषु प्रशक्ते, "विसयसुहेसु पसत्तं, अबुहजणं काम यणकामसोक्खे य लोयसारे हुँति।" "राज्ये सारं वसुधा,वसुं. रागपडिबद्धं । ओकामयति जीवं, धम्माश्रो तेण ते कामा" || ध०२ अधि। धरायां पुरं पुरे सौधम । सौधे तल्पं तल्प, बराङ्गनाउन सर्वस्वम्॥" प्रश्न० ३ प्राश्र० द्वार।। कामरागमोह-कामरागमोह-पुं०। मन्मथरागमूढे, तं। कामावट्ट-कामावर्त-म० । विमानभेदे, जी. ३ प्रति०। कामरागविवकृण-कामरागविवर्धन-त्रि० । मथुनाभिलाषवर्कके, "इत्थाणं तं न विजाए, कामरागविवकृणं ॥ ५८ ॥" दशा कामावसाश्त्ता-कामावशायिता-स्त्री०।कामेन च्या प्रथ शाययति पदाथांन् स्वचित्ते । सत्यसंकल्पत्ये योगिनामश्व८०। य॑भेदे, वाच । सूत्रः । कामरूव-कामरूप-पुं०। प्राग्ज्योतिषाल्ये देशोंदे,स चेदानीत. कामाविकरण-कामाविष्करण-ना पक्षाशसमे स्त्रीकमानेदे, नराजभाषया श्रासामप्रान्ते स्वनाम्ना प्रसिद्धः। वाच । कामं स्वेच्या रूपं यस्य । स्वेच्छाविकुर्वितनानारूपेऽथे, प्रज्ञा०२ कल्प. ७ कण। कामासंस[सा] प[4] प्रोग-कामाशंसाप्रयोग-पुं० कामदेडधारि (ण)-कामरूपदेहधारिन्-त्रि०। कामं स्वे शब्दादावभिलाषमात्रे, स्था० ४ ठा० ४ उ० । च्छया रूपं येषां ते कामरूपास्ते च ते देहाश्च कामरूपदेहास्ता कामासत्ति-कामाशक्ति-स्त्री०। शम्मरूपयोः प्राप्तिसंजायनान धरन्तीत्येवंशीलाः कामरूपदेहधारिणः । स्वेच्छाविकार्वेत. याम, भ०१३ श०६ उ०। नानारूपदेहधारिषु, प्रज्ञा० २ पद । जी। कामासा-कामाशा-स्त्री०। गौणमोहनीयकर्मभेदे, स०४२ समका कामरूनि (ण)-कामरूपिन-त्रि० । कामं स्वेच्छापूर्व रूपं येषां कामि [ए-कामिन-त्रि०। कम-णिक, णिनिलाकासे कामरूपिणः । उत्त० ५ ० । स्वच्छन्दचारिषु, प्रा० म. मनायुक्त, अतिशयस्मरवेगयुक्ते, वाचः। “कामी सघद्वितयारश रूप मनसि वावन्ति तादृशं कुर्वन्तीत्यर्थः । उत्त० ५१०। कामोऽभिलाषस्तेन रूपाणि कामरूपाणि, तद्वन्तः । रं गणतो, मूल पदसि होइ दट्टध्वाः" नि०यू० १५ उ० । विविधक्रियशक्त्यन्वितेषु, उत्त०५ श्री विद्याधरे, पुं०। स्त्री०। काम इच्छा अस्त्यर्थे इनिः। अनिलाषिणि, सूत्र भु०१० अ०) वाच०। कामिन-कामिक- पुंस्त्रीकामोऽस्त्यस्य ठन् । कारण्डपतिकामझानस-कामलालस-त्रि०। सरक्ते, "एवं लग्गति दुम्मेहा, । णि, स्त्रियां जातित्वात् डीए, कामेन निर्वृत्तम, उम् । कामेन जे नरा कामलालसा । विरत्ता उ न लग्गति, जहा से सुक्कगो निर्वृतकाम्ये, स्त्रियां डीप । कामिकं काम्यमधिकृत्य कृतो ग्रन्थः लए" ॥५४॥ संघा०। श्रण । काम्यधिकारेण कृते ग्रन्थे, याचा लौकिकेषु स्वनामकामलेस्स-कामझेश्य-न० । स्वनामख्याते विमानभेदे, जी. ३ ख्याते सरोबरनेदे, तत्र पतन् तिर्यग्मनुष्यो देखो जायते । प्रति विशे०। ('लोभ' शब्दे कथा वक्ष्यते) "संसपुरट्टिकमुत्ती कामियतित्थं जिणेसरो पासो । तस्सेस मए कप्पे, सिडियो कामवा-कामवर्म-न० । स्वनामख्याते विमानभेदे, जी०३प्रति०।। गीयाणुसारेण" ॥१॥ती. २८ कस्प। कामविगार-कामविकार-पुंगरन्छियार्थविकोपने, खाग. कासिरि-काम-०प्राय्य॑सुहस्तिनो पशिष्टगोत्रस्य चतुकामविणय-कामविनय-पुंग कामहेतुके विनयभेदे, दशम थे शिष्ये, कल्प कण । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४५) कासिणी अभिधानराजेन्द्रः। काय कामिणी-कामिनी-स्त्री० । कामिशब्दे दार्शतस्त्रीत्वविशिष्टार्थे, 'अक्खें' चन्दनके, वराटके वा कपर्दके, काष्ठे कुट्टिम, पुस्ते वा "जं चेन मउक्षण लोणाणमनुबळं तं चित्र कामिणीणं।"प्रा० पत्रकृते, चित्रकर्मणि वा प्रतीते । किमित्याह-सतो जावः स१पाद । द्भावस्तथ्य इत्यर्थः। तमाश्रित्य, तथा-असतो भावोऽसद्भावः, अतथ्यभाव इत्यर्थः। तमाश्रित्य, किम्?, स्थापनाकाय विजानीकामुत्तरवासिग-कामोत्तरावतंसक-न० । विमानभेदे, जी. ३] हीति गाथार्थः ॥१७॥ प्रति०। सामान्येन सद्भावासद्भावस्थापनोदाहरणमाहकाय-काच-नाकाच्यतेऽनेन । क बन्धने, करणे घ, न कुत्वम् । (मोम) सिक्थे, तस्य बन्धहेतुत्वात्तथात्वम् । वाच। निप्पगहत्थी हत्यि, त्ति एस सब्जाविआ जवे गवणा। पाषाणविकारे, औ० । काचः कारमृतिकाऽस्त्यस्याऽऽकरत्वेन होइ असब्भावे पुण, हत्थि त्ति निरागई अक्खे ॥१८॥ अच् । कारमृत्तिकोद्भवे लवणभेदे, शिक्ये, मणिभेदे च वाचन यदिह लेप्यकहस्ती हस्तीति स्थापनायां निवेश्यते [एससम्माकाय-पुं०।चि चयने इति धातोश्चयनं कायः, चीयतेऽनेनेति विया भवे ग्वण त्तिएषा एव सद्भावस्थापना भवतीति। असवा कायः । विशे० । चीयते यथायोग्यमौदारिकादिवर्गणारूपं द्भावे पुनर्हस्तीति निराकृतिहस्त्याकृतिशून्या । एषं चतुरङ्गादाचयं नीयत इति कायः। “चिति देहावासोपसमाधाने कश्चादेः" विति । तदेवं स्थापनाकायोऽपि भावनीय ति गाथाऽर्थः॥१८॥ ॥५॥३/७६ ॥ इति घञ् प्रत्ययश्चकारस्य ककारः। कर्म०४ कर्म। पं० सं०। श्रा० म० । औ० । शरीरे, प्राचा०१ श्रु०५० __ शरीरकायप्रतिपादनायाऽऽह४ उ० । “ एगठिो कायो सरीरं देहो" आ० चू० ५ अ। ओरालिअ वेनविअ, आहारग ते कम्मए चेव । सूत्रका उत्तग"दो काया परमत्ता।तं जहा-तसकाए चेव, थावर एसो पंचविहो खलु, सरीरकाओ मुग्णेयव्वो ॥ १६ ॥ काए चेव।” स्था० । झा० । उत्त० । सूत्र० । आव० । आचा। नि० चू। भ०। जी। बाकर्म० । (व्याख्याऽस्य स्वस्वशब्दे) उदारैः पुद्गलैः निर्वृत्तमौदारिकम, विविधा क्रिया बिक्रिया, वि. कायनिकेपः क्रियायां भवं वैक्रियं प्रयोजनादि,प्राहियत इति श्राहारकं, ते जोमयं तैजसं, कर्मणा निर्वृसं कार्मणम् । औदारिकं वैक्रियमाहाकायस्स उ निक्खेवो, वारसनो उक्को अनस्सग्गे। रकं तैजसं कार्मणं चैव, एष पञ्चविधः खलु, शीर्यन्त इति शरीएएसिं पुन्हं पी, पत्तेअपरूवणं वोच्छ ॥१४॥ राण्येव पुद्गलसंघातरूपत्वातू कायः शरीरकायो विज्ञातव्य इति गाथार्थः ॥ १६॥ (कायस्स उति) कायस्य तु निक्षेपः (वारसश्रोत्ति) द्वादशप्रकारकः,( उपको य उस्सग्गे त्ति ) षटुश्चोत्सर्गविषयः, गतिकायप्रतिपादनायाऽऽहषट्प्रकार इत्यर्थः । पश्चाई निगद सिद्धम् । चनम् वि गईसु देहो, नेरइआईण जो स गइकाओ। तत्र कायनिकेपप्रतिपादनायाऽऽह एसो सरीरकाओ, विसेसणा होइ गइकाओ॥०॥ नाम उवण सरीरे, गई निकायऽत्यिकाय दविए । | इयमप्यन्यकर्तृकी गाथा सोपयोगेति च व्याख्यायते-चतसमान असंगह पज्जव, भारे तह भावकाए अ॥१५॥ ध्वपि गतिषु नारकतिर्यङ्नरामरलक्षणासु, देहाभिन्नत्वे शरीरनामकायः१ स्थापनाकायः २ शरीरकायः ३ गतिकायः ४ समुच्चयो नारकादीनां यः स गतौ काय इति कृत्वा गतिनिकायकायः ५ अस्तिकायः ६ द्रव्यकायश्च ७, मातृकायः८ कायो नण्यते । अत्रान्तरे प्राह चोदकः-(एसो सरीरकाश्रोत्ति) संग्रहकायः पर्यायकायः १० भारकायः ११ तथा जावकाय- नन्वेष शरीरकाय नक्कः। तथाहि-औदारिकादिव्यतिरिक्ता ना. १२ श्चेति गाथासमासार्थः ॥ १५ ॥ रकतिरश्चादिदेहा इति । आचार्य पाह-(विसेसणा हो गतिका श्रोत्ति)विशेषणाविशेषणसामर्थ्याद् भवति कायः गतिकायः। तत्र नामकायप्रतिपादनायाऽऽह विशेषणं चात्र गतौ कायो गतिकायः। यथा द्विविधाःसंसारिणःकाो कस्स नामं, कीरइ देहो वि वुच्चई काओ। त्रसाः, स्थावराश्च । पुनस्त. एव स्त्रीपुरुषनपुंसकविशर्भिद्यन्ते कायमणिो वि वुच्चद, बच्चमवि निकायमाहंसु ॥ १६॥ इति । एवमत्रापीति गाथार्थः ।। २० ।। कायः कस्यचित्पदार्थस्य सचेतनस्याचेतनस्य वा नाम क्रिय अथवा सर्वसत्त्वानामपान्तरालगतौ यः कायः स गतितेस नामकाया, नामाश्रित्य कायो नामकायः। तथा-देहोऽपि श कायो भएयते । तथाचाऽऽह - रीरसमुच्चयोऽपि उच्यते कायःतथा-काचमणिरपिकायोजण्य जेणुवगहिओ बच्चइ, भवंतरं जचिरेण कालेण । ते प्राकृते तु 'काय' इति । तथा-बद्धमपि किश्चिल्लेखादि[निकायमाइंसुत्ति ] निकाचितमाख्यातवन्तः, प्राकृतशैल्या निकाय एसो खन्नु गइकाओ, सतेयगं कम्मगसरीरं ॥१॥ ति' गाथार्यः ॥ १६॥ येनोपगृहीत उपस्कृतो व्रजति गच्छति। किम् ?, जवादन्यो भवो अधुना स्थापनाकायप्रतिपादनायाऽऽह भवान्तरम् । तत एतदुक्तं भवति-मनुष्यादिर्मनुष्यभवाच्च्युतः अक्खे बरामए वा, कढे पुत्थे व चित्तकम्मे वा। येनाश्रयणापान्तराने देवादिभवं गच्छति स गतिकायो भव्यते। तत् कालमानतो दर्शयति-[जञ्चिरेण कालेणं ति] स च याधता सम्भावमसन्नावं, उवणाकायं विप्राणाहि ॥ १७॥ | कालेन समयादिना व्रजति तावन्तमेव कासमसौ गतिकायोज Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काय अभिधानराजेन्द्रः। काय षयते। एष स्वसु गतिकायः । स्वरूपेणैव दर्शयत्राह- सतेयगं कारद्रव्यलकणायोगात्सर्वदेवास्तिकायवलक्षणनावोपेतत्वात कम्मगसरीर कार्मणस्य प्राधान्यात सह तैजसेन यन्त इति स. आह च भाष्यकार:तैजसं कार्मणशरीरं गतिकायः,तंदाश्रयेणापान्तरालगतौ जीवगते- जा अत्यिकायजावो, इय एसो हुज्ज अस्थिकायाणं । रित जावनीयमिति गाथार्थः ॥२१॥ पच्छाकमो व तो ते, हवेज दबत्यिकाय त्ति ॥२४॥ निकायकायः प्रतिपाद्यते यद्यस्तिकायभावः अस्तिकायत्वलक्वणः (इय एसो हुज अस्थिनियमडिगोवकाओ, जीवनिकामोनिकायकायो भ।। कायाण)'श्य त्ति'एवं यथा जीवपुजनकम्ये विशिष्टः पर्याय इति, (निययमहिगो व काओ जीवनिकाोति] नियतो नित्यः कायो एण्य आगामी भवेत् । केषाम?, अस्तिकायानां, धर्मास्तिकायानिकायः,नित्यताचास्य त्रिप्वपि कालेषु नावाताअधिको या कायो दीनामिति व्याख्याना विशेषप्रतिपत्तिः।तथा-पश्चात्कृतोवायदि निकायः, यथाऽधिको दाहोनिदाह इति प्राधिक्यं चास्य धर्माध- जवेत् । (तोते हवेज दवस्थिकाय त्ति) ततस्ते नवेरन् सक्यामस्तिकायापेक्यावनेदापेक्षया वा। तथा हि-एकादयो यावदसं- स्तिकाया इति गाथार्थः॥ २४॥ ख्येयाः पृथिवीकायिकाः, तावत्काय एव स्वजातीयान्यप्रतपापेक्व तीप्रमाणागयजावं, जमस्थिकायाण नत्यि अत्थितं । या निकाय ति। एवमन्येष्वपिविभाषेति एवं जीवनिकायः सा तेणिर केवल तेसुं, नत्थी दवस्थिकायत्तं ॥२५॥ माम्येन निकायकायो जगयते। अथवा जीवनिकायः पृथिव्यादिभे अतीतमतिक्रान्तम,अनागतनाव भावि, यद्यस्मात्कारणात्,अदभिन्नः पद्दिधोऽपि निकायो नएयते । तस्समुदाय एव च नि स्तिकायानां धर्मादीनां, नास्ति न विद्यते अस्तित्वं विद्यमानत्वं, कायकाय इति । कायत्वापेकया सदैव कायत्वयोगादितिहृदयमा(तेणिरत्ति) तेन अधुनास्तिकायः प्रतिपावते, तदं गाथाशकत्रम ( रत्ति) किन केवलं शुद्धं, तेषु धर्मास्तिकायादिषु, नास्तिन अस्थि ति बहुपएसा, तेणं पंचऽथिकाया न ॥२२॥ विद्यते(दब्बत्थिकायत्तं)च्यास्तिकायत्वं, सदैव तद्भावयोगादि(अस्थि तीत्यादि) अस्तीत्ययं त्रिकालवचनो निपातः अभूवन् | ति गाथार्थः ॥ २५ ॥ जबम्ति भविष्यन्ति चेतिभावना। बहुप्रदेशाच, यतस्तेन पञ्चैवा माह-यद्येवम्, द्रव्यदेवाादाहरणोक्तमपि व्यं न प्राप्नोति, स्तिकायाः।तुशब्दस्यावधारणार्थत्वान्नम्यूना नाऽप्यधिका इतिअ. सदैव तद्भावयोगात् । तथाहि-स एव तस्य भावो नेन च धर्माधर्माकाशानामेकद्रव्यत्वादेकास्तिकायत्वानुपपत्तिः। योऽस्मिन् वर्तते इति । अत्र गुरुराहअकासमयस्य चैकत्वादस्तिकायत्वापत्तिरित्यतत्परिहृतमवगस्तव्यम्।तेवामी पञ्च । तद्यथा-धर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः, कामं जविअसुराइस, भावो सो चेव जत्थ बटुंति । भाकाशास्तिकापः,जीवास्तिकायः, पुफलास्तिकायश्चेति। अस्ति- एसो न ताव जायइ, तेणिर ते दबदेव त्ति ॥२६॥ कायच काय तिदयमयं गाथार्थः ॥ २२॥ काममित्यनुमतम्, यथा (भवियसुराइसु )भव्याश्च ते सुरादसाम्प्रतं द्रव्यकायावसरस्तत्प्रतिपादनायाऽऽह- यश्चेति विग्रहः । श्रादिशग्दाद् द्रव्यनारकादिग्रहः। तेषु, तद्विषये जंतु पुरक्खमभावं, दविग्रं पच्छाकम व नावाओ। विचारे, भावः स एव यत्र वर्तते, तदानीं मनुष्यादिभावे शत, किंतु पायो जावी, न तावजायते, तदा (तेणिरतेदवदेव सि) तं हो। दन्बदविधे, जह जविप्रो दवदेवाइ ॥२३॥ नते किल द्रव्यदेवा.इति। योग्यत्वात,योग्यस्य च व्यत्वाद्वान याव्यमिति योगः। तुशब्दो विशेषणार्थः । किं विशिनष्टि?,जी चैतकर्मास्तिकायादीनामस्ति,एण्यकालेऽपि तद्भावयुक्तस्यादेवे. वपुलद्रव्यं, न धर्मास्तिकायादि । ततश्चैतदुक्तं भवति-यद् ति गाथार्थः। २६॥ कव्यं यद् वस्तु, पुरस्कृतभावमिति, पुरो यतः कृतो भाषो येनेति यथोक्तव्यलक्षणमवगम्य तद्भावेऽतिप्रसङ्गं च मनस्यासमासः नाघिनो जावस्य योग्यमनिमुखमित्यर्थः।(पच्चाकमंव धायाऽऽह चोदकःभाषामोति) वाशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः। ततश्चैवं प्रयोगः-पमातहतजावम् ।बाशब्दो विकल्पवचनः पश्चात्कृतःप्राप्योजिक दुहओऽणंतररहिया, जा एवं तो भवा अणंतगुणा । तोनावः पर्यायविशेषलवणो येन स तथोच्यते। एतदुक्तं नवति एगस्स एगकाले, नवा न जुजंती अणेगा ॥२७॥ यस्मिन् नावे वर्तते व्यं ततो यः पूर्वमासौद्भावस्तस्मादपेतं (हयो त्ति ) वर्तमानभवे स्थितस्य उभयत एण्यकाले, पश्चाकतनावमुच्यते। (तं होइदम्वदवियं) तदित्यंभूतं द्विप्रकार- अतीतकाले च (अणंतररहित ति) अनन्तरौ एण्यातीती, अनमपि नाबिनो, नूतस्य च नावस्य योग्यं (दव्वं ति) वस्तु वस्तुबतो स्तरीच तौ रहितौ च वर्तमानन्नवनावेनेति प्रकरणाम्यते । होको व्यशब्दः। किंभवति?, त्र्यम् । भवतिशब्दस्य व्यवहितः अनन्तररहितौ तावपि ( जइ ति) यदि तस्योच्यते, ( एवं तो प्रयोगः । इत्थं द्रव्यलकणमनिधायाधुनोदाहरणमाह-(जह भवि- जवा अर्णतगुण त्ति) एवं च सति ततो भया अनन्तगुणाः.तद्भवओ दन्यदेवाई) यथेत्युदाहरणोपम्यासार्थः। नब्यो योम्यः । ब्य- यव्यतिरिक्ता वर्तमानभवभावेन रहिता एष्यातिक्रान्ताश्च ते. दयादिरिति । श्यमत्र भावना-यो हि पुरुषादिम॒त्वा देवत्वं प्रा- घुच्येरन् । ततश्च तदपेकयाऽपि द्रव्यत्वकल्पना स्यात। अथोच्यतेप्स्यति बद्धायुष्का, अभिमुखनामगोत्रो वा स योग्यत्वाइन्यदे- भवत्वेवमेवं का नो हानिरिति । उच्यते-एकस्य पुरुषादेः, एकबोऽभिधीयते।एवमनुभूतदेवभावोऽपि। श्रादिशब्दाव्यनारका- काले पुरुषादिकाने, जवा (न जुजति) न युज्यन्ते न घटन्ने, अदिपरिग्रहः, परमाणुग्रहश्च । तथा ह्यसाबपि घणुकादिकाययो- नेके बहव इति गाथार्थः ॥२७॥ ग्यो भवत्येव, ततश्चेत्थं नूतं व्यं द्रव्यकायो भएयत इति इत्थं चोदकेनोक्ते गुरुराहगाथार्थः ।। २३॥ भाद-किमिति तुशब्दविशेषणाजीवपुलद्रव्यमङ्गीकृत्य धर्मास्ति | दुहोऽणंतरजविनं, जह चिट आननं तुजं बढ़। कायादीनामिहन्यवच्छेदः कृत शत उच्यते-तेषां च यथोक्तप्र-। हुन्जिरेसु वि जइ तं, दबजवाहुज तो ते वि ॥२०॥ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४७) काय अनिधानराजेन्धः। काय वर्तमानजये धर्तमानस्य उन्नयत एष्ये अतीतेच, अनन्तरभविक, पर्यायकायः पुनः, भवन्ति पर्याया वस्तुधर्मा यत्र परमाएदादौ पुरस्कृतपश्चात्कृतभवसंबन्धीत्युक्तं नवति । यथा तिष्ठति आयुष्क| पिण्डिताः बहवः, तथा च परमाणावपि कस्मिंश्चित, संत्र्यपहामेव, तुशमस्यावधारणार्थत्वाद् न शेषं कर्म विवक्तितं यद् बद्ध- रिक इति पागेऽववुध्यते। सांव्यवहारिके,यथा वर्णादयो वर्णगन्धम । अयं भावार्थ:-पुरस्कृतभवसंबन्धिविनागाविशेषायुष्कः सा- रसस्पर्शाः अनन्तगुणाः,अन्यापेक्षया । तथाचोक्तम्-"कारणमेष मान्येन तस्मिन्नेव भवे वर्तमानो बध्नाति,पश्चात्कृतसंबन्धिनःपु.। तदस्पं,सूक्मो नित्यश्च भवति परमाणुः। एकरसगन्धवों, द्विस्पनस्तस्मिन्नेव वेदयति । अतिप्रसंगनिवृत्यर्थमाह-( इजिरेसु। शःकार्यलिपश्च"॥१॥स चैकस्तिक्तादिरसातदम्यापेक्तया तिक्तवि जइ सं दबजवा हुज तोते वि) भवेत् इतरेम्वपि प्रभू तरतिक्ततमादिजेदानन्स्यं प्रतिपद्यते । एवं वर्णादिष्यपि विभाष. तेषु प्रतीतेषु यद् बरूम, अनागतेषु च यद्भोदयते । यदि तत्त-1 मेति गाथार्थः ॥ ३२॥ स्मिन्नेव भवे वर्तमानस्य, द्रव्यभवा भवेरन्, ततस्तेऽपि,तदायु अधुना भारकायःपककर्मसबन्धादिति हवयम् । न चैतदस्ति; तस्मादसञ्चोदक एगो का पुहा जामो, एगो चिट्ठइ एगु मारिनो। पचनमिति गाथार्थः ॥ २० ॥ अस्यैवार्थस्य प्रसाधर्फ लोकप्रतीतं निदर्शनमभिधातुकाम जीवंत मएका मारिओ तं,लव माणवकेण हेजणो? ३३॥ पाह एकः कायाकीरकायो द्विधा जातः,घटद्वयभ्यासात।तत्रएकसंझासु दोसु सूरो, अदिस्समाणो वि पप्प समईभं । स्तिष्ठति,एको मारितः, जीवन् मृतेन मारितः। तदेतत् (लब मा एव त्ति) धूहि हे मानव! केन कारणेन?। कथानकं यथा प्रतिकजह भोजासइ खितं, तहेव एअंपि नायव्वं ॥श्णा मणाध्ययने परिहरणायामिति माथार्थः । भारकायश्चात्र कीरसंध्या चाया च संध्ये, तयोः संध्ययोद्धयोः प्रत्यूषप्रदोषप्रति- भृतकुम्नद्वयोपेता कापोती भण्यते नारश्चासौ कायश्चेतिभार• बरूयोः,सूर्य आदिस्यः, अदृश्यमानोऽप्यनुपलभ्यमानोऽपि,प्राप- काय अन्ये जणन्ति; अन्ये तु भारकायः कापोत्येवोच्यते इति । पीयं प्राप्यं, समतिक्रान्तं समतीतं, यथाऽवजासते प्रकाशयति नाबकायप्रतिपादनायाऽऽहकेत्रम् । तद्यथा-प्रत्यूषसंध्यायां पूर्वविदेहं भरतं च, प्रदोषसं गतिगचनरा पंच, जावा बहाव जत्थ विनंति । ध्यायां तु भरतमपरविदेहं च,तथैव,यथा सूर्यः,इदमपि प्रक्राम्तं, सातव्यं विझेयम् । एतदुक्तं भवति-वर्तमाननवे स्थितः पुरस्कृत सो होइ भावकाओ, जीवमजीवे विनासाश्रो ॥ ३४ ॥ जवं. पश्चात्कृतभवं च आयुष्कर्मसन्यतया स्पृशति, प्रका द्वौ त्रयश्चत्वारः पञ्च वा जावा श्रीदयिकादयः प्रजूता श्रशेनाऽऽदित्यवदिति गाथार्थः ॥२६॥ न्येऽपि यत्र सचेतनाचेतने वस्तुनि विद्यन्ते सभपतिनावकायः, अधुना मातृकायः प्रतिपाद्यते, मातृकेति मातृकापदानि भावानां कायो भावकाय इति। [जीवमजीवे विभासाओ] जीया "नप्पोख" इत्यादीनि, तत्समूहो मातृकायः, अन्यो जीवयोर्विभाषा खल्वागमानुसारेण कार्येति गाथार्थः ॥३४॥ वि तथाविधः पदसमूहो बह्वर्थ इति। अधुनैकार्थिकान्युच्यन्तेतथाचाह भाष्यकार: काए १ सरीर २ देहे ३, माउअपयं ति मं, नवरं अन्नो वि जो पयसमूहो। बुंदी ४ चय ५ वचए अ६ संघाए । सो पयकाओ जन्न, जे एगपए बहू अत्था ॥३०॥ उस्सय समुस्सए वा ६, मातृकापदमिति ( म ति ) चिह्न, मवरमन्योऽपि यः। कोवरे १० जत्थ ११ तणु १२ पाणू १३॥ ३५॥ पदसमूहः पदसङ्घातः स पदकायो जण्यते; मातृकापदकाय इति भावना । नाविशिष्टः पदसमूहः, किं तु (जे एगपए बहू अ. कायःशरीरंदेहो योन्दिःचय उपचयश्च सात सच्यूयः समुच्छत्या) यस्मिन्नेकस्मिन् पदे बहवोर्थाः, तेषां पदानां यत्समूह यः कडेवरं जत्रा तनुः पाणुरिति गाथार्थः ॥३५॥ भाष०५०। इति । पागन्तरं वा-(जम्मेगपए बह अत्थ सि) गाथार्थः ॥३०॥ दश० प्रा०चू० प्रा०म०। दर्शविशे० । पृथिम्यतेजोवायुव. संग्रहकायप्रतिपादयन्नाह नस्पतित्रसकायनेदात् पोढा कायः। प्रव०२२५द्वार। कर्म० । विसंगहकाओऽणेगा, वि जन्य एगवयणेण घिप्पंति । शे० । चतुर्धा काया-पृथिव्यप्तेजोवायवश्च । प्राचा० १० १ अ०१ उादर्श०। पाश्चनौतिके शरीरे, द्वा०२६ द्वा०।"वसाsजह सान्निगामसेणा, जाओ वसई निविट्ठति ॥३१॥ सगमांसमेदोऽस्थि मज्जशुक्रान्त्रवर्चसाम । अशुचीमा पदं कायः, संग्रहणं संग्रहः, स एव कायः संग्रहकायास किविशिष्ट इत्या- शुचित्वं तस्य तत्कुतः ?" ॥१॥ अष्ट०१६ 801 (कायाम्मलनिःह-(णेगा वि जत्थ एगवयणेण घेपंति ति) प्रभूता अपि यत्रकव- सारणनिषेधो 'अणायार'शम्दे प्रथमभागे ३१४ पृष्ठे निरूपितः) चनेन गृह्यन्ते। यथा-शालिग्रामसेनाजातो वसति निविष्टेति यथा- औदारिकादित्रय घातिचतुष्ये, प्राचा० १ श्रृ०६५०५ ००। सख्यम। प्रभूतेष्वपिस्तम्बेषु सत्सु जातः शानिरितिव्यपदशः। प्रभूतम्वपि पुरुषवनितादिषु वसतिग्रामः,प्रभूतेष्वपि हस्त्यादिषु आया नंते ! काए अपने काए ? । गोयमा ! पाया वि निविष्टा सेनेति । अयं शाल्यादिरर्थः संग्रहकायो भएयते इति काए, मम्मे विकाए । रुवी भंते ! काए अस्वी काए । गाथार्थः ॥ ३१ ॥ गोयमा ! रूवी वि काए अरूवी वि काए । एवं एक्कक्के पु. साम्प्रतं पर्यायकायं दर्शयति च्या। गोयमा सचित्ते विकाए,अचित्ते विकाए, जीये वि पज्जबकाओ पुण हुं-ति पज्जवा जत्थ पिंमिश्रा बहवे। काए अजीवे विकाए, जीवाण विकाए अजीवाण वि परमाणम्मि विकम्मिावि, जह बनाई अणंतगणा ॥३॥ काए। पुब्धि भंते !काए पुच्छा। गोयमा पुब्धि पिकाए Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) अभिधानराजेन्द्रः। काय कायकिलेस काइज्जमाणे विकाए, कायसमयवीइक्ते विकाए । पुचि ह-"कायसहो सम्वन्नावसाममसरीरवायी"कायशब्दः सर्व भावनां सामान्यं यच्छरीरंचयमात्रं तद्वाचक इत्यर्थः । एवञ्च नंते ! काए भिजा पुच्छा । गोयमा ! पुबि पि काए जि [आया विकाए सेसदध्वाणि विकाए ति]। श्दमुक्तं भवतिज्जइ, काइज्जमाणे वि काए जिज्जइ, कायसमयवीपकते वि आत्माऽपिकायः,प्रदेशसञ्चय इत्यर्थः। तदन्योऽप्यर्थः कायः, प्रदेकाए भिज्ज । कविहे णं नंते ! काए परमत्ते । गोयमा! शसञ्चयरूपत्वादिति । रूपी कायः पुमलस्कन्धापेक्कया, अरूपी सत्तविहे काए पपत्ते । तं जहा-ओरालिए, ओरालियमीस कायो जीवधर्मास्तिकायाद्यपेक्कया, सचित्तः कायो जीवच्छरी रापेक्कया, अचित्तः कायोऽचेतनसञ्चयापेक्षया, जविः काय उए, बेनबिए, वेउब्बियमीसए, आहारए, आहारयमीसए, च्वासादियुक्तावयवसञ्चयरूपः,अजीवः कायस्तद्विलक्षणजीवा. कम्मए। नां कायः जीवराशिः,अजीवानां कायः परमाएवादिराशिरिति । एवं शेषाएयपि। अथ कायस्यैव दानाह-[कतिधिहणमित्यादि] [माया भंते! काये इत्यादि] आत्मा कायः,कायेन कृतस्यानुभव अयं च सप्तविधोऽपि प्राग्विस्तरेण व्याख्यातः। इह तु स्थानाशू. नात, नह्यन्येन इ.तमन्योऽनुन्जवति,अकृतागमप्रसङ्गात् । अथान्य न्यार्थ लेशतो व्याख्यायते-तत्र च [ओरालिए ति ] औदारिआत्मनः कायः, कायैकदेशच्छेदेऽपि संवेदनस्य संपूर्णत्वेनाभ्यु कशरीरमेव पुजलस्कन्धरूपत्वादुपचीयमानत्वात्काय प्रौदारिपगमादिति प्रश्नः। उत्तरंतु आत्माऽपि कायः, कश्चित्तव्यतिरे ककायोऽयं च पर्याप्तकस्यैवेति । [ोरालियमीसप ति ] कात, कीरनीरवत्, अग्न्ययःपिण्डवत, काश्चनोपलवद् वा, अत औदारिकश्चासौ मिश्रश्च कार्मणेनेत्यौदारिकमिश्रोऽयं चापर्याएव कायस्पर्श सत्यात्मनः संवेदनं भवति। अत एव च कायेन कृत प्तकस्य। [वेउविए ति] वैक्रियःपर्याप्तकस्य देवादेः [घेतमात्मना भवान्तरे वेद्यते, अत्यन्तन्नेदे चाऽकृतागमप्रसङ्ग इति । ब्धियमीसप ति] वैक्रियश्चासौ मिश्रश्च कार्मणेनेति वैक्रियमिश्रा, [भले वि काय ति] अत्यन्ताभेदे हि शरीरांशच्छेदे जीवांशच्छे अयं चाप्रतिपूर्णवैक्रियशरीरस्य देवादेः। [आहारप सि] पाहादप्रसङ्ग तथा च संवेदनताऽसंपूर्णता स्यात् । तथा शरीरस्य रक आहारकशरीरनिवृत्तौ। [आहारगमोसप सि] भाहारकदाहे आत्मनोऽपि दाहप्रसङ्गेन परलोकानावप्रसङ्ग इत्यतः कथ परित्यागेन औदारिकग्रहणायोद्यतस्याहारकमिश्रो नवति,मिश्रश्चिदात्मनोऽन्योऽपि काय इति । अन्यैस्तु कार्मणकायमाश्रित्य ता पुनरौदारिकेणोति ।(कम्मए त्ति) विग्रहगतो केवलिसमुद्घा. आत्मा काय इति व्याख्यातम, कार्मणकायस्य संसार्यात्मनश्च ते वा कार्मणः स्यादिति। भ०१३श०७ उ०। जीवनिकाये, स्था० परस्पराव्यभिचरितत्वेनैकस्वरूपत्वात् । [अम्मे वि काए त्ति ] औदारिकादिकायापेकया जीवादन्यः काया, तद्विमोचनेन तद्भ ३ ठा० ३ 30 । उत्त०। सूत्र० । कायशब्दः सर्वनावानां सामा न्यं यच्छरीरं चयमात्रं तद्वाचक इत्यर्थः । भ०१३ श०७ दसिझेरिति । [रूबी पिकाए त्ति ] रूप्यपि कायः, औदारिका बाराशौ, स्था० ३ ठा०२ उ० संघाते, अनु । विशे० । दिकायस्थूलरूपापेक्षया । अरूप्यपि कायः, कार्मणकायस्याति पञ्चत्रिंशत्तमे महाग्रहे, "दो काया" स्था०२०३उ०। सूक्ष्मरूपित्वेनारूपित्वविवकणात । [एवं पक्केके पुच्छ ति] पूर्वोक्तप्रकारेण एकैकसूत्रे पृच्छा विधेया। तद्यथा-"सचित्ते भं च०प्र० । सू०प्र०। अनार्यदेशविशेषे, प्रव० २७४ द्वार । ते!काये" इत्यादि। अत्रोत्तरम-(सचित्ते विकाए) जीवदवस्या सूत्र० । तन्निवासिनि जने, प्रज्ञा० १ पद । कः प्रजापतिः, यां चैतन्यसमन्वितत्वात् । (अचित्ते विकाए) मृतावस्थायां चै कं सुखं वा ततः देवताद्यर्थे, तस्येदं वा अण, कस्यत् सन्यस्याजावात । [जीवे वि काए त्ति] जीवोऽपि विवक्षितोच्चा श्दन्तादेशे वृषिः । प्रजापतिदेवताके हविरादौ, कनिष्ठाऽनसादिप्राणयुक्तोऽपि भवति कायः औदारिकादिशरीरमपेक्ष्य । लिमूलस्थानरूपे प्रजापतितीर्थे, न० । कायसंबन्धिकार्योपयो[ अजीवे विकाए ति ] अजीवोऽप्युच्चासादिरहितो भवति गित्वाद् मनुष्यतीर्थे, न0 । प्रजापतिदेवताके विवाहभेदे, पुं०। कायः कार्मणशरीरमपेक्ष्य। [जीवाण वि काप त्ति] जीवानां स चीयतेऽदः चि कर्मणि घश्, चेः कत्वम् । मूलधने, पुं० ।मूबन्धी कायः शरीरं भवति । [अजीवाण वि काए ति] अ लधनस्य वृख्या उपचीयमानत्वात् तथात्वम् । करणे घञ् । जीवानामपि स्थापनाऽहंदादीनां कायः शरीरं भवति, शरीरा वस्तुस्वभावेन पदार्थानां चीयमानत्वात् तथात्वम, नावे घझ । कार इत्यर्थः। [पुबि पि काप त्ति] जीवसम्बन्धकालात्पूर्वम संघे, पुं०। वाच० । कायाः पृथिव्यादयः । स्था०२ ग० ४ ००। पिकायो भवति, यथा भविष्यज्जीवसम्बन्धं मृतदईरशरीरम। कायनज्जयया-काजकता-स्त्री०। ऋजुकस्यामायिनो भा[काजमाणे वि काए ति ] जीवन चीयमानोऽपि कायो | वः कर्मवा ऋजुकता, कायस्य ऋजुकता कायर्जुकता । स्था०४ भवति, यथा जीवच्छरीरी [ कायसमयविरकते वि काए ति] ठा०१०। परावञ्चनपरकायचेष्टायाम, भ०७ श०००। कायसमयो जीवेन कायस्य कायताकरणलकणः, तं व्यतिक्राम्तो यः स तथा। सोऽपि काय एव, मृतकडेवरवत्। [ पुवि पि कायक-कायक-न। कचिद्देशे इन्द्रनीलवर्णः कार्पासो भवति, काये निजाति] जीनेन कायतया ग्रहणसमयात्पूर्वमपि का- तेन निष्पन्ने वस्त्रे, प्राचा०२ श्रु० ५ अ० १००। यो मधुघटादिन्यायेन द्रव्यकायो निघते, प्रतिक्कणं पुलचया-कायाकलेस-कायक्लेश-पुं० । कायस्य शरीरस्य क्लेशः खेपचयनावात् । [काइजमाणे विकाए भिजा ति] जीवन दापोमा कायक्लेशः । स्था०७ ठा० । शरीरक्लेशने, स्था० कायी क्रियमाणो पिकायो भिद्यते, सिकताकणकलापमुष्टिय ६ ठा० । तापशीतादीनां सहने, उत्त० ३० अ० । श्राव० । बाहणवत् पुस्लानामनुक्कणं परिशाटनावात् । [कायसमयविश् खतपोभेदे, पा० नं0। स च वीरासनादिभेदाच्चित्रः। दश० कंते विकाए भिजाति कायसमयव्यतिक्रान्तस्य च कायता १०॥ भूतनावतया घृतकुम्नादिन्यायन, भेदश्व पुसलानां तत्स्वभा गानतो लौकिकः कायक्लेशःवतयेति । चूर्णिकारेण-पुनः कायसूत्राणि कायशब्दस्य केवलं शरीरार्थत्यागेन चयमात्रवाचकत्वमङ्गीकृत्य क्याख्यातानि। यदा. सत्त स्सरा तो गामा, मुच्छणा एगविंसती। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काय किलेस ताणा एगुणपण्यासा संमतं सरमंगलं ।। १४ ।। सवि कार्याकलेसे पण ते तं जहा डासा कुटु सणिए पडिमट्ठाई वीरासणिए ऐसज्जिए दंकायइए लगंमसाई ॥ २ ॥ थानापतिका स्थानातिगः स्थानातिदो वा कायोत्सर्गकारी ह धर्मधर्मिणोरभेदादेवमुपन्यासः अन्यथा कायक्लेशस्य प्रक्रान्तत्वात् स एव वाच्यः स्यादून तद्वान्, इह तु तद्वान्निर्दिष्ट इति । एवं सर्वत्र ठाकुडुकासनिक प्रतीतः तथा प्रतिमास्थापीत भ प्रतिमाकारी, बीरासनिक या सिंहासने निविष्ट श्वास्ते, नैपधिकः समयुतादिनिषद्योपवेशी, दरकायतिकः प्रसारित हः, समएमसायी भूम्य लग्नपृष्ठः । स्था० ७ ० प्र० । ग० | यायावयंति गिम्देसु, हेमंतेसु अवाडा । | वासामु परिसंलीणा, संजया सुसमाहिया ॥ १२ ॥ प्रतापयन्ति ऊर्द्धस्यानादिना आताचनं कुर्वन्ति ग्रीष्मकाले तथा हेमन्तेषु तथा शीतकालेष्वप्रावृता इति प्रावरणरहितास्तिठन्ति । तथा वर्षासु वर्षाकालेषु संलीना इत्येकाश्रयस्था भवन्ति संयताः साधवः, सुसमाहिताः ज्ञानादिषु यत्नपराः । ग्रीष्मादिषु बहुवचनं प्रतिवर्धकरणापनार्थमिति सुषार्थः दश०१० कायगुत्त-कायगुप्त-त्रि० । कायगुप्त्या गुप्तः कायगुप्तः । उत्त० । “कायगुत्तो जिरं१२० सत्काय क्रियाविकले जितेन्द्रिये तो दिश्रो । उस० १२ अ० । 35 कायनुत्तया कायगुप्तता स्त्री० कायस्वानुभवापारा गोपने उत्त० २० भ० । अथ कायः फलं प्रक्षपूर्वकमाह ( ४४६ ) अभिधानराजेन्द्रः - कागुत्ताणं भंते जीवे किं । कायपाए शंसरंजय, संवरेणं कायगुणे पुणे पाचासयनिरोह करेइ५५ हे भदन्त ! कायगुप्ततया जीवः किं जनयति ?। गुरुराह-डे शिष्य ! कायगुप्ततया अधः सम्बरं जनयति, सम्बरेण गुप्तकायः पुनः पापाश्रवनिरोधं करोति । दश० २० प्र० । कायगुत्ति - काय गुप्ति-स्त्री० । गमनागमनप्रचलनादानस्यन्दमादि क्रियाणां गोपने गुप्तिभेदे, उत्त० । sarai कायगुप्तिमभिधातुमाहठाणे निसीय वा वि, तहेव य तुयट्टणे । उघ पण, इंदियाणं च जुंजणे || सरंज समारंभे, आरंभ य तत्र य । कार्यपत्रमा तु नियंटेज जई जयं ॥ स्थानिय निषीदने उपवेशने । चः तयोरेव विचित्रमेदसमुच्चयार्थ वेति पूरणे। तथैव च य तं यथाविनिमित्त वर्द्धमिका कमेणग यतिक्रमेण चप्रलङ्घने सामान्येन गमने । उभयत्र सुत्रत्वात् सुपो इन्द्रायां च स्पर्शनादन ( स ) योजनं शब्दादिवि पये व्यापारणं, तस्मिन् सर्वत्र च वर्तमान इति शेषः ततः स्थानादिपुवर्त्तमानः संरम्भोऽनिघातो दृष्टिमुष्टघादि संस्थानमेव संकल्पसूचकमुपचारात्संकल्प वाच्यं तरसमारम्नः परितापको प्रधा निघातः, ततः संरम्नश्च समारम्नश्च संरम्नसमारम्नं, तस्मिन् । आ कार्य प्रपमानं निवर्तयति ११३ कायजोग सूत्रार्थः । उत्त०२४० | अथ कायगुप्तिरपि द्विधा चेष्टानिवृत्तिलक्षणा यथागमं शनि परीषहोपसर्गादिसंये Sपि यत्कायोत्सर्गकरणादिना कायस्य निश्चलताकरणं सर्वयोगगनिरोधावस्थायां वा सर्वथा यत्कायचेष्टानिरोधनं सा प्रथमा | गुरुमाच्च शरीरवस्तारक तुम्पादिप्रतिलेखनाप्रमार्जनादिसमयांतक्रियाकलापपुरस्परं शयनासनादि साधुना विधेयं, ततः शयनासननिक्षेपादानादिषु स्वच्छन्दवेापरिहारेण नियता या कायचेष्टा सा द्वितीयेति । उक्तं च उपसर्गसंप कायोत्सर्ग मुनेः। सिर शरीररूप कायद्यते ॥ १ ॥ शयनासननिकेपा - दानसंक्रमणेषु च । स्थानेषु चेष्टानियमः, काय गुप्तिस्तु साऽपरा " ||२||६०३ अधि० । 66 दृष्टान्तः आ० क० । प्रवृतः साधुरानं साया वा चित् । पदमा कथमपि स्थलमा ॥१॥ स्थितस्तत्रैकपादेन, सर्वामपि विनावरीम् । कायछक कायपदक- ६- न० । कायानां पृथिव्यादीनां पकं कायपट्कम् । षट् कायेषु सम्यगनुपालन चिपयतया नगारभेदे, आव० ४ ० । ( तत्र यतना प्रथमभागे २४६ पृष्ठे ' अट्ठारसठाण' शब्दे उक्ता ) 66 66 9 कायजोग-काययोग पुं० श्रीदारिकादिशरीर । श्रदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिविशेषे, दर्श० नं० 1 स्था० । प्रज्ञा० । श्र० । विशे० । 'नित्यासीनप्रलीनाङ्गः, कूर्मवद् मुनिपुङ्गवः । तिष्ठेत् प्रयोजना भावे, काययोगोऽयमीरितः " ॥ १ ॥ जीत० । भेदाः- काययोगः सप्तधा वैकियकाययोगः, बाहारककाययोगः, श्रीदारिकाययोगः मिश्रहम्दस्य पूर्वदर्शितशरीरत्रिकेण सह संवन्धात् किमित्र काययोगः श्राहारकमिको श्रदारिक मिश्रकाययोगः कार्मण काय योगः अयं भावःविविधा विशिष्टा वा किया चिकिया, तस्यां भयं वै कियम् । तथाहि तदेकं भूयानकं भवति, अनेक त्या एकम् । श्रणु भूत्वा महद्भवति, महद् भूत्वा श्रणु । तथा खचरं नृत्वा भूमिचरं जवति, नूचरं त्वा खचरम्। श्रदृश्यं नूवा दृश्यं भवति, दृश्यं त्वा अदृश्यमित्यादि । मद्वा विशिष्टं कुर्वन्ति दिवैर्विकम, पृषोदरादित्वादभीष्टरूपसिद्धिः। तच द्विधापपातकं प्रत्ययंत्रात उपनिमि तथ देवनारकाणाम् | त्वयं तियंमनुष्याणाम् | उकं व श्रीमद्नुयोगद्वारी" चिनिदा विसिहावा, किरिया ती जं भयं तमिह । नियमा बिउब्वियं पुख, नारगदेवाण पयई ॥१॥ कायांगः तन्मयो वा योगां वैयियोगों के कुकिकाययोग या वैकिमि यत्र कार्मनीदारिकं वा क्रियमिथः तत्र कार्मणेन मिश्र देवनारकाणामपतावस्थायां प्रथमसमयादनन्तरं बादरपयोमा पञ्चेन्द्रियध्यायांच वैयिकाले परित्यागकाले वा श्रदारिकेण मिश्र ततो वैक्रियमिक्रियमिश्रानयोगी वैकियमिश्रकाययोगः पूर्व विदा तथाविधकार्योत्पत्तौ विशिष्टलब्धिवशादाह्रियते निर्वत्यत इत्याहारकम्। अथवा-यतीर्थंकरादिसमीपे सू दमा जीवादयः पदार्था अनेनेत्याहारकम्, “कृद्बहुलम् " ॥ ५ ॥ | १ | २ || शं कर्म करणं या णकः। दाद · Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५०) कायजोग अभिधानराजेन्सः। कायष्ठि " कजम्मि समुप्पन्ने, सुयकेवक्षिणा विसिहलकीए । यपदम् ३, ततः कायपदम् , ततो योगपदम ५, तदनन्तरं वेदजं इत्थ श्राहरिज, नणंति श्राहारगं तं तु ॥१॥ पदम ६, ततः कषायपदम् ७, ततो लेश्यापदम् ८, तदनन्तरं पाणिदयरिफिसंदरि-सणत्यमत्थोवग्गहणहेउं वा। सम्यक्त्वपदम ६, तदनन्तरं झानपदम् १०, तदनन्तरं दर्शनपदम संसयवुच्छेयत्थं, गमणं जिग्णपायमूलम्मि"॥२॥ ११, ततः संयतपदम १२, ततः उपयोगपदम् १३, तदनन्तरतदेव कायः, तेन योग आहारककाययोगः। श्राहारकं मिश्र माहारपदम १४, ततो भाषकपदम् १५, ततः परीतपदम १६, ततः यत्र, औदारिकेणेति गम्यते। स श्राहारकमिश्रः। सिरुप्रयोजनस्य पयोप्तपदम् १७, ततः सूक्ष्मपदम् १०, ततःसंझिपदम १ए, ततो चतुर्दशपूर्वविद आहारकं परित्यज्यत औदारिकमुपाददानस्या- भवसिद्धिपदम् २०, तदनन्तरमस्तिकायपदम् २१, ततश्चरमहारकं प्रारभमाणस्य वा प्राप्यते । स एव कायः तेन योग। पदम् २२ । एतेषांद्वाविंशतिसंख्यामां पदानां कायस्थितिर्भवति आहारकमिश्रकाययोगः । कर्म०४ कर्म। ज्ञातव्या, यथा च भवति ज्ञातव्या तथा यथोद्देशं निर्दिश्यते। कायजोगि(ण) काययोगिन्-पुं० । जीवभेदे, काययोगिन (२) जीवादिदण्डकःपकेन्डियाः, अन्येषां मनायोगवाग्योगयोरपि सन्वात् । स्था० जीवेणं भंते जीव त्ति कामओ केव चिरं होई? गोयमा सम्बद्धं। ४ ठा०४ उ०। कायट्टिइ-कायस्थिति-पुं० । काये निकाये पृथिव्यादिसामान्य 'जीवेणं भंते' इत्यादि । इह जीवनपर्यायविशिष्टो जीव उच्यते, तप्रश्नयति-जीवो, णमिति वाक्यालंकारे। भदन्त ! जीव इति । रूपेण स्थितिः । स्थितिभेदे, "दोएहं कायहि पम्मत्ता। तं जहा जीवपर्यायविशिष्टतयेत्यर्थः । कालतः कालमधिकृत्य, कियश्चिमणुस्साणं चव, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव " । काय रंकियन्तं कालं यावद्भवति । भगवानाह-गौतम! सर्वाद्धां, सर्वस्थितिरसंख्यात्सर्पिण्यादिका। स्था०२०२० । काय इह कालं यावत्। कथमिति चेत?, उच्यते-इह जीवनमुच्यते प्राणधापर्यायो गृह्यते, काय श्व काम इत्युपमानात् । स च द्विधा-सा रणम्।प्राणाश्च द्विविधाः-द्रव्यप्राणा भावप्राणाश्च । द्रव्यप्राणा इ. मान्यरूपो विशेषरूपश्च । तत्र सामान्यरूपो निर्विशेषणो जीव जियपञ्चकवलत्रिकोच्चासनिश्वासायुष्कर्मानुभवलकणाः,भावस्वलक्षणः, विशेषरूपो नैरयिकत्वादिलक्षणः,तस्य स्थितिरव प्राणा झानादयः।तत्र संसारिणामायुष्कर्मानुन्नवलक्षणं प्राणधारणं स्थान कायस्थितिः । सामान्यरूपेण विशेषरूपेण वा पर्यायेणा सदैवावस्थितम्, न हि सा काचिदवस्था संसारिणामास्ति य. दिष्टस्य जीवस्याव्यवच्छेदनेन भवने, प्रज्ञा० । स्यामायुष्कर्मानुभवनं न विद्यत इति। मुक्तानां तु ज्ञानादिरू(१) कायस्थित्यधिकारगाथा। पप्राणधारणमवस्थितम्, मुक्तानामपि हि ज्ञानादिरूपाः प्राणाः (२) दएमकत्वेन जीवानां कायस्थितिः। सन्ति, यमुक्तोऽपि जीवतीति व्यपदिश्यते। ते च ज्ञानादयो मु(३) जीवानां नैरयिकत्वादिपर्यायैरवस्थानचिन्तनम् । क्तानां शाश्वतिकाः, अतः संसार्यवस्थायां च सर्वत्र जीयनमस्ती(४) तिर्यतिर्यस्त्रीणां मनुष्यमनुष्यस्त्रीणां च कायस्थितिः। ति सर्वकासन्नावी जीवनपर्यायः। (५) देवदेवीनां कायस्थितिविचारः । (३) सम्प्रति तस्यैव जीवस्य नैरयिकत्वादिपर्यायैरादिष्टस्य (६) पर्याप्तापर्याप्तत्वविशेषण नैरयिकादीनां कायस्थितिः। (७) इन्छियवारमाश्रित्य जीवानां कायस्थितिः । __ तैरेव पर्यायैरव्यवच्छेदेनावस्थानं चिन्तयन्नाह(७) कायद्वारमाश्रित्य जीवानां कायस्थितिः । णेरइएणं भंते ! जेरइए त्ति कालओ केव चिरं होइ?। गो(१) योगद्वारमवलम्ब्य कायस्थितिविचारः। यमा ! जहाणं दस वाससहस्साई, नकोसेणं तेत्तीसं साग(१०) वेदद्वारमाश्रित्य जीवानां कायस्थितिः । रोवमाई॥ (११) कषायद्वारमाश्रित्य जीवानां कायस्थितिः। (१२) लेश्याद्वारमाश्रित्य जीवानां कायस्थितिः। 'नेरइएणं नंते' इत्यादि सुगम, नवरं नैरयिकास्ततो जव्यस्वाभा(१३) सम्यग्दृष्टिद्वारमाश्रित्य जीवानां कायस्थितिः। व्यात् च्युत्वाऽनन्तरं न नूयो भूयो नैरयिकत्वेनोत्पद्यन्ते, ततो य(१४)शानद्वारमाश्रित्य जीवाना कायस्थितिः। देव तेषां भवस्थितेः परिमाणं तदेव कायस्थितेरपीत्युपपद्यते (१५) दर्शनद्वारमाश्रित्य जीवानां कायस्थितिः। जघन्यत उत्कर्षतश्च यथोक्तपरिमाणकायस्थितिः। (१६) संयमद्वारमुपयोगद्वारं चाश्रित्य जीवानां कायस्थितिः। (४) तिरश्चाम्(१७) आहारद्वारमाश्रित्य जीवानां कायस्थितिः । (१०) भाषकाभाषकद्वारं परित्तापरित्तद्वारं चाश्रित्य जीवानां तिरिक्खजोणिएणं नंते ! तिरिक्खजोणिए त्ति कालभो कायस्थितिः । केव चिरं होइ?। गोयमा !जहोणं अंतोमुहुनं, उक्कोसेणं (२६) संशिद्वारं भवसिद्धिकद्वारं चाश्रित्य जीवानां कायस्थितिः।। अणंतं कालं, अणंताओ ओसप्पिणीउस्सप्पिणीओ का(२०) उदकगर्नादीनां कायस्थितिनिरूपणम् । लओ खित्तो अणंता लोगा असंखेजा पोग्गलपरियट्टा (१) कायस्थित्यधिकारगाथामाह आवलियाए असंखेज्जइभागे॥ जीवगइंदियकाए, जोए वेदे कसाय लेस्सा य । (तिरिक्खजोणिए णं ते इत्यादि ) तत्र यदा देवो सम्मत्तनाणदंसण, संजय उवोग आहारे ॥१॥ मनुष्यो नैरयिको वा तिर्यसूत्पद्यते तत्र चान्तर्मुहर्त स्थित्वा भासगपरित्तपज्ज-त्तमुहमसन्नी जवस्थिचरिमे य । भूयः स्वगतौ गत्यन्तरे वा संक्रामति, तदा बज्यते जघन्यतोऽन्तएएसिं तु पदाणं, कायरिती होइ णायव्वा ॥२॥ मुहर्तप्रमाणा कायस्थितिः, उत्कर्षतोऽनन्तं कालं यावत् । तस्य प्रथमं जीवपदम् । किमुक्तं नवति?, प्रथमं जीवपदमधिकृत्य चानन्तस्य कालस्य प्ररूपणा द्विविधा । तद्यथा-कालतः, क्षेत्रकायस्थितिर्वक्तव्या ति १, ततोगतिपदम् २, तदनन्तरामन्द्रि। तश्च । तत्र कालतोऽनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिएयः, उत्सर्पिण्य Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काय (8x १ ) व्यनिधानराजेन्द्रः । सर्पिणपरिमाणं च नन्द्यध्ययनदीकातोऽवसेयम्, तत्र सविस्तरमनिहितत्वात् । क्षेत्रतोऽनन्ता लोकाः । किमुक्तं जवति ?, काकाशेषु प्रति समयमेकैफप्रदेशापहारे क्रियमाणे याचन्त्योऽनन्ता उत्सर्पिएयवसर्पिण्यो भवन्ति तावतीर्यावत् तिर्य फूलदेव का परिमाणात निरूप्यते । पलपरावतं च संप्रदायां विस्तरतोऽभिहितमिति ततोऽवधार्यमिह तु नाभिधीयते, ग्रन्थगौरवभयात्। श्रसंख्याताश्रपि पुगलपरावर्त्ताः कियन्त इति विशेषसंपानिरूपणार्थमाह [मित्यादि] ते पुलपरावती आयनि काया असंख्येयतमभागः। किमुक्तं भवति ?, श्रावलिकाया श्रसं रूयेयतमे भागे यावन्तः समयास्तावत्प्रमाण असंख्येयपुद्गल - पराव इति एतचैवं कायस्थितिपरिमाणं वनस्पत्ययाद्र टव्यं न शेषतिर्यगपक्कया; वनस्पतिव्यतिरेकेण शेषतिरश्चामेतावत्काल प्रमाणकायस्थितेरसम्भवात् । तिर्यकृयकार्यस्थितिमादतिरिक्खोणं जंते! तिरिक्खजोत कालओ चिरं होइ ? | गोमा ! जहोणं अंतोमुहुतं नकोसेां तिथिपलियोमाई पुनकोमीत्तमत्यहिया एवं म सेवि, मस्सी वि एवं चेव । [तिरिक्खजोणिणीणं भंते ! इत्यादि ] इह उत्तरत्र च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तावना प्रागुक्ता श्रन्तर्मुहूर्त्त भावनानुसारेण स्वयं नावनीया | उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटी पृथक्त्वाभ्यधिकानि कथमिति चेत उच्यते तिर्थमानुष्याणां सी यो नया कार्यस्थितिः, "नरतिरियाणं स स भवा" इति वचनात् । तत्रोत्कर्षस्य चिन्त्यमानत्वादटावपि वा यथासंभव मुत्कृष्टस्थितिकाः परिगृह्यन्ते । श्रसंख्ये वर्षायुष्कस्तु मृत्वा नियमतो देवलोकेषूत्पद्यते न तिर्यक्षु । ततः स्वप्त भयाः पूर्वकायायुषो वातव्याः अष्टमस्तुपदे कुर्वादिष्विति त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटी पृथक्त्वाज्यधिकानित [मनुस्से व मनुस्सी व इति] एवं ति तेन प्रकारेण मानुष्योऽपि च वक्तव्याः । किमुक्तं भवति ?मनुष्यसूत्रे मानुषं सूत्रे व जघन्यतोऽन्तर्मुखीणि पल्यापमानि पूर्वकोटीपृथक्वाभ्यधिकानि कथीतिसूत्र पाठस्त्वेवम्- "मणुस्से णं नंते ! मस्स ति कालओ केव चिरं होइ ?। गोयमा ! जहणं अतो मुहत्तं उकोसेणं तिनि पनि श्रोमाझं पुत्रकोमी पुहुत्तमम्भहियाई मपुस्सीणं भंते ! मणुस्सि त्ति कालओ " इत्यादि । [५] देवदेवीनाम देवे भंते! देव ति काल के चिरं हो। गोयमा ! जव रइए। देवी णं जंते ! देवि त्ति कालओ केव चिरं होइ ? गोयमा ! जहां दस बासमहस्सा उसे पण पापविमा। सिणं भंते! सिर्फ चिकेन चिरं होई । गोयमा ! सादिपज्जवसिए || [ जहेब नेरइए इति ] यथैव नैरयिकः प्रागुक्तस्तथैव देवोsपि वक्तव्यः, देवस्यापि जघन्यतो दशवर्षसहस्राणि, उत्कर्षतः त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि वक्तव्यानीति भावः । देवा अपि हि स्वभावाभूयोऽनन्तरं देववेनोत्पद्यन्ते "मो देवे देवेति ततो देव देवानामपि प्रय कायहर देवी-उत्कर्षतः प स्थितः परिमाणं कायस्थ पञ्चाशत् पल्पोपानदेव माणत्वात् । एतच्च ईशानदेव्यपेक्षया रुष्टयम्, अन्यत्र देवीनामेतात्या तेरभावात् । सिद्धस्त्रे साधपर्यवति इति सिद्धत्व कृषासम्भवात्। सिकत्वाद्विध्याययितुमीशा रागादयो, न च ते भगवतः सिकस्य संभवन्ति सतिमितकर्मपराय तदभाव तेषां नि [ ६ ] सम्प्रत्यैतावतो नैरयिकादीन् पर्याप्तापय्र्याप्तेन विशेषणद्वारेण चिन्तयन्नाह रणं जंते ! रश्यपचर च कालओ केप पिरं होइ ? । गोयमा ! जहपेण वि नक्कोसेण वि तोमुदुत्तं, एवं जाव देवी अपज्जत्तिया ॥ [र]रधिको भदन्त ! अपर्याप्त इति। अपत्यपर्यायविशिष्टो विच्छेदेन कालतः कियन्तं कालं यावद्भवति । नगवानाह - गौतमेत्यादि । इहापर्याप्तावस्था जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तमुहुर्त्तप्रमाणा, तत ऊर्द्ध नैरयिकाणामवश्यं पर्याप्तावस्थाभावात् । तम् (शेषतो तो, एवं जाव देवी अप्पजत्तिया इति ) एवं नैरयिकोक्तेन प्रकारेण पर्याप्तास्तिर्यगादयस्तावद्वक्तव्या यावद् देवी अपर्याप्तकाः, अपर्याप्तदेवी यावदित्यर्थः ततिक्षा मनुष्याय यद्यप्यपाका एव भूत्वा भूयो भूयोऽपसनोत्पद्यते तथा तेषामपर्याप्तावस्था नैरन्तर्येणोरकर्षतो ऽप्यन्तर्मुहतं प्रमाणैव ल च्यते । यद्वक्ष्यति - " अपजत्तणं भंते! अपज्जएत्ति कालओ केपरिंदो गोया ! अंत होत मुहुतमिति" । देवदेवीसूत्रे - अन्तर्मुहूर्त भावना नैरयिकवत् । नैरयिकाणां पर्याप्तत्वेन रइए एवं भंते ! णेरइयपज्जत्तर ति कालओ केव चिरं हो । गोयमा ! जहणेणं दस बाससहस्साई अंतोमुहाई , कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई | नैरायेकपर्याप्त इति । पर्याप्तो नैरयिक इत्येवम विच्छेदेन कालतः कियचिरं भवति ? नगवानाह गौतम ! जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि अन्नानि अन्तर्भार्यासावस्थायां गत स्वात् । अत एवोत्कर्षतोऽपि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण अन्तर्मुइतनानि । तिरसामतिरिक्खजोगियपज्जत्तए णं तिरिक्खजोणियपञ्जराए ति कालओ केव चिरं होई। गोषमा ! जहणं अतोमुहु उक्कोसेणं तिमि पलिओ माई तो मुहुत्तूणाई | एवं तिविखजोशिपज्जतिया वि । मगुस्से मस्सी एवं ar | देवपज्जत्तए जहा ऐरइयपज्जत्तए । देवीपज्जत्तियां ते! देव पर कालओ फेय चिरं डोड़ है। गोयमा ! जहोणं दस वाससहस्साई अंतोमुहूत्तूणाई, नकोसें पपपालाई अंतोनूणाई ॥ तिर्थकुसूत्रे - जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तभावना प्राग्वत्। उत्कर्षतस्त्रीपिल्योपमायन्तर्मुहुर्त्तानानि । एतच्चोत्कृष्टायुषो देवकुर्वादि Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायहि अनिधानराजेन्सः । कायट्टि भाविनस्तिरश्चोऽधिकृत्य वेदनीयम्, अन्यषामेतावत्कालप्रमाणा- यसूत्रे उत्कर्षतः सातिरक सागरोपमसहस्रं, तब नैरयिकतिपर्याप्तावस्थायामविच्छेदेनाप्राप्यमाणत्वात;अत्राप्यन्तमुंहत्तस्या- र्यक्पश्चन्छियमनुष्यदेवभवम्रमणेन अष्टव्यमधिकं तु न नवति, पर्याप्तावस्थाया प्रस्तत्वात् । एवं तिर्यकस्त्रीमनुष्यमानुषीसूत्र- पतावत एव कालस्य केबलवदस्योपलब्धत्वात् । अनिन्छियो - प्वपि भावनीयम् । तथा देवदेवीसूत्रयोस्तु जघन्यत उत्कर्ष- व्यन्नावन्छियविकलः,सचसिक एवासिरुश्च साद्यपर्यवसितः । तश्च कायस्थितिपरिमाणं प्रागुक्तमेवापर्याप्तावस्थानाविनामन्त- तत उक्तम्-'साह अपज्जवसिए'इति। 'सइंदियअपखलए णमिमुहूर्तेन हीनं परिभावनीयम् । गतं गतिद्वारम् । त्यादि'हापाप्ता लब्धापेक्वया, करणापेक्या चकव्यान प्रयथाऽपि तत्पर्याप्तस्य जघन्यत उत्कर्षतो वाऽन्तर्मुहर्तप्रमाण (७) श्दानीमिन्द्रियद्वारमाभिधित्सुराह त्वात् । एवं तावद्वाच्यं यावत्पञ्चेन्द्रियापर्याप्तकः पञ्चन्द्रियापर्यासइंदिए णं नंते ! सइंदिए त्ति कालो केव चिरं होइ । सकसूत्रम तच्च सुगमत्वात् स्वयं परिजावनीयम्। प्रनिन्छियागोयमा! मइंदिए विहे पहात्ते । तं जहा-अणाइए अपज्जब- ऽत्र न वक्तव्यः, तस्य पर्याप्तापर्याप्तविशेषणरहितत्वात् । सिए, अणाइए सज्जवसिए । सदियपज्जत्तए णं जंते ! सइंदियपजत्तए त्ति कालो के[सईदिए णं भंते ! इत्यादि ] सह शन्द्रियं यस्य येन वा स व चिरं होइ । गोयमा जहन्नेणं अंतीमुदुत्तं उक्कोसेणं सासेन्जियः। प्रियं च द्विधा-लब्धीनिष्य अन्येन्डियं च । तत्रेह गरोवमसयपुहुत्तं सातिरेगं । एगिदियपज्जत्तए णं भंते!पुलब्धीन्जियमवसेय, तद्विग्रहगतावप्यस्ति । इन्द्रियपर्याप्तस्यापि च्चा?। गोयमा! जहनेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं संखेज्जाई च ततो निर्वचनसूत्रमुपपद्यते; अन्यथा तदघटमानमेव स्यात्। निर्वचनसूत्रमेवाह-[गोयमेत्यादि] इह यः संसारी स नियतमा वाससहस्साई । बेदियपजत्तए णं पुच्ग?। गोयमा ! जहस्मेन्द्रियः, संसारश्चानादिरित्यनादिः सेन्धियः । तत्रापि यः क मेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखिजाई वाससहस्साई । वेशश्चित्कदाचिदपि न सत्स्यतिऽनाद्यपर्यवसितः, सेन्द्रियत्वे पर्या- न्दियपजत्तएणं पुच्छा?। गोयमा !जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोयस्य कदाचिदप्यव्यवच्छेदात् । यस्तु सेत्स्यति सोऽनादिसप सेणं संखिज्जाई वासाई । तेऽदियपज्जत्तए णं पुच्चा?। गोयवसितः, मुक्त्यवस्थायां सेन्धियत्वपर्यायस्याभावात् । यमा ! जहन्नेणं अंतोमुद्दत्तं उक्कोसेणं संखेजाइं राइंदियाई । एकेन्डियादीनाम् चनरिंदियपज्जत्तए णं भंते ! पुच्चा । गोयमा ! जहणं एगिदिए णं नंते ! एगिदिए त्ति कालओ केव चिरं हो अंतोमुत्तं उक्कोसेणं संखिज्जा मासा । पंचिंदियपज्जत्तएणं गोयमा ! जहमेणं अन्तोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतं कावं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमदुत्तं उक्कोसेणं वणस्सकालो ।। सागरोवमसयपुहत्तं ॥ एकेन्द्रियसूत्रे यदुक्तं "नकोसेणं अणंतं कालमिति," तमेवानन्तं (सइंदियपजत्तए ण भंते! इत्यादि) शह पर्याप्तो लभ्यपेकया वे. कालं सविशेष निरूपयति-(वणस्सश्कासओ इति) यावान् वन दितव्यासहिविग्रहगतावपि सम्मतिकरणैरपर्याप्तस्यापि,तत उ. स्पतिकालः अग्रे वक्ष्यति, तावन्तं कालं यावदित्यर्थः । वनस्प स्कषेतः सातिरकसागरोपमशतपथक्त्वमिति यन्निवचनं तदपपतिकायस्यैकेनिजयपदे तस्यापि परिग्रहात् । स च वनस्पतिकास घते । अन्यथा करणपर्याप्तस्योत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहतानां प्रयस्त्रिंशएवंप्रमाण:-"अणताओ उस्सप्पिणियोसप्पिणीश्री कालो, खे. सागरोपमप्रमाणतया सन्यमानत्वात् यथोक्त निवंचनेनापपद्यतो अणता बोगा असंखजा पोग्गलपरियट्टा तेणं पोग्गजपरि ते। पवमुत्तरसूत्रेऽपि पर्याप्तत्वं मध्यपेक्वया षष्टव्यम्। एकन्ष्यि . यहा श्रावलियाए असंखेजश्भागे" इति ॥ पार्यप्तसूत्रे-सव्ययानि वर्षसहस्राणीतिापकेन्द्रियस्य हि पृथिवीद्वीन्छियादीनाम कायस्योत्कर्षतो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि भवस्थितिः। प्रकायस्य सप्त वर्षसहस्राणि, बातकायस्य त्रीणि वर्षसहस्राणि, ततो निरबेइंदिए णं भंते ! दिए त्ति कालो केव चिरं होइ?। न्तरं कतिपयपर्याप्तभवसङ्कलनया समस्येयानि वर्षसहस्रापि गोयमा! जहमेणं अन्तोमुदुत् उक्कोसेणं संखिजं कालं। एवं | घटन्ते शति। द्वीन्द्रियस्य पर्याप्तसूत्रे-सख्येयानि वर्षाणि, द्वीन्द्रितेइंदियचना दिए वि। पंचिंदिए णं नते ! पंचिंदिए त्ति का- या हत्कर्षतो जवस्थितिपरिमाणं द्वादशसंवत्सराणि । न च सबओ केव चिरं होई? गोयमा जहमेणं अन्तोमुहुतं उक्कोसणं वैष्वपि भवेत्कृष्टस्थितिसम्नवः,ततः कतिपयनिरन्तरपर्याप्तनसागरोवमसहस्सं मातिरंगे । अणिदिए णं पुच्चा । गोयमा ! वसङ्कलनयाऽपि संख्येयानि वर्षाण्यव अभ्यन्ते, न तु वर्षशतानि, वर्षसहस्राणि वा । त्रीन्द्रियपर्याप्तसूत्रे-संख्येपानि रात्रिदिवानिः मादिए अपज्जवसिए। सइंदियअपज्जत्तए णं पुन्छा। गोय तेषां च भवस्थितिरुत्कर्षतोऽप्येकोनपश्चाशदिनमानतथा कतिमा! जहन्नागं विउकोसोग वि अन्तोमुहत्तं । एवं जाव पांच- पयनिरन्तरपर्याप्तनवसनायामपि संख्ययानां रात्रिंदिवानादियअपज्जत्तए वि ॥ मेव लभ्यमानत्वात्। चतुरिन्द्रियसूत्रे-संबचेया मासाः,तेषां जबयसूत्रे-(सखेज का ति) संख्येयानि वर्षसहस्राणी स्थितेरुत्कर्षतः षण्मासप्रमाणतया कतिपयनिरन्तरपर्याप्तकालत्यर्थः; "विगदियाण य वाससहस्सं संखेजा" इति वचनात् । ससनायामपि संख्ययानांमासानां प्राप्यमाणत्वात्। पञ्चेन्द्रियएवं त्रीन्छियचतुरियियोरपि सूत्रे वक्तव्ये। तत्रापि जघन्यतो सूत्र सुगमम्। उन्तर्मुहर्तमुत्कर्षतः संण्येयकासमिति वक्तव्यमितिनावः। संख्ये. (0) इदानी कायद्वारमभिधित्सुराहयश्च कालः सख्येयानि वर्षसहस्राणि प्रत्येतव्यानि । पञ्चेन्जि। सकाइए णं भंते ! सकाइए त्ति कालओ केव चिरं होइ? Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायडि गोषमा सकारण विहे पाने से जहा अणादिए अपजब सिएमा दिए सपनयसिए। पुढविकाइए । पृच्छा है। गोयमा ! जणं अंतोतं उफोमेणं असं खिज्जं फालं, असंखेज्जा सपिणिउस्सप्पिणी ओ काल ग्रो, खित्तयो असंलेजा योगा | एवं आतेलवा उकाइया विव ( ४५३ ) अभिधानराजेन्द्रः | इकाइया पुच्छा गोषमा जहां अंतोदु - कोसेका अनंताओ प्रसप्पिणिमपिण कालो, खेत्तच प्रांता लोगा, असंखिज्जा पोग्गल परियट्टा, ते णं पोग्गलपरियट्टा ग्रावलियाए असंखेज्जनागो । तसकाइए एवं जते ! तसकाइए ति पुच्छा ।। गोयमा ! जहपेणं अंतोमुदुतं उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमन्म दिया। अकाइए णं जंते ! पुच्छा ।। गोयमा ! अकारण सादिए अपयसि ॥ ( सकाश्र णं भंते ! इत्यादि) सह कायो यस्य येम वा सकायः, सकाय एव सकायिकम् । श्रार्षत्वात् स्वार्थे इकप्रत्ययः । कायः शरीरं तच्चीदारिक वैकियाहारकामेप धा । तत्रह कार्मणं तैजसं वा द्रष्टव्यं तस्यैवासंसारभावात् । श्र न्यथा विग्रहगतौ वर्त्तमानस्य शरीरपर्याप्तस्य च शेषशरीरासंवादकाधिकत्वं स्यात् तथाच सति निर्वाचनमा (सकारण विहे पते इत्यादि) तत्र यः संसारपारगामी न भविष्यति सोऽनाद्यपर्यवसितः कदाचिदपि तस्य कायस्य व्यबच्छेदाभाव यस्तु मोमचिगन्ता खोऽनादिपर्यवसि राः तस्य मुक्त्यवस्थासम्भये सर्वात्मना शरीरपरित्यागात् । पृथिव्यतेजोवाचनस्पतिमा अन्यापि तदर्थस्य प्रतीतत्वात् । तथा चोक्तम्- " श्रसंखोस पणिउस्सप्पिणी ओ पर्मिदियारा ता चवओो भयणस्स बोध" ननु यदि वनस्पतिका लमाणमसरूपेषाः पुलपरावतः ततो यद्वीय सिद्धान्ते मरुदेवाजीवो यावद् जीवनावं वनस्पतिरासादिति तत्कथं स्यात्, कथं वा वनस्पतीनामनादित्वम्?, प्रतिनियतकालप्रमाणतया वनस्पतिज्ञावस्यानादित्वविरोधात् । तथा हि असंख्येया बुतपरावतस्तेषामवस्थानमानं तत एतावति कालेऽतिक्रान्ते नियमात्सर्वेऽपि काचपरावर्त्त कुर्वन्ति, यथा स्वस्थितिकालान्ते सुरादयः । उक्तञ्च "जर पुलपरियर, सालो । अश्चंतवणस्सईण-मणा इयत्तमत एव हेतू ॥ १ ॥ जमसंखेज्जा पुग्गल - परियट्टा तत्यवत्याणं । कालेपण, तम्हा कुत्र्यंति कायपलट्टं ॥ २ ॥ सच्चे विवण का ते जासुराई" । किं चैवं यद्वनस्पतीनां निर्लेपनमागमे प्रतिषिद्धं, तदपीदानीं प्रसकथमिति संख्या वनस्पतिभ्यां जीवा उद्वर्तन्ते, वनस्पतीनां न्त्र कायस्थितिपरिमाणम संख्येयो सम यातरस्ता एकसमया जीवावन्यन्तर माणमागतं, न वनस्पतीनाम् । ततः प्रतिनियतपरिमाणसिद्धं नित्रेपनं प्रतिनियतपरिमाणत्वादेव गच्छत् कालेन सिद्धिरपि सर्वेषां भ व्यानां प्रसक्ता, तत्प्रसक्तौ च मोक्षपथव्यवच्छेदोऽपि प्रसक्तः । स १९४ 3 कायहि भव्य सिकिगमनानन्तरमन्यस्य सिद्धिगमनायोगात् । आह च 1 "काकाले सिमरज जाय भाषेणं । निल्लेवणमाव, सिकी विय सव्जव्वाणं ॥ १ ॥ पश्समयं संखेज्जा, जेणुव्वति ता तदव्वस्था । कायट्टिश्य समया, वणस्सईणं होई परिमाणं " ॥२॥ न तदस्ति वनस्पतीनामनादित्वनिर्लेपनप्रतिषेधस्य सर्वभव्यासिद्धेोपचयवच्छेदस्य तत्र तत्र प्रदेशसिद्धान्त-द्विविधा जीवा सांयवहारिका असव्यहारिका त वे निगोदावस्थात पृथिवीकायिकादिभेदेषु वर्तन्ते ते लोकेषु दृष्टिपथमागताः सन्तः पृथिवीकायिकादिव्यवहारमनुपतन्तीति सव्यवहारका उच्यते ते यद्यपि भूयोऽपि निगोदावस्थामुपयान्ति तथाऽपि ते रिका एवं सांयवहारे पतितत्वात्। ये पुनरनादिकालादारज्य निगोदावस्थामुपगता वापत से व्यवहारपथातीतत्वादसांव्यवहारिकाः । कथमेतदवसीयते द्विविधा जीवाः-सांव्यवहारिका असयवहारिक है। उच्यते विशात् युवतीनामपि निलेपनमागमे प्रसिकम् किं पुनः सकलवनस्पतीनाम्,तथा भव्यानामपि । यश्च यद् ये सांव्यवहारि करा शिनिपतिता श्रत्यन्तवनस्पतयो न स्युः, ततः कथमुपपद्यते ?, तस्मादवसीयते अस्त्य सांव्यवहारिकरा शिरपि यशतानामनादिता । किञ्च श्यमपि गाथा गुरूपदेशादागता- “ समए अस्थि अरांता जीवा केहि परणाम अर्थतानिगोवा अवति ॥ १ ॥ नाि कराशिः सिद्धः कच-पच्तुपश्रवणवण निचेवन भ व्वाणं जुत्तं होश, तं जर अश्चंतवणस्लई नत्थि, एवं अणादिव. गुस्सईण अस्थित्तमत्थओ सिद्धं । भाइ इयमवि गाहा गुरुवणसागया- " समए अस्थि अता, जीवा " इत्यादि । तत्रेदं सूत्रं सांध्यबहारिकानधिकृत्यायसेयम् यासारिका पास्य नचैवस्वामित जिनद्रगणिकमाश्रमणपूज्यपादा:-" तह कायहि कालादओ विसेसे पहुच किर जीवो । नागाश्वणस्सइयो, जै संववहारबाहिरिया " ॥ २ ॥ श्रपिशब्दात्सर्वैरपि जीवैः श्रुतमनन्तशः स्पृष्टमित्यादि । यदस्यामेव प्रज्ञापनायां वक्ष्यते, प्रागुक्तश्व परिग्रहः, ततो न कश्चिद्दोषः । श्रसकाय सूत्रं सुप्रतीतम् । पतानेव कायिकादीन् पर्याप्तपर्याप्तविशेषणविशिष्टान चिन्तयन्नाह " सकाइया पज्जत्तएां पुच्छा ? । गोयमा ! जहमेण विनकोसेा वि अंतोमु एवं जाव तसकाय प्रपजए । सकाश्यपजच पुच्छा गोयमा ! जो अंतो१ मृदुतं उकरणं सागरोवमसयहत्तसातिरेगें । पुढविकाइज्जत पुच्छा | गोपमा ! होणं अंतोगु - कोसेणं संखेज्जाई वाससहस्साई । एवं आऊ वि । तेउकाइयपज्जत पुच्छा ? । गोयमा ! जहां अंतोमुहुत्तं नक्कोसेणं संखेज्जाई राईदियाई । वानकाइयपज्जत्तए णं पुच्छा ? । गोयमा ! हमे तो कोमेणं संखिजाई बाससहस्साई । वस्सइकाइयपज्जत्तएां पुच्छा ? गोयमा ! जहनेणं तोमदुत्तं नकोसेणं संखेज्जाई वाससहस्साइं । तसकाइयपज्जत Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५४) कायद्वि अभिधानराजेन्सः । कायट्टि एणं पुच्छा। गोयमा! जहमेणं अंतोमहत्तं उक्कोसेएं दरवानकाइए वि। बादरवणस्सइकाइए णंजते! बादर ति पुसागरोवमसयपुहत्तं सातिरंगं । च्या गोयमा जहमेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं असंखेज कानं "सकाए" इत्यादि सुगम, नवरं तेजस्कायसूत्र उत्कर्षतः जाब खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज भागं । पत्तेयसरीरबादरसंख्येयानि रात्रिन्दिवानीति । तेजस्कायस्य हि भवस्थितिरुत्क- वणस्सकाइएणं भंते ! पुच्छा ?। गोयमा ! जहम्मेणं अंपतोऽपि त्रीणि रात्रिन्दिवानि ततो निरन्तरं कतिपयपर्याप्तभव- तोमुत्तं उक्कोसेणं सत्तरिकोमाकोडीओ। निगोदेणं नंते ! कलनायामपि संख्येयानि रात्रिन्दिवान्येव लज्यन्ते, न तु वर्षाणि, निगोदे त्ति पुच्छा ?। गोयमा ! जहमेणं अंतामुहुत्तं उक्कोसेणं वर्षसहस्राणि वा। अणंतं कालं अणंताओ नस्साप्पिाणामाप्पिणीओ कालसंप्रति कायद्वारान्तःप्रवेशसंभवात् सूदमकायिकादीन् । ओ, खेत्तो असाइजा पोग्गलपरियट्टा । बादरनिगोनिरूपयितुकाम श्राइ देणं जंते ! बादर त्ति पुच्छा? गोयमा ! जहणं अंतोमुटुत्तं सुमेणं भंते ! सुहमत्ति काओ केव चिरं होइ। गोयमा! उक्कोसेणं सागरोवमं सत्तरिकोमाकोडीनो । बादरतसजहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं असंखेज्जा काइए णं नंते ! बादरतसकाइपत्ति कालो केव चिरं होई ओ ओसप्पिणिउस्सप्पिणीओ कालो, खेत्तओ असं । गोयमा ! जहमेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दो सागरोवमसंखेज्जा लोगा । मुहुम पुढविकाइए मुहुमाउकाइए मुहुम- सहस्साई संखजवासमन्भहियाई, एतोस चेव अपज्जत्तगा नेउकाइए सुकुमवाउकाइए सुहुमवणस्सकाइए सुहुमानगोदे | सचे वि जहन्नेणं वि उक्कोसेणं वि अंतोमुहत्तं । बादरपज्जजहन्नेणं अंतोमुदुत्तं नकोसेणं असंखेज्जं कालं असंखि त्तएणं नंते ! बादरपज्जत्तए ति पुच्चा ?। गोयमा ! जहन्नेणं ज्जाओ अोसप्पिणिनस्सप्पिणीओ कालो, खेत्तो अंतोमुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसतपुहत्तं सातिरेगे। बादरपुढअसंखेज्जा लोगा । मुहुमे णं भंते ! अपज्जत्तए त्ति पुच्छा। विकाश्यपज्जत्तए णं पुच्छा। गोयमा! जहन्नेणं अंतोमदत्तं गोयमा! जहन्नण अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमहत्तं ।। उकोसेणं संखज्जाई वासमहप्साइं । एवं आकाइए वि। पुढविकाझ्यआनकाइयतेउकाइयवानकाइयवरणस्सस्काइया- तेनकाइयपजत्तए णं पुच्छा। गोयमा जहमणं अंतोमहत्तं ण य एवं चेव । पन्जत्तियाणं जहा ओहियाणं ।। उक्कोसेणं संखजाइं राइंदियाई । वानकाइए वणस्सकाइए [सुहमेणं भंते ! इत्यादि ] सूक्ष्मः सूक्ष्मकायिको भदन्त ! पत्तयसरीरबादरवणस्सकाइए पुच्छा ?। गोयमा ! जहइति । सूक्ष्मत्वपर्यायचिशिष्टः सन्नव्यवच्छेदेन कालतः कियश्चिरं मेणं अंतोमुटुत्तं उक्कोसेणं संखिज्जाई वाससहस्साइं । निभवति । भगवानाह-गौतम![जहन्नेणमित्यादि] पतदपि सूत्रं सांव्यवहारिकजीवविषयमवसातव्यम् । अन्यथा उत्कर्षतोऽस गोदपज्जत्तए बादरनिगोदपज्जत्तए पुच्छा ?। गोयमा ! दो. स्येयकालमिति यनिर्वचनमुक्तं तन्नोपपद्यते, सूक्ष्म निगोदजीवा एहं वि जहन्नण वि उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं । बादरतसनामसांव्यवहारिकराशिनिपतितानामनादितायाः प्रागुपपा- काश्यपज्जत्तए णं जंते ! बादरतसकाश्यपजत्तए नि कालदितत्वात् । [खेत्तो असंखज्जा लोगा इति ] असंख्येये- ओ केव चिरं होई । गोयमा !जहमेणं अंतोमुहुत्तं नकोषु लोकाकाशेषु प्रतिसमयमकैकप्रदेशापहारे यावन्त्य उत्सर्पि सणं सागरोवमसयषुहत्तं सातिरेगं ।। एयवसर्पिण्यो भवन्ति तावत्प्रमाणा असंख्यया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्य इत्यर्थः । सृदमवनस्पतिकायसूत्रमपि प्रागुक्तयु असंख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः; इदं कालतः परिमाणमुक्तम। क्तिवशात् सांव्यवहारिकजीवविषयं व्याख्ययम्, तथा सूक्ष्माः केत्रत पाह-[ अंगुलस्स असंखैज्जश्नागमिति ] अङ्गलस्याससामान्यतः पृथिवीकायिकादिविशिष्टाश्च पर्याप्ता अपर्याप्ता ख्येयो नागः । किमुक्तं नवति ?, अङ्गलस्यासंख्येयतमे जागे श्व निरन्तरं भवन्तो जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहर्सकालं यावन्न प- यावन्त आकाशप्रदेशास्तेषां प्रतिसमयमेकैकप्रदेशापहार असं. रमिति, ततस्तद्विषयसूत्रकदम्बके सर्वत्राऽपि जघन्यत उत्कर्षत. ख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो लगन्ते । उच्यते-क्षेत्रस्य सूक्ष्मत्वात् । चान्तर्मुहूर्तमुक्तम् । सक्तञ्च-"सुहमो य होइ कालो, तत्तो य सुहुमयरं हव खितं" श्त्यादि । एतच्च बादरवनस्पतिकायापेक्कयाऽवसातव्यम, तस्य वादरसामान्यसूत्रे यदुक्तमसंख्येयं कावं तस्य विशेषनिरूप बादरस्यैतावत्कायस्थितेरसम्नवात् । शेषसूत्राणि द्वारसमाप्ति णार्थमाह यावत्सुगमानि । गतं कायद्वारम् । बादरे णं भंते ! बादरे त्ति कालो के चिरं होइ। गो (९) श्दानी योगद्वारमनिधित्सुराहयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेलं असंखेज कालं अ- सजोगी नंते ! सजोगित्ति कालो केव चिरं हो ? संखेजाओ प्रोसप्पिणिनस्सप्पिणीअो कालो, खेत्त गोयमा ! सजोगी सुविहे परमत्ते। तं जहा-प्रणाइए वा अपओ अंगुझस्स असंखेजइजागं । बादरपुढविकाइए णं भंते ! ज्जवसिए, अणाइए का सपज्जव सिए । मणजोगीणंनंते ! पुच्चा। गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोमेणं सत्तरिसा- मणजोगित्ति कालोकेव चिरं होई। गोयमा ! जहन्नेणं गरोवमकोमाकोडीओ । एवं बादराउकाइए वि जाव बा- एक समयं उक्कोसणं अंतोमुहुत्तं । एवं वयजोगी वि। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५५) कायहि अन्निधानराजेन्द्रः। कायट्टिइ कायजोगीणं जंते ! पुच्छा। गोयमा ! जहनेणं अंतामुदुत्तं | एगणं आदेणं जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं अट्ठारसपउक्कोसेणं वणस्मइकालो । अजोगी णं भंते ! अजोगि त्ति लिओवमा पुबकोडि पुहत्तमन्नहियाई । एगेणं आदेकालओ केव चिरं होइ । गोयमा सादिए अपज्जवासए।। सेणं जहन्नेणं एगं समयं नकोसेणं चोदसपलिनोवमाइंपुयोगा मनोवाक्कायब्यापाराः, योगा एषां सन्तति योगिनो व्वकोडिपुहत्तमभहियाई । एगेणं आदेसेणं जहन्नेणं एगं मनोवाक्कायाः, सह योगिनो यस्य येन वा सयोगी। अत्र निर्व- समयं नकोसेणं पतिओवमसतं पुनकोमिमन्जहियं । एचनम-(सजोगी विहे पन्नत्ते श्त्यादि) अनाद्यपर्यवसितो-यो न गणं आदेसेणं जहमेणं एगं समयं उक्कोसेएं पलिओवमपुजातुचिदपि मोकगतः सर्वकासमवश्यमन्यतमेन योगेन सयो हत्तं पुवकोमि पुहत्तमब्जहियं ।। गी; ततोऽनाद्यपर्यवसितो-यस्तु यास्यति मोकं सोऽनादिसपर्यवसितः; मुक्तिपर्यायप्रादुर्भावे योगस्य सर्वथाऽपगमात् । मनो (सवेदए णं भंते! इत्यादि) सह वेदो यस्य येन वास सवेदकः। योगिसूत्रे-जघन्यत एक समयमिति यदा कश्चिदौदारिकका "शेषाद्वा" ७।३।१७। इति कप्रत्ययः। स च त्रिविधः । तद्यथाययोगेन प्रथमसमयमनोयाग्यान पुजनानादाय द्वितीयसमये अनाद्यऽपर्यवसितोऽनादिसपर्यवसितः, सादिसपर्यवसितश्च । मनस्त्वेन परिणमय्य मुञ्चति तृतीयसमये चोपरमते म्रियते वा, तत्र य उपशमश्रेणि, कृपकश्रेणिं वा न जातुचिदपि प्रातदा एकं समयं मनोयोगी लभ्यते उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त निरन्तरं | प्स्यात सोनाद्यपर्यवसितः, कदाचिदपि तस्य वेदोदयव्यवमनोयोग्यपुद्गलानां ग्रहणाविसौं कुर्वन् तत कई सोऽवश्यं च्छेदासम्भवात् । यस्तु प्राप्स्यत्युपशमश्रेणि क्षपकश्रेणि जीवस्वाभाव्यादुपरमते, उपरम्य च भूयोऽपि ग्रहणविसर्गों वा सोऽनादिसपर्यवसितः; उपशमश्रेणिप्रतिपत्तौ कपककरोति, परं कालसूक्ष्मात् कदाचिन्न स्वसंवेदनपथमायाति । उ श्रेणिप्रतिपत्तौ वा बेदोदयव्यवच्छेदस्य नावितत्वात् । यस्तूस्कर्षतोऽपि मनोयोग्यन्तर्मुहूर्तमेव ॥ (एवं वययोगी वि इति)। पशमशेर्ण प्रतिपद्यते तत्र चाचेदको भूत्वा भूय उपशमश्रेणीतः एवं मनोयोगीव बायोग्यपि वक्तव्यः । तद्यथा-" वरजोगी णं प्रतिपतन सवेदको भवति, स सादिसपर्यवसितः, स च जघनंते ! वाजोगित्ति कालश्रो केब चिरं हाई ? गोयमा! जहन्नेणं न्येनान्तर्मुहूत्तम।कथामति चेत्?, उच्यते-इह यदा कोऽपि उपशपक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुत्तमिति "। तत्र यः प्रथमसमय मश्रेणिमुपपद्य त्रिविधमपि वेदमुपशमय्यावेदको भूत्वा पुनरपि काययोगेन भाषायोम्यानि व्याणि गृह्णाति, द्वितीयसमये ता श्रेणीतःप्रतिपतन सवेदकत्वं प्राप्य झटित्युपशमश्रोणि कर्मग्रन्धिनि भाषात्वेन परिणमय्य मुश्चति, तृतीयसमये चोपरमते म्रिय काभिप्रायेण कपकश्रेणि वा प्रतिपद्य च वेदत्रयमुपशमयति, तेवा, स एकं समयं वागयोगी लभ्यते। आह च मूलटीकाकार: कृपयति वा अन्तर्मुहुर्तेन, तदा जघन्येनान्तर्मुहूर्तमवेदकः, - "पढमसमये काययोगेण गहियाण भासादब्वाणं, विश्यसमये स्कर्षतोऽपार्द्धपुनपरावर्त्तदेशोनम,अपगतमर्द्ध यस्य स अपार्क, बायोगेण निसमां काऊण उघरमंतस्स वा एगसमओ लम्भह" देशोनं किंचिदूनम्। उपशमश्रेणीतो हि प्रतिपतित एतावन्तं कालं इति । अन्तर्मुहुर्त निरन्तरं ग्रहणविसौ कुर्वन् तदनन्तरं चोपर संसारं पर्यटन्ति, ततो यथोक्तमुत्कर्षतः सादिसपर्यवसितस्य मते, तथाजीवस्वाभाव्यात् । काययोगी जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त सवेदकस्य कालमानमुपपद्यते । स्त्रीवेदविषये च पञ्चादेशाः,ता मिति । इह बानियादीनां बायोग्यपि लभ्यते । संक्षिपञ्चेन्छि न क्रमेण निरूपयति-(एगेण आदेसेणमित्यादि । तत्र सर्वत्रायाणां मनोयोगोऽपि, ततो यदा वाग्योगो भवति मनोयोगो वा पि जघन्यतः समयमात्रं भावनीयम-काचित् युवतिरुपशमश्रेणितदान काययोगप्राधान्यमिति, सादिसपर्यवसितत्वभावात् । वेदत्रयोपशमनावेदकत्वमनुनूय ततः श्रेणि प्रतिपतन्ती स्त्रीवेजघन्यतोऽन्तर्मुहर्न काययोगी सत्यते, सत्कर्षतो वनस्पतिका दोदयमेकसमयमनुनूय द्वितीयसमये कालं कृत्वा देवेषूत्पद्यते; लः,सच प्रागेवोक्तः। वनस्पतिकायिकेषु दि काययोग एव के तत्र च तस्याः पुंस्त्वमेव न स्त्रीस्वम् । तत एवं जघन्यतः समयघलो न वाग्योगो, मनोयोगो वा । ततः शेषयोगासम्भवात्तेषां मात्र स्त्रीवेदः। उत्कर्षचिन्तायामियं प्रथमाऽऽदेशनावना-कश्चिजकायस्थितिः सततं काययोग इति मानम्। अयोगी च सिद्धः, न्तु रीषु तिरश्चीषु वा पूर्वकोट्यायुष्कासु मध्ये पञ्चषान् जवान् स च सायपर्यवसित इत्ययोगी साद्यपर्यवसित उक्तः। गतं यो अनुनय ईशाने कल्पे पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमप्रमाणोत्कृष्टस्थितिष्वगधारम। परिगृहीतासु देवीषु मध्ये देवीत्वेनोत्पन्नः, ततः स्वायुःक्षये च्य(१०) श्दानी वेदद्वारं प्रतिपिपादयिषुराह त्वा भूयोऽपि नारीषु तिरश्चीषु वा पूर्वकोट्यायुष्कामु मध्ये खा त्वेनोत्पन्नः , ततो भूयोऽपि द्वितीयवारमोशाने देवलोके पश्चसवेदएणंजने! सवेदए त्तिकालो केव चिरंहोइ?। गोय-| पञ्चाशत्पल्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुष्कास्वपरिगृहीतदेवीषु मध्ये मा! सवेदए तिविहे पापत्ते।तं जहा-अणादिए वा अपज्जव- देवोत्वेनात्पन्नः, ततः परमवश्यं वेदान्तरमेव गच्छति। एवं दशो. सिए, अणादिए वा सपज्जवसिए, सादिए वा सपज्जस त्तरं पल्योपमशतं पूर्वकोटिपृथक्त्वाच्यधिकं प्राप्यते । अत्र पर सिए । तत्थ णं जे ते सादिए सपज्जवसिए से जहन्नेणं आह-ननु यदि देवकुरुत्तरकुर्वादिषु पल्योपमत्रयस्थितिकासु स्त्रीषु मध्ये समुपपद्यते, ततोऽधिकाऽपि स्त्रीवेदस्य स्थितिभंतोमुत्तं उक्कोसेणं आएंताओ अोसप्पिणि उस्स रवाप्यते, ततः किमित्येवोपदिष्टा। तदयुक्तम्। अभिप्रायापरिज्ञाप्पिणीओ कालो, खेत्तओ अवकृपोग्गलपरियट्टू दे- नात्। तथाहि-रह तावद्देवीच्यच्युत्वा असंख्येयवर्षायुष्कासूणं । त्थिवेदे णं जंते! इत्यिवेदेत्ति कालओ केव चिरं हो. सु स्त्रीमध्ये नोत्पद्यते, देवयोनेश्च्युतानामसंख्येयवर्षायुष्केषु ६। गोयमा! एगेणं आदेसेणं जहन्नेणं एवं समयं उक्को मध्ये उत्पादप्रतिषेधात् । नाप्यसंख्येयवर्षायुष्का सती यो षित उत्कृष्टासु देवीषु जायते । यत नक्तं मूलटीकाकृतासेणं दमुत्तरं पलिओवमसतं पुन्चकोमीपहत्तमजहियं ।। " जाता असंखेज्जा वासाउया उक्कोसहि न पावे" ति। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५६) कायटिइ अनिधानराजेन्द्रः। कायहि ततो यथोक्तप्रमाणवोत्कृष्टा स्थितिःस्त्रीवेदस्याऽवाप्यते।हितीया- | प्रणाश्वणस्सा-रासीओ तत्तिया तम्मि"॥१॥ देशवादिनःपुनरेषमाहुः-नारीषु तिरश्चीषु वा पूर्वकोट्यायुष्कासु अवेदकपृच्चामाहमध्ये पञ्चषान् भवान् अनुसूय पूर्वप्रकारेणेशाने देवलोकेषुधारत अवेदे णं भंते ! अवेदे त्ति पूच्चा? गोयमा! अवेदे दुवियमुत्कष्टस्थितिकासुदेवीषुमध्ये उत्पद्यमाना नियमतः परिगृहीताखेवोत्पद्यते नापरिगृहीतासु। ततस्तम्मतेनोत्कृष्टमवस्थानं स्त्रीवे हे पप्पत्ते । तं जहा-साइए अपज्जवसिए वा, साइए सपज्जदस्याष्टादशपल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वं च। तृतीयादेशवादिनां | वसिए वा । तत्थ णं जे ते साइए सपज्जवसिए से जहनेतु-सौधर्मदेवलोके परिगृहीतासु सप्तपस्योपमसप्रमाणोत्कृष्टासु णं एग समयं नकोसेणं अंतोमुहुन। पारवयं समुत्पद्यते, ततस्तन्मतेन चतुर्दशपल्योपमानि पूर्वको अवेदको द्विधा-साधपर्यवसितः, सादिसपर्यवसितश्च । त. टिपृथक्त्वान्यधिकानि स्त्रीवेदस्य स्थितिः । चतुर्थादेशवादीनां त्रयः कपकोर्ण प्रतिपद्यावेदको भवति स साद्यपर्यवसितः तु मतेन-सौधर्मदेवलोके पश्चाशत्पल्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुष्कास्व क्षपकश्रेणिः,स च जघन्यनैकं समयम् । कथमेकसमयतोत चेत् ?, परिगृहीतदेवीचपि पूर्वप्रकारेण वारद्वयं देवीत्वेनोत्पद्यते, तत उच्यते-यदा एकसमयवेदको जुत्वा हितीयसमये पञ्चत्वस्तन्मतेन पत्योपमशतपूर्वकोटिपृथक्त्वात्यधिकमवाप्यते । पञ्चमादेशवादिनः पुनरिदमाहुः-नानाभवनमणद्वारेण यदि स्त्री मुपगच्चति, तदा तस्मिन्नेव पञ्चत्वसमये देवेषूत्पन्नः पुरुषवेदस्योत्कृष्टमवस्थानं चिन्त्यते,तर्हि पल्योपमपृथक्त्वमेव पूर्वको वेदोदयेन सवेदको प्रवति, तत एवं जघन्यत एकं समयमवे दक उत्कर्षतोऽन्त हत्तम, परतोऽवश्य श्रेणीतः प्रतिपतने वेदोटिपृथक्त्वाभ्यधिकं प्राप्यते, न ततोऽधिकम् । कथमेतदिप्ति चेत?, दयसद्भावात् । गतं वेदद्वारम् । प्रज्ञा०१८ पद । ज्यो० । सच्यते-नारीषु तिरश्वीषु वा पूर्वकोट्यायुष्कासु मध्ये सप्तनवाननुनू याटमनवे देवकुर्वादिषु त्रिपल्योपमस्थितिषु स्त्रीषु मध्ये स्त्रीत्वे. (११) इदानीं कषायद्वारं, तत्रेदमादिस्त्रम्न समुत्पद्यते । ततो मृत्वा सौधर्मदेवझोके जघन्यस्थितिकासु सकसाईणं ते! सकसाइत्ति कालो केव चिरं होई ? देवीषु मध्ये देवीत्वेनोपजायते, तदनन्तरं चावश्यं वेदान्तरमधि गोयमा ! सकसाई तिविहे परमत्ते । तं जहा-प्रणादिए अगच्छतीति। अमीषां च पश्चानामादेशानामन्यतमादेशसमाच।नतानिर्णयोऽतिशयज्ञानिभिः सर्वोत्कृष्ट श्रुतलब्धिसम्पनर्वा कर्तु पज्जवसिए, अणादिए सपज्जवसिए, सादिए सपज्जवसिशक्यते। ते च जगवदार्यश्यामप्रतिपत्तौ नासीरन्, केवलं तत्का- ए जाव अवई पोग्गलपरियट्ट देसूणं । कोहकसाई णं भंलापेत्तया ये पूर्वतमाः सूरयस्तत्कालभाविग्रन्थपौर्वापर्यपर्या- ते ! पुच्छा। गोयमा जहन्नेण वि उक्कोसण वि अंतोमुहुलोचनया यथास्वमति स्त्रीवेदस्य स्थिति प्ररूपितवन्तः,तेषां सर्वे तं । एवं जाव माणमायाकसाई णं । लोजकसाई णं पामपि प्रावचनिकसूरीणां मतानि भगवानार्यश्याम उपदिष्टवान् । तेऽपि च प्रावचनिकसूरयः स्वमतेन सूत्रं पठन्ते; गौतमप्रश्नं जंते ! पुच्छा। गोयमा ! जहन्नणं एकं समयं उकोसेणं भगवनिर्वचनरूपतया पठन्ति; ततस्तदवस्थान्येव सूत्राणि लि अंतोमहत्तं । अकसाई णं भंते अकसाइत्ति कालो केव चिरं खितानि-गोयमा!श्त्याद्युत्ताम् । अन्यथा भगवति गौतमाय निर्दि- होइ ?।गोयमा अकसाई विहे पप्मत्ते । तं जहा-सादिए वा परि न संशयकथनमुपपद्यते, भगवतः सकलसंशयातीतत्वात् । अपज्जवसिए, सादिए वा सपज्जवसिए । तत्थ णं जे ते पुरिसवेदे णं मंते ! पुरिसवेदेत्ति पुच्छा । गोयमा ! जह- सादिए सपज्जवसिए, से जहोणं एग समयं उक्कोसेणं अंमेणं अंतोमुहुत्ते उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं सातिरेगं ॥ तोमुहत्तं ॥ पुरुषवेदसूत्र-जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमिति। यथा कश्चिदन्यवेदेभ्यो सह कषायो येषां यैर्वा ते सकषाया जीवपरिणामविशेषाः, ते जविस्य उकृत्य पुरुषवदेषत्पद्य तत्र चान्तर्मुहूर्त सर्वायुर्जीवि विद्यन्ते यस्य स सकषायी । इदं सकलमपि सूत्रं सवेदसूत्रयस्वा गत्यन्तरे अन्यवेदेषु मध्ये समुत्पद्यते, तदा पुरुषवेदस्य ज- | विशेषेण भावनीयम्, समानभावनोक्लत्वात् । [कोहकसाई एं घन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमवस्थान अत्यते। उत्कृष्टमानं कराव्यम् ।। भंते इत्यादि ] जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्तमिति, फ्रोधकथायोपयोनपुंसगवेदए णं ते! पुच्छा ?। गोयमा! जहलोणं एगस- गस्य जघन्यत नत्कर्वतो वाऽन्तर्मुहर्सप्रमाणत्वात् तथाजीवमयं उक्कोपणं वणस्सइकालो। स्वाभाव्यात् । इदं च सूत्रचतुष्टयमपि विशिष्टोपयोगापेक्कमि ति । लोभकषायी जघन्यनैक समयमिति, यदा कश्चिदुपशमनपुंसकवेदसूत्रे-जघन्यत एकः समयः स्त्रीवेदस्यैव जापनीयः, । श्रेणिपर्यवसाने उपशान्तवीतरागोभूत्वा श्रेणीतः प्रतिपतन लो. वर्षतो वनस्पतिकाल; स च प्रागेवोक्तः । एतच सांव्यव. भानुवेदनप्रथमसमये सवेदन एव कालं कृत्वा देवलोकेषूत्पद्यते, हारिकजीधानधिकृत्य चिन्ता क्रियते। तदा द्विविधा नपुंसकधे- तत्र चोत्पन्नः सन् क्रोधकषायी मायाकषायी भवति, तदैकदाद्वा कांश्चिदधिकृत्यानाद्यपर्यवसानाः; ये न जातुचिदपि सा- समये लोनकषायी लभ्यते । अथैवं क्रोधादिष्वप्येकसव्यहारिफराशी निपतिष्यन्ति । कांश्चिदधिकृत्य पुनरनादिसप- मयता कस्मान्न बज्यते ? । उच्यते-तथास्वाभाव्यात् । त. र्यवसाना, येसांव्यवहारिकराशेरुकृत्य सचिवहारिकराशावा. थाहि-श्रेणीतः प्रतिपतन् मध्यानुवेदनप्रथमसमये वा यदि गमिष्यन्ति । अथ किमसांव्यवहारिकराशेरपि विनिर्गत्य सां. कालं करोति, कालं च कृत्वा देवलोकेषत्पद्यते, तथापि तथा. व्यवहारिकराशावागच्छन्ति येनैवं प्ररूपणा क्रियते? उच्यते-पा- स्वाभाव्यात येन कषायोदयेन कालं कृतवान् तमेव कषायागच्छति। कथमेतदवसेयमिति चेत् ?, उच्यते-पूर्वाचार्योपदेशा. दयं सत्रापि गतः सन्नन्तमुहूर्तमेव वर्तयति, एतच्चावसीयते त्। तथाचाह सुषमान्धकारनिमम्नजिनप्रवचनप्रदीपो जगवान् | अधिकृतसूत्रप्रामाण्यात, ततो नैकसमयता क्रोधादिग्विति । -"सिऊति जत्तिया किर, इह संववहारजीवरासीओ। इति अकषायसूत्रमवेदसूत्रमिव जावनीयम् । गतं कषायद्वारम् । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५७) कायहि अनिधानराजेन्डः। कायहि (१२) अधुना सेश्याद्वारमाह पामेश्यासूत्रे-दशसागरोपमाणि अन्तर्मुहर्ताभ्यधिकानि ब्रह्मसनेस्सेण नंते !सझेस्से ति पुच्चा? गोयमा ! सलेसे दु. लोकापेक्षया भावनीयानि । तत्र देवानां हि स्थितिरुत्कृष्पा विहे परमत्ते । तं जहा-अण्णादिए वा अपज्जवसिए, अणा दश सागरोपमाणि, लेश्या च पद्मलेश्या । ये न पूर्वोसरभवगते अन्तमुहर्त ते किलैकमन्तर्मुहसमिति अन्तर्मुहृत्ताज्यधिकानीदिए वा सपज्जवसिए। कएहलेस्से शं भंते ! पुच्चा । गो त्युक्तम् । शुक्ल वेश्यास्त्रे-त्रयस्त्रिंशतसागरोपमाणि अन्तमुहयमा ! जहन्नेणं अंतोमहत्तं, नकोसेणं तेत्तीम सागरोवमार्ड तान्यधिकानि अनुत्तरसुरापेकया,तेषामुत्कर्षतः स्थितेस्त्रयस्त्रिअंतोमुत्तमन्नहियाई । नीनवेसे णं नंते ! नीललेसे त्ति शत्सागरोपमप्रमाणत्वात् । अन्तर्मुइ भ्यधिकत्वभावना च पुच्चागोयमा जहाणं अंतोमुटुत्तं नकोसेणं दस सागरो प्राग्वत् । अलेश्योऽयोगिकेवटे। सिकश्च, ततो न तस्यामप्य वस्थायामलेश्यत्वव्याघात इति साद्यपर्यवसितः । गतं वेश्यावमाई पनिओवमासंखेज्जइनागमभहियाई। कान से गं द्वारम् ॥ जंते ! पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं अंतामुटुत्तं,उकोसेणं ति (१३) इदानी सम्यग्दृष्टिद्वारम्नि सागरोवमाई पन्निभोवमासंखिज्जइनागमभहियाई । सम्मदिही णं भंते ! सम्मदिहि त्ति पुच्छा । गोयमा!स. तेनोस्से णं भंते : पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, म्मदिट्टी सुविहे परमत्ते । तं जहा-सादिए वा अपजवसिए, उकोसेणं दो सागरोवमाई पलिओवमासंखिजनागमन्न- सादिए वा सपजवसिए । तत्य णं जे से सादिए सपज्जहियाई। पम्हनेसे एं भंते ! पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं - बसिए, से जहएणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसणं गवढि सागरोतोमुत्तं उकासेणं दस सागरोवमाई अंतोमहत्तमन्नहियाई। माइं सातिरेगाई । मिच्छादिट्ट। णं ते! पुच्चा। गोयमा! सुकलेस्से णं पुच्च?। गोयमा ! जहणणं अंतोमुत्तं नक्को- मिच्छादिट्ठी तिविहे पएणत्ते । तं जहा-अणादिए वा अपसाणं तेत्तीस मागरोवमाई अंतोमुदुत्तमभहियाई । अलेसे | ज्जवसिए,प्रणादिए वा सपज्जवसिए,सादिए वा सपज्जणं पुच्चा । गोयमा! मादिए अपज्जवसिए । वसिए । तत्थ एं जे से सादिए सपज्जवसिए से जहएणे(सलेस्से ण भते ! इत्यादि) सह बेश्या यस्य येन वा स स णं अंतोमुहुत्तं, नकोसेणं अगताओ ओसप्पिणि उस्मप्पिसेश्यः। स द्विविधः प्राप्तः । तद्यथा-अनादिरपर्यवसितः-यो न । णीओ कालो, खेत्तो अवळं पोग्गलपरियह देनाणं । जातुचिदपि संसारव्यवच्छेदक । अनादिसपर्यसिता-यः स- सम्मामिच्छादट्ठीणं पुच्छा? | गोयमा! जहएण्ण विउको. सारपारगामी । (कर हलेस्से ण भंते ! इत्यादि ) इह तिरश्चां सेए वि अंतोमुहत्तं ॥ मनुष्याणां च लेश्याद्रव्याण्यन्तौर्तिकानि, ततः परमवश्यं लेश्यान्तरपरिणाम जजते । देवनरांयकाणां तु पूर्वभवचरमा- | (सम्महिदी णं मंते ! इत्यादि ) सम्यगविपर्यस्ता दृष्टिर्जिनस्तमुहतीदारज्य परभवाद्यमन्तर्मुहर्त याबदवस्थितानि, ततः प्रणीतवस्तुतत्वप्रतिपत्तिर्यस्य स सम्यग्दृष्टिः । स चान्तरकरसर्वत्र जघन्यतमम तमुहूर्त तिर्यकमनुष्यापेकया इष्टव्यम्। उत्कृष्ट णकालभाविना नपशमिकसम्यक्वेन सास्वादनसम्यक्त्वेन विदेवनायिकापेक्षया विचित्रमिति भाव्यते । तत्र विचित्रमिति शुद्धदर्शनमोहपुजोदयसंभविक्षायोपामिकसम्यक्त्वेन सकलयक्तं त्रयस्त्रिंशत्मागरोपमाणि अन्तर्मुदत्तीभ्यधिकानीति, दर्शनमोहनीयवयसमुत्थक्वाधिकसभ्यक्त्वन वा इष्टव्यः। निर्वततः सप्तमनरकपृथिव्यपेकया अष्टव्यम् । तत्रत्या हि नैरयिकाः चनम्-सम्यग्दृष्टिद्धिविधःप्रज्ञप्तः। तद्यथा-साद्यपर्यवसितः एष क्षाकृष्णलेश्याकाः,तेषां च स्थितिरुत्कृष्टा त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि; यिके सम्यक्त्वे उत्पादिते सति चेदितव्यः, तस्य प्रतिपाताभायत्नु पूर्वोत्तरभवगतो यथाक्रम चरमाद्यौ अन्नमुंहते,ते द्वे अध्ये- वात् । सादिसपर्यवसिता-एष कायोपशमिकादिसम्यक्त्वापेक्षकमन्तर्मुहूर्तस्यासंख्यातभेदभिन्नत्वात् । तथाचान्यत्राप्युक्तम्- या। तत्र योऽसौ सादिसपर्यवसितः सम्यग्दृष्टिर्जघन्यनान्तर्मु"मुहुत्तद्धं जहन्ना, तित्तीसं सागरा मुहुत्तहिया । उक्कोसा हो हूर्त, परतो मिथ्यात्वगमनात; उत्कर्पतः षट्षष्टिसागरोपमाणि वि. नायचा कण्डलस्मार"1१1 ( अन्तोमुहुत्तहिया इति)च- सातिरकाणि । तत्र यदि वारद्वयं विजयादिषु चतुर्यु अप्रतिपणिकता व्याख्यातमन्तर्मुहुर्ताधिकेति । नोखलेश्यासूत्रे-यानि तितसम्यक्त्व उत्कृष्टस्थितिको देव नत्पद्यते वेलात्रयं वाऽच्युदश सागरोपमाणि पल्यापमासख्येयजागाज्यधिकान्युक्तानि ता- तलोके, ततो देवबैरव षट्पटिसागरोपमाणि परिपूर्णानि जवि पञ्चमपृथिव्यपेक्षया वेदितव्यानि । तत्र हि प्रथमप्रस्तटे वन्ति । ये तु मनुष्यभवाः सम्यक्त्वसहितास्तेऽधिका इति तैः नाजलेश्या, "पंचमियाए मीसा" इति वचनात् । तस्मिंश्च प्रथ- सातिरेकाणीति । उक्तं च-"दो वारे विजयाइसु, गयस्स तिमप्रस्तटे स्थितिरुत्कर्षत एतावती । ये तु पूर्वोत्तरजवगते श्र- निऽहचुर अहव ताई। अश्ग नरभचियमिति।" (मिच्छादित नमुहते,ते पस्योपमासंख्येयभागे स्वान्तर्गते इति न पृथग वि- ण नंते ! इत्यादि ) मिथ्या विपर्यस्ता दृष्टिर्जीवाजीवादिवस्तुवक्षित । एवमुत्तरत्रापि अष्टव्यम्। कापोतलेश्यासूत्रे-त्रीणि सा- तत्वप्रतिपत्तियस्य जक्तिहृत्परपुरुषस्य सिते पीतप्रतिपत्तिवत् गरोपमाणि पल्योपमासंख्येयभागाच्यधिकानि तृतीयनरकप- स मिथ्यादृष्टिः, ननु मिथ्यादृष्टिरपि कश्चिद्भदयं भक्ष्यतया धिव्यपेकया ऽवसातव्यानि, तृतीयपृथिव्यामपि प्रथमप्रस्तटे | जानाति पेयं पेयतया मनुष्य मनुष्यतया पशुं पशुतया, ततः स कापोतलेश्याया भावात, "तइयाप मीसिया" ति वचनात् । कथं मिथ्याष्ट्रिकच्यते ? भगवर्वात सर्वशत्वस्य प्रत्ययाभावात् । नत्र चोत्कृएस्थिरतावत्याः संभवात् । तेजोश्यासूत्रे- सा- इह हि भगवदहत्यणतं सकलमपि प्रवचनार्थमभिरोचयमागरोपमपव्योपमासंख्येयनागाभ्यधिके ईशानदेवलोक देवापे- नोऽपि यदि तद्गतमेकमप्यतर न रोचयति तदानीमन्येषां मिक्षया वेदितव्या हि तेजोमेश्याका उत्कर्षत एतावत्तिकाश्च।। ध्यापियोच्यते, तस्य भगवति सर्वप्रत्ययनाशान् । Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायहिद अनिधानराजेन्द्रः। काया? उक्तश्च-" सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादकरस्य भवति नरो मिः | यया सामान्यतो ज्ञानो सादिसपर्यवसितो जघन्यत उत्कर्षत. ध्याष्टिः । सूत्र हि नः प्रमाणं जिनानिहितं किं पुनः शेष भग- श्वोक्तः तथाऽऽभिनिबोधिकोऽपि वक्तव्यः। स चैव-"जहनेणं अंबदईदभिहितम् । तथा च जीवाजीवादिवस्तुतत्वप्रतिपत्तिवि. तोमुहत्तं उक्कोसणं छाबट्ठीसागरोवमाई" । एवं श्रुतकान्यपि । कलो मिथ्याष्टिः । ननु सकसप्रवचनमानिरोचनात्ततक- अवधिकान्याप्येवम, नवरं जघन्यत एक समयं वक्तव्यम । कथतिपयार्थानां चारोचनादेष न्यायतः सम्यग्मिथ्याष्टिरेव अवि- मेकसमयताऽयधिज्ञानस्येति चेत्?,उच्यते-ह तिर्यपञ्चेन्द्रियो तुमर्हति,कथं मिथ्याष्टिरेव भवितुमर्हति?,उच्यते-सदसद्वस्तु. मनुष्यो देवो वा विजयानी सन् सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते, तस्य तस्थापरिज्ञानात् । इह यदा सकलवस्तुजिनप्रणीततया सम्यक च सम्यक्त्वप्रतिपतिसमये एव सम्यक्त्वप्रभावतो विज्ञानश्रद्धस तदानीमसौ सम्यग्दृष्टिः, यदा त्वेकस्मिन्नपि वस्तुनि मवधिज्ञानं जातं, तरच यदा देवस्य च्यवनेन मरणेनान्यस्यान्य. पर्याय वा मतिदौर्बल्यादिना एकान्तन सम्यकपरिकानमिथ्या- था वाऽनन्तरसमये प्रतिपतितस्तदा जवत्यधिज्ञानस्यैकपरिज्ञानानावतोन सम्यक् श्रमानं, नाप्येकान्ततो विप्रतिपत्तिः, समयता, उत्कर्षतः सातिरेकाणि षट्षष्टिसागरोपमाणि, यावतदा सम्यग्मिथ्यावृष्टिः । उनञ्च शतकहरूचूर्णी-"जहा नाग्नि- तानि वा प्रतिपतितावधिकानस्य वारद्वयं विजयादिषु गमनेन केरीदीववासिस्स खुहाश्यस्स विपत्थसमागयस्स पुरिसस्स वारत्रयमच्युतदेवलोकगमने तथा घेदितम्यानि । मनःपर्यवहाय ओयणाइए अणेगबिहे होश् एतस्स आहारस्स नरिं न रुई निन पकसमयता संयतस्याप्रमत्ताद्धायां वर्तमानस्य मनःन निंदा जेण तेण सो ओयणाइनो आहारो न कयाइ दिछोना- पर्यवहानमुत्पाद्यानन्तरसमये कानं कुर्वता नावनीया, उत्कवि सुत्रो, एवं सम्मामिच्चद्दिष्टिम्स वि जीवाश्पयस्थाप उरि पतो देशोना पूर्वकोटी; तत उद्धे संयमाभावतो मनःपर्यवहानन यह नावि निंद त्ति"यदा पुनरेकस्मिन्नपि वस्तुनि पर्याये स्याऽप्यभावान् । वा एकान्ततो विप्रतिपद्यते तदा मिथ्यावृष्टिरेवेत्यदोषः। स च त्रि. केवानाणी णं पुच्छा। गोयमा ! सादिए अपज्जवसिए । विधः तद्यथा-अनाद्यपर्यवसितोऽनादिसपर्यवसितः, सादिसप. यवसितश्च । नत्र यः कदाचनापि सम्यक्त्वं नावाप्स्यति सोऽ अन्नाणी णं पुछा। गोयमा ! अन्नाणी, मतिअन्नाणी नाद्यपर्यवसितः, यस्तु सम्यक्त्वमासाद्य नूयोऽपि मिथ्यात्वं या- मुयअन्नाणी तिविहे पन्नत्ते । तं जहा-अणादिए वा ति स सादिसपर्यवसितः। सच जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तदनन्तरंक- अपज्जवसिए, अणादिए का सपजवसिए, सादिए स्याविनूयः सम्यक्त्वावाप्तिः। उत्कर्षतोऽनन्तं कालम् । तमेवा का सपज्जवसिए । तत्य णं जे से सादिए नन्त कालं द्विधा प्ररूपयति-कालतः केत्रतश्च । तत्र कानतोऽनन्ता उत्सपिण्यवसर्पिणीर्यावत्, केत्रतोऽपाई पुद्रलपरावर्त सपजवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं नकोसलं देशोनम । अत्र केत्रत इति निर्देशान् केत्रपुद्रलपरावर्तः परि- अणतं कालं अएंताम्रो अोसप्पिणिनस्सप्पिणीअो काप्रायो न तु व्यपुद्रलपरावर्तादयः । एवं पूर्वोत्तरत्रापि च सओ, खत्तो अबढे पोग्गलपरियह देसणं । विभंगनाजावनीयम् । (सम्मामिच्छादिछी णमित्यादि) सम्यग्मिध्या णी णं पुच्छा ? । गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसणं च दृष्टिर्यस्यासी सम्यग्मिध्याहृष्टिः । स च जघन्यतो वोत्कर्षतो वा अन्तर्मुहूर्त, परतोऽवश्यं तत्परिणामविध्वंसात, तथाजीवस्वा. तेत्तीसं सागरोवमाई देसणाए पुन्चकोमीए अन्नहियाई। जाव्यात् । गतं सम्यक्त्वद्वारम् । अज्ञानी त्रिविधः तद्यथा-अनाद्यपर्यवसितः,अनादिसपर्यवसितः, (१४) इदानीं शानद्वारम् सादिसपर्यवसितश्च । तत्र यस्य न कदाचनापिहानलाभो नाणीणं भंते! नाणि त्ति कामो केव चिरं होइ?। गोयमा!। भावी सोऽनाद्यपर्यवसितः। यस्तुकानमासादयिष्यति सोऽनादि सपर्यवसितः। यः पुनानमासाच नूयो मिथ्यात्वगमनेनाक्षानाणी दुविहे पहात्ते । तं जहा-सादिए वा अपज्जवसिए,सा- नित्यमधिगच्छति स सादिसपर्यवसितः । स च जघन्येनान्तदिए वा सपज्जवसिए । तत्थ एंजे से सादिए सपज्ज- मुहर्स, परतः सम्यक्त्वस्यासादनेनामानिवपरिणामापगवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, नकोसेणं गवढि सागरो मसम्भवात, उत्कर्षतोऽनन्तं कालमित्यादि प्राम्यत्त त ऊर्द्धमवश्यं सम्यक्त्वावाप्रशानित्वापगमात् । एवं मस्यवमाइं सातिरेगाइं । आभिणिबोहियनाणी णं पुच्छा । गो शानी श्रुताहानी च त्रिविधो प्रावनीयः । विभायमा ! एवं चेव । एवं सुयनाणी वि । ओहिनाणी वि एवं| कानी जघन्यत एक समयम् । कमिति चेत्, नुच्यते-कथित चेव,नवरं जहन्नेणं एक समयं । मणपज्जवनाणी णं भंते ! | तिर्यकपञ्चन्द्रियो मनुष्यो देवो वा सम्यम्हाष्टित्वादवधिज्ञानी पुच्चा गोयमा! जहन्नेणं एगं समयं, नकोसेणं देणं पु.] सन् " सन् मिथ्यात्वं गतः, तस्मिंश्च मिथ्यात्वप्रतिपत्तिसमये मिथ्याव्वकोडिं ॥ त्वप्रभावतोऽवधिज्ञानं विनाशानभूतमाद्यत्रयमझानमपि भव ति, मिथ्यात्वसंयुक्तमिति वचनात् । ततोऽनन्तरसमये देवस्य (नाणी ण नंते!इत्यादि)ज्ञानमस्यास्तीति,"अतोऽनेकस्वरात्" मरणेनान्यथा वा तद्विभङ्गमकानं परिपतति, तत एवमकस श६॥ इति श्न् प्रत्ययः । स द्विधा-साद्यपर्यवसितः,सादिसपर्यव- मयता विभागानस्य चत्कर्षतस्त्रायास्रशत्सागरोपमाणि देसितश्च । तत्र केवाज्ञानापेक्कया साद्यपयर्वसितः, प्रतिपाताभा- शोनपूर्वकोट्यभ्यधिकानि । तथादि-यदि कश्चिन्मिथ्याधिवात,शेषज्ञानानां प्रतिनियतकाबनावात् स जघन्यनान्तर्मुहर्त,प- स्तिर्यक्पश्चेन्जियो मनुष्यो वा पूर्वकोट्यायुः कतिपयवर्षातिरतो मिथ्यात्वगमनेन ज्ञानपरिणामापगमात्। उत्कर्षतः षट्पष्टिसा- क्रमे विभनयानी जायते , जानश्च सनप्रतिपतितविभङ्गज्ञान गरोपमाणि सातिरेकाणि यावत्तानि सम्यम्हरिव नावनीयानि, एवाविग्रहगत्या सप्तमनरकपृथिव्यां प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थि. सम्यग् रेव झानित्वात्। आजिनिबोधिकमानिसत्रे-(पवंचवाति) तिको नैरयिको जायते, तदा प्रवति यथोक्तमुत्कृष्टमा Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५६) कायट्टि अभिधानराजेन्द्रः। कायहि मम् , तत बर्द्ध तु सम्यक्त्वप्रतिपस्याऽवधिज्ञानभावतः स- नाविशिष्टत्वादवधिशानिनोऽवधिदर्शन तुल्यमिति, तदप्यवधिबथाऽपगमावा तद्विभङ्गशानमुपगच्छति । गतं शानघारम्। । दर्शनमुच्यते,न विनङ्गदर्शनमिति। माह मूलटीकाकारोऽप्येतद्भा. (१५) श्दानी दर्शनद्वारम; तत्रेदमादिसूत्रम बनायाम- "दंसणं च विनंगी होणजाता तुम्खमेव प्रतोचेषगवट्ठी श्रो साइरेगाओ" इति । ततोऽस्माभिरपि विजनेऽवधिदर्शनं जाचकादंसणी णं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! जहश्रेणं अं वितम् । कामप्रन्थिकाः पुनराहुः यद्यपि साकारतरविशेषमाधेतोमुलुत्तं नकोसेणं सागरोवमसहस्सं सातिरगं । अचक्खु- न विभङ्गकानमवधिदर्शनं च पृथगरित, तथाऽपिम सम्पग नि. दसणी वं ते ! पुच्चा गोयमा! अचखुदंसणी दुविहे श्वयो, विभङ्गानेन मिथ्यारूपत्वात नाप्यवाधिदर्शनेन,तस्यामापसचे। तं जहा-माणादिए वा अपज्जवसिए,प्रणादिए वा कारमात्रत्वाद्,अतः किं तेन पृथग् विवक्तितेनापीति?,तदनिप्रा. येण न विनावस्थायामवधिदर्शनेन । नचेतत्स्वमनीषिकाकसपज्जवसिए । ओहिदसणी णं पुच्छा। गोयमा ! जह ल्पितम, पूर्वसरिनिरप्येवं मतविनागस्य व्यवस्थापितत्वात् । अणं इक्कं समयं, उक्कोसेणं दो गवट्ठीसागरोवमाणं साति उक्तं च विशेषवत्यां जिनभद्रगणिकमाश्रमणपूज्यपाद:रेमाणं । केवलदसणी णं पुच्छा। गोयमा ! सादिए अप "सुत्तं विभंगस्स वि, परूवियं श्रोहिदसणं बहुसो। ज्जवसिए। कोस पुणो पडिसिक, कम्मपगडीण पगरणम्मि?॥१॥ इह यदा श्रीन्छियादिश्चतुरिन्छियादिपत्पद्य तत्र चान्तर्मुहूर्त विनंगे वि दरिसणं, सामनविसेसविसयभो सुत्ते । स्थित्वा भूयोऽपि त्रीन्छियादिषु मध्ये उत्पद्यते, तदा चक्कुदर्शनी तं च विसिटुमणगा-रमेत्ततो वि हि विनंगाणं ॥२॥ अन्तर्मुदतै बज्यते. उत्कर्षतः सातिरकें सागरोपमसहस्रं, तच. कम्मपगडिमयं पुण, सागारेयरविसेसना वि । नुरिन्द्रियतिर्यकपञ्चेन्द्रियनैरयिकादिभवभ्रमणेनावसातव्यम् । न विभंगनाणदंसण-विसेसणमणिस्थियत्तणो"॥३॥ इति । प्रचक्षुर्दशनी अनाद्यपर्यवसितः-यो कदाचिदपि न सिद्धिभा- अन्ये तु व्याचक्वते किं सप्तमनरकपृथिवी निवासिनो नारबमधिगमिष्यति, यस्त्वधिगन्ता सोऽनादिसपर्यवसितः। त ककल्पन या सामान्येनेव नारकतिरामरभवेषु पर्यटन्तः खथा-तिर्यपञ्चन्छियो मनुष्यो वा तथाविधाध्यवसायावधिना- ल्ववधिविभङ्गा पतावन्तं कालं भ्रमन्ति, तत ऊर्द्धमपवर्ग इति । ऽवधिदर्शनमुत्पाद्यानन्तरसमये यदि कासं करोति तदाऽवधिद- केवलदर्शनसूत्रं केवलज्ञानिनः सूत्रबद्भायनीयम् । गतं दर्शशनं प्रतिपतति, तदाऽवधिदर्शनिन एकसमयता, उत्कर्षतो- नद्वारम्। ऽवधिदर्शनी द्विषट्पटिसागरोपमाणीति सातिरेकः । कथमिति (१६) इदानीं संयमद्वारम्चेत्,उच्यते-दह कश्चिद्विलनशानी तिर्यपश्चन्छियो मनुष्यो वा संजएणं भंते ! पुच्छा?। गोयमा !जहणं एकं समयं, अप्रतिपतितविभज्ञान एवाविग्रहगत्याऽधःसप्तमनरकपृथिव्यां प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थिति रयिको जातः, तत्र चोवर्सनाप्र. उकोसेणं देसूणं पुवकोमि?। असंजए एं भंते! पुच्छा।गोस्थासत्तिकाले सम्यक्त्वमुत्पाद्य ततः परिचष्टः, ततोऽप्रतिपतितेन यमा! असंजएतिविहे पप्पत्ते । तं जहा-अणादिए वा अपज्जविभाज्ञानेन पूर्वकोट्यायुकेषु तिर्यकपश्चेन्द्रियेषु समुत्पन्नः, तत्र बसिए,अणादिए वा सपज्जवसिए,सादिए वा सपज्जवसिए। परिपूर्ण स्वायुः प्रतिपाल्य पुनरप्रतिपतितविना एवाधःसप्तमपृथिव्यां प्रयस्त्रिंशत्मागरोपमस्थितिको नैरयिको जातः ; त. तत्थ णं जे से सादिए सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहप्रापि चोकृस्य प्रत्यासत्तौ सम्यक्त्वमासान परित्यजति, ततो- तं, उक्कोसेणं अणतं कालं, अणंताओ प्रोसप्पिणिनस्सभूयोऽप्यप्रतिपतितविभङ्ग एष पूर्वकोट्यायुष्केषु तिर्यकपश्चेन्द्रि- प्पिणीओ कामओ, खेत्तमो अवर्ल पोग्गलपरियह देसूर्ण। येषुजातः,तदेवमेकपदरष्टिसागरोपमाणामभूत्, सर्वत्रच ति. संजयासंजए णं पुच्छा ? । गोयमा ! जहरेणं अंतामुलुत्तं, यकृत्पद्यमानो विप्रहेणोत्पद्यते, विग्रहे विभङ्गस्य तियछु मनुष्यपुच निषेधातायवक्ष्यति-"विनंगनाणी पंचेदियतिरिक्खजोणि नकोसेणं देसूणं पुचकोडिं । णो संजए जो असंजए णो या मासा आहारगा" इति। आह-किं सम्यक्त्वमेषोऽपान्तराले संजयासंजए एं पुच्छा। गोयमा ! सादिए अपजवसिए।। प्रतिपचते? उच्यते-ह विजङ्गस्य सत्कर्षतोऽपि त्रयविंशत्साग. जघन्यत एकसमयता संयतस्य,चारित्रपरिणाम समय एव करोपमाणि देशोनपूर्वकोट्याधिकानि । तथाचोक्तं प्राक-"विनं. स्यापिकासकरणास्।असंयतस्तु त्रिधा-अनाद्यपर्यवसितोऽनादिगनाणी जहणं एक समय, उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोयमाई सपर्यवसितः, सादिसपर्यवसितश्च । तत्रयःसंयम कदाचनापि देसूबाई पुष्यकोडीनो अम्भहियाई" इति। तत एतावन्तं काल. नप्राप्स्यति सोऽनाद्यपर्यवसितः, यस्तु प्राप्स्यति सोऽनादिपर्यवमविजेदेन विभास्याप्रमाणत्वात् अपान्तराले सम्यक्त्वं प्रति. सितः, यस्तु संयमं प्राप्य ततः परिभ्रष्टः स सादिसपर्यवसितः। पचताततोऽप्रतिपतितविभङ्ग एवमनुष्यत्वमवाप्य संयम पाल- सच जघन्येनान्तर्मुहूर्त, ततः परं कस्यापि पुनरपिसंयमप्रतिपयित्वाद्वी वारी विजयादिषूत्पद्यमानस्य द्वितीया षट्पष्टिः सा- सिभावात् । उत्कर्षतोऽनन्तकालमित्यादि प्राग्वत् । तत कर्द्धमगरोपमाणां सम्यग्दष्टेभवति । एवं वे षट्पष्टिसागरोपमाणाम- मवश्यं संयमप्राप्तिः। संयतासंयतदेशविरतः, सच जघन्यता:वधिवशनस्य । अथ विभावस्थायाममवधिदर्शनं कर्मप्रकृत्या- प्यम्तर्मुहूर्त, देशविरतिप्रतिपत्युपयोगस्य जघन्यतोऽप्यन्ताहदिषु प्रतिषिचं, ततः कथमिह विभने तज्ञाव्यते । नैष दोषः । र्तिकत्वात्। देशविरतिस्तर्हि विवित्रिविधादिभङ्गबहुला.ततसूत्रे विनोऽप्यवधिदर्शनस्य प्रतिपादितत्वात् । तथा यं सूत्रा- स्तत्प्रतिपत्तो जघन्येनाप्यन्तर्मुहर्त लगति, सर्वविरतिस्तु सर्वभिप्राया-विशेषविषयं विभमान,सामाम्यविषयमवधिदर्शनम्। सावधमहं न करोमीत्येवंरूपा, ततस्तत्प्रतिपत्योपयोग एकसायथाहि सम्यमधिशेषविषयमवधिक्षानं सामान्यविषयमधि- मायिकोपि भवतीति प्राक् संयतस्य एकसमयतोक्ला । यस्तु न दर्शनमुच्यते,केववं विनाशानिनोऽप्यवाधिदर्शनमनाकारमात्रत्वे- संयतो, नाप्यसंयतो, नो संयतासंयतः,ससिति साचपर्य Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायहि अभिधानराजेन्द्रः। कायट्टि घसित इति । गत संयमद्वारम् । प्रज्ञा १८ पद । (निर्ग्रन्थानां मा! अजहन्नमाणकोसेणं तिनि समया। अजोगिभवत्थकेवकायस्थितिः 'निगंथ' शब्दे वक्ष्यते) लिणाहारए णं पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेण विउकोसण इदानीमुपयोगद्वारम् । तत्रेदमादिसूत्रम् वि अंतोमहत्तं । सागारोवउत्ते ण भंते ! पुच्छा ?। गोयमा! जहन्त्रेण वि | केवझिसूत्रं सुगमम् । बनस्थाऽनाहारकसूत्रे- "उक्कासेणं दोसनकोसेण व अंतोमुहुन अणागारोवउत्ते वि एवं चेव ।। । मया इति"। त्रिसामायिकी विग्रहगतिमधिकृत्य चतुःसामा( सागरोबउत्ते गं नंते ! इत्यादि )ह संसारिणामुपयोगः यिकी पञ्चसामायिकी च विग्रहगतिन विवक्तितेत्यभिहितमनसाकारोऽनाकारो वा जघन्यतोऽप्यान्तर्मुहर्तिक जत्कर्षतोऽवि । न्तरम् । सजोगिजवस्थकेवल्यनाहारकसने-त्रयः समया अgसतः मूत्रद्वयेऽवि जघन्यत उत्कर्पतश्चान्तर्मुहर्तमुक्तम् । यस्तु केव- सामायिकस्य केलिसमुद्घातस्य तृतीयचतुर्थपञ्चमरूपाः । लिनामुक्त एकसामायिक नुपयोगःस शहन विवक्कित इति। गत. उक्तं चमुपयोगद्वारम् । "दण्डं प्रथमलमयके, कपाटमथयोत्तरे तथा समये । (१७) इदानीमाहारद्वारम; तत्रेदमादिसूत्रम् मन्थानमथ तृतीये, बोकव्यापी चतुर्थे तु ॥१॥ संहरति पञ्चमे त्व-न्तराणि मन्धानमथ तथा पष्टे । आहारए ण नंते ! पुच्छा। गोयमा ! आहारए दविहे सतमके तु कपाट, संहरति ततोऽष्टमे दण्डम ॥२॥ पाणते । तं जहा-उनपत्थ याहारए य, केवन्निाहारण | श्रौदारिकप्रयोक्ता, प्रथमाष्टमसमययोरसाधिष्ठः। य । उ उमत्याहारए णं जते । उउमत्याहारए त्ति कालओ मिश्रौढारिकयोक्ता, सप्तमपष्ठद्वितीये तु ॥ ३ ॥ केव चिरं होड ?। गायमा! जहन्ने खड्डागभवग्गहणं उस- कार्मणशरीरयोगी, चतुथके पञ्चमे तृतीये च । समयत्रयेऽपि तस्मिन्, भवत्यनाहारको नियमात्" इति । मकाणं, उकोसेणं असंखेज कालं असंखेजाओ ओसप्पि गतमाहारद्वारम्। णि उस्सप्पिणीयो कालो,खेतो अंगुलस्म असंखेजजागं । केवलियाहारए णं भंते ! केवलिआहारए त्ति का (१७) अधुना नापकानापकद्वारमाहलो केव चिरं होइ ?। गोयमा जहन्नेणं अतोमुहत्तं,उकोसे जासए णं पुच्छा। गोयमा! जहन्नेणं एक ममयं, उकोमेणं एणं देसूण पुवकोमि । अपाहारएणं नंते ! अणाहारए त्ति | अंतोमुहुत्तं । अभासएणं पुच्चा ? गोयमा! अभासए मुविहे पुच्छा। गोयमा! अगाहारए दविहे पएणते। तं जहा- पहात्ते । तं जहा-सादिए वा अपज्जवसिए,माइए वा सपउउमत्य प्रणाहारए य, केवग्निप्राणाहारए य ॥ ज्जवसिए । तत्य णं जे से सादिए मपज्जवसिए से"श्राहारए ण ते इत्यादिसुगम, नवरं “जहन्नेणं खुट्टागभवग्ग जहन्नेणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं वाण स्मइकालो। हणं सुसमऊणमिति" इह यद्यपि चतुःसामायिकी च विग्रहग- (भासए णं नते ! इत्यादि । इह जघन्यत एकसमयता, न. निवनि । अाह च-" उजुया य एगवंका, मुहतो वंका गत। स्कर्पत श्रान्तर्मुहूर्तकता च वाग्यागिन इवाचमातव्या । अभाविणिहिछा। जुजर तिचऊबंका, वि नाम चउपंचसमया- | पकत्रिविधः। तद्यथा-अनाद्यपर्यवसितः, अनादिसपर्यसितः, ओ" ॥१॥ इति । तथापि बाहुल्येन द्विसामायिकी त्रिसामा-| सादिसपयवलितश्च । तत्र या न जातुचिदपि भापकत्वं बयिकी वा प्रवर्तते, न चतुःसामायिकी पञ्चसामायिकी वा प्रव- प्स्यते सोऽनाद्यपर्यवसितः , यस्त्ववाप्स्यति सोऽनादिसपर्यतते, ततो न ते विवक्तिते ! तत्रोत्कर्षतस्त्रिसामायिक्यां विग्रह- वसितः, यस्तु भापको भूत्वा नूयोऽप्यभापको भवति स सागतौ द्वावाद्यो समयावनाहारक इत्याहारकत्यचिन्तायांक्षुल्लक. दिपर्यवसितः, स च जघन्यनान्तमुहर्ने भापित्वा किञ्चित्कानवग्रहणं ताज्यां न्यूनमुक्तम, ऋजुगतिरेकवक्रगतिश्च न विव. लमवत्थाय पुनर्भापकत्वोपलब्धेः । अथवा द्वान्छियानिभापविता, सर्वजघन्यस्य परिचिन्त्यमानत्वात् । उत्कर्षतोऽसंख्येय क एकेन्द्रियादियभाषकेषूत्पद्य तत्र चान्तमुहत जीवित्वा कालमित्यादि सुगम, नवरम् एतावतः कालादर्समवश्यं विग्रह- पनरपि यदा द्विन्द्रियादिरेयोत्पद्यते तदा जघन्यतोऽन्तमहर्नमगनिर्भवति, तत्र चानाहारकामत्यनन्तं काबामति नोक्तम् ।। भापक उत्कर्षतो वनस्पतिकाल म; स च प्रागेवोक्त इति नोपदछउमत्य आणाहारए णं भंते पुच्चा। गोयमा! जहन्नोणं एक इयते । गतं नाषकाभापकद्वारम् । समय, उकोसेणं दो ममया । केवनिअणाहारए णं ते ! पु इदानीं परीतद्वारमछा। गोयमा ! केवलिअणाहारए दबिहे पत्ते । तं जहा-सि- | परित्ते पुच्चा ? । गोयमा ! परित्ते मुविहे पत्ते । तं धकेलिप्रणाहारए य, भवत्यकेनिअणाहारए या सिद्धके जहा-कायपरिते य, संसारपरित्ते य । कायपरित्ते णं ववित्रागाहारगणं पुच्चा?। गोयमा! सादिए अपज्जवसिए । पुच्छा ? । गोयमा ! पुढविकासो असंवेज्जाओ प्रोसमनत्यकेवनिप्रणाहारए नंते !पुच्गोयमा!जवत्य- प्पिणि उस्सप्पिणीयो । संसारपारते । पुच्चा ? । केवनिणाहारए दुविहे पाते। तं जहा-मजोगिभवत्यके गायमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, नकोसेणं अयंत काझं बलिअगाहारए य, अजोगिजयत्यकेवालणाहारए य।। जाव अबळं पोग्गनपरियट्ट देमूणं । अपरित्ते णं पुच्छा ? सजोगिनवत्थकेवाल अणाहारए णं भंते ! पुच्छा । गोय- गोयमा ! अपरित्ते मुविहे पएणत्ते । तं नहा-काय Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायहि अभिधानराजेन्द्रः। कायहिद अपरिसे य,संसारअपरित्ते य । कायअपरित्ते णं पुच्छा। संझिसूत्रे-जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तमिति । यदा कश्चिजन्तुरसंशित्य गोयमा जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्मइकालो। संसा उत्त्य संशिषु समुत्पद्यते, तत्र चान्तमुहर्त जीवित्वा भूयोऽपि असंझिषूत्पद्यते तदा लभ्यते । उत्कृष्टं सुगमम् । असंही रअपरित्ते पुच्छा। गोयमा! संसारअपरित्ते विहे पामत्ते । जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम, स चैकः कश्चित्संशिय उद्वत्त्य संझिषूत्पतं जहा-प्रणादिए वा अपज्जवसिए,अणाइए वा सपज्जवास- द्यते, तत्र चान्तर्मुहर्त स्थित्वा भूयोऽपि संशिषु मध्ये समागए । नापारत्ते नोअपरित्ते णं पुच्छा ? । गोयमा ! सादिए चति, उत्कर्षतो वनस्पतिकालो, वनस्पतिकालस्याप्यसङ्ग्रहणेन श्रपज्जवसिए । पज्जत्तए ण पुच्छा। गोयमा ! जहन्नणं ग्रहणात । नोसंशी नोअसंही च सिद्धः, सच साद्यपर्यवसितः। अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसतपत्तं सातिरेगं । अप भवसिद्धिकद्वारम्ज्जचए णं पुच्चा। गोयमा ! जहन्नेण वि उक्कोसेण वि भवसिहिए णं भंते ! पुच्छा। गोयमा! अणादिए सपअंतोमुहुत्तं । नोपज्जत्तए नोअपज्जत्तए णं पुच्छा ?। गोयमा ! जबसिए। अभवसिफिएणं पुच्छा ?। गोयमा ! श्रणादिए सादिए अपज्जवसिए । सुहुमेणं भंते ! पुच्छा। गोयमा ! अपज्जवसिए । नोभवसिसिए नोअजवसिद्धिए पुच्छा। जहन्नेणं अंतोमुहृत्तं, नकोसेणं पुढविकालो । बादरे णं पु गोयमा ! सादिए अपज्जवसिए॥ च्छा। गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमदुत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं जाव, खेत्तओ अंगुनस्स असंखेजभागं । नोसुटुमे ( भवसिद्धिए णमित्यादि ) नवसिम्यिस्यासौ नवसिद्धिकः, भव्य इत्यर्थः। स चानादिसपर्यवसितः,अन्यथा भव्यत्वायोगात् । नोबादरेणं नंते ! पुच्छा?। गोयमा ! सादिए अपज्जवसिए । अन्नवसिछिकोऽभव्यः,स चानाद्यपर्यवसितः,अन्यथाऽजव्यत्वापरीतो द्विधा-कायपरीतः, संसारपरीतश्चातत्र यः प्रत्येकशरी योगातू । नोभव्यो नोऽभव्यश्च सिद्धः, ततः साद्यपर्यवसितः। रीस कायपरीत, यस्तु सम्यक्त्वादिना कृतपरिमितसंसारस अस्तिकायाः पञ्चापि सर्वकालभाविनः । संसारपरीतः। कायपरीतो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम्, सच यदा कश्चि- धम्मत्यिकाए णं पुच्चा। गोयमा! सव्वकं एवं जाव अनिगोदात्त्य प्रत्येकशरीरिषु समुत्पद्य च तत्र चान्तर्मुहूर्त स्थि. कासमए । चरिमे णं पुच्छा। गोयमा! अणादिए सपज्जवस्वाभूयोऽपि विग्रहेषूपधते, उत्कर्षतोऽसंख्येयं काबम, स चाऽसङ्ख्येयकालः पृथिवीकालो, यावान् पृथिवीकायिककालस्थिति सिए । अचरिमेणं पुच्छा । गोयमा ! अचरिमे दुविहे पम्सकालस्तावान् वेदितव्य इत्यर्थः। तमेव कारतोनिरूपयति-असंख्ये- ते । तं जहा-अणादिए वा अपज्जवसिए, सादिए वा या उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः। संसारपरीतो जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तम्, तत अपज्जवसिए । क मन्तकृत केववित्वयोगेन मुक्तिनावात्। उत्कर्षतोऽनन्त कालम। तमेव निरूपयति-"अणंतानो" इत्यादि प्राग्वत्, तत ऊर्द्धमव- श्रद्धासमयोऽपि प्रवाहापेक्षया,तत उक्तम्-"एवं जाव प्रद्धासमश्यं मुक्तिंगमनात् । कायापरीतोऽनन्तकायिकः, संसारापरीतः ५." चरमो नवो भविष्यति यस्य स हि भन्यो चरमः, तद्विपरीसम्यक्त्वादिना अकृतपरिमितसंसारः । कायापरीतो जघन्य- तोऽचरमः, स चाभव्यः, तस्य चरमभवानावात् । सिद्धश्च, तोऽन्तर्मुहर्तम, स च यदा कश्चित्प्रत्येकशरीरिज्य उदृन्य नि- तस्यापि चरमत्वायोगात् । तत्र चरमोऽचरमोनादिसपर्यवसितः, गोदेषु समुत्पद्यते, ततश्चान्तमुहूर्त स्थित्वा भूयोऽपि प्रत्येकश- अन्यथा चरमरवायोगात्। अचरमो द्विविधः, अनाद्यपर्यवसितः, रीरिपूत्पद्यते तदाऽवसातव्यः, नत्कर्पतो वनस्पतिकालो वाच्यः ।। सादिसपर्यवसितश्च । तत्रानाद्यपर्यवसितोऽजव्यः; साधपसच प्रागेवोपदर्शितः, तत ऊद्ध नियमात्तत उत्तेः। संसारा- यवसितः सिद्ध इति । प्रज्ञा० १० पद । पं० सं० । दर्श०। परीतोद्विधा-अनाद्यपर्यवसितः-योन कदाचनापि संसारव्यव (२०) उदकगर्भादीनामबछेदं करिष्यति; यस्तु करिष्यति सोऽनादिपर्यवसितः । नोपरीतो नोऽपरीतश्च सिद्धः साद्यपर्यवसित पच । पर्याप्तद्वारे-प- नदगगन्ने णं भंते ! उदगगब्ने त्ति कालो केव चिर्याप्तो जघन्येनान्तर्मुहूत्तम्, तत कर्द्धमपर्याप्तत्वप्रसक्तः। उत्कर्षतः | रं होइ । गोयमा! जहन्नेणं एक समय,नकोसं बम्मासा । सातिरेक सागरोपमशतपृथक्त्वम्, एतावन्तं कालं पर्याप्तब्धा- तिरिक्खजोणियगब्ने णं जंते ! तिरिक्खजोणियगम्भे त्ति वस्थानसंभवात् । अपर्याप्तो जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्तम, तत ऊईमवश्यमपर्याप्तत्वध्युत्पत्तेः । नोपर्यानो नोऽपर्याप्तश्च फालो केव चिरं हो?। गोयमा ! जहन्नमंतोमहत्तं,उकोसिकः, स च साद्यपर्यवसितः, सिम्त्वस्याप्रच्युतेः । सूक्ष्मद्वारे सं अट्ठ संवच्छराई । मास्सीगब्भे णं ते ! माणुस्सीगसूक्ष्मसूत्रे-उत्कर्पतः पृथिवीकाब इति यावान् पृथिवीकायस्थि- ब्ने ति कालो केव चिरं होई । गोयमा ! जहन्न अंतिकालस्तावान् वक्तव्यः। बादरसूत्रं सुगमम्। अनयोश्च भावना तोमुद्रां, नकोसं बारस संबच्छराई । कायभवत्थे णं भंते ! प्रागेव कृता । नोसूक्ष्मो नोवादरश्चसिद्धः, ततः साद्यपर्यवासतः। कायनवत्थे त्ति कालओ केव चिरं होइ?। गोयमा जहम(१६) संझिद्वारम् मंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं चउवीसं मंचच्चराइं। मणुस्सपचिंदियमन्नी णं भंते ! पुच्छा?। गोयमा! जहन्नणं अंतोमुटुत्तं, तिरिक्वजोणियवीए णं नंते ! जोणियब्जए केवइयं कानकोसेणं वास्सकालो। नोमन्नी नोश्रसन्नी णं नंते! पु. लं संचिहा। गोयमा ! जहन्नेणमंतोमदत्तं नक्कोसेणं बाच्छा ?। गोयमा ! सादिए अपज्जवमिए । रस मुहुत्ता। ११४ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायहि अभिधानराजेन्द्रः। कायमणिया परिचारणायां किल गर्भः स्यादिति गर्भप्रकरणम्, तत्र (उदग- तो। हिंसाभावे विन सो, कमसामइओ पमायानो" ॥१॥ गम्भे पां),कचित् 'दगगम्भे ण ति' दृश्यते । तत्र नदकगर्नः काला- श्राव०६०। अयं च सामायिकस्यातिचारस्तृतीयः । ध० २ न्तरण जलप्रवर्पणहेतुपुद्गलपरिणामः, तस्य चावस्थानं जघन्यत अधि० । प्रव० । उपा०। एकः समयः,एकसमयानन्तरमेय प्रवर्षणात्। उत्कर्षतस्तु परमा कायधो -देशी-कामिजुत्राख्यपक्किणि, दे० ना०२ वर्ग। सान्,षाममासानामुपरि वर्षणात्। अयं च मार्गशीर्षपौधादिषु बैशाखान्तेषु सन्ध्यारागमेघोत्पादादिसिङ्गो भवति ।यदाह-"पापे कायपमज्जाण-कायप्रमार्जन-न० शरीरशोधने, “जे भिक्खू विसमार्गशीर्षे, सन्ध्यारागोऽम्वुदाः सपरिवेषाः। नात्यर्थ मार्गशिरे, नूसायमियाए अप्पणो कार्य प्रामज्जेज वा पमज्जेज वा श्राशीतं पाषेऽतिहिमपातः" ॥१॥ इत्यादि । (कायनयत्ये एभते! मजत वा पमज्जत वा साज मजतं वा पमज्जंतं वा साइज्जई" ॥ १०७ ॥ नि0 नू०१५ उ०। इत्यादि ) काये जनन्युदरमध्यव्यवस्थितनिजदेह एव योजयो काय परिचा (या) रग-कायपरिचारक-पुं० । परिचरन्ति सेवजन्म स कायनया, तत्र तिष्ठति यः स कायनवस्था, स च का- ते स्त्रियमिति परिचारकाः, कायतः परिचारकाः कायपरिचारयजवस्थ इति, पतन पर्यायेणत्यर्थः । (चउवीसं संचच्चराई का "दोस कथ्येसु देवा कायपरियारगा पामत्ता। तं जहा-सोति)। खोकाये द्वादश वर्षाणि स्थित्वा पुनर्मृत्वा तस्मिन्नेवा हम्मे चेव ईसाणे चेव"। स्था०२ ० ४ उ० । कायेन शरीरेण स्मशरीरे उत्पद्यते द्वादशवर्षास्थतिकतया इति,एवं चतुर्विंशतिघर्षाणि नवन्ति । केचिदाहुः-द्वादश वर्षाणि स्थित्वा पुनस्तत्रै मनुष्यस्त्रीपुसानामिव परिचारो मैथुनोपसेवनं येषां ते कायप रिचारकाः। परिचारकदेवनेदे, ते हि परस्परोच्चावचमनःचान्यबीजेन तस्वीरे उत्पद्यते द्वादशवपस्थितिरिति । भ०२ संकल्पमात्रेणैव कायपरिचारादनन्तगुणं सुखमाप्नुवन्ति,तृप्ताश्च श०५ उ०। (पुलानां कायस्थितिः 'पुग्गल' शब्दे वक्ष्यते) तावन्मात्रेणैवोपजायन्ते । प्रज्ञा० ३४ पद । कायश्किाल-कायस्थितिकाल-पुo कायानां पृथिवीकायादी कायपाइ (ण)-कायपातिन्-त्रि० । कायमात्रेणैव सावकिनामन्यतमस्मिन् मृत्वा मृत्वा तत्रैव भूयो भूयः स्थितिः,तस्याः कामः कायस्थितिकालः । कालभेदे, प० स०४ सूत्र ।। यावतारिणि, "कायपातिन एवेह, बोधिसत्वाः परोदितम् । म चित्तपातिनस्ताव-देतदत्रापि युक्तिमत्" ॥२७१॥ यो०वि०। कायणिरोह-कायनिरोध-पुं० । ऊद्धस्थानादिलकणे कायस्य कायपाय-काचपात्र-न० । काचमये पात्रे, प्राचा० २ ०६ निरोधे, पं.व.२ द्वार । मनोवाक्कायानामकुशलानामकरणे अ०१०। कुशलानामपि निरोधे, श्राव०४ अ०। कायपिउच्छा-देशी-कोकिलायाम, दे० ना० २ वर्ग। कायतिगिच्छा-कायचिकित्सा-स्त्री० 1 ज्वरादिरोगग्रस्तशरीर-1 कायपुध-कायपुण्य-न० । कायन पर्युपासनाद् यत्पुण्यं तत्पुस्य चिकित्सा रोगप्रतिक्रिया यत्राजिधीयते तत्कायचिकित्सैव । एयम् । पुण्यभेदे, स्था० ६ ठा। आयुर्वेदाङ्गे, तत्र हि मध्याह्नसमाश्रितानां ज्यरातिसारादीनां श कायप्पओगपरिणत-कायप्रयोगपरिणत-त्रि० । प्रौदारिकादिमनार्थ चिकित्साऽनिधीयते । प्रश्न. ३ श्राश्र० द्वार। काययोगेन गृहीत औदारिकादिवर्गणाव्ये औदारिकादिकाकायतिज-कायतीय-त्रि० । कायतरणीय शरीरतरणयोग्ये, | यतया परिणते, न०८ श०१ उ०। दश०७०। कायवंऊ-कायबन्ध्य-पुं०। षट्त्रिंशत्तमे महाग्रहे,"दो काया " कायंदी-देशी-परिहासे, दे० ना २ वर्ग। स्था० २ ० ३ ०। कायदम-कायदएड-पुं० । काय एव दण्डः कायदण्डः, कायबह-कायवध-पुं० । वनस्पत्यादिवधे, “कृपोदाहरणादिर कायेन वा दुष्प्रयुक्तेनात्मनो दरामः । दण्डभेदे, स. १ कायवधोऽपि गुणवान" । पो. विव० । जीवनिकाहिंसासम० । "कायदमो- कायेण असुन्नपरिणतो पमत्तो वा जं याम्, पञ्चा०४ विव०। करोति सो कायदंडो, दिहती-चंडरुद्दो पायरिओ उजेणिवाहिरगामातो अणुयाणपेक्ख ओ अागतो, सोय अतीव रोसणो, कायभवत्य-कायनवस्थ-पुं०। काये जनन्युदरमध्यव्यवस्थिततत्थ य समोसरणे गणियाघरविहेडितो जातिकुलादिसंपालो निजदेह एव यो भवो जन्म स कायभवः, तत्र तिति यःम इब्जदारो से हो बछितो। तत्थऽहोहिं असद्दहंतेहिं चंडरुद्दस्स कायभवस्थः । मातुरुदरवर्तिनि जीवे, भ०२ श०५०। पास पसिना-कलिणा कलिप्पसनो त्ति से तस्स उवहितो। कायभाव-काचनाव-मुं० । काचध, श्राव० ३ ० । तेण से ताहे चव लोय कात्रो पञ्चाश्तो। पच्चूसे गाम वच्चंताणं कायमत-कायवत-त्रि० । कायो महाकायः प्रांशुत्वं, तद् विद्यते चारुहो पायरे प्रावधितो, रुट्ठो सेहं मंमएण मत्थए अभिहण- येषां ते कायवन्तः । सूत्र०२ श्रु.१०। ति; कहं ते पत्थरो न दिदो त्ति सेहो सम्म सहति, कालेणं कायमगया-काचर्माणका-खी० । काचाश्च त मण्यश्व का केवझणाणं चमरुद्दस्स चित्तं पासित्तं वेरग्गेणं केवलणाणं मणयः, कुत्सिताः काचमणयः काचमाणिकाः । भविमलअंतो एतेहिं दमाहिं जो मे जाव पुक्क" । आच० ४ अ०। काचमणिषु, आव०। कायदुक्कडा-कायदुष्कृता-स्त्री० । आसन्नगमनस्थानादिनि सुचिर पि अत्यमाणो, वेरुत्रिो कायमणिश्रउम्मीसो । मित्तायामाशातनायाम् , ध०२ अधि० । श्राव० । न नवेइ कायभावं, पाहन्नगुणेण निअएण ॥१॥ कायदुष्पणिहाण-कायदष्पणिधान-न० । कृतसामायिकस्या- कुत्सितकाचमणयः काचमणिकाः, तैरुत्प्राबल्येन मिश्रः काचप्रत्युपक्कितादिभूतलादी करचरणादीनां देहावयवानामनिभृत- मणिकोन्मिश्रः, नोपैति न याति काचभाव काचधमे, प्राधान्यस्थापने, उक्तञ्च-"अनिरिक्खियप्पमज्जिय-मिल्ने ठाणमासे-| विमलगुणेन निजेनात्मीयेन एवं सुसाधुरापि पार्थस्थादिभिः Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायमणिया साई सवपि शीलगुणेनात्मीयेन न पाइर्वस्थादिभावमुपै त्ययं प्रायार्थः । श्रव० ३ भ० । ( ४६३ ) अभिधानराजेन्द्र कायर - कातर - त्रि०1 ईषतरति स्वकार्य समाप्ति गच्छति । तृअच् । कोः कादेशः अधीरे, व्यसनाकुले च । वाचः । परीष दोपसर्गोपनिपाते सति । आचा० १०६ ०४ उ० हीनसाचे, उत्त० २० अ० । चित्तावप्रम्भवर्जिते, ज्ञा० १ अ० भ० । प्रश्न० । भीते, विवशे, चञ्चले च । के जले आतरति प्लवते न तु विशेषमति उपे, मस्यभेदे यत्र जातिवाद ङीष् । ऋषिभेदे, ततः गोत्रे नडा० फक् कातरायणः। तद्गोत्रापत्ये, पुं० | स्त्री० | जावे ष्यञ् । कातर्यव्याकुलतायाम, न० "कातकेवला नीतिः, शौर्य श्वापदचेष्टितम् । " तम् - कातरता । स्त्री० - कातरत्वम् । न० । तदर्थे, वाच० । कायरिय - कातरिक पुं० । श्रजीविकोपासकभेदे, भ० श० - ५ उ० । कायरिया फारिका स्त्री० मायायाम, "बिरया वीरा सि या, कोढकायरिया पीसणा I सूत्र० १ ० २ ० १ ३० । कायरो (देशी प्रिये दे० ना० २ वर्ष कायपण कायण ० शरीरशोधे, “दुषियो कामो तदुग्भवागंतु विणायचो ।" कायवणो दुविधो- तत्थेव काप उम्भव जस्स सोय तन्भवो आगंतुष्ण सत्थादिणा को जो सो भाग मो तस्य लेपो न कर्त्तव्यः नि० चू० ३ उ० । 3 जे जिक्खू दिया गोमयं पमिग्गाहेत्ता दिया गोमयं कार्यसि व झिपे वा विभिन्न वालिया या साइन ||२५|| जे निक्लू दिया गोमयं परिगाता र कार्यसि वर्ण आलिपेज वा लिपे या आतंवा विि बा साइज ||४०|| जे क्रिति गोमयं पभिग्गाचा दिया कार्यसि वर्ण लिंपेज्ज वा विलिपेज्ज वा प्रति वा बिलिन वा साइज || ४१|| जे भिक्खू रति गोपमिग्गात्ता रति कार्यसि वर लिपेज्ज वा विलिपेज्ज वापितं वा विलिंपतं वा साइज्जइ ॥ ४२ ॥ चकगतं उचारेय कायः शरीरं गोम येण श्रपि‍ सकृत, विलिपइ अनेकशः, श्रपरिवासिते मास. बहु परिवासिते चडनंगे चल तयाविसिा आणादिया दोसा । दिरातो गोमांचकमया तु जा को बुत्ता । एतो एगतरेणं, मक्त्ताऽणादिलो दोसा ॥ २१६ ॥ चक्कभयणा चडनंगो तत्तिय उद्देसए जा व्रणे बुत्तो इहं पिसच्चेव । तिब्बुपतितं दुःखं, अभिनो वेषणाएँ तिब्वाए। तं अहो अहितो दुक्खद्दि वासते सम्म || २१७ ॥ श्रव्वोच्छित्तिणिमित्तं, जीयट्ठाए समाहिदेउं वा । एतेहि कारणेहिं, जयणा आलिंपणं कुज्जा ॥ ११८ ॥ पूर्ववत् । " कायवायाम गोमय गणेश्मा बिही अभिववोसाऽसति, इतरे जवयोग कान गहणं तु । माहिस असती गवं अशातवत्थं च विसपाती।। २१८७५।। योसमेतं यहणं तस्यासति इरं चिरका वोलिरियं तं पिवओगं करेतुं गहणं, दिणसंसत्तं पि माहिसं महिलाकि छायायामि त्यर्थः । तं असुसिरं विसघाती नवति, आयवत्थं पुण सुसि रयरं स गुणकारी जे क्खूि दिया श्रवणजायं पमिग्गाहेत्ता दिया कार्यसवर्णपेिज वा विषेश का प्रति वा विलि वा साइज्जइ ॥ ४३ ॥ जे जिक्खू दिया आजेवण जायं पभिग्गाचा रति कार्यसि वर्ण लिंपेन वा विि पेज्ज वा आलिंपतं वा विलिपंतं वा साइज्जइ ॥ ४४ ॥ जे भिक्खु रचिले जाये पमिग्गाचा दिया कार्यसि वणं आलंया पेिज वा तं वा विलिपंत वा साइज्जइ ॥ ४५ ॥ जे भिक्खू रतिं लेवणजायं पडिमाहिता र कार्यसि व आविपेन वा चिक्षिपेज वा तिंवा विलियं वा साइन ।। ४६ ।। श्रावणजातं आलेवणप्पगारा । दियरातो लेवेणं, चउक्कजयगा उ जा व वृत्ता । एतो एवतरेणं, मक्खेचाऽऽणादिलो दोसा || २२० ॥ सो पुरण वो चउदा, समयो पायी विरेग संरोही | मछल्लि तुरमादी, प्रहारेणं इहं पगतं ॥ २२३ ॥ दणं जो उसमेति पाइणगं करेति चिरेण पुरुचिर दोसे वा ग्घिार अतिसारादी रोवेति, जावइश्रो वमबलिमादी सुरा बेहोस मकारमा इह अणादारिवं परि सातरस तिब्वप्पतितं दुक्खं, अभिभूतो वेयणाऍ तिव्वाए । अदीगो अव्वहितो तं दुक्खहि यास सम्मे ||२२२|| वोच्छित्तिणिमित्तं, जीयट्ठाए समादिहेतुं वा । ए कारणेहिं कप्पति जयणाएँ मक्सेतुं ।। २२३ ॥ " पूर्ववत् नि० ० १२० । कायवर - काचवर - पुं० । प्रधानकाचे, प्रश्न० ५ सम्ब० द्वार । कायवायाम - कायव्यायाम पुं० । कायते इति कायः शरीरं, तस्य व्यायामो व्यापारः काव्यायामः । श्रदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिविशेषे, " एगे कायवायामे कायव्यायाम भीहारिकादिनंदन प्रकारोऽपि जीवानन्तत्वेनानन्तभेदोऽपि वा एक एव कायव्यायामः सामान्यादिति । 3 एगे कायायामे देवासुराणं तंसि सि समसि । कायव्यायामः काययोगः, स चैषामेकदा एक एध, सप्तानां काययोगानामेकदा एकतरस्यैव नावात् यदाऽऽहारकप्रयोका प्रवति तदीदारिकस्यावस्थितस्य भू 1 ननु Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६४ ) अनिधानराजेन्द्रः । कायवायाम यमाणत्वात् कथमेकदा न काययोगद्वयमिति । यत्रो च्यते-सतोऽप्यौदारिकस्य व्यायामाभावादाहारकस्यैव च तत्र याप्रियमाणत्वादयदारिकमा व्याधियते तर्हि मिश्रयोगता भविष्यति केवलिमुद्धाते समापष्ठद्वितीयखमयेोदारिकमिश्रवत् तथा चाहार एवं सप्तविधका ययोगप्रतिपादनमनर्थकं स्यादित्येक एव कायव्यायाम इति, एवं कृत कियशरीरस्य चक्रादेरप्यौहारिक नियपारमेयध्यापारवश्याचे उजयस्य व्यापारयत्ये केवसमुद्रात योग मध्ये योगस्यादतमेवेति तथा काययोगस्यादारिकतया वैकियतया च क्रमेण व्याप्रियमाणत्वे आशुवृत्तितथा मनोयोग यदि यौगपद्यभ्रान्तिः स्यात्तदा को दोषति । एवं च काययोगकत्वे सत्यौदारिकादिकाययोगाहृतमनोद्रव्य बाग्द्रव्यसाचिव्यजातजीवव्यापाररूपत्वान्मनोयोगवाभ्योगयोरेकाययोगपूर्वतयाऽपि प्रागुक्तमेकत्वमवसेयामेति । अथ चेदमेव वचनमात्रं प्रमाणम्, आज्ञाग्राह्यत्वादस्य । यतः -"अणाभो अत्यो, आमा वेध सोच्यो। वितादितिय, कहाहिविराहणा श्यरा ॥१॥ इति । दृष्टान्तदान्तिकः, अर्थ इत्यर्थः । मनु सामान्याश्रयैकत्वेनैय सूपगमकं प्रविष्यतीति किमनेन वि शेषव्याख्यानेनेति । उच्यते नैवम्, सामान्यैकत्वेऽस्य पूर्वसूत्ररेवानिहितत्वादस्य पुनरुसादेवादि ग्रहणसम्यग्रहणयो के "> 1 प्रसंगाचेति इह व देवादिषण विशिष्ट संप तपेयामनेकश|ररचनेत्येकदा मनोयोगादीनामनेकरवं शरीरवद्भविष्यतीति प्रतिपत्तिनिरासार्थ न तु तिर्यग्नारकाणां व्यव दार्थ तिर्यग्वारका अपि वैमन्तावि क्रियायां शरीरानेको मानेक व्यपवेति णमपि व्याध्यमिति सत्यम्। किंतु देवानां वि शिष्टतरलब्धितया शरीराणामत्यन्तानकतेति तग्रहणम्, तथा प्रधानपणे इतर तीन वायाददोषः नरकादित्यक्ष देवादीनां प्रधानत्वं प्रतीतमेवेति तेषां मनःप्रभृतीनां य था प्राधान्यकृतः क्रमः प्रधानत्वं च बद्दल्पाल्पत रकर्मक्षयोपशमप्रभवलाभ कृतमिति । स्था० १ ० १ उ० । 1 कायविणय - कायविनय - पुं० । कायस्य विनयार्दे कुशलप्रवृतौ, स्था० ७ ० । कायनीरिय कार्यवीर्य न० और वले, सूत्र०१० श० । ('वीर' शब्देऽस्य विवृतिः) कायव्य-कर्तव्य - त्रि० । विधेये, पञ्चा० ६ विव । प्रव० पृ० नि० चू० | आचा० । कायसंकिलेस - काय संक्लेश-पुं० । कायः शरीरं, तस्य संक्ले. शः शास्त्राविरोधेन बाधनम् । अत्र तु तनोरचेतनत्वेऽपि शरीरश रीरिणोः कथञ्चिदभेदात् कायक्लेशोऽपि संभवत्येव । विशिटासनकरणेनाप्रतिकर्मशरीरत्व के शोल्लुञ्चनादिना च देहस्यौचि त्येन विवाधने बाह्यतपास, ध० १ अधि० । श्रयं च स्वकृतक्लेशानुभवरूपः, परीपहास्तु स्वपरकृत क्लेशरूपाः, इति कायक्लेशस्य परहेज्यो नेदः । ध० ३ अधि० । काय संध्या काय संपादनत्यानि कायसम्पद्" इति पतम् उत्तमरूपादी, द्वा० २६० कायसमय-कायसमय-पुं० । जीवेन कायस्य कायताकरणे, न० १३ श० ७ उ० । I कार कायसमयवित-कायसमयव्यतिक्रान्त-शि० जीन का यस्य कायताकरणलक्षणं समयं व्यतिक्रान्ते, " कायसमयविकं विकाए " कायसमचव्यतिक्रान्तोऽपि काय एव, मृतकलेवरवत् । भ० १३ श० ७ उ० । कायसमाहारणया-कायसमाधारणता स्त्री० । संयमयोगेषु देहस्य सम्यग्व्यवस्थापनायाम्, उत्त० । तत्फलम् - कायममाहारणयाए गांजी कायसमाहारणयाएां जीवे परिचपये विमोहेड, परिचपल विसोहित्ता अहक्खायचारतं विसोहेड़े, अहकवायचरितं विमोहित्ता चत्तारि केवलकम्मं से खवेइ, तम्रो पच्छा सिज्जइ बुज्जर मुच्चइ परिनिव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंत करेइ ॥ ए८ ॥ हे भगवन् ! काय समाधारण्या जीवः किं जनयति ? | कायस्य समाधारणा संयमयोगेषु देहस्य सम्यग् व्यवस्थापना कायल - साधारणतया जीवा किं फलमुत्पादयति । गुरुरा शिष्य ! काय माघारण्या चारित्रपर्यवान् चारित्रभेदान् ज्ञायोपशमिकान् विशोधयति, चारित्रपर्यवान् विशोध्य यथाख्यातचारित्रं विशोधयति, यथाख्यातचारित्रं निर्मलं कुरुते । ननु यथाख्यातचारित्रमविद्यमानं कथं निर्मलं भवति । अत्रोत्तरम् । यथाख्यातचारित्रं सर्वथा अविद्यमानं नास्ति, श्रविद्यमानस्य निर्मलत्वासम्भवात् तस्माद् यथास्यात चार पूर्वमस्ति पर चारित्रमोहनीयेन मलिनमस्ति, तदेव यथाख्यातचारित्रं चात्रिमहोदय निर्मल पथरिय शोध्य च केवलसत्कर्माशान् चत्वारि विद्यमान कर्माणि घनातीनि वेदनायुनामगोत्रजक्षणानि कृपयति ततः सिध्य ति, बुध्यते, मुच्यते, परिनिर्वापयति, सर्वदुःखानामन्तं करोति । उत्त० २० अ० । कायसमि-कायसमिति स्त्री० कायस्य स्थानादिसमिती, स्था० ० ० कायमुद्या - कायमुखता - स्त्री० । काये सुखं यस्यासौ काय सुखस्तद्भावः कायसुखता । सुखिते काये, प्रज्ञा० २३ पद । कायाग - कायाक - पुं । वेषपरावर्त्तकारिणे नटविशेषे, १०४ उ० । कायाणुत्राय - कायानुपात-पुं० । पृथिव्यादीनां यत्कायं शरीरं तस्यानुपातो विनाशः । पृथिव्यादीनां द्वीन्द्रियादिनां च कायानामुपपाते, नि० नामुपपाते २३ ३० । चू० कारं- देश - कट्याम्, दे० ना० २ वर्ग । कार - कार - पुं० कृ कृतौ घञ् । क्रियायां यत्ने च । चाच० । करणे, श्रातुः । प्रव० । करणे घञ् । बले, कस्य सुखस्यारः प्राप्तियंत्र । ती हिंसायाम् नावेबपेचातूनामनेकार्थस्वात् निश्चये, कर्मणि घञ् । पूजोपहारे व लौ, के सुखमृच्छत्यमेन करणे पत्र पायी के सुखं निर्वृति क रियति बधमे के जले निष्यन्दजकृति | हिमाचले, कर्मण्युपपदे कृ अणू, स्वर्णकारः कुम्भकार इत्यादौ तत्तत्कर्मकारके, त्रि० । स्त्रियां टाप् । वाच "संघम कारे "कारशब्दोऽय रूपमात्रेमध्ये । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६५) कार अनिधानराजेन्द्रः। कारण व्यवहव्यः । व्य० ३००।"वर्णात्कारः" इति वर्णवाचका वर्णवाचका-] कारण-कारण-न० । कारयति क्रियानिर्वर्तनाय प्रवर्तनाय प्रवकारप्रत्ययः।" सायंकारे सि" सायमिति निपातः सत्याधः, यतिक-णित-त्यद । क्रियानिष्पादके, पाचहेती, हेतुर्मितस्मादू वर्णात्कार इत्यनेन छान्दसत्वात्कारप्रत्ययः, करणं वा | मित्तं कारणमित्यनर्थान्तरम् । विशे० प्रा० म०। "मायोति कारः, ततः सायंकार इति । स्था० १० ग०। वा हेच ति वा कारण त्ति वा एगा"। नि० चू०१० उ० । कारकमो-देशी-परुषे, दे० ना० २ वर्ग। श्रा० चूछ । संथा। कारंव-कारएडव-पुं० । स्त्री रम डामस्थ नेत्वम्, रएमः। निक्केपःईषत् रपमः कारणमः, तं वाति, करएमस्येदं कारएकं तदाकारं निक्खेवो कारणम्मी, चनविहीं दुविहु होइ दवम्मि । पाति वा । हंसनेदे, वाचः । झा० । औ० । जी। तहव्बमन्नदव्वे, अहवा विनिमित्तनमित्ती ॥३०॥ कारग-कारक-त्रि० । कृ-एवुझ । अनुष्ठातरि, उत्त०१०। समवाइ असमाई, छब्बिह कत्ता य करण कम्मं च। अस्य निकेपः षोढा तत्तो य संपयाणा-पयाण तह संनिहाणे य ॥२०६६।। दव्वे खित्ते काने, भावेण न कारो जीवो।।धा सूत्रनि इह करोति कार्यमिति कारणम, तस्य नामस्थापनाव्यभावभेनामस्थापनाद्रव्यत्रकारभावभेदात्षोढानिकपः, तत्र नामस्था. | दाश्चतुर्विधो निक्केपो न्यासः। तत्र नामस्थापने सुझाने। द्रव्यकारपने प्रसिद्धत्वादनात्य द्रव्यादिकं दर्शयति-(दव्वे ति)द्रव्य- णं तु शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तमाह-(दुविहु इत्यादि) यतिविषये कारकश्चिन्त्यः । स च द्रव्यस्य व्येण व्यनुतो वा रिक्तव्यकारणविषयो निकेपो द्विविधः कथम?,(तहब्वमन्नदब्वे कारको द्रव्यकारकः । तथा-क्षेत्रे भरतादौ यः कारको यस्मिन् त्ति) तद्रव्यकारणम, अन्यद्रव्यकारणं चेत्यर्थः। तस्यैव जन्यस्य वा केत्रे कारको व्याययायते स क्षेत्रकारकः । एवं कालेऽपि पटादेः सजातीयत्वेन संबन्धि व्यं तन्त्वादि तद्व्यम, तच्च योज्यम् । भावेन तु भावद्वारेण चिन्त्यमानोऽत्र कारको यस्मा. तत्कारणं च तद्व्यकारणम,तथा-यद्विपरीतं तदन्यजव्यकासूत्रस्य गणधरः कारकः । पतञ्च सूत्रकृदेवोत्तरत्र वक्ष्यति 'छि रणं जन्यपटादिविजातीय वेमादीत्यर्थः । तद्रव्यकारणत्वे काअणुनाचेत्यादौ॥४॥ सूत्र०१श्रु०१०१ उ० । करोति क- र्यकारणयोरेकत्वमिति प्रेर्यस्य परिहारं वक्ष्यति भाष्यकारः। तृत्वाादव्यपदेशान, क एबुल, कर्तृत्वादिसंज्ञाप्रयोजके कर्मणि, अथवा अन्यथाव्यतिरिक्तकारणस्यैव द्वैविध्यम-निमित्तकारणं, क्रियायां, 'कारके' पाणिनिसूत्रम, कर्तृत्वादिव्यपदशकारियां नैमित्तिककारण चेति। तत्र कार्यात्मन आसन्ननावेन जनकं निमिक्रियायामित्यर्थः। करोति क्रियां निष्पादयति, क एवुन् । क्रिया- तम, यथा पटस्यैव तन्तवः,तद्यतिरेकेण पटस्यानुत्पत्तेः। तब निष्पादकेषु कर्तृकर्मादिषु कारकसंझान्वितेषु, तेषां च क्रियाया. तत्कारणं च निमित्तकारणम्, यथा च तन्तुनिर्विना पटो नभमेवाम्बयः। कारकत्वं नाम-क्रियाजनकशक्तिमत्वम, करोति क्रियां वति तथा तद्गताऽऽतानवितानादिचेष्टाव्यतिरेकेणापिन भवत्येव । निवर्तयतीति महाभाष्ये व्युत्पादनात, साधकं क्रियानिष्पादक तस्याश्च तच्चेष्टाया वेमादि कारणम,अतो निमित्तस्येदं नैमित्तिभवतीति वार्तिकोक्तेश्च । द्रव्यस्य तथास्वाभावेऽपि शक्त्याss- कमिति ॥२०६८॥ अथवा-अन्यथाव्यतिरिक्तकारणस्य द्वैविध्यविएस्यैव तस्य तथात्वम् । ततश्चान्वयव्यतिरेकसत्त्वाच्याक्तिरेव मित्याह-(समवायीत्यादि) 'सम्' पकीभावे,अवशब्दोऽपृथक्त्वे, कारकमिति मतान्तरम् । तदुक्तं हरिणा-" स्वाश्रये समवेतानां, अय गती, इण् गती वा । ततश्चैकीभावेनापृथम्गमनं समवायः तदेवाश्रयान्तरे । क्रियाणामभिनिष्पत्सौ, सामर्थ्य साधनं वि संश्लेषः, स विद्यते येषां ते समवायिनस्तन्तवः, यस्मात्तेषु पटः रिति"। शक्तिशक्तिमतोरभेदाद् द्रव्यं कारकमिति व्यवहार समवैतीति,समवायिनश्च ते कारणं च समवायिकारणम्। तन्तुइति । वाचा तानिच कर्तृकर्मकरणसंप्रदानापादानाधिकरणा संयोगास्तु कारणरूपद्रव्यान्तरधर्मत्वेन पटाख्यकार्यद्रव्यान्तपाणि षट् । "प्रात्मन्येवात्मनः कुर्यात्, यः षट्कारकसङ्गतिम् । रस्य दूरवर्तित्वादसमवायिनः, त एव कारणमसमवायिकारणकाविवेकज्वरस्यास्य,वैषम्यं जडमज्जनात?" ॥१॥विशे० । अष्टका म। श्राह-ननु तद्रव्यादिप्रकारत्रयेऽपि यथोक्तन्यायेनार्थस्याने[एषां परस्परं स्याहादमुद्रया संवेधः 'सामाश्य' शब्दे वक्ष्यते] द एव, इति किनेदेनोपन्यासः सत्यम, किंतु तत्रान्तराज्युप"गति शरदिन वर्षति,वर्षासु च निःस्वनो मेघः । नीचो वदतिन गतसंझान्तरप्रदर्शनपरत्वाददोषः। अथवा-व्यक्तिारक्तं द्रव्यकारकुरुते,न वदति साधुः करोत्यव"॥१॥ कल्प०५ कणा "कारणं ति वा णम् (छविह त्ति) अनुस्वारस्य सुप्तस्य दर्शनात् पमिधं षट्प्रकाकारगं ति वा साहारणं ति वा एगहा"|श्रा० चू०१अतुमर्थे रम। कथम,कर्ता कुलाललक्षणस्तावत्कार्यस्य घटादे कारणम, पत्रुसकर्तुमित्यर्थे, तद्योगे कर्मणि न षष्ठी, अतो घट कारको तस्य तत्र स्वातन्त्र्येण व्यापारात् । तथा करणं च मृत्पिण्डदण्डबजत्येषं प्रयोगः । करकाया इदं तत्र भवं वा अण । करकासम्ब सूत्रादिकं घटस्य करणं,साधकतमत्वात् । तथा क्रियते निर्वय॑ते धिनि तनिष्यन्दिजले, न०। अप्सु,स्त्री०। ङीष् । वाच० । यत्तत्कर्म घटलक्षणं तदपि कारणम् आह-ननु कथमात्मैवात्मनः कारयति सदनुष्ठानमिति कारकम् । विशे० । सूत्राशाशुकायां कारणम, अलब्धात्मलाभस्य तस्य कारणत्वानुपपत्तेः । सत्यम, क्रियायाम, तस्या एव परगतसम्यक्त्वोत्पादकत्वेन सम्यक्त्व कुलालादिकारणव्यापृतिक्रियाविषयत्वादुपचारतस्तस्य कारणरूपत्वात् । तदवच्चिन्ने वा सम्यक्त्वभेदे, ध०२ अधि०। यस्मि स्वम् । उक्तंच-"निर्वय वा विकायचा, प्राप्यं वा यत् क्रियाफल- सम्यक्त्वे सति सदनुष्ठानं श्रद्धत्ते सम्यक करोति च । वि. म। तद् दृष्टादृष्टसंस्कार, कर्म कर्तुर्यदाप्सितम्"॥१॥ तदेवं किशे०। पतञ्च साधूनां विशुरुचारित्रिणामव । ध०२ अधिः । याफलत्वेन कार्यस्यापि कारणत्वम,अन्यथा कुलालादिक्रियावश्रा० । दर्श। यर्यप्रसंगादिति।मुख्यवृत्या वाऽसौ कार्यगुणेन कारणत्वम्।तथा कारगसुत्त-कारकसूत्र-न० । विस्तरेणाधिकृतार्थप्रसिफिकारके । सम्यक् सत्कृत्य वा प्रयत्नेन दानं यस्मै तत्संप्रदानम्-घटग्राहकसूत्रभेदे, वृ० १ उ० । ( 'सुत्त' हाब्देऽस्य विवृतिः) देवादत्सादि। तदपि घटस्य कारणम्,तउद्देशेनैव घटस्य निष्पत्तेः, Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण अभिधानराजेन्द्रः। कारण तदभावे तनिष्पत्त्ययोगादिति। [अवयाण ति] 'दो अवखण्डने' आह-योकत्ववद्भदेऽपि कार्यकारणयोस्तुल्य उपालम्नः,तर्हि दानं वामनम्,अपसृत्य भामर्यादया दानं स्वएमनं नियोजनं मृ- कथं नाम लोकप्रसिहस्तन्तुपटादीनां कार्यकारणभावः सिद्धापिएमादेर्यस्मात् तद् मृत्पिएमापायेऽपि भ्रवत्वाद्भमिलक्षणम ति?, इति भवन्त एव कथयन्त्वित्याहपादानम्। तदपि कार्यस्य घटस्य कारणम, तदन्तरेणापि तस्यानु- जं कज्जकारणाई, पज्जाया वत्थुणो जो ते य । स्पत्तेः । तथा-सन्निधीयते स्थाप्यते कार्य यत्र तत्संनिधानमाधा- अन्नेऽणन्नेण मया, तो कारणकज्जभयणेयं ॥२१०३॥ रः, अधिकरणमित्यर्थः । तदपि कार्यस्य घटस्य कारणमा अाधारतया तस्यापि तत्रोपयोगात् । तच्च घटस्य चकम् तस्यापिभूमिः, यद्यस्माद् घटमृत्पिामादिलकणे कार्यकारणे वस्तुनः पृथिव्यादेः तस्याप्याकाशनिति नियुक्तिगाथाद्वयार्थः ॥२०६६॥ पर्यायौ वर्तेते, तौ च घटमृत्पिण्डलकणौ पृथ्वीपर्याया परस्परं यतो यस्मादन्यावनन्यौच मता। तत्र संख्यासंझाबवणादिभदा. अथैतद्वयाचिख्यासुर्भाष्यकारः प्राह दन्यत्वं मृदादिरूपतया सत्त्वग्रमेयत्वादिनिश्चानन्यत्वमा तम्मा. तद्दब्बकारणं तं-तवो पडस्सेह जेण तम्मयया । कार्यकारणयारियमन्यानन्यत्वसवणा नजना द्रष्टव्या । ततश्च विवरीयमनकारण-मिकं वेमादो तस्स ॥१०॥ कश्चित्तयोः परस्परं भेद, कथाश्चित्त्वभदे कार्यकारणभाव पति-भावार्थः ॥१२०३६ यदात्मक कार्य दृश्यते तदिह तव्यकारणम्-तस्य कार्यव्यस्य एतदेवाहसजातीयत्वेन संवन्धि कारणं तद्न्यकारणमित्यर्थः। यथा पट नत्थि पुढवी विसिट्ठो, घडो त्ति जं तेण जुजइ अणन्नो । स्य तन्तयः, येन तन्मयता तन्त्वात्मकता पटस्य । उक्तविपरीत तु यत्तदात्मक कार्य न भवति तदन्यद् अन्यकारणमिष्टम, यथा जं पुण घमोत्ति पुव्वं,न आसि पुढवी तो अन्नो।२१०४। तस्यैव परस्य वेमादय इति ॥ २१००॥ पृथिव्या मृत्तिकाया विशिष्ट व्यतिरिक्तो तन्मयो घटो नास्ति अत्र परः प्रेरयन्नाह न रश्यते यद्यस्मात्,तेन तस्माद्यज्यते अनन्यो मृत्तिकातोऽभिन्नः। जय तं तस्सेव मयं, हेऊ नणु कज्जकारणगत्तं । यत् पुनर्घट इति व्यक्तंन रूपेण पूर्व घटनिष्पत्तः प्राग नान्निा नाभूरिक तु पृथिवी मृत्तिकैवासीत्,अन्यथा सर्वथैकत्वे पृथिवीन य तं जुत्तं ताई, जोऽभिहाणाइजिन्नाई ॥२१०१॥ कालेऽपि घटो दृश्येतेति भावः। ततस्तस्मात् ज्ञायते पृथिवीननु यदि तत् तस्यैव पटस्य संबन्धि तन्तुषव्यं तस्यैव च पटस्य हे. तोऽन्यो घट इति। एवं यथा मृद्घटयोरन्यानन्यत्वमेव,एवं सर्वत्र तुः कारणं मतं संमतम,तन्ननु कार्यकारण्योरेकत्वं प्राप्नोतिाततश्च कार्यकारणयोस्तावनीय मति ॥ २१०४॥ न तन्तुपटयो कार्यकारणभावः,पकत्यात्पटस्वरूपवदिति परस्या- "अहवा वि निमित्तनेमित्त" इत्येतद्याचिख्यासुराहभिप्रायः। न च तत्कार्यकारणयोरकत्वं युक्तम, यतस्ते कार्यकारणे अभिधानादिना भिन्ने वत्तते; आदिशब्दात्संख्यालवणकार्यपरि जह तंतवो निमित्तं, पमस्स वेमादओ तहा तेसिं । ग्रहः। तयाहि-पटः, तन्तव इत्यभिधानभेदः । एकः पटः, बहव जं चेहाइ निमित्तं, तो ते पयस्स नेमित्तं ॥२१०।। स्तन्तव इति संख्याभेदः। लक्ष्यतेऽनेनेति लकणं स्वरूपम्त- यथा तन्तयः पटस्य निमित्तं कारण, तथा तेनैव प्रकारेण यस्माचान्यादृशं पटस्य, अन्यदृशं च तन्तूनामिति बनणनेदः। शीतत्रा- तेषां तन्तूनामातानचितानादि चेष्टाया निमित्तं वेमादयस्ततस्ते णादिकायः पटः, बन्धनादिकार्यश्च तन्तव इति कार्यभेदः। ततश्च निमित्तस्येदं नैमित्तिक कारणं पटस्य भवतीति ॥२१०५॥ भिन्न पटतन्तुनवणे कार्यकारणे, अभिधानादिभेदाद,घटपटादि समवायी असमवायीत्येतद्विवरणायाऽऽहयदिति । तथा-च सति भवदभिप्रायेण यत्तयारकत्वमापतति, तदयुक्तमेवेति ॥ २१०१॥ समवाइकारणं तं-तो पो जैण ते समवयांत । अत्रोत्तरमाह न समे जओ कज्जे, वेमाइ तो असमवाई ॥२१०६।। तुबोयमुवालंनो, भेए विन तंतवो घमस्सेव । समवायिकारणं तन्तवः पटस्य,येन ते समवयन्ति पटे, येन पटकारणमेगते विय,जोभिदाणादो जिन्ना ॥२०॥ स्तेषु समंवतः समुत्पद्यत इतीह तात्पर्यम् । श्ह तन्तुषु पट इत्ये व वैशेषिकरभ्युपगमात् । वेमादि पुनः पटाख्ये कार्य न समवति यस्तन्तुपटयोरभेदपक्के कार्यकारणजावाभावप्रसङ्गलकण उपा | न संश्लिष्यते, ततोऽसमवायि कारणं तदिति ॥२१०६ ॥ सम्भस्तव चेतसि वर्तते, सभेदेऽपि भेदपकेऽपि तुल्यः समान एव वर्तते। तथाहि-न तन्तवः पटस्य कारणं, निन्नत्वाद्, घटस्येवेति। वैशेषिकसिद्धान्तेऽपि मतभेदमुपदर्शयबाहकिं च-पत एकत्वेऽपि वस्तूनामभिधानादयो भिन्ना दृश्यन्त पया; वेमादो निमित्तं, संजोगा असमवाइ केसिं चि । ततोऽनैकान्तिको हेतुरिति शेषः। तथाहि-घटस्य रूपादीनां चै. ते जण तंतुधम्मा, पमो य दव्वंतरं जेण ॥२१०७।। कत्वं लोक प्रतीतम्,अथवाऽनिधानादयोभिन्ना एव। तद्यथा-घटः, रूपादय इत्यभिधानजेदः।पको घटः,बहवो रुपादय इति संख्या दन्वंतरधम्मस्स य, न जो दव्चंतरम्मि समवाओ। भेदः। पृथुबुध्नोदराद्याकारलकणे घटः , रक्तत्वादिलकणा समवायम्मि य पावड, कारणकजे गया जम्हा ॥१०॥ रूपादय इति लक्षणनेदः। जलाहरणादिक्रियाकारको घटः,रङ्गा- इह केषां चिद्वैशेषिकविशेषाणां मतेन वेमादयः,आदिशब्दात्सधानादिहेतवश्व रूपादय इति कार्यभेदः। ततोऽनिधानादिभेदा- जातीयाऽतज्जातीयतुरीदिकानादयश्च पटस्य निमित्तं निमित्तनेद इत्यनैकान्तिको हेतुः, यत एतदपि शक्यते वक्तुम्-अनिन्ने कारणम.न त्वसमवायिकारणम्,तन्तुसंयोगमात्रनिमित्तत्वेन तपटतन्त्वादिक्षणे, कार्यकारण अभिधानादिनेदाद्,घटरूपादि- न्तुबकणकारणच्यानाश्रितत्वात्तेषामित्यभिप्रायः। के पुनस्तबदिति ॥ २१०२॥ सिमवायिकारणमित्याह-संयोगास्तन्तुगुणास्तन्तुधर्मा इत्य Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण अनिधानराजेन्डः। कारण थः, तन्तुलक्षणकारणाश्रितत्वात्। तथा चाहते तन्तुसंयोगायेन गुणग्रहणे गुणिनोऽवश्यं ग्रहणप्रसङ्गात । तस्माद् द्रव्यागुणादीनां कारणेन तन्तुधाः , अतो निमित्तकारणं न जवति, तद्विलक- कथाश्चद्भेदः, कश्चित्वनेद इति । तथा तेनैवोक्तप्रकारेण कारणरूपत्वात् । नवन्तु तर्हि समवायिकारणम, तन्तुबत्तेषामपि पटे | णात्कार्यमनिधानादिभेदाद् भिन्नं, सस्वज्ञेयत्वादिभिस्त्यऽभित्रं समवेतत्वात् । नैवम् । यतस्तन्तुद्रव्यात यान्तरं पटः; तस्माञ्चदः । यदि स्यात्तहिं को दोषः ?, येन वैशेषिकादयो भेदे एव कार्यज्यान्तरंतन्तवः, द्रव्याणि द्रव्यान्तरमारजन्ते, गुणाश्च गुणान्तरमि- कारणावमिचन्तीति? । ॥ ११११ ॥ ति सिद्धान्तादिति । ततः किम', इत्याह-द्रव्यान्तरधर्मस्य च यतो अथ पामेधं व्यतिरिक्तकारणं व्याचिख्यासुराहन द्रव्यान्तरे समवायः, शीतादीनामिव हुतभुजि, यस्मात्तन्तुधर्माणां तत्संयोगानां पटे द्रव्यान्तरे समवाये इष्यमाणे पटतन्तुलक कारणमहवा छछा, तस्य सततो ति कारणं कत्ता। णयोः कार्यकारणयोरकता प्राप्नोति; इतरेतरगुणसमवायात् । कजस्स साहगतमं, करणम्मि उ पिंड-दमाई ॥११॥ ततश्च यथा पटधर्माः शुक्मादयः पटे समवेतत्वात्तव्यतिरि- कम्मं किरिया कारण-मिह निचिहो जो न साहे । काःसन्तो न पटस्य कारणम, एवं तन्तुसंयोगाअपिन तत्कारणं स्युः, पकत्वे कार्यकारणजावायोगादिति । तदेव वैशेषिकाः अहवा कम्म कुंजो, स कारणं बुकिहेउ ति॥११३॥ कार्यकारणयोरेकत्वं कथमपि नेच्चति ॥ २१०७ ॥ २१०८ ।। भव्यो त्ति व जोगो त्ति व, सक्को तिवसो सरूवलाभस्स। अचार्यस्तु जैनत्वात्स्याद्वादितया कारणात्कार्य भिन्नमभिनं कारणसन्निम्मि वि, जन्नागा सत्यमारंभो ॥११४।। च पश्यन्नाह वकनिमित्तावेखं, कजं वि य कन्जमाणकासम्मि । जह तंतूणं धम्मा, संयोगा तह पमो वि सगुणा न्न । होइ सकारणमिहरा, विवज्जया जावया होजा॥२११५॥ समवायाइत्तणो, दबस्स गुणादो चेवं ॥१०॥ देओ स जस्स तं सं-पयाणमिह तं पि कारणं तस्स । अनिहाणबुद्धिलक्खण-जिन्ना विजदा सदत्थोऽणन्ने । होइ तदत्यित्तायो,न कीरए तं विणा जं सो॥२११६॥ दिकालाइविसेसा, तह दवाओ गुणाईआ ॥२११०॥ जूपिमावायाओ, पिंको वा सक्करादवायाओ। न्वयारमेत्तभिन्ना, ते चेव जहा तहा गुणाईआ। चक्कमहावाओ वा-ऽऽपादाणं कारणं तं पि ॥२११७॥ वसुहाऽऽगासंचकं, सरूवामिच्चाइ सन्निहाणं जं। तह कजं कारणो,जिन्नमभिन्नं च को दोसो॥१११॥ कुंजस्स तंपिकारण-मभावो तस्स जदसिछी १११।। ननु यथा तन्तूनां धर्मा वर्तन्ते, के?, तत्संयोगादयः, तथा पटोऽपि तन्तूनां धर्म एव । यथा तेषामेव तन्तूनां स्वगुणाः शुक्ला सप्तापि प्रायो व्यख्यातार्थाः, नवरं क्रियते का निर्वय॑ते इति दयः तरूमः। कुतः?,समवायादित्वात् । इह यो यत्र समवेतः स व्युत्पत्तेः कर्म भण्यते। काऽसौ क्रिया कुम्भं प्रति ?, कर्तृव्यापारतस्य धर्म पव, यथा तन्तूनां स्वगुणाः शुक्लादयस्तद्धाः , स रूपा। सा च कुम्भलकणकार्यस्य कारणमिति प्रतीतमेव । माहमवेतश्च तन्तुपुपटः। तस्मात्तमः पटन यथा च तन्तूनां धर्मः पटः, ननु कुलाल एव कुम्भं कुर्वन्नुपलभ्यते, क्रिया तुम काचिद् कुम्भएवं व्यस्य गुणादयोऽपि, गुणकर्मसामान्यविशेषसमवाया करणे व्याप्रियमाणा दृश्यत इत्याद-इह निश्चेष्टः कुलालोऽपि य. अपि धर्मा इत्यर्थः । यदि नाम तन्तूनां धर्मः पटः, द्रव्यस्य वा स्मान्न घटं साधयति निष्पादयति, या च तस्य चेष्टा सा क्रिया; गुणादयो धर्माः,तथापि प्रस्तुते कारणात्कार्यस्य भेदाभेदे किमा- इति कथं न तस्याः कुम्भकारणत्वमिति । अथ वा-कर्तुरीप्सिततयातम?,श्त्याह-(अभिहाणेत्यादि)यथा दिक्कालात्मादयो विशे मस्वास्क्रियमाणः कुम्भ एव कर्म,तर्हि कार्यमेवेदम, अतः कथमपा अभिधानबुकिलकणादिभिर्भिन्ना अपि, संश्वासावर्थश्व स. स्य कारणवम?। न हि सुतीक्ष्णमपिसूच्यग्रमात्मानमव विध्यति । दर्थः,सत्ता-सामान्यमित्यर्थः। तस्मात्सत्त्वज्ञेयत्वप्रमेयत्वादिनि सतः कार्य निर्वय॑स्यात्मन एव कारणमित्यनुपपन्नमेव, इत्याहरनम्ये अभिन्नाः। तथा तेनैव प्रकारेण ध्याद गुणकर्मसामान्य (सकारणं बुद्धिहेउ त्ति)स कुम्नः कारणं हेतुः कुम्भस्य । कुतः?, समवायादयोऽनन्ये अभेदवन्तः । इदमुक्तं भवति-दिक्कालादीना- प्रस्तावात् कुम्नबुझिहेतुत्वात् । इदमुक्तं नवति-सर्वोऽपि बुझौ संकमन्यदभिधानम्, अन्यश्च सामान्यस्य, अन्यादृशी दिगादिषु बु.। एप्य कुम्भादिकार्य करोतीति व्यवहारः,ततो बुद्ध्याऽव्यवसितस्य दिः,अन्यारशीच सत्ता-सामान्ये, अन्यत् दिगादीनां लक्षणं स्व- कुम्भस्य चिकीर्षितो मृरामयकुम्भस्तदयासम्बनतया कारणं भव. रूपम् अन्यादृशं च सत्तासामान्यस्य, इत्येवमभिधानादिवेक्षक- स्येव। न च वक्तव्यम-अध्यन्नत्वादसनसौतहेरपि कथमालम्बन ण्याचथा जिन्ना अपिदिक्कासादयःसत्तासामान्यात्सवझेयत्वा. स्यादिति?,द्रव्यरूपतया तस्य सर्वदा सत्वादिति। ननु य पवेह मृ. दिनिरभिन्नाः, तथा व्यादपि तन्वादिशुषत्रगुणादयोऽभि एमयकार्यरूपो घटस्तस्यैव कारणत्वंचिन्त्यत इति प्रस्तुतम,बुध्या धानादिभिर्मिन्ना अपि सत्त्वज्ञेयत्वादिभिरभिन्ना इति । यद्य- ध्यवासितस्तु तस्मादन्य पव,इति तत्कारणत्वानिधानमप्रस्तुतमेव । भिन्नास्तहि भेदः कथमित्याह-(उवयारेत्यादि) ते चैव दिगा- सत्यम्,जाविनि भूतवदुपचारन्यायेन तयोरकत्वाऽभ्यवसानाद. दयो यथोपचारमात्रतः सत्तासामान्याद्भिन्नास्तथा गुणादयोऽ- दोपः स्थासकोशादिकारणकालेऽवी हि किं करोषीति पृष्टः कुम्भपिद्रव्याद भिन्नाः। इदमुक्तं भवति-यथा सत्तासामान्यादनिन्ने- कार,कुम्नं करोमीस्येतदेव वदति,बुद्ध्यध्यवसितेन निष्पत्स्यमानबपि दिगादिष्वनिधानादिनेदानेद उपचर्यते, एवं व्याद् गु. स्यैकत्याध्यवसायादिति। अथवा-भव्यो योग्यः स्वरूपलाजस्थति गादीनामपि। तथाहि-प्रभातसमय मन्दमन्दप्रकाशे अधिरनपत्र- शक्य सत्पादयितुम,अतः सुकरत्वात्कार्यमप्यात्मनः कारणमिध्यनिचिततरुशाखानिलीनवलाकायाः पत्रविवरण केनापि कि- ते।अवश्यं च कर्मणः कारणत्वमेष्टव्यम,यद् यस्मात्समस्तकाश्चिच्छुक्लमुपलभ्यत इत्येवं शुक्लत्वं निश्चीयते, न तु बलाका।। रणसामग्रीसभिधानेऽपि नैवमेवाकाशार्थ प्रारम्भः,कि तु विवक्किपतच गुणगुणिनोः कथञ्चिद्भेदमन्तरेण नोपपद्यते, पकान्ताजेदे। तकार्यार्थम, अतस्तदधिनाभावित्वात्तक्रियायाः कार्यमप्यात्मनः Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) कारण अभिधानराजेन्छः। कारणदोस कारणमिति । एतदेव भावयति-बाह्यानि कुलालचक्रचीवरादी। एकविध प्रशस्तनावकारणं प्रवति, अज्ञानाविरतिविपरीतं तु नि यानि निमित्तामि तदपेक्षं क्रियमाणकालेऽन्तरङ्गबुद्ध्याऽऽलो. मानसंयमौ द्विविधम, मिथ्यात्वाज्ञानाविरतिविपरीतं सम्यग्दचितं कार्य जबति स्वस्यात्मनः कारणं स्वकारणम्, अन्यथा य- शनशानसंयमरूपं तु विविधमिति । विशे० । स०। सूत्र०। दि बुद्ध्या पूर्वमपर्यालोचितमेव कुर्यात्तदा प्रेक्षापूर्वे शून्यमन- नं। प्राचू । प्रा० म०। प्रश्न। प्रयोजने, प्राचा० १ ६० स्कारम्भविपर्ययो भवेत, घटकारणसन्निधानेऽप्यन्यत्किमपि ५ १०५ उ०। जी० । करोतीति कारणम् । परोकार्थनिर्णय. शरावादिकार्य जवेत, अभाचो वा मवेत, न किञ्चित्कार्य भवे. निमित्ते उपपत्तिमात्रे दुष्टहेतो, यथा निरुपमसुखः सिका, हादित्यर्थः । तस्माद् बुध्यवसितं कार्यमप्यात्मनः कारणमेष्टव्यम् । नानावाधप्रकर्षात् । नात्र किस सकललोकप्रतीतः साध्यसाधकिंबहुना ?, यथा यया युक्तितो घटते तथा तथा सुधिया क- नधानुगतो दृष्टान्तोऽस्तीत्युपपत्तिमात्रता, दृष्टान्तसद्भावेऽस्यैव मणः कारणत्वं वाच्यम्, अन्यथा कर्मणोऽकारकत्वे करोती- हेतुव्यपदेशः स्यात् । स्था०१० ठा। श्रा०म०। श्री। स० तिकारकमिति षमां कारकत्वानुपपत्तिरेव स्यादिति । (नू- " पसिणाई कारणाई बागरणा पुच्चित्तए " कारणमुपपत्तिपिंडेत्यादि) भूरपादानम, पिएमाऽपायेऽपि ध्रुवत्वात् । अथ वा- मात्रं तद्विषयत्वात्कारणानि, पत एव तदन्ये वाऽतस्तानि । म० विवकया पिण्डोऽपादानम् , तद्वतशर्करादीनामपायेऽपि वि- २ श०१ उ०पासम्बने, तत्पुनः परिशुद्ध ज्ञानादिकम् । प्रा० बेकेऽपि ध्रुवत्वात् । अथ वा-घटाऽपायाश्चक्रमापाको वाऽपादान- म०प्र०। कारणम्-ज्ञानादित्रयस्य ज्ञानदर्शनचारित्ररूपस्यार्थमिति । (वसुहेत्यादि) घटस्य सनं सन्निधानमाधारः, तस्यापि स्य यत्प्रतिसेवनं तत्कारणम् । वसुधा, तस्या अप्याकाशम, अस्य पुनः स्वप्रतिष्ठत्वात्स्वरूप श्राह-किं तत्कारणम् ?, उच्यतेमाधार इत्येवमादि यत्किमप्यानन्तर्यण परम्परया वा सानधानमाधारो घटस्य विवयते तत्सर्वमपि तस्य कारणम,तदभा असिवे ओपोयरिए, रायढे नए व गेलो। वे तस्य घटस्य यद्यस्मादसिद्धिरित्येकोनविंशतिगाथार्थः । त- उत्तिमढे य नाणे, तह दंसण चरित्ते य ॥ देवमुक्तं द्रव्यकारणम्। विवक्तितदेशे श्रागाढमशिवमौदर्य राजद्विष्टं भयं वा प्रत्यनीकाअथ भावकारणमाह दिसमुत्यम् । श्रागाढशब्दः प्रत्येकमनिसंबध्यते । तथा तत्रवस. जावम्मि हो सुविहं, अपसत्य पसत्थयं च अपसत्यं । तांग्लानत्वं भूयो नूय उत्पद्यते,यद्वा-देशान्तरे ग्लानत्वं कस्यासंसारस्सेगविहं, विहं तिविहं च नायव्वं ॥२११।। पि समुत्पन्न, तस्य प्रतिजागरणं कर्तव्यम् । उत्तमार्थ वा कोऽपि प्रतिपन्नस्तस्य निर्यापन कार्यम् । तथा विवक्तिते देशेज्ञान वादभवतीति भाव श्रीदयिकादिः, स चासौ कारणं च संसाराप- शनं चारित्रं वा नोत्सार्यते । वृ०१ नअपवादे यथा-"अंतरा वर्गयोरिति जाबकारणम् । ततश्च नावे भावकारणे विचार्य द्वि वि असे कप्पर" इत्यादि । कल्प० कण । रष्टार्थानां हेतुपुरुषिविध कारणं भवति-अप्रशस्तं प्रशस्तंच, शोजनमशोननं चेत्य पशुपाषणवाणिज्यादिषु,भ०१८ श०२ उ01 सिषाधयिपिन प्रयोथः । तत्राप्रशस्तं संसारस्य संबन्ध्येकविधमेकप्रकारम, द्विविधं, जनोपाये विषयभूते,विपा०१ श्रु०१०। वेदनादिकारणानाव त्रिविधं च । चशब्दोऽनुक्तचतुर्विधादिसंसारकारणसमुश्चयार्थ चानस्य आहारस्य कारणदोष, जीत० । ध० । ग० । इति ॥ २११६ ॥ देहे, इन्द्रिये च । कृ वध स्वार्थे णिच्-भावे ल्युट् । षधे, अथ किं तदेकविधादिसंसारस्य कारणमित्याह करण एव कारणः। कायस्थे, पुं०। करणमेव स्वार्थे प्रण । अस्संजमो य एको, अन्नाणं अविरई य दुविहं च।। साधने कर्मणि, वाच०। मिच्कृतं अन्नाणं, अविरई चेव तिविहं तु ॥ २१३०॥ कारणअविणासमो-कारणाविनाशतम-अव्या कारणानामेअसंयमोऽपिरतिलकणः, स प्रधानतया विवक्कितः सन्नेकवि वाजावादित्यर्थे, "कारणअविणासो य जीवस्स णिवत्तं वि नेयं । " दश०४ अ०। ध एव संसारकारणम, अज्ञानादीनां तदुपटम्भकत्वेनाप्रधानत्वविवक्षणात्। तथा-अज्ञानमविरतिश्च प्रधानतया विवक्तितं द्वि कारणअविनाग-कारणाविनाग-पुंगपटादेस्तन्वादरिष काविध संसारस्य कारणम् । तत्राझानं मिथ्यात्वतिमिरोपप्लुतह- | रणविभागानावे, दश०४०। टेर्जीवस्य विपर्यस्तो बोधः अविरतिस्तु सावद्ययोगाद निवृत्तिः। कारणजाय-कारणजात-न० । कारणविशेषे, “पय गुणं स पउतथा-मिथ्यात्वमज्ञानमविरतिश्चैवेति त्रिविधं संसारकारणम् ।। त्ता, कारणजाएण तेउवम्गो वि।" व्य०४ उ०। तत्र तस्वार्थाश्रमानरूप मिथ्यात्वं प्रतीतमेवेति । एवं कषायादियोगादन्येऽपि चतुर्विधादिसंसारकारणानेदा वक्तव्या इति । कारणणिचवास-कारणनित्यवास-पुं० । हीनजनावसस्वलउक्तमप्रशस्तै भावकारणम् ।। क्षणे कारणे नित्यवासे, दर्श०। अथ प्रशस्तं भावकारणमाह कारणतण-कारणत्व-न० । बौद्धानां मते कारणस्य प्रागभाहाई पसत्थं मोक्ख-स्स कारणमेगविह दुविद तिविहं च। वित्वमात्रे, कारणस्य कार्यजनकशक्ती च । सम्म०१ काएम। तं चेव य विवरीयं, अहिगार पसत्थएणत्यं ॥१२१॥ कारणदीवणा-कारणदीपना-स्त्री० । भन्ज्यार्थितकार्याकरणे इह यन्मोतस्य कारणं हेतुस्तत्प्रशस्तभावकारणमुच्यते कि हेतुप्रकाशनायाम्, पञ्चा १२ विव०। पुनस्तदित्याह-तं चेव य विवरीयं ति ] यदप्रशस्तमसंयमा- कारणदोस-कारणदोष-पुं०। साध्यं प्रति हेतुम्यभिचारे, यथा-प्रदिभावकारणमुक्तं तदेव विपरीतं सदेकविध द्विविधं त्रिविधं पौरुषेयो वेदः,वेदकारणस्याध्यमाणत्वादिति अध्यमाणत्वं हि च प्रशस्तं भावकारणं भवति । तत्रासंयमाद् विपरीतः संयम कारणान्तरादपिसंजयति। स्था०१०मा०पाहारं वेदनादिकार Jain Education Interational Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६९) अभिधानराजेन्द्रः । कारणदोस खमन्तरेण भुञ्जानस्य कारणदोषे, प्राचा० २ भु० १२०८ ० । (विवृतं चैतदनुपदमेव 'कारण' शब्दे ) दोषसामान्यापेक्ष कारखदोसविसेस - कारणदोषविशेष-पुं० या कारणदोषरूपे विशेषे, स्था० १० वा० । कारणपमिसेवि(ण्) - कारणप्रतिसेविन् - त्रि० । कारणे प्रति सेवते तच्चीतः । अशिवादिलणे विशुद्धेनालम्बनेन बहुशो वि. पाशुकादिपरिमाणिकृत् पतनया वंशले "भावि कारणमसेवि तह य ग्रहच्च " । व्य० १ उ० । कारणवंदण-कारणवन्दन-१० पञ्चदशे बन्दनकदोषे ० नाणाइतिगं मुत्तुं कारणमिह लोगसाहगं होई | पूयागारवडे, गाणग्गणे वि एमेव ।। प्रतिसेवत ज्ञानदर्शनचारिमुमियदिह लोकसाध खादिकं बन्दनकदानादू साधुरभिलषति तत्कारणं भवतीति प्रतिपव्यम् । ननु ज्ञानादिग्रहणार्थे यदा बन्दते तदा किमेकान्तेनैय कारणं न भवतीत्याशङ्कयाह यदि पूजार्थ गौरवार्थ वा बन्द न दरया विनयपूर्वकं ज्ञातयेन मोके पूज्यो सम्पेभ्यश्च श्रुतधरेभ्योऽधिकतरो भवतीति तदा तदप्येवमेव कारणं वन्दनकं भवतीति । " रात्र किमभिप्राययत क्षेोकसाधकं कारणं जयतीत्याहआयरतरेण हंदी, बंदामि ते पच्छपणयिस्सं । दमोलभाव, ण करिस्सर मे पण्यजंगं ॥ इंदीतीलोकसाधककारणोपप्रदर्शने, अतिशयादरेण वन्दे प्र नमामि यमित्येवमाचार्य तेन दानेन हेतुभूतेन प स्वादमुं किञ्चित्राणि प्रणयिष्ये याचिष्ये, न चासौ मम प्रणयन प्रार्थनान करिष्यति कथंभूतः सन्मित्वाद- पन्दनकमेव मूल्यं तत्र भावोऽनिप्रायो यस्य सूरेः स तथाभूतः, वन्दनकमूवशीकृत इत्यर्थः । निप्रायवतः कारणन्दम भवती ति । पृ० ३ ४० श्राव० प्रा० चू० । प्रव० । कारण विद्याणवोह - कारणविज्ञानबोध- पुं० कारणरूपे विज्ञा नस्य पितायाम, कारविज्ञानबोधोऽन्वयव्यतिरेकेण । अने० ० ४ अधि । कारणविसेस - कारण विशेष - ० कारणविषये भेद विशेषप्रेदे यथा परिणामि कारणं मृत्पिण्डोऽपेकाकारणं दिदेशका लाकाशपुरुषचक्रादि, अथवोपादानकारणं मृदादि, निमित्तकारकुलालादि सहकारिकारणं चकचीवरादीत्यनेकपा कार खम्। स्था० १० ठा० कारणिय - कार शिक०ि कारणेषु भयं कारणैनिवा कारणिकम् । कारणान्यधिकृत्य प्रवृत्त, व्य० २ उ० । कारणवश प्रवृचे, व्य० ६ उ० । कारणैश्चरति ठकू । कारणेन विचारके परीक्षके, कारणस्वेद काश्या उषु शिट्या करणसम्बन्धिनि, स्त्रियां रात्रि षित्वाद् ङीष, जिव दुच्चारणार्थः । स्त्रियां टाप् इति भेदः । वाच० । कारणवस - कारणोपदेश-पुं० । देतुकोपदेशे, “ देउगोवरसो । ११८ कारुणिय सिधा कारणोयरसो चिया पगरोषपसोस वा पगडा श्रा० न्यू० १ अ० । कार (रा. कारा०विधापने, पश्चा० ६ विष कारा पवा] यत्स्वयं करने कुरा तानन्यानयी बड़ा कारण कारापयतीति । व्य० ३३० । कारापणं पुनर्मनसा चिन्तयति-करोत्वेसावध असापि चिन्तितोऽभिप्राय आ मागहा इंगिएणं तु. पेदिएण य कोसला । अकुण पंचासा, याचं दक्खिणावा ॥ एवं तु अणुवी, मणसा कारापणं तु बोधवं । मसाऽणुन्ना साहू, चूयवणं वृत्तं वप्पति वा । मागयाः मगधदेशोद्भवाः प्रतिपन्नमप्रतिपचं या निकार विशेषेण जानन्ति । कोशलाः प्रेक्षितेन अवलोकनेन । पञ्चाला तेनानुदक्षिणापथाः किं तु साइबसायी ते जानते, प्रायो जडप्रत्यात् । तत एवं सति वचसाऽनुकेऽपि विवरणाभावात् मनसा कारापणं बोद्धव्यम् । व्य० १० ० । "एवं प्रणति- तुम अयणो व स्यादथकम्मं करेहि थि । श्रात्मव्यतिरिक्तस्य परस्य एवं इच्छस्स वा अणिच्छस्स वा बलानियोगा हत्थकम्मं कारावयतो कारावणा भाति" । नि० चू० १ उ० । कार (रा) वाहिय कारवाहि (धि) क(त)- त्रि० । करं राजदेवज्यं वहन्तीत्येवं शीक्षा करवाहिना त एव कारवाहिका, कारवा हिता वा । भ० श० ३३ ३० । नृपभागवाहिषु, औ० । कारेण कारागारेण वाधितः । कारागारपीमिते, हा० १ ० । कार (रा) विय- कारित-त्रि । श्रन्यैर्विधापिते, पा० । कारा देखी लेखायाम. दे० ना० २ वर्ग मिदादित्वात्। बन्धनागारे, दूत्याम्, वीणाऽधः स्थकाष्ठमयभाण्डे, सुवर्णकारिकायां च । वाच० । कारि-कर्तृ-०ि कर्मयोनि ०४० कारिगा - कारिका - स्त्री० । कृ-भावे एवुल् । क्रियायाम, कारो रोगवधः साध्यतयाऽस्त्यस्य छन् । कृहिंसायाम् एवुल् वा । रोगनाशिकार्या कहकार्याम. नटयोषिति विवरणके, अल्पाक्षरेण बह्वर्थज्ञापकश्लोकभेदे, शिल्पिरचनायाम्, वृद्धिमेदे, वाच० । श्रा० म० । कारिमं- देशी ००२ वर्ग कारिय- कारित स्त्री० । कृ णिच् कर्मणि क्तः । करणाय प्रेरिते, अ धमनस्कासिद्धये मितरङ्गीकृतापिकी, श्री० घा तु कार्य - न० । प्रयोजने, सूत्र० १० २ श्र० ३ ० । प्रश्न० । कारीसंग - कारीषाङ्ग-म० । अग्न्युद्दीपनकारणे, उत्त० १२ प्र० । कारून कारुकीय वि० । षटविम्पकादेषु कारकेषु भवे, - प्रश्न० २ श्र० द्वार । कारुवीय कारुणिक-० करना समस्य ठक् स्याली दयाशी से, वाच । द्रव्यलिङ्गवर्जिते साधा, स्था० ४ ०२४० । Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७०) कारुम अन्निधानराजेन्द्रः। काल कारुप-कारुण्य-न० । करुणः करुणायुक्तः, करुणाविषयो वा, इदानीमुत्तरगाथासंबन्धनार्थमाहतस्य नावः, करुणैव वा कारुण्यम । ध्यञ् । करुणायां परपु: सो वत्तणाइरूवो, कालो दव्वस्स चेव पजामो । खप्रहारेच्छायाम, करुणाविषयत्वे च । वाच । “दीनेष्वार्तेषु भीतेषु, पाचमानेषु जीवितम। उपकारपरा बुद्धिः, कारुण्यमभि किंचिम्मेत्तबिसेसे-ण दबकालाइववएसो ॥२०२५॥ धीयते" ॥१॥ अष्ट० १६ अष्ट । स वर्तनादिरूपः कालो व्यस्यैव पर्यायः । ततः, पर्यायरूपतकारेइत्ता-कारयित्वा-अव्य० । कृ-णिच् त्वा । “णेरदेदावावे" | या तत्त्वत एकरूपस्यापि तस्य किश्चिन्मात्रविशेषविवक्कया द्र1८।३।१४६॥ इति णेरावादेशः। विधायेत्यर्थे, प्रा०३ पाद । व्यकालः,अकाकालःयथाऽऽयुष्ककाल इत्यादिव्यपदेशःप्रवर्तत इति नायगाथार्थः। विशेष न्यायमतेन परापरव्यतिकरयोगकारेमाण-कारयत-त्रि० । अन्यैर्नियुक्तैः पुरुषैः (जी० ३ प्रति०। पद्यायोगपद्यचिरविप्रप्रत्ययलिने द्रव्यभेदे, सम्म। प्रज्ञा० । ०। कल्प०) अनुनायकैः सेवकानां नियोगिकैविधा (२) स च द्रव्यान्तरमपयति, स० । स्त्रियां कारेमाणी । विपा० १ श्रु) २ अ०। तथाहि-परः पिताऽपरः पुत्रो,युगपदयुगपद्वा,तथा चिरं क्षिप्रं कारेयन्व-कारयितव्य--त्रि० । विधापयितव्ये, पञ्चा०६ विव०। वा कृतं करिष्यते यत्परापरादिशानं तदादिक्रिया व्यव्यतिरिकारोमिय-कारोटिक-पुं० । कापालिके, ज्ञा० १ ०। क्ता पदार्थनिबन्धनं तत्, प्रत्ययविवकणत्वात् , घटादिप्रत्ययव त् । योऽस्य हेतुः स पारिशेष्यात कासः, यतो न तावत्पराऽपकालं-देशी-तामिस्र, दे० ना० २ वर्ग। रादिप्रत्ययो दिग्देशकृतोऽयम् । स्थविरे अपरदिनागावस्थिकाल-काल-पुं० । कलण संख्याने । कलनं कालः, कल्यते वा| तेऽपि परोऽयमिति प्रत्ययोत्पत्तेः। तथा यूनि परदिम्भागावस्थिपरिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति कालः, कबानां वा समयादिरूपाणां तेऽपि अपरोऽयमिति ज्ञानप्रादुर्भावात् । नच बलीपलितादिकसमूहः कालः। कर्म०३ कर्म०। प्रा०म०। ओघा विशे०।। तोऽयं प्रत्ययः, तत्कृतप्रत्ययवैवक्ष्यण्येनोत्पत्तेः । नापि क्रियानितेण वा करणनूतेन दिव्यादिचउक्कयं कलिजतीति कालो शाय- वर्तितस्तत्प्रतिभाति । तजज्ञानवैलक्षण्येन संवदेनात् । तथा च त इत्यर्थः । नि० चू० १ उ० । सूत्रम्-"अपरं तिप्रमिति काबविङ्गानि" इत्याकाशवदेवास्यापि विभुत्वनित्यत्वैकत्वादयो धर्मा अवगन्तव्याः। सम्म०२काएक। (१) कालनिरुक्तयः। (३) अथ खएमनम्(२) कालस्य अव्यान्तरसिकौ विचारः। (३) मतान्तरखण्डनम् । दिक्काससाधनप्रयोगेष्वप्यते दोषाः(४) कालसिक्छिः। सामान्येन साधने सिद्धसाध्यता, विशेषसाधने हेतोरन्बया(५) काबलवणम् । धसिकिरनुमानवाधितत्वं च प्रतिझाया इति समानाः। तथादि(६) कामेदाः। पूर्वापरोत्पन्नपदार्थविषयपूर्वापरशब्दसंकेतवशादुद्भूतसंस्का(७) कालविषये दिगम्बरमतनिरूपणम् । रनिबन्धनत्वात् कृतप्रत्ययस्य कारणमात्रे साध्ये कथं न सि. (5) ततो दिगम्बरमतदूषणम् । रूसाध्यता ?, विशेषे च कथं नान्वयासिद्धिः, अनुमतिबाधा (९) कालनिकेपः। च प्रतिझायाः पूर्ववद् भावनीया । अत एव नेतरेतराश्रयदोषो(१०) मुहूर्तादिप्रमाणम् । ऽपि पूर्वपत्कोद्यतोऽपि विशिष्टपदार्थसंकेतप्रभवस्वे अस्य प्र. (११) समयादीनां संख्येयासंख्येयत्वविचारः। त्ययस्य । किं च-निरंशैकदिक्कालाण्यपदार्थनिमित्तत्वं परादिप्र(१२) समयादिज्ञानं मनुष्यत्र एव । त्ययस्य प्रसादयितुमन्युपगतम्। तच्चायुक्तम् । स्वकोट्यनुका(१३) काले ज्ञानाचारः। रिप्रत्ययजनकस्य तद्विषयत्वात् । निरंशस्य पौर्वापर्यादिविभा(१४) कोणिकनार्यायाः काल्यनामकात्मजवक्तव्यता। गाभावतस्तथाप्रत्ययोत्पादकत्वासंन्नवात् । तथाभूतप्रत्ययाद्वि(१) तत्र कालशब्दव्युत्पादनार्थमाह परीतार्थसिरिष्टविपर्ययसाधनाविरुद्धश्चैवं हेतुः स्यात् । अथ बाह्याऽऽध्यात्मिकभावपौर्वापर्यनिबन्धनस्य दिक्कालयोः पौर्वाकरणं पज्जायाणं, कलिजए तेण वा जो वत्यु ।। पर्यव्यपदेशस्य भावान्न हेतोर्विरुकता । नन्वेवं दिक्कालपरिकलयंति तयं तम्मि व, समयाकलासमूहो वा॥२०श्ना । कल्पना व्यर्था, तत्साध्यानिमतस्य कार्यस्य बाह्याभ्यात्मिक कल शब्दसंख्यानयोःनवपुराणादीनांसमयादीनां चा पर्याया- संबन्धिभिरेव निर्ववर्तितत्वात् । तथाहि-दिक पूर्वापरादिणांकलनं संशब्दनं, संख्यानं वा भावप्रत्यये कालः । अथवा-मा- व्यवस्था हेतुरिष्यते, कासश्च पूर्वापरकणभवनिमेषकलामुहूर्तप्रसिकोऽयं सांवत्सरिकोऽयं शारदोऽयमित्यादिरूपेण कल्यते परि- हरदिवसाहोरात्रपक्वमासवयनसंवत्सरादिप्रत्ययप्रनवनिमि-- विद्यते यतो यस्माद्वस्त्वनेनेति कालः। अथवा-कलयान्त झानिनः त्तोऽभ्युपगतः । अयं च स्वरूपन्नेदः स्वात्मनि तयोः समस्तो:समयादिरूपेण परिच्छिन्दन्ति तमिति कालः। यदि वा-मासिको- प्यसंवीतसंबन्धिषु पुन वेषु विद्यमानस्तत्र प्रत्ययहेतुरिति ऽयं सांवत्सरिकोऽयमित्यादिरूपतया कलयन्ति परिच्छिन्दन्ति व्यर्था तत्प्रकल्पना । अथ तत्संबन्धिष्वध्ययं भेदो अपरक्रियावस्तु तस्मिन्सतीति कालः। समयादिकलानां पा समूहः कालः।। दिभेदनिमित्तस्तर्हि तत्राप्यवमित्यनवस्थाप्रशक्तिः। अथ पदार्थश्राह-ननु सामूहिक प्रत्यये नपुंसकत्वं प्राप्नोत, यथा-कापोतं षु पूर्वापरजेदः काननिमित्तः । ननु कालोऽप्यसौ न स्वत इति, मायूरमित्यादि । सत्यम, किंतु शिष्टप्रयोगाद रूढितश्चादोषः।। परकालनिमित्तो यद्यभ्युपगम्यते तदाऽनवस्था । अथ पदार्थमेतथा चाह-'लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वादिति । तदेवं काल- दनिमित्तः,तदेतरतराश्रयप्रसङ्गः । अथ तत्र स्वत एवायं भेदः, स्यान्तरङ्गता-निरुक्ती भणिते। पदार्थेष्वपि स्वत एवायं किं नान्युपगम्यते ?। ततश्च पुनरपि Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल प्राभिधानराजेन्द्रः। काल दिक्कामप्रकल्पनं व्यर्थम् । सम्म०२ काण्ड।जैनसमयेन विशिष्टप- द्यायुष्ककालो देवाऽऽद्यायुष्कलक्कणोधक्तव्यः। तथा-उपक्रमका. रापरप्रत्ययादिलिशानुमेये व्यभेदे, सम्म०२ काएक। लोऽनिप्रेतार्थसामीप्यानयनलकणः समाचारी, यथाऽऽयुष्कने(४) कालसिकि: दभिन्नोऽभिधानीयः। तथा-देशः प्रस्तावोऽवसरो विनागः पर्याय इत्यनर्थान्तरम् स देशरूपः कालो देशकालो वक्तव्यः, अनीवअथ काल एव कथमवसीयत शति चेत् ,उच्यते-बकुलचम्प स्त्ववाप्त्यवसरकाब इत्यर्थः । तथा-कासकालोऽभिधानीयः, तकाशोकादिपुष्पप्रदानस्य नियमेन दर्शनात, नियामकश्व काल | त्रैकः कालशब्दोऽनन्तरनिरूपितशब्दार्थः, द्वितीयस्तु समयपशति । स्था०१०१०। कालो नाऽस्ति, अनुपलम्भात; यश्च वन रिनाषया कालो मरणमुच्यते।ततश्च कालस्य मरण/क्रयारूपस्य स्पतिकुसुमादिकाबलकणमाचक्कते, तत्तेषामेव स्वरूपमिति म कलनं कालः, काज इत्यर्थः । तथा-प्रमाणकालोऽकाकालस्यैव न्तव्यम् । असत्यम । तेषामपि स्वरूपस्य वस्तुनोऽनतिरेकात । विशषभूतो दिवसादिलक्वणो वक्तव्यः । तथा वर्णश्चासौ कालश्व कुसुमादिकरणमकारणं तरूणां स्यात् । प्रइन० २अाश्र0 द्वार। वर्णकालो भणनीयः । तथा भावे त्ति) औदयिकादेर्भावस्य (५) काललकणम् सादिसपर्यवसानादिनेदजिन्नः कालो भावकालः प्ररूपणीयः । कालस्तु परमार्थतो द्रव्यं नास्तीतिशङ्कमानं निराकुरुते ( पगयं तु भावेण त्ति ) प्रकृतं प्रस्तुतं पुनरत्र भावेन जावकावर्तनालक्षणः कालः, पर्यवछव्यमिष्यते ।। बेनहाधिकारः । शेषास्तु व्यकालादयः कालनेदमात्रतः अव्यनेदात्तदानन्त्यं, सूत्रे ख्यातं सविस्तरम् ॥१॥ । प्ररूपिताः । इति नियुक्तिगाथाद्वारसंकेपार्थः ॥ २०३० ।। [ वर्तनेति ] सर्वेषां व्याणां वर्तनासक्षणो नवीनजीर्णक अथ प्रतिद्वारं विस्तरार्थमभिधित्सुराहरणलकणः कालः पर्यायाव्यमिष्यते । तत्कालपर्यायेषु चेयणमचेयणयस्स य, दव्वस्स विई उ जा चउ विगप्पा । अनादिकालीनफव्योपचारमनुसृत्य कालद्रव्यमुच्यते । अत एव सा होइ दव्वकालो, अहवा दवियं तयं चेव ॥२०३१।। पर्यायेण द्रव्यभेदात् तस्य कालव्यस्यानन्त्यम् । अनन्तकाल व्यभावनं सूत्रे उत्तराध्ययने सविस्तरं ख्यातम् । तथा च | चेतनमिति विनक्तिव्यत्ययात्षष्ठी अष्टव्या । चशब्दस्तु तत्सूत्रम्-" धन्मो अधम्मो आगासं, दव्यमिक्किकमाहियं । समुच्चये। ततश्च चेतनस्य सुरनारकादेः, अचेतनस्य च पुजलस्कअणताणि य दवाणि, कालो पुग्गजंतो"॥१॥ एतदुपजीव्या- न्धादेः, द्रव्यस्य च याऽवस्थानरूपा स्थितिः सादिसपर्यवसानादि. न्यत्राप्युक्तम-"धर्माधर्माकाशा-येकैकमतः परं त्रिकमनन्तम् " नेदाचतुर्विकल्पाचतुर्नेदा सा स्थितिर्भवति । किमित्याद-कन्यइति । ततो जीवजन्यमप्यनन्तं, तस्य च वर्तमानपर्यायस्यार्थ स्य कालो जव्यकालः, तत्पर्यायत्वात् । अथवा-तदेव सचेतनाचे. काव्यमथानन्तमित्युक्तमागमे। विस्तरस्तुततोऽवधारणीयः। तनरूपं यं कालो व्यकालः प्रोच्यते , पर्यायपर्यायिणोरव्या० १० अध्या। भेदोपचारादिति नियुक्तिगाथार्थः ॥ २०३१ ॥ कथं पुनर्जव्यस्य कालोऽन्तरङ्गः, न तु क्षेत्रमित्यादि अर्थतां भाष्यकारो व्याचिण्यासुराहजं वत्तणाश्रूवो, वत्तुरणत्यंतरं मो कालो। दव्वस्स वत्तणा जा, स दबकालो तदेव वा दव्वं । आहारमत्तमेव उ, खेत्तं तेणंतरंगं सो ॥२०२७॥ नहि वत्तणाजिन्न,जम्हा दव्वं जोऽनिहियं ।२०३श वर्सना आदियेषां परिणामादीनां ते वर्तनादयः, त एव रूपं | मुत्ते जीवाजीवा, समयाऽऽवलियादो पवुचंति । यस्यासौ वर्तनादिरूपः तीर्थकरादीनां संमतः कालः। उक्तं च"वर्तना परिणामः क्रिया परापरत्वे च काबस्योपग्रहः"इति ।तत्र दव्वं पुण सामन्नं, जधइ दबट्टयामेत्तं ॥२०३३ ।। विवक्तितेन नवपुराणादिना तेन तेन रूपेण यत्पदार्थानां वर्तनं श व्यस्य या सादिसपर्यवसानादिवकणा तेन रूपेण वृ. श्वद्भवनं सा वर्तना। परिणामोऽभ्रादीनांसादिः,चन्द्रविमानादी त्तिर्वर्तना स द्रव्यस्य कालो द्रव्यकालः समुत्कीर्त्यते । अथ नामनादिः। क्रिया देशान्तरप्राप्तिलकणा। देवदत्ताद्यज्ञदत्तःप वा-तदेव चेतनाचेतन अयं कालो द्रव्यकाल इष्यते । कुत इ. रः पूर्वमुत्पन्नः, यदत्तात्पुनर्देवदत्तोऽपरोऽर्वागुत्पन्न इत्यादिरूपं त्याह-न खलु यस्माद्वर्तनापरिणामादिभ्यो भिन्नं पृयम्भूतं द्रपरापरत्वम,इत्येतानि कालस्योपग्रह नपकारः। एतानि चत्वार्यपि व्यमस्ति, यतोऽभिहितं सूत्रे श्रागमे । किमभिहितमित्याहकालकृतत्वातल्लिकानीति भावः । स च वर्तनादिरूपः कालो | [जीवाजीवेत्यादि समयावलिकादयः केऽनिधीयन्ते?, इत्याहयद्यस्मावर्तितुर्दम्यादनान्तरमभिन्नस्वरूप एव वर्तते, केतु | जीवाजीवाः जीवाजीवाव्याण्येव समायावनिकादयो भण्यन्ते, द्रव्यस्याधारमात्रमेव.न स्वर्थान्तरम्। तेन द्रव्यस्यान्तरङ्गः कालः, न पुनस्तद्व्यतिरिक्तास्त इति भावः । तदेवं जीवाऽजीवेभ्योऽबहिरतु क्षेत्रम, अतो द्रव्यनिर्गमादनन्तरं कालनिर्गमोऽभि व्यतिरिक्तः समयावलिकादिरूपः कालः । ते च जीवाऽजीवा धीयत इति । विशे। उज्यार्थतामात्ररूपं सामान्यतो ऽव्यमुच्यते। ततो ऽव्यमेव कातेषामेव व्यकालादिनेदानां प्रतिपादनार्थ नियुक्तिकारः प्राह लो व्यकाल शति सिकम् । इह चागमोऽक्तोऽर्थ एव लिखितः, सूत्र पुनरित्यमवगन्तव्यम्-"किमिय भंते !काले सि पषुबई ? । दव्वे अद्ध अहाउ य, उबकमे देसकालकाले य । गोयमा! जीवा चेव,अजीवा चेव ति"। तह य पमाणे वने, भावे पगपं तु भावेणं ॥२०३०॥ यह नामस्थापने सुखावसेयत्वानोक्ते, शेपास्तु नवकालभेदाः कथं पुनश्चेतनस्याचेतनस्य च मन्यस्य चतुर्विधा स्थितिरित्याहप्रोच्यन्ते-तत्र द्रव्य इति वर्तनादिरूपो व्यकालो वाच्यः। (श्र सुरसिद्धभबऽजव्वा, साइसपज्जवसियादोजीचा । कत्ति)चन्छसूर्यादिक्रियाऽनिव्यङ्गयोऽर्फतृतीयद्वीपसमुझान्तर्व- खंधाणागयतीया, नभादो चेयमारहिया ॥२०३४॥ पद्धाकालासमयादिनकणो वाच्यः। तथा यथायुष्ककालो देवा- सुरग्रहणस्योपलकणत्वात्सुरनारकतियङ्मनुष्याः,सुरत्वादिप Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल ( ४७२ ) अभिधानराजेन्द्रः | 1 यमधिकृत्य साविपर्यवस्थितयः सिद्धाः प्रत्येक सि त्वमधिकृत्य साद्यपर्यवसानाः । नव्यजीवाः, भव्यत्वमाश्रित्य केचनाप्यनादिसपखाना "सिनो भो "इति वचनात् सित्प्राप्तो भव्यत्यनिवृत्ते अभय स्वीकृत्य अनाद्यपर्यवसिताः। इत्येवं चेतनज्यस्य सादिस पर्यवसितादिका चतुर्विधा स्थितिः । अचेतनम्रव्यमुररीकृत्या- बंधेत्यादि) प्रयुकादिस्कन्धाः सादिसपर्यवसिता केन द्वाणुकत्वादिना परिणामेनोत्कृष्टतोऽपि पुत्रद्रव्यस्यासंख्येयकालमेव स्थितेः। अनागताद्धा प्रविष्यत्कालरूपा साद्यपर्यवसिता । श्रतिक्रान्तकालरूपा श्रतीताका अनादि सपर्यवसिता । माकाशधतिकापादपस्वनाथ पसिताः। इत्येवंत नारहितस्यापि प्रायस्व चतुर्विधा स्थितिः । तद्देचमभिहितो अव्यकालः || २०३४ ॥ ( श्राकालस्वरूपोपदर्शनं 'काका' शब्दे प्रथमभागे ५१३ म् • trissयुककालं विभणिषु नांध्यकारस्तत्स्वरूपमाहआउयमेतविसिद्धो, स एव जीवाण वत्तणाइमश्र । पर अहाउकालो, वत्तइ जो जश्चिरं जेण || २०३७ ।। स पोकरूपोऽकाको वर्तनादिमयों जीवानां नारकति नरामराणां यथायुष्ककालो भएयते । किं सर्वोऽपि न, इत्याह-युकमात्रविशिष्ट नाटकाद्यायुष्कमात्रविशेषित इत्यर्थः । अत वायं यथायुककालो जयते यद्येन निर्यणानुयादिना जीवन यथा येनार्तर्मयानादिना प्रकारेणोपार्जितमायुर्ययायुष्कर्म, तस्याऽनुभवनकालो यथायुष्ककालः कियन्तमवापदस भवतीत्याह वो जीवो येनात्मबद्धेनायुषा [जधिरं स ] याव तमन्तमुदकं यस्त्रिसागरोपमपर्यन्तं कालं वर्तते स तस्य जीवस्य तावन्तमवधि यावद्यधायुष्ककालो भवतीति तात्प यर्थः । इत्येवं विज्ञामात्रकृतो का कामयथायुष्ककालयोर्भेदः । श्रतोऽद्धाकालस्यैव विशेषभूतत्वात्तदनन्तरं यथायुष्ककालमादेति नाव इति गाथार्थः ॥ २०३७ ॥ इति विहितसंबन्धमेव यथायुष्ककालं निर्मुक्तिकारः प्राहनेरइयतिरियमरा - देवाण अहाउयं तु जं जेण । निष्पतियन्नने, पानि अहासकालो |२०१८ || नारक तिर्यग्मनुष्यदेवानां मध्याद्यद्येन जीवेन यथा येन रौद्रभ्यानादिना प्रकारेणान्यभवे पूर्वजन्मन्यनिनिर्वर्तितमायुरेतद् यथायुरिहोच्यते । तच यदा त एव नारकादयो विपाकतः पालयन्त्यनुभवन्ति तदा तेषां यथायुक्कामीयते । तुशब्दो य कालादिज्योऽस्य विशेषणार्थ इति निर्युक्तिगाथार्थः ॥२०३८ ॥ ( उपक्रम कालः 'वक्कमकाल' शब्दे द्वितीयभागे ८७३ पृष्ठे षष्टव्यः ) तत्र समाचारः शिष्टजनसमाचरितः क्रियाकलापः, तस्य प्राच इति" गुणवयनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च पाणि० ) ५ । १ । १२४ । इति व्यञ्प्रत्यये सामाचार्यम् । ततः सामप्रीत्यादादिच श्रीत्व विकायामप्रत्यये पलोपे च सामाचारी इति प्रचति तस्या उपक्रमणमुपरितनादिदानामाचार्युपक्रमः ; स चासावुपचारात्कालश्च सामाचार्युपक्रमका लः यथा स्वायुष्कस्योपक्रमणं दर्घिक तरकालेनैव कृपणं यथायुस्कोपक्रमः स वासातुपचारात्कालच यथायुष्कोपक्रम कालः । यः सामाचार्युपक्रमणद्वारेयोपक्रम्यते कालः स सामाचार्युपक्रमाला परत्वायुष्को "" काल पक्रमाद्वारेणोपायते स बधायुकोपक्रमका ती तात्पर्यम्। तत्र सामाचारी त्रिविधा । कथं ?, (ओहे दसहा पर्याविभागे ति) श्रोघः सामान्यं तेन सामाचार भोघसामाचारी, सामान्येन संक्केपतः साधुसमाचाराभिधानः सा श्रीघनिकर्मेदितम्या | दश धा सामाचार | पुनरिच्छाकारमिथ्या दुष्कृतादिदशविधसाधुसमाचाररूपा । विशे० | "अज्झवसाणनिमित्ते, श्राहारे वेयणा पराघाए । फाले श्राणापाण, सतविदं भिजए श्राउं " ॥२०४१॥ (सप्तया आयुर्भियते इति 'आ' शब्द द्वितीयभागे १० पृष्ठे स विस्तरं व्याख्यातम् ) प्रमाणकालानिधित्सया तत्स्वरूपं विवरीषुर्भाष्यकारः प्राहश्रद्धाकालविसेसो, पत्थयमाणं व माणुसे खित्ते । सो संवारत्यं, पमाणकालो अहोरतं ||२०६८ । स प्रमाणकाल इति समयविद्भिः प्ररूप्यते । यः कथंभूतः ?, इत्याह-अकाकालस्यैव विशेषस्वरूपः । श्रयं च सूर्यादिगतिक्रिया जिव्यङ्ग्यत्वाद् मनुष्यक्षेत्र एव भवति, न परतः, सूर्यादिगतिक्रियाभावाद किविशिष्टः पुनरसादित्याह अहोरात्रमहोरात्रसंज्ञितः। किमर्थ पुनरसी प्रप्यते इत्याह- संस्थवदाराधे जीवा जीवादिस्थित्पादिमानव्यवहारार्थम किंवत् मानवत् । यथा सामान्यमानस्य विशेषभूतं मनुष्यक्षेत्रे धान्यादिमिततत्संव्यवहारार्थम् "दो असईओ एसईओ, दो पसईओ या सारि सेश्याओ कुडवो, चत्तारि कुरुवा पत्थो " इत्यादिना सूत्रे प्ररूपितं प्रस्थकमानम् । तथाऽयमप्यहोरात्ररूपः प्रमाणकाल इति गाथार्थः ॥ २०६८ ३ विशे० (वर्णका नायक व्याख्या स्वस्वस्थाने) अथ headsप सूत्रे जीवाजीवाज्यामतीतः कालः कथितोSSतस्तमेव तचैव सूत्रयग्रादजिवाजीवमयः कालः, समये न पृथक् कृतः ॥ इत्येके संगिरन्ते ऽत्र, धारयन्तः शुजां मतिम् ॥ ११ ॥ समये सिद्धान्ते जीवाजीवमयः जीवाजीव रूपः कालः कथितः, पृथक् भिन्नस्ताभ्यां न कृतः, ततो भिन्नः कथं कथ्यते इति पूर्वोकमे के आचार्य नाते अत्र किं कुर्वन्तः शुत्रां विशुषां मर्ति बुद्धिं धारयन्तः । युद्धबुद्धिमतां सुधीरायां यथोकी जनप्रणीतस्वयेवं प्राणिनां सम्यक्त्वादाि सुलना जवतीति ध्येयम् । तथा च गौतमेन भडक परिणामशालिना भगवान् पृष्टः, तदाहेति भगवन् ! किमयं कालो जीवस्तथाऽजीवश्चेति प्रश्ने भगवानाह - गौतम ! जीवोऽवि कालः, श्रजीवोऽपि कालः, तदुजयं काल एव जीवाजीवयोः कालेनोपजीव्योपजीवकभावबन्धः संतिष्ठत इति । पुनस्तदेवाह आदुरम्ये अपक्रस्प विधे चारेण या स्थितिः । कालोऽपेक्ष कारणं च रूपमित्यपि पञ्चमे ॥ १२॥ अन्ये श्राचार्य एवं कथितवन्तः भचक्रस्य ज्योतिश्चक्रस्य वा या विश्वे स्थितिरवस्थाविशेषः स काल इत्यभिधीयते । तथा च वर्तुलाकारं ज्योतिश्चक्रं, तस्य चारेण परत्वापरत्वनवपुराणादिनावस्थितिहेतुः, तस्यापेक्षाकारणम् । मनुष्यलोके हि अर्थस्य सूर्यक्रियोपनाय करूव्य चारक्षेत्र प्रमाणमेवोपकल्पनं घ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७३) अभिधानराजेन्द्रः। काल काल रते, तत पतारशं कासव्यं कथ्यते । तत एव श्रीभगवत्यने"का पं भंते ! दया पन्नता । गोयमा! छ दव्वा पम्मत्ता। तं जहा-धम्मत्यिकाए जाव श्रद्धासमए।" एतद्वचनमस्ति । तस्य निरूपचरितव्याख्यानं घटते । तथा च वर्तनापर्यायस्य साधारणापेक्षा न कथ्यते तदा तु गतिस्थित्यवगाहनासाधारणापेकाकारणत्वेन धर्माधर्मास्तिकायौ सिकौ जातौ नत्रापि अनाश्वास प्रायाति । अथ च अर्थयुक्त्या ग्राह्यमस्ति तस्मात्केबलमायैव ग्राह्याऽस्ति परंतु कथं सन्तोषधृती भवेताम्।।१२। एतन्मतव्यं धर्म-संग्रहिण्यां च जायके । अनपेक्षितव्यार्थि-कमते तस्य योजना ॥१३॥ पतम्मतस्य धर्मसंग्रहिण्यां श्रीहरिभसूरिणा व्याख्यातम् ।त. था च तगाथा-"जं वत्तणाश्रूवो, कालो दब्बस्स चेव पज्जायो । सो चेव तबो धम्मो, कालस्स व जस्स जो ण लोए ति"॥१॥ एवमेतन्मतव्यमवं श्रीहरिभरुसूरिसम्मतधर्मसंग्रहिणीसूत्रोक्तं झेयम् । तथाच एतन्मतद्वये नायके श्रीतत्वार्थभाष्येऽपि वाचकैस्तथैव प्रणीतमस्ति । तथाच तदूग्रन्थः-"कालश्चेत्यके" इति वचवाद द्वितीयमतं श्रीतन्वार्थव्याख्याने समर्थितम । पुनस्तस्य कालस्य अनपेक्वितव्यार्थिकनयमते योजना युक्तिश्च जबति । तथाई-स्थूललोकव्यवहारसिद्धोऽयं कालोऽपेक्षारहितश्च ज्ञेयः । अन्यथा वर्तनापेक्षाकारणत्वेन यस्कासन्यं साधितं तत्पूर्वापसदिव्यवहारविलक्षणपरत्वापरस्वादिनियामकत्वेन दिगन्यमपि सिकं स्यादिति । अथ च"आकाशमवगाहाय, तदनन्या दिगन्यथा। तावप्येवमनुच्छेदासाज्यां चान्यदाहृतम्" ॥१॥ इति सिकसेनदिवाकरकृतनिश्च यद्वात्रिशिकाथै विमृश्य आकाशादेव दिक्कार्य प्रसिम्यतीति । इत्थमीकुर्वतां काव्य कार्यमपि कथञ्चित्तत एवोपपत्तिः स्यात् । तस्मात् 'कालत्येके इति सूत्रमनपेक्तितमध्याथिकनयेनैव इति सूक्ष्मदृष्ट्या विनावनीयम् ॥ १३ ॥ (७)अथ कालव्याधिकारं दिगम्बरप्रक्रियया उपन्यसन्नाहमन्दगत्याऽप्यर्यावत, प्रदेशे ननसः स्थितौ । याति तत्समयस्यैव, स्थानं कामाणुरुच्यते ॥ १४॥ मन्दगत्या मन्दगमनेनाणुः परमाणुः नभसः आकाशस्य प्रदेशे स्थिती स्थाने यावदिति यावता कालेन गच्छति तत्समयस्य तत्कालपरिमितस्य कालस्य स्थानं कालाणुरिति व्यवहारोजायत इति । एकस्य ननसः स्थाने मन्दगतिरणुर्यावता कालेन संचरति तत्पर्यायेण समय उच्यते, तदनुरूपश्च यः स काल: पर्यायसमयस्य जाजनं कालापुरिति । स च एकस्मिनाकशप्रदेशे एकैक पवं कुर्वतां समस्तोकाकाशप्रदेशप्रमाणाः कालाणवो जायन्त इति । इत्थं कश्चिदपरो वदर जैनाजासो दिगम्बर पवास्ति । नक्तं च व्यसंग्रह-" रयणाणं रासी इ. प, ते कालाणु असंखदव्वाणि ।” इति दिगम्बरमतमनुसृत्य योगशास्त्राभ्यासेन अपरोऽपि कश्चिदेतद्वचनमुदाजहार ॥१४॥ तदेव दृष्टान्तयन्नाहयोगशास्त्रान्तर श्लोके, मतमतदपि श्रुतम् । लोकमदशेऽप्याणवो, जिन्ना जिन्नास्तदग्रता ॥१५॥ योगशास्त्रान्तरश्लोके एतदपि मतं श्रुतं,दिगम्बरमतेऽपि अन्त- रश्लोकव्याख्यानमपाष्टमस्ति । यतो लोकप्रदेशेऽपि भिन्ना जि- माअणवस्तन्मुख्यत्वमापादयन्ति । लोकप्रदेशे निन्ना भिन्नाः कालाणवस्त एव मुख्यकाल इति व्यवहारः । तथाच तत्पाठः"स्रोकाकाशप्रदेशस्थाः, भिन्नाः कालाणवस्तु ये। भावानां परिवर्ताय, मुख्यः कासः स उच्यते" ॥१॥ इति । अस्य नावार्थ:-लोकाकाशे यावन्तः प्रदेशास्तेषु तिष्ठन्तीति लोकाकाशप्रदेशस्थाः,भिन्नाः पृथक पृथक् एकनभोदेशे एकः,इत्थं सर्वत्र सर्वे ये कामाणवः सन्तित एव तावन्तः कालाणव इति । तु पुनर्जावानां पदार्थानां परिवर्ताय नूतनं कृत्वा जीणे करोति, जीर्ण कृत्वा नूतनं करोति एवं नावानां परिवर्तीय वर्तते सएव मुख्यः सर्वत्र प्रधानपदार्थः काल उच्यते इत्यर्थः ॥१५॥ पुनस्तदेव चर्चयन्नाहप्रचयोर्ध्वत्वमेतस्य, द्वयोः पर्याययोर्भवेत् । तिर्यकमचयता नास्य, प्रदेशत्वं विना क्वचित् ॥१६॥ एतस्य कालाणुद्रव्यस्य प्रचयो त्वमूर्खताप्रचयः द्वयोः पर्याययोः पूर्वापरयोर्नवत् । यतो यथा मृद्रव्यस्य स्वासकोशकुशूबादिपूर्वापरपर्यायाः सन्ति तथा एतस्य कालस्य समयावसीमुहूर्तादयः पूर्वापरपर्याया वर्तन्ते, परं तु स्कन्धस्य प्रदेशसमुदायः कालस्य नास्ति तस्माद् धर्मास्तिकायादीनामिव तिर्य प्रचयता न संनवति, पतावता तिर्यपचयत्वं नास्ति । तेनै. व कालव्यमस्तिकाय ति नोच्यते । परमाणुपुमलस्येव पुनस्तिर्यपचयता नास्ति । तस्मात् उपचारेणापि कानन्यस्य अस्तिकायता न कथनीया इति ॥ १६ ॥ (0) अथैतद्दिगम्बरमतं वादेन दूषयन्नाहएवमणुगतेलात्वा, हेतुं धर्माणवस्तदा । साधारणत्वमेकस्य, समयस्कन्धताऽपि च ॥ १७ ॥ एवमनया रीत्या यदि अणुगतेः परमाणुगमनस्य हेतुमिति हेतुत्वं लात्वा गृहीत्वा धर्माणवो धर्मव्याणवो भवन्ति तदैकस्य कस्यचित्पदार्थस्य साधारणत्वं गृहीत्वा समयस्कन्धता स्यादिति । अथ योजना एवम्-यदि मन्दाणुगतिकार्यहेतुपर्यायसमयभाजनं द्रव्यसमयाणुः कल्पते तदा मन्दाणुगतिहेतुतारूपगुणभाजनं धर्मास्तिकायोऽपि सिद्ध्यति । एवमधर्मास्तिकायस्याप्यणुप्रसङ्गता स्यात् । अथ च सर्वसाधारणगतिहेततादिकं गृहीत्वा धर्मास्तिकायाकस्कन्धरूपं व्यं कल्पते तदा देशप्रदेशादिकल्पनाऽपि तस्य व्यवहारानुरोधेन पश्चात्कर्तव्या स्यात्। यदि च सर्वजीवाजीवाव्यसाधारणवर्तनाहेतुतागुणं गृहीस्वा कालव्यमपि लोकप्रमाणं कल्पयितुं युज्यते धर्मास्तिकायादीनामधिकारेण साधारणगतिहेतुताभापस्थितिरेषास्ति । अस्याः कल्पनायास्तु अनिनिवेशं विना द्वितीयं किमपि कारणं नास्ति ॥ १७॥ अथ पुनस्तदेवाहअप्रदेशत्वमासूध्य, यदि कालाणवस्तदा। पर्यायवचनोयुक्तं, सर्वमेघौपचारिकम् ॥ १० ॥ अप्रदेशत्वं प्रदेशरहितत्वं यदि आसूत्र्य प्रकल्पितस्य कालस्य प्रणवः कथ्यन्ते तदा पर्यायवचनेन योजितं क्रियते सर्वमप्युपचारेण दमिति । तथाच यदा एवं कथयत-स्त्रे कालोऽप्रदे. शी कथितः तस्यानुसारेण कालाणवः कथ्यन्ते, तदा तु सर्वम Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७४) काल अन्निधानराजेन्द्रः। काल पि जीवाजीवपर्यायरूपमेव काल इति कथितमस्ति तत्र विरोधो काल एवायुष्कर्मानुभवविशिष्टःसर्वसंसारजीवानां वर्तनादिरूप नास्ति, द्रव्यकालोऽपि कथं कथ्यते । ततस्तदनुसारेण काल- इति । उक्तं च-"आउयमित्तविसिहो, स एव जीवाण पत्तणादिस्याऽपि व्यत्ववचनम् । तथा लोकाकाशप्रदेशप्रमाणानुवच- मओ। भरण अहाउकालो, वत्त जो ज चिरं तेण" ॥१॥ नादीनि सर्वाण्युपचारेण योज्यानि । मुख्यवृत्त्या स पर्यायरूपः | मरणस्य मृत्योः कालः समयः मरणकालोऽयमप्यद्धासमयकाल एव सूत्रसंमतोऽस्ति। अत एव कासश्चेत्येके' अत्रैकवचनेन | विशेष एव । मरणविशिष्टो मरणमेव वा कालो, मरणपर्यायसर्वसंमतत्वाभावःसूचयामासेति। तेनाप्यत्र अप्रदेशत्वं प्रदेशाऽ स्वात्। उक्तंच-“कालोसि मयं मरणं,जहब मरणं गोत्ति कामभावं सूत्रणानुसृत्य तस्य कालस्य अणुः कथ्यते, तदा सर्वमप्ये. गो। तम्हा सकालकाला; जस्स मओ मरणकालो ति" ॥१॥ तत् उपचारेण पर्यायवचनादिकेन्यो युज्यमानं चारिमाणमञ्च- तथा अद्धैव कालोऽहाकालः। कालशब्दो हि वर्णप्रमाणकलाताति।अय च-“परमाणुमयो भागोऽवयवस्तदितरस्तु प्रदेशः" दिष्वपि वर्तते,ततोऽकाशब्दन विशिष्यत इति। अयश्च सूर्यक्रिइति वचनाद् व्योमाद्यपरिमाणजतया सप्रदेशं स्यान्न तु साव- | याविशिष्टो मनुष्यकेत्रान्तर्वर्ती समयादिरूपोऽवसेयः। यवमित्याचक्कीथाः, तथाऽपि उक्तं च"दोषोल्लासवशप्रसत्वरतमस्कागडेऽपि देदीपया "सूकिरियाविसिहो, गोदोहाइकिरियासु निरवेक्नो। मासे नोऽवयवप्रदेशविषयो भेदस्वया दीपकः। श्रद्धाकालो जराणइ, समयक्खेत्तम्मि समया ॥१॥ अस्माभिः परमाणुतां प्रकटतामानेष्यमाणं पुरो, समयावलियमुहुत्ता, दिवसमहोरत्त पक्खमासा य । दुर्वारव्यभिचारदीर्घरसनं निध्याय विध्वंसितः" ॥१॥ संवच्छरजुगपलिया-सागरमोसप्पिपरियट्टा" ॥२॥ ननु पूर्व तावदम्बरादेविभागाः परमाणुमया एव सन्ति न व्यपर्यायभूतस्य कालस्य चतुःस्थानकमुक्तम् ॥ स्था०४ठा० खलु कंजलचूर्णपूर्णसमुझकवनिरन्तरपुद्गलपूरिते लोके स १००। कश्चिन्नमसो विनागोऽस्ति यो निर्भरं न बिजरांबवेऽणुनिः सम्पति 'यथोद्देशं निर्देशः' इति न्यायात् प्रथमतः कालप्रमाणतत्कथं न हेतुरेष व्यजिचरिष्णुरिति दिक् ॥ १७ ॥ रूपं विवक्षुरिदमाहअयोपचारप्रकारमेव दर्शयन्नाह स्रोगाणुभावजणियं, जोइसचक्कं भवंति अरिहंता । पर्यायेण च व्यस्य, ह्यपचारो यथोदितः। सब्वे कालविसेसा, जस्स गाविसेसनिप्फबा॥ अप्रदेशत्वयोगेन, तथाऽणूनां विगोचरः॥१ यस्य ज्योतिश्चक्रस्य चन्द्रसूर्यनक्कत्रादिरूपस्य संबन्धिना गतिषडेव व्याणीति संख्यापूरणार्थ यथा पर्यायेण पर्यायरूपेण | विशेषण निष्पन्नाः सर्वे कालविशेषाश्चन्द्रमाससूर्यमासनककव्यस्य कालव्यस्य एतावता पर्यायरूपकालव्य विषये हि त्रमासादिकाः तज्योतिश्चकं लोकानुभावजनितमनादिकालनिश्चितं द्रव्यस्योपचारो यथा उदितः द्रव्यत्वोपचारकल्पना सन्ततिपतिततया शाश्वतं वेदितव्यं, नेश्वारदिकृतमिति भणविहिता भगवत्यादिसूत्रविशेषे कृता तथैव सूत्रे कासव्यस्या- न्ति प्रतिपादयन्ति भगवन्तोऽर्हन्तः तीर्थकृतां च वचनमवपि अदेप्रशत्वयोगेन कालाणूनां विगोचरो विषयता ज्ञेयः । श्यं प्रमाणयितव्यम् ,कोणसकलदोषतया तद्वचनस्य वितथार्थपतावता सूत्रे कालस्यात्र प्रदेशता सूत्रिता तथैव कालाणुताऽपि त्वान्नावात् । उक्तं च-"रागाद्वा द्वेषाद्वा,मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृसत्रिताऽस्ति तद्योजनया लोकाऽऽकाशप्रदेशस्थपुमलाणूनां विष- तमा यस्य तु नैते दोषा-स्तस्यानृतकारणं किं स्यात् ?" । अपि च ये एव योगशास्त्रान्तरलोकेषु कालाणूनामुपचारो विहितः । युक्तचापि विचार्यमाणो नेश्वरादिघंटांपाश्चति, ततस्तदभावादमुख्यकाल इत्यस्य चानादिकाशीनाप्रदेशत्वव्यवहारनियाम- | पिज्योतिश्चक्र लोकानुभावजनितमवसेयम् । यथा च युक्त्या कोपचारविषय इत्यर्थः । अत एव मनुष्यकेत्रमात्रवृत्तिकालव्यं विचार्यमाणो नेश्वरादिर्घटते तथा तत्यार्थटीकादौ विजृम्भितये वर्णयन्ति तेषामपि मनुष्यवेत्रावच्छिन्नाकाशादौ कामकाव्यो मिति तत एवावधार्यम् । तदेवं लोकानुभावनिताद् ज्योतिपचार एव शरणमिति दिग्मात्रमेतत् ॥१६॥ द्रव्या०१० अध्या०।। श्चक्रात् कालविशेषो निष्पन्न इति सामान्यतः कालस्य संभव विशे। दश । उत्त०। आव०। प्रा० चू०। प्रतिपाद्य संप्रति संवेपतः कालस्य नेदानाचष्टे । ज्यो०१पाहुभ। (६) अथ कालनिक्षेपमाह संखेवेण उ कालो, अणागयातीत वट्टमाणो य । प्रायश्चित्तं च कालापेक्कया दीयत इति कालनिरूपणासूत्रम् कालः संक्षेपतः त्रिधा । तद्यथा-अनागतोऽतीतो वर्तमानश्च । चउबिहे काले पन्नत्ते। तं जहा-पमाणकाले, अहाउणि ज्यो० १ पाहु। ब्बत्तिकाझे, मरणकाले, अद्धाकाले। तिविहे काले पएणत्ते । तं जहा-तीते पडुप्पन्ने प्रणागए। प्रमीयते परिच्छिद्यते येन वर्षशतपल्योपमादि तत्प्रमाणं, अतिशयेन श्तो गतोऽतीतः, पिधानवदकारलोपेऽतीतो वर्स मानत्वमतिक्रान्त इत्यर्थः । साम्प्रतं उत्पन्नः प्रत्युत्पन्नो, वर्ततदेव कालः प्रमाणकानः स च असा काझविशेष एव दिवसादिनकणो मनुष्यक्षेत्रान्तर्वर्तीति। उक्तं च-"दुविहो पमाणकासो, मान इत्यर्थः । न ागतोऽनागतो वर्तमानत्वमप्राप्तो, भविष्यनिदिवसपमाणं च हो राई य । चउपोरिसिश्रो दिवसो, राई त्यर्थः । उक्तं च-"भवति स नामाऽतीतः, प्राप्तो यो वर्तमानत्व. चनपेरिसी चेव" ॥१॥ यथा यत्प्रकारं नारकादिनेदनायुः म । पप्यश्च नाम स भवति, यः प्राप्स्यति वर्तमानत्वम्" ॥१॥ इति । स्था० ३ ठा०४ उ० । सूत्र। कर्मविशेषो यथाऽऽयुस्तस्य रोषादिध्यानादिना निर्वृतिर्बधनं तस्याः सकाशात यः कालो नारकादित्वेन स्थिति तदेवमित्थं संक्षेपतः कालस्य त्रैविध्यं प्रतिपाद्य प्रकाजीवानां स यथाऽऽयुर्निवृत्तिकालः । अथवा यथायुषो निर्वत्ति. रान्तरेण संकेपत एव कालस्य त्रैविध्यमाहस्तथा वः कालो नारकादिभवेऽवस्थानं स तथेति । अयमध्यका- संखेजमसंखज्जा, अणंतकालो न णिहिट्ठो। Jain Education Interational Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७५) अभिधानराजेन्द्रः । काल त्रिविधः कालो भगवद्भिस्तीधनर्दिष्ट तद्यथासंख्येयोऽसंख्येयोऽनन्तश्च । तत्र समयादिः शीर्षप्रहेलिकाप यतः संख्या असंख्येयः पत्योपमादिकः -- त्सर्पिएयवसर्पिण्यादिकः । ज्यो० १ पाहुर | तत्र प्रथमतः संख्येयं कालं विवचुरिदमाहसमए आवलिया याण पाणु योवे सवे मुहुत्ते होरचे पक्वे मासे उऊ अय संवच्चरे जुगे वास वाससहस्से पुगे पुबेतुकिअंगे तुडिए अट अव गे अव हुदुगे हुहुए उप्पलंगे उप्पले पउमंगे एनमे पायंगे लिऐ अस्थिनिकरंगे अत्थिनिक अनुशंगे अए नउअंगे नउए पउगे पउए चूलिअंगे चूलि - सीसपहेलिगे सीसपदेलिआ पक्षियो मे सागरोव पिणी उस्सप्पिणी पोग्गलपरिट्टि अतीतका अणागतया सव्वद्धा । अनु । (अस्य व्याख्या 'आयी शब्द द्वितीये भागे १५१ पृष्ठे षष्टव्या ) कालो परमनिरुको, अविनज्जो तं तु जाण समयं तु । समया व असंखेजा, हव हु उस्सासनिस्सासो । 1 कालः परमनिका परमनिकृष्टः एतदेव व्याय-विने विषयः किमुकं भवति योऽपि विभागः क न शक्यते स कालः परमनिरुद्धः इत्थंभूतं परमनिरुकं का लविशेषं समयं जानीहि स च समयो दुरधिगमः तं हि नग वन्तः केवलोऽपि खात् केशाने विदन्तिन ग्राहिकमा परेयो निर्देषु शक्रवन्ति निर्देश दि प्रथमतः काय प्रमाणेन भाषाइव्याण्यादाय पश्चाद्वापयतिकरणप्रयोगो विधीयते ततो यावत्समय इत्येतावन्त्यरारायुच्चार्यते ताव दसंख्येयाः समयाः समतिक्रामन्तीति न साक्काद्विनिर्लुक्तिरू पतया निर्देष्टुं शक्यते । इत्यंभूताः समया असंख्येया एक उ निवासो भवति किमुक्तं भवति-अनन्तरोकस्वरूपाः समया जघन्ययुक्ताः संख्यातकप्रमाणा एका श्रावलिका, सं ख्येया श्रावलिका एक उद्वासः, तावत्प्रमाण एव एको निःश्वासः। योवायं नेदः - ऊर्द्ध गमनस्वभाव उच्वासः अधोगमनस्वभावो निःश्वासः । उस्मासो निस्सासो, दोहिं विपाशुचि भए एका । पाणा व सन थोवा, चोवा वि य सच लयमा । अ य ती तु अवा, अकलो व नालिया हो ॥ पुरुषस्य शारीरिकबलोपेतस्यानुपहतकरणग्रामस्य निरुजस्य प्रशस्ते दीपने वर्तमानस्यानाकुलचेतसो य एक स संख्येयावलिका प्रमाणः, यश्चैको निश्वासः संख्यातावलिकाप्रमाण एव, तौ द्वावपि समुदितावेकः प्राणो भएयते । प्राणो नाम विशेषः । एतदुकं भवति यथोकपुरुषमतासनिःश्वासप्रमितः कालविशेषः प्राण इति । यच्च पुरुषस्य शारीरिक बलोपेतादिविशेष कल्लापोपादानं तदन्यथानून पुरुषसंबन्धिनावासनिःश्वासौ न प्राणरूपकालविशेषप्रमितितू नवत इति प्रतिपत्यर्थम् । ते च प्राणाः सप्त सप्तसंख्या एकः स्तोक: स्तोकामपि च सप्तसंस्थानेकं समाहुः पूर्वसूरयः । काल तेपि च लवा अष्टात्रिंशत्संख्या अलवः । भई लवस्य अलवम, सर्वेऽशे । श्रर्द्ध नपुंसकम् | २ | २ | २ | इति समासः । चैवशब्दः समुच्चये । एका नालिका भवति । सार्द्धा शः समुदिता एका मालिका भवतीत्यर्थः । उयो० १ पाहू (नालिकादि (टिका) प्रमाणे स्वस्थाने) (१०) संप्रति मुहूर्त्तादिप्रमाणमाह वे नालिया मुहत्तो, सद्धिं पुए नालिया अहोरतो । पन्नरस अहोरत्ता, पक्खो तीसं दिशा मासो || नासिके द्वे घटि समुदिते एको मुहूर्त्तः, स च धरिमप्रमाणचिन्तायां द्वे पलशते, मेयप्रमाणचिन्तायां चत्वार आढकाः। षष्टिः पुनर्नालिका परिकार समुदिता को अहोरात्रविशन्मुहूर्ता एकोऽदोरात्रमित्यर्थः । तत्र च मेषप्रमाणचिन्तायां विंशत्युसरमाढकशतम्, धरिमप्रमाणचिन्तायां षट्पल सहस्राणि तानि यदि भारीकृत्य चिन्त्यन्ते तदा त्रयो भारा जवन्ति । पञ्चदश अहोरात्रा एकः पक्षः, स च मेयप्रमाणचिन्तायामष्टादश आकशतानि परिमप्रमाणचिन्तायां पञ्च चत्वारिंशद् भाराः तथा त्रिंशद् माराः । तथा त्रिंशद्दिनान्यहोरात्र एको मासः । स च परिमप्रमाणचिन्तायां नयतिनराः मेयप्रमाणचिन्तायां पदाढकशतानि । संवच्छरो उ वारस, मासा पसा च ते पीसं । तिन्नेव सया सट्टा, हवंति राइंदियाणं तु ॥ ते अनन्तरोक्तप्रमाणा मासा द्वादशसंख्या एकः संवत्सरो भवति । ते च घादश मासाः पक्षतया चिन्त्यमानाः चतुर्विंशतिः पक्काभवन्ति । रात्रिन्दियतया विश्वमानाश्रीणि शतानि चीन प षष्ट्यधिकानि नवन्ति रात्रिंदिवानामहोरात्राणाम् । एष च संवत्सरो यदा मेयरूपतया चिन्त्यते तदा शतद्वयाधिकानि त्रिपरिसरागपादकानां भवन्ति (४३२००) सोन्यरूपतया तु चिन्त्यमानो भाराणामेकं सहस्रमशीत्यधिकम् ( १०८० ) । एप संदास लोके कर्मसंवत्सर इति संवत्सर इति च प्रसिद्धिं गतः । तथाहि - लौकिकास्त्रिंशतमहोरात्रान् मासं परिगणयन्ति, सर्वभूतमासद्वयात्मकं चयसम्तादिकतु तथाभूतानां पर्दा सम्तादनातून समुदाय संवत्सरम यानि च लोके कर्माणि प्रवर्तन्ते तानि सर्वाण्यमुं संवत्सरमधिकृत्य, एष कर्मसंवत्सरः, सावनसंवत्सर ऋतुसंवत्सर इति ख्यातः । तथा चाद इय एस कमो भयो, नियमा संवस्सरस्त कम्पस्स । कम्मो विसावणो चि य, उति तस्स नामाथि || एप पूर्वोक्तः क्रमो मणिकर्मणः कर्मनाः सं वत्सरस्य,तस्य चैवंरूपस्य संवत्सरस्यामुनि नामानि । तद्यथा-कमेति कर्म लौकिको व्यवहारः, तत्प्रधानतः संवत्सरोऽप्युपचारात् कर्म । (सावणो ति) सवनं कर्मसु प्रेरणं, सुञ् प्रेरणे इति वचनात् । तत्र भव एव संवत्सर इति सावनः। ऋतुर्लोकप्रसिको वसन्तादिः, तत्प्रधान एवं संवत्सर इत्युपचारात् ऋतुः । ज्यो० २पाहु०[सं शब्देऽस्य विशेषः ] रा कालविशेष श्रानन्तरोदितस्वरूपैश्चतुभिर्युगैर्विशतिर्वर्षाणि पञ्च विंशतानि व शतं दश शतवर्षाणि वर्षसहस्रं, शतं सहस्रवर्षाणां वर्षल, चतु शीतलकायेकं पूर्वा चतुरशीतिपूर्वाणि पूर्वम् । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७६) काल अभिधानराजेन्द्रः। काल तथा चैतदेवाह एयेकं कमलाङ्गम् । चतुरशीतिकमलाङ्गशतसहस्रारयेकं कमवाससहस्साई चुल-सीइगुणाई य होज पुव्वंग । सम् । चतुरशीतिकमलशतसहस्राएयेकं महाकमलाम, ततः पुव्वंगसहस्साई, चुलसीगुणा हवइ पुव्वं ।। परतश्चतुरशीतिमहाकमलाङ्गशतसहस्राएयेकं महाकममम । "कुमुयंगमित्यादि" तृतीयगाथा-ततश्चतुरशीतिमहाकमलशतसुगमा। सहस्राणि एकं कुमुदाङ्गम् । चतुरशीतिकुमुदाङ्गशतसहस्राएयेसंप्रति यथोक्तमेव पूर्वपरिमाणं मुग्धजनविबोधनार्थ वर्ष- के कुमुदम् । तथा ततः कुमुदरूपात्संख्यास्थानादूबै चतुरकोटिभिः प्ररूपयति शीतिकुमुदशतसहस्राएयकं महाकुमुदाङ्गम्, ततः परतश्चतुरपुवस्स न परिमाणं, सत्तरि खलु होति सयसहस्साई । शीतिमहाकुमुदाशतसहस्राएयेकं महाकुमुदम् । चतुरशीतिछप्पा साहस्सा, बोधव्वा वासकोमीणं ॥ महाकुमुदशतसहस्राण्येकं श्रुटिताङ्गं बोधव्यम् । "तुटियेत्यादि" चतुर्थगाथा-चतुरशीतित्रुतिताङ्गशतसहमाणि एकं श्रुटितम, पूर्वस्य परिमाणं खलु निश्चितं भवति वर्षकोटीनां सप्ततिः श. चतुरशीतित्रुटितशतसहस्राणि एकं महात्रुटितम । ततः परतवतसहस्राणि, तपरि षट् पञ्चाशतसहस्राणि बोहव्यानि ॥ तुरशीतिमहात्रुटितशतसहस्राएयेकमटटाङ्गम, चतुरशीत्यटटापुवाण सयसहस्सं, चुलसीइगुणं लयंगमिह भवति । शतसहस्राणि एकमटटम, ततः परतश्चतुरशीतिअटटशतसहतेसिं पि सयसहस्सं, चुलसीश्गुणं लया हो । त्राणि एकं महाटटाङ्गम,चतुरशीतिमहाटटाङ्गशतसहस्राण्येक महाटटम, परतश्च महाटटशतसहस्त्राण्यकमूहाङ्गम, चतुरशीतत्तो महालया वी, चुनसीई चेव सयसहस्साणि । त्यूहाङ्गशतसहस्राण्येकमूहम, चतुरशीत्यूहशतसहस्राण्येक नलिणंगं नाम भवे, एत्तो वोच्चं समासेण ।। महोहम, चतुरशीतिमहोहशतसहमारयेकं शीर्षप्रहलिकाश्रम, पूर्वाणां शतसहस्रं लक्ष चतुरशीतिगुणमिह प्रवचने एक लता- चतुरशीतिप्रहेलिकाङ्गशतसहस्राएयेका शीर्षप्रहेलिका ज्ञातव्या। झं भवति । किमुक्तं भवति?-चतुरशीतेः पूर्वलकाण्यकं लताङ्ग संप्रत्येषु संख्यास्थानेषु गुणकारनिर्देशमाहमिति । तेषामपि बताङ्गानां शतं प्रवचने सहस्रं च चतुरशी एत्थ सयसहस्साई, चुलसीइं चेव होइ गुणकारो। तिगुणमेका लता भवति । चतुरशीतिलताशतसहस्राएयेका महालता । ततो महालतारूपात् संख्यास्थानादुई यानि सं. एकेकम्मि न गणे, अह संखा होइ कानम्मि ।। ख्यास्थानानि भवन्ति ( पत्तो वोच्छं समासेणं ति ) इतो नलि- अत्र एषु नलिनादिषु सर्वसंख्यास्थानेषु शीर्षप्रहेलिकापर्यन्तेषु नानि,श्रत ऊर्ध्वं संख्यास्थानान्येव क्रमेण केवलानि निर्वक्ष्या- मध्ये एकैकस्मिन्संख्यास्थाने पूर्वसंख्यास्थानमधिकृत्य गुणकारो मि, न प्राक्तनसंख्यास्थानानीव प्रत्येक गुणकारनिर्देशन । य. भवति चतुरशीतिशतसहस्राणि । किमुक्तं भवति?-पूर्व पूर्व सं. स्तु वक्ष्यमाणसंकलनागुणकारः स पर्यन्त कथयिष्यते इति । ख्यास्थानं चतुरशीतिशतसहस्रमुत्सरमुत्तरंसंख्यास्थानं भवति प्रतिझातमेव निर्वाहयति पतञ्च प्रागेव भावितमिति । इह स्कन्दिलाचार्यप्रवृत्तौ दुःषमानलिण महान नियंगं, हवइ महानालणमेव नायव्वं । नुन्नावतो दुर्भिक्षप्रवृत्त्या साधूनां पनगुणनादिकं सर्वमप्यने शत्, ततो पुर्जितातिक्रमे सुभिकप्रवृत्तीद्वयोः सङ्घमेलापकोऽनपउमंगं तह पनमं, तत्तो महापनमभंगं च ॥ १॥ वत् । तद्यथा-एको बलभ्यामको मथुरायाम । तत्र च सूत्रार्थसं. हवा महापउमं वि य, तत्तो कमलंगमेव नायव्वं । घटनेन परस्परं वाचनानेदा जातः। विस्मृतयोहि सूत्रार्ययोः स्मृ. कमन्नं महकमलंगं, तत्तो परतो महाकमलं ॥॥ त्वा स्मृत्वा संघटने भवत्यवश्यं वाचनानेद इति न काचिदनुपकुमुयंगं तह कुमुयं, तत्तो य महाकुमुय अंगं च । पत्तिः । तत्रानुयोगद्वारादिकमिदानींवर्तमानमायुरवाचनानुग तम् । ज्योतिष्करामकसूत्रकर्ता चाचार्यों बामन्यः, ततो यदिदं परतो य महाकुमुयं, तुडियंगं हवइ तुमियं तु ।। संख्यास्थानप्रतिपादनं तद् बालभ्यवाचनानुगतमिति नास्यातत्तो महतुमियंग, महातमियमेव नायव्वं । नुयोगद्वारप्रतिपादितसंख्यास्थानः सह विसरशत्वमुपलज्य अममंगं पिय परतो, अडडमेष हवइ महाअमडंगं । विचिकित्सितव्यमिति । संप्रत्युपसंहारमाह-(अह (स) एपा अनन्तरोदिता संख्या भीत काले कानविषया । एवं चेव य तत्तो, नायव्वं महाअडममेवं । ऊहंगं पि य ऊहं, भवइ महद्वं च ऊहंगं ।। एसो पम्मवणिज्जे, कालो संखेजो मुणेयव्यो। तत्तो य महाजहं, हवइ तु सीसप्पहेलियाअंगं । वोच्छामि असंखेज, कालं उवमाविससेणं ॥ तत्तो परओ सीसग-पहेलिया होइ नायव्वा ।। एषोऽनन्तरोदितस्वरूपः कालःप्रज्ञापनीय इति। अत्र शक्तावनी यप्रत्ययनूतोऽयमर्थः-प्रतिनियतप्रमाणतया प्रतिपादयितुमशइह सर्वत्राऽपि चतुरशीतिशतसहस्रप्रमाणो गुणकारः " ए. क्या संख्येयो ज्ञातव्यः। अत कर्द्धमसंख्ययं संख्यातीतकालं स्थ सयसहस्साई" इत्यादिवदयमाणवचनाचं चतुरशीति वक्ष्यामि । ननु यः संख्यातीतः स कथं प्रतिपादनीय प्रत्यत नलिनाङ्ग-शतसहस्राण्य नलिन, चतुरशीतिनलिनशतसहस्त्रा पाह-उपमाविशेषेण उपमाभेदन, पल्यापमया इत्यर्थः । ज्यो. णि एकं महानलिनाङ्ग, चतुरशीतिमहानलिनाङ्गशतसहस्राण्येकं महानलिनम, चतुरशीतिमहानलिनशतसहस्राणि एकं ५पाहु। पद्माङ्गम, चतुरशीतिसहस्राएयकं पद्म । ततश्चतुरशीतिपनश श्रय पल्योपमसागरोपमयोरतिप्रचुरकालत्वेन वयमसतसहस्राण्येक महापमाङ्गम् । "हव" इत्यादि द्वितीयगाथा-च म्भावयन् प्रश्नयनाहतुरशीतिमहापमाहशतसहस्राएयेक महापन, महापयशतसह- अत्यि णं भंते ! एए कि पलिओरमसागरोवमा णं खए Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल वा, अवच वा । हंता अस्थि । ज० ११ श० ११ ८० । (पल्योपमसागरोपमाणां स्वस्वस्थाने व्याख्या ) कालभेदानाह 5विहे काले पत्ते । तं जहा - प्रोसप्पिणीकाले चेत्र, उप्पणीका चेत्र । (800) अभिधानराजेन्ऊ: ( दुबिका याद ) तत्र कल्पते संख्यायते सान था, कलासमूह देति काल वर्तनापरत्या उपाद कृणः स चापि द्विविधो धादुक्तः । अन्यथा अवस्थित कणो महाविदेहभोगभूमिसंज वी तृतीयोऽप्यस्तीति । स्था० २ ठा० । इह कालस्त्रिविधः । तद्यथा - उत्सिर्पिर्ण कालः, अवसर्पिणी कालः, उजयाभावतोऽवस्थितश्च । तत्र भरतैरवतेषु प्रत्येकं विंशतिसागरोपमकोटाकोटिमानस्य कालचको दो-उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी छ । एकैकाः पानागाः- तत्रावसर्पिएयां सुषमसुत्रमाख्यः प्रवाहतयतुः सामरोपमकोटाकोटी प्रमाणः प्रयमकालविभाग, द्विती यः सुषमाच्या त्रिसागरोपमकोटा कोटीमानः तृतीयः सुषम चमाख्यः सागरोपमद्वयकोटा कोटीमानः, चतुर्थो दुःषमसुषमास्यो द्वाचत्वारिंशद्वर्षसहस्रन्यूनसागरोपम कोटा कोटीमानः, प चमो दुःषमाख्य एकविंशतिवर्षसहस्रमानः । षष्ठो दुःश्रमदुःषमाण्यः, सोऽप्येकविंशतिवर्षसहस्रमानः । श्रयमेव चोत्क्रमेणोसर्पियामपि यथोक्तसंख्यः कालक्रमो वेदितव्यः । अवस्थित तुधिः तद्यथा- सुषमसुत्रमा सुखप्रतिजागाः सुषमासुखप्रति भागः, सुत्रमनुः पमासुखप्रतिजागः, दुःषमसुषमा सुखप्रतिज्ञातत्र प्रथमो देवद्वियोरिव यो मर्तरवचतयोः, चतुर्थी महाविंदषु श्र०म० द्वि० ज्यो० ॥ श्र० चू० । कालविशेषान् त्रिधा विभजा " तिविहे समए पत्ते । तं जहा-तीते पमुप्पन्ने लागए । एवं आवलिया आणा पाणू थोचे लये मुझे बहोरने० जाब वासससस्से पुगे पुब्वे जाव ओसपिणी । तिविहे पांगल परियट्टे पष्ठचे । तं जहा-तीते, पडुप्यन्ने, अलागए । तिथिटे समय इत्यादि) कालसूत्र समाद्विस्थान कादेशक व्यायाम- पोलपरिय शि) खानां रूपिद्रव्याणामाहारकवर्जितानामौदारिकादिप्रकारेण गृपरिवर्तनं सामयेन स्पर्शः परिवतेः । स च यावता कालेन भवति स कालोऽपि पुजलपरिवर्त्तः । स चानन्तोत्सपिण्यवसर्पिणी रूप इति । स चेत्थं भगवत्यामुक:- "कतिविहे भंते! पोालपरियहं पन्नत्ते ? सत्तविहे पन्न से जयमालपरिय बेउलि परिय एवं तेया कम्मा मरावश्श्राणपापोग्गल परिपट्टे” । तथा-"से केरा राखियोपरिट्टे २ गोयमा ! जां जीवेणं श्रराशियसरीरे बट्टमाणेणं ओरालियसरीरपाओग्गा दबाई ओरानिय सरीरचार गढ़ियाई जाव निसहाई भवति से गोषमा वयं बुध, श्रोरासि परियट्टे" २ | एवं शेषा अपिवाच्याः । तथा "ओरालियपोगलप रियट्टे पं अंते ! केवश्कास्स निव्यन्तिज्जइ । गोयमा ! अणंता १२० काल हिं उपिणी ओसति" शेषा अपीति । | एवं अन्यत्र त्वेवमुच्यते "श्रोराले वेवे, तेय कम्म- नासाऽणु पाण- मणगेहिं । फासे विमुखा मह वायपरो ॥ दवे सुहुमपरट्टो, जाहे एगेण अइ सरीरें । लोगम्मि सव्यपोग्गल - परिमाणे ऊतो मुक्क ति" ॥ व्यपुल परिवर्तनसदृशा येऽन्ये क्षेत्रकालजावपरिवर्तास्तेऽम्यतोऽवसेया इति । स्था० ३ ० ४ उ० । जबुद्दीवे जंते ! दीवे भारहे वासे कतिविहे काले पस| गोमा ! दुवि काले पत्ते । तं जहा - प्रोसप्पिणीकाले अ, उस्सप्पिणीकाले अ || जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतवर्षे जगवन् ! कतिविधः कालः प्रप्तः ?नगवानाह - गौतम! द्विविधः कालः प्रज्ञप्तः । तद्यथा अवसर्पति ही यमानाssरकतयाऽवसर्पयति वा क्रमेणायुः शरीरादिजावान् हापयतीत्यवसर्पिणी, सा चासौ कालश्च, प्रज्ञापकापेक्षया चास्या आदायुपन्यासः भारतस्यैव उत्सर्पति या पति या कमेारादीन् भावानित्युत्सपिणी सा बा सौ कालश्च । चकारद्वयं द्वयोरपि समानारकतासमानपरिमाणतादिज्ञापनार्थम् । जं २ व० । " (११) समयादीनां संख्येयाऽसंख्येयत्यविचार:आलिया मंते किं संखेक्षा समया, असंखेनासमया, अता समया । गोयमा ! लो संखेज्जा समया, असंखेज्जा समया, णो श्रणंता समया । णापाणु णं भंते ! कि संवेन । यो भंते किं । एवं चैव । एवं लवे विमुवि । एवं अहोरते । एवं पक्खे मासे उक्त अपने संवारे जुगे वाससए वामसहस्ते नासससहस्से पुव्यंगे पुव्वे तुझियंगे तुमिए अममंगे से अवग बहुअंगे हुए उप्पलंगे उप्पले पमंगे पढमे एलियेमे पक्षिणे अतिपूरंगे अधिकशिपूरे अयंगे भ यंगे उपयंगे पर चूलियेगे चूलिया सीसप्पड़ेलियंगे पलिश्रोत्रमे सागरोवमे सप्पिणी, एवं उस्सप्पिणी वि पोम्मन्नपरियहे थे भंते किं संखेजा समया, खेजा समया पुच्छा । गोयमा ! पो संखेज्जा समया, णो असंखेला समया, अता समया । एवं तीया sourगया सव्वा । आवसियाओ णं भंते ! किं संखेजा समया पुच्छा है। गोयमा ! णो संखेज्जा समया सिय, असंखेज्जा समया सिय, प्रांता समया। श्र शापायं भेते कि संसेज्जा समया पुच्छा ! | गोयमा ! एवं चैव । थोत्रा णं जंते ! पुच्छा ! | एवं चैत्र० । एवं जाव उस्सप्पिणी ति । पोग्गलपरियट्टा णं किं संखेजा समया० पुच्छा ? गोपमा ! णो संज्ञा, णो असंखेज्जा समया, अनंता समया । अथाषाणू णं Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७८) काल अभिधानराजेन्द्रः । काल नंते ! कि संखेज्जा आवलिया पुच्छा ? । गोयमा ! किं संखेजाओ अोसप्पिणिओ पुच्छा। गोयमा!णो संखेसंज्ज्जाओ प्रावलियाओ, णो असंखज्जाओ आवनि- ज्जाओ ओसप्पिणीओ, णो असंखेज्जाओ, भणंताओ यायो, णो अणंताओ आवन्त्रियाओ। एवं थोवा वि । एवं | अोसप्पिणीओ । पोग्गलपरियट्टा णं जंते ! किं संखेज्जाओ जाव सीसप्पहेलिय त्ति । पलि ग्रोवमे णं नंत ! किं संखे नस्साप्पिणीओ पुच्चा ? । गोयमा ! एो संखेजाभो, जो जा पुच्छा । गोयमा ! णो संखेज्जाओ आवलियाओ, अ- | असंखेज्जाओ, अणंताओ। पोग्गनपरियट्टा णं भंते ! किं संसंखेज्जाओ श्रावलियाओ, णो अणताो आवलियाश्रो । खेज्जाओ ओसप्पिणिनस्सप्पिणीओ पुच्छा। गोयमा! एवं सागरोवमे वि । एवं ओसप्पिणी वि उस्सप्पिणी णो संखेजामो ओसप्पिणिउस्सप्पिणीओ, णो असंखेज्जावि । पोग्गलपरियट्टे पुच्छा ? । गोयमा ! णो सं श्रो, अणंतानो ओसप्पिणि उस्मप्पिणीयो । एवं जाव सखेज्जाओ आवलियाओ, णो असंखज्जाओ आवलि. व्बका। पोग्गनपरिगट्टाणं भंते किं संखेज्जाओ उस्सप्पियाओ, अणंताओ आवलियाओ। एवं जाव सव्यका। णिोसप्पिणीओ पुच्छा। गोयमाणो संखेज्जाओ उस्सप्राणाापाणू णं भंते ! किं संखज्जाओ प्रावलियाओ प्पिणिोसप्पिणोओ, णो असंखेजाओ,अणंताओ नस्सपुच्चा ? | गोयमा ! सिय संखेज्जाओ श्रावलिया पिणिोसप्पिणीओ। तीतछा णं भंते ! कि संखज्जा ओ, सिय असंखेज्जाओ, सिय अणंताओ । एवं जाव पोग्गलपरियट्टा ?। गोयमा! णो संखेजा पोग्गलपरियट्टा, णो सीसप्पहोलियारो । असंखेजा, अणंता पोग्गलपरियट्टा । एवं अणागया वि । विशेषाधिकारात्कालविशेषसूत्रम् । (आवत्रिया णमित्यादि)। एवं सबका वि । अणागयघाणं नंते ! किं संखेज्जाओ बहुत्वाधिकार-(प्रावलियाओ णमित्यादि) । (नो संखज्जा अतीतकाओ,असंखेज्जाओ, अपंताओ। गोयमा! जो संसमय त्ति ) एकस्यामपि तस्यामसंख्याताः समयाः, बहुषु खेजाओ तीयद्धाओ,णो असंखेज्जाओ तीयकाओणोअ. पुनरसङ्ख्याता अनन्ता वा स्युनं तु सङ्ख्यया इति। पलिओवमा णं पुच्ा? । गोयमा ! णो संखेज्जाओ ताश्रो तीयघाओ। अणागयाएं तीतकाओसमयाहिया, प्रावलियाओ, सिय असंखेज्जाओ श्रावलियाओ, सि तीतद्धा णं अणागयद्धाओ समयूणा । सव्वद्धा जंते ! किं य अणंताओ आवलियाओ । एवं जाव नस्सप्पिणी संखज्जाओ तीतकाओ पुच्चा। गोयमा! णो संखेज्जात्रो श्रो ति । पोग्गापरियट्टाओ पुच्छा । गोयमा ! णो तीतचाओ, णो असंखेज्जाओ तीतकाओ, णोअणंताओ संखेजाओ श्रावलियाभो, णो असंखेज्जाओ आवनि तीतचाओ। सबकाणं तीतधाओ सातिरंगगुणो । तीयाओ, अणंताओ श्रावलियाओ । थावे णं नंते ! तसाणं सव्वछाओ योवूणाए अके। सबका णं जंते ! किं संखज्जाओ आणापाणूओ असंखेज्जामो ?। जहा | किं संखेज्जाओ प्रणागयघायो पुच्छा? गोयमाणो संश्रावलियाए वत्तव्वया एवं आणापाणूओ वि णि खेज्जाओ अणागयकाओ, णो असंखेज्जाओ, णो अणं ताओ अणागयछायो । सबछाणं अणागयचाओ योरवसेसा । एवं एएणं गमएणं जाव सीसप्पहेलिया जा बूणगगुणो,अमागयकाणं सव्वकाओ सातिरेगे अद्धे ॥ णियव्वा । सागरोवमे ते ! किं संखज्जा पलिवमा पुच्छा ? । गोयमा ! सखेज्जा पलिओवमा, णो (अणागयद्धाणं तीयद्धामो समयाहिय त्ति) अनागतकालोऽतीअसंखेज्जा पलिओवमा, णो अणंता पलिओवमा । एवं तकालात्समयाधिकः कथम्?.यतोऽतीतानागती कालावनादि स्वानन्तत्वाज्यां समानौ,तयोश्चमध्ये भगवतः प्रश्नसमयो वर्तते। श्रोसप्पिणीअो वि । पोग्गनपरियट्टे णं भंते ! पुच्छा। सचाविनष्टत्वेनातीतेन प्रविशत्याधिनष्टत्वसाधादनागते क्तिगोयमा! णो संखज्जा पलिप्रोवमा, णो असंखेज्जा पलि- तस्ततःसमयातिरिक्ताऽनागताद्धा भवति। अत एवानागतकाश्रोवमा, अणंता पलिओवमा, एवं जाव सबका । सागरो- लादतीतकालः समयोनो भवतीति । एतदेवाह-"तीतद्वाणमिवमा णं भंते ! किं संखेज्जा पलिअोवमा पुच्छा। गोयमा! त्यादि" (सव्वद्धाणं तीतकाओ सारेगदुगुण त्ति) सर्वाकाs तीतानागताद्धाद्वयम्। सा चातीताकातः सकाशात्सातिरेकड़िसिय संखेजा पलिअोवमा, सिय असंखेजा पलिप्रो गुणा भवति, सातिरेकत्वं च वर्तमानसमयेन । अत एवातीताका वमा, सिय अणंता पलिअोवमा । एवं जाव ओसप्पि- सर्वाद्धायाःस्तोकोनमर्डमूनत्वं च वर्तमानसमयेनैवाएतदेवाहणीनो वि उस्सप्पिणीओ वि । पोग्गलपरियट्टा णं पु- (तीतद्धाणं सबझाए थोवूणाए अद्धे त्ति) इह कश्चिदाह-प्रतीचला। गोयमा ! णो संखेज्जा पनिोवमा, णो असंखे ताद्धातोऽनागतासाऽनन्तगुणा यतो यदि ते वर्तमानसमये स. ज्जा पलिओवमा, अणंता पनिओवमा । उस्सप्पिणीओ | मे स्यातां ततस्तदतिक्रमेऽनागताद्धासमयनोना स्यात् । ततो यादिभिरेवं च समत्वं नास्ति । ततोऽनन्तगुणाऽऽसावतीताशाण नंते ! किं संखेज्जा सागरोवमा । जहा पलिओवमस्स | याः सकाशात्, अत पवानन्तेनापि कालेन गतेन नासी क्षीयत बत्तन्वया तहा मागरोवमस्स वि । पोग्गनपरियट्टे णं भंते! शति । अत्रोच्यते-श्ह समत्वमुभयोरप्याद्यन्ताभाषमात्रेण वि Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७६) काल प्रन्निधानराजेन्द्रः । काल यक्तितमिति वादावेव निवेदितमिति पर्यवा उद्देशकादायुक्ताः, इह कालः सामान्यतो द्विविधः। तद्यया-खिग्धो सक्षश्च । तत्र ते च भेदा अपि नवन्तीति । भ० २५ श०५ उ० । सजलः सशीतश्व स्निग्धः । उष्णो रुकः। खिग्धोऽपि विधा। तद्यथा-एकान्तरिग्धः मध्यमो जघन्यश्व । तत्र एकान्तति(१५) समयादिप्रज्ञानं मनुष्यक्षेत्र एष ग्धोऽतिस्निग्धः। रूक्षोऽपित्रिधा। तद्यथा-जघन्यो मध्यम उत्कृ टः । उत्कृष्टो नाम अतिशयेन रूकः। पिं० । औ० । “कालः प्रात्थ णं भंते ! नरेझ्याणं तत्थगयाणं एवं परमायए तं पचति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः कासः सुप्तेषु जागसमयाइ वा प्रावलियाइ वा जाव प्रोसप्पिणीइ वा ज ति, कालो हि पुरतिक्रमः" । १ ॥ आव०४०। स्सप्पिणी वाणो णटे समझे। सेकेण्डेणं जाव तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था । समयाइ वा प्रावलियाइ वा ओसप्पिणीइ वा उस्सपिणीइ तस्मिन् काले तस्मिन् समये यस्मिन्नसौ नगरी बनूवेति। श्रवा। गोयमा ! इहं तेसिं माणं इहं तसिं पमाणं इहं तेसिं धिकरणे चेयं सप्तम।। अथ कालसमययोः कः प्रतिविशेषः । एवं पधायए तं समयाइ वा जाव नस्सप्पिणीइ वा से उच्यते-काल इति सामान्यकालः अवसर्पिण्याश्चतुर्थविभागलतेणं नाव नो एवं परमायए समयाइ वा जाव उस्सप्पिणीइ कणः । समयस्तु तद्विशेषः । अथवा तेन कालेन अवसर्पिणीवाएवं जाव पंचिोदयतिरिक्खजोणिया। अत्थि णं जंते ! | चतुर्थारकत्वलक्षणेन हेतुनूतन, समयन तद्विशेषभूतेन हेतुना, चम्पा नाम नगरी (होत्थ त्ति) अभवदासीदित्यर्थः। शा०१० मणुस्साणं इहगयाणं एवं पलायइ तं समयाइ वा जाव १०। सूत्र० । विपा० । रा०। नि० । तेन कालनेति नस्सप्पिणीइ वा । हता! अत्थि । से केणद्वेणं । गोयमा! पुषमसुषमादिबवणे, श्राचा० । ते इति प्राकृतशैलीवशाहं तसिं माणं श्ह चेव तेसि पमाणं इह तेसिं एवं पक्षाय. तू तस्मिन्निति द्रष्टव्यम् । अस्यायमर्थः-यस्मिन् काले भगइ। जहा-समयाइ वा जाव उस्सप्पिणीइ वा से तेणद्वेणं वान् वर्षमानस्वामी स्वयं विहरति तस्मिन्निति । णमिति वावाणमंतरजोइसवेमाणियाणं जहा नेरइयाणं । क्यानकारे। दृष्टश्चान्यत्रापि अंशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः । यथा "इमा णं पुढवी" इत्यादाविति । काले अधिकृतावसर्पिणीचकालभव्यचिन्तासूत्रम् । (तत्थ गयाणं ति) नरके स्थितैः षष्ठचा-] तुर्थविनागरूपे, रा०। स्तृतीयार्थत्वात् । ( पवं पन्नायत्ति ) एवं प्रज्ञायते इदं बि (१३) काले झानाचार:मायते ( समया वत्ति ) समया इति वा (इह तेसिं ति ) शह मनुष्य के तेषां समयादीनां मानं परिमाणम्, श्रा-1 काले विणए बहुमा-णे नवहाणे तहा अनिएहवणे । दित्यगतिसमभिव्ययत्वासस्य श्रादित्यगतेश्च मनुष्यक्षेत्र- वंजण अत्थ तदुनए, अट्टविहो नाणमायारो॥ एव भावानरकादौ त्वभावादिति । ( इह तेर्सि पमाणं ति ) तत्र यो यस्याऽङ्गप्रविष्टादेः श्रुतस्य काल उक्तः, तस्य तस्मिशेष इह मनुष्यक्षेत्रे तेषां समयादीनां प्रमाणं प्रकृष्टं मानं, सू खाध्यायः कार्यः, नान्यदा, प्रत्यवायसम्भवात् । (तीर्थकरवचनचममानमित्यर्थः । तत्र मुहूर्तस्तावन्मानं, तदपेक्वया लवः सू विरोधात्। ध०१ अधि०) रश्यते च लोकेऽपि कृष्यादेः कालदमत्वात्प्रमाणम् । तदपेकया स्तोकः प्रमाणं, लवस्तु मा करणे फलं, विपर्यये तु विपर्यय ति । यत उक्तम्-"कालम्मि नमित्येवं नेयं यावत्समय इति । ततश्च ( हं तसिमि कीरमाणे, किहकम्मं बहुफ जहा भणियं । इय सव्वा वि यकिस्यादि ) इह मर्त्यलोके मनुजैस्तेषां समयादीनां सम्बन्धि, रिया, नियनियकासम्मि कायव्वा" ॥१॥ इति । प्रव-६द्वार। दशा एवं वक्ष्यमाणस्वरूपं समयं त्वाद्येवं ज्ञायते । तद्यथा-(समया "कालो विव निरणुकंपाओ'। स्त्रियः (कालो त्ति) दुर्निककाला, इत्यादि) इह च समयकेत्राद्वहिर्वर्तिनां सर्वेषामपि स एकान्तदुःषमाकानोवा । यद्वा-लोकोक्तौ टसर्पः, तद्वद् निरनुमयाचशानमवसयम्, तत्र समयादिकालस्याभावेन तद्वयवहा कम्पाः दयावर्जिताः । तं । तथाविधाऽवसरे, भ० ११ १० ११ राभावात् । तथा पञ्चेन्धियतिर्यश्चो, भवनपत्तिव्यन्तरज्यो १०। पश्चा० । अभाव, कालशब्दोऽनाववाची । वृ० ४ ० । तिष्काच यद्यपि केचिन्मनुष्यक्षेत्रेऽपि सन्ति, तथापि ते मरणे, भ० ११ श०११ २० । मृत्यौ, आचा० १६०२ १०३ ऽल्पाः प्रायस्तदव्यवहारिणश्चेतरे तु बहव इति तदपेकया उ०। काल व कालः। मारणान्तिकसमुदघाते, भ०१४ श०७ ते न जानन्तीत्युच्यत इति । भ० ५ श. ९ उ०। (म १०। क्रूरप्रकृतित्वात् कृतान्तसदृशे कृष्णे, ज०२ वक्ता घनन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणात्तराज्यां कालविभागः 'उदयसैवि, [ कालावभागः 'उदयसाग' मेघसदृशे सान्द्रजबदसमाने कालक, ज०२ २०१० । शम्ने द्वितीयत्नागे ७०५ पृष्ठे उक्तः) "कालो वाघाइम, श्यरो य कृष्णवणे, प्रज्ञा०२ पद । प्रश्न । सू० प्र०ा सप्तमनरकपृथिव्यानायव्या"। इह कालो द्विविधो भवति । तद्यथा-व्याघातिम स्तृतीये नरके, पुं० । सूत्र०१ श्रु० १ अ०१ उ० । प्रा० क०। इतरश्च । व्याघातेन निवृत्तो व्याघातिमः, भावादिमप्रत्ययः । इ- स० । पोशानां पिशाचानां मध्ये पञ्चमे पिशाचे,प्रक्षा०१ पद । तरो मिळघातः। व्य० ७ उ० । “कालग्गहणं " काल- दाक्षिणात्यानां पिशाचानामिन्छे, प्रशा०२पद । जं० भ०। स्य प्रस्तावात्प्रादोषिकस्य ग्रहणम । अयं च कालो ब्या स्था। काल्या अयमपत्यं वा कालः । कोणिकनायाया: घातिकोऽप्युच्यते । (तस्य ग्रहणप्रकारप्रदर्शनं 'सज्झाय' शब्दे। काल्या आत्मजे, नि। करिष्यामि) (१४) तद्वक्तव्यतानिकेयरो य काझो, एगतसिणिक मज्झिम जहनो। एवं खलु जंबू ! तणं कालणं तेणं सपएणं इहेव जंबूदीवे सुक्खे वि होइ तिविहो, जहन मज्झमो य उकोसो ॥४३॥ दीवे जारहे वासे चंपा नामं नयरी होत्था । रिफपुनलद्दे Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८०) काल अभिधानराजेन्द्रः। काल चेइए तत्थ णं चपाए नयरीए सेणियस्स रनो पुत्ते चेरणाए तीसे य महश् महालियाए धम्पकहा जाणियबा, जाव देवीए अत्तए कूणिए नाम राया होत्या । महता तस्स णं | समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणा प्रा. कूणियस्स रनो पउमावई नामं देवी होत्या। सुखमाझ जाव गाए आराहए जति । तते णं सा काली देवी समणस्स विहरइ,तत्थ णं चंपाए नयरीए सेणियस्स रन्नो भन्जा कूणिय- भगवो अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म जाव हयहियया स्स रन्नो चुबमानया कानी नामं देवी होत्था । सुखमान० समणं भगवं तिक्खुत्तो जाव एवं वयासी-एवं खबु जाव सुरूवातीसेणं कालीए देवीए पुत्ते काले नाम कुमारे हो. भंते ! मम पुत्ते काले कुमारे तिहिं दंतिसहस्सहिं जाव रत्या । सुखमाल जाव सुरूवे तते णं से काले कुमारे अन्नदा | हमुसलसंगामे आयाति से एं भंते ! किं जश्स्सति जाव कदाइ तिहिं दंतीसहस्सेहिं तिहिं रहस्स सहम्सेहिं। कालेणं कुमारं अहं जीवमाणं पासिज्जा कालीति समणे तिहिं पाससहस्सेहिं तिहिं मणुयकोमीहिं गरुलवूहे एकार- भगवं कालिं देवि एवं वयासी-एवं खबु कालि! तव पुत्ते समेणं खंडेणं कूणिएणं रन्ना सकि रहमुसलं संगाम न- काले कुमार तिहिं दंतिमहस्सेहिं जाव कूणिएणं रना वागए । तते णं से कालीदेवीए अन्नदा कदाइ कुटुंबजाग. सद्धिं रहमुसलं संगाम संगाममाणे हयमाहितए वरवीरपारियं जागरमाणीए अयमेयारूचे अज्जत्तिए० जाच समुप्प- तिविवाहितचिंचद्धयपमागे निरालोयातो दिसातो कारेजित्था । एवं खलु मम पुत्ते कालकुमारे तिहिं दंतीसह- माणे चेमगस्स रनो सपक्खं सपमिदिसि रहेणं पमिस्सेहिं० जाव ओयाए से मन्ने किं जतिस्सति,नो जतिस्स- रहं हव्वमागते । ति, जीविस्सइ, नो जीविस्सति, पराजणिस्सइ, णो पराज "एवं खानु जंव! तेणं कालेणमित्यादि" [हेव ति] हैव देशतः हिस्सइ । काले णं कुमारं अहं जीवमाणं पासिज्जाओ ह- प्रत्यक्कासन्नेन पुनरसंध्येयत्वाजम्बूद्वीपानामन्य त्रेति नावः। भा. यमणी भाव ज्जियाति । तेणं कालेणं तेणं समयेणं समणे भगवं रते वर्षे केत्रे चैषा नगरी अभूत् । रिद्धेत्यनेन "रिनिमियसमिर" महावीरे समोसरिते परिमा निग्गया । तते णं तीसे कालीए इत्यादि दृश्यम् । व्याख्या तु प्राग्वत् । तत्रोत्तर पूर्वदिग्भागे पूर्णभ द्रनामकं चैत्यं व्यन्तरायतनम । [कोणिय नाम राय सि] कृणिदेवीए इमीसे कहाए लघटाए समाणीए अयमेयारूचे कनामाणिकनामा राजपुत्रोराजा होत्यत्ति अभयत तद्वर्णकः अज्जस्थिए जाव समुप्पज्जित्था । एवं खलु समणे न- (महयाहिमवंतमलयमंदरमहिंदसारे इत्यादि माणे विहरह) गवं महावीरे पुव्वाण पुचि हिमागते जाव विहरति । तं म- | श्त्येतदन्तः। तत्र महाहिमवानिव महान् शेषराजापेक्षया। तथा हाफस खलु तहारूवाणं जाव विउलस्स अट्ठस्स गहण मक्षयः पर्वतविशेषो, मन्दरो भेरुमहेन्द्रः शक्रादिदेवो यस्य स तथा । तथा प्रशान्तानि डिम्बानि विघ्नामम्बराणि च राजकुमाराताए तं गच्छामि णं समरणं जाव पज्जुवासामि । इमं च दिक्ता विमुरा यस्मिन् तत्तथा । प्रसाधयन् पासयन् विहरत्याएं एयारूवं वागरणं पुच्चिस्सामि तिकट्ट एवं संपेहेति, सं- स्ते स्म । कृणिकदेव्याः पद्मावतीनाम्न्या धर्णको यथा-(सुखमाल पहेत्ता कामुंबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं व- जाव विहरति) यावत्करणादेवं दृश्यम्-"सुकुमालपाणिपाया दासि खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! धम्मियं जाणपवरं जु अहीणपंचेदियसरीरा" अहीनान्यूनानि लक्षणतः स्वरूपतो वा पश्चापीन्द्रियाणि यस्मिस्तत्तथाविधं शरीरं यस्याः सा चामेव नबहावेह, उवट्ठावित्ता जाव पच्चुप्पिणंति । तेणं से तथा। (लक्खणवंजणगुणोववेया ) लक्षणानि स्वस्तिकत्रकाकाली देवी एहाया कयवनिकम्माजाव अप्पमहग्यालरणा दीनि व्यञ्जनानि मर्षीतिबकादीनि तेषां यो गुणः प्रशस्तता,तेन लंकियसरीरा वहिं खुज्जाहिं० जाव महत्तरगवंदपारखित्ता उपपेता युक्ता या सा तथा । उप अप एते शब्दत्रयस्थाने शकअंतेनरातो निग्गच्छति, निग्गच्छत्ता जेणेव बाहिरिया | मध्वादिदर्शनादुपपेति स्यात् । “माणुम्माणप्पमाणपडिपुनसुउवट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणपवरे तेणेव उवागच्छ, जायसवंगसुंदरंग" तत्र माने जसघोणप्रमाणता, कथम् !, जल. स्यातिभृते कुण्डे पुरुषे निवेशितं यजलं निःसरति, तद्यदिकोधम्मियं जाणप्पवरं पुरूहति, पुरूहित्ता नियगपरि- णमानं भवति तदा स पुरुषो मानप्राप्त उच्यते । तथा उन्मानयानं संपरिवुडा चंपानयरिं मज्झं मजके णं निग्गच्छति । महनारप्रमाणता,कथम् ?-तुलारोपितः पुरुषो यद्यभारं तुमति जेणेब पुएणभद्दे चेहए तेणेव जवागच्च,धम्मियं जाणप्प तदा स उन्मानप्रमाणमुच्यते । प्रमाणं तु स्वाङ्गसेनाष्टोत्तरशतोवरं पुरूहिंति दुरुहिता नियमपरियाबपरिवुमा चंपा च्छायिता । ततश्च मानान्मानप्रमाणप्रतिपूर्णान्यन्यूनानाति । सु. जातानि सर्वाणि अङ्गानि शिरःप्रभृतौनि यस्मिन् तत्तथाविधं नयरी उत्तादीए धम्मियं जाणप्पवरं ठवति,धम्मियाओ जा-1 सुन्दरम यस्याः सा तथा। "ससिसोमाकारकंत पियदसणा" गप्पवराओ पञ्चोकहति । बहहिं जाव खुमाहिं वंदपरिखि० शशिवसीम्याकारं कान्तं च कमनीयमत एव प्रियं बटणां दर्शन जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेष समणं भगवं महावीर रूपं यस्याः सा तथा । अत एव सुरूपा स्वरूपतः सा पद्मावती तिवृत्तो वंदति, वंदित्ता ठिया चेव सपरिवारा सुस्मुस देवी "कूणिएण सद्धि ओरालाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरई" भोगभागान् अतिशयवद्भोगान् [ तत्थ णमित्यादि ] “सुकुमामाणी नमसमाणा अनिमुहा विणएणं पंजविपुडा प-| लपाणिपाया" इत्यादि पूर्ववद्वाच्यम् । अन्यश्च "कोमुईयाणयज्जुवासति । तते णं समणे भगवं जाव कालीए देवीए | रविमलपडिपुनसोमवयणा" कौमुदीरजनिकरवत् कार्तिकी Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल चारुसा" चन्द्र व विमलं प्रतिपूर्ण सौम्यं वदनं यस्याः सा तथा । " कुं. गंडा" कुण्डलाभ्यामुलिखिता घृष्टा गण्डलेखा कपोलविरचितमृगमदादिरेखा यस्थाः सा तथा । "सिंयारागारशृङ्गारस्य रसविशेषस्यागारमिवागारम् तथा are वेषो नेपथ्यं यस्याः सा तथा । ततः कर्मधारयः । काली माम देवी बेणिकस्य नार्या सा कृतिकस्य राजननी लघुमाताऽभवन् । सा ख काली देवी " सैणियस्स र शा वल्लभा” कान्ता काम्यत्वात्, प्रिया सदाप्रेमविषयत्वात् । 'मरणुचा' सुन्दरस्यात्, नामधेया, प्रशस्तनामधेयवतीत्यर्थः । नाम चा धार्य हृदि धरणीयं यस्याः सा तथा । "वेसाखिया" विश्वसमीपश्चात् "सम्मया" तकृतका बहुत बहु बहुभ्यो वाऽन्येभ्यः सकाशात् बहुमानपात्रं च ' अणुमया विप्रियकरणस्यापि यश्चात्मना अनुमता "भंडकरंडकसमा - आभरण करएक समाना उपादेयत्वात् सुसंरक्षितत्वा"तेलके व सुसंगोविया " तिलकेनः सौराष्ट्रप्रतिको मुन्मयस्तैलस्य भाजनविशेषः । स च भङ्गभयानाच सुषु संगोप्यते, एवं सापि तयोच्यते । " वेला पेडाइमुपग्राहिया" भ्रमवोर्थः । “सा काली देवी लेचिणं किंव लाई भोगभोगाई जमाणी विहर”। कालनामा च तत्पुत्रः । "सुखमालपाणिपाए" इत्यादि प्रागुक्तवर्ण कोपेतो वाच्यः यावत् "वासाइप दरिसणिज्जे श्रभिरूवे परिरुवे" इति पर्यन्तः "सेणियस्स रनो दुबे रयणा श्रट्टारसं च कोहा सेयणगहत्थीए, तस्थ किरि सेस्सि रनो जावश्यं रज्जस्स मुलं, तावइयं देवfewerrer सेयणगस्य य गंधहस्थिस्स, तत्थ हारस्स उव्यवस्था हिरशस्त, कृषियस्स प पत्थ व उपपत्ती दित्यरेषण" तरकार्येण कामादीनां मरणसंवादारभ्य संग्रामतो नरकयोग्यकर्मोपचयविधानात् नवरं कूणिकस्तदा कान्नादिदशकुमारान्वितश्चम्पायां राज्यं चकार । सर्वेऽपि से दोगुरुदेव कामांमपरायणाय देवाः "फुट्ट देहि मुलामयपछि परतरुणि सत्थिचिदिपा बसीबद्धनमा भोग विहरतिवेदनमा कृणियस्त्र चिणादेवीमाया दो भायरा अस्थि । बहुणा हारस्स उत्पत्ती भन्न इत्थ सक्को सेस्सि भगवंत पर निश्चजभत्तिस्स य पसलं करे । म से दूर जाव देयोसम्मति से मुझे तम्भतिरंजिश्रो संतो अट्ठारसवकं हार देश । दोन्नि य बट्टगोलगे देश । सेणिएणं सो हारो लगाए दियो पिम्रो ति काउं, वट्टगं सुनंदार अजय सीतजणणीर ताप रुडाए कि ग्रह चेडरूवं किं ति कार्य अधोडिया तत्थ गम्मिकुंडलं एगम्मिकथ जुयलं उठाए गहियाणि । अन्नया श्रभओ सामी पुच्छर को पच्छिम रायसिरित्ति ? सामी उद्दायिणो वागरिओ ओ परं वज्रममा न पञ्चयंति । ताहे अनएवं रज्जं दिजमाणं न इति पाणिनो चिनेको दिखिचि । इस इत्यदि यो बेरस्व देवदिओ द्वारा अ विपतेन सुनंदा कुंवेद णा ( ४८१ ) अभिधानराजेन्द्रः । " विनिमेय इम्रो सशिप येा देव अंगसम्भूषा तिथि पुता कृ कृणियस्स उम्पती हत्येव भणिस्स । कालीमहाकालीपमुदेवाय अन्नसिं तया सेवियरस बह पुचा कालप्पमुहा संति । अभयस्मि गहियव्वए अनया कोणि१२१ काल बोकालाई इसाई कुमारो सम मंगेश सेणियसत्यं विग्धकारयं धिन्ता एकारस भाए र करेमो ति । तेहिं पमिसुयं । सेशिम यो पुण्य व कसावे य स् कूणिr gouraवेरियसणेण चेज्ञणार कयाई मोयलं न देइ, भत्तं बारियं पाणियं न देश । ताटे चेला कहं वि कुमासे पसियारं च सुरपये, साकिर - प सयवारे सुरा वाणियं सव्वं होइ । तीए पढ़ावेण से वेयणं न वेrइ । अनया तस्स पउमावदेवीए पुतो एवं पिम्रो अस्थि । माया एसो भणिओ-दुरात्मन् ! तब अंगुली किमि एवं संतापियमुहे काऊण श्रच्छियान श्यरहातो मरोवंतो वेष विसु तावित संजायते तुम पिया बसपा तस्स आधई जाया । भुंजंतश्रो चेव उड्डाय परसुहत्थो गो । अनति-लोहरु महाय निपाणि जामिति पहाबि श्रो क्वालगो तह ण भणइ, एस पालो ण वा सोडदंड परसुं वा गहाय पयति । सेणियेण चिंतियं-न नजाइ केण कुमारेण मारे, तोतापुड विजय पता मो. परं अधिई जाया । तादे मयकिश्चं काऊ घरमागधो रज्जधुराम तं व चिंततो रथ एवं काले वि सोगोवाओ पुणरयि सवणग्रासणाव पसंतिए दहून अधिई होइ मो रायविहाओ निमीतुं पं रायहाणि करे। एवं चंपा कृषिओ राया 1 करेश, निगा मुहसवणसंयोगओ" । हर निरयावलीय सुखंधे कृणिककम्यता किस तत्साहाय्यकरणसानां कालादीनां कुमाराणां दशानामपि संग्रामे रथमुश साक्ये प्र नूतजनक यकरणेन नरकयोग्यं कार्मेपार्जितम् । तत्संपादनानरकगामितया "निरियाज ति" प्रथमाध्ययनस्य कालादीनां कुमारबक्तव्यता प्रतिबद्धस्य पसं नाम । अथ रथमुशलाख्यं सप्रामस्योस्पत्तौ किं निबन्धनम् ? अत्रोच्यते एवं किलायं संग्रामः संजातः । चणिको राजा राज्यं चकार, तस्य वा श्रनुजो हल्ल लाभिधानौ भ्रातरौ पितृदतसेचनाभिधाने गन्धस्तिमि समी दिव्यकुरा दियारविभूषितो विसाप द्मायत्यभिधाना कृणेकराजस्य नाय कदाचिदन्तिनोपाराय तं कूनिकराज प्रति उक्तवती कर्णे विषोपमम्-अयमेव कुमारो राजा तवतो, न त्वं यस्येदशा विलासाः। प्रज्ञाप्यमानाऽपिसा न कथञ्चिदस्यार्थस्योपरमति । ततः प्रेरितकूणिकराजेन तो यात्रितो ती व पाशायां नगस्य स्वकीयातामहस्य थे तद्भयाद्वैशाल्यां - टकाभिधानस्य राहोऽन्तिक सहस्तिको सान्तःपुरपरिवारमी गतवन्तौ । कूणिकेन च वूतप्रेषणेन याचितौ न च तेन प्रेषित कृणिकस्य तयोश्च तुख्यमातृकत्वात् । ततः कृणिकेन भणितमयदि न प्रेषयसि तदा युद्धसो भय तेनापि भणितम् एष स खोऽस्मि । ततः कूणिकेन सह कालादयो दस श्रिमातृका भ्रातरो राजानचेटकेन सह संग्रामामायाताः । तत्रैकैकस्य श्री. णि त्रीणि दस्तिनां सहस्राणि । एवं रथानामश्वानां मनुष्या च प्रत्येकं तितस्तिन कोटया किस्याप्येवमेतत्रएका शनागी कृतराजस्थ कृविकल्प कालादिभिः सह निजेन एकाइ शांशेन संग्रामे काल उपगतः । एतमर्थं वक्तुमाह-" तप से काले " इत्यादिना । एवं च व्यतिकरं ज्ञात्वा चेटकेमाप्यष्टादश गणराजानो मीलिताः तेषां बेटकस्य च प्रत्येकमेवमेव हस्त्यादिवलपरिमाणम् । ततो युद्धं संलग्नं वेदकस्य, राज्ञस्तु प्रतिपअमोघवासा 1 तत्र कृमिनेट सेवेसाग Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल (852) निधान राजेन्द्रः | रामकृणकस्य कालो वरनायको नियन्ति युध्यमानस्तान यायचेटकः । ततस्तेनेकानपानाथ निपातितः । स च कूखिकवलय गतं बद्धमपि बलं निजमावासस्थान । द्वितीयेऽहि फालो नाम दण्डनायको निम्तो युध्यमानस्तावतो पावरका एवं सोऽप्पेकशरेण निपातितः २ । एवं तृतीयेऽह्नि महाकालः, सोऽप्येवम ३ । चतुर्वेद कृष्णकुमारस्तथैव पञ्चमे सुरुः ५. पष्ठे महा ६, सप्तमे वीरकृष्णः ७, अष्टमे रामकृष्णः ८, नवमे पितृसेनकृष्णः पितुः १० टन नि पातिता एवं दशसु दिवसेषु चेटकेन विनाशिता दशापि काला वयः । एकादशेऽपि दिवसे चेटकजयार्थे देवताऽऽराधनाय कूfuntsटमभकं प्रजग्राह । ततः शक्रचमरावागतौ । ततः शक्रो बभाषे बेटका आवक इत्यहं न तं राम नवरं संर कामि । ततोऽसी रूपममेयं कवचं कृतबाबू बरस्तु ही संग्रामी निकृतवान्- महाशिलाक रथमुरासं चेति । तत्र महाशिसेव करटको जीवितमेदवा महाशिलाकण्टकः । ततश्च यत्र तृणशूकादिनाऽप्यनिहतस्याहत्यादेर्महाशिलाकष्ट केले वास्याहतस्य वेदना जायते स सं ग्रामो महाशिलाकाटक योच्यते (मुख) पत्ररथो मु शलेन युक्तः परिधावन् महाजनकयं कृतवान् श्रतो रथमुशखः। उपाए ति ) उपयातः संप्राप्तः । (किं जइस्सति ) जय प्राप्स्यति । पराजेष्यति अभिनविष्यति, परं सैन्यं पराननिकाहनामानं पुत्रं जीवाम्यहं न वेस्तोमः संकल्प युक्तायुक्तविवेचने यस्याः सा उपह तमनःसंकल्पा । यावत्करणात् -"करयल पल्हत्थिपमुई। अट्टका - योगयाश्रो संधियवयणनायकमनाओ "मंधियं अधोमुखी कृतं वदनं च नयनं कमलेव यया सा तथा । "दीणविवन्नवयणा दानस्येष विवर्णे वदनं यस्याः सा तथा [ झियायति ] श्रार्त्तध्यानं ध्यायति " मणोमाणसिएण दुक्खेण अभिभूया " मनसि जातं मानसिकम, मनस्येव यद्वर्तते तन् मानसिकं, दुःखवचने. नाप्रकाशितत्वात् तन्मनोमानसिकं तेन [ अव्वहि ] वर्त्तनाभिसा। " तेथे कासेणमित्यादि [ अपमेयाचे ति] अयमेतद्पोपः [अम्भत्थर सि) आध्यात्मिक ग्रामविशेषचिन्तितस्मरणरूपं प्रार्थितं लब्धमाशंसितं मनोगतं मनस्येव वर्तते यदू न बहिः प्रकाशितं संकल्पविकल्पसमुत्पन्नं प्रादुभूतम्। तदेवाह एवमित्यादि) । यावत्करणात्-"यापुवि चरमाणे मामागर्म दूरमा माग ह संपन्ने स मोस इहेब चंपा नयरीप पुन्नन वेश्य ग्रहापडिरूपं उग्गहं उग्गिहित्ता सयमेणं तवसा अप्पा भावेमाणे विहर, तं महफा भी देवापिया तहारूवाएं अरहंताणं भगताण नामगोयस्स वि सवण्या किमंग ! पुरा अभिगम एवंदनणद्यापति पुरुपपासणार मस्स विि मिस्स सुवणस्स सवणयाए किमंग ! पुण विवस्त श्रहणगहणयाए इच्छामि णं अहं समणं भगवं महावीरं वंदामि मसामि कामि सम्मानणं मंगदेव प वासामि । एवं तो पिश्चनये हियाए सुहाए पमाए निस्सेयसाए आगामियसार भविस्या वाग सामिचि कट्टु एवं संपति । " संप्रेकले पर्यालोचयति सुगमं, नवरम् (इहागइति) चम्पां ( इह संपत्ते त्ति ) पूर्णनडे चैत्ये इह (समोस सि) साधूचितावग्रहे । एतदेवाह "हेव चंपाए इत्यादि" (महापरिषद) यथाप्रतिरूपमुचितमित्यर्थः समिति ) काल तस्मात् (महाफलं ति) महत्फलमाभ्यां भवतीति गम्यम् । (तहारूमाणं ति) तत्प्रकारस्वभावानां महाफलजननस्वभावानामिथेः । (नामगोयस्स सि) नाम्नो याचिकस्याभिधानस्य गोत्र गुणस्य (सपणा शिवणेन (फिमग ! पुरा इनि किं पुनारे पूर्वोकार्थविशेषद्योतनाथम् । सत्यामन्यसे यद्वापरिपूर्ण एवार्थ शब्दो विशेषणार्थः । अभिगमनं चन्दनं स्तुतिः नमनं प्रणमनं प्रतिप्रच्यं शरीरादिचातप्रनः पर्युपासने सेवा, तद्भावस्तत्ता तया एकस्याप्यर्थस्यार्थप्रणेतुकत्वाद् धार्मिकस्य दिपा चन्दामि वन्दे स्तौमि नमस्यामि, सत्कारयामि आदरं करोमि । वस्त्राद्यर्चनं वा संमानयामि उचितप्रतिपस्प्रेति, कल्पार्थ कल्याणहेतुं मनं दुरितोषशमनहेतुं देवं चैवं पर्युपास्यामि सेवेत नोऽस्माक प्रेत्य भवे जन्मान्तरे हिताय पध्यान्नवत् सुखाय शर्मणे माय संमायनाय मोहाय अनुयामिकत्याय भयपरपरासु सानुबन्धसुखाय भविष्यतीति कृत्वा इति हेतोः संप्रेक्ष्यते प र्यालापति संप्रमेष भो देवा! धर्म्मा नियुक्त धार्मिकं यानप्रवरम् (चाउग्घंटं श्रासरहं ति) चतस्रो घण्टाः पृष्ठतोऽग्रतः पार्श्वतश्चालम्बमाना यस्य स चतुर्घएटः, अभ्युको रोवरथं युक्तमे वाऽश्वादिभिरुपस्थापयन्ति प्रगुणीकृत्य मम समर्पयत ( एहायन्ति) कृत मज्जनाः, खानानन्तरम् (कयवसिम्म शिवगृहे देवतानां कृतयलिकम्मो योगपायति कृतानि प्रायः स्व मादिव्यपोहायावश्यं कर्मकर्तव्यत्वात् प्रायश्चित्तानि यया सा तथा तत्र कौतुकानि मयीतिकादीनि सि द्वार्थदध्यक्कृतदूर्वाङ्कुर । नि । “सुद्धप्पावसा बत्थाई परिद्विया अयमदन्याभरणासकिय सरी" सुगमम साम्रा उपवेशनमण्डपः । (दुरूडर ) श्ररोहति ( बहू खुज्जाहिं ) तत्र कामिकामि, विज्ञातमिनारम वामनाजिः ह्रस्वशर|राभिः, रूत्राभिः परुहकोष्ठाभिः, चण्बर।भिः परदेयानि बहुसिकाभिः योगिकाभिः कानि सिनिक, पासिकानीः माविका प्रमिकाभिः मिनि भावीभिः पणीतिः बहुमु सबरी पारखीभिः नानादेशीनिविधानार्यदेशोपचा रित्यर्थः । विदेशः देशाचा नगरी विदेश तथा परिमानि इंगित विद्यानिपार्टिि तेन नयनादिविशेषेण चिन्तितं च परं तिस्थापितप्रार्थित विजानन्ति तचाभिः स्वदेशे बचे परिधानादिरचना तद्वद् गृहीतो देवो यकानिस्तत्तथा, तानिः । निपुणानां मध्ये कुशला यास्तास्तथा, ताजिः, श्रत एव विनी तामिति गम्यते तथा बेटिका - संभवेन वृन्देन परिक्षिप्ता या सा तथा । यत्रैव श्रमणो भगवान् वोपायता प्राप्ता तदनु महावीरं विन्दते स्तुत्या- नमस्यति प्रणामतः स्थिता बर्द्धस्थानेन कृताजत्रिपुरा अभिमुखा सती पर्युपास्ते धमकावणारंकृत्वा वन्दयित्वा एवमवाद । त्- "एवं खलु भंते!" इत्यादि सुगमम् । अत्र कालीदेव्याः पुत्रः कालनामा कुमारो हस्तितुरगरथपदातिरूपसैम्यपरिवृतः कणिकराजनियुको बेटकराजेन सदरमु संग्राम सुन तदाह ( इयमहियपवरवीरघाइयवेिवाडियचिरूरूयपडागे) सैन्यस्य हतत्वाद महतो मानस्य मन्यनाद बीरा सुन पातिता + Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) काल प्रनिधानराजेन्बः। काल विनाशिता यस्य स तथा। विपातिताश्चिवजा गरुडादिचि- नंदा नाम देवी होत्था । सुखमाला जाव विहरति । युक्ताः केतवः पताकाश्च यस्य स तथा । ततः पदचतष्यस्य तस्स णं सेणियस्स रन्नो नंदाए देवीए अत्तए अजए कर्मधारयः। अतएव [निरालोयाश्रो दिसाओ कारेमाणे ति] निर्गतलोका दिशः कुर्वन् , चेटकराजस्य ( सपक्वं सपडिदि नाम कुमारे होत्या,मुखमाल जाव सरुवे साये दंगे जहासिंति) सपकं समानपार्श्वसमावितरपार्श्वतया, मप्रतिदिक चित्ते जाव रज्जधुरा चिंतए यावि होत्था । तयास्यर्थमभिमुखतयेत्यर्थः । अनिमुखागमनो हि परस्परसामयाविव दक्षिणेवामपार्वति । तत एवं विदिशावपीति । इत्येवं स कालश्चटकराजस्य रथेन प्रतिरथं (हवं) शीप्रमासनं संमुखीनमागच्छन्तं दृष्टा चेटकराजस्तं पश्यति, वाच (मासुरुत्ते रुके कुविए चंमिक्किए मिसिमिसीमाणे सिनथा तते णं से चेमए राया कालं कुमारं एजमाणं पासति, आशु शीघ्रं रुष्टः क्रोधेन विमोडितो यः स प्राशुरुष्टः । मासुर कालं एजमाणं पासित्ता प्रामुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे वा पासुरसन्ककोपेन दारुणत्वात् उक्तं भणितं यस्य सभातिवलियं भिनमि निमाले साहट्ट, धणुं परामुमति, तो सुरुक्तः रुष्टो रोपवान ( कुविए त्ति) मनसा कोपवान्, चाउK परामुसइ, परामुसइत्ता विसा गणं ठाति, ठातित्ता रिडकितो दारुणीभूतः, ततः (मिसिमिसीमाणे ति) कोपाययकमायंतं उसुं करेति, करेत्ता कालं कुमारं एगा धज्वालगा ज्यात (तिवलियं जिम निमाले साढदि) त्रिवलिकां भृकुर्टि लोचनविकारविशेष समाटे संहत्य विधाय हुच्चं कूमाहच्चं जीवियाओ ववरोवेति । तं कालगतेणं धनुः परामृशति विशाखं स्थानं तिष्ठति [पाययकमायंतं काली काले कुमारे नो चेव णं तुमं कालकुमारं जीवमाणं सि] वाणमाकृष्य [एगाहचं ति] एकयैवाहत्या हमनमहारो पासिहति । तते णं सा कानी देवी समणस्स भ- यत्र स जीवितव्यपरोपणे तदेकाढत्यम, तद्यथा प्रभवत्येवम् । गवो अंतिए एयमह सोच्चा निसम्म महया पुत्तसाए- कथमित्याह-"कूमाहवं" कृटस्येव पाषाणमयमहामारणणं अप्फणा समाण। परसुविवामिया विव चंपगन्नता धस यन्त्रस्येव आहननं यत्र तत् कूटाहत्यम् । भगवतोक्तयं ब्याख्या । नि०॥ (कणिकजन्मकथा 'कूर्णिय' शब्दे वक्यते ) ति धरणीतमांसि सव्वंगेहिं सन्निवाडिया । तते णं सा काली देवी मुहुत्तरेणं आसत्या समाणी उठाए नहृत्ति, तत्य णं चम्पाए नयरीए सेणियस्स रनो पुत्तो चेतणाजहिता समणं जगवं महावीरं वंदर नमसइ० एवं वयासी- एदेवीए अत्तए कूणियस्स रनो सहोयरे कणीयसे भाएवमेयं भंते ! तहमेयं नंते ! अवितहमेयं ते! असं- या वेहो नाम कुमारे होत्या, सुकमाल जाव सुरूवे । तते पं दिदमेयं ते! सच्चे एए एसमढे से जहे तंतुम्भेक्दहत्ति कट्ट तस्स वेहवस्स कुमारस्त सेणिएणं रमा जीवत्तएर्ण चेव समणं भगवं वंदइ नमंसइ, वंदइत्ता नमंसश्त्ता तमेव धम्मि- सेयणए गंधहत्थी अहारसवंके हारे पुव्वं दिन्ने । तए णं यं जाणप्पवरं दुहति जामेव दिसं पाउब्जूया तामेव दिसं से वेहलकुमारे सेयणएणं गंधहत्थिणा अंतेजरपरियामपमिगता नंते ! त्ति भगवं गोयमे वंदति नममति, बंदइत्ता संपरिबुझ चंपं नगरं मज्ममज्ोणं निग्गच्छिता अभि. नमंसश्त्ता एवं वयासी-काने णं भंते ! कुमारे तिहिं दति- क्खणं गंगं महानई मज्जण्यं भोयरति । तए णं से सेसहस्सेहिं जाव रहमुसलं संगाम संगामेमाणे चेकएकर णए गंधहत्थी देवीश्रो सोंगाए गिन्हति, गिन्हित्वा अप्पेमा रगाहच्चं कूमाहच्चं जीवियाओ ववरोविते समाणे गइयानो खंधे नवेति, एवं अप्पे कुंने ग्वेति, अप्पे सीसे कासमासे कालं किच्चा कहि गइहिं गते कहिं नववने, ग्वति, अप्पे दंतमुसले ग्वेति,अप्पेगक्ष्याओ सोमाए गहाय गोयमेति समणे भगवं गोयम एवं बयासी-एवं खलु उर्ल्ड वेहासं उबिहइ । अप्पे सोझगयाओ अंदोलायोति, गोयमा! काले कुमार तिहिं दंतिसहस्सहिं जाव जीवियानो अप्पेगइया दंतंतरेसु तीणोति । अप्पे सा करेणं एहाणेबवरोविते समाणे कालमासे कालं किच्चा चनत्थीए ति । अप्पमझ्याओ अणेगेहिं कीलावणोठं कीलावेति । पंकप्पनाए पुढवीए हेमाजे नरगे दससागरोवमडिभएम तते णं चैपाए नयरीए सिंघामगतिगचउक्कचच्चरमहापहपहे. नेरइएसु नेरश्यत्ताए उववन्ने। काले णं नंते ! कुमारे सुबहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेति-एवं केरिसरहिं भारंभसमारंभेहिं केरिसरहिं भोगेहिं सं खबु देवाणुप्पिया! वेहवे कुमारे सेयणएणं गंधहत्थिणा भोइएहिं केरिसरहिं संभोइएहिं भोगसंमोगेहिं करिसणं अंतेउरं तं चेव जाव णेगेहिं कीनावणएहिं कीमावेति । तवा असुभकढकम्मपन्नारेणं कालमासे कालं किच्चा चन- एणं वेहल्ले कुमारे रज्जसिरिफलं पञ्चणुभवमाणे विहरति, स्थीए पुढवीए जाव नेरश्यत्ताए नववन्ने । एवं खबु गोय- नो कणिए राया, तते णं तीसे पउमावर देवीए इमीसे मा! मेषं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था | कहाए लाए समाणीते अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जिरिचथमियसमिदा । तत्थ णं रायगिहे नयरे सेणिए चा, एवं खलु वेहो कुमारे सेयणएणं गंधहत्यिणा नाम राया झत्था । महवा तस्स णं सेणियस्स रन्नो जाव अणेगेहिं कीलावणएहिं कीलावेति । तर पं से Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल प्रनिधानराजेन्दः। काल बहने कुमारे रज्जसिरिफलं पञ्चजवाणे विहरति, नोक- संपरिखुढे जाव अजयं मयं रायं उवसंपजिचा णं बिहपिएराया,तंकिणं अम्हं रज्जेणं वा जाव जणवएणं वाज | रति । तं सेयं खलु ममं सेयणगं गंधहत्थि श्रद्वारसवंक गंभम्हं सेयणगे गंधहत्थी नत्थि त सेयं खबु ममं ाण- हारं दूतं पेसित्तए एवं संपेहेति, दूतं सहावेति, सावेयं रायं एयमटुं विन्नवर ति कह एवं संपेहेति, संपेहेत्ता | त्ता एव वयासी-गच्छहणं तुम्हदेवाणुप्पिया! वेसालिनजेणेव कूणियराया तेणेव नवागच्छइ, उवागच्छतित्ता कर-| गरिं, तत्थ णं तुमं ममं अजगं चेडगं रायं करतलक्दावेवझ० जाव एवं वयासी-एवं खबु सामी! वेहल्ले कुमारे सेय- त्ता एवं वयासी-एवं खसु सामी कूणिए राया बिन्नतिजगंधहत्यिणाजाव अणेगेहिं कीलावणेहिं कीनावेति, एस ण वेहवे कुमारे कृणियस्स रन्नो असंविदितणं सेतं केणं सामी ! अम्महं रजेणं वा जाणज्ज जणवएणं वा, यणगं अट्ठारसवंकं च हारं गहाय हं हनमागए, तेणं जति णं अम्हं सेयणए गंधहत्थी नत्थि, तए णं से कूणिए तुन्ने सामी ! कूणि रायं आणगिएहमाणा सेयणग:गंधराया पजमावईदेवीए एयमह नो आदाति, नो परिजाणति, हत्थिं अट्ठारसर्वकं हारस्स कूणियस्स रन्नो पच्चप्पिणतुसिणीए संचिट्ठति । तते णं सा पनमावई देवी अजिक्ख- ह, वेहवं कुमारे फेसह । तते णं से दूए कृषिए करतलक णं कूणियं रायं एयमढ विनवे । तते णं से कुणियराया | जाव पढिसुणित्ता जेणेव स ते गिहे तेणेव उवागपनमाईदेवीए अभिक्खणं अभिक्खणं एयमढे विनविज चाइ, उवागच्छिना तहेव चित्तो जाव बावित्ता एवं माणे अन्नदा कयाई वेहवं कुमारं सदावति, सदावेत्ता से- वयासी-एवं खलु मामी! कूणिए राया विन्नवेइ । एस णं यणगं गंधहत्थि अट्ठारसर्वकंच हारंजायति । ततेणं से बेह वेहो कुमारे तहेव भाणियव्यं जाव वेहवं कुमारं संपेछे कुमारे कूणियं रायं एवं वयासी-एवं खल्लु सामी ! सेणि सह । तए णं से चेडए राया तं यं एवं बयासी जह एणं रत्रा जीवंतेणं चेव सेयणे गंधहत्यी अहारसवंके य चेव णं देवाणुप्पिया ! कृणिए राया सेणियस्स ग्न्नो पुहारे दिन्ने, तं जड़ णं सामी ! तुम्ने ममरजस्स य अकं दलह ते चिसणाए देवीए असए ममं न तुए तहेव णं वेहतोणं अहं तुब्ने सेयणयं गंधहत्थि अट्ठारसवंकं च हारं से वि कुमारे सेणियस्स रन्नो पुत्ते चिल्लणाए देवीए अदलयामि । तते णं से कूणिए राया वेहवस्स कुमारस्स सए ममं न तुए सेणियेणं रन्ना जीवं तते णं चेत्र वेहन. एयपटुंनो आढाति, नो परिजाणइ, अजिक्खणं अभिक्ख. कुमारस्स सेणगे गंधहत्यी अट्ठारसवंके हारे पुष्वदिन्ने णं सेयणगं गंधहत्यि अट्ठारसर्वक च हारं जायति । ततेणं तं जाणं कूणिए रागा वेहलस्स रज्जरस व जणवयस्म अदं तस्स वेहलस्स कुमारस्स एयमढे नोआढाति, नो परियाणति, दायात । तो अहं सेयणगं अटारसर्वक हारं कणियस्स अभिक्खणं अनिक्खणं सेयण ततेणं० वेहवे कुमारे कूणि रन्नो पञ्चप्पिणामि, वेहल्लं च कुमारं पेसेमि, तं यं सम्माएणं रन्ना अभिक्खणं अभिक्खणं सेयण हारं एवं अ. ऐति, पमिविसज्जति । नते णं से दूते चेफएणं रन्ना पमिजिक्खविउकामेणं गिएिह उकामेणं उद्दालेउकामेणं ममं कू विसज्जिए समाणे जेणेव चाउघंटे श्रासरहे तेणेव उवाणिए राया सेयणिगं गंधहतिय अट्ठारसर्वकं च हारं तं जाव गच्छर, चाउघंटं आमरहं दुरुहंति वेसालिनगरिमझ ताव ममं कूणिएणं रन्ना सेयणगं अजिक्खणं अजिक्खणं मज्झेणं निग्गच्छइ, निगच्चत्ता सुभेहिं बमहीहिं पायराहारं गहाय भंतेनरपरिवुमस्स सनममत्तोककरणमाताए चं. सीहिं जाव बसावित्ता एवं बयासी-गच्छतुम् देवापातो नयरीतो पमिनिक्खमित्ता वेसालीए नयराए जंग प्पिया ! चंपं नगरिं चेमए राया आणवेति । जह चेव एं चेडयं रायं जवसंपन्जित्ता णं विहरित्तए एवं संपेडेति. संपेहे- कूणिए राया सेणियस्त रन्नो पुत्ते चेनणाए देवीए - ता कूणियस्स रन्नो अंतराणि जाव पमिजागरमाणे परि. तए मम न तुए तं चव भाणियब, जाच वेहलं च कुमार जागरमाणे विहरति । तते णं से वेहवे कुमारे अन्नदा पेसेमि, तं न देति, णं सामी! चेमए राया सेयणगं अकाकदाई कूशियस्स रन्नो अंतरं जाणति सेयपिगं गंधहत्यि रसवंकं हारं वेहल्लं नो पेसेति । तते णं से कृणिए राया अट्ठारसर्वकं च हारं गहाय अंतेउरपरियानपरितु मे सनंडम- पुच्चं पि दयं सदावेत्ता एवं क्यासी-गच्छद एं तुमं देवाणुसोवकरणमायाए चपाओ नयरीतोपडिनिक्खमति, पमिनि- प्पिया ! वेसालिं नगरिं, तत्थ णं तुमं मम प्रज्जगं क्खमत्ता जेणेव वेसाला नयरी तेणेव नवागच्छति, वेसा- चेमं जाव एवं वयासी-एवं खलु सामी ! कृणिए लीए नयरीए अज्जंग चेढयं राय उवसंपज्जित्ता गं राया विन्नवेश जाणि काणि रयणाणि समुपज्जति विहरति । तते णं से कृषिए राया श्मीसे कहाए बद्ध सवाणि ताणि रायकुलगामाणि । सेणियस्स रमो रज्जसमाणे एवं खलु वेहवे कुमारे ममं असंविदितणं सेयणगं| सिरिकारेमाणस्स पालेमाणस्स दुवे रयणा समुप्पण्या । गंधहत्यि अट्ठास्सवकं च हारं गहाय अंतेउरपरियाल- तं जहा-सेयणए गंधहथी, अट्ठारसर्वके हारे। तमं तुम्ने Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (35 ) अन्निधानराजेन्डः। काल काल सामी! रायकुलपरंपरागयं विईयं प्रास्रोएमाणे सेयणगंग- थिस्स अट्ठारसर्वकं अटाए या पेसिया, ते य चेमए रखा धहत्यिं महारसर्वकं च हारं कूणियस्स रनो पच्चप्पिणह, मेणं कारणेणं पडिसेहिता अदुत्तरं च णं ममं तच्चे ते अ. वेहवं कुमारं पेसेह । तते णं से दृते कूणियस्स रन्नो तहेव० सकारिते असंमाणिते अवदारेणं निच्छुहावेति, तं सेयं खयु जाव वकावित्ता एवं वयासी-एवं खलु सामी! कूणिए। देवाणुप्पिया! अम्हं चेडगस्स रन्नो जुकं गिन्हित्तए,कालाराया विनवेश्-जाणिति जाव वेहल्लं कुमारं पेसेह । तते णं से श्या दस कुमारा कूणियस्स रन्नो एयमहूं विणएणं पमिमुणेचेहए राया तं दूर्य एवं वयासी-जह चेव णं देवाणुप्पिया ! ति। तते णं से कूणिए राया कालादीए दस कुमारे एवं वयासीकूणिए राया सेणियस्सरन्नो पुत्ते चिसणाए देवीए अत्तए गच्चहणं तुन्ने देवाणुप्पिया! सएमु सएमु रजेसु पत्तेयं प. जहा पढमं० जाव बेहट्वं च कुमारं पेसेहत्ति दूतं सकारेति | तेयं एहाया जाव पायच्छित्ता हत्थिखंधवरगया पत्तेयं पत्तेयं सम्माणेति पमिविसउजेति । तते णं से दूर जाव कोणि- तिहिं दंतिसहस्सहिं एवं तिहिं रहसहस्सेहिं तिहिं आसयस्स रनो वच्छावित्ता एवं वयासी-चेमए राया आणवे- सहस्सेहिं तिहिं मणुस्सकोमीहिं मर्षि संपरिबुडा सचिट्टीए ति जह चेव णं देवाणुप्पिया! कोणिए राया सेणियस्स | जाव रवेणं सएहिं सहिंतो नगरेहिंतो पमिनिक्खमंति, पमिनिरनो चेहणाए देवीए अत्तए० जाव वेहा कुमारं पेसेमि तं क्खमंतित्ता ममं अंतियं पाउम्भवह। तते णं ते कालाश्या दस न देति णं सामी! चेडए राया सेयणगं गंधहत्यिं अट्ठार- कुमारा कोणियस्स रन्नो एयमढे सोच्चा सएसु सएसु रज्जेसु सर्वकं च हारं वेहवं कुमारं नो पेसेति । तते णं से कूणिए। पत्तेयं एहाया जाब तिहिं मणुस्सकोमीहिं सम्धि संपरिबुडा राया तस्स दूयस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म आमु-1 सव्वट्टीए जाव रवेणं सएहिं सएहिंतो नगरेहिंतो पमिनिरुत्ते रुठे कुविए जाच मिसिमिसेमाणे तच्चं दूतं सद्दावेति, क्खमंति जेणेव अंगजणवए जेणेव चंपा नगरी जेणेव कूसद्दावेतित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! णिए राया तेणेव उवगता करतल जाव वचाउँति । तते वेसालीए नयरीए चेमगस्स रन्नो वामेणं पादेणं पायपीढं एं से कूणिए राया कोमुत्रियपुरिसे सद्दावेति, सदावतित्ता एवं प्रकमाहि, अक्कमित्ता कुंतग्गेणं लेहं पणाबोहे, पणावेहिता क्यासी-खिप्पामेव जो देवाणुप्पिया आभिसेकं हत्थिरयणं आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे तिनली जिनमी निमाले | पमिकप्पह, से णं हयगयचाउरंगिणीसेणं सन्नावेह, ममं एयसाहहु चेमग रायं एवं वयासी-हं जो चेमगराया! अपत्थि- माणत्तियं पञ्चप्पिणह० जाव परिप्पणति । तते णं सेकणिए यपत्थिया दुरंत जाव परिवज्जित्ता एस णं कृणिए राया | राया जेणेव मज्जणघरे तेणेव नवागच्च,जाव पमिनिग्गश्राणवेइ-पञ्चप्पिणाहि णं कूणियस्स रनो सेयणगं अट्ठार-| चित्ता जेणेव वाहिरिया उवहाणसाला जाव नरवई 5सर्वकं च हारं हवेहवं कुमारं पेसेहि, अहवा जुषं सज्जहे| रूढे,ततेणं कृणिए राया तिहिंदंतिसहस्सोहं जाव रवेणं चंचिट्ठाहि, एस णं कुणिए राया सवलसवाहणे जुरुसज्जे श्ह पं नगरिं मज्झं मज्झेणं निग्गच्छति, निग्गचित्ता जेणेव हन्नमागच्चति । तते णं से दुते करतझ० तहेव जाव जेणेव कालादीया दस कुमारा तेणेव उवागच्छति, नवागच्छित्ता चेकए राया तेणेव उवागच्छइ, नवागचित्ता करतल जाव व- कालाइएहिं दसकुमारोह सकिं एगंततो मेलायति । तते णं से दावेत्ता एवं वयासी-एस एं सामी ! ममं विणयपडिवत्ती इ. कृणिए राया तेत्तीसाए दंतिसहस्सहिंतेतीसाए श्राससहस्सेयाणिं कृणियस्स रन्नो आणुत्ती चेडगस्त रन्नो वामेणं पाएणं हिंतेत्तीसाए मस्सकोडीहिं सदि संपरिचुमे सबहीए०जाव पादपीढं अकमति,अक्कमित्ता आसुरुत्ते कुंतग्गेणं सेहं पणावे, रवेणं सजेहिं वसहीहिं पातरासेहिं नातिविगिहोहिं अंतरावासेतंचेव सवाखंधावारेणं यह हव्वमागच्छति । तते णं से चेक- हिं वसमाणे वसमाणे अंगजणवयस्स मऊ मज्केणं जेणेव विएराया तस्स दूयस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म आसुरु- देहे जणवए जेणेव वेसाती नगरी तेणेव पहारेत्थगमणा ते तेजाव साहहुएवं वयासी-ता अप्पमेणं कृणियस्स रन्नो से- तते णं से चेडए राया इमीसे कहाए लछट्टे समाणे नवमयणगं अट्ठारसर्वकं हार वेहवं च कुमारंनो पेसेमि, एस एणं जु- दिई नवोच्छई कासीकोसलका अट्ठारस वि गणरायाणो फसज्जे चिट्ठााम, तंदूयं असकारितं असंमाणितं अवदारेणं सद्दावेति, सदावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिनिच्चुहावे । तते णं से कूणिए तस्स दूतस्स अंतिए एयमढे या! वेहवे कुमारे कृणियस्स रनो असंविदितेणं सेयणगं सोच्चाणिसम्म आमुरुत्ते कालादाए दसकुमारे सहावेश, स अट्ठारसर्वकं च हारंगहाय इहं हव्यमागते, तते णं कूणिहावेत्ता एवं वयासी-एवं खबुदेवाणुप्पिया बेहो कुमारे एणं सेयणगस्स अट्ठारसर्वकस्स भट्ठाए तो या फेसिममं असंविदितेणं सेयणगं गंधहत्यि अट्ठारसवकं अंतेउरं या, ते य गए श्मेणं कारणेणं पमिसेहिया, तते णं से सभं च गहाय चंपातो निक्खमति, वेसालिं अज्जगं० जाव कृणिए मम एयमटुं अपमिमुणमाणे चाउरंगिणीए सेउवसंपज्जित्ताणं विहरति । तते णं मए सेयणगस्स गंधह- पाए सकिं संपरिबुडे जुज्कसज्जे इह हव्यमागच्छति, १२२ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८६ ) अभिधान राजेन्द्रः । काल तं किन्नं देवाप्पिया ! सेयरणगं गंधहत्यि ग्रहारसवकं कूणियस्स रन्नो पच्चपिणामो वेहलं कुमारं पेसेमो उदादु जुज्झित्था, तते गं नवमलई नवलेच्छई कासीकोसलगा अट्ठारस व गणरायाणो चेडगं रायं एवं वयासी-न एवं सामी ! जुत्तं वा पत्तं वा रायसरिसं वा जं तं सेयणगं अधारसर्वकं कूणियस्स रन्नो पच्चप्पणिज्जति, बेहल्ले य कुमारे सरणागते पेमज्जति, तं जइ णं कूणिए राया चानरंगिणी सेलाए सहि संपरिवुमे जुज्जं सज्जेइ इहं हन्त्रमागच्छति ततेां अम्हे कूणएवं रन्ना सा जुज्कामो, तते 1 सेड राय ते नमल्लाई नवझेच्छई कामकोसलगा हारस वि गणरायाणो एवं वयासी जड़ णं देवापिया ! तुम्भे कूणिएवं रन्ना सद्धिं जुज्झह तं गच्छ णं देवापिया ! एसएस रज्जेमु एहाया जहा कालादीया जाव जणं विजए वेति । तते ां से चेरुए राया कोमुंवियपुरिसे सहावेति, सदावेत्ता एवं वयासी आनिसेक जहा कूणिए जान रूढे । तते णं से चेरुए राया तिहिं दंतिसहस्सेहिं जहा कृणिए जाव बेसालि नगरिं मां मज्जेणं निग्गच्छति, जेणेव ते नत्रमलाई नवलच्छई कासीकोसलगा द्वारस व गणरायाणो तेथेव उवागच्छति । तते णं से चेमए राया सत्तावन्नाए दंतिसहस्खेहिं सत्तावनार आससहस्सेहिं सत्तावन्नाए मणुस्सकोमीहिं सद्धिं संपरित्रुमे सन्त्रीए जाव रखेणं सुजेहिं बसहीहिं पातरा - सेहिं नातिविगिहिं अंतरेहिं वसमाणे वसमाणे विदेहि जणवयं मज्भ्यं मझेणं जेणेव देसपंते तेणेव उवागच्छर, उवागच्छता खंधावारनिवेसनं करेति, करेतित्ता कूणियं रायं परित्रामाणे जुज्ऊसज्जे चिट्ठेति । तते गं से कूणि राया सीए जाव रवेणं जेणेव देसष्पंते तेणेव उवागच्छर, नवागच्छत्ता चेकगस्स रन्नो जोयंतरियं खंधावारनित्रेसं करोति, करेतित्ता तते पं से दोन्नि वि रायाणो रणभूमिं सज्जार्वेति, रणभूमिं सज्जयंति, तते णं से कूणिए राया तेत्तीसाए दंतिसहस्सेहिं० जाव मणुस्सकोमीहिं गरु | (मणोमाणसिएणं ति ) मनसि जातं मानसिकम् । मनस्येव यद् वर्तते वचनेनाप्रकाशितत्वात् तन्मनोमानसिकम्। तेनाबहिर्बुतिना अभिभूता । " अंतेवर परियाल संपरिवुमे चम्पानयरिं मज्ऊँमज्जेस " इत्यादिवाक्यानि कण्ठ्यम् । श्रक्खिविकामैणं ति ) स्वीकर्तुकामेन । एतदेव स्पष्टयति- "गिरिहउकामेणं" इत्यादिना । " तं जाव न उहालैइ ताव मम कूणियरायाओ " इत्यादि सुगमम् । ( श्रजं ति ) मातामहं ( सपेहेसि ) पर्यालोचयति । अन्तराणि छिद्राणि प्रतिजायन् परिभावयन् विचरत्यास्ते । श्रन्तरं प्रविस्लमनुष्यादिकम् । ( संविदि ति) सम्प्रति ( हवं ति ) शीघ्रम् । (जहा चित्तो सि) राजप्रश्नीये द्वितीयो पाङ्गे यथा श्वेताम्यां नगर्यो चित्रनामा दूतः प्रदे शिराज्ञा प्रेषितः श्रावस्त्यां नगर्यो जितशत्रुसमीपे स्वगृहानिर्मत्य गतस्तथाऽयमपि कोणिकराजा यथा एवं विलकुमारोऽपि । (चाउग्घंटं ति ) चतस्रो घण्टाश्चतसृष्वपि दिक्षु अवलम्बिता यस्य स चतुर्घएटो रथः ( सुभेहिं वसहेहि पायरासेहिं ति ) प्रातराशा आदित्योदयादावाद्यप्रहरद्वयसमयवर्ती नोजनकालः, निवासश्च निवसनभूमिभागः, तौ द्वावपि सुखहेतुकौ न बीमाकारिणौ, ताज्यां संप्राप्तौ नगर्यो दृष्टश्टकराजः । " जपणं विजं वावेत्ता" एवं दूतो यदवादीत्तद्दर्शयति-" एवं खलु सामीत्यादिना " ( आलोचेमाणे त्ति ) एवं परागतं प्रति श्रोलोयन्तः (जहापढमं ति ) " रज्जस्स य जणवयस्स य श्र कोणिश्रो राजा जर वेहलस्स देइ तोऽहं सेयणगं अट्ठारसवक च हारं कोणिस्स पश्चप्पियामि, वेडल्लं च कुमारं पेलेमि, न " तदनु द्वितीयदूतस्तस्य समीपे पनमर्थ श्रुत्वा कोणिकराजः "आसुरु" इत्येतावद्रूप रोष संपन्नो यदसौ तृतीयदूतप्रेपणेन कारयति भाणयति च तदाह-"एवं वयासीत्यादिना " " हस्तिहार समर्पणकुमारप्रेषणस्वरूपं यदि न करोषि तदा युकसज्जो नवेति दूतः प्राह । “इमेणं कारणेणं ति तुल्ययात्रिक सं रति, रता गरुलवू हेणं रहमुसलं संगामं उवायाते, तते णं से चेमए राया सत्तावरणाए दंतिसहस्सोर्ह० जात्र सतावणाए मगुस्सकोमीहिं सगडबूडं रएति, सगमवणं रहमुस संगामं उवायाते । तते से दोनिवि राई अणीय सन्नद्धं जाव गहियाउहपहरणं मगतेहि फतेहि निकद्वाहिं असीहिं असागएहिं तोणेहिं सजीवेहि समुख सरेदिं समुझालितेहिं तदाहिं श्री - सारियाहि नरूवंदाहिं विप्यंतरेणं वज्जमाणेणं महया उक्तिहार्दीकरणं समुद्दरवन्यं पित्र करेमाणा म एजावणं हयगया हयगतेहिं गयगया गमगतहिं काल I पायत्तिया पायत्तिएहिं मन्नो सद्धिं संपलग्गया वि होत्था । ततेां ते दोएड वि रायाणं अलीया पियसामीसासणापुरता महता जलवहं जणप्पमदं जणसंवट्टकप्पं नवंतकवधवा भीमं रुहिरकदमं करेमाणा श्रन्नमन्नेणं सद्धिं जुज्छंति । ततेां से काले कुमारे तिहिं दंतिसहस्से हिं जाणूस कोड हिं गरुलवू देणं एकारसमेणं खंमेणं कृसिरिमुसलं संगामं संगामेमाणा हयमहितं जहा भगवता कालीए देवीए परिकहियं० जाव जीविया तो बबरोवेति । तं एयं खलु गोयमा ! काले कुमारे एरिसएहिं आरंभहि जाव परिमणं असुजकडकम्पपन्नारे कालमासे का किच्चा चनत्थीए पंकप्पभाष पुढवीए हेमाभे नरए जाव नेरइयत्ताए उवत्रन्ने । काले णं भंते ! कुमारे चयी पुढवीए अंतरं उच्चट्टित्ता कहिं गच्छहिंति कहिं उबजर्हति । गोयमा ! महाविदेहे वासे जाइकुलाई जवंति ढाई जहा दढप्पइन्ने जाव सिज्जिद्दिति बुज्जिर्हिति जात्र तं काहिंति तं एवं खलु जंबू ! समणें जगवया जात्र संपत्तेणं निरयावलियाणं पढमस्स अज्जयणस्स प्रयमट्ठे पपत्तेति ॥ For Private Personal Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८७) कास अभिधानराजेन्द्रः। कालकप्प संबन्धेन दूतद्वयं कोणिकराजप्रेषितं निषेधितम् । तृतीयदूत- श्रु०५०१०। कालावतंसकभवन स्वनामख्याते सिंहास्त्वसत्कारितोऽपद्वारेण निष्कासितः। ततो यात्रा संग्रामया- सने,का०२७०१०। यत्र चमराममहिषी काली देवी सपपन्ना। त्रा प्रहातुमुद्यता वयभिात काणकराजः कालादीन् प्रति भाण- लौहे,ना धातुषु, तस्य कृष्णत्वात् तथात्वम्। कक्कोडे, नाकामीतवान् । तेऽपि च दशापि तद्वचो विनयेन प्रतिगृण्वन्ति गृह- यके गन्धद्रव्यभेदे, न० । तयोर्गन्धव्येषु कृष्णत्वात्तथात्वम् । न्ति ।[एवं वयासि ति] एवमवादीत् तान् प्रति-गचत यूयं | कोकिले, पुं० स्त्री०॥ तस्य पक्षुि कृष्णत्वोत्तथात्वम । कोष् । स्वराज्येषु निजनिजसामच्या सन्नह्य समागन्तव्यं मम समीपे, राने, रक्तचित्रके, कसम ( कालकसन्दा ) वृक्षे च । पुं० । तदनु कणिकोऽभिषेकाहे हस्तिरत्नं निजमनुष्यैरुपस्थापयति शनिग्रहे, कृष्णत्वात्तस्य तथात्वम् । वारविशेषे, दिग्भेदेन ज्योप्रगुणीकारयति । “प्रतिकल्पयतेति पाठे" सन्नाहवन्तं कुरुत | तिषोक्ते यात्रादौ निषिद्ध योगनेदे, "कौवेरीतो वैपरित्येन कालो, श्त्याज्ञां प्रयच्छति। [तओ दूयत्ति त्रयो दूताः कोणिकेन प्रेषिताः।। वारेऽकांये संमुखे तस्य पाशः।रात्रावेतौ वैपरीत्येन गम्यौ, [मगपहिति] हस्तपाशितैः फलकादिभिः [तोहि ति इषुभिः यात्रायुद्धे संमुखौ वर्जनीयो" ॥१॥ कानाये शिम्बीभेदे, वाचा [सजीपहिति] सप्रत्यञ्चैधनुर्जिनत्यद्भिः कवन्धैः शरैश्च हस्तच्यु- अष्टपञ्चाशत्तमे महाग्रहे, "दो काला" स्था०२ ग०। तैीमं रौणिकनप्तृणां पौत्राणां कालमहाकालायङ्गजानां कमेण व पर्यायानिधायिकम्। "दोरहं च पंच" इत्यादिगाथा। कालो -कालतस्-श्रव्य० । कालं प्रतीत्यर्थे, पा० । धूर्ते, अस्यार्थः-दशसु मध्ये द्वयोः काबसुकावसत्कयोः पुत्रयोतपर्या दे० ना०२ वर्ग। यः पञ्चवर्षाणि त्रयाणां चत्वारि त्रयाणां त्रीणि द्वयोढ़े द्वे वर्षे कालंजर-कालजर-पुं० । कालं जरयति ज-णिन् अच् वा। बतपर्यायः। तत्राद्यस्य यः पुत्रः पद्मनामा स कामान् परित्यज्य मुम् । पर्वतदे, "पणं पुण वीयरणी कालंजरवत्तिणीए गंगाए भगवतो महावीरस्य समीपे गृहीतव्रत एकादशाङ्गधारीभूत्वाऽ. महानदीए विफस्स य अंतरा" आ० म०वि० । देशभेदे, ध० त्युमं बहु चतुर्थषष्ठाष्टमादिकं तपःकर्म कृत्वा अतीव शरीरेण कृ- | र०ा सच कालजरगिरिरूपजनपदावधिभूतः, ततो जबादौरोशीचूतः चिन्तां कृतवान्-यावदस्ति मे बलवीर्यादिशक्तिस्ताव पधत्वात् प्राग्वर्तित्वाच्च वुश् । कालजरके तनवे, त्रि०कानं गवन्तमनुकाप्य जगवदनुशया मम पादपोपगमनं कर्तुं श्रेय इति मृत्यु जरयति, जृ वा खच् । कालस्य मृत्योर्जरके, त्रि०ा वाचन तथैवासी समनुतिष्ठति। ततोऽसौ पञ्चवर्षव्रतपालनपरः मासि कालकंखि (ण) कामकाकिण-त्रि० । अवसरझे, उत्त०६ क्या संसखनया कालगतः सौधर्मे देवत्वेनोत्पन्नो हिसागरोपम. स्थितिका, तत न्युत्वा महाविदेहे उत्पद्य सेत्स्यति । इति कल्पा अ० । “समिते सहिते सदाजते कालखी परिन्नए " वतंसकोत्पन्नस्य प्रथममध्ययनं समाप्तम् । नि०१ वर्ग। जम्बूद्वी काल इति मूलोत्तरप्रकृतिभेदभिन्न प्रकृतिस्थित्यनुनागप्रदेपे ग्रामसकल्पानगरीवास्तव्ये स्वनामख्याते गृहपती, शा०२ श्रु० शबन्धात्मकबन्धोदयसत्कर्मतया व्यवस्थापितम, तथा बद्ध१ अायस्य पुत्री काली देवी चमरस्याप्रमहिषी जाता (इति स्पृष्टनिधत्तनिकाचितावस्थां गतं कर्म, तच्च न हसीयसा 'अग्गमहिसी' शब्दे प्रथमभागे १६६ पृष्ठे उक्तम्) महानिधिभेदे, कालेन क्यमुपयातीत्यतः कालकाङ्कीत्युक्तम् । आचा०१ श्रु० "काले कालप्माणं, सज्वपुराणं च तिसु वि बसेसु । ३०१उ०। सिप्पसय कम्माणि य, तिनि पज्जाए हितकराणि ॥१॥" कालकप्प-कासकल्प-पुं० । मासकल्पादी, पं०भा०। अष्टपषष्ठो निधिः (काले कालमाणामित्यादि) कालनामनि निधौ कालज्ञानं सकलज्योति शास्त्रानुबन्धि ज्ञानम, तथा जगति प्रयो एत्तो न कानकप्पं, वोच्चामि जहक्कमेणं तु । वंशाः,वंशः,प्रवाहः, श्रावलिका इत्येकार्थाः। तद्यथा-तीर्थकरवं मासं पज्जोसवणा, बुलावास-परियाय-कप्पो य॥ शचक्रवर्तिवंशो वलदेववासुदेववंशश्च । तेषु त्रिष्याप वंशेषु यद्भा उस्सम्मपडिक्कमणे, कितिकम्मे चेव पडिलेहा। व्यं यच पुराणमतीतम् । उपलकणमेतत-वर्तमानं शुभाशुनं तत् सकायकाणजिक्खे, जत्तवियारे तहेव सज्झाए । सर्वमत्रास्ति इतो महानिधितो ज्ञायत इत्यर्थः। शिल्पशतं वि. णिक्खमणे य पवेसे................... पं जा । ज्ञानशतम, घटसोहचित्रवस्त्रनापितशिल्पानां पञ्चानामपि प्रत्येकविंशतिनेदत्वात् कर्माणि च कृषिवाणिज्यादीनि जघन्यम मासकल्पादीनाम्ध्यमात्कृष्टभेदजिन्नानि त्रीएयतानि प्राजाया हितकराणि निर्वाडा .............", अदुणा वोच्छामि कालकप्पं तु | भ्युदयहेतुत्वात, पतत् सर्वमेवाभिधीयते। जं०३वक्तास्थान जावानतंतुझीणं, अणपालेता व साम ।। भङ्कानुसारेण षट्पञ्चाशत्तमे महाग्रहे, सू०प्र०२० पाहु०।क- गीतसहाओ विहरे, संविग्गोहिं च जतणजुत्तो न। रावादिषु नारकाणां पाचके यातनाकारके वर्णतश्च काले सप्तमे परमाधार्मिके, भ०३श०६ उ०मा०चू०प्रश्न असती वि मग्गमाणे, खेत्ते काले इमं माणं । अपि च पंच व छ सत्तप्सत्ते, अतिरेगं वा वि जोयणाणं तु । गीतत्यपादमूलं, परिमग्गे जो अपरितंतो।। मीरासु मुंउएमय, कंसु य पपणएमु य पयंति। एकं वदो व तिषिह व, उक्कोसं वारसेव वासाई। कुंजीसु य वह्वीसु य, पयति कामाचणेरइए।७६॥ (मीरासु इत्यादि) तथा कालाख्या नरकपालासुरा मीरासुदी गीतत्यपादमूलं, परिमग्गजा अपरितंतो॥ र्घचवीषु, तथा शुण्ठकेषु, तथा करामुकेषु प्रचएमकेषु तीव्रतापेषु संविग्गो गीयत्थो, जंगचउके तु पढमउवसंपा। नारकान् पचन्ति,तथा कुभीषष्ट्रिकाकृतिषु, तथा वल्लीप्यायसक असती ततिय वितीए, चउत्यगणो ऊ उवसंपे। वल्लिषु नारकान व्यवस्थाप्य जीवान्मत्स्थानिय पचन्ति। सूत्र०१ । उकपमो खलु सङगो, चउरो सहुगा चउत्थजंगम्पि। Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८८) अभिधानराजेन्द्रः | काल कप्प जस्सा नबसंपद, तं नत्थि चउत्यजंगम्मि | एतेसिं तु अलंभे, एगो यामावहारमकरेंतो ॥ विहरेज्ज गुणसमो, अणिदाणो आगमसहाओ । haiकिलि, कायदयावरो वि संविग्गो ॥ जयजोगीण अभे, पण गेल्हतरेण संवासो | पण गेएहतरय सत्थे - मादिभंगे चलत्थए जयणा । जत्य वसंती ते तु, द्वाति तहिं वीसुवसहीए ॥ सिंनिवेदिऊणं, अह तत्थ रण होज्ज असवसहीओ । वहेज्जवा उदंतं वसेज्ज तो एकवसहीए । परीजोगोगासे, तत्थ वितो पुणो वि य जएज्जा । आहारमा दिएहिं इमे विहिणा जहाकमसो || श्राहारे उवहम्मिय, गेलएणागाढकारणे वा वि । यामावहारविजढो, असतीजुत्तो ततो गहणं ॥ श्राहारजवहिमादी, उप्पादे अप्पा विसृद्धं तु | सती सतलाजस्स उ, जो तो साहुपक्खीश्र ॥ सो तु कुलाई पुछि-ज्जती मुदा एत्ति वा वि सो तेसिं । तहवितो तू, जतती परणहाणि जो लहुगा ॥ सर्वपक्खिसहि, ताहे उप्पादएज्ज सुद्धं तु । सती पहाणीवा, जतित्तु अप्पे पमिम्गहगं ॥ तह वसती तन्माद - माणीयं गिराहती ताह चैव । यि विपभिग्गहगे - एहति पासत्यणाओ य । उवहिं पुराणगहितं, अपरीभ्रुत्तं तु गेएहती तेसिं । असती तएतरं पी, जदि य गिलाणो भवे तत्थ ॥ तत्य वि जएज्ज एवं सती सव्वं पि से करेज्जितरे । हवा ते वि गिलाणा, हवेज्ज ताहे करे सो वि ॥ एतत्थं इच्छिज्जति, गच्छो अपोषजं तु साहज्जं । कीरति माओ खलु, तम्हा गेलएहॅ कायव्वो ॥ दीहो व ममहओवा, कम्मो चइन हवेज्ज श्रातंको । महो अदिग्घरोगो, तव्विवरीओ जवे इतरो || कालच के वी खलु, कायव्वं होति अप्पमत्तेणं । मुव वासासु श्र, दियराओ चउक्कमेतं तु ॥ जिणवयणजासियमी, णिज्जरगेलएह्कारणे विउला । यातंकपरताए, कृतपमिकइया जहोणं ॥ जह नमरमहुयरगणा, णिवयंती कुसुमियम्मि वणसंमे । इय होति णिवश्यव्वं, गेलए कझ्वयजढणं ॥ सयमेव दिट्टिवादी, करेति पुच्छंति जागो वेज्जं । वेज्जा अगं पुण, पायव्वमिगं समासेणं ॥ संविविग्गो, दिवसत्ये लिंगि सावए सही । प्रसन्नसन्नि इतरे, परतित्थिय कुसलए इत्थं ॥ जदि दिणमलब्जमाणे, तस्य ववेयब्वगं जवे किंचि तत्य तु भणेज्ज को वी, सुक्खं तु वे दवे दोसो । For Private काल कप्प संसचं पि मुखं तु - निद्धं वसु सोहगंमु सारत्थं । तगं होती इतरे, दोसा वा बहु इमे लिके । दब्बे पमणीए य, पमज्जणपाणतक्कणाहरणा । एते दोसा जम्हा, तम्हा तु दबं णवावेज्जा ॥ एहति जेणं कज्जं तं वावेज्जा तहिं तु जयणाए । आतंक विवच्चासे, चउरो बहुगा य गुरुगा य । जं सेवियं तु किंची, गेलएणे तं तु जातु पडणो वि । सेवने तु साधू, रसगिको सेलओ चेव ॥ तंबोलपणा ते - मातृ सेसा वि तू विरणस्मेज्जा । णिज्जूती तंतू, मा हो वी तहा कुज्जा ।। कालकापाहिगारे, तुमत्थुणा होति सो वि तस्सरिसो । कालविप्पदोवी, असिवादी मुणेयव्वो । सिवे प्रोमोदरिए, रायपुडे पवाददुट्टे वा । गाढे सिंगं, कालक्खेवोवगमणं च ।। सिवे जदि जतियं ता, सिंगविवगेण तक्खणं गच्छे । सव्वत्य वा विसिवे, कालक्रखेवो विवेगेणं ॥ श्रमे चैवं कुज्जा, पत्रादिदुद्वेष बुद्धिलोयाणं । तत्थ वियन्नलिंगे, गिडिसिंगे वा बि जासेज्जा ।। एवं चि प्रगाढं, हवा देहस्स जा तु बाबसी । व्विसयातील व, भत्तस्स णिसेहणे चैव ॥ एतेसामयतरं श्रणगाढं लंपणो णिसेवेज्जा । ताणतावराहे, संयमावराहाणं ॥ संतरा, तव व छेदो तहेव मूलं च । आयारे कप्पे जं, पमाण णिम्माणचरिमम्मि | एसो तु कालकप्पो,' | पं० जा० । इयाणि कालकल्पो । कलणं कालः, कालसमूहो नीयते भनेनार्थ इति नयः । केवइयं पुरा कालं साहुणा संजमं पालेयब्वं १ । उच्यते- जाव आउसेसं ताव अणुपालेयव्वं । सो पुण कत्थ पायव्वो । उच्यते- गीयत्थसंविग्गसगासे, जइ पुण वाघारण गीयत्यसंजया न होज्जा ताहे मग्गियन्वा । तत्थ गाहा - (पंचसप्ततया ) गाहा सिद्धा, एवं संवि वि दो दो गाहाश्रो, जत्थ गयो तत्थ चलभंगो, तेसिं श्रर्गीयत्यसंविगाणं श्रलं एगो वि रागदोस विप्यमुक्को थामावहारं न क तो बिहरेजा, परीसदेसु अपरितो श्रणगृहियबलची रिओ मा गमला । आगमो नाम सुन्तोत्थाणि । एपसु पपसु जयंतो गीयत्वसंविग्गो पुत्रभणिओ चउनको तस्स लगासे अत्थर, तस्सास विश्यतश्याएं कत्थ अत्थियन्वं ? । गीयत्थसंविग्गपायले, तस्सा सह वियए गीयत्य असं विग्गे पच्छा संविमागीयत् पच्छा चत्थे पडिसेहो, प्रायतियं भंगाण असर य एगो विथामावहारविजढो विहरिओ गाहाकालम्मि संकिलिट्टे । संfararohar नाम जम्मि काले गीयत्यसंविग्गा नत्थि, सो संकिलिकालो, तत्थ कायदयावरो जुत्तजोगी भावसंविगो, श्र खाने पासत्यादयो जत्थ गामे तत्थ अत्थर, अपाए वसहीए सकवाकुडे विलवजियाए ठेवणायरियं काऊण ओोहनिज्जुति Personal Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८९) कालकप्प अभिधानराजेन्द्रः। कासकप्प विहीए परसिं निवेयणं काऊण । अह अन्ना वसही न होजा,तत्थ आयाणनिदाणं च सेसा सहिज्जह सो पुच्चो उपदेस देज्जा , पावियस्स उदंतं न वहति,ताहे तेसिं चेव धसही अपरिजमा- दम्वादन्या कलमसालितंडुलचाउरकेण गोखीरेण अट्ठारणे नवासे बाइ तत्थ ट्रिो आहारोवहिाम्म य जइआहारोसयाए सबंजणायोलंबा मोयणं नवसला. खेत्तश्रो सीयकाले गम्मपसणाए दिममाणो व सभेज्जा तापणयपविहाणीए जय जाव घरे उण्डकाले सीयघरे उक्नेययतालियंटमा सफापूरचंदणा. पाउलहुं पत्तो, जर तह वि न बनेज्जा ते य पासस्था इवा कालो पुधएहाइ जाव अठरते वा तावो जत्थ निमंतेज्जा ताहे भण-उवएस देह. कलाणि घा मम साहह। गीयवाइयना मयकुनकाररहकारसुवाकारकंसकारहयसासंबा मणा, अह तह वि एगस्स नदेति ताहे जो धम्मसहियतरोतं रंगसाझाओ य जत्थ अणिका रद्दा नत्थि जहा रन्नो अपांमपव्वं चेव गाहेइ, संविग्गभावणं ताहे जणा-एपण समं हिमा- कूलेसु सबकज्जेसु विभावियब्वं । एवं नाणप जश्त्रणकोमि। तेण वि समं हिंमंतो सयाए एसणाए लए तंत्र अम्ह पयाण चउगुरू गिनाणो परिचित्तो, एवमुवदिट्टे जाणियमण-अहं अप्पणा चव जाणिस्सामि जं मम गाराहयचं मा वं-सावग ! तुम्भे रायमाश्यं दरिहाण य तिगिच्छ करेह, तुम मवाए गएदावेहिसि। अह तेण वि समं भायणे देजा ताडे विजवाणुरुवं जाणह, तुम्भे जो परदत्तोवजीवी सव्वमन्त्रयो धम्मसखियं भण-तुम मम हिमाहि,अहवा तुम एसज्जं देहि, मग्गियब्वं, जया कसमसालीचाचरकं वा न लभेजा तया कि असा उकाध्य पि गेराहरू, वही य अप्पणा जयर जाव कायब्वं, तया इतरं इतरं वा गोखीरं, एवं जाव कोहवरो सउल हुं पत्तो जाहे न लभ तहा वि ताहे ते भणइ-मम द- लखणाइसु घा वियो। खेतोय किट्टयमा जाव रुक्मामृस वि वावेह । अह तहा वि न लन्नइ ते य भणेजा-इमं सीयं चिनिमिणी काऊण कालो जाहे लम्भा । भाव ओ जाणासु गाढं तुमं च परिनोवही इमं पि गएहाहि, ताहे तेसिं तणयं अम्हे बहावश्उं। तदुक्तं भवति-"निद्देसमगुरुतं, निकायणा पच्च जं अहिणवगहियं नमामुप्पायणे सुद्धं अपरिनुत्तं तं गेएहर, इच्छाय। आयंकपउरयाप,पण कयपमिकश्या जहाशिया॥"त पुण तस्स असा मंदपरिभुत्तं गेराहर, तं चेव असा परि कहं गंतब्बं गिनाणस्स (जद भमरमहुकरगणा)गाड़ासिद्ध । अह नुत्तं पि. पच्छा पुराणगहियं उग्गमाइसुद्धं अपरिजुत्तं, वेज्जोभणेज्जा-जामि पासामि गिलाणं, सो वेज्जो संधिग्गागीय. असा परिनुत्तमवि तस्स स एसणाए असुकं अ त्यो कुसलो तण पढम पच्छा असंविम्गो त्ति गीयत्थो कुसलो भिणवगडियं अपरिनुत्तं मंदपरिभुत्तं पि पच्छाओ उप्पाय एवं सावए गीयत्थसंबगपुराणकुलले पच्छा गीयत्थअसंणार असु अभिणवगहियाइ पच्छा उम्गमेण वि सुद्धं अ विग्गपुराणे कुसले गहियाणव्वर गीयत्थे संविमाभानिणवपुराणपरिभुतं च एव जाव हंसाई पि रागहोसवि विए कुसले अग्गदियाघुब्चए गीयत्थे संविग्गभाविप मुक्को, गाहा-(दाहो व ममहो वा ) अह तत्थ अत्थमाणो कुसले अग्गहियाणुब्बए वि कुसले असंभाविकुसले पच्छा होजा, तत्थ जर समत्यो अप्पणा चेव जय असा संभे राया सन्नी गीयत्थकुसलो स एव सम्महिट्ठीकुसले, एव तरतसाहे ते आणेते, एवं सो थामावहारविजढो असर गि मजोगेण सव्वत्थकुसलेण ते इच्ग सेसं जहाकप्पे गिलाण राहरु, सो पुण पायंको दीहो ममहो वा होश्रा दोसु वि कायब्वं । अहवा तेसिं गेलएहं होजा ताहे सो तेसिं क सुत्ते कयाइ संनिही कायब्धिया होज्जा, सा पि होम्वरए जहा रेजा, एयनिमित्तं गच्छवासो इनिजर, परोप्परसाहि गीयत्था ण याणति असइ कडयंतरिए वा चिसिमिणियनरिए नगा य कालचउक्कतिपो न वासासु रत्तिदिवसो वा वा उस्सम्गेण ताव पमिदिवस मयिज्जइ नेहाइपणगपरिहाणीए जिणवयणनिहिडा गेलण्हे करमाणस्स विपुला निज्जरा, जाव चमगुरुं पत्ता असा घमहीए थारगस्स सनिनीय साबयसम्हा कायब्वं निज्जराकामेण । दब्बप्पमाणे ति वेजो स्स अम्मापि समाणस्स गिहे कालानभायणे तस्स सयलाश्रा पुच्छियो । केह भणति-गिलाणो नयच्चो वेज्जसगा एस परिकम्म अहाकडे वि प्रसाए जहा निप्पमासं, एवं नणंतस्स चनगुरु, सो गिलाणो निज्जमाणो णादयो दोसा न भवनि पडिदिवसं पमिले हिज्जा इच्छापरितावणार गाढमगाद अह सणा वा मइलकुले वे कारेण गुमिजह जहा कीमियाइणं विराहणा न भव, तलाइ वेज्जो वा गिहेण समाणोऽसमाणो वि अन्भंगियो स्थ को भणेजा-मिद्धे दब्चे य एए य दासा तत्थ हिप्पमाणे य पगसाडो छारउक्कुरडे वि विप्रो वा कसाइओ वा निक्खिप्पमाणे ये पाणाविराहणा भाणज्जते य अम्वीओ जणज्जा-किं मम घरं सुसाणकुडी, अहवा तत्थ बे पढमियमाइयसचिसपुढविमाविराहणा, एवं भतस्स चनन्जगिहे अन्ने पाउरा पासंमगिहत्था य सेज्जासु नवणी गुरू प्रायंकविवञ्चासे । प्रायंकविवश्वासो नाम आगाढे. यलिमिउलासु उक्खवणयतालियंटमाइसु सीयघरे बासा हिद हाइ अणागाद करेइ चउबहुगा जं च वय उबजीव रत्तेसकपूरचंदणेण हेमंते वा कालागुरुमार श्राहारे य नाण जो पुण पणो वि समाणोतं चेव पाहारे परिबंध करेक सेपगारे पासिचा संतविभवो रायमत्तो वा पब्वश्ओ, पमिगम लो विव तस्स तं चोअपत्तदिटुंतेण सेसदोसरक्खणहाए मा अमो वि पडिसरिहिति ताहे निच्छुभणा से । गा-मबार असंतविभवो निदाणं करेज्जा,जम्हा एए दोसा तम्हान ने- सिवे श्रोमायरिए) अह कालकप्पाहिगारे घड्रमाणे असिवायम्बो गिलाणो वेजघरं । सा पुण वेज्जपुच्चा विहि प्रविही य इणि कारणाणि होजा, असिवे य ज सपश्खघाई हाज्जा एगो डंमोदो जमट्टया चत्तारिनीहारीतम्हातिथि व पंचव सत्त संजयपंताप तम्मि भागाढे ताहि बिंगविवेग काऊण सिव व. व ते पुष गच्छता प्राककृषिकही करेंति,कासयरपहरणं निसे- च। अह सम्वत्थ वि असिवं होजा ताहे कालख करेति जमश्लारिख वा गेएहंति पक्के कम्मि चउगुरु ! लम्हा सुकिल- लिंगविवेगं काकण अत्धति जाव सिर्व जायं । एवं भोमे वि या पसत्थचोबपट्टपहरणकप्पं तत्थ गया बज्जो कसाइनो रायते वि परपावायदुछे वि पुठिलाइ अन्नलिगे पुण - मम्भांगओ चा पुच्चंति चउगुरु, पसत्थासणगो य संतो हियेमा जयणा । ज भिच्छुओ साहे पिडवाश्यत्तण करइ. पुप्फपडलहत्थगो पाउरसत्याणि चा बापमाणो पुचिज अहनलभेज्जा साममं च समुदेस जाव पवारमा न पर १२३ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालकप्प ताय अन्नत्थ वच्चा अन्नत्थ य गओ ताहे कपियारीओ भपति आह जंच पमाणं गिराया ति, पंतीए य पोग्गलपत्तफलाइ परिहरइ । वेजाहारो विभितीजिये मलसी करेण महरा निसणंच भावरे, अह सरपोताहे उद्देश्य करे भार ण उसिणोगं पायव्यं । गाढा - ( एतेसामातरं ) पपसिं कार गाणं विणा अणागाढे निरावणो जो पडिसेवा तहाणारोव (४८०) अभिधान राजेन्द्रः । ( संपावरा गाहा। यस कालको सम्मतो पं० कालकरण - कालकरण - न० । कालजेये, सूत्र० १ ० १ ० १ उ० । ( तत्सम्भवस्तृतीयभागे ३६५ पृष्ठे 'करण' शब्द उक्तः) । कालकाल - कालकाल - पुं० । एकः कालशब्दः प्राङ्गिरूपित एव द्वितीयस्तु सामायिकः । कालो मरणमुच्यते। मरणकि खाकलने, दश १ ० ० म० द्वि । संप्रति कालकालः प्रतिपाद्यः कालो मरणं तस्य कालः कालकालः । तथाचाह " कालो ति मयं मरणं, जहेड मरणं गतो सि कालगते । सम्दा स कालकालो. जो जस्स मो मरणकालो ॥१॥ 73 मुमेवार्थे प्रतिपादयन्नाह - काले कओ कालो अहं सम्झायमकालम्पि | तो तेण हतो कालो, काले कालं करेमाणे ॥ कालेन शुना कृतः कालः कृतं मरणमस्माकं स्वाध्यायदेशकाले स्वाध्यायकरण प्रस्तावे ततस्तेन शुना हतो भग्नः कालः स्वाभ्याकरण कालः । अकाले प्रस्तावे मरणं कुर्वतेति । तदनेन काअशन्दस्य मरणाचित्वमुपदर्शितम् आ० म०द्वि० अ० चू कालकूमरुपजुगार कालकूटकर लोगार पुं० मा कालकूटकले, "लध्यासादिति कालकूटकचलोद्गारागिरा पाप्मनाम् " । प्रति० । कालकेय - कालकेय - पुं० । काल्या श्रपत्ये, श्रा० चू० १ अ० । कालगज्ज-कालकार्य्य-पुं०। श्यामाचायें, विशे० प्रा०म० प्रति०॥ कालकाचार्य पुं० [स्वनामध्या आया, विशेषत मारूपान्तिधारायासनाम्नि नगरे वैरसिंह राशः सुरसुन्द र्या नाम देयः कुः कालको नाम कुमारों जो एकदा बालऽश्वस्कन्धारूढ उद्यानं गतस्तत्र देशनां ददतो गुणाकरमुनेरन्तिके उपविष्टः । तेन च मुनिना योग्यं श्रोतारं ज्ञात्वा भगारधर्ममनगारधर्मे च सम्यख्याख्याय प्रतिबोधितः संविग्नः सन् मातापित्रोराज्ञां गृहीत्वा तत्पादमूले प्राव्रजत् । तत्सहैव तद्भगिनी सरस्वती नाम्नी अपि प्रवजिता । ततः सर्वशास्त्रेष्वचिरेण का सेन पारगतममुं ज्ञात्वा स्वपदे स्थापयित्वा धीगुणाकरसूरिः स्वरगमत् । अन्यदा कालकाचार्य उज्जयिनी नगरीं गतस्तत्र सह विहारण समागतां मां सरस्वती मातस्य भगिनीं तत्रत्यो गर्दभिल्लो नाम राजा बलादहरत् । ततस्तं बहुनिरुपायैः प्रतिबोध्यापि तां मोचयितुमशक्नुवन् कालकाचार्य स्तनिग्रहे कृतप्रतिशः सिन्धुनद्याः परतीरे शकान् सहायी कृत्य गर्दभिलं निगृह्य सरस्वतीं मुमोच मूलच्छेदेन शोधयित्वा पुनः आमरायेऽस्थापयत् । इत्येति पृष्ठे अधिगरण'ने गर्दभिशब्दे च नि० पान दर्शितम् अदा भृगुफनगरराजो बलमित्र काकाचा C • कालच्चयावदि र्यस्य भागिनेय एतस्य दर्शनोत्कण्ठितः स्वमन्त्रिणः प्रेष्य श्राहथ विहारक्रमेण तत्र समागनमेनं महोत्सवेन नगरे प्रवेशयतूनियें मुनस्यासाचार्यस्त महिमानं राहेऽश्रावयत राजा चावायें भक्ति जा तः। ततस्तदसहिष्णुना पुरोहितेनानुकूलोपसर्गैरुपसृष्टः प्रतिष्ठानपुरे शातवाहन नृपतेः प्रार्थनावितवान् त प्राप्त णापर्वणि राजा प्रार्थयामास भगवन् ! जाऊपद शुक्लपञ्चम्यामिन्द्रध्वजमहोत्सवो जयतीति षष्ठयां साम्यत्सरिकं कर्तव्यमिति । तदकाचार्येोकपराहम् चतुथ्यो " गुरुदेवं भवितुमप्रभू तितुमेवैतत्पर्य तोति तुरिनिगमीय जा मिजः दत्तो नाम राजा बहुयशकृद् यज्ञानां नरकः फलमित्यनेन स्पष्टमुक्तः क्रुरु एतद्वचनन ततः सप्तमेऽहनि रौषध्यानेन मृत्वा नरकं गतः । सागरचन्द्रस्य स्वशिष्यस्य गर्वावमोकोऽन्यत्र दर्शितः । अयं च कालकाचार्य: बारमा २२३ वर्षे वि० सं० प्राक् १३० वर्षे श्रासीत् । प्रजावकचरिश्रानुसारेण देवाचार्यात् चतुर्थी पर्युपापप्रच तिमित्युक्तम। अन्ये पुनरन्यमेव कालकाचार्य र्वणश्चतुर्थ्यो प्रथमकारकं वदति, स च वीरमोक्षात् ए० वर्षे जातः तृतीयोऽध्येका कालकाचार्यों वीरमोका ९५३ वर्षेऽजयत्। प्रज्ञापनासूत्रं च प्रथमेनैव रचितमिति प्रतीयते । जै०६०। कालगय- कालगत क्रि० । दिवंगते, कल्प०८ कृण । (कालगतस्य साधोः पारिष्ठानिकी 'परिहाणिया' शब्दे वक्ष्यते । श्राचार्य मृतेऽन्यस्योपसंत् 'नवसंपया' शब्दे द्वितीयजागे ६८६ पृष्ठे उक्ता । आचारकल्पधरे व्युच्छिन्ने अन्यत्रोपसंपदित्यपि उपसंपया शब्दे द्वितीयभागे ६८४ पृष्ठे वक्ता । काल गतासु संयंतीसु प्रवतिनीषु साध्वीनामन्यत्र गमनं विहार' शब्दे वक्ष्यते ) कालग्ग - कालाग्र - न० | कलनं कालः तस्याग्रम् । सर्वाद्धायाम, "कई समयो ायलिया लयो मुद्दतो पो दिवसो प्रहर पक्खे मालो नउ श्रयण संवच्छरो जगपलिश्रवमं सागरोषमं श्रसपिणी उस्सप्पिर्ण) पुग्गल परियट्टो तीतरूमणागतद्धा सव्वद्वापयं सन्देस अगं भवति बृहत्वात् कालम" । नि००१ ४० कालगद्दिय कालगृह तत्रि० कालेन मृत्युनाका लगृहीतः । पौनःपुन्येन मरणजाजि, श्राचा० १ ० ४ श्र० २ ० ॥ कालचनक-काल चतुष्क- न० । चतुर्षु कालेषु, नि०चू० ११३० ॥ कालचक्क - कालचक्र - न० । विंशतिसागरोपमकोटाकोटी प्रमाणे उत्सर्पिणी लक्षणे काले, नं० । ( 'काल' शब्दे तृतीयभागे ४७५ पृष्ठे उत्सर्पिण्यादिमानमुक्तम्) । “जादे एवमवि न सक्क ताहे कालचक्क विजवई ” श्र० म० द्वि० । कालचा कालचक पलमन्ये स्था०५ डा०३४०॥ कालचूसा कालच्मा श्री अधिमासादी अधिके काले, नि० ० सू० १४० (चू' शब्देऽस्ववियुक्तिः) कालच्चयावदिट्ठ - कालात्ययापदिष्ट- पुं० । कालात्ययेनापदिष्टः । ३०तुदोष लक्षणं गोतमसूचे दर्शितम्। यथा-"कालात्ययापदिष्टः कालातीतः " कालात्ययेन प्रयुक्तो यस्यार्थस्यैकदेशोऽपदिश्यमानः स कालात्ययापदिष्टः कालातीत इत्यु तेन नित्यः शब्दः संयोगापयत्। प्राच 12केरयस्थितं रूपं प्रयोगेन व्यज्यते तथा Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६२ ) अनिधानराजेन्द्रः | काल यावदि शब्दवस्थितो मेरीदरामसंयोगेन व्यज्यते, दारुपरशुसयोगेन वा । तस्मात् संयोगव्यङ्ग्यत्वात् नित्यः शब्द इत्ययमहेतुः कालात्ययापदेशात्, व्यञ्जकस्य संयोगस्य कालं न व्यpuस्य रूपस्य व्यक्तिरत्येति, सति प्रदीपघटसंयोग रूपस्य ग्रहणं भवति न निवृत्ते संयोगे रूपं गृह्यते, निवृत्ते दारुपसंयोगे दूरस्थेन शब्द पते विभागका से शब्दव्यः संयोगकाल मत्येतति न संयोगनिर्मिता भवति, कस्मात् कारणादू? जावाद्धि कार्याजाव इति । एवमुदाहरणसाधनस्यानावादसाधनमयं हेतुत्वामास इति | बाच० । कालात्ययापदिष्टोऽपि । तथा ह्यस्य रूपं कालात्ययापदिष्टः कालातीत इति हेतोः प्रयोगकालः प्रत्य पानमनुपतपपरिश्रमस्तस्य प्रयुज्यमानः प्रत्यक्षारामबाधिते विषय वर्त्तमानः कालात्ययापदिष्टो भवतीति । श्रयं च किञ्चित्करदूषणेनैव दूषितोऽवसेयः । रत्ना० ६ परि० । कालात्ययापदिशेऽपि देवानासोऽवराज्युपगतः। यथा-पकाम्येतान्याघ्रफलान्ये कशाखा प्रभयत्यापयुवाकयत् अस्य हि कपत्रययोगिनोऽपि प्रत्ययाचितकर्मानन्तरप्रयोगात् अदिदेतो. कासा एकमनसर प्रयोगः प्रत्यादिविकस्य दुष्कर्मानन्तरं प्रयोगाकेतुकालव्यतिक्रमेस प्रयोगः । तस्माच्च कालात्ययापदिष्टशब्दाभिधेयता, देत्वाभासता च । सम्म० २ काएम । गमकत्वेन कामच्छेष कालच्छेद- पुं० कालविभागे ध०३ अधि कालरय-कालनरक-पुं० । नरकभेदे, यत्र यावती स्थितिरिति । सू० १ ० ॥ श्र० १. उ० । कालपाए- कालज्ञान - न० । कालस्य शुभाशुभरूपस्य ज्ञाने, "का" स्था०१० ठा० "कालासमासो, पुण्यापरिषदिदिसो दिएको सथियोहट्टाए " ॥१॥ ज्यो० २१ पाहु० । वाच० । का 99 66 कालपाणि (प) कालज्ञानिन् शि० काल बगाणी जागा वेज्जयं वेजो | अनु० । कालणिसि (ए) कालनिवेशिन पुं० [अनस्तमिते रात्रिप्रथमायां पौरुष्यां निवेशं कृत्वा तिष्ठति, वृ० १ ० | कालनिवेसी जे अमियाचे उपक्रमति । निः प्यू० १६४० । कालकाला योग्यकासं ज्योतिषक्तकालाय यं च जानाति । शाक। कालज्ञानयुक्ते ज्योतिषिके, वाच० । उचितानुचिताऽवसरशे, प्राचा० १ श्रु० ८ ० ३ उ० । कालज्ञान् वैद्यन्तिके प्रविशतो यः कालः प्रस्तावस्तद्वेदिनः ! बृ० १ उ० । [स्त्री० । कालं प्रस्तावमुपलक्षणत्वाद्देशं कालाया- कालताच जानातीति कालज्ञस्तद्भावः कालज्ञता । देशकालपरिज्ञाने, तस्मिन् दिति गुर्यादिन्दसा गुर्यादिभ्य आहारादिप्रदानं करोति ततो विनयहेतुत्वादपि देशकालपरिज्ञानं विनय इति औपचारिकः षष्ठोऽयं विनयः । व्य० १ उ० । कासविंग कालकिन अतीतानागतवर्तमानकालक । कालये, प्रश्न० २ संब० द्वार । कालदव्त्र - कालव्य न० 1 काल एव तत्र तद्रूपद्रवणात् द्रकाम् । यमेरे, कर्म० कालद्रव्यस्य यतः काल एव तान्यं काव्य, रात्र कालपरियायमरा कालस्य वस्तुतः समयरूपस्य निर्विज्ञागत्वान्न देशप्रदेश संजयः श्रत एव नास्ति कालत्वा जावो वेदितव्यः। नम्वतीतानागतवर्तमा मजेदेन का प्रस्थापितमिति सत्यम ब सीतानागतयोर्थिनानुपन्येाऽविद्यमानत्वा समयः सपः यद्येवं तदै पूर्वसमयनिरोधने व रसमयसद्भाव यातानां समुद्रय समित्याद्यसंभवादावलिकादयः शास्त्रान्तरप्रतिपादिताः कामविशेषाः कथं संगच्छन्त्यमा ततो न संग एच के व्यवहारार्थमेव कल्पिता इति । कर्म० ४ कर्म० । कालदेव - कालदेव पुं० । द्वीपसमुद्र विशेषाधिपतौ, द्वी० । कालदोस - कालदोष- पुं० । दुःषमानुभावे, पञ्चा० १७ विय० । अवसर्पिणीकरणस्य दीनहीनतरादिस्वभावस्य समयस्याऽपराधेार०१० प्रदोषविशेषे च यत्र हि अनादि काव्यत्ययो यथा राम्रो धनं प्राविशदिति राम्रो प्रविशतीत्याह । अनु० । श्रा० म० । विशे० । बृ० । कालकाणात कालाध्यातिक्रान्त- १० । महरा धियमाणे कालातिक्रान्ते, अर्द्धयोजनातिरेकादानीते च । तत्र साधूनामपरिगम साधूनामुपयुक्तत्वात् काति क्रान्तत्वसम्भवः । सत्यम् । सम्भवत्येव ग्रामादिदेतोः त्यक्तुं वा स्थण्डिलं न स्यात् सागारिका वा स्युचौरादिभयं वा तथा स्वादिति विवेकार्ड प्रायश्वितम जीव कालधम्म - कालधर्म - ० कालो मरणं स एव धर्मो जीपयांचा कालधर्मः ० १ ० कालो मरणं लक्षण धर्म परययः कालधर्मः । विशे० । मरणे, स्था०३ वा०३ उ० | "तेण काणं मय्याचा मणुस्सा कालधम्मुणा संजुत्ता जवंति " स्था० ४ ठा० ३ ३० । “कालधम्मुणा संजुत्तं ति" मृतमित्यर्थः । विपा० १० २ श्र० । 66 कालपञ्चकखाण-कालमत्याख्यान - न० | नमस्कारपौरुषीयायावादी कालपचक्खाणं णमोकारपरिसरम विमादिमासास दो दिवसा विधि दिवसा मासो वा जाव म्मासो ति" । आ० चू० ६ ० । कालपमिलेणा कालगतिलेखना - ( प्रत्युपेक्षा) बी० । sian व्याघातिकप्रभृतिका चतुष्पप्रतिलेखना प्ररूप कालग्रहणरूपा काल प्रतिलेखना । कालग्रहणे, उत्त० । तत्फलम् - कालपणानं जीवे किं । काप डिलेहयाए णं नाणावणिज्जं कम्मं खवेइ ॥ २५ ॥ हे भदन्य! कालमतिलेखा कामस्य प्राोधिकप्राभातिका दिकस्य प्रतिदेखना प्रत्युपेतना विकान्तोक विधिना सत्यकपणा ग्रहणप्रतिजागरण सावधानत्वं कालप्रति लेखना, तया जीवः र्किं जनयति ?। गुरुराह हे शिष्य ! कालप्रतिलेखनया जीवो ज्ञानावरणीयं कर्म कृपयति । उत्त० २ए श्र० । कालपरिया कालपर्याय ५० योरवसरे, घाचा १० ८ श्र०५ उ० | कालपरियायमरण कालपर्यायमरण १० लेखनाकाल पर्यायेण तरिकादिमरणे, आचा० १०८०४० Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) कालपुरिस अनिधानराजेन्डः। कालवा (ण) कालपरिस-कालपुरुष-पुंशकालः कालचक्र पुरुष श्व।मेषा-1 व्यन्ति, कास्यन्ति च यथाऽयं ददातीयवं विकल्पता दानाथदिद्वादशराशिस्वरूपे कालव्यवहारकारके पुरुषाकारे गगन-| स्थे वायुचक्रभेदे, वाच। 'पुरिस' शब्दे वक्ष्यमाणस्वरूपे | कालमोहसिंचाए-काललोहसेचन-10 काललोहेनाऽभिषेचपुरुषभेदे, सूत्र. १६०४०१०। नरूपे शारीरदए, प्रश्न ५ सम्बद्वार। कालपोग्गलपरिय-कालफलपराव-पुं०। कालतः पुद्ग-कालवहूं-देशी-धनुषि, देना०२ वर्ग। अपरागत, कालतस्तु यदोत्सपिण्यवसर्पिणीसमयेषु सर्वेषु मणि क्रमेणोत्क्रमण वा अनन्तानन्तैर्भवैरेको जन्तु तो भवति कामवमिग-कालावतंसक-नाचमरचञ्चाराजधान्या स्वनासदा बाद. कासपुदगलपरावों भवति, केवलं येषु समयवेक ख्याते बिमाने, यत्र चमराममहिषी कासी देवी नपपत्रा । दा मृतोऽन्यदपि यदि तप्वेव समयषु म्रियते तदा ने न गण्य ज्ञा०१ मा म्ते, यदा पुनरेकद्वितीयादिसमयक्रममुछायापि अपूर्वेषु सम- कालवाइ (ण)-कानवादिन-पुं० । कालकृतमेव सर्व जगयेषु म्रियते तदा ते व्यवहिता आप समया गएयन्त इति । न्मन्यमान, नं० । कालवादिनश्च नाम ते मन्तव्या ये काकर्म० ५ कर्म। लकृतमेव सर्व जगन्मन्यन्ते । तथा च ते पाहुः-न कालकालपारेहीण-कालपरिडीन-न । परिहानिः परिहीनं काल- मन्तरेण चम्पकाशाकसहकारादिवनस्पतिकुसुमोमफलबस्य परिहानम् । कालविलम्ब, रा०।। न्धादयो टिमकणानुषक्तशीतप्रपातनक्षत्रगर्भाधानवर्षादयो वा ऋतुविनागसंपादिता बालकुमारयौवनवलिपलितागमादयो कानप्पभ-कालपन-पुं० । धरणातुरुत्पातपर्वते, म्था०१० ठा०।। वाऽवस्थाविशगः घटन्ते प्रतिनियतकालविभाग एव तेषामुप| स च येषां यावत्प्रमाणस्तथोक्तो द्वितीयभागे ८३३ पृष्ठे सभ्यमानत्वात् । अन्यथा सर्वमव्यवस्थया नवत् । न चैतत् र. " नपाय" शब्द ] ष्टमिष्टं वा। अपि च-मुझपतिरपिन कालमन्तरेण लोके भवन्ति कालप्पमाण-कालप्रमाण-पुं० । चतुःप्रमाणभेदे, स्था० ४| दृश्यते, किंतु कालक्रमेण, अन्यथा स्थानीन्धनादिसामग्रीसंपग१०। संजवे प्रथमममयेऽपि तस्याभावप्रसंगो न च भवति, तस्माकालबह-कालवध-पुं० । कालव्याघाते, "कविहसिअवि- द्यत्कृतकं तत्सर्व कालकृतमिति । तथाचोक्तम्ज्जुगंमि अ, गांजानकाय कालवहो"। आव०५०। "न कालव्यतिरेकेण, गर्भबालशुभादिकम् । यत्किश्चिजायते लोके, तदसौ कारणं किन्न । कालबान-कालपाल-पुं० । व्यन्तरेन्डाणां लोकपाले, स्था. किंच कााहते नैव, मुझपतिरपीकते। १००। स्थाल्यादिसंनिधानेऽपि, ततः कालादसौ मता ॥२॥ काननूमि-काननमि-स्त्री० । कालमराकल्याम्, "ते पुण ससू कालाजाय च गर्नादि, सर्व स्यादव्यवस्थया। रिउ चित्र पासवणुचारकालनूमीभो" श्राव०४०। परटहेतुसद्भावमात्रादेव तद्भवात् ॥ ३॥ कालनोगि (ण )-कालभोगिन-त्रि० । मध्याह्न सूर्येणापि कासः पचति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः। ध्रियमाणे जुञ्जाने, वृ० १ उ०। कासः सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः" ॥४॥ अत्र परेष्टहेतुसद्भावमात्रादिति पराभिमतवनितापुरुषसंयोकलमाण-कालमान-न०। कालो मन्यतेऽसौ । मन्-कर्मणि ध गादिमात्ररूपहेतुसद्भावमात्रादेव, तदुद्भवादिति गर्भाशुद्भव. म् सुप्-स। कालपारमाणे, वाच० । कालपरिमाणापेक्कायाम, पञ्चा १० विव० । (देवानामाहारोच्चासयोः कालमान प्रसंगात् । तथा कालः पचति परिपाकं नयति परिणति नयति भूतानि पृथिव्यादीनि, तथा कालः संहरते प्रजाः पूर्वपर्याया'मान'शब्दे वक्ष्यत) प्रच्याव्य पर्यायान्तरेण प्रजाः सोकान् स्थापयति तथा काल: कालमास-कालयास-पुं० । कालो मरण तस्य मासः प्रक्रमा- सुप्तेषु जनेषु जागर्ति काल एव तं तं सुप्तं जनमापदो रक्षतीति दवसरः कालमासः। मरणमासे, भ० ७२०१०3०1 "काल-| नावः तस्माद्धि स्फुटं दुरतिक्रमोऽपाक मशक्यः काब इति । मास कालं किच्चा" भ०७श०१ उ०। न। खण्डनम्-तत्र ये कामवादिनः सर्वकासकृतं मन्यन्ते तान् कालमासिणी-कालमासिनी-स्त्री०। कालमासवरयां गर्भाधा- प्रति घूमः-कालो नाम किमेकस्वभावो नित्यो व्यापी, किया नानवमासवत्याम, “सिया य समणहार गुम्विणी कालमा समयादिरूपतया परिणमतीति। तत्र यद्याद्यः पक्षः। तदयुक्तम। सिणी"।दश०५०१ उ०। तथाभूतकालग्राहकप्रमाणाभावान खलु तथानूतं कालं प्रत्य. केणोपलभामहे । नाप्यनुमानेन, तदविनाभावि विद्याभावात् । कासमिगपर-कालमृगपह-पुंसकालमृगचर्माण, ०२वक्ष: अथ कथं तदविनाभाविनिशानावो यावता दृश्यते भरत. रामादिषु पूर्वापरव्यवहारः, सच न वस्तुस्वरूपमात्रनिमित्तो, कालय कालक-पुं० । भ्रमरे, विशे० । श्यामे," तेण तेल्लेण - वर्तमाने च काले वस्तुस्वरूपस्य विद्यमानतया तथा व्यहारज्झतो कालो जातो कागवनो नामेण विक्खातो" मा. प्रवृत्तिप्रशक्तः, ततो यनिमित्तोऽयं भरतरामादिषु पर्वापरब्यम० द्वि०। बहारः स काल इति । तथाहि-पूर्वकालयागा पूर्वो जरतचक्रकालझंघ-कालसह-पुं०। कालस्य साधूश्चितनिकासमयस्य | वर्ती, अपरकालयोगी चापरो गमादिरिति । ननु यदि भरतब लानमतिक्रम इति यावत् । प्रतिथिसंविभागवतस्या- रामादिपूर्वापरकालयोगतः पूर्वापरव्यवहारस्तर्हि कालस्यैष अतिचार, कालं न्यूनमधिकं वासात्वा साधवो न प्रही-! कवं स्वयं पूर्वापरव्यवहारः। तदन्यकासयोगादिति चत, न। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) अभिधानराजेन्खः । कालवा (यू) तत्राऽपि स एव प्रसङ्ग इत्यनवस्था । अथ मा भूदेष दोष इति. तस्य स्वयमेव पूर्वस्वमपरत्वं चेष्यते, नान्यकालयोगादिति । तथाचोक" पूर्वका पूर्वादिव्यपदेशभाक् । पूर्वापरावं तस्यापि स्वरुपादेव नान्यतः ॥१॥ व्याण्डवीताssसवप्रलापदेशीयम्। यत एकान्तेनैको व्यापी नित्यः कालोज्युपगम्यते ततः कथं तस्य पूर्वादित्वसंभवः । अथ सहस्रारि.सं. पर्कवशादेकस्यापि तथात्वकल्पना । तथाहि सहचारिणो भरतादयः पूर्वा अपरे व रामादयोः ततस्तत्संपर्क दशकालस्यापि पूर्वापरव्यपदेशो भवति सहचारिणो व्यपदेशो यथा-मक्रोशन्ति इति । तदेतदपि बालिशजल्पितम् । इतरेतराश्रयदोषप्रसंगात् । तथाहि सहचारिक भरतादीना गतपूर्वादित्ययोगात्, कालस्य च पूर्वादित्वं सहचारि भरतादिपूर्णत्ययोगतः तत एकाऽसिद्धावन्यतरस्या 1 9 प्यसिद्धिः । उक्तं च"पिता 1 पूर्वादित्यं कथं वेत्। सहचारिवशान-दन्योऽन्याश्रयतागमः ॥ १ ॥ सहचारिणां हि पूर्व पूर्वकालसमागमात् । कालस्य पूर्वादित्यच साहचर्यवियोगतः ॥ २ ॥ प्रागसिद्भावकस्य कथमन्यस्य सिद्धिरिति तत्राद्यः पक्षः श्रेयाम् । अथ द्वितीयः पक्षः सोऽययुक्तः पराः समयादिरूपे परिणामिनि काले विशिष्टेऽपि फल वैचित्र्यमुपलभ्यते । तथाहि समकालमा राज्यमाणायामपि मुपरिचिकता कस्यचिद् दृश्यते, अपरस्य तु स्थाल्यादि संगतावेव विकला तथा समयकालमेकस्मिन्नेव राजनि सेव्यमाने सेवकस्यैकस्य फलमचिराद्भवति, अपरस्य तु कालान्तरेऽपि; तथा समानेऽपि समकालमपि क्रियमाणे कृप्यादिकर्मत्येकस्य परिपूर्ण धान्य संपपजायते, अपरस्य तु खरमस्फुटिता वा न किञ्चिदपि । ततो यदि काल एव केबलः कारणं भवेत्तर्हि सर्वेषामपि सममेव मुरुपङ्क्त्यादिकं फलं जवेत् न च भवति, तस्मान कासमात्रकृतं विश्ववैविध्यम, किंतु कालादिसामग्रीसापेक्षं तत्कर्मकधनमिति स्थितम्। नं० [ अनेकान्तेन स्यादयादिनामपि कामस्य कारणत्वं सम्मतमेव कालोऽपि कर्ता तो पकाशोकसाग सहकारादीनां विशिष्ट का पुष्कफन सर्वदेति । यच्वोकमकालस्यैकरूपत्वाज्जगद्वैचित्र्यं न घटत इति, तदस्मान् प्रति न डूपण यतोऽस्माभिनं काल एवैकः कर्तृत्वेनाभ्युपगम्यते, अपि तु कर्मापि ततो जगद्वैचित्रयमित्यदोषः । एकान्तवाद समाश्रयणे तु दोषः । सूत्र० १ ० १ ० २० । ] कालादेकान्तवादोऽपि नित्यमेवेत्याहकालो सहाव जियई, पुण्वक पुरिसकारगंता। मिच्छतो छ समान होति सम्पचं ॥ १५०॥ चैत्र उ, कालस्वनाच नियतिपूर्वकृत पुरुषकारणका एकान्ताः सर्वेयेकका मिथ्यात्वम्, त एव समुदिताः परस्पराजहद्वृत्तयः सम्यत्वरूपतां प्रतिपद्यन्त इति तात्पर्यार्थः । तत्र काल एवैकान्तेन जगतः कारणमिति कासवादिनः प्राहुः । तथाहि सर्वस्य शीतोष्णवचवनस्पतिपुरुषादेर्जगतः प्रजवस्थितिविशेषेषु ग्रहोपरागयुतियुकोदयास्तमयगतिगमनागमनादौ वा कालः कारणं तमन्तरेण स यस्यास्योत्पति कारणत्या निमतनासावेयभावात साये च भावान युक्तम "कालः पचति जूतानि” इत्यादि । असदेतत् । तत्काल सङ्गावेऽपि वृष्टयादः कदाचिददर्शनात् । नच तदभवनमपि १२४ कालसंदीव तद्विशेषकृतमेव नित्यैकरूपतया तस्य विशेषाभावात् । विशेषे वा तज्जननाजनन स्वभावतया तस्य नित्यत्वव्यतिक्रमात् स्वभायद हम शेषः तस्य प्यहेतुतयानावात् नच काल एव तस्य हेतु-रायदोषप्रशः । सति कालभेदे वर्षादिभेद हेतोर्ब्रहम एक लादेर्भेदः, त दास्य कालमेव इति परिस्फुरमितरेतराश्रयः कारणाद्वर्षादिभेदेन काल एव एकः कारणं भवेत् इत्यभ्युपगमविरोधः कामस्य तदाभ्युपगमे अभियुक् तत्र च प्रजवस्थितिविनाशेषु यद्यपरः कालः कारणं तदा तत्रापि स एव पर्यनुयोग इत्यनवस्थानाम्न वर्षादिकार्योत्पत्तिः स्यात् । नचैकस्य कारणत्वं युक्तम, क्रमयौगपद्याभ्यां तद्विरोधात् । तन्न काल एवैकः कारणं जगतः। सम्म० २ कारक । श्राचा० । " " कालवासि (ए) कालवर्षिण ० अरवि बसरे दानम्याख्यानादिपरोपकारार्थप्रवर्तके पुरुषजाते स्था० ४ ० ४ ० कालविभोक्ख-काल विमोक- पुं० महिमादिषु कालेषु समापातादिघोषणापादितमुवाका व्याख्यायते तस्मिन् विमोक्कनेदे, आचा० १० ० ० १ ३० । कालविभाग कालविभाग पुं० अनाद्यपदादिकालनेदेषु, "इस कालविभागं तु तेर्सि घोच् वविदं "। उत्त० ३६ अ० | कालविरुद्ध कालविरुद्ध त्रि० । कालप्रतिकूले, कामबिरु स्वेयमूर्तीदमपरिसरे गा मरी पद समुपय्र्यन्तभागेणुमयहरवे यामिनीमुखखायां या प्र स्थानम्, तथा फाल्गुनमासाद्यनन्तरं तिलपीसनम्, तदूव्यवसा यादि, वर्षासु वा पत्रशाकग्रहणादि ज्ञेयम् । ध० २ अधि० । कालविवच्चास कालविपर्य्यास अधिका वसु बिहारे "उरुबद्धकाले तिरेगो वास एवं सं ति दवडता वा वासासु विहरति, एवं कालविवचा करेति" नि० चू० १ ० । च । संभव कालपेक्षा कालवेला खी० कालस्य शनैर्वेला कालभेदः । रख्यादिवारेषु दिवानिशोरर्द्धयामभेदे, वाच० । कालवेलाय प्रकरणानि निर्युच्यो वा साधुनिगण्य न था, तथा कालवेलायां प्रति प्रका वेलायां सर्वेषामप्याचारप्रदीपादौ नियुक्तिप्राप्यादिप्रभृति स वे पठनपाठनादि प्रतिषिद्धमस्ति । २६ प्र० सेन० २ ० । कालवे सिय-कालवैश्यक-पुं० । कालाख्यायाः वेश्यायाः पुत्रः कालवैश्यकः । मथुरानृपतेः कालवेश्यायां संजाते पुत्रे, उत० २ श्र० । ( ' रोगपरीसह ' शब्दे तत्कथा वयते ) - कालसंजोग कालसंयोग- पुं० : वर्तमानादिकाललकणानुभूती, मरणयोगे च । स्था० ३ ठा० २ उ० । कालदीव कालमन्दीप पुं० रुमहेश्वरमरितत्रपुरासुरे, आ० क० प्रा० चू० । सूत्र० । (" सिक्ख । " शब्दे दर्शयिध्यमाणकथया स्पष्टीजविष्यति ) Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६४ ) अभिधानराजेन्द्रः काल समय कालसमय-काल समय पुत्र । कालश्चासौ समयश्च काल समयः। कालरूपे समये, "पुरक्खडे का समयंसि वासाणं पढमे समए परिवज ।” पूर्वस्मिन् काले [समयंसि सि ] समयः सङ्केतादिरपि प्रवर्ति । सू० प्र० ८ पाहु० । कालसमा कालसमा - स्त्री० । श्रवसर्पिण्या उत्सर्पिण्या वा अरके कालविभागे, प्रथमः कालविभागः सुषमसुषमा, द्वितीयः सुषमा, तृतीयः सुषमदुःषमा, चतुर्थो दुःषमसुषमा, प ञ्चमो दुःषमा, षष्ठो दुःषमदुःषमा इत्यर्थः । उक्तानि कालसमानामानि । ज्यो० २ पाहु० । काल समाहि-कालसमाधि-पुं० । समाधिभेदे, यस्थ यं कालमवाप्य समाधिरुत्पद्यते। तद्यथा शरदि गवां नतमुलकानामहनि वलिजां यस्य वा यावन्तं कालं समाधिर्भवति यस्मिन् वा समाधिर्याख्यायते स कालप्राधान्यात् कालसमाधिरिति । सू. ० १ ० १० अ० । कालसमोसरण - कालसमवसरण - न० । समघसरणमेलापकभेदे, कानसमवसरणं तु परमार्थतो नास्ति, विवक्रया तु यत्र द्विपदादयः समवसरन्ति व्याख्यायते व समवसरणं यत्र तत्काल प्राधान्यादिदमुच्यते । सूत्र० १ ० १२ श्र० । कालसहाय- कालस्वनाव-पुं०] कासामध्ये पञ्चा० १७ विष० कालसिना कालशिक्षा बी० मरणावादनशिला याम, संथा० । कालमोरिय-काल सौकरिक पुं० । कालनामके सूनावृत्तिके, सानो मृत्वा सप्तमपृथिवीं गतः, तत्पुत्रः सुलसः सुश्रावकोजूदिति । प्रा० क० नि० चू० । स्था० सूत्र० ( 'सुबस' शब्देऽस्य कथा वक्ष्यते ) | कायस्थ (कासइस्तिन् पुं० कलम्बुकाखनिवेशस्थे प्रात्यन्तिके मेघस्य चातार आ० म० द्वि० । श्रा० चू० ( 'वीर' शब्देऽस्य कथा वक्ष्यते ) काला - काला (बी) - स्त्री । कालो वर्णोऽस्त्यस्या अर्श-कार्तिको कालस्यैव 0 -श्रच् । इह तु अर्श श्राद्यजन्तत्वात् न ङीष् । नीलिन्यां कृष्णत्रिवृतायां कृष्ण जीरके च । कन विक्षेपे, णिच् पचाद्यच् । मञ्जिष्ठायाम, कुलिकवृक्के, अश्वगन्धावृके, पाटलावृक्षे च । वाच प्राकृते तु "श्र जातेः पुंसः " । ८ । ३ । ३२ । इति अजातिवाचिनो जातिभि शवाचकात् कालशब्दात् वा ङीप् । कान्ना काली । जातिवा चकातु ङोवेव, काली । प्रा० ३ पाद । कालाइन कालातिक्रान्त-१० कालं दिवसस्य प्रहलक्षण मतिक्रान्तं कालातिक्रान्तम्। "जेणं णिग्गंये वा जाय साइमं पढमाए पोरिसीए पडिग्गहेत्ता पच्छिम पोरिसि व्यायणावित्ता श्राहारमाहारेइ, एस णं गोयमा ! का लाइकते पाणभोयणे" इत्युक्तस्वरूपे कालातिक्रमदोष पाननोजने भ० ७ ० १ ० । तृमुकाकालाsप्राप्ते वा पानभोजने, “काला कनेडि य पमानारकंतेहि य पाणज्ञाहिं श्रमया कयाइ सरीरिंगसंविउलरोगात पाउब्भू " भ० ए ० ३३ उ० । काल इकं तकिरिया - कालातिक्रान्तक्रिया - स्त्री० । वसतैः कालातिक्रमदेषि, प्राचा० । से तारे वा आरामागारे परियावसहेवा जे भयंता कालाइ कंतकिरिया या गाहाचाकुले वा परियं वा वासाचासियं वा कप्पं उत्रातिणावेत्ता तं गुणा दुगुणा अपरिहरिता तत्थैवज्जो संवसंति अयमाउसो ! इतरा वट्ठाकिरिया या विभवति इह खघु पाई या संते गतिया सङ्घाजवंति। तं जहा - गाहावईउ वा जाव कम्मकर उ वा तेर्सि चणं आयारगोयरे णो सुणिसंते भवति तं सद्दहमाणेहिं तं पत्तियमाणेहिं तं रोयमाणेहिं वहवे समणमा प्रतिहि किवीम समुदिस्तस्य तत्यगारी अगाराई चेतिता जयति तं जहा आएणाशिवा आयतनाणि वा देवकुलाणि वा सजाओ वा पत्राणि वा पलियगिहाणि वा पायसालामो वा जाणगिहाणि वा जाणसाला वा सुधाकम्मं ताणि वा डब्नकम्मं ताणि वा वरणकम्मं पुण्वकम्मं इंगालकम्मं ताणि वा कटुकम्मं ताणि वा सुसाएकम्पं सं गारगिरिकंदरा संति सेोपाकम् भागिहालि वा जे भयंतारो तप्यगाराई आमाणि वा भवमहाशिव तेहिं उपमाणेहिं उपयंति प्रयमासो अनिकंत किरिया विभवति, इह खलु पाई वा ४ जा तं रोषमा बडवे समयमाहण अतिडिकीमए समुद्दिस्स तत्थ तत्थ अगारीहिं अगाराई चे - या जवंति । तं जहा आएसणाणि वा जाव गिहारिण वा जे भयंतारो तहप्पगाराई आएमा वा जाव मिहाणि वा तेहिं प्रणोवयमाणेहिं वयंति अयमानुसो ! अनि किरिया या त्रि भवति, इह खलु पाईं वा ४ संतेगड्या सहा जति तं जहा गाढावई वा जान कम्मकर या चि एवं वृत्तपुत्रं जवति, जे इमे भवंति समया जगवंतो सीलमंता जाव वरया मेहुणा पम्माओ को खड़ एस जयं हाराणं कप्पति आहाकम्मिए उवस्सए वत्थर सेनाणिमापि श्रहं अप्पो अड्डा श्याई जयंति तं जहा श्रा एमरणाणि वा जागिहाणि वा सव्वाणि ताणि समणाणं लिसिरामो अविवापर्य पच्छा अध्यादे तिस्समो तं साणि वा जाव गिहारिणवा एतप्पगारं निग्घोस सोच्चा सिम्मं जे भयंतारो तहप्पगाराई श्राएमणाशिवा जागिहाणिया उपागच्छति इयरा इतरेहिं पाहुमेहिं वहति थमाउसो वजकिरिया विभवति इह खलु पाई या संवेगइया सहज आवारगोयरे जाव तं रोएमाणेहिं बहवे समणमाहण० जाव वणीमगे पगयि समृदिस्न तत्थ तस्य अगाडि अगाराहं चेहयाई जवंति। तं जहा आसनाणि वा जान मिहाणि या जे भ तारो तप्यगाराई आएषाणि या उपागच्छति इतरा इवरे च Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१५ ) श्रमिधानराजेन्द्रः । कालाइत किरिया हिं पाडुमेहिं माउसो ! महावज्जकिरिया यावि जवति, इह ख पाईयां वा ४ संते गया जाय रोवमाहिं बहये समाजाए ममुद्दिस्तत्य अगारी अगाराई या भ येति । जहा एसाथिया जाय भवणगिहाणि वा जे जयंतारो तप्पगाराई आणि या जाव गिहाणि वा उपागच्छति इयरा इयहि पाहुमेहिं अमाउसोसाय किरिया यदि पति इह ख पाई वा ४ संतेगइया सट्टा जयंति। तं जहा-गाडावई वा जाव कम्मकरीओ ना तो चणं यारगोयरे होते भवति तं समारोह ३ एक समजायं समुद्दिस्स तत्थ तत्थ अगारीहिं गारा चेइयाइ जवंति। जहा आएणाणि वा जार जणगिहाण या महया पुढविकायसमारंभेणं एवं आनतेनवाउबस्स महया तसकायसमारंभेणं महया संरंभेणं महया समारं महता आरंभेणं महया विरूवरूवेहिं पावकम्मकिश्चेहिं तं जहा छायणओ लेवल संथारवार पिहाणओ सीतोदए वा परिबिय पुव्वै भवति, प्रगणिकाए वा उज्जालियपुब्वे भवति, जे जयंतारो तहृप्पगाराई श्रपसाणि वा जाव भवागिहाणि वा वागच्छंति इतरा] इतरेहिं पा हुमेहि दुखते कम्मं सेवंति प्रयमाउसो ! महासावज्जकिरिया पावि भवति इह खलु पाई वा ४ जाव तं रोषमाि अपणो सट्टा तत्थ तत्थ अगारीहिं अगाराई वेश्याई भवंतितं सणाणि वा जाव गिहालि वा महया पुढविकायसमारंभेणं जाव अगणिकाए वा उज्जानियपुब्वे भवति, जे भयंता तत्पगाराई आएसखाणि वा जाव गिहारी वा वागच्छंत, इतरा] इतरो पाडुमो एमपक्वते कम् सेति अपमासो ! अप्यसावज किरिया यावि नवति एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं । साम्प्रतं कालातिक्रान्तवसति शेषमाह (से) इत्यादि । तेष्वारामागारेषु ये भगवन्त ऋतुबद्धमिति शीतोष्णकायोर्मासकल्पमुपनीयातिवाह्य वर्षासु वा चतुरो मांसानतिवाह्य तत्रैव पुनः का-रणमन्तरेणासते, भयमायुष्मन् ! कालातिक्रमदोषः संभवति । तपाच स्यादिप्रतिबन्धः महादुधमादिदोषसंभवो वेत्यत स्तथा स्थान न करते इति दानमुपस्थानदोषमभिध सुराह (से) इत्यादि। ये जगवन्तः साधव आगन्तारादिषु ऋतु वर्ष वर्षो वाऽतिवाद्यान्यत्र मासमेकं स्थित्य दिनमासल्येनारित्व द्वित्रैमासेयंधानमकृत्वा स्तत्रैव वसन्ति । अयमेवंभूतः प्रतिश्रय उपा दुष्टो भवतीत्यतस्तत्रावस्थातुं न कल्पत इति । इदानीमतिक्रान्तप्रतिपादादिदि श्रावकाः प्रकृतिका वा गृहपत्यादयो नवेयुः तेषां च साध्वाचारगोचरः (णो सुणिसन्तो इति)न सुष्ठु निशान्तः श्रुतोऽवगतो जय साधूनामेवंभूतः प्रतिश्रयः कल्पते ज्ञानवतीत्यर्थः प्रतिपदागफलं स्वर्गादि कालाइकंता नेहवा मेदः सदेवरगारिभि स्थैर्यनमस् तत्र तत्राऽऽरामादी यानादीनि स्वार्थ कुर्यद्भिः वायव काशार्थम् (वेश्यांत) महान्ति कृतानि जवन्ति चागाराणि, स्वनामग्राहं दर्शयति । तद्यथा- आवेशनानि लोहकारादिशाला, श्रायतनाग देवकुलपापराधातु वैद्याविशालाप्रपा उदकदानस्थानानि पश्यगृहाणि पश्चापणाः, शाला घघशाला, यानगृहाणि यत्र यानानि तिष्ठन्ति यानशाला यत्र यानानि निष्पाद्यते ( सुधाकम्मं ति) तानि यत्र सुधा परिकर्म किय एवं वर्जनाद्वारा कर्माणि यानि श्मशा न प्रतीत शान्ति पत्र शान्तिकर्म क्रियते, गिरिगृहं पर्वतोपरिगृह, कन्दरं गिरिगुहा संस्कृता, शैलोपस्थानं पाचाणामरूप देवंभूतानि गृहाणि तैश्वराह्मणादिमि रभिकान्तानि पूर्व पश्चाद् भगवन्तः साधवोऽवपतन्त्यवतरन्ति । भयमायुष्यम् ! विमेषामन्नम् अतिकान्तक्रिया प दोषा चेयम् । श्हेत्यादि सुगमं, नवरं बरकादिभिरनवसेवित पूर्वानान्याची पानभिकान्तरादे वा कल्पनीये. ति । साम्प्रतं वर्जीनि-इह वस्त्यादि प्रायः सुगमम समुदाययात्मार्थ गृहाणि निर्वर्तितानि साधुभ्यो दया आत्मार्थे स्वम्यानि कुर्वन्ति ते सावस्तेतरेतरे पुरवायचे धु( पाहुडेहिं ति) प्रदन्तेषु गृहेषु यदि वर्त्तन्ते ततो वज्र्जक्रियाभिधाना वसतिः सा च न कल्पते इति । इदानीं महावर्जीनिधानां समिधात्यादि प्रायः सुगममेव नवरा निष्पादितायां याति वसती स्थानादि कुर्वतो महा भिधाना वसतिर्भवत्यकल्या चेयं त्रिशुरुकोटिश्वेति । इदानी सावद्याभिधानामधिकृत्याह - श्देत्यादि प्रायः सुगमं नवरं पञ्चविधश्रमणाद्यर्थमेवैषा कल्पिता, ते चामी श्रमणा:-"शिमगंथसकतावासमा इति" अस्यां खादि कुर्वतः सावयकिवा उभियाना वसतिर्भवति न चेयं विशुरुकोटिश्चेति । महासावद्याभिधानामधिकृत्याह( इत्यादि) इह कश्चिद् गृहपत्यादिरके साधर्मिकमुद्दिश्य पृथिय कायादिरम्नसमारम्भैरम्यतरेण वा महता थारूपरूपैर्नानारूपैः पापकर्मवैरनुष्ठनिस्तद्यथा छानतो लेपनतस्तथा संस्तारकार्थे द्वारढकनार्थ चेत्यादीनि प्रयोजनान्युद्दिश्य शीतोदकं त्यक्तपूर्वे जवेत, अग्निर्वा प्रज्वालितपूर्वो प्रवेव तदस्यां वसतीस्थानादि कुर्वन्तरले द्विप कमयन्ते राधथा धार्मिक सत्या सेवा गृहस्थाच रागद्वेषं च ईर्यापथं सांपरायिकं चेत्यादिदोषान् महासावद्यक्रियाभिधाना वसतिर्भवतीति । इदानीमल्पक्रियाभिधानामधिकृत्याह - इहेत्यादि सुगमं, नवरम् अल्पशब्दोऽनाववाचीति, ए तत्तस्य भिज्ञो साम संपूर्ण भिक्षुभाव इति "कानाश्कंतुघाणा श्रमिकता चेव अणनिक्कन्ताय वज्जा य महावज्जा सावजमहपकिरिया य"। एताश्च नव वसतयो यथाक्रमं नवभिरनन्तरसुः प्रतिपादिताः खासु च अनिका योग्ये शेषास्वयोग्या इति । आचा० २ ० २ अ० २ उ० | पं० ० कालाता- कालातिक्रान्ता श्री० काला 3 प्रतीयमानेकि कान्तिक्रिया वसतिदोष, "उडमा सम कालाईया उ सा भवे सिद्धा" । (ऋताविति ) ऋतुबद्धे मासं समतीता या निवासेन उपलक्षणाद्वर्षाकाले वा चतुर कालातीतासुकावासीय सा भवेच्च्या शब्देति वसतिः। श्रन्ये तु पाठा Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६६) कालावंता अभिधानराजेन्डः । कासायार न्तर इथं ब्याचक्षते-ऋतुवर्षयोः समतीता निजं कालमृतुबके इम लहयात्रो अकासकारिस्स सुत्ते भत्थे य । तुसदो केमासं वर्षाकाले चतुर इति शेषं मूत्रवत् । पं० ० ३ द्वार।। विमतविसेसावेक्खी, तं च उवरि जणीहि ति। कालाइक्कम-कानातिक्रम-पुं० । कालस्य साधूचितनिकासमय श्याणि चोदगो व्रणति-- स्याऽतिक्रमोऽदित्सयाऽनागतभोजनपश्चाभोजनद्वारेणोद्वा-- को प्रानरस्स कालो, म णवर धोवणे व्व को कालो । नं कालातिक्रमः। अतिथिसंविनागस्य चतुर्थशिक्षाव्रतस्याउ जदि मोक्खननाणं, को कालो तस्स कामो वा ॥१०॥ तिचारे, पश्चा० १ विव०। । कालस्यातिक्रमः कालातिक्रम [को] कातरो रोगी, कलनं कालः, कलासमहः कालः, इत्युचितो यो भिक्काकालः साधूनां, तमतिक्रम्यानागतं या तेण वा कारणनूतेन दिवादिचउक्कयं कलिज्जतीति कालः, भुक्तेऽतिक्रान्ते वा तदा च किश्चित्तेन लब्धेनापि काझातिका मायत इत्यर्थः । कोकारसहानिहाणेण य ण को कालो कातत्वात्तस्य । उक्तंच-"काले दिन्नस्स पहे-णयस्स अग्धो न लोऽनिधारिज्जह । यथाऽन्यत्राप्यभिहितम्-को राजा न रक्कति तीरई किं तु । तस्सेव अकालपणा-मियस्स गेएहतया न. मनो जस्स विज्जति, तं मलं अंबरं वत्थं तस्स य मसंबरथि" ॥प्राव. ६ अ० । स्स धोवाण प्रति कालाकालोन विद्यते, नणिया दिटुंता । इयाकालाइचार-कालातिचार-पुंगदीर्घस्थितिके,“आउस्स काला- णि दिटुंतितो अत्यो भाति-एवं [ज ] जइसि अग्नुवगमो श्चरंव घाए, लद्धाणुमाणे य परेसु ।" सत्र०१ श्रु०१३ अ०। सव्वकम्मावगमो मोक्खो भमति, तस्स य देउं कारणं निमिकालाएस-कालादेश-पुं० । कालप्रकारे कालव इत्यर्थे, भ० २४ समिति पज्जाया । ज्ञायते अनेनेति ज्ञानं, यद्येवमन्युपगम्यते कानं कारणं न भवति मोक्षस्यातो कालो तस्स अकालो वा श०१ उ० । कालः। [तस्सेति ] तस्स गाणस्स अकालो वा, मानवतुइकासाकाल-कालाकाल-पुं० । संचरणस्य उचिताऽनुचित-| ति वकसेसं। रूपयोः समयाऽसमययोः, प्रश्न०३ आश्र० द्वार । आयरिओ भणति-सुणेहि चोदग! समयपसिद्धेहिं लोगपकालाग (गु )रु-कालाग (गु)रु-न । कृष्णागुरुणि, का०] सिद्धेहि य कारणेहिं पव्वाइ१० । “कालागुरुकंपुरुक्कधूवमघमघायमाणगंधुद्धयान्निरामे"। प्राहारविहारादिमु. मोक्खहिगारेसु काल अकालो। प्रज्ञा०२ पद । औ० । रा०।। जह दिहो तह सुत्ते, विज्जाणं साहणे चेव ॥ ११ ॥ कामाणुरोग-कालानुयोग-०। तृतीयेऽनुयोगे, स च सूर्यप्र- आहारिजतीति आहारो, सो य मोक्वकारणं भवति, जहा तस्स कालो अकालो य दिछो, भणियं च अकाले चरसि भिकप्तिः, उपलकणमेतत-चन्द्रमनप्त्यादिरपि । आ० म० द्वि०। । खुसिलोगो, विहरण विहारो, सो य उसुबद्धन वासासु अहवा कामाणुहाइ (ए) कालानुष्ठायिन-त्रि० । यद्यस्मिन् काले दिवा नरातो, अहवा दिवसातो वि ततियाए न सेसासु, सो य कर्तव्य तस्मिन्नेवानुष्ठातुं शीलमस्येति कालानुष्ठायी । कालान-1 विहारो मोक्खकारणं भवति। [मोक्खदिगारेसुत्ति] मोक्खकातिपातकर्तव्योयते, आचा० १ श्रु० २ १०५ उ०। रणेसु, अहवा मोक्खत्थं आहाराइसु अहिगारो कीरति, जहा कालादेस-कालादेश-पुं०। एकादिसमयस्थितिकत्वे, भ०५ जेण पगारेण दिट्ठो उपलको कालो भकालो य तहा श०८००। कालविशेषितत्वलकणप्रकारे, भ० १४ श०४ उ०। तेणप्पगारेण [सुत्ते त्ति] सुयणाणे तम्मि वि कालाकानो भवतीति वक्सेसं । किंच-विजाणं साहणे चेव कालाकालो कालायस-कालायस-न० । लोहविशेष, भ०१ श० ५ उ० । दिट्ठो, जहा का विज्जा कण्डचाउहसिअहमीसु साहिज्जति, औ० । । “कालायससुकयणमितकम्मं " कालायसे अकाले पुण साहिज्जमाणी उबघायं जणयति, तहा णा वि न लोहविशेषेण सुष्टु अतिशयेन कृतनेमेर्बाह्यपरिधेर्यन्त्रस्य चा काले अहिजमाणं णिज्जरादेऊ भवति, अकाले पुण उवघातरकोपरि फलकचक्रवालस्य कर्म यस्मिन् स कालायस्सुकृत- कर कम्मबंधाय भवति, तम्हा काले पढियव्वं, भकाले पदंतं नेमियन्त्रकर्मा । जी. ३ प्रति० । लोहमात्रे, जी०३ प्रति। पडिणीया देवता ग्झज्ज। कालायार-कामाचार-पुं० । ज्ञानाचारजेदे, नि0 चूल। जं जम्मि होइ काले, आयरियव्यं स कालमायारो। तक कुमेणाहरणं, दोहियधमएहि होति णायन्न । वरित्तो तु अकालो, बहुगा तु अकालकारिस्स ॥६॥ प्रतिसिरिमिच्छंतीए, विणासितो अप्पहारं तु ॥ १२ ॥ [जमिति ] अणिहिटुं मुयं घेप्प [जम्मि ] काले आधार- तकं उदसी, कुडो धमो प्राहरणं दिटुंतो, तकभारपण कुमेण भूते [ होति ] जवतीत्यर्थः । [अायरियन्वं ] णाम पढियव्वं आहरणं दिज्जति, जहा महुराए णयरीए एगो साहू पारसिय सोयग्वं वा, जहा सुत्तपोरिसीए सुत्तं कायव्वं, अस्थपोरिसीए कालं घेर्नु अडकताए पोरिसीए कालियसुयमणुवोगेण अत्थो, अहवा कावियं कालए वणउग्धासपोरिसीए, उक्कालियं पढति, तं सम्महिटी देवया पासति, ताए चिंतियं-मा पयं साधु सम्वासु पोरिसीसु कालवेलं मोतुं[स] इति निद्देशे। अश्रो पंता देवता ग्लेडि, तो णं पडिवोहेमि, ताए य बाहीरीस्वं स एव कालो कालायारो भवति । वरित्तो णाम जहाऽनि- काउं तक्कुडं घेत्तु तस्स पुरो 'तकं विक्कायत्ति घोसंती हियकालानो अयो अकालो भवति, जहा सुत्तं वितियाए, अत्थं गताऽऽगताणि करेति, तेण साहुणा विरस्स सज्कायवाघारं पढमाए पोरिसीए वा सज्झाए वा असज्झाए वा, तुसहो करेति त्ति भणिया-को श्मो तक्कत्रक्कयकालो? तयाऽऽलवियं-तुब्नं कारणावेक्खी, कारणं पप्प विवश्चासो विकज्जति, अतो तम्मि | पुणा को श्मो कालियस्स सज्कायकालोप्रा भणियं च-"सईअकाले दप्पेण पढंतस्स सुणेतस्स वा पच्छितं भवति । तं च । पदप्पमाणाण, परिच्छिदाणि पाससि । अप्पणो मिटमेसा Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालायार अभिधानराजेन्द्रः। कालासवेसियपुत्त णि पस्संतो वि ण पासास"॥३॥ साहू उवउसो,णायं मिच्या मि | उवागच्छश्त्ता थेरं भगवं एवं क्यासी-थेरा मामाश्यं ण दुकडं ति पाउद्दो देवया जणति-मा अकाले पढमाणो पंतदेव याणंति, थेरा सामाश्यस्स अट्ठ ण याणंति, थेरा पच्चयाए लिजिहिसि। अहवा इदमुदाहरणम-दोहिय धमपहिं धमे धमेणातिधमे अतिधतं न सोभति, जे अज्जियं धम्म ते तेण क्खाणं न याति, थेरा पच्चक्खाणस्स अट्ठ ण याणंति, तहारियं अतिधर्म तेण एगो सामाश्श्रो, छेत्तेसु अंतो सूअ-1 थेरा संजमं ण याणति, थेरा संजमस्स अटुं ण याणंति, रासायजनासणत्थं सिंगं धमति। अमया तेणो वासे चोरा गा-1 थेरा संघरं ण याणंति, थेरा संवरस्स अटुं न याणंति, थेरा वीमो हरंति, तेण समावतीए धंतं चोरा कुदो आगो त्ति गा। विवेगं पण याणंति, थेरा विवेगस्स अट्ट ण याणंति, वीओ हेतु गया, तेण पभाए दटुं नीया इभो घरं चिंतेह य-1 थेरा विउस्सग्गं ण याणं ति, थेरा विनस्सग्गस्स अटुं न धनप्पभावेण मे पत्ताओ, अनिक्खं धमामि असा वि पाघिस्सं, एवं तं गावोश्रो स रक्खंतो अत्थति, अहाया तेण चेव अंतेण याणंति । तए णं ते येरा जगवंतो कालासवेसियपुनं ते चोरा गावामी हरति, तेण य सिंगयं धंतं चोरोहिं आणखे- अणगार एवं बयासी-जाणामो एणं अज्जो सामाइयं, जाऊण हो, गावीभोय णीयात्रोतम्हा काले चेव धम्मियब्वं ।। णामो णं अज्जो ! सामाइयस्स अटुं, जाव जाणामो णं दाणि चितिमो धमो भति-एगो गया दंग्यत्ताए चलि अज्जो विनस्सग्गस्स अट्ठ। तएणं से कालासवेसियपुत्ते ओ,पक्केण य संखधमेण समावत्तीए तम्मि काले संखो पूरितो, प्रणगारे थेरे जगवते एवं वयासी-जाणं अज्जो ! नुको राया थके परितोसिवाहिरितो संखपओ,सयसहस्संसे दिम,सो तेणं चेव हेवारणं धम्मतो अस्थति । अमया राया वि. तुब्ने जाणह सामाइयं, जाणह सामाझ्यस्स अटुं०, जात्र रेयणपीमितो वञ्चगिहमतीति, तेण य संखो दियो, परयलकोई जाणह विउस्सग्गस्स अट्ठ । के ने अज्जो ! समाश्ए, के व वति,राया संतत्तो,वगधारणं च से जायं, गिलाणो संयुत्तो, ले सामाइयस्स अ० जाव के भे विउस्सग्गस्स अटे। तए तो ट्ठिएण रमा सधस्सहरणो को । जम्हा एते दोसा अकालकारीण तम्हा काले चेव पदियचं,ण अकाले। अहवा इमो णं ते थेराजगवंतो काझासवेसियपुत्तं अणगारं एवं वयासीदिइंतो-"अतिसिरिमिच्छंती" पच्चद्धं । प्रायरिओ भणइ-हे चो आयाणे अजो!सामाइए,आयाणे अजो!मामाश्यस्स अटे, दग! अकाले तुम पढतो अतिसिरिमिच्छसि,अतिसिरिमिच्छतो जान विउस्सग्गस्स अट्टे । तए णं से कालामवेसियपुत्ते अणय विणासं पाविहिसि । कहं सिरीए मतिमंतुस्से अतिसिरि- गारे थेरे जगवंते एवं वयासी-जाने अजो आया सामाइए णा पत्थर प्रतिसिरिमिच्छतीए, थेरीए विणासिनो" । अप्पा एगा थाणहारिगयेरीए वाणमंतरमाराहियं, अच्चणं करतीए आया सामाइयस्स अढे, जाव आया विनस्सग्गस्स अट्टे, अमया गणागि पत्थयंतीए रयणाणि जायाणि, इस्सरीम अवहट्ट कोहमाणमायालोने किमर्ट अज्जो ! गरहह । या चाउमालं घरं कारियं अणेगधणरयणसयणासणनरिय, कालासा ! संजमट्ठयाए । से नंते ! किंगरहासंजमे प्रसहम्भियधेरी यतं पेक्खति,पुच्चति य-कुत्रो एयं दविण त्ति।ती. गरहासजमे । कासासा! गगहासजमे, नो अगरहासंजमे । एय जहा भूयं कहियं ।ताए विउबलेवणधूवमादीहिं पाराहितो गरहा वि यणं सव्वं दोसं पविणे सव्वं बालियं परिमाए याणमंतरो, जणति य-चूहि वरं । तया लवितं-जं तीए तं मम दुगुणं जवउ,तं व तीए सव्वं दुगुण जायं। ततो तुट्ठा अत्यति। एवं खु णे आयासंजमे उवहिए नवइ,एवं खुणे आयासंतापय पुरिमत्थरीप तं सब सुय,ताए य अमरिसपुरमाए वितियं मम जमे नवचिए भवइ, एवं खुणे आयासंजमे उवष्टिए भव, चाउस्सालं फिट्टल, तणकुमिया नवउ, बितियाए दो ती कुडि. एत्थ णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे संबुके थेरे जगआओ जायाश्रो पुणो तीए चिंतियं मम एक अस्थि फुल्लयं जव वंते बंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसइत्ता एवं वयासी-एएसिणं उ इयरीए दो वि फुलाई, एवं हत्थे पाए वसंमिश्रा विणासमुधगता । पसो असंतोसदोसो। तम्हा अतिरित्ते काले सज्झायो जंते ! पयाणं पुचि अप्माणयाए असवणयाए अबोहियाए णा कायब्बो.मा एवं विराहणा भघिस्सति ति।भणिो काला- अणनिगमेणं अदिहाणं अस्मृयाणं अमुयाणं अविष्मायाणं यारो। नि० चू० १ उ०।। अन्वोकमाणं अव्वोच्छिमाणं अणिज्जूढाणं अणुवधारिकालाव-कालापत्-स्त्री० । दुष्कालादौ, जीता। याणं एयमढें णो सहहिए जो पत्तिइए णो रोइए, इयाणिं कालावग-कालापक-न० । कालापकस्य कलापिना प्रोक्तस्य जंते ! एएसि पयाणं जाणणयाए सवणयाए बोहिशास्त्रानेदस्य धर्म आम्नायो वा । ( चरणादू धर्माम्नाययोः ) याए अनिगमेण दिट्ठाणं स्सुयाणं सुयाणं विमायाणं बाग"चरणेच्यो धर्मवत्"।४।।४।ति (पाणि) धुञ्। कलापिप्रोक्तशाखाभेदस्य धर्मे, आम्नाये च । वाच । व्याक डाणं वोच्छिम्माणं पिज्जूढाणं उवधारियाणं एयमढे सहरणनेदे, कल्प० १ कण । हामि पत्तियामि रोएमि एवमेयं मे जहेयं तुम्ने पयह । कालाससियपुत्त-कालाश्यवेशिकपुत्र-पुं० । स्वनामख्याते तए णं ते थेरा भगवंतो कामासदेसियपुत्तं प्राणगारं एवं पाश्वापत्यीये, भा। घयासी-सदहाहि अजो! पत्तिआहि अज्जो ! रोह तेणं कात्रणं तेणं ममपणं पासावचिजे कामामवेसिय- अजो ! से जहेयं अम्हे वयामो । तए णं से कालासपुत्तं णाम अणगारे जेणेव धेरा जगवंतो तेणेव उवागच्चद, वेसियपुत्ते प्राणगारे थेरे जगवंतो वंदइ नमसह, वंदित्ता Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) अभिधानराजेन्द्रः । कालास सियपुत्त गर्मसत्ता एवं बयासी- इच्छामि णं भंते! तुभे अंतिए चाटज्जामा चम्याओ पंचमहस्वयं सपांड कमणं धम्मं उवसंपज्जित्ता गं विहरित्तए । श्रहासुहं देमापियामा परिबंध करे तर गां से कालानसिए पुने गारे थेरे जगवंते बंद नम, वंदिता नससा चाउमामाओ पाओ समि पं वसंपज्जित्ताणं विहरइ । तए एां से कालामवेसियपुअणगारे वणिवासाथि सामयपरियागं पाठा पाउ इत्ता जस्साए कीरइ नग्गजात्रे मुंडनावे अन्हाएयं - दंतधुरणयं अच्छत्तयं प्रणोवाहणयं भूमिसेमा फलइसेज्जा कइसेज्जा केसलओ बंजचेरवासो परघरप्पवेसो लछावनी उच्चावया गामकंटया बाबीसं परीसढोक्समा अडियासि तमहं पाराहेड, आरादेडचा परमे हिं उसासनीसासेहिं सिके बुद्धे मुके परिनिन्कुए सबदुक्खप्पी | (मित्यादि ) (पासावचिजे ति ) पावपत्यानां पार्श्वनिशिष्याणामयं पापीय र ति श्रीमन्महावीर जिनशिष्याः श्रुतवृद्धाः । ( सामाइयं ति ) समजावरूपम् । (न याति सि ) न जानन्ति सूक्ष्मत्वात्तस्य ( सामाश्यस्स - ति ) प्रयोजनं कर्मानुपादाननिर्जरणरूपम् । ( पच्चखाणं तिपादिनियमं नचाद्वारनिरोपम ( संजम ति) पृथिव्यादिसंरक्षण, दयानावा (संप ति) इनिन्द्रियनिवर्तनं तदयं तु अनावश्यमेव (विवेगं ति ) विशिप्रबोधं तदर्थं च त्याज्यत्यागादिकम् । ( विउरति ) कायादीनां तदर्थं चानभिष्वङ्गताम् । ( जोति ) हे आर्य ! श्रीकारान्तता सम्बोधने प्राकृतत्वात्। [ के मे ति ] कि भवनामित्यर्थः (आयात) मनोस्माकं मते सामाधिकमिति पदा" जीवो गुणपमिवाधो न यस्स दव्यट्टियस्स सामइयं | सामायिकार्थोऽपि जीव एव कर्मानुपादानादीनां जीवगुणत्वात्, जीवाव्यतिरिक्तत्वाच नद्गुणानामिति, एवं प्रत्याख्यानाद्यप्यवगन्तव्यम् । [ जइ भे असि ] यदि भवतां दे आयोग स्थविराः ! सामायिकमा रमा तथा (श्रवत्ति ) अपहृत्य त्यक्त्वा क्रोधादीन किमधे गये। "निन्दामि गरहामि अप्पानं योसिरामि "शतिय 33 नात् क्रोधादीनेव, श्रथवा श्रवद्यमिति गम्यते । श्रयमभिप्रायः यः सामायिकवान् त्यक्तक्रोधादिश्च स कथं किमपि निन्दति । निन्दा हि कि द्वेषप्रभवेति । अत्रोत्तरम् । संयमार्थमिति । अवध गति संयमो भवति श्रवद्यानुमतेऽवच्छेदनात् । तथा गर्दा संयमस्तद्धेतुत्वान्न केवलमसौ, गहकर्मानुपा दहेतुत्वात् भवति गरा दिवस) कासि (ए)-कानि-पुं कालयति क नोदने । ( गव । कल णिनिः । प्रे सदोति) दोषं रागादिकं पूर्वकृतपापं वा द्वेषं रके, शि० याच चम्पापुरीसमीपे कादम्बवस्थेपर्यंत वा, प्रविनयति कपयति । किं कृत्वेत्याह-[ सव्वं बालियं भेदे, ती० १३ कल्प० । ति] वाक्य बालतां मिथ्यात्वमविरति च ( परिक्षापति) पर कृपया त्या प्रत्ययानपरा च प्रत्याख्याये ति । इह च महायास्तनयदाककर्तृकत्वेन परिज्ञायेत्यत्र त्याप्रत्यपविधिरपुष्ट ति ( एवं ति) गवमेव [ इति ] अस्माकम् । (प्रायासंजमे चवहिप चि) उपहितः प्रक्तितो न्य कालिंग , स्तो भवति । अथवा आत्मरूपः संयम उपहितः प्राप्तो भवति । ( आयासंजमे उबचिए ति ) आत्मा संयमविषये पुष्टो भवति । श्रात्मरूपो वा संयम उपचितो नवति । (उर्वापि ति) उपस्थि तोता [प भंते! पाणं इति ] अस्य आदिद्वाणमित्यादिना" सम्बन्धः । कथमहानामित्यत आह- ( श्रमा णयाए त्ति ) अज्ञानो निर्मानस्तस्य जावोऽज्ञानता तयाऽज्ञानतया स्वरूपेणानुपलम्भादित्यर्थः । एतदेव कथमित्याह - [ अस वण्या प्ति ] अश्रवणः श्रुतिवर्जितस्तद्भावस्तत्ता तया [ श्रबो हिप ति] अबोधिर्जिनधर्मीनवाप्तिः, इह तु प्रक्रमान्महावीरजिन धनवाप्तिस्तया, अथ बोत्पत्ति क्यादि बुद्ध्यभावेन [ अणनिगमेति ] विस्तरबोधाभावेन हेतुना श्रदृष्टानां साक्षात्स्वयमनुपलभ्धानामयुतानामन्यतयाकतानाम [ अनुयाति ] अस्मृतानां दर्शनाकर्णनाभावेनाननुध्यानानाम्, अत एवात्रिज्ञातानां विशिष्टवोधाविषयीकृतानाम् । एतदेव कुत इत्याह-[] यकृतानां विशेषतो गुरुभिर नाम [याणं ति ] चिपकादव्यवच्छेदितानाम अनि जूति] महाप्रधात्सुयोधायसंज्ञेपनिमिम परशुतिः भानामभवातिरनुपधातानामय धारितानाम [ एम सि ] एवं प्रकारार्थोऽथवाऽयमध [ नो सद्दहिए त्ति ] न श्रद्धितः [नो पत्ति त्ति ] नो नैव पत्तियं ति ' प्रीतिरुच्यते, तद्योगात् पत्तिपत्ति ' प्रीतः प्रीतिविकृतानना शेष ६] नीतिः ने] अथ यथा एतद्वस्तु यूयं वदथ, एवमेव तद्वस्त्विति नावः [ चा [उमा ति] तुहापानानस्य दर महाव्रतानि, नापरिगृहीता स्त्री भुज्यत इति मैथुनस्य परिग्रहेऽन्त. भवादिति । (सपडिक्कमणं ति) पार्श्वनाथधर्मो हि अप्रतिक्रमणः, कारण एव प्रतिक्रमण करणादन्यथात्वकरणाद्ः महावीर जिनस्य तु सप्रतिक्रमणः कारणं विनाऽप्यवश्यं प्रतिक्रमणकरणादिति । (देवापिय ति) प्रियामन्त्रणम् (मा परिबंध) मा व्याघातं कुरुयेति गम्यमा भायो दतित्वम् । ( फलगसेज सि ) प्रतलायतविष्कम्भवत् कालरूपा ( सेज्जत्ति ) संस्कृतकाष्टशयनं काष्टशय्या वा श्रमनोशा व-सतिः । ( लद्भावबद्धी त्ति ) लब्धंच लाभोऽपलब्धिश्च मलामोपरिपूर्णलाभो वा धाप उच्चाययति) - च्चावचा श्रनुकूल प्रतिकूला श्रसमञ्जसा वा ( गामकंटय ति ) ग्रामस्येन्द्रिय समूहस्य कण्टका श्व कण्टका बाधकाः शत्रवो ग्राम कण्टकाः क एत इत्याह- ( बावीसं परीसहोवसग्गत्ति ) परीषदाः क्षुधादयः त एवोपसर्गाः उपसर्जनाद्ध मेसेज शनात्परीषदोपसर्गाः । श्रथवा द्वाविंशतिः परीवहाः । तथा उपसगी दिव्यादयः कालाश्यदेशिकपुत्रः प्रत्यायना सिद्ध इति । भ० १ ० ६ उ० । कालिंग कालिङ्ग १० पुं० तं स्य । । कुत्सितं । हस्तिनि, सर्प, लौडनेदे च । कलिङ्गानां राजा अण् । कलिङ्गदेशनृपतौ, बहुषु तस्य लुक् - कलिङ्गाः । 'कलिङ्गदेशमारभ्ययो दक्षिण मदेशानि! परिकी fr Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) कालिंग अभिधानराजेन्द्रः। कालियसुय तितः॥१॥ इत्युक्तदेशनेदे, गौरा। जी । राजकर्कट्याम, राज्यणाईदसानकप्पो वबहारो निसीयं महानिसीयं सिवाचा प्रका०। प्राचा० । स्था०। जासियाई जंबुद्दीवपन्नत्ती दीवसागरपन्नत्ती चंदपन्नत्तीमु. कालिंजणं-देशी-तापिच्छे, देना०२ वर्ग। डिया विमाणपविभत्ती महब्बया विमाणपविभत्ती अंगलिया कालिंजणी-देशी-तापिच्चलतायाम्, देना०२ वर्ग। वंगचूलिया विवाहचूलिया अरुणोववाए वमणोववाए गरुकालिंजर-कालिञ्जर-पुं। स्वनामख्याते पर्वते, उत्त० । लोववाएधरणोववाए वेसमणोववाए वेलंधरोववाए देविंदोव" दासा दस नेआ सीयमिया कालिंजरे नगे " । उत्त० वाए नट्ठाणसुए समुट्ठाणमुए नागपरियावणियाउ निरयाव१३ अ०। लियाउ कप्पियाउ कप्पिवर्मिसियाउ पुफियाउ पुफिचूझियाउ कालिंजर तित्य-कालिजरतीर्थ-न० । मपुरास्थे लौकिकतीर्थ वएहीदसाउएवमाइयाइं चउरासीई पन्नगसहस्साई जगवओ भेदे, ती ६ कल्प। अरहओ उसहसामिस्स आतित्थयरस्स तहा संखिज्जाइंपकानिा -देशी-शरीरे, दे. ना०२वर्ग। इन्नगसहस्साई मज्झिमग्गणजिणवराणं चोद्दस पश्न्नगसकालिग-(य) कालिक- पुंस्त्री । काले वर्षाकाले चरति हस्साणि समणगस्स जगवो बच्छमाणसामिस्स हवा नम् । के जले अलति, अल वा इकन् । ७ त० वा । क्रौञ्चे, बके, जस्स जत्तिया सीसा उत्पत्तियार वेणइयाए कम्मियाए पारिखियां ङीप् । कालो वर्णोऽस्त्यस्य ठन् । काबाद वर्ण णामियाए चउबिहाए वुद्धीए नववेया तस्स ततियाइं पश्यवाचित्वे जानपदा० ङीष् । ततः स्वार्थ के हस्व इति चा। कालिका । देव मूर्तिभेदे, वृश्चिकपत्रवृक्ष, क्रमदेयवस्तुमूख्ये, गसहस्साई पत्तेयबुद्धावितत्निया चेव । सेत्तं कालियं, सेत्तं धूसराम, जटामास्याम, काक्याम्, पटोलशास्खायाम, रो-] आवस्सयवइरित्तं सेत्तं अणंगपविट्ठ । नं। पा०। मावल्याम्, शिवायाम, मेघावल्याम, खी० । कीरकीटे, कालिकश्रुतेऽनुयोगपार्थक्यमार्यरक्तिसूरिज्यः समारज्य जामत्स्याम, काकोल्याम, श्यामापक्किणि, स्त्री० । हिमाचल-- तम् । श्राह-कियन्तं कासं यावत् पुनरिदमपृथक्त्वमासीत्, कुतो भवायां त्रिशिरायां हरीतक्याम, स्त्री० । कालस्य भावो वा वा पुरुषविशेषादारभ्य पृथक्त्वमनूदित्याहवुण । कृष्णवणे, घlo | स्वर्णदोष, बहिना दाहे, यमगोपात स्वर्णस्य कृष्णता भवति सा च ताम्रादिधातुयोगैः। जावं ति अज्जवइरा, अपहत्तं कालियाणुप्रोगस्स । काय जलाय अलति पर्याप्नोति । अल पर्याप्ती वुत्र टाप् । तेणारेण पुहत्तं, कालियसुय दिहिवाए य ।। अन इत्वम। कुज्झटिकायाम, नवमेधे, स्त्री० । काले, दीय- यावदायवैरा गुरवो महामतयस्तावत्कालिकं श्रुतानुयोगस्याते उक। प्रतिमासदेयवृद्धौ, के जलमलति भूषयति अत्र भूषणे पृथक्त्वमासीत्तदा व्याख्यातृणांश्रोतृणां च तीक्ष्णप्रज्ञत्वात्, कारात्रुब टाप । अत इत्वम् । सुरायाम्, स्त्री० । कालो वर्णोऽस्त्यस्य लिकग्रहणं च प्राधान्यख्यापनार्थमन्यथोत्कालिकेऽपि सर्वत्र प्रतिउन् । कालायके कृष्णचन्दने, न० । प्रकृष्टो दीर्घः कालोऽम्य सूत्रं चत्वारोऽपि अनुयोगास्तदानीमासन्नेवेति। तदारतस्त्वार्यरप्रकटे व । वैरे, न० । तस्य दीर्घकालस्थायित्वात् तथात्वम् । वितेभ्यः समारज्य कालिकश्रुते दृष्टिवादे चाऽनुयोगानां पृथ" वर्ग चानित्ये" । ५ । ४ । ३१ । इत्यधिकारे "कालाच्च" कत्वमभूदिति नियुक्तिगाधार्थः । विशे० । ('अजरक्खिय' 1५। ४। ३३ । [पाण.] कन् काबकः । स्त्रियां टाप् । अत | शब्द प्र० भा० ११५ पृष्ठे 'अणुप्रोग' शब्दे प्र. भा० ३५० पृष्ठे इत्त्वम् ।कालिका शाटी कालेन निवृत्तः ठञ् कालिकः । काल- वा न्यक्केण प्ररूपितमेतत् ) निवृत काबकृते,त्रि। विशेषः कालिकोऽवस्था । कासे भवः कालिकश्रुतस्य परं पृच्छात्रयात पृच्छतिठप । कानभवे, त्रिका उन्नयत्र स्त्रियां जा इति भेदः।वाच। "दत्था गया इमे कामा, कालिया जे अणागया।" काले भवाः जे भिक्खू कालियसुयस्स परं तिण्हं पुच्छाणं पुच्छर, कात्रिकाः। उत्त०५अाका संभवन्ति कालिकाः । उत्त०५०। पुच्चंतं वा साइज्ज ।। ए ॥ जे भिक्खू दिट्टिवायस्स पकालिगसप्ति-कालिकसंज्ञिन त्रि० । कालिकसंज्ञा दीर्घकालिका रं सत्तएहं पुच्गणं पुच्छ, पुच्छंतं वा साइज्जइ ॥१०॥ संज्ञा साऽस्त्यस्येति कालिकसंझी, तत्संझिनि, विशे० ।। कालियसुयस्स उकाले संझासु वा असंझाइ वा तिराह (सच "सन्नी " शब्दे विवेचितः) पुच्छाणं परेण पुच्छति तस्स चउलहुं । दिट्टिवायस्स संकासु कालिग (य) मुय-कानिकश्रुत-न०। यदिह दिननिशाद्यन्तपी असज्झाइए वा सत्तए परेण पुच्छं तस्स ह। रुपीद्वय पवाऽस्वाध्यायाजावे पठ्यते तत्कान निर्वृत्तं का-- तिएहुवरि कालियस्सा, सत्तएह परेण दिग्विायस्स । लिकम् । ध०३अधि०। काले प्रथमचरमपापीलकणे कालग्र- जो जो निक्खू पुच्चा, एणं च सम्भ पुच्छताऽऽणादी॥३२॥ हणपूर्वकं पठचते इति कालिकम् । विशे० । तच्च श्रुतं च । उत्त- ___ चउसु संझासु अम्लयरीप वा तस्स आणादी पुच्ग। गऽध्ययनादौ, अङ्गयाह्याऽऽवश्यकव्यातरिक्तश्रुतभेदे, यदिह ते पुण किं पमाणं अतो जम्मतिदिवसनिशाप्रथमपश्चिमपौरुषीद्वय एव पश्यते । स्था० | पुच्छाणं परिणं जा-बतियं पुच्छते अपुणरुत्तं । ग०१ उ०। पुच्चज्जाही जिक्खू, पुच्छणिसज्का य चउभंगो॥३३॥ सानि च अपुणरुत्तं जावतियो कठिो पुच्चति सा पगा पुचा । पत्थ से किंनं कालिया कालियंगविहं पन्नत्तं । तं जहा-नत्त- चउभायं करेंतस्स इमे दोसा Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५००) कालियसुय अन्निधानराजेन्फः। कालियदीव पुबगडितं च नासति, अपुव्वगहणं को स विकहाहि । सति विवक्तितार्थबोधनं सुकरं भवतीति कृत्वा कृतमिति । (मदिवसनिमिआदिचरमा-मु चतुसु सेमासु नश्यव्वं ॥३४॥ ज्जिमएस सत्तसु ति) भनेन “कस्स कहिं" इत्यस्योत्तर मवसेयम् । तथाहि-मध्यमेषु सप्तस्वित्युक्ते सुविधिजिनतीर्थस्य सुत्तत्यो मोतुं देस-भत्त-राय-इथिकहादिसु पमत्तो अत्यति, सुविधिशीतलजिनयोरन्तरे व्यवच्छेदो बभूव । तद्यवच्छेदकामगुणेतस्स पुष्यगहितं णासति, विकहापमत्तस्स य अपुग्वं श्व पक्ष्योपमचतुर्जागः। एवमन्ये षट् जिनाः, षट् च जिनान्तराणि गहणं णस्थि, तम्हा णो विकहासु रमेजा,दिवसस्स पढमचरि- बाच्यानि, केवलं व्यवच्छेदकासः सप्तस्वप्येवमवसेयः ॥ "च. मासु,णीसए य पढमचारिमासु य, एयासुचउसु वि कालियसु- उन्नागो १ च चनागो २, तिमि य चउभाग ३ पलियमेग च।। यस्स गहणं गुणणं व करेज. सेसासुत्ति दिवसस्स वितियाए तिम्मेष य चउभागा ५, चउत्थनागो य ६ चउभागो अति"। नकालियसुयस्स गहणं करेति, अत्थं वा सुणांत, एसा चेव [पत्यणं ति] एतेषु प्रज्ञापकेनोपदयमानेषु जिनान्तरेषु का. भयणा,रतियाए वा निक्खं हिमश,अहण हिंडति तो नकालि. लिकश्रुतस्य व्यवच्छेदः प्राप्तः। दृष्टिवादापेकया त्वाह-(सव्वस्थयं पढति,पुब्बगहियासु नक्कालियं वा गुणेति,अत्थं वा सुणइवा, विणं वोच्चिम दिदिवाए त्ति)सर्वत्रापि सर्वेश्वपि जिनान्तरेषु णिसिस्स ततियाए णिहामोक्खं करेति, उक्कालियं गेएहति गु- न केवलं सप्तस्वेव कचिस्कियन्तमपि काझं व्यवच्छिनोरणेति वा, कालिकं यं वा सुत्तमत्थं वा कूरति, एवं सेसासु ष्टिवाद इति । न. २० श०७० । वृ० । सुसंज्ञाप्यशब्दे भावणा भावेयब्वा उक्कालिया। एकादशाङ्गरूपे श्रुते, एकादशाङ्गरूपं सर्वमारी श्रुतं कालग्रहसज्जायस्स च अकरणे श्मे कारणा णादिविधिनाऽऽधीयत इति कालिकमुच्यत । विशः । असिवे प्रोमोयरिए, रायडुढे जए व गेलले । कालिगा(या)-कालिका-स्त्री०। कृष्णायां रात्री, व्य०५ उ०।का लीदेव्यां च । शा० २ श्रु०१०। अघाणरोहए वा, काझं व पमुच्च णो कुज्जा ॥३॥ सज्कायवजमसिवे, रायइट्ठजयरोहगअसुफो। कालिगायरिय-कालिकाचार्य-पुं० । पार्यश्यामे, येन प्रहाइतरमविरोह असिवे, जइतं इतरे पनंजयसु ॥३६॥ पनासूत्रं विरचितम् । [तत्प्रयोजनं स्त्रीवेदस्य स्थितिचिन्ताया मुक्तम्] । यथा-पतेषां पश्चानामादेशानां मध्येऽन्यतमादेशसमी(सज्झायवजमसिवेत्ति) लोगे असिवे वा साधू अप्पणा अ- चीनतानिर्णयोऽतिशयझानिभिः पूर्वोत्कृष्टथुतलब्धिसम्पन्नेर्वा कगहिता तत्थ समायण पटुवेति श्रावस्सगादि उकालियं करेति, ते शक्यते, तेच भगवदार्यश्यामप्रतिपत्तौ नासीरन्, केवलं त. रायदुढे वोहिगभए य तुरिहका अत्यति माणमिहामो, तत्थ का- कालापेक्षया पूर्वपूर्वतनाः सूर यस्तत्कालभाविग्रन्थपौर्वापर्यलिगमुक्कालिग वा ण करेति, अहवा रायदुट्टे भए ति णिब्वि- | पर्यालोचनया यथास्वमति स्त्रीवेदस्य स्थिति प्ररूपयन्ति स्मः सया भत्तपाणे पमिसेहे य ण करति सकाय, नवकरणहरे दुः। | न च तेषां मतं किमपि मिथ्या ज्ञातुं शक्यते, ततस्तेषां विधे नेरवे यण करेति माणकीहामोत्ति, रोधगे असुकेण काले। सर्वेषामपि प्रावचनिकसूरीणां मतानि भगवानार्यश्याम उण करेंति, इयरमवि श्रावस्सगादि उक्कालियं जत्थ रोधगे - पदिष्टवान्,तेऽपि प्रावचनिकसरयः स्वमतेन सूत्रं परन्तो गौतवियत्तं असिवण य गढिया तत्थतं पिण करेंति, इयरे ओमोदरि- मप्रश्नभगवनिर्वचनरूपतया पठन्ति, ततस्तदवस्थान्येष सूत्राणि या तत्थ जयणा,जा वितियजामादिसु वेवाओण करति सज्जा- लिखितानि-गोयमा ! इत्युक्तम् । अन्यथा भगवति गौतमाय य,अह पुव्वं ति पुव्वसेयवेलातो आदिश्चोदयात्रो आरझातो साक्वानिर्देष्टरिन संशयकथनमुपपद्यते,जगवतःसर्वसंशयातीतव हिंडंति जाव अवराएहोत्ति गेलाहाणेसु न लंभयमुत्ति,जर | स्वात, ततः "पगेणं आपसेणं"तिवचनं आयश्यामस्य प्रतिपत्तगिलाणो सत्तो अाणिगेण वा न खिझो तो करेति अह सत्ता व्यं न नगववर्द्धमानस्वामिन इति । पं० सं०२हार । दर्श। तो ण करेंति, अहवा गिलाणपडियरगा पा ण करेंति, प्रा० काती। ('अधिगरण' शब्दे प्रथमभागे ५८२ कालं वा पमुच्च णो कुजति, अमुझेण वा कालेण करेंति, पृष्ठे अस्य गर्दभिल्लेन राज्ञा सह वैरमुपदर्शितम ) (चतुर्थतत्थ श्रावस्सगाद। ण करेति, अणुप्पेहा सव्वत्थ भविरुद्धा ।। भागे 'सुयमद 'शब्द सागरचन्यस्य एनं प्रति गर्वकरणम् ) नि० ० १६ उ०। काझिगा (या) वाय-कालिकावात-पुं० । प्रतिकृतयायौ, कालिकश्रुतस्य व्यवच्छेदः का० १ ० ० अ०। एएसु णं नंते ! तेवीसाए जिणंतरे कस्स कहिं कालि-| कालिज्ज-कालेय-न० । कलाय रक्तधारिण्यै हितं दक् । य यसुयस्स वोच्छेदे पपत्ते । गोयमा ! एएमु णं तेवीसाए | कृति, वाच० । वकोऽन्तगूढे मांसविशेष, तं० । जिणंतरेसु पुरिमे पच्छिमएमु अट्ठसु अट्ठसु जिणंतरेसु ए कालिदास-कालिदास-पुं०।६ त० । संज्ञायां इस्वः। रघुवंत्य णं कालियमयस्स अवोच्छेदे पपत्ते। मज्झिमएमुस-| शादिकाव्यकर्तरि महाकविभेदे, वाच० ।। तनु जिएंतरेसु, एत्थ एणं कालिसुयस्स वोच्छेदे पसत्ते । सव्वत्थ विणं वोच्छेदे दिहिवाए । कालियजोग-कालिकयोग-पुं० । साध्वीनां कालिकयोग क्रियायां श्रावकदत्तानि वन्दनकानि शुध्वन्ति नवेति प्रभे, साकस्य जिनस्य सम्बन्धिनः कस्मिन् जिनान्तरे कयोज॑िनयो ज्वानां कामिकयोगक्रियायां श्रारूदत्तानि वन्दनकानि शुद्ध्यरन्तरे कालिकश्रुतस्यैकादशाङ्गीरूपस्य व्यवच्छेदः प्राप्त इति न्तीति । सेन प्र० ६२ उवा० । प्रश्नः । उत्तरं तु-"एपसु णमित्यादि" इह च कालिकस्य व्यवच्छेदेऽपि पृष्टे यदपृष्टस्याव्यवच्छेदस्थाभिधानं तद्विपकवापने काझियदीव-कालियद्वीप-पु०। स्वनामख्याते लवणसमुशान्त. Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०१) कालियदीव निधानराजेन्द्रः । काली गते द्वीपनेदे, यत्र इस्तिशीर्षनगरवास्तव्या वाणिजका गत्वा करेति श्त्ता सव्व० पारि० वत्तीसं. करेति श्त्ता सब्ब० रत्नाम्यानीतबन्त इति । ज्ञा० १७ अ०। (एतच्च 'वई' पारि० चनतीसमं करेति २त्ता सन्च० पारि० चउतीसमं कशब्द वदयते) कालियसुयप्राणुओगिय-काक्षिकश्रुताऽऽनुयोगिक-पुं० ! का रेति २त्ता सबकामगुणे य पारिता चनतीसं उगाई करेति झिकश्रुतानुयोगे व्याख्याने नियुक्ताः कालिकश्रुतानुयोगिकाः। का श्ता सम्ब० पारि० चोत्तीस करेति श्त्ता सब पारि० लिकश्रुतानुयोग एषां विद्यते इति कालिकश्रुतानुयोगिनः, ततः वतीसं करोति श्त्ता सम्ब० पारि० तीसं करोति श् त्ता सम्बन स्वार्थिककप्रत्ययविधानात्कालिकथुतानुयोगिकाः । कालिक- पारि० अट्ठावीसमं करेति २त्ता सव्व० पारि० छवीसं श्रुतव्याख्याने नियुक्ते, " अयलपुरा णिक्वंते, कालियसुय- करात ५ त्ता सब० पारि० चनवीसं करोति २ ता प्राणुशोगिए धीरे।" नं। सव्व० पारि० वावीसमं करेति २ त्ता सव्व० पारि० वीसमं काली-काली-स्त्री० । कालस्य शिवस्य पत्नी डीम् । शिवपल्या करेति श्ता सय पारि० अट्ठारसमं करेति त्ता सव्व० म, स्त्री० । कालाद् वर्णश्वेत, कालवर्णा । कृष्णवर्णायां खि पारि० सोलसमं करोति २ ता सब पारि० चनदसम याम, वाच० । “सामा गाय महरं,काली गायइ खरं च रुक्खं च।" स्था०७ 710) अनु० अनिनन्दनस्य शासनाधिष्ठाइयां दे. करेति ५ त्ता सब्ब० पारि० वारसमं करेति ५ त्ता व्याम् ,श्री अभिनन्दनस्य काली नानी देवी श्यामकान्तिः पद्मा- सन्च० पारि० दसमं करेति २ त्ता सव्व० पारि० अट्टमं० सना चतुर्तुजा वरदपाशाधिष्ठितदक्षिणकरद्वया नागाशासङ्क- करेति २त्ता सम्ब० पारि० बटुं करोति त्ता मव०पारि० तबामपाणिया च । प्रव०२७ द्वार। पञ्चा० । चमरस्याऽसु- चतुत्थं करेति श्त्ता सच. पारि० अट्ठमपट्टातिं करोतिश्त्ता रेन्डस्य प्रथमानमहिष्याम, स्था०५ ठा० १ उ० । (अस्या भवान्तरवत्ताव्यता 'अग्गमहिसी' शब्दे प्रथमभागे १६६ पृष्ठे सब पारिस अट्ठमं करोति इत्ता सव्वल पारि० बढे उक्ता) काकजङ्खायाम, उत्त०२० । श्रेणिकस्य जार्यायाम्, करोति ५ त्ता सम्ब० पारि० चउत्थं करेति श्ता कृरिणकम्य राज्ञो अघुमातरि, नि.१ वर्ग । ग01('काल' शब्दे- सन्न पारि० एवं खबु एसा रयणावलीए तबोकम्मस्स ऽस्मिन्नेव जागे ४८३ पृष्ठे चैतदुक्तम् ) पढमा परिवामी एगणं संवच्छरेणं तिहिं मासेहिं वावीसाए य जड़ णं ते ! अट्ठमस्स वग्गस्त दस अज्क्रयणा पहलत्ता । तं | अहोरत्तेहिं अहामुत्तं जाव पाराहिय भवोहि, तयाणंतरंचणं जहा-पढमस्स अज्क्रयाणस्स समणेणं जगवया महावीरेणं के दोवाए परिपामीए चउत्थं करेति विगतिवजं पारोति छर्ट कअढे पलत्ते । एवं खबु जंबू ! तेणं काझेणं तेणं समयेणं चंपा | रेति, करेतित्ता विगतिवजं पारोति ३ त्ता एवं जहा पढमानामंणयरी होत्था, पुम्पनद्दे चेश्ए कोणियराया, तत्य णं चं- | ए परिवामीए तहा विड्याए वि, नवरं सव्वत्थपारणए विपाए णयरीए सेणियस्त रलो भज्जा कूणियस्स रसो चुल्लमा- गइवज्ज पारेति जाव आराहिया भवति, तयाणंतरं च णं तच्चाउया कामी नामं देवी होत्या । वो जहा-पंदा जाव सा- ए परिवामीए चनत्यं करोतिश्त्ता अश्लेषा पारेति, पारेतित्ता मातियाति एग्गारस अंगाई अहिज्जंति, अहिज्जतित्ता सेसं तहेवणवरं अवार्ड पारेत्ता, एवं चउत्या वि परिवामी, बहुहिं चनत्थ जाव अप्पाणं जावेमाणे विहरति, तते | नवरं सबपारणए आयंबिझं पारतिश्ना सेसं तं चेव,पढमम्मि णं सा काली अज्जा अमया कयाइ जेणेव अज्जवं- सव्वकामगुणं पारणयं,वितियए विगतिवज, तइयाम्म अलेवा दणो अज्जा तेणेव उवागया एवं बयासी-इच्छामि डं आयविलेमो,चनत्यम्मि तते णं सा काली अज्जातंरयणाअज्जातो तुज्केहिं अन्जणुमाया समाणा रयणावलि- चलीतवोकम्मं पंचहिं संवच्छरेहिं दोहि य मासे य अधातबो नवसंपन्जित्ता णं विहरति, ते अहामुहं तसा कामी वीसाए य दिवसहिं अहासुत्तंजाव आराहेत्ता जेणेव अज्जअज्जा अज्जचंदणा ते अन्जणुम्मासमाणे रयणावलितबो- चंदणा अज्जा तेणेव उवागच्छति,उवागच्छतित्ता अज्ज चंदणं कम्मं नवसंपज्जित्ता णं विहरति । तं जहा-चनत्यं क-| अज्ज बंदति, श्त्ता बहुहिं चउत्य जाव अप्पाणं भावेमाणे रति, चनत्यं करेतित्ता सव्वकामगुणे य पारित्ता छटुं करेति, विहरति,तते णं साकाली अज्जा तेणे उरालेण जावकमणी उढ करेतित्ता सव्वकामगु० पारि० अट्ठमं करेति श्त्ता सन्च- संतया जाया या वि होत्या, सेज्जं जहा इंगाल जाव मुकाम पारिन् दसमं करेति श्त्ता सव्व० पारि० युवालसमं दुयद्यासणेति व भासरासि पलिच्छणा तवणं तेएणं तवतेयकरेति २त्ता सन्चकाम० पारि० चनहसमं करोति इत्ता स. सिरीए अतीव २ उपसोजेमाणीरचिट्ठति, ततेणं से कानीए ब० पारि० सोलसमं करेति श् त्ता सव्व. पारि० अट्ठा- अज्जाए अप्पया कयाइ पुन्धरत्तावरत्तकालसमयांस भयं रसमं० करेति श्त्ता सव० पारि० वीसमं करोति सा अज्झस्थि ते जहा खंदयस्स चिंता जहाजाव अत्यि उ गणेसब पारि० वावीसमं० करेति २त्ता सब्ब० पारि० चन- एं वाताव ता मे सेयं कवं जाव जलंते अजचंदणं अजं वासम करात २ त्ता सब० पारि० वीसमं करोति २ ता आपुच्चित्ता अज्जचंदणाए अज्जाए अन्जणुमाया सन्न पारि० अट्ठावीसंकरति २त्ता सव्व पारितीसमं मापीए संलेहा कुसणा श्जतपाण २ पमियातिखे Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०५) काली अभिधानराजेन्द्रः । कालोद कालं अणवखमाणं विहरात ति कट्ट एव सपेहति, संपेहे | अनुष्ठाने च । सूत्र. १ श्रु० १० १३० । कारुण्यं शोतित्ता कवं जेणेव अज्जचदणा अज्जा तेणेव उवागच्च- | कस्तेन पुत्रवियोगादिजनितेन तदीयस्यैव तल्पादेः स जन्मान्तरे सुखितो जवत्विति वासनातोऽन्यस्य यहानं तति, उवागच्छतित्ता अजचंदणं वंदति नमसति,वंदित्तानमंसि स्कारुण्यदानं, कारुण्यजन्मत्वाद् वा दानमपि कारुण्यमुक्तस, उ. त्ता एवं बयासी-इच्छामि णं अजो! तुज्झेहिं अब्जएणुप्मा- | पचारादित। दानभेदे, स्था०१ठा०१उ०।। ते समाणी संदेहणाए जाब विहरित्ता, ते अहामुह, तते | कालुसियमाण-कायुष्यध्यान-न। अपमानतोऽपरगुणप्रशंणं से काली अज्जा अजचंदणाए० अब्जणुप्लाया| सायामीातो वा चित्तस्य कलुषनावः कालुभ्यं मलिनता, तस्य समाणी संसेहणा कसिय जाव विहरति, तसा काली ध्यानं कालुष्यध्यानम् । बाहुसुबाहुप्रशंसामसहमानयोः सिंहअज्जा अजचंदणाए अंतिए सामातिमातियाइ एका गुहास्थितकपकस्येव ध्याने, आतु। रस अंगाई अहिन्जित्ता वहपमिपुरमाई असवच्छा- कालेज-देशी-तापिच्चकुसुमे, दे० ना०२वग। राई सामप्पपरियागं पालिऊण ता मासिया ते संलेहणा ते | कालेज्ज-कालेय-पुं० । काल्या अपत्यम् दक् । कालकेये, अत्ताएं झुसिया छनत्ताइ अणसणा ते छेदेति, वेदेति- कालचन्दने,न०। कलायै रक्तधारिण्यै हितं ढक् । यकृति, बाच०। त्ता जस्सुघा ते कीरति नगिणनावे जाव चरिमुस्सासनि हृदयान्तर्वतिमांसखरमे, सूत्र० १ ० ५ ० १ उ०। स्सासहिं सिद्धं प्रथमं अकयणं । निक्खेवो-तणं काले-कालोद (य) कालोद-पुं० । धातकीखएकस्य सर्वतः परि. णं तेणं समएणं चंपा णामं णयरी होत्था, पुप्सनद्दे चे-| केपके समुद्रभेदे, धातकीपरितोऽपि शुशोदकरसास्वादः कालोइए कोणिए राया तत्थ णं सेणियस्म रमो जजा को-| दसमुः। अनुास्था णियस्स रप्लो चुल्झमाउया सुकाली नाम देवी होत्था, संप्रति कालोदसमुद्रवक्तव्यतामादजहा काझी तहा मुकाली वि निक्खंता जाव बहुटिं। धायइसमेणं दीवे कालोदे नामं वट्टे वन्नयागारसंगणच उत्थं जाव जावेमाणे विहरति, तते णं सा सुकाली अजा संविते सव्वतो समंता संपरिक्खिवित्ता णं चिट्ठइ॥ अप्लया कयाइ जेणव अज्जा चंदणा अज्जा जाव इच्छा ( धायसंमे णं दीवमित्यादि ) धातकीखएडं, णमिति पूर्ववत्, द्वीपं कालोदसमुखो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः मिणं अज्जो! तुज्कोहिं अब्जणुपाया समाणी कणगा सर्वतः समन्तात् संपरिक्तिप्य वेटयित्वा तिष्ठति । वलिं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरति, ते एवं जहा कालोदे णं समुद्दे किं समचकवालसंठिते विसमचक्कवारयणावझी तहा कणगावली वि, नवरं तिम् गणेसु अट्ठ-1 लसंविए। गोयमा! समचकवालसंठिए, णो विसमचक्कवालमातिकरे जहा रयणावलीए छट्ठाती एकाए परिवामीए ए-1 संगिए । कासोदेणं नंते ! समुद्दे केवतियं चक्कवानविक्खंभेगे संवरे पंच मासा वारस य अहोरत्ता चउएवं पंच| णं केवतियं परिक्खेवेणं पन्नते? गोयमा मट्ठजोयणमयमवरिसा नव मासा अचारस दिवसा सेसं तहेव नव वासा हस्साई चक्कवानविक्खंभेणं एकण उतिजोयणसयसहस्साई परियातो पावणित्ता जाव सिका।।।। अन्त ८ वर्ग। सत्तरिसयसहस्साइं उच्च पंचुत्तरे जोयणसये किंचिबिसेकालीपवंगसंकास-कालीपाङ्गसङ्काश-त्रि० । काली काक साहिए परिक्खवणं पएणते। से णं एकाए पउमवरवदिजवा, तस्याः पर्वाणि स्थूराणि मध्यानि च तनूनि भवन्ति, ततः याए एगेण वणसंडेण य दोएह वि विएणो ॥ कालीपर्वाणि जानुकूर्परादीनि येषु तानि कालीपर्वाणि, उप्रमुखीवन्मध्यमपदलोपीसमासः । तथाविधैरङ्गैः शरीरावयवैः "कालोएणं ते!समुहे किं समचक्कवालकैठिए"इत्यादि प्राग्वत् सम्यक काशते तपसि वा दीप्यते इति कात्रीपर्वाङ्गसंकाशः । प्रश्नसूत्रं सुगमम् । जगवानाह-गौतम! अष्टा योजनशतसहस्राशि यद्वा प्राकृते पूर्वापरनिपाशस्यातन्त्रत्वाद ग्रामोदग्ध इत्यादिवद् चक्रवाढविष्कम्भेन एकनवतियोजनशतसहस्राणि सप्ततिसहअवयवधर्मेणाप्यवयविनि व्यपदेशदर्शनाचाङ्गसन्धीनामपि स्राणि षट्शतानि पञ्चोत्तराणि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षण, कालीपर्वसदृशतायां कालीपर्वमिः संकाशानि सदृशान्यङ्गा- एकं च योजनसहस्रमुढेधेनेति गम्यते । उक्तं चनि यस्य स तथा । विकृष्टतपोऽनुष्ठानतोऽपचितपिशितशो- "अट्टे य सयसहस्सा, कालोयचक्कवालविक्खभो। णिते, उत्त०२०। जोयणसहस्समगं, उग्गाहेणं मुणयन्वो । कालुहाइ-कालोत्थायिन-त्रि०। उद्गते आदित्ये दिवसतो ग इगनउइसयसहस्सा- हवंति तह सत्तरीसहस्सा य । ति, "कालुट्ठाइ कालणिवेसी, ठाणटाई य कालनोई य।" छच सया पंचऽहिया, कालोयहिपरिश्ररो एसो"। नि० चू० १६ उ०। (सेण एक्काए इति)स कालोदः समुद्रः एकया पनवरवेदिकया, कालुणवडिया-कारुण्यप्रतिज्ञा-स्त्री० । कारुण्यवृत्ती, विपा० १ अष्टयोजनोच्छ्रयजगत्युपारिभाविन्येति गम्यते। एकेन च वनशु०१०। खरामेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्तिप्तो, द्वयोरपि वर्णकः,प्राग्वकालुणिय कारुणिक-त्रि० । करुणा शीलमस्य उक् । दया त् । जी. ३ प्रति० । परिक्केपगणितभावना श्यम्-कोलादसखौ दयाशीने, वाच । करुणाप्रधाने विलापापाये वचसि । समुहस्य एकतोऽपिचक्रचालतायाःविष्कम्भोऽष्टौ योजनसका Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०३) अभिधानराजेन्द्रः । कालोद अपरतोऽपि प्रतिपोरा घातकीराकस्यकतीऽपि चतस्रो ला अपरतोऽप्यष्टौ लवणसमुद्रस्य एकतोऽपि वे लके, अपर सोऽपीति चतस्रः कोतको जम्बूद्वीपस्येति सर्वसंख्या एकोनत्रिंशङ्खक्षा जाताः २६००००० । तेषां च वर्गो विधीयते, जातोकञ्चतुष्क एककः, शून्यानि दश, ततो दशभिर्गुणने जातान्ये. कादश शून्यानि ८४१०००००००००००। तेषां वर्गमूञ्जनयने लधं यथोक्तं परिधिपरिमाणम् - ६१७०६०५ । शेषं त्रिको नवकत्रिकरित्रको नवकः सप्तकः पञ्चकः ३६३३६७५ इति यदवतिइन्ते तदपेक्षा विशेषाधिक कनवतिशतसहस्रा णि सप्तशतानि सप्ततिसहस्राधिकानि नक्त्रादिपरिमाणं चाष्टावित्यादिपानि मानि चत्वारिंशता गुणविश्वा परिभावनीयम् । चं० प्र०१ पाहु० सू० प्र० । कालोए ण समुद्दे एका उइजो यणसयस इस्साई साहियाडं परिक्रखेवेणं || (कालो कालोः समुद्रः स चैकाणि साध कानि परिकेपेण अधिक्यं च सप्तत्या सहस्रैः षड्यिः शतः परेश त्याचा ङ्गुलैः साधिकैरिति । स० ९१ सम० । द्वाराणि कालोयस्स ते समुहस्स केवति द्वारा पहाचा ? गोयमा! चनारि दारा पणता तं महा-विजये बेजयंते जयंते अपराजिए । कहि णं भंते! काचोदस्स समुदस्स विजए णामंदारे पत्ते ? | गोमा ! कालोदसमुद्दपुरच्छ्रिमा परंते पुक्खस्वरदयपुरमा पच्छिमे णं सीतोदार महानदीए afप, एत्थ गं कालोदस्स विजये नामं दारे पत्ते गोमा ! ग्रह जोयणं तं चैत्र पमाणं जाव रायढाणीओ | कहि णं भंते! कालोयस्स समुद्दस्स वेजयंते णामं दारे पणते ?। गोयमा ! कालोयसमुहस्स दक्खिणा परंते पुक्खवरदीचदक्खिन्छस्स उत्तर एत्य गं कालोय समुदस्स बेजयं नाम दारे पाले कहि णं जंते! कालोपनमुइस जयंते णामं दारे पाने गोवमा कालोपसमुदस्स पञ्चच्चिमा परंते पुत्रखरवरदीव पच्चच्छिमधस्स पुरच्छिमणं सीताए महानदीए उपि जयंते नाम दारे पा कहि णं भंते ! अपराजिए णामं दारे पत्ते हैं। गोयमा ! कालोदसमुदस्स उत्तरापरंते पुक्खरखरदीवोत्तरस्स दाहियओ एत्य कालोपसमुदस्स अपराजियनामं दारे, सेतं चैव ॥ कासोदस्य भदन्त ! समुद्रस्य कति द्वाराणि प्रज्ञप्तानि । जगवानाद गौतम! चत्वारि द्वाराणि तानि तथा जयन्तं जयन्तमपराजितम् भन्त कासोददिजयं नाम द्वारं प्रशप्तम् । नगवानाह - गौतम ! कालोदस्य समुरूस् पूर्वपर्यन्ते पुष्करवरद्वीपस्य पूर्वार्द्धस्य पश्चिमदिशि शीतोदाया महानद्या उपरि, अत्र कालादेस्य विजयं नाम द्वारं प्रज्ञप्तम् । एवं विजयद्वारवक्तव्यता पूर्वानुसारेण वक्तव्या, राजधानी धन्यस्मिन् कालो समुद्र वैजयन्तद्वा कासोद | - सूत्र सुगमम भगवानाह गीतम! फालोदसमुदपर्यन्ते पुष्करवर द्वीपद किणार्कस्य उत्तरतोऽत्र कालोदसमुद्रस्य वैजयन्तं नम द्वारे मलम एवं जम्बूद्वीपगतवैजन्तद्वाक्यम नवरं राजधानी अन्यस्मिन् कालोदसमुद्रे, जयन्तद्वारप्रश्नसूत्रं सुगममा काम पश्चिमार्द्धस्य पूर्वतः शीताया महानद्या उपरिक लोइसमुद्रस्य जयन्तं नामा जम्बूदीपगतज यन्तद्वारवत्, नवरं राजधानी अभ्यस्मिन् कालोदे समुझे। अपराजद्वारमपि सुगम भगवान गौतम कालोस मुत्रापर्यन्ते पुष्करवरील रास्तो कालोदसमुपानाद्वारे पिताराजद्वार नवरं राजधानी अन्यस्मिन् समु संप्रति द्वराणां परस्परमन्तरं प्रतिपिपाद विधुरादकालोदस्स णं ते! समुदस्स दारस्य २ य एस केवलियं प्रवाहा अंतरे पाते हैं। गोषमा ! यात्रीससयसइस्सा बाणख जये सहस्साई उच्च सया उताला दारंतर तिमि कोसा ये दारस्स २ य प्रवाहा अंतरे पण काल्लोदस्स मां जंते ! समुदपदेसा पुक्खरवरदी तहवे, एवं पुक्खरवरदविस्स वि जीवा उदाइता तहेन भाणियन्त्रं । , सूत्रं सुगमम् भगवानाह गीत द्वाविंशतियोंजनशतस निःखासि पद योजनशतानि पद्वारिंश दधिकानि त्रयश्च क्रोशा द्वारस्य द्वारस्य परस्परमबाधया अन्तरं [प्रप्तम् तथाहि चतुमपि द्वारायामेकत्वमील प्रादश योजनानि तानि कालोदसमुद्रपरिमाणात् १७०३०५ इत्येवंरूपात शोभन्ते, शोषितेषु तेषु जातम-एकनवतिर्लकाः सप्ततिः सहस्राणि पञ्च शतानि सप्ताशीत्यधि१७०० ते द्वाराणां परस्परमन्तरपरिमाणम् २२६२६४६ । उक्तं च- "बायाबा बच्च सया, वाणउ‍ सहस्स लक्खवावीसं । कोसा य तिनि दारं तरं तु कालोयहिस्स नवे " ॥१॥ " कालोदस्स णं नंते ! समुदस्त पपसा" इत्यादिसूत्रचतुष्टयं पूर्ववद्भावनीयम् । सामान्यर्थमनिधित्सुराद्द सेते एवं यति कालोयसमुद्दे कालो० २ १ गोयमा कालोपसणं समुदस्य सदके आसले मांसले पेसले मासा पाती उद्गरसेनं पाचे, काला महाकाला त्वे देवा महिडिया जान पनि ओमद्वितीया परिवसंति, से तेणद्वेणं गोयमा ! जाव णिच्चे । ( से केणमित्यादि) केसाथै भदन्तमुच्यतेकालोः समुद्रः कानोदः समुद्र इतिः। भगवानाह - गौतम ! का लोदस्य समुद्रस्य उदकम् श्रसक्षमाखाद्यम्, उदकरसत्वात् । मांसलं गुरुधर्मत्वात्, पेसलमास्वादं मनोइत्यात् । कालं कृ । मदेोषमया प्रतिपादयति-माप उक्तं च"पगई बदकरसं कालोए उद्गमासरासिनिभमिति।" लतःकालमुदकं यस्यासी कालोद, तथा फालमहाकाली तो दे चौ पूर्वाई पश्चिमाधिपती महर्द्धिको यावत्पल्योपमा स्थितिको परिवत ततः स काखानादसे तेपणमित्यादि Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०४) कालोद अभिधानराजेन्द्रः। कासव चम्कादित्यौ १० । " कावालिकरूपेण तेण सह वच्चा । " श्राव०४ कालोयणे णं ते ! समुद्दे कति चंदा पनाभिसु वा ३ पु. अ०। अनु। का?। गोगमा कालोयणे णं समुद्दे वायालीसं चंदा पना काविट्ठ-कापित्य-न। स्वनामख्याते विमानभेदे,स०१४सम०। सिंह वा ३ बायानीसं चंदा वायालीसं च दिणगरा दित्ता काबिल-कापिन-पुं० । कपिलो देवता येषां ते कापिनाः । निकासोदाहम्मि एते चरति संबंधलेसागा एक्वत्तसहस्सं रीश्वरसालयेषु, औ० । "ज काबिलं दरिसणं, एवं दवट्टियस्स एगमेगं गवत्तरं च सतमाएं उच्च सया उरण उया मह वत्तव्यं" यत्कापिलं दर्शनं साङ्ख्यमतमेतत् । सम्म० १ काण्ड । ग्गहा तिारण य सहस्सा अट्ठावीसं कासोदहिम्मि वाराई काबिलिय-कापिलीय-न। उत्तराध्ययनानामष्टमेऽध्ययने,स० सतसहस्साई नव य सता पण्णासा तारागणकोमीकोमीणं ३५ सम। यत्र कपिवस्य महामुनेद्देशान्तगर्भितनिर्लोभत्वरढी करणं कथितम । उत्त०७०।सूत्र[कविल' शब्दे अस्मिमेव सोनं सोनंसुवा ३ ॥ भागे ३८७ पृष्ठे उक्तम्] चन्द्रादित्यादिसूत्रपाठसिद्धम् ।एवं रूपं च चन्द्रादीनां परिमाण-काविसायण-कापिशायन-न । मद्यविशेषे, जी० ३ प्रति। मन्यत्राप्युक्तम् कावी-देशी-नीलवर्णायाम, दे० ना०२ वर्ग। "वायाहीसं चंदा, वायालीसं च दियरा दित्ता। कालोयहम्मि पए, चरति संबंधलेलागा। कावोडी-कापोती-स्त्री० । भारकाये,दश०४ अ० ['काय' शब्दे नक्वत्ताण सहस्सा, सयं च वावत्तरं मुणेयव्वं । अस्मिन्नेव भागे ४४७ पृष्ठे तव्याख्यानेन स्पष्टीकृतम् ] ग्व सयाउन नया, गहाण तिन्नेव य सहस्सा। कास-काश(स)-पुग केन जलेन कफात्मकेन अश्यते व्याप्यतेऽत्र । अट्ठावीसं कालो-दहिम्मि वारसयसहस्साई। अश व्याप्तौ आधारे घम् । काशरोगे, वाचा उपा०। का। नव य सया पन्नासा, तारागणकोमिकोमीणं"। सप्तचत्वारिंशत्तमे महाग्रह "दो कासा" स्था० २ ० ३ तं च पुष्करबरद्वीपः सर्वतःसंपरिक्षिप्य स्थितः। जी०३ प्रतिः। उ०। कुते, जलेनाकीर्णत्वात्तथात्यम् । काश दीप्ती अच् । के. (तद्वक्तव्यता 'पुक्खरबरदीव' शब्दे द्रष्टव्या) नन्दीश्वरद्वीपान्तरस्थे शियातृणभेदे, तद्गुणाद्युक्तम् । तत्पुष्पे, न० । पदश्नाति समुद्रभेद, स्था०७०। अश-अच् । कोः का। मूषिकभेदे, पुं० । स्त्रीयां ङीष् । ऋषिनेदे, कासोदाइ[ए] कानोदायिन-पुं० । स्वनामख्यातेऽन्ययूधि पुं०काशस्य गोत्रापत्यम् । अश्या०फकाशायनः।तोत्रापकभेदे, ज.७ श०१००० ['मा उत्थिय' शब्दे प्रथमभागे त्ये, पुंग स्त्री वाच० । काशे भवः काश्यः। रसे,स्था०७०। ४४५ पृष्ठे नद्वक्तव्यता उक्ता] कस्यन्तेऽस्मिन्निति कामः। संसारे, प्राचा० १ ००१०३ उ० । कस हिंसने कर्तरि णः।सिसके, काशतेऽनन काश करणे कालोभास-कालावन्नास-त्रि० । कालदीप्तौ, न. ६ श०५ उ०। घष । रोगभेदे, पं० । के जलमस्यतेऽनेन, असु क्षेपणे यः काल एवाऽवभासते पश्यताम् । स्था० ठा० । करणे घम् । शोभाजनवृते, पुं० । तदजनसेवने नेत्राजलनि सारणात्तस्य तथात्वम् । वाच०। कालोचकम-कालोपक्रम-पुं०। कास्योपक्रमः कालोपक्रमः। उप काष-पुं० । कष्यतेऽनेन कष करणे घञ् । कषणपाषाणे प्रकमभेदे, “से कि कानोवकमे?। कालोवक्कमे जपं नालिबाहिं कालस्सोवजणं कीरईसेत्तं कालोवक्कमे"। अनुनिचू स्तरभेद, ऋषिभेदे च । वाच । (इति 'उवक्कम' शब्दे द्वितीयभागे ८७२ पृष्ठे व्याख्यातम) कासंकस-कासंकष-पु० । कस्यन्तेऽस्मिन्निति कासः संसारकाव-काव-पुं० । नारोबहने, शा० १ श्रु० ० ० । कावमिवाद स्तं कषतीति तदभिमुखो यातीति कासङ्कषः । सानादिप्रमादव ति, प्राचा० १ श्रु०२ १०५ २० । के, त्रि० । जी० ३ प्रति०। कासंत-काशमान-त्रि० । रोगविशेषे, "कासंता वाहिया य प्रा. कावकोमिय-कावकोटिक-त्रि० । कावो भारोबहनं तस्य कोटी माभिभूयगता" । प्रश्न० ३ आश्र द्वार। भागःकावकोटी, तया ये चरन्ति ते कावकोटिकाः । काबटिके-कासग-कषेक-पृ०कृषीवले, वृ०३ उ०1"जेण रोहति वाषु.ज्ञा०१ श्रु०८ मा अनु जा, जेण जीवंति कासगा।" नि००१ १० । उत्ताकेत्रीकावडिक-कापटिक-त्रि० । कपटचारिणि, का० १ श्रु०००। कारके, उत्त० १२० कावमचाग-कार्पण्यत्याग-न० । कृपणभावपरित्यागेऽतुच्च कासण-कासन-न ! खटकरणे, प्रोघ०। खतौषो०४ विव०। कासदह-कासहूद-पुं० । स्वनामख्याते तीर्थभेदे, यत्र वितुषमकावध-कावध्य-पुं० । सप्तत्रिशत्तमे महाग्रह, चं०प्र०२० पाहु। मङ्गलकलशः श्रीआदिनाथः । ती० ४३ कल्प । कावलियो देशी-असहने, दे० ना०२ वर्ग । कासमाण-काशमान-त्रि० । काशं कुर्वाणे, " णीससमाणे कावलिय-कावलिक-न० । कवर्भवं कावलिकम् । आहारादौ, कासमाणे गयमाणे वा ।" आचा० १ श्रु०२ १०२ उ० । नं० । कवनप्रकेपनिष्पादिते प्रक्षेपाहारे, सूत्र०१ श्रु०११०३० । कासव-काश्यप-पुं०। काश्यं पिबति घप्रथं कः।उप० कावालिय-कापालिक-पुं० । मस्थिरजस्के पाखएिककसाधौ, १० "गचजतदपयवां प्रायो सुक" । । १ । १७७ । Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कासव । इति यलोपे " लुप्तयरवशपलां शपसां दीर्घः " ० १ ४३ । इति शकारस्या स्वरस्यार्थः प्रा० १ पाद ब्रह्मणो मानसपुत्रस्य मरीचेः पुत्रे ऋषिनेदे, वाच० । भगवत ऋष देवस्य पूर्वपुरु का भयः काश्यो रस पीतवानिति काश्यपः, तदपस्याम्यपि काश्यपाः । तदपत्येषु ते च मुनिसुव्रतनेमिर्जा [जिनामपत्र्यादय क्षत्रियाः सप्तमगणधरा यो द्विजाः जम्बूस्वाम्यादयोपतयश्चेति तरस के मूलगोष भेदे च ।" सप्त महामूलगोला पत्ता । तं जहा- कासवा गोसमा!" । [च] गोत्रस्य गोपद्म्यो नेदादेवं निर्देशो ऽन्यथा !” द गोत्रवद्द्भ्यो काश्यपमिति वाच्यं स्यादेवं सर्वत्र । स्था० ७ वा० श्रात्र० । सूत्र | "जे कासवा ते सप्तविधा पणत्ता । तं जहा ते कासवा से मिला ते गोला ते वाला ते मुंजतिणो ते पन्चतिणो ते बरिसकएहा । " स्था० ७ ठा० । चं० प्र० । जं० प्र० । काश्यपगोत्रे श्रीमन्मदावरिवर्कमान स्वामिनि, सूत्र० १० १६ अ० । दश० । कल्प० । " जंसि विरता समुहिता कासवस्त धम्मचारिणो "काश्यपस्य ऋषमस्वामिन मिनो वा । सूत्र० १ ० ६ ० । कापिलीया ऽभ्ययनोककपिलस्य पितरि उत० ७ ० । काश्यं राजभेदं पाति नरकात् पाकः । काश्यनृपस्य पुत्रे, मृगभेदे, पुं० । स्त्री० । स्त्रियां जातित्वात् ङीष् । कश्यपस्येदम् कश्यपसम्बन्धि शि० स्त्रियां ङीप् पृथिव्याम् श्री० । तस्याः संबन्धितया काश्यपपल्याम्, स्त्री० । काश्यपेयः । कश्यपगोत्रोत्पन्ने विषचिकित्साभि ऋषिभेदे, वाच० । । 66 समणस्स णं जगवत्र महावीरस्स जेड्डा प्रश्णी सुदंसणा कासवी गोलें। " श्राचा० २४० १३ प्र० । नापिते, आ० म० प्र० । ज्ञा० । सूत्र० । राजगृहवास्तव्ये स्वनामख्याते पती (तकन्यता भन्दा पष्ठे वर्गे चतुर्थेऽध्ययने सूचिता) तथाहि "तेयं कालेणं तेणं समपणं रायगिहे णयरे गुसीलए चेप, तत्थ णं सेणिए राया कासचे नामं गाहावती परिवसति, जहा कामकाइ सोन से वासा परियाउ पावणिता विपुले पश्यते सिद्धी" । अन्त० ७ वर्ग० । कासवग - काश्यपक - पुं० । नापिते, प्र० ६ श० १० उ० | मा० चू० । तस्य राज्ञः श्रेणीष्वन्तर्भावः । जं० ३ चक्क० । कासवगोत-काश्यपगोत्र पुं० काश्यपाय " येरे मोरियपुत्ते कासवगोतेणं अरूट्टाइ समणतया वा पह" कल्प० छ क्षण । कासवजिया - काश्यपार्जिका स्त्री० । माणवकगणस्य प्रथमशाखायाम्, कल्प०८ कण कासवालिय- काश्यपनालिक१० श्रीपर्णीफले, माया० २ भु० १ ० ० ० ॥ ( ५०५ ) अभिधानराजेन्द्रः । 66 कासवी - काश्यपी श्री० [पम्यमतीयैकरस्य प्रथम शिष्यादाम, स० । काश्यपगोत्रायां स्त्रियाम, समणस्स ं भगवद्मो महापौरस्स जेठा भरणी सुदंसणा कासवी गोलेणं " भाचा० २ ० ३ मि० । कासायवत्य काषायवसत्रिकाचाययपधाने ०१० कासारं देशी-सीसपत्रे दे० ना० २ वर्ष ܚ काहस कासार कासार पुं० । कस्य जलस्य सारोऽत्र । सरोवरे, विशत्यारगणैः रचिते दण्डकच्छन्दोभेदे च । पाच० भा० क० कासि श्रं - देशी - श्वेतवर्णे, दे० ना० २ वर्ग ! का सिज्जं देशी-काकस्थलाभिधाने देशे दे० ना०२ वर्ग । कासिता काशित्वा स्त्री० [प्येत्यर्थे जी० ३ प्रति० ॥ कामिय-कासित १० ते ०२ अधि० । - । । कासिराय- काशिराज-पुं० काशीनां जनपदानां राजा, टन् । बाच० । काशिमएमलाधिपतौ, उत्त० १८ श्र० । तत्थ तस्ल भागिणिजे कासिराया तेण चैव रज्जे ठाविमो केसी कुमारो " भाव० ३ श्र० । काशिराजकथा तब कासीराया, सेऊसञ्चपरकमो । कामजोर परिवज, पहले कम्पमहावणं ॥ ४५ ॥ हे मुने! सथै नेच प्रकारेण पूर्वोपयत काशिदेशपतिन्दननामा राजा सप्तमबलदेवः कर्मरूपं महावनं प्राहणत, उन्मूयामासेत्यर्थः किं कृत्वा भोगान् परित्यज्य की 1 " श्रेयः सत्यपराक्रमः श्रेयः कल्याणकारकं यत्सत्यं संयमः श्रेयःसत्यं तत्र पराक्रमो यस्य सः श्रेयः सत्यपराक्रमः, मोक्कदायकचारित्रधर्मे विदीयं इत्यर्थः काशिराजामतः- वाराणस्यां नगर्याम अग्निशिखो राजा, तस्य जयन्त्य भिधा देवी तथा कुशिसमुद्भूतः सप्तमबलदेवो नन्दनो नाम तया अनुजाता शेषराशीत दो वासुदेवः स च पिश्रा प्रदत्तराज्यः साधितरता नन्दनो राज्यस्ि तामनुबभूव । कालेन षट्पञ्चाशवर्षसहस्राएयायुरतिवाह्यं मृत्वा दत्तः पञ्चमवरपृथिव्यामुत्पथः नन्दनोऽपि च भ्रामयः समुपादानः पश्विर्षसहस्राणि जीवितमनुपाय मोक्षं गतः, विंशतिधनूंषि चानयोर्देहप्रमाणमासीदिति काशिराजदृष्टान्तः ॥ ४९ ॥ उत० १० भ० ॥ कासी - काशी- बी० । काशते काश इन् स्त्रियां ङीप् । काशणिच् । गौरा० ङीष् । वाच० । वाराणस्यां तज्जनपदे च । भ० ७ श०२ उ० । काशी जनपदो, यत्र वाराणसी नगरी । ज्ञा० १ श्रु० भ० | तस्या भार्यक्षेत्रेषु गणना। प्रज्ञा०१ पद । प्र० । स्था० । सूत्र० । "तेणं कालेणं तेणं समरणं कासी नाम जणवर होत्या; तस्य वाणारसी नामं णयरी होत्या; तत्थ णं संखे नाम राया होत्था । [झा० १ ० ० भ० । स्वल्पार्थे ङीप् । स्वल्प• काशतृणे, वाच० । कासीत्रण - काशीवर्द्धन - पुं० । चाराणसीनगर संबन्धिजनपदवृद्धिकरे, स्था० ८ ठा० । 1 कार काहर जलाहार, "यो काहादोमा पाणिस्स भरेऊण " । दश० ४ अ० । दे० ना० २ वर्ग काइन - कातर- त्रि । तस्य दः। "हरिद्रादौ सः" ८ । १ । २५४ ॥ इति रस्य सः । प्रा० १ पाद । भधीरे व्यसनाकुले, वाच० । काल- पुं० । स्त्री० । कुत्सितं हलति लिखति हुन्छ । कोका पेमाले कुकुटे की वाक्ये, शुके, भृशे, सने स । त्रि० महादकायाम्, स्त्रीयां टाप् । Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काहल तुराकारे वायदे वाच विशेषे मान्य००० वाद्यशब्दभेदे, तूर्य नं । खरमुख्याम्, ग्रा० म० प्र० । जं० गोमुख्याम, स्था० ७ ० काहनिया - काहलिका - बी० । रत्नावलीनामनूषणस्य सौवर्णेऽवयवभेदे, अन्त० वर्ग काइली-देशीयाम् ३० ना० २ वर्ग ( ५०६ ) अभिधानराजेन्द्रः । कायि कायिक- धुं० [रतिकाधिक सू० १०२ अ० २४० । कुशल नेत्रे, सूत्र०१० ४ ० १ ० । योभिकाप्रविधक मदत करोति कथाकथनेकवि ध० ३ अधि० । 1 अवस्थायाउ अवस्था-खाई गीयाइ बलियकव्या । कहता य कहाओ-निसमुत्या काहिया होंति । श्राख्यायिकास्तरङ्गवतीमलयवतं प्रभृतयः श्राख्यानकानि धूक्यानानि गीतानि गीतानि तथा सितानि शुङ्गारकाव्यानि कथा वासुदेवचरितबेटकथा दन्तकचया चरन्तीति यु धर्मकामार्थत्रयवक्तव्यताप्रभवाः, संकीर्णकथा इत्यर्थः । एता पाधिकादीनि कथयन्ताकाधिका उच्यन्ते पिरुम् । वृ० १४० । जे भिक्खू कादियं वंद दतं वा साइज्जइ ॥ ५१ ॥ जे भिक्खू काहियं पसंसह पसंसंतं वा साइज्ज || ५२|| सूत्रे किरण जोगे जो देसकादिकाओ कपैति सो काहिओमी आहारादीणडा, जसदेचं हर पूणिमित्तं । कम्मो जो धम्मं, कधेति सो काधितो होति ॥६३॥ धम्मको करेति श्राहारादिनिमित्तं वत्थपानादिसिमितं वा जसरी या दादियानिमित्तं वा त्तत्परि सिसुकवमाचारो अहो य रातो य धम्मक हादिपढकणवज्जो तदेवास्य केवलं कर्म एवंविधो काढितो प्रवति । चोदगाह सज्जाओ पंचविधो वायणादिगो, तस्स पंचमो नेदो धम्मकहा, तेण भव्वसत्ता पमिवुज्छंति, तित्थे य श्रवोच्छ्रित्ती, पावणा य भवति, अतो ताम्रो णिजरा चेव जवति, कहूं कादियं तं पडिसिज्झति ? | आचार्य श्रह कामं खलु धम्पकहा, सज्जायस्सेव पंचमं अंगं । अव्वोच्छित्तीऍ ततो, तित्यस्स पजावणा चैत्र ॥ ए४ ॥ पूर्वनिहितनोदकार्थानुमते कामशब्दः, खलुशब्दोऽवधारणार्थः, किमवधारयति-श्मं सज्जायस्स पंचमए वागं धम्मकहा, अइ य एवं तह विया, धम्मका जीवसम्मपरिहाणी | नार्ड व खेचकाले पुरिसं च पवेदिते धम्मं ॥ एए ॥ सम्यका धम्मो णकडे यम्बो, जतो पडिलेडणादिसंजमजोगाएं सुपारीणय आयरियगिलाणमादिक्रिया परिहास - ति, अतो काढियतं कायव्वं, जड़ा पुण धम्मं कहेति तदाणाउंसाधुं साधुणीण य वहुगच्छ्वमाहं, खेत्तं ति ओमकाले बहुणं साधुसाधुखी उनकरा श्मे दाणसङ्घादि नावस्संति, धम्मं कह रायदिपुरिया णा करेला, महाकुले वा इमेण पण उपसं पुरिसेणं वढू उवसमंतीति कहेज्जा । नि० चू० १३ उ० । , किइकम्म । काडीइदा करिष्यतिद्वान-२० करिष्यति नोपकारं ममायमिति यद्दानं तत्करिष्यतीति दानमुच्यते न भेदे, स्था० १० ० - किइ कृति स्त्री० भाचादी चिन्ह" पादो" । ७ । १॥ १२८ । ' डुकृञ् ' करणे इति ऋत इत्वम् । प्रा०१ पाद। करणे, विशे० ॥ श्र० म० । अनुष्ठाने, स्था० ३ ठा०४ ० । श्रवनामादिकरणे, क्रियतेऽसाविति कृतिः । मोक्कायाचनामादिचेष्टायाम, श्र० २ श्र० । कृतिकर्मणि वन्दने, दश० [अ०] उ० | व्य० । पुरुषप्रयत्नं कर्तृव्यापारे कृ वधे क्तिन् । हिंसायाम्, विंशतिसंख्यायाम, कृत-वा-करणे-इक् । कर्त्तन्याम, स्त्री० । वाचन किड़कम्प - कृतिकर्मन् - न० । कृतिरेव कृतेर्वा कर्म क्रिया कृतिकर्म । वन्दनके, आव० ३ ० | स० । श्राचा० आ० चू० । कमी द्विधायनः कृतिक निवादीनामनामादिकरणमनुपयुक्त भावना सम्तानामिति । पतश्च द्वाविंशतिजिनसमये स्थितम् । वृ० ६ उ० । 1 (१) कृतिकर्मद्वारं निरूप्य कृतिकर्मणि संयतेभ्यः संयतीनां विशेषप्रतिपादनम् । (२) यथा वन्दनस्याकरणे दोषाः । (३) याचिका - निपादनम् । (४) कृतिकर्म करणाई संयतादिनिरूपणानन्तरं चन्दनादसंय तादिनिरूपणम् । (५) याला भे (६) श्रचरणात्रक्षणं प्रतिपाद्य पर्यायज्येष्ठैराचार्यस्य वन्दनविचारः । (७) देवकिरात्रिकप्रतिक्रमणयोर्मध्ये तिसृभिरेव स्तुतिभिराचार्यादिभिर्मङ्गल विधेयम् । ( 4 ) कृतिकर्म कस्य कर्तव्यं कस्य नति विचाराः । ( ९ ) कारणतः पार्श्वस्थादीनां वन्दनप्रकारं निरूप्य तद्वन्दनकारणप्रतिपादनम् । (१०) पावन्दनं निष्फलमिति निषेध मकुर्वतामपापप्रदर्शनम (११) गुणवतामा पार्थस्थादिसतो दोषभवात् तं वन्दननिषेधप्रतिपादनम् । स्यन्दनेापायनम् । (१२) (१२) साधुवदनेगुणदर्शनम्। (१४) कृतिकर्मकरणस्यानुचितानामुचितानां प्रतिपादनम (१५) कदा कृतिकर्म कर्त्तव्यं कदा वा नेति प्ररूपणम् । (१६) कतिकृत्यः कृतिकमिति निरूप्य नियतवन्दनस्थान संख्याप्रतिपादनम्। (१७) कृतिकर्मस्वरूपनिरूपणम् । (१) कतिमिराश्यः परिशुमित्येतनिरूपण । (१६) विरानोपनम (२०) चन्दनकरणकारणप्रतिपादनम् । (२१) चन्दनकविधिनिरूपणम् । रान्तप्र Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०७ ) अभिधानराजेन्द्रः । किइकम्म [१] कृतिकर्मद्वारमाह कितिक्रम्मं पिय विहं अन्नुद्वाये तब बंदणगा । समय समणीय जहाहिं होति कायां ॥ कृतिकर्माऽपि द्विविधम्-अभ्युत्थानं, तथैव वन्दनकमाद्विविधमपि १० नम्हण शब्दे प्र० भा०६६३ पृष्ठे उक्तम, वन्दनं तु 'वंदनग' शब्दे व्याख्यास्यने) उभयमपि च भ्रम भ्रमण पथाई यथानाधिकं परस्परं कर्त्तव्यम् । तथा श्रमणीनामयं विशेष:सव्वाहि संयतीहिं, कितिकम्मं संजताए कायव्वं । पुरिसचरितो धम्मो, सम्बनिया पि तित्यम् ॥ सर्याभिरपि संयती निश्चिरजताभिरपि संपतानां तहिनदीक्षितानामपि कृतिकर्म कर्त्तव्यम् । कुत इत्याह- सर्वजिनानां सर्वेषामपि तीर्थकृतां तीर्थे पुरुषोत्तरो धर्म इति । किञ्चतुच्चत्तणेण गन्चो, जायति एय संकते परिभवेणं । वि होज दोसो, थियासु माहुज्जहज्जासु | स्त्रियाः साधुना चन्द्रमान जायते, गर्विता साधुं परिभवबुद्ध्या पश्यति, ततः परिभवेन च नैव साधोः शङ्कते विनेति । अन्योऽय दोषः श्री माधुर्यदासुमा ह्यासु वन्द्यमानासु जवति, जावसंबन्ध इत्यर्थः । पुरिसपणीतो धम्मो पुरिसो व रविवरं सतो। लोगविरुद्धं चेयं, तम्हा समणाण कायव्वं ॥ पिचेति कारणान्तराभ्युच्चये, पुरुषैस्तीर्थकर गणधरलकणैः प्रणीतः पुरुषप्रणीतो धर्मः, पुरुष एव च तं धर्मे रक्षितुं प्रत्यमी दिनमा पालयितुं श लोकविरुद्धं चैतत्पुरुषेण स्त्रियो वन्दनम् तस्मात् श्रमणानां ताजिः कर्तव्यम् । बृ० ६ उ० । कल्प० | प्रब० । पञ्चा० । (२) यथा चन्दनस्याकरणे दोषानाहयस्माकरणम्मी माणो तह सीयकम्बधोति । पण खिमायाग, अवो हिजबुढि अरिहम्पि ||२५|| पतस्य कृतिकम्मणोऽकरणेऽविधाने मानोऽहङ्कारः कृतो जयति तयेति समुच्य नीचकर्मबन्ध मीन ति, एतस्मान्मानात् स्यात् । तथा प्रवचनखिसा शासननिन्दानूनमेतत्प्रवचने विनयो नाभिधीयते यत एते चन्दनं यथायोग्यं न कुर्वन्तीत्येवंरूपा । तथा ( अयाणग ति ) अज्ञायका for पते लोकमपि नानुवर्त्तयन्ति एवं विनिन्देति । मत एवाबोधिः सम्यग्दर्शनालाभः । भबोधिलाभफलं कर्मेत्यथेः। तता भववृद्धिः संसारबर्द्धनमिति दोषः । तस्थाकरणे इत्याह- अहे योग्ये वन्दनस्य, न यत्र कुत्रचिदिति गाथात्रयार्थः । पचा० ७विव० । प्रव० । स्था० । जीत० | पं० भा० । पं० चू० । वंद चिकिकम्मै, पृमाकम् च किम्मं च । काय कस केविका व को? ॥ (गाथापूर्वा 'वंदन शब्दे वदयते) माह-इदं चन्दनं कर्त्तव्यं क स्य वा केन वा कदा वा कस्मिन्वा काले कतिकृत्वो वा कियत्यो वा बारा इति । किश्कम्म किणयं कइ सिरं, काहि व श्रावस्सएहि परिसुखं । कंतिदोसविप्पमु, कितिकम्मं कीस कीरइ वा १ ॥ अवनतिरचतं कृत्यचन्दनं कर्तव्यम्, कति शिरा कति शिरांसि तत्र भवन्तीत्यर्थः । कतिभिर्वाऽऽवश्य कैरावतादिभिः परियं कविदोषविप्रमुकं टोलगत्यादयकर्म मदनकर्म] [] फिर ] किमिति का किया पार्थः । श्रव० ३ श्र० । (३) सांप्रतं वन्दनादिषु रूव्यभावनेदं प्रचिकटयिषुरंशन्तान् प्रतिपादयन्नाह- सीयले खुडए कन्ने, सेबए पानए तहा । पंचेदिता, कितिकम्मं होंति पायव्वा ॥ ३ ॥ शीतलः, चुलकः, कृष्णः, सेवकः पालकस्तथा पश्चैते दृष्टान्ताः कृति कर्मणि भवन्ति ज्ञातव्याः । श्रव० ३ भ० । (तत्र सकथानकः शीतल ट्रान्तः 'सीयल' शब्दे वक्ष्यते ) अथ कुल्लकदृष्टान्तमाह, तभेदं कथानकम्- एगो खुट्टो आवरण कालं करेमाणेन लवतो आयरिओ ठवित्र ते सव्ये पञ्चश्या तस्स खुड्गस्स श्राणानिदे से बहंति । तेसिं च कडादीणं थेराण मूले पढछ । अन्नया मोहणिज्जेण वाहिजेतो भिक्खाए गएसु सासु वीतिजपण सापाण्यं आणवेत्ता पत्तयं गहाय नवहयपरिणमो वच एग दिलाए, परिस्संतो एगम्मि वणसंडे बीसमर, तस्य पुष्पफस्सिम समिकरस्म पी बो गो तत्थ पूयं करे तिलगचडलादीणं, किंचि वि सो चितेइ। पयस्स पेढस्स गुणेण पइसे पूया किज‍ चितिनिमित्तं । सो भग-पए किं भवेद ? । ते भांति - विकिपल्लयं पयं तं च जणो वंदर । तस्स वि चिंता जाया पेच्न जारिसं समिकरं तारसो मि अहं, भन्ने वि तत्थ बहुस्सुया रायपुष्ता इन्भपुता भन्थि ते ण उचिया, अहं विप्रो, ममं पूर्णति, कच्चो माझ समय रयदरविणं बंदति परिमा रेवि भिक्खाश्र श्रागया मग्गति, न लभति सुर्ति वा प उति वा सो आगो बालोएह-जढाऽहं सनाभूमिंग लो उठाओ तत्थ पमिओ अत्थिश्रो, श्याणि उवसंते मागोमि, ते तुहा, पच्छा कमाईणं आलोपा, पायच्छित्तं च पमिवजः । तस्स पुत्रि दव्वचिती, पच्छा भावचिती जाया" । इदानीं कृष्णकथानकमाह , - "वो पीरो फोलियो, सो वासुदेवो सो परि वासुदेव परिसारचे बहवे जीवा बहित तिम्रो न सो वीरगोवरं अतोपुकारा दिदिन मे जाओ। बसे परिसार नीतिया सध्ये विशया उपडिया पर पाप परिश्र या वीरो वार्ड कहिये जाय। रन अनुकंपा जाया, श्रवारिभो पावेसो को धीरगस्ल । वासुदेवो फिर साओ पाओ जाहे विवाहकाले पा दिया ताकि पुति ! दासी होइहिदासाभि णित्ति १ । तम्रो भांति सामिणिश्रो होहामु ति । राया जणइ-तो काई पञ्चग्रह] भट्टारगस्स पायसूत्रे, पच्छा महया निक्कमणसक्कारेण सकारियाओ पव्वयंति एवं बच्चर कालो । अनया गाए देवीए धूया, सा चिंते-सञ्वाओ पन्दाविति । . Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किइकम्म ती या सिखाया-अजादिवासी होदामि ति स वाषिभूसिया उपण या पुड़िया भणदासी टोहामि ि वासुदेवो हि मम या संसारं दिमितिका अ दि श्रवमनिति तो न लद्धो को बचाओ, जेण श्रन्ना वि एवं न कारदिति सि चिंतेहालको उत्राओ वीरगं पुच्छर-अस्थि ते किंचिकपुत्रयं । जणति - नत्थि । राया भराइ त्रितेहि य सुचिरं चिंतेत्ता अस्थि वयरीए उबार सरको, सो पाहाणेण आ ऐसा पामिश्र मत्रो य, सगमवट्टाए पाणियं वहतं वामपापण धारियं उब्वेलाए गये, पजणघरियाए मन्द्रियाश्रो पत्रिहाम्रो हत्थेण ओहारिया गुमगुमंती होति । बीए दि से अत्था। ए सोलसनं रायसहस्साणं मज्झे सो भगति-सुणढ़ भो ! यस वीररस कुलुप्पत्ती सुया, कम्माणि य । काणे कम्माणि । वासुदेवो भणति जेण रससिरो नागो वसंतो वदपावसत्य मा नाम सियो, जेन (205) अभिधानराजेन्द्रः । , खुया गंगा बहती कलुसोदयं धारिया वामपारण, वेमतं । नाम खत्तिश्रो, जेण घोसवती सेणा वसंती कलसीपुरे धारिया वामहत्येणं, बेमती नाम खत्तियो, एयस्स धूयं देमित्ति । सो भणिभो-धूयं ते देमि,तो नेच्छति, भीउकी कथा, दिना, नीया य घरं, स्यणि अत्थति, इमो से सन्धं करेति। अनया राया पुच् ति, किह ते वयणं करेति । वीरओ प्रणति श्रहं सामिण र दासोति । राया जणति सच्चं जश् न कारावेसि तो नत्थि ते निप्रश्र । तेण रनो आकूयं नाऊण घरं गएण नणिया-जहा पजणं करेदिति । सा रुडा, कोलिय ! अप्पयं न याणसि, तेण उडेऊण रज्जुर आया कूयंती रनो मूलं गया । पा घडिया भण- तेपाहं कोलेपण श्राया । राया भणतिसेज सेव सिमनिया सामी होहिहिति चि तो दा सप्तणं मग्गसि, अहमेसाहे न वसामि । सा भणति सामिणी होमि । राया भणति-वीरओ जर मम्निहिति । मोश्या प स्वइया । श्ररिष्ठनेमिलामी समोसरियो । राया निग्गओ । सव्ये साहू वारसावलेणं वदति, रायाणो परिस्संताविया | वीरश्र वासुदेवाती बंदति ने यद्धसेओ जाओ। भट्टारको पुकुंसि संगमा न प परिस्तो मि भगवं ! | भगाया जणियं कन्न ! खाइगं ते संमत्तं, उप्पाश्यं तिस्थगरमा मगोयं च जया किर पाए विद्धा तथा निक्षण गरिहणार सत्तमाप पुढवी बद्धेयं श्राउयं उन्बदंतेण तच पुढविमाणीयं, अाउ घरे सो पदमा भणतिर बंद येणं विभावकितिकमं वासुदेवस्स, दिितम्" अथ सेवककथानकमाह "पगस्स रनो दो सेवया, तेर्सि भल्लीणा गामा । तेसिं सीमानिमित्ते भंगणं जातं, रायकुलं पहाविया । साहू दिठो, एगो प्रणति भावे साधुं भुवा सिद्धिः पयाहिणी कार्यदिशा गयो । वितिओ तस्स किर उग्घोहुयं करेति, सो चि वंदति, तदेव प्रणति । ववदारो आवद्धो, जिओ, तस्स दब्वपूजा, श्यरक्स भाषपूजा " । इदानीं पालक कथानकमाह"वारवती वासुदेवो राया पालयसंवादश्रो, से पुतो नेमी समोसद्रो वासुदेवो भणति जो करूं सामि पढमं बंदति तस्सामति तं देखि संमेण सखायो उति दियो। पासण्या ओत्रेण सिम्वेद आसरयजेवं मंदिरं मंत्य तो फिर किश्कम्म भवसिद्धिदपि सति वासुदेवोनिमा पुच्कृति के पद दिया जाय श्रो संबेणं । संवस्स तं दिनं"। एवं तावद् द्वन्द्वपयशब्दद्वा रे मिकपितम् । अधुना यदुक्तं कर्त्तव्यं कस्य चेति, स निरूप्यते, तत्र येषां न कर्तव्यानिचिपुराहू अस्संजयं न वंदिज्जा, मायरं पित्र्ारं गुरुं । सेणावई पसत्यारं, रायाण देवयाणि अ ॥ ४ ॥ न संयता असंयताः, अविरता इत्यर्थः; तान वन्देत । कानू, मातरं जननीं, तथा पितरं जनकम्, असंयतमिति वर्त्तते । प्राकृतज्या वाsसंयत शब्दो लिङ्गत्रयेऽपि यथायोगमभिसंबध्यते । तथा गुरुं पितामहादिलक्षणयोजनीय तथा हस्त्यश्वरथपदातिलकणा सेना, तस्याः पतिः सेनापतिः, गणराज इत्यर्थः । तं सेनापति, प्रशास्तारं प्रकर्षेण शास्ता, सं धर्मपालसितम् तथा मुकुट राजानी रा जानं देयतानि च नन्देत देवदेवीसंप्रदार्थ देवताग्रहणम् । शब्दाचादिम योग्य इति गाथार्थः ॥४॥ [४] इदानीं यस्य वन्दनं कर्तव्यं स उच्यतेसमबंदिल मेहावी, संजय सुसमाहि पंचसमितिगुतं, अस्संजमद्गुरगं ॥ ५ ॥ भ्रमणः प्राणिरूपितशब्दार्थ भ्रमणं वन्देत नमस्कुर्यात्, कः ?, मेधावी न्यायावस्थितः । स खलु श्रमणो नामस्थापनादिभेदभिनोऽपि जवति, अत श्राह संयतम, समेकीभावेन यतः संयतः क्रियायां प्रयत्नवानित्यर्थः । श्रसावपि च व्यवहारनयाभिप्रायत सादिनिमित्तमपूर्णदर्शनादिरा संभा पते, अन सुसमाहिनय दर्शनादिषु सु सम्पमाहितः सुसमाहितस्तम् । सुसमाहितत्वमेव दर्श्यते पचनिरीयांसमित्यादि समितिनिः समितः समितस्तमतिमि नोगुत्यादिभिर्गुप्तं त्रिगुप्तम् । प्राणातिपातादिलक्कणोऽसंयमः गत जुगुवासीय संयम जुगुप्स स्तम् मेलास्थावेदिता भवतीति गाथार्थः ॥ ५ ॥ आह किमिति यस्य कर्त्तव्यं वन्दनं स एवादौ नोक्तः, येन येषां न इति उपादा विविध विनेया भवन्ति केचिदुद्धरिता प्रतिि मध्यम बुद्धयः, केचित्प्रपञ्चितज्ञा इति । तत्र मा भूत् प्रपञ्चितज्ञानां मतिः- उत्तलक्षणश्रमणस्य कर्त्तव्यं, मात्रादीनां तु न बिधनं प्रतिषेधइत्यतस्तेऽप्युक्ता इति यथेयं किमिति रोपांन युक्ता इति । अत्रोच्यते द्विताप्रवृते राहतसिरीयसी गुरु संसारकारणमिति प्रदर्शनार्थमस्य प्रस प्रकृतं प्रस्तुमः भ्रमणं वन्देत मेधावी संयतमित्युकम - तत्रेत्थंभूतमेव वन्देत न तु पार्श्वस्थादीन्, तथा वाहपंचन्हं किकम्मं, मालामरुरण होइ दिडंतो । येरुलिअ नाण दंसण, नीआवासे अ जे दोसा ॥ ६ ॥ पञ्चानां पार्श्वस्यावसन्नकुशील संसक्तयथाच्छन्दानां कृतिकर्म, न कर्तव्यमिति वाक्यशेषः । श्रयं च वाक्यशेषः भ्रमणं वन्देत मेघावी संयतामित्यादिन्यादवगम्यते पापथभ्रमण Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) किइकम्म अभिधानराजेन्द्रः। किइकम्म गुणविकलयात् । तथा संयतानामपि ये पावस्थादिन्तिः साई बन्दनकं स्थाप्यम्, अन्युत्थानं तु सांप्रतमेव वक्ष्यामि । पृ. संसर्ग कुर्वन्ति तेषामपि कृतिकर्म न कर्तव्यम् । माह-कुतोऽ ३ उ०। (अन्यत्यानम् 'प्रभुघाण' शब्ने प्र०भा० ६६३ पृष्ठे यमर्थोऽवगम्यते । उच्यते-मासामरुकाभ्यां भवंति दृष्टान्त पति | उक्तम् । बन्दनकं वंदणग' शब्दे वदयते) वचनात् । बक्यते च-"असुरहाणे पडियेत्यादि" " पक्कणकु [५] अथव्यक्षेत्रकालभावतः कृतिकर्मकरणविधिमाडमेत्यादि" वेरुलिय त्ति संसर्गजदोषनिराकरणाय वैडूर्यदृष्टा. म्तो भविष्यति । बयते च "सुचिरं पि अत्थमाणा" इत्यादि । आयरिय नवज्झाए, काऊणं सेसगाण कायव्वं । तत्प्रत्यवस्थानं च "अंबस्स य लिंबस्स य" इत्यादिना सप्रपञ्च उप्परिवामी मासिग, मदरहिए तिमि य धुओ। पश्यते । (णाणे ति) दर्शनचारित्राऽऽसेवनसामर्थ्यविकला प्रतिक्रमणसूत्राकर्षणानन्तरमाचार्योपाध्याययोः प्रथम कृतिशाननयप्रधाना एवमाहुः-शानिन एव कृतिकर्म कर्तव्यम् । कर्म कृत्वा ततः शेषसाधूनां यथारत्नाधिकक्रम कर्तव्यम् । प्रबक्ष्यते च-"कामं चरणं भावो,तं पुण णाणसहिओ समाणे ति। थोत्परिपाट्या वन्दते ततो लघुमासिकं, तेनापि चाचार्यादि. नयमाणं तु न भावो,तेण खाणि पणिवयामो" इत्यादि [दंस- ना मदरहितेन बन्दनकं प्रतीच्चनीयम् । प्रतिक्रमणे च समाणे ति] ज्ञानचरणधर्मविकलाः स्वल्पसस्वा एवमाहु:- पिते तिस्रः स्तुतयः स्वरेण उन्दसा च प्रवर्षमाना दातव्याः । दर्शनिन एव कृतिकर्म कर्तव्यम् । वक्ष्यते च "जह नाणेण विणा आह-शेषसाधूनां किं सर्वेषामपि वन्दनं विधेयम, उत नेत्यत्रोचर-णं नाणदंसणिस्सा य नाणं । ण य परिसणं ण भावो,ते ण व्यतरवि पणिवयामो" इत्यादि।तथाऽन्ये संपूर्णचरणधर्मानुपालबासमा नित्यवासादि प्रशंसन्ति संगमस्थ बिरोदाहरणेनापरे जा दुचरिमो तिता हो- बंदणं तीरिए पमिक्कमणे। चैत्याचासम्बनं कुर्वन्ति । वक्ष्यते च-"जाहे बिय परितंता,गामा- प्राइमं पुण तिएहं, गुरुस्स 5एहं व देवसिए । गरनमरपट्टणम पुत्ता। तो केती नियवासी,संगमथेरं पवश्संति" प्रतिक्रमणसूत्रे तीरिते पारं प्रापिते सति वन्दन भवति याव. इत्यादि। तदत्र नित्यवासे व ये दोषाः, अशदात्केवलकानदर्शन- द विचरमसाधुः । द्वौ साधू अवशिष्यमाणो यावत् सर्वेषापते बैत्यभक्तिपक्के चार्यिकालाभविकृतिपरिभोगपशे च ते मपि वन्दनं कृत्वा कामणकं कर्तव्यमिति भावः। एष विधिः बक्तव्या इति वाक्यशेषः । एष तावमाथासंक्षेपार्थः ॥६॥ पूर्व चतुर्दशपूर्वधरदशपूर्वधरादिकाले प्रासीत; संप्रति पुनः सांप्रतं यमुक्तं पञ्चानां कृतिकर्म न कर्तव्यम, अथ के एते पक्ष पूर्वाचार्यराचीर्णमिदम-त्रयाणां साधूनां वन्दनकं कर्तव्यम, इति तास्वरूपतो निदर्शयन्नाह तत्रैकस्य गुरोईयोश्चाशेषसाध्वों पर्यायज्येष्ठयोः दैवसिके, उप • सकणत्वाद् रात्रिके वा आवश्यके अयं विधिरवगन्तव्यः। पाक्षिके पासत्यो श्रोसम्रो, हो कुसीलो तहेव संसत्तो । तु पञ्च साधो बन्दित्वा कमयितव्याः। चातुर्मासिके सांवत्सअहछंदो विभ एए, अवंदणिज्जा जिणमयम्मि ७॥ रिके च सप्त । आह चावश्यकचूर्णिकृत-"पक्खिप पंच अव. श्यमन्यकर्तृकी सोपयोगा चेति व्याख्यायते-तत्र पार्श्वस्थः द. स्सं, चाउम्मासिए संवच्करिए सत्त अवस्संति"। शनादीनां पार्वे तिष्ठतीति पार्श्वस्थः । अथवा मिथ्यात्वादयो आह-किमत्र कारणं मौल विधिमुहय पूर्व सूस्य इत्थमभिनवां बन्धहेतवः पाशा,पाशंषु तिष्ठतीति पाशस्थः। प्राव० ३ ०। सामाचारी स्थापयन्तीत्युच्यतेकृतिकर्म कर्तव्यम् धिइसंघयणादीणं, मेराहाणिं तु जाणि थेरा। कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा अहारायणियाए सेहगीतहा विय, उवणे आइपकप्पस्म ।। किकम्म करित्तए । धृतिर्मानसावष्टम्भरूपा, संहननं वज्रऋषभनाराचादि, तयोः, __ अथ कोऽस्य सूत्रस्य संबन्ध श्त्याह पादिशब्दादू व्यकेत्रकाबादीनां च या परिहाणिर्या च मर्यादा या सिद्धान्तानिहितनिरपवादसमाचारीरूपा हानिः, तां कात्या संथारं हु रुहते, किकम्मं कुणइ वाचियं सायं । पूर्वसूरयः ऐवंयुगीनसाधुजनोचितस्याचीर्णकल्पस्य स्थापनां पातो वि य पणिवायं, पमिबुछो एकमेकस्स ॥ कुर्वन्ति । किमर्थमित्याह-शैकारणामगीतार्थानां वाऽनुप्रहार्थम्सायं प्रदोषसमयपौरुष्यां पूर्णायां गुरुप्रदत्तायां शुवि प्रस्ती मा नूदमीषां बहुतरसाधूनां वन्दित्वा कमयतां विशिष्टधृतिसंहदं संस्तारकमारोहन वाचिकं कृतिकर्म 'नमः कमाश्रमणेच्या' ननादिबलाभावात्परिभग्नानां विपरिणाम इति। इति लकणं वाचनिकं प्रणाम करोति । प्रातरपि च प्रनातेऽपि [६] अथाचीर्षस्यैव लक्षणमादप्रतिबुखः सन् एकैकस्य साधोः प्रणिपातं चन्दनं यथारत्नाधि- प्रसढेण समाइक, जंकत्यइ कारणे असावज । कं करोति, अत एवं कृतिकर्मसूत्रमारज्यते । अनेन संबन्धेना- ण णिवारियम हिं, बहुमणुमयमेतमाइछ । यातस्यास्य ब्यास्या-कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निग्रंन्धीनां वा अशठेन रागद्वेषरहितेन कालिकाचार्यादिवत्प्रमाणस्थेन सता यथारानिक यो यो रत्नाधिकस्तदनतिक्रमेण कृतिकर्म कतु समाचीर्णम आचरितं नाद्रपदशुद्धचतुर्थीपर्युषणापर्ववत् । मिति सूत्रसंक्षेपार्थः। कुत्रचित् द्रव्यक्षेत्रकालादौ कारणे पुष्टालम्बने असावा प्रकृअथ विस्तरार्थ भाष्यकार पाह स्या मूलीसरगुणसाधनाय अबाधकम् । न च नैध निधारितमकिकम्मं पिय विह, अन्नहाणं तहेव बंदणगं । यैस्तथाविधैरव तत्कालप्रवृत्तिभिर्गातार्थैः, अपि तु बहु यथा भवत्येवमनुमतमेतदाचीर्णमुच्यते । बंदणगं तहि ठप्पं, मन्मुडाणं तु बोच्छामि ॥ अथ ये प्राचार्यस्यापि पर्यायज्येष्ठास्तैः किमाचार्यस्य वन्दनकं कृतिकर्म विविधम् । तद्यथा अन्यत्थानं, वन्दनकच। तत्र कर्तव्यमुत नेत्यत्रोध्यते १२७ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१.) किश्कम्म भनिधानराजन्छः। किरकम्म वियमणपञ्चक्खाणे, सुए खुराईणिगा विहु करेंति।। नेयो बूयातू-वयं तामेव श्रेणि प्रथमतोशातुमिच्छामः।मरिराह यत एवं भवतः श्रेणिविषया जिज्ञासा साऽस्माभिरपि कर्त. मन्झिने न करिती, सो चेव करेइ तसिं तु ॥ व्या श्रेणेः प्ररूपणया श्यं वक्ष्यमाणलकणा । विकटनमनालोचन, प्रत्याख्यानं प्रतीतं, तयोः, तथा श्रुते चो- | अतस्तामेव चिकीर्षः प्रथमतः श्रेणिस्थितानां द्दिश्यमानसमुद्दिश्यमानादौ रात्रिका अपि ज्येष्ठाचार्या अप्युप कृतिकर्मकरणे विधिमाढ-- संपवं प्रतिपना अवमरानिकस्याचार्यस्य बन्दनकं कुर्वन्ति । पुन चरित्तसेढी, ठियस्स पच्छा ठिएण कायव्वं । ये तु मध्यमं कामणफवन्दनं तन्न कुर्वन्ति, किं तु स एवाचार्यस्तेषां रानिकानां करोति । सो पुण तुचरित्तो, हविज ऊणो व अहिओ वा। [७ ] भथ यदुक्तं तिस्रः स्तुतयो दातम्या इति तब पूर्व प्रथम यः सामायिकस्य दोपस्थापनीयस्य वा प्रतिपस्या विधिमाह चारित्रश्रेण्यां स्थितस्तस्य पश्चास्थितेन कृतिकर्म कर्तब्यम । स पुनः पूर्वस्थितस्तं पश्चास्थितमपेक्ष्य निश्चयतस्तुल्यचारिथुश्मंगाम्मि गणिणा, उच्चरिते सेसगा थुती दिति । त्रो न्यूनो वा अधिको वा भवेत् । यतःधम्मट्ठ मेरसारण, विणयो य ण फेमितो एवं ॥ निच्छयो दुन्नेयं, को नाचे कम्मि व समणो। पाक्तिकादिषु यद्यप्याचार्योऽधमरानिकस्तथापि स एवावश्य बबहारमओय कीरइ, जो पुवतियो चरित्तम्मि । के समापिते प्रथमतस्तिस्रः स्तुतीर्ददाति । देवसिकरात्रिकयोरपि प्रथममाचार्येण स्तुतिमङ्ग प्रारम्नणीयम्, ततः शेषैः। अत निश्चयतस्तस्यवृत्या का पूर्वस्थितः पश्चातस्थितो वा भ्रमणः, एवाह-स्तुतिमाले गणिना प्राचार्येणोच्चारिते सति शेषाः कस्मिन् भावे चारित्राभ्यवसायरूपे मन्दे मध्ये तीव्र वा धर्तसे साधवः स्तुतीर्घवते, ददतीत्यर्थः। धर्मार्थ गुरुपादमूल एव कि इति दुईयम, तदपरिझानाच कथं निश्चयनयाऽभिप्रायण कृतियन्तमपि काल तिष्ठन्ति । किमर्थमिति चेत् ?. अत आइ-काचि. कर्म कर्तुं शक्यम् । व्यवहारतस्तु व्यवहारनयमनीकृत्य पुनः मर्यादा सामाचारी विस्मृता भवेत् तस्याः स्मारणं गुरवः क्रियते कृतिकर्म यः पूर्व चारित्रे स्थितस्तस्येति । कुरिन्, परमोपकारिणश्च गुरवः, तत एवं प्रतिक्रमणानन्तरं मनु फनसाधकत्वानिश्चयस्यैव प्रामाण्यं, न व्यवहारस्यस्याहकियन्तमपि कालं तेषु पर्युपास्यमानेषु विधमणादिविधानेन बबहारो विहु बलवं, जंगनमत्थं पि वंदई भरहा। बिनयोऽपि न स्फेटितो न हापितो नवति ॥ जा होर अणाभिन्नो, जाणतो धम्मो एयं ।। अथ के पुनस्ते ये आचार्यस्यापि रत्नाधिका भवन्ती- व्यवहारोऽपि, आस्तां निश्चय इत्यपिशब्दार्थः । हुनिभितम, बसवान् । यद्यमाच्छमस्थमपि स्वगुरुप्रभृतिकं वन्दते मरहा अन्नोसं गच्छाणं, नवसंपन्नाण वंदणं तहियं । केवली। कियन्तं कासमित्यादि-यावदसौ [प्रणाभिन्नो सि] के. बहुमाए तस्स बयणं, नवसेवाऽऽलोयाणा जणिया ॥ बलितया अनभिज्ञानो भवति तावदेनं व्यवहारमयबलवस्वल क्षणं धर्मतो जानन् छद्मस्थमपि वन्दते इति । अन्येषां गमछानां संवन्धिन प्राचार्य रत्नाधिकतराः सूत्रार्थनिमित्त कमप्यवमरानिकमाचार्यमुपसंपन्नास्तेषां मध्यमवन्दन कथं पुनरसो केवलितया हायत इत्याह-- कम् अवमरालिकेन दातव्यं शेषं कालं, तेऽपि रात्रिकास्तस्या केवलिणा ना कहिए, अवंदमाणो व केवझिं अकं । वमरात्निकस्य बहुमानं पूज्योऽयमस्माकं गुणाधिकतयेति लक- बागरणपुवकाहिए, देवयपूासु व सुगंति ॥ णं बचनमाझानिर्देश कुर्वन्ति । अवमेऽपि च तत्रासोचना भ- अन्येन केनापि केवलिना कथिते-अयं केवनी कात त्यास्याणिना जगवद्भिः । किमुक्तं भवति ?-तस्य पुरत अालोचनं प्र- ते सति प्रयन्दमानो वा केवलिनमन्यं केवग्नितया प्रायते । त्याण्यानं च वन्दनकं दत्वा विहितमिति प्रगवतामुपदेशः। व्याकरणपूर्व वा अतिशयज्ञानगम्याकथनपुरस्सरं तेनैव के(5) मय परः प्राह-कस्य पुनः कृतिकर्म कर्तव्यं कस्य बसिना स्वयमेव कथिते सति, देवतापूजासु वा यथासंविहिवा नेति ?, उच्यते-- तदेवैः क्रियमाणां महिमां दृष्ट्वा गुरुप्रभृतयस्तं केवसिनं विदन्ति। अथ श्रेणिप्ररूपणामाहसढीगणठियाणं, कितिकम्मं वाहिराण भयितव्वं । अविभागपलिच्छेया, ठाणंतरकंडए य बहाणा। मुत्तत्थजाणएणं, कायव्वं आणुपुत्रीए । विट्ठा पज्जवसाणे, वही अप्पाबहुं जीवा ।। संयमश्रेण्याः संबन्धीनि विशुद्धिप्रकर्षापकर्षकृतस्वरूपभेदरू अविनागपरिच्छेदग्ररूपणा,स्थानान्तरप्ररूपणा,कएमकप्रकपणा, पाणि यानि स्थानानि तेषु स्थितानां कृतिकर्म कर्तव्यम् । ये तु | संयमयोणिस्थानेन्यो बाधास्तेषां जक्तव्यं कर्तव्यं वा न वेति षट्स्थानप्ररूपणा, अधःप्ररूपणा, पर्यवसानप्ररूपणा, किप्रहभावः । तत्र कारणे समुत्पन्ने सूत्रार्थज्ञेन गीतार्थेन आनुपूर्व्या पणा, अल्पबदुत्वप्ररूपणा, जीवप्ररूपणा चामूनि प्रतिद्वाराणि । "चाया नमोकारो" इत्यादिकया वक्ष्यमाणपरिपाट्या, कर्स तद्यथा-- व्यम्, अन्यथा तु नेति पुरातनीगाथासमासार्थ । पानावगणणविरहिय-अविरहिय फासणा परूपणया। सांप्रतमेनामेव विवरीषुराह गणणपयसेढिअचहा-रभाग अप्पावहुं समया ।। सेढीठाणठियाणं, कितिकम्मं सेढि इच्छिमो णा। पालापकप्रकपणा, गणनाप्ररूपणा, विरहितप्रकपणा, अविरहि तप्ररूपणा, स्पर्शनाप्ररूपणा, गणनपदप्रकपणा, श्रेण्यपहारप्र. सम्हा खलु सेढीए, कायब परूवणा इणमो॥ रूपणा, भागप्ररूपणा, अल्पबहुत्वप्ररूपणा, समयप्ररूपणा शति संयमभेणिस्थानस्थितानां कृतिकर्म कर्तव्यमित्युक्ते कश्चिद् वि द्वारगाथाद्वयम् । त्युच्यते Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५११ ) अभिधान राजेन्द्रः । किइकम्म तत्रा बिनागपरिच्छेदप्ररूपणां करोतिविभागपक्षिच्छेश्रो, चरितपज्जनपएसपरमाणू । घरमाणस्स परूपण, चउन्विहा भाव प्र णं सा ॥ संयमस्थानकेनिमिनं निरंशतया पदा विभागं न यच्छति तदाऽसावन्तिमोऽशांशविनागपरिच्छेद उपते । स चारित्रपर्यायश्चारिषप्रदेश चरित्रपरमार्या नयते । परमाणोश्च सामान्यतश्चतुर्विधा प्ररूपणा, अव्यक्षेत्रकालभावमेदात् । द्रव्यत एकारणुकः, क्षेत्रत आकाशप्रदेशः, कालतः समयः, भावतस्स्बेक गुणकालकादि । श्रत एव वा चारित्रादिभागपरिच्छेदाः । ते चानन्ता अनन्तानन्तकप्रमाणाः । तथा चाद ते किचिया परमा, सम्मागासस्स मग्गणा हो । तेजत्तिया परसा, अविभागतो अणंतगुणा ॥ ते चारित्रस्य प्रदेशाः कियन्तः किं प्रमाणा इति चिन्तायां निचनमा सर्वस्य लोकालोकयतस्थाकाशस्य मार्गचा भवति यावत सर्वाकाशस्य प्रदेशास्ततस्तेभ्यः सर्वाकारा प्रदेशेयधारस्याबिनागपरिच्छेद अनन्तगुणाः सर्वजययेपि संयमस्थाने प्रतिसन्या दवा प्रतिभागपरि पणा | सर्वजघन्यात् संयमस्थानात् द्वितीयं संयमस्थानं ततस्तस्मादनन्तभागवृद्धम् । किमुक्तं भवति ।। प्रथमसंयमस्थानगतनिविनागापेक्षया द्वितीये संयमस्थाने निर्विज्ञागा जागा अनन्तसमेन भागेनाधिका जवन्तीति, पश स्थानान्तरप्ररूपणा तस्माविपदनन्तरं तृतीय तत्र भागवृद्धाः पर्व पूर्वस्मादुत्तरो[राणि अनन्ततमेन भागेन वृद्धानि निरन्तरं संयमस्थानानि सातव्यानि याबदद्भुतमात्र क्षेत्रा संख्येचभागगतदेशराशिप्रमाणानि भवन्ति । एतावन्ति च समुद्दितानि स्थानानि करामकमित्युच्यते । एषां कनकप्ररूपणे अस्माश्च कएडकात्परतो ययदनन्तरं संयमस्थानं भवति तत् पूर्वस्मादसंख्येयभागाधिकम्। एतदुक्तं प्रवति पाश्चात्यकरामक सत्कचरमसंयमस्थानगतनिविभागभागापेक्षया कएडकानन्तरे संयमस्थाने निर्विभागा नागा असंख्येयतमेन भागेनाधिकाः प्राप्यन्ते, ततः पराणि पुनरपि कम मात्राणि संयमस्थानानि यथोत्तरमनन्तभागवृकानि भवन्ति । ततः पुनरेकं संख्येयभागाधिकं संयमस्थानं, भूयोsपि ततः पराणि कण्डकमात्राणि संयमस्थानानि यथोत्तरमनन्तनागवृकानि जयन्ति ततः पुनरप्येकम संकपेयभागाधिक संयमस्थानम् । एवमनन्तभागाधिकैः करामकप्रमाणैः संयमस्थानर्व्यवहितानि भसंभ्येयजागाधिकानि संयमस्थानानि तावइक्तव्यानि यावतान्यपि कण्डकप्रमाणानि भवन्ति । ततश्वरमाद संख्येयभामाधिकसंयमस्थानात्पराणि यथोत्तरमनन्तभागवृद्धानि कण्डकमात्राणि संयमस्थानानि नवन्ति, ततः पर मेकं संख्येयजागाधिकं संमयस्थानम्, ततो मूलादारभ्य याव म्ति संयमस्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति भूयोऽपि तेनैव क्रमेणाभिधाय पुनरप्येकं संख्येयभागाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम, इदं द्वितीय संस्थेयभागाधिकं संयमस्थानमनेनैव क्रमेण तृतीयं यावत् संस्थेमभागाधिकानि संयमस्थानानि कएमकमात्राणि जवन्ति तावद्वाच्यम्, तत उक्तक्रमेण भूयोऽपि संक्येय भागाचिकसंयमस्थानप्रसाधिकमेकं संयमस्थानं बकव्यम्, ततः पुनरपि मूलादारज्य यावन्ति संयमस्थानानि प्रागतिकाम्यानि सन्ति भूयोऽपि च म्यानि ततः पुनरप्येकं सं-1 किश्कम्म सगुणाधिकं संयमस्थान वक्तव्य ततो भूयार प्रय तावन्ति संयमस्थानानि तथैव वक्रव्यानि रातः पुनरप्येकं संवगुणाधिकं संयमस्थानम असून्यप्येवं संगदेवगुणाधिकानि संयमस्थानानि तावद्वक्तव्यानि यावत् कण्मकमात्राणि भवन्ति, तत उक्तक्रमेण पुनरपि संख्येयगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यं ततः पुनरपि मूलादारभ्य यावन्ति संयमस्थानानि प्रागतिकान्तानि जयन्ति तेनैव क्रमेण यो क्यान पुनरप्येकम संख्येयगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यं, ततो भूयोऽपि मूत्रादारज्य तावन्ति संयमस्थानानि तथैव वक्तव्यानि ततः पुनरप्येकम संख्येवगुणाधिकंसंस्थानम अनि चैवसंश्येयगुणाधिकसंस्थानानि तानिया प्रमाणानि भवन्ति ततः पूर्वपरिपाट्या पुनरप्यसंश्येयगुणाधिक संयमस्थानप्रसङ्गे अनन्तगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यं, ततो भूयोऽपि तादारभ्य यान्ति संयमस्थानानि प्रगतिका स्तानि तायन्ति तथैव क्रमेण यो व्यानि ततः पुनरप्येकमनन्तगुणाधिकं संगमस्थानं वक्तव्यं ततो भूयोऽपि मूलादारम्प शान्ति संयमस्थानानि तथैव यानि ततः पुनरप्येकमन लगुणाधिकं संयमस्थानं वमनन्तगुणाधिकानि ता चम्यानपावरमाणि भवन्ति ततो योऽपि तेषामुपरि पञ्चयात्मकानि संगमस्थानानि तदारभ्य तथैव चम्पानि यत्पुनरनन्तगुणवृद्धिस्थानं तत्र प्राप्य पद्स्थानस्य परिसमाप्तत्वात् । इत्थंतूतात्मसंख्येयानि कराडकानि समुदितानि षट्स्थानकं भवति, तस्माच्च प्रथमषट्स्थानकादूर्द्धमुक्तक्रमेणैव द्वितीयं स्थानक मुसिष्ठति एवमेव च तृतीयम एवं पदस्थानकान्यपि तावद्वाच्यानि यावदसंख्येयालोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि भवन्ति । उक्तं च-" खट्टणमप श्रवसा - णे अनं छट्टाणयं पुणोऽनंतं । पबमखा सोगा, राणा मुनेच्या "भूतानि वाकवेयलोकाका प्रमाणानि पट् स्थानकानि तथा चोक्तम्- "बट्टाणा उ श्रसंखा, संजमसेदी मुणेयस्वा" तदैकृताऽविभागपरिच्छेद स्थानान्तरक एककषट्स्थानकानां प्ररूपण ॥ समास्थानरूपणाः क्रियते प्रथमाद संभागवृद्धा रस्थानादधः कियन्ति संयमस्थानान्यनन्तभागवृकानि । सच्यतेकमकमात्राणि । तथा प्रथमासंख्येयभागवृद्धात् स्थानादधः कियन्ति असंख्येयभागवृद्धानि स्थानानि । उच्यते-कराम कमा श्राणि मुततरस्थानादयोग्य नन्र्येण तामागंणा कर्त्तव्या यावत्प्रथमादनन्तगुणवृद्धात स्थानादधः कियन्ति प्र संख्येयगुणवृद्धानि स्थानानि ?, उच्यते-करामकमात्राणि ॥ इदानीमकान्तरिता मार्गणाः क्रियन्ते तत्र प्रथमात्संख्येय भागवृकात् स्थानादधः कियन्त्यनन्तभागवृकानि स्थानानि ?। उच्यते-करामकवर्गः कण्डकं च । तथा प्रथमासंख्येयगुणवृकात् स्थानादधः कियन्ति असंख्येयभागवृद्धानि स्थानानि ?। उच्यते-करामकवर्ग: कण्डकं च । तथा प्रथमादनन्तगुणवृद्धात् स्थानादधः किचन्ति संख्येयगुणाः कदम च एवमुकप्रकारे अन्तरितान्तरिता चतुरन्तरिता मार्गया सुधिया परिभावनया | अथ पर्यवसानद्वार- तचान न्तगुणवृरूक एककादुपरि पञ्चवृद्धयात्मकानि सर्वाणि स्थांनानि गत्या पुनरनन्तगुण वृद्धं स्थानं न प्राप्यते, षट्स्थानस्य परिसमासत्वात् । ततस्तदेव सर्वान्तिमस्थानं पद्स्थानकस्य पर्यय वसानम् । अथ नाष्यकारः प्रकारान्तरेणाधः पर्यवसानद्वारयोः युगप व्यरूपणायाऽऽड् Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) किश्कम्म अभिधानराजेन्द्रः । किश्कम्म एयं चरित्तसे दि, पमिवज्जइ हिट कोइ उवरि वा। सिङ्गेन रजोहरणादिना यो मुक्तः स संयमण्या निर्गतः प्रतीयते, यस्तु श्रमणः प्रकटमेव लिकं धारयति स कथं निर्गजो हिहा पडिवज, सिज्म नियमा जहा नरहे ॥ तः श्रेणिबाह्यो भवति । श्रमणलिङ्गस्योपलभ्यमानत्वाद् न भएवं चारित्रश्रेणिं कश्चिजीवोऽधस्तात् जघन्यसंयमस्थानेषु बतीति भावः । अत्र सूरिराह-दृष्टान्तः शकराकुटेनात्र किप्रतिपद्यते, कश्चित्पुनरुपरि उपरितनेषु पर्यन्तवर्तिषु उपलक- यते । “जहा कस्सह रनो दो घम्या सकरा नरिया, ते अन्नया णत्वान्मध्यमेषु वा संयमस्थानेषु प्रतिपद्यते । तत्र योऽधस्तनेषु । मुहं दाऊण दोएहं पुरिसाणं समप्पिया, नणितो य-जहा सा संयमस्थानेषु चारित्रश्रेणि प्रतिपद्यते, स नियमासत्रैव भव-| रक्खह, जया माम्गज तया दिस्सह"। प्रहणेन सिम्वति , यथा जरतश्चक्रवर्ती। ततः किमभूदिस्याहमझे वा उवरिं वा, नियमा गमणं तु हिट्ठिमं ठाणं । दाउंहिता खारं, सम्बत्तो कंटियाहि वेदित्ता। अंतो मुहुत्तवुही, हीणा वि तहेव नायव्या ॥ सकवाममणावाधे, पामेति तिसंज्झमिक्खंतो । यः पुनर्मध्ये वा मध्यमेषु, उपरि वा उपरितनेषु संयमस्था तयोरेकः पुरुषस्तं राका समर्पितं घटं गृहीत्वा तस्याधः कानेषु चारित्रवेणि प्रतिपद्यते, तस्य नियमादधस्तनं सर्वजघ रं दत्त्वा, यथा कीटिका नागच्छेयुरिति नावः । ततः मर्वतः न्यं संयमस्थानं यावामनं भवति, ततोऽसौ तेनान्येन वा भव कण्टिकाभिः तं वेष्टयित्वा सकपाटे पिधानमुक्तेऽनाबाधे प्रदशे प्रहणे सर्वाणि संयमस्थानानि स्पृष्ट्वा सिध्यात, या पुनरधस्त स्थापयित्वा त्रिसंध्यमीकमाणः सम्यक पालयति । नसंयमस्थानेभ्य उपरितनसंयमस्थानारोहणवणा वृतिः सा द्वितीयः पुनः किंभूतवानित्याहअन्तर्मुहर्तमात्रं भवति, या चोपरितनसंयमस्थानेज्योऽध मुई अविधवंती-हिकीडियाहिं सवालणी चेव । स्तनसंयमस्थानेषु वाऽऽरोहणरूपा हानिः साऽपि तथैवान्त- जजरितो कालेणं, पमायकुमए णिवे दंडो। मुहर्तमात्राऽवज्ञातव्या; एतेन वृद्विारप्ररूपणाऽपि कृता । सं द्वितीयः पुरुषस्तं घट कीटिकानगरस्यारे स्थापयित्वा मध्ये मध्ये प्रति अल्पबहुत्वद्वार प्ररूप्यते-तत्र सर्वस्तोकान्यनम्तगुणवृक्षा नावलोकते । ततः शर्करागन्धघ्राणतः समायाताभिः कीटिनि स्थानानि, कएमकमात्रत्वात्तेषाम तेज्योऽसंख्येयगुणवृद्धा काभिर्मुद्रामविरूवतीनिः स घटोऽधस्तात् कालेन जर्जरीकृतः, नि स्थानानि,करमकमात्रत्वात्तषामा तेयोऽसंख्येयगुणवृहानि शर्करा सर्वाऽपि भक्विता, अन्यदा राज्ञा तो पुरुषौ घट याचिती, त. स्थानानि असंख्येयगुणानि । गुणकारश्च श्ह करमकममाणो का तो द्वाज्यामध्यानीय दर्शितयोर्घटयोः (पमायकुडए ति) येन तव्यः । पकैकस्यानन्तगुणवृक्षस्य स्थानस्याधस्तात्प्रत्येकम कुटरक्षणे प्रमादः कृतः तस्य नृपेण दएमः कृतः । उपलक्षणमिदं संख्येयगुणवृद्धानि स्थानानि कएमकमात्राणि प्राप्यन्ते इति तेन यस्तं सम्यक्पासितवान् तस्य विपुलां पूजां विदधे । एच. कृत्वा अनन्तगुणवृक्षस्थानकण्डकस्योपरि कएमकमात्राणि रष्टान्तः। श्रयमर्थोपनया-राजस्थानीया गुरवः, पुरुषस्थानीयाः असंख्ययगुणवृद्धानि प्राप्यन्ते, तत्वनन्तगुणवृकं स्थानं तेन साधवः, शर्करास्थानीयं चारित्रं, घटस्थानीय आत्मा,मुकास्थाउपरिष्ठादेकस्य कस्याधिकस्य प्रक्केपः, तेभ्योऽप्यसंख्येय नीयं रोहरणं, कीटिकास्थानीयान्यपराधपदानि, दरामस्थागुणवृकेभ्यः स्थानेभ्यः संख्येयगुणवृद्धानि असंख्येयगुणानि, नीया दुर्गतिप्राप्तिः, पूजास्थानीया स्वर्गादिसुखपरम्पराप्राप्तिः। तेन्योऽपि संख्येयभागाधिकानि स्थानानि असंख्येयगुणानि, तथा चामुमेघोपनयन लेशतो भाष्यकारोऽप्याहतेज्योऽसंस्थयभागाधिकानि स्थानान्यसंख्येयगुणानि, तेन्यो निवसरिसो आयरिश्रो, लिंग मुद्दा उ सकरा चरणं । ऽनन्तनागपुकानि स्थानानि असंख्येयगुणानि, गुणकारेषु सर्वप्रापि कण्डकानामुपरि चैव कामकपक्केपः। प्ररूपितमल्पबह पुरिसा य हुंति साहू, चरित्तदोसा मुरंगानो। स्वद्वारम् । जीवपदप्रतिबछानां तु आलापगणनादीनां द्वाराणां गतार्था, नवरं मुयिकाः कोटिकाः । यथा तस्य प्रमत्तपुरुषस्य प्ररूपणा संप्रदायाभावन्न क्रियते। मुखासद्भावेऽप्यधः प्रविशम्तीनिः कीटिकाभिर्घटं विनज्य शर्करा अथ प्रस्तुतयोजनां कुर्वन्नाद विनाशिता, एवं साधोरपि प्रमादिनो रजोहरणमुखासद्भावेऽ. सेढीगणठियाण, किइकम्म बाहरे न कायव्वं । प्यपराधपदैरात्मभिः जरितशर्करातुल्यं चारित्रं कालेन वा पासत्यादी चनरो, तत्थ वि आणादिणो दोसा । सद्यो वा विनाशमाविशति । अनन्तरोक्तायाः श्रेणेः संबन्धिषु संयमस्थानेषु स्थितानां साधू. तत्र कालेन यथा विनश्यति, तथा दर्शयतिनां कृतिकर्म कर्तव्यं, ये तु श्रेणे ह्यास्तेषां न कर्त्तव्यमा के पुन. एसणदोसे सीयइ, अणाणुतावीण चेव वियोड़ । स्ते इत्याह-पार्श्वस्थादयश्चत्वारः, तत्र पार्श्वस्थावसन्नकुशील णेवा करे सोधि, ण य विरमति कालतो भस्से ॥ संसक्तयथारन्दाः पञ्चाप्येको नेदः । काथिकप्राश्निकमीमांसक एपणादोषेषु सीदति, तदोषदुष्टं भक्तपानं गृहातीत्यर्थः । एसंप्रसारका द्वितीयः । अन्यतीर्थिकास्तृतीयः। गृहस्थाश्चतुर्थ। वं कुर्वपि पश्चात्तापं करिष्यतीत्याह-अननुतापी पुरःकर्मादिपते चत्वारोऽपि श्रेणिबाह्याः मन्तव्याः। तत्राध्येतेषां कृतिकर्म दोषपुष्टाहारग्रहणादनु पश्चात्सप्तं 'दुष्टं कृतं मयेत्यादि' मानसिककरणेऽपि, न केवलमन्युत्थाने इत्यपिशब्दार्थः । प्राङ्गादयो दो तापं धतुं शीलमस्येत्यनुतापी, न तयेत्यननुतापी, कथमेतज्जाषाः, प्रायश्चित्तं च प्राग् यथा अभ्युत्थाने पार्श्वस्थान्यठीथिका यते इति!, पाह-न चैव विकटयति गुरुणांपुरतः स्यदोष न प्रदिविषयं वर्णितं तथैव वक्तव्यम्। काशयति विकटयति था, परं तस्य शोधि प्रायधिसं गुरुपदशिष्यः पृचति नैव करोति , नच नैवायुद्धाहारग्रहणाद्विरमति । एवं कुलिंगेन निग्गतो जो, पागमसिंगं धरहे जो समणो। बन कालतः कियताऽपि कासेन चारित्रात्परिनश्येत् । यस्तु किध होइ णिग्गतो ति य, दिर्सेतो सकरकुमेणं ।। म्लगुणान् विराधयति स सचः परिचयात। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१३) किइकम्म अनिधानराजेन्डः। किइकम्म अमुमेवार्थ सविशेषमाह तत्र पावस्थादीनां प्रवण कचिदपिएमनोजित्वादिकल्पदोषरूप, मूलगुणनत्तरगुणे, मूलगुणेहिं तु पागडो हो । कचित् तु स्त्रीसेवादिमहादोषरूपमावश्यकादिशात्रेवभिधीय. ते। तदत्र वयं तत्वं न जानीमहे कस्य कर्तव्यं कृनिकर्म कस्य उत्तरगुणपमिसेवी, संचयवोच्चेदतो तस्स ॥ घा नेत्याशङ्कावकाशमवलोक्य विषयविभागमुपदर्शयतिइह प्रतिसेवको विधा-मूलगुणप्रतिसेचक उत्तरगुणप्रतिसेव संकिन्नऽवराहपदे, अणाणुताची य होई अवरदे। कश्वातत्र मूलगुणप्रतिसेवायां वर्तमानःप्रकट एव प्रतीयते,यथा चारित्रात्परिनश्यति । उत्तरगुणप्रतिसेवीतु संचयेन बलपराघ उत्तरगुणपमिसेवी, आलंवणवज्जितो बज्जो ।। मीसकेन योऽशुद्धाहारग्रहणादेव व्यवच्छेदः परिणामस्यानुपर- इद यो मूलगुणप्रतिसेवी स नियमादचारित्रीति कृत्वा स्फुटमस्ततो भ्रश्येत् , चारित्रात्परिभ्रंशमाप्नुयात् । मेवावन्दनीय इति न तद्विचारणा , परं य उत्तरगुणविषयैअत्रैवाथै दृष्टान्तमाह बहुन्निरपराधपदैः संकीर्णः शबलीकृतचारित्रः,अपरं च अपराधे अंतो भयणा वाहि तु, निग्गते न तत्य मरुगदिलुतो।। अशुफाहारग्रहणादावपराधे कृतेऽपि अननुतापी, 'हा दुष्ठ कृतम्'इ. त्यादिपश्चात्तापं न करोति, निःशङ्को निर्दयश्च प्रवर्तत इत्यर्थः । संकर सरिसव सगडे, मंमववत्येण दिवतो।। पवविध उत्तरगुणप्रतिसेवी यथासम्बनेन ज्ञानदर्शनचारित्रसह संबन्धानुलोम्यतः प्रथममुत्तरार्द्ध व्याख्यायते-संकरस्तृ-। रूपविशुरुकारणेन वर्जितः, कारणमन्तरेण प्रतिसेवत इति जादिक वधरः, तदृदृष्टान्तो यथा-" आरामे सारणीए भावः। तदाऽसौ वयः,कृतिकर्मकरणे वर्जनीयः। शिष्यःप्राह:वहंतीए एग तणं सय लग्गं, तंण अवणीयं, अन्न लग्गं, तं। नन्वेवमर्थादापन्नं आलम्बनसहित उत्तरगुणप्रतिसेव्यपि पिन अवणीयं, एवं बहूहिं लगतेहिं तत्थ तेण आश्रयेण चि. बन्दनीयः। सूरिराह-न केवलमुत्तरगुणप्रतिसेवी, मूलगुणप्र. क्खलधूनीए संचओ जाओ । तेण संवएणं तं पाणियं रुकं | तिसेव्यप्यालम्बनसहितः पूज्यः । अन्नपो गंतुं पयहूं, ताहे सो आरामो सुको। पवमभिक्खणं अ कथामिति चेपुच्यतेभिक्खणं उत्सरगुणपडिसेवाए अबराहसंचओ भवर, तेण| संजमजलं बहमाणं निरुज्झा, तो चारित्तारामो सुक्ख" ।। हिट्ठाणठितो वी, पावयणिगगणट्ठया उ अधरे उ । सर्षपशकटमण्डपदृष्टान्तो यथा-शकटे मरामपेत्र कोऽप्येकः कमजोगि जंनिसेवs, आदिणिगंथो व सो पुज्जो ॥ सर्षपः प्रक्रिप्तः, स तत्र यातः, अन्यः प्रक्तिप्तः, सोऽपि यातः, एवं प्रतिप्यमाणैः सर्वपैर्भविष्यति सुसषपो यः तं शकटं अधस्तनस्थानेषु जघन्यसंयमस्थानेषु स्थितोऽपि, मूलगुणमामपं वा भनक्ति । एवं चारित्रेऽप्यशुद्धाहारग्रहणादिरेको प्रतिसेव्यपीति भावः। कृतयोगी गीतार्थः, प्रावचनिकस्याचार्य: पराधः प्रक्किप्तः,स तत्रावस्थितिं कृतवान्,हितीयः प्रक्किप्तः सो स्य गणस्य च गच्चस्यानुग्रहार्थमधरे प्रात्यन्तिकं कारणे समु. प्यवस्थितः, एवमपरापरैरुत्तरगुणापराधैः प्रतिप्यमाणैर्भविष्य पस्थिते यन्निषेवते, तत्रासौ संयमण्यामेव वर्तत र्शत कृत्वा ति स उत्तरगुणापराधः, येन चारित्रं सर्वथाभङ्गमुपगच्छति। अथ पूज्यः । क इवेत्याह-श्रादिनिग्रन्थ श्व । इह पुनाकवकुशकुशीलवनष्टान्तो भाव्यते-बस्ने क्वचिदेकस्तैलविन्दुः कथमपि बग्न:, निर्ग्रन्थस्नातकाख्याः पञ्चनिग्रन्थाः। तेषामादिभूतः पुलाकस्तद्वसन शोधितः, तदाश्रयेण रेणु पुस्ता अप्यवस्थिरे, पचमन्य त, तस्य ह्येतादृशी लब्धिर्यया चक्रवर्तिस्कन्धावारमपि अनि. प्राप्यवकाशे तैलविन्उर्लग्नः, सोऽपि न शोधितः, एवमन्यान्यैः वादनादौ कुलादिकार्ये स्तन्नीयात् , विनाशयद्वा, न च प्रायस्तैलविन्मुभिर्गलाद्भरप्यशोध्यमानैः सर्वमपि तद्वस्त्रं मलिनीभू. श्चित्तमाप्नुयात् । तम् । एवं चारित्रवस्त्रमप्यपरापरैरुत्तरगुणापराधैरुपलिप्यमान तथा चाह-- मचिरादेव मसिनोभवतीति, तदेवमुत्तरगुणप्रतिसेवी काले- कुणमाणो विय पडणं, कतकरणोणेव दोसमब्भेति । न चारित्रात् परिभ्रश्यतीति स्थितम् । अथ कृतिकर्मविषयं विशेष विभणिपुराह-"अंतो जयणा" इत्यादि पूर्वार्द्धम् । यः अप्पेण बहुं इच्वइ, विसुद्धालवणो समणो ॥ संयमणेरन्तमध्ये स्थितस्तस्य कृतिकर्मकरणे भजना, सा चाग्रे कडणं कटकमद कुर्वाणोऽपि कृतकरणः पुत्राको नैव स्वल्पदर्शयिष्यति, यस्तु श्रेणेहिर्निगतस्तस्य न कर्त्तव्यम् तथा च मपि दोषमत्यति प्राप्नोति । कुन इत्याह-यतोऽसौ श्रमणो वि. मरुको वा स्तेनः, तस्य दृष्टान्तः क्रियते शुकालम्बनः सन् अल्पेन संयमव्ययेन बहुं सयमलाभमिच्छति । अमुमेवार्थ समर्थयन्नाहपक्कणउले वसंतो, सउणीपारोवि गरहितो होइ । संयमहेनं अज्जे-तणं पि ण हु दोसकारगं विति । इय गरहिया सुविहिया, मजिफ वसंता कुसीलाणं ।। पावण वोच्चेयं वा, समाहिकारोवणादाणं ॥ पक्कणकुवं मातङ्गगृहं, तत्र वसन् शकुनीपारगोऽपि द्विजो ग. हितो भवति । शकुनीशब्देन चतुर्दशविद्यास्थानानि गृह्यन्ते । प्रावचनिकादेः प्राणव्यपरोपणात् द्विप इव रक्षणेन यः संयमतानि चामूनि-"अगानि वेदाश्चत्वारो, मीमांलान्यायविस्तरः । स्तद्धतास्तन्निमिनं पुताकादेरयतमपि नहि नैव दोपकारक पुराणं धर्मशास्त्रं च, स्यानान्याहुश्चतुर्दश ॥३॥" तत्राङ्गानि पट वयते । यथा समाधिकरो वैद्यो बणादीनां यत्तथाविधौषधप्रलशिका,व्याकरणं,कल्पः उन्दो,निरुक्तं,ज्योतिपमिति(श्यत्ति एवं .पनेन पावन, यश्च शस्त्रादिना विच्छेदन, यद्वा व्यवच्छेदं बहन सुविहिताः साधवः कुशीलानां मध्ये वसन्तो गर्हिता भवन्ति, कारयति, तत्तु इदानी पीडाकरमपि परिणामसुन्दरमिति अतो न तेषु वस्तव्यम्, न वा कृतिकर्मादि विधेयम् । कृत्वा न सदोषम, एवमिदमपोति । ननु च पाश्वस्थादीनां कृतिकर्म न कर्तव्यमिनि भवद्भिरभिहितं, । अथ परस्याभिप्रायमाशङ्कमान श्राह१५६ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किश्कम्म असे तत्य नवे जति एवं रखखए निवन् । अस्संजयात्रि एवं अणं असे रक्खति ॥ नयनका ये अभिनेति भने परस्याभिप्राय इति वाक्यशेषः यद्येवं मिशः पुखाकादिरन्यार्यादिकमन्येन स्कन्धावारादिना कृत्वा रक्षति, एकस्य विनाशेनापरं पालयतीति भावः । तत एवमसंयता गृहस्था अप्यन्यमन्येन रक्वन्त्येव, अतो न कश्चिदसंयतानां संयतानां च प्रतिविशेषः । एवं परेणोक्ते सुरिराह (५१४) अभिधान राजेन्द्रः / 9 हु न ते संगम, पालिति असंत्रता अजतभावा । अच्छितिजा, पािित जतं । जतिजणं तु ॥ हुनेवतायतनावस्थितान् गृहस्थान संयम हेतोः पालयन्ति, किंतु स्वात्मनो जीविकादिनिमित्तं, ये तु यनयतथा स्वातिषाणानामात्मनो म्योपकारद्वारे संयमस्वपतिजन पात विशेष सापून ति किञ्च कुणइ वयं धरण ओो, धणस्स धाणितो छ आगमं खानं । इय संजमस्त त्रिवतो, तस्सेवट्टा ए दोसाय ॥ यथा धनिको वाणिज्यं कुर्वद्यागमं लाभ हात्या घननोईयोपार्जनार्थ शुक्तकर्मकरवृत्तिनाटकादिप्रदानेन धनस्य व्ययं करोति । ( इत्ति) एवं पुलाकादेर्मूलगुणप्रतिसेवनां कुर्वाणस्य यः कोऽपि संयमस्य व्ययः स तस्यैव संयमस्यार्थाय विधीयमानो न दोषाय संजायते; ततः पुष्टालम्बनसहितो मूलगुणप्र विशुद्ध इति स्थितम प्रधान या प्रतिसेवते ततः संसारोपनिपातमासादयति । तथा चात्र दृष्टान्तमाह- तुच्छममाणो पतति निरालम्बनो यग्गम्पि सायं निरालंबे, ग्रह दितो सितो ॥ लग्नं 1 यते तद्ाद्विधामपु कुशवल्कलादि पुष्टं बलिष्ठं तथाविधकठोरवल्ल्यादि । एवं भाबालम्बनमपि पुटपुटभेदाद्विषा एवं तीर्थाव्ययतिप्रथाध्ययनादि, अनु शतया स्वमतिमात्रोप्रेक्षितमालम्बनमात्रम् । ततश्च बध्यालम्बनम पुष्टमवलम्बमानो निरालम्बनो वा यथा दुर्गे दो पतियस्तु पुनम्यते स त्मानं गर्तादौ पतन्तं धारयति । एवं साधोरषि मूलगुणाधपराधान्निषे. यमाय साम्बनिराम्यविषयः अथार्थ रातो मन्तव्यः । किमु यति-यो निम्नोऽलम्बन वा प्रतिसेवते स आत्मानं संसारमतदी पततं धारयितुं शोति वस्तु पुष्टशलम्बनः स तदवष्टम्भादेव संसारगर्ते सुखेनैवातियति, मतदचमतः पुनर्जितः कृतिकर्मणिनीयत अथ श्रेणिस्थानस्थिता श्रपि ये कृतिकर्मणि नियमेन नजनया या न चायन्ते साम्प्रतिपादयतिसेदीठाणे सीमा को बतारि बाहिरा होति । सेटीला दुपमेययाएँ चचारि जयन्या ।। नाचनेदाद्विचत्रगीतमा किश्कम्म श्रेणिनं सीमास्थानमित्यनर्थान्तरम् रात्रप्रयर्तमान अि चत्वारो जनाः प्रत्येक बुद्धादयो वक्ष्यमाणाः कार्ये बाह्या भवन्ति । यह कार्य द्विधा चन्दनकार्य, कार्यकार्ये च तत्र चन्दनका द्विधा - अभ्युत्थानं, कृतिकर्म च । कार्यकार्ये कुकार्यादिभेदा बनेकविधम् कार्यमवश्यकर्तव्यरूपं यत्कार्य सत्कार्य कार्यमिति व्युत्पत्तेः। तद् द्विविधमपि प्रत्येकइयो न कुर्वन्तीति जाः । तथा श्रेणिस्थाने वर्तमाना श्रपि च्प्रतिबरूयथालन्दिकादयअश्वारो ऽयनेयया चि) द्विकभेदकमनन्तरोक कार्यद्वय विधानमङ्गीकृत्य भक्तव्याः; तत्र व्यवह्नियन्ते वा न वेति भावः । इदमेव स्फुटतरमाह 1 पचेपबुद्ध जिनक- पिया व शुद्धपरिहारिण महादे एए चरो दुगने - दया य कज्जेसु बाहिरगा || प्रत्येकका जिनकपिका गुरूपरिहारिणोऽप्रतिबद्धयथासन्दिप बाजना द्विनेत कार्यादिषु बाह्या जयन्ति न तद्विषयं व्यवहारपथमवतरन्तीति भावः । गच्छामि नियमक करने पचारि होति जयच्या गच्छनिवड आवाजतीतो य ॥ गच्छे नियमादवश्यंतया कर्त्तव्यं यत्कार्य कुलगण सङ्घविषयं तत्र कार्ये चत्वारो जना भक्तव्यानयन्ति तिवद्धयपालन्दिकाः (ति) पत्रपरिहारिकाः, प्रतिमाप्रतिपक्षाः, संयत्यश्वेति यथा सनोति तत कुन्दनका तु प्रतिपादिका यस्या चार्यस्य पार्श्वेतार्थग्रहणं कुर्वते तस्यायमस्यापि कुर्वन्ति, शे साधूनां तु न कुर्वन्ति । आपन्नपरिहारिणां प्रतिमाप्रतिपन्नानां संयतीनां च कृतिकर्म क्रियते वा न वा, तेऽपि कुर्यन्ति वा न वेति । मपि विशेषमाद तो त्रिहो भवणा, ओमे श्रवसंगती ओ य । वाहिं पि होइ जयणा, अयवालगवायगे सीसा || अन्तरेऽपि रज्यन्तरतः स्थितानामपि चन्दनकं प्रतीत्य भजना भवति । कथमित्याह - ( श्रोमे ति ) योऽयमरात्निकः सालोचनादी कार्ये वन्यते, अन्यदा तु तिचा ि पत्रपरिहारिका नयन्यते स पुनराचार्या (संज श्रोति ) संयत्योऽपि उमगतो न वन्द्यन्ते, अपवादपदे तु यदि बहुश्रुता महत्तरा काचिदपूर्वश्रुतस्कन्धं धारयति ततस्तस्याः साशा उद्देशादसा फेटायन्दनकेनन् मीयानः किंतु स्थान कृतिकर्मणि भजना मन्तव्या, कारणे तेषामपि कृतिकर्म विधेयमिति भायः । अथ न कुर्वन्ति ततो महान् दोषो नवति । यथा अजापालक वाचकमवन्दमाना श्रगीतार्थाः शिष्याः, दोष प्राप्तवन्त इति वाक्यशेषः । अथवा (सीस नि ) संविग्नविहारालिङ्गाद्वा परिच्युतं त्वगुरुं रहसि शीर्षेण प्रणम्य वक्तव्यम्-भगवन् ! माः सन्तः सांप्रतमनाथा चथमतः कुरुतोधर्म भूयश्चरणकरण नुपालनायामिति । श्रथ 'श्रमे आवासंजई श्रोत्ति' गाथाऽवयवं विवृणोति लोणसुत्तत्या, खामण ओमे य संजतीसुं वा । श्रावकज्जकज्जं, करेइ य वंदती गुरुं ॥ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किइकम्म श्रान्निधानराजेन्द्रः । किश्कम्म पासोचनानिमित्तसूत्रार्थग्रहणार्थ वाचकस्यापि बन्दनकं दा. निर्दिष्टा (उपरिसि) इदानीं पुनस्तेषां धन्दनकर्म प्रयच्छतो या सव्यम, कामणके त स एव रत्नाधिकानां धन्दनकं दद्यात् ।सं. चतुर्मघुकाख्या भारोपणा प्रतिपाद्यते, सा गुपिसा गम्भीय, यतीनामपि बालोचनासूत्रार्थनिमित्तं कृतिकर्म कर्तव्यम, यः मान्यतो वाऽर्थ वयमवबुद्ध्यामहे शति भावः। पुनरापनपरिहारिकः स कार्यकार्य कुलकार्यादि करोति (अगु (ए) रिराह-उत्सर्गतो न कल्पते पावस्थादीन कंति ) गुरुं मुक्त्वा न कमपि साधु वन्दते । सपलकणमिदम वन्दितुं परमसन नचासौ केनाऽपि साधुना वन्यते । गच्छपरिरक्खण्टा, अणागतं श्राउवायकुसलेण । अथाजापालकष्टान्तमाह एवं गुणाधिवतिणा, महसीलगवेसणा कज्जा ॥ पेसरिया पच्चंतं, गीतासति खित्तपहग अगीया। अधमराजद्विष्टादिषु ग्लानत्वे वा यदशनपानाद्युपग्रहकरणेन पहियक्खित्ता पुच्छं-ति वायगं कत्थऽरले ति ।। गच्छपरिपालनं तदर्थमनागतमवमादिकारणे अनुत्पन एव मोसंक ने दटुं, संकजेती उवातगो कुरियो। प्रायोपायकुशलेन, श्रायो नाम-पावस्थादेः पार्थाधिपत्यूपद्धिवतिकहण रुंभण, गुरुपागम बंदणं सेहा ।। इसंयमपासनादिको साभः । उपायो माम-तथा कथमपि केनचिदाचार्येण गीताथाभावे अगीतार्थाः साधवः प्रत्यनप करोति यथा तेषां बन्दनकमददान पव शरीरबाती गवषयस्पांकेत्रप्रत्युपेककाः प्रेषिताः,तत्र च भ्रष्टव्रत एको वाचको ग. हि, न च तथा क्रियमाणो तेषामप्रीतिकमुपजायते, प्रत्युत जकुले कृतप्रमाणः परिवसति, ते च प्रत्युपेक्षित क्षेत्राः सा स्वचेतसि ते चिन्तयन्ति-अहो पते स्वयं तपस्विनोऽपि एवं य. धवस्तं वाचकं लोकस्य सर्मपि पृच्छन्ति-कुत्रासौ तिष्ठति । स्मात्सुनिम्ति, तत पतयोरायोपाययोः कुशक्षेन गणाधिपतिना लोकेनोक्तम्-अरण्ये । ततस्तेऽपि तत्र गताः, तं चाजारकणप्र भवितव्यम,एवं वदयमाणप्रकारेण सुखशालानां गवेषणा कार्या। वृत्तं भ्रष्टवतं दृष्ट्वा अद्रष्टव्योऽयमिति विमृश्गागीतार्थत्वेन श तत्र येषु स्थानेषु कर्त्तव्या तानि दर्शयतिभैरववष्कन्ति ।तांच तथा वा वाचकस्य शङ्का?-किमेतेऽपस. बाहिं आगमणपहे, नज्जाणे देनले सभाए वा । पन्तीति नूनमत्र भ्रष्टवतं ज्ञात्वा, ततः शङ्कोच्छेदी स वाचकः कुपितः सन् पल्लीपतेः कथयित्वा तेषामगीतार्थानां ( रुम्न रत्थउबस्सयवाहिया, अंतो जयणा इमा होइ ।। रणं ) गुप्तौ प्रक्तपणं कृतवान्, ततस्तदन्धेषणार्थ गुरूणां तत्राग- यत्र ते प्रामनगरादौ तिष्ठन्ति तस्य बहिः स्थितो यदा तान् मनम, ते च तं पाचकं वन्दित्वा 'शिक्वका अगीतार्थी पते' इत्य- पश्यति, तदा निराबाधवाती गवेषयति । यदा वा जिताच. क्त्वा स्थशिष्यान् मोचितवन्तः, एवं श्रेणियाह्यानामपि बन्दन- र्यादौ तत्रागच्छन्ति, तदा तेषामागमनपथे स्थित्वा गवेषणं के कर्तव्यम्। करोति । एवमुद्याने रष्टानां चैत्यवन्दनानिमित्तं गतर्देवकुले पा अथ 'सीस त्ति' पदं प्रकारान्तरेण व्याचष्टे समवसरणे वा दृष्टानां रध्यायां वा भिक्कामटतामभिमुखागमने मिलितानां वार्ता गवेषणाया । कदाचित्ते पावस्थादयोऽय. अहवा लिंगविहारा-न पडुच्च तं पणिवयत्तु सीसेणं । वीरन्-अस्माकं प्रतिश्रयं कदापि नागच्छत । ततस्तदनुवृत्या जणति रहे पंजल्लियो, उजम भंते ! तवगुणेहिं ।।। तेषां प्रतिश्रयमपि गत्वा तत्रोपाश्रयस्य बहिः स्थित्या सर्वमपि अथवा लिङ्गाद्वा संविग्नविहाराद्वा प्रत्युत तं स्वगुरुं रहसि शी- निराबाधनादिकं गवेषयितव्यम् । अथ गाढतरं निर्बन्धं ते कुर्षपेण प्रणिपत्य प्राञ्जलिको रचिताजलिपुटो भति-भदन्त! न्ति तत उपाश्रयस्यान्तरमभ्यन्तरतोऽपि प्रविश्य गवषयतां साप्रसादं विधायोद्यच्छत गुणेष्वनशनादौ तपःकर्मणि मूल-| धूनामियं वक्ष्यमाणा पुरुषविशेषवन्दनविषया यतना भवति । गुणोत्तरगुणेषु च, प्रयत्नं कुर्विति भावः । एवमादिके कारणे थे पुरुषविशेषं तावदादणिबाह्यानामपि कृतिकर्म कर्तव्यम्। मुक्धुरा संपागम-अकिञ्च चरणकरणपरिहीणा। अथ न करोति तत इदं प्रायश्चित्तम् सिंगावसेसमित्ते, जं कीर तारिसं योच्छं । उप्पचकारणम्मी, कितिकम्मं जो न कुज्ज सुविहं पि । धूः संयमधुरा सा मुक्ता परित्यक्ता येन स मुक्तधुरः, संप्र. पासत्यादीयाणं, उग्घाया तस्स चत्वारि ।। कटानि प्रवचनो यथा तमिरपेक्षतया समस्तजनप्रत्यक्कापयउत्पन्ने वक्ष्यमाणे कारणे यः कृतिकर्म द्विविधमप्यभ्युत्थान-1 कृत्यानि मूसोत्तरगुणप्रतिसेवनारूपाणि यम्य तत्संप्रकटाक. बन्दनकरूपं पार्श्वस्थादीनां न कुर्यात् तस्य चत्वार उद्धाता मा स्यः । अत एव चरणन प्रतादिना करणेन पिएमविशुद्धधामा भवान्त , चतुर्लघुकमित्यर्थः । दिना परिहीनः । एतारशे विश्रावशेषमात्रे केवलकव्यलितशिष्यः प्राह युक्ते यत् यादृशं वन्दनं क्रियते तारशमहं पदये। सुविहे किश्कम्मम्मी, वाउलिया मो णिरुचवझीया । । चायाऍ नमोकरो, हत्थुस्सेहो य सीसनमणं वा। मालिपमिसेहितम्मि, जबरि आरोवणा गुनिया ॥ । संपुच्छणं बण च्छो-भवंदणं बंदणं वा वि॥ एवं द्विविधे अत्युत्थाने बन्दनकरणकृतकमणि पूर्व प्रति- बहिरागमनपधादिषु रहस्य पावस्थादेवा नमस्कारः क्रियते, विध्य पश्चादनुझाते सति व्याकुलिता प्राकुलीभूना वयमत बन्दामहे जयन्तं बयमित्येवमुथार्यते इत्यर्थः । प्रणामं करोति । एव निरुका सशयकोडी कृता बुद्धियेषां ते निरुद्धबुद्धिकाः सं. अधासौ विशिष्तर उग्रतरस्वभावो या ततोषाचा नमस्काय ह. माता वयम् । कुत इत्याह-मादी प्रथमं प्रतिषिद्ध द्विविधमपि स्तोत्सेधमअलि कुर्यात, ततो विशिष्टतरे प्रत्युप्रस्वभाषेचा कतिकर्म पार्श्वस्थादीनां कर्तुम, पारोपणाच महतीतत्कुर्वतो। वावपि वा नमस्कारहस्तोत्सेधी त्या वतीयं शिरप्रणाम Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किश्कम्म अभिधानराजेन्द्रः। किइकम्म करोति । एवमुत्तरोत्तरविशेषकरणे पुरुषकार्यभेदः प्राक्तनोपचा- आदिशब्दात्स्वार्थपरिभ्रंशश्चारिकाहरिकायच्याश्यानप्राप्तिर्षरानुवृत्तिश्च द्रष्टव्या। (संपुच्चणं ति। पुरतः स्थित्वा जक्तिमिव द. | धनादयश्च दोषा भवन्ति । शेयता शरीरबातायाः संप्रच्चनं कर्तव्यम-'कुशलं भवतां वर्तते' कानि पुनस्तेषां वन्दने कारणानीत्याहइति। (भत्थणं ति) शरीरवार्ता प्रश्नयित्वा कणमात्रं पर्युपासनम्। अथवा पुरुषविशेषं ज्ञात्वा तदीयं प्रतिश्रयमपि गत्वा बोभवन्द परिवार परिस पुरिसं. खित्तं कालं च आगमं नाउं । नं संपूर्ण वा वन्दनं दातव्यम्। कारणजाते जाते, जहारिहं जस्स कायव्वं । अथ किमर्थमन वाचैव नमस्कारः क्रियन्ते कारणाभावे वा परिवार पर्षदं पुरुष केत्र कालं च भागमं ज्ञात्वा यथा कारकिमिति भूलत एव कृतिकर्म न क्रियते इत्याशङ्कयाह णानि कुलगणादिप्रयोजनानि तेषां जातं प्रकारः कारणजातं जइ नाम सूइओ मिति, विवजितो वा विपरहरति कजो।। तत्र जाते उत्पन्ने सति यथाई यस्य पुरुषस्य यद् वाचिकं कायिकं वा वन्दनमनुकूलं तस्य तत्कर्तव्यम्। श्य चि हु सुहसीलजणो, परिहज्जो अणुमती मा सा ॥ ___अथ परिवारादीनि पदानि व्याचष्टेयदि नाम कश्चित्पावस्थादिर्वा नमस्कारमाप्रकरणेन अहो ! सूचितास्तरस्कृतोऽहममुना मजयन्तरेणेति । सर्वथा कृतिकर्मा परिवारो से विहितो, परिसगतो साहती व वेरग्गं । करणेन विवर्जितः परित्यक्तोऽदममीनिरित पराभवं मन्यमानः माणी दारुणभावे, णिसंस पुरिसाधमो पुरिसो॥ सुखशीलविहारितां परिहराति । (श्य ति) पवंविधमपि का- लोगपगतो निवे वा, अहव स रायादिदिक्खित्तो अज्जो । रणमवलम्य परिहार्यः तिकमणि सुखशीसजनः, न केवलं पू. खित्तं विहिमादि अना-वियं च कालो वरुणाकालो। धोक्तं दोषजालमाश्रित्येत्यपिशब्दार्थः । अपिच-तस्य कृतिकमंणि विधीयमानेन तदीयायाः संवेद्यक्रियाया अप्यनुमतिः कृ. 'से' तस्य पार्श्वस्थादेर्यः परिवारः स सुविहितानुष्ठानयुता भवति, अतः सा मा भूदिति बुख्याऽपि न वन्दनीयोऽसौ। तो वर्तते । पर्षदि गतो वा सनायामुपविष्टो वैराग्यमिति का रणे कार्योपचारात् संसारवैराग्यजनक धर्म स कथयति, येन किञ्च प्रभूनाःप्राणिनः संसारविरक्तचेतसःसंजायन्ते। तथा कश्चित्पासोए वेदे समए, दिवो दंडो अकज्जकारणं । वस्था दिः स्वभावादेव मानी साहंकारः, तथा दारुणजावो रोबस्सेंति दारुणा वि हु, दंमेण जहावराहेण ॥ काध्यवसायः नृशंसो नाम कूरकर्मा प्रवन्धमानो वधपधादिकं कारयतीत्यर्थः । अत एव पुरुषाणां मध्ये अधमः पुरुषाधमः लोके लोकाचारे, वेदे समस्तदर्शनिनां सिद्धान्ते, समये रा एतारशः पुरुष इह गृह्यते । यद्वा-लोके प्रकृतो बहुलोकसंमतो, जनीतिशास्त्रे, भकार्यकारिणां चौरिकाद्यपराधिनां दरामोऽसंभा. नूपप्रकृतो वा धर्मकथादिलब्धिसंपन्नतया राजबहुमतः (अहप्यता शनाकाभिग्रहणादिलकणः प्रयुज्यमानो रः । कुतः पुन- बत्ति) अथवा राजादिदीक्तिोऽसौ शैलकाचार्यादिवत् । ए. रसौ प्रयुज्यत त्याह-दारुणा रौद्रास्ते अपि यथापराधनापरा. वंविधपुरुष इह प्रतिपत्तव्यः । वेत्रं नाम-विहादिकमभावितं वा। भानुरूपेण दरमेन दीयमानेन वश्यन्ते वशीक्रियन्ते, प्रत इहा- | विहं कान्तारम, आदिशब्दात्प्रत्यनीकाधुपवयुक्तम्, तत्र वर्सविमूलगुणाद्यपराधकारिणां कृतिकर्मवर्जनादिको दरामः प्रयु-। मानानां साधूनामसाधूपग्रहं करोति । मनावितं नाम-संविग्नः ज्यते, पतक कारणानावमङ्गीकृत्योक्तम्, कारणे तु धाग्नम- साधुविषयः श्रद्धाविक पार्श्वस्थादिनावितमित्यर्थः। तत्र तेषास्कारादिकं वन्दनकपर्यन्तं सर्वमपि कर्त्तव्यम् । मनुवृत्ति विदधानः धातव्यम् । कालश्च अनाकालो वा दुष्कायत पाह ल उच्यते, तत्र साधूनां वतापनं करोति । एवं परिचारादीनि पायाऍ कम्मणा वा, तह चेट्ठति जहण होति से मंतुं । कारणाणि विज्ञाय कृतिकर्म विधेयम् । पस्तति जने अवार्य, तदभावे दरतो बजे ॥ आगमग्रहणेन च द्वारगाथायां दर्शनझानादिको नावः सूचितः, अतस्तमङ्गीकृत्य विधिमाहयतः पावस्थादेः सकाशात कृतिकर्मण्यविधीयमाने अपायं संयमात्मविराधनादिकं पश्यति। संप्रति वाचा मधुरसंभाषणा. दंसणनाणचरितं, तबविणयं जत्य जत्तिय जाणे। दिना, कर्मणा शिरप्रणामादिक्रियया, तथा चेष्टते यथा तस्य जिणपन्नत्तं जत्ती-पूयए तं ताहिं भावं । मन्युः, स्वल्पमप्यप्रीतिक,न भवति, अथावन्दनेऽपि संयमोपधा- दर्शनं च निःशङ्कितादिगुणोपेतं मम्यक्त्वम्,ज्ञानं चाऽचारादितादिरपायो न भवति, ततम्तस्यापायस्याभावे दूरतस्तं सुखशी. श्रुतं,चारित्रं च मूसोत्तरगुणानुपालनात्मकम-दर्शनझानचारित्रम। लजनं वर्जयेत् । एष विषयविनागः कृतिकर्मकरणाकारणयो-- द्वन्द्वकवद्भावः । एवं तपश्चानशनादिविविधं तावत्यैव भक्त्या रिति भावः। कृतिकर्मादिनकणया पूजयेत् । वृ०३ उ०। प्रावा किं पुनस्तेषां वन्दने कारणानीत्याह , (१०) पार्श्वस्थादिवन्दनं निष्फलमित्याहएताइ अकुव्वतो, जहारिहं अरिहदेसिए मग्गे । पासत्याइ बंदमा-णस्स नेव कित्ती न निज्जरा हो। ण भवति पवयणभत्ती, अभत्तिमतादिया दोसा। । कायकिलेसं एमे-व कुण तह कम्मबंधं च ॥ ३१ ॥ पतानि वाइनमस्तारादीनि पार्श्वस्थादीनां यथार्ह यथायोग्य। पावस्थादीनुक्तलक्षणान्वन्दमानस्य नमस्कुर्वतः नैव कीतिर्म म,मईदर्शिते मार्ग स्थितः सन् कषायोत्कटतया योन करोति, निर्जरा जवति । तत्र कीर्तन कीर्तिरहाऽयं पुप्यभागित्येचं सक्षतेन प्रवचने न भक्तिः कृता भवति किंतु प्रभक्तिमभ्वादयो दो- पा, सान भवति, अपि स्वकीर्तिनयति-नूनमयमप्यवस्वरूपो पप्रवन्ति, ताऽकाभन भगवतांम शक्तिमत्वं प्रवति ।। येनेषां वन्दनं करोति । तथा निजरणं निर्जरा कर्मक्षयलक्षणा Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१७) किइकम्म अभिधानगजेन्सः । किइकम्म सान नवति, तीर्थकराधविराधनाद्वारेण निर्गुणत्वात् तेषामिति। अमेझे पमिया, गाहामि ति अमेऊ दटुण मुक्का, सो चीयत इति कायः देहा,तस्य क्लेशः अवनामादि लक्षणः कायक्ले- य चपरहिं विणा धिति न लभर, तहा वि छाणदोसेण मुक्का । शः, तं कायक्लेशम,स एवमेव मुधैव, करोति निर्वयति । तथा| एवं चपयमाझाथाएीया साहू, अमेज्कथाणिया पासक्रियत इति कर्म झानावरणीयादिलक्षणं,तस्य बन्धो विशिष्टरच स्थादो, जा विसुको तेहि समं मिति संवतति वा सो वि नया श्रात्मनि स्थापनं,तेन वाऽऽन्मनो बन्धः स्वस्वरूपतिरस्करण परिहरगिजो"। लकणः कर्मबन्धः, कर्मबन्धं करोति वर्तते । चशब्दादाझाभला अधिकृतार्थप्रसाधनायैव दृष्टान्तान्तरमाहदींश्च दोपानवाप्नुते । कथम?,नगवत्प्रतिक्रुटबन्दन आज्ञानङ्गः,तं पकणकुले वसंतो, सनणीपारो वि गरहिरो होइ । दृष्ट्वाऽन्येऽपि वन्दन्ति इत्यनवम्था, तान्वन्दमानान् दृष्ट्वाऽन्येषां मिथ्यात्वम, कायक्लेशतो देवताच्यो वाऽऽत्मविराधना, तद्वन्दनेन इय गरहिया सुविहिआ, मजिक वसंता कुसीलाणं ॥३॥ तत्कृतासंयमानुमोदनात् संयमविराधनति गाथार्थः ॥ ३१॥ पक्कणकुचं गतिकुवं तस्मिन् पक्कणकुठे बसन् पारं गतवा निति पारगः शकुन्याः पारगः शकुनीपारगः, असावपि एवं तावत् पार्श्वस्थादीन् वन्दमानस्य दोषा उक्ताः, साम्प्रतं गर्डितो निन्द्यो भवति । शकुनीशब्देन चतुर्दशनिद्यापार्श्वस्थादीनामेव गुणाधिकवन्दनप्रतिषेधमकुर्वताम स्थानानि परिगृह्यन्ते-" अङ्गानि चतुरो घेदान् , मीमांपायान प्रदर्शयन्नाह-- सां न्यायविस्तरम् । पुराणं धर्मशास्त्रं च, स्थानान्याहुश्चतुजे बंजचेरनट्ठा, पाए उडेति बंजयारीणं । देश" ॥ तत्राङ्गानि षट् । तद्यथा-शिक्का,व्याकरणं,कल्पः,छन्दो, ते ढुंति कुंटमंटा, वोही अ सुबहा तेसिं ॥३।। निरुक्तं, ज्योतिषमिति । (श्यत्ति ) एवं गर्दिताः साधवो मध्ये ये पार्श्वस्थादयः भ्रष्ब्रह्मचर्याः,अपगतब्रह्मचर्या इत्यर्थः । ब्रह्म वसन्तः कुशीलानां पार्श्वस्थादीनाम् । अत्र कथानकम-" एगचर्यशब्दो मैथुनविरतिवाचकः, तथौघतः संयमवाचकश्च । स्स धिजाइयम्स पंच पुत्ता सउणीवारगा,तत्थेगो मरुगो एगाप [पाए उति बंजयारीणं ति] पादावभिमानतो व्यवस्थापयन्ति दासीए संलग्गो, सा मज पियति, इमो य । तीए भन्नामह्मचारिणां वन्दमानानामिति , तद्वन्दननिषेधनं न कुर्वन्ती- जइ तुमं पीयर ताहे सोहणरत्ती होजा, श्यरहा विसरिसो त्यर्थः । ते तपातकर्मजं नारकत्वादिलक्षणं विपाकमासाद्य संजोगो त्तिा एवं सा बहुसो नणंतीए पाइयो, सो पढम पच्छन्नं यथाकथञ्चिकच्छेण मानुषत्वमासादयन्ति, तदापि नवन्ति को. पियति, पच्छा पयमं पिइ उमाढत्तो। पच्छा अतिप्पसंगणं मंसासेवी एटमएटाः, बोधिश्च जिनशासनावबोधवक्षणा सकलदुःखविये संवुत्तो । पक्कहिं सह लोनमाढत्तो । तेहिं चेव सह खाति, कभूता सुदुर्बभा, तेषां सकृत्प्राप्तौ सत्यामप्यनन्तसंसारत्वादि पिवति,संवसतिय। पच्छापिनणा सयणेण य सब्ववज्जो अप्पव. ति गाथार्थः ॥ ३२॥ सो को, अन्चया सो पमिलग्गो वितिभो । सो वि भायासि णेहेणं तं कुमि पविसिकण पुच्छति,देति य से किंचि । सो पिउ. तथा णा उवयंभिऊण निच्ढो। ततिओ वाहिरपाडए वीयं पुच्चति, सुदुतरं नासंती, अप्पाणं जे चरित्तपन्न। विसज्जति ले किचि । सो वि निच्चूढो। चउत्थो परंपरपण देगुरुजण बंदावंती, सुस्समण जहुत्तकारिं च ॥ ३३ ॥ वावेति, सो वि निन्छूढो । पंचमो गंध पिनेच्छति, तेण मरुएण [सुतरं ति] सुतरां नाशयन्त्यात्मानं सन्मार्गात्,को,ये चारि. करणं चमिऊण सब्यस्स घरस्स सोसामी को । इयरे चत्ता. त्रात् प्राग्निरूपितशब्दार्थात्प्रकषेण दृष्टः अपेताः सन्तः, गु रिवि वाहिरा कया, लोगगरहिया य जाया । एस दिटुंतो । रुजनं गुणस्थसाधुवर्ग, वन्दयन्ति कृतिकर्म कारयन्ति । उवणो सो श्मो-जारिसा पक्कणा तारिसा पासिस्थादी, किंनूतं गुरुजनम् ?, शोजनाः श्रमणा यस्मिन् स शुभ्रमणस्तम् । जारिसो धिज्जाश्रो तारिसो आयरिओ, जारिसा पुत्ता तारि. अनुस्वारलोपोऽत्र इष्टव्यः । तथा यथोक्तं क्रियाकलापं कर्तुं सा साह, जहा ते निच्छूढा, एवं निच्छुभंतो कुसीलसंसगि करें। शीलमस्येति यथोक्तकारी,तं यथोक्तकारिण चेति गाथार्थः॥३३॥ ता गरहिया य पवयणे नवंति । जो पुण परिहरति सो पुजो (११) एवं वन्दकवन्द्यदोषसंभवात्पार्श्वस्थादयो न बन्दनीयाः, सातीअपजवसियं निव्वाणं पायेति । एवं संसग्गी विणासीया तथा गुणवन्तोऽपि ये तैः सार्द्ध संसर्ग कुर्वन्ति कुसीओहिं। उक्तं च-"जो जारिसेण मेत्ति, करति अचिरेण तारितेऽपि न वन्दनीयाः, किमित्यत आद सो हो। कुसुमहि सह वसंता,तिमा वि तम्गंधिया होति"॥१॥ अमुटाणे पडिआ, चंपगमाला न कीरई सीसे । मरुयत्ति दिटुंतो गमो " पासत्थाईठाण, पवट्टमाणा तह असुज्झा ॥ ३४॥ पार्श्वस्थादिसंसर्गदोषादवन्दनीयाःसाधवोऽप्युक्ताः,तबाह चो. दकः कः पार्श्वस्थादिसंसर्गमात्राद्गुणवतो दोषः?,तथा चाहयथा अशुचिस्थाने पतिता विप्रधानस्थाने पतिता, चम्पकमाला स्वरूपतः शोभनाऽपि सती अशुचिस्थानसंसर्गाद् न कि सुचिरं पि अत्थमाणो, वेरुनिश्रो कायमणिअनम्मीसो । यते शिरसि, पार्श्वस्थादिस्थानेषु प्रवर्त्तमानाः साधवः तथा न नवे कायनावं, पाहन्नगुणेण निअएण ॥३६॥ अपूज्या अवन्दनीयाः। पार्श्वस्थादीनां स्थानानि वसतिनिर्ग- सुचिरमपि प्रभूतमपि कावं तिष्ठन् वैडूर्यो मणिविशेषः मननूम्यादीनि परिगृह्यन्ते । अन्ये तु शय्यातरपिएमाद्युपभोग- काचाच ते मणयश्च काचमणयः । कुत्सिताः काचमणयः बकणानि व्याचक्तते । तत्संसर्गात्पार्श्वस्थादयो भवन्ति, नचै- काचमाणकाः । तैरुत्प्राचल्येन मिश्रः काचमणिकोन्मिश्रः, तानि सुष्टु घटन्ते, तेषामपि तद्भावापत्तेः । चम्पकमालोदाहर- नापैति न याति काचभावं काचधर्म प्राधान्यगुणन विणोपनयस्य च लभ्यम् घटमानत्वादिति । तत्र कथानकम्- मलगुणेन निजेनात्मायेन । एवं सुसाधुरणि पार्श्वस्थादिभिः " एगो चंपगफ्निो कुमारी चंपयमालाए सिरे कयाए सार्द्ध संवसन्नपि शीलगुणनात्मीयम न पावस्थादिनावमुपैत्ययं आसगओ वञ्चति । श्रासेण उद्धृतस्स सा चपकमाला । भावार्थ इतिगाथार्थः॥ ३६ ॥ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१5) किश्कम्म अभिधानराजेन्द्रः। किइकम्म प्रवाह चाचार्यः-यत्किञ्चिदेतत्, न हि दृष्टान्तमात्रादे- नवणीभवन्तीत्यर्थः। लवणाकरादिषु यथा, आदिशब्दात्खण्ड. वानिलषितार्थसिमिः संजायते, यतः खादिखारकादिग्रहः , तत्र किल लोहमपि तद्भावमासाद. यति । तथा पार्श्वस्याद्यालापमात्रसंसर्गादपि सुविहितास्तजावुगअन्नायुगाणि भ, लोए दुविहाइँ झुति दवाई । मेव भावं यान्ति, अतः [बजेह कुसीलसंसरिंग ] वर्जयत कुशीबेरुलियो तत्थ मणी, अजागो अन्नदव्बोहं॥३७॥ ससंसर्गि परित्यजत कुशीलसंसर्गमिति गाथार्थः ॥४१॥ भाव्यन्ते प्रतियोगिनां स्वगुणैरात्मभावमापद्यन्त इति भा पुनरपि संसर्गिदोषप्रतिपादनायैवाहज्यानि कपिल्मुकादीनि,प्राकृतशल्या भावुकान्युच्यन्ते । अधवाप्रतियोगिनि सतितद्गुणापेक्षया तथा नवनशीलानि भावुकानि, जह नाम महुरसनिलं, सागरसलिलं कमेण संपत्तं । मषपतपदस्थानूषहनकमगमगृभ्य उक"| ३ त्यु कञ्। पाव लोणनाव, मेनणदासानावणं ॥ ४॥ तस्य ताच्छीलिकत्वादिति । तद्विपरीतानि प्रभाव्यानि च नला. एवं खुसीलवंतो, असीझवतेहि मीनिओ संतो। दीनि । मोके द्विविधानि द्विप्रकाराणि भवन्ति व्याणि वस्तू- पावइ गुणपरिहाणिं, मेलणदोसाणुभावेणं ।। ४३ ॥ नि । वैदर्यस्तत्र मणिरजाव्यः अन्यव्यैः काचादिनी रहित इति गाथार्थः॥ ३७॥ यथेत्युदाहरणोपन्यासः, नामेति निपातः । मधुरसलिलं नदी पयः, तत्र लवणसमुहं क्रमेण परिपाट्या प्राप्तं सत् (पावेति स्यान्मतिजीवोऽप्येवम्भूत एव नविष्यति, न पावस्थादिसं. लोणनावं ति ) प्राप्नोति आसाइयति लवणभावं कारनावं सर्गेण तद्भावं यास्यतीत्येतचासन् । यतः मधुरमपि सन्मीलनदोषानुभावेनेति गाथार्थः ॥ ४२ ॥ जीवो अणाशनिहणो, तम्भावणभाविप्रो असंसारे । (एवं खु त्ति) खुशब्दोऽवधारणे, एवमेव, शीलमस्यास्तीति खिप्पं सोना , मेनणदोसाणुजावणं ॥३८॥ शीलवान्, स खल्वशीलवद्भिः पाश्र्वस्थादिभिः साई मिलि तः सन्मामोति प्रासादयति, गुणाः मूलोसरगुणलक्कणाः, तेषां जीवः प्राकृनिकापतशब्दार्थः, सोऽनादिनिधनः, अनाद्यपर्य परिहाणिरपचयः, तांस्तथैहिकांश्चापायान् तत्कृतदोषसमुत्थान्त इत्यर्थः । तद्भावनाभावितश्च पाश्र्वस्थाद्याचरितप्रमादादि। निति मीलनदोषानुभावेनेति गाथार्थः ॥ ४३ ॥ भावनाभावितश्व, संसारे तिर्यरनारकामरभवानुभूतिलकणे, ततश्च तद्भावनाभावितत्वात् तिप्रं शीघ्रं स भाव्यते प्रमादादि यतश्चैवमतःभावनया प्रान्मीक्रियते, मीलनदोषानुभावेन संसर्गदोषानुन्ना- खणमवि न खमं काउं, भणाययणसेवणं सुविहिआणं। बेनेति गाथार्थः ॥ ३८॥ हंदि समुहमइगयं, उदयं लवणत्तणमुवेइ ॥४४॥ अथ भवतो रष्टान्तमात्रेण परितोषः, ततो मद्विवक्षितार्थप्रतिपादकोऽपि रशन्तोऽस्त्येव । शृणु सुविहिप दुब्बिाहअं वा, नाहं जाणामि हं खुउउमत्थो। अंबस्सय निवस्म य, दुन्हं पि समागयाइँ मूलाई। लिगं तु पूधयामी, तिगरणमुच्चेण भावणं ।। ४५॥ जइ ते लिंग पमाणं, वंदेही निन्दए तुम सन्चे। संसगोई विणहो, अंबो निबत्तणं पत्तो ॥ ३६॥ एए अबंदमाण-स्स लिंगमवि अप्पमाएं ते ॥१६॥ मुचिरं पि अत्यमाणो, नन्नथंभो नछुवाममज्झम्मि । जइ लिंगमप्पमाणं, न नजई निच्छएण को मावो। कीस न जायइ महुरो, ज संसग्गी पमाणं ते ॥४०॥ दहूण समणलिंगं, किं कायव्वं तु समणणं ॥१७॥ चिरपतिततिक्तनिम्बोदकवासितायां भूमौ अम्बवृक्तःसमुत्पन्नः, अप्पुव्वं दणं, अन्नुट्ठाणं तु होइ कायव्वं । पुनस्तत्राघ्रस्य निम्बस्य च द्वयोरपि समागते एकीनूते मूले, ततश्च संसर्गात्संगत्या विनष्ट पाम्रः, निम्बत्वं प्राप्तः, तिक्तफ साहुम्मि दिहपुम्बे, जहारिहं जस्स जं जुग्गं ॥४॥ लः संवृत्त इति गाथार्थः॥३९॥ तदेवंसंसर्गिदोषदर्शनात् त्याज्या लोचननिमेषमात्रः कालः कणोऽनिधीयते, तं कणमपि, पाइवस्थादिसंसगिरिति । पुनरप्याह चोदकः-नन्बेतदपि सप्र- आस्तां तावन्मुहाऽन्यो वा कालविशेषः, न क्षमं न सतिपकम्, तथादि-( सुचिरं पित्ति) सुचिरमपि प्रनूतमपि कालं मर्थमयोग्यम, किं कर्तुम् ?, असाययणसेवर्ष ति) कर्तुं निष्पातिष्ठन् नलस्तम्बो वृक्तविशेषः श्चुवाटमध्ये श्क्षुसंसर्गतः किमि- दयितुं अमायतनं पावस्थाद्यायतनं, तस्य सेवनं भजनम् अनाति न जायते मधुरः, यदि संसगिःप्रमाणं तवेति गाथार्थः॥४०॥ यतनसेवनम, केषाम, सुविहितानां साधूनाम् , किमित्यत पाह. प्राचार्य माह--ननु विदितोत्तरमतत्-" नावुगअन्नायुगाणि" हन्दीत्युपप्रदर्शने, समुहमतिगतं लवणजलधिप्राप्तमुदकं मइत्यादिना प्रन्थेन, अत्रापिच केवली अभाव्यः पावस्थादि. धुरमपि सत लवणत्वमुपेति कारभावमुपेति । एवं सुविभिः, सरागास्तु जाव्या इति । हितोऽपि पार्श्वस्थादिदोषसमुहं प्राप्तस्तद्भावमामोति । अतः पाह-तैः सहालापमात्रतायां संसर्गी क श्व दोष उच्यते- परझोकार्थिना तत्संसर्गिस्त्याज्योति ॥४४॥ ततश्च व्यवस्थितमिकणगसयभागेणं, बिंबाई परिणति तब्भावं। दम्-येऽपि पार्श्वस्थादिभिःसार्द्ध संसगि कुर्वन्ति तेऽपि न बन्द नीया, सुविहिता एव वन्दनीया इत्यत्राह-सुविहिय ति) शोलवणागराइसु जहा, वह कुसीझसंसगिं॥४१॥ जनं विहितमनुष्ठानं यस्यासौ सुविहितस्तम् । अनुस्वारसोपोन ऊनचासौ शतनागधोनशतभागः, शतभागोऽपि न पूर्यत कष्टव्यः । विहितस्तु पार्श्वस्थादिस्तं पुर्विहितं वाऽहं न जानाप्रत्यर्थः । तेन तावतांशेन प्रतियोगिना सह संबकानीति प्र. मिनाहं वेधि, यतोऽन्तःकरण शुरुषशुद्धिकृतं सुविहितविहिक्रमागम्यते । बिम्बानि रूपाणि परिणमन्ति तद्भावमासादयन्ति, तत्वम, परभावस्तु तस्वतःसर्पविषयः, (महंखुछउमत्यो चि) Jain Education Intemational Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किश्कम्म भाभिधानराजेन्द्रः। किश्कम्म अहं पुनश्चमस्थः । अतो लिङ्गमेव रजाहरणं गच्छप्रतिग्रह- एवमुद्यतेतरविहारिगतविधौ प्रतिपादिते सत्याह चादक:धरणलक्षणं, पूजयामि बन्दे इत्यर्थः, त्रिकरणशुझेन भावेम भिन्नोऽनेम पर्यायान्वेषणेन सर्वथा जावाद्या कर्मापनयनाय चाक्कायशुरून मनसेति गाथार्थः॥४५॥ प्राचार्य पाह-(जर जिनप्रणीतसिङ्गिनमेव युक्तं, तन्तगुणविचारस्य निष्फल से) यदीत्ययमन्युपगमप्रदर्शनार्थः । ते तव लिनं कव्य- स्वात् । न हि तद्वतगुणप्रनवा नमस्कर्तुनिर्जरा मपि तु मा सिझम । अनुस्वारोऽत्र सुप्तो वेदितव्यः। प्रमाणं कारणं बन्द- त्मीयाध्यात्मशुभिप्रजवा । तथादि- . नकरणे, इत्थं तर्हि बन्दस्व नमस्त्र निडवान् जमानिप्रभृ- तित्थयरगुणा पमिमा-मनस्थि निस्संसयं विश्राएंतो। तान् त्वं सर्वानिरवशेषान, जयलिङ्गादियुक्तस्वात्तेषामिति । तित्थयरु त्ति नमंतो, सो पाव निज्जरं विउलं ।।८।। प्रयतान्मिथ्याष्टित्वान्न चन्दसे, ननु एतान् द्रव्यलिङ्गयु- तीर्थकरस्य गुणा ज्ञानादयस्तीर्थकरगुणाः ते प्रतिमासु वि. कानप्यवन्दमानस्याप्रणमतः लिङ्गमध्यप्रमाणं तव वन्दनप्रवृत्ता म्बलकणासु [न स्थि] न सन्ति निःसंशयं संशयरहितं विविति माथार्थः॥४६।। इत्थं लिङ्गमात्रस्य वन्दनप्रवृत्तावप्रमा जानन् अवबुध्यमानस्तथापि तीर्थकरोऽयमित्येवं जायाख्या जतायां प्रतिपादितायां सत्यामनभिनिविष्ट एवं सामाचारी नमन् प्रणमन्प्रणामकर्ता प्राप्नोत्यासादयति निर्जरां कर्मक्यलजिज्ञासया माह चोदक:-[ जद त्ति ] यदि लिङ्ग व्य कणां विपुलां विस्तीर्णामिति गाथार्थः ॥८॥ लिङ्गमप्रमाणम् अकारणं वन्दनप्रवृत्ती, इत्थं तर्हि न ज्ञायते एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयःनावगम्यते, निश्चयेन परमार्थेन, उन्मस्थेन जन्तुना कस्य को भावः । यताऽसंयता अपि लगादिनिमित्तं संयतबच्चेष्ट लिगं जिणपन्नत्तं, एवँ नमंतस्स निजरा विउला । ते, संयता अपि च कारणतः असंयतवदिति । तदेवं जइ वि गुणविप्पहीणं, वंदा अप्पसोहीए ॥५॥ व्यवस्थिते दृष्टा भालोक्य, श्रमणलिङ्गं साधुलिङ्गं, किं पुनः लियतेऽनेन साधुरिति लिकं रजोहरणादिधरणलक्षकर्तव्यं श्रमणेन साधुना । पुनःशब्दार्थस्तुशब्दः, व्यवहित. णम्, जिनरहद्भिः प्राप्तं प्रणीतम् । एवं यथा प्रतिमा इति धोक्तगाथानुलोम्यादिति गाथार्थः ॥४७॥ एवं चोदकेन पृष्टः नमस्कुर्वतः प्रणमतः निर्जरा विपुला, यद्यपि गुणमूलोत्सरसन्मादाचार्यः-[ अपुव्वं ति ] अपूर्वमदृष्टपूर्व, साधुमिति गुणैर्विविधमनेकधा प्रकर्षेण हीनं रहितं गुणविप्रहीणं वन्दते गम्यते । हवाऽवलोक्याभिमुख्यनोत्थानमन्युत्थानम् आसनत्या- नमस्करोति, अध्यात्मशुद्ध्या चेतःशुद्धयेति गाथार्थः ॥५॥ गलक्षणम्, तुशब्दाहण्डकादिग्रहणं च भवति कर्त्तव्यम्। कि इत्थं चोदकेनोक्त दृष्टान्तदान्तिकोषम्यमुपदर्शयन्नाहा मिति कदाचित्कश्चिदसौप्राचार्यादिःविद्याऽऽद्यतिशयसंपन्नः त. चार्य:प्रदानायैवागतो भवत् शिष्यसकाशमाचार्यकालकवत्, स संता तित्थयरगुणा, तित्ययौ तेसिमं तु अज्मप्पं । खल्वविनीतं संन्नाव्य न तत्प्रयच्छति । तथा दृष्टपूर्वास्तु द्विप्रकारा:- उद्यतविहारिणः, शीतलविहारिणश्च । तत्रोद्यतविहा न य सावज्जा किरिआ, इअरेसु धुवा समणुमन्ना।।६।। रिणि साधौ दृष्टपूर्वे उपलब्धपूर्वे यथाई यथायोग्यमभ्युत्थानं सन्तो विद्यमानाः शोभना वा तीर्थकरस्य गुणाः ज्ञानादयः, बन्दनादि यस्य बहुश्रुतादेर्यद्योग्य, तत्कर्त्तव्यं नवति । यः पुनः कतीर्थकरे अईति नगवति, श्यं च प्रतिमा तस्य नगवतः । शीतलविहारी,न तस्यान्युत्थानवन्दनादि उत्सर्गतः किश्चित्क- | (तोसमं तु अज्झप्पं) तेषां नमस्कुर्वतामिदमध्यात्मम् इदं चेतः, तव्यमिति गाथार्थः ॥४८॥ श्राव० ३ अ० । तथा न च तासु सावद्या सपापा, क्रिया चेष्टा, प्रतिमासु, श्तरेषु एतच वाङ्नमस्कारादिना विशेषेण क्रियते, किंतर्हि पार्श्वस्थादिषु ध्रुवा अवश्यंभाविनी सावद्या क्रिया ।प्रणमतस्त प्रकिमित्यत आह-( समणुमन्ना) समनुशा सावधक्रियायुक्तपरिआन बंजचेरं, परिसविणीआ सि पुरिस नचा वा। पार्श्वस्थादिषु प्रणमनात्सावधक्रियानुमतिरिति हृदयम् । अथकुलकजादायत्ता, आघवन गुणागमसुझं वा ।।५।। वा सन्तस्तीर्थङ्करगुणास्तीर्थकरे तान् वयं प्रणमामः, तेषामिद मध्यात्मम् इदं चेतः, ततोऽर्हद्गुणाध्यारोपेण प्रतिमाप्रणखित्तम्मि संवसिज्जइ, जस्स पनावेण निरुवसग्गं तु । मनान्नमस्कर्तुनच सावद्यक्रिया परिस्पन्दनलकणा, इतरेषु श्रोमम्मि अपमितप्पड़, सादणं आगमं तू अ॥२५॥ पार्श्वस्थादिषु पुज्यमानेवशुनक्रियोपेतत्वात् तेषां नमस्कर्तुएवं विहस्स कुज्जा, उप्पन्ने कारणप्पगारम्मि । धंवा समनुज्ञेति गाथाऽर्थः॥ ६०॥ पुनरप्याह चादकःकलिकण जहाजुग्गं, वायाईणि म समग्गाणि ॥५६॥ जह सावज्जा किरिया, नत्यि उपामिमासु एवमिरा वि। पर्यायो ब्रह्मचर्यमुच्यते, तत्प्रनूतं कालमनुपालितं येन, परि. पधिनीता वा तत्प्रतिबद्धा साधुसंहतिः शोभना ( से) तस्य तयत्नावे नत्यि फलं, अह होइ अहेउअं होई ॥ ६१ ॥ [पुरिस नच्चा व ति] पुरुष ज्ञात्वा वा । अनुस्वारोऽत्र अष्टव्यः। यथा सावद्या क्रिया सपापा क्रिया नास्त्येव न विद्यत एव प्रकथं ज्ञात्वा ?, कुलकार्यादीन्यनेनायत्तानि, श्रादिशब्दाद्रणसंघ. तिमासु,पवमितरापिनिरवद्याऽपि नास्त्येव । ततश्च तदनावे निकार्यपरिग्रहः । [प्राघवउ ति] पाण्यातस्तस्मिन् केत्रे प्रसिद्धः, रवद्यक्रियाभावेनास्ति फलं पुण्यलकणम, अथ नवनि, अहेतुकं तद्वलेन तत्रास्यत इति क्षेत्रहारार्थः । (गुणागमसुयं वत्ति) गु- भवति निष्कारणं च भवति,प्रणम्य वस्तुगतक्रियाहेतुकत्वान्फणा अवमप्रतिजागरणादय इति कालद्वारावयवार्थः । आगमः लस्थत्यभिप्रायः । अहेतुकत्वे चाकस्मिककर्मसंभवान्मोवाचसूत्रार्थोभयरूपः, श्रुतं सूत्रमेव,गुणाश्चागमश्च श्रुतं चेत्येकवनावः। नाव इति गाथाऽर्थः ॥६॥ तद्वाऽस्यति विद्यत इत्येवं ज्ञात्वेति गाथार्थः ॥ श्राव. ३ अ०। इत्थं चोदकेनोक्ते सत्याहाऽऽचार्यः('एमआइ.' ५७ गाथा ५१६ पृष्ठे बृहत्कटपपान गतार्था) कामं उनयाभावो, तह वि फलं आत्थ मणविसुकीए । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२० ) निधानराजेन्द्रः । किकम्म " ती पुरा माविमुकी-इ कारणं ति परिमाओ ।। ६२॥ कामम् अनुमतमिदं यदुत उज्जयानावः सावद्येतरक्रियाभावः प्र तिमासु तथापि फलं पुष्यलक्षणम अस्तिवि मनोविशुः तस्या मनोविदे सकाशात् तथादि गमन विरेच नमस्कर्तुः पुरुयकारणं न नमस्करणीयवस्तुगता क्रिया, श्रात्मान्तरे फलाभावात । यद्येवं किं प्रतिमानिरिति । उता पुनर्मनोविशु कारण निमितं भवन्ति प्रतिमा तद्वारेण तस्याः संभूतिदादितिमाचार्थः ॥ ६२ ॥ आह एवं लिङ्गमपि प्रतिमावन्मनोविशुरूि कारणं नवत्येवेत्युच्यतेजइ विपमिमा उ जहा, मुणिगुण संकष्पकारणं सिंगं । उभयवि अतिथ लिंगे, न य परिमामयं अस्य ॥६३॥ यद्यपि च प्रतिमा यथा मुनीनां गुणाः मुनिगुणाः तेषु संकल्पः अध्यवसायः मुनिगुणसंकल्पः तस्य कारणं निमित्तं मुनिगुणसंकल्पकारणम्, लिङ्गं द्रव्यलिङ्गम्, तथापि प्रतिमानिः सह वैधर्म्यमेव यत उभयमप्यस्ति लिने, सावद्यकर्म निरवचकर्म च तत्र निरवद्यकर्मयुक्त एव यो मुनिगुणसंकल्पः स सम्यक्संकल्पः, स एव च पुण्यफलः । यः पुनः सावद्यकर्म - युक्तेऽपि मुनिगुणल्यास पच विपर्याससंकल्प शफ श्वासौ, विपर्यासरूपत्वादेव । न च प्रतिमासूभयमस्ति, चेष्टारहितत्वात् । ततश्च तासु जिनगुणविषयस्य क्लेशफन्नस्य विपर्यास्वसंकल्पस्याभावः, सावद्यकर्मरहितत्वात् प्रतिमानाम् । श्राहइथं स निरवद्यकर्मरहित्यात सम्पकस्यापि पुण्यफलस्याप्यनाव पत्र प्राप्त इति ?, उच्यते तस्य तीर्थकर गुणाभ्यारोपेस प्रवृत्तेर्गाभाव इति । तथा चाह निअमा जिणेसु छ गुणा, पडिमा ओ दिस्स जंमणे कुणइ । उवितो, कं नमन मणे गुणं काउं ॥ ६४॥ नियमादिति नियमेनावश्यतया, जिनेषु तीर्थकरे, शब्दस्यानधारणार्थगुणा ज्ञानादयः न प्रतिमासु प्रतिमा रा तास्वध्यारोपद्वारेण यन्मनसि करोति चेतसि स्थापयति, न पुनर्नमकरोनि अपवासी तासु शुभपुण्यफलो जिनगुणसंकल्प, सावधकर्मरहितत्वात् न चायं तासु निरवद्यकर्मानायमात्राद्विपर्याससंकल्पः खानमपेतवस्तुविषयत्तस्य श्रयचिकलाकारमात्र कतिपपगुणाविरो पोऽपि युक्तियुक्तः, (अगुले तु इत्यादि) अगुणाने तुशब्दस्याबधारणार्थत्वात् श्रविद्यमानगुणमेघ विजानन्नवबुध्यमानः पार्श्वस्थादीन ( कं नमन मणे गुणं काउं ति । कं मनसि कृत्वा गुणं, नमस्करोतु तानिति । स्थादेतत् अन्यसाधुयारोपमुखेन मनसिकृत्या नमस्तु न तेषां सावधकर्मयुकराया अध्यारोपविषयविकलत्या विषये चाध्यारो पमपि कृत्वा नमस्कुर्वतो दो आह च जह लंबगलिंगं जाणंतस्स नम को हव दोसो | निस नाऊण दमा पुत्रो दोसो ॥ ६५ ॥ कह लिंगमप्यमाणं, उप्प केले व जं नागे । न नमति जिणं देवा, सुविहित्र्वत्थपरिहीणं ।। ६६ ।। किश्कम्म " यथा विमम्बलि भण्डादिकृतं जानतो ऽपयुद्धमानस्य नमो नमस्कुर्वनो खतोऽस्य भवति दोषः प्रहल क्षण' । निद्धन्धसं प्रवचनापघातनिरपेक्षं पार्श्वस्यादिकं ( श्य ति ) एवं ज्ञात्वाऽवगम्य ( वन्दमाणे धुत्रो दोस्रो ति ) वन्दति नमस्कुर्वन्ति नमस्कर्त्तरि भुवोऽवश्यंभावी दोष आराध नादिलक्षणः । पाठान्तरं वा "निरूध पि नाऊण, वंदमाणस्स दोसा उ " इदं प्रकटार्थमेवेति गाथार्थः ॥ ६५ ॥ एवं न लिङ्ग मात्र कारणतोऽवचनाद्यकिय नमस्क्रियत इति स्थापितम मालिङ्गमपि पनिरहितमित्थमेवावगन्तव्यम्। नावीसगर्भे तु व्यलिङ्गं नमस्क्रियते, तस्यैवाभिलषितार्थक्रियाप्रसा धकत्वात् । रूपकदृष्टान्तश्चात्राह / रूपं टंक विसमा-यवखरं न विरूपओ ओ । कुन्दं पि समाओगे, रुप्पो असुदे ।। ६७ ।। अत्र तावच्चतुर्भङ्गाः- रूपमशुद्धं, टङ्कं विषमाहताकरमित्येकी प्रङ्गः । रूपम रहूं समाहारमिति द्वितीया क तारू शुद्धं समाहताहर मिति चतुर्थः । श्रत्र च रूपकल्प भावलिङ्गं, टङ्ककल्पं द्रव्यलिङ्गम् । इह च प्रथमभङ्गतुव्याश्चर कादयः, अयुकोजयलिङ्गत्वात् । द्वितीयभङ्गतुल्याः पार्श्वस्थादयः, श्रशुद्धभावलिङ्गत्वात् । तृतीयभङ्गतुल्याः प्रत्येकबुद्धाः, श्रन्तर्मुहर्त्तमानं कालमगृहीतद्रव्यलिङ्गकः । चतुर्थभङ्गतुल्याः साधवः शीला गता निर्म जिनकपिकादयः । यथा रूपको भङ्गत्रयान्तर्गतः "अ स्थेक " इत्यविकलतदर्थक्रियार्थिना नोपादीयते, चतुर्थभङ्गनिरूपित एवोपादीयते, एवं भङ्गत्रयनिदर्शित पुरुषा अपि परलोकानिघतो न नमस्करणीयाः, चरमभङ्गकनिदर्शिता एव नमस्करणीया इति भावना | अकराणि त्वेवं नीयन्ते-रूपं मातास्तनिविष्टतरं नैव रूपककः, असभ्यवहारिक स्यर्थः द्वयोरपि शुरू समाहार समायोगे सति रूपकश्येकत्यमुपैतीस गाधार्थः ॥ ६७ ॥ रूपकदृष्टान्ते दार्शन्तिकनियोजनां निदर्शयन्नाहरुष्पं पत्ते अबुहा, टंकं जे लिंगधारिणो समणा । दस्स्स व नावस् य देओ समय समाओगे।। ६८ ।। रूपं प्रत्येक शयनेन रिणः भ्रमणा इत्यनेन तु द्वितीयस्य अनेोमयात्मक स्यापि प्रथमचरमभङ्गद्वयस्येति । तत्र द्रव्यस्य च भावस्य च बेकः श्रमणः समायोगे समाहना करटङ्कशुरूरूपककल्पव्यभावलिङ्गसंयोगे शोभनः साधुरिति गाथार्थः ॥ ६८ ॥ श्राव० ३ श्र० | ( ज्ञानप्राधान्यविचारोऽतथोपयुक्तत्वानात्र कृतः ) अतिमानुषङ्गिकम तथा स्थितमिदं कृतिकर्म न कर्त्तव्यम, तथा च निगमयन्नाहदंसणनाचरिते, तत्रविएए निचकापासत्या | एए अणि जे जसपाईप ।। १२६ ।। [ दणाणचरितेति ] प्राकृतशैल्या बादल्याच्या दर्श नशान यारियां तथा तपोधन। [निकालपासत्य [स] Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किइकम्म किश्कम्म निकाल सर्वकाल पानी निकालास्था किकम्मं न कारिज्जा, सब्बे रायणिए तहा ॥ १३८ ॥ नित्य कालग्रहणमित्वरप्रमादव्यवच्छेदार्थ, तथा चेत्वरप्रमादानिश्चयतो ज्ञानाद्यपगमेऽपि व्यवहारतस्तु साधव पवेति । पते प्रस्तुता अवन्दना किंभूताः यशोघातिनः यशोविनाशकाः । कस्य?, प्रवचनस्य, कथं यशोघातिनः ?, श्रमणगुणोपात्तं यद्यशः सद्गुणवितधावनतो घातयन्तीति गाथाऽर्थः ॥ १२६॥ (४२१) अभिधानराजेन्द्रः । (१२) पार्श्वस्थादिवन्दने चापायान् निदर्शयन्नाह किकम्पं च पसंसा, सुहसील जणम्मि कम्मबंधाय । जे जे पमायामा से से पति ।। १२७ । कृतिकर्म चन्दनं प्रशंसा च बहुधुतो विनीतो वाऽयमित्यादिल कणा, सुखशीलजने पार्श्वस्थजने, कर्मबन्धाय । कथम् ?, यतस्ते पूज्या एव वयमिति निरपेकतरा नवन्ति । एवं यानि यानि प्रमादस्थानानि येषु विषीदन्ति पार्श्वस्थादयः तानि तानि उपबृंहितानि प्रति समर्पितानि भवस्वनुमतानि भवन्ति । तत्प्रत्ययश्च बन्ध इति गाथाऽर्थः ।। १२७ ॥ यस्मादेते पायास्तस्मात्स्यायनन्दनीया साथ वन्दनीया इति निगमपचाद सानापरि तबविणण मिचकालमृजुत्ता । एए न बंदणिज्जा, जे जसकारी पत्रयणस्स ॥ १२८ ॥ दर्शनज्ञानचारित्रेषु तथा तपोविनययोः, नित्यकासं सर्वकालम, उद्युक्ता उद्यता पते एव वन्दनीयाः, ये विशुरुमार्गप्रभावनया यशःकारिणः प्रवचनस्येति गाथार्थः ॥ १२८ ॥ (१३) अधुना सुसाधुवन्दने गुणमुपदर्शयन्नाह - किकम्पं च पसा, संविग्गणम् निराए । जे जे रिट्ठाणा, ते ते उबबूहिया हुंति ||१२|| कृतिकर्मन्नं प्रशंसा बटुतो विनीतः पुण्यप्रायादि लक्षणा, संजिने निर्जराय कर्माय कथमयानि यानि विरतिस्थानानि येषु वर्तन्ते ते संतान सम्पहितानि अवश्यनुमतानि भवन्ति, तदनुमत्या च निर्जरा। संविग्नाः पुनद्विविधातो भवतश्च द्रव्यसंविना मृगाः पचति सदा तसा भावसंविग्नास्तु साधवः तैरिहाधिकारइति गाथाऽर्थः ॥ १२५ ॥ मा कृतिमैत्यादिद्वारगाथा। नियमो कमोघतो दर्शनाद्युपयुक्ता एव वन्दनीया इत्यधुना वाचादिभेदोऽभिधित्सुराह परिवज्जाओ, पवत्ति थेरे तहेव रायणिए । एएर्सि किकम्मं, कायव्वं निज्जरट्टाए ।। १३० ॥ आचार्य उपाध्याय प्रवर्तकःस्थविरस्तथैवाधिक ते यांकृतिक कर्तव्यं निर्जरार्थमाचार्य सूत्रार्थोभयवेत्ता, लक्षणादियुध भाव अधिकमऋत्यम् 'प' शब्देवयते " प्रथमद्वारगाथायां गतं कस्येति द्वारम् । (१४) अधुना केनेति द्वारम् । केन कृतिकर्म कार्य, केन वा न कम्पका पुनरस्य करोचितः अनुतो बेत्यर्थः सत्र मातापित्रादिरनुचितो गणः । तथाखाह प्रन्थकारःमायरं परं नादि जिगं वाविभावरं । १३१ " टिप्परवाणे, सुए मरणाहमा विहु करति । मकिन कोई सा चैत्र य तेसि पकरेई ॥ १३५ ॥ मातरं पितरं वाऽपि ज्येष्ठकं चापि भ्रातरम्, अपिशब्दान्माताम हपितामहादिपरिग्रहः, कृतिकर्म अभ्युत्थितवन्दनं न कारयेत्, सर्वान्नाधिकान्। तथा पर्यायामित्यर्थः किमिति मात्रादीदार लोकगाय तेषां च कदाचिद्विपारेणामो भवति । प्रलोचनप्रत्याख्यानसूत्रार्थेषु तु कारयेत्, सागारि काध्यकं तु यतनया कारयेत्, एत्र प्रवज्याप्रतिपन्नानां विधिः । गृहस्थांस्तु कारयेदिति गाथार्थः ॥ १३६ ॥ साम्प्रतं कृतकर्मकरणोचितं प्रतिपादयग्राह पंच महाव्त्रयजुत्ता, अणलस माणपरिवज्जिअमईयो । संविग्ग निज्जरडी, किकम्बकरो हम साहू || १४०॥ पञ्च महाव्रतानि प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्कणानि तैर्युक्तः, ( अणलसति ) आलस्यरहितः, मानवर्जितमतिः जाम्यादिमानपरामुखमतिः संविग्नः प्रामाण्यात एप, निराक मैकयार्थी एवंभूतः कृतिकर्मकारको प्रयति सा भूतेन साधुना कृतिकर्म कर्त्तव्यमिति गाथार्थः ॥ १४० ॥ गतं केनेति द्वारम् । (१५) सांप्रतं कत्यायातम, कड़ा कृतिकर्म कर्तव्यं कदा वा न कर्त्तव्यमित्यत श्राह - वाक्खत्त पराहुत्ते, पत्ते मा कयाइ बंदिज्जा । आहारं च करते, नीहारं वा जई कर ।। १४१ । व्याक्षिप्तं धर्मकथादिना, (पराहुत्ते यति) पराङ्मुखं च च शब्दानादिपरिषद प्रमसंकोचादिप्रमादेन मा कदाचि उन्हा, नीहारं वा यदि करोति धर्मन्तरायाः नवधारणप्रकोपाहारान्तरायपुरीष निर्गमादयो दोषाः प्रपञ्श्चन वक्तव्या इति गाथार्थः ॥ १४१ ॥ " कदा तर्हि वन्देत इत्यत आहपसंते सत्ये अ, उवसंते नवडिए । अन्नवित्त मेहावी, किकम्मं पजए || १४२ ॥ प्रशान्तं व्याक्षेपरहितम, धामनस्यं निषद्यागतम् उपशान्तं क्रोधादिप्रमादरहितम् उपस्थितं उन्नेयानिधानेन प्रत्युतम एवंभूतं सन्तम्, अनुज्ञाप्य मेधावी, ततः कृतिकर्म प्रयुञ्ज /तयन्दनं कुर्यादित्यर्थः अनुज्ञापनायां च देयानि भुवयन्दनानि तेषु प्रतिक्रमणादीनामुपयति । यानि पुन निवापीति गाथार्थः ॥१४२॥ गतं कति द्वारम् । 1 (१६) अधुना कतिकृत्य कृतिक कार्य कियतो बारा इत्यर्थः । तत्र प्रत्यहं नियतान्यनियतानि वन्दनानि भवन्त्यत उभवस्थाननिदर्शनाबाद नियुक्तिकार: परिक्रमणे सजाए, कालस्वग्गारराहपाए । श्रालो प्रणसंवरणे, उत्तमट्ठे अ वंदणयं ॥ १४३ ॥ प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रमणम, अपराधस्थानेयो गुणस्थानेषु वमित्यर्थः । तस्मिन्सामान्यतो भवति तथा स्वाभ्यावे याचनादिकलणे, कायोत्सर्गे यो हविगतिपरिभोगाबाबाविसर्जनाचे क्रियते अपराधे गुरुनियन1 हत्या शामयति पाक्षिकचन्दनाम्यपराधे पतन्ति । प्राचूर्णके Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२३) किइकम्म अभिधानराजेन्द्रः। किश्कम्म ज्येष्ठ समागते सति बन्दनं भवति, इतरस्मिन्नपि प्रतीच्छित- एव वन्दते, तदव्यतिरकाद्वा यथाजातं नएयते, कृतिकर्म वन्दनम्यम् । अत्र चायं विधिः कम् । ( वारसावयं ति) द्वादशावतः सूत्रानिधानगर्नाः का"संभोदयमसंभोर-या य दुविहा भवंति पाहुणया। यव्यापारविशेषाः यतिजनप्रसिद्धा यस्मिंस्तद् द्वादशावतम् । तथा-(चउसिर ति) चत्वारि शिरांसि यस्मिस्तचतुःशिरः । संभोइय मायरियं, आपुच्चित्ता बंदति ।। प्रथमप्रविष्टस्य कामणाकाले शैष्याचार्यशिरोद्वयं पुनरपि निश्यर पुण पायरियं, वंदित्ता संदिसावि तह य । क्रम्य प्रविष्टस्य द्वयमेवेति भावना । तथा-(तिगुत्तं लि) पण वदंति जई, गयमोहो अहव वंदावे ॥" तिसृजिगुप्तिनिर्गुप्तः । पाठान्तरेऽपि तिमृतिः श्रागुप्तिभिरेतथा मालोचनायां विहारापराधभेदभिन्नायां संवरणं नुक्ते वेति । तथा ( दुपवेसं ति)द्वौ प्रवेशौ यस्मिस्तद् द्विप्रवेशम्। प्रस्याख्यानम । अथवा कृतनमस्कारसहितादिप्रत्याख्यानस्यापि तत्र प्रथमोऽवग्रहमनुशाप्य प्रविशतो, द्वितीयः पुनर्निर्गत्य प्रपुनरजीर्णादिकारणतोऽभक्तार्थ गृहतः संवरण तस्मिन्वन्दनं विशत शति । ( एगनिक्खमणं ति) एक निष्क्रमणमवग्रहादाप्रवति । उत्तमार्थे चानशनसंलेखनायां वन्दनमित्येतेषु प्रति वशिक्यानिर्गच्चतः । द्वितीयवेलायां ह्यवग्रहान्न निगच्चति क्रमणादिषु स्थानेषु वन्दनं भवतीति गाथार्थः ॥ १४३ ॥ पादपतित एव सूत्रं समापयतीति । स०१२ सम०नि० चू। श्य सामान्येन नियतानियतस्थानानि वन्दनानि प्रदर्शि कत्यवनतमित्याद्यद्वारं तदर्थप्रतिपादनायाऽऽह-- सानि, साम्प्रतं नियतवन्दनस्थानसंख्याप्रदर्शनायाऽऽह सुमोणय जहाजायं, किड़कम्मं वारसावत्तं । चचारि पमिक्कमणे, किकम्मा तिन्नि हुंति सज्झाए । चनस्सिरं तिगुत्तं च, दुपवसं एगनिक्खमणं ॥ १४५ ॥ पुबन्ने अवरन्हे, किइकम्मा चउदस हवंति ॥१४॥ अवनतिरवनतम, उत्तमाङ्गप्रधानं प्रणमनमित्यर्थः । द्वे अवनते चत्वारि प्रतिक्रमणे कृतिकर्माणि, त्रीणि भवन्ति स्वाध्याये,पूर्वा यस्मिस्तद् व्यवनतम् । एवं यदा प्रथममेव-"इच्छामिखमासमप्रत्यूपसि । कथम्-"गुरुं पुब्बसंझाए वंदित्ता आलोएं णो! वंदिउं जावणिजाए निसीहियार" ति अभिधाय छन्दोति एयं पकं । अन्तुट्टियावसाणे जं पुणो वंदति गुरुं एतं विती ऽनुज्ञापनायावनमति । द्वितीय पुनर्यदा कृतावों निष्कान्तः यं । एत्य य विदी पच्छा जहन्नेण तिन्नि । मझिम पंच वा इच्छामीत्यादिसूत्रमभिधाय बन्दोऽनुज्ञापनायवावनतमिति यथासत्तवा, उकोसं सव्वे वि वंदियब्वा । जर घाउलावक्खेवो जातं जन्मश्रमणत्वमाश्रित्य योनिनिष्क्रमणं च । तत्र रजोहरवा तो पक्केण ऊणगा जाव तिन्नि अवस्सं वंदियव्वा । एवं देव णमुखवत्रिकाचोलपट्टकमात्रया श्रमणो जातः, रचितकरपुटसिए पक्सिाए पंच अवस्सं, चानम्मासिए संवच्छरिए वि सत्त | स्तु योन्या निर्गतः, पवंभूत एव वन्दते। तव्यतिरेकाच यअवस्सं ति । ते वंदिळण जं पुण आयरियस्स अल्लिविज्जति तं थाजातं भएयते; कृतिकर्म वन्दनम् । (वारसावत्तं ति) द्वाततिय, पञ्चक्खाणे चचत्थं सज्झाए पुणो वंदित्ता पवेति । दशावतः सूत्रानिधानगर्नाः कायव्यापारविशेषा यस्मिानिति पढमे पविए पवेदयंतस्स वितियं पच्छा उद्दि समुद्दिष्टुं पढ समासः, तद् द्वादशावर्तम् । इह च प्रथमप्रविष्टस्य पावनः ति।उससमुदेसवंदणाणमिहवं तब्भावो ततो जाहे चउभागा भवन्ति-"अहोकायं कायसंफासं खमणिजो ने किलामो अवसेसा पोरसी ताहे पाए पमिलेहेति । जति न पढिउकामो तो पकिलंताण बहुसुण ने दिवसो वश्कतो, जत्ता मे जववंदति,मह पढिनकामो तो अवंदित्ता पाए पडिले हेति । पडि णिजं च ने” एतत्सूत्रगर्भाः गुरुचरणन्यस्तहस्तशिरस्थापलेहिता पच्चा पढति,कालवेलाए वंदिउं पडिक्कमति । एवं तश्यं, नरूपा निष्क्रम्य पुनःप्रविष्टस्याप्येत एव पमिति; एतचापान्तएवं पूर्वाडे सप्त, अपराढे पि सप्तैव जवन्ति, अनुज्ञावन्दनानां स्वा रालद्वारद्वयमाद्यद्वारोपलक्षितमवगन्तव्यम् । गतं कत्यवनतद्वाभ्यायवन्दनेप्येवान्तर्भावात् । प्रतिक्रमणिकानि तु चत्वारि प्रसि रम् । सांप्रतं कतिशिर एत्येद्धारं व्याचिख्यासुरिदमपरं गाथाकान्येवमेतानि ध्रुवाणि प्रत्यहं कृतिकर्माणि चतुर्दश भवन्ति शकलमाह-(चउसिरमित्यादि ) चत्वारि शिरांसि यस्मिस्तअनकाधिकस्य । इतरस्य तु प्रत्याख्यानवन्दननाधिकानि भव चतुःशिरः, प्रथमप्रविष्टस्य कामणाकाले शिष्याचार्यशिरोन्तीति गाथार्थः ॥१४४॥ गतं कतिकृत्वो द्वारम् । श्राव०३ अ०। द्वयं, पुनरपि निष्क्रम्य प्रविष्टस्य शिरोद्वयमेवेति भावनाद्वा(१७) कृतिकर्मस्वरूपनिरूपणम् रम् । तिम्रो गुप्तयो यस्मिस्तत् त्रिगुप्तम् । मनसा सम्यक्प्रणिवालसावत्ते कितिकम्मे पणत्ते । तं जहा-दुओणयं| हितम, वाचा अस्खलितान्यवराएयुच्चारयन्, कायेन आवर्त ने विराधयन् वन्दनं करोति यतः । चशब्दोऽवधारणार्थः। द्वी जहाजायं कितिकम्म वारसायं चसिरं तिगुत्तं दुपवेसं प्रवेशौ यस्मिस्त द्विप्रदेशम् । प्रथमोऽनुज्ञाप्य प्रविशतो, द्विएगनिक्खमणं ॥ तीयः पुनर्निर्गत्य प्रविशत इति । एक निष्कमणम् आवश्यकया द्वादशावर्त कृतिकर्म वन्दनकं प्राप्तम् । द्वादशावर्ततामेवा निर्गच्छतः । एतच्चापान्तरालघारत्रयं कतिशिरोद्वारेगयोपलस्थानुवन्दनशेषांश्च तद्धर्माननिधिस्सितं रूपकमाह-( दुोगा तितमवंगन्तव्यमिति गाथार्थः॥ १४५ ॥ येत्यादि) अवनतिरवनतम्, उत्तमाङ्गप्रधानं प्रणमनमित्यर्थः। वे [१८] सांप्रतं कतिभिर्वाऽऽवश्यकैः परिशुरुमिति द्वाराथोंsप्रबनते यसिंस्तद् यवनतम्। तत्रैकं यदा प्रथममव-"श्च्यामि भिधीयते। तथाचाहसमासमणो! वंदिउं जावणिजाए निसीहियाप" ति अनिधा अवणामा उहा जावं, आपत्तो वारसे वय ॥ यावग्रहानुज्ञापनायात्रनमति, द्वितीयं पुनर्यदावग्रहानुज्ञापनायै सीसा बचारि गुत्तीओ, तिनि दो अपसेवणा ॥१४६॥ वाबनमतीति यथाजातं श्रमणत्वभवनलकणं जन्माश्रित्य योनिनिकमणलक्षणं च, तत्रच रजोहरामुखवखिकाचोखपट्ट. एगनिक्खमणं चेत्र, पणवीसं विराहिआ। मात्रया श्रमणों जातो रचितकरपुटस्त योन्या निर्गत एवंभूत आवस्सएहि परिसुकं, किइकम्मं जेहि कीरई ॥१४॥ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२३) किइकम्म अभिधानराजेन्द्रः। किइकम्म इदमन्यकर्तृगाचावयं निगदसिम्मेवे । एभिर्गाथायोक्तः पयेणाक्रिया भवति । यतः-प्रक्रियः सिद्धः, असावपि पारम्पर्येपञ्चविंशतिभिरावश्यकैः परिशुद्धं कृतिकर्म कत्तव्यम्, अन्यथा ण वन्दनलक्षणाद्विनयादेव भवति । उक्तश्च परमर्षिनिः-"तहारूकन्यकृतिकर्म भवत्यत आह-( एग त्ति) कृतिकापि कुर्वन्न घेणं भंते समणं वा माहणं वा चंदमाणस्स पज्जुवासमाणम्स भवति कर्मनिर्जराजागी पञ्चविंशतेरावश्यकानाम अन्यतरत किं फसा बंद हपज्जुवासणया। गोयमा! सवणफमा सपणे साधुस्थानं विराधयन्, विद्यादृष्टान्तोऽत्र यथाहि-विद्या धिक- णाणफले, नाणे विनाणफले, विनाणे पचखाणफसे, पक्षलानुष्ठाना फलदा न भवति, एवं कृतिकर्मापि निर्जराफर्स न खाणे संजमफले, संजमे अणन्नयफले, अणनए तषफले, भवति, विकलस्वादेवेति गाथार्थः ॥१४७ ॥ तवे वोदाणफले, चोदाणे अकिरियाफले, अकिरिया सिरुगति(१५) अधुना विराधनगुणोपदर्शनायाऽऽह गमणफला।" तथा वाचकमुख्येनाप्युक्तम्पणचीसा परिसुफ, किश्कम्मं जो पलंजय गुरूणं । "विनयफलं शुश्रूषा, गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरति-चिरतिफलं चाऽऽश्रवनिरोधः॥१॥ सो पावइ निवाणं, अचिरेण विमाणवासं वा ॥१४॥ संवरफलं तपोबल-मथ तपसो निर्जराफलं रष्टम ॥ पञ्चविंशत्याऽऽवश्यकान्यवनतादीनि प्रतिपादितान्येवं तच्छु. तस्मारिक्रयानिवृत्तिः, क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् ॥२॥ कं, तदपिकलं कृतिकर्म यः कश्चित्प्रयुते, करोतीत्यर्थः। कस्मै ?, योगनिरोधाद्भवसं-ततिक्षयः संततिक्यान्मोकः। गुरवे प्राचार्याय, अन्यस्मै वा गुणयुक्ताय, स प्राप्नोति निर्वाणं तस्मात्कल्याणानां सर्वेषां नाजनं विनयः" इति गाथार्थ:।१७०। मोक्कम, अचिरेण स्वल्पेन कालन, विमानवासं वा सुरलोकं वेति गाथार्थः ॥१४जना (कतिदोषविप्रमुक्तमिति यदुक्तं तत्र द्वात्रिंशदोषदर्शनं च 'वंदण' शब्दे अनाहतादिशब्दव्याख्या 'अ. विणो सासणमूलं, विणीअो संजो भवे । णादिय' मादिशब्देषु वक्ष्यते) विणयाओ विप्पमुक्कस्स, को धम्मो को तवो।।१७।। किकम्मं पि करंतो, न हो किडकम्मनिज्जरानागी।। शास्यन्तेऽनेन जीवा इति शासन द्वादशाङ्गं, तस्मिन्विनयो बत्तीसामन्नयरं, साह् गणं विराहतो॥ १७५ ॥ मूलम् । यत उक्तम्बत्तीसदोससुषं, किइकम्मं जो पनंजइ गुरूणं । "मूला खंधप्पभवो मस्स, खंधान पच्छा समुति साहा । सो पाव निवाणं, अचिरेण विमाणवासं वा ।। १७६ ।। साहा पसाहाविरुहंति पत्ता, पत्ता सि पुष्पंच फनं रसोय"। "एवं धम्मस्स विणो,मूलं परमो से मोक्खो। जेण कित्तीसुकृतिकर्मापि कुर्वन्न भवति कृतिकर्मा निर्जराभागी, द्वात्रिंशदो यं सिग्धं, नीसेसं चाभिगच्छति" तो विनीता संयतो प्रवेत, पाणामन्यतरत्साधुः स्थानं विराधयन्निति गाथार्थः ॥१७॥ दो विनयाद् विप्रमुक्तस्य कुतो धर्मः कुतस्तपति गाथार्थः॥१७॥ पविप्रमुक्त कृतिकर्मकरणे गुणमुपदर्शयन्नाह-द्वात्रिंशदोषपरि अतो विनयोपचारार्थ कृतिकर्म क्रियत इति स्थितम् । माहशुद्ध कृतिकर्म यः प्रयुङ्क्ते करोति गुरवे, स प्राप्नोति निर्वाणम, विनय इति कः शब्दार्थ इत्युच्यतेअचिरेण विमानवासं वेति गाथार्थः ॥ १७६॥ जम्हा विणय कम्मं, अट्ठविहं चानरंतमोक्खाय । महो दोषपरिशुद्धाद्वन्दनात्को गुणः, येन तत एव निर्वाण- | प्राप्तिः प्रतिपाद्यते, इत्यत्रोच्यते तम्हा ज वयंति विओ, विणोत्ति विलीणसंसारा १७०। आवस्सएसुजह जह, कुणइ पयत्तं अहीणमइरित्तं । यस्माद्विनयति नाशयतिकर्म अष्टविधम्। किमर्थम्,चतुरन्त मोकाय,संसारविनाशायेत्यर्थः। तस्मादेव वदन्ति विद्वांसः-वितिविहकरणोवउत्तो, तह तह से निजरा होइ ॥ १७७॥ नय इति विनयनादू विलीनसंसाराः कीणसंसाराः । अथवा पावश्यकेष्ववनतादिषु दोषत्यागकणेषु च यथा यथा करो "विणीअसंसारा” इति पाविनीतसंसारा नष्टसंसारा इत्यर्थः । ति प्रयत्नम्, अहीनातिरिक्तं न हीनं नाप्यतिरिक्तम् । किंमतः यथा विनीता गौनष्टकीरा अभिधीयत इति गाथार्थः ॥१०॥ सन् ?-त्रिविधकरणोपयुक्तः मनोवाक्कायरुपयुक्त इत्यर्थः । तथा किमिति क्रियत इति द्वारं गतम् । व्याख्याता द्वितीया कतथा (से) तस्य वन्दनकर्तुनिर्जरा भवति कर्मक्कयो भवति । त्यवनतमित्यादिद्वारगाथा । अत्रान्तरेऽभ्ययनशब्दार्थो नितस्मानिर्वाणप्राप्तिरित्यतो दोषपरिशुरूादेव फलावाप्तिरिति । गाथार्थः ॥ १७७ ॥ गतं सप्रसङ्गं दोषविप्रमुक्तद्वारम् । रूपणीयः स चान्यत्र न्यक्केण निरूपितत्वान्नेहाधिकृतः । गतो नाम निष्पन्नो निक्षेपः। (२०) अधुना 'किमिति क्रियते' इति द्वारम् । तत्र बन्दन (१) सांप्रतं सूत्रामापकनिष्पन्नस्य निकेपस्यावसरः, स करणकारणानि प्रतिपादयन्नाह च सूत्रे सति भवति, सूत्रं च सूत्रानुगम इत्यादि प्रपञ्चतो घविणओवयार माण- स्स जणा पूअणा गुरुजणस्स। क्तव्यम्, यावश्चेदं सूत्रम्तित्थयराण याणा, सुअधम्माराहणाऽकिरिया।१७। इच्छामि स्वमासमणो! वंदिउं जावणिज्जाए निस्सिहियाविनय पवोपचारो विनयोपचारः कृतो भवति । स एव किम- ए जाणह मे मिश्रोग्गहं निसीहि अहोकायं कायसंर्थ इत्याह-मानस्याहङ्कारस्य भञ्जना विनाशः तदर्थः। मानेन फासं खमणिज्जो ने किमामो अप्पकिलंताणं बहसुनेच भग्नेन पूजना गुरुजनस्य कृता भवति, तीर्थकराणां चाका अनुपालिता नवति । यतो भगवद्भिनियमूह एवोपदिष्टो धर्मः, ण भे दिवसो बइक्कतो जत्ता ने जवाणिजं च भे खामेमि स च वन्दनादिलकण पव विनय इति । तथा श्रुतधर्माराधना | खमासमणो देवसियं वश्कर्म भावसियाए पमिक्कमामि कृता भवति, यतो वन्दनपूर्व श्रुतग्रहणम्, (मकिरिय ति) पारं। खमासमणाणं देवसियाए प्रासायणाए तेत्तीसत्रयराए Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२४ ) अभिधानराजेन्द्रः | किश्कम्म जं किंचि मिच्चाए मणदुक्कमाए वयदुक्कमाए कायदुक्ककार कोहार मानाए मायाए सो जाए सव्वकालियाए सव्वमिच्छोवयाराए सव्वधम्माक्कमणाए आसायलाए जो मे अध्यारो को तरस खमासमको पक्कियामि निंदामि गरिहामि अप्पा बोसिरामि ॥ किइकम्म ति। पुनराह विनेयः यात्रा तपोनियमादिक्षणा कायिको मिकभावलचणा उत्सति भवताम् अन्तरे गुरुगतियुष्माकमपि वर्तते । मम तावत्सर्पते, भवतोऽप्युत्सर्पत इत्यथेः । पुनरप्याद विनेयः पापनीयं चद्रिद्रो माहिना प्रकारेण जयतां शरीरमिति! गम्यते । अत्रान्तरे गुरुराह एवं श्रमं यापनीयमित्यर्थः । पुनराह विनेयः - कमयामि मर्षयामि । कमाश्रमणेति पूर्ववत् । दिवसेन निर्वृत्तो देवसिकस्तं व्यतिक्रममपराधम् दैवर्णिकापणार्थम अस्य व्याख्याणं चेदम। 'संहिता चेत्यादिताखति पदोच्चारणं संहिता | साच" इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं जायशिक्षा मिस्सिडीआर सि" इत्येवं सूत्रोचारणरूपा अधुना पदविभागः इच्छाकमाश्रमण ! बन्दितुं यापनीया मे धिक्या अनुजानीत मम मिताचा नैवेधिका कार्य कायसंस्पर्शः कमणीयः भयमः अपक्लान्तानां बहुन भ बतां दिवसो व्यतिक्रान्तः, यात्रा भवतां यापनीयं च भवतां क्षमयामि क्षमाश्रमण ! देवसिकव्यतिक्रमम, धायशिक्या प्रतिक्रमामि, कमाश्रमणानां देवसिक्या अशातनया त्रयत्रिंशदन्यतरया यत्किञ्चिम्मिश्यया मनोदुष्कृतया वाग्दुष्कृतया कायदुष्कृतया क्रोधया मानया मायया लोभया सर्वकालिक्या सर्वमिथ्योपचारया सर्वधर्मातिक्रमणया श्राशातनया यो मया प्रतीचारः कृतः तस्य क्षमाश्रमण ! प्रतिक्रमामि निन्दामगर्दा आरमानं व्युत्सृजामि पतार्थान्ति सर्वसूत्रपदानि । साम्प्रतं पदार्थ पदवियथासंभवं प्रतिपाद्यते तत्र 'इषु' इच्छायामित्यस्योत्तमपुरुषैकवचनान्तस्य इच्वामीति भवति । 'कमू' सहने इत्यस्य श्रप्रत्ययान्तस्य कुमा। 'श्रमु' तपसि खेदे च, अस्य कर्त्तरि ल्युट् । श्राम्यत्यसाविति भ्रमणः । कुमाप्रधानः भ्रमणः कमाश्रमणः, तस्यामन्त्रणम् । वन्दे स्तुमुन् प्रत्ययान्तस्य वदितुम । ' या ' प्रापणे श्रस्य एयन्तस्य पुक् कर्त्तयनीयः, यापयतीति यापनीया, तया । 'विधु 'गत्यामस्य निपूर्वस्य घत्रि निषेधनं निषेधः, निषेधेन निर्वृत्ता नैषेोधिका । प्राकृतशैल्या बा दरवाला नैवेधन्युच्यते एवं शेषपदार्थोऽपि प्रकृतिप्रत्ययव्युत्पश्या वक्तव्यः विनेया संमोहार्थे तु न भ्रूमः । श्रयं प्रकृतसूश्रार्थः श्रवग्रहाद् बहिः स्थितो विनेयोऽर्द्धावनतकायः करद्वयगृहीतरजोहरण बनायो माहाभिलाया है कमाश्रमण ! वदितुं नमस्क, नवन्तमिति गम्यते यापनीयया यावत्शक्त्या नैवेधिक्या प्राणातिपातादिनिवृत्तया तथा शरीरेणेत्यर्थः । अत्रान्तरे गुपादियुक्तः त्रिविधेनेतिनजति ततः शिष्यः संक्षेपयन्दनं करोति, व्यापादिविकलस्तु 66 छन्देणं ति भणति " । ततो विनेयस्तत्रस्य एवमाहअनुजानीत अनुकां प्रयच्छत, ममेध्यात्मनिर्देशिकम् । मितआलापतिमिताग्रहस्तं चतुर्दिविचास्यात्मप्रमाणं क्षेत्रमवमहस्तमनुहां विहाय प्रवेषु न कल्पते। ततो गुरुप्रणति - अनुजानामि । ततः शिष्यो नैवेधिक्या प्रविश्य गुरुपादान्तिकं निधाय तत्र रजोहरणं तज्ञलाई चकराभ्यां संस्पृशन्निदं भणति - अधस्तात् कायः अधः कायः पादलक्षणः, तमधः कार्य प्रतिकायेन निजदेहेन संस्पर्शः कायसंस्पर्शः, तं करोम्येतश्चानुजानीत, तथा कमणीयः, सह्यो भवताम् । अधुना क्रमः देानिरूपः तथा अन्य स्तोमोते झास्तास्तेषामपक्रान्तानां बहु च तत् शुभं च बहुते दु इमेन, प्रभूतसुखेनेत्यर्थः प्रवतां दिवसो व्यतिक्रान्तः पुष्माक महतमित्यर्थः । अत्रान्तरे गुरुतयेति बधा न्तरे गुरुतिसमपि कामयामि देवसिकं व्यतिक्रमं प्रमादमित्यर्थः । ततो विका प्रतिक्रमणाण प्रायधिनस्थानं शोधयन् अत्रान्तरे कर तयोत्थायाऽवग्रहानिर्गच्छन्गथा यो व्यवस्थितस्तया क्रियया प्रदर्शयत्यादिकं कसूर्य भगति धरकरणात आवश्यकतया आवाद्वारे तया यदसानुष्ठितं तस्य प्रतिक्रमामि निवर्तयामीत्यर्थः क्षयं सामान्येनानिधाय विशेषेण प्रणति क्षमाश्रमणानां व्यावर्णित स्वरूपायां संबन्धिन्या यया दिवसेन ि शातना तया, किं विशिष्टया ?, त्रयस्त्रिंशदन्यतरया। आशातनाश्च यथा दशासु तथा द्रष्टव्याः । श्रचैव वाऽनन्तराध्ययने तथा द्रष्टव्या - " ताश्रो पुरा तेत्तीस पि श्रसायणाश्र इमासु चनसु मूल्झालायणासु समोयरंति । तं जहा- दव्वासाया दव्वासायणाराइणिपण समं भुंजतो मणुनं असणं पाणं अजति एयसंचारमादिसुवि सासायणा आसनं गंता भवति राइणियस्स । काला सायणा राओ वा वियाले वा वाहरमाणस्स तुसिणीए चिट्ठा। भा वासायणा आयरियं तुमं तुमं ति बत्ता भवति । एवं तेती संपि सुदव्यादिसु समयमायात्कि दाश्रित्य मिथ्यया, मनसा दुष्कृता मनोदुष्कृता, तया, प्रद्वेषनिमितयेत्यर्थः । वाग्दुष्कृतया असाधुवचननिमित्तया, कायदुष्कृतया आसन्नगमनादि निमित्तया, क्रोधयेति क्रोधवत्येति प्राप्ते देश कृतिगणत्वात् अत्ययान्तस्याको फोधा गतया, मानया मानानुगतया, मायया मायानुगतया, लोभया सोमानुगतया । अयं भावार्थ:-को धानुगरोन या काचिद्विनयभ्रंशादिलक्षणा प्रशातना कृता तयेतिः एवं दैवसिकी भ हिता अधुमेह भवान्यभयगतातीतानागतकाल संग्रहार्थमादसर्वकालेनातीतादिना निर्वृता सार्वकालिकी, तथा । सर्वे एय मिथ्योपचाराः मातृस्थानमा क्रियाविशेषा यस्यामिति समासः, तया, सर्वधर्म्मा अष्टौ प्रवचनमातरः तासामतिक्रमणं लङ्घनं यस्याः सा सर्वधर्मातिक्रमणा तथा एवंनूतया आशातनया इति निगमयति, यो मयाऽतिचारः अपराधः कृतो निर्वर्तितः, तस्यातिचारस्य हे क्षमाश्रमण ! युष्मतसाक्षिकं प्रतिक्रम्य पुनः करणतया निर्वर्तयामीत्यर्थः । तथा दुष्टकर्मकारिणं निन्दाम्यात्मानं प्रशान्तेन नवोमेन चेतसा तथा महात्मानं धात्साचिकं युत्सृजाम्यानं टककारिणम | तदनुमतिस्यायेन सामायिकानुसारेण च निन्दादिपदार्थो म्यक्ण वक्तव्यः । एवं कामयित्वा पुनस्तत्रस्थ वाकयनतकायः एवं भणतिष्ठामि क्षमासमणो!" - स्यादि सबै म्यमित्येवम नवरमयं विशेष:-" बायोम मासमणो!" इत्यादि सर्व सूमावशिषयावर त्याद पतित एच भणति । शिष्यासंमोहाचं सूत्र स्पर्शिकगाथां स्वस्थाने Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२५) अभिधानराजेन्: । किह्नकम्म किंचि बलु अनाहत्य सेशतस्तदर्थकथनचैव पदार्थों दर्शितः । नयाः सामायिक निर्युकाविव द्रष्टव्या इति । श्र० ३ ० । ० १० । कार्यकरणे, भ० १४ ० ३ ० । किकम्मविहि-कृतिकर्मविधि- ५० वा कारादिप्रका रहे, भाव० १ श्र० । आय० ३ ० । इत्थं सूत्रे प्रायशो वन्दमानस्य विधि निकिता पि स एव व्याख्यातः । अधुना 'बन्धगतविधिप्रतिपादनायाऽऽह निर्युतिकारः देशजणामी, वह चि तुप वह एवं हम स्वामेमि तुमे, वयणाई बंदणरिहस्स ॥ १८७॥ उदेन मनुजानामि तचेति युध्माकमपि वर्तते मि कामयामि स्वयं वचनानि चन्दनाद्देस्य सन्दनयोगस्य विषय विभागस्तु पदार्थनिरूपणायां निदर्शित एवेति गाथार्थः ॥ १८७॥ विपय मारवरहिण मुकड़ियपण । किकम्पकारयस्त, संवेगं जगणं ॥ १०० ॥ तेन वन्दना एवं प्रत्यष्टव्यम् अपिशब्दस्यैवकारार्थत्वात् । गौरवरहितेन शुद्धयेन पापचिप्रमुक्तेन कृति कर्मकारकस्य वन्दना संवेग शरीरादिपृथग्भावो मोक्षौत्सुक्यं चेति गाथार्थः ॥ १८८ ॥ इत्थं सूत्ररूपसूत्रम् सांप्रतं चालनाचानुपपतिमा तथाचाह राजु नणियो कायवायचावारो । दुन्हेगया व फिरिया, जो निसिका भो तुतो ।।१८।। हालांदिषु आदिशब्दादावशिक्यादिपरिग्रहः । युगपदेकदा, भाषित उक्तः, कायायापार, तथा च सत्येकदा क्रियाद्वय सङ्गः । द्वयोरेकदा च क्रिया यतो निषिद्धा, अन्यत्रोपयोगद्वयाभावाद, अतो युक्तः स व्यापार इति । सूत्रं पठित्वा काययापार कार्ययुच्यतेभिनविस निसिकं, किरियाडुगभेगया न एगम्मि । जोगतिगस्स विभंगिय, सुत्ते किरिया जओ जलिया | १६०/ भिनविषयं चित्रणवस्तुविषयं क्रियायं निषिध्य एकदा यथोत्ते सूत्रार्थ नयादिचरमति तो चार्या यदोपयुक्त न तदाष्टने या चाटने, न त्वामि तिम्रस्य सूक्ष्मत्वादविषयानुयोगत्रयक्रियायविय कम्-भंगिययं गुणतो, बहर सिबि बि सम्म" इत्यादि गतं प्रत्यवस्थानम् । सीसो पदमपवेसे मंदिवमाचस्सियाएँ परिकर्मि | अपसाम्य पुणो, बंदर किं चालणा घडवा || १७२॥ बढ् दू रायाणं, नमिनं कज्जं निवेहजं पच्छा | बीसजिओ व बंदिध, गच्छति साहू वि एमेष ।। १७२॥ दं प्रत्यवस्थानम् उतमानुषङ्गिकम सांकृतिकर्मविधि संसेवनाफलं समाप्तावुपदर्शयन्नाह एकिकम्पविर्दि, जुंजंता चरणकरणमाउत्ता | साहू स्वयंति कम्पं अणेगजवसंचितं ।। १०९३ ।। मन्तं कृतकर्मविधि बन्दनविधि जानाधरण करोपयुः साधवः कृपयन्ति कर्म अनेक संचितं प्रभूतमः पातमित्यर्थः कियद, अनन्तमिति गायार्थः बच्चो ऽनुगमः । १३२ 39 कि भोय-कृतिभोज - ० । इत्र्यानुयोगतर्कणाकारके, धन्या०१० किं-किम् - त्रि० । कु शब्दे, वा डिमुः । परिप्रश्ने, नि० चू० १ ४० । सूत्र० । स्थाo | नं० । प्रश्नः । ज्ञा० । विशे० । श्राचा० । " से किं तं जीवाजीवाजिगमे ?" किंशब्दः परिप्रक्षे, स चानिधेययथावत्स्वरूप निर्ज्ञाने नपुंसकलिङ्गतया निर्दिश्यते । तथा चोकम- अपसगुणसन्दोहे नपुंसकलिङ्गं प्रयुज्यसे, सतः पुनरषांपेक्षया यथाऽनिधेयमनिसंयते इति । जी० १ प्रति० 1 किया लका किष्ठा पत्ता किया अभिसमझा गया (किष्णा पतेति ) केन हेतुना प्राप्ता उपार्जिता सती प्राप्तिमुपगता । त्रिपा० १०५ श्र० । कारणैः प्रयोजनैः ( किं ते सि ) किं तत् । प्रश्न० १ भाश्र० द्वार । " किं जीवो तप्परिणतो पुव्यपरिवन्नम उ जीवाणं " किंशब्दः केपनपुंसक व्याकरणेषु तत्रेढ प्रश्ने, अयं च प्रातेऽङ्गिः सर्वादिपुंसक निर्देश: पूर्व सह यथायोगमनिसंबध्यते । श्रा० म० द्वि० । ० चू० । किमित्यतिशयार्थे, नि० चू० १३ उ० । “ मांसादेर्वा " ॥ ८ । १ । २८ ॥ इत्यनुस्वारस्य वा सुकू । 'कि करेमि किं करोमि ' प्रा० १ पाद शिशासिते वितर्कविषये कुत्सायां वितकें, कुत्सिते, साहश्ये, करणे, ईषदर्थे च । वाच० । किसन्ययाजाब- किंकर्त्तव्यतानाच पुं० मूढत्वे चाचा० २ । ६: 36 , श्रु० २ अ० २ उ० । किंकम्प–किङ्कर्मन्–पुं० । स्वनामस्याते गृहपतौ, (तइतम्यता अन्तरदशासु षष्ठे वर्गे द्वितीयेऽध्ययने सुचिता, नय प्रथमाध्य नोक्तमका यीगमेन नेतव्या ) " दोश्चस्स उक्खेव किंकम्मे वि एवं जाव विपुले सिद्धे " अंत० ७ वर्ग । स्था० । किंकर-किन वि० किञ्चित्करोति श्रय् आदेशमा पुनः - आदेशसमाप्तौ प्रश्नकारिणि प्रश्न० २ आध० द्वार । प्रतिकर्म प्रभोः पृच्छापूर्व कारिणि औ० भ० ० ० किंकुले कर्मकरपुरुष, शा० १ श्रु० १ अ० । स्त्रियां तु टाप् । किंकरस्य पत्नी की, किङ्करी । दासपल्याम्, स्त्री० । किङ्करस्य गोत्रापत्यम् नडा० फक् कैङ्करायणः । तद्गोत्रापत्ये, पुं० । स्त्री० । वाच० । किकिदी ले ३० ना० २ वर्ग - दे० । किंफिडी-देशी- सर्वे ० ना० २ धर्म , किंगिरिम-किङ्किरिट - पुं० । श्रीन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा० १ पद । किंच किञ्चन्द्रः मारम्भे समुच्चये - - । 1 साकल्ये, संभावनायां, अवान्तरे च । वाच० अभ्युच्चये, पञ्चा० ३०| "कि अस्थि निम्ती विपयरिदबिय पाउ।" जीवा० ८ अधि० । किंचिकिञ्चित् किम् विध्य असाकल्पे वाच । स्तोके, उत्त० २ अ० । स्वल्पतरे, नि० यू० १ ० । ० । " किंचि बहुयं च थोवं च ।” प्रश्नः ३ प्राश्र० द्वार । " किंचि सभा पावे" किञ्चिदल्पमपि लभ्या योग्या प्रापयितुम। प्रश्न ३ सम्म अनिर्दिटे, "कवि दयं मदिरातिथ्य Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२६) किंचि अनिधानराजेन्द्रः। किंसंठिय वाझकंसदूसरयवरकणगरयणमादिपडियं " । किञ्चिदनिर्दि-भिय-किंजय-त्रि। कस्माद् भयमषां ते किम्भयाः। कुतो वि एस्वरूपं हव्यम् । प्रश्न०३ सम्ब० द्वार । अस्य पदद्वयत्वमते भ्यत्सु, स्था० । अकिञ्चित्कर इत्यादौ "सह सुपा"।२।१।। इति समास अजोत्ति समणे जगवं महावीरे गोयमाई समणे निग्गंथे इति बोध्यम् । इदंतया निदेष्टमशक्यत्वमेव किश्चित्वम् । वाचा किंजक-किल्क-पुं० किञ्चित जाति । जल अपवारणे, का, आमंतित्ता एवं वयासी-किंजया पाणा समणाउसो1, गोतस्य नेत्वम् । पुष्पकेशरे, पुष्परेणी, नागकेशरे च । पद्मम यमाई समणा निग्गंया समणं नगवं महावीरं उबसंकमंति, ध्यस्थे केशाकारे पदार्थ, वाच०। कुसुमासबलोना किञ्जल्क नवसंकमित्ता बंदति नमंसंति, चंदित्ता नमसिना एवं लम्पटा । झा०१ श्रु०१० वयासी-पो खलु वयं देवाणप्पिया! एयममु जाणामोवा, किंजक्रवा-देशी-शिरीषे, दे० ना०२ वर्ग । पासामो वा । तं जहा-जइ णं देवाणुप्पिया! एयमढे नो गिकिंमोएिय-किंयोनिक-त्रिका का योनिः उत्पत्तिस्थानं येषां ते लायति परिकहेत्तए तमिच्छामो णं देवाणप्पियाणं अंकिंयोनिकाः । तेषां का योनिरितिप्रश्नविषयेषु, न० श०६ २० तिए एयमढे जाणित्तए अज्जो त्ति समणे भगवं महावीरे किंणो-दशी-प्रश्शे, दे० ना०२ वर्ग। गोयमाई समणे निग्गंथे आमंतित्ता एवं क्यासी-दुक्खजया किंतु-किन्तु-अव्य० । पूर्ववाक्यसकोचशापने, 'प्रागुक्तविरुकाणे, पाणा समणासो,से णं भंते ! दुक्खे केण कमे, जीवोण किंपुनरित्यर्थे च । वाचा अभ्युपगमपूर्वकविशेषद्योतने, स्था। कमे पपाएणं,से णं भंते ! दुक्खे कहं भेइज्जति ? अप्पमारणं। किंधुग्ध-किंस्तुघ्न-न। बबादिकरणेष्वन्यतमे, प्रा०म० द्वि० (समणाम्सो सि) हे श्रमणा:! हे श्रायुष्मन्तः! ति गौतष शुक्लपक्रातिपदि नवति । विशे० । जं0 । उत्तामा० चून तमादीनामेवामन्त्रणमिति । अयं च भगवतः प्रश्ना शिष्यायां किंधरो-देशी-अघुमत्स्ये, दे. ना० २ वर्ग। व्युत्पादनार्थ एवानेनापृच्छतोऽपि शिष्यस्य हिताय तस्वमाक्ये. किंपो -देशी-कृपणे, दे० ना०२ वर्ग। यमिति ज्ञापयति । उच्यते चकिंपज्जवसिय-किंपर्यवसित-त्रिका कस्मिन् स्थाने निष्ठां गते, | "कत्थर पुच्छ सीसो, कहिं चऽपुट्टा वयंति मायरिया। सीसाणं तु दियहा, विउलतरागं तुऽपुच्चाए" ॥१॥ प्रज्ञा० ११ पद। किंपत्तिय-किंप्रत्यय-न०। किं कारणमाश्रित्यत्यय, "किंपत्तियण ततश्च (उवसंकमंति सि) उपसंकामन्ति उपगच्छन्ति तस्य स मीपवर्तिनो भवन्ति । रह च तत्कामापेक्रया क्रियाया वर्तमाननंते असुरकुमारा देवा बुट्टिकायं पकरेति" । भ०१४ श०५ उका त्वमिति वर्तमाननिर्देशो न उष्टः । उपसंक्रम्य वन्दन्ते स्तुल्या, किंपरिणाम-किम्परिणाम-त्रि० किमाहारितं सत् परिणाम नमस्यन्ति प्रणामतः, एवमनेन प्रकारेण (चयासि ति) गन्दयतीति प्रश्नविषये, म० १४ श०६ उ०। सत्वादहुवचनार्थे एकवचनमिति । अवादिषुरुक्तवन्तः । नो किंपहव-किंप्रभव-त्रि० । कस्मात्प्रनव उत्पादो यस्य तत् । जानीमो विशेषतो, नो पक्ष्यामः सामान्यतः । वाशब्दो विकसत्येऽपि मौले कारणे पुनः कस्मात् कारणान्तरादुत्पद्यत इति ल्पार्थों, तदिति तस्मादेतमर्थ किंभयाःप्राणा इस्यवं सक्ष। [नो प्रभविषये, प्रज्ञा० ११ पद। गिलायति ति] न म्लायन्ति न धाम्यन्ति परिकथयितुं परिककिंपाग-किम्पाक-न० । कुत्सितः पाको यस्य । महाकालल थनेन [तं ति] ततो [दुक्खभय त्ति दुःखान्मरणादिम्पाद्भय मेषामिति दुःखन्नयाः [से णं ति] तद् दुःखं [जीवेण करें] तायाम् । वाच । “किंपागफलमिव मुहमहुराओ" किम्पा दुःखकारणकर्मकरणादू जीवन कृतमित्युच्यते । कथमित्याहफलमिव मुखे आदौ मधुरा महाकामरसोत्पादिकाः परं पश्चा (पमापणं ति) प्रमादेनाशानादिना बन्धहेतुना कारणभूतेनेति । द्विपाकदारुणाः, ब्रह्मदत्तचक्रिवत् (स्त्रियः) नं0। किंपागफलोवम-किम्पाकफलोपम-त्रि० । पुषीफलनिबन्ध “पमायो य मुणिदेहि, भणियो अठन्नेयओ। नकटौ, भाचा. १ श्रु० ३ ० २ उ०।। अन्नाणं संसो चेव, मिच्छानाणं तहध य॥६॥ किंपुरिस-किम्पुरुष-पुं० । रत्नप्रभायाः उपरि योजनसम्र रागो दोसो मन्जंसो, धम्मम्मि य अखायरो। बर्तिव्यन्तरनिकायाष्टकमध्यगतषष्ठनिकायरूपे व्यन्तरविशेषे, जोगाणं दुप्पणीहाणं, अछडा बजियव्वरो " ॥२॥ जं०१ वक० सान० । अनुकतेच दश । प्रज्ञा० १ पद । तच्च भेद्यते विष्यते, अप्रमादेन बन्धहेतुप्रतिपक्षभूतत्वादिति । भौ०स्था-सत्यपुरुषो महापुरुषश्चैषामिन्छौ । भ०३ श० अस्य च सूत्रस्य "दुक्खभया पाणाजीवेणं कमेऽक्ने पमा८ भ० । प्रका० । बलिनो वैरोचने-इस्य रथानीकाधिपती, एण ५ अपमापण भेइज्जइ" इत्येवंरूपप्रश्नोत्तरषयोपेतत्वाव स्था०५ ठा०२० । देवगायके, स च अश्वाकारजघनः | चिस्थानकावतारो रुष्टव्य इति, जीवेन कृतं दुःखमित्युक्तम् । नराकारमुखः । वाच०। स्था० ३ ठा०२ उ०। किंपुरिसकंठ-किम्पुरुषकएउ-पुंकिम्पुरुषकण्ठप्रमाणे रत्नविकिंमज्झ-किम्मध्य-त्रि० । किं मध्यं यस्य तत् किम्मभ्यम् । कि शेषे, " महसयं किंपुरिसकंठाणं" रा०जी०। शब्दस्यावेपार्थत्वात् असारे, प्रभ०४ सम्बद्वार। किंपुरिससंघाम-किम्पुरुषसंघाट-पुं० । किंपुरुषयुग्मे, संघा-सिंठिय-सिस्थित- चिकि संस्थितं संस्थानं संस्थितिर्यस्याः टशब्दो युग्मवाची । जं० १ वक। सा किंसंस्थिता । चं० प्र०४ पादु० । केन कारणेव संस्थिता किंपरिससम-किम्पुरुषोतम-पुं० । किारभेद्रे, प्रका०१ पद।। स्व संस्थानमस्या ति प्रापः । प्रा० ११ पद। Jain Education Interational Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किंसुय अभिधानराजेन्सः। किट्टण किंसुय-किंशक-पुं० । किश्चित् शुक श्व शुकतुएमामपुष्पत्वात् गच्छन्तीति कृत्योपदेशगाः, कृत्योपदेशका वा । गृहिकत्योपदे पलाशे, बाबा स्था० । अनुरा । औ० । पलाशकुसुमे, | पृषु, सूत्र० १ ० १ अ० उ०। का०१०म० किबोवएसिय-कृत्योपदेशिक-पुं० । कृत्यं कर्तव्यं कर्तव्यानुकिंमुपफुस-किंशुकपुष्प-न० । पलाशकुसुमे, स्था०८ ठा०।। ष्ठानं तत्प्रधानाः कृत्या गृहस्थाः, तेषामुपदेशः संरम्भसमार म्भारम्नरूपः, स विद्यते येषां ते कृत्योपदेशिकाः । सावधगृहिकिंसुयफुल्लसमाण-किंशकपुष्पसमान-त्रि० । रक्ततया पलाश व्यापार प्रवर्तकेषु, सुत्र.१०१०४ उ.।" हिच्चा गं कुसुमसमाने, “किंसुयफुल्लसमाणाणि उक्कासहस्साई विषि- पुब्वसंजोग, सिया किच्चीवएस (सिगा।" सूत्र. १७० म्मुयमाई" स्था०म०। १ अ०४०। किंसुयवण-किंशुकवन-न0 । पन्नाशवने, रा०। किच्च-कच-पुं०। १० । कृत् रक, गेऽन्तादेशः “ इस्कृपादौ" । ०।१ । १२७ । इति ऋत श्त्वम् । प्रा० १ पाद । वाच०। किच्चंत-कृत्यमान-त्रि० । छिद्यमाने, पीव्यमाने च। सूत्र०१० स्वनामख्याते व्रते, द्वा। ११ अ। संतापनादिनेदेन, कृच्चमुक्तमनेकधा । किच्च-कृत्य-त्रि० । चितकार्ये, उत्त० १० । कार्ये, तं०। अकृच्छादतिकृच्वंषु, हन्त ! संतारणं परम् ॥१५॥ कर्तव्ये, सूत्र. २ श्रु० ६ ० । तं० । निक ( संतापनादीति ) संतापनादिनेदेन कृच्छ्रे कृष्नामर्क चू। प्रयोजने, नित्यकरणीये च । " किश्चाई करणि- तपोऽनेकधोक्तम् , अादिना पादसंपूर्णकृच्छ्रग्रहः । तत्र ज्जाई।" उचितानुष्ठाने, उत्त. १० । अनुष्ठाने, प्राचा० २ संतापनकृच्छ्रे यथा--" व्यहमुष्णं पिबेदम्बु, यहमुष्णं श्रु०२ अ० २ उ०। सूत्राविहितानुष्ठाने, पं०व०४द्वार । कर्त घृतं पिबेत् । व्यहमुष्णं पिबेन्मूत्रं, यहमुष्णं पिबेत्पयः " व्यानि, प्रयोजनानीत्यर्थः। अथवा कृल्यानि नैत्यिकानि, करणी इति । पादकृच्छ्रे त्वेतत्-" एकभक्तेन नक्तेन, तथैवायाचियानि कादाचित्कानि । झा०३०। कृत्यं करणीय पचनपा- तेन च । उपवासेन चै केन, पादकृच्छ्रे विधीयते" इति । सम्पूर्णवचनकपडनपषणादिको नूतोपमर्दकारी व्यापारः । सूत्र० १ च्छं पुनरेतदेव चतुर्गुणितमिति । अकृच्छादकष्टादतिकच्चेषु म. शु०१०४ उ०।" पडिसिद्धाणं करणे किश्वाणमकरणे " रकादिपातफलेष्वपराधेषु, हन्तेति प्रत्यवधारणे, संतारणं संकृत्यानामासेवनीयानां कालस्वाध्यायादीनां योगादीनामकरणे तरण हेतुः परं प्रकृष्ट प्राणिनाम् ॥ १६ ॥ द्वा० १२ द्वा० । यो. अनिष्पादनेऽनासेबने । श्राव०४ अ०। कृर्ति बन्दनकं तदर्हति बि० । कष्टे, दुःख, कष्टसाध्ये, कष्टयुक्ते च । त्रि० ।वाच । “परं कृत्या, दपमादित्वाद्धप्रत्ययः । अर्थात प्राचार्यादिष,उत्त०१ किच्छेण जनो सो अतीव विसमो" आ० म०बि०। पापे, अ०।" न पिठो न पुरो नेव किच्चाण पिठो"। न०। मूत्रकृच्यूरोगे, पुं० । कृच्छं वेदयते सुखाक्यक। पा. ३ प० । व्याकरणप्रासद्ध पाणिन्यादिपरिभाषिते त-| पचिकीर्षायाम् , कृच्छ्राय पापं चिकीर्षति, सुखा० अस्त्यर्थे वा ज्यादौ एयत्क्यप्तव्यानीयर्यत्कोलिमाख्ये प्रत्यये, वाच०। मतुप,मस्य वः, कृच्चूवत् पके इनिः। कृच्छ्न् ितद्युक्त,त्रिशवाचा कृत्यं कर्तव्यं सावद्यानुष्ठानं, तत्प्रधानः कृत्यः । गृहस्थे, सूत्र० । । गृहस्थ, सूत्र | किच्चपाणगय-कृच्प्राणगत-त्रि० । कष्टे पतितप्राणे, " कि१९०१ भ०४ उ०। च्छप्पाणगए दिसो दिसि पमिसेहित्या।" भ० ७ श०स० किचकर-कृत्यकर-पुं० । ग्रामकृत्ये नियुक्ते प्रामव्यापके, नि० | किच्छलन्न-कृच्चूनच्य-त्रि०ा दुर्लभे मुष्प्राप्ते, स्था०६ ०। चू० २ अ० । । किच्छवित्ति-कच्छवृत्ति-स्त्री० । दुर्गमे, पुःनेन गमने, दुःखेन किचा-कृत्या-स्त्री० । कृ क्यप् टाप् । “ इत्कृपादौ" ।।११२८६ गम्यमाने च । स्था०५ ठा०१ उ० । इति त इत्वम् । प्रा०१ पाद । व्यभिचारक्रियाजन्येऽभिचारो किजंत-क्रियमाण- त्रिमूल्येन गृह्यमाणे, प्रश्न०२ भाषवार । देश्यनाशके, देवादिमूर्तिभेदे च । सा च वैदिकायभिचार- | किट्ट-किट्ट-न० । किट के डिभावः । धातूनां मले, तैलादधोक्रियाजन्या अविशेषनिर्वा देवादित्तिरूपतयोत्पद्य भागस्थे मले च । चाच० । लोहादिमले, प्राचा० १०१ अभिचारोद्देश्यं पुरुषं निहत्य नश्यतीति मथर्ववेदे प्रसि-| अ०१ उ०। कम् । वाच। | किश्त्ता -कीर्तयित्वा-श्रव्यः । गुरुं प्रति विनयपूर्वकं मया मकृत्वा-स्त्री० । उपादायेत्यर्थे, सूत्र. १ श्रु०११० १००।वि- वदन्यः सकाशात् सम्यक् प्रकारेण सम्पूर्णमधीतमिति कथघायेत्यर्थे, हिंसित्वेत्यर्थे च । वाच। नेन कीर्तनं कृत्वत्यर्थे, " किश्त्ता सोहश्त्ता आराहित्ता" किषि-कृत्ति-स्त्री० । कृत्यते कृत कर्मणि क्तिन् “ कृत्तिचत्वरे उत्त० २६ अ० । आविर्भावयित्वेत्यर्थे, सूत्र० १ ० १६ चः"।। । १५ । इति संयुक्तस्य चः । “अनादौ प्र० । यथावस्थितान् नावान् प्रतिपादयित्वत्ययें, प्राचा०२ शेषादेशयोन्विम् । ०।५।८९ । इत्यादेशस्य चस्य | ०६ अ०२३०। द्वित्वम् । प्रा०२ पाद ।मृगादिचर्मणि, कृत्तिवाससि, त्वचि, भज-| किट्टण-कीर्तन-न। कृतः कीर्तादेशः । सौत्र की वा, नावे पत्रे, कृत्तिकानको च । गृहे, वाच। म्युदाबाचा कीर्तनं नाम या प्रथमवतरूपा अहिंसा,सा भग वती सदेवमनुजासुरस्य लोकस्य पूज्या द्वीपस्त्राणं गतिः प्रतिछे. किचोवएसग-कृत्योपदेशक (ग)-पुं० । कृत्यं करणीयं पञ्च- स्यादि। एवं सर्वेषामपि प्रश्नव्याकरणासोक्तान गुणान कीर्शयति, नपाचनकएमनपेषणादिको नूतोपमर्दव्यापारस्तस्योपदेशः, पृ० ३ उ० । सूत्रार्थकथने, १०३ उ०। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकण। किट्टि माभिधानराजेन्द्रः। किणिय किहि-किट्टि-सी० । एकोतरां वृझिं ध्यावयित्वाऽनन्तगुणही- किडी-किटी-स्त्री० स्थविरभाषिकायाम, १० २३० । शूकरे, नैकैकवर्गणास्थापनेन योगस्याल्पीकरणे,आ०म० द्वि० "अप्यु- पुं०।दे. ना० २ वर्ग। ग्वविसोहीए अणुजागोगुणविभयणं किट्टी" अपूर्वया पिशुख्या-]. अनुभागस्योनस्योनस्य एकोत्तरवृद्धिच्यावनेन हीनस्य हीनत | किडंत-क्रीडत्-त्रि० । अन्तर्भूतकारितार्थत्वात् अन्यान् कीमयरस्य यद् विनजनं सा किट्टिः । किमुक्तं भवति?-पूर्वस्पर्कके ति, भ० १३ श० ६ ००। भ्योऽपूर्वस्पर्द्धकेन्यश्च वर्गणा गृहीत्या तासामनन्तगुणहीनर- किडा-क्रीमा-स्त्री० । क्रीम भावे अः । प्रमोदे, सूत्र० १९०१ सतामापाच वृहदन्तरालतया यद् व्यवस्थानं यथा यासां वर्गणा. ०३०। हास्यकन्दर्पहस्तसंस्पर्शनालिङ्गनादिकायां बहकनामसंकल्पनया अनुभागानां शतं ध्यत्तरं यत्तरमेकोत्तरं चा गमुकारिकायाम, सूत्र०१० Ror "सहस्सं दप्पं रति किउसीत,तासामनुभागानां यथाक्रम पञ्चविंशतिः पञ्चदशकं पञ्च. इंसह जुत्तासणाणि य" उत्त०१६ ०। नि० ० । सारिकमिति ताः किट्टयः। पं० सं० १२ द्वार । कर्म० । चतुरङ्गताद्यायां क्रियायाम,जीत।कीमाप्रधानायां दशायाकिहिघोस-कीर्तिघोष-नास्वनामण्याते विमानभेदे,स०६समा म, 'बाला किडा मंदा' इति दशदशास्वियं द्वितीया । तं०। किहिचा-कीर्तयित्वा-अव्य० । अन्येन्यः उपदिश्येत्यर्थे, कल्प० किडापरिहार-क्रीमापरिहार-पुं० । सर्वातान्दोलकजलकु कुटयुद्धादिवर्जने, दर्श। किट्टिय-कीर्तित-त्रि० । कृतः कीर्तादेशे क्तः ।व्यावर्णिते, सूत्र. किडारतिपत्तिय-क्रीमारतिप्रत्यय-न। कीडायां रतिरामम्दः २७०६०। कथिते, प्रतिपादिते च । सूत्र. २०५०। | क्रीडारतिः,अथवा क्रीमा च रतिश्च क्रीमारती,सा,ते षा,प्रत्य“सत्त सत्त मियाणं भिक्खुपमिमा अहाकप्पं फासिया तीरिया यो निमित्तं यत्र तत्कीडारतिप्रत्ययम् । भ० १३ श०६७०. किष्टिया जाव बाराहिया भव" कीर्तिता नामत इदं चेदं च क्रीडारूपा रतिः,अथवा क्रीडाच खेलनं, रतिश्च निघुवनं क्रीकर्तव्यमस्यां तत्कृतं मयेत्येवमिति । स्था० १० ग०। कीर्तिता डारती, सेब, त एव धा प्रत्ययः कारणं यत्र तत्कीमारतिप्रत्ययपारणकदिनेऽयमय खानिग्रहकविशेषः कृत पासीवस्यां प्रतिमा म्। क्रिडानिमित्तके, "किंपत्तिय णं भंते! असुरकुमारा देवा यां स चाराधित एवाधुना मुत्कलोऽहमिति गुरुसमकं कीर्त- तमुकायं पकति । गोयमा! किडारतिपत्तियं वा"। भ०१४ नात् । स्था०७ ठा० । दशा । प्रा० ०। श०१०। किट्टिया-कीटिका-स्त्री० । साधारणशरीरबादरवनस्पतिकायि-किहि-कट्रि-पुं० । कृप्यते इति कृष्टिः । संजोगाय प्रतिरिक्ते खाने कविशेष, प्रका०१ पद। जी अनन्तजीवविशेषे,भ०७१०२४०।। नीयमाने, “लिंगविवेगं कालं, सविकिढी पवितो" म्य. ३ किट्टिस-किट्टिस-नगखलाशे, अरसांशे, अनु०। सूत्रभेदे, कर्णा- न० । स्थविरे, वृ० १००। भाव० । प्रा० चू० । दीनां यदुद्धरितं किट्टिसं तनिष्पन्न सूत्रमविकिट्टिसम,अथवा पते-किदिय-कितिन-न० वंशमये तापससंबन्धिनि भाजमधिपामेवोर्णादीनां द्विकादिसंयोगनिष्प सूत्रं किसिम, अथवा | शेष. भ०७श उ01 उक्तशेषपश्चादिजीवलोमनिष्पन्न किट्टिसम् । अनु। विशे०। मा० म०। किढिणपडिरूवग-किग्निप्रतिरूपक-०। किठिनं शमयत्ताकिहिसिय-किट्टिसिक-पुं० । नाएमादौ, भ०१२०३३ सामौका पससम्बन्धी भाजनविशेषः, तत्प्रतिरूपके किग्निाकारे वस्तु नि, "पगं मदं प्रायसं किठिणपडिरूवर्ग विउम्बित्ता" म०७ किट्टीकय-किट्टीकृत-त्रि० । इलदणीकृते, प्रव००९ द्वार। | श०एउ०। किट-कृष्ट-त्रि० । रुष कर्मणि क्तः । हसविदारिते, पिं० । नावे | किढिणसंकाइय-किठिनसाङ्गायिक-नाकिठिनं वंशमयस्ता. नाकर्षणे, ततः दृढा० भावे श्मनि । तोराष्टिमन् । पसन्जाजनविशेषः,ततश्च तयोःसाङ्कायिकं भारोवहनयक कि. कृष्टत्वे, कर्षणे, पुं० । वाच । चिनसायिकम । कावटे, 'काबम' इति प्रसिद्धेऽर्थे, भ०११ किमि-किरि-पुं० । स्त्री० । “किरिभेरेरोमः"।।१५।। शए उ०। शति रस्य मः। शूकरे, प्रा०१ पाद । किदिय-किठिक-पुं० । स्थविरे, वृ.१ उ०। कामाकाव्या-काटाकाटका-ला । निमासास्थिसबान्धान | किणं-क्रीणत-वि०किश्चित् क्रयेण गृण्हाति “से किणं किणाउपवेशनादिक्रियासमुत्थे शब्दविशेषे, भ०२ श०१ उ०। | बेमाणे दणं घायमाणे" सूत्र०२ श्रु.१०। किमिकिटियाज्य-किटिकिटिकानूत-त्रिका किटिकिटिकां नूर किण-किण-पुं० । कण गतौ अच् , पृषो० प्रत इस्वम । गुतःप्राप्तो यः स किटिकिटिकानुतः। कशत्वाकुपवेशनादिकियासमये शब्दायमानास्थिके, ज.२ श०१ उ०। कवणे, मांसग्रन्यौ, घर्षणजे चिहेच वाच०। प्राचा०। किडिम-किटिन-पुं०। किरिरिव भाति कृष्णत्वात्। भा-कः। किणण-क्रयण-ज० । मूल्यन ग्रहणे, प्रभ० ५ सम्ब०कार। केशकीटे, सर्पदशमोपलवभेद,म० । समक्ष तन्त्रोक्तं यथा- वा -काया-क्रियेण परं प्राहयति. “से किणं "यत्नाविवृकंपनमुनकपड, तत स्निग्धकृष्णं किटिभंवदन्ति" | किसाबमाणे" स्त्र०२९०११०। वाच । श्युक्तलकणे पुरुकुष्ठविशेष, भ० ७ ०६उ०।। "किरि जंघासु कामं तं रसिवहतिः" निo०१०किणिय-किणिक-पुं० । जुकितजातिभेदे, ये वादित्राणि Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) किणिय अभिधानराजेन्सः । कित्तण परिणयन्ति,वभ्यानां च नगरमध्ये नीयमानायां पुरतो वादयन्ति। किएडकंत्र-कृष्णकाक-नाकृष्णवणे कङ्गुफले,स०१समा व्य०३ उ० । “किणियाउ वरत्तानो वलिंति" पं००। किणित-न० । घायभेदे, रा०।। | किएहकरवीर-कृष्णकरवीर-पुं० । कृष्णे वृकोदे, रा०। किणो-अन्या प्रभे, "किणो प्रश्ने" ।।२।१६। किणो इति किएहकेसर-कृष्णकेशर-पुं० । कृष्णयकुले, रा। प्रमे प्रयोक्तव्यम् । “किणो धुवसि" प्रा०२ पाद । कस्मात, किएहगंग-कृष्णगङ्गा-पुं० ! सप्तमे वासुदेवस्याचार्य, ति०। किं सि “किमो डिणोडीसौ"।८।३।६८ । इति सेर्डि- | किएहचामरज्य-कृष्णचामरध्वज-पुं०। कृष्णवर्णचामरयुक्तणादेशः । कुत इत्यथे, प्रा० ३ पाद। ध्वजे, औ० । रा० । । किस-किण्व-न० । सुराबीजे, पापे च ।घाच० । अनन्तजीबि. किएहच्छाय-कृष्णच्चाय-त्रि० । कृष्णा गया भाकारः सर्वाधिकवनस्पतिभेदे, प्राचा०१ श्रु० १ ० ५ उ० । संवादितया येषां ते तथा । सर्वान् प्रति कृष्णाकारेषु, रा०। कीर्म-त्रि०।-तः । किप्ते, स्था०९ वा0 प्रश्न भाच्चन्ने, किएहच्छगया-कृष्णच्छाया-स्त्री०। आदित्यावरणजन्य वस्तुनिहिते, विकिप्त, हिंसिते च । वाच। विशेषे, औ०। किस-क्लिन्न-त्रि० । श्रा, प्रा०४ पाद । किएहपक्खिय-कृष्ण पाक्षिक-पुं०।"जेसिमवट्ठो पोमाल-परियकिम्मपुमसंगणसंठिअकिएवपुटसंस्थानसंस्थित-त्रिका सुरागो. हो हो संसारो । ते सुक्कपक्खियाखयु, श्यरेसुं किएदपक्षीय" णकरूपतपमुझकिराबभृतगोणीपुरद्वयसंस्थानसंस्थिते,उत्स०२० इत्युक्तलक्षणे शुकपातिकव्यतिरिक्ते, स्था० १ ठा० १ उ०। किमपुत्तग-क्रीतपुत्रक-पुंछा दत्तकराजपुत्रे, प्रा०चू०४० किएहपत्त-कृष्णपत्र-पुं० । चतुरिन्द्रियसंमृच्छिमनपुंसके चतुकिमर-किन्नर-पुं० । रत्नप्रभाया उपरितनयोजनसहस्रवर्तिव्य- सिन्ध्यजीवभेदे, प्रज्ञा १ पद । जी०। न्तरनिकायाटकमध्यगतपञ्चमनिकायरूपे व्यन्तरविशेष, जं० १ किण्हबंधजीव-कृष्णबन्धजीव-पुं०कृष्णवणे बन्धुजीववृके,राका बक०। कल्पना प्रकारा। उत्त० अनु शा० । 'किबारा' इत्यादि किन्नरा दशविधाः। तद्यथा-किचराः१ किंपुरुषाः२/किएहामगाइण-कृष्णमृगा। किएहमिगाइण-कृष्णमृगाजिन-न० । कृष्णहरिणचर्मणि, माकिंपुरुषोत्तमाः ३ किन्नरोत्तमाः हृदयंगमाः५ रूपशामिनः ६ चा०१ श्रु० ३ ०६०। अनिन्दिताः ७ मनोरमाः रतिप्रियाः हरतिश्रेष्ठाः १०। चमर-किपरलेस्सा-कालेश्या-स्त्री कृष्णादिव्योपाधिकजीव. सुरराजस्य स्थानांकाधिपता, स्था०४ठा०४३०।। परिणामविशेष, पा। पाचविशेष, प्रश्न०४ाश्र द्वार । श्रीधर्मस्य तीर्थकरस्य शा. सनयक्षे, स च त्रिमुखो यकः रक्तवर्णः कर्मवाहनः परजो किएहवासुदेव-कृष्णवामदेव-पुं०। पाण्डवचरित्रे आश्विनसिबीजपूरकगदाऽभययुक्तदकिणपाणित्रयो नकुश्नपदोऽक्रमालायु- ताष्टम्यां कृष्णजन्मोक्तम, नेमिचरितादौ लोकोक्तौ च श्रावकपाणित्रयश्च । प्रव०२६ द्वार । उत्तराहाणां दीपकुमाराणा- | णासिताष्टम्यामिति, कथमनयोः संगतिरिति प्रमे, उत्तरममिन्के, स्था०३०३ उ०। अत्र मतान्तरं शेयमिति । १०। सेन० १ उहा। किम्मरठ-किन्नरकएठ-न । किन्नरकएठप्रमाणे रत्नविशेष, किए हसप्प-कृष्णसर्प-पुं०।सर्पजातिविशेषे, जं०१ वक्तवारा। जी० ३ प्रति। किएहसिरी-कृष्णश्री-स्त्री०। श्रीकुन्धुनाथस्य भार्यायाम, स० किमरगेजसवण-किन्नरगेयश्रवण-न० । दिव्यगीतश्रवणे, पो० किएहा-कृष्णा-स्त्रीग जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्योत्सरेण बह११ विव०। त्या रक्तायामहानद्याः समर्पिकायां महानद्याम, स्था०१.०। किम्मरसंघाम-किन्नरसहाट-०। किन्नरयुग्मे, संघाटशब्दो यु किएहोनास-कृष्णावभास-त्रि कृष्णोऽवनासो येषां ते कृष्णा. मवाची, जं०१ वक्षः। चभासाः। रा०। कृष्णप्रभेषु, कृष्णा एवावनासतः कृष्णावजाकिएई-दशी-शोनमाने, दे मा० २ वर्ग। साः। औ०।का। किएह-कृष्ण-पुं। वर्णविशेषे, प्रज्ञा०१ पद । औ० । रा०।। कित्त-कीर्त-पुं०। संशब्दने, आ० चू० २ ० 'कृत' संशब्दने, "एके किएहे " स्था०१ ठा० १ उ० । कृष्णवर्णयुक्त, सू०प्र० "उपधायाश्च" 19:१६१०१॥ इति (पाणि)त श्द रपरत्वम् । २० पादु । कालवणे, औ० । प्रश्न । कृष्णेनाथदशसहस्रसा उपधायां चेति दीर्घः।वाच"अरिहंते कित्तस्सं,चचब्बीसं पि घूनां वन्दनकानि दत्तानि, तानि कि लन्ध्या,अन्यथा चा?, यदि केवली"। कीर्तयिध्ये नामोच्चारणपूर्वकं स्तोये। ध०२अधिक। सध्या तदा वीराशासविकस्यापि तथैव,अन्यथा वेति प्रक्षे,उत्त कीर्तयिष्यामि प्रतिपादयिष्यामि । श्रा०म०प्र० । संशब्दयिरम-कृष्णेन सहस्रादिपरिवारसहितं धावश्चापुत्रादीनामग्रेसरा. णां वन्दनकानि दनानि, तदनुयायिसमस्तपरिवारस्यापि तानि च्यामि । श्रा०यू०२०। कीर्तयिध्ये अग्निधास्ये। भाचा०१ श्रु०१०१०।" कित्तइस्लामि परूविस्वामि पम्नवेस्सामि समागतान्येव, ततो मनसा त्वष्टादशसहस्रसाधूनां दत्तान्येव, एगा"। आ०चू०१ अपारणकदिने इदं वेदं चैतस्याः कृत्यं यदीत्थं न कथ्यते तदा वेला न प्रामोति, यतो दिनमानं कृतामित्यय कीर्तनात् । झा० १ ० २ मा सदा महन्नाभूत, तथा कृष्णस्यापि चन्दनकदाननधिोता मास्ति,तस्माद्वीराशालविकस्य वन्दनकदानेन काऽप्याशति कित्तण-कीर्तन-न। संशब्दने, व्य०७०। गुणोच्चारणध्येयम् । ११७ प्र० । सम०३ उम्सा। | स्य करणे, उत्त० ३१ मा। Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) कित्ति अभिधानराजेन्द्रः। किमिरागरत्त कित्त-कीर्ति-स्त्री० । कीर्तन कीर्तिः । अहो पुण्यत्नागित्येवं ल-कित्तिविजय-कीर्तिविजय पुं० श्रीहीरविजयसूरिशिप्ये,कल्प। कणे, आव.३०। सर्वदिग्यापिनि साधुवादे, स्था० १०० "श्रीहीररिसगुरोः प्रवरौ विनेयो, ज० । कीर्तने, संशब्दने, श्लाघने च । कर्म०१ कर्म०। दानपुण्य- जातौ शुनौ सुरगुरोरित पुष्पदन्तौ। कृतायाम, पकदिग्गामिन्यां वा (कर्म०६ कर्म०) प्रसिकौ, स्या० श्रीमोमसोमबिजयानिधवासकेन्ः, । प्रश्न पं० सं० । औ० । प्रा० म० भ० । सूत्र० । सत्कीर्तिकीतावजयाभिधवाचकश्च"१॥कल्पक्षण | श्लाघायाम, प ०१२विवागुणोत्कीतनरूपायां प्रशंसायाम, कित्तिसण-कीर्तिसेन-पुं ब्रह्मदत्तलब्धकन्यारत्नस्य पितरि, पं० सं० ३ द्वार । सर्वत्र शुनप्रवादे, दश ७ अ । कीर्त्या | नपलक्षितः " तहेव विजओ राया, अणट्ठा कित्तिपश्वए" | किध-कथम्-अव्य० । “कथंयथातथा थादेरेमेमेहेधा मितः" उत्स०१५ । पञ्चमगाणहिंसायाम, तस्याः ख्याति हेतुन्धात्। प्रश्न०१ सम्बद्वार । केसरिमहाहदाधिपतिदेवतायाम्, नीलवति 1८।४।४०१! इति थादेरवयवस्य डित धादेशः। केन प्रकारेकेसरिहदे कीर्तिदेवता । स्था०२ठा०३ उ०। नीलवद्वर्षधर त्यर्थ, प्रा० ४ पाद। पर्वतस्थे केशरिहदसरी कुटे, .४ वकः । स्था० । सौधर्मे किमस्त-किमश्व-पुं० । स्वनामख्याते राजभेदे, यः शक्रं समरे कल्पे काय॑वतंसकविमानदेव्याम, नि। (तत्पवैभववक्तव्यता निर्जित्याऽपि शापशप्तोऽजगरो जातः। नि००१उनइति निरयावनिकादीनां चतुर्थवर्गस्य पुष्पचूबिकायां चतुर्थेऽध्ययने | 'धुत्तक्खाण' शब्दे वदयते ] सूचिता, तत्रैवोक्ते श्रीदेवीवक्तव्यतयाऽवगन्तव्या) विस्तर, किमाहार-किमाहार-त्रि० किमाहारयन्तीति प्रश्नविषये, भ० कर्दमे च । वाच। १४ २०६००। कित्तिकर-कीर्तिकर-त्रि० । सर्वदिव्यापिसाधुवादकर, तं० किमि-कृ (क्रि) मि-पुं० । क्रम इन , अत इत्त्वम । " मेः सं. ख्यातिकरे, शा०१ श्रु०१ अाश्रीऋषभनाधस्य चत्वारिंशत्तमे | प्रसारणं च" ५७०॥ (उणादि) इत्यतः संप्रसारणानुवृत्तौ " पुत्रे, तत्पालिते देशानेदे च । पुं० । कल्प०७वण ।। मितमिशमिस्तन्नामत इच्च" ॥५७६॥ (उणादि) इति कृमिः । श्रकित्तिचंद--कीर्तिचन्छ-पुं० । स्वनामख्याते चम्पेश्वरे, ध००। न्यथा फ्रिमिः । क्षुधजन्तुभेदे, लाक्षायां,कृमियुक्ते,खरे, गर्दर्भ च । (तत्कथा 'अक्कूर' शम्दे प्र० ना० १२६ पृष्ठे उदाहृता) वाचाविष्टानीलकी, तं० । आचा। सूत्र० । "किमिउमुयंतपगकित्तिधम्म-कीर्तिधर्म--पुं० । स्वनामख्याते राजनेदे, “सीहउरे लंतपूयहिरं" कृमिनिरुत्पद्यमानानि ऊबै घध्यमानानि प्रगल त्पूयरुधिराणि यस्य स तथा तम् । प्रश्न० ३ पान द्वार । नयरे कित्तिधम्मो नाम राया, तस्स कुमणीप देवीए धृयाऽई पउमसिर। णामा एसा वि मज्झ वयं सिया"। दर्श। याऽह किमिच्छय-किमिच्छक-न० । कः किमिच्छति, यो यदिच्छति त स्य तद्दानम, समयपरिभाषयैव किमिच्छकमुच्यते । इच्चादाने, कित्तिधर--किर्तिधर--पुं० । स्वनामध्यातेराजभेदे, यस्य भा-- आ० म.प्र० । दश । किमिच्छसि किमिसीति पृच्चति प्र. याः कोशल जनन्याः निरनुकम्पतायां कथा प्रसिद्धा । तं । | भकारके, भोजनाद्यर्थमासानाय नियुक्ते भृत्यादौ, इच्छाविषयकित्ति पुरिस-कीर्तिपुरुष--पुं० । कीर्तिप्रधाने पुरुष, “एए खलु| प्रश्नपूर्वके पृच्चगनुरूपदेयमात्रेऽपि, पाच । पाडसत्तू, कित्ति (त्ती) पुरिसाण वासुदेवाणं" स्था०० किमिण-कमिण-त्रि० । कृमियुक्ते, प्रश्न० ३ माथ० द्वार। श्राव। "किमिणबदुपुरनिगंधेसु" प्रश्न० ५ संब० द्वार । कृमिरस्त्यस्य । कित्तिम-कृत्रिम-त्रि० । कर्तृकरणब्यापारसाध्ये, सूत्र०२ श्रु० १| कृमिवति, वाचा अ० प्रा० म०। किमिय-कृमिज-न । "कोसेजपट्टमादी, जं किमियं तु पवुधकित्तिमई-कीर्तिमती-स्त्री० । अजितसेनाचार्यसत्कमहत्तरि | ति" इत्युक्तलकणे कौशेयादौ वस्त्रभेदे, पं० भा०। पं० चूछ । कालाव्याम्, यदन्तिके कण्डरीकयुवराजभार्या प्रवजिता । किमिरागकंबल-कामिरागकम्बल-पुं०। छमिरागरके बने, प्रश्रा० क01 ("अलोभया" शब्दे प्र०भा० ७०५पृष्ठे कथा उक्ता) | ज्ञा०१७ पद। भाव०। ब्रह्मदत्तचक्रवतिलब्धाया कीतिसनकन्यायाम, उत्त० किमियागान-कमिगगरक्त-न० । कीटजसूत्रभेद, वखभदच। १३ अ० । कीर्तियुक्तो, त्रि० । वाच । आ० मात्र वृद्धव्याख्या-क्वचिद् विषये मनुष्यादिशोसितं कित्तिय-कीर्तित-त्रि । स्वनामभिः प्रोक्तेषु, ल० । आव० । गृहीत्वा केनापि योगेम युक्तं नाजनसंपुटे स्थाप्यते, तरच "कित्तियवंदियमहिया,जे जे सोगास उत्तमा सिका" कीर्तिता प्रभूताः कृमयः समुत्पद्यन्ते, ते च वातानिलाषिणी भाजनच्छिद्र स्वनामभिः प्रोक्ताः वन्दितास्त्रिविधयोगेन सम्यक् स्तुताः, महि. निर्गत्य तदासन्नं पर्यटन्तो लाबाजालं प्रमुञ्चन्ति,ताश्च कील केषु साः पुष्पादिनिः पूजिताः । ध० २ अधिः । नामत उपादेयधिया लग्नाः परिगृह्यन्ते, तत्कृमिराग पट्टसूत्रमुच्यते । तच्च रक्तवर्णसंशब्दिते, स्था०२ ठा० ४ उ० । निरूपिते, त० । कीर्तितं कृमिसमुत्थत्वात स्वपरिणामत एव रक्तं भवति । अन्ये स्वनिजोजनवायाममुकं मया प्रत्याख्यातं तत्पूर्वमधुना भोक्ष्ये इत्यु- दधातन्यदा तत्र शाणित कमर दधति-यदा तत्र शोणिते कृमयः समुत्पन्ना भवन्ति तदा साधारणेन शन्दिते विशुद्ध प्रत्याख्याने, प्रव०४ द्वार । आव०। मिकमेव तन्मलित्वा किहि संपरित्यज्य रसो गृह्यते, तत्र घ कीर्तिद-त्रि० । कीर्तिप्रदे, औ० । कश्चिद्योगः प्रक्तिप्यते, तेन यद्रज्यते पट्टसूत्रं तत् कृमिरागमिति । तच्च धौताद्यवस्थास्वपि न मनागपि रागं मुश्चति । श्रा० म० कियत-त्रि० किम्प्रमाणे, "कित्तिया सिद्धा" व्य० २ उ० । २० प्र० । अनु० । ये रुधिरकृमय उत्पद्यन्ते तान् तत्रैव मृदित्या ककित्तियमित्त-कियन्मात्र-त्रिका कियत्प्रमाणे, तं०। चवरमुत्तार्य तबसे किञ्चित् योग प्रतिप्य पट्टसूत्रं रजयति,स Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किमिरागरत्त अभिधानराजेन्द्रः। किरिया च रसः कृमिरागो नएयते अनत्तारीति, तत्र कृमीणां रागोर-1 तौ, शिक्कायाम, पूजायाम, संप्रधारण, विवादविचाराने साधने, अकरसः कृमिरागस्तेन रक्तं कृमिरागरक्तम् । स्था०४ग०२३०।। सामाधुपाये, वाच । करोतीत्यादिके आख्याते, प्रव०३ द्वार। किमिरायं-देशी-साकारक्ते, दे ना० २ वर्ग। (१) क्रियायाः स्वरूपनिरूपणम्। किमिरासि-कृमिराशि-पुं० । अनन्तजीवे वनस्पतिदे, 4 (२) क्रियाया निक्षेपः। (३) क्रियाया भेदनिरूपणम् । झापद। (४) स्पृष्टास्पृष्टत्वादिना प्राणातिपातक्रिया निरूप्य क्रियाकिम-किम-अव्य० । कै मिमुः। प्रश्ने, विशे० । आ० म०वि०।। याः सक्रियत्वमक्रियत्वं प्राणातिपातक्रियायाः प्रकानिषेधे, वितकें, निन्दायां च । पाच। रस्थ च निरूपणम् । किम्मय-किम्मय-त्रि० । किविकारे, जी. ३ प्रतिः। (५) मृषावादादिकमाश्रित्य क्रियाकरणप्रकारः। किम्मिय-किम्मित-न० । जाज्यतायाम, सर्वशरीरावयवामा- (६) अष्टादश स्थानान्यधिकृत्य एकत्वपृथक्त्वाच्या कर्म पन्धत्वोपदर्शनम्। मवशित्वे, भाचा०१४०६ म०१ उ० । (७) शामावरणीयादि कर्म बनन् जीवः कतिभिः क्रियाकिया-क्रिया-स्त्री० । “ईश्रीन्हीकृत्स्नक्रियादिपचास्वित्"।।२।। भिः समापयतीति बहुत्वमाश्रित्यैतनिरूपणम् । १०४ । इति इकारो भवति "करणे, व्यापारे, "हनं नाणं कि- (८) चतुर्विंशतिदएडकक्रमेणैतनिरूपणम् । याहीणं, हया अन्नाणिणो क्रिया" प्रा०पाद । (1) मृगबधादावुद्यतस्य क्रियां निरूप्य क्रियाजन्यं कर्म कियापर-क्रियापर-त्रि० । चारित्रमोहनीयकर्मकयोपशमान्मु तवेदनां चाधिकृत्य क्रियानिरूपणम् । क्तिसाधनानुष्ठानकरणपरायणे, पञ्चा० ३ विव०। (१०) स्वामिभावतः क्रियां निरूप्य क्रियान्तराणां विषयनि रूपणम् । किर-किल-अव्य० । “किलायवादिवासहनहेः किराहवशदिवे. (११) श्रमणोपासकस्य क्रियाः कथयित्वा अनायुक्ते गच्छसहुंनाहि"IGI४१६। इत्यपनशे किलस्य किरः। प्रा०४ पाद! तोऽनगारस्य क्रियाप्ररूपणम् । "किररदिरकिलाथै वा" || ६| इति प्राकृतेऽपि किमार्थे (१२) सरमासकेन तप्तलोहमुत्क्षिपतः क्रियाः। किरः। प्रा०२ पाद । देना०२ वर्ग। संजावनायाम, तं०। निश्व- (१३) वर्षाक्षानार्थ हस्तादिनसारयतः क्रियां निरूप्य तालथे, त। संशये, श्रा० म०वि०। परोक्षाप्तागमवादसंसूचने, मारुह्य तत्फलं पातयतः क्रिया निरूपणम् । दश०१०। (१४) शरीराणि निर्वर्तयतः क्रियामुक्त्वा प्राणातिपाताकिरण-किरण-पुं० । कीर्यते परितः कृ कर्मणि ल्युः । वाच०। दिना क्रियमाणायाः क्रियाया निरूपणम् । रावकिरण, अभिनवादित्यकरे, औरश्मी, क० प्र० को (१८) ज्ञानयुक्तेनापि क्रिया विधेयेति क्रियाऽएकम। किरणावली-किरणावली-स्त्री० । स्वनामख्यातायां पर्युषणा (१) क्रियायाः स्वरूपनिरूपणम्-- कल्पवृत्ती, कल्प० १क्षण। क्रिया च भावना उत्पादयितुापाररूपा साध्यत्वेनाभिधीयमा. किरमाण-कीयमाण-त्रि० । आवर्तमाने, “तह सावज जोगं प. नोर्त बोध्यम् । “व्यापारो भावना सैवो-त्पादना सैव च क्रिया" रस्स गए निट्टियं किरमाणं" दश० ७१०। प्राचा०। । ति हय्युक्तः"यात्सिद्धमासद्ध वा,साध्यत्वनााजधायताआश्रिकिराय-किरात-पुं० । स्त्री०। किरमवस्कारादेनिःक्षेपस्थानं पर्य- तक्रमरूपत्वात, सा क्रियेत्यभिधीयते" इति । "साध्यत्वेन क्रिया न्तमतति अत अण, उप० स० । “ तप्तकुण्डं समारज्य, राम तत्र,तिपदैरभिधीयते" इति वाक्यपदीयाचा (यावदिति)सर्वमिकेत्रान्तिकं शिव! किरातदेशोवियो,विन्ध्यशैलेऽवतिष्ठते।" इ. त्यर्थः। तदेव विवृणोति-(सिद्धमसि वेति) सिद्धं वर्तमानध्वंसस्युक्तलकणे देशे, वाच । अनार्य्यदेशविशेष, प्रव०१४८ द्वार । प्रतियोगि, तन्निन्नमसिद्धम् । तच्च वर्तमानं भविष्यश्चेति द्विसूत्रः । तद्देशानां राजा प्रण कैरातः, तद्देशनृपे, बहुषु अणो विधम् ; तेनापचत् पक्ष्यति पचतीत्यादी सर्वत्र साध्यत्वेन - मक किराताः । जाती स्त्रियांङी । मत्स्यभेदे, पुंग स्त्रीचा. सस्वरूपत्वेनानिधीयमाना क्रियेति, क्रियाशब्दस्य रूढिरमेन मरवाहिन्याम,स्त्री भूमिनिम्बे, पुं०। घोटकरक्षके, अल्पतनौ, दर्शितेति भावः । यौगिकत्वमप्याह-(आश्रितक्रमरूपत्वात्रि० । वाच । "किराते चः" ॥१११७३॥ इति किराते दिति ) आश्रितः क्रमो रूपं यस्यास्तत्त्वात , पूर्वापरीतावकस्य चो भवति । 'चिलायो' पुलिन्द एवायं विधिः। कामरू यवकत्वादिन्यर्थः । तदीयावयवानामधिश्रयणाद्यधाश्रयेणपिणि तु नेष्यते-"नमिमा हरकिराअं" प्रा० १ पाद। पर्यन्तानां क्रमेणोत्पत्तेः क्रियापदेन तत्समुदायोऽभिधीयते । किरितड-गिरितट-न० । ०। “निकापैशाचिके तृतीयचतुः यत्र च न ऋमिको व्यापारोऽस्ति तत्र रूढिरादरणीयेति पौर्वा पर्यारोपेण वा सर्वत्र फलस्य स्वजनकव्यापारगतपौर्वापायोराद्यद्वितीयो"। ८1४। ४२४ । इति चूलिकापैशाचिके रोपवत् यौगिकत्वम् । अत एव फलमात्रयोधकस्यापि क्वचित् तृतीयस्य प्रथमः। गिरितटं, किरितटं। पवर्तप्रान्ते, प्रा०२ पाद । धातुत्वसिद्धिरिति फलितार्थः । श्यांस्तु विशेषः-पाक इत्यादी किरिया-क्रिया-स्त्री०। भावे करणादौ वा यथायथं "कृषः शच" धातना साध्यत्वेनोपस्थाप्यायाःक्रियायाः सिद्धक्रियारूपे घत्र।३।३।१००। वाच० । “ईश्रीदी कृत्स्नक्रियादिष्टयास्वित्" ।। थें विशेषणत्वम, पचतीत्यादौ तु नैवमिति। अत एव-"साध्य२।१०४। इति संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व इकारः । प्रा०५ | त्वेन क्रिया सत्र, तिपदैरभिधीयते" इति वाक्यपदीयकारिकापाद । करणे, नि० चू०१ उ० । व्यापृतो, स्था० ३ ठा० ३३० । व्याख्यायां जूषणसारदर्पणे तिपदरित्येतत् तद्गुणसंविज्ञानबम्यापार,कर्म, क्रियत्यनान्तरम् विशेगावमारम्ने, निष्क- ग्रीहिणा तिङन्तपदैर्धातुनिरित्यभिहितम् । तेन सर्वत्र धातोः Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरिया साम्यकपक्रियाबोधकत्वम्। किच-कमिकावयवानामेकदा सत्ये पत्रिकाले वर्तमानत्यचद्वारा अ पापचिनोरमेदापात् भूतभविष्यत्वव्यवहारस्तु सर्वेषा मवयवानां नूनमविध्यत्ययोरेव न तु यत्किञ्चिािम्पतितत्वादाक्यपदीये ( ५३२) अभिधानराजेन्द्रः । " गुणनूतैरवयवैः समूहः श्रमजन्मनाम् । प्रदिपतिपदिश्यते ॥१॥ इति । श्रस्यार्थः क्रमिकतत्तदूव्यापारं प्रति गुणनुतैर्गुणभावेन नासमारवयातः मुख्य प्रकल्पितोऽमेदो यस्मिन् तपः *मजन्मनां व्यापाराणां समूहः क्रियेति । अत्र क्षणनश्वराणां व्यापाराणां मेलनास्वियु तथा च बुद्धिजन्यसंस्कारद्वारा तेषां मेलनसम्भव इति ज्ञावः । अत एव जाये क्रि या हि नामेयमत्यन्तापरिदृष्टा पूर्वापरी जूनावयवा न शक्यते पिएडी जूता निदर्शयितुमिति व्यापारसमुदायात्मिकायाः कियाया दर्शनायोग्य त्वोक्त्या तदवयवानां तद्विषयत्वं व्यारकमुखेन दर्शितम् । तस्याश्चाभिषेक बुद्धिविषयतया एकत् हार इत्यपि बोद्ध्यम् । श्रथवाऽनेकव्यापारव्यतिवृत्तिर्जातिरेव क्रियेति सिद्धान्तकल्प आदरणीयः तस्याश्च व्याक्तद्वारेव सायत्वम् । अस्ति च पचित्वादिकं जातिः पचतीत्याद्यनुगतन्यवहारात । तज्जातश्चैक्यादेकत्वव्यवहार इति मन्तव्यम् । तदुवाक्यपदीये "जातिमध्ये किमाहुरनेकल्य किर्तनीम् । असाभ्यां व्यक्तिरूपेण सा साध्येयनिषीयते इति । तव । सर्वत्रैव लाघवाज्जातिशक्ति स्वीकारेण पच्यादिधातूनामपि तत्रै व शक्तिरुचितेति दिक् साच क्रिया धातुयाच्या फलन्यापा भयरूपा, द्विशिष्टरूपा था "फलज्यापारयोः"मयचनात् । व्यवस्थापयिष्यते च मतभेदेन फलव्यापारयोः पृथक्. शक्त्या विशिष्टशक्त्या वा धातुवाच्यता । अत्र फलांशस्य कर्तुरुदेश्यत्वेऽपि प्राधान्यानावात् व्यापारस्यैव प्राधान् मुचितम् । तस्य च साध्यतया कर्मातिरिसकारकाण तत्रैव स्वस्यापारद्वारासाधकत्वेनान्वयः । कर्मणस्तु फल एव क्रियाजन्यफलाश्रयतयैव तस्योद्देश्यत्वादिति विवेकः कंच वाक्यपदीये " "प्राधान्यानु क्रिया पूर्वमर्थस्य प्रविभज्यते । साध्वप्रयुकान्यङ्गानि फलं तस्याः प्रयोजकमिति" । अर्थस्य फलस्य तदपेकयेत्यर्थः । प्राधान्यात् विशेष्यत्वात् सायं प्रयुकं तानि साध्यसाधकानि श्रङ्गानि कारकाधीत्यर्थः अत्र फलस्य क्रियाप्रयोजकत्वाभिधान देनेव क्रियायां प्रवृत्तिरित्येवाभिसंधाय तथा सर्वो लोकाखाभीएफल भित्रे साधनापतते लभते च ततस्त सत्फलमुपायसंसाधनेन । पच क्रियाफलं विरादिकमनी पायमानो जनः पाक संसाधनेन फलं लभते । ततश्च फलसाधनतया पाकादेरपीटत्वात् साध्यत्वम् | फलविशिष्टक्रियाया धात्वर्थत्वमते तु विशित्वेनैवेष्टत्वात् विशिष्टस्यैव साध्यत्वमिति विशेषः । कारकान्वय स्वेतन्मते पूर्वोक्कदिशाऽवसेयः; एकदेशान्वय स्वीकाराच्च न क कर्मणोऽनम्बयमिति बोध्यम् । तथा चैवरीत्या साध्यत्वेन क्रियांजानता जनेन तस्याः प्राधान्य बुबोधयिषयैवाख्यातान्ततया धातुः प्र युज्यते अन्यथा दन्ततयेति च भावदन्तस्य धातुना साम्यरूपक्रियाऽयबोधनेऽपि तस्याः प्रत्ययार्थसिद्धरूपकिपा विशेषणत्वेन प्राधान्यम्। नावधानातमित्यादिनिय किरिया 1 वचनस्य, प्रकृतिप्रत्ययार्थयोः प्रत्ययार्थस्यैव प्राधान्यमिति न्यायस्य च परस्परं विरोधपरिहाराय न्यायस्य मायातातिरिक्तवियत्वव्यवस्थापनम् । हरिणाऽपि धातुभावकृतोः क्रियावत्या विशेषेऽपि धातुना साध्यत्वेन कृता तु सिकत्वेन क्रियाया बोधनमिति व्यवस्थापितम् । यथा-"साध्यत्वेन क्रिया तत्र, धातुरूप निबन्धना । सिद्धावस्तु यस्तस्णः स धादिनिबन्धनः ॥१॥ इति । "पातशब्दे नागाम्यां साध्यसाधना प्रि ता यथा शास्त्रे, स घञादिष्यपि क्रमः ॥९॥ इत्येताभ्यां भागाभ्यां पश्य मृगो धावतीत्यादौ तिङन्ताज्यां साध्यसाधनवर्तितेति । मृगो धावतीत्येतस्य साधनत्वम् अपरस्य साभ्यत्वम्, क्रियाकारकभावेन तयोरन्वयात् । घञर्थक्रियायास्तु इतरक्रियायामेव साधनत्यमिति विवेकः साध्यायश्च सिंक्यानन्यवित्यम द्विपरीतं सिद्धस्यम् । तथा च पापस्थाप्यक्रियायाः सिं क्यान्त्रयित्वेनापरक्रियायां साधनत्वम् । युक्तचैतत् । यत् घञन्तादौ द्विविधक्रियायां ज्ञानम, कारकाणां साध्यक्रियायामेवावयोपगमात् । कृदन्तस्थले कारकविभक्तिप्रयोगस्य सार्वजनी तथा साध्यत्वेन तदुपस्थितायेव कारकान्ययोपपतिः “साध्यस्य साधनाका तिन साधने साध्यं क्रियासाध नोति""साध्यत्वेन निमिष्ठानि, किया परमपेक्ष" इति यामियुको अत एव स्तोकं पाक इत्यादी तातोप साध्यक्रियाफलस्य विशेषणेऽपि द्वितीयानुशासनात् । घञाधुपस्थाय्य किया विशेषणस्य तु विशिष्य तथा प्रथमान्त "दभिहितो नाथो प्रकाश इति जायोकेमि दितः कृता बोधितः, भावो भावना, धात्वर्थस्वरूपमिति यावत् द्रव्येण तुल्यं प्रकाशते द्रव्यधर्मान् लिङ्गसंख्याकारकत्वानि भजते इति यावत् द्रव्यत्वं स्याम्यत्यमेव योग्य तु पृथिव्याद्यात्मकत्वं शापाकादी भावात् । नापि "वस्तूपलकणं यत्र, सर्वनाम प्रयुज्यते । अव्यमित्युच्यते सोऽथों, भेद्यस्वेन विवचितः " ॥ १ ॥ इति पारिभाषिक सर्वनामपरामर्शयो भ्यत्वादिरूपम्, साध्यक्रियाया अपि तथात्वेनाविशेषापतेः, किन्तु प्रधानामात्येष पयतया सम्ययोः पर्यायत्वस्य दर्शनात सत्यभूत्यमेवमिति फलितार्थः। क्रिया न युज्यते इत्यादिना लिङ्गाद्ययोगस्यासत्वलक्षणत्वाभिधा मात, तद्योगस्यैव सवलत्वौचित्यादिति तु तस्य वैयाक मलयादी कियायां शक्तिः याच देशादेशान्तर प्राप्तिदेती सम्म कायम कर्मणि प्रति नये देशा शान्तरप्राप्तिहेतुः क्रियान केनचित् प्रमाणेनावसातुं शक्येसि यम् पूर्वपयाहखपरिणामममुच्चताऽभ्यग्रहणा त्, यथा स्तम्भादावधोजागग्र ढणमत्यज्यत ऊर्ध्वादिभागग्रहणम् | सम्म० १ काण्ड द्रव्यसमवायिनि कर्माख्ये वैशेषिकसंमत पदार्थे, सूत्र० १० १२ श्र० । स्था० । परिस्पन्द, सूत्र० १ ० १२ ० | " णत्थि किरिया अकिरिया वा, शेवं सष्ठं जियेस " क्रिया परिस्पन्दलक्षणा, तद्विपर्यस्ता त्वक्रिया । सूत्र० २ ० १ अ० करणे, कर्मनिबन्धनचेष्टायाम्, प्रशा० २२ पद । श्राव० । (२) तत्र नामस्थापने सुगमत्वादनात् इयादिकां कियां प्रतिपादयितुमाह-दब्बे किरिए एवण, पयोगुवाय करविज्न समुदाणे । इरियावहसंमचो, सम्पत्ते चैव मिच्छते ॥१५७॥ सूत्र०नि० | (दव्वे इत्यादि) तत्र द्रव्ये अव्यविषये या क्रिया एजनता । 'एज' कम्पने, जीवख्याजीवस्य वा कम्पनरूपा चन्तनस्वभावा सा रून्य Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) किरिया अन्निधानराजेन्द्रः। किरिया क्रिया, साऽपि प्रयोगाद्विनसया वा नवेत् । तत्राप्युपयोगपूर्वि नेसत्थिया चेव । दो किरियामओ पन्नत्ताओ। तं जहा-श्राका वाऽनुपयोगपूर्विका वाऽक्किनिमेषमात्रादिका था सा सर्वा| वणिया चेव.वेयारणिया चेव दो किरियानो पामत्तानो। मन्यक्रियेति । नावक्रिया त्वियम्-तद्यथा-प्रयोगक्रिया, उपायक्रिया,करणीयक्रिया, समुदानक्रिया, र्यापथक्रिया,सम्यक्त्वक्रिया, तं जहा-प्रणालोगवत्तिया चेव, अणवखवत्तिया चेव । मिथ्यात्वक्रिया चेति । तत्र प्रयोगक्रिया मनोवाकायलक्षणा दो किरियाओ पन्नत्ताओ । तं जहा-पेजवत्तिया चेब, त्रिधा । तत्र स्फुरद्भिर्मनोऽव्यरात्मन उपयोगो भवति, एवं वा-| दोसवत्तिया चेव । स्था० २ ग.. उ०। काययोरपि वक्तव्यम् । तत्र शब्दे निष्पाद्ये वाकाययोद्वयोरज्युप-। (अणामोगवत्तिया चेव त्ति ) अनाभोगोकानादि, प्रज्ञानं योगः । तथा चोक्तम्-"गिएहर य कारणं, पिसिरह तह बार- प्रत्ययो निमित्तं यस्याः सा तथा । ( अणवखवत्तिया चेव एण जोगेण ।" गमनादिका तु कायक्रियैव । उपायक्रिया तु| त्ति) अनाकान स्वशरीराद्यनपेकत्वं, सैव प्रत्ययो यम्याः सा। घटादिकं व्यं येनोपायेन क्रियते । तद्यथा-मृत्खननमर्दनचक्रा स्था०२ ग०१ उ० प्रा० चू० । (प्रभेदादिप्ररूपणा तत्तरोपणदएकचक्रसलिलकुम्नकारव्यापार्यावद्भिरूपायैः क्रियते चन्द वक्ष्यते) सा सर्वोपायक्रिया । करणीयक्रिया तु . यद्येन प्रकारेण तिविहा अन्नाणकिरिआ पन्नत्ता । तं जहा-मइप्रमाणकिकरणीयं तत्तनैव क्रियते नान्यथा । तयाहि-घटो मृत्पि रिया, सुय प्रमाणकिरिया, विभंगणाणकिरिया ॥ एमादिकयेय क्रियते, न पाषाणसिकतादिकयेति ३ समुदामक्रिया तु यत्कर्म प्रयोगगृहीतं समुदायावस्थं सत्प्रकृति (मप्रमाणकिरिय त्ति) "अविसेसिया मह चिय, समहिहिस्स सित्यनुभावप्रदेशरूपतया यया व्यवस्थाप्यते सा समुदानक्रि सा मइमाणं । मइअमाणं मिच्दा-दिहिस्स सुयं पि पमेश्व" ति । या। सा च मिथ्यादृष्टेरारज्य सूक्ष्मसंपरायं यावद् भवति ।४। मत्यज्ञानाक्रिया अनुष्ठान मत्यज्ञानक्रिया, एवमितरेऽपि । पथक्रिया तूपशान्तमोहादारज्य सयोगिकेवलिनं यावदिति नवरं विजङ्गो मिथ्यादृष्टेरवधिः स एवाज्ञान विभङ्गाज्ञानमिति । ५। सम्यक्त्वक्रिया तु सम्यग्दर्शनयोग्याः कर्मप्रकृतीः सप्तसप्त स्था०३ग०३ उ०। तिसंख्या यया बध्नाति साऽभिधीयते । मिथ्यात्वक्रिया तु स. " एताहिं पंचहि पंचवीसकिरियाओ सूचितायो । त र्षाः प्रकृतीविंशत्युत्तरसंख्यास्तीर्थङ्कराहारकशरीरतदलोपाल जहा-मिथ्या क्रिया १ प्रयोगक्रिया १ समुदानक्रिया ३ई र्यापथिका ४ कायिका ५ अधिकरणक्रिया ६ प्राद्वेषिकी ७ प. त्रिकरहिता यया बध्नाति सामिथ्यात्वक्रियेत्यभिधीयते । सूत्र रितापनिका प्राणातिपातक्रिया दर्शनक्रिया १० स्पर्शनकि१ ०२५० या ११ सामन्तक्रिया ११ अनुपातकिया १३ अनानोगक्रिया १४ (३) क्रियाया भेदानाह स्वहस्तक्रिया १५ निसर्गक्रिया १६ विदारणक्रिया १७ माएगा किरिया। ज्ञापनक्रिया १० अनाकाङ्कक्रिया १६ आरम्नक्रिया २० पएका अविवक्षितविशेषतया करणमात्रधिवकणात् करणं क्रिया रिप्रक्रिया २१ मायाक्रिया २२ रागक्रिया २३ द्वेषक्रिया २४ कायिक्यानिका । स्था० १० । प्रास्तिकमात्रम् । स०१सम०। अप्रत्याभ्यानक्रिया २५" इति । पाण्चू०४०।०म० भ०। दो किरियाप्रो पबचाओ। तं जहा-जीवकिरिया चेत्र, उापारविशेषे, स०४ सम० । औ०। करणं जंते ! किरियामओ पाणताओ? गोयमा! पंच किअजीवकिरिया चेव ।। रियाओ पएणताो । तं जहा-काइया, आहिंगरणिया, सूत्राणि षट्त्रिंशत, करणं क्रिया, क्रियत इति वा क्रियेति । ते च दे प्राप्ते प्ररूपिते जिनैः । तत्र जीवस्य क्रिया व्यापारो जीव पाउसिया, पारियावणिया, पाणाइवायकिरिया ॥ किया। तथा अजीवस्य पुलसमुदायस्य यत्कर्मापथं, तया करणं क्रिया,कर्मबन्धनिबन्धनं चेष्टा इत्यर्थः । सा पञ्चधातपरिणमनं सा अजीवक्रियेति । इह 'चेय' शब्दस्य'चेव' शब्दस्य चथा-(काश्या इत्यादि) चीयते इति कायः शरीरं,काये भवा, ब पागन्तरे प्राकृतत्वाद् द्विर्भाव ति,चेयेत्ययं च समुथयमात्र कायेन निवृत्ता वा कायिकी। तथा-अधिक्रियते स्थाप्यते मारपब प्रतीयते, अपि चेत्यादिवदिति । स्था० २ ठा० १ उ०। कादिष्वात्माऽनेनेत्यधिकरणमनुष्ठानविशेषो बाह्यं वस्तु चकमपुनः प्रकारान्तरेण प्रतिपादयति रुगादि तत्र भवा,तेन वा निर्वृत्ता प्राधिकरणिकी । (पासिया इति) प्रद्वेषो मत्सरः कर्मबन्धहेतुरकुशलो जीवपरिणामविशेष दो किरियाप्रो पन्नत्ताओ।तं जहा-काझ्या चेव, आहिगर-1 इत्यर्थः। तत्र नवा,तेन वा निवृत्ता, सा एव वा प्राद्वोषिकी । (पाशिया चेव दो किरियाओ पन्नत्तायो। तं जहा-पाउस्सिया रियावणिया इति ) परितापनं परितापः, पीमाकरणमित्यर्थः। चेव, पारियावणिया चेव । दो किरियाो पन्नत्ताओ। तं तस्मिन् नबा, तेन वा निर्वृत्ता, परितापनमेव वा पारितापनिजहा-पाणावायकिरिया चेव, अपच्चक्खाणकिरिया चेत्र । की (पाणाश्चायकिरिया ति ) प्राणा इन्छियादयः, तेषामदो किरियाप्रो पन्नत्ताओ। तं जहा-आरंनिया चेव,परिग्ग तिपातो विनाशः, तद्विषया, प्राणातिपात एव वा क्रिया प्राणा तिपातक्रिया। प्रज्ञा० ३१ पद । स्था। हिया चेव । दो किरियानो पन्नत्ताओ। तं जहा-मायावत्ति पाउसिया णं नंते ! किरिया कतिविहा पसा गोयमा! या चेव, मिच्छादसणवत्तिया चेव । दो किरियाो पन्न तिविदा पम्पत्ता। तं जहा-जेण अप्पणो वा परस्स वा तदुनताओ। तं जहा-दिडिया चेव,पुडिया चेव। दो किरियाओ यस्स वा अमुभं मणं पधारेश, सेत् पाउसिरिया किरिया। पन्नत्तानो । तं जहा-पामुच्चिया चेव, सामन्तोवनिवाझ्या प्राषिकी विजेदा। तद्यथा-(जेण अप्पणो इत्यादि) येन प्रकाचेव ।दो किरियानो पन्नचाओ। तं जहा-साहत्थिया चेव, । जहा साहात्थया चव, रण जीवा प्रात्मनः स्वस्य वा, अन्यस्य चा आत्मव्यतिरिक्तस्य, Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३४ ) अभिधानराजेन्द्रः । किरिया उभयस्य वा स्वपरक्षक्षणस्योपरि श्रशुभमकुशलं मनोऽन्तःकरणं प्रधारयति प्रकर्षेण धारयति तयर्थः तेन कारणेन यस्य वैविध्यात विविध प्रषिकी क्रिया । तथादि-कचकस्मिन् प्रयोजने स्वते पर्वते पिका सति अनि परि मनः संप्रधारयति । एवं कचित्परस्य कचित्स्वपरयोरपीति । पारियावणिया णं नंते ! किरिया कतिविहा पत्ता ! | गोयमा ! तिविहा पत्ता तं जहा नेणं अप्पो वा पर रस वा तदुभयस्स वा असायं वेदणं उदीरेति, सेत्तं परियावणिया किरिया । । इ " पारितापनिक्यपि त्रिविधा । तद्यथा-"जेणं श्रप्पणो" इत्यादि । येन प्रकारे कति कुतश्चित् हेतोरषिकतत्वासा दुःखरूपां वेदनामुत्पादयति । कश्चित्परस्य, कश्चिदुभयस्य । ततः स्वपरतडुभयनेदापति प्रिया पारितापनि किया। ग्रहएवं सति सोचकर तपोनुष्ठानाकरणप्रसङ्ग यथायोगं स्वप रोमयासात वेदनाहेतुत्वात् । तदयुक्तम् । विपाकहितत्वेन चिकि त्साकरणवत् लोचकरणादेर सात वेदनाहेतुत्वायोगात् श्रशक्यतपोऽनुष्ठानप्रतिषेधाथ उकञ्च" सांडु तव काय ते जे नदिदा जे जोगा न हायति " ॥ १ ॥ " कायो न केवलमयं परिपालनीया, मृष्टे रवि लालनीयः चित्तेन्द्रियाणि न चरन्ति वयोत्यधेषु पश्यानि येन च तथाऽचरितं जिनानाम् ॥२॥ इति । पाणाइवायकिरिया णं भंते ! कतिविहा पत्ता? 1 गोयमा ! तिमि तं जहाजेणं प्रयाणं वा परं जयं वा जीविया ओ बरोवड़, सेत्तं पाणाइवायकिरिया । प्राणातिपातक्रियाऽपि त्रिविधा । तद्यथा - ( जेणं अप्पाणं इत्यादि) येन प्रकारण कश्चिदविवेक भैरवप्रतापादिना जी विपरोपयति कषादिना परम शिवम तः प्राणातिपातक्रियाऽपि विविध कारणाद्भगवद्भ रकालमरणमपि प्रतिषिद्धम, प्राणातिपातक्रियादोपसंवाद | ( ४ ) स्पृष्टास्पृष्टत्वादिना प्राणातिपालकियां निरूपयतिप्रत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाए णं किरिया कजई है। हंसा प्राथ सा ते किं पुडा, डा कज्जइ ? जाव निव्वाघाए । छद्दिसिं वाघायं पहुच्च सिप निदिसि सियदि सिय पंचदिसिं सा नंवे ! किं कमा कला, अरुमा फलइ ? गोचमा कमाकम नोकमा कज्जः । सा भंते ! किं अत्तकडा कज्जइ, परकमा कज्जइ, तदुभयकमा कज्जइ ? । गोयमा ! त्तकमा कज्ज, णो परकडा कज्जइ, यो तदुज्जयकमा कज्जइ । सा जंते ! किं प्रापुविकमा कज्जड अापुविकटा कञ्ज ?। गोयमा ! श्रापुव्विकमा कज्जइ, नो श्रणाणुपुव्विका कज जाय का जाप कञ्ज जाय काजिस्म, सम्मा सापुवि कडा नो अापुर्वि कड त्ति बत्तन्वं ि या । अस्थि णं जंते ! नेरइयाणं पाणाश्वायकिरिया केज्ज किरिया इ १। हंता प्रत्थि । सा जंते ! किं पुट्ठा कज्ज‍, अपुष्टा कज्जइ जान नियमा उद्दिसिं कज्जइ । सा जंते ! किं कमा कञ्ज, अकमा कम्मर, तं चैव जाव नो अणा किड ति वतव्वं सिया । जहा नेरश्या तहा एगिंदियवज्जा जाणियन्त्रा जाव वेमाणिया । एगिंदिया जहा जीवा तहा भाणियन्ना । वहा पाणावाए वा मुसावा तहा प्रदिने मेहुणे परिग्गड़े तदा कोड़े जाव मिठास । एवं एएवं अधारसचarti दंगा जाणियन्त्रा । सेवं जंते ! भंते ! जगवं गोयमे सम जाव विरह ॥ "अत्थीत्यादि" । (अस्थि ति ) अस्त्ययं पक्षः ( किरिया कजर ति)। क्रियत इति क्रिया कर्म सा क्रियते भवति । 'पुछा' इत्यादेर्व्याख्या पूर्ववत् । ( कमा कर ति) कृता भवति, श्रकृतस्य क भावात् । (तकमा कज्जर त्ति) श्रात्मकृतमेव कर्म नयति नान्यथापुविकडा काजा ति) भागो पत्र दिनानुपशब्देनोच्यत हांत (जदा नेरड्या तहागिदियज्जा जाणिव नारकोपबा च्याः । एकेन्द्रियवर्जाः, ते त्वन्यथा तेषां हि दिकूपदे "निव्वाघा एणं द्दिसि वाघायं पदुच्च सिय तिदिसिं" इत्यादविशेषाभिलापस्य जीवपदोक्तस्य भावात् । अत एवाह (पर्गिदिया जहा जीवा नहा प्राणियन्वति जाब मिच्छादसणस ) इह यावत्करजात्- ( माणे माया लोभे पेजे ) अनभिव्यक्तमाया लोभस्वभावमभिष्वङ्गमात्रं प्रेम ( दोसे ) अनभिव्यक्तक्रोधमानस्वरूपमप्रीतिमात्रं द्वेषः । कलढो राटिः । ( अन्नकखाणे ) असदोषाविकर (पेने) सदोषाविष्करणम (परपरिवार ) विप्रकीर्णे परेषां गुणदोषवचनम् । [ अरहरई] अरतिमोहनीयोदयाच्चतोद्वेगः ाः तत्फला, रतिर्विषयेषु मोहनीयोदयातू विनाभिरतः घरतिरति मायामांने] तृतीयकपायद्वितीयः संयोगः । यमेन व सर्वसंयोगा उपलचिताः । अथवा देवान्तरभावान्तरकरणेन यत्परवचनं समायाति । मियादयमिवनिबंधनत्वानिध्यादर्शनशव्यमिति । ज० १ ० ६ उ० । सम्पति एता किमविशेषेण सर्वेषां जीवानां सन्ति किंवा नेति जिज्ञासुरिदमाह जीनाएं भंते! सकिरिया अकिरिया है। गोयमा ! जीवा सकिरिया वि, अकिरिया वि। से केलणं भंते ! एवं बुच्च जीवां सकिरिया वि किरिया वि । गोयमा ! जीवा दुबिहा पन्नता । तं जहा संसारसमान्नगाव भ संसारसमावन्नगा य । तत्य णं जे ते असंसारसमावन्नगा, ते सिका, सिका अकिरिया । तत्व जे ते सं सारसमावन्नगा ते विहा पत्ता । तं जहा-सेले सिपमि - वनगा य, सेलेसिपमिवन्नगा य । तत्य णं जे ते मेलेसविन्नगाणं किरिया तत्वां जे ते असलेसपरिवन्नगाते यांसकिरिया से तेाणं गोषमा ! एवं बुबा मीना सकिरिया वि आकेरिया वि ।। - Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३५) किरिया अभिधानराजेन्द्रः। किरिया "जीवाणं ते!" इत्यादि सुगमम, नवरम् (संसारसमावन्नगा जीवनिकापसु" एवं तावद्वाच्यं यावद्वैमानिकसूत्रम् । तदेवं यइति ) संसारं चतुर्गतिभ्रमणरूपं सम्यगकीभावेनापन्ना एवं सं. था प्राणातिपातक्रिया भवति यद्विषया व तत्प्रतिपादितम् । सारसमापनकाः । प्राकृतत्वात्स्वार्थे कप्रत्ययः । तद्विपरीता| (५) संप्रत्येवमेव मृषावादादिविषयाएयपि सूत्राएयाहअसंसारसमापनका: । चशब्दो स्वगतानेकनेदसूचकौ । तत्र अत्यि एं भंते ! जीवाणं मुसावाएणं किरिया कज्जा हंता येऽसंसारसमापनकास्ते सिद्धाश्च देवमनोवृत्यभावतोऽक्रिया:, ये तु संसारसमापनकास्ते द्विविधा:-शैलेशीप्रतिपनका अस्थि । कम्हि एं भंते ! जीवाणं मुसावारणं किरिया प्रशैलशीप्रतिपक्षकाच । शैलेशी मामायोग्यवस्था, तां प्रति- कजा गोयमा सव्वदचेस । एवं निरंतर गरइयाणं जाव पन्ना शैलेशीप्रतिपन्नाः, ततः पूर्ववत् स्वार्थिकः का- वेमाणियाणं । अत्यि णं नंते ! जीवाणं अदिनादाणेणं त्ययः । शैलेशीप्रतिपन्नकाः । तद्यतिरिक्ताः अशैलेशीप्रतिप किरिया कज्जी इंता अस्थि । कम्हिणं नंते ! जीवाणं प्रकाः । तत्र शैलेशीप्रतिपन्नकास्ते सूक्ष्मबादरकायवाखानोयोगनिरोधादकियाः, ये त्वशैलेशीप्रतिपन्नकास्ते सयोगि अदिनादाणेणं किरिया कजा। गोयमा! गहणधारणिस्वात सक्रियाः। "से तेणणं" इत्याधुपसंहारवाक्यम् । तदेव ज्जेस दम्। एवं णेरइयाणं निरंतरं जाव वेमाणियाणं । ये सक्रिया ये वाऽक्रियास्ते उक्ताः ॥ अस्थि णं भंते ! जीवाणं मेहुणे) किरिया कज्जइहंता संप्रति यथा प्राणातिपातक्रिया भवति तथा दर्शयत्ति अस्थि । कम्हि णं जंते ! जीवाणं मेहणेणं किरिया कभत्थि णं ते जीवाणं पाणाश्वाएणं किरिया कन्जर।। ज्जइ? गोयमा रूवेमु वा रूवसहगतेसु वा दब्बेसु । एवं 0. हंता अस्थि ॥ रझ्याणं जाव वेमाणियाणं । पत्थि णं जंते ! जीवाणं परि"अस्थि णं भंते !" इत्यादि ।अस्येततू, णमिति वाक्यालङ्कारे, ग्गहणं किरिया कजातात्यि। कम्हिणं नंते जीवाणं भदन्त ! जीवानां प्राणातिपातेन प्राणातिपाताध्यवसायेन, कि परिग्गहेणं किरिया कन्जइ?। गोयमा! सबदव्येसु । एवं णेरया, सामर्थ्यात् प्राणातिपातक्रिया क्रियते । कर्मकर्तर्ययं प्रयोगो भवतीत्यर्थः । अनद्यतनयाऽभिप्रायात्मकोऽयं प्रश्नः । कत इयाणं जाव माणियाएं । एवं कोहेणं माणेणं मायानोभेमोऽत्र नयोऽयमध्यवसायस्पृष्ट ति चेत्, उच्यते-ऋजुलूत्रम् । एं पेजेणं दोसेणं कलहेणं अब्भक्खाणेणं पेसुन्नेणं परतथाहि-जुसूत्रस्य हिंसापरिणतिकाल एव प्राणातिपातक्रियो। परिवाएणं अरतिरतिए मायामोसेणं मिच्छादसणसह्येणं च्यते, पुण्यपापकर्मोपादानानुपादानयोरध्यवसायानुरोधित्वात्, सम्वेस जीवणेरइयजेदेणं भाणियव्वं निरंतरं जाव वेमाणि. नान्यथा परिणताविति । भगवानपि तां ऋजुसूत्रनयमधिकृत्य प्रत्युत्तरमाह-"हंता अस्थि"। हन्तति प्रेषणप्रत्यवधारणवि. याणं ति एवं अट्ठारस एए दमगा। वादेषु । अत्र प्रत्यवधारणे, अस्त्येतत् प्राणातिपाताध्यवसायेन "अस्थि णं भंते ! मुसावाएणं" इत्यादि सुगमम्, नवरं (किप्राणातिपातक्रिया भवति । “परिणामियं पमाणं, णिच्छयमवलं रिया कजा इति ) यथायोगं प्राणातिपातादिका क्रिया भवतीबमाणाणं" इत्याद्यागमवचनस्य स्थितत्वात् । अमुमेव वचन त्यर्थः । तथा सतोऽपक्षापोऽसतश्च प्ररूपणं मृषावादः, सच मधिकृत्यावश्यकेपीदं सूत्रं प्रावतिष्ट-" आया चेव अहिंसा. लोकालोकगतसमस्तवस्तुविषयोऽपि घटते । तदुक्तं मृषावादआयाहिं सत्ति निच्छओ एस" इति । तदेवं यथा प्राणाति सूत्रम्-"सब्बदन्वेसु" इति । व्यग्रहणमुपलकणम, तेन पर्यायपातक्रिया नवति तथोक्तम्। वपीत्यपि अष्टव्यम् । यथा यद्वस्तु गृहीत धारयितुं वा शसंप्रति कस्मिन् विषये सा प्राणातिपातक्रिया भवतीत्येतम्भि- क्यते तद्विषयमादानं भवति न शेषविषयमतोऽदत्तादानसूरूपयति “गहणधाराणिज्जेसु दव्वेसु" इत्युक्तम् । मैथुनाध्यवसायेऽपि कम्हि णं ते! जीवाणं पाणाश्चाए णं किरिया का चित्रलेपकाष्ठादिकर्मगतेषु रूपेषु सहगतेषु वा स्यादिषु ततो जइ ?। गोयमा ! उसु जीवणिकाएसु ॥ मैपुनसूत्रे उक्तम्-"रूवेसुवा रूवसहगपसु वा ति"। तथा प'कम्हि ' इत्यादि सुगमम्, नवरं मारणाध्यवसायो जीववि. रिग्रहः स्वस्वामिभावेन मूर्छा, सा च प्राणिनामतिलोभात्सषयो भवति नाजीवविषयोऽपि, रज्ज्वादौ सर्पादिबुद्धया मार कलवस्तुविषयाऽपि प्रापुर्नवति । ततः परिग्रहसूत्रे उक्तम्णाभ्यवसायोऽपि सर्पोऽयमिति बुद्धद्या प्रवर्तमानत्वात् जी "सव्वव्वेसु" इति । अत एवान्यत्रापि प्रथमवतं सर्वजीवधिवविषय एव, न खलु रज्ज्वादौ रज्ज्वादितया परिच्छिन्ने क षयमुक्तम, ख्तिीयचरमे सर्ववस्तुविषये, चतुर्थे तदेकदेशषिश्चित्तद्विषयं मारणाध्यवसायं विदधाति, ततः प्राणातिपातक्रि पये इति। उक्तश्च-"पढमम्मि सव्वजीवा, वीए चरिमेय सम्बदया षट्सु जीवनिकायेषता। व्याई । सेसा महब्बया खलु, तदेकदेसम्मि नायब्वा " ॥१॥ पतामेव प्राणातिपातक्रियामुक्तप्रकारेण नैरयिकादिकं क्रोधादयः सुप्रतीताः, नवरं कलहो राटिः, अज्याख्यानमसहोचतुर्विशतिदएमकमधिकृत्य चिन्तयति पारोपणम् । यथा-अचौरेऽपि चौरस्त्वम,अपारदारिकेपि पारदाअस्थि णं ते ! नेरझ्याणं पाणावाए णं किरिया क रिकस्त्वमित्यादि । इदं मृषावादेऽप्यन्तर्गतं परमुत्कृष्टोऽयं दोष इति पृथगुपात्तम् । पैशुन्य परोने सतोऽसतो वा दोषस्याबाटबइ। गोयमा! एवं चेव । एवं जाव निरंतरं वेमाणियाणं । नम् । परपरिवादःप्रजूतजनसमकपरदोषविकत्थनम् । परतिरती (अत्यि संनंते ! इत्यादि ) नवरमेष सूत्रपात:-" अस्थि णं प्रतीते। इदमेकं समुदितं पापस्थानम् । (मायामोसेणमिति) माया भते । नेरझ्याणं पाणाश्वार णं किरिया कजराहंता अत्थि। चनृपा च समाहारो द्वन्धः। द्वन्द्वकत्वं नपुंसकत्वमिति "क्रीये" कम्हि खं भंते ! पाणाश्वापणं किरिया कजा गोयमा !उस ॥४७॥ ति दुखत्वम् तेन इह समुदायो विक्रितो म Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरिया हाकर्मबन्धदेति सुपायादमायाभ्यां पृथगुपातम] [मिच्छा दंसणसणं ति ] मिथ्यादर्शनं मिथ्यात्वं तदेव शल्यम्, तेन । (अट्ठारस पर दंडगा इति पते अनन्तरोत शिताः सर्वाष्टादश दण्डका भवन्ति प्राणातिपाता दीनां पापस्थानानामष्टादशत्वात् । तदेवमष्टादशपापस्थानान्यचित्य जीवन कियाऽक्रियाविषयोपदर्शिता | [६] साम्यतं साम्येवाहित्य जीवानामेकपपृथक्वाय कर्मबन्धत्यमुदवराह- (३६) अभिधानराजेन्द्रः | जीवे णं जंते! पाणावाएवं कति कम्पपगडीओ नं. घ‍ || गोमा ! सत्तविहबंधए वा अडविद्वबंध वा, एवं शेर नाव बेमाथिए । जीवा णं भेते पाणाइवाणं कति कम्मबंधंति ?। गोयमा ! सत्तविहबंधगा वि विबंधना । रयाणं भंते! पाणावाएणं कति कम्पपी बंधंति । गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्ज सबंधा अहवा सत्तविधगा य विहबंधप य, अहवा सत्तविहबंधगाय, अविबंधगा य । रवं असुरकुमारावि जाव oियकुमारा । पुढविश्वाउते वाडवणस्काया व एए सच्चे वि जहा ओहिया जीवा सेसा जहा रइया । एवं एए जीवा एगिंदियवज्जा तिन्नि भंगा सम्बस्य नाशियन चि जाब मिच्छादंसणसणं । एवं एगमपोहत्तिया बत्तीसं दंगा होति | " जीवे णं भंते!" इत्यादि सुगमम्, नवरं सप्तविधबन्धकत्वमा युर्बन्धविरहकाले श्रायुर्बन्धकाले चाष्टविधबन्धकत्वं पृथक्त्वचिन्तायां सामान्यतो जीवपदे सप्तविधबन्धका अष्टविधबन्धका सदैव बहुत्वेन लभ्यन्ते तत उभयत्रापि बहुवचनमित्येवं रूप एक एव बन्धभङ्गः । नैरयिकसुत्रे सप्तविधबन्धका अवस्थिताए, दिसापरिणाम बन मां सप्तविधषन्धकत्वस्यावश्यंभावित्वात् । ततो यदा एकोयष्टविधबन्धको न लभ्यते तदैष नङ्गः । सर्वेऽपि तावद्भवेयुः सप्तषन्धका इति यदा पुनरेकोऽि पाः सर्वे सप्तविधबन्धकास्तदा द्वितायो भङ्गः सप्तविधव धकाध अष्टविधबन्धकाश्च । यदा त्वष्टविधबन्धका अपि बहवो सज्यन्ते तदानयगत बहुवचनरूपस्तुतयो] भङ्गः सप्तविधव काश्च अष्टविधबन्धकाश्च । एवं भङ्गत्रयेणा सुरकुमारादयोऽपि तावद् वक्तव्या यावत् स्तनितकुमाराः पृथिव्यप्तेजोवावनस्पतिकायिकाः । यथा सामान्यतो जीवा उक्तास्तथा वक्तम्या उभयत्रापि बहुवचनेनैक एव भङ्गो वक्तव्य इति भावः, पृथिव्यादीनां हिंसापरिणामपरिणतानां प्रत्येकं सप्तविश्वबन्धकानामष्टविधवन्धकानां च सदैव बदुत्वेन लभ्यमानत्वात् शेषा त्रिचतुरिन्द्रियतिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्यन्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका यथा नैरयिका भङ्गत्रिकेणोक्तास्तथा वक्तव्याः । यथा च प्राणातिपालकत्व पृथक्वाभ्यां जो दयमकायुक्तायं सर्वपापस्थानरपि प्रत्येकं ही ही इसकी तथा बाद"जय मिष्ठा दसणसणं ।” सर्व समचया कियन्तो दधकका जवन्तीति चेत्, आइएमोतिया प्रती दंगा होत शानां द्वय गुणने पद - किरिया (७) ज्ञानावरणीयादि कर्म बध्नन् जीवः कतिभिः क्रियाभिः समापयतीतिमाश्रित्याह जीचे णं भंते ! नाणावर शिवं कम्मं बंधमाले कति किरिए । गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चनकिरिए मिय पंचकरिए जाप माहिए। जीवा ते नाणावरणि ज्जं कम्मं बंधमाणा कति किरिया ? । गोयमा ! तिकिरिया वि च किरिया वि पंचकिरिया वि, एवं ऐरल्या जाव वेमाणिया । एवं दरिसणावरणीयं वैयथितं मोहनि आउ यं नाम गो अंतराश्यं च अनि कम्मपगमी ओ नाबियन्त्राओ एगत्तपोहत्तिया सोलस दंडगा भवंति । "जीवाणं भंते!" इत्यादि । अथ को ऽस्य सूत्रस्यापि सम्बन्धः । उच्यते- प्रागुकं जीवप्राणातिपातेन सप्तविधमष्टविधं या क मैं बध्नाति स तु तमेव प्राणातिपातं ज्ञानावरणीयादि कर्म बघ्नन् कतिभिः क्रियाभिः समापयतीति प्रतिपाद्यते । अपिचकार्येण ज्ञानावरणीयाख्येन कर्मणा कारणस्य प्राणातिपातास्यस्य निवृतिने उपदान्यविशेषोऽपीतिअ-"तिसृभिः चतरथ - हिंसा समाप्यते क्रम शः । यथोऽस्य विशिष्ट स्पा- योगप्रविसाम्यं वा " इति । तदेव प्राणातिपातस्य निवृत्तिभेदं दर्शयति- "सिय तिकिरिये " इत्यादि चिकाचियः कदाचि यः तत्र विक्रियता कायिकारी क्रियानि कार्यिकी नाम हस्तपादादिव्यापारणम् अधिक रणिकी-खड्गादिप्रगुणीकरणम् । प्रादेषिकी मारयाम्येनमित्य नमनन्तंप्रधारणमिति तुष्यता काविषयाधिकरणकीमापिकीपारितानिकीभिः परितापनिक नाम खङ्गादिघानपीमाकरणम, पता यहा प्राणातिपात क्रियाऽपि पञ्चमी भवति प्राणातिपालकिया जीविताद्वापरोपकम् । एवं नैरयिकादारभ्य चतुर्विंशतिदएडकक्रमेण तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिसूत्रम् सूत्रपाठ स्पेयम्"रश्या नंते नाव कम् बंधये कह कर पद्म" इत्यादि । रा एक उक्तः । सम्प्रति बहुत्वेनाद-" जीवा णं भंते!" इत्यादि सूत्रं सुगमम् प्रदाना गीतम जीवाकिया मि आप किमु भारी जीया ज्ञानावरणीयं कर्मबन्तः सदैव बच किया अपि चतुकिया अपि पक्रिया अि लभ्यन्ते इत्येक एव नङ्गः । यथा च सामान्यतो जीवपदे ऽभङ्गकं तथा नैरयिकादिषु चतुर्विंशतो स्वस्थानेषु प्रत्येकमजङ्गकं अष्टव्यम्, नैरयिकादीनामपि ज्ञानावरणीयं कर्म बनतां सदैव त्रिक्रियाणामपि चतुष्याणामपि पञ्चक्रियाणामपि च बहुन लभ्यमानत्वात् । यथा च ज्ञानावरणीयं कर्माधिकृत्य एकत्वपृथक्त्वाभ्यां यो दमकालुली तथा दर्शनावरणीयादीन्यपि क मण्यधिकृत्य प्रत्येकं द्वौ द्वौ दएडको वक्तव्यौ । तत एवं सति सर्वसंख्या षोडश दण्डकाः ॥ जीवे णं जंते ! जीवातो कइ किरिए । गोयमा ! सिय विकिरिए सिय च किरिए सिय पंचाकरिए सिय अकिरिए || Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३७) किरिया अभिधानराजेन्छः। किरिया ( जीवे ण नंते ! जीवाओ का किरिए इति) । अथ को. | पति, नचापि तज्जन्मजावना शरीरेण काचिदपि क्रियां करोति । उस्य सूत्रस्य सम्बन्धः? उच्यते-इह न केवलं वर्तमानप्रवर्तिनो | इदं चाक्रियत्वं मनुष्यापेक्कया षष्टव्यम्, तस्यैव सर्वविरतिभाजीवस्य ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धो भेदप्ररूपणे कायिक्यादिकि- वात्, सिद्धापेकया वा तस्य देहमनोवृत्त्यभावेनाक्रियत्वात् । याविशेषणः प्राणातिपातभेदो नवति, किन्त्वतीतनवकायसम्ब (८) अमुमेवार्थ चतुर्विंशतिदएमकक्रमेण निरूपयतिन्धः कायिक्यादिक्रियाविशेषणापि । तत एतस्यार्थस्य प्रति जीवे एं भंते ! णेरयियाओका किरिए। गोयमा ! सिपादनार्थमिदं सूत्रम् । अस्य चेयमेवं पूर्वाचार्योपदर्शिता भावना-"ह संसारामवीए परिन्नमंतेहिं सबजावो तेसु तेसु य तिकिरिए सिय चनकिरिए सिय अकिरिए । एवं गणेसु सरीरोवाहिणा विप्पमुक्का तेहि य सव्वनूपाहिं जया जाव थणियकुमाराओ पुढविकाइयाो आनकाश्याओ कस्सा" स्वतः परितापनादयो भवन्ति"तया तस्सामिणो भवं तेनकाइयवाउकाइयवएस्सइकाइयबेइंदियतेइंदियचनरिदितरं गयस्स वि"तत्रानिवृत्तत्वात् "किरिया संजवर" इति। व्युत्प यचिदिए तिरिक्खजोणियमणुस्साओ जहा जीवाओ वाहे तु न भवति, निवृत्तत्वात् । एत्थ उदाहरणम्-“वसंतपुरे न यरे अजसेणस्स रनो परिचारणगा वे कुलपुत्तगा । तत्थेगो णमंतरजोशसियवेमाणियातो जहा गैरइयाओ। समणसको, इयरो मिच्छादिही। अन्नया रयणीए रनो निस्स- 'जीवेणं भंते ! मेरदयाश्रो का किरिए' इत्यादि सुगममानवरमय रणं, संजमतुरंताणं तेसिं घोडगारूढाणं खग्गा पन्भा, सण भावार्थ:-देवनारकान् प्रति चतुष्क्रिय एच, तेषां जीविताद् व्यजत्ताकोलाहलो मम्गिो न लहर । इयरेण हसियं । किमले ण परोपणस्यासम्भवात , अनपवायुषो नारकदवा इति वचनाहोसति । सकेण अहिगरणं ति कट्ट वोसिरियं । श्यरे खग्ग- त्। शेषान् संख्येयवर्षायुषः प्रति पश्चक्रियोऽपि, तेषामपवाग्गाहिणो वंदिग्गहसाहसिपहिं समा गहिआ, अन्नेहिं रायवहे. युष्कतया जीवितादू व्यपरोपणस्यापि सम्नवात् । तदेवमेकस्य शम्रो पलायमाणो वाचाश्यो। तो आरक्विहिं गदिऊण जीवस्य एकजीवं प्रति क्रियाश्चिन्तिताः। रायसमीचं नीया । कहिश्रो वुत्तो । कुविनो राया । पुचिय संप्रत्येकस्यैव जीवस्य बहून जीवान् प्रति क्रियाश्चिन्तयतिचणेण-कस्स तुम्ने। तेहिं कहियं-अणाहा कलंचिय कप्पडि. या पत्थ एतम्ह खम्गा कहिं लकित्ति पुचिपहिं कहियं-पमि जीवे णं भंते ! जीवेहिंतो कति किरिए पसत्ते। गोयमा ! या शति । तो सामरिसेण रन्ना भणियं-गवेसह तुरियं मम | सिय तिकिरिए सिय चनकिरिए सिय पंचकिरिए सिय अअणवद्धवेरिणं ईसरपुत्तस्स णं महापमत्ताणं केसि श्मे खग्गं किरिए । जीवे एं भंते ! नेरएहिंतो कति किरिए। गोतितो तेहिं निवणं गवेसिऊण विश्नत्तं रनो-सामि! गुणचं. यमा ! सिय तिकिरिए सिय चमकिरिए सिय अकिरिए। दबालचंदाविति । तो रन्ना पि हप्पिहं सदावेऊण भणियालेह नियस्नग्गे । पक्केण गहियं, पुच्चिओ रन्ना कहते पणटुं ति । एवं जहेव पढमो दंडमो तहा एसो वि वितिम्रो जाणितेण कहियं जहावित्तं,कीस न गविटुंभणइ-सामि!तुम्ह पसा यो । जीवा णं भंते ! जीवाओकति किरिया। गोएण पदहमेत्तमवि गवेसामि। सलो नेच्छ । रन्ना पुच्छिनो- यमा! सिय तिकिरिया वि, सिय चनकिरिया वि, सिय कीसन गेएहसि । तेण भणियं-सामि! अम्हाणमेस ईि चे- पंचकिरिया वि ॥ वनत्थि, जमेवं गिरिहज्जा,अहिगरणतणो परं संभमेण मम्ग "जीवेणं ते! जीवेहिन्तो कर किरिए" इत्यादि । एषोऽपि तेण वि लकति वोसिरियं , अतो न कप्पड मे गिरिदवं। तमोपमायकारी अणुसासिओ। इयरोवि मुक्को य । एस दितो दएमका प्रथमदएमकवदवसेयः । यासो य से अत्थोवणो-जदा सो पमायगम्भेण अवोसिरिय- अधुना बहूनां जीवानां बहून् जीवानधिकृत्य सूत्रमाहदोसेण भवराई पत्तो, एवं जीवो वि जम्दंतरम्भत्थं देहोव- जीवाणं नंते ! नेरझ्याओ कति किरिए गोयमा !जबाद अपोसिरंतो भणुनयभावतो पावेह दोसं" श्रूयते च-जा-| हेव आदिबदंम्रो तहेव नाणियव्यो जाव वेगाणियत्ति । तिस्मरणादिना विज्ञाय पूर्वदेहमतिमोहात सुरनन्दीप्रत्यस्थिश-| जीवाणं ते! जीवे हितो कइ किरिया ? गोयमा ! तिकिकलानि नयन्तीति । इदानीं सूत्रव्याख्या-जीवो प्रदन्त ! जीव रिया वि, चउकिरिया वि, पंचकिरिया वि, अकिरिया वि। मधिकृत्य कतिक्रिया प्राप्तः। भगवानाह-गौतम ! स्यात्वचित जीवा णं भंते ! नेरइएहितो कति किरिया ? । गोयमा ! त्रिक्रिया, फायिक्याधिकरणकीप्राद्वेषिकीभावात्,ततो वर्तमानभवमधिकृत्य भावना प्राग्वद्भावनीया । अतीतभवमधिकृत्यैव. तिकिरिया वि, चनकिरिया वि, अकिरिया वि, असुरकुयाम-कायिकी, तत्सम्बन्धिनः कायस्य कायैकदेशस्य वा व्याप्रि- रोहिंतो वि एवं चेव जाव वेमाणिएहितो ओरालियसरीरेबमाणत्वात्। प्राधिकरणिकीवत्संयोजितानां हलगरकूटयन्त्रा-| हिंतो जहा जीवे हितो॥ दीनां तन्निवर्तितानां वा असिकुन्ततोमरादीनां परोपघाताय व्याप्रियमाणत्वात् । यदि वा देहोऽप्यधिकरणमित्याधिकरण 'जीवाणं ते!'श्त्यादि । अत्र प्रश्नः पाठसिकः। निर्वचनमिदम्क्यपि प्राद्वेषिकी तद्विषया कुशलपरिणामप्रवृत्तरप्रत्याख्यान गौतम ! त्रिक्रिया अपि चतुष्क्रिया अपि पञ्चक्रिया अपि । क स्याऽपि जीवस्य कमपि जीवं प्रति त्रिक्रियत्वात, कस्यापि चत्वात् स्याचतुक्रिया।पारितापनिक्यपिकायेन कायैकदेशेनाधि तुष्क्रियत्वात, कस्यापि पञ्चक्रियत्वात् । कस्यापि मनुष्यस्य करणेन वा तत्सम्बन्धिनी क्रिया क्रियमाणत्वात् स्यात्पञ्चक्रियः। सर्वोत्तमचारित्रिणः सिद्धस्य वा शेषस्याप्रक्रियत्वादिति । सर्वयदा तेन जीवितादपि व्यपरोपणमाधीयते स्यादक्रियः, यदा प्र । त्र बहुवचनरूप एक एव भङ्ग एवं नैरयिकादिक्रमेण तावजन्मभाविशरीरमधिकरणं वा त्रिविधं त्रिविधेन व्युत्स्ष्टं भ- द्वक्तव्यं यावद्वैमानिकसूत्रम्, नवरं नैरयिकान् देवाश्च प्रति त्रिक्रि १३५ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३० ) निधानराजेन्द्रः । किरिया या अपि चतुष्क्रिया अपि श्रक्रिया अपीति वक्तव्यम् । शेषान् संक्यवर्षायुषः प्रति पञ्चक्रिया अपीति । तदेवं सामान्यतो जीवपदमधिकृत्य द एककचतुष्टयमुक्तम् । सम्प्रति नैरयिकपदमधिकृत्याऽऽह नेरइए एवं मंते ! जीवाओ का किरिए । गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय च किरिए सिय पंच करिए। नेरइए एवं भंते ! नेरइयातो कइ किरिए। गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चडकिरिए एवं जाव वेमाणिएहितो, नवरं ऐरइयस्स खेरइए हितो देवे हिन्तो य पंचमा किरिया नत्थि । ऐोरइया णं भंते ! जीबाओ कपकरिया ? | गोयेमा ! सिय तिकिरिया सियचड किरिया सिय पंचकिरिया । एवं जाव वैमाणियाओ, नवरं रयियाओ देवाय पंचमा किरिया नत्थि । रइए भंते! जीवहिंतो का किरिया ? । गोयमा ! तिकिरिया वि चकिरिया वि, पंचकिरिया वि । रश्या णं नंते ! पोर - एहिंतो का किरिया ? । गोयमा ! तिकिरिया वि चउकिरिया । एवं जात्र माथि एहिंतो, नवरं ओरानिय सरीरेहिंतो जहा जीवेहिंतो ।। किरिया तेन्द्रियादौ समुत्पन्ने क्रोधादिकारणोऽभिघातादिसमर्थमिदं शस्त्रमिति चिन्तयन् अतीव क्रोधादिपरिणामं जजते, पीमां जोत्पादयति, जीविताच्च व्यपरोपयति, तदा तत्संबन्धप्राद्वेषिक्यादिक्रियाकारणत्वात् । नैगमनयाभिप्रायेण तस्यापि प्राद्वेषिकी पारि तापनिक) प्राणातिपातक्रिया च ॥ असुरकुमारे णं जंते ! जीवाओ कति किरिए । गोयमा ! जब ऐरए चत्तारि दंमगा तहेव असुरकुमारे विचत्तारि दंगा भाणियन्त्रा । एवं उववज्जिजण नावेयब्वं ति । जी मस्से करिए बुम्बइ, सेसा अकिरिया ण बुच्चं - ति सव्वजीवा । ओरालियसरीरेहिंतो पंच किरिया । शेरदेवहितो पंच किरिया ण वुच्चंति । एवं एकेकजीत्रपदे चत्तारि चत्तारि दंडगा भाणियन्त्रा एवं एतं दंमगसतं सव्वे विय जीवादिया दंमगा ॥ यथा च नैरयिकपदे चत्वारो दमका उक्ताः, तथा असुरकुमारादिष्वपि शेषेषु प्रयोविंशतौ स्थानेषु चत्वारवत्वारो दण्डका वक्तव्याः । नवरम् जीवपत्रे मनुष्यपदे वा क्रिया इत्यादि बकयम विरतिप्रतिपत्तौ व्युत्सृष्टत्वेन तन्निमित क्रियाया असंभवातू, शेषा प्रक्रिया नोच्यन्ते, विरत्यभावतः स्वशरीरस्य नवाम्तरगतस्याभ्युत्सृष्टत्वेनावश्यक्रियासंभवात् । तदेवं सामान्यतो जीवपदे कम, शेषाणि तु नैरयिकादीनि स्थानानि चतुर्विंशतिरिति सर्व संख्यया पञ्चविंशतिः, एकैकस्मिँश्च स्थाने चत्वारो दमका इति सर्वसङ्कलया दण्डकशतम् । प्रशा० २२ पद । जीवे णं भंते! मेरय णं भंते ! जीवाओ कह किरिए १" ६स्यादि । एवं जाब बेमणिरहितो " इति । अत्र warकरणात नैरयिको जीवान् प्रति कतिक्रिय इति । इत्यादिरूपो द्वितीयोऽपि दण्डक उक्तो द्रष्टव्यः । सर्वत्र औदारिकशरीरान् संख्येयवर्षायुत्रः प्रति स्यात्रिक्रियः स्याश्चतुष्कियः स्यात्पञ्चक्रिय इति वक्तव्यम् । नैरयिकदेवान् प्रति पञ्चमी जीविताद्वय परोपण रूपा क्रिया नास्ति, तेषामनपवर्त्य युष्कत्वात् । ततस्तान् प्रति स्यात्रिक्रियः स्याच्चतुष्क्रिय इति वक्तव्यम | मैरबिको देवान् प्रति कथं चतुष्क्रिय इति चेत्, उच्यते इह जवनपास्यादयो देवाः तृतीयां पृथिवीं यावता गमिष्यन्ति च । किमर्थे गता गमिष्यन्ति ?, इति चेत् । उच्यते- पूर्वसाङ्गतिकस्य वेदनामुपशमयितुं पूर्ववैरिणो वेदनामुद । रयितुं तत्र गच्छन्ति, तदानीममन्तकालादेतदपि नवति तकताः सन्तो नारकैर्बध्यन्त इति । आह च मूलटीकाकारोऽपि तत्र गता नारकै बध्यन्ते इत्यस्यनन्तकाल एव कथञ्चित्सम्भवमात्रमिति । अत्रा - पर ग्रह- तं तु नारकस्य द्वीन्द्रियादीनधिकृत्य कायिक्यादिक्रियासम्भवः । उच्यते--छह नारकैर्यस्मात्पूर्वभवशरीरं मणुस्से जहा जीवे । जीवा णं भंते ! ओरालि यसरी राओ क नियतरीओ कइ किरिए । गोयमा ! यि तिकिरिए सिय चडाकेरिए सिय पंचाकरिए सिय किरिए । नेरइए जंते ! ओराजियसरी राम्रो कइ किरिए । गोयमा ! यि तिकिरिए सिम चटकिरिए सिय पंच किरिए । असुरकुमारे णं भंते! श्रोरानिय सरीराम्रो कइ किरिए। एवं चैव जाव त्रेमापिए, वरं मणुस्से जहा जीवे । जीवेणं जंते ! ओरालियसरीरोहितो का किरिए १ । गोयमा ! सिय तिकिरिए जावसिय अकिरिए । नेरइए णं जंते ! प्रोरान्नियसहिंतो कइ किरिए ? | एवं एसो जहा पढमो दंमओ सहा इमो वि परिसेसो जायिव्वो जान वैमाणिए, एबरं किरिया । गोयमा ! सिय तिकिरिया जाव सिय अकिरिया । नेइया णं भंते! ओरालिय सरीरा कइ किरिया ।। एवं एसो वि जहा पढमो दंड तहा भाणियन्वो जाव बेमाणिया, म ब्युत्कृष्टं विवेकाभावात् तद्भावश्च भवप्रत्ययात्, ततो याव करीरं तेन जीवेन निर्वर्तितं सततं शरीरपरिणामं सर्वथा न परित्यजति तावद्देशतोऽपि तं परिणामं भजमानं पूर्वभावप्रशापनया तस्येति व्यपदिश्यते, घृतघटवत् । यथा हि घृतपूर्णो घटो घृतेऽपगते पिघृतघट इति व्यपदिश्यते, तथा तदपि शरीरं तेन निर्वर्तितमिति तस्येति व्यपदेश मईति । ततस्तस्य शरीरस्य एकदेशेनाम्यादिना योऽन्यः प्राणातिपातं करोति ततः पूर्वनिर्वर्तितशरीरजीवोsपि काक्यादिक्रियाभिर्गुज्यते, तेन तस्याभ्युत्सृष्टत्वात् । तत्रेयं पञ्चानामपि क्रियाणां भावना तत्कायस्य व्याप्रियमाणस्वात्कायिकी, कायधिकरणमपि भवतीत्युक्तं प्राक्, तत श्राधिकरणको प्राद्वेषिक्यादयस्त्वेवम्-यदा तमेव शरीरैकदेश अभिधातादिसमर्थमन्यः कश्चनापि प्राणातिप्रतोद्यतो वा तस्मिद् घा वरं गुस्सा जहा जीवा । जीवा णं भंते ! मोराक्षियसरीरेहिंतो कड़ किरिया है। गोयमा ! तिकिरिया विचउकिरिया व पंच करिया विकिरिया वि । नेरड्या पं ते ! ओरालियम रेहिंतो का किरिया ? । गोयमा ! तिकिरिया विचकरिया वि पंचकिरिया वि, एवं जाव बेबा पिया, वरं मधुसा जहा जीवा । नीवे णं नंते । बेडब्ब Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३५) किरिया प्रनिधानराजेन्दः । किरिया यसरीरामो कइ किरिए। गोयमा सिय तिकिरिए सिय| घेह नोच्यते,प्राणातिपातस्य वैक्रियशरीरिणः कर्तुमशक्यत्वादपाकिरिए सिय अकिरिए । नेरए णं भंते! वेउब्बियस विरतिमात्रस्य चेह विवक्षितत्वात् । अत एवोक्तम्-"पंचमकिरि थान प्रासि" एवं "जहाघेउब्धियंतहा माहारयं पितेयगंपि रीराभो कह किरिए ?। गोयमा सिय तिकिरिए सिय घ कम्मगं पि भाणियब्वं ति" अनेनाहारकादिशरीरत्रयमण्याश्रित्य सकिरिए एवं जाव वेमाणए, णवरं मणुस्से जहा जावे। एवं दएकचतुष्टयेन नैरयिकादिजीवानां त्रिक्रियत्वं चतुष्कियत्व महा ओरालियसरीरेणं चत्तारि दमंगा तहा नाणियचा, चोक्तम् । पञ्चक्रियत्वं तु निवारितं,मारयितुमशक्यत्वाचस्योत। वरं पंचमकिरिया न जमाइ, सेसं तं चेव, एवं जहा वेउ-| पथ नारकस्याधोलोकवर्तित्वादाहारकशरीरस्य चमनुष्यलोक वर्तित्वेन तकियाणामविषयत्वात् कथमाहारकशरीरमानित्य ब्बियं तहा पाहारगं पि,तेयगं पि, कम्मगं पि नाणियव्वं । भारकः स्यात्त्रिक्रिया स्याच्चतुकिया? इति। अत्रोच्यते-यावत्पूर्वएकेके चत्तारि दंडगाभाणियचा जाच वेमाणिया। वेमाणिया शरीरमव्युत्सृष्टं जीवनिर्मितपरिणामं न त्यज्यति सावत्पूर्वभागंजते! कम्मगसरीरोहिंतो कइ किरिया। गोयमा! तिकि- पप्रकापनानयमतेन निवर्तकजीवस्यैवेति व्यपदिश्यते घतचरिया वि, चनकिारया वि, सेवं नंते ते ति॥ टन्यायेनेत्यतो नारकपूर्वनवदेहो नारकम्यैव तदेशेन च मनुष्य लोकवर्जिनाऽस्त्यादिरूपेण यदाहारकशरीरं स्पृश्यते, परिता"जीवे " इत्यादि । (ोरालियसरीराओन्ति)औदारिकशरी-| प्यते था, लदादारकदेहाभारकरित्रक्रियश्चतुकिया था भवति, रात्परकीयमौदारिकशरिरमाश्रित्य कतिक्रियो जीवः?,इति प्रश्नः। कायिकीभावे इतरयोरवश्य मावाद, पारितापनिकीभावे चाचउत्सरंतु-सिय तिकिरिए ति) यदैको जीवोऽन्यस्य पृथिया- श्रयस्थापश्यंजावादिति । एवमिहान्यदपि विषयमवगन्तव्यम् । २. सम्बन्यौदारिकशरीरमाश्रित्य कार्य व्यापारयति तदा | पच तैजसकार्मणशरीरापेकया जीवानां परितापकत्वं सदीक्षाविक्रियः, कायिक्याधिकरणिकीप्रावोषिकीनां भावात् । पता. रिकाश्रितत्वेन तयोरचसंयम्, स्वरूपेण तयोः परितापयितुसांच परस्परेणाविनाभूतत्वात्स्यात् त्रिक्रिय इत्युक्तम । न | मशक्यत्वादिति । भ०८।०६ उ०। पुनः स्यादेककियः स्यादक्रिय ति, अविनाभावश्च तासामेव । अथ केषां जीवाना कति क्रिया इति निरूपणार्थ अधिकृतक्रिया घवीतरागस्यैव नेतरस्य, तथाविधकर्मबन्धदेतु प्रागुक्तमेव सत्रं पठन्तिस्वात् । प्रवीतरागकायस्य चाधिकरणत्वेन प्रद्वेषान्वितत्वेन च का कति पं भंते ! किरियाप्रो पचाओ। गोयमा । पंच यक्रियासद्भावे इतरयोरवश्यंजावः,इतरजावेचकाधिकासावः। उक्तश्च (वयते चाने) प्रज्ञापनायामिहार्थे-"जस्स णं जीवस्स किरिया पसत्ता। तं जहा-काश्या जार पाणाइवायकिरिया। काश्या किरिया कजा तस्स अहिंगरणिया किरिया नियमा] “करण भंते 1 किरियानी पत्ताओ?" इत्यादि प्राम्वत् । कजा । अस्स अहिगरणिया किरिया कजा तस्स वि काइया पता एव क्रियाश्चतुर्विशतिदएमकक्रमेण चिन्तयतिकिरिया नियमा कज" इत्यादि । तथाऽधक्रियात्रयसद्भावे णेरड्याएं भंते ! कति किरियाओ पाणताप्रोगपंच किउत्तरक्रियाद्वयं भजनया भवति । यदाह-"जस्स ण जीवस्स काश्या किरिया कजा तस्स पारियावणिया सिय काश.सिय रियाओ पधाताओतं जहा-काइया जाव पाणावायकिमो कज्ज" इत्यादि । ततश्च यदा कायव्यापारद्वारेणाऽऽद्यक्रिया- रिया । एवं जाव वेमाणियाणं । प्रय एवं वर्तते, न तु परितापयति, न चातिपातयति तदा त्रि "रश्याणं भंते ! इत्यादि पाउसिद्धम् । क्रिय एवेत्यतोऽपि स्यात त्रिक्रिय इत्युक्तम्,यदा तु परितापयति सदा चतुष्क्रियः, प्राद्यक्रियात्रयस्य तंत्रावश्यंभावात् । यदा त्व संप्रत्यासामेव क्रियाणामकजीवाश्रयेण परस्परमविनातिपातयति तदा पश्चक्रियः, श्राद्यक्रियाचतुकस्य तत्रावश्यंना भावित्वं चिन्तयतिपात्। उनञ्च जस्स पारियावाणियाकिरिया कजा तस्स काश्या जस्स एं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कज्जइ तस्स नियमा कज्जह" इत्यादति। अत एवाह-(सिय चकिरिए सि अहिगरणिया किरिया कज्जइ, जस्स अहिगरणिया किय पंचकिरिपति)। तथा (सिय किरिपत्ति) । वीतरागावस्थामाश्रित्य तस्यां हि वीतरागत्वादेव न सन्त्यधिकृतक्रिया रिया कज्जइ तस्स काश्या किरिया कज्जा । गोयमा ! इति । (नेरइए णमित्यादि)नारको यस्मादौदारिकशरीरबन्धं पृ. जस्स णं जीवस्स काश्या किरिया कज्जइ तस्स भधिथिव्यादिकं स्पृशति परितापयति विनाशयति च तस्मादादा गरणिया नियमा कजइ, जस्साधिगराणिया किरिया कज्जरिकात् स्यात् त्रिक्रिय इत्यादि। प्रक्रियस्त्वयं न भवत्यवीतराग ह तस्स वि काइया किरिया नियमा कज्जइ । जस्स एं खेन क्रियाणामवश्यंजावित्वादिति।(एवं चव त्ति)स्यात् त्रिक्रिय इत्यादि सर्वेष्वसुरादिपदेषु धाच्यमित्यर्थः। (मणुस्से जहा नंते ! जीवस्स काश्या किरिया कज्जइ तस्स पामोसिजीवे ति)। जीवपदे श्व मनुष्यपदेऽक्रियत्वमपि वाच्यमित्य- या कज्जइ, जस्स पादोसिया कज्जइ तस्स काझ्या किरिया यः। जीवपदे मनुम्यसिसपेकयैवाऽक्रियत्वस्याऽधीतत्वादिति । कज्जइ ? | गोयमा! एवं चेव । जस्स णं भंते ! जीवस्स (मोराबियसरीरेहितो ति) औदारिकशरीरभ्य इत्येवं बदुत्वा काश्या किरिया कज्जइ तस्स पारियावणिया किरिया कपेकोऽयमपरो दएसकः। एवमेतौ जीवस्यैकत्वेन द्वौ दएको । ज्जइ, जस्स पारियावणिया किरिया कज्जर तस्म काइया पवा जीवबाहुत्वेनापरी द्वाववमौदारिकशरीरापेक्तया चत्वारो दएडका इति । "जीणमित्यादि" जीवः परकीय वैक्रियशरी-| किरिया कजइ। गोयमा ! जस्म णं जीवम्स काइया किप्राभित्य कतिक्रियाउन्यते-स्या निक्रिय ल्याहि पक्रिय- रिया कज्जइ तस्स पारियावणिया सिय कमजह, सिय Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४०) किरिया प्राभिधानराजेन्द्रः। किरिया नो कज्ज । जस्स पुण पारियावाणिया कज्जइ तस्स का अधिगरणिया किरिया कन्जर, जं समयं अहिंगरणिया इया नियमा कज्म । एवं पाणावायकिरिया वि । एवं कन्जइ तं समयं काइया किरिया कजइ । एवं जहेव आइआदिवाओ परोप्परं नियमा तिन्नि कज्जइ । तस्स उव दो दंमत्रो तहेव भाणियब्वो जाव वेमाणियस्स ॥ रिद्वाो दोन्नि सिय कज्जइ, सिय नो कज्जइ । जस्स "जं समयं णं भंते !" इत्याद्यारभ्य सर्वे पूर्वोक्तं तदवस्वं तावनवरिल्लाओ दोषि कज्जा तस्स आदिलायो नियमा द्वक्तव्यं यावद्वैमानिकसूत्रम् । तथा चाह-"एवं जहेव आइल्ल ओ दंगो तहेव भाणियव्वो जाव वेमाणियस्स" इति। समयतिन्नि कज्जइ ॥ ग्रहणेन चेह सामान्यतः कालो गृह्यते न पुनः परमनिरुद्धो य"जस्स गंभते!" इत्यादि । शह कायिकी क्रिया औदारिका- थोक्तस्वरूपो नैश्चयिका समयः, परितापनस्य प्राणातिपातस्यषा दिकायाश्रिता प्राणातिपातनिर्वर्तनसमर्था प्रतिविशिष्टा परि-1 वाणादिकेपजन्यतया कायिक्याः प्रथमसमये पचासम्भवाद । गृह्यते । अनयोः काचन कार्मणकायाश्रिता वा तत श्राद्यानां ति. । एष द्वितीयो दएमकः।। सणां क्रियाणां परस्परं नियम्यनियामकभावः कथमिति चेत्, न सम्प्रति द्वौ दण्डको क्षेत्रमधिकृत्याहच्यते-कायोऽधिकरणमपि भवतीत्युक्तं प्राक। ततः कायस्याधि जं देसे णं भंते ! जीवस्स काझ्या कज्जइ तं देसं अहिकरणत्वात् कायिक्या सत्यामवश्यमाधिकरणिकी, प्राधिकरणिक्यामवश्यं कायिकी । सा च प्रतिविशिष्टा कायिकी क्रिया गरणिया तहेव जाव वेमाणियस्स । जं पदेसे णं जीवस्त प्रद्वेषमन्तरेण न भवति, ततः प्राद्वेषिक्याऽपि सह परस्परमवि- काश्या किरिया कजा तं पदेसं अहिगरणिया किरिया नाजावः । प्रद्वेषोऽपि च काये स्फुटलिन एव, वक्ररूतत्वादेस्त कज्जा । एवं तहेवे जाव वेमाणियस्स । एवं एते जस्स जं दविनाभाविना प्रत्यक्षत एवोपलम्नात् । नक्तश्च-"रूक्कयति रू. कतो ननु, वकं स्निह्यति च रज्यतः पुंसः । औदारिकोऽपि दे. समयं जं देसं जं पदेसं चत्तारि दंगका होति ॥ हो, भाववशात्परिणमत्येवम्" ॥१॥ परितापनस्य प्राणातिपा- "जंदेसेणभंते!"इत्यादि। अत्रापि सूत्रं पूर्वोक्तं तदवस्थं तावतस्य चाद्यक्रियायसम्भवेऽप्यनियमः कथमिति चेत्, उच्यते- कव्यं यावद्वैमानिकसूत्रम् । तथा चाह-"तहेव जाव बेमाणिययद्यसौघात्यो मृगादिर्घातकेन धनुषा विप्तेन वाणा दिना विध्यते स्स" एष तृतीयो दएमकः । “जं पदेसे ण नंते ! जीवस्स ततस्तस्य परितापनं मरणं वा भवति, नान्यथा, ततो नियमा. काश्या किरिया कज्जर " इत्यादिश्चतुर्थः । अत्रापि सूत्रं भावः, परितापनस्य प्राणातिपातस्य च भावे पूर्वक्रियाणामव- प्रागुक्तकमेण ताबद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकसूत्रम् । तथा चाह-"एवं श्यंभावः, तासामभावे तयोरभावात् । ततोऽमुमर्थ परिभाव्य तहेव जाव घेमाणिए" इति । दएकसंकलनामाह-एवमेते कायिकी शेषाभिश्चतसृभिः क्रियानिः सह, प्राधिकरणकी ति- श्त्यादि। पताश्च यथा कानावरणीयादिकर्मबन्धकारणं तथा सभिः, प्राद्वेषिकी द्वाज्यां सूत्रतः सम्यक् चिन्तनीया ॥ संसारकारणमपि, ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धस्य संसारकारणपारितापनिकीप्राणातिपातक्रिययोस्तु सूत्रं साकादाह- । तया तदेतुत्वेन तासामपि संसारकारणत्वोपचारात तथा चाहजस्स णं ते! जीवस्स पारियावणिया किरिया कज्जा कति भंते!आओजियाओ किरियाओ पनत्ताओ।गोयतस्स पाणाइवायकिरिया कजइ, जस्स पाणाइवायकिरिया मा! पंच प्रायोजिताओ किरियाओ परमत्तामोतं जहाकजा तस्स पारियावणिया किरया कज्जइ। गोयमा ।। काइया जाव पाणाइवायकिरिया । एवं नेरश्या गंजाब जस्स एं जीवस्त पारियावणिया किरिया कजइ तस्स पा-| वेमाणिया णं॥ णाइवायकिरिया सिय कज्जइ, सिय नो कज्जा । जस्स पुण| आयोजयन्ति जीवं संसारे इत्यायोजिकाः कापिक्यादिकामशेपाणाश्वायकिरिया कज्जइ तस्स पारियावणिया किरिया सर्वसुगममासूत्रपाउस्तु पूर्वोक्तप्रकारेण तावद्वक्तव्यो यावत्नियमा कज्जइ । जस्स णं ते ! परश्यस्स काइया किरि- | जस्स नंते ! जीवस्स काझ्या माअोजिता किरिया या कज्जइ तस्स अधिगरणिया कज्जा । गोयमा! जहेव जी- अस्थि, तस्स अहिगरणिया श्राओजिया किरिया अस्थि, वस्स तहेव णेरइयस्स वि । एवं जाव निरंतरं वेमाणियस्स । जस्स अधिगरणिया आओजिता किरिया अस्थि, तस्स काझ्या " जस्स ण ते!" इत्यादि। पारितापनिक्याः सनावे प्राणा आरोजिया किरिया अत्यि! एवं एतेषं अभिक्षावणं ते तिपातक्रिया स्याङ्गवति, स्यान्न भवति । यदा वाणाद्यसिघातेन चेव चत्तारि दंडगा जाणियव्वा । जस्स जं समयं जं देसं जीवितात् च्याव्यते तदा भवति, शेषकालं न भवतीत्यर्थः । जं पदेसं जाव वेमाणियाणं॥ यस्य पुनः प्राणातिपाक्रिया तस्य नियमात्परितापनमन्तरेण प्राणव्यपरोपणा । संप्रति नैरयिकादिचतुर्विंशतिदएमकक्रमेण (जस्सेति) यं समयमिति यं देसमिति य प्रदेशमिति परिपरस्परमविनाभावं चिन्तयति-" जस्स णं भंते ! नरश्यस्स पूर्णाः चत्वारो दण्डकाः। यं समयमित्यादि "कालावनोाकाइया कजा" इत्यादि प्रतीतम, भावितत्वात् । तदेवमेको द तौ" ॥शरा४२॥ इत्यधिकरणे द्वितीया। ततो यस्मिन् समये,य स्मिन् देशे यस्मिन् प्रदेशे, ति व्याख्येयम्। एडक उक्तः। संप्रति कालमधिकृत्योक्तप्रकारेणैव द्वितीयदण्डकमाह- । जीवेणं जंते !ज समयं काश्याए अहिंगरणियाए पाश्रोजं समयं णं नंते जीवस्स काश्या किरिया कज्जातं समयं| सियाए किरियाए पुढे तं समयं पारितावाणियाए पुढे, पा Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरिया अभिधानराजेन्द्रः। किरिया पाइवायकिरियाए पुढे । गोयमा! अत्थेगतिए जीवे एग-1 ज्जइ । गोयमा ! मनयरस्स वि मिच्छादसणस्स ।। तियायो जीवाओ समयं काइयाए अहिगराणियाए पा "प्रारंभियाण भंते!" इत्यादि । (अन्नयरस्स वि पमत्तसंजयश्रोसियाए किरियाए पुढे तं समयं पारियावणियाए पुढे स्स शति) । अत्रापिशब्दो निन्नक्रमः । प्रमत्तसंयतस्याप्यन्यतरपाणाइवायफिरियाए पुढे १। प्रत्येगतिए जीवे एगतियाओ स्य एकतर कस्यचित्प्रमादे सति कायदुप्रयोगभावतः पृजीवाओ जं समयं काश्याए अधिगरणियाए पायोसियाए थिव्यादेरुपमदसम्भवात् । अपिशब्दोऽन्येषामधस्तनगुणस्था नवर्तिनां नियमप्रदर्शनार्थः । प्रमत्तसंयतस्याप्यारम्भिकी किरियाए पुढे तं समयं पारितावणियाए पुढे पाणाइवायाक क्रिया भवति, किं पुनः शेषाणां देशविरतिप्रभृतीनामिति । रियाए अपुढे २। अत्थेगतिए जीवे एगतियाओ जीवाओ एवमुत्तरत्रापि यथायोगमपिशब्दभावना कर्तव्या । पारिजं समयं काश्याए अहिगरणियाए पाप्रोसियाए किरियाए प्राहिको संयतासंयतम्यापि देशविरतस्यापीत्यर्थः, तपुतं समयं पारियावणियाए किरियाए अपुरे पाणाइ स्याऽपि परिग्रहधारणात् । मायाप्रत्यया अप्रमत्तसंयतस्याऽपि । कथमिति चेत्, उच्यते-प्रवचनोडाहप्रच्छादनार्थ वल्लीकरणसमुबायकिरियाए अपुढे ३ । देशादिषु अप्रत्याख्यानक्रिया अन्यतरस्याप्यप्रत्याख्यानिनः, अन्य"जीवे णं भंते!" इत्यादि । अत्रापि समयग्रहणेन सामान्यतः तरदपि न किश्चिदपीत्यर्थः । यो न प्रत्याख्याति तस्येति भावः। कालो गृह्यते । प्रश्नसूत्रं सुगमम्। निर्वचनसूत्रे नङ्गत्रयी-कञ्चि मिथ्यादर्शनक्रिया अन्यतरस्यापि सूत्रोक्त मेकमप्यकरं वाऽरोचखीवमधिकृत्य कश्चिजीबो यस्मिन् समये काले क्रियात्रयेण स्पृ यमानेत्यर्थः मिथ्यादृष्टेर्भवति । एस्तस्मिन्समये पारितापनिक्या स्पृष्ठः प्राणातिपातक्रिया ___एता एव क्रियाश्चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण निरूपयतिचेति एको भङ्गः । पारितापनिक्या स्पृष्टः प्राणातिपातेनास्पृष्ट इति द्वितीयः । पारितापनिक्या प्राणातिपातक्रियया वा स्पृष्ट णेरइयाणं ते! कति किरिया ओ पप्पभायो । गोयमा! इति तृतीयः । एष च तृतीयो भङ्गो वाणादेर्सवात्परिभ्रंशेन घा- पंच किरियाओ पाप्मत्ताओ। तं जहा-प्रारंजिया जाव मित्यस्य मृगादेः परितापनाद्यसंनवे वेदितव्यः। यस्तु यस्मिन् सम च्छादसणवत्तिया ; एवं जाव वेमाणियाणं ।। येथं जीवमाधकृत्याऽऽद्यक्रियात्रयेणास्पृष्टःस तस्मिन् समये तमधिकृत्य नियमात्पारितापनिक्या प्राणातिपातक्रियया वा स्पृष्टः, "रश्याणं भंते!" इत्यादि सुगमम्। सम्प्रत्यासां क्रियाणां पकायिक्याचभाये परितापनादेरभावात् । तदेवमुक्ताः क्रियाः। रस्परमविनाभाचं चिन्तयति-यस्यारम्भिकी क्रिया तस्य पारिप्र हिकी स्याद्भवति,स्यान भवति ।प्रमत्तसंयतस्य न भवति, शेषसाम्प्रतं प्रकारान्तरेण क्रियां निरूपयति स्य भवतीत्यर्थः। कति पं भंते ! किरियाओ पामताभो। गोयमा! पंच किरियाो पम्मत्तानो । तं जहा-आरंजिया पारिग्गहिया माया-| जस्स णं नंते ! जीवस्स आरंजिया किरिया कज्जा तस्स बत्तिया अपञ्चक्खाणकिरिया मिच्छादसणवत्तिया ।। पारिग्गहिया किरिया कज्जइ, जस्स पारिग्गहिया कज्जइ "कति ण भंते!" इत्यादि। भारम्भः पृथिव्याधुपमर्दः। उक्तं च तस्स आरंभिया किरिया कज्जइ गोयमा जस्स णं जीव"संकप्पोसंरंभो, परितावकरो भवेसमारंभो । आरंजो उद्दवतो, स्स प्रारंभिया किरिया कज्जा तस्स पारिम्गहिया किरिया मुटु नयाणं तु सम्वेसि" ॥१॥ प्रारम्भःप्रयोजनं कारणं यस्याः सिय कजर,सिय नो कज्जइ जस्स पुण पारिग्गहिया कज्जइ सा प्रारम्भिकी (पारिग्गहियत्ति) परिग्रहो धर्मोपकरणवयंव तस्स आरंभिया किरिया नियमा कज्जइ । जस्स णं भंते । स्तुस्वीकारः, धर्मोपकरणमूर्छा च। परिग्रह एव पारिग्रादिकी, परिप्रदेण निर्वृत्ता वा पारिग्राहिकी । (मायावत्तिया इति)मा जीवस्स आरंभिया किरिया कज्जा तस्स मायावत्तिया या अनार्जयम, उपलकणत्वात् क्रोधादेरपि परिग्रहः । माया प्र. किरिया कन्ज । गोयमा! जस्स णं जीवस्स प्रारंभिया स्ययं कारणं यस्याः सा मायाप्रत्यया । ( अपञ्चक्वाणकिरिया किरिया कज्जइ तस्स मायावत्तिया किरिया णियमा कन्जइ, इति) अप्रत्याख्यानं मनागवि विरतिपरिणामाभावः, तदेव क्रिया जस्स पुण मायावत्तिया किरिया कज्जइ तस्स प्रारंभिया (मिच्छादसणवत्तिया इति ) मिथ्यादर्शनं प्रत्ययो हेतुर्यस्याः सा मिथ्यादर्शनप्रत्यया। किरिया सिय कज्जइ, सिय नो कज्जइ । जस्स णं नंते ! पतासां क्रियाणां मध्ये यस्य या सम्भवति तस्य तां नि-1 जीवस्स प्रारंभिया किरिया कज्जइ तस्स पञ्चक्खाणकिरिया रूपयति कज पुच्छा। गोयमा! जस्स जीवस्स प्रारंनिया कजा प्रारंजियाणं ते किरिया कस्स कजइ ? गोयमा! अ- तस्स अपञ्चक्खाणकिरिया सिय कज्जर, सिय नो कज्जा। भयरस्स वि पमत्तसंजतस्स। पारिग्गहिया णं भंते ! किरिया क जस्स पुण अपञ्चक्खाणकिरिया तस्स प्रारंजिया नियमा स्स कजा। गोयमा ! अन्नयरस्स वि संजतासंजतस्स । कजा। एवं मिच्गदसणवत्तियाए वि समं। एवं परिग्गहिया मायावत्तियाणं ते! किरिया कस्स कजइ। गोयमा अ- वि तिहिं वि उवरिल्लाहिं समं संचारेयव्या,जस्स मायावत्तिया भयरस्स वि अपमत्तसंजयस्स | अपञ्चक्खाणकिरियाणं भं- किरिया कज्जइ तस्स नवरिलायो दोविसिय कज्जइसिय ते! कस्स कजइ गोयमा ! अभयरस्स वि अपच्चक्खा-| नो कज्जा जस्स उवरिल्लियामओ दो कज्जा तस्स मायाणियस्स । मिच्छादसणवत्तिया णं किरिया कस्स क- बत्तिया नियमा कज्जइ । जस्स अपञ्चक्खाणकिरिया कज्जइ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४२) किरिया भभिधानराजेन्द्रः। किरिया तस्स मिच्छादसणवत्तिया किरिया सिय कज्जइ, सिय नो| रक्ष्यस्स। समयं भंत! जीवस्स आरंभिया किरिया ककज्ज । जस्म पुण मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्ज ज्जतं समयं पारिग्गहिया किरिया कज्जइ । एवं एते जस्स तस्स अपच्चक्खाणकिरिया नियमा कज्ज ॥ जं समयं जं देसं जं पदेसणं य चत्तारि दंडगा नयना । जतथा यस्यारम्भिकी क्रिया तस्य मायाप्रत्यया नियमावति, | हा गरइयाणं तहा सव्वदेवाणं नयव्वं वेमाणियाणं । बस्य मायाप्रत्यया तस्याम्भिकी क्रिया स्याद्भवति,स्यान्न भव तिर्यपञ्चन्जियस्याद्यास्तिस्रः परस्परमविनाभूताः, देशविरति ति । प्रमत्तसंयतस्य देशविरतस्य च न भवति, शेषस्याविरति यावदासामवश्यंभावात् । उत्तराभ्यां तु द्वाज्यां स्याद्वादः ।तसम्यग्दृष्टयादेर्भवतीति नावः । यस्य पुनरप्रत्याख्यानक्रिया | मय दर्शयति-"जस्स एयाओ काजंति" इत्यादि । देशबिरततस्यारम्भिकी नियमात, अप्रत्याख्यानिनोऽवश्यमारम्भसम्न स्य न भवतः, शेषस्य भवत इति भावः। यस्य पुनरुपरितन्या वात् । एवं मिथ्यादर्शनप्रत्ययाऽपि सहाविनाभावो भावनीयः।। द्वे क्रिये तस्याद्यास्तिस्रो नियमाद्भवन्ति, उपरितन्यौ हि कितथाहि-यस्याराम्नको क्रिया तस्य मिथ्यादर्शनप्रत्यया स्याग-| ये-अप्रत्याख्यानाकया मिथ्यादर्शनप्रत्यया च तत्राप्रन्याख्यानपति, स्यान्न जवति । मिथ्यादृष्टर्भवति, शेषस्य न जवतीत्यर्थः । क्रिया अविरतिसम्यगदृष्टि यावत, मिथ्यादर्शनाक्रया मिध्यारोयस्य तु मिथ्यादर्शनक्रिया तस्य नियमादारम्जिकी, मिथ्याह राद्याश्वतम्रो देशविरति यावत् । अत उपरितन्याविनश्यप्रेरविरतत्वेनावश्यमारम्भसम्भवात् । तदेवमारम्भिकी क्रिया माद्यानां तिसृणां भावः । सम्प्रत्यप्रत्याख्यानक्रियायाः मिदिपारिवाहिक्यादिनिश्चतसृभिरुपरितनीभिः क्रियाभिः सह पर. शनक्रियायास्तिर्यपञ्चन्धियस्य परस्परमाधिनानावं चिन्तयतिस्परमविनानावेन चिन्तिता । एवं पारिग्रहिकी तिसृभिर्माया "जस्स अपञ्चक्वाणकिरिया" इत्यादि भावितम् । मनुष्ये यथा प्रत्यया, द्वाभ्यामप्रत्याख्यानक्रिया, एकया मिथ्यादर्शनप्रत्ययया जीवपदे तथा वक्तव्यम, व्यन्तरज्योतिप्कवैमानिकानां यथा चिन्तनीया । तथा चाह-"एवं पारिग्गहिया वितिहिं उवरि नैरयिकस्य पवमेष एको दण्डकःएवमेव "जं समयणं नंते ! पाहि सम संचारयव्बा" इत्यादि सुगम भावनीयाः, सुप्र जीवस्स" इत्यादिको वितीयः। "ज देसंण"श्त्यादिकस्तृतीतीतत्वात्। यः । “जं परसंण" इत्यादिकश्चतुर्थः। अमुमेवार्थ चतुर्विशतिदण्डकाक्रमेण निरूपयति अथ षटकायाः प्राणातिपातादिक्रियाहेतव एष भवन्ति, किंवा णेरइयस्स आदितियानो चत्तारि परोप्परा नियमा क- तद्विरमण हेतवोऽपीति पृच्छतिज्जइ, जस्त एताओ चत्तारि कज्जा तस्स मिच्छादसण अस्थि नंत जीवाणं पाणावायवेरमणे कज्जइहंता! वत्तिया किरिया भइज्जइ, जस्म पुण मिच्छादसणवत्तिया अस्थि । कम्हि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवायवेरमाणे कन्जइ। किरिया कज्जइ तस्स एता चत्तारि नियमा कज्जइ । एवं गोयमा ! छमु जीवनिकाएसु । अत्यि णं भंते ! नेरझ्याणं भाव थपियकुमारस्स पुढविकाझ्यस्स जाव चारिदियस्स पाणावायवरमणे कज्जइ ?। गोयमा! णो णडे समद्दे। एवं पंच वि परोप्परं नियमा कज्ज । जाव वेमाणियाणं नवरं मणुस्साणं जहा जीवाणं एवं मुसा'नेरश्यस्स आइडियाओ चत्तारि' इत्यादि । नैरयिका ह्यत्कर्षतो- | वाएणं जाव मायामासणं जीवस्स य मणुस्सस्स य, सेसाणं ऽप्यविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकं यावन्न परतः, ततो नैयिकाणा- | णो णद्वे समझे । एवरं अदिन्नादाणे गहणधारणिजेमुदमाद्याश्चतस्रः क्रियाः परस्परमविनानाविन्यः, मिथ्यादर्शनक्रियां प्रति स्याद्वादः । तमेवाह- "जस्स एयाओ चत्तारि" इत्या. ब्बेसु मेहुणरूवेसु वा रूवसहगतेसु वा दन्वेसु सेसाणंदब्येसु दि । मिथ्यादृष्टमिथ्यादर्शनक्रिया भवति, शेषस्य न भवतात सव्वेसु । अत्यि णं भंते ! जीवाणं मिच्छादसणमतवेरमणे नावः। यस्य पुनर्मिथ्यादर्शनक्रिया तस्याद्याश्चतस्रो नियमा- कज्जा। हंता अत्यि। काम्हण नंते ! जीवा मिच्छादसम्मिथ्या दर्शन सत्यारम्जिक्यादीनामवश्यं नाबात । एवं ताब- सबवेरमणे कन्जइ ?। गोयमा ! सव्वदव्वेमु । एवं नेरएकव्यं यावत्स्तनितकुमारस्य पृथिव्यादीनां चतुरिन्छियपर्यव इयाणं जाव वेमाणयाणं नवरं एगिदियविगलिंदियाएं सानानां पञ्च क्रियाः परस्परमविनानाविन्यो वक्तव्याः, पृथिव्यादीनां मिथ्यादर्शनक्रियाया अप्यवश्यंभावात् । णो इणढे समढे। पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स आइटियानोतिन्नि वि प "अत्यि णं भंते!"इत्यादि। सर्वत्र क्रियते कर्मकर्तरि प्रयोगः,ततो भवतीति बटव्यम् । प्राणातिपातादिविरमणविषयाच षट्कारोप्परं नियमा कज्जति । जस्स एताप्रो कति तस्स उच यादयः प्रागेव भाविता इति न नूयो भाव्यन्ते। विरतिश्च प्राणारिझियाप्रो दो भइज्जति । जस्ल नवरिद्धियाओ दोलिक- तिपातादीनां मायामृषापर्यन्तानां जीवपदे मनुष्यपदे च वक्तव्या, जंति तस्स एताओ तिन्नि नियमा कजंति । जस्स अपच्च शेषेषु तु स्थानेषु नायमर्थः समर्थ इति वक्तव्यमतेषां नवप्रत्यक्खाण किरिया तम्ल मिच्छादसणवत्तिया सिय कज्जइ, सि. यतः सर्वविरत्यसम्भवात् । मिथ्यादर्शनविरमणविषयचिन्तार्या सर्वव्येचिति । उपलक्षणमेतत् सर्वपर्यायेम्वपि, अन्यथा एकयनो कज्ज । जस्स पुण मिच्छादसणवत्तिया किरिया क स्मिन् द्रव्ये पर्यायेवा मिथ्यात्वभावेमिथ्यादर्शनविरमणासम्जवाउजइ तस्स अपच्चक्खाणकिरिया नियमा कज्जइ । मणुस्त- त्,सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य नवति नरो मिथ्यारष्टिः, स्त जहा जीवस्स वाणमंतरजोइसियवेमाणियस्स जहा - मिथ्याउटेहि सूत्रं हि न प्रमाणं जिनानिहितमिति पचना Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरिया अनिधानराजेन्धः। किरिया त्। गिध्यादर्शनशल्याविरमणं च एकन्छियविकलेन्द्रियवर्जेषुशं. | अट्टविहबंधए य छबिहबधए य प्रबंधगा य २। अहवा सपेषु स्थानेषु। एकेन्छियादिषु तुन भवति। कस्मादिति चेत। उच्य | तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अवधिहबंधए य सन्धिते-पृथिव्यादिषु उजयाभावः,"पुढवाश्पसु" इति वचनात् । द्वी. हबंधगा य अधए य ३ | अहवा सत्तविहबंधगा य एगन्द्रियादीनां तु यद्यपि करणापर्याप्तावस्थायां केषाञ्चित्मासादनसम्यक्त्वं भवति, तथापि जन्मिथ्यात्वाभिमुखानां तत्प्रतिकूला विहबंधगा य अटविहबंधए य छविहबंधगा य अबंधगा य माम.प्रतम्तयामपि मिथ्यादर्शनशल्यविरमणप्रतिषेधः। श्राह च. ४। अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहवंधगा य अट्टविह"अस्थि णं जंत! जोया ण मिच्चादसणसल्लचरमणे कजा" | बंधगा य छविहबंधए य प्रबंधए य । अहवा सत्तविश्त्यादि । हबंधगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य विहवंअथ प्राणातिपातधिरतस्य कर्मबन्धो भवति, किंवा नेति।। धए य अबंधगा य ६। अहवा सत्तविहबंधगा य एगविउच्यते-भवत्यपि, न नवत्यपि, तथा च एतदेव प्रश्नसूत्रपूर्वकमाह हबंधगा य अढविहबंधगा य छबिहबंधगा य प्रबंधए य ७। अहवा सत्तविह बंधगा य एगविहबंधगा य अविपाणाश्चायविरए पं भंते ! जीवे कह कम्मपगमीको हबंधगा य विहबंधगा य प्रबंधगाय । एवं एते अबंध। गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अविहबंधए वा छ दुभंगा सच्चे वि मेलिया सत्तावीसं नंगा नवंति । एवं मनिबंधए चा एगविहबंधए वा प्रबंधए वा । एवं मस्से गुस्सा वि, एवं चैव सत्तावीसं नंगा नाणियन्या। एवं मुविनाणियचे। पाणातिवायविरयाणं भंते ! जीवा कर सावायविरयस्स जाव मायामोसविरयस्स यजीवस्स यमकम्मपयमीनो बंधति । गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्ज सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य १। अहवा सत्तविहवं एस्सस्स य। पगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधए य । प्रहवा जीयेत्यादि सुगमम् बहुवचनेऽपि प्रभसूत्रं सुगमम । निर्वचनसत्चविहांधगा य एगविहबंधगा य अङ्कविहबंधगा य३।। सूत्रे सर्वेऽपि तावमवेयुःसप्तविधबन्धकाच एकषिधबन्धकाच । प्रहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य नविहबंधए य श्ह प्रमत्ताऽप्रमत्ताऽपूर्वकरणानिवृत्तबादरसम्परायाः सप्तवि धवन्धकाःप्रमत्ता,मप्रमत्ताश्चायुर्वन्धकालेऽविधबन्धकाः,प्रा. ४ा अहवा सत्तविहवंधगा य एगविहांधगा य बिह युषोऽवि बन्धनात । आयुर्वन्धश्च फादचिक इति कदाचित् बंधगा य ए । अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधना य सर्वकास म लज्यतेऽपि, प्रमसाधाप्रमत्ताश्च सदैव बहुस्चन लप्रबंधगे य ६ । अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य ज्यम्ते, अभिवृत्तिबादराश्च कदाचित प्रधास्यपि, विरहस्यापि तेषामागमे प्रतिपादनात एकविधबन्धका उपशान्तमोहाःकोणप्रबंधगा य ७ । अहवा सत्तविहवंधगा य एगविहबंधगा य मोहाः सयोगिकेवसिमः तत्र उपशान्तमोहाः क्षीणमोहाचकअविहबंधगे य विहबंधए य १ । अहवा सत्तविहवं- दाचिल्लायन्ते,कदाचिन्न सत्याते, तेषामन्तरस्यापि सम्भवात् । घगा य एगविहबंधगा य अहविहबंधगे यछविहबंधगा य सयोगिकेवलिनस्तु सदाप्राप्यन्ते, अन्योऽन्यन्नावेन तेषामध्यव२। अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अहविह कछेदात् । ततःसप्तविधयन्धका एकविधबन्धकाश्च व्यवस्थिबंधगा य छविहबंधगे य३ । अहवा सत्तविहबंधगा य ए ता इत्यष्टविधवन्धकाचन्नावे एको भङ्गः । अथवा सप्तविधयन्ध का बहव एकविधवन्धका बहय एकोऽष्टविधबन्धकइति द्वितीयः। गविहबंधगा य अहविहबंधगा य बिहबंधगाया आहवा । प्रएविधयन्धकानां तृतीयः, षविधयन्धका अपि कदाचिल्लज्यसत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य महाविहबंधगा य अवं. न्ते, कदाचिन्न, उत्कर्षतः षण्मासविरहाभावात् । यदापि लघए य १। अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य भ्यन्ते तदाऽपि जघन्यपदे पको द्वौ बा, उत्कर्षपदेऽष्टोत्तरशतम, प्रहविहबंधए य प्रबंधगा यश अहवा सत्तविहबंधगाय ततोऽविधयन्धकभेदाभावे पम्विधबन्धकपदेनापि द्वीप्रको। प्रबन्धका अयोगिकवलिनः,तेऽपि कदाचिदवाप्यन्ते, कदाचिन, एगविहवंधगा य अवविहबंधगा य प्रबंधए य३ । अहवा | तेषामप्युत्कर्षतः षण्मासविरहनावात् । यदाऽप्यवाप्यन्ते तदाऽसत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य अब- पिजघन्यपदे एको द्वौ वा,उत्कर्षतोऽष्टाधिकं शतम् । ततोऽष्टघगा य ।। अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य | विधवन्धकपदाभावे प्रबन्धकपदेनापि द्वौ नही, तदेवमेक प्रायो बिहबंधए य प्रबंधए य१ । अहवा सत्तविहबंधगा भङ्गः, एकसंयोगेच षडिति सप्त भङ्गाः । इदानी द्विकसंयोगे नका दयन्ते-तत्र सप्तविधबन्धका पकविधवन्धकाय एगविहबंधगा य छबिहबंधगे य अबंधगा य । धावस्थिताः, उभयेषामपि सदा बहुत्वेन सन्यमानत्वात् । महवा सचविहबंधगा य एगविहबंधगा य बबिहबंधगे या ततोऽधविधबन्धकपदे पविधषन्धकपदे च प्रत्येकमेकवचनमिअबंधए य ३ । महवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा| त्येको भगः । अष्टविधबन्धकपद एकवचन, पटा पछबिहबंधगा य प्रबंधगा या अहवा सत्तविहबंध बहुवचनमिति द्वितीयः। पतौ द्वौ प्रायविधबन्धकपदस्यैक बचनेन सम्धौ। एतावेव दो नौ बहुवचनेनेति चत्वारः। एवमे६षमा ५ अद्यावहषपएप छाबहवपए या चचत्वारो भा प्रष्टविधवन्धकाबन्धकपदाभ्यामेव चत्वारः, प्रबंधए यामाहवा सचविहबंधगा य एमविहांधगा या परिवन्धकाबन्धकपदाज्यामिति संघसंस्यया विकसंयोगे Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४) किरिया अभिधानराजेन्यः । किरिया मादरा भङ्गाः । त्रयाणामष्टविधवन्धकपविधषन्धकायन्धकर- या कज्जइजाब पिच्छादंस वत्तिया किरिया कज्जा । गोयपाणां पदानां संयोगे प्रत्येकमेकवचनबहुवचनान्यामष्टौ | मा! पाणाइपायविरयस्स जीवस्स आरंभिया किरिया सिय प्रजाः । सर्वसंकसनया सप्तविंशतिनाः । अत्रापर प्राहमनु बिरतस्य कयं बधः?, न हि विरतिबन्धहेतुर्नयति ।। कन्जइसिय नो कज्जा पाणाइवायविरयस्सगंजते ! जीवस्स पदि पुनर्विरतिरपि बन्धहेतुः स्यात्ततो निर्मोक्षप्रसङ्ग, पारिम्गहिया किरिया कनइ गोयमाणोणसमटे । पापायाजावात् । उच्यते-न बिरतिबन्धहेतुः, किं तु विरतस्य ये णाइवायविरयस्स णं नंते ! जीवस्स मायावत्तिया किरिया रूपाययोगास्ते बन्धकारणम्। तथाहि-सामायिकच्छेदोपस्थाप कज्जा ? गोयमा ! सिय कज्जा, सिय नो कम्जइ । पाणाअपरिहारविशक्षिकेष्वपि संयमेषु कषायाः संज्वलनरूपा उदयप्राप्ताः सन्ति योगाश्च,ततो विरतस्यारिदेवायुप्कादानां शुभप्रह वायविरयस्स णं नंते ! जीवस्त अपञ्चक्खाणवत्तिया कितीनां तत्प्रत्ययो बन्धः । यथाच प्राणातिपातविरतस्य सप्तविंशति- रिया कज्जइ?। गोयमाणो ण समढे। मिच्छादसणवमा उक्ताः। तथा मृगवादविरतस्य यावन्मायामृपाविरतस्य ।। त्तियाए पुच्चा? गोयमा ! जो इण्डे समढे । एवं पाणाइवाय मिथ्यादर्शनशल्यविरतिमधिकृत्य सूत्रमाह-- विरयस्स मणुस्सस्स बि, एवं जाव मायामोसविरयस्त जी. मिच्छादसणसनविरए णं ते ! जीवे कइ कम्मपगमीनो। वस्स मास्सस्स य॥ पंधड़। गोयमा सत्तविहबंधए वा अहनिबंधए वा बिह "पाणावायविरयम्स णं ते!" इत्यादि । प्रारम्जिकी क्रिया बंधए वा एगविहांधए वा अवंधए वा। मिच्छादसणसवधि स्याद्भवति, प्रमत्तसंयतस्य भवति, शेषस्य न भवतीति भावः। रएणं ते! नेरइएका कम्मपगमीयोबंधः। गोयमा!स-| पारिग्रहिकी निषेध्या, सर्वथा परिग्रहानिवृत्तत्वात, अन्यथा तविहवंधए वा अट्ठविहवंधए वा जाव पंचिंदियतिरिक्ख- सम्यक प्राणातिपातविरत्यनुपपत्तेर्मायाप्रत्यया स्याद्भवति,स्यानोणिए मणुस्से जहा जीवे | वाणमंतरजोसियवेमापिए अनवति । अप्रमत्तस्यापि हि कदाचित्प्रवचनमालिन्यरकणार्थ भवति,शेषकालं तु न जवति। अप्रत्याख्यानक्रिया मिध्यादर्शनजहा नेरइए॥ प्रत्यया च सर्वथा निषेध्यते, तदभावे प्राणातिपातविरत्ययागा"मिच्छादसणसल्लविरपणं ते!" इत्यादि सुगमम, नवरं तू । प्राणातिपातविरतेश्च द्वे पदे । तद्यथा-जीयो, मनुष्यश्च। तत्र सप्तविधधकत्वमष्टविधवन्धकत्वं पविधवन्धकत्वमेकविध यथा सामान्यतो जीवमधिकृत्योक्तम,तथा मनुष्यमधिकृत्य वक्त बन्धकत्वमबन्धकत्वं च मिथ्यादर्शनशस्यविरतरविरतसम्य व्यम् । तथा चाह-"एवं पाणाश्वायविरयस्स मस्सस्स वि" मोरारज्यायोगिकेवलिनं यायद्भायात् । नैरपिकादिचतुर्वि- इति । एवं तावक्तव्यं यावन्मायामृषाविरतस्य जीवस्य मनुशतिदएकचिन्तायां मनुष्यवर्जेषु शेषेषु सर्वेष्वपि स्थानेषु ध्यस्वचा सप्तविधवन्धकत्वमष्टविधबन्धकत्वं वा, न पबिधबन्धकत्वा मिथ्यादर्शनशल्यविरतिमधिकृत्य स्त्रम्दिश्रेणिप्रतिपत्त्यसम्भवात; मनुष्यपदे च यथा जीवपदे तथा वकन्यं, मनुष्येषु सर्वभावसम्मवात्।। मिच्छादसणसल्लविरयस्स णं ते ! जीवस्स किं प्रारंभिबहुवचनेनैतद्विषयं सत्रमाह या किरिया कज्ज जाव मिच्छाईसणवत्तिया किरिया कमिच्छादसणसवविरया णं जंते ! जीवा कइ कम्मपगमीमो | ज्जा। गोयमा! मिच्छादसणसविरयस्स जीवस्स प्रारंबंधति । गोयमा !ते चेव सत्तावीसंगंगा जाणियया। मि- गिया सिय कन्ज, सिय नो कज्जा । एवं जाव अपच्चक्खापछादसणसदधिरया णं ते! णेरड्या णं कइकम्पपगमी- किरिया मिच्छादसणवत्तियाकिरिया नो कज्जा मिच्गश्रो बंधति । गोयमा सव्वे विताव होज सत्तापिहबंधगा य, दंसणसविरयस्स एंजते ! णेरड्यस्स किं आरंभिया किप्रहवा सत्तविहबंधगा य अहविहवंधगे य । अहवा सत्चवि- रिया कजा जाब मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जा। डपंधगा य अट्ठविहवंधगा या एवं जाव बेमाणिया नवरंम- गोयमा ! आरंजिया किरिया कन्ज जाव अपच्चक्खाणगुस्सा णं जहा जीवाणं॥ किरिया वि कज्जा। मिच्छादसणवत्तिया किरिया नो कज्जर "मिग" इत्यादि । भत्रापि ते एव पूर्वोक्ताः सप्तविंशतिभङ्गाः | एवं जाव थणियकुमारस्स । मिच्छादसणसनविरयस्स णं मेरयिकपदे भङ्गत्रिकम् । तत्र सर्वेऽपि तावद्भवेयुः सप्तविधय भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स एवमेव पुच्चा? गोयमा! न्धका प्रत्येको भङ्गः । भयं च यदैकोऽप्यविधबन्धको न लन्यते तदा भवति, पदा पुनरेकोऽष्टविधवन्धको लभ्यते तदाऽयं आरंलियाकिरिया कज्जइ अपच्चक्खाणकिरिया सियाजहितीयो भकः, सप्तविधयन्धकाश्च भएविधबन्धकाधा यदा पु- इ,सिय नो कन्जर, मिच्छादसणवत्तिया किरिया न कज्जा, नरष्टविधवन्धका अपि बहवो लज्यन्ते तदा तृतीयः। सप्तविध- मणुस्सस्स जहा जीवस्स । वाणमंतरजोसियवेमाणियस्स बन्धकाश्चाष्टविधबन्धकाच, एवं मात्रिकं तावद्वाच्यं या जहा रश्यस्स । बद्वैमानिकसूत्रम,नवरं मनुष्यपदे सप्तविंशतिभाका यथा जीपपदे इति। "मिचादसण" इत्यादि । भारम्भिकी स्याद्भवति, स्यात्र अथारम्जिक्यादीनां क्रियाणां मध्ये का क्रिया प्राणातिपातचि- प्रवति । प्रमत्तसंयतस्य भवति, शेषस्य न नवतीति जावार्थः । रतस्येति चिन्तयति पारिप्रहिकी देशविरति यावद्भवति,मायाप्रत्ययाऽप्यनिवृत्तिबादपाणावायविरयस्स पंजते! जीवस्स किंभारंभियाकिार- रसम्परायं यावद्भाविनी,परतो न भवति। अप्रत्यास्यानकिया Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४५) अभिधानराजेन्द्रः । किरिया प्यविरति सम्यम्टष्टि यावन्न परतः । तत एता अपि क्रिया अधिकृत्य " सिय कज्जर सिय नो कजर " इति वक्तव्यम् । तथाबाद जब अपक्षयाकिरिया इति) मिथ्यादर्शन स्वया पुनर्निषेध्या, मिथ्यादर्शन विरतस्य तस्या असम्जवात् । च[सुवैिशतिदन्ताधिकानां नित्कुमारपर्यवसानानां तकियाम्या, मिध्यादर्शनप्रत्यया निषेधातिष न्यायास्तिस्रः किया नियमो वक्तव्याः प्रत्याख्यानक्रिया भाज्या । देशविरतस्य न भवति, शेषस्य भवतीत्यर्थः । मि श्यादर्शनप्रत्यया निषेध्या मनुष्यस्य यथा सामान्यतो जीवस्य व्यन्तरादीनां यथा नैरयिकस्य । सम्प्रत्यासामचारम्भिक्यादीनां क्रियाणां परस्परमप एतासि जंते! आरंभियानं जान मिष्ठादंसणवतिया य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा ४ १ । गोयमा ! सव्वत्योवाच मिच्छादंसणरजियाओ किरिया अपच खाकिरियाप्रविसेसाहियाओ पारिमाहियाओ विसेसादिया आरंभियाओ किरियाप्रविसेसाहियाश्रो मायाबत्तिया विसेसाहिया किरियापदं सम्मत्तं । “ताखिणं भंते!" इत्यादि सर्वस्तोका मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया, मिथ्यादीनामेव भावात् । ततोऽप्रत्यय पाधिका, अविरतिसम्यग्दृष्टीनां मिथ्यादृष्टीनां च भावात् । ताभ्योऽपि पारिग्रहिया विशेषाधिकाः, देशविरतानां पूर्वेषां च नावात् । प्रारम्भिक्या विशेषाधिकाः प्रमत्तसंयतानां पूर्वेबांच नावात्, ताभ्योऽपि मायाप्रत्यया विशेषाधिकाः, श्रममचसंयतानामपि भावात् । प्रशा० २२ पद । (नैरयिकादीनां समप्रियन्यमिवचनं 'सम' शब्द करिष्यते ) (4) मृगवधादामुद्यतस्य क्रियापुरणं भंते! कच्छंसि वा दहंसि वा उदगंसि वा दवियंसिवा बलयंसि वा मंसि वा गहांसि वा गहणविदुग्गंसि वा पव्वति वा पव्वयविदुमसि वा बसि वा वणविदुमांसिवा मयतीमिवकप्पे भिवपादाने मियनहाए गंतार एमए ति काओ अवरस्स मियवहार कुरुपासं उदाह तणं ते! से पुरिसे कइ किरिए । गोयमा ! सिय तिकि रिए सिय चउकिरिए सिय पंचाकरिए। से केणणं भंते ! एवं बुचर सिय तिकिरिए यि चडकिरिए सिय पंचकिरिए । गोयमा ! जे जविए उद्दवणयाए यो बंधण्याए णोवारणवार ता च गां से रिसे काश्याए अहिगर थिया पाओसियाए तिहिं किरियाहिं पुढे जे भविए उड्डबजाए विणयाए वि नो मारवार तावं च णं से पुरिसे काइयाए अहिगरणियाए पाओसियाए पारियाव - थियार चलहिं किरियाहि पुढे जे भविए उडवण्याए विविमारयाए वि तावं च ां से पुरिसे काह याए जाव पाणावायकिरियाए पंचहि किरियाहिं पुढे से तेयं जाव पंचकरिए । १३७ किरिया तंत्र (कवि) कच्चे नदी जलपरिवेष्ठितादिमति प्रदेशे । (दहंसि वत्ति ) हृदे प्रतीते । ( उदगंसि वत्ति) उदके जलाशयमात्रे (दवियंसि वति) बिके तृणादिरुन्य समुदाये (वि) लवे वृत्ताकारनधारक कुटिलगतियुक्तदेशे (शुमंस व ति) में अवतमले गाढमसे (हसि ति ) गढ़ने वृकवलीलतावितानवीरुत्समुदाये ( गणविमांवित नवदुर्गे पर्वतैकदेशावस्थितवृपपादिसमुदाबे (पचसि वसि) पर्वते (पन्यवियंसि व पर्वत समुदाये (सिसि) बने एकजातीय समुदाये विवि - विका वस्य स मृगवृत्तिकः । स च मृगरहकोऽपि स्वादित्यत आह- (मियसंकप्पे प्ति) मृगेषु संकल्पो वधाध्यवसायश्वेदनं वा यस्यासौ मृगसङ्कल्पः । स च चलचित्ततयाऽपि भ बतीत माह (मिशिदा) मृगवः (मिगवहार ति) मृगवधाष (गंत ति) गरबा, कच्चादाविति योगः । (फूडपासं ति) कूटं मृगमदयकारणं गतादिपाशबन्ध नमिति कृटपाथम (उद्दार ति ) उददाति रचयतीत्यर्थः । (तो णं ति ) ततः कूटपाशकरणात्। (कइ किरिए चि) कतिक्रिया क्रियाकाधिक्यादिकाः (जे भवित) यो भयो योग्यः कर्त्तेति यावत् । "जावं च " इति शेषः । यावन्तं कासमित्यर्थः । कस्याः फलेत्याह - ( उवण्याए ति ) कूटपाशकरणतया, ताप्रत्ययश्चेह स्वार्थिकः। (तावं च रां ति तावन्तं कालं (काइयाए ति गमनादिकायचेष्टरूपया [ बगिरणियार ति) अधिकरणेन कूटपाशरूपेण निर्वृत्ता या सा तथा, तथा । (पासा) मृगेषु दुष्टनाच तेन निर्वृता प्रा पिकी, तथातिदि किरिवादि ति ) क्रियन्त इति क्रियाविशेषाः [ पारिताडिया हि ] परितापनप्रयोजना पारित पनिकी । सा च बद्धे सति मृगे भवति, प्राणातिपातक्रिया च घातिते इति । पुरिसेणं जंते कच्छंसि वा जान बासि वा त णाई ऊसविय ऊसविय अगणिकायंसि निसिरइ तावं च । जंते! से पुरिसे कड़किरिए ? । गोयमा ! सिय विकिरिए सिय चल किरिए सिय पंचाकरिए से केणां । गोयमा जे ज विए उसवणयाए तिहिं उसवणयाए विनिसिरणयाए वि नो दद्दणयार चलहिं ने भविए उस्साए विनिसिरजयाए वि दहावार वि ता चा से पुरिसे काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठे से तेणद्वेण गोयमा ! | (ऊसवियसि ) डास "सत्यादिकृत्येति वा [ निखिर ]ि निस्सृजति हिपति यावदिति शेषः । पुरिसे भंते! कच्छंसि वा जान बाणविदुग्गंसि वा मियवितिए मियकरणे मयपणिहाणे मियवहार गंता एप मिए चि कार्ड अन्नमरस्स मिस्स बढ़ाए उ निसिरह ततो यां जंते से पुरिसे का किरिए । गोषमा ! सिय तिकिरिए सिय च किरिए सिय पंच किरिए से केण्डेणं गोयमा ! जे नविए निसिरणयाए तेहिं जे नविए निसिरपाए वि सियाविनो मारण्याए चलहिं जे भविए निसि - 1 Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४६ ) अभिधानराजेन्द्रः । किरिया रणयाए विवियापि मारणार विताच से पुरिसे जात्र पंचाहि किरियाहिं पुढे, से तेण्डेणं गोयमा ! सिप तिकिरिए सिय घटकरिए सिय पंचकरिए । पुरिसे णं भंते ! कच्छंसि वा जाव अन्नयरस्स मियस्य बहाए आकाययं उसुं प्रायामेत्ता चिट्ठिज्जा अन्नपरे पुरिसे मग्गयो भागम्य सपपाक्षिणा प्रसिणा सीमं विदेज्जा से य उसू ताए चैव व्यायामाया से मिर्विभेजा से अंते! पुरिसे किं भियवेरे य पुढे पुरिस | णं बेरे पट्टे ? गोयमा ! अभियं मारेद्र से मियां कुठे ने जे मियवेरेणं पुरिसं मारेइ से पुरिसवेरेणं पुट्ठे । से केद्वेणं जंते ! एवं बुच्च जाब से पुरिसवेरेणं पुट्ठे हैं। से यूं गोयमा ! कजमाथे कके संघेज्जमाणे संधिए निव्वत्तिज्जमाणे निव्वत्तिए निसिरिज्जमाणे निसिडे त्तित्रत्तव्वं सिया । हंता भगवं ! कज्जमाणे करूँ जाव निसट्टे त्ति वत्तव्वं सिया । से तेणट्टेणं गोयमा! जे भयं मारे से मियवेरे पुडे, जे पुरिसं मारे से सिमेरे पुतो छ मासा मरड़ काइयाए जान पंचहि किरियाहिं पुडे, वाहि उएदं मासाणं मरइ काइयाए जात्र पारियावलियाए चलहिं किरियाहि पुढे | "ति" ( वा आययकायति) कर्णे यावदायत कृष्टः कर्णायतः ।। आयतम्प्रयत्नवत् यथा जवतीत्येवं कर्णायत श्रायतकणीयतः तम् । (श्रायामेस सि) आयम्याकृष्य (मगश्रोति) पृष्ठतः ( सयपाणिण ति) स्वरूपाणिना स्वहस्तेन (पुब्वायामण्यापति ) पूर्वाकर्षणेन ( से णं भंते ! पुरिसे चि) शिरश्ता पुरुषः (मिरे तिरं पावादिति अथ शिरपुरुषहेतुकत्वादिषु निपातस्य कथं धनुर्धरपुरुषो मृगयचेन स्पृष्ट इत्याकृततो गौतमस्य तदद्भ्युपगतमेवार्थमुत्तरतया प्राह-क्रियमाणं धनुष्काण्डादिकृतमिति व्यपदिश्यते युतिस्तु प्राग्वत् । तथा सन्धीयमानं प्रत्यचापामारोप्यमाणं कामं धनुर्षाऽऽरोप्य माणप्रत्ययं सन्धितं कृतसन्धानं भवति तथा नित्यमानं नितरां वर्तीयमाणं प्रति कृतं म एडलाकारं कृतं भवति । तथा निसृज्यमानं निक्षिप्यमाणं काण्डनिएं भवति यदा व नियमानं नि. सृज्यमानतया धनुर्द्धरेण कृतत्वाचेन काण्डनिसृष्टं भवति, काराग्रनिसर्गाचा मृगस्तेनैय मारितः । ततश्चोच्यते" जे मियं मारेत्यादीति । इह च क्रियाः प्रकान्तास्ताश्चानन्तरोके सुगादिवधे यावत्यो यत्र यत्र कालविभागे भवन्ति तावतीस्त्र दर्शयन्नाह" अंतो ग्रहमित्यादि " । पण्मासान् यावत्प्रहारहेतुकं मरणम, परतस्तु परिणामास्तरापादितमिति कृत्वा प मासा प्राणातिपातक्रिया व स्वादिति हृदय व्यवहार नया पक्या प्राणातिपातक्रियाव्यपदेशमात्रोपदर्शनार्थमुक्तम; अन्यथा यदा कदाऽप्यधिकृतप्रहारहेतुकं मरणं नवति तदेव प्राणातिपातकियेति ॥ पुरिसे जंते! पुरिसची ममनियसेना सयपाणिपापा से सियासी बिंदेज्जा, तो णं नंते ! से किरिया पुरिसे का फिरिए । गोयमा जाये च णं से पुरिसे तं पुरिसं सत्तीए समभिधसेइ सयपाणिणा वा से असिणा सीसं विदेश तावंच से पुरिसे काश्याए नाव पाणाइमार पंचहि किरियाहि पुढे आसावहरण य प्रणवकखबत्तीएवं पुरिसवेरेणं पुढे ॥ (सी) त्या विशेषेण समभिसेज ) हन्यात् (सपाणिण ति) स्वकहस्तेन ( से चि) तस्य (काइयाति) काविषया शरीरस्पन्नरूपया आधिकरणिक्या शुतियापाररूपया प्राधिक्या मनोय विधानेन परिता पनिया परितायनरूपया प्राणातिपातक्रियया मारणरूपया (आसने ति) इत्यादिशक्त्या अभिध्वंसकोऽसिना वा शिरश्तेतापनि क्रियाभिः स्पृष्ट तथा पुरुषबेरेह च स्पृष्टो मारि पुरुषवैरिभाषेन । किम्भूतेनेत्याह-भासनो वथो यस्माद्वैराचलथा तेनासनबधकेन भवति च वैराद्वधो बधकस्य तमेव वध्यमाभित्यान्यतो वा तत्रैव जन्मनि जन्मान्तरे वा । यदाह-" बढ़मारणमभिक्खा - णदाणपरधणविलोवणाईणं । सब्वजहो उठ, दसगुणिओ एक्कासि कयाणं " ॥ १ ॥ चः समुच्चये । अनयकाया परप्रासनिरपेका स्वगतापाय परिहारनिरपेक्ष बा वृत्तिर्वर्त्तनं यत्रैव बैरे तत्तथा तेनानवका कुणवृत्ति केनेति ॥ ज० १ ० ८ ० । (पृथ्वीकायमानं यत्तत्कतिक्रिय इति 'आन' शब्दे द्वि० प्रा० १०८ पृष्ठे समुक्तम् ) अथ कियाजन्यं कर्म तदनधिकृत्याह पुवि नंते ! किरिया पच्छा वेयणा, पुवि वेयणा पच्छा किरिया है। मंडियपुता । पुब्वि किरिया पच्छा वेपणा, यो पुवि वेयणा पच्छा किरिया ।। " पुधि भंते! " इत्यादि । क्रियाकरणं तज्जन्यत्वात् कर्मापि क्रिया । अथवा क्रियत इति क्रिया कर्मैव । वेदना तु कर्मणोऽनुभवः, सा च पश्चादेव प्रति कर्मानुभवनस्वेति ॥ " (१०) नय कियामेव स्थमभाषतो निरुपयन्नाहअस्थियां भंते! समणाणं निम्गंधाणं किरिया कम है। हंता अस्थि । कहि णं जंते ! समयाणं निग्गंथाएँ किरिया काम ? मंयिपुचा ! पमायपचया जोगनिमिषं च एवं खलु समाणं निम्गंथाएं किरिया कज्जइ ॥ "अस्थि णं" इत्यादि । अस्त्ययं पक्को यदुत क्रिया क्रियते, क्रिया प्रवति, प्रमाप्रत्ययात्। यथाऽऽडु: प्रयुत कायक्रियाजन्यं कर्म, योगनिमित्तं च यथैर्यापथिकं कर्म । भ० ३ श० ३ उ० । ('दुक्ख' शब्दे शिवायाः कृतात्वे करणं भाण्डाद्वारे ते अथ क्रियान्तराणां विषयनिरूपणापा गाहावइस्स एणं जंते ! विकिणमाणस्स के कं अवदरेखा, तस्स णं जंते ! मंद अगवेसमाणस्स किं आरंभि या किरिया कज्जइ, परिग्गहिया मायावत्तिया अपच्चक्रखाशीया मिच्छादंसणवतिया है। गोयमा ! आरंजिया कि रिया कन्नड, परिगहिया मायावतिया प्रपच्चक्खाण किरिया कज्जर, मिच्छादण किरिया सिय कलर, सिय नोकज्जइ । अह से जंगे अभिसमयागए भवइ, तमो से पच्छा Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४७ ) अभिधानराजेन्द्रः | किरिया सन्याओ ताओ पजवंति गाहाबइस्स णं अंते 1 भंड विकिणमाणस्स फड़प नंद साइजा मंडेय से भ मणी सिया गाहाबदसणं जंते! ताओ भंगाओ किं आरंभिया किरिया कल्चर, जान मिच्छादंसणकिरिया क कड्यास या ताओ जंगाओ कि आरंभिया किरिया फज जान मियादंसण किरिया कम गोयमा ! गाहाव इस ताओ नंदाओ आरंभिया किरिया कजड़ जाव अ चक्लाण किरिया कलर मिच्छादंसण किरिया सिय कज्जइ, सिय नो कज्जइ । कइयस्स णं ताम्र सव्वा पयजवंति। गाढा बस्स एणं भंते! नंदं विक्रियमाणस्स नाबडे से बीए सिया, कश्यस्स णं जंते ! ताओ भंगा किं आरंभिया किरिया कज्जइ, गाहावइस्स वा ताओ जंडामोकिं आरंभिया किरिया ।। गोयमा ! कइयस्स ताओ जंडायो हेडिल्लायो चचारि किरिया कज्जंति । मिच्छादंसणकिरिया भयथार गाहाबहस्सां ताओ सम्याओ पपभवति । गृहपतिर्गृही। " मिच्छादंसण किरिया सिय कज्जर इत्यादि" मिथ्यादर्शनप्रत्यया किया स्यात्कदाचित् क्रियते भवति, स्पा क्रियते कहा कि जयति वदा मिथ्यादिपतिस्तदाऽसी भवति यदा तु सम्यग्दृष्टिस्तदा न भवतीत्यर्थः । अथ क्रियास्पेव विशेषमादत्यादि) प्रति ज्ञान्तरद्योतनार्थः । ( से अंडे ति तद्भाण्डम् (बनिसमागर गयेपयता लब्धं प्रवति । (तो सि) समन्धागमनात् ( से ति ) तस्य गृहपतेः पश्चात्समन्वागमानन्तरमेव ( सव्वाश्रो सि) यासां सम्नयोऽस्ति या धारभिक्यादिक्रियाः (पवईभवंति ) प्रतनुकीजवन्ति इस्त्रीभवन्ति । अपहृतज्ञा एकगवेषणकाले दि महत्यस्ता आसन् प्रयक्षविशेषपरत्वात् गृहपतेस्तल्लामकाने तु विशेषोपरतत्वात्ता स्वीभवन्तीति ( कश्म सास) कविको प्राको भार स्वादयेत् सत्या रदानतः कुर्याद व सिव) कविकायाः समपितं स्यात् (कस्स तामो साओ पति) श्रप्राप्तभाएमत्वेन ततक्रियाणामल्पत्वादिति, गृहपतेस्तु महत्यो भारमस्य तदीयत्वात् १ | ऋयिकस्य भाण्डे समर्पिते त्यस्ता गुहपतेस्तु प्रतनुका २ भारडस्यानुपनीतोपनी तनेदात्सूत्रद्वयमुक्तमेवं धनस्यापि वाच्यम् । हाइस i in ! भंडं जाव ध य से अणुवणीए सिया, एवं पि जहा भने उपणी तहा जेवणं उत्यो लागो घणे य से उवणीए सिया जहा पढमो आलागो जंमे य से अणुवणीए सिया सहा नेयन्वो पढमं चउत्थाएं एको गमो वितियतइयाणं एको । तत्र प्रथममेवम्--" गाहावश्स्स णं भंते ! भंड विकिणमाणस्स काए भंगे साइनेजा धणे य से अणुवणीए सिया कश्यस्स णं भंते! ताओ धरणाओ कि आरंभिया किरिया कज्जर ४। गाहावश्स्स य ताओ धणाओ कि आरंभिया किरिया कज्जर ५१। गो किरिया मा ! कस्स ताओ धणाओ हेठिल्लाभो चतारि किरियाम्रो कांति, मिच्छादंसणकिरिया भयणाए गाहावश्स्स णं ताओ सब्वा पयतु भवंति " धने अनुपनीते क्रयिकस्य मह त्यस्ता भ बम्ति, धनस्य तदीयत्वात् । गृहपतेस्तु तास्तनुकाः, धनस्य तदामीम एवं द्वितीयसूत्रसमानमिदं तृतीय द- " एयंपि जड़ा भंडे उबणीए तहा नेवयन्वं ति" द्वितीयसूत्रसमतयेत्यर्थः । चतुर्थे त्वेवमध्येयम्-" गाहाबइस्स वं मंड विकिणमाणस्स कप नंम साइजेजा धणे य से डबलीप सिया गाहावश्स्स णं नंते ! ताओ धरणाओ कि प्रारंभिया किरिया कज्ज‍ । कश्यस्स वा ताश्रो घणोभो कि आरंभिया किरिया कज्जर १ । गोयमा ! गाहावश्स्स या सामो चणामो धारंभिया किरिया ४ मिच्छायंसणपतिया किरिया सिय कज्जर, सिय नो कज्जर। कइयस्स णं तामो सम्मानो यशवंत "धन पनी धनप्रत्ययत्यात्तासां गृहपतेहत्यः, ऋयिकस्य तु प्रतनुकाः, धनस्य तदानीमतदीयत्वात् । एवं च प्रथमसूत्रसममिदं चतुर्थमित्येतदनुसारेण च सूत्र पुस्तकातरास्यनुगन्तव्यानि । प्र० ५ ० ६ ० । (११) श्रमणोपासकस्य क्रिया:समणोवासगस्स णं ते! सामाइयकदस्स समोवस्सए प्रत्यमाणस्स तस्स णं भंते किंइरियावहिया किरिया कज्जर, संपराइया किरिया कज्जई ? । गोयमा ! नो इरियावहिया किरिया कब्ज, संपराइया किरिया कज्जइसे केपा जान संपराइ या १। गोयमा ! समणोवासयरस णं सामाइयक मस्स समनोवस्सए अत्यमाणस्स आया अहिगरणी जब आयादिगरणचचियं च णं तस्स नो इरियावड़िया किरिया कलश, संपराश्या किरिया कजड़ से तेरा । " समणेत्यादि " ( सामाश्यकरस्स (स) कृतसामायिकस्य तथा भ्रमणपाश्रये साधुवसतावासीनस्य तिष्ठतः ( तस्स सि) यो यथार्थस्तस्य भ्रमणोपासकस्येति कलाकृतामाथिकस्य तथा साध्याश्रयेऽवतिष्ठमानस्य प्रवति सपराधिको क्रियाविशेषणद्वययोगे पुनरैर्यापथिकी युक्ता, निरुरूकषायत्वादित्याशङ्कातोऽयं प्रश्नः । उत्तरं तु - ( श्रायाहिगरणी नवस ) आत्मा जीवोsधिकरणानि दलशकटादीनि कषायाश्रयभूतानि यस्याः सन्ति साधिकरणी तायाहियरति ति) आत्मनोऽधिकरणानि श्रात्माधिकरणानि तान्येव प्रत्ययः कारणं यत्र क्रियाकरणे तदात्माधिकरणप्रत्ययम् । साम्परायिकी क्रिया क्रियत इति योगः । भ० ७ श० १ ० । अनगारस्थानायुक्ते गच्छतः अणगारस्स णं भंते ! प्रणाउतं गच्छमाणस्स वा ३ अ गाठतं वत्थपरिग्गहं कंबलं पायपुच्छणं गेएहमाणस्स वा निक्खियमाणस्स वा तस्स णं जंते । किं इरियाबहिया किरिया कज्जर, संपराइया किरिया कज्जइ ? । गोयमा ! नो इरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जड़ । से केद्वेणं ? । गोयमा ! जस्स णं कोहमाणमायालोना बोच्छिष्मा भवंति तस्स णं इरियावड़िया किरिया कज्जर, जस्स ां कोइमाणमायानोजा प्रयोष्ठिणा जयंति Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) किरिया अभिधानराजेन्द्रः । किरिया तस्सणं संपराइया किरिया कज्जइ । अहासुतं रियमाणस्स भृतिपदार्थनिर्वतकजीवानां पञ्चक्रियत्वमविरतिभावेनावसेव. इरियावहिया किरिया कज्जइ, उस्सुत्तं रियमाणस्स संपरा | मिति । (चम्मतिति)लोहमयः प्रतलायतो लोहादिकुटन प्रयोजनो लोहाकाराापकरण विशेषः (मुट्ठिए सि) लष्कृतरो इया किरिया कन्जर,से पं उस्मुत्तमेव रियर, से वेणद्वेणं । घनः (अहिगरणिलोडि ति) यत्र काष्ठेऽधिकरणी निवेश्यते सुगमम । भ०७ श०१०। (उदगदोणि त्ति) जलनाजनं, यत्र तप्तं लोहं शीतलीकरणाय संवमस्स णं ते! अपगारस्स भानत्तं गच्छमाणस्स जा- तिप्यते । (अहिगरणसाल सि) लोहपारकर्मगृहम् । व भाउत्तं वत्थपरिग्गरं कंबलं पायपुच्छणं गेएइमाणस्स प्र० १६ २०१०। या निक्खिवमाणस्स वा तस्स ण नंते ! किं शरियावहिया धनुषा विध्यतःकिरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ । संवुडस्स एं पुरिसे णं जंते ! धणं परामुसइ उसुं परामुसइ २ भणगारस्स जाव तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, ठाणं गइ२ प्राययकएणाययं उK करेइ २ नई वेहासं नो संपराश्या किरिया कज्जा से केण्डेणं जंते ! एवं वु. उसु उम्बिहर, तए णं से मुं उर्छ बेहासं चइ संवुडस्स पंजाब नो संपराइया किरिया कज्जइ उबिहिए समाणे जाई तत्थ पाणाई भ्याई जीवाई गोयमा ! जस्स णं कोहमाणमायालोमा बोच्चिमा जति | सत्ताई अभिहण बचे सेस्सेइ संघाएइ संघटेर तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जर, तहेव जाव उ- परितावेह किलामे गणाओ ठाणं संकामे जीवियानो स्त्रीयमाणस्स संपराश्या किरिया कज्जइसे एंप्र बवरोवेश। तएणं भंते ! से पुरिसे कइ किरिए । गोयमा ! हामुत्तमेव रिय से तेणटेणं गोयमा! जाव नो संपराश्या जावं च णं से पुरिसे ध[ परामुसइश्जाव उबिह,तावं चणं किरिया कन्ज। से पुरिसे काइयाए जाव पाणाश्चायाकरियाएपंचाहिं किरियासुगमम् । ज०७ श०७००। हिंपुढे । जोसि पिय जीवाणं सरीरेहिंधण निन्वत्तिए ते (१२) सएडासकेन तप्तलोहमुवक्षिपतः वियणं जीवा काश्याए जाव पंचहिं किरियाहिं पुढे, एवंधण पुरिसे णं ते ! अयं प्रयकोटसि अयोमएणं संडासर पिढे पंचहि किरियाहिं जीचा पंचहिं एहारूपंचहिं उसू पंचदिं णं उबिहमाणे या पविहमाणे वा का किरिए । गोयमा ! सरे पत्ताणे फले एहारूपंचहिं अहे णं से उसू अप्पणो गुरुजावं च णं से पुरिसे अयं अयकाडेसि अयोमएणं संडास यत्ताए जारियत्ताए गुरुयसंजारियत्ताए अहे वीससाए एणं नन्विहिंति वा पविहिंति वा सावं च णं से पुरिसे पच्चोवयमाणे जाई तत्थ पाणाई जाव जीवियाओ ववरोवेइ काइयाए जाव पाणाइवायकिरिया पंचहिं किरियाहिं पु तावं च णं से पुरिसे कइ किरिए। गोयमा जावं च णं से उम् हे जेसि पिणं जीवाणं सरीरेहिंतो भयणिव्वत्तिए भयकोडे णिवत्तिए संमासए णिवत्तिए इंगाला णिच अप्पणो गुरुयत्ताए जाव ववरोवे तावं च णं से पुरिसे काश्या एजाव चलहि किरियाहिं पुढे । जेसि पिणं जीवाणं सरीरेहिं चिया इंगालकावणी णिवत्तिया च्या णिबत्तिया ते विणं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा । घण निन्वत्तिए ते जीवाचनहिं किरियाहिंधणू पुढे, चाहिं जावा, चउहि एहारू, चनहिं जम, पंचहिं सरे, पचाणे पुरिसे णं भंते ! अयं अयकोटाओ अभोमरणं सं फले एहारू पंचाहिं जे वि य से जीवा मासएणं गहाय अहिगरिणी नक्विवमाणे वा णि आहे पच्चोवयमाणस्म नवम्गहे चिति ते वियणं जीवा क्खिवमाणे वा का किरिए । गोयमा ! जावं च णं से | पुरिसे अयं प्रयकोचाओ जाव णिक्खिवत्ता तावं च काइयाए जाब पंचहिं किरियाहिं पुष्वा ॥ णं से पुरिसे काइयाप जाव पाणाइवायकिरियाए पंचहिं (पुरिसे पमित्यादि) ( परामुसह सि) परामृशति गृहाति (प्रायवकमाक्यं ति ) आयतः केपाय प्रसारितः कर्णायतः किरियाहिं पुढे, जेसि पि य शं जीवाणं सरीरेहिंतो। कर्ण वावदाकृष्टः, ततः कर्मधारयात आयतकायतः, अतस्तश्रयीणव्वत्तिए संकासए णिबसिए चम्मेहए णि-| म् चुं वाणं (उकुंवेदासं ति)। कईमिति वृक्तशिवरायपेक्षयापि व्वत्तिए मुहिए पिव्व सिए अधिगरिणीणिवत्तिए - स्यादत. माह-विहावसीत्याकाशे (उम्विहर सि) है धिगरणिखोमीविव्वत्तिए उदगदोणीणिव्वत्तिए अधि बिजहाति, ऊदै विपतीत्यर्थः । (अभिहणा चि) अभिमुख मागच्छतो हन्ति (वत्तेवति) वर्तुसीकरोति,शरीरसोचापागरणसालीणिवत्तिया ते वियणं जीवा काइयाए जाव दनात् । (लिसेह ति) लषवत्यात्मान लिष्टान् करोति (संघापंचहिं किरियाहि पुट्ठा ॥ पति)अन्योन्य गात्रैः संहतान् करोति (संघहति) मनाक "पुरिसे णं भंते !" इत्यादि। (अयं ति) मोहं (अयकोसि, स्पृशति (परिताबत्ति)समन्ततः पीमयति (किसामेशसि)मारत्ति) लोहप्रतापनार्थे कुशूले (उन्विहमाणे वत्ति)उत्तिपन् वा | यान्तिकादिसमुखातं नयति(गणामोहाणं संकामेशत्ति)स्वस्था(पविहमाणे व ति) प्रक्षिपन् वा (इंगालकहिणि तिषनवा-नात स्थानान्तरं नयति, (जीवियानो ववरोवेशत्ति)व्युतजीविप्रा लोहमययष्टिः । (भन्छ ति) भानसल्यापहचाय-प्र-| तान् करोतीति। (किरियापुढातक्रियानास तान करोतीति। (किरियाहिं पुढेतिक्रियानिःस्पृष्टः,क्रियाजन्येन Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) किरिया अनिधानराजेन्छः। किरिया कर्मणा बद्ध इस्यर्थः। (धणु त्ति ) धनुर्दएमगुणादिसमुदायः । तालफलनिर्वतकजीवास्तेऽपि च पञ्चक्रियास्तदन्यजीवान ननु पुरुषस्य पञ्चक्रिया भवन्तु,कायादिव्यापाराणां तस्य दृश्य-| संघट्टनादिभिरुपजावयन्तीति कृत्वा २।। मानत्वात् धनुरादिनिर्तिकशरीराणां तु जीवानां कथं पञ्च कि __अहे णं भंते ! से तालफले अप्पाणो गुरुयत्ताए जाव याः, कायमात्रस्यापि तदीयस्य तदानीमचेतनत्वात,अचेतनकायमात्रादपि बन्धाभ्युपगमे सिमानामपि तत्प्रसङ्गः. तदीयश- पच्चोवयमाणा जाई तत्य पाणाई जाव जीवियाग्रो वबरीराणामपि प्राणातिपातहेतुत्वेन लोके विपरिवर्तमानस्यात् ।। रोवे।। किच-यथा धनुरादीनि कायिक्यादिक्रिया हेतुत्वेन पापकर्म (हे समित्यादि ) अथ पुरुषकृततालफलप्रचलनादेरनन्तबन्धकारणानि नवन्ति तज्जीचानामेचं पात्रदएकादीनि जीव रं तत्तालफलमात्मनो गुरुकतया, यावत्करणात्संभारिकतया, रक्षाहेतुत्वेन पुण्यकर्मनिबन्धनानि स्युर्यायस्य समानत्वादिति। गुरुसम्भारिकतयति दृश्यम् । (पच्चोवयमाणे ति)प्रत्यक्षपभत्रोच्यते-अविरतिपरिणामादन्धः । अविरतिपरिणामश्च यथा तत् यांस्तत्राकाशादौ प्राणादीन् जीविताद्यपरोपयति। पुरुषस्यास्ति एवं धनुरादिनिर्वर्तकशरीरजीवानामपीति,सिद्धानां तु नास्त्यसाविति न बन्धः । पात्रादिजीवानां तु न पुण्यब- सए नंते ! से पुरिसे कतिकिरिए । गोयमा! जावं च न्धहेतुत्वं,तकेतोविवेकादेस्तेष्वभावादिति । किश्च-सर्ववचन- एं से पुरिसे तालफने अप्पणो गुरुयत्ताए जाव जीवियाप्रामाण्याद्यद्यथोक्तं तत्तथा श्रद्धेयमेवेति । इषुरिति शरपत्रफला ओ ववरोवेश तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव चउहिं दिसमुदायः । " अहे णं से उस" इत्यादि । इह धनुष्मदादीनां किरियाहिं पुढे ३ । जोसि पि य णं जीवाणं सरीरेयद्यपि सर्वत्रियासु कथञ्चिन्निमित्तभावोऽस्ति तथापि विवक्षितबन्धं प्रत्यमुण्यवृत्तिकतया विवक्तितवधक्रियायास्तैः कृ. हिंतो ताले णिवत्तिए ते विय णं जीवा काइयाए जाव तत्वेनाविधक्कणात , शेषक्रियाणां च निमित्नभावमात्रेणापि त-| चनहिं किरियाहिं पुढे ४ जेसि पि य एं जीवाणं सरीरेहिकृतत्वेन विवक्कणाश्चतस्ता उक्ताः, वाणादिजीवशरीराणां तु तो तालफने णिव्वत्तिए से वि णं जीवा काइयाए जावपंसाक्षाद्वधक्रियायां प्रवृत्तत्वात्पञ्चेति। ज०५ श०६ उ०। चहि किरियाहिं पुट्ठा एजे वि य से जीवा अहे वीससा(१३) वर्षानार्थ हस्तादिप्रसारयत: ए पञ्चोवयमाणस्स उग्गहे वट्टति, ते वि य णं जीवा कापुरिसे णं भंते! वासंवासति वासं जो वासति हत्थं वा झ्याए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्टा ६ । पुरिसे णं भंते ! पायं वा वाहुं वा ऊरं वा आउंटावेमाणे वा पसारेमाणे रुक्खस्स मूलं पचालेमाणे वा पवामेमाणे वा काकिवा कइकिरिए । गोयमा! जावं च णं से पुरिस वासं वा- | रिए । गोयमा! जावं च णं से पुरिसे रुक्खस्स मूलं पसइ वासं णो वासतीति हत्थं वा जाव करु वा आटा- चालेइ वा पवामेइ वा तावं च णं से पुरिसे काझ्याए वेति वा पसारेति वा तावं च णं से पुरिसे काश्याए जाव जाव पंचहि किरियाहिं पुढे, जेसि पि णं जीवाणं पंचहिं किरियाहिं पुछे। सरीरोहिंतो मूले णिव्वत्तिए जाद वीए णिव्वत्तिए ते(वासं वासत्ति) वर्षों मेघो वर्षति नो वा वर्षों वर्षतीति विणं जीवा काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा । ज्ञानार्थमिति शेषः । अचक्षुरालोके हि वृष्टिराकाशे हस्तादिन. अहे णं नंते ! से मूले अप्पणो गुरुयसाए जात्र जीवियासारणादवगम्यत इतिकृत्वा हस्तादिकं प्राकुण्टयेहा, प्रसार्य ओ ववरोइ, तए णं से पुरिसे कइ किरिए । गोयमा ! प्रसारयेद्वा, श्रादित एवेति । न०१६ श० ० उ०। जावं च णं मूले अप्पणो जाव ववरोवेइ तावं च णं से तालमारुह्य तत्फलं प्रपातयतः-- पुरिसे काइयाए जाव चनहि किरियाहिं पुढे । जेसि पि परिसे नंते ! तालमारुहइ, तालमारुहइत्ता तालाओ सरीरोहितो कंदे णिवत्तिए जाव बीए णिवत्तिए ते सालफनं पचालेमाणे वा पवामेमाणे वा कइकिरिए । गो- विणं जीवा काश्याए जाव चरहिं किरियाहिं पुजा । यमा ! जावं च णं से पुरिसे तालमारुहर, तालमारुहइत्ता | जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहिंनो मसे णिवत्तिए ते तालाओ तालफलं पवालेइ वा पवाद वा तावं च णं से बिणं जीवा काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा। जे पुरिसे काश्याए जान पंचहिं किरियाहिं पुढे, जेसि पि वि यणं से जीवा अहे वीससाए पच्चोवयमाणस्स उग्गहे यणं जीवाणं सरीरेहिंतो ताले णिव्यत्तिए तालफले वटुंति ते विणं जीवा काझ्याए जाव पंचहि किरियाहिं णिबत्तिए ते वि यणं जीवा काइयाए जाव पंचहिं कि पुट्ठा। पुरिसे णं नंते ! रुक्खस्स कंदे पच्चोवयमाणस्त गोरियाहिं पुढे । यमा ! जावं च णं से पुरिसे जाव पंचहि किरियाहिं पुढे । (सालं ति) तालवृत्त (पचालेमाणे वत्ति ) प्रचारयन् वा जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहिंतो मृले णिव्वत्तिए जान ( पवाडेमाणे व ति) अधःप्रपातयन् वा (पंचाह किरियाहिं पुढे ति)तालफनानां तामफलाश्रितजीवानां च पुरुषः प्राणा वीए णिव्वत्तिए ते वि णं जीवा पंचाहि किरियाहिं पुट्ठा। तिपातक्रियाकारी, यश्च प्राणातिपातक्रियाकारको सावाधाना | अहणं भंते ! से कंद जावं च णं से कंदे पप्पणो जाव मपीति कृत्वा पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्ट इत्युक्तम १। येऽपि च चउहिं पुढे । जेसि पि य णं जीवाणं सरीरोहिंतो मूले गि Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरिया (५५०) प्रन्निधानराजेन्द्रः। किरिया व्यत्तिए खंधे णिवत्तिए जाव चनहिं पुढे। जेसि पि य एणं गद्दिसि वाघायं पाच सिय तिदिसिं सिय चनदिसिं बाण सरोहिंता कंदे णिव्वत्तिए ते वि णं जीवा | सिय पंचदिसि सेसाणं णियमं छद्दिालें । अत्यि णं जंते ! जाव पंचहि पुट्ठो । जे वि य से जीवा अहे वीससाए। जीवाणं मुसावाएणं किरिया कज्जइ । हंता अस्थि । सा पञ्चोक्य० जाव पंचहिं पुट्ठा जहा कंदए, एवं जाववीयं ॥ नंते ! किं पुट्ठा कन्जर, अपुट्ठा कज्जा । जहा पाणाश्चाए(ततो जति) तेभ्यः सकाशात्कतिक्रियोऽसौ पुरुषः। सच्य- णं दंगो, एवं मुसावारण वि,अदिग्पादाणेण वि, मेहुणेण ते-चतुष्क्रियः, वधनिमित्तभावस्याल्पत्वेन तासां चतसृणा वि, परिग्गडेण वि । एवं एए पंच दंगा | जं समए णं मेष विवकणात् । तदल्पत्वं च वथा पुरुषस्य तालफलप्रचलनादी साकावधनिमित्तनावोऽस्ति,न तथा तालफलव्यापादि नंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कजइ, सा भंते ! किं तजीवेग्विति कृत्वा ३ । एवं तालनिर्वर्तकजीवा अपि ।। फ- पुट्ठा कज्जइ, अपुट्ठा कजा; एवं तहेव जाव वत्तव्वं सिया लनिर्वर्तकास्तु पश्चक्रिया एव, साकाशं वधनिमित्तत्वात जाव वेमाणियाणं,एवं जाव परिग्गहेणं । एवं एए वि पंच दंये चाधोनिपततस्तालफलस्योपग्रहे उपकारे वर्तन्ते जीवास्ते- मगा। जं देसेणं नंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कऽपि पञ्चक्रियाः, वधे तेषां निमित्तभावस्प बहुतरत्वात् ६।ए जति जाव परिग्गडेणं । जं पदेसेणं ते! जीवाणं पाणातेषां च सूत्राणां विशेषतो व्याख्यानं पञ्चमशतोक्तकाएडकेत्रपुरुषसूत्रादबसेयम् । एतानि चलनद्वारेण षट्रक्रियास्थानान्यु वाएणं किरिया कज्जति, सा नंते ! किं पुट्ठा कज्जइ ? एवं तकानि, मूलादिष्वपि षमेव जावनीयानि । “एवं जाव बीयं ति" हेव दंगयो । एवं जाव परिग्गहेणं । एवं एए वीस दंगा। अनेन कन्दसूत्राणीव कन्दत्वक्शालपवालपत्रपुष्पफलबीज " तेणमित्यादि " ( एवं जहा पढमसते ठट्ठद्देसए ति) अनेसूत्रामध्येयानीति सूचितम् । प्र०१७ २०१ उ०। नेदंचितम्-“सा भंते!किं प्रोगाढा कज्जर,अणोगाढा कज्जा। (१४) शरीराणि निर्वर्तयतः गोयमा! भोगाढा कजाणो अणोगाढा कज्ज" इत्यादि। व्याख्या जीवे णं भंते ! भोरालियसरीरे एं णिवत्तिएमाणे क-| चास्य प्राग्वत् । (जं समयं ति) यस्मिन्समये प्राणातिपातेन क्रिकिरिए ? । गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चनकिरिए या कर्म क्रियते श स्थाने, तस्मिन्निति वाक्यशेषो दृश्यः। (जं देसं ति) यस्मिन्देशे क्षेत्रविनागे प्राणातिपातेन क्रिया क्रियते, सिय पंचकिरिए;एवं पुढवीकाइए वि। एवं जाव माणुस्से॥ तस्मिम्मिति शेषोऽत्रापि रश्यः। (जं पदेसं ति)यस्मिन्प्रदेशे लघु"जीवे णं ते!" इत्यादि। (सिय तिकिरिए सिय चउकि तमे क्षेत्रविनागे क्रिया प्रागुक्ता सा च कर्म, कर्म च दुःखहेतुरिए सिय पंचकिरिए ति) यदीदारिकशरीरं परपरिता- स्वादानमिति। तन्निरूपणायाह-(जीवाणमिति) तन्निरूपणाय पाचभाषन निर्वर्तयति तदा त्रिक्रियः, यदा तु परपरितापं कु. दएककरयम् । कर्मजन्या च वेदना भवतीति तन्निरूपणाय बैस्तनिर्वर्तयति तदा चतुफियः । यदा तु परमतिपातयंस्त- दएडकवयमाह-(जीवाणमित्यादि) । भ०१७ २० ४ उ० । भिर्वर्तयति तदा पञ्चक्रिय इति । पृथक्त्वदण्डके स्याच्यम्दप्र (कायषस्योचासनिश्वासावधिकृत्य क्रिया द्वितीचभागे योगो नास्ति, एकदापि सर्वविकल्पसद्भावादिति १०७ पृष्ठे 'प्राणा' शब्दे समुक्ताः) - जीवाणं भंते ! ओरालियसरीगणिव्वत्तिएमाणा कइकि- परिकमामि पंचहि किरियाहिं काझ्याए अहिंगरणियाए रिया। गोयमा तिकिरिया वि, चनकिरिया वि, पंचकि- पाश्रोसियाए पारितावणियाए पाणाइवायाकरियाए॥ रिया वि । एवं पुटवीकाश्या वि । एवं जाव मणुस्सा ।। प्रतिक्रमामि पञ्चनिः क्रियानियापारलकणानिर्योतिचारः एवं वेचब्बियसरीरेण वि दो दंगा णवरं जस्स अस्थि | कृतः । तद् यथा-कामिक्वेत्यादि । आव० ४ ० । प्रा० चू० । “आवत्ताश्सु जुगवं, श्व भणिो कायवायवावेडब्बियं एवं जाव कम्मगसरीरं । एवं सोइंदियं जाव चारो । दुन्देगया य किरिया, जो निसिक अयो फासिंदियं । एवं मणजोगं वजोगं कायजोगं जस्स जं जत्तो ॥१६॥ भिन्नविसयं निसिखं, किरियागमेगया न पगअत्थितं भाणियध्वं एते एगत्तपुहत्तेणं बब्बीसदंगा ।। म्मि । जोगतिगस्ल विनंगिश्र, सुत्ते किरिया जो भणिमा" (बीसदंडगत्ति) पञ्च शरीराणि, इन्द्रियाणि च, त्रयो योगा, ॥१०॥ आव०३ अ० (किडकम्म शब्दे ५२५पृष्ठे व्याख्याते)"गपते च मीलितास्त्रयोदश । एते च एकत्वपृथक्त्वाभ्यां गुणि- | हणविसम्गपयत्ता, परोप्परविरोहिणो कहं समए । समए दो ताः पर्दिशतिरिति । भ०१७ श०१०। उवभोगा, न होज किरियाण को दोसो?" ('भासा' शब्दे चैषा प्राणातिपातादिना क्रियमाणायाः क्रियायाः स्पर्शना ब्यास्यास्यते) ('दोकिरिय' शब्द क्रियाद्वयस्य युगपदनु जवः स्वएमयिष्यते ) जीवादिसत्तारूपे, उत्त० १४ अ० । तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी-अस्थि णं, जीवादिपदार्थोऽस्तीत्यादिके, सूत्र० १७० १२ अ० आस्तिजंते ! जीवाणं पाणाइपाएणं किरिया कज्जा ?। हंता | क्ये, पञ्चा० १६ विव०। “अकिरिय परियाणामि किरियं वसंअस्थि । सा भंते ! किं पुट्ठा कज्जड़,अपुट्ठा कज्जइ ?। गो पज्जामि"। सम्यग्वादे, ध० ३ अधि।झानपूर्वकसावधानवद्य प्रयोगनिवृत्तिप्रवृत्तिरूपे, विशे० । सम्यक्संयमानुष्ठाने, प्रव० यमा ! पुध कज्जइयो अपुट्ठा कज्जइ, एवं जहा पढमसए १४१ द्वार | सदनुष्ठाने, सुत्र०२ श्रु०४० । समाचारे, पो० नहुद्देसए जाच णो अणाणुपुन्धिकड त्ति वत्तव्वं सिया, एवं । विव० धर्मानुष्ठाने, उत्त०२७ श्रा["किरियाणय' शब्दे जाव वेमापियाणं,णवरं जीवाणं एगिंदियाण यणिव्वाघा- क्रियाप्राधान्यं वक्ष्यते ] Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५१ ) अभिधानराजेन्द्रः । किरिया [१५] काष्टकम् कियते आत्मकर्तुत्वे सा किया कर्तुः यस्य प्रवृति स्परूपानिमुखदर्शनानोपयोगता शानं स्वरूपाभिमुखवीर्यप्रवृत्ति क्रिया । एवं ज्ञानक्रियाभ्यां मोकः । तत्र ज्ञानं स्वपरावभासनरूपम्, क्रिया स्वरूपरमणरूपा । तत्र चात्रिपीत्यपरिणतिः क्रिया सा साधिका अन्नादिसं मारे अशुद्धकाधिकवादिक्रियाव्यापारनिष्यन्नः संसरति, स एव विशुद्ध समितिगुष्यादि विनय वैयावृत्यादिसरियाकर पेन निवर्तते श्रतः संसारकपणाय क्रिया संवरनिर्जरात्मिका करणीया नामस्थापने] सुगमे व्यक्रिया गुदा रात्र का स्वरूपानुयायियोग सपा का कायादि व्यापाररूपा नायकिया श्रीप्रवृत्तिरूपानुदा रिकादिका व्यापारसंमुखा धगुफा का पुनः स्वगुणप रिणमनत्वनिमित्तवीर्यव्यापाररूपा क्रिया भावक्रिया । तत्र किया संकल्प नैगमेन संप्रदेश सर्वे संसारजीचा सक्रिया चकाः । व्यवहारेण शरीरपर्याप्त्यनन्तरं क्रिया । ऋजुसूत्रनयेन कार्यसाधनार्थ योगप्रवृत्ति मुख्यवीर्यपरिणामरूपा क्रिया, शब्द जयेन परिन्दात्मिका समभिकन गुरुसाधनानुरूपसक व्यापाररूपा एवंभूतमयेन तत्त्वेरीतीणता साहाय्यगुणपरिणमनरूपा । अत्र साधकस्य साधनक्रिययाऽवस चरखी. "तेन चरणगुणपूतिस्वरूपग्रहणपर भावत्यागरूपा क्रिया मोकसाधका । अतः ज्ञानतत्वेन तत्त्वसाधनार्थ सम्यक क्रिया करणी वा तदुपदेशः काम्यक्त्वं बाद निरन्तरं निःशङ्कायदर्शनाचारसेवनानं या काविनयादिज्ञानाचारता निरन्तरं वयाख्यातारियादारित्राचारसेवनापरं मुक्यानं यावत्। तप आचार सेवना सर्वसंवरं यावत् । वीर्याचारस्याराधनाऽवश्यंभाविनी, न हि पञ्चाचारमन्तरेण मोक्कनिष्पत्तिः । दर्शनादिस्वगुणानां प्रकिया दर्शनादिगुणविशुद्धा मित्तमवलय प्रम र्तनम् आचार इति । अत एव गुणपूर्णतानिष्पत्तेरर्वाक् श्राचरणा करणीया, आचरणात गुणनिष्पत्तिर्भवत्येव । पूर्णगुणानां तु श्रचरणा परोपकाराय इति सिद्धम् । अत एव उच्यते ज्ञानी क्रिपयतः शान्तो, भावित्मा जितेन्षियः । स्वयं तीर्णो भवाम्नोः परं तारयितुं क्षमः ॥ १ ॥ ज्ञानी यथार्थतत्त्वस्वरूपावबोधी, यदा क्रिया साधनकारणानुयायियोगप्रवृत्तिरूपा, स्वगुणानुषाविवीयंत्रवृतिरूपा बा स्याम् उद्यतः । पुनः शान्तः कषायतापरहितः । नावितात्मा भावितः शुरूस्वरूपरमणमयः आत्मा यस्य स भावितात्मा । जितेन्द्रियः पराजितेन्द्रियव्यापारः । भवसमुद्रात्स्वयं तीर्णः पारं गतः परम् श्राश्रितम् उपदेशदानादिना तारातुं कः समर्थो भवति यो हि सम्यग्दर्शनहान चारित्रपरिणत श्रात्माराम श्रात्मविश्रामी श्रात्मानुजवमग्नः स स्वयं संसाराद् निवृत्तः, तत्सेवना परानिस्तारयति । अत्र द्रव्यज्ञानं भावनारहितं वचनव्यापारमनोविकल्परूपं संवेदनज्ञानं यावत् । तच भावज्ञानतत्त्वानुभवनरूपोपयोगस्य कारणम् । सल्यक्रिया योगव्यापारात्मिका । साऽपि भावक्रिया स्वगुणानुया स्वगुणप्रवृतिरूपायाः कारणम् । अत्र ज्ञानस्य फलं वि रतिः विरतिकारणम् । उकं व तस्वार्थटीकायाम तेन ज्ञानं 9 किरिया दर्शनज्ञाने चारित्रस्य कारणम, चारित्रं मोककारणम् । उत्तराध्ययने- "नादंसणिस्स नासं, नारोण बिना इंति चरणगुणा अगुणिस्स नरिथ मोक्लोनत्यि अमोक्यस्स निव्वाणं " ॥ ३० ॥ उत्स० २० अ० । क्रियाविरहितं हन्त ! ज्ञानमात्रमनर्थकम् । 9 गर्ति बिना पयोऽपि नाप्नोति पुरमीप्सितम् ॥ २॥ मतः क्रियायुकं हिलाब, नैकमेव इत्याह-क्रियाविरहितं हन्त ! इति इन्त क्रियाचिरहितं क्रिया साधनप्रति तयार दिसं ज्ञानमात्रं सवेदना अनर्थकं न साथ कम्। तत्र रटान्तः पयोऽपि मार्गता अपि गति विना चरणनिहाय विना नगरं न तिम प्राप्नोति चरणकमनेनैव ईप्सितमगर प्राप्तिरिति; "सायच रन मुक्यो” इति वचनात् । “सन्नाणनाणोवगए महेसी, अ[तरं चरितं धम्मसंचयं मयुत्तरे नाणधरे जसी, घोसा सई सूरिए तलिक्खे ॥ २३ ॥ " इति उत्तराध्ययने २१ अ० । पुनस्तदेव रूढयन्नाह स्वानुकूलां क्रियां काले, ज्ञानपूण व्यपेक्षते । प्रदीपः स्वप्रकाशोऽपि तैलपुत्यादिकां यथा ॥ ३ ॥ ज्ञानपूर्णोऽपि स्वपरविवेचनविशिष्टोऽपि, काले अवसरे कार्यसाधन, स्वानुकूल तत्कार्य किया स्वान सम्यन्वानी प्रथमपरकार्यचः दिग्विरतिसर्वविरग्रिहरूपां क्रियाम् आश्रयति, पुनश्चारित्रयुक्तोऽपि तत्वज्ञानी केवलज्ञान कार्यनिष्पादनरसिकः शुक्लभ्यानारोहरूपां क्रियाम श्रति । केवलज्ञानी सर्वसंवरपूर्णानन्दकार्यावसरे योगधरूपां क्रियां करोति । अत एव उच्यते- ज्ञानी क्रियाम् अपेकृत एव तदर्थमेव आवश्यककरणं मुनीनाम् । तत्र दृष्टातथा प्रदीपः स्वप्रकाशोअपे तैलपूत्यादिकां क्रियाम - ते एवं सम् अपि क्रियारी भवति क्रिया हि वीर्यशुद्धिहेतुः, अशुरुवीर्यविहिताश्रवः संसरति संसारे, स एव गुणी सेवनगुणप्राग्भावोद्यतः संवरी नवति । कर्मप्रदेशप्रहणं योगैः, योगाः वीर्यप्रभवाः, तेन योगाः परमात्मवन्दनस्वा न्यायाध्ययनादियोजिता न कर्मप्रणाय नयन्ति योगान वृतिः क्रिया इति । बाह्यजावं पुरस्कृत्य ये क्रियां व्यवहारतः । बदने कलशेषं बिना ते तृप्तिकाङ्गिणः ||४|| बाह्यभावं बाह्यत्वं पुरस्कृत्य श्रङ्गीकृत्य ये नरा असेवितगुरुच रणाः व्यवहारतः क्रियां निषेधयन्ति, किं बाह्य क्रियाकरणेन इति ever कियोधर्म मन्दयन्ति ते नरा वदने मुझे कवलप बिना तृप्तिकाङ्क्षिणः तृतिवाका इति । गुणत्रबहुमानादे-र्नित्यस्मृत्या च सत्क्रिया । जातं न पातयेनाव - मजातं जनयेदपि ॥ ए ॥ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रक्षमामाई वाजवादिगुणवन्तः तेषां ब मानं स्वतोऽधिकगुणवतां बहुमानम् प्रादिशब्दाददोष तापः, पापदुगुना, श्रतीचारालोचनं देवगुरुसाधर्मिक भक्तिः, उत्तरगुणारोहणादिकं सर्व माहाम च पुनः नित्यस्मृतिः पूर्वप्रहीरावतस्मरणम्, अभिनवप्रत्याख्यानसामायिक चतुर्विंशतिस्तवगुरुवन्दनमतिक्रमण कायोत्सर्गप्रत्याख्यानादीनां नित्वस्मृत्या सदक्रिया भवति मम गाथाः श्रीहरिमपूज्यैवंशतिकायाम । अत्र Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५२) किरिया भनिधानराजेन्डः। किरियाचरण "तम्हा णिच्च सए बहु-माणेण च अहिगयगुणिम्मि । अङ्गारवृष्टयै सहसा न चेष्टा, नासनदोषैकगुणप्रकर्षा" ॥२॥ पडिवच्छदुगुंगए, परिवाडिझालोयल्यं च ॥१॥ विषगरलान्योन्यानुष्ठानत्यागेन श्रीमद्वीतरागवाक्यानुसारतः तित्थंकरभत्तीप, सुसाहुजणपज्जुवासणाप य । उत्सर्गापवादसापेकरूपा क्रिया वचनानुष्ठानक्रियाकरणतः प्रउत्तरगुणसखाए, पत्थ सया हो जइयव्वं ॥२॥ सङ्कक्रियासंगति संयोगिताम् अति प्राप्नोति वचनक्रियावान् । पषमसंतो विरई, सो जाय जिओ अन पास कया वि । अनुक्रमेण असङ्गक्रियां निर्विकल्पनिष्प्रयासरूपां क्रियां प्राता पत्यं बुद्धिमया, अपमाओ हो कायन्वो ॥३॥ प्रोति । सा एव असङ्गक्रिया एव, ज्ञानक्रियाया अभेदभूमिःो . सुहपरिणामो निश्चं, चउसरणगमाइप्रायरं जीवो। या । असङ्गक्रिया जावक्रिया शुकोपयोगः शुद्धवीर्योवासः तकुसलपयझीउ बंधर, बद्धा उ सुहाणुबंधा उ ॥४॥" दात्मतां दधाति । ज्ञानवीयकत्वं ज्ञानक्रिया अभेद इत्यश्त्यादिक्रिया, जातम उत्पन्नं, भाव सम्यगशानादिसंवेगनिवे. नेन यावत् गुणपूर्णता न तावद् निरनुष्टानादिक्रिया करदलक्षणं, न पातयेत् । अपि च, न जातं धर्मध्यानशुक्लभ्याना- णीया । न हि तत्त्वज्ञानक्रिया निषेधिका, किन्तु क्रिया दि दिकं भावमपि, अनुत्पन्नम् अपि, जनयेत निष्पादयेत् , श्रेणि- शुरूरतत्रयीरुपवस्तुलाधने कारणम्, न धर्मम,धर्मे च श्रात्म. ककृष्णादीनां गुणिबहुमानेन, मृगावत्याः पश्चात्तापेन, आलो- स्थमेव। उक्तं च श्रीहरिभद्रपूज्यैः दशवैकानिकवृत्ती-"धर्मसा. चनेन अतिमुक्तनिर्ग्रन्थस्य,गुरुभक्त्या चएमरुरुशिष्यस्य, इत्या-1 धनत्वात् धर्म" इति । अतो द्रव्यक्रियां धर्मत्वेन यद् गृह्णन्ति, सचनेकवाचंयमाना परमानन्दनिष्पत्तिः श्रूयते आगमे ॥५॥ कारण कार्योपचार एव, नान्यः । पतच्छूकानविकलानां क्रिया क्षायोपशमिके भावे, या क्रिया क्रियते तया । न धर्मदेतुः। "बहुगुणविज्जानिलो, उस्सुत्तनासी तहा वि मुपतितस्यापि तनाव-प्रवृछिर्जायते पुनः॥६॥ तम्वो। जह पवरमणीजुत्तो, विग्घकरो विसदरो लोए।१।" इति चारित्रानुगवीपक्षयोपशमे जाते या क्रिया वन्दननमनादिका | षष्टिशतप्रकरणे। तथा च आचाराने-"भयविचिकित्सायां नसक्रियते,तया क्रियया,पतितस्यापि गुणपराङ्मुखस्याप जीवस्य, । यमः" इति। अतो निमित्तहेतुत्वेन क्रिया निरनुष्ठाना करणीया, पुनः तद्भावप्रवृद्धिः सम्यगानादिगुणनावप्रवृद्धिर्जायते । उक्तं इयं असङ्गक्रिया। सा पानाहपिछली स्वाभाविकानन्दामृतरच-"वाआवसमिगनावे दढजत्तकथं सुहं अणुडाणं । पडिव- सा । अत आत्मतत्त्वाव्यावाधानन्दोत्थकर्डिरनुष्ठाना सत्यव. सियं पि अहुजा, पुणो वि तनावबोहिकरं" ॥१॥औदायकनावे- त्यसत्प्रवृत्तिपरित्यागरूपा क्रिया व्यतो भावतः स्याद्वादस्वगऽपि क्रिया भवति, सा न तारम्गुणवृहिकरी। आदयिकी क्रि णानुयायी बीर्यप्रवृत्त्यजिनवगुणवृद्धिरूपा संयमस्थानारोहणया च उच्चैात्रसुभगोदययशोनामकर्मोदयेन अन्तरायोद तत्वैकत्वरूपा क्रिया प्रतिसमयं करणीया साध्यसापेकत्वेन, अ. येन उच्चैगोत्रोदयेन च तपःश्रुतादिलानः प्रज्ञापनासूत्रतो झेयः। त पर कानक्रियान्यां मोक्षः इति निर्धारणीयम् । व्यक्रियोइति ज्ञानावरणदर्शनावरणदर्शनमोहचारित्रमोहान्तरायवयोप धतो जावक्रियावान् भवति, ततश्च स्वरूपास्वादीनवात इतिथेशमतः शुद्धधर्मग्रारभावार्थ या क्रिया क्रियते सा आत्म यः।अष्ट अष्ट“नथि काइ किरिया वा एवं भणति नत्थिगुणप्रकाशकर। भवति । वादिणों" नास्ति काचित् क्रिया वा अनिन्द्यक्रिया वा अक्रियाबा पुनः तदेव दर्शयति पापक्रिया वेतरक्रिययोरास्तिककल्पितत्वेनापारमार्थिकत्वात् । गुणवृद्धथै ततः कुर्यात, क्रियामस्खलनाय वा। भणन्ति च-"पिव खाद च चारुलोचने! यदतीतं वरगात्रि!तन्त्र एकं तु संयमस्थानं, जिनानामवतिष्ठते ॥७॥ तेन हि भीरु!गतं निवर्तते,समुद्यमात्रमिदं कलेवरम् ॥१॥" ततः स्वधर्मप्राग्भावहेतुत्वात् क्रियां सत्प्रवृत्ति कुर्यात् । किम प्रभ० प्रा० द्वार | धर्मान्तराये, प्रति० । वैद्योपदेशादीर्थम?,गुणवृश्च गुणाः शानादयः तेषांवृद्धिः तस्यै; गुणप्रोडासार्थ षधपाने, नि० चू० १ उ० । चिकित्सायां, श्राद्धे, शौचे, मिति न ह्यादारादिपञ्चदशसंझानिमित्तम्। पुनः अस्त्रलनाय भ प्रयोगे च । बाच! प्रतिपाताय क्रियारहितः साधकत्ये अवस्थातुमसक्तः, यतो किरियाकप्प-क्रियाकल्प-पुं०॥क्रियायां चिकित्सायां कल्पो विबायस्य चापल्यं, तच्च क्रियावतः सक्रियादियुक्त प्रतिपाताय धिः । अथातः क्रियाकल्पं व्यास्यास्याम इत्युपक्रम्य सुश्रुतोके न भवति। अन्यथा च अनादिप्रवृत्तिप्रवृत्तः सन् स्खलनाय भव- उत्तरतन्त्रे अष्टाध्यायप्रतिपाये क्रियानेदे, वाचः । स चव. ति, क्रिक्या उत्तरासरस्थानारोहणं च श्रूयते भागमे । तथा च- शमः स्त्रीकनाजेदः । कल्प०७ कण। पकमप्रतिपाति संयमस्थानं, जिनानां कायिकशानं, चारित्रवतां | किरियाकय-क्रियाकृत-त्रिका क्रियोद्यमविहिते, अट०३२ पकं पूर्णस्वरूपैकत्वम्पं स्थानमवतिष्ठते नान्यस्य । अतः साधकेनानिनवगुणवृद्धद्यय क्रिया करणीया । प्रत एच वनं निवसन्ति किरियाकिरिया-क्रियाक्रिया-स्त्री० । द्वि०प०बन्द्रः । क्रिया निर्ग्रन्थाः, चैत्ययात्राद्यर्थ गच्छन्ति, नन्दीस्वरादिषु कायोत्सर्ग- | शब्दार्थयोः,सूत्र०ा "पुढो य दाइह माणवाओ,किरियाकिरी यन्ति, सरीरमाकुश्चन्ति, विग्रहं वीरासनेन संलेखयन्त्यनशनो- च पुढो य वायं । जायस्स बालस्स पकुव्व देह,पवती बेरमसंस्सुका गृह्णन्ति परिहारविशुकिजिनकल्पाद्यभिग्रहन्यहम्। । जतस्स" सूत्र०१श्रु०१० अ०। (पतास्या समाहि'शब्दे वक्ष्यत) अथ विद्याद्यनुष्ठानदूषिता सानुष्ठाना हि क्रिया जवहेतुरेव, किरियाकसल-क्रियाकशल-त्रि० । सदनुष्ठानकुशले, सूत्र०२ तेन रहिता या क्रिया साधनहेतुः सा एव । माह श्रु०४ अ०। बचोऽनुष्ठानतोऽतक्रिया सङ्गतिमङ्गति। किरियाचरण-क्रियाचरण-पुंगक्रियामात्रस्यैव प्राणातिपातादेर्जीसा एव"................................... | | वैः क्रियमाणस्य दर्शनात तकेतुकर्मणश्चादर्शनात क्रियदाचरण पचोऽनुष्ठानत इति।वचनमर्हदाझा,तदनुयायि क्रिया धर्महेतुः। कर्म यस्य स क्रियाचरणः। व्यापारमात्रकोपते, "किरियाचर. यतः"प्रशान्तचित्तेन गभीरभावे-नेवारता सा सफला क्रिया च।। णे जीवे" क्रियाचरणः,कोऽसी?, जीव,श्त्यवएम्जपरं यद् विभ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरियाचरण अभिधानराजेन्सः । किरियाहाण ऊं ततृतीयम् । तृतीयो विभङ्गकानभेदः । विजनता चास्य कर्म- तद्यथा-धर्मे चैवाध चैव । इदमुक्तं नवति-धर्मस्थानमधर्मयोऽदर्शनेनानभ्युपगमात् । स्था०७ ग० । स्थानं च। यदि वा धर्मादनषेतं धर्म, विपरीतमधर्मम् । कारणकिरियाजोग-क्रियायोग-पु० क्रियैव योगो योगोपायः।योगे,"तपः- शुद्ध्या च कार्यशुद्धिर्भवतीत्याह-उपशान्तं यत्तमस्थानम, श्रस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः" इति पातअल्युक्ते योगो नुपशान्तं वाऽधर्मस्थानम् । तत्रोपशान्ते उपशमप्रधाने धर्मस्था नेऽधर्मस्थाने वा केचन महासत्त्वाः समासन्नोत्तरशुभादयो बपादभूते क्रियाभेदे,वाचासदाचारे च।द्वा०१४द्वा०क्रियासं तन्ते , परे च तद्विपर्यस्ते विपर्यस्तमतयः संसारानिध्वनिोऽबन्धे, वाचा धोऽधोगतयो वर्तन्ते।ह च यद्यप्यनादिजवाज्यासादिन्छियानुकिरियावाण-क्रियास्थान-ना करणं क्रिया, कर्मबन्धनिबन्ध कूलतया प्रायशः पूर्वमधर्मप्रवृत्तो भवति,पश्चात्सपदेशयोग्यानाचेत्यर्थः। तस्याः स्थानानि नेदाः पर्याया। निषिरकरणादिषु ऽऽचार्यसंसर्गाद्धर्मस्थाने प्रवर्तते, तथाऽप्यतित्वात्पूर्व धर्मप्रकारेषु, पाव.४अ । स० । तत्प्रतिपादक सूत्रकृताङ्गस्य स्थानमुपशमस्थानं च प्रदर्शितं, पश्चात्तद्विपर्यस्तमिति ॥१॥ द्वितीयश्रुतस्कन्धस्व द्वितीयेऽध्ययने, सूत्र। सांप्रतं तु यत्र प्राणिनामनुपदेशः स्वपरप्रवृत्त्यादावेषं स्थान तन्निरुक्तिश्चैवम् भवति तदधिकृत्याहकिरियाप्रो नणियाओ, किरियागणं तितेण अज्कयणं। । तत्थ णं जे से पढमस्स गणस्स अहम्मपक्खस्स विअहिगारा पुण जणिओ,बंधे तह मोक्खमग्गेय१५७।सूत्र०नि०। | नंगे तस्स णं अयमढे पप्पत्ते । इह खल पाईणं वा संते"किरियाओ" इत्यादि। तत्र क्रियन्त इति क्रियाः,ताश्च कर्मब गतिया मस्सा भवंति। तं जहा-आरिया वेगे अणारिया न्धकारणत्वेनावश्यकान्तचर्तिनि प्रतिक्रमणाध्ययने, "परिकमामितेरसहि किरियाठाणेहिं ति" अस्मिन् सूत्रेऽभिहिताः। यदि वेमे उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे कायमंता वेगे हस्समंवा ऐहिकक्रिया जणिता अनिहितास्तेनेदमध्ययनं क्रियास्थान- ता वेगे सुवन्ना वेगे दुवन्ना वेगे सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे ॥१॥ मित्युच्यते । तश्च क्रियास्थानं क्रियावत्स्वेव भवति, नाक्रियाब- तेसिं च णं इमं एतारूवं दंमसमादाणं संपेहाए। तं जहाणेत्सु । क्रियावन्तश्च केचिद्वध्यन्ते केचिन्मुच्यन्ते अतोऽध्ययना रएमु वा तिरिक्खजोणिएसु वा मणुस्से था देवेमु वा ाधिकारः पुनरनिहितः--'बन्धे तथा मोक्षमार्गे चेति' । जे यावन्ने तहप्पगारा पाणा विन्नू वेयणं वेयंति ॥३॥ (क्रियायाः स्थानस्य च स्वस्थाने निक्केपः) इह पुनर्यया क्रियया येन च स्थानेनाधिकारस्तहर्शयितुमाह- तत्रेति वाक्योपन्वासार्थे, णमिति वाक्यालङ्कारे, योऽसौ प्रसमुदाणियाणिह तो, समं पनत्ते य जावगणम्मि । थमानुष्ठेयतया प्रथमस्याधर्मपतस्य स्थानस्य विविधो भङ्गो विकिरियाहि पुरिसपावा-उए उसव्वे परीक्खेय १६शसूत्रन। चारस्तस्यायमर्थ इति । इहास्मिन् जगति प्राच्यादिषु दिक्षु मध्ये"समुदाणीत्यादि" | क्रियाणां मध्ये समुदानिका क्रिया व्या ऽन्यतरस्यां दिशि सन्ति विद्यन्ते एके केचन मयुष्याःपुरुषास्ते चैख्याता, तस्याश्च कषायानुगतत्वात् बहवो भेदा यतः, ततस्ता वंभूता भवन्तीत्याह । तद्यथा-आराद्याताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यासां समुदानिकानां क्रियाणामिह प्रकारे (तो त्ति) अधिका र्याः । तद्विपरीताश्वाऽनार्याः, एके केचन भवन्ति याबद्दुरूपाः, रो व्यापारः सम्यकप्रयुक्ते च भावस्थाने, तश्चेह विरतिरूपं सुरूपाश्चेति।तेषांचाऽऽर्यादीनामिदं वक्ष्यमाणमेतद्वपम् । दएकसंयमस्थानं प्रशस्तनावसंधानरूपं च गृह्यते । सम्यक्प्रयुक्तभा यतीति दएमः,पापोपादानसंकल्पः, तस्य समादानं ग्रहणं [संपे. वस्थानग्रहणसामर्थ्यादैर्यापथिकी क्रियाऽपि गृह्यते । समुदा हाए त्ति संप्रेक्ष्य । तचतुर्गतिकानामन्यतमस्य प्रवतीति दर्शयनिकक्रियाग्रहणाचाप्रशस्तभावस्थानान्यपि गृहीतानि । आनिश्च ति-"तं जहेत्यादि" तद्यथा-नारकादिषु ये चान्ये तथाप्रकारास्त. द्वेदवर्तिनः सुवर्णवर्णादयः प्राणाः प्राणिनो विद्वांसो वेदनां पूर्वोक्तानिः क्रियाभिः पूर्वोक्तान् पुरुषान् तदूद्वारायातन्प्रावादुकांच परीकते सर्वानपीति । यथा चैवं तथा स्वत एव सूत्र शानं तवेदयन्त्यनुजवन्ति । यदि वा सातासातरूपां वेदनामनु भवन्तीत्यत्र चत्वारो भङ्गाः । तद्यथा-संझिनो वेदनामनुजवकार:-"तं जहा से एगश्या मणुस्सा जबति" इत्यादि।तथा प्रा. न्ति विदन्ति च १, सिहास्तु विदन्ति नानुभवन्ति २, असंशिवादुकपरीक्वायामपि-" णायउ नगरणं च विप्प जहा भि नोऽनुभवन्ति न पुनर्विदन्ति ३, अजीवास्तु न विदन्ति नाप्यक्यायरियाए समुट्ठिया" इत्यादिना वक्ष्यतीति ।गतो नि नुभवन्तीति । र्युक्त्यनुगमः । सूत्र। वह पुनः प्रथमतृतीयाभ्यामधिकारो, द्वितीयचतुर्थाववस्तुसाम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यम, नृतावितितवेदम् तेसिं पिय णं इमाई तेरस किरियाठाणाई भवंतीति म. सुयं मे पाउसंतेणं भगवया एवमक्खायं इह खल्लु किरियाहाणे णामज्झयणे पससे। तस्स णं अयमढे। इह खलु क्खायं । तं जहा-अट्ठादमे अणट्ठादमे हिंसादंडे अकम्मादसंजहणं दुवे हाणे एवमाहिति । तं जहा-धम्मे चेव, मे दिट्ठीविपरियासियादंडे मोसवत्तिए अदिनादाणवत्तिए अधम्मे चेव, उपसंते चेव, अणुवसंते चेव ॥ १ ॥ अत्यवत्तिए माणवत्तिए मित्तदोसवत्तिए मायावत्तिए "सुयं मे पाउसंतेणमित्यादि"। सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमु- लोनवचिए इरियावहिए ॥४॥ दिश्येवमाह-तद्यथा, श्रुतं मयाऽऽयुप्मता भगवतैवमाख्यातम् ।। तेषां च नारकतिर्यामनुष्यदेवानां तथाविधज्ञानवतामिमाइह समु क्रियास्थानं मामाभ्ययनम् । तस्य चायमर्थः-(इह | नि वक्ष्यमाणलक्षणानि त्रयोदश क्रियास्थानानि भवन्तीत्येवमाखलु संबूडेसं ति)सामान्येन संक्षेपेण समासतो स्थाने - ख्यातं तीर्थकरगणधरादिनिरिति । कानि पुनस्तानीति - वतः। ये क्रियावन्तस्ते सर्वेऽप्यनयोः स्थानयोरेवमास्यायन्ते।। शयितुमाह-[ तं जइत्यादि] सराथेत्ययमुदाहरणवाक्योपन्या १३६ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५४ ) अभिधानराजेन्द्रः । किरियाद्वा सार्थः मात्मार्थाय स्वप्रयोजनकृते दरमोद पापोपादानमथानर्थद्रड इति निष्प्रयोजनमेवाकियाष्ठामनः २ तथा हिंसनं हिंसा प्राण्युपमरूपा तथा सेव वा द एमो हिंसादएकः ३। तथाऽकस्मादनुपयुक्तस्य दएमो ऽकस्माइएकः, अन्यस्य क्रिययाऽन्यस्य व्यापादनमिति ४। तथा दृष्टेर्विपर्यासो रज्जुमिव सर्पबुकिस्तया दण्डो दृष्टिविपर्यासोऽबुद्धिदमः । तद्यथा-ले टुकादिबुद्ध्या शराद्यनिघातेन चटकादिव्यापादनम् ५। तथा मृषावादत्यधिक स च सनिवासनारोपण ६। तथा प्रदत्तस्य परकीयस्याऽऽदानं स्वीकरणमदत्तादानं स्तेयं तत्प्रत्ययिको दण्ड इति 9 । तथा श्रात्मन्यध्यध्यात्म, तत्र भव श्राद्ध्यात्मिको दरमः। तद्यथा-निर्निमित्तमेव दुर्मना उपहतमनःसंकल्प हृदयेन हियमाणश्चिन्ता सागरावगाढः संतिष्ठते त था जात्याद्यष्टमद स्थानोपहतमनाः परावमदर्शी तस्य मानप्रथिको डोजयति तथापेन दोषो मित्रदोषस्तरप्रत्थधिको दण्मो भवति १० तथा माया परच यादो मायाप्रत्यधिकः ११ तथा भत्यधिक निम दम इति १२ तथा एवं पञ्चभिः समितिनिः समितस्य तिम्र निर्गुप्तिनिर्गुप्तस्य सर्वोपयुक्तस्यैर्याप्रत्ययिकः सामान्येन कर्मबन्धो नवति १३ । एतच्च त्रयोदशं क्रियास्थानमिति । सूत्र० ५ श्रु० २ अ० | स० । प्रश्न० ( अर्थद एमादीनां व्याख्यासूत्रायर्थदण्डादिशानि एतानि त्रयोदशक्रियास्थानानि न भगवद्वर्धमानस्वामिनैयानि अपि त्वन्यैरपीत्येततुमाह से मजे यतीता जेय पडुप्पन्ना जे य आगमिस्सा अरिहंता भगवंता सब्बे ते एयाई चैव तेरस फिरियाठाणार नासिसु वा जाति वा जासिस्संति वा पन्नविंसु वा पन्नविंति वा पद्मविस्संति वा एवं चैव तेरसमं किरियाठाणं सेविंसु वा सेति वा विस्संति वा ॥२४॥ ( सेमीत्यादि ) सोऽहं प्रमीति याद्वा भीति । तद्यथा - ये तेऽतिक्रान्ता ऋषभादयस्तीर्थकृतो, ये च वर्त्तमानाः क्षेत्रान्तरे सीमंधरस्वामिमनृतयो, ये चाssगामिनः पादयोऽहंन्तो भगवन्तः सर्वेऽपि ते पूपकान्येतानि त्रयोदश क्रियास्थानाम्यभाषन्त भाषते भाषिच्यन्ते च । तथा तत्स्वरूपतस्तद्विपाकतश्च प्ररूपितवन्तः प्ररूपयन्ति प्ररूपयिष्यन्ति च । तथैतदेव त्रयोदशं क्रियास्थानं सेवितवन्तः सेवन्ते सेविध्यन्ते तथाहि जयं तुल्यप्रकाशं भवति । यथा वा सदृशोपकरणाः प्रदीपास्तुल्यप्रकाशा भवन्त्येवं तीर्थकृतोऽपि निरावरणत्वात् कालत्रयवर्तिनोsपि तुल्योपदेशा भवन्ति ॥ २४ ॥ सूत्र० २ श्रु०२ श्र० । श्राव० । श्र० चू० । ध० । किरियाणय- क्रियानय-पुं० किदेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफसमाप्तिकारणं युक्तियुक्तत्वादित्यभ्युपगमपरे नयविशेषे दश० । क्रियानयदर्शनं चेदम-कियैवाहिकामुष्मिक फलप्राप्तिकारणं युक्तियुक्तत्वात् । तथा चायमप्युक्तवकणामेव स्वपक्षसि कये गाथामाद णायम्मि गिरिहयव्वे, प्रगिरिहयव्वम्मि चैव श्रत्थमि। जयव्वमेव इइ जो, उवएसोसो नओ नामं ॥ १५५ ॥ दश० १ अ० । किरियागय तत्र क्रियानयो यति तेऽशु गृहीतव्यादिकेऽथै सर्वामपि पुरुषार्थसिमिनिलपता यतितव्यमिति प्रवृत्यादिदिल कसा क्रियैव कर्त्तव्येत्येवम् । अत्र व्याक्याने एवकारः स्वस्थाने एव योज्यते । एवं च सति ज्ञातेऽप्यथे क्रियैव साध्या । ततो ज्ञानं क्रियोपकरणत्वा कौणमित्यतः सकलस्यापि पुरुषार्थस्य क्रियैव प्रधानं कारणमित्ययमुपदेशः। स नयप्रस्तावात् कि यानयः । शेषं पूर्ववत् । श्रयमपि स्वपक्वसिद्धये युक्ती रुद्भावयतिन क्रियेव प्रधानं पुरुषार्थसिद्धिकारणं प्रयत्वादिक्रियालक विरहेण नतोयभिलषितार्थसंप्रत्यदर्शनात् । तथा चान्येरप्युक्तम्- "क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत् ॥१॥ " तथा आगमेऽपि तीर्थकरमणधरैः क्रियाविकलानां ज्ञानं निष्फलमेवोकम्"ब पि सुमही, किं काही धरणविष्यमुक्कस्स । अंधस्स जह पनित्ता, दीवसयसहस्सकोमी वि । नाणं सविसयनिययं, न नायमेसेष कज्जनिप्फची ॥ मान्नूदितो हो सो अव जाणतो वि य तरिचं, काइयजोगं न जुजई जो उ । सो बुज्झर सोपणं, एवं नाणी चरणड़ीणो" ॥ " जहा बरो दणनारवादी " इत्यादि । एवं कोपशामक वरणक्रियामङ्गीकृत्य प्राधान्यमुक्तम् । अथ क्षायिकीमप्याश्रित्य तस्या एव प्राधान्यमवसेयम् । यस्मादर्दतोऽपि भगवतः समुत्यप्रकेवलज्ञानस्यापि न तावन्मुक्त्तसंप से, यावदखिन्नान ज्यालाक आपकल्पा वेश्यवस्थायां सर्वसंवररूपवारित्रमा कियेच प्रधानं सर्वपुरुषार्थसिकिकारणम् । प्रयोगश्चात्र- यद्यत्समनन्तरप्राबि तत्कारणं यथाऽन्त्यावस्थाप्राप्तपृथिव्यादिसामध्यनन्तरजावी तत्कारोरा कियान्तरभाविनी सकलपुरुषार्थसिद्धिरिति । शतशेष चतुर्विधसामायिके सर्वदेशाविरतिसामायिके एमन्यते । क्रियारूपत्वेन प्रधानमुक्तिकारणत्वात् सम्यक्त्व भुतस्य, सामायिकेतुपकारित्वमात्रतो मी विशे० । प्राष० । श्राचा० ग्रा० म० द्वि० । व्य० । पृ० । सूत्र० । नि०चु० । अधुना कियानयाभिप्रायोनिधीयते। तद्यथा--क्रियेव प्रधानमैहिकामुष्यिकयामिकारणं युक्तियुक्तत्वात् यस्मादर्शितेऽपि ज्ञानार्थक्रियासमयेऽर्थे प्रमाता का र्यकारी यदि हानोपादानरूप प्रतिक्रियां न कुर्या तो ज्ञानं विफलतामियातदर्थत्वात् तस्येति " यस्य हि यदर्थे प्रवृत्तिस्ततस्य प्रधानमितरदप्रधानम् " इति म्यायाद संविदा विषयव्यवस्थानस्याप्यर्थ कियार्थत्वात् कियाबा प्राधान्यमन्वयव्यतिरेकावपि क्रियायां समुपलभ्येते । यतः सस्वकृचिकित्साविधिशोऽपि यथा पच्योषधाचापि प्रयोगकियारात नाचतामेति तथा चोकमू"शाखाचीत्यापि भवन्ति सू यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । संचिन्त्यतामातुरमौषधं हि न ज्ञानमात्रेण करोत्यरोगम् " । 3 तथा "क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः गले नहानात्युचितो भवेत् इत्यादि पक्रियायुध यथानिमित्यपि कुरा इति चेतन Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५५) किरियाणय अभिधानराजेन्द्रः। किरियावाइ (ग्) हिरटेऽनुपपन्नं नाम, न च सकललोकप्रत्यक्नसिके अर्थे अन्यत्प्र- स्वपरभेदाभ्यां नित्यानित्यविकल्पवयेन च कालनियतिस्वमाणान्तरंमृग्यत इति । तथाऽऽमुमिकफमप्राप्स्यर्थिनाऽपितपश्च- भावेश्वरात्माश्रयणादशीत्युत्तरं भेदशतं भवति क्रियावादिरणादिका क्रियैव कर्तव्या,मानीन्छप्रवचनमप्येवमेव व्यवस्थि- नाम, पते चास्तित्ववादिनोऽभिधीयन्ते । श्यमत्र प्राधनातम् । यत उक्तम्-"चेश्यकुलगणसंघे,पायरियाणं च पबयणसुए अस्ति जीवः स्वतो नित्यःकालतः १, अस्ति जीवः स्वतोऽव । सव्वेसु वि तेण कयं, तवसंजमसुज्जमंतेण"॥१॥ इतश्चैतदे- नित्यः कालतः२, अस्ति जीवः परतो नित्यः कालतः३, मस्ति वमङ्गीकर्तव्यम् यतस्तीर्थकदादिभिः क्रियारहितं ज्ञानमप्य- जीवः परतोऽनित्यः कालतः ४ श्त्येवं नित्येन कालेन चत्वारोनेफलमुक्तम् । उकंच-'सुबहुं पि सुमधीतं, कि काही चरण- दा लब्धाः। एवं नियतिस्वनावश्वरात्मभिरप्येकैकेन बत्वारबविप्पहुणस्स । अंधस्स जहपसित्ता, दीवसतसहस्सकोडी वि।" त्वारो विकल्पा लन्यन्ते। पते च पञ्च चतुष्कका विशतिर्भवति। रशिक्रियापूर्वकक्रियाविकतत्वात्तस्यति भावः। न केवलं कायो. श्यं च जीवपदार्थेन लब्धा । एवमजीवादयोऽप्यष्टौ प्रत्येकं विंशपशमिकाद्शानात क्रिया प्रधाना,किन्तु कायिकादपि यतः सत्य- तिनेदाश्च । ततश्च नवविंशतयः शतमशीत्युत्तरं भवति पिजीवाद्यखिलवस्तुपरिच्छेदके शाने समुसिते न व्युपरत- (१८०)। तत्र स्वत इति स्वेनैव रूपेण जीवोऽस्ति न परोपाध्यपेक्रियानिवर्तिध्यानक्रियामन्तरेण भवधारणीयकर्मोच्छेदः । तद- कया हस्वत्वदीर्घत्वे श्व, नित्यः शाश्वतो न क्वणिकः, पूर्वोत्तरच्छेदावन मोक्कम, चारित्रतो न ज्ञानं प्रधानम, चरणक्रियायां कालयोरवस्थितत्वात्, कालत इति काल एव विश्वस्य शिस्युपुनदिकामुणिकफलावाप्तिरित्यत्तः सैव प्रधानभावमनुभव- पत्तिप्रलयकारणम् । उकंच-"कालः पचति भूतानि, कालःसंतीति । प्राचा० १७०९०४ ००। हरते प्रजाः।कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि पुरतिक्रमः॥१॥" किरियाणास-क्रियानाश-पुं० । स्वाचारमंशे, विटचेष्टायां च। सचातीन्द्रियो युगपचिरविप्तक्रियाभिव्वापो हिमोष्णवर्षाव्य. "साहूपमणषुषामो, किरियाणासो उ उववाए " पम्चा | वस्थाहेतुः क्षणलवमुहूर्तयामाहोरात्रपकमासर्वयनसंवत्सरयुग७विव०। कल्पपल्योपमसारोपमोत्सर्पिण्यवसर्पिणीपुभलपरावर्तातीता नागतवर्तमानसीद्धादिव्यवहाररूपः। द्वितीयधिकल्पेतु कामाकिरिया (य) रय-क्रियारत-त्रि० मिक्काशुद्ध्यप्रतिकर्मताप्रान्तो देवात्मनोऽस्तित्वमभ्युपेयम,किन्त्वनित्योऽसाविति विशेषोऽयपधितायापनामासक्षपणाधनुष्ठानविरते, पञ्चा० ११ विष०।। म्,पूर्वविकल्पात् । तृतीयविकल्पे तु परत एवास्तित्वमभ्युपगम्यकिरियारुइ-क्रियारूचि-स्त्री०। । कर्म० सादर्शनशानचा- ते, कथं पुनः परतोऽस्तित्वमात्मनोऽभ्युपेयते,मन्धेतत्प्रसिदमेव रित्रतपोविनयाधनुष्ठानविषयिण्यां रुची, सम्बकरवभेदे, ध०२ सर्वपदार्थानां परपदार्थस्वरूपापेक्षया स्वरूपपरिच्छेदः, यथा माधि। क्रिया सम्यकसंयमानुष्ठानम, तत्र रुचिर्यस्य स क्रि दीर्घत्वापेकया इस्वत्वपरिच्छेदः, इस्वत्वापक्षया च दीर्घत्वस्येयाांचेः । दर्शनार्थभेदे, प्रका। त्येवमेव वाऽनात्मानम, स्तम्भकुम्जादिसमीक्षातस्तद् व्यतिरिक्त क्रियारुचिमाह वस्तुन्यात्मानं बुद्धिःप्रवर्तत इति। अतो यदात्मनःस्वरूपं तत्पदंसनाणचरित्ते, तबविणए सव्वसमिइगुनीसु । रत पवावधार्यते, न स्वत इति।चतुर्थविकल्पोऽपि प्राग्वदिति चत्वारो विकल्पाः। तथाऽन्ये नियतिरेवात्मनः स्वरूपमवधारबजो किरिया-नावरुई, सो खलु किरियाई नाम ॥ न्ति। का पुनरियं नियतिरिति सच्यते-पदार्थानामवश्यंतवा यदर्शनं च ज्ञानं च चारित्रं च दर्शनशानचारित्रम्। समाहारे द्यथानवने प्रयोजककी नियतिः। उकं च-"प्राप्तव्यो नियतिवद्वन्द्वः, तस्मिन् । तथा तपसि विनवे च, तथा सर्वासु समिति लाश्रयेण योऽर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुनो वा। जूतानां पुर्यासमित्यादिषु, सर्वासु च गुप्तिषु मनोगुप्तिप्रभृतिषु यः महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभाव्यं भवतिन नाविनोऽस्ति मा. क्रियानावरूचिः । किमुक्तं प्रवति? यस्य जावतो दर्शनाद्याचारा- शः॥१॥" श्यं च मस्करिपरिब्राजकानुसारिणां प्राय इति।भपरे नुष्ठाने रुचिरस्ति, सहलु क्रियारुचिर्नाम । प्रशा०१ पद । उत्त। पुनः स्वजावादेव संसारव्यवस्थामभ्युपयन्तिा का पुनरयं स्वमाकिरियावंत-क्रियावत्-त्रि० । क्रियाऽस्त्यस्य मतुप, मस्य वः। वः। वस्तुनः स्वत एव तथापरिणतिनावः स्वन्नाषः। उकंवक्रियाविशिष्टे, क्रियानिरते, “यः क्रियावान् स पण्डितः" कि "कः कण्टकानां प्रकरोति तैदाय, विचित्रभावं मृगपक्षिणांच। याश्रये कर्तरि च । वाच० । जिनकल्पादितुल्यक्रियाऽभ्या स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्त, न कामचारोऽस्ति कुतःप्रयत्नः ।। सिनि, अष्ट०११ अष्ट। स्वभावतः प्रवृत्तानां, निवृत्तानां स्वभावतः । किरियावास (ए)-क्रियावादिन-पुं० । क्रियां जीवाजीवा नाहं कर्तेति भूतानां, यः पश्यति स पश्यति ।। दिरोंऽस्तीत्येवं रूपां वदन्ति इति क्रियावादिनः। आस्तिकषु, केनाजितानि नयनानि मृगाङ्गन्नानां, स्था•४ वा०४० सुत्राराक्रियैव परलोकसाधना- कोऽलङकरोति रुचिराङ्गरूहान् मयूरान् । याखमित्येवं वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः । दोकान एष कश्चोत्पलेषु दलसनिचयं करोति, क्रियारूपाया मोह इत्येवमन्युपगमपरेषु, सूत्र १ श्रु०६०। को वा दधीत विनयं कुलजेष पुसु॥" कानादिरहितां क्रियामेकामेव स्वर्गापवर्गसाधनत्वेन वदितुं | तथाऽन्येऽजिवधते-समस्तमेज्जीवादि ईश्वरात्प्रसूतम, - शीलवत्सु, सूत्र०२ श्रु० ३ मा कियामात्मसमवायिनी बद- स्मादेव स्वरूपेऽवतिष्ठते । कः पुनरयमीश्वरः१, मणिमाकन्ति तच्छीलाव, न कर्तारमन्तरेण क्रिया पुण्यबन्धादिलक- र्ययोगादीश्वरः। उकंच-"मझो जन्तुरनीशः स्या-दात्मनः णा संभवति तत एवं परिवायताम् । क्रियात्मसमवायिनी. सुखदुःखयो। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत, श्वनं चा स्वर्गमेव वा ॥१॥ त्यभ्युपगमपरेषु, नं० । ध० । तेषां च १८० भेदार-" असि- तथाऽन्ये प्रवते-म जीवादयः पदार्थाः कालादिज्यः स्वरूप यसयं किरियाणं" सूत्र १ भु० ११ । तत्र जीवा- प्रतिपद्यन्ते, किं तात्मनः । कः पुनरयमात्मा, प्रात्माऽबैतजीवाश्रबन्धपुण्यपापसंवरनिर्जरामोक्षाच्या नव पदार्थाः ।। बादिनां विश्वपरिणतिरूप आत्मा । उकंच-"एक पर हि भूता Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) अभिधान राजेन्द्रः । किरियावाइ (ण) स्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैष दृश्यते ब" ॥१॥ तथा-" पुरुष एवेदं सर्वे यद् भूतं यच्च भाव्यम्,” इत्यादि । पवमस्त्यजीवः स्वतः नित्यः कालत इत्येवं सर्वत्र योज्यम् । चाचा० १ ० १ ० १ उ० । आव० । सुत्र० । सम्मदिट्ठी किरिया - वादी सेसा य मिच्छगाबाई | जणि मिच्छवार्य सेवह वार्य इमं सर्व २३॥ सूत्र० नि० । ननु च किवावाद्यप्यशीत्युत्तरशतभेदो भवति तत्र तत्र प्रदे कालादर्शनज्युपगच्छमेव मिथ्यावादित्वेनोपन्यस्तः, तत्कयाम सम्बन्दनियत इति च्यते स तत्रास्त्येव जीव इत्येवंसावधारणतयाऽभ्युपगमं कुर्वन् काल एवैकः सर्वस्यास्य जगतः कारणम्, तथा स्वभाव एव, नियतिरेव, पूर्वकृतमेव, पुरुकार एवेत्येवमपरनिरपेक्षतयैकान्सेन कालादीनां कारणत्वे नाश्रवणान्मिथ्यात्वम् तथाहि-त्व जीव इत्येवमस्तिना सह जीवस्य सामानाधिकरण्यात्। यद्यदस्ति तसीच इति प्रा सम, तो निरयधारणपसमाश्रवणादि सम्यक्त्यमनिदितम्। तथा कालादीनामपि समुदितानां परस्परखन्यपेक्षाणां कारणस्वेनेहाभययात्सम्यक्त्वमिति । ननु च कथं कालादीनां प्रत्येकं निरपेक्षाणां मिध्यात्वस्वभावाचे सति समुदितानां सम्यते न्द्राषः । न हि यत्प्रत्येकं नास्ति तत्समुदायेऽपि प्रमितुमर्हति । फिलवन्तस्ति प्रत्येकं प्रत्येक पद्मरागादिमणिष्य विद्यमानाऽपि रायली समुदाये भवन्ती दृष्टान चरनुपप नामेति यत्किश्चिदेत्तत् । तथा चोक्तम्“कालो सहाव पियई, पुल्वकयं पुरिसकार उणेगता । मिच्छत्तं, ते चेब उ, समासश्रो होति सम्मत्तं ॥ १ ॥ सन्वे वियकालाइ समुदायेण साहगा प्रणिया । जुज्जन्ति य एमेव य, सम्मं सव्वस्स कजस्स ॥ २ ॥ न हि कालादीहितो, केवलपदि तु जायए किंचि । छह मुग्गरंधणादि वि, ता सव्वे समुदिता हेऊ ॥ ३ ॥ जह गणगुणा, बेरुलियादी मणी वि संजुत्ता । रयणावली व एसं, ण नहंति महग्घमुला वि ॥ ४ ॥ तह विवादसुविणि-छिया विपखनिरवेषखा। सम्मइंसणस, सव्वे वि णया ण पाविति ॥ ५ ॥ जद पुरा ते चेव मणी, जहा गुणविसेसप्रागपरिबद्धा । रणनिति भएर पति पादिसपाओ ॥ ६ ॥ तह सन्वे जयवाया, जहापुरुवविणिउत्सबत्तव्वा । सम्महंसणस, समंतिन विलेा ॥ ७ ॥ तम्हा मिच्छदिठी, सव्वे वि या सपक्वपरिबका । पोपनिस्सिया पुण, इवंति सम्मत्तसम्भावा ॥ ८ ॥ " यत एवं तस्मात् त्यक्त्वा मिथ्यात्ववादं कालादिप्रत्येकैकान्तकार रूपं, सेवध्वमङ्गीकुरुध्वं सम्यग्वादं परस्परसव्यपेकं कालादिकारणरूपमिममिति मयोक्तं प्रत्यक्ज्ञावसन्नं सत्यमवितथमिति । सूत्र० १ ० १२ श्र० । नि० । सम्यक्त्वमिथ्यात्वस्यानयोरुक्तम्, एवंप्रकारं क्रियावादतदित किरियाबाद (यू) कामविनययादिषु च मिथ्यात्योतिः " सेसा व मिच्गाबाई" इत्यादि न दुष्यति न दोषावहा नवति फलतः इत्थं विभागाभिप्राप्त्या विरोधाज्जात्या चान्यत्र सर्वतौल्योक्तेरुपपतेः ॥१२७॥ क्रियावादस्व सम्यक्त्वरूपतामेष युक्त्यन्तरेण यतिक्रियायां पक्षपातो हि पुंसां मार्गाचिमुख्यकृत् । अन्त्यपुद्गलभावित्वादन्यज्यस्तस्य मुख्यता ॥ १२८ ॥ (क्रियायामिति ) क्रियायां पक्षपाती मोहेच्याऽऽवेशो हि पुंसां मार्गभिमुस्यकृत मार्गानुसारितः स्थैर्याधायको प्रवति । तेनान्त्यपुत्रभावित्वाचा रमपुल परावर्त्तमात्र संभवत्यादन्येभ्योऽक्रियावादादिभ्यस्तस्य क्रियावादस्य मुख्यता । तदुक्तं दशा" जो प्रकिरियाबाई सो प्रविधो अभविश्रो वा काइप का जो किरियावा सो लियमा मयि विमा सुपात्रो अंतोपुलपरिअक्स सिझ" इत्यादि । नयो० । वादेष्वतिदिशन्नाह इत्यमेव क्रियावादे, सम्यक्त्वोक्तिर्न दुष्यति । मिध्यात्वोक्तिस्तथाऽङ्गाना- क्रियाविनयवादिषु ॥ १२७ ॥ (मेयेति) इत्थमेव मार्गप्रवेशत्यागा ज्यामेव क्रियाबारे स म्यक्त्वोति सम्म दिदी किरियाबाई' इत्यादिला, अक्रिया दीक्षात एव मोकवादिनां मतं दुदूषयिषुस्तन्मतमाविष्कुर्वन्नाह - स लोगं व्हा (गया) वहा समणा मारला व । एवमति । सर्वकर्म णमकर्म पक्खं विज्जाचरणं व मोक्खं |११| ये किया एवं ज्ञाननिरपेक्षायादीकालिया मोमच्छन्ति, ते एवमायान्ति । तद्यथा अस्ति माता पिता, अस्ति सुचीर्णस्य कर्मणः फलमिति । किं कृत्वा त एवं कथयन्ति ?क्रियात एव सर्व सिध्यतीति स्वाभिप्रायेण लोकं स्थावरजङ्गमात्मकं समेत्य ज्ञात्वा किल वयं यथावस्थितवस्तुनो ज्ञातार इत्येवमभ्युपगम्य सर्वमत्येवेत्येवं सावधारणं प्रतिपादयन्ति न कथञ्चिन्नास्तीति कथमाख्यान्ति ? । तथा तेन प्रकारण यथा यथा क्रिया तथा तथा स्वर्गनरकादिकं फलमिति । ते च श्रमणास्तीर्थिका ब्राह्मणा वा क्रियात एव सिद्धिमिच्छन्ति । कि त किमपि संसारे दुःखं तथा सुखं च तत्सर्व स्वयमेवात्मना कृतं नान्येन कालेश्वरादिना । न चैवक्रियावादे घटते । तत्र हि प्रक्रियात्वादात्मनो ऽकृतयोरेव सुखदुःखयोः संभवः स्यात्, एवं च कृतनाशाकृतागमौ स्याताम् १ । अत्रोच्यतेसत्यम्, अस्त्यात्मसुखदुःखादिकम, न त्वस्त्येव । तथाहि यद्यस्त्येवं सावधारणमुच्येत, ततश्च न कथञ्चिन्नास्तीत्यापन्नम्, एवं च सति सर्वे सर्वात्मकमापद्येत । तथा च सर्वलोकस्य व्यहारोच्छेदः स्यात् । न च ज्ञानरहितायाः क्रियायाः सिद्धिः, तदुपायपरिज्ञानाभावात नवोपायमन्तरेणोपेयमवाप्यत इति प्रशीत सर्वाहि क्रिया ज्ञानवत्येव फलवत्युपलक्ष्यते । उकं च"ज्ञान हानिनां चैव मत्सरे । उपेक्षितैश्व विप्रैश्व, ज्ञाननं कर्म बध्यते " ॥ १ ॥ "पढमं नाणं तत्र दया, एवं चिति सव्वसंजए ॥ " नाणी किं काही, किं वा नाणी ठेयपावयं" ॥ १ ॥ इत्यतो ज्ञानस्यापि प्राधान्यम् । नापि देव सिद्धि:, क्रियारहितस्य पनोरिय कार्यसिद्धेरनुपपत्तिरित्यालोच्याह( आहंसु विजाचरणं य मोक्खं ति ) न ज्ञाननिरपे कायाः क्रियायाः सिकिरन्धस्येव, नापि क्रियाविकलस्य ज्ञानस्य पङ्गोरित्येवमवगम्याडुरुक्तबन्तः, तीर्थ करगणधरादयः Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५७) किरियावाइ (ए) अनिधानराजेन्द्रः। किरियावाइ (ण) किमाहुः ?, मोकम् । कथम्?, विद्या च झानं, चरणं च क्रिया, मानवग्रहणम् । सम्यग्नारकतिर्यङ्नरामरजेदेन प्रगाढाः प्रकर्षेते द्वे अपि विद्येते कारणत्वेन यस्येति विगृह्य " अर्श आदि- ण व्यवस्थिता इति ॥ १२॥ न्योऽच्" ५।२। १२७ । इति [पाणि.] सूत्रेण मत्वर्थीयो- लेशतो जन्तुभेदप्रदर्शनद्वारेण तत्पर्यटनमाहऽन् । असौ विद्याचरणो मोक्तः, झानक्रियासाध्य इत्यर्थः । तमे जे रक्खसा वा जमलोश्या वा, जे वा मुरागंधवा य काया । व साध्यं मोक्ष प्रतिपादयन्ति । यदि वाऽन्यथा वा पातनिकाकैनैतानि समवसरणानि प्रतिपादितानि?, यच्चोक्तं यच्च वक्ष्य आगासगामी य पुढोसिया जे,पुणो पुणो विप्परियासुति।१३॥ ते इत्येतदाशक्क्याह-[ ते एवमक्खतीत्यादि ] अनिरुद्धा क ये केचन व्यन्तरभेदा राक्षसात्मानः; तद्ग्रहणाश्च सर्वेऽपि व्यचिदप्यस्खलिता, प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा ज्ञानं, येषां तीर्थकृतां न्तरा गृह्यन्ते । तथा यमलौकिकात्मनोऽम्बादयः, तमुपलक्षतेऽनिरुरूप्रशास्त पवमनन्तरोक्तया प्रक्रियया सम्यगाख्यान्ति णात्सर्वभवनपतयः, तथा ये च सुराः सौधर्मादिवैमानिकाः। प्रतिपादयन्ति । लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकं,स्थावरजङ्गमाख्यं वा, चशब्दाज्ज्योतिष्काः सूर्यादयः, तथा ये गान्धर्वा विद्याधरा समेत्य केवलज्ञानेन करतलामलकन्यायन शात्वा । तथागता- व्यन्तरविशेषा वा । तद्ग्रहणं च प्राधान्य ख्यापनार्थम । तथा स्तीर्थकरत्वं केवलज्ञानं च गताः श्रमणाः साधवो ब्राह्मणाः कायाः पृथिवीकायादयः षमपि गृह्यन्ते ति । पुनरन्येन प्रकासंयताऽसंयताः, लौकिकी वाचोयुक्तिः । किंभृताम्त एव रेण सत्त्वान्सजिघृक्षुराह-ये केचनाऽऽकाशगामिनः संप्राप्ताकाश माख्यान्तीति संबन्धः । 'तथा तथेति' वा कचित्पाठः। यथा य. गमनब्धयश्चतुबिधदेवनिकायविद्याधरपतिवायवः; तथा ये था समाधिमाा व्यवस्थितस्तथा तथा कथयन्ति । एतच का च पृथिव्याश्रिताः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुःपञ्चन्छिथयन्ति-यथा यत्किञ्चित्संसारान्तर्गतानामसुमतांपुःखमसातो. याः, ते सर्वेऽपि स्वकृतकर्मभिः पुनः पुनर्विविधमनेकप्रकारं दयस्वभावं, तत्प्रतिपक्षनृतं च सातोदयापादितं सुखं, तत्स्वय-| पर्यासं परिवोपमरहट्टघटीन्यायेन परिचमणमुप सामीप्यन मात्मना कृतं, नान्येन कालेश्वरादिना कृतमिति । तथा चोक्तम् यान्ति गच्छन्तीति ॥१३॥ " सम्बो पुवकयाणं कम्माणं पावए फलविवागं । अवराहे किञ्चान्यत्सु गुणेसु य, णिमित्तमेत्तं परो होइ" ॥१॥ पतच्चाहुस्तीर्थकरगणधरादयः । तद्यथा-विद्या झानं, चरणं चारित्रं क्रि जमाहु अोहं सलिलं अपारगं, या, तत्प्रधानो मोक्षस्तमुक्तवन्तः, न ज्ञानक्रियाज्यां परस्परान- जाणाहि णं जवगहणं मोक्खं । रकाभ्यामिति । तथा चोक्तम्-"क्रिया च सज्ञानवियोगनिष्फ- जंसी विसन्ना विसयंगणाहिं, ला, क्रियाविहीना च विबोधसंपत् । निरकताक्लेशसमूह मुहरो विलोयं अणुसंचरंति ॥१४॥ शान्तये, त्वया शिवाया लिखितेच पद्धतिः" ॥१॥ किञ्च यं संसारसागरमाहुरुक्तवन्तस्तीर्थकरगणधरादयः तद्विदः । कथमाहुः-स्वयंभुरमणसलिलौघवदपारम, यथा स्वयंभुरमते चक्ख लोगंसिह णायगा न, मग्गाऽणुसासंति हितं पयाणं। णसलिलौधो न केनचिज्जलचरेण स्थलचरेण वा लयितुं तहातहा सासयमाहुलोए,जंसी पयामाणव संपगाढा।१२। शक्यते, एवमयमपि संसारसागरः सम्यग्दर्शनिनमन्तरेण ब(ते चक्खुलोगसिहेत्यादि) ते तीर्थकरगणधरादयोऽतिश वयितुं न शक्यत शति दर्शयति, जानीहि अवगच्छ, णमिति यज्ञानिनोऽस्मिन् लोके, चक्षुरिव चकुर्वर्तन्ते । यथा हि चक्कु वाक्यालङ्कारे। भवगहनमिदं चतुरशीतियोनिलक्कप्रमाणं ययोग्यदेशावस्थितान् पदार्थान् परिच्चिनत्ति, एवं तेऽपि लो। थासंजचं संख्येयाऽसंख्ययानन्तस्थितिकम् । दुःखेन मुच्यत कस्य यथावस्थितपदार्थाविष्करणं कारयन्ति । यथाऽस्मिन् इति दुर्मोकं दुरुत्तरमस्तिवादिनामपि, किंपुनर्नास्तिकानाम् । लोके ते नायकाः प्रधानाः । तुशब्दो विशेषणे । सदुपदेशदा पुनरपि भवगहनोपनक्कितं संसारमेव विशिनष्टि-यस्मिन् नतो वा नायका इति। एतदाह-मार्ग झानादिकं मोक्तमार्गम,अ यत्र संसारे सावद्यकर्मानुष्ठायिनः कुमार्गपतिता असत्समवसनुशासन्ति कथयन्ति । प्रजायन्त इति प्रजाः प्राणिनः, तेषाम् । रणग्राहिणो विषामा अवसक्ता विषयप्रधाना अङ्गना विषयाजनाकिंभूतम, हित सद्गतिप्रापकमनर्थनिवारकम् । किञ्च-चतु स्ताभिः, यदि वा विषयाश्चाङ्गनाश्च विषयाङ्गनास्ताभिर्वशीकृताः दशरज्वात्मके लोके पञ्चास्तिकायात्मके वा येन प्रकारेण - सर्वत्र सदनुष्ठानेऽवसीदन्ति । त एवं विषयाङ्गनादिके पञ्चके व्यास्तिकनयाभिप्रायेण यद्वस्तु शाश्वतं तत्तथा आहुरुक्तवन्तः। विषम्मा द्विधाऽप्याकाशाश्रितं पृथिव्याश्रितं च लोकम, यदि यदि या लोकोऽयं प्राणिगणः संसारान्तर्वी यथा यथा शा घा स्थावरजङ्गमलोकमनुसंचन्ति गच्छन्ति । यदि वा द्विधा श्वतो भवति तथा तथैवाहुः । तद्यथा-यथा यथा मि ऽपि लिङ्गमात्रप्रव्रज्ययाऽविरत्या च रागद्वेषाभ्यां वा लोकं ध्यादर्शनाभिवृद्धिस्तथा तथा शाश्वतो लोकः । तथादि-तत्र चतुर्दशरज्ज्वात्मकं स्वकृतकर्मप्रेरिता अनुसंचरन्ति बम्भ्रम्यन्त इति ॥ १४ ॥ तीर्थकराहारकवाः सर्व एव कर्मबन्धाः सम्भाव्यन्त इति । तथाच महारम्भादिभिश्चतुर्भिः स्थानर्जीवा नरकायुष्कं याव किञ्चान्यतनिवर्तयन्ति तावत्संसारानुच्छेद इति । अथवा यथा यथा राग- न कम्मणा कम्म खति वाला, द्वेषादिवृकिस्तथा तथा संसारोऽपि शाश्वत इत्याहुः । यथा यथा च कर्मोपचयमात्रा तथा तथैव संसाराभिवृद्धिरिति । अकम्मणा कम्म खर्वेति धीरा । दुष्टमनोवाक्कायाभिवृसौ चा संसारानिवृहिरवगन्तव्या; तदेवं मेधाविणो लोनभयावतीता, संसारस्याभिवृधिर्भवति । यथाऽमिश्च संसारे प्रजायन्त इति | संतोसिणो नो पकरेंति पावं ॥ १५॥ प्रजा जन्तवः। हे मानव! मनुष्याणामेव प्रायश उपदेशाईस्वा- ते एवमसत्समयशरणाश्रिता मिथ्यात्वादिभिषिराभिभूताः १४० Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरियावाइ (ग) सावद्येतरविशेषानभिज्ञाः सन्तः कर्मकपणार्थमप्युद्यता निर्वि वेकतया सावद्यमेव कर्म कुर्वते । न च कर्मणा सावद्यारम्भेण कर्म पापं कपयस्यपनयन्त्वत्वाद वाला श्व बालास्त इति । यथा च कर्म द्विप्यते तथा दर्शयति-अकर्मणा त्वाश्रवनिरो धेन तु अशा शैलेयक कृपयन्ति धीरा महासत्वाः सद्वैद्या व चिकित्सयाऽऽमयानिति । मेधा प्रज्ञा विद्यते येषां ते मेधाविनः हिताहितमाप्तिपरिहारानिशा लोभमयं परिग्रहमेवातीताः परिग्रहातिकमालातीता वीतरामाय थेः । सन्तोषियो येन केनचित्संतुष्टा वीतरागा अपीति । यदि वा यत एवातीतल्लोभा श्रत एव सन्तोषिण इति । त एवंभूता भगवन्तः पापमसदनुष्ठानापादितं कर्म न कुर्वन्ति नाददति । कचित्पाठ:-' लोभनयादती ता:' । लोभश्च भयं च समाः हारद्वन्द्वः । लोभाद्वा भयं तस्मादतीताः सतोषिण इति । न पुनरुकाशङ्का विधेवतो ओमान प्रतिषेोदर्शितः । सन्तोषिणइत्यनेन च विध्वंश इति यदि वा लोभातीतह णेन समस्तलोनाभावः; संतोषिण इत्यनेन तु सत्यप्यवीतरागरथेन कलोमा इति लोभाजावं दर्शयन् अपरकषायेभ्यो बोजस्य प्राधान्यमाह । ये च लोभातीतास्तेऽवश्यं पापं न कुर्वतीति स्थितम्। १५ । (५) अभिधानराजेन्द्रः । ये च लोनातीतास्ते किंभूता भवन्तीत्यत आहसेतीउपश्रमणागवाई, लोगस्स जाणंति महागाई । तार असि अभया, बुका हु ते अंतकमा भवति ॥१६॥ ते वीतरागा अल्पकषाया वा लोकस्य पञ्चास्तिकायात्मकस्य प्राणिलोकस्य वातीवान्यन्यजन्माचरितानि उत्पन्नानि ब मानावस्थादीन्पमागतानि च भवान्तरनादीनि सुखाबादनि तथागतानि यथाऽवस्थितानि तथैवावितथं जानन्ति, न विज्ञान विपरीतं पश्यन्ति तथादि श्रागमः - "पगारे णं भंते! माई मिच्छादि रायगिहे णयरे संमोहर बाणारसीए नयरीए रूवाएं जाण पास जाव से दंसणे विवरजासे जयति" इत्यादि ते खातीतानागतवर्तमानानिनः प्र स्पकानिनब्धतुदेशपूर्वविदो या ज्ञानिनोऽन्येषां संसारोसितीषूणां भव्यानां मोकं प्रति नेतारः- सदुपदेशं प्रत्युपदेष्टारो नवन्ति । न च ते स्वयंबुकत्वादन्येन नीयन्ते तत्वावबोधं कार्यन्त इत्यनन्यनेयाः, हिताहितप्राप्तिपरिहारं प्रति नान्यस्तेषां नेता विद्यत इति ज्ञावः । ते च बुझाः स्वयंबुकास्तीर्थकर गणधरादयः । हुशब्दश्चशब्दार्थे, विशेषणे च तथा च प्रदर्शित ते प्रयान्तका संसारोपादानभूतस्य या कर्मणो उत्त भवन्तीति ॥१६॥ यावदद्यापि भवान्तं न कुर्वन्ति तावत्प्रतिषेभ्यमंशं दर्शयितुमाहसे शेव कुतिया कारवंति तूताहिकाएँ दुर्गुख्याणा | सयाजता विष्णवंति धीरा, विष्वति वीरा य हवंति एगे | १७ | 3 परोकानिनो वा विदितवेद्याः साधमनुहानं भूतोपमभिशङ्कया पाप कर्म जुगुप्सन्तः सन्तो न स्वतः कुर्वन्ति, नाप्यन्येन कारयन्ति कुर्वन्तमप्यपरं नानुमन्यन्ते तथा स्वतो न मृषावादजल्पन्ति नान्येन जल्पति नाप्यपरंप न्तमनुजानन्ति एवमन्यान्यपि महाव्रताम्यायोज्यानीति । तदेवं 9 किरियाबाद () " सदा सर्वकालं यताः संयताः पापानुष्ठानान्निवृत्ताः, विविधं संयमानुष्ठानं प्रति प्रणमन्ति प्रह्लाजवन्ति । के ते?, वीरा महापुरुषा इति । तथैके केचन हेयोपादेय विज्ञाय अशा परिय वा तदेव निशङ्कं यज्जिनः प्रवेदितमित्येवं कृतनिश्चयाः कर्मणि विदारतिये वीरा भवन्ति यदि या पपिहोपनीविज्ञ याद्वीरा इति पाठान्तरं वा ( विपत्ति वीरा य भवन्ति एग ) एके केचन गुरुकर्मोऽल्पवस्वा विसिनं तन्मात्रेणैष बीराचानेन ज्ञानदेवाऽभिलषितज्ञायते । तथाहि "अधीत्य शास्त्राणि जयन्ति मूर्खाः यस्तु क्रियावान् पुरुषः विद्वान् संचियामातुरं हि न ज्ञानमा करोत्यरोगम् " ॥ १ ॥ १७ ॥ " कानि पुनस्तानि तानि यत्रारम्भं जुगुप्सन्ति सन्त इत्येतदाशङ्कवाद " महरे य पाणे वुढे य पाणे, ते आतो पास सव्वलोए । सब्वेदी लोग मियां, महन्तं बुकेऽपमने परिव्वज्जा १८ ये केचन (महरे (त) लघवः कुन्थ्यादयः सुक्ष्मा वा ते सर्वेऽपि प्राणाः प्राणिनः, ये च वृद्धा वादरशरीरिणस्तान्सर्वानप्यामतुल्यान् आत्मवत्पश्यति सर्वस्मिन्नपि लोके याप्रमा मम तावदेव कुन्धोरपि यथा वा मम दुःखमननिमतमेवं सर्वलोकस्यापि सर्वेषामपि प्राणिनां दुःखमुत्पद्यते, दुःखादुद्विजन्ति । यथा चागमः -- “ पुढविकार णं जंते ! श्रक्कते समाणे केरिसयं वेयणं वेए ? " इत्याद्याः सूत्रालापका इति मत्वा ते sपि नाक्रमितव्या न संघट्टनीया इत्येवं यः पश्यति । तथा लोकमिमं महान्तमुरत पावसूयादरम हान्तम् ; यदि वा श्रनादिनिधनत्वान्महान् लोकः । तथाहिकालतो नव्या श्रपि केचन सर्वेणाऽपि कालेन न सेत्स्यन्तीति । यद्यपि द्रव्यतः पव्यात्मकत्वात् क्षेत्रतश्चतुर्दशरज्जुप्रमाणतया सावधिको लोकः, तथापि कालतो भावतश्चानाद्यनिधनत्वापर्यायाणां चानन्तत्वान्महान् लोकः, तमुत्प्रेक्कत इति । एवं च लोकमुतमा सुगन्तव्यः सर्वाणि प्राणिस्थानान्यशाश्वतानि तथा मात्रापसदे संसारे सुखलेोप्यस्तीत्येवं मन्यमानोऽप्रमतेषु संयमानुष्ठाविषु मध्ये तथाभूत पत्र परि समन्ताद् व्रजेत् । यदि वा बुद्धः सन् प्रमत्तेषु गृहस्थेषु अप्रमत्तः सन् संयमाने परिप्रजेदिति ॥१५॥ जे आओ परओ या अलमप्पणी होति श्रलं परेसिं । तं जो भूतं च साऽऽयसेखा, जे पाउकुज्जा अणुचिंति धम्मं ॥ १५ ॥ या स्वयंसह आत्मनखेोक्योदरचिचरवर्तिदाय पावस्थितं लोकं ज्ञात्वा तथा यथ धरारादिका परतस्तीर्थकशदेजचादीन् पदार्थान् विदित्वा परेश्य उपदिशति स पर्यभूतो देयोपादेयवेद्यात्मनखातुमलमात्मानं संसाराचटात्यायितुं समर्थो भवति । तथा परेषां सदुपदेशदानतस्त्राता जायते । तं सर्वस्य सर्ववेदिनं तीर्थंकरादिकं परद धरादिकं ज्योतिर्भूतं पदार्थप्रकाशकतया चन्द्रादित्यदीपकपारमतिमिच्छन् संसारदुःखग्निः कृतार्थमात्मानं भाथयन् सततमनवरतमावसेत सेवेत गुर्वन्तिक पक्ष यावी यसेत् तथा चोक" गाय दो भागी, धिरप Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरियावाइ () ये चरिते य । धन्ना श्रावकहाए, गुरुकुलवासं ण मुंचति ॥ १ ॥ के एवं कुर्युरिति दर्शयति-ये कर्मपरिणतिमनुविचिन्त्य, "मासजा" स्यादिदुर्लभांचा या बु सारिकायादिकं दशविधं साधुधर्मे वाऽनुविचि पर्यालोच्य ज्ञात्वा वा तमेव धर्म यथानुष्ठानतः प्रादुष्कुर्युः प्रक टयेयुः, ते गुरुकुलवासं यावज्जीवमासेवन्त इति । यदि वा ये ज्योतिमाचार्य सततमासेवन्ति तथा श्रागमा धर्ममनुवि चिल्लो पञ्चास्तिकायात्मकं चतुर्दशात्मकं या कुर्युरिति किया । १८ ॥ किञ्चान्यत् ताण जो जाति जो प लोगं, गई च जो जाइलागई च । नो सासयं जाण असासयं च, जातिं च मरणं च जणाववाये ॥ २० ॥ (KuE) अभिधानराजेन्द्रः । यो ह्यात्मानं परलोकयायिनं शरीराद्व्यतिरिक्तं सुखदुःखाधारं जानाति यश्चात्महितेषु प्रवर्तते स श्रात्मज्ञो भवति । येन चात्मा यथावस्थितस्वरूपोऽप्रत्ययाद्योऽनिज्ञातो भवति तेनैवायं सर्वोऽपि लोक प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपो विदितो भवति सपारमशोऽस्तीत्यादिक्रियावादं भाषितुमर्हतीति द्वितीयवृत्तान्तस्य किया। लोकं चराचरं देशासस्थानस्थकरिस्पकरयुग्मपु स्वाकारं चरायादयो चानन्ताकाशास्तिकायमा जानाति, यश्च जीवानामागतिमागमनं कुतः समागता नारकास्तिर्यञ्चो म तुष्या देवा, कैसी कर्मभिनरकादित्वेनापत्येवं योजानाति, तथाsनागति चाऽनागमनं च कुत्र गतानां नागमनं भवति । चकारात मनोपायं च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्योजानागिरिशेषकर्मच्युतिरूपा लोकाचाकाशदेशस्थानरूपा वा ग्राह्या, सा च सादिरपर्यवसाना। यश्च शाश्वतं नित्वं सर्ववस्तुजातं प्रपास्तिकन्याश्रयापशाम्यतं वाऽनित्वं प्रतिकविनाशरूपं पर्यायनायगाव कानित्यानित्यं बोभयाकारं सर्वमपि वस्तुजातं यो जानाति । तथाहि श्रागमः - " रइया दव्वध्याए सासया, जावट्टयाए असासया 35 । एवमन्येऽपि तिर्यगादयो ऽष्टव्याः । अथ वा निर्वाणं शाश्वतं संसारोऽशास्यतः प्रतानां संसारिणां स्वकृतकर्मवशगानामित तगमनादिति । यथा जातिमुत्पति मारकतिर्यमनुष्यामर जन्मलक्षणां च मरणं चालण तथा जायन्त इति जनाः सत्त्वाः, तेषामुपपातं जानाति ; स च नारकदेवयो.. यतीति च जन्मचिन्तायामसुमतामुत्पत्तिस्थानं योनि णनीया सा च सचित्ताऽचित्ता मिश्रा च । तथा शीता उष्णा मिश्रा च । तथा संवृता विवृता मिश्रा चेत्येवं सप्तविंशतिविधेति मरणं पुनस्तिर्यमनुष्ययोश्च्यवनं ज्योतिष्कवैमानिकानाम उनपतिव्यन्तरवारकायामिति ॥ २० ॥ किनअहो वि सताण विच जो आसवं जाति संवरं च । 5क्खं च जो जागति निज्जरं च, सो भासि मरिहर किरियवादं ॥ २१ ॥ किरियाबाद (ग) सत्वानां स्वकृतकर्मफलभुजामधस्तान्नारका दौ दुष्कृतकर्मकारिणां विविधांविरूप वा कुन जातिजरामरणरोगशोक " शरीरपीक शब्दातदभाषोपायं यो जानाति इदमुकं भवति - सर्वार्थसिद्धादारतोऽधः सप्तमीं नरकभुवं यावदसुमन्तः कर्माणो विवर्त्तन्ते तत्रापि ये गुरुतरकर्मास्तेऽप्रतिष्ठाननरकयायिनो भवन्तीत्येवं यो जानीते । तथा श्राश्रवत्यष्टप्रकारकं कर्म येन स श्राश्रवः ; स च प्राणातिपातरूपो, रागद्वेषरूपया मियादर्शनादिको तितम् तथा संचाराध रूपं यावदशेषयोगनिरोधस्वभावं चकारात्पुण्यपापे यो जा नीते । तथा दुःखमसातोदयरूपं, तत्कारणं च यो जानाति, सुखं च तद्विपर्ययभूतं यो जानाति तपसा निर्जरां च । इदमुक्तं भवति यः कर्मबन्धहेतून तद्विपर्यासहेतुं तुल्यतया जागाति । तथाहि - " यथाप्रकारा यावन्तः, संसारावेशहेतवः । तायतस्तद्विपर्यास निर्वाणशतकः ॥ १॥ स एव परमार्थतो भाषितुं वक्तुमर्हति । किं तत् ?, इत्याह-क्रियावा दम् । अस्ति जीवोऽस्ति पुण्यमस्ति च पूर्वाचरितस्य कर्मपणः फलमित्येवं बादमिति तथाहि जीवाजीवादसंवर न्धपुण्यपापैरिमोक्षरूपा नयापि पदार्थाः कयेनोपा ताः । तत्र य आत्मानं जानातीत्यनेन जीवपदार्थों, लोकमित्यनेनाजीचपदार्थ तथा गत्या गतिः शाम्यतेत्यादिनानयोरेव स्वभावोपदर्शनं कृतम् । तथा श्राश्रवसंवरौ स्वरूपेणैवोपाती । दुःखमित्यनेन तु बन्धपुयपापानि गुद्दी तानि तदविनाभावित्वाद दुःखस्य निर्जरायास्तु स्थानि धानेनेोपादानम, तत्फल जुतस्य मोत्तस्योपादानं यमिवि तदेयमेवायन्त पय पदार्था तदन्युपगमे नास्तीत्या दिकः क्रियावादोऽभ्युपगतो भवतीति । यश्चैतान् पदार्थान् जानात्यन्युपगच्छति स परमार्थता कियाबाद जानाति । नतु चापरदर्शनोकपदार्थपरिज्ञानेन सम्यक्त्यादिकं कस्माज्यु गम्यते, तदुक्तपदार्थानामेवा घटमानत्वात् सूत्र० (नैयायिकद शनमन्यत्रापाकरिष्यते ) तस्मात्पारिशेष्यसिद्धा श्रर्हदुक्ता नव पदार्थाः सत्याः, तत्परिज्ञानं च क्रियावादे हेतुर्नापरपदार्थपरिज्ञानमिति ॥ २१ ॥ सांप्रतमभ्ययनार्थमुपसंजिदी सम्यम्वादापरिज्ञानफलमा दर्शयन्नाह सदेगु स्वेगु असज्जमाणो, गंधेसु रसेसु अद्दुस्समाथे । यो जीवितं णो मरणाहिकखी, आयाणगुचे वाथा विमुके | २२ | ति बेमि ॥ " सद्देसु" इत्यादि । शब्देषु वेणुवीणादिषु श्रुतिसुखदेषु, रूपेषु व नयनानन्दकारिष्वासङ्गमकुर्वन् गार्ग्यमकुषाणो ऽनेन रागो गृहीतः तथा गन्धेषु कुचितकलेवरादिषु रसेषु चान्तप्रान्ताशना दिषु चतुष्पमाणो मनोदशेषु द्वेषमकुर्वन् इदमुकं भवति शब्दा दिष्विन्द्रियविषयेषु मनोज्ञेतरेषु रागद्वेषाभ्यामनपदिश्यमानो जीवितमसंयमजीवितं नानिकाङ्गेतू, नापि परी पहोपसर्गैरभिदुतो मरणमभिकाङ्गेत्। यदि वा जीवितमरणयोरभिलाषी नुपालयेदिति । राधा मार्थिना दीयते ह्यत इत्यादानं संयमः तेन तस्मिन् वा सति गुप्तः, यदि वा मिथ्यात्वादिना दीयते - त्यादानमप्रकारं कर्म, तस्मिन्नादातव्ये मनोवाक्कायैर्गुप्तः समि ता । तथा भाववलयं माया तया, विमुक्तो मायामुक्तः । इतिः Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरियावाइ (ण) अभिधानराजेन्द्रः। किसिटकम्मकलातीय परिसमापयर्थे । प्रचीमीति पूर्ववत्, नयाः पूर्ववदेव ॥ १२॥ स०। “किरियाबिसालस्स णं पुब्बस्स तीसं बत्थू परणता' सूत्र. १७०१२ प्रक्रियैव चैत्यकर्मादिका प्रधानमोक्षाङ्ग- स० ।न। मित्येवं बदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः । चैत्यमादित एव | किरीय-किरीय-पुं०ाम्लेच्छदेशभेदे, तत्रोत्पन्ने म्लेच्छेचा सूत्र मोक्षवादिषु, सुत्र०१ श्रु० १ ०२ उ०। (तेषां मतं चतु २६०१०। विधं कर्म नोपचयं यातीति लक्षणं "कम्म" शब्देऽत्रैव भागे किरो-देशी-सूकरे, दे ना०२ वर्ग। ३३१ पृष्ठे दर्शितम् ) व्यवहारे साक्ष्यादिप्रमाणरूपक्रियासाध्ययुक्त वादिनि, वाच० । यो मोक्कार्य क्रियां करोति सकिल-किल-अव्य० । वार्तायाम्, अनुशया, प्रसिद्धार्थद्योक्रियावादीति प्रघोषः सत्योऽसत्यो वा। यदि सत्यस्तर्हि मो- तने, हेतौ, अरुची, अलीके, तिरस्कारे च । वाच । सत्ये, साथै जीवघातं कुर्वत्सु सत्स्वपि तुरुष्कादिफरङ्गिकपर्यन्त. अष्ट० ५ अष्ट० । परोक्षागमवादसंसूचने, श्राव०५०० सर्वमिथ्याष्टिषु क्रियावादित्वं स्यात, त केषाश्चिदात्मश्रा- व०। प्राप्तोपदेशे, प्रब० ३५ द्वार । प्राप्तोक्ती, विशे०। सं. खानामत्रत्याण्डिकरवाद्यानां च चेतसि प्रतिभासते । प्रत्युत थानं०। निश्चये, आतुष्या०स्या०। वाक्यालश्कारे, दुण्ढिका इत्यं कथयन्ति-श्रीमतां ये ये गीतार्था अत्र समायान्ति | उत्त०११ अ०। ते सर्वेषां क्रियाकुर्बतां मिथ्याशा क्रियावादित्वं कथयन्ति । किवंत-क्लान्त-त्रि क्लम् कः। "लात्" ।२।६। संयुक्ततदसमीचीनं भ्रकानम् । ते तु दुण्ढिकाः सम्यम्हशा सम्य | स्यान्त्यव्यञ्जनाद सापूर्वमिद् भवति, श्तीदागमः। प्रा०२ पाद । क्वातिमखाणां च क्रियावादित्वं कथयन्ति, नान्येषामिति | परिश्राम्ते, वृ०३० । ग्लानिमुपगते, 'कलम' खानाविति प्रश्ने उत्तरम्-यो मोकार्य क्रियां करोति स क्रियावादी वचनादाजी०३ प्रति० । ग्लानीभूते, ज्ञा० १ ०१०। प्रमा ति प्रघोषः सत्य पव लक्ष्यते । न च कोऽपि मोक्षार्थ जीपघातादिकं करोति, यतः तुरुष्काणामपि मूलशास्त्रेषु जीवव किलकिलाश्य-किलकिलायित-न० । कृते किलकिलेति संधस्य निषिरुवात, याचिकानामपि स्वर्गाद्यर्थमेव यशस्य प्ररू नादे, " ततो तेण जूहाहिवेण तेसि किलकिलाश्यं सई सोऊपणात तथा सम्यग्दृश पब, सम्यक्त्वाभिमुखा एव वा क्रिया | ण भसिणो गंतूण दिवो सो साहू" प्रा० म०वि०। पादिन श्त्यक्षराणि शास्नेन सन्ति,प्रत्युत जगवतीविवृतावित्युः । चिताविन्य किलणी-देशी-रथ्यायाम, दे० ना०२ वर्ग। तमस्ति-पते च सर्वेऽप्यन्यत्र यद्यपि मिथ्यादृष्टयोऽभिहितास्त-किलाड-किलाट-पुं० । नष्ट ग्धस्य पक्कस्य पिण्डं प्रोतः किथापि रहाधाः सम्यग्दृष्टयो प्रायाः, सम्यगस्तित्वबादिनामेव | लाटकः' इति परिजाषिते विश्रथितदुग्धस्य पाकेन घनीतेषां समाश्रयणात् । जगवतीसूत्रं च विशेषपरम,तेन तत्र क्रिया- जूते पिएमाकारे पदार्थ, ततः स्वार्थ कः किलाटकः। तत्रार्थे बादिपदन सम्यग्दृष्टयो गृहीताः,अत्र तु मिथ्यारथ्योऽपि,तत उ- कुचिकायां कीरविकारभेदे, स्त्री०। गौरा० ङीष् । पाच। भयेपि क्रियावादिन इति तत्त्वम् । ३२१:०। सेन०३उवागमथ न- देशविशेषे. तत्रोत्पले जने च । “चन्द्रवक्ता सरोजाक्षी, सदी: चीननगरसंघकृतप्रश्नाः तदुत्तराणि च । यत्र यः सम्यक्त्वमन्तर्मुः पीनघनस्तनी । किसाटी नामतः सा स्या-देवानामपि दुर्लभा" इस्पृशति सोऽर्कपुमली कथ्यते,क्रियावादीचैकपुऊली निय- ॥१॥स्था०४ ग०२००। मात् शुक्लपक्कीति श्रूयते,तत्कथमिति प्रश्ने उत्तरम्-क्रियावादी स-किलाम-क्लम-पुं०। संस्पर्श सति देहग्लानिरूपे, घ० ३म्यगृहष्टि,तथा मिथ्याष्टिः, द्वावपि भव्यौ शुक्लपाक्षिकौ च झेयौ।। THATो ... तो नियमात् पुजलपराधर्तमध्ये सियतः,एवंविधाक्षराणि दशा- प्रवृतः श्वाससक्तः । क्लमः स ति विज्ञेयो, इन्द्रियार्थप्रवाश्रुतस्कन्धचूर्मिमध्ये सन्ति, परं सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टयोरेकीभूतं धकः" ॥१॥ इति । वाच । सामान्यलक्षणं झेयम् । यतो मलधारिश्रीहेमचन्द्रसूरिकृतपुष्पमा-किलामणया-क्यामना-स्त्री० । म्लानिनयने, भ०३ श०३०। लासुत्रवृत्तिमध्ये-"अंतो मुहुत्तमत्तं,पि फासि हुज्ज जेहि स दश। म्मत् । तेसिं अवकृपुग्गन-परिअट्टो चेव संसारो"। पतझाथा | किलामिय-क्लामित-त्रि० । मारणान्तिकसमुदातं गमिते, म. ध्याख्यानुसारेण पुलपरावर्त्तसंसारोकायते, पतद्विशेषस्तत्तद्प्रत्येभ्यो शेयः। तथा श्रावकप्राप्तिसूत्रवृत्तिमध्ये ययोः सम्यग्- ८० ७०० | ८ २०७० । ग्लानिमापादिते, श्राव० ४ अ.। ष्टिमिथ्यारष्टयोर्देशोनापुलपरावर्तसंसारो भवति,तौ शुक्लपा- किलात-क्लामयत-त्रि० । मारणान्तिकसमुदातं नयति, भ०५ किको कथ्येते,यस्य च ततोऽधिकसंसारो भवति स कृष्णपाक्ति- श० ६००। का कथ्यते ति कथितमस्ति, परं तन्मतान्तरं सजाव्यते । प्र० किमिट-क्लिष्ट-त्रिशक्लिश क्ला,वा इडभावः। “लात" श१६॥ १२० सेन०४ उल्ला। तथा त्रिषष्टयधिकशतत्रयपाषण्डिकानां इति श्दागमः। प्रा०२ पाद । रागाद्युपहितचित्ते, उत्त०३२१०। मध्ये अशोत्याधिकशतक्रियावादिनः सन्ति, ते सम्यग्दृष्टयो पूर्वापरविरुकार्थक वाक्ये, न० । वासविष्टं यया-यत्कृमिथ्यादृष्टयो चेति प्रश्ने, उत्तरम्-अशात्यधिकशतक्रियावादिनो । तकं, कृतकश्चायम, यथा घटः, तस्मादनित्यः, तत्सदनित्यम् । मिथ्यादृष्टयो शेया इति । १२१ प्र० । सेन०४ उहा। कृतकत्वाच्छन्दोऽनित्य इत्यादि । रत्ना० परि० । क्लेशयुक्त, उपतापिते च । वाचा किरियाविसाल-क्रियाविशाल-न० । यत्र क्रियाः कायिक्या-| : विशालाः विस्तीर्णाः सन्नेदत्वादभिधीयन्ते ततक्रिया- किलिट्टकम्मकलातीय-क्लिष्टकर्मकलातीत-त्रि०। किष्टा केशविशालं पूर्वम् । स०१४ सम 1 क्रियाः कायिक्यादयः संय- | स्वरूपभवतुत्वेन केशिकाःयाः कर्मकलाःज्ञानावरणाचष्टप्रकामक्रियानन्दःक्रियादयश्च ताभिः प्ररुप्यमाणाभिर्विशालम् । श्र- रकर्माशा,तेभ्योऽतीतोऽपेतो यः स क्लिष्टकर्मकलातीतः। सिके, योदशे पूर्वे, तस्य पदपरिमाणं नवपदकोटयः । ०। स्था०।। हा०१अष्ट। Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किलिट्ठचित्त अभिधानराजेन्द्रः। किदिवससुर किविरचित्त-किचित्त-त्रि० । किष्टाऽध्यषसाये, “जो पुण तां कृपास्थाने, द्वा०१२ द्वा० । दीने, सूत्र १ श्रु०.२ १०३ फिलिट्ठचित्तो, णिरविक्खो पत्थदंडपाविठो।" पं०व०४ द्वार। उ० । कहीबे, सूत्र० २ श्रु० २० । पिण्डोलके, दश० ५ अ०२ उ० । मन्दे, त्रि० । महाव्यसनप्राप्ते दीने, क्रिमी, पुं० । किलिट्टया-क्लिपृता-स्त्री० । दुएतायाम, निरुपकमतायाम, प कृतः पणो यस्य । वेदे नित्यं तलोपः । कृतपणे पणक्रीते दाशा०१६ विव०। सादौ, वाच। किलिङ्कसत्त-क्लिष्टसत्व-त्रिका क्लिष्टं सत्त्वं येषां ते तथा ।। किवणकुल-कृपणकुल-न० । तर्कणवृत्तिनि, स्था० ८ ग०। क्लिएसत्त्वविशिष्टेषु, संक्लेशबहुलजीवेषु, “ हो य पारणं अदातृकुले, कल्प० २ कण । सा, किलिट्ठसत्ताण मंदबुरीणं ।" पश्चा० १६ विव०। किलि-क्लिन्न-त्रि० । क्लिदतः । नत्यम् । "लात्" ।।२। किवणत-कृपणत्व-न० । नूनं गतैस्तेभ्यः किमपि दातव्यं भ१०६ । संयुक्तस्याऽन्त्यव्यजनालारपूर्वम् इभवति,श्तीदागमः। विष्यतीत्येवंरूपे, प्रा० म० द्वि० । अव्यव्ययासहिष्णुत्वसवण, मत्त० ३ प्रा०२पाद श्ाीकृते, का०१ श्रु०१० प्रश्न। बाधिते, उत्त० ० । १०। अनेकार्थत्वाद् धातूनाम् निचिते, उत्त० ३ अ०। किवा-कृपा-स्त्री० । कप-भिदा अझ् । “कृपेः संप्रसारणं " किलिएणगाय-क्लिन्नगात्र-त्रि०ा क्लिन्नमनेकार्थत्वात् धात वाच । “इत्कृपादौ "८।१ । २ । इति ऋत इस्वम्। प्रा०२पाद । दयायाम, आचा० १०६०५ ०।नां निचितं, गात्रं शरीरं यस्य । निचितशरीरे, उत्त० ३ ० । नुकम्पायाम, अष्ट० २७ अष्ट. | "तस्स किवा जाया अधबाधितशरीरे, उत्त०२ अ०। म्मो कतो।" आ०म० द्विस किसिम्मिश्र-देशी-कयिते, दे ना.२ वर्ग। किवाण-कृपाण-पुं०कृपांनुदति।नुदडः, संज्ञायां णत्वम् । “इकिलिव-क्लीच-पुं० । नपुंसके, व्य०२ २०। पं० जा०।। कृपादौ " 1८।१।२८ । इति ऋत श्त्वम् । प्रा० १पाद । किलिस्संत-विक्षश्यत-त्रि० । क्लेशं कुर्वति, विद्यमाने, प्रभ०२/ खरे, गौरा० ङीष् । कर्तर्याम, स्त्री०। बुरिकायाम्, स्त्री०। आश्र0 द्वार। स्वार्थ के कृपाणकः । खड़े, पुं० । टाप् । अत इत्वम् । कृपा. किलेस-क्लेश-पुंग। "लात्" ८।२।१०६ । इतीदागमः । प्रा० णिका | बुरिकायाम, स्त्री० । वाच० । प्राचा०॥ २पाद । रागादौ खेदे, प्रौ० । प्रश्नः । स्था। शारीयों मानस्यां किवाणुग-कृपानुग-त्रि० । कृपया करुणया अनुगमनुगतम् । च बाधायाम , सू०प्र०२० पाढ० । पञ्चा० । उपतापे, क्लि- करुणापरे, षो०३धिव०। इनाति । क्लिश बाधने, कर्तरि अच् ।धाचा क्लिश्यन्ते बाध्य- किविमी-देशी-पार्श्वद्वारे, दे० ना० २ बर्ग । प-artanama न्ते शारीरमानसैः पुःखैः संसारिणः सत्वा एनिरिति क्लेशाः । अटकर्मसु, बृ०१ उ०। अशुभविपाके पापे, “क्लेशाः पापानि किविण-कृपण-त्रि ! "इत्कृपादो” ७।१।२८ । कृपा इत्यादिकर्माणि, बहुभदानि नो मते"। क्लेशा इति । नोऽस्माकं मते पापा- षु आदेणूंत इत्त्वम् । प्रा०१ पाद । “३: स्वप्नादा"।।१। न्यशुभविपाकानि बहुभेदानि विचित्राणि कर्माणि ज्ञानावरणी- ४६ । इति पकारादेरस्य इत्वम् । दरिद्रे, प्रा०१ पाद । यानि क्लेशा उच्यन्ते । द्वा०२५ द्वा० । क्लेशः साळयानां नव किब्धिस-किल्विप--न० 1 किल टिषच वुक् च। वाच० । पातके, कारणम् । द्वा०१६ द्वा०। “अविद्यास्मितारागद्वेषानिनिवेशाः झा०१ १०१ अ0 । षो० । रोगे, पापहेतुत्वात्तस्य तथात्वम् । पञ्च क्लेशाः" इति पतञ्जल्युक्ते अविद्यादिपञ्चके, द्वा० १६ वाच० । अष्टादशे गौणालीके, तस्य किल्विषस्य पापस्य हेतुद्वााकोपे, व्यवसाये च । तयोरपि तकेतुत्वात्तथात्वम्। वाच । स्वात् । प्रश्न०२आश्र0 द्वार । यतो मायाविशेषाजन्मान्तरेऽत्रैव किलेसक्खय-शक्षय-पुं० । कर्मकये, “क्शेशकयो हि म- वा भवे किल्विषः किल्विषिको नवति स किल्विष एवेतिान०१२ एक-वर्णतुळ्याः क्रियाकृतः । दग्धस्तच्चूर्णसदृशो, ज्ञान- श०५०द्वादशे गौणमोहनीयकर्मणि, स०५२ सम० । मझिने, सारकृतः पुरा ॥ " अष्ट० ३२ अष्ट०। (क्लेशहानोपायद्वात्रिं- अधम, उत्त०३ अ.कवुरे, तं० । किल्विषं पापं ज्ञानकेवल्याशिका 'मोक्ख' शब्दे पदयते) द्याशातनादिकम, तद्योगाद्देवा अपिकिल्विषाः, प्राक् संयतभवकिलेसद्धस-क्लेशध्वंस-पुं० । रागादिपरिकये, द्वा० १० द्वा०।। कृतज्ञानाद्याशातनेषु देवमतङ्गत्वेनोत्पन्नेषु, पातु । किसवित्ति-क्लेशत्ति-त्रि०ाएकान्तक्लेशवेष्टिते, दश० १ किविसकम्म-किल्विषकर्मन्-त्रि०किल्विषाणि क्लिष्टतयानिचू०। पं० चू०। कृष्टान्यशुभानुबन्धीनि कर्माणि येषां ते कर्मकिल्विषाः । किकिव-कृप-पुं० । कए अच् । “इत्कृपादो"।८।१।१८ । इति विषिकेषु,प्राकृतत्वात्पूर्वापरनिपातः । “कम्मकिम्बिसा" इति। उत्त०३० त इत्त्वम्, प्रा०१ पाद । राजर्षिभेदे, कृपाऽस्त्यस्य पालनसाधनत्वेन अर्श अच् । शरद्वतो गौतमस्य पुत्रे, तत्सुतायाम् , किब्धिसत्त-किस्वषत्व-न० । चण्डालप्रायदेवविशपत्वे, प्र. स्त्री० । ङीष् । वाच०। न०२ सब द्वार। किवण-कृपण-पुं० । कृप-क्युन् । दरिके, अणु. ३ वर्ग । किविससर-किल्विषसर-पुं०। किल्विषसुराणां प्रथमद्वितीआचा० । दुःस्थे, प्रभ० २ आश्र द्वार । रङ्के, प्रत्यागिनि, कल्पाधस्तृतीयकल्पाधः षष्ठकस्पाधश्च स्थितिरुक्ताऽस्ति, तत्राप्रश्न०१आश्रद्वार। अपरित्यागशीले, स्वभावतो दरि, नि० धाशब्देन किमनिधीयते ?-अधस्तः प्रस्तट, तस्मादप्यधोदेशो चू०१५ उ०। लोभमग्ने, अष्ट०१ अष्ट।। स्वभावत एव स- वा,अन्यच्च द्वात्रिंशदादिलकविमानानांमध्ये साधारणदेवीनार Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किह (५६२) किदिवससुर भाभिधानराजेन्द्रः। मिवैतेषां कतिचिद्विमानानि सन्ति, विमानकदेशे विमानाद्वहि- केशर-पुं० । न । “एत इद् वा वेदनाचपेटादेवरकेसरे" ी तिष्ठन्ति, चएमासस्थानीयत्वात्तेषां विमानमध्ये वासोऽनुचितः। ८।१।४६ । शति एत त्वं वा । “महम हियदसणकिसर विमानानामपान्तराले नुवोऽनावाद बहिरपि तद्वासः कथं घटते', किंजके" प्रा०१पाद । इति किल्विषानां वासस्थानं ग्रन्थाक्करपूर्वकं प्रसाद्यमिति प्रश्ने, उत्तरम-किस्विषसुराणां बासः कल्पद्विकादीनामधो मणि किसन(भ)-किस (श)नय-पुं० । न० 1 किञ्चित् शलति, शलत इत्यत्राधःशब्दस्तत्स्थानवाचको शेयः । न चात्राधःशब्द प्र- चलने वा कपन् । पृषो । वाच। “किसलयकालायसहदये थमप्रस्तटार्थों घटते, तृतीयषष्ठकल्पसत्ककिल्बिषिकामराणां यः"। ८२२६६ । इति सस्वरव्यञ्जनस्य यकारस्य लुम्वा ।"कितत्प्रथमप्रस्तटयोस्निसागरोपमत्रयोदशसागरोपमस्थित्योरसंभ- सवं किसानों"। प्रा०१पाद । अवस्थाविशषोपेते पल्लवविशेषे, बात, तथा तद्विमानानां संख्या शाले नोपलभ्यते, तथा देवलो- रा०। जं० । जी। औ०। ज्ञा। कोमलपत्र विशेष, अनुग"सकगतवार्षिशल्लक्षादिविमानसंख्याया मध्ये तद्विमानानां ग वो वि किसनओ स्खलु, उग्गममाणो अणंतओ अणिो ।" णनं न संभाव्यते, तेषां कल्पवृक्षादीनामधोवासानिधानात् ।। प्रज्ञा० १ पद । ('अणंतजीव 'शम्दे प्र०भा० २६३ पृष्ठे तत्त्वं तु सर्वविद्वेद्यमिति । ३२७ प्र० । सेन० ३ चद्वाः। व्याख्यातमेतत्) किम्विसिय-किल्विषिक-पुं०।किल्विषिकीनावनोपासं किल्वि- किससरार-कृशशरार-त्र० ।। किससरीर-कृशशरीर-त्रि० । विचित्रतपसा नाविते शरीरेण पं पापमुदये विद्यते येषां ते किल्विषिका स्था०३०४ यो, स्था०४ वा०२ उ०॥ परविदूषकत्वेन पापव्यवहारिषु भाण्डादिषु, औ० । भ०। किसाण-कृषाण-त्रि० । कृष् वा आना । "शषोः सः"10। १३ प्रका०ापातकफलवत्सु निःस्वान्धपङ्मवादिषु, शा० १श्रु०१ अ01 २६०। इति षस्य सः। प्रा०१ पाद । कर्षके, वाच । अधमेषु प्रेष्यनूतेषु, सूत्र०१७०१०३०। ('देवकिब्धिसिथ' शब्दे व्याख्यास्यामि चैतत् ) किसाण-कृशानु-पुं०। कृश प्रानुक, “इत्कृपादौ"।८ ।१२। इति ऋत त्वम् । प्रा० १ पाद । वहौ, चित्रकवृक्के च । तस्य किग्विसिया-कैल्लिषिकी-स्त्री० । किल्विषाः पापाः, अत पवा तनामकत्वात् । सोमपालके, सव्यपावस्थरहिमधारके च। ततः स्पृश्यादिधर्मकाः देवाः किल्विषाः, तेषामिय कैल्विषिकी। सं- मत्वर्थे गोपदा० टन् । कृशानुकववियुक्त, त्रि० । ताणे कशाक्लिष्टभावनानेदे, ध०३ अधि० । सा पञ्चधा-द्वादशानीरूप- नुस्थाने 'कृशाकु' इति वा पाठः। कृशाकोश्च बहिरेवार्थः। वाचा भुतज्ञानवनिधर्माचार्यसर्वसाधूनामवर्णवदनं, स्वदोषगृहने च मायित्वमिति पञ्चविधाः। ध०३ अधि०। पं० ब०। किसि-कृषि-स्त्री० । कृष इक । धान्यार्थक्केत्रकर्षणे, स्था। कैल्विषिकीमाह चनविहा किसी पपत्ता । तं जहा-बाविया परिवाविया नाणस्स केवलीणं, धम्मायरियाण सन्चसादणं । प्रिंदिया परिणिंदिया। जासं अवष्यमाई, किदिवसियं जावणं कुण ॥३६॥ कृषिर्धान्यार्थ केत्रकर्षणम् । (वाविय त्ति) सहकान्यवपनव ती (परिवाविय ति) द्विस्त्रिा उत्पाद्य स्थानान्तरारोपणतः झानस्य श्रुतरूपस्य केवशिनां वीतरागाणां धर्माचार्याणां गु परिवपनवती, शालिकृषिवत् । (पिदिय ति) एकदा विजारूणां सर्वसाधूनां सामान्येन भाषमाणोऽवर्णमश्लाघारूपं, तथा तीयतृणाद्यपनयनेन शोधिता निन्दिता (परिनिन्दिय त्ति) मायी सामान्येन यः स कैल्विाषकी भावनां तद्भावाभ्यास. द्विस्त्रिा तृणादिशोधनेनेति । स्था०४ ग०४०।वा की । रूपां करोतीति गाथार्थः। ग०२ अधि०। (झानावर्णादि- कृषीत्यप्यत्र, स्वार्थे के कृषिकाऽप्यत्र । स्त्री०। प्राधारे, किः। व्याख्याऽन्यत्र) शुवि, वाचण कृष्युपलक्षितः कृषिः । कृषिकर्मोपजीविनि, तं० । किस-कश-त्रि०। कृश ते । " इत्कृपादो" |८ ।१।२०। किसिकम्म-कृषिकर्मन्-न । कृषिसाध्यधान्यनिष्पत्ती, वा०१८ शति ऋत श्त्वम् । प्रा०१ पाद । पुर्बले, का०१७० ११०। द्वाराषो। उत्स० न० । तनुके, आव०४०। तनुशरीरे, स्था०४ ग० २ ०।"धुणिया कुलियं च लेबर्व, किसप देहमणासणा । किसिपमान-कृषिपलाल-न० । ७त० ।कर्षणे, “बुसे अणुसंगमविहिंसामेव पब्बए, अणुधम्मो मुणिणा पवेदितो॥" कृशं| याइह किसिपलाझं व " कृषी कर्षणे पलाल बुसंतद्वदिति । भवति एवमनशनादिदेहं कर्शयेत् अपचितमांसशोणितं विद- पश्चा० ५ विव० । ध्यात् । सूत्र. १ श्रु०२ अ०१ उ०।। किसीवल-कृषीबन-त्रि० । कृषिरस्त्यस्य वृत्तित्वेन बलन्, किसमिस-पारसीकशब्दः-साक्षाभेदे, लच्ची जाका किसमिसे दीर्घः । कर्षके कृषिजीविनि, वाच । आचा० । ति व्यवह्रियते, हरीतकीकिसमिसगावावर्जूरमरिचेत्यादि ।। ध०२ आधि। किस्सइत्ता-क्लिशित्वा-अन्य । क्लेशमनुभूयेत्यर्थे, संसारा न्तर्भूत्वेत्यर्थे, सूत्र० १ ० ३ ० २ उ०। किसर-कृशर-पुं० । कृशमल्पमात्र राति। रा-कः । “इत्कृपादो" ।८।१।२८। इति त इन्वम्। प्रा०१ पाद । “तिनतन्दलस-किह-कथम-अव्य० । केन प्रकारेणेत्यर्थे, व्य० ३ ० । नि० म्मिश्रः, कृशरः परिकीर्तितः" इत्युक्त पक्वान्नभेदे, वाच० । च० "से काहे धा किई वा केवञ्चिरेण वा किडं बत्ति" केन वर्णसंयोगनिष्पन्ने वणे, भाचा०१ श्रु० १ ० २२० । या प्रकारेण साक्षात् दर्शनतः श्रवणतो वा । भ.३०२७०। Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किह 9 "किह जुज्झामो तुमं भूमीप श्रा० म० प्र० प्रा० । आचा० । कीकस कीश-पुं० | कीति कशति । कश-शब्दे, श्रच् । कृमिजलुदे, अस्थि, न० कठिने, त्रि० । वाच० । जं० । कीम-कीट पुं० कीट अ कृमिभ्यः स्पूले जन्तुभेदे स्वायें के पूर्वोकायें, मागचजाती कविने च त्रि० चाच० चतुरिन्द्रियजीवविशेषे, उत्त० २ अ० जी० । “ तो कीमपयंगो य, तो कुंपिपीलिया ।" उत्त० ३ ० । अनु० । कीडय - कीटजन० । कीटादू जाते सूत्रभेदे यत्तथाविधकीटेज्यो लालात्मकं प्रजवति, यथा पट्टसूत्रम् । उत्त० २६ श्र०1" कीडयं पंचविहं जहा-पट्टे मल सुची किमिरागे" अनु० । ( पट्टादीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने द्रष्टव्या ) कीडाविया -क्रीमापिका स्त्री० कीडनायाम् ०१० १६ अ० । ( ५६३) श्रनिधानराजेन्द्रः । कीडिया की टिका - स्त्री० । पिपीलिकायाम्, " ताड़े संतो तं सा हरिताकीमिया चतुभिया वि" आ० म० द्वि० । कीणास - कीनाश-पुं० । कुत्सितं नाशयति । यमे, वानरे च । पुं० तुझे, वाच० | को० । - कीय क्रीत वि० का कर्मणि कः क्रियते स्मार्थदानेवा ते स्मेति क्रीतम् । पञ्चा० १३ विव० । क्रमे, न० । सूत्र० १० ६० | मूल्येन गृहीते, त्रि० । श्राचा० १ ० ८ ० २४० । उत्त० । उप्रमदोषदे, श्राचा० १ ० २ अ० ५ उ० । " उदेसियं की आदट्टु दिज्जमाएं" माने सबले स० ३१ सम० | इव्येण भावेन वा क्रीतं स्वीकृतं यत्तत् क्रीतमिति । यतोऽभ्यधाचिदन्याइपहि किस साहू हा की तु स्था० ६ ठा० । “तत्तो यं रायपिंडं की " भाव० ४ 3 अ० । स्था० । कीच पुं० युधिष्ठिरसमकालिके विराटनगराधिपती, "नवमं दूयं विराडनगरं, तत्य गं तुमं कीयं रायं भावयसयसमां कर यल० जाव समोसरह " । झा० १ ० १६ श्र० । कीयफ (ग) मक्रीतकृत निवेश कृतं निष्या दितं क्रीतकृतम् । पिं० । क्रयणं क्रीतं भावे निष्ठाप्रत्ययः । साध्यादिनिमित्तमिति गम्यते, तेन कृतं निर्वर्त्तितं कपीतम । दश० ३ ० की मोमोपविशिष्टे पिं० सा मूल्येन गृहीते, बृ० १ ० | तदादिम्यता चैयम् अथ क्रीतद्वारमाह - पिय विहं, दव्वे भावे य दुविहमेकेकं । श्रयकीय परकीयं, परदव्वं तिविह चित्ताई ॥३३०॥ कोरोन निष्पादितम् श्रीतकृतमित्यर्थः । तदपि शास्तां प्राष्करणमित्यपिशब्दार्थः द्विविधं द्विप्रकारम तथा (दव्ये नावे यत्र तृतीयासमी ततोऽयमर्थ संभावेन च श्रीतमित्यर्थः पुनरप्येकैकं द्रव्यकीतं भावकीत च प्रत्येकं द्विधा । तद्यथा- आत्मक्रीतं, परक्रीतं च । श्रात्मद्रव्यश्रीतमात्मभावकीतं वः परस्व्यक्रीतं, परभावक्रीतं चेत्यर्थः । सामना स्वयमेव इत्येोजयन्तभगवत्प्रतिमाशेषाऽऽदिरूपेण प्रदानतः परमादर्शयन्नादि गृह्यते तदात्मव्यतीतम् । कीयक (ग) म यत्पुनरमा स्वयमेव भक्ताद्यर्थे धर्मकचादिना परमावनकादि ततो गृह्यते तत् श्रात्मनावक्रीतं तत्परद्रव्यक्रीतम् । उक्तं परीतयत्युनः परे सार्थ निजनिदर्शनेन कथादिना वा परमार्थतो गृहीतं तत्परनावक्रीतम, तत्र विवि त्रा गतिरिति प्रथमतः परद्रव्यक्रीतस्य स्वरूपमाह - पररूव्यं गृहस्थसत्कं व्यं त्रिविधम् । तद्यथा-चित्तादि । सचित्तमचित्तं या मिश्र वातेन परेण साध्वयं यत् क्रीतं तत् परम उक्तं वा परऊव्यक्रीतम् । संप्रति शेषं नेदत्रयं सामान्यतः कथयतिआयकि दुविहं दबे भावे य चुन्नदम्वा । जावाम्म परस्सा, हवा वी अप्पणा चैव ॥ १३१ ॥ श्रमतिं पुनद्वैविधम्। तद्यथा ( दव्वे भावे यति) अत्रापि वृतीयार्थे सप्तमी रातोऽयमर्थः- आत्मनाऽपि तं द्विधा द्यथा - इव्येण, जावेन च । तत्र व्येण चूर्णादिना वक्ष्यमाणेन, प्रावेन पुनः परस्य साधीरधीय वनजविज्ञानप्रदर्शनादिना पा येते तत् भावक्रीतम, परभाव क्रीतमित्यर्थः । अथवा जावेन तदात्मना स्वयमेवाऽऽहारार्थ धर्मकयादिना परमावततो गु यते तद् जावक्रीतम, आत्मक्रीतमित्यर्थः । तदेवं सामान्यतयोऽपि भेदा सक्ताः । संप्रत्यात्मव्यक्रीतं सप्रपञ्चं बिबरीषुरिदमाह निम्यगंधगुलिया बन्नयपोयाड़ आयकयदब्बे । गेसन्ने उड्डाहो, पडणे चारुगारि अहिगरणं ॥ ३३२ ॥ निर्मापं तीर्थादिगत समजावप्रतिमाशेषा, बन्धाः पटवासादय, विका मुखमक्षेपकस्वरूपपरावर्णादिकारिका गुमिका, वर्णकचिन्तनम, पोतानि लघुवायोग्यानि वस्त्रानि, झा दिशब्दा कराडकादिपरिग्रहः। एतानि कार्ये कारणोपचारादात्मइपीतानि किमु भवति निपादिदानेन परमाथ यतो भक्तादितमिति । यत्र दोषमाह(गेलने इत्यादि) निर्माल्यदानानन्तरं यदि कथमपि देवयोगतो म्लानो भवति तईि प्रवचनस्योड्डाहः साधुनाऽहं महानीकृत इत्यादिप्रजल्पनतः शासनस्य मालिन्योपपत्तिः। अथ कथमपि प्रगुणो नीरोगो भवति तर्हि स सर्वदा सर्वजनसमकं चाटु· कारी भवति यथाऽदं साधुना प्रगुणीकृत इति अतिशय वासी साधुः सकलज्ञात व्यकुशलः परिहततिमिर इत्यादि समक्षं परोकं वा सदैव प्रशंसां करोति । तथा च सत्यधिकरणं भूयस्यविकरणप्रवृत्तिः तादृशीं दि तस्य प्रशंसामात्यः समा गत्य तं साधुं निर्मायन्यादि यायते, ततस्तत्प्रार्थनापरव saकरणमपि समारभते । संप्रति परनावक्रीतं विवृषवन्नाहबहयाएँ मेखमाई, परजावकीयं तु संजपट्टाए । उप्पायरणा निमंतण-कीयगमं अहिने ठविए ॥ ३३३॥ वजिकं लघुगोकुलम् उपलक्षणमेतत्, तेन पचनादिपरिग्रहः तत्र जिकादी मादिम केदारका वा परपदलोकमावर्जयति । श्रादिशब्दात् तथाविधान्यपरिग्रहः । नतिषशाद संयतार्थ यत् घृतग्धादेरुत्पादनं करोति कृत्वा च निमन्त्रयति तत्परभावकीत परेण मयादिना संयतार्थ भा येन स्वपमदर्शनादिरूपेण क्रीतद परभाषीतम् । इत् Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६४) कीयक (ग)ड अनिधानराजेन्द्रः । कीयक (ग) म भूते च परजावक्रीते प्रयो दोषाः-एकं तावत् क्रीतकृतं, द्विती- काहिंति साहवो चिय,तुमं व कहि पुच्छिए तुसिणी ॥३३७।। यमन्यस्माद् गृहादानीतमित्यज्याहतम, पानीय चैकत्र साधु आहारार्ध धर्मकथां कथयता यदा ते श्रोतारो धर्मकथायाः निमित्तं स्थाप्यत ति स्थापितम् । तस्मात्सारशर्माप साधूनां सम्यगादिप्ता नवन्ति तदा तेषां पावें यत् याचते तर्हि तदा प्र. न कल्पते। कर्षमागताःसन्तोऽभ्यर्थितान विमुखं तिष्ठन्ति । यद्वा-धर्मकथाएतदेव गाथाद्वयेन स्पष्टयन्नाह त त्थितानां सतां तेषां पाश्वं यद् गृहाति तदात्मभावक्रीतम् । सागारि मंख छंदण, पडिसेहो पुच्छऽबहु गए वासे । आत्मना स्वयमेव भावेन धर्मकथनरूपेण फ्रीतमात्मजावक्रीकयरिं दिसिं गमिस्सह, अमुई तह संथवं कुणइ ॥३३॥ तमिति । यद्वा-धर्मकथाकथकः कोऽपि प्रसिको वर्तते, तदनुरूदिजंते पडिसेहो, कज्जे पच्छं निमंतण जईणं । पाकारश्च विवक्षिप्तः। ततश्च श्रावकाः पृच्छन्ति-यः कथी यो धर्म कथाकथकः श्रूयते स किं त्वमिति । ततः स नक्तादिलोभादेवं पुवगो आगएसु, संबुहई एगगेहम्मि ॥६३५॥ वक्ति, यथा-साधव एव प्रायो धर्मकथां कथयन्ति, नान्ये । यदि शालिग्रामो नाम ग्रामः, तत्र देवशर्माऽभिधानो मस, तस्य च | वा तूष्णीं मौनेनावतिष्ठते । ततस्ते श्रावका मौनात यथा स एगृहैकदेशे कदाचित्केचित्साधवो वर्षाकालमवस्थिताः । स च वायम् केवलं गम्भीरत्वादात्मानं न साकाद्वचसा प्रकाशयतीति; महस्तेषां साधूनामनुष्ठानमरक्तद्विष्टतां खोपलज्यातीव भक्तिप- ततः प्रभूततरं तस्मै प्रयच्छन्ति । तच तेज्यः प्रनूततरं लज्यमारीतो बनव। प्रतिदिवसं च भक्तादिना निमन्त्रयति । साधवश्व नमात्मभावक्रीतं प्रात्मना स्वयमेव, भावेन स्वयमसावपि कथशय्यातरपिएमोऽयमिति प्रतिषेधन्ति ततः स चिन्तयामास- कः सोऽहं कथकः' इति झापनालकणेन, क्रीतमिति कृत्वा । यथैते मम गृहे भक्तादि न गृहन्ति , यदि पुनरन्यत्र दापयि अथवाच्यामि तथाऽपि न गृहीप्यन्ति । तस्माद वर्षाकालानन्तरं यत्रामी किंवा कहेज छारा, दगसोयरिश्रा य अहवऽगारत्या। गमिष्यन्ति तत्राने गत्वा कथमप्येतेभ्यो ददामीति । ततः किं छगलगगलवलया, मुंडकुडंवी व किं कहए?॥३३॥ स्तोकशेषे वर्षाकाले साधवस्तेन पच्चिरे-'यथा भगवन् ! वर्षाकालानन्तरं कस्यादिशिगन्तव्यम् ? ते च यथानावं लथयामा यो जगति निपुणो धर्मकथाकथकः श्रूयते स किं त्वमिति पृष्टे, सुर्यथाऽमुकस्यां दिशि । ततः स तस्यामेव दिशि क्वचित एवमुत्तरमाद-किं कथाः कारावगुशिकतवपुषः,कथा येषु नैव,ते गोकुले गन्धपटमुपदर्य वचनकौशलेन लोकमार्जितवान् । कथयन्ति,किं दकं जलं तस्य निरन्तरं विनाशकाः,तथा शौकरिका लोकश्च तस्मै घृतदुग्धादिकं दातुं प्रावर्तिष्ट । ततः स बभाण इव पापदिकारिण इव दकशीकरिकाः सांख्याः, किं वा अगार'यदा याचिये तदा दातव्यमिति' । साधवश्व वर्षाकासानन्तरं स्थाः गृहस्थाः शास्त्राध्ययनविकलाः।यद्वा-छगलकस्य पशोयथाविहारक्रमं तत्राऽऽजग्मुः। तेन चात्मानमज्ञापयता पूर्वप्रति गेलं ग्रीवां वलयन्ति मोटयन्ति ते छगलकगलवालकाः,यदि मुपिकं घृतदुग्धादिकं प्रतिगृहं याचित्वा एकत्र च गृहे संमील्य एमाः सन्तो ये कुटुम्बिनः सौमोदनीयाः,ते कथयेयुः। नैव ते कथमुक्तम,ततः साधवो निमन्त्रिताः, तैश्च यथाशक्ति छद्मस्थदृष्ट्या यन्ति, किंतु यतय एव।तत एवमुक्ते श्रावकाश्चिन्तयन्ति- 'नूनं परिभावितं, परं न सक्तितं. ततः शुरुमिति कृत्वा गृहीतम् । न च स एवायं धर्मकथाकथकः' इत्यादि । तदेवं शेष कष्टव्यम् । तेषां तथा गृएहतां कश्चिदोषः, यथाशक्तिपरिजावनेन भगवदा- तदेवं धर्मकथाद्वारं व्याख्याय शेषारयतिदेशेन व्याख्यातिझाया आराधितत्वात् । यदि पुनरित्थंभूतं कथमपि शायते, तर्हि एमेव वाइखमए, निमित्तमायावगम्मि य विनासा । नियमतः परिहर्तव्यम, क्रीतकृताभ्याहतस्यापनारूपदोषत्रयस मुयगणं गणिमाई, अहवा वायगायरियमाई ॥३३॥ झावादिति । सूत्रं सुगम, नवरं सागारिकः शय्यातरः, संस्तवः परिचयः, निजपटप्रदर्शनेन लोकावर्जनमिति तात्पर्यार्थः । तदे यथा धर्मकथके विनाषा भावना कृता,एवमेव अनेनैव प्रका. वमुक्तं परभावक्रीतम्। रेण वादिनि कपके निमित्तझे आतापके च विनाषा कर्त्त व्या । यथा बादेनाकितं याचते, यद्वा-ये वादिनः श्रूयन्ते संप्रत्यात्मभावक्रीतं स्पष्टयनाह ते किं यूयमिति प्रभे प्रायो यतय एव वादिनो भवन्तीति व्रते, धम्मकहवायखमणे, निमित्तमायावणे सुयट्ठाणे । यद्वा-मौनेनावतिष्ठते, यद्वा-किं भस्मावगुएिउतवपुषः, किं वा जाईकुलगणकम्मे, सिप्पम्मि य जावकीयं तु ।।३३६।। दकशाकरिकाः । यद्वा, धिग्जातीयाः, यद्वा सौद्धोदनीया चादिधर्मकथादिषु भावक्रीतं जवति । इयमत्र भावना-येन परिचि नमवादं दधुः, नैव ते ददति, किं तु यतय एव, एवमुक्ते ते तावर्जनार्थ धर्मकथावाद, कपणं षष्ठाष्टमादिरूपं तपो, निमि एवं परिजानते-'यथा त पवामी,' ततो विशिष्टमाहारादिक तस्मै वितरम्ति,तच्च तथा सभ्यमानमात्मभावक्रीतमवसेयम् । समातापमां वा करोति । यद्वा-श्रुतस्थानमाचार्योऽहमित्यादिक कथयति। यदि वा जाति कुलं गणं कर्म शिल्पं वा परेज्याप्रकट तथा श्रुतस्थानं गण्यादि, तत्र गणित्वमाचार्यत्वम, आदिशन्नायति । इत्थं च परमावर्जयन् ततो जनादि गृहाति तदाऽऽत्मभा दुपाध्यायत्वादिपरिग्रहः। यद्वा-वाचनाचार्यत्वम,प्रादिशब्दात् प्रवक्रीतम्। यदा च दुःस्वकयार्थ च धर्मकथादिकं यथायोगं करोति वर्तकत्वादिपरिग्रहः। तत्र भक्ताद्यर्थमाचार्या वयमुपाध्याया अयतदास प्रवचनप्रभावकतया महानिर्जराभाक् भवति । नक्तं च. मित्यादि जनेभ्यः प्रकाशयति, येन जना आचार्यत्वादिकमव"पावयणी धम्मकहा-वाई नेमित्तिश्रो तवस्सी या विज्जासिद्धो गम्य प्रनृततरं वितरन्ति । यद्वा-ये प्राचार्या महाविद्वांसः श्रयय कई, अट्टेव पनावगा जणिया ॥१॥" म्ते,किं यूयमित्यादि तथैव भावनीयम्। जात्यादिकं स्वेतदर्थ क थयति, येन समानं जात्यादिकम, उत्कृष्टं वा शिल्पादि शात्वा __ संप्रति धर्मकथारूपं प्रथमं द्वारं प्रपञ्चयितुमाह प्रभूतं प्रयच्छन्ति, तच्च तथा प्रभूतं लभ्यमानमात्मभावधम्मकहाअक्खित्ते, धम्मकहाअोट्टियाण वा गिएहे। कोतम् । तदेवमुक्तं कीतद्वारम् । पिं०। प्रवागध०। Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीयक (ग)ड अन्निधानराजेन्डः । कीलिया प्रश्नः । दर्श० । पञ्चा० । वृ. । “ पायदबकीए परद- उवसमतित्तिण दोसो, गिलाणघा वा वेजो प्राणीतो तस्सट्ठा ब्वकीए प्रायनावकीए चउबहुं” पं०चू । क्रीतं द्विविधम्- धिप्पेजा, पकप्पं वा सिक्खंतो गहण करेज । कह? उच्यतेकन्यक्रीतं, जावक्रीतं च । तत्र द्रव्यकीतं द्विविधम्-श्रात्म- ___ संभोइया संनो-इयाण असती य लिंगमादीणं । रूच्यकीतं, परजव्यकीतं च । जावक्रीतमपि द्विधा-आत्मभा कप्पं अहिजमाणो, सुझासति कीयमादीणि ॥ ७ ॥ चकीतं, परजावक्रीतं च। तत्र परभावक्रीते मासलघु, स्वग्रामाभ्याहते मासलधु । वृ०१ उ०। “ उद्देसियं कीयग, पामिरचं पकप्पो सिक्खिययो सुत्ततो प्रत्थतो वि,स गुरुस्स पासे,ताहे चेव माहडं। पूयं प्रणेसणिज्जं च तं विजं परिजाणिया" ॥१४॥ सगणे, सगणिस्स वि असती ताहे संभोतिताण सगासे सिसूत्र० १ श्रु० अ० । नि० चू। क्खति, असति संनोतिताणं ताहे असंभौतिताण स. जे भिक्खू पमिग्गाहं काणइ कोणावे कीयमाह दिन गासे, तेसि पि असती य किंगत्थादियाण पासे पकप्पं अधिज्जति , तस्स य लिगिस्सं तं वियडयसणं हवेज्ज, माणं पमिग्गाहेड, पडिग्गाहंतं वा साइज्जा ॥१॥ सो य अप्पणा चेव चप्पापो, अह सो उपापउं सुस्तकयेण कडं कीतगेण वा कम कीयगडं, तं तिविहेण विकार- त्येण तरति दाउं ताहे से साधू उपाए सुझं, नति सुद्धं जण करतम्स चउलहुँ। ण लब्भ तादे कीयमादी गेए हज्जा। नि० चू० १० उ०। कीयकिरणावियअणुमो-इते व वियर्ड जमाहितं सुत्ते। कीयकारिय-क्रीतकारित-त्रि० । कीतेन उत्पादिते, क्रीतकृतदोएक्केक्कं तं विहं, दब्बे भावे य एायव्वं ॥ षदुष्टे, व्य० ३ उ०। अप्पणावि जं किणाति तं दचे नावे,किणावेते वि एते चेव दो कीर-कीर-पुं० । स्त्री० । कीति ईरयति-णि अन् । शुके, पभेदा, जंपिअणुमोदितं तं पिएतेहिं चेव कायं । नि: चू०१४००। | विभेदे, “खगवागियमित्यतोऽपि किं न मुदं धास्थति कीरगीजे भिक्खू वियमं किणकिणावेइ कीयमाह९ दिज्जमाणं | रिव।" जातित्वात् स्त्रियां ङी। काइमारदेश पुं० तम्नि । अपमिग्गाहेश, पडिग्गाहंतं वा साइज्जइ ॥ १ ॥ ल्पाथै कन्-कीरकः । शुकशावे, संझायां कन्, वृक्ष भद, कप एके च । वाच। दर्शश्रा० का कीयकिणावियअणुमो-दिते व वियमं जमाहितं सुत्ते ।। कीरत-क्रियमाण-त्रि० । क-कर्मणि लट्-यक्-शानच् । “ हु. एक्ककं तं दुविहं, दव्वे भावे यणायव्वं ॥ ३ ॥ कृतृजामीरः"1EI४४ए इत्यन्त्यम्य ईरादेशः । तत्संयोगे अप्पणा किणति,अमेण किणावेश साहुघा वा, कीयं परिजोग क्यस्य च सुक् । प्रा० ४ पाद । श्राज्ञप्तिकिङ्करैः (प्रश्न० ३ ओश्रजापति,अमं वा अणुमोहात,तस्स आणादिया य दोसा, श्राथद्वार) विधीयमाने, पश्चा०विव० । पा० । चउल हुंव।सो कयो सुविधो-अप्पणा परेण वा । एक्केक्को पु कील-कील-पु० । कील बन्धे यथायथं नावकरणादौ घञ् । णो दुविहो-दब्बे भावे य। शेषं पूर्ववत्। परनावीए मासलहुज अप्पशा किणति एस अप्पायणा,जं परेण किणावेई एस उम्गमो। बहिशिखायाम, शङ्की, स्तम्भे, लेशे, कफोणौ, कफोणिनिम्नदे शे, “परिवाश्चापि कौरव्य !, कीत्रैः सुनिचिताः कृताः" । रतिएतेसामसतरं, वियमं की तु जो पडिग्गाहे । प्रहारभेदे, खी। "कीला उरसि कर्तरी शिरसि विका कपोसो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे ॥४॥ लयोः।” बन्धे, वाच । सूत्र। कराठ्या वियडग्गहणं अकप्पपमिसेवा य, संजमविराहणाय। | कलंत-क्रीममान-त्रि० । कामक्रोमां कुर्वति, भ० १३श०६ उ०। जतो भातिइहरहऽकितं ण कप्पति,किं तु वियर्ड कीतमादि अविमुर्छ । कीलण-क्रीडन-न । क्रीडायाम, श्रो० । प्रज्ञा असमितेऽगुत्ति गेही, नड्डाहे महव्वया आदी ॥ ५॥ कीलणधाई-क्रीमनधात्री-स्त्री०। क्रीडनकारिण्यां धाव्याम, का इहरदा अकीतं, किं पुण कीतं नग्गमदोसजुत्तं सुटुतरं न कप्प झा०१ १०१०। कीबमाण-क्रीडमान-त्रि०। क्रीडां कुर्वति, "कागति दसगेण ति। वियडत्तो पंचसु वि समितीसु असमितो भवति, गुत्तीसु कालमाणा चिट्ठति " आ० म.द्वि० । वि अगुत्तो, तम्मि बहमासा, जस्स अपरिचायगो गेही जणेण णाते उड्डाहो, पराहीणो वा महब्धए भज्जेज । कहं ?। उच्यते-- कीलया-क्रीडता-स्त्री० । केलीकिलतायाम, ध०३ अधि० । वियतो उक्काए, विराहए वा सती तु सावजं । कीलसंगाण-कीलसंस्थान-त्रि० । कीलवदुचे, ध०३ अधिः। अगमागाणे उदएसु व, पमएं वा तेसु घेप्पा वा ॥६॥ कीमावण-क्रीमन-न० । वेडने, " छलावणमक्किट्ठा-बालपरहोणतणओ छक्काए विराहेजा, मुसं वा भासेज्जा, अदत्तं कोलावणं च सेंटाइ" श्रा० म० प्र०। वा गेण्हेजा, मेहुणं वा सेवेज्जा, हिरमादिधारिग्गरं वा करेज्जा; कीलावणधाई-क्रीमनधात्री-स्त्री० ।"दस्सरपुम्ममुहो, ममयप्रायविराहणा इमा-अगमे त्ति कूवे पडेज्ज, पबित्ते य वा मजिक- गिरासू य मम्मणुल्लायो । उल्लावणकादीहि व,करेति कारोति ज्ज, उदगेण वा मरेज्ज, तेणेव कसारण वा णिकासंति तो | वा किरुं" ॥१३०॥ इत्युक्तस्वरूपे दासीदे, नि० चू०१३ उ०। तेहिं घेप्पइ । अहवा कारणे पत्ते गेण्हेजा कीलिय-क्रीमित-न । द्यूतादिरमणे, स्था०म०। उत्त० । वितियपदं गेलामे, विज्जुवदेसे वहेव सिक्खाए । प्रश्न । स्यादिभिः सह द्यूतपुरोदरादिरमणे, उत्त० २ ० । एतेहि कारणेहिं, जयणाए कप्पती घेत्तुं ॥७॥ कीलिया-कीलिया-स्त्री०। शङ्को, नासिकादिवेधनं कीलि. घेजोवदेसेण गिलाणहा घेप्पेज, कस्सवि कोऽतियाही. तेणेव | कादितिः। श्राव०४०। कीलिकाविद्धास्थिद्वयसाचत पञ्च २४२ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीलिया अनिधानराजेन्धः। मे संहनने, कर्म०६ कर्मा स्था। यत्र पुनरस्थीनि कीलिकामा- दट्टण संनिविटुं, निगणमणायारसेवाणिं वा वि। प्रयानि एव भवन्ति । कर्म १ कर्म०। पं० सं० । जी०।। संद व सोतु ततितो, सज्जं मरणं वोहाणं ॥३५॥ कीलियाणाम-कीलिकानामन्-न० । कीलिकानिबन्धने संहन द?ण उबरिसरीरमप्पाउयंऽवियउरूसंनिविटुं असंवुमं(णिगिननामभेदे, कर्म०१ कर्मः। णं ति)णगं मेहुणमणायारसेवर्णि वा जो खुम्भति सो दिट्ठीकीवो। कीलियासंघयण-कीलिकामंहनन-त० । पञ्चमे संहनने, य. श्मो सद्दकीबो-(सई व सोउंति)भासानूसणगीतपरियारणासहं वास्थीनि कीलिकामात्रबद्धान्येव जवन्ति तत्कीलिकासंहनन- च सोतुं जो खुमति सो सहकीवो। (नत्तिश्रोत्ति) एस ततिश्रो म् । कर्म०६ कर्म कीवो। अहया एते निरुज्झमारणा ततिय त्ति णपुंसगा भवंति, कीव-वनीब-पुं० । नालीब-कः। क्लिद्यति इति क्लीवः। सज वा मरति, वो हाविति वा । इमं दिहीकी भणति । निचू०११ उ० । मन्दसंहनने, भ. ३२ उ०। झा० । अ साहम्मियऽमहम्मिय-गारत्थियात्थियाउ दवणं । समर्थ, सूत्र. १७०३१०२नानगुंसकभेदे, वृ०४ उ०। तो नप्पज्जति वेदा, कोवस्स ण कप्पती दिक्खा |३५॥ यः स्त्रीभिर्भोगैर्निमन्त्रितोऽसंवृताया वा स्त्रियोऽङ्गोपाङ्गानि एया तिविधत्थीउ दटुं उक्कमवेदत्तणो पुरिसवेदो अपिज्जरखा, शब्द वा मन्मनोडलापकं तासां श्रुत्वा समुद्भूतकामानि- ति, उदिरो य वा इन्धिग्गहणं करेज, उड़ाडादी दोसा, तम्हा लाषोऽनिलोदुन शक्रोति स क्सीबः । ग०१अधि०।०भा०। न दिक्नेयव्या। दिक्तस्स श्म पछित्तं-प्रालिद्कीवे चउगुरूं, पं० चू । ध०। णिमंतणकीवे छन्गुरूं, दिट्ठीकीवे छेदो, सद्दकीवे मूलं। अहवा अथ कत्रीबमाह सामन्त्रेण कीवे मूलं, पते जदि पव्वाविता अजाणता ततो कीवस्स गोणनाम, कम्मुद निरोहे जायती तंतिओ।। श्मा जयणा परियट्टणेतम्मि वि सो चेव गमो, पच्छित्तुस्सग अववादे ॥३०॥ ___ संघामगाणुवका, जावजीवा वए णियमियचरित्ते। क्रीवस्य गाणं गुणनिष्पन्न नाम,विद्यते इति क्लीबः। किमुक्तं भव- दो कीवे परियति, ततियं पुण नत्तिमट्टम्मि ॥४५६ ॥ ति?,मैथुनाभिप्राय यस्याङ्गादानं विकारं भजति वीजविन्दन् वा सदा संघाडगाणुवद्धा सवितिया एवं अतीव नियतं कज्जति। परिगति सक्तीबः। अयं च महामोहकमोदयेन भवति। यदाच अभिभूतो दुविहो वि एवं परियट्टिजति, ततिश्रो अणभिभूतो परिगलतस्तस्य निरोधं करोति तदा निरुकवीर्यस्तरकालान्तरण सो परं उत्तिम पवाचिजति । एसेवाऽत्यो अन्नहा भन्नतितृतीयवेद उपजायते।स चतुर्की- दृष्टिक्लीबः, शब्दलीयः, श्रा अभिजूतो पुण जवितो, मच्चस्स वितिज्जगाउ सव्यस्थ । दिग्धतीवः, निमन्त्रणाक्लीवश्चेति । तत्र यस्यानुरागतो वि. वस्त्राद्यवस्थं विपकं पश्यतो मेहनं गलतिस दृधिकीयः। यस्य त इयरे पुण पमिसिका, सद्दे स्वे य जे कीचा ॥३५७।। सुतरां शब्दं शृण्वतः स द्वितीयः। यस्तु विपक्षणोपगूढो निम- पुण सद्देण अभिजूतो दुविहो-विभयणसद्दो सेवाप,अधवा जति न्त्रितो वा व्रतं रक्षितुं न शक्नोति स यथाक्रममादिग्धकीबो नि- गच्छे वितिज्जगा अस्थि,तो ते पव्वाविज्जति.से वित्तिजगा सम्धमन्त्रणाक्लीवश्चेति । चतुर्विधेोऽव्ययमप्रतिसेवमानो निरोधेन न- स्थ गात, इयरे पुण जे सद्ददिछ। कीवा,ते दो वि पडिसिका, पुंसकतया परिणमति, तस्मिन् अपि क्लीबे स एव प्रायश्चि पतेसिं परं उत्तिम दिक्खा। कीवे त्ति गयं। निचू० ११ १० । तोत्सर्गापवादेषु गमो भवति यः पण्डकस्योक्तः। वृ०४ उ.।। स्थान(स प्रवज्याऽयोग्य इति 'पवज्जा' शब्दे वयते) ध० । नि० चू। कीवसउण-क्लीबशकुन-पुं०। पक्किभेदे, प्रश्न०१ श्राश्रद्वार। दुविहोय होति कीवो,अजिजूतोवा वि अणभिजूतो। कीस-कीश-पुं० । स्रो० । कस्य वायोरपत्यम, “प्रत इम्"। चउगुरुगा छग्गुरुगा, ततिए मूलं तु वोधव्यं ॥३५०॥ १। ए (पाणि )। किः हनुमान ईशो यस्व । कुत्सितं शेते अहवा होई कीवो, अभिनूतो चेव अणभिनृतो य । था। वानरे, स्त्रियां जातित्वात् ङीम् । स, कपिकपोलतुल्य वर्णस्वात् तस्वम् । पक्किणि,कुत्सितशयनात्तस्य तथात्वम् । नने, अभिनतो विय विहो,निमंतणाऽऽदिच्छकीवो य ।३५१। कीशवत वस्त्रराहित्यात्तस्य तथात्वम् । वाचः। सुविहो य अणभिनूतो, सद्दे रूवे य होइ नायब्यो । कस्मात-अव्य०1" किमो मिणोडीसो" || ३१६८। इति अभिजूतो जतुगादी, सेसा कीवा अपमिकुटा ।। ३५३ ।। किमो उसेडींसादेशः। प्रा०३ पाद । कुत इत्यर्थे, उत्त० अ० संफासमणुप्पत्तो, पमती जो सो तु अभिजूतो। प्रश्न । व्य०। णिवतति य इस्थिनिमंत-णेण एसो चेव अजिनतो ।३५३३ कीसु-क्रिये-फ्रिया० । निर्व] इत्यर्थे, “संता भोग जु परिहरह, अभिनतो, अणजिनूतोय । अभिनतो य पुणो दुविहो-णिमं. । तसु कंतहो बलि कीसु" साध्यमानावस्थात् 'क्रिये' इति तणा कीबो, आदिद्धकीवो य । अनिनूतो दुविधो-सद्दकीवो, संस्कृतशब्दादेष प्रयोगः। प्रा०४ पाद । दिहिकीवो य । एस चनविहो कीवो । इमा प्ररूवणा-इथिए कु-कु-अव्य० । कु-मुः। पापे, निन्दायाम, वाच। कुरित्यज्ययं णिमंतितो जोगेहिं न तरति अडियासित एस निमंतणाकी- | निपातो जुगुप्सायामशुद्धविषये वर्तते । सूत्र.११०७०। यो। जतुघमो जहा अग्गिसंनिकरिसेण विनयप्ति एवं जो हत्थो- निन्दायामीपदर्थे, निवारणे नूमिभागे, धरायां च, स्त्री० । रुकक्लपयोधरेदि आदिको पडिसेवति एस आदिकीयो। वाच । कुरिति पृथिव्याः संझा । वृ०३ उ०। आ० मा प्रा० श्मो दिछीकीबो यू० । विशे० । कुमारे, विपा० १ ० ६ ०। Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। कुंमकोलिय कश्य-कचिक-पुं० । स्त्री० । कुन् वा श्कन् । मत्स्यभेदे, खियां | जीत० । गुञ्जायाम, वंशशास्त्रायां, कार्चकायाम, महीलताजातित्वात डीए । भारतवर्षे ऐशान्यां दिशि देशनेदे, वाच। | यां च । वाच । कचित-त्रि० । कुच् कितच् । परिमिते, पाय० । कुच् क्तः । कुंजर-कुञ्जर-पुं० । को जीर्यतीति कुञ्जरः। यदि वा कुजे अवस्यन्दिते, स्था०६०। वनगदने रमते रतिमाबध्नाति इति कुञ्जरः । “कचित्" । ५१॥ कुंआरी-कुमारी--स्त्री०। मांसलप्रणासाकारपत्रावल्याम, थ० २/ १७१॥ इति ( हैम० ) सूत्रेण मा प्रत्ययः । जी० ३ प्रति० । हअधि। स्तिनि, स्था०ए ठा० । दम्तिनि, रा०।ज्ञा० । गजे, भ० ११ श०११ उ०। उत्ताको स्त्रियांजातित्वाद् ङीष् । पिप्पल्याम, कंकण-कोडना-पुं० । देशभेदे, तेषां राजा कोङ्कणः । तद्दे- पाच०।श्रीऋषभदेवस्य ध्यशीतितमे पुत्रे कुछजरबले, तत्पालिशनृपे, बहुषु अणो लुक् । तत्रार्थे, स्वार्थे कः । “शाल्वाः कोक- तदेशनेदे च । कल्प०१क्षण । णकास्तथा" वाचा सच देशोऽनार्य केत्रम, तद्वासिमोऽनार्याः। कंजरसेणा-कचरसेना-स्त्री० । ब्रह्मदत्तचक्रिणा लम्धे कन्यारप्रज्ञा०१ पद । अनु० । “अस्ति कोकणदेशेऽत्र, सानामा महागिरिः" | प्रा० क० । कोकनदे, प्रज्ञा०१ पद । चतुरिन्धिवजीव ने, उत्त० १३ अ०। विशेष, उत्त०३६ अ०। कुंजराणीय-कुञ्जरानीक-नास्तिसमूढे, स्था०७ ग०। कुंकुम--कुडम--न० । कुक्यते आदीयते। कुक पादाने, उमा, मि. कुंट-कुएट-त्रि० । विकलपाणी; प्रव० ११० द्वार । होनहस्ते, मुम । काश्मीरादिदेशजे स्वनामख्याते गन्धव्यजेदे, वाचः नि० चू० ११ १० । प्रश्न "ते होति कुंटमंटा" प्राव. ३ मा रा० । आ० म०। प्रश्न । झा० । अनु० । जं। कुंटत्त-कुएटत्व-न०। पाणिवक्रत्वादिके, कुब्जत्वे च । आचा० कुंच-कञ्च-पुं० । स्त्री०। क्रन् च अन् । वकभेदे, स्त्रियां। १ श्रु०२ अ० ३ उ०। संयोगोपधत्वात टाप, पुंयोगे तु अजा टाए, टावन्तः। वीणाभेदे, कुंटलविंटल-कुएटलवेण्टस-न। खटिकावप्पुटिकादी, "तत्थिखी। स्वायें अण् कीश्वः स्वनामख्याते पर्वते, 'कुमारः को- | मोरागसनिवेसे अच्छंदो उकुंटलविंटलेणं जीव"प्रा०म०वि० श्वदारणः'।वकभेदे च । स्त्रियां तु भणन्तत्वात् ङीप् । षाच०।। च। स्त्रिया तु भणन्तत्वात् जाम् । षाच०।। वृ०1"पाखएमपचन्दकस्तत्र, मन्नतन्त्रादिजीवकः" भा०क.। पक्षिविशेष, साशरत्काले क्रौचा माद्यन्ति मधुरध्वनयश्च भवन्ति । स०। प्रश्नका उत्ता"श्रह कुसुमसंभवे काले, कोला कुंटारं-देशी-ग्लानार्थे, दे० ना०२ वर्ग। पंचमं सरं । ग्टुं च सारसा कुंचा, णेसायं सत्तमं गो" कंटी-देशी-पोट्टले वस्त्रनिबद्धव्ये, दे० ना० २ वर्ग । अनु० । अनार्यदेशभेदे, तासिनि जने च । प्रव० २७४ द्वार।। कुंचग-क्रौञ्चक-पुं० । पक्तिविशेषे, “ जो कुंबगावराहे पाणि कुंठ-कुण्ठ-त्रि० । कुठि वैकल्ये अच् । बुद्धिविकले, प्राचा०१ दया कुंचगं तु नाइक्खे । जीवियमणुपेहतं, मेतज्जरिसिं नम श्रु०६ १०४ उ० । मूर्खे, क्रियासु मन्दे, अकर्मण्ये, वाच । सामि ॥" आ० म०वि० कुंभ-कुएम-न० । कुण्ड्यते रक्ष्यते जलं बहिर्वाऽत्र "कुडि" कंचज्य-क्रौञ्चध्वज-पुं० । स्त्री० । क्रौचा लेखरूपविहोपेते रकणे आधारे अच् णिलोपः । जलाधारे, वृत्ताकारे पात्रभेदे, होमार्थमन्न्याधारे स्थानभेदे, देवादिखातजलाशये, पाच० । ध्वजे, रा। गङ्गकण्डादौ हदे, नं० । स०। कादम्बी कन्निगिरेरुपत्यकाकुंचलं-देशी-मुकुबे, दे० ना०२ वर्ग। वर्तिनि स्वनामख्याते सरोवरभेदे, तो०३४ कल्प । कुरामयते कंचवीरग-क्रौञ्चवीरक-न। शकटपक्षसरशे जलयाने, नि. कुसमनेन। कुमि दाहे करणे घञ् । अमृते भर्तरि जारजाते, स्त्रियां टाप् । “पत्यौ जीवति कुएमयः स्यात्" तेन निर्वृत्ताद्यर्थे चाचू०१६ उ०। तुरी कुण्मरः । तनिवृत्तादौ, त्रि० 1 कुमि दाहे भावे मः। कुंचारि-क्रौञ्चारि-पुं० । स्कन्दे, को०। दाहे, वाच। कुंचि-कुञ्चिन्-त्रि-। कुटिले, मायाविनि च । व्य० १००। कंमकोलिय-कामकोलिक-पुं० । स्वनामाङ्किते उपासकभेदे, कुंचिकल-कुञ्चिकर्ण-पुं० । स्वनामख्याते गोमरामलाधिपती, स्था। कुएमकोलिको गृहपतिः काम्पिल्यवासी धर्मध्यानस्थो यथा देवस्य गोशालमतमुद्ग्राहयत उत्तरं ददौ, दिवं च ययौ, यथा ('वग्गणा' शब्दे तदाहृतिः करिष्यते) यत्रानिधीयते तत्तथेति उपासकदशानां षष्ठऽध्ययने, स्था कंचिय-कुञ्चित-त्रि । ईषत्कुटिवे कुण्डलीनूते, जं.२यक्ष। १.ग। भ० । उत्त। ०। तगरपुष्पे, ना पाच । __ तवक्तव्यता चासौकंचिक-पुं० । स्वनामख्याते तापसे, प्रतिकुञ्चनायां दृष्टान्तः। बहस उक्खेवो-तेणं कालेणं तेणं समएएं कंपिपरे व्य०१उ। णयरे सहसंबवणे उजाणे जियसत्तू राया, कुंमकोलिए कुंचियत्नाव-कुञ्चितभाव-पुं० कुटिलभावे, व्य० १ उ०।। गाहावई, पूसा भारिया, उ हिरमकोमिए णिहाणपत्ताभो, कंचिया-कुञ्चिका-स्त्री० । कुश्चिण आच्छादने, कुश्चत्यच्छादय- छ वुहिन पवित्थरपत्ताओ बब्वया दस गोसाढस्सीएणं ति इति कुश्चिका । रुतपूरितपट्टे, या लोके माणिकीत्युच्यते।। वएणं सामी समोसढो सावयधम्म पमिवजा जहा काम Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंमकोलिय देवो, सो सच्चे जतन्त्रया जाव परिलाभेमाणे विहरह । तएां से कुंमकोलिए अमया कया विपुव्वावर हकालसमसि जेणेव पुढविसिलापट्टए तेथेव जवागच्छर, उवागच्छइता णाममुदमं च उत्तरियगं च पुढविसिलापट्टए ठवेश, टबेत्ता समणस्स जगवओ महावीरस्त अंतिए धम्मपात्तं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ । तए णं तस्स कुंमकोलियस्म समणोवास एगे देवे अंतियं पाउन्न वित्था, तए एणं से देवे णाममुदं च उत्तरिज्जं च पुढविसिलापट्टयाओ गिएहति, गिएहतित्ता सखिखिणि त्र्यंतलिक्खं पविन्ने कुंमकोल्क्षियं समणोवासयं एवं बयासी-हं भो ! कुंरुकोलि-र्यादीनामकरणेनेति भावः । या समोवासया ! सुंदरी णं देवाणुप्पिया ! गोसाक्षस्स लिपुत्तस्स धम्मपत्ती, नत्थि उट्ठाणे ति वा परिकम्मे तिवावले ति वा वीरिए ति वा पुग्सिकारपरकमे तिवा पितिया सव्वजावा । मंगुली णं समणस्स जगवओो म हावीरस्य धम्मपत्ती उहाले ति वा जाव० परकमे तिवा अणितिया सव्वजावा । तए णं से कुंमकोलिए तं देवं एवं वयासी-जइ देवाविया ! सुंदरी गोपालस्स मंखलिपुत्तस्त धम्मपणती, एत्थि० जाव उट्ठाणे ति वा जाव पितिया सव्वजावा, मंगुली णं समस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपाती, अस्थि उट्ठाणे ति वा जाव प्रणितिया सव्वजावा । देवा! मेएया दिव्वा देवि । दिव्वा देवजुई दिव्वे देवाभावे किरणा बद्धे किमा पत्ते किमा अभिसमए गए ?, किं उड्डाणेणं जात्र पुरिसकारपरक मेणं १, उदादु द्वाणं कम्मेण जाव पुरिसक्कारपरक्कमेणं ? | तरणं से देवे कुंमकांक्षियं एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! मए इमेयारूवा दिव्वा देवेडी अण्डाणेणं० जात्र पुरिसकारपरक मेणं लचा पत्ता असिमएणागया । किमपि लिख्यते षष्टे (धम्मपन्नन्ति त्ति) श्रुतधर्मप्ररूपणा दर्शनं मतमू, सिद्धान्त इत्यर्थः। उत्थानम् - उपविष्टः सन्यदूर्द्धाभवति, कर्म गमनादिकं, बलं शारीरं वीर्य जीवप्रजवं, पुरुषकारः पुरुषत्वा जिमानः, पराक्रमः स एव संपादितस्वप्रयोजनः। इति उपप्रदर्शने, वाविकल्पने, अस्त्येतदुत्थानादि जीवानाम्, एतस्य पुरुषार्थप्रसाधकत्वात् । तत्साधकं च पुरुषकार सद्भावेऽपि पुरुषार्थसिद्ध्यनुपसम्भात एवं च नियताः सर्वभावाः, यैर्यथा भवितव्यं ते तथैव प्रवन्ति, न पुरुषकारबलादन्यथाकर्तुं शक्यत इति । आइ च"प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः, सोsari भवति नृणां शुनोऽशुभो वा । नूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाजाव्यं भवति न जाविनोऽस्ति नाशः " ॥ १ ॥ तथा "न हि भवति यश्न नाव्यं, ( ५६८ ) अभिधानराजेन्द्रः । नवति च नाव्यं विनाऽपि यत्नेन । करतलगतमिव नश्यति, यस्य तु जवितव्यता नास्ति ॥ १ ॥ " कुंमकोलिय (मंगुलि ति) सुन्दरा धर्मप्रज्ञप्तिः श्रुतधर्मप्ररूपणा । किंस्वरुपा असावित्याह- अस्तीत्यादि । श्रनियताः सर्वभावाः उत्थानादेर्भवन्ति, तदजावान्न जवन्तीति कृत्वा इत्येवं स्वरूपाः । ततोsar कुण्डकोलिकः तदैवमेवमवादीत्-यदि गोशालकस्य सुन्दरो धर्मो नास्ति कर्मादीन्यतो नियताः सर्वभावा इत्येरुपः । मङ्गलश्च महातीरधर्मोऽस्ति कर्मादीन्यनियताः सर्वभावा इत्येवस्वरूपमित्येवं सन्मतमनूद्य कुण्डको लिकस्तन्मतदूषणाय विकल्पद्वयं कुर्वन्नाह - " तुमे णं" इत्यादि । पूर्ववाक्ये यदीतिपदोपादानादेतस्य वाक्यस्यादौ तदेति पदं द्रष्टव्यम् । इतिन्वयाऽयं दिव्यो देवर्थ्यादिगुणः केन हेतुना लब्धः ?, किमु स्थानादिना (उदाहुत्ति) श्राहोस्विदनुत्थानादिना तपोब्रह्मच For Private तां से कुंमकोमिए समणोवास तं देवं एवं वयासी देवापिया! तुमेहमा एयारूवा दिव्वा देवि - डा जाव अपुरिसक्कारपरकमेणं लद्धा पत्ता असि मला गया, जेसिणं जीवाणं नत्यि उट्ठाऐति वा० जाव परकति वा ते किं न देवाप्पिया ! हा देवाप्पिया ! तुमे इमेावा दिव्वा देवि दिव्वा देवजुई दिव्वे देवाणुभावे लट्ठाणे ति जाव परकमेण वा ताम्रो जं वदसि सुंदरी गोसालस मंखलिपुत्तस्स धम्मपणती, गत्यि उट्ठाले ति वा जाव णितिया सव्वजावा, मंगुली एवं समणस्स भगवओो महावीरस्स धम्मपष्पत्ती, अत्यि उट्टाणे ति वा जाव अणितिया स भावा तं ते मिच्छा, तए णं से देवे कुंमकोलिएणं समणोवासएणं एवं वृत्ते ससंकिते जाव कलुससमाव को संचाएति कुमकोलियस समयोवास्यस्स किं वि पामोक्खमाइ खित्तए णाममुदं च उत्तरिज्जयं च पुढविसिलापट्टए वेति, तिचा जामेत्र दिसं पाउन्नूर तामेव दिसिं परिगए । तेणं काणं तेणं समएणं सामी समोसढो । तए हां से कुंमकोलिए इमी से कहाए लबट्टे हट्ट तुट्ठ जान हियया जहा का मदेवे तहा लिगच्छ जाव पज्जुवासइ धम्मकहा कुंडकोलिए त्ति समणे जगवं कंडकोलियं समणं एवं क्यासी-से कुंमकोलिया ! कलं तुम्मे पुव्वावरण्दका समयंसि मोगा एगे देवे अंतियं पाउन्भवित्या । तए पं से देवे णाममुदं च तं चेत्र जाव पडिगए, से पूर्ण कुंरुकोलिया ! समट्टे, हंता अत्थि, तं धरणेसि गं तुमं जहा कामदेवे जो त्ति समणे भगवं समणा निग्गंथा य निधीओय मंतित्ता एवं वयासी जड़ ताव अज्जो ! गिहिणो गिहिमज्या वसंतो णं प्रमुत्थिए अहिय हे उहिय प सिहिय कारणेहि य वागरणेहि य लिप्पट्ठपसिएवागरणे करेइ, सका पुलाइ अज्जो ! समणेहिं णिग्गंथेहिं दुवाल मंग गणपि हिज्ज माणेहि उत्थिया प्रत्येहि य० जाव पिपसिणं करेतर, तए एां समया निग्गंथा समएस्स Personal Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंमकोलिय (५६६) अभिधानराजेन्छः । कुंमलवरमहाभद्द भगवनो महावीरस्स तह त्ति एयमढेंविणएणं पमिसुणे। कुंमपुर-कुएमपुर-न० । स्वनामख्याते नगरे, यत्र भगवतो मतए णं से कुंमकोलिए समणं भगवं वंदइ नमसइ पसि- हावीरस्य ज्येष्ठा भगिनी परिणीता । " कुंमपुर नगरं तत्थ णाई पुच्चइ अनुमादियइ जामेव दिसं तामेव पमिगया स सामिस्स जेट्ठा भगिणी सुदंसणा नाम " प्रा० म०वि० । भा० च० । इहैव भरतत्क्षेत्रे कुएमपुरं नाम नगरं, तत्र मणोवासया बहिया जणवयविहारं विहरइ, तस्स कुंडको- | जगवतः श्रीमहावीरस्य भागिनेयो जमालिनामा राजपुत्र प्रालियस्स बहुहिं सील. जाव जावेमाणे चोइस संवच्छरा सीत् । विशे० । स्था० । दर्श। प्रा० क० । कुएमग्राम इति वितिकता पन्नरसमस्स संवच्चरस्त अंतरा वट्टमाणस्स नामान्तरम् । तस्य दक्षिणोत्तरक्रमात ब्राह्मणकुएमग्रामः त्रिअप्पया जहा कामदेवो तहा जेट्टपुत्तं ठवेश, ठवेइत्ता तहा यकुण्डग्रामश्चेति द्वौ भागौ। तत्र ब्राह्मणकुण्डप्रामे देवानन्दाया पोसहसालाए जाच धम्मपद्यत्ती नवसंपजित्ता एं विहरइ, गर्भे नृत्वा कृत्रियकुरामग्रामे त्रिशलाकुक्को संकृष्टो नगवान् भ हावीरः । आव० १ अ० प्रा० म०॥ एवं एकारस नवासगपडिमाओ तहेव जान सोहम्मे कप्पे अरुणकए विमाणे जाव अंतं काहिति । उवासगदसाणं बढे कुंमनी-कुएमनी-स्त्री० । लघुपताकायाम, प्रा० म०प्र० । अजयणं सम्पचं । कुंभमोद-कुएममोद-पुं० । हस्तिपादाकारे मृण्मये पात्रभेदे, दश०६अ। यदुत्थानादेरजावेनेति पक्को गोशानकमताश्रितत्वात् जबतः,तथा येषां जीवानां नास्त्युत्थानादि, तपश्चरणकरणमित्यर्थः। ते इति कुंडल-कुएमन-पुं० । न० । अर्द्धर्चा० । कुएज्यते कुण्डयते जीवाः किंन देवाः । पृच्चतोऽयमभिप्रायः-यथा त्वं पुरुषकारं 'कुमि' दाहे 'कुमि' रकायां वा कर्तरि कर्मणि या वृषा० डल विना देवः संवृत्तः स्वकीयाभ्युपगमतः एवं सर्वजीवा ये उत्था च् कुएम कुएमाकारं लाति ला० क०कुण्डः। तदाकारोऽस्यस्य नादिवर्जितास्ते किन देवत्वं प्राप्नुवन्ति,न चैतदेवमिष्टमित्युत्था सिमादित्वाल्मन् वा वाच । कर्णाभरणे, तं० । कर्णाभरणनाद्यपलापपके दूषणम् । अथ त्वयेयमृद्धिरुत्थानादिना लब्धा विशेषे, भ०२ श०५ उारा। जं० । प्रज्ञा० । प्रा०म० । ततो यद्वदसि-सुन्दरा गोशालकप्रप्तिः, असुन्दरा महावीर जी। उत्तआचा। औ०। "अंगयकुंडसमगं जुयलप्राप्तिरिति तत्ते तन मिथ्यावचनं भवति,तस्य व्यनिचारादिति । करणपीउधारी" प्रज्ञा०२ पद । अरुणवरायन्नासपरिक्वेपिणि सतोऽसौ देवम्तेनैवमुक्तः सन् शङ्कितः संशयघान् जात:-किं स्वनामख्याते द्वीपभेदे, तत्परिकेपिणि समुन्नेदे च । तत्र गोशाल कमतं सत्यमुत महावीरमतम?,महावीरस्य युक्तितोऽनेन कुण्डले द्वीपे कुरामलकुएमलभनौ देवी,कुएमलसमुझे चतुःशुप्रतिष्ठितत्वात । एवंविधविकल्पवान् संवृत्त इत्यर्थः । कासितोम भचक्षुःकान्तौ कुएडलद्वीपदेवौ च । सू० प्र० १९ पाहु० । मापि, साध्ये तद्युक्त्युपेतत्वात् । इति विकल्पवान् संवृत्त इत्य जी। चंद्वी० । एकादशद्वीपवर्तिनि चक्रवालपर्वते, स्था० र्थः । यावत्करणादिं समापन्नो मतिनेदमुपागतो गोशालकम- १० ग०। वनये, वेष्टने च । वाच०। तमेव साध्विति निश्चयादपोढत्वात् । तथा कलुषं समा- कुंमलनज्जोआणण-कुण्डलोद्योतितानन-त्रि० । कुरामलापन्नः प्राक्तननिश्चयविपर्ययलक्षणं मोशालकमताऽनुसारिणां श्यामद्योतितमाननं मुखं यस्य स तथा । कुण्डलशोभितमुखे, मतेन मिथ्यात्वं प्राप्त इत्यर्थः। अथ वा कसुषनावम्-जितोऽह औ । कल्प। मनेनेति नेदरूपमापत्र इति । (नो संचाए इति)न शक्नोति (पामोक्खं ति) प्रमोक्कमुत्तरम, आख्यातुंभणितुमिति । (गि कुंमलज्जोइय-कुण्डलद्योतित-त्रि० । कुण्डलयुक्त, न० ११ हिमज्का वसंताणं ति) गृहमध्ये वसन्तः। णमिति वाक्याऽ | श०११ उ०। श° १९३० । लङ्कारे । अन्ययूथिकान अथैर्जीवादिभिः समाभिधेयर्थ हेत- कंडलभह-कण्डलन-पुं० । कुण्डलद्वीपाधिपती, जी० ३ निश्चान्त्रयव्यतिरेकलकणैः प्रश्नैश्च परप्रइनीयपदार्थः कारण- प्रति । सू० प्र०। द्वी। रुपपत्तिमात्ररूपैः व्याकरणैश्च परेण प्रश्नितस्योत्तरदानरूपैः (निष्पट्टपसिणवागरणे ति ) निरस्तानि स्पष्टानि व्यक्तानि कुंमझमहाजद-कुएमलमहान-पुं० । कुएमलद्वीपाधिपती, व्याकरणानि प्रश्नव्याकरणानि येषां ते निस्पष्टप्रश्नव्याक जी०३ प्रति०। रणाप्राकृतत्वाद्वा निस्पिष्टप्रश्नव्याकरणाः, तान् कर्वन्ति (स. कुंमलमहावर-कुएमनमहावर-पुं०। कुण्डलवरसमुहाधिपका पुण ति) शक्या पव दे आर्याः! श्रमणैरन्ययाथिका नि- तो, सू० प्र० १६ पाहु°। पष्टप्रश्नव्याकरणाः कर्तुमिति । षष्ठं विवरणतः समाप्तम् ।। ववरणतः समाप्तम् । कंमलवर-कामावर-पुं० । कुण्डनसमुष्परिकेपिणि द्वीपनेदे, उपा०६०। तत्परिवेपिणि समुच । तत्र कुयरलवरे द्वीपे कुएडलवरकंडग्गाम-कुण्डग्राम-पुं० । स्वनामख्याते मगधदेशग्रामभेदे, | भद्रकुण्डल वरमहाजद्रौ, कुएमलवरे समुझे कुएमसवरकुएमनस च ब्राह्मणकुरामग्रामः कृत्रियकुएमग्राम इति च द्विधा वि- महावरी देवी। जी०३ प्रति०। चं०प्र० । अनु० । सू०प्र० । भक्त शति प्रतीयते । तत्र श्रीवीरः प्रतिमारूपेण प्रतिप्रितः । द्वी०। कुण्डलवराख्ये द्वीपे प्राकारकुएमलाकृती माएमलिकपर्वती०४६ कल्प । “तेण सामी कुंडगगामे दिवो ।" श्रा० तविशेष, स्था० ३ ग०४३०। माडि कुरलवरजद्द-कुण्डलवरभा-पुं०। कुण्डलबरद्वीपाधिपतिदेवे, कुंमधार-कुण्डधार-पुं० । कुएम कुएलाकारं धारयति । धारि जी० ३ प्रति। अण् उप० स० । नागभेदे, वाच । यतभेदे च । “दो कुंम-कुंमावरमहानद्द-कुएमलवरमहाभा-पुं० । कुण्डलवरद्वापाधारपडिमाश्रो सासिखित्ताश्रो।" जी०३ प्रति०। | धिपतौ देवे, जी०३ प्रति। १४३ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७० ) अभिधानराजेन्द्रः । कुंडलवरमहावर कुंरुझवरमहावर-कुण्डञ्जवरमहावर - पुं० । कुएमनचरसमुद्रपरि सिजी०३ प्रति लवरोनासे द।वे कुंडलवरोभासभद्दमहानद्दा इत्थं दो देवा, कुंमलवरोजाससमुद्दे कुंमलवरोभासवरमहावरा इत्थं दो देवा मयाजा पश्रियमद्वितिया परियसंति" जी० ३ प्रति० ॥ चं० प्र० । सू० प्र० । कुंमझवरोजास - कुण्डलवरावजास-पुं० रामलचरसमुद्रपरिक्षेपिणि द्वीपे, तत्परिक्रेपिणि समुद्रे च । जी० ३ प्रति० "कुंडल - वरोजासे दावे कुंमलबरोभासनइकुंकल वरोभास मद्दाभद्दा जत्थ दो देवा । " जी० ३ प्रति० । कुंमलवरोनासभद-कुएलपवासभ० कुराडलवरावभासडीपाधिपती देवे जी०३ प्रति० । कुंमलवरोभासमहामद - कुण्डसवरावभासमहाज-पुं० कु भापति देवे, सु० प्र० १६ पाहु० जी० कुंडलवरोनासमहावर - कुण्डलवरात्रभासमहावर पुं० । कुएमलवरावभाससमुद्राधिपतौ देवे, जी० ३ प्रति० । कुंमअपरोजासपर कुएमनराव भासवर ५० कुरामलचरा भासमुद्राधिपती जं०" कुंडपरोभाससमुद्दे कुंडलवरोभासबरमहावरा इत्थं दो देवा महलिया जाव पश्रियम डितिया परिवसति । " जी० ३ प्रति० चं० प्र० । सू० प्र० । कुंदला - कुए कला - स्त्री० । जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पूर्वेण शीतोदाया महानद्या दक्षिणतः । स्था० वा० । सुवत्सविजय क्षेत्रयुगले स्वनामख्याते पुरीयुगले, " दो कुंडलानो " स्था० २ ० २ ३ ४० | जं० ॥ कुंडलिया - कुए मलिका - स्त्री० । मात्रावृत्तभेदे तवकणं यथा "कुण्डलिकासा कच्यते प्रथमं दोहा यत्र बोलाचरणचतुष्टयं प्रभवति विमलं तत्र ॥ प्रभवति विमलं तत्र पदमकम अष्टपदी सा भवति विमलकविकौशलगमकम् ॥ पीसा भवति सुखितपतिका । कुण्डलिनायक गिता विबुधकर्णे कुण्डलिका ॥” इति । वाच०| कुलारे वस्तुनि उत्पत्बे कुकालादिपर्यायसमन्धि तसर्पव्यवत् । श्रा० म० द्वि० । कुंमक्ष दियगंमलेह - कुण्डलोलिखितगए लेख - त्रि० । कुमुखता स्पृष्टा गरलेखा कपोलविरचितमृगमदादिरेखा यस्य स कुरामनोलिखितगएकलेखः । कर्णाभरणशोभितकपोले, रा० कुंम लोद - कुण्डलोद - पुं० । कुरामलद्वीपपरिकेपिणि समुद्रे, सू० प्र० १ पाहु० जी० । कुंभाग- कुण्डाक० स्वनामकयाते सन्निवेशने, "ततो भयवं आलंनियं नयरिं गतो, तत्थ सप्तमो वासारतो चचम्मासस्रमणं करेश, ततो वाहिं पारिता कुंमागो नाम सन्निवेसो तत्थ ए३ । श्र० २० द्वि० । कल्प० । कुंकि असणं- देशी - ब्राह्मणविष्टौ दे० ना० २वर्ग । कुंमिश्र - देशी - ग्रामाधिपती, दे० ना० २ वर्ग । 33 कुंतीविहार कुंमिया - कुहिमका - स्त्री० । कुमि एवुल् । कमएमलौ, पिठ च । वाच० । ज्ञा० । आत्रा० । अनु० भ० । श्रौ० । कुंत-कुन्त-पुं० । कुं भूमिमुनन्ति । छन्द-वातः शकन्ध्वा०| ग धुकायाम, धान्यदे, प्राशास्त्रे, तुरूकीटभेदे, चण्डभावे, वाच० । तत्र प्राशास्त्रे " हलगतमुसल चक्क कुंत ०" प्रश्न ०१ श्राश्र० द्वार । विपा० । श्र० । कुंग्गाहा चावग्गाहा चामरम्गाहा श्री० । 39 1 " कुंतल - कुन्तल - पुं० कुन्तं क्षुष्कीटं लाति । ला-कः । केशे, तदा कारत्वात् । ह्रीवेरे च | कुन्तलाकारं केशाग्राकारं लाति । ला० कः । पये के पानपात्रे, जे दाक्षिणात्यजनपदभेदे, तेषां राजा श्रए कौन्तलः। तद्देशनृपे, बहुषु तस्य लुक् । क्य चिदेकत्वेऽपि सुकू । सोऽभिजनोऽस्य ऋण । कौन्तलः पित्रादिक्रमेण तद्देशवासिनि, वाच० । आ० क० । कुंतलो - देशी-सातवाहने २००२ वर्ग कुंतलदेवी -कुन्तलदेवी - स्त्री० । स्वनाम यातायां राहयाम तत्कथानकं जप्यते कस्यचिन्नरपतेः कुन्तलदेव्यभिधाना पट्टराईी बहूव । साऽवशेपराश्रीमत्सरेण सर्वक्रमन्दिरे तत्कृतपूजातः स्नानविक्षेपनवासधूपवखाभरणाभिषेक रथयात्राराजादिकां पूजां जिनप्रतिकृतीनां कारितवती । एवं व्रजति कालेऽशुकर्मोदयात् तस्याः कश्चिदसाम्यो रोगो जातः । जीवितशेषाच संवृता । तचैव ष्ट्रा पूर्वदत्तं पट्टक्षं द्वितीयपथेन सर्वमाजरणवस्त्रादि तत्पाश्र्वाद् गृहीत्वा राजादेशेन नियोगिभिर्नृपतिमाय कागारे क्षिप्तमत स्यास्तं पराभवं मन्यमानाया आर्तध्यानमभूत् । तत्परिणती च मृता ती नीत्वेनोत्पन्ना । अन्यदा सत्र केवलं । समायातः । स भ गवानन्तःपुरिकामः समः कुन्देन्या उत्पातः पृष्टा नग बताऽपि वृत्तान्ते कथिते तासां संसारविरक्ति गेल्या सामहं पुष्पचन्दनविशिष्टाहारदानादिभिः पूजिता । ततोऽस्य मण्डल्या. पूजादिकं ससंभ्रमं जिनमन्दिर चर। जातिस्मरणं संपनम् यधिश्वामितायाश्च ताभिः कषायोपशमे आराधना जातेति कुन्तलदेवी कथानकं समाप्तम् । जीवा० १२ अधि० । कुंतला कुन्तन्ना-श्री० स्वनामयातायां राश्याम दर्श० । (तत्कथा 'चेइय' शब्दे स्वयंकृतजिन विम्बपूजा प्रस्तावे वक्ष्यते) कुंती कुन्ती स्त्री०1 वसुदेवभगिन्याम्, कुन्तिभोजद सकसुदन्तकसुतायां पृथायां युधिष्ठिरादिमा पाच । पाण्डोः पल्याम, स्था० १० वा० । “वसुदेवानुजे कन्ये, कुन्ती माद्री च विश्रुते" अन्त० १ वर्ग । मञ्जर्याम्, दे० ना० २ वर्ग । ( ' दुबई ' शब्देऽस्याः द्वारिकागमनादिकथा वक्ष्यते ) कुंतीपोल देशी-चतुष्कोणे. दे० ना० २ वर्ग कुंतीविहार-कुन्ती विहार-० युधिरेणोद्धारापुरस्थे चन्द्रप्रभस्वामिचैत्ये, “ इत्थंतरे दावरजुगे पंकुरायपत्तीए कुंती देवीए पढमपुत्ते जुहिठिल्ले संजाए चंदप्पहसामिणो पासायं जिणं दण बकारी काराविश्रो, से दत्थेण चिचरक्यो तत्थ वावि, कुंतीविहारुति नाम विक्ला । " ती २- कल्प । Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुं कुंथु - कुन्यु पुं० । अवसर्पिण्यां भरतक्षेत्रजे षष्ठे चक्रवर्तिनि सप्तदशे तीर्थकरे, आ० म० । नामनिरुक्त्यन्तरम-संप्रति कुन्थुः कुः पृथिवी तस्यां स्थितवान् कुन्युः पृषोदरादित्वादिरूपनिपत्तिः । तत्र सर्वेऽपि भगवन्तं एवंविधास्ततो विशेषमाह"भं रणविचितं मधुजियो "जननी स्वप्ने कुस्थ मनोहरे अन्युन्नते महीप्रदेशे स्तूपं रत्नविचित्रं दृष्ट्वा प्रतिबुद्धवती, तेन कारणेन भगवान् नामतः कुन्पुजिनः। श्रा०म० द्वि० । भा० चू० । श्रव० स० । ६० । ( ५७१) अभिधानराजेन्ध: । , इक्लागुरायक्सो, कुंदू नाम नरेसरो । विक्खायाकी जय, पत्तो मत्सरं ॥ ३७ ॥ पुनः कुन्थुनामा नरेश्वरः षष्ठचक्री अनुत्तरां सर्वोत्कृष्टां गतिं प्राप्तः । कीदृशः कुन्षुः, भगवान् ऐश्वर्यज्ञानवान्, पुनः कीदृशः कु. न्युः, इक्ष्वाकुराजवृषजः श्क्ष्वाकुवंशीयनूपेषु वृषभो वृष जसमानः, प्रधान इत्यर्थः । पुनः कीदृशः १, विख्यातकीर्तिः । श्रत्र भगवानति विशेषणेनाष्टमहामातिदायाचैश्वर्ययुक्तः सप्तदशमस्तीयकर पचकी अत्र श्री कुन्युनाथरशस्तः- हस्तिनागपुरे सूरराक्षः श्रीदेवी भाषी, तस्याः कुही श्रीगवान पुत्रत्वेनोत्पन्नः भार्या, कुक्कौ जन्ममहोत्सवानन्तरं च स्वप्ने जनन्या रत्नस्तूपः कुरुयो दृष्टः, गर्भस्थे च भगवति पित्रा शत्रवः कुन्युवत् दृष्टा इति कुन्युशिति नाम कृतम् । पित्रा प्राप्तयौवना विवाहितो राजकुमारिकानिः । काले च भगवन्तं राज्बे व्यवस्थाप्य सूरराजः स्वयं दीक्षां जग्राह । भगवांश्च उत्पन्नचक्ररत्नप्रसाधितभरत चक्रवर्तिनोगान् बुजे । तीर्थवर्तमानसमये च निष्कम्य षोडश वर्षाणि विहारेण चित्य फेसहानभागू जातः वा समवसरणमकार्षुः प्रमजितः पर्यायेण कुंकुन्दुरुक० धनका संतगिरिशिखरे मोहमगमत्। तस्य भगयतः कुमारत्वे त्रयोविंशतिवर्षसहस्राणि मालिकले च त्रयोविंशतिवर्षसहस्राणि चक्रित्वे त्रयोविंशतिवर्षसहस्राणि आमध्ये विशवर्षसहस्राणि सानि च सप्तशतानि वर्षाणि अभवन्, सर्वायुर्द्विनवतिवर्षसहस्राणि साईसप्तशतानि चास्य बनूव । इति श्री कुन्युनाथदृष्टान्तः । ४०१८ श्र० । 66 99. कुंथू णं रहा पंचापवास सहलाएं परमाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव प्पड़ीणे " (स० ) । कुन्पुनाथस्य सप्तदशतीर्थकरस्य कुमारत्वमाण्डमिववर्तित्वानगारायेषु प्रत्येक त्रयोविंशतसहस्राणामांमवर्षशतानां च प्रात्सर्वायुः पानवतिवर्षसहस्राणि नवन्तीति । स० ६५ सम० । प्रव० । नि० स्था० । (अन्तरम् ' अंतर' शब्द प्रथमभागे ६६ पृष्ठे उक्तम) (वर्णादि 'तित्थयर' शब्दे वदयते) "कुंबू णं अरहा पणतीसं घणू होथा स० ३५ सम" कुंस्मर सती गढ़ा सचतीसंगमरा होथा "कुन्युनाथस्येह स उता, आवश्यकेतु पश्चात् इति मतान्तर म् । स० ३६ सम० । “ कुंथुस्ल णं अरहओ बत्तीसं जिणसया होत्या " स० ३२ सम० । " कुंषुस्स णं मरो एक्कासीति मणपजवनाणिया होत्या 39 स्था० ३ ठा० २ ० । " कुंथुहसणं अरह एकाणवरं श्रहोहियसया होत्या 39 स० ६१ सम० । लघुशरीरे त्रीन्द्रियजीवे, उत्त० ३६ प्र० । “ पाणसुहुमे।" प्राणमनुकुन्द विभान्यतेन स्थितः, सूक्ष्मत्वादिति । स्था० ८ ठा० जी० । प्रज्ञा० । दश० । आचा० । उत्त० | "जं रयाणं च णं समणे जगवं महावीरे जाव 66 कुंन सम्यक्खपणे तं रयण चणं कुंभुं करीना समुपचा जाविया श्रचलमाणा निग्गंयाप्य य निग्गंधीण य चक्खुफासं हव्यमागच्छ" कल्प० ६ क्षण । कुंद-कुन्द पुं० 1 कुं भूमिमुनन्ति । उन्द अय् शक० । कौते अन् दा दन् मुमच् या नागन्धव्ये समियन्त्रभेदेस्य निथिनेदे च पुं० [करवीरके पुं० [स्वनामस्याने पुपवृक्षे वाच० । महाजातौ, जं० २ वक्ष० । तत्पुष्पे धवनपुविशेषे, कल्प ० ३ करण । झा० । उत० । रा० आ० म० । प्र०जी०० कुन्दाभिधानवनस्पतिकुसुमे, हा० १० १० कुंदओ - देशी -कुशे, दे० ना० २ वर्ग । कुंदं - देशी - प्रभूते, दे० ना० २ वर्ग । कुंदकुंद - कुन्दकन्द-पुं० | स्वनामख्याते दिगम्बराचायें, भ बहुत मायनन्दिर्जिनचन्द्र कुन्दकुन्दाचार्य इति तत्प हावल्यां शिष्यपरम्परा । श्रयमाचार्यो विक्रमसं० ४६ वर्षे वर्तमान प्रासीत् । अस्यैव वक्रमी एलाचार्यः छमनमन्दिरियरराणि नामानि जै०५०। कुंदमानपरिणक-कुन्दमालापरिक्षक कुिन्दकु मालया व्याप्ते, कल्प० २ कण । कुंदीरं-देशी विम्याः फले दे० ना० २ वर्ग कुंदुक कुन्दुक्क पुं० । कुहनवनस्पतिभेदे, माचा० १० १० ५ उ० । “ एए मतजीवा, कुंडुक्के होइ प्रयणाभो । " प्रका० १ पद 1 - नान्यविशेषेा० १ श्र० १० । कालागरुपवरकुंदुरुक्क तुरुक पडिबोदियल्ल सिको प्रखर " अत्र कुन्दुरुकः कुर्कुटः । मा० म० द्वि० । कुंमकुम्कुं भूमि कुत्सितं वा उम्मति 'उम्म' पूरणे असू शक० । घटे, बाच० । स्था० | सूत्र० । 'तभ उम्भ' पूरणे । कुः पृथिवी तस्यां स्थितस्य उम्जनात् पूरणात्कुम्नः । अत्र यत् पृथिव्यां स्थितस्य पूरणं तत्कुम्भशब्दवाच्यम् इति समभिरूढनयमतेन घटात्कुम्भस्य भेदः । श्रा० म० द्वि० | "बचारि कुंभा पत्ता । तं जहा-पुन्ने नाममेगे नो पुने स्था०४०४४० (इत्यादि 'पुरिसजाय' शब्द व्यास्यास्यते) धान्यप्रमाणनेदे, "सही आढयाई जहन्नए कुंभे, असीती - दबाएं मज्झिमए कुंभे, आढयसयं उक्कोसए कुंभे " अनु०। आ ढकानां चतुष्षष्टया जघन्यः कम्जः, श्रशीत्या मध्यमः, शतेनोत्कृटः । ज्ञा०] १ श्रु० ७ श्र० । स्था० । तं० । जलतरणरूव्यभेदे, "स च कुंभ एव, श्रह वा चउकट्ठि कार्ड कोणे घडश्रो वज्जति, तत्थ अवनंविअं श्ररुहियं वा संतरणं कजति” । नि० चू० १ ० । कुम्भ्यादिषु नारकाणां पाचनात्कुम्बः । भ० ३ श० ६ उ० । एकादशे परमाधार्मिके, प्रश्न० १ सम्ब० द्वार० प्र० । कुंभीयप सोहि कुंकुंनी य, कुंभी व रयपाक्षा, इति पायंति परएम् ||८०|| सू०नि० । "कुंजीसु" इत्यादि । कुम्भीनामानो नरकपालाः नारकान्नरकेषु व्यवस्थितान् निघ्नन्ति तथा पाखयन्ति केति दर्शयति ? कुनी उष्ट्राकृतिषु तथा पचनेषुकरिका तथा सी हीष्वायस प्राजनविशेषेषु पाचयन्ति । सूत्र०२ श्रु० ८ अ० श्राव Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुं मिथिलानगी असा कोनविंशतीर्थंकरस्य म सीत्यभिधानस्य पितरि ज्ञा० १ ०८ श्र० । स्था० | स० | प्रब० । भाव०ति०]('मी'शब्दे विशेषोऽस्य दशतीर्थंकरप्रथमशिष्ये "हाटे पासेहि" कुजशब्देन बला टमेव भय द्वार ० योगमेदे हस्तिथिम सपिण्डद्वये, कुम्नकर्णस्य पुत्रभेदे, वेश्यापती, प्राणायामाङ्गे श्वासरोधके चेष्टाभेदे, एकादशे राशौ, गुग्गुलौ, त्रिवृति च । वाच० । (५७२) निधानराजेन्द्रः । कुंजडर- कुम्पुर-१० | नगरले यदीशस्य शेखरस्य कु श्रेणिहिता उत्पन्ना दर्श कुंजग (य) - कुम्भक - पुं० । कुम्नशब्दात् स्वार्थे कः । कुम्भ इब कारयति प्रकाशते निश्चलत्वात्। कै क० वा । प्राणायामाने बायुरोधनव्यापारभेदे, वाचण । मल्लोजिनस्य पितरि च । स्थान १० वा० । ० । 6 कुंजगा (या) र कुम्कार पुं० कुम्नं करोति भए उप स प्राकृते कमुकि 'स्वरस्योदवृते " । १ । । इति सन्धिविकल्पः । " कुंजयारो कुंभारो " प्रा० १ पाद । कुनाले, प्रा० म० तिक्रमणशब्दे मिथ्यादुष्कृते कथा यथा च कुम्भकाराणां च शिल्पं प्रथमं श्री ऋषभदेवस्वाम्युपादिशत् तथा 'उसभ' शब्दे द्वितीयभागे ११२६ पृष्ठे रकम ) कुम्भकारके, वाय० ॥ कुंभगारचकनामगद माहरण- कुम्न कारचक्र भ्रमकदएकाहरणन० | कुम्भकारचक्रस्य कुलालचक्रस्य यो भ्रमको भ्रमणद्देतुम पस्निनणं यदुदाहरणं ज्ञात्कारकचमकदामोदाहरणम् । यथा कुम्भकारचकस्यैकस्मिन् देशे दृषमेन प्रेरिताः सर्वे तद्देशाः भ्रमिता भवन्त्येवमित्येवंरूपे दृष्टान्ते, "सादुपायर-गणंपयन्तविसया मुख्यया । कुम्नारचक्कनामग-दंमाहरणेण धीरेहिं ॥ ३४ ॥ " । पञ्चा० १ विव० । कुंजगारावाय-कुम्न कारपाक पुं० नि० । कुम्भकारस्य भाएङ पचनस्थाने, स्था० ८ ठा० । - 67 कुंभग्ग - कुम्जाम्र-न -न० । मगधदेशप्रसिद्धे कुम्भपरिमाणे, जी०३ प्रति० रा० आ० म० । स्था० । कुंजगार पक्स्वेव कुम्न कारक्रेप २० । उहावनराजतशय्यातर कुम्भकार पश्याम तस्य देवतया पांशुवृष्टिः कृतेति ततः कुम्भकारप्रकेपेति नामकं पतनं सा बनूव । मा० चू० ३ श्र० । ( ' रसश्चान' शब्दे कथा वते ) कुंभमुह - कुम्नमुख- न० । घटग्रीवायाम्, श्रोघ० । कुंजसे कुम्मसेम-पुं० महापद्मस्य ब्रत्सर्पिष्याः प्रथमतीर्थकरस्य प्रथमशिष्ये, ति० । कुंजार कुम्भकार- ५०। 'मगार' शायें प्रा० १ पा कुंभारचकभामगदंडाहरण- कुम्भकारचक्रमकदएकाहरण-न। ‘कुंभगारयक्कभामगर्दमाहरण' अम्दोक्तार्थे, पञ्चा०१ विब० । कुंनि (ए) कुजिन पुं० कुम्भ स्स्यस्य इनिः इस्तिनि कु कुंभीर नांगुली, जटाकलशधारिधि, खियां की बा । जयपालवृके, बाच० । नपुंसकविशेषे, प्रब० । यस्व तु मोहोत्कटतया सागारिकं वृषणौ वा कुम्नवत् स्तब्धीभवतः स कुम्भी । प्रष० १०६ द्वार ।" दुविहो य होर कुंभी, जाईकुंभी य वेदकुंभी य । " पं० भा० । पं० यू० नि० चू० । ध० । ग० । कुम्नी द्विधा - जातिकुम्भी, वेदकुम्भी च । यस्य सागारिकं प्रान्तद्वयं च ते दोषेण शूनं महाप्रमाणं भवति स जातिकुम्भी । अयं च प्रवाजनायां जजनीयः, यदि तस्यातिमहाप्रमासागारिकादिकं तदा न प्रवाज्यते । वेदकुम्भी नाम यस्थोत्क टमोहल्या प्रतिसेवनामलभमानस्य भेदनं नृपतेस एकान्तेन निषिद्धो न प्रयाजनीय इति । वृ० ४ उ० । कोणिकपूपंजी० ०'कृ' 'योरस्य मम्यता) कुंभिणी- देशी-जलगतें, दे० ना० २ वर्ग कुंभिय-कुम्भिक - पुं० | कुम्नो (मुक्ताफलानां ) परिमाणतया विद्यते येषु तानि कुम्भिकानि । कुम्नपरिमाण (कुम्नशब्दोक्त) परिमितेवर्थेषु, "तेसि णं वइरामपसु श्रंकुसेसु यत्तारि कुंनिया मुतादामा पचन्ता । " खा० ४ ० २ उ० 1 कुंशियाउन- कुम्भ्यागुप्त - भि० कुम्मी मुखाकारा कोठिका स्पामागुतानि प्रकृिष्य रचितानि कुम्भ्यागुतानि कुम्भीभार रक्तेिषु, पृ० २ ० । कुंनिस कुनिल पुं० [ कुम्भ इस शक० बी चौरे, श्वासकतुल्येश्याले च वाच" अकुंभाभेदि " प्रा० ४ पाद । कुंभिन्न देशी-अनी दे००२ वर्ग कुंभी- कुम्भी - स्त्री० । कुम्न अल्पार्थे ङीष् । कुद्रे कुम्भे, तदातित्वात् । उखायाम, वाच० । जाजनबिशेषे, स० । कुम्भमुखाकारायां कोष्ठिकायाम्, वृ० २० । संकटमुखे पिठरके, आचा० २ ० १ ० २ उ० । “कुंभी सुय पयलोहीसु य कडदिल कुंनीसु” भा०यू० ४ ८०० वनस्पतिविशेषे - प्रतिपादक उद्देशो 'एफ' शब्दे ते पाडला. कुम्भकायां परियम कट्फले कुम्भीपुष्पे पर्यटकदलीवृक्षे च । वाच० । घटे, " पुं० । दाहिणिल्लाप कुंजीप शिक्खिवर " दाक्षिणात्ये कुम्भे निक्षिपति कुम्भीय इत्यत्र त्वं प्राकृतत्वात् । जं० ३ बक्ष० । केशरचनायाम्, दे० ना० २ वर्ग । कुंजीपक कुम्भीपक त्रि० । गर्तादावप्राप्तपाककाल एव बलात् पाकमानीयमाने फलादौ, आचा० २ ० १ ०८ उ० । कुंजी पानकुम्भीपाक पुं०] कोष्ठिका कृतितमभाजने नरकया माती......कुंनी पाम्मि गरयसंकासे पुग्यो अमिरकमभमिनरपतिरभा - कत्थर" महा० १ ० नरकेषु करपत्रदाकुम्भीपाकहायःशाल्मली समदखानि ०१०१०० भाजन बिशेषे (ज्याम्) पचने प्रश्न० ए संच० द्वार कुंभीर - कुम्भीर - पुं० । स्त्री०। कुम्भिनं हस्तिनमीरयति। ईर भ्रण। जलजन्तुभेदे नक्रे, स्त्रियां मीष् । संवत्सरं तु कुम्भीरस्ततो जा Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७३ ) अभिधानराजन्क कुंभीर 23 येत मानवः । ( 'कम्मविवाग' शब्दे वेदनाविस्तरः ) कीटभेदेवाच । श्राचा० । | कुकम्प – कुकर्मन् — न -न० । कुत्सितं कर्म । नित्य स० । लोकशास्त्रनि न्दिते कर्मणि तत्र स्त्रियां डी वाच० कुत्सितं कर्म येषां ते कुकर्माणः । अस्थिकेषु, ओघ० । कुकम्प (कुन्- पि० । अक्षराहककुम्भकारास्का यदि कुत्सितकर्म सू० १ ० ० कुकिरन कुकृत्य १० प्राणातिपातारम्भादित्ये "कुत् कृत्यमानाति, नृत्यं चाकृत्यमेव च । " द्वा० २२ द्वा० । कुकुहाइय- कुकुहायित न० । गतिकाले शब्दविशेषे, तं० । कुक्कुप्र-कुत्कुच - त्रि० । कुदिति कुत्सायां निपातो, निपातानामाश्याम कुत्सितं च कुलति यांना साकरचरणद मविकारैः संकुचतीति कुत्कुचः । ध० २ अधि० । अथ वा कुत्सितः कुचः कुकुचः । संकोचादिक्रियावति, प्रब० ६ द्वार । कूज-वि० सितं जति भादति इति कुकूजः । आक्रन्दं कुर्बति उत्त० २१ अ० । कुक्कुधा कुचकुचा - स्त्री० । अवस्यन्दने, बृ० ६ उ० । कुक्क्रुश्य-कौकुचिक ( त )- पुं० ।' कुचण' अवस्यन्दने इति वचनात् तिमत्युपेक्षितत्वादिना कुचितमवस्यन्दितं यस्य सकुकुचितः स च प्रादिदर्शनात स्वार्थिकाप्रत्यये को चितः । कुकुचा अवस्यन्दनं प्रयोजनमस्येति कौकुचिकः । वृ० ६ उ० । ० । कौकुच्यं भएमचेष्टादिहास्यमुखविकारादिकं, तत्करोतीति कौकुचिकः। भाएकचेष्टादिकारिणि, उत०१७ ० स्था० । भाण्डे, भारमप्राये च । भ० श० ३१ ८० । कप्पस पलिमंधू पाता । तं जहा कुक्कुप संजमस्स पलिमंधू " की कुचिका संयमस्य प्रतिमन्धुः । 44 कौकुचिया रूपानायाऽऽह कोकुइथ संयमस्स न, मोहरिए चैव सच्चवयएस्स । इरियाएँ लोलो एसएसमिईए तितिजिए ||१|| णासेति मुत्तिमग्गं, लोनेण बिदाणताऍ सिद्धिपहं । एतेसिं तु पदाणं, पत्तेयपरूवणं वोच्छं ॥ २ ॥ कौचिकः संयमस्य मौरिका सत्यवचनस्य चलल समितेः, तिन्तिणिक एषणासमितेः, परिमन्धुरिति प्रक्रमादगम्यते । लोभेन च मुक्तिमार्गे नाशयति, निदानतया तु सिदिपदानां प्रत्येकं प्ररूपणं बद प्रतिज्ञातमेव करोति ठाणे सरीरभासा, तिविधो पुण कुलकुष समासेां । चलणे देढे पत्थर, सविगार कहक लहुओ य ॥ याने स्थानविषयः शरीरविषयो, भाषाविषयति त्रिविधः समासेन कीकुचिकः। तत्र स्थानकौकुचिको चलनमन भ्रमणं करोति शरीरं पयः ककुचिको प्रस्तरान् ददेहं तद्विषयः यः १४४ कुक्कुइय स्तादिना किपति, यस्तु सविकारं परस्य हास्योत्पादकं भाषते, कहक वा महता शब्देन हसति स भाषाको कुलिकः । एतेषु त्रिष्वपि प्रत्येकं मासलघु । आपाणोय दोसा, विराहणा होइ संजमायाए । जंत व पट्टिया वा, विराहण मतेलए सुते || श्राज्ञादयश्च दोषाः, संयमे श्रात्मविराधना नवति, यन्त्रक बन्नर्तिकावद्वा भ्राम्यन् कौकुचिक उच्यते । यस्तु महता शब्देन हस ति तस्य मक्षिकादीनां मुखप्रवेशेन संयम विराधना, शूलादिरोगप्रकोपेनात्मविराधना; (मएलए सुते ति ) मृतदृष्टान्तः, सुतदृष्टान्तश्चाच हास्य दोषोदये भवति स बोसरच दर्शयिष्यते। चैतदेव नियुक्तिगाथाद्वयं विभावविषुः स्थानको कुचिकं व्याचरे ग्राम खंभकुडे, भिक्खणं नमति जंतर चेव । कमफंदण आउंट, ए यात्रि वच्छासरण द्वाणे || इहोपविष्ट ऊर्द्धस्थितो वा स्तम्भे कुड्ये वा य आपतति, यन्त्रकमित्र वा अभीक्ष्णं भ्रमति, क्रमस्य पादस्य स्पन्दनमाकुञ्चनं वा करोति न च नै यसनों निश्वासनस्तिष्ठति कौचिकः । मामी दोषा: संचारोवतिगादी, संजय आया विहगादीया । उक कुदिप मुझे चंड फर्मले व दोसा तु । संचरका: यादी संसदेदिका कुन्युकी टिकाप्रनृतयो जीवास्तेषां या विराधना सा संयमविया मन्तव्या । श्रात्मविराधनायामहिवृश्चिकादयस्तत्रोपद्रवकारिणो भवेयुः । यदि वा तत्र स्तम्नादौ स प्रपतति तदूर्द्धाधो, मूले या कुपितं भवतस्तस्य पतने परितापनादिका ग्लानारोपणा (ड फरते व ति) मनीक्ष्णमितस्ततो भ्रातः सं विभवेदित्यादयो वढ्यो दोषाः पवमुचरत्रापि दोषा मन्तव्याः । अथ शरीरको कुचिकमाह-करगोफणपादा दिपड़ि मनुभति पत्थरादीए । जमुगादादिगणपुत - विकंपणं पट्टवाइतं ।। - करगोफणचतुष्पादादिभिः प्रस्तरादद्य पिति शरीरकीकुनिका सदादिकता विविधमनेकप्रकारे कम्पनं करोति तत् वृत्तपातित्यमुच्यते मित्यर्थः तेन "महिया व सिप व्याक्यात नर्तकी । प्रतिपत्तव्यम् । गतः शरीरकौकुचिकः । मान विकम्पनं अथ जाषाकौकुचिकमाद 1 बेलिय मुहवाइने, पति व ज परो इसति ॥ कुड् य रुए बहुविधे, वग्घामिय देसभासा य ॥ सेरितं वादिनं करोति तथा वचनं जल्पति यथा परो दसति बदुविधानि या मयूरहं लकोकिलादीनां जीवानां स्तानि करोति । वग्धामिका सग्घट्टककारिणी, देशजाषा वा मालवमहाराष्ट्रादिदेशप्रसिद्धा, तादृशीं भाषां भाषते यथा सर्वेषामपि हास्यमुपजायते एष भाषाकी कुचिकः । Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुक्कुइय ( ५७४) अभिधानराजेन्द्रः | अस्य दोषानाह मगमाइपयेसो, असंपुढं चेत्र सेडिदितो । दमिय यतणो हासण, तहत्थिए तत्तफालेणं ॥ तदीयभाषणदोषेण ये मुखं विस्फाल्य हसन्ति तेषां मुखे म विकादयः प्राणिनः प्रविशेयुः प्रविष्टेष्वेते यत्परितापनादिकं प्राप्नुवन्ति परास्य प्रायश्चितम् इतश्च मुखमपुर मेन जयेव न तथा निवेदित्यर्थः तथा चात्रकश्विदपिडको राजा, तस्य थतणो भण्डः, तेन राजसभायामी किमपि हास्यकारि वचनं प्रणितं येन प्रभूतजनस्य दास्यमायातम्, तत्र श्रेष्ठिनो महता शब्देन हसता मुखं तथैव स्थितं न संपुटीभवति वास्तव्यवैद्यानां दर्शितं नैकेनापि प्रयु पोकर्तुं पारित नपरं प्रपूर्ण केनैकेन जोहमयः फालस्तोअग्निवर्णः कृत्वा मुझे दीक्तिः ततस्तदीयेन मयेन मेमो मुखं संपुढं जातम् । अथ प्रागुद्दिष्टं मृतसुप्तदृष्टान्तद्वयमाहगोयरसाहसणं, गवयों दहं नियं जयति देवी । हसति मयो कहिं सो, त्ति एस एमेत्र सुत्तो की ॥ "एगो साहू गोयर परिवार हिममासो इसतो देवी चोपचिद्वा दिडो, राया नदियोसामि ! पेष्ठ अच्छेयं मुयं माणसं हसंतं । दास राया संतो कहं कई वा ? । सा साहुं दरिसेर। राया भण्इ कई मोति ? | देवी भगर भवे शरीरसंस्कारादिसकलसांसारिकस्ववर्जितत्वात् मृत इव मृतः । एवं सुतदितो विनाfursaो" । श्रकरगमनिका स्वियम-गोचरे साधोः पर्यटतो डसनं हास्यं दृष्ट्रा देवी नृपं भणति मृतको हसति । नृपः पृच्छ तिन्कुत्र सतको दसति । देवी हस्तक्षप दर्शयति एय इति मे मृतवत् सुप्तोऽपि मन्यनयोरनवेतया विशेषाभावात् । गतः कौकुलिकः कुछइय पितोऽसीदतिः केनादं कथित इति पृष्ट्वा लेखकेनेति विज्ञाय लेखकं हतवान् । गाथायामतीतकाले वर्तमाननिर्देशः प्राकृतत्वात् । गतो मौखरिकः । तथैव प्रसङ्गमादआलोयणाय कहणा, परियहणा प्रणायोए । लहुगो व होति मासो, आयादि विराहणा दुविद्दा ॥ सूपादीनामानां कुर्वाणः कथन धर्म परिवर्तमाना नुप्रेकां च कुर्वन् यद्यद भोगेनानुपयुक्तमार्गे व्रजति तस्य लघुमासः, श्राज्ञादयश्च दोषाः, द्विविधा विराधना भवेत् । इदमेव नाययति आलोतो यात चूलादीणि च कति वा धम्मं । परिवापेण न याति पंथं ति उरतो । प्रसङ्गतः संप्रति मौखरिकमाह हरिस्स गोण नार्म, आवहति अरिं मुद्देण भासतो | लगो य होति मासो, आणादि विराहणा दुविहा ॥ मौरिकस्य गौणं गुणनिष्पन्नं नाम मुखेन प्रतभाषणादिमुखदोषेण प्रभाषमाणः श्रारं वैरिणमावहति करोति मौखरिकः, तस्यैवं मौखरिकत्वं कुर्वाणस्य लघुको मासः । श्राशादयश्च दोषाः । विराधना च संयमात्मविषया द्विविधा । तत्र संयमविराधना मोखरिकस्य व्रतपरिमन्युतया सुप्रतीता। श्रात्मविराधनां तु दृष्टान्तेनाद को गच्छेजा तुरियं, अमुगो चि य लेहरण सिग्पम्मि । सिग्द्यागतो यवितो, केणाहं लेहगं इति १ ॥ "राया तस्स किंपि ता सभाम भराइ त्ति को सिग्वं वश्वेज्जा ?| लेहश्रो भणइ अमुगोपवावेगेणं गति । रन्ना सो पेसिश्रो तं कज्जं काऊण तदिवसमेव भागओ । रन्ना एसो सिग्धगामि त्ति काउं धावणओ ठविश्रो । तेण रुण पुच्छ्यं कहियं केणाहं सिग्यो ? त्ति अखाते अन्ने सिहूं-जदा लेदपणं । पच्छा सो सेण तिलच्छेण बिहं दट्टण ओढ विनो । एवं चेव जो समोहरियां करे, सो श्रायविराढणं पावे इति। अक्षरार्थस्वयम्-चरितं गच्छेदिति राज्ञो लेखन शिष्टः- अमुक इति । ततः स तत्कार्यं कृत्वा शीघ्रमागतः, ततः स्था । 1 सूपादीनि स्तूपाचयकुरामादीनि श्रोचमानो धर्मवाकयपरिवर्तनामुक वा बजति यहा सामान्येन न च नैवोपयुक्तः पथि जति उच्यते । अस्यैते दोषाःकायाण विराहण, संजम आयाऍ कंटगादीया | श्रावण जाणनेदो, खड्डे उड्डाह परिहारणी || अनुपयुक्तस्य गच्छतः संयमे षङ्कायानां विराधना जवेत्, श्रा त्मविराधनायां कण्टकादयः पादयोर्लगेयुः, विषमे वा प्रदेश आपतनं भवेद, रात्रभाजनभेदः खट्टे च प्रचुरे महपाने भूमी बर्दिते डाहो भवेत् अहो बहुत इति नजनेच भिन्ने परिहाणिः । सुत्रार्थपरिमन्यो भाजनान्तरगवेषणे, तत्परिकर्मणायां च भवति । गतश्वकुतौलः । एवं प्रसङ्गतस्तितिधिकमाहतितिलिए पुन्नभणिते, इच्छालोले य उवहिमतिरेगो । सओ तिविद्धं च तर्हि, अतिरेंगे ने मणिय दोसा ।। तितिषिक आहारोपधिशय्याविषयनेदात्त्रिविधः स च पूर्वपीठिकायां सप्रपञ्चमुक्त इति नेहोच्यते । स च सुन्दरमाहारादिकं गवेषणसमः परमति । इच्छालोलस्तु स उच्यते-पोलाभितत्वेनोपधिमतिरिकं सुहालि रात्र लघुको मासः । त्रिविधं वा तत्र प्रायश्चित्तम् । तद्यथा- जघन्ये उपधी प्रमाणेन गणनया वाऽतिरिक्तधार्यमाणे पाराञ्चितम, मध्यमास चतु ये चातिरिके उपधी दोषा पूर्व तृतीयोदेश के भणितास्ते द्रष्टव्याः । अथ निदानकरणवाद अनिपाणं निव्वाणं काळवतो ये लडओ | पावति धुवमायाती, तम्हा अणियाणता सेया || यो मानिनमन्तरेण साध्यनिर्याणं प्रगत यो निदानं करोति तस्य तद् शास्त्रा पुनरकरणेनोपस्थितस्य लघुको मासः प्रायश्चितम् अ-योनिहा करोति स यद्यपि तेनैव भवग्रहणेन सिद्धि गन्तुकामस्तथाऽपि ध्रुवमवश्यमा याति पुनर्भवागमनं प्रमोति तस्मादनिदानतापसी। इदमेव व्याचष्टे seपरलोगनिमित्तं अपि नित्यकरणपरिमदेद्वचं । सव्वत्ये जगवता प्रणिदाणचं पसत्यं तु ॥ इहलोकनिमित्तमिव मनुष्यलोके भस्य तपसः प्रभावेण , Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७५) अभिधानराजेन्द्रः | कुक्कुइय चक्रवत्यदिगान प्राप्नुयामदेव भावविपुलाइ भोगानासादयेयमिति रूपं परलोकनिमित्तं मनुष्यापेक्षया देवभवादिकः पर लोकस्तत्र महर्द्धिकम् इन्द्रसामानिकादिरदं भूयासमित्यादिरूपं पनि प्रतिषिद्धम् किंबहुना तीर्थंकराचेन चान्येन युक्तं चरमस्वं मे नान्तरे भूयादिनाशंसनीय कुत इत्याह- सर्वार्थेषु अप्यैदिकामुष्मिकेषु प्रयोजनेषु श्रभिष्वङ्गवि षयेषु भगवता श्रनिदानत्वमेव प्रशस्तं श्लाघितम्। तुशब्द एवकारार्थः, स च यथास्थानं योजितः । व्याख्याताः परुपि परिमन्थवः । द्वितीयपद्मादविपदं गेल अकाने व त य ओमम्मि । मोचूर्ण चरिमपदं णायन्त्रं ज जहिं कमती || द्वितीयपदं ग्लानत्वे श्रध्वनि तथा श्रवमे च भवति, तच्च चरमपदं निदान करणरूपं मुक्त्वा ज्ञातव्यम् । तत्र द्वितीयपदं न भवतीत्यर्थः शेषेषु तु कोकुकादिषु यद्यत्र क्रमते तत्रायतारणीयम् । एतदेव भावयतिकमिवेषणमवर्तसे गुदपागऽरिसा जगदलं वा वि गुदकील सक्करा वा ण तरति वद्धास होउं ॥ वेदना कस्यापि दुःसदा असो वा पुरुषच्याधिनामको रोगो भवेत् एवं गुदायाः पाकोऽशसि भगन्दरं गुदकील को भव, शर्करोगास न कस्यापि भवेतो न श बिद्धाने स्थापन परिस्पन्दनादिकं स्थानकीकुत्कुर्याद उव्वतेति गिलाणं, ओसहकज्जे व पत्थरे बुजति । वतिय वित्तवित्तो, वितियपदं होति दोखुं तु ॥ ग्लानमुद्वर्तयति कस्मात्पार्श्वतो द्वितीय पार्श्वे करोति वा श्रीषदानहेतोस्तमेव ग्लानमन्यत्र संक्राम्य भूयस्तत्रैव स्थापयति, यस्तु किप्तचित्तः स परवशतया प्रस्तारान पाषाणान् क्षिपति, वेपते वा, चशब्दात् सेण्टितमुखबादित्रादिकं प्रकरोति । एतत् द्वितीयपदं यथाक्रमं द्वयोरपि शरीरजापाचिकयोर्भवति पृ० ६४० । । कौकुष्प १० कुकुको नगर बेहस्तस्य भाषा की कुव्यम् । १० १० परेषां हास्यजनके बहुविधत्रसंकोचादिविक्रियागर्भे भारमानामिव चेष्टिते, ध० र० । उपा० । घ० । अथ की कुख्यद्वारमादनयवदंसण- छेदेहि करपादकन्नमाईहि । से करे जड़ हस्व परो असा अह ॥ वाया कोकुड़ओ पुरण, तं जंपइ जेण इस्सर अन्नो । नाणा विहजीवरुतं कुव्वर मुहतूरए चेव ।। को भडचेष्ट, तस्य भावः श्रीकृष्यं तद्वियले यस् वाचा कायेन वाचा तत्र नयनदशनच्छ है। करचरणकर्णादिभिश्व देवास्तां माना हसय करोति यथा परो इसलिए कायको ध्ययानुध्यबाकी पुनस्तत्किमपि परिदासप्रधानं पचनं ज येनान्यखति मनाविधानां वा मयूरमाजरकोकिला कुक्कुडसंडे गामपउरा दीनां जीवानां रुतानि कूजितानि मुखत्र्याणि वा मुखेनाऽऽतो. द्यवादनलकणानि तथा करोति यथा परस्य हास्यमायाति । वृ० १८० ॥ घ० । न कौत्कुच्य १० कुरिति कुत्सायां निपाता, निपातानामाग स्यात् । कुत्सितं कुर्वेति नयनोनासाकरचरणवदनायिकारैः संकुचतीति कुकुचः, तस्य भावः कौकुच्यम् । अनेकप्रकारे भाण्डानामिव चिक्रियाकरणे; अथवा कुत्सितः कुचः कुकुचः संकोचादिक्रियावान्, तस्य भावः कौकुच्यम् । प्र० ६ द्वार । संकोचादिक्रियायाम् पतद्धि प्रमादाचरितरः द्वितीयोऽ तिचारः । श्रत्र च श्रावकस्य न तादृशं वक्तुं चेष्टितुं वा कल्पते येनान्ये परिहसन्ति, श्रात्मनश्च लाघवं जवति, प्रमादातथाचरणे चातिचार इति द्वितीयः । ध० २ अधि० । धा० । एवं गत्या गन्तुं स्थानेन वा स्थातुमिति । पञ्चा० १ विव० ।" एत्थ सा मावारी वारिसमापि भासयति जारिहिं लोगस्स दासो उप्पज्जर, एवं गतिए द्वाणेण वा वाइओ लि" । भाष० ६ श्र० । पं० ६० । श्रा० यू० । प्रज्ञा० । कुकुक्कुट ० ० कुक-संपि कुटतीति कुटः कः वाचन ताम्रचूमे, झा० १४० १ अ० प्रश्न० औ० | जी० । उपा० । अनु० । " कुक्कडो रिसभं सरं" स्था०७ ठा० । स च लोमपक्षिविशेषः । जी० १ प्रति० ॥ श्र०क० विपा० । ( तस्य पारिणामिकी बुद्धिरिति बुद्धिशब्दे उदाहरिष्यते चतुरिन्द्रियजीवविशेषे, जी० १ प्रति० । उत्त० । प्रका० । आ० म० । स्त्रीयां जातित्वात् ङीष् । तृणोल्काय, कुकुकुभखगे च । वह्निकणे स्फुलिङ्गे, स्वार्थे कः । तत्रार्थेषु निषादजाते हाइपुत्रे च वाच० विद्यादिना हस्तप्रयोगलक्षणे, "मोगेश जं च गर्दियं तु कुक्कुमं उजयगठिअविरुद्धं । " य० १३० । कुकुटकरण कुकुटकरण-म० कुकुटानुास्य यत् क्रियते तथा यत्र स्थाप्यते तारशे स्थाने, आचा० २ ० १० अ० । • कुकुरुपोय - कुकुटपोत- पुं० । कुकुटचेल्लफे,दश० ८ श्र० । कुकुंटकिम्भे भ० ८ ० ८ उ० । कुकसय कुकटमांक-१० जपूरकटा पसले चा मज्जारकरूप कुक्कुरुमंस तमाहरादि " भ० १५० १ उ० स्था० । " कुक्कुमय-कुक्कुटक - न० । खुणके, 'अदु अंजणि अलंकारं, कुक्कुयं मे पच" [रति मे मम प्रय येनाहं सर्वालङ्कारभूषिता बीणाविनोदेन न विनोदया मि । सूत्र० १०४ अ० २ उ० । कुक्कुमलक्खण-कुक्कुटलक्षण - न० | कुक्कटस्त्वृजुतनुरुहाङ्गुलिस्ताम्रवक्रनखचूलिकः सित इत्यादिके सप्तत्रिंशे कलानेदे, जं० १२ चक्क० । ज्ञा० । श्री० ॥ स० । । कुक्कुमसंडे अगामपरा- कुकुटपए देवग्रामपूचुरा श्री० कुकु टाः ताम्रमाः षण्मेयाः षण्मपुत्रकाः पएका एव तेषां ग्रामाः समूहास्ते प्रचुराः प्रभूता यस्यां सा तथा । कुक्कुटषण्डपुत्रकयुक्तायां पुर्याम, श्र० । कुक्कुटषएमेया ग्रामाः सर्वासु दिक्षु विदिकु व प्रचुरा यस्याः सा कुक्कुटषण्डेयग्रामप्रचुरा । रा० । “पमुइ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुकुडसंमेअगामपनरा माभिधानराजेन्द्रः। कुक्खि (च्चि) सूल यजणजाणवया,कुक्कुसंमेभगामपउरा य। उच्चजवसालि- जिणपडिम पणमंतो दिछो पुक्खलिसावपणं । तेण पुछो गुणकलिया ............॥" कुक्कुटेत्यनेन लोकप्रमुदितत्वं व्य- सागरमुणी-जयवं! एयस्स चेयागमणे दोसो, न वा। मुणिणा कीकृतम् । प्रमुदितो हि लोकः क्रीडाद्यर्थ कुक्कुटान् पोषयति, भणियं-दूरो देवं पणमंतस्स को दोसो?, अज्ज वि एसो कुक्कुपण्डाँच करोति । औ०। मोजविस्सइ ति । तं सोऊण खेयं कुणतो पुणरवि गुरुणा संकुक्कुमिअंगप्पमाणमेत्त-कुक्कुट्यएमप्रमाणमात्र-पुं० । कुक्कु वोहिनोऽहं-तुमं जाईसरो अणसणे मरिउ रायसरीर ईसव्यएमकस्य यत्प्रमाणं मानं तत्परिमाणं मानं येषां ते तथा । रो नाम राया होदिसि त्ति । तमोऽहं तुझो तं सव्वं अणुभअथवा कुटीव कुटीरकमिव जीवस्याश्रयत्वात् कुटी शरीरं, कु वित्ता कमेण राया जायाओ, पहुं पिक्खिअ जायं मे जायत्सिता अशुचिप्रायत्वात् कुटी कुकुटी, तस्या अण्डकमिवा सरणं ति। एवं मंतिस्स कहित्ता जगवंतं पणमित्र तत्थ संगीएमकमुदरपूकत्वादाहार: कुकुटपएमफं, तस्य प्रमाणतो मा अंकारे । पहुम्मि अन्नत्य विहरिए तत्य रमा पोसाओ कात्रा द्वात्रिंशत्तमांशरूपा येषां ते तथा कुक्कुटपएमकप्रमाणमा रिओ, बिबं च पश्चाविश्र, कुक्कुरुचारईसररम्मा कारिय त्राः । कुक्कुटधरामप्रमितेषु कवलेषु, “ परं वत्तीसाए कुक्कु ति कामसरनाम तित्यं रुढं । सो य राया कमेण वीणकमिअंगप्पमाणमेत्ताणं कवलाणं आहारमाहारेश " भ० ७ म्मो सिफिहित्ति। एसा कुक्कुमेसरस्स उत्पत्ती" । ती०१६ श० १ ० । ('अप्पाहार' आदिशब्देषु व्याख्या) कव कल्प। कुक्कुटेश्वरे विश्वगजः। ती० ४५ कल्प। लानां च प्रमाणं कुक्कट्यएटम् । कुक्कटी च द्विधा-अव्यकुक्क कुकर-कुकर-पुं० । कोफते किए कुरति शब्दायते 'कुर' शब्द र), भावकुकटी च । द्रव्यकुक्कट्यपि द्विधा-उदरकुकुटी, गलकु कर्म । स्वनामख्याते पशी, वाच० । शुनि, आचा० १ श्रु०८ कटी च । तत्र साधोरुदरं यावन्मात्रेणाहारेण न न्युमं नाप्या अ०३ ला "कुक्कुरे कुक्कुरेति ततो ते कुकुरा संति"। प्रा०म० द्विका स्त्रियां जातित्वात् ङीष् । प्रन्थिपर्णीवृक्के, न०। वाच । मातं भवति स आहार न्दरकुक्कटी, उदरपूरक आहारः कुक्कटीव उदरकुकटीति,मध्यमपदलोपिसमासाश्रयणात् । तस्य द्वा कुक्कुस-कुक्कुस-पुं० । कुएमे, कणिककुराम, कणिकाभिर्मिश्रा: त्रिंशत्तमो नागोऽएमक, तत्प्रमाणं कवलं स्यात् । तथा गलः कुक्कुसा इत्यर्थः । आचा०२७० १०८०........., कुक्कटीच गलकुक्कुटी, गल एव कुक्कटीत्यर्थः । तस्यान्तरालम सोरठ पिछ कुक्कुसए या उकिट्टमसंसहं,संस चेच वोधब्ये॥" एडकम् । किमुक्तं नवति ?, अविकृतस्यास्य पुंसो गलान्तराले दश०५०। यः कवलोऽविलग्नः प्रविशति तावत्प्रमाणं कवलमश्रीयात् । कुक्खि (च्छि)-कति-पुं० । कुष कसि “गेऽदयादौ”।८ । अथवा शरीरमेव कुक्कुटी, तन्मुखमएमकं, तत्राक्विकपोलक- | २।१७। ति संयुक्तस्य नः । आर्षे तु न ! प्रा०२पाद । एठादिविकृतिमनापाद्य यः कवनो मुखे प्रविशति तत्प्रमाणम् ।। जपरदेशे, तं० । उदरदेशविशेषे, औ०। स्था०। द्विहस्तप्रमाणे अथवा कुक्कुटी पक्षिणी, तस्या भएमकं प्रमाणं कवलस्य । भेदे, नं० । "अमयालीसं अंगुलाई कुच्छी" जं०२ वक्त० । "दो प्रावकुक्कुटी-येन आहारेण तुक्तेन न न्यून नाप्यामातमुदरंज- रयणिो कुच्ची" रनिद्वयं कुक्ति। कुक्षौ भवः अण् कौकः। उदवति, धृति च समुदवहति, शानदर्शनचारित्राणां च वृद्धिरुप- रभवे, अनु० । मध्यनवे च । त्रि० । स्त्रियां की । कुक्तिदेशे जायते तावत्प्रमाण माहारो भावकुक्कुटी । अत्र नावस्य प्रा भवः " धूमादिज्यश्च "||२|१२ए। इति वुञ् । कौवकधान्यविवकणादेष प्राक् अन्यकुक्कुट्यपि उक्त रह जावकु. मध्यदेशजवे, त्रि० । वाच०। क्कुटी लक्तः । तस्य द्वात्रिंशत्तमो भागोऽएडकप्रमाणं भ कुक्खि (चि)किमि-कुक्षिकृमि-पुं० । कुक्षिप्रदेशोत्पन्ने द्वातकस्य । पिं० । ग। न्द्रियजीवभेदे, प्रशा० १ पद । जी०। कुक्कुडी-कुकटी-स्त्री० । कुक्कुटपक्किपयाम, कुक्कुट्यण्डशब्दोक्तकुक्कुटीशब्दार्थे च । पिं०। व्य० । | कुक्खि (लि) पूर-कुक्षिपूर-पुं० । उदरपृत्तौं, " भागासकुकुक्कुमापायपसार-कुक्कुटीपादप्रसार-पुं० । यथा कुक्कटी चिपूरो, उग्गहपमिसेहियाम्म जो कालो।" व्य०४ उ०। पादौ श्राकाशे प्रथम प्रसारयति एवं साधुनाऽपि आकाशे पा- कुक्खि (चि) वेयणा-कुक्तिवेदना-स्त्री० । कुक्केः शूलादिवे. दो प्रथमं शक्वता प्रसारणीयाविति विधिना पादप्रसारणे, | दनारूपे, उत्त०१ अ० । रोगातङ्कभेदे, जी० ३ प्रति०। औ०। ('पमिकमण' शब्दे तदतिचारप्रतिक्रमणम्) कुक्खि (चि) संजय कुक्षिसंजत-त्रि०। अपत्ये, “णियगकुक्कुमेसर-कुकटेश्वर-पुं० । चारणश्वरराजकारितजिनप्रासाद कुच्चिसंनूयाई" निजापत्यरूपाणीत्यर्थः । विपा०१ श्रु०७०। विभूषिते तीर्थभेदे, ती "पुन्धि पाससामी ग्उमथो रायासरीए काउस्सग्गे चिओ, सत्थ वाहकेसीए तस्स ईसररमो वाण कुक्खि (चि)संबल-कुक्षिसंबल-त्रि० । कुक्कावेव बहिः संज्जुणनामा बंशी भयवंतं पिच्छिऊण गुणकित्तणं करे--उस्स. चयाभावाज्जठर एव संबलं पाथेयं यत्रासौ कुदिसंबलः । सं. ग्गे ठियो बाससेणनिवपुत्तो जिगु त्ति । तं सोउं राया निधिदीने, “अपयमाणस्स निक्खावित्तिस्स कुक्खिसंबल. गयाश्रो उत्तरित्ता पहुं पासंतो मुशियो । पत्तवेयणो य पुट्ठो। स्स निरभिसरणस्स" पा० । क्षुक्तिमात्रपाथेय, ध०३ अधि। मंतिणा पुवनवे कहेश्-जहाऽहं चारुदत्तो होऊण पुवजम्मे वसं कुविख (चि) सूत्र-कुक्षिशूल-न० । पुं० । कुक्षौ शूलः । तपुरे पुरोहिअपुत्तो दत्तो आसि, कुठाश्रोगपीडिओ अ गंगाए | निवळता चारणरिसिणा वोडिओ, अहिंसाई पंच वए पाले मि, __ " प्रकुप्यति यदा कुक्को, पहिमाक्रम्य मारुतः। इंदिए असासेमि, कसाए य जिणेमि, अमया चश्यहरमागभो तदाऽस्य भोजनं शुक्तं, सोपष्टम्भं न पच्यते ॥१॥ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुक्खि (च्छि) सूल अभिधानराजेन्द्रः। कुज्जा उपेसियामशकता, शूलेनाऽऽहन्यते मुहुः । स्थापत्यम ऋध्यण कौत्सः । तदपत्ये, पुं० । स्त्री० । बहुषु तस्य नैवाशने न शयने, तिष्ठन्न लभते सुखम् ॥२॥ "अत्रिभृगुकुत्स०"।२।४/६५॥ इति पा० लुक कुन्ताः । तदपत्येषु, कक्षिशूल इतिख्यातो, वातादामसमुद्भवः" कृ-वा-स। "पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम"।६।३। १०६ । इति शुश्रुतोक्ते शूलरोगभेद, वाचा विपा०१ श्रु०१० । कुर्वति, त्रि० । वाच.1 “थेरस्स णं अग्जसिवई थेरे अं. उपा० जी०। का। तेवासी कुच्चसगोत्ते" कल्प० ८ कण ।। कुक्खि (च्छि) हार-कुक्तिधार-पु०। यानपात्रव्यापार विशेष- कुच्छकुसिझ्या-कुत्सकुशिकिका-स्त्री० । कुत्सानां कुशिकानां योगिनि, मा० १० १६ अ० । नौपार्श्वनियुक्तिके, हा० १ | च मैथुनम् " द्वन्द्वाद् धुन बैरमैयुनिफयोः"॥४। ३ । १२५ ॥ शु०८०। पाणि । कुत्सगोत्राणां कुशिकगोत्राणां च स्त्रीपुंसां मैकुखगइ-कुखगति-स्त्री० । अप्रशस्तविदायोगती, कर्म०५ कर्म पुने, वाच । “थेरस्सणं अज्जसिवनई घेरे अंतेवासी कुच्छसगोत्ते"। कल्प०८ क्षण । कुग्गह-कुग्रह-पुं० । कुत्सितो ग्रहः कुग्रहः। दर्शक। स्वाभिप्रायेण दुष्टाभिनिवेशे, "कुग्गहविवजियाणं, अणिदणीयाण परिण- | कुच्छग कुत्त कुच्छग-कुत्सक-पुं० । बनस्पतिविशेषे, सूत्र. २ भु०२० । यवयाणं।" जी०१ प्रति। कुच्छण-कुत्सन-न० । कुत्स नावे ल्युट् । निन्दने, कुत्स्यतेऽनेन कुग्गहविरह-कुग्रहविरह-पुं० । शास्त्रीयाभिनिवेशत्यागे, पश्चा० करणे स्युट् । निन्दासाधनव्ये, उपचारात्तयुक्त, त्रिभवाच। ३ विव० । असदमिनिवेशवियोगे, ध० ३ अधि०। कोथन-न० । प्रतिनवने, वृ० १ उ० । अङ्गल्यन्तराणां कोकुग्गाहिय-कुमाहित-त्रि० । कुत्सितं प्राहिते, दर्श। थे, व्यः४० कुचर-कुचर-त्रि० । कुत्सितं चरन्तीति कचरानचौरपारदारि त कुचराग चारपारदारि कुच्छणिज्ज-कुत्सनीय-त्रि०। जुगुप्सास्पदे स्थाने, पृ.१००। कादिषु, प्राचा० १ श्रु०८ अ०२२० । कुच्छल्ल-देशी-वृत्तविवरांर्थे, देना०२ वर्ग। कुचिइयग्गह-कृचितिकाग्रह-पुं० । कौटिल्याचशे, यो० वि० । कुच्छा-कुत्सा-खी० कुत्स-श्र--भाये। निन्दायाम, वाच० । आस्थितं चैतदाचार्य-स्त्याज्ये कुचितिकाग्रहे। आव० । जुगुप्सायाम, विशे०। कर्म। शास्त्रानुसारिणस्त-कोनामजेदानुपग्रहात ॥२४॥ | कुच्चिय-कुत्सित-न० । कुत्स-कर्मणि क्तः । कुटनामौषधौ, नावे (श्रास्थितं चेति) एतच कालातीतमतमाचार्य: श्रीहरि- का। निन्दायाम् ना कर्मणि के निन्दिते, त्रिवाचा निन्द्य, भलसूरिभिरास्थितमङ्गीकृतं कुचितिकाग्रहे कौटिल्यावशे त्या- पञ्चा०७ विव० असारे, विशे० । ज्ये परिहार्ये, कुचितिकात्यागार्थमित्यर्थः । शास्त्रानुसारिणस्त कुच्चेप्रअ-कौत्सेयक-j० । कुकी बसोऽसिः । ढकम् । "छोsकादर्थसिद्धौ सत्यामिति गम्यम, नामभेदस्य संशाविशेषस्यानुपग्रहादनभिवेशात्, तत्वार्थसिद्धौ नाममात्रक्लेशो दियोगप्रति क्ष्यादौ । ८।२।१७ । इति कस्थाने माकुक्षिप्रदेशे बद्धे तनपन्थी न तु धर्मवादेन विशेषविमर्शोऽपीति भावः । तदिदमुक्तम् वारे, वाचा प्रा०२ पाद । " साधु चैतद्यतो नीत्या, शास्त्रमत्र प्रवर्तकम् । कुज-कुज-पुं०। को पृथिव्यां जायते जन डः। मङ्गवे, वाच। तथाऽभिधानभेदात्तु, भेदः कुचितिकाग्रहः ॥१॥ वृक्षे चा“कुजगुम्मा" जं० २ वदा। विपश्चितां न युक्तोऽय-मैदम्पर्यप्रिया हि ते । कुजय-कुजय-पुं०। कुत्सितो जयोऽस्येति कुजयः। द्यूतकारे, महयथोक्तास्तत्पुनश्चारु, हन्तात्रापि निरूप्यताम् ॥ २॥ तोऽपि यूतजयस्य सद्भिर्निन्दितत्वादनर्थहेतुत्वाश्च कुत्सितत्व. उभयोः परिणामित्वं, तथाऽभ्युपगमाद् ध्रुवम् । मिति । सूत्र० । “कुजए अपराजिए जहो अक्वहिं कुसलेहि अनुग्रहात् प्रवृत्तेश्व, तथाऽद्धाभेदतः स्थितम् ॥३॥ दीबियं" सुत्र.१ श्रु०२७०२ उ० । आत्मनां तत्स्वन्नावत्वे, प्रधानस्याऽपि संस्थिते। ईश्वरस्याऽपि सन्यायात, विशेषोऽधिकृतो नवेत्॥४॥ कुज-कुब्ज-पुं०। ईचत् उजमार्जवं यत्र शक० । अपामार्गे, द्वा० १६ द्वा० । यो०बि०। खड्ने, हृदयपृष्ठरोगे,पुं० । “हृदयं यदि वा पृष्ठ-मुन्नतं क्रमशः स. कुचेल-कुचैन-त्रि० । कुत्सितं चेलं वस्त्रमस्य । कुत्सितवस्त्रधरे, | रुका क्रुद्धो वायुर्या कुर्यात्तदा तं कुब्जमादिशेत्"। इति तल्लुवाच० । जीर्णवस्त्रपरिदधाने, वृ० १ उ० । “ दुहजीविणो कुचे क्षणम् । तद्युक्ते, त्रि०ाधाच० । पृष्ठादौ कुब्जयोगात् कुजत्वयुक्ते, ला, कुविति य चोरा चंडालमुठ्यिा " अनु० । कुचा संकुचा " गर्ने वातप्रकोपेण, दोहदे याऽपमानिते । भवेत्कुन्जः कुणिः इला यस्याः।५त। विद्धकएव्यां पाठायाम, स्त्री० । "षिगौरा पङ्क-मूको मन्मन एव वा" ॥ प्रश्न० ५ सम्ब० द्वार। दिभ्यश्च"।४।१।४१ । इति ङीष् । वृके, स्त्री०।वाचा कुज्जग-कुब्जक-पुं०। की सब्ज एतु शक 1 अतिसुरभिपुष्प कच्चग-कृर्चक-पुंना कर्च स्वार्थ कः । कूर्चशब्दार्थे,वाच। वृक्षभेदे,वाचा शतपत्रिकाविशेष,ज्ञा० १ श्रु०००। प्रका। तृणभेद, येन कूर्चकाः क्रियन्ते । प्राचा०२ ० २ ० ३ उ०॥ कन्ना-कुब्जा-स्त्री०। कंसजवनस्थे सैरन्ध्रीभेदे, पादाभ्यामाकअस्त्य इनिर्च किन् । सूच्यग्राकारयुक्ते,त्रिका पश्चगव्ये,वाचा म्य श्रीकृष्णः सुरूपां चकार । वाच। कुञ्जरोगरुग्णायां योकुच्चिय-कृचिक-पुं०। धरे, पृ० ११०। पिति, विशे० (कुब्जायाः पतग्रहधारियाः क्षेत्रानुयोगे कथानकच्च-कत्स-पुं०।कुत्सयते संसारम् । कुरस-भस् । ऋषिदेत कम 'मणमोग' शम्दे प्रथमन्नागे २८५ पृष्ठे उक्तम्.) Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) कज्जिया भनिधानराजेन्षः। कुमिलसुसिणिददीहसिरय कुन्जिया-कुब्जिका-स्त्री० । अष्टवर्षायां कन्यायाम, पाच० ।। जाविताः इति कुटदृष्टान्तेन शिष्यप्रापणा । ० १३० । प्रा० क०।नं० । विशे० । को० । नि. । प्रा००। समनिवक्रजङ्घायाम, रा०। कढनयमते घटपर्यायस्याऽपि कुटशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तं भिकुज्झत-क्रुध्यत्-त्रि० । क्रुध श्यन् शतृ " युधबुधगृधध-| अमेव । कुट कौटिल्ये, कुटनात्कुटः। भत्र पृपुबुध्नोदरादिकम्बु. सिधमुहां ज्झः" ।। ४।२१७ । इत्यन्त्यस्य ज्झः। कुप्यति, प्रा० प्रीवाद्याकारकौटिल्यं कुटशब्दवाच्यम् भा०म०वि०मा० ४ पाद। चू। स्था० विशे। कुट्ट-कुट्ट-पुं० । कुट्टनात्कुट्टः । घटे, सूत्र०२ श्रु०७०। कुमंग-कुट-पुं० । कुहभूमिः टक्यते पाच्छाद्यतेऽनेन । 'टकुट्टण-कुट्टन-न० । कुट्ट-ट्युट । खदिरादेरिव दविशेषकरणे, कि' प्राच्गदने करणे घञ् । ६० । गृहाच्छादने तृणादौ, औ०। प्राचा० । महतीकच्छपीचित्रवीणानां वादने, “कुट्टि- वंशजालिकायाम्, बृ० १००। बंशादिगहने, का० १७०१८ जंतीणं कच्चभीणं चित्तवीणाणं " रा०। अ०। वृक्तगहने, ..३० । गहरे, भोघ० । “सतो वंसीकुट्टणा-कुट्टना-स्त्री०। जातिजरामरणरोगशोककृतायां शरीरपी कुमंगोतं टो" प्रा०म० द्वि०। डायाम, सूत्र १ श्रु०१२ अ०। कुम-कुदएम-पुंगबन्धनविशेष, प्रभ० प्रा० द्वार । कुट्टणी-कुट्टनी-स्त्री० । कुट्ट ल्युट् की । परपुरुषेण सह पर- कुडंग-कुदएमक-न० । काष्ठमये प्रान्ते रज्जुपाशे, प्रभ०३ मात्रियाः समागमकारिण्यां स्त्रियाम, णिनि कट्टिन्यप्यत्र । वा-| अ० द्वार। च० । कुट्टयतीति कुट्टनी । कण्डनकारिण्याम, बृ० १२०। कुमझिम-कुदएिमम-त्रि० । कुदएकोऽसम्यनिग्रहस्तेन निवृत्तं कुटितिया-कुट्टयन्तिका-स्त्री० तिलादीनां चूर्णनकायाम, झा० मन्यं कुदहिम्मम् । कुदरामेन निवृत्ते भव्ये,विपा० १७० ३१० १९०७०। कुमग-कुटक-पुं० । घटे, आ० म०प्र० । भव्ये, पृषुबुध्नाचाकुटिजमाण-कुट्यमान-त्रि० । उदूस्खलादिषु कुव्यमाने, जं०१ कार उदकाद्याकारकमे कुटकास्ये शब्दस्य घटादेरनिनिवेशः। वारा। सूत्र० १ ० ११ भ०। कुष्टिम-कुट्टिम-पुंगाना "अर्द्धर्चाः पुंसि च"।२।४ । ३॥ इति कुमजी-कुटभी-स्त्री० । लघुपताकायाम, " कुम्भीसहस्सप(पाणि) पुनपुंसकत्वम । कुट्ट-नावे घञ् तेन निवृत्त श्मए । सु रिमरिम्याजिरामो इंदज्जओ" कुममिति लघुपताकाः संभाधाक्षिप्तचूतले, वाच० । मणिनामिकायाम, भ० ८ ०६ व्यते। स०३४ सम। उ०। कुटीरे, स्वल्पगृहे, दामिम्बवृक्के, बरुभूमिभागे, सौध- कुममह-कुटमुख-न । घटकपटके, पृ०१3०1"कुममहामो प्रदेशभेदे, वाच। घेप्पंति" नि० चू०१ उ०। कुट्टिमतल-कुहिमतल-० । मणिभूमिकायाम , औ० । बनू- | कुमय-कुटच-पुं० । कुट-श्व चीयते चिकाकुटजवृक्ष,वाच। मितले, जी०३ प्रतिकारा। कुटज-पुं० । कुटे पर्वते जायते जन-मः। वाचः। गिरिममिकाकुट्टिय-कट्टित-त्रि० । कुट्ट क्तः। दिते, खण्डीकृते, वाच। पर्याये, औ० । वृतविशेषे, झा० १ ० ए ० । प्रज्ञा० । पर्वके"कुट्टिो फाडिओ भिम्हो," उत्त. १५ म० । रजःकुट्टनेन ध्वस्यान्तर्भावः। प्रका० १ पद । कुटे घटे जायते। अगस्त्यमुनी, पतितच्चिद्रे, वृ०१ उ०।। द्रोणाचार्य च । वाच॥ कुट्टयित्वा-अव्य० । दूखलादौ तिलादिकमिव करामयित्वे- कुमच-कटप-पुं० । कुट-कपन् । मुनौ,गृहसमीपस्थोपवने,पये,न। त्यर्थे, "कुट्टिय कुट्टिया चणं वा पक्खिवेजा"न.१४ श०८ उ०। पाच० "चम्सेरमो कुमओ चनकुमो पत्यो नेत्थि"का कुहाओ-देशी-चर्मकारे, दे० ना०२ वर्ग। १७०७०। कुछ-कुष्ठ-पुं० । न। कुष्णाति रोगम कुष क्थन् । गन्धिकवि - कमिया-देशी-वृत्तविवरार्थे, दे० ना०५ वर्ग। केये वस्तु-(गन्धरुव्य) विशेषे, विशेाका० । प्रा०म०। कमिल-कटिल-त्रि० । कुट श्लन् । वक्रे, ज०२ यक्का उपाय ल०प्र० । उत्पलकुष्ठे, सूत्र०१ श्रु०४०२ उ० । " उक्तं पु. प्रश्न । आचा। स्था० । अतिवके, उपा० २ १०।"धणुकरमूलं तु,पौष्करं पुष्करं च तत्। पद्मपत्रं च काश्मीरं,कुष्ठभेद- कुंडलवंकयागारपरिक्वित्ता" औ०रा०। आचा। अनूमिमं जगुः ॥" वाच० । रोगविशेषे च । व्य०६ उ०।पिं०। जौ, प्राचा०१ श्रु०१०३ उ०। “जिणवरवयणोवदिष्मकुट्ठा-कुष्ठा-स्त्री० । चिञ्चिनिकायाम, बृ० १ उ० । चण्डयाम, ग्गेण अकुडिलेण" और। तगरपुप्पे, न०। युगादिभिः कुटिदे० ना०५ वर्ग। समिति मतं 'स्मौ न्यो गौ' वृत्तरत्नाकरोक्ते छन्दोदे, सरस्वकुट्ठाणासणकुसेज्जाकुभोयण-कुस्थानाशनकुशय्याकुभोजन त्याम, स्त्री० । स्पृकानामगन्धद्रव्ये, स्त्री० । वाच०। त्रिका कुस्थानासनकुशय्याश्च ते कुभोजनाश्चेति समासः। प्रश्न कुम्लिन्तु-कुटिलम्र- त्रिपुरभ्याम्, "प्रत्यापिबति नो वान्त३ आश्र द्वार । कुत्सिताश्रयविष्टरदुःशयनदुर्भोजनेषु, न०७ मवशः कुटिल वाम्" | EN० २६ द्वा०। श०६ उ.1 कुमिनमुसिणिकदीहसिरय-कुटिनसस्निग्धदीर्घशिरोज-त्रि०। कुम-कुट-पुं० । कुट-कः । कोटे, शिलाकुट्टे, वृक्के, पर्वते, कलशे, | कटिलाः सस्निग्धाः दीर्घाः शिरोजा यस्य सः । वचिक्कणलपुनावाचा घटे, कुटा द्विधा-मवा जीर्णाश्च। तेऽप्यभावित- म्बकेशे, जी० ३ प्रति०। Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमिलविरल अभिधानराजेन्द्रः। कुडुंतर कुमितविमल कुटिझविटल-नः। इस्तिशिक्षायाम, सूत्र०१ सात् करिष्यति। ततस्तडित्तेज श्व सतडत्कारं प्रथमं ज्योतिनिभु. ३७०३ उ०। गत्याप्रतिचक्रतोज्यमानमिथ्यादृष्टिदेवतमामूलाल्लिनं द्विधा निकुमिवयं-देशी-कुटिले, दे० ना०२ वर्ग। म्वा प्रादुरास पद्मासनासीनः स्वयंभूभंगवान् नाभिसूनुः तदनया कुमिन्बय-कटीव्रत-त्रि.। कुटीचरेषु, ते च गृहे वर्तमाना व्य दर्शनप्रभावनयातीणः पाराञ्चिताम्भोनिधिरिति विमुच्य रक्ता म्बराणि प्रकटीकृत्य मुखवस्त्रिकारजोहरणादिनिङ्गानि महारापगतकोधलोभमोहा अहङ्कारं वर्जयन्तीति । भौ०। जं धर्माकरैराशीर्वादयांचवे वादीन्द्रः । ततो विनयपुरस्सरंकुमी-कुटी-सी०। कुट इन को । गृहे, कुट्टियां, मुरानामगन्ध "सूरये सिरसेनाय, दरादुच्छ्रितपाणये । द्रव्ये च । वाचः। तत्र गृहे " एगस्स कुंजगारस्स कुडीए साहु- धर्मसान इति प्रोक्ते, ददौ कोटि नराधिपः" ॥१॥ णो द्विया" प्रा०म० कि०। ततः प्रभूतं कमयित्वा नृपतिः स्तुतिमकार्षांत । यथाकुठंब-कुटुम्ब-पुं० । न० । कुटुम्ब अच् । पोप्यवर्गे, बान्धवे, स- "उटुब्यूढपाराश्चितसिकसेन-दिवाकराचार्यकृतप्रतिष्ठः । न्तती, नामनि, वाच । स्वजनवर्ग, उत्त०१४ अ०। श्रीमान् कुटुम्बेश्वरनाभिस्नु-देवः शिवायास्तु जिनश्वरो नः"१। कुमुबय-कुटुम्बक-पुं० । वनस्पतिविशेषे, प्रका० १ पद। ततो भगवतो भट्टश्रीदिवाकरसूरेर्देशनया संजीविनीचारि. वरकन्यायितस्वान्नाविकभकतया विशेषतः सम्यक्त्वमूलां देकुटुंबि ( ण् )-कुटम्बिन्-त्रिका कुटुम्ब इनिः। कुटुम्बयुक्त, गृह- शविरति प्रत्यपाटि श्रीविक्रमादित्यः ततश्च मोटारले स्थाश्रमे, कर्षके, त्रि० । वाच०। प्रभूतपरिचारकलोकपरिवृते सांवमाप्रभृतिप्रामाणामेकनवर्ति, चित्रकूटमण्डले वसाम्प्रभृ. रजोहरणमुख (वत्रिका) पोत्तिकादिलिङ्गधारिणि पारतकम- तिग्रामाणां चतुरशीर्ति, तथा घुपटरेसीप्रभृतिप्रामाणां चतुर्वितिच्छन्दे, बृ० १ उ०। शतिमाहेम्वासकमण्डले ईसरोडाप्रभृतिप्रामाणां षट्पञ्चाशतं कुठंबेसर-कुटुम्बेश्वर-पुं०।अवन्तीस्थे स्वनामख्याते श्रीऋण भीकुटुम्बेश्वर ऋषजदेवाय शासनेन स्वनिःश्रेयसार्थमदात् ।ततः शासनपट्टिका श्रीमपुज्जयिन्यां संवत् १ चैत्र सुदि १गुरुभाद्र भदेवप्रतिमाभेदे, ती। देशीयमहाकपटलिकपरमाईतश्वेताम्बरोपासकब्राह्मणगौतम"इवेताम्बरेण चारण-मुनिनाऽऽचार्येण वज्रसेनेन । सुतकात्यायनेन राजालेखयत, ततः श्रीकुटुम्बेश्वर ऋषदेशक्रावतारतीय, श्रीनाजेयः प्रतिष्ठितो जीयात् ॥१॥ वःप्रकटीभवति । तदिनात् प्रभृति सर्वात्मना मिथ्यात्वोच्छेदेन कुटुम्बेश्वरनाभेय-देवस्यानल्पतेजसः । सर्वानपि जटाधरादीन् दर्शनिनः श्वेताम्बरान कारयित्वा पकल्पं जल्पामि लेशन, दृष्टा शासनपट्टिकाम" ॥२॥ रिमुक्तमिथ्यादृष्टिदेवगुरुः सकलामप्यवन्ती जैनमुद्राङ्कितां चकापूर्व लाटदेशे मएमनभृगुकच्छपुरालङ्कारे शकुनिकाविहारे । ततः परितुष्टैः श्रीसिम्सेनसूरिभिरभिदधौ वसुधाधवःस्थिताः श्रीवृद्धवादिसूरयः ' येन निर्जीयते तेन तस्य शिष्येण __ "पुराणे वाससहस्से, सयम्मि महिअम्मि नवनवश्कालिए। जाव्यमिति' प्रतिज्ञां विधाय वादकरणाथै दक्षिणपथायातं क- होही कुमरनरिंदो, तुह विक्कमराय! सारिच्छो " ॥१॥ नोटभट्टदिवाकरं निर्जित्य व्रतं ग्राहयांचक्रिरे। किं संस्कृतं कर्तुन इत्थं ख्याति सर्वजगत्पूज्यतां चोपगतः श्रीकुटुम्बेश्वरो जानन्ति श्रीमन्तस्तीर्थङ्करा गणधरा वा यदर्भमागधेनानायमकु- युगादिदेव शत। बन् । तदेवं जल्पतस्तवमहत् प्रायश्चित्तमापन्नम,किमेतत्तवाग्रतः “कुटुम्बेश्वरदेवस्य, कल्पमेतं यथाभुतम् । कथ्यते,स्वयमेष जाननसि । ततो विमृश्याभिदधेऽसौ-भगवन् ! रुचिरं रचयांचक्रः, श्रीजिनप्रभसूरयः ॥ १ ॥ ती०४६ कल्प। भाभीयमाणो द्वादशवार्षिकं पाराञ्चितं नाम प्रायश्चित्तं गुप्तमुखपत्रिकारजोहरणादिलिङ्गःप्रकटितावधूतरूपश्चरिप्यामीति।प्रा | कुमुजग-कुटम्नक-पुं० । जलमण्डूके, “कुटुमओ जलमंत्रो वश्यकमुपयुक्त इति गुरुभिरभिहितमाकर्य देशान्तरप्रामनग भएणति" नि० चू०१ उ०। रादिषु पर्यटन द्वादशे वर्षे श्रीमदुज्जयिन्यां कुटुम्बेश्वरदेवालये कुमुक्कायरिय-कुटुकाचार्य-पुं० । स्वनामख्याते दार्शनिकपशेफालिकाकुसुमरजितचोलपट्टालस्कृतशरीरः समागत्यासां- रिमते, अने०२ अधिः। चके । ततो देवं कस्मान्न नमसीति लोकैर्जलप्यमानोऽपि नाज कुमुल्ली-कुटिका-स्त्री० । अस्पकुट्याम, “एक कुरुखी पंचर्चाद रुल्पत्। एवं च जनपरम्परया श्रुत्वा सर्वत्राऽनृणीकृतविश्वविश्व की, तदं पंचहं विजुअंजुम बुझी ।" प्रा०४ पाद।। म्जराङ्कितनिजैकवत्सरः श्रीविक्रमादित्यदेवः समागत्य जल्पयांचकार-कीरं लिलिको! निक्षो!किमिति त्वया देबोननसंस्थतीकड-कुड्य-ना 'कुह' काकश्ये ण्यत् । कौतेरनच्या०यक,गगाततस्त्विदमवादि वादिना-मया नमस्कृते देवे लिङ्गभेदो भ. | गमश्च श्युज्ज्वलदत्तः । पाच०। प्राकृते-“अधो मनयाम्" वतामप्रीतये भविष्यति । राज्ञोचे-जवतु क्रियतां नमस्कारः । ।२१७८। इति यमुकाप्रा पाद । “गोणादयः"IGI तेनोक्तम्-भूयतां तर्हि । ततः पद्मासनेन नृत्वा द्वात्रिंशकादिभि- २।१७४ । इति वा निपातः।प्रा०२पाद। मृत्पिएकादिनिर्मिते, देवं स्तोतुमुपचक्रमे । तथाहि दृ०२०। पाषाणरचिते. उत्त० १६१०। खटिकादिरचिते, " स्वयंभुवं भूतसहस्रनेत्र-मनेकमेकाकरजावलिङ्गम। उत्त०२० भित्तिशब्दार्थे, उत्त०२५ १०भ०। “कुडा अव्यक्तमव्याहतविश्वलोक-मनादिमध्यान्तमपुण्यपापम" ॥१॥ सा भासा कुहूं गिहं" नि० ०० ०। विलेपने, कौतूहले, इत्यादि प्रथम एव श्लोके प्रासादस्थितात शिस्विशिखानादिव स्वार्थ के नित्तौ, वाचः। सिङ्गात् धूमवर्तिरुदस्थात् । ततो जनवचनमिदमचे-अष्टविद्य-कइंतर-कुख्यान्तर-न० । कुमचमध्ये, “कुइंतरपुव्वकीसिपशाधीशः काबाग्रिरुकोऽयं भगवांस्तृतीयनेत्रानलेन भिक्षु भस्म- जीए"। ति कुडयान्तरं पञ्चमब्रह्मचर्यविषयः। आव०४ मन Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुडंतर (५८०) अनिधानराजेन्मः । कुणिन यत्रान्तरस्थेऽपि कुज्यादौ दम्पत्योः सुरतादिशब्दः भूयते प्राममात्रं दत्तवान् । तत्र च स्थितेन कुणालकुमारेण शिविता प्रकतस्यागः । ध०३ अधिप्रश्न । पवती गीतकला। पुत्रश्चान्यदा तस्य समुत्पन्नः। ततस्तकाज्याकुढ--कुठ-पुं० । 'कु' छेदने धार्थ कर्मणि कः । "ठो ढः"11१ पाप्तिनिमित्तं गतः पाटलीपुत्रं नगरं कुणालः । समाक्षिप्तश्चाती। १६६ | इति तस्य दः। प्रा०१ पाद । वृक्के, वाचा व तनगरनिवासी समस्तोऽपि सोकस्तेन गीतकसया । गता च तत्प्रसिद्धिः। भूपालान्तिकं नीतचासौ। तत्र कृतं च यनिकुढार--कुवार--पुं० । खी। कुठ करणे श्रारन् । “गे दः"11 कान्तरे तेन गीतमतीवाऽऽकिप्तश्व जगाद पृथिवीपतिः-याचस्व २॥ १६६ । ति उस्यः ढः । प्रा०१ पाद । परशौ,अनुास्त्रीत्वे भोः प्रयच्छामि तव समोहितम् । ततः पवितं कुणासनगौरा० ङीष् । वाच । परशु-पशु-स्वधितिपर्यायाः । वाचः। चंदगुत्तपपुत्तो उ, विसारस्स नत्तुओ। कुढाल-कुगर-पुं० । स्त्री० । कुढारशब्दोक्तार्थे, अनु। असोगसिरिणो पुत्तो, अंधो जाय कागणिं ॥ ८६२ ॥ कुण-कृ-धा। करणे"कृगैः कृणः" ।८।४।६५। कगेः कुण इत्या अस्याऽयं भावार्थ:-पाटलीपुरनगरे चाणक्यप्रतिष्ठितो मौर्यः देशो वा भवति । " व्यञ्जनाददन्ते "| ४ | २३ए । प्रथमं किल चन्द्रगुप्तो राजा बनूष । ततस्तत्पुत्रो बिन्दुसारः श्त्यन्तकारः । प्रा०४ पाद । कुणइ, कर, करोति । समजूत । तदनन्तरं तु तत्पुत्रोऽशोकभीर्जातः। तस्य चान्धोऽसौ कुणंत-कुर्वत-त्रि० । विदधति, जी०१ प्रति। कुणालः पुत्रः। एवं च सत्येष चन्द्रगुप्तस्य प्रपौत्रः,बिन्दुसारस्य तु कुणक्क--कुणक-पुं० । कुहणवनस्पतिनेदे, प्रशा०१पद । प्राचा०। नप्तृकः पौत्रः,मशोकश्रीपतेस्तु पुत्रः, 'काकणि' कत्रियन्नाषया राज्यं याचत इति । ततो यवनिकापगमं कारयित्वा किश्चित्सकुणमाण-कुणवत्-त्रि० । विदधति, “ पुढवाश्याणाइवायं | कौतुकेन राजा सविशेषं पृष्टः सर्वमपि स्वव्यतिकरं कुणालः कुणमाणे सवले" आय०४०। प्राचा। कथयामास । ततः पृथिवीपतिना पृष्टः अन्धस्त्वं राज्येन किं ककुणव-कुणप-पुं० । कण-कपन् संप्र० । " पो वः।"1८1१। रिष्यसि।तेन प्रोक्तम्-देव.मम राज्याईः पुत्र उत्पन्नो वर्तते । रा. २३१॥ इति पस्य वः। प्रा०१ पाद । त्यक्तप्राणे, मृतदेहे, शये, ज्ञा प्रोक्तम्-कदा? कुणालः प्राह-सम्प्रति । तत् सम्प्रतिरित्येव पूतिगन्धे, असभेदे, वाच । तस्य नाम प्रतिष्ठितमा राज्यं च तस्मै प्रदत्तमिति । तदेवं यथेहा कारस्योपर्यकेनाप्यधिकेन बिन्दुना कुमारस्य नेत्रापायो जा. कुणाल-कुणास-पुं० । श्रेणिकसुतकोणिकसुतोदायिपट्टोदित. तः तथा सुत्रेऽपि बिन्द्वाद्याधिक्यादर्थान्तरनाक्या सर्वानधनवनन्दपट्टोजतचन्ऽगुप्तसुतबिन्दुसारसुताऽशोकश्रीसुते,कल्प० । संभव हतिजावनीयमिति। ८६२ । विशेगा। प्राचार्यजिनदेवयस्य पुत्रः सम्प्रतिनामा परमाहतोऽभूत् । कल्प०८ क्षण । सत्कनदन्तमित्रस्य भ्रातरि, आव०४०। (पणिहि'शब्दे कथा) तस्यान्धीनूतत्वे कथानकं चेदम्--पाटलीपुत्रनामन-- कुणालणयर-कुणासनगर-न० । उज्जयिन्याम, “प्रासी कुणागरे मर्यिवंशसमुद्भवोऽशोकधीनाम भूपालः । तस्य चै सनगरे रायनामेण वसमणदासो।" कुणालनगरे उजयिन्यामिकस्या राझ्याः कुणालनामा तनयः समुत्पन्नः । तस्य त्यर्थः । संथा। च तुक्ती उज्जयिनी नगरी नरपतिना प्रदत्ता । ततश्च सातिरेकाष्टवार्षिके तस्मिन् कुमारे लेखवाहकनागत्य अशो कुणाला-कुणाला-स्त्री० स्थनामण्यातायां नगर्याम, "कासास्य कश्रीराजाय निवेदितम्, यथा-पतावति वयसि वर्तते युष्म नरकावासे,संजायेते स्म नारको । कुणामाया विनाशस्य, कामाद त्पुत्रः। ततश्चान्तःपुरोपविष्टेन भूपतिना स्वहस्तेनैव लिस्वितः कु वर्षे त्रयोदशे" प्रा०का०माऐरावतीनाम नदी कुणालाया भाराय लेखः। तस्य तत्र चेदमलेखि- यथेदानीमधीयतां कुमारः। नगाः समीपे जलाप्रमाणेनोदवहति, वृ०४ उ० । ग० । तं च लेखमसंवर्तितमेव मुक्त्वा शरीरचिन्तार्थमुत्थितो नरना. उत्तरस्यां दिशि प्राय॑जनपददे,०१०। यत्र श्रावस्ती थः। ततश्चैकया राझ्या गृहीत्वा वाचितोऽसौ बेखा चिन्तितं च नगरी। प्रव० २७४ द्वार । स्था० । "तेणं कालेणं कुणाला नायथा-मामापि विद्यते पुत्रः, केवलं लघुरसौ, महांश्च कुणाला, म जणवर होत्था तत्थ णं रुप्पी णामं राया होत्था "ज्ञा०१ तनस्तस्मिन् राज्ययोग्यतां विभ्रति न मदीयपुत्रस्य राज्याऽऽषा-1 श्रु०७०। स्था०1 प्तिः,ततस्तथा करोमि यथा कुणानोराज्यस्याऽयोग्यो भवति,अव- कुणि-कुणि-पुं० । कुण-इन् । तुन्दुवृके, वाचा गर्नाधानदोवसरश्चायम् । इति विचिन्त्य निष्ठीवनाक्तया हस्तस्थितनय- षाद् हस्वैकपादे न्यूनकपाणौ कुएटे, प्रश्न ५ संब० द्वार । नाअनशलाकयाऽकारस्योपरि प्रदत्तोबिन्दुः जातं च ततो 'अन्धी- आचा। पादविकले, वृ०१०।। यतां कुमारः। ततस्तथैव राश्या मुक्तस्तत्रैव प्रदेशे लेखः। राज्ञाऽपि कुणिमा-देशी-वृत्तविवरायें, दे. ना०२वर्ग। कथमपि पुनरवाचित एव संवर्तितोऽली।गतश्च कुमारसमीपम्। अवधारितश्च केनापि नियोगिना, अप्रकटश्च विरुद्ध शति मत्वा कुणिम-कुणप-न । पुं०। मांसे, स्था०४ ०४०। उपा० । न वाचितः । कुमारनिर्बन्धे च वाचितः । ततो विकातलेखार्थेन औ० । व्यापि० । सूत्रः । शये, तसे वसादी, न०७ श. प्रोक्तं कुमारेण-मौर्यवंशोनवानामस्माकमाझां भुवनेऽपि न ६० अनु । प्रश्नः । "ते दुब्जिगंधे कसिणे य फासे, कश्चित् स्वएमयति, ततः किमहमेव तातस्याझा लवयिष्यामि , कम्मोवगा कुणिमे पावसंतित्ति"। कुणिमे रुधिराद्याकुझे । सुन न भवत्येवैतदित्युक्त्वा तत्क्षण एवाग्नितप्ता लोदशलाकां गृही-| १७०५०१०। दी० । मांसपेशीरुधिरपूयान्त्रफिफिसस्वा मुक्तहाहारवे सर्वस्मिन्नपि परिजने निवारयस्यजिते प्र-| कल्मषाकुले सर्वामेभ्याधमे बीभत्सदर्शने हाहारषाक्रन्देन कई किणी जातश्चान्धः । ततो विज्ञातसमस्तैतदश्यतिकरो राजा मा ताबदित्यादिशब्दावधीरितदिगन्तराले परमाधमे नरकामहान्तं स्खई विधाय कु पासस्योजयिनी मुत्सार्योचितं किमप्यन्य- वासे, सूत्र. १० भ०१०। Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुणिमाहार कुशिमाहार-कुणपाहार पुं० कर्मधारयसमासः । मोमोज ने, भ० श० उ० । कुणपः शबस्तद्रसोऽपि वशादि: कुणपः, तदाहारः । मृतकभक्के, भ० ७० ६ उ० ॥ जं० । कुतक्क-कुतर्क - पुं० । कुयुक्तौ, भ्रष्ट० १६ श्रष्ट० । अशिका जीयमानेऽत्र राझील, चमूचरपरिच्छदः । निवर्त्तते स्वतः शीघ्रं कुतर्कविषमग्रहः ॥ १ ॥ ( ५८१ ) अभिधानराजेन्: । ( जयमान जीयमाने ऽत्रावेद्यसंवेद्यपदे महामियात्यनिबन्धनं पचत्वादिशब्दवाच्ये स्वत पचात्मनैवापरोपदेशेन शीघ्रम् एव विषममोपानभू कुतर्कस्य विषमग्रदः कुटिलावेशरूपो विनिवर्त्तते । राशि जीययमान इव चमूचरपरिच्छदः ॥ १ ॥ , शमाऽऽरामानन्नज्वाला, हिमानी ज्ञानपङ्कजे । अकाशस्यं स्पयोलासः कुतर्कः सुनवार्गला ॥ २ ॥ कुतर्केऽभिनिवेशस्तद्, न युक्तो मुक्तिमिच्छताम् । युक्तः पुनः श्रुते शीले, समाधौ शुकचेतसाम् ॥ २ ॥ उक्तं च योगमार्ग - स्तपोनिर्धूतकल्मषैः । जावियो गिहितायो - महदीपसमं वचः ॥ ४ ॥ पादश्च प्रतिवाद, वदन्तो निश्चितस्तथा । तच्चान्तं नैव गच्छन्ततिपत्रकच गतौ ॥ ५ ॥ विकल्पकल्पनाशिल्पं, प्रायोऽविद्याविनिर्मितम् । तद्योजनामयश्चात्र, कुतर्कः किमनेन तत् १ ॥ ६ ॥ शमेति व्यक्तः ॥ २ ॥ (ति) भुते आगमे, शीखे परोहविरतिलकणे, समाधौ ध्यानफलनुते ॥ ३ ॥ ( उक्तं चेति ) निरूपितं पुनर्योगमार्गयात्मविद्भिः पत विनिस्तपखा निघूनमथैः प्रमप्रधानेन तपसा मार्गा सारिबोधाचकोमलैर्भाविपोगिदिताय भविष्यद्विवाद कलिकालयोगदितार्थम उरत्यर्थ मोह मोटा न्धकारप्रदीप स्थानीयं वचो वचनम् ॥ ४ ॥ ( वादांश्चेति) वा पूर्वरूप प्रतिवाद परोपन्यस्तपतिरूपान दन्तो वा निश्चितान् अस्ति निकान्तिकारिवाभासनि रासेन । तथा तेन प्रकारण तत्तच्छास्त्रप्रसिद्धेन सर्वेऽपि दर्शनिनो मुमुक्षोऽपि तस्वान्तमात्मातिस्सममेव गन्ति प्रतिपद्यन्ते तिपलपलक व निस्काशसंचार. स्तिलयन्त्रवादनपरः । यथा ह्ययं नित्यं भ्राम्यन्नपि निरुकाकृतया न तत्परिमाणमवबुध्यते एवमेतेऽपि वादिनः स्वपानिनिवेशान्धाः विचित्रं वदन्तोऽपि नोच्यमानतस्वं प्रतिपद्यन्त इति ॥५॥ ( विकल्पेति) विकल्पाः शब्दविकल्पा अर्थविकल्पाश्च, तेषां कल्पनारूपं शिल्पं, प्रायो बाहुल्येनाऽविद्याविनिर्मितं ज्ञानावरणीयादिकर्म संपर्कजनितं तदूयोजनामयस्तदेकधारात्मा चात्र कुतर्ककारणभयस्य सत्का जातिमा बाध्योऽयं ताम्यविकल्पनात् । इस्ती इन्तीति वचने, प्राप्ताप्राप्तविकम्पयत् ॥ ७ ॥ स्वभावोत्तरपर्यन्त एषोऽत्रापि च तत्त्वतः । ૬૪૬ कृतक नागृहग्ानगम्यत्वमन्यथाऽन्येन कल्पनात् ॥८॥ ( जातिप्रायश्चेति ) जातिप्रायश्च दूषणाभासकल्पश्च बाध्यः प्रतीतिफलाभ्यामयं कुतर्कः प्रकृतान्यस्योपादेयाद्यतिरिक स्पाप्रयोजनस्य वस्त्वंशस्य विकल्पनात हस्ती इन्तीति बचने याकडेनोवाकियात्रस्य यथा यमित्थं वारं प्रति किमर्थ हस्ती प्राप्तं व्यापादपा आधे त्यामपि व्यापादयेदम्ये च जगदपीति विकल्पयमेव - विना गृहीतो मिटेन कथमपि मोचित तथा तथाविधविक उपकारी तत्तद्दर्शनस्थोऽपि कुतर्कहस्तिना गृहीतः सद्गुरुमिएतेनैव मोच्यत इति ॥ ७ ॥ (स्वभावेऽति) पत्र कुतर्कः स्वभावोस्तरपर्यन्तः, अत्र च " वस्तुस्वभावैरुत्तरं वाच्यम्" इति वचनात् । अत्रापि स्वभावेनागृहशास्थस्य हानगम्यत्वं तत्त्वतः । श्रन्यथा क्लृप्तस्यैकेन वादिना स्वभावस्याऽन्येनान्यथाकल्पनात् ॥ ८ ॥ तथाहि अ दाहस्वात् दर्शितेनान्तिके। विकृष्टेऽप्ययस्कान्ते स्वार्थशः चिरम् ॥ ॥ ॥ शतमात्र सीलच्या चदयं केन बाध्यताम् । स्वभावबाधने नालं, कल्पनागौरवादिकम् ||१०|| (अपमिति ) पांदनं प्रत्यषां ददनान्तिके दाहस्वाद्धिते पक्षविरोधपरिहाराट्र विध्य यस्कान्ते स्वार्थ टाकर्षण विंप्रकर्षणमास्याप्रयोजकत्वात् किमुत्तरम् ? । अन्यथावादिनः खनावस्यापर्यनुयोज्यत्वाद्विशेषस्याविनिगमात्। तनुकम् " "सोऽदित्यम्बु सीदतीति । अवनिधी तत्वाभाव्यादिदितयोः ॥ १ ॥ कोपादानोपायो नास्त्य युक्तिः । विप्रकृष्टो ययस्कान्तः 29 यतः ॥२॥ - कल्प ( दृष्टान्तेति ) दृष्टान्तमात्रस्य सौनभ्यात्तत्तस्माद्यमन्यथा स्यनायविकल्पः कुतर्क केलायाम् असि दाह स्वभावत्वे कल्पनागैौरवं बाधकं स्यादित्यत श्राह स्वनावस्योपपत्तिसिद्धस्य बाधने कारवादिकं माननासहस्रेणाऽपि स्वभावस्यान्यथाकर्तुमशक्यत्वात् । अत एव न कल्पनालाघवेनापि स्वजावान्तरं कल्पयितुं शक्यमिति द्रष्टव्यम् । अथ स्वस्य जायो नामको धर्मोनियकारत्वादिरूप एच सच कल्पनालाचानेन गृह्यते अन्य गृहीतश्च कल्पनागीरवज्ञानेन त्यज्यतेऽपीति चेन्न; गौरवेऽपि अप्रामाणिकत्वस्य दुर्प्रहत्यात्प्रामाणिकस्य च गौरवादेरप्यदोषत्वादिति दिक ॥ १० ॥ द्विचयस्यमविज्ञान- निदर्शनवलोत्थितः । चियां निरालम्बनतां कुतर्कः साधयत्यपि ।। ११ ।। कृत पर्याप्त समञ्जसकारिणा । श्रतीन्द्रियार्थसिद्ध्यर्थं नावकाशोऽस्य कुत्रचित् ॥ १२ ॥ (द्विचन् इति ) द्विचन्द्रस्वप्नविशाने एव निदर्शने उदाहरणमात्रे तद्वादुत्थितः कुतर्कः धियां सर्वज्ञानानां निरालम्बनतालीकविषयतामपि साधयति ॥ ११ ॥ ( तदिति ) तदसमञ्जसकारिया प्रतीतिवाधितार्थसिधाविना पर्याप्तं कुतर्केण, अ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुतक (५५२) अभिधानराजेन्द्रः। कुतक तीन्द्रियार्थानां धर्मार्थानां सिद्धार्थ नास्य कुतर्कस्य कुत्रचिदव- (सर्वति ) सर्व प्रतिफ्त्यंशमाभित्य, अमलया पगकाशः ॥१५॥ द्वेषमलरहितया धिया बुद्ध्या निर्व्याजमौचित्येन सर्वशास्त्रस्यैवाऽवकाशोऽत्रः कुतर्काग्रहतस्ततः । झोक्तपालनपरतया तुल्यता भाव्या, सर्वतन्त्रेषु सर्वदर्शनेषु यो गिनां मुमुक्षूणाम।तदुक्तम् "तस्मात्सामान्यतोऽप्येन-मन्युपैतिय शीलवान् योगमनत्र, श्रघावाँस्तत्वविद् भवेत् ॥१३॥ एव हि । निर्व्याजं तुल्य एवासी, तेनांशेनैव धीमता" ॥१॥१७॥ तत्वतः शास्त्रनेदश्च, न शास्त्रीणामजेदतः । (दूरेति ) दूराऽऽसमादिभेदस्तु तभृत्यत्वं सर्वज्ञोपासकवं मोहस्तदधिमुक्तीनां, तद्भेदाश्रयणं ततः ॥ १४ ॥ न निहन्ति,एकस्य राहो नानाविधप्रतिपत्तिकृतामपि एकभृत्य(शास्त्रस्थति अत्रातीन्धियार्थसिकौ शास्त्रस्यैवावकाशः, स त्वाविशेषवत् प्रकृतोपपत्तेः। जिन्नाचारष्वपि तथाधिकारनेदेन स्यातीडियार्थसाधनसमर्थत्वाच्बुस्कतर्कस्यातयात्वात् । सदु नानाविधानुष्टानेष्वपि योगिषु मामादीनामईदादिकादीनां कम्-"गोचरस्त्वागमस्यैव,ततस्तदुपनन्धितः। चन्द्रसूर्योपरागादि भेदेन एकः प्रभुरुपास्यः । सयुक्तम्संवाद्यागमदर्शनात्" ॥१॥ ततस्तस्मात् कुतर्कानहतोऽत्र शास्त्रे "यौवैकस्य नृपते-बहवोऽपि समाश्रिताः। अधावान् शीलवान् परमोहविरतियोगवान् सदायोगतत्परः दूरासन्नादिभेदेऽपि, तभृत्याः सर्व एव ते ॥१॥ तस्वीवकर्माद्यतीन्द्रियार्थदर्शी जवेत् ॥ १३ ॥ ननु शास्त्रा- सर्वज्ञतत्त्वाभेदेन, तथा सर्वज्ञवादिनः। णामपि भिन्नत्वात्कथं शास्त्रश्रद्धाऽपि स्यादित्यत श्राह-(तत्त्वत सर्वे तत्तत्त्वगा शेयाः, भिन्नाचारस्थिता अपि ॥२॥ इति) तत्वतो धर्मवादापेक्षया तात्पर्यग्रहाच्छास्त्रनेदश्च नास्ति । | न भेद पव तत्त्वेन, सर्वकानां महात्मनाम् । शास्तृणां धर्मप्रणेतृणामन्नेदतः तत्तन्नयापेक्वदेशनाभेदेनैव स्थू- तथा नामादिभेदेऽपि, भाज्यते तन्महात्मनिः"॥३॥ १८ ॥ सबुद्धीनां तद्भेदाभिमानात् । अत एवाह-ततस्तस्मात्तदधिमुक्ती देवेषु योगशास्त्रेषु, चित्राचित्रविजागतः। नां शास्तृथकावतां त दाश्रयणं शास्तृजेदाङ्गीकरणं मोहोऽझा-1 नं,निर्दोषत्वेन सर्वेषामैकरूण्यात। तदुक्तम-" न तत्त्वतो भिन्नम नक्तिवर्णनमप्येवं, युज्यते तदनेदतः ॥ १५ ॥ ताः, सर्वका बहवो यतः । मोहस्तदधिमुक्तीनां तन्नेदाश्रयणं संसारिषु हि देवेषु, भक्तिस्तकायगामिनाम् । ततः "॥१॥१४॥ तदतीते पुनस्तरचे, तदतीतार्थयायिनाम् ॥ ३०॥ सर्वको मुख्य एकस्तव-पूतिपत्तिश्च यावताम् । (देवेविति) एवमिष्टानिष्टनामजेदेअप,तदनेदतः तावतःसनकासर्वेऽपि ते तमापन्नाः, मुख्य सामान्यतो बुधाः ॥१५॥ भेदात् योगशास्त्रेषु सौवाध्यात्मचिन्ताशास्त्रेषु देवेषु लोकपाल मुक्तादिषु चित्राचित्रविभागतो भक्तिवर्णनं युज्यते । तमुक्तमन ज्ञायते विशेषस्तु, सर्वथाऽसर्वदर्शिभिः । "चित्राचित्रविभागेन, यश्च देवेषु वर्णिता जतिः सद्योगशालेअतोन ते तमापन्नाः, विशिष्य जुबि केचन ॥ १६ ॥ घु, ततोऽप्येवमिदं स्थितम्" ॥२॥१६॥ (संसारिप्चिति) संसा(सर्वश इति) सर्वको मुख्यस्तात्त्विकाराधनाविषय एकः,सर्वक- रिषुदि देवेषु लोकपालादिषु नक्तिः सेवा तत्कायगामिनां संत्वजास्यविशेषात् । तदुक्तम्-"सर्वको नाम यःकश्चित्, पारमार्थि- सारिदेवकायगामिनाम्, तदतीते पुनः संसारातीते तु तत्त्वे तदकपरहि । सपक पव सर्वत्र,व्यक्तिभेदेऽपि तत्वतः" ॥१॥ तत्प्र. तीतार्थयायिनां संसारातीतमार्गगामिनां योगिनां भक्तिः ॥२०॥ तिपत्तिः सर्वशक्तिश्च यावतां तत्तदर्शनस्थानां ते सर्वेऽपि चित्रा चाधेषु तघाग-तदन्योषसङ्गता। बुधास्तं सर्वहं मुख्य सामान्यतो विशेषानिर्णयेऽप्यापश्ना श्रा अचित्रा चरमे त्वेषा, शमसाराऽखिलैव हि ॥१॥ धिताः, निरतिशयितगुणवत्वेन प्रतिपत्तेर्वस्तुतः सर्वझविषयकस्वाद गुणवत्ताऽवगाहनेनैव तस्या भक्तित्वाचा यथोक्तम्-"प्रति इष्टापूर्तानि कर्माणि, लोके चित्राऽभिसन्धितः। पत्तिस्ततस्तस्य, सामान्य नैव यावताम् । ते सर्वेऽपि तमापन्ना, फलं चित्रं प्रयच्छन्ति, तथाबुख्यादिभेदतः ॥ २॥ इति न्यायगतिः परा" ॥१॥१५॥ (नेति) विशेषस्तु सर्वज्ञा (चित्राचेति ) चित्रा च नानाप्रकारा च, प्रायेषु सांसारिकेषु नादिगतभेदस्तु असर्वदर्शिभिश्छद्मस्थैः, सर्वथा सर्वैः प्रकारैः, न कायते अतो न ते सर्वज्ञाभ्युपगन्तारस्तं सर्वक्षमापना आश्रिताः, देवेषु तामागतदन्यद्वेषाच्या स्वाभीष्टदेवतारागाननीयवेषाभ्यां विशिष्य नुवि पृथिव्यां केचन ।तऽक्तम्-"विशेषस्तु पुनस्तस्य, सङ्गता युक्ता,मोहगर्नत्वात्। अचित्रा एकाकाराचरमे तु तदतीकात्स्न्येनासर्वदर्शिनिः। सर्न ज्ञायते तेन, तमापन्नोन कश्चन" ते तु,पषा भक्तिः,शमसारा शमप्रधानाऽखिलैव हि तथासंमोहा मावादिति ॥२१॥ (इशापूर्तानीति) इष्टापूर्तानि कर्माणि लोके ॥१॥१६॥ चित्राभिसन्धितः संसारिदेवस्थानादिगतविचित्राध्यवसायात् अतः सामान्यप्रतिपत्यशेनं सर्वयोगिषु परिशिष्टा मृडमध्याधिमात्ररागादिरूपात्, तथा बुद्ध्यादीनां वक्ष्यमाणसतुल्यवैव भावीयेत्याह कणानां भेदतः फलं चित्रं नानारूपं प्रयच्छन्ति, विनिन्नानां नगरासर्वज्ञपतिपयंश-माश्रित्याऽमलया धिया। णामिव विभिन्नानां संसारिदेवस्थानानां प्राप्तरुपायस्यानुनिर्व्याजं तुट्यता जाव्या, सर्वतन्त्रेषु योगिनाम् ॥१७॥ ठानस्याभिसन्ध्यादिभेदेन विचित्रत्वात्। तदुक्तम् "संसारिणां हि देवानां, यस्माञ्चित्राण्यनेकधा। अवान्तरभेदस्तु सामान्याविरोधीत्याद स्थित्यैश्वर्यप्रभावादी, स्थानानि प्रतिशासनम् ॥१॥ दूराऽसन्नादिभेदोऽपि, तभृत्यत्वं निहन्ति न । तत्तस्मात्साधनोपायो, नियमाचित्र एव हि। एको नामादिभेदेन, भिन्नाचारष्वपि प्रनुः ॥१०॥ न भिन्ननगराणां स्या-देकं वर्त्म कदाचन" ॥२॥२२॥ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुतक ( ५८३ ) अभिधानराजेन्कः । बुझिनमसंमोह-त्रिविधो बोध इष्यते । बोपलम्नतज्ज्ञान - तदवाप्ति निदर्शनात् ॥ २३ ॥ आदर करणे प्रीति- रविघ्नः संपदागमः । जिज्ञासा सेवा च सदनुष्ठानलक्षणम् ॥२४॥ (बुद्धिरिति बुद्धिस्तथाविधोद रहितं शब्दार्थश्रवणमात्र ज्ञानम् यदाहार्थाया बुद्धिः "हानं तथाविधोडेन गृहीतार्थतस्व परिच्छेदनम् । तदाह-"ज्ञानं त्वागमपूर्वकम्” । श्रसंमोहोहेयोपादेयत्यागोपादानोपहितं ज्ञानम् । यदाह-"सदनुष्ठानवचै तदसंमोहोऽभिधीयते । " एवं त्रिविधो बोध इष्यते स्वस्वपूafe कर्मणां भेदसाधकः "तद्भेदात्सर्वकर्माणि भिद्यन्ते सर्वदेहिनाम्" इति वचनात्पलान-सदासीनां निद शगात्। यथा पनादिनंदा रखनेदस्तथा महतेपिख्यादिदानमेव इति ॥ २३३ (आद इति) यादो नातिशयास करणे प्रीतिरभिष्वामिका क रण पवारसामर्थ्यादपायानावः संपदागमस्तत पत्र शुमनायस जिल्हासा इादिगोवरा तज्यसेवा दिवा चशब्दात्तदनुग्रहः । पतत्सदनुष्ठानलक्षणं तदनुबन्ध सारत्वाव ॥ २४ ॥ जवाय बुद्धिपूर्वाणि विपाकविरसत्वतः । कर्माणि ज्ञानपूर्वाणि श्रुतशक्त्या च मुक्तये ॥ २४ ॥ संमोहसमुत्थानि योगिनामाशु मुक्तये । भेदेऽपि तेषामेको अध्या, जलपो तीरमार्गच्द् ॥२६॥ भवायेति पूर्वाणि कर्माणि स्वकल्पनाप्राधान्यानवे कानादात् विपाकस्य विरसत्य तो प्रवाद संसाराय प्रयन्ति रा "बुद्धिपूर्वाणि कर्माधि, सर्वापयेवेद देहिनाम् । संसारफसदान्येव विपाकविरसत्वतः " ॥१॥ पूर्वाणि च तानि तथाविवेकसंपतिजनितया श्रुतया मृतशक्तिकामुक म श्रेयसाय । ययुक्तम्- "ज्ञानपूर्वाणि तान्येव, मुक्तयङ्गं कुलयोगिनाम किसमावेशानुबन्धफलत्वतः " १२५०० संमोहेति) असंमोहसमुत्थानि तु कर्माणि योगिनां भावातीतायायिनामाशु शीघ्रं न पुनर्ज्ञानपूर्वकवद ज्युदयला भव्यवधानेअपि मुक्तये भवन्ति । यथोकम"असंमोहसमुत्थानि त्वेकान्तपरिशुचिता । निर्वाणफलदान्याशु, भावातीतार्थयायिनाम् ॥ १ ॥ प्राकृतेष्विह भावेषु येषां चेतो निरुत्सुकम् । प्रयभोगविरक्तास्ते, प्रार्थना ॥२॥ भेदेऽपि गुणस्थान परिणतितारतम्येऽपि तेषां योगिनामे को 5ध्वा एक एव मार्गः, जनधौ समुझे तीरमार्गवद् दूरासन्नादिदिनेदेऽपि ततस्तदेक्यात् । प्राप्यस्य मोहस्य सदाशिय परब्रह्मसिद्धान्तयता दिशन्देवांच्यस्य साम्यशियोगातिशक्तिवाचाम्यनवृत्व कल्पनिहितार्थत्याकाखतथाभा वाद्यर्थाभेदेनैकत्वात्तन्मार्गस्यापि तथात्वात् । तदुक्तम् 66 एक एव तु मार्गोऽपि तेषां शमपरायणः । अवस्थाभेदेऽपि जीव ॥ १ ॥ संसारातीततत्त्वं तु परं निर्वाणसंशितम् । तथैकमेव नियमाच्छब्दभेदेऽपि तत्वतः ॥ २ ॥ सदाशिवः परब्रह्म, सिद्धारमा तथतेति च । शब्देस्तदुच्यते-देकमेवेवमादिभिः ॥३॥ संवाद-निराबाधमनामयम् । १ निष्क्रियं च परं तत्त्वं यतो जन्माद्ययोगतः ॥ ४ ॥ ज्ञाते निर्वाणतस्वेऽस्मिन्, न संमोहेन तत्त्वतः । प्रेावतां न तद्भक्तौ विवाद चपपद्यते ॥ ५ ॥ २६ ॥ तस्मादचित्रनक्त्याऽऽप्याः, सर्वज्ञा न जिदामितः । चित्रा श्यानां तेषां शिष्यानुगुयतः ॥ २७ ॥ तथैव बीजापानादेर्यथाजन्यमुपक्रिया । अचिन्त्यपुण्यसामर्थ्यादेकस्या वापि जेदतः ॥ २८ ॥ चित्रा वा देशना तत्त- नयैः कालादियोगतः । यन्मूला मतियुक्तो जावमजानतः || २ | (तस्मादिति) तस्मात्सर्वेषां योगिनामेकमार्गगामित्वाद् श्रचित्रभक्त्या एकरूपया भक्त्या, आप्याः प्राप्याः सर्वज्ञा न भिदामिता न ने प्राप्ताः । तदुक्तम्" सर्वपूर्वक चैत भयमादेव यत् स्थितम् । आसन्नोऽस्तद्भेदस्तत्कथं भवेत् " ॥१॥ कथं हि देशमादः इत्यत आह-तेषां सर्वानां भवेद्यानां संसाररोगनिषग्वराणां चित्रा नानाप्रकाराः शियायतो विनेयाभिप्रायानुरोधात्, यथा वैद्या बालादीन् प्रति नैकमौषधमुपदिशन्ति, किं तु यथायोग्य विचित्रं, तथा कपिसानाअपि कालान्तरापापभीरून शिध्यानमित्योपसर्जनी कृतपर्या या उपप्रधाना देशना सुचतादीनां तु भोगाऽऽस्थायतोऽधिकृत्योपसर्जन कृतन्या पर्यायप्रधानादेशनेति न तु तेऽन्वय व्यतिरेकवस्तुवेदिनो न भवन्ति, सर्वज्ञत्वानुपपत्तेः। तदुक्तम्- "चि जा तु देशनैतेषां स्वाद्विनेयानुरूपतः । यस्मादेवे महात्मानो माथिनः ॥२७॥ तथैवेति) तथैव विदेशनये बीजानामेवागादिाचत कृष्णात् यचानन्यं जयसदृशमुपक्रिया उपकारो नवति । यमुक्तम् -" यस्य येन प्रकारण, बीजाधानादिसंभवः। साधुबन्धो भवत्येते, तथा तस्य जगुस्ततः " ॥ १ ॥ एकस्या या तीर्थकरवाया भविस्यषु पयसामध्येदनिर्वचनीयपरबोधायचोपाल] कर्मविपाकाद्विजेद तः श्रोतृमेदेन विचित्रतया परिणममा यथायमुपया भवतीति न देशनाचा सर्ववैयसिद्धिः । यदाह 3 कुतक " कापि देशनैतेषां या श्रोतृषितः । अचियस्य सामथ्य तथा चित्रावभासते ॥१॥ यथाव्यं च सर्वेषामुपकारोऽपि तत्कृतः । जायते वन्ध्यताऽप्येव-मस्याः सर्वत्र सुस्थिता ॥ २ ॥ प्रकारान्तरमाह-- ( चित्रेति ) याऽथवा तत्तव्यातिकादिभिः कालादियोगतो दुःषमादियोगमाश्रित्य यन्मूला यद्वचनानुसारिणी चित्रा नानारूपा देशना कपिलादीनामृषीणां तस्य सर्वज्ञस्य प्रतिकेपः नावं तत्तद्देशनानयाभिप्रायमजानतोsयुक्तः, श्रार्यापवादस्यानाभोगजस्यापि महापापनिबन्धनस्वात् । तदुक्तम्-"यात योगतः। ऋषिभ्यो देशमा चित्रा सन्चापि तत्वतः ॥ १ ॥ तदभिप्राथमहात्वा न ततोऽय सताम् । युज्यते तत्प्रतिकेपो, महानर्थकरः परः ॥ २ ॥ निशानाथप्रतिकेपो, यथाऽन्धानामसङ्गतः । सफेदपरिकल्पश्च तथैवायांगदरामयम् ॥ ३० Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुतक न युज्यते प्रतिकेपः, सामान्यस्यापि तत् सताम् । श्रापवादस्तु पुन-जिह्वाच्छेदाधिको मतः ॥ ४ ॥ कुत्र्यादि च नो सन्तो, भाषन्ते प्रायशः कचित् । सिरप किं सदा ॥ ४ ॥ २९ ॥ तु तस्मात्सर्वज्ञययनमनुवद्विप्रतिपत्यानु 35 (२०४) अभिधान राजेन्द्रः । यत्नेनानुमितोऽप्यर्थः, कुशलैरनुमातृनिः । अभियुक्ततरैरन्यैन्य एवोपपयते ।। ३० ।। ( धानेनेति ) यनेनासित्यादिदोषनिरासप्रयासेनानुमित उत्यर्थः कुशलैर्व्याप्तिग्रहादिदक्षैरनुमातृभिः अभियुक्ततरैरधिकव्याप्यादिगुणदोषव्युत्पत्ति कैरन्यैरन्यथै वासिकत्वादिनैवोपपद्यते ॥ ३० ॥ मानायास्थया स्थेयं तदननुसारिस्तस्याव्यवस्थितत्वादि कुतित्थियधम्म-कुतीर्थिकपर्य पुं० बरकादिधर्म, ० १२०॥ त्यत्र भर्तृहरिवचनमनुवदन्नाह - श्रभ्युच्चयमाह झारन हेतुवादेन पदार्थाः पयतीन्द्रियाः । कालेनैतात्रता प्राज्ञैः कृतः स्यात्तेषु निश्वयः ॥ ३१ ॥ कुतर्कयो ददता दृष्टिमागमे। प्रायो धर्मा अपि त्याज्याः परमानन्दसंपदि ॥ ३२ ॥ ( कारक्षित) हेतुवादानुमानादेन यदि अप मदयः पदार्थ ज्ञायेरन् तदा पतायता कालेन प्राशैस्तार्किकैः, तेषु श्रतीन्द्रियेषु पदार्थेषु, निश्वयः कृतः स्यात् उत्तरोत्तरतकोपचयात् ॥ ३१ ॥ (वदिति ) तत्तस्माद कुतः शुष्कतकभिनिवेश स्यायो क्षान्च्यादयस्त्याज्याः, मागमे ददता परमानन्दसंपदि मोहसुखसंपली प्रायो धर्मापायोपशमिका यादवाः ततः कुतर्कढः सुतरां त्याज्य एव क्वचिदपि ग्रहस्यासङ्गानुष्ठानप्रतिपन्थिस्वेनाश्रेयस्त्वादिति भावः । कायिकव्यवच्छेदार्थे प्रायोग्रहणम् । तदिदम " न चैतदेवं यत्तस्माच्छुष्कत ग्रहो महान् । मिथ्याभिमानहेतुत्वात् त्याज्य मुनिः ॥२१॥ ग्रहः सर्वत्र तस्वेन, मुमुक्षूणामसङ्गतः । मुक्त धर्मा अपि प्राय स्त्यक्तव्याः किमनेन तत् " ॥ २ ॥ ३२ ॥ इति । द्वा० २३ द्वा० कुतकग्गढ़-कुतर्फग्रह-पुं० शुष्कतकीविनिवेशे ०२३ ०। कुतकराण कुलकरासन न० कुविचाररूपराम ध० २ अधि० । कुतकसिममा-कुतर्क वि० कुट " जीयमानेऽश राशीय चमूचरपरिः । निवर्तते स्वतःशी कु विषमग्रहः " ॥ १॥ द्वा० २३ द्वा० । कुतकिय कुतार्किक पुं० नैयायिके, द्वा० २३ द्वा कुतव कुतप - पुं० | कुत्सितं पापं तपति, कुं भूमिं तपति तप-अब कुल-पन्या सुर्वे, अतिथी गवि, जागिनेये, द्विती दौहित्रे, वाद्यभेदे नेपालकम्बले १० | पश्चदशधाविदिनस्यारमे भागे, अर्डचादि० वाच लागले. स्था० ५ ० ३ उ० । कुतार-कुतार त्रि०कुरिततारफे, ग०१ अचि०। कुतित्थ - कुतीर्थ- - न० । गङ्गादो, “गंगाती कुतित्थं केयारादिया एते सब्बे कुतित्था " मि० चू० ११ उ० । - कुत्तियात्रण 1 कुतित्व समय कुर्तीर्थसमय-पुं० [पाखरिकानामात्म मविशेषे, तत्तेऽनुष्ठाने च । सूत्र० १ ० १ ० १ ० । कुतिस्थिय कुतीर्थिक पु० दिगम्बरादी पासरिडन, ०२ अधि० । - कुतुम्बक कुटुम्बक ०२०" दोस्तु " ४२११ इति पैशाच्यां टोः स्थाने तुर्वा । परिवारे, प्रा० ४ पाद । | । । कुतुब-कुनृप पुं० [ न० कुतः पृषो० । पञ्चदशधाविभक्तवि शस्याष्टमांशे, दूस्वा कुतू रुपच् । चर्ममये हस्वे स्नेहपात्रे, पुं० । वाच । तैलादिभाजनविशेषे भ० ६ ० ३३ श्र० । कुतूलखान-कुतूलखान- - पुं० । पारसीकोऽयं शब्दः । जिनप्रभसुरसमये दानवी०प० कुतूहल - कुतूहल - न० | कुक्कटादिक्रीडायाम्, उत्त० ३ श्र० । “नयसोमा प्रमाणा, वक्खेवं कुतुहला रमणा ।” उप्त०नि० १ खण्ड । कुतो -कुतस् - -श्रव्य० । किम्-तसिद्धू- किमः कुः । कस्मादित्यर्थे, "भयानाचे विकतो, ओ हंदि परिसी बेच" पञ्चा० 1 [५] विष निवे आक्षेपविषये ती रात आयातशयाचे तर राम था कुतस्तराम् कुतस्तमाम् आक्षेपविषयहेत्वतिशये, श्रव्य० । ततो भवार्थे त्यए । कुतस्त्यः । कुतोभवे, त्रि० । वाच० । । " कुतिय कुत्रिक १०६४० कुरितेि पृथिव्याः संज्ञा । तस्यास्त्रिकं कुत्रिकम वृ० ३४० स्वर्गपातालमाभूमीनां त्रिके तात्यास द्व्यपदेश इति लोकेषु विशेषतस्तुनि च ० ०० कुत्रिज - न० । पृथिव्यां धातुमूलजीवलक्षणेभ्यः तेभ्यो जाते सर्वस्मिन् वस्तुनि विशे० । कुत्तियावा - कुत्रिका ( जा ) पण पुं० । कूनां स्वर्गपातालम स्वेभूमीनां त्रिर्क सारस्यापपदेश इति कृत्यासीका अपि कुत्रिकमुच्यते । कुत्रिकमापणायति व्यवहरति यत्र हट्टेसौ कुशिकः अथवा धातुमूलजीयज्ञखियो जातं भिजे सर्वमपि वत्यर्थः । की पृथिष्याति व्यवहरति यत्र सौ कुषाणः विशे० ० ० दे वाधिष्ठितत्वेन स्वर्गमर्त्यपातालभूत्रित्रय संभविवस्तुसंपाद के आपणे हट्टे, झा० १४० १ ० । तत्प्ररूपणा चैवम् कुंति पुढवी समा, जं विज्जति तत्थ चेदणमचेयं । गढ़वजोगे खर्म, न तं वहिं आज सत्य ॥ कुरिति पृथिव्याः संज्ञा, तस्यास्त्रिकं कुत्रिकं स्वर्यमत्येपासालणं नस्यापो हट्टा कुत्रिकायणः । किमुकं भवतीत्याह तत्र पृथिवीत्रये यत्किमपि चेतनमचेतनं वा द्रव्यं सर्वस्यापि यो ग्रन नास्ति, "मी महत्व गमयतः" इति वचनाद असंयेवेति भावः वृ० ३४० । अथोत्कृष्टमध्यम जघन्य मूल्यस्थानानि प्रतिपादयतितो पागतियाएं, साहस्सेहिं विममादी । Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कत्तियावण अभिधानराजेन्द्रः। कुदम मोकास सतसहस्सं, उत्तमपुरिसाण नबधीन॥ भरुह असदह नूय-ट्ठ सयसहस्सेण देमि कम्मम्मि ।। प्राकृतपुरुषाणांप्रयजतामुपधिः कुत्रिकापणसत्का पञ्चकः पश्चरू- अदिन्नने रुघो, मारेती मो य तं घेत्तुं । पकमूल्यो जवति,इभ्यादीनामिति-प्राधेष्ठिसार्थवाहादीनां मध्य जरुगच्छाऽऽगम बावा-रदाण खिप्पं च सो कुणति । मपुरुषाणां साहसः सहस्रमूल्य उपधिः, उत्तमपुरुषाणां चार जीएण खंजकरणं, एत्युस्सर जा ण देमि वावारं । तिमाएमलिकप्रभृतीनामुपधिः शतसहस्रमूख्यो भवति। पतच मूल्यमानं जघन्यतो मन्तव्यम् । उस्कर्षतः पुनरवाणामप्यनिय णिज्जित्त तत्तलागं, आमेणं पेहसी जाव ॥ तम् । अत्र पञ्चकं जघन्यं, सहनं मध्यमं, शतसहस्रमुत्कृष्टम्। चण्डप्रद्योतनानि नरसिंह अवन्तिजनपदाधिपत्यमनुभवति कथं पुनरेकस्यापि रजोहरणादिवस्तुन इत्थं विचित्रं नव कुत्रिकापणा उज्जयिन्यामासीरन् । “तदा किल भरुगच्चामूल्यं नवतीत्युच्यते श्रो एगो वाणियो असदहतो उजणीए आगंतूण कुत्तियाव रणे भूयं मग्गइ, तेण कुत्तियावणवाणिएण चिंतियं-पस ताव विकित्तगंजया प-प्प होइ रयणस्स तन्विहं मुखं । मए वचेइ तो पयं मोल्लेण वारेमि त्ति भणियं-जइ सयसहस्सं कायगमासज्ज तहा, कुत्तियमुवस्स पिकं ति ।। देसि तो देमि भूयं । तेण तं पडिवन्नं । ताहे तेण भन्ना-पंचयथा रत्नस्य मरकतपद्मरागादेविक्रेतारं प्राप्य प्रतीत्य तद्विधं रन्नं उदिक्वाहि तोदाहामि । तेण अहम काऊण देवो पुछि. मूल्यं नवति; यादशो मुग्धःप्रबुको वा विक्रेता तादशमेय स्व- भो । सो भणह-देहि श्मं च भणिहिज-जह कम्म न देसि तो भूरूपं बहु वा मूल्यं जवतीति भावः। एवं क्रायकं ग्राहकमासाद्य ओ तुमं ओघाएहिद । एवं भवन त्ति भणित्ता गहिरो । तेण कुत्रिकापणे भाएकमूल्यस्य निष्कं परिमाणं भवति,न प्रतिनियतं नमो नण-कम्मं मे देहि,दिनं खिप्पमेव कयं पुणो मग्गर अनं, किमपीति भावः । इतिः शब्दस्वरूपोपदर्शने । एवं सधम्मि कम्मे निहिए पुणो भण-देहि कम्मं । तेण भन्नइएवं तिविहे जाए, मोट्वं इच्छाएँ दिज बहुयं पि। एत्थ खंने चदुत्तरं करेहि जाव अन्नं किंवि कम्म नदेमि । नूओ प्रण-अलाहि,पराजितोमिचिंधते करेमि जाव ता परोएहि तासिकमिदं लोगम्मि वि, समएस्स य पंचगं भं॥ बतातलागं अविस्सातेण अस्सं विलम्गिऊण बारसजायणाई एवं तावविविध प्राकृतमध्यमोत्तमजेदजिन्ने जाते मूल्यं प- गंतूण पलोभ्यं, जाव तक्खणमेव कयं तेण भरुयच्चस्स उत्तरे कादिरूप्यकपरिमाणं जघन्यतो मन्तव्यम् । इच्छया तु बलपि पासे नूयतलागं नाम तलागं"। अमुमेवार्थमभिधित्सुराह-(जरुयथोक्तपरिमाणादधिकमपि प्राकृतादथाऽऽदाः,न कोऽप्यत्र प्रति- गच्च इत्यादि) जरुकच्छवणिजा अश्रद्दधता नूतः पिशाचविशेनियमः । न चैतदत्रैवोद्यते किंतु लोकेऽपि सिकं प्रतीतमिदम्- षःकुत्रिकापणे मार्गितः,ततोऽष्टमं कृत्वा शतसहस्रेण नूतः प्रदयथा श्रमणस्यापि पश्चकं पश्चरूपकमूल्यं भाएक जवति। इह च तः,इदं च जणितं-कर्मण्यदीयमाने अयं रुष्टः कुपितोमारयतीति। रूपको यस्मिन् देशे यन्नाणकं व्यवहियते तत् प्रतिपत्तव्यः । स च भूतं गृहीत्वा भरुकच्चे आराधनं कृत्वा व्यापारदानं तस्य अथ कुत्रिकापणः कथमुत्पद्यते इत्याह कृतवान् । स च नृतस्तं व्यापार किप्रमेव करोति । ततः सर्व कर्मपरिसमाप्तौ वणिजा भीतेन भूतस्य पार्धात् स्तम्न एकः पुचजविगा न देवा, मायाण करेंति पाभिहेराई। कारयांचके । ततस्तं भूतमभिहितवान-यावतपरं व्यापार न लोगच्चेरयया, तह चक्कीणं महाणिहो ।। ददामि तावदत्र स्तम्भे उत्सर, प्रारोहाऽवरोह क्रियां कुर्विति ये पूर्वभविका भवान्तरसङ्गतिका देवाः पुण्यवतां मनुजानां भावः । ततः स नृत उक्तवान-निर्जितोऽहं भवता, अत श्रा'प्रातिढार्याणि' यथाभिलषितार्थोपढौकनलकणानि, कुर्वन्ति त्मनः पराजयचिहं करोमि,अश्वेन गच्चन यावदन प्रेक्षसे, तयथा लोकाश्चर्यभूता महानिधयो निसर्पप्रभृतयः, चक्रिणां भ- त्पश्चादवलोकसे तत्र प्रदेशे तडागं करिष्यामि इति जणित्वा रतादीनां प्रातिहार्यणि कुर्वन्ति । वर्तमाननिर्देशस्तत्कालमङ्गी- तथैव कृते भूततमागं कृतवान् । कृत्याविरुद्धः, एवं कुत्रिकापण उत्पद्यते । एमेव तोसलीए, इसिवालो वाणमंतरो तत्थ । तथैतेषु स्थानेषु पुरा बभूवुरिति दर्शयति णिज्जित्त सितलागे, रायगिहे सालिभद्दस्स ।। उजेणी रायगिहं, तोसलिनगरस्स यावि इसिवालो। एवमेव तोसलिनगरवास्तव्येन वणिजा उज्जयिन्यामागम्य दिक्खाएँ सालिनद्दे. जवकरणं सयसहस्सेहिं॥ कुत्रिकापणादृषिपानो नाम वाणमन्तरः क्रीतः तेनापि तथैव नि जितेन ऋषितमागं नाम सरश्चके । तथा राजगृहे शालिभद्रउज्जयिनी, राजगृहं च नगरं कुत्रिकापणयुक्तमासीत्, तोसलि स्य रजोहरणप्रतिग्रहश्च कुत्रिकापणात् प्रत्येकशतसहस्रेण मगरवास्तव्येन च वणिजा ऋषिपालो नाम बाणमन्तर उज्जयिनीकुत्रिकापणात् क्रीत्वा स्वबुद्धिमाहात्म्येन सम्यगाराधि क्रीतः । वृ० ३ उ० । नि० चू० । स्था० । ता,ततस्तेन ऋषितडागं नाम सरः कृतम्। तथा राजगृहे श्रेणि-कुतिपावण कुत्तियावणनूय-कुत्रिकापणज्ज़त-त्रिण समीहितार्थसम्पादनके राज्यमनुशासति शालिभरूस्य सुप्रसिद्धचरितस्य दीक्कायां शतसहस्राभ्यामुपकरणं रजोहरणप्रतिग्रहलक्षणमानीतम् । । कुत्थुम्ब-कुस्तुम्ब-पुंग चर्मावनपुटे वाद्यविशेषे, रा०। अतो ज्ञायते यथा राजगृहं कुत्रिपण श्रासीदिति पुरातनीगा- कुत्थुम्भरि-कुस्तुम्जरि-स्त्री० । गुच्यवनस्पतिदे, प्रज्ञा० १ यासमासार्थः। पद। प्राचा सांप्रतमेनामेव विवृणोति कुदएफ-कुदण्ड-पुं० । कारणिकानां प्रजाद्यपराधान्महत्यपरापज्जोए णरसीहे, एव उज्जेणीऍ कुत्तिया आसी। । धिनोऽगराधेऽस्पे राजग्राहो ऽव्ये, शा. १ ० १ ०। Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुदंडिम कुमकुम ०१० ११ उ० । ज्ञा० । कुदंसण - कुदर्शन-न सप्तवादि ( ५८६ ) अभिधानराजेन्थः । -न०क० स०| कुमते, “इमं पि वित्तियं कुदंपति प्रशा० २ पद र्शनं यस्य सः । शाक्यादौ प्रज्ञा० १ पद । घ० । कुदान - कुदान- न० | भूम्यादिदाने, “भूमिदारां गोदाणं ग्रासहनादिया व सन १९४० । कुदिडि कुदृष्टि खी० क०स० बीमादी उत० २०७० कुत्सिता जिनागमविपरीतत्वाद् दृष्टिदेशेनं येषां ते कुदृष्टयः । मि व्यादिपु सर्वप्रदर्शनका पादादिप्रणीतानुवर्त्तिषु प००३ अपि० । दिपिसा-कुदृष्टिप्रशंसा स्त्री० । मिथ्यादृष्टीनां शाक्यादी नामे जन्म दयालु एतेइत्यादिकायां स्तुती, एषा सम्यक्त्वस्य पञ्चमोऽतिचारः । ध० २ श्रधि० । कुदिडिसंघवष्टियांस्तव पुं० मिमिरे संवासात् परस्परालापदिजनितपरिचय एष सम्यक्त्वस्यातिवार जेदः, एकत्र वासे हि तत्प्रक्रियाश्रवणात् तत् क्रियादर्शनाच्च दृढसम्यक्त्वस्यापि दृष्टिजेदः संभाव्यते, किमुत मन्दबुद्धेर्नधधर्मस्येति, तत्संस्तवोऽपि दूषणम्। ध० २ अधि० । कुदेसणा - कुदेशना - स्त्री० | सर्वज्ञाऽननुसारिप्ररूपणायाम, “किंतो पावरं प्रतिमा कुदेसणाय, कटुयरागम्मि पाडेति " ॥ दश० टी० ४ श्र० । कुदो- कुतस् - अ -अव्य० । “श्रतो डो विसर्गस्य" ८ । १ । ३७ । इति संस्कृतणस्य अतः परस्य विसर्गस्य खाने को स्यादेशः। कस्मादर्थे, प्रा० १ पाद । " कुद - कुद्र- पुंकुं जुनिं भवति द्रावयति । श्रन्तर्भूतष्यर्थे श्रच् । कोषवे धान्यनृते, वाच० । जं० । विशे० । कुप्पिय द्वित्वम्” । ८ । ४ । २३० । इत्यन्तस्य द्वित्वम् । कुप्पर, कुप्यति । प्रा० ४ पाद । कुप्य न० कुप पनि यस्यव्यतिरिके कांस्यताम्रसीतारामचारविकारोदकाम कमखिकामसूरकरथशकटदलादिग्रहोपस्करे, ध० र० । “नाणाविहोग रणं, गविहं कुप्पलक्खणं होई” ! नानाविधोपकरणं ताम्रकलशकमिल्लादि जातितः, अनेकविधं व्यक्तितः, कुप्यलक्षणं नवति। दश० ६०० "लोहाइ उवक्खरो कुष्णं" लोहादिरुपस्करः कुप्यमुच्यते । तत्र लोहोपस्करो लोहमयकमली कुद्दालिकाकुनारादिकः, श्रादिशब्दान्मार्ति कोपस्करों घटादिकः कांस्योपस्करः स्थालकच्चोलकादिकः सर्वोऽपि परिगृह्यते । वृ० १ उ० । कूर्प - पुं० कुरं पाति श० क० दीर्घः भुवमंध्ये वा० ॥ कुप्पपमाणाइकम - कुप्यप्रमाणातिक्रम- पुं० । कुप्यं शयनाशनकुन्तखड्गभाजनकश्चोलकादिगृहोपस्कररूपं तत्प्रमाणस्य जावेन पर्यायान्तररूपेणातिक्रमः स्थूलकप्राणातिपातविरमणस्य पञ्चमे - उतिचारे, यथा किल केनापि कञ्चोलकदशकलक्षणं जप्यमार्ग तं कथञ्चि तदधिसम्भवे सति तङ्गमा भ बहुभिरपयान्तरेण दरीच कारयतः स्वसंख्यापूरणात् स्वाभाविकसंख्याबाधनाश्चातिचार इति । ध० र० । कुप्पमाण-कुममात्र प्रतिदीयें, अतिस्खे या प्र० ३ आश्र० द्वार क० प्र० । प्रमाणहीने, भ० ७ श० ६ उ० । कुप्पर-कु (कू) पैर-पुं० कुर किए कुः पिपा परकम् जानुनि, कफोणौ च । दीर्घमध्यपाठान्तरे नि० दीर्घः । वाच० | "से रहवरस्स कुप्परासल्ला " कूर्परौ कूर्पराकारत्वात् पिञ्जनके इति प्रसिद्धौ रथावयवौ । जं० ३ वक्ष० । कुप्पवयण कुप्रवचन- त्रि० । कुत्सितं प्रवचनं येषां ते कुप्रचचनाः । चरकचीरिकादो, अनु० । 33 कुप्पसंखा कुप्यसंख्या श्री कुप्यपरिमाणे तदतिक्रमेच स्थूलकपरिग्रहविरतेः पञ्चमोऽतिचारः । " कुप्प संखं च अपधणं बहुमोल्लं करेश पंचमए दोसा' | कुप्यस्य रूप्यसुवर्णव्यतिरिक्तस्य कांस्यलोहताम्रत्र पुसीसकवंशविकारकटमञ्चिकामञ्चकमन्थानतूलिका रथशकटहल मृद्भाण्डप्रभृतिकस्य गृहोपकरणकलापस्य संख्यां परिगणमतामस्यधनां बहुधनां करोति को स्थासादीनां कधिक प्रतिनियमस्य जाते सत्यल्पमूल्यस्यालाद्यपरेणोत्कलितेन स्थानादिना मीलयित्वा बहुमूल्यं करोति, यथा नियमो न भज्यते इति प यान्तरकरणेन संख्यापूरणात्स्यानादिकसंख्यायानाथ प ञ्चमोऽतिचारः । प्रव० ६ द्वार । कुष्पावलिय-कुमाचनिक-म० कुत्सितं येषां ते बचना: तेषामिदं प्रापयनिकम। चरकचौरिकादिसम्बन्धिनि श्रावश्यक दौ [, अनु० । ( 'आवस्य' शब्दे द्वि० भा० ४५४ पृष्ठे आयनिकदेषु स्पथम जमाशिप्रभृतिषु नियेपु सू० १ श्रु० २ ० २ ० 1 कृप्यापयिधम्म-कुणावचनिकचर्म्म ५० घरपरिवाजका 1 कुदाल - कुद्दाल - पुं० | कुं भूमिं दलति । दल अण्-उप-स० पृष० । कोविदार भूमिदारणात्रे वाच प्राचार कोद्दान्न–पुं० । अवसर्पिण्या: प्रथमारके जाते वृक्षजातिभेदे, जं० १ बक्ष० । कुछ-कुछ - त्रि० । कुपिते, प्रश्न० २ संब० द्वार | झा० । कुरुगामिनी कुद्धगामिनी-स्त्री कुदायां सत्यां गमनशीलायाम, सूत्र० १ ० ३ अ० १ उ० । कुधम्म-कुधर्म - पुं० | मलगणादिधर्मे, “मलगणधम्मो सारस्स 3 गणधम्मो क्याइया सवे कुधम्मा।" नि० चू० ११ ८० । शाक्यादिप्रवचनेषु च हा० २७ अष्ट० । कुपमा कुर्यादि ०६०कत्वादिभावेषु शाक्यप्रवचनादिषु ....... अन्यथा देशना उप्पलम् । कुधर्मादिनिमित्तत्वा- दोषायैव प्रसज्यते ॥ ८ ॥ हा०२७ अष्ट कुधि - कुधि त्रि० । कुत्सितबुद्ध, प्रति । कुपक्ख-कुपक्ष-पुं० । कुत्सितान्वये, आचा० २० ४ श्र० १० । कुप्प - कुप- बा० । रोषे दिवा-सक० प० सेट् । “ शकादीनां ० ० ४ ० । दितीर्थ ०१ २० कुपिय-कुपित - न० 1 नावे कः । क्रुद्धे, “कुप्पितं नाम कुज्झितं”। Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५=७) अभिधानराजेन्द्रः । कुप्पिस कुप्पिस क्रू (कु) र्पास पुं० 1 न० । कुरे अस्यते आस्ते वा घञ्, पृ० । "३ः सदादौ वा "८ । १।७२॥ इति प्रकृतेः श्रत इत्वम् । प्रा० १ पाद । स्त्रीणां कलिकायाम्, स्वार्थे के तत्रैवायें, वाच कुप्पोवगरण- कुप्योपकरण-गाणा विहोचगरण-लक्ष्य कुष्णं समासतो हौति"। "कुप्ययकरणं णाहिं अगलयस सोहन ताम्रमयं सन्मवादिति दर्शित 'कुप्प' शब्दाभिधेयेोपकर नि० ० २४० । कुबर - कुबर - पुं० | मलीजिनस्य यक्के, प्रव० २७ द्वार । परक् कुबे (वे) र कुबे (वे ) र - पुं० । कुम्बति धनम् कुबि० पर कुत्सितं वेरमस्य इति या धनदे राजे वाच० | को० । एकोनविंशजिनस्य शासनयक्षे, श्रीमलिजिनस्य कुबेरो यकश्चतुर्मुख इन्द्रायुधवर्णो गजवाहनोऽष्टनुजो वरदपरशुशूलानययुक्त दक्षिणपाणिचतुष्टयो बीजपूरकमुराकसूत्रयुवामा तुष्यथ अन्ये कुवरस्थाने करमाहुः । प्रच०२६ द्वारा तस्येदमित्य कीबेराताम्यधिनिभि० खियां कीए । कुबेर वनामित्यादौ न णत्वम् । वा कप् । कुबेरकोऽप्यत्रार्थे, कुगतिस०| निन्दितदेदे, न० । वाच० । आर्य्यशान्तिश्रेणिकस्य तृतीयशिष्ये, कुबेरदत्ता - कुबे (वे ) रदत्ता - स्त्री० | कुबेरसेनायाः वेश्याया: पुत्र्याम् आ० क० । ती० । कल्प० ८ क्षण । कुबेर-कुठे वे रद-पुं० कुबेरसेनायाः वेश्याया पत्येकु कुमरण-कुमरण-पुं० वेरदत्ताया भ्रातरि श्रा० क० । 1 कुवेरसेला-कुवे (वे) रसेना श्री कुबेरदल रवानाम्नोः पुत्रयोजनम्यां वेश्यायाम, आ० क० सी० ('सदारसंतोस' शब्द कथा वक्ष्यते ) कुंबरा कुबेरात्री० वैश्रवणप्रभस्य नगोत्तमस्य अपतो ज म्यूपसमायां राजधान्याम, डी० मधुरास्थायां नचानायां तीर्थ (जैनशास्त्र ) देव्यां च । ती० ॥ कल्प० । कुबेर कुबेरी - स्त्री० । श्रार्य्यकुबेरान्निर्गतायां शाखायाम, “थेरेहितो रेडियो स्य णं कुवेरी सादा विमाया " क स्प० ८ कृण । कु.भोषण कुजोजन ०ि भोजन प्र० ३ ० द्वार कुमहणी - कुमतिनी-श्री सिंहपुरनगराधीश्वरस्यधर्मस्वरा भार्यायाम, दर्श - कुमार्ग पुं० [शिवपुरप्रापपचविपरीते पथि दर्श० । इरिसमायगुरुया, बज्जीवनिकायद्यायनिरयाए । जे उदित मग्गं कुमस्ति ते ।। १५ ।। ०नि० ( रत्यादि) ये केचन अधर्माण: शीतलविहारिणो गुरुका गुरुकर्मणः आधाकमपनीगेन चयनिकायस्थापादनापरे तेभ्यो मार्ग मोकमार्गमात्मा तथाहि शरीरमिदमाद्यं धर्मसाधनमिति मस्या कालसंहननादिहानेश्चाधाकर्मीद्युपभोगोऽपि न दोषायेत्वेवं प्रतिपादयन्ति तथैवं प्रतिपादयन्तः कुत्सितमागस्तीकरात भवति तेऽपि स्वयूच्या पतपदिशन्तः कुमारग कुमार्गाश्रिता भवन्ति इति किं पुनस्तीर्थिका इति । सूत्र ०१ श्रु० ११ श्र० । कुमग्गइि - कुमार्गस्थिति - स्त्री० 1 शिवपुरप्रापकपथविपरीतस्य स्थितिरवस्थानम नागवस्थाने प०। कुमग्गडिइसंकल्ला भंग-कुमार्ग स्थितिसलानङ्गपु० कुमा स्य शिवपुराकथयितस्य तिनं कुमार्गस्थिति सैव संकला लोहमपनिगम कुमार्गस्थिति तस्याः भङ्गः मिथ्यात्वमोहनीय कर्मापगमतया सवाधिकतया च परममुनिप्रणीतमार्गस्थितौ दर्श० sac गुरुकम्माणं, जीवाणं धम्म दिक लाभंगो" ॥ (इत्यादि 'मग्ग' शब्दे व्याख्यास्यते ) कुमग्गमग्गस्सिय कुमार्गमार्गाश्रित-त्रि०। कुत्सित मार्गीणां तीर्थकरामा "इरिससागुरुीय निकाययायनिरयाए । जे उद्दिसंति मग्गं, कुमभ्गमग्गस्सिता ते च ॥ १५ ॥ " (स्त्यनुपदमेव 'कुमा' शब्द व्याख्यातम) सू० ११० कुमर कुमार पुं०। कुमारयति क्रीडयति । " घाऽव्ययोत्खातादावदातः । । १ । ६७ तादित्वादतोऽप्रा० १ पाद । बाबे, राजाई च । "भारियो कुमरण कावालिश्रो" दर्शः । [उपा०| - कुमार- कुमार - पुं० । प्रथमत्रयस्थे, स्था० १० वा० । किम्भदारककुमाराणामल्पबहु बहुतरकानकृतो भेदः । ज्ञा० १ श्रु० २ श्र० । कौमारं पञ्चमान्दान्तं, पौगण्डं दशमावाधे"। वाच० राज्याई, प्रश्न०५ श्राश्र० द्वार । स्था० । 61 अधुना कुमारमाह पच्चते खुब्भंते, दुदंते सव्वतो दुवेमाणो । संगमनी सिकुसलो, कुमार एया रिसो होइ || प्रत्यन्तान् सीमासन्धिवर्तिनः क्षुभ्यति अन्तर्भूतण्यर्थत्वात् समस्त अपि सीमापर्यन्तवर्तिनीः प्रजाः क्षेोजयति दुर्दान्तान् दुराक्षितान् संग्रामनीतिकुशलः सर्वतः सर्वासु दिचु यो दमयन् वर्त्तते स एतादृशः कुमारो भवति । व्य० १ उ० । “अजिक्खणं पुणो कुमारे संते कुमारे इंति भासह " भव०४ ०। दशभवन पतिदेवा असुरकुमारनागकुमारादयः। अथ कस्मादेते कुमारा इति व्यप दियन्तीकुमारयनात् तथा हि-कुमारापकुमा यः शृङ्गाराभिप्राकृतविशिष्टशिष्टतरी सरक पक्रियाः कुमारखच्चोरूतरूपवेषजापानरणप्रहरणाचरणयानवादनाः कुमार चोल्वणरागाः कीमनपराश्च ततः कुमारा इव कुमारा इति । प्रज्ञा०१ पद। कार्तिकेये, शुके पविणि श्रश्ववारके, वरुणवृक्के, सिन्धुन दे, शुद्धसुवर्णे, न० संज्ञायां कन् । वरुणवृक्के, ति . शाके, स्वार्थे कः । बालके, तस्येदं तस्य भावो वा श्रत् । कौमारशिशु बाल्यावस्थायाम वाचः पूर्वदेशमा वि मासि यथा च कुमारशब्दः पूर्वदेश आश्विनमासे रूढः । स्थान २०१० लोहकरे, हमारे कुमारा अप व।” उत्त० २३ श्र० । नासाद्यङ्गकर्तनादि केन कुत्सितमारे, "इमं जाप करे अन्तरे असुकुमारे मारह " । सूत्र० २ श्रु० २ श्र० । कुमार कुमारक- ०.०२ २०६०,००० २. अ० १ , Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (==) अभिधानराजेन्द्रः । कुमारग्गढ़ कुमुच्या कुमारम्गह-कुमारग्रह-पुं० । कुमार ( स्कन्द ) कृते सम्म कुमारिल कुमारिल पुं० पूर्वमीमांसाभाग्यवार्तिककारके मीताहेती उपये, जं० २ वक० । । मांसकभेदे, द्वे व्याख्ये मीमांसाशास्त्रस्य नरमतेन, प्रभाकरमतेन च । तत्र जहः कुमारिलाख्यः । वाच०| आह कुमारिलः- “अगोत्ववृत्तिः सामान्यं वाच्यं यैः परिकल्पितम् । गोत्वं वस्त्वेव तैरुक -मगोऽपोह गिरा स्फुटम् " ॥ सम्म० २ काण्ड । कुमारी कुमारी ख० कुमारप्रथमययोययनत्वात् । स्त्रियां ङीप् । वाच० | सूत्र० । “अजातेः पुंसः " ८। ३ । ३२ । इत्यस्य अप्राप्तविभाषात्वात् न प्राकृते ङीविकल्पः, किन्तु नित्यम् । प्रा० ३पाद । अनूढकन्यायाम, पानमकायाम कुमार्याम वाय० । या मांसलप्रालाकारपत्रा ( चिकुरी) इति प्रतीता प्र६०४ द्वार | 01 अपराजितायां, सहायां, सीतायाम्, वन्ध्यकर्कट्याम, स्याम मेदिनीपुष्पेणीपुष्पे श्यामापक्षिणि याच कुमाल कुमार पुं० मागयां रस्य सः अपशे" शेषं शी रसेनीवत्" । ८ । ४ । ३०१ । मागध्यां यदुक्तं ततोऽन्यच्छौरसेनीयले राजा "अय्य 5 कुमारग्गाम - कुमारग्राम - पुं० । स्वनामख्याते ग्रामभेदे, " कुमारग्गाम संपत्थिया तत्थज्ज अंतरा एगो तिलत्थंभश्रो तं दट्ठण गोसालो भएखति । " आ० ० १ श्र० । अ०म० । “वोसट्टकाए चितदेहे समणुपते । श्राचा० दिवसे मुहसेसे कुमारामं समते " आया. २ श्रु० ३ प्यू० । कुमारणंदि ( ण् ) कुमारनन्दिन - पुं० । चम्पानगरी वास्तव्ये स्वनामस्याने सुपारे, स च खीलोलुप वरीयुगा. ये वही प्रविश्य पञ्चशैलाधिपतिर्देवो जातः, नागिल प्रतिबोधितो प्रतिमामर्थयित्वा पतनये उदयननृपान्तिके प्रे पर्यादिति । श्रा० क० | दर्श० आ० म० सी० । झा० प्यू० । (दसर' शत्पतिका ब कुमारथम्य-कुमारधर्म-पुं०स्थिरमा पश्चिमे देवर्जितमाश्रमगात्प्राचीने स्थविरभेदे, "तत्तो श्र नाणदंसण-वरिततवसुद्धिगुणमहतं घेरं कुमार, वंदामि गर्थि गुणो ॥ ११॥" कल्प०८ कृण । कुमारपाल - कुमारपाल - पुं० । चौमुक्यवंशीये गुर्जरधरित्री पतौ “कुमारपालनृपाल श्री मुकुलचन्द्रमाः । श्री शिखरे रिमीममता, ती श्रीचन्द्रसूरिभिः प्रतिबोध्य परमाईतीकृत इति तचरित्रादिभ्यो ज्ञेयम् । स्या० । कुमारपुनियकुमार पुत्र - पुं० । वीरतीर्थीये श्रमणभेदे, यस्य प्रत्याख्यानदानप्रकार उदकेन गौतमस्वामिनं प्रति पृष्टः । सूत्र० २० g श्र० । कुमारभिच्च कुमारनृत्य-म० कुमाराणां बालानां तृती पोचणे साधु कुमारनृत्यम् । कुमारभरण की रदोष संशोधनार्थ दुष्टशून्यनिमित्तानां व्याधीनामुपशमनार्थे आयुर्वेदभेदे, स्था० ८ ठा० । कुमारजुप कुमारभूत शि० | कुमारब्रह्मचारिणि "प्रधुमास्तुए जे केश, कुमारजूए तिहं बए । इत्थीहि गिके वलए, महामोह पकुन्यथ॥” स०३०सम० । शुल्लकभू राजकुमार १ श्रु० ४ ० २ ० से कुमारपास कुमारचास- पुं० कुमाराणामराजभावेन वासे, "कु. कुमारवास-कुमारवास-पुं० । मारवा समज्ज वसिता मुंगे जाव पन्वश्या" । स्था०५ वा०३ ४० कुमारसमण कुमारश्रमण-पुं० 1 कौमार्ये प्रब्रजिते, “तर अश्मुते कुमारसम अहया कथा" कुमारभ्रमणः पर्ष जातस्य तस्य प्रतिवात्। श्राह चध्यारो पो विवि पावणं ति । एतदेवास्यमिहान्यथा वर्षाष्टकादाराद् न प्रव्रज्या स्यादिति । न०५ श० ४ उ० । कुमारा कुमारा श्री० स्वनामस्याने संनिवेशे, "ततो भगवं कुमाराप सन्निवेसे गतो, तत्थ पंचप रमणिज्जे उज्जाणे पडिसठितो!" आ० म० द्वि० । 33 कुमारिय कुमारिक- पुं० । कुत्सितो मारणीयसत्वस्यातीववेदनोत्पादकस्वाद निन्द्यो यो मारो मारणं न विद्यते येषां ते कुमारि काः । सौक रकेषु वृ०१ ८० । श्रघ० । 1 मलयकेदू " प्रा० ४ पाद । कुमु (य) - कुमुद - न० । कौ मोदते मुद-कः । कैरवे, वाच० | श्र० म० । शा० । तच्च चन्द्रविकासि । जं० १ चक्र० । रा० । चन्द्रबोध्ये, झा० १ ० १ ० । जं० रा० औ० । जब रहभेदे, आचा० । कर्पूरे, पुं० । वाच० । जं० | त्रतुरशीतिलकगु कुमुदा, ज्यो०२ पाहु० समादि विमानेष्यन्तमा ननेदे, स० १७ सम० । जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वे शीतोदाया महानद्या दक्षिणे स्वनामख्याते विजय क्षेत्रयुगले, स्था० ८० । ते च द्वे, "दो कुमुदा" स्था० ८ ता० । श्रत्र नव कूटा:"सिके कुमुप खंडग- माणी वेयले पुन तिमिसगुहा । कुमुए वेसमणेति य, कुमुयकूडाण नामाई” । स्था० वा० । जम्बूद्वीपे म दरे पर्वते सपने पति ०८ डा० कुमुचंग-कुमुदाङ्ग- न० । चतुरशीतिमहाकमलशतसहस्रेषु, ज्यो० २ पाहु० । 1 मुगुम्म कुमुदगुरु ज०मान स० १० म० । कुमुयदि-कुमुदनन्दि० सिद्धसेन दिवाकरेति प्रसिकाउपरमामके जै० ० । । कुमु अप्पना कुमुदा स्त्री० जम्बूद्वीपे उत्तरपरस्ये प्रथमवनखण्डे पञ्चाशद्योजनान्यवगाह्य उत्तरस्यां दिशि नन्दापुष्करिण्याम, जं० ४ वक्ष० । जी० । कुप्रवण कुमुदवन २० मधुरा ०२१ कुमअ [य] बणवियोग- कुमुदवनविबोधक- ० ६ ० । चन्द्रविकाशिकमलचनानां विकाश बन्०३ कुमुया [ या ] कुमुदाख० कुत्सितं मोद कुम्भिकावास, गम्भीरी शालपर्णी हाय कन् कट्फले, गौरा० । ङीष् । कुमुदी । कट्फले । स्त्री० । वाच० । जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पश्चिमायां पुष्करिण्याम्, जं० ४ वक्क० । जी० । वरुणन शैलस्यापरेण राजधान्याम्, द्वी० । दाक्षिणात्याञ्जनपर्वतस्य पश्चिमायां पुष्करिण्याम, द्वी० स्था० । “ दो कुमुदा । " स्था० २ ० ३ उ० । 19 Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमुमागर अभिधानराजेन्द्रः। कुरा कुमुना (या) गर-कुमुदाकर-पुं०। ६ता कुमदखाएके, प्रभ कुम्हाणो," प्रा०पाद । कुश पुती श्लेषे वा मनिन् ! चोतके, ४ाश्रद्वार। कुमुदस्थाने दादा, वाच०। लेषके च । वाच। कुमुदग-कुमुदक-न । तृणभेदे, सूत्र. २ ० २ मा कुय-कुच-पुं० । कर्तरि कः । स्तने, संकुचित । त्रिवाच: 'कु. कुम्म-कर्म-पुं० । स्त्री०। कुत्सितः को वा कर्मिवेगो यस्य पृषो च' स्पन्दने। कुचतीति कुखः । इगुपान्तलक्षणः कःगुपधका प्रीकिरः कः।३।१।१३५) शिथिले, व्य०७०। कच्छपे, वाच। सूत्रः। स्था। मा० । दश । भ० । श्रीनमिजिनस्य कूर्मश्चिम । प्रव०२६ द्वार । पञ्चन्द्रियगुप्तगुप्ति कुयबंधण-कुचबंधन-न० । कुचं शिथिवं बन्धनं यस्य । वये प्रदर्शनाय कोदाहरणम् । का०१७०४०।तत्प्रतिपादके सति स्पन्दमाने, “ कुयबंधणम्मि लहुगा, विराहणा होर सं. काताधर्मकथायाः प्रथमभुतस्कन्धस्य चतुर्थेऽध्ययने, स०१८ जमाघाए"। व्य० ७०।। सम० । प्रभावामा००। देहस्थे वायुभेदे, वाचकाकुयर-कुचर-त्रि० । कुत्सितं शिष्टजनजप्सितं परम्तीति क. कुम्मग्गाम-कूर्मग्राम-पु। स्वनामख्याते प्रामभेदे, यत्र वैश्यायन-1 चराः । उद्घामिकेषु, “किं नागो सि समणे-हिदकिय तापसस्याऽऽतापनां कुर्वतो यूकाशय्यातरस्त्वमिति गोशालेन दार कृयरा जंतु।" वृ०१ २०। पारदारिकेषु, नि०यू०१७ उ०। इसितस्य कस्य तेजोलेश्या गोशालं दहती श्रीवारजिनेन्द्रे-कुरंग-कुरा-पु०। को रङ्गति अच् । “राषिताम्रः स्या-वण शीतलेश्यया निवारिता । कल्प०६कण | प्रा०क०।"तए रिणाकतिको महान्" इत्युक्तलक्षणे, वाच० । गोकणे मृग. णं अहं गोयमा ! प्राणया कयाई गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं भेदे, जश्वक० । प्रकाशको मृगे, मृगमात्रे, प्रश्न०१ स िकुम्मम्गामा नयराम्रो सिकत्थगामं नयरं संपट्टिए।" भाभद्वार । पिं० "हेतुरिन्दोः कलङ्के यो, विरहे रामसीतयोः। भ०१५ श०१०॥ नेमे राजीमतीत्यागे, कुरा सत्यमेव सः" ॥१॥ कल्प०७ कण । कुम्मणाडी-कर्मनामी-स्पी० । करकूपस्याधस्ताद् वर्तमा कुरंमा-कुरएका-स्त्री० । कुत्सितरएमायाम, रएमाकुरपमामुनायां नाज्याम, " कूर्मनाज्यामचापलम्"। कर्मनाम्यां कण्ठ एिलकादिबहुप्रसङ्गे तदतदभावात् । तं० । कूपस्याधस्ताद् वर्तमानायाम संयमादचापलं भवति, मनःस्थ कुरय-कुरक-पुं० । कुहणभेदे, प्रशा० ८ ०। यंसिके । तमुक्कं "कर्मनाज्यां स्थैर्यम्"। द्वा० २६ द्वा०।। 'कमनाज्या स्थग्यम्" । द्वा० २६ वा। कुरर-कुरर-पुं० । स्त्री०। कुछ शम्दे, करन् । उत्कोशविहगे, कुम्मपडिपुषचलण-कूर्मप्रतिपूर्णचरण-वि० । कूर्मवत् कूर्माका- स्त्रियां जातिवाद की। वाच । कुररा उत्कोशाः । प्रश्न १ राःप्रतिपूर्णाश्चरणा यस्य तत्तथा। कच्छपाकृतिपूर्णपादे,उपा०।। आश्रद्वार।" .........."जिणुत्तमाणं । कुररी विवाऽऽभोग"कुम्मपमिपुरणचलणा वीस नखं" उपा०२०। रसाणुगिद्धा, निरहसोया परितावमे" ॥५०॥ कुररीब पति णीव । उत्त०२०७०। कुम्मावलिया-कर्मावलिका-सी कच्छपपङ्खौ, भ०८ श०३ २० कुरल-कुरल-पुं० । स्त्री० । कुरर-रस्य लः। स्वनामख्याते पक्किकुम्मास-कुल्माष-पुं० । कोलति कुल किए । कुल्माषेऽस्मिन् नेदे, नियां जातित्वात् डीए। चूर्णकुन्तले, पुंगवाचा कुरो ७वा "भर्द्धस्विनाच गोधूमाः, अन्ये च चणकादयः। कुल्माषा सोमपक्तिविशेषः । जी०१ प्रति०। प्रज्ञा। इति कथ्यन्ते" इत्युक्तेषु अस्विन्नगोधूमादिषु, कुत्सिता माषाः पृषो। कुत्सिनमाणे, वाचा उमदे, राजमा, पृ०१ मा उत्सा कुरा-त्री०-कुरु-पुं०।००। मकर्मभूमिदे, स्था। पके माथे, पिं०। कुल्माषाः सिद्धमाषाः यवमाषा इति केचित् । जंबू ! मदरस्स पन्चयस्स उत्तरदाहिणणं दो कुराश्रो पापदश०५ १०१३० । “एगाए सणाहाए कुम्मासपिडियाए।" | तामो।तं जहा-बहुसमउवा अविसेसाण्जाव देवकुरा चेव उ. कुल्माषा अर्द्धस्विन्ना मुद्गादयः, माषा इत्यन्ये । ज०१५ श०१। त्तरकुरा चेव । तत्य णं दो महइ महासया महादुमा पसत्ता। सामा०कामा०मा (कुल्माषविषयकोऽनिग्रहो बीरजिनेकस्य 'वीर' शब्दे वक्ष्यते) सूर्य्यस्य पारिपाइर्वकनेदे, शूफ तं जहा-बहुसमउल्ला प्रविसेसमणाणता अत्रमन्नं वाइधान्ये, यवादौ च । काजिके, मसीपरिणामे च नामाषा बदति अायामविक्खंजुच्चत्तोवेहसंगणपरिणाडेणं । तं जहा. दिमिश्राईभ्रष्टभक्त, रोगभेदे, वनकुलत्थे, वाच । कूडसामनी चेव जंबू चेव सुदंसणा। तत्थ णं दो देवा म. कुम्मीपुत्त-कूर्मीपुत्र-। काः कच्चाप्याः स्वनामस्याता- हटिया० जाव महासोक्खा पलिओवमटिइया परिवसंति । याः कस्याश्चिद योषितो वा पोस चम्तिमा तं जहा-रुले चेव, वेणदेवे प्रणादिए चेव, जंबूदीवाहिवई। ल्यष्टकाधिकरनिप्रमाणजघन्यावगाहनया सिद्धः। औ० । “ते | दक्षिणेन देवकुरवः, उत्तरेण उत्तरकुरवः,तत्राद्याः विद्युत्प्रभसौपुण होज्ज विहत्था, कुम्मीपुत्तादोजहन्नेणं"। प्रा०म० द्वि० मनसानिधानवतस्कारपर्वतान्यां गजदन्ताकाराच्यामावृताः, कुम्मुपया-कुर्मोन्नता-स्त्री० । कर्मः कच्छपस्तद्वन्नता कमों इतरेतु गन्धमादनमास्यवद्भ्वामावृताः,उभये चामी अचनका. कारा दक्किणोत्तरतो विस्तृताः। तत्प्रमाणं चैवम्-"अट्ठसया घाआता । योनिभेदे, “कुम्मुन्नया गं जोणी उत्तमपुरिसमाऊणं । कु याला, एक्कारसहस्स दो कलाओ या विक्वं नो य कुरुणं,ते. म्मुन्नया णं जोषीप तिविहा उत्तमपुरिसा गम्भं चकमंति । तं जहा-भरहंता, चकवट्टी,बलदेववासुदेवा।" स्था०३ ठा०१०। बन्नसहस्स जीवासिं ॥१॥" पूर्वापराभ्यामाश्चैता इति । (महा महालयत्ति) महान्तौ गुरू,मतीति अत्यन्तं,महसां तेजमां महा कुम्हा(ण)-कुश्मन्-पुं० । “पदमश्ममस्मल्लां म्हः" ।।शा मां बोत्सवानामालयावाभयौ,महति महालयौ महातिमहाल यो ७४। इति श्मभागस्य म्हः । देशविशेषनिवासिनि, “कुश्मानः । चा, समनापया वा महान्तावित्यर्थः। महाबुमा प्रशस्ततया Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) कुरा अन्निधानराजेन्डः। कुरुचंद आयामो देध्ये,विष्कम्नो विस्तारः,उश्चत्वमुच्छ्यः , उद्वेधो त्रुवि गुणानामिव सज्जनः"॥१॥ आकास्वनामके ऋषभदेवपुत्रे,कप्रवेशः, संस्थानमाकारः, परिणाहः परिधिरिति । ल्प०७ कण । महावीरशान्तिाजनपूर्वजेषु च । स्था० ६ ०। तत्र अनयोः प्रमाणम् कुरुकुया-कुरुकुचा-स्त्री०बहुना जलेन पादप्रकासनादौ,ओघा " रयणमया पुष्फफला, विक्खभो अट्ट अट्ट उच्चत्तं । प्राचा० । नि० चू०। जोयणमद्धबेहो, खंधो दोजोयाविद्धा ॥१॥ कुरुक्खेत्त-कुरुक्षेत्र-न। कुरुणा चन्द्रवंश्यनृपभेदेन कृष्ट क्षेत्र, दो कोसा विच्छिन्नो, विडिया गज्जोयणाणि जंबूए । कुरुदेशान्तर्गतं वा केत्रम् । शाक० मध्यपदलोपः। चाउद्दिसि पि साला, पुब्बिल्ले तत्थ सालम्मि ॥२॥ "प्रजापतरुत्तरवेदिरुच्यते, भवणं कोसफ्माणं, सयणिज तत्थ णाढियसुरस्स। सनातनी रामसमन्तपञ्चकम् । तिसु पासाया साले-सु तेसु सीहासणा रम्मा" ॥३॥ समीजिरे तत्र पुरा दिवौकसो, शाल्मस्यामप्येवमेवेति कूटाकारा शिखराकारा शाल्मली कूटशा वरेण सत्रेण महावरप्रदाः॥१॥ ल्मनीति संझा, सुष्ठ दर्शनमस्या इति सुदर्शनेतीयमपि संझेति। पुरा च राजर्षिवरेण धीमता, (तथि त्ति) तयोमहादुमयोमहत्यादि । महती ऋफिरावासप बहूनि वर्षापयमितेन तेजसा। रिवाररत्नादिका ययोस्तो महार्धेकौ । यावद्ग्रहणात् “महज्ज. प्रकृष्टमेतत् कुरुणा महात्मना, श्या महाणुनागा महायसा महाबा महासोक्खेति । " ततः कुरुक्षेत्रमितीह पप्रथे" ॥२॥ पाच । तत्र द्युतिःशरीराभरणदीप्तिः, अनुभागोऽचिन्त्या शक्तिः वैक्रिय लोकोत्सररीत्या ऋषभदेवस्य पुत्रः कुरुः, तस्य क्षेत्रम् । करणादिका, यशः ख्यातिा, बलं सामर्थ्य शरीरस्य, सौख्यमा हस्तिनापुरे, ती०१६ कल्प । नन्दात्मकम। "महसेक्खा" इति क्वचित् पाठः। महेसौ महेश्वरा "शतपुध्यामभूनान्नि-सूनोः सूनुः कुरुनृपः । वित्याख्या ययोस्ती, महेशाच्याविति पत्योपमं यावत स्थितिरा कुरुक्केत्रमितिख्यातं, राष्ट्रमेतत्तदास्यया । युर्ययोस्ती, तथा गरुडः सुपर्णकुमारजातीयः, वेणुदेवो नाना, कुरोः पुत्रोऽभवरूस्ती, तदुपझमिदं पुरम् । 'अणाढिओ ति' नाम्ना । स्था०२ठा० ३ ३०। हस्तिनापुरमित्याहु-रनेकाश्चर्य सेवधिम्" । ती०४६ कल्प। जंबूदोसु कुरासु मण्या सया सुसमसुसमिति पत्ता पचणु-करुचंद्र-करुचन्द्र-पुं०। काञ्चनपुराधीश्वरे स्वनामख्याते नृपभवसाणा विहरति । तं जहा-देवकुराए चेत्र,उत्तरकुराए चेवा | दे, ध०२०। तत्कथा त्वेवम(जंबू श्त्यदि ) सदा सर्वदा (सुसमसुसमत्ति) प्रथमाss- "गयवज्जियं पि सगयं, केण विप्रहयं पि सम्बया सुहयं । रकानुभागः सुषमसुषमा, तस्याः सम्बन्धिनी या सा सु- पुरमत्थि कंचणपुरं, कुरुचंदो तत्थ नरचंदो ॥ १॥ षमेव, तामुत्तम प्रधानविभूतिमुच्चस्त्वायु वृतदत्तभोगोप तस्सासि जिणोश्यस-स्ततत्तवरतुरगगमणदुइलिश्रो । भोगादिकां प्राप्ताः प्रत्यनुभवन्तो वेदयन्तो, न सत्तामात्रेणेत्य- मिहिरु व्व तिमिरभरपसर-रोहगो रोहगो मंतीशा र्थः । अथवा सुषमसुषमां कालविशेष प्राप्ता अधिगता उत्तमा- गरिगपवाहं मुत्तु-मुत्तमं सो नरुत्तमो धम्मं । मृमि प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति आसते इति। अभिधीयते च- सम्मं जिन्नासमणो, कया वि मंति भण एवं ॥३॥ "दोसु वि कूरा माया, तिपद्धपरमाउणो तिको सुच्चा।। मह कहसु सचिवपुंगव!, को धम्मो उत्तम सिसो आह । पिठकरमसयाई, दो उप्पन्ना मणुयाणं ॥१॥ देशाहीलियसुरनर-गणाण करणाण जत्थ जओ ॥४॥ सुसमसुसमाणुभावं, अणुभवमाणेण वच्चगोवणया। कह नउज त्ति रन्ना, वुत्ते मंती भणेश वयणणं । अउरणा पन्नादिणाई, अघ्मभत्तस्स आहारो" ॥२॥ जम्गारेणं नजर , भुत्तमदि पिजह इत्थ ।। ५॥ देवकुरवो दक्षिणा, उत्तरकुरव उत्तरास्तेष्विति । स्था० १ श्य सोचं जण निवो, जर एवं तो तुमं महामंति!। ग०३ उ०। सब्वे दंसणिणो वा-हरित्तुं धम्मं वियारेसु ॥ ६ ॥ दश कुरवः होन त्ति एवं भणिकण मंती, सकुंगलं वा वयणं न व त्ति । समयखित्तेणं दस कुराओ पसत्ता । तं जहा-पंच देव- एवं समस्साइपयं लिहेतुं, अोलंबिऊणं च भणेइ एवं ॥ ७॥ कुराओ, पंच उत्तरकुरायो । तत्थ णं दस महइमहालया जो सह मिणा पाए-ण संगयत्थेण पूरियसमस्सं । रंजे पुढश्नाहं, तस्सेव इमो हवा जत्तो ॥७॥ महाउमा परमत्ता । तं जहा-जंबू सुदंसणे धायहरुक्खे म इय सोऊणं अहमह-मिगार सवे वि तत्थ दंसणिणो । हाधायहरुक्खे पनमरुक्खे महापउमरुक्खे पंच कूमसाम तं गहिकणं पायं, रश्वं वित्तं ससत्तीय ॥ ६॥ लीभो । तत्थ एं दस देवा महिहिया जार परिवसंति । पत्ता निवअत्थाणे, आसीवायं भणे वि उवविट्ठा । तं जहा-अणाढिए जंबृद्दीवाहिवई सुदंसणे पियदंसणे पों- तो रन्नोऽणुनाए, पढई एवं सुगयसीसो॥१०॥ मरीए महापर्पोमरीए पंच गरुला वेणुदेवा। स्था०१०ठा। मालाविहारम्मि मज्ज दिवा, उवासिया कंचणभूसियंगी। वक्खिसचित्तण मए न नायं,सकुंगलं वा वयणं न वत्ति ॥१॥ कुराइ (ण)-कुराजन्-पुं० । कुत्सिते रात्रि, प्रत्यन्तनृपे च । निक अन्यः प्रोवाचचू०१० आचा। भिक्खाभमंतण मज्ज दिलं, पमदामुहं कमलविसालनेत्तं । कुरु-कुरु-पुं० य० वा आर्यजनपदभेदे,यत्र हस्तिनापुर नग वक्खित्तचित्तेण मएन नाय,सकुंरुलं वा वयणं न वत्ति ॥१२॥ रम्झा० १७० अगसूत्रा प्रा० मा प्रज्ञा स्था० । “प्राक अपरः प्रणिजगादरः सर्ववस्तूनां, देशोऽस्ति कुरुनामकः । समुद्र इव रस्नानां, | फोदएण म्हि गिहं पविट्ठो, तत्थाऽऽसणत्था पमया मि दिट्ठा। Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरुविंद कुरुचंद अनिधानराजेन्द्रः । वक्खितचित्तेण मए न नायं,सकुंडलं वावयणं न वत्ति॥१३॥ लम् । कुरुक्षेत्रे,कुरवश्व जानसाश्च द्वन्तः। कुरुदेश,जाङ्गलदेशे च । तो सारेयरभावं, निवेण कव्वाण पुलिछया विबुहा । पुं० भूपिन, करवश्च जाङ्गलं च “विशिष्टलिङ्गो नदीदेशो प्रामाः" जपंति न हु विसेस, एसि वयं देव ! पिच्छामो॥१४॥ १।४।७। (पाणि) समा। एकद्भावे कुरुजाङ्गलम् । जं इह मेहि वक्खित्त-चित्तया अखिया फुलं सोन। तत्समाहारे, न० । बाच. । “इहेव जबूदीये दीवे जारहे अजिदियत्तमूलं, स अधम्मो तेण चिंतमिणं ॥१५॥ घासे मज्झिमखंडे कुरुजंगलजणवए संस्त्रावई नाम नयरी।" तं सोऊणं सयमवि, वीमंसित्ता पयंप नरिंदो। ती०७ कल्प। कह मंतिसत्तम! अहं, उत्तमधम्मं वियाणिस्सं ॥१६॥ पजणइ मंती नरवर!, जिणदंसणिणो वि अस्थि इह मुणिणो। कुरुम-कुरुट-पुं० । कुणाबवास्तव्ये उत्कुरुटस्य मातृथ्वस्रयके मुणणा। भ्रातरि, प्रा.क०। ('सुयकरण' शब्द कथा वदयते) कुत्सितं विहियपयत्था पालिय-महब्बया पवरगोयसमा ।। १७॥ रोटति । 'रुट' दीप्तिप्रतीघाते कः । सितावरकशाके, वाच । समतिणमणिणो सममित्त-सत्तुणो तुम्वरंकनरवश्णो। महुयरवित्ती कयपाण-वित्तिणो धम्मफलतरुणो ॥ १७ ॥ कुरण-कुरुण-न० । राजकीयेऽन्यदीये वा वित्ते, व्य०२ उ०। सम्झायज्माणरया, जिदिया जियपरीसहकसाया। कुरुत्थल-कुरुस्थल-न० । मथुरास्थे स्थलनेदे, ती कल्प। ते पाहूया वि हं, इति न ति व न याणामि ॥१५॥ कुरुदत्त-कुरुदत्त-पुं० । स्वनामख्याते हस्तिनापुरवास्तव्ये इज्यभणियं निवेण वरम-ति! झत्ति वाहरसु ते महामुणिणो । पुत्रे, स प्रवजितो नैषेधिकी परीषहमधिसह्य सिक इति । तत्तो अखुद्दबुद्धी, खुडमुणी तेण आहृभो ॥२०॥ उत्त० २ अ० । “कुरुदत्तो वि कुमारो, संवलिफालि व्व नमिउं भणियं रना, खुड्य! किं मुणसि काउ तं कव्वं । अम्गिणा दहो । सो वि तद दठमाणो, पमियन्नो उत्तम गुरुपायपसाएणं, मुणेमि श्य भणइ साहू वि ॥१॥ अटुं ॥" संथा। तो कुरुचंदनरिंदो, तयं समस्सापयं पयपेड़ । सिंगारस्स विरहिया, मणिणा वि हु पूरिया एवं ॥२२॥ कुरुदत्तपुत्त-कुरुदत्तपुत्र-पुं०। कुरुदत्तस्य पुत्र ईशानेन्द्रपूर्वनवखंतस्स दंतस्स जिदियस्स, अज्झप्पजोगे गयमाणसस्स । जीवे, भ०। कि मज्क एएण विचिंतिएणं, सकुंडलं वा वयणं न वत्तिा२३॥ तत्कथाजण निवो खुडू! तर, सिंगारेणं न पूरिया किमियं ।। एवं खयु देवाणुप्पिया णं अंतेवासी कुरुदत्तपुत्ते नामं अस भणि जिइंदियाणं, जण धुत्तुं न सो जुसो ॥ २४॥ णगारे पगभदए जाव विणीए अहम हमेणं प्रणिक्खिसिरिअंगारो सिंगा-रवत्ति जंपात तं पिजर अइणो। तेणं पारणए आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोकम्मेणं उर्छ वा॥ नूण चंदबिंबा, अग्गीवुठी समुप्पना ॥ २५ ॥ हाम्रो पगिझिय पगिझिय सूराभिमुहे आयावणभूमीकिश्चउल्लो सुक्को य दो छूढा, गोलिया मट्टियामया । ए पायावेमाणे बहुपडिपुराणे कम्मासे सामएणपरियागं दो वि आवमिया कुठे, जो उन्हो सो ऽवलम्गई ॥ २६ ॥ पाहुणित्ता अट्ठमासियाए सोहणाए अत्ताणं सइत्ता तीसं एवं लग्गति दुम्मेहा,जे नरा काममालसा। भत्ताई अणसणाई बेदित्ता आलोइयपमिकंते समाहिपत्ते विरत्ता तु न बम्गति, जहा से सुक्कगोलए ॥ २७॥ इय दुहमदियदु-टुस्स अस्संदमस्स बरमुणिणो । कालमासे कालं किच्चा ईसाणे कप्पे सयंसि विमाणंसि वयणं सुणिउं राया, चमक्खिनो चिंतए चित्ते ॥२८॥ जाइसए बत्तव्यया सव्वे वि अपरिसेसा कुरुदत्तपुत्ते वि, अमयं रसेसु गोसी-सचंदणं चंदणेसु जह पवरं । णवरं सातिरेगे दो केवनकप्पे जंबूद्दीवे दीवे, अवसेसं तं तह सम्बेसु वि धम्मे-सु नूण धम्मो उ जिणभणिो ॥२६॥ चेव ॥ ज०३ श०१०। पवं चितिय सम्म खु-हेण समं गमित्तु गुरुपासे । सोऊणं धम्मकई, गिहत्यधम्म पबजे ॥ ३० ॥ कुरुदत्तसुय-कुरुदत्तमुत-पुं० । हस्तिनापुरे जाते स्वनामख्याते चिरकालं परिपालिय, धम्म सचिवेण रोहगेण सम । इभ्यपुत्रे, "कुरुदत्तसुतोऽनगारः" इति शान्त्याचार्यः, कुरुकुरुचंदमहाराओ, जाओ सुक्खाण आभागी" ॥३१॥ दत्त इति लक्ष्मीवल्लनः । उत्त० ३० "एवं निशम्य चरितं सुत्रिवेकिकेकि, कुरुमड-कुरुमती-स्त्री० । ब्रह्मदत्तचक्रवर्तिनः सकलान्तःपुरप्रधाजीमूतगर्जितनिभं कुरुचन्डराज्ञः । नव्या जनाः सपदि गडरिकाप्रवाहं, नाग्रमहिण्याम, उत्त०१३ असाचा०। कुरुचन्छनृप भार्यायाम, श्रा० म०प्र० श्रा०यू०। मुक्त्वाऽऽश्रयन्तु विशदं जिनराजधर्मम्" ॥ ३ ॥ इति कुरुचन्द्रनरेन्डकथा! ध०र०। प्रा०म०। श्रावस्त्यधीश्वर कुरुया-कुरुका-स्त्री० । देशप्तः सर्वतो वा शरीरस्य प्रकालने, स्य ताराचन्ऽस्य पुत्रे बालवयस्ये,('ताराचंद' शब्दे कथा वक्ष्य व्य०१ उ०। ते) हरिचन्स्य पितरि कुरुमत्याः पत्यो नास्तिकवादरते नृपने कुरुराय-कुरुराज-पुं० । कुरूणां राजा टच् समा० । वाच०। दे, प्रा०म०प्र० प्रा०चूण(तत्कथा 'अलिअंगदेव' वक्तव्यतायाम) कुरुदेशनाथे, "अदीणा सतकुरुराया" स्था०७ ठा। कुरुचर-कुरुचर-त्रि० । कुरुषु चरतीति कुरुचरः । कुरुदेशजे, " कुरुदशजे, कुरुवासि (ए)-कुरुवामिन्-पुं०। देवकुरुत्तरकुरुजेऽनृक्रिमस्त्रियां टित्वाद् ङीप् । प्राकृते तु "प्रत्यये कीर्नवा" ।३। ३१ मनुष्यन्नेदे, स्था० ६ ठा० । ति डोर्वा । कुरुचरी, कुरुचरा । प्रा०३ पाद । कुरुविंद-कुरुविन्द-पुं० । कुरून् मूलकारणत्वेन विन्दति । विद कुरुजगल-कुरुजाङ्गल-न। जङ्गलमेव जाङ्गलम् । कुरुषु जान-शाशे मचादीनाम्"७।१।१६। इति (पारणमुम्। Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१२ ) अभिधानराजेन्द्रः । कुरुविंद मुस्तायाम, माषे, वाच०। तृणविशेषे, औ० प्रश्न० । प्रका० । सं० । श्राचा० । कुटिलकाभिधाने रोगविशेषे, ओघ० । काचलवणे, माणिक्यरत्ने, न० । कुरुविल्वरत्ने, कुल्माषे, वीहिभेदे, दर्पणे, हिङ्गुले च । वाच० । कुरू कुरूप २० कुत्सितं यथा भवत्येवं रूपयति विमोहयति यत्कुरूपम् । भाण्डादिकर्मणि मायाविशेषे २०१२ ८० ५० । तदात्मके मोहनीयकर्मणि, स०५२ सम० । कुत्सितव, त्रि० । प्रश्न० ४ आश्र० द्वार कुल-कुल- न० । कुल कः । कुङ् शब्दे कर्मणि वा लक् । कुं भूमिं लाति ला कः । कौ भूमौ लीयते अन्येभ्योऽपि पा० उ० यथार्थ त्यति जनपदे देणे, मध्यमहलद्वयेन यावत भूमिः कृष्यते तावत्यां भूमौ वाच० । वंशस्यावान्तरजेदे, [झा० १० १६ श्र० । पैतृके पक्के, नि० । तं० रा० औ०ग० । प्रश्न | "कुलं पेयं, माझ्या जाई ।” उत्त० ३ भ० । स्था० । डा० । गुणवत्पितृकरवे, स्था० ४ ० २३० । इक्ष्वाक्कादौ, श्राचा० १ श्रु० १ अ० १ च० । सुत्र० । राष्ट्रकूटादौ सूत्र० १ ० १ अ० १ उ० पितृपितामहादिपुरुषवंशे ०१ अधि० प्रतिनियतपुरुषजन्यत्वे, सम्म० १ काएर । स्वगोत्रे, स्था० ४ ठा० १ उ० । नागेन्द्रादौ वृ० १ उ० । विद्याधरादौ, श्राव० २ ० । चन्द्रादिके साधुसमुदायविशेषे, स्था० ५ ठा० १३० । प्रश्न० । प्रति ! स्था० । बहूनां गच्छानामेकजातीयानां समूहे, घ० ३ अधि । एक्काचार्य सन्ततौ, कल्प० ८ क्षण । स्था० । पं० य० । 'एत्थ कुलं विशेयं, पगायरियस्स संतई जाओ । तिराह कुलामहोपुण, सावेक्खाणं गणो होइ ॥ " प्र० ८ ० उ० । गृहस्थानाम् (सूत्र० १० ४ ० १ उ०) गृहे, कल्प० ६ कण । आचा० । सूत्र० । कत्रियादिगृहे, सूत्र० २ श्रु० ६४० | ( ततो भगवान् ! श्री ऋषतः राज्ये हस्त्यश्वगवादिसंयहपुरस्सरमुग्रभोगराजन्यकत्रियलक्षणानि चत्वारि कुलानि व्यवस्थापिवान् इति 'उसभ' शब्दे द्वि०मा०] १९२३ पृष्ठे दर्शितम् कुटुम्बे, ) कल्प० । आचा० २ ० २ श्र०१०। स्पा०] कल्प० । वृन्दे, गजकुलवानरकुलानि । प्रश्न०३ श्राश्र० द्वारा सान्निध्ये, गुरुकुलं, कुलं सान्निध्यं, गुरोः कुगुखायिम् आया १०० १० कुले भवः यत् कुल्यः। स्त्रे कुलीनः । टकञ् कौलेयकः । कुलोङ्गवे, मि० । बाय कुलसहितेषु । 66 तानि चता कहं ते कुला आदिता ति वदेज्जा ।। तत्थ खलु इमे बारस कुला, बारस उबकुला, चत्तारि कुलोवकुलाए । बारस कुला । तं जहा - धारीद्वाकुलं उत्तराभद्दवयाकुलं प्रसिणीकुलं कत्तियाकुलं चिया ताणाकुलं पुस्सेकुलं महाकुलं उचराफग्गुनीकुलं चित्ताकुलं विसाहाकुलं मूलो कुलं उत्तरासादाकुलं वारस वकुला सेमदास व पुब्ब भवया उवकुलं रेवति उनकुलं जरी उबकुलं पुरणव्वसू लवकुलं अस्सेसा वकुलं पुष्वा फग्गुणी लवकुलं हत्यो कुक्षं साति बकुलं जेट्ठा लवकुलं पुण्वासाठा उक्कुलं । चचारि कुलोमकु तं जहा अनि कुलकुमं सतानेसया कुलकुल अदा कुलोबकुलं अणुराधा कुलोवकुलं । "ता कई ते" इत्यादि । ता इति पूर्ववत्। कथं केन प्रकारेण, कुलक (ग) र भगवन् ! स्वया कुलाम्याख्यातानीति वदेत ?। एवमुक्ते भगवानाह " तत्थ" इत्यादि । रह न केवलं नगवता कुलान्येवाख्यातानि किं सूपकुलानि, कुल्लोपकुलानि च ततो निर्धारणार्थप्रतिपत्यर्थम् । तत्रेति भगवान् ब्रूते तत्र तेषां कुन्नादीनां मध्ये खल्विमानि द्वादश कुलानि सूत्रे निर्देशः प्रकृतत्वात् इमे इति प्रतिपद्मि संयमाणस्वरूपाणि द्वादश उपलनिश्मानि यदवमाणस्वरूपाणि बारकुन प्रसानि कि कुलादीनां लक्षणमुध्यते येनं प्रायः समासानां परि समाप्य उपजायन्ते मासस रानामानि मानि - नीति प्रसिद्धानि । तद्यथा श्राषिष्ठो मासः, प्रायः श्रविष्ठया धनिष्ठापरपर्यायया परिसमाप्तिमुपैति । भाषपद उत्तरभाद्रपदया, अ श्वयुक् अश्विन्या इति । धनिष्ठादीनि प्रायो मासपरिसमापकानि मासामान कलानि तेषामेव कानामधस्तनानि यानि नक्षत्राणि श्रवणादीनि तानि उपकुलानि, कुलानां समीपमुपकुलं तत्र वर्त्तन्ते यानि नक्त्राणि तान्युपचारादुपकुञ्जानि । यानि च कुलानामुपकुआनां चाधस्तनानि तानि कुलाकुलानिभिदानि चत्वारि नक्षत्राणि उब "मासा परिक्षामा ति कृता उपकुलाउ हिडिमना । ति पुण कुलोकुला सिराहा ॥ १ ॥ अत्र ( मासाणं परिणामा इति) प्रायो मासानां परिसमापकानि । कचित् -" मासाण सरिसनामा " इति पाठः । तत्र मासानां सहरानामानीति व्याख्येयम् (सयति ) शतभिषक शेषं सुगमम् । संप्रति पानि द्वादश कुलानि यानि च द्वादश उपकुलानि पानि चत्वारि कुलोपानि तानि क्रमेण कथयति (पारस कुला तं जहा ) इत्यादि सुगमम् । सू० प्र० १० पाहु० । चं० प्रग जं० । कुलंप - कुलम्प - पुं० | अनार्य केत्रजेद्रे, तदूवासिनि जने च । सू ०२ - २ श्र० । कुझक (ग) र-कुलकर- पुं० कुकरणशीलाः कुलकराः। कुलकरणशीलेषु विशिष्टबुद्धिषु लोकव्यवस्थाकारिषु पुरुषविशेषेषु, स्था० १० वा० । इदानी पस्मिन् काले क्षेत्रे व कुराणां प्रभवडुपदर्शनायाहउस्सप्पिणी इमीसे, तइयाए समाऍ पच्चिमे भागे । पलिओमागे, सेसम्मिय कुलगरुपती || कभरह मज्जाति-नागे गंगसिंधुमज्झम्मि । एत्य बहुमदेसे उप्पन्ना कुलगरा सन्त ।। अस्यामवसर्पिण्यां वर्तमानायां या तृतीया समा सुत्रमनुःषमाभिधाना, तस्या यः पश्चिमो भागस्तस्मिन् । कियन्मात्रे इत्याह-पपोपमामागे पोपमाभागप्रमाणे शेषे तिष्ठति सति कुलकरोत्पत्तिरभूदिति वाक्यशेषः आह-नरमध्यममागे किं विशिष्ट इत्याह-गामध्ये एमरतमध्यमत्रिभागे बहुमभ्यदेशे, न तु पर्यन्तेषु, उत्पन्नाः कुलकराः सप्त दान विद्याधराज्ञयचैतान्यपर्वतादात परि न तु परतः, व्याख्यानात् । संप्रति कुलकरचतानिधायिकां द्वारणायां प्रतिपादयतिपुन्वभव जम्मनाम - माणसंघयणमेव संठाणं । वन्निश्वियाऽऽ भागा, जबलोवालोव नीई य ॥ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८३) अभिधानराजेन्द्रः । कुलक (ग) र कुलकराणां पूर्वजवा वक्तव्याः, ततो जन्म, तदनन्तरं नामानि सत्प्रमाणानि, तदनन्तरं संहननं वक्तव्यम्, एवशब्दः पूरणार्थः । तथा संस्थानं ततो वर्णाः प्रतिपादयिताः तदनन्तरं स्त्रिय श्रायुर्वक्तव्यम्, ततो भागा वाच्याः कस्मिन् वयोभागे कुलकराः संवृत्ता इति । भवनेषु उपपातो वक्तव्यः, जवनग्रहणं भवनपतिनिकायेषु तेषामुपपातो नान्येवेति प्रदर्शनार्थम तथा या यस्य हकारादिलक्षणा ला तस्य वक्तव्येति गाथाऽकरार्थः । अवयवार्थे तु प्रतिद्वारं स्वयमेव वक्ष्यति । तत्र प्रथमद्वारावयवार्थाभिधित्सयेदमाहअवरविदेहे दो वणि-यवयंमा माइ उज्जुगे चैव कालगया इह नरहे, इत्थी मणुओ व आपाया ॥ द सिणेहकरणं, गयमाणं च नामनियुती । परिहाणि हि कलहो, सामत्यण विनवण इत्ति ॥ अपरविदेदे है। वयस्यावभूताम्। तद्यथा-एको मायी, अपर ऋजुतागताविह भरते आयाती, मायी हस्ती, स्तरो मनुष्य इति । ततो 'दृष्ट्वा परस्परं स्नेह करणं, ततो गजारोहणं तदनन्तरं नामनिर्वृत्तिः। गच्छता च कालेन कल्पद्रुमाणां परिहाणिः, ततः प्रभूता प्रभूततरा गृद्धिः, तदनन्तरं कलहः, ततः "सामत्थणं ति" देशीयमेतत् पर्यालोचनमित्यर्थः ततो नन्तरं दा इति हक्कारलक्षणा या नीतिः प्रवृत्तिः । भावार्थः कथानकादवसेयः । तच्चेदम् - "अवरविदेहे दो मित्ता वाणिया, तत्थेगो माई गते पुन बगतो व यवहरति सत्य जो माई सो तं उज्जुगं अश्संधेइ, श्यरो सव्वमगूढतो सम्मं ववहरह। दो विदारुई, ततो सो उज्जुगो का काऊण इहेव दाहिमिलो जातो को पुरा तम्मि चैव पर से हत्थरय । सोय सेतो से उतो व जादे से दो विपप्पखरगा जाया ताहे ते हिंडिनमारका तेण य हत्थिणा हिंमतेण सोमदुगो दिठो, दद्दू य से परमा पीई उपपन्ना, तं च से श्रमिओनियतियं कम्म उदितततेमधे विश्यं ततो सव्येण लोगेण तं मिट्टसगं ताकद अम्देहिंतो म एस इमंच से विमलं वाहणं, ति से 'विमलवाद' त्ति नाम क यं, तेसिं च जाईसरणं च जायं, ताड़े कालदो से इमे सत्त कप्परुक्खा परिहायंति - "मसंगया य भिंगा, चिशंगा चैव तह य चित्तरसा । गेहागारअणिगणा, सत्तमया कप्परुक्खन्ति " ॥ १ ॥ तेसु परिहार्यतेसु कसाया उप्पा । श्रयं मम मा इत्थ कोइ अलियच इति भणिडं पवित्ता, जो ममीकयमल्लियइ, तेण इयरो कसाइजइ, ततो परोपरमसंखमं ताई विर्तिति-कंचि अहिवई ठवेमो, जो ववत्थाचे तादे तर्हि सो विमलवाहणो, एस अम्हेहिंतो अहिवो इति अहिवई उधितो । ताई तेण तेसिं रुक्खा विरिक्का, भणियाय जो तुम्भं श्यामरं मतं मम कज, जेणा सेदं यतेम सो वि क जागर, भवर-सो जाइस्सरो सं वाणियत्तं सारइ, तेरा जागर, ताहे तेसि जो को वि श्रवरज्भइ सो तस्स कहिज्जर, ताड़े सो तेहि दंमं वत्ते, सो पुरा मो हकारो-हा तुमे दुडु कथं ति । ताहे सो जाण, अहं सवस्सह कतो, परंतो होतो, सीसं या मे परं निम्नं होतं न प रिसं विवणं पावितो ति । एवं बहुं कालं हक्कारदंको अवन्तियो त व जातीय समं नोगे भुजंतस्स अब मिड जायं, तस्स वि कालंतरेण अवरं, एवं ते एगवंसम्मि सत्त १४६ कुलक (ग) र कुद्रगरा उपपन्ना ॥ पूर्वभयाः खल्वषां प्रथमानुयोगतोऽवसेयाः, जन्म पुनरिहैव सर्वेषां द्रष्टव्यम्, व्याख्यातं पूर्वज जन्मरूपं द्वारद्वयम् । श्रा० म०प्र० । संप्रति कुलकरनामप्रतिपादनार्थमाहजंबुद्दी दी जारहे वासे इमीसे सप्पिणीए सत्त कुगरा होत्या । तं जहा - ' पढमित्थ विमलवाहण, चक्खुम जससं चउत्थमभिचंदे | तत्तो पसेाई पुण, मरुदेवे चेव नाभी य' ॥ १॥ स्था० ७ ० । प्रथमोऽविमलवाहनो, द्वितीयधनुष्मान् तृतीयो पस्वी, चतुर्थोऽमिचन्द्रः, पञ्चमः प्रसेनजित्, षष्ठो मरुदेवः, सप्तमो नाभिरिति । गतं नामद्वारम् । श्रा० म० प्र० । श्रा० चू० । श्रा०क० । श्रधुना प्रमाणद्वारावयवार्थमभिधित्सुराहनवसपाइ पढयो, अट्ट व सत्तसमाई च । मेवा, पंचसया पासा ।। प्रथमो विमलवाहन उचैस्त्वेन नवधनुःशतानि द्वितीयश्च क्षुष्मान् श्रप्रैौ धनुःशतानि तृतीयो यशस्वी सप्तधनुःशतानि, चतुर्थोऽनियतमानि चशतानि पञ्चमः प्रसेनजित् धनुशतानि षष्ठो देवोपानि पानि सप्तमो नामः पानि पधिकानि पञ्चशतानि २५॥ गतं प्रमाणद्वारम् । अधुना संहननसंस्थानप्रतिपादनार्थमाहबरिसजसंघपणा, समचारंसा व होति संठाणे । व विथ वोच्छामी, पत्तेयं जस्स जो आसी ॥ सर्व एव विमलवादनादयो वज्रसंहनना संस्थाने चि अन्त्यमाने समचतुरस्राश्च 'भवन्ति । वर्णद्वार संबन्धाभिधानार्थमा(ब) "वोत्यादि" परमपि च पश्ये प्रत्येक प स्य य भासीदिति । प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति म जससे च पसेाई य एए पिगुणाभा चिंदो ससिगोरा, निम्मलकरणगप्पभा सेसा ॥ चक्षुष्मान यशस्वी प्रसेनजित् पते द्वितीयतृतीयपञ्चमाः प्रिश्यामा छाया येषां ते तथा प्रियश्यामाः । भभि तुः करः शशिचद् मीरः निर्मलकनकप्रभा गया येषां ते तथा शेषा विमलवाहनमरुदेवनाभयः। गतं वर्णद्वारम् । आ० म० प्र० । श्रीद्वारतिपादनार्थमाह एसि णं सतरहं कुलगराणं सत्त जारिया होत्या । तं जहा - 'चंदजस चंदकता, सुरूपमिरूवचक्खुकंताय । सिरिकंता मरुदेवी, कुलगरइत्वीय लामाई' || १ || स० । स्था० । विमानस्य पत्नी चन्द्रयशाः चक्षुष्मतश्चन्द्रकान्ता, यशस्विनः सुरूपा, अभिचन्द्रस्य प्रतिरूपा, प्रसेनजितकान्ता नार्मदेवी इमानि यथाक्रमं कुकरपत्नीनां नामानि पता संहननादिभिः कुलकरतुल्या एव रूष्टव्याः । । Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६४) कुलक(ग)र अभिधानराजेन्फः। कुलक(ग)र यत पाह ज्य मध्यमे ऽgभागात्मके त्रिभागे कुबकरकालं विजानीहि । संघयणं संगणं, उच्चत्तं चेव कुलगरेहिँ समं । अमुमेवार्थ प्रकटयन्नाहबमेण एगवमा, सव्वाउ पियंगुवमातो । पढमो य कुमारत्ते, जागो चरिमो य वृष्भावम्मि । संदनन,संस्थानम् ,उच्चस्त्वं चैव कुलकरैरात्मीयैरात्मीयैः सम ते पयांपेज्जदोसा, सब्वे देवेसु उववना ॥ मनुरूपमासामधिकृतस्त्रीणां नवरं प्रमाणेन ईपन्न्यना इति सं- तेषां दशानां जागानां मध्ये प्रथमो भागः कुमारत्वे नवात, चप्रदायः । तथा वर्णेन सर्वा अप्येकवर्णाः प्रियङ्कवर्णा इति । गतं रमो वृद्धजावे, शेषा मध्यमा अष्टौ नागाः कुलकरकास इति । स्त्रीद्वारम। गतं भागद्वारम्। __इदानीमायुारमाह उपपात:पलिश्रोवमदसभागो, पढमस्सा- ततो असंखेजा। उपतद्वारमुच्यते-ते प्रतनुप्रेमद्वेषाः,प्रेम रागो, द्वेषः प्रसिका, ते याणुपुबिहीणा, पुन्या नानिस्स संखिज्जा ।। सर्वे विमलवाहनादयो देवेषपपन्नाः । प्रथमस्य विमलवाहनस्यायुः पल्योपमदशभागः, तदनन्तरम तत्र न झायते केषु देवेषुपपन्ना इत्यत आहन्येषां चकुष्मदादीनामसंख्येयानि, पूर्वाणीति संबध्यते। तान्यपि । दो चेव सुवएणमुं, नयहिकमारेसु होति दो चेव । चानुपूर्व्या क्रमेण हीनानि। नाभेस्तु संख्येयानि पूर्वाण्यायुष्कमि दो दीवकुमारेमुं, एगो नागेसु नववरणो । ति । अन्ये तु ब्याचकते-प्रथमस्य पल्योपमदशमन्नाग पवायुः, ततो द्वितीयस्यासंग्येयाः पल्योपमासंख्येयनागा इति वाक्यशे द्वौ आद्यौ विमलवाहनचकुष्मदन्जिधानी सुपर्णेषु देवेषत्पनी, षः। एवं चानुपा हीनाःशेषाणामायुकंकष्टव्यम, ताबदू याव द्वावेव च यशस्व्यनिचन्द्राख्यावुदधिकुमारेषु भवतः, द्वौ प्रसनसंख्येयानि पूर्वाणि नाभेरायुष्कमित्यविरुरूम् । अपरे व्याच जिन्मदेवाख्यौ द्वीपकुमारेषु, एको नाभिनामा सप्तमकुलकरो कते-प्रथमस्थायुः पल्योपमदशनागः,ततोऽसंख्यया इति शेषाणां नागेषूपपन्नः। समुदिताना पल्योपमासंख्येयनागाः। किमुक्तं भवति?-द्वितीयस्य संप्रति कुलकरस्त्रीणां हस्तिनां चोपपातमभिधित्सुराहपल्यापमासंस्थेयजाग आयुः,शेषाणांतत एवासंख्येयजागः,असं हत्यी चित्थीओ, नागकुमारेसु होति नववन्ना । ख्येयजागः पात्यते तावद्यावन्नाभेरसंख्येयानि पूर्वाणि । तदेतदपव्याख्यानम् । कथमिति चेत?। उच्यते-इह पल्योपमाएभागे अशेष एगा सिद्धि पत्ता, मरुदेवी नानिणो पत्ती॥ कुलकराणामुत्पत्तिः, पलितोवमट्ठनागे,सेसम्मि य कुलगरुप्पत्ती।' हस्तिनः सप्तापि, षट् च स्त्रियश्चन्द्रयशाप्रभृतयो नागकुमारेषइति वचनात् । तत्र पस्योपमं किलासत्कल्पनया चत्वारिंशद्भाग पपन्नाः । अन्ये तु प्रतिपादयन्ति-एक एच हस्ती, पद् स्त्रियो, परिकल्प्यते,तस्याप्टमो भागः पञ्च चत्वारिंशद्भागाः,तत्रापि प्रथ- नागेषूपपन्नाः; शेषाणामिहाऽननिधानमेवेति । एका सप्तमी मरुमस्य विमलवाहनस्यायुः पल्योपमदशभागः,ततश्चत्वारश्चत्वारि- देवी नाभेः पत्नी सिद्धि प्राप्ता । उक्तमुपपातद्वारम् । श्रा० शद्भागास्तदायुषि गताः शेष एकः पल्योपमस्य चत्वारिंशत्तमः म० प्र०। सण्येयो जागोऽवतिष्ठते,सच चक्षुष्मदादिगतः पञ्चभिरसंख्येय जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्या पञ्चदश कुलकरास्तेषां नामायुरादीनिनागैर्न पूर्यते इत्यपव्याख्या। अथ अत एव नामेरसंख्येयानि पूर्वाएयायुष्कमुक्तमिति । इदमयुक्तृतम्। यतो मरुदेव्याः संख्येयानिव तीसे णं सामाए पच्चिमे तिभाए पत्रिोवमट्ठनागावसेसा, बीएयायुरसंख्येयवर्घायुषां केवलज्ञानानावात्ततो नानेः संख्येय एत्य णं इमे पारस कुलगरा समुप्पन्जित्था । तं जहा-सुपर्धायुष्कत्वमेव कुलकराणां कुलकरपत्नीनांच,समानायुष्कत्वात्। मई १ पमिस्सुई २ सीमंकरे ३ सीमंधरे ४ खमंकरे ५ तथाचाह खेमंधरे ६ विमलवाहणे ७ चक्खुमं 6 जसमं । अनिचंदे जं चेव आउयं कुल-गराण तं चैव होइ तासि पि। १० चंदाने ११ पसेणई १२ मरुदेवे १३ णाजी १४ जं पढमगस्स आऊ, तावइयं होइ हस्थिस्स ।। नसने १५ ति॥ यदेवायुष्क कुलकराणां प्रामुक्तं,तदेव जवति तासामापि कुलकरा- अत्राह कश्चित्-आवश्यकनियुक्त्यादिषु सप्तानां कुसकराणामनिअनानां, संख्यासाम्याच्च तदेवेत्यभिधीयते,यावता प्रत्येक जिन्न- धानादिह पञ्चदशानां तेषामनिधानं कथम्?,यदि वा भवतु नाममेव प्राणिनामायुः, तथा यत्प्रथमस्य कुलकरस्य विमलवाहना- तत, पुण्यपुरुषाणामधिकाधिकवंश्यपुरुषवर्मनस्य न्याय्यत्वात, ख्यस्यायुस्तावदेव जवति हस्तिनः। एवं शेषकुलकरहस्तिनामपि परं पल्योपमाष्टमभागावशिष्टतावचनं कालस्य सुतरां बाधते, कुलकरतुल्यं षष्टव्यम् । अनुपपत्तेः। तथाहि-पल्योपमं किलाऽसत्कल्पनया चत्वारिंशभाग: जागं परिकल्प्यतेऽस्याष्टमो भागश्चत्वारिंशजागाः पञ्च। तत्राप्यासंप्रति जागद्वारं वक्तव्यम्-यथा कः कस्यं सर्वायुष्ककुलकर द्यस्य विमलवाहनस्यायुः पल्योपमदशमन्नागः,ततश्चत्वारश्चत्वाकाल शति । तत्रेदमाह रिंशज्ञागास्तदायुषि गताः,शेष एकः पल्योपमस्य चत्वारिंशत्तमः संख्येयो भागोऽवतिष्ठते,स चक्षुष्मदादीनामसंख्येयपूर्वनाने, संजं जस्स आउयं खल, तं दसनागे समं विनइकणं। ख्येयपूर्वःश्रीऋषभस्वामिनश्चतुरशीत्या पूर्वलक्षः शेषश्चकोननथमझिल्लहतिजागे, कुलगरकालं वियाणाहि ॥ त्या पक्कैः परिपूर्यते तेन पूर्वेषां सुमत्यादिकुलकराणां महत्तमायुषां यद् यस्य कुलकरस्थाऽऽयुस्तत् खषु दशभागान समं विन- | काबकाशः? उच्यते-आद्यस्य सुमतेस्तावत्पल्यदशमायुः,ततो द्वाद Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१५) कुलक(ग)र अभिधानराजेन्द्रः । कुलक(ग)र शवंश्यान् यावत् पूर्वदर्शितन्यायेनैकसिंश्चत्वारिंशत्तमेऽवशिष्टे मिवात्मानं मन्यमानः पुनरपराधस्थाने न प्रवर्तत इति, तस्य द. भागेऽसंख्ययानि पूर्वाणि, तानि च यथोत्तरं हानहीनानि। माने | एनीतिता । एवं मा इत्यस्य निषेधार्थस्य करणमभिधानं मास्तु संख्येयानि पूर्वाणीत्यादि। इत्थं चाविरुकमिव प्रतिजाति । कारः। तृतीय चतुर्थकुलकरकाले महत्यपराधे माकारो दएमा, यत्तु हारिजदयामावश्यकवृत्तौ-"पनिोवमदसम-सो पढमस्सा- तरत्र तु पूर्व एवेति । तथा धिगधिकेपार्थ एव, तस्य फरणमुच्चासंतओ असंखिज्जा । ते आणुपुबिहीणा,पुवा नाभिस्स संखि- रणं धिकारः, पञ्चमषष्ठसप्तमकुलकरकाले महापराधे धिक्कारो ज्जा"॥१॥इति गाथाव्याख्याने मतान्तरेण नाभेरसंख्येयपूर्वायुष्का- दएमः, जघन्यमध्यमापराधयोस्तु क्रमेण हकारमताराविति । त्वमुक्तम् , तत्त कुलकरसमानायुष्कत्वन कुत्रकरपत्नीनां मरुदेव्या आह च-"पढमवितियाण पढमा, तश्यच उत्थाण अभिणया अप्यसंख्यपूर्वायुष्कातापत्तौ मुक्त्यनुपपत्तिरिति तत्रैव दूषितम- वीया । पंचम छहस्स व स-त्तास्स तक्या अभिणवा उ" स्तोतिन कोऽपि परस्पर विरोधः। यथाऽऽवश्यकादिषु विमलवा. इति । तथा परिभाषणं परिभाषा, अपराधिन प्रति कोपाहनस्य पल्यदशमांशायुष्कत्वं, तद्वाचनान्नेदादवगन्तव्यम्। यच्च विष्कारेण मा यासीरित्यभिधानम् । तथा मरामलबन्धो-मएडग्रन्थान्तरे नामपाठे नेदः, सोऽपि तथैवेत्यत्र सर्ववित् प्र- बमिङ्गितं वत्र तत्र बन्धो-नास्मात्प्रदेशाद् गन्तव्यमित्येवं बप्रमाणमित्यलं विस्तरेण । अथ प्रस्तुतमुपक्रम्यते-तद्यथेति। तान् चनलकणः पुरुषमएमबपरिचारणशक्षणो वा । चारकं गुप्तिगृनामतो दर्शयति-सुमातः १ प्रतिश्रुतिः ३ सीमंकरः ३ सी- हम विच्छेदो हस्तपादनासिकाऽऽदिच्छेदः । इयमनन्तरा चतुमंधरः ५ केमंकरः ५ केमंधरः ६ विमलवाहनः ७ चक्का- विधा जरतकाले बनूव । चतसृणामन्त्यानामाद्यद्वयमृषनकाले, मान् ८ यशस्वी ए अजिचन्छः १० चन्द्राभः ११ प्रसेनजित् | अन्ये तु भरतकाल इत्यन्ये । आह च-"परिभासणा उप१५ मरुदेवः १३ नाभिः १४ ऋषभ इति । यत्पुनः पद्मचरित्रे ढमा, मंडलिबंधम्मि होइ वीयानो । चारगछविछेदाई, भचतुर्दशानन कुलकरत्वमनिहितम्, अत्र तु पञ्चदशस्य ऋषभ- रहस्स चन चिहा नी" ॥ स्था०७०। स्थापि, तारतक्वेत्रप्रकरणे भरतभर्तुरतनाम्नोऽपि महाराज अधुना नीतिद्वारप्रतिपादनार्थमाहस्य प्ररूपमा प्रक्रमितव्याऽस्तीति झापनार्थमिति । जं०२ वक्ष। हक्कारे मक्कारे, धिक्कारे चेव दंमनीईउ । कल्पवृक्षाः वोच्छं तासि विसेसं, जहक्कम आणुपुबीए । विमलवाहणेणं कुनकरे सत्तविहा रुक्खा उपभोगत्ताए दकारो मकारो धिक्कारश्चेति कुअकराणां दएमनीतयः,ततोषहवमागच्छिसु । तं जहा-“मत्तंगया य निंगा, चित्तंगा क्ष्ये तासां दण्डनीतीनां विशेष यथाक्रम, या यस्य तां तस्य चेव होंति चित्तरसा । मणियंगा य अणिप्रणा, सत्तमगा वक्ष्ये ति नावः । तामपि तथा वक्ष्ये, आनुपूर्व्या परिपाट्या कप्परुक्खा य" ॥१॥ विमलधाहनादारज्य क्रमेणेति यावत् । प्रतिज्ञातमेव करोतितथा विमलवाहने प्रथमकुलकरे सन्ति सप्तविधा ति। पूर्व शविधा अजूवन् , ( रुक्ख त्ति) कल्पवृक्षाः ( उवभोगत्ताए पढमविझ्याण पढया, तइयचउत्याण अहिणवा विश्या। त्ति) उपनोग्यतया (हव्वं ) शीघ्रमागतवन्तो भोजनादिसंपा- पंचम उट्ठस्स य स-त्तमस्स तझ्या अहिणवा तु ।। दनेनोपनोगं तत्कालीनमनुष्याणामागता इत्यर्थः। "मत्तं गया य" प्रथमद्वितीययोः,सूत्रे द्वित्वेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वात् । कुलकगाहा । (मत्तंगया शति) मत्तं मदः, तस्य कारणत्वाद् मद्यमिह रयोः प्रथमा हक्कारलकणा दएमनीतिः । तृतीयचतुर्थयोः यमत्त शब्देनोच्यते, तस्याङ्गभूताः कारणभूताः, तदेवाङ्गमवयवो शव्यभिचन्डाख्ययोः कुलकरयोरभिनवा द्वितीया मक्कारतयेषां ते मत्ताङ्गकाः, सुखोपमद्यदायिन इत्यर्थः । चकारः पुरणे । क्षणा दण्डनीतिः। किमुक्तं भवति?, स्वल्पापराधे प्रथमया दण्डः (भिग त्ति ) संशाहाब्दत्वात् भृङ्गारादिविविधभाजनसंपाद- क्रियते,महापराधे द्वितीययेति।तथा पञ्चमषष्ठयोः सप्तमस्य च का भृक्षाः।( चित्तंग त्ति) चित्रस्यानेकविधस्य माल्यस्य तृतीया धिक्काराण्या अभिनवा। एषा उत्कृष्टा,द्वितीया मध्यमा,प्र. कारणत्वात् चित्राङ्गाः । (चित्तरस त्ति) चित्रा विचित्रा रसा म. थमा जयन्या । एताश्च तिस्रोऽपि लघुमध्यमोत्कृष्टापराधेषु यधुरादयो मनोहारिणो येभ्यः सकाशात्संपद्यन्ते ते चित्ररसाः। थाक्रमं प्रवर्तिता ति। (मणियंग त्ति)मणीनामाभरणजूतानामङ्गभूताः कारणभूता सेसा न दंमनीती, माणवगनिहीउ होइ भरहस्स । मणयो वाउलान्यवयवा येषां ते मण्या , नूषणसंपादका इ उमभस्स गिहावासे, असक्कतो आसि आहारो। त्यर्थः । (अणियण त्ति) अननकारकत्वादनग्ना विशिष्टवस्त्रदायि शेषा चारकरविच्छेदल कणा दएमनोतिर्भरतस्य माणवकना, संशाशब्दो वाऽयामिति । (कप्परक्ख त्ति)उक्तव्यतिरिक्त निधेः सकाशाद्भवति । श्यमत्र भावना कोपाविष्करणेन "रे. मामान्यकल्पितफलदायित्वेन कल्पना कल्पः, तत्प्रधाना वृक्षाः त: स्थानान्मा यासीः" इत्येवं यत्परिभाषणं,यश्च मामलिबन्धीकल्पवृक्षा रति। यथा नास्मात्प्रदेशामन्तव्यमित्येवंरूपे द्वे दएकनाती जगवता अथैते कुलकरत्वं कथं कृतवन्त इत्याह ऋषमस्वामिना प्रवर्तिते । चारकछविच्छेदाख्ये च द्वे दरामनीती ( नीतिद्वारम्) भरतेन माणवकनिधेरिति । इदं च नीत्युत्पादानिधानमन्यास्वसत्तविहा दंढणीई पत्ता । तं जहा-हक्कारे मक्कारे धिक्कारे प्यतीतासु एण्यासु चावसर्पिणीषु अयमेव न्याय इति स्पपरिनासे मंझलिबंधे चारए विच्छेदे ।। नार्थम, तस्य च भरतस्य पिता ऋषभनाथः, तस्य च ऋषना( दमनीइ ति) दण्डनं दामोऽपराधिनामनुशासनं, तत्र | थस्य गृहवासे आहार आसीदसंस्कृतः स्वभावसंपन्नः। भगवतो तस्य वा,स एव वा नीतिर्नयो दरानीतिः। (हकारे त्ति) हा इ. हि ऋषभस्वामिनो यावद्गृहवासस्तावहेवेन्नादेशाद्देवा देवकुत्यधिकेपार्थः,तस्य करणं हक्कारः। अयमर्थः-प्रथमद्वितीयकुलक- रुत्तरकुरुकेंत्रयोः स्वादूनि फलानि, कीरोदसमुहाच्च उदकमुपरकाले अपराधिनो दपमो हकारमात्र, तेनैवासौ हतसर्वस्व- नातवन्त इति । Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलक (ग)र अभिधानराजेन्छः। कुसक (ग)र मथ भरतचक्रवर्तिकासे कियत्यो दण्डनीतयः ययश्च तिष्ठन्ति । ते भनेनैव दण्डेन हतस्वमेवात्मानं मन्यमानाः प्रावर्तिषतेत्यत पाद पुनरपराधस्थाने न प्रवर्तन्त इत्याशयः। अत्र चारष्टपूर्वशासनानां तेषां दण्डादिगतेयोऽप्यतिशायिसमाविगसनमिदमिति परिहासणा न पढमा, मंडसिबंधो उहोइ वीया न। इता इति वचनम् । अथोत्तरकालवर्तिकुलकरफाले कि सैव दएमचारगवियाई, जरहस्स चनधिहा नीती। नीतिरन्या वेत्याशङ्कायां समाधत्ते-(तत्थ णमित्यादि) तत्र केमभरतस्य साम्राज्यानुभवनकाले चतुर्विधा दण्डनीतिरभूत्। धरविमलवाहनचक्षुष्मद्यशस्व्यभिचन्द्राणामेतेषां पञ्चानां कुलतद्यथा-प्रथमा स्वल्पापराधविषया परिभाषणा प्रागुक्तस्वरूपा कराणां मा इत्यस्य निषेधार्थस्य करणमभिधानं माकारो नाम भगवता आदिनाथेन प्रवर्तिता आसीत् । द्वितीया मएमसिब- दण्डनीतिरभवत् । शेषं पूर्ववत् । आवश्यकादौ तु-विमलवाहन्धो मगडलिबन्धाख्या आदिनाथैनव प्रवर्तिता, साऽपि किश्चि- नचकुष्मतोः कुलकरयोर्या हाकाररूपा दण्डनीतिः, यश्चाभिचमहापराधविषया तृतीया चारकलकणा भरतेन माणवकविधि प्रसेनजितोरन्तराले चन्द्राजस्थाकथनमित्याद्युत्तरं तवाच. परिभाव्य प्रवर्तिता, सा गुरुतरापराधविषया ।चतुर्थी कृविच्छ- नान्तरेणेति। अयमर्थः-क्रमेणातिसंस्तवादिना जीणे भीतिकत्वेन दादिका, प्रादिशब्दाच्चिरकर्तनादिपरिग्रहः। कुनकराणामुत्प- हाकारमतिकामंस्तु अङ्कमिव गम्भीरवेदिषु गजेषु युग्मिषु त्तिः, "पलितोवमटुन्नागे, सेसम्मि य कुलगरुप्पत्त।" इति वच- केमंधरः कुनकुञ्जरो ऽश्चिकित्से हि चिकित्सान्तरं कानात्। तत्र पल्योपम किलासत्कल्पनया चत्वारिंशद्भागं परिक- यमिति द्वितीयां माकाररूपां दएमनीर्ति चकार तेच विमलवापते, तस्याष्टमो नागः,पञ्च च, विधि परिभाब्य प्रवर्तिता, सा हनादयश्चत्वारोऽनुचकुः । अत्र संप्रदायविदः-महत्यपराधगुरुतरापराधविषया, चतुर्थी छविच्छेदादिका । मादिशब्दा-1 पदे माकाररूपा इत्यभिप्रेत्येव । धीहेमसूरयस्तु ऋषभचरित्रे च्चिकर्तनादिपरिग्रहः । सा महापराधविषया, जरतेनैव मा. सप्तकुलकराधिकारे यशस्विवारके दएकनीतिमाश्रित्याह वकनिधेः प्रवर्तितेति । अन्ये तु चतम्रोऽप्येताः दण्डनीतयो "पागस्यल्पे नीतिमाद्यां, द्वितीयां मध्यमे पुनः । महीयसि वे जरतेनैवोत्पादिता इति व्याचकते। प्रा० म०प्र०। अपि च,स प्रायुक्त महामतिः" ॥३॥ इत्याहुः। अथ तृतीयकुलकपञ्चदशकुलकराणां तु रपञ्चकव्यवस्थामाह-"तत्य णमित्यादि"। इदं सूत्रं गतार्थ, नवरं धिगित्याक्वेपार्थ एव,तस्य करणमुच्चारणं धिक्कारः। संप्रदायस्त्वतत्य मुमई-पमिस्मुई-सीमंकर-सीमंधर-खेमंकराएं ए यम्-पूर्वनीतिमतिक्रामत्सु तेषुत्रपामर्यादे श्व कामुकेषु च धिग्तेसिं पंचएहं कुलगराणं हकारेणामं दंगणीई होत्था । तेणं | नाम्नी धिक्कारदएकनीतिं विदधे, तां च प्रसेनजिदादयश्चत्वारोमणुमा हकारेणं दंडेणं हया समाणा लज्जिा विलिमा ऽनुकृतवन्तः। महत्यपराधेधिकारी, मध्यमजघन्ययोस्तुमाकारविडाभीपातुसिणा विणआउणया चिट्ठति । तत्थ णं खेम हाकाराविति । अन्यास्तु परिजाषणाद्या भरतकामे, "परिभास णा न पढमा, मंझलिबंधम्मि होइ पीाउ । चारगछविभाई, धरविमलवाहणचक्खुमंजसपअनिचंदाण एतेसि णं पं- नरदस्स चउविहानीई"॥ इति वचनात्। ऋषभकाले श्त्यन्ये । चएहं कुलगराणं मकारणामं दंगणीई होत्या। तेणं म]- जं. २ वक्षः। आ मकारेणं दंडेण हया सयाणा जाव चिट्ठति । तत्थ एं अतीतायामुत्सर्पिण्याम्चंदाजपसेणईमरुदेवणानिनसभाणं एतेसिणं पंचएहं कल- जंबुद्दीवेणं दी जारहे वासे तीयाए उस्सप्पिणीए सत्त गराणं धिक्कारे पापं दंकणीई होत्या | तेणं मणु कुझगरा होत्या । तं जहा-" मित्तदामे सुदामे य, सुपासे धिक्कारेणं दमणं हया समाणा० जाव चिट्ठति ॥ य सयंपभे । विमलघोसे सुघोसे य, महाघोसे य सत्तमे"। तेषु पञ्चदश कुलकरेषु मध्ये सुमनिप्रतिश्रुतिसीमकरसीम-| सग स्था न्धरकेमंकराणामेतेषां पश्चाना कुलकराणां हा इत्यधिक्षेपार्थक अतीतायामवसर्पिण्यामशब्दस्य करणं हाकारो राम दरामोऽपराधिनामनुशासनं तत्र ___जंबुद्दीवे णं दीवे जारहे वासे तीयाए भोसप्पिणीए दस नीतिायोऽभवत् । अत्रार्य संप्रदायः-पुरा तृतीयाऽऽरान्तकालदोषेण वतन्तुष्टानामिव यतीनां कल्पबुमाणां मन्दायमानेषु स्वदे कुलगरा होत्या । तं जहा-"सयंजने सयाऊय,जियसणाहावयवेचिव तेषु मियुनानां जायमाने ममत्वेऽन्यत्स्वीकृतं तम-| तसेण य । कजसेणे जीमसेणे, महासेणे य सत्तमे" । म्यस्मिन् गृह्णाति, परस्परं जायमाने बिवादे सहशजनकृतपराभ- दढरहे दसरहे सयरहे। स| स्था० । बमसदिन आत्माधि सुमति स्वामितया ते चक्रुः स च तेषां ___ आगमिष्यन्त्यामवसर्पिण्यामतान् विभज्य स्थबिरो गोत्रिणं व्यमिव ददौ, यो यःस्थितिमति. चक्राम तच्चासनाय जातिस्मृत्या नीतिकत्वेन हाकारदण्डनी जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे आगमिस्साए प्रोसप्पिणीए ति चकार, तां च प्रतिश्रुत्यादयश्चत्वारोऽनुचरिति तया च ते दस कुलगरा भविस्संति । तं जहा-सीमंकरे सीमंधरे खेकीरशा अनवन्नित्याह-" तेणमित्यादि " ते (मणुजा णमिति) मंकरे खेमंधरे विमलवाहणे । संमुत्ती पमिस्सुए ददधणू प्राम्यत, हकारेण दण्डेन हताःसन्तो लजिता नीडिताः, व्यसीकिताः संजातव्यनीकाः । व्यलोकमपराधः। “विडा" इति विशे सयधणु दसधणु । स्था० १० ठा। पतो जातवीमा, सज्जाप्रकर्षवन्न इत्यर्थः। एते त्रयोऽपि पर्यायश प्रागमिष्यन्त्यामुत्सापयामब्दा बजाप्रकृष्टतावाचनयोक्ता भीता व्यक्तम्, तूष्णीका मौनभा जंबुद्दीवे दीवे जारहे वासे श्रागमिस्साए नस्सप्पिपीए जो विनयावनता न तूलपग श्व निखपा निर्भया जल्पाका भाई सत्त कुलगरा भावस्संति। तं जहा-“मित्तवाहण मुभामे य, Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) कुलक (ग) अनिधानराजेन्धः। कुलकोडी मुपने य सयंपभे । दत्ते मुहुमे सुबंध य, आगमिस्सेण | मत्स्यमकरादयः, तेषामर्द्ध त्रयोदशकुलकोटिशतसहस्राणि, सारोक्खई"॥१॥स्था०७ग। द्वादश कुलकोटिलेक्षा इत्यर्थः । पत्तिणां केकिकाकादीनां द्वादश, चतुष्पदानांगजगर्दनादीनां दश, उरःपरिसाणां भुज प्रागमिष्यन्त्यामुत्सर्पिण्यामैरवते ङ्गादानां दश, भुजपरिसाणां गोधानकुलादीनां नव फुलको. जंबुद्दीवे गं दीवे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए एरवए टिवताणि भवन्ति । मासे दस कुलगरा विस्संति । तं जहा-विमरवाहणे सी. बन्धीसा पणवीसा, सुरनेरझ्याण सयसहस्साई। मंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे दसधणू ददयण सयधणु वारस य सयसहस्सा, कुलकोमीणं मणुस्साए| पमिसुई सुमईति । स०॥ पविशतिर्देवानां, पञ्चविंशतिः नारकिणां, मनुष्याणां पुनादश कुक्षक (ग ) रइत्थी-कुलकरखो-स्त्री० । कुल करपत्नी- कुल को टीनां शतसहस्राणि भवन्ति । धु, “ चंदजस चंदकता, सुरूप पडिरूव चम्खुकंता अथ पूर्वोक्तानामेव कुलानां सर्वसंख्यामाहय । सिरिकता मरुदेवी, कुढ़करइत्थीण एामाई ॥ १ ॥" एगा कोमाकोमी, सत्ताण नई नवे सयसहस्सा। स्था०७ठा। पन्नासं च सहस्सा, कुल कोमीणं मुणेयव्वा ।। १ ।। मक (ग) सांडिया-कुलकरगएिमका-स्त्री। कुलकरवक्तव्यताधिकारानुगतायां वाक्पद्धतौ, यत्र कुलकराणां विम वसंख्यया एका कुल कोटिकोटिः सप्तनतिकुलकोटीनां लवाहनादीनां पूर्वजन्माभिधीयते। स० । शतसहस्राणि पञ्चाशच्च सहस्राः कुल कोटीनां ज्ञातव्याः । प्रव० १५१ द्वार। कुलक (ग) रखस-कुलकरवंश-पुं० । कुलफराणां प्रवाहे मन्चये, तत्प्रतिपादकत्वात् प्रवचने च।स। चरिंदियाणं नव जाइकलकोमिजोणिप्पमुहायसहस्मा कुलकहा-कुलकथा-खी। स्त्रीणां कुलप्रशंसायाम, यथा-"प्र- पत्मत्ता। जयगपरिसप्पथक्षयरपंचिंदियातरिक्खजोणियाणं हो चौलुक्यपुत्रीणां, साहसं जगतोऽधिकम् । पत्युम॒त्या विश- नव जाइकुलकोमिजोणिपमुहसयसहस्सा परमत्ता ॥ न्स्यनिं, याः प्रेमरहिता अपि ॥१॥" प्रश्न०४ संब० द्वार। “नव जाश्त्यादि । चतुरिन्डियाणां जाती यानि कुल कोटीकुलकित्तिकर-कुलकीर्तिकर-त्रिका मुख्याति (एकदिम्गामिप्र- | नां योनिप्रमुखानां योनिधाराणां शतसहस्राणि तानि तथा सिकि) करे, झा०१ श्रु०१०। भ० । कल्प० । भुजैगच्छन्तीति जगा गोधादय इति । स्था० ६ ठा० । कुलकेज-कुलकेस-त्रिका केतुः चिह्न ध्वज इत्यनान्तरम, केतुरिव चनप्पयथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं दस जाइकलकेतुर द्धतत्वात् , कुलस्य केतुः कुबकेतुः । भ० ११ श० ११ १० ।। कोमिजोणीपमुढसयसहस्सा पसत्ता । नरपरिमप्पथलयरपंका० । कुलेऽत्यद्भुने, कल्प० ३ क्वण । चिंदियतिरिक्खजोणियाणं दश जाइकुनकोडिजोणिप्पमुहसकुलकोमी-कुसकोटि (टी)-स्त्री० । एकेन्छियादीनां जातिविशेषे, यसहस्सा पप्पत्ता ॥ यथा द्वीन्द्रियाणां गोमये उत्पद्यमानानां कृम्याद्यनेकाकाराणि कुनानि । स्था० १० ठा। " चउप्पए " इत्यादि । चत्वारि पदानि पादा येषां ते चतुष्प दाः, ते च ते स्थो चरन्तीति स्थलचराश्चेति चतुष्पदस्थनचइदानी " कुलकोडीणं संखा जीवाणं ति" पञ्चाशदधिक राः,ने च ते पञ्चेन्द्रियाश्चेति विग्रहः । पुनस्तिर्यग्योनिकाति शततम द्वारमाह कर्मधारयः, तेषां दशेति दशैव, जातो पञ्चेन्डियजातो, यानि कुबारस सत्त य तिनि य, सत्त य कुलकोमिसयसहस्साई।। लकोटीमा जातिविशेषलक्कणानां योनिप्रमुखानि उत्पत्तिस्थाननेया पुढविदगागणि-चाऊणं चेव परिसंखा ।। ए७७ ॥ द्वारकाणि शतसहस्राणि बकाणि तानि तथा प्रशनानि सर्वपृथियुद्धकाग्निवायनामेव कुलान्याश्रित्य परिसंख्यानं परि विदा। तत्र योनिर्यथा-गोमयो द्वन्द्रियाणामुत्पत्तिस्थानमङ्गला. नि तत्रैकत्रापि द्वीन्द्रियाणां कृम्याद्यनेकाकाराणि प्रतीतानि।त. संख्या यथाक्रमं शेया। तद्यथा-द्वादश कुत्रकीटिशतसहस्राणि था उरसा वसा परिसर्पन्ति संचरन्तीत्युर परिसास्ते च सक्काः पृथिवीकायिकानां, सप्त उदकजीवानां, त्रीण्यग्निका ते स्थलचराश्चेत्यादि । स्था० १० ग०। यिकानां, वायूनां पुनः सप्तैव कुत्रकोटिशतसहस्राणि ।। आचाराङ्गप्रथमाध्ययनषष्ठेद्देशकवृत्तौ-“कुल कोडिसयम्हकुन्नकोमिसयसहस्सा, सत्तष्ट्ठ य नत्र य अत्रीसं च । स्सा, यत्तीसमयहनव य पणवोमा । पगिदिबितेदिय-चरिबेइंदिअतेइंदि-चतुरिंदियहरियकायाणं ॥७॥ दिन हरिप्रकायाणं"॥१॥ अत्र गाथायां पृथिव्यादिचतुी कुलअत्रापि यथासंख्येन योजना-द्वीम्याणां सप्त कुनकोटिश- कोटिनका द्वात्रिंशद्वनस्पतिकायानां पञ्चविंशनिकुत्रकोटिलक्षाः। तसहस्राणि, अष्टौ त्रीणियाणाम, नव चतुरिन्जियाणाम्, अष्टावि- संग्रहगयां तु-"एगिदिएसु पंचसु, घारसगतिसत्तश्रध्वीसाय" शतिहरितकायिकानां समस्तवनस्पतिकायिकानाम। इति । अत्र चतुर्मा पाथच्यादीनां द्वादशसप्तत्रिसप्तमीसने एकोअद्भत्तेरस बारस, दस दस नव चेव सयसहस्साई । नत्रिंशत्कुलकोटिलक्का भवन्ति । अाचाराङ्गवृत्तौ तु पृथिव्यादीनां पृथक २ कति कुलकोटिलक्का शनि सम्यक प्रसाध्यमिति प्रश्ने, जलयरपक्खिचउप्पय-नरभुयसप्पाण परिसंखा एym उत्तरंतु आचागडोक्तपृथिन्यादीनां चतुर्मा द्वात्रिंशतकुनकोटिनमत्रापि यथाक्रमं पदघटना । जले चरन्ति पर्यटन्तीति जलचराः, केषु प्रत्येक व्यक्तिनोपलभ्यत इति ।प्र०१६ । सेन० ३०२ उद्वा०। Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलकोडी कुलत्थेर (५६८) प्रानिधानराजेन्यः । तथा-कुलकोटीमध्ये एककुलस्य कियन्तः पुरुषाः सन्ति,उत्तम- | बोधवन्तो प्रन्थिभेदेन जितेन्डियाश्चारित्रभावेन । द्वा०१द्वा० । मध्यमजघन्यभेद नाजश्व कियन्त इति प्रश्ने, उत्सरम-अष्टा- कुलडा-कुलटा-स्त्री०। कुलात् कुलान्तरमटति अट अच् शक. धिकशतपुरुषा एककुलमध्ये भवन्तीति प्रसिद्धिरस्ति इति, पर पररूपम् । स्वैरिएयां वेश्यास्त्रियाम, वृ० १२० । या तु भिक्काम उत्तममध्यमजघन्यजेदात्ते हातान सन्ति तथा पतस्य व्य- | थै कुलमटति सा कुलाटा इति न शक इतिभेदः । वाच । काकराणि शास्त्रे न दृष्टानीति । ४६८०सेन०प्र०३ नला। कुलणंदिकर-कुशनन्दिकर-त्रि० । कुलस्य नन्दिवृद्धिस्तत्करः । कुलक्ख-कुलक-पुं० । अनार्य केत्रभेदे, तद्वासिनि जने च । कल्प. ३ कण । कुलवृद्धिकरे, झा०१ श्रु०१ भ० । कुन्नसमसूत्र. १ श्रु० ५० १००। द्धिहेतौ, भ० ११ श० ११ उ०। कुमक्खय-कुलदय-पुं० । कुलनाशे, जी. ३ प्रति०। | कुलणाम ( ण् )-कुलनामन्-न० । कुलमाश्रित्य क्रियमाणे नामकुलराणसंघवज्क-कुलगणसङ्यबाह्य-त्रि० । कुलगणसभ्य | पाहतसमुदायविशेषलकणच्यो बहिष्कृते, तत्र येषु कृत्येषु स्थापने, अनु। कुलगणसवबाह्यः क्रियते तानि से किं तं कुसनामे। कुलनामे नग्गे भोगे रायणे खत्तिए गुरुं पडिसूरेज्जा, अन्नं वा गणहराइयं कहि विहीनिजा, इक्खागे हाते कोरवे, सेत्तं कुलनामे । गच्छाधार वा संघायारं वा वंदणपमिक्कमणमाइममलीधम्म “से किं तं कुल नामे" इत्यादि। यो यस्मिन्नुयादि कुत्रे जातवा वा कामेजा, अविहीए पव्वावेज वा, नवसग्गस्स वा स्तस्य तदेवोग्रादिकुलनाम स्थाप्यमानं कुलस्थापनानामोच्यत उपहावेज वा सुत्तं वा अत्थं वा उन्नयं वा परवेज अ-| इति नावार्थः । अनु। विहार सारेज्ज वा वारिज वा वाएज वा विहीए वा | कुलततु-कुक्षत कुलतंतु-कुशतन्तु-पुं० । ६ तः । कुलसन्ताने, व्य०६ उ० । कुचोय करेजा नगपटियमा सस्य तन्तुरिव । कुलावलम्बने, वाच । विहीर जाव णं सयलज्जासनिज परिवामीए ण ना- कुक्षतिलग (य)-कुलतिनक-त्रि० । कुलस्य भूषकत्वादविशेमेजा डियं भासं सपक्खगुणावहः एते# सव्वेसं पत्तेगं षक, भ० ११ श० ११ ३० । झा०। कुलगणसंघबज्झो; कुलगणसंघवीकयस्स णं अचंतयो | कुलत्थ-कुन्नत्य-पुं० । कुलं नलग्नं सत् तिष्ठति स्था-क-पृषो। खीरतवाणुढाणं भिरयस्स वि ण गोयमा ! अणुप्पेही, वाच० । धान्यभेदे, प्रव० १.६ द्वार । प्रश्ना० । जंभाचा०। कुलत्थाश्च पत्रकतुल्याश्चिपिटा भवन्ति । जं. तम्हा कुलगणसंघवज्जीकयस्स णं खणखणघमिगं वा | २बका भ० । “कुलत्था चवलगसरिसा चिप्पमिया भवंण चिट्टेयव्वं ति । महा० ७ अ०। ति" स्था०५ठा०३ उ०। वाच० । वनकुजत्थे, स्त्री०टाए। कुलघर-कुलगृह-न० । पितृगृहे, औ०। सत्पर्यायादि उक्तम्कुलघररक्खिय-कुनगृहरक्षित-त्रि० । पितृगृहपासिते, औ०। "कुत्थिका कुलत्थश्च, कथ्यन्ते तद्गुणा अथ। कुलत्थः कटुकः पाके, कषायो रक्तपित्तकृत्।। कुलजसकर-कुलयशष्कर-त्रि० । कुलस्य सर्वदिभ्गामिख्याति लघुर्विदाही वीर्योष्णः, श्वासकासक.फानिलान् । करे, “एकदिग्गामिनी कीर्तिः, सर्वदिम्गामि वै यशः" इति ब हन्ति हिक्काश्मरीशुक्र-दाहानाहान् सीनसान् ।। चनात् । कटप०३ कण । भ० | ज्ञा०। स्वेदसंग्राहको मेदो, ज्वरकृमिहरः परः॥" कुनजुन-कुनयुत-पुं० । कुलं पैतृकं, तथा च लोके व्यवहारः कुलत्थिकति निर्देशात स्त्रीत्वमपि । सा च उपचारात् तदुइक्ष्वाकुकुलजोऽयमित्यादि, तेन युतः। कुलीने, कुन्जयुतः सरिः प्रतिपन्नार्थनिर्वाहको भवति । द्वितीयगुणवत्वं तस्य । प्रव० त्थाजने, वनकुलत्यायाम, स्त्री०। “कलाली लोचनहिताच क्षुण्या कुम्भकारिका । (कुलस्थिति)वनकुलत्थापरपर्याये उक्त ६४ द्वार। स्वार्थे कः। तत्रेवार्थे कुलत्थे,सझायां कन् । कुलत्याञ्जनाकारप्रकुनजोगि (ण)-कुलयोगिन-पुं०। योगिकुनजाते योगिनि, स्तरभेदे, वाच। ___तलकणं चेदम् कुलस्थ-त्रि० । कुले तिष्ठन्तीति कुलस्थाः। कुलीने,नि०३ वर्ग। ये योगिनां कुले जाता-स्तधर्मानुगताश्च ये। ज्ञा" कुलत्था ते भंते ! भक्खेया अभक्खेया ?। सोमिला! कुलयोगिन नच्यन्ते, गोत्रवन्तोऽपि नापरे ॥ १॥ कन्नत्था मे भक्खया विमभक्खया वि।"भ०१८ श०१० उ०। (ये ति) योगिनां कुले जाता लब्धजन्मानः, तहानुगताश्च (सौमिलादिशब्देषु वक्ष्यते) योगिधर्मानुसरणवन्तश्च ये प्रकृत्याऽन्येऽपि ते कुलयोगिनकात्र-कास्थविर-पुं०। पं००। उच्यन्ते । व्यतो नावतश्च गोत्रवन्तोऽपि सामान्येन कर्मभूमि अव्या अपि नाऽपरे कुलयोगिन इति ।। २१ ॥ चरणकरणे समग्गो, जो जत्थ जदा कुलप्पहाणोतु । सर्वत्रादेषिणश्चैते, गुरुदेवद्विजप्रियाः । सो होति कुलत्थेरो, कुलचरितवियारो धीरो। दयालवो विनीताश्च, बोधवन्तो जितेन्ज्यिाः ॥२ ॥ पासत्योसन्नकुसी-सहाणपरिरक्खितो उपक्खे वि। (सर्वत्रेति ) एते च तथाविधानहाभावेन सर्वत्राद्वेषिणः, त सो होति कुलत्थेरो, कुलथेरगुणेहिँ नववेदो॥पं० जा। था धर्मप्रभावाद् यथास्वाचारं गुर्वादिप्रियाः,तथा प्रकृत्या कि- | कुलगणसंपउत्तो पुण सो कुलत्थरो होइ चरणकरणसमग्गो पापाभावेन दयाबवः विनीताइच कुशलानुबन्धिजन्यतया। समग्र उपपेत इत्यर्थः । अहवा-चरणकरणानां सामग्री यो Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलत्थर अनिधानराजेन्डः। कुलवंस यदा यस्मिन् कुले प्रधानः, एवंगुणसमत्वागतः स भवान् कु- माने।" कुनयोषिदादयोऽप्यत्र । “असंस्कृतप्रमीताना, त्यागिनां लस्थविरो भवति, कुलाचारविहिन्नू पासत्थाश्ठाणपरिक्खआ कुलयोषिताम" वाच० । आव०५०। सप्पणं च परं च परिरक्ख सो कुलथेरो भव । कुलथेरा गुणेहि व्ववेओ" । त्यक्तलनणे मावि कुलबहूणाय-कुलवधज्ञात-न। कुनाइन्नोदाहरणे, पश्चा०११ पं० चू। विव०। कुलदियर-कुलदिनकर-पुं० । कुले दिनकर इव प्रकाशफ- कुलमंझण-कुलमएमन-पुंस्वनामख्याते आचार्य, स च विसं. त्वात् यः सः । कुलप्रकाशके, कल्प० ३ कण। १४०६ मिते जातः सं० १४१७ मिते देवसुन्दरसृरिपाचे प्रव्रजितः सं०१४४२मितेसूरिपदे स्थापितः,सिकान्तारोकोहारविचारसन कुलदीव-कुलदीप-पुं० । कुत्रे दीप इव दीपः प्रकाशकत्वात् । भ०११श० ११ १० । कुलप्रकाशके, मङ्गलकारके च । कल्प० हनामानौ ग्रन्धौरचयित्वा सं०१४४५मिते देवलोकं गतः।जै० ३०॥ ३ कण । झा। कुझमय-कुलमद-पुं० । कुलजवानिमाने, “दसहिं नाणेहिं अ हमंतीति थंभेजा । तं जहा-जाश्मएण वा कुलमरण था।" कुलदेवया-कुलदेवता-खी०। कुले पूज्या देवता । कुमक्रमेणोपास्यदेवतायाम, वाच । “ तत्यंतरस्स कुलदेवया मा अ स्था० १० ठा० । स०। किज्जुमायरो वाहेमि त्ति"। श्रा०म०द्वि० स्वगृहे कुलदेव कुलमसी-कुल्लमपी-स्त्री० । कुलमालिन्यहेती,प्रश्न०३आश्रद्वार। ताऽनिनिवेशात् । स्था ४ ग०३उ०।। कुलमहत्तरिया-कुलमहत्तारका-स्त्री० । कुले प्रतिष्ठितायां वृद्धकुलधम्म-कुलधर्म-पुं० । उग्रादिकलाचारे, कुलं चान्दादिक- स्त्रियाम, अवतीर्य वरं स्वयमेवाभरणान्युन्मुञ्चति घीरजिनः, माईतानां गच्छसमूहात्मकं तस्य धर्मः । गच्चसामाचार्याम, तानि कुलमहत्तरिका छिन्नमुक्ताफअप्रकाशान्यभूणि विनिर्मुश्चस्था०१०ठा। न्ती हंसलक्षणेन पटशाटकेन प्रतीति । प्रा० म० द्वि० । कुलपत्त-कुलमाप्त-न० । सचित्तनिमित्तोऽचित्तीनमित्तो वा यो | कुनय-कुलज-पुं० । स्त्री० । प्रशस्यकुलजाते, अनिनकुलजाते, व्यवहारः कुले किप्तो यथेदं सचित्तादिकं विवादास्पदीभूतं पश्चा० १विवः । विशिष्टकुलोत्पन्ने, स ह्यङ्गीकृतभारपारगमनं कुलेन छेत्तव्यमिति तत्कुत्रप्राप्तम् । सचित्तादिके विवादास्पदी- प्रति समयो नवतात प्रति समर्थो नवतीति तस्य जिनभवनकरणेऽधिकारित्वम्।दर्शन भूते व्यवहारेण द्यतया कुत्रं प्राप्ते, व्य० ३ उ०। कुलय-न०। गण्डूषे, ध०२ अधिक। कुलपब्धय-कुलपर्वत-पु.। कुले पर्वत श्व कुलपर्वतः अनजि- कुलरोग-कुन्नरोग-पुं० । कुलव्यापके रोगे, जं० २ वक्षः। जवनीयः, स्थिराश्रयसाधात् । भ० ११ श० ११ उ० । झा। कमल-काल-पुं० । गृझे, उत्त०१४ अ० । शकुनौ, उत्त० १४ कुले अपराभवनीये स्थिरे, कुनस्याधारे, कल्प० ३ कण। केत्रमर्यादाकावित्वेन कुलकल्पेषु पर्वतेषु, कुलानि हि लोकानां मर्यादा अ। जलाश्रये आमिषजीविनि पक्तिविशेषे, सूत्र० १ १० ११ निबन्धनानि जवन्तीतीह तैरुपमा कृता। अामार्जारे, "जहा कुक्करपोयस्स णिचं कुललो जयं"कुल सतो मार्जारात् । दश०४ १०। समयक्खेत्ते एगृणचत्तासीसंकुलपन्चया पसत्तातं जहातीसं वासहरा पंच मंदरा चत्तारि नसुकरा । कुलव-कुम (स)व-पुं०। मगधदेशप्रसिद्ध धान्यमानविशेषे, रा०। “चउसेइयाओ कुलो" अोघाचतस्रः सेतिकाः कुवः। तत्रवर्षधरास्त्रिंशद्, जम्बूद्वीपधातकीखण्डपुष्करार्द्धपूर्वापरा अनु। "पत्थेण व कुत्रएण व,जह कोइ मिणज्ज सव्वधनाई," झंषु च प्रत्येकं हिमवदादीनां षमांजावात् । मन्दराः पश्चेषुकारा दश०४ अ०।"तिहिण व पलाणि कुववो, करिसर्फ चेव होर धातकीखण्डपुष्करार्द्धयोः पूर्वेतरविभागकारिणश्चत्वारः, एव- वोधव्यो । चत्तारि चेव कुरवा, पत्थो पुग्ण मागहो हो॥" इह मेव एकोनचत्वारिंशदिति । २०४० सम। कुलचो मागधदेशप्रसिद्धोयदा धरिमप्रमाणेन मातुमिष्यते तदा कुलपायव-कुलपादप-पुं० । छायाकरत्वात भाश्रयत्वाच कुल- स त्रीणि पलानि, एकस्य च कर्षस्य पत्रचतुर्भागरूपस्या वोस्य पादप व वृक्ष श्व कुत्रपादपः । कल्प० ३ क्वण । कुल कव्यः । ज्यो० २ पाहु। स्याश्रयणीयछाये, ज्ञा०१ श्रु०१० भ०। कुलव-कुलपति-पुं० । “मुनीनां दशसाहस्रं, योऽनदानादिपोकुलपुत्त-कुलपुत्र-पुं० । कुलरककः पुत्रः। वंशधरे पुत्रे, ततः षणात् । अध्यापयति विप्रर्षि-रसौ कुलपतिः स्मृतः" ।। इति पुकर्मणि च मनोझा वुञ् कौलपुत्रकः। तद्भावे,तत्कर्मणि च।न०।। राणोक्तअक्षणे मुनिन्नेदे, वाच । स चातिकोपनत्वेन,ण्यातोऽवाचा उत्त०१ अगावा(एकस्य कुलपुत्रस्य तातृधनमो भूचामकौशिकः । मृते कुत्रपतौ तत्र, सोऽभूत्कुलपतिस्ततः॥" चने क्रोधाऽसत्यताकरणे उदाहरणं 'कोह' शब्दे वक्ष्यते) श्रा० का । श्रा० चू० । वंशश्रेष्ठे च । कुलनायकादयोऽप्यत्र । वाच०। कुन्नप्पसूत्र-कुलप्रसूत-त्रि० । कुले सत्कुले प्रसृतः। सत्कुले जा कुलवंस-कुलवंश-पुं० । क० स०। कुलरूपे वंशे, भ० ११ श. ते, वाच । “तरिप्रव्वा व पनि, मरिअर्व वा समरे समत्थेणं । असरिसजणउल्लावा, न हु सहि अव्वा कुझे पसूपणं ॥" १० उ०। कुलवंश्य-कुलवकणे वंश्य, “अासत्तकामाउंकुलवंसाउय कामं आव०४ अ०। भोत्तुं परिजाएत्तुं ताण होहि।" जश०३३३० ।कुलवंश्याकुलबहू-कुलवधू-स्त्री० । कुले गृहे एव स्थिता बधू गृहमात्र त् कुन्नसकणवंशे भवः कुत्रवंश्यस्तस्मात्सप्तमं पुरुषं यावदित्यस्थितायां योषिति, “बते भूतां बजकुलवधूः कापि साध्वी म-। र्थः भएश० ३३ उ०।का। Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठा। कलवडिंसय अभिधानराजेन्द्रः। कुटिगि (ण) कुलवडिंसय-कुलावतंसक-पुं० । कुले अवतंसक श्व मुकुट | कुलाणरूप-कलानरूप-त्रि० । कुलोचिते, भ०११ २०११ श्व यः सः, शोनाकरत्वात् । कल्प०३क्षण । कुलस्यावतंसकः | ०। झा। शेखरः उसमन्वात् । भ० ११ श०११ उ०। झा कुलादिपत्यार-कुमादिपस्तार--पुं० । कुलस्य गणस्य या विकुन्नवन-कुलव:न-त्रि०। कुलवृद्धिकारके, नामसत्योदा- माशे, व्य०३००। हरणं यथा कुलमवर्द्धयन्नपि कुबवरून उच्यते इति । स्था० कुलाय-कुलाय-पुं०। कुलं पक्षिसंघातोऽयतेऽत्र अय घम् । पक्षिनिलये नीमे, वाच । " पक्षिणामएमकान्यत्ति, कोऽप्याकुल वित्तिकर-कुलत्तिकर-त्रिका कुत्रस्य वृत्तिर्निवाहस्तकरः। रुह्य फणी तरी । कुलायमागतः सो हि, गृध्रेण निहितोऽन्यकुलनिर्वाहके, कल्प० ३ क्षण । झा। दा"श्रा का स्थानमात्रे, कोलायो गतिरस्मात देहे, कमविणकर-कुलविवर्द्धनकर--त्रि० । विविधैःप्रकारैर्वध- न० । वाच०। नं विवर्धनं तत्करणशीलः। कुलस्याऽनेकैः प्रकार के, भ०११ कुलायार-कुलाचार-पुं०। कुल समये, यथा शकानां पितृशद्धिः, श०१२ उ० । ज्ञा० । “ अम्हं कुसकेउं अम्हं कुलदीव कुलप- अनीरकाणां मन्थनिकाशुमिः । सूत्र०१ श्रु.१ अ. १३०। ध्वयं कुप्रबर्डिसयं कुलतिनयं कुझांकत्तिकर कुचात्तकर कुन-कलायारसमसिय-कन्नाचारसमन्वित-त्रि० । कुलदापराहत, दिणयरं कुलाधारं कुलणांडेकरं कुत्रजसकरं कुलपायवं कुलविवकृणकरं सुकुमालपाणिपाय जाव दारयं पयाहिसि।"| व्य० १ उ.। कल्प० ३ कण। कुलारिय-कलार्य-पुं० । कुलं पैतृकः पकः तेन श्रार्यः । अपापा कुलविहि-कुलविधि-पुं० । कुलकोटिप्रकारे, "उववायरिस- निर्दोषाः कुलार्याः। विशुरूपितृकेषु, "यिहा कुडारिया मणुमुग्घायं च वणजाई कुलविहीओ" भ. ७ श०५ उ०। स्सा पम्ात्ता । तं जहा-जग्गा नौगा राश्ना इक्खागा णाया कोरवा।" स्था० ३ ग०१ उ०। कुलवेयावच-कुलवयात्य--म० । गच्चसमुदायस्य वैयावत्ये, औ० कुलाल-कुलाल-पुं० । खी। कुल काझन् श्रव् अण् कुमा झाति प्रा ला क वा । वाच०। कुम्भकारे, उपा० ७ ० । कुलसंताणतंतुवकणकर--कुलसन्तानतन्तवनकर--त्रि०। कुलरूपो यः सन्तानः स एव तन्तुर्दीर्घत्वात्तदर्धनकरं माङ्गल्य को । कर्म० कुत्रकुभपक्षिणि, जातिवास्त्रियां ङीष् । ततस्तेन स्वात्तत्तथा । माङ्गल्यत्वात्कुलवर्डके, न० ८ ०२०। कृतमित्यर्थे संज्ञायां कुलासा । वुञ् कौलालकः । तत्कृते शरा. बादौ, त्रि० । वाचा कुलसंपल-कुत्रसंपन्न-त्रिग कुवं पैतृकः पकः तत्सम्पन्नः। नत्त कुलालय-कुलाट-पुं० । कुलानि गृहाण्यामिपान्वेषणाधिनो नि. मपैतृकपक्कयुक्ते, नि । औ०। रा० । ज्ञास्था० । “जाई कुल त्यं येऽटन्ति ते कुलाटा: मार्जारेषु, कुलाटा इव कु.लाटाः । ब्रासंपन्ना-पायमकिंचन सेवई किंचि । प्रासेविडं च पच्छा, त. ह्मणेषु, सूत्र०२ श्रु०६अ। ग्गुणओ सम्ममालाए॥ति" स्था. ८ ठा० । गुणवत्पितृकत्वे, स्था० ३ ग०१ उ०। कुमालय-पुंकुलानि क्वत्रियादिगृहाणि तानि नित्यं पिण्डपाकुलसमय-कुत्रसमय-पुं० । कुलाचारे, यथा शकानां पितृशुकिः, तान्वेषिणां परतकुंणामालथो येषां ते कुलालयाः। कत्रियादिगृहे भानीरकापां मन्थनिकाशुद्धिः। सूत्र.१ श्रु०१ अ.१ उ०। नित्यं निवां याचमानेषु, सूत्र०२ श्रु०६ अ०। “सिणायगाणं तु दुवे सहस्से जे नोयर णितिए कुवालयाणं" सूत्र. २ कुनसयणमित्तयणकारग-कुलस्वजनमित्रभेदनकारक-त्रि०। वंशशातिसुहृद्विनाशजनके, तं। कुलिंग-कुलिङ्गा-ना कुत्सितं लिङ्गंकुकिङ्गमा शिवसुखाऽसाधकलसरिस-कक्षसहस-त्रि कुन्नप्रतियोगिकसादृश्यवति,यथा | के.व तापसपरिव्राजकादीनां स्वरुचि विरचिताकारे, श्रा बलस्य राज्ञः पुत्रस्य महाबल इति नाम । तत्र कुत्रसदृशं तत्कु. चू०१०। प्रा० मा । कुताधिनि, पुंश्राम द्वि०। सस्य बलवत्पुरुषकुलत्वात् महायल इति नाम्नश्च बनवदधाभिधायकत्वात् । कुत्रस्य महावा इति नाम्नश्च सादृश्य कुलिंगाल-कुलाङ्गार-पुं०। कुलस्य स्वगोत्रस्याङ्गार श्वाङ्गारो मिति । न० १० श० ११ उ०। दूपकत्वाऽपतापकत्वाद् वा । कण्डरीककल्पे सुतभेदे, कूलवाकुलहन-कुलहेतु--पुं०। कुलकारणे, ज्ञा० १ ० १ ०। लुकतुल्ये उदायिनृपमारकसदृशे वा शिष्यभेदे च । स्था० ४ म०१ उ०। कुन्नाजीव-कुनाजीव--पुं० । कुलमुग्रादिकं गुरुकुलं वाऽऽजी-1 कुझिंगि(ण)-कुलिनिन्-पुं०। कुत्सितो लिङ्गी कुलङ्गी विशे० वत्युपजीवति तत्कुलजमात्मानं सूचनादिनोपदय ततो नक्कादिकं गृह्णातीति कुलाजीवः । श्राजीवभेदे, प्राजीवपिण्डदोषयु कुत्सित लिङ्ग कुलिङ्गं शिवसुखसाधक, तद्विद्यते येषां ते साधुभेदे, स्था० ४ ठा०२ उ०। कुलिङ्गिनः । स्वरुचिविरचिताकाराचारेषु त्रिदणिमौद्धतापस सरजस्कादिषु, “गिहिलिगि कुलिंगी य दवसिंगिणो तिन्त्रि कुमाण-कुलाण-पुंग। लणयोर्विपर्ययः। श्रावस्तीनगरीप्रतिबद्ध हुति भवमम्गा।" दर्श० । कुतीथिकेषु, प्रश्न०२ श्राश्र० द्वार । देशभेदे, "सावित्थी य कुत्राणा कोडीवरिसं च लाढा य।" कुत्सितानि लिङ्गानि इन्द्रियाणि यस्याऽसौ कुसिनी। हीन्जियासूत्र.१ श्रु०५ १०१ उ० प्रा० । नि००। यादौ, "कुलिंगी मरिजत जोगमासज।" श्रोध । Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०१) कुलिगि (ण) अभिधानराजेन्द्रः। कुवाइकरंगसंतासणसीहनाद चोदगाह-किं बुत्तं कुलिंगो काणि वा लिंगाणि को वा विंगी- कुरा-कुल्या-स्त्री० । कुख्य टाए । “ सर्वत्र लवरामवन्" कुत्यितनिंग कुलिंगी, जस्स व पंचेंदिया असंपुष्ला । ।।२।७ए । इति लकारादधस्थस्य यस्य लोपः । प्रा०२ पाद । कृत्रिमायां नद्याम, पयःप्रणाल्याम, जीवन्त्यामौषधी, लिगिदियाइं आता-उ लिंगं तो घिप्पते तेहिं ॥६६॥ नदीमात्रे च । स्त्री० । वाच । कुसद्दो प्रणिट्टवादी, कुत्सितेन्द्रिय इत्यर्थः। सेसं कंग(ज-काग-कलाग-पुं०। स्वनामख्याते सनिवेशे, यत्र धम्मिविप्रस्सेत्ति) जस्स पाणिगो (पंचिदिया असंपुरण त्ति) अस्थि पं- स्य भडिलाभार्यायां सुधर्मा स्वामी जझे। कल्प०० क्वण । चिंदिया, किं तर्हि असंपुराणा, जहा असंएिणणो परिफुरुत्थपरिच्छेदणो ण नवंति त्ति भणियं भवति,एरिसे अत्थे एयं वयणं । लुमिया कुलुमिका | कुल्ल मिया-कुल्लमिका-स्त्री० । घटिकायाम, सूत्र०१७०४० ण भवति, श्मं तु पंच ण कजंति त्ति जणियं भवति,द्वान्छिया २०॥ दारभ्य यावत् चतुरिन्द्रिय इत्यर्थः । सो कुलिंगी, लिङ्गमितिकवणय-देशी-लकुटे, बृ० १ ०। जीवस्य लक्षणं, यथा अप्रत्यकोऽप्यग्निधूमेन लियते शायत इत्यर्थः। एवं लिंगाणिदियाणि अतो बाल्मा लिङ्गमस्यास्ती कुवन-कवल-न। की वसति बब-अच् । उतूपले, मुक्ताफले ति लिङ्गी, आत्मा लिंगी कहं घेप्पते, तेहिं इन्जियरित्यर्थः । च । वदर्याम्, “ षिद्गौरादिभ्यश्च" ४ । १ । ४१ । इति (पा. नि० चू. १००। णि.) डी ! तस्याः फलम, अण् सुक। बदरीफले, न० । को वलनातू जले, सर्पोदरे च । न । " कुवलं जुवलनाम वाकुनिय-कुलिक-त्रि० । कुत्रमधीनत्वेन प्राशस्त्येन वाऽस्त्यस्य । सवुता,ताण दि जेण समाधी तत्कर्तव्यमिति" नि००१ उ० । ठन् । कुलश्रेष्ठे, शिल्पप्रधाने, शाकभेदे पुं० । वाच० । हल- | कवलय-कवलय-न० । कोवक्षयमिव शोजाइतुत्वात् । चत्पले, विशेषे, प्रश्न १ आश्र० द्वार । अधोनियरूतियक्तीक्ष्ण- वाच। नीलोत्पले, चं० प्र०१ पाहु०। रा०। प्रभः । का। लोहपट्टिकं कुनिक लघुतरं काष्ठं तृणादिच्छदार्थ यत् क्षेत्र वा- जी । स्था० । चन्द्रविकाशिनि कमले, कल्प०३ कण । को। ह्यते तन्मरुमएमलादिप्रतिद्धं कुसिकमुच्यते । अनु । दन्तान्तराबवतिन्यकृतकाष्ठे उभयपाश्र्वनिखातकाष्ठमयकोलकयोस्ति कुवनयदलसाम-कुवलयदलश्याम-पुं०। नीलोत्पन्नदलसरशे र्यगव्यवस्थापिततीक्ष्णमोहपट्टकं हरितादिच्छेदनार्थ केत्रेषु यद्वा श्यामले,जं. ३ वक ह्यते तद्बाटादिकृषीबलप्रतीतं वेदितव्यम् । विशेः । कुलितं णाम | कुवलयप्पन (ह)-कुवलयप्रभ-पुं०। पापमतिलिङ्गमात्रोपसुरट्ठा वि सते उहत्थप्पमाणं क, तस्स अंते अयखी लगा, तेसु जीविसाधस्तसावधाचार्येत्यपरनामके मरकतच्छवी तपस्विनि एगयाओ पगहारो य लोहपट्टो अमिजति सो जावति तं दोच्चादि उग्रविहारिणि श्राचार्य नेदे, यो हि चारित्रभ्रष्टेः स्वाजिमतचेतण तं सवदितो गच्छति,एयं कुत्रियं । नि००१ उ०। प्राचा त्यालयसंपादनायाऽर्थितः, वक्तव्येऽपि पापमित्युक्त्वा भवं तीकुमय-न । भित्तौ, सूत्र १ श्रु० २ अ० १ उ० । नि० चू० ।। र्णवान्, भ्रष्टैश्च कुपितैः सावधाचार्य इति प्रथां नीतः। प्रति। इष्टकादिरचिता नित्तिः,मृत्पिण्मादिनिर्मितं कुड्यम् । वृ०२०।। ग। (कथानकं च 'सावज्जायरिय' शब्दे भावयिष्यामि) कुलियका-कुलिकाकृत-त्रि० । कुड्यालीने कुमचे स्थापिते, कुवनयायरिय-कुवलयाचार्य-पुं० । पदैकदेशे पदसमुदायोपब. २ उ०। चारात् कुवलयप्रभाचार्यः। सावधाचायें, "भ्रष्टैश्चैत्यकृतेऽर्थितः कुवलयाचार्यों जिनेन्छालये । यद्यप्यस्ति तथाऽप्यदः सतम इकुलिया-कुलिका-स्त्री० । कुड्ये, वृ० २उ०। त्युक्त्वा नवं तीर्णवान्" । प्रति। कुझिब्बत-कुनिवत्-त्रि० । समानकुलोद्भवे, "अहवा कुलिन्वतो | दूध, "अहवा कुलिव्वतो कवसद्धि-कुवसति-स्त्री० । अमनोशे बासस्थाने, “कभोयणउप्पवजा एगपक्खीओ।" वृ०४ उ० । कुत्रसके, "दोएहं वहणं कुवाससाकुवसह।सु किलिस्संता नेव सुहं नेवं निब्बुइंचवलच पिमए कुविधमतं जयनिधारे" (कुबियमंतं ति) कुलसत्क- भंति" । प्रश्न० २ आश्र० द्वार। मन्यसामाचार्यामभिधारयति । व्य०४ उ०। कुवाइ (D)-कुवादिन-त्रि० । कुत्सिवादिनि, एकांशग्राहककुलीण-कलन-पुं० । स्त्री० । कुले खः। विशुरुकुलोत्पन्ने, बृ०१ | नयानुयायिनि अन्यतीर्थिके, स्या० । “व्यास्तिकरथारूढः, चा सत्कुल जे हये,स्त्रियां ङीष् । को पृथिव्यां लीनः। भूमिलने पर्यायोद्यतकार्मकः । युक्तिसन्नाहवान् वादी, कुवादिज्यो भवत्रि०। संज्ञायां कन् । वाच०। त्यलम् ॥१॥" सूत्र०२ श्रु०७०।। कुनावकुल-कुलोपकुल-न० । कुलानामुपकुलानां चाधस्तने कुवाइकुरंगमंतासणसीहणाद-कुवादिकुरङ्गसंत्रासनमिहनादनक्कत्रे, चं० प्र०१० पाहु०सू० प्र०।०। (तानि च 'कल पुं० कुवादिनः कुत्सितवादिन एकांशग्राहकनयानुयायिनोऽन्यतीशब्देऽत्रैव भागे ५५२ पृष्ठे दर्शितानि) र्थिकास्त एव संसारवनगहनवसनव्यसनितया कुरङ्गा मृगाः,तेषां सम्यक त्रासने सिंहनादा श्वसिंहनादाः। जिनवचनेषु,यथासिकुल्ल-कुल्य-न० । कुन-क्यप् । “सर्वत्र सवरामवन्"।।२। हस्य नादमात्रमप्याकएर्य कुरङ्गाखासमासुत्रयन्ति तथा भगव७६ । इति सकरादधःस्थस्य यस्य लोपः । अस्थि, प्रा०२पाद । जिनप्रणीतवप्रकारप्रमाणवचनान्यपि श्रुत्वा कुवादिनखासतामष्टोणपरिमाणे शू, आमिषे च । कुले नवः यत् । कुखजाते, मश्नुवते, प्रतिवचनप्रदानकातरतां बिततीति यावत् । अनन्तमान्ये च । त्रि० । कुलाय हितं यत् । कुलहिते, त्रि० । कु- धर्मात्मकमेव तत्वमतोऽन्यथा सत्त्वमसूपपादम् । इति प्रमास्थायां जवः यत्, यलोपः । कुख्यात्रवे, त्रि०ावाच । णान्यपि ने कुवादि--कुरङ्गसंत्रासनसिंहनादा" ॥ २२ ॥ स्या। १५१ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ पद। (६०२) कुवावारपोसह श्रान्निधानराजेन्द्रः। कुसंसग्गञ्चाय कुवावारपोसह-कुव्यापारपोषध-पुं० । देशत एकतरस्य क- अर्द्धवेदधरावेता-वेकपकाविव द्विजी॥ स्यापि कुन्यापारस्याकरणे, सर्वतस्तु सर्वेषां कृषिसेवापाशुपा- प्रोषध्योऽमृतकल्पास्ते, शस्त्राशनिविधोपमाः। घ्यगृहकर्मादीनामकरणे, ध०२ अधि। भवन्त्यरुपडता-स्तस्मादेतौ विवर्जयेत् ॥ कुवास-कुवासस-त्रि०। य० स०। मलिनमार्णवस्त्रावृते, प्रश्न छेद्यादिष्वननिको यः, नेहादिषु च कर्मसु । स निहन्ति जनं लोभात, कुवैद्यो नृपदोषतः । २ आश्रद्वार। यस्तूजयको मतिमान्, स समर्थोऽर्थसाधने । कुविंद-कुविन्द-मुं० । स्त्री० । कुंभुवं कुत्सितं विन्दति विद शः। आहवे कर्म निवोढुं, द्विचक्रः स्यन्दनो यथा"॥ वाच०। तन्तुवाये, वाचा प्रशा०१ पद । स्था०। कुवेजकिरियादिणाय-कुवैद्यक्रियादिकात-न० । इभिषक्प्रकविंदववी-कुविन्दवल्ली-त्री०। वहीभेदे, प्रक्षा० १ पद। वर्तितरोगचिकित्साप्रभृत्युदाहरणे," इहरा विवजश्रो बिहु, कुवित्ति-कत्ति-स्त्री. । कुगति समा। निन्दिताचरणे, ईय | कजकिरियादिणायतो जे कुजकिरियादिणायतो गेओ । अवि होज तस्थ सिद्धी, श्राचरणे च । ब० वा ताते, त्रि०ावाच । अनु० । णानंगोन उय तत्थ॥" आदिशब्दादविधिविद्यासाधनादिपरिग्र हः । पञ्चा० १५ विव०। कुविय-कुपित-त्रिका प्रवृरूकोपोदये, विपा०१ श्रु० अशा | जातकोपोदये, न.३ २०१०। कोपं गते, तं। कोपवति, कुणि (णी)-कुवणि (णी)-स्त्री० । कुइर्षत घेणन्ते मत्स्याः। विपा-१ श्रु०८ अकृतकोपे, प्रम०२ श्राश्र० द्वार।"पायरियं अम । वेण श्न । वा डीए । मत्स्य धान्याम, वाच० । “तो ण कुवियं नच्चा, पत्तिएण पसायए"। उत्त०१०। कुपितमिति कुषेणा पीना" कुवेण्यत्र रूढिगम्या। प्रश्न.२ आश्र० द्वार। सकोपमनुशासनोदासीनतादिनिः । " पुरिसजाए वि तहा, कुंवरग्ग-कुवैराग्य-न०। दुःखगर्भमोहगर्नवैराग्ये, अष्ट०३२अष्ट। विणीयविणयम्मि णथि अहिओगो । सेसम्मि अहिशोगो, | कुचकारिया-कुर्वकारिका-स्त्री० । गुच्चवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा जणवयजाए जहा आसे ॥” इत्यागमात् कृतबहिष्कोपं वा। उत्त०१०। आ० म०। कव्वमाण-वेत-त्रि० विदधति, " आहेवचं पोरेवचं जाव कुकप्य-नाशनशयनजण्डकरोटकलोहाद्युपस्करजाते, आव. ब्वमाणे विहरर" प्रज्ञा०२ पद । आचरति, प्राचा० १ श्रु०८ ६अ।धा"कुवियं घरोवक्खरकणगवारसलोहीकमाह- | अ०३००। गादि णाणाविहं" श्रा. चू०६ अ० । “योहाइवक्खरो कुप्पं" कब्धय-केव्रत-न । कुत्सिते व्रते, " गोव्वदियादि सापेक्सिया सोहादि उपस्करः कुप्यमुच्यते । तत्र सोहोपस्करो सोहकवल्ली पचम्गितावया पंचगव्वासणिया पवमादिया सब्बे कुब्वया" कुद्दालिकाकुठारादिकः, श्रादिशब्दान्मार्तिकोपस्करो घटादिकः कांस्योपस्करः स्थासकञ्चोझकादिक इत्यादिकः सोऽपि परि नि० चू० ११ १०। गृह्यते । वृ०१ उ०। कस-कुश-पुं० । कौ शेते शी-कः । कुं पापं श्यति शोड वा। कुवियपमाणाइकम-कुप्यप्रमाणातिक्रम-पुं० । गृहोपस्करस्य "श-षोः सः"।७।१।२६० । इति शस्य षः। प्रा०१ पाद । पारदर्भ, उत्त०१५. अ० । का। दनविशेषे, उत्त०७०। स्थालकोत्रकादेः प्रत्याख्यानकालगृहीतप्रमाणोलने, उपा. निर्मूलदर्भ, भ०८०६० दर्नाः समूत्राः, कुशाः निर्मूलाः। १ अ । अयं च इच्छापरिमाणस्य पञ्चमोऽतिचारोऽनाभोगादिना अथवा पञ्चैव स्थानानि परिगृहीतव्यानीत्यायनिग्रहवतः विपा० १ श्रु०६ अ०नि० । कुशैर्दनैरवच्छिन्नमूलैः । भ०५ कस्याप्यधिकतराणां तेषां संपत्ती प्रत्येकं द्वयादिमीलनेन पूर्व. श० ६ उ० । औ० । 'कुसो दनो' नि० चू०१ ० । न०। संख्यावस्थापनेनातिचारोऽयमिति । उपा. १ अ०। आव०। आचा० । प्रज्ञा० । कुशनामके श्रीरामसुते, पुं० । जले, न । सपोंदरे, वाच । वेधपोते काष्ठे, कुशो यो वेधप्रोतः कुवियफुफुगा-कुपितफुफुगा-स्त्री० । घट्टितकुकुलायाम, “सिं प्रवेश्यते । बृ०१०। गाररसत्तरया, मोहकुवियफुफुगा हसहसि ति। जं सुणमाणस्स कह, समणेण न सा कहेयब्बा ॥२१॥" दश० ३ अ०। कुसंघयण-कुसंहनन-त्रि० । दवा संहननयुक्ते, प्रश्न ३ कुवियसाला-कुपितशाला-स्त्री० । तल्पादिगृहोपस्करणशा आश्र द्वार । सेवाऽऽर्तसंहनने, भ०७ श०६ १० । जंगबल विकले, प्रश्न १ आश्र द्वार। लायाम, प्रश्न० ३ संब० घार। कुबुद्धि-कुकृष्टि-स्त्री० । कुत्सिता वृष्टिः कुवृष्टिः । कर्षकजनानन्नि कुसंठिय-कुसंस्थित-त्रि० । हुएमादिसंस्थाने, प्रश्न० ३ माथा लषणीयायां वृष्टी, जं० १ वक्व०। द्वार । दुःसंस्थाने, भ०७ श०६००। कवेज-कवैद्य-पुं। कुगति० सा दुर्मिषजि, पञ्चा० १५विवश 31 कुसंत-कुशान्त-पुं०।दर्भपर्य्यन्ते, रा०। तल्लकणदोषादिकं सुश्रुते उक्तम, यथा कसंसग्ग-कुसंसर्ग-पुंसाधुजनैनिन्दनीये सहवासादी, ध०३ " यस्तु केवलशास्त्रज्ञः, कर्मस्वपरिनिष्ठितः । अधि। स मुह्यत्यातुरं प्राप्य, प्राप्य भीरुरियाऽऽहवम् ॥ कुसंसरगच्चाय-कुसंसर्गत्याग-पुं०। कुत्सितः साधुजनैनिन्दनीयः यस्तु कर्मसु निष्णातो, धाष्टच्चिगरबहिष्कृतः । संसर्गः सहवासादिस्तस्य त्यागो वर्जनम् । पार्श्वस्थादिभिः सह स सत्सु पूजां नानोति, वधं चाहति राजतः॥ सम्बन्धत्यागे,धाकुसंसर्गश्च साधूनां पार्श्वस्थादिनः पापमिउभावेतावनिपुणा-वसमी स्वकर्मणि । त्रैः सह संबन्धरूपः,तैः सह वासे हि स्वस्मिन्नाप तारग्भावाप Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुसंसग्गच्चाय त्रिवश्यं भाविनी । यतः - "जो जारिसेण संग. करे सो तारि सो हो। म सा लिया जाया" ॥१॥ तत एष पार्थस्यादिरिय पार्श्वस्यादिर्गी अशात्रयः ३ अधि 'कुली' शब्दे 'पास' शब्दे चेत माषविष्यामि) (१०३) अभिधानराजेन्द्रः । 66 कुसरा कुशाग्र-म० कुराश्यामे उस०] १० जा कुम समुद्दे समि एवं मासा कामा, देवकामाल | कुसमय विसासणकुसमय विशासन-१० कुत्सिताः प्रमाणअंतिए ॥ २३ ॥ " उत्त०७ श्र० "कुसग्गे जह ओस बिंदुए, थोवं चिट्ठइ संबमाण एवं मनुयाण जीवियं समयं गोयम ! मा पमाद ॥ २ ॥ " उत्त० १० अ० | कुशस्य ग्रामेव सूक्ष्मत्वात् । कुशाग्रतुल्यसूक्ष्मे श्रतिदुर्बोधग्राहके वाच० । कुशाग्रीयया शेमुष्या । भाचा० १ श्रु० २ अ० ३ उ० । , कुसग्गपुर-कुशायपुर-नराज पुरमितिमा राजगृहस्य कुशाग्रस्तम्बं महो स्थितम् । तद्विदोऽकारस्तत्र, कुशाग्रपुरपत्तनस्" ॥ ४ ॥ श्र० क० । “ क्वितिप्रतिष्ठत्रणक- पुरनपुरानिधम् । कुशाग्रपुरसंशं व, क्रमाद् राजगृहाह्वयम्” ॥ १४ ॥ ती० ११ कल्प। श्राव० । कुराच्च (च ) - कुसम्वत्रि० । कुत्सितं सत्वं यस्य भवति स कुसत्त्वः । अलसत्वे, नि० चू० १६ उ० । कृमण कुस १० मुद्गदाल्यादिके, तस्योदके च पृ० ३ उ० । , कुसच कृशक-पुं० [आास्तरणादेशे ० १ ० १ ० कुशाखन मिध्यादृटिशाखे, "शाक्य सरमनादिया समस्या"०११ ४० "शिवमस्तु कुशास्त्राणां, वैशेषिकषष्टितन्त्र बोकानाम् । येषां दुर्विहितत्वाद् भगवत्यनुरज्यते चेतः” ॥१॥ आचा० १ ० १ ० ६ ० | कुसपार्कमा कुशप्रतिमा - स्त्री० । मृतकशरीराऽप्राप्तौ तत्संस्कारार्थे क्रियमाणे पुत्तलके, श्र० धू० ४ अ० श्राव० । कुसमहिया कुशम चिकाखी० सद कुयमानायां सृचिकायाम, नि० चू० १० उ० । कुसमय - कुसमय- पुं० कुत्सितः समयः कुसमयः । श्राचा०१ श्रु०५ अ० उनका प्रति सिद्धा स०] परतीर्थिकञ्च ने,नं । कुत्सितः समयः सिद्धान्तो यस्य सः । कुतीर्थिके, स० समयमपनासणय-मममदनान० सिताः सम या पतीर्थिक प्रवचनानि तेषां दोस्तस्य नारानं ततः स्वार्थिककप्रत्यये कुसमयमदनाशनकम् । जिनेन्द्र प्रवचने, कुसमयनाशनस्य चास्य कुसमयानां ययोकत्सर्वमायदेशका गाद। "कुसमयमपनास जिविंदर रसासण कुसमय मोह मोहममोहि समय मोहमोहमतिमोहित - कुसयमो मीच मोहातमोहित-कुसमयौघमोहमतिमोहित त्रिसितः समयः सिद्धान्तो येषांत कुसमयाः कु पार्थैश्वयथावबोधः कुमममो यो मोहः श्रोतमनोमूढता, तेन मतिमहिता मूढतां नीता, येषां ते समयमोहमोहममोहिताः अथ वा समयाः कृतिका कुसिद्धान्तास्वषामोघः सङ्घ, मकारस्तु प्राकृतत्वात् तस्माद्यो मोहो मूढता कुसलपार तेन मतिमहिता येषां ते कुसमयौघमोहमतिमोहिताः; श्रथवा समय कुर्थामधोमध या शुभ फापेक्षया निष्क को यो मोडल मतिमहिता येषां ते कुसमयमोघमदमो हिता कुसमयमोद मोहमतिमोदिता या परि मिनेषु "अमिरकाम्या कुसमयमोहमोद ममोदिया संदेह सजवुद्ध परिणामसंसध्या " स० । बाधिकान्तस्वरूपार्थसमयः कपिदिप्रत सिम्तास्तेषां सति पंचमहम्भूषा" इत्यादिवचन संदर्भरविषयेविरोधान विशासनं विध्वंसकम् । जैनशासने, सम्म २ का एक । " - कुसमय सुड़ कुममयश्रुति- त्रि०] कुसिकान्तमतौ, जीवा०२७अधि०। कुशल कुशल ०ि हिताहिमपुरो सू०२०१० श्राचाः । ज्ञा०| श्रावण । सूत्र० । जं०] श्रवगततस्खे, श्राचा०१ ० २- २३० । सूक्ष्मे क्किणि, आचा० १ ० २०४ उ० । विवेकिनि. ०३ कृतस्यामि उ०२५० मोहमागा सूत्र ०१ श्रु०७ श्र० । सम्यक् क्रियापरिज्ञानवति, रा० ॥ श्र०म० जी० अनुमातरि, उत्त०२ श्र० व्याप्तिग्रहादिदते, द्वा०२३ द्वा०| आलोलित कारिणि, भ० १४ श० १ ३० । अनु० । उपा० प्रधाने कर्म ००१० वादन] हेोपादेयताभ० २०९४० विकर्मकपा नातिः प्राणिनः कम निपुणे, सूत्र०१ ०६०"कुस पुराणो वो मुझे कुशलोकपा तिको सार्थकृत् सामान्यकेची उम हि कर्मणा बको मोहार्थी पायान्देषक केतु पुति कर्मकया नो बद्धो प्रयोपग्राहिककर्म सदभावान्नो मुक्तः । यदि वा स्थानियकुमार स्वरूप " त्वद्वादशकषायोपशमसद्भावात् तदुदयवानिव न योऽद्यापि सत्कर्मनाशी मुक्त इत्यादि आचा० १० २०६ उ० । “स पंचधा श्रायारकुसत्र संजमपवयणपष्ठतिसंगहोमग हे " कुशशब्दः पूर्वार्द्ध प्रत्येकं संबध्यते । व्य०३ उ० (आचारकुलदस्य प्रथमशब्दस्य प्रतिकुलदस्य सं ग्रहकुशलशब्दस्य उपग्रहकुशल शब्दस्य च व्याख्या संयमकुशलादिशब्देषु) गीतार्थ, श्राचा० १०५ श्र० ४ ४० । दक्षे, त्रिशे० । “ जे यावि गुंजंति तहयगारं, सेवंति ते पावमजाणमाणा । मणं न एयं कुसला करैती, वाया वि एसा वुझ्याउ मि " ॥ ३६ ॥ कुशला निपुणा मांसाशित्वविपाक वेदिन वृत्तिगुणाभिज्ञाश्च न कुर्वन्ति । सूत्र० २ श्रु० ६ ० । कुत्सितं श लति इति कुशनः । 'शत्र, पल, पवृ' गतौ । कुत्सिताद् वा निर्गतः कुशलः । वृद्धे, पं० चू० । प्रधाने, "कुसलं पहाणं विसोहिकारणमिति तं प्रवति" नि०० १४० पुराये, पञ्चा ६ विव० । कल्याणे, वाच० । सुखे, रा० । । । कुसलजोग-कुशहयोग पुं० प्रध्यापारे पञ्चायविष "तह किरियाभावाउ, सकामेतील कुललजोगाउ" कुशनयोगत्वात्प्रशस्त मनोव्यापारत्वात् । पञ्चा० १३ विव० । - । । कुसलार कुशलनर-पुं०वि मी० रा० जी०म० "कुलक्षणरच्यसारहि सुसं पग्गहिए" कुशलनरच्छेकसारथिसु Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०४) कुसलगर अनिधानराजेन्दः । कुसील संप्रग्रहीतः, कुशलनररूपो यश्छेकः सारथिदक्षप्राजिता, तेन सुष्ठ कुसिय-कुशिक-पुंगाधिनृपजनके विश्वामित्रपितामहे, वाचः। संप्रग्रहीतो यः स तथा । भ०७० उ०। कुशित-त्रि० । कुश इतन् । जलमिश्रिते, उणा० ।वाच०। कुसनत्त-कुशलत्व-न । प्रावीण्ये, उत्त० ३ ०। कषित-त्रि । ईषद् धुर्गन्धे, शा. १ श्रु० १२ अ०। कुसलदंसग-कुसलदर्शन-न। तीर्थकृतोऽभिप्राये, "ते मा हो- कुसित-पुं० । वृद्धिजीविनि, वाचः। न एयं कुसबस्स दसणं, तद्दिट्टीए तम्मुत्तीप तप्पुरकारे तस्स-फसील-कुशील-न।कुत्सितं शीलं कुशीलम्। श्राचा०१ १०६ म्मी तम्सिवेसणे ।” आचा० १ श्रु०५ १०६ उ० । अ०५ उ० । अब्रह्मणि, स्था०४ मा०४ उ० । कुत्सितं शीलमाचारो कुसलदिट्ठ-कुशलदृष्ट-त्रि० । जिनोपलब्धे, ग०१ अधिक। नि- यस्य स कुशीलः। श्राव०३ अातुकाव्य०। स्था०। भ०। कुत्सिपुणोपनब्धे, सर्वप्ररूपिते, पश्चा० १५ विव०।। तमुत्तरगुणप्रतिसेवया संज्वलनकषायोदयेन वा दृक्षितत्वात शीकुसलधम्म-कुशलधर्म-पुं० । प्राणातिपातविरमणादिके शुभ बमष्टादशशीलाङ्गसहस्रनेदं यस्य स कुशीलः । स्था० ५ ठा० ३० । मूलोमरगुणविराधनात् संज्वसनकषायोदयाद्वा समाचारे, पञ्चा०। "पञ्चैतानि पवित्राणि, सर्वेषां धर्मचारिणा (प्रय० ॥ द्वार । ध०)कानविनयादिभेदभिन्नानां ज्ञानदर्शनम । अहिंसा सत्यमस्तेयं, त्यागो मैथुनवर्जनम्" ॥१॥ पश्चा०१० चारित्राचाराणां विराधके,ज्ञा०१ श्रु०५० स च निर्ग्रन्थभेदः, विव० । बौः पुनरेतानि कुशवधर्मा उक्ताः । यदाहुस्ते दश कु-| पार्श्वस्थाद्यन्यतमो वा। शानि । तद्यथा-"हिंसा स्तेन्योऽन्यथाकाम-पैशुन्यपुरुषानृतम् । (१) कशील भेदाः। संजिन्नालापं व्यापाद-मनिध्यां दृविपर्ययम् । पापं कमेति दशधा | (२) कुशीलप्ररूपणा। कायवाडमानसैस्त्यजेत्" । अत्र चान्यथाकामं पारदार्यम, (३) एतेषु कौतुककारिषु प्रायाश्चत्तम् । भिन्नालापोऽसंबद्धभाषणं,व्यापादः परपीमाचिन्तनम्.अभिध्या (४) कुशीलवृत्तम्। धनादिवसंतोषः, परिग्रह इति तात्पर्यम् । दृविपर्ययो मिथ्याऽ (५) पाखण्डकाधिकारः। भिनिवेशः, पतविपर्ययश्च दश कुयशलधर्मा जवन्तीति । वैदि- (६)अग्निकायसमारम्भे च प्राणातिपातो भवति । कस्तु ब्रह्मशब्देनैतान्यनिहितानीति । हा० १३ अप० । द्वा०।। (७) पावस्थादिसंसों न कर्तव्यः । कुसलपक्खहेतु-कुशलपहेतु-पुं० । पुण्यपक्ककारणे, पं० व० | (८) पाश्वस्थादिसंसर्गे दोषाः।। द्वार । (१) तद्दा यथाकुसलपरिणाम-कुशक्षपरिणाम-पुं० । शुभाध्यवसाये, पञ्चा० कुसीले णं भंते ! कविहे परमत्ते? । गोयमा ! विहे ४विव०। परमत्ते । तं जहा-पमिसेवणाकुसीले य, कसायलुसीले य । (पमिसेवणाकुसीले यत्ति) तत्र सेवना सम्यगाराधना,तत्प्रकुसलबंध-कुशलबन्ध-पुं० । पुण्यानुवन्धिपुण्यकर्मबन्धने , तिपक्षस्तु प्रतिसेवना,तया कुशीतः। (कसायकुसीले त्ति)कषायैः पञ्चा०६ विव। कुशीलः कषायकुशीबः। कुसलमण उईरण-कुशलमनउदीरण-म० । धर्मध्यानादिप्रवृत्या शुभचित्तोदीरणे, दश । “ अकुसलचित्तणिरोहो कुसन पमिसेवणाकुसीले णं भंते ! कविहे पप्पत्ते ? । गोयमग नझरणं । " दश ए अ० १उ० । मा ! पंचविहे परमत्ते । तं जहा-णाणपडिसेवणाकुसीले दसणपमिसेवणाकुसीले चरित्तपमिसेवणाकुसीले लिंगपकुसमया-कुशलता-स्त्री० । कौशल्ये, दर्श। मिसेवणाकुसीले अहासुहमपम्सेिवणाकुसीले णाम पंचकुसबविभाग-कुशल विजाग--त्रि० । कुशलो विभागो कुशल मे । कसायकुसीले णं नंते ! काविहे पापत्ते । गोयमा ! विनागः, राजदन्तादित्वाभ्युपगमात कुशलशब्दस्य पूर्वनिपातः । पंचविहे पत्ते । तं जहा-णाणकसायकसीले दंसणवणिजीव विनागकुशले, "कशलविनागसरिसओ, गुरुसाहया होति वणिया व ॥" व्य०१ उ० । कसायकुसीले चरित्तकसायकुसीले लिंगकसायकुसीले अकुसला-कुशला-स्त्री० । विनीताया नग- अदूरस्थिता जना हासहुमकसायकुसीले णामं पंचमे॥ (नाणपडिसेवणाकुसीले त्ति) ज्ञानस्य प्रतिसेवनया कुशीविनीताः। वास्तव्यान् जनान् कलासु विशारदानुपलज्यवमूचुः लो ज्ञानप्रतिसेवनाकुशीनः । एवमन्येऽपि। उक्तं चेह-"शहनाणाइअहो! कशला अमी जनास्ततः कुशवपुरुषयोगाद् विनीता नग कसीलो, नवजीव हो नाणपभिईए । अह सुहमो पुण तुरी कुशलेत्युच्यते । विनीतायाम् अयोध्यायाम, प्रा० म०प्र० । स्सं, एस तवस्सित्ति संसाए" ॥१॥ (नाणकसायकुसीले त्ति) कुसलासय-कुशवाशय--पुं० । शुजानिसन्धी, हा० २ए अष्ट०।। झानमाश्रित्य कषायकुशी लो ज्ञानकपायकुशीलः । एवमन्येऽपि । इह गाथाकुसवर-कुशवर--पुं० । जुजगवरद्वीपाद् असंख्येयान् द्वीपस "नाणं दंसलिंगे, जो जुजइ कोहमाणमाईहि। जान गवा सम्जवति द्वीपोदे, अनु। सो नाणाश्कुसीबो, कसायओ होइ विन्नेओ ॥१॥ कुसविकुसविसुच्छरुक्खमूल-कुशविकुशविशवक्षमूल--त्रि० । | चारित्तम्मि कुसीलो, कसायो जो पयत्थई सावं। कुशा दी विकुशा विल्वजादयस्तृणविशेषास्तर्विशुद्धानि मणसा कोहाईप, निसेवयं हो अहासुहुमो ॥२॥ तदपेतानि वृक्तमूलानि तदधोजागा येषां ते तथा। कुशचिकुशर- अहवा वि कसापहि, नाणाईण विराहओ जो । हितमूल नागे, ज०६श ७ ३० । रा०। (वृक्षवर्णके चतत्स्पष्टी- सो नाणाश्कुसीलो, नेप्रो वक्वाणभेएणं ॥३॥ भविष्यति) न. २५ श०६० । प्रव०। आवानि० चू० । घ. Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०५ ) अभिधानराजेन्द्रः । कुसील (२) अधुना कुशील प्ररूपणामाद तो तिविद कुमीलं तमहं वृच्छामि श्रणुपुन्बीए । दंसणनाचरिते, तिविद कुसीलो मुणेयन्वो ॥ त्रिविधं कुशीत्रमहमानुपूर्या वक्ष्यामि । यथाप्रतिज्ञातमेव करोति - ( दंसणेत्यादेि ) त्रिविधः कुशीलो ज्ञातव्यः । तद्यथादर्शने, ज्ञाने, चारित्रे च । एतदेव व्याचिख्यासुराह नाणे नाणायारं, जो उ विराहेइ कालमादी य । दंसणे दंसणायारं, चरण कुसीलो इमो ढोइ || यो ज्ञानाचारकाले 'विण्पत्यादि' रूपं विराधयति स ज्ञाने ज्ञानकुशील उच्यते । यस्तु दर्शनाचारं निःशङ्कितत्वादिकं विराधयति स दर्शने दर्शनकुशीलः । चरणकुशीलोऽयं वक्ष्यमाणस्वरूपो भवति । तमेवाह कोय नूईकम्मे, पसियापसिणा य निमित्तमाजीवो । कक्क कुरुया य लक्खण मुत्रजीवति विज्जमंताद ।।। कौतुकं नाम श्राश्वर्ये यथा मायाकारको मुखे गोलकान्प्रविष्य कन निष्काशयति, नाशिकया वा । तथा मुखादर्शि निष्काश यतीत्यादि । अथवा परेषां सौनाम्यादिनिमित्तं यत् स्वपनादि क्रियते एतत् कौतुकम् । उक्तं च-"सोहग्गावि निमित्तं परे सि एहवणादि कोउगं प्रणियं" इति । एवंभूतानि कौतुकानि । तथा भूतादिकर्म नाम यद् ज्वरितादीनामनिमन्त्रितेन कारेण रक्षाकरणम् "जरियादिभूतिक्षणं भूतीकम्मं विणिदिट्ठे" इति वचनात् । प्रश्नाप्रश्नं नाम यत् स्वनविद्यादिनिः शिष्टस्यान्येभ्यः कथनम् । उक्तं च- " सुविणगविज्जाकहियं, आर्यस्खणिघंटियादिकहियं वा । जं सीसर अोसि, परिणापसिणं हवइ एयं ॥ " निमित्तमतीतादिजावकथनम् । तथा श्राजीवो नाम आजीविका, स च जात्यादिनेदः सप्तप्रकारस्तान् । तथा कल्को नाम प्रसूत्यादिषु रोगेषु कारपातनमथवाऽऽत्मनः शरीरस्य देशतः सर्वतो वा दिभिरुद्वर्तनम् । तथा कुरुका देशतः सर्वतो वा शरीरस्य प्रकालनम् । लक्षणं पुरुषलक्षणादि । तथा ससाधना विद्या, श्र साधना मन्त्रः । यदि वा यस्याधिष्ठात्री देवता सा विद्या, यस्य पुरुषः स मन्त्रः, आदिशब्दान्मूल कर्मचूर्णादिपरिग्रहः । तत्र मूकर्म नाम पुरुषे द्वेषिएयाः सत्याः सपुरुषद्वेषिणीकरणमपुरुद्वेषियाः सत्या अपुरुषद्वेषिणीकरणम, गर्भोत्पादनं गर्भपातनमित्यादि । चूर्णयोगादयश्च प्रतीताः । पतानि य उपजीवति स चरणकुशीलः । संप्रत्याजीवं व्याख्यानयति जाती कुले गणे या, कम्मे सिप्पे तवे सुए चैव । सत्तविहं आजीवं, नवजीवइ जो कुसीलो न ॥ जातिर्मातृकी, कुलं पैतृकं. गणो मलगणादि, कर्म अनाचार्यकम्, श्राचार्योपदेशज शिल्पं, तपःश्रुते प्रतीते, एवं सप्तविधमाजीयं य उपजीवति जीवनार्थमाश्रयते । तद्यथा-जातिं कुलं वाऽरमीयं खोकेभ्यः कथयति, येन जातिपूज्यतया कुनपूज्यतया वा भक्तपानादिकं प्रभूतं राजेयमिति । अनयैव बुद्ध्या मशगणादिभ्यो गणे १५२ कुसील योगविद्याकुलत्वं कर्मशिल्प कुशलेभ्यः कर्म शिल्प कौशलं क थयति । तपस उपजीवना तपः कृत्वा कपकोऽहमिति जनेभ्यः कथयति विश्रुतोऽयमिति । उक्तः कुशील इति । For Private (३) सांप्रतमेतेषु कौतुकादिषु प्रायश्चित्तमाहनूतीकम्मे लहुतो, लहू गुरुग निमित्त सेसए इमं तु । लहुगाय सयं करणे, परकरणे तग्धःया ॥ नृतिकर्मकरणे प्रायश्चित्तं मासलघु, श्रतीतनिमित्तकथने चत्वारो बघुमासाः अतीतनिमित्तकथने चत्वारो गुरुमासाः । वर्तमाननिमित्तकथने चत्वारो मघुमासाः वर्तमाननिमित्तकथने चत्वारो गुरुमासाः । शेषके कौतुकादौ इदं प्रायश्चितमस्वयं कौतुकादिकरणे चत्वारो लघुकाः । परैः कारणे जयन्ति चत्वारोऽनुद्धाता गुरवो मासाः । मूलकर्मकरणे मूलमिति । ०५० १ ० । जे भिक्खू कुसळं बंद बंदतं वा साइज्जइ ॥ ४५ ॥ जे जिक्खू कुर्सी पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जइ ॥ ४६ ॥ जे कुलीनं वंदतीत्येवं द्वे सूत्रे । कुत्सितशीलः कुत्सितेषु शीलं करोतीत्यर्थः नि०० | बंदणादि उवयारं करैतस्त्र आणादिय। दोसा, चउलहुंच से पञ्छितं । नि० चू० १३ उ० । तत्य कुर्मीले तात्र समासो दुबिहे ए-परंपरकुसीले, परंपरकुसीले य । तत्य णं जे ते परंपरकुसीने ते वि 5विहे ए - सतगुरुपरंपरकुसीले एगवितिगुरुपरंपरकुसले य । जेत्रिय ते परंपरकुसीले ते वि उ विहे एआगमणोगमय । तत्थ आगमत्र गुरुपरंपरएणं या केई कुसीले आस्टीओ ते चेत्र कुसीले नवांते । नो भागमश्र णेगविहा । तं जहा पाए कुसीले दंसणकुसीले चारितकुसीले तत्रकुसीले वीरद्वकुसीले । तत्यजे से णाकुसीने से णं तिविहे ए-पसत्यापत्थे नाणकुसीले अपत्यणाणकुसीले सुपसत्यनाणकुसीले । तत्थ जे से पसत्थापरात्य नायकुसीले से विए- आगमो नोभागमो य । तत्थ श्रागमओ विहंगनाणी पन्नविय पसत्यापसत्यपयत्थ जाल - प्रज्झयणज्जावर कुसीले । नोश्रागमत्रो अगढ़ा-पसत्यापसत्यपरपासं मलत्थजान्ना हिजणे अज्जावणवाय पकुसीले । तत्य जे ते अपसत्थना एकुसीले ते एगूतीसरविहे दब्वे । तं जहा - सावज्जवायविज्जामंततंताहि कुसी वत्युविज्जाप उंजणाहिज्जा कुसीले गहरिक्खवाइजोइस मत्यपउंजणा हिज्जएकुमीले निमित्त लक्खण पजाहिज्जणकुसीले सजण लक्खणपउजरणा हिज्जएकुसीने इत्यिसिक्खापउंजणा हिज्जण कुसीले धणुव्वेयपउंजहिज्जनकुसीले गद्यन्ववेयपलंजणा हिज्जण कुसीले पुरिसि Personal Use Only Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुसील प्रनिधानराजेन्धः । कुसील स्थीलक्षणपनजणाहिज्जणकुसीले कामसत्यपतंजणा- णोप्रागमो दंसणकुसीले अणेगहा। तं जहा-चक्खकसीहिजणकुसीले कुहुगिंदजालसत्थपजणाहिजणकुसीले | ले घाणकुसीले सत्रण कुसीले जिन्नाकुसीले सरीरकुसीले। प्राश्नेक्वविजाहिज्जणकुसीले लेप्पकम्मविजाहिज्जणकु- तत्य चक्रवुकुसीले तिविहे णेए। जहा-पसत्यचक्खुकुमीसीने मणविरेयणाबहुवोल्लिजालसमुदरणकटणकाटागवण- मे, पसत्यापसत्यचक्खुकुसीले, अपसत्थचक्रखुकुसीले । स्सविनिमोमणतच्चाणाइबहुदोसविज्जगसत्यपजणाहिज तत्य जे केइ पसत्या उसनादितित्थयरविंवं पुरओ चक्खुणजावण कुसीले; एवं जाणयोगबुन्नबन्नधाब्वायराय- गोयरष्टियं तमेव पासेमाणा अमं किंपि मासा अपसत्थदंगणीसत्य प्रसणिपञ्चअपकंडरयणपरिक्वारसबेहत्य- मज्जवसेसेर्ण पसत्यचकबुकुसीले. तहा पसत्यापसत्यचक्रवुपञ्चसिक्खागूढमंततंतकाझदेससंधिवग्गहोवएससत्थममजा कुसीले तित्ययरविंबहियएणं अच्छीहिं मनं किं पिपहिणववहारनिरूवणत्यतत्यपठंजणाहिजणं अपसत्यनाण ज्जा से णं पसत्यापसत्यचकावुकुसीझे, तहा पसत्याइं अपकुसीले, एवमेरसिं चेव पावमुयाणं वायणापहणापराव सत्थाई दबाई कागवगटऋतित्तिरमयूराई सुकं तदितिच्चि सणाअणुसपणासवणायण अपसत्थनाणकुशीले तत्य जे वा दणं तए हुतं चक् विसज्जे, सो वि पसत्यापसत्यय ते सुपसत्थनाणकुमीले ते नि य दुबिहे गए-आगमश्रो, चक्खुकुसीले, तहा अपसत्थचक्नुकुसीले तिसहिपयानो भागमो य । तत्थ भागमो सुपसत्यं पंचप्पयारं रेहिं अपसत्था सरागा चक्खू एती । से जय ! कयरे वे गाणं प्रासायंते मुपसत्यणागधरेइ वा आसायंते सुप- अपसत्थे तिसठ्ठीचकखुलेए?। गोयमा!इमे । तं जहा-मन्त्रसत्यनाणकुसीले । नो भागमो य सुपसत्थनाणकुसीले अ- कडक्खातो रामदा महानसा वंका विवंका कुमीमा प्रमBहा गए । तं जहा-अकालेएं सुपसत्यणाणाहिजण जाव- क्खिया काण क्खिया साणुगगा जामिया नन्नामिया णकुमीले अविणएणं सुपसत्यणाणाहिजणजावण बलियावलिया बलवक्षिया अट्टमिया मिलिमिना माअसीले अबहुमाणेणं सुपसत्यनाणाहिजणकुसीझे अ एसा पासवा पक्खा सरीसिवा असंता अपसंता - गोवहाणेणं सुपसत्यनाणाहिजणज्जावणकुसीले, जस्स | त्यिरा बहुविगरा सागुरागा रोगाईरणी रोगजन्नामयुप्पायय सयासे सुप-सत्यमुत्तत्यानयमदियं तं निन्हवणमुप णी मयणी मोहणी मोहणी जनरणी जयजन्ना जयंकरी सत्यनाणकुसीले सजगहीणक्खरियजहीण जावणसुप यययणी संसयावरणी चित्तचमकणायणी बिढी मत्थनाणसाने विवरियमुत्तत्यानयाहियजावणसुपसत्य- अनिबछा गया आगया गयागया गयगयपञ्चागया निदानाणकुसीने संदिसमुत्तत्थोनयाहियजावणसुपसत्थना-| काणी अहिलसाणी अरइकरा रइकरा दीणा दीणावा मुरा एकुसीले तत्थ एएसि अट्टएहं पि पयाणं गोयमा ! जे धीरा हणणी मारणी संतावणी तावणी कुट्ठा पकुट्ठा घोरा केइ गोवहाणेणं सुपसत्यं नाणमहीयंति अज्जावयंति वा महाघोरा चंमा रुद्दा सुरुद्दा हाहाभूयरणा रुक्रवा सणिका अहीयंति वा अजावयंतेइ वा समाजाणंति ते णं | रुक्खसणिचेति महिनाणं चक्षणंगुट्ठकोडिणटकरणसुपहापापकम्मे महती सुपसत्यनाणस्सासयणं पकुव्बति । - विलिहियदिन्नालत्तगायं च णहमाणिकिरणनिवखसकन्या हा०३ अ० ।। पञ्चमङ्गलोपधानकर्तश्यता 'उवहाण' शब्द वा कुमुन्नयचन्नणं समग्गनिमग्गबद्धगुढजाणुजंघापिहुझकमिद्वि० ना० १०४६ पृष्ठे उक्ता) यमनोगानयणनियंवणाही घणगुज्झंतरकट्ठानूया बट्टीओ जड़ अन्नहा ण मुत्तं अत्थं वा किं वि वारज्जा एए-| अहरोहदसणं पंती कन्ननासानयणजुयलालमुहानि मुहा गां अटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ जहा णं जावजीवं | निलामंसिररुहसीमंतया मोमयपट्टतिलगकुंमलकबोझकजअभिग्गहेणं वा नक्कालियं सज्कायं कायव्वं ति तहा य| सतमालकलावहारकडिसुत्तगणेउरबाहुरक्खगमणिरयणकड. गोयमा जे भिक्खविहीए सुपसत्थनाणमहिजेऊण नाण गकंकणमुद्दियाइसुकंतदित्ताचरणदुगुदवमणनेवत्या कामयं करेजा से वि नाणकुसीग्ने, एवमाइनागकुसीझे अणे मग्गिमधुक्खणं। निरयतिरियगईमु अणंतदुक्खदायगा एम गहा पनविजंति से जयवं! कयरेते दंसणकुसीले दिसण महिमा सससरागदिट्टत्ति एसव्वचक्ककुमीले, तहा घाणकुसीले विहे णेए-आगम नो नोप्रागम मो य । तत्थ । कुसीझे जे के सुरहिगंधिसुसंगं गच्छ, दुरहिगंधि दुगुंश्रागमओ सम्मदंसणं संकेते कंखते वि दुगंछते दिहिमोह | छह से णं घाणकुसीले, तहा सवणकुसीने दुविहे णेएगच्छते अणोवबृहाए परिवमियधम्मसद्धासंपत्तपकिउका- पसत्थे अपसत्ये य । तत्थ जे भिक्खू अपसत्याई कामरामाणं अथिरिकरणेण साधम्मियाणं अवच्छलतणेणं अ- गसंधुक्खणदीवणउजालणपज्जालणसंदीवणाई गंधव्यनप्पभावणाए एतेहिं नहि पिठाएंतरेहिं कसीहोरोए। दृधाब्वेयहत्यसिक्खाकामरतीसत्याई विगंथाई सुणे Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०७ ) अभिधानराजेन्द्रः । कुसील पालोएज्जा जाणं जो पायच्चित्तमचरेज्जा से णं असत्य सवण कुसीले ए, तहा जे जिक्खू पसत्थाई सिर्द्धताबरियपुराणधम्मक हाओ य अन्नाई च गंधसत्याइ मुणेचा न किंचि भावहियं अणुद्दे णाणमय वा करेइ से णं पसत्य सवण - कुर्सीले ए, तहा जिन्ना कुसले से अणेगहा । तं जड़ा-तिकसायमदुराई लवणाई रसाई भासायंते दिघासु या हियरलोगोभयविरुद्धाई सदोसाई मयारजयारुचारलाई आय सज्जाखाणासंताजिभोगाई वा जयंते असमयन्नुधम्मदेसावणारा य जिन्भाकुसीले ऐए । से जयवं ! किं नासा विभासियाए कुसीलचं भवति ।। गोयमा ! भव । मे भयवं ! जइ एवं नात्र धम्मदेसेणं ण कायव्वं । गोयमा ! मात्र जाणवज्जाणं वयणाएं जो न जाएइ विसेसं बुत्तं पि तस्तन खयं किमंग ! पुरण देसणं काओ, तहा सरीरकुसीले सुविहे - चिद्वाकुमीले विसाकुसीले य । तत्थ जे निक्खू एयं किमिकुलनिलयं सिकण सालाइभत्तं समण पकल विधम्मं सूर्य असासयं प्रसारं सरीरगं भारादीह शिनं चेद्वेज्जा णो णं इणमो जवसयसुझद्धनाणं दंसलाई समन्निएणं सरीरेणं श्रश्चंतघोरवी रुग्गकटुघोरतत्रसंयममणु , जाएं चेहाकुसीले तहा जे णं विनूसाकुसीले से वि अगद्दा । तं जहा-तेलानंगण विमद्दरण संवादए सिलावट्टर परिहसण तंबोलधूवणवासणे दसणग्यसणसमान्नदगपुप्फोमाक्षणकेससमारणे सोबाहणदुवियट्टगइ भणिहसि - हरउव विडुडिइयसत्तिवनेक्खिया विनूसा वत्ति से विगारलियं सणुत्तरीयपाचरणं दंरुगगहणमाई सरीरविजू साकुसी ने एएए पत्रयण डाढ परे दुरंतपंतझक्खणे प्रदट्ठब्बे महापावकम्मकारी विमाकुसीले भवंति । यदाकुमी ले तहा चारितकुसी अगड़ा - मूलगुण उत्तरगुणे । तमूलगुणा पंचमहन्वयागि राईभायत्यद्वाणि तेसु जे पत्ते भवेज्जा तत्य पाणाइवायं पुढविदगागणिमारुयवफईविनिच उपचिदियाईणं संघट्टणपरियावरण किल्लाम मात्रासुमं बायरं च । तत्थ मुहूमपयाउला उामरूप एवमादि वादरा कनालिगादि दिनं दाएं सूदुमं बादरं च । तत्थ सुदुमं तडगलबार मलगा दी ग द वादरं हिरणवादी मेहुणं दिव्बोरालियं नकायकरणकारावणामभेदेण अट्ठारसडा, तहा करकम्मादी सचित्ताचित्त देणं एवगुत्तीविराहणेणं वा विजूमावत्तिएण वा परिग्गहं सुडुमं बायरं च । तत्य सुमं कम्मट्टगरकाव त्यो बादरं रमादीणं गढ़णे धारणे वा राई जोयणं दिया गहियं दिया नृतं एवमाइ उत्तरगुणा । "पिंदस जा विसोही समिती जावा तवो दुविहो । परिमा अजिग्गहा चिय, उत्तरगुण सो बिया For Private कुसील हि । तत्थ पिंकविसोही "सोलस उग्गमदोमा, सोनम पाणाय दोसाओ। दस एसलाऍ दोसा, संजोगमाइ पंचैव" । तत्य उग्गमदोसा “आहाकम्मुद्देसिय-पूर्वकम्मे यमीसजाए । वा पाहुडियाए, पाउयरकीयपामिचे । परि एहिमे उधिन्ने मालोहमे इम अच्छिने । प्र-मिट्ठेयज्जोरए य, मोलसमे पिंडुग्गमे दोसा " । इमे उपायलादोसा “धाईद्र्शनमित्ते, आजीववण मगतिगिच्छाए। कोई माणे मायाझां य इवंति इस एए ॥ पुत्रि पच्छा संयत्र-विजाते नजोगे य । उप्पायलाइ दोमा, सालसमे मूलकम्मे य" । एस दोसा- “संकियमखियनिखित्त-पिदियसाहरिदासे । परिणयनित छडिय - एसए दोसा हवंति एए य"। तत्युग्गमदोसे गिहत्यसमुत्ये । उप्पायणाय दोसे साहुसमुत्ये । एसलादोसे उभयसमुत्थे । संजोया पमाणे इंगालधूमकरणे पंचमं लीम दासे नवति । तत्थ - जोयणा नवकरणचत्तपाणसन्नितरबाई एवं पमाणं "वत्ती किर कवले, माहारो कुच्छिपूरओ नणिभो । रागेश सयंगानं, दोसेण सधूमगं ति नायव्वं”। कारणं “बेयणवेयात्रच्चे, इरियडाए य संजमहाए। तह पाणवतियाए, ब पुण धम्मचिंताए । नत्थि बुहाए सरसिया, विय भुज्जिज्ज तपऩमण्डाए" । तम्रो वैयावचं या तरइ काउं अओ भुंजे "इरियं पिन सोहिस्सं, पेडाइयं च संजयं काजं । घामो वा परिहायड़, गुणप्पेहास् य असतो " । पिंड - विसोही गया। ईयाणिं समितं । उ पंच तं जहा इरियासमिई, जासासमिई, एसलासभिई, आयाणभंगमत्त निक्खेवणासमिई, उच्चारपासवण खेल सिंघाणजल्लपारिहाणियासमिई। तहा गुत्ती श्री तिनि-माणगुती, त्रयगुत्ती, कायागुती । तह जावणाओ वालसं । तं जहा - प्रणिचत्तनावला, सरणजावना, अन्नत्तभावणा, असुजावणा, विचित्तसंसारभावणा, कम्पासवभावरणा, संवरजावणा, विनिज्जरजाबपा, लोगवित्यरजावा, धम्मं सुयवखायं सुपन्नत्तं तित्ययरे तत्य चिंताजावणा, वोहिसुदुलहा जम्मंतरको मीहिं वित्ति भांबणा । एत्रमादिया ंतरेसुं जे पमाई कुज्जा से णं चरित कुसील ए । तदा तत्रकुसीले विहे ए-बज्जतवकुर्सीले, अन् व्यंतर तवकुमीले य । तत्थ जे के विचित्त असणऊणोदरिया वित्तसंखेवणं रसपरिवाओ। कायकिलेमो संझीया बिहान उज्जमेजा, मे णं वज्जतवकुमले । तदा जे केइ विचित्तपच्छित्तवियवेयावचे सज्जायज्झाज़उस्सग्गम्मिविएस ब्रट्ठाणेसु ए उज्जमेज्जा से - रतवकुमीले । तहा परिमाओ बारमा । तं जहा मासा सता एगदुतिसत इंदिणा हरातिगराती भिक्खुपाकर्माबारसगं, वहा अजिम्मदा दव्वच स्वतम्रो कालमे Personal Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुसीस (६०%) निधानराजेन्डः। कुसील जावो । तत्य दन्ने कुम्मासाई दव्वं गहेयव्यं । खेत्तो द्विपश्चेति ज्ञात्वा प्रत्युपेक्षस्व कुशाग्रीयया बुद्ध्या पालोचयेगामे बहिं वा गामस्म, कालो पढमपोरिमुमासु, जावओ दिति । यधभिः कायैः समारभ्यमाणैः पीमयमानैरात्मा दण्डय ते तत्समारम्भादात्मदएमो भवतीत्यर्थः । अथवैजिरेव कायैः कोहमाइसंपनो जं देहं इमं गहिस्सामि । एवं उत्तरगुणासं ये प्रायतदएमा दीर्घदण्डाः । एतदुक्तं भवति-एतान् कायान् ये खेमो सम्मत्ता। संमचोयं संखेवेणं चरित्तायारो।तबायारो दीर्घकाल दएम्यन्ति पीमयन्तीति तेषां यद्भवति तदर्शयति-ते वि संखेवेणाईतरगो तहा वीरीयारो। एएमु चेव जाअहा- एतेष्वेव पृधिव्यादिकार्येषु विविधमनेकप्रकारं परि समन्तादाणी पएमु पंचसु आयाराइयारसु जं आयडियाए दप्पो शुक्षिप्रमुप सामीप्येन यान्ति व्रजन्ति, तेवव पृथिव्यादिकायेषु मएनओ कप्पेण वा अजयणाए वा जयणाए वा पमिसेवियं | विविधमनकप्रकारं नुयो नयः समुत्पद्यन्त इत्यर्थः। यदि वा वि पर्यासो व्यत्ययः सुखार्थिनिकायसमारम्भः क्रियते, तत्समातहेवामोइत्ताणं, जं मग्गं विउ गुरु उवइसंति,तं मुहा पाय- रम्नेण च दुःखमेवाऽऽप्यते न सुखमिति । यदि वा कुतीथिका चित्तं पाणचरेइ । एवं अचारसए सीलंगसहस्साणं जं मोक्षार्थमेतैः कार्ययोंकियां कुर्वन्ति तयासंसार एव भवतीति।। जत्थ एए पमत्ते नवेज्जा से णं ते णं पमायदोसेणं कुसीले यथा चाऽसावायतदएमो मोक्षार्थी तान् कायान् समारभ्य णेए । महा० ३ ०। स्था० । ध० र०। उत्त। तद्विपर्यासात् संसारमाप्नोति तथा दर्शयतिपार्श्वस्थादीनामन्यतमे, सूत्रः ६० अ० मावा वाख्या जाईवहं अणु परिवट्टमाणे, णाविष्कृतवीयें, सूत्र०११०४०१ उ०। अन्यतीर्थिके, सूत्र०१ मु०१०१०।काथिकपश्यकसंप्रसारकमार्मकरूपेषु,सूत्र०१ तमथावरेहिं विणिघायमेति । सु०४५०१ उ० । निन्दितशीले ( वृत्ते), तथाविधेषु यतका से जाति जाति बहुकूरकम्मे, रादिषु च । उक्तं च-"जूश्यरसासमेगवटाउम्भामगाणो जे जं कुव्वती मिज्जति तेण बाले ॥ ३ ॥ थे। पते हंति कुसीला, बजेयम्वा पयत्तेणं" ॥ श्राप०४ अ०। "जे पयं उंचं अगिका अनयरा हुंति कुसीलाणं। सुतवस्सिए (जाईचहमित्यादि) जातीनामेकेन्द्रियादीनां पन्थाः जातिपथः, विसे निक्खु, नो विहरे सह णमित्थीसु॥१२॥ सूत्र.१७०४ यदि वा जातिरुत्पत्तिबधो मरणं जातिश्च वधश्च जातिवधं, ०१ उ०।"धुवमग्गमेव पवयंति वाया वीरियं कुसीलाणं।" तदनु परिवर्तमान पकेन्द्रियादिषु पर्यटन जन्मजरामरणानि वा सूत्र. १६०४ अ०१ उ०। बहुशोऽनुभवं नसेषु तेजोवायुद्धीन्जियादिषु स्थावरेषु च पृधि(४) भय कुशीलपरिभाषाऽध्ययनोक्त कुशीलवृत्तं सिण्यते व्यम्बुवनस्पतिषु समुत्पन्नः सन् कायदएमविपाकजेन कर्मणा बहुशो विनिघातं विनाशमेत्यवाप्नोति, स आयतदरमोडपुढवी य आऊ अगणी य वाऊ, सुमान (जाति) जातिमुत्पत्तिमवाप्य बहूनि राणि दारुणातणरुक्खवीया य तसा य पाणा। न्यनुष्ठानानि यस्य स भवति बहुक्रूरकर्मा, स एवंनूतो निजे अंमया जे य जराउपाणा, विवेकः सदसद्विवेकशून्यत्वात् बाल इव बालो यस्यामेकेन्द्रिसंसेयया जे रसयाभिहाणा ॥१॥ यादिकायां जाती यत्प्राण्युपमर्दकारि कर्म कुरुते स तेनैव क मणा मीयते भियते पूर्यते। यदि वा 'मीक हिंसायां' मीयते हिंप्रथिवी पृथिवीकायिकाः सस्वाः, चकार: स्वगतभेदसंसूचना- | स्यते । अथवा बहक्रूरकर्मेति चौरोऽयं पारदारिक इति वा इत्येवं चः सचाऽयं दः। पृथिवीकायिकाः सूदमा बादराश्च । ते व तेनैव कर्मणा मीयते परिच्छिद्यत इति ॥३॥ प्रत्येक पर्याप्तकाऽपर्याप्तकभेदेन द्विधा । एवमप्कायिका अपि । तथाऽग्निकायिकाः, वायुकायिकाश्च द्रष्टव्याः । वनस्पतिकायि कपुनरसी तैः कर्मनिर्मीयते इति दर्शयतिकान देन दर्शयति-तृणानि कुशादीनि, वृक्षाश्चाश्वत्थादयो. अस्सि चलोए अदुवा परत्था,सयग्गसो वा तह अनहा वा। बीजानि शाल्यादीनि, एवं यल्लीगुल्मादयोऽपि वनस्पतिभेदा | संसारमावन्न परं परं ते,बंधति वेदंतिय मुनियाणि ॥४॥ अष्टव्याः । त्रस्यम्तीति नसा द्वीन्जियादयः प्राणिनो ये चाऽण्डागजाता अपडजाः शकुनिसरीसृपादयः,ये च जरायुजा अम्बाल [अस्सि चेत्यदि ] यान्याशुकारीणि कर्माणि तान्यस्मिन्नेव बेष्टिताः समुत्पद्यन्ते, ते च गोमहिन्यजाविकमनुष्यादयः। तथा जानाति जन्मनि विपाकं ददति, अथवा परस्मिन् जन्मनि नरसंस्वेदाज्जाताः संस्वेदजा यूका मत्कुणकृम्यादयः, ये व रस कादौ तस्य कर्मविपाकं ददत्येकस्मिनव जन्मनि विपाक तीवं जानिधाना दधिसौवीरकादिषु रूतपक्षमसबिना इति ॥१॥ ददति [ शताप्रशो वेति ] बहुषु जन्मसु येनैव प्रकारेण मानाभेदभिन्नं जीवसंघातं प्रदाऽधुना तपघाते दोष तदशुजमाचरति तथैवोदीर्यते । तथा अन्यथा वेति, श्वमुक्त दयितुमाह जबति-किश्चित्कर्म तद्भवत पव विपाकं ददाति,किश्चिच्च जन्माएयाई कायाई पवेदिता, एतेस जाणे पडिल्लेह सायं । मनरे। यथा मृगापुत्रस्य दुःखविपाकाख्ये विपाकश्रुताश्रुतस्कन्धे कथितमिति दीघकालस्थितिकं स्वपरजन्मान्तरितं वेद्यते येन एतण कारण यायदंझे,एतेमु या विपरियातुर्विति ॥२॥ प्रकारेण सकृत्तथैवाऽनेकशो वा,यदि वाऽन्येन प्रकारेण सकृत्स(एयामित्यादि) पते पृथिव्यादयः काया जीवनिकाया | हस्रशो वा शिरश्छेदादिकं हस्तपादच्छेदादिकं चानुनूयत भगवद्भिः प्रवेदिताः कथिताः, गन्दसत्वान्नपुंसकलिङ्गता ।। इति। तदेवं ते कुशीला आयतदण्डाश्चतुर्गतिकसंसारमापना पूष प्रातपादितषु पृथिवीकायादिषु प्राणिषु सातं सुख श्ररहघटीयन्त्रस्यायेन संसारं पर्यटन्तः परं परं प्रकृएं प्रकृष्ट बानीहि । पतकं भवति-सर्वेऽपि सत्त्वाः सातैषिणो पुःख-दुःखमनुभवन्ति, जन्मान्तरकृतं कर्मानुजयन्तश्चैकमार्तध्यानोपह Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०६) कुसीस अन्निधानराजेन्डः । कुसील ता अपरं बध्नन्ति वेदयन्ति च,दुष्टं नीतानि दुर्नीतानि दुष्कृतानि, बहुतरागं अगणिकार्य समारभइ । से पतेणं अटेणं गोगमा ! न हि स्वकृतस्य कर्मणो विनाशोऽस्तीति भावः । तदुक्तम् एवं वुच्चर" । अपि चोक्तम्-“भूयाणं एसमाघाश्री, इब्धवाहे “मा होहि रे विसनो, जीव! तुमं विमण दुम्मणो दीणो। ण संसओ।"श्त्यादि । यस्मादेवं तस्मान्मेधावी सद्विवेकः सश्रुण हु वितिएणं फिट्टा, तं दुक्खं जं पुरा रायं ॥१॥ तिकः समीक्ष्य धर्म पापाडीनः पएिमतो नाग्निकार्य समारजते, जर पविससि पायालं, अम व दरिं गुहं समुदं वा । स एव च परमार्थतः परिमतो योऽग्निकायसमारम्भकृतात् पुवकयाउ न चुक्कसि, अप्पाणं घायसे जश् वि" ॥२॥ पापानिवर्तत इति ॥६॥ (५) एवं तावदोघतः कुशीलाः प्रतिपादिताः, तदधुना पाप- कथमनिकायसमारम्भेण अपरप्राणिवधो भवतीत्याशङ्कचाहएमकानधिकृत्याऽऽह पुढवी विजीचा आऊ वि जीवा, पाणासंपाश्म संपयति । जे मायरं वा पियरं च हिच्चा, संसेयया कट्ठसमस्सिया य,एते दहे अगणि समारभंते॥७॥ समणबए अगाणं समारभिज्जा। न केवलं पृथिव्याश्रिता ईन्जियादयो जीवाः, याऽपि च पृथ्वी अहाहु से लोऍ कुसीलधम्मे, मृखक्षणा असावपि जीवाः, तथा प्रापश्च ऽवलक्षणा जीवाः,त दाश्रिताश्च प्राणा: संपातिमाः शलनादयस्तत्र संपतन्ति । तथा जूताई जे हिंसति आयसाते॥५॥ संस्वेदजाः करीषादिविन्धनेषु घुणपिपीलिकाः कृम्यादयः का. ये केचनाऽविदितपरमार्था धर्मार्थमुच्छ्रिता मातरं पितरं च | ष्ठाद्याश्रिताश्च ये केचन,एतान् स्थावरजङ्गमान स दहेद्योऽग्निकार्य त्यक्त्वा, मातापित्रोऽस्त्यजत्वात् तदुपादानम,अन्यथा भ्रातृपु- समारजतेऽतोऽग्निकायसमारम्जो महादोषायेति ॥७॥ त्रादिकमपि त्यक्त्वेति द्रष्टव्यम् । श्रमणवते किल वयं समुपस्थि एवं तावदग्निकायसमारम्नकास्तापसास्तथा पाकादनिवृत्ताः ता इन्येवमन्युपगम्याऽग्निकार्य समारभन्ते पचनपाचनादिप्रकारेण कृतकारितानुमत्योहेशिकादिपरिभोगाचाऽग्निकायस शाक्यादयधोपदिष्टाः। साम्प्रतं ते चाऽन्ये वनस्पतिमारम्भं कुयुरित्यर्थः। अथेति वाक्योपन्यासार्थः, आहुरिति समारम्नादनिवृताः परामृश्यन्ते श्त्याहतीर्थकृमणधरादय एवमुक्तवन्तः, यथा-सोऽयं पापण्डिको | हरियाणि नूताणि विलंबगाणि, लोको गृहस्थलोको वाऽम्निकायसमारम्भात् कुशीसः कुत्सित आहारदेहाय पुढो सियाई । शीलो धर्मों यस्य स कुशीलधर्मा । अयं किंभूत इति दर्शयति जे छिंदनी आयमुहं पडुच, अनूवन भवन्ति भविष्यन्तीति नूतानि प्राणिनः, तान्यात्मसुखाथै दिनस्ति व्यापादयति । तथाहि-पञ्चाग्नितपसानिएप्तदेहास्त पगग्भि पाणे बहुणं-तिवाती ॥८॥ थाऽग्निहोत्रादिकया च क्रियया पाषण्डिकाः स्वर्गावाप्तिमि. हरितानि दूर्वाऽङ्करादीन्येतान्यप्याहारादेवृद्धिदर्शनादू भूताच्छन्तीति । तथा लौकिकाः पचनपाचनादिप्रकारेणाऽग्निकार्य नि जीवाः । तथा-विलम्बकानीति जीवाकारं यानि विलम्बन्ते समारजमाणाः सुखमभिलषन्तीति ॥ ५॥ धारयन्ति । तथाहि-कललार्बुदमांसपेशीगर्भप्रसषबालकुमारयु(६) अग्निकायसमारम्ने च यथा प्राणातिपातो भवति तथा वमध्यमस्वविरावस्थान्तो मनुष्यो जवति, एवं हरितान्यपि शादर्शयितुमाह स्यादीनि जातान्यभिनवानि संजातरसानि यौवनवन्ति परिपनज्जालो पाण निवातएज्जा, कानि जीर्णानि परिशुष्काणि मृतानि, तथा वृक्षा अप्यङ्करावस्था यां जाता इत्युपदिश्यन्ते, मूलस्कन्धशाखाप्रशाखादिभिर्विशेषैः निव्वावो अगणि निवायवेजा। परिवर्धमाना युवानः पोता इत्युपदिश्यन्त इत्यादि शेषास्वप्यतम्हा उ मेहावि समिक्ख धर्म, वस्थास्वायोज्यम्। तदेवं हरितादीन्यपि जीवाकारं विलम्बयन्ति ण पंमिए अगणि समारजिजा ।। ६॥ तत एतानि मूलस्कन्धशाखापत्रपुष्पादिस्थानेषु पृथक् प्रत्येक तपनतापनादिप्रकाशहेतुं काष्ठादिसमारम्नेण योऽग्निकार्य व्यवस्थितानि, न तु मूलादिषु सर्वेष्वपि समुदितेषु एक पव समारभते सोऽग्निकायमपरांश्च पृथिव्याद्याश्रितान् स्थावरां जीवः । एतानि च नूतानि संख्येयाऽसंग्श्येयानन्तभेदभिन्नानि, खसांश्च प्राणिनो निपातयेत,त्रिन्यो वा मनोवाकायेच्य आयुर्व वनस्पतिकायाश्रितान्याहारार्थ वा देहवतसंरोहणार्थ चात्मसुसेन्छियेज्यो वा पातयेन्निपातयेत, तथाऽग्निकायमुदकादिना खं प्रतीत्याश्रित्य यश्विनत्ति स प्रागल्भ्यात् धाविष्टम्नादहनिर्वापयेत् विध्यापयंस्तदाश्रितानन्यांश्च प्राणिनो निपातयेद्वा, नां प्राणिनामतिपाति भवति, तदतिपाताच निरनुक्रोशतया न तोज्ज्वासकनिर्वापकयोयोऽग्निकायमुज्वलयति स बहूनाम धर्मो नाऽप्यात्मसुखमित्युक्तं भवति ॥ ८॥ न्यकायानां समारम्भकः । तथा चाऽऽगमः-"दो भंते!पुरिसा किञ्चअनमनेण सिम् िअगणिकायं समारभंति, तत्थ णं एगे पुरिसे जातिं च बुद्धिं च विणासयंते, अगणिकायं उजालेश, से एगे णं पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ, तेसिं भंते ! पुरिसाणं कयरे पुरिसे महाकम्मतराए अप्पकम्म बीयाइ अस्संजय पायदंमे । तराप? गोयमा!तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेश्से अहाहु से लोऍ अणजधम्मे, णं पुरिसे बहुतरागं पुढविकायं समारनति । एवं पाउकायं वा बीयाइ जे हिंसति आयसाते । ए॥ उकायं वणस्सइकायं अप्पतरागं अगणिकायं समारजक, तत्थ जातिमत्पत्ति, तथाऽरपत्रमूलस्कन्धशाखाप्रशाखानेदेन वृणं जसे पुरिसे अगणिकायं निव्वावश से णं पुरिसे अप्पतरागं चि विनाशयन, बीजानि च तत्फलानि विनाशयन् हरितानि पुढविकार्य समारभर जाव अप्पतरागं तसकार्य समारभ छिनतीति। असंयता गृहस्थः प्रवजितो वा, तत्कर्मकारी Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुसील कुसील भनिधानराजेन्दः। गृहस्थ एव, स च हरितच्छदं विधायाऽऽत्मानं दगम्यतीत्या- एगे य सीओदगसेवणेणं,हएण एगे पवयंति मोक्ख।१। त्मदण्डः स हि परमार्थतः परोपधातेनाऽऽस्मानमेवोपहन्ति । अ रहेति मनुष्यलोके,मोक्षगमनाधिकारे वा,एके केचन मूढा अ. थशब्दो वाक्याबकारे, आहुरेवमुक्तवन्त इति दर्शयति-यो हरि झानाऽऽच्चादितमतयः परैश्च मोहिता, प्रकर्षेण वदन्ति प्रतितादिच्छेदको निरनुक्रोशः सोऽस्मिन् लोकेनार्यधर्मा क्रूरकर्म पादयन्ति। किं तत्-मोकं मोक्कावाप्तिम् । केनेति दर्शयन्ति-प्रा. कारी, भवतीत्यर्थः । स च एवंनूतो यो धर्मोपदेशेनात्मसुस्वार्थ वा बीजानि, अस्य चोपलकणार्थत्वाद् वनस्पतिकार्य, हिनस्ति हियत इत्याहार ओदनादिस्तस्य संपद्रसपुष्टिस्तां जनयती. स्याहारसंपज्जनं लवणं तेन ह्याहारस्य रसपुष्टिः क्रियते तस्य स पापएिमकलोकोऽन्यो वाऽनार्यधर्मा भवतीति संबन्धः ॥६॥ वर्जनं, तेनाऽऽहारसंपजनवर्जनेन लवणवर्जनेन मोकं वदन्ति । साम्प्रतं हरितच्छेदकर्मविपाकमाह पागन्तरं वा-"श्राहारसपंचयवज्जणेण"लवणपञ्चकमाहारसगन्जाइ मिति बुयाऽबुयाणा, पञ्चकं, लवणपञ्चकं चेदम्-तद्यथा-सैन्धवं सौवर्चलं बिऊ णरा परे पंचसिहा कुमारा। सामुकं चेति। लवणेन हि सर्वरसानामभिव्यक्तिर्भवति । तथा चोक्तम्-"लवणविहणा य रसा,चक्खुविहूणा य इंदियम्गामा। जुवाणगा मन्किम थेरगा य, धम्मोदयाएँ रहिओ, सोक्खं संतोसरहियं तो" ॥१॥ तथा सवणं चयंति ते आउखए पलीणा ॥१०॥ रसानां तैलं स्नेहानां घृतं मेध्यानामिति। तदेवंभूतलवणपरिव. शह वनस्पतिकायोपमर्दका बहुषु जन्मषु गर्भादिकास्ववस्थासु जनेन रसपरित्याग पव कृतो भवति, तत्यागाच्च मोक्कावाप्तिरिकललार्बुदमांसपेशीरूपासु नियन्ते, तथा ब्रुवन्तोऽत्रुवन्तश्च त्येवं केचन मूढाःप्रतिपादयन्ति। पाठान्तरंवा-"आहारो पञ्चकव्यक्तधाचोऽव्यक्तवाचश्च, तथा परे नराः पञ्चशिखाः कुमारा: वजणेण"भाहारत इति,ल्यसोपे कर्मणि पञ्चमी आहारमाश्रित्य सन्तोनियन्ते। तथा युवानो मध्यमवयसः,स्थविराश्च । क्वचित्पा- पञ्चकं वर्जयन्ति । तथा-लसुन पक्षाएगः करमीवीरं गोमांसं मा उ:-"मज्झिमपोरुसा यत्ति" तत्र मध्यमा मध्यमवयसः (पो- चेत्येतत्पञ्चकवर्जनेन मोकं प्रवदन्ति । तथैके वारिभद्रकादयो रुसा य त्ति) पुरुषाणां चरमावस्थां प्राप्ता अत्यन्तवृद्धा एवेति भागबतविशेषाः शीतोदकसेवनेन सचित्ताप्कायपरिभोगेन यावत् । तदेवं सर्वास्वप्यवस्थासुबीजादीनामुपमर्दकाः स्वा मोकं प्रवदन्ति । उपपत्ति च ते अनिदधति-यथोदकं बाह्यमलमयुषः नये प्रलीनाः सन्तो देहं त्यजन्तीति । एवमपरस्थावरजङ्ग पनयति एवमान्तरमपि । वस्त्रादेश्च यथादकाबुद्धिरुपजायते मोपमर्दकारिणामप्यनियतायुष्कत्वमायोजनीयम् ॥१०॥ एवं बाह्यशुद्धिसामर्थ्यदर्शनादान्तराऽपि शुद्धिरुदकादेवेति मन्यन्ते । तथैके तापसब्राह्मणादयो हुतेन मोक्ष प्रतिपादयन्ति । किश्चान्यत् ये किल स्वर्गादिफलमनाशंस्य समिधा घृतादिभिव्यविसंबुज्जहा जंतवो माणुसतं, शर्ष ताशनं तर्पयन्ति ते मोक्कायाग्निहोत्रं जुह्वति, शेषास्त्वदटुं जयं बालिसेणं प्रलंभो। भ्युदयायेति । युक्ति चात्र ते पाहुः-यथा ह्यग्निः सुवर्मादीनां मलं दहत्येवं दहनसामर्थ्यदर्शनादात्मनोऽप्यान्तरं पापमिति ॥१२॥ एगंतदुक्खे जरिए व लोए, तेषामसंबरूपलापिनामुत्तरदामायाऽऽदसकम्मणा विपरियासुवेइ ॥११॥ पात्रो सिणाणादिसु णस्थि मोक्खो, हे जन्तवः प्राणिनः! संबुध्यध्वं यूयं,नहि कुशालपाण्डिकलो खारस्स लोणस्स अणासएणं । कस्तृणाय भवति, धर्म च सुर्लनत्वेन संबुध्यध्वम् । तथा चोक्तम्-" माणुस्सखेत्तजाई, कुलरुवारोग्गमान्यं वुझी । स. ते मज्ज मंसं बसणं च भोच्चा, वणोग्गहसद्धा सं-ममो य लोगम्मि दुलहा ॥" तदेवमकृतध. अन्नत्य वासं परिकप्पयंति ॥ १३ ॥ माणां मनुष्यत्वमतिदुर्खनमित्यवगम्य, तथा जातिजरामरण- प्रातः स्नानादिषु नास्ति मोक इति प्रत्यूषजलाधगाहनेन निःरोगशोकादीनि नरकतिर्यकु च तीव्रदुःखतया भयं दृष्ट्वा, त- शीलानां मोक्को न भवति । आदिग्रहणाद हस्तपादादिप्रक्वालनं था बानिशेनाऽझेन सधिवेकस्याऽनम्न इत्येतश्चावगम्य, तथा गृह्यते। तथा ह्यदकपरिभोगेन तदाश्रितजीवानामुपमर्दः समुपनिश्चयनयमवगम्य एकान्तदुःखोऽयं ज्वरित श्व लोकः संसा जायते, न च जीवोपमर्दान्मोकावाप्तिरिति । न चैकान्तेनादक रप्राणिगणः। तथाचोक्तम् बाह्यमनस्याप्यपनयने समर्थम, अथाऽपि स्यात्तथाऽप्यान्तरमल "जम्म पुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य। न शोधयति,भावशुध्या तबुद्धः, अथ भावरहितस्यापि तच्छु. अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति पणिणो" ॥ किः स्यात् ततो मत्स्यबन्धादीनामपि जलाभिषेकेण मुक्त्यवाप्तिः तथा स्यात्। तथा कारस्य पश्चप्रकारस्याऽपि लवणस्याऽनशनेनाऽप"तबहारिहस्स पाणं, कूरो छायस्स नुज्जए तेती। रिभोगेन मोक्को नास्ति । तथाहि-लवणपरिभोगरहितानां मोको दुक्खसयसंपउत्तं, जरियमिव जगं कलय" ॥ न जवतीत्ययुक्तिकमेतत्ानचाऽयमेकान्ततो लवणमेव रसपुष्टिश्त्यत्र चैवंनूतलोके अनार्यकर्मकारी स्वकर्मणो विपर्यासमुपै जनकमिति, क्षीरशर्करादिभियनिचारात । अपि चासो प्रष्टव्य:ति सुखार्थी प्राण्युपमर्द कुर्वन् दुःखं प्रानोति तथा मोक्षार्थी कि व्यतो लवणवर्जनेन मोक्कावाप्तिरुत भावतः?। यदि व्यसंसारं पर्यटतीति ॥११॥ तस्ततो लवणरहितदेशे सर्वेषां मोक्षः स्यात,न चैवं रष्टमिटुवा। अथ जावतस्ततो नाव एव प्रधानं किं लवणवर्जननेतिः। तथा सक्तः कुशालविपाकोऽधुना तद्दर्शनान्यभिधीयन्ते ते मुढा मद्यमांसलशुनादिकं वा तुक्त्वा अन्यत्र मोक्कादन्यत्र हेग मूढा पवयंति मोक्खं, आहारसंपज्जणवज्जणेणं । । संसारे वासमवस्थानं तथाविधानुष्ठानमसद्भावात् सम्यग्दर्शन Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुसील कुसील अभिधानराजेन्द्रः । कानचारित्ररूपभोकमार्गस्याऽनुष्ठानाच परिकल्पयन्ति समन्ताद जे धोवती खूस यती व वत्यं, निष्पादयन्तीति । (अतः परं चतम्रो गाथाः 'उदग' शब्द द्वि० अहाहु से पागणियस्स दुरे ॥ १॥ भा० ७६६ पृष्ठे उक्ताः । एका च गाथा 'अग्निहोत्त' शब्दे प्र० भा० १७७ पृष्ठे नक्ता) ये केचन शीतलविहारिणो धर्मेण सुधिकया लब्धं धर्मलब्ध, उदशकक्रीतकृतादिदोषरहितमित्यर्थः । तदेवभूतमप्याहारउक्तानि पृथक्कुशीनदर्शनानि, श्रयमपरस्तेषां सामान्योपा- जातं निधाय व्यवस्थाप्य सन्निधिं कृत्वा जुञ्जन्ते । तथा-ये विलम्भ इत्याह कटेन प्राशुकोदकेनापि संकोच्याङ्गानि प्राशुक एवं प्रदेशे दे. अपरिक्ख दिहण हु एव सिद्धी, शसर्वस्नानं कुर्वन्ति । तथा यो वस्त्रं धावति प्रकालयति, तथा बषयति शोभाथै दीर्घमुत्पाटयित्वा हस्वं करोति, हस्वं वा एहिंति ते घायमबुज्जमाणा। संधाय दीर्घ करोति, एवं बूषयति, तदेवं स्वार्थ परार्थ या नूएहि जाणं पमिलेह सातं, यो वखं खूषयति अथाऽसौ ( णागणियस्स त्ति) निर्ग्रन्धभाविजं गहायं तसथावरेहिं ॥ १५ ॥ वस्य संयमानुष्ठानस्य दूरे वर्तते, तस्य न संयमो नवत्येवं ती थंकरगणधरादय पाहुरिति ॥२१॥ यैर्मुमुकुभिरुदकसंपर्कणाऽग्निहोत्रेण वा प्राण्युपमर्दकारिणा उक्ताः कुशीला, तत्प्रतिपकभूताः शीलवन्तः प्रतिपाद्यन्त - सिकिरिति, ते च परमार्थमबुध्यमानाः प्राण्युपघातेन पापमेव त्येतदाहधर्मबुख्या कुर्वन्तो घास्यन्ते वा व्यापाद्यन्ते नानाविधैः प्रकारैर्यस्मिन् प्राणिनः संघातः संसारस्तमेष्यन्ति अपकायतेजस्कायस कम्मं परिन्नाय दगंसि धीरे, मारम्भेण हि त्रसस्थावराणामवश्यंनावी विनाशः, तमाशे च सं- वियमेण जीविज य आदिमोक्खं । सार एव, न सिद्धिरित्यनिप्रायः, यत एवं ततो विद्वान् सदस से वीयकंदाइ अनुंजमाणे, द्विवेकी यथावस्थिततत्त्वं गृहीत्वा प्रसस्थावरतैर्जन्तुभिः कथं विरते सिणाणासु इत्यियासु ॥२॥ सांप्रतं सुखमवाप्यत इति एतत्प्रत्युपेढ्य जानीहि अवबुद्ध्यस्व । एतमुक्तं भवति-सर्वेऽप्यसुमन्तः सुखैषिणो दुःख द्विषः। न च धिया राजते इति धीरो बुद्धिमान्, (दगंसि ति) उदकतेषां सुस्वैषिणां दुःस्त्रोत्पादकत्वेन सुखावाप्तिनवतीति । यदि वा समारम्भे सति कर्मबन्धो भवति एवं परिकाय, किं कुर्या(विजं गहाय त्ति) विद्यां ज्ञानं गृहीत्वा विवेकमादाय प्रसस्था दिस्याह-विकटेन प्राशुकोदकेन सौवीरादिना जीव्यात् प्राणवरैर्भूतैर्जन्तुभिः करणनूतैः सातं सुखं प्रत्युपेक्ष्य पर्यालोच्य संधारणं कुर्यात् । चशब्दात् अन्येनाप्याहारेण प्राझुकेनैव जानीावगच्छति । यत उक्तम्-" पढमं नाणं तो दया,एवं चि प्राणवृत्ति कुर्यात् । आदिः संसारः, तस्मान्मोक आदिमोक्का, 5 सब्वसंजए। अनाणी किं काही, किंवा णाही व्यपाषग संसारविमुक्ति यावदिति । धर्मकारणानां तावदादिनूतं शमित्यादि" ॥१५॥ रीरं तद्विमुक्ति, यावज्जीवमित्यर्थः । किश्चासौ साधुर्वीजकन्दाये पुनः प्राण्युपमर्दैन सातमनिलषन्तीत्यशीलाः कुशीला दीन् भुजाना, आदिग्रहणाद् मूलपत्रफलानि गृह्यन्ते । एतान्यऽप्यपरिणतानि परिहरन् घिरतो भवति । कुत इति द. वते संसारे एवंविधा अवस्था अनुन्नवन्तीत्याह र्शयति-स्नानाभ्यतोवर्तनादिषु क्रियासु निष्पतिकर्मशरीरतयाथणंति लुप्पंति तसंवि कम्मी, उन्यासु चिकित्सादिक्रियासु न वर्तते, तथा स्त्रीषु च विरतः पुढो जगा परिसंखाय भिक्खू । वस्तिनिरोधग्रहणात् अन्येऽप्याश्रवा गृह्यन्ते । यौवंभूतः सतम्हा विऊ विरतो आयगुत्ते, वेभ्योऽप्याश्रधद्वारेभ्यो विरतो नाऽसौ कुशीसदोषैर्युज्यते, त दयोगाश्च न संसारे बम्तमीति । ततश्च न पुखितः स्तनति, दटुं तसे या पमिसंहरेज्जा ॥ २०॥ नापि नानाविधैरुपायैर्विलुप्यत इति ॥२२॥ तेजस्कायसमारम्भिणो नूतसमारम्नेण सुखमभिलषन्तो पुनरपि कुशीलानेवमधिकृत्याहनारकादिगतिगतास्तीवदुःखैः पौड्यमाना असह्यवेदनाघ्रा- जे मायरं च पियरं च हिच्चा-ऽगारंतहा पुत्त पसुंधणं च । तमानसा अशरणाः स्तनन्ति केवलं करुणमाक्रन्दन्तीति यावत् । कुलाई जे धावइ सानगाई,अहाहु से सामणियस्स दूरे।२३। (तथा सुप्पंतीति) ग्द्यिन्ते खङ्गादिभिः,एवं च कदीमानास्त्रस्य (जे मायरं चेत्यादि ) ये केचनाऽपरिणतसम्यधर्माणन्ति प्रपलायन्ते । कर्माएयेषां सन्तीति कर्मिणः,सपापा इत्यर्थः। स्त्यक्त्वा मातरं च पितरं च मातापित्रोर्दुस्त्यजत्वापादानम, तथा पृथक (जगा इति) जन्तव शति । एवं परिज्ञाय ज्ञात्वा भि प्रतो भ्रातृहित्रादिकमपि त्यक्त्वेति एतदपि कष्टव्यम् । कणशीलो निशुः, साधुरित्यर्थः । यस्मात्प्राण्यपमर्दकारिणः संसारान्तर्गता विलुप्यन्ते तस्माद्विद्वान् परिमतो विरतः पापानुष्ठा तथा अगारं गृहं, पुत्रमपत्यं, पशु हस्त्यश्वरथगोमहिण्यादिकं नादात्मा गुप्तो यस्य सोऽयमात्मगुप्तो, मनोवाकायगुप्त इत्यर्थः । धनं च त्यक्त्वा सम्यक् प्रवज्योत्थानेनोत्थाय पञ्चमहावतदृष्ट्वा च बसान्, चशब्दात् स्थावरांश्च दृष्ट्वा परिक्षाय तपघा भारस्य स्कन्धं दत्त्वा पुनहींनसत्त्वतया रससातादिगौरवगृतकारिणी क्रिया प्रतिसंहरेन्निवर्तयेदिति ॥२०॥ शो यः कुझानि गृहाणि स्वायुकानि स्वाऽनोजनबन्ति धावति गच्छति, अथाऽसौ श्रमणजावस्य श्रामण्यस्य दूरे वर्चत पवसाम्प्रतं स्वयूथ्याः कुशीला अभिधीयन्त इत्याह माहुस्तीर्थङ्करगणधरादय इति ॥ २३॥ जे धम्मलकं वि णिहाय मुंजे, एतदेव विशेषेण दर्शयितुमाहवियमेण साह य जे सिणाई। कुला जे धावइ साउगाई, Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुसील अनिधानराजेन्दः। कुसील अघाति धम्म उदराणुगिछे॥ उक्ताः कुशीलास्तत्प्रतिपक्षनूतान सुशीलान् प्रतिपादयितुमाहअहाहु से पायरियाण सयं से, अमातपिमेणऽहियासएज्जा, जो लावएज्जा असणस्स हेक ॥२४॥ जो पूयणं तवसा भावहेजा। (कुला जे धावतीत्यादि) कुलानि स्वाभोजनवन्ति धापति सद्देहिं रूवेहि असज्जमाणं, गच्छति, तथा गत्वा धर्ममाख्याति निक्षार्थ वा प्रवियो यद्यस्मै सव्येहि काहिँ विणीय गेहिं ॥२७॥ रोचते कथासंबन्धस्तं तस्याऽऽख्याति । किंभूत इति दर्शयति महातधासौ पिण्डश्चाशातपिण्डः, अन्तप्रान्त इत्यर्थः। - सदरेऽनुगृद्ध उदरानुगृकः उदरभरणव्यग्रः, तुन्दपरिमृज इत्य- कातेच्यो वा पूर्वापरासंस्तुतेच्यो वा पिएकोऽहातः सञ्छवृत्त्या थः । श्दमुक्कं भवति-यो धदरगृद्ध आहारादिनिमित्तं दान- सम्धस्तेनात्मानमधिसहेत् वर्तयेत् पासयेत् । एतमुक्तं भवतिधमकास्यानि कुलानि गत्वाऽऽक्ष्यायिकाः कथयति स कु- असमान्तेन सन्धेनाऽनम्धेन वा न दैन्यं कुर्यात, नाऽप्युत्कृष्टेन शील इति, अथाऽसावाचार्यगुणानां वा शतांशे वर्तत इति ।। सम्धेन मदं विदध्यात्, नाऽपि तपसा पूजनं सत्कारमावहेत्, न यो ह्यनस्य हेतुं भोजननिमित्तमपरवस्त्रादिनिमित्तं वा आत्म- पूजनसरकारनिमित्तं तपः कुर्यादित्यर्थः । यदि वा पूजासत्कारगुणानपरेणालापयेफ्राणयेत् असावयार्यगुणानां सहस्रांशे वर्त- निमित्तत्वेन तथाविधार्थत्वेन वा महताऽपि केनचित्तपो मुक्तिदेते, किमा! पुनर्यः स्वत एवाऽऽत्मप्रशंसां विदधातीति ॥२॥ तुकं न निःसारं कुर्यात् । तदुक्तम्-"परलोकाधिकं धाम, तपः किञ्च श्रुतमिति द्वयम् । तदेवाऽर्थित्वनिलप्त-सारं तृणलवायते"।१तथा णिक्खम्म दीणे परनोयणम्मि, चरसेषु गृचिन कुर्यात् । एवं शब्दादिष्वपीति दर्शयति-शम्दै पुषीणादिनिरान्तिप्तः संस्तेष्वसजन्नासक्तिमकुर्वन् कर्कशेषु मुहमंगलीए जदराणगिद्धे ॥ च द्वेषमगचन्, तथा रूपैरपि मनोतरैः रागद्वेषमकुर्वन् । एवं नीवारगिफे व महावराहे, सवैरपि कामैरिच्चामदनरूपैः सर्वेज्यो वा कामेच्यो गृर्षि अदूरए एहइ घातमेव ॥२५॥ बिनीयाऽपनीय संयममनुपालयेदिति । सर्वथा मनोकेतरेषु विषयेषु रागद्वेषं न कुर्यात् । यो ह्यात्मीयं धनधान्याहिरगयादिकं त्यत्तवा निकान्तो निष्कम्य च परजोजने पराहारविषये दीनो दैन्यमुपगतो जिह्वन्छिय तथा चोक्तम्पशादातों वन्दिवन्मुखमालिको नवति मुखन मङ्गलानि " सहेसु य भहयपावएसु, सोयविसयमुषगएसु । प्रशंसावाक्यानि ईशस्तारशस्वमित्येवं दैन्यभावमुपगतो तुहेण च रुण च, समणेण सया प होयव्वं ॥१॥ रूचेसुय भयपावपसु, चक्खुविसयमुवगपसु । वक्ति। उक्तं च-“सो एसो जस्स गुणा, वियरंत न वारिया दसं तुहेण च रुटेण च, समणण सया ण होयव्वं ॥२॥ दिसासु । इहरा कहासु सुश्चसि, पश्चक्त्रं अत्थ दिछोसि" इत्येवमौदर्य प्रति गृद्धोऽध्युपपन्नः । किमिव नीवारः सूकरादि गंधेसु य भयपावएसु, घाणविसयमुवगएसु। मृगजक्ष्यविशेषस्तस्मिन् गृह आसक्तमना गृहीत्वा च स्वयूथं म तुरेण च रुडेण च, समणेण सया ण होयन्वं ॥३॥ दावराहो महाकायः सूकरः । एवकारोऽवधारणे, अवश्यं तस्य भक्नेसु य भयपावएसु, रसणविसयमुपगएसु । विनाश एव, नाऽपरा गतिरस्तीति, एवमसावपि कुशीस श्रा तुरेण च रुट्टेण च, समणेण सया न होयध्वं ॥४॥ हारमात्रगृद्धः संसारोदरः पौनःपुन्येन विनाशमेवैति ॥१५॥ फासेसु य नहयपावपसु, फासविसयमुवगएसु । किञ्च तुट्टेण च रु?ण च, समणेण सया न होय" ॥५॥२७॥ यथा चेन्द्रियनिरोधो विधेय एवमपरसङ्गनिरोधोऽपि कार्य अमस्स पाणस्सिह सोइयस्स, इति दर्शयतिअणुप्पियं जासति सेवमाणे ॥ सव्वा संगाई अइच्च धीरे, पासत्ययं चेव कुसीलयं च, सव्वा मुक्खा तितिक्खमाणे । निस्सारए होश जहा पुलाए ॥ १६ ॥ अखिले अगिफे अणिए य चारी, (अमस्सेत्यादि)स कुशीलोऽन्नस्य पानस्य वा कृतेऽन्यस्य चैहि अजयंकरे निक्खु अणाविलप्पा ॥१८॥ कार्थस्य वस्त्रादेः कृते अनुप्रियं भाषते, यद्यस्य प्रियं तत्तस्य व (सम्वाद इत्यादि) सर्वान् बाह्यांश्च व्यपरिग्रहलक्षणामतीदतोऽनु पश्चाद् भाषतेऽनुभाषते । प्रतिशब्दकवत सेवकवा रा त्य त्यक्त्वा धीरो विवेकी सर्वाणि दुःखानि शारीरमानसानि त्यजाधुक्तमनुवदतीत्यर्थः । तमेव दातारमनुसेवमानः पाहारमा. क्त्वा परीषहोपसर्गजनितानि तितिकमाणोऽधिसहमऽसिलो प्रगृहः सर्वमेतत्करोतीत्यर्थः। स चैवंभूतः सदाचारनष्टः पा ज्ञानदर्शनचारित्रः सम्पूर्णः, तथा कामेष्वगृखः, तथानियतचारी वस्थभावमेव व्रजति कुशीलतां च गच्चति । तथा निर्गत ए अप्रतिबद्धविहारी, तथा-जीवानामभयंकरोऽपि भिक्कणशीलो कान्ततः सारश्चारित्रास्यो यस्य स निःसारः,यदि वा निर्गतस्य निकः साधुरेवमनाविसो विषयकषायैरनाकुलात्मा बस्याम्सासारो निःसारः स विद्यते यस्याऽसौ निःसारवान्, पुलाक इव बनाविलात्मा संयममनुवर्तत इति ॥२०॥ निष्कणो भवति यथा, एवमसौ संयमानुष्ठानं निःसारीकरोति । किशान्यत्एवंचूतचाऽसौ निङ्गमात्रावशेषो बहूनां स्वयूथ्यानां तिरस्कारपदवीमवाप्नोति, परलोके च निकृष्टानि यातनास्थानान्य जारस्स जाता मुणि मुंजएज्जा, वाप्नोति ॥२६॥ कंखेज पावस्स विवेग भिक्खू ।। Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुसील अभिधानराजेन्डः। कुसील मुक्खेण पुढे धुयमाश्एज्जा, गामकुमारियं किडं, नातिवेदं हसे मुणी॥श्या संगामसीसे व परं दमेज्जा ॥ २॥ तत्र साधुभितादिनिमित्तं ग्रामादौ प्रविष्टः सन् परो गृहस्थस्तस्य संयमनारस्य यात्राऽर्थ पञ्चमहावतभारनिर्वाहणार्थ,मुनिः का गृहं परगृहं तत्र न निषीदेनोपविशेत्,उत्सर्गतोऽस्यापवादं दर्शयलत्रयवेत्ता, भुञ्जीत आहारग्रहणं कुर्वीत, तथा पापस्य कर्मणः ति-नान्यत्रान्तरायेणेति । अन्तरायःशक्त्यन्नावः, सच जरसारोपूर्वचरितस्य विवेकं पृथग्जावं विनाशमाकाङ्केद्भिक्षुः साधुरिति। गातङ्काभ्यां स्यात्तस्मिंश्चान्तराये सत्युपविशेद्यदि वोपशमलब्धितथा दुःखयतीति दुःखं परीषदोपजनिता पीडा,तेन स्पृष्टो व्याप्तः मान कश्चित्सुसहायो गुर्वनुज्ञातः कस्यचित्तथाविधस्य धर्मदेशसन् धूतं संयम मोकं वा आददीत गृएहीयात् , यथा सुन्जटः नानिमित्तमुपविशेदपि,तथा प्रामे कुमारका ग्रामकुमारकास्तेषामिकश्चित संग्रामशिरसि शत्रुनिरनिद्रुतः परं शत्रु दमयति, एवं यं ग्रामकुमारिकाऽसौ क्रीमा हास्यकन्दर्पहस्तसंस्पर्शनासिङ्गनाssपरं कर्मशत्रु परीषहोपसर्गाऽनिगुतो दमयेदिति ॥२॥ दिका, यदि वा वट्टकन्दुकादिका, तां मुनिन कुर्यात् , तथा वेशा मर्यादा तामतिकान्तमतिवेवं, न इसेन्मर्यादामतिक्रम्य मुनिः अपि च साधनावरणीयाद्यष्टविधकर्मबन्धभयान्न हसेतू।तथा चागम:अवि हम्ममाणे फसगाव तट्ठी, "जीवे णं भंते! हसमाणे उस्सृयमाणे वा कर कम्मपगमीश्रो समागमं कंखति अंतकस्स । बंधह?। गोयमा! सत्तविह पंधए वा अविह बंधए वा" इत्यादि। विध्य कम्म ए पवंचुवेत, किञ्चअक्खक्खए वा सगर्म ति बेमि ॥ ३०॥ अणुस्सुओ जरालेसु, जयमाणो परिबए । (अविहम्ममाणेत्यादि)परीषहोपसगैहन्यमानोऽपि सम्यक सह- चरियाए अप्पमत्तो, पुट्ठो तत्थ हियासए ॥३०॥ ते।किमिव फलकवदकृष्टः यथा फलकमुभाभ्यामपि पााज्यां नराला उदाराः शोजना मनोझा ये चक्रवादीनां शब्दादिषु तष्ठं घट्टितं सत्तनु नवति अरक्तं द्विवा संभवत्येवमसावपिसा विषयेषु कामभोगा वस्त्राभरणगीतगन्धर्वयानवाहनादयः, तथा धुः सबाह्याभ्यन्तरेण तपसा निष्टप्तदेहो दुर्बलशरीरोऽरक्तद्धि प्राज्ञैश्वर्यादयश्चैतेषूदारेषु दृष्टेषु श्रुतेषु वा नोत्सुका स्यात्। पाठापश्चान्तकस्य मृत्योः समागमं प्राप्तिमाकाङ्कत्यभिलषता एवं चा. न्तरं वा-ननिधितोऽनिश्रितोऽप्रतिबकः स्याद । यतमानश्च संय. प्रकारं कर्म निर्धूयाऽपनीय न पुनःप्रपञ्च जातिजरामरणरोगशोकादिकं प्रपञ्च्यते बहुधा नटवद्यस्मिन् स प्रपञ्चःसंसारस्तं नो. मानुष्ठाने परि समन्तान्मूलोत्तरगुणेषु उद्यम कुर्वन् व्रजेत् संयम गच्छेता तथा चर्चायां भिकादिकायामप्रमत्तः स्यात,नाहारादिषु पैति न याति । दृष्टान्तमाह-यथाऽकस्य क्षये विनाशे सति शकटं रसगाय विदध्यादिति । तथा स्पृष्टश्वाभिद्रुतश्च परीषहोपसर्गगळ्यादिकं समविषमपथरूपं प्रपञ्चमुपष्टम्नकारणभावान्नोप स्तत्रादीनमनस्कः कर्मनिर्जरां मन्यमानो विषहेत सम्यक सयाति, एवमसावपि साधुरष्टनकारस्य कर्मणः क्ये संसारप्र ह्यादिति । सूत्र० १ श्रु० ६अ। पञ्चं नोपयातीति । गतोऽनुगमोऽनया, पूर्ववदितिशब्दः परिसमाप्त्यर्थे, ववीमीति पूर्ववत् ॥३०॥ सुत्र १ श्रु०७ अ०। (८) पार्श्वस्थादिसंसर्गदोषमाह(७) पार्श्वस्थादिसंसर्गों न कर्तव्यः वजिज्ज य संसग्गि, पासत्थाहि पाव मित्तेहिं । अकुसीले सया भिक्खू, णेव संसग्गियं नए । कुज्जा य अप्पमत्ता, सुरुचरित्तेहिँ धीरेहिं ॥३०॥ मुहरूवा तत्थुवस्सग्गा, पमिवुज्जेज्ज ते विऊ ॥२॥ विवर्जयश्च संसर्ग संबन्धमित्यर्थः । वैरित्याह-पार्श्वस्थादि भिः पापमित्ररकल्याणमित्रैः सह; कुर्याञ्च संसर्गमप्रमत्तः सन् कुत्सितं शीलमस्येति कुशीनः, सच पार्श्वस्थादीनामन्य शुद्धचारित्रधारः साधुभिः सहेति गाथार्थः ॥ ३०॥ तमः, न कुशीलो अकुशीलः, सदा सर्वकालं भिक्वणशीलो किमित्येतदेवमित्यत्राहभिक्षुः कुशीलो न भवेन्न चापि कुशीलैः सार्धं संसर्ग सांगत्यं भजेत सेवेत । तत्संसर्गदोषोभिभावयिषयाऽऽह-सुख- जो जारिसेण मेत्ति, करे अचिरेण तारिसो होइ । रूपाः सातागौरवस्वन्नावास्तत्र तस्मिन् कुशालसंसर्गे सं- कुसुमेहि सह वमंता, तिला वितग्गांच्या इंति ॥३१॥ यमोपघातकारिण उपसर्गाः प्रापुष्पन्ति । तथाहि-कुशीबव यः कश्चित् यादृशेन येन केनचित् सह मैत्री संसर्गरूपां करोतारो भवन्ति-कः किन प्रासुकोदकेन हस्तपाददन्तादिके प्र ति सोऽचिरात् तादृशो भवति । अत्र निदर्शनमाह-कुमुभैः सह काल्यमाने दोषः स्यात्, तथा नाशरीरो धर्मों जवति इत्यतो येन फेनचित्प्रकारेणाधाकर्मसान्निध्यादिना तथा नपानच्छत्रा वसन्तः सन्तस्तिला अपि तन्धिनो भवन्ति कुसुमगन्धिन दिना च शरीरं धर्माधारं वर्तयेत् । उक्तं च-"अप्पेण बहु एवेति गाथार्थः ॥ ३१ ॥ अत्राहमेसज्जा, एयं पंझियलक्खणं । " इति “ शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीरात्स्रवते पापं, पर्वतात्सलिलं यथा ॥१॥" सुचिरं पि अत्यमाणो, वेरुन्निो कायमणिअउम्मीसो। तथा साम्प्रतमल्पानि संहननानि अस्पधृतयश्च संयमे जन्तव न उवेइ कायभावं, पाहप्तागुणेण निअएणं ।। ३२॥ इत्येवमादि कुशीलोक्तं श्रुत्वा अल्पसत्वास्तत्रानुषज्जन्त्येवं वि- सुचिरमपि प्रनुतमपि कालं तिष्ठन् वैडूयों मणिविशेषः,काचाच द्वान् विवेकी प्रतिबुद्धयत जानीयात्, बुध्वा चापायरूपं कुशी. ते मणयश्च काचमण्या, कुत्सिताः काचमणयः काचमणिकाः, लसंसर्ग परिहरेदिति । तैरुत्प्राबल्येन मिश्रः काखमणिकोन्मिश्रः, नोपैति न याति काचकिश्चान्यत् नाव काचधर्म प्राधान्यगुणेन वैमल्यगुण्येन निजेनान्मायेन,एवं नन्नत्थ अंतराएणं, परगेहे ण णिसीयए। सुसाधुरपि पार्श्वस्थादिभिर्न यास्यतीति गाथार्थः ॥३२॥ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुसील तथा सुचिरं पित्यमाणो, नलथंजो उच्छुवाममज्जम्मि । कीस न जाय मरो, जा संसग्गी पमाणं ते १।। ३३ ।। सुचिरमपि प्रभूतमपि का मितम् विशेष घाटमध्ये संसगत्किमिति न जायते मधुरः यदि संसर्गी प्रमाणं तवेति गाथार्थः ॥ ३३ ॥ ( ६१४ ) अभिधानराजेन्द्रः | प्रोरमाह । भाग अनावुगाणि अ, ओए दुविहाणि होति दम्पाणि । वेरु तत्व मणी, अभागो अदम्बे ॥ ३४ ॥ भाग्यन्ते प्रतियोगिता गुरात्मभावमापद्यन्त इति भाव्यानि बेकादीनि प्राकृतशैल्या भायुकान्युध्यन्ते । अथ वा प्रतियों गिनि सति सद्गुणापेकृया तथा जयनशीलानि भावुकानि “ल पपतपदस्थाभूवृषहनकमगमनृभ्य उकञ् " ३।२।१५४ । इति पाणिनिसूत्रादुक, तस्य ताच्छीलिकत्वादिति । तद्विपरीतानि अभाग्यानि च नलादीनि लोके द्विविधानि द्विप्रकाराणि भवन्ति पाणि वस्तुनि पस्तत्र मणिरभाव्योऽन्यन्यैः काचादिनिरिति गाथार्थः ॥ ३४ ॥ स्यान्मतिर्जीभूत एव भविष्यति न पार्श्वस्यादिसं सर्गेण तद्भावं यास्यतीत्येतश्च श्रसद्, यतःजीवो अणाइनिहरणो, तजावणजावियो संसारे। अ खियं सो भाविज्जर, मेनणदोसाणुजात्रेणं ।। ३५ । जीवः प्राग्निरूपित शब्दार्थः, स धनादिनिधनोऽनाद्यपर्यन्त इत्यथेः । तद्भावनाभावित पार्श्वस्थाद्याचरितप्रमादादिभावनाभावित संसारे तिर्यनरनारकामरमवानुभूतिल सावनाभावितत्यात प्रिं शीघ्रं स जायते प्रमादादिभावनया श्रात्मीक्रियते मीलनदोषानुजावेन संसर्गदोषानुभावेनेतिगाथार्थः ॥ ३५ ॥ अथ नाचतो दृष्टान्तमात्रेण परितोषः ततो मद्विवक्षितार्थप्रतिपादकोऽपि दृष्टान्तो ऽस्त्येव, शृणु वस व निवस्सप दोहदं पि समागपाई मूलाई । संगी विडो, isो निवत्तणं पत्तो ॥ ३६ ॥ तिमिवासितामवृक्षः समुत्पन्नः पुनस्तत्राम्रस्य च निम्बस्य च द्वयोरपि समागते एकीभूते मूले ततश्च संगीत संगत्या विनष्टाम्रो नित्यं प्राप्तः तिरुफल सं त इतिगाथाऽर्थः ॥ ३६ ॥ ततब्ध 9 दोषान्तरोपदर्शनेन प्रकृतमेव समर्थयन्नाह - संसगी दोसा, निअमादेवेह होइ भकिरिया । झोप गरिहा पाने, अमर मो तह य आणाई ||३७|| संसर्गात संस पार्श्वस्थादितिः सदेति गम्यते दोष हमे नियमादेवेह, या च भवत्य क्रिया तडुपरोधेन तथा लोके ग प्रवति-सर्व एवैते एवंभूता इति, तथा पापेऽनुमतिर्भवति पा स्थादिसम्बन्धिनी, तत्सङ्गमात्र निमित्तत्वादनुमतेः, तथा श्रा शादयश्च दोषा भवन्तीति गाथाऽर्थः ॥ ३७ ॥ पं० च० । ( कुशलसंसर्गे दोषाः 1 किश्कम्म' शब्देऽपि ५० पृष्ठे ऽस्मि क्षेत्र भागे भाविताः, ततस्ते तत एवाभ्यभायोः) कुसीलपरिभासा कुसीधम्म- कुसलमन न० पुं० कुत्सितशीलो धर्मों यस्य कुशीलधर्मा । सावद्यकर्मणा धर्मत्वाभिमानिषु, “अहाहु से लोऍ कुसीलधम्मे, भूताएँ जे हिंसति आयसाते । " सूत्र० १ श्रु० ७ ० । कुमीपमिसेवया कुसीलमतिसेवनका (सा) श्री० कुशीलमब्रह्म तस्य प्रतिमेवनं कुशलप्रतिसेवनं तद्द्भावः कुशी सेवा उपसर्ग कुशीलस्य वा प्रतिसेयेषु कुशख प्रतिसेवनकाः । मानुष्योपसर्गभेदेषु, स्था० ४ ठा० ४ उ० । कुसीलपविणा-कुशीसमतिसेवना श्री० [मैथुनप्रति संचा याम्, स्था० ४ ठा० ४ उ० । | कुसीलपग-कुशलपञ्चकन० पार्श्वस्थायसायाच्छन्दसकुशलपञ्चके, महा० २ श्र० । कुसीझपरिभासा - कुशीलपरिभाषा - स्त्री० | सुत्रकृताङ्गस्य प्रथ मधुतस्कन्धस्य सप्तमेऽध्ययने, तत्र कुशीलाः परतीर्थिकाः पा श्वस्यादयो वा स्वयूथ्या अशीलाश्च गृहस्थाः परि समन्ताद् माध्यन्ते प्रतिपाद्यन्ते तदनुष्ठानतस्तद्विपाक दुर्गतिगमनाश्च निरूव्यन्त इति तथा द्विपर्ययेण कचित्सु वातिनिध श्रघनामसूत्रालापकदा तत्रनिनियनं नाम निष्पने कुशलपरिभाषेति सूत्र० साम्प्रतं कुलपरिभाषाकदस्या उपचयनस्याभ्यां दर्शवि तुमाह परिनासिया कुशीला य, एत्य जावंति अविरता केई । सुत्तिपसं सासुको, कुंति दुगुंवा अपरिमुो ॥ ० ॥ (परिनासिया इत्यादि) पर समन्ताद जापिता प्रतियादिताः कुशलाः कुत्सितीला परतीर्थिकाः पायस्थादय । चशब्दाद् यावन्तः केचनाऽधिरता अस्मिन्नित्यत इदमध्ययनं कुशलपरिजायेत्युच्यते । किमिति कुशीला अशुद्धा गृह्यन्ते !, स्वाद सुपि निपातः प्रायां शुरू था-सौराज्यमित्यादि तथा कुरियमपि निपातो जुगुप्साया 時 मविषये वर्त्तते इत्यादि। यदि कु स्सितशीलाः कुशलाः कथं तर्हि परतीर्थिकाः पार्श्वस्यादद्य तथाविधा भवन्ति इत्याहअकापसेवी, नार्म जो य शीलवादी व फाएं वयंति सीलं, फासूया नो अनुंजंता ॥ ६१ ॥ (अफाप इत्यादि) अस्य शीलरास्तस्यामाध्ये - चाहि का फलनिरपेक कियास्वाभरणादिषु प्रस प्रदर्शितः अस्युपशमप्रधाने चारित्रे तथाहितत्प्रधानाशी तपस्थीति तद्विपर्ययेण इति स बेहभावी लोप इति च यानाययनादिमुत्या धर्माधायरी यत्पालनाहारण्यापास उपः कपिस्तीत्यतस्तदाश्रययेनैव यत्र कुतीर्थिक पार्श्वस्थादियों अमाकं सवितं प्रति सवितुं शीलमस्य स भवत्यप्राशुकप्रति सेवी नामशब्द संभाव नाय भूषः पुनन्तमात्मनेपदितुं शीलं यस्य स शीलवादी, किमित्येवं वः प्रयुकमत शीलं तद कं भवति यः प्राशुमुमादिदोषरहितमाहारं तं शीख तंवन्ति ताः तथाहि पतयो प्राशुकमुमादिदोषदुड Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुसीलपरिभासा अभिधानराजेन्द्रः। कुसुर मेषाऽऽहारमभुजानाः शीलवन्तो भण्यन्ते नेतर इति स्थितम् । नाशब्दस्य निपातत्वेनाऽवधारणार्थत्वादिति । कुसुमग्गथण-कुसुमग्रथन-न० । स्त्रोकलाभेदे, कल्प०७ कण । अप्राशुकभोजित्वेन कुशीलत्वं प्रतिपादयितुं दृपान्तमाह- कुपुमघरय-जुसुमगृहक-न० । कुसुमप्रायवनस्पतिगृहे, ज्ञा०१ जह णाम गोयमा चं-मिदेवगा वारिजद्दगा चेव । श्रु०३ अाकुसुमप्रकारोपचिते गृहे,जं० १वक्व० जी० । रा०। जे पग्निहोत्तवादी, जलसोयं जे य इच्छति ॥ ॥२॥ कुसुमणयर-कुसुमनगर-न०। पाटलिपुत्रे, प्रा०म० द्वि०। (जह णाम इत्यादि) यथेति दृष्टान्तोपक्षेपार्थ, नामशब्दो वाक्यालङ्कारे।गीतमा इति गोवतिका गृहीतशिकं बघुकायं वृषभ कुसुमदाम-कुसुमदामन्-न० 1 पुष्पमालायाम, उपा०१०। मुपादाय धान्याद्यर्थ प्रतिगृहमटन्ति । तथा (चंडिदेवगा इति) | कुसुमदामकोदंग-कुसुमदामकोदएम-पुं० । कामदेवे, “ मुंडमाचक्रधरप्रायाः । एवं वारिभषका अम्भकाः शवलाशिनो नित्यं लिए जं पणएण तं नमहं कुसुमदामकोदंगकामहुं" प्रा०४पाद । मानपानादिधायनाभिरता वा । तथा ये चाऽन्येऽग्निहोत्रवादिनोऽग्निहोत्रादेव स्वर्गगमनमिच्छन्ति, ये चान्ये जलशौचमिच्छन्ति | कुसुमप्पअर-कुसुमप्रकर-पुं० । " समासे वा" ८।२।१७ । भागवतादयस्ते सर्वेऽप्यप्राशुकाहारभोजित्वात् कुशीला इति । इति पद्वित्वं वा । पुष्पसमूहे. प्रा० २ पाद । चशब्दात् ये च स्वयथ्याः पाास्थादय उसमाच शुद्धमादारं भुञ्जन्ते, तेऽपि कुशीला इति । गतो नामनिष्पन्नो निवेपः ॥ कुसुमपुर-कुसुमपुर-न० । पाटलिपुत्रे, वृ० ३ उ० । सूत्र. नि. १ ध्रु० ७ ० । प्रा० चू० । आव० । कुसुमभर-कुसुमजर-पुं०।पुष्पसम्भारे, "कुसुमभरसमोणमंतपसा प्रश्ना तलविसालसालं" कुसुमभरण पुष्पसंभारण समीषदधनमकुसीललिंग-दुशीललिङ्ग-न० पार्श्वस्थादीनां चिह्न, उत्त म्त्यः पत्रसमृकाः, पत्रसमिद्धति स्कन्धपत्रलमिति वचनात् २० अ. विशाला विस्तीर्णाः शालाः शाखा यस्य सः कुसुमनरसकुसीलविहारि (ण)-कुशीझविहारिन्-पुं० । आजन्माऽपि मवनमत्पत्रलविशालशालः । रा०। सानाद्याचारविराधके, भ० १० श०४ उ०। कुमुमवाहि-कुसुमदृष्टि-स्त्री०।दशार्डवर्णपुष्पवर्षे,पश्चा०२ विष। कुसीलसंसग्गि-कुशीलसंसर्गि-पुं० । पार्श्वस्थादिसम्बन्धे, दशावर्णजल जाधोभागस्थायिवृत्तजाम्बूनदप्रमाणकुसुमवर्षणे, सावद्यमनायतनमशोधिस्थानं कुशीलसंसर्गिः, एतान्येकार्थका दर्श। नि पदानि भवन्ति । अोध०। कुसुमसंथर-कुसुमसंस्तर-पुं०।पुष्पशयने,प्रश्न० ५ सम्ब० द्वार। कुमीस-कुशिष्य-पुं० । दुष्टशिष्ये, उत्त० २७ अ०। कुसुमसंजव-कुसुमसम्नव-पुं० । वनस्पतिषु बाहुल्येन कुसुमाकुसुभ-कुसुम्न-पुं० । लट्टायाम, स्था०८ग। भ० । औष- नां मल्लिकापाटलादीनां सम्नवो यस्मिन् स तथा । मधुमासे, धिनेदे, प्रज्ञा० १ पद । श्राचा०। भानि० चा बट्टकरागे, "अह कुसुमसंभवे काले, कोइला पंचमंसरं।" अनु०।कल्प यत्पुपर्वस्त्रादिरागः समुत्पद्यते । जं.२ वक । “चत्तारि । स्था। चं०प्र००। ज्यो०। सू०प्र०। इंति तेल्ला, तिप्रयसिकुसुंभसरिसवाणं च।" प्रव० ४ द्वार। "जे सुंभए से कुसुभए " अनु० । कमण्डली, स्वर्णे, कुसुमसम-कुसुमसम-त्रि० । पुष्पसदृशे, तं० । न० । वाचा कुसुमसार-कुसुमसार-पुं० । मलयमहायाः पितरि सार्थवाहे, कुमुट्ट-कुशावर्त पुं० । ब०व० । आर्यदेशभेदे, यत्र सौरिकनग- "विजयमणणंदणे णयरे कुसुमसारसत्यवाहसुकुमालियाए रं, 'सोरियं कुसुट्टा य' सौरिकं नगरं, कुशावों देशः । प्रव० भारियाए मलयमहा नाम उहिया" दर्श। २७३ द्वार । सूत्र। कुसुमालिओ-देशी-शून्यमनसि, देना०२ वर्ग। कुमुम-कुसुम-न० । कुस-उम | गुणाभावः । पुष्पे, जं. १ वक्ष०ाजी०रा०ादशास्था० मी०।कल्प प्रज्ञा "पुप्फा- कुसुमासव-कुसुमासव-न० । कुसुमस्य तसस्याऽऽसबम् । मनि. तज्जाते मद्य च । वाच०। किजल्के, औ० णि य कुसुमाणि य,फुल्लाणि य तहेव होति पसवाणि ।सुमणाणि य सुहुमाणि य,पुष्फाणं होति एगट्ठा ॥" दश०८०ापनप्रभस्य कुसुमासवलोल-कुसुमासवलोल-त्रि० । किजस्कपानसम्पटे, यते, स च नीलवर्णः कुरङ्गवाहनश्चतुर्भुजः कलानययुक्तदक्ति- जी० ३ प्रति०। जंग | रा० । औ। णपाणिद्वयो नकुलाकसुत्रवामपाणिद्वयश्च । प्रव० २७ द्वार। कुसुमकुंमल-कुसुमकुएमल-न । हृतपूरकपुष्पसमानाकृतिक कुमुमिय-कुसुमित-त्रि० । कुसुमानि पुष्पाणि सजातानि एषाभरणे, अन्त०४ वर्ग। मिति कुसुमिताः। तारकादिदर्शनादितच प्रत्ययः । रा० । स्था। संजातकुसुमेषु, भ०१श० १० जी०। । जं० । प्रा० कुसुमकेन-कुसुमकेतु-पुं० । अरुणवरद्वीपाधिपतिदेवे, द्वी०। म० । मुकुलितेषु, बृ०१ उ०। कुमुमक्खयधूव-कुसुमावतधूप-पुं० । पुष्पमालायखण्डतएकुल- कुसुर-ताम्बूल-न० । “गोणाऽऽदयः"।८।२।१७४ । इति कृष्णागरुसारधूपेषु, दर्श। ताम्बूलस्थाने कुसुरादेशः । नागवल्लीदले, प्रा०पाद । Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुसूल अभिधानराजेन्द्रः। कूड कुमूल-कुशूल-पुं० । कोष्ठे, स्था० ३ ग०१०। य चउत्था" ॥४५॥ इन्द्रजालगोलकखेलनाद्याः, आदिकुसेज्ज-कुशय्य-त्रि० । कुत्सितशयने, जं० २ वक्षः । प्रश्न । शब्दात्समस्याप्रहेलिकादयो गृह्यन्ते ।जीत। कुहिय-कुथित-त्रि० । कोथमुपनीते,झा०१श्रु०१अकोयवति, कुह-कुह-पुं० । कुहयति विस्मापयति ऐश्वर्येण । कुह-अच् । कुबेरे, पुं० । विस्मापके,त्रि० । वाच० । वृते, "कुहा महीरुहा प्रश्न० ५ सम्ब० द्वार। पूतिभावमुपगते, जी० ३ प्रति० । विनऐ | च । ज्ञा०१ श्रु०१०।। वच्छा, रोवगा रुंजगा वि य"। एते द्रुमपर्यायाः। दश०७०। कुध्-स्त्री०। सम्पदादि० भावे क्विए। क्रोधे, ध०२ अधि०। कुहियकढिणकट्ठज्य-कुथितकग्निकाष्ठलत-त्रि० । विनष्टक केशदारुभूते, तं। कुहंड-कूष्माएम-पुं० । रत्नप्रभापृथिव्या उपरितनयोजनशत-| कुहियकिमिय-कुथितकृमिक-त्रि०। विनष्टकृमिके, का० १ ४० वर्तिनि व्यन्तरनिकायविशेषे, औ०। १ । कुहमिया-कृष्माएिमका-स्त्री० । पुष्पफल्याम, राम कुहियपूइय-कुथितपूतिक-त्रि० । अत्यन्तकुथिते, प्रश्न ५ सकुहमियाकुसुम-कृष्माधिमकाकुसुम-न० । पुष्पफलीकुसुमे,| म्ब० द्वार। रा० । जी०। कुहुन्वय-कुहुव्रत-पुं०। कन्दविशेषे, उत्त० ३६ अ०। कुहग (य)-कुहक-न० । कुह-बा क्विन् । इन्द्रजाले,असद्वस्तुनः कुहेमग-कुहेटक-पुं० । अलीकाश्चर्यविधायकमन्त्रतन्त्रयन्त्रकासत्वेन बोधके व्यापारनेदे, वञ्चनायाम, स्त्री०। किपकादित्वा- | नात्मिकायां विद्यायाम,उत्त०२० अ०"तेसु न विम्दया सयं, द् नेत्वम् । वाच० । धावतोऽश्वस्य उदरप्रदेशसमीपे सं- आहट्ट कुहेडपहिं व । " अत्र आहट्ट सि प्रहेलिका, कुहेमक मच्छितवायुविशेषे, "घणगज्जियहयकुहए, विज्जुदुगिज्जगूढ- आभाणकः प्रायः प्रसिक एव । प्रव०७३ द्वार । वक्रोक्तिविहिययात्रो।" अत्र कुहकशब्देन यो धावतोऽश्वस्योदरप्रदेशस- शेषे, पृ०१ उ०। मीपे संमच्छितवायविशेष उत्पद्यते स प्रोच्यते। यत उक्तं परि-कडेगा-कोटका-स्त्री० पिरामायके. पनाविव । गिशिरापर्वणि श्रीहेमचन्छसृरिपादैः-'दभ्यो च स्वर्णकारोऽपि, च-| एमाली, प्रव०४ द्वार। रितं योषितामहो। अश्वानां कुहकाराव-मिह को वेत्तुमीश्वर'?।१। कुहेमयविजासवदारजीवि (ए)-कुहेटकविद्याश्रवधारजीविन्ग०२ अधि०। त्रिकाकुहेटका विद्याः कुहेटकविद्या अलीकाश्चर्यविधायकमकुहमा-देशी-कुब्जे, दे० ना०२ वर्ग । त्रयन्त्रतन्त्रज्ञानात्मिकाः, ता एव आश्रवद्वाराणि, तैर्जीवितुमाजीहण-कुहन-न० । ईषत् प्रयत्नेन हन्यते।हन्-कर्मणि वा अप्! विकां कर्तुं शीलं यस्य स कुहेटकविद्याश्रवद्वारजीवी । कुहेटकमृदनाण्डे, काचपात्रे च । तयोरीषत् प्रयत्नेन हन्यमान विद्यया कर्मोपार्जनहे तुजूतया जीवननिर्वाहके, "कुहेडविजासस्वात्तथात्वम् । कुत्सिताचारेण हन्ति । हन् अचाईर्षाली, त्रि०। वदारजीवी, न गच्छई सरणं तम्मि काले।" उत्त० २ अ० । कुं पृथिवीं हन्ति, हन अच् । मूषके, स च। पुं० । स्त्री० ।। कुहेवाग-कुहेवाक-पु० । कुत्सिता हेवाका अाग्रहविशेषाः कुहेस्त्रियां ङीप । वाच। भूमिस्फोटकाभिधाने वनस्पतिनेदे, श्रा- | वाकाः । कदाग्रहेषु, "श्माः कुहेवाकविडम्बनाः स्युस्तेषां न येचा०१ श्रु०१०५उ०प्रकाशनसभा 'स किंतं कुहणा?। षामनुशासकस्त्वमिति" । स्या० ३ श्लोक । स्था। कुहणा अणेगविहा पमत्ता।तं जहा-"पाए काए कुदणे, कुणके कृ-कुतप-पुं० । तैलादिनाजने, “कूअम्गाहा" ज०३ वक०। दबहलियाए।सपम्भाए सत्ताए उत्तोप वंसीणहिया कुहरए"।१। या घमे तहप्पगारासेत्तं कुहणा"। प्रशा०१ पद ।सूत्र० प्रश्न। कूप्रणया-कूजनता-स्त्री० । प्रार्तस्वरकरणे, स्था०३ग०३७०। कुणी-कूष्माएकी-स्त्री०। वहीभेदे,आचा०१ श्रु०१ अ०५उ०। काय-कृजित-न । कासिते, अविधिना मुखवस्त्रिकां करं वा कुहर-कुहर-न० । विवरे, प्रश्न० ४ श्राश्र द्वार । रा० । पर्वता- मुखेनाध्मायकृते,आव०४अापक्किनेदे, अव्यक्तशब्दे च । वाचा न्तराले, शा०१श्रु०१०। रा०जिनमरामपादिके,नं०। कणे, कृचिया-कृर्चिका-स्त्री० । विन्दुरूपेषु बुद्देषु, विशे० ।" अंब. कण्ठशब्दे, गले, समीपे च । न० । वाच०। तणेण जीहाप, कृचिया होइ खीरमुदगम्मि। हंसो मुत्तण जलं, कुहाम-कुनगर-पुं। परशौ,सुत्र०१ श्रु०१ अ० १ उ० । विपा। आपियइ पयं तह सुसीसो" ॥१४६७॥ श्रा० म०प्र० । विशे। 'जो परं कुहाडेहिं तव्वो' नि००१०। काष्ठसंस्करणसा- | कूजंत-कूजन-त्रि० । अव्यक्तं शब्दायमाने, झा०१ श्रु०००। धनप्रहरण, उत्त० १६ अ०। कूम-कूट-पुं० । कूट-अच् । यथायथं कर्मादौ घञ् वा । अगकुहामहत्य-कुठारहस्त-त्रि० । परशुपाणी, सूत्र. १ श्रु० ५ स्त्यमुनी, गृढे, पुं० । स्त्री०। निश्चले राशौ, लौहमुद्रे, दम्भे, अ०१ उ०। मायायाम्,वाचा असदुलते, आव०६अ। प्रव० । भ्रान्तिजनकहामी कुठारी-स्त्री० । शस्त्रविशेषे,आचा०१ श्रु० १०५७०। काव्ये, भ०७२०६०। जं० । कार्षापणतुलाप्रस्थादेः पर वञ्चनार्थ नानाविधकरणे, सूत्र०२ श्रु०२ अान्यूनाधिककरणे, कुहावणा-कुहना-स्त्री० । 'कुह' विस्मापने। अदन्तस्य धुरादित्वा- का०१०२० प्रश्न अनेकेषां मृगादीनां प्रहणाय नानाविदिनि “षिपन्ध्यासिविदिकारितान्तेभ्यो युः" ति युप्रत्ययः। धप्रयोगकरणे,रा गौणमोहनीयकर्मणि,स०३० समानरके, कुहना। विस्मयकारिण्यां दन्तक्रियायाम, "धावणडेवणसंध- कश्चिदतिक्रूरकर्मा तन्मध्यात्कूटमिष कूटं प्रनूतप्राणियातनाहेतु. रिस-गमणकिडाकुहावणाईसु । उकिगोयगेलिय-जीवस्याईसु त्वात् नरक इत्यर्थः,यथैव हि कूटनिपतितो मृगो व्याधैरनेकधा Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१७ ) अभिधानराजेन्द्रः । कूड हन्यत एवं नरकपतितोऽपि जन्तुः परमाधार्मिकैरिति । उत० ५ ० । “जे गिद्धे कामभोपसु, एगे कूडा य गच्छति" । उत्त० ५ प्र० । प्राणिनां पीडाकरे स्थाने, उत्त० ६ श्र० । दुःखोत्पत्तिस्थाने, सुत्र० १० ५ ० १ उ० । हस्त्यादिबन्धनस्थाने, शा० १ ० १ ० । भ० । सत्त्वबन्धनस्थाने, स्था०४ ठा० १ उ० । गलयन्त्रपाशादिके, सूत्र० १० ५ ० २ ० । " एगंतकूडे जर महंते, कूडेण तत्थावि समे हताओ ।" सूत्र० १० ५ श्र० २ ० । शिखरे, स्था० ४वा० २० । जं० जी० ॥ भ० । पर्वतशिखरे, विपा० १ ० ३ ० रा० । पर्वतोपरि व्यवस्थिते शिखरे, सु० प्र०१६पाहु० । महति शिखरे, रा० । श्रधोविस्तीर्णे उपरि संकीर्णे वृत्त पर्वते, ०१ ० १ ० । पर्वतानां मध्यभागे, जं० २ ० रा० । जी० । अथ कुरूहिमवदादीनां कूटानि । तत्र कुहिमवतःहिमवंते णं भंते! वासहरपव्वए कई कूडा पत्ता ! | गोमा ! इक्कारस कूमा पहणता । तं जहा- सिद्धाययणमे १ चुल हिमवंत २. जरहकूमे ३ इलादेवीकूमे ४ गंगाकडे ए सिरिकूडे ६ रोहिांसाकूमे ७ सिंधुदेवीकूडे छ सुदेव हेमवय १० वेसमणकूडे ११ । कहि जंते ! चुहिमवंते वासहरपव्वए सिकाययणकू णामं कृप । गोयमा ! पुरच्छिमलवण समुद्दस्स पञ्चच्छि - मेणं चुल्लहिमवंवकूडस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं सिवाययणकू णामं कूडे पत्ते | पंच जोयणसयाई उटुं उच्चत्तेणं मूले पंच जोयणसयाई विक्खंजेणं मज्जे तिरिए अपक्षतरे जोअसर विक्खणं उपि इज्जे जो असर विक्रमेणं मूले एगं जो णसहस्सं पंच य एगासीए जोstree किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं मज्भे एवं जोअणसहस्सं एगं च छलसी जोअणसयं किंचि विसेसृणं परिक्त्रेवेणं उपिं सत इक्काणउए जो अणसए किंचिविसेसूणे परिवेत्रेणं मूले वित्थ मज्भे संक्खिते पितए गोपुच्छ ठाणसंविए सव्वरयणामए अच्छे से गं ए गए उमराए एमेण य व संडेणं सव्वत्र समंता संपरिरक्खिते सिध्ययणस्स कूमस्स एणं उपि बहुसमरमहिज्जे भूमिजागे पत्ते, तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहु मज्झदेसभाए एत्य णं महं एगे सिद्धाaणे पष्पचे, पष्मासं जोअणाई आयामेणं पणवीणं जोयाई विक्खणं छत्तीसं जोश्रणाई नङ्कं उच्चतेणं जाव जिल्पमिमा वरणओ जाणिव्वो । कहि पं भंते ! हिमवंते वासहरपव्वर चुल्लहिमवंत कूदे णामं कूरे प से? । गोयमा ! जरहकूमस्स पुरच्छ्रिमेणं सिवाययणकूडस्स पच्छिमेत्य चुनहिमंते वासहरपव्वए चुल्लहिमवं तक कामं कूरे पणते । एवं जो चेत्र सिकाययण कूरुस्स उच्चच विक्खंभपरिक्खेवो जाब बहुसमरमणिज्जस्स भूमिनागस्स बहु मज्ऊदेसभाए एत्य णं महं एगे पासाय १५५ For Private कूड वडेंस पाते, बासहि जोणार अजोयणं च उच्चत्ते इक्कतीसं जो णाई कोसं च विक्खनेणं अन्जुग्गयमूसिअपहसिए विविह्नमणिरयणभत्तिचित्ते वाट अविजयबेजयंतीपमागच्छत्ताइच्छत्तकलिए तुंगे गगणतलम जिलंघमाणसिहरे जालंतररयण पंजरंमीलिए व्व मणिरबधूभित्र्याए विश्रमिमयवचपुंमरी अतिलय रयणद्धचन्द चित्ते पाणामणिमयदामालं किए तो बाहिं च सएहे वइरतवणिज्जरुइलवा लुगा पत्थडे मुहफासे सस्सिरीए अरू पा साइए जान परूिवे तस्स णं पासायवमेंसगस्स तो बहुसमरमणिज्जे भूमिजागे पणत्ते० जाव सीहासणपरिवारं । सेकेट्टेणं एवं बुच्चर चुम्न हिमवतकूमे कूडे ? | गोयमा ! चुहिमवंते यामं देवे महिष्ठीए जान पविसइ । कहि णं जंते ! चुहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स चुहिमवंता खामं रायहाणी पण्णत्ता १ । गोमा ! हिमवंतस्स दाहिणं तिरिश्रमसंखिज्जे दीवसमुद्दे बीई वा तं जंबुद्दीवं दीवं दाहिणेणं बारस १ सहस्सा ओगाहित्ता इत्य णं चुल्लहिमवंतस्स देवस्स हिमवंता गामं राहाणी पत्ता, बारस जोअणसहस्साई आयामविष्णं एवं विजयरायहाणीसरिसा भाणियन्त्रा । एवं अवसाय विकृमाणं वतव्वया अव्वा, आयामविक्खनपरिक्खेत्रपा सायदेवयाओ सीहासणपरिवारो - हो अ देवाण य देवी य रायहाणीओ ऐअन्वाओ, चउसु देवा चुल्लहिमवंत १ भरह २ हेमवय ३ वेसमण कूरेसु४ सेसेसु देवया ॥ व्यक्तं, नवरं सिद्धायतनकूटं, कुल्लहिमगिरिकुमारदेवकूटं, जरता - धिपदेवकूटम, इलादेवी सुरादेवी कुटे तु षट्पञ्चाशदिककुमारीदेवीवर्गमध्यगते देव कुटे, गङ्गादेवीकूटं श्रीदेवी कूटं, रोहितांशादेवकूटं, सिन्धुदेवकूटं, सुरादेवीकूटं, हैमवतत्रर्षेशसुरकूटं वैव लोकपालकूटम् । श्रथैतेषामेव स्थानादिस्वरूपमाह - (कहि णमित्यादि) क्व भदन्त ! खुल्लदिमवद्वर्षधरपर्वते सिद्धायतनकूटं प्रतम ? | गौतमेत्यादिनिर्वचनसुत्रं व्यक्तं, नवरं पञ्चयोजनशतान्युच्चैस्त्वेन मूले पञ्चयोजनशतानि विष्कम्भेण मध्ये त्रीणि च योजनशतानि पञ्चसप्ततिशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि विष्कम्भेण उपरि अर्कतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेण मूले एकं योजन सहस्रं पञ्च एकाशीत्यधिकानि योजनशतानि किडिव - द्विशेषाधिकानि, किञ्चिदधिकानीत्यर्थः । मध्ये एकं योजनसहस्रम, एकं षडशीत्यधिकं योजनशतं किञ्चिदूनमित्यर्थः । अयं भावः एकं सहस्रमेकं शतं पञ्चाशीतिर्योजनानि पू निशेषं च क्रोशत्रिकम, धनुषामष्टशतानि त्रयोविंशत्यधिकानि इति किञ्चित पडशीतितमं योजनं विवक्तितमिति । तथा बपरि सप्त योजनशतानि एकनवत्यधिकानि किञ्चिनानि परिकेपेण । अत्राप्ययं भावः सप्तशतानि नवतिर्योजनानि पूर्णानि शेषं क्रोशद्विकं, धनुषां सप्तशतानि पञ्चविंशत्यधिका नीति किञ्चि द्विशेषोनम, एकनवतितमं योजनं विवचितं परिक्केपेणेति सर्वत्र Personal Use Only Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूम (६१८) अभिधानराजेन्द्रः। ग्राह्यम् ,शेष स्पष्टम अथात्र पनवरवेदिकाद्याह-से णमित्यादि' तक, हेमवयकुम, रोहिअकूम, हिरीकूडे, हरिकंतकूके, प्रकटम, अत्र यदस्ति तत्कथनायोपक्रमते-सिद्धायतनमित्या हरिवासकूमे, वेरुलिअकूमे, एवं चुहिमवंतकूडाणं जा दिनिगदसिरूम, नवरं प्रथमयावत्पदेन वैताख्यगतसिहायतनकटस्यैवात्र वर्णको ग्राह्यः, द्वितीयेन तातसिद्धायतनादिवर्ण वत्तव्यया सा चेव अव्वा ॥ क इति। अथात्रैव चुहिमझिरिकूटवक्तव्यमाह-(कहि णमित्या- (महाहिमवते त्ति) महाहिमवर्षधरपर्वते भगवन् कति कूटादि)कप्रदन्त ! क्षुहिमवतिवर्षधरपर्वते चुहिमवतकूटं नाम नि? गौतमेत्यादिसूत्रं सुगमम् । कूटानां नामार्थस्स्वयम्-सिद्धाकूटं प्रकप्तमीगौतमेत्यादि उत्तरसूत्रं प्राग्वत्, नवरं "एवं जो चे- यतनकूटं महाहिमवदधिष्ठातृकूटं रोहितानदीसुरीकूटं हीसुरीत्यादि" अतिदेशस्त्रे एवमित्युक्तप्रकारेण य एव सिकायतनकूट- कूटं दरिकान्तानदीसुरीकूटं हरिवर्षपर्वतकूट, वैडूर्यकूटं तुतकस्योचत्वविष्कम्नाभ्यां युक्तः परिक्षेपः उच्चत्वाविष्कम्भपरिक्षपे स्नमयत्वात् तत्स्वामिकत्वाच्चेति । एवमिति कूटानामुष्चत्वादि मध्यमपदसोपी समासः, स इहापि हिमवत्कूटे बोध्य इत्यर्थः । सिहायतनप्रासादानां चानादित्वं ततस्वामिनां च यथारूप इदं च वचनं उपनक्षणभूतं, तेन पावरवेदिकादिवर्णनं सम- महर्शिकत्वं यत्र च राजधान्यस्तत् सर्वमत्रापि वाच्यं, केवलं भूमिमागवर्णनं च शेयम् । कियत्पर्यन्तमित्याह-यावद्वहुसमरम- नामविपर्यास एव देवानां राजधानीनां चेति । जं. ४ पक्का। णीयस्य चूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्रान्तरे महामेकः प्रा भरते दीर्घवैतात्यपर्वतस्यसादावतंसकः प्रज्ञप्तः । प्रासादानाम प्रायामाद् दिगुणोच्छ्रितवास्तुविशेषाणामवतंसक श्व शेखरक इव प्रासादावतंसक,प्र. जंबू ! मंदरदाहिणे णं भरहे दीहवेयले नव कूडा पमत्ता। धानप्रासाद श्त्यर्थः। सच प्रासादो द्वाषष्टि योजनान्यद्धयोजन तंजहा-"सिके भरहे खंग-माणी वेयपुस्पतिमिसगुहा । च उच्चत्वेन एकत्रिंशद्योजनानि क्रोशं च विष्कम्नेण समचतुरन भरहे वेसमणे य, भरहे कूमाण नामाइं" ॥१॥ त्वादस्यायामचिन्ता सूत्रकृता न कृता, तत्र हेतुर्वैतात्यकूटगतग्रासादाधिकारे निरूपित इति ततो शेयः। कीरश श्त्याह-अज्य. भरतग्रहणं विजयादिव्यवच्छेदार्थम, दीर्घग्रहणं वर्सलवतात्यझता अनिमुखेन सर्वतो विनिर्गता उत्सृता प्रबलतया सर्वासु व्यवच्छेदार्थमिति । ( सिद्धे ति) तत्र सिद्धायतनयुक्तं सिकदिक्षु प्रसृता। यद्वा-अभ्र आकाशे उझता उत्सृता प्रबलतया स. कूटं सक्रोशयोजनषट्कोच्छ्यमेतावदेव मूले विस्तीर्णम, पतदतस्तिर्यक प्रसृता एवंविधा या प्रभा तया सित इव बद्ध कोपरि विस्तारं क्रोशायामेनार्कक्रोशविष्कम्भेण देशोनकोशोश्व, तिष्ठतीति गम्यते। अन्यथा कथमिवासावत्युच्चनिरालम्ब च्चेनापरदिग्द्वारवर्गपञ्चधनु-शतोच्यं तदर्द्धविष्कम्भद्वारत्रस्तिष्ठतीति भावः । अत्र हि उत्प्रेकया इदं सूचितं भवति योपेतेन जिनप्रतिमाष्टोत्तरशतान्बितेन सिद्धायतनेन बिजुषिकर्द्धमधस्तिर्यक आयततयायाः प्रासादप्रभास्ताः किल रज्जवस्ता तोपरितनभाग इति; तच्च वैतात्ये पूर्वस्यां दिशि, शेषाणि तु भिर्बक इति । यदि वा प्रबलश्वेतप्रभापटलतया प्रहसित इव क्रमेण परतस्तस्मादेवेति । जरतदेवप्रासादावतंसकोपलकित प्रकर्षेण हसित श्वेति। विविधा अनेकप्रकारा ये मणयो रत्नानि भरतकूटम् (खंमग त्ति)खरामप्रपाता नाम वैतात्यगुहा, यया च, मणिरत्नयो दश्चात्र प्राग्वत् । तेषां भक्तिभिः छित्तिनिश्चित्रो । चक्रवर्ती अनायकेत्रात्स्वकेत्रमागच्छति तदधिष्ठायकदेषसंवनानारूप आश्चर्यवान् वा । वातोद्धृताबायुकम्पिता विजयोऽभ्यु न्धित्वात्खएमप्रपातकटमुच्यते । (माणीति) मणिभकाभिधान दयः, तत्संसूचिका वैजयन्तीनाम्न्यो याः पताकाः, अथवा वि देवावासत्वान्माणिभकूटम् । (वेयकृत्ति) वैतात्यगिरिनाथजया इति वैजयन्तीनां पार्श्वकर्णिका उच्यन्ते, तत्प्रधाना वैज देवनिवासात वैताव्यकूटमिति । (पुष्पत्ति) पूर्णभद्राऽनिधानदेयन्त्यः पताकाः,ता एव विजयावर्जिता वैजयन्त्यः, छत्रातिच्छत्रा वनिवासात् पूर्णभकूटम् । तिमिस्रगुहा,यया स्वक्षेत्राचक्रवर्ती एयुपर्युपरि स्थितान्यातपत्राणितैः कलितं तुङ्गम, उचस्वेन सार्ध चिलातक्षेत्र याति तदधिष्ठायकदेवावासात्तिमिस्रगुहाकूटमिति । द्वापहियोजनप्रमाणत्वात्। अत एव गगनतलमभिलवयदनुलि (जरहे त्ति) तयैव वैश्रमणझोकपालावासत्वाद्वैश्रमणकूटमिस्वच्छिखरं यस्य स तथा, जालानि जालकानि गृहनित्तिषु लोके ति । स्थाएगा। यानि प्रतीतानि, तदन्तरेषु विशिष्टशोभानिमित्तं रत्नानि रच- अथ यथोद्देशं निर्देश इति प्रथमं सिद्धायतनकूटस्थानप्रश्नमाहना वा यस्मिन् स तथा, सूत्रे च विनक्तिलोपः प्राकृतत्वात्। पञ्जरादुन्मीलित श्व बहिष्कृत इव,यथा किमपि वस्तु घंशादिमय कहिणं नंते ! जंबुद्दीवे दीवे जारहे वासे वेयपव्वए प्रच्छादनविशेषाद्वहिष्कृतमत्यन्तमविनष्टप्रायं नवति एवं सोऽपि सिद्धायतणकूडे णाम कूमे परमत्ते?।गोयमा ! पुरातमन्नवप्रासादावतंसक इति भावः। अथवा जालान्तरगतरत्नपञ्जरै समुदस्स पच्चच्छिमेणं दाहिणभरहकूमस्स पुराच्छिरत्नसमुदायविशेषैः जन्मीलित श्व,उन्मिषितलोचन इवेत्यर्थः। मेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेअले पन्चए मणिकनकमवस्तूपिका इति प्रतीतमा विकसितानि विकस्वराणि शतपत्राणि पुण्मरीकाणि च कमलविशेषा द्वारादिषु तैश्चित्रो सिघाययणकृ णामं कूडे पसत्ते । छ सकोसाइं जोयणाई रूप आश्चर्यवान् वा, नानामणिमयदामालकृत इति व्य- उर्फ़ उच्चत्तेणं मूझे छ सकोसाइं जोअणाई विक्खंभेणं मज्के कम्। अन्तर्वहिश्च श्लक्णो मसृणः, स्निग्ध इत्यर्थः। तपनीयस्य देसणार्ड पंच जोअणाई विक्खंभेणं उपरि साइरेगाई तिमि रक्तसुवर्णस्य सत्रिसया काकणिस्तासां प्रस्तटः प्रतरः प्राङ्गणेषु जो निक्खंजेणं मल्ले देसणाई बीसं जाणाई पारयस्य स तथा । शेषं पूर्ववत्। जं०४ वक्व० । स्था। महाहिमवतः कूटानि क्खेवणं मज्के देसूणाई पठारस जोअणाई परिक्खेणं उवरि महाहिमवते वासहरपब्बए का कूमा पासत्ता। गोयमा! साइरेगाई णव जोधणाई परिक्खवेणं मूझे वित्थिएणे मज्के अट्ट कूमा पमत्ता । तं जहा-सिकाययणकूमे, महाहिम- संक्खित्ते उप्पि तणुए गोपुच्छसंगणसंठिए सब्बरयणामए Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूम अभिधानराजेन्द्रः। कूम भत्वे साडे जाव पडिरूवे तेणं एगाए परमवरवेइयाए कजरहे णाम देवे महक्किए जाव पलिमोवमहिए परिवसएगण य वणसंमेणं सबओ समंता संपरिक्खत्ते पमाणं इसे एं तत्थ चटएहं सामाणिसहस्साणं चलएई भग्गवसनो दोण्हं पि सिकायतणकूमस्स एं उप्पिं बहुसमरम- महिसीणं सपरिवाराणं तिएहं परिसाणं सत्तरंभणियाणं णिज्जे मिनागे पप्पत्ते । से जहाणामए आलिंगपुक्खरे- सत्तएई अणिमाहिवईणं सोलसएहं आयरक्खदेवसाह वा जाव वाणमंतरा देवा व जाव विहरंति, तस्स णं स्सीणं दाहिणजरहस्स दाहिणवाए रायहाणीए अमेसि बहुसमरमाणिज्जस्स जूमिनागस्स बहुमज्देसजागे एत्थ णं बहूणं देवाण य देवीण य० जाव विहरइ । कहिणं ते! दामहं एगे सिद्धाययणे पछत्ते कोसं आयामेणं अद्धकोसं हिणहजरहकूमस्स देवस्स दाहिणा णाम रायहाणी पम्मविखंजेणं देसूर्ण कोसं उठं उच्चत्तेणं अणेगखंभस- ता?। गोयमा ! मंदरस्स पन्बयस्स दक्षिणेणं तिरियमसंखज्जे यसनिविडे खंझुग्गयसुकयवश्वेइआतोरणवररइासा- दीवसमुद्दे वीईवइत्ता अप्ां जंबुद्दीवं दीवं दक्खिणेणं बारस सनंजिअसुसिलिट्ठविसिट्टलहसंठियपसत्यवेरुलिअविमल- जोअणसहस्साई जग्गहित्ताए एत्थ णं दाहिणजरहकूखंभे पाणामणिरयणखचिअनज्जलबहुसममुविजत्तलू- कस्स देवस्स दाहिणलरहा णामं रायहाणी जाणिव्वा, मिनागे ईहामिगनसनतुरगणरमगरविहगवालगकिंनररुरु- जहा विजयस्स देवस्स, एवं सव्वकूमाणेयव्याजाव वेसमसरजचमरकुंजरवणलयपनमलयभत्तिचित्ते कंचणमणिरय णको परोप्परं पुरच्छिमपच्चच्छिमेणं, मीसिं वयावासे णधूभियाए णाणाविहपंचवस्मघंटापमागपरिमंमिश्रग्गसि- गाहा-"मज्के वेअकृस्स उ, कणगमया तिलि होति कूड़ाहरे धवले मरीइकवयं विणिम्मुअंते लाइनबोअम- भो । सेसा पव्वयकूमा, सव्वे रयणामया होति ॥१॥" हिए जाव ऊया तस्स एं सिचायतणस्स तिदिसिं माणिजद्दकूढे १ वेयकूमे २ पुएणजद्दकूमे ३, एए तिल्लि तो दारा पत्ता, तेणं दारा पंच धणुसयाई उठं उच्चत्तेणं | कूडा कणगमया, सेसा गप्पि रयणमया दोएहं विसरिसअलाइज्जाइंधणसयाई विक्खनेणं तावश्यं चेव पवेसेएं णामया देवा कयमालए चेव एटमालए चेव, सेसाणं एवं से भावरकणगयूभिअगा दारवमोजाव वणमाला। तस्स | सरिसणामया "जं णामया य कूमा, तन्नामा खलु हवंति ते णं सिद्धाययणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे जूमिनागे देवा। पसिनोवमहिया, हवंति पत्तेज पत्तेअं" ॥१॥ पत्ते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरे वा सिद्धाययणस्स रायहाणीभो जंबुद्दीचे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाणं बहुसमरमणिज्जस्स नूमिनागस्स बहुमदेसजाए हिणणं तिरिनं असंखेजे दीवसमुद्दे वीईवइत्ता एणएत्थ णं महं एगे देवच्छंदए पएणत्ते । पंच धणुसयाई म्मि जंबुद्दीवे दीवे वारस जोमणसहस्साई भोगाहित्ता श्रआयामविखंनेणं सारेगाई पंच धासयाई उई उच्च- एत्य पं रायहाणीमो जाणिवाओ विजयरायहासेणं सव्वरयणामए एत्थ णं अट्ठसयं जिणपमिमाणं पीसरिसयाओ॥ जिणुस्सेहमाणमित्ताणं संनिक्खित्तं चिट्ठइ, एवं जाव "कहि णमित्यादि" कराव्यम, नवरं दकिणाभरतकूटं बाह्यधूवकडेच्चुगे । कहिणं नंते ! वेअपव्वए दाहिणजरहे मस्मात्पश्चिमदिग्वर्तीनि, ततः पूर्वेणेति तच्चोच्चत्वादिना कि यत्प्रमाणमित्याह-(छ सकोसाई इत्यादि) सक्रोशानि षट्योजकूमे णामं कूझे पप्पत्ते । गोयमा ! खंगप्पवायकृमस्स नान्यद्धाच्चत्वेन मूले सक्रोशानि षट् योजनानि विष्कम्भेण मध्ये पुरच्छिमेणं सिद्धाययणकूमस्स पच्चच्छिमेणं एत्थ एं देशोनानि पञ्च योजनानि, सपादकोशन्यूनानि पञ्च योजनानीवेअरूपचए दाहिणतरहकमे णामं कूड़े पत्ते । सि त्यर्थःविष्कम्भेण उपरि सातिरेकाणि त्रीणि योजमामि, मई क्रोशाधिकानि त्रीणि योजनानीत्यर्थः। विष्कम्भेणेति, प्रथास्य काययणकूमप्पमाणसरिसे जाव तस्स णं बहुसमरमणि शिस्त्ररावधोगमने विवक्तितस्थाने पृथुत्वकानाय करणमुच्यतेज्जस्स नूमिनागस्स बहुमज्जदेसनाए एत्थ णं महं एगे शिखरादेव प्रत्येकं यावद्योजनादिकमतिकान्तं तावत्प्रमाणे यो. पासायवमेंसए पप्पत्ते , कोसं उठं उच्चत्तेणं अचकोसं जनादिके द्विकेन भक्ते कूटोत्सधार्द्धयुक्त च यज्जायते तदिष्टविक्खंनेणं अन्जुगयमूसिअपहसिए० जाव पासाईए ४ | स्थाने विष्कम्नः । तथाहि-शिखराकिल त्रीणि योजनानि, को शार्माधिकान्यवती ततो योजनत्रयस्य क्रोशाधिकस्य तस्स णं पासायव.सगस्स बहुमज्दसनाए एत्थ णं महं द्विकेन जागे लब्धाः षट् क्रोशाः,क्रोशस्य च पादः कटोत्सेधश्च एगा मणिपेढिया परमत्ता। पंच धणुसयाई आयामविक्खं- सक्रोशानि षट् योजनानि अस्यार्द्ध योजनत्रयी क्रोशाकोधिका, भेणं असाइजाईघासयाई बाहोणं सचमणिमई तीसेणं अस्मिंश्च पूर्वराशौ प्रतितेजातानिसपादकोशानि पञ्च योजनामणिपटियाए पि सिंहासणं पएणते , सपरिवारं मि,इयान्मध्यदेशे विष्कम्नः। एवमन्यत्रापि प्रदेशे जावनीयम्। तथाजाणियन्वं । से केणढणं ते! एवं बुच्चइ दाहिणतरह मूलादूर्द्धगमने एस्थाने विष्कम्नपरिझानाय करणमिदम-मूला. दतिक्रान्तयोजनादिके द्विकेन प्रके लब्धं मूलव्यासाच्चोयते, कूड़े णामं कुमे । गोयमा ! दाहिण नरहकूमण दाहिण- अवशिष्टमिष्टस्थाने विष्कम्भः । तथाहि-मूलाद् योजमानि को Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२० ) निधानराजेन्द्रः । कह शाधिकानि ऊर्द्ध गतः अस्य द्विकेन भागे लब्धाः षट् क्रोशाः, कोशस्य च पादः, एतावन्मूलव्यासात् शोभ्यते, शेषं पञ्च यो जनानि सपादकोशोनानि, इयान्मध्य जागे विष्कम्नः । एवमन्यत्रापिप्रदेशे नान्यम् इमे वायरोहावराहकरणे, शेषेषु बैताफूटे षु पञ्चशतिकेषु हिमवदादिकूटेषु सहस्राङ्केषु च हरिस्सहादिकू अयोजनिकेषु पचनकूटेषु अवतारणीचे वाचनान्तरोचमा नापेक्षया तु ऋषभकूटेषु करणं जगतीवदिति । अस्य पद्मवर दिकादिवर्णनायाह तेरामित्यादि' व्यणम् सायनटस्योपरि भूभागवर्णनाचा सिद्धाणस्यादि प्रयत् यात्र जिनगृहवर्णनाया (तस्यमित्यादिस्य बहुमरम यस्य भूमिभागस्य बहुमन्यदेश भागे, अमहदे सिका शाभ्यतानामतिमामामायतनं स्वानं वैश्यमित्यर्थः प्रम को शमायामेनाविष्कम्जेन देशोनं कोशदेशा पष्टयधिकपरानुरूप इति । यत उमवीरं जयद क्षेत्रविचारस्य वृत्तौ -" तालुधरि बेशहरा, दहदेवीभवणतुलुपरिमाण." इत्यस्याः गाथाया व्याख्याने तेषां वैताढ्यकूटानामुपरि चैत्यगृहाणि द्रहदेवीभवनतुल्यपरिमाणानि वर्त्तन्ते, यथा दीर्घ माविस्तारं धिक चतुर्दशशत धनुरुध्यमिति तथा प्रमेषु स्तम्भशतेषु संमि विष्टं तदाधारकत्वेन स्थितमित्यर्थः । तथा स्तम्भेषु उद्गता संस्थिता सुकृते सुता निपुणविरचितेयेति नाथा । ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः। तादृशी वज्रा वेदिका द्वारा एककोपरि रत्नमय वेदिका तोरणं च स्तम्भोगकृतं यत्र तत्तथा । तथा वराः प्रधानाः रतिदाः नयनमनःसुखकारिण्यः araभञ्जिका येषु ते तथा, सुलिष्टं संबद्धं विशिष्टं प्रधानं लष्टं मनोइं संस्थितं संस्थानं येषां ते तथा । ततः पदद्वयकर्मधारये तादृशाः प्रशस्ताः प्रशंसास्पदीनूता वैमूर्यत्रिमलस्तम्ना यत्र तत्तथा । ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः । तथा नानामणिरत्नानि खचितानि यत्र स नानामणिरत्नस्वचितः । निष्ठान्तस्य परनिपातः, भार्यादिदर्शनात् । तादृश उज्ज्वलो निर्मलो बहुसमोऽत्यन्तसमः सुविभक्तो भूमिभागो यत्र तत्तथा । ( ईहा मिगेत्यादि ) प्रायद् व्याकयेथे नवरं मरीचिव किरणजालपरिशेषि. निर्मुन तथा 'लाइक' नाम य मेगोमयादिना उपलेपनम् 'उद्धार'कृपानामा यस्य पटिकादिनि संकर उल्लोइथं' ताभ्यामिव महितं पूजितम् ' लाउलोश्श्रमहि' । यथा गोमयादिनोपलिप्तं सेटिकादिना च धवलीकृतं यद् गृहादि सश्रीकं नवति तथेदमपीति भावः । तथा-(जाव या इति) अत्र यावत्करणात् वक्ष्यमाणयमिका राजधानी, प्रकरणगतसिकायतमपर्णकेऽतिदिष्टा, सुधर्मास भागमो वाच्यो यावत्सायन परि ध्वजा उपवर्णिता भवति, यद्यप्यत्र यावत्पदग्राह्ये द्वारवर्धकप्रतिमाचर्ण पच्कादिकं सर्वमन्तर्भवति तथा स्वानाशून्यतायें किचित्रे दर्शयति-से सिद्धार इत्यादि) तस्य सिद्धायतनस्य तिसृणां दिशां समाहारखिदि तस्मिन् अनुस्वारः प्राकृतत्वात्। पूर्वदक्षिणोत्तर विभागेषु श्री. शिराणि प्रकृतानि तानि द्वाराणि पञ्चचतुःशतान्युर्वोच्च यानि धनुःशतानि विम्मेण तावन्मात्रमेव 2वेशेन अतृतीयानि धनुःशतानीत्यर्थः । ( से आवरकणगमिश्रा इति) पोपलहिती द्वारको मन्तव्यः, विजयद्वार वाचनमालावर्णनम् अत्रेय भूभागवनायाह (तस्स मि स्यादि) सुगमम् । (सिद्धाययणस्स इत्यादि ) तस्य बहुसम 包 रमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र महानेको देबच्छन्दको देवोपवेशनस्थानं प्रप्तः, अत्रानुक्ताऽपि श्रश्रामषिभाज्यां देवच्छन्दकसमाना सवस्त्वेन तु तदर्द्धमाना मणिपीठिका संभाव्यते अन्यत्र राजम्यादिषु देवच्छन्दकाधिकारे तथा मणिपीठिकाया दर्शनात् तथा सूर्याभावमाने - (तस् णं सिकायतणस्स बहुमज्जदे सभाए पत्थ णं मदा एगा मणिपेढिया पत्ता सोलस जो अणाएं श्रयामविश्वम्मेणं अट्ठ अरेभाई उच्चते ति ) तथा विजयराजधान्यामपि - (तस्स एं सिकाययणस्स बहुमदेसमाए पत्थ महं एगा मणिपेडिஏ मा पक्षता, दो जोया भायामविषयमेणं जोधा मणिमया अत्था जाव परिरुवा इति । स च देवच्छन्दकः पञ्चचतुःशतान्याचामविष्कम्भा सातिरेकाणि सा-धिकानि पञ्चधनुःशतान्युद्धकत्वेन सर्वात्मना रामयः व देवन्दकाष्टशतमष्टोत्तरशतं जिनप्रतिमानां जिनोत्सेधप्रमाणमात्राणां जिनोत्सेधस्ती करवाया तस्य च प्र माणम् उत्कृष्टतः पञ्चधनुः शतात्मकं, जघन्यतः सप्तहस्तात्मकम् । इदचात्मते तदेव मार्ग प्रमाणं यासां ता स्तथा, तासां तथा जगत्स्वाभाव्यात, देवच्छन्दकस्य चतुर्दिक्कु प्रत्येकं सप्तविंशतिज्ञागेन सन्निक्षिप्तं तिष्ठन्ति । ननु पद्मवर वेदिकादय इव शाश्वतभावरूपा जिनप्रतिमा भवन्तु, परं प्रतिष्ठितत्वानावेन वासामाराध्यत्वं कथमिति चेत् । यशाश्वतभावा श्च शाश्वतनावरूपा जिनप्रतिमा भावधर्मा अपि सहजसिद्धा एव भवन्ति, तेन शाश्वताः प्रतिमा श्व शाश्वतप्रतिमा धर्मा अपि प्रतिष्ठितत्वाराभ्यत्वादयः सदजसिद्धा एवेति किं प्रतिष्ठापनान्तरविचारेण । ततः शाभ्यप्रतिमासु सदसि मेवापत्यमिति न किमिति। मत्र प्रतिमानामुत्सेधागुलमानेन पञ्चधनुःशतप्रमाणानां प्रमाणागुखमानेन पश्च तुःशतायामविष्कम्मे देवच्छ के नकाशवितान विधेति । अत्र प्रतिमाचक (तासि णं जिणपरिमाणं प्रयमेयारूत्रे बघावा से पत्ते । तं जहा - तवणिज्जमया हत्यतझपायतला कामया णक्खाई अंतो लोहि अक्खपरिसेगा करागाया पापा करणाया गुफा कणगामईओ जंघाओ कणगमया जाणू कणगमाओ ऊरू कगमईओ गायलडीओ रिहामए मंसू तबजिओ शामीओ रिहाईओ रोमराईओ त मया चुच्चू तरणिमा सिरिवच्छा कागमईओ माडाओकणगामईओ गीबाओ रिमयाई मंसूई सिलप्पासमया ओडा फलियामया देता जिमओ जीहाओ तवज्जिया तालुमा करणगमईओ शामिगाओ अंतो सोहि क्खपरिसेगाइयो अंकमयाई अच्चीणि अंतो लोहि अपखप किसेगा पुलगामओ दिडीओ रिकार्मा ओ सारगाओ रिहामपाई अपिचाई रिहामईओ भमुहाम्रो कणगामया कोला कणगामया सणा कागामईओ जि. डालपट्टियाओ बहरामईओ सीसपमाम्रो तपधिजमई भो के संत केसभूमियो रिट्ठामया उवरि मुदया तासि णं जिपकिमाणं पिटुओ पत्ते पत्ते छतधारपरिमा पत्ता, ताओ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूड कूड ( २१) अनिधानराजेन्डः। णं छत्तधारपमिमाओ हिमरययकुंदिंदुप्पगासाइंसकोरंटमल्ल- मयतथाविधाल्पकेशादिरमणीयमुखादिस्वरूपमिति । यतु श्रीतदामाधवलाई प्रायवत्ताई सलील ओहारेमाणीमो चिटुं पागच्चनायकश्रीदेवेन्द्रसूरिशिष्य श्रीधर्मघोषसूरिपौदभाष्यवृत्ती जगवतोऽपगतकेशशीर्षमुखनिरीक्षणेन श्रामण्यावस्था सुज्ञानवेति । तासि एंजिणपमिमाणं उभो पासि पत्तेअं पत्ते त्यभिदधे,तदवष्णुित्वेनाऽपत्वेन चाभाषस्य विवकणात; भा. दो दो चामरधरपडिमाओ पध्मत्ताओ, तानो चामरध- मण्यावस्थाया अप्रतिबन्धकत्वाचेति न किमप्यनुपपन्नम् । तासां रपडिमाओ चंदप्पहवरवेरुलिअणाणामणिकणगरयण जिनप्रतिमानां पृष्ठत पकैका छनधारप्रतिमा प्राप्ता, ताश्च छत्र. खइअमहरिहतवणिज्जुजसविचित्तदंमाओ विद्वियाओ धारप्रतिमा हिमरजतकुन्देन्दुप्रकाशानि सकोरण्टमास्यदामानि धवलानि प्रातपत्राणि सलीसं धारयन्त्यस्तिष्ठन्ति, तासां जिसंखंककुंददगरयमयमाह अफेणपुंजसन्निकासाओ सुहुमरयय- नप्रतिमानामुभयोःपार्श्वयोःप्रत्येकं द्वे चामरधारप्रतिमे प्रकले, दोहवीलाओ धवलामो चामराम्रो समीलं धारमाणीयो ताश्व चामरधारप्रतिमाः चन्प्रनश्चन्द्रकान्तो,पणं हीरकमणिः, चिति। तासिणं जिणपमिमाणं पुरोदो दो बागपडि वैदूर्य च प्रतीतं, तानि शेषाणि च नानामणिरत्नानि खचिमाओ दो दो जक्खपरिवाओ दो दो अपडिमाओ दो तानि येषु दण्डेषु ते तथा, एवंरूपा महाईस्य महास्य तपनीदो कुंमधारपमिमाओ विणोणयाओ पायपमियाो पंज यस्य सत्का उज्ज्वला विचित्रा दएमा येषु तानि तथा, (चिडि यान इत्यादि ) प्राग्वत, नवरं (चामराउ ति)प्राकृतत्वात्स्त्रीसिउमाप्रो सन्निखित्तानो चिट्ठति सम्वरयणमईओ त्वम्, चामराणि सलीसं धारयन्त्यो पीजयन्त्यस्तिष्ठन्ति । तासां अपच्छाओ अच्छामो सएहामो लएहाओ घटाओ मट्ठाओ जिनप्रतिमानां पुरतो द्वे द्वे नागप्रतिमे वे यक्षप्रतिमे वे नीरयाओ निप्पंकाओन्जाव पडिरूवाो। तत्थ णं जिण भूतप्रतिमे वेवे कुएमधारप्रतिमे श्राशाधारप्रतिमे विनयावनते पडिमाणं पुरओ अट्ठसयं घंटाणं अट्ठसयं वंदणकलसाणं पादपतिते प्राञ्जलिपुटे संनिक्तिप्ते तिष्ठतः, ताश्च “सव्वरयणा मईओ" इत्यादि प्राग्वत् (तत्थ णमित्यादि) तस्मिन् देवच्छन्दएवं भिंगाराणं प्रायमगाणं थानाणं पाईणं सुपाडगाणं के जिनप्रतिमानां पुरतोऽष्टशतं घण्टानाम,भष्टशतं चन्दनकलमणगुलिआणं वातकरगाणं चित्ताणं रयणकरंमगाणं शानां मङ्गस्यघण्टानाम् अष्टशतं तृकाराणामष्टशतमादर्शानामइयकंठाणं. जाव उसनकंगणं पुष्फचंगेरीणं जावलोमह- एशतं स्थालानामएशतं पात्रीणामष्टशतं सुप्रतिष्ठकानामएशत स्थचंगेरीणं पुप्फपमझगाणं. जाव लोमहत्थपडलगाएं।) मनोगुलिकानां पीठिकाविशेषरूपाणामष्टशतं घातकरकाणा मएशतं चित्राणां रत्नकरणमकानामष्टशतं हयकपठामामटशतं (तासां जिनप्रतिमानामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्राप्तः । तद्यथा गजकरगनामष्टशतं नरकगठानामष्टातं किन्नरकएगमामष्टतपनीयमयानि हस्ततलपादतलानि,तथा कनकमयाः पादा,तथा शतं किंपुगषकण्ठानामएशतं महोरगकएननामष्टशतं गन्धर्षकमकमया गुल्फाः, अङ्करत्नमया अन्तर्लोहिताख्यरत्नप्रतिसेका कपानामष्टशतं वृषभकएगनामष्टशतं पुष्पचोरीणामएशनम्नाः,कनकमय्यो जङ्गाः,कनकमयानि जानूनि,कनकमया उरषः, तं माल्यचक्रीणामष्टशतं चूर्णचगेरीणामष्टशतं गन्धचगेकनकमय्यो गात्रयष्टयः, तपनीयमया नाभयः,रिष्टरत्नमग्यो रोम रीणामटशतं वस्त्रचगेरीणामष्टशतमाभरणचोरीणामष्टशतं राजयः,तपनीयमयाइचुचुकाः स्तनाप्रभागा,तपनीयमयाः श्रीव- सिद्धार्थकचनेरीणामष्टशतं लोमहस्तकचङ्गेरीणां, लोमहका,तथा-कनकमय्यो बाहवा,तथा कनकमय्यो प्रीवाः,रिष्टरत्न- स्तका मयूरपिच्छपुजनिकाः, अष्टशतं पुष्पपटलकानाममयानि इमणि,सिनप्रवासमया विद्रुममया श्रोष्ठाः,स्फटिकमया छातं माव्यपटकानां मुत्कलानि पुष्पाणि प्रथितानि माल्यानि, दन्ताः,तपनीयमय्यो जिह्वाः, तपनीयमयानि तालुकानि, कनकम- अष्टशतं चूर्णपटलकानाम,एवं गन्धवस्त्रान्तरणसिद्धार्थकलोमहग्यो नासिका,अन्तलोहिताख्यरत्नप्रतिसेका,अङ्कमयान्यकीणि स्तकपटलकानामपि प्रत्येकं प्रत्येकमष्टशतं एव्यम् । अष्टशतं मन्तोंहिताकप्रतिसेकानि, रिष्टरत्नमय्योकिमध्यगतास्तारि सिंहासनानामष्टशतं उत्राणामध्शतं चामराणामटशतं तेलसमुकाः, रिटरत्नमयान्यक्तिपत्राणि नेत्ररोमाणि, रिष्टरलमय्यो भ्रवः, कानामष्टातं कोष्ठसमुझकानामष्टशतं चोकसमुद्रकानामष्टकनकमयाः कपोला,कनकमयाः श्रवणाः,कनकमय्यो ललाटप शतं तगरसमुसकानामशतमेलासमुभकानामशतं हरितास. ट्टिकाः, वज्रमय्यः शीर्षघटिकाः, तपनीयमय्यः केशान्तकेशनुम समुझकानामष्टशतं हिमालकसमुद्रकानामष्टशतं मनःशिलासयः, केशान्तनुमयः केशनूमयश्चेति जावः । रिष्टरत्नमया परि मुद्द्रकानामष्टशतमञ्जनसमुद्रकानां, सर्वाण्यप्येतानि तेलादीमि मुजाः केशाः। ननु केशरहितशीर्षमुखानां भावजिनानांप्रति परमसुरभिगन्धोपेतानि बटव्यानि, अएशतं ध्वजानाम। रूपकत्वेन सद्भावस्थापना, जिनानां कुतः केशकूर्वादिसंभवः । अत्र संग्रहणिगाथेसध्यते-भावजिनानामपि अवस्थितकेशादिप्रतिपादनस्य सिका "वंदणकलसा भिंगा-रगा य घायंसगा य थाला य । न्ससिद्धत्वात्। यमुक्तं श्रीसमवायाने अतिशयाधिकारे-"श्रव- पाई उ सुपडा, मणुगुलिया वायकरगा य॥१॥ हिमकेसमंसुरोमणहं" इति । तथा औपपातिकोपाङ्गे-"अव चित्ता रयणकरमय-हयगयनरकंठगा य चंगेरी। द्विअमुविभत्तचित्तमंसुं" इति । अवस्थितत्वं च देवमाहा- परसगसीहासणछ-तचामरा समुग्गयझया य" ॥२॥ म्यतः पूर्वोत्पन्नानां केशादीनां तथैवावस्थान,न तु सर्वथाऽभाव मष्टशतं धूपकमुच्बुकानां सन्भिक्तिप्तं तिष्ठति । वत्वम् श्त्यमेव शोनातिरेकदर्शनं पुरुषत्वप्रतिपत्तिश्च तेनप्रस्तु. उक्ता सिद्धायतनकूटवक्तव्यता। तेन तत्प्रतिरूपताब्याघातः। नन्वेवं सति अर्चन केन किमासम्म्य अथ दक्षिणार्द्धभरतकूटस्वरूपं पृच्चन्नाह-(कहि णमिवेषां श्रामण्यावस्था नाचनीयेति चेत, उच्यते-परिकर्मितारमाण। स्यादि) अत्र सर्वाऽपि पदयोजना सुगमा, नवरं प्रासा Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२२ ) अभिधानराजेन्यः । कूड 66 दावतंसका कोमच्यत्वेनाको विसुश्रेऽनुक्तमप्यर्द्धक्रोशमायामेनेति बोध्यम् । सेसेसु पा साया, कोसच्चा श्रद्ध कोसपिहुदीहा । " इत्यादि श्री सोमतिलकसूरितवरितयमिति वचावचनात् श्रमा स्वातिकृते जम्बूद्वीपसमासे तु प्रासादावतंसकः क्रोशार्द्ध क्रोशदैर्ध्यविस्तारः किञ्चिन्न्यूनस्तदुच्छ्रय उक्तोऽस्तीति । (अन्जु मायसिन ) इत्यादि प्राग्वत् । अथ तत्र यदस्ति तदाह- ( तस् ) इत्यादि सुगमं, नवरं ( सपरिवारं ति) दक्षिणाभरतकूटाधिपसामानिकादिदेवयोग्यनासनसहितमिति । श्रय वा प्रस्तुतकूटनामान्वर्थे पृच्छति - ( से केणट्टेणमित्यादि ) सर्व तत् विजयधारमा मान्वर्यसूचक सुत्रवत्परिज्ञान नवरं दक्षिणा इति पकदेशे पदसमुदायोपचारात् पाजातरानुसारद्वारा दक्षिणाई भरता या राजधान्या इति । श्रत्र सुत्रेऽश्यमानमपि " से तेणठेणं " इत्यादि सूत्रं स्वयं ज्ञेयम् । तथा दक्षिणा जरतनामा देवः स्वामित्वेनास्पातीत्पनादित्वादप्रत्यये दहियानरतमिति प्रधास्य राजधानी क्वास्तीति पृच्छति - ( कहि णं ) इत्यादि व्यक्तम् । अथापरकूटव कल्पता दक्षिणार्य नरकुटानिदेशेनाह-- एवं सम्य इत्यादि) एवं दक्षिणाईभरतकूटन्यायेन सर्वकूटानि तृतीयखएमप्रपातगुहाकटादीनि नेतव्यानि बुद्धिषधं प्रापणीयानि या मं वैभ्रमण [परोप्यरति] परस्परम् [पुरामपथमेति पूर्वार्ध-पूर्व पूर्व पूर्वस्याम उत्तरमु सरमपरस्यां पूर्वपरविभागस्यापेक्षिकत्वात् । दि) एषां कूटानां वर्णकव्यासे वर्णकविस्तारे इमाः वक्ष्यमाहा गाथाः । " श्मा से " इति पाठे तु ' से ' इतिवचनव्यत्ययान् तेषां कूटानां वर्णावासे श्मा गाथा इति योजनीयम् । (मज्जे अ] उ इत्यादि) तुशब्दो विशेषे स च व्यवहितबन्धः । तेन वैताढ्यस्य मध्ये तु चतुर्थपञ्चमषष्ठरूपाणि त्रीणि कूटानि कनकमयानि भवन्ति । सुत्रे स्त्रीलिङ्ग निर्देशः प्राकृतत्वात् । शेषाणि पर्वतकूटानि वैताख्यवर्षधर मेरुप्रभृतिगिरिकूटानि व्यायात विशेषप्रतिपतिरिति दृरिस्सहहरिलट नि रत्नमयानि ज्ञातव्यानि । यश्चात्र वैताख्यप्रकरणे सर्वपर्वतगतानं तत्सर्वेषामेकप करवेन लाघवार्थ तथा देता यस्येत्यत्र जात्यपेक्षयैकवचनम्, तेन सर्वेषामपि वैतान्यानां भर तैरवनमहाविदेवि नवसु कटेषु सर्वमध्यम श्रीणि कूटानि कनकमयानि ज्ञातव्यानि । एतदेव वैताख्ये व्यक्त्या दर्शयति - ( माणन इत्यादि) द्वयोः कूटयोर्विसदृशनामकौ देवौ स्वामिनौ । तद्यथा कृतमालकचैव नृत्तमालकश्चैव । तमि गुहाकूटस्य कृतमालः स्वामी, खएमप्रपातगुहा कूटम्य नृत्तमालः स्वामी । शेषाणां कूटानां सटक कूटनामा म येषां ते सहन्नामका देवा: स्वामिनः । यथा दक्षिणकूटस्य दक्षिणा नरतनामा देव स्वामी । एवमन्येषामपि भा बना कार्या । एनमेवार्थे सविशेषं गाथयाऽऽह यन्नामकानि कूटानि तनामानः खलु निश्चयेन भवन्ति देवाः पल्योपमस्थितिका नवन्ति प्रत्येकं प्रत्येक प्रतिकृमित्यर्थः एतेनाष्टानां कूटानां स्था मिन का सिद्धायतन तु सिद्धायनस्यैव मुख्यावेन त स्वामिदेवानामभिधानमिति । ननु दक्षिणाभरतकूटान खस शनामदेवाश्रयभूतत्वात् नामान्वर्थः संगच्छते था दक्षिणाभरतनामदेवस्यामिकत्वात् उपचारेण दक्षिणा भरतनामा देवः स्वामित्वेनास्यास्तीति श्रभ्रादित्वादप्प्रत्यये वा दक्षिणार्द्ध कूड जत यमन्येष्वपि परं हातमा फूटयोः स कथम, तत्स्वामिनोसमातहतमायसिनाम कत्वात् । ननु खएरुप्रपातगुहाया उपरिवर्ति कूटं ख एकप्रपात कूटमित्यादिरेवान्वर्थोऽसियति वाच्यम् अत्र सूत्रे दक्षिणाईभरतकूटवत् भरतकूट शेषकूटानामतिदेशात्; बृहत क्षेत्रसमासवृतौ एवं शेषकूटान्यपि स्वस्वाधिपतियोगतः प्रवृसाम्यवसेयानीति श्रीमलयगिरिरिभियाति चेद उच्यते-पात गुहाधिपस्य कूटं खाएमा समि गुहाधिपस्य कूटं मामिति स्वामिनी यौगिकनामान्तरापेक्षया अत्राप्यन्वर्थो घटत एव । यदुक्तं तैरेव तत्र-तृतीये कूटे एमप्रपात गुहाधिपतिदेवाधिपत्यं परिपालयति, तेन तदत्रप्रपातामप्यनुपपचम थ तृतीयादिकूटाधिपतीनां राजधान्यः क सन्तीति प्रश्नसूत्रमाह - ( रायहाणी ओति ) श्रत्र निर्वचनसूत्रम् - ( जंबुद्दीवे दीवे इत्यादि) जम्बूद्वीपे द्वीपे इत्यादि सबै व्यम, नवरं खरप्रपात गुहाधिपतिदेवस्य राजधानी खएडप्रपातगुडाऽभिधाना, माणि भवस्य मणिभषा इत्यादि सर्वाणि चोक्तवक्ष्यमाणानि कुटानि एकै कचनवम पद्मपरवेदिकायुतानि मन्तव्यानि। ॐ०१ चक्ष० । निषधवर्षधरे जंबू मंदरदाहिणे णं निमदवासहरे पव्वए नव कूटा पणता । तं जहा “सिद्धे निसš ढरिवस्स, विदेहे हिरि धिई य सीओया । व्यवरविदेहे रुवगे, जिस कूडारा नामाई " ॥ १ ॥ (सिकेति ) सिकायतनकूटं तथा निपपपर्वताधिष्ठातृदेवनिवासोपेतं निषेधकूटं, हरिवर्षस्य क्षेत्रविशेषस्याधिष्ठातृदेवेन स्वीकृतं हरिवर्षकूटम, एवं विदेहकूटमपि ह्रीदेवीनिवासो हीकूटम । एवं कृति शीतोदा नदी देवीनिवासः शीतोदकूटम्, अपर विकृतिवासपर्वतः तद्धातृदेव निवास रुचककूटमिति । नन्दनयनेजम्बू मंदपणे नव कूदा पथाचा तं महा" नंदणे मंदरे चेव, निस हे हेमवयरयतरुयए य । सागरचिते बरे, बाकू व बोध" ।। १ ॥ (नंदणे ति) नन्दनवनं मेरोः प्रथममेखलायां तत्र “कूटानि" नंदण गाह। तत्र नन्दनचने पूर्वादिरितिमानि विदि चतुश्चतुष्पुष्करिणीपरिवृताश्चत्वारः प्रासादावतंसकाः, तत्र पूर्वस्मात्सायनादुत्तरत उत्तरपूर्वस्थप्रासादादक्षिणतोदन कूटं देवी मेकरा तथा पूर्वखिकायगादेव दक्षिणोद किणपूर्व प्रासादात्तरतो मन्दरकूटं तत्र मेघवती देवी, अनेन क्रमेण पायचि यावदष्टमम्। देस्तु नियमेाहैमघड़े मेघमालिनी, रजत सुवच्छा, स्वकष्ट मित्रा, सागरभित्रकूडे वेरसेना, वेरकूटे बलाहकेबिल मेरोरतरपूर्वस्यां चन्दनवने तदेव इति स्था०० कहि दवणे यंदा शामं के प १। गोयमा ! मंदरस्थ पवयस्य पुरच्छिमि सिकायपणस्स उत्तरेणं उत्तरपुच्छिमिस्स वासायनस यस्स दक्खि Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूड (६२३) कूड अन्निधानराजेन्छः। देणं, एत्थ णं णंदणवणे एंदणवणकमे णाम कृ पम तेन तदनुसारेण व्यास्येयम् । विशेषश्चात्रायं पञ्चशतिके नन्दन बने मेरुतः पञ्चाशयोजनान्तरे स्थितानि पञ्चशतिकानि कूटाते, पंचसा कूमा पुचवम्मिश्रा नाणिअन्वा, देवी मेहं नि किचिन्मेखलातो बहिराकाशे स्थितानि बोध्यानि, बलकूटकरा च, रायहाणी विदिसाए, एआहि चेव पुव्यानिलावणं बत् एतत्कूटवासिन्यच देव्योऽष्टौ दिक्कुमार्यः। अत्रनवमं कूट णेमव्वा, इमे कूमा इमाहिं दिसाहिं पुरच्छिमिबस्स भव- सहस्राङ्गकमिति पृथक पृच्छति-(कहि णमित्यादि) क भदन्त! णस्स दाहिणेणं दाहिणपुरच्छिमियस्स पासायवसगस्स | नन्दनवने बलकूटं नाम कूटं प्राप्तम् ?। गौतम! मेरोरीशानविदि शिनन्दनवनेऽत्रान्तरे बलकूटं नाम कटं प्राप्तम् । अयमर्थः-मेरुउत्तरेणं मंदरे कूस मेहबई देवी रायहाणी पुध्वेणं दक्खि तः पञ्चाशद्योजनातिक्रमे ईशानकोणे ऐशानप्रासादः, ततोऽपीणिबस्स भवणस्स पुरच्छिमेणं दाहिणपुरच्चिमिवस्स शानकोणे बलकूट, महत्तमवस्तुनो विदिशोऽपि महत्तमत्वात् । पासायबसगस्स पच्चच्छिमेणं णिसहे कूडे सुमेहा देवी राय- एवमनेनानिल्लापेन यदेव हरिस्सहकूटस्य मास्यवद्धकस्कारगिणी दक्खिणेण दक्खिणिलस्स भवणस्स पञ्चच्छिमेणं दक्खि रे चमकूटस्य प्रमाणं सहस्रयोजनरूपं यथा चाल्पेऽपि स्वाधा रक्केत्रमहतोऽप्यस्यावकाशः,या च राजधानी चतुरशीतियोजनणपच्छिमिल्लस्स पासायवसगस्स पुरच्छिमेणं हेम सहस्रप्रमाणा तदेव सर्व बलकूटस्थापि, नवरमत्र बसो देवा, बए कूमे हेममालिनी देवी रायहाणी दक्खिणेणं प- तत्र तु हरिस्सहनामा । जं०४ बकः । चच्चिपिल्लस्स जवणस्स दक्खिणेणं दाहिणपच्चच्चि माल्यवतःमिल्लस्स पासायवमेंसगस्स उत्तरेणं रयए कमेसुवा देवी। जंबुद्दीवे दीवे मालवंते वक्खारपन्चए नव कुडा पत्ता। रायहाणी पञ्चच्छिमेणं पञ्चच्छिामिल्लस्स जवणस्स उत्तरेणं तं जहा-"सिके य मानवते, उत्तरकुरुकच्छसागरे रयए। उत्तरपञ्चच्चिमिवस्स पासायवडेंसगस्त दक्खिणेणं रुअगे सीया य पुत्रनामे, हरिस्सकूमे य बोधव्वे" ॥१॥ कूडे वच्छमित्ता देवी रायहाणी पञ्चच्छिमेणं उत्तरिबस्स (मानवते इत्यादि ) माल्यवान् पूर्वोत्तरो गजदन्तपर्वतः, तत्र भवणस्स पच्चचिमेणं उत्तरपच्चच्छिमिलस्स पासायव- सिद्धायतनकूट मेरोरुत्तरपूर्वतः, एवं शेषाण्यपि, नवरं सिम्फूटे सगस्स पुरच्छिमेणं सागरचित्ते कूमे वइरसेणा देवी रा भोगा देवी,रजतकूटे जोगमालिनी देवी, शेषेषु स्वसमाननामानो देवाः,दरिस्सहकूटं नीलबत्पर्वतस्य नीलवत्कूटाइक्विणतः सहयहाण। उत्तरण उत्तारसस्स भवणस्स पुराच्चमण - सप्रमाणं, विद्युत्प्रभवर्ति हरिकूटं नन्दनवनवर्ति बलकूटं च,शेषातरपुरचिमिवस्स पासायवमेंसगस्स पच्चच्छिमेणं बहरे णि तु प्रायः पञ्चयोजनशतिकानीति । स्था० १ ठा० । सर्वसं. कुनै बझाहया देवी रायहाणी उत्तरेणं ति । कहिणं | स्काराधिपतिबासकूटम,उत्तरकुरुकूटमुत्तरकुरुदेवकूटं कच्छकूभंते ! णंदणवणे बलकूमे णामं कृझे पप्मत्ते । गोयमा ! टं कन्कृविजयाधिपकूटं,सागरकूट, रजतकूटम्,इदं चान्यत्र रुमंदरस्स पन्वयस्स उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थ णं णंदणवणे कडे चकमिति प्रसिद्धं,शांताकूटं शीतासरित्सुरीकूट,पदैकदेश पदणामं कडे पसत्ते । एवं जं चेव हरिस्सहमस्स पमाणं समुदायोपचार इति सिनिचःसमुचये, पूर्णजमनाम्नो व्यन्तरे. रायहाणी अ, तं चेव बलकूमस्स वि, एवरं बलो देवो शस्य कूटं पूर्णभत्रकूट, हरिस्सहनाम्न उत्तरश्रेणिपतिविद्युत्कुरायहाणी उत्तरपुरछिमेणं ति ।। मारेन्यस्य कूटं हरिस्सहकूटम् । चैवशब्दः पूर्ववत् । ज०४वका संप्रत्यमीषां स्थानप्ररूपणायाऽऽहक भदन्त!नन्दनवने नन्दनवनकूटं नाम कूट प्राप्तम् । गौतम ! कहि जने! मालवंते वक्खारपबए सिद्धाययणकोणामन्दरस्य पर्वतस्य संबन्धिनः पौरस्त्यसिद्धायतनस्योत्तरतः मं को परमते । गोयमा! मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरपुरउत्तरपौरस्त्येशानदिग्वर्तिनः प्रासादावतंसकस्य दक्षिणेन एत चिमेणं मालवंतस्स कूडस्स दाहिणपच्छिमेणं एत्थ एं स्मिन् प्रदेशे नन्दनवनकूटं नाम कूटं प्राप्तम् । अत्रापि मेरुतः पञ्चाशयोजनातिक्रम एव क्षेत्रनियमो बोदयः । अन्यथाऽस्य सिकाययणकूमे पंच जोअणसयाई उठं उच्चत्तेणं अवप्रासादभवनयोरन्तरानवर्तित्वं न स्यात् । अथ लाघवार्थमुक्त सिहं तं चेत्र, जाव रायहाणी, एवं मालवंतस्स कूडस्स नस्य वक्ष्यमाणानां च कूटानां साधारणमतिदिशति-पञ्चशति- त्तरकुरुकूमस्स कच्छकूमस्स, एए चत्वारि कूडा दिसाहिं कानि कूटानि पूर्व दिग्हस्तिकूटप्रकरणे वर्णितानि उच्चत्वब्या पमाणेहिं अणेयव्वा कुमसरिसणामया देवा । कहिणं सपरिधिवर्णसंस्थानराजधानीदिगादिभिः, तान्यत्र भणितव्यानीति शेषः । सदृशगमत्वात् । अत्र देवी मेघंकरा नाम्नी, प्र जते ! मालवंते सागरको णामं कृडे पामते ?। गोयमा ! स्या राजधानी विदिशि, अस्य पद्योत्तर कूटस्थानीयत्वेन राज कच्छकूमस्स उत्तरपुरच्छिमेणं रययकमस्स दक्खिणेणं, धानी विदिगुत्तरपूर्वग्राह्या । अथ शेषकूटानां तदेवीनां तद्राज एत्थ णं सागरकूडे णामं कूडे पप्पत्ते पंच जोअणसयाई धानीनां च का व्यवस्था? इत्याह-(पाहिं इत्यादि)पतानिर्दे- उहूं उच्चत्तेणं, अवसिहं तं चेव । सुजोगा देवी रायवीनिश्चशब्दाद् राजधानी निरनन्तरसत्रे वक्ष्यमाणानिःसह पूर्वा हाणी उत्तरपुरच्छिमेणं रययकृडे जोगमालिणी देवी, राभिलापेन नन्दनवनकूटसत्कसूत्रगमेन नेतव्यानि इमानि वक्ष्यमाणानि कूटानि श्माभिर्वक्ष्यमाणानिर्दिग्भिः। एतदेव दर्शयति यहाणी उत्तरपुरच्छिमेणं अवसिट्ठा कूमा उत्तरदाहिणणं (पुरच्छिमिस्स इत्यादि)श्दं च सर्व भकशालवनगमसहशम, | ऐअव्वा एक्कणं पमाणेणं । कहि एं भंते ! मालवंते हरि Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२४ ) अभिधानराजेन्द्रः | कूड सहकूमे णामं कूदे पत्ते ?। गोयमा ! पुरण भद्दस्स उत्तरेपीलवंतस्स दक्खिणं, एत्थ णं हरिस्सहकूमे णामं कुठे पण ते । एवं जोअएसस्स उपदेशं जगपमाणेणं रायहाणी उत्तरेणं असंखेज्जदीवे मम्मि जंबुरीवे दीने उत्तरे वारस जोमय सहस्साई टम्महिता, एत्य णं इरिस्सहदेवस्ल हरिस्सहा णामं रायहाणी पர் छत्ता चतरासी जो असदस्सा आयाम विक्खंभेणं जोयसदस्साई पछाडि च सहस्साई उच्च बची से लोणसए परिवसेसं जहा पमरचंचाए रायहाणीएतदा पमाणं भाषितं महिी महजुर । "कहि णमित्यादि" प्रश्नः प्रतीतः। उत्तरसूत्रे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरपूर्वस्पाम ईशान कोणे प्रत्यासन्नमाज्ययत्कूटस्य दक्षिणमियां नैर्ऋतके, अत्र सिकायतनकूटं प्रमिति गम्यं पञ्चयोजनशतान्युद्धाचावेन, अवशिष्टं मूल विष्कम्भादिदेव गन्धमादन सिकायतनकूटयदेव बाबा भणित या स्यात् । श्रयमर्थः सिद्धायतनकूटवर्ण के सामान्यतः कूटवर्णकसूत्रं, विशेषतः सिकायादिवर्णसूत्रे इयमपि वाच्यम्त सिद्धायतनकूटे राजधानीसूत्रं न संगच्छते इति राजधानीसूत्रं विहाय तदधस्तनसूत्रं वाच्यमिति । अत्र यावच्छन्दोन संग्राहकः विवाधमात्रसूचकः। यथा 'आसमुद्रहितीशानाम्' इत्यत्र (रघुकाव्ये) समुद्रं विहाय कितीशत्वं वर्णितमिति । लाघवार्थ विदेशमा पर्व मतदार माल्यवत्कूटस्य कच्छकूटस्य वक्तव्यं, शेयमिति गम्यम् । अथैतानि कि परस्पर स्थानादिना तुझ्यानि यानी स्याह एतानि सिकायनसहितानि चावारि परस्परं दिग मिरेशान विदिरूपाभिः प्रमाणे तव्यानि तुपानीतिशेषः अयमर्थः प्रथमं सिकायतनकूटं मेरारुतरपूर्वस्य विधि तत स्तस्यामेव दिशि द्वितीयमान्य ततस्तस्यामेव दिशि तृतीयमुत्तरकुरुकूटं ततोऽप्यस्यां दिशि कच्छकूटम पतानि पानि विभावीनि मानतो दिमा नीति | कूटसदृग्नाम काश्चात्र देवाः । श्रत्र 'याचत् संभवस्तावद् विधिप्राप्तिः' इति न्यायात् सिद्धकूटवर्जेषु त्रिषु कटेषु कूटनामका देवा इति बोध्यं सिकायतनम् | अन्यथा "सपरि सुतहा, चूला चडचण जिणभव भणिमा जंबुद्दीचे, सदेवया सेसाणे " १ ॥ इति स्वोपज्ञ विचारे रत्नखरसूरिवचोविरोधमापद्यते इति । अथावशिष्टकूटस्वरूपमाह( कहिणं इत्यादि प्रश्न सुगमम उत्तरसूत्रे कष्टस्य कूटस्य चतुर्थस्योत्तरपूर्वस्थां रजतकूटस्य दक्षिणस्याम; अधान्तरे सागरकूट नाम फूट मह पञ्चयजन तान्यूवेन अवशिष्टं मूल विष्कम्भादिकं तदेव अत्र सुनोमा नाम्नी दि कुमारी देवी, मस्या राजधानी मेरोत्तरपूर्वस्पां रजत प पूर्वस्मात्तरस्याममत्र भोगमालिनी कुमारी सुरी, राजधानी उतरपूर्वस्याम, अवशिष्टानि शीता कूटादीनि उत्तरदक्षिणाभ्यां तव्यानि को ऽर्थः पूर्वस्मात् पूर्वस्मातरमुत्तरस्याम २ उत रस्मादुत्तरस्मात्पूर्व २ दक्षिणकेन तुल्यप्रमा णेन सर्वेषामपि हिमवत्कूटप्रमाणत्वात् । अथ नधरं सहस्राङ्गकमिति दूध निघुमाद (क िणामेत्यादि) प्रदन्ताय कूड यति यस्कारगिरी हरिसह नाम कूटं ममी गौतम! पूर्णस्योत्तरस्यां नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणस्याम, अत्रान्तरे इरिस्सह नाम समपर्क योजनसदसम्वनि " अाजार जोगाई उच्च मुले जोसहस्वं प्रायामविश्वमित्यादि । मादपरः-- पञ्चशतयो जनपृथुगजदन्ते] सहस्रयोजन हवं कथं माति । उच्यतेअनेन गजदन्तस्य ५०० योजनानि रुद्धानि, ५०० योजनानि पुनर्गजदन्ताद्वहिराकाशे, ततो न कश्चिद्दोष इति । अस्य बाधिपत्यस्याऽपरराजधानीतो दिक्प्रमाणाद्यैर्विशेष शति तां विवकुराह - ( रायहाणी इत्यादि) राजधानी उत्तरस्यामिति । एतदेव विवृणोति (संजीव) इदं पदं स्मारकम् तेन "मंदररुल पव्वयस्स उत्तरेणं तिरिभमसंखेज्जाएं दीवसमुद्दा वीईश्ता" इति प्रायम् । अन्यस्मिन् जम्बूद्वीपे उत्तरस्यां द्वादशयोजन सदस्रायवगाह्य । अत्रान्तरे हरिस्सहदेवस्य हरिस्लहा नाम्नी राजधानी प्रसा, चतुरशीतियोजन सहस्रापयायामविष्कम्भाभ्यां योजनके पञ्चषा च योजन सहस्राणि पहूच द्वात्रिंशदधिकानि योजनशतानि परिक्षेपेण, शेषं यथा चमरचायाश्चमरेन्द्रराजधान्या प्रमाणं नाचतं भवति तथा नेतव्या प्रमाणं प्रासादादीनां भणितव्यमिति । " महिडिए महज्जुई " इति सूत्रेणास्य नामनिमित्तविषयके प्रम चने के भंते! एवं च हरिसहकडे कडे ? गोयमा ! हरिस्तहकडे बहवे उप्पलाई पक्षमा हरिस्तहकूडसमवनाएं जाब हरिश्खहे सामं देवे अत्यहि जाच परिचर से तेरा जाय अदुत्तरं च णं गोत्रमा ! जाव सासए णामधेजे । " इति । जं० ४ वक्क० । कच्छादिषु वैतात्यपर्वतेषु जंबूकच्छे दीयेयणं नम कूदा पत्ता । तं जहा “सिके कच्छे भग- मार्थी बेयपुतिमिसगुड़ा क समय, फच्छे कूमाथ नामाई " ॥ १ ॥ जंबू ! कच्छे दी बेयक नव कृपा पाता। तं जहा“ सिके सुकच्छखंग माणी, बेवढपुतिमिसगुहा सुकच्छेसमथे य, सुकच्छबूदाणा नामाई " ।। १ ।। एवं जाव पुक्लाइम्मि दीवेयकडे एवं बच्छे दीवेष एवं जाव मंगलावइम्मि दीवेयठे । कच्छादि विजये तापकूटान्यपि व्याख्यातानुसारेण या नि । नवरं "एवं जाव पुक्खलावइम्मीत्यादि" यावत्करणात् मकच्छायतीवमङ्गलाय संपुष्कले सुरुव नानानि नरं द्वियाम स्थापित विजयमामाच्यमिति। (बच्छेति ) शीताया दक्षिणे समुद्रास ने "एवं जाय मंगलावरम्मि" इत्यत्र यावत्करणात् सुवच्छ महावच्चवच्चावती रम्यरम्यकरमणीयेषु प्रागिव कूटनवकं दृश्यमिति । स्था० ६ ठा० जं० । ( ' कच्छ शब्देऽस्मि जागे १०३ पृष्ठे वक उक्त स्था " बूजे खारपम्यए नव कुमा पत्ता से जहा सिद्धे य विज्जुनामे, देवकुरा पम्हणगसोवत्थी | सीओदार सजले, हरिकुमे चैव बोध " ॥ १ ॥ 66 Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। कूड (जम्बुद्दीवेत्यादि ) विद्युत्प्रभो देवकुरुपश्चिमगजदन्तकः, तत्र यन्त्यस्तं पर्युपासन्ते, एवं दाक्षिणात्या शृङ्गारहस्ता गायन्ति, नव कूटानि पूर्ववत्, नवरं दिक्कुमार्यों पारिसेनाबलाहकाभि- एवं प्रातीच्यास्तालवृन्तहस्ताः, एवमौदीच्याश्चामरदस्ताः दे. धाने क्रमेण कनककूटस्वस्तिककूटयोरिति । वाधिकारादेव । स्था०० ठा। पद्मादिषु विजयेषु दीर्घवैतात्यानाम् गन्धमादनेजंबू! पम्हे दीहवेय नव कमा पाता। तं जहा-सिकेप- जंबद्दीवे दीवे गंधमायणे बक्खारपव्यए सत्त कूमा पसत्ता। म्हे खंडगमाणी वेयकए, एवं चेव जाव सझिावम्मि दी- तं जहा-"सिके य गन्धमायणे, बोधव्वे गधिनाबई कूमे। हवेयके, एवं वप्पे दीहवेयके एवं जाव गंधिलावम्मि दीह- उत्तरकरुफलिहे लो-हियक्खाणंदणे चेव" था०७ठा। वेयवे नव कूमा पमत्ता । तं जहा-“सिके गंधिलखंग- गंधमायणे णं चक्रवारपव्वए कति कूमा पसत्तागोयमा! माणी-वेयपुन्नतिमिसगुहा । गंधिलावइवेसगणे, कूमाणं सत्त कूमा पलत्ता। तं जहा-सिद्धाययणकूमे १ गंधमायणहोति नामाई ॥१॥" एवं सव्वेसु दीहवेयोमु दो कूडे २ गंधिन्नावको ३ उत्तरकुरुकूमे ४ फलिहकूडे ५ कूड़ा सरिसनामगा सेसा ते चेव । लोहिअक्खको ६ आणंदकूडे । कहिणं भंते ! गंधमाय(पम्हे त्ति) शीतोदायरा दक्षिणेन विद्युत्पन्नाभिधानगजदन्त- णे वक्खारपब्वए सिकाययणणामं कडे पसत्ते । गोयमा ! कप्रत्यासन्नविजये (जाव सलिलावम्मि) इत्यत्र यावत्करणात् मंदरस्स पन्चयस्स उत्तरपुरच्छिमेणं गंधमायणकूडस्स दाहिसुपनमहापद्मपद्मावतीशङ्खनलिनकुमुदेषु प्रागिव नव नव कू णपुरच्चिमेणं एत्थ एणं गंधमायणे वक्वारपव्वए सिद्धाययणटानि वाच्यानि । एवमित्युक्ताभिलापेन (वप्पे त्ति) शीतोदाया कम णामं को पसत्ते। जं चेव चुल्ल हिमवंते भिकाययणउत्तरेण समुष्प्रत्यासन्नविजये "जाव गंधिलावइम्मि" इत्यत्र यावत्करणात सुषप्रमहावप्रवप्रावतीवल्गुसुवल्गुगन्धिलेषु नव कमस्स पमाणं तं चेव एएसिं सम्बेसि नाणिअव्वं, एवं नव कूटानि प्रागिव दृश्यानीति, पुनः पनादिविजयेषु षोडश- चेव विदिसाहिं तिमि कडा भाणिअन्ना, चउत्थे ततिअस्स स्वतिदिशति-"एवं सब्वेसु" इत्यादिना कूटानां सामान्यल उत्तरपञ्चच्छिमेणं, पंचमस्स दाहिणेणं, सेसाओ उत्तरदाहि. क्षणमुक्तमिति । स्था०६ ग०। णेणं फसोहिअक्खेसु जोगंकराभोगवईओ देवयानो, सेसेस सौमनसे वक्तस्कारपर्वते सरिसणामया देवा छसु वि पासायवसगरायहाणीयो जंबुद्दीवे दीवे सोमणसे वक्खारपन्चए सत्त कृडा पलत्ता। विदिसासु॥ तं जहा-"सिके सोमणसे य, बोधव्वे मंगलाबई कूडे । "गंधमायणे" इत्यादि व्यक्तं, नवरं स्फटिककूटं स्फटिकरक्षमयदेवकुरुविमलकंचण-विसिकूमे य वोधब्बे" ॥१॥ त्वात,लोहिताककूटं लोहितरत्नवर्णत्वात, आनन्दनाम्नो देवस्य (सिद्ध त्ति) सिकायतनोपलक्षितं कूट मेरुप्रत्यासन्नम, एवं कूटमानन्दकूटम् । ननु यथा वैताच्यादिषु सिकायतनादिकूटन्यवसर्वगजदन्तकेषु सिकायतनानि शेषाणि, ततः परम्परयेति । स्था पूर्वापरायतत्वेन तदत्रापि,उत कश्चिद्विशेष श्त्याह-कहिणं (सोमणसे त्ति) सौमनसकूटं तत्समाननामकतदधिष्ठातृदेव भंते!) इत्यादि व्यक्तं, नवरं यथा वैताठ्यादिषु सिकायतनं वतोपलहितं, मङ्गलावती विजयसमनामदेवस्य मङ्गलावतीकू- कूटं समुद्रासन्नं पूर्वेण ततः क्रमेण शेषाणि स्थितानि, तथाऽन टम,एवं देवकुरुदेवनिवासो देवकुरुकूटमिति, विमलकाञ्चनकुटे मन्दरासन्नंसिकायतनकूट मन्दरादुत्तरपश्चिमायां वायव्यां दिशि यथार्थे, क्रमेण च वत्सवत्समित्राभिधानाऽधोलोकनिवासिदि. गन्धमादनकूटस्य तु दक्षिणपूर्वस्यामाग्नेय्यामस्ति यदेव क्षुषकुमारीक्ष्यनिवासजूते, विशिष्टकूटं तन्नामदेवनिवास एवमु. हिमवति सिहायतनकूटस्य प्रमाणं तदेवैतेषां सर्वेषां सिद्धायतरत्रापि । स्था० ७ ठा० । जं०। तनादिकूटानां भणितव्यम, अर्थाद्वर्णनमपि तदेवेति । व्यवस्था रुक्मिाण तु शेषकूटानामत्र भिन्नप्रकारेणेति मनसिकृत्याह-(एवं चेव जब मंदरउत्तरेणंरुप्पिम्मि दासहरपब्बए अट्ठ कूमा पमत्ता। श्त्यादि) एवं चेवेत्येव सिहायतनानुसारेण विदिशु वायव्य कोणेषु त्रीणि कुटानि सिहायतनादीनि नणितव्यानि । उक्ततं जहा-"सिद्ध रुप्पी रम्मग-नरकंता बुधिरुप्पकू य । वक्तव्यानां मिश्रितनिर्देशस्तु“ एवं चत्तारि वि दारा भाणित्रइरएणवए मणिकं-चणे य रुप्पिम्मि कूमा य ॥१॥" ब्बा" इति सुत्रविचारगोक्तयुक्त्या समाधेयः । अयमर्थः-मेजंब ! मंदरपुरच्चिमेणं रुयगवरे पबए अट्ठ कडा पत्ता। रुत उत्तरपश्चिमायां सिकायतनकूट, तस्मात्तरपश्चिमायां गतंजहा-"रिहतवाणिज्जकंचण-स्ययदिसा सावत्यिए पलंबे न्धमादनकूट, तस्माञ्च गन्धिलावतीकृटमुत्तरपश्चिमायामिति । अत्र तिम्रो वायव्यो दिशः समुदिता विवक्षिता ति बहुत्वेन य। अंजण अंजणपुलए, रुयगस्स पुरच्छिमे कूमा" ॥१॥ निर्देशः। चतुर्थमुत्तरकुरुकूटं तृतीयस्य गन्धिलावतीकूटस्योचअननैव क्रमेण रुक्मिकूटान्यप्यूह्यानि।तमाथा सिके रुप्पी' इत्या- रपश्चिमायां पञ्चमस्य स्फटिककूटस्य दक्षिणतः। ननु यथा तृतीदि कएल्यम्। 'जंबुद्दीवे' इत्यादि केत्राधिकारात रुचकाश्रितसूत्रा- याझन्धिमावतीकूटाचतुर्थमुत्तरकुरुकूटमुत्तरपश्चिमायां चतुर्थाच टकं कपठ्यम,नवरं जम्बूद्वीपे यो मन्दरस्तदपेक्षया प्राच्यां दिशि तृतीयं दक्विणपूर्वस्यां तथा पञ्चमात् स्फटिककूटात् कथं दकिरुचकवरे रुचकद्वीपवर्तिनि प्राग्वर्णितस्वरूपे चक्रवालाकारे णस्यां चतुर्य कूटन संगच्छते?। उच्यते-पर्वतस्य चक्रत्वेन चतुअष्टौ कूटानि,तत्र रिटेत्यादि गाथा स्पष्टा, तेषु च नन्दोत्तराद्याः । र्थकूटत एवं दक्षिणपूर्वी प्रति वलनात पञ्चमाच्चतुर्थ ददिक्कुमार्यो वसन्ति, भगवतोऽहतो या जन्मन्यादर्शहस्ता गा- | विणस्यामिति; शेषाणि स्फटिककूटादीनि त्रीणि उत्तरद Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुड कूड अभिधानराजेन्द्रः। क्षिणभोणव्यवस्थया स्थितानि; कोऽर्थः? पञ्चमं चतुर्थस्यो- पतानि च कुटानि हिमवतकूटवत् पाशतिकानि पशतयोसरतः षष्ठस्य दकिणतः, षष्ठं पश्चमस्योत्तरतः सप्तमस्य द. जनप्रमाणानि, वक्तव्यताऽपि तद्वत् कटाधिपानां राजधान्यो किणतः, सप्तमं षष्ठस्योत्तरत इति परस्य उत्तरदक्षिणनाव मेरोरुत्तरस्याम् । ०४ वक्षः। इति । अत्र पञ्चयोजनशतविस्तराण्यपि कटानि यत्क्रमहीय. मानेऽपि प्रस्तुतगिरिक्षेत्र मान्ति, तत्र सहस्रा कूटरीतिया । जम्बू ! मंदरउत्तरेणं एरवर दीडवेयके नव कमा पाता। भथैषामेवाधिष्ठातृस्वरूपं निरूपयति-( फलिहसोहिक्के) तं जहाइत्यादि कूटलोहिताककूटयोः पञ्चमषष्ठयोगकराभोगव- "सिरवर खमग-माणी वेयपुमतिमिसगुहा। त्यो देवते दिककुमायौँ वसतः शेषेषु कूटसरशनामका देवाः षट्स्वपि प्रासादावतंसकाः स्वस्वाधिपतिवासयोग्या:; एषांच एरवए बेसमणे, एरवए कूमनामाई" ||१|| स्था०एगा राजधान्योऽसंख्याततमे जम्बूद्वीपे विदितु उत्तरपश्चिमासु ॥ तत्र यानि समानिअं०४बदा जंबू ! मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणणं चुनहिमवते वासहरपम्बए कटानि दो कूमा पनत्ता। जहा-बहुसमनद्या जाब विक्खंतुचत्तजंबू! मंदरदाहिणे एंउ कूमा पमत्ता। तं जहा-चुद्वाहि- संठाणपरिणाहेणं । तं जहा-चुहिमवंतकडे चेव वेसमणकमवंतक वेसमणको महाहिमवंत वेरुलियकूमे निसह डे चेव । जंबू! मंदरदाहिणे णं महाहिमवंते वासहरपन्चए दो कूमे रुयगकूमे । जम्बू ! मंदरउत्तरे णं उ कमा पएणत्ता।। कूडा पन्नता । तं जहा-बहुसमतुद्वा जाव महाहिमवंतकूडे चेन तं जहा-नीलवंतकडे उवदंसएको रुपिकूमे मणिकंचण बेरुलियकूडे चेव । एवं निसदे वासहरपन्चए दो कूडा पनत्ता। कूमे सिहरिकूमे तिगिच्छिकूडे । तं जहा-बहुसमतुल्ला, जाव निसटकूम चेव रुयगकूझे चेव । कूटसूत्रे हिमवदादिषु वर्षधरपर्वतेषु द्विस्थानकोतक्रमेण वे जंबू! मंदरस्स उत्तरे णं नीलवंते वासहरपन्चए दो कूमा पत्रद्वेष्टे समबसेये इति । स्था०६ म०। त्ता। नं जहा-बहुसमतुबा जाव नीलवंतकूके चेव उवदसणकूके जंबू! मंदरदाहिणे णं रुवगवरे पन्चए अट्ठ कूमा पसत्ता । घेव। एवं रुप्पिम्मि वासहरपव्वए दो कूमा पन्नत्ता । तं जहा. तं जहा-"कणए कंचणपउमे, नलिणे ससिदिवाकरे चेव । बहुसमतुला जाव। तं जहा-रुप्पिकमे चेव मणिकंचणकडे बेसमणे वेरुलिए,रुयगस्स य दाहिणे कूमा" ॥१॥ स्था। चेव । एवं सिहरिम्मि वि वासहस्पबए दो कडा पत्ता जंबा मंदरपञ्चच्चिमेणं रुयगवरे पन्चए अट्ठ कमा पाता। बहुसमतुना। जहा-सिहरिकृढे चेव तिगिच्चिको चेव । तं जहा-" सोथिए य अमोहे य, हिमवं मंदरे तहा। ( जंबू श्त्यादि) हिमवर्षधरपर्वते कादश कूटानि-सिरुयगेरुयगुत्तमे चंदे, अट्ठमे असुदंसणे" ||१|| स्था०। कायतन १ तुहिमवत् २ भरत ३इला ४ गङ्गा ५ श्री ६ रोहितांशा ७ सिन्धु८ सुराए हैमवत १० वैभ्रमण ११ फूटाजंब! मंदरउत्तररुयगवरे पव्यए अट्ठ कूमा पमत्ता। तं जहा भिधानानि प्रवन्ति । पूर्वदिशि सिद्धायतनं कूटमतःक्रमेणाप"रयणे रयणुचए सव्व-रयणे रयणसंचए। रतोऽम्यानि सर्वरत्नमयानि स्वनामदेवतास्थानानि पञ्च योजविजए बेजयंते य, जयवंते अपराजिए" ॥१॥स्था०८गा मशतोच्याणि तावदेव मुले विस्तृतानि उपरि तदर्थविस्तृ(दिक्कुमारीवक्तव्यता तु 'दिसाकुमारिया' शब्दे वक्ष्यते ) तानि, 'माचे सिद्धायतनं पलाशयोजनायामं तदईविष्कभथात्र कूटानि प्राव्यानि नीलवतः म्भं पशिचम, अष्टयोजनायामश्चतुर्योजनविष्कम्भप्रवेश स्त्रिनिारैरुपेतं जिनप्रतिमाष्टोत्तरशतसमन्वितं, शेषेषु प्रासाणीलवंते णं नंते ! वासहरपन्चए का कृमा परमत्ता । दाः सार्कषष्टियोजनोच्चास्तदद्धावस्तृतास्तनिवासिदेवसिंहागोयमा नव कूमा पएणता। तं जहा-"सिकायणको? सनवन्त इति । इह तु प्रकृतनगनायकनिवासनूतत्वाइवनिसिद्धे, पीले ३ पुवविदेहे ३ सीआय कित्ति ५ णारी वासनूतानामेषां मध्ये आद्यत्वाच्च हिमवतकूटं गृहीतं, स. अ६। अवर विदेहे ७ रम्मग-कूमे ७ उवदंसणे चेव " ान्तिमत्वाच्च वैश्रमणकूटमिति द्विस्थानकानुरोधेनेति । आर च-"कत्था देसग्गहणं, कत्थर धिप्पति निरवसेसाई । उकम ॥२॥ सव्वे एए कूमा पंचसश्या रायहाणीओ उत्तरे । कमजुत्ताई, कारणवसो निवत्ताई"॥१॥ कूटसंग्रहश्वायम्(जीलवते णमित्यादि ) नीसवति भदन्त ! वर्षधरप- "वेयर मालवंते, ए, विज्जुप्पद निसहरनीसवंते या बते कति कुटानि प्रकप्तानि ? । गौतम! नव कटानि प्रशसानि । नव नव कूमा भणिया, एकारस सिहरि ११ हिमवंते ११॥१ तद्यथा-सिकायतनकूटम, अत्र नवानामप्येकत्र संग्रहायेयं रुपि महाहिमवंते, ८ सोमणस ८ गंधमायणनगेय ७ । गाथा-(सिद्ध त्ति) सिम्कूटं सिकायतनकूट, तच्च पूर्व- अष्टु सत्त सत्त य, वक्खारगिरीसु चत्तारि ४॥२॥" दिशि समुहासन्नं ततो नीलवत्कूटं न नीलवद्वक्षस्काराधि- (जम्बू इत्यादि ) महादिमवति ह्यष्टौ कूटानि-सि-महापकूटं पूर्वविदेहाधिपकूटं शीताकूट शीतासुरीकूट, चः समुच्च- हिमवत्-हैमवत-रोहिता-ही-हरिकान्ता-हरि-बयकूटाभिये, कीर्तिकूट केसरिकहसुरीकूटं नारीकान्तनदीसुरीकूट, चः धानानि, हयग्रहणे च कारणमुक्कमेव इत्यादि एवं कपूर्ववत् । अपर विदेहकूटम्, अपरविदेहाधिपकट रम्यककटं रणात् ' जम्बू ' इत्यादिरभिलापो उश्यः । निषधवर्षधरपरम्यकक्षत्राधिपकूटम, उपदर्शनकूट उपदर्शननामककटम् ।। ते हि सिनिषधहरिवर्षग्राग्विदेहहरिधृतिशीतोदाऽपरवि Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२७) अभिधानराजेन्द्रः । कूड वाह () देवचकाक्यानि खनामदेवतानि न कूटानि । स्वाऽपि फाले, न० बाच० । कूट-क० । असत्ये, " से दक्षिणं दिले द्वितीयापोहणं प्राम्य व्याक्येयमिति । ( जम्बू हत्यातेण परिक्लावितो जाच कूरुगो " आ० म० द्वि० । दि) नीलवथपर्वते हि सनी-पूर्व-शीताकुमग्गद-कूटग्रह-पुं० क्रूर प्रम० २ ० द्वार कूरुग्गाह - कूटग्राह-पुं० । कूटेन जीवान् गृह्णातीति कूटप्राः व - कीर्ति नारिकान्ताऽपर विदेह रम्यको पदर्शनाख्यानि नव कूटानि । इहापि द्वितीयान्त्यग्रहणं प्राग्वदिति । एवमित्यादि । नवघरे सिक- इक्मि- रम्यक- नरकान्ता-बुद्धिकप्यकला-राय-मणिकाञ्चनकूटाक्यानि अष्ट कूटानि । द्वयाभिधानं च प्राग्वदिति । एवमित्यादि । शिखरिणि हि वर्षचरे सिद्ध-शिवर-रत-सुरादेवीरा-मी-सुवर्णकृारकोदा-धपति परवत तिथि छिटाक्यानि एकादश ानि इहापि यो त चैवेति । स्था० २ ० ३ उ० । नव्यापारविशेषेण जीवग्राहके, विपा० १ ० २ ० यां कूटग्राहिणी " तत्थ इत्थिनावरे नीमे णामं करुणा होत्या अमिर जाव दुष्पनियाणंदे तरस णं भीमस्स कूटगाहस्त उप्पला णामं नारिया होत्था। अहीणतपणं सा उप्पला कूडम्गाहिणी । " विपा १ ० २ श्र० । मजाल कूटजाल १० वागुरादो उत्त० १० कूतुलाकूममाणकरण कूटतुला कूटमानकरण-१०तीता, मानं कुडवादि । कूटस्वं न्यूनाधिकत्वम् । उपा० १ ० । योवपापेषान्यूनाधिकयोः करणं कूटतुलाफूटमानकरण म् । ध०र० । तुलामानाभ्यां म्यूनाभ्यां ददतोऽधिकाज्यां गृतोऽनर्थदमविरमणस्य चतुर्थेऽतिचारे, भाव०४० उपा० आ० । सिरिम्प णं भंते ! वासढरपन्नए कइ कूडा पष्पता ।। गोयमा ! इकारस कृमापणा तं जहा सिद्धावरणकू १ सिहरिकुमे 2 रायभूमे ३ सुबाकूला मुरादेवीकू रसाकूमे ६ अच्छी ७ रसावरकुटे इलादेवीकू U एरवयकूमे १० तिगिच्छिकूमे १११ एवं सव्वे विमा पंचा रायहाणी भो उत्तरेणं ॥ (सिहरिम्मि णं नंते ! वासहर पन्त्र इत्यादि) शिखरिणि पर्वते भगवन् ! कति कूटानि प्रप्तानि १ । गौतम ! एकादश कूटानि प्रप्तानि । तद् यथा- पूर्वस्यां सिकायतनकूट, ततः क्रमेण शिखरिवर्षधरनाम्ना कूटं, हैरण्यवत क्षेत्र सुरकूटं, सुवर्णकूलानदीसुरीकूटं, सुरादेवी दिक्कुमारीकूटं, रक्तावर्तनकूट, लक्ष्मीकुटं पुण्डरीकसुरी र कावस्यायर्तनकूट देवी कुमारी देवपति विपतिरम् । एवं सर्वाण्यप्येतानि पञ्चशतिकानि ज्ञातव्यानि कुरुमित्रस्कूटतुल्य वक्तव्यताकानि ज्ञेयानि । एतत्स्वामिनां राजधान्य उत्तरस्यामिति । जं० ४ ० | सचिणं हरिहरिस्सहा वक्खारपञ्चयकूरुनजा दस दस जोयसपाई उद् उचचेणं पचता । मूले दस लोयसबाई विक्लंजेां एवं बलकुमा वि नंदणकूरुरज्जा । हरिकूटं विद्युत्प्रनाsभिधाने गजदन्ताकार वक्षस्कारपर्वते, दरि सड़कूटं तु माल्यवत्तस्कारे, तानि च पञ्चस्वपि मन्दरेषु भावापद्मपच भवन्ति सहस्रतानि वक्खाकूड चि शेयरकारनेच मुचत्वं नास्त्येतेष्वेवासतीत्यर्थः एवं वनमन्दरेषु चन्दनानि तेषु प्रवेशा म्यां दिशि लामिचानमस्ति ततः पन्च शतानि सखो नंदनवन) शेषापि नन्दनयनेषु प्रत्येकं पूर्वादिदिदिगम्ययस्थितानि चत्वारिंशत्संख्यानि नन्दनटानि वर्जयित्वा तानि साइक्षिकाणि न भवन्तयर्थः । स० १०० सम० । पाषाणमय मारणमहायन्त्रे नि० । समूहे, अएकककूटमकसूदमित्यर्थः । वि० १ वर्ग लौरे, मेरे बन् न ० पुरद्वार निश्वले, वाच० । मकादावशोवजीवि (ए)- फूटकार्षापणोपनीविन - वि० का चपणो हुमः असत्यकार्यापयोपजीविनि प्रश्न० १ साक्ष द्वार बूरंग - कूटक- पुं० । कूट- एवुन् । सुरानामगन्धद्रव्ये वर्याम, । , कूटपास - कूटपाश-पुं० । मत्स्यबन्धनभेदे, विपा० १० ८ अ० कूरुपयोग- कूटप्रयोग- पुं० तु पापे प्रा० ४ ० कूमया कूटता स्त्री । तुलादीनामन्यथात्वे, प्रश्न० ४ श्राभ्र०द्वार कूमरूवसमा -कूटरूपसमा स्त्री० । द्रव्यरहित टङ्कचित्रविशेषयुक्ततृतीयरूपकतुस्यायां वन्दनायाम्, पञ्चा० ३ विव० । कूमलेह - कूटलेख- पुं० । कूटमसद्भूतं तस्य लेखो लिखनं कूटलेखः । श्रन्यस रूपाकर मुखाकरणे, ध०२ अधि० । अन्यमुषान्नरविन्द्यादिना कूटस्थार्थस्य प्रेमने एच स्थूलकसूपावादस्य पञ्चमोऽतिचारः घ० २ अधि " कुमोड़करण- कूटलेखकरण १० फूटमसद्भूतं विपते इति लेखः करणं क्रिया, कूटलेखक्रिया कूटलेखकरणमन्य फारबिन्दुरुक्षेचकरणे, आय०६० असद्भूतार्थस्य लेखस्य विधाने, उपा० १ अ० । असद्भूतार्थसूचकाकरानस्य करणे ० २० इदापि मृपाभणनमेव मया प्रत्याख्यातमिदं तु लेखनमिति भावनया मुग्धबुब्धव्रतसत्यापेकस्यातिचारता नावनीया । अन्यथा वा अनाभोगादिकारणेभ्योऽसौ वाच्येति । ध० र० । एतच्च यद्यपि कायेनासत्यां वाचं न वदामीत्यस्य न वादयामीत्यस्य वा मतस्य भङ्ग एप तथापि सहसाकारावाभोगादिनातिकमादिना वाऽतिचारः । श्रथ वा सत्यमित्यसत्यभणनं मया प्रत्याख्यातमिदं तु लेखनमिति भावनया व्रतसव्यपेक्कस्यातिचार एवेति चतुर्थोऽतिचारः । प्रव० ६ द्वार । कूम लेड किरिया कूटलेख किया। कूटस्थ करणे, - कूटलेखक्रिया आव० ६ श्र० । कुरुवासि () छूटवासिन् पुं० कूटेषु चन्दनधनकूटादिषु तु येषां ते तथा वर्षधरादियासिषु देवेषु प्र०५ आश्र० द्वार। कूटवाहि (ए) कूटवाहिन् पुं० [बीव । " समभोमे वि अरभारी, उखाणे किमु अचाहिस्त" प्रा०० Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) अभिधानराजेन्द्रः | __ कूमसक्ख कूटसाक्ष्य न० लभ्यदेयविषये प्रमाणीकृतस्य सा मत्सरादिना कूटं वदतः यथाऽहमत्र साकीति सात्विदाने, ध० २ अधि । कूटसाक्ष्यं तत्क्रोधमत्सराद्यभिभूतः प्रमाणीकृतः सन् कूटं वक्ति यथाऽस्याहमत्र साकी । पञ्चा० १ विष० । उपा० । कूरसविखत कूटसाक्षित्व १० लभ्ययविषये प्रमाणीकृ स्वोत्कचमत्सराभिस्सादाने घ०२० कूटसाहित्यमुत्को चमत्सराभिभूतप्रमाणीकृतः सन् कूटं यक्ति अविधवाद्यनुतस्या त्रैवान्तनवो वेदितव्यः प्राय० ६ ० सामनि कूटशान्यलि पुं० श्री कूटाकारः शिखराकार शाल्मलिः कूटशास्मतिरिति संज्ञा स्था० "दो फूडसामली चेव" स्था० । स च देवकुरुषु, स्था० २ ठा० ३ उ० ॥ कहि रणं ते देवकुराए कृमसामलिपेढे पाचे गोपमा ! मंदरस्स पवयस्स दाहिणपचतिमेणं णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं विजयप्पनस्स वक्रखारपव्वयस्स पुरच्छि मेणं सीओदार महाराई पच्चछिमेणं देवकुरुपाछ मस्स बहुमदेस जाए, एत्य णं देवकुराए सामलीए पेढे खामं पेढे पत्ते, एवं जच्चेव जम्बूए सुदंसणा ए वत्तया चैव सामली वि भाणिअन्या पामविहूणा गरुलदेवे पाणी दक्खिणे अवसितं चैत्र । "कहि " इत्यादिप्रअ प्रयत् नवरं कूटाकारा शिखराकारा शाल्मली तस्याः पीठम, उत्तरसूत्रे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणपश्चिमायां नैर्ऋतकोणे निषधस्योत्तरस्यां रस्य सर्वतः शीतोदाया महानद्याः पश्चिमायां देव कुरूणां शीतयोत्तरकुरूणामिव शीतोदयाद् द्विधाकृतानां पश्चिमार्कस्य बहु मध्यदेशभागे, अत्र महाकविकुटामा कूटशमपीठं नाम पीस सूत्रानुसारेण दे व जम्ब्वाः सुदर्शनाया वक्तव्यता सैव शाल्मल्या श्रपि मणितन्त्र विशेषमाह नामभिः प्रायदिशनि नामभिर्विहीना प्रणितव्येति संयोजना । इह शाल्मलीनामानि न सन्तीत्यर्थः । तथा श्रनादृतस्थाने गरुरुदेवः, श्रत्र गरुको गरुजातीयामा मतान्तरे वेगनामा देव, राजधा न्यस्य तो दक्षिणस्यां तथा सूत्रेऽनुकमपीदं बोध्यम् अस्य पीठं कूटानि च प्रासादभवनान्तरालवर्त्तीनि रजतमयानि, जम्बूवृक्षस्य तु सुवर्णमयानि । अपि चायं शाल्मली वृक्षो यदा तदा वा सुवर्णकुमाराचिपवेदेवदासिकास्थान तथा चाहता वेणुदेवे वेणुदाली अ वसर ।" तयोर्हि तत् श्रीमास्थानमिति श्र शिष्टं तदेव जम्बूकरणकमेव यो विशेषः सदर्शित इत्यथेः । जं० ४ वक० । शासमलीवृक्षयाऽवसरे कृमसामली णं गरुलाचा से प्रभोषणाई उई उच पन्नत्ता । 66 कूटशाली वृत्तविशेषः, देवकुरुषु गरुडजातीयस्य वेणुदेवाभिधानस्य देवस्याssवास इति । स० ७ सम० । नरकस्थे वृक्कविशेषे च, "अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली" । उत्त० १० अ० । स्था० । कुमागारसाला कृमागार कूटाकार पुं० पर्वतशिखरस्य संस्थाने, औ० शिक्ष राकृतौ, रा० । 1 कूटागार न० कूटानि शिखराणि स्कूपिका सन्ति अगाराणि गेहानि । स्था० ४ ठा० २ उ० । पर्वतोपरिगृहेषु श्राचा० २ श्रु० ३ ० ३ ० । हैमवत्कूटस्थेषु देवजवनेषु, स्था० २ ठा० ४] ४० ।" संयं वरवरभूमिया उच्चट्टमाएं कूडागारं "कमेचागारं पर्वते । निचू० १२४० । फूटं सस्वबन्धनस्थानं तद्वद्गाराणि फुटागाराणि हिंसास्थामदेषु स्था० ४० १४० (कुटागारचातुर्वदन पुरुषजातरूपये पुरिसजाय शब्दे श्यते) । - कूटागारसाना - कूटाका (गा ) रशाला स्त्री० कूटस्यैव प र्वतशिखरस्येवाकारो यस्याः सा कूटाकारा । रा० । सा चासौ शाला चेति समासः । विपा० १ ० ३ ० । स्था० । शिखराकृत्योपलक्षितायां शालायाम, ० ३ ० १ उ० । यस्या उपरि आच्छादनं शिखराकारं सा कूटाकारोति भावः । रा० । कूटागारशाला स्वरूपं चेत्थम् सूरियामस्तां ते देवस्स एसा दिव्या देवडी दिव्या देवजुती दिवे देवाने कहिं गते कवि गोयमा ! सरीरं गते सरीरं पविडे । से केणट्ठेणं नंते ! एवं बुच्चइ सरीरं गते सरीरं अणुपविट्ठे ? । गोयमा ! से जहा ure कूटागारसाने सिया दुदुतो गुलित्ता गुत्तदुवारा मिनाया शिवाजीरा तीस कमागारसालाए अदूर " सामंते एव यां मद्देणं जनसमूहे चि ततेां से जहा जलसमूहे एवं महं प्रभवद्दलगं वा वासवद्दलगं वा महावा या मागं पासति पासिता नं कृमागारसाल अंती २ वित्तिणं चिड, सेतेार्ण गोषमा ! ‍ एवं च सरीरं पविडे ॥ इति स्वानुप्रविष्टः स्वाभावः। शरीरं गतः शरीरमनुप्रविनः ( कर्दि अप भगवानाह गीत ( से केणमित्यादि ) अथ केनधिन केन हेतुना भदन्त ! एवमुच्यते शरीरं गतः शरीरमनुप्रविष्ट भगवानाह - गौतम! "से जहा ग्राम" इत्यादि कूट पर्वतशिखरस्येवाकारी पस्पा. सा कूटाकारा यस्या उपरि आच्छादनं शिखराकारं सा कूटाकारेति नावः । कूटाकारा चासौ शाला च कूटाकारशाला | यदि वा कूटाकारेण शिखराकृत्योपलक्षिता शाला कूटाकारशालाया था। (दुतो गुलिता ) बहिरन्त गांमयादिना लिप्ता बहिः प्राकारावृता गुप्तद्वारा द्वारस्थगनात् यदि गुप्ता गुप्तद्वारा केषां केषांचित द्वाराणां स्थगितत्वात्केशाचामतदाता प्रवेशात् किल महद गृह निवातं प्रायो न जवति, तत श्राह निवातगम्भीरा निवाता सती विशाला इत्यर्थः । ततस्तस्याः कूटाकारशालाया श्रदूरसामन्ते नातिदूरे नातिनिकटे वा प्रदेशे महान् एकोऽन्यतरो जनसमूहस्तिष्ठति । स च एकं महत् अभ्ररूपं बाईलमा धारानिपातरहितं सम्मान्य वर्षामित्य थे। वर्षामापा (बा Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२६) कूडागारसाला प्रानिधानराजेन्द्रः। कू (को) णिय एजमाणमिति) प्रायान्तमागच्चन्तं पश्यति,रष्टा च तं (कूमागा- पितचं पि एवं वयासी-किंणं अहं देवाणुप्पिए!एयमहस्स रसालं ति) षष्ठयर्थे द्वितीया । तस्याः कूटाकारशालाया अन्तरं अन्तर नो अरिहे सवयणयाए जंणं तुमं एयम8 रहस्सीकरसि। ततोऽनु प्रविशति तिष्ठति । एवं सूर्याभस्यापि देवस्य सा तथा तते णं सा चेल्लणा देवी सेणिएणं रन्ना दोचं पि एवं वृत्ता विशाला दिव्या देवपुतिदिव्यो देवानुभावः शरीरमनुप्रविष्टः । (तेणद्वेणमित्यादि) तेन प्रकारेण गौतम ! एवमुच्यते-- समाण सेणियं रायं एवं वयासी-णत्थि एं सामी! से के वि (सूरियाजस्येत्यादि)।राभ० । अढे जस्स णं तुम्भे अरिहा सबणयाए नो चेव णं इमस्स कृमाहच-कटाहत्य-न० । कटे श्व तथाविधपापापसम्पुटादौ अस्स सवणयाए एवं खलु सामी ! म तस्स उरालस्स० कामविनम्बाभावसाधादाढत्याहननं यत्र तत्कृटाहत्यम् । जाव महासुमिणस्स तिएहं मासाणं बहुपमिपुरमाणं अयमेयाप्र०७शए उ० । कूटस्येव पाषाणमयमारणमहायन्त्रस्ये रूवे दोहले पानब्लूए धन्नातो णं तातो अम्मयानो जावाहत्याऽऽहननं यत्र तत्कूटाहत्यम । ज०१५ श०१3०नि० कूट कूटस्येवाऽधातन मरणे, " तो णं तवेणं तेपणं पगाहच्च ओ णं तुम्भं नदरबलिमंसेहिं सोल्लेहि यजाव दोहलं वि. कुडाहच्चं नामरासिं करेमि"11०१५ श०१०। णेति, तते णं अहं सामी! तसि दोहसि विणिजमाणंसि कू ( को)णिय- (को)णिक-पुं० । श्रेणिकराजपुत्रे सुक्खा जुक्खाजाव कियामि। तते णं से सेणिए राया चेल्लणं राकि, कल्प.क्षण । का० । देवि एवं वदासिमाणं तुमे देवाणुप्पिए ! श्रोहय० जाव तस्योत्पत्ति: जिम्यासि, अहं णं तहा पत्तिहामि जहा णं तब दोहलस्स तते पं सा चेरणा देवी अनदा कयायि तसि तारिस संपत्तीनविस्सतीति कटुचेवणं देवि ताहिं स्टाहिं कंताहिं यंसि वासघरंसिजाव सीहं सामिणे पासित्ता णं पमिबु पियाहिं मणुनाहिं मणमाहिं उराल्लाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं का जहा पजावती० जाव सुमिणपाढगा पडिविसज्जित्तान धन्नाहिं मंगलाहिं मियमदुरसस्सिरियाहिं वगृहि समासासेजाव चिवणा से वयणं पमिच्छित्ता जेणेव सए भवणे ति चिलणाए देवीए अंतियातो पमिनिक्रवमति, पमिनितेणे अपविट्ठा तते णं तीसे चेरणाए देवीए अन्नदा क्खमतित्ता जेणेव बाहिरिया उवढाणसाला जेणेव सिंहासकदायि तिरह मासाणं बहुपडिपुराणाणं अयमेयारूवे दोहले णे तेणेव उवागच्चति, उवागच्छतित्ता सीहासणवरंसि पानुभूते धन्नाओ णं तातो अम्हयातो. जाव जमजीविय 'पुरत्यालिमुहे निसीयति, तस्स दोहबस्स संपत्तिनिमित्तं बफले । जो णं सेणियस्स रनो नदरवनिमंसेहिं सोझेहि हहिं आएहिं नवाएहि य उप्पत्तियाए य वेणयाए य कम्मय तल्लिएहि य नजितेहि य मुरं च० जाव पसन्नं च आसा याहि य पारिणामियाति, परिणामेमाणे परिणामेमाणे तस्स देमाणीप्रो०जाच परिभाएमाणी ते दोहलं पविणेति तते णं दोहलस्स पायं वा उवायं वा वियकं वा अविंदमाणे सा चेरणा देवी तंसि दोहलंसि अवाणिजमाणसि सुक्खा प्रोमणसंकप्पे हय जाव कियाए इमं च णं अभए कुमारे जुक्खा बुक्खा णिम्मंसा प्रोक्षग्गा ओलग्गसरीरा नित्तेया एहाए० आव सरीरे । सयाओगेहामो पमिनिक्खमति,पकिदीनविमणवयणा पंडुसुइत्तमुही ओमंथियनयणवयणकमना निक्खमतित्ता जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला जेणेव सेणिए जहाचियं पुप्फरत्यगंधमझाझंकारं अपरिनुंजमाणी करत राया तेणेव उवागच्छति, उवागच्छतित्ता सेणियं रायं लमलियन कमलमासाओ हतमणसंकप्पाजाव कियाति, श्रोहयजाव कियायमाणं पासति, पासतित्ता एवं वदासि. तते णं तीमे चेरणाए देवीए अंगपमियारिया तो चेवणा अन्नताएं तात! तुमने ममं पासित्ता हट्ट० जाव हयहियया देविं सुकं भुकंजाव कियायमाणी पसंति,पासित्ता जेणेव जवह। किंणं तातो अज तुम्भेश्रोहय० जाव कियाह । तं सेणिए राया तेणेव उवागच्छति करतापरिग्गहियं दसनहं जाणं अहं तातो एयमट्ठस्स अरिहे सवणयाए तो एं तुब्ने सिरसावत्तं मत्थए अंजानं कह सेणियं रायं एवं वयासी मम एयमढे जहानूतमवितहं असंदिदं परिकहेह, जाणं एवं खलु सामी! चेरणा देवी न जाणामो केण कारणेणं | अहं तस्स अट्ठस्स अंतगमणं करोमि। तते णं से सेणिए राया मुक्खा शुक्खा जाब ज्यिाति । तते णं से सेणिए राया अजय कुमारं एवं वदासि-णत्यि एं प्रत्ता! से केति अटे तासि अंगपडियाणं अंतिए एयमहं सोशा निसम्म तहेव जस्स णं तुमं अणरिहो सवणयाए, एवं खलु पुत्ता ! तव संभंते समाणे जेणेव चेरणा देवी तेणेव उवागच्छति, न- चुल्लमानयाए चेवणाए देवीए तस्स उरालस्स० जाव मवागचित्ता चिसणं देवि सुक्खं नुक्खं जाव जियायमाणि हासुमिणस्स तिएडं मासामं बहुपडिपुन्नाणं जाव जओ पासति,पासित्ता एवं वयासी किं णं तुमं देषाणुप्पिए!मुक्खा णं मम उदरबलिमंसेहिं सोल्लेहि य० जाव दोहलं विणिंजुक्खा जाब झियासि । तते णं सा चिरणा देवी मेणिय. ति। तते णं सा चिलणा देवी तंसि दोहसंसि अणुवणिस्मरणो एयम8 णो आदातीणो परिजाणति तुसिणीया जमाणसि मुक्खाजाव कियाति । ततेणं अहं पुत्ता! तस्स संचिट्ठति । तते णं से सेपिए राया चितणादेवि दोच्चं दोहनस्स संपत्तिनिमित्तं बर्हि आएहि यजाब वितिं वा Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कू (को) णिय अनिधानराजेन्डः। कू (को) णिय अविंदमाणे ओहय जाव कियामि । तए णं से अजए कुमारे साडति वा गालति वा विद्धंसति वा, तते णं सा चेल्लणा सेणियं रायं एवं वदासिमाणं तातो तुन्ने ओहय० जाव देवी तं गम्भं जाहे नो संचाएति बहहिं गम्भसामएहि य० कियाह अह णं तहा जत्तिहामि जहा णं मम चुल्लमानपाए जाव गब्नपारणेहि य सामित्तए वा० जाव विकसित्तए चेल्लणाए देवीए तस्स दोहलस्स संपत्ती जविस्सतीति कडु वा ताहे संता तंता परितंता निम्विना समाणी अकामिया सेणियं रायं ताहिं इट्ठाहिं जाव वग्गृहि समासासेति,समासा- अवसवसा अट्टचसट्टदुइट्टा तं गन्नं परिवहति।। सेतित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छतित्ता (अण्फुणा समाणी) व्याप्ता सती शेषं सुगमं यावत् (सोल्लाह अभितरए रहस्मि तिए गणिज्जे पुरिसे सदावेति,सद्दावेतित्ता यत्ति) पकैः (तलिपहिं ति) स्नेहपक्वैः (भज्जिपदि) भ्रष्टैः (पएवं वयासी-गच्चहणं तुब्ने देवाणुप्पिया मूणातो अल्लं मंसं सन्नं च) काक्षादिव्यजात्या मनःप्रसत्तिहेतुः (प्रासापमारुहिरं वत्यिपुरगं च गिएहह, तते णं ते गणिज्जा पुरिसा णीओ ति) ईषत् स्वादयन्त्यो बहूंश्च त्यजन्त्यः इशुखएडाअभएणं कुमारेणं एवं बुत्ता समाणा हतुहा० जाव कर देरिव (परिभाएमाणीओ) सर्वमुपभुजानाः (सुख सि) शुष्केव शुष्काभाः रुधिरक्षयात् ( भुक्ख त्ति) भोजनाकरणतो वुशुतने पमिमुणेत्ता अभयस्स कुमारस्स अंतियाओ पमिनि- क्षितेव ( निम्मंसा ) मांसोपचयाजावतः ( ओरुग्ग ति) खमंति, पमिनिक्खमंतित्ता जेणेव सूणा तेणेव उवागच्च, अवरुग्णा जम्नमनोवृत्तिः (श्रोलग्गसरीरा) भग्नदेवाः, निस्तेजाः अब्वं मंसं रुहिरं वत्थिपुगं च गिएहति, गिएहतित्ता जेणे गतकान्तिः, दीना विमनोवदना, पाए कितमुखी पाएपुरीभूत पदना (भामंथियत्ति) अधोमुखीकृतोपहतमनःसंकल्पा, गव अजए कुमारे तेहणेव नवागच्च, उवागळइत्ता करतल. तयुक्तायुक्तविवेचना ( करयल । कट्ट ति) (करयलपरिग्गाहअवं मंसं रुहिरं वस्थिपुडगं च उवणेति, तते णं से अभए अंदसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजधि कह सेणियं रायं एवं कुमारे तं अवं मंसं रुहिरं कप्पणिकप्पियं करेति, करेतित्ता बदासी)इति स्पष्टमा एनमर्थ नाप्रियते अत्रार्थे श्रादरं न कुरुते, जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्चइ,उवागच्चइत्ता सेणियं न परिजानीते नाभ्युपगच्चति, कृतमौना तिष्ठति (धनानो णं रायं रहस्सिगयं सयणिज्जसि उत्ताणयं निच्चज्जावेति, नि- कयलक्खणाओ णं सुलकेणं तासि जम्मजीवियफो इट्टाहि चज्जावेतित्ता मेणियस्स उदरबलीसु तं अवं मंसं रुहिरं अवणिज्जमाणंसि सि ) अपूर्यमाणा (भियामि त्ति) 'इट्ठाविरचेति,विरचेतित्ता वत्थपुमएणं वेढेती सवंती करणे दि' इत्यादीनां व्यागया प्रानिहवोक्ता । (उवट्ठाणसाला) भास्थान मण्डपं(ठिरं वा)तथा(अविंदमाणे)अमनमाने (अंतगमन)पारगकरेति,करतित्ता चेसणं देवि नपि पासादे अवलोयणवर मनं तत्संपादने उद्यतमनःस्थानात् (वस्थिपुडगं) नदरान्तर्वति गयं वेति, ठवेतित्ता चेक्षणाए देवीए अहे सपक्खं स- प्रदेशे(कपिणिकपियं)प्रात्मसमीपस्थं सपकं समतावसमवापडिदिसि सेणियं रायं सयणिजसि नत्तागं निच्चजावे- मेतरपार्श्वतया संप्रति दिक्तया अन्यर्थमभिमुखमित्यर्थः। अनिति, सेणियस्स रन्नो उदरवनिमंसाई कप्पणिकप्पियाई मुखावस्थानेन हि परस्परं समावेव दकिणवामपाचे नवतः । करोत, करेतित्ता सेयजायणंसि पक्खिवति, तते ण एवं विदिशावपि (अयमेयारूवे अभथिए मणोगए संकप्पे समुपज्जित्था)सातनं पातनं गानं विध्वंसनमिति कर्ते संप्रधासे सेणिए राया अलीयमुच्चियं करेति, करेतित्ता मुहु रयति उदान्तसिन औषधेःसातनम् उदराद्वहिष्करणं पातन, तंतरेणं अन्नमन्नणं सहिं संलवमाणे चिट्ठति , तते गालनं रुधिरादितया कृत्वा, विश्वसनं सर्व गर्भपरिशाणं से अजयकुमारे सेणियस्स रनो उदरवलिमसाई टनेन च शटनाद्यवस्थाऽस्य भवांता सता तता पारतता गिएहति, गिएहतित्ता जेणेव चिल्लणा देवी तेणेव न र्थाः,खेदवाचका पते ध्वनयः 'अवसदृदुहा' इत्यादि पूर्ववत् । वागच्छति, नागच्छतित्ता चिरणाए उवणेति, तते गं ततेणं सा चिन्मणा देवी नवएहं मासाणं बहुपमिपुष्मा सा चिसणा सेणियस्स रन्नो तेहिं नदरवलिमसेहिं सोल्ले- पंजाव सुकमालं सुरूवं दारयं पयाया। तते णं तीसे चेलहिं० जाव दोहवं विशोति,तते णं सा चिरणा देवी संपुस णाए देवीए इमे एतारूचे जाव समुप्पज्जित्था जइ ताव इमेदोहलाए वसमाणी विच्छिन्नदोहलाए वसमाणी तं गन्नं णं दारएणं गम्भगएणं चेव पिउणो उदरवलिमसाई खाइसुहं महेणं परिवहति, तते णं तीसे चेक्षणाए देवीए अन्न याई तं तं नजइ एस णं दारए संवमाणे अम्हं कुलस्स या कयायि पुनरत्तावरत्तकालसमयंसि अयमेया. जाव अंतकरे भविस्सति, सेयं खलु अम्हं एवं दारगं एगते उकसमुप्पजित्ता जइ ताव इमेणं दारएणं गभगएणं चेव रूभियाए उमाहिवित्तए एवं संपेहेति, संपेहेतित्ता दासपिउणो उदरवनिमंसाणि खाइयाणि तं सेयं खलु मम ए- चेटिं सद्दावेति,सदावतित्ता एवं वयासी-गच्च णं तुमे देवासुयं गब्ज सामित्तए वा पामित्तए वा गालित्तए वा विक- प्पिए! एवं दारगं एगते उक्कुरुम्यिाए उमाहि। तते णं सा सित्तए वा एवं संपेहेति,संपेहेतित्ता तं गन्मं बहहिं मनसा- दासचेमी चेलणाए देवीए एवं वुत्ता ममाणी करतल जाव मणेहि य गालणेहि य गन्नविद्धंसणेहि य इच्छति सा- कह चिलणाए देवीए तमर्ट विणएणं पमिमुणेति,पहिसुणेमित्सए वा पाडित्तए वा गाझिलए वा नो चेव णं से गम्भे तित्ता तं दारगं करतापुमेणं गिएहति जेणेव असोगवणिया Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समया कू (को) णिय अन्निधानराजेन्सः। कू (को) णिय तेणेव उवागच्छइ, उबागच्छदत्तातं दारगं एगंते नक्का वडियं च जहा मेहेस्स० जाव लापं पासाण विहरति उज्मति, तते णं तेणं दारएणं एगते उक्कुरुमियाए नजिक- अट्ठदातियो । तते णं तस्स कृणियस्स कुमारस्स अन्नदा तेणं समाणेणं सा असोगवणिया उज्जोविता यावि होत्था, पुव्वरत्ता जाव समुप्पिज्जि एवं खनु अहं मेणियस्स रन्नो सते णं सेणिए राया इमी से कहाए बछडे समाणे वाघाएणं नो संचाएमि सयमेव रज्जसिरिं करेमाणे पालेमाणे जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छ, उवागच्चइत्ता तं विहरित्तए तं सेयं मम खलु सेणियं रायं नियनबंधणं दारगं एगते उक्कुरुडियाए उकियं पासेति, पामेतित्ता प्रा- करेना अप्पाणं महता रायाजिसेएणं अनिसिंचावित्तए सुरत्तेजाव मिसिमिसेमाणे तं दारगं करतनपुडे गिएहति, त्ति कट्टु एवं संपेहेति, संपेहतित्ता मेणियस्स रन्नो अंतराणि गिएहतित्ता जेणेव चेल्लणा देवी तेणेव उवागच्छइ, उवाग य बिद्दाणि य विरहाणि य पडिजागरमाणे विहरति । तते च्छइत्ता चेल्लणं देविं उच्चावयाहिं आओसणाहिं श्रा- णं से कूणिए कुमारे सेणियस्स रन्नो अंतरं वा० जाव संवा ओसति, श्राओसतित्ता उच्चावयाहिं निम्भत्थणाहिं नि- अलजमाणे अन्नदा कदायि कालादिए दस कुमारे नियग्भत्थति, निमत्थेतित्ता एवं उद्धसणाहिं उफंसेति, उम् घरे सद्दावेति, सद्दावेतित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुसेतिता एवं वयासी-किस्स एं तुमं मम पुत्तं एगंते नक्कु प्पिया! अम्हे सेणियस्स रन्नो वाघाएणं णो संचाएमो रुझियाए उज्मावेसि त्ति कडुचेरणं देविं उच्चावयाहिं सा सयमेव रज्जसिरिं करेमाणा पालेमाणा विहरित्तए तं सेयं वितं करेति, फरेतित्ता एवं बयासी-तुमं णं देवाणुप्पिए ! खलु देवाणुप्पिया! अम्हं सेणियरायं नियसबंधाणं करेत्ता एवं दारगं अणपुग्नेयं सा रक्खमाणी संगोमाणी संव रजं च रटुं च बलं च वाहणं च कोसं च कोडागारं च केहि । तते णं सा चेवणा देवी सेणिएणं रना एवं वुत्ता जणवयं च एकारसभाए विरचित्ता सयमेव रज्जं करेमाणासमाणी लजिया पिलिता करतनपरिग्गहियं सेणियस्स णं पालेमाणाणं जाव विहरित्तए, तते णं कालादीया दस रनो विणएणं एयमढे पडिमुणेति, पमिसुणे तित्ता तं दा- कुमारा कूणियस्स कुमारस्स एयमटुं विणएणं पडिसुणेति, रगं अणुपुग्वेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी संवत्ति । तते तते णं से कृषिए कुमारे अन्नदा कदायि सेणियस्स रन्नो णं तस्स दारगस्स एगते उकरुमियाए उज्जिमाणस्स अग्गं अंतरं जाणति, जाणतित्ता सेणियं रायं निपलबंधणं करेगुनिपाए कुकरपिच्छपणं दूमिया वि होत्था अलिक्खणं ति, करेतित्ता अप्पाणं महतारायाजिसेएणं अनिसिंचावेति, अभिक्खणं पृयं च सोणियं च अभिनिस्सवेति ,ततेणं से तते णं से कूणिए कुमारे राजा जाते महता महता तते एं दारए वेदणाभिनूए समाणे महता महता सदेणं आरसति, से कूणिए राया अन्नदा कदापि न्हाए जाच सव्वालंकातते णं से सेणिए राया तस्स दारगस्स प्रारसितसई सो. । रविभूसिए चेरणाए देवीए पायवंदए हव्वमागच्छति, तते च्चा निसम्म जेणेव से दारए तेणेव उवागच्च, नवागच्च- णं से कूणिएराया चेवणं देविं ओहय जाच झियायमाणिं इत्ता तं दारगं करतलपुमेणं गेएहर, गेएहश्त्ता तं अग्गं- पासति, पासतित्ता चेल्लणाए देवीए पायग्गहं करेति चेलणं गुलियं प्रासयंसि पक्खिवति, पक्खिवतित्ता पूई च सो देवि एवं वयासी-किंणं अम्मोन तुझी वान ऊसए वा न णियं च आसएणं आमुसति, आमुसतित्ता तते णं से दा हरिसे वा ण णंदे वा जनं अहं सयमेव रज्जसिरिंजाब रए निव्वेदणे तुमिणीए संचिट्ठा जाहे वि य णं से दार- विहरामि, तते णं सा चेल्लणा देवी कूणियं रायं एवं वयाए वेदणाए अजिजूते समाणे महता महता सद्देणं आरस- सी-कहं णं पुत्ता! मम तुही वा उस्महरिसाणंदे वा भविति ताहे वि य णं सेणिए राया जेणेव से दारए तेणेव स्सति, जणं तुम्हं सेणियं रायं पियं देवयं गुरुजणगं अच्चउवागच्छइ, उवागच्चश्त्ता तं दारगं करतापुमणं गिएहति, तनेहाणुरागरत्तं नियलबंधणं करित्ता अप्पाणं महता महतं चेव० जाव निव्वेयरणे तुसिणीप संचिट्ठः । तते णं तस्स ता रायाभिसेएणं अनिसिंचावेसि । तते णं से कृणिए राया दारगम अम्मापियरो ततिए दिवसे चंदसरदमणियं करेति० | चेल्लणं देवि एवं वदासी-घातेउकामेणं अम्मो! पम सेणिए जाव संपत्ते । वारसाहे दिवसे अयमेयारूवं गुणं गुणनिप्फन्नं | राया एवं मारेतुं बंधितुं निच्चुनिनकामएणं अम्मो! ममं सेनामधिज्जं करेति नहा णं अम्हं इमस्स दारगस्स एगते । लिए राया तं कहं णं अम्मो! मम सेणिए राया अच्चंतनेहाणुनक्कुरुमियाए उज्ज्जिमाणस्स अंगुली कुक्कुरूपिच्चएणं रागरते। तते ए सा चेल्लणा देवी कूणियं कुमारं एवं वयादूमिया तं होऊणं अम्हं इमस्स दारगस्स नामधेनं कृर्णिए, सी-एवं खलु पुत्ता ! तुमंसि ममं गब्भे आजूते समाणे तिएहं तने ए तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधिज्ज करेंति कणि- मासाणं बहपम्भुिन्नाणं ममं अयमेयारूवे दोहले पाउन्नूत यत्ति, तते णं तस्स कूणियस्स दारगस्स अणुपुव्वेणं गिति- धन्ना तो णं तातो अम्मया तो० जाव अंगपमिचारियाओं Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३२ ) अभिधानराजेन्द्रः । _कू (को) यि निरवसेसं भाणियन्नं० जाव जाहे वि य णं तुमं वेयणे य - जिते महता • जाव तुसिणीए संचिट्ठसि एवं खलु तत्र पुत्तः ! सेलिए राया अचंतने हा पुरागरते । तते ग से कूणिए राया चेल्लपादेवीए अंतिए एयमहं सोच्चा निसम्म चेल्लणं देवं एवं वयासी- दुड्डु अम्मो ! मए कयं सेखियं रायं पियं गुरुजगं अचंतनेहाणुरागरत्तं नियलबंधणं करेंति, तेणं तं गच्छामि णं सेणियस्स रन्नो सयमेत्र नियलानि बिंदामि ति कट्टु परसुहत्थगते जेथेव चारगसाला तेणेव पहारित्यग - माए । तते गं सेलिए राया कूणियं कुमारं परसुढत्थगयं एजमा पासति, पासतित्ता एवं बयासी - इस णं कूणिए कुमारे अपत्थियपत्थिए० जाव सिरिहिरिपरिवज्जिए परसुहत्थगए इह हव्यमागच्छति तं न नज्जइ णं ममं केाइ कुमारेणं मारिस्तीति कट्टु० जाव संजायभए तान्नपुरुगं विसं सगं विसं सगंसि पक्खिवइ । तते णं से सेणिए राया तापुडगविसंसि ग्रामगंसि पक्खिने समाये मुदुतं तरेणं परिणममाणंसि निष्पाणे निच्चिट्ठे०जाव विप्पजढे उए । तते गं से कूणिए कुमारे जेव चारगसाला तेणेव उवागए १ ता सेणियं रायं निष्पाणं निचिडं०जाव विप्पजढं उ इणं पासति, पासतित्ता महता पितुसोरणं श्रपरसुनियत्ते क्वि चंपगव पादवे सति धरणीतलंसि सव्वंगेहिं संनिवडिए, तते णं से कूणिए कुमारे मुहुत्तंतरेणं आसत्ये समाणे रोयमाणे कंदमाथे सोयमाणे त्रिवमाणे एवं वदासी - अहो णं मए धनेणं पुणं अकयपुत्रेणं दुट्टु कयं सेणियं रायं पियदेवयं श्रच्चंतनेहाणुरागरत्तं नियलबंधणे करेंति तेय मम मूलागं चेव णं सेणिए राया कालगति त्ति कट्टु ईसरतजवर ० जाव सन्धिवानसकि संपरिवुमे रोयमाणे कंदमाणे सोयमाणे विलवमाणे मढ़या इष्ठिसकारसमुदयं सेपियस्स रन्नो नीहां करेति, बहूई लोइयाई मयकिच्चाई करेति, तते से कूणिए कुमारे एतेणं महया मणोमासिएण दुक्खेणं अभिभूते समाणे अन्नदा कदायि अंडरपरियालपडिवुमे सभंडमत्तोवगरणमाताए रायगिहातो पडिनिक्खमति, पडिनिक्वतित्ता जेणेव चम्पा नगरी तेणेव उवागछ । तत्थ विविपुल भोगसमितिसमन्नागए कालेणं असो जाए या होत्या । तते णं से कूलिए राया अनया क्याई कालादीए दस कुमारे सहावेति, सहावे तित्ता रज्जं च० जाव जणवयं च एकारसजाए विरचेति, विरचेतित्ता सयमेव रज्जसिरिं करेमाणे पालेमाणे विहरति । ( उच्चावयाहिं ति) उच्चानिराक्रोशे सति निर्भर्त्सना उद्धोबाऽनिलज्जिता बीमिता ( विश्वडियं ति) स्थितिपतितं कुलक्रमागतं पुत्रजन्मानुष्ठानम (अंतराणि य) श्रवसरान् (छिदाणि) अल्पपरिवारादीनि विरदो विजनत्वं, तुष्टिरुत्सवः हर्ष मान कू (को) यि न्दः प्रमोदार्था एते घोषाः । (घाउकामेणं) घातयितुकामः । खं वाक्यालङ्कारे, मां श्रेणिको राजी हननं मारणं बन्धनं निर्भत्सनं पते पराजिनवसूचकाः ध्वनयः । निश्चेष्टः जीवितविप्रजढः प्रानापहारसुचकाः पते । श्रवतीर्णो भूमौ पतितः श्रपन्नो व्याप्तः सन् (रोभमा त्ति) रुदन (कंदमाणे) क्रन्दनं कुर्वन् (सोयमाणे) शोकं कुर्वन् (विलवमाणे) विलापं कुर्वन् (नी हरणं ति) परोकस्य यन्निर्गमादिकार्यम् (मणो मानसिएणं ति) मनसि जातं मानसिकं मनस्येव यद्वर्तते वच्चनेनाप्रकाशितत्वात् तन्मनोमानसिकं तेनाबहिर्वृतिना अभिभूता ( अंतेउरपरियाल संपि नि० १ वर्ग । भ० । व्य० । आ० क० अ० चू० । भाव० । अंत०] । आ० म० । ( चेटकराजेन सहाऽस्य सङ्ग्रामः कालकुमारवतव्यतायां 'काल' शब्दे भस्मिन्नेव मागे ४८१ पृष्ठे चक्तः । ' रद्दमुसल ' शब्दे ' महासिलाकंटय श देऽपि यते) स च चम्पानगरी पतिर्जातः एवं खलु जम्बू ! तेणं काक्षेणं तेणं समरणं इहेव जम्बुद्दीवे दीवे भार वासे चम्पा नामं नयरी होत्या, रि पुन्नभद्दे चेइए, तस्थ मं चंपाए नयरीए सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेलणाए देवीए अत्तर कूणिए नाम राया होत्या । महता तस्स कूणियस्स रन्नो पद्यमावई नामं देवी होत्था, सुखमाल० जाव दिइ । तत्य एवं चम्पाए नयरीए सेfurta रन्नो मज्जा कूणियस्स रन्नो चुमाउया काक्षी नामं देवी होत्या सुकुमाल० जाव सुरूवा । नि० १ वर्ग । तद्वर्णक औपपातिके यथा तत्य णं चम्पाए यरीए कूणिए णामं राया परिवसड़ महया हिमवंतमहंत मलय मंदरम हिंदसारे अच्चंत विसुकदीहरायकुलवंसमुप्पसूए खिरंतरं रायलक्खणविराइभंगुर्वगे बहुजण बहुमाण पूजिए सव्वगुण समिद्धे खत्तिए मुइए मुद्राहिसिते माउपिस जाए दयपत्ते सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे मस्सिदे जणवयपिया जणवयपाझे जलवय पुरोहिए से करे केकरे रपवरे पुरिसबरे पुरिससीहे पुरिसबग्घे पुरिसासी विसे पुरिसपुंरीए पुरिसवरगंधहत्थी के दित्ते वित्त वित्थिष्ठे विठलजवणसयण सजाणवादलाई बहुध जावे रयते आगपगसंपत्ते वित्थमिश्रपरनत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलकप्पनूते परिपुजंतकोसकोहा गाराउधागारे बलवं दुब्बलपच्चामित् प्रकटयं मलिकटयं उद्धियकंटयं श्रकंटयं उकंटयं यसत्तुं नियतुं मल्लियसत्तुं उमित्तं निज्जिश्रसत्तुं परास ववगयदुब्जिक्खं मारिजयविष्यमुकं स्वयं सिवं सुचिक्खं पसंतबिडमरं रज्जं पसासेमाणे विहरति । तदूराज्ञीवर्णकः तस कोणिस्स रखो धारिणी नामं देवी होत्या सुकुमालपाणिपाया महीणपरिपुष्पंचिंदियसरीरा लक्ख Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३३) कू (को) णिय अभिधानराजेन्डः। कू (को) णिय णवंजणगुणोववेमा माणुम्माणप्पमाणपमिपुमसुजायसव्वं- या जंभसारपुत्ते तस्स पवित्तिवानअस्म अंतिए एयमई गसुंदरंगी ससिसोमाकारा कंतपियदसणा सुरूवा करयलपर• सोचा णिसम्म हहतुट्ठजाव हिअए विअसियवरकमन्नणयमिअपसत्यतिवनियवलियमका कोमुइस्यणियरविमलपडि- __णवयणे अल्झियवरकमगतुझियकेयरमउमकुंडबहारविरापुम्मसोमवयणा कुंमबुद्विहिअगमलेहा सिंगारागारचारुवे- यंतरझ्यवच्छे पाबंबपलंबमाणघोलंतनूसणधरे ससम्म सा संगयगयहसिअभणिचिट्टिअविनासमझिअतलाव- तुरिअं चपलं नरिन्दे सीहासणाओ अब्जद्वेष,अन्भुढेइत्ता णिनणजुत्तोवयारकुसला पासादीपा दरिसणिज्जा अनिरू- पायपीढायो पञ्चोरुहइ, पञ्चोरुहत्ता पानो उम्मुअइ, उवा पकिरूवा कोणिएणं रएणा जंजसारपुत्तेणं सकिं - म्मुअइत्ता अवह पंच रायककुहाई । तं जहा-खरगं १ छत्तं रत्ता अविरत्ता घटे सद्दफरिसरसरूवगंधे पंचविहे माणुस्सए २ उप्फेसं ३ वाहणाउ ४ वालवीअणं ५, एक्कसाडि कामजोए पच्चणुजवमाणी विहरति । तस्स णं कोणि-| उत्तरासंगं करेइ, करेऽत्ता आयते चोक्खे परममुन्नए अंजस रखो एक्के पुरिसे विउझकयवित्तिए भगवओ पवित्ति- लिमनलिअग्गहत्थे तित्थगराभिमुहे सत्तटुपयाई अणुगच्छवानए जगवतो तद्देवसि पवित्तिं णिवेए। तस्स णं पुरिस- ति, सत्तट्ठपयाई अणुगच्छतित्ता वामं जाणुं अंचेह, अंचत्ता स्स वहवे अमे पुरिमा दिप्मा भत्तिनत्तवेपणा जगवतो दाहिणं जाणु धरणितलंसि निवेसे त्ति साहढ तिक्खुत्तो पवित्तिवानमा जगवतो तद्देवसिगं पवित्तिं णिवेदेति । तेणं | मुकाणं धरणितनसि निवेसइत्ता ईसिं पच्चुममति, कालेणं तेणं समएणं कोणिए राया जंजसारपुत्ते वाहिरि- पच्चुत्सामित्ता कम्गतुमियभिआओ जुआओ पहिसा याए उवट्ठाणसाझाए अणेगगणनायकदंमनायकराईसरत. हरति, हरतित्ता करयल० जाव कट्ट एवं बयालवरमांडविभकांडीवमंतिमहामंतिगणकदोबारिश्रअमच्च- | सी-णमोऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं आगराणं चेटपीढमदनगरनिगमसेटिसणावइसत्यवाहदूतसंधिवालस-- | नित्थगराणं सयं संबुद्धाणं पुरिमुत्तमाणं पुरिससीहाद्धि संपरिखु विहरइ । तेणं कालेणं तेणं समयेणं समणे णं परिसवरपंमरी प्राण परिसवरगंधहस्थीणं लोगुत्तजयवं महावीरे प्राइगरे (औ०) पुत्राणुपुब्धि चरमाणे माणं भोगनाहाणं सोगहियाणं लोगपईवाणं लोगपज्जोगामाणुग्गामं दूइज्जमाणे मुहंमुहेणं विहरमाणे चंपाए अगराणं अजयदयाणं चक्रबुदयाणं मग्गदयाणं सरणदण यरीए बहिया उवणगरग्गामं नवागए चपं नगरि याणं जीवदयाणं वोहिदयाणं धम्मदयाणं धम्मदेसयाणं पुगणनई चेइ अं समोसरिउकामे । तए णं से पवित्ति धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचानरंतचक्कचट्टीणं वाउए इभीसे कहाए लछडे समाणे हतुट्ठचित्तमा दीवोत्ताणं सरणंगइपश्वा अप्पमिहयवरनाणदसणधराणं णदिए पीक्ष्मणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाण विअच्छउमाणं जिणाणं जावयाणं तिप्लाणं तारयाणं हियए एहाए कयवलिकम्मे कयकोउ अमंगलपायच्छित्ते बुछाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोअणाणं सबन्नणं सचदमुरुपवेसाई मंगवाई वत्याई पवरपरिहिए अप्पमहग्या रिसीणं सिवमयलमरुअमाएंतमक्खयमवावाहमपुणराविभरणालंकियसरीरे साओ गिहाओ पमिनिक्खमइ, स त्तिसिद्धगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं, नमोऽत्यु णं समणस्स पात्रो गिहाम्रो पमिनिक्खमित्ता चंपाए एयरीए मज्झं जगवो महावीरस्स आदिगरस्स तित्यगरस्स० जाव सं. मज्जेणं जेणेव कोणियस्स रमो गिहे जेणेव बाहिरिया पाविनकामस्स मम धम्मायरियस्स धम्मोबदेसगस्स बंदामि उवट्ठाणसाला जेणेव कृणिए राया जंजसारपुत्ते तेणेव णं जगवं तत्थ गयं इह गते पासर मे भगवं तत्य गए श्ह उवागच्छति, उवागच्छइत्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्यए अंजझिं कहु जएणं विजएणं बद्धावेइ, वहावेऽत्ता गयं तिकह बंदंति, णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता सौहाएवं वयासी-जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं कंग्वंति, जस्स साणवरगए पुरत्यानिमुहे निसीअक्ष, निसीइत्ता तस्स पणं देवाणुप्पिया दंसणं पीहंति, जस्स णं देवाणुप्पिया वित्तिवान अस्स अट्टत्तरसयसहस्सं पीतिदाणं दलपति,ददसणं पेत्यंति, जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं अभिलसं लइत्ता सकारेति, सम्माणेति, सक्कारिता समाणित्ता एवं ति, जस्स णं देवाणप्पिया णामगोत्तस्स वि समाएयाए वयासी-जया णं देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे इह इतुट्ट जाव हिया भवंति, से णं समणे भगवं महावीरे मागिच्चेजा, इह समोसरिजा,इहेव चंपाए णयरीए बहिपुत्राणुपुचि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे चपाए ण- आ पुमजदे चेइए अहापभिरूवं उग्गहं नगिरिहत्ता संयरीए उवणगरगामं नवागए चंपं गरिं पुम्भई चेअं| जमणं तवमा अप्पाणं भावेमाणे विहरेज्जा,तयाणं मम एसमोसरिनकामे तं एअंएं देवाणुप्पियाणं पिअट्ठपाए | अमटुं निवेदिजामि त्ति कटु विसज्जिते । तए णं समणे नपिअंणिवेदेमि-पिअंते जवभो । तए णं से कणिए रा- गवं महावीरे कवं पाओ पनायाए रयणीए फुल्लुप्पलक Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३४ ) अभिधानराजेन्द्रः । कू ( को ) ि त्यपरिहिया चंदणालित्तगायसरीरा अप्पेगइया हयगया एवं गयगया रहगया सिबियागया संद्माणियागया अप्पेगया पायविहारचारिणो पुरिमवग्गुरा परिखित्ता महया सहाय वोलकलकलवेणं पक्खुब्भिमहासमुद्दरवतं पिव करेमाला चंपाए नयरीए मज्भं मजेणं निगच्छंति, णिग्गच्छतित्ता जेणेव पुष्ान हे चेइए तेत्र उवागच्छ, उवागच्छतित्ता समएस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते छत्तातीए तित्ययराजिसेसे पासंति, पासित्ता वाहनात ठावतिता जाणवाह रोदितो पचोरुति, पच्चोरुहित्ता जेणेव समणे जगवं महावीरे तेणेव उवागच्छड़, उवागच्छिता समणं जगवं महावीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करोति, करिता वंदति, एमंसंति, वंदिना कू ( को ) लिय मलकोमलुम्पनितम्मि अहा पंकुरे पहाए रत्तासोगप्पगासकिं मुहगुंजकरागसरिले कमलागरसंमवोहए - मिसूरे सहस्रस्सिम्मि दिएअरे तेयसा जलते जेव चंपा गय। जेणेव पुष्मनद्दे चेइए तेणेत्र उवागच्छति, जवागच्छतित्ता महापमिरूवं उग्गदं उगिल्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं जावेमाणा विहरति ( भौ० ) । तए चंपाए एयरीए सिंघारुगतिगचउकचच्चरचनम् मुह महापपदेसु महया जणसदेति वा जणवृद्देति वा जावोति वा ककलेति वा जम्मीति वा जणुकलियाति वा जासन्निवाति वा बहुजणो मस्स एवमाइक्खर, एवं नास एवं पत्रे, एवं परूवेश - एवं खलु देवाप्पिया ! समणे भगवं महावीरे दिगरे तित्थगरे सयं संबुके पुरिमुत्तमे० जाव संपाविउकामे पुव्वाणुपुत्रि चरमाणे गामा गामं दुज्जमाणे इहमागए इढ संपत्ते इह समोस इहेव चंपाए यरीए वाहिं पुमनद्दे चेहए अहा परूिवं उगई उगिरिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पा भावेमाणे विहरति तं महत्फलं खबु जो देवाप्पिया ! तहारूवाणं अरहंताणं जगवंताणं णामगोअस्स वि सवणताए, किमग ! पुरण अनिगमणवंदणण मंसण परिपुच्त्रणपज्जुत्रास याए, एकस्स वि आयरियस्स धम्मित्रप्रस्स सुवण्यस्स सवणता किमंग ! पुए विपुलस्स प्रत्यस्स गहण्याए, तं गच्छामो देवालिया ! समणं भगवं महावीरं वंदामो सामो सकारेमो सम्माऐमो कल्लाणं मंगलं देवयं विणणं पज्जुवासामो, एते पञ्चभवे इहभवे अ हियाए सुहाए खमाए निस्से साए आगामि अत्ताए नविस्स ति कट्टु बहवे लग्गा जग्गपुत्ता भोगा जोगपुत्ता एवं दुपको रे राइमा खत्तिया माहणा जमा जोहा पसत्यारो मल्लई लेई लेच्छत्ता य बहवे राईसरतलवरमांकवियकोचि अन्न से डिसेना व सत्यवादपनितिया अपेगइआ बंदपणवत्ति अप्पेगा पूत्रप्रणवत्तियं एवं सकावत्तियं सम्माणवत्तियं दंसणवत्तिअं कोऊहलवत्तियं अपेगा अडविलिच्छ हे प्रोस्सुयाइ मुणेस्सामो, सुप्राइ निस्संकियाई करिस्सामो,अप्पेगा अट्ठाई देऊ‍ कारलाई वागरणाई पुच्छरसामो, अप्पेगईया सन्चओ समंताए मुंडे नवित्ता अगाराओ अहागारिश्रं पव्वइस्सामो, पंचाणुत्रयं सत सिक्खावइयं बाल सविहं गिहिधम्मं परिवज्जिसामो, अप्पेगा जिजतिरागेण अप्पेगइया जी मे ति कट्टु एढ़ाया कलिकम्मा कयको मंगलपायच्छित्ता सिरसा कंमालका आदिमणिसुवन्ना कप्पियहारगृहारतिसरयपाचंगपलंच पाएकडित्तयमुकयसोहानरणा पवर मंसित्ता पच्चासले पाइरे सुस्सुसमाणा मंसमाला अभिमुद्दा विणणं पंजलिनमा पज्जुवासंति । तए णं से पवितवाउ इमसे कहाए लट्ठे समाणे हट्टतुट्ठे० जात्र fore एहाए० जाव अप्पमहग्यानरणालंकि असगरीरे सयाओ गाओ पाक्खिमइ, सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमित्ता चंपानगरिं मज्जं मज्जेणं जेणेव बाहिरिया सव्वे बहेडिला वत्तव्या०जाव खिसीयइ, णिसत्ता तस्स पवित्तिवा अस्म अतेरससय सहस्साई पीइदाणं दनयति, दलयतित्ता सक्कारेति, सम्माऐति, सकारेत्ता सम्मा येत्ता परिविमज्जेइ । तणं से कुणिए राया भंजसारपुत्ते बलवाउ आमंति, श्रमंतेत्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! आजिसेकं हत्रियणं परिकहि, हयगयरहपवरजोहकसिअं च चारंगिणं सेणं समाहिहि, सुजद्दानमुहाण य देवी वाहिरियाए उाणसाला पारिएकपारिएका जत्ताभिमुहाई जुत्ताइ जाणाइ डबकबेह, चंपं णगरिं सब्जितरवाहिरि सित्तत्तिसुसम्म हरत्यंतरावणवी हित्र्यं मंचा मंचलिअं णाणाविह रागउत्थियज्जयं पमागाइपमागमं मि लाउलोइयमहियं गोसीससरसरत्तचंद जाव गंधिव हिचं करेह, कारवेह, करिता कारवेत्ता एप्रमाणत्तिअं पच्चपिएह-निज्जास्सामि समणं जगवं महावीरं अभिवंदए; सेवा कृणिएवं रम्मा एवं बुत्ते समाणे हनुट्ठ० नाव दिए करयनपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कए एवं बयासी - सामित्ति आलाइ विएएणं वयणं परिमुणेइ, परिसुणेइत्ता हत्यिवाउअं आमंतति, आमंतेत्ता एवं वयासी - खिप्पामेव जो देवाप्पिया ! कृणिअस्म रमो भंजसारपुत्तस्स भिसेकं हत्यिरयणं परिकपेहि, हयगयरहपवर जो इकलियं चानरंगिणसे सएदादेहि, सएहाहित्ता एप्रमाणत्ति पच्चप्पियाहि । तर से इत्थिवाउ बलवान अस्स एअमहं सोचा था For Private Personal Use Only Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कू (को) णिय अभिधानराजेन्छः। कू (को) णिय णाए विणएणं वयणं पमिसुणे, पडिसुणिता प्राय- पञ्चप्पिणइ । तते णं से वनवाउए कोणिस्स रन्नो मंजसारिमनवदेसमातिविकप्पणाविकप्पहिं मुणिनणेहिं उज्जमणे- रपुत्तस्स प्रालिसेकं हत्थिरयणं पमिकप्पि पासेइ,हयगय. वत्थहत्थपरिवत्थिअसुसज धम्मिअसएणकवचकवइयउ- जाव सप्लाहि पासति, सुनदापमहाणं देवीणं पडिजाणापीलियकच्छवच्चगेवेयबद्धगलबरजूसणविराइयं ति अहिय- इ उवट्ठविआइ पासति, चंपं णगरि अन्जितर० जाव गंतेअजुत्तं समनिअवरकम्पपूरविराश्यं पलंबउच्चूलमहुअर- धवहित कयं पासति, पासित्ता हताहित्ति माणदिए पीकसंधयारं चित्तपरिच्छेअपच्छदं पहरणावरणभरिअजुक्छ- अमणे जाव हिमए ( औ० ) जेणेव मजणघरे तेणेच सज्जं सच्चत्तं सज्झयं सघंटं सपमागं पंचामेमअपरिमंमि- उवागच्चइ, तेणेव उवागच्छित्ता मजणघरं अणुपआनिराम श्रोसारिअजमजुअलघंटं विज्जुपण व का विसइ, माणुपविसइत्ता समुत्तजालाउलाजिरामे विचित्तमअमेहं उप्पाइयपवयं व चंकमंतं मत्तं गुलगुन्वंतं मणपवण णिरयाग कुट्टिमतले रमणिजे एहाणमंडसि जाणामणिजाणावेगं जीमं संगामियाअोग्गं पालिसेकं हत्थिरयणं प रयण भत्तिचित्तंसि एहाणपीढसि सुहरिणसमे मुखीडिकप्पड़, पमिकप्पेत्ता हयगयरहपवरजोहकनि चानरं दएहिं गंधोदएहिं पुप्फोदएहि मुहोदएहिं पुणो पुणो गिणिं सेणं समाहेइ, सम्माहित्ता जेणेव बलवानए तेणेव कहाणपवरमज्जणविहीणे मधिए, तत्थ कोनसएहिं बउवागच्चनवागच्चित्ता एअमाणत्तिअंपचुप्पिणइ । तए णं हुविहेहिं कसाणपवरमजणावसाणे पम्हनसुकमानगंसे बनवानए जाणसानिसद्दावेह,सहावेत्ता एवं बयासी धकासाइयवृहिअंगे सरममुरहिगोसीसचंदणाणुलिसगत्ते खिप्पामेव भो देवाणप्पिया! सुभद्दापमुहाणं देवीणं बाहि अहयसुमहग्यदूसरयणसुसंवूए सुश्मालावरमगविलेवणे मा विक्रमणिमुबले य कप्पियहारिद्धहारतिसरयपानंबपलंरियाए उवहाणसालाए पमिप्रकपामिप्रकाई जत्ताजिमु बमाणिकडिसुत्तसुकयसोने पिणकगेविजअंगुलिजगलशिहाई जुत्ताई जाणाई उवट्ठवेह, जबढवेत्ता एप्रमाणत्तिअं पच्चप्पिणाहि। तते णं से जाणसालिए बलवान अस्स ए यंगयलक्षियकयाभरणे वरकमगतमियभिअनुए महियअमट्ठ आणाए विणएणं वयणं पमिपुणे, पडिसुणित्ता रूवसस्सिरीए मुद्दिआपिंगलंगुन्निए कुंडल उजोविआणणे जेणेव जाणसाला तेणेव नवागच्छः, तेणेव उवागचित्ता मउमदित्तसिरए हारोत्थयसुकयरइयवच्छे पारंवपनंबमा एपडसुकय उत्तरिजे णाणामणिकणगरयणविमानमहरिहजाणाई पच्चुवेक्खेश, पच्चुवेक्खेइत्ता जाणई संपमजेद, संपमत्ता णिउणो वि अ मिसिमिसंतविरइयमसिसिहविसिट्ठलजाणाई संवट्टेइ,जाणाई संवत्ता जाणाई णणे, भाविकवीरवलए किंबहुणा कप्परुक्खए चेत्र अलंकियजाणाई णीणेसा जाणाणं दूसे पीणे, पवीणेत्ता जाणाई विनसिए पवईमकोरंटमल्लदामेणं उत्तेणं धरिजमाणेणं समलंकरे,ममलंकरइत्ता जाणाई वरजंडकमंमियाई करेति, च उचामरचालवीजियंगे मंगलजयसद्दकयालोए मज्जणघकरतित्ता जेणेव वाहणसाला तेणेव उवागच्चद, तेणेव - रामोपमिनिक्खम,मजणघराओ पहिणिक्खमित्ता अणेगचागच्छित्ता वाहणाई पच्चुवेरखेड,पच्चुवेक्खेइत्ता वाहणा गणनायगदंडनायकराईसरतन्मवरमांमवियकोमंबियइन्नसेई संपमजइ,संपमजदत्ता वाहणाई णीणे, जीणेत्ता वा. डिसेणावश्सत्यवाहअसंधिवान्नसकि संपरिबुझे धवलमहणाई अप्पफाइ,अप्पफाइना दूसे पवीणेइ, पवीणेइ हामेहणिग्गए व गहगणदिपंतरिक्खतारागणाण मजके सत्ता वाहणाई समलंकरोति, करेतित्ता वाहणाई वरभंडक सिव पिअदसणे णरवई जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाझा मंमियाइ करेइ, करेइत्ता वाहणाई जाणाई जोएइ, जो-- जेणेव आभिक्खे हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छद, उवागच्चिएइत्ता पतोदलपिनअधरे असमं प्राउहइ, आउहित्ता | त्ता अंजणगिरिकूडसमिनं गयबई णरघई दुरूद, तए णं तवट्टमग्गं गाहे, गाहेइत्ता जेणेव बलवाउए तेणेव नवाग- | स्स कूणियस्त रणो भसारपुत्तस्स आनिसिकं हस्थिरय ता वझवानअस्स एअमाणात पच्चाप्प-/-णं दुरूढस्स समाणस्स तप्पढमयाए इमे अहटमंगलया णाइ । तते णं से बदबाउए णगरगुत्तिए आमंतेश्,आमंते पुरो अहाणपुबीए संपट्टिा , तं जहा-सोचत्थियसिरित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव जो देवाणुप्पिया! चं गरि बत्यणंदिआवत्तवकमाणकभद्दासणकलसनच्छदप्पणा तयामन्जितरवाहिरियं असिय० जाव कारवेत्ता एप्रमाणत्ति- णंतरं च णं पुलकसजिगारं दिव्या य छत्तपडागा सअं पञ्चप्पिणाहि । तते णं से णगरगुत्तिए वझवाउअस्स ए- चामरा दंसपरइअआनोअदरसणिज्जा वानद्धयविजयअमढे आणाए विणएणं पमिमुणइ, पमिसुणेत्ता चंपंण-| जयंती नस्सिमा गगणतन्त्रमाणसिहंत। पुरओ अहाणुगरि सम्भिनरवाहिरिनं आसिअ० जाव कारवेत्ता जेणेव पुदीए संपट्टिमा,तयाणतरं च णं वेरुमिनिसंतविमझदंमें बनवाउए तेणेव नवागच्च, नवागच्छइत्ता एअमाणत्तिभं पवकोरंटमलदामोवनोजिनं चंदमंडलषिभं समास प्रवि Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३६ ) अभिधानराजेन्द्रः | कू (को) यि म आयवत्तपवरं सीहासणं वरमणिरयणपादपीठं सपा मंणि मिणो सिहिंमिणो जमिणो पिच्छिणो हासकरा डमरकरा चाकरा वादकरा कंदप्पिकरा दव्त्रकरा कोकुया किट्टिकरा वायंता गायंता हसंता णचंता भासता साना रक्तो आलोअं च करेमाणा जयजयसदं परंजाणा पुरओ हा पुत्रीए संपट्टि, तयाणंतरं जच्चातरमलिहायणाणं हरिमेलामडलमलियत्थाणं चुंचुचि - लक्षिय पुलियचलचत्रलचंचल गई संघणवगधावणधोरणतिवईजइसिक्खिगईणं बसंतला मगल बायवर नूसणाणं मुहमंडण्उच्चनगथासग महिलाणचा मरदंम परिमंमियकडीणं किंकरवर तरुणपरिगहिआणं अट्टमयं वरतुरगाणं पुरओ अणुपुवीए संपट्टियं, त्याांतरं च णं ईसीदंताणं ईसीमत्ताणं ईसीतुंगाणं ईसीउच्छंगविसालधवलदंताणं कंचएको सीपविद्यदंताणं कंचणमणिरयणनूसिया कू (को) यि ागधरा पिट्ठो रहसंगेली । तए णं से कूणिए राया उमायो अ समाउत्तं बहुकिंकरकम्मकरपुरिसपायत्तपरि-भंजसारपुत्ते अनुग्गयभिंगरिपग्ग हियतालियंटे उत्थियसेक्वित्तं पुरओ हाणुपुन्त्रीए संपट्टियं, तयाणंतरं बहवे अच्छते पव वालवीयाणि सव्विईीए सब्वज्जुतीएसलडिग्गाहा कुंतग्गाहा चावगाहा चामरग्गाहा पासग्गाढ़ा व्ववलेणं सव्वसमुदपणं सव्वादरेणं सव्वविभूइए सव्वविपात्ययग्गाहा फलकग्गाहा पीढग्गाहा वीणग्गाहा हनूसाए सव्वसंभमेणं सव्त्रपुप्फ गंधमलालंकारेणं सव्वतुमि - फग्गाहापुर अहाणुपुब्बीए संपडिया, तयाणंतरं व- सदसलिणाएं महया इटीए महया जुतीए महया वलेणं महया समुदणं महया वरतुकिजमगसमगप्पवाइएणं संखपणवपमहभोरिकल रिखर मुहि हुकिमुरय मुअंग दुबुभिणिग्घोसणाश्यरत्रेणं चंपाए णयर ।ए मज्ऊं मज्जेणं णिग्गच्छइ । तए णं कूणिअस्स रन्नो चंपानगरिं मज्ऊं मज्जेणं गिमाणस्स वहवे अत्यत्थिया कामत्थित्र्या जोगत्थिा किव्विसि करोमि लाभत्थिया कारवाहिआ संखिआ चकिया बंगलिया मुहमंगलिया व माणा पुस्समाणच्या खंभि यगणा ताहिं इहाहिं कंताहिं पित्र्याहिं माहिं मणामाहि भिरामाहिं हिययगमणिज्जाहि वग्गूहिं जयविजयमंगएहिं णवर अभिनंदता य अभियुता य एवं क्यासी- जय जय गंदा, जय जय जद्दा, जदं ते अजित्र्यं जिलाहि जिप्रपालेहिं जियमज्झत्रसाहिं इंदो इव देवाणं मरो श्व असुराणं धरणे व नागाणं चंदो इव ताराणं भरहो मां बहूइ वासा बहूइ वाससआई बहू वाससहसाई बढ़ई वाससयसहस्सा अणहसमग्गो हडनुडो परमाउं पानयाहि इकजण संपरिवुमो चंपाए एयरीए - सिं च बहूणं गामागरणग र खेम कव्त्र कमवदो मुहपट्टणयास्समनिगम संवाह संनिवेसाणं आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं जट्टित्तं महत्तरगतं आणाईसरे सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महया हट्टगीयवाइयतं तीतझताल तुडित्र्घण मुगपमहप्पवाइअरवेणं विजलाई जोगभोगाई लुंजमाणे विहराहि त कट्टु जयजयसद्दं परंजंति । तए णं से कृलिए राया जंभसारपुत्ते यणमालास हस्सेहिं पेच्छ्रिज्ञमाणे पेचिजमाणे हित्र्यमालामहस्मेहिं अभिशंदिजमाणे - भिदिज्जमाणे मणोरहमालासहस्मेहिं विच्छिष्पमाणे विचिप्पमाणे वयणमालासहस्मेहिं नियुच्वमाणे अभियुव्त्रमाणे कंतिसोहग्गगुणेहिं पित्थिज्जमाणे पित्थिज्जमाणे बहूपं परणारिसहस्माणं दाहिणहत्येणं अंजलिमाला सहस्माई पच्चिमाणे पच्चिमाणे मंजुमंजुरणा घोसेणं परिबुज्जमा वरपुरिसारोहगसंपत्ताणं असयं गयाणं पुरओ अहापुत्रीए संपट्टियं, तयाांतरं सत्ताणं सज्जयाणं सर्वदा सपमागाणं सतोरणवराणं समंदिघोसाणं सखिखियीजालपरिक्खित्ताणं हेमत्रयचेत्त तिमिसकणकणिज्जुत्तदारुआणं कालायससुकयणे मिजंतकम्मां सुसिलिट्टवत्तमंमलधराणं आइसवरतुरगसंपनत्ताणं कुसलनरबेअसारहिसुसंपग्गहित्राणं बत्तीसतोणपरिमंमिश्रणं सकं - कमवमंसकाणं सचावसरपहरणावर एनरिअजुद्धसज्जाएं स रहाणं पुरो अहाणुपुन्नीए संपडियं, तयांतरं च णं असिसत्तिकोंततोमरसूललल मार्मिमिमालध गुपासिज्जं पायताणीयं पुरओ अहाणुपुब्बीए संपद्धि । तते णं से कूणिए राया हारोत्ययमुकयरव्यवच्छे कुंमलनजोयि आणणे मउमदित्तसिरए परसीदे पवई परिंदे णरत्रससहे मणुरायवसनकप्पे अन्महिअरायते अलच्चीए दिप्पमाणे हत्यिक्संघवरगए सकोरंटमल्लदामेणं बत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेवरचामराहिं उद्धवमाण हि उदुब्ब माण हिं वेसमणे चेत्र परवई अमरवरसमिभाए इडीए पहिकिती हयगय रहपवरजोह कलियाए चाउरंगिलीए सेवाए समागम्यमाणमग्गे जेणेव पुएलभदे चेइए तेऐव पहारित्थगमनाए, तर णं तस्त कुणिअस्स रसो भंजसापुत्तस्स पुर महं आसा आसरा उभतो पासि पागा परिमाणे भवतिसहस्साई समइज्जमाणे समइज्जमा चंपाए एयरीए म मज्जेणं पिग्गच्छर, णिग्गच्छ इत्ता जेणेव भद्दे चेइए तेणेव उवागच्छध, उवागच्छत्ता समस्स भगवो महावीरस्म अदूरसामंते बताईए ति - त्ययराइस पास, पासित्ता आभिकं हत्थिरयणं व वेइ, Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३७ ) निधानराजेन्द्रः । कू ( को ) यि ठविसा आजि सेक्काओ हत्यिरयणाओ पचोरुहरु, पच्चरुहता भवद्दु पंच रायककुहाई । तं जहा-खगं बत्तं उप्फे वाहणाओ वालवीभणं, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता समणं जग महावीरं पंचविणं अभिगमेणं अभिगच्छंते । तं जहा-सचित्ताणं दब्वाणं विसरण्याए अचित्ताणं दव्त्राणं श्रविउसरणयाए एगसामि उत्तरासंगं करणं चक्खुप्फासं अंजलिपग्गहेणं मणसो एगत्तभाव करणेणं समणं जगवं महावीरं तिक्खुत्तो याहिणं पयाहिणं करे, तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं करेत्ता बंदति, रामसति, वंदित्ता मंसिता तिविहार पज्जुवासणाए पज्जुनास । तं जहाकाइयाए बाइचार माणसिमाए, कायाइए तात्र संकुइअग्गहत्यपाए सुस्समाणे एम्समाणे अभिमुद्दे विणणं पंजजिनके पज्जुवास, बालाए जं जं जगवं वाकरेइ एवमेत्रं जंते ! तहमेयं जंते ! चितहमेयं भंते! असंदिकमेअं जंते ! इच्छित्रमेयं भंते ! पच्छिमे भंते ! इच्छियपरिच्छयमेश्रं भंते ! से जहेयं तुब्भे वदह अपकिकूलमाणे पज्जुवासंति, मानसिया महया संवेगं जणइत्ता तिब्बधम्मापुरागरते पज्ज्वासइ । तते णं ताओ सुभद्दापमुहाओ देवीओ अंतो अंतेउरं से एहाया जा पायच्छित्ताओ सन्त्रालंकारविभूसियाओ बहूहिं खुज्जाहिं चेल्लाहिं वामणीहिं वमभीहिं बच्चरीहिं पयाउसियाहिं जोणिग्राहिं परहविचाहिं इतिगणिचाहिं वासिजिहिं बासआहिं लउसियाहिं सिंहलीहिं दमिलिहिं आरवीहिं पुझिदीहिं पक्कणीहि बहली हिं मुरुमीहिं सबरियाई पारसीहिं णाणादेसविदेसपरिमंकिहिं इंगियचिंतियपत्थित्र्यविजाणियाहिंसदेसवत्थग्गहि अवे साहिं चेडिया चकवाल वरिसधरकंचुइज्जमहत्तर गवं दपरिक्खित्ताओ तेराश्रो लिग्गच्छति, अंतेउरा निम्गच्छित्ता जेणेव पाकिएकजालाइ तेणेव उवागच्छध, उवागच्छित्ता पारिएकपारिएकाई जत्ताजिमुहाई जुत्ता जाणाई दुरुहंति, दुरुहिचा गिपरिचान्नसद्धिं संपरिनुमाओ चंपाए जयरीएम मज्जेणं णिग्गच्छंति, णिग्गच्छित्ता जेणेव पुष्पभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणस्स नगश्रो महावीरस्स अदूरसामंते छत्तििदिए तित्ययराभिसेसे पासंति, पासित्ता पारिएकपाडिएकाइ जाणाई उवति, व वित्ता जाणेहिंतो पश्चोरुहंते, जाणेहिंतो पच्चोरुहित्ता बहूहिं खुज्जाइ० जाव परिक्खित्ताओ जेणेव समणे जगवं महावीरे सेव जवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता समयं जगवं महावीरं पंचविणं अभिगमेणं अभिगच्छति । तं जहासचित्ताणं दव्त्राणं विसरणयाए अचित्ताणं दन्नाणं विसरणयाए विणप्रणतार गायलट्ठीए चक्खुफा १६० कू ( को ) यि से लिपगणं मरणसो एगत्तकरणं समणं भगमहावीरं तिक्खत्तो याहिणं पयाहिणं करे, बंदंति, णर्मसंति, वंदिता मंसित्ता कृणियं रायं पुरभो कट्टु - या चैव सपरिवारा अनिमुहाओ विणणं पंजसिटमा पज्जुवासंति । तते एां समणे भगवं महावीरे कृणिस्स भंसारपुत्तस्स सुजद्दापमुहाणं देवीणं तीसे महति महालियाए परिसाए इसी परिसाए मुणिपरिसाए जइपरिसाए देवपरिसाए अगस्याए अगसयचंद्राए सय बंद परिवाराए श्रोहबन्ने अबले महम्बले अपरिमिवलीरियतेयमाहृप्पकंतिजुत्ते सारयनवत्यपियमहुरगंभीरकों चणिग्घोस दुजिस्सरे बरे वित्थडाए कंठे बहिआए सिरे समाइलाए अगरझोए अमम्मणाए सब्बक्खरसमिवाइयाए पुछरत्ताए सव्वभासाणुगामिणीए सास्सईए जोयाणीहारिणा सरेणं अच्छमागहाए नासा जासति, अरिहा धम्मं परिकहेश, तेसिं सव्वेसिं आरियमणारेिया अगिनाए श्रम्ममा क्खड़, मा वि य णं अमागडा भासा तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं अप्पणो सजासाए परिणम । तं जहा - अत्थि लोए, अत्थि अलोए, एवं जीवा अजीवा बंधे मोक्खे पुष् पावे यासवे संवरे वेगला णिज्जरा अरिहंता चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा नरका रया तिरिक्खजोलिया तिरिक्खजोलिलीओ माया पिया रिस देवा देवला सिद्धी सिद्धा परिणिव्वाणपरिनिव्वुया, प्रत्थि पाणाइत्राए मुसावाए अदिलादाले मेह परिग्गहे, तिथ को माणे माया लोने० जाव मिच्छादिमादा वेरमणे मेहुणवेरमणे परिग्गहवेरमणे० जाब मिदंसणस, तिथ पाणइवायवेरमणे मुसावायवेरमणे - च्छादंसणसनविवेगे; सव्वं प्रत्थि भावं प्रत्थि त्ति वयति, सव्वं णत्थि भावं त्थि त्ति वयति, सुचिमा कम्मा सुचि फला जवंति, दुच्चिमा कम्मा पुच्चिलफना जवंति, फुस पुष्पावे, पञ्चायंति जीवा, सफले कल्लाएपावर धम्ममाइक्खर, इणमेव ग्गिंथे पात्रयणे सच्चे प्रणुत्तरे केवलए संसुद्धे परिपुम्से आए सलकत्तणे सिद्धिमग्गे मुस्लिमग्गे लिव्वाणमग्गे णिज्ज्ञाणमग्गे अवितहमविसंघिसव्वदुक्खप्पही - मग्गे इह डिग्र जीवा सिज्यंति बुज्छंति मुचंति परिणिव्यायंति सच्चदुक्खाणमंतं करंति, एगचा गुण एगे जयंतारो पुत्रकम्पावसेसेणं अपयरे देवलोएस देवदत्ताए उववतारो भवति, महडीए० जाव महासुक्खेसु दूरगइएमु चिरइएस ते तत्थ देवा जवंति महीए० जाव चिरि ई आहारविराश्यवच्छा० जाव पजासमाला कप्प्रेवगा गतिकला आगमे से भद्दा० जाव परिरूत्रा तमाइक्खई । एवं खलु चहिं ठाणेहिं जीवा ऐरइअत्ताए कम्मं पकरंति, For Private Personal Use Only Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३८ ) अभिधानराजेन्द्रः । कू (को) यि रत्ताए कम्मं पकरेत्ता ऐरइसु उववज्जति । तं जहामहारंभयाए महापरिग्गहयाए पंचिदियवहेण कुणिमाहारेणं । एवं एएवं अभिन्नावेणं तिरिक्खजोगिएसु माइल्लयाए णिअस्लिपाए अलि अवयलेणं उच्चणयाए वंचणयाए मस्से पगतिभक्ष्याए पगतिविणतताए साणुकोसयाए मच्छरयता देवेसु सरागसंजमेणं संजमा संजमें अकामजिराए वालतवोक्कम्पेणं तमाड़क्खड़, जह परगा गमंती, जे रगा जातवेयणा परए सारीरमाणसाई दुक्खाई तिरिक्खजोगिए माणुस्सं च णिचं वा हिजरामरणवेयणापरं देवे देवलोए देविडिं देवसोक्खाई नरगं तिरिक्खजोरिंग माणुस जावं च देवलोयं च सिद्धे अ सिद्धवसिंहिं छज्जीवणियं परिकर - जह जीवा वज्ऊंति मुञ्चंति, जह य परिकनिस्संति, जह दुक्खाणं त्र्यंतं करंनि, केइ पत्रिका दुट्टियचित्ता जह जीवा दुक्ख सागरमुर्वेति, जह वेरागया कम्मसु मुग्गं विहाडंति, जहा रागेण कडाणं कम्माएं पावगो फलविचागों, जह य परिहीणकम्मा सिद्धा सिद्धान्नयमुवंति, तमेव धम्मं दुविहं आइक्ख । तं जहा- अगा धम्मं अणगारधम्मं च, अणगारधम्मो ताव इह खलु सव्व सव्वयाए मुंगे जवित्ता अगारातो अणगारियं प इस साओ पाणाइवायाश्रो वेरमणं मुसावाय अदिमादा मेहुणपरिग्गहराईयो अलाओ वेरमणं, प्रथमाउसो ! अणगारसामाइ धम्मे पत्ते, एस्स धम्मस्स सिक्खाए उवडिए निम्गंथे वा निग्गंधी वा विहरमाणे आणार आ राहए भवति । अगारधम्मं दुवालसविहं आइक्ख । तं जहा पंच व्वाइ, तिष्टि गुणव्त्रयाइ, चत्तारि सिक्खावयाइ । पंच व्वाइ तं जहा - धूला ओ पाणाड़वाया म्रो वेरमणं धूलाओ मुसावाया वेरमणं यूनाओ श्रदिभादाणाओ बेरमणं सदार संतो से इच्छापरिमाणे । तिमि गुणव्त्रयाई-तं जहा - अपत्यदमे वेरमणं दिसिव्त्रयं जवजोगपरिजोगपरिमाणं । चारि सिक्खावयाइतं जहा- सामाइअं देसावगासि पोसहोवना से अतिहिसंविजागे अपच्छिममारणंतिया नेहाऊसला राहणा, अयमानसो ! अगारसामाइए धम्मे पते । एस धम्मस्स सिक्खाए उवधिए समगोत्रासए समणीवासिया वा विहरमाणे आणाइचाराहए भवति । तणं सा महति महालिया मणूस परिसा समणस्स न महावीरस्सतिर धम्मं सोच्चा णिसम्म हच्तुट्ट० जान हिमया उडाए उट्ठांत, उट्ठाए नट्ठित्ता समयं भगवं महावीरं तिक्खुतो आयाहिलं पयाहिणं करे, करेला - दंति मंसंति, वंदित्ता नर्मसित्ता प्रत्येगइया पंचान्वइयं सत्त सिक्वावइयं दुवालसविहं गिहिधम्मं परिवमा, अबसेसा परिसा समणं भगवं महावीरं बंदंति, रामसंति, For Private कू ( को ) गिय वंदिता मंसित्ता एवं वयासी-मुक्खाए ते भंते ! - ग्गंथे पावणे, एवं सुपाते सुजासिए सुविणीए सुनात्रिए, अत्तरे ते जंते ! ग्गिंथे पावयणे धम्मेणं श्राईक्खमाणा तुम्भे नवसमं श्रइक्खद, उत्रसमं इक्खमाणा विवेगं इक्खड, विवेगं इक्खमाणा वेरमणं श्राइक्खह, वेरमणं इक्खमाणा प्रकरणं पावाणं कम्माणं प्राइक्त्र, पत्यि णं णे के समणे वा माहणे वा जे परिसधम्पमा क्खत्तिए किमंग ! पुण इतो उत्तरतरं, एवं वदिता जामेव दिसं पाउनूा तामेव दिसं पगिया । तए लिए राया जंजसारपुत्ते समणस्स जवो महावीरस्सतिए धम्मं सोचा खिसम्म तु० जात्र हियए उडाए उहिए, नहाए उट्ठित्ता समयं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो श्रायाहिणं पयाहिणं करेति, बंदति, एमंसति, वंदित्ता मसिना एवं क्यासी- सुक्खाए ते जंत ! णिग्गंथे पात्रयणे०जाव किमंग ! पुए एत्तो उत्तरतरं एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउब्जूते तामेत्र दिसं पडिगए । तते ताओ सुभदापमुद्दा देवीओ समस्स जगवओम हावीरस्स तिर धम्मं सोचा पिसम्म हट्ठट्ठ० जाव हिया उट्ठाए जर्हेति, उडाए उट्ठित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुतो याहिणं पयाहिणं करेंति, वंदेति, गुमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी- मुक्त्वाए ते जंते ! णिग्गंथे पावयणे० जाव किमंग ! पुए एतो उत्तरतरं एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउन्नू आओ तामेव दिमं पमि - गया। समोसरणं सम्मत्तं । औ० ! केन कृतमित्यादि यत्र विधेयतयोपदिश्यते सा पृच्छा । यथा पृच्छनीया ज्ञानिनो निर्णयार्थिनिः, यथा भगवान् कोणिकेन पृष्टः । तथाहि -किल कोणिकः श्रेणिकराजपुत्रः भ्रमणं भगवन्तं महावीरं पप्रच्छ । तद्यथा-जदन्त ! चक्रवर्तिनः परित्यक्तकामा मृताः कोपपद्यन्ते ? । भगवताभिहितम-सप्तम नरकपृथिव्याम् । ततोऽसौ वभाण श्रहं कोत्पत्स्ये ? | स्वामिनोतम्पचास उवाच श्रहं किं न सप्तम्याम् ? । स्वामिना जगदेसप्तम्यां चक्रवर्तिनो यान्ति । ततोऽसावभिदधौ किमहं न चक्रवर्ती यतो ममापि हस्त्यादिकं तत्समानमस्ति । स्वामिना प्रत्यूचे-तव रत्ननिधयो न सन्ति । ततोऽसौ कृत्रिमणि रत्नानि कृत्वा भरत क्षेत्रसाधनप्रवृत्तः कृतमालकयकेण गुहाद्वारे व्यापादितः षष्ठीं गत इति । स्था० ४ ० ३ ० । प्रथमोपाङ्के कृणिकवर्ष के " माउपिठसुजाओ " एतत्सूत्रवृ सौ पित्रोर्विनीततया सत्पुत्र इत्युकं तत्कथमिति प्रश्ने उत्तरम- कूणिकः पित्रोर्विनीत एवास्ति, यत्वन्तराले श्रेणिकस्य किञ्चिद्विरूपमाचरितं तन्निदानवशादेव, कथमन्यथा पितृमरणशोकाकुलितो राजगृहं विहाय चम्पायामुषित इति । २३७ प्र० सेन० ३ उल्ला० । कृणिकरावणयोस्तीर्थ करत्वं कुत्र प्रन्ये प्रोक्तमस्ति कस्मिन् क्षेत्रे कतिजवैरिति प्रश्ने उत्तरम्-रावणाख्यभवादारज्य रावणजीवस्य चतुर्दशे भवे तीर्थक Personal Use Only Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कू ( को ) यि त्रिपरिषे प्रति व्यक्तिस्तु ते। कूणिकस्य तु तान न्तीति । १५७ प्र० संन० ३ उल्ला० । ( 'रावण' शब्दे स्पष्टीकरिष्यते बैन) कृयमाण - कूजत् - त्रि० । अव्यकं भणति, विपा० १ ० ७ ० । कूरकूरपुं० न० भाविका की भूमी "द्म लाति ला-कः । लस्य रः । श्रने, वाच० ओदने, उम०१२ म० । "एगतेण न कप्पर, सीयनकूरो अवुसिणो अ" स० १ सम० । अवादननिमित्ते कलिज्जादी, स्था० ३ ठा० ३ उ० । सणाणि य बउलड्डा, कूरे जाणडे एगतीसं तु । " स०१ सम० । क्रूर - त्रि० । रौसे, शा० १ ० अ० । भाचा० । निष्कृपे, सूत्र० २ भु० २ अ० । दारुणे, सूत्र० १ ४० ७ ० । जीवोपघातोषदेशत्वात् चुके, प्र० ३ अभ० द्वार। स्था० । कूरकम्य (ए) - करकर्मन् त्रि० मनायें, ०१ २०४० २ ० कूरे कर्मणि राई कम्माई बाजे पन्यमाणे ते मूडे पिपरिया समुदेति" कुराणि गलकसंवाद मनुष्ठानानि बालः प्रवणो विदधानः तेन कर्मचाकोपादित खातोये मूढोऽपगतवियेको विपर्यासमुपैति । आवा० १ ४०२ अ० ३ ० । क्रूराणि निर्दयानि निरनुक्रोशानि कर्माणि अनुनादिसानृतस्यादीनि कोकासुकृतिकारणि, श्रादश वा पापस्थानानि । श्राचा० १ ० ५ अ० १ उ० । - अ० ३३० । (१३) निधानराजेन्द्रः | G कूरमकुष- कूरकुरु-पुं० [प्रत्यइभोजिनि, भाचा० १०६ कूरपिडक देशी-देशीय चनमेतत् । रसियादौ ० ० कि० रसियादिदाने विशे कर पिक - ईषत्पक्व -त्रि० । “गौणस्येषतः कूरः " | ८ | २ । १२६ । वामस्य गौणस्य कूर इत्यादेशो वा भवति । अल्पपक्के, 'चिव व कूरपिका' पक्के-' इसिपिका' प्रा० २ पाद । करजोपण-भोजन न मात्र भोजने, प० । बूल-कूल- न० । कूलति प्रावृणोति जलप्रवादम्। कूल अच् । न हस्तरे कर्मणि का स्तूप समागे सैन्यपृष्ठे व स्तिके, बाख० । “ रययामयकूलाओ " रजतमयं रूप्यमयं कूलं यासां ता रजतमयकूताः । रा० आ० म० सैन्यस्य पश्चाद्भागे, दे० ना० २ वर्ग । प्रथमग कुलध्यापक भि० वानप्रस्थमे ये फूले स्थित्वा ० नि० । लगालग कूलचालक स्वनामया मुनी, ०० तत्कथा चैत्रम् इतश्च श्रेणिकपुत्रः कोणिको राजा स्वपत्नी पद्मावती प्रेरितः स्वादि जनकणिकारिि - शसरिकहारं सेचनकदम्म्पादिकं यस्तु मार्गितवान् । तौ च सर्वे लाखा मातामहकमहाराजाइये वैशागतीको णिकेन मातामहचेटक महाराजपावरसंवस्तुसहितो तरी मार्गित रागतरविवद पहला प्रेषितौ । ततो रुष्टः कोणिकः समाराधितक्रत्रमरप्रजावेण तो कूवत्थंभ स्पजीवितं रचन अमोममहाराज संग्रामे नि जिस्म वैशालीनगरीमध्ये हिमवान् सवित वैशाली नगरी स कोणिको रोधयति स्म नगरीमध्यस्थितीमुनिसुव्रतस्वामिस्रमभावाद तो नगरी हतुं न क्रोति। तता बहुना कालेन देवदेवमाकाशे मणे जर कुत्रवालए, मागहिचं गणित्रं मिस्सए । राया य असोग, खालि नगरि गहिस्स ॥१॥ "कोशिकां वाण श्रुत्वा स तदालकभ्रमणो विलोक्यमानस्तत्र स्थितो ज्ञातः । राजगृहादाकारिता मागधिका गणिका । तस्याः सर्वे कथितम् । तथाऽपि प्रतिकूलचायत कपटधाविका जाता, सार्थेन तत्राऽऽगता । तं वदित्वा भणतिस्थाने स्थाने चैत्यानि साधूंश्च वन्दित्वाऽहं जोजनं कुर्वे । यूयमत्र श्रुताः, ततो बन्दनार्थमागता, अनुग्रहं कुरुत, प्रासुकमेषणीयं भक्तं गृहीत । इति श्रुत्वा कूलवालुकश्रमणस्तस्था उत्तारके गतः तथा नेपालगोपूर्णसंयोजिता मोदकाचा णानन्तरं तस्य प्रतीसारो जातः। तया ओषधप्रयोगेण निवर्तितः। प्रक्षालनोद्वर्तनादिभिस्तया तस्य चित्तं भेदितम;स कूलवालकश्रमणस्तयामाशतोऽजूद तथापि स्वतः सि मानीतः कोशिकेनोफम-जोः कृमण ! यये वैशाली नगरी गृह्यते तथा क्रियताम् । तेनापि तद्वचः प्रतिपद्य नैमित्तिक क्षेपेण वैशालीनगर्यज्यन्तरे गत्वा मुनिसुव्रतस्वामिस्तूपनाथ नगरीरको ज्ञातः। नैमित्तिको ऽयं नगरी लोकैः पृष्टः-कदा नग रीरोधोऽपगमिष्यति । स प्राह-यदा पनं स्तूपं यूयम् अपनयत तदा नगरी रोधापगमो भविष्यतीति श्रुत्वा तैलोकैस्तथा कृतम् । वामन बहित्वा सः कणिका तेन देवस्तु पप्रभावरहिता सा नगरी जग्ना एव, पतितः कूलबालकभ्रमणः, श्रविनीतत्वात् । इति कुलबालककथा ॥ उत० १२० प्र०क० कू-कूप- आपो यत्र कुवन्ति महकाः अस्मिन् कुपदर्थावनामा जलाधारे, "भूमी बातो अल्पविस्तरो, गजीरो भएकलाकृतिः । बोऽबद्धः स कूपः स्यात्, तदस्नः कौपमुच्यते" ॥१॥ वाच| "कुत्रे तोयं सिजाया जहा कूले केया पंडिता” नि० चू० १ ३० । प्रा० क० । कूजक - त्रि० । व्यावकवले, झा० १ ० १६० । कूवनय-पनक-पुं० । स्वनामस्याले कुम्भकारे यस्व हि कुमारसभि परमरमणीये उद्याने प्रतिसंस्थिते वति शालायां मुनिचन्द्रः स्थविरः स्थितः । आ० म० द्वि० । कृपणाय नृपशात १० टोदाहरणे, इह चैवं साधनप्रयोगःकिञ्चित्तदोषमपि स्नानादि विशिष्टशुभभावहेतुभूतं यत्तद् गुरं दृष्टं यया कूपजननम् । विशिष्टशुभभावहेतु पतनया स्नानादि ततो गुणकरमिति । कूपाननपते शुभजावादु तुष्णादिव्युदासेनानन्दावाप्तिरिति इदमुकं भवति यथा कृपाननं अमतृष्णामापत्रेपदिषत्रको पानपोह्य स्वोपकाराय परोपकाराय किल भवति । प्रति० । । कृत-कूपतटपुं० कूपसमीपे "ढाई मादि संविविचलतेयले सो जातो कूवत मे दासीए विनासियं " आ०म० द्वि० | स्कूपस्तम्भ-पुं. मध्यस्थापितस्तम्भे, विशेष कृप कस्तम्भो यत्र सितपटो निबध्यते । झा० १ ० प० । Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४० ) अभिधानराजेन्ऊ: । कुवर्ममुक मंयुक-पम-पुं० [पस्थे मध तस्करा " तुम कि जानयंसि "००१०० कूबर- कूबर-पुं० । 'कू' शब्दे कुटादि० वरच् । कूजके, मनोहरे, युगन्धरे, रथावयवभेदे, वाच० । जं०] तुडे, हा० १ ० ६० कल-देशी-नवसने दे० ना० २ वर्ग कूषिय कृषिक-पुं० [स्वनामस्यते सनिवेशे पत्र भगवान् श्री रखामी उपसर्गतः पश्चात्पावनान्तेवासिनीयां मोचितः। श्रा० म० द्वि० | मोषव्यावर्त्तके, का० १ ० १८ प्र० । चौरगवेषके, शा० १ ० १ श्र० । कृवियबझ-कूपिकवच - न० । माषत्र्यावर्त्तक सैम्यनिवर्त्तक सैम्ये, "सुवहुस्स वि कुवियवलस्स श्रायस्स डुपयंसया वि होत्था" [झा० १ ० १० अ० । कृविया कृपिका- बी०कृप इन् की स्यार्थे कः स्नेहपानेदे वाय "जो कुणति कृषिष कृषिया कूढिया नपति" नि० चू० १ ० । । बोदाहरण- पोदाहरण न० समयप्रसिद्धे कृपा, ०८ विव० (कृपणाय शब्देऽनुपदमेव तम) कुमारो देशी गतीकारे दे० ना० २ वर्ग कुरु-कृष्णा पुं० व्यन्तरनिकायामामुपरिवर्तिनि यजातिविशेषे, प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार । के प्रण केतनन० बजे वस्तुनि पुष्पकर रामसंयधिनि इणस्थाने वंशादिदलके, स्था० । " चत्तारि के अणा पण्णत्ता । तं जहा - बंसीमूलके - ए, मेढनिसालके अए गोमुनिप्रण, अवलेहजिया के प्रण‍ | "सारि" इत्यादि प्रकटम्, किन्तु केतनं सामान्येन वक्रं वस्तु पुष्पकरणस्य वा संबन्धि मुष्टिमस्थानं वंशादिस वकं भवति, केवलमिह सामान्येन वक्रं वस्तु केतनं गृह्यते, तत्र वंश च तत्तनं च वंशी एवं मेड विचाणं मे गोत्रिकामा अनियत ) भव (यमानस्य वंशशलाकादेव प्रतन्वी त्वक् साऽबलेखनिकेति । स्था० ४ ० २उ० । केप्रा - देशी - दामनि, दे० ना० २ वर्ग । के प्रारवाणी-देशी- पलाशे, दे० ना० २ वर्ग । के-कति केचित् अव्य०चिमः सो असिया का के, चिद प्रत्ययः । पदद्वयमित्यन्ये । वाच० । अनिर्दिष्टस्वरूपे, विशे० । “ के‍ राया रायपुत्तो वा " विपा० १ ० २ ० । स्था० । अनु० । अन्यशब्दार्थे, प्रश्न० ३ श्रध० द्वार । केड-केतु-पुं । चाय तु क्यादेशः प्रहायाम, रा देrत्मके ग्रहमेवे, याच० ० अविन्यासप्रामाण्या ज्युपगमे श्रष्टाशीतितमे महाग्रहे, कल्प० ६ कण | अन्यथा श्रष्टाशीतितमो जावकेतुः । सू० प्र० २० पाहु० । स्था० । चिह्ने, ध्वजे ० १ ० १ ० । स्था० जे० रा० जी० । भौ० । 1 केव स० । दीप्तौ, ज्योतिषप्रसिके उत्पातनंदे च । धाच० । कम्दे, दे० मा० २ वर्ग । केलकर - केतुकर- पुं० । अद्भुतकार्यकारित्वेन चिह्नकारिणि, औौ० । ज्ञा० । स्था० । सूत्र० । केलवेच केतुक्षेत्र १० प्रकाशोदकनिष्याद्यशस्ये मे 1 प्राष० ६ प्र० । घ० । केतूप केतुभूत भि० दृष्टिवादस्य सिद्धमेणिकापरिकर्मणः चतुर्थे दशमे च भेदे, स० । के मई- केतुमती - स्त्री० । किनरस्य किन्नरेन्द्रस्य किंपुरुषस्य किंपुरुषेन्द्रस्य चाग्रमहिष्याम, भ० १० श० ५.३० । स्था० । (अस्यानवान्तरकथा 'अग्गमहिसं । 'शब्दे प्र० भा० १७९ पृष्ठे दर्शिता) केजय-केतुक-पुं० जम्मूपस्य बाह्याया वेदिकाया दक्षिणस्यां पञ्चनयति योजना स्थिते द्वितीयमदापाताले ४ ० २३० । - 66 केकर-केयूर पुं० के बाशिरसि याति या कर कि अनुकू समासः । वाच० । बाह्रानरणविशेषे, श्रा० म० प्र० । औ०रा० । ॐ०" अंगवाई केऊरा कडाईडिया कमलदस मुद्दियात" इत्यादि अयं केयूरं बाह्राभर विशेष ए यो यद्यपि नामकोशे परार्धतोस, तथाऽपादाकारविशेषा भेदोऽवगन्तव्यः । भ० ६ ० ३३ ४० । ज्ञा० । मेरोईविणस्यां दिशि पातालकलशे, " बनयामुहकेऊरे, जूए य तह ईसरे य वो ।” केयूरः केऊरो वा । समवायाङ्गदीकायां तु केतुकः । प्रष० २७२ द्वार । सुकिंशुक - न० । किंशुकस्य पुष्पम् । पुष्पफले, " बहुसम्” |१| इति श्रणो लुक् । किंतुके वा८ १९८६ । इत्यादेरित एकारः । प्रा० १ पाद । पलाशपुष्पे, झा० १ ० १६ श्र० । के कई कै (के) क ( के ) यी - स्त्री० । कैकयानां राजा भण् कैकेयः । जन्यजनकावरूप योगे की कैकेयी, कैकथी, केकीनापन्याचा पाच लक्ष्म मातरि, आव० १ ० आ० चू० ति० । अस्याः सुमित्रेति द्वितीयं नाम (भाषाटीका) स० । अपरविदेहे, सलिलावतीषिजये वीतशोकायां नगर्याम्, विभीषणवासुदेवस्य मातरिख । आ० म० प्र० । केई कै (के) क ( के ) यी - स्त्री० । पूर्वोक्तशब्दार्थे, वाञ्च० । केक (य) य- केकय- पुं० | देशभेदे, स च श्रर्थेन श्रर्योऽर्जुनानार्थः । "के किरायहमुहतरमुपतुरमियमुद्दा प्रच० २७५ द्वार। प्रज्ञा० सूत्र० । “केकय अक्षं च श्रारियं भणियं " सूत्र०१ ० ५ ० १ ० । केकयार्द्धजनपदः श्वेतवी नगरीराजस्य । स्था०८ठा० ॥ स च देशः कर्मविभागे उत्तरस्यामुक्तः । वाच० । केका (गा) इय-केका तिन मयूराणां शब्दे ० १५० ३ अ० । केल क्रय्प श्र०क्रयणीये, स्था० ए डा० । - केदव-कैटभ-पुं० " ऐत पत्" छ । १ । १४८ । इति तप99 छ । १ । १६६ । स्वम् । प्रा० १ पाद । " सटाशकटकैटभेदः Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केढव प्राभिधानराजेन्द्रः। केलास इति टस्य दः। प्रा०१पाद । “कैटने भोपः"।१।२४०। धनुर्मध्ये काष्ठं मुष्टिस्यानं कृत्वा उत्तप्रामत्स्यबन्धने,सत्र०१ शति प्रस्य वः । मधुभातरि दैत्यभेदे, प्रा०१पाद । भु.३०१० सामान्येन वक्र वस्तुनि, पुष्पकरपडस्य वा सकेति-कियत-त्रि० । किमः परिमाणे वतुए। घस्य यः ।" इदं म्बन्धिनि मुष्टिग्रहणस्थाने वंशादिदल के,स्था०४ठा०२३०नि० किमश्च डेत्तिडत्तिलडेदहाः" ॥ ८॥२ । १५७ ॥ इदंकिंज्यां चूतियातुर्विध्यदृष्टान्लेन मायाप्ररूपणं 'माया' शब्दे करिष्यते) यत्तदेतदूज्यश्च परस्यातोमर्मावतोर्वा डित पत्तिम एत्तिल पदह "से केयणं अरिहर पूरित्तप" व्यकेतनं चासनीपरिपूर्णका इत्यादेशा भवन्ति, एत्तस्सुक च । इत्यतः स्थाने डेत्ति मेत्ति समुको वेति, जावकेतनं खोजेच्या, तदसावनेकचित्तं केनाप्यल मेदह रूपमादेशत्रयम, डित्वादिलोपः कत्तिभं, केत्तिसं, के नृतः पूर्व पूरयितुमईति । प्राचा०१ श्रु०३.१००।निमरहं। किंपरिमाणपरिमिते, प्रा०५पाद । न्त्रणे, ध्वजे, गृहे, चिह्न, स्थाने, कृत्ये, वजे, वाच। केतिस-कोश-त्रि० । किम् दृशः कम् "दंकिमोरीको" | केयव-कंतव-नका कितवर केयव-कैतव-न० । कितवस्य भावः कर्म वा। नाट्ये, प्ते, वैदू॥ ६ ॥ ३ । १० । इति (पाणि०) किमः की। पैशाच्याम्-"यार | र्यमणी, स्वार्थे अण् । कितवे, शठे, द्यूतकारके, धतूरे च । शादेऽस्तिः"018|३१७। इति र इत्यस्य स्थाने तिरादेशः।। पुं०।"कैतवेनाक्षवत्यां वा, युके घा नाम्यतां धनुः"।" दीन्य किंप्रकारे, प्रा०४ पाद । यत् कैतवं पाएमव ! तेऽवशिष्टम"।' यदवाचस्तदमि कैत वम्'। वाच० प्रा० म०वि०। केतूव-केयूप-पुं० । मेरोदक्षिणस्यां दिशि महापातारे, जी०| ३ प्रति। केयाघमिया-केयाघटिका-स्त्री० । रज्जुप्रान्तबघटिकायाम् , केत्तुल-(केव) कियत्-त्रि० । “प्रतोसुलः" ८ । ४। भ० १३ श० एच० ४३५ । इति किमः परस्यातोः प्रत्ययस्य देता प्रत्यादेशः। केयाघमियाकिच्चहत्थगय-केयाघटिकाकत्यहस्तगत-त्रिमा०४ पाद । “वेदंकिमार्यादेः"EHT४०८। ति याघटिकाक्षक्षणं यत्कृत्यं कार्य तदस्ते गतं यस्य स तथा । अत्यन्तस्य किमो यादेरवयवस्य डित एवम इत्यादेशःप्रा०४ हस्तधृतकेयाघटिकाके, "केयाघटियं किच्चं हत्थगया - पाद । किम्परिमाणपरिमिते, प्रा०४ पाद । घाई विनवित्तए।"भ०१३ श० उ०। केत्यु-कुत्र-अन्य०।" पत्थु कुत्रात्रे"151४।४०५ । अपभ्रंशे यार-केटार-पुं० । के शिरसि दारोऽस्य, केन जलेन दारो कुन इत्येतस्य शब्दस्य डित पत्थु इत्यादेशः । कस्मिन्नित्यर्थे, यस्य वा। एत्वम् । हिमालयस्थे पर्वतोदे,तत्स्थे शिवलिङ्गभेदे, प्रा०४पाद। जसनिवारणार्थे चतुपाचे सेतुबन्धयुक्त के मालवाले, केम-कथम्-मव्य० । अपभ्रंशे तथारूपता। केन प्रकारेणेत्यर्थे, | वाच । वप्रे, आचा०२ श्रु० ११ १०। "जो पुण अग्गि सीअला,तसु एहत्तणु केम्ब?" प्रा०४ पाद। केरव-केरव-पुं० । स्त्री०। के जले रौति रु अच्, अलुक्समासः। केय-केत-पुं० "कित'निवासे इत्यस्य धातोः कित्यन्ते उभ्यन्ते- हंसे, वाचः । तस्य प्रियम् मण् । कुमुदे, शुक्नोत्पले, शत्री, ऽस्मिमिति घनिकेतः। गृहे, प्रब०४द्वार । चिहे, अङ्गाष्ठमुष्टिगृ- | पुं०। कैतवे, न० । वाच । प्रा० म०। दादिके,स्था०४ग केयमिति गृहम। "केयं णाम चिन्हं" | | केरिस-कीदृश-त्रि०। "रशेः क्षिप् टक्सकः" ।१।१४२ । मा० चू०६०ानावे घञ् । वासे, प्रकायां, संकल्पे, मपणे, ति प्रती रिरादेशः। प्रा० १पाद । "एत्पीयूषापीडविभीकातरि च । वाच। तककीहशेरशे ।"011 १०५ । इति ईत पत्वम प्रा०१पाद । केय-त्रि० । क्रयणीये, स्था० ठा। किम्प्रकारे, "अणुनावे केरिसे वुत्ते" सू०प्र०१ पाहु। केयाम केकयाई-न० । केकयजनपदस्था, यत्र विताम्बि- | केव-कदल-पुं० । वृषा०कलच् । “ वा कदसे" ।।१।१६ का नगरी, तस आर्यक्षेत्रम् । “सेयविया यनयरी, केयश्च इत्यादेः स्वरस्य परेण सखरव्यम्जनेन सह पद् वा । प्रा० १ चारियं भणियं।" प्रज्ञा० १ पद । प्रव०। पाद । रम्भावृक्के, वाच केयई-केतकी-स्त्री० केतकशब्दात "षिदौरादिभ्यश्च" धारा४१। गाय-समारच-णिच-धा० । सम्यक् समन्तात् प्रतियत्ने, विदभ्यो गौरादिभ्यश्च की शति (पाणि०) डीए । वलयाल्यवन "समारचेरुवहत्यसारवसमारकेनायाः" ॥४॥ १५॥ इतिस्पतिभेदे, प्रका०१पद । पाचागुच्छवनस्पतिभेदे, प्रशा० समारचेः केलायाऽदेशः। "केलाय,समारमा,समारचयति" १ पद । संख्यातजीववनस्पतिदे, ज०८ श०२ उ० । ग- प्रा०४ पाद । न्धनव्यानेदे च । रा०। केतकी पाटला । जं०१ वक्षः। स केला बिलासः सीदत्यस्मिन्निति । सद केयग-केतक-पुं०।कित निवासे रावल, केतक सूचिकापुष्पोज- प्राधारे-वाडा स्फटिके, वाचा म्बुका कचच्छद श्त्युक्तलकणे वृक्के, तत्पुष्पे, न०। केत स्वा केनास-पुं०1 के जलासो लसनं दीप्तिरस्य अनुकसमासः। थे कः। ध्वजे, पुं० । वाच । अङ्गाष्ठमुष्टिप्रन्थिगृहादिके चिढ़े, स्था० १० ठा। केसासः स्फटिकस्तस्येव शुभ्रःअण् । केलीनां सम्हः प्रण। कैसम। तेनास्यतेऽत्र । पास-प्राधारे घ वा। वाच०1"पेत पत" केयण-केतन-नासते, व्य०४ उ० । शृङ्गमयधनुर्मध्ये काष्ठ- 10121 १४८ । इत्यैकारस्य एत्वम् । प्रा०१ पाद । शिवकुबेमयमुष्टिकायाम् उत्ताधणु परकम किया,जीवं च हरियं सया॥ रयोः स्थाने पर्वतोदे, वाच। “केलासभवणा एप, गुज्जगा धिमंच केयणं किच्चा,सबेणं पलिमंथप ॥२१॥"केतनं गृङमयं| भागया महिचिरति जक्वरूवेणं,पूयापूया हियाहियास"वा. Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४२ ) अभिधानराजेन्द्रः । केलास " एवा०३३०| अनुवेलन्धरनागराजने दे, तदावासपर्वते च । स्था० ४ ठा० २ उ० । भाजनविशेषे, तैलकैलासो राष्ट्रप्रसिको मृरामस्तैलनाजनविशेषः । नि० ३ वर्ग । शा० । नन्दीश्वरस्थे तदधिपदेये सू० प्र० १० पाहु राहुमजलस्थे मेले सू० प्र० २० पाहु० चं० प्र० । साकेतनगरे जाते स्वनामख्याते गृहपती कथा शापवर्गेऽध्ययने सुचिता यथा स च साकेतनगरे जातस्तत्रैव श्री वीरान्तिके प्रव्रज्य द्वादश वर्षाणि प्रव्रज्यापर्यायं परिपाल्य विपुले सिद्धः। अन्त०६ वर्ग केलाससम - कैलाससम-त्रि० । कैलासपर्वततुल्ये, उत्त० अ० । " सुषन्नरुप्परस य पचया भवे, सिया हु केलाससमा असंस्त्रया । नरस्स लुइस्स न तेहि किंचि, इच्छा हु श्रागाससमा श्रणंतिया " ॥ ४८ ॥ उत्त० ए० । केलि केसि पुं० [स्त्री० । केल-इन् । द्यूतक्रीडादिकायां क्रीमायाम, ध०२ श्रधि० | प्रब० जी० । परिहासे, बृ० १३० । नर्मणि, कामे च । औ०। “विहारे सह कान्तेन, क्रीडितं केलिरन्यते । " पृथिव्याम्, वाच० । केली कदली-स्त्री०" या कदले " ॥ ० १ १६७ इति आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह एदू वा । रम्भायाम, प्रा० १ पाद । केवश्य कियतु० किं परिमाणे २०६० १० कि यत्संख्याके, “ केवझ्या णं नंते ! दीवसमूहा पण्णत्ता । " जी० ३ प्रति०। “श्रोभासति केवतियं, सेयाए किं ते संचिती । " सृ० प्र० १ पाहु० | "केवश्यं कालं ति" कियता कालेन निर्वर्त्यते । भ० १२ श० ४ ० । कतिकालं यावति इत्यर्थे, स्था० ३ वा० १० । 66 केवट्ट - कैवर्त्त - पुं० । स्त्री० । के जले वर्तते वृत अलुक्समासः । ततः स्वार्थे अण् स्वाऽऽदी २३० इति स्य द्वः । ' केवट्टी' | प्रा० १ पाद । धीवरजाती, वाच० । haar - देशी रूपके, वृ० १ उ० । केवल - केवल - न० । केवृ सेवने, वृषा० कल शिरसि बलयति चुरा० बल प्रापणे श्रच् । बाच० । संपूर्ण श्रा० चू० ३ श्र० । परिपूर्णे, नि० १ वर्ग । विशे० । स्था० | झा० । अनु० | भ० अन न्ते, एकस्मिन्, स्था० ३ ठा० ४ ० । असहाये, स्था० २ ठा० १० | पा० । दशा० औ० श्रा० म० । कर्म० । अद्वितीये, भ० ९ श० ३३ उ० । ० । शुद्धे अन्यपदार्थासंसृष्टे, दश० ४ श्र० । " केवलं मुंगे भवित्ता श्रगाराश्रो अणगारियं पव्वज्जा केवलां शुद्धां संपूर्ण वा अनगारतामिति योगः | ० ६ ० ३१ ४० केवलगाव शब्दे दर्शयिष्यमाणस्वरूप परिपूर्ण " , । ज्ञाने, स्था० ४ ठा० १ उ० । केवल कप्प - केवलकल्प-पुं० । केवलः परिपूर्णः कल्पत इति कल्पः, स्वकार्य्यकरणसामर्थ्योपेतः । ततः कर्मधारयः । भ० ३ श० १ उ० | झा० । स्थानि । केवलकल्पे परिपूर्ण, भ० ६ श०५ उ० । * केवलकप्पं जंबुद्दीव " जी० ३ प्रति० । 'के वलकप्पा पुढवी चलेजा ” केवलैव केवलकल्पा, ईश्दूनता अतः परिपूर्णत्यर्थः परिपूर्णमाया चेति । C+ " स्था० ३ ० ४ उ० । केवलणाण केवलक्खर - केवलाक्षर न० । केवलज्ञाने, विशे केवल जुयलावरण - केवलयुगलावरण न० । केवलयुगलं के वलज्ञानकेवलदर्शनरूपं तस्य श्रावरणे श्राच्छादके कर्मणि केवलज्ञानावरण केवलदर्शनावरणद्विके, कर्म० ५ कर्म० । केपलगाण केवलज्ञान-१० वि पनसेनं जहा भवत्य केवलनाणे व सिद्धचलनाचे व्यायास्यस्व स्वस्थाने व्याख्यास्यते ) स्था० २ ० १ उ० । कर्म० भ० । यथापस्थिताशेषभूतनयनाविभावस्वभावावभासिनि स्था० ५ वा० ३ उ० । समस्तपदार्थाविर्भाव के सूत्र० १ ० ६ ० । अनुप्रानमे विशे० । 1 (१) केवलज्ञानशब्दार्थनिरूपणम् । (२) केवलज्ञानस्वरूप निर्वचनम् । (३) केवलज्ञानलक्षणम् (४) फेस् सिथिः । (५) केवलज्ञानस्य प्रतिपादनम् । (६) ज्ञानस्य साधयतित्यनिरूपणम् । ( ७ ) अस्याप्राप्य विषयपरिच्छेदकत्वप्ररूपणम् । (म) केवलकाननेदाः । (2) सिकेवलज्ञानस्य वैविध्यनिरूपणम् । (१०) सिरुस्वरूपनिरूपणम् । (११) समुत्पन्न केवलज्ञानस्य शब्देन देशनां ददतो न काऽपि कृतिः । ( १२ ) सत्पदप्ररूपणा । (१३) की केवल नवति। (१४) केवलदर्शनयोः प्रतियन्यः । वर्त्तते (१) अथ केवलज्ञानविषयं शब्दार्थमाहकेवलमेगं सुद्धं, सगलमसाहारणं प्रणतं च । पायं च नासो, नामसमाणाहिगरणोऽयं ॥ ८४ ॥ केवलमिति व्याख्येयं पदम् । ततः केवलमिति कोऽर्थः १ इत्याह-एकमसहायम्, इन्द्रियादिसाहाय्यानपेकित्वात् तद्भावे शेषाद्मस्थिकज्ञाननिवृत्तेर्वा । शुद्धं निर्मलं, सकलावरणमलमित्यादिति सकलं परिपूर्ण संपू हित्वात्। श्रसाधारणमनन्यसदृशं तादृशा परज्ञानाजावात् । श्र नन्तम् प्रतिपातित्वेनाविद्यमानत्वात् इत्येकद केप च केवलज्ञानमिति समासः । ग्रह - नन्वाभिनिबोधिकादीनि ज्ञानवाचकानि नामान्येव भाष्यकृता अन्याभिमुडो नियत्रो " इत्यादौ स यंत्र व्युत्पादितानि ज्ञानशब्दस्तु पात स कथं ल भ्यते ? इत्याशङ्कयाह - ( पायं चेत्यादि ) प्रक्रमलब्धो ज्ञानशब्द अभिनियोधिकता दिभिर्शनाभिधाय कैमनिः स मानाधिकरणः स्वयमेव योजनीयः, स च योजित एव । तद्यथा-श्राभिनिबोधिकं च तद् ज्ञानं च श्रुतं च तज्ज्ञानं चेत्यादि । क्वचिद्वैयधिकरण्यसमासोऽपि संभवतीति प्रायो ग्रहणम् । स चमन:पर्ययज्ञाने दर्शित एव । अन्यत्रापि च यथासंभवं द्रव्यम् । इति गाथार्थः ॥ ८४ ॥ विशे७ | वृ० ॥ श्र० म० । नं० ॥ (२) केवलज्ञानस्वरूपनिर्वचनम् - केवलमेकमसहाय, मत्यादिज्ञाननिरपेकत्वात् । केवलज्ञान " Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४३) केवलणाण अभिधानराजेन्षः। केवलणाण प्रादुर्भावे मत्यादीनामसंनवात् । ननु पुनः कथमसंभवः ?, या- संजायते तत्केवलज्ञानम् । मलकय एव कथं स्यादित्याह-उपायवता मतिज्ञानादीनि स्वस्वावरणक्षयोपशमेऽपि प्रादुष्षन्ति, त उपायाखेतो,सामायिकाच्यासमक्षणात् । नन्वनादित्वादेवन ततो निर्मूलस्वस्वावरणविनये तानि सुतरां भविष्यन्ति !, चा- युक्तोऽस्य कर्ममलवियोगी व्योमात्मनोरिव। नैवम् । अनादित्वे. रित्रपरिणामवत् । उक्तं च-"आवरणदेस विगमे, जाई विजंति ऽपि रत्नांशुमनसंयोगस्योपायतः कयदर्शनात् । प्राह च-"जह महसुयाईणि । आवरणसम्बविगमे, कह ताई न होति जी. चह कंचणोवल-संजोगोषणा संतगओ वि । बोधिजार वस्स?" ॥१॥ उच्यते-इह जात्यस्य मरकतादिमणेम सोपदिग्ध- मुवायं, तह जोगो जीवकम्माणं ॥३॥" स्य यावन्नाद्यापि समूलमलापगमरतावद्यथा यथा देशतो म. नन्वाऽऽत्मस्वरूपत्वेऽपीदं केवलज्ञानं कथं लोकालो. बविलयस्तथा तथा देशतोऽभिव्यक्तिरुपजायते, सा च कचित्क कप्रकाशकमित्यत श्राददाचित्कथञ्चिद्भवति इत्यनेकप्रकारा, तथाऽऽत्मनोऽपि सकलकालावलाम्बानिखिलपदार्थपरिच्छेदकरणकपारमार्थिकस्वरूपस्या आत्मनस्ततस्वजावत्वा-बोकालोकप्रकाशकम् । प्याऽऽवरणमलपटलतिरोहितस्वरूपस्य यावन्नाद्यापि निखि- अत एव तदुत्पत्ति-समयेऽपि यथोदितम् ॥ ४॥ सकर्ममापगमस्तावद्यथा देशतः कर्ममनोच्छेदः तथा तथा दे- आत्मनो जीवस्य, तल्लोकालोकप्रकाशनं, स्वनावो यस्य स तशतः तस्य विज्ञप्तिरुज्जृम्भते, सा च क्वचित्कदाचित्कथञ्चिदित्य- था, तद्भावस्तखं, तस्मात्तत्स्वभावत्वात्, लोकालोकप्रकाशकं नेकप्रकारा । उक्तं च-"मलविद्धमणिव्यक्ति-यथाऽनेकप्रकारतः।। सकलपदार्थसार्थाविर्भावकमित्यर्थः, केवलमिति प्रकृतम् । कर्मविकाऽऽत्मविज्ञप्ति-स्तथाऽनेकप्रकारतः" ॥१॥ साचानेक- भनूत्पत्तिसमये तद्यथोक्तप्रकाशन संगतम उत्पद्यमानत्वात् दीप्रकारतः मतिश्रुतादिनेदेनावसेया। ततो यथा मरकतमरशेष- पादिरिव । दीपो हि क्रमेण स्वप्रकाश्यं प्रकाशयतीत्यत आहमनापगमसंभवे समस्तास्पष्टदेशव्यक्तिव्यवच्छेदेन परिस्फुट- (अत एवेति) यत एव तल्लोकालोकप्रकाशकस्वभावात्मरुपम रुपैकाऽभिव्यक्तिरुपजायते,तद्वदात्मनोऽपि शानदर्शनचारित्रप्रभा- अत एव कारणात्तत्केवल ज्ञानमुत्पत्तिसमयेऽपि प्रादुर्भावकवतो निःशेषाऽऽवरणप्रहाणादशेषदेशज्ञानव्यवच्छेदनकरूपा अ. णेऽपि, प्रास्तामुत्पत्तिसमयानन्तरम् । यथोदितमुक्तस्वरूपमेव, तिपरिस्फुटा सर्ववस्तुपर्यायसाक्षात्कारिणी विज्ञप्तिरुवसति। युगपल्लोकालोकप्रकाशकमित्यर्थः ॥४॥हा० ३ अष्ट० । सम्म० । तथा चोक्तम्-"यथा जात्यस्य रत्नस्य, निःशेषमल हानितः। (३) तडकणम् । सकलप्रत्यक्षं लकयन्तिस्फुटकरूपाभिव्यक्ति-विज्ञप्तिस्तद्वदात्मनः" ॥१॥ ततो मत्या सकलं तु सामग्रीविशेषतः समुन्नतसमस्ताबरणतयाऽपेक्षं दिनिरपेक्ष केवलज्ञानम् । नं०। तथा चागमः-" केवली गं प्रते! आयाहिं जाणइ पासइ? गोयमा! नो श्ण समले। से निखिलव्यपर्यायसाक्षात्कारिस्वरूपं केवलज्ञानमिति ॥२३॥ केणद्रेणं ?। गोयमा ! केवली णं पुरच्छिमेणं मियं पिजाणइ, अ. सामग्री सम्यग्दर्शनादिलकणाऽन्तरङ्गा, बहिरङ्गा तु जिनकामियं पिजाणइ. जाव निबुडे दंसणे केवलिस्स से तेणटेणं जी- लिकमनुष्यभवादिलकणा, ततः सामग्रीविशेषात्प्रकर्षप्राप्तसाचाण य सुहं सुक्खं जीवे जीवह तहेव नविया य पगंतदुक्ख- मग्रीतः,समुद्भुतो यःसमस्तावरणावयः सकलघातिसंघातविबेयण अत्तमाया य केवली,सेवं भंते ! ते ति।"भ०६ श० घात,तदपेकं सकलवस्तुप्रकाशस्वभावं,केवलझानं ज्ञातव्यम् । १०००। अथ वा शुरू केवलं, तदाऽऽबरणमलकलङ्कस्य नि: (४)केवलज्ञानस्य सिद्धिःशेषतोऽज्युपगमात, सकलं वा केवलं,प्रथमत एवाशेषतदाss यस्तु नैतदमस्त मीमांसका, मीमांसनीया तन्मनीषा। तथाहिबरणापगमतः संपूर्णोत्पत्तेः; असाधारणं वा केवलम, अनन्य बाधकभावात्साधकाभावाद्वा सकलप्रत्यकप्रतिकेपः च्याप्येसहशत्वात, अनन्तं वा केवलं, यानन्तत्वात्। केवलं च तज्ज्ञानं त। आद्यपके प्रत्यक्षम,अप्रत्यकं वाबाधकमनिदध्याः। प्रत्यकं च केवलज्ञानम् । नं०। चेत्पारमार्थिक, सांव्यवहारिकं वा? पारमार्थिकमपि विकलं, अथ किस्वरूपं केवलज्ञानम् ?, इत्याह सकलं वा विकलमप्यवधिलकर्ण, मनःपर्यायरूपं वा । नैतस्वरूपमात्मनो ह्येतत् , किं त्वनादिमलाऽऽवृतम् । त्पकद्वयमपि केमाय, द्वयस्यास्य क्रमेण कपिलव्यमनोव र्गणागोचरत्वेन तद्वाधनविधाबधीरत्वात् । सकलं चेत्, जात्यरत्नांशुवत्तस्य, यात्स्यात्तपायतः॥३॥ अहो ! शुचिविचारचातुरी, यत्केवलमेव केवलप्रत्यकस्यास्वरूपं स्वन्नाव एव, अवधारणार्थस्य हिशब्दस्यह संबन्धात् । स्यानावं विभावयतीति वक्षि, वन्ध्याऽपि प्रसूयतामिदानी स्तकस्येत्याह-प्रात्मनो जीवस्य एतत् केवलज्ञानम् । एतेन चेदमु- मन्धयान, बानध्येयोऽपि च विधत्तामुत्तंसान् । सांव्यवहारिकमतं भवति-न प्रतिवियोगमात्र केवलझानं, तस्याभावरूपत्वात् । प्यनिन्छियोद्भवम, इन्स्यिोद्भवं वा? न तावत् प्रथमम, अस्य नाप्यात्मनो गिन्नं, पुरुषान्तरज्ञानसंवेदनप्रसङ्गात्। नापि समबा प्रातिभाऽतिरिक्तस्य स्वात्माविष्वग्भूतसुखादिमात्रगोचरत्वात् । यवशात् तत्र वर्तत इति समवायकृतो विशेषः,तस्यैकत्वेन सर्व प्रातिभंतु तद्बाधकं नानुनूयत एव। ऐन्द्रियं तु स्वकीयं, परकीयं त्रतद्वर्तनप्रसङ्गादिति । ननु यद्येतदात्मनः स्वरूपं तत्कुतः सदानो वा । स्वकीयमपीदानीमत्र तद्बाधेत, सर्वत्र सर्वदा वा प्राचि पन्यते ?, इत्यत्राह-किं तु केवलमनादिरप्राथम्यो योमलो झा. पके पिष्टं पिनष्टि जवान्, तथा तन्नावस्यास्माजिरप्यभीऐः । नावरणादिकर्मरूपः,तेनावृतमाच्छादितम, अनादिममावृतमिति द्वितीये तु सर्वदेशकालानाकलय्येदं तदन्नावमुद्भावयेत्, श्तरथा कृत्वा सदानोपनज्यते। अनादित्वं च कर्ममत्रस्य प्रवाहापेकया, वा? आकलय्य चेदाकालं नन्दतावान्, भवत्येव सकलकासादित्वे चास्य मुक्तस्येव बन्धाभावः स्यादिति । किंवदित्याह- लकबाकलापाशेषदशविशेषवेदिनि वेदनस्य तारशसिद्धेः। जात्यं प्रधानं यजत्नं माणिक्यमरकतादि,तस्यांशवः किरणास्त अनाकलय्य चेत्, कथं सकप्रदेशकालाऽनाकलने सर्वत्र सर्वदा श्व, जात्यरत्नांशुवद तस्यानादिमलस्य, कयाधिनाशात, स्या- वेदनं तारक नास्तीति प्रतीतिरुवसेत्, परकीयमपादानामत्र Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४४) केवलणागण अभिधानराजेन्द्रः। केवलाणाण तद्भापं बाधेत, सर्वत्र सर्वदा वेत्यादिविकल्पजालजर्जरीभूतं न | स्वजसिरिनिवन्धनोपन्यस्तधूमोपलब्धिक्त, तथा च विरुको तदाधनधुरां धारयितुं धीरतां दधाति । कथं वा परगृहरहस्या- हेतुः । तृतीयभेदे वनेकान्तः, वक्तृत्वमा सर्ववित्स्वकार्यस्वभिक्षोभवानेवमनूत। तारकप्रत्यक्तप्रतिक्केपदकं प्रत्यकं प्राव- स्याविरोधात । अनुपलब्धिरपि विरुद्धानुपलब्धिः, अधिकातिष्ठ ममेति तेन कथनाचेत; यदि कथिते प्रत्ययः, तर्हि ताह- नुपलब्धिर्षा । विरुद्धानुपलब्धिस्तावद्विधिसिद्धावेव साधीकाध्यकप्रतिक्षेपि प्रत्यकं नास्त्येव, इत्युत्तम्भितहस्ता वयं व्या- यस्तां दधाति, भनेकान्तात्मकं वस्तु, एकान्तस्वरूपानुपलब्धेः, कुर्मह इति किं न तथाऽनुमन्यसे श्रथ न यौमाकीणः प्रमा- इत्यादिवत् । अविस्कानुपलब्धिरपि स्वभावानुपलब्धिः, म्याणप्रवीणः समुल्लापः, परकीयः कथमिति वाच्यम् ? न खल्वयं पकानुपलब्धिः , कार्यानुपलब्धिः, कारणानुपलब्धिः, सहचस्वप्रत्यकं त्वत्प्रत्यकं कर्तुं शक्नोति,वचसा तु यथाऽसौ कथय- राघनुपलब्धिर्वाऽनिधीयेत ? । खभावानुपलब्धिरपि साति, तथा वयमपि । अथ तदुपदर्शितेऽर्थे संवादात्तद्वचः प्र- मान्येन, उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वविशेषणा वा ब्याक्रियेत । पौरमाणम् । नन्वेवं प्रत्यकम्, अप्रत्यकं यासंवादकं स्यात? इत्यादि स्त्या तावनिशाचरादिना व्यभिचारिणी। द्वितीया पुनरसिया, पूर्वोक्तावर्सनेनानवस्थावविरुवसन्ती कथं कर्तनीया । किञ्च- सर्ववित्त्वस्य स्वभावविप्रकृष्टत्वात् । व्यापकानुपलब्धिप्रनृतयोसंविदामिन्छियागोचरत्वादेडियमध्यक्ष सकलप्रत्यकस्यविधौ, ऽपि विकल्पा अल्पीयांसः, यतः सर्ववित्वस्य व्यापकं सकमाप्रतिषेधे वा मूकमेव बराकम् । न च त्वन्मतेनाऽनावः प्रत्यक्केण साक्षात्कारित्वं कार्यमतीन्द्रियवस्तूपदेशः, कारणमखिलावप्रेच्यते । तथात्वे हि किमिदानीमपइससर्वस्वेन तपस्विनाउना- रणविलयः,सहचरादि कायिकचारित्रादिकमान च तत्र सदनुपचप्रमाणेन कर्तव्यम् ? । तन्न प्रत्यकं तद्वाधविधानसंविधा- लब्धीनां सिकी साधनं किश्चित्तेऽस्ति, इत्यसिद्धा एवामू प्रथ मोद्धरम् । अप्रत्यकमपि प्रत्यवाभावमात्रम्, अपरप्रमा- सर्वकादन्यः कश्चिकमी,तर्हि तस्यासर्ववित्त्येसाहो सिरूसाध्यता, णरूपं वा प्रणिगोत ? । प्रायं चेत् तहिं मिाणदशा- तन्नानुमानं तदाधकम् ॥ नापि शाब्दम्, यतस्तदपौरुषेयं,पौरुषेयं यामम्भस्तम्भकुम्नाम्नोरुहाम्भोधरादिगोचरप्रत्यक्षानावात् ते- वा स्यात् । न तावदपौरुषेयम, अपौरुषेयत्वस्य वचस्सु समनषामभावोजवेत्। द्वितीय चेद्भावस्वभावम, अनावस्वभावं वा? । वाभावात् । पौरुषेयमपि केवलालोकाकलितपुरुषप्रणीतं, तदिभावस्वनावमप्यनुमानम, शाब्दम, अर्थापत्तिः, उपमानं वा ? तरपुरुषप्रणीतं वा । प्रायं कथं बाधक ?, विरोधात् । द्वितीये भनुमानं चेत्, कस्तत्र धर्मी ?-सकलप्रत्यकं, पुरुषो वा कश्चि त्वसौ पुरुषः केवलालोकविकलाः सकलाः पुरुषपर्षदः प्रेक्षते, त । सकलप्रत्यकं चेत, तत्रोपादीयमानः समस्तो हेतुराश्रया नवा । प्राच्यपक्के, कथं तत्प्रतिषेधः। तस्यैव तदाकमितत्या. सिकतामाश्रयेत् , भवतस्तस्याऽप्रसिके । पुरुषोऽपि सर्वा, त त्ः द्वितीयेऽपि कथन्तराम, तत्प्रणीतशब्दस्य पांशुलपादकोपदन्यो वा धर्मी बएयत । सर्वश्चेत, किं सर्वज्ञत्वेन निर्णीतः, दिष्टशब्दस्येव प्रमाणन्बासम्भवात् ॥ नाप्यर्थापत्तिस्तदाधिका, पराभ्युपगतो धा। निर्णातश्चेत् कथं तत्र तारकप्रत्यकप्रतिकेपः सदभावमन्तरेणानुपपद्यमानस्य प्रमाणषट्कनिष्टद्वितस्यार्थस्य प्रेकाकारिणः कर्तुमुचितः?, तन्निायकप्रमाणेनैव तद्वाधनात् । कस्यचिदसत्वात् ॥ नाप्युपमानं,तस्य सादृश्यमात्रगोचरत्वात्। तन्न भावरूपं प्रमाणं तद्वाधषरूककम् ॥ नाप्यन्नावरूपम,तस्य सअथ सर्वकत्वेन परैरज्युपगतः पुमान् वर्षमानादिर्धर्मी, तर्हि तापरामशिंप्रमाणपञ्चकाप्रवृत्तौ सत्यां भावात् । न चासौ समकिं तत्र साध्यम?-नास्तित्वम, असर्ववित्त्वं वा? न तावन्नास्तित्वं, तथाविधपुरुषमात्रसत्तायामुनयोरविवादात, तथा व्यवहार स्ति विवादास्पदं कस्यचित्प्रत्यकं प्रमेयत्वात्पटवत, इति तद् ग्राहकानुमानस्य प्रवृत्तेः। तत्र बाधकभावात् सकलप्रत्यक्षाsपारमार्थिकापारमार्थिकत्व एव विप्रतिपत्तेः । असर्ववित्वं चेत्, भावः। नापि साधकाभावाद्, अनुमानस्यैव तत्साधकस्येदाकस्तत्र हेतुः-उपलब्धिः अनुपलब्धिर्वा । उपलब्धिश्चत, अवि. नीमेव निवेदनात्। इति सिद्ध करतबकलितनिस्तुलस्थूलमुक्ताफरुकोपलब्धः,विरुद्धोपलब्धिर्वा?,अविरुझोपलब्धिस्ताव व्य. लायमानाकलितसकलवस्तुविस्तार केबलनामधेयं संवेदनम् । निचारिणी, नित्यत्वनिषेधाभिधीयमानप्रमेयत्ववत् । विरुद्धो. इति सिद्धमेवं केवलज्ञानम् ॥ २३ ॥ रत्ना०२ परि। पलब्धिस्तु-किं साकाद्विरुकोपलब्धिः, विरुद्धव्याप्तोपलब्धिः, (इह दियात्रमुपदर्शितं, विस्तरस्तु सर्वशसिद्धिप्रक्रियाऽवसरे विरुष्कार्योपलब्धिः, विरुरूकारणोपलब्धिः, विरुद्धसहचराधु- वयते मतिज्ञानादिशानचतुष्कभणनानन्तरम्) पांधर्वा स्यात् ? । नाद्या, सर्वकत्वेन साकात् विरुरूस्य कि (५) इदानीमवसरप्राप्तं केवलज्ञानं प्रतिपादयन्नादश्चिकत्वस्य तत्र प्रसाधकप्रमाणानावात् । नाग्रेतनविकल्पचतुष्टयमपि घटामटाट्यते, प्रतिषेधस्य हि सर्ववित्त्वस्य विरुरू कि अह सम्बदन्बपरिणा-मजावविष्यत्तिकारण मनंतं । बिकत्वम, तस्य च व्याप्यं कतिपयार्थसाक्षात्कारित्वं सासयमप्पडिवाई, एगविहं केवलं गाणं ॥ ३ ॥ कार्य, कतिपयार्थप्रज्ञापकत्वं कारणमावरणवयोपशमः, सहच अधशब्द इहोपन्यासार्थः, पूर्वसमुद्देशसूत्रे मनःपर्यायानन्तरं रादिरागद्वेषादिकमानच विवादोपादाने मुसि तेषामन्यतमस्यावि प्रसाधकं किञ्चित्प्रमाणं तवास्ति, यतस्तमुपलब्धीनां सिभिः केवलज्ञानमुपन्यस्तं, तत्संप्रति तात्पर्यनिर्देशार्थमुएन्यस्यते, इति पचितश्चाप्युपन्यासार्थोऽथशब्दः । यत उक्तम्-'अथ प्रक्रियाप्र. स्यात् । वक्तृत्वरूपा विरुद्धकार्योपलब्धिरस्त्येव तनिषेधे सा. भानन्तर्यमलोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयोग्विति' । सर्वाणि च धनं साधिष्टमिति चेत् । ननु कीरग वक्तृत्वमत्र विवकाच तानि व्याणि च जीवादीनि, तेषां परिणामाः प्रयोगविनके, यत्सर्ववित्वविरुरूस्य कार्य स्यातू?-प्रमाणविरुद्धार्थवक्त सोजयजन्या उत्पादादयः पर्यायाः सर्वव्यपरिणामाः, तेषां त्वं, तदविरुद्धार्थवक्तृत्वं, वक्तृत्वमा वा ? । आद्य प्रायः सत्ता स्तनकणं स्वं स्वमसाधारणं रूपं, तस्य विशेषण भिदायाम् असिकं साधनम, वर्द्धमानादौ जगवति तथाभूता ज्ञापनं विज्ञप्तिः, विज्ञानं वा विज्ञप्तिः, परिच्छेद इत्यर्थः । तस्याः धवक्तृत्वाभावात् । द्वितीयनिदि तु, नेयं विरुद्धकार्यो कारणं हेतुः सर्वव्यपरिणामविज्ञप्तिकारणं, केवलकानमिति पलब्धिः , किन्तु कार्योपनिन्धिरेव तद्विधिसाधनी, धूम- । संबध्यते । उक्तं च Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४५) केवलणाण अनिधानराजेन्बः। केवलणाण "सम्वदन्याण पो-गवीससा-मीसजा जहाजोग्गं । केवलभावं सत्तामात्रमाश्रित्य, कथञ्चिदात्मव्यतिरिकत्वात्तपरिणामा पज्जाया, जम्मविणासादओ सब्वे ॥ ८२५ ॥ स्यात्मनश्च द्रव्यरूपतया नित्यत्वात् ॥१०॥ तेसि भावो सत्ता, सलक्षणं वा विसेसो तस्स। ननु केवलज्ञानस्याऽऽत्मरूपतामाश्रित्य तस्योत्पादविनाशाभ्यां नाएं वित्तीप, कारणं केवलमाणं" ॥ २६ ॥ केवलस्य तो भवतः, न चात्मनः केवलरूपतेति कुतस्तद्वारेण तबयानन्तत्वादनन्तं, तथा शश्वद्भवं शाश्वतं, सदोपयो- तस्य तावित्याहगवदिति नावार्थः । तथा प्रतिपतनशील प्रतिपाति, न प्रति- जीवो भणाशणि हणो, केवलणाणं तु साइयमणंतं । पाति अप्रतिपाति, सदाऽवस्थायीति भावः । ननु यत् शाश्वतं सदप्रतिपात्येव,ततः किमनेन विशेषणेन तदयुक्तम,सम्यक् श. इय थोरम्मि विसेसे, कह जीवो केवलं होई ! ॥१॥ दार्थापरिकानात । शाश्वतं हि नाम अनवरतं भवदुच्यते, शश्व जीवोऽनादिनिधनः, केवलानं तुसाद्यपर्यवसितम,इति स्परे द्भवं शाश्वतमिति व्युत्पत्तेः । तच कियत्कालमपि भवति,याव विरुद्धधर्माध्यासलकणे विशेषेच्छगयाऽऽतपवदत्यन्तभेदात् कद्रवति तावनिरन्तरं भवनात्ततः सकलकालजावप्रतिपत्यर्थ जीवः केवलं भवेत?,जीवस्यैव तावत् केवलरूपतामसकता मप्रतिपाति विशेषणोपादानम् । एष तात्पर्यार्थ:-अनवरतं स. दूरतः संहननादेरिति भावः। कलकानं भवतीति, अथवा एकपदव्यभिचारेऽपि विशेषणविशे- तम्हा अमो जीवो, अ णाणाइपज्जवा तस्स । प्यभावो भवतीति ज्ञापनार्थ विशेषणद्वयोपादानम् । तथाहि नवसमियामक्खण-विसेसओ केइ इच्छति ॥ ए५ ॥ शाश्वतमप्रतिपात्येव, प्रतिपाति तु शाश्वतमशाश्वतं च भवति । यथा अप्रतिपात्यवधिज्ञानमिति । तथा एकविधमेकप्रका- तस्मादू विरुद्धधर्माध्यासतोऽन्यो जीवः,अन्ये ज्ञानादिपर्यायाः,सरं, तदावरणक्षयस्यैकरूपत्वात् । कणभेदाच तयोर्भेदः। तथाहि-शानदर्शनयोः कायिकः, कयोपशउक्तं च मिको वा भावो लक्षणम् । जीवस्य तु पारिणामिकादिभावो " पज्जायओ अणंत, सासयमि सदोवोगाओ। लक्षणमिति केचित् व्याख्यातारः प्रतिपन्नाः। अवयत्रो परिवादी, एगविहं सब्वसुद्धीए"॥२८॥ एतनिषेधायाऽऽह(विशे०) केवलं च तदू शानं च केवलज्ञानम्। प्रा० म०प्र० । अह पुण पुन्वपउत्तो, अत्थो एगंतपक्खपमिसेहो। (६) अथ साचपर्यवसितं केवलज्ञानं सूत्रे प्रदर्शितम् । अनुमानं च तयानुतस्य तस्य प्रतिपादकं संभवति । तथाहि-घातिकर्म तह वि जयाहरणमिणं,ति हेउपडिजोयणं वोच्छं ॥१३॥ चतुष्टयतयादाविर्भूतत्वात् केवलं सादि । न च तथोत्पन्नस्य प यदप्ययं पूर्वमेव व्यपर्यायो भेदानदैकान्तपकप्रतिषेधवात्तस्यावरणमस्त्यतोऽनन्तमिति न पुनरुत्पद्यते,विनाशपूर्वकत्वा- बवणोऽर्थः प्रयुक्तो योजितः । “अप्पायही भंगा" इत्यादिना दुत्पादस्य। अनेकान्तव्यवस्थापनात् , तथापि केवलज्ञानेनैकान्तात्मकैन हि घटस्याविनाशे कपालानामुत्पादो दृष्ट इत्यनुत्पादव्यया- कारूपप्रसाधकस्य हेतोः साध्येनानुगमप्रदर्शकप्रमाणविषयत्मकं केवलमित्ययुपगमवतो निराकर्तुमाह मुदाहरणमिदमुत्तरगाथया वक्ष्ये ।। ए३॥ केवलणाणं साई, अपज्जवसियं ति दाइयं मुत्ते । । तदेवाऽऽहतेत्तियमितो तूणा, केइ विसेसं ण इच्छंति ।। ७॥ जह कोइ सद्विवरिसो, तीसइवरिसोराहिवो जाओ। केवलकानं साद्यपर्यवसितमिति दर्शितं सुत्रे इत्येतावन्मात्रेण उजयत्य जायसदो, बरिसविनागं विसेसेइ ।। ए४॥ गर्विताः केचन विशेष पर्याय पर्यवसितत्वस्वनावं विद्यमानम- यथा कश्चित्पुरुषः षष्टिवर्षः सर्वायुष्कमाश्रित्य, त्रिंशद्वर्षः स. पि नेच्छन्ति, ते न च सम्यग्वादिनः ॥ ७ ॥ पराधिपो जातः, उजयत्र मनुष्ये राजनि च जातशयोऽयं प्र. यतः युक्तो वर्षविभागमेवास्य दर्शयति । षष्टिवर्षायुष्कस्य पुरुषसाजे संघयणाईया, भवत्थकेवनिविसेसपज्जाया । मान्यस्य नराधिपपर्यायो जातोऽभेदाध्यवसितभेदात्मकस्थाते सिज्माणसमये, ण होति विगयं तओ होई ॥ए॥ त् पर्यायस्य, नराधिपपर्यायात्मकत्वेन वाध्यं पुरुषः पुनर्जातो, नेदानुषक्ताभेदात्मकत्वात् । सामान्यस्यैकान्तभेदे अभेदे तये वज्रऋषभनाराचसंहननादयो भवस्थकेवलिजन्मपुलप्र योरभावप्रसङ्गानिराश्रयस्य पर्यायप्रादुर्भावस्य तद्विकलस्य देशयोरन्योऽन्यानुवेधात् व्यवस्थितेः विशेषपर्यायाः, ते वा सामान्यस्यासंभवात् संशयविरोधवैयधिकरण्येऽनवसिध्यतसमये अपगचन्ति । तदपगमे तव्यतिरिक्तस्य केवल स्थाभयदोषादीनामनेकान्तवादे च प्रागेव निरस्तत्वात् ||४|| मानस्याप्यात्मकन्यद्वारेण विगमात; अन्यथाऽवस्थातुरवस्थानामात्यन्तिकभेदप्रसक्तेः; केवलझानं ततो विगतं भवतीति रष्टान्तं प्रसाध्य दाान्तिकयोजनायाऽऽहसूत्रकृतोऽभिप्रायः। एवं जीवदव्वं, अणानिहणमविसेसियं जम्हा । विनाशवत्केवलज्ञानस्योत्पादोऽपि सिद्ध्यतसमय इत्याह- रायसरिसो उ केवनि-पज्जावो तस्स सविसेसो ।एए सिफत्तणेण य पुणो, उप्पलो एस अत्यपजाओ। पवमनन्तरोक्तदृष्टान्तवज्जीवद्रव्यमनादिनिधनमविशेषितभव्यकेवमभावं तु पमु-चकेवलं दाइयं सुत्ते ॥ ए०॥ जीवरूपं सामान्यं, यतो राजत्वपर्यायसदृशः केवलित्वपर्यायसिखत्वेनाशेषकर्मविगमस्वरूपेण पुनः पूर्ववदुत्पन्न एप केव- | स्तस्य तथाभूतजीवाव्यस्य विशेषस्तस्मादू तेन रूपेण जीलकानाख्योऽर्थपर्यायः, उत्पादविगमधौच्यात्मकत्वाद् वस्तुनोऽ- वाव्यसामान्यस्यापि कथञ्चिदुत्पत्तेः सामान्यमप्युत्पर्य, प्रा. न्यथा वस्तुहानिः। यत्त्वपर्यवसितत्वं सूत्रे केवलस्य दार्शतं,तत्तस्य । तनरूपस्य विगमात् । सामान्यमपि तदभिन्नं कथश्चिद्विगतपू. १६२ Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४६) केवलगाण अनिधानराजेन्द्रः। केवलणाण घोत्तरपिएमघटपर्यायपरित्यागोपादानप्रवर्तकमृद्रव्यवत्केवलरू- ते, यथा घटे रूपम,आत्मधर्मश्च केवलज्ञानमिति,न केवलमात्मपतया जीवरूपतया वा अनादिनिधनवाञ्चिन्त्यं द्रव्यमभ्युपग- धर्मत्वात्तदात्मसंस्थं,संबित्त्या च स्वसंवेदनाच्च हेतोः। तथाहिन्तव्यं,प्रतिक्षणभाविपर्याययुतस्य च मृद्रव्यस्याध्यक्तोऽनुभू- यद्यत्र संवेद्यते तत्तत्रैव प्रवर्तते,यथा घटे रूपं, संबंद्यते चात्मनि तेने रान्तासिकिः । तस्मात्केवलं कथञ्चित्सादिक, कश्चिद- ज्ञानमित्यात्मस्थज्ञानसिसिः। तथा यद् यज् शानं तत्तदात्मस्थं, नादिक, कथञ्चित्सपर्यवसानं, कथञ्चिदपर्यवसानं सस्वादात्मव- यथा रूपकानं,ज्ञानं च केवलमिति । पचमनेन प्रकारेणाऽऽत्मदिति स्थितम् ॥ ए५॥ स्थतालक्षणेनेष्यतेऽनिमन्यते, केवलमिति प्रक्रमः। तदेवं संवेदन व्यं पर्यायेभ्यो भिन्नमेवेत्याद नात् प्रणालिकयाऽऽत्मस्थकवलसिफिः अथ वा आत्मस्थं केवजीवो अणानिहणो, जीवत्तिय णियमोण बत्तन्यो । लमात्मधर्मस्वात्।अथात्मधर्मत्वमेव कथम ?, इत्याह-संबित्त्या पुनरेवमात्मधर्मत्वेन इष्यते केवलज्ञानं, संवेद्यते ह्यात्मधर्मतया जं पुरिसाउयजीवो, देवाउयजीवियविसिहो । ए६॥ शान,कानं च केवलमित्यात्मधर्मस्तदित्यात्मधर्मसक्कणहेतुसिकिः। जीवोऽनादिनिधनो जीव एव विशेषविकल्प इति न नियमतो। तथा गमनादेः केवलज्ञानस्य शेयदेशे गत्यादेः,आदिशमात झेयवक्तव्यं, यतः पुरुषायुष्कजीवो देवायुष्कजीवाद्विशिष्ठो जीव | देशं गत्वा पुनः स्वस्थानागमनग्रहः। अयोगेनायुज्यमानत्वेन, केवलएवं इति तत्वभेदे पुरुषजीव इत्यादिभेदो न नवेत्, के- स्यशेयदेशगमने आत्मनोनिःस्वनावत्वं स्यात् तत्स्वरूपत्वादात्मनः, थलस्य सामान्यस्य विशेषप्रत्ययानिधानानिनिमित्तस्यापि | केवलख्य चात्मधर्मत्वं न स्यात, आत्मविरहेऽपि भावादिति । विशेषप्रत्ययाऽभिधानस्य संभवे सामान्यस्यानिधानस्यापि | किमित्यत पाह-नान्यथा नैवान्येन प्रकारेण प्राप्य परिच्छेदतो निनिमित्तस्यैव नाचात्तन्निबन्धनसामान्याऽभ्युपगमोऽप्ययुक्तः नात्मस्थतालक्कणेन तत्त्वं तत रूपम, अस्य केवलस्य, तुशब्दोऽत्रस्यादिति सर्वानावः । न च विशेषप्रत्ययस्य बाधारहित धारणे, तस्य च प्रयोगो दर्शित एव।ततो यदभिधीयते-“प्रज स्यापि मिथ्यात्वम, इतरथाऽपि तत्प्रसक्तरिति प्रतिपादनात, विधावह नाणं, तह वि अलोश्रो अणंतओ चेव । अज्ज विन कोश केवलज्ञानस्य कथञ्चिदात्मव्यतिरेकादात्मनो वा केवलझाना- एवं,पावइ सम्वस्सुयं जीवो ॥१॥" इति। तन्निरस्तमिति। अथ वा व्यतिरेकात् ॥६६॥ गमनादेरयोगेनाऽऽत्मस्थं तदिति योगोऽन्यथेति गमनादिसद्भावे कथञ्चिदेकत्वं तयोरित्याह पुनस्तत्वं केवलमस्य न स्यात्,केववक्षानं हि सकलझानमुच्यते, अझोकश्चानन्तत्वेन गमनतःसको ज्ञातमशक्यः । तुशब्दः पुनः संखेजमसंखेज, अणंतकप्पं च केवलं गाणं। रों, योजितश्चेति ॥५॥ तह रागदोसमोहा, असे वि य जीवपजाया ॥ ७॥ अथ यदीदमात्मस्थमेव तदा कथं चन्द्रादिप्रभोपमानमेतदजिप्रात्मन एकत्वात् कश्चित्तव्यतिरिक्तं केवलमप्येकम, के-1 धीयते-"स्थितः शीतांशुवज्जीवः, प्रकृत्या भावाद्धया । च. बलस्य वा शानदर्शनरूपतया द्विरूपत्वात्तव्यतिरिक्त आत्मा- डिकावच्च विज्ञानं, तदावरणमभ्रवत्" ॥१॥ इति । ऽपि द्विरूपोऽसहयप्रदेशात्मकत्वादात्मनः केवलमप्यसलचे अथोत्तरमाह मूबसूत्रम्यमाअनन्तार्थविषयतया केवस्थानन्तत्वादात्माऽप्यनन्तः, एवं रागद्वेषमोहा अन्येऽपि जीवपर्याया छ्यस्थाऽवस्थानाविनः यच चन्धप्रजाऽऽद्यत्र, ज्ञातं तज झातमात्रकम् । सधेयासस्येपानन्तप्रकारा पालम्ब्यभेदात्तदात्मकत्वात्स प्रभा पुनरूपा य-तको नोपपद्यते ॥६॥ आत्माऽपि तद्वत तथैव स्यात् । सोमियब्राह्मणप्रश्नप्रतिवचने | आत्मस्थमेवेदं तावत्केवलज्ञानं,यच्च यत्पुनश्चन्द्रप्रनाऽऽदिःशीतांशुरचागमे एतदर्थ प्रतिप्रश्न उत्तरम्-" सोमिल ! एगे वि अहं शिमप्रभृतिकम, आदिशब्दादादित्यदीपादिपरिग्रहः । अत्र केवजाव प्रणेगभूयजावभबिए य अहं । से केण?णं भंते ! एवं बज्ञानस्वरूपे झापयितव्ये प्रकाशमात्रसाधम्यांत झातं ज्ञापकम्। वुच्चइ एगे वि अहं" इत्याद्युत्तरहेतुप्रश्ने हेतुप्रतिपादनम्- तत्किमित्याह-शातमेव झातमात्र, तदेव चावगीतं ज्ञातमात्रकं,वि. "सोमिन! दबध्याए एगे अहंणाणदसणध्याए अणेगे अहं" शिष्टसाधानावात्।कुत एतदेवमित्याह-प्रभा दीप्तिः,पुद्गलरूपा इत्यादि प्रकृतार्थसंवादिसिद्धे रागादीनां चैकाद्यनन्तनेदत्वमा- परमाणुप्रचयस्वभावा, यद यस्मात्कारणात् ततोऽसौ प्रना तद्स्मपर्यायवात, यो ह्यात्मपर्यायः स एकाद्यनन्तभेदो, यथा केव. धर्मश्चन्द्रादिपर्यायो नोपपद्यते, न घटते। न हि पुजनानां धर्मलायबोधः, तथा च रागादय इति स्थित्युत्पत्तिनिरोधात्मकत्व- ताऽस्ति,व्यत्वान, तदेवं केवलस्य जीवधर्मस्वात, प्रनायाश्चामहत्यपि सिमिति । यत्परेणोक्तमनेकान्तात्मकत्वाभावेऽपि धर्मस्वात्न सर्वसाधर्म्य, ततो ज्ञातमात्रकमेवैतदिति । अथवा केवलिनि सत्त्याद्,यत् सत्तत्सर्वमनेकान्तात्मकमिति प्रतिपादक- प्रभा पुसलरूपायत्ततश्च प्रभाकेवलयोर्विशिष्टसाधाभ्युपगमे स्य शासनस्याव्यापकत्वात् कुसमयविशासित्वं तस्यासिरूमि- तदिति केवलज्ञानं धमों जीवपर्यायो नोपपद्यते,ऽव्यत्वेन प्रभाति, तत्प्रत्युक्तं अष्टव्यम् । सम्म० २ काण्ड । याः केवलस्यापि व्यत्वप्राप्तः,अन्यथा सर्वसाधयं न स्यादि(७) अथेदं किं प्राप्य विषयं परिच्छिनत्ति, अप्राप्य वा?।। त्यतो ज्ञानमात्रत्वमिति ॥ ६॥ अप्राप्येति ब्रूमः, कथम् ?, यतः पुनर्जातमात्रतामेवास्य समर्थयन्नाहआत्मस्थमात्मधर्मत्वात् , संविच्या चैवमिष्यते । अतः सर्वगताऽऽजास-मप्येतन यदन्यथा। गमनदिरयोगेन, नान्यथा तत्त्वमस्य तु ॥५॥ युज्यते तेन सन्न्यायात, संविच्याऽदोऽपि नाव्यताम् ।।७।। आत्मनि जीवे शरीरपरिमाणे तिष्ठति इत्यात्मस्थम,शरीरपरि- अत एतस्माश्चन्प्रभाज्ञानात,सर्वेषु समस्तेषु वस्तुषु,गतःप्राप्तः, माणताचास्य तत्रैव तद्गुणोपनब्धेः। कुतः? आत्मस्थं तदित्याद- अानासः प्रकाशो यस्य तत्सर्वगताभासं, न केवलमात्मस्थमाश्रात्मधर्मत्वात् जीवपर्यायत्वात्। यो हि यस्य धर्मः सतत्रैव वर्त- स्मधर्मो वा,न युज्यते सर्वगताभासमपिन युज्यत इति संबन्धः। Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४७) केवलणाण अनिधानराजेन्डः। केवलगाण एतत्केवलज्ञानं, न नैव,यद् यस्मात्कारणात, अन्यथा अनन्तरो- जोगिनवत्यकेवलनाणं च सेत्तं अजोगिभवत्यकेवलनाणं । क्तप्रकारात् प्रकारान्तरेण चन्प्रनाशातस्य सर्वसाधर्म्यज्ञातता (से किं तमित्यादि) अथ किं तत् केवलज्ञानम्?। सूरिराह-केलकणे न युज्यते घटते। अघटना चैवम्-चप्रभा हिन सर्वग बलझानं द्विविध प्राप्तम् । तद्यथा-भवस्थकेवलज्ञान,सिककेयलताभासा. तत्साधाय केवलमपि तथा स्पादिति (तेनेति) | सानं चाभवन्ति कर्मयशवर्तिनःप्राणिनोऽस्मिन्निति भवो नारकातस्मात्कारणात सन्न्यायादुक्तलक्षणया शोजनोपपत्त्या संवि दिजन्म,तत्र श्ह भवो मनुष्यभव एव ग्राह्यः,अन्यत्र केवलोत्पास्या स्वसंवेदनेन च अदोऽप्येतदपि प्रभाशातस्य ज्ञातमात्र- दानावात्। नवे तिष्ठतीति भवस्थः। “स्थादिन्यः कः" ।। ३ । त्वमपि न केवलमात्मस्थत्वं केवलस्य भाव्यतां पोलोच्यता. ८२ । इति (हैम०) का प्रत्ययः। तस्य केवलझानं भवस्थकेवमातथाहि-संवेद्यत पव ज्ञातस्य ज्ञातमात्रत्वं प्रनायाः पुमलद्र- लज्ञानम्। चशब्दः स्वगतानेकभेदसूचकः। तथा 'षिधू'संसिका, म्यत्वेन, केवलस्य च जीवधर्मत्वेन वैधर्म्यस्य स्पष्टत्वादिति ॥७॥ सिभ्यति स्म सिद्धम यो येन गुणेन परिनिष्ठितोन पुनः साधनीअथ पूर्वोक्तस्वरूपं केवलज्ञानं निगमयन्नाह यः स सिक उच्यते । यथा सिक श्रोदनः। स च कर्मसिकादिनाऽन्योऽस्ति गुणोऽझोके, न धर्मान्तौ विजन च । दादनेकविधः। उक्तं च-"कम्मे सिप्पेय विज्जाए,मते जोगेश्र आगमे। अत्थ जत्ता अभिप्पाए,तवे कम्मक्खए इय"॥१॥ अत्रकर्मआत्मा तद्गमनाऽऽयस्य, नास्तु तस्माद्यथोदितम् ॥७॥ कयसिद्धनाधिकारोऽन्यस्य केवलज्ञानाभावात्।अथवा सितं बर्फ न नैव, अजव्यो अव्यवर्जितोऽस्ति विद्यते, गुणो धर्मः; "5- ध्मातंभस्मीकृतमष्टप्रकारं कर्म येनस सिकः"पृषोदरादयः"।३२। व्याश्रया निर्गुणा गुणाः" इति वचनात् । अत श्रात्मगुणत्वात ११५॥ इति ( हेम०) रूपसिद्धिः। सकलकर्मविनिर्मुक्तो, मुक्ताकेवलस्यात्मस्थमेव तदिति गर्भः। तथा अलोके केवला55- ऽवस्थामुपगत इत्यर्थः । तस्य केवलज्ञानं सिद्धकेवलकाशे, न नैव, धर्मश्च धर्माऽस्तिकायो जीवपुरलानां गत्युपष्ट- ज्ञानम् । अत्राऽपि चशब्दः स्वगतानेकभेदसूचकः । (से म्भकारी, अन्तश्च पर्यवसानं, धर्मान्ती, स्त इति गम्यते । श्द- किं तमित्यादि) अथ किं तत् भवस्थकेवलज्ञानम् । प्रवमक्तं जयति-लोके गमनसंभवात संभवति तदनात्मस्थमपि लो- स्थकेवलकानं द्विविधं प्राप्तम । तद्यथा-सयोगिनवस्थकेवबकप्रकाशम,अलोके पुनर्धमास्तिकायाजावादू गमनाभावेन अन्ता- ज्ञानं च, अयोगिनवस्थकेवलज्ञानं च। तत्र योजनं योगो व्यापाभावाच्च सर्वत्रालोकं गन्तुमशक्तत्वेनात्मस्थमेव सत्तदलोक- रः। उक्तं च-"कायवाजानःकर्मयोगः" इह औदारिकादिशरीप्रकाशकमिति । अथ सर्वगतत्वादात्मन आत्मस्थमपि केवलं रस्याऽऽत्मनो वीर्यपरिणतिविशेषः काययोगः, औदारिकवैलोकालोकप्रकाशकं भविष्यतीत्याशङ्कयाऽऽद-विघ्नुः सर्वव्या- क्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतवागसव्यसमूहसाचिव्याजीवपी, नच नैव, आत्मा जीवः, शरीरमात्र एव चैतन्योपलब्धेरतः व्यापारो वाग्योगः। उक्तं च-"अहवा तणु ओगाहिय, परशरीरावगाहमानमेव सत्तत्सर्वाभासकमिति भावः । तदिति दवसमूहजीववावारो । सो वयजोगो भम, वाया निसयस्मादेवं तस्माजमनादि गत्यादिका क्रिया, आदिशब्दादागम- रिज पतेणं"॥१॥ तथा औदारिकं वैक्रियाहारकशरीरव्यानपरिग्रहः । अस्य केवलज्ञानस्य, न नैवास्तीति गम्यते । अस्तु पाराहतमनोजव्यसाचिव्याज्जीवन्यापारी मनोयोगः । उक्तं चप्रयतु, तस्मात्कारणादू, यथोदितं यथाऽभिहितमात्मस्थं केव- " तह तणु वावाराहिय-मणदग्वसमूहजीववावारो । सो मसमित्यर्थः । इति ॥८॥ हा० ३० अष्टः । ( केवलज्ञानकेवल- जजोगो नपर, मन्नह नेयं जत्रो तेण " ॥१॥ ततः सह दर्शनयोर्युगपऽपयोगचिन्ता 'वोग ' शब्दे द्वितीयभागे योगेन वर्तन्ते ये ते सयोगाःमनोवाक्कायाः, ते यथासंभवमस्य ८६२ पृष्ठे कृता) विद्यन्ते इति सयोगी, सयोगी चासौ नवस्थश्च सयोगिभव() तद्भेदाः स्थः, तस्य केवलज्ञानं सयोगिभवस्थकेवलज्ञानम। तथा योगो ऽस्य विद्यते इति योगी,न योगी अयोगी,अयोगी चासौभवस्थसे किं तं केवलनाणं । केवलनाणं दुविहं पएणतं । तं श्व अयोगिनवस्था,शैलेश्यवस्थामुपगत इत्यर्थः तस्य केवलक्षाजहा-भवत्यकेवलनाणं च, सिचकेवन्ननाणं च । से कि नमयोगिभवस्थकेवलज्ञानम् । अथ किं तत् सयोगिनवस्थकेवतं भवत्थकेवलनाणं । भवत्यकेवलनाणं दुविहं पएणतं । बज्ञानम् । सयोगिनवस्थकेवलज्ञानं द्विविधं प्राप्तम् । तद्यथातं जहा-सजोगिनवत्यकेवलनाणं च, अजोगिनवत्यकेव प्रथमसमयसयोगिभषस्थफेवलज्ञानं च, अप्रथमसमयसयोगि भवस्थकेवलज्ञानं च। तत्रेह प्रथमसमयः केवसझानोत्पत्तिसमयः, लनाणं च । से किं तं सजोगिभवत्यकेवलनाणं ? । स अप्रथमसमयः केवलोत्पत्तिसमयार्द्ध द्वितीयादिकः सोऽपि जोगिभवत्थकेवलनाणं दुविहं पएणत्तं । तं जहा-पढमस- समयो यावत्सयोगित्वचरमसमयः। अथ वेति प्रकारान्तरे, एष मयसजोगिभवत्थकेवलनाणं च, अपढमसमयसजोगिभव- पवार्थः, समयविकल्पनेन अन्यथा प्रतिपाद्यत इत्यर्थः । (चरमत्यकेवलनाणं च । अहवा चरमसमयसजोगिभवत्थकेवल समयेत्यादि) तत्र चरमसमयः सयोग्यवस्थाऽन्तिमसमयः, न चरमसमयः अचरमसमयः,सयोग्यवस्थाचरमसमयादर्वाक्तनः नाणं च , अचरमसमयसजोगिभवत्यकेवानाणं च । सर्वोऽप्याकेवलप्राप्तेः । “सेत्तमित्यादि " निगमनं सुगमम् । सेत्तं सजोगिजवत्यकेवझनाणं । से किं तं अजो- (से कि तमित्यादि) अथ किं तत् अयोगिभवस्थकेवलकानम। गिनवत्यकेवलनाणं । अजोगिनवत्य केवलनाणं दु- अयोगिनवस्थकेवलज्ञानं द्विविधं प्रशप्तम् । तद्यथा-प्रथमसमयाविहं पप्पतं । तं जहा-पढमममयअजोगिभवत्थकेवलना योगिभवस्थकेवलज्ञानम्, अप्रथमसमयायोगिभवस्थकेवलज्ञानं णं च, अपढमसमयअजोगिनवत्यकेवलनाणं च । प्रह च । अत्र प्रथमसमयोऽयोगित्वात्पत्तिसमयो वेदितव्य, शैले. श्यवस्थाप्रतिपत्तिसमय इत्यर्थः । प्रथमसमयादन्यः सर्वोऽप्यवा चरमसमयअजोगिनवत्यकेवलनाणं च, अचरमसमयअ- प्रथमसमयो यावच्छै तेश्यवस्थाचरमसमपः । अथवेति प्र Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४०) केवलगाण अभिधानराजेन्छः। केवलणाण कारान्तरे, (चरमसमयेत्यादि) इह चरमसमयः शैलेश्यव- सिकादय उच्यन्ते।यद्वा-सामान्यतोऽप्रथमसमयसिद्धा इत्युक्तस्थान्तिमसमयः, स चरमसमयादन्यः सर्वोऽप्यन्यः सर्वोऽप्य- म । तत पतदेव विशेषेण व्याचष्टे-द्विसमयसिकालिसमय परमसमयो यावच्चैलेश्यवस्थाचरमसमयः । “ से" | इत्यादि । नं०। भयोगिभवस्थकेवलज्ञानम, तदेतदयोगिभवस्थकेवलज्ञानम् ।। अणंतरसिदकेवलनाणे दुविहे पाणत्ते। तं महा-एक्कानं। स्था। अंतरसिद्ध केवलनाणे चेव, अणेकाएंतरसिदकेवलना(ए) सिद्धकेवलज्ञानस्य द्वैविध्यम् णे चेव । परंपरसिद्धकेवझणाणे दुविहे पएणत्ते । तं जहा-एसे कि त सिककेवलणाणं । सिककेवझणाणं दुविहंप कपरंपरसिककेवलणाणे चेव, भणकपरंपरसिद्धकेवमाणामत्-अणंतरसिद्धकेवलनाणं च,परंपरसिकेवलनाणं च॥ " से किं तमित्यादि " अथ किं तत् सिसकेवलका णे चेव । स्था०२ ग०१० मम् ।। सिरुकेवलज्ञानं द्विविधं प्रकृतम् । तद्यथा द्रव्यकेत्रादिविषयाःभनन्तरसिद्धकेवलज्ञानं च, परम्परसिककेवलकानं च। तं समासो चरन्विहं परमत्तं । तं जहा-दन्बयो खेसो तत्र न विद्यते अन्तरं समयेन व्यवधानं यस्य सोऽनन्तरः । कालो भावनो। तत्थ दवभोणं केवलनाणीसमदम्बाई सचासौ सिम्यानन्तरसिकः, सिद्धत्वप्रथमसमये वर्तमान इस्य- | पन तस्य केवलज्ञानमनन्तरसिककेवलज्ञानम्।चशम्दः स्वगता जाण पासइ, खित्तो णं केवलनाणी सव्वं खेत्तं जाणमेकमेदसूचकः । तथा विवक्तिते प्रथमसमये यः सिकः तस्य इपासइ, कालोणं केवलनाणी सवं कालं जाणड यो द्वितीयसमयसिकः स परः, तस्यापि यस्तृतीयसमयसिकः पासइ, भावनो णं केवलनाणी सव्वे जावे जाणइ पासइ । स परः। पवमन्येऽपि वाच्या। परे च परे चेति वीप्सायां "पृषोबरादयः" ॥३।२।१५५॥ इति परम्परशदनिष्पत्तिः । परम्परेच (समासतो इत्यादि) तदिदं सामान्येन केवलज्ञानमभिगृह्यसे सिद्धाश्च परम्परसिकाः। विवक्षितसिकत्वप्रथमसमयात्प्रार ते।समासतः संकेपेण चतुर्विधं प्राप्तम् । तद्यथा-व्यतः क्षेत्रतः द्वितीयादिषु समयेध्वनन्तामतीताकां यावद्वर्तमाना इत्यर्थः । कामतो भावतश्च तत्र व्यतो,णमिति वाक्यालङ्कारे। केवलकातेषां केवलज्ञानं परम्परसिककेवलज्ञानम् अत्रापि चशम्दः स्व. नी सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि साकाज्जानाति,पश्याति । गतानेकन्नेदसंसूचकः ।नं। केत्रतः केवलज्ञानी सर्व केत्र लोकासोकभवनिम्नं जानाति,पश्य(१०) संप्रति विशेषान्तरं जिज्ञासुरनन्तरसिद्धस्वरूपं ति । इह यद्यपि सर्वद्रव्यग्रहणेनाऽऽकाशास्तिकायोऽपि गृह्यते, तथाऽपि तस्य केत्रवेन रूढत्वानेदनोपन्यासः । कालतः शिष्यः प्रश्नयनाह केवलकानी सर्वकालमतीतानागतवर्तमानभेदनिम्नं जानाति,प. से किंतं अणंतरसिद्धकेवलनाणं । अणंतरसिद्धकेवलनाणं श्यति । भावतः केवलज्ञानी सर्वान् जीवाजीवगतान प्राधान् पचरसविहं पएणत्तं । तं जहा-वित्यसिद्धा १ अतित्थास- गतिकषायागुरुलघुप्रभृतीन् जानाति, पश्यति । (अप्रेतनपास्तु कातित्थयरसिका ३ अतित्थयरसिका ४ सयंबुछ- ६४४ पृष्ठस्थ प्रा०म०प्र० पाउन गतार्थः) सिका ए पत्तेयबुफसिका ६ बुद्धचोहियसिका ७ इ (११)रह तीर्थकृत्समुपजातकेवलालोकः तीर्थकरनामकर्मोदयतः तथास्वानान्याकुपकार्यकृतोपकारानपेकं सकलसत्त्वाऽनुप्रदाय थिलिंगसिका न पुरिसलिंगसिया ए नपुंसयलिंगसिका सवितेव प्रकाशं देशनामातनोति; तत्राव्युत्पन्नविनेयानां १० सलिंगसिका ११ अन्नझिंगसिका १२ गिहिलिंग- केषाश्चिदेवमाशङ्काभावात् भगवतोऽपि तीर्थकृतस्तावद् व्यसिका १३ एगसिद्धा १४ प्रणेगसिका १५ । सेत्तं अ- श्रुतं ध्वनिरूपं वर्तते, व्यश्रुतं च जावश्रुतपूर्वकं, ततो भगवाणंतरसिककेवलनाणं ॥ नपि श्रुतज्ञानीति; ततस्तदाऽऽशकाऽपनोदार्थमाहमथ किं तत् अनन्तरसिककेवलज्ञानम् ?। सूरिराह-अनन्त केवलनाणेणऽत्थे, नारं जे तत्थ परमवणजोगे। रसिककेवलज्ञानं पञ्चदशविधं प्राप्तम् । पञ्चदशविधता ते जाम तित्थयरो,वइजोगसुयं हवइ सेसं॥२॥(नं०) - तस्यानन्तरसिकामामनन्तरपाश्चात्यमवरूपोपाधिभेदापे ह समुत्पन्नकेवलज्ञानः तीर्थकरादिरर्थान् धर्मास्तिकायादीतया, पञ्चदशविधवात, ततोऽनन्तरसिद्धानामेवानन्तरभवो न मूर्ताऽमूर्तानिलाप्याऽननिलाप्यान केवलकानेनैव मात्वा म. पाधिजेदतः, पञ्चदशविधता मुख्यत आह-तद्यथेत्युपदर्शनम, वबुध्य न तु श्रुतज्ञानेन,तस्य कायोपशमिकत्वात। केवलिनधापर"तित्थसिका" इत्यादि। णस्य सर्वथा क्षीणत्वेन तत्कयोपशमाजावातानहि सर्वगुरू पटे से किं तं परंपरसिककेवलनाणं?। परंपरसिककेवलनाणं देशशकिः संजवति, तदिहापीति नावः। ततः किम् ?, स्त्याभणेगविहं पएणतं । तं जहा-अपढमसमय सिका ह-तत्र तेषामर्थानां मध्ये ये प्रज्ञापनीयाः प्ररूपणीयाः योभ्यासमयसिका तिसमयसिका चनसमयासका. जाव स्ताननिलप्यान भाषते, नेतरान्-अनभिलप्यान् । प्रकापनीया मपि न सर्वानेव जापते तेषामनन्तत्वात् , आयुषस्तु परिमितदससमयसिका संखिज्जसमयसिका असंखिज्जसमयसि स्वात, किंतर्हि, योम्यानेव जापते गृहीतृशक्त्यऽपेक्या, यो हि का अनंतसमयसिका, सेतं परंपरसिछकेवलनाणं । यावतां योग्य इति । यत्र चाऽनिहिते शेषमनुक्तमपि विनेयोऽ" से किं तं परंपर" इत्यादि । न प्रथमसमयसिका अप्रथ- भ्यूहति तदपि योग्य नापते, यथा ऋषजसेनादीनामुत्पादादिमसमयसिकाः परंपरसिकाविशेषणं प्रथमसमयवर्तिनः,सिद्धत्व- परत्रयोपन्यासेनैव शेषगतिः । तत्र केवलज्ञानोपलब्धार्धाभिसमयात् द्वितीयसमयवर्तिन श्त्यर्थः । श्रादिषु द्वितीयसमय- धायकः शन्दराशिर्भाष्यमाणः तस्य भगवतः । (बाजो Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (THE) अभिधानराजेन्द्रः | केवलगाय गति) बाग्योग एव भवति नतु श्रुतं, नाम कर्मोदयजन्यत्वात् तस्य च कापोपशमिकत्या ज्ञानमप्यस्याधिका बलमेव, न भावभुतम् । श्राह - ननु वाग्योगो वाक्परिस्पन्दो वाग्वीर्यमित्यनर्थान्तरम् । श्रयं च भवतु नामकर्मोदयजन्यः, भाष्यमाणस्तु पुरुत्रात्मकः शब्दः किं भवतु ?, इति चेत् । उच्य से सोऽपि तृणां सावकारणत्वात् इतमभवति न तु जावश्रुतम् । तर्हि किं तद् भावश्रुतम् ?, इत्याह- ( सुर्य हवइति स्थानां तन्धानुसारि शर्म तदेव केवलगतज्ञानापेचया शेषमन्यद्भावश्रुतं भवति, कायो पशमिकोपयोगात् न तु केवलिंगतं तस्य ज्ञापकत्वादिति । अथ वा 'सुर्य हव सेसं' इत्यन्यथा व्याख्यायते तद्भण्यमानं शब्दमात्रं तत्काल एव श्रुतं न भवति, किं तर्हि ?, शेषं, कालमिति वाक्यशेषः । इदमुकं भवति तत् केवलिनः शब्दमात्र श्रोतॄणां अवान्तरलक शेषकाले श्रोतृगतहान कारणले नोपचारात् श्रुतं जवति, न तु जणनक्रियाकाल इति । अथ वा अन्यथा व्याख्यायते स केवलिनः संबन्धी वाग्योगः श्रुतं जवकि शेष गुणभूतम् प्रधानम औपचारिकत्वादिति । अन्येतु पति जोखिति । तत्र ते पानसंबन्धी वायोगः श्रोतु श्रुतंभवतयर्थः अथ वा तेषामिति श्रोतॄणां - नाश्रित्येत्यर्थः, भाषकगतं वाभ्योग एव श्रुतं वाग्योगश्रुतं भवतितमेत्यर्थः श्रथ वा तानधन भावते केवली, वाग्योगश्चायमस्य प्राषमाणस्य नवति, तेषां तृणां भयात् श्रुतमसी भवतीति निि गाथार्थः ॥ ८२ ॥ अथ भाष्यम् नाऊण केरलेणं, जासह न सुरण में सुपाई ओ । पावणिज्जे जासड़, नाजिलप्पे सुयाईए || ८३० ॥ तत्थ विजोग्गे भासइ, नाजोग्गे गाहयाणुवित्तीए । भणिए व जम्मि से, सयमूहइ भड़ तम्मत्तं ॥। ८३१ ।। जोगो तं न सुयं खओवसमियं सुर्य जो न तो । चित्राणं सेवइयं सदो उण दव्वसुभितं । ८३२ ॥ सेमं मत्थाएं, विन्नाणं सुयानुसारेणं । " तं जावसूर्य भएन, खओवसमोवोगाओ |८३३| भन्नं तं वा न सुयं, सेसं कालं सुयं सुताणं । तं चैव सुर्य भए कारणकज्जीवपारेण ॥ ८२४ ॥ ग्रह वा वड्जोगसुयं, सेसं सेसं ति जं गुब्नूयं । भावमुपकारणाओ, जमपहाणं तच सेसं ॥ ८३ ॥ लोग तेसिं, ति के तेसि ति जासमायानं । अ या सुयकारणओ, जोगसुर्य सुर्खेताणं । ०३६ । सप्ताऽपि व्याख्यातार्था एव । नवरं, प्रथमगाथायां यद्यस्माततः केवलज्ञानेाभासित समस्त निद्रा - तातिकान्तोऽसो भगवान् केवली (सुबाई सि ) वापरा तिक्रान्तत्वेन श्रुतातीतानर्थान्न प्राषत इति । तृतीयगाथायां (न तो ति) तकः कयोपशमोऽस्य केवलिनो नास्तीति । विशे० । ( १२ ) सत्पदप्ररूपणा अथास्य गत्यादिद्वारेषु सत्पदप्ररू१६३ केवलणा " पणतादयो वाच्याः । तत्र गतौ तावत् मनुष्य सिद्धयोः केवलज्ञानं प्राप्यते । इन्द्रियद्वारे श्रतीन्द्रियाणाम कायद्वारे त्रस कायाकाययोः योगद्वारे-सयोगायोगयोः, वेदद्वारे श्रवेदका नामपाद्वारेद्वारे सइयाश्यो सम्यकद्वारे सम्पग्रीनाम ज्ञानद्वारे ज्ञानिनाम द दीनद्वारे केवलदर्शननामः संयतद्वारे संपतानाम्, नोसंयतासंयतानां चा उपयोगद्वारे साकारानाकारोपयोगयोग आदारकद्वारे - आहारकानाहारकयोः; भाषकद्वारे भाषकाऽभाषकयो; परंत्तद्वारे परीतानां नोपरीत्तापरीतानां चः पर्याप्तद्वारपर्याप्तानां नोपर्याप्ता पर्याप्तानां च सुत्रमद्वारे-बादराणां, नोबादराणां का संधिवारे-नाम भव्यद्वारे जव्यानां, नोभव्याभव्यानां च । चरमद्वारे चरमाणां भवस्थकेवलिनां नोचरमाचरमाणां च सिद्धानां केवलज्ञानं प्रा प्यते । पूर्वप्रतिपन्नप्रतिपद्यमानकयोजना तु स्वबुद्ध्या कर्तव्येति । अत्र्यप्रमाणद्वारे प्रतिपद्यमानकानाश्रित्योत्कृष्टतोऽसकेपनि प्राप्यते पूर्वप्रतिपक्षास्तु उपस्थत उ कृतश्च कोटिपृथक्त्यप्रमाणा भवस्यकेलिन प्राप्य साना क्षेत्रस्पर्शनाद्वारयतु जयत संख्येमागे केवल बभ्यते, उत्कृष्टतस्तु सर्वलोके । कालद्वारेसाद्यपर्यवसितं कालं सर्वोऽपि केवलं । भवति, श्रन्तरं तु केवलज्ञानस्य नास्ति, उत्पन्नस्य प्रतिपाताभावात्, जागद्वारं मतिज्ञानयदिति भावद्वारे ज्ञान के द्वारे मतिज्ञानयद्वाच्यमिति । तदेयं केवलज्ञानं समाप्तम् । विशे - तदेवं " तस्स फलजोग मंगल समुदायस्था तदेव दारा इत्यादिकारि निर्दिषद्वितीया मतीद्वा परिसमाप्य चतुर्थ समुदायार्थद्वारमनिधानइति तास निधाय तावदिदमाद केवलनाणं नंदी, मंगलमिति चेह परिसमचाई। दुणा समंगलत्थो, भएणड़ पगोग ति । ८३७ | विशे० । ध० र० । श्र० चू० I (१३) अथ कीदृशं केवलज्ञानं भवति ?, तदाह जता से खाशावरणं, सव्वं होति खतं गतं । ततो लोग जोगं च जिणो जाणति केवलं ॥ ८ ॥ "जता से" हत्यादि । यदा यमिवसरे से इति" अनि एनाम्रो जीवस्य ज्ञानावरणं विशेषाययरूपप्रस्तावात् केव ज्ञानावरणं सर्व निरवशेषं क्षयं गतं भवति । ननु केवलज्ञानं देवोत्पद्यते यदा सर्वावरणविगमो जवतीति अर्थादागते किम सर्वमित्याशय सोप्यते सर्वग्रहणं कानान्तरदादावरण विगने हानान्तरल्पपदेशादर्शितः, ततो न निरर्थकता श्राशङ्कनीया । "तत" इति तदा लोकं चतुर्दशयामकमलोकं न जियो जानाति के लो कालोकं च सर्वे नान्यतरमेवेत्यर्थः । दशा० ॥ श्र० । विशे० । अथाऽवये केप्रानला प्रत्यत्र निश्चयव्यवहारनय वादमुपदर्शयन्नाह आवरण वरवयसमये अपरस केवलप्पत्ती | ततोऽतरसमये, ववहारो केवलं भरणइ ।। १३३४ ।। निश्चय नयस्यायमभिप्रायः यस्मिन्नेव समये आवरणस्य कय: Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५०) केवलणाण अनिधानराजेन्डः। केवलणाण क्षीयमाणमावरणमित्यर्थः । तस्मिन्नेव समये केवलशानोत्पत्तिः | कर्म वेद्यते, निर्जरावस्थायां तु नोकर्म-अकर्मत्यर्थः । अन्यश्च कीयमाणस्य क्षाणस्वात्, क्रियाकालनिष्ठाकाबयोरकत्याद: भेद वेदनासमयः,अन्यश्च निर्जरासमयः। ततः तस्मात् कारणात्तत्सचाम्यत्र काले किया, अन्यत्र च कार्योत्पत्तिरिति स्यात् । इदं मय आवरणक्षीयमाणतासमये-श्रावरणस्य निर्जरणसमये इत्यचाऽयुक्तम् । क्रियाविरहेऽपि कार्योत्पत्यज्युपगमात, इत्थं च क्रि- र्थः । (नावरणं ति ) नास्त्यावरण-नास्ति प्रतिबन्धकं कर्म, याऽऽरम्भकालारपूर्वमपि कार्योत्पत्तिप्राप्तेरतिप्रसङ्गादिति। । कीयमाणस्य कोणत्वादित्यर्थः ॥ १३३८॥ व्यवहारनयस्तु-प्रावरणतयसमयादनन्तरसमये केवलोत्पत्ति प्रतिबन्धकानावाच्च भवत्येवावरणकीयमाणतासमये भणति, आवरणस्य वयसमये कीयमाणत्वात् , कीय- केवलझानोत्पत्तिः.कस्तां निरुणकि?,अहमिति माणस्य चाकीणत्वात, क्रियाकाननिष्ठाकालयोर्जेदाद ; तद चेदित्याहकत्वे च क्रियाकालेऽपि कार्यस्य सत्वे क्रियावैयर्थ्यप्रसङ्गात् । जइ नाणमणावरणे,वि नत्यि तो तं न नाम पच्छा वि। न च समानकालनाविनोः क्रियाकार्ययोः कार्यकारणभावो युज्यते, सव्येतरगोविषाणादीनामपि तत्प्रसङ्गादिति ॥ १३३४॥ जायं च अकारणओ,तमकारणओ च्चिय पडेजा।।१३३ए। । तथा च व्यवहारनयो निजपकं समर्थयति यद्यनावरणेऽप्याधरणाभावेऽपि केवलज्ञानमुत्पत्ति न लन्नते, ततः पश्चादप्यावरणकयोत्तरकावं यदा किल स्वया इष्यते तदानाणं न खिजमाणे, खाणे जुत्तं जो तदावरणे । ऽपि तदुत्पत्तिनं स्यात् । अथावरणाभावाविशेषेऽप्यावरणक्यन य किरियानिट्ठाणं, कालेगत्तं जो जुत्तं ॥ १३३५।। समय केवल झानं न भवति, तदुत्तरकालं तु पश्चाङ्गवति, इति यस्मात्वीयमाणे तदावरणे ज्ञानमुत्पद्यते,इत्येतन्न युक्तम् । अस्य यहच्छया प्रोच्यते; हन्त! तईकारणा यदृच्छयैव प्रसूतिरस्य, क्रियाका नत्वात् , तत्काले च कार्यसत्त्वान्युपगमस्य दूषितत्वात ततोऽकारणत एव जातम, अकारणतयैव तत् प्रतिपतेत्, विकिं तु कोणे एव तदावरणे ज्ञानं युज्यते, अस्य निष्ठाकालवा- शेषानावादिति ॥१३३ए । त् , न च क्रियानिष्ठयोः कालैकत्वं युज्यते, प्रतिविहितत्वादि तस्मात् किमिह स्थिनम ?, इत्याहति ॥ १३३५॥ नाणसावरणस्म य, समयं तम्हा पगासतमसो व्व । अथ निश्चयः प्राह नप्पायव्ययधम्मा, तह नेया मचनावाणं ।। १३४० ॥ जइ किरियाए न खो, को हेऊ तपरिक्खए अन्नो । तस्मात्केवलज्ञानस्य तदावरणस्य च युगपदेवोत्पादव्ययधर्मों मह ताए किह काले,अस्मत्य तई खोणत्य?||१३३६।। द्रष्टव्यौ । कयोरिव ?, इत्याह-प्रकाशतमसोरिव । यथा हि हन्त व्यवहारवादिन् ! श्रावरणस्य कये जवता केवलोत्प- युगपदेव तमो निवर्तते, प्रद।पादिप्रकाशस्तृत्पद्यते, इति य एव त्तिरिष्यते, न तु तत्र क्षीयमाणे । तदत्र भवन्तं पृच्छामः-श्राव- तमसो निवृत्तिसमयः स एव प्रकाशस्योत्पादसमयः। एवमिहापि रणक्षयकाले क्रियासमस्ति,न वा यदि नास्ति, तर्हि क्रियान्तरे. युगपदेवावरणं निवर्तते, केवलज्ञानं तूत्पद्यते । प्रात्मद्रव्यं श्वणावरणकये कोऽन्यो हेतुरिति वक्तव्यम?-न कोऽपि प्रामोतीत्य- वतिष्ठते प्रति । य एवावरणस्य वयसमयः स एव केवलकानर्थः। अथास्त्यावरणवयकाले तद्धेतुभूता क्रिया,तया च तत्कयो स्योत्पादसमयः, तत्र हि समय आवरणस्य क्षीयमाणस्य क्षीविधीयते; तायातं क्रियाकालनिष्ठाकारयोरेकत्वम्, इति क. णत्वात, केवलज्ञानस्य चोत्पद्यमानस्योत्पन्नत्वात, आत्मऽव्यस्य थमुच्यते-'अन्यसमये क्रिया,अन्यत्र च तत्परिक्षयः'? :१३३६॥ स्ववस्थितत्वादिति । एवं सर्वेषामपि भावानांमृदगल्यादिपकिंच दार्थानां घटऋजुतादिभिरपूर्वपर्यायैरुत्पादः, पिएडशिवकस्था सकोशादिभिः, वक्रत्वाभिश्च प्राक्तनपर्यायैर्व्ययः, मृदङ्गल्यादिकिरियाकामम्मि खओ, जश्नत्थि तओन होज पच्छादि । द्रव्यरूपतया त्ववस्थान युगपद्भवतीति ज्ञातव्यमिति ॥१३४०॥ जश् वा किरियस्त खो,पढमम्मि विकास किारयाए?१३३७। यदि चरमसमये केवल लाभः, ततः किम्?, श्त्याहयदि क्रियाकालेऽप्यावरणक्षयो नास्ति, ततः पश्चाइप्यसौ न भवेत् , अक्रियत्वातू, पूर्वकालवदिति । अथ वा यदि क्रियानि उभयावरणाईओ, केवलवरनाणदंसणसहायो । वृत्ती द्वितीयसमयक्रियस्य सत आवरणकयोऽभ्युपगम्यते, जाणड पास य जिणो, नेयं सव्वं सयाकालं ॥१३४१॥ तहि क्रियान्वितप्रथमसमये किंक्रियया?, तामन्तरेणाप्यावरण- ततश्च सर्वमपि ज्ञेयं साद्यपर्यवसितं सदाकालं जिनः केवली क्षयोपपत्तेः, क्रियाविरहितद्वितीयसमयवदिति ? ॥ १३३७ ॥ जानाति केवलज्ञानेन, पश्यति च कंवदर्शनेन । स कथंभूतः क्रियाकालनिष्ठाकानयोश्चैकत्वमागमेऽप्युक्तम्, इति निश्चयः सन्?, केवलवरज्ञानदर्शनस्वभावस्तदव्यतिरिक्तस्वरूपः । तर्हि स्वपक्षं ज्ढयन्ताह पूर्वमित्थमदृष्ट्वा किमितीदानीमेवं पश्यति ?, इत्याह-यत जं निजरिजमाणं, निजिनं ति नणियं सुए जंच। इदानीमुभयावरणातीतः केवत्रज्ञान केवलदर्शनावरणद्वितयानो कम्मं निजरिइ, नावराणां तेण तस्स मए ॥१३३८।। तीतत्वादित्यर्थः ॥ १३४१ ।। अत एवाहयद्यस्माद् “चलमाण चलिए जाव निज्जरिज्जमाणे निजिने" इति वचनानिर्जीर्यमाणं कर्म निजीणे श्रुतेऽप्युक्तम, अतः संभिन्नं पासंतो, बांगमसोगं च सव्वो सव्वं । कीयमाणं कोणमेव, इति नानयोः कालभेदः। (जं च ति) | तं नस्थि जंन पासः, नूयं भव्यं नविस्तं च ॥१३४।। यस्मादिदं चागमे प्रोक्तम् । किम् ? इत्याह-"कम्म बेइज्ज नो सम-एकीजावेन भिन्नं संभिन्न-यथा बहिस्तथा मध्यऽपी-- कम्मं निज्जरज्ज" इति.पतावतू सत्रं द्रष्टव्यं, वेद्यमानावस्थायां। त्यर्थः। अथवा ऽव्यक्केत्रकामजावलकणं सर्वमपि झयमत्र क Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) अभिधानराजेन्द्रः । केवलगा गा 9 ज्ञानस्य विषयत्वेन दर्शितम्, तत्र संन्निमिति रूयं गृ | ह्यते कालभाषी च तत्पयत्वाद्गृह्येताभ्यां च समस्ताभ्यां समन्ताद्वा भिन्नं संभिन्नमिति कृत्वा द्रव्यं संभिन्नमुच्यते । तत्पश्यन्नुपलभमानो 'लोकमलोकं च प्रसिकस्वरूपं पश्यन् ' अनेन क्षेत्रं प्रतिपादितं प्रति तावदेव यादिचतुर्विधं नाम्यदिति किमेवमेच्या दिशा पश्य १ इत्याह-सर्व तः सर्वासु दिक्षु तावपि किं स्यादि उसन इत्याह- सर्व निरवशेष अनुमेवार्थे स्पयन्नास्ति किमपि ज्ञेयं भूतमतीतं, नवतीति भव्यं वर्तमानं प्रविष्यच्च यन्न पश्यति केवल इति निर्मुक्तिगाथाऽकरार्थः ॥ १३४२ ॥ भिन्नं पश्य रात्र भिन्नम इति को यह बाहिं जहा तो संभिन्नं सव्वपज्जवेहिं वा । अपरनिव्विसेसं स परपजाय वा बि ।। १३४३ ।। यथा बहिस्तथाऽन्तश्चेति संजिन्नम् । अथवा सर्व पर्यायैः संकीर्ण व्याप्तं संन्निम्, यदि वा यथास्मानं जानाति तथा परमपि, यथा परं तथाऽऽत्मानमपि निर्विशेषं जानाति, इत्येवं स्वपरानर्विशेषं संभिन्नं स्वपरपर्यायैर्वा युक्तं संनिन्नमिति ॥ १२४२॥ अथवा " , संनिभग्गणेणं व दव्यमिह सवालजवं गहिये । लोगालोगं स तिसन्यो वित्तपरिमाणं ।। १३४४।। संभिन्नग्रहणेनेह सकालपर्यायं द्रव्यं गृहांते, कालश्च पर्यायाॐ कालपर्यायाः सह तैर्वर्तत इति सकालपर्यायं संभिन्नम् । "लोकालोकं च सर्वतः सर्वम्" इत्यनेन क्षेत्रपरिमाणं गृही तम् एतावदेव च यं द्रव्यादिष्यमिति । १३४४ ।। तच्च पश्यन् किम् ? इत्याहतं पासंतो न्या- जं न पास तम्रो त नत्यि पंचत्थिकाय पज्जय- माणं नेयं जयोऽनिहियं ।। १३४५ || म्यादिचतुर्विज्ञेयं पश्स्तकोसी केवली भूतादिकालविशिष्टं तत्किमपि वस्तु नास्ति, यन्न पश्यति । कुतः ?, इस्याह यता यस्मात्पचास्तिकाय पर्याय शिवमासमेव यमागमेऽभिहितं नान्यत् । एतश्च द्रव्यादिचतुष्टयं न गृहीतमेवेति भावः ॥ १३४५ ॥ विशे० आ० म० । (१४) केवलज्ञानदर्शन केवलत्त देसक रायकडं शो कहेना जव विवेगेण विसरणं सम्ममा जावेत्ता भव । पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरित्ता जवइ । फासूयस्स एसज्जिस्स जस्स सामुदाणियस्स सम्बं गवेसचा व ४ इथेि चलहिं ठाणेहिं णिग्गंयाल वा णिग्गंथीण वा० जाव समुपज्जा | "ददि" सूत्रं स्फुटं परं निर्धन्धी ब्रहणात् खिया श्रपि केवलमुत्पद्यत इत्याह-अस्मिन्निति प्रत्यक्ष इवानन्तं प्रत्यासमये (असेसे ति) शेषाणि मत्यादिनानि तिकान्तं सर्वाबाधादिगुणैर्यत्तदतिशेषमतिशयवतः केवलमि त्यर्थः समुत्पनुकाममपीति) हेवाः कामादेरभि साषाभाषाकथथितेति नितीन दाइति चितिमादित्यागन (विस्मर्ण ति) का ययुत्सर्गेण पूर्वरात्रका रात्रेः पूर्वी भाग, अपराध राधेरप भागस्तावेव का समयोऽवसरो जागरिकायाः पूर्वरात्रापररा समयः तस्मिम्बजारिकाम्यवच्छेदेन धर्मप्रधाना जागरिका निकायेण बोधो धर्मजागरिका भावप्रयुपेक्षेत्यर्थः । यथा " किं कय किं वा सेसं, किं करणिजं तवं च न करोमे । पुण्यावर काले जागरो नाथपरिहसि ॥ १ ॥ अहवा को मम कालो, किमेयस्स उचियं सारा वि । विषया नियमग्रामिणो, बिरसाबसाया भी॥२॥ इत्यादिका विभतिपरिणामात् तथा जागरिता जागरको भव ति, अथवा धर्मजागरिकां जागरिता कर्तेति प्रष्टव्यमिति । तथा प्रगता असव उच्छ्वासादयः प्राणा यस्मात् स प्रासुको निर्जीवः, तस्य यते गण्यते उमादिदोषरहिततः कल्पः तस्य उच्यते अल्पाल्पतया गृह्यत इत्युबो भक्तपानादिः, तस्य समुदाने प्रायां नयः सामुदानिक तस्य न सम्य गवेषयिता अन्वेष्टा जवतीति । एवंप्रकारैरेतैरनन्तरोदितैरित्यादि निगमनम् । एतद्विपर्यसूत्रं कण्ठ्यम् । स्था०४०२. उ० ॥ केवलणाणजिण केवलज्ञानजिन पुं०जिनः केवलशानजिनः । स्था० ३ ठा० ४ उ० । केवलणाणदंसण केवलज्ञानदर्शन- पुं० केबले संपूर्ण शानद शं येषां ते तथाविधाः सर्वहेषु सर्वदा पं० सू० १० । ( " पंचा ठाणेहि केवलवरणाणदंसणे समुप्पा जिउकामे चाहिं णियाण या शिगंधा वा न खुघ्नइ " इत्यादि ' श्रहिदंसण' शब्देऽत्रैव भागे १६० समयंसि अइसेसे नागदंसणे समुप्यज्जिकामे विणो समु पृष्ठे प्रोफ प्रोक्तम् ) प्पा, प्रभवखणं अभिक्स इत्यिक जनकडं दे केवलणाणापरिय- केवलज्ञानार्थ ५० केवलज्ञानेनाप्येानासकढं रायकई कड़ेना भव । १ विवेगेणं विसरणं भेदे प्रा० १ पद | | विउस्सग्गेणं णो सम्ममप्पा भावेला जव २ पुम्बरावरका | | लसमयंसि णो धम्मजागरियं जागरिता जवइ । ३ । फायत एसज्जिस्स स्स सामुदालियम्स यो सम्म गवसत्ता प्रवइ । ४ । इमे चदि ठाणे जिम्मा | | ठाणेहिं वाणिग्गंथीण aro जात्र नो समुत्पज्जेज्जा, चलहिं ठाणेहिं निम्चारण वा नियीय ना अइसेसे नाणदंसणे समुपज्जनका समुपज्जेज्जा तं जहा - इत्थिकहं भत्तकहं । केवलज्ञानस्याssकेरलाणावरण केवलज्ञानावरण-१० स्था परणं केवलज्ञानावरण हातावरणकर्मण उत्तप्रकृतकर्म १ कर्म० । केवलजाशि (ए) - केवलज्ञानिन-पुं० प्रथमे भारतातीत । जिने, प्रव० ६ द्वार | केवलत्त केवलत्व न० । शुद्ध भावे. ( कैवल्ये ) "शुद्धो भावः केवलत्व-मन्यश्चौपाधिकः स्मृतः । शुद्धं विना न मुक्तिश्च, विनाशुद्धं न लेपता " ॥ ९ ॥ द्रव्या० १२ अध्या० । Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५२) केवलदंसण अभिधानराजेन्द्रः। केवणि (ण) केवलदंस (दरि ) ण-केवलदर्शन-न। केवलेन संपूर्ण (१) लकणम्वस्तुतस्वग्राहकबाधविशेषरूपेण यदर्शनं सामान्यांशग्रहणं न- कसिणं केवलकप्पं,लोगं जाणंति तह य पासंति । केवलदर्शनम् । कर्म०१ कर्म०। केवलदर्शनावरणकर्मज्ञयावि- केवलिचरित्तनाणी,तम्हा ते केवली होति।।४०॥आव०नि भूने कारणक्रमव्यवधानानिवर्तिसकललोकालोकविषयत्रिका कृत्स्नं संपूर्ण, कंवलकल्पं केवलोपमम्,इह कल्पशब्द औपम्ये लस्वभावपरिणामभेदानन्तपदार्थसामान्यसाकातकरणप्रवृत्ते, सम्मकाएक। सकलजगद्भाविवस्तुसामान्यपरिच्छेदरूपे गृह्यते । उक्तं च-“सामर्थ्य वर्णनायांच,छेदने करणे तथा । श्रीदर्शनभेदे, पं० सं०१द्वार । स्था। "जया से दरिसणावर पम्ये वाऽधिवासे च, कल्पशन्द विदुर्वधाः" ॥१॥ लोकं पञ्चाणे सव्वं होश खयं गयं । तो लोगमसोगं च, जिणो पासर स्तिकायात्मकं,जानन्ति विशेषरूपतया,तथैव संपूर्णमेव,चशब्दकेवली" ॥६॥दशा०५०। स्यावचारणार्थत्वात्,पश्यन्ति सामान्यरूपतया। इह शानदर्शन योः संपूर्णलोकविषयत्वे बहुवक्तव्यं, तत्तु नोच्यते,प्रन्थविस्तरभकेवलदंस ( दरिस ) णावरण-केवलदर्शनावरण-न० । के यात शति,केवलं निर्विशेषं विशेषाणां ग्रहो दर्शनमुच्यते,विशिष्टबलमुक्तस्वरूपं, तच्च दर्शनं च,तस्यावरणं केवलदर्शनावरणम्। ग्रहणं ज्ञानमेवं सर्वगं द्वयमित्यनया दिशा स्वयमेवाज्यूह्यामिति । दर्शनावरणकर्मण उत्तरप्रकृती, स्था०८ ठा। स०। धर्मसंग्रहणिकायाः परिभावनीया यतश्चैवं केवचारित्रिणः केकेवलग-केवादिक-न० । केबलकानकेवलदर्शनरूपे केवल- वलशानिनश्च तस्मात्ते केवलिनो भवन्ति,केवलमेषां विद्यते इति युग्मे, पं० सं० ११ द्वार। केवलिन एषां व्युत्पत्तेः। अहो अत्राकाएक एव केवबचारित्र इनि केवलवोहि-केवनबोधि-स्त्री०। शुद्धे सम्यग्दर्शने, “ केवलं किमर्थमुक्तम्। उच्यते-केवाचारित्रप्राप्तिपूर्विका नियमतः केवलयोहिं बुज्झज्जा" इति सूत्रे समासाभावेऽपि समाससंभवा झानावाप्तिरिति न्यायदर्शनार्थमित्यदोषः । तदेवं व्याख्याता लोदेवमुपन्यस्तः शब्दः । भ०९ श०३१ न०। (अश्रुत्वा केवलबो कस्येत्यादिरूपस्तत्र प्रथमश्लोकः ॥ ४० ॥(श्राव०) श्रा० म० धिलानो 'असोचा' शब्द प्र. भा० ८५६ पृष्ठे उक्तः) द्वि०। (अस्य भवसिद्ध केवल्यादिभेदाः 'केवमणाण'शकेवझवरणाणसण-केवावरज्ञानदर्शन-न। केवलमभि ब्देऽनन्तरमेव तद्विशेषणभूताः प्रोक्ताः सुविचक्कणैः स्वयमूह्याः) धानतो वरं झानान्तरापेक्षया प्रधानं च दर्शनं च झामदर्शनम्।स. ___ भवस्थकेवली तुमाहारद्वन्दः केवलज्ञानकेवलदर्शनयुगे,भ० श०३१८०स्था। उप्परमणाणदंसणधरे एं अरहा जिणे केवली चत्तारि केवलसिरि-केवाश्री-स्त्री० । केवलज्ञानलदम्याम्,द्वा०५५द्वा०। कम्मं से वेदेति । तं जहा-वेयाणिज,मानयं, णाम, गोयं । केवलियाराहणा- केवल्याराधना-स्त्री० । पाराधनाभेदे, स्था० स्था० ४ ठा० उ०। २ ठा० १ उ० । (केवल्याराधनाऽपि द्विविधा 'आराहणा' शब्दे, (२) शल्योरणानुसारेण केवत्रिभेदाःद्वि० भा० ३८३ पृष्ठे सव्याख्याऽवसेया ) केवलि (ण) केवलिन्-पुं०। कवनं परिपूर्ण केवलं शुभमनन्तं परमत्यतत्तसारत्यं, सल्लुकरणमिमं सुणे । बा। उपा०७अाज्ञानादित्रयमस्यास्तीति केवली । स्था०५ ग० मुणेत्ता तह मालोए, जह आलोयतो चेव ।। ६५ ।। ३ उ० । अनु आव० । श्रा० म० । औला संपूर्णासहायज्ञाना- उप्पाएँ केवलं गाणं, दिन्ने रिसभावत्यहिं । दित्रययोगात् सर्वई, स्था०ए ठा० । आतु। सूत्र० । कल्प० । नीसवाऽऽनोयणा जेण ( आलोयमाणाणं चेव) आचा० । भ० । उत्पन्नकेवलज्ञाने, ध०२ अधि० । तीर्थकृति, उप्पन्न तत्येव केवलं ।। ६६ ।। सूत्र० १ श्रु० १२ अ०।" लोगस्सुज्जोयगरे, धम्मतित्थयरे जिणे । अरिहंते कित्तइस्स, चवीसं पि केवली" ॥श्रा० केसिंचि साहिमो नामे, महासत्ताण गोयमा !। म० द्विसमस्तवस्तुस्तोमवेदिनि, ध०३ अधिक। अतीताना- जेहिं भावणालोययंते-हिं केवझणाणमुप्पाइयं ।। ६७॥ गतवर्तमानसूक्ष्मव्यवहितपदार्थवेदिनि, सूत्र.१ श्रु०५ अ०१ हा हा उद्दु कडे साहू , हा हा दुडु विचिंतिरे । उ० । जिने, भ०५ श०४३० (१) केवलिसकणम् । हा हा दुट्ट नाणिरे साहू, हा हा दुइ मणुमते ॥६८|| (२) शल्योकरणानुसारेण केवलिभेदाः। संवेगालोयगे तह य, जावालोयणकेवन्न।। (३) अनुत्तराणि केवलिनः। पयखेवकेवली चेव, मुहणंतगकेवली ॥ ६६ ।। (४) अन्तक्रिया। तह पच्चित्तकेवली सम्म, महावरग्गकेवनी । (*) अवगाहना। आलोयणकेवन्त्री तह य, हाहं पावित्तिकेवली ॥७॥ (६) अनुत्तरोपपातिकैः सहाऽऽलापः। (७) केवझिनामादारविषये दिगम्बरैः सह विप्रतिपत्तिः। उस्सुत्तमम्गं पनवए, हा हा अणयारकेवली। (८) उन्मेषनिमेषौ। सावजं न करेमि त्ति, अस्खमियसीलकेवली ॥७॥ (ए) केवलिपरिक्षानम् । तवसंजमवयसंरक्खे, निंदणगरहणे तहा। (१०) केवलिनोऽन्तरबानम् । सव्वतो सीलसंरक्खे, कोमीपच्चिने विय ॥ ७॥ (११) चरमकर्मणो कानम् । निप्परिकम्मे अकंमु-पणे प्रणिमिसच्ची य केवली । (१२) जाषणम्। (१३) मनोवागयोगः। एगपासित्तदोपहरे, मृणव्वयकेवली सहा ।। ७३ ।। Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवल ( ) (६५३) अभिधानराजेन्द्रः । न सक्को का सामनं, अलसणे वामिकेवली | नवकार केवली तह य, निच्चालोयण केवली ॥ ७४ ॥ नीलत्री तह य, सल्लुरण केवली | धन्नो मित्तिसपुन्नो, सताहं पी किन केवली ॥ ७५ ॥ सोsहं न पारेमि, बलकट्टपय केवली । पक्वा य, चाउम्मासीय केवली ॥ ७६ ॥ संवच्चरमपच्छित्ते, जहा चलजीविते तहा । णिचे खविद्धंसी, मनुयत्ते केवली तहा ॥ ७७ ॥ आलोयं निंदबंदियए, घोरपच्छित्तदुक्करे । लक्खोव भग्गपच्छित्ते, सम्महियासण केवली ॥ ७८ ॥ त्यो सर निवासे य, अडकवलासि केवली | एग सिद्धगपच्छित्ते, दसवासो केवली तहा ॥ ७ए ॥ पच्छित्तादवगे चैव पच्चित्तद्धकयकेवली । पच्छित्तपरिसमय, मनकोस केवली ॥ ८० ॥ न सुद्धी विनपच्छित्ता, ता वरं खिष्पकेवली | एगं काऊ पच्चित्तं वीयं न जवे जह चेव केवल ८१ तं वायराचपच्छितं, जेण गच्छइ केवली । तंबाराम जे समं, सफली होड़ केवली ॥ ८२ ॥ किं पच्चित्तं चरंतो, ढं चिट्टणो तव केवली । जिवाण माणं ण संघेयं, पाणपरिचयणकेवली ॥८३॥ अन्नं होड़ी सरीरं मे, नो बोही चैत्र केवली । सुबद्धमिणं सरीरंणं, पाविणिदुइएकेवल | ॥ ८४ ॥ पावकम्ममलं नियोमीह केवलं । वयं तं न समायरियं, पमाया केवझी तहा ॥ ८५ ॥ देहे खवन सरीरं मे, निज्जराजावन केवली । सरीरस्स संजमं सारं, निकलंकं तु केवली ॥ ८६ ॥ मसावि किए सीले, पाणे ए धरामि केवली । एवं काय जोगेणं, सीलं रक्खे ग्रह केसी ॥ ८७ ॥ एकमाई अादीया, कालाजणंते मुर्णी । केई योयणासि, पच्छित्ता जाइ गोयमा ! ||८|| महा० १ ० । श्र० म० । (३) अनुत्तराणि - केवलिस्सां पंच अणुत्तरा पत्ता । तं जहा अणुत्तरे नाणे, अत्तरे दंसणे, अणुत्तरे चरित्ते, श्रणुत्तरे तवे, अत्तरे वीरिए । श्द ब्रद्मस्थोऽवधिज्ञानरहितोऽवलेयः, न पुनरकेव लिमात्रम्, उत्तरत्रावधिज्ञानिनो वक्ष्यमाणत्वादिति । (केवलेणं ति) सहायेन शुकेन वा परिपूर्णेन वा श्रसाधारणेन वा । यदाह-"केवलमेगं सुद्धं, सगलमसाहारणं श्रतं च । " ( संजमेणं ति ) पृथिव्यादिरक्षणरूपेण ( संवरणं ति ) इन्द्रियकपायनिरोधेन, "सिभिसु " इत्यादौ च बहुवचनं प्राकृतत्वादिति । एतच्च गौतमेनानेनानिप्रायेण पृष्टम-यत उपशान्तमोहाद्यवस्थायां सर्वविशुद्धाः संयमादयोऽपि भवन्ति, विशुद्धसंयमादिसाध्या व सिद्धिरिति सा उद्मस्थस्यापि स्यादिति । (अंतकरे त्ति ) नवान्तकारिणः, ते च दीर्घतरकालापेक्षयाऽपि भवन्तीत्यत आह- ( अंतिमसरी रियावत्ति ) अन्तिमं शरीरं येषामस्ति तेऽन्तिमशरीरिकाः, चरमदे हा इत्यर्थः। वाशब्दौ समुच्चये, “सवइक्खाणमंतं करिंसु" इत्यादी "सिभिसु सिज्यंति" इत्याद्यपिष्टम्, सियाद्यविनानृतत्वात् सर्वदुःखान्तकरणस्येति । ( उत्पन्ननाणदंसणधरा) उत्पन्ने ज्ञानदर्शने धारयन्ति ये ते तथा, न स्वनादिसंसिद्धानाः, अत एव ( श्ररह त्ति) पूजार्हाः (जिए ति) रागादिजेतारः । ते ब्रद्मस्था अपि भवन्तीत्यत आह तथा न सम्युत्तराणि प्रधानानि येन्यस्तान्यनुत्तराणि यथा स्वसर्वथाssवरकयात्, तत्राद्ये ज्ञानदर्शनावरण कयादनन्तरमोहयातपसश्चारित्रभेदत्वात्तपश्च केवलिनामनुत्तरं शैलेइयवस्थायां शुक्लध्यान जेदद्वयस्वरूपं ध्यानस्याभ्यन्तरतपाभेदखाद्वर्यान्तरायक्षयादिति । स्था० ५ ० १ उ० । स दस अणुत्तरा पत्ता । तं जहा अणुत्तरे (केत्रज्ञीति) सर्वज्ञा: “सिमंति" इत्यादिषु चतुर्षु पदेषु वर्तमान १६४ केवलि ( ) गाणे अत्तरे दंसणे अणुत्तरे चरिते श्रणुत्तरे तवे गुत्तरे वीरिए अणुत्तरा खंती अणुत्तरा मुत्ती अणुत्तरे - जवे अत्तरे मद्द अणुत्तरे लाघवे । स्था० १० वा० । (४) अन्तक्रिया । केवली भूत्यैव सिद्धयति एस जंते! पोगले तीतमतं सासयं समयं भुवीति वत्तं सिया ?। हंता गोयमा ! एम णं पोग्गले तीतमतं सासयं स मयं वीति वत्तन्वं सिया । एस णं जंते ! पोग्गले पकुप्पासासयं समयं भवतीति वत्तव्त्रं सिया ? | हंता गोयमा ! तं चैव उच्चारेयव्वं । एस णं लंबे ! पोगले प्रागयमणंतं सामयं समयं जस्सितीति वत्तव्वं सिया १ । हंता गोयमा ! तं चेत्र उच्चारयन्वं, एवं खंधेण वि तिमि श्रालावगा, एवं जीवेण वितिमि श्रालावगा जाणियन्वा । उपत्थे णं जंते ! मरणू से तीतमतं सासयं समयं केवलेणं संजमेणं केवलें संवरणं केवलेणं वंभचेरवासेणं केवलीहिं पत्रयणमायाहिं सिकि बुज्जिसु० जात्र सव्वदुक्खाणमंत करें - सु ? । गोयमा ! णो णट्ठे समट्ठे । से केणट्ठे जंते ! एवं बुच्चर, तं चैव जाव अंतं करिंसु । गोयमा ! जे के अंतकरा वा अंतिमसरीरिया वा सम्बदुक्खाणमंतं करिंसुवा, करिति वा, करिस्संति वा, सव्वे ते उपसणाणदंसणधरा अरहा जिसे केवली भवित्ता तम्रो पच्छा सिज्ऊंति, वुज्कंति, मुच्चंति, परिनिव्वायंति० जात्र सव्वदुक्खाणमंतं करिंसु वा, करिति वा, करिस्संति वासे तेगट्टेणं गोयमा !० जाव स दुक्खाणमंतं करिंसु, पकुप्पन्ने वि एवं चेत्र, नवरं सिज्यंति भाणिय, अणागर वि एवं चैव, नवरं सिज्झिस्संति जा यिव्वं, जहा बमत्थो तहा ग्राहोहिश्रो वि, तहा परयोहि वितिन्नि तिन्नि श्रालावगा जाणियव्वा ॥ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५४) केवलि ( ण् ) अनिधानराजेन्द्रः। केवलि (ण) निर्देशस्य शेषोपलकणत्वात् "सिकिसुसिऊंति सिज्झिस्संति" | तुजूतया (चलाई ति) अस्थिराणि (उवगरणाई ति)अङ्गानि इत्येवमतीतादिनिर्देशो अपव्यः । अत एव "सब्वदुक्खाणं " | (चलोवगरणट्ठयाए ति) चलोपकरणलको योऽर्थस्तद्भावश्चइत्यादी पञ्चमपदेऽसौ विहित इति । “जहा छ उमत्थों" इत्या- लापकरणार्थता, तया! चशब्दः पुनरर्थः। भ०५ श०४ ००। देरियं भावना-"आहोहिए णं ते! मणसे तीतमणतं सासयं" (६) अनुत्तरोपपातिकैः सहाऽऽलापःइत्यादिदरामकत्रयं, तत्र अधः परमावधेरधस्ताद्योऽवधिः । सोऽधोऽवधिः, तेन योव्यवहरत्यसावाऽधोऽवधिकः, परिमितक्षे पत्नू णं भंते ! अणुत्तरोववाइया देवा तत्य गया चेव सविषयावधिकः। ( परमाहोहिनत्ति) परम प्राधोऽवधिकाद्यः माणा इह गएण केवलिणा सकिं ाना वा संझावं वा स परमाधोऽवधिकः । प्राकृतत्वाच्च व्यत्ययनिर्देशः ।“परमो- करेत्तए। हंता पनू । से केपट्टेणं नाव पन अणुत्तरोवहिउ ति" क्वचित्पावो व्यक्त.श्च । सच समस्तरूपिडव्यासंख्यात वाश्या देवा. जाव करेत्तए । गोयमा ! जएणं अणुत्तरोलोकमात्रालोकखण्डासंख्यातावसर्पिकाविषयावधिज्ञानः। (ति ववाझ्या देवा तत्थ गया चेव ममाणा अढ वा हे वा पमि अालावगत्ति) कालत्रयवेदिनः केवलिनोऽप्यत एव त्रयो दएमकाः, विशेषस्तु सूत्रोक्त एवेति ।। मिणं वा कारणं वा वागरणं वा पुच्छंति तएणं यह गए केवली अटुं वा० जाब वागरणं वा वागरेइ, से तेणडेणं से नूणं भंते ! नप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिणे केवबीअनमत्यु त्ति वत्तव्य सिया। हंता गोयमा नपन्ननाण भंते ! इह गए केवनी अट्ठ वाजाव वागरे, तएणं अणुदसणरे अरहा जिणे केवनी अझमत्यु त्ति वत्तव्वं सिया, त्तरोववाइया देवा तत्य गया चेव समाणा जाणंति, पासेवं भंते भंते त्ति ॥ संति, से केणटेणंजाव पासति । गोयमा ! तेमि णं देवाणं " से नूणं " इत्यादिषु कालत्रयनिर्देशो वाच्य पवेति । अणंताओ मणोदव्यवग्गणाओ लछाप्रो पत्ताओ अ(अलमत्थु त्ति) अलमस्तु पर्याप्तं भवतु,नातः परं किञ्चिन्झा भिसमएणागयाओ नवंति, से तेण्डेणं जएणं रह गए केमान्तरं प्राप्तव्यमस्यास्तीति एतद्वक्तव्यं स्याद्भवेत् , सत्यत्वा वली. जाव पास। दस्यति । न०१श०४ उ० । (अालावं व त्ति) सकृजल्पं (संलावं वत्ति) मुहुर्मुहर्ज(५) अवगाहना । केवली यस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽवगाढस्तत्र ल्पं मानसिकमेवेति, (बद्धाो त्ति) तदवधेविषयनावं गताः हस्ताद्यवगाह्य स्थातुं शक्तः (पत्ताश्री ति) तदवधिना सामान्यतः प्राप्ताः, परिच्छिन्ना - केवली नंते ! अस्सि समयंसि जेसु आगासपएसेसु हत्यं त्यर्थः। (अभिसमरणागयात्रा ति) विशेषतः परिजिन्नाः, यवा पायं वा वाहं वा ऊरुं वा उग्गाहित्ता णं चिट्ठइ पनू ! एणं तस्तेषामवधिज्ञानं संभिन्नलोकनाडीविषयं,यश्च लोकनामीग्राह कं तन्मनोवर्गणाग्राहकं जवत्येव,यतो योऽपि लोकसंख्येयभागकेवली से य कालंसि विएम चेव अागासपएसेसु हत्थं वा० विषयोऽवधिः सोऽपि मनोद्रव्यग्राही, यःपुनः संभिन्नलोकनाडीजाव जग्गाहित्ता णं चिहित्तए?। गोयमा! णो णटे समझे। विषयोऽसौ कथं मनोद्रव्यग्राही न भविष्यति, इष्यते च लोकसं. से केणणं ते!. जाव केवली णं अस्सि समयंसि जेसु | ख्येयभागावधेर्मनोद्रव्यग्राहित्वम्। यदाह-"संखेजमणोदञ्च,भा. आगामपएससु० जाव चिट्ठइ णो णं पन्नू ! केवली से य गो लोगपग्लियस्स बोधवो"त्ति। भ० ५ श०४ उ०। कासंसि विएसु चेव हत्यं वा जाब चिट्टित्तए । गोयमा ! (७) आहारः। तत्र दिगम्बरैः सह विप्रतिपत्तिःकेवन्निस्स णं वीरियस्स सजोगसद्दव्ययाए चबाई नवग- सर्वथा दोषविगमात, कृतकृत्यतया तथा । रणाई भवंति चोवगरणट्ठयाए णं केवी अस्सिं समयंसि | आहारसंझाविरहा-दनन्तसुखसमतेः ॥१॥ जेसु आगासपएसेम हत्यं वा० जाव चिट्ठइ णो णं पनू ! दग्धरज्जुसमत्वाच्च, वेदनीयस्य कर्मणः। केवनी से य कालंसि विएसु चेव० जाब चिहित्तए से अक्षोद्भवतया देह-गतयोः सुखःखयोः ॥२॥ तेणटेणं० जाव बुच केवनीणं अस्सि समयंसि० जाव मोहात्परप्रवृत्तेश्च, सातवेद्यानुदीरणात् । चिट्टित्तए । प्रमादजननादुच्चै-राहारकथयाऽपि च ॥३॥ (अस्सि समयसि त्ति) अस्मिन् वर्तमानसमये ( ओगाहित्ता नुक्त्या निशादिकोत्पत्तेः, तथा ध्यानतपोव्ययात् । णं ति) अवगाह्याऽऽक्रम्य (से य कासंसि व त्ति) एध्यकाले- परमौदारिकाङ्गस्य, स्थास्नुत्वात्तां विनापि च ॥ ४ ॥ ऽपि(बीरियस जोगसद्दव्वयापत्ति) वीर्य वीर्यान्तरायक्यप्रभया परोपकारहानेश्च, पुरीषादिजुगुप्सया। शक्तिः, तत्प्रधानं सयोगं मानसादिव्यापारयुक्तं यत्सत् विद्यमान कन्यं जीवजन्यं तत्तथा; वीर्यसद्भावेऽपि जीवाव्यस्य योगान् व्याध्युत्पत्तेश्च जगवान्, लुङ्गे नेति दिगम्बराः ॥५॥ विना चलनं न स्यादिति; सयोगशब्देन सद्व्यं विशेषितं,स- (सर्वथति ) सर्वथा सर्वप्रकारैर्दोषविगमात्, खुधायाश्च दोदिति विशेषणं च, तस्य सदा सत्ताऽवधारणार्थम् । अथवा व पत्वात्तदभावे कवलाहारानुपपत्तेः । तथा कृतकृत्यतया केवआत्मा,तद्रूपं जव्यं स्वयं, ततः कर्मधारयः। अथवा वीर्यप्रधा- लिनः कवलभोजित्षे तद्धान्यापत्तेः । आहारसंशाविरहात नः मयोगो योगवान् वीर्यसयोगः, स चासौ सदूज्यश्च मनःप्र- तस्याइचाहारहेतुत्वात् । अनन्तसुखस्य संगतेः केलिनः कभृतिवर्गणायुको वीर्यसयोगसदृषयः,तस्य जावस्तत्ता,तया हे- । वलनुक्तौ तत्कारणचुदनोदयावश्यंभावात्तेनानन्तसुखविरो Jain Education Interational Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५५ ) अभिधान राजेन्द्रः । केवलि (ग् ) धातू ॥ १ ॥ ( दग्धेति च पुनर्वेदनीय कर्मणो दग्धरज्जुलमत्वात्तादृशेन तेन स्वकार्यस्य क्षुद्वेदनोदयस्य जनयितुमशक्यवात् । देहगतयोः शरीराश्रितयोः सुखदुःखयोरक्कोद्भवतयेन्द्रि याधनतयाऽतीन्द्रियाणां भगवतां तदनुपपत्तेः ॥ २ ॥ ( मोहादिति ) मोहादू मोहनीयकर्मणः परप्रवृत्तेः परव्यप्रवृत्तनि मोहस्य सत श्राहारादिपरव्यप्रवृत्त्यनुपपत्तेः । सातवेद्यस्य सातावेदनीयस्यानुदीरणात् सातासातमनुजायुषामुदीरणायाः सप्तमगुणस्थान एव निवृत्तेः केवलिनः कवलभुक्तौ तज्जन्यसातोदीरणप्रसङ्गात् । च पुनराहारकथयाऽन्युश्चैरत्यर्थ प्रमादजननादाहारस्य सुतरां तथात्वात् ॥ ३ ॥ ( भुक्त्येति ) नुकत्या कबलाहारेण निद्रादिकस्योत्पत्तेः, आदिना रासनमतिज्ञानेर्याप थपरिग्रहः । केवलिनां च निषाद्यभावात् तद्व्याप्यभुक्तेरख्ययोगात् । तथा चुक्तौ सत्यां ध्यानतपसोर्व्ययात्, केवलिनश्च तयोः सदातनत्वात् तां विनाऽपि च भुक्तिं विनाऽपि च परमोदारिकाङ्गस्थ स्थास्नुत्वाच्चिरकालमवस्थितिशीलत्वात्तदर्थे केवलिनस्तत्कल्पनायोगात् ॥ ४ ॥ ( परेति ) परोपकारढानेश्च भुक्तिकाले धर्मदेशनाऽनुपपत्तेः सदा परोपकारस्वभावस्य भगवतस्तदूव्याघातायोगात् । पुरीषादिजुगु या क्तौ तौ व्यात् । व्याभ्युत्पत्तेश्च भुतेस्तन्निमित्तत्वात् । भगवान् केवली भुङ्क्ते न इति दिगम्बरा वदन्ति ॥ ५ ॥ सिदान्तश्चायमधुना, लेशेनास्मानिरुच्यते । दिगम्बरमतव्याल - पलायनकलागुरुः || ६ || हन्ताज्ञानादिका दोषाः, घातिकर्मोदयोद्भवाः । दावेsपि किं न स्याद्वेदनीयोवा क्षुधा ॥ ७ ॥ अव्यावाधविघाताच्चेत्, सा दोष इति ते मतम् । नरत्वमपि दोषः स्यात्, तदा सिद्धत्वदूषणात् ॥ ८ ॥ घातिकर्मक्षया देवा - दता च कृतकृत्यता । तदभावेऽपि नो बाधा, जवोपग्राहि कर्मभिः ॥ ६ ॥ आहारसंज्ञा चाहार - तृष्णाख्या न मुनेरपि । किं पुनस्तदजावेन, स्वामिनो मुक्तिबाधनम् ॥ १० ॥ अनन्तं च सुखं भर्तु-र्ज्ञानादिगुणसङ्गतम् । क्षुधादयो न बाधन्ते पूर्ण त्वस्ति महोदये ।। ११ ।। दग्धरज्जुममत्वं च वेदनीयस्य कर्मणः । वदन्तो नैव जानन्ति, सिद्धान्तार्थव्यवस्थितिम् ॥ १२ ॥ सिद्धान्तश्चायमिति व्यक्तः ॥ ६ ॥ ( इन्तेति) हन्त अज्ञानादिका घातिकर्मोदयोद्भवा दोषाः प्रसिद्धाः। तदभावेऽपि वेदनीयोद्भवा कुधा किं न स्यात् । न हि वयं भवन्तमित्र तस्वमनालोss कुत्पिपासादिनैव दोषानभ्युपेमो येन निर्दोषस्य केवलिनः कुधाद्यनावः स्यादिति भावः ॥ ७ ॥ ( श्रन्याबाधेति ) अभ्या बाधस्य निरतिशयसुखस्य विघातात् सा कुधा दोषो, गुणदूपण. स्यैव दोषलक्षणत्वादिति चेद् यदि ते तब मतं, तदा नरत्वमपि जवतो दोषः स्यात्, सिद्धत्वदूषणात् । तस्मात्केवलज्ञानप्रतियधकत्वेन घातिकर्मोदयोद्भवानामज्ञानादीनाभिव दोषत्वं न तु वादीनामिति युक्तमुत्पश्यामः ॥ ८ ॥ ( घातीति) घातिकर्मक्षयादेवाताऽहीना च कृतकृत्यता भवोपग्राहि कर्मभिर्वेदनीयादिभिः सद्भिद्भावेऽपि कृतकृत्यत्वाभावेऽपि (नो / नैव बाधा । केवल ( ) सर्वथा कृतकृत्यत्वस्य सिद्वेष्वेव संभवात् उपादित्साभावेप्युपादेयस्य मोक्कस्य सयोगिकेवलित्वकालेऽसिद्धः । रागाद्यनावमात्रेण कृतकृत्यत्वस्य च मुक्तिपत्तेऽप्यबाध एवेति कथितप्रायमेव ॥ ए ॥ ( आहारसंज्ञा चेति ) श्राहारसंज्ञा चाढारतृ या मोहाभिव्यक्तचैतन्यस्य संज्ञा पदार्थत्वान्न मुनेरपि भावसाधोरपि किं पुनस्तदभावेनाहारसंज्ञाभावेन स्वामिनो जगवतो मुक्तिबाधनम् । तथा चाहारसामान्ये तद्विशेषे वा श्राहारसंज्ञया हेतुत्वमेव नास्तीत्युक्तं भवति । न च तद्विशेषे तकेतुत्वमेवाप्रमत्तादीनां चाहाराभावान्न व्यभिचार इति कुचो - द्यमाशङ्कनीयम्, आहारसंज्ञाया प्रतिचारनिमित्तत्वेन कदापि निरतिचाराहारस्य साधूनामप्राप्तिप्रसङ्गात् ॥ १० ॥ ( अनन्तं चेति ) अनन्तं च सुखं भर्तुर्जगवतो ज्ञानादिगुणसङ्गतं तन्मयीभूतमिति यावद् श्रज्ञानादिजन्यदुःखनिवृत्तेः सर्वेषामेव कर्मणां परिणामदुःखहेतुत्वाच्च क्षुदादयो न बाधन्ते स्वभावनियतसुखानामेव तैर्बाधनं, पूर्ण तु निरवशेषं तु सुखं महोदये मोके sस्ति, तत्रैव सर्वकर्मक्षयोपपत्तेः ॥। ११ ( दग्घेति ) दग्धरज्जुसमत्वं च वेदनीयस्य कर्मणो वदन्तः सिद्धान्तार्थव्यवस्थिति नैव जानन्ति ॥ १२ ॥ For Private पुण्यप्रकृतितीव्रत्वा-दसाताद्यनुपश्यात् । स्थितिशेषाद्यपेक्षं वा तद्वचो व्यवतिष्ठते ॥ १३ ॥ इन्द्रियोक्ता व्यं, बाह्ययोः सुखदुःखयोः । चित्रं पुनः श्रुतं हेतुः कर्माध्यात्मिकयोस्तयोः ॥ १४ ॥ आहारादिप्रवृत्तिश्व, मोहजन्या यदीष्यते । देशनाssदिप्रवृत्त्यापि भवितव्यं तदा तथा ॥ १५ ॥ यत्नं विना निसर्गाच्चेत्र, देशनाऽऽदिकमिष्यते । भुक्त्यादिकं तथैव स्याद् दृष्टवाधा समोजयोः ॥ १६ ॥ नुक्त्या या सातवेद्यस्यो - दीरणाऽऽपाद्यते त्वया । साऽपि देशनयाऽसात - वेद्यस्यैतां तत्राक्षिपेत् ॥ १७ ॥ उदीरणाख्यं करणं, प्रमादव्यङ्ग्यमंत्र यत् । तस्य तत्मजानानाः खिद्यसे स्थूलया धिया ॥ १८ ॥ आहारकथया हन्त, प्रमादः प्रतिबन्धतः । तदजावे च नो नुक्त्या, श्रूयते सुमुनेरपि ॥ १७ ॥ निद्रा नोत्पाद्यते भुक्त्या, दर्शनावरणं विना । उत्पाद्यते न दमेन, घटो मृत्पिण्डमन्तरा ॥ २० ॥ रासनं च मतिज्ञान-माहारेण जवेद्यदि । घ्राणीयं स्याचदा पुष्पं, घ्राणतर्पणयोगतः ॥ २१ ॥ र्याप प्रसङ्गश्च समोऽत्र गमनादिना । ते ध्यानतपसी, स्वकालासंभवे पुनः ॥ २२ ॥ (एयेति पुग्यप्रकृतीनां तीर्थकरनामादिरूपाणां तीव्रत्वाश्रीविपाकत्वात्तज्जन्य सातप्राबल्ये वेदनीयमात्रस्य दग्धरज्जुसमत्यासिकेर सातादीनामनुपक्याद सातावेदनीयस्यापि तदसिद्धेः पापप्रकृतीनां नगवति रसघातेन नीरसत्वाभ्युपगमे स्थितिघातेन निःस्थितिकत्वस्याप्यापत्तेः, अपूर्व करणादौ वध्यमानप्रकृतिविषयकस्यैव तस्य व्यवस्थितेः। ननु तर्हि कथं भवोग्राहि कर्मणां केवलिनां दग्ध रज्जु कल्पत्वानिधानम्, आवश्यक Personal Use Only Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५६) केवलि (ण) अनिधानराजेन्द्रः। केवलि (ण) वृत्त्यादौ भूयते ?, इत्यत आह-स्थितिशेषाद्यपेकं वा तद्धचो द. व्यापारमात्रस्य तदापकत्वे ततो मनोयोगेनाप्यप्रमत्त सुखोदीग्धरज्जुकल्पत्ववचो व्यवतिष्ठते,न तु रसापेक्कया,अन्यथा सूत्र- रणप्रसङ्गात् , तदीयसुखस्य ज्ञानरूपत्वे सुखान्तरस्यापि तथाकृत्तिविरोधप्रसङ्गात,असातादिप्रकृतीनामसुखदत्वाभिधानम- त्वप्रसङ्गात्। सुख्यहमित्यनुन्नवस्य चाप्रमत्तेऽप्यक्ततत्वादिति॥१८॥ प्यावश्यकनियुक्त्यादी घातिकर्मजन्यबहुतरासुखविलयेनाल्प- (आहारकथयति) आहारकथया हन्त ! प्रतिबन्धतस्तथाविधास्याविवरणात्। अन्यया भवोपग्रहायोगादिति विभावनीयं सुधी- हारेच्छासंस्कारप्रवृःप्रमादो भवति,न वन्यथाऽपि अकथाभिः ॥ १३ ॥ (शन्छियति ) इन्जियोद्भवताया ध्रौव्यमावश्य- विकथानां विपरिणामस्य परिणामभेदेन व्यवस्थितत्वात् । तदकत्वं बाह्ययोरिन्जियार्थसम्बन्धापेक्षयोर्विलकणयोरेव सुखदुः- जावे च प्रतिबन्धाभावे च 'नो' नैव नुक्त्या श्रूयते सुमुनेरपि खयोः आध्यात्मिकयोस्तयोः सुखदुःखयोः पुनश्चित्रं कर्महेतु. उत्तमसाधोरपि प्रमादः, किं पुनर्भगवत इति भावः । यहियोगश्रुतं कचिद बहिरिन्द्रियव्यापाराभावेऽपि मनोमात्रब्यापारण स- व्यापारमात्रोपरम एवाप्रमत्तत्वलाभ इति तु न युक्तम,आरब्ध. दसच्चिन्ताज्यामेव तयोरुत्पत्तेः । क्वचिच्च तस्याऽप्यनावे स्य तस्य तत्रासङ्गतया निष्ठाया अविरोधादिति ॥ १६॥ नि आध्यात्मिकदोषोपशमोकाभ्यामेव तदुत्पत्तदर्शनाद्भगव- ति स्पष्टः ॥ २०॥रासनं चेति स्पष्टः ॥२१॥ (इति) र्यापथत्यपि द्विविधवेदनीयोदयध्रौव्ये तयोः सुवचत्वादिति । ब- प्रसङ्गश्चात्र भगवतो नुक्तौ गमनादिना समस्तेनापि तत्प्रसङ्गस्तुतो बाह्ययोरपि सुखदुःखयोरिष्टानिष्टार्थशरीरसंपर्कमात्र प्र- स्य तुल्ययोगक्षमत्वातू, स्वान्नाविकस्य च तमनस्य दृष्टबाधेन योजक, न तु बहिरिन्द्रियज्ञानमपीति भगवति तृणस्पर्शादिप- कल्पयितुमशक्यत्वादिति भावः । स्वकालासंभवे जुक्तिकालारीषहाभिधानं सांप्रदायिकं संगच्छत इति न किश्चिदेतत् ॥१४॥ सनविनी ध्यानतपसी पुनरक्षते। योगनिरोधदेहापवर्गकालयोरेव (आहारादीति) आहारादिप्रवृत्तिश्च यदि मोहजन्या इध्यते तत्स्वभावात् स्वभावसमवस्थितिलक्षणयोश्च तयोगमनादिभगवता बुद्धिपूर्वकपरव्यविषयकप्रवृत्तेर्मोह जन्यत्वनियमात्त- नेव भुक्त्याऽपि न व्याघात इति षष्टव्यम् ॥२२॥ दा देशनादिप्रवृत्त्याऽपि भगवतस्तथा मोहजन्यत्वेन भवितव्य परमौदारिकं चाङ्गं, जिनं चेत्तत्र का प्रमा?। म ॥ १५ ॥ इच्छाभावाद्भगवतो नास्त्येव देशनाप्रवृत्तिः, स्वभावत एव च तेषां नियतदेशकाला देशनेतीष्टापत्तावाह-(यत्न. औदारिकादभिन्नं चेत, विना भुक्तिं न तिष्ठति ॥ २३ ॥ मिति) यत्नं ताल्वोष्ठादिव्यापारजनकप्रयत्नं विना निसर्गात् नुक्ताद्यदृष्कृसंवन्ध-मदृष्टं स्थापकं तनोः । स्वजावाञ्चेद् देशनादिकमिष्यते भगवतः तदा जुक्त्यादिकं तथै- तत्यागे दृष्टवाधा त्व-त्पक्षलक्षणरावस।।।।। व यत्न विनैव स्यात् दृष्टयाधोजयोः पक्कयोः समा। भुक्तरिव प्रतिकूञानिवर्त्यत्वा-तत्तनुत्वं च नोचितम् । देशनाया अपि यत्नं विना क्वाप्यदर्शनात् । चेष्टाविशेषे यत्नहेतुत्वकल्पनस्य चोभयत्र साम्यात् । ननु प्रयत्नं विना चेष्टामात्र दोपजन्म तनुत्वं च, निदोंपे नोपपद्यते ॥ २५।। न भवत्येव, देशना च जगवतामव्यापूतानामेव ध्वनिमयी सं परोपकारहानिश्च, नियतावसरस्य न । भवति, अकरमय्यामेव तस्यां यत्नजन्यत्वेनेच्छाजन्यत्वादिनि पुरीषादिजुगुप्सा च, निर्मोहस्य न विद्यते ॥ ३६॥ यमावधारणादिति न साम्यम् । यदाह समन्तभड:-"अनात्मा- ततोऽन्येषां जुगुप्सा चेत्, सुरासुरनृपषदि । थै विना रागैः, शास्ता शास्ति सतो हितम् । ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शान्मुरजः किमपेक्षते?"॥ १ ॥ इति, मैवं, शब्दस्य शब्दा नाग्न्येऽपि न कयं तस्या-वर्तमानोऽनुनूयते ॥ २७॥ न्तरपरिणामकरूपनस्य साजात्येन न्याय्यत्वेऽपि ध्वनेस्तत्कस्पन (गुल हानेरनिधृत्वं, वैराग्यान्नाथ वद्यते । स्यातिशयतोऽप्यन्याय्यत्वाद्,जगवद्देशनाया ध्वनिरूपत्वेऽपि वा- इच्छाबन्धं विना नैवं, प्रवृत्तिः सुखदुःखयोः ।। २० ।।) योगापेकत्वेन तादृशशब्दमात्रे पुरुषप्रयत्नानुसरणनौच्यात् । (परमौदारिकं चेति) परमौदारिकं चाङ्गं शरीरं निम्नं चेदीन्यथा अपौरुषेयमागमं' वदतो मीमांसकस्य पुर्जयत्वापत्तरिति न दारिकादिभ्यःक्लप्तशरीरेज्यस्तर्हि तत्र का प्रमा-कि प्रमाणम?, किञ्चिदेतत् । अथ सुहृद्भावेन पृच्छामः-बुद्धिपूर्वकप्रवृत्ताविच्चा न किञ्चिदित्यर्थः । औदारिकादभिन्नं चेत्तत्केवल मतिशयितरूया हेतुत्वात् कथं केवझिनो देशनादावाहारादौ च प्रवृत्तिरिति चे. पाद्युपेतं तदेव तदा भुक्ति विना न तिष्ठति । चिरकालीनौदारित?,सुहृद्भानेन बम-बुद्धिः सल्विष्टसाधनताधीरन्यस्यातिप्रशक्त कशरीरस्थितेभुक्तिप्रयोज्यत्यनियमात् । भुक्तेः सामान्यतः पुसस्वात,तत्पूर्वकत्वं च यदीष्टसाधनताधीजन्यतावच्छेदकं तदाऽप्य विशेषोपचयव्यापारकत्वेनैवोपयोगाद्वनस्पत्यादीनामपि जलाद्यबुद्धिपूर्वकप्रवृत्तीवनयोनिनूताया इव भवोपग्राहिकर्मवशादुप भ्यादानेनैव चिरकालस्थितेः शरीरविशेषस्थितौ विचित्रपुझसो. पत्तेन कश्चिद्दोष इति। प्रवृत्तिसामान्ये तु योगानामेव हेतुत्वादि- पादानस्यापि हेतुत्वेन तं विना केवलिशरीरस्थितेः कथमप्यचापूर्वकत्वमार्थसमाजसिम्मेवायदवदाम-"परदब्बम्मि पवित्ती- संजवात् तत्र परमौदारिकभिन्नत्वस्य कैवल्याकालीनत्वपर्यवण-मोहजणिया व मोहजम्मा वा। जोगकया हु पवित्ती,फलकंखारा- शितस्य विशेषणस्याप्रामाणिकत्वादिति ॥२३॥ (क्त्यादीति) गदोसकया"।१। इत्यधिकमन्यत्र॥१६॥(जुक्त्येति)नुक्त्या कवना. तुक्त्याद्यदृष्टेन भोजनादिफलहेतुजाप्रद्विपाककर्मणा संबन्धं तनो: हारेण वा सातयेद्यस्य सातवेदनीयस्योदीरणा त्वयाऽपाद्यते । शरीरस्य स्थापकमदृष्टम, दृष्टमिति शेषः। तत्यागे केवलिन्यनुपभुक्तिव्यापारण सातोत्पत्तेः साऽपि देशनया सातवेद्यस्यैतामु- गम्यमाने त्वत्पवनक्षणगकसी दृष्टबाधा समुपतिष्ठते । तथा दीरणां तवापि विपेत्, ततोऽपि परिश्रपःखसंजवात् प्रयत्न- च तद्भयादपि तव नेत्थं कल्पना हितावहति भावः ॥२४॥ जन्यत्वस्य तत्र व्यवस्थापितलादिति भावः॥१७॥ सुहद्भावेन ननु तनुस्थापकाइएस्य नुक्त्याद्यदृष्टनियतत्वेऽपि वृक्त्याद्यरसमाधत्ते-(उदीरणास्यमिति)उदीरणास्यं करणं यदान्तरशक्ति- स्य तनुत्वादभुक्त्याधुपपत्तिर्भगवतो भविष्यतीत्यत श्राह-(प्रविशेषलकणं प्रमादव्यङ्गचं वर्तते, तस्य तत्वं स्वरूपमजानानाः | तिकूलेति)तस्य नुक्त्याद्यदृष्टस्य तनुत्वं च नोचितं, प्रतिकूलेस्थूनया धिया बहियोगमात्रव्यापारगोचरया खिद्यसे त्वम् । योग- न विरोधिपरिणामेनानिवय॑त्वात्।न हि वीतरागत्वादिपरिणा. Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलि (ण) अभिधानराजेन्दः । केवलि (ए) मेन रागादीनामिव बुधादानां तथाविधपरिणामेन निवय॑त्व (ए) केवलिपरिझानम्मस्ति, येन ततस्तजनकादृष्टतनुत्वं स्यात् । अस्त्येवाभोजनमा- सप्तहिं नाणेहिं केवनी जाणेजा। तं जहाणो पाणे अवनातारतम्येन कुन्निरोधतारम्यदर्शनादिति चेन्न । ततो भो इवाएत्ता जबइ० जाव जहा वाई तहा कारीया वि जवइ ।। जनादिगतस्य प्रतिबन्धमात्रस्यैव निवृत्तः, शरीरादिगतस्येव शरीरादिभावनया । अन्यथा भोजनभावनाऽत्यन्तोत्कर्षण स्था०७ ठा। शुक्तिनिवृत्तिवदशरीरभावनाऽत्यन्तोत्कर्षेण शरीरनिवृत्ति कथं पुनरसौ केवलितया ज्ञायत इत्याहरपि प्रसज्येतेति महत्सङ्कटमायुप्मतः । ननु सुक्या- केवनिणा वा कहिए, अवंदमापोव केवक्षि अनं । दिविपरीतपरिणामेन नुकत्याद्यदृष्टस्य मोहरूपप्रभूतसामग्री वागरण पुम्बकहिए, देवयपूसामु व सुषंति ॥ विना स्वकार्याकमत्वलकणं तनुत्वमेव क्रियते । तनुस्थापका अन्येन केनापि केवलिना कथिते अथ केवली ज्ञात इत्याण्यादृष्टस्यापि अशरीरभावनया तद्भवबाह्ययोगक्रियां निरुण येव । शरीरं तु प्रागेव निष्पादितं न बाधितुं कमत इत्यस्माकं न ते सति अवन्दमानो वा केवलिनमन्यं केवलितया ज्ञायते व्या करणपूर्व वा अतिशयज्ञानगम्यार्थकथनपरस्सर सेनेव केवकोऽपि दोषः इति चेन्न, विपरीतपरिणामनिवय॑त्वे चुक्त्यादे लिना स्वयमेव कथिते सति दैवतपूजासु वा यथा सन्निहित. स्तदरष्टस्य रागाद्यर्जकादृष्टवद् योगप्रकर्षवति भगवति निर्मूलनाशापत्तविशेषाभावात् । घात्यघातिकृतविशेषाभ्युपगमे तु देवैः क्रियमाणां महिमां दृष्ट्वा गुरुप्रभृतयस्तं केवलिन विदन्ति । अघातिनां भवोपग्राहिणां यथाविपाकोपक्रममेव निवृत्तिसंभ वृ० ३ उ०। वादिति न किञ्चिदेतत् । दोषजन्म भग्निमान्द्यादिदोषजनितं (१०) केवलिनोऽन्तकरझानम्तनुत्वं च चिरकालविच्छेदलक्षणं निर्दोषे भगवति नोपपद्यते। केवग्री भंते ! अंतिकरं वा अंतिमसीरियं वा जाणड. नियतविच्छेदश्च नियतकालभुक्याद्यापेक्वक एवेति भावः । पासह । हंता गोयमा!जाण पासइ । जहाणं ते! केवली ॥ २५ ॥ (परोपकारेति) परोपकारस्य हानिश्च नियतावसरस्य भगवतो न भवति, तृतीययाममुहूर्त्तमात्र पव भगवतोप्नु अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणइ पास, तहा णं क्तेः, शेषमशेषकालमुपकारावसरात् । पुरुषादिजुगुप्सा च नि- छउमत्थे वि अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाण पासइ । मोहस्य क्षीणजुगुप्सामोहनीयकर्मणो न विद्यते भगवतः ॥२६॥ गोयमा ! णो इण समढे, सोच्चा जाणइ पास, पमाणो (तत ति) ततः पुरीषादेरन्येषां लोकानां जुगुप्सा चेत्सुरासु वा। से किं तं सोचा। सोचाणं केवझिस्स वा केवलिसावयस्स रनृपर्षदि, उपविष्टस्यति शेषः । नाम्येऽपि तेषां कथं न जुगुप्सा ? अतिशयचोनयोः पक्कयोः समः । ततो भगवतो नाम्न्या वा केवलिसावियाए वा केवलिउवासगस्स वा केवलिनवादर्शनवरपुरीषाद्यदर्शनस्याप्युपपत्तेः । सामान्य केवलिभिस्तु सियाए वा तप्पक्खियस्स वा तप्पक्खियसावयस्स वा विविक्तदेशे तत्करणान्न दोष इति वदन्ति ॥ २७ ॥ तप्पक्खियसावियाए वा तप्पक्खियनवासगस्स वा तप्पस्वतो हितमिताहाराद, व्याध्युत्पत्तिश्च काऽपि न । क्खिय उवासियाए वा। ततो जगवतो नुक्तौ, पश्यामो नैव वाधकम् ॥ २०॥ यथा केवली जानाति तथा छमस्थो,न जानाति । कथञ्चित्पुनर्जा(स्वत इति) स्वतः पुण्याक्लिप्तनिसर्गतः हितमिताहारा व्या- नात्यपीत्येतदेव दर्शयन्नाह-" सोच्थेत्यादि" (केवलिस्स बत्ति) ध्युत्पत्तिश्च काऽपि न जवति । ततो नगवतो नुक्तौ कवनभोजने केवलिनो जिनस्य अयमन्तकरो भविष्यतीत्यादि वचनं श्रुत्वा जानैव बाधकं पश्यामः, उपन्यस्तानां तेषां निर्दलनात्। अन्येषाम नातीति (केवलिसावयस्सव त्ति)जिनस्य समीपे यः श्रवणार्थी प्येतज्जातीयानामुक्तजातीयतर्केण निर्दलयितुं शक्यत्वादिति । सन् शृणोति तद्वाक्यान्यसौ केवलिश्रावकः, तस्य वचनं श्रुत्वा तत्वार्थिना दिगम्बरमतिभ्रमध्वान्तहरणतरणिरुचिरध्यात्ममत- जानाति, स हि किल जिनसमीपे वाक्यान्तराणि शुधवन परीक्षा निरीक्षणीया सूदमधिया ॥२८॥ द्वा०३०६ारामतः शारे प्रयमन्तकरो भविष्यतीत्यादिकमपि वाक्यं शृणुयात् , ततश्च “विग्गहगश्मावत्रा, कवक्षिणो समुहया अयोगीया। सिकायम- तद्वचनश्रवणाजानातीति । (केयलिउवासगस्स व त्ति) केवत्रिनाहारा,सेसा पाहारगा जीवा"॥१॥ सूत्र०२ श्रु०३ अ०('उवो. नमुपास्ते यः श्रवणानाकाङ्की तपसनामात्रपरः सनसौ केग'शब्दे द्वि० जागे८६० पृष्ठे उपयोगद्वयविचारे चैतत्स्पष्टीकृतम्) वल्युपासकः तस्य वचः श्रुत्वा जानाति। नावना प्रायः प्राग्वत्। (0) उन्मेषनिमेषग (तप्पक्खियस्स व ति ) केवलिपातिकस्य स्वयंबुरूस्येत्यर्थः । इह च श्रुत्वेति पचनेन प्रकीर्णकं वचनमात्रं ज्ञाननिमित्ततया केवली भंते ! नम्मिसेज वा निम्मिसेज्ज वाता| अवसयं, न त्वागमरूपं, तस्य प्रमाणग्रहणेन प्रहीष्यमाणत्वादिगोयमा! नम्मिसेज वा निम्मिसेज वा एवं चेव,एवं आरटेज ति । भ०५श०४ उ०। वा पसारेज वा,एवं ठाणं वा सेजं वाणिसीहियं वा वेएज्जा। तो केवनी पएणता। तं जहा-ओहिनाणकेवली,मण(वाणं ति) छर्द्धस्थानं, निषदनस्थानं, त्वम्बर्तनस्थानं चेति । पन्जवनाणकवली, केवानाणकेवली। (सेज ति) शय्यां घसति (निसीहियं ति) अल्पतरकालिका केवलमेकमनन्तं पूर्ण वा ज्ञानादि येषामस्ति ते केवलिनः। उक्तं वसति (एज्ज सि) कुर्यादिति । भ० १४ श० १० उ० । च-"कसिणं केवलकप्पं, लोगं जाणंति तह य पासंति। केवल(उपयोगद्वययोगपद्यविचार 'वोग' शब्द द्वि० भागे चरित्तनाणी, तम्हा ते केवली होति" ॥१॥ इहापि जिनवद् ८६५ पृष्ठे उक्तः । चतुर्दशपूर्वी केवलज्ञानिना सह 'चउद्दस- व्याख्या । स्था०३ ठा०४ उ०। (केवलिनो यक्षावेशो न भवति पुब्धि' शन्दे वक्ष्यते) इति 'जक्खावेस' शब्दे वक्ष्यते) Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलि (यू) केवल द्मस्थमाधोवधिकं वा ज्ञानातिकेवली जंते ! छनुमत्यं जाइ पासइ ? | हंता जाएइ पास जहा णं नंते! केवली मस्यं जाड़ पास, सहा सजाइ पास है। हंता जाणड़ पास केवली एणं चेत्र । अंते आजारा पास है। एवं चैव एवं परमाहो हियं एवं केवलिं एवं सिद्धे० जाव जहा नंते के एां ! बली सिद्धं नाथ पास वहा णं सिके पि सिद्धं जाइ पास ? | हंता ! जाणइ पास | ( ६५८ ) अभिधानराजेन्द्रः । "केलीत्यादि" इह केवल अवस्थी गृहातेसरत (होडिति) प्रतिनियतावच ज्ञानम् । (परमाहोहियं ति) परमावधिकम् । न०१४ २०१० उ० ॥ केसी णं भंते ! इमं रयणप्पनं पुढत्रिं रयणप्पन पुढत्रीति जाड़ पास ? | हंता गोयमा ! जाणइ पासड़ । जहा भंते! केवल । इमं रयणप्पनं पुढविं रयणप्पभपुढवित्ति जाड़ पास, तहानं सिके वि इमं श्यणप्पभं पुर्व रप भटनीति जाण पास है। हंता ! जाणइ पास केली भंते! सरप पुर्वि सकरप्यभपुढचीत जाएइ पा सह एवं चैव एवं० नाव आहे सत्तमं । केवली गां भंते! सोहम्मं कप्पं सोहम्मप्पेति जाणइ पासइ ? | एवं चेत्र, एवं ईसा एवं प्रकेवल विजगत्रिमार्थ विजगदिमा ति जाणइ पासइ ?। एवं चेव, एवं अत्तर विकेवल ईसप्पार इसिप्पारा पुढवीत जाणइ पास ?। एवं चैत्र । केवली णं जंते ! परमापोगलं परमापोग्गलेति जाइ पास है। एवं चेत्र एवं पदेसियं खं एवं नाव जहा णं भंते! केसी अतदेसिए खंधेति जाएइ पास तहा णं सिद्धे वित पदेस ० जाव पास ? हंता ! जागड़ पासड़। सेवं जंते भंते ति | भ० १४ श० १० उ० । उप्परनागदंसणधरे अरहा जिसे केवली नावे जागा पास, धम्मत्थिकार्य० जाव परमाणुपोग्गनं । स्था० ए ठा० ३० । (११) परमकर्म केवली णं भंते ! चमका परिमाण वा जाइ पास ? | हंता गोयमा ! जाएइ पासइ । जहा णं भंते ! केवली चरिमकम्मं वा जहा णं अंतकरणं आलावगो तहा चरिमकम्मे वि अपरिसेसियो यव्वो । AL केवल इत्यादि चरममे ले चरम समयेऽनुभूयते, चरमनिर्जरा तु यत्ततोऽनन्तरसमये जीवप्रदेशेयः परिशदतीति । भ० श० ४ उ० । ( परीषहसहनहेतुः 'परीसह ' शब्दे वदयते ) " (१२) भाषणम् केवली भंते! जासेज्ज वा वागरेज्ज वा ? । हंता जासेज्ज वा वागरेज्जवा । जहा एंं भंते! केवली जासेज्ज वा बाग केबल (ण्) रेन्ज वा तहा णं सिके व जासेज वा वागरेन वा । इट्ठे सम | सेकेणट्टेां भंते ! एवं वच्च जहा केवली नासेज्जना गरेज्न या णो तहाणं सिके भा सेज्ज वा वागरेज्ज वा ।। गोयमा ! केवली णं सनट्टाणे सकम्मे सबले सीरिए सपुरिसकारपरकने सिके - णं गुडा० जाव अपुरिसकारपरकमे से तेरा नाव णो वागरेज वा ॥ ( भासेज ति ) जाषेताऽपृष्ट एव [ वागरेज्ज ति ] पृष्टः सन् व्याकुर्यात् । भ० १४० १० उ० । (१३) मनोवाभ्योगः केवली णं ते! पणीयं मणं वा वरं वा धारेज्जा ? | हंता धारेज्जा । जहां जंते ! केवली पणीयं मणं वा वई वा धारेज्जा तं णं वैमाणिया देवा जाति पासति । गोषमा ! प्रत्येगइया जाणंति पासंति; प्रत्येगइया जाांति ण पासंति । से लट्ठे जाव ण पासंति ।। गोयमा ! वेमाणिया देवा दुविहा पत्ता । तं जहा- माइमिच्छादिडिउववगा य अमाविसम्म उनका य तस्यां ने ते मा दिमाग से न जाणंति न पासंति, एवं अतरपरंपरपज्जत्तापज्जत्ता य, जवउत्ता अवउत्ता, तत्थ णं जे ते उवत्ता ते जाणंति पासंति, से तेलट्टेणं तं चेत्र । ( पणीयत्ति ) प्रणीतं शुजतया प्रकृष्टं ( धारेज्जत्ति ) धार बे व्यापारयेदित्यर्थः एवं अतरेत्यादि । श्रस्यायमर्थःयथा वैमानिका द्विविधा उता मायिमिथ्यादृष्टीनां च ज्ञाननिये माथिसम्यग्योऽनन्तरोपपत्रपरम्परोपकडेन द्विधा वाच्याः अनन्तरोपपन्नकानां च ज्ञाननिषेधस्तथा परम्परोपपत्रकाः पर्याप्ता पर्याप्तकभेदेन द्विधा वाच्याः । अपर्याप्तकानां च निषेधस्तपसका उपयुक्त नुपयुक्तमेदेन द्विधा चायाः अनुपयुक्तानां च ज्ञाननिषेधश्चेति । वाचनान्तरे त्विदं सूत्रं साक्षादेवोपलभ्यत इति । भ०५ श०४ उ० । चतुर्विकलस्य केवलज्ञानमुत्पद्यते न वेति प्रश्ने ? उत्तरम् - उत्पद्यत इति । १८६ प्र०सेन० २. उल्ला० । ( श्रमनस्कस्यापि केवलिनो ध्यानं 'झाण' शब्दे वक्ते) (केवलिनः समुद्वातः 'केवलिसमुग्धाय' शब्देऽनुपदमेव वक्ष्यते ) केवलिनः पट्टधरा भवन्ति न वेति प्रश्ने, उत्तरम् - “निर्वाणसमपूर्ण वर्षशतायुक सुधर्मास्वामिनाऽस्थापि, जम्बूस्वामी गणाधिपः ॥ ५६ ॥ सध्यमानस्तत जम्बूस्वाम्यपि केवलम् । आसाद्य सदयो व्य-भविकान् प्रत्यबूबुधत् ॥ ६० वीरमदिवसानि पत्र पनि व्यक्ति जम्मूः । कात्यायनं प्रजवमात्मपदे निवेश्य, कर्मकये पदमव्ययमाससाद" ॥ ६१ ॥ 1 इति परिशिष्टपर्वणि चतुर्थ सर्गप्रान्तवन्त्रनानुसारेण केवलिनः पचरा जयन्तति प्रयतइति सेन०२ पन्यासचन्द्रविजयगतितराणि यथार्थकस्य सामान्य केवलिनो वा वीर्यान्तरायः सदृगेव तयं गतस्तत्कथं सा Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवल (ए) मध्ये न्यूनाधिक दृश्यत इति प्र, उत्तरम सामान्यकेनिां च वीर्यान्तरायकर्मक्कयजनित्यस्यात्मवीर्यस्य समानाऽपि नामकर्मभेदरूपाया होपकरणमेदाइले भेदो व सामान्य केवल यस्तकररमनन्तबल वरजणे, तुला भीत २६१०० ३३ ला० । केवलिनां कति परीषहा जवन्तीति प्रश्ने ? उत्तरम् - केवलिनां क्षुधा १ तृषा २ शीतोष्ण ३-४ इंस ५ चर्या ६ शय्यारोप १०११कादश परीच केवलिसद्धि-केपलिनी केला केला ६ हा भवन्तीति भगवत्यष्टमशतफनवमोदेश के शति प्र० सेन० ३ उल्ला० । - (६) अभिधानराजेन्द्रः । णं के सिगासपएस केल्याकाशप्रदेश-पुं० " केवली भंते! अस्ति समयंसि जेसु आगासपदेसेसु इत्थं वा पायं वा ओगादिसाहित्यालापकेऽपि नगवा द्वितीयाध्ययनप्रथम देश के पाठभेदोऽस्ति सोऽपि कथं घटते इति प्रश्ने उत्तर युकमस्ति न कं भगवत्यामिति, तेनायं पाठो ग्रन्थान्तरगतः संभाव्यते । अथवा आचाराङ्गवृत्तिकारकालवर्ति भगवत्यादर्शेष्ययं पाठो दृष्टः संभाव्यत शंत । १२ प्र० सेन० २ उल्ला० । केवलवास केवल्युपासक पुं० [केवलिनमुपास्ते या व खानाकाङ्क्षी तडुपासनामात्रपरः सन्नसौ केवल्युपासकः । भ० श० ४ ८० । केवलिन उपासनां विदधानेन केवलिनैवान्यस्य कथ्यमानं श्रुतं येनासी केवल्युपासकः । केवलिन उपासनामा विदधाने, अन्यं प्रति उपदिशतः केवसिनः श्रावके च । भ० ६ श० ३१ उ० । लिखी कसायवीयरागदंसण- केव लिकीणकषायवीतरागदर्शन - न० | क्षीणकषायवीतरागदर्शनभेदे, प्रज्ञा० १ पद । केपिक्खिय- केवनिपाक्षिक- पुं० । स्वयम्बुद्धे, भ० ए श० ३१ ३० । केवलपन्नत्त - केवलिप्रज्ञप्त त्रि० । सर्वोपदिष्टे, पा० । केवलिपन्नत्तो धम्मो जावज्जीवं मे जगवं सरणं । केवलिप्रकृतः केवलिमरूपितो धर्मः श्रुतादिरूपः ००१ सूत्र | श्र० चू० । श्राव० । 1 म्हे णं देवाशुप्पिए ! णं तववचितं केवलिपण धम्मं परिक हेमो | केय लिमसमंध "जीवयास पचपरिच णं सुसी च । खंत पंचिदिग्रऽभि -ग्गहो य धम्मस्स मूलाइं" ॥ १ ॥ नि० ३ वर्ग । केवलिपरियाय- केरपि ० ०म० द्वि० । के सिमरण- केवसिमरणान० उत्पन्न केवलज्ञानस्य सकलकपरिशानतो प्रियमाणस्य मरणे, प्र० १५७ द्वार "केवलिमरणं तु केवणिणो" उत्त० नि० २ खाएक। केवलिमरणं तु ये केवलिन उत्पन्न केवलज्ञानाः सकलकर्मपुन्नपरिशानतो प्रियन्ते तज्ज्ञेयमिति । उत्त० ५ अ० । केलिय- कैलिक - त्रि० । केवलमेव केवलिकम् । श्राव०४ श्र० । अद्वितीयमानापरत्यर्थः इसमेव शिम पाक्य स भगुत्तरं केलियं पनिं ०३० 33 केवल मुग्धाय केवलिन केलिकम केवलिना कथिते सूत्र०१० १४ अ० । झा० । "तं सोयकारी पुढो पवेसे, संखाश्मं केवलियं समाहिं" सूत्र ० १ श्रु० १४ अ० शा ० | केवलिसंबन्धिनि च । स्था० ४ ठा०२३० ॥ केपणान केवलिङ्गानलाभ-पुं० केवलानोपल धौ, श्रा० म० प्र० । श्राव० | | पे लब्धि, प्रव० २७० द्वार । केवलसमुग्धाय केवलिसमुद्धात पुं० । केवलिम्यन्तर्मुहूर्तनाविषरमपदे जवः समुद्धातः केवलिमुद्धातः । पं० सं० २ द्वार । जनसमु अशेष केवलि समुद्धात वक्तव्यता । संप्रति केवलिसमुद्रात विधौ यथास्त्ररूपैर्यावत्प्रमाणस्य क्षेत्रस्यापूरणमुपजायते तथास्वरूपैः पुस्तकप्रमाणस्य क्षेत्रस्वामभिधित्सुराह अणगारस्सां जंते! नावियप्पणी केवलसमुम्याएणं समोयस्स ने चरिमा निजरा पोम्गला सुमाते पोग्गला सव्वजोगं पि य ां जंते ! फुसित्ता णं चिट्ठति । हंता गोयमा ! अणगारस्स भावियप्पणो केवली समुग्धाएवं समोदयस्य के परिमा निचरा पोग्गला गुरुमा ते पोला पत्ता समाउसो ! सव्वलोगं पि य णं फुसित्ताणं चिति । इद समुद्वातः केवलिनो भवति, न उद्मस्थस्य । केवली च निश्चयजयमंत नानगारो न गृहस्थीमाथि पाखण्डी, स च नियमाद भावतारमा विशिष्ट शुभाध्ययला नकलित्यात अन्य केलित्वानुपपत्तेः, तत उक्तमनगारस्य जावितात्मनः । इह केवलिसमुद्वातेनोकस्वरूपेण समवहतस्य ये चरमाश्चरमसमयञ्चाविन इत्यर्थः । तैरेव सकललोकापूरणात्। (निर्जराः पुयाइति) निर्जरा निर्जीणा इत्यर्थः । ते च ते पुरुलाश्चेति विशेषणसमासः । किमुक्तं प्रति-ये ठोकापुरणसमर्थ पुला आत्मप्रदेभ्यो विशिष्टः प रित्यक्तकर्मत्वपरिणामा इति (सुहुमाणं जंते! पुग्गला) आत्मप्रदेशेभ्यो विशिष्टा परित्यकर्मपरिणामा इति (माणं ते! पुग्गा इति णमिति निश्चचे सूक्ष्माद्रियपथमति कान्तास्ते] पुलाः प्रज्ञप्त भगवद्भिः हे भ्रमण हे गौतम कृतं भगवतः सम्बोधनमेतत् । तथा ( समिति) निश्चितमेतत् सर्वकमपि ते पुलाः स्पृष्ट्वा समिति वाक्यालङ्कारेगमेन प्रश्ने कृते भगवानाह " हन्ता गोयमा !" इत्यादि । हन्तेति प्रीतौ । यदाह शाकटायन:-' इन्तेति' संप्रदानं प्रीतिश्चात्र यथावस्थितस्वरूपप्रतिपादकत्वात् प्रश्नसूत्रस्य सामान्यलक्षणा वेदितुरूपा मोत्येन जगता त्यात सामान्यमेव व्यापति गीतमेन तदनुवदति"अणगारस्येत्यादि" भावितायुक्त तथा त्वमपि भवति यथा वदरादीनामामलकाद्यपेक्षया वा ततश्चरायगतिरूपः। तस्मादविदिमादबस्थे णं जेते माणूसे सेसि निम्नरापोग्गलाणं पन्ने बन्नं गंधेणं गंधं रसेणं रसं फासेणं वा फासं जाणइ, पास? | गोमा ! यो पट्ठे समट्ठे । से केलट्टे णं जंते ! एवं Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलिसमुग्धाय अभिधानराजेन्द्रः। केवलिसमुग्धाय तुच्च-छउमत्थे णं माणुस्से तेसि निज्जरापोग्गलाणं नो किं व्यवस्थिताः,ततो भवति द्वीपसमुडाणां च जम्बूद्वीपोऽज्यन्तरः। चि वि वन्नेणं वन्नं गंधेणं गंधं रसेणं रसं फासेणं फासं तथा ( सब्वखुट्टागे इति) सर्वेन्यो दीपसमुन्यः कृतको इस्वः सर्वक्षुल्लक इति। तथाहि-सर्वेबवणादयः समुखाः सर्वे च जाणइ पासइ । गोयमा ! अयन्नं जंबुद्दीवे दीवे सबदी धातकीखण्डादयो द्वीपाः, अस्माज्जम्बूद्वीपादारज्य प्रवचनोक्तेन वसमुदाणं सव्वगंतरए सव्वखुड्याए बट्टे तेहा पूयसंग- क्रमेण द्विगुणचक्रवालचिन्तना; ततः शेषद्वीपसमुडापेक्कया संविए बट्टे रहचकवालसंगणसंविए चट्टे पुक्खरकएिण- सर्वलघुरिति । तथा वृत्तो वर्तुलो यतस्तैनापूपसंस्थानसंस्थितः तैसेन हि पक्कोऽपूपः प्रायः परिपूर्णवृत्तो नवति न घृतपक्व इति यासंगणसंगिए बट्टे पमिपुरमचंदसंगणसंठिए चेव एगं तैलविशषणं,तस्यव संस्थानसंस्थितस्तथा वृत्तो जम्बूद्वीपो यतो जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंनेणं तिनि जोयणसयस रथचक्रवालसंस्थानसंस्थितः रथस्य रथाङ्गस्य चक्रवालं मएमहस्साईसोलससहस्साई दोएिण सत्तावीसे जोयणसए ति- लं तस्येव यत् संस्थानं तेन संस्थितः। एवमुक्तमपि पदद्वयं नानि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई अर्क- वनीयम (आयामविक्खभेणं ति) आयामश्च विष्कम्भकश्चेति सगुलं च किंचि विसेमाहिए परिक्खेवेणं पप्पत्ते देवेणं मह- मादारो द्वन्द्वः। तेन आयामेन विष्कम्नेण च प्रत्येकमेकं योजनश तसहस्रमित्यर्थः। परिधिपरिमाणानयनगणितं च जम्बूद्वीपप्रज्ञा लिए जाव महासोक्खे एगं महं सविनेवणं गंधसमुग्गयं पत्यादावनेकशी भावितमिति ततोऽवधार्यम्। "देवे मित्यादि" गहाय तं अबदालेइ, तं महं एगं सविलेवणं गंधसमुग्गयं देवश्च, णमिति वाक्यालङ्कारे । (महकिए इति) महती ऋमिअवद्दालत्ता इणमेव णं तिकडु केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विमानपरिवारादिका यस्याऽसौ महम्किः । (जाव महासोक्ने तिहि अच्छराणि वा तेहिं सत्तावत्तो प्रणुपरियट्टित्ताणं हब्ब- शति)यावच्छब्दकरणात् "महज्जुईए इति महाबल महाजसे" मागच्छेजा। से नूणं गोयमा !से केवलकप्पे जंबुद्दीवे दी इति अष्टव्यम् । तत्र महती द्युतिः शरीराभरणविषया यस्य सः सहाद्युतिः, महदनं शारीरप्राणो यस्य स महाबलः, महत् यशः वे तेहिं घाणपुग्गलोहिं फु। हन्ता फुझे। उनमत्थे णं गो स्पातिर्यस्य सःमहायशाः, तथा महत प्रभूतं सौख्यं यस्य प्रभू. यमा ! मणूसे तेसिं घाणपोग्गलाणं किंचि वएणणं वएणं तसद्वेद्यकर्मोदयनावादिति । महासौग्यः। कचित् “महेसक्खे" गंधेणं गंधं रसणं रसं फासेणं फासं जाण पास। ज- इति पाठः, तत्र महान ईशः ईश्वरः श्त्याच्या शब्दप्रथा यस्य गवं ! णो णडे समढे । से केण्डेणं गोयमा ! एवं वुच्च लोके स महेशाख्यः। अथवा ईशानमीशो जावे घप्रत्ययः,ऐश्व यमित्यर्थः , ' ईश'ऐश्वर्य इति वचनात् । तत ईशमैश्वर्यमाछ उपत्येणं मस्से तेसिं निज्जरापोग्गमाणं नो किंचि स्मनः ख्यातिम् । अन्तर्भूतण्यर्थतया ख्यापयति प्रकाशयति । तथा बन्नेणं वएणं गंधेगं गंधं रमेणं रसं फासेणं फासं जा- परिवारादिस्फीत्या वर्तत इति ईशाख्यः महांश्वासावाशाख्यणइ पास। जे सुहमा णं ते पोग्गला पन्नता समणानसो!| श्व महेशाख्यः । अन्यत्र महासक्खे ति ' पाठः, तत्रैवं सबसोगं पि य ण फुसित्ता णं चिट्ठति ॥ वृकव्याख्या-पाशुगमनादश्वं मनः, अक्वाणि इन्द्रियाणि,स्वस्व(छउमत्थे रणमित्यादि) ग्नस्थो भदन्त! मनुष्यः,तेषामनन्तरो. विषयव्यापकत्वात् । अक्षशब्दो हि प्रायेण 'असूक' व्याप्ताविहिष्टानां निर्जरापुमलानां किञ्चिदिति प्रथमतः सामान्येन प्रयुक्तं त्यस्य धातोर्निपाधते,अश्वश्च अक्वाणि च अश्वावाणि,महान्ति जानाति पश्यतीति संबध्यते । एतदेव विशेषतो व्याचष्टे-वर्णेन स्फीतिमन्दि अश्वावाणि यस्याऽसौ महाश्वाक, स्फीतमनाः, वर्णग्राहकेण चक्षुरिन्छियण वार्यते यथास्थितं वस्तुस्वरूपं नि स्फूर्तिमश्चकुरादीन्द्रियश्चेत्यर्थः । एकं महान्तमति च गुरुकमगीयतेऽनेनेति वर्ण इति व्युत्पत्तेः वर्ण कृष्णादिरूपम्। गन्धनं गन्ध न्यथा स्तोक तथा ततर्गन्धपुनः सकलस्य जम्बूद्वीपस्य प्राहकेण नासिकेन्द्रियेण 'गन्ध' श्राघाणे, चरादिज्यो णिच, ग व्याप्तमशक्यत्वात् । ( सविलेवणमिति) सह विशिष्टमतिसूभयत आघ्रायते शुजोऽशुभो वा गन्धोऽनेनेति गन्ध इति प्यु- क्ष्मरन्ध्राणामपि स्थगनात् लेपन सेपो जत्वादिकृतं पिधानोपत्पादनात् गन्धं शुभाशुभं वा ।रसेन रसग्राहकेण रसनेन्द्रियेण रिवर्तते येन स तथा तम्। विशिष्टलेपप्रदानानावे हि बहवःसुरस्यते आस्वायतेऽनेनेति शब्दार्थत्वात रसं तिक्तादिरूपम् ।स्पर्शन क्ष्मरन्धैर्गन्धपुमला निर्गच्छन्ति,तत उद्घाटनवेलायां तेषां स्तोस्पर्शग्राहकेण स्पर्शनेन्द्रियेण स्पृश्यतेऽनेनेति कर्कशादिरूपः | कीभावेन सकलजम्बूद्वीपापूरणं नोपपद्यते । (गंधसमुम्गयं ति) परिच्छेद्यवस्तुगतः स्पर्श ति व्युत्पादनातू स्पर्श कर्कशादि- गन्धयरतिविशिष्टः परिपूर्णभृतः समुद्को गन्धसमुद्रकरूपं जानाति पश्यतीति । भगवानाह-गौतम ! नायमर्थ स्तम् । (अवदाले इति ) अवदवयति, उत्पाटयतीत्यर्थः। (क्षणउपपन्न इत्यर्थः । पुनर्गौतमः प्रश्नयति-" से कट्रेणं भंते !" मेवेति) एवमेवेत्यर्थः । (केवलकप्पं ति) केवलं केवलज्ञानं तत्कइत्यादि उत्तानार्थम् । भगवानाह-गौतम! "अयराणमित्यादि" | ल्पं परिपूर्णतया तत्सदृशं, परिपूर्णमित्यर्थः। जम्बूद्वीपं त्रिभिरअयं प्रत्यक्कत उपलभ्यमानो, णमिति वाक्यालङ्कारे, अष्टयोज- प्सरोनिपातो नाम चप्पुटिका,ततस्तिसृभिश्चप्पुटिकानिरिति द्रनोठूितया रत्नमय्या जम्घा उपलक्वितो द्वीपो जम्बूद्वीपः,द्वीपस- एव्यम्। चप्पुटिकाइच कालोपनक्कणम्। ततोऽयमर्थः-यावत्का लेन मुडाणां सर्वाभ्यन्तरक इति सर्वेषामभ्यन्तरो मध्यवर्ती सर्वा- तिम्रश्चप्पुटिकाः पूर्यन्ते तावत्कालमध्ये इति त्रिःसप्तकत्वः भ्यन्तर, सर्वाच्यन्तर एव सर्वात्यन्तरकः, · जाती वा एकविंशतिवारान् अतिपरिवर्त्य सामस्त्येन परिभ्रम्य (हवं) स्वार्थ कः' (स्वार्थे कश्च वा)।। २। १६४ ॥ इति शीघमागच्छत् । " से नूणमित्यादि" ‘से ' शब्दो मगधदेप्राकृत लक्षणवशात स्वार्थे का प्रत्ययः । केषां सर्वेषामन्यन्तर शप्रसिद्ध्या अथशब्दार्थः । अथशब्दस्य चार्थो वाक्योपन्याइत्याह-सर्वद्वीपसमुषाणां, तथाहि-सर्वे शेषा द्वीपसमुझा सादयः। उक्तंच-"अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलाधिकारवाक्योजम्बूद्वीपादारभ्याऽऽगमानिहितेन क्रमेण द्विगुणद्विगुणविस्तारा पन्यासेषु" अत्राथ वाक्योपन्यासे। तद्भावना चैवम् । उक्तस्तावत् मानिटति ॥ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलिसमुग्धाय अभिधानराजेन्द्रः। केवलिसमग्धाय विवक्षितार्थप्रतिपत्तिहेतोदृष्टान्तस्य पीठिकाबन्धः। संप्रति विव- सह करोति स एवं खलु केवली बन्धनैः स्थितिभिश्च विषमतितार्थप्रतिपत्तिहेतुदृष्टान्तवाक्यमुपन्यस्यते-नूनं निश्चितं गौ- स्य सतो वेदनीयादिकस्य कर्मणः (समीकरणयाए इति) अत्र तम! स केवलकल्पो जम्बूद्वीपस्तैर्गन्धसमुद्गका घिनिर्गतैर्घा- ताप्रत्ययः स्वार्थिकः । ततोऽयमर्थः-समीकरणाय (समोहन णपुद्रबैः स्पृष्टो व्याप्तः। काक्का चेदं सूत्रमभिधीयते, ततः प्रश्नोs- त्ति) समवहन्ति । समुद्घाताय प्रयतन्त एवं खमु समुद्धातं वगम्यते। अथवा प्रश्नार्यः सशब्दः। ततोऽञ्जसे प्रश्नयतीति गौ- गच्छति। उक्तश्च-श्रायुषि समाप्यमाने शेषाणां कर्मणां यदि सतमाह-हन्त ! स्पृष्टो, गन्धपुद्गलानां सर्वतोऽनिसर्पणशीलत्वा- माप्तिन स्यात, स्थितिवैषम्यागच्छति । स ततः समुद्वातं स्थित् । पुनरपि जगवानाह-"उमत्थे णमित्यादि" सुगमम् । पष त्या च बन्धनेन च समीक्रियार्थ हि कर्मणां तेषामन्तर्मुहूर्तशेषे चात्र भावार्थ:-यथा ते सकलजम्बूद्वीपव्यापिनो गन्धपुद्गलाः | तदायुः समुजिघांसति स न तु प्रचूतस्थितिकस्य वेदनीयादेसूक्ष्मत्वान्न व्यस्थानां चक्षुरादीन्द्रियगम्याः, तथा सकलस्रो- रायुषा सह समीकरणाथै समुद्धातमारजते इति । यमुक्तम्कव्यापिनो निर्जरापुद्गला अपोति । उपसंहारमाह-( एसुहुमा तन्नोपपन्नं, कृतनाशादिदोषप्रसङ्गात् । तथाहि-प्रनूतकालोण ते)पतावत्सूदमाः। पभोगस्य वेदनीयादेरारत एवापगमसम्भवात् कृतनाशः वेदअथ यनिमित्तं केवसी समुद्धातमारभते तत् पिपृच्छिषुरिदं प्र- नीयादिवञ्च कृतस्यापि कर्मवयस्य पुनर्नाशसम्भवान्मोतेइनसूत्रमाह ऽप्यनास्थाप्रसङ्गः । तदसत् । कृतनाशादिदोषप्रसवात् । तथाहिकम्हा णं नंते ! केवली समुग्घायं गच्चइ ? । गो- इह यथा प्रतिदिवसं सेतिकापरिजोगेन वर्षशतोपभोग्यस्य कयमा ! केवनिस्स चत्तारि कम्मस्स अंता अक्खीणा लिपतस्याहारकस्य भस्मकन्याधिना तत्सामर्थ्यारत्तोकदिवसअवेदिता अनिजिन्ना भवंति । तं जहा-वेदणिजे यानए निःशेषतः परिजोगान कृतनाशोपमः, तथा कर्मणोऽपि वेदनीनामे गोत्ते सव्यवहुए, से वेदणिज्जे कम्मे हवइ, सव्वत्थोवे, यादेः तथाविधशुनाध्यवसायानुबन्धाऽपक्रमेण साकल्यतो नोसे आउए कम्मे हवइ, विसमं समं करेइ बंधणेहिं विई गान्न कृतनाशरूपदोपप्रसङ्गः। द्विविधोहि कर्मणोऽनुभवः-प्रदे शतो विपाकतश्च। तत्र प्रदेशतः सकलमपि कर्मानुनूयते न तदि य विसमसमीकरणयाए वंधणेहिं लिईहिं, एवं खलु के दस्ति, किञ्चित्कर्म यत्प्रदेशतोऽप्यनुजूतं सत् क्यमुपयाति, ततः वली समोहम्मइ एवं खलु समुग्घायं गच्छ । सव्वे वि कथं कृतनाशदोषापत्तिाविपाकतस्तु किञ्चिन्न,अन्यथा मोवानाएं नंते ! केवली समोहम्मद, सव्वे वि णं नंते ! केवली स- वप्रसङ्गात्। तथाहि-यदि विपाकानुभूतित एव सर्व कर्म कपणीयमुग्घायं गच्छति । गोयमा नो इणट्टे समढे । “जस्साउ पुण मिति नियमस्तासङ्ख्यातेषु भवेषु तथाविधविचित्राध्यवसायतुझाइ,बंधणेहि लिईहि य॥नवोवग्गहकम्माई,समुग्यातं(से) विशेषैर्यन्नरकगत्यादिकं कर्मोपार्जितम, तस्मान्नैकस्मिन् मनु प्यादावेव नवेऽनुजवः, स्वस्वनिबन्धनत्वात्तद्विपाकानुभवस्य कन गच्छ॥१॥ अणंताणं समुग्घायं, अणंता केवली मेण च स्वनवानुगमनेन वेदने नारकादिभवेषु चारित्राभावेन जिणा । जरामरणविप्पमुक्का, सिकिं वरगति गया" || प्रभूततरकर्मसन्तानोपचयात्तस्यापि स्वभवानुगमनेनानुन्नवोप "कम्हा णमित्यादि " कस्मात्कारणात्, णमिति वाक्याल- गमात् कुतो मोक्षः। तस्मात्सर्व कर्म विपाकतो भाव्यप्रदेशतोऽवकारे । नदन्त ! केवली केवलज्ञानोपेतः समुद्धातं गम्त्यारजते, श्यमनुभवनीयमिति प्रतिपत्तव्यम्,एवञ्चन कश्चिद्दोषः। नन्वेवमपि कृतकृत्यत्वात्किल तस्येति भावः। भगवानाह-" गोयमेत्यादि" दीर्घकालभोग्यतया तद्वेदनीयादिकं कर्मोपचितम् । अथ च परि गौतम ! केवलिनश्चत्वारः कर्माशाः कर्मभेदा अक्कीणाः क्षयम- णामविशेषादुपक्रमेणारादेव तदनुभवति,ततः कथं न कृतनाशदोनुपगता। कुत श्त्याह-अवेदिताः,अत्र "निमित्तकारणहेतुषु स. पापत्तिः। तदप्यसम्यक् । बन्धकाले तथाविधाभ्यवसायवशादार्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनम्" इति न्यायात हेती प्रथमा। त- दावपक्रमयोग्यस्यैव तेन बन्धात्। अपिच-जिनवचनप्रामाण्यादपि तोऽयमर्थः-यतो वेदिताः ततोऽक्कीणकर्मणां हि वयो नियमतः वेदनीयादिकर्मणामुपक्रमो मन्तव्यः। यदाह भाष्यकृत्-'उदयक्खप्रदेशतो विपाकतो वा वेदनाङ्गवति, "सव्वं च पएसतया, नु- योवसमो, व समाजं च कम्मुणो भणिया । दब्बाह पंचमं परज कम्ममणुभावतो भइयं" इत्यादि वचनात् । ते चत्वारो- जुत्तमवक्कमेण मत्तो वि' ॥१॥न चैवं मोक्कोपक्रमः हेतुःकश्चिद. ऽपि कर्माशा अवेदिता अतोऽवीणापतदेव पर्यायेण व्याचष्टे- स्ति तथाविधोऽन्तिमसूत्रे नावयिष्यते। ततो यदुक्तं वेदनीयादिअनिर्जीर्णाः सामस्त्येनात्मप्रदेशेज्यो परिशारिता नवन्ति तिष्ठ- वश्च कृतस्यापि कर्मवय इत्यादि, न तत्सम्यगुपपन्नमिति स्थिन्ति। तानेव नामग्राहमभिधित्सुराह-"तं जहा"इत्यादि सुगमम् । तम् । अपर पाह-ननु यदा वेदनीयादिकमतिप्रभूतं सर्वस्तोकं तत्र यदा (से) तस्य केवलिनः सर्वबहुप्रदेशं वेदनीयम,उपलक- वाऽऽयुस्तदा समधिकवेदनीयादेः सोपक्रमत्वात, यदा समधिणमेतत्-नामगोत्रे च । तथा सर्वस्तोक प्रदेशमायुःकर्म तदा। (स- कमायुः सर्वस्तोकं तदा का वाता?। न खल्वायुषः समधिकस्य सबंधणेहि गिहि य सि)बध्यते भवचारकात विनिर्गच्छन् प्रति- मुद्धाताय समुद्धातः कल्पते,चरमशरीरिणामायुषो निरुपक्रमत्वाबध्यते यैस्ते बन्धनाः। “करणाधारे" ॥५।३।१२६॥ इति(हैम.) त्, चरमशरीराय "निरुवकमा” इति वचनात् । तदयुक्तम् । एवंकरणे अनट्प्रत्ययः । अथ वा बध्यन्ते श्रात्मप्रदेशैः सह लो. विधभावस्य कदाप्यभावात्। तथाहि-सर्वदैव वेदनीयायेवायुषः लीभावेन संश्लिष्टाः क्रियन्ते योगवशात् ये ते बन्धनाः "बहु- सकाशादधिकस्थितिकं भवति,न तुकदाचिदपि वेदनीयादेरायुः। लम" ॥ ५॥२॥२॥ कृत् इति (हैम०) वचनात् कर्मणि अनट् । अथैवंविधो नियमः कुतोसत्यते। उच्यते-परिणामस्वाभाज्याउन्नयत्रापि कर्मपरमाणवो वाच्याः स्थितयो वेदनाकालाः। तथा त्। तथाहि-इत्थंजूत एवात्मनः परिणामो येनास्यायुर्वेदनीयादेः चोक्तं भाष्यकृता-"विसमं करे समं,बंधणेहि ठिईहि य। कम्म- सनवति,न्यूने वा,न तु कदाचनाऽप्यधिक, यथैतस्यैवायुषःखमु दवा बन्धणे,विय कालोवई तसि"॥ ततश्च तैर्षन्धनैः स्थिति- ध्रुवबन्धः । तथाहि-शानावरणीयादीनि कर्माणि आयुर्वयोनि भिभ विषमं सवेदनीयादिकं समुदातविधिना समयायुषा । सप्तापि सदैव बध्यन्ते, पायुस्तु प्रतिनियत एव काले स्वभषत्रि Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवसिसमुग्धाय अभिधानराजेन्द्रः। केवलिसमुग्धाय भागादिशेषरूपे, तत्र चैवंविधवैचित्र्यनियमनं स्वभावारते परः | साहरइ, सत्तमे समए कवाडं पमिसाहरइ,अट्ठमे समए दंग कश्चिदस्ति हेतुरेवमिहापिस्वभावविशेष एव नियामको फष्टव्यः। पमिसाहर, पडिसाहरित्ता ततो पच्छा सरीरत्थे हवः । माह च भाष्यकृत-" भसमठिईणं नियमो, को थोवं पानयंत सेवंति। परिणाममहावामो, भद्धवबंधा वि तस्सेव ॥१॥" अथ से एं जंते ! तहा समुग्घायगए किं मणजोगं जुंजइ वइजोविशेषपरिझानाय गौतमो भगवन्तं पृच्छति-(सव्वे वि णमित्या गं जुजइ कायजोगं जुंज । गोयमा! नो मणजोगं जुजइ, दि) णमिति निश्चये। सर्वेऽपि बलु केवलिनः समवघ्नन्ति स- नो वइजोगं जुंजा, गोयमा ! कायजोगं जुजइ । कायमुद्धाताय प्रयतन्ते, प्रयत्नानन्तरं च सर्वेऽपि खयु केवलिनः समु. जोगेणं भंते ! जुजमाणे किं उरालियसरीरकायजोगं जुदातं गच्छन्ति। गौतमेन प्रश्ने कृते भगवाग्निर्वचनमाह-(गोयम जति उरानियमीससरीरकायजोगं मुंजइ, किं वेनबियत्यादि ) गौतम! नायमर्थः समर्थः, उपपन्नः। किमुक्तं भवति?सर्वेऽपि केवलिनःसमुदाताय प्रयतन्ते नापि समुद्घातं गच्चन्ति, सरीरकायजोगं जुंज वेनबियमीससरीरकायजोगं जुंजइ,किं किं तु येषामायुषः समधिकं वेदनीयादिकं, यस्य पुनः स्वभावत आहारगसरीरकायनोगं जुजइ आहारगमीससरीरकायजोगं एवायुषा सह समस्थितिकानि वेदनीयादीनि कर्माणि सोऽकृत- मुंबइ, किं कम्मगसरीरकायजोगं जुजः । गोयमा ! उरासमुद्धात एव तानि कपयित्वा सिध्यति। तथा चाह-(जस्सेत्यादि) नियसरीरकायजोगं पि जुंजा नरालियमीससरीरकाययस्य केवसिन प्रायुपा सह जवो मनुष्यजव उप समीपेन गृह्यते जोगं पि जुंजर, नो वेउब्धियसरीरकायजोगं जुजइ नो वेअवष्टज्यते यैस्तानि भवोपप्रहकर्माणि तानि च तानि कर्माणि च भयोपग्रहकर्माणि वेदनोयनामगोत्राणि बन्धनैः प्रदेशः स्थिति जनियमीससरीरकायजोगं गँजड, नो आहारगसरीरकाभिश्च तुल्यानि समानि भवन्ति समुद्घातं न गच्चान्ति,प्रकृतस- यजोगं जुजा नो आहारगमीससरीरकायजोगं जुजइ, मुद्घात एव तानि कपयित्वा स सिद्धिसौधमध्यास्ते इति भा कम्मगसरीरकायजोगं पि जुंजइ पढमट्ठमेमु समएसु नरावः । उक्तश्च-"जस्स चतुल्ला जवइ य, कम्मचउकं सन्नावतो लियसरीरकायजोगं झुंजइ बितीयछसत्तमेसु समएसु जायं । भो अकयसमुग्धाओ, भिजा जुगवं खवेऊणं ॥१॥" अधाय कादीचित्को भाव उत बाहुल्यभावः?,यत आह-(अगं. उरालियमीससरीरकायजोगं जुज ततियचनत्थपंचमेमु तूए समुग्घायमित्यादि ) अगत्वा समुद्घातं केवनिसमुद्धातं समएमु कम्मगसरीरकायजोगं मुंजइ ॥ सिकिं चरमगर्ति गता इति सम्बन्धः। कियत्संख्याका श्त्याद "कासमए णमित्यादि" सुगमम् । तत्र याम्मन् समये यत्करोअनन्ता अनन्तसंख्याकाः,केवलिनः केवलकानदर्शनोपेता। अनेन | ति तदर्शयति-"तं जहा-पढमसमए " इत्यादि । श्दमपि सुये'नवानामात्मगुणानामत्यन्तोच्छेदोमोका' इति प्रतिपन्नास्ते अपा गर्म, प्रागेव व्यागयातत्त्वात्, नवरमेवं भावार्थ:-यथाद्यैश्चतुर्भिः स्ता द्रष्टुभ्या।मानस्य निरुपचरितात्मस्वभावत्वात, तस्य च विना समयः क्रमेणात्मप्रदेशानां विस्तरण तथैव प्रतिलोमं क्रमेण संशायोगात्। अन्ययाऽऽमन एवाभावापत्तेःनिचात्मनो निरन्वयो हरणमिति । उक्तं चैतदन्यत्रापिबिनाशः,सतः सर्वथा विनाशायोगात, "नासतो विद्यते जावो,ना "उदहो य सोगं-तगामिणं, सोसदेहविक्खभ । जावो विद्यते सतः" इतिन्यायात्। तया जिना जितरागादिशत्रवः, पढमसमम्मि दं, करे विइयम्मि य कवाडं ॥ अनेन गोशालकमतापाकरणमाह, ते हि मुक्तिपदमध्यासीनमपि तइयसमयम्मि मंथं, चनत्थए लोगपूरणं कुणइ । तन्वतो वीतरागमपि मन्यन्ते, अवाप्तमुक्तिपदा अपितार्थनिकार पडिलोमं साहरणं, काचं तो होश् देहत्थो"॥१॥ दर्शनार्थमिहागच्छन्तीति वचनातू,तत्वतो वीतरागस्य च परानवबुद्धेरिहागमनस्य चासंभवात् । पुनः कथंभूता इत्याह-जरामर अस्मिंश्च समुद्घाते क्रियमाणे सति यो योगो व्याप्रियते तमणधिप्रमुक्ताः,जराच मरणं च जरामरणे ताभ्यां विप्रमुक्ताः,जराम भिधित्सुरिदमाद-"से ते" इत्यादि । तत्र मनोयोग वारणग्रहणमुपवक्षणं, तेन समस्तरोगशोकादिसांसारिकक्केशविप्र भ्योग वा न व्यापारयति,प्रयोजनानावात्। प्राह च धर्मसारमुक्ता इति द्रष्टव्यम् । एतेन एकान्ततो मोकस्योपादेयतामाह,अन्य मुलटीकायां हरिजसरि:-मनोवचसी तदान व्यापारयति, प्र. स्यैवस्वरूपस्य स्थानस्यासम्भवात् । न हि संसारे प्रकर्षसुखप्राप्त योजनाभावात् काययोगं पुनर्युज्यत औदारिककाययोगमौदामपि स्थानमेवंविधमस्ति,सर्वस्यापि मरणपर्यवसानत्वात् । से रिकमिश्रकाययोग वा युनक्ति, न शेष, लब्ध्युपजीवनाभावेन धनं सिकिरशेषकर्माशापगमनात्मनः स्वरूपे अवस्थानता, वरा शेषस्य काययोगस्यासम्नवात्। तत्र प्रथमेऽष्टमे च समये केव. सर्वगतीनामुत्तमा, गम्यते इति गतिवरगतिस्तां वरगतिरूपामि लमौदारिकमेव शरीरं व्याप्रियते श्त्यौदारिककाययोगः। द्वितीत्यर्थः गताः प्राप्ताः । प्रशा० । इह सर्वोऽपि केवल। केवलिस ये षष्ठे सप्तमे च समये कार्मणशरीरस्यापि व्याप्रियमाणत्वात् मुद्धातं गच्छन् प्रथमत आवर्जीकरणमुपगच्छति। प्रशाणा (तच्च औदारिकमिश्रकाययोगः। तृतीयचतुर्थपञ्चमेषु तु समयेषु केव"प्राचज्जीकरण" शब्दे द्वितीयभागे २५ पृष्ठे उक्तम) लमेव कार्मणशरीरव्यापारजागिति कार्मणकाययोगः । श्राह च आवर्जीकरणानन्तरं चाव्यवधानेन केवग्निसमुद्घातमारनते। भाष्यकृत्स च कतिसामायिक श्त्याशङ्कायां तत्समयनिरूपणार्थमाह "न किर समुग्धायगो,मणवइजोगप्पयोयणं कुण्इ। का समएणं जंते ! केवविसमुग्याए पन्नते। गोयमा! ओरालियजोगं पुण, जुजर पढमहमे समए । उभयव्वाबाराश्रो, तम्मीसं बीयकसत्तमए । भट्ठ समए पपत्ते । तं जहा-पढमे समए दंमं करेइ बीए | तिचउत्थपंचमेक-म्मगंतु कम्मत्तचेट्ठाओ"||प्रज्ञा०३६पदस्था। कवा करे, ततिए समए मंथं करे, चनत्थे समए लोगं | मथ कर चनत्य समए लाग| संग्रहः-केवलिसमुद्रातगतः केवनी सदसवेद्यादिकर्मपुद्गलपूरेइ, पंचमे सयए लोयं पडिसाहरइ, के समए मंथं पमि- परिशातं करोति; स च यथा कुरुते तथा विनयजनानुप्र Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलिसमुग्धाय अन्निधानराजेन्धः। केवलिसमग्घाय हाय नाव्यते शति-केवलिसमुद्घातोऽष्टसामयिका, तथा- दण्डकस्य प्रतिसमयमेकैकं शकलं तावकिरति, यावदन्तर्मुकुर्वन् केवली प्रथमसमयबाहुल्यतः स्वशरीरप्रमाणमूर्ध्वमधश्च दर्तचरमसमयसकलमपि तत्कण्डकमुत्कीर्ण भवति । एवलोकान्तपर्यन्तमात्मप्रदेशानां दएममारचयति । द्वितीयसमये | मान्तर्मुहूर्त्तकानि स्थितिकएमकमनुभागकएमकानि च घापूर्वापरं दक्षिणोत्तरं वा कपाटं, तृतीये मन्थानं, चतुर्थेऽव- तयन् तावद्वेदितव्यौ यावत्सयोग्यवस्थाचरमसमय: सर्वाण्यकाशान्तराणां पूरणं, पञ्चमेऽवकाशान्तराणां संहार, षष्ठे मन्थः, | पिचामूनि स्थित्यनुभागकएडकान्यसंख्येयान्यवगन्तव्यानीति । सप्तमे कपाटस्य, अष्टमे स्वशरिस्थो भवति । बयति च- प्रज्ञा० २६ पद । विशे० ॥ "पढमसमयम्मि दंड करे " इत्यादि । तत्र दमकसमयात् मथ यदुक्तम्-" चउहि समपहिं लोगो" इत्यादि (गाथा प्राक् या पल्यापमाऽसंख्येयभागमात्रा वेदनीयनामगोत्राणां स्थि ३७०) तत्राहतिरातीत,तस्या बुद्ध्याऽसंख्यया नागाः क्रियन्ते, ततो दण्डसम. ये दएम कुर्वन् असंख्येयान् भागान् हन्ति,एकोऽसंख्येयो भागो जपणसमुग्घायगाए, केई नासांत चउहिँ समरहिं। उवतिष्ठते; वश्च प्राक् कर्मत्रयस्यापि रसस्तस्थाप्यनन्ता भागाः पूरइ सयलो लोगो, अन्ने नाण तीहि समएहिं ॥३०॥ क्रियन्ते, ततस्तस्मिन् दएमसमये असातवेदनीयप्रथमवर्जसं- रागादिजेतृत्वाज्जिनः केवली, तस्याऽयं जैनः, स चाऽसौ स. स्थानपञ्चकाऽप्रशस्तवर्णादिचतुष्टयोपघाताप्रशस्तविहायोगति- | मुद्धातश्च जैनसमुदातः, केवलिसमुद्धात इत्यर्थः । तस्य गतिः दुर्नगास्थिराऽपर्याप्तश्चाशुभानादेयायश कीर्तिनीचैर्गोत्ररूपाणां प्रवृत्तिःक्रम इति यावत्। तया जैनसमुद्धातगत्या। "दएकं प्रथमे पञ्चविंशतिप्रकृतीनामनन्तान् भागान् हन्ति, एकोऽनन्तनागोऽव. समये, कपाटमथ चोत्तरे तथा समये । मन्थानमथ तृतीये, लोशिष्यते; तस्मिन्नेन च समये सातवेदनीयदेवगतिदेषानुपूर्वी कव्यापी चतुर्थे च ॥१॥" इत्यादिनन्थेनोक्तेन केवलिसमुद्धातपञ्चेन्द्रियजातिशरीरपञ्चकाङ्गोपाङ्गत्रयप्रथमसंधानसंहननप्रश- क्रमेण चतुर्भिः समयैः सर्वोऽपि लोको भाषामन्यैरापर्यत इति स्तवर्णादिचतुष्टयागुरुवघुपराघातोच्छासप्रशस्तविहायोगति- केचिद्भाषन्ते। अयं चानादेश एव पुरस्तान्निराकरिष्यमाणत्वाअसवादरपर्याप्तप्रत्येकाऽतपोद्योतस्थिरशुभसुभगसुखरादेयय-- | दिति। अन्ये पुनस्त्रिनिः समयैः सर्वोऽपि लोकः पूर्यत इति ब्रुवत शकीर्तिनिर्माणतीर्थकरोचैर्गोत्ररूपाणामेकोनचत्वारिंशतः प्र. शति ।। ३८३॥ कृतीनामनुभागोऽप्रशस्तप्रकृत्यनुभागमध्यप्रवेशनेनोपहन्यते।स किं वायात्रेण, न, श्त्याहमुद्घातमाहात्म्यमेतत् ; तस्य चोकरितस्य स्थितेः संख्येयजाग पढमसमये चिय जओ, मुक्काई जंति हिसिं ताई। स्यानुन्नागस्य चानन्तनागस्य पुनर्यथाक्रमं असलया अनन्ताश्व भागाः क्रियन्ते । ततो द्वितीये कपाटसमये स्थितेरसंख्येयान् | बितियसमयम्मि ते चिय, इंमा होंति उम्मंथा ॥३४॥ भागान् हन्ति, एकोऽवशिष्यते, अनुनागस्य चानन्तान् ना- मंयंतरेहिँ तइए, समए पुन्नेहिँ पूरिओ लोगो। गान् हन्ति, एकं मुञ्चति । अत्राप्यप्रशस्तप्रकृत्यनुभागमध्यप्रवे- चनहिँ समएहिँ पूरइ, लोगते भासमाणस्स ॥ ३५ ॥ शनेन प्रशस्तप्रत्यनुभागघातो कष्टव्यः । पुनरप्येततसमये यतो लोकमध्यस्थितेन महाप्रयत्ननायकेण मुक्तानि तानि ऽवशिष्टस्य स्थितेरंसख्येयभागस्यानुनागस्य चानन्ततमना जापाव्याणि प्रथमसमय एव षट्सु दिक्षु लोकान्तमाप्नुवन्ति, गस्य पुनर्बुध्या यथाक्रममसंख्यया अनन्ताच नागाः क्रियन्ते । ततश्च तृतीये समये स्थितेरसंस्ययान् भागान् हन्ति, एक जीव-सूक्ष्मपुझलानामनुश्रेणिगमनात्। ततो द्वितीयसमये त एव पट दरामाश्चतुर्दिशमेकैकशोऽनुश्रेण्या वासितद्रव्यैः प्रसरन्तः मुश्चति, अनुनागस्य चानन्तान् जागान् हन्ति, एकमनन्तजागं षट् मन्यानो भवन्ति । तृतीयसमये तु मन्थान्तरैः परितैः परितो मुश्चति। अत्रापि प्रशस्तप्रकृत्यनुभागघातोऽप्रशस्तप्रकृत्यनुभाग जवति सर्वोऽपि लोकः, स्वयंजूरमणपरतटवर्तिनि लोकान्तेऽलोमध्यप्रवेशनेनाऽवसेयः। ततः पुनरपि तृतीयसमयावशिष्टस्य कस्याऽत्यन्तं निकटीनूय नाषमाणस्य भाषकस्य त्रसनाड्या बहिस्थितेरसंख्येयनागस्यानुनागस्य चानन्ततमभागस्य बुद्ध्या य र्षा चतसृणां दिशामन्यतमस्यां दिशि भाषमाणस्य तस्येति थाक्रममसापेया अनन्ताश्च जागाः क्रियन्ते ततश्चतुर्थसमये स्वयमपि द्रष्टव्यं, चतुर्भिः समयैर्लोकः सर्वोऽपि पूर्यत इति । स्थितेरसंख्येयान् भागान् हन्ति, एकस्तिष्ठति, अनुनागस्याप्य ॥३८४ । ३८५॥ नन्तान् भागान् हन्त्येकोऽवशिष्यते;प्रशस्तप्रकृत्यनुभागघातच . कथम् !, इत्याहपूर्ववदबसेयः। एवं च स्थितिघातादिफुर्वतश्चतुर्थसमये स्वप्रदेशापूरितं समस्तलोकस्य जगवतः केवलिनो वेदनीयादिकर्म दिसि विट्ठियस्स पढमोऽ-तिगमे ते चेव सेसया तिन्त्रि । त्रयस्थितिरायुषः संख्येयगुणाः जाताः, अनुभागस्त्वद्याप्यन- विदिसि बियस समया,पंचातिगमम्मि जं दोमि ।३०६। न्तगुणः, चतुर्थसमयावशिष्टस्य च स्थितेरसंख्येयभागस्या- सनामया बहिश्चतसृणां दिशामन्यतमस्यां दिशि व्यवस्थिनुभागस्य चानन्ततमभागस्य भूयोऽपि बुद्धचा यथाक्रम सं- तस्य भाषकस्य प्रथमः समयोऽतिगमे मामीमध्यप्रवेशे भवति । ख्यया अनन्ताश्च भागाः क्रियन्ते । ततोऽवकाशान्तरसंहारसमये शेषसमयत्रयन्नावना तु-"हो असंखेज इमे भागे" (३६०) स्थितेः संख्येयान भागान् हन्ति, एक संख्येयभागं शेषीकरोति, इत्यादिवक्ष्यमाणगाथावृत्तौ 'कथमिति च' इत्यादिना वक्ष्यते । अनुभागस्यानन्तान् भागान् हन्ति,एकं मुश्चति । एवमेतेषु प- लोकान्तेऽपि स्वयंजूरमणपरतटवर्तिनि चतसृणां दिशामन्यश्वसु दण्डादिसमयेषु प्रत्येकं सामायिक दमकमुत्कीर्ण स- तमस्यां दिशि व्यवस्थितस्य नाषकस्योधिोलोकस्खनितत्वामये समये स्थितिदएडकानुजागदण्डकघातनात्। अतः परं ष. द्भापाद्रव्याणां प्रथमः समयोऽतिगमे लोकमध्यप्रवेशे, त्रयस्तु ष्ठसमयादारभ्य स्थितिकण्डकमनुभागकरमकं चान्तर्मुहूर्तेन | समयाः शेषास्तथैव । असनाडीबहिर्विदिगव्यवस्थितस्य तु काखेन विनाशयति, प्रयत्नमन्दीभावात् । षष्ठादिषु च समयेषु । भाषकस्य भाषाव्यैः सर्वलोकापूरणे पश्च समया लगन्तीति For Private & Personal use only . Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६४) केवलिसमुग्धाय अभिधानराजेन्डः। केवलिसमग्घाय विशेषः। कुतः, इत्याह-"प्रतिगमम्मि जे दोमित्त" विदिशः यव्याप्तौ हि प्रथमसमये दएमषजवति, द्वितीयसमये तु षट् सकाशात भाषाडव्याणि लोकनाडीबहिरेव प्रथमे समये दिशि मन्थानः संपद्यन्ते। एते च दएमादयो दैर्येण यद्यपि लोकान्तसमागच्छन्ति, द्वितीये तु लोकनामीमध्ये प्रविशन्ति, इत्येवं स्पर्शिनो जवन्ति, तथापि वक्तृमुखविनिर्गतत्वात् तत्प्रमाणायस्मादतिगमे नाडीमध्यप्रवेशे द्वौ समयौ बगतः शेषास्तु, त्रयः नुसारतो याहुल्येन चतुरङ्गुलादिमाना एव भवन्ति । चतुरादीनि समयाः चतुःसमयव्याप्तिवत् इष्टव्याः, इत्येवं पञ्च समयाः, स- चाहुलानि लोकाऽसंख्येयभागवर्तीन्येवाति सिद्धस्त्रिसमयव्यावेऽपि च लोकापूरणे प्राप्यन्त इति ॥ ३८६ ॥ प्तौ प्रथमद्वितीयसमययोर्लोकाऽसंख्येयभागे भाषाऽसंख्येयनाननु याक्तन्यायेन त्रिनिश्चतुर्भिः पञ्चभिश्च समयैर्लोको गः । चतुःसमयव्याप्तावप्येतदित्थमवगम्यत पध, प्रथमसमये वाग्व्यैः पूर्यते, तर्हि किमिति निर्वार्य नियुक्ति- लोकमध्यमात्र एव प्रवेशात, द्वितीयसमये तु वक्ष्यमाणगल्या कृता चतुःसमयग्रहणमेव कृतम्, इत्याशझ्याह- दएकानामेव सद्भावादिति। पञ्चमसमयव्याप्तिपके तु सुबोधमेव, चनसमयमज्जगहणे, तिपंचगहणं तुलाई मज्स्स । प्रथमसमये भाषाद्रव्याणां विदिशो दिश्येव गमनात् , द्वितीय समये तु लोकमध्यमात्र एव प्रवेशासस्मात् ज्यादिसमयव्याप्ती जह गहणे पजंत-ग्गहणं चित्ता य मुत्तगई ॥३८॥ सर्वत्र प्रथमद्वितीयसमययोलोकाऽसंख्येयनागे भाषाया असं. (तिपंचगहण मिति ) आद्यन्तवर्तिनां त्रयाणां पचानां च स्येयभाग एव भवति । (जयणा सेसेसु समएसु त्ति) उक्तशेषेषु समयानां ग्रहणमिह नियुक्तिकृता विहितमेव द्रष्टव्यम् ।क्क सती- तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु भजना विकल्परूपा बोकव्या काऽपि त्याह-चतुःसमयरूपस्य मध्यस्य ग्रहणे कृते प्तति। ननु किमन्य- लोकासंम्येयभागे स एव भाषाऽसंख्येयजाग एव भवति, त्रापि मध्यग्रहणे सत्याद्यन्तग्रहणं क्वापि दृष्टम् । इत्याह-(तु कचित्पुतलोकस्य संख्येयजागे भाषासंख्येयन्नागः, कापि समस्तलाईत्यादि) यथा तुलादीनाम् । श्रादिशब्दानाराचयश्चादीनां, लोकव्याप्तिः । तथाहि-त्रिसमयन्याप्तौ तृतीयसमये भाषायाः समध्यस्य ग्रहणे कृते पर्यन्तयोराद्यन्तलक्षणयोर्ग्रहणं पर्यन्तग्रह- मस्तलोकव्याप्तिः, चतुःसमयव्याप्तितृतीयसमये तु लोकसंख्ये. णं कृतमेव भवति, एवमिहापीति । नवऽयं न्यायः काप्यागमे यभागे भाषासंख्येयजागः। कथम् ?, इति चेत् । उच्यते- स्वयंजूररश्यते, येनैवमुच्यते?, इत्याह-चित्रा च जगवतः सूत्रस्य मणपश्चिमपरतटवर्तिनि लोकान्ते, प्रसनामीबहिवी पश्चिमदिशि गतिः प्रवृत्तिदृश्यते ॥३७॥ स्थित्वा युवतोनाषकस्य प्रथमसमये चतुरङ्गात्रादिबाहुल्यो रज्जुतथाहि दीघों दएमस्तिरश्चीनं गत्वा स्वयंभूरमणपूर्वपरतटवर्तिनि लोका न्ते लगति । ततो द्वितीयसमये तस्मादपडावा॑धश्चतुर्दशरज्जू. कत्थइ देसग्गहणं, कत्था घेप्पंति निरवसेसाई । तिः पूर्वापरतस्तिरश्चीनरज्जुविस्तृतः पराघातबासितद्रव्याउक्कमकमजुत्ताई, कारणवसओ निनुत्ताई ॥ ३ ॥ णां दएको निर्गच्छति। लोकमध्ये तदविणतः,उत्तरतश्च पराघाक्वापि सूत्रे देशस्यैकपक्कलकणस्य ग्रहणं, ययाऽत्रैव चतुः तवासितव्याणामेव चतुरङ्गुलादिवाहुल्यं रज्जुविस्तीर्णदण्डसमयलक्षणस्य, क्वचित्सूत्रेनिरवशेषाण्यपिपक्षान्तराणि गृह्यन्ते। द्वयं विनिर्गत्य स्वयं नूरमणदक्विणोसरवर्तिलोकान्तयोसंगति । अपरं च-कानिचित्सूत्राणि कुतोऽपि कारणवशात् उत्क्रम पवंच सति चतुरङ्गनादिबाहुल्यं सर्वतोऽपि रज्जुविस्तीर्ण लोयुक्तानि नियुक्तानि निबद्धानि दृश्यन्ते, कानिचित्तु क्रमयुक्तानी कमध्ये वृत्तच्चत्वरं सिद्धं भवति। तृतीयसमये तूधिो व्यवस्थिति, एवं विचित्रा सूत्रगतिः ॥ ३ ॥ तदएकाचतुर्दिशं प्रसृतः पराघातवासितद्रव्यसमूहो मन्यानं अथ प्रस्तुतार्थस्यैव शास्त्रान्तरसंवादकारिणं दृष्टान्तमाह-- साधयति । सोकमध्यव्यवस्थितसर्वतो रज्जुविस्तीर्णच्छत्वरा दूर्बाधः प्रसृतः पुनः स एव त्रसनामी समस्तामपि पूरयतिा एवं चउसमयविग्गहे सति, महसबंधम्मि तिसमो जह वा। च सति सर्वाऽपि त्रसनाडी ऊर्ध्वाधोज्यवस्थितदण्डमन्धिनावेमोत्तुं तिपंचसमये, तह चउसमओ इह निबछो ३न्ए । न तद्धिकं च लोकस्य पूरितं भवति । पतचैतावत् केत्रं तस्य संख्याततमो भागः । तथा च सति चतुःसामयिक्या व्याप्तेयथा वा भगवत्यामष्टमशते महाषन्धोद्देशके सत्यपि चतुःला. स्तृतीयसमये लोकस्य संख्याततमे भागे भाषाया अपि मायिके विग्रहे त्रिसामायिकोऽयमुपनिबरूः, तथाऽत्रापि त्रीन् समस्तलोकव्यापिन्याः संख्याततमो भाग इति स्थितम् । पञ्च च समयान मुक्त्वा चतुःसामयिक एव लोकव्याप्तिपक्क पञ्चसामयिक्यास्तु व्याप्तेस्तृतीयसमये लोकासंख्येयन्नागे नाउपनिबद्ध इत्यदोष ति ।। ३८६ ॥ षाऽसंख्येयभागः। कुतः, इति चेत् । उच्यते-तस्यां तस्य दएकतमुक्तम्-“लोग्गस्स य का नावे, कइ भाभो होइ भासाए', समयस्वात, तत्र च संख्येयभागवर्तित्वस्य प्रागेव भावित्वादि(३७७) पत ट्याचिख्यासुराह ति । चतुर्थप्तमये चतुःसामयिक्यां व्याप्ती मन्थान्तरपूरणात्समहोइ असंखेज इमे, भागे लोगस्स पढमबिएसु। स्तनोकव्याप्तिः। पञ्चसामयिक्यां तु व्याप्ती चतुर्थसमये लोक संख्येयभागे नाषासंख्ययन्नागः, तस्यां तस्य मन्धिसमयत्वात, नासा असंखभागो, जयण सेसेसु समएमु ॥ ३०॥ तत्र च संख्येयभागवर्तित्वस्य प्रागेव भावितत्वादिति । पञ्चमः चतुर्दशरज्जूच्छ्रितस्य लोकस्याऽसंख्याततमे भागे भाषाया समये तु पञ्चसामयिक्यां व्याप्ती मन्थाऽन्तरालपूरणात्समअपि समस्तलोकव्यापिन्या असंख्याततम पव भागो भवति । स्तलोकव्याप्तिरिति। एवं तृतीयचतुर्थपश्चमसमयेषु भाविता न. कदा ?, इत्याह-प्रथमद्वितीयसमययोः । श्दमुक्तं भवति-त्रिस- जना। तद्भावने च व्याख्यातम्-(जयणा सेसेसु समयेसुत्ति) एत मयन्याप्तौ, चतुःसमयव्याप्ती, पञ्चसमयव्याप्तौ च प्रथम- च्च महाप्रयत्नवक्तृनिसृष्टद्रव्यापेक्षयैवोक्तं, मन्दप्रयत्मवक्तृसमयद्वितीयसमययोस्तावनियमेन सर्वत्र लोकाऽसंख्येयभागे | निसृष्टानि तु लोकासंख्येयन्नाग एव वर्तन्ते, दएमादिक्रमेण तेभाषाऽसंस्थेयभागलकण एव विकल्पःसंभवति, नान्यः। त्रिसम- पां लोकपूरणासंजवादिति ॥ ३९०॥ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६५) अनिधानराजेन्द्रः । केवलिसमुग्धाय अथ यदुक्तं " लोगस्स य चरिमंते चरिमंतो होइ नास्साए " ( ३७६ ) तदेतद्भावयन्नाह - आपूरियम्मि लोगे, दोष वि लोगस्स वह य भासाए । चरिमंते चरिमंतो, चरिमे समयम्मि सव्वत्य ॥ ३१ ॥ ज्यादिसमरापूरिते झोके झपोरपे लोकनायो मान्तो जयति । क ?, इत्याह-चरमे समये । केषु विषये योऽसौ चरमः समयः ?, इत्याह-सर्वत्र सर्वेष्वपि ज्यादिसमयव्याप्तिपकेषु, इदमुषं भवति त्रिभिधतुर्भिः पञ्चनि समा सोके तेषामेवादीनां समानां यथास्वं योऽसी चरमः समयस्तत्र लोकस्य चरमः पर्यन्तवर्त्ती अन्तो भवति-नापायाश्च चरमः पर्यन्तवर्सी अन्तो जयति, ज्यादिसमयानां चरमसमयेोकेनानेन पुनः पर गीता जीवानां तत्र गतेरेवाभावादिति । इह च क्रिया आदिरन्तो यति चरमग्रहणं चरमः पवन्तो न पुनरादिभूत इत्यर्थ इति ॥ ३००१ ॥ देवं" कहिं समयहि लोगो" ( ३७० ) इत्यादिनिर्युगा चाद्वययारुपानेन निराकुजीकृत्य "जणसमुग्धायारे, केई भासंति " ( ३०३ ) इत्यादिना यदादेशान्तरमुकं सोऽनादेश पवेति ख्यापनार्थम् । तत्र दूषणमाह न समुपाथगईए, बीसयसवणं मयं च दंमम्मि । जतो व ती पूर, समजिओ परापाओ ॥ ३०२ ॥ " (न समुपायसि) जैनसमुदायगत्या नाचया ओकरणे इष्यमाणे न प्राप्नोतीति । किम ?, इत्याह-मिश्रस्य शब्दस्य श्रवणं मिश्रश्रवणं, सर्वासु दिविति शेषः । इदमुक्तं भवतिजैनसमुद्धाते ऊर्ध्वाधोदिग्द्वयगाम्येव प्रथमसमये दण्डो जवतितदिनापायेवमिष्यते तर्हि ऊर्ध्वोदय प मिश्रशब्दश्रवणं प्राप्नोति न पूर्वपश्चिमदकिणोत्तरदिक्षु, तासु चिदिवि निन्यानामगमनेन पराघात वाखितत व्याणामेव श्रवणादिति; अविशेषेण तु "नासासमसेढीओ, सई जं सुणइ मीसयं सुइ" ( ३५१ ) इत्यनेन दिनु मिश्रशब्दश्रवणमुक्तम् । अथवा व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तेर्यदि तव मतं संगतम ऊधोदिशे पदिनु पराघातवासितयश्रवणेऽप्यदेोपादिति । भवत्येवं ( तो बिलाप शिनिस्समयः पूर्वते शोको न तु यतो भाषाव्येषु परायातोऽस्ति यदि नाम तेषु परास्ततः इति चेत् । उच्यते - स खलु दराम ऊर्ध्वाधो गच्छन्नविशेषेण चतुदिशमपि शब्दप्रायोग्यद्रव्याणि पराहन्ति वासयित्वा शब्दपविकरोति ततस्तानि द्वितीयसमये मन्थानं साधयन्ति तृतीयसमये तु तदनन्तरालपूरणात लोक इति । एवं त्रिभिः समयेत्रकरणं प्राप्नेति ॥ ३८२ ॥ ननु यथा जनसमुद्रातुर्भिः समपैलॉकमापूरयति तथा भाषाऽपि तैः समापूरयिष्यति, को दोषः? इत्याशङ्कयाऽऽद जणेन पराघाओ, सजीवजोगो य तेा चनसमओ । डेक होजाहि हि इच्छा कम्मं सहावो वा ।। २२ ।। इह जैन समुद्धाते जीवप्रदेशाः स्वरूपेणैव लोकमापूरयन्ति, न पुनस्तत्र कस्यापिपराघातोऽस्ति । ततो न द्वितीयसमये मन्थाः, १६७ केवलसमुग्धाय किं तु कपाट एव भवति । किं च स केवलिसमुद्घातो जीवस्य संबन्धी योगो व्यापारस्तेन लोकव्याप्तिमपेक्ष्याऽयं चत्वारः समयाः, यत्र चतुः समयो भवति । यदि नाम जीवयोगस्तथापि कथं तस्य चतुःसमयता ?, इत्याह-तत्र तस्मिन् जीवव्यापारल कंपाने द्वितीय मध्यभावे तु क शाह दिलान रूपा यादवल द्वितीयमये सन्धानं न करोति प्रयोपास्ि भावाद्वाssसौ तदा तं न करोति । ततो द्वितीयसमये कपाट एव, समये मथा चतुर्थे स्वन्तरालपूरणम् इति पुज्यते जैनसमुदृधाते चतुस्मयता विशे I अत्रैव विशेषपरिज्ञानायाऽऽह से णं भंते ! तहा समुग्धायगए किं मणजोगं जुंज‍, जोगं जुजइ, कायजोगं जुंजड़ ?। गोयमा ! नो माजोगं जुंज, नो बड़जोगं जुंजर, गोयमा ! कायजोगं जुजइ । कायजोगे णं भंते ! जुंजमाणे किं उरालियसरीर कायजोगं जुंज, उरालियमीससरीरकायजोगं जुजइ, किं वेउच्चियसरी - र कायजोगं जुंज, वेजव्वियमीससरी रकायजोगं जुज‍, किं आहारगसरीरकायजोगं जुमा, आहारगम ससरीरकायजोगं जुंज‍ किं कम्मगसरीरकायजोगं जुजइ ? । गोयमा ! छरानियसरीरकायनोगं पि मुंज, उरालि - यसरी कायजोगं पि जुजड़, नो वेलव्त्रियसरीरकाजोगं जुंज, नो पेयमीससरीरकायनोगं जुन, नो आहारगसरीरकाय जोगं जुंजइ, नो आहारगमीसस - रीरकान्याजोगंज, कम्मगसरीरकायजोगं पिसे, पदमइमे समएस उरालि यसरीरकायजोगं जुजइ, वितीय सत्त मे समय उरालियमीससरीरका यजोगं जुजा, ततिष , पंचमेस समय कम्यगसरीरकापजोगं जुन से एंजते ! तड़ा समुग्धायगए सिज्जइ, बुज्जर, मुच्चर, परिनिव्वाति, स दुखाणं अंत करे हैं। गोयमा ! नी हाडे समड़े । स भदन्त ! केवली तथा दण्डकपाटादिक्रमेण समुद्घातं गतः सन् सिकपति-निष्ठितार्थो भवति । स च " वर्त्तमानसामीप्ये वर्त्तमानवद्वा ॥ ३ । ३ । १३१ ॥ इति (पाणि० ) वचनात् सेत्स्यन्नपि व्यवहारत उच्यते । तत आह-बुकेवलज्ञानेन यचा निश्चयतो विष्ठितार्थो भविष्यामि निःशेषकर्माशापगमतस्तत आह-मुच्यते, शेषकर्माशरिति गम्यते मुध्यमानधर्मावेनापरितापरहितो नय तित परिनियांति सामयेन तीवति। समस्तमे तदेकेन पर्यायेण स्पश्यति सर्वदुःखानामन्तं करोतीति। भगवानाह - गौतम ! नायमर्थः समर्थः, नायमर्थः सङ्गतो यः समुद्यतं गतः सन् सर्वदुखान्तं करोतीति योगनिरोधस्याद्याप्यकृतत्वात् सयोगस्य च वक्ष्यमाणयुक्त्या सिद्ध्यनावा दिति जावः । किंकरोतीत्यत श्राह - से जंते ! तो परिनियत्तति, तो पच्छा मणजोगं Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलिस मुग्धाय पिजड़, वजेोगं पि जुंज, कायजोगं पि जुंजइ ? | इंता० जाव काय जो पिज मणोगं कुंजमा किं सम जोगं जुंजड़, मोसमणजोगं जुंजइ, सच्चामोसमणजोगं जुजइ, सच्चा मोसम जोगं जुजइ ? । गोयमा ! सच्चमनजोगंज, नो मोसमण जोगं मुंज, नो सच्चामोसमयजोगं जुइ, सच्चामो समण जोगं प जुंजइ । वइजोगं जुंजमाणे किं सच्चो जुजइ, मासवजोगं जुजड़, सच्चा१ मोसवइजो जुन प्रसच्चामोसवजोगं कुंजइ । गोपमा ! सच्चव जोगं जुज नो मोसवजोग जुन, नो सच्चामोसवइजोगं जुंज, असच्चामोसवइजोगं पि जुंजड़ । कायजोगं जमाने आगनवा गच्छेल वा चिल बानिस वा त्या पिज्जा, पलंचिज्ज वा पाडिहारिय पीढफलगसेज्जासंथारगं पञ्च पिणेज्जा । ( ६६६ ) अनिधानराजेन्धः | अप्रमेयं मासुको समिति । तत्तोऽनंतरसेले - सिवयणो जं च पाडिहारीणं । पचपणमेव सूप, इरागहणं पि होज्जाहि ॥ " ( से समित्यादि) सोऽधिकृतसमुदागतः पणमिति पाक्यालङ्कारे, ततः समुद्धातात् प्रतिनिवर्तते इति । निवर्त्य च ततः प्रतिनिवर्तन पाइनन्तरं मनोयोगमपि वा योगमपि काययोगमपि युनक्ति व्यापारयति यतः जगवान् नवधारणीयकर्मसु नामगोत्र वेदनीयेष्यचिन्त्यमाहाक्यसमुद्रातः प्रभूतमायुषा सह समीकृतेष्वप्यन्तर्मुहूर्त भाविपरमपदस्तस्मिन् काले यद्यनुसरोपपातिकादिना देव मनसा पृष्यते सा व्याकरणाय मनःपुलान् गृहीत्वा मनोयोगं युनक्ति, तमपि सत्यमसत्यामृषारूपं वा मनुष्यादिना पृष्टः सन्नपृष्टो वा कार्यवशतो वा पुकान् गृहीत्वा वाग्योगं, तमपि सत्यमसत्यं मृषा वा, न शेषान् वायनस योगा करायादित्या आगमनादी बदरिकादिकाययोगम्। तथाहि नगवान् कार्यतः कृतश्चित स्थानात् विवक्तिते स्थाने आगच्छेत्, यदि वा क्वापि गच्छेत्, अथवा तिष्ठे ऊस्थाने वा ति निषा, तथाय कुर्यात् अथवा विचलिते स्थाने तथाविच सम्पातिम सत्याकुल भूमिमयोक्य तत्परिहाराय जन्तुरानिमित्तमु वनं प्रलङ्घनं वा कुर्यात्, तत्र सहजात्यादिविशेषान्मनागधिकतरः पापातकिन, यदि वा प्रावि हारिकपीठफलक शय्यासंस्तारकं प्रत्यायते यस्मादानीतं तस्मै समर्पयेत नगमेन प्रतिहारकपी उफलकादिना प्रत्यर्पणमेवोक्तं ततोऽयसीयते नियमादन्तविशेषायुष्क पयाकरणादिकमारभते तावशेषायुकः अन्यथा प्र दणस्यापि सम्भवाप्युपादयते तेन बाहुके तो अन्तर्मुहूर्तशेषे समुद्धातमारभते, उत्कर्षतः षट्सु मासेषु शेषेविति । तदपास्तं द्रष्टव्यम्। षट्सु मासेषु कदाचिदपान्तराले वर्षाकालसम्भवात् तनिमित्तपीठफलकादीनामादानमप्युपपरातेन च तत्सूत्रसम्मतमिति तत्रूपमयसेयम्। केऽपि समुद्घातानन्तरमध्यस्वभिधानात् । तत्सूत्रम् - "दएककवाडे मंथं-तरे य साहारा सरीरत्थे । भासाजोगनिरोहे, सेलेसीसिज्झणा चेत्र || १॥" यदि पुनरुत्कर्षतः परमासरूपमपान्तरालं तस्य नित न च तस्मादेवं तदयुक्तमेतदिति । तथाचाह 3 भाध्यकारः "कम्मल समो भिता विसेस कालो केवल मुग्धाय अत्र कर्मलघुतानिमित्तं समुद्घातस्य समयोऽवसरो निन्नमुहूर्त्त विशेषकालः, शेषं सुगमं तदेवमन्तरमुहर्त्तं कालं यथायोगं योगत्रयव्यापारनाकू केलीभूत्वा तदनन्तरमत्यन्ताप्रकम्पं लेश्यातीतं परम निर्जराकारणं ध्यानप्रति पित्सुरवश्यं योगनिरोधायोपक्रमते, योगे सति यथोक्तरूपस्थ ध्यानस्याऽसम्भवात्। तथाहि-योगपरिणामो लेश्या, तदन्वयव्यतिरेकानुविधानात् ततो यावद्योगस्ताववश्यनाविनी लेश्येति, लेश्यातीत ध्यानसम्भ अगस्तावत्कर्मयोगाच 93 टाकायचो ते वचनात् केवलं कर्मबन्धः केवलि योगनिमित्तता समयजयावस्थायाम्। तथाहि प्रथमसमये कर्म बध्यते द्वितीयतृतीये तु समयेन क मकर्मीभवति । तत्र यद्यपि समयद्वयरूपस्थितिकर्माणि क्रि प्रियमुपगच्छन्ति, तथापि समये समये सन्तत्या कर्मादाने प्रवर्त्तमाने सति न मोक्कः स्यात् । अथवा अवश्यं मोक गन्तायं तस्मात्कुरुते योगनिरोधमिति । उच " सततं योगनिरोधं करोति लेश्यानिरोधमभिकाङ्क्षन् । समयस्थिति च बन्धं, योगनिमित्तं स निरुत्सुः ॥ १ ॥ समये समये कर्मा -ऽशने सति सन्ततेन मोकः स्यात् । यद्यपि हि विमुध्यन्ते स्थितिपात पूर्वकर्माणि ॥ २ ॥ नाकर्मणा हि वीर्य, योगरून्येण भवति जीवस्य । तस्यावस्थानेन तु, सिद्धः समय स्थितेबंन्धः ॥ ३ ॥ अत्र बन्धस्य समयमात्रस्थितिकता बन्धसमयमतिरिच्य वेदिया। प्राच्यमध्येनं पूर्वोकं सकलमपि प्रमेयं पुष्णाति तथा च तद्वतो ग्रन्थः व "विविध तिमि जोगे जो पजा । सचमसच्चामोसं च सोमणं तहा वईजोगं ।। १ ।। ओरान काजोगं, गमलाई पामिहारियानं वा । पच्चपिणं करेज्जा, जोगनिरोदं तत्रो कुरुते ॥ २ ॥ किं न सजोगी सिज्झर, सबंध देउ सि जं सजोगी य। न समेश् परमसुकं, सनिज्जराकारणं परमं " ॥ ३ ॥ अत एवाह से जंते ! तह सजोगी सिज्माइ० जाव अंत करंति ? | गोमा पोइडे समट्ठे । "सेता जोगो खिम्भा " इत्यादि गो गनिरोधं च कुर्वन् प्रथमं मनोयोगं निरुणद्धि । तच्च पर्याप्तमात्रसपिचेन्द्रियस्य प्रथमसमये यायन्ति मनोज्यानि याव मात्रश्च तद्यापारः तस्मादसंख्येयगुणहीनं मनोयोगं प्रतिसमयं निधानोऽसंख्येयैः समयः साकल्येन निरुणकि । उक्तं चपज्जत्तमेत्तसन्नि स्स जन्तियाएं जहन्नजोगिस्स । होति मणोदय यो। तदसंखगुणविहीणं, समय समय निरंनमाणो सो । योगी करे संवेशसमहं " ॥ देवा"से भंते!" इत्यादि सोचकिन पूर्वमेव नः पर्याप्तस्य जघन्ययोगिनःस Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६७) केवलिसमुग्धाय अनिधानराजेन्द्र केवलिसमुग्धाय कस्य, मनोयोगस्येति गम्यते । अधस्तात् असंख्येयगुणपरिही- ते। सा च गुणश्रेणिक्रमदलिकरचना स्थापना चेयम । अयञ्च नं समये समये निरुन्धानो संख्येयैः समयः, साकल्येनेति ग- सर्वोऽपि मनोयोगादिनिरोधो मन्दमतिसुखावबोधार्थमाचार्येम्यते। प्रथम मनोयोगं निरुणकि, (तत्तोऽनंतरं च ण) इत्यादि। ण स्थूरदृष्टया प्रतिपादितः, यदि पुनः सूक्ष्मदृष्टयातत्स्वरूपजितस्मान्मनोयोगनिरुधानादनन्तरं, चशब्दो वाक्ये, णमिति वा- झासाभवति तदा पश्चसटीका निभालनीया। तस्यामतिनि. क्यालङ्कार, द्वीन्छियस्य पर्याप्तस्य जघन्ययोगिनः सत्कस्य, वा- पुणं प्रपञ्चेन तस्याभिधानादिह तच्च ग्रन्थगौरवभयानास्माग्योगस्येति गम्यते। अधस्तात् धाग्योगं संख्येयगुणपरिहीनं स निरनिहितः। (से जमित्यादि सोऽधिकृतकेवल।। णमिति पूर्ववमये समये निरुन्धानोऽसंख्येयः समयः, साकल्येनेति गम्यते। त्। एतेनानन्तरोदितेनोपायप्रकारेण शेष सुगमं यावदयोगिताम्। द्वितीयं वाग्योगं निरुणकि । श्राह च भाष्यकार: (पाउण त्ति) प्राप्नोति,अयोगिताप्राप्त्यनिमुखो भवतीति भावा" पज्जत्तमित्तबिंदिय-जहन्नवजोगपज्जवासेओ। र्थः । अयोगितांच प्राप्य अयोगिताप्राप्त्यनिमुखो भूत्वा, (इसि तदसंखगुणविहीणे, समए समए निरंभंतो। ति) स्तोकं काझं शेनेशी प्रतिपद्यत इति संबन्धः। कियता कालेसम्ववरजोगरोह, संखाईएहिँ कुण समपहि" ॥ न विशिष्टामित्यतआह-हस्वपञ्चाक्षरोच्चारणाया किमुक्त भव ति?-नातिद्वतं नातिविम्बितं, किन्तु मध्येन प्रकारेण, यावता कासे तत्तो अणंतरं सुहमपणगजीवस्म अपज्जत्तगस्स जहन्न नङअणनम श्त्येवं रूपाणि पश्चाकराणि उचार्यन्ते, तावता कालेजोगिस्स हेवा असंखेजगुणपरिहीणं तच्चं कायजोगं नि न विशिष्टामिति । एतावान् कालः किं समयप्रमाण इति निरूपरुंजय, से णं एएणं उवाएणं पढमं माजोगं निरंभइ, नि- णार्थमाह-असंख्येयसामायिकामसंख्येयसमयप्रमाणां, तश्च जरुंभइत्ता वइजोगं निरंभइ, निरंभइत्ता कायजोगं निरंभा, घन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्त प्रमाणं, तत एषाऽप्यन्तर्मुहर्तप्रमाणेति ख्या पनायाऽऽह-प्रान्तमौहूर्तिकी शैलेशीमिति। शीलं चारित्रं, नचह निरंभइत्ता जोगनिरोहं करेइ, जोगनिरोहं करेत्ता अजो निश्चयतःसर्वसंवररूपं, तद् बाां, तस्यैव सर्वोत्तमत्वात् तस्ये. गतं पाउणइ, अजोगतं पाउणित्तासिं हस्सपंचक्खरुच्चा-| शःशैलेशः, तस्य या अवस्था साशैलेशीतां प्रतिपद्यते, तदानीं रणकाए असंखेजसमइयं अंतोमुहुत्तियं सेलेसिं पमित्र- च ध्यानं ध्यायति व्यवच्छिन्नक्रियमप्रतिपाति । नक्तश्चजड़, पुज्वरक्ष्यगुणसेढीयं च णं कम्मं तीसे सेलेसिमका- "सीलं य समाहाणं, निच्छयो सव्यसंघरो सो य । ए असंखेजाहिं गुणसेढीहिं असंखेज्जे कम्मखंधे खवयति, तस्सेसो सेलेसो, सेलेसी हो तद्वत्था ॥१॥ खवयइत्ता वेदणिज्जाउयनामगोए, इच्चेते चत्तारि कम्म हस्सक्खराइमझ, ण जेण कालेग पंच भन्नंति । अत्था सेलसिगतो, तत्तियमित्तत्तो कालं ॥२॥ से जुगवं खवेड, खवेइत्ता उरालियतेयाकम्माई स तारोहारता उ-उजाय सुहमकिरियानियहूं । व्याहिं विप्पजहन्नाहिं विप्पजहयइ, विप्पजहयइत्ता - सो विच्छिन्नकिरियम-प्पडिवाई सेलेसिकालम्मि" ॥३॥ ज्जुसेढीपमिचन्ने अफुसमाणगती एगसमएणं अविग्गहेणं न केवल शैलशी प्रतिपद्यते पूर्वरचितगुणश्रेणीकं च वेदनीनळं गता सागारोवउत्ते सिज्झइ, वुझा । यादिकं कर्म, अनुभवितुमिति शेषः। प्रतिपद्यते च तत्पूर्व काय"ततोऽणंतरं चणं" इत्यादि। ततो वाग्योगादनन्तरं 'च णं' प्रा योगनिरोधगते चरम अन्तर्मुहत्तें रचिता गुणश्रेणयः प्राग नि र्दिष्टस्वरूपा यस्य तत्तथा। ततः किं करोतीत्याह-(तो सेलेसिग्वतासूक्ष्मस्य पनकजीवस्यापर्याप्तकस्य, प्रथमसमयोत्पन्नस्येति भावार्थः। जघन्ययोगिनः सर्वाल्पवीर्यस्य पनकजीवस्य यः अद्धार इत्यादि ) तस्यां शैलेस्यद्वायां वर्तमानोऽसंख्येया भिर्गुणश्रेणीभिः पूर्वनिर्वर्तिताभिः प्रापिता ये कर्मत्रयस्य पृ. काययोगस्तस्याधस्तात असंख्येयगुण्डीनं काययोगं समये समये निरुन्धन असंख्येयैः समय; समस्तमपीति गम्यते। तृतीयं थक प्रतिसमयमसंख्येयाः कर्मस्कन्धास्तान क्षपयन् विपाकतः प्रदेशतो वा वेदनेन लिर्जरयन चरमे समये वेदनीयमायुर्नामकाययोगं निरुणकि, तं च काययोगं निरुग्धानः सूक्ष्मक्रियमप्र गोत्रमित्येतान् चतुरः कौशान कर्मच्चैदान युगपत् पयति,युतिपाति ध्यानमधिरोहति, तत्सामर्थ्याच्च बदनोदरादिविवरपूरणेन संकुचितदेहत्रिजागवर्तिप्रदेशो प्रवति । तथा चाह गपञ्च कपवित्वा ततोऽनन्तरसमये औदारिकतैजसकार्मणरूपा णि त्रीणि शरीराणि (सब्वाहिं विप्पजहन्नाहिं इति) सर्विप्रभाष्यकृत् होनैः, सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् ।विप्रजहीति।किमुक्तं भवति?-यथा "तत्तोय सुहुमपणग-स्स पढमसमयोववनस्स । प्राक देशतस्त्यक्तव्यान् तथा न त्यजति किन्तु सर्वैःप्रकारैः पजो किर जहन्नजोगो, तदसंखेज्जगुणहीणमेकेके ॥१॥ रित्यजतीति। उक्तञ्च-"पोरानियाई च या,सवाई विप्पजहसमए निरंभमाणो, देहतिमागं च मुंचंतो। न्नाईहिं । जं भणियं निस्सेसं, तहा न जहा देसच्चापण सो रंभास कायजोगं, संखाईपहिँ चवणसमरहिं" ॥२॥ पुवं" ॥ परित्यज्य च तस्मिन्नेव समये कोशबन्धविमोक्कलकाययोगनिरोधकालान्तरचरमे अन्तर्महर्तवेदनीयादित्रयस्य | क्षणसहकारिसमुस्थस्वभावविशेषादेरण्डफलमिव भगवानपि प्रत्येक स्थितिसर्वापवर्तनयाऽपवायोग्यवस्थासमानं क्रियन्ते कर्मसम्बन्धविमोक्षलकणसहकारिसमुत्थस्वनावविशेषादू -- गुणश्रेणिक्रमविरचितप्रदेशाः। तद्यथा-प्रथमस्थिती स्तोकाःप्रद- लोकान्ते गत्वेति सम्बन्धः। उक्तश्च-“परंमाइ फवं जह, बंधच्छेशा,द्वितीयस्यां स्थिती ततोऽसंख्येयगुणाः, तृतीयस्यांततोऽप्य- देरियं पुहं जाति । तह कम्मबंधणच्चे-दणेरितो जाति सिको संख्येयगुणाः। एवं ताबद्भाच्यं यावश्चरमा स्थितिः। एताः प्रथमस- वि"॥२॥ कथं गम्छत्यत पाह-अविग्रहेण विग्रहस्याभायो ऽविग्रमयगृहीतदलिकनिवर्तिता गुणश्रेण्यः, एवं प्रतिसमयगृहीतद- हः, तेन एकेन समयेन स्पृशन, समयान्तरप्रदेशान्तरास्पशननेलिकनिवर्तिताः कर्मत्रयस्य प्रत्येकमसंख्येया एण्याः, अन्तर्मह- त्यर्थः। श्रेणिश्च प्रतिपन्नः। एतदुक्तं भवति-यावच्चाकाशप्रतसमयानामसंख्यातत्वात्। आयुषः स्थितियथा बढेवावतिष्ठ- देशेत्रिहावगाहम्तावत एवं प्रदेशानू मजुश्रेण्यावगाहमा Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६८) केवलिसमुग्धाय अभिधानराजेन्दः । केसरिया नो विवक्विताच्च समयादन्यत् समयान्तरमस्पृशन् गत्वा तथा | पृषो० । सूर्याग्निप्रभृतिरश्मी, के शिरसि शैते शी अलुक चोक्तमावश्यकचूर्णी-"जावतिए जीवोऽवगाढो तावड्याए ओगा- साचिकुरे, वाच । शिरोजे, तं०। स्था। शिरसिजे, रा०। हणाए उज्जुगं गच्छद नच किंचिइयं च समयं न फुस" इति। नि० चू० । स० | श्रा० चू। शिर:कृर्चसम्भवे, प्रव०४० द्वार । भाष्यकारोऽप्याह-"रिउसेदि पडिवन्नो, समयपएसंतरं अफु को। बासवर्षे, श्रा० चू.४ अ०। समाणो । पगसमरण सिकश, इति इह सागरोवउत्तो सो॥१॥" केसंत-केशान्त-पुं० । केशानन्तयति छेदनात् हन्ति,अन्ति श्राण । क्यमूर्द्ध गत्वा किमित्याह-साकारोपयोगोपयुक्तः सन् सिद्धय- द्विजातीनां षोडशादिषु वर्षेषु कर्तव्ये केशच्छेदनाख्ये गोदानाति-निष्ठितार्थों भवति । सर्वा हि लब्धयः साकारोपयोगयु- ख्ये कर्मणि, वाच । बालसमोपे, औ० । केशभूमिपर्यन्ते स । क्तस्य उपजायन्ते, नानाकारोपयुक्तस्य सिकिरप्येष्या, सर्व- जी. ३ प्रति० मध्यकेशे, तं। लव्युत्तमा सब्धिरिति साकारोपयोगोपयुक्तस्योपजायते । आह केसंतकेसनमि-केशान्तकेशजमि-स्त्री० । बालसमीपे केशोच-" सव्वाश्रो लकीरो, जं सागारोवोगलाभाओ। तेणेह पा लकाश्रा, ज सागारावांगलाभाा। तेणेह त्पत्तिस्थानभूतायां मस्तकत्वचि, औ० । तं । जी । केशासिद्धिलकी, उपजह तवउत्तस्स" ॥१॥ तदनन्तरं तु क्रमेणा- तभमौ, केशमा च। औ०।"दालिमपुरफकासतवणिजसपयोगप्रवृत्तिः, तंदवं केवली यथा सिको भवति तथा प्रति- रिसणिम्मसुणिरकेसंतकेसमी" औ०। पादितम् । प्रज्ञा० ३६ पद । स्था। कर्म। केसपास-केशपाश-पुं। केशानां समूहः वा० पाशादेशः । केजह अद्वा साडीया, आमुं सुक्का विरसिया संती।। शः पाश श्च वा । केशसमूहे, "करेण रुकोऽपि च केशपाशः" तह कम्मलहुयसमए, वचंति जिणा समुग्यायं ।।। "तांकाचन प्रधावन्ती केशपाशे परामृशत्" वाचा मा० का। यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः । प्रा साटिका,जलेनेति गम्यते। | केसबार। केशवदर। केसबारी-केशवरी-स्त्री० । बबर्योपमितेषु केशेषु, "क्षा(प्रासुत्ति) शीघ्र,शुष्यति शोषमुपयाति विरद्विता विस्तारिता लयन्त्यास्तदा तस्या-स्त्रास्ता कर सती। तथा तेऽपि भगवन्तो जिनाः,प्रयत्नविशेषात् कर्मोदयमधि- केसवाणिज-केशवाणिज्य-न०। केशशब्दः केशवदुपलककस्तकृत्याशु, शुष्यन्तीति शेषः। यतश्चैवमतः कर्म लघुतासमये क- तो दासादिनृणां गवाश्वादितिरश्चां केशवताम् (ध०३अधि०) र्माण प्रायुप्कस्य लघुता, लघो वो लघुता, स्तोकता इत्यर्थः।। बाणिज्यम् । केशवज्जीवानां गोमहिषीस्त्रीप्रभृतिकानां विक्रये, तस्याः समयः कालः कर्मलघुतासमयः। सर्वान्तर्मुहर्सप्रमाणः,त- भ०८ श०५ उ० । केशवाणिज्यं “दासी उ गहाय अन्नत्थ स्मिन् । अथ वा कर्मभिलघुता, स्तोकतेत्यर्थः । तस्याः समयः विकिण" श्राव०६०। श्रा० । मा०चु० । यत्र दासीदाकालः कर्मलघुतासमयः, सर्वान्तर्मुर्तप्रमाणः,तस्मिन् । अथवा सहस्यश्वगोमादिजीवान् गृहीत्वा तत्रान्यत्र वा विक्रीणीते कर्मभिलघुता कर्मलघुता,जीवस्येति सामर्थ्यादवसीयते । सा च | जीविकानिमित्तं तत्केशवाणिज्यम् । प्रव०६ द्वार । एतच्च क. समुद्घातानन्तरभाविन्येवं नूतोपचारं कृत्वा अनावृतैव गृह्यते । मत उपभोगपरिभोगस्य भेदः पापकर्मादानम् । उपा. १०। तस्याः समयः कालः कभलघुतासमयस्तस्मिन् जिना व्रजन्ति, | केसभूमि केशभूमि-स्त्री० । केशोत्पत्तिस्थानन्तायां मस्तकसमघातं प्राक प्रतिपादितस्वरूपमिति ।। प्रा० म० द्वि०। स्वचि. और केवली केवलिस मुद्घातं यदा करोति तदाऽऽत्मप्रदेशस्त्रस-1 केसर-केश (स) र-पुं०1 न० के जने शिरसि वा शीर्यनाडीमेव पूरयति, किं वा संपूर्ण लोकमिति प्रश्न-उत्सरम-अत्र केवली केवलिसमुद्घातं यदा करोति तदा संपूर्ण लोकं ति शू-अच् । सरति स-अच् अमुक साकेशः केशाकरोऽस्त्यस्य बा। किञ्जल्के, पनादिपुष्पमध्यस्थ केशाकारपदार्थभेदे, वाच। पूरयतीति । १७ प्र० ही० ४ प्रका। जं. कर्णिकापरितोऽवयवे, भ०११ श०१०। स्कन्धसंघकेवल-कैवल्य-न । केवलस्य भावः व्यञ् । आत्यन्तिकदुःख- धिरोमणि, कल्प० २ कण । तुरगस्कन्धस्थलामपुज्जरूपविगमरूपे मुक्तिनेदे, वाच । जटायाम, हेमकेशरप्रधाने फुल्ले, जी० ३ प्रति० । वकुले, स्मृता सिलिविंशोकेयं, तद्वैराग्याच्च योगिनः। आ० म० प्र० मिञ्चफले, प्रज्ञा० १ पद । हिगुवृक्के, पुन्ना गवत, कासीसे, वीजपूरके, पुं० । स्वर्णं, न । " अर्थादोषवीजक्षये नूनं, कैवल्यमुपदर्शितम् ।। १८ ॥ श्वाश्वैः ४-७-७-भभनयरयुगैर्वृत्तं मतं केसरम " वृत्त(स्मृतेति ) श्यं विशोका सिद्धिः स्मृता । तस्यां विशोका- रत्नाकरोक्त छन्दोभेदे, न० । वाच । स्वनामख्याते काम्पिल्योयां सिकी वैराग्याच्च योगिनो योगनाजः । दोषाणां रागादीनां धाने, उत्त० १८०"अह केसरम्मि उज्जाण नामेणं गहबीजस्याविद्यादेः, क्षये निर्मूलने, नूनं निश्चितम, कैवल्यं पुरुष- | नालिअणगारे ।" उत्त० १७ अाती । स्य गुणानामधिकारपरिसमाप्तः स्वरूपप्रतिष्ठितस्वमुपदर्शितम् । | केसरि (ण) केसरिन-पुं० । स्त्री०। केश (स ) राः सन्त्यस्य यत:-" तद्वैराग्यादपि दोषबीअक्षये कैवल्यमिति ।" द्वा०२६ निःसिंहे.अश्वेच।वाचा सूत्राको। स्त्रियां की । पुन्नागहा। कैवल्य स्वरूपेनास्त्यस्य अ० अन्।कैवल्यस्वरूपे,त्रि०।। वृत्ते, नागकेशर वृक्के, पुं०।बीजपूरकवृक्ष, पुं० । हनुमत्पितरि, केवल पव स्वार्थे व्यञ् । अद्वितीये वस्तुनि, ना वाच०। बानरभेदे, पुं० । वाच० । चतुर्थवासुदेवस्य सुप्रभस्य प्रतिकेवचपाय-कैवस्यपाद-पुं० । योगानुशासनचतुर्थपादे, द्वा० शत्रौ, स० । ति०। ११६०। केसरिदह-केशरिहद-पुं० । नीलवर्षधरपर्वतस्थे उदभेदे, तत्र केस-केश-पुं० । चिहुरकनपर्याये, किश्यते विनाति वा कीर्तिर्देवता स्था० ३ ठा०४ उ०। किश अच् लझोपश्च । कस्य जलस्य ब्रह्मणोवा शोचा। वरुणेकेसरिया-केशरिका-स्त्री०। प्रमार्जनार्थे चीवरखएके, ०३ डीपर, दैत्यनेदे, केशिनि, विष्णौ, काशते काश अच् २०२०। औ०। झा० । Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केसलोय केसलोय- केशलोच ०६ त०] केशानामुत्पाटने, सू० १०३ अ० १ ० । स च नियमेन वीरमहापद्मय स्तीर्थकृतोर्धर्मः स्था०६ ठा० । “ संतता केसनोपणं, बंभचेरपराइया । तत्थ मंदा विसीयंति मच्छा विद्धा व केयणे " ॥ सूत्र० १ श्रु० ३ अ०१० | केसब केशव पुं० | केशाः प्रशस्तः सत्यस्य "केशान्तर स्याम् । ” ||५|२| १०६ ॥ पा० वः । प्रशस्त केशयुक्ते, केशं केशिनं वा निहन्ति वा कः। विखौ, "यस्मात्त्वया हतः केशी, तस्मान्मच्छासनं शृणु । केशवो नाम नाम्ना एवं ख्यातो लोके भविष्यसि " ॥ याच नारायणाग्नि वासुदेवे प्र० ५ द्वार वासुदेवेषु, स० आ० म० श्रावण ति० । ( 'वासुदेव' शब्दे sस्य व्याख्या) यश्च केशवस्य बलं तद् द्विगुणं भवति चक्रवर्तिनः। विशे० । प्राचीने पञ्चमे भवे श्री ऋषभदेवस्य जीवें, तदुक्तं नगवन्तं प्रति श्रेयसा- "वच्छ स्त्रावतीविजये पभंकराइ नगरी य, तत्थ सामी पितामहो सुवेजस्स पुत्तो केसवो ग्राम जातो, अहं पुण सेट्टितो अन्ययोसो तत्ववि ने सिणेहाधिकता " श्र० खू० १ अ० । अत्र ततोभगवानपरविदेदे वैद्यपुत्रस्तदाऽहं जीर्णश्रेष्ठिपुत्रः केशवनामा मित्रम् । कल्प० ७ ऋण । जलस्थे शवे च । वाच० । 1 (६९०) अभिधानराजेन्द्रः । केसि ( ) - केशिन् - पुं० । केशसंस्पृष्टशुक्रपुल सम्पर्का ए निप्रर्थीपुत्रे, पं० ० १ द्वार । ( स च यथा जातस्तथा 'अजयिकन्निया' शब्दे, प्र० भागे २०१ पृष्ठे दर्शितः ) स च कुमार एव जापानी अनारगुणसम्पन्नः सूर्याभ जीवं पूर्व प्रदेशनामानं राजानं प्रायोपयदिति । रा०नि० ०१० (कविशिखशब्दे पयते) (गोयमसि 'शब्दे गौतमेन सहास्य सम्वादो यते) उदयनृपगिये श्राव० २ श्र० । स च उदायनेन स्वपुत्रमभिजितं वञ्चयित्वा राज्ये खापितः । (रोगग्रस्तं च उपायनं विषप्रदानेन मारितवानिति 'उदायन' शब्दे द्वि० भा० १८६ पृष्ठे दर्शितम् ) स्था० । ध० । श्रा० चू० | भ० । अश्वरूपधारके कृष्णेन निहते दानवभेदे, वाच । केशवे वासुदेवे, प्रब० ३५ द्वार । कीदृश वि०किप्रकारे, "केसी गाय मधुरं केसी गाय खरं च रुक्खं च । 33 स्था० ७ ० | केसिआ केशिका - स्त्री० । केशीव कायति, कै- कः । शतावरीवृक्षे, वाच० । केशा विद्यन्ते यस्याः सा केशिका | केशवत्यां स्त्रियाम, "जर के सिणं मए भिक्खू गो बिहरे सह णमित्थीप केसाण विलुंचिस्सं तत्थ भए चरिजासि । " सुत्र० १ ० ४ अ० २ ० । १६० - " कोइलच्छा कु फेसबुद्धि-केशर हि स्त्री० केशानां वर्षणे, बहुपरिभागात्केशाः - । पतन्ति । प्रब० १३४ द्वार । व्य० । केशवृष्टिचिन्ताकारके शास्त्रे च । सुत्र० २ ० २ अ० । केसहस्य- केशहस्त- केशोहरत केशसमूहे, वाच केशपाशे, डा० १ ० १ अ० । वेण्याम, कल्प० २ क्षण । केसालंकार - केशालङ्कार - पुं० । केशा एवालङ्कारः केशालङ्कारः अलङ्कृतेषु केशेषु, केशानामलङ्कारे पुष्पादौ भ० ६ श० ३३ ० पङ्कारः कटक केयूरहारकङ्कणचातुकस्य नायः युवादि । प्रতা ङ्कारे, आ० म० द्वि० | । कोइलच्छय- कोकिनच्छद - पुं० । तैलकटके,' सुमेह या कोकिलस्करकः तथा च मूलका व नाहिगारं जो एत्थ कोइलच्छदो, सो तिलकंटश्रो भन्न त्ति । " प्रज्ञा० १७ पद । स्वार्थे वा । कुतूहले, तच्च श्रद्भुतजिज्ञासाऽतिशयः । ० रा० सुरतविषये श्री पं० प १ द्वार | वचननयनादिभवे तं० श्राश्वय्यै, तच्च यथा मायाकारको मुले गोलका प्रयि कर्णेन निष्काशयति नाशि कया था, तथा मुखादग्नि निष्काशयति । व्य० १३० । मत्रीपर्वादिके, विपा० १ ० १ उ० । मत्रीतिलकादिके, रा० । ज्ञा० । To ० | कल्प० । नि० । मषीपुएरूकादिके, विपा० १ ० ३ ० । "कयोजयमंगाया "श्री अवतारकारिके सूत्र० २ ० २ ० | रक्कादिके, प्रश्न० २ श्राश्र० द्वार । श्र० । अ०म० समवसरणादिके प्र०१० सीमा ०२० पद | बासादीनां रक्षार्थ स्नपनकरभ्रमणथुकुथुक्करण होमधूपादिके ० ३ अधि । परेषां सौभाग्यादिनिमित्तं यत् स्नपनादि क्रियते तत् कौतुकम् । उक्तं च " सोहग्गादिनिमित्तं परेसि रहणादि कोडग नियम एवंभूतानि कौतुकानि स्व० १ उ० । आव० पं० व० । , कोय केहि अव्य० किमयें, “साइ केदितेहि-देखि-रेख " | ० | ४ | ४२५ | इति तादयें केहिं इति निपातः । प्रा० ४ पाद । कैअव-कैतव - न० मले, कपटे, यद्यपि प्राकृते ऐकारो नास्ति त थापि विपत्थे 'कै प्रा० १ पाद कोआस-विकस पारादिविशेसी ि सेः कोश्रास - बोसट्टा " ८ । ४ । १५ । इति विपूर्वस्य कलेः कोश्रासादेशः । प्रा० ४ पाद | कोयामिय-विकसित वि० विशेषेण दमे, "कोसि पत्ताकोबासि ति) विकसे कोसो कोश्रा कसेः कोआसादेशः । विदेशे पसले पदमवती अक्षिणी ० । ४ । १६५ । इति विपूर्वस्य सिते विकासे धवले व नेत्रे येषां ते तथा । जं० २ कोइल कोकिल पुं० [स्त्री० । कुक इलच् । परपुष्टे, स्था० १० वा० । परभृते, प्रश्न० २ श्राश्र० द्वार पिके, रा० / 1 स्वनामख्याते पक्षिणि स्त्रियां जातित्वेऽपि श्रजा० टाप् । वाच० । औ० । ।" श्रह कुसुमसंनवे काले, कोइला पंचमं सरं " अनु० । स्था० । वास्तालपिशाचो. लीलयैव हतः स्वयम् । कोकिलो श्वेतचित्रौ च सेवकाविव पार्श्वगौ” ॥ श्र० क० अङ्गारे, पुं० । संज्ञायां कन् " हयदशभिर्नजौ भजजला गुरु नर्दटकम | मुनिगुडकार्णवैः कृतयति वद कोकिलकम् " इति वृत्तरत्नाकरोते छन्दोभेदे, न० । वाच० । कौतुकद्वाराssवयवार्थमाहविवाहोमसिरपर स्याह खारटणाथि धूपे । अरिवेसमा अस्यासउच्णबंधो ॥ ४३ ॥ विपनं बालापनं होममन्निधनं शिरः परियः करभ्रम णाभिमन्त्रणम् आदिशब्दः स्वव्यापकः । बास्नपनादी Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोउय अभिधानराजेन्द्रः। कोहल नामनेकप्रकारत्वात्। कारदहनानि तथाविधव्याधिशमनाय धू- बंधंतं वा साइज ॥१॥ जे भिक्खू कोउहबवमियाए बपश्चायोगगनः; असदृशवेशग्रहणानि नार्यादेरनार्यादिनेपथ्यकर देलयं वा मुयइ, मुयंतं वा साइजइ ॥३॥ णानि,प्रवत्रासनं वृक्कादीनांप्रभावेन चाननम्, एवमवस्तम्भनम्, अनिष्टोपशान्तये तनुकनिष्ठीवना थुकथुक्करणम् । एवं बन्धमन्त्रा तसपाणगतणगादी, कोतूहब बमियाएँ जो न बंधिज्जा । दिनाप्रतिबन्धनं कौतुकमिति गाथार्थः । पं० २०४द्वारा की- तणपासगमादीहिं, सो पावति प्राणमादीणि ॥२॥ तुकं कुर्वन् पानियोगिकी भावनां करोति । पं०व०नि०चू। तएणगवानरवरहिण-चगोरहंससुगमाइणो पक्खी। अभिलाषे, नमणि, हर्षे, परम्परायातमङ्गले, गीतादिभोगे, जौगकाने च । दाच०। गामारणिय चउप्पद, दिवादिट्टनूयउरपरिसप्पा ।।३।। कोउयकम्म-कौतुककमन्-न । सौभाग्यनिमित्तं स्नपनादिके, तसपाणगो वज्कमादि सेतुरं, प्राणादी चउलहुंच (तमगाहा) तमगगहणातो इमे वि पक्खिणो गहीता। वरहिणोति मोरो, झा०१ श्रु० १४ अ०। रक्तपादो दीर्घग्रीवो जलचरो पक्खी चकोरो, अमं वा किंचि कोन्यकरण-कौतुककरण-न । सौभाग्यादिनिमित्तं परस्न किसोरादि गामेयगं मृगादि वा, प्रारमं दिपुग्वं वा अदिट्ठपुपनादिकरणे, स्था०४ ग०४ उ०। व्वं वा, णकुलादि वा तुयपरिसप्पं, सप्पादि वा उरपरिसप्पं, कोउयदसणा-कौतुकदर्शन-न । उत्सवप्रेकणे, यथा वीरजि एवमादि बंधति मुयति वा । बंधमुयणे वा इमं कारणंनेछनिष्क्रमणे दिस्सिहि ति चिरं वको, णयणादि च जप्पडेंत दुप्पस्सा। "तिन्नि वि थी वल्लहाँ, कलिकज्जलसिंदूर। गमणमुतादिकुतूहल, मुमति व जे तारिसे दोसा || एए पुण अती हि वलहाँ, दूधजमाई तूर" ॥ चेष्टाश्चमा:- | वितियपदमणप्पो, बंधे अविकोविते व अप्पज्झा। "स्वगतयोः काचन कन्जलाईं, कस्तूरिकाभिनयनाअनं च।। जाणंते वा वि पुणो, कज्जेसु बहुप्पगारेसु ॥५॥ गले चलन्नूपुरमंहिपीठे, अवेयकं चारु चकार बाला ॥१॥ । वितियपदमणप्पज्के, मुंचे अविकोविते व अप्पज्झे। कटीतटेकाऽपि बबन्ध हार, काचित् कणरिकङ्किणिकांच कराठे। जाणंतो वा वि पुणो, कज्जेसु बहुप्पगारेसु ॥ ६॥ गोशीपंपङ्केन ररज पादा-वलक्तपङ्कन वपुर्लिलेप ॥२॥ अस्नाता काचन बाला, विगनत्सबिला विश्लथबाला । नस्सग्गो अववादो जहा बारसमे उद्देसमे तहा भाणियव्यो । तत्र प्रथममुपेता त्रासं, व्यधिप्त न केषां ज्ञाता हासम् ॥३॥ जे जिक्खू कोनहसावडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं काऽपि परिच्युतविश्वथवसना, मूढा करघृतकेवलरसना । चित्रं तत्र गता न ललजे, सर्वजने जिनवीक्षणसजे ॥४॥ वा डिमालियं वा मयणमान्नियं वा पिच्छमालियं वा संत्यज्य काचित्तरुणी रुदन्तं, स्वपोतमोतुं च करे विधृत्य । दंतमालियं वा सिंगमात्रियं वा संखमालियं वा हइमानिवेश्य कट्यांत्वरया ब्रजन्ती,हासावकाशंन चकार केषाम् ५॥ | लियं वा कट्ठमालियं वा पत्तमालियं वा पुष्फमाहियं वा अहो महोरूपमहो महौजः, सौभाग्यमेतत्कटरे शरीरे। फलमालियं वा बीजमात्रियं वा हरियमालियं वा करे, गृह्णामि पुःखानि करस्य धातु-यछिल्पमीग् वदति स्म काचित्॥ काश्चिन्महेला विकसत्कपोलाः, श्रीवीरवक्वेक्षणगाढलोलाः। करतं वा साइज्जइ ॥ ३ ॥ जे भिक्खू कोनहसवमियावित्रस्य दूरं पतितानि तानि, नाशासिषुः काञ्चनभूषणानि ॥७॥ ए तणमालियं वा मुंजमालियं वा भिंम्माधियं वा मयणहस्ताम्बुजाच्यांशुचिमौक्तिकौथै-रवाकिरन्काश्चन चञ्चलाक्ष्यः। मालियं वा पिच्छमात्रियं वा दंतमालियं वा सिंगमालियं काश्चिजगुर्म जुलमङ्गतानि,प्रमोदपूर्णा नन्नुश्च काश्चित्" | वा संखमालियं वा कट्ठमालियं वा पत्तमालियं वा पुप्फमाकस्प०५ कण ।। क्षियं वा फनमालियं वा बीजमालियं वा हरियमालियं कोन (ऊ) हन्न (ब)-कुतूहल-न० । “कुतूहले वा हस्व. वा धरेइ, धरतं वा साइज्जा ॥ ४ ॥ जे जिक्खू कोउहलश्व" | 0 । १ । ११७ । कुतूहल शब्दे नत ोदू वा भवति, तत्सनियोगे हस्वश्च, 'कोकहवं कुकहलं कोहल्वम्,' प्रा०१ पाद । वम्यिाए तणमालियं वा मुंजमात्रियं वा जाव हरियमा. "सेवादी वा"||२६|| इति लद्वित्वम् । प्रा०पाद । लियं चा परिनुंजइ, परिनुंजतं वा साइज्जइ ॥ ५ ॥ औत्सुक्ये, " जायकोउहले" जातं कुतूहलं यस्य स तथा, जे भिक्खू कोउहयवडियाए तामालियं वा मुंजमालियं जातौत्सुक्य इत्यर्थः । ज्ञा० १७०१०। चप्रा "ते सवे प. वा. जाव हरियमालियं वा पिणकाइ, पिणतं वा साइरेण कालहलेन पुच्छंति" प्रा० म०प्र०। झा० । औ० । नि० । ज्जा ॥६॥ जे भिक्खू कोउहल्लवमियाए अयस्लोहाणी कुतूहलादु गीतनृत्तनाटकादिनिरीकणं कामशास्त्रप्रवृत्तिश्च युतमद्यादिसेवनं प्रमादाचरणम । ध० २ अधि० । कैतुके, वा तंवलोभाणी वा सीसलोजाणीवा रूपलोनाणी वा सुबवृ०१०। रा०। बलोनाणी वा करेइ, करतं वा साइज्जड़ ॥ ७॥ जे भिकुतूहलार्थ प्राणिविघातादिषु प्रायश्चित्तम् क्खू कोउहस्यवम्यिाए अयस्लोजाणी वा संबलोभाणी जे जिकव कोनहबवडियाए अभयरं तसपाणजायं तण- वा सीसलोहाणी वा रूपोहाणी वा सुबन्नसोहाणी वा पासएण वा मुंजपासएण वा कट्ठपासएण वा चम्मपासएण | धरेइ, धरतं वा साजइ ॥ ७ ॥ जे भिक्खू कोनहल्यवमिवा वेतपासएण या रज्जुपासरण वा सुत्तपासएण वा बंधइ, याए अयलोहाणी वा० जाव सुवमलोहाणी वा परि - Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७१). अभिधानराजेन्द्रः । कोहल जइ, परिश्रुंजंतं वा साइज्ज || || जे भिक्खू कोनहमियाए हाराणि वा अरूद्वाराणि वा, एकावली वा, मुक्तावली वा, कणगावली वा, रयणावली वा, कण्गाणि वा, तुमियाणि वा, कवरीणि वा, कुंमलाणि बा, पट्टाणि वा, मनुकाणि वा, पलंबसुत्ताणि वा, सोवसुताणिवा करे, करतं वा साइज्जइ ॥ १० ॥ जे भिक्खू को हल्लवडियाए हाराणि वा० जात्र सोवसमुत्ताणि त्रा धरेश, धरंतं वा साइज्जइ ॥ ११ ॥ जे भिक्खू को जह डियाए हाराणि वा० जाव सोवष्यसुत्ताणि वा परिश्रुंज, परिभुंजंतं वा साइज्जइ || १२ || जे भिक्खू को नवमियाए आइसाणि वा माइलपावाराणि वा कंबलाणि वा कंबलपावारीणि वा सामायाणि वा कायपावारीणि वा गोरमियाणि वा कालमियाणि वा मेहासारणमायाणि वा उद्दीपि उदेलेस्साणि वा वग्घाणि वा विवग्घाणि वा परबंगाणि वासहिणीणि वा साहाकल्लाणि वा खोमाणि वा तीरीमपट्टणाणि वा पउलाणि वा सामाआवरताणि वा चाणीपि वा सुयाणि वा कणककताणि वा कणकख चियाणि वा कणकचित्ताणि वा कणकविचित्ताणि, श्रचरणाणि वा आभरणविचित्ताणि वा करेइ, करतं वा साइज्जइ ॥ १३ ॥ जे भिक्खु को हल कियाए आइसाणि वा आइसपावाराणि वा० जाव आचरणाणि आचरणविचित्ताणि वा घरे, धरतं वा साइज्ज || १४ || जे भिक्खू कोउहावडिया ए आइमाणि वा पावारीणि वा० जान आभरणविचिताणि वा परिभुंज, परिचुंजंतं वा साइज्जइ ॥ १५ ॥ पतेसिं सुत्ताणं भासगाहाण य अत्थो सत्तमुद्देसगे तहा भा णियचो, वरं तत्थ माउगामस्त मेहुणपरियाए करेंति, रह पुरा का अपमियाप करेति त्रि कयठा वा काउं धरेति, कारणे परलिंग वा पिधिति, एवं सेसा वि उवओोगा भात्रेयव्वा । गादिमालिया, जत्तियमेत्ताउ श्राहिया सुत्ते । ताओ कुतूहलेणं, चारितं श्राणमादीणि || ७ || वितिय पदमण पज्जे, बंधते अविकविते व अप्पे | जाणते वा त्रि पुणो, कज्जेसु बहुष्पगारेसु ॥ ८ ॥ मादि आगरा खलु, छत्तियमेत्ताउ हिया सुत्ते । ताई कुतूह लेणं, माती आणमादीषि ॥ ए ॥ उत्थिरण वा गारस्थिर वा आमजेज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जेत वा मज्जतं वा साइज्जइ ॥ १६ ॥ भिक्खू णिनियस्स श्रमज्जणं सकृत् पुनः पुनः प्रमार्जनम् । नि० न्यू० १७ उ० । कुतूहले नाहारग्रहणं निषिद्धम् जे जिक्खू आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गा कोहल हाइकुले वा परियावसहेसु वा अन्न उत्थियं वा गारत्थियं वा असणं वा पाएं वा खाइमं वा साइमं वा श्रभासियं प्रजासिय जायति, जायंतं वा साइज्जइ ॥ १ ॥ जे निक्खु आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहाब इकुलेमु वा परियावसहेसु वा श्रएणउत्थियं वा गारस्थियं वा असणं पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासियं ओजासिय जायते, जायंतं वा साइज्जइ || २ || जे भिक्खु श्रागंतारेसु वा आरामागारे वा गाहाइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अन्नत्थियाणि वा गारत्थियाणि वा असणं वा पाणं वाखामं वा साइमं वा प्रजासियं प्रजासिय जायति, जायंतं वा साइज्जइ ॥ ३ ॥ 'जे भिक्खू' पूर्ववत् । श्रागंतारो जत्थ श्रांगारा आगंतु विहरति तं श्रागंतागार, गामपरिसद्वाणं ति वृत्तं भवति । आगंतुगाण वा कथं अगारं आगंतागारं बहियावासोति । आरामे श्रगारं आरामागारं गिस्स पती गिपती, तस्स कुलं गिवतिकुलं, अन्यगृहमित्यर्थः । गिहपज्जायं मोतुं पव्वज्जापरियार विता, तेसि श्रावसहो परियावसहो; एतेसु ठाणेसु ठितं श्रा उत्थियं वा गारत्थियं वा असणाई श्रोभासति साइज्जति वा, तस्स मासलडुं । एस सुत्यो । इमा सुतफासिया गाहा आगंतारादीसुं, असणादी जासती तु जो भिक्खू । सो आशा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ||२|| आगंतारादिसु गित्थमन्नतित्थियं वा जो भिक्खू असणाती श्रभासति सो पावति आणाश्रणवत्थमिच्छ विराणं च ॥ आगमेहि कतमा - गारं आगंतु जत्य चिर्हति । आगारा परिगमणं, पज्जाओ चरगादी ऐगविधो ॥ ३ ॥ आगमा रुक्खा, तेर्हि कतं श्रगारं आगंतुं जत्थ चिति मगारांत आगंतागारं परि समंता गमणं, गिभावगतेत्यर्थः। पजायो पवज्जा, सो य चरगपरिव्वाय सक्क आजी वागमादि णेगविधो ॥ भतरा तु दोसा, हवेज्ज प्रभासिते प्राणम्मि | वियोजावणता, पंत नदे इमे होति ॥ ४ ॥ अाणट्टितोनासिते पंतभद्ददोसा, पंतस्स श्रवियत्तं भवति, श्रावणता । अहो मे भद्ददोसा जह तरोसि दीसइ, जह य विमग्गंति मं अठाणम्मि । दे दिया तस्सी, तो देमि णं भारितं कज्जं ॥ ए ॥ जहा एयं साहस्सातरो दीसति, जह श्रयं अहाणहियं विमगति, दंतेंदिया तवस्सी तो देमि श्रहं एतेसिं पूर्ण से नारितं कजं, आपत्कल्पमित्यर्थः । सगिहिं पतित्थी, करिज्ज श्रनासिते तु वो सतहो । उगमदो सेगतरं, खिष्पं से संजताए ।। ६ ।। श्रद्धाऽस्यास्तीति श्राशी, सोय गिट्टी अण्णतित्थियो वा श्रभासिए समाणसे इति स गिडी श्रहणतित्थिश्रो वा विप्पं तुरियं सरहं उम्गमदोसाणं अनंतरं करेजा संजयट्ठाए । एवं खलु जिएकप्पे, गच्छो णिक्कारणम्मि तह चैत्र । कप्पति य कारणम्मी, जतणा ओजासितुं मच्छे ॥ ७ ॥ For Private Personal Use Only Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७२ ) अभिधान राजेन्द्रः | कोहल एवं ताजिएकप्पे भणियं गच्छवासिणो विणिक्कारणे । एवं चैव कारणजाते पुरा कप्पति । erstoori ओनासितुं किंचित्कारणं श्मंगेलसरायटुडे, रोह अद्धा अंचिते प्रमे । तेहि कारणेहि, असती संभम्मि चासो ॥ ८ ॥ गिलाणट्टा रायदु वा रोहगे वा श्रंतो अपच्चंता अंचिते वा श्रचियणं णाम दात्रसंधी तत्थ जवणाओ खंधियाश्र ण वाणिफाणं णिष्फळे वास लम्भति, श्रोमं दुर्भिक्कम् एवं चिए ओदीर्घ किमित्यर्थः । एतेहि कारणेहि अलभते श्राभासेज्जा । भिसं समतिक्कतो, पुवं जतिऊण पणगपणगेहिं । तो मासिया, प्रजासण मादिसुमसढो || ६ | इमा जयणा-पढमं पणगदोसेण गेएहति, पच्छा दस पारसवभिन्नमासदो सेण य एवं पणगभेदेहिं जाहे भिं समतिकंतो ताहे मासि द्वासु श्रनासणादिसु जतति असढो । तत्थ श्रभासणे इमा जयणा तिगुणगतेहि ए दिट्ठो, णीया बुत्ता तु तस्स न कहेह । पुपुट्ठा व ततो, करें निजं सुतप मिकुद्धं ॥ १० ॥ पढमं घरे ओभासिज्जति आदि, एवं तोवारा घरे गवेसियत्रो, तत्थ भज्जादि णीया वक्तव्वा, तस्स श्रागयस्स कहेजाह-साधू तव सगासं श्रागया, कज्जेणं घरे दिठे पच्छा आगंतारादिसु दिवस घरगमणाति सव्यं कहेडं तेण वंदिते श्रवंदिते वा तेणेव पुछा अपुछा वा जं सुत्ते परिसिद्धं तं कुव्वंति, श्रीभासंति इत्यर्थः । जे भिक्खु आगतासु वा आरामागारे वा गाहावइकुलेसु वा परियावसदेसु वा अन्नउत्थियं वा गारत्थियं ar कोहलपरियार परियागयं समाणं असणं वा पाणं वा खाइ वा साइमं वा ओजासियं ओजासिय जायति, जायंतं वा साइज्जइ ॥ ४ ॥ एवं श्रमा उत्थिया वा गारस्थिया वा एवं अवस्थिणीओ वा गारत्थिणीश्रो वा । मम्मी जो तु गमो सुत्ते वितिए वि होति सो चैव । ततिय उत्थे वि तहा, एगतपुहत्तसंजुते ॥ ११ ॥ पढमे सुते जो गमो वितिए वि पुरिसपोहतियसुत्ते सो चेव गमो; ततियच उत्थेसु वि इत्थितेसु सो चेव गमो ॥ निक्खु तासु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियाव सहेसु वा अमउत्थियान वा गारत्थियाज वा कोहल्लपमियाए पडियागयं समाणं असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा प्रभासियं प्रजासिय जायति, जायंतं वा साइज्जइ ॥ ९ ॥ जे चिक्खू आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाढावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अमजत्थियाए वा गारत्थियास वा गारत्थियाउणी वा को उहल्लापकियाए पमियागयं समाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा For Private को उहल जासिय प्रजासिय जायति, जायंतं वा साइज्जइ ॥ ६ ॥ क्खू आगंतारेसु वा आरामागारसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेवा अष्ठ उत्थियान्रणी वा गारत्थिया उणी वा कोहलपमियाए पडियागयं समाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओजातियं ओजासिय जायति, जायंतं वा साइज्जइ ॥ ७ ॥ " जे भिक्खू श्रागतारेसु वा इत्यादि " कोउदलप्रतिज्ञया कीतुकेनेत्यर्थः । यागंतागारे, आरामागारे तथेह वसहे वा । पुत्र हिता पच्छा, एज्ज गिट्टी असतित्थी वा ॥ १२ ॥ तमागतं जे असणातीतोजासति तस्स मासल हुँ । धम्मं सावगधम्मं वा पेच्छामो पत्तो आहाभावेणं को- जहां के बंदणिमित्तं । सामो केई, धम्मं दुविधं व पेच्छामो ॥ १३ ॥ एगो एगतरेणं, कारणजाएण आगंत संतं । जो निक्खू प्रजाति, सणादी तस्सिमो दोसो ॥ १४॥ तस्सिमे जपंतदोसाश्रातपरोनावणता, दिदिले व तस्स अनियत्तं । पुरिसोनावाणदोसा, सविसेसतरा य इत्थी य ।। १५ ।। अल अप्पणो श्रीजावणा सुद्धा न लभंति तिष्ठि प्रदिशे परस्स ओभावणा किवणोति अदि वा श्रवियत्तं भवति, महायणमज्जे वा पण तो देमिति पच्छा श्रवियत्तं जवति दाश्रो पुरि से ओभावणदोसा एवं केवला इत्थिश्रासु ओभावणदोसा संकादोसा य श्रायपरसमुत्था य दोसा । जो उग्गमदोसे, करेज्ज पच्चजिहादीणि | पंता पेलवगणं, पुणरावर्त्ति तथा विधं ।। १६ ।। इओ उग्गमेगतरदोसं कुजा, पच्छाभिहडं पागामाभिहरु वा श्रज्ज पंतो सासु पैलवगहणं करेज्ज । अहो इमे श्रदिदाणा जो श्रागच्छति तं प्रभासंति, साहु सावगधम्मं वा पडिवज्जामिति श्रभासिनं उद्दुरूढो परिणियत्तो जाहे सा. वगो होहामि ताहे ण सुहिं ति, जड़ पव्वज्जं घच्छामो त्ति एगो विपरिणमति, तो मूलं, दोसु णवमं, तिसु चरिमं जं च ते विप रिया श्रसंजम कार्हिति तमावज्जंति, श्रघ वा गिएर व च्चति, जम्दा एते दोसा तम्हा ण श्रोभासियो श्रागम्रो, एवं विपच्छित्तं परिहरियं श्रारणा अनुपालिया, अणवत्था मिच्छतं व परिहरियं, डुविहा विराहणा परिहरिय ता कारणे पुण श्रो भासति । इमे य कारणा सिवे मोदरिए, रायद्दुट्ठे नए व गेलो । अाण रोहए वा, जतला प्रभासितुं कप्पे ॥ १७॥ तिगुणगतेहि र दिट्ठो, णीया बुत्ता तु तस्स तु कहेह । पुट्ठापुट्ठा व ततो, करेंति संमुत्तपरिकुडं ॥ १८ ॥ एगते जो तु गमो, नियमा पोहत्तियम्मि सो चैत्र । एगा तो दोसा, सविसेसतरा पुहत्तम ॥ १६ ॥ Personal Use Only Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को उहल सिवेजता मा पोता घरं मंतु मासिजति अदि महिला से भष्ट्पति, अक्खेज्जासि सावगस्स साधुणो दट्टुमागता, ते श्रासिसो अविरईए समीवे सोउं भह भावेण वा श्रागता, सव्वं से घरगमणं कहिज्जति, कारणं च से दीविज्जति ततो जयपाए श्रोभासिजति, ज‍ सो भणति घरं पज्जह, ताहे तेव समंतमा अनि काहिति असुवा एवं राबट्टादि सुवि पत्तियसुत्तातो पोहत्तिपसु सविसेसतरा दोसा । पुरिसारणं जो उगमा, णियमा सो चेव होड़ इत्थी । श्राहारे जो उगमो, शियमा सो चैत्र उवधिम्मि ||२०|| जो पुराणं गमो दांते विसो क्षेत्र दो सु तेसु वत्तव्यो । जो आहारे गमो सो चैत्र श्रवसेसिओधकरणो दो | नि० चू० ३ ० ॥ कोलकिया की गृहलमतिज्ञा श्री० कीतुकार्थमित्यर्थे रा० । नि० चू० । ( ६७३ ) निधानराजेन्द्रः । कोंकण - कोङ्कण-पुं० | कोङ्क एव स्वार्थे अए कौक्कणः । पुं० । अनार्यक्षेत्र (देश) दे, सूत्र० २ ० १ भ० । नि० चू० । विशे० । श्रा॰ चू० । तस्य राजा अग् । तद्देशनृपे च । वाच० । ० चू० आ० म० । श्राव० नि० चू० । श्रातु० । कोकणदारग-कोणदारक पुं० [कोपदेशमियादारविशे० 'शब्दे २०७ पृष्ठे कथा निरूपिता) कोकणावरियको स्वनामध्या साथी, आचार १ श्रु० ४ श्र० २ उ० । , कोंच- क्रौञ्च- पुं० | कुञ्च श्रच् वा गुणः । कैलाशे, धनदावा से ते इति । वाच अनादेशभेदेवासनि सू०२०१० प्र०] [] स्वार्थ हा "श्री त श्रोत्" ॥ ८ ॥ १॥१४९॥ इत्यौकारस्य श्रोकारः । वकपतिभेदे खियामयत्वात्कीएकी | र खगे, वाच० । " बधं च सारसा कौंचा, 1: सायं सत्तमं गया 'स्था० ७ डा० । मयदानवपुत्रे च वाच० । कॉपी कोई ०, सिंहलीपे, हंस पे, श्री सुमतिनाथदेवपाडुकाः । ती० ४५ कल्प । कोचवर क्रौञ्चवर पु०कुशचीपादसंधान पानति क्रम्य स्थिते द्वीपभेदे, अनु० कोंचवीरग-क्रौञ्चवीरक-पुं० । पेटासदृशे जलयाननेदे, वृ० १४० । कॉचस्सर-कोचस्वर त्रियमरः स्वरो यस्य स तथा क्रोम्चस्येव मधुरारायके जी०३ प्रति०० को यस्येपायासेन व येषां ते कास्पराः श्रीसशेषु निर्द्धादिस्वरेषु सं० रा० कोंचासण - क्रौञ्चासन-२० श्रासन, यस्मादभागेचा व्यवस्थिताः। जी० ३ प्रति० ॥ जं० । कोंचिय कुञ्चितत्रियते "पसंकोचिपवरधरा" प्रश्न० ४ आश्र० द्वार १६ए कोंमिआ कुमिका-श्री० मी० [सं०] द्वार कोमिक० ० कुनिः यकृतिमनगोत्रापत्ये पाचतार्थी प्रभासश्च । श्रा० म० द्वि० । शिवभूतेः (बोटिक निवाचाय्र्यस्य) शिध्ये विशे० । महागिरेराचाय्र्यस्य शिष्ये, “ महिला नगरी लच्छीघरं चेतियं महागिरी य श्रायरिया सीसो कोडिये, तस्म वि श्रसमितो सीसो " श्र० चू० १ श्र० । स्त्रियां तु पि यलोपः । वंशब्राह्मणे, कुणिमनस्य युवाऽपत्यम् गर्गा० यञन्तात् फक्, कौण्डिन्यायनः । कुण्डिनस्य युवापत्ये, पुंग स्त्री० । वाच० । कॉमिकोवीर कौटिल्यको वीर-१० कीमिया कोट्टवीरश्चेति सर्वो द्वन्द्वो विभाषया एकवद् भवतीति वचनात् । की को शिव शिष्यइये, विशे० । कोकंतिया - कोकन्तिका -स्त्री० । लोमटिकायाम्, झा० १ श्रु० १ I 1 अ० प्रश्न० | जीवा० 1 जं० । प्रज्ञा० । सा च शृगालाकृतिः बोमटिका रात्रौ 'कोको' इत्येवं रारटीति । आाचा० २ ० १ ०५ उ० । त्रसकायाम्, प्रति० जी० । कोकणव कोफनदन० कोकानाम अन्तर्भूतयर्थे नद श्रच् । रक्तकुमुदे, रक्तपद्मे च । वाच० । प्रज्ञा० । कोक एयच्छवि-कोकनदच्छवि-पुं० । कोकनदस्य चिरिव बविप्तिर्यस्य । रक्तवर्णे, तद्वति च त्रि० । वाच० । प्रज्ञा० । कोकय-फोकक पुं० [कोकाचखतियानाथ सी० ४० कल्प | ( 'कोकावसहिपासणाह ' शब्दे कथा वक्ष्यते ) कोक (ग) स्पर-कोकस्वर-० णस्वरेण बसाले जी० ३ प्रति० । कोकासहिपासणाह फोकायसविपार्श्वनाथ पुं० [कोकावसतिस्थे पाश्नाती नमिऊण पासणाहं, पचमावइनागरायकय सेवं । कोकावसही पास स्स किंपि वत्तव्ययं मणिमो " ॥ १ ॥ सिरिचाणसं हरि साकार मीश्री अजयदेवरी हो या गामाहरंतो हिचामा डियो बाहि सपरिवारों, अन्नया सिरिजयसिंहदेवनरिंद्रेण गयखंधारूढेण रायवाडियागरण दिठो मलमलिणवत्थदेहो, रण्णा गयखंधा ओ ओअरिजण दुक्करकारन त्ति दिएं 'मलधारि'ति नामं श्रन्नस्थिऊण नयरमज्झे नंओ रमा, दियो उबस्सश्र घयवसहीसमीचे, तत्थ द्विश्रा सूरिणो, तस्स पट्टे कालकमेणं श्राणगगंधनिम्मायी सिरिमाओ दि अहं वासारच उम्मासीए घयवसहीए गंतॄण वक्खाणं करेंति, अन्नया कस्स विघयवसहीए गुट्टियस्स पिउकज्जे बलिवित्थाराश्करणं घयवसहीचेइए आढतं, तश्रो वक्खाणकरणत्थमाया सिरिहमेचंद्र पसिद्ध डिजि कोकासहिपासाह कोड-एम १० प्र० ३ ० द्वार कोंडलमेत्तग- कुएमलमित्रक- पुं० । स्वनामख्याते व्यन्तरे, "कोतपासे, चुपपादन वाढम्म "कुलमंत्रानो वाणमन्तरस्य यात्रायाम, बृ० ३३० । - Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोकावसहिपासणाह (६७४) अभिधानराजेन्छः। कोट्ट क्खाणं इत्थ न कायब्धं, इत्थ बलिममत्राश्णा नत्थि श्रोगामो।। द्विा(सच शिल्पसिक इति । सिप्पसिक'शब्दे वक्ष्यते ) तओ सूरीहिं भणिय-थोवमेव अज्ज वक्खाणिस्सामी, मा चाउ- "कोक्कासो नज्जेणि गतो किह राय जाणावे" श्रा००१अग म्मासीवक्खाणविच्ोत्रो भविस्सत्ति, तं चेव न परिवन्नं गु- कोगंमी-कोकाएमी-स्त्री० पुरीभेदे, यत्र षष्ठवासुदेवो निदानमहिपहिं । तओ अमरिसविलक्खमाणसा पडिआगया उवस्सय- कार्षीत् । ती०१० कल्प। मायरिया, तओ दृमिअचित्ते गुरुणो नाऊण सोवनिमोक्ख- कोच्चित-कोचित-पुं० । शैकके, “खमगो किमावुको न कोच्चिदेवनायगनामगेहि सहि मा अन्नया वि परावण एवंविहा । तोवावि।" व्य०६०। अवमाणो होउ तिघयवसहीसमावे चेअकरोषणथं भूमी | .. कोच्च-कौत्स-पुं० । स्त्री० । कुन्सस्य ऋषेरपत्यम् ऋष्यण् । मागया, न य कच्चाविका, तो कोको नाम सिद्धिभूमि मग्गा, वारियो असो घयवसह गट्रिगाह निउणदम्मदापश्च्छणेण । त. कुत्सापत्ये, बाच० । कुत्साऽऽस्यपुरुषप्रनवे मनुष्यसन्ताने यो ससंघा श्रागया सूरिणो कोकयस्स घरं, तेण वि पामवन्नं तदूरूपे मूखगोत्रभेदे, बहुप्वणो बुक्, कुत्साः शिवभूत्यादयः। काऊण भणि ग्रं-दिना मए नूमी जहचि अमुलेण, परं मम ना "कोच्छं सिवनूई पिय" इति वचनात् । "जे कोत्था ते सत्तमेणं चेनं कारेअब्धं । तओ मृरोहिं सावहिं अनह'त्ति पांड विहा पराणत्ता । तं जहा-ते कोत्था ने पोग्गलायणा ते पिंगायणा वनं. तत्थ य घपवसहीअासन्नं कारिथ चइअं,'कोकावहि' त्ति ते कोमीणा ते मंडक्षिणोते हारिया ते सोमया"। स्था०७ ठा। छाविप्रो तत्थ सिरिपासनाहो पृजए निकालं, कानक्कमेण| कुन-पुं०। उदरदेशे, ज्ञा० १ श्रु० १ अ०। सिरिजीमदेवरजे पट्टणं नजतेण माबबरपणा सा पासनाहपडिमा को-कोट-पुं०। दुर्गे, नत्त०३० अ०। अटव्यां चतुर्वर्णजनपदविभग्गा, तो सोनियमोक्खदेवनायगसंताणुप्पन्नेहि रामदेव | मिश्रे भिल्लमुर्ग, बृ० १ उ० । नि० चू। श्रामाधरसीहि उद्धारो करेउमाढत्तो, आएसणाप्रो फलहीतिगं प्राणीय, नियत निहोस, तओ विवतिगे वि घडिए न कोऽत्ता-कुयित्वा-अव्यः । खएमशः कृत्येत्यर्थे, “समीरिया परिनोसो संजाओ गुरुण सावयाणं च, तमो रामदेवेन अभि- कोट्टाल करेति" सत्र०१ श्रु०५०२ उ० । गहो गहिरो-जहा ई अकाराविअ पाससामिबिंब न जुजामि कोट्टकिरिया-कोट्टक्रिया-स्त्री० । महिपकुट्टनक्रियावत्यां रोजरुत्ति, गरुणो वि वासे कुणंति म्ह, तो अट्टमोववासे रामदेव- पायां चण्डिकायाम, न०३श०१०। झा० । अनु। उपचा. स्स देवादेव सो जाओ, जहा जत्थ गोहालआ सपुप्फपक्खया रात्तदायतने च । ग०२ अधिः । दीस तस्स डिट्ठा इत्येव चेअ परिसरेइ त्ति, पहिं हत्थेहि फल-। कोग-कुट्टक-पुं० । काठतकके वर्द्धकिनि, प्राचा०२श्रु०१ अ०५ ही चिहइति खणिऊण लद्धा फाही,कारिअं निरुवमरूबं पास उ०। प्रचुरफलायामटव्याम्, गत्वा फलानि पर्याप्त गृहीत्वा यत्र नादविवं, वारससयास (१२६६। विक्कमसंवच्चरे देवाणंद गत्वा शोपयति पश्चाद् गन्त्री पोट्टलि कादिजिरानीय नगरे विसूरीहिं पइट्टियं, नावि च चेइए, पसिळंच कोकापासनाह त्ति।। क्रीणातीत्येवं फलशोषणस्थाने, न० । वृ० १ उ० । रामदेवस्स पुत्ता निहुणजाजानामाणोनिहुणणामस्स पुत्तो मन्- | ओ,तस्स पुत्ता लेण्हणजश्तसीहनामधेया, ते अपूप्रति पदिणं | कोट्टण-कुट्टन-न० । चूर्णने, प्रश्न १ आश्र० द्वार। पासनाई, अन्नया लेण्हएस्स सिरिसंखसरपासनाहेण सुमि-कोदवीर-कोदवीर-पुंग शिवन्तेवाटिकाचार्यस्य शिष्ये, विशे० णयं दियणं । जहा-पहाए घोडाच उकं जाय अहं कोकापासनाहपडिमाए सन्निहिस्सामि, तम्मि घमिश्राचउक्के एअम्मि कोट्टि जमाण-कुट्टयमान-त्रि । उद्खलन कुद्यमाने, प्रा. म०प्र०। विवे पूइए किर अहं पश्यो ति, तहेव बोगेहि पूज्जमाणो कोकापासनाहो पूरेइ सखेसरपासनाह व परब्बए, संखेस- कोट्टिम-कट्टिम-न० । "प्रोत्संयोगे"।८।१ । ११६ । इति उका. रपासनाहविसया पुज्जाजत्ताइअभिग्गहा तत्थेव पुज्जति ज- रस्याकारः । प्रा०१पाद । उपरिबरूनूमिकगृहे, व्य०४ न० । णाणं, एवं सन्निहिअपामिहे राजाश्रो भयवं 'कोकयपासनाहों'। कोट्टिमता-कुट्टिमतन-न । मणिनूमिकायाम्, शा० १ श्रु० १ दिलीपमाणमत्ती मलधारिगच्छपडिबको।" अणहिलपट्टः। श्रबद्धनमितले. ज०१ वक०। णममण-सिरिकोकावसहिपासनाहस्स । इय एस कापलेसो, होउ जिणाधुअकिसो" । १॥ इति कोकापार्श्वनाथकल्पः कोहिय-बुद्धयित्वा-अव्य० । खण्डशः कृत्वेत्यर्थे, जी०३प्रति०। समाप्तः ।। ती० ४० कल्प। कोट्टिन-कोट्टिक-पुं० । ह्रस्वमुद्गरविशेष, विशेः । कोकासिय--विकमत-त्रि०ा पद्मवाद्विकसिते, जी०३ प्रतिशत कोम-रम-धा। क्रीमायाम, "रमेः संखुडखड्डोम्भावकिलिकिजंक। "कोकासियधवलपत्ता ” कोकासिते पद्मबद विकसि- चिकोट्टममोट्टायणीसरवेल्वाः "।।८।४। १६७ ॥ इति रमः ते धवले क्यचिद्देशे पत्तले पदमवती अकिणी लोचने येषां ते कोट्टमादेशः। कोहमद, रमते । प्रा०४ पाद । कोकासितभवनपत्रावाः। जी० ३ प्रति० । त। कोह-कोष्ठ--पुं० । कुष थन्। गृहमध्ये,वाचा धान्यभाजने, स्था० कोकुइय-कौकुचिक-त्रि। भाण्डे, जाएडप्राये वा । औलागा ३ ठा०४ उ० । कुशले,स्था०३ ग०१०। ब01"काण कोट्ठोवकोक-वि-श्रा-ह-धा० । अाह्वाने, " व्याहृगेः कोकपोक्को" ।। गए" श्री० । भाज। नदरमध्ये आत्मीये, त्रि० ।" स्थाना४। ७६ । इति ब्याहरते. कोक्कादेशः। "कोक्काइ,वाहरई"याहर. भ्यामाग्निपक्तानां, मूत्रस्य रुधिरस्य च । हटुण्डुकः पुप्पुषश्च, ति । प्रा०४ पाद। कोष्ठ इत्यभिधीयते" ॥ १ ॥ इति सुश्रुतोक्ते प्रामाग्नि पकमूत्ररुधिरस्थाने, वाच । “पंचकोठे पुरिसे, कोठा रस्थिकोकास-कोकास-पुं० । स्वनामख्याते वकिरने, प्रा० मा या" कोष्ठः पुरुषः, पुरुषस्प पश्च कोष्ठका भवन्तीत्यथः। Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७५) कोद्र अनिधानराजेन्द्रः। कोडिम षट् कोष्ठा स्त्री । कोष्ठकस्य रूपं संप्रदायादवगन्तव्यमित्यर्थः । | कोम-कोट-पुकुट घञ्। कौटिल्ये,आधार घञ् । दुर्गे, वाच०। तं० । कोष्ठ श्व कोष्ठः। अविनष्टसूत्रार्थधारणे, नं० । प्रशा०।। कु ( को)-पुं० । न० । वाससमुदाये, न. १६ श० ६ | क्रोम--पुं० । 'क्रड' घनोभावे। संझायां घम् । शूकरे, भुजयारउ० । उत्पलकुष्ठे, प्रश्न ५ सम्ब० द्वार । रा०। न्तरे, न० । स्वी। वृक्षकोटरे, घनीनूते, अश्वानामुरसि, उ त्तरग्रामभेदे, वाराहीकन्दे, पुं० । शनिग्रहे, वाच० । पत्रा. कोहग-कोष्ठक-न० । आश्रयविशेषे, व्य०१ उग लोहकोष्ठका कोष्ठक-न। श्राश्रयावशष, व्य०१ उगलाहकाष्ठका दिशाटने, झा०१ श्रु०११ अ०। दौ, षो०११ विवः । श्रावासविशेष, ओघ । अपवरके, दश० कोडग-कोटक-पु० । स्त्री० । कुट-गवुन् । जातिन्नेदे, वाच । ५०१०। श्रावस्तीनगरीस्थे तिन्दुकोद्याने स्वनामख्याते सिमसारीति Arari सऊजेणार " चैत्ये, ज्ञा०२ श्रु.१ अ०भ०। श्राव। स्था० । उत्त। | निच०१०। कोहघर-कोष्ठगृह-न० । धान्यानां कोष्ठागारे गृहे, रा०। कोडर-कोटर-पुं० । न । कोटं कौटिल्यं राति रा०-कः । वृक्षकोटपुर-कोष्ठपुट-पुं० । कोष्ठे यः पच्यते वाससमुदायः स स्कन्धादिस्थगह्वरे दुर्गसन्निकृष्टदेशादौ, कोटरं दुर्गसन्निकृष्टं वकोष्ठ एव, तस्य पुटः पुटिकाः कोष्ठपुटः । भ० १६ श०६ उ०। नं तथाभूतवृक्षाणां वा वनम् कोटरा । पूर्वपददीर्घः णत्वं च । ज्ञा०। जं० । वासविशेष, ज्ञा०१ श्रु०१७ अ०।। कोटराधणम् । वनोंदे, न०। वाच । श्राव० । कोट्ठवनि-कोष्ठबलि-पुं० । कोष्ठबलौ,"विवद्धतप्पेहिँ विवमचि- कोमल-कोटर-पुं० । पक्षिनेदे, जीवा० १ अधि। औ०। ते, समीरिया को?बविं करिंति।" सूत्र० १ श्रु०५ अ० २ १०। कोमाल-कोमाल-पुं० । गोत्रप्रवर्तके ऋषिभेदे, " उसभदत्तकोहबुद्धि-कोष्ठबुछि-पुं० । कोष्ठकप्रक्षिप्तधान्यमिव यस्य सू- स्स माहणस्स कोमालसगोत्तस्स देवाणंदाए माहणीए " त्रार्थो सुचिरमपि तिष्ठतः स कोष्ठबुकिः । विशे० । लब्धिमत्पु- श्राचा० ३ चू० । प्रा० म०।" कोमालैः समानं गोत्रं यस्य स रुषभेदे,यथा कोष्ठके धान्यं प्रतिप्तं तदवस्थमेव चिरमप्यवति- तथा, तस्य कोडालगोत्रस्येत्यर्थे, कल्प० १ कण । ष्ठते न किमपि कालान्तरेऽपि गलति, एवं येषु सूत्रार्थी निक्षिप्तौ | बात,एव येषु सूत्रार्थी निक्षिप्ती | कोमालसगोत्त-कोमालसगोत्र-त्रि०। कोडालैः समान गोत्र तदवस्थावेव चिरमप्यवतिष्ठेते ते कोष्ठबुख्यः । बृ० १ ०० । यस्य स तथा। कोडालसगोत्रे, कल्प०१ कण।। "कट्यधमासुनिग्गल-सुत्तत्था कोबुद्धीप" कोष्ठकधान्यवत्सु- सोनि-खी० । कुट इज । धनुषो ऽग्रभाग, वस्तुमात्रस्यानिर्गलावविस्मृतत्वाचिरस्थायिनौ सूत्रार्थों येषां ते कोष्ठकधान्यसुनिर्गलिसूत्रार्थाः कोष्ठबुख्यः । विशे० । पा० । प्रश्न० । ग० । ग्रभागे, अस्त्राणां कोणे, उत्कर्षे, वाचः। स्था० । कर्णिकालब्धिभेदे, "कोटबुद्धि य कोट्टयवंतसुनिग्गलसुत्तत्था" कोष्ठ कोणविभागे, स्था०० ठा। विनागमात्रे, " नवकोडिपरिसुश्व धान्यं या किराचार्यमुखाद्विनिर्गतौ तदवस्थावेव सूत्रार्थी के भिक्खे पन्नत्ते" नवभिः कोटिनिर्विभागः परिशुरूं निर्दोष धारयति न किमपि तयोः सूत्रार्थयोः कालान्तरेऽपि गलति सा नवकोटिपरिशुद्धम् । स्था०६०। दश०। व्यसंघातानां कोष्ठबुद्धिः । प्रव०२७७ द्वार । श्रा० म० । प्रशा० । प्रा० चू०। स्वरुपपरिमाणे, औ०1 प्रयुते, कल्प०७वण | शतं लकाणा मेका कोटिः । अनुशतलक्षष विंशतौ च । है।०३ प्रका०। कोट्ठसमुग्ग-कोष्ठसमुफ-पुं० । कोष्ठा श्रावासविशेषास्तेषां स-| तत्संख्येये च, पृक्कायाम, संशयस्यालम्बने वादे निर्णयार्थ मुझकः संपुटकः । श्राधारविशेषे, जी०३ प्रति०।। कृते पूर्वपके, पा० ङीष् कोटीत्यप्यत्र । वाच०। कोहाउत्त-कोष्ठागुप्त-त्रि० । कोष्ठे कुशूले आगुप्तानि तत्प्रक्षेपणेन | कोडिक-कोटिक-पुं० । कोट्या बहुधा कायति प्रकाशते कै-कः संरक्षितानि कोष्ठागुप्तानि। भ०६ श०६ २० । कुशूझे संरक्तिते इन्छगोपकोटे, वाच । सुहस्तिशिष्ये सुस्थितसुप्रतिबके, स्थ. पु, बृ०२ उ०। कोट्ठागार-कोष्ठागार-न० । भाण्डागारे, नि० चू०६० । विरे, कोटिशः सूरिमन्त्रजपात कोटिशः सृरिमन्त्रजापके, क ल्प०८ कण । द्वा० । " तदनु च सुहस्तिशिष्यो, कौटिककोष्ठा धान्यपल्यस्तेषामगारं तदाधारजूतं गृहम, उत्त०११ २०। काकन्द कावजायेताम् । सुस्थितसुप्रतिबछौ, कांटिकगच्छस्ततः धान्यगृहे, झा० १ श्रु०१ अ० । स्था। औ० । रा० । कल्प० । समभूत्" ॥ ग०४ अधिः । कोहि ( " )-कृष्टिन-त्रि० । कुष्ठमष्टादशनेदं, तदस्यास्तीति कौटिक-त्रिका कूटन मृगबन्धनयन्त्रण चरति ठक् । मांसविक्रकुष्ठ।। कुष्ठरोगिणि, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ० (कुष्ठभेदाः 'कुछ' योपजीविनि, बाच०। शब्दे अस्मिन्नेव नागे ५७८ पृष्ठे उक्ताः) कोट्ठिया-कोष्ठिका-स्त्री.। लोहादिधातुधमनार्थमृत्तिकामय्यां कोमिग (य) गण-कोटिकगण-पुं० । कोटिकान्निर्गते गणे, कलिकायाम्, उपा०२ अग आचा। "पुरिसप्पमाणा होण "थेरेहितो सुटियसुप्पमिबद्धहितो कोटिककाकंदिपहितो वधिया वा चिखल्लमती कोध्यिा जवति"। नि० चू०१७ उ०। ग्धावच्चसगोतहिंतो इत्थ ण कोमियगणे णाम गणे निग्गए" "जमलकोहियसंठाणसीठयं तस्स दो वि उरू"समतया व्यव कल्प०० कण । स्थापितकुशूलिकाद्वयसंस्थानसंस्थिती द्वावपि तस्य नरू जो। कोडिग्गसी-कोट्यग्रशस-अव्यका कोटसंख्ययत्यर्थे, व्य०१ उ०। उपा० २ अ०। कोमिम-कौण्डिन्य-पुं०। कौत्सगोत्रविशेषभूते पुरुष, तदपत्यकोइ-क्रोष्टकि-पुं० । नेमिराजीमतीविवाहमुहूर्त्तदे ज्योतिर्वि- षु च । स्था०७ ठा। कोरिमन्यो मेतार्यः, प्रजासश्च । श्रा. हैद, लग्नं पृष्टश्च कोकिनामा ज्योतिर्वित्प्राह-"वर्षासु शुभका- म.द्वि० । महागिरिसूरीणां कौण्डिन्यो नाम शिप्यः यस्य याणि, नान्यान्यपि समाचरेत् । गृहिणां मुख्यकार्यस्य,विवाहस्य | शिष्योऽश्वमित्रः । विश०। स्था० । आ. चू०। कल्पना श्रा० तु का कथा" ॥१॥ कल्प० ७क्षण । म। उत्त। शिवनुतेः सहस्तमल्लदीकितस्य (विशे० प्रा० Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७६) कोमिम अनिधानराजेन्षः। कोमीकरण चू) गौतमस्वामिना प्रवाजिते अष्टापदे प्रथममेनसामारूढे नमितित्थे गकोमी, सिद्धा तेणेस कोमिसिला ।। १७ ।। तापसगुरौ च । वाच०। छत्ते सिराम्मि गीवा, वच्छे उअरे कमी ऊरुसु । कोमिदमणीइ-कौएिमन्यदण्डनीति-स्त्री० । कौएिमन्यप्र- जाणू कदमवि जाणू, नीया सा वासुदेवेण ॥ १७ ॥ णीतासु दण्डनीतिषु, व्य०१ उ। श्य कोमिसिलातित्थं, तिहुअणजणजणि अनिव्वुधावत्थं । कोडिवच्छ-कोटिबद्ध-त्रि० । कोटिसंख्याके, व्य० ३ ०। । सुरनरखरमहि,भविभाणं कुणउ कम्वाणं"।१६। ती०४१कल्प। कोमिनूमि-कोटिनूमि-स्त्री०चतुरशीतितीर्थेष्वन्यतमे कोटिभू वासुदेवोत्पाट्या कोटिशिला शाश्वत्यशाश्वती वा?,साच कुत्र स्थानकेस्ति?, तथा सर्वैर्वासुदेवैःसर्वाऽप्युपाट्यतेऽथ वैकदेमौ वीरकोटिभूमिनामके तीर्थे, यत्र श्रीवीरःप्रतिमारूपेण वि शेन ?, तथा नराणां काट्योत्पाट्या कोटिशिलेति यथार्थ नाम, राजते । ती०४३ कल्प। अन्यथा वेति प्रश्ने, नत्तरम-कोटिशिलाऽशाश्वतीति शायते, कोडिन-कौटिल्य-न० । कुटिलस्य भावः ध्या वक्रीभावे, चा गङ्गासिन्धुबैताब्यादिशाश्वतपदार्थानां मध्ये शास्त्रे तस्या अदणक्यमुनौ, वाच। मुझरे, विपा० १ श्रु०६अ। शनात, तथा सा भगधदेशे दशार्णपर्वतसमीपे चास्तीति, कोमिन्वय-कौटिल्लक-न । लौकिके नोभागमतो भावभुते, तथा सर्वैरपि वासुदेवैः सर्वथाऽप्युत्पाट्यते, न त्वेकदेशेन, परं अनु०॥ प्रथमेन त्रस्थानं, चरमेण च नूमेश्चतुरङ्गुलानि यावन्मह ता कऐन जानु यावद्वा नीयते, तथा नराणां कोट्योत्पाट्यत्वेन कोमिसिला-कोटिशिला-स्त्री० । जरतक्षेत्रमध्ये मगधेषु तीर्थ श्रीशान्तिनाथादिजिनषटू तीर्थगतानेकमुनिकोटीनां तत्र सिभेदे, ती। द्वत्वेन व कोटिशिलेत्यभिधीयते इत्येतदकरादि तीर्थकस्पादौ " नमिश्र जिणे उवजीवि, वक्काई पुरिससीहाणं । सन्तीति । ७ प्र० सेन १ उल्ला० । श्रा०म० । कोमिसिलाए कप्पं, जिणपहसूरी पयासे॥१॥ कोमीकरण-कोटीकरण-न० । कोट्येव कोटीकरणमिति । शह जरह खित्तमझे, तित्थमगहेसु अस्थि कोडिसिला। विभागे, दश। अज्ज विजं पूज, चारणसुरअसुरजक्खेहि ॥२॥ भरहद्धवासिाहिं, अहिटियदेवसया, जास सयं । पिंडेसणा य सव्वा, सखेवणोयर नवसु कोमीसु । जोपणमेगं पिहला, जोयणमेगं च उस्सेहो ॥ ३॥ न हणइ न पयइ न किण,तह कारवणअणुमईहिं नव ३०५॥ तिक्खरपुडविपदणो, निश्र परिरक्खंति बाहुबलमखिला।। पिण्डपणा च सा उफ्रमादिजेदनिम्ना संकेपेणावतरति नवसु अप्पामिअ जं हरिणो, सुरनरखयराण पञ्चक्खं ॥४॥ कोटीषु । ताश्चेमाः-न हन्ति, न पचति, न क्रीणाति स्वयम् । पढमेण कया उत्तं, वीएण पावित्रा सिरं जाय । तथा न घातयति,न पाचयति,न क्रापयत्यन्येन । तथा घ्नन्त वा तश्पणं गीवाए, तो चउत्थेण बच्छयले ॥५॥ पचन्तं वा क्रीणन्तं वा न समनुजानात्यन्यमिति नव । पतदे. अनरंत पंचमपण, तह य छठण कड़ियडं नीश्रा। वाह-कारणानुमतियां नवति गाथार्थः ।। ३०५ ॥ उरुपज्जंतेणं सत्ते-मेणं उप्पाडिया हरिणा ॥६॥ जाणूसु अहमेणं, नीश्रा चलरंगुलं तु जूमीओ सा नवहा मुह कीरइ, उग्गमकोमी विसोहिकोमी य। उद्धरिमा चरमेणं, काहेणं वामवाहाए ॥॥ सु पढमा भोयरई, कीयतियम्मी विसोही न ॥ ३०६॥ अवसप्पिणिकालवसा, कमेण हायंति माणवबन्लाई। सा नवधा स्थिता पिण्डैषणा द्विविधा क्रियते-उसमकोटी, तित्थयराणं तु बलं, सब्वेसि हो गुरुरूवं ॥८॥ विशुसिकोटी च। तत्र षट्सु हननघातनानुमोदनपचनपाचनानु. उप्पामेउं तीर३, जे बलवतीए सुहरूकोमीए । मोदनेषु प्रथमा उसमकोटी अविशोधिकोट्यामवतरति। क्रीततेणेसा कोडिसिला, कल्लेणावि हरिणाओ॥६॥ त्रितये क्रयणक्रायणानुमतिरूपे विशोधिस्तु विशोधिकोटी चक्काउहो त्ति नामे-ण संति नाहस्स गणहरो पढमो। द्वितीयेति गाथार्थः ॥ ३०६ ॥ काऊण अणसणविहि, कोडिसिलाए सिवं पत्तो॥१०॥ सिरिसतिनाह-तित्थे संखिजानो मुणीण कोमीओ। एतदेव व्याचिख्यासुराह भाष्यकार:इत्थेव य सिद्धाओ, एवं सिरिकुंथुसिद्धेवि ॥११॥ कोमीकरणं विहं, नग्गमकोमी विसोहिकोमी य। अरणहजिणतित्थम्मि वि, वारस सिद्धा उ समणकोमित्रो। उग्गमकोमीउकं, विसोहिकोडी अणेगविहा ॥३०७॥ छ कोमी उ रिसीण, सिद्धाश्रो मल्लिजिणतित्थे ॥ १२ ॥ कोटीकरणमिति कोट्येव कोटीकरणम् । कोटीकरणं द्विविधम्मुणिसुब्बयजिणतित्थे, सिद्धाश्रो तिनि साहुकोमीयो। उन्मकोटी, विशोधिकोटी च । उम्मकोटीपटू हननादिनिष्पन्नश्क्का कोम) सिका, नमिजिणतित्थेऽणगाराणं ॥ १३ ॥ माधाकर्मादि, विशोधिकोटी क्रीतत्रितयनिष्पन्ना अनेकविधा अम्म वि अणेगे ति-त्थमहसीसा सयं सय पत्ता। श्रोधौदेशिकादिभेदेनेति गाथार्थः ॥ ३०७ ॥ शह कोमिसिला तित्थं, विक्खायं पुहविवलयम्मि ॥१४॥ षट्कोट्याऽऽहपुवायरिपहिं च इत्थ सबिसेसं किं पि भणिजं । तं जहा कम्मद्देसियचरिमति-गं पश्य मीस चरिमपाहुझिया। जोनणपिहुलायामा, दसन्नपब्वयसमावि कोडिसिला। जिणरक्कतित्थसिद्धा, तत्थ अणेगाउ मुणिकोडी ॥१५॥ अकोयर अविसोही, विसोहिकोमी नवे सेसा ॥३०॥ संखिज्जा मुणिकोडी, श्रमवीसजुगेहि कुंथुनाहस्स । कम संपूर्ण मेव, औद्देशिकचरमत्रितयं, कम्मौदेशिकस्य पाखअरजिण चुधीसजुम्गा, बारस कोडी सिकारो ॥१६॥ । रामभ्रमणनिग्रंथविषयं पूति भक्तपानपत्येव,मिश्रग्रहणात् पाखमल्लिस्स वि वीसजुगा, कोडि मणिसव्वयस्स कोडितिगं ।' एडश्रमणनिग्रंन्यमिथ्रजम, चरमप्रानृतिका बादरेत्यर्थः। अध्यव Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७७) अभिधानराजेन्द्रः | कोडीकरण पूरक इत्यविशोधिरित्येतत्पङ्कम, विशोधिकोटी भवति शेषा, श्रीदेशिकादिभिषाऽनैकविचेति गाथार्थः ॥ ३०० ॥ इहैव रागादियोजनया कोटी संख्यामाहद्वारा सत्तावीसा तदेव चउपन्ना। नई दो चैव सया, सत्तरा हुंति कोमीणं ॥ ३०८ ॥ रागाई मिच्छाई, रागाई समचम्मनालाई । नव 19 1 नत्र नत्र सचानीसा, नव नई एयगुणगारा || ३१० ।। चैत्रको कोटीमा तथ फोटनकोटीन तथा नयति कोटीन ए शत्यधिकोटीनामिति गाथा करार्थः । नायार्थस्तु वृरूसंप्रदायादवसेयः । स चायम्-" नव कोमीओ दोहिं रागदोसर गुणिया अट्टरस हवंति। ताम्र व नवमि चिरती गुणिताओं साथी त सच्चार्थीसा रागदोसेहिं गुणिया चउपन्ना हवंत, नाओ चैव एवदस समय गुणिया विसुद्धा भ निसानी तिहि नागर गुलिया दो सवा सत्तर हवंतीति गाथाऽर्थः ॥ ३०६ ॥ ३२० ॥ दश० ५ ० २ उ० । पिं० ( 'उमाम' शब्दे द्वि० भागे ६०५ पृष्ठे चैतद् भावितं न्य ) कोडणार- कोटी नार - न० । सौराष्ट्रविषये स्वनामख्याते नगरे, "रिय मुद्दासिद चयणसमिद्ध कोमीणारं नाम नयरं तत्थ सोमा नाम रिद्धिसमिद्धो ठक्कम्मपरायणां वा श्रागमपरायणो बंभणा हुत्था । " ती० ५६ कल्प । कोरिस कोटी वर्ष न० लाटदेशराजधान्याम, तस्यानायेंक्षेत्रेष्वन्तनवः । सूत्र० १ ० १ ० १ उ० । 66 कोडीवरिसं चलाडा य प्रब० १७५ द्वार । श्रा० क० आव० । 33 कोडी रिसिया - कोटी वर्षिका- स्त्री० । स्थविराट् गोदासात्कश्यपगोत्रान्तर्गतस्य गणस्य प्रथमशाखायाम, कल्प० ० कण | कोडी सहिय- कोटीसहित न० 1 कोटी भ्यामेकस्य चतुर्थीदेर नागपरस्य चतुर्थादिश्वारनविभाग इत्येवं लक्षणाभ्यां सहितं मिलितं युक्तं कोट सहितम् । मिलितोभयप्रत्याख्या नकोचतुर्थादेः करणे, स्था० १० ठा० । प्रत्याख्याननंदे, प्रव० । कोटीसहितमादगोसे जो कार्य तं वीयगोसेव । इस कोमी गमिलणे, कोकीसहियं तु नामे ॥ १४४॥ (ग) प्रकृत्वा तमुपचा करोतिषि इति कटद्विकमलद पयाप्रत्याख्याननिष्पना क्षणाचा द्वितीयदिनप्रभात क्रियागोपवासप्रस्थापनालकणायाश्च फोटेमेंलने तस्य कोटीसहितमिति नाम्ना प्रत्याख्यातः कोटिपनारूपमन्यतश्च तृतीयोपवासस्य प्रस्थापन रूपमनयोर्मी ने कोटिसहितम् मायामा निर्दिनिकै कासन के कस्थापीत यदाहृर्गणनृतः-" पठवणश्रो य दिवसो, पञ्चक्खाणस्स निष्ठवणी । जहि समिति दोनिवितं भन्न कोमिसहियंति ॥ प्र० ४ द्वार | "कोकीसहितं णाम जत्थ कोणीय मिलति गोसे आवासे एक अभतो गहितो र अधिका १७० को मुंबिय रवि श्रनन्तटुं करेति, वीयस्स उवणा पढमस्ल य निट्टावणा. पण दोसि कोणा पगन्थ मिलिता, एवं अमिमादि हश्र कोडीसहियं जो चरिमदिवसो तस्स विएगा कोमी, एवं श्रयं विलं णिच्चिए य एगालणएगठाणाण वि, श्रहवा श्मो मो विही, अन्तऋतो आणि परियं दुराराब असो ि स्थ संजोगा कायव्वा णिवित्तिकादिसु सव्र्व्वसु सरिसे विसरि सेलु य । आप चू० ६ अ० आव० । ल० । कोकुंचिणी कौटुम्बी खी० उत्तरयलिसद्गणस्य तृतीयशा- स्त्री० । खायाम, कल्प० ८ क्षण । को कुंचि (ए)कुटुम्बिन् श्रि० प्रधानकर्मकाशिरीश कौि का नरकं यान्ति । स्था० ३ ० १ उ० । को कुंचिय-कौडम्बिक बि० कुटुम्बरणे कुटु म्बरणे व्यावृते, कुटुम्बे भवः ठक् । कुटुम्बमध्यपातिनि, वाच० । कतिपय कुटुम्बी (स्वामिनि ) नायके, राजसेवके, न० २ ० १ उ० | कल्प० । स्था० औ० । अन्त० रा० ॥ जं० । श्रनु० । झा० । प्रज्ञा० । जी० । अथ कौटुम्बिकान्तं भावयति धन्नसुनरियं, कोट्ठागारं तु मज्झते कुटुंबिस्त । किं अम्मा देई, कई सहियं न एकीण | एकः कौटुम्बिकः स कर्षाणां कारणे उत्पन्ने वृद्ध्या कालान्तररूपया धान्यं ददाति तथा च या कौटुम्बिकस्य कोठागारा णि धान्यस्य सुभृतानि जातानि श्रन्यदा च तस्यैकं कोष्टागारं वृद्धिधान्यसुतं पहिना प्रका ध्यापननिमित्तं तत्र प्रदह्यमाने कोष्टागारे समागताः । किमेष कीटुम्बिकोऽस्माकं सुधा ददाति येन वर्ष विद्धानार्थमयु द्यता भवामः । एयरस पभावेण जीवा अम्हे ति एव नाऊ । अणे न समझीणा, विज्जविए तेसि सो तुझे ॥ अन्ये कर्पका एतस्य कौटुम्बिकस्य प्रभावेण वयं जीयन्ति स्म । जीवाः, अच्प्रत्ययः, जीविता इत्यर्थः । एवं ज्ञात्वा समालीनास्तत्र समागता विध्यापनाय च प्रवृत्तात्ततो विध्यापिते कोष्टागारे स कौटुम्बिकस्तेषां तुष्टः । ततः किमकार्षीदित्यत श्राह - " जे न सहाएगत्तं, करेसु तेसिं वट्टियं दिनं । दति न दियिरे प्रकासमा दुःखजीवीया ॥ ये तु सहायकाएं तेषामवृकं कालान्तरर हितं धान्यं दम इतरेषां तु सहायत्यम कृतयतां दग्यमित्युत्तरं विध्यापने दतं ततस्ते अकर्षकाः सन्तो दुःखजीविनो जाताः । एष प्रान्तः । अथ उपनयमनिधित्सुराहआयरिय कुंडु या सामायिथालिया भने साहू | वावाद अगणित सुखया जाए पत्रे तु । श्राचार्यः कुटुम्बीव कुटुम्बीतुल्य इत्यर्थः । सामान्यकर्षकस्थानीयाः साधवः, आचार्यस्य भिक्काटने वातादिव्यावाधानितुल्यान् सुत्रार्थान् जानीहि धान्यं धान्यतुल्यान् । एमेव विणीया करेंति चत्संग बेरा । हाति उदासीणे, किलेसनार्ग। य संसारे ॥ " Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७०) कोविय अभिधानराजेन्द्रः। कोमुईजोगजुत्त एवमेव कौटुम्बिकदृष्टान्तप्रकारेण ये विनीतास्तेषां स्थविरा कोत्थुन (ह) कोस्तुल-पुं० । कुं भूमि स्तुभ्नाति कुस्तुनो श्राचार्याः सूत्रार्थसंग्रहं कुर्वन्ति सूत्रार्थान् प्रयच्छन्ति । यस्तदा जलधिः। तत्र नवः पाण् । “ौत श्रोत्" || १ | १५६ । इत्यौउदासीनस्तत्र हापयन्ति इति, न प्रयच्छन्तीति भावः। स चोदा. कारस्य श्रोकारः। प्रा०१ पाद । विष्णोर्वक्षस्थे मणी, वाच । सीनो वर्तमानः केवलं सूत्राीयोग्यो जवेत, केशभागी च सं. "कोत्थुनो य मणी दिवो वासुदेवस्स"। ती०१० कल्प । सारे जायते। व्य०६ उ० । कुटुम्बभवेषु कायेषु, जी०३ प्रति०, कोदं (# ) ड-कोदण्ड-न० 'कु'शब्दे विच् । कोः शब्दितो दकोमूलग-कोदृषक-पुं० । कोद्रवविशेषे, प्रश्न० ३ श्राश्र द्वार । मोऽस्य, धनुषि, ततुल्यत्वात् भूलतायाम, देशभेदे च । धनकोढ-कुष्ठ-नका रोगजेंद, झा० १ श्रु०१३ अ० । विपा० । आव० । राशौ च । वाच । " कोदंडविप्पमुक्केणं नसुणा वामे पादे उपा०। सप्त महाकुष्ठानि । तद्यथा-अरुणोपुम्बरनिइयजिह्वकापा. विके समाणो" अन्त०५ वर्ग । बकाकनादपौगारीकदद्रुकुष्ठानोति । महत्वं चां सर्वधात्वन्तः कोदंडिम-कुदएिकम-त्रि० । कुदरामेन निवृत्त, जं० ३ धक्क० । प्रवेशादसाध्यत्वाच्चेति । एकादश कुष्ठानि । तद्यथा-स्थुवा कोदूसग-कोदपक-पुं० । कोऽवविशेषे, भ०६ श०७०। रुष्कमहाकुष्ठचर्मदवपरिसर्पविसर्पसिध्मविचर्चिकाफिटिभपा-- मापातारुकसंझानीति सर्वा एयप्यष्टादश । सामान्यतः कष्ठं सर्य कोहर-कोद्रव-पुं० । कु-विच् । कोः सन् भवति । द्रु-अच् । संनिपातजमपि वातादिदोषोत्कटतयाऽनुभेदभाग्भवतीति । धान्यभेदे,वाचः । जं० । प्रज्ञा । नि० चू। श्राचा ।स्था। श्राचा० १ श्रु०६ १०१३०। सूत्र । मदने, मदनकोऽवे, कर्म. ६कर्म०। ('सम्मत्त' शब्द त्रिकादि-कुष्ठिन्-त्रि०। कुष्ठमष्टादशभेदमस्यास्तीति कुष्टी । कुष्ठरो- | पुजीकरणप्रस्ताव मदनकोद्रवदृष्टान्तो द्रष्टव्यः) गग्रस्ते, प्रश्न०५ सम्ब० द्वार । श्राचा०। कोप्पर-कूपर-पुं० । न० । " श्रोत् कूष्माण्डी-तूणीर-कूर्परकोण-कोण-पुं० । कुण-करणे घन, कर्तरि अन् वा । येन धनु- | स्थूल-ताम्बूल-गुमूचीमूल्ये" ॥ ८ । १ । १२४ ॥ इति उकारस्य राकृतिना काप्ठेन वीणादयो वाद्यन्त। तस्मिन् वादनसाधने का कारः। प्रा० १ पाद । प्रश्न० । कुहणिकायाम,पञ्चा० ३विव० । ष्ठभेदे, अत्री, वाच० । वीणावादनदरामे, जी. ३ प्रति! बकटे, कोजीसणि-कौनीपणि-पुं० । गोत्रप्रवर्तकर्षिनेद, उमास्वाति"कोणी लगुमो जामति" नि००१ उ०। गृहादीनामेकदेश, | वाचकः कौमीणिगोत्रः । ती० ३६ कलप । नि००१ उ० । अस्त्राणामग्रनागे, मङ्गलग्रह, शनिग्रह, द्व-कोयन-कोमल-त्रि.। कु कलच , मुट् च, गुणः । जल, मृदा, योर्दिशोमध्यभागे विदिशि, वाच०। वाचा अकठोर,भ०२ श०१० औका राका विपा०। प्रातुन कोणालग-कोनालक-पुं० । स्त्री । कोने अलोने अलति अप- | र्याप्नोति। अल रात्रुब । सङ्घचारिणि, शबे, कृष्णपुच्छे, श्वेतोदरे,कोमयनिनिया-कोमलाम्लिका-री । अवकास्थिकायां चि. जलचरपतिभेदे, वाच० । प्रश्न० । कुन्युजिनेन्स्य पूजके, "सहिंतु सहस्साई, कुंथुजिणिदस्स परिवारो। कोणालगमाहि | श्चिणिकायाम् , ध०२ अधि० । प्रव० । यस्स य, सिरी' सूरस्म य सुयस्स"। ती०६ कल्प०। | कोमारिया-कौमारिकी-स्त्री० । कुमारस्येयं कौमारी, सैव कोणाली-कोनासी-स्त्री० । गोष्टचाम, बृ० १०नि० चू०।। कौमारिकी । कुमारप्रवज्यायाम, भ. १५ श० १ उ०। कामझ्या-कौमुदिका-स्त्री० । कोमुदोत्सवात्सवज्ञापनार्थ वाकोणिग (अ)-कृणिक-पुं०। श्रेणिकराजस्य चल्लणायां जाते द्यमानायां कृष्णवासुदेवभेाम,विशेः। श्रा०म० प्रा० चू०। पुत्रे, कल्प०८ कण। ('कूणिय' शब्देऽत्रैव भागे ६२६ पृष्ठे कथोक्ता) कोमई ( दी)-कौमुदी-स्त्री०। कुमुदस्ययं प्रकाशकत्वात् प्रिया० कोएठ-कुण्ठ-त्रि० । 'कुठि ' वैकल्ये । अन् । “ संयोगे" श्रण, ङी । "श्रौत ओत्" ।।८।१ । १५६॥ इत्यौकारस्य ८।१ । ११६ । इत्यादेरुत ओत्त्वम् । प्रा० १ पाद । ओकारः । प्रा० १ पाद । वाच । चन्डिकायाम, औ०। झा। कोत-कत्र-अव्य० । "ओत्संयोगे"८।१।११६ । इति श्रा तद्वत्प्रकाशिकायाम, कुमुदस्येयम् अ, ङीप् । “कुदाब्दन मही देरुत ओस्वम् । कस्मिन्नित्यर्थे, प्रा०१ पाद । झेया,मुद हर्षे ततो द्वयम् । धातुहनियमैश्चैत्र, तेन सा कौमुदी कोतव-कोतव-न० । मूषिकब्रोमनिष्पन्ने सूत्रे, विशः। अनु० ।। स्मृता" इत्युक्तायां कार्तिकपौर्णमास्याम,वाच । जं० । शा० । प्रा० म० । । रा० । व्य० । श्राश्विनपौर्णमास्याम, दीपोत्सवतियौ, उत्सवे, कोत्तिय-कौत्रिक-पुं० । नृमिशायिनि वानप्रस्थे, औ० । नि। कार्तिकोत्सवे, स्वार्थ के हस्बे कौमुदिका । ज्योत्स्नायाम, सं शायां कन् कुमुदकः । चातुराम कुमुदात ठक कौमुदिकः । भ० । मधुभेदे, स्था० ६ ०। श्राव। कुमुदसन्निकृष्टदेशादौ, त्रि० । वाच । कोत्थ-कुत्स-ना गोत्रभेदे, "जे कोत्था ते सत्तविहा पम्पत्ता ।कोम (दी)चार-कौमदीचार-पुंग। कीमुद्याः ज्योत्स्नायाश्चातं जहा-ते कोत्था ते पुग्गलायणा ते पिंगायणा ते कोमीणा ते प्राशस्त्यमत्र काले । आश्विनपौर्णमास्याम्, वाच । कौमुमंडलीणा ते हारिया ते सोमया" स्था०७ ठा। दामहे च । श्रा० क० । “अभओ सोणिो य पच्छन्नं कोमुदीकोत्यलकारा-कोत्थनकारी- स्त्रीनमर्याम, त्रीषियजीवे, चारं पेच्छति" नि० चू० १ उ० । श्राव। वृ०१०। प्रशा। कोमुईजोगजुत्त-कौमुदीयोगयुक्त-त्रि० । कौमुदी कार्तिकीपूकोन्यंजर-कौस्तम्जरी-स्त्री० । कुस्तुम्नशाविषु, जं. ३ र्णमासी, तद्योगयुक्तः। कार्तिक्यामभ्युदिते, " कोमुदीजोगजुवक० । नि० चू। ! तंव, तारापरितुम ससिं"। व्य० ४ उ० । Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७४) कोमुईरयणीयर अभिधानराजेन्द्रः । कोलावास कोमईरयणीयर-कौमुदीरजनीकर-पुंon कौमुदी कार्तिकी पौर्ण-| तस्य बुक । वदरीफले, न0। वाचला पाचागवदरचूणे,वृ०१ १०। मासी. तस्यां रजनीकरश्चन्छः। रा० कार्तिकीरजनीकर, निरोला-पं० अवनते शाखाग्रे, कोलम्बो हि लोके अव१ घर्ग । "कोमुश्रयणिगरविमलपडिपुन्नसोमवयणा " कौमु | नतवृक्षशाखाप्रमुच्यते, विपा० १ श्रु० ३ ०। झा० । दी कार्तिकी पौर्णमासी, तस्यां रजनीकरश्चन्छस्तहत् विमलं निर्मलं प्रतिपूर्णमन्यूनानतिरिच्यमानं सौम्यमरौद्राकारं वदनं कोलग-कोलक-पुं०। कुल एखुब् । अङ्कोटवृक्के,बहुवारवृक्के,गन्धयस्याः सा तथा । रा० जी० । नि। द्रव्यन्नेदे, मरिचे, ककोले च । न । वाच०। कोलजाती, स्त्रियां कोयनि-कोयवि-पुं० । सतपूरिते पटे, यो लोके माणिकी प्र-| तु “यदि एसा कोलगिणी एवं करेति" प्रा००४०। सिद्धा । वृ०३ उ० । प्रव० । नि० चू।। | कोलघरिय-कौनग्रहिक-पुं०। कुलगृहसम्बन्धिनि, उपा०२० कोरंट-(ग )-कोरण्ट (क)-पुं० । पुष्पजातिविशेषे, रा०। कोलचुम्म-कोलचूर्ण-पुं० । वदरशक्तुषु, दश०५०१ उ०। झा। जं। स च कण्ठसेलियाख्यः संजाव्यते। जं. १ वका कोलज्जा-कोलार्या-स्त्री० । अधोवृत्तखाताकारे धान्यस्थाने, अग्रवीजाः कोरएटकादयः। श्रा०म०द्विा कोरएटकादीनि बता, ता: श्राचा०२ श्रु० १ ० ७ उ०। इति लनासु अग्रवीजवनस्पतिष्वन्तनवति । औ० । स्था० । श्रा० म० । स्वनामख्याते भरुकच्छीये," कोरण्टगं जहा कोलट्ठिय-कुवलयास्थिक-न० । वदरकुलके, ज०६ श०१० उ०। भावियधम्म पुच्चिकण" कोरण्टकं नाम जरुकच्छे उद्यानं तत्र कोलपा (वा) गपट्टण-कोलपाकपत्तन-न० । स्वनामख्याते भगवान् मुनिसुव्रतस्वाम्यईननीदणं समवसृतः । व्य०१उ। तीर्थीभूते नगरे, कोलपाकपत्तने माणिक्यदेवः श्रीऋषभो कोरंटदाम-कोरएटदामन्-न० । कोरएटकाभिधाने पुष्पदा- मन्दोदरीदेवतावसरः, । ती० ४५ कल्प० । मनि, प्रश्न० ४ आश्रद्वार। कोलपा (वा) -कोलपाल-पु.। धरणस्य नागकुमारेन्द्रस्य कोरंटमसदाम-कोरण्टमाल्यदामन-न० । कोरण्टकः पुष्पजा- द्वितीय लोकपाले, नुतानन्दस्य च लोकपाले, स्था०४ ठा० १ तिविशेषः, स च करागसलियाख्यः संभाव्यते, तस्य माला- उ० । जं० । आ० चू० । विशे०। प्रा०म०। ये हितानीति कृत्वा माल्यानि पुष्पाणि तेषां दाम माला । | कोलव-कौलव-न० वबादिषु तृतीये करणे, सूत्र० १श्रु०१० जं०१ वक० । कोरएटकाभिधानकुसुमस्तवकवति माल्यदाम १ उ० । भ०। नि, औ०। रा० । कोरण्टपुष्पमालायाम, रा०। प्रज्ञा० । श्री० । कारय-कोरक-पुं० । न०। 'कुल' संख्याने एवुरू, सस्य रः। क- | कोलवण-कोलवन-न० मथुरास्थे वनभेदे, ती०१ कल्प। लिकायाम, वाच । फलनिष्पादके मुकल्ले, (आम्रप्रलम्बको- कोलसुणह-कोलवन् (शनक)-पुं० । महाशूकरे, प्राचा० १ रकदृष्टान्तेन कोरकचातुर्विध्यं 'पुरिसजाय' शब्दे वक्ष्यते स्थान। श्रु०१ अ०५ उ०प्रश्न। जं०। प्रज्ञा०। मृगया कुशले शुनि, ककाले,मृणाले च । चोरनामगन्धद्रव्य, ततः तारका० संजातेऽर्थे। प्रशा० ११ पद । तच , कारकितः । जातमुकुने, त्रि०ावाचा जाबके, विशे०। कोलसगिया-कोलशनिका-स्त्री० । स्त्रीत्वविशिष्ट कोलशुनपकिनंद, रा०। कजातो, प्रज्ञा० ११ पद ।। कोरव-कौरव-पुंस्त्री० । कुरोरपत्यादि,उत्सादित्वा०अञ् । त. कोबाल-कौलाल--न० । कुबालाः कुम्भकारास्तेषामिदं कौहेशस्य राजा अग् । तेषु नवो वा अण् । वाच । कुरुवंशोद्भवे, लालम् । मृभाएमे, अनु । बृ०१उ० । श्री० । भ० । कुरुवंशजूते कृत्रिये, श्री. । तहे-सोलाinौवाभा-न०। कुल्लालाः कुम्नकारास्तषाामशनृपे, पुं० । कुरुसंबन्धिनि, तद्देशभवे च । त्रि० । स्त्रियां दं कौलालं,तञ्च तद्नाण्डं च पण्यं नाजनं वा कौलालजाएमम्। ङीप् । वाच०। कुम्नकारकृते मृदुभाण्डे,“से सद्दालपुत्ते अप्पया कयाई वाकोरब कौरव्य-पुं० । स्त्री ।कुरोरपत्यम् । कुर्वादि० एयः। कुरुवंश्ये ताहतयं कोबालभंडं अंतो सालाहिंतो वहितो जीणेई" वाच० । कौरव्यगोत्र ब्रह्मदत्ते चुलनीसुते, जी. ३ प्रतिः । स उपा०७ अ०। चाऽवसर्पिण्यामष्टमश्चक्रवर्ती। श्राव०४अासप्रवा('बम्ह कोलालिय-कौसालिक-पुं० । कौलालानि मृद्भाण्डानि दत्त' शब्दे कथाऽस्य वक्ष्यते) तस्यापत्यं फिञ्, कौरव्यायणिः । कुरुकुलोत्पन्ने ब्राह्मणादावपत्ये, पुं० । स्त्री० । कुरूणां राजा एयः, पण्यमस्येति कौलालिकः । अनु० । कुलासक्रयविक्रायणि, कौरव्यः । कुरुदेशराजे, स्त्रियां ङीष्, कौरवी। स्त्री। एयन्तत्वात् बृ०५.२० । यून्यपत्ये फित्रो बुक् । कौरव्यः-पिता पुत्रश्च । वाचा कोनालियावण-कौमानिकापण--पुं। कौलालिकाः कुवालक्रय. कोल-कोन-पुं० । 'कुल' संस्त्याने।अच् । शूकरे,झा०११०१ ०। विक्रायणस्तेषामापणः। पणितशालायाम्, “कोलालियावणी तं । प्लये, कोमे, शनिग्रहे, चित्रके, अङ्गपालौ, आलिङ्गन, | खबु पणितसाला"कोबालिकापणः पणितशाना मन्तव्या।किमुक्त देशदे, पुं० । वाच०। घुणकीटे, प्राचा०१ श्रु० ८ ०८ उ०।। भवति ?-यत्र कुम्भकारा भाजनानि विक्रीणते,वणिजो वा कुम्भउन्धराकृती जन्तो, प्रश्न १ श्राश्र० द्वार । अस्त्रभेदे, पुं० । कार हस्तादू नाजनानि क्रीत्वा यत्रापणे विक्रीणन्ति । वृ०२ उ । ध०र० । नटात् धीवरकन्याजातिभदे, मरिचे, न० । चव्य. कोलावास-कोलावास-पुं०। कोला घुलस्तेषामावासः। दारुककन्यूवृत, स्त्री० । गौरा की । तस्याः फलम् श्रा, णि, "चित्तमंताए सालाए कोलाबासंति वा दारुप गणं वा स. Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोलावास दियं वा चेतेमाणे सवले " स० २१ सम० । श्राव० | दशा० । आचा० । अनु० । कोलाढ - कोलाभ - पुं० । दर्वीकरसर्पभेदे, प्रज्ञा० १ पद । ( ६०० ) अभिधानराजेन् कोलाहल फोलाहल पुं० कुलपत्र समाति अच् वा - - । ० । बहुजनमहाध्वनौ, झा० १ ० १६ अ० । प्रति० । अव्यके (उत्त० ए श्र०) बोले, अ० ३ प्रति० ॥ " ण य कोलाहलं करे" सू० १० अ० निलम्वनी, ०७० ६० । विलपिताक्रन्दिकले, उत्त० अ० । कोनागनूप को झलक त्रिकोलाहलो ि दिएकोप्राक स भूत इति जातो स्मिन् तत् कोलाहलकभूतम्, आदि तादेराकृतिगणत्वात् निष्टान्तरूप परनिपातः संजातीयाभूत उपमार्थतः कोकोहामामारदिलाया सीते, " कोलाहल सी मिदिलाए पल्वयंतं " ', कोलाहलग संकुल- कोलाहलक संकुल- त्रिशबद लकलकलात्म केन को बाह लेन व्याकुले, “किम् तो अज महिलाए, कोलाहलग संकुला । सुच्चति दारुणा सदा पसाए सुगिहेसु य"। उत्त०९ श्र० कोक्षिय-कोलिक शि० यतः कुलपरम्पराग बारादौ कुले, कुलागमे सिद्धः क तन्त्रोके कुप्यारे कौ धर्मप्रति के शिये पाखए, कुलं तदाचारः प्रयोजनमस्य ठक् । कौले ब्रह्मविदि, वाच० । तन्तुचाये, नं० । ० म० च० । “पढमाए कोवियकार दिता कीर (नियति शब्दे भावनः कृष्णस्य, द्रव्यतः कौलिकवरस्य 'किकम्म' शब्दे ५०७ पृष्ठे दृष्टान्त उक्तः) प्रव०२ द्वार । श्राव० कोलियाजाल - कोसिकाजाझ न० । मर्कटकसन्ताने, ०४ अ० नि० चू० । जालाकारे कालिकाजालसन्ताने, वृ०१ ८० । कोलुम्म - कारुण्य - न० । अनुकम्पायाम, नि० चू० ११ उ० । कोपा कायापनिज्ञा खी० [अनुकम्पाप्रतिज्ञायाम् स्त्री० । चू। जे भिक्खू कोणापटियाए अरिं तसपाराजा - पासएण वा मुंजपासएण वा कट्टपासएण वा चम्पपासण वा बंध, बंधवा साइज || १|| जे जिक्खू बंधेल्लयं वाय, मुतं वा साइज्जइ ॥ २ ॥ निपुणो, कोलु ति का पापडिया त्ति प्रतिज्ञा, अनुकम्पाप्रतिज्ञया इत्यर्थः । सन्तीति प्रसाः, ते च तेजोवायू यादव एवाहि कारो जाइग्गहणीउं त्रि सिद्धगो जाश्वन्नयाईहिं श्रहिगारो, त णा दग्धाश्या, पासोत्ति बंधणं, दग्धा रज्जुः इत्यर्थः। वत्तपासमगहणाओ सवे पासा गहिया, कठपास गहणाओ कयलिसोमाया गहिया, पचमाहिं बंधतस्स चतुन य विमुचतुल चेचश्मा सुत्तफासिया गाहातस पाणगत गादी, कापरं नाऍ जो न बंधेज्जा । तपासगमादी िचति वा आमादीनि ॥ २ ॥ गाथी जसेजसेायराई लगाई पाना उत्त० ए ० | कोलुपपडिया ओणती देले तगादीणं । दे तु इदयं, भायणता परिवसामो ॥ ३ ॥ मोहा ति उपयोगो मंत्र घिरे गाई आदाओ गधा विविध एवं भा गावाची, जहा अदा जाय गितो वाहिरे वा नियं न किंचि घरवावारं करोति, तहव म्हे ह परिवसामो वसहिमगहणकाले । श्रथवा बसंता ज गिही किंचि विज्जं पत्थेज्जा तत्थिमं भासेज्जा नवि जोइस न गणितं व्यक्खारेणेव किंचि रक्खा। अप्परगा अमुगा, भोयाखंजावमावसिमो ॥ ४ ॥ घरे किंवि मुगगाइणा अवरस्ते अपस्समा श्रदे, गिहिणो संदिसंतस्त्र सुगा, अम्हे जाणोवगया वा श्रण पस्लामो, सुमो वा, संसंकंटं । तन्नगगहणं किमर्थं चेत् ? जीवितगं खलु त नगगणं तु तं बहु अवातं च । मेसा वि सूईया खगगहनं तु गोणादी ॥ ५ ॥ ཊུ बालवत्थं तन्नगं तं घणजीवी बहुअवायं च । श्रओ तरगहणं कथं सुत्तं तन्नगमगणाश्रय सेसा वि गोणाई मध्ये सूवान संबंधि तया इत्यर्थः। श्रहवा बंधं इंतां श्रारणाइया दोसा इमेय अन्न य अामरणं वराय फट्टंत अथपरहिंसा | सिंगखुरपेलणं वा, उड्डाहो जद्द पंता वा ।। ६ ।। अव वेदियं परिताविज्ज, मर वा. अंतरायं च जव । वर्ष च तडफडत अप्पाणं परं वा हिंस, एसा संजमविराहणा, तं वा वज्यंत सिंगेण खुरेण वा कारण वा साहुं पेबेज्जा, एवं सादुस्स आयविराणा तंज उड़ाई करे यहां ! हिमापतत्तवादियों एवं पोषपाओ मतदा वा भवे । भद्दो भनाइ - श्रहो इमे साहवो अहं परावाणघर पारं करेति पंत पुणो भवेदिचम्मचारियो या अहं व बंधति, मुति वादिया या ओवा निस्तु जेज्जा, योच्छे या करेज एबं दोसा । बंधणे इमे - aar अगर किसमे हिय एड पसाय खाय पीते वा । जोगम बढ़ती शेवं दोसा य जे बुना || ७ || तन्नगा मुक्कम बक्कायदिराहणं करेज्ज, अगमे विसमे वा पनि हिचा रेखा, न नरुची रुतं मुकं वा पलाइयं वा पुणो धितुं न सक्क, दुगादिसणप्फर्डादि वा - ज्जर, मुकं वा माऊप थणात खीरं पिपज्ज । जइ वि एवमाइ दोसा न होज तहा वि गिरिणो वीसत्था अत्थेज्ज, श्रम्हं घरे साहयो थोपा ले म एवं ता श्रणुत्तसत्ता अपणो कम्मं करेति, ग्रह तद्दोसभया मुक्कं पुणो मंति, तत्थ बंधणे दोसा जे वृता ते नवंति । जम्हा एते दोसा तम्हा ण बंधति मुयंति वा । कारणे पुण बंधमुयणं करेज्जावितियपदमप्पज्जे, बंधे अविकोविते व अप्पज्जे । विसपगड अगणित वणफगादीसुजारामव अणाज्जो वंधर, श्रविको विश्रो वा, सेहो अहवा विकोवि Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोसंबी (६१) कोलुम्मपडिया अनिधानराजेन्ः। प्रोवा सेहो, महवा विकोवियो अप्पझो, इमेहिं कारणेहि प्रेम्णः कुटिलगामित्वात,कोपो यः कारणं बिना" इति साहिपंधति, विसमा अगडिअगणिकसु मरिजिहि इति मुगादिसण-| त्यदर्पणोक्ते शृङ्गाररसाने,प्रणयकोपे च । धातुवैषम्यकारिदोषाप्फरण वा मा खजिहि त्ति एवं जाणणा वि बंधक्ष, मुंचा। णां विकारभेदे,वाचक्रोधोदयात् स्वभावाज्ज्वलनमात्रे,भ० तस्स इमं विश्यपई १३ श०५ उ० तपे द्वितीये मोहनीये कर्मणि,स०५२ समा वितियपदमणप्पज्के, मुंचे अविकोविते व अप्पज्जे। ('कसाय' शब्दे अस्मिन्नेव जागे ३६६ पृष्ठे प्ररूपितम्) जाणते चावि पुणो, बलिपासगभगणिमादी । कोवघर-कोपगृह-न । मानिनीनां कोपनवने, "देवी इंसाए बाझिपासगोत्ति बंधणा तेण अश्व गाढं यको मूढो वा ताफ कोवघरं पविन।" श्रा० म०प्र०। मेह, मरर वा जया, तया मुंचन, मा मज्झिहि त्ति । कोविय-कोपित-त्रि०। दूषिते, सूत्र १ श्रु० ८ अ०। बंधणमुयणे इमा जयणा कोविद-पुं० । 'कुछ' शब्दे । विच् । कोविदस्तं वत्ति विद-कः। तेसु असाहीणेसुं, अहवा साहीणपत्थणे जयणा । परिमते, विदुषि, पाच । कुशले, प्राचा० १. श्रु० ५ अ० १ केणं बरूविमुक्को, पुच्छंति न जाणिमो केण ? ॥ १०॥ उ०। निपुणे, मूत्र०१ ०३०३ उ० । प्रत्यस्तसर्थागमत्वात (तेसुत्ति) जया घरे गिहत्था असाहीणा तया एयं करेक, सा. निपुणे, सूत्र० १ ० १४ अ०। विपश्चिति, दश० अ०३००। होणेसु वा अपच्छमाणेसु मिगेसु, अह गिही पुच्छेज्जा-केण कोवीण-कौपीन-न। कूपे पतनमईति खम् । अकार्ये, पापे, तनयं बर्फ मुकं वा, तत्य साहूदि वत्तव्व-न जाणामो भम्हे॥ गुह्यप्रदेशे, चीरे, मेखलाबके बरूखएमे, ( कपनी) नि० चू० १२ उ०। तकारणेन कूपे पतनात् तस्य तथात्वम् । अकार्यवदाकोबहर-कोलकिर-न० । वाक्ये, पिं० । कोसाकपुरे, यत्र | गद्यत्वात् पुरुषलिने, तदावरकतया वखखण्डस्य कौपी नत्वम् । 'कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः' । 'पुरा कौपीनासङ्गमस्थविरा नित्यवासमाश्रिताः। भाष०३ भ० । प्रा० चू० ।। च्छादनं यावत्ताबदिच्छेच्च चीवरम'। “अबला स्वल्पकापीना, कोल्लग-कोल्लक-पुं० । दग्धकाष्ठलघुखएमेषु, " कोल्लपरंपरं| सुहदः सत्यजिष्णवः।" वाच । ति० । संकेतियाम्गसएणेति ।" नि० चू० १०। कोस-कोष (श)-पुं०। न०। अर्कादि० कुश (प)प्राधा. कोन्लपागपुर-कोल्लपाकपुर-न। माणिक्यदेव ऋषभस्थाने | रादौ घण, कर्तरि अच् वा । अण्डे, कृताकृतयोमरूप्ययोः तीथे, ती० ५१ कल्प । ( 'माणिक्कदेव' शब्दे कथा वक्ष्यते) कुडाले, मुकुले, समूह, दिव्यन्जेदे, शवपर्यायकापके अभिकोल्लयरपुर-कोल्लयरपुर-न० । स्वनामख्याते पुरे, यत्र धर्म-| धाने, पानपात्रे, चषके, शिम्बायर्या, पनसादिमध्यस्थे (कोवा) सिंहाभिधानः कत्रियमुनिः । संथा। ख्याते पदार्थे, ध०२०। शब्दान्तरपूर्व तु गोमकाकारे पदार्थ, कोलाग-कोल्लाक-पुं० । स्वनामख्याते सन्निधेशे, कम्प० २ यथा नेत्रकोषः । पाच० । आश्रये, प्रइन० ३आश्रद्वार। तण । यत्राऽव्यक्तः सुधर्मा च गणधरो जातः। मा० म० द्वि०। धान्यनिधी, स्था०५ ग० ३३० । भाएमागारे, व्य० ४ ००। यत्र च बहलम्राह्मणगृहे श्रीवीरजिनेन्द्रेण प्रथमभिक्का लब्धा ।। औ० । कम्प० । राणा स्था० । ज्ञा० । श्रीगृहे, स्था०६०। कल्प०१कण । प्रा०म० ज० । यत्र वा सङ्गमस्थाविराः नि वारकादिभाजने, “कोसं यमो च मेहाए " सूत्र० १ श्रु०४ त्यवासं समाश्रिताः । “महासन् कोल्लाकपुरे, निर्मल श्रुतसम्पदः | अ०२ उखड्गपिधानके, तं। असिपरिबारे, “से जहाणामए सङ्गमस्थविराचार्या-स्तैमिक्के स्वसाधवः " प्रा० क०।। केर पुरिसे कोसानो असिं अभिनिव्वहिसाणं" सूत्र० १ श्रु० । प्र०। प्रत्याकारे, व्य०१०१०ात्वगाद्यावरणे कोपबदावरककोल्लापुर-कोल्लापुर-न० । दक्किणदेशस्थे पुरजेदे, यत्र शूल त्वात पिधानमात्रे, कोशाधारे गृह, कुशा तूमौ सन्त्यत्र अण् । कनृपण महालक्ष्मी तोषिता, सातवाहननृपभार्याः सातवाह- कान्यकुब्जदेशे, मेघे,, वाच । धनुःसहस्रद्वये, स्था०६ ग०। नं महिषीप्रवृत्ति व्यजिज्ञपन् । ती० ३४ कल्प० ।(सातवानशब्दे कथा वक्ष्यते) कोसंब-कोशा-(पा) म-पुं०। कोशे, ( ) भाम्र श्व फलकोल्मासुर-कोन्सासुर-पुं०। स्वनामख्याते असुरभेदे,यो हि को प्रधानवृत्तभेदे,फलवृत्ते,वाच । प्रज्ञा० । भ० । प्राचा०तिः । लापुरे महालयादेशात्कृतदवनप्रत्यूहकरणाय वृत्तः शूद्रकन कोसंबकाणण-कोशाम्रकानन-न० । स्वनामख्याते बने, यत्र पतिना मारितः । ती०३४ कल्प । (सातवाहन शब्देऽस्य कथा पाएरुमधुरां प्रति चलितः कृष्णवासुदेवजराकुमारेण पादे विरः। कोन्युग-कोल्युक-पुं० । श्रसोत्पादके यन्त्रविशेषे, वश्या च | स्था०० ठा। "कोल्लुकचकन्यायेन परंपराया" वृ० १००१ कोसंवगंडिया-कोशाम्रगएिमका-स्त्री० । ६ त० कोशाम्रस्य कोल्लुगाणुग-क्रोष्ठकानुग-पुं० । कोष्टकः शृगालस्तदनुगः। श. वृक्तविशेषस्य गरिसकायां, खङ्गविशेषे, भ० १६ श० ३ ०। गामोपमे प्राचार्यभेदे, वृषभदे, भिकभेदे, यो हि रजोह. | कोसंबपदवप्पविभत्ति-कोशाम्रपञ्चवमविभक्ति-न० । कोशारणनिषद्यायामौपनदिकपादप्रोच्ने वा स्थितो वा वाचयति म्रपल्लवप्रविनागाकाराभिनयात्मके नाट्यभेदे, रा० । तिष्ठति वा शृगालानुगः । व्य०१० । नि०यू०। कोसंबी-कौशाम्बी-स्त्री० । वत्सदेशप्रतियके पुरीनेदे, “वारकोव-कोप-पुं०। कुप भावे घश । कामानिजे चित्तवृतिनेदे, बए सरदा, मिहिनविदेहा य वच्चकोसंवी ।" सूत्र बधानुकूमचित्तवृत्तिभेदे, "मानः कोपः स तु धा, प्रण- ११००१ उ० । प्रा० म० । श्राव० । स्था० ॥ येासमुद्भवः । इयोः प्रणयमानः स्यात्,प्रमोदे तु महत्यपि प्रज्ञा० । अत्रैव भरतकेत्रे यमुनानदीकूले पूर्वदिग्वधूकण्ठ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०२ ) अभिधान राजेन्द्रः । कोसंबी निवेशिताकल कातिकेच कौशाम्बी नगरी तत्र सहस्रा नीराजन स्कुलमहासरसि जायमानः शतानीको नाम राजा । विशे० । भ० । संथा० । वृ० । श्राव० । विपा० । वत्सदेशे कौशाम्बी नगरी प्रव० १७४ द्वार अथ कौशाम्यां यद्यदसत्संगृह्णन्नाह विविधतीर्थ कल्पकृत्-"व जव कोसंबी नाम नगरी, जत्य चंदसूरा सविमाणा सिरिबज्रमाणं नमसिनं समागया । तत्थ तस्स नजा य वेलं भजारांती अनमियाच समसरणे पाचाविया चंद्रा सट्टा गण अर्थदणासास पाया परिस्युमागया अ चंदाए उबालकर नित्रावराहं स्वमंती पायपडिया चेव केवलं संपना जण ओ पुरिसपरंपरा या पोरा मिश्रावई अज्कोव वषेण दुग्गं कारिश्रं श्रज्ज चिट्टिज्जर, तत्थ य गाभण्ययेयणि साय उदय णो वच्छाहिवो अहेसि । जत्थ चेइएस पिक्त्रगजणनयणअमपंजा पिडिमा जन्य कालिदिजललहरियागिजमाणाणि वर्णााणि, जत्थ पोसबहुतपाभिवयपवित्रिग्राहस्स सिरिमहावीरस्स चंदणबालाए पंचदिवसृणम्मासेहिं सुपको हियकुम्मासेहि पारणं कारिचं मुदारा तेरस कोरियमाणा देवेहिं बुद्धा, अओ चेव सुहारतिगामोनपरीसन्निहित्र पसिद्धो वसर, पंच दिग्वाणि अपाठआणि इसुविश्र तद्दिणाओ पहुमजिट्टसुद्धदसमीप सामिपारण दिले विहारात भर विमान भज्ज यो परराजमणिका संयुताइ जस्थ सि किच्छाया को संबितरुणो महापमाना दीसंति, अच्छ पचमपहचे पारणकारावणदसानिसंधिघमिया चंदनबालामुत्ती दीसर | जत्थय श्रज्ज वि तम्मि चेव चेइए पदिणं पसं तमुखी सीही बागंतृण गयो भन्ति करे । 26 सा कोसंबी नयरी, जिणजम्मणप्पवित्तिश्रा महातित्थं । अम्हाण वेवसिव्वं, पुवंती जिणप्पहसूरीहिं " ॥ १ ॥ इति श्रीकौशाम्बीकल्पः । ती० १२ कल्प० ! दक्षिणस्यां दिशि पावकी शास्त्री विहारयोग्यो देशः ०१० कोलंबिया-कोशाम्बिका-स्त्री० । स्थविरादुत्तरवलिसहान्नि गतस्य गणस्य शाखायाम, कल्प० ८ ॠण । कोसकोडागारकहा- कोषकोष्ठागारकथा - स्त्री० । राजकथाभेदे, स्था० । ( ' रायकहा' शब्दे व्याख्या ) कोसग - कोपग- पुं० । कोष-स्वार्थे कः । श्रएककोबे, वाच० । कोशक- कोयलीयाये पाचाणादिस्वनया भज्य माननीयमाने मदनगृहरू वा सापून पकरणे ०३ कोठा, अधि० । " कोसगनढ रक्खडा, अंगु लोकोसो " नखनङ्गकार्थे गृह्यते, स च पादयोरङ्गुष्ठके च प्रशिष्यते ० १ ० अ० सूत्रयोनी अनु० । कोसकार - कोश ( प ) कार - पुं० 1 कोशं (पं) करोति, कृ. एवुलू उप० स० । स्वगाद्यावरणकारके, बाच० तस्य प कोचं स्वपनं सम्तुतिः करोति म चटकवादिकारणे, अनु० 1 कीटजेदे, वाच० कोमल-कोश (स) ल पु०प०प० पदेवस्व तु विंशतितमे पुत्रे, तषाज्यभूते देशजेदे च । स च देशः साकेत श्र योध्याप्रतिकार्यक्षेत्रेषु अन्यतमः । कल्प० 9 कृण । 46 सा कोसिय hi कोसलागयपुरं कुमुदा य" सूत्र० १ श्रु० ५ ० १ उ० । का० । स्था० । प्रज्ञा० । कोकेऽपि "कोश (स) लो नाम मुदितः, स्फोतो जनपदो महान्। निविष्टः सरयूनीरे पहुधान्यसमृि मान्॥" कोशलदेशो द्विविधा प्राप्यतरनेदात् । तत्र यो ध्यायुक्तदेशस्तरकालम् प्राथ्यकोशलास्तु पूर्वस्याम् । वाच० । कौशल - न० । कुशलस्य भावा युवा० अण्। दकतायाम्, वाच० कोसलग कोशल-० को अयोध्या तनपदोऽपि को शला, तत्सम्बन्धिनः कोशलकाः भ० ७ ० ६ ०। कोशलदेशोकशकेिषु भरतादिषु, स्था० ५ ० २३० । कोशलदेशस्य राजसु कल्प० ६क्षण । कोसलपुर-कोशपुर न० अयोध्यायाम, भा० १० कोसला - कोश ( स ) ला - स्त्री० । कुश (स) वृषा० कल नि० गुणः । वाच० । अयोध्यायाम, ती० ११ कल्प | अवभा कोसंविणिया लाकेयं इक्खागुभूमी रायपुरि कोसल सि" अयोध्याया एकार्थिकानि । कल्प०| जं०। ('अउज्झा' शब्दे प्र०जा० ३४ पृष्ठे कल्प उक्तः ) साकेतप्रतिबद्धं जनपदे च । कोशला अयोध्या, तज्जनपदोऽपि कोशला । भ० ७ श० १ ३० । आ० म० द्वि० । प्रव० । 66 । कोसला तर कोशलापुर-१० अध्यायाम, "कोशलारे, नंदस्स घ्या सिरिसमती। " श्रा० म० द्वि० । कोमलय-कौशलिक पुं० । कुशला विनीता अयोध्या, तस्था अधिपतिस्तत्र वो वा कौशलिकः, अध्यात्मादित्वादिकण् प्रत्ययः । ० म० प्र० । कोशलदेशे नवः कौशलिकः । स० ८३ सम० । कोशलायामयोध्यायां भवः । जं० २ वक्ष० । कोशलदेशे जाते, भ०२०० ८०। कोशल देशोत्पन्नत्वात् श्री ऋषभदेवे, "उ सणं रहा कोसaिय पंचसयाई उ उच्चसेणं होत्था, स्था० ५ ठा० ३ ० | कुशलाय कर्मणि दीयते, ठक् । निजकार्य साधनार्थे राजादिकार्थ्यकरेज्यो दीयमाने उत्कोचे वाच कोसल- कौश ( स ) ल्य- न० । कुशलमेव ब्राह्म० ष्यञ् । दक्षताया माणिकत्वास " संथा० । कोसा-कोशा स्त्री० । स्वनामख्यातायां वेश्यायाम्, यस्या गृहे द्वादश वर्षावापि श्री स्थूलस्वामी न चलितः क क्षण | आ० म० द्वि० । ती० ॥ श्र० चू० । ( तत्कथा ' धूलभद्द' शब्दे कथयिष्यते ) । कोसागार-कोशाकार पुं० [कमकोर काहनिषु पञ्च० ३ चिन विकसितकमलसदृशे, दर्श० । कोसातग-कोशा (घा) तक- पुं० । कोश (घ) मतति । श्रत- कुन् । कठे वेदशास्त्रानेदे, पटोल्याम, घोषके, (तरुई। वाच० श्राचाण कोमिय- कोशिक १० कुशिकस्यापत्यमयतः अध्या० । कुशिके, तद्वंशे भवः श्रण्वा । वाचol कुशिकाssस्पुरुषये मनुष्यसन्ताने राहू मूलगोमेद स्था० ७ ठा० । “जे कोसिया ते सत्तविदा पत्ता तं जहा ते कोसि या ते कच्चयणा ते सालंकायणा ते गोलिकायणा ते पक्खिकायणा ते अगिश्चा ते लोहिच्चा"। कौशिकाः पटुलूकादयः । स्थाल Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८३) अभिधानराजेन्ः | कोसिय [७] डा० । बटुलो निस हो जमलातरी कोशिकगोत्री, नं शिमगो कौशिकम् ०१०पा०| सूत्रयोरी स्वमाह्मोपाध्याये आ क० । ('अजय' शब्दे प्र० नागे २१५ पृष्ठे कथो का ) आव० । आा० चू० । चएम कौशिके, तस्य कौशिक इति मुख्यं नाम, चण्ड इति तीव्रकोपत्वाद विशेषणम् । श्रा० म० द्वि० । श्रा० चू० । ( 'चंडोसियशब्दे कथा) कोलाकसधिवेशे जाते ब्रह्मलोकायु ते मरीचिजीत्रे ब्राह्मणे, भा० म० प्र० । आ० चू० । सिद्धार्थ पुरेव्यैर्गृहीतस्य वीरजगवतो मोचके स्वनामख्यातेऽश्ववणिज, श्रा० म० द्वि० आ० ० । ६० । कोसियार कोशिकार - पुं० [चीनविषये उत्पद्यमाने नां के, स्था० ५ ० ३ ० । हंसगर्ने सूत्रकारणे, अनु० । कोशकारके जीवभेदे, पुं० । कोशिकारकीटो हि दिग्भ्यो ऽनुदिग्भ्यश्च विभ्यदात्मसंरक्षणार्थे वेष्टनं करोति । आचा० १० १२० ६ ० । कोसी-कोशी (पी) श्री०कुरा (कु) अमरा० ङीष् चपकायाम, धान्याद्यग्रभागे च । वाच० । कोशी-खी गङ्गामहानदीं समर्पयति। नदीमे ५ ० ३ उ० । प्रतिमायाम्, स्था०५ठा० ३ उ० । ज्ञा० । उपा० । कोसेय-कौशेय - -न० । कोशा (षा ) कुत्थितम् ढक् । कृमिकोशादिजाते व वाय० सरितस्तुनिष् प जी० ३ प्रतिo | कौशयकारोद्नवे वस्त्रे, प्रश्न० ४ अभ० द्वार | ० कोसेज्जो वडओ भष्यति” । नि० ० १ उ० । ० म० । 'हलधरको सेयं ।' बलदेववस्त्रम् । झा० १ ० १ अ० । कोस्टागार कोष्ठागार - न० । मागध्यां "दृष्ठयोः स्टः ||२०| इति चकाराकान्तस्य तकारस्य सकाराक्रान्तः टः । धान्यागारे, प्र० ४ पाद | कोह - कोथ - पुं० । कुथित्वे शटने, भ० ३ श० ६ ० क्रोध-पुं०] क्रोधनं कुध्यति वा येन स क्रोधः । स्था० ४ ०१० | (चतुक क्रोधः ' कसाव' शब्दे अस्मिन्नेव भागे ३६५ पृष्ठे उक्तः ) कुध घर । कोपे, पा० | प्रब० । दर्श० । उप्त० । रोषे, स्था० ४ ० ४ उ० । भव० । श्रान्तिपरिणतिरूपे, प्रव० २१६ द्वार | अविचार्य्यं परस्यात्मनो वाऽपायहेतो अन्तहिर्वा स्फुरणात्मनि ध० १ अधि० । उत्त० सू० | स्वपरात्मनाऽप्रीतिलकणे, सूत्र० २ श्रु० ५ अ० । क्रोधमोहनीयोदय संपाद्ये जीवस्य परिणतिविशेषे, स्था० ४ बा० १ उ० । जातिकुलरूपबलादिसमुत्थे, आचा० १ ० ३० ४० कृत्यात्यको न्मूलके प्रज्वलनात्मके चित्तधर्मे, द्वा० २१ द्वा० । कोपनिपतत्र फोधो नामादिजेामनुष्यकारः नामस्थापने कुठे, नोआगमतो इशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तो व्यक्रोधः । प्राकृतशब्द सामान्यापक्या चर्मकारकोयः रजककोथो नीलिकोयश्च कोय इति गृह्यते । नोआगमतो भावक्रोधः क्रोधोदय एव । स तुर्भेदः उच"जरेपण्यय राईसरीसो बड विदो कोड़ो " ॥ ( २५००) विशे० आ० म० द्वि० । अथ नामादिके धन्यकोचे शरीरमव्यशरीरम्यतिरिकं द्रव्यक्रोधमाह sive cornist, कम्मदवे व नो य कम्मम्मि | कोह कम्मदम्बे कोड़ो, तज्जोग्गा पोग्गलाया || २६८७|| नो कम्मदव्यकोड़ो, नेओ चम्पारनीलिकोहाई । कोहपथिज्जं समुड़ जात्रकोड़ो सो || २७० ॥ इनस्यशरीरम्यतिरिक्तो योधो द्विधा कस्मे नोकन्यां । तत्र योग्यादयोऽनुदिताश्चतुर्विधाः पुरुषाः कयोः ॥२४८७॥ नोकज्यकोधस्तु - ( कोडि सि ) प्राकृतशब्दमाश्रित्य चर्मकारयकोयोनीलादिषः। भावक्रोधमाह-यत्क्रोधवेदनीयं कर्म्म विपाकतः समुदीर्णमुदयमागतं तज्जनितश्च क्रोधपरिणामः स प्रावक्रोध इति ॥२६८८) विशे० । " एगे कोहे " स्था० १ ठा० १ ० । 5वि को पन । तं जहा - आयपइडिए चेव, परपइहिए चैत्र । एवं ऐरयाणं० जाव बेमाणियाणं एवं० जान मिच्छाससले । ( धि कोहे इत्यादि) मापादिकायायदर्शनादा त्मनि प्रतिष्ठित आत्मविषयो जात श्रात्मना वा परत्राकोशादिमा प्रतिष्ठितो जनित श्रात्मप्रतिष्ठितः परेणादिना प्रतिष्ठित उदीरितः परस्मिन् वा प्रतिष्ठितो जातः परप्रतिष्ठित इति । (पति) सामान्यतो द्विधा को उत्तः एवं नारकादीनां चतुर्दशयं नरं पृथिव्यादीनामसंहितामुलकृपात्म तिष्ठितत्वादि पूर्वभवसंस्कारात् श्रपश्यमवगन्तव्यमिति । एवं मानादीनि मिथ्यात्वान्तानि पापस्थानकान्यात्मप्रतिष्ठित विशेषजानि, सामान्यपदपूर्वकं चतुर्विंशतिदण्डनायेयानि अत एवाह - ( एवं जात्र मिच्छादंसणसले ति ) एतेषां च मानादीनस्यविकल्पजातपरजनितस्यायां स्वात्मविरात्मत्याज्य वा स्वपरपतिष्ठत्ययसंयम् पते पापस्वामाश्रिता त्रयोदश दएकका इति । स्था० २ ठा० ४ उ० । ( क्रोधस्यातिष्ठितत्वादिभेदाः सडका कसायरा अस्मि न्नेव भागे ३६५ पृष्ठे बक्ताः ) " राजयः चचारि राई पक्षा से जहा पब्बराई पुढचिराई बासुपराई उदगराई एवामेत्र बिहे को पाने से जहा पराईसमा पुनराईसमा बायराईसमाणे उदगराईसमाने । पचयराइसमा कोहमप्यविडे जीवे कालं करे, जेएस बल, पुढविराइसमानं कोड़मणुप्पविद्वे जीवे कालं करे, तिरिक्खजोडिए उप वापराइसमार्ण कोई पवि जीवे कालं करेइ, महासेतु उपवन, उदगराइसमा कोमष्यवि समाये जीवे का करे, देवेस जववज्जइ । अस्य वायमभिसम्बन्ध-पूर्वे चारित्र त्यतिबन्धको धादिभावः इति को स्वरूपनिरूपणा वेदमुच्यते तदेवं संध स्वास्यादिराज रेखा ख्यानं मायादिवत् मायादिप्रकरणाश्चान्यत्र क्रोधविचारो विचित्रत्वात्सूत्रगतेः । द्वितीयं च सुगममेव । अयञ्च क्रोधो भाववि शेष इति । भावप्ररूपणाय दृष्टान्तादिसूत्रद्वयमाह - ( वसारीत्यादि) प्रसिद्ध किन्तु कमी पत्रप्रपादादिना श क्यते काय, जनं दीपा दिखजनतुल्यः पादादि Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०४) निधानराजेन्द्रः । कोह लेपकारी कईमविशेष एव बालुका प्रतीता, सामाजि अशोचे पादादेरस्पेनैवकारिणी लात पाषाणाः श्लक्ष्णरूपाः, ते पादादेः स्पर्शनेनैव किञ्चित दुःखमुस्पादयन्ति न तु तथाविधं लेपमुपजनयन्ति ॥ स्था० ४ ० ३ उ० । प्राचा० । जलरेणुपुषिपब्व - राईस रिसो पठन्हो कोहो । रह राजिशब्दः सदृशशब्दश्ध प्रत्येकं संबध्यते, ततो जलराजिसस्वात्संग्लन कोधः यथा पचादिनिसमध्ये राजी खा क्रियमाणा शीप्रमेव निवर्तते तथा वा कयमप्युदयं प्रातोअपि सत्यमेव व्यावर्त्तते स संयमको पोरे जिसदृशः प्रत्याख्यानावरणः क्रोधः । श्रयं हि संज्वलनक्रोधापेक्या तीराणु मध्यविहित रेखावश्विरेण निवर्तत इति भावः । पृथिवीराजिसदृशस्त्व प्रत्याख्यानावरणः, यथा स्फुटितपृथिवीसंबन्धिनी राजीयरादिनिः पूरिता करे बोsपि प्रत्याख्यानावरणापेक्षया कष्टेन विनिवर्त्तत इति भावः । विदलित पर्वतराजी सदृशः पुनरनन्तानुबन्धी क्रोधः कथमपि निवर्तयितुमशक्य इत्यर्थः । धतुर्विधः क्रोधः कर्म० १ कर्म० "कोहे कोडे ऐसे दोसे अलमासंजलये कल परि भंडणे विवाद " इति दश नामानि क्रोधकषायस्य गौणमोहनीयकर्मणि श्रन्तर्भवन्ति । स०५२ सम० । श्रा० म० । आ० ० । (क्रोधे उदाहरणम् 'जमदग्गि' शब्दे ) काहें असचं कुवेज्जा, धारेज्जा पियमप्पियं । क्रोधमसत्यं कुर्यात् गुरुभिर्निर्भत्सितः कदाचित् सक्रोधः स्या सदाऽपि क्रोधं विफलं कुर्यात् श्रप्रियमपि गुरुवचनं प्रियमिव आत्मनो हितमिव स्वमनसि धारयेत् | १४| अथ क्रोधस्य असत्यकरणे उदाहरणम् । यथा- कस्यचित् कुलपुत्रस्य भ्राता वैरिणा व्यापादितः यदा कुपुत्रजन्तपुत्र तुकं वैरिणं घातय । ततः स बैरी तेन कुल पुत्रेण शीघ्रं निजबलात् प्राहं गृहीत्वा जननीसमीपे श्रानीतः भणितश्च । श्ररे । भ्रातृघातक बनेन खड्रेन त्वामहं मनानिमितं प्रथ एडं दृष्ट्वा जयजीतेन भणितम्-यत्र शरणागता न हन्यन्ते एतद्वचः श्रुत्वा कुलपुत्रेण जननीमुखमवलोकितम् । जनन्या च सत्वमवलम्ब्य उत्पन्न करुणया प्रणितम् हे पुत्र ! शरणागता न हन्यन्ते । यतः - "सरणागयाणं विस्सं भियाण पण्याण वसणपत्ताणं । रोगी अर्जुगमा, खप्परसा नेव परंति" ॥१॥ तेन कुल प्रणितम् - कथं रोषं सफलीकरोमि ? जनन्या उक्तम् वत्स ! सर्वअन रोषः सफलीक्रियते । जननं वचनात् स तेन मुक्तः । तयोधरणेषु पतित्वा क्षामयित्वा चापराधं स गतः । एवं क्रोधमसस्यं कुर्यात् । इति कुलपुत्रस्य कथा । उत्त० १ ० । "कोहो अणीकरो. उग्वेषक व सुगर मिलो। वेरणुबंधज्जलणो, जबणो वरगुणगणवणस्स ॥८४॥ कोणती एवं मि जपि निधि किंचन कुति ॥ ५ ॥ कोही पनि केवलं दद अपना देहं । ताविय परपि हु, पहवर परभवविणासाय ॥ ८६ ॥ ता कोहमहाजला, विज्जवियग्बो समाजले खया" । न कारणरुषां संख्या संख्याताः कारणक्रुधः । कारणेऽपि न कुप्यन्ति ये ते अगति पञ्चषाः ॥ बङ्घा०१ प्रस्ता०| कोहंनिदेव कोचकषायमुद्भाषयितुमाहजे कोहणे होइ जगहनासी, विसि मे व उदीरएजा ॥ अंधे से दंप महाय, व अविसि घासति पानकम्मी ॥ ए ॥ यो विदितकषायविपाकः प्रकृत्यैव क्रोधनो भवति, तथा जगदर्थभाषी यश्च भवति । जगत्यर्था जगदर्था ये यथा व्यवस्थिया पदार्थास्तनाभाषितुं सीमस्य जगदनापी तद्यथाब्राह्मणं ' डोमं ' इति ब्रूयात्तथा वणिजं 'किराट' इति, शुरूम 'श्राभीरं' इति, श्वपाक 'चारकालं' इत्यादि । तथा काणं काणमिति, तथा खंजं कुब्जं वडनमित्यादि, तथा कुष्ठिनं कपिणमित्यादि । यो यस्य दोषस्तं तेन खरं परुषं ब्रूयात् यः स जगदर्थ भाषी यदि वा जवार्थभाषी वामनो जयो भवति तथैवात्रिद्यमानमप्यर्थं भाषते तच्छीलच, येन केनचित्प्रकारेणासदभाषणेनाप्यात्मनो जयमित्यर्थः (विशोसियति) विविधमवसितं पर्यवसितमुपायं का पुनरी एकं नयति कलहकारिभिर्मिथ्या दुष्कृतादिना प रस्परं क्षामितेऽपि तद् ब्रूयाद्येन पुनरपि तेषां क्रोधादयो भवन्ति । सांप्रतमेतद्विपाकं दर्शयति-यथा ह्यन्धश्चतुर्विकलो दएमपथं गोदएडमार्ग प्रमुखोज्ज्वलं गृहीत्वाऽऽश्रित्य व्रजन् सपोतिया पृष्यते काका पदादिभिःसावपि केवलियार्यनुपशान्तकोषः केशभाष्यधिकरणो|पकः, तथा (अविओसियस) अनुपशान्तद्वन्द्वः पापमनायें कर्मानुष्ठानं यस्यासौ पापकर्मा घृष्यते, चतुर्गतिके संसारे पा तनास्थानगतः पौनःपुन्येन पीड्यत इति ॥ ५ ॥ सूत्र० १ श्रु०१३ ० | "त्थि कोहे व माणे वा. ऐवं सन्नं निवेस । श्रत्थि को हे व माणे वा, एवं सनं निवेसए" ||२०|| इति क्रोधसिद्धिः 'अत्यि वाय' शब्दे प्र० भागे ५२१ पृष्ठे वक्ता ) "विगिंच कोई अधिकंपमा णे " कारणे कारणे वाऽतिक्रूराध्यवसायः क्रोधः, तं त्यज, तस्य च कार्य कम्पनं तत्प्रतिषेधं दर्शयत्यविकम्पमानः । सूत्र० १ श्रु० ४ ० १ ३० ।" लोभी पश्येरूनप्राप्ति, कामिनीं कामु कस्तथा । भ्रमन् पश्येदथोन्मत्तो, न किञ्चिच्च कुधाऽऽकुलः ॥ १ ॥ उत०] कोधपरिणामजनके (मोहनीय) कर्मणि, भ० १२ श०५ उ० । कोहंगक फोहङ्गक-पुं० पहिलेदे, श्री० (अनुवन्ध्यादि चतुर्दा कोधः 'कसाब' शब्दे मिच मागे २६५ पृ कोहंजारा-क्रोधध्यान न० । कूलबालुकगोशालक पालकनमुशिप्रभृतीनामिव कोषाध्यवसिते ध्याने भ्रातु । कोन - कूष्माराम पुं० | रत्नप्रभाया उपरि योजनशते स्थानयति अप्रत्यादिषु सप्तमे व्यन्तरनिकाये, प्र०१०२४ द्वार पुष्पफले, अनु सौधर्मकत्वे स्वनामख्याते विमाने, ती०२६ कल्प । कोमिदेव कृष्णामिदेव पुं० सोममभाय्यांचा अम्बिकायाः कूष्माणमे कम्पे देवत्वेनोत्पत्रे जीवे, ती० । तत्कल्प इत्थम् - " सिरिउज्जयंतगिरिसिहर- सेहर पणमिऊण नेमिजिणं । कोहंडदेवकणं, मिदामि बुद्धोषसाथ "॥१॥ अत्थि सुट्टापिस पणजय संपजण समिकको Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०५) अभिधानराजेन्द्रः | कोइंडिदेव नाम नपरं तत्थ सोमो नाम रिसिमिको कम्मपरायणो य आगमपारगो बंभणो हुत्था । तस्स घरणी अंबिण] नाम महग्घसीलाकार भूमिसरीरा आसि । तेसि विसयसुहमभवं ताणं उत्पन्ना डुबे पुता । पढमो सिद्धो, बीओ बुद्धु ति । अन्या समागयाथ पिम्ररपये महसोमणं निमंत्रणा सिद्धदिये कत्यचि ते बेचारति कत्थ विभाति पिप्प या, कत्थ वि होमं करिति, वहस्सदेवं च, संपानिमा सालिदालि बंजधपक्क अभेनख णसंरुपमुहा, जे मरणरा अवि जीएा सासुमारहाण का पट्टा, तम्मि अवसरे एगो साहू मासोववासपरे घर सिक्ख संपत पाल हरिस तुरगी हिचा अंत परिलाभश्री मणिय भविहुमाण अदायविशेणं प्रपाणेहिं जाब गहि भिक्को लिओ ताव सासुभा वि एदाऊण रसवठासाहू मायातं पिष्ट पदमसिहं तभी तो कुविचार का बहुमा ताप जहद्विप से अंबामिश्रा साज्जर । जहा-पावे ! किमे तप कथं !, अवि कुलदेवया न पूश्श्रा, अज्ज विन जाषिया विप्पा, अज्ज वि न भरियाइ पिंकाई, अग्गसिदो तप फिम सायद तीस व सोम भट्टस्स, तेज रुद्रेा गप्पच्छंदि ति निक्कालिमा गिहाओ । सा परिभवदूसिचा सिद्धं करंगुली ए धरिता बुद्धं च कडी चमाचिता चहिया नराम्रो बहि पंच तिखाभिभूपि दारपाई जलं मग्गिमा जाय सामंजनपुनलो मना संयुता ताव पुरनो टियं सुक्कसरोवरं तिस्स प्रणश्वेणं सीमाहप्पेणं तक्खणं जलपूरिअं जायं, पाइआ दो वि समीरं । तओ हिहि भोश्रणं मग्गिमा बाल- कोहकंडूइ- क्रोधकएडूति स्त्री० । क्रोधकराड्डाम, बो० । यदि पुरनो ठिम्रो सुकसहवारतक, सब फलियां, दिलाएं फलाई । प्रविणीप तेसिं जाया ते सुत्था जाव साहू अध्याय वीसमइ ताव जं जायं तं निसामेद--तीप बालयाई पढमं जेमाविमा तेसिं तुत्तरं पतलीओ ती गाई - भाड मासि ताम्र सीमाइया कंपिममणाय सासदेवयाद सोमपालकोजयकथाच कथाओ जमि कराणा भूमीप परिश्रा । ते मुति आई संपाश्आई, अग्गिसिहा य सिहरे तदेव इंसिया सासर न निवेदनं सोमषिप्परस - सिद्धं च जहा बच्ब ! सुलक्खाणिया पश्च्चया य साव तापको कुलहरं ति जगणीपेरिओ पच्छा-कोकसाय-क्रोधकषाय-पुं० तानतमाणसो गयो बहु वाले सोमभट्टो, ती पि आगच्छंतं दिश्रवरं निचवरं दट्टण दिसाओ पो ओ ओ ओ ज सरिऊण पदार्थ मेमंती या पाच सु इज्भवसाणेण पाणे चश्ऊण उप्पन्ना कोहंरुविमाणे सोहम्मकप्पहिडे चढ जोमद अंसा देवी नाम महिडिया देवी, विमा नामे कोहंडी वि भन्नइ । सोमभट्टेण वि तीसे महासईए फूचे पद अरपा तत्व पायो, सो म मरिण तत्थे जाओ देवो आभियोगिकम्मुणा सिंहरूवं चितिसे चेब वाहणं जाओ । अग्ने॒ भांति-मंबिणी देवयसिहरिश्रोअपाणं पाविता तपिठो सोमनट्टो वि तदेव मओ, सेसं तदेव | साय भगवई चतन्भुआ दाहिणहत्थेसु अंबलुंवि पासं व धारेह,वामहत्थेसु पुण पुत्तं अंकुलं च धारेह, उत्तत्तकण्यसव व समुहर सरीरे सिरिनेमिनाइस्स सासदेव यति निवस रेवयगिरिसिहरे मउलकुंमनमुताहत हाररयणे१७२ कोण कंकणनेवरा सयंगीणाभरणरमणिया पूरे सम्मदिद्वीणमा माहरेहिं निवारे विधसंघार्थ, ती मंतलाई राह इत्ताणं भविश्राणं दीसंति अणेगरुवाओ रिद्धिसिद्धिम, न पहति भूतपिसाबसाइपविसमाहा, संपतिपुचकल मिलवणरज्जसिरियो ति विधाता मे "भ्रमरमाई। वायासियो, बिदेबी हमसो ॥ १ ॥ थुवभुषणदे विसंबुद्विपास अंकुसतिलोभपंचसरा ॥ पहसहिकुलकलभज्झा - सिरिमायाऍ पक्षमपयं ॥ २ ॥ यागुग्भवंति लोभं पाससिलीहाड तानसा कूटविया नमुचिराहणमंतो" ॥३॥ एवं ते वि अंबादेवीमंता अप्परक्लासिया सुरमणा जुग्गा मगखेमा ६ गोरा य बहवो चि ंति, ते अ तहामंकआणि अच्युतमणिमाणि मंचवित्यरभरणं ति गुरुमहाभो नायव्वाणि । " एयं अंबियदेवी- कप्पं अवि अप्पविश्ववित्तीणं । वार्याणं, पुति समीहित्॥१०५ कप कोमिया कृष्णाएडी श्री पुष्पकन्याम, ० म०प्र० । कोहंदी - कूष्माएमी - स्त्री० । ईषदूष्माऽणमेष्वस्याः । गौरा० ङीप् । " श्रोत्कूष्माण्डी तूणीरकर्पूरस्थूलताम्बूलगुडूची मूल्ये " ० । १ । १२४ । इति उकारस्य श्रकारः । ' कोहंडी, कोहली '। प्रा० १ पाद । औषधिभेदे, कर्करौ, दुर्गायाम्, दुर्गायाः कूष्माएमबलिप्रियत्वाच्च तथात्वम् । वाच० । तस्या लिङ्गम् - सत्येतरदोषश्रुति-नावादन्तर्बहिश्च यत् स्फुरणम् । विचार्य कार्यतत्त्वं, तच्चिह्नं क्रोधक एडूतेः ॥१३॥ (सत्येत्यादि) सत्येतदोषमुतिाबाद्यन्तािज्यस्तर परि पाममाश्रित्यन्त दिगंता अप्रसन्नताद्याकारद्वारेण वाहिका यत् स्फुरणं वालिनं वा मधिवायनालोय का तवं कार्यपरमार्थे तच्चह्नं लत्तणं क्रोधकपडूतेः कोधकण्ड्डाः। पो० ४ विष० । प्रथमकाये, प्रका १४ पद । स० । कोहकायरियाइपी सण - क्रोधकातरिकादिपषण - त्रि० । क्रोधग्रहणात् मानो गृहीतः, कातरिका माया, तद्ग्रहणात् लाभो गृहीतः । श्रादिग्रह णाच्छेष मोहनीय परिग्रहः, तत्पीषणं तदपनेतारः विगतमोहनी कमीशेषु परया बीरा समुह या कोहकायरियापी सणा ।” सूत्र० १० २ ० १ ३० । को किरिया क्रोधक्रिया स्त्री० को CL 19 यथाSSत्मना कुद्धयति परस्य क्रोधमुत्पादयति । प्रा० ० ४ ० । कोढ किलाम - क्रोधनम-पुं० । क्रोधाच्छुरशियासे, प्र० ७ श० १४० । कोहण - क्रोधन-न० । क्रोधकरणशीले, उत्त० २७ अ० । रोषिणि, सू० १ ० १३० । नवमाऽसमाधिस्थानं प्राप्तः क्रोधनः । स च सकृत्कुको ऽत्यन्तो भवति । स०२० सम० | दशा० ॥ Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोह आव० 1 भा० यू० । " कोई परियाणर से सिग्गंथे णो कोढणे सिया " इत्यादि मृषावादविरतेर्द्वितीया भावना । श्राचा०२ श्रु० ३ चू० । ( ६८६ ) अभिधानराजेन्द्रः । 3 कोहणिग्गह- क्रोधनिग्रह-पुं० । क्रुध कोपे, क्रोधनं क्रोधः । निग्रहनिग्रहः। ताित्मके चरणभेदे घ० प्र० । कोहणिरोह - क्रोधनिरोध-पुं० कमायाम्, “खमति वा तितिक्खति वा कोह निरोह त्ति वा एगट्ठा। " आ० चू० ४ श्र० । कोहणिस्सिय फोपनिचित- न० को निधितं कोधानीतथ क्रोधाश्रिते वृथाशब्दार्थे तच्च यथा क्रोधाभिभूतोऽदासमपि दासमनिधत्त इति । स्था० १० वा० । क्रोधे च माने च मूच्छभेदे, स्था० २ ० ४ उ० । " - कोसि (ए) क्रोपदर्शिन-त्रि० कोचस्व स्वरूपो बेसरि, 'जे कोहहंसी से मानसी' यो हि स्वरूप केल्यनर्थपरित्यागरूपत्वात् ज्ञानस्य परिहरति च समानमपि पश्यति परिहरति चेति, यदि वा यः क्रोधं पश्यत्याचरति समानमपि प श्यति मानाध्मातो भवतीत्यर्थः । आचा० १ ० ३ ० ४४० । कोप मिली कोपमतिसंज्ञीन भि० को प्रतिद निरोधेनोदप्राप्तविफल करणेन प्रतिसंीननिरोधति, स्था० १ ० १ उ० । कोमि-क्रोधपिएड पुं० क्रोधः कोपस्तकेतुका पिण्डः को६७ द्वार विद्यातपःप्रभावानं राजपूजादि पापमं क्रोधफलदर्शनं या भिकार्य कुर्वतः सप्तमे उत्पादना दोषे, ध० ३ अधि० । पञ्चा० । उस० । - अस्य सम्भवमाह निम्नातप्पा, रायकुले वा विवलभतं । से ना उरस्सवलं, जो लब्भर कोहपिंमो सो ॥ (से) साधोर्विद्यात्रभावमुच्चाटन मरणादिकं तपप्रभाव सायदानादिकं राजकृले पत्यं वा काल्या, यदि वा उरस्वं बलसह योषित्वादिकं ज्ञात्वा यः पिएको सभ्य गृहस्थे न दीयते स क्रोधपिण्डः । अथवा वृथा कोषपिण्डसंजय स्तमेव दर्शयति नेसि दिज्जमाणे, जार्चेतो वा अलको कुप्पे । कोफलम् विदिडे, जो लग्नइ कोपिंटो सो ॥ अम्बेभ्यो ब्रह्मादयो यमाने याचमानोऽपि साधुर्यदा न बनते तदा अलब्धिमान् सन् कुप्येत् कुपिते च सति तस्मात् साधुः कुपितो नव्यो न प्रयतीति यद्दीयते स कोचपिण्ड य दिया तमिप्येवं वा कोषको मरणादिशाफलवति लभ्यते स क्रोधपिण्डः । श्रत्रैवोदाहरणमाह करकुपनृत्तमल, अनहि दाहित्य एरवतो । येरा भोषण तर आवणा वामडा दाणे || हस्तकल्पे नगरे कचित् ब्राह्मणगृहे मृतकनक्ते मासिके दीयमा ने कोऽपि साधुः मास कृपणपर्यवसाने भिक्कार्थे प्रविवेश, दृष्टातेन घृतपूरा ब्राह्मणेभ्यो दीयमानाः सोऽपि च साधुः कोहविजय प्रतिषिको दौवारिकेण, ततः कुपितोऽवादीत ( अनहिं दाहित्य (त) अस्य चायमर्थः - अस्मिन् मासिके तावन्मया न लब्धं ततोअन्यस्मिन् मासिके दास्यथेति । एवं अनुयानिगत हैवयोगेन तत्राम्यमानुषं पश्चमदिनमध्ये मृतं ततस्तस्य मासिके दीयमाने भूकः स एव साधुमखकृपणपारणे यतः तयेव च प्रतिपिको दीवारिकेण ततो भूयोऽपि कुपितोऽवादीत - ( दाहित्य ततः पुनरपि देवयोगतस्तत्रान्यमानुषं मृतं ततस्तस्यापि मासिके स पच साधुर्मास कृपणपारणे मिकार्थमागतः तथैव च प्रतिषिद्धो दोचारिकेण भणति (मादित्य मुबा तेन स्थविरेण दीवारिकेण चिन्तितम्-पुराना शापतिस्ततो मानुष उपगते, संप्रति तृतीया तमाम मानुषं प्रियतामिति निजानुकम्पया सर्वोपिवृतान्तो गृहनायकाय निवेदितः, तेन च समागत्य सादरं साधुं शमयित्वा पृतपूरादिकं ती यथेच्छं व्यतारि सोपमः। सुत्रं सुगमं, नवरं करडुककं मृतकभोजनं मासिकादि, पिं० । अत्राचामाम्लं प्रायश्वितम् । जी० १ प्रति० । जे चिक्यू कोइर्पिदं मुंज, अंत या साइलाइ ॥ ६५ ॥ क्रोधात् प्रमादात् यः पिण्डो लभ्यते स कोपपिएमः । जे भिक्खु कोविंद, इंजेज सर्व तु अब साविना । सो प्राणा प्रणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे ।। १७७ ॥ पूर्ववत् । नि० ० १३ ४० । कोहपच क्रोधमाप्त-० को वर्तमाने "कोप्य को ही समावदेजा मोसचयणा । " आचा० २ श्रु० ३ ० । कोहद क्रोधमुहम० को मुका कोधमुडा कोषच्छेदनान्मुमशब्दार्थतां प्राप्ते, स्था० ५ ० ३ उ० । कोट्स ० " या मयूख सचण-चतुर्गुण-चतुर्थ तुर्दशचतुरसुकुमारकुतूहलोलूखले ८ ११७१ 'कोहलं, कोलम' श्रौत्सुक्ये, "तहमने कोहलिए" प्रा०१पाद । कोइली कृष्णादी श्री० झोत्कृष्यापढीतूणीरकूरस्थूलत म्बूलगुडूची मूल्ये । " ८ १ १२४ । इति उत श्रोत्वम् । प्रा० १ पाद | "कूष्माण्ड्यां मो लस्तुएडो वा" ।। २ । ७३ । कृष्णाराज्यां मा इत्येतस्य हो भवति, एक इत्येतस्य तु वा खो भवति । "कोहली, कोहंडी ।" पुष्पफल्याम, प्रा० २ पाद । कोह विजय - क्रोधविजय पुं० । क्रोधस्य विजयो दुरन्तादिपरिभावनेनोदयनिरोधः क्रोधविजयः । क्रोधनिप्रदे, उत्त० २९ ० । क्रोधफलं प्रश्नपूर्वकमाह - 66 कोहविजयेणं नंते ! जीवे किं जाय ? । कोइ विजएणं खंति नणय, कोहयणिलं कम्पं न बंध, पुव निज्जरे || ६७ || हे भगवन्! विजयेन जीवः किं जनयति गुरुराह दे शिष्य ! क्रोधविजयेन जीवः कान्तिं जनयति, क्रोधविजयी का न्तिमान् जवति इत्यर्थः । पुनः क्रोधवेदनीयं न कर्म बध्नाति, कोधोदयेन वेद्यते इति क्रोधवेदनीयं क्रोधदेतुभूतं पुत्रलरूपं मोहनी - कर्मबनाति पूर्वषयं च कर्म निर्जरयति तत्र कोधस्य विजय पुरादिपरिभावनेनोदय निरोधः क्रोध । Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०७ ) अभिधानराजेन्द्रः । कोह विजय विजय:, तेन क्रोधेन कोपाध्यवसायेन वेद्यत इति क्रोधवेदनीयः, तकेतुभूतं पुलरूपं कर्म न वध्नाति । " जं वेयति तं बंधह इति वचनान्तथा पूर्वषषं प्रक्रमान्तदेव निर्जरयति, तत एवं विशिष्टजीववीयासात् । उस० २६ श्र० । कोहविवेग-क्रोधविवेक - पुं० । कोपत्यागे, कोधस्य पुरन्ततादिपरिभावनेनोदयनिरोधे, प्र० १७ श० ३ उ० । “ पगे कोहधि वेगे " स्था० १ ठा० १ ४० । कोढवे णिज्ज - क्रोधवेदनीय न० । क्रोधेन कोपाध्यवसायेन वेद्यत इति क्रोधवेदनीयम । कोपेन वेद्यमाने कर्मभेदे, उस० २० अ० । " कोहाइमाण - क्रोधादिमान - न० । पुं० क्रोध आदियैषां ते कोधादयः, मीयते परिच्छिद्यतेऽनेनेति मानं स्वलक्षणमनन्तानुबन्ध्यादिर्विशेषः क्रोधादीनां मानं क्रोधादिर्वा यो मानो गर्वः क्रोधकारणः । आचा० १४० ३ ० २३० । कषायमाने, “को हाइमाणं हनियाय धीरे, सोमरस पाले णिरयं महंतं ॥ तम्हा हि वीरे विर बहाभो, विंदेज्ज सोयं लहुभूयगामी ॥ १ ॥ चाचा० १ ० ३ भ० १ ३० । 39 कोढाइविवेग-क्रोधादिविवेक- पुं० । क्रोधादयोऽप्रशस्ता भाषा कोहुप्पत्ति स्तेषां विवेकः नरकयातनाद्यपायहेतुत्वात्परित्यागः । क्रोधादि भाषे, दश० १ अ० । कोहिल-क्रोधवत्—श्रि० । क्रोधिनि, पृ० १ उ० । कोहुप्पत्ति-क्रोधोत्पत्ति - स्त्री० । क्रोधजनने, स्था० । कोहसमा कोषसंज्ञा - बी० । क्रोधोदयात्सदावेशगर्ना मरूतमुखनयनदन्तच्चदस्फुरणादिचेष्टैव संज्ञायते श्रनयेति क्रोधसंज्ञा । भ० ७ ० उ० । प्रज्ञा० । संज्ञाभेदे, स्था० १० वा० । प्राचा० कोहा - क्रोधा - स्त्री० । क्रोध- अर्शश्रादित्वात् अच् । क्रोधवत्थाम, क्रोधानुमतायाम्, " से कोहार माणार लोहार श्रासायणाए । | " क्रोधयेति क्रोधवत्या इति प्राप्ते अर्शआदेशकृतिगणत्वाद् अच्प्रत्ययान्तत्वात् क्रोधया क्रोधानुमतया । श्रा दसहि ठाणेहिं कोहुप्पत्ती सिया । तं जहा मणुनाई मे सह० जाव गंधाई प्रवहरिसु || १॥ श्रमभाई मे सदाई० जाव उवहरिंसु || २ || मणुबाई मे सदफरिसरसरूवगंधाईं प्रवहर || ३ || मणुनाई मे सदफारिसरसरूनगंधा वह ||४|| मणुन्नाई मे सदफरिसरसरूपगंधाई अवहरिस्त || || मणुनाई मे सहाई० जाव उवहरि - स्सइ ॥ ६ ॥ मनाई मे सद० जाव गंधाई अबहरिंसु, अवहरइ, अवहरिस्त || ७ ॥ श्रमनाई मे सद० जान उबहरिंसु, उवहरड़, जबइरिस्सर || || मणुष्ठामनाई मे सदा० जाव अवहरिंसु, अवहरश, अबढ़रिस्सर ॥ एए ॥ जबहरिंसु नवहरह उवहरिस्सर ॥ १० ॥ अहं चणं प्रायरियउवज्जायाणं सम्मं वट्टामि ममं च षं प्रायरिउवज्झाया मिच्छं वि परिवन्ना ।। । च० ३ म० । । कोढाइ - क्रोधादि - पुं० । क्रोधप्रभृतिकषाये, “कोहाती, आदिसदातो मालया लोभा घेष्यति । " नि० चू० १४० । को हासिमरण - क्रोधादिदूषितमनस् - त्रि० । कोपलोभादिकषायकलङ्कितान्तःकरणे प्राणिप्राणप्रदाय निरपेके, पञ्चा० १ वि० । कोहि - क्रोधिन्- पुं०। कुभ्यतीति क्रोधी । हेतुमन्तरेणापि कुप्यति धर्म्मणि, ०७० | "कोही समावदेजा। " श्राचा० ३ चू० अनु० । क्रोधकषायिणि, सुत्र० १० ८ ० । गतार्थे, नवरं स्थानविभागोऽयं तत्र मनोज्ञान शब्दादोन मे अपहृतवानित्येवं भावयतः क्रोधोत्पत्तिः स्यादित्येकमेवममनोज्ञानपतवानुपनीतवानिह चैकवचन बहुवचनयोर्नविशेषः, प्राकृतस्वादिति । द्वितीय एवं वर्त्तमाननिर्देशेनापि द्वयं भविष्यताऽपि द्वयमित्येवं षट्। तथा मनोज्ञानामपहारतः कालत्रय निर्देशन सप्तम एवममनोकानामुपहतोऽष्टमं मनोकामनोज्ञानामपहारोपढ़ारतः कालत्रय निर्देशन नवमम् । (अहं चेत्यादि) दशमं (मिति) वैपरीत्यं विशेषेण प्रतिपन्नो विप्रतिपन्नाविति ॥ स्था० १० ग० । (चतु कोधोत्पतिः 'कलाय' शब्देऽत्रैव जागे ३९५ पृष्ठे उक्ता) इति श्रीमत्सौधर्म बृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पश्रीमहारक - जैन श्वेताम्बराचार्य श्री श्री १००८ श्री विजयराजेन्द्रसूरिविरचितेा निधानराजेन्द्रे ककारादिशब्द सङ्कलनं समाप्तम् । For Private Personal Use Only Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 खकार . . . अभिधानराजेन्सः। खइय RAAAAAAAAAAAASTE णावरणे निरावरणे खीणावरणे दरिसणावरणिज्जकम्पSetoglostostoetusto tastoetsetestete विप्पमुक्के खीणसायावेअणिज्जे खीणप्रसायावेयणिज्जे - वेषणे निव्वेश्रणे खीणवेणे सुजासुनवेणिजविप्पयुके खीणकोहे जाव खीणलोहे खीणपेजे खीणदोसे खीणदंसणमोहणिजे खीणचरितमोहणिज्जे अमोहे नि म्मोहे खीणमोहे मोहणिज्जकम्मविप्पमुक्के स्वीणणेराउए प्र * खीणतिरिक्खजोणिमाउए खीणमएस्साउए खीणदेवाउर अणाउए निरानए खीणाउए पाउकम्मविप्पमुके गइजाख-ख-पुंसकारः व्यम्जनवर्णभेदकवर्गद्वितीयवर्णे कपठ्ये, इसरीरंगोवंगवंधणसंघायणसंघयणसंगणपणेगवोंदिविंदिखन-धा० मः । सुख, सूर्ये, वितर्के, वेदने, निन्दायां, नृपे, संघायविप्पमुके खीणसुजनामे खीणअसुभनामे प्रणामे केपे, विवि, अवसाने, अपवर्गे, परब्रह्मणि, न० । कृशे, दीने, उदरे, अम्नौ, कपणे, निश्चये, शान्ते रसे, विहगनायके, निणामे खीणनामे सुभासुभणामकम्पविष्पमुक्के खीणनचके, पुरे, इन्दौ, दन्तधावने, कुणहे, संवशे, फुखणे, एका। गोए वीणणीअगोए अगोए निगोए खीणगोए उच्चनीइन्छिये, न० प्रा० म०प्र०ाविशे० समित्याकाशम् । श्रा० चगोत्तकम्मविप्पमुक्के खीणदाएंतराए खीणमानंतराए ६ मा “गजंते खेमेहा" प्रा०१ पाद । लग्नाइशमे स्थाने,वाच०। खीणभोगतराए खीणवभोगतराए खीणवीरियंतराए खन-क्षत-त्रि ।"ः सः क्वचितुर-कौ"11५।३। अणंतराए पिरंतराए खीएंतराए अणंतरायकम्मविप्पमुके इति प्राकृतसूत्रेण क्षस्य खः। प्रा०२ पाद । विदारिते, पीडिते, पाडित, सिके बुके मुत्ते परिणिचुए अंतगमे सम्बयुक्खप्पहीणे, धर्षिते, कये, पुं०॥विनाशे, बाच०। सेत्तं खयनिप्पो , सेत्तं खइए। खजलहन-क्षयजलधर-पुं० । “कासः कचि छ-की"10 (से कि तमित्यादि ) एषोऽपि विधा क्षयस्तनिष्पन्नश्च । तब १२।३। ति क्षस्य खः। कस्य कः इति अनादावित्येव, जिला "खपणं" अत्र णमिति पूर्ववत् । क्षयोऽष्टानां कानावरणादिकमूलीयः। प्रलयमेघे, प्रा०४ पाद । मप्रकृतीनां सोत्तरभेदानां सर्वथाऽपगमलक्षणः। स च स्वार्थिखात-खचित-त्रि० । निर्युक्ते, का० १ ० १ अ०। रजिते, कठकप्रत्यये कायिकः, क्षयनिष्पन्नस्तु तत्फलरूपः,तत्र च समा०१९०१ म० । मरिमते, औ० । विछुरिते,प्रा०म०प्र० । वपि कर्मसु सर्वथा कीणेषु विषये पर्यायाः संनयन्ति, त क्रमेण दिदर्शयिषुकानावरणकये तावदेवं प्रवन्ति । तानाहवश्य-क(क्षा)यिक-पुंजक्यकर्मणामत्यन्तोच्छेदः । क्षय पव क्षा (उपासनाणदसणेत्यादि) उत्पने श्यामतापगमेनादर्शमण्डयिकाक्षयेण वा निर्वृतःकायिकस्तत्कर्माजावफलरूपो विचित्रो लप्रभावसकलतदाबरणापगमादनिव्यक्त ज्ञानदर्शनं धरति यः जीवस्य परिणतिविशेषः। जावभेदे परिणतिविशेषे, प्रव० २२१ स तथा । भरहा अविद्यमानरहस्यो, नास्य गोप्यं किशिदद्वारा माल उत्त० कर्म । कयाजातः क्षायिकोड स्तीति भावः । भावरणशत्रुजेतृत्वाजिनः, केवलं संपूर्ण ज्ञानप्रतिपातिकानदर्शनचारित्रकरणः। अप्रतिपातिकानादौ,सूत्र०१ मस्यास्तीति केवली, कीणमाभिनियोधिकंकानावरणं यस्य स शु०१३ मा अनु० कायिको नवप्रकारः केवलशानं, केवलदशेनं, दानादिलब्धयः पश, सम्यक्त्वं चारित्रं चेति । सूत्र. १ तथा । पर्ष नेयं यावत् कीणकेवलकानावरणम । अविद्यमान मावरणं यस्य स विशुद्धाम्बर श्वेतरोचिरिवानावरणः, तथा भु०२०। कर्म० । 'खश्त' शब्दार्थ, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०॥ निर्गत भागन्तुकादप्यावरणाबाहुरहितरोहिणीशवदेवं निराधक्षायिको जावो विधा । तद्यथा रणः तथा कीपप्रकाशेनापुनर्भावतया प्रावरणमस्येत्यपाकृतम नावरणजात्यमणिवत्क्षीणावरणःनिगमयत्राह-कानावरणीयेन से किं ते खइए । खइए दुविहे पत्ते । तं जहा-खइए अ, कर्मणा विविधमनकैः प्रकारैः प्रकर्षण मुक्तो कानावरणीयखयनिप्पो असे किंतं खाए ?। खइए अढएहं कम्मपयमी- कर्मविप्रमुक्तः। पकार्थकानि वा पतान्यनावरणादिपदानि, भणं खइएणं । सेत्तं खइए। से कितं खयनिष्पप्ले । खयनिप्प- | न्यथा वा नयमतनेदेन सुधिया भेदा वाच्याः। तदेवमेतानिकागणे प्रणेगविहे पएणत्ते । तं जहा-उप्पएणनाणदंसणधरे | नावरणीयापेक्वाणि नामान्युक्तानि । मथ दर्शनावरणीयक्यापेक्काअरहा जिणे केवली खीणानिणिवोहिअणाणावरणे णि तान्यप्याह केवलेन क्षीणावरणेन दर्शनेन पश्यतीति केवल दशी,तीणदर्शनावरणत्वादेव सर्व पश्यतीति सर्वदीत्येवं निद्राखीणसुअणाणावरणे खीणोहिणाणावरणे खीणमणप- पञ्चकदर्शनावरणचतुष्ककयसंभवीन्यपराण्यपि मामान्यत्र पू. जवणाणावरणे खीणकेवझणाणावरणे अणावरणे निराक- वोक्तानुसारेण व्युत्पादनीयानि,नवरं निझापाकस्वरूपमिदमरणे खीणावरणे पाणावरणिजकम्मविप्पमुक्के केवलदंसी "सुहपरिषोहो निहा, दुहपमिबोहो य निहनिदाय। सन्चदंसी खीणनिद्दे खीणनिद्दानिद्दे खीणपयले खीणपय पयला होइ ठियस्सा, पयलापयाला य चंकमओ ॥१॥ सापयले खीणवीणगिके खीणचक्खुदंसणावरणे खीणअ प्रासंकिलिटुकम्मा-गुवेयणे होह थीणगिरीयो। महनिहादि ण चिंतिय, वावारपसाहणीपायं" ॥२॥ चक्खुदंसणावरणे खीणोहिदसणाबरणे खीणकेवळदंस- अपरं कानावरणादिशब्दाः पूर्व ज्ञानाबरणानावापेक्षाः प्रवृत्ताः, Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खश्य (६९) निधानराजेन्सः। खोवसमिय अत्र तु दर्शनावरणाएरमोपेक्षा इति विशेषः। वेदनीय विधा-प्री. दिश्य साम्प्रतं पुनः समुदितप्रकृत्यष्टककयनिष्पन्नानि सामान्यतो त्युत्पादकं सातम, अप्रीत्युत्पादकं वसातम् । तत्क्षयापेवास्तु यानि नामानि भवन्ति तान्याह-(सिके इत्यादि) समस्तप्रयोजकीणसातावेदनीयादयः शब्दाःसुखोनेयाः,नवरमवेदनो वेदना- नत्वात् सिकः,बोधात्मकत्वादेव वुद्धः, वाह्याच्यन्तरग्रन्थिबन्धनरहितः,सच व्यवहारतोऽल्पवेदनोऽप्युच्यते। ततः प्राह-निर्वेद- मुक्तत्वान्मुक्तः,परि समन्तात् सर्वप्रकारैःनिर्वृतः सकासमीहिनोपगतः सर्ववेदनः,सच पुनः कालान्तरजाविवेदनोऽपि स्यादि- तार्थलाभप्रकर्षप्राप्तत्वात् शीतीनुतः परिनिवृतः, समस्तसंसात्याह-कीणवेदनोऽपुर्न विवेदनः। निगमयमाह-(सुभासुभवेत्र- रान्तं कृत्वाऽन्तकृदिति, एकान्तेनैव शारीरमानसपुःखप्रहाणात णिज्जकम्मविप्पमुक्के ति)। मोहनीयं द्विधा-दर्शनमोहनीय,चा- सर्वपुःखप्रहाण शति । (सेत्तमित्यादि) निगमनद्वयम्। उक्तो द्विरित्रमोहनीयं च । तत्र दर्शनमोहनीयं विधा-सम्यक्तमिश्रमिथ्या- विधोऽपि क्षायिकः। अनुगपं.साकायिकनावगुणश्चतुद्धा तयवनेदात् । चारित्रमोहनीयं च द्विधा-क्रोधादिकषायहास्यादिनो- था-क्कीणसप्तकस्य पुनर्मिथ्यागतगमन कीणमोहनीयस्यावश्यंभा. कषायभेदात् । तत एतत्वयसंनधीनि सूत्रलिखितानि कीणको. विशेषघातिकर्मकयः कीणघातिकर्मणोऽनावरणशानदर्शधादीनि नामानि सुबोधान्येव, नवरं मायामोभी प्रेम,क्रोधमानी नाविर्भावापगताशेषकर्मणोऽपुनर्भवस्तथाऽत्यन्ति फैकान्तिकानां तु द्वेषः। तथाऽमोहोऽपगतमोहनीयकर्मा,स च व्यावहारिकैरल्प वाधः परमानन्दलकणः सुखावाप्तिश्चेति। श्राचा०१ श्रु०२० मोहोदयोऽपि निर्दिश्यते । अत पाह-निर्गतो मोहानिर्मोद,स १००। गुणशब्दभवं कायिकं त्रिविधस्यापि दर्शनमोहनीयस्थ च पुनः कालान्तरभाविमोहोदयोऽपि स्यादुपशान्तमोहवत्तव्य कयेण निर्मूलमपगमेन निवृत्तम् । सम्यक्त्वस्य तृतीयभदे,नं। बच्छेदार्थमाह-क्षीणमोहोऽपुनर्नाविमोहोदय इत्यर्थः । निगम उत्त० । निध०। पं० सं०। दर्श०। कर्म। यति-मोहनीयकर्मविप्रमुक्त इति । नारकाद्यायुष्कभेदेनायुश्चतुर्दा। तत्कयसमुद्भवानि च नामानि सुगमानि,नवरमविद्यमा खादित-त्रि० । भकिते, आव०४०। (कायिकसम्यक्त्वनायुकोऽनायुकस्तद्भविकायुःक्षयमात्रेऽपि स्यादत उक्तम्-नि स्यान्या व्याख्या 'सम्मत्त' शब्दे विलोकनीया) रायुष्कः। स च शैलेशी गतः किश्चिदवतिष्ठमानायुःशेषोऽप्यु- खर-खदिर-पुं०(खयर इति ख्याते वृकोदे,तस्य सारे स्थितत्वापचारतः स्यादत उक्तम्-वीणायुरिति । आयुःकर्मविप्रमुक्त इति तथात्वम् । इन्द्र,शत्रुहिंसकत्वात्तथात्वम् । न आकाशे दीर्यते इ. निगमनं, नामकर्मसामान्येन शुभाशुजभेदतोद्विविधम, विशेष धापूर्तकारिभिर्यतः 'X' अपादाने किरन् । चन्छ,वाचा खदिरे तस्तु गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गादिभेदादू हिचत्वारिंशदनेदाः मध्यगुरुत्वम् । आचा०१७०२ अ०१ उ०। "खश्रो होइ दुमो अस्थानान्तरादवसेयाः,तह तत्क्षयनाबीनि कियन्ति नामानि ? खयरो खयरो वा" । प्राचा०१ श्रु०५ अ०१ उ०। खादिरं “वाsभनिधत्ते-( गश्जाइसरीरेत्यादि) इह प्रक्रमानामशब्दो य-| व्ययोत्खातादावदातः"८१६७॥ इति प्रात्वमा प्रा०१ पाद । थासंभवं द्रष्टव्यः, ततश्च नारकादिगतिचतुष्टयहेतुचूतं गतिनाम, एकेन्द्रियजातिपञ्चककारणं जातिनाम, औदारिकादिश | खहरवण-खदिरवन-नामथुरातीर्थे द्वादशवनानां खदिरखने रीरपञ्चकनिबन्धनं शरीरनाम, औदारिकवैक्रियाहारकशरीर- सप्तमे, ती०१ कल्प। त्रयाङ्गोपाङ्गनिर्वृत्तिकारणमझोपाङ्गनाम, काष्ठादीनां लाक्षादिद्र-खरोक्षग-10 | सरस्टादौ, महा०७ अ । व्यमिव शरीरपञ्चकपुमलानां परस्परं बन्धहेतुः बन्धननाम,ते. पामेव पुलानां परस्परबन्धनार्थमन्योऽन्यसानिध्यलकणसं खउड-खपुट-पुं०। विद्यासिद्धाचार्यभेदे, प्रा० म०प्र० । प्रा० घातकारणं काष्ठसन्निकर्षकृत्तथाविधकर्मकर इव संघातनाम, कानि० चूछ । (कथाऽस्य 'विज्जा' शब्द) कपाटादीनां लोहपट्टादिरिवौदारिकशरीरास्थिपरस्परबन्धविखउर-इन-धान अचानने,दिवादि आ०अक० सेट् वाचा शेषनिबन्धनं संहनननाम । एतच बन्धनादिपदत्रयं कचिहाच. "भन्ने खबरपही" ||४|१५४। इति शुभेः खउरादेशः। नान्तरे न दृश्यत इति । बान्दिस्तनुः शरीरमिति पर्या. 'खउरक, खुम्भइ' प्रा०४ पाद । याः। अनेकाश्च नाना भवेषु तासां भावात् तस्मिन्नेव वा भवे जघन्यतोऽप्यौदारिकतैजसकार्मणलकणानां तिसणां भा खपुर-पुं०। खं पिपर्ति उच्चतया, पृ कः । गुवाके, खमिन्छिवानेकवोन्द्यः, तासां वृन्दं पटलं, तदेव पुमलसंख्यातरूपत्वात् यं पिपर्ति पृ-कः। अलसे, त्रि०। खेन पूर्यते घत्र कर्मणि सङ्घातोऽनेकबोन्दिवृन्दसंघातः, गत्यादीनां च द्वन्द्वे गतिजाति कः। नजमुस्तके, व्याघ्रनखवृक्के, गन्धर्वनगरे, न०। वाच । शरीराङ्गापागबन्धनसंहननानेकवोन्दिवृन्दसंघातास्तविमुक्तो यः चिक्कणकव्ये, वृ०३ उ०। नि० चू० । “चुप्पख नरादि दालं,चुम्मो स तथा । प्राक्तनेन शरीरशब्देन शरीराणां निबन्धनं नाम क बदरादियाणं गोरखदिरमादियाणं खजरो" । नि०चू०१६ उ० । मंगृहीतं, वोन्दिवृन्दग्रहणेन तु तत्कार्यनूतशरीराणामेव ग्रहण- | खउरकविण-खपुरकग्नि-न । तापसानां भोजनादिनिमित्ते मिति विशेषः। वीणमपगतं तीर्थकरशुभसुजगसुस्वरादेययशः- उपकरण विशेष, तच्च किल वंशकुन्दादिकं व्यमिति लक्षणं कादिकं शुनं नाम यस्य स तथा, क्षीणमपगतं नरकगत्य- कुट्टयित्वा कमगकारं क्रियते। विशे० विल्वरभिल्लातकरशुभदुर्जगदुःस्वरानादेयायशोऽकीर्त्यादिकमाभं नाम यस्य स साज्यां लिप्तत्वात् कठिनमतिशयन घनं तवमपि पानीयमतथा । अनामनिर्नामकीणनामादिशब्दास्तु प्राक्तानुसारेण भा- प्यवस्रवति । वृ०१ उ०। बनीयाः । शुनाशुजनामविप्रमुक्त इति निगमनम् । गोत्रं द्विधाउच्चगोत्रं, नीचाँत्रंच। ततस्तत्वयसम्भवी निक्कीणगोत्रादिना. खरिय-कुभित-त्रि० । कलुषितचेतसि, वृ० ३ उ० । स्वरएिटमान्युक्तानुसारतः सुखाबसेयान्येवं दानान्तरायादिभेदादन्त ते, नि० चू०५ उ०। राय पश्चधा, तत्क्षयनिष्पन्नानि च कीरणदानान्तरायादिनामानि खग्रोवसभिय-कायोपशमिक-पुं०। कयेणादयप्राप्तकर्मणो वि. विषमाएयेव । तदेवमेकैकं प्रकृतिक्षयनिष्पन्ननामानि प्रत्येक नि- नाशेन सहोपशमो विष्कम्भितोदयत्वं क्षयोपशमःम०.७२० २७३ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खग्रोवसमिय प्रनिधानराजेन्द्रः। खग्रोवसमिय ७३० कर्मः । उदीर्णस्यांशस्य कयोऽनुदोर्णस्यांशस्य विपा- तत्वं चेह मिथ्यादर्शनोदयदूषितावाद एव्यमारष्टा च कुत्साथै कमधिकृत्योपशमः कयोशमः । प्रव० २२१ द्वारास एव का- नमो वृत्तिर्यथा-कुत्सितं शीलमशीलमिति मत्यज्ञानस्य सम्धि. योशमिकः । क्रियामात्रे भावभेदे, कयोपशमेन बा निर्वृतःकायो योग्यता,सापि स्वाधरणकयोपशमेनैव निष्पद्यते।एवं भुताकापशमिकः । भ.७ २०१४ उ.क्षयोपशमसंपाये मतिकाना- नलम्धिरपि वाच्या भक्तःप्रकारो,जेद इत्यर्थः। स चैह प्रक्रमादिलब्धिरूपे प्रात्मनः परिणामविशेषे मिथ्यात्वमोहनीयादिकम दवधिरेच गृह्यते विरूपः कुत्सितो भलो विभङ्गः, स एवार्ये विगमविशेषविहितात्मपरिणामे, पत्रा३बिव० । प्रावनेदे, परिकानात्मकत्वात् ज्ञानं विभकानं, मिथ्यारष्टिदेवादेषाधिर्वि प्रव.८७ द्वार । सूत्र० । अनु। भज्ञानमुच्यते इत्यर्थः । श्ह च विशम्देनैव कुत्सितार्थप्रती"ओहीखोवसमिए, जावे भणिनो प्रयो तहोदाए। तेन नो निर्देशः तस्य लब्धिर्योग्यता. साऽपि स्थावरणकयोतो किह भवपञ्चश्मो, वो तुचोऽवही दोए{"॥१॥ इति।। पशमेनैव प्रापुरस्ति, एवं मिथ्यात्वादिकर्मणः क्षयोपशमसा भ्या शेषा अपि सम्यग्दर्शनादिसम्धयो यथासम्जवं भावनीयाः, यतः नवरं बासा अविरताः पएिकताः साधवः,बालपरिडतास्तु देश"नदयक्वोचसममो, व समाजं चकम्मणो भणिया। विरताः, तेषां यथा स्ववीर्यलब्धिर्वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमादवं खेतं कालं, भवं भावं च संपप्प" ॥१॥ द्भावनीया, इन्द्रियाणि चेह लन्युपयोगरूपाणि भावेन्द्रियाणि तथा तदावरणस्थ कयोपशमे नवं कायोपशमिकमिति ।। गृह्यन्ते,तेषां च लब्धियोग्यता मतिश्रुतकानचक्षुरचक्षुर्दर्शनावरस्था०।"दोपहंसोपसमिए पाते। जहा-मणुस्साणं चैव, णक्कयोपशमत्वात् क्षायोपशमिकीति भावनीयम् । आचारधपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं चेवा"स्था०२ ठा.१००।- रत्यादिपर्यायाणां च श्रुतकानप्रनवरवात्तस्थरसदावरणकर्मम०। पं० सं०। प्रा० म०। “सोवसमितो णाम तस्स क कयोपशमसाध्यत्वादाचारधरादिशब्दा इह पठ्यन्ते इति प्रति. म्मस्स सब्वघातिफगाणं " उदयङ्गयात् तेषामेव सदुपशमात् पत्तन्यम्। “मेत्तमित्यादि " निगमनवयम्। देशघातिफड़गाणं उदयात बतोवसमितो जावो भवति भौपश- | से किं तं खोवसमनिप्पो । खओवसमनिप्पो अणेमिकादस्य नेदः। श्रा०यू०१०।" से केशरणं नंते ! एवं गविहे पाते। तं जहा-खओवसमिमा आभिणिवोहिअवुच्च संठाणतुखप?। संगणतुल्लप गोयमा!परिमंडलसंठाणे" णाणलकी, जाव खत्रोवसमिश्रा मणपज्जवणाणलकी, भ०७ श०१४ उ०। कायोपशमिकभेदामाद खोवसमिमा मतिप्रमाणलघी, खोवसमिश्रा सुअलसे किं तं खोवसमिए। खोवसमिए दुविहे परमत्ते।तं माणसकी,खोवसमिश्रा विनंगणाणलझी, खोवसमिजहा-खोबसपिए खोचसमनिप्पये यासे किंतंखो आ चक्खुदंससदी,अचकखुदसणाची,ओहिदसणलद्धी, बसमे । खयोवसमे चडएहं घाइकम्माणं खमोवसमेणं तं एवं सम्मदसणलघी, मिच्छादसणलकी, सम्ममिच्चाईसजहा-णाणावरणिज्जस्स देसणावरणिजस्स मोइणिजस्स पलकी, खोवसमिश्रा सामाश्मचरित्तलद्धी, एवं छेदोवअंतरायस्स, सेत्तं खोवसमे।। ट्ठावणदी, परिहारविसुचिअलफी, मुहमसंपरायचरित्तअसावपि द्विरूपः क्योपशमस्तनिष्पनश्च। तत्र विवक्तितझा लकी, एवं चरित्ताचरित्तलखी,खोवसमिश्रा दाणलकी, नादिगुणविघातकस्य कर्मण उदयप्राप्तस्य यः सर्वथाऽपग एवं लाभभोगउवभोगलद्धी,खओवसमिआ वीरिअन्नद्धी,एवं मः, अनुदीर्णस्य तु तस्येवोपशमो विपाकत उदयाभाव पंमिअवीरिअलची, बलवीरिअलकी, वालपंमिअवीरित्यर्थः। ततश्च कयोपलकित उपशमः क्षयोपशमः । ननु चोप- अलबी,खोवसमिआ सोशंदिअलकी जावखमोवसमिशमिकेऽपि यदुदयप्राप्तं तत्सर्वथा कोणं शेषं तुम क्षीणं आफासिंदिग्रसदी,खओवेसमिमा आयारंगधरे,एसं सूअगनाप्युदयप्राप्तमतस्तस्योपशम उच्यते इत्यनयोः का प्रतिषिशेषः । उच्यते-कयोपशमावस्ये कर्मणि विपाकत एवोदयो मांगधरे ठाणंगधरे समवायंगधरे चेब,विवाहपणत्ती नायानास्ति प्रदेशतोऽस्त्येव, उपशान्तावस्थायां तु प्रदेशतोऽपि धम्मकहा उवासगदसा अंतगमदसा अणुत्तरोवाइअदसा नास्युदय इत्येतावाता विशेषः । तत्र चतुर्यो घातिकर्मणां के- पएहवागरणधरे विवागसुअधरे खोवसमिए दिवायधरे वलज्ञानप्रतिवन्धकानां ज्ञानावरणदर्शनावरणमोदनीयान्तराया खोवसमिए एवपुब्बी खओवसमिए० जाव चनद्दसपुणां यःक्षयोपशमः स क्षयोपशमरूपः क्षायोपशमिको भावःणमिति पूर्ववत् " तथेत्यादिना" स्वत पव घातिकर्माणि बिवृ व्वी खोवसमिए गणी वायए खोवसमिए,सेत्तं खोजोति,शेषकर्मणां तु कायोपशमो नास्त्येव,निषिद्धत्वात् । “से वसमनिप्पन्ने, सेत्तं खोवसमिए । अनु। त्तमित्यादि" निगमनम् । तेन च क्षायोपशमेनोक्तस्वरूपेण निष्पा अधुना कायोपशमिकभावभेदानष्टादशसंख्यानाद-- प्राक्कयोपशमिको भावोऽनेकधा भवति । तमाह-(साभोवसमिया आजिनिवोहियनाणसद्धीत्यादि) पानिनिवोधिककानं चलणाणमाणाणतिगं, दंसणतिग पंचदानलकीयो । मतिकानं तस्य लब्धिर्योग्यता स्वस्वावरणकर्मकयोपशमसा सम्पत्तं चारित्तं, च संजमासंजमो तइए ॥ ३ ॥ ध्यत्वात् कयोपशमिकी,पवं वक्तव्यं यावन्मनः पर्यायज्ञानलब्धिः। चत्वारि ज्ञानानि मतिश्रुताबधिमनःपर्यायरूपाणि, अज्ञानत्रिकवनकानसान्धस्तु स्वस्वावरणकर्मणः कय पवोत्पद्यत इति कंपतिश्रुताकानविनामपं. दर्शनत्रिक चतुरचरवधिदर्शनहाता ।कुत्सित ज्ञानमकानं, मतिरेव अज्ञानं मत्यज्ञानम् । कतिस. स्वभावं, पञ्चतिसंख्या दानेनोपसविता अब्धयो दानसम्ध Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोवसमिय अभिधानराजेन्छः। खंडप्पवायगुहा योदानमाभोपभोगभोगवीर्यसम्धयः समक्त्वं सम्यग्दर्शमंचारि- खंजण-खञ्जन-खजि भावे ल्युत् । विकलगती, कर्तरि ल्युः । चंब सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुक्षिकसूरमसंपरा- स्वनामन्याते पकिभेदे, नियां की। बाबा दीपमल्लिकामले, यलकणं संयमासंयमोद्देशविरतिरूप श्त्येते अधादश भेदास्तृ- | जी०३ प्रति० । प्रा. म. जं. रा. स्था०।०।०। तीयेकायोपशमिके भावे जवन्ति। तथाहि-कानचतुष्कमकानत्रि- बर्क सूर्य वा प्रसतो राहोः कृष्णपुलानां पदे, चं०प्र०२० कं च यथास्वमाचारकस्य मतिकानावरणादिकर्मणः शायो- पाहु । सू०प्र०ादीपकनिकासमाने, स्था०४ डा०२ उ०। पशामक पवनवति । दर्शनत्रिकं तु बकुर्दर्शनावरणादिकायो विकाया-खंजणाज-खञ्जनाज-स्त्री० । बम्जनं दीपमल्लिकामल,त. पशमिके दानादिकाः पुनः पश्च सन्धयः, अन्तरायकर्मक्षयोपशमे भवन्ति । ननु दानादिलब्धयः पूर्व कायिकभाववर्तिन्य उक्ता, स्य यो वर्णस्तबदामा यस्य तथा। कृष्णवर्षे,भ०२२श०६उ०। शह तु कायोपशमिक इति कर्षन विरोधः। तदेवम् । अनिमात खंजरीम-खजरीट-पुं०1श्री बम्ज इव ऋच्चति ।'ऋ' याऽपरिकानात् । दानादिलब्धयोहि द्विधा प्रबम्स्यन्तरायकर्मणः गती। कीटन् । बम्जनविहगे, खियां जातिवात की । वाच। कयसभविन्यः, कायोपशमसंभविन्यश्च। तत्र याः कायिकाः पूर्व- प्राचा मुक्तास्ताः क्षयसंभूतत्वेन केवलिन एव भवन्ति । यास्त्विह कायो. खंड-खएम-पुं० । भागे, अंशे, आ० घू०१०। उभयोः पर्वपशमिक्य उच्यन्ते ताःकयोपशमसंभूताःगमस्थानामेव भवन्ति । देशसहिते श्ख ण्डादौ, नि० चू० १५ उ० । अपरिपूर्णे, वि. सम्यक्त्वमपिकायोपशमिकं दर्शनसप्तककयोपशमे, चारित्रचतु. पा० १ ० १ ० । वनसमूहे, स्था०२० ३ ० । कंतु चारित्रमोहनीयक्षयोपशमे संयमासंयमश्चाप्रत्याख्यानावर- अनेकजातीयवृक्षसमूहे, जी० ३ प्रति० । शर्करायाम, (जं०) णकषायमोहनीयक्कयोपशमे इति। प्रव०२११ द्वार कर्मसूत्रा गुरुविकारे, जं.२ वक्ष०ाक्षुरसविकारसंस्कारे, उत्त० ३४ उत्ता('भावे खोवसमिए,दुवालसंगपिहो। सुयनाणं' श्त्या- भ। देशविशेषभाषया लवणे, प्रौ० । बिस्लवणे, कर्मणि दि 'मोक्वशब्दे' व्याख्यास्यामि) दयावलिकाप्रविष्टस्यांशस्य घम् । बरिमते, त्रिवाचन विरोधिते, नं०। कयेण शेषस्य तूपशमेन निर्वृत्तं कायोपशमिकम् ! उदयावसि खंडकाम-खएककर्म-पुं० । अबम्स्यधीशचण्डप्रद्योतमन्त्रिणि, काप्रविष्टस्यांशस्य कये सति शेषस्य प्रमच्छन्ना रिवानुद्रका व्य०१० । सएम व कर्णः कन्दो यस्य (सकरकंद) वस्था उपशमः,तेन निर्वृत्तमौपशामिकमासम्यक्त्वभेदेना। अधुना क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वमाह प्राचुनेदे, वाचा खंडखंग-खएमखएमक-जा चतुर्भिःखएडकैरेका रज्जुः पजो उ नदिमे खीले, मिच्छे अणुदिनगम्मि उपसंते ।। रिकल्पिता,ततो रज्जुचतुर्थभागवात खराडकं (सोक रज्जुपादे, संमीभावपरिणतो, वेयंतो पोग्गले मीसो॥ प्रव०१४३द्वार।(चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य लोकस्यासत्कल्पनयस्तु उदीम उदयावमिकाप्रविष्टे मिथ्यात्वे कोणेऽनुदयप्राप्ते या खएमकपरिभागो 'लोक' शम्दे दर्शयिष्यते) दीर्घवैतात्यपचोपशान्ते उपशान्तं वा सन् किचिम्मिथ्यास्वरूपतामपनीय वंतत्ररतैरवतवर्षयोःकधादिषु गन्धिलावतीपर्यन्तषु विजयसम्यक्त्वरूपतया परिणतं किश्चिन्भिध्यात्वरूपमेव सन् भस्म- केशेषु सन्ति तेषां तृतीयं कूट खण्डकनामकम् । स्थाए ठा स्कृन्नाग्निरिवानुकावस्थाप्राप्त तस्मिन् तथारूपे सति पुमान् खंडण-खएकन-नाखडि' भावेल्युः। देशतो जाने, ज्ञा०१ श्रु० सम्यक्त्वरूपान् वेदयमानः सम्यम्भाषपरिणतःस मिश्रकायोप- निराकरणे। भावे यच । वाचवि शमिकसम्यगृहाष्टिः सम्यक्त्वरूपधर्मनिर्देशप्रक्रमेऽपि धर्मिणो स्त्री०नि०१०।"विराहणा खंडणा भंजणा य एनिर्देशो धर्मधामणोः कथञ्चिदभेदस्यापनार्थमेवं पूर्वत्र परत्र च गट्ठा ।" नि० ५.१ ३० । भावनीयम् । बृ०१०। श्रा० । विशे० । दशा कपश्योपशमश्व वयोपशमौ,ताज्यां निकायोपशमिकम् । अवधिकानादि खंकदेगसिया-खएमदेवकुलिका-स्त्री० । द्वादशवत नाकसं-- भेदे, न० स्था। लिपा० । (मत्र हेतुः 'मोहि 'शम्दे अस्मिन्नेव स्वादसकयन्वे, ध.२ अधिक । तत्स्थापना च प्र० भा०४२० जागे १३० पृष्ठे उक्तः) | पृष्ठे पाण्या। (सपपत्तिःश्रावकवतव्याख्यातोऽबसेया) खंखर-खतर-पुं० । वृक्षप्रेदे, (पलास) इति स्याते "खंखरप- खंगपट्ट-खएडपट्ट-पुं० । खाएमोऽपरिपूर्णः पट्टः परिधानपहो लासमझे सयं सयं भूसिरीपासनाहो अत्यद तत्थ पुरोदेवं यस्य स पूतानिध्यसनाभिभूततयाऽपरिपूर्णः परिधानं प्राप्तःस वंदेह ।" ती०५३ कल्प। खएकपः । चूतकारे, अन्यायव्यवहारिणि इत्यन्ये । विपा०१ खंखुणग-खानक-पुं०। बालक्रोमोपकरणविशेष, प्रा०म०वि० श्रु०१०। धूर्त, विपा०१७०१०।। खंगार-खार-पुं० । नृपविशेषे ती०। यो जयसिंहदेवेन मा-खंम्पाणा-खंगपा (प्रा)णा-स्त्री०। धूर्ताख्यानं ! पयरितः "गुज्जरधराए जयसिंहदेवेणं खंगाररायं हणिता सज- स्त्यां पञ्चशतधर्तस्वामिम्यां स्वनामख्यातायां खियाम, नि० यो दंडाहिवो ठाविओ"। ती०५कल्प। विक्रमादेकादशशतके । चू०१०। (अस्याः कथा धूर्तास्याने) जाते गुर्जरधरिच्या राजनि, ती०५ कल्प। खंमप्पवायगुहा-खएमप्रपातराहा-स्त्री वैताख्यगुहायाम, यया खंगारगढ-खङ्गारगढ-न। जीर्णपुगें, (जूनागढ) ति स्याते। चकवी अनार्य केत्रात स्वकेत्रमागचाति। स्था०९ ठा०1"वं. ती०५ कल्प। उप्पवायगुदाणं अट्ठ जायणाई उम्दं उच्चत्तणणं । " स्था०७ खंज-खच्च-न० । (खोमा) पादविको, स्था०५ ठा। श्यामी ठा० । एवं धातकीखपडे पुष्कराद्धे च प्रत्येकमष्टषष्टिताभूते सकटचक्रान्तर्गतलोहदएकोपरिघृतादिसिक्कसणादिबन्धने, सांप्रमाणम । यथा-गिरिविस्तारायामा हादशयोजनविस्ताउत्त• ३४ अा। वार्ये का, एल्वा सञ्जकः । तत्राणे, वाच।। राप्रयोजनोच्या भायतचतुरससंस्थामा विजयद्वारा गण Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८२) अभिधानराजेन्ः | पायगुहा द्वारा कपाटपिहिता बहुमध्ये हियोजनान्तराज्यां श्रियोजनविस्ताराभ्यामुनिमग्नानिधानायां नयां मुक्ता २ ग०३ उ० | स० ॥ जं० । (तत्र भरतचक्रिगमनं 'जरह' शब्दे ) मप्यवाय गुहाकूड स्वयमप्रपातगुहाकूट न० 1 बण्डप्रपातगुहाधिपदेवनिवासभूतं कूटं खण्डप्रपात गुहाकूटम् । बैताव्यकूटानां तृतीयेषु कटेषु जं०] १० स्था भेषखएडभेद मोहरडादेखि यथा म एमस्येव स्था० १० ०) लजायमानेव्यभेदे भ० ५ ० ४ उ० । सूत्र० प्रा० । खंगरक्स - स्वएमरक -पुं० पाशिके, रा० ज्ञा० आहिएडके, बृ०२ उ० । शुक्रपाले, प्रश्न०३ श्राश्र० द्वार । उपा० क पिल्यास शक्तिकेषु आयकेषु के समुद श्रश्वमित्रनिह्नवः प्रतिबोधितः । विशे० प्रा० क० आ० म० ॥ श्र० चू० । माय-खए मजेद - पुं० । 'खंमभेय' शब्दार्थे, स्था० १० ठा०| खंडितए-खएमयितुं अव्य० देशतो भकुमित्यर्थे उपा० २ अ० । ज्ञा० । संकिय खरिदक- पुं० बाचे, विशे० उ० करो त्रि० । वाच० । मित्र देशो मझे, च०२ अधि० प्रा० ० ग०] सर्व - भझे " खंडिनविराहियाणं मूलगुणाएं उसरगुणाणं । " श्रावर ५ अ० । बिन्ने, द्विधाकृते च । "ज्ञातान्यासंग विकृतेः, खरिमतेर्ष्या कषायिता" इत्युक्तणायां स्त्रियाम्, स्त्री० । वाच० । भियगण - खटकतगण पुं० गते, श्री० । खंमियविरण- खमितविहीन - त्रि० छात्ररहिते, नि० १ वर्ग । मी-खमी श्री मिश्र, गौरा की मुझे प्राकारचित्ररूपायां छिण्डिकायाम्, झा०१ श्रु० २ श्र० । बृ० । नश्यतरनिर्गमापद्वारे, झा० १ ० १८ श्र० । स्वत-कान्त वि० काम्यति कम करोतीति ज्ञान्तः बहुलवच नात्कर्तरि निष्ठा । कमागुणप्रधाननिक्की, दश० १० प्र० । श्रा० नृ० । नि० चू० । द्वा० । क्रोधविजयिनि, दश०२ श्र० । झा० । कमायुक्ते, ग०२ अधि० । प्रश्न० । सूत्र० श्रालोचनादानयोग्ये, व्य० १ उ० | कान्तो नाम कमायुक्तः स कस्मिँश्चि प्रयोजने गुर्वादिभिः खरपरुषमपि जणितः सम्यक्प्रतिपद्यते यदपि च प्रायश्चित्तमारोपितं तत्सम्यग् वहति । श्राह च-तो श्रयरिहिं, फरुसं प्रणिश्रो वि न कलेति । ” स्था० ८ ठा० । ( खतपुत्तस्स 'नक' शब्दे प्र० प्रा० ७५६ पृष्ठे कथा ) खंतलक्ख - दान्तलक्ष्य-न - न० । वृद्धव्याजे, वृद्ध वेषधारणेन, स्व I रूपप्रच्छादने, बृ० १ उ० । संताप - शास्यादियुत वि० कमामाईवार्जयसंगोषसम न्विते, पो० ६ विष० । संति-शान्ति स्त्री आक्रोशादिश्रवणेऽपि कोधाया० २७ द्वा०] दशol पो० । पञ्चा० । जं० पा० । उप्त० । शक्तस्याऽशक्त स्य वा सहनपरिणामे सर्वथा कोधविवेके ध०३ अधि । आव० । उत्त० । ज्ञा० । स्था० । श्राव० । परुषभाष यदि सहने उ०प्र० कोचोदयनिरोधे, श्री० । कषायो खंद पशमे, दर्श० । तितिक्कायाम, ध० ३ अधि० । कान्तिश्च प्रथमः श्रमणधर्मः । स० ए सम० । स्था० । शुक्लध्यानस्य प्रथममात्रम्बनम् । स्था०४ ठा० १ ३० । कान्तेः फलम् । “खंतिए णं भंते! जीव किं जणय ? | खंतिए णं परीसहे जणयह।" हे जगवन्! क्षात्या क्षमया कृत्या जीवः किं फलं जनयति । तदा गुरुराह--शिब्य ! क्षमया परीपहान् जनयति, क्षान्तिः क्रोधनिग्रहस्तदनन्यस्वात् त्रयोदश्यां गौण्यामहिंसायाम्, उत्त० २६ अ० प्रश्न० महादौ वचनान्तिधर्मशान्तिरनन्तरम् । अनुष्ठानं च वचनानुष्ठानात्स्यादसम् ।। ६ ॥ उपकारापकाराज्य, विपाकाद्वचनात्तथा । धर्माच समये शान्तिः, पञ्चचा हि प्रकीर्तिता ॥ ७ ॥ (इति) रह दीक्षायामादी प्रथमं वचनान्तिः अनन्तरं धर्मक्कान्तिर्भयति । अनुष्ठानं च वचनानुष्ठानादध्ययनाद्यभिरशिक्षादनम्रं सम्मयीभावेन स्पर्शाप्ती सत्यामसङ्ग स्था त् ॥ ६ ॥ ( उपकारेति ) उपकारेण कान्तिरुपकारिप्रोक्तदुर्दचनाद्यपि समानस्य अपकारण कान्तिमाहमा नस्यापमपकारी भविष्यतीत्याशयेन कमां कुर्वतः। विपाका बेह परलोकगतानर्थपरम्परालक्षणादालोच्यमानात् कान्तिविपाकान्तिः । तथा वचनात्क्षान्तिरागममेवावलम्बनीकृत्योपरित्यादिनैरपेदये कमां कुर्वतः धर्माचात्मशुद्धस्वनाव लक्षणाञ्जायमाना कान्तियन्दनस्येव शरीरस्य दाहादिषु सौनादिस्वधर्मकल्पापरोपकारिणी सहजास्त प्रविकारिणी । एवं पञ्चधा तान्तिः समये प्रकीर्तिता । यदुक्तम्-" उपकार्यपकारिविपा-कवचनधर्मोत्तरा मता कान्तिः " इति ॥ ७ ॥ द्वा० २७० द्वा० । खंतिखम - क्षान्तिक्षम त्रि० । क्षान्त्या क्षमया क्षमते न त्वसम तया यः सः कान्तिकमः कल्प० ५ ऋण। जं० ॥ भ० सत्यामपि शकी तितिकी, "कोहनिमाहां खेती अलमास वि अस्स खमाकरणे सामत्थमत्थि सो खंतिए खमो भवति, "ग्रह या तिमो कमाया आधार इत्यर्थः । नि० चू० १० उ० । खंतिखमणया क्षान्तिक्षमणता स्त्री० कान्या कम्यत इति कातिक्रमणः कान्तिग्रहण समार्थ समर्थोऽपि क्षमत इति । कान्तिक्षमणस्य भावस्तत्ता । शकस्यापि सहने, स्था० १० ठा० । - खंतिजुग- क्षान्तियुत त्रि० मान्विते कर्म० १ कर्म० । । खंतिप्पहाण - क्षान्तिप्रधान पुं० । कान्तिः कमा प्रधाना सारभूता यस्यान्ति मासारे, पा खंतिमं जयरय - कान्तिसंयमरत त्रि० विनि, दश० ४ श्र० । धानसंयमासे खंतिसूर झान्तिमूर पुंग कमाधीरे घरमे "ति अर डंता " कान्तिशूरा भईन्तो महावीरवत्। स्था० ४ ठा० ३ उ० । संथा० । खंद-स्कन्द-पुं० स्कन्दते उत्प्लुत्य गच्छति, श्रच् ! वाच० । “शुष्ककन्दे वा " || २ | ५ | इति स्कस्य वा खः । प्रा० २ पाद । स्वामिकार्तिकेये, श्राचा० २ ० १ श्र० २ उ० । अनु० । जं० ॥ भ० । जीवा० । नि० ० रा० । पात्रालकग्राम वास्तव्ये ग्रामकूट 1 Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंद (६९३) अभिधानराजेन्सः। खंदग पुत्रे, येन स्वग्रामे गोशालकः कर्थितः । प्रा. म. द्वि० प्रा० णयरीए गद्दभालिस्स अंतेवासी खंदए नामं कच्चायणसचु०। प्राचा० । झा ! अनु। गोत्ते परिवायगे परिवसइ । रिनव्वेय-जजुव्वेय-सामनेय. खंदग-स्कन्दक-पुः । श्रावस्त्यां नगर्यो जाते मुनिसुव्रतशिष्ये, अहव्वणवेय-इतिहासपंचमाणं निघंटुट्ठाणं चउएहं वेयाणं उत्स० । तत्संबन्धी यथा-श्रावस्त्यां जितशत्रुनूपो, धारिणी संगोवंगाणं सरहस्साणं सारए वारए धारए पारए समंगवीप्रिया, तयोः पुत्रः स्कन्दकः, पुरन्दरयशा पुत्री, कुम्भकारकटके पुरे दण्डकनृपस्य दत्ता, तस्य पुरोहितः पालको मि सहितंतविसारए संखाणे सिक्खा कप्पे वागरणे बंदे निरुच्याक, अन्यदा श्रावस्त्यां मुनिसुव्रतस्वामी समवसृतः, तस्य | ते जोइसामयणे अमेमु य बहसु बंभासएमु परिब्वायएम देशनां श्रुत्वा स्कन्द कः श्रावको जातः। एकदा पानकपुरोहितो | नएम सुपरिनिहिए यावि होत्था । (पिङ्गमपच्ग) तत्थ गणं दुतत्वेन श्रावस्त्यां प्राप्तः राजसन्नायां जैनसाधूनामवर्णवादं व. सावत्थीए नयरीए पिगलए नामं नियंत्रे वेसालियसाबए प. दन् स्कन्दकेन निरुत्तरीकृत्य निर्धारितःसन, स्कन्दककुमारोपरि रुष्टः छिजाणि पश्यति । अन्यदा स्कन्दककुमारः श्रीमुनिसु रिवसइ । तए णं से पिंगलए नामं नियंठे वेसालिसावए अव्रतस्वामिपाइ पञ्चशतकुमारैः सह प्रवजितो गीतार्थो जातः, स्मया कयाइं जेणेव खंदए कच्चायणसगोते तेणेव नवागस्वामिना ते कुमारशिष्यास्तस्यैव दत्ताः, अन्यदा स स्कन्दका च्छइ, उवागच्छइत्ता खंदयं कच्चायणसगोतं इणमक्खेवं पुच्छे स्वामिनं पृच्छति-हे जगवन्! लगिनीवन्दापनार्थ गच्छामि। स्वामिना मागहा ?-किं सते लोए, अणंते लोए, सअंते जावे, नणितम्-तत्र मारणान्तिकोपसर्गोऽस्ति । स्कन्दकेनोक्तम्-भग अणंते जीवे, सअंता सिकी,अणंता सिछी,सअंते सिके, वन्वयमाराधका विराधका वा। स्वामिना जणितम-खां मुक्ता स. वेऽप्याराधकाः। स्वामिनैव मुक्तेऽपि जवितव्यतावशेन पञ्चशत अणंते सिके, केण वा मरणेणं मरमाणे जावे व वाहाय शिष्यपरिवृतः कुम्भकारकटकपुरे गतः। पाल केन तमागच्छन्तं वा, एतावं ताव आइक्वाहि बुचमाणो,एवं तए णं से खंदए झात्वा पूर्ववैरं स्मरता साधुस्थितियोगोद्याने षट्त्रिंशदायुधानि कच्चायणसगोत्ते पिंगलएणं नियंठेणं वेसालीसावएणं णभूमौ स्थापितानि स्कन्दकाचार्यस्तु तत्रैव समवसृतः। ततः पा मक्खेवं पुछिए समाणे संकिए कंखिए वितिगिंलिए भेदलकेन नृपस्याऽग्रे कथितम्-महाराज!श्रयं स्कन्दकः पश्चशतसाधवोऽपि च सहस्रयोधिनः परीषजनास्तव राज्यं गृहि समाव कलुससमाव िणो संवाएइ पिंगवयस्स नियंठस्स तुकामाः समायातास्त्वां हनिष्यन्ति, राज्यश्च गृहीष्यन्ति । यदि वेसालियसावयस्स किंचि विप्पमोक्खमक्खाइओ तुसिणीन प्रत्ययस्तदा उद्यानं विलोकय। एभिरायुधानि भूमौ गोपिता- ए संचिट्ठइ, तेएणं से पिंगनए नियंत्रे वेसालीसावए खंदनि सन्ति,नृपेण उद्यानं विलोकितम, प्रायुधानि हानि, क्रोधा यं कच्चायणसगोत्तं दोच्चं पि इणमक्खेवं पुच्छे मागहानन ते साधवस्तस्यैव दत्ताः, तन सर्वेऽपि यन्त्रेण पीलिता।वधपरीघहस्य सम्यग अधिसहनात् उत्पन्न केवलज्ञानाः सिद्धाः, किं सअंते लोए० जाव केण वा मरणेणं मरमाणे जीवे स्कन्दकाचार्यस्तु सर्वेषां शिष्याणां तथाविधमरणं दृष्ट्वोत्पन्न- वइ था, हाय वा, एतावं ताव आइक्वाहि वुक्रोधः सर्वस्याप्यस्य देशस्य दाहकोऽहं स्यामिति कृतनिदानो. च्चमाणो, एवं तए णं ते खदए कचायणसगोत्तं पिंगलएणं ऽग्निकुमारेषत्पन्नः। अथाचार्यस्य रजोहरणं रुधिरलिप्तं सद् गृधैः नियंत्रेणं वेसालीसावएणं दोच्चं पितञ्चं पि इणमक्खेवं पुच्चिपुरुषहस्तं झात्वा चञ्चुपटेनोत्पाट्य पुरन्दरयशापुरः पातितम् । साऽपि महतीमधृतिं चकार साधवो गवेषितान दृष्टाः,प्रत्यभिशातानि ए समाणे संकिए कंखिए वितिगिंलिए दसमावने ककम्बलायुपकरणानि, झातं च तया-साधवो मारिता इति, ततो बुसममावन्ने नो संवाएइ, पिंगलस्स नियंठस्म वेसाझियधिकृतस्तया नृपतिः, श्रहं तय मुखं न पश्यामि, प्रजिष्याम्ये- सावयस्स किंचि वि पमोक्खमक्खाइयो तसिणीए मंचिट्ठा, वेति वदन्ती तां स्कन्दकनगिनी देवाः श्रीमुनिसुवृतस्वामिस तए णं सावत्यीए नयरीए सिंघाडग० जाव पहेसु महया मीपे मुक्तवन्तः। स्वामिना सा दीकिता। ततोऽग्निकुमारदेवेन स जएसम्मदेइ वा जाणवूहेवा निग्गच्छनए णं तस्स खंदनगग देशो दग्धः, ततो दरामाकारण्यं जातम । अद्यापि नर्थव तजनैर्भष्यते यथा एनिः साधुभिर्वधपरीषहः सोढस्तथा परैरपि यस्स कच्चायणसगोत्तस्स बहुजणस्म अंतिए एयमढे सोचा मोढव्यः । लत्त० २ ० । १० । ग० । नि००। संथा० । भू- निसम्म इमे एयारूवे अन्नस्थिए चिंतिए पच्चिए मणोगए तभेदे च, प्रक्षा पद । थानाध्या गर्दभालिशिध्येकात्याय- संकप्पे समुप्पज्जित्था, एवं खलु समणे भगवं महावीरे नगोत्रे परियाज, न कयंगलाए नयरीए वाहिया उत्तपलासए चेइए संजमेणं तारित्रम् तवमा अप्पाणं भावेमाणे विहरड, तं गच्छामि णं सपणं तेणं कालेणं ते समएणं कयंगला णाम नयरी होत्या: जगवं महावीरं बंदामि,नमंसामि, सेयं खलु मे समणं भगवं वाओ-तीसेणं कयंगलाए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता सकारता सम्माणेत्ता कद्वाणं दिसीनाए छत्तपन्नासए कामं चेए होत्था, बप्पो-तए णं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेता इमाई च णं एयारूलाई समणे जगवं महावीर नप्पन्नणाणदंसणधरे जाव समोसर- अट्ठाई हेकई पसिणाई वागरणा पुच्चित्तए त्ति कटु एवं णं परिमा निग्गया,तीसे णं कयंगलाए नयरीए अदरसामंते संपेहेर, संपेहेइत्ता जेणेव परिचायगा वसही तेणेव उवासावत्यी पामं नयरी होत्था । वयमो-तत्थ णं सावत्थीए गच्छइ, उवागच्चत्ता तिदमं च कुंडियं च कंचाणियं च क Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६४ ) अभिधानराजेन्द्रः । खंदग कुसयं च रोमियं च मिसियं च केसरियं च ब्रह्मालियं च पवित्तयं च गणेत्तियं च छत्तयं च वाहणाउ य पाउयान य धाउचाउ य गेएहर, गेएहइत्ता परिव्वायगवसही ओ पक्खिम, परि निक्खमइता तिर्दमं कुंडियं कंचणियं क रोमियं निसिकेसरियच्छनाक्षिय कुमयपवित्तियगणेति खंदग खंदया ! सए णं से खंदए कच्चाथणसगोते जगवं गोयमं एवं वयासी - गच्छामो णं गोयमा ! तव धम्मायरियं धम्मोवदेसयं समणं जगवं महावीरं वंदामो, नमसामो० जाव पज्जुबासाम । श्रहासुहं देवाप्पिया ! मा परिबंधं, तए णं भगवं गोयमे खंदणं कच्चायण सगोतेणं सद्धिं जेणेव समणे जगवं महावीरे तेणेव पहारेच्चगमलाए, तेणं कालेणं तेणं समरणं समणे भगवं महावीरे वियट्टभोजी यात्रि होत्था, तए णं समणस्स भगवओो महावीरस्स वियहजोइस्स सरीरयं उरालं सिंगारं कद्वाणं सिवं धनं मंगनं अणअंकियविसियं लक्खरणचं जणगुणोवत्रेयं सिरीए अतीव तीव उसोमाणे चिड, तए एं से खंदए कच्चायण सगोते समणस्स जगवओ महावीस्स्स वियट्टजोइस्स सरीरयं उरालयं ० जाती अतीव उवसोनेमाणं पास, पासइना हट्टनुट्ठचित्तमानंदिए पीड़मणे परमसोमसिए हरिसबसविसप्पमा हियए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छत्ता समं जगवं महावीरं तिक्खुत्तो आया हिणं पयाहिणं करेइ०, जाव पज्जुवास, खंढ्याई, समणे जगवं महावीरे खंदयं कच्चायणसगोत्तं एवं वयासी-से गुणं तुमं खंदया ! सावत्थीए एयरीए पिंगलएणं नियंत्रेणं वेसाfarari मक्खे, मागड़ा- किं सयंते लोए, अयंते लोए, एवं तं चैत्र० जाव जेणेत्र मम अंतिए तेणेव हव्यमागए से खंदया ! अट्ठे समट्ठे, हंता अस्थि, जे विय ते खंदया ! अयमेयारूत्रे अन्यत्थिए चिंतिए पत्थर महोगए संकपे समुपज्जित्था, किं सअंते झोए, अणंते जोए, तस्स मिट्ठे, एवं खलु मए खंदया ! चलन्त्रिहे लोए पम्पते । तं जहा दव्बओ खेतओ कालओ भावश्र । दन्त्रो एगे लोए सते, खेतो गं लोए असंखेज्जाश्रो जोmanasओ आयामविक्खंभेणं, असंखेज्जाओ जोयणको माकोडीओ परिक्खेत्रेणं पठत्ता, प्रत्थि पुण से त्र्यंते, कालओ एंणं लोए न कयाइ न अमि, न कदाइ न अब, न कदा नजविस्सर, जविंसु य, भवति य, भविस्सइ य, धुवे लिए सासए अक्खए अन्नए अवडिए लिचे - स्थि पु से अंते । जावओ एां लोए अंता पजवा, गंधर सफासा अयंता संवाणपजत्रा, प्रांता गुरुयल हुयपज्जवा, प्रांता गुरुयलडुयपज्जवा, नत्थि पुण से अंते, सेतं खंदया । दव्बओ लोगे सत्र्यंते, खेत्तओ लोए स ते, कालो लोए अनंते, जावओो लोए अांते, जे वि य ते खंदया० ! जात्र सयंते जीवे प्रांते जींव तस्स त्रियां मट्टे, एवं खषु० जाव दव्व णं एगे जीवे सते, तो णं जीवे असंखे जपरसिए असंखेज्जपरसोगाढे, अत्थि पुरा से अंते, काल ओ णं जीवे न हत्थगए उत्तोवाहण संजुत्ते धानरत्तवत्यपरिदिए सावस्थीए नयीए मज्ऊं मझेणं निग्गच्छर, निग्गच्छत्ता जेणेव कथंगला नगरी जेणेव छत्तपलासए चेइए जेगेव समणे जगवं महावीरे तेणेव पहारेच्छगमणाए गोयमाइ सम भगवं महावीरे जगवं गोयमं एवं वयासी-दिच्छसि णं गोयमा ! पुत्रगइयं तं है। कं भंते ! खंदयं नाम से काले बा कि वा केवचिरेण वा । एवं खलु गोयमा ! तेणं काले सावत्थी णामं जयरी होत्या । वष्णो-तत्य णं सावर्त्य ए नगरीए गद्दजाक्षिस्स अंतेवासी खंदर णामं कच्चायणसगोते परिव्वायए परिवस, तं चैव जाव जेणेव मम अंतिए तेव पहारेच्छगमणा मे अदूरामए वहुसंपत्ते प्राण परिव अंतरापहे बट्ट, अज्जेव णं दिच्छसि गोयमा ! जंते चि भगवं गोय समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसड़, नमसत्ता एवं वयासी- पहूणं जंते ! खंदए कच्चायणसगोते देवा पिया अंतिए मुंगे जवित्ता अगाराम्रो अवगारिय पत्रए । हंता पनू ! जावं च णं समणे जगवं महावीरे नव गोयमस्स एयमहं परिकहेइ, तावं च गं से खंदए कच्चायणसगोत्ते तं देखें हव्यमागए, तर णं जगवं गायेमे वदयं कच्चायणसगोतं अदूरमागयं जाऐत्ता खिप्पामेत्र प्रभुडे, अनुत्ता खिप्पामेव पच्चुगच्छर, पच्चुगच्छत्ता जेणेव खंदर कच्चायणसगोत्ते तेणेव उवागच्छ, उवागच्छना खंदयं कच्चायसगोत्तं एवं वयासी- हे खंदा ! सायं वदया !, सुसागयं खंदया !, अणुरागयं खंदया !, सागमणुरायं खेदया !, से गुणं तुमं खंदया ! सानत्थीए यए पिंगलणं नियंत्रेणं वेसालिय सावरणं इएमक्रखे वं पुच्छिए । मागड़ा ! किं सत्र्यंते लोए, एवं तं चैव जेणेव इदं तेणेव हन्यमागए, से पूर्ण खंदया ! हे समट्ठे, हंता अस्थि, तर णं से वंदए कच्चायणसगोत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी-से केसि णं गोयमा ! तहारूवे णाणी वाबस्सी वा जेणं तव एस श्रद्वे मम ताव रहस्सकडे हव्त्रमक्खाए जओ गं तुमं जाणासि, तए णं से जगवं गोयमे खंदयं कच्चायणसगोतं एवं वयासी एवं खलु खंदा ! मम धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे भगवं महावीरे उपसणापदंसणधरे अरहा जिले केवली तीयपच्चुपमणागयवियाणए सन्नमू सव्वदरिसी, जेणं मम एस अड्डे aa ताव रहस्सकडे हव्वक्खाए, जो एं श्रहं जाणामि । Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६५ ) अभिधानराजेन्यः । खंदग कदाइ न आसि, णिच्चे, नत्थि पुल से अंते, जावओो णं जीता नाणपज्जवा, अणंता दंसणपज्जवा, प्रांता चरितपज्जवा, श्रता गुरुयल हुयपज्जवा, अता अगुरुयबहुपजवा । नत्थि पुण से अंते सेतं दव्वम्रो जीवे सते, खेतो जीवे सांते, कालओ जीवे अनंते, जावो जीवे प्रांते, जे वि य णं ते खंदया पुच्छा १ । अंता सिद्धी, तासिद्धी, तस्स वियां प्रयमहे, म चव्विहा सिटी पत्ता । तं जहा दन्त्रो खेत का भाव । दव्व णं एगा सिटी स ता, खेत्तओ णं सिद्धी परणयालीसजोयणसय सदस्साई प्रायामविखजेणं, एगा जोयणकोडी वायालीसं मयसडस्साई तीसं च सहस्सा दोपि य प्रणापले जोयलस किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पत्ता, अस्थि पुण से अंते, कालो सिद्धी न कदा न आसि, जाव य जहा लोस्स तदा जाणियव्वा । तत्थ दव्वश्र सिद्धी सांता, खेतो सिद्धी सांता, कालो सिद्धी अनंता, भावओ सिद्धी अता, जे विय ते खंदया० ! जाब किं प्रणते सिद्धे तं चैत्र ० जाब दव्वओ गंएगे सिद्धे सते, वो णं सिद्धे असंखज्जपरसिए असंखेज्जपरसोग ढे प्रत्थि पुणते, कालो णं सिर्फ सादिए अपज्जवसिए, नत्थि पुण से अंते, जाव णं सिद्धे, अनंता पाए पज्जत्रा, प्रांता दंसणपज्जवा, अनंता गुरुवहुपपज्जवा, नत्थि पुण से अंते सेत्तं दन्त्रओ मिद्धे सयंते, खेतओ सिद्धे सते, कालो सिद्धे प्रांते, जावओो सिद्धे अनंते, जेविय ते खंदया ! इमेयारूत्रे अन्यत्थिए चिंतिए० जाव समुत्थिा | केलवा मरणेणं मरमाणे जीवे वठ्ठ वा, हावा, तस् त्रियां अयम एवं खलु खंदया ! मए दुविहे मरणे पत्ते । तं जहा - बालमरणे य पंडियमरणे य | से किं तं वालमरणे ?। वालमरणे दुवालसविहे पत्ते । तं जहा - बलमरणे वट्टमरणे तो सलमरणे तब्जवमर गिरिपणे तरुपणे जल पवसे जनणप्पवसे विसनक्खा सत्योत्राणे वेहाणसे गिरि, इचेपणं खंदया ! दुवालसविणं वालमरणेणं मरमाणे जीवे अतिहिं नेरहयजत्रग्गहणेहिं अप्पाणं संजोएइ, तिरियमणुदेव अलायं चणं अणवदग्गं दीहदं चाजरंत संसारकंतारं अणुपरियह सेतं बालमरणेणं मरमाणे वक्ढड, बढइ सेत्तं बालमरणे । से किं तं पंमियमरणे | पंडियमरणे दुबिहे पएलते । तं जहा - पावगम य, भत्तपच्चक्खाणे य। से किं तं पाश्रवगमणं । पात्र्योत्रगमले दुत्रिहे पणत्ते । तं जहा-नीहारिमे नीहारिमेय नियमा अपमिमे । सेत्तं पाओगमणे । से किं तं तपच्चक्खाणे ? | भत्तपच्चक्खाणे दुविहे प खंदग छाते । तं जहा -नीहारिमेय, नीहारिमे य, नियमा सपरिक्कमे, सेत्तं जत्तपच्चक्खाणे । इच्चेतेणं खंदया ! दुत्रिहेणं परियमरणं मरमाणे जीवे तेहिं नरश्यभवग्गहणेहिं प्पा व संजोए०, जाव वीयीवयइ, सेत्तं मरमाणे हायर, सेतं पंमियमरणे । इच्चेपणं खंदया ! 5विदेणं मरणेणं मरमाणे जीवे बढइ वा, हाय वा एत्थ ां से खंदए कच्चा सगोते संबु समणं जगत्रं महावीरं बंदर, नमसर, नमसत्ता एवं वयासी - इच्छामि णं भंते ! तुज्ऊं अंतिए केवनित्तं धम्मं निसामित्तए । अहासु देवाणुपिया ! मा परिबंध, तां समणे जगवं महावीरे खंदयस्स कच्चा सगोत्तस्स तीसे य महइ महालियाए परिसाए धम् परिक, धम्मका जाणियन्त्रा, तर एं से खंदए कच्चायएसगोचे समणस्स भगव प्रो महावीरस्स अंतिर धम्मं सोचा निसम्म हहतु० जाव यहियए उट्ठाए उडेड़, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो श्रायाहिणं पयाहिणं करेइ, करेता एवं वयासी - सद्दहामि णं जंते ! निग्गंथं पात्रयणं, रोएमिणं भंते! निग्गंथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते ! नियं पावय, भुमि णं भंते! निम्गंयं पात्रयणं, एवमेयं ते ! तहमेयं भंते!, अवितहमेयं जंते !, असंदिद्धमेयं भंते!, इच्चियमेयं जंते !, परिच्छियमेयं जंते !, इच्चिय परिच्छियमेयं जंते !, से जहेयं तुज्छे वदह ति कट्टु समां भगव महावीरं वंद, मंस, वंदित्ता णमंसइत्ता उत्तरपुरच्छ्रिमं दिसिजायं अवकमर, अवकमड़ता तिदमं च कुंमियं च० जाव धारता य एते एमे, एमेइत्ता जेणेव समणे जगवं महावीरे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छत्ता समणं भगवं महावीरं तिखत्तो आदाहिणं पयाहिणं करे, करेत्ता० जाव नमसत्ता एवं बयासी आझिते णं जंते ! बोए, जराए मरणय, से जहानामए के गाहावई आगार सिज्जियायमांसि जे से तत्य भंगे भवइ, अप्पनारे मोलगुरुए तं गहाय आयाए एंगतमंत अवकम, एस मे नित्थारिए समाणे पच्छा पुराएं हियाए सुहाए स्वमाए निस्सेयसाए श्रागामियत्ताए विस्सर, एवामेत्र देवाणुप्पिया ! मज्ज त्रिआया एगे जंगे इट्ठे कंते पिए मणुसे मणामे थेजे विस्सासिए समए बहुमए अणुमए जंगकरंमगममाणे माणं सीयं माणं जहं माणं ख़ुदा माणं पिवासा माणं चोरा माणं वाला माणं दंसा माणं मसया माणं वाइयपित्तियमंत्रि For Private समवायविद्या रोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतुि कट्टु, एस नित्यारिए समाये परलोयस्स हियाए सुहाए खपाए नो सेसाए श्रणुगामियत्ताए भविस्सर, तं इच्छामि देवाविया ! सयमेव पव्त्रावियं सयमेव मावियं सयमेव सेहावियं सयमेव विवखावियं सयमेव आयारगो Personal Use Only Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१६ ) अभिधानराजेन्द्रः । खंदग यरं वियचरणकरणजायामायावत्तियं धम्ममाइविखयं, तर णं समो भगवं महावीरे खंदयं कच्चायणसगोत्तं सयमेव पात्रे जाव धम्ममाइक्खड़, एवं देवाणुप्पिया ! चिट्टियन्वं गंतव्वं, एवं निसीइयन्वं, एवं तुयट्टियन्वं, एवं जुजियव्वं, एवं जासियव्वं, एवं उट्ठाय जहाय पाणेहिं नूएहिं जीवेहिं सतेहिं संजमेणं संज मियव्वं, सि च णं अट्ठे गो किंचि पमायव्वं, तए एां से खंदए कच्चायणसगोते समणस जग महावीरस्स इमं एयारूवं धम्मियं जवएसं सम्मं संपरिवज्ज, तमाणाए तह गच्छ, तह चिट्ठा, तह निसीयर, तह तुयह, तह मुंजर, तह जासह, तह उट्ठाएइ, उडाए, तह पाणेहिं नृएहिं जीवहिं सतहिं संजमेएणं संजमेर, अस्सि चणं हे णो पमायइ । तए ां से खंदए कच्चायणसगोते अणगारे जाए इरियासमिए भासासमिए एसासमिए प्रयाण जंडमत्त निक्रखेवणासमिए उच्चारपासवण खेल सिंघाण जलपारिट्ठावलियासमिए मणसमिए वयममिए कायममिये मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते गुत्ते गर्त्ति - दिए गुत्तवंजचारी लज्जू धन्ने खंतिक्खमे जिंदिए सोहिए अणियाणे पुस्मृए वहिस्से मुसमाए दंते इमेव निरयं पावयणं पुरो कार्ड विहरह, तए णं समणे भगवं महावीरे कयंगलाओ एयराओ बत्तपलासयाओ या परिनिक्खम, परिनिक्खमइत्ता बहिया जरणवविहारं विहर, तए से खंदर अणगारे समणस्स भ गवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइ माइयाई एक्कारस अंगाई हिज्जर, हिज्जड़त्ता जेखेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छर, नवागच्छूइत्ता समयं भगवं महावीरं वंदर, नमसर, नमसत्ता एवं वयासी - इच्छामि णं भंते ! तुझेहिं अन्नएगाए समाणे मासि निक्खुपमिमं नवसंपज्जित्ता णं विहरितए, हासुरं देवागुपिया ! मा परिबंधं । तए णं खंदए अणगारे समणं जगवया महावीरेणं अन्भणुलाए समाणे तु० जाव नमसित्ता मासियं भिक्खुपडिमं उवसपजित्ताणं विरइ । तए णं से खंदए अणगारे मासियं जि खुपमिमं श्रामुत्तं अहाकप्पं अहामगं अहातचं अहासमं सम्मं कारण फासेइ, पालेइ, सोमेइ, तीरेइ, पूरेइ, किट्टे, अणुपाले, आणाए श्राराहेर, सम्मं कारण फासित्ता० जाव आहेत्ता, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छत्ता समणं भगवं० जाव नमसित्ता एवं वयासी- इच्छामि जंते ! तुज्जेहिं अब्भणुसाए समाणे दोमासियं निक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, अहं देवापिया ! मा पमिवधं । तं चैव एवं दोमासियं । For Private खंदग तिमासि चाउम्मासियं पंच व सत्त, पढमं सतराईदियं, दोघं सत्तरादियं तच्च सत्तराईदियं, अहाराइंदियं, एगराईदियं । तए एां से खंदए अणगारे एगराई भिक्खुपडिमं अातं० जाव आराहेता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छङ, उवागच्छत्ता समणे जगवं महावीरं जाव नमसित्ता एवं वयासी - इच्छामि गं जंते ! तुज्जेहिं अन्नणुमाए समाणे गुणरयणं संवच्चरं तवकम्मं उवसंपजित्ता णं विहरित्तए, महासुहं देवाप्पि - या ! मापडबंधं । तए णं से खंदए अणगारे समणेां भगवया महावीरेण श्रब्भणुमाए समाणे० जाव नममित्ता गु रयणं संवच्चरं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ता एां विहर, तं जहा - पढमं मामं चत्यं चउत्थे अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेदिया ठाक्कुए सूराभिमुहे यावणनृमीए आयावेमाणे, रात्तं वीरासणेणं अवाउमेण य दोचं मासं बनिखित्ते दिया ठागुक्कुकुए सूराभिमुहे याव णभूमीए श्रायावेमाणे, रत्ति वीरासणेणं अवाडमेण य,एवं तचं मासं श्रमं अट्टमेणं चत्यं मासं दसमं दसमेणं पंचमं मासं बारसमं बारस मेणं बद्धं मासं चोदसमं चोहममे सत्तमं मासं सोलसमं सोलसमेणं अट्टमं मामं अहारसमं अङ्कारसमेणं नवमं मासं बीसइमं बीसइमेणं दसमं मामं वाarasi वावीस मेणं एक्कारसमं मासं चडवीसइमं चनवीसमे बारसमं मासं छब्बीसमं छब्बीस मेणं तेरसमं मासं अट्ठावीस मंडावी सइमेणं चोदसमं मासं तीसमं तीसइमेणं पन्नरसमं मासं वत्तीमइमं बत्तीसइमेणं सोलसमं मासं चउत्तीसइमं चनत्तीसइमेणं अनिक्खितेणं तत्रोकमे दिया वाक्कुकुए सूराजिमुहे या भूमीए श्रायात्रेमाणे रतिं वीरासणं अवाउमेणं तए णं से खंदर गारे गुणरयणं वच्चरं तवोकम्पं अहासुतं महाक पंजाब राहित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेशेव उवागच्छर, उवागच्छत्ता समणं जगवं महावीरं वंदड, नमंस, बहूहिं चत्मसमदुवाल सोहं मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मोई अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तए णं से खंदए अणगारे तेणं उरालेणं विउलेणं पयते परगहिएवं कलाणेणं सिवेणं धनेणं मंगलेणं सस्सिरीएणं उदग्गेणं उदत्तेणं उत्तमेणं उदारेणं महाणुभागेणं तवोकम्मे सुके लक्खे निम्मंसे श्रचिम्माणदे किडिकिमियजूए किसे धम्मणिसंतए जाए याचि होत्या, जीवं जीवेणं गच्छ जीवं जीवेणं चिट्ठइ, जासं जासित्ता गिलाइ, भासं जासमाणे गिल्झाइ, भासं जासिस्सामीति गिलाइ, से जहानामए कटुसग मियाइ वा, पत्तसगमियाइ वा, पत्ततिज्ञनं मगसगमियाइ वा एरंडकट्ठसगडियाई वा Personal Use Only Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) खंदग प्रनिधानराजेन्द्रः। खंदग इंगामसगभियाइ वा उएहे दिएणा मुका समाणी ससई पयाहिणं करेइ० जाव नमंसित्ता सयमेव पंच महब्बयाई गच्छ,ससई चिट्ठा, एवामेव खंदए अणगारे ससदं गच्छइ, प्रारुहेरू, पारुहेइत्ता समणा य समणीअो य खामेइ, खाससई चिच्छ,उवचिते तवेणं अवचिए मंससोणिएणं दुयासणे मेइत्ता, तहारूवेहि थेरेहिं कमाईहिं सकिं विपुलं पब्वयं सविवभासरासिपमिच्छो तवेणं तेएणं तवतेयसिरीए अतीव | णियं सणियं दुरूदेश,पुरूहेइत्ता मेहघणसन्निगासं देवसन्निस्वसोजेमाणे उपसोभेमाणं चिट्ठा । तेणं कालेणं तेणं सम- वायं पुढविसिझावट्टयं पमिलेहेइ,पमिलेहेत्ता उच्चारपासबपणं रायगिहे नयरे समोसरणं० जाव परिसा परिगया।तए । णनूमि पमिहेइ,पमिलेहेत्ता दब्भसंथारयं संथरड,संथरइणं तस्स खंदयस्स अणगारस्स भएणया कयाइ पुत्ररत्तावर- त्ता पुरत्यानिमुहे संपलियंकनिसने करयापरिग्गहियं दसकाससमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूचे अ- सनहं सिरसावत् मत्यए अंजलिं कट्ट एवं बवासी-नम्नथिए चिंतिए० जाव समुप्पज्जेत्था । एवं खल अहं इमेणं | मोऽत्थु णं अरहताणं भगवंताणं० जाव संपत्ता,नमोऽत्यु एयारवेणं उराझेणं जाव किसे धमाणिसंतए० जाव जीवं एं समणस जगवो महावीरस्स० जाव संपाविउकामस्स जीवेणं गच्छामि,जीवं जीवेणं चिट्ठामि०,जाव गिनामि, जाव वंदामि णं जगवं तं तत्थ गतं इह गो पासन,मे से जयएवामेव अहं पि ससई गच्छामि, ससई चिट्ठामि, तं - वं तत्य गए इह गयं ति त्तिकद्दु बंदइ,णमंसइ,वंदित्ता पमत्थि तामे उहाणे कम्मे बल्ले बीरिए पुरिसकारपरक्कमे तं. सित्ता एवं वयासी-पुबि पि मए समणस्स जगवओमजाव तामे भत्थि उणे कम्मे बने वीरिए पुरिसकारपर- हावीरस्स अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्चक्खाए जावज्जीकमेजाव य मे धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे भगवं म वाए जाव मिच्छादसणसहले पच्चक्खाए जावजीवाए, हावीरे जिणे सुइत्थी विहरइ,ताव तामे सेयं कर्जा पाउप्प झ्याणं पि य णं समणस्त जगवो महावीरस्स अंतिए भायाए रयणीए फुल्खुप्पलकमल कोमलुम्मिलियाम्म महपं सव्वं पाणावायं पच्चक्खामि जावजीवाए जाब मिच्छा. दुरे पनाए रत्तासोगप्पकासे किंसुयसुयमुहगुंजकराग-| दसणसवं पच्चक्खामि जावजवाए,सव्वं असणपाणखासरिसे कमलागरसंपवोहए उढियम्मि सूरे सहस्सरस्सि इमसाइमं चउन्विहं पिाहारं पच्चक्खामि जावज्जीवाए, मि दियरे तेयसा जनते समणं जगवं महावीरं वंदित्ता जंपिय इमं सरीरं टुं कंतं पियं० जाव फुसंतु त्ति कहु एवं नमंसित्ता० जाव पज्जुवासेत्ता समेणेणं भगवया महा पिणं चरिमोहिं उस्सासनीसासेहिं वोसिरामित्ति कह संबीरेणं अम्भणुएणाए समाणे सयमेव पंचमहन्वयाणि लेहणासणाभूसिए जत्तपाणपमियाइक्खिए पाओवगमाराहेत्ता समणा य समणीओ य खामेत्ता तहारूवहिं थे एकालं अणवकंखमाणे विहरहा तएणं से खंदए अणगारे रेहिं काहिं सदि विपुलं पचयं सणियं सणियं पुरूहि समणस्स लगवो महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए चा मेहघणसंनिगासं देवसन्निवायं पुढविसिलापट्टयं प सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्झित्ता बहुडिलेहेत्ता दन्जसंथारयं संथरिता दम्भसंथारोगयस्स पमिपुस्माई वालसवासाई सामस्मपरियागं पानणित्ता संलेहणाभूसणाभूसियस्स भत्तपाणपमियाइक्खियस्स मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सढि जत्ताई अपाभोवगयस्स कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए ति णसणाए दित्ता आलोइयपमिकते समाहिपत्ते आणुपुकह एवं संपेहेश, एवं संपेहेइत्ता कल्लं पानप्पनायाए रयणी वीए कालगए, तए णं ते थेरा भगवंतो खंदयं अणगारं एन्जाव जलंते जेणेव समणे जगवं महावीरेन्जाव पज्जुवा कालगयं जाणित्ता परिनिव्वावत्तियं काउससम्गं करे,पत्तसइ खंदयादि, समणे भगवं महावीरे खंदयं अणगारं प चीवराणि गिएहति, विपुनाओ पव्वयाओ सणियं सणिवं बयासी-से पूणं तव खंदया पुन्चारत्तावरत्तं० जाव यं पच्चोरुहंति, पचोरुहइत्ता जेणेव समणे जगवं महावीरे जागरमाणस्स इमेयारूवे अब्जस्थिए० जाव समुप्पजि तेणेव उवागच्छइ, उवागच्चइत्ता समणं भगवं महावीरं वंस्था, एवं खलु अहं इमेणं एयारूवेणं उरालेणं विउनेणं दइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु दे. तं चेव. जाव कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए ति वाणुप्पियाणं अंतेवासी खंदए णाम अणगारे पगइनका एवं संपेहेइ, संपेहेइत्ता का पाठप्पभायाए० जाव ज- दए पगइनवसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोले मिनमदवसंते जेणेच मम अंतिए तेणेच हव्वमागए, से णुणं खंदया ! संपले अल्लाणे भदए विणीए से णं देवाणुप्पिएहिं अब्भअढे समढे। हंता आत्थि,अहामुहं देवाणुप्पियामा पमिवं गुमाए समाणे सयमेव पंच महब्बयाणि आराहेत्ता समणा चं, तए णं से खंदए अणगारे समणेणं जगवया महावी- य समणीयो य खामेत्ता अम्हहिं सकिं विपुलं पव्वयं तं रणं अभणमाए समाणे हहतु० जाव हयहियए नहाए चेव निरवसेसंजाव आणुपुवीए कालगए इमे य से आयानो, न इत्तासमणं जगवं महावीरं तिक्वुत्तो आयाहिणं रगर ते ति जयवं गोयमे समणं जगवं महावीरं बंदर, Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंदग अभिधानराजेन्द्रः। खंध णमंसइ,वंदित्ता णमंसिता एवं बयासी-एवं खल देवाण- शिष्यबुद्धि प्रापिता इति तदनुयोगः तेषामाचार्याणां संबन्धीति प्पियाणं अंतेवासी खंदए णाम अणगारे कालमासे का व्यपदिश्यते । अपरे पुनरेवमाहुः-न किमपि भुतं दुर्मिकक्षा दनेशत्, किन्तु तावदेव तत्काले श्रुतमनुवर्तते स्म, केवममन्ये लं किच्चा कहिं गए कहिं उबवम्मे । गोयमादि, समणे प्रधाना येऽनुयोगधराः ते सर्वेऽपि उर्जितकालकवीकृताः, नगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं बयासी-एवं खल गो एक एव स्कन्दिप्रसूरयो विद्यन्ते स्म,ततस्तै भिकापगमे मधुरायमा ! मम अंतेवासी खंदए हामं अणगारे पगइलहए। पुरि पुनरनुयोगः प्रतित ति माथुरी वामना ब्यपदिश्यते,मनु नाव से णं मए भन्भणमाए ममाणे सयमेव पंच महब्बया योगश्च तेषामाचार्याणामिति । नं० येन (स्कन्दिलाचार्येण) बम. इं आरुहेत्ता तं चेव सवं अवसेसयं नेयवं. जाव भा थुरायां देवनिर्मितस्तूपे पक्षकपणेन देवतामाराभ्य जिनजद्रक माभ्रमणदेहिकामक्कितपुस्तकपत्रत्वेन श्रुटितं भझं महानिशीथं लोइयपमिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सन्धितमाती कल्प। स्थूणानगर्यामेकस्यैवाचार्यस्य शिष्याअच्चुए कप्पे देवत्ताए उववएणे, तत्य णं अत्यंगश्याणं णां पुष्पमित्रादीनामष्टानामन्यतम एवमेते त्रयः स्कन्दिलाचार्याः देवाणं वाचीसं सागरोवमाईनिई पएणत्ता, तत्थ णं खंद संभाव्यन्ते, तत्त्वं पुनः पुरातत्त्वविद्भिः स्वयमूहह्यम् । म्यास यस्स वि देवस्स वावीसं सागरोवमाई ठिई पएणत्ता, से गं | च दशपूर्वी, युगप्रधानप्रवरश्च । कल्प०८कण । खंध-स्कन्ध-पुं० । स्कन्दन्ति शुष्यन्ति कायन्ते च पुण्यन्ते पुकभंते ! खंदए देवत्ताओ देवलोयाओ प्राजक्खएणं नव लानां चटनेन विचटनेन चेति स्कन्धा पृषोदरादित्वाइपनिय. कलएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चर्य चइत्ता कहिं गमिहिति तिप्रव०१ द्वार। “कस्कयोनाम्नि" ८।२।४ति स्कमागकहिं नववजिहिति। गोयमा! महाविदेहे सिज्झिहिति, स्य सः । प्रा०२ पाद । पुत्रप्रचयम्पेषु, भा०पू०१०। बुझिहिति, मुच्चिहिति, परिनिव्वाहिति,सम्बदुक्रवाण अणुसमुदायषु, स्था०१ठा० १ उ०। मंतं कारहिति । बंदओ सम्मत्तो। जश्श०१०ज्ञा। निक्केपःस्वंदग्गह-स्कन्दग्रह-पुं० । उन्मत्तताहेती स्कन्ददेवकृतोपनवे, से किं तं बंधे। खंधे चनबिहे पपत्ते । तं जहा-नामजं०२ वक्क० । ज्वरविशेषे, भ० ३ श०६ उ०। खंधे, उवणाखंधे, दम्वखंधे, नावखंधे, नामढवणामो पुलस्वंदपह-स्कन्दमह-पुं। स्कन्दः स्वामी कार्तिकेयस्तस्य महो | जणि आएकमेण नाणि अन्यायो। महिमा पूजा। प्राचा०२ श्रु.११.२०० । कार्तिकेयोत्सबे, अथ किं तत् स्कन्ध इत्युच्यते?,इति प्रमे निर्वचनमाद-"ये भ०९ श०३३ २० । विपा। चउब्धिहे" इत्यादि । भत्रनामस्कन्धम् प्रावश्यकसूत्र स्थापबंदसिरी-स्कन्दश्री-स्त्री० । शालाटव्यां चोरपस्ख्यां विजयस्य | नास्कन्धप्रतिपादकसूत्रं नामस्थापनावश्यकप्रतिपादकसूत्रम्या स्याऽनुसारेण स्वयमेव भावनीयम् । सेनापतेर्यायाम, विपा. १ श्रु. ३ म०। (भग्गसेण' शब्दे (कव्यस्कन्धः) प्र० भागे ७०१ पृष्ठे कथा) बंदिन-स्कन्दिन-पुं० । खनामख्याते प्राचार्य, तेन मथुरायां से किं तं दबखंधे । दलक्खंधे ऽविहे पल्मने । जहासंघमेलापकं कृत्वा शास्त्रवाचनाऽनुगमिता । ग.१ अधिग। आगमतोम,नोआगमतो आसे किंतं आगमो दबक्संव। जेसि इमो अणुप्रोगो, पयर अजावि भचभरहम्मि। प्रागमतो दबक्खंधे जस्स णं खंधेत्ति पयं मिक्स्वितं, सेसं बहुनयरनिग्गयजसे, तं बंदे खंदिलायरिए ॥३७॥ जहा दवावस्सए तहा जाणिव्वं, नवरं स्वधाभिन्नावो जार। (जेसिमित्यादि ) येषामयं श्रवणप्रत्यक्षत उपलज्यमानोऽनु से किं तं जाणियसरीरनवियसरीरवशरित्ते दबखंधे।। योगोऽचापि अर्बजरते वैतात्यादर्वाक प्रचरति व्याप्रियते, तान् जाणियसरीरजवियसरीरवशरित्तेदव्वखंधेतिविधे परणचे। स्कन्दिलावार्यान् ,सिंहवाचकसूरेशियान बहुषु नगरेषु निर्गतं तं जहा-सचित्ते अचित्ते, मीसए । प्रस्तं यशो पेषां ते बहुनगरनिर्गतयशसः,तान,वन्दे । अथ येषाम द्रव्यस्कन्धसूत्रमपि नव्यशरीरद्रव्यस्कन्धसूत्र यावद्दम्यावनुयोगोऽर्द्धभरते व्याप्रियमाणः, कथं तेषां स्कन्दिलनाम्नामा श्यकोक्तम्यास्याऽनुसार] नावनीयम । प्रायस्तुल्यवकण्यत्वाचार्याणां संबन्धी ? उच्यते-रह स्कन्दिलाचार्यप्रतिपत्तौ पुषम दिति। "सेकिं तं जाणयसरीरजवियसरीरवहरिते दम्वसंधे"? सुषमाप्रतिपन्थिन्यास्त मतसकल शुभभावप्रसनैकसमारम्भायाः इति प्रो निर्वचनमाह-" जाणगसरीरभवियसरीरवरिते सुषमायाः सहायकमाधातुं परमसुहृदिव द्वादशवार्षिकं दुर्मि दबखन्धे तिबिहे पन्नते" इत्यादि । शरीरभव्यशरोरव्यतिरिक्षम उदपादिः तत्र चैधरूपे महति दुर्भिके भिकानाभस्यासंभ काव्यस्कन्धविविधः प्राप्तः। तद्यथा-सचित्तोऽचिसो मिश्रः। बात अवसादतां साधूनामपूर्वार्थग्रहणपूर्वार्थस्मरणश्रुतपरावर्त तत्राद्यभदं जिज्ञासुः पृच्चतिनानि मूत्रत एवापजग्मुः, श्रुतमपि चातिशायि प्रभूतमनेशत्। - से किं तं सचित्ते दबवंधे। सचित्ते दमखंधे भणेगबिहे ङ्गोपाङ्गादिगतमविभावतो विप्रनष्टं तत्परावर्तनादेरभावात,ततो द्वादशवर्शनन्तरमुत्पन्ने महति सुभिक्षे मथुरापुरि स्कन्दिलाचा पसत्ते। तं जहा-हयरबंधे गंधवखंधे उसजवंधे, सेर्स यंप्रमुखश्रवणसंधेनैकन मिलित्वा यो यत्स्मरति स तत्कथयती- सचित्ते दमखंधे। स्येवं कालिकश्रुतपूर्वगतं च किञ्चिदनुसंधाय घटितं, ततश्चैतत् __ "से कि तमित्यादि" अत्रोत्तरम-"सचित्तदम्बबंधे मतेमपुरापुरि संघटितम् अत ध्यं वाचनामाथुरीत्यनिधीयते ।साच गविहे पाते" इत्यादि । चित्तं मनो विज्ञानमिति पर्यायाः सह तत्कालयुगप्रधानानां स्कन्दिनाचार्याणामभिमता,तेरेव चार्थतः । चित्तन वर्तत इति सचित्तस चासो द्रव्यस्कन्धनति सचिच Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६६ ) अभिधानराजेन्द्रः । खंभ इन्बस्कन्धः। अनेकविधोक्तिभेदतोऽनेकप्रकारः प्रज्ञप्तः । तद्यथाहवस्कन्ध इत्यादि । इयस्तुरगः, स एव विशिष्टपरिणामपरिणतस्वात् स्कन्धो हयस्कन्धः। एवं गजस्कन्धादिष्वपि समासः । नवरं किंनरकिंपुरुषमहोरगादिव्यन्तरविशेषाः। (उसन चि) वृषभः कान्धर्वस्कन्धादीन्यधिकान्यप्युदाहरणानि दृश्यन्ते, सुगमामिन "सुपय विहगवानरबंधे सिकवितेत पक पयस्त्वाविको विखुरः चतुष्पविशेष वि हगः पक्की, वानरः प्रतीतः, स्कन्धशब्दस्तु प्रत्येकं द्रष्टव्यः । इह च सचित्तस्कन्धाधिकाराजीवानामेव च परमार्थतः सचेतनत्वा सहमे सत्यपि दयादीनां संवन्धन जीवाच विवाितुराणीति संप्रदायः न च जीवानां कोप प्रत्येकमसंख्येयप्रदेशात्मकत्वेन ते त्यस्तीत्वादिति हयस्कन्धादीनामन्यतरेकेनाप्युदाहरणेन सिम, कि प्रतोदाहरणाभिधानेति चेत्सत्यम् । किंतु पृथनिरूपं विजातीयं स्कन्धपत्याभिधानेनारमा द्वैतवादं निरस्यति, तथाऽज्युपगमे मुक्केतरादिव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गात् । " सेवं" इत्यादि निगमनम् । अथाचितद्रव्यस्कन्धनिरूपणार्थमाह से किं तं चित्ते दव्वबंधे ? अचित्ते दव्वक्स्बंधे अगबिदे पचचे । तं जहा - पुपए सिए तिपएसिए० जाब दसपएसिए, संविज्जपरसिए असं विज्जपरसिए तपए सिए, सेतं प्रचिते दधे । "से किं तं" इत्यादि । अत्र निर्वचनम् - "अविचरबंधे" - स्यादि । प्रविद्यमानचितोऽचित्तः, स चासौ अन्य स्कन्धश्वेति समालः प्रयमनेकविधः प्रकृप्तः। तद्यथा-द्विप्रदेशस्कन्ध इत्यादि । तत्र प्रकृष्टः पुत्रसास्तिकायदेशः प्रदेशः, परमाणुरित्यर्थः । द्वौ प्रदेशी निदेशिका वासी द्विमदेशिक स्कन्धः। पवमन्यत्रापि यथायोगं समासा "से" इत्यादि निगमनम् । अनु० । अथ मिश्रद्रव्यस्कन्धनिरूपणायाऽऽद । से किं तं पीस दव्यये हैं। मीसए दब्यक्तंचे प्रणेग विदे पछते तं जहा सेणार अग्गिमे संधे, सेणार मन्झिमेखंधे, सेणार पच्छिमे खंधे । सेतं मीसए दब्बखंधे । श्रयमपरोऽवितमदाद्द्रव्यस्कन्धः । सम्याक्यानार्थमाहलासमुग्यावगाएँ, चहहिं समएहिँ पूरणं कुधई । लोगस्स तेहिँ चैव य, संहरणं तस्स पडिलोमं ॥ ६४३ ॥ इह नियुक्तिगाथायां तहाचितिति" न केवलं मिश्रा तथा एकदेशेन समुदायस्य गम्यमानत्वादचित्त महास्कन्धब्ध नवतीति गम्यते । स चास्यां प्रस्तुतगाथायां योज्यते । कथमिति चेत् ?, उ -प्रथितमास्कन्धः स प्रतिया किमित्याह-जैस वातल्या " दमं प्रथमे समये, कपाटमथ बोसरेत्यादि " केबलि समुद्रातम्यायेन विन सापरिणामवाचतुर्भिः समः बो कस्य पूरण करोति संरमपि प्रतिलोमं पान्मुखं तस्याविमास्कन्धस्य तेरे समय एवं च सत्यष्टौ समयान् कालमानेनासौ भवतीति ॥ ६४३ ॥ 1 खंध नामाचादित्याशङ्कयाहजसग्यायसचि-तकम्मपोग्गलमयं महाखंधं । पर तस्समाभावो, हो मचिचो महासंघ ||६४४৷ जैनसमुदायः सचेतनजीवाधितत्वात्सवितः कर्मयो महास्कन्धस्तं प्रति समाधिस्तद्वच्छेत्यर्थः किमित्याहप्रस्तुतः पुल महास्कन्धोऽचितमदारका इति वति श्रवित्तविशेषणेन विशेभ्यो भवतीत्यर्थः । कुत इत्याहयतस्तत्समानभावः, उपलक्षणत्वात्तत्समक्षेत्रकालानुभावःरोग केवल समुद्रात चिंना कर्म्मपुङ्गलमय महा स्कन्धेन स मास्तुल्याः क्षेत्रकालानुभाषा यस्यासी तत्समकाल यः तत्र क्षेत्रं सर्वलोकलकणं, कालोऽष्टसमयमानः, अनुभावो चर्चगन्धादिगुणः । जयमत्र प्रावार्थ:-अनन्तानन्तपरमा सोपचितस्कन्धे वकुं प्रस्तुते यदि महास्कन्ध इत्येतावन्याच मेचोयते, तदा केबल समुद्रात गतोऽनन्तानन्तकम् पुलम स्कन्धोऽपि लभ्येत प्रस्तुतमहारकस्य केवलमुद्धाक पुलमय महास्कन्धस्य च समानक्षेत्रकालानुभावत्वात् । तथाहि चतुर्थे समये द्वावपि लोक क्षेत्रं व्याप्नुतः, अनुसानथिकंकाल द्वापि तिष्ठतः वर्णपञ्चकमन्यद्य परसपाकस्पर्शचतुष्टय लक्षणगुणयुक्तौ द्वावपि भवतः । तदेवं महास्कन्ध इत्युके - ऽनन्तामन्तकर्मफलमयम हास्कन्धः केवलिसमुद्धात गतोऽपि सभ्येत तस्यापि प्रस्तुतमहास्कन्धे समानक्षेत्रकालानुभावत्वात् न च तेनेह प्रयोजनमतोऽचित विशेषखेन यच्छेदः किवते, जीवाधिष्ठितत्वेन किस तस्य सचेतनादिति॥६४४॥ अपात्र केचिदासम्बुकोसपरमो, एसो केई न चायमेगंतो । एष प्रस्तुतोऽचितमहारथा सर्वोत्कृष्टप्रदेश निर्वृतो नान्यः । अयं श्रीदारिकादिवगंत सर्वा अप्यभिधाय पर्यन्तं प्रोकोतो ज्ञायतेऽयमेव सर्वोत्कृष्ट परमाणु संख्याप्रचितो, न स्कन्धान्तराणि निवर्तते त ऊ सर्वाऽपि पुत्रविशेषाणां करोति माथः इत्येवं केचित् व्याचते नचायमेकान्तो नै सङ्गतमित्यर्थः यद्यस्मादुत्कृष्टप्रदेशः स्कन्धः प्रतियोग्युत्कृष्टप्रदेशस्कन्धान्तरापेक्षया प्रज्ञापनायामवगाहनास्थितिभ्यां चतुस्थानपतित उक्तः । तथा च तत्सुत्रम् - "उको सपए सिश्राणं भंते ! खंधणं केवइया पज्जवा पाता ?। गोयमा ! अणंता । से केण भंते! एवं पुष्यति । गोषमा ! उपसि उद्योपयसिस बंधस्स दबाए तुझे परदेशिकस्यैव प्रस्तुतत्वात् भोगाइ पहियाए चाहिए। तं जहा असं या सं भागही वा संग्रह वा अगुवा भागम्य वा संभागम्महिर वा गुणहिए या असंजगुणमहिए या चावपि वगंधरस० । अटुहिं फासेहिं खट्टारावर" ॥ अयं पुनरचितमहास्कन्धो ऽचि समदा स्कन्धान्तरेण सहाषगाइनस्थितियां य एष तो हायते एतस्मादपर एव के ग्राह- ननु पुछता इह विचारयितुमुपक्रान्तास्ततश्च पुलमहास्कन्धोऽवेतन एव भवति, कि तस्याचिद्यत्वशेषविशे प्रज्ञापनो का उत्कृमदेशिकाः स्कन्धा इति किच- । कोसपरसो जम- पग्गहविचाणो ||६४५॥ अप्फासो य जो, भणिओ एसो य जं चउप्फासो । तिम्रो पोम्गल-भेया संति चि सदेयं ॥ ६४६ ॥ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंध प्रनिधानराजेन्द्रः। खंघ टुप्फासो य जभो, भणिो " 'उकासपएसो' इत्यनन्तर- दिकृत्स्नस्कन्ध इत्यर्थः। विप्रदेशिकस्य त्रिप्रदेशिकापेकया क. गाथागतं संबध्यते। ततश्चाष्टस्पर्शस्य यतः "प्रज्ञापनायां" भणि- तस्नत्वात त्रिप्रदेशिकस्यापि चतुःप्रदेशिकापेक्षया कृतस्नत्वात उत्कृष्टप्रदेशिकः स्कन्धः । एष पुनरचित्तमहास्कन्धो यस्मा देवं तावद्वाच्यं यावत् कृतस्नं नापद्यत इति पूर्व द्विप्रशिकादिः चतुःस्पर्श इष्यते । तस्मादनयेवोत्कृष्टप्रदेशिकस्कन्धानां भेदसि- सर्वोत्कृष्टप्रदेशश्च स्कन्धः सामान्येनाचित्ततया प्रोक्ता इह तुसख्या पूर्वोक्तवर्गणामिश्राचित्तमहास्कन्धेभ्योऽन्येऽपि केचिदसं- र्वोत्कृष्टस्कन्धादधोवर्तिन एवोत्तरापेकया पूर्वपूर्वतरा मरुत्स्नगृहीताः पुदलविशेषा अद्यापि सन्तीति अख्यम,न पुनरेतावता स्कन्धत्वेनोक्ता इति विशेषः । “सेत्तं" इत्यादिनिगमनम् । सर्वोऽपि पुनसास्तिकायः संगृहीत इति भावः॥ ६४५। ६४६ ।। थानेकलव्यस्कन्धनिरूपणार्थमाहविशेष प्रका० । श्रा०म०। से किं तं अणेगदन्वियखंधे ?। अगदम्बियरबंधे तस्स अहवा जाणयसरीरनवियसरीरवइरित्ते दव्वखंधे तिवि घेव देसे अवचिए, तस्स चेव देसे उपचिये, सेत्तं अणेगदहे परमत्ते । तं जहा-कसिणखंधे, अकसिणखंधे, अणे- | निअरबंधे । सेत्तं जाणगसरीरभबिसरीरवतिरित्ते दबगदवियखंधे। खंधे। सत्तं नोागमतो दव्वरबंधे। “अहवा जाणगेत्यादि" अथ वा अन्येन प्रकारेण शरी "से किं तमित्यादि"। अत्रोत्तरम्-"अणेगदवियधस्येरजव्यशरीरव्यतिरिक्तो व्यस्कन्धविविधःप्राप्तः। तद्यथा-कृ. त्यादि"अनेकाव्यश्चासौ स्कन्धति समासः। तस्यैवेत्यत्रानुब. स्नस्कन्धोऽकृत्स्नस्कन्धोऽनेकष्न्यस्कन्धः। र्तमानं स्कन्धमात्र संबभ्यते, सतश्च तस्यैव यस्य कस्यचित से किं तं कसिणखंधे। कसिणखंधे सो चेव हयखंधेग- स्कन्धस्य यो देशो नखदन्तकेशादिमकणोऽपि चितो जीवप्रदेयखंधे० जाव उसनखंधे । सेत्तं कसिणखंधे ॥ शैविरहितस्तस्यैव देशः पृष्ठोदरचरणादिरूपचितो, जीवप्रदेश याप्त इत्यर्थः । तयोर्यथोक्तदेशयोर्विशिष्टैकपरिणामपरिणतयो" से किं तमित्यादि " । अत्रोत्तरम-"कसिणक्वन्धर यो देहास्यः समुदायः सोऽनेकरूव्यस्कन्ध शति विशेषः। सचेत्यादि "। यस्मादन्यो वृहत्तरः स्कन्धो नास्ति कृत्स्नः परि तनमचेतनानेकरुव्यात्मकत्वादिति जावः । स चैवंभूतः सामपूर्णः स्कन्धः कृत्स्नस्कन्धः । कोऽयमित्याह-" सो चेत्यादि " Oसुरगादिस्कन्ध एव प्रतीयते। यद्येवं तर्हि कृत्स्नस्कन्धादस्य स एव "हयक्खन्ध" इत्यादिनोपन्यस्तो हयादिस्कन्धः कृत्स्न को विशेष इति चेद्? उच्यते-स किस यावानेव जीवप्रदेशानुगत. स्कन्धः । श्राह-यद्येवं प्रकारान्तरत्वमसिद्धं सचित्तस्कन्धस्यैव स्तावानेव विवक्कितो, न तु जीवप्रदेशाव्याप्तनखाद्यपेक्वया, अयं संज्ञान्तरेणोक्तत्वात् । नैतदेवम्। प्रागसचित्तव्यस्कन्धाधिका तु नखाद्यपेक्वयाऽपीति विशेषः। पूर्वोक्तमिश्रस्कन्धादस्य तर्हि को रात् तथाचाजिसन्नोऽपि बुद्ध्या निकृष्य जीवा एवोक्ताः,शह तुजी. विशेष इति चेदू?, उच्यते-तत्र खड्गाद्यजीवानां हस्त्यादिजीवानां वाधिष्ठितः शरीरावयवलक्षणसमुदायः कृत्स्नस्कन्धत्वेन वि च अपृथग्व्यवस्थितानां समूहकल्पनया मिश्रस्कन्धमुक्तम् । यक्षित इत्यतोऽभिधेयभेदात्सिद्धं प्रकारान्तरत्वमाययेवं तर्हि अत्र तु जीवप्रयोगतो विशिष्टैकपरिणामपरिणतानां सचेतनाहयादिस्कन्धस्य कृत्स्नत्वं नोपपद्यते,तदपेकया गजादिस्कन्धस्य व्याणामनेकजव्यस्कन्धत्वमिति विशेष इत्यलं प्रसङ्गेन । “सेत्तवृहत्तरत्वात् । नैतदेवम् । यतोऽसंख्येयप्रदेशात्मको जीवस्तदधि मित्यादि" निगमनं, तदेवमुक्तो शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो ष्ठिताभ शरीरावयवा इत्येवंलकणः समुदायो हयादिस्कन्ध सव्यस्कन्धः, तणने च समर्थितो 'नोश्रागमतो' व्यस्कन्धविस्वेन विवक्षितो जीवस्य वा संख्येयप्रदेशात्मकभयात्सर्वत्र तु चारः,तत्समर्थने च समर्थितो व्यस्कन्ध इति । अनु०। उत्ता स्यत्वात् गजादिस्कन्धस्य बृहत्तरत्वमसिद्धम, यदिह जीवप्रदे दश । सूत्र० । प्रा० म०। प्राचा०।। शपुलसमुदायः सामस्त्येन वःत, तदा स्याङ्गजादिस्कन्धस्य भावस्कन्धनिरूपणार्थमाहवृहत्त्वं,तच नास्ति, समुदायवृष्यभावात्, तस्मादितरेतरापेक्कया जीवप्रदेशपुलसमुदायस्य हीनाधिक्यानावात्सर्वेऽपि समुदा से किं तं भावखंधे भावक्खंधे दुविहे पमत्ते। तं जहा-आगमतो यादिस्कन्धाः परिपूर्णत्वात् कृतस्नस्कन्धा अन्ये तुदूरं सचित्त अ, नोश्रागमतो थासे किं तं मागमतो भावक्खंधे । जाणए स्कन्धविचारे जीवाधिष्ठितशरीरावयवसमुदायः सचित्तस्कन्धो नवनुत्ते सेत्तं आगमतो जावखंधे । से किं तं नोमागमतो ऽत्र तु शरीरात वुद्ध्या पृथक्कृत्य जवि एव केवलः कृत्स्नस्कन्ध भावबंधे । एएसिं चेव सामाइअमाइयाणं छएहं अज्यशति व्यत्ययं व्याचक्षते । अत्र व व्याख्याने प्रेर्यमेव नास्ति, हयगजादिजीवानां प्रदेशतो होनाधिक्याभावेन कृतस्नस्कन्धत्वस्य णाणं समुदयसमिइसमागमेणं आवस्सयं सुअखंधे जावखं. सर्वत्राविरोधादित्यलं प्रसङ्गेन । “सेतं" इत्यादिनिगमनम् । धेत्ति बभइ । सेत्तं नो आगमओ जावखंधे। सेत्तं जावखंधे ।। अथाकृतस्नस्कन्धनिरूपणार्थमाह "से किं तमित्यादि।" अत्रोत्तरम्-"भावखंधे दुविदे" इत्यादि। जावश्चासौ स्कग्धश्च भावस्कन्धः, नावमाश्रित्य वा स्कन्धो से किं तं अकसिणखंधे। अकसिणखंधे सो चेव दुपएसि भावस्कन्धः। स च द्विविधःप्राप्तः। तद्यथा-आगमतश्च, नोप्रायाइ खंधेजाव अणंतपएसिए बंधे । सेत्तं अकासिणवंधे । गमतश्च । तत्रागमतः स्कन्धपदार्थज्ञः,तत्र चोपयुक्तस्तु तदुपयो“से कि तं मित्यादि।" अत्रोत्तरम्-"अकसिणखंधे सोचे- गित्वाद्भावस्कन्धः । नोआगमतस्तु एतेषामेव प्रस्तुतावश्यकनेत्यादि। न कृतस्नोऽकृतस्नः, स चासौ स्कन्धश्वाकृत्स्नस्कन्धो, दानां सामायिकादीनां षामामध्ययनानां समुदायः। स चैतेषां वियस्मादन्योऽपि वृहत्तरस्कन्धोऽस्ति सोऽपरिपूर्णत्वादकृतस्न- शकलितानामपितथाविधदेवदत्तादीनामिव स्यात्। अत उच्यतेस्कन्ध इत्यर्थः। कस्यायमित्याह-"सोचेवेत्यादि" स एव"दुप- समुदयस्य समिति रन्तर्येण मीलना, साच नैरन्तर्यावस्थापितादेसिपखधेतिपपसिए खंधे"इत्यादिना पूर्वमुपन्यस्तो द्विप्रदेशका | नां शमाकानामिव परस्परनिरपेक्वाणामपि स्यात, अत उच्यते Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंध अभिधानराजेन्द्रः। खंधवीय तस्याः समुदयसमितेर्यः समागमः परस्परं संबकतया विशिष्टै- | साध्वंसारूढाः अरन्ति ग्रामनगरेषु प्रजूतनिवासेप्वशेषकमाकपरिणामसमुदायसमितिसमागमस्तन निष्पनोऽयम् श्रावश्य- विहारिणो वयमिति शेष इति गाथार्थः॥१॥ कश्रुतस्कन्धः स भावस्कन्ध इति सभ्यते प्राप्यते भवति इति अत्रापि जीवोपदेशगर्नविरोधं दर्शयन् गाथाद्वयमाहहृदयम् । इदमुक्तं भवति-सामायिकादिषडध्ययनसंहितिनिष्पन्न आवश्यकश्रुतस्कन्धो मुखवस्त्रिकारजोहरणादिव्यापारलक्षण तत्य विनावसु अहहा, अमाणविनसियं एयं । क्रियायुक्ततया विवक्तितो नो आगमतो भावस्कन्धः। नो शब्द- जं जत्था वनहीणा-इविहरणं वारियं वहहा ॥३॥ स्य देश भागमनिषेधपरत्वात, क्रियालकणस्य च देशस्यानाग- ववहारपंचकप्पा-इएसु गंथेसु मुत्तकेवलिणा। मत्वादिति भावः।" सेत्तमित्यादि "तदेवं प्रतिपादितो द्विवि. अइवित्थरण जणियं, पजते तत्थिमा गाहा ॥३॥ धोऽपि नावस्कन्ध इति। निगमयति-"सेत्तं भावखंधे ति"। तत्रापि स्कन्धे चटितविहरणेऽपि हे जीव! भावय चिन्तया प्र. अनु० । प्रा० चू। विपा० । हहा इत्याश्चर्ये, अज्ञामविलसितं मूढताविकस्पितमेतत विहरणं इदानीं त्वस्यैव एकाथिकानभिधित्सुराह यद् यस्माद्यया वबहीनादिविहरणम्।श्रादिशब्दाद्नानादिपरितस्स एं सेत्तं इमे एगडिया णाणा घोसा णाणा वंजणा ग्रहः। वारितं निषिद्धं वहुधाउनेकप्रकारं व्यवहारपञ्चकल्पादिषु नामधेजा भवंति। तं जहा-"गणकाए अनिकाए,खंधे वग्गे| प्रतीतेषु ग्रन्थेषु शास्त्रेषु सूत्रकेवमिना भजवाहुस्वामिना, कथतहेब रासी आपुंजे पिमे निगरे,संघाए आउलसमूहे"||१॥ मित्याह-अतिविस्तरेण महाप्रपञ्चेन भणितमुक्तं पर्यन्ते तदधि. कारव्युच्चित्तौ तत्र तेषु ग्रन्थेषु, यमग्रे प्रणिध्यमाणा गाथा सेत्तं खंधे । अनु० । छन्दोविशेषलकणा । इति गाथाद्वयार्थः॥॥३॥ द्विप्रदेशिका यावदनन्तप्रदेशिकाः स्कन्धान्ताः । स्था०१० तामेवाह१ उ०। ('पञ्चाय' शब्देऽस्य पर्याया अन्याः ) समुच्चयेषु, स्था० जा गाउयं समत्थो, सूरादारन्ज भिक्खवेलाओ। १० ठा। सर्वास्थिकायसंघाते,श्रा०म० द्वि०। सूत्र०। ('पंच खंधे पयंतेगे'इत्यादि खणिप्रवाशब्दे उपपादयिष्यते,निराक विहरन एसो सप-रकमाउ नो विहरि तेण परं ।।। रिप्यते च) वनस्पतीनां स्थूमे, यतो मुखशाखाः प्रभवन्ति।जी० सुबोधा । नवरं प्रहरद्वयेन गन्यूतमेकं यावत् गन्तुं शक्नोति ३ प्रति । स्था। औ० । जं०रा०।ज्ञा० । अंशदेशे, उत्स० चरणाभ्यां तावद्विहरतु, तदभावे स्थानस्थितेनैवासितव्यमिति २०।ौछ । पृष्ठे स्कन्धप्रदेशप्रत्याशक्ते, पृष्ठमपि स्कन्ध इति तात्पर्यार्थः॥४॥ व्यपदिश्यते।झा०१ श्रु० १२ अ०। एकस्य स्तम्भस्योपरि प्रा. ___एवमवगत्य जीवोपदेशमाहभये, प्राचा०२ श्रु.२ अ०१ उ०। अप्राकारे, नि० चू०१३ ता जइ तुहत्यि सत्ती, विजंते सोहणा जइ सहाया । चाद्वीन्छियभेदे, प्रशा०१ पद । जीव! तुम तो विहरसु, अथ नो संस विहरते ।। खंधंतर-स्कन्धान्तर-न० । एकस्मात् स्कन्धादन्यस्मिन् स्कन्धे, ततो यदि तव भवतोऽस्ति विद्यते शक्तिः सामर्थ्य, विद्यन्ते स्था०४ठा०३०। सन्ति शोभना भव्या यदि सहायाः गीतार्थादिसाधवः, जीवा. खंधकरणी-स्कन्धकरणी-स्त्री० । साध्वीनामुपकरणविशेषे, सा | ऽऽत्मन् ! ततो विहर पर्यट, अथेति विकल्पार्थे। नो नैव, ततः च" खंधकरणी अचउह-स्थवित्थडा वायविहयरक्रहा।"| शंस श्लाघय विहरत आगमोक्तविधिना चरत इति गाथास्कन्धकरणी च चतुर्हस्तविस्तरा समचतुरना प्रावरणस्य र्थः ॥ ५॥ जीवा०२१ अधिक। वातविधूतरकणार्थ चतुष्पला (चतुःपुटीकृत्य) स्कन्धे कृत्वा | खंधमिरा-स्कन्धशिरा-स्त्री०। अंसधमन्याम, तं०। प्रवियते । बृ० ३ उ०। प्रव० । ध० । खंधणिवेस-स्कंधनिवेश-स्त्री०। सैन्यस्थापनपरिक्षानात्मिकायां खंधकुमार-स्कन्धकुमार-पुं० । स्वनामख्याते कुमारे, “ जंतेहिं सप्तचत्वारिंशकलायाम, स०७४ सम। पीलिया वि" इत्यादि उपदेशमालागाथावृत्तौ स्कन्दकुमारः पञ्चशतपरिकरो निष्क्रान्त श्त्युतम् । ऋषिमएमले तु " पगणे खंधदेस-स्कंधदेश-पुं० । स्कन्धानां स्कन्धत्वपरिणामपरिणपंचसया" इत्युक्तम् ।तत्कथमिति प्रश्ने, उपदेशमालावृत्तौ प्रव- ताना बुकिपारकास्प तानां बुरूिपरिकल्पितेषु धादिप्रदेशात्मकेषु विभागेषु, ते चधज्याधिकारे पञ्चशतपरिकरितत्वमुक्तम् , ऋषिमएमले तु नि | म्मास्तिकायादीनां भवन्ति । जी०१ प्रति०। प्रशा० । सूत्र। र्धाणाधिकारे एकोनपञ्चशतत्वमिति न कश्चिद्विरोध इतिखटप्पपस-स्कन्धप्रदेश-पुं०। स्कन्धानां स्कन्धत्वपरिणामपरि२४३ प्र० सेन० ३ उला। णतानां बुरिपरिकस्पिताः प्रकृष्टा देशाः निर्विभागभागाः । खंधचढियविहार-स्कन्धचटितविहार-पुं० । निजशिष्यसाध्वं. परमाणुषु, जी०१ प्रति । प्रज्ञा० । सूत्र। सारुढाटने, जी। खंधप्पनव-स्कन्धप्रभव-पुं०। स्थूडोत्पादे,"मूलामो संधप्पभा. | এন্ধাৰহানবমঘিামা वो मस्स" दश. ए अ०१ उ०। अन्ने नणऽहम्माणी, निययानिप्पायनुज्जुयविहारी।। खंधमत-स्कन्धवत-त्रि। स्कन्धोऽस्यास्तीति । अतिशयितस्यूमे, नियसिस्सखंधचढिया, अमंति बहगामनगरम् ॥१॥ । वहुस्यूमे च । जी. ३ प्रति० । झा० । रा०। अन्ये पुनरपरे अहंमानिनोऽहंकारिणो निजकाभिप्रायोद्यक्त-खंघवीय-स्कन्धवीज पुं०। स्कन्धं स्थुडमिति प्रसिद्धमा (स्था०४ विहारिणः सुमतसुविहिताः निजशिष्यस्कन्धचटिताः स्व-| ठा०१०)वीज येषां ते स्कन्धवीजा। सलक्याविषु, खा०५ १७६ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०२) खंधवीय अभिधानराजेन्सः। खजर ठा० १००। सूत्र० । विपा।दश। प्रा० म०प्राचा०। इचु खगइ-खगति-स्त्री०। प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगती, कर्म कर्मन वंशवेत्रादिषु, प्राचा०१०१०५ उ०। तृणवनस्पतिदे, खगइपुग-खगतिदिक-न०प्रशस्तविहायोगत्यप्रशस्तविहाबोखा.४ ठा०१०। गतिलक्षणे, कर्म०५कर्म। स्बंधसालि-स्कंधशालिन-पुं० । दशानां महोरगाणां पञ्चमे खगमुह-खगमुख-न । विहङ्गमतुण्मे २०। म्वन्तरमेदे, प्रका०१पद। खग्ग-खम्ग-पुं०1"क-ग-ट-इ-त-द-प-श-ष-स-क* खंधार-स्कन्धाबार-पुं० । स्कन्ध० प्रा० वृ० घम् । वाच । पामू मुक"।।२।७७ ॥ इति ममुक । प्रा०२पाद । "कस्कयोनाम्नि"।।१४। इति कभागस्य खः। प्रा०२पाद।। "डोल."॥८।१।२०२॥ इत्यनेनासंयुक्तस्यैव सत्वमा कटकोत्तरणनिवासे, उत्त० २७ अागकटकनिवेशे, खाए प्रा०१पाद । “गुणाद्याः क्लीवे वा" ॥ ग.। राजबिम्बसहिते स्वचक्रे, परचक्रे च । बृ०३ उ०|चक्र १॥ ३४ ॥ इति वा नपुंसकत्वम् । 'खग्गो, बग्गं'। प्रा०१ पाद । उज्ज्वसविकोशीकवादिस्कन्धावारेषु प्राशालिक उत्पद्यते । प्रका० १ पद ।। तकरवाले, प्रभ० ३ आश्र० द्वार । तर प्रथमं राजककुदम् । राजधान्याम, वाच । औ०। आटव्ये चतुष्पदविशेषे, प्रभ०५ सम्बद्वार।का। बंधावार-स्कन्धाचार-पुं० । 'संधार' शब्दाय, वृ० ३ ००। स्था । यस्य गच्छतो द्वयोरपि पार्श्वयोः पत्तवच्चर्माणि मखंधाचारमाण-स्कन्धावारमान-न० । सैन्यप्रमाणकानलक्षणे म्बन्ते गङ्गं चैकं शिरसि भवति । प्रश्न०१प्राथद्वार । वृ०। चतुश्चत्वारिंश कलाभेदे, का०१९०१०जं० । स०।। स चाटव्यश्चतुष्पथे जनं मारयित्वा खादयति ।नं० । नि०चून खंज-स्तम्भ-पुं० । "स्तम्ने स्तो वा ०।२।८। ति स्तस्य वा प्रज्ञा । औ० । चोरनामगन्धव्ये, वाच । खः । "खघथधनाम्" ।।१।१८७। इति हः प्राप्तः। स्वरा- खम्गधेणुया-वम्गधेनुका-स्त्री०। छुरिकायाम, " तमो गहियदित्येव इति हो न । "अनादौ"10।२। । इति न द्वित्वम् । खग्गधेगा मप" दर्श०। प्रा० २पाद । स्थूणायाम, जावे धाजमीभावे, पुंगवाया। प्रासादावष्टम्भहेतौ, जी०४ प्रति० । प्रासादाधारे, ग० १ खग्गपुरा-खड्गपुरा-(री)-स्त्री० । सुवल्गुधिजयकत्रेवाल अधिः । खभे वा कुड्ये वा अवष्टभ्य स्थानम्, इति कायो नि पुरीयुगले, "दो खग्गपुराओ"। स्था० ३ ठा० ३ ० । नवयोजनविस्तारा द्वादशयोजनायामा । स्था०००। “सुत्सर्गदोपे तृतीये, प्रव०५ द्वार। आव० औत्पत्तिकबुद्धौ स्त घग्गुविजयनग्गपुरा रायहाणी गंजीरमालिणी अंतरणदी" म्भोदाहरणम् । आ. क। जं०४ वक। खंभतित्य-स्कम्भतीर्थ-न० । चतुरशीतितीयांनामन्यतमे, यत्र खग्गी-खम्गी-स्त्री० । आवर्ताख्यविजयकत्रयुगमवर्तिनि पुपातालगानिधः श्रीनमिनाथः। सी०४५ कल्प। रीयुगले, "दो खम्गीयो"। स्था०२ ग०३७०।०। खंजवाहा-स्तम्भवाहा-स्त्री० । स्तम्नपार्थे, जी०३ प्रतिः। खम्गृह-खगृढ-त्री० । स्निग्धमधुराद्याहारलम्पटे, वृ० १४०। खंभवुडतर-स्तम्भपुटान्तर-न० । द्वौ स्तम्नौ स्तम्भपुटं, तस्याः | स्वभावाद्वक्राचारे, व्य० ३ उ०। निकाली, वृ०१०। न्तरं स्तम्जपुटान्तरं, द्वयोः स्तम्भयोरन्तराले, जी. ३ प्रति । खंजाइत-स्तम्नादित्य-न। "खंभात" इति ख्याते गुर्जरदेशी | खज-खाद्य-त्री । करमोदकादौ, का०१ श्रु०१०म०"सुयपत्तने, यत्र यशोभत्रसूरिभिर्विक्रमातू ५०२ वर्षेष्वतिकान्तेषु कंतु खज्जगं सुइयं" शकुलिकामोदकादिकं सर्वमपि सातत्रत्यानां प्रतिमानां ध्वजारोपमहः कृतः । ती०१३ कल्प।। धं सूचितम । ०२.। खंजागरिसग-स्तम्भाकर्षक-पुं० । मन्त्रबलेन स्तम्नानामुत्पाट- खजगवंजणविहि-वाद्यकव्यजनविधि-पुं०। साधकानि भ. के, प्रनायके द्रव्यसिके, आमप्र(मंतसिद्ध ' शम्देऽ शोकवृत्तयो व्यञ्जनं तकादीनि शासनकानि वा तेषां ये विस्य कथा बदयते) धयः प्रकारास्ते खाद्यकव्यञ्जनविधयः। खाद्यव्यजनलकणभोखंभालण-स्तम्भालन-स्तम्भालगन-नास्तम्भासगने, प्रश्न जनप्रकारेषु, प्रश्न०५ सम्ब० द्वार। ३ भाभ० द्वार। खजगविहि-वाद्यकविधि-पुं०। अशोकवृत्तिमोदकादिपरिणखंजग्गय-स्तम्भोद्वत-त्रि०ास्तम्नेषु तो निविष्टः । भ.. हे, पञ्चा०५ विव०। खण्डवाधादिलकणभोजनप्रकारे, भ. १५श०१०। ३३३०ास्तम्भोपरिवतिनि, “खभुम्गयवश्रवेश्यावरिगतानिरामा" स्तम्भोतवनवेदिकापरिगताजिरामाणि स्तम्नोफतानिः खजगावण-खाद्यकापण-पुं०। कुस्तूरिकाहो विशे०। कोरिस्तम्नोपरिवर्तिनीनिः वज्ररत्नमयीनिदिकाभिः परिगतानि कापणे, प्रा० म०वि०। सन्ति यानि प्रनिरमणीयानि तानि । जी०३प्रतिस्तम्भेषता खज्ज-ख -पुं० । स्त्री०। खर्ज अन् । करमाम्, स्था०२० गा निविष्टा या वज्रवेदिका तथा परिगता परिकरिता मत पवाभि- खजूरीवृक्षे, कीटभेदे, वाच।। रामा रम्या या सा । भ० श०३३ उ०। खज्जूर-खर्जूर-पुं० स्त्री०। खर्ज करन् । 'खजूर' इति ख्याते खकावर-खर्खर-पुं० । अश्वत्रासनाय चर्ममयवस्नविशेषे,स्फुटि बके. वाच स च संख्येयजीविकः । भ०८ श०३ उ० प्रज्ञान तबंशे च विपा० १ ०२०। जंकापिण्डखजूरे, उत्त०३४ अ०। तस्य फलम अण, तस्य वक्खरग-खर्खरक-न० । अग्निशुष्करोटके, (बाखरा) इति सुक् । तत्फले, न० । रौप्ये, हरिताले, खले, तृणजातिभेदे, स्याते, ध.२ अधिन स्त्री वाचा Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७०३) अभिधानराजेन्द्रः । खज्जूरमत्यय स्वज्जूरमत्थय–खर्जूरमस्तक- खर्जूरमध्यवर्त्तिनि गर्ने, श्राचा० खज्जूरसार - खर्जूरसार - पुं० । मूलदलखरसार निष्पन्ने, आसवविशेषे, जी० १ प्रति० । प्रज्ञा० । - स्वपनमुंज- खर्जूरीपत्रमुख पुं० । बंरीपत्रमयप्रमार्ज न्यां मुजमयबहुर्यो वा । "बज्जूरियत मुंजेख, जो पमखे उबइसयं । नो दया तस्स जीवसु, सम्मं जाणाहि गायमा ! " ॥ ग० 9 अधि० । 66 खज्जोय - खद्योत - पुं० । से द्योतते हुत् अच् । कीटजेद, वाचः । जह देहपरिणामो रसिं वज्जोगस्स सा उवमा " देहपरिनामः प्रतिविशिष्टा शररात्राविति विशिष्टकालनिर्देशः द्योतक शक्ति प्राणिविशेषपरिग्रहः यथा तस्याऽसौ देशपरिनामो प्रयोगतविश्वास्ति वमङ्गारादीनामपि। श्राचा० १ ० १ ० ४ ० । खट्ट - खट्ट - त्रि० । अत्रे, प्रशा० १ पद । वहंग - खद्वाङ्ग - न० । ( खाट के पाया) खट्टापादे, पट्टिकायुतख द्वाचरणरूपे अस्त्रे, चतुर्थव्यन्तराणां मुकुटे चिह्नं बद्धाङ्गम । औ० स्वट्टमे खट्टमेप-पुं० जसे मेथे उत्पातमेथे, न० ७ ० > ६ उ० । खट्टामा - खट्टामा - पुं० | प्रबलजराजर्जरितदेतथा यः खट्टायात १४० खट्टिय-खट्टिक- त्रि० बट्टनमाचरणं खट्टः स शिल्पत्वेनास्यशौकरिके, सू० स्य पुन जातादिना पहिमारके, बाच सूत्र० २ ० २ ० । खट्टोदग - खट्टोदक - न० । ईषदम्त्रपरिणते जसे, जी० १ प्रति० । प्रज्ञा० । खमखगग-खटखटक- त्रि० । लघुच्वायतेषुच । जी० ३ प्रति० ।। खड्ग खड़कपुं० टकरे, "बड्या मे बनेका मे" उ० १ म० । 66 खड्डा - स्त्री० गर्न पुं० । रन्ध्राकारे निम्नमध्यभागे, उत्त०२५० ने, पञ्चा० ७ विष० । पचा० ७ विष० । 44 खाराम गर्नट- पुं० [ट्या स्व० टकरे ( टकरा ० १ ३० अंगुली कविशेषे, औ० । झा० । मुद्रारत्ने, आ० चू०१ य० । श्रा० म० । स्वण-क्षण" क्षण उत्सवे " ८२२० इति उर वार्थे छः, अन्यत्र तु न । प्रा० २ पाद । बहुतरोच्वासरूपे, झा० १ श्रु० ५ अ० । मुहूरों, स्था० ४ ठा० ३ ० | दशभिर्लेशैः परि मिते काले, तं० । परमनिकृष्टे काले, सूत्र० १ ० १ ० १ ० । लोचननिमेषमात्रे काले, भाव० ३ श्र० । संख्यातप्राणलक्षणे काले, स्था० २ aro ४ ० खलाभदीवणा बेकजं ज्ञानं स्यात् । यदाह - "कणक्रमयोः संबन्धसंयमाद्विवेकज्ञानमिति (३-५२) तच जात्यादिभिस्तुस्वयोः पदार्थयोः प्रतिपचिकृत विवेचकम् तदुक्तम" जातिलाई रम्यतामवच्छेदात ययोस्ततः प्रतिपतिरिति (३-५३) पहाजातिलपदेशा भवन्ति जाता श्री यथा गौरवं महिषोऽयमिति जातुल्ययो भेद यथेयं कर्तुरा, श्यं चारुणेति । उभाभ्यामभिन्नयोर्देशो जेदहेतुर्यथा- तुल्यप्रमाणयोरामलकयोर्भिन्नदेशस्थितयोः । यत्र च त्रयमपि नभेददेशस्थित पार्थिवयोः परमादयोः तत्र संयमजनिताद्विषेषजहानादेव जयति भेदधीरिति ॥२०॥ ० २६ द्वा० । अवसरे, सूत्र० २ ० ५ अ० । इणमेव वर्ण विपाणिया, शोलनं बोर्डिच आदितं । एवं सहिए हिपासए आहि जिले इमत्र सेसगा || १८ || इदमः प्रायासप्रवाह क्षेत्रकालावलकर्ण समयसाचितं विषमः तथाहि-ओन्द्रियत्वोत्पतिमानुष्य लक्षणं क्षेत्रमयादेशा तिजनपदलक्षणम् । कालो उपपचपिची चतुरादिधर्मप्रतिपत्ति योग्यलक्षणः । भावश्च धर्मश्रवणतच्छ्रद्धानचारित्रायरणकर्मक्षयोपशमाहितविरतिप्रतिपत्युत्साहल 9 ज्ञणमवसरं परिज्ञाय तथा बोधि च सम्यग्दर्शनावासिल यांनो सुखमित्येवमायातामवगम्य तदासीनुरूप व कुर्यादिति शेषः । अकृतधर्माणां च पुनर्लना बोधिः । तथा हिमोदि शकतो जाग व पत्तो दाई बोहि समास परे मोझेस" ॥ तदेवमुत्तो पा पुलपरावर्त्त प्रमाणकालेन पुनः सुफुर्लभा बोधिरित्येवं सहितो ज्ञानादिभिरधिपश्येत बोधित्वं पर्यालोचयेत् । पाठान्तरं वा (अदिवाससि) परीषदादरात्सम्यगधिसहेत । एतच्चाद जिनो रागद्वेषजेता नानेयो ष्टषद स्थान्तानुद्दिश्य तथा अन्येऽपि इदमेव शेषका जिना अमित इति ॥ १ ॥ सूत्र० १ ४० २ ० ३ उ० । पञ्चा० । विश्रामे, निर्व्यापरस्थिती पराधीनतायाम, चाच०। वनजारे कणयोगिन् त्रि० परमनिकृएकालः कणः कवेन योगः संबन्धः क्षणयोगः । स विद्यते येषां ते कणयोगिनः । कणमात्रावस्थायिषु सूत्र० १ ० १ ० १३० । स्वणडिधम्मय - क्षणस्थितिधर्मक - त्रि० । क्षणनावस्वनावे, विशे० । " खणण-खननन० भूमिविदारणे, नि० ० १४० (भूमिखननस्य दोषा अपवादपदं च पांडवना शब्दे बदयते ) लणमित्सपियरोह - क्षणमित्रप्रियशेष- भि० सदैव रुष्टे तदेव अवस्थित ०१० खणयन्नु - क्षणक - त्रि० । कण एक कणकोऽवसरो निक्कार्थमुपसर्पणादिकस्तं जानाति मिहाद्यवरात्रि, आचा० १४० २ अ० उ० । स्पात् क्षणक्रमसंबन्ध-संयमाद्यद्विवेकजम् । खणलवसमादि-क्षणलवसमाधि- पुं० । कणलवग्रहणमशेषकाविशेषोपलादिषु कालविशेषेषु निरन्तर संवेगा तो ध्यानासेवना, तस्य समाधी, प्रव० १० द्वार ज्ञानं जात्यादिविस्तव तुल्ययोः प्रतिपत्तिकृत् ॥ २० ॥ ( स्वादिति ) कणः सर्वान्त्यः कालावयवस्तस्य क्रमः पौ— खणलाभदीवणा-क्षणलानदीपना-स्त्री० । कृणेनापि लाभस्य पये तत्संबन्धसंयमात्समान्तर साक्षात्करण समर्थात् यद्वि प्रकाशनायाम, पञ्चा० । 27 Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खणलाभदीवणा आठयपरिहालीए, असमंजसचेडियाल व विवागे । स्वलाभदीपणा, धम्मगुणेसुं च विविदेसु ॥४८॥ (800) अभिधानराजेन्द्रः । को कालविशेष स्तोककालेऽपीत्यर्थः लाभोऽशुनापवसा येन महतोशुभकर्मणः शुभाध्यवसायेन च महत इतरस्यार्जन तस्य दीपना प्रकाशना क्षणलाजदीपना । अथवा, क्षणोऽवसरो मोकसाधनस्य सम्पादिनेाच्चतुर्विधातो मा नुषत्वं, क्षेत्रत श्रार्यक्षेत्र, कालतो दुःखमसुषमादि काल विशेषो, भावसो बोधिरिति । तस्य वणस्य यो लाभो युगसमिलान्यायेन कष्टात्प्राप्तिस्तस्य या दीपना सा तथा, तस्याम् ॥ पञ्चा०२ विष० स्वणि-बनी-१० सन्न्याधानुरनादेरुपत्तिस्था ने, वाच० । आकरे, उत्त० १४ अ० । तं० | स्वणिमवाह-कृचिकवादिन्-त्रि सर्वपदार्थानां कुर प्रतिपादक निशिष्ये बीते च कृषिवादिनः एका तक्षणिकान् पञ्च स्कन्धान् वदन्ति । सूत्र० । (१) कम्पणपुरस्सरं निराकरणम (२) कणिकत्वरूपणचडने । (३) क्षणिकवादिनामैहिकामुष्मिकव्यवहारानुपपत्तिरविमृ श्यकारित्वं च । (४) वासनाप्ररूपणम् । (५) सर्वथाविनाशाभावप्ररूपणम् । (६) वादे चोपपद्यते रूपणम् । (9) कणनङ्गवादे दीकायां वैफल्यप्ररूपणम् । (८) विराणामभ्यमिषं प्रति शिक्षणम् । (१०) सांप्रतं वीकमतं पूर्वपनितिकारोपन्यस्तमफलबादाधिकारमाविवाह पंच खंधे वयं तेगे याला जोइयो । पो असो बाहु, हेजयं च अहेजयं ॥ १७ ॥ एके केचन वादिनो बौद्धाः पञ्च स्कन्धान् वदन्ति । रूप-वेदनाविज्ञान-संज्ञा-संस्काराच्याः पयस्थाविद्यते नाक चिदात्माख्यः स्कन्धोऽस्तीत्येवं प्रतिपादयन्ति । तत्र रूपस्कन्धःपृथिवी धात्वादयो, रूपादयश्च ॥ १ ॥ सुखा दुःखा अदुःखसुखा चेति बेदना बेदनास्कम्पः ॥२॥ रूपविज्ञानं रसविज्ञानमित्या दिविज्ञानं विज्ञानस्कन्धः ॥ ३ ॥ संज्ञास्कन्धः -संज्ञानिमित्तोऽवग्रहणात्मकः प्रत्ययः || ४ || संस्कारस्कन्धः - पुण्यापुण्यादिधर्मसमुदायः इति ॥ ५ ॥ न चैतेभ्यो व्यतिरिक्तः कश्चिदात्माख्यः पदार्थों उच्यना च्यते तद्यभिचारिणादा नाप्यनुमानेन न च प्रत्यक्षानुमानव्यतिरियमर्थाऽविसंवादि प्रमाणान्तरमस्तीत्येवं बाला श्व बाला यथाऽवस्थितार्थापरिज्ञानात बौद्धाः प्रतिपादयन्ति । तथा ते स्कन्धाः कणयोगिनः परमनिकृष्टः कालः कणः, कणेन योगः संबन्धः क्षणयोगः, स विद्यते येषां ते क्षणयोगिनः क्षणमात्रावस्था यिन इत्यर्थः । तथा नियति-स्वकारणेयः पदार्थ उत्पद्यमान किनश्वरस्वभाव उत्पद्यतेऽविनश्वरस्वनावो वा ? | यद्यविनश्वरः ततस्तद्वयापिन्या क्रमयौगपद्याभ्यामर्थक्रियाया श्रभावात् पदा र्थस्यापि व्याप्यस्यानावः प्रसजति । तथाहि--यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थतः सदिति । स च नित्योऽर्थः क्रियायां मानवा योगदेन वा । न तावकमेश खणिश्रवाइ यतो होकस्याक्रियायाः काले तस्यापरार्थक्रियाकरणस्वभावो विद्यते वा नवा । यदि विद्यते किमिति क्रमकरणम् ? सहकापेयेति । तेन सहकारिणा तस्य दितियः कियते नायक पूर्वस्वभावपरयागेनात्यना यदि परित्यागेन, ततोऽतादवस्थ्या पत्तेरनित्यत्वम् । अथ पूर्वस्वभावापरित्यागेन, ततोऽतिशवाभावात्कि सहकार्यपेक्षया ? | अथापि विशिष्टकार्यार्थमपेक्षते । तदयुक्तम् । यतः "अपेक्षेत परं कश्चि यदि कुर्वीत किञ्चन। यदि कि वस्तु कि केनचिदश्यते ॥ १॥ अथ तस्यैकार्यकियाकरणकालेऽपरार्थक्रियाकरणस्वभावो न विद्यते । तथा च सति स्पष्टैव नित्यतादानिः । अथासौ नित्यो यौगपद्येनाऽर्थक्रियां कुर्यात्तथासति प्रथमकृण एवाऽशेषार्थक्रियाण करणात् द्वि 1 मायाम तथा सेवानित्यताय तस्य तत्स्वभावत्वाता एवार्थक्रिया नूयो भूयो द्वितीयादिकणेष्वपि कुर्यात् । तदसांप्रतम् । कृतस्य करणाभावादिति । किं ब-द्वितीयादिसणसाच्या अप्यर्थाः प्रथमकृण एवं प्राप्नुवन्ति तस्य तत्स्वभावत्वात् । अतस्तत्स्वभावत्वे च तस्यानित्यत्वापत्तिरिति । तदेवं नित्यस्य क्रमयौगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरहान्न स्वकारणेयो नित्यस्योत्पाद इति अथाऽनित्यः तथा च सति विघ्नाभावादायातमस्मदुक्तक्रमशेषपदार्थ जातस्य कलिका तथा चोक- "जातिर हि भावानां विनाशे हेतुरिष्यते । यो जातश्च न च ध्वस्तो, नश्येत्पश्चात्स केन च ?" ॥ १ ॥ ननु च सत्यप्यनित्यत्वे यस्य यदा विनाशहेतु सद्भावस्त स्य तदा बिनाशः । तथा च स्वविनाशकारणापेक्षाणामनित्यानामपि पदार्थ न कणिकायमित्येतच्चानुपासित गुरोर्वषः । तथाहि तेन मुद्रादिकेन विनाशन घटादेः किं. मंत्र प्रष्टव्यम् ? । अनावः क्रियते । श्रत्र च प्रव्यो देवानांप्रियःअजाव इति किं पर्युदासप्रतिषेधोऽयम् उत प्रसज्यप्रतिषेध इति ? | तत्र यदि पर्युदासस्ततोऽयमथों भावादयो भावो भावान्तरं घटपटादिः सोऽभाव इति। तब नायान्तरे यदि मुरादा न तर्हि तेन किञ्चिद् घटस्य कृतमिति । श्रथ प्रसज्यप्रतिषेधस्तदा यथार्थो विनाशदेतुरभावं करोति । किमुक्तं भवति:- जावं न करोतीति । ततश्च क्रियाप्रतिषेध एव कृतः स्यात् न च घटादेः पदार्थस्य मुद्रादिना करणम् । तस्य स्वकारणैरेव कृतत्वात् । श्रय भावाजावोऽभावस्तं करोतीति, तस्य तुच्छस्य नीरूपत्वात् कुतस्तत्र कारणानां व्यापारोऽथ तत्रापि कारणव्यापाङ्गादावपि न्याप्रियेरन् कारणानीति विनाशहेतोरस्करस्यात् स्वहेतुत एवानित्यताकोमीकतानां पदार्थानामुत्पत्तेर्विघ्नहेतोश्चाजावात् कणिकत्वमवस्थितमिति ः पूर्वादिम्योऽस्य व्यतिरेकादशंकासमेव 1 पादर्शयति (इति) से हि यथात्मानः सांस्यादयो भूतव्यतिरिकमात्मानमच्युपगतवन्तः । यथा चार्वाका भूताऽव्यतिरिक्तं चैतन्याख्यमात्मानमिष्टवन्तस्तथा नैवार्नैवोक्तवन्तः । तथा हेतुभ्यो जातो हेतुकः, कायाकारपरिणतभूत निष्यादित इति यावत् तथाहेतुको नापतित्यानित्यमानं बोद्धा नाभ्युपगम् इति ॥१७॥ (सूत्र०) यदि पञ्चस्कन्धव्यतिरिक्तादात्म पदार्थो न विद्यते ततस्तदभावात्सुखदुःखादिकं कोऽनुभवती स्वादिगाथा प्राग्वयास्येयेति । तदेवमात्मनोऽभावाच संविदितः सुखदुःखानुभवः स कस्य भवत्विति चिन्त्यताम् । Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०५) खणिप्रवाई अभिधानराजेन्डः। खणिप्रवाई कानस्कन्धस्यायमनुभव इति चेत् ।न। तस्यापि क्षणिकत्वात्। ज्ञा- श्राम्यतीति प्रतिबन्धमिद्धिः । उत्तरम् ) अत्राचदमहे-ननु तणमक्षणस्य चातिसूक्ष्मत्वात्सुखदुःखानुनवानावः। क्रियाफलवतोश्व भिदेलिमभावानिधायिनितुणा कारणाग्राहिणः,कार्यग्राहिणः,तद् कणयोरस्यन्तासनतेः कृतनाशाकृताभ्यागमाऽऽपत्तिरिति ज्ञानस- द्वयग्राहिणो वा प्रत्यक्कादर्थक्रियाकारित्वप्रनीतिः प्रोच्येत, यत. न्तान एकोऽस्तीति । तस्यापि सन्तानिव्यतिरिक्तस्यानावात स्तच शब्दादौ धर्मिणि प्रत्यकप्रमाणप्रतीनमेवेन्युक्तं युक्त यत्किञ्चिदेतत् । पूर्नकण एवं उत्तरकणे वासनामाधाय विना स्यात् । न तावपारमत्यात. नस्य कारणमात्रमन्त्रणपरायक्ष्यतीति चेत् । तथाचोक्तम्-" यस्मिन्नेव हि सन्ताने, श्राहिता णत्धेन कार्यकिंवदन्तीकुण्ठत्वात् । नापि द्वितीयात, तस्य कर्मवासना । फलं तत्रैव संधत्ते, कार्यासे रक्तता यथा"३१। अत्रा- कार्यमात्रपरिदविदग्धवेन कारणावधारणवन्ध्यत्वात् । पादं विकरप्यते-सा वासना किंक्षणेभ्यो व्यतिरिक्ता, अव्यति- तदुभयावनासे चेदमस्य कारणं. कार्य चेत्यर्थक्रियाकारिक्ता वा? यदि व्यतिरिक्ता,वासकत्वानुपपत्तिः। अथाव्यतिरि- रित्वावसायोत्पादात । वस्तुस्वरूपमेव कारणत्वं , कार्यत्वं का कणवरवणकयित्वं तस्याः। तदेवमात्माभावे सुखदुःखानुभ- चेति तदन्यतरपरिछेदेऽपि नबुझिसिद्धिरिति चेत, पवं तर्हि घानावः स्यादस्ति च सुखदुःखानुभवोऽतोऽस्त्यात्मेति । अ- नाबिकरी पवासिनोऽपि वह्निदर्शनादेव तत्र धूमजनकत्वनिन्यथा पञ्चविषयानुभवोत्तरकालभिन्छियज्ञानानां स्वविषया- श्चयस्य, धूमदर्शनादेव वह्निजन्यत्वनिश्चयस्य च प्रसङ्गः । नापि दन्यत्राप्रवृत्तेः सकलनाप्रत्ययो न स्यात् । श्रालयविज्ञानाद्भ- तृतीयात् , कार्यकारणोभयाग्राहिणः प्रत्यवस्थासंभवात, तेस्य विष्यतीति चेत् । श्रात्मैव तर्हि संझाऽन्तरेणाभ्युपगत इति । क्षणमात्रजीवित्वात, अन्यथाऽनेनैव हेतोयभिचारात्। तदुजयतथा बौद्धागमोप्यात्मप्रतिपादकोऽस्ति । स चायम्-" इत सामर्थ्यसमुद्तविकल्पप्रसादात् तदवसाय इति चेतर्हि कथं एकनवतेः कल्पे, शक्त्या में पुरुषो हतः । तेन कर्मविपाकेन, प्रत्यक्षेण तत्प्रतीतिः। प्रत्यकव्यापारपरामर्शित्वाद्विकल्पस्य तद्वापादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः"॥१॥ तथा--" कृतानि कर्मा रेण प्रत्यक्षमेव तलक्षकमिति चेत् । ननु न कार्यकारणग्राहिणोररणयतिदारुणानि, तनूनवन्त्यात्मनिगई गेन । प्रकाशनात्संवर न्यतरेणापि प्रत्यकेण प्राक्कार्यकारणभावो भासयामासे, सत्कथं णाच तेषा-मत्यन्तमूलोफरणं वदामि"॥१॥ इत्येवमादि। सूत्र० बिकल्पेन तद्व्यापारः परामृश्येत्, इति न कणिकवादिनः कापि १६०१ अ० उ०। अर्थक्रियाप्रतीतिरस्तीतिपाद्यसिर्फ सत्वम्। संदिग्धानकान्तिकं च,कणिका उताण के कणिकान्तविपके क्रमाक्रमव्यापकानुपक्ष(२) शौछोदनिशिघ्यः समाचप्ले म्नस्यासिद्धत्वेन तद्याप्तार्थक्रियायास्ततो व्यावृत्त्यनिर्णयात्। यअहो! कष्टः शिरैरुपक्रान्तोऽयमेकस्यानेककालावस्थितिवादः। त:-किश्चित्कृत्वाऽन्यस्य करणं हि क्रमः। अयं च कलशस्य कयतः-प्रतिक्षणभइरभावावभासनायामेव हि प्रमाणमुडा सा- थञ्चिदेकरूपस्यैव क्रमवत् सहकारिकारणकलापापढीकनवशेकिणी । तथाहि-यत्सत्तक्षणिक, संश्च विवादाध्यासितः शब्दा- न क्रमेण घटचेटिकामस्तकोपरि पर्यटनात् तासां क्लमं कुर्वतः दिः सत्वं तावद्यत्किञ्चिदन्यत्रास्तु, प्रस्तुते तावदर्थक्रियाकारि सुप्रतीत एव । अत्र हि जवानत्यन्ततार्किकमन्योऽप्येतदेव वक्तुं त्वमेव मे संमतं,तच शब्दादौ धम्मिणि प्रत्यकप्रमाणप्रतीतमेव। शक्कोति, यस्मादकेपक्रियाधर्मणः समर्थस्वभावादेकं कार्यमु. विपक्काच व्यापकानुपलब्ध्या व्यावृत्तम । सत्वस्य हि कणिक दपादिस एव चेत्पूर्वमप्यस्ति, तदा तत्कालवत्तदैव तद्विदधानः त्ववकमाक्रमावपि व्यापकाचेव । न हि क्रमाक्रमाभ्यामन्यःप्र कथं वार्यताम? "कार्याणि हि विलम्बन्ते,कारणासन्निधानतः। कारः शङ्कितुमपि शक्यते, व्याघातस्योद्भटत्वात, न क्रम इ समर्थहेतुमद्भावे,केपस्तेणं नु किं कृतः?" |१॥ इति । नचैतदव. ति निषेधादेवाक्रमोपगमात्, नाक्रम प्रति निषेधादेव च क्रमोपगमात् । तौ च क्रमाक्रमा स्थिराद्याधर्तमानावर्थक्रियाम दातम्।एकान्तेनाकेपक्रियाधर्मत्वानभ्युपगमात व्यरूपशक्य. पेकया हि तत्समर्थमनिधीयते, पर्यायशक्त्यपेक्कया त्वसमर्थमि. पि ततो व्यावर्तयतः। वर्तमानार्धक्रियाकरणकाले ह्यतीतानागतयोरप्यर्थक्रिययोः समर्थत्वे तयोरपि करणप्रसङ्गः। असम ति। यदेव हि कुशुसमूत्रावलम्बि वीजद्रव्यम्, तदेवावनिवनपत्र. नाऽऽतपसमर्पितातिशयविशेषस्वरूपपर्यायशक्तिसमन्वितमाकुर थत्ये पूर्वापरकालयोरप्यकरणाऽऽपत्तिः। समर्थोऽप्यपेक्षपणीया. करोति। नन्यसौ पर्यायशक्तिः कालमूलावस्थानावस्थायामविसन्निधेन करोति, तत्सन्निधेस्तु करोतीति चेत् । ननु किमर्थ द्यमामा केप्रकितिपक्कण तु संपद्यमाना बीजद्रव्यादिभिन्ना वा सहकारिणामपेक्षा?, किं स्वरूपवाभार्थम्, तोपकारार्थम्, अ. स्यात् अभिन्ना वा,भिन्नाभिन्नावा? यदा भिन्ना,तदा किमनया थकार्यार्थम् । न प्रथमः, स्वरूपस्य करणाधीनस्य नित्यस्य घा काणनेत्राञ्जनरेखाप्रख्यया? विन्निन्नाः सन्निधिभाजः संवेदनकोपूर्वसिद्धत्वात् । न द्वितीयः, स्वयं सामर्थे ऽसामर्ये वा तस्या टीमुपागताः सहकारिण एवासताम् । अथ सहकारिणः कमपि नुपयोगात् । तथा च-"नावः स्वतः समर्थश्च-दुपकारः कि- बीजस्यानिशेषविशेषमपोषयन्तः कथं सहकारितामपि प्राप्नुमर्थकः । नावः स्वतोऽसमर्थश्चे-दुपकारः किमर्थकः?" ॥२॥ अत युः?, इति चत, तर्हि अतिशयोऽप्यनिशयान्तरमनारचयन् कथं एव न तृतीयः । उपकारवत्सहकारिणामप्यनुपयोगात् । तथा तत्तां प्राप्नुयात् । अथायमारचयति तदन्तरं, तर्हि समुपस्थितच-"नावः स्वतः समर्थश्चेत्, पर्याप्तं सहकारिभिः । नावः मभवस्थादीस्थ्यम । अथानिन्नानावात् पर्यायशक्तिः, तर्हि तत्स्वतोऽसमर्थश्चत, पर्याप्तं सहकारिभिः "॥९॥ अनेकाधीन. करणे स एव कृत इति कथं न कारणकत्वम? भिन्नानिन्नपर्यायस्वभावतया कार्यमेव तानपकत इति चेत् । न । तस्यास्वतन्त्र- शक्तिपकायश क्षणिकत्वमनपयन् न कुशलीति । अत्र ब्रमःस्वात्, स्वातव्ये या कार्यत्वव्याघातात, तस्तित्झाकल्येऽपि पषु चरम पर पक्कः कक्षीक्रियते । नचाच कलङ्कः कश्चिदु, ७. स्वातमयादेव न भवदिति। एवं च यत्क्रमाक्रमाभ्यामक्रियाकारि व्यांशद्वारेणाकणिके वस्तुनि पर्यायांशहारेण क्वणिकत्योपगमा. नजवति तदसत,यथा गगनेन्दीवरं तया चाकाणकाजिमतोना- त कणिकैकान्तस्यैव कुट्टयितुमुपक्रान्तत्वात् । वणिकपर्यायेव इति व्यापकानुपलब्धिरु तिष्ठते । तथा च-क्रमयोगपद्ययो- ज्योऽव्यतिरेकात वणिकमेव व्यं प्राप्नोतीति चेत् ।। पिकयोावृत्तरकगिकाद व्यावतमानार्धक्रिया क्षणिक वि. व्यतिरेकस्यापि संभवात् । न च व्यतिरकाऽव्यातरकविकस्थ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०६) खणिवाइ अग्निधानराजेन्द्रः । खणिप्रवाई विरुध्येते । न दि नमः प्रयोगाप्रयोगमात्रेण विरोधगतिः, | भावात् पृथग्नूतो नाशो नाशहेतुभ्यः स्यात्, अपृथग्भूतोवा। अतिप्रसङ्गात। यद्यपृथराभूतस्तदा भाव एव ततुतिः कृतः स्यात् , तस्य च "दसति हृदयं गाढोद्वेगं द्विधा न तु भिद्यते, स्वहेतोरेवोत्पत्तेः कृतस्य करणायोगात् तदेव तकेतुवैयर्थ्यम् । वहति विकलः कायो मोहं न मुञ्चति चेतनाम् । अथपृथग्भूतोऽसौ, तदानावसमकालभावी, तदुत्तरकालभावी ज्वलयति तनूमन्तहः करोति न भस्मसात्, वा स्यात् । तत्र समकालभावित्वे निर्भरप्रतिवन्धवन्धुरबान्धवप्रहरति विधिर्ममच्छेद। न कृन्तति जीवितम्" ॥१॥ योरिव भावाजावयोः समकालमेवोपत्नम्भो भवेत् अविरोधात्। इत्यादिष्वपि तत्प्राप्तः। न च स्थिरभावस्थापि येनैव रूपेण तत्रुत्तरकालभावित्वे तु घटादेः किमायातं ?, येनासौ स्वोपल म्भ स्वार्थक्रियां च न कुर्यात् । न हि तन्वादेः समुत्पन्ने पटे व्यतिरेक, तेनैवाव्यतिरेकं व्याकुर्महे । व्यमेतत्, पते च घटः स्वोपलम्भं स्वार्थक्रियां च कुर्वन् केनचित्प्रतिषेधुं शक्यः । पर्याया इतिरूपेण हि व्यतिरेकः, वस्वेतदितिरूपेण स्वव्य ननु पटस्याविरोधित्वान तदुत्पत्तौ तभावः,अभावस्य तु तद्वितिरेकः । एकमेव च विज्ञानकणं सविकल्पाविकल्पकं, भ्रा पर्ययावसौ स्यात् । ननु किमिदमस्य विरोधित्वं नाम ? | नाशताधान्त, कार्य कारणं चायं स्वयमेव स्वीकरोति, भेदानेदे तु करवं, नाशस्वरूपत्वं वा। नाशकत्वं चेत्, तहि मदरादिवसाशोविरोधप्रतिरोधमनिदधातीति महासाहसिकः, इति कणिका त्पादद्वारेणानेन घटादिरुन्मूलनीयः, तथा च तत्रापिनाशेऽयमेव कणिकेऽपि क्रमाक्रमाज्यामर्थक्रियायाः संजवात् सिद्धं सं पर्यनुयोग इत्यनवस्था। नाशस्वरूपत्वं चेतानन्वेवमर्थान्तरत्वाधिदिग्धानकान्तिकं सत्त्वम् । कणिकैकान्ते ताभ्यामर्थक्रियाया शेषात कथं कूटस्यैवासौ स्यादः, अन्यस्यापि कस्मारोच्यते। अनुपपत्तर्विरुकं वा । तथाहि-क्रमस्तावत् द्वेधा, देशक्रमः, का तत्संबधित्वेन करणादिति चेत,कः संबन्धः। कार्यकारणभासक्रमश्च । तत्र देशकमो यथा-तरलतरतरकपरम्परोत्तरणरम- वा,संयोगः,विशेषणीभावः, अविष्वम्भावोवान प्राच्यः पकः, णीय श्रेणीभूतश्वतच्छदमिथुनानाम् । कालक्रमस्त्वेकस्मिन्कलशे मुझरादिकार्यत्वेन तदभ्युपगमातान द्वितीयः,तस्याद्रव्यत्वात्, कुक्रमेण मधुमधूकयाधूकशम्बूकादीनां धारणक्रियां कुर्वाणे।क टादिसमकालतापत्तेश्च। नतृतीयः, भूतमादिविशेषणतया तत्कनिकैकान्ते तुइयोरप्येतयोरभाव एव । येन हि वस्तुना कचिद्देशे, कीकारात्। तुरीये त्वविष्वग्नावःसर्वथा भेदः, कथशिव भेदो पा काले वा किञ्चित्कार्यमर्जयामासे, तत्तत्रैव, तदानीमेव च निर-1 भवेत्। नायः पक्कः,पृथग्भूतत्वेनास्य ककाकारात्। न द्वितीया, स्वयमनश्यत, ततो देशान्तरकालान्तरानुसरणव्यसनशालिनः | विरोधावरोधात्।इति नाशहतोरयोगतःसिक वस्तूनां तं प्रत्यनकस्याप्येकस्शसंभवात् नाम कणिकैकान्ते क्रमोऽस्तु ? ना- पेक्षत्वमिति । तदेतदेतस्य समस्तमुत्पादेऽपि समानं पश्यतः प्यत्र यौगपद्यमनवद्यम् । यतः कणिकानंशखरूपं रूपं युगपदेव | प्रध्वंस एव पर्यनुयुजानस्य लुप्तैकलोचनतामाविकरोति । स्वकार्याणि कार्याणि कुर्वाणं येनैव स्वभावेन स्वोपादेयं रूप तथादि-उत्पाद हेतुरपि सत्स्वभावस्य, असत्स्वभावस्य था प्रामुत्पादयति तेनैव कानकणमापि, यद्वायेनैव शानक्षणं तेनैव वस्योत्पादकः स्यात् । न सवस्वभावस्य, तस्य कृतोपस्थायितारूपक्कणमपि, स्वन्नावान्तरेण वा प्राचिपके ज्ञानस्य रूपस्वरूप प्रसङ्गात् । नाप्य सत्स्वभावस्य, स्वभावस्यान्यथाकर्तुमशक्के, त्वापत्तिः। रूपोत्पादकैकस्वनाधाग्निनिर्वय॑त्वात्, रूपस्वरूपव- अभ्युपगमविरोधाच । न ह्यसत्स्वभावजन्योत्पादकत्वामिष्यते त। द्वितीये, रूपस्य ज्ञानरूपतापत्तिः, कानोत्पादनकस्वभा त्वया । अथाऽनुत्पन्नस्यासत्वादुत्पन्नस्य सतस्वभावत्वानों वसंपाचत्वात, शानस्वरूपवत् । तृतीये रूपकणस्य कणि- विकल्पयुगलोपन्यासपरिश्रम इति चेत् । नैवम । नष्टेतरविककानंशस्वरूपस्यापत्तिः, स्वजावनेदस्य दकस्य सद्भावा- ल्पापेक्षयाऽस्य नाशेऽपि तुल्यत्वात्। तथा च "भायो नवतस्य. त्। अथानंशकस्वरूपमपि रूपं सामनीनेदाद्भिन्नकार्यकारि भावत, कृतमुत्पादतुभिः। प्रथाजवत्स्वभावोऽसी, कृतम्अविष्यति को दोष इति चेत, तहिं नित्यैकरूपोऽपि पदार्य- त्पाददेतुभिः" ॥१॥ तथाऽयमुत्पद्यमानाद् व्यतिरिक्तः,अव्यतिरिस्तत्तत्सामग्रीभेदात्तत्तत्कार्यकर्ता भविष्यतीति कथं क्षणिकै को बा । तत्र जन्याव्यतिरिक्तोत्पादजनकत्वेन जन्यस्योत्पादः, कान्तसिभिः स्यात् । ततो न कणिकान्ते क्रमयोगपद्याभ्याम- जन्याद् व्यतिरिक्तत्वेनोत्पादस्य कस्यचिदयोगात् । न दि थक्रियासंत्रवतीति सिर्फ विरुकं सत्त्वमिति ॥ यदण्याचकते कथञ्चित भिन्नमुत्पादमन्तरेण तदेवोत्पद्यत इत्यपि वक्तुं शक्यते, भिक्रवः कणकयेकाम्तप्रसाधनाय प्रमाणम्-ये यद्भाव प्रत्यनपे किंतु वस्त्विदमित्येव वक्तुं शक्यम् । न च तथा तदुत्पादः फक्षाः ते तदापनियता,यथा अन्त्या कारणसामग्री स्वकार्यजनने, थितः स्यात् । उत्पचमानाद् व्यतिरिक्तोत्पादजनकतायां न विनाशं प्रत्यनपेक्षाच भावा इति । तत्र विनाशं प्रत्यनपेकत्वमा तस्योत्पादः,तवदन्यस्यापि वा कथमसौ न भवेत् । तस्यैव सं. सिद्धतावष्टब्धमेव नोसितुमपि शक्रोतीति कथं वस्तूनां वि. बन्धिनस्तस्य करणादिति चेत् तदप्यवद्यम्। उत्पादेनापि साकं नाशयत्यसिको सावधानतां दध्यात् । तथाहि-तरस्थिपुरुष- कार्यकारणभावादेस्त्वन्मतेन संबन्धस्यासंभवात् । तस्मान्नेय. प्रेरितप्रचण्डमुझरसंपर्कात् कुम्भादयोध्वंसमानाः समीच्यन्ते । मीरविकल्पपरिकल्पजल्पाकता परिशीलनीया । इदं पुनरिन त्वेतत्साधनसिद्धिवरककेष्वस्मासु सत्सु कथमसिकताs- हैदंपर्यम् । यथा-दएडचक्रचीवरादिकारणकलापसहकृतात मृ. निधातुं शक्या?। तथाहि-वेगवन्मुझरादि शहेतुर्नश्वरं वाजायं स्नालकणोपादानकारणात कुम्भ उत्पद्यते, तथा वेगवदनाशयति, अनश्वरं वा । तत्रानश्वरस्य नाशहेतुशतोपनिपातेऽपि मुझरसहकृतात् तस्मादेव विनश्यत्यपि। नचैकान्तेन विनाशः नाशानुपपत्तिः, स्वभावस्य गीर्वाणप्रणाऽप्यन्यथाकर्तुमशक्य- कलशाद्भिन्न एव, मृतकणैकद्रव्यतादात्म्यात् । विरोधित्वं चा. त्वात् । नश्वरस्य च नाशे तकेतूनां वैयर्थ्यम् । न हि स्वहेतुभ्य ऽस्य विनाशरूपत्वमेव । न चैवं घटवत् पटस्यापि तदापतिः,मृ. एवावाप्तस्वभावे भावे भावान्तरव्यापारः फलवान्, तदनुपरति- वव्यतादात्म्यैनवावस्थानापुत्पादवत् । न च पर्वथा तादात्म्यं, प्रसक्तः । उक्तं च-"भावो हि नश्वरात्मा चेत्, कृतं प्रलयहे. तदन्यतरस्यासत्त्वापत्तेः। न चैवमत्र विरोधावरोधः, चित्रैकहातुनिः। अचाप्यनश्वरात्माऽसी, कृतं प्रलयहेतुभिः"॥१॥ अपि च नवदन्यथोत्पादेऽपि तदापत्तेः। इत्यसिर्फ विनाशं प्रत्यनपेकत्वम | Jain Education Interational Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०७) खणिप्रवाई अभिधानराजेन्द्रः। खणिप्रवाइ नाम् । अतः कथं कणन्निलिमभावस्वभावसिद्धिः स्यात् । अनवस्था। तैः सह करोतीत्यादिपकोऽपि नाकूणः, स्वभावस्य एवं च सिर्फ पूर्वापरपरिणामव्यापकमूर्द्धतासामान्यस्वभावं तादवस्थ्यात्। न बस्य सहकारिव्यावृत्तौ स्वजाचव्यावृत्तिरिति समस्तं वस्त्विति ॥५॥अथ विशेषस्य प्रकारौ प्रकाशयन्ति- तैर्विनाऽपि कुर्यात् । ननु यत एवं सहकारिव्यावृत्तावस्य स्वभावो विशेषोऽपि विरूपो, गुणः, पर्यायश्चेति ॥ ६॥ न व्यावर्तते, अत एव तैर्षिनाऽपि न करोति । कुर्वाणो हि तैः सदैव करोतीति स्वभावं जह्यात्। स तर्हि स्वनावभेदः सहका. सर्वेषां विशेषणां वाचकोऽपि पर्यायशम्दो गुणशब्दस्य सह रिसाहित्ये सति कार्यकरणनियतः सहकारिणो न जगात्, प्रत्युपर्तिविशेषवाचिनः सन्निधानेन क्रमवत्तिविशेषवाची गोवली त पनायमानानपि गले पादिकयोपस्थापयेद्, अन्यथा स्वभावचर्दन्यायादत्र गृह्यते ॥६॥ हानिप्रसङ्गात् । अत एव न तृतीयोऽपि। कर्तृस्वभावापरावृत्तः। तत्र गुणं लक्कयन्ति मथ तद्विरहाकर्तृस्वभावः, तर्हि कालान्तरेऽपिस्वहेतुवशादुपगुणः सहभावी धर्मों यथाऽऽत्मान विज्ञानव्यक्तिश-| सर्पतोऽपि सहकारिणः पराणुध न कुर्यात्, सद्विरहाकतशीक्त्यादिरिति ॥ ७॥ लः खल्वयमिति । तुरीयभेदे विरूधर्माध्यासः, यः खलु स. सहजावित्वमत्र लक्षणम् । यथेत्यादिकमुदाहरणम् । विज्ञान हकारिसहितः, स कथं तद्विरहितः स्यात् , तथा च भावव्यक्तियत्किञ्चिकानं तदानीं विद्यमानमा विज्ञानशक्तिरुत्तरका दो भवेत्। प्रथायं कालभेदेन सुपरिहर एव; अन्यदा हि स. हकारिसाकल्यम, अन्यदा च तवैकल्यमिति । तदसत् । ध. नपरिणामयोग्यता । मादिशब्दात सुखपरिस्पन्दयौवनादयो म्मिणोऽनतिरेकात् । कासनेदेऽपि ोक पव धर्मी स्वीचके। गृह्यन्ते। पर्यायं प्रापयन्ति तथा चास्य कथं तत्साकल्यवैकल्ये स्याताम् ?, सत्वे वा सि खो धमिभेदः । अथ सहकारिसाकल्यं, तवैकल्यं च धर्मः । पर्यायस्तु क्रममावी, यथा तत्रैव सुखदुःखादिरिति ॥८॥ न च धर्मानेदेऽपि धम्मिणः किञ्चित्, ततो निन्नत्वासेपामिति धर्म इत्यनुवर्तनीयम् । क्रमभावित्वमिह लक्षणम्। परिशिष्टं चेत् । अस्तु तावदेकान्तजिनधर्मधम्मिवादापवाद एव पृष्टः तु निदर्शनम् । तत्रेत्यात्मनि । आदिशम्देन हर्षविषादादीनामुषा. परीहारः । तत्वेऽपि न साकल्यमेव कार्यमर्जयति, किंतु सोदानम् । अयमर्थ:-ये सहभाविनः सुखज्ञानवीर्यपरिस्पन्दयो- ऽपि पदार्थः । तथा च तस्य भावस्य यारशश्वरमकणेऽके. बनादयः, ते गुणाः, ये तु क्रमवृत्तयः सुखपुःखहर्षविषादादयः, पक्रियाधर्मस्वभावः, तारश एव वेत्प्रथमकणेऽपि, तदा तदेवाते पर्यायाः। नन्वेवं त पच गुणास्त एव पर्याया इति कथं तेषां सौ प्रसह्य कुर्वाणो गीर्वाणशापेनापि नापहस्तयितुं शक्यः । नेदः, इति चेत् । मैवम । कालाभेदविनेदविवकया तद्भेदस्या- यथा हि विरुधर्माभ्यासेन नेदप्रजापरिहाराय साकल्यवैकनुनूयमानत्वात् । न चैवमेषां सर्वथा नेद इत्यपि मन्तब्यम; कल्याणौ धम्मौ भिन्नखभावी परिकल्पिती तौ,तथा नसोऽकथञ्चिद्भवस्याप्यविरोधात् । न खस्वेषां स्तम्भकुम्भादिवझेदः, प्योपक्रियाधर्मस्वजावो भावाद्भिन्न एवाभिधातुं शक्यः, भा. नापि स्वरूपवद् भेदः, किंतु धयंपेकयाऽनेदः, स्वरूपापेकवा | वस्याकर्तृत्वप्रसकात । ततः सिदो विरुधर्माध्यासः। एवं च तु नेदः शति ॥अद्युतदाकार्य योगाः शालूककएटकाक्रान्तमर्माण यविरुरूधर्माभ्यस्तं, तमि,यथा शीतोष्णे, विरुधर्माभ्यस्तश्वोत्सवम्ते-यदि धम्यपेकया धर्मिणो धर्मा अभिन्ना भवेयुस्तदा | व विवादास्पदीनूनो भाव शति न नित्यैकान्तासहिः । एवं तत्तस्यापि भेदापत्तेः प्रत्यभिज्ञाप्रतिपत्रैकत्वम्याहतिरिति । त-| चोपस्थितमिदं नित्यानित्यात्मकं वस्तु, सत्पादव्ययध्रौव्यात्मसावितथम् । कञ्चित्तळेवस्थाष्टित्वात्, प्रत्यभिज्ञायाश्च कथ- कत्वान्यथाऽनुपपत्तरिति । तथाहि-सर्व वस्तु द्रव्यात्मना नोश्चिदेकत्वगोचरत्वेनावधानात्, नित्यैकान्तस्य प्रमाणमित्वा-| स्पद्यते वा, विपद्यते वा परिस्फुटमन्वयदर्शनात् ।लूनपुनर्जातनत् । तथाहि-यासौ नित्यकस्वरूपः पदार्थो वर्तमानार्थक्रियाक- खादिम्वन्धयदर्शनेन व्यभिचार इति न वाच्यम, प्रमाणेन वारणकालवत् पूर्वापरकासयोरपि समर्थः स्यात, तदा तदानीमपि ध्यमानस्याम्बयस्यापरिस्फुटत्वात्। न च प्रस्तुतोऽन्वयः प्रमाणतरिक्रयाकरणप्रसनः । अथासमर्थः पूर्व पश्चावाऽयं स्यात, तदा विरुद्ध सत्यप्रत्यभिज्ञानसिद्धत्वात् । ततो व्यारमना स्थितितदानीमिव वर्तमानकालेऽपि तत्करणं कथं स्यात् ।। अथ | रेव सर्वस्य वस्तुनः। पर्यायात्मना तु सर्व वस्तूत्पद्यते, विपद्यते समर्थोऽप्ययमपेक्षणीयासंनिधेर्न करोति, तत्संनिधौ तु करोती- च। अस्खलितपर्यायानुन्नवसद्भावात् । न चैवं शुक्के शो पीति चेत्। ननु केयमपेका नाम:, किं तैरुपकृतः करोतीत्युपकारने- तादिपर्यायानुभवेन व्यभिचारः, तस्य स्खलवूपत्वात । न खत्रु दः, किंवा तैः सह करोतीत्यन्वयर्यवसाय) स्वभावदः, सोऽस्खलपो येन पूर्वाकारविनाशाजहवृत्तोत्तराकारोत्पादाअथ तैविना न करोतीति व्यतिरेकनिष्ठं स्वरूपं, यहा-सहका- विनाजावी भवेत् । नच जीवादी वस्तुनि हर्षामयाँदासीन्यादिरिषु सत्सु करोति,तद्विरहे तु न करोतीति तद्वयावलम्बिवस्तु- पर्यायपरंपरानुभवः स्खलपः,कस्यचिद्वाधकस्याभावात्। ननरूपम । तत्र प्राच्या प्रकारस्तावदसारः,अनवस्थाराक्कसीकटा- त्पादादयः परस्परं भिद्यन्ते,नवा?। यदि भिद्यन्ते,कथमेकं वस्तु कितत्वात् । तथाहि-उपकारेऽपि कर्तव्ये सहकार्यन्तरमपेकणी- यात्मकम?। न मिद्यन्ते चेत् तथापि कथमेकं वस्तु यात्मकम्। यम, उपकरणीयं च तेनापीत्युपकारपरम्परा समापततीत्यनव- तथा च-" यद्युत्पत्यादयो निनाः, कथमेकं त्रयात्मकम ?। अ. स्था। तथाऽमी उपकारमारभमाणा भावस्वजावनूतम,अतत्स्व- थोत्पत्त्यादयोऽभिन्नाः, कथमेकं त्रयात्मकम्" ? ॥१॥ इति चेत् । जावं वाऽऽरभेरन् । स्वजावनूतोपकारारम्भनेदे भावस्याप्यु- तदयुक्तम् । कथञ्चिद्भिन्नलकणत्वेन तेषां कथाश्चिद्भेदाभ्युपगत्पत्तिरापतति । न ह्यनुत्पद्यमानस्योत्पद्यमानः स्वजावो भवति, मात् । तथाहि-उत्पादविनाशधौव्याणि स्याद्भिन्नानि,जिन्नसकविरुद्धधर्माऽभ्यासात् । द्वितीयपकेतु धर्मिणः किमायातमान णत्वात, रूपादिवत् । न च भिनलक्षणत्वमसिरूम् । असतः बन्यस्मिन् जाते विनष्टे वाऽन्यस्य किश्चिद्भवति, अतिप्रसङ्गात्, आत्मलाभः, सतः सत्तावियोगः, व्यरूपतयाऽनुवत्तेन च अथ तेनाऽपि तस्य किश्चिपकारान्तरमारचनीयमित्येषाऽपरा। खत्पादादीनां परस्परमसंकीर्णानि लक्षणानि सकललो Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1905) अभिधानराजेन्द्रः । खमिवाइ कसाक्षिकाण्येव । न चाऽमी निम्नलकणा श्रपि परस्परानपेाः पश्वापतेः तथाहि उत्पादना स्ति, स्थितिविगमराईतत्वात्कमेरोमवत् । तथा-विनाशः केवल नास्ति स्थित्युत्पत्तिरहितत्वाद तइन्। एवं स्थितिः केवल नास्ति विनाशादयः इत्यन्योन्या पाणामुपादानां वस्तु प्रतियम तथा च कथं नैकं व्यात्मकम् ? । किं च, अपरमज्यधीष्महि पञ्चाशति"प्रयस्कांचा मी समुपादि पुत्रः प्रीतिमुवाह कामपि नृपः शिश्राय मध्यस्थताम् । पूर्वाकारपरिकयस्तदपराकारोदयस्तद्वया धारयैक इति स्थितं त्रयमयं तत्त्वं तथाप्रत्ययात् ॥ १ ॥ तथा च स्थितं नित्यानित्याने कान्तः कान्त एवेति । एवं सदसदनेकान्तोऽपि । नन्वत्र विरोधः । कथमेकमेव कुम्भादि वस्तु सच, श्र सच्च जवति ?। सवं हासत्त्वपरिहारेण व्यवस्थितम् असत्वमपि सत्वपरिहारेण; अन्यथा तयोरविशेषः स्यात् । ततश्च त द्यदि सत् कथमसत् ?, यासत् कथं सदिति ? । तदनवदा ततो यदि प्रकरण वासवं नेवा वसमत तदा स्याद्विरोधः यदा तु पादिस्वरूयेण हिरण्मयादित्वेन स्व नासापर तन्तुत्यग्राम्पत्यत्रैष्मिकत्वादिनाऽसत्यं सदा विरो ये तु सांगताः परासवं नाभ्युपयन्ति तेषां घटादेः सर्वात्मकत्व प्रसङ्गः। तथाहि यया घटस्य स्वरूपादिना सत्यं तथा यदि पररूपादिनाऽपि रूपात् तथासति स्वरूपादिवत् पररूपादिव्यप्रसक्तेः कथं न सर्वात्मकत्वं भवेत् ? । परासत्त्वेन तु प्रतिनिय तोऽसौ सिद्ध्यति । श्रथ म नाम नास्ति परावं, किंतु स्थलस्वमेव तदिति । कर्कशः समु विधि झापा नादेवं यमांच्या जय यह तन्नाभ्युपगम्यते न च नान्युपगम्यत एवेति किमिदमि जालम् ? । ततश्चास्यानकरमसत्त्वमेवोक्तं भवति । एवं च यथा स्वासत्वासस्वात्स्वसत्वं तस्य, तथा परासत्त्वासत्त्वात्परसत्यप्र सरनिवारितसरा विशेषानावात् प्राप दार्थो भावरूपः, प्रतिनियतो वा भवति, अपि तु स्वसामग्रीतः स्वस्वभाव नियत एवोपजायते इति किं परासनेति चेत् ? न कि श्चित् । केवलं स्वसामग्रीतः स्वस्वनावनियतोत्पत्तिरेव परासवा तिर्थस्यासरवासश्वारम नेवासयासत्यात्मक परसत्येनात्पत्तिप्रसङ्गात्। योगास्तु प्रयत्भन्ते साधपरावाभ्युपगम मात्रेण पदार्थप्रतिनियमप्रसिद्धेः पर्याप्तं तेषामसत्वात्मककल्पना कदर्थनेनेति । तदसुन्दरम् । यतो यदा पदाद्यभावरूपी घटो न भवति, तदा घटः पटादिरेव स्यात् । यथा च घटस्य घटा जावात् निम्नत्वात् घटरूपता, तथा पढादेरपि स्यात् । घटाना वावादेव की भावनानां वा भिन्नाभावेन भेदः क्रियते ?| नायः पक्षः, स्वहेतुभ्य एव जिनानामेषामुपास्मो भावासंभवात् । भावानावयोश्च भेदः स्वत एव वा स्यात्, श्र भावान्तरेण वा प्राचिपतेस्तु कि परिकल्पना यान्तरेष्वप्यनावान्तरा भेदकानामवश्यस्वीकरण पत्या खणिश्रवाइ कथञ्चिदभि तु भावाभावेन दिलायाः वस्त्वेव हि तत्तथाः सदसद्शयोस्तया परिणतिरेव हि घटः पदोन ततः कथं परेशा मानं मइति समातवादः यमपरेऽपि भेदाभेदानेकान्तादयः स्वयं चतुर्विवेचन या रा०५ परि० । (३) अनादि मुकारानुपपन्नार्थसमर्थनमविमृश्यकारिताकारितं दर्शयन्नाह कृतमाशा कृतकर्मभोगजवममोस्मृतिङ्गदोषान् । उपेच्य साक्षात्कणभङ्गमिच्छनहो ! महासाहसिकः परस्ते ।। १८ ।। 1 प्रणाम भी प्रमोकमदोष स्मृतिभङ्गशेषमिन्येतान् साक्षादित्यनुवसिद्धान् क्यानात् सात्कुर्वपि गजनि लिकामवलम्यमानः सर्वभावानां क्षणभङ्गमुयानन्तरविनाशरूपक्षणतामिति प्रतिपी नायिका ( सीमत स्पर्थः) अहो! महासाहसिक सहसाऽवि मशत्मकेन बलेन वर्तते साहसिकः । भाविनमनर्थमविभाव्य यः प्रवर्तते स एवमुख्यते । महांवासी साहसिकश्च महासाह कोऽत्यन्तमनिमृश्य प्रवृत्तिकार ।। शंत मुकुचितार्थः । विवृतार्थस्व-बुद्धिपरम्परामात्रमेवात्मानमामननि मणिनिकरानुकथनमेतन्मते येन ज्ञानकणेन सदनुष्ठानमसदनुष्ठानं वा कृतं तस्य निरन्वयविनाशान तत्फलोपभोगः । यस्य च फलोपभोगस्तेन तत्कर्म न कृतम । इति प्राच्यज्ञानक्षणस्य कृतप्रणाशः स्वकृतस्य कर्मणः फलानुपनोगात्। उत्तरज्ञानकणस्य चाकृतकर्मभागः, स्वयमकृतस्य परकृतस्य कर्मणः फज़ोपनोगादिति । अत्र कर्मशब्द वजयत्रापि योज्यः । तेन कृतप्रणाश इत्यस्य कृतकर्मप्रगाश हत्या बन्यानुपम्यावेत्यमुपन्यासः तथा जयनदोषः भव भार्जवी नाव कणः संसारस्तस्य भङ्गो विलोपः स एव दोषः कणिकवादे प्रसज्यते । परलोकानावप्रसङ्ग इत्यर्थः । परलोकिनः परकोहि पूर्वजन्मम सारेण जयति । तच प्राचीनज्ञानकणानां निरन्वयं नाशात्केन नामोपयुज्यतां जन्मान्तरे । यच्च मोकाकरगुप्तेन "यांश्चत्तं तत्रितान्तरं प्रतिसंधते यथेदानीन्तनं चित्तं चित्तं च मरणकालनाविति भवपरंपरासि प्रमाणमुनव् नानां विशेष शांन्नियोगाद्व रस्थितयो प्रतिसन्धानमुभयानुगामिना केनचित् क्रियते य श्रानयोः प्रतिसन्धाता स तेन नान्युपगम्यते । स ह्यात्माअन्वयी । न च प्रतिसन्धते इत्यस्य जनयतीत्यर्थः कार्यहेतुप्रसङ्गात् तेन यादिनाऽस्य हेतो: स्वभावहेतुना। स्वभावहेतुश्च तादात्म्ये सति भवति । निम्नकाल भाविनोश्व चित्तान्ततस्तादात्म्यम् ? युगपद्भाविनो प्रति वन्वेदप्रतिसन्धायकत्वाभावापत्तिः युगपङ्गावि किमनियामक यदेकः प्रतिसायकोपर प्रतिसन्धेयतिस्तु या प्रतिसन्धानस्य जननयर्थः । काल हेतुफलनास्थालये व कणस्य चत्वा उत्तरचितणः कथमुपादानमन्तरेणोरद्यताम् ? इति । यत्किञ्चिदेतत् । तथा प्रमोक्षभङ्गदोषः। प्रकर्षे Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७०९ ) अभिधानराजेन् प्राप्नोति । स्वचिमवाइ दानवे कर्मयन्धान्मुक्ति प्रस्यापि सम्म तामेव नास्तिकः प्रेत्य सुभाि नक्कणोऽपि संसारी कथमपरज्ञान क्षण सुखीजवनाय घटिष्यते ?. न हि दुःखी देवदत्तो यशदत्तसुखाय चेष्टमानो दृष्टः । क्षणस्य तु दुःखं खरनाशित्वातेनैव साई दयसे । सन्तानस्तु न वास्तवः कश्चित् । वास्तवत्वे तु श्रात्माऽभ्युपगमः । अपि चबीका निखिलवानोविकारोपप्लवका नोत्यादो मोक इत्याहुः तश्च न घटते; कारणाभावादेव तदनुपपतेः । जावनाप्रधयो हि तस्य कारणमिव्यते । स च स्थिरेकाश्रयाभावाशेषानायक प्रतिपूर्व 1 विनाशी गगन लङ्घनाज्यासवदनासादितप्रकन स्फुटाजिज्ञानजननाय प्रयतस्यनुपपतिरेव सम भाविषयाः सशासनकेर सहशारम्भ सानु किं वै खरसपरिनि चणाः। श्रयमपूर्वी जात नसेको विद्यते। मोती काधिकरणनपते तत् कस् 1 अहमद तस्यैव घटते यो बकः । कणकयवादे त्वन्यः कृणो वरुणान्तरस्य च मुक्तिरिति मोक्कानावः प्राप्नोति । तथा स्मृतिदोषः तथाहि पूर्वानुभूतेऽबुद्धसं सन्तान प न्येन स्मर्यते । अन्यथा एकेन रष्टोऽर्थः सवैः स्मर्येत : स्मरणानाये की प्राथनिज्ञातिः, तस्याः रणन भयात् पदार्थस्रस्य हि प्रमा तुः स एवायमित्या अथ स्वाद दोषो यद्यविशेषेणान्परमन्यम पिका र्यकारणभावादेव स्मृति सन्तान कार्य कारणभाषी नास्ति तेन सन्तानान्तराणां स्मृति तिन वैकसान्तानिकीनामपि बुद्धीनां कार्यकारणतावी नास्ति, येन पूर्वबुद्धानुभूतेऽर्थे तदुत बुद्धीनां स्मृतिने स्यात् । तदप्यनवदातम् । एवमपि अन्यत्वस्य तदवस्यत्वात् । नहि कार्यका रणपिस यहि कार्यकारणभावादस्मृतिरित्य दृष्टान्तः । अथ-" यस्मिन्त्र हि सन्ताने, ग्राहिता कर्मवासना । पापांसे रकता यथा ॥१॥ कार ततोऽस्तीति भ तथाहि श्रन्वयाद्यसंभवान साधनम् । न हि कार्यकारणनावो यत्र तत्र स्मृतिः, कार्पासे रक्कतावदित्यन्वयः संभवति । नापि यत्र न स्मृतिस्तत्र न कार्यकारणभाव इति व्यतिरेकोऽस्ति | असिद्धत्वाद्भावनाच्च दूषणम्। न हि द स्वस्थ देतो। कार्पासे रक्तादित्यनेन प्रतिपद्यते। कि च यद्यन्यत्वेऽपि स्मृतिरि तदा शिष्याचार्यादिबुद्धीनामपि कार्यकारणभावसद्भावेन स्मृ स्यादिः स्यात् । श्रथ नाभ्यं प्रसङ्ग एकसन्तानत्वे सतीति विशेदिति ययुकम भेदाभेदाज्यांतोप त्वात् । क्षणपरंपरातस्तस्याऽभेदे हि क्षणपरंपरैव सा । तथा सन्तान इति न किञ्चिदतिरिक्तमुक्तं स्यात् । नेवारमाचिकः, पारमार्थिको वासी स्वाद, अपारमार्थिक दूषणम, अकिञ्चित्करत्वात् । पारमार्थिकत्वे स्थिरो वा स्यात्, कृषिका सन्ताननिर्विशेषामिति किम १७० खणिवाइ न स्तेनप्रीतस्य स्तेनान्तरशरणस्वी करणानुकारणिना। स्थिरदात्मेतिति प्रतिनिि कयवादिनाम् । स्मृतेरभावे चानुमानस्यानुत्थानमित्युक्तं प्राणेपरजाये निहितामात्यर्पणादिव्यपहारा दिन एक कल्पे, शक्त्या मे पुरुषो इतः तेन कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षः " ॥१॥ इति व जनस्य व का गतिः । एवमुत्पत्तिरुत्पादयति, स्थितिः स्थापयविजयति इति प्रतिजानाना श्रपि प्रतिक्षेष्याः । ऋणचतुष्कानन्तरमपि निहितप्र न्युन्नादिन्यवदासां दर्शनाकोपापाऽपि या कणभङ्गमनिप्रैति तस्य महत्सादसम् ॥ १८ ॥ (५) तथागता पहारानुपपरे रुद्भावितमाकरयेत्थं प्रतिपादयिष्यन्ति यत्पदार्थानां ऋणिकस्वेऽपि वासनाबबलब्धजन्मना ऐक्याध्यवसायेन ऐहिकामुष्मिकन्याः प्रणाशदिदा निरवकाशा एवेति सा कृतं परिहर्तुकामस्त कल्पनामा परम्परा मेह दापि अमानत्वं दर्शयन् स्वाभिप्रेत दाभेदस्याद्वादम कामयमानानपि तानङ्गीकारयितुमाह सा वासना सा कुणसन्ततिश्व, नाभेददानुभवेदेते। वस्ताद शिशकुन्तपोत न्यायायुकानि परे यन्तु ।। १०९ ।। सा शाक्यपरिकल्पिता त्रुटितमुक्तावली कल्पानां परस्परविशकलितानां क्षणानामन्योऽन्यानुस्यूतप्रत्यय अनिका एकसूत्रतामीया सन्तानापरपया वासना वासनेति पूर्वरहाने शनिमा सातसम्मका प्रीकिावन्नवनोत्पद्यमाना परापरसदृशक्षणपरम्परा । एते मे अपि भेदभेदानुयैर्न घटेते । न तावदभेदेन तादात्म्येन ते घ देते । तयोर्हि अभेदे वासना वा स्यात्, कणपरम्परा वान द्वयम् । यदि यस्मादनिम्नं न तत्ततः पृथगुपलभ्यते । यथा घटात् घटस्वरूपम्। केवबायां वासनायामन्वयि स्वीकारः । वास्याऽनावे च किं तया वासनीयमस्तु ? इति तस्था अपि न स्वरूपमवतिष्ठते । कपरंपरामात्राङ्गीकरणे च प्राञ्च एव दोषाः। न च भेदेन से युज्येते । सा हि भिन्ना वासना कणिका वा स्यादक्षणिका बा ? | विभ्यस्तस्याः पृथक पि का पदार्थाभ्युपगमनागमबाधः तथा च पदार्था राणां कृत्वा व्यसनमात्रम् अनुभवप णापि न घटते । स हि काचिदेवं ब्रूयात्-नाऽहं वासनायाः कणश्रेणितोऽभेदं प्रतिपद्ये, न च भेदंः किं त्वनुजयमिति तद यतिम जेमेयोर्थिधिनिषेधोरेकतरप्रतिषेधे ऽन्यतरस्यावश्यं विधिभावात् । अन्यतरपकाभ्युपगमस्तत्र च प्रागुक पत्र दोषः । स्था० १६ श्लोक | (ए) अयमेवाशयः सम्रदिकमिवादे प्रतिपादित इहोपयोगित्वाद्योज्यतेनेपा अहिलओ वत्युमासमिसस्स । एगसमपाइयोच्छे पत्तो नासपविती ॥ २३६१ ।। उप्पाया ंवर सचिय सम्बा विद्यासि सि । , Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१० ) अभिधानराजेन्द्रः । स्वणिमवार गुरुवयण मेगनयमय- मेयं मिच्छं न सव्वमयं ॥ २३२ ॥ अनुप्रवादपूर्वमभ्यगतं नैपुणं वस्त्वधीयानस्याश्वमित्रस्य पू कसमयादिव्यवच्छेद सूत्रान्नाशप्रतिपत्तिरुत्पन्ना । कोऽर्थः इत्याह-" उत्पादान्तरमेव सर्व वस्तु सर्वथा चिनश्वररूपम" इत्येवंनो योधः समुत्पन्नः अत्र प्रतिविधानार्थं गुरुवचनम् 'ननु प्रतिसमयविनाशित्वं वस्तूनाम्' इत्येतदेकस्यैव कणक्यवादिन ऋजुसूत्रनयस्य मतं, न तु सर्वनयमतं, ततो मिथ्यात्वमेवेति ॥ २३६१ । २३६२ ॥ कुतः पुनरेतन्मिथ्यात्वम् इत्याहन हि ममहा विणासो ऽकापञ्जायमेनासम्म । स परपजापान-धम्मणो बरो जुत्तो ||२३७३ || न हि सर्वथैव वस्तुनो विनाशो युक्तः क सति ?, इत्याह-श्रद्धापर्यापताका नारकादीनामुपतिप्रथमादिसमयः म एव पर्याय मात्रं तस्य नाशोऽपगमस्तस्मिन्सति । कथंभूतस्य वस्तुनः ?, इत्याह-स्वपर पर्यायानन्तधर्मकस्य । इदमुक्तं भ वति यस्मिन्नेव समये तन्नारकवस्तु प्रथमसमयनारकत्वेन स मन्त्रिसमये द्वितीय समयनारकत्वेनोत्पद्यते जीतिते। तो यदि नामादापर्यायानं नतः सर्वस्यापि वस्तुनः समुच्छेदे किमायातम् अनन्तपर्यायरमकस्य वस्तुनः कपयमाषोच्छेदे सर्वोच्हस्परविरु त्या ? इति ॥ २३९.३ ॥ श्रत्र पराभिप्रायमाशक्य परिहरतिअह सुनाम मुझे नगु सास पि निरिहं । वत्युं दव्वडाए, असासयं पज्जयट्ठाए || २३६४ ॥ श्रथ पूर्वोक्तालापकरूपात्सूत्रात्सूत्रप्रामाण्यात्प्रतिसमयं सर्वथावस्तु प्रतिपातिपदि सूत प्रमाणं सूद्रयार्थतया शाखनमपि ववन्यमेव. प ययार्थतथैव चाशाश्वतम् । तथा च सूत्रम्-" -"नेरश्याणं भंते! किं सासया, असासया ? गोयमा ! सिय सायया, सिय श्रासासया । से केणऽणं ? । गोयमा ! दव्यध्याय सासया, नायट्टयाए श्रसासया " इति ॥ २३६४ ॥ अपि च एत्थ विन सव्वनासो, समयाइविसेसणं जयोऽनिदियं । हरा न सम्बनासे, समयाइदिसणं जुषं ॥ २३५॥ को पदमसमपनारगनासे पितिसमयनारगो नाम । न सुरो घमो अजावो, व होड़ जड़ सव्वहा नासो ? | २३६६ / अत्रापि प्रथमसमयनारका व्यवच्छेदं यास्यन्ति' इति सूत्रे न सर्वनाशः सर्वात्मना नाशो गम्यते । कुतः ? इत्याह-यतो यस्मात्स मधादिविशेषणमभिहितं ततो न सचा नाशोऽगम्यते, किंतु प्रथमसमयनारका व्यवच्छेत्स्यन्ति । कोऽर्थः । प्रथम समय नारकस्बेन एवं द्वितीयादिसनारका अपि द्विती यादवेनेच संबंध याता शाश्वतत्वात् । इतरथा सर्वनाशे श्रभिप्रेते प्रथमसमयादिविशेषस्थादिति कथमयुतम, स्याह को पढने "इ त्यादि प्रथमसमपनि सर्वाविनाशे को नाम द्वितीयतृतीयादिसमयनारकः ? । श्रवस्थितस्यैव हि क खणिमब्राइ पचित् प्रथमतीयादि समयोत्पन्नविशेषणं युज्यते यदि तु सर्वथा नाशः, तर्हि प्रथमसमयोत्पन्ननारकस्य निरन्त्रयनाशन नष्टत्वात् द्वितीयसमयोत्यो नारक इति व्यपदेषु कथं युज्यते, यधारकान्सर्वथा विलक्षणत्वादसौ सुरो पटोलायो पा मोच्यते ? सुरादिव्यपदेशे च न द्वितीयादिसमयमारकाः । तस्मात्प्रथमद्वितीयतृतीयादिसमयोत्या इति विशेषकथ यिस्थितस्यैव नारकादेर्युज्यत इत्यस्मिन्नपि सूत्रे नाकादेः सर्वोच्छेदः प्रतिपाद्यते इति निर्मूल पा पाकजनितस्तवैष व्यामोह इति ॥ २३०५-२३६६ ।। अथ पराशङ्कापरिहारार्थमाह अह व समाप्ती समाणमंताणो गई होज्जा । को सवा विखासे, संताणां किं व सामनं २३७१ ॥ अथवैवंभूता मतिः परस्य भवेद्, यकृत-नारकादीनां प्रतिसमयमपरापरसमानकणोत्पत्तिर्भवति । ततस्तया समानक्षणोत्पत्या यः समानकण सन्ततिरूपः सन्तानस्तस्मात्सन्तानात्सन्तानमाश्रित्य नारकाः कथचिद्यमन्तरेणापि प्रथमद्वितीयादिसमयोत्पनविशेषव्यमुपपद्यत एव अशोत्तरमाह "को सम्बद्दा" इत्यादि । ननु सर्वथा विनाशे समुच्छेदे ऽङ्गीक्रियमाणे कः कस्य सन्तानः, किंवा कस्य समानम् इति निर्मिबन्धनमेवमुच्यते। न हि निरम्बयविनाशेऽवस्थिताः केचनापि नारकादिक्षणाः सन्ति यानाश्रित्येदमुच्यते-' अयमेषां सन्तानः श्वं चाऽस्प समानम्' इति ॥ २३६७ ॥ 永和一 संताणिणो न मित्रो, जइ संताणो न नाम संवाणो । अह भिन्नोन क्खएिओ, खणि ग्रो वा जइ न संताणो २३६८ यदि सन्तानिज्यो न भिन्नः, किं त्वभिन्नः सन्तानः तर्हि न नामाऽसौ सन्तानः, सन्तानिभ्योऽनर्थान्तरभूतत्वात्, नत्स्वरूपवत् । अथ सन्तानिज्यो निःसन्तानः, ताई कनकोसी नेट, अवस्थित वायुपगमाद अकृषिको सन्तानः सन्तानियत् । ततस्त पय सन्तानाभाषपकोका दोषा इति । तदेवं सर्वयोच्छेदेऽज्युपगम्यमाने सन्तान उत्पद्यत इति भाषितम् ॥ २३६८ ॥ अथ बहुकम वसामयमिति" (२३३७) सद्भावनार्थमाहमेसमा दुख न सा सव्वहा विणासम्म | ग्रह सा न सव्वनासे, तेल समं वा न खपुष्पं २३०० यदि पूर्वकृणोतरक्ष केनापि रूपेणानुगमोश्वयो प्रवेशदा तत्रानुगमे पूर्वोत्तरणयोः समता समानरूपता नवेत् । सर्वया तु सर्वात्मना पूर्वक्षणस्य निरन्वयविनाशे न सा समता उत्तरक्षणस्य युज्यते । श्रथ सा समता तयोरभ्युपगम्यते, तर्हि तद्रूपस्य कथञ्चिदवस्थितत्वान्न पूर्वकृणस्य सर्वथा विनाशः । अथ सर्वधा विनाशेऽपि तस्य समतायुपगम्यते इन्त तर्हि तेन सर्वथाऽभाव भूतेन पूर्वकणेन समं तुल्यं युज्यते यदि, परं पुण्यम, सर्वधानारूपतया द्वयोरपि तुल्यत्वादिति ॥२३६॥ किञ्चअविणासेनं न सरिसं होइ होट तेलुषं । तद व मई, सोवि को सम्बनासम्म || २४०० || Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खणिप्रवाई अभिधानराजेन्दः । खणिभवाइ सर्वथा निरन्वयविनाशे घटापट श्वोत्तरक्षणात्सर्वथाऽन्य- सोऽपि भोक्ता सर्वथा न भवति, नुजिक्रियाविशेषणस्यानावे एव पूर्वकणस्तस्माखान्य एवोत्तरक्षणः । ततः सर्वथाऽन्यस्य तद्विशिष्टस्य देवदत्तस्थापि सर्वथोच्छेदात् । ततश्चैकस्मिन्नपूर्वकणस्य विनाशे तस्मात्सर्वथा अम्यदुत्तरवणरूपं यदि स- न्यकवलमकेपे का तृप्तिः,भोक्तुश्चाभावात्कस्याऽसौ तृप्तिः। एव. शं प्रवतीत्यन्युपेयते, ताई भवतु त्रैलोक्यमपि ततस्तत्सर- मुक्तानुसारेण गन्त्रादीनामपि श्रमाद्यभावः स्वबुद्ध्या नावनीशम्,अनन्वयित्वे अन्यत्वस्य सर्वत्र तुल्यत्वात्। अथ तत् त्रैलो- य इति । एवं समस्तलोकव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिरिति ॥२४०५॥ क्यं प्रस्तुतपूर्वकणेन सह देशादिम्यवहितत्वादसंबकामिति न ____ अत्र परः प्राहतस्सरशम, उत्तरक्षणस्तु तेन सह संबर इति तत्सरश इति जेणं चिय पइगासं,जिन्ना तित्ती अोच्चिय विणासो। परस्य मतिः स्यात्।मनु सोऽपि पूर्वोत्तरकणयोः संबन्धः पूर्वस्य सर्वथा विना कुतः- कुतश्चिदित्यर्थः। तत्संबन्धाभ्युपग तित्तीए तित्तस्स य, एवं चिय सम्बसंसिकी॥२४०६॥ मेऽभ्यसंबन्धायोगेनाम्वयान्युपगमप्रसङ्गादिति भावः ॥२४००॥ येनैव यत एव प्रतिग्रासमन्योऽन्यश्च भोक्ता जवति,अपराऽपरा व अपि च पर्यनुयुज्महे भवन्तम् । किम् ? श्त्याह तृप्तिमात्रा भवति, अत एव तृप्तेः, तृप्तस्य च प्रतिक्षणं विनाशो ज्युपगम्यते अस्माभिः,विशेषणभेदे विशेष्यस्याप्यवश्यं भेदात, किह वा सव्वं खणिय, विधायं जमई सयाज ति । अन्यथा विशेषणनेदस्याप्ययोगात्। प्रतिक्कणविनाशित्वे तृप्त्यातदसंखसमयसुच-स्थगहएपरिणामम्रो जुत्तं ॥२४०१॥ चयोगोऽनिहित एवेति चेत् । तदयुक्तम् । कुतः?, इत्याह-(एवंन उ पइसमयविणासे, जेणिविकक्खरं चिय पयस्स । चिय सव्वसंसिद्धिति) एवमेव प्रतिकणविनाशित्व एव सर्वसंखाइयसामइयं, सखिज्जाइं पयं ताई ॥२०॥ स्थापितृप्तिश्रमलमादेोकव्यवहारस्य संसिद्धिः । इदमुक्तं भव ति-तृप्त्यादिवासनावासितः पूर्वपूर्वकणादुत्तरोत्तरवणः समुत्पसंखिजपयं वक, तदत्यग्गहणपरिणामो दुज्जा। चते तावत, यावत्पर्यन्ते उत्कर्षवन्तस्तृप्त्यादयो भवन्ति । एतसम्बक्खणजंगनाणं, तदजुत्तं समयनहस्स ॥ २४०३ ॥ व कणिकत्व एवोपपद्यते न नित्यत्वे । नित्यस्यानच्युतानुत्पन्नवा इत्यथवा, पर्यनुयुज्यते नवान् ननु 'सर्व वस्तु कणिकम'। स्थिरैकस्वभावत्वेन सर्वदैव तृप्त्यादिसद्भावात, सर्वदेव तद्भाइस्येतत्कथं भवता विज्ञानमिति वक्तव्यमा श्रुतादिति चेत् । ननु वावति ॥ २४०६॥ सत भुतार्थविज्ञानमसंख्येयसमयनिष्पनो यः सूत्रार्थग्रहणप अत्रोत्तरमाहरिणामस्तस्मादेव युक्तं, न तु प्रतिसमयविनाशे । इदमुक्तं भव | पुन्निबसव्वनासे, वुष्टी तित्ती य किंनिमित्ता तो। ति-असंख्येयानेष समयान् यावश्चित्तस्यावस्थाने 'सर्व कणिकम्' इति विज्ञानोपयोगो युज्यते, न तु प्रतिसमयोच्छेदे । अत्र अहसावि तेऽवत्तइ, सबविणासो कहं जुत्तो॥२४०७॥ कारणमाह-येन यस्मात्कारणास्पदस्य सावयवत्वात् तत्संब. (तोत्तियोवं ततः पूर्वक्षणस्य सर्वथा विनाश उत्तरोत्तरकणेषु मायेकैकमप्यत्तरं संख्याऽतीतसामयिकमसंख्यातः समयनिष्पद्य- तृप्यादीनां या क्रमेण वृफिरुत्कर्षवती पर्यन्ते तृप्तिः श्रमादिसंतूत इत्यर्थः । तानि चाकराणि संख्यातानि समुदितानि पदं भव तिच, साकिनिमित्ता किंकारणा?, इति वक्तव्यमा पूर्वपूर्वक्षति । संख्यातश्च पदैर्वाक्यमिप्यते, तदर्थग्रहणपरिणामाश्च वा ऐनोत्तरोत्तरक्षणस्य या तृप्त्यादिवासना जन्यते तन्निमिति क्यार्थग्रहणपरिणामादित्यर्थः, सर्वतणनाशानं नवेत् । तच्चो चेत्।न। तस्यास्तदनन्तरत्वे पूर्वपूर्वतणनाशे नाशात्। अथोत्तस्पत्तिसमयानन्तरमेव नष्टस्य समुचिस्य मनसोऽयुक्तमेवे रोत्तरकणेषु साऽनुवर्तत एवेति ते तवाभिप्रायः,तर्हि पूर्वपूर्वकति ॥ २४०१ । २४०२।२४०३ ॥ णस्य सर्वविनाशः कथं युक्तो वक्तुम, तदनर्थान्तरनुततृप्यादि(६) अन्यदपिकणभङ्गवादे यत्रोपपद्यते तदर्शयति वासनायाः समनुवर्तनात ? इति ॥ २४०७ ॥ तित्ती समो किसामो, सारिक्ख-विवक्ख-पच्चयाणि । (४) सर्वस्य कणिकत्वे दूषणान्तरमप्याहअज्जयणं जाणं भावणा य का सव्वनासम्मि ॥२०॥ दिक्खा व सव्वनासे, किमत्थमहवा मई विमोक्खत्थं । तृप्तिाणिः, मार्गगमनादिप्रवृत्तस्य खेदः श्रमः, कमो ग्लानिः, सो जइ नासो सम्ब-स्स तो तभो किंवदिक्खाए २४०।। सारश्यं साधम्र्य, विपक्षो वैधये,प्रत्ययः प्रत्यनिशानादिः, प्रा. दीका वा कणानां सर्वनाशे किमर्थमिति वाच्यम्-निरधिकेयदिशमास्वनिहितप्रत्यनुमार्गणस्मरणादिपरिग्रहः । अध्ययन मिति भावः । अथ मोवार्थदी केति परस्य मतिः, नखंत्रापि पुनः पुनर्ग्रन्थान्यासः, ध्यानमेकालम्बने मनःस्थैर्य, नावना पौ वक्तव्यम्-स मोतो नाशरूपो वाऽज्युपगम्यते,अनाशरूपोवा? नःपुण्येनानित्यत्वादिप्रकारतो जयनैर्गुण्यपरिभावनरूपा । एता तत्र (सो जइ नासो ति) स मोको यदि नाशरूप इति पक्षा, नि साण्यप्युत्पत्यनन्तरमेव वस्तुनः सर्वनाशेऽङ्गी क्रियमाणे (सब्वस्त तो तो ति) ततस्तहितकोऽसौ मोकः सर्वस्थापि कथमुपपद्यन्ते ? इति ॥ २०४॥ बस्तुनः स्वरसतः प्रयत्नमन्तरेणापि स्वदभिप्रायेण सिद्ध पक्ष, यथा च नोपपद्यन्ते तथा दर्शयन्नाह कि दीकाप्रयनेन ? इति ॥ २४०८॥ अनमो परगासं, नुत्ता अंते न सो वि का तित्ती । अधानाशरूपो निस्यो मोक्तस्तत्राऽऽहगंतादभो वि एवं, श्य संबवहारवोचित्ती ॥२४०५ ।। अह निच्चो न खणियं,तो सम्यं अह मई ससंताणो । 'प्रसु-लसु'अदने। प्रसनं प्रासः कवलप्रपः,प्रस्यत इति अहउत्ति तमो दिक्खा,निस्संताणस्स मुक्खोति॥२४०६।। वा प्रासः कवलः । ततश्च प्रतिप्रासं प्रतिकवलं भोक्ता देवदत्तः अथ नित्यो मोक्षः (तो ति) ततस्तर्हि 'सर्व वस्तु कणिकम' कणिकत्वादन्यमान्यश्च जबति, भोजनक्रियायाश्चान्ते पर्यन्ते। इत्येतन मवति,मोकेगव व्यभिचारात् । अथ स्व आत्मीयो वि. Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१२ ) अभिधानराजेन्धः ॥ खमिवा ज्ञान-वेदना-संज्ञा-संस्कार-रूपात्मकस्कन्धस्य क्षणपरंपरापः सन्तानो नाद्यापि इतः, निःसन्तानस्यैव च मोकः श्रतो निःसन्तानार्थ द का विधीयत इति ॥ २४० ॥ श्रत्रोत्तरमाह विणिव, किं संताणेण सव्वनहस्स | किं चाजावीभूयस्स सपरसंतानचिताए । २४१० ॥ सर्वनष्टस्य सर्वप्रकारैविनाशमापन्नस्य छिनेन, अच्छिन्नेन वा सन्तानेन किं प्रयोजनं येनायें दीक्षां गृहीयात है। किं च सर्वाध्यायीभूतस्य क्षणतया सर्वथा विनष्टस्य किमनया चिन्तया-अयं स्वसन्तानः, अयं तु परसन्तानः, अयं तु न हतः, येनोच्यते " स संता श्रहउ ति तो दिक्खा " इति ॥ २४१० ॥ अथ कणिकत्वसाधकपराभिमतप्रमाणमुपन्यस्य वृषणमाहसव्वं पर्यव स्वयं पते नादरिणउ चि । नए इत्तो चिय न खणिय-मंते नासोलीओ | २४१११ सर्व वस्तु कृषि पर्यन्ते नामदर्शनात् पयोवदिति - मनु यदि वस्तूनां पर्यन्ते नाशो दृश्यतेनं प्रतिनिशि वे किमायातं येन सर्वे ऋणिकमुच्यते ? । सत्यं किं त्वयमिह तदभिप्राय:- पर्यन्तेऽपि न विना ताकि ए प्रतिमुनितरयोगात् तथाहि क घर व क्रियते, कपालानिया रूपोऽभयो वा इत्या दियुक्तितो विनाशस्य निर्हेतुकत्वं प्रागत्रैव दर्शितम् । ततो नितुकोऽसी प्रयम्नादितपय अन्यथा पर्य मनप्रसादिति पते दर्शात अत्र सूरिराहमन्येतस्मादेव पर्यन्तं नाशदर्शनल कृष्णारस्माभिरेतच्छक्यते वक्तुम । किम् ?, इत्याह-न क्षणिकं, न प्रतिक वस्तु विनश्यतीत्यर्थः पर्यन्त न तन्नःशेोपलम्प दादाधितान्तेयमुपि तुम सर्वेषां सर्वानावाना बा नात, शून्यवादियुक्तिवादति ॥ २४११ ॥ यदि पुनरादित एव वस्तूनां विनाशः स्यात्, तदा किं नवेदू, इत्याह " हराइ चि तो, दीसेजंते व कीम व समाणो । सम्वचितासे नासो, दीसह अंते न सोडल्य] ॥२४१२।। इतरथा यदि प्रतिक्षणं नाशो भवेत्तदा यथा पर्यन्ते सर्वेणाऽपि भयन्ते मध्येषु सर्व सफीना श्येत थपनादिमध्येषु किं कुम्मः । तर्हि प्रष्टव्योऽसि किम ?, इत्याह-" कीस व इत्यादि । किमिति चासौ नाशो वस्वन्नावरूपतया सर्वत्र समानो निरवशेषस्वरूपोऽपि सन् सर्वविनाशे मुगदिना विहिते दृश्यते उपलक्ष्यते श्रन्ते पर्यन्ते न पुनरन्यत्राऽऽदि-मध्येषु सर्वत्र भवताऽभ्युपगतो ऽप्यसी भन्नुपलत्कार वाच्यम् ?, न पुनः पादप्रसारिका श्रेयस्करीति भावः ॥२४१२५॥ विपर्यस्तेनाशस्तमभ्युपगम्य दूषणमुक्तं याचता जैनानां हेतुरय्यसिद्धः पर्व ऽपि घटादीनां सर्वथा नाशानभ्युपगमादिति दर्शयाड़ अंतेव सव्वनासो, पवित्र के जदुनकीओ। खणिप्रवाइ कप्पेसिन पातरं तं पि ।। २४१३ ।। यदि भवादिन] अन्ते पर्यन्तेऽपि मुरादिनिधाने घटादिवस्तुनः सर्वनाशः सर्वथा विनाशः केन प्रतिधादिना जैनेनान्युपगतो, यदुपलब्धेर्यदर्शनावष्टम्भेन त्वं क्षणभङ्गरूपं प्रतिकविनाशं कल्पयसि घटादेः ?। यदि मुद्गरादिसन्निधासर्वस्य जैन यस्यायां घरो न दृश्यते कपालान्येव च दृश्यन्त इत्येतत्किमिष्यते ? इत्याह 1 66 न" इत्यादि । नन्यहो ! मृद्रूपतया श्रवस्थितस्यैव घटकव्यस्व भूतभविष्यदनन्तपर्यायापेक्षया तदपि पर्यायान्तरं, पर्यायविशेष एव कपालानि न पुनस्तदानीं घडस्य सर्वथा विनाशः, मृदूपताया अध्यभावप्रसङ्गात् तथा च कपालानाममृदूपतापत्तेरित्यकिः पर्यन्ते सर्वनाशस्येति ॥ २४१३ ॥ 1 9 भवतु वा तत्सिद्धिः, तथाऽपि नातः सर्वव्यापिनी कणिकव्यसिद्धिरिति दर्शया जेविन पांडे, त्रिशादरिणमिहंबराईणं । निगम सचिणासिमपहाणी | २४१४० घटादीनां तात्पर्यस्ते सर्वनाशदर्शनादितएव प्रति कनश्वरतां साधयति भवान् ततेो येषामम्बरादीनां व्योमकालविनादर्शनादपि सानातिन मेवान्युपगन्तव्यम् । तत्यित्वाभ्युपगमे च सर्वे ' कणिकम् इति व्याप्तिपरं यन्मतं भवतस्तस्य हानिरघटमानतैव प्राप्नोतीति ॥ २४१४॥ وا (८) भङ्गन्तरेणापि स्थविरा श्रश्वमित्रं शिक्षयन्ति । कथ" नू ?, इत्याहपजायनस्मयमिणं, जं सव्वं विगमसंभव सहावं । cosigयस्स निचं, एगयरमयं च मिच्छतं ।। २४१५ ।। पाद एवं नयस्येदं मतं यत्र त्वं सर्वमेव ि नान्तर्गत वस्तु निगम संजयस्वभाषम् प्रतिक्षणमुपयते, बिगश्यति चेत्यर्थः । सव्यमेवार्थो यस्य न पर्यायः स द्रव्यार्थिकस्त स्य तु व्यार्थिकनयस्य तदेव सर्वं वस्तु नित्यं मतम् । एवं च स्थिवानेकस्यैव पर्यायस्य प्रतिक्षण विनम्बरपति तमियात्वमेवेति मुझेदमिति नायः । ॥ २४१५ ॥ किमित्येतन्मिथ्यात्वम् १, इत्याह जमणंतपज्जयमयं वत्युं भुवणं व चित्तपरिणामं । जिगरूपं निचानित्याइतोऽभिषयं । २४१६ ॥ पापयमानरूपं किं स्थानारूपत्वामवनविमान पसावस्तुमित्यादिरूप तथा विचित्रपरिणाममनेकस्वरूपं भगवतामभिमतम् । अतोऽस्यैकान्तविनश्वर कणकरूपाज्युपगमो मिथ्यात्वमेवेति । अपि च सुदुरपयोक्त्या, उज्जयनयमपाट्टो जुत्ता | एपपरिया, सव्यहारसोति ।।२४१७॥ भावितार्थैवेति ॥ २४१७ ॥ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणिभवाइ ( ७१३) अभिधानराजेन्द्रः । किमित्येकतररियागे सुखादिव्यवहारामावः ? इत्याशक्य प्रमाणयन्नाह न मुद्दा पयम, नासाओ सध्या वयस्सव । पज्जयमए, न य दव्वट्टियपक्वे, निच्चत्तो नभस्सव || २४१८।। एकस्मिय पर्यायनयमते क्रियमाणेन सुखादि, जगतो घटत इति प्रतिज्ञा, सुखदुःखबन्धमोक्षादयो न घटन्त इत्यर्थः । उत्पस्यनन्तरं सर्वथा नाशादिति हेतुः। मृतस्येवेति दृष्टान्तः । न व्यार्थिकन पक्के केले समाश्रीयमाणे सुखादि घटते, एकान्त नित्यत्वेनाविचलित रूपत्वात् । नभस श्वेति । तस्माद्रव्यपर्याय सर्वमिदमुपपद्यत इत्ययमेव केवले कनयपस्तु दोष लक्ककक्षीकृतत्वात त्याज्य एवेति । २४१८ । पुनरप्यश्वमित्रमनुकम्पमा स्वस्तामाहुःजई जिणमयं पमाणं, तो मा दव्त्रडियं परिचयसु । सक्कस्स व होइ जओ, तन्मासे सव्वनासो ति ॥ २४१६ ॥ पूर्वदर्शितालापकभावार्थमज्ञानद्यपि विभ्रमितविया सत्प्रामाण्यं पुत्कुर्वाणः किमायायलयमामानं मन्यते भवान् । तद्यदि हन्त । सत्यमेव जिनमतं भवतः प्रमाणं ततः केवलपर्यायादितया जनमताभिमतमपि धन्याखतिखकारपविशति स इति खकारमनिभक्ति-१० का 9 स्तिकनयं मा परित्याक्षीः, अव्यास्तित्वं मा प्रतिषेधयेत्यर्थः । यतो वाक्यस्य वौकस्येव ताशे यस्य सर्वधा वि माझे स्वीक्रियमाणे 'सर्वनाशोऽस्ति सर्वस्यापि मोक्षादेका व्यवहारस्य नाशो भवति, विलोपः प्राप्नोतीत्यर्थः । ॥ २४१९ ॥ इत्यादियुक्तिप्रबन्धतः प्राप्यमानोऽप्यसी वादन किञ्चि स्प्रतिपद्यते, ततस्तत्र किं संजातम् ? इत्याहयो जिओ, न पवज्जइ सो को तत्रो बज्यो । निरंतो रायगिडे, नानुं तो खंडरवखेहिं ।। २४२० ॥ गहिम्रो सीसे समं, एए हिमर ति अपमायेहि । संजयच्छना, सम्भं सच्चे समारोह ।। २४२१ ॥ अम्हे सावय। जयो, कत्युपमा कहिं च पवया । अमुगत्य वैति सङ्घा, ते वोच्छिना तथा येन || २४२२|| तुजे तब्बेसधरा, भणिए भयो सकारणं च त्ति । परिचमा गुरुमूलं गंतूण तभी परियंता || २४२३ ॥ उक्तार्था एव, नवरं ( भणिए भयो सकारणं चत्ति ) तैः मायके पूर्वोके भणिते सति प्रयतो भयात्सकारण व सयुक्तिकं च समाकपर्यानुशास्तिरूपं तद्वचः प्रतिपन्नास्तेऽश्र्यमिश्रममुखा नियसाधव इति ॥ २४२०-२४२१-- २४२२२४२३ ॥ (विस्तरस्तु प्रमाणग्रन्थेभ्यः सम्मत्यादिज्योऽवसेयः) त्रिशे० | आचा० | नं० । अनु० । अने० । नयो० । खो-खनिखा-यत्यर्थे "खणे या कहेतु " " वा आचा० । खष्ठ - खन्य- त्रि० | खननीये, खनिविद्यायाम्, वाच० कल्प० । केनचिद्दले खाते, वृ० ३ उ० । ( स्वामिति ) देशीपदम् सर्वात्मना लूषिते, व्य० १३० । खण्णु-स्थाणु-पुं० । “ सेवादौ वा " । २६६| इत्यन्त्य द्वित्वं १७९ खत्तियकुंमपुर वा । ख खम्पु, शिवे, शाखाशून्यवृक्षे च । वाच० प्रा० २ पाद । खत्त - क्षत्र- पुं० न० । शस्त्रेणानिहते करीषविशेषे, श्रघ० । पिं० । क्षतात् त्रायते । त्रैक। ५ त । क्वत्रिये, वाच० । उत्त० । कत्रियजातौ वर्णसङ्करोत्पन्ने च । उत्त० १२ अ० । मुखारे, संधी, उ० ४ ० रा उदके, घने, देदे, तगरे च न० । वाच० । खात-न० । उभयत्रापि समे गर्ते, प्रज्ञा० २ पद । ज्ञा० । खत्तखाणय-क्षत्रखानक- पुं० । संधिकृचैौरेषु, ये संधानवर्जितभित्तीः काणयन्ति । ज्ञा० १ ० १८ श्र० । खत्तमेह - क्षत्रमेघ - पुं० । करीषसमानरस लोपेतमेघे, भ० ७ ० ६ उ० । खत्तय खातक - त्रि० । केप्रस्य खानके, चौरे च । झा० १ ० १ [अ०] राहुविमानस्य तृतीये कृष्णपुङ्गले सू० प्र० २० पा०| चं० प्र० प्र० । खत्ता- क्षत्ता - पुं० । स्त्री० । शूरूपुरुषेण कत्रियस्त्रियां जाते, ऋकारान्तोऽयं शब्दः । श्रचा० १ ० ४२६ पत्र । राकृनिनर्तकमएकलाभिनयात्मके नाट्यविधौ, रा० ॥ खत्तिय क्षत्रिय ० ० यते इति कृषि सू० १५०६ ० कृणानि तानि तेायते इति कत्रियः०३० भ० । सूत्र० । श्ररक्षके, नि० चू०५ उ० । क्षत्रस्थापत्यं क्षत्रियः, " क्षत्रादियः " | ६| १ | ६३ । इति (डैम० ) इयप्रत्ययः । रा० । सामान्यराजकुली, भी० भ० ०० वाकुवंश्यादिके, सूत्र० १ श्रु० १३ श्र० । श्री ऋषभदेवसजातीये, कल्प०५ क्षण । श्रीश्रादिनाथेन प्रजालोकतया स्थापिते ०२ कल्प० ७ कृण । श्रा० म० । (श्रीक्रश्नदेवेन कृतस्य उम्र-नोग- राजन्य - कृत्रिय-चतुष्क संग्रहस्य मध्ये उग्रादयस्त्रय भारतकादय आसन, शेषाः कृत्रिया इति 'उसभ' शब्दे द्वि० भागे ११२४ पृष्ठे उक्तम् ) राष्ट्रकूटादौ श्रचा० २ ० १ ० २ उ० । श्रेष्ठादौ, " माहणा अब खत्तिया पुच्छति दश० ६ श्र० | चक्रवर्त्तिबलदेव वासुदेवप्रभृतिषु क्षत्रियेषु, आचा० २ ० १ ० २३० । सामान्यतो राजोपजीविन बृ० १ ८० । नृपात् अपरिणीतायां कत्रियजातिस्त्रियां गूढोत्पने पुत्रे च । तस्य पक्ष), ङीप् वा श्रानुक । कत्रियाणी कृत्रियी, ( श्रार्यकत्रियाभ्यां वा ) इति स्वार्थे अनुकू ङीप् च । पत्ल्यां युकं जाती तु योपा किंतु टा 35 तु क्षत्रिया । वाच० । खतियकुंटगाम क्षत्रियकुण्डग्राम पुं०। मगधदेशे - । ब्राह्मणकुण्डग्रामात्पश्चिमायां श्रीमहावीरजन्मग्रामे, कल्प० २ क्षण | " त स्स णं माहणकुंरुग्गामस्स जयरस्स पच्छिमे णं पत्थ णं खलिकुंडा णामं जय होस्था वा ताथ इमामे परे जमाल वामं मारे परिवस " म० श० ३३ ३० । खत्तियकुंमपुर - क्षत्रिय कुएमपुर - न० । ज्ञातानां क्षत्रियाणां श्रा वासविरजन्मपुरे तथा कुरुग्रामात उत्तरस्या|" दाहिणमाहणकुंमपुर सचिवेसाश्रो उत्तरख सियकुंमपुर Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१४) श्रभिधान राजेन्द्रः । कुंमपुर खमावणा खच्चड - ख ( क ) वे (बे) ट न० । कुलकप्राकारवेष्टिते, व्य० १ उ० । जी० | ज्यो० । पर्वतेनाजितः परिवृते वा । सूत्र० २ ० २ उ० । कुनगरे, नि० चू० १२३० | बृ० | ग० । -न० । संणिवेसंसि णायाणं खत्तियाणं सिद्धत्थस्स खत्तियस्स का गोस्स तिलार बत्तियासी पश्चिमायां यथोक्तं पूर्वम् । श्राचा० ३ चू० । स्खत्तियकुल- क्षत्रियकुल १० | श्री श्रादिदेवेन प्रजालोकतया खम-क्षम-त्रि० । कमते इति क्रमः । प्रश्न० ५ सम्ब० द्वार | स्थापितानां कुलेषु, कल्प० २ ऋण । टे. बृ० ३ उ० । समर्थे, अष्ट० अ० । तारणसमर्थे, ध० ३ खतियपरिव्यायग-क्षत्रियपरिव्राजक पुं० कत्रियो भूत्वा प अधि० ] सङ्गते, दशा०१० श्र० औ० । युक्ते, पाण स्था० श्राचा०| रिकांगपिपरियाया होति तं जहायोग्ये, आव०४ श्र० "न वंजयारिस्त खमो निवासो" उत्त०३२ सीलाई मसिहारे नगई भाई तिथिदेडे राया राम बलेति अ० । कुशले, विशे० । उचिते. स्था० ३ ठा० ४ ० । कमत्वे, सङ्गतत्वे, "खमाए भविस्सर, " ० ६ श० ३३ उ० । स्था० । य।" औ० । खमग-रूपक- पुं०। विकृष्टतपस्विनि, जीवा० १२ अधि० “भिक्खुत्ति वा जभित्ति वा खमग त्ति वा " नि० चू० २० ४० । खमण-क्षपण - न० । अभक्तार्थे, नि० ० २० उ० । व्य० । उपवासे, बृ० १३० । क्षमण-पुं० । कमते इति क्षमणः । कान्ते, अनु० । स्वमणोन संपया क्रमशोपसंपत्-स्त्री० चारिश्रनिमित्तं गच्छन्त क्षणार्थमुपसंपती (स्याः स्वरूपम् 'उपसंपदे प्रा० ए०४ पृष्ठे उक्तम् ) नवरमिह स च रूपको द्विधा छत्वरो, यावत्कथिका । यावत्काधिक उत्तरकाले ऽनशनकर्त्ता । इत्वरस्तु द्विविध:- विकृष्टक्षपकः, श्रविकृष्टरूपकश्च पञ्चा० १२ बिव० । नि० चू० । श्रा० चू० । व्य० । आ० म० । खमया - क्षमता-खा० साम्यतीति कमः, तद्भावः कमता । अभिग्रहे पञ्चा० १३ विष० । लोहखफलोभ-पुं० प्रभूने अनादी सभ्यमाने सुधता समयाभिग्गढ़-मतानिग्रह ० कान्तिमाईवार्जवादी नि याम, पञ्चा० १७ विव० । स्वत्तियपव्त्रश्य – इत्रियमत्रजित - पुं० । चातुर्थयें द्वितीयवर्णभूतेषु समुदामा औ खत्तिय विज्जा - क्षत्रिय विद्या -कत्रियाणां धनुर्वेदादिकायां सगोत्रक्रमेण श्रायातायां च विद्यायाम्, सुत्र० २ ० २ भ० । स्वक-स्वरू-श्रि०। बृहत्प्रमाणे विशे० प्रचुरे, खशब्देन से कान्तिकेन प्रचुरमभिधीयते । प्रब० २ द्वार। श्रघ० । दशा०| आवा० । प्रभूते, बृ० ४ उ० । “ खद्धं २ कार्य २ सियं २ श्राहारेत्ता भवइ श्रसायणा सेहस्स । " स० ३३ सम० । " ख २ ति चड़े बड़े लंबणे" आव० ४ श्र० । “ख २ ति" शीघ्रं २ द्विर्वचनमादरख्यापनार्थम् । श्राचा० २ ० १ भ० ६ उ० । खद्धपजल - खच्चमजनन- न० : बृहत्प्रमाणे मेहने, (शेफे) स्था० ३ ठा० ४ ० । श्रघ० । स्काइपण खफायदन २० प्रचुरादि प्राय , दने इत्यत्र पदे खरुशब्देन बहु भरायते, (श्रयणे ति) श्रदनमश मित्यर्थः ततः बहु आदिश्य तत् कादि "सादनमित्यर्थः आदिशब्दाद डाकादिप रिग्रोत एवाह - " आइसहा मार्ग होइ पुणो पत्तसागं तं, 33 प्रव० २ द्वार । श्राचा० । खादीयगिह- खच्चादनीयगृह - न० । खद्धम अदनीयं येषु गृहेषु तानि दीगृहाणि ईश्वर ००१२० खपुसा - खपुसा[स्त्री० । उपानद्भेदे, "खपुसा य खलुगमेत्तं " खल्युको पुटका तम्मात्रं यावदाच्छादयन्ती वसा वृ० ३ उ० । नि० चू० । खप्पर-कर्पर्-पुं० । कृप् अरन् लत्वाभावः । “कुब्जकर्परकोल के कः खोऽपुष्पे ८ १ १८१ । इति कस्य खः । प्रा० १ पाद । कपाले, घटावयत्रे, शीर्षोऽर्द्धास्थान, शस्त्रभेदे, कटाहे च । उडुम्बरे वृक्के, वाच० । श्रव० । खर्पर- पृषोदरादित्वात्कस्य खत्वम् । तस्करे, भिक्षापात्रे, भिमृन्मयखए, तुच्छाञ्जने, वाच० । स्वच्च स्वर्व- (सर) पुं० । 'खर्च' गर्ने, अन् कुबेरनिधिविशेषे ' । कुब्जकवृक्षे, अन्त्यस्थमध्यः । 'खर्व' गतौ श्रच् । वर्ग्यमध्यहस्त्रे, नामने, त्रिगर्वसरतितनी संख्या बाब न्नते, स्था० ४ ० १ उ० । दशगुणिते ऽब्जे, कल्प० 9 ऋण । " + यमे, पं० सं० ५ द्वार । खमा क्षमा-श्री० कसूर सहने मन्यू आय० ३० "कमायां कौ” । ८ । २ । १७ । इत्यनेन पृथिव्यां वाच्यायां छः, अन्यत्र तु खः । प्रा० २ पाद। श्रा० चू० । मर्षणे, स्था ३ ० ३ ० । क्रोधोपशमे, अष्ट० २९ अष्ट० । संधा० । कल्प० । श्राव० । क्रोधाभावेन तितिक्षायाम्, का० १ ०१ सत्तरदोषश्रयणेन कार्यमा बेहिश्व कोपोदयात् विक्रियामापद्यमानस्यात्मनो निरोधने, यो० वि० । तत्थ खमा श्रक्कोसणतालणादी अहिया से तस्स कम्मखश्रो भवति, अणहियासे न तस्ल कम्मलनो भवति, तदा को धोदयनिरोहो कासन्यो । उदयप्पत्तस्स चाविफल करणं एसा खमत्ति वा "। श्राव० १ ० । खदिरे, वाच०१ स्वमाधीसर- कुमाधीश्वर - पुं० । विजयरत्नसूरिपट्टारूढविजयकमासूरि इति ख्याते तपागच्छीये श्राचार्ये, "तत्पदलसतरवियामास भाभ्याम्नोनासने सुविपुलं कुप्राग्रहतारतारकमिलोपा शोभादवि विजय द्रव्या० १५ श्र० । खमावण्या - क्षमापनता - स्त्री० । परस्यासंतोषवतः कमौत्पादने, भ० १७ श० ३ उ० । खमात्रणा - क्षमापना - स्त्री० । अपराधक्कामणे, उत्त० । नानारं वहन् । पुष्करं तत्फलम् - खमावण्यास ते जीवे किं जाय ? स्वमायण 1 Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खमावणा या पहायणनावं जायइ । परहायणनावमुवगए य स पाणयजीव समिती नावं उपाय मितभावनगर यादि जीवे जावासोहिं काऊ निम्न जड़ ॥ १७ ॥ हे भदन्त कामया हतानन्तरं इन्तम्यमिदं मम अपरा पुनर्न करिष्यामि एतादृशम् इत्यादिरूपया जीवः किं जनयति । गुरुराह शिष्य! कामणवा गुरोरनि न्दया प्रह्लादनभावं चित्तप्रसत्तिरूपं जनयति । प्रह्लादनजावमु पगतो जीवः सर्वप्राणभूतजीवसश्वेषु प्राणाश्च जूताश्च जीवाश्च सरवाश्च प्राणभूतजविसरखाः सर्वे च ते प्राणभूतजीवसस्वाश्च सर्वप्रास्तजीव स्वास्तेषु मैत्री नायमुत्पादयति । मैत्रीभावं गतस्तु जीव भावविशोध या रागद्वेषनिवारणं विधाय इहलोकादिसप्तभयानि निवार्य निर्भयो भवति । उत्त० २६ अ० । ( ७१५ ) अभिधानराजेन्द्र / I 5 खमावियसामिन-त्रि" गावी कमा३ १५२ । इति णेः स्थाने सुक् श्रावि इत्यादेशः । लुकि जाते वृद्ध्यजावः । क्षमां कारिते, प्रा० ४ पाद । खमासमण - क्षमाश्रमण-पुं० । 'कम्प् ' सहने इत्यस्थार्थत्वादङ, अङन्तस्य वा कमा, सहनमित्यर्थः । श्राम्यति संसारविषनियति तपस्थतीति वा नन्द्यादित्यात्कर्त भ्रमणः । क्षमाप्रधानः भ्रमणः क्षमाश्रमणः । ध० २ अधि० । श्राव० । आ० ० कमादिगुणप्रधानमहातपस्थिति पा० " मि खमासमणो वंदिनं" इत्यादि 'किश्कम्म' शब्दे अस्मिन्नेव भागे ५२३ पृष्ठे व्याख्यातम् ) देवान् वन्दित्वा जगवानित्यादि चत्वारिमामानि विसंबद्धान्यन्यथा था तथा पट्टिको कमाश्रमणं पृथक दातव्यं न वेति प्रश्ने सम्-भगवद चत्वारि कमाश्रमणानि क्रियासंबद्धानि सन्ति । तत्र सर्वेऽपि ततो वन्दिताः अथ ये विशेषतो गुरून् तथा पट्टिक बन्द तत्सत्यापनार्थमिति १४०० सेन०४० स्वमिय-कामित-पुं० कामितेोऽकामयति । कल्प० , ६ कृण । " खम्म-धर्म्म पुं० [वृतिकायैशाचिके तृतीययोरायद्वितीयौ " | ८ | ४ | ३३५ । इति घस्य खः । आतपे, प्रा० ४ पाद । स्वम्मंत - खन्यमान- त्रि० । “ इन्खनो ऽन्त्यस्य ८ । ४ । २४४ । इति श्रन्त्यस्य द्विरुको मः। विदार्यमाणे, प्रा० ४ पाद । स्वयं कृतति भावेक विहार. १० घर्षणे - यादी प्रणे वाच० । - क्षय- पुं० । ध्वंसे, उत्त० ५ अ० । विनाशे, श्रातु० । सूत्र० । सर्वविनाशे, भ० ११ श० ११० । अवसाये, सूत्र० १० २ ० ३४०। राजपारोगे, स च तपः संनिपातजतुः कारणेभ्यो भवतीति । उक्तं च-" त्रिदोषे जायते यदमा, गदो हेतुचतुटयात् । वेगरोधात् कयाश्चैव, कासाश्च विषमाशनात् ॥ " श्राचा० १ ० ६ ० १ ३० | लावकादिपिशिताशिनः किल कयव्याधेरुपशमः । श्रखा० १ ० ६ ० १ ३० । कर्मण उदयावस्थात्यन्ताभावे, कर्म० ४ कर्म० । स्था० सूत्र० । प्रश्न० । पूर्णीकरखे, कल्प० १ क्षण । स्था० । स्वपनाथि कपड़ानिन्-पुं० रूपेण हानी यानी केव खिनि, विपा० १ ० ६ श्र० । खयायार खयायार-क्षताचार-पुं० । स्त्री० । श्रावश्यकादिषु अनुद्यमेऽवसन्ने, “ ओसन्ने खयायारो " व्य० ३ ० । कताचारस्य निन्थस्य निर्व्रन्थया वा तादृश्या उपस्थापनादि न कल्पते नो कप्पति नियाणं वा निग्गंधी या शिमांची असगणाओ भागश्य खयावारं सवझायारं जिया संकि बिट्ठायारं चरितस्स अणालोयावेत्ता अपडिक्कमावेत्ता पायच्चितं अपमिवजावेता उपद्वावित्त वा संतुंजितए वा संवत्तिए वा तीसे इत्तरयं दिसं वा अएदिसं ओदिसिए वा पारितए वा ॥ ए ॥ न कल्पते निर्मन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा निर्ग्रन्थी कताचारां सायाचा शिवारांतादीनां शब्दानामयं प्रा ग्वत् । तस्य स्थानस्य अनालोचयित्वा यस्मिन् सेवते सा कृताचारा प्रवेत् तत्स्थानमनालोच्य तस्मात्स्थानादपरिक्राम्य तथा तस्थ स्थानस्य विषये प्रायश्चित्तमप्रतिपाद्य उपस्थापयितुं वा संभो कुंवा वस्तु वा तस्याम् इत्वरां दिशमदिशं वा उद्देषुमनुकापयितुं वाऽपि तस्याः स्वयं धारयितुं कल्पते इत्येष सूत्राकरार्थः । व्य० अ० । सम्प्रति भाष्यविस्तरः । तत्र परप्रश्नावकाशमाहजा होइ परिजयंती-ह निम्गया सीयइ कई सचि । सेवासमापरि सबलिन उता वि ।। या प्रमादिगणं परिभवन्ती धर्मश्रद्धया गृहवासादिह निग ता, सा कथं सीदति, येन सा कृताचारादिजाता । अत्र सूरिराहसंवासादिभिः सा उयपि उद्यमं कुर्वत्यपिपलीक यते यत्र नाना-सा एकानि विन्ती गृहस्थाभिः समं वसन्ती स्वशक्त्यनुसारेणोद्यमं कुर्वत्यपि ग्लनां प्राप्नोति । आदिशब्दात् गोचरचयांयां विचारभूमी वा यतः सत्येकाकि नीलनामाप्नुयादिति । अथैकाकिनी सा कथं जातेत्यत श्राह - अकाण निगवादी, करपा संजरंति जा वितिया । आगमणदेस भंगे, चचत्थि पुण मग्गए सिक्खं ॥ अनि मीणा शिवेन वा निना अध्वनिता आदिशब्दात् राजन वा साथै वा तेनैरभिपरि गृह्यते एषा प्रथमा । द्वितीया ' कप्पा' दुहितरं संस्मरन्तं । एकाकिनी जाता तृतीया परागमनेन देकाकिनी। चतुर्थी शिक्कां मृगयमाणा एकाकिनी जाता । तत्र "अध्वनिर्गतादीनाम्" व्याख्यानार्थमादगोउम्मुगमादीया, नाया पुज्यमुदाहमा । मेऽसि रायपुडे, सत्थे वा तेऽजिदुते || अमोद संयत्यो न संस्तरन्ति । तत्र गोशातं पूर्वमुदाहृतम, यथा श्रल्पं गोब्राह्मणं न हन्ति तत एतत् ज्ञातमवधार्य या यत्र संस्वरति सा तत्र गच्छति प्रशिचे समुपखिते उन्मूफानमुद्दाहृतं पूर्वकल्पाध्ययने । यथा- उल्मूकानि बहूनि मिलितानि ज्व यान चलतः यमशिवमपि बहुपु गाढमुपति ष्ठति नैकस्मिन् द्वयोर्वा । ततो वृन्दघाते एकाकिनी जाता । एताया प्रकाराज्यामध्वानं प्राप्ता । तथा राजा द्वेष्टेन पूर्वभणितैनैकाकिनी जायते। साथै वा सोनेरमिते एकाकिनी जायते Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खयायार तः सा श्राचार्योपाध्यायप्रवर्तिनीविरहिता निर्धमजूता पास्थादिविहारं विद्वत्य पुनरपि संवेगमापना कश्चिदाचार्यपाध्याय गावच्छेदकं वा षमुपस्थित विज्ञपयति यथाऽहं पार्श्वस्यादिविहारात्तममि ततो ममता दाचार्यमुपाध्यायं चाऽऽत्मीयं पश्यामि । एवमन्यगणादागतां त स्मात्स्थानादप्रतिकायन कल्पते उपस्थापयितुं नापि पनि संभोगेन यथासंभवमार्यिकाणां संयतानां च संभोक्तुं नापि यायदारयमाचार्यादिकं न गच्छति तावदित्वर आचार्य पा दिगत्युपते स्वर उपाध्याय वा दीयते अनुदिक् । गतमध्वानं प्रतिपन्नादिति । अधुना " कप्पा संभरति जा वितिया " इति व्याख्यानाधमाद ( ७१६) निधानराजेन्द्रः । सत्य दिखा बेरी, सीसे या पि वारिज्जती य सा एजा, धूयानेहेण तं गणं ॥ अन्यत्र गच्छे स्थविरा माता दीक्षिता । श्रन्यत्र गच्छन्तरे (ती से ) तस्या डुहिता । ततः सा माता दुहितुः स्नेहेना ऽऽत्मीयानाचायोपाध्यायावृति-जाति सा वार्यमाणा ऽप्याचार्योपाध्यायैर्निर्गता, एवमेकाकिनी सा जाता। एकाकितया निम्मभूता यत्र सा दुहिता दीक्षिताऽस्ति तं गणमागता, दृष्टा पुहिता, संवेगमापन्ना, शेषं प्राग्वत् । इदानीम् "आगमणदेस" इत्यादिव्याभ्यानार्थमाह-परचकेण रम्मि, विवोहिकाइला । जहा सिम्पे पणट्टामु य एग सहायिका | परचक्रे बोधिकादिना विहिरा तथा शीघ्रमायिकाः प्रनष्टाः, यथा तासु प्रनष्टासु मध्ये सा एका असहायिका जाता, एकाकितया धर्मरहिता बभूव । ततो गणान्तरं दृष्ट्वा पुनः संवेगमापन्ना, शेषमध्वानं प्रतिपन्ना इव वाच्यम् । अधुना " चतुर्थी पुनर्मृगयते शिक्षामिति व्याख्यानार्थमाह " सोऊन काइ धम्मं, उवसंता परिणया य प । नियत मंदना, सो क्षेत्र नर्दितु आरंभो ॥ श्रुत्वा काचन संविग्नानां पार्श्वे धर्मे उपशान्ता प्रवज्यां प्रति परिणता च सा च निष्कान्ता पास्थानां समीपे ततः सा श्रचिन्तयत्-यस्मादारम्भात्संयमरूपात् भीताऽहं म न्दपुण्या स एव मे समापतित आरम्भो यस्मादत्राएं प्रवजिता वर्त्त इति । तदेवाह जीरिं पवित्ताण, गया ते आययट्टिया । अह तत्येतरे पत्ता, निक्लमेति तमुज्जयं ॥ आपतो मोतस्तत्र स्थित आयतस्थित उद्यनविहारिणा संविग्ना इत्यर्थः। ते श्राभीरों काञ्चन प्रज्ञाप्यान्यत्र विहारक्रमेगला अथानन्तरं ताम इतरे पार्श्वस्था सामुयतां निष्कामयन्ति सा चापूर्वप्रकारेणासंयमात्र समाधिं न लभते । दई वा सोक्षं वा मागंती तुपरिच्छिया विहिणा । संविग्ग सिक्ख मग्गड़, पवित्तिणिमायरिय उवज्जं ॥ स्वयायार 1 ततः सा मूलधाहकानाचार्या मृगयन्ती वा स्नानादिसमवसरणादौ समागतान् संविग्नमिशिकामांसवनाशिकांच मानयति अन्य च प्रयर्थिनमन्यमाचार्यमन्यं चोपाध्यायं सा चैवं मार्गयन्ती विधिना तैः प्रतीचिता स्वीकृता कर्त्तव्या तत्र यत्र ते दृष्टाः भुता वा मूलध ग्राहका यथावत् तैर्विधिना प्रतीच्छनीया । तदेतदनिधित्सुराह एहाणाइए मिलिया, पव्वावेंति जयंति तेहि से | होह व उज्जुयचरणा, इमं व वणि वयं नेमो ॥ स्नानादिसमवसरणं गतया तथा मूलधर्माचा સે नवेयुः यथा अमुकग्रामनगरादी व ततः स्नानादिसमवसरणे, अन्यत्र वा गावा तेषां मिलित्वा शिक्षां प्रवर्तिन्यादिकं च याचते, ततो विधिना तस्याः प्रतीच्छनं कुर्वन्ति । तमेव विधिमाह ते मूलधर्मग्राहका प्राचार्यास्तस्याः प्रव्राजयतः प्रब्राजकान् श्राचार्यान् भणन्ति यूयं वा भवत उद्यतचरणाः, अथवा इमां व्रतिनीं नयाम | पति पत्र त्तिणी ते - सिमसति विसज्जेह वतिणिमेतं ति । सिज्जिए नती, असिती मासस । तेषां प्रयाजकानामाचार्योपाध्यायानामसति प्रभावे प्रवर्तनी भण्यते । यथा-पतां व्रतिनीं विसर्जय । एवं भणिते यदि विसर्ज यति ततो विसर्जिते विसर्जने कृते नयन्ति अथैवं ताप सती सा प्रवर्तिनी न विसर्जयति, तर्हि तस्या अविसर्जयन्त्याः प्रायश्वितं मासलघु । अत्रायं विधिः प्रथमतः सा प्रवर्तिनी संगत्या भण्यते । यथा-विसर्जयेमां साध्वी मिति, एवमुक्ता यदि न विसर्जयति ततो मासलघु । जे या आयरिऍ कुलेण पात्रि बेरेण । गणथेरे गणव, संघत्थेरेण संघेणं ॥ जणिया न विसज्जंती, बहुगादी सोहि जान मूलं तु । तीए हरिऊण ततो, अपो से दिज्जते व गणे ॥ यदा संयत्या भणितेऽपि सा प्रवर्त्तिनी न विसर्जयति तदा वृभतार्थः कोऽपि साधुत्या तामापृच्छति । तत्रापि यदि न बिसर्जयति तदा प्रायश्चितं चतुसंघु । ततो यः साधुरुपायावस्थानं प्राप्तस्तेन सा प्रापृच्छते तत्राप्यविसर्जने चतुर्गुरु ततो यः साधुराचार्थस्थान प्राप्त स तामापृष्ठति यदि न विसर्जयति तर्हि तस्याः प्रायश्चित्तं षम् लघु । ततः कुलेन कुलस्थविरेण सा जणनीया, तत्राविसर्जने पर गुरु । ततो ग णेन गणस्थविरेण वा सा प्रज्ञापनीया । तथाप्यमुत्कलने प्रायदि तदनन्तरं वा साभरानीवा तथाऽपि चेन्न विसर्जयति तर्हि प्रायश्चित्तं तस्या मूलम् । अन्य यदि सा समपक्रामति ततस्तस्याः सकाशात् हत्वा (से) तस्या अन्य गणो दीयते; अन्यस्याः प्रवर्तिन्याः सा समयत इत्यर्थः । एमेव उपाए अनि इति लडुगा छ । भते गुरुगादी, बसजादी जाय नवमं तु । एमेव य आरिए, अविसज्जते हवंति गुरुगा छ । भाइ हि जखिए दुगाई जा चरमो ॥ Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खयायार 9 संस्था भणितया स्वयं प्रवर्तिम्यास्तस्यामसर्जना यदि तस्यामुपाध्यायो न त पति विसर्जन समिति तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः । उपाध्यायातिक्रमणे यचावाय न भणति विसर्जयेति तदा तस्यापि प्रायश्चि सं चतुर्लघु । एवं तावत्प्रवाचैन्यामविसर्जयन्त्या मुक्तम् । इदाभीमाचार्यस्योपाध्यायस्य वा अयतः प्रतिपादयमेव अनेनैव प्रकारेणोपायाचे उयविसर्जयति प्रथम भवन्ति स्वारो लघुकाः। ततो वृषभादिकमेव प्रायश्चित्तं यावत्पर्यन्ते नवस्थाप्यणं प्रायश्वितम्। आचार्य प्रथमतो भयन्ते गुरुकाश्चत्वारः, ततस्तदधिकं वृषनादिक्रमेण प्रवर्द्धमानं तावदवसेयं यावत्पर्यन्ते चरमं पाराश्चितम् इति ॥ इयमत्तरयोजना ॥ भावार्थ स्त्वयम् संयत्याः प्रेषणे प्रवर्त्तिम्याः विसर्जितायामविवर्जितायां वा यवाच्यायो न विसर्ज यति तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः । ततोऽम्येन साधुना ना मीतार्थेन स उपाध्यायो नयते तथाऽयमुनेचतु गुरु । ततो यः साधुरुपाध्यायस्थानं प्राप्तः स प्रज्ञाप्यते, तथाउसने पर लघु सदरमाचार्यस्थानं प्राप्तः साधुः ध्यते तेनाप्यविसर्जने षम् गुरु । ततः कुलेन, कुलस्थविरेण वा नावनीयः, तथाऽप्यविसर्जने वेदः। गणेन, गणस्थविरेण वा भणनेउपविसर्जनेसन स्थपि वा प्रज्ञापनायामयमुक लने अनवस्थाप्यम् । तथा संयत्या भणने प्रवर्त्तिन्या विसर्जितायां वायद्याचार्यो न विसर्जयति तदा तस्य प्रायश्वितं चतुर्गुरुकम | तदनन्तरं तस्य समीपे वृषभः प्रेष्यते, तथाऽप्यमुक्कल ने पर् मघु । तत उपाध्यायस्थानं प्राप्तेन साधुना भणनेऽप्यविसजेने पर गुरु तदनन्तरमाचार्य स्थानं प्राप्तः साधुः प्रेषणीयस्तथाऽयमुकलने छेद कुलेन कुलस्थविरे या नमि ऽप्यविसर्जने मूलम् । गणेन, गणस्थविरेण वा अनवस्थायमसन, सस्थविरेण वा पाराजितम् सङ्घातिक्रमे तस्या गणादपणं सङ्केन । तथा चाह (७१७) अभिधानराजेन्द्रः । सत्यभिगच्छवास बंधना मती । अएणस्स दे संघो, पाणचरणरक्खणा जत्थ ॥ पार्श्वस्यादिभिः स्वतमुदितां गच्छामि पार्श्वस्थादि वासिनीं वा बान्धवा उद्यतविहारिणो ये संसारान्निस्तारयन्ति तान्यमायती अन्वेषयन्ता, अन्यस्यावास्योपाध्याय स्यान्यस्याश्च प्रवर्त्तिन्याः सङ्घो ददाति यत्र तस्या ज्ञानचरणरक्षणा भवति । किं ? इत्येवम् । अत आहनाथ-चरणस्स पव्वकारणं नाणचरतो सिद्धी जेहि नाणचरणबुडी, अजागणं तहिं वृत्तं ॥ प्रव्रज्याकारणं ज्ञानस्य, चरणस्य व, ज्ञानचरणनिमित्तं प्रव्रज्या प्रतिपद्यते इति भावः यतो नरवृद्धिस्तत्राणामार्थि कार्या स्थानमवस्थानमुकं तीर्थकर पार्श्वस्थान सका ज्ञानचरणे न ततस्तेभ्यस्तामपश् ददाति । मुत्तु इत्य चरिमं इत्तरितो होइ ऊ दिसाबंधो। प्रोमा दिक्खियाए, आवकहाए दिसाबंधो ॥ अत्र एतासु चतसृषु मध्ये, चरमां चतुर्थी "पुण मग्गए सिक्खं" १०० स्वयायार इत्येवंरूपां मुक्त्वा शेषाणां तिसृणामध्यनिर्गतादिकादीनां दिग्बन्ध स्वरो भवति चरमयोः पुनरवदीक्षिताया पायकथिको दिग्बन्धः ॥ व्य० ६ उ० । 1 नो पति निग्गंथाण वा निग्रगंधी वा सगणातो आगतं खपायारं सचलायारं किाियारं चरिचं तस्स छाणस श्रासोपावेचा परिकमावता पायच्छितं परिचित्ता उपा विचार वा संवा तीसे विरियादिसिया अदिसि वा उतिर वा धारित वा ति बेमि ।। १० ।। व्य० अ० ६ ० एसेव गमो नियमा, निग्गंथाणं पि होइ नायब्बो । नवरं पुण नातं, अवटुप्पो य पारंची ॥ एष एवानन्तरोदितो गमः प्रकारो निर्ग्रन्थानामप्यन्यगणादागच्यतां भवति नियमाद् ज्ञातव्य नवरं पुनः प्रायसि नानात्वम्, अनवस्थाप्यं, पाराञ्चितं च । श्यमत्र जावना-येन प्रवाजितः स कुलको, भिकुर्वा स चेत् संयते प्रेषिते न मुस्कलयति तदा तस्य प्रायश्वितं तु ततोपनादिक्रमेण प्रायभि पूर्वप्रकारेण वदमानं तावत् द्रव्ये यावत्सङ्गेन सहस्यविरे ण वा भणनेऽप्यमुत्कल्लने अनवस्थाप्यम् । तथा तस्य साधुना भणनेऽप्यमुत्कलने यद्युपाध्यायस्तं प्रवाजकं न प्रणति यथा विसर्जयमिति तदा तस्य प्रायाधितं चतुषु । श्राचार्यस्या भणने चतुर्गुरु । तथा उपाध्यायः साधुप्रेषणे यदि न मुस्कलयति तदा चतुषु ततो वृषभादिक्रमेण पूर्ववद वर्तमान प्रायधिशं साम्यं यावत्तमेवस्था प्यम् । आचार्यस्य तु चतुर्गुरुकादारभ्य तावद्वक्तयं यावत्स हातिक्रमे पाराचितम् अत्रापि निच्या इव चत्वारो भेदाः। तथा चाह अकाण निगवादी, कपरून संजरंत तो दिइयो । श्रागमणदेस भंगे, चतुत्यो मग्गए सिक्खं ॥ प्रथमोऽध्वनिर्गतादिको, द्वितीयः कल्पस्थकं बालकं संस्मरन। तृतीया परचक्रागमनेन देशभद्रे, चतुर्थ पार्श्वस्थादि कितः शिक्षां मार्गयति । श्रमीषां च व्याख्यानं सविस्तरं प्राग्वनिरवशेषं द्रष्टव्यम् । अत्रापि चरमं मुक्त्वा शेषाणां त्रयाणामित्वरो दिग्बन्धः, चतुर्थस्य तु वाचकचिकन व्य० ६४० । सूपम् ने निगंधा पनि संजोइया सिया णो कप्पति निग्गंधी निर्गचे अणाच्किता शिि अणमा प्रागयं स्वयायारं सबलायारं संकिलद्वापारं चरितं तस्स वाणस्स अणालोयावित्ता अपमिकमात्रेताजा पाय अप्यभिवा पुष्ठिर वा बाइचए वा जवद्वावित्तए वा संचुंजित्तए वा संवसित्तए वा तीसे इत्तरियं दिसं अणुदिसं वा उद्दिसित्तर वा धारितए वा ।। १ ।। व्य० अ० उ० । अस्य सुत्रस्य संबन्धमाहशिचीहिगारे, ओमन्नते व समते । मम आरंजो नवरं पुरा दो वि निम्र्य ॥१॥ Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११८) खयायार अभिधानराजेन्डः। खयायार निग्रन्र्थीनामधिकारे अवसन्नत्वे षपोद्देशके चरमसूत्रद्वया- तां नेतुं प्रतिपद्यन्ते । अविद्यमाने तु चैत्यसाराकारके तस्या न. दनुवर्तमाने, सप्तमे उद्देशके सूत्रद्वयस्यारम्भो भवति । तत्र यने अभक्तिनिमित्ताश्चत्वारो गुरुकास्तासां महत्तरिकाणां प्रायथा षष्ठोद्देशके चरमसूत्रद्वये एकस्मिन् सूत्रे निग्रंन्धीद्विती- यश्चित्तम् ॥५॥ यसूत्रे निर्ग्रन्थ पवमिहापि न । यत पाह-नवरं सूत्रद्वयेऽपि द्वे आगमाणं सकारं, हिंमंति तहिं विरूवरूदेहिं । अपि निर्ग्रन्थ्यौ, एवमनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-ये निर्ग्रन्था निर्ग्रन्थ्यश्च सांभोगिकाः स्युस्तेषां मध्ये निर्ग्रन्थीनां न लानेण सनियट्टा, हिंमंती तो तहिं दिट्ठा ।।६।। कल्पते निर्ग्रन्थाननापृच्छयान्यस्मात् गणादागतां, तताचारां एवं सत्कार संमानं च प्रतिगृह्य गुरुसमीपे आगमनं, ततो संक्रिष्टाचाराममीषां शब्दानामर्थःप्राग्वत ।यस्मिन् स्थाने सी-| लाभेन वस्तुबाजेनोपेताः सभिवृत्ता विरूपरूपैरन्यदेशसत्कैस्तैदति स तस्य स्थानस्य अनालोच्य अप्रतिक्रम्य प्रायश्चित्तमप्र- | वस्त्रैः प्रावृतास्तत्र भिक्कां हिण्डन्ते चैत्यवन्दनाय वा ब्रजन्ति, तिपाद्य प्रष्टुं वा वाचयितुं वा उपस्थापयितुं वा षष्मा संभोगा- तत्र हिण्डमाना वृषनर्देष्टा ॥६॥ नामन्यतमेन संभोगेन संमोक्तुं वा तम्याम् इत्वरां दिशमाचार्य एतदेव स्पष्टं जावयतिलकणामनुदिशं वा उपाध्यायप्रवर्तिनीलकणामुपदेणुं वा अनु- सकारिया य आया, हिंमंति तहिं विरूवरूवोहिं । मातुं, नापि तस्याः स्वयं धारयितुमित्येष प्रथमसूत्राकरार्थः । वत्थेहि पाउया ते, दिट्ठा य तहिं तु वसभेहिं ।।७।। सम्प्रति जाध्यविस्तर: सत्कारिताश्च महत्तराः प्रवृत्तकार्या यत्र गुरवास्तष्ठन्ति तत्रामुत्तं धम्मकह निमि-त्तमादि घेत्तृण निग्गया गच्छा। यातास्तत्र च विरूपरूप नाप्रकारैर्महावस्त्रैः प्रावृता हिरामपरमवणचेइयाणं, पूयं काऊण आगमणं ॥ न्ति, ताश्च तत्र हिएममाना वृषभैरीष्टाः॥७॥ कस्याप्याचार्यस्य शिष्या, सा,सूत्रम.उपलकणमेतदर्थं च गृही- निक्खा ओसरणम्मि क, अपुत्ववत्थाउ तान दणं । स्वा, तथा धर्मकथाः पठित्वा, निमित्तं चातीतानागतादिकं गृ- गुरुकहण तासि पुच्छा, अम्हे दिना न वा दिया। होत्वा, श्रादिशब्दाद्विद्यामन्त्रचूर्णयोगांश्च ज्ञात्वा गच्छान्निर्गता। भिक्कापामवसरणे वा अपूर्ववस्त्रास्ता दृष्ट्वा वृषभा गुरुकथनं ततः संनिमित्तादिबलेन धर्मकथया च इज्यादीनामीप्सिता जाता। ततः संस्तवेनानावृन्य चैत्यायतनप्रज्ञापनाश्चैत्यायतनं कृतवन्तो,वृषभैर्गुरोनिवेदितम् । तत आचार्येण वृषभा भणिता:कारितवती,विपुलं तत्र सत्कारसमुदयमनुभवति। अन्यदा सा पृच्छत ता पार्यिकाः, कुतो युष्माकं तानि वस्त्राणि । ततो वृषमहत्तरिका तस्याः संबोधनार्थ विहारप्रत्ययं वा चैत्यम जैस्तासां समीपं गत्वा पृच्छा कर्तव्या-यथा आर्याः! नास्मामुद्दिश्य वा तत्र समागता, सा तस्याःशिध्या परितुष्टा, तत इ. भिरेतानि वस्त्राणि दत्तानि, नापि केनचिहीयमानानि भस्माभ्यगृहेषु विविधान्यशनादीनि वस्त्राणि च महाििण तस्या मह निदृष्टानि ॥८॥ तराया महत्तरिकया साऽनुशिष्टा-किमद्याप्यायें ! पावस्थेन न निवेदियं च वसभे, आयरिए दिट्ठ एत्थ किं जायं । तिष्ठसि, कुरु संयमे समुद्योग,स्वयं वा सा नद्यतकामा, एवं त- तुम्हे अम्ह निवेयह, किं तुज्झहियं नवर दोसि ।। स्यामुपस्थितायां यदि चैत्यानामन्यः शुश्रूषकोऽस्ति ततस्त लहुगो लहुगा गुरुगा, छम्मासा होंत लहुग गुरुगा य । स्मात्स्थानात्प्रतिकाम्यते । अथ नास्ति चैत्यानामन्यः शुश्रुषक छेदो मूलं च तहा, गणं च हाओ विगिंचेजा ||१०|| स्ततो यदि तस्मात्स्थानात् प्रतिक्राम्यतां महत्तरिका नयति, तदा चैत्यभक्तिनिमित्तं तस्याः प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकम् ॥२॥ अत्र द्वयोगाथयोयथासंख्येन पदघटना सा चैवम्-संयतानि यत्किमपि वस्त्रादिक बध्यते तत्सर्व गुरवे निवेदनीयम, अनिएवं पूजां महतरिकायाः कृत्वा महत्तरिकया सह गुरुसन्नि वेदिते प्रायाश्चत्तं लघुको मासः। (वसभे इति वृषभे पृच्छधावागमनम, एतदेवानिधित्सुराह के वृषभेण पृच्चायां कृतायां यदि न निवेदयन्ति तदा चत्वारो धम्मकहनिमित्तेहि य, विज्जामंतेहि य चुप्ताजोगेहिं ।। लघुकाः। प्राचार्येऽपि पृच्चके यदि न कथयन्ति तदा चत्वारो इत्यादि जोसिया णं, संथवदाणे जिणाययणं ॥३॥ गुरुका। याद पुनराचार्यैरधिकिप्ताः-यथा कि युप्माभिन निवेदि. धर्मकथानिनिमिचैर्विद्यामन्त्रश्चूर्मयोगैश्च इत्यादि जोषित्वा तानि,नदा यम्वावृता तदा चतुर्लघुकम् । अथानावृताः सत्यो न प्रीणयित्वा संस्तवदाने परिचयकरणे तथाविधप्रज्ञापनया कथयन्ति तदा चतुर्गुरुकम् । अथ ता ब्रुवते-यद जणन्ति तद्रष्टं जिनायतनं कारितवती ॥३॥ स्यात् तदा पएमासा लघवः। अथाभिदधति-किमत्र जातं यदि न निवेदितम् तदा षण्मासा गुरवः प्रायश्चित्तम् । अथवा भाष. संबोहणहयाए,विहारवित्ती व जिणवरमहे वा । न्ते-यूयं किमस्माकं निवेदयत,अत्र प्रायश्चित्तं दः। किं युष्मामहयरिया तत्य गया, निज्जरणं भत्तवत्थाणं ॥ कमस्मदधिकं नवरमावां परस्परं द्वे भ्रातृभागमे, एवं तासां तस्याः संबोधनार्थ विहारवृत्त्या वा जिनवरमहे वा तस्या म-1 ब्रुवतीनां प्रायश्चित्तं मूलम । तस्याश्च प्रवर्तिन्या गणो हत्या अ. हतरिका तत्र गता तत्र इभ्यगृहेषु तस्या विविधस्य जक्त- न्यस्या दीयते। अथ साऽपि नेच्छति ततोऽन्यस्या दातव्यः। प्रथ स्य महार्हाणां वस्त्राणां निर्जरणं दानं तया कारितम् ॥४॥ साऽपि नेति तान्यस्या दीयते ॥ ६ ॥१०॥ अणुसह उज्जमंती, व विज्जए चेइयाण सारवए। एतदेवाह-- पमिवज्जति अविज्ज-तए उ गुरुगा अभनीए ॥५॥ अमस्सा देंति गणं, अह नेच्चति तो विगिंचते तं पि । ततः सा महत्तरिकया संयमोद्योगकरणे समनुशिष्टा,स्वयंवा पुणरवि दितन्नस्सा, एवं तु कमण सन्यासि ॥१२॥ उद्यच्चन्ती वर्तते। तत्र विद्यमाने चैत्यानां सारापके साराकारके अन्यस्या गणमाचार्या ददति गणं हत्वा तं पूर्वी प्रवर्तिनी पताशा Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२६) खयायार अभिधानराजेन्द्रः। खयायार विगिश्चयेत् परित्यजेत् । पुनरन्यस्या गणं ददति एवं क्रमेण स.] ज्येत, ततोऽनापृच्छया ग्रहणे जानत्यस्तास्तमप्युपचारं गृढीसामपि पूर्वस्याः पूर्वस्या अनिच्छायां गणो दातव्यः । सर्वासा- युः, तथा च सति महान् दोषः। अथ वा सा सिरूपुत्रिका तामनिच्छायां सर्वासां परित्यागः ॥ ११ ॥ सांसंयतीनामुत्कृष्टान्यनन्तकानि वस्त्राणि दृष्टा जिन्ना वसन अथ कस्मात ता गणं दीयमानं नेच्छन्ति, तत पाह हणलोभेन वित्तभक्तिमुपागता-नविष्याम्यहं प्रवजितेति विश्रपवत्तिणिममत्तेण, गीयत्थातो गणं जई। ज्य गृहीते अगृहीते च लिने उत्कृष्टवस्त्राणां स्तन्यं कुर्यात् १७७ पर पाहधारइत्ता ण इच्छंति, सव्वासि पि विगिंचणा ।। १ ।। चीसज्जिय नासिहित्ती. दिलुतो तत्थ घंटलोहेण । यदि गीतार्धा अपि गणं धारयितुं प्रवर्तिनीममत्वेन नेचन्ति तदा सर्वासां विगिचना परित्यागः ॥१५॥ तम्हा पवत्तिणीए, सारण जयणाएँ कायव्वा ॥१॥ चोयग गुरुको दंडो,पक्खेवग चरियसिहपुत्तीहिं। चोदकः प्राह-नन्वेवं विसर्जितास्ता नछदयन्ति, तस्मान्मा कि यतामीरशो गुरुको दण्डः । प्राचार्यः प्राह-दृष्टान्तस्तत्र घएटा. विसयहरणट्टया ते-णियं च एयं न नाहिति ॥१३॥ लोहेन । किमुक्तं भवति-यस्मिन्नेव दिने यत्र लोहे घण्टा कृता चोदकः प्राह-प्रवर्तिन्याः तुच्छे अपराधे गुरुको दएमो दत्तः।। | तल्लाहं तस्मिन्नेव दिने विनष्टम् । एवं यत्र दिवसे ताः स्वचन्द. प्राचार्यः प्राह-अपराधोऽपि तासां गरीयान, यत् व्याहताः स तो वस्त्राणि गृहीतवत्यस्तस्मिन्नेव दिने ता विनष्टाः,यत पते दो. त्यो निष्ठरंजापन्ते। अभ्यश्च-ता एवमशिक्ष्यमाणा अनापृच्च्योपधि पास्तस्मात् प्रवर्तिन्याः सारणा यतनया कर्तव्या ॥१०॥ गृहन्स्यश्चरिकासिद्धपुत्रीणां प्रक्षेपमुपचारं विषयनिमित्त तामेवाहहरणार्थतया न ज्ञास्यन्ति, नापि कयाचित्सिकपुत्रिकया स्तै धम्मं जई कान समुट्ठियासिं, अप्पेव मुग्गंत कुमसरहिं । न्यकरणाय प्रवजितया एतत् उत्कृष्टवस्त्रादिकं स्तेनितं न कास्यन्ति, तस्मादतनिकापननिमित्तमेष गुरुको दएमः ॥१३॥ तदाणि वच्चामा गुरूण पासं,भव्वं अभब्वं च वदंति ते उ१६। एतदेव सप्रपञ्चमाह सा परिवाजिका, सिद्धपुत्रिका था यदि संयतानामुत्तिष्ठति, प्रवराहो गुरु तासिं, सच्चंदेणोवहिं तु जा घेत्तुं । ततः सा प्रवर्तिन्या वक्तव्या, यदि धर्म कर्तुं समुत्थिताऽसि त. हि संप्रति ब्रजामो गुरुणां पार्श्वे यतो भव्यमभव्यं वा ते वि. न कहती भिन्ना वा, जं निट्ठरमुत्तरं वेति ॥१३॥ दन्ति वयं तु किं जानीमः । अपराधोऽपि तासां संयतीनां गुरुरेव । यतः स्वच्छन्दास्ता उप गुरवः कणं जानन्तीति चेत् आहधि गृहीत्वा न कथयन्ति । भिन्ना वा ज्ञाता वा सत्यो यनिष्ठुरमुतरं युवते । अन्यच अनापृज्य गृह्णन्त्यो विषयहरणार्थतया जो जेण अनिप्पाए-ण एति तं भो गुरू वियाणंति । चरिकासिरूपुत्रीभिः प्रक्केपर्क न ज्ञास्यन्ति ॥१४॥ पारगमपारग त्ति य, लक्खणतो दिस्स जाणंति ॥२०॥ पतदेव भावयति यो येनाभिप्रायेण समागच्चति तत् भोः ! गुरवो विजानन्ति । अवियत्ता निक्खंता, निरोह लावनलंकियं दिस्सा। । तथा प्रवज्याग्रहीतुकामं दृष्टा लकणत एतत् जानन्ति, यथा-पष विरहालंने चरिया, आराहणा दिक्खलक्खेण ॥१५॥ | प्रवज्यायाः पारगो भविष्यत्येषोऽपारग इति ॥२०॥ तथाकाऽपि महेला कुटुम्बिनोऽवियत्ता अप्रीतिमती अहमिति प्रवजिता, नवरं संयतीत्वे निरोधेन कुतोऽपि कर्मकरणादीनामर्याय पत्ता पोरिसिमादी, काया मुव्वाय वत्थु साइंति । निर्गमनम्,ततः शरीरस्य सावण्यमुद्भतं यातं,तां सावण्यालङ्कतां चोदेति पुनदासे, रक्खंती नान से भावं ॥ २१॥ भिवामटन्ती स भर्ता दृष्ट्वा लोभं गतःसा चात्मतृतीया भिक्का प्राप्ता पौरुष्यादिकं प्रथमपौरुष्यादिकं गुरवे निवेदनीया । मटतीति विरहो न विद्यते यत्र तामापयति, ततः स चरिकां तथा (गता) बुजुक्षिता,नद्वाता परिश्रान्ता,तथा अषिता,पतदपि दानसमानाभ्यामाराधयति । ततश्वरिका ब्रूते-संदिश यन्मया संयत्यो गुरूणां कथयन्ति । गुरुश्च पूर्वदोषान् चोदयति । तथा कर्तव्यम्। स प्राह-एतां सती तथा कुरुत यथा प्रतिभज्यते,तत: (से) तस्या दीक्विताया भावमनिप्रायं द्रष्टुं ज्ञात्वा गुरवो सादीकाअक्ष्येण दीकाव्याजेनाहं प्रवजिष्यमीत्येवंरूपेण तां सं- रक्कयन्ति ॥२१॥ यतीमुपागता ॥१५॥ साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतः प्राप्तपौरुष्यादिकमिति विवृणोतिअहवा अहो कोई, रूवगुणुम्माइतो सुविहियाए । जा जीऍ होति पत्ता, नयंति ता तीऍ न गुरुसमीवे ।। चरिगाए पक्खेवं, करेज विदं अविदंतो॥१६॥ छाउव्यायनिमित्तं, वितिया तइयाएँ चरमाए ॥३॥ अथ वा कोऽप्यन्योऽविरतः सुविहितायाः संयत्या रूपगुणेनो यस्यां पौरुष्यां संयतीनां पार्श्व प्राप्ता भवति,तस्यां पौरुष्यां सं. मादित उन्मादं ग्राहितः, जिमविन्दन् अलभमानश्चरिकया| यत्यो गुरुसमीपं नयन्ति। अथ सा लगता,उद्याता वा,तहि तथिदानसंमानाभ्यामाराधितया प्रकपमुपचारं कुर्यात् ॥ १६ ॥ मित्त तेन कारणेन तस्यां तु द्वितीयस्यां तृतीयस्यां, चरमायां सिका वि कावि एवं, अहना नक्कोसणंतगा जिन्ना । । वा गुरुसमीपं नीयते, नीत्वा च गतादिकं सर्व कथ्यते । पतेन होहं वीसनेन य, गहियागहिए यलिंगम्मि ॥१७॥ । गतोद्वातेति व्याख्यातम् ॥२२॥ अथ वा बरिकाया प्रभाव चरिकया प्रयोजनासिकौ, काऽपि | साम्प्रतम् " उषिता" इति जावयतिसिद्धाऽपि सिरूपुत्रिकाऽपि एवं दानसमानाभ्यां गृहीत्वा प्रय- चरमाऍ जाव दिज्जर, भत्तं विस्सामयंति णं जाव। Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२० खयायार अभिधानराजेन्दः । खयायार ता होइ निसा दूरं, च अंतरं तेण वुच्छम्मि ॥२३॥ | शैक्षी छूते-'अन्यो' इति संबोधने, अहमविघाटा अविकटा वर्त, यदि वा मा मां प्रवजितां निजवर्गः पश्येत्, ततः स व्रतात् चरमायां पीरुप्यां समागता, सा च छाता, ततो यावत् तस्यां चरमायां पौरुभ्यां भक्तं दीयते, भक्तानन्तरं च संयत्यस्ता वि. त्याजयेत्, तस्मादिदानी यूयं चैत्यानि बन्दध्वमहं वसति रक्काभामयन्ति, तावनिशा प्रवति दूरं वा गुरुणामुपाश्रयात्तेन मि, एवमुक्ते एकया तरुण्या सह प्रतियपालिका स्थापिता, ततो गतास्वार्यिकासु सा शैका तरुणीमार्यिकां बूते ॥२६॥ सा तत्रैव संयतीनामुपाश्रये उषिता, प्रभाते च गुरुसमीपे नेप्यते ॥२३॥ नवम्मो सो धणियं, तुझ धवो जो तयासि नित्तएहो । नाहिंति समं ते ऊ, काई नासेज्ज अप्पसंकाए । वजिचारिं नव्वएणो, इति नाते विगिंचणा तीसे ॥३०॥ जानन नासेज्ज तहिं, तंतु गयं वेंति पायरिया ॥२०॥ तव धवो जता यस्तदा निसृष्ट प्रासोत्, स इदानी 'धणिय' अत्यर्थ तव विषये 'उच्चस' उत्कषितः। अथवा-अन्यः कोऽपि प्रभाते हि गुरुसमीपे नेष्यते, ते तु गुरवो मां ज्ञास्यन्ति, इति विचिस्य काचिदात्मशङ्कया नश्येत् । या तु न नश्यति, व्यभिचारी पारदारिका संयती प्रार्थयामास,तां प्रवज्याव्याजेतां तत्र गुरूपाश्रये गतामाचार्याणां संयत्यः कथयन्ति, यथै न व्यापारितवान् । तत एवं विरदं ज्ञात्वा यात्-को वा तरुणो पाऽस्माकमुपाश्रयेऽनेन कारणेनोषिता । एतेन “बुच्छ साहंती रूपादिगुणोपेतस्तवानुगोऽनुरूपोवत्ततेस तव समागममिच्छति" व्याख्यातम् ॥२॥ ति । एवं तस्या नावे काते विगिश्चना परित्यागः कर्तव्यः ॥३०॥ अथ वा काचित् सिद्धपुत्रिका वा, अन्या घा, संयतीनां वस्त्राएवं कथिते प्राचार्यास्तां ब्रुवते । किम् ?, ति माह द्यपहर्तुकामा निष्कमणव्याजेन प्रविष्टा वैत्यवन्दनार्थ गता. नहु कप्पइ दूती बा, चोरी वा अम्ह काइ शति वुत्ते । स्वार्यिकासु तरुणीकृतकाः प्रतीदं ब्रूतेगुरुणा नायामि अहं, पवज्ज नाहं ति वा बूया ॥२५॥ पारावयादियाई, दिहा णं नामि यंऽतगाणि मए । (नहु ) नैव कल्पते दूती चौरी चास्माकं काचित दीक्षयि तुभ नस्थिहि विरिहे, वुत्ता खुड्डीन दसति ॥३१॥ तुम् इति गुरुणोक्ते-हाताऽहमिति विचिन्त्य प्रजेत् , यदि पारापतादिकानि, आदिशब्दात् पुएमवर्कनकादिपरिग्रहः, न वा ध्यानादं तारशीति । एतेन पूर्वदोषान् चोदयतीति व्या मयाऽनन्तकानि वस्त्राणि रटानि । णमिति वाक्यालङ्कारे, तत ख्यातम् ॥२५॥ संप्रति "रक्खंति नाउ से नायमिति " व्याख्ययम् । तत्र किं युष्माकं महत्तरिकायाः पार्श्वे तानि न सन्ति, पवमुक्तास्ताः कथं तस्या नावं लक्षयन्ति ?, इत्यत आह कुल्लकाः तुच्छतयाऽस्माकं महत्तरिकायाः परिजवो भूयादिति कृत्वा दर्शयन्ति ॥३२॥ अतिसयरहिया थेरा, भावं इत्थीण नान दुण्णेयं । कानि कानि !,श्त्यत आहवेनि इमं जयणाए, रक्खह से लक्खऽभिप्पायं ॥२६॥ कोमुव तामलित्तिग, सिंधवए कसिण जंगिए चेव । अतिशयरहिता अपि स्थविगः स्त्रीणां दुर्विज्ञेयं भावमिङ्गिता- बहुदेसिए य अन्ने, पेच्चसु अम्हं खमज्जाणं ॥३॥ कारकुशलतया कात्वा वदन्ति-एतामुत्पथपरां यत्नेन रकत, कोहम्बानि गौडदेशोद्भवानि, तामलित्तिकानि सैन्धवानि, लक्षयत च (से) तस्या अभिप्रायम् । अन्यानि च बहुदेशिकानि कृत्स्नानि परिपूर्णानि जुङ्गितानि कथं लकयन्ति !, इत्यत आह खण्डीकृतानि अस्माकं कमार्याणां क्षमाप्रधानानामार्याणां, प्रव. जच्चार जिक्खे अदुवा विहारे, तिन्या इत्यर्थः, प्रेक्षस्थ वस्त्राणति ॥३२॥ थेरीहि जुत्तं गणिणीउ पसे । उपसंहारमाहथेरीण असती तु अतव्वयाहि, सच्चंद गेएहमाणी, होति दोसा जतो उ इच्चाती। गवति एमेव नवस्सयाम्म ॥२७॥ पुच्छिन पडिच्छा, न तासिं सच्छंदया सेयं ॥३३॥ यदा सा ब्रूते-नाई तादृशीति,तदा तस्या परिस्थितेन लिङ्ग स्वच्छन्दत उपधि शिकां वा गृहतीनां संयतीनां यत इत्यादमात्र समर्पितम, तत उच्चारभूम्यां भिक्षायामथवा विहारे ग- य एबमादयो दोषा भवन्ति, इत्यस्मात्कारणात् गुरूनापृचय णिनी प्रवर्तिनी, तां स्थविरानियुक्तां प्रेषयेत, स्थविराणामभावे उपधेः शिष्याया वा प्रतीच्छा प्रहणं, न तु स्वच्छन्दता तासां अतद्वयाभिस्तस्याः सकाशात या याः कुल्लकतरास्तरुपयस्तानिः श्रेयसी ॥३॥ व्य०७०। सममुचारनूम्यादिषु प्रेषयति; एवमेव प्रथमतः स्थविरानि:,ता.। जे णिग्गंया णिग्गंधीओय संजोइया सिया कप्पति णिग्गंसामजावे असदृशवयोभिरित्यर्थः, उपाश्रये स्थापयति ॥२७॥ थीणं णिग्गये आपुच्छित्ता णिग्गंथि अागणाश्रो भागयं कइयविया उपविद्या, अत्थति निदं निविच्छंती। खयायारं सवलायारं भिएणायारं संकिनिहायारं तस्स ग. विरहालंने अहवा, जाएगइ णमो तहिं सा ॥श्न। णस्स आलोयावेत्ता पडिक्कमित्तान्जान उवट्ठावित्तए वा कैतविका कैतववती प्रविष्टा सती सा तत्र निजं निरीकमाणा संभुज्जित्तए वा संवसित्तए वा तीसे इत्तरियं दिसंवा भतिष्ठति । अथवा विरहालाने तत्र सा श्दं भणति ॥२॥ किं तद्भणति ? इत्यत आह दिसंवा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥२॥ जे निग्गंथा अविहामाऽहं अब्बो, मा संपस्सेज्ज नीयवग्गोवा। य णिग्गयीओ य मनोश्या मिया कप्पति निग्गंथाणं तं दाणि चेझ्याई, वंदह रक्खामहं वसहिं ॥२॥ | निग्गंथीयो य आपुच्चित्ता णिगंथि एणगणाओ आगपाक्षिकादिषु प्रार्यिकाश्चैत्यवन्दनार्थ प्रस्थिता अवलोक्य सा यं खयायारं० जाव तस्स गणस्स लोयावत्ता पाडकमि Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा (७२१) खयायार अनिधानराजेन्द्रः। खयायार त्ता. जाव उवट्टावित्तए वा संझुंजित्तए वा संवसित्तए तान्येव 'ममकारादीनि' कारणान्याहवा तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा नद्दिसित्तए वा पासत्यममत्तेणं, पगती विस्सा अचक्खुकता य । धारित्तए वा तं च णिग्गंथीओ णो इच्छेज्जा, सेहिमेव गुरुगणतप्पीयस्सव, नेच्छंती पामिसिच्चीतो ॥ ३४॥ णियं ठाणं ॥३॥ व्य० अ०७ न। ओमाणं नो काहिति, सिखनवद्धा व ततो सव्वातो । अस्य सूत्रस्य संबन्धमाह मा होहि सागरियं, सीयंति व उज्जुयं नेच्छे ॥४०॥ अत्येण गंथतो वा, संबंधो सव्वहा अपडिसिद्धो। यस्याः सा शिष्या तया सह तासां मैत्री ततो मा ते पावस्थाः सुतं अत्यमवेक्खति, अत्यो वि न सुत्तमतियाति ।३।। अस्माकमुपरि मन्युं कार्षीरिति, पार्श्वस्थममत्वेन नेच्छन्ति । अर्थतो अन्यतश्च संबन्धोऽप्रतिषिद्धः सर्वथा यतः सूत्रमर्थम- अथ वा सा कर्मानुभावतः प्राकृत्या प्रायःसर्वजनस्यापि द्वेष्या। पेकते । अर्थेऽपि च निर्ग्रन्थीनामधिकारे मूत्रमिदं प्रवृत्तमतः यदि चा पूर्वभवानुभावत एकस्याः प्रवर्तिन्या अचक्षुःकान्ता । सूत्रतोऽर्थतश्च संबन्धोऽस्तीति न किंचिदनुपपन्नम् ॥३॥ अथ वा सा प्रवर्तिनी श्रात्मीयस्याचार्यस्य विपये केनाऽपि नदिसोयसरिसमो वा, अहिगारो एस होई दट्ठन्यो। कारणेन कुपिता वर्तते, यदि वा गणस्य गच्छस्योपरि, पत वाचार्यों न जानाति । यद्वा तस्याः संयत्या यो निजवर्गस्तस्य उहाणंतरसुत्ता, समणीएमयं तु जा जोगों ॥३५॥ विषये प्रवर्तिन्याः प्रतिसिकिः प्रतिस्पर्द्धता विद्यते ॥३६ ॥ अथ अथवा षष्ठोद्देशके चरमानन्तरसूत्रद्वयादारभ्य एषोऽधिकारो | वा ताः सर्वा अपि संयत्यः शृङ्खलाबकाः परस्परं स्वजनाः ततो नदीस्रोतःसरशो अष्टन्योऽयं तु योगस्तावद्यावत् श्रमणीनाम- नोऽस्माकमपमानमेषा करिष्यति । तस्मान्मा सागारिकं भवतु । विकारः ॥ ३५ ॥ अनेन संबन्धेनायातस्य व्याख्या । कल्पते | यदि वा ताः सीदन्ति तच्चाऽऽचार्या न जानन्ति । सा च धर्मश्रनिर्ग्रन्था निर्गन्धीरापृच्छ्ध अनापृच्छ वा निर्ग्रन्थीमन्यगणा- या पार्श्वस्थाविग्रहायान्यत्र समागता साऽस्माकं सागारिदागतां क्षताचारां संक्लिष्टाचारचरित्रं तस्मात्स्थानात आलो.] कीतिकारणैस्तामुद्यतामपि नेच्छन्ति ॥४०॥ व्य प्रतिक्राम्य प्रायश्चित्तं प्रतिपाद्य प्रसुं वा वाचयितुं वा उप अत्र प्रायश्चित्तविधिमाहस्थापयितुं वा संजोक्तुं वा संवस्तुंवा तस्या श्वरांदिशमाचार्यमहणमनुदिशमुपाध्यायसवणां च उद्देष्टुं वा धारयितुं वा तां च भणिय वसभाजिसेए, आयरिय कुले गणेण संघेण । निर्ग्रन्ध्यः सांभोगिक्यो वा नेच्छेयुस्तहि (सेहिमेव नियं ठाणं)। लहुगादि जाव मूत्रं, एसि गणो य दायव्वो ॥४१॥ निजमात्मीयं स्थानं प्रतिगमयतामपि तां परित्यजतामपीति एवं पुव्वगमेणं, विगिंचणं जाव होइ सव्वासिं । नावः। निर्दोषस्त्वां प्रति सिद्धिरेव न कश्चनापि दोष इति सूत्र देवगण मामीणं, अमणुम चाहमगवरं ।।४।। सकेपार्थः। (२-३) वृषनैरानीतां यदि पूर्वकारणैस्तां नेच्छन्ति तदा गणं प्रासम्प्रति भाग्यविस्तर: यश्चित्तं चतुबंधु । अभिषेक उपाध्यायस्तेन ताः संयत्यो जणसंविग्गाणुवसंती, आनीरी दिक्खिया य इतरोहिं ।। नाय प्रतीच्यते मा संयतीति तथापि चेन्नेति चतुर्गुरु । एवतत्याऽऽरंभं दई, विपरिणमति-तरे व दिवा न ॥३६।। माचार्येणापि जणने ऽनिच्छायां पर लघु । कुलेन पर गुरु, गणेन काचित् भाभीरी संविग्नानां समीपेधर्म श्रुत्वा उपशान्ताातेच दास न मूवम् । तथाचाह-लघुकादि चतुर्बध्वादि प्रायश्चित्तं संविग्ना अन्यत्र विहृताः। इतरे असंविग्नाः समागताः। तैः सा क्रमेण तावत् अष्टव्यं यावन्मूनं सङ्घजणनेऽप्यनिन्छायां प्रवभाभीरीदीक्षिता । तेषां वा असंविग्नानामारम्भं रम्धनादिकं तिन्या गणोऽपहियते अन्यस्या गणो दातव्यः। अथ सा प्रवएटा सा विपरिणमति । विपरिणामे च तस्या अभिप्रायो जात तिनी ममत्वेन गण नेति तान्यस्या दीयते ॥४१॥ एवं स्वामेष संविग्नानां समीपमुपगच्छामि । एवं चिन्तयन्त्या यया पूर्वगमेन (विगिचणं) परित्यजनं, तावत् द्रष्टव्यम यावत् सर्वातेश्तरे संविग्नाः स्नानादिसमवसरणे दृष्टाः श्रुता बा । यथा सामपि भवति। ततो यस्तस्याचार्यस्य द्वितीयो गच्छः तत्र नीअमुकस्थाने तिष्ठन्ति ॥३६॥ यते । तत्रापि यदि तथैव ता नेच्छन्ति । ततोऽम्यगच्छसक्ताः साम्नोगिक्यः संयत्यस्तासां दीयते। ता अपि यदि नेच्छेयुस्ततह चेव अन्जुवगया, जह उद्देस वालिया पुव्वं । हि अन्यसाम्भोगिकानां दीयते । तथा चाह-अन्यासां मनोअविसज्जताणं पि य, दमो तह चेव पुब्बुत्तो ॥३७॥ ज्ञानाममनोज्ञानां च सर्वसंख्यया चतसृणामेकतरं स्थानं ददासा तत्र गता यत्र ते संविग्नाः गत्वा श्रुत्वा च ग्रहणशिक्कामा- ति । तत्र प्रथम स्थानमात्मीयाः संयत्यः द्वितीयं गच्छतिसेवनाशिक्षामन्यमाचार्यमन्यमुपाध्यायमन्यां च प्रवर्तिनी याच-न्यः । तृतीयमन्याः साम्भोगिक्यः । चतुर्थममनोकाः । अथ वा से एवमुक्ते यथैव षष्ठोद्देशे-चतुर्थी "मग्गए सिक्ख" मित्यर्थः अन्यथा चतुर्णामेकतरमिति व्याख्यायते ॥४॥ पूर्व वर्णिता, तथैव एषामविसंविग्नरभ्युपगता । यथा विसर्जय समप्यमणुपाणं, संजय तह संजतीण चउरो य । तां प्रवर्तिन्युपाध्यायाचार्याणां पूर्व च प्रायश्चित्तदएकस्तथै पासत्थममत्तादि व, अच्छाणादि व्व जे चउरो ॥४॥ बात्रापि कष्टव्यः ॥३७॥ समनोकानां संयतानां समुदाय एक स्थानम् समनोशानां संतं पुण संविग्गमणं, तत्याऽऽणीयं तु जइ न इच्छेजा।। यतीनां चतुर्थम। एवमेतानि चत्वारि स्थानानि । एतेषामेकतरं नियगा तो संजईन, ममकाराहि कजोहिं ॥३०॥ | समनोज्ञसंयतीनामात्मतृतीयानाम्, द्वितीयं गच्छवर्तिनीनामन्य सां पुनः संधिग्नमानसां तत्रानीतां यदि निजकाः संयत्यो म- गळयतिनीनां या स्थानं दीयते। तदभावे अमनोसंयतीनाममकारादिभिः कार्येर्नेच्छेयुः ॥३८॥ पि। अथ वा-पावस्यममत्वं, प्रकृत्या सर्वजनद्वेप्या प्रघर्तिम्या २०१ Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खयायार या को गुर्वादिति वातानिया निवारि कारणानि तेषामेकतरस्कार समधिकृत्यान्यसांभीनिनामभोगिकीनां च दीयते अथवा अभ्यनिर्गतादिका तिरंसी परचक्रागमनेन देवा, शिकां या मृगयमाणा एता या तासामेकतरामन्य साजोग दातव्या ॥४४॥ ( ७२२) निधानराजेन्द्रः | यद्यन्यसाम्भोगक्योऽपि नेच्छन्ति तदा किं कति आह 'सेहित्ति नियं ठाणं,' एवं सुत्तंमि जं तु भणियमिणं । एवं कयप्पयत्ता, ताहे य ताउ ते मुद्धा ||४४৷৷ यमसाम्भोगिनामपनियां यत्सूत्रे मणितं (सहिमेव नियं ठाणमिति) तत्कर्तव्यमस्यायमर्थ एवं कृतप्रयता अपि यदा संयत्यो नेच्छन्ति तदा ते तां मुञ्चन्तोऽपि शुद्धाः ॥ ४४॥ व्य०६३० । खर-क्षर-न० । करति स्यन्दते मुञ्चति वा अच् । जले, मेघे, पुं०। चले, त्रि । देहे, वाच० । ० म० । खर पुं०। मुखचित्रमतिशयेनास्ति अस्य वरः। गई, वाच व्य० । जी० ॥ श्र० । विष्ठाभककगर्दने, तं० । अश्वतरे, राकसमेरे कपट, जया, जयपाल, कुररपहिनि, पाच दासे, १०२० सम्पतादिकारणे पदादिगते चतुर्थ स्पर्श, कर्म० १ कर्म० । निष्ठुरे, स्था० ४ aro ३ उ० । कठिने, श्राव० ॥ श्र० । परुषे, प्रश्न० १ श्राश्र० द्वार | शा० | स्वरस्थानरूपे गेषदोषे, "केली गाय खरं च रुखं च स्था० ७ ठा० | 33 खरंट- खरएट - न० । खरएटयति लेपवन्तं करोतीति यत् तत् वरदम् । श्रव्यादौ, स्था० ४ ठा० ३ ० । खरंटण खरएटन २० निर्जने ०१० प्रथमोपदेपूर्वकं भने पर खरंटसमा खरएटसमान पुं० [अनुच्यादितुल्ये श्रमणोपास के. योहनमायादेव पन्तं करो ति । कुबोधकुशलता दुःप्रसिद्धिजनकत्वेनोत्सूत्रप्ररूपको ऽयमिया स्था०४ डा० ३ ४० खरकंट - खरकण्ट- न० । खरा निरन्तरा निष्ठुरा वा कण्टका यस्मित्वरक युत्रादिदा 'खरणमिति लोके यदुव्यते । स्था० ३ टा० ४ उ० । खर कंटसमाण - खरकएटसमान- पुं० । खरकटं खरणं तच वि तद्विमोचचीनमा अपितु सोचपुरुषादिहस्तादिषु कटकेपनि तत्समानः भेदे, यो हि प्राप्यमानो न केवलं स्वाग्रहान वक्षति । अपि तु प्रज्ञापकं दुर्वचनक एट विंध्यति। स्था० ३ ठा० ४ उ० । खरकंम–खरकाएम–न० | खरं कठिनं काएकम् । रत्नप्रभायाः प्रथमे कामे, जी खरण सोधिए, जोतिरसे, अंजणे, अंजणपुलर, रयते, जातरूबे, के, फरिहे, रिट्ठे कंमे । इमीसे णं जंते ! रयणप्पare पुढवीए रयणकंडे कतिविहे पत्ते । गोयमा ! एगागारे पते । एवं० जाव रिडे कंमे ॥ "श्मी से णं जंते !" इत्यादि । अस्यां भदन्त ! रत्नप्रन्नायां पृथिव्यां सरकार कतिविधे भगवानाह - गौतम! पोव पोमशविना तद्यथा-'रसे' इति पदेकदेशे पदसमुदा योपचारात कामं तच प्रथमं द्वितीयं वज्रकारकं तृतीयं वैमूकाएवं चतुर्थ लोहिताक्षकापड, पञ्चमं सारगकारावं, सगा समं पुलककाम, अष्टमं सौगन्धिकका राडं, नवमं ज्योतीरसकाएम, दशममञ्जनककाएमम, एकादशम प्रखनपुलाककामं, द्वादशं रजतकाएडं त्रयोदशं जातरूपकाएड, चतुर्शम अङ्कुकाराम, पञ्चदशं स्फटिककारमं पोड रिकार्ड नानादीनि का रत्नकाण्डं वज्ररत्नप्रधानं काएम बज्रकाएमम एवं शेषाएयपि एकैकं च काएम योजन सहस्रबाहुल्यम् । जी० । इमी से भंते रवणप्पजार पुढवीए खरकंमे केतियं बाणं पाते ? । गोयमा ! सोलसजोयणसहस्साई I बादल्लेणं पण्णत्ते । “ इमी से णं नंते !" इत्यादि । मस्या भदन्त ! रत्नप्रनायाः पृथिव्याः संधि पद प्रथमं वरं वराभिधानं तद कियत् वारल्येन प्रज्ञप्तं जगवानाह - इ-गौतम ? पोरुशयोजनसहस्राणि ॥ जी० । रत्नादिकारमवास्यम् इसीसे जंते रथयार पुढवी रणकं केवति ! यं बाणं पाते हैं| गोपमा एकजोपणसहस्सबाहक्षेपणं पाते । एवं० जावारहे । " इमी से णं जंते !" इत्यादि । अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः थियानं रामनिधानं कामं स्पेन महतं भगवानाह गोतम प योजना | शेषाचयवि कामानि वक्तव्यानि यावत् रिष्टं रिष्टाभिधानं कामम् । जी० ३ प्रति० । स० । (अत्र नरकावासा भुवनपतीनां भुवनानि च स्वस्थाने पानि) खरकम्म—खरकर्म्मन् - न० । खरं कठोरं कर्म कोट्टपालन गुप्त पालनादिरूपे कर्मोपादानदेती भोगोपभोगतस्यातिबारे ध० २ अधि० । खरकंमिय-खरकर्मिक मासपरिकरे यथासंभवं गृहीताकर्मणि, सा च "गोबरकंमिश्र महान 3 युधे १० मोवा आ० म० द्वि० । खरकर - खरकर - पुं० । खरास्तीयाः करा यस्य । सूर्ये, वाच० । लवणपाषाणभृतधर्मकोशकविशेषे, स्फुटितवंशे च । प्रश्न० ३ पोडशविर इसीसे भंते! यद्यप्यनाए पुदीए सरकंमे कतिविधे पाते । गोयमा ! सोलसत्रिये पण ते तं जहा -रतणकंमे, वइरे, वेरुनिए, लोहितने, सारगने, हंसगन्ने, पुलए, खरण - खरश - न० | बच्चूलादिकाले, स्था० ४ ० ३ ४० । प्रा० ३ अभ० द्वार । आध० द्वार । वरवादकर खरचापकर-शि० निपुरको दण्डहस्ते धातुके Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२३) खरतर भनिधानराजेन्धः। खलगा खरतर-खरतर-पुं० । बैक्रमसंवत् १०८० भीपत्तने वादिनो खरस्सर-खरस्वर-पुं० । चतुर्दशे परमाऽधामिके, यो वज्रकजिवा सरतरत्यास्यं विरुदं प्राप्तेन जिनेश्वरसरिणा प्रवर्तिते एटकाकुशाल्मलिवृक्कमारोप्य नारकं खरस्वरं कुर्वन्तं कुर्वन्यागच्ने, आत्मप्रवोध १४१ " प्रासीत् तत्पादपङ्कजैकमधुकृत ऽऽकर्षत्यसौ खरस्वरः । भ० ३२० ६ उ० । प्रव० । स०। श्रीवर्कमानानिधः, सरिस्तस्य जिनेश्वराश्यगणभृजातो विने- मा० चू० ॥ योत्तमः । यः प्रापत शिवसिपिडित (संब० १०८०) शरदिश्री- कति करकरएहिं,तस्थिति परोप्परं गु एहिं ति । पत्तने वादिनो, जित्वा साद्विरुद्धं कृती खरतरत्याख्यां नृपादेर्मुखात्" अप० ३२ अष्ट। सिंबलितमारुहंती, खरस्सरा तत्य रइए ।। ८३॥ खरतिक्खनखकंडूश्यविकयतणु-वरतीक्षणनखकएडूयितविक "कप्पति" इत्यादि स्वरस्वराज्यास्तु परमाधार्मिका नरकाने कदर्थयन्ति । तद्यथा-क्रकचपातैमध्य मध्येन स्तम्भमिव तान् ततनु-निका खरतीक्ष्णनखानां कण्डूयितेन विकता कृतप्रणा तनुः पातानुसारेण कल्पयन्ति पाटयन्ति । तथा परशुभिश्च तानेव शरीरं येषां ते। खादिविकृतशरीरेषु, भ० ७० ६ ०। नारकान् परस्परमन्योन्यं तक्षयन्ति सर्वशो देहावयवापनयनेन खरपम्ह-खरपदम-न० । खराणि पक्ष्माणि दशा यस्य तत् ख. तनून् कारयन्ति । तथा शालमत्री वनमयनीषणकएटकाकुलां रपक्ष्म । तीक्ष्णखरदशाके रजोहरणे, नि० चू०५ ७०। खरस्वरैरारटन्तो नारकानारोहयन्ति पनरारूढानाकर्षयन्तीति ॥ खरफरुस-खरपरुष-त्रि० । स्वरमतिशयेन परुषं वरपरुषम् । ७३॥ सूत्र० १ श्रु०५ अ० १ उ० । जी०३ प्रति०। अतिकर्कशे, प्रश्ना प्रतिकगेरे, प्रम०२ पाश्र0 खरा-खरा-स्त्री० । भुजपरिसर्पिणानेदे, जी० २ प्रति०। द्वार । “वरफरुसज्झामवमा" खरपरुषास्पर्शतोऽतीवकठो- खरामरिस-खरामर्श (प)-पुंon कर्कशस्पर्श, प्रश्न०१ आश्रवार। राध्यामवर्णा अनुज्ज्वलवर्णा ततः कर्मधारयः। भ०७ श०६ खराव-खरावर्त्त-पुं० । खरो निष्ठरोऽतिवेगतया पातकःछे४० । "खरफासधूलोमाला" वरपरुषा अत्यन्तकठोरा धूल्या च मलिना ये वातास्ते तथा । भ०७श०६ उ०। दको वा आवर्तनमावर्तः समुझादेश्वऋविशेषाणां व निष्ठुरे पावर्ते, स्था० ४1० २ ० स्वरफरुसवयण-खरपरुषवचन-1०। प्रतिकर्कशभणिते, प्रम | खरिमुक-खरिंशुक-पुं० । कन्दनेदे, ध० २ अधि०। ३माध० द्वार। खरफासणाम-खरस्पर्शनामन्-न० । नामकर्मभेदे, यदुदयाज-खरिया-खरिका-स्त्री० । चूर्णाकृतिकस्तूरीभेदे, वाच । दा तुशरीरं खरं कर्कशं पाषाणदिवद्भवति। कर्म०१ कर्म। स्याम, । बृ० ३ उ०। द्वयकरिकायां कर्मकर्या च । श्रोधः। खरवादरपुढविकाइय-खरबादरपथिवीकायिक-नसरा नाम-खरुट्टी-खरोष्टी-स्त्री० । प्रायाः लिपेइचतुर्थे लेण्याविधाने, पृथिवीसंघातविशेष काविन्यविशेष चापना तदात्मका जीवा प्रज्ञा. १ पद । अपि सराः ते च तेषादरपृथिवीकायिका अथवा खराच सा | खल-खल-पुंगनाखल-अच् अर्थादिनधान्यमेलनपवनाबादर पृथ्वी सा कायः शरीरं येषां ते खरबादरपृथिवीकायास्त दि स्थरिमने, जं० २० वताका० व्या धान्यतुषपृथकरणएव स्थाथै कप्रत्ययः । बादरपृथिवीकायभेदेषु, प्रज्ञा०१ पाद स्थाने, कल्प० ६ कण । स्खलनकृति, प्रति० । कृथितादिवि. (एतनेदाः 'पुढवीकाइय' शब्दे ) शिष्टेऽस्पधान्यादी, सूत्र०२श्रु०२ ०। धूलिराशी, लिसादिकल्के, खरमझ-खरमध्य-त्रि० । करिनाम्तःकरणे, यो हि कगेर 'सरिसवखसो' अत्र "खघथधनाम" |८|| १८७। इति वचननणनमन्तरेण शिकां न प्रतिपद्यते। वृ० ६ ००। हत्वं न प्रायोग्रहणादू । प्रा०१ पाद । 'खल' इत्यत्र तुधा. दिनूतत्वान्न खस्य हः। नीचे, अधमे, पुर्जने, पि० । खे लीखरमुह-खरमुख-पुं०। अनार्यक्षेत्रविशेषे, तद्वासिनि जने च।। यते लि-टु-सूर्ये, खं तवर्णाति सा-क-तमालवृक्के, पुन । प्रश्न०४ आश्रद्वार। सूत्र० । प्रस्तरमये औषधमदनपात्रे, वाच । खरमुही-खरमुखी-स्त्री० । तोमहिकायां काहलायाम, प्राचा खल्लइ-खाति-पुं० । स्खलन केशा यस्मात् भीमा अपा. २०१०। ज्ञा०1०रा०ा प्रव० प्रा०म० जी०सभा दाने, पृपो० । इन्द्रबुप्तरो, डात, त्रि० । खल्वाटे, वाब नि० ० । कल्प० । मौ० । नपुंसक्यां दास्यां च । व्य०६ १०।। नदीमुत्तरन् खातिना शिरसा । स्था०७०। खरय-क्षरक-त्रि०। दुष्पकत्वात् परिस्राविणि, स्था०४ ठा०४ ख लत-त्रि० । निपतात, " तविजलगई" रख10। खरके,चन्द्र सूर्य षा गृहतो राहोचतुर्थे कृष्णपुले, सू० मन्ती विडला चार्दविता गतियेंषा ते । भ० ७ ० ६ उ । प्र०२० पाहु०।० प्र० । तनेदादाही, भ० १५ श० ६ उ० । खाखिल-खलखिल-त्रि० । निर्जीव, व्य० १०॥ दासे,पृ० ३ उ०। मध्यमग्रामवास्तव्यसिफार्थवणिमित्रे स्वनामख्याते बैधे, प्रा० म०वि०। येन महावीरस्वामिनः कर्मयोः | खझगय-खागत-त्रि०ा धान्यमलनस्थानापित, प्रश्नः ३ स. कपटशलाका निहारिता। मा००१०। म्बरद्वार। खरयर-खरतर-'खरतर' शब्दार्थे। खाजनपीला-खलजनपीमा-श्री । पुर्जनदुःखोत्पादने, न०। स्वरवाय-खरवात-पुं० । मन्दरस्यापि चालनासम, तीवषा- __ " को न ण इद दोसो, जं जाय खलजणस्स पोल त्ति । तह यौ, मा० म० द्वि०। वि पयहो इत्थं, दटुं सुयनाणमइत्तोसं" नयाँ। खरसह-खरशब्द-jol खरः सनःशमोऽस्य । कुररखगे,गर्द-खलण-सखलन-न० । पुद्रलप्रतिघात, स्था०३ ग० ४ ० । भशम्दे, वाच० । व्य०७०। निपतने, प्राचा०१०म०३ उ० ! Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२४) खलणा - अभिधानराजेन्द्रः । खलुंक खलणा-स्खलना-खी० । खरामनायाम, तं० " खलना य उ. | खलंक-खाड-पुं० । अविनीते गलौ, स्था०४ ग०३ उ०। षधाश्रो सबलिकरणं च पगट्ठा" ओघ । सूत्र। (नियुक्तिस्थः) अस्य निकेपःखलदाण-खल्लदान-ज० । कुथितादिविशिष्टस्य अल्पधान्यादे निक्खेवो खलंकम्मि, चनविहो दविहो उ दवम्मि । का दाने, सूत्र० । कुपितस्य दाने, सूत्र०।२ श्रु०२ श्रा। आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ॥२॥ खलपू-खलपू-त्रि० । खलं भूमि पुनाति । पुं०। विप स्थानशो जाणगसरीरजविए, तन्वरित्ते य गल्लमाईसु । धनकारिणि, वाच। संबोधने, “ ईदनोर्व्हस्वः" ८।३। ४२ । पमिलोमो सव्वत्थे, स नावनो होइ खलुको ॥३॥ शति प्राकृते -हस्वः हे खलपु! प्रा०३ पाद । गाथाद्वयं व्याख्यातप्रायमेव । नवरं वलीवादिषु इत्यादिखलिअचरण-स्खलितचरण-त्रिशस्खलितचारित्रे,व्य०४० शब्देनाश्वादिपरिग्रहो निधीरणे चेयं सप्तमी, ततो वसी खलिअपरिसृच्छि-स्खलितपरिशुचि-स्त्री० । अविचाराणामा वंदादिषु यो गल्यादिरिति गम्यते, स द्रव्यतः खलुक ति । लोचनया शुद्धौ, ध००। प्रतिलोमः प्रतिकूलसर्वार्थेषु पाठान्तरतः सर्वस्थानेषु । ज्ञानादिसंप्रति स्खलितपरिशुधिरिति चतुर्थ श्रद्धालवणमाह- षु जावतो भवति खझुक इति गाथाद्वयार्थः ॥ २२-२३ ।। अश्यारमलकलंक, पमायमाईहिँ कह वि चरणस्स । तद्व्यतिरिक्तद्रव्यवसुंकस्वरूपमाहजणियं पिवियमणाए,मोहंति मुणी विमासका।१०।। अवदाली नत्तसो, जुत्तजुगं जंज तोत्तभंजो य । अतिचरणमतिचारो मूलोत्तरगुणमर्यादातिक्रमः स एव डि. जप्पहविप्पहगामी, एऍ खलुंका नवे गोणा ॥श्व। एमीरपिण्डपाण्डुरगुणगणमालिन्य हेतुत्वाम्मलं तच्चरणं शश जं किर दव्वं खुज्ज, कक्कसगुरुगं तहा दुरोनाम । धरस्य कलङ्क श्व तं प्रमादादिभिः प्रमाददर्पकसौराकुट्टिकायाश्चारित्रिणः प्रायेणासंभवात् कथमपि कएटकाकुलमार्गे यो तं दव्येसु खचुकं, वंककुमिन चेष्माइन् ॥२॥ नापि गतः कण्टकभङ्गवच्चरणस्य चारित्रस्य जनितमुत्पा- मुचिरं पि वकुडाई, होहिंति अणुज्जुइज्जमाणाई । दितम् । आकुट्टिकादीनां पुनः स्वरूपमिदम् । करमदिदारुगाई, गयंकुसाई व विटाई ॥२६॥ "पाउट्टिया उ तिव्वा, दप्पो पुण होइ वग्गणाईश्रो। विगहाइयो पमाश्रो, कप्पो पुण कारणे करणं" ॥ (अबदालि त्ति) अवदारयति शकटं, स्वस्वामिनं वा विना शयत्येवंशीलोऽवदारी उत्त्रासको यो यत् किंचनावलोक्य उपलकणं चैतदशविधाया, प्रतिसेवायाः सा चयम् उस्त्रस्यति ( जोत्तजुर्ग जंज ति) योक्तुं तथाविधसंयमनं युग “१दप्प २पमायणाभोग, ३ आउरे ४ावईसुय५। प्रतीतमेव, स जनक्ति तोषनाश्च उभयत्र "कर्मण्यण ।३।। संकिए ६ सहसागारे, ७ नए ८ पोसेय हवीमसा" ॥१०॥ इति(पाणि०)अण् उत्पथविपथगामी उत्पथ सन्मार्गो विपथो वि. अपिशब्दः संभावने संभाव्यत एतच्चारित्रिणो विकटनयाss रूपमार्गस्ताभ्यां गमनशील एतेऽवदार्यादयः खलुका भवन्ति । लोचनया शोधयन्त्यपनयन्ति मुनयो यतयो विमलश्रद्धा निष्क भवेयुर्गोणा वस्लीवर्दा उपलक्षणत्वादश्वादयश्च ॥२४॥ अमुमेवार्थ लङ्कधर्माभिलाषाः शिवभकमुनिवत् ॥ १०४॥ ध०र०। प्रकारान्तरेणाह-यदिति सामान्यनिर्देशे किलेति परोक्काप्तवाखलिण-खलीन-न० । कविके, ( लगाम)। झा०१ श्रु०१७ दसूचकः, व्यं दाादि कुब्जमिव कुब्जं मध्यस्थूलतया कर्कशं मात्रा०म०। कायोत्सर्गदोषभेदे, “ ठाय खलिणं व जहा च तत् कठिनतया गुरुकं चातिनिचितपुभवतया कर्कशगुरुस्यहरणमग्गओ का" खलिनमिव कविकमिव रजोहरणमग्रतः कम् । तथा तदेव दुःखेनावनमयितुं शक्यत इति दुरवनामं ककृत्वा तिष्ठत्युत्सर्ग इति खलीनदोषः वाऽत्र समुच्चये अन्ये ख रीरकाष्ठवत तद्व्ये षु खमुकं वक्रमनृजत्वाव कुटिल विशिष्ट लिनार्तवा जीवादूर्वाधः शिर कम्पनं खलीनदोषमाहुन प्रव०५ कौटिल्ययोगात (वेढमाइति)मकारोऽलाक्षणिकः। ततश्च चेष्ट द्वार । प्रा० चू० । श्राव। ग्रन्धिभिराविळं व्याप्तं चेष्टाविकम,एषां विशेषणसमासः ॥२५॥ खलिय-स्खलित-त्रि०ापलशकलाद्याकुशनूभागे,लाङ्गमिव इहैव दृष्टान्तमाह-सुचिरमपि प्रभूतकालमपि(बकुमाई ति)वकायत्तस्वलितम् । अनु० । कार्यमकृत्वा प्रपतिते, नि०३वर्ग। नि- एयवधारणफलत्वाश्च वाक्यस्य. वक्राएयेव जविष्यन्ति । न क. पतिते,श्राव० ३ ० " खनिश्रो नेहो" प्रा०२पाद । (स्ख- दाचित् । ऋजुभावमनुभविष्यन्ति । (अणुज्जुइज्जमाणाति) लितप्रायश्चित्तं 'सुत्त' शब्द) एकं स्वरूपतोऽनृजून्यपरं च तेषां क्वचित् कार्येऽनुपयोखलीण-खल्लीन-न । 'खविण' शब्दार्थे, गात् केनचिद् ऋजूक्रियमाणानि । कान्येवंविधानात्याहखबु-खल-अव्य० । अवधारणे, श्रा० म०वि०। पं० सू०नि० करमर्दी गुल्मन्नेदस्तहारुकानि । तथा-( गयंकुसाई व विटाई ति) चस्य गम्यमानत्वाद् गजाडूशानीव वक्रतया वृन्तानि च चू०। नि० । श्रा० । विशे० । दशा० । सूत्र० । पञ्चा० । स०। फलबन्धनानि प्रक्रमात करमा एवोक्तरूपाएयनेकधा व्यपवकारार्थे, दर्श०। उत्तः । सूत्र० । निश्चये, प्रा० ०१ खलुंकाभिधानं च कावाऽनेकविधकुशिष्यदृष्टान्तप्रदर्शनार्थमिअ। संथा० । रा० । तं० । उत्त। पुनःशब्दार्थ, प्राचा०१ ति गाथात्रयार्थः।।२।। शु.२०१उ० । उत्त। विशेषणे, दश०४ अ० । नि००। सम्प्रति यमुक्त (३३ गाथायाम) प्रतिलोमः सर्वार्थेषु नावतो नि०। सूत्र०ाविपासवाक्याबारे,आचा०११०२१०५ उ०। भवनि । तदन्निव्यक्तीकर्तुमाहशा। विपा० । कर्म। प्रव०॥ जास्था०ादशा० भ०।जी। सूत्र। उत्स० । पञ्चा० । पादपूरणे, निघू०१० उ० । श्रा०। दंसगमसगसमाणा, जगवेच्चुगसमा य जे होति । बीप्सायाम् , निषेधे, पाच । ते किर होंति खलुंका, तिक्खमिक चममद्दविया ।। Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२५ ) अभिधामराजेन्द्रः । खलुंक " " जे किर गुरूपदिणीया, समझा असमाहिकारमा पावा । कलहकरणस्सनावा, जिवयणे ते किर खलुंका ||२८|| पिणा याची भिन्नरदस्सा परं परिजवंति । निव्यपिज्जा सढा, जिएवयणे ते किर खलुंका ||२६|| (सममा ) दंशमशकैः समानाय शम मागास्ते हि जात्यादिनिति तथा जलकामिकसमाश्च प्रायशिया के नवन्ति दोषग्राहितया अप्रस्तुतपृच्छादिनोजकतया च पठन्ति (अि गसमा यति) यथा वृश्चिकोऽवष्टब्धो विध्यति कण्टकेनैव ये शिष्यमाणा गुरुं नयन्ति ते एवंविधा कि मेयन्तिका भावत इति गम्यते सांडणा असहिष्णाय नृ दवोऽलसतया कार्यकरणं प्रत्यदकाः, चएमाः कोपनतया, मादेवेन चरन्ति मार्दविकाः शतकृत्योऽपि गुरुप्रेरिता न सम्यगनुठानं प्रति प्रवर्तन्ते किंत्वलसा एव श्रमीषां द्वन्द्वः ॥२७॥श्रन्यच्चये किल गुरुप्रत्यनीकाः आचार्यादिप्रतिकूलाः कुलवालकवत् सबलाः सबलचारित्रयोगात् श्रसमाधिकारका गुर्वादीनामसमाधानजनकाः, अत एव पापा अधिकरणकारकात्मानः, क लड़कर्तृस्वभावाः सदनुष्ठानं प्रति प्रेर्यमाणा युद्धायैवोपतिठन्ते । जिनवचने सर्वज्ञशासने ते किल खलुका उच्यन्त इति शेषः ॥ २८ ॥ तथा पिशुनाः सूचकाः, श्रत एव ( परोवयावीति ) परोपादिनः भिन्नरस्या विश्वस्तजनक चितरहस्य मेदिनः तथा परमम्यं परिग केनचित्प्रकारेणाभिभवन्ति । ( निव्वेयपिज्जति ) निर्वेदनीया निर्वेदं प्राप्याः प्रक्रमाद्यतिकृतेन । पाठान्तरतो निर्गता वचनीयादुपदेशवाक्यात्मका ये ते निर्वचनीयाः, चः समुच्चये, भिन्नक्रमश्च ततः शाश्त्र मा याचिन पश्यते च नियनिस्तीलसमुषि " सुगममेव जि. नवचने सर्वाने भविता ये इति शेषः ते प्रागभिहितस्वरूपाः किल खलुंका इति गाथात्रयार्थः ॥ २६ ॥ ततः किमित्याह तम् खलुका-कथं पंणि पुरिसेण । कायच्या दोर मई, सज्जुसहावम्मि भावेणं || ३० || तस्मात् इत्यं दोषमा पनि पुरुषेोपाद ख्यादिना च कर्त्तव्या भवति मि किः क्व ऋजुस्वजावे श्रार्जवे भावे परमार्थे न तु बहिर्वृत्यै देति गाथार्थः ॥ ३० ॥ उत्त० २६ अ० । म खलुंकदृष्टान्तेन विनीत शिष्य प्ररूपणाथेरे गहरे गग्गे, मुणी आसि विसारए । आइले गणिभावयि समादिपसिंघ ॥ १ ॥ गाग्यों नाम गणधरो मुनिः स्थविरः आसीत् । गणस्य गच्छ स्य धारकत्वाङ्गणधरः, धर्मे स्थिरीकरणत्वात् स्थविरः, गोत्या गायों मनुते सर्वसायविरमणस्थ प्रतिज्ञां कुरु तेइति मुनिः कीद - विशारदः सर्वशास्त्र पुनः कीर्णः श्राचार्यगुणैर्थ्यासः पुनः कीटाः खःगणिभावे आचार्यत्वे स्थितः । पुनः स गायों गणधरः समाधि धसेोटितं ज्ञानदारियां समाधि प्रति संयत्यर्थः । वह बहमास, कंतारं वत्तई । १८२ . खलुंक जोए रवमाणस्स, संसारं वचई || २ || यथा यथा पहने शकटादी विमीषभादन] (माणस इति ) उद्यमानस्य सारथ्यादेः ( कंतारम) अरण्यमतिवर्त्तते सम्पूर्ण जवति । तथा योगे संयमव्यापारेषु शिष्यान् वाहयतः श्राचार्यस्य संसारः श्रतिवर्तते शिष्याणां विनीतत्वं दृष्ट्वा स्वयं समाधिमान् जायते । शिष्यास्तु विनीतत्वेन स्वयं संसारमुट्टयन्ते एष एवं सभयोर्विनीत शिष्य सदाचार्योग सम्बन्धः संसारच्छेदकर इति भावः ॥ २ ॥ स्वयंके जो जो बिम्मा लिई । समादि च वे तोओ य से जाई ॥ ३ ॥ यस्तु साधिका गतिभा योजयति रथे स्थापयति । ससारथिः (हिम्माणो इति) विशेषेण तान् खकान् मन् प्राजनकेन तामयन् संक्लिश्यते संक्लेशं प्राप्नोति । श्रत एव श्रसमाधिम् असातां वेदयते प्राप्नोति च पुनस्तस्य खलुंकवृषभयोजयतुः पुरुषस्तोत्रका प्राजनको भज्यते कानामति नात् प्राजनको प्रज्यते इति भावः ॥ ३ ॥ एगं मसइ पुच्छंमि एवं विंध अभिक्खणं । एगो नंन समितं एगो उप्पटुपडिओ ॥ ४ ॥ पुनः खलुंकवृषभस्वामी रथारोहको रुष्टः सन् तं खकं पुच्छे दन्तैर्दशति एकम् । स एव । एकं गनिवृषभम् अजीणं वारं २ विध्यति प्राजनकस्य आरया व्यथयति । एको गलिर्वृषभः समिलां युगको लिकां भनक्ति । एकः पुनर्गतिवृषभः उत्पथमार्ग प्रस्थितो भवति ॥ ४ ॥ एगो पइ पासेणं, निवेस निवज्जई । उक्कुद्दइ उप्फिमई, सढे बालगवीव || २ || एको गलितादितः सन्पार्श्वेन यामागे पत म्याकधिभूमी नियसने मीचैस्तिष्ठति एक प स्पति नृत्य एक उत्कृतिल तु भवति यः हाम्रो भवति पूर्तत्यमाचरति अन्य कश्चित् गलिलीवर्दो वाजगवीं लघिष्ठां धेनुं दृष्ट्वा तामनुवजति ॥ ५ ॥ माई मुछे पमइ, कुछे गच्छ पडिपरं । मलक्खेण चिट्ठा, वेगेण य पहावई ।। ६ ।। एको मायी मायावान् वा मस्तकं भूमौ निशिष्य पतति । एकः कश्चित् कुरुः सन् प्रतिपथं प्रतिकृलः पन्याः प्रतिपथस्तं प्रतिपयम अतनमार्ग त्यक्त्वा पश्चान्मार्ग गच्छति । एकः क शिवगृह निष्कृति मृतकृत्याविष्कृति निष् भूत्वा पततीत्यर्थः । यदा च पुनः कथञ्चित् सजीकृत्य उत्थापि तस्तदा वेगेन प्रधावति, अनया रीत्या धावति यथा पश्चात्स्वा मी ग्रहीतुं न शक्नोति ॥ ६ ॥ सिद्दिन्ते भाई जुगं । " सेवि सुया इसा, लम्जुहिचा पाई ॥ ७ ॥ एकरछनालो दुष्टजातीयः कश्चित् (सद्धिं इति) रस्मि बन्धनरनिसिपला त्रोटयति अन्योऽङ्ग्तो दमितुमशक्यो युगं जूस भनक (सेविय इति स च दृष्टी 1 - अतिशयेन पूत्य अत्यन्तपूरका कृत्या अावश्येन (जूद Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२६ ) अभिधानराजेन्द्रः । सुं सा इति) स्वस्वामिनं शकटम् उन्मार्गे लात्या कुत्रचिठिषमप्र देशे नक्त्वा स्वयं पलायते ॥ ७ ॥ 1 स्वमुका जारिसा मोजा, सीमा विवारिसा । जोड़या धम्मजामि, जजंती धिइदुब्वला ॥ ८ ॥ गानामा प्राचार्य एवं वदति - मुनयो यथा लोके स काः श्रत्र उक्तलक्षणाः गलिवृषनाः योज्याः रथस्याग्रे धुरि यो तकृताः सन्तो याशा भवन्ति । रथारोहकस्य श्रसमाधिक्लेशकरा भवन्ति । 'हु' इति निश्चयेन श्राचार्यस्यापि दुःशिष्या दुष्टाः शिष्याः विनयरहिताः कुशिष्यास्तादृशा भवन्ति । धर्मयाने मु निगरापकायेन संस्थे योजिताः व्यापारिताः भवन्ते संयमक्रियानुष्ठानात् स्खलन्ते । सम्यग् न प्रवर्त्तन्ते इत्यर्थः । कीदृशास्ते धृतिदुर्बलाः निर्बल चित्ताः धर्मे पुस्थिरा इत्यर्थः । ८) saगारae एगे, एत्थ रसगारवे । सायागारचिए एगे, एगे विस्फोट || ए || निक्खालसिए एगे, एगे ग्रोमाणभीरुए । एचसासम्मी डेउहिं कारणो व ॥ १० ॥ एकः कश्चित् ऋद्धिगौरविकः ऋद्ध्या गौरवमस्यास्तीति ऋद्धिगौरविको मम श्राद्धा श्राढ्याः ममं श्राकाः वश्याः, मम उपकरणं वस्त्रपात्रादिसमीचीनम् इत्यादि आत्मानं बहुमानरूपं मनुते ऋद्धिगौरविक उच्यते पतारशी गुर्वादेशेन प्रथर्त्तते । एकः कश्चित् पुनरत्र रसगौरविकः आहारादिषु रसलोसुपः एतादृशो हि ग्लानाथाहारदानतपसे न प्रवर्तते । एकः कश्चित् कुशिष्यः सातागौरविको जवति साताया गौरवे नवः सातागौरविकः एतादृशो हि विहारं कर्त्तुं न शक्नोति । एकः क चित् कुशिष्यः सुचिरक्रोधनः चिरं क्रोधकरणशीलः एता शो दिपानकरसे योग्यो न भवति ॥ ६ ॥ एकः कति भिक्षाका पता हिमोवरीपरीप सहन योग्यो न भवति एकः कश्चिदपमानव ति अपमानात् भीरुः श्रपमानभीरुः एतादृशो हि कस्यचिद् गृहे न प्रविशति । एकः कश्चित् स्तब्धोऽहङ्कारी भवति एतादृशो नि जकुग्रहात् त्रिनयं कर्त्तुं न शक्नोति । च पुनः एकं कुशिष्यं प्रतिशिकादाने श्राचार्यः एवं विचारयति हेतुः कारणैः श्रहमेनं कुशिष्य मनुशास्मि कथम् । इति अध्याहारः कथं शिकविण्यामि आचार्य इति चिन्तापरो भवति इति जावः ॥ १० ॥ युग्मम् । सो वि अंतरजासिलो, दोसमेव पवई । प्रायरिया पनि अभि ।। १.१ ।। सोऽपि कुशिष्यः आचार्येण शिक्षितः सन् श्रन्तर भाषावान् पनमेय अपराचमेव प्रकरोति आवार्यस्य शिक्षायां दोषमेव प्रकाशयति श्रपगुणग्राही नवतीत्यर्थः । पुनः स कुशिष्यः प्राचार्याणां यद्वचनं तद्वचनं वारं वारं प्रतिकूलयति संमुखं जल्पति । यदा आचार्याः किञ्चित् शिकावचनं वदन्ति तदा श्रमुहुरेवं वदति - किं मां यूयं वदत यूयमेव किं न कुरुत इत्यर्थः ॥ ११ ॥ नसाममं वियाणा न विसा मऊ दाहिई। निम्या होहि सामने, साहु अन्नात्य वचो ॥ १२॥ सदाचार्यः किञ्चित्यं प्रति वदति-भो! शिष्य ! कस्य गृहस्थस्य गृहात् मह्यमाहाराद्यानीय देहि । तदा स मु वसुंक कुशिष्यो वदति - सा श्राद्ध) (ममं इतेि ) मांन विजानीते मांन उपलक्षयति सा श्राद्धी महामाहारादिकं न दास्यति । श्रथवा स गुरु प्रति एवं वदति-देगुरो ! अहमेवं मन्ये सा श्राही निर्गता भविष्यति स्वगृहादपरत्र इदानीं गता भविष्यति । अथवा श्रन्यः साधुः अस्मिन् कार्ये व्रजतु, श्रहं न व्रजामि इत्यर्थः ॥ १२ ॥ पेसिया पलिदिति, ते पलियन्ति समंतत्र्यो । यमिता कति मुद्दे ॥ १३ ॥ पुनस्ते कुशिष्याः श्राचार्येण कुत्रचित् गृहस्थगृहे आहाराच र्थ 'गृहस्थस्य श्रकारणाय वा प्रेषिताः सन्तः (पलिश्रोविंति ) अपहुवन्ति । वयं भवद्भिः कुत्र मुक्ता श्रस्माकं न स्मरसि । अथवा मिष्टादारादिकं गोपयन्ति । अथवा उक्त कार्य न निष्पा दयन्ति। अनुत्पादितमपि उत्पादितमिति वदन्ति । उत्पादितं च श्रनुत्पादितं वदन्ति । श्रथवा यत्र भवद्भिर्वयं प्रेषिताः स गृही न कश्चित् दृष्टः इति पृष्टाः सन्तः अपतपन्ति । पुनस्ते कुशिष्याः समन्ततः सर्वासु दिक्षु परियम्ति पर्यटन्ति । गुरुपार्श्वे कदाचित्र प्रयान्ति न उपविशन्ति कदाचिद्वयं गुरूणां पार्श्वे स्थास्यामस्तदाऽस्माकं किञ्चित्कार्य कथयिष्यन्ति इति मत्वा अन्यत्र भ्रमन्तिइति नायः काचिकस्मिन्ार्ये गुरुप्रेषि तास्तदा राजवेष्टिम् इव मन्यमानास्तत्कार्य कुर्वन्ति, नृपस्य येष्टि (राजभूतिः पतिता इति जानतो मुझे भृकुटीं भरच कुर्वन्ति । अन्यामपि ईर्ष्याशुचिकां चेष्टां कुर्वन्तीति भावेः ॥१३॥ वाइया संगहिया चैत्र, भत्तपाणेण पोसिया । जायखा जा ईसा, पकमांत दिसो दिसि ॥ १४ ॥ पुनस्ते कुशिष्याः गुरुनियांचिताः सूत्रं प्राहिताः शास्त्राच्यासं कारयित्वा पण्डिताः कृताः, पुनः संगृहीताः सम्यक् स्वनिश्रायां रक्षिताः पुनका पोषिताः पुष्टिं नीता चकारात् दीक्षिताः स्वयमेव उपस्थापिताः, पश्चात् ते कार्ये सृते दिशो दिशि प्रकमति वदर ते कुशिया के बचा जात पक्काः हंसाः यथा जाताः पक्कास्तनूरुहाणि येषां ते जातपाः हंसा इव यथा उत्पन्नपक्का हंसाः स्वजननीं जनकं च त्यक्त्वा दशसु दिक्षु व्रजन्ति । तथा ते कुशिष्याः अपि इति ज्ञावः ॥ १४॥ अह सारही विचिन्ते, खलुंकेहिं समं गयो । किं ? मऊ सीसेहि, अप्पा मे श्रवसीयई ॥ १५॥ अथाऽनन्तरं सारथिर्गर्गाचार्यो धर्मयानस्य प्रेरकः चेतसि चिन्तयति परः कुशिष्यैः समं गतः सहितः किचिन्तयतिशयेकि मक्कइति) किम् ऐहिकामुष्मिकफलं वा मम प्रयोजनं सिद्ध्यति । दुष्टशिष्यैः प्रेरितैः केवलं मे मम श्रात्मा एव अवसीदति । तेषां प्रेरणात् स्वकृत्यहानिरेव भविष्यति नान्यत्किमपि फलं तत् एतेषां कुशिष्याणां त्यागेन मया उद्यतविहारिणा एव भाव्यमिति चिन्तयति ॥ १५ ॥ जारिसा मम मीसा छ, वारिसा गलिनदिदा । गलिग चचाणं दर्द पश्एिडई तरं ।। १६ ।। पुनः स आचार्यश्चिन्तयति - यादृशाः मम शिष्याः सन्ति तादृशा गलिगमा भवन्ति । अत्र गलिग भन्तेन शिष्यासामन्तनिन्दा सूचिता ततः गर्गाचार्यो गलिग शाद Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२७) खलुक अभिधानराजेन्द्रः। खवगसेढि कुशिष्यान् स्यक्त्वा रढं यया स्यात्तथा तपो बाह्यमान्यन्तरं च पुममेयं च खबेई, कोहाईए य संजक्षणे ॥१३१३॥ प्रगृह्णाति प्रकर्षेणाङ्गीकरोति । तुशब्दः पादपूरणे यदा एतान् ह-('उपशमश्रेणिन्यायन' श्राव०१०) कपकश्रेणि-(प्रस्थाकुशिष्यान् अहं न त्यस्यामि तदा मदीयः कालः क्लेशेन एव पकः सोऽवश्यं मनुष्यो वर्षाकाचोपरि वर्तमानः । श्रा०म० प्रयास्यतीति आचार्यों विचारयति ॥१६॥ प्र०)-अविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानामन्यतम उत्तमसंहमिउमदवसंपन्ने, गम्भीरे सुसमाहिए । ननः प्रशस्तभ्यानोपगतमानसः प्रतिपद्यते, यमुक्त क्षपकश्रोणिप्रविहरइ महिं महप्पा, सीबजूएण अप्पणो त्ति वेमि ॥१७॥ क्रमे-(एकस्मिन्नप्यन्तर्मुहूर्ते लघुतराणामसंख्येयानामन्तर्मुहूर्तास गार्य आचार्यस्तदा ईदृशः सन् महीं पृथिवीं ग्रामानुग्राम नां भावात् । प्रा०म० प्र०) विशेषावश्यके-"पवित्तीए अवि. विहरति, कीदृशः सः। मृदुर्बहिर्वृत्या विनयवान्, पुनः कीरशः?। रय-देसपमत्तापमत्तविरयाणं । अन्नयरो पमिवजा,सुरुज्झाणोमार्दवसंपन्नः अन्तःकरणेऽपि कोमलतायुक्तः, पुनः कीदृशः। वगयचित्तो ॥१३१४॥" तत्र पूर्वविदप्रमत्तः शुक्रध्यानोपगतोऽपि गम्भीरः अनब्धमध्यः । पुनः कीदृशः? सुसमाहितःसुतरामति पतां प्रतिपद्यते। शेषास्तु अविरतादयोधर्मध्यानोपगता एवेति। शयेन समाधिसहितः। पुनः कीदृशः । शोलभूतेन आत्मना उप क्षपणक्रमश्चायम्मक्षितः, शीलं चारित्रं भूतः प्राप्तो यः स शीलभूतः तेन शील प्रथममन्तर्मुहूर्तेनानन्तानुवन्धिनः क्रोधादीन् चतुरो युगपत भूतेन शीलयुक्तेनाऽऽत्मना सहितः यतो हि खलुंकत्वं कुशि क्षपयति । तदनन्तजागं तु मिथ्यात्वे प्रतिप्य तेन स मिव्यत्वं तत्तु अविनीतत्वं तच्च स्वस्य गुरोइच दोषहेतुरस्ति। अतः ध्यात्वं कृपयति । तस्याप्यनन्तनागं सम्यमिथ्यात्वे प्रक्षिप्य अविनीतत्वं त्यक्त्वा विनीतत्वमङ्गीकर्तव्यमिति भावः ॥ १७ ॥ तदपि सविशेष कृपयति । श्राह-किं पुनः कारणं सविशेष कृपयशति अहं बधीमि इति श्रीसुधर्मास्वामी जम्बूस्वामिनं प्राह ।। ति? इति । उच्यते-यथा खलु अतिसंभृतो दावानलः अर्कदग्धेखलुंकिज्ज-खलुकीय-न०। सप्तर्विशे उत्तराध्ययने, स० ३६ न्धन एव इन्धनान्तरमासाद्य उभयमपि दहति । एवमसा. धपिकपकस्तीब्रशुभपरिणामत्वात् प्राक्तने कर्मण्यल्पशेषित ए. समा(नियुक्तिरनुपदमेव खलुंक' शब्दे उक्ता) वापरं कपयितुमारभते,एवं सम्यगमिथ्यात्वस्यावशेष सम्यक्त्वे खशुखित्त-खसुक्षेत्र-न । यत्र किमपि प्रायोम्यं लभ्यते-तस्मि प्रक्षिप्य तेन सम्यक्त्वं निरवशेषमेव कपयति । तदाह चूर्णिकृत्न, व्य०० उ०। "जंसेसं तं संमसे छुजित्ता निरवसेसंखवेद त्ति" एतश्च बद्धाखइय-खबुक-पुं० । पादमणियन्धे, । विपा० १ ० ३ अ। युष्कापकं संभाव्यते । आवश्यकादौ तमेवाधिकृत्य सम्यक्त्वनिखरग-खन्नक-पुं०। पादत्राणे चर्मणि, तानि च विचर्चिकाया | रवशेषकपणस्योक्तत्त्वात्, ह च यदि बकायुः प्रतिपद्यते अनतेन स्फुटितपादः धार्याणि । ध०३ अधिक। | तानुबन्धिक्कये च (मरणसंभवतो, प्रा० म०प्र०। प्राषा) खराम-खल्वाट-पुं० । खल किए तं वटते वेष्टयते । अण् उप० व्युपरमति । ततो मिथ्यादर्शनादयतस्तान् पुनरप्यनुचिनोति स. याच । “स्त्यानखल्वाटे" -1१।७४ इति श्रात ई मिथ्यात्वे तद्वीजसंभवात् कीणमिथ्यात्वस्तु नोपचिनोति ।मूस्वम । प्रा० १ पाद । श्रार्षे तु क्वचिदात्वम् । न । इन्गुप्तरोगे, साभावात्। तदवस्थश्च मृतोऽवश्यमेव त्रिदशेषपपद्यते,क्षीणदर्शतद्रोगवति, त्रि० । वाच । “सो य खल्लीमो तस्स नरदे तड नसप्तकोऽप्यप्रतिपतितपरिणामो म्रियमाणः सुरगतावेवोपपज्जा" प्रा० म०वि०। “एक्को खल्लाडो तंवोलियवाणियोप चते। प्रतिपतितपरिणामस्तु नानामतिस्वात् सर्वगतिभाग्भवति। रिणविक्के ति"। नि० चू २० उ०। "तसुदहवेणविमुंमिश्रउजसु तथा चोक्तं (विशेषावश्यके)खचिहडवं सीसु" इत्यपभ्रंशः । प्रा० ४ पाद । "बद्धाक पडिवनो, पढमकसायक्वए जह मरिजा। तो मिच्चत्तोदयो, विणिज तुज्जो न खीणम्मि ॥१३१६॥ खनी-खबी-स्त्री० । खनति रोगवत्यां शिरस्तट्याम, खल्वाट तम्मि मो जार दिवं,तप्परिणामो य सत्तए खीणे। स्ततः तस्योपरिणादुष्णेन दह्यते खल्ली । विशे०। आ०० । उबरयपरिणामो पुण, पच्छा नाणामईगइयो"॥१३१७॥ खल्लीम-खल्वाट-पुं० । खल्लाडशब्दा, सच यदि बद्धायुःप्रतिपद्यते-( स च सम्यग्दर्शनमशेषमेव खलुह-बल्लूट-पुं० । कन्दभेदे, प्रव० ४ द्वार । ध० । प्रका। कपयति।बाब०१०) ततो नियमाद्दर्शनसप्तके कोणे सति उपरमति । अवद्धायुकःपुनरनुपरत एव समस्तां श्रेणि समापयखबत्ता-कपयित्वा-अव्य० । प्रतिषाहोत्यर्थ, “तिमि कम्मसे ति स च स्वल्पसम्यग्दर्शनावशेष एवाऽप्रत्याख्यानप्रत्यास्याअणुपुब्वेणं ववश्ता " भ० १५ श. १००। नावरणकपायाष्टकं कपयितुं युगपदारभते । पतेषांप क्षपिखवग-कपक-पुं० । पापं कृपयति, द्वा० २७ द्वा० । प्रवचनप्रभा. तेष.प्रा०म० प्र01)संण्ययतमं जागं कृपयनेताः पोश(सप्तदश बके, दश०३ मा अविरतसम्यग्दृष्टी, कल्प० ३ कण । पक- आव.१०) कर्म प्रकृतीः कृपयति । तद्यथा-नैरयिकगतिश्रेषयन्तर्गते अपूर्वकरणादिक्षीणमोहपर्यन्ते, पञ्चा०५ विवाक- नाम, तिर्यग्गतिनाम, एकेन्द्रियजातिनाम, द्वीन्द्रियजातिनाम, पकाः कपकण्यन्तर्गता: अपूर्वकरणानि वृत्तिवादरसूक्ष्मसंप- बीजियजातिनाम, चतुरिन्जियजातिनाम, नरकानुपूर्वीनाम रायाः। पश्चा०५ विव०। कपकश्रेण्यारूढो निवृत्तिबादरसूक्ष्म- तिर्यगानुपूर्वानामेति, अप्रशस्तविहायोगतिनाम, स्थावरनाम, संपरायश्च निगद्यते-कर्म०५ कम० केपक श्रेणी, कल्प० क्षण। सूत्मनाम, अपर्याप्तनाम, साधारणनाम, निजानिद्रां, प्रतस्य तिर्यगानुपूर्वीनामकपणप्रतिपादनेनोक्तार्थत्वात् । श्राव० । चनाप्रचलां, स्त्यानद्धिनामेति । अधिका-आतपनाम, - तरकपयति । सर्वमिदमन्तर्मुहत्तमात्रेणेति । श्राव०१०।। द्योतनाम, ततोऽष्टानां कषायाणामविशेष क्षपयति । ततो नएखवगसेदि-क्षपकश्रेणि-स्त्री०। कपणक्रमे, भ० एश० ३१ ३० सकवेई, ततः स्त्रीवेद, ततो हास्यादिषहूं, ततः पुरुषवद विधा सा चेत्यम् कृत्वा खण्डद्वयं युगपत् कृपयति, तृतीयं तु खए ज्वलनकोधे अण-मिच्च-मीस-संमं, अट्ठ नपुंसि स्थिवये छकं च ।। प्रक्षिपति पुरुषे प्रतिपत्तर्ययं क्रमः । स्त्रीनपुंसकयो प्रतिपत्त्रो Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२८) खवगसेढि अभिधानराजेन्षः। खवगसेढि रुपशमश्रेणिन्यायो वक्तव्यः । क्रोधादींश्च संज्वलनान् प्रत्येकमन्त| स्त्रीनपुंसकयोर्मध्ये-यदि स्त्री प्रारम्भिका तदा उपशमश्रेणिमुहर्तेनानेनैव खमत्रयरचनान्यायेन कपयतिथेणिपरिसमाप्ति | न्यायेनायं कपकणिक्रमः। कालोऽप्यन्तमुहूर्तप्रमाण एव दृष्टव्यः। केवलं वृहत्तरमत्रान्तर्मुद्- अथ नपुंसकः प्रारम्भकः तदा-प्रथम क्रोध-मान-माया-मोतम् । अन्तर्मुहूर्तानामसंख्येयनेदात् लोनचरमखएमं तुसंख्ययानि भान्-ततः स्त्रीवेदम-ततः पुरुषवेदम-ततः षट्रादि-संज्वलना- . खएडानि कृत्वा पृथग् पृथक कालन्नेदेन कपयति । चरमसंख्ये- न्तम् । कपयति उपशमश्रेणिन्यायचक्रोद्धारः 'उवसमसेटि' यखएम पुनरसंख्येयानि खण्डानि करोति। तान्यपि समये समये शब्दे दितीयभागे १०४६ पृष्ठे १५ पडौ गतो द्रष्टव्यः। एकैकंक्षपयति । इह च वीणदर्शनसप्तको निवृत्तिबादरसंपरायः अधोभागाद्वाचनक्रमेणायं कपकश्रेणिक्रमः(उच्यते-आव०)तत ऊर्द्धमनिवृत्तिवादरसंपरायो,यावत् संज्वबनलाभस्य द्विचरम संख्येयस्रएम चरमसंख्येयं वरामस्य पुन ० पुरुषवेदम रसंख्येयानि खएडानि क्षपयन सूदमसंपराय सच्यते।तत कीं ०००००० हास्यादिषट्रम् कोणमोहमस्थवीतरागो यथाख्यातचारित्री भवति। ततो यथा कश्चिन्महापुरुषो बाहुभ्यामपारांगम्भीरां महानदी तीर्वा ती स्त्रीवेदम रमासाद्य कणमेकम् (अनाभोगनिवर्ततेन करणेन प्रा०म०प्र०) नपुंसकवेदम् विश्राममादत्ते एवमयमपि दुस्तरं मोहसागरं तीर्खा संजातप उद्योतनाम रिश्रमो विश्राम्यतीति । ततश्छमस्थवीतरागसंहबन्धिनि आतपनाम समयद्वयेऽविशेष्यमाणे ( यदाह-चूर्णिकृत्- “पढमे निई पयलं " ॥ ४६ ॥ श्राव. १०) ततः प्रथमे समये स्त्यानदिनाम निद्रा १, प्रचला २, देवतिं ३, देवानुपी ४, क्रियश प्रचलाप्रचल रीरनामकर्म ५, वज्रऋषभनाराचसंहननं मुक्त्वा शेषाणि संह निजानिकां ननानि षष्मां संस्थानानां मध्ये यस्मिन् व्यवस्थितस्तदेकं मुक्त्वा शेषाणि संस्थानानि १५ । श्राहारकशरीरनाम १६ । साधारण नाम बचतीर्थकरः प्रतिपत्ता ततस्तीर्थकरनामकर्मापीति १ वाच्यं अपर्याप्तनाम १७ एवं सप्तदश प्रकृतीः क्वययति । ततो द्वितीयसमये पञ्चप्रका सूक्ष्मनाम रंकानवरणम् । चतुर्विधं दर्शनाचरणम् । पश्चविधमतरायंच (युगपत् श्रा० म०प्र०) क्षपयित्वा विमलकेबलश्रियमवा स्थावरनाम मोतीति। वृ०१०। मा० म०प्र०। आ०० भ०। कर्म०। अप्रशस्तविहायोगतिनाम १ स्थापना चेयम् तिर्यगानुपूर्वी अधोभागाद् वाचनक्रमेणाऽयमुपशमश्रेणिक्रमः । नरकानुपूर्वी • संज्वलनलोभम् चतुरिन्जियजातिनाम त्रीन्द्रियजातिनाम ०० अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलोभी २ द्वीन्द्रियजातिनाम संज्वलमायाम एकेन्द्रियजातिनाम अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणमये २ तिर्यग्गतिनाम नैरयिकगतिनाम संज्वलनमानम् ०००००००० कषायाष्टकम् अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणौ मानौ २ सम्यक्त्वम् संज्वलक्रोधम मिश्रम् ०० अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणी क्रोधी २ मिथ्यात्वम् स्त्रीवेदम ०००० क्रोध-मान-माया-लोजाः ४ ००० ००० कषायपदूम पुरुषप्रतिपत्तर्ययं वपकणिक्रमः। __० पुरुषवेदम तथा चाह नियुक्तिकृत्• नपुंसकवेदम् संजिनं पासंतो, लोगमझोगं च सम्बतो सन्न । ००० मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वम् तं नत्थि जं न पासइ, नूयं भव्वं जविस्सं च ॥१३४॥ ०० ०० क्रोध-मान-माया-लोभाः सम्-एकीभावेन निम्नं संभिन्नं-यथा बहिस्तथा मध्येऽपीत्यर्थ । अथ वा, द्रव्य केत्रकालजावलक्षणं सर्वमपि केयं विषयत्न दर्शनीयम् । तत्र संभिन्नमिति व्यं विशेष्यं सुचितं, काखमा. ००००००००००००००००००००० Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२६) अभिधानराजेन्द्रः । खवगसेटि aौ तद्विशेषको । कालनावौ हि द्रव्यस्य पर्यायौ । ततस्ताभ्यां समन्ताद्भिनं इज्यमिति, संभिग्रहणेन श्रियमपि सूचितम् । सत् पश्यन् उपखजमानो हो धम्मांधाधारभूतं क्षेत्रम् अलोकं क्षेत्र अनेन क्षेत्रं प्रतिपादितम्। एतावदेव चतु विधं ज्ञेयम् । नान्यदिति । किमेकया दिशा पश्यन् नेत्याह-सतः सर्वासु दिक्षु तावपि किं किमपि प्रत्यादियासर्वे निरवशेषम् । अमुमेवार्थे स्पष्टयन्नाह - तन्नास्ति किमपि ज्ञेयं नूतमतीराम जयतीति भव्यं वर्त्तमानम भविष्यच यक्ष पश्यति केवलीति । श्रा० म० प्र० । कर्म० । पदमकन्सायचटकं एतो मिच्छत्तमससंमतं । अरिदेसे विरय, पमति अपमति स्वीयंति ।। ६६ ।। इह यः कपकश्रेणिमारभते सोऽवश्यं मनुष्यो वर्षाष्टकाच्चोपरि वर्तमानः, स च प्रथमतः प्रथमकषायचतुष्कमनन्तानुबधिसंशं विसंयोजयति । तद्विसंयोजना च प्रागेवोक्ता । तत इतः प्रथमकषायचतुष्ककयादनन्तरं मिथ्यात्वमिश्र सम्यक्त्वा नि कृपयति । सूत्रे चैकवचनं समाहारविवक्षणात् । समाहारविवका चामीषां त्रयाणामपि युगपत् कृपणाय यतते इति ज्ञानामित्यादीनि च पप यथा प्रवृत्तानि त्रीणिकरणान्यारजते । करणानि च प्रागिव वक्तव्यानि । नवरम् अपूर्वकरणस्य प्रथमसमवेतयोर्मध्यात्वसम्यमित्ययो कं, गुणसंक्रमेण सम्यक्त्वे प्रक्षिपति उढलनासंक्रममपि त योरेवमारभते तच्चा-प्रथमस्थितिखानं दृदचरमुद्वलयति, ततो द्वितीयं विशेषहीनं तो तृतीयं विशेषहीनम एवं तावद्वाच्यं यावदपूर्वकरणचरम समयः । अपूर्व करणे प्रथमसमये च यत् स्थिति कर्मासीतस्यैव चरमसमये संस्थेयगुनहीनं जातम् । ततोऽनिवृत्तिकरणे प्रविशति । तत्रापि स्थितिघातादीन् सर्वानपि तथैव करोति । निवृतिकरणप्रथमसमये च दर्शनत्रिकस्यापि देशोपशमनानि पत्ते निकाचना पदर्शनमोनीयस्य च स्थितियाकर्मानिवृत्तिकरणप्रथमसमपादाराज्य स्थितिघातादिभिश्यमानम् । घात्यमानं स्थितिख एमसहस्रेषु गतेष्वसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्थितिसकर्मसमानं भवति । ततः स्थितिखएट्सहस्रपृथक्त्वे गते सति चतुरिन्द्रियस्थितिसत्कर्मसमानं भयति । ततोऽपि साममाधेषु रमेषु गतेषु श्रीन्द्रियस्थिति सत्कर्म समानम्। ततो तावन्मात्रेषु गतेषु द्वीन्द्रियस्थिति सत्कर्म समानम् । ततोऽपि तावन्मात्रेषु खरमेषु गतेष्वेकेन्द्रियस्थितिसत्कर्मसमानम् । ततोऽपि तावन्मात्रेषु खण्डेषु गतेषु पल्योपमासंख्येय नागप्रमायां भवति पाणामपि प्रत्येकमेकं संख्यभागं त्या शेषं सर्वमवति। ततस्तस्यापि प्राम्युकस्य संख्येयनागस्यैकं संख्येयतमं भागं मुक्त्वा शेषं सर्वे विनाशयति । एवं स्थितिघाताः सहस्रशो व्रजन्ति । तदनन्तरं च मिथ्यात्वस्या संख्येयान् भागान् खण्डयति । सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोस्तु संख्येयान् । तत एवं स्थितिखएमेषु प्रभूतेषु गतेषु सत्सु मिथ्या स्वस्य किमाकामाचं संजातम् सम्मा बास्तु पयोमास पेवमात्र स्थितिमा निनानि मिध्यात्वानि सम्यचसम्पमिष्यास्वयोः प्रतिपति सम्यग्मिथ्यात्यसकानि सम्यक्सम्य सत्कानि तु अधस्तात् स्वस्थाने इति । तदपि च मिथ्यात्वदलिकमालिकामात्रं स्तवुकसंक्रमेण सम्यक्त्वे प्रक्षिपति । त१०३ खवगसेढि दनन्तरं सम्यक् सम्यग्मिथ्यात्वयोरसंख्येयान् जागान् खरामयति कोऽवशिष्यते । ततस्तस्याप्यसंख्येयान् नागान् खरामयति एकं मुखति । एवं कतिपयेषु स्थितिख एमेषु गतेषु सम्यमियात्वमावलिकामात्रं जातम्। तदानीं सम्यक्त्वस्य स्थितिसत्कर्म वर्षाष्टकप्रमाणं भवति । तस्मिन्नेव च काले सकलप्रस्यूहापगमतो निश्रयमतेन दर्शनमोहन क्षपक ऊ सम्यक्त्वस्य स्थितिरमन्तर्मुहू प्रमाण मुश्किति हृदयसमयाहारज्य प्रक्षिपति केवलमये सर्वस्तोकम ततो द्वितीयसमये असंख्येयगुणम् । ततोऽपि तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणम् । एवं तावद्वक्तव्यं यावद् गुणश्रेणीशिरः । तत ऊर्ध्व तु विशेषहीनं यावश्चरमा स्थितिः । एवमान्तर्मुहूर्तिकान्यनेकानि लि किरतिनिपति च तानि च तावद्वरमं स्थितिखण्डम् । द्विचरमा स्थितिखरमारमण्डनसंयेगुणम् । चरमे च स्थितिखएमे उत्कीर्णे सति असौ कपकः कृतकरण त्युच्यते । अस्यां च कृतकरणाद्वा वर्तमान त्कालमपि कृत्वा चतसृणां गतीनामन्यतमस्यां गतावुत्पद्यते । लेश्यायामपि पूर्व शुक्ललेश्यायामासीत् संप्रति स्वन्यत मायां गच्छति । तदेवं प्रस्थापको मनुष्यो निष्ठापकश्चतसृण्व पि गतिषु प्राप्यते । उक्तं च पचगो उ मस्सो हो - सुपि गई" यदि कृपा न्तानुबन्धिनां च कयादनन्तरं मरणसंजवतो व्युपरमते । ततः कदाचित् मिथ्यात्वादयाद्भूयोऽप्यनन्तानुबन्धिन उपचिनोति, तीजस्य मिध्यात्वस्याविनाशात् । कीणामिथ्यात्वदर्शनस्तु नोपचिनोति, बीजाभावात् । क्षीणसप्तकस्तु प्रतिपतितपरिणामोऽवश्यं त्रिदशेत्पद्यते । प्रतिपतितपरिणामस्तु नानापरि ग्रामसंभवाद्यथा परिणाममन्यतमायां गतायुत्पद्यते । तं च (विशेषावश्यके ) यत " बकाऊ पमिवशो, पढमकसायक्खए जइ मरेजा ॥ तो मिच्छतोदयओ, चिणेज भूयो न स्वीमि ॥ १३१६ ॥ तम्मि मत्रो जाइ दियं तप्परिणामो य सत्तए खीऐ । उत्ररथपरिणामो पुण, पच्छा नाणामइगई ॥ १३१७ ॥ " वायुको यदि तदानों का करोति तथापि नियमादवतिष्ठते, न तु चारित्रमोहक्षपणाय यत्नमारजते, श्राह (विशेषावश्यककारः) - "वद्धाऊ परिवन्नो, नियमा खोणम्मिसत्तर गइ | इयरोऽणुवरश्रच्चिय, सयलं सेटिं समाऐइ " ॥१३२॥ यो ससको गन्तरं संक्रामक भवे मोमुपयाति तृतीये चतुर्थे वा भये तथाहि यदि दे वर्गात नरकगति वा संक्रामति ततो देवनवान्तरितो नरकनवान्तरितो वा तृतीयभवे मोकमुपयाति । श्रथ तिर्यक्कु मनुष्येषु वा समुत्पद्यते, तर्हि सोऽवश्यमसंख्येयवर्षायुष्केषु मध्ये गच्छति, न संख्येयवर्षायुषु । ततस्तद्भवानन्तरं देवजवे, तस्माच्च देवभवारा मनुष्यजये तो मोक्षं यातीत तुम मोक्कगमनम् । उक्तं च पञ्चसंग्रहे- "तइयचतुत्थे तम्मि व, भवम्मि सिति सये खाये देवरिया चरिते होति ॥ तानि सप्त कर्माणि कृपयति सम्पदृष्टिर्देशविरतिः प्रमतत्तः अप्रमत्तो वा तन पतंषु चतु कक्क्यः प्राप्यते । तथा चार सूत्रकृत् ( अविरत इत्यादि) अ विरले देशे देवावर मते व प्रथमकायनुष्कानि सप्त कर्माणि क्षीयन्ते क्षयमुपयान्ति यदि पुनरायुः कपक Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३०) खवगसेदि भनिधानराजेन्धः। खरगसेढि श्रेणिमारभते, ततः सप्तके काणे नियमादनुपरतपरिणाम एवं तिगतं दलिकं संज्वलनक्रोधे (छुम्भइ ति ) क्षिपति,न पुरुषचारित्रमोहनीयक्षपणाय यनमारभते । यत माह-नाण्यवत- बेदे । पतेऽपि च षट् नोकरायाः संज्वलनक्रोधे पूर्वोक्तविधिना "इयरो अणुवरोश्चिय, सयलं सेटिं समाणेई" चारित्रमोह- क्विप्यमाणा अन्तर्मुहर्तमात्रेण निःशेषाः क्षीणाः । तत्समयमेव नीयं च कपयितुं यतमानो यथा प्रवृत्तादीनि त्रीणि करणा- च पुरुषवेदस्य बन्धादयोदोरणाव्यवच्छेदः समयोनाबलिकानि करोति, तद्यथा-यथा प्रवृत्तकरणमपूर्वकरणमनिवृत्तिकरणं द्विकवद्धं मुक्त्वा शेषदलिकस्य वयश्च, ततोऽसाविदानीमवे. च । एतेषां च स्वरूपं पूर्ववदेवावगन्तव्यम नवरमिह यथा दको जातः। एवं पुरुषवेदेन कपकश्रेणि प्रतिपन्नस्य द्रष्टव्यम् । यदा प्रवृत्त करणमप्रमसगुणस्थानके अष्टव्यम, अपूर्वकरणमपूर्व- तु नपुंसकवेदेन कपकोण प्रतिपद्यते तदा प्रथमं स्त्रीवेदनपुंगुणस्थानके। अनिवृत्तिकरणमनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान- सकयेदी युगपत् वपयति । स्त्रीवेदनपुंसकवेदकयसमकालमेके । तत्रापूर्वकरणस्थितिघातादिनिरप्रत्याख्यानप्रत्यास्यानावर. व पुरुषवेदस्य बन्धो व्यवचिद्यते । तदनन्तरं चावेदकः सन् णकयाएकं तथा कपयत्ति स्म, यथा अनिवृत्तिकरणाायाः पुरुषवेददास्यादिषट्रे युगपत् क्षपयति । यदा तु स्त्रीवेदेन प्रथमसमये तत्पस्योपमासंख्येयभागमात्रस्थितिकं जातम् । प्र- प्रतिपद्यते तदा प्रथमतो नपुंसकवेदं, ततः स्त्रीवेदं, खीवेनिवृत्तिकरणासायाश्च संख्येयेषु भागेषु गतेषु सत्सु स्त्यानर्कि- दायसमकालमेघ च पुरुषवेदस्य बन्धव्यवच्छेदः । ततोऽत्रिकनरकगतितिर्यग्गतिनरकानुपूर्वीतिर्यगानुपूर्येकिित्रचतु-- वेदकः पुरुषवेदहास्यादिषट्टे युगपत् वयपति । संप्रति पुरुषवे. रिन्जियजातिस्थावरातपोद्योतसूक्ष्मसाधारणरूपाणां षोडश देन कपकश्रेणि प्रतिपन्नमधिकृत्य प्रस्तुतमभिधीयते-क्रोधं वेद प्रकृतीनामुलनासंक्रमेणोद्वल्यमानानां पल्योपमासंस्थेयत्नागमा यमानस्य सतस्तस्याः क्रोधासायास्त्रयो विभागा भवन्ति, तद्यत्रा स्थितिर्जाता । ततो वध्यमानासु प्रकृतिषु तानि षोडश था-प्रश्वकर्णकरणासा, किट्टिकरणाद्धा, किट्टिवेदनाका च।त. कर्माणि गुणसंक्रमेण प्रतिसमयं प्रतिप्यमाणानि प्रतिप्यमा पाऽऽश्वकर्णकरणाकायां वर्तमानःप्रतिसमयमनन्तानि अपूर्वस्पणानि निःशेषतः कोणानि भवन्ति । इहाप्रत्याख्यानप्रत्या ईकानि चतुर्णामपि संज्वलनानामन्तरकरणादुपरितनस्थिती ख्यानावरणकषायाष्टकं पूर्वमेव क्षपयितुमारब्धं, परं तमायापि करोति । अस्यां च अश्वकर्णकरणाद्धायां वर्तमानः पूरुपवेदकीणं, केवलमपान्तराल एव पूर्वोक्तप्रकृतिषोडशकं कपितम्। दमपि समयोनाबलिकाद्विकेन कालेन क्रोधे गुणसंक्रमेण ततः पश्चात्तदपि कषायाष्टकमन्तर्मुहूर्त्तमात्रेण कृपयति । त संक्रमयन् चरमसमये सर्वसंक्रमण संक्रमयति । तदेवं कोणः था चाह पुरुषवेदः । अश्वकर्णकरणाकायां च समाप्तायां किट्टिकरणा कायां प्रविशति । तत्रच प्रविष्टः सन् चतुर्णामपि संज्वलना"अनियट्टिवायरं थी-णगिद्धितिगनिरयतिरियनामा । नामुपरितनस्थितिमातस्य दलिकस्य किट्टीः करोति । ताश्च कि संखेज श्मे सेसे, तप्पाउम्गा य खीयंति। हयः परमार्थतोऽनन्ता अपि स्थूरजातभेदापेक्वया द्वादश कल्प्य पत्तो हण कसाय-हगं पि पच्छा नपुंसगं थीं। न्ते। एकैकस्य च कवायस्य तिस्रस्तिस्रः, तद्यथा-प्रथमा, द्वितो नो कसायकं बुन्नर संजलणकोहम्मि" ॥२॥ तीया,तृतीया च। एवं क्रोधेन कपक श्रेणि प्रतिपन्नस्य द्रष्टव्यम् । अनिवृत्तिबादरगुणस्थानके संख्येयतमे भागे शेषे स्त्यानर्द्धि-| यदा तु मानेन प्रतिपद्यते, तदा उद्धबनविधिना क्रोधे कपिते स त्रिकं निरयगतितियंगतिनाम्नी तत्प्रायोग्याश्च भिरयगतितिर्य- ति त्रयाणां पूर्वक्रमेण नव किट्टीः करोति । मायया चेत्प्रतिपन्नग्गतिप्रायोग्याश्च पकेन्डियद्वीन्धियत्रीन्द्रियचतुरिकियजातिनि स्तहि क्रोधमानयोरुद्वलनविधिना तपितयोः सतोः शेषरयानुपूर्वीतिर्यगानुपूर्वीस्थावरातपोधोतसूदासाधारणरूपाःस- द्विकस्य पूर्वक्रमेण षट् किट्टीः करोति । यदि पुनर्लोभेन प्र संरूपया पोमश प्रकृतयः तीयन्ते । तत इतः प्रकृतिषोडशक- | तिपद्यते तत उद्वलनविधिना क्रोधादित्रिके क्षपिते सति क्षयादनन्तरं निःशेषतः कपायाष्टकं हन्ति । अन्ये पुनराहुः- लोजस्य किट्टित्रिकं करोति । एष किट्टीकरणविधिः। किट्टीकषोमश कर्माण्येव पूर्व कपयितुमारभते, केवलमपान्तरालेऽष्टी क- रणाझायां निष्ठितायां क्रोधेन प्रतिपत्रः सन् क्रोधस्य प्रथपायान् कृपयति, पश्चात् षोडश कर्माणि । ततोऽन्तर्मुहर्तमा- मकिदिलिकं द्वितीयस्थितिगतम् प्राकृष्य प्रथमस्थिति करो. श्रेण नवानां नोकषायाणां चतुर्णा संज्वलनानामन्तरकरणं क- ति वेदयते च तावद्यावत्समयाधिकावलिकामाचं शेषः। ततो रोति। तच कृत्वा नपुंसकवेददलिकमुपरितनस्थितिगतमुखलन- उनन्तरसमये द्वितीयकिट्टिदक्षिक द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रविधिना क्षपयितुमारजते। तश्चान्तर्मुहर्नमात्रेण पस्योपमासंख्ये- थमस्थिति करोति वेदयते च तावद्यावत्समयाधिकाबलिकायभागमात्रं जातमाततः प्रभृति वध्यमानासु प्रकृतिषु गुणसंक्रमेण मात्र शेषः। ततोऽनन्तरसमये तृतीयकिट्टिदलिकं द्वितीयस्थितिदलिकं प्रतिपति । तश्चैवं प्रक्षिप्यमाणमन्तर्मुहूर्तमात्रेण निःशेष गतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयते च तावद् यावत्समकीणम,अधस्तनदलिकञ्च यदि नपुंसकवेदेन क्षपक श्रेणिमारूढः याधिकाबलिकामानं शेषः । तिमध्वपि चामूषु किदिवेदनाकाततोऽनुभवतः कृपयति, अन्यथा स्वावलिकामात्र, तच्च वेद्य- सूपरितनस्थितिगतं दलिकं गुणसंक्रमेणापि प्रतिसमयमसंख्ये. मानासु प्रकृतिषुस्तिबुकसंक्रमेण संक्रमयति। तदेवं क्षपितो नपुं- यगुणवृकिलक्षणेन संज्वलनमाने प्रतिपति । तृतीयकिट्टिवेदसकवेदः। ततोऽन्तर्मुहर्तमात्रेण स्त्रीवेदोऽप्यनेनैव क्रमेण तिप्यते। नासायाइच चरमसमये संज्वलनक्रोधस्यबन्धादयोदरिणानां ततः पट नोकपायान् युगपत् कपयितुमारभते। ततः प्रभृति च | युगपद् व्यवच्छेदः सत्कर्मापि च तस्य समयोनावलिकाद्विकवतेपामुपरितनस्थितिगतं दालिकं न पुरुषवेदे संक्रमयति, किं कं मुक्त्वाऽन्यन्नास्ति, सर्वस्यापि माने प्रक्तिमत्वात । ततोऽनतु मज्वलनक्रोधे । तथा चाह सूत्रकृत्-" पच्चा नपुंसगं इत्थी न्तरसमये मानस्य प्रथमकिट्टिदालक द्वितीयास्थितिगतमाकृनोकपायरकं उब्जा संजलणकोहम्मि" कषायाष्टकरयान- ध्य प्रथमस्थिति करोति वेदयते च तावद्यावदन्तर्मुहूर्तम् । स्तरं पश्चात् (नपुंसगं) नपुंसकवेदं कृपयति । ततः (श्थीं)। क्रोधस्यापि च बन्धादौ व्यवच्छिन्ने सति तस्य संबान्ध दस्त्रीधेदम । ततः पट नोकपायान कपयन् । तेषामुपरितनस्थि- लिकं समयोनावलिकाद्विकमात्रेण कालेन गुणसंक्रमेण संक्र Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३१) खवगसेढि अभिधानराजेन्द्रः। खवगसेदि मयन् चरमसमये सर्वसंक्रमेण संक्रमयति । मानस्यापि च | बलिकामानं शेषः । ततोऽनन्तरसमये उदीरणा स्थिता। तत प्रथमकिट्टिदलिकं प्रथमस्थितीकृतं वेद्यमानं समयाधिकाव- उदयेनैव केवलेन तां वेदयते यावश्चरमसमयः। तसिंधरमसलिकाशेषं जातम् । ततोऽनन्तरसमये मानस्य द्वितीयकिट्टिद- मये सानावरणपञ्चकदर्शनावरणचतुष्कयशःकी[चैर्गोत्रान्तलिक द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति बेदयते रायपञ्चकरूपाणां षोडश कर्मणां बन्धन्यवच्छेदः मोहनीयच तावद्यावत्समयाधिकावलिकामाचं शेषः । ततोऽनन्तरसमये स्योदयसत्ताव्यवच्छेदश्च ॥६६॥ तृतीयकिट्टिदमिक द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं क अमुमेवार्थ संकलय्य सूत्रकृत्प्रतिपादयतिरोति वेदयते च तावत् यावत् समयाधिकावलिकामा शेषः। तस्मिन्नेव च समये मानस्य बन्धोदयोदीरणानां युगपद्व्यवच्छे पुरिसं कोहे कोई, माणे माणं च बुह मायाए । दः, सत्कर्मापि च तस्य समयोनाबलिकाद्विकबद्धमेव, शेषस्य मायं च हा सोहे, लोहं सुहुमं पि तो हणई ॥६॥ मायायां प्रक्षिप्तत्वात् । ततो मायायाः प्रथमकिट्टिदसिक वि. पुरुषं पुरुषवेदं बन्धादौ व्यवच्छिन्ने सति गुणसंक्रमेण क्रोधे तीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमास्थितिं करोति बेदयते च ताव- संज्वलनकोधे (तुहह त्ति)संक्रमयति । क्रोधस्यापि च बन्धा द्यावदन्तर्मुहर्तम् । मानस्यापि च बन्धादौ व्यवच्छिन्ने सति त. दौ व्यवजिनेतं क्रोधं माने संज्वलनमाने संक्रमयति । संज्वस्य संबन्धिदलिकं समयोनावसिकाद्विकमात्रेण कालेन गुण- सनमानस्यापि बन्धादौ व्यवचिन्ने तं संज्वसनमानं गुणसंकसंक्रमेण मायायां प्रतिपति । मायाया अपि च प्रथमकिट्टि- मेण मायायां संज्वलनमायायां प्रक्विपति । संज्वलनमादलिकं द्वितीयस्थितिगतं प्रथमस्थितीकृतं वेद्यमानं समयाधि-| याया अपि बन्धादौ व्यवच्छिन्ने तां संज्वलनमायां लोभे कावलिकाशेषं जातम् । ततोऽनन्तरसमये मायायाः द्वितीय-| संज्वलनसोने गुणसंक्रमेण संक्रमयति । संज्वलनसोजस्यापि किट्टिदलिक द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति च बन्धादौ व्यवच्चिने तं संज्वलनसोनं सूक्ष्ममपि, अपिवेदयते च तावत यावत्समयाधिकावलिकामानं शेषः ।। शब्दाच्चेषमपि हन्ति स्थितिघातादिनिर्विनाशयति । लोभे च ततोऽनन्तरसमये तृतीयकिट्टिदलिक द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य साकल्येन विनाशिते सत्यनन्तरसमये कोणकषायो जायते । प्रथमस्थिति करोति वेदयते च तावद् यावद् समयाधि तस्य च वीणकषायस्य मोहनीयवर्जानां शेषकर्मणां स्थितिकाबलिकामानं शेषः। तस्मिन्नेवसमये मामायाः बन्धोदयो- घातादयः पूर्वत् प्रवर्तन्ते तावद् यावत् वीणकषायालायाः दीरणानां युगपद्व्यवच्छेदः, सत्कर्मापि च तस्याः समयोनाव- संख्येया भागा गता नवन्ति, एकः संख्येयो भागोऽवतिष्ठते। तलिकाद्विकबद्धमानमेव, शेषस्य गुणसंक्रमेण लोने प्रक्षिप्तत्या- स्मिश्चज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणचतुष्टयान्तरायपकश्चकनित्। ततोऽनन्तरसमये लोभस्य प्रथमकिट्टिदलिकं द्वितीय-1 हाद्विकरूपाणां षोमशकर्मणां स्थितिसत्कर्म सर्वापवर्सन. स्थितिगतमाकृष्य प्रथमास्थतिं करोति वेदयते च तावद या- याऽपवर्त्य क्षीणकषायाद्धासमं करोति । केवलं हि निकाद्विक वदन्तर्मुहूर्त्तम् । संज्वलनमायायाश्च बन्धादौ व्यवच्छिन्ने तस्याः स्य स्वरूपापेकया समयन्यून, कर्मस्वमात्रापेक्षया तु तुल्यम् । संबन्धि दलिकं समयोनावालकाद्विकमात्रेण कालेन गु- सा च वीणकषायाका अद्याप्यन्तर्मुहूर्तप्रमाणा, ततः प्रभृ. संक्रमेण लोने सर्व संक्रमयति । लोभस्य च प्रथम- ति च तेषां स्थितिघातादयःस्थिताः, शेषाणां तु भवन्त्येव । ताकिट्टिदलिकं प्रथमस्थितीकृतं घेद्यमानं समयाधिकावालिका- नि च षोडशकर्माणि निकाद्विकहीनानि उदयोदीरणाच्यां वेमात्र शेषं जातम् । ततोऽनन्तरसमये लोभस्य द्वितीयकि- दयमानस्तावतो यावत्समयाधिकापलिकामानं शेषः । तहिदलिकं द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वे| तोऽनन्तरसमये उदीरणा निवृत्ता, तत आवसिकामात्रं कालं दयते च । तां च वेदयमानस्तृतीयकिट्टिदलिकं गृहीत्वा सूक्ष्म यावदुदयेनैव केवलेन वेदयते यावत् कोणकषायाद्धाया द्विकिट्टीः करोति,तावदू यावद् द्वितीयकिहिद सिकस्य प्रथमस्थि- परमसमयः तस्मिश्च द्विचरमसमये निकाद्विकं स्वरूपसत्तातिकृतस्य समयाधिकावलिकामानं शेषः । तस्मिन्नेव च सम- पेकया क्षीणं चतुर्दशानां च शेषप्रकृतीनां चरमसमये कयः।तथा ये संज्वलनोभस्य बन्धव्यवच्छेदो बादरकषायोदयोदीरणा चाह सूत्रकृत-"बीणकसायदुचरिमे, निहापयला य हण व्यवच्छेदोऽनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानकव्यवच्छेदश्च युग- उमत्थो । आवरणमंतराप, उमत्थे चरिमसमयम्मि ॥१॥' पजायते । ततोऽनन्तरसमये सूक्ष्माकिट्टिदलिकं द्वितीय- व्याख्यातार्था । ततोऽनन्तरसमये सयोगिकेवली भवति । स स्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयते च। तदानीमसौ च लोकमलोकं वा सर्व सर्वात्मना परिपूर्ण पश्यति । न हि सूक्ष्मसंपराय उच्यते । पूर्वोक्ताश्चाबलिकास्तृतीयकिट्टिगताः | तदस्ति भूतं भवद्भविष्य द्वा यद् भगवान् न पश्यति उक्तं शचीनूताः सर्वा अपि वेद्यमानासु परप्रकृतिषु स्तिबुकसंक्र- च-विशेषावश्यके-“सांनं पासंतो, लोगमलोगं च सम्वो मेण संक्रमयति । प्रथमद्वितीयकिट्टिगताश्च यथावं द्वितीयत. सम्वं । तं नथि जन पासह, भयं नवं भविस्सं च ११३४२। " तीयकिट्टचन्तर्गता वेद्यन्ते । सूक्ष्मसंपरायश्च लोभस्य सक्का- इत्थंनूतश्च सयोगिकेवली जघन्यताऽन्तर्सम, उत्कर्षतोदेशो. किट्टीवेदयमानः सूक्ष्मकिट्टिदलिकं समयोनावलिकाद्विकवर्क नांपूर्वकोटिं विहत्य कश्चित्कर्मणां समीकरणाथै समुदातं करोच प्रतिसमयं स्थितिघातादिभिस्तावत् रूपयति यावत्सूक्कासं- ति।यस्य वेदनीयादिकमायुषः सकाशात् अधिकतरं भवति । परायाद्वायाः संख्येया नागा गता भवन्ति, एकोऽवशिष्यते।। अन्यस्तुन करोत्येव । तथा चोक्तं प्रज्ञापनायम्-" सम्वो विणं ततस्तस्मिन् संख्येयभागे संज्वलनलानं सर्वापवर्तनयाऽपव-| भंते! कालसमुग्धायं गच्छति | गायमा!नो इणछे समठे सम, य॑ सूक्षसंपरायाकासमं करोति । सा च सूक्कासंपरायाद्धा अ. जस्साऽऽउपण तुम्लाई बंधणहिं चिप य भवावग्गहकम्माइंस द्याप्यन्तर्मुहूर्तप्रमाणा । ततः प्रभृति च स्थितिघातादयो निवृ- न समुग्धायं गच्च "अगंतूर्ण समुग्घाय-मणंता केवली जिण ताः शेषकर्मणां तु प्रवर्तन्त एव । तां च लोभस्यापतितां जरमरणविप्पमुक्का,सिद्धिं वरगडंगया ।।" अत्र (वंधणेहि ति) स्थितिमुदयोदीरणाभ्यां वेद्यमानस्तावकतो यावरसमयाधिका। बध्यन्तेति वन्धनाः कर्मपरमाणवः । कृत् "बहुलम्" ॥५॥१॥३॥ Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३२) खवगसेढि अनिधानराजेन्द्रः। खवगसेदि इति (हैम) वचनात् कर्मण्यनट् प्रत्ययः ।तैः। शेष सुगमम् । गत्वा बेए अजोगिजिणो, उक्कोसो जहन्नश्कारं ।। ६७ ॥ ऽगत्वा च समुदातं नवोपग्राहिकर्मकपणाय सेश्यातीतमत्यन्ता अन्यतरवेदनीयं सातमसातं वा द्विचरमसमयकीणादितरद् म. प्रकम्प परमनिर्जराकारणं ध्यानं प्रतिपित्सुर्योगनिरोधायोपक्रमत नुष्यायुरुच्चैर्गोत्रं नव नामानि नव नामप्रकृतीः,सर्वसंख्यया द्वाएव। तत्र पूर्व बादरकाययोगेन बादरमनोयोगं निरुणद्धि, ततोवा दश प्रकृतीर्वेदयते । अयोगिजिनोऽयोगिकेवली जघन्येन एकाम्योगम। ततः सूक्ष्मकाययोगेन बादरकाययोगम्। ततस्तेनैव सदम काययोगेन सूदममनोयोग, ततः सूक्ष्मवाग्योगं निरन्धानः सूक्ष्म दश, ताच ता एव द्वादश, तीर्थंकरवर्जा कष्टय्याः ॥ ६ ॥ क्रियाऽप्रतिपातिध्यानमारोहति । तत्सामर्थ्याच बदनोदरादिवि नवनाम इत्युक्तं ततस्ता एव नवनामप्रकृतीदर्शयतिघरपूरणेन संकुचितदेहविभागबर्तिप्रदेशो भवति । तस्मिश्च मणुयगइजाइतस-बायरं च पज्जत्तमुलगमाइज्जं । ध्याने वर्तमान स्थितिघातादिनिरायुर्वजानि सर्वारयपि भवो- जसकित्ती तित्थयरं,नामस्स हवंति नव एया॥७०॥गतार्था। पग्राहिकर्माणि तावदपवर्तयति यावत्सयोग्यवस्थाचरमसमयः। तस्मिश्च चरमसमये सर्वापि कर्माणि अयोग्यवस्थासमस्थि अत्रैव मतान्तरं दर्शयतितिकानि जातानि। नवरं येषां कर्मणामयोग्यवस्थायामुदयाजाव तचाणपुब्बीसहिया, तेरस जवसिफियस्स चरिमम्मि । स्तेषां स्थिति स्वरूपं प्रतीत्य समयानां विधत्ते । कर्मत्वमात्रक- संतं सगमुक्कोसं, जहनयं वारस हवंति ॥ ७ ॥ पतांस्वाधित्यायोग्यवस्थासमानामेव स्थिति करोति।नस्मिश्च तृतीयानुपूर्वी मनुष्यानुपूर्वी तया सहितास्ता एव द्वादश प्रसयोग्यवस्थाचरमसमये अन्यतरवेदनीयमौदारिकतैजसका प्रकृतयत्रयोदश सत्यो नवसिफिकस्य तद्भवमोक्षगामिनः (सं मणशरीरसंबके बन्धनसङ्घातनसंस्थानषटूप्रथमसंहननौदारि- तं सगति) सत्कर्म नत्कृष्ठं भवति । जघन्यं पुनादश प्रकृतयो काङ्गोपाङ्गवर्णादिचतुष्टया गुरुलघूपघातपराघातोच्यासशुभा- भवन्ति ताश्च द्वादश प्रकृतयस्ता एवं प्रयोदशतीर्थकरनामसशुभविहायोगतिप्रत्येकस्थिराऽस्थिरशुभाशुनसुस्वरफुःस्वर-- हिता वेदितव्याः॥७१ ॥ निर्माणनाम्नामुदयोदीरणाव्यवच्छेदः । ततोऽनन्तरसमये - अथ कस्मात्ते एवमिच्छन्ति ? इति । श्राहयोगिकेवली भवति । अयोगिकेवली च भवस्थो जघन्योत्कघमन्तर्मुहुर्त काल भवति । स च तस्यामवस्थायां वर्तमानो मणुयगश्सहगया उ, जबखित्तविवागजीवविवागि त्ति । भवोपनाहि कर्मकपणाय व्युपरतक्रियमप्रतिपातिध्यानमारोह- वेयणियनयरुचं, व चरिमभवियस्स खीयम्मि ॥७३॥ ति । एवमसावयोगिकेवल स्थितिघातादिरहितो यान्युदयच मनुजगत्या सह गताः स्थिताः मनुजगतिसहगताः, मनुष्यन्ति कर्माणि तानि स्थितिक्कयेणानुभवन् क्षपयति । यानि पु गत्या सह यासामुदयस्ता मनुजगतिसहगता इत्यर्थः । कि नरुदयवन्ति तदानीं न सन्ति तानि वेद्यमानासु प्रकृतिषु स्ति- विशिष्टास्ता इत्याह-(भवखित्तविवागजीवविवागि त्ति) भवबुकसंक्रमेण संक्रमयन् वेद्यमानप्रकृतिरूपतया च वेदयमान- विपाकाः केत्रविपाका जीवविपाकाइच। तत्र भयविपाका मनुस्तावद्याति याघदयोग्यवस्थाद्विचरमसमयः ॥ ६७ ॥ ध्यायुः, केत्रविपाका मनुष्यानुपूर्वी, शेषा नव जीवविपाकाः । देवगइसहगयाउ, दुचरमसमयभवसिद्धियम्मि खीयंति। तथाऽन्यतरवेदनीयमुच्चेर्गोत्रं च,सर्वसंख्यया त्रयोदश प्रकृतयो सविवागेयरनामा, नीया गोयं पि तत्येव ।। ६७ ॥ जविकस्य भवसिक्षिकस्य चरमे समक्षीयन्ते,न द्विचरमसम ये।ततश्चरमसमये जवसिद्धिकस्योत्कृष्ट सत्कर्म त्रयोदशप्रकृ. देवगत्या सह गताः स्थिताः देवगतिसहगताः देवगत्यासह तयो जघन्यतो द्वादश जवन्तीति अन्ये पुनराहुः-मनुष्यानुपा एकान्तेनेह बन्धो यासां ताः देवगतिसहगता इत्यर्थः । कास्ता विचरमसमय एव व्यवच्छेदः उदयाभावात् । उदयवतीनां हि इति चेत् ? । उच्यते-वैक्रियाहारकशरीरे, वैक्रियाहारकबन्धने, वैक्रियाहारकसङ्काते, वैक्रियहारकाङ्गोपाङ्गे, देवगतिर्देवानुपूर्वी स्तिबुकसंक्रमाभावात् स्वस्वरूपेण चरमसमये दलिक दृश्यत च एता देवगतिसहगताः। द्विचरमसमयभवसिफिके इति । द्वौ एवेति युक्तस्तासां चरमसमये सत्ताव्यच्छेदः । भानुपूर्वीनाम्नां चरमौ समयौ यस्य नवसिद्धिकस्य स हिचरमसमयः, स तु चतुर्णामपि केत्रविपाकितया भवापान्तरालगतायेवोदयः, चासौ जवसिफिकश्च तस्मिन् द्विचरमसमयनवसिडिके क्षी तेन न भवस्थस्य तदयसंजवः, तदसंभवाचायोग्यवस्थाद्वियन्ते कयमुपगच्छन्ति । तथा तत्रैव द्विचरमसमयभवसिक्केि चरमसमय एव मनुष्यानुपूर्व्याः सत्ताव्यवच्छेद इति। एतदेवसविपाकेतरनामानि विपाक उदयः, सह विपाकेन यानि व. मतमधिकृत्य प्राक् द्विचरमसमये सप्तचत्वारिंशत्प्रकृतीनां स ताब्यवच्छेदो दर्शितः । चरमसमये तूत्कर्षतो द्वादशानां जघतन्ते तानि सविपाकानि, तेषामितराणि प्रतिपक्षभूतानि यानि नामानि तानि सविपाकेतरनामानि,अनुदयवत्यो नाम प्रकृतय इ. न्यत एकादशानामिति । ततोऽनन्तरसमये कोशबन्धमोकत्यर्थः। ताश्चेमाः-औदारिकतैजसकार्मणशरीरम,औदारिकतैज लक्षणसहकारिसमुत्थस्वनावविशेषाद परएडफलमिव भगवासकार्मणबन्धनमातानि,संस्थानषटूम,संहननपटूम, औदारि नपि कर्मसंबन्धमोक्कलकणसहकारिसमुत्थस्वनावविशेषादृर्द्ध काङ्गोपाङ्ग, वर्णगन्धरसस्पर्शा, मनुजानुपूर्वी, पराघातम, उप लोकान्ते गच्छति।सचा गच्छन् ऋजुश्रेण्या यावत्स्वाकाश. घातम, अगुरु, लघु, प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगती, प्रत्येकमपर्या प्रदेशेबिहावगाढस्तावतः प्रदेशानूर्द्धमप्यवगाहमानो विवक्कि. तकमुच्चासनाम, स्थिरास्थिरे, शुजाशुभे, सुस्वरदुःस्वरे, पुर्भ तसमयाच्चान्यत्समयान्तरमस्पृशन् गच्छति । उक्तं चावश्यकगम,अनादेयम् यशः कीर्तिनिर्माणमिति, तथा नीचैर्गोत्रम्, अ चूर्णी-" जत्तिए जीवो अवगाढो तावड्याए ओगाहणाए पिशव्दादन्यतरदनुदितं वेदनीयं सर्वसंध्यया सप्तचत्वारिंशत उर्छ उज्जुगं गच्च नवक बीयं च समयं न फुसत्ति " ॥ इत्थं प्रकृतयः कयमुपयान्ति ॥ ६ ॥ चानेके जगवन्तः कर्मवयं कृत्वा तत्र गताः सन्तः सिकि सुखं शाश्वतं कालमनुभवन्तोऽवतिष्ठन्ते । कर्म० ६ कर्मः। अन्नयरवेयणिजं, मणुयाउयनच्चगोयनवनामा । पं० सं०। आचा . Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३३) खवगा अन्निधानराजेन्डः। खवणा खवण-कपण-न०। प्रकृत्यन्तरसंक्रमितस्य कर्मणः प्रदेशोदयेन संस्तारस्थितसाधुः कर्मलघु कृपयनिनिर्जरणे, विशे। अप्रत्याख्यानादिप्रक्रमेण रुपक श्रेयां मोहा- जो संख्येज भवहि, सव्वं पिखवेइ सो तहिं कम्मं । घभावापादने, प्राचा०१६० ए०१०। अणुसमयं साहुपयं, साहू वुत्तो तहिं समए ॥ ४६॥ कौशकपणकालो देवानाम् यः साधुः (संखिजभवदिई ति) संख्याता संख्यायुवकणा अस्थि णं ते ! देवा भएते कम्मंसे जहमेणं एकेण| भवे एकस्मिन् जये एकजन्मस्थितिकः असंख्यातवायुषी वा दोहिं वा तिहिं वा नक्कोसेणं पंचहिं वासमएहिं खब- हि चारित्रप्रतीतिरपिन भवतीनि संख्यातवर्षस्थितिकत्वमुक्तम् (सव्वं पि खवरे सो तर्हि कम्मं ति) सबमपितपयति निजरययंति ? हंता अस्थि । अस्थि णं भंते ! देवा जे अणंतेक ति स साधुस्तत्र तस्मिन्संस्तारके व्यवस्थितः प्रथमसंहननमंसे जहमेणं एक्केण वा दोहिं वा तिहिं वा उक्कोसेणं वत्प्रकृष्टाराधनः कपयति अष्टप्रकारमपि कर्म । अयं प्रतिप्तमयं पंचहिं वाससहस्सेहिं खवयंति ? हंता अस्थि । अस्थि एणं स साधु साधुपदं प्रतिपन्नः सन् तस्मिन्नेव भये प्रायः कर्म भंते ! देवा जे अणंते कम्मसे जहहोणं एक्केण वा दोहिं क्षपयति । अनुसमयं तस्मिन्सुपर्यन्ताराधनासमयैन्युक्तो विशेवा तिहिं वा उक्कोसेणं पंचहिं वाससयसहस्सेहिं खवयवंति? | षणोक्तः तस्यामवस्थायां विशेषतः कपणात लाभप्रश्नस्य गुरु णा निर्वचनं दत्तम् ॥ ४६॥ संथा०॥ 'जं अनाणी कम्मं खयो' हंसा अस्थि । कयरे नंते ! देवा जे अणते कम्मसे जहरले इत्यादि ज्ञानमये उपवासे, । “चनत्यं छटुं अट्ठमंदसमं वागं एकेण वा दोहिं वा तिहिं वा० जाव पंचहिं बाससएहिं लसमं अम्मासखमणं मासदुमासतिमासचउमासपंचमासखवयंति । कयरे णं भंते ! देवा. जाव पंचहिं वाससहस्से- छम्मासा सब्बं पि इत्तरं भावकहियं वा" | नि००१००। हिं खवयंति । कयरे णं नंते ! देवा. जाव पंचहिं वास- (ये ये कपणाः शोभ्याः तान् एकत्रीकृत्य गाथाद्वयेन 'सम्गम' शब्दे द्वि० भागे ६९६ पृथे) सयसहस्सेहिं खवयंति ? । गोयमा ! वाणमंतरा भयंते कम्मंसे एगेण वाससएणं खवयंति । असुरिंदवज्जियाणं जव कामदाणाईए, निविगइ खमणमेव परिजोगे (४७)। णवासी देवा अणंते कम्मंसे दोहिं वाससएहिं खवयंति ।। विकथादिप्रमादेन विस्मृत्य भक्तादौ कालाध्वातीतस्य परि भागे कृते सति (निबिग स्त्रमणमेवे ति) एवशम्दः पुनरर्थे स असुरकुमारा देवा अणंते कम्मंसे तिहिं वाससएहिं खवयंति । च परिजोगशब्दादने प्रोच्यते। ततश्च कालाध्वातीतस्य परिभोगे गहगणणखत्ततारारूवा जोसिया देवा अणंते कम्मंसे | पुनः कपणम् ।। जीत०॥ चनवास० जाव खवयंति । चंदिमसूरिया जोइसिंदा जो- (जीएगासणयं,) सेसगमाया तु खमणं तु (॥५६॥) इसरायाणो अणंते कम्मंसे पंचहिं बाससएहिं खवयंति ।। पूर्वोक्तमायातोन्याः यथासोहम्मीसाणगा देवा मणंते कम्मंसे एगेणं वाससहस्सेणं० "सिया एगयनो लटुं, विविहं पाणभोयणं । जाव खवयंति | सणंकुमारमाहिंदगा देवा अणंते कम्मसे भड्गं भड्गं नुश्चा, विवनं विरसमाहरे ॥१॥" दोहिं वाससहस्सेहिं खवयंति। एवं एएणं अजिमावणं बंन जाणं तु ता इमे समणा, आययट्ठी (मोक्कार्थी) अयं मुणी। लोगंतगा देवा अणंते कम्मंसे तिहिं वाससहस्सेहिं खवयंति । संतुझो सेवए पंतं लूह वित्तीसु तोसो ॥२॥" इत्यादिकास यशोऽर्थ कृतासु मायासु पुनः कपणम् ।जीत०। महासुकसहस्सारगा देवा अणंते कम्मंसे चनहिं वाससहस्सेहिं त्रकाक्षिकचैत्यवन्दनस्यैकवारमकरणे कपणम् । महा०७ अग खवयंति। प्राणयपाणयारणअच्चुयगा देवाअणंते कम्मं- क्षपयति कम्माणि इति वपण: पु०क्वपक्रा, पि"खवेति जे से पंचहि वाससहस्सेहिं खवयंति । हेष्टिमगेवेजगा देवा 'गा। चाणं " कृपयति यद्यस्मात् ऋणं कर्म तस्मात कपणः । यंते कम्मंसे एगणं बाससयसहस्सणं खवयंति । मजिक्रम दश० ७ ० । सुते, मा० म०प्र०। गेवेजगा देवा दोहिं क्ससयसहस्सेहिं खवयंनि । उरि खवणा-कपणा-खी । कपणमपचयो निर्जरा पापकर्मकपणमगेबेन्जगा देवा अणते कम्मंसे तिहिं वाससयसहस्सेहि देतुत्वात् कपणा । भावाध्ययने सामायिकादिश्रुतविशेष,अनु । प्रा०म० । अस्या 'झवणा' इत्यपि रूपं भवति । खवयंति । विजयजयंतजयंतअपराजियगा देवा मणते अस्य निक्षेपः। कम्मंसे चनहिं वामसयसहस्सेहिं खवयंति । सबसि- से कि त ? जवणा । जवणा चनविहा पामत्ता । तं कंगा देवा अणते कम्मसे पंचहि वाससयसहस्सेहि खव- जहा-नामज्जवणा, ठवणवणा, दव्वजावाणा, नावावयंति । एएणं गोयमा ! ते देवा जे आएंते कम्मंसे जह-। वणा, नामठवणझवणा न पुव्वं भणिश्राओ। से किं तं मेणं एकेण वा दोहिं वा तिहिं वा उक्कोमे णं पंचहिं वा- दम्बकवणा । दबकवणा दुविहा पाना । तं जहाससरहिं खवयंति । एएणं गोयमा! ते देवा० जाव पंचहिं| श्रागमो अ,नोभागमभो असे किं तं प्रागमओ दन्धवासमहस्सेहिं खवयंति । एएणं गोयमा ! ते देवा. जाव ज्भवणा? जस्स एं ऊवणे ति पदं सिक्खि छि पंचर्हि वाससयसहस्सेहिं खवयंति, सेवं नंते ! ते ति। जिनंमिश्र परिजिअं जाव से प्रागमओ दब्बज्जवज०१० श०७०। गा। से किं तं नोयागमनोदव्यजक्रवणानो आगम १८४ Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३४) खवणा श्रभिधानराजेन्द्रः। खाइ श्रो दबकवणा तिविहा पणत्ता । तं जहा-जाणगसरी- कसित-त्रिका आर्षत्वात्कस्य खः । कासरोगे, प्रा०१पाद । रदबकवणा, भविसरीरदबकवणा, जाएगसरीर-खह-खह-न । खनने भुवो हाने च त्यागे यद्भवति तत् खहभविग्रसरीरवइरित्ता दबकवणा । से किं तं जाणगस- मिति नियुक्तिवशाद । आकाशे, भ.२.श०२ उ०। रीदव्बकवणा। पयत्याहिगारजाणयस्स जं सरीरयं वव-खहचर-खचर-पुं० स्खे आकाशे चरन्तीति खचराः प्राकृतत्वाद् गयचुअचाविअचत्तदेहं से जहा दबज्यणे० जाव सेत्तं दीर्घत्वाच्च बदचरा इति सूत्रे पाठः। प्रशा०१ पद। जाणगसरीरदबकवणा। से किं तंजविसरीरदबज्व तद्भेदाः खचरप्रतिपादनार्थमाह-"से किं तमित्यादि" अथ केते संमूचिमखचरपञ्चेन्जियतिर्ययोनिकाः? सूरिराह-संमृद्धिमखणा भविअसरीरदव्यज्कवणाए जे जीवे जोणीजम्मण णि चरपञ्चेन्द्रियतिर्यम्योनिकाइचतुर्विधाः कप्तास्तद्यथा-" दो खते सेसं जहा दव्वक्रयणेजाब सेत्तं भविअसरीरदबा- जहा पम्पवणाए" इति भेदो यथा प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यः वणा।से किंतं जाणगसरीरजविअसरीरवइरित्तादव्यज्व- सचैवं " चम्मपक्खी लोमपक्व। समुग्गपक्खी विततपक्खी" पा? जहा जाणगसरीरजविसरीरवइरित्ते दबाए तहा (चरमपक्कादीनां दाः स्वस्वशब्दे)(अवगाहनादिरस्य अवगाह नादि शम्देषु) वेताब्यवासिनि विद्याधरे,जं०२ वक्ष०ा ('पाहा. जाणियचा जाव सेत्तं मीसिया। सेत्तं लोगुत्तरिआ। सेत्तं र' शब्दे द्वि० भागे ४६७ पृष्टे एपामाहारः) जाणगसरीरभविसरीरवपरित्ता दवझवणा । सेत्तं खहयरमंस-खचरमांस-पुं०। लायकचटकादीनां खेचराणां स. नोग्रागमो दबवणा । सेत्तं दव्यज्वणा । से | बन्धिनि मांसे, प्रव०४ द्वार । किं तं जावजवणा। जावज्ावणा सुविहा परमत्ता । तं | खहयरी-खचरी-स्त्री० । खचरखियाम, स्था० ३ ठा०१००। जहा-आगमओ अ, पोआगमत्रो असे किं तं श्राग- खा-खात-० । वन-भावे क्तः " द्वितीयतुर्ययोरुपरिपूर्वः " मत्रो भावझवणा भावकवणा जाणए नवउत्ते सेत्तं ॥२१९०। इति द्वित्वाभावान प्रवर्तते । प्रा० २ पाद । खनने, आगमओ नावकवणासे किं तं णोआगमनो जाव- खादित-त्रि० । खाद-क्त । "खादधावोमुक" |८||२२० । जमवणा।पोआगमओ नावज्जवणा दुविहा पत्ता। तं इत्यन्त्यस्य लुक । भाव जहा-पसत्या य, अपसत्था य । से किं तं पसत्या? पस- | खाइ-ख्याति-स्त्री० । ख्या क्तिन् प्रशंसायाम. कथने, वाच० । त्या तिविहा परमत्ता। तं जहा-णाणवणा, दंसणा गुणवन्तो विशिष्टाः साधवः इत्यादिप्रवादरूपायाम् , स्था० ५ वणा, चरित्तज्जवणा। सेत्तं पसत्था । से किं तं अपस ग०३ उ० । यशःपराक्रमकृतायां प्रसिकी, स्था०३ ठा० ४ उ०। झाने चतस्रः ख्यातयः। अण्यातिः, अन्यथाख्यातिः, स्था । अपसत्या चविहा परमत्ता । तं जहा-कोहफ आत्मख्यातिः, असत्ख्यातिश्च । तत्राख्याति म विवेकास्यावणा,माणकवणा,मायकवणा,लोभज्जवणा। सेत्तं अपस- तिः, अन्यथाख्यातिर्विपरीताख्यातिः। वाच०। स्था । सेत्तं नोआगमो भावकवणा । सेत्तं जावक ख्यातयोलिख्यन्ते-तत्र प्रभाकरमतानुसारिणो विवेकाख्याति वणा। सेत्तं नोआगमओ नावज्जवणा । सेत्तं ओह निष्प मन्यन्ते विपर्यस्तझाने । तथादि-इदं रजतमिति झाने अन्यो न्यविभिन्नं शानद्वयं प्रत्यवस्मरणरूपं विजिन्नकारणप्रत्रवत्वात् ने। अनु०॥ विजिन्नविषयत्वाच सिध्यत्येव । इन्द्रियं हीदमंशोदेखिनः क्षपणा द्विधा । द्रव्यतो,भावतश्च । अन्यतः सकषायस्यैहिकापा-| प्रत्यकस्य कारणं संस्कारश्च स्मरणस्येति सिद्धमत्र भिन्नयभीरोः भावतः संवेगमापन्नस्य सम्यग्दृष्टरिति ॥ श्राव. ३| कारणप्रभवत्वं, ययोश्च भिन्नकारणप्रत्रवत्वं तयोरन्योऽन्य नेदो अ० । दा०। यथा प्रत्यक्कानुमानयोः विनिन्नकारण प्रभवत्वं चात्र विभिनखबरमच्छ-खवसमत्स्य-पुं०। मत्स्यनेदे, । विपा० १६०० विषयत्वं चात्र सुप्रसिद्धम् । इदमिति ज्ञानस्य पुरोवर्तिशुक्तिअ०।जी। शकलासम्बनत्वात् । रजतमिति ज्ञानस्य च व्यवहितरजतविषखवा-कपा-स्त्री० । रात्री, हरिद्रायां च । वाच । वृ०। यत्वात् । यत्र विभिन्नविषयत्वं तत्रान्योऽन्यं दो यथा रूपरसा खवाजल-क्षपाजल-न । अवश्याये, स्था०४ ठा०४०। उदिझाने अस्ति चात्र विभिन्न विषयत्वमिति इत्थं प्रत्यक्कात् स्मृतिविभिन्नापि प्रसृष्टेति न विवेकेन प्रतिभासत इत्यविवेकखस-ख (श)स-पुं० । अनार्यवेत्रभेदे, म्लेच्चजातौ च । ख्यातिः। न स्वेकमेवेदं ज्ञानम तथात्वेन तदुत्पत्ती कारणाजावासूत्र. २ श्रु० २१०। प्रव०। प्रश्न सु०प्र० । मुरानामगन्ध- त् । तत्र हि कारणमिडियमन्यद्वा ? न तावदन्यदुपरतन्द्रियकाव्ये, वाच०। (खस) इति ख्याते वृक्के, वाच । व्यापारस्यापि तदुत्पत्तिप्रसगात् । नापीन्द्रियं । तद्धिरजतसरशे खसखस-खसखस-पुं० । खसप्रकारः द्वित्वं पृषो । वसतिले शुक्तिशकते संप्रयुक्तं सत्तत्र निर्विकल्पकमुपजनयेत् सविकल्प(पोस्ता) वृत्तभेद, धान्यदे, वाच । ध। कमपि तत्रैव, न रजते, तस्येन्कियेणासंबन्धात् अवर्तमानत्त्वा च । नचासंबद्धमवर्तमानं चेन्द्रियग्राह्यम् । संबकं वर्तमानं च खसम-खशम-पुं०। चित्रितशृगाले, बृ० १ उ० । ( तत्कथा गृह्यते चकुरादिना इत्यनिधानात् । अन्यथा विप्रकृष्टाशेषा'कप्प' शब्दे अस्मिन्नेव भागे २२२ पृष्ठे उक्ता) थानामपि ग्राह्यत्वप्रसङ्गतोऽनुपाये सिद्धमशेषस्याशेषज्ञत्वं स्याखसि अ-खचित-न० । “खचितपिशाचयोश्चः स-द्वौ वा" ८ त्। न च दोषाणामयं महिमेत्यानिधातव्यम् यतः कोऽयं तन्माहि. १३१६३ । इति चस्य सः । मएिमते, प्रा०१पाद । मा नाम इन्द्रियशक्तः प्रतिबन्धः,प्रध्वंसोवा, विपरीतकानाविर्भा Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाइ अभिधानराजेन्द्रः। खाइ पो वा । तत्राद्यविकल्पवयमयुक्तम् । कार्यानुत्पादप्रङ्गात् । न हि सोऽर्थो न प्रतिभाति, तथापि यदा प्रतिभाति, तदा तापदमणिमन्त्रादिना दहनशकेः प्रतिबन्धे प्रध्वंसे वा स्फोटादिका. स्त्येव । अन्यथा विद्युदादेरपि स्वप्रतिभासकाले सत्त्वसिरिन योत्पत्तिईष्टा । तृतीयविकल्पोऽप्यनुपपन्नः न खलु दुष्टावयवाः स्यात्तस्मात्प्रसिकाच्यातिरवेयमिति ॥४॥ अन्ये स्वात्मविपरीतं कार्यमाविर्भावयन्तःप्रतीयन्ते। अतो ज्ञानद्वयमेतदिद- ख्याति मन्यन्ते । तथादि-शुक्तिकायामिद रजतमिति रजतं मिति हि प्रत्यकं पुरो व्यवस्थितार्थनाहि, रजतमिति चानुभूत- प्रतिजासते, तस्य च बाह्यस्य वाधकप्रत्ययात्प्रतिनासो नोपरजतस्मरणमिति,रजताकारा हि प्रतीती रजतविषयव, न शुक्ति- पद्यते । न खलु यथैव प्रतिनासते तथैवार्थ इत्यज्युपगन्तुं विषया, अन्याकारायाः प्रतीतेरन्यविषयत्वायोगात्, तद्योगे वा, युक्तम् । भ्रान्तस्वाभावप्रसङ्गात् । अतो ज्ञानस्यैवायमाकारो सर्वज्ञानं सर्वविषयं स्यादिति,सर्वस्य सर्वदर्शित्वापत्तिः। प्रयोगे ऽनाद्यविद्यावासनासामर्थ्यावहिरिव प्रतिनासत इत्यात्मल्यायद्यदाकारं ज्ञानं तत्तद्विषयमेव । यथा घटाकारं घटविषयमेव, तिः॥५॥ केचिदनिर्वचनीयख्याति मन्यन्ते । तथाहि-शुक्तिकायां रजताकारं चेदमिति । यदि वाऽन्याकारापि प्रतीतिरन्यविषया रजताकार सन्, असन, उन्नयरूपो वा?। न तावत् सन, उत्तस्यात्तदा स्वार्थव्यभिचारतः सर्वत्राप्यनाश्वासःस्यात् ततोर- रकाले वाधकानुत्पत्तिप्रसङ्गतस्तर्हि तद्रजतत्वप्रसक्तेः। नाप्यजताकारं रजतविषयमेव ज्ञानमन्युपगन्तव्यम्।नच रजतमग्रतः सन्-आकाशकुशेशयवत् प्रतिनासाभावप्रसङ्गात् । नाप्युभयसंनिहितमतोऽतीतमेव तत्तदा स्मर्यते इति, न तज्ज्ञानं प्रत्य- रूपनभयदोषानुषङ्गात् । सदसतोरैकात्म्यविरोधाश्च । तस्मादकमिन्द्रयार्थसंप्रयोगजत्त्वानावात् । ननु यद्यतीतं रजतं स्मर्य- यं बुद्धिदर्शितोऽर्थः सत्वेनासत्वेनोभयधर्मेण वा निर्वक्तुं न शते तदाऽतीतस्यातीततयैव प्रतिजासः स्यात,न तु वर्तमानरजत- क्यत,श्त्यनिर्वचनीयार्थख्यातिः।। इति ख्यातिप्रन्धपाठः। अत्र. तुज्यतयेत्यपेशलम । प्रतीतस्यापि रजतस्य दोषतोऽतीतत्त्वेनाप्र. विवेकास्यातिवादी वदति-विवादास्पदमिदं रजतमिति प्रत्ययो, तिभासनात् । वर्तमानस्य च शुक्तिलकणार्थस्य ग्राहकं ज्ञानं न वैपरीत्येन स्वीकर्तव्यः, तथा विचार्यमाणस्य तस्यानुपपद्यगुक्तिकेयमिति तवक्कणमर्थ स्वरूपेण प्रतिपत्तुमसभथै शुक्ति- मानत्वाद्, यद्यथा विचार्यमाणं नोपपद्यते, न तत्तथा स्वीकत त्वलकणविशेषणस्य रजतात शुक्तरुंदकस्याग्रहणात् साधार- व्यम,यथा-स्तम्भः कुम्नरूपतयेति। न चेदं साधनम् सिद्धिमधाणात्मभावो रजतान्वयिना स्थितं वस्तुप्रतिपद्यमानं रजतस्मृ- रयत, तथादि-किमिदं प्रत्ययस्य वैपरीत्यं स्याद् ?-अर्थक्रियाकातिज्ञानस्य स्मरामीत्याकारशून्यस्य कारणतां प्रतिपद्यते । स्मरा- रिपदार्थाप्रत्यायकत्वम, अन्यथा प्रथनं वा?|श्राद्ये भेदे, विवामील्याकारशून्यत्वमेव चास्याः प्रमोष इति । न च स्मृतिप्रमोषा- दास्पदप्रत्ययप्रत्यायिते पदार्थे किमर्थक्रियामात्रमपि नास्ति, त. ज्युपगमे रजतज्ञानस्य सत्यत्वापुत्तरकानेन बाध्यतानुपप- द्विशेषसाध्या वा सा न विद्यते ? नाद्यः पक्षः,शुक्तिसाध्यायास्त. त्तिरित्यभिधातन्यम् । शुक्तिकेयमिति नेदबुद्धी दानध्यवसा- | स्या भावात् । द्वितीये तु, शानकाले सा नास्ति, कासान्तरेऽपि यानिवारणेन पूर्वप्रत्ययप्रसञ्जितरजतोचितप्रवृत्यादिव्यबहार- वा? शानकाले तावत्तथ्यकलधौतवोधेऽपि क्वापि सा नास्येनिवारणतस्तस्या उपपत्तेः। ये तु स्मृतिप्रमोषमनिच्छन्तस्तत्र वि- व । कालान्तरे तु प्रचुरतरसमीरसमीरणाशुव्यपायिपयोवुद परीतख्याति प्रतिपद्यन्ते तेषां वाह्यार्थसिद्धिर्न प्राप्नोति । तदष्टा वोधेऽपि सा न विद्यत एव । तन्नार्थक्रियेत्यादिपक केमकारः। म्तेनाशेषप्रत्ययानां निरालम्बनत्त्वप्रसङ्गात् । यथैव हि-रजतप्र- तत्पुरस्सरपक्के तु, तथाविधवपरीत्यं तस्य स्वेनैव, पूर्वकानेन, त्ययो रजताजावेऽपि रजतमवन्नासयति तथा-सर्वे वाह्यार्थप्र- उत्तरकानेन वा अवसीयेत?न स्वेनैव, तेन स्वस्य वैपरीत्यावत्ययास्तदभावेऽपि तदवनासिनःइत्यद्वैतवादिमतसिद्धिःस्यात् । साये प्रमातुःप्रवृत्त्यभावप्रसङ्गात्।अथ पूर्वशानेन, किं स्वकालतामनिच्छता स्मृतिप्रमोष एवाग्ज्युपगन्तव्यः इति विवेकाख्या- स्थेन, तत्कालस्थेन वानायेन, तत्काले वैपरीत्यास्पदसंबे तिः॥१॥ अपरे अख्याति मन्यन्ते-तथाहीदं रजतमितिकाने रजत दनस्यासत्वात् । नाऽपि द्वितीयेन, शानयोयोगपद्यासंभवात् । सत्ताविषयभूता तावन्नास्ति अभ्रान्तस्वानुषङ्गात् । रजताऽभावो- अधोत्तरकानेन, तरिक विजातीय, सजातीयं वा स्यात् । विजा पिन तदालम्बनं तद्विषयपरत्वेनास्य प्रवृत्तेः अत एव शुक्तिश- तीयमप्येकसन्तानं, भिन्नसन्तानं वा ? दवयेऽपि घटझानं पट कलमपिन तदाबम्बनं रजताकारण गुक्तिशकसमित्यप्ययुक्तम । ज्ञानस्य वैपरीत्याऽवसायि भवेत् । सजातीयमप्येकविषयं, भि. अन्यस्यान्याकारेण ग्रहणाप्रवृत्तेः । न खलु घटाकारेण पटस्य प्रविषयं वा ? । एकविषयमप्येकसन्तानं, भिन्नसन्तानं वा ?। प्रहणं प्रतीतम् । अतो न किञ्चिदत्र माने ख्यातीति, सिका प्रख्या द्वयमपीदं संवाददत्तहस्तावलम्ब कथं वैपरीत्यावबोधधुराधौ तिः।२। अपरे तु असत्स्याति मन्यन्ते॥ तथाहि-दं प्रतिजासमानं । रेयतां दधीत ? भिन्नविषयमप्यकसन्तानं, भिन्नसन्तानं वा। वस्तुस्वरूपं ज्ञानधर्मः, अर्थधर्मों वा स्यात् न तावमानधर्मोऽन- उभयत्रापि पटकानं पटान्तरज्ञानस्य तथा नवेत् । अथ न डकारास्पदत्वात् । बहिरिदतया प्रतिनासमानत्वाच्च । माप्यर्थ सर्वमेवोत्तरशानं प्राक्तनस्यान्यथात्वावबोधबद्धककं, किंतुयदे. धर्मः । तत्साध्यार्थक्रियाकारित्वाभावात् । वाधकप्रत्ययेन व बाधकत्वेनोल्लसति । ननु किमिदं तस्य तद्बाधकत्वं ?-तदन्य तद्धर्मतयाऽस्य वाध्यमानत्वाच्च। असदेव तत्तत्र प्रतिभासते। त्वं, तदुपमर्दकत्वं, तस्य स्वविषये प्रवर्तमानस्य प्रतिहन्तृत्वं, श्त्यसत्स्यातिः ॥ ३ ॥ अन्ये तु प्रसिद्धार्थख्याति प्रतिपन्नाः प्रवृत्तस्यापि फलोत्पादप्रतिबन्धकत्वं चा?। प्राचि पत्ते, मिथ्यातथा हि-प्रतीतिसिक एवार्थो विपर्ययझाने प्रतिभाति।नचास्य ज्ञानमपि तस्य वाधकं स्याद् अन्यत्वस्योजयत्राविशेषात्। द्वितीये विचार्यमाणस्यासत्त्वं वाच्यं, प्रतीतिव्यतिरेकेणापरस्य विद्यार- घटकानं पटनानस्य बाधकं स्यात्,तस्यापि तदुपमहेनोत्पादात् । स्यैवासंभवात्, प्रतीतिवाधितत्वाच्च । न च तत्प्रसिकेऽर्थे तृतीये, न प्रवृत्तिः तस्य तेन प्रतिहर्तुं शक्या,यत्र क्वचन गोच. विचारो युक्तः। करतलगतामलकादेरपि हि प्रतिभासयलेनैव रे प्रागेव प्रवृत्तत्वात् । तुरीयेऽपि,न फलोत्पत्तिस्तस्य तेन प्रतिसत्त्वम् । स च प्रतिभासोऽन्यत्राऽप्यविशिष्टः। अथ मरीचिका- | बद्धं पार्यते, उपादानादिसंविदोऽपि प्रथममेव समुत्पन्नत्वात् । चक्रादौ जलार्थस्य प्रतिभा, तस्य तद्देशोपसर्पणे सत्युत्तरका- किंच-विपरीतप्रत्यये रजतम,असत् चकास्ति,सद् वा?। असले प्रतिभासानाबादसत्त्वम् । तदयुक्तम् । यतो यद्यप्युत्तरकाले चेत् । असत्स्यातिरेवेयं स्यात् । सचेत्। तत्रैव, भन्यत्रवा। यदि Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाइ (७३६) अनिधानराजेन्दः । खामोसिय तत्रैव, तदा तथ्यपदार्थख्यातिरेवेयं भवेत् । अन्यत्र तु सतः कथं णतादिव्यावर्तकधर्माणामपि प्रतिभासादिति चत्। तर्हि साव. तत्र प्रतीतिः १, पुरस्सरगोचर एव चक्षुरादेर्व्यापारात् । दोष- धारणः साधारणधर्मप्रतिभासः प्रकृतरजतपोधेऽपि नास्त्येव, माहात्म्यादिति चेत् । न, दोषाणामिलियसामर्यकदर्थनमा- रजतगतस्य रजतत्वस्येव शुक्तिगतस्य स्वनियतदेशकालस्मर्यप्रचरितार्यत्वेन विपरीतकार्योत्पत्ति प्रत्यकिञ्चित्करत्वात् । त- माणरजतासन्नविनियतंदशकालत्वस्य व्यावर्तकधर्मस्य प्रतितस्तथा विचार्यमाणस्य तस्यानुपपद्यमानत्वमसिध्यदेव। 'ना- नानादिति । प्रहणस्मरणसंवित्ती अपि स्वसंधिदिते प्राभापि व्यभिचारि, विपक्कादत्यन्तं व्यावृत्तेः, अत एव न विरुरूम- | कराणाम्।तेच यदि स्वरूपेण प्रतिनातः,तदान रजतार्थिनस्तया पि। ततः सत्यमेवैतत् संवेदनद्वयम्-दमिति प्रत्यकं, रजत- प्रवृत्तिः स्याद् । अथ ग्रहणं स्मरणरूपतया प्रतिभाति, तदा विमिति तु स्मरणं, करणोद्भवदोषवशाम्बुक्तिरजतयोः प्रत्यकस्म परीतल्यातरस्पष्टतया प्रतिभानम, अनुभूतरजतदेशे प्रवृत्तिश्च गयोश्च दाप्रतिज्ञासानेदाख्यातिरियमुच्यत इति।अत्राभिद- स्यात्। अथ स्मरणं प्रहणरूपतया,तदाऽपि विपरीतण्यातिरेव । ध्महे-ये तावस्साधनासिफिविध्वंसनाय व्यधायिषत विकल्पाः | प्रनुतं चात्र वक्तव्यं, तच्चोक्तमेव वृहत्ती बितत्य श्रीपज्य: तत्र शुक्त्यादिरूपतयाऽन्यथास्थितार्थस्यान्यथा रजताद्यर्थप्र. ॥१०॥ रत्ना० १ परि० । (विस्तरस्तु समतितदिवसेयः) कारण यत्प्रथनं ततस्वरूपं वैपरीत्यं नेदं रजतमित्येवं तदु-| खाई-अव्य० । “घश्मादयोऽनर्थकाः"८।४।४२४। इति अ. पमर्दतः पश्चाउज्जृम्भमाणेन बाधकेनावधार्यते इति श्रमः । त पञ्चशे 'स्खाइमिति' निपातः। प्रा०४ पाद । पुनरथे, "किं सारं था चान्यथा प्रथनोत्सरज्ञानतदुपमर्दकत्वविकल्पान्यां शेषं तु णं भंते" भ०५श०४ उ०। देशभाषया वाक्यालकार, ०। विकल्पनिकुरम्बं तुण्डताएमवामम्बरविडम्बनामात्रफलमेव । अथ विजातीयं सजातीयं वा तदिल्यादिप्रकारेषु किमुत्सरं खाइम-खादिम-न० । 'सार' भक्षणे । खादनं खादो भावे घन। ते स्यात् ? । ननु वितीर्णमेव । अस्तु यत्किञ्चित, तदुप खादेन निर्वृत्तं खादिमम "तेन निर्वृत्तम्"४।२।६८ । (पाणि) मन चेकुत्पद्यते, तदा तदखिलं बाधकं सत्तस्य तथात्वमा- अस्याधिकार श्मप्रत्ययः। प्रव०४ धार । स्था। समित्याकाशे विष्करोतीति । उपमर्दश्च न प्रध्वंसः, यतः परज्ञानप्रध्वंसेनोत्प. तब मुखविवरमव तस्मिन् मातीति खादिमम । पृषोदरादित्वाचगानस्य घटज्ञानस्य बाधकत्वं स्यात,किं तु तत्प्रतिभातवस्व- सिद्धि प्रव०४ द्वार। पावापाचा खादःप्रयोजनमस्येति सरवण्यापनम्-यन्मदीयवेदने रजतमिति प्रत्यत्नात, तज्जतं न खादिम स्था०४ ग०२३० । खाद्यत इति खादिमम् । दश. भवत्येवेति । अपि च, भेदाख्यातावपि प्रत्यवस्मरणयो दास्या- १०। आव । भक्तौषधखर्जूरफलादिक माहारभेदे, प्रव० । नं किं स्वेनैव वेद्यते ? इत्यादिसकलविकल्पपेटकमाटीकत एव, । संप्रति खादिममाहइति स्ववधाय कृतोन्थापनमेतद्भवतः। अथ प्रकृतज्ञाने रजतप्रति नत्तोसं दंताई, खज्जूरगनाझिकेरदक्खाई । नाने कथं तेन शुक्तिकाऽपेदयेत। तन्न,संवृतस्वाकाराया: समुपा कक्कमिअंगफणसाइ, बहुविहं-खाइमं नेयं ॥ १३ ॥ सरजताकारायाःशुक्तिकाया एवात्र प्रतिमानान् । वस्तुस्थित्या हिशुक्तिरेव सा, त्रिकोणत्वादिविशेषग्रहणाभावातु संवृतस्था भक्तं च तद्भोजनमोषं च दाह्यं भक्तोपं रूदितः परिभ्रष्टचणक कारा, चाकचिक्यादिसाधारणधर्मदर्शनोपजनितरूप्यस्मरणा गोधूमादि, दन्त्यादि दन्तेज्यो हितं दन्त्यं गुमादि, श्रादिशब्दाचारोपितरजताकारत्वाच्च समुपात्तरजताकारा, इत्यभिधीयते। रुकुलिकाखण्डेखुशर्करादिपरिग्रहः। यद्वा दन्तादि देशविशेषप्रयत्खलु यत्र कर्मतया चकास्तितत्तत्रालम्बनम,एतच्च शुङ्गग्रा सिकं गुडसंस्कृतदन्तपवनादिः । तथा खजूरकनालिकेरलाहिकया निर्दिश्यमानायां शुक्तौ समस्त्येव।सैव हि दोषवशात्त क्षादि आदिशब्दादकोटदामिमादिपरिग्रहः। तथा कर्कटिकाथा प्रतिभाति । दृष्टं च दोषवशाद्विपरीतकार्योत्पादकत्वं, यथा ध्रपनसादि प्रादिशब्दात्कदल्यादिफलपटअपरिग्रहः बहुविधं तिप्तमन्दाकलक्ष्मीकायाः कुलपदमलाक्ष्यास्तत्तद्विरुरूवीक्षण- खादिम शेयम् । प्रव०४ द्वार । ध० पं० सं०। दर्श। प्रव० । भाषणादि । त्वयाऽपि चैतदङ्गीकृतमेव, प्रकृतरजतस्मरणस्या भत्तोसं दंताई, टोप्परखारिकदक्खज्रं । नुभूतरजतदेशानुसारिप्रवृत्तिजनकत्वौत्सर्गिककार्यपरिहारण पु. अंबगफणसं चव्वी, चारुलिया पत्तणागं च ॥१७॥ रोदेश एवं प्रवृत्तिजनकत्वस्वीकारात् । भेदाऽग्रहणं सहकारिणमपेक्ष्य प्रकृतरजतेम्मरणस्य तदविरुद्धमिति चेत् । दोषान् भट्ट धन्नं सव्वं, बदामअक्खोमउच्चुगंलिया। सहकारिणोऽपेक्ष्य दृषीकस्यापि तत्सथास्तु। किंच,प्रत्यभिकामेन फलपक्कन सव्वं,बहुविहं खाश्मं नये ॥ ४ ०प्र०ाउत्त। रजतसंवित्तः शुक्तिगोचरत्वमवस्थाप्यते-यदेव मम रजतत्वेन पू. मम रजतत्वन पू| खाइय-खाजिक-पुं०। खे कई देशे श्राजः केपः तत्र साधुः ठन्बमचकात् तदेवेदं शुक्तिशकलम, इत्येवं तस्योत्पादात । अनु लाजेषु, तस्य खाजिकस्य अर्जनपात्रात् कर्कदेशे स्फोटनेन मानेन च विवादपदं रजतज्ञानं शुक्तिगोचरं, तत्रैव प्रवर्तकत्वातु,पदेवं तदेवं यथा सत्यरजतज्ञानं रजतगोचरम् इति विचारेण तथालम । वाच० । 'खड्य' शब्दार्थ, वैपरीस्यस्योपपत्तेरसिद्धिगन्धमेव त्वत्साधनमिति स्थि-खाड्या-खातिका-स्त्री० । उपरिबिस्तीणाधःसंकटखातरूपे, तम् । यश्चोक्तम-शुक्तिरजतयोः प्रत्यक्षस्मरणयोग्य भेदाप्रतिभासा- | भ०५२०७ उ । खातवनये, प्रभ०५ सम्बद्वार। दिति, तत्र दाप्रतिभासस्तुच्चः कश्चिदुच्येत, अभेदप्रतिभासोपागोटा-बातोटक-नि। कृतप्रणालिरूपजलमार्गे गृहादी, वानाचः, प्राभाकरैरभावानज्युपगमात् । नापि द्वितीयः, I A ण । विपरीतस्यातिप्रसक्तः, भिन्नयोरभेदेन प्रतिभासात् । अथ दो व्यावसकर्मयोगः, तस्य चाप्रतिभासः। साधारणधर्मप्रति |खानोवसमि-कायोपशमिक-'खोबसमि' शब्दार्थे ! मास इति चेत् । न,शुक्तिकाने सत्येऽपि तस्य भावाद दीप्रतादेखाअोसिय-खातोत्सृत-न० । भूमिगृहस्योपरिप्रासादे वास्तुस्तत्राऽपि प्रतिभासात । अथ न तत्र तस्यैव प्रतिनासःत्रिको । भेदे, भाव०६० । निचू०। Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३७) खामखड प्रानिधानराजेन्द्रः। खारकरीर खाहखम-खाडखह-पुं०। पकअनायाः षष्ठे अपक्रान्ते महान- | खमावेंतु गुरुं सम्म, नाणमहिमंससित्तिन। रके, स्था० ६ ठा। काऊणं बंदिऊणंच,विहिपुव्वेण पुणो वि या६४महा०१०। खामहिना-खामहिना-स्त्री० । शुक्लकृष्णपटाकाररोमाहित. कमयामि सर्वजीवाननन्तभवेष्वप्यज्ञानमोहाभ्यामावृतेन मया शरीरायां शून्यदेवकुलादिवासिन्यां । टाली) ( टोली) तेषां पीमा कता याज्यामझानमाहाज्यामावृतेन मया पीडा कृता (गिलहरी शतलोके प्रसिकायां) चतुष्पाद विशेषजाती, प्रश्न०१ तयोरपगमान्मर्षयामि । सर्वे जीवाः क्षाम्यन्तु मे दुश्चेष्टितम् । आश्रद्वार। नं०। अत्र हेतुमाह-मैत्री मे सर्वभूतेषु वैरं मम न केनचित् । कोऽर्थः खाण-ख्यान-न० । कथने, स्था०४ ठा० ११०। मोकलाभहेतुनिस्तान् सर्वान् स्वशक्त्या न लम्भयामिन च केषां चिद्विघ्न कृतामपि विघाते बर्तेऽहमिति,बैरं हि भूरिभवपरम्पराखाणि-खानि-स्त्री० । स्वर्णाद्युत्पत्तिस्थाने, प्राकरे, या डीप ऽनुयायिकम्मरुनृत्यादीनामिवेति ॥६॥ ध०२ अधिका(अधितत्रार्थे, वाच०। प्रात्रा। करणे उत्पने कामणा ' अधिगरण'शब्दे प्र० भागे ५०५ पृष्ठे खाणु-स्थाणु पुं०। स्था-नु-पृषोदरादित्वात् णत्वं " स्था उक्ता)(कामणां कृत्वा जिनकल्पादि प्रतिपद्यते इति जिनकणावहरे"।२७ इति स्थाणी संयुक्तस्य खो भवति हर लिपकादिशब्देषु) केवलस्थापनाचार्यनिकटे प्रतिक्रमणं कुर्वन्तः खेत वाच्यो न भवति । प्रा०२ पाद । कर्वकाष्ठे । जं०२षतः । भकालयः कामणावसरे कतिवारं कामयन्तीति प्रश्ने-उत्तरम् दश । स्थूलकीलकेपु, ये छिन्नावशिष्टवनस्पतीनां शुष्का केवलस्थापनाचार्या प्रतिक्रमणे श्राका एकां वामणां कुर्वअवयवाः (दूंग) ति लोके प्रसिद्धाः। ज०१ धक्क० । न्तीति । ३६५३० सेन ३ उखा । "खाए व उचकाये" स्थापरिवोकायः । कायोत्सर्गकाले खामिय-क्षामित- विक्षम-णिन्-क्त-प्राकृते णिलोपः "अ. प्रश्न०५ सम्बद्वार।। स्सुक्यादेरत प्राः"।८।३ । १५३ । इति श्रादेरकारस्याऽऽकाखाणुबहुल-स्थाणुबहुल-त्रि० स्थाणवो बहुला यत्र तत् तथा र। प्रा०३ पाद । अपगमितरोषे, रोसावगमे खमा तं च खामिस्थाणुप्रचुरे, स्थाणुभिाते, जं०१ यक्ष०। यं नम्मति । नि० चू०४ उ० ।। खाणुसमाण-स्याणसमान-पुं० स्थाणुतुल्ये श्रमणोपासके,यो | खाय-खाद-पुं० । खादने लक्षणे, स्था० ३ ठा० २ उ० । हि कुतोऽपि कदाग्रहात न गीतार्थप्रदेशनया चास्यते सोऽनमन | खायणिकमण-खातनिर्धमन-न । सञ्जिनस्वागृहे, कल्प खभावो वोधकेनाऽप्रकापनीयः स्थाणुसमान इति । स्था०४/ एक्षण। ठा० ३००। खायदेसायारपवाझण-ख्यातदेशाचारप्रपालन-न। ख्यातस्य खात-खात-न० । उपरि विस्तीर्णेऽधः संकुचिते, रा०। का० ।। प्रसिद्धस्य तथाविधापरशिष्टसंमततया दूररूढिमागतस्य देअधः उपरि च समे, स० । जी० । कूपादौ, अनुग भूमिगृहादौ । शाचारस्य सकलस्य प्रपालनमनुवर्तनम् । देशाचाराऽनुवर्तवास्तुजेदे, नि० चू० १ उ० । प्रा० चू।। नरूपे गृहिधर्मे, तदाचाराऽतिमाने तद्देशवासिजनतया सह ख्यात-त्रि० । प्रसिके, ध०१ अधिः।। विरोधसंजवेनाऽकस्याणलाभः स्यादिति । पन्ति चात्र लीकिखामण-क्षामण-न। पाक्तिकचातुर्मासिकसांवत्सरिककाम- का। "यद्यपि सकलां योगी, छिद्रां पश्यति मेदिनीम् । तथापि णकानि तत्तपांसि च कियहिनानि यावत्कृतानि शुद्धयन्तीति सौकिकाचारं, मनसापि न लयेदिति " ध०१ अधि। प्रश्न-उत्तरम् । तत्वामणकानि च यथाक्रम द्वितीयां, पश्चमी, खायमाण-खादत-त्रि० । भक्कयति, जी. ३ प्रतिः। दशमी चायावत्कृतानि परम्परया गुयन्तीति। किं च पाति. खार-कार-पुं० करणं कारः। संचलने,स्था०८ ठा०ाकरीपादिकायर्वागपि तदिनसंख्यया यथासंभवं तत्तपांसि च प्रापणीयानि इति श्रद्धेयम् । ४४ प्र. सेन० ३ उल्ला। प्रभवे, दश०४०। सद्यो जस्मनि, झा०१ श्रु० १२ १० । मृत्खटीवर्णिकादी, ध० २ अधि०। यतिल कारादौ, पि। खामणगपमिकमण-क्षामणकप्रतिक्रमण-न० । दन्तधावनं क प्रइन० । बबुनादिक नि०० १३०। भर्जिकादौ, सूत्र०१ ल्पवर्त च विधाय कामणकप्रतिक्रमणादि कर्तुं शुद्ध्यति न घेति श्रु०४.२ उ० । लवणे, वृ०४०। " खारस्स लोणस्स प्रश्न-उत्तरम् कारणे घेलामध्ये कामणकप्रतिक्रमणादि कर्तु। प्रणासएणं" क्षारस्य पञ्चप्रकारस्यापि लवणस्याऽनशनेनाशुद्ध्यतीति । ३६२ प्र०सेन. ३ल्ला। परिभोगेन मोको नास्ति । सूत्र०१ श्रु. ७० । भक्तादी, खामणा-वामणा-स्त्री० । कृतापराधत्वेनान्यस्य कमोत्पादने, शस्त्रभेदे, वाच०। सा च द्वेधा कव्यतो, जावतश्च । द्रव्यतः सकयुषाशयस्यैहिका- खार-पुंग खमवकाशमाधिक्येन ऋच्छति, अण् उपसंखारी पायभीरोः। जावतः संवेगापत्रस्य सम्यग्दृष्टः । प्राव०३०।। परिमाणे, वाच । तुजपरिसर्पदे, च प्रशा० १ पद । खमामि अहं सव्वे, सब्ने जीवा खमंतु मे। खारकरीर-कारकरीर-न० । वस्तुविशेषे, कारकरीरादिकमित्ती में सन्बनूएम, बेरं मऊ ण केण वि ।। ६१॥ मातपे दत्वा पश्चात्तैलादिदाने सन्धानकं भवति न वेति । खमामिऽहं पि सम्बोसि, मवनावण सव्वहा। प्रश्न-उत्तरम् क्षारकरीरादिकं दिनत्रयमातपे दत्वा पश्चात्तैभवनवेसु वि जंतूणं, वाया मणसा य कम्मुणा ।। ६२॥ सादिदापनेन सन्धानकं जायते इत्थं श्रीपरमगुरुपाचे श्रुतं नास्ति पर्वविधान्यक्कराण्यपि दृष्टानि न सन्ति प्रत्युत कारकएवं घोसेतृ वंदिजा, चेइय साहू विही जओ। रीरादिकमध्यस्थितं पानीयं दिनत्रयोपरि यदि न शुष्यति गुरुस्सावि विडी पुन, खामणमरिसामणं करे।। ६३॥ । तदा सन्धानकं जायत इति । ११२ प्र० सेन०३ उद्वा० । १०५ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (935) अभिधान राजेन्द्रः । खारखत्त स्थ खारखच कारचन २० ते ०। स्वारगालणारगालन-म० सर्जिकादेगोलग करणेषु, खलणं च खारगालणं च । सूत्र० १ ० ४ श्र० २३० । खारता उसी कारवपुषी ख० कारशब्द कटुकाची था अनेकधा प्रसिद्धेस्ततः कटुकायां त्रपुष्याम, प्रज्ञा० १० पद । खारतंत-कारतन्त्र- न० करणं कारः शुक्रस्य तद्दिषयं तन्त्रं यत् तत्तथा । वाजिकरण विशुष्क रेतसामान्यायनप्रसादजनननिमित्तं जना कृतम्। सप्तम आयु र्वेदः । स्था० वा० खारतिलकारतेल १० करसनिवारके, निलमलासा । धने च क्षारपक्वतैले, बाच० ।" लक्खारसखारतिलकलकलतो " प्रश्न०५ संब० द्वार । खारपइवि गंग-कारप्रदिग्धाङ्ग - त्रि तारेण प्रदिग्धाङ्गेषु "पजोश्या खारपरडियंगा " सूत्र० १० ॥ श्र० ५ ० । खारमेह - कारमेघ - पुं० । सर्जादिकारसमानरस जलोपेतमेघे, भ० ७ श० ६ उ० । खारवत्तिय-कारपात्रित त्रि० । कारपात्रकृता कारपात्रता का जापानीते, श्री० क्षारपर्तित त्रि कारण करे या निर्मितमहाचारे वर्त्तितो वृत्ति कारितः। क्षारक्षिप्ते, औ० । शस्त्रेण छित्वा बकारादिनिः सिच्यमाने दण्डविशेषं प्राप्नुवति, दशा० ६ श्र० । खारवावी-कारवापी श्रीनृतवाप्याम प्रश्न० १ आश्र० द्वार । स्वारसाविया स्त्री० । बाह्मी लिपिमेदे, अस्याः सम्यग् अवबो श्री नास्ति स०१८ सम० । खारसिंचय-कारसिञ्चनन० कारोदकसेचने, पारदारिकाः वायादिना वित्यासादसेवनानि प्राप्यन्ते सूत्र० १ श्रु० ४ ० १ ० । । खारायण-कारायण-पुं० । ग- पुं० । मा एमवगोत्रान्तर्गत क्षारपुरुषापत्त्ये पु, स्था० 9 ० | खारखारी खारिखारी स्त्री एकत्र समुदितेषु षोडशद्रोणेज्यो० १ पाहु० । रत्ना० । स्वारिपारित अनिश प्राप्तदो श्राविते, "वणसरगिट शासनकादिके " व्य० ६ उ० । खारुगरिणय- कारुणिक - पुं० । म्लेच्छदशभेदे, अनायें, तज्जे मनुष्ये च । ज० १२ श० २ ० । खारोदय-कारोदक- न० । ईवल्लवणपरिणामे जले, । जी० १ प्रतिज्ञा बोदके, अन्तः हार व कृपादी, त्रिपिं खारोदा - क्षारोदा- स्त्री० | कीरोदापरनामिकायां सुपद्मविजये महानद्याम् । स्था० २ ० ३ ० । जं० । खाल-काल- न० | नगरादेर्निर्कमने स्था० २ ० ३ ३० । खावणा- कापणा- स्त्री० । प्रकथने, विशे० । सिगा वाबियंत खाद्यमान- वि० महयमाणे, "काका बाि यंत" विपा० १० ० २ श्र० । खास-कास- पुं० । श्रार्थत्वात्कस्य खः। प्रा०१ पाद। खासिकायाम् प्रश्न० १ ० द्वार द्वितीये रोगातङ्के "सालस रोगाईका पाउब्या तं जहा- सासे १ खासे २ जरे ३ इत्यादि । विपा० १ ० १ ० । खासिय-कामित - न० । कासने, (खाँसना ) इति लोकप्रसिके, ल० । श्रा० म० । प्राय० । “खासिपणं बीएणं " भा०च० अ० अनरतभेदेनं० शे० अनाज T मनुष्येऽपि । सूत्र० १० ५ ० १ ३० । प्रश्न० । प्रय० । विक्षिति-श्री धर्माचा पदभारावाना असु प्राग्नारावसानासु । भूमिपु, आव० ४ अ० । दर्श० । विपइडिअ - क्लितिप्रतिष्ठित शि० म्यां प्रतिष्ठायुके नगरादो० म० द्विकृतिप्रतिक, पुरर्षभपुराभिधम् कुशा प्रपुरसं च क्रमााजगृहाद्वयम् ||१४||" इति राजगृहनगरमेव पूर्व क्वितिप्रतिष्ठितं नामाऽऽसीत् । ती० १० कल्प। श्राय० । ००। ५ । - या कडिका-श्री०का श्री खिखिणिसर किङ्किणिस्वर पुंग क्षुद्रघण्टिकाध्वनौ, स्था०६० खिखिली- किडनी श्री० [प्रचरिकायाम, स्था० १० ना० ॥ जं० रा० । श्री० । प्रश्न० । खिखिणीजाल - किङ्किणीजाल - न०] क्षुद्रघण्टिकासमूहे, जी० ५ प्रति० रा० । सिंगण खिसन-न० निदायच प्र० सम्ब० द्वार । निन्दावचने. । प्र० स० । अत्यन्तनिन्दायाम, श्रौ० | लोकसमकमेव जात्याशुद्घाटने, न० । ० १ ० ३ अ० । स्था० । श्रन्त० । परस्याप्रतः तद्दोषकीर्तने, न झा० १० ८ अ० । धिङ् मुए मेत्यादेिवाक्यरूपे गहणे, रा० । आवासिनम विति पदमप्पके, अप्पज्जे वा वएज्ज खिसंतो । वर्लभ वा य तथा सीतं वा बदेग्नादि ॥ २२ ॥ श्रणप्पो वा साहू नणेज्ज । श्रणप्पज्झो वा भदंतो जरोज । अफवा परंभ सोयरसु अनि जातिमाद यो जातीको सीप ति। सो सुत्तस्थे उवजीवितं ण सक्कति। ताहे तस्स जातिसारेण पर खिंसं नवालनं वा करेज । जो श्रायरियो जाहीणो अहं ण जाणामिति । साहू जातिमादिविति तर अशावदेसेण इमा खिसा - " जाति सरिमयं करेहि हु कोदो भये साथी | सलल बरायो, वाति या गहजो काक्षं ॥ २३ ॥ जिंकु जाती या तं अम्हेहिं परिवार्य चेचज्ञाति सरिसं करेहि मा कोसमा हो सालिसरिसं मातु ण वा गद्दनोहें होउं । जती अस्सा लिय काळं सक्कति ॥ २३ ॥ विरूवरूवेण खिंसमाणो इमं जाति रूपस्य सरिसवं, करे हि कोरवो भने माली । Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिण अस्सललितं बराच वाति या गहनो कार्ड | २४| कंग बायगोगी आयरियो वा जेण को तरस इमा विसावायगो भिमति, एस किरगी अयं व आयरिओ सो चिमणे परिसओ, जेण फओ एस आयरिश्र ॥ २५॥ को श्मो उवालंनो खिसंते सीतंते वाजातिकुलस्स सरिसयं, करेहि मा अप्पत्रेरियो होहि । दोन परिवादो नि, गिद्दि पक्से सानुपले य ॥ २६ ॥ हु परिचय परिवादो नमो गुणकिणं वा इत्यर्थः । हवामान ( ७३६ ) अभिधानराजेन्ऊ: 3 ओफसमहं कुत्सने, श्री० । जुत्तं णाम तुमे वाय- एण गणिला च परिमकातुं । आयरिएण व होउ, काकणं किं व काहामो ॥। २७ ॥ खिसा खिसा श्री० लोकसम निदायाम आव०२० खरपनायाम, व्य०१ ३० । शासननिन्दायाम्, पञ्चा०१७ विष० । "खिंसिज" खिस्यते निन्द्यते । बृ० १३० । जुत्तमिति ) योग्यं (तमिति युज्यते यो वाणामराः पादपूरणेमेतखसिजमाथ सिंस्पमान-त्रि परोसनेन निन्द्यमाने, । परोक्षकुत्सनेन निर्देशवाचको वा । श्रायरियस्स वा होनुं किं परिसं काऊण जुज्ञति अह तुमेष मायं रस तो धम्हे कि कामो सीदंते वा इमो उवालंभो 1 तुम्हे मम यरिया, हितोएसि ति तेल सीसो है । एवं विवाणमाला दु जुहरूसितुं तो ॥ ३० ॥ जे मे हितोपदेश देदा तेण तुम्हे मम चापरिया हिशोबद सणोति कार्ड का विसीस ते पडिवो किच जो मिठामिठावित करणे व सो तं राम्रो बु सम्मिन का नायाणिरियो एवं विधायमाणा तु किं । एमे सेसमुवि तस्सेव हितावदागा कुसुं सुय, इए बिहु विको संजो | ३१ | एतं पायसोतिं सदन से अप्पादिएसु । | तस्सेव गुरुसहितावदे आगाढं अड़वा एयं भगाढं भदं भणियं सेवि उपायादिसहिताय दे आगाढं बोदगा-गुरू कह आगार्द प्रतियते कुसुंभो अवि को विरागं जहा प मुति सहा गुरुषितेजाब फुडोवदेसेण ण विकोषितो सा अणायारसेवणं ण मुंचति । किचान्यत् खिसिया खलु खिसा ख ओमी, खरम वा वि सीयमाणंमि । गणियोवालंनो, पुव्वं गुरु महिनिमाणीए ॥ ३३॥ चुं वि जाणिकणं, एवं खिंमे जवानज्ज वा । खिसा तु णिप्पवासा, सपित्रास होउवालंजो ॥ २२ ॥ श्रायरिय उवज्झायादीया खरमत्रो य सज्जावारोयमादिते जालिम वा पजिय बिसाउ चयणं उपालेभो । श्रमे, खरमज्भे वा खिसा परंजते । रातिणिश्रो, आयरिश्रो, जेट्ठो वा पुण्यं गुरु घासी सोय भारियापादाना तो व क्खिते वायारायादि महिष्ठियं पि जो माणीए तेसु उवाभोपयुंजति । नि०० १० ०। आव० । भशातनायाम्, श्राव० | ४०। 'आगाढ' भागे २० पृष्ठे समसूत्रमुक्त म् अत्र तु अपवादत्वम् ) खिसणा-खिंसना श्री ग०। प्रव० । वचने, स्था० ६ ठा० । अवाम जुनं जदंत एवारिसाणि बोनुं जो । गुरुजति वोदित्तमा, भणामि लज्जं पयहिऊणं |२८| कंठा खिंसियवयल - खिंसितवचन - न० । जन्मकमद्धाटनतो निन्दाकिंचान्यत्वरतरं मरसि नणितो, नया वि असे पच्चुवालको । छम्मे मम वेषप्पं जणेज्ज अएण पगार्सेतो ॥ २ए ॥ श्रह पच्चने दोसा पच्छायणं करेंतो भणामि । श्रष्टा पुण दोसकित्तणं करें तो बहुजणमज्जे भणेज तेण वरतरं मरसि भणितो संतो जातेति रूसेज तो । इमं नष्पति का० १ ० १६० । अव० खिसिय-विंसित त्रिजन्ममानतो निन्दिते, स्था० ६ तच्च न वाच्यम् अर्तितिणे अचत्रले अप्पभासी मियासखे । हविग्न उमरे देते थोवं अन खिसए ॥ २६ ॥ अतितो नवेद अतिन्तिणो नामात्राभेऽपि नेप नभाषी तथा चपलोभवेत् सर्वत्र स्थिर इत्यर्थः । तथा अल्प• भाषी कारणे परिमितबक्ता तथा मिताशनो मितभोक्ता भवेदित्येवं न भवेत् तथा उदरेदान्तो येन वा तेन वा वृद्धि शीलः । तथा स्तोकं लब्ध्वा न खिंसयेत् । देयं दातारं वान हालयेत् इति सूत्रार्थः ॥ २९ ॥ दश० [अ० । अथ विसितवचनमाद गहियं च जद्दाघोसं, तहियं परिपिंडियाण संलावो । त्यो सोविय उवजीवितुं दुक्खो || एकेन साधुना यथाघोषं यथा गुरुभिरभिलापा प्रणिताः तथा श्रुतं गृहीतं मयैव गृहीतः सूत्रार्थः । प्रतीच्छकादीन् वाचयति । यदा च प्रतीच्छक उपतिष्ठते तदा तस्य जातिकुलादीनि पृष्ट्वा पश्चा तैरेव ख्रिसां करोति । इतश्चान्यत्र साधूनां परिपरिमतानां स्वाध्यायमरमस्या उच्छिन्नानां संगापो वर्त्तते । कुत्र सूत्रार्थी परिशुद्ध प्राप्येते । तत्रैकस्तं यथा घोषश्रुतग्राहकं साधु व्यपदिशति । तथाऽमुकेन सुत्रार्थी को गृहीतो परं स उप (फ्लो) दुष्करः । कथम् ? इति । श्रहजद को चि अमरुस्यो, बिसकंटगवनिवेदितो संतो ए वज्जड़ अनीतुं, एवं सो खिंसमाणो उ । यथा को चिपकण्टकपभिः सन् बली मातुं न शकयते चमसावपि साधुः प्रतीकार - सन् न श्रयितुं शक्यः । Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४०) खिसियवयण अभिधानराजेन्द्रः। खित्तचित्त तथाहि एवं श्रुत्वा स खिसनकारी साधुः किं कृतवान् इति। प्राहते खिंसणा परका, जातीकुलदेसकंमपुच्ाहिं। आगारविसंवइयं, तं नाउंसेसचिंधसंविदियं । श्रासाऽऽगता णिरासा, बच्चंति विरागसंजुत्ता ॥ णिउणो वा पच्छसितो, आउंटण दाणमुजयस्स ।। यस्तस्योपसंपद् यतिनं पूर्वमेव पृच्छति-का तव जातिः,किना-| न मदीयस्य म्रातुरेवंविध प्राकारो भवतीत्याकारविसंवदिनं मिका माता?, को वा पिता?, कस्मिन् वा देशे संजातः?, किंच तं ज्ञात्वा शेषैश्च जात्यादिनिश्चिः संविदितं कात्वा चिन्तयति कृप्यादिकं कर्म पूर्व कृतवान् ?, पवं पृष्ट्वा पचात् तान् पढतो अहो अमुना निपुर्ण पापेन गलितोऽहं यदेवमन्यव्यपदेशेन म. होनाधिकाक्षराधुच्चारणादः कुतोऽपि कारणात् कुपितस्तरेष म जात्यादिकं प्रकटितम,तत मावर्तनं मिथ्याकुकृतंदानपूर्वम, जात्यादिभिः खिसति । ततस्ते प्रतीका जातिकुलदेशकर्मपृ. ततो दोषानुपरमणं,ततस्तस्मै सूत्रार्थरूपस्योभवस्य नदानमिति पछाभिः पूर्व पृष्टयः ततः ख्रिसनया प्रारब्धास्थाजिताः सन्तः सू. गतं सिसितवचनम् ०६ 101(अत्र शोधिश्चतुर्गुरुकादिका वार्थी प्रहाच्याम इत्याशवा भागता निराशाः क्षीणमनोरथा वि. निसमासान्ता श्त्यादि 'अषयण' शम्दे प्र० भागे ७६६ पृष्ठे रागसंयुक्ताः “चिसि कसेरुमई, प्रभूवासि कसेरुमई।। प्राषितम) पीतं ते पाणिययं, चरितु हता मनदसणयं" शखि भणित्वा खिजणिया-खेदनिका-स्त्री०1"खिदांजः" |४|११४॥ स्वगच्छं बजन्ति। इति विदेरन्त्यस्य द्विरुको नः । प्रा० ४ पाद । खेदक्रियायामुत्तत्याणं गहणं, अहगं काहं ततो परीनियतो।। म,का०१०१६अ। जातिकुलदेसकम्मं, पुच्चंति खदामधन्नागं ॥ खि-खिन-त्रि० । दैन्ययुक्ते, निर्विक्षे, का० १ ० ८ ० । एवं तदीयवृत्तान्तमाकर्य कोऽपि साधुमणति-अहं तस्य स- | अलसे, खेदयुक्त च । वाच । अषणाब्धौ कच्छपादिजलचरे, काशे गत्वा सूत्रार्थयोर्ग्रहणं करिष्ये,तं वाचार्य विंसनादोषानिवसयिष्यामि । एवमुक्तो येषामाचार्याणां स शिष्यस्तेषामन्तिके |खितिपडिय-क्तितिप्रतिष्ठित-त्रि० । 'सिपाहिज' शब्दार्थे। गत्वा पृच्छति-योऽसौ युष्माकं शिष्यः स कुत्र युष्माभिः प्राप्तः। प्राचार्याः प्राहुः-वैदसनामकस्य नगरस्यासने गोचरनामे। | खित्त-किस-त्रि० । न्यस्ते,कर्म०३ कर्मा रागनयापमाननंष्टचिततोऽसौ साधुस्ततः प्रतिनिवृत्तो गोचरग्रामं गत्वा पृच्चति सादौ,स्था० ५ ठा० १ उ० । प्रेरिते, विकीर्णे, अवज्ञाने,वाच । अमुकनामा युप्मदीये प्रामे पूर्व किम् आसीत.प्रामेयकैरक्तम्। क्षेत्र-न० । कृषिकर्मादिविषयतायाम, अनु । धान्यवपनभू. प्रासीत् । ततः का तस्य माता को वा पिता किंवा कर्म', मौ, प्रश्नप्राश्रद्वार (खेत' शब्द सर्वेऽर्थी झेयाः) तैरुक्तम् (स्वल्लाडधनागं ति) नापितस्य थनिका नाम दासी खित्तचित्त-क्षिप्तचित्त-त्रि० । किप्तं नष्ट रागभयापमानधि सा खल्वाटकौलिकेन सममुषितवती । तस्याः संबन्धी पुत्रोऽसौ एवं श्रुत्वा तस्य साधोः सकाशं गत्वा भणति-महं तवोपसं यस्य सः । स्था०५ ठा०२ उ० । चित्तभ्रमिणि, ध० ३ . पदं प्रतिपद्ये । ततस्तेन प्रतीच्य पृष्टः। कुत्र त्वं जातः, का या धि०। यस्य पुत्रशोकादिना (स्था० ५ ठा० १3०) कविणाते मातेत्यादि । एवं पृष्ठोऽसौ न किमपि ब्रवीति । तत इतर धपहारेण वा चित्तभ्रमो जातः । श्रोध। श्चिन्तयति-जानाम्येषोऽपि हीनजातीयः। लिप्तचित्तस्य वैयावृत्तिःततो निबन्धे कृते स साधुःप्राह सूत्रम-खित्तचिते भिक्खू गिलायमाणं नो कप्पा तस्स गणम्मि पुच्चियम्मि, हणुदाणिं कहेमि श्रोहिता सुणध । गणाऽवच्छेइयस्स निज्जूहित्तए अगिझाए तस्स करणिजं सोहस्सले कस्स ब, इमा तिक्खाइँ सुक्खाई॥ वेयावडियं० जाव रोगायंकाओ विप्पमुक्के तो पच्छा तस्स प्रहालयस्सए नाम ववहारे पट्ठवेसिया ॥१०॥ स्थाने भवद्भिः पृष्ठे सति (हणुदाणि ति)तत इदानीं क व्य० भ०१०। थयामि अवहिताः शृणुत यूयं कस्यान्यस्येमानि ईरशानि तीक्ष्णानि पखानि कथयिष्यामि। अथास्य सूत्रस्य कः संबन्धः ? उच्यते घोरम्मि तवे दिमे, भएण सहसा भवेज्ज खित्तो उ । वदिसगोचरगामे, खल्बामगधुत्तकोलियो थेरो।। गेलयं वा पगयं, अगिझाएँ करणं व संबन्धो ॥ नावियधनियदासी, तेसिम्मि सुतो कुलह गुज्कं ॥ घोरे रोके परिहारादिरूपे तपसि दत्ते जयेन सहसा प्रवेत वैदिसनगरासने गोचरग्रामे धूतः कोसिकः कश्चित् खल्वा- क्षिप्तः क्षिप्तचित्तः अपहतचित्त इत्यर्थः । अथ वा ग्वान्यं प्रकृतं टस्थविरः, तस्य नापितदासी धनिका नाम जार्या, तयोः सु. किप्तचित्तोऽपि च ग्लानकल्पः तस्यापि (अगिलया) अग्लान्या तोऽस्म्यहम् एतत् गुह्यं कुरुत मा कस्यापि प्रकाशयतेत्यर्थः। । यथोक्तस्वरूपया कर्तव्यमिति । जेटो मा जाया ग-उजत्थे किर ममम्मि पवइसो । संप्रति क्षिप्तचित्तप्ररूपणार्थमाहतमहं लकसुतीओ, अपव्वइतो ऽणुरागणं ।। लोइय लोनत्तरिश्रो, इविडो खित्तो समासतो हो । मम ज्येष्ठो भ्राता गर्नखे किस मयि प्रवजित इति मया भुत- कह पुण हवेज खित्तो, इमेहि सुण कारणेहिं तु ॥ म । ततोऽहमेवं लन्धश्रुतिको भ्रातुरनुरागेण तमनु नस्य पश्चा- समासतः संक्षेपतो द्विविधो द्विप्रकारः क्षिप्तो भवति । तद्यप्रवजितः। था-सौकिको, लोकोत्तरकथा तत्र लोके नवो लौकिकः। भ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४१) खित्तचित्त अभिधानराजेन्द्रः। खित्तचित्त ध्यान्मादित्वाद् श्कए । एवं लोकोत्तरे नवो सोकोत्तरिकः। अथ | लेन प्रवजितः प्रवज्यां प्रतिपन्नः । स च तं ज्यष्टभ्रातरं विदे. कथं केन प्रकारेण पुनः विप्तः क्षिप्तचित्तो नवेत् । सरिराह-| शे पोतनपुरे कालगतं श्रुत्वा भ्रात्रनुरागणापहतचित्तो जातः । शृणु एभिर्वक्ष्यमाणैःकारणैर्भवति। तत्र चायं वक्ष्यमाणस्तत्प्रगुणीकरणाय विधिः । तान्येव कारणान्याह तमेवाहरागेण वा जएण व, अह वा अवमाणितो नरिंदेण । तेबोक्कदेवमहिया, तित्थयरा नीरया गया सिकिं । एएहि खित्तचित्तो, वणियाइपरूवणा लोए । थेरा वि गया केई, चरणगुणपहावगा धीरा॥ रागेण,यदि वा भयेन । अथवा नरेन्द्रेण प्रजापतिना । उपलक तस्य भ्रात्रादिमरणं भुत्वा वितचित्तीतृतस्याश्वासनार्थमिणमेतत-सामान्येन वा प्रभुणा अपमानितोऽपमानं प्राहितः।। । यं देशना कर्तव्या। यथा-मरणपर्यवसानो जीवलोकः। तथापतैः खलु कारणैः विप्तचित्तो भवति । तेच लोके उदाहरण हि-ये तीर्थकरा नगवन्तस्त्रैलोक्यदेवैखिनुवननिवासिभिर्भस्वेन प्ररूपिता वणिगादयः । अत्र रागे किप्तचित्तो यथा-वणि वनपत्यादिभिर्देवमंहितास्तेऽपि नीरजसो विरतसमस्तकर्म, म्नार्या । तथाहि-काचिद्वणिग्नार्या । नर्तारं मृतं श्रुत्वा किप्त परिमाणवः सन्तो गताः सिद्धिम् । तथा-स्थविरा अपि केचिन्म चित्ता जाता। हीयांसो गौतमस्वामिप्रभृतयश्चरणप्रभावका धीरा महासत्त्वाः जयेनापमानेन च विप्तचित्तत्वे उदाहरणान्याह देवदानवैरप्यक्षोभ्याः सिहं गताः । तद्यदि जगवतामपि तीर्थ कृतां महतामपि महर्षीणामीदृशी गतिस्तत्र का कथा शेषजन्तूनां जयतो सोमिलवायो, सहसोत्थरितो व संजुयादीस।। तस्मादेतादृशीं संसारस्थितिमनुचिन्त्य न शोकः कर्तव्य इति । घणहरणेण व पहुणा, विमाणितो लोहया खित्ते ॥ अन्यश्च-- प्रयतो भयेन वितचित्तः । यथा-गजसुकुमालमारको जनार्दन- न हु होइ सोइयचो, नो कालगतो दढो चरितम्मि भयेन । सोमिलनामा घटुको ब्राह्मणः। अथ वा संयुगादिषु संयुगं संग्रामस्तत्र, आदिशब्दात्परबमधाटीसमापतनादिपरिग्र. सो होइ सोइयव्यो, जो संजमवलो विहरे ॥ हातैः। गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे । सहसा अतर्कितः समन्ततः नहु' निश्चितं स शोचयितन्यो नवति, यश्चारित्रे दृढः सन् परिगृहीतो भयेन क्षिप्तचित्तो भवति । स च प्रतीत एव । भये कालगतः । स खलु भवति शोचयितव्यो यः संयमे उबलः नोदाहरणमुक्तम् । संप्रत्यपमानत आह-प्रभुणा वा नरेन्द्रेण सन् विहृतवान् । धनहरणेन समस्तद्रव्यापहरणतो विमानितोऽपमानितः किप्तो ___स कस्माच्छोचयितव्यः ? इत्यत पाहप्रवति । एवमादिकानि लौकिकान्युदाहरणानि विप्ते वितचि जो जह व तह व सई, भुजइ अहारउत्रहिमाईयं । चविषयाणि । समणगुणमुक्कजोगी, संसारपवगो नणियो। ___ संप्रति लोकोत्तरिकान्यन्निधित्सुराह यो नाम यथा वा तथा वा दोषमुष्टं,सदोषतया इत्यर्थः। सब्धरागम्मि रायखुड्डो, जहादितिरिक्खचरियवायम्मि । माहारोपध्यादिक भुते उपभोगविषयीकरोनि । श्रमणानां गुरागेण जहा खितो, तमहं वुच्चं समासेणं ॥ णाः मूलोत्तरगुणरूपाः श्रमणगुणास्तैमुक्ताः परित्यक्तास्ताहिरागे सप्तमी तृतीयार्थे, रागेण किप्तचित्तो यथा राजाशक: ता ये योगा मनोवाकायच्यापारास्ते श्रमणगुणमुक्तयोगास्ते शाकपार्थिवादिदर्शनादिह मध्यमपदसोपी समासः । उभयन यस्य सन्ति स श्रमणगुणमुक्तयोगी संसारप्रवर्कको भाणितस्तीयथा जहादीन् हस्तिप्रभृतीन तिरश्चो रष्ट्रा। अपमानेन यथा र्थकरगणधरैः । ततो यः संयमपुर्बलो विहृतवान् स शोच्य चरकेण सह वादे पराजिनः । तत्र रागेण यः राजकुल्लका पच । भवदीयस्तु जाता यदि कासगतो दृढश्चारित्रे ततः स विप्तचित्तोऽनवत्तमहं तथा समासेन वक्ष्ये। परलोकेऽपि सुगतिभागिति । न करणीयः शोकः। ____ यथाप्रतिक्षातं करोति संप्रति 'जहादितिरिङ्गख' इत्यंशस्य व्याख्यानार्थमाहजियसंत्तुनरवइस्सा, पवजा मिक्खणा विदेसम्मि। जड्डाई तेरिच्छे, सत्यं अगणी य मेहविज्जू य । काकण पोयाणम्मी, तव्वादं निबुतो जयवं॥ ओमे पमिभीसणया, चरंग पुव्वं परूग्वेह ।। एको य तस्स जाया, रजसिरि पयहिकण पचहतो। जडो हस्ती आदिशब्दात सिंहादिपरिग्रहः तान् । तिर श्यो हटा। किमुक्तं जवति-गजं वा मदोन्मत्त, सिंहं वा भानगअणुरागणं, खित्तो जातो इमो उ बिही॥ गर्जन्तं, व्याघ्र वा, तीक्ष्णखरनखरविकरालमुखं घना कोऽपि जितशत्रुनाम नरपतिस्तस्य प्रव्रज्याऽभवत्, धर्म तथावि- भयतः किप्तचित्तो भवति । कोऽपि पुनः शस्त्राणि खगादीन्याधानां स्थविराणामन्तिके श्रुत्वा प्रव्रज्यां स प्रतिपन्नवानित्य- युधानि मा । श्यमत्रनावना-केनापि परिहासेनोनीर्ण खरं र्थः। प्रवज्यानन्तरं च तस्य शिक्षा ग्रहणशिक्का, प्रासेवना था कुन्तं वा छुरिकादिकंवा दृष्टा कोऽपि हा मारयति मामेष शिका च प्रवृत्ता । कालान्तरे च पोतनपुरे विदेशरूपे पर- इति सहसा तिप्तचित्त उपजायते । तथा अग्नौ प्रदीपनके तीथिभिः सह वाद उपस्थितः । ततस्तैः सह शोभनो चाद- लग्ने कोऽपि जयतः विप्तो जवति । कोऽपि स्तनितं मेघगाजस्तान जिस्या महतीं जिनशासने प्रभावनां कृत्वा स गवान् | तमाकण्यं । कोऽपि विद्युतं दृष्टा । एवं विप्तचित्ततां यातस्य निर्वृत्तो मुक्तिपदबीमधिरूढः । (पको य इत्यादि) एकश्च । प्रोमे पमिभीसणया इति ) अवमो बघुतरस्तेन प्रतिनीतस्य जितशत्रोः राज्ञः प्रवजितस्यानुरागण राज्याश्रियं पणं हस्त्यादेः कर्तव्यं येन किप्तचित्तताऽपगच्चति । याद प्रहाय परित्यज्य जितशत्रुप्रवज्याप्रतिपयनन्तरं कियता का- पनश्चरकेण वादे पराजितः इति क्षिप्त चित्तो भवेत् ततश्चरक Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४५) अभिधानराजेन्द्रः | खित्तचित्त पूर्व प्ररूप्य तदनन्तरं तेन स्वमुखोच्चारितेन वचसा तस्य कितचित्तता-तारयितव्या । संप्रत्यपमानतः क्षिप्तचित्ततां नावयतिहरितो व गणणा अब ण मग कम्हि पमाए प नामिचिरगाई, पराइतो तत्विमा जयथा ॥ गणिना आचार्येण सोऽवधीरितः स्याद् अथ वा (णमिति) वाक्यालङ्कारे स्वगणेन स्वगच्छेद्यादिभिरम मादे वर्तमानः सन् गाढं शिक्कितो जवेत् । ततोऽपमानेन क्षिप्तचित्तो जायते । यदि वा चरकादिना परतीर्थिकेन बादे पराजित इत्यपमानतः किप्तचित्तः स्यात् । तत्र तस्मिन् चिप्तचित्ते श्यं वक्ष्यमाणा यतना । तत्र प्रथमतो जयेन किप्तचित्ते यतनामाहकाम्मिएससीहो, गहितो अह धामितोय सो इत्थी । खुट्टगतरेण तुमे, ते चि य गमिया पुरा पाला || पदेकदेशे समुदायोपचारात पाला इत्युक्त हस्तिपाडा, सिंहपात्रा द्रयाः । तेऽपि पुरा पूर्व गमिताः प्रतिबोधिताः कर्तव्यः यथाऽस्मातको मदीयं सिंहं हस्तिनं या वा कोभमुपागतः, ततः स यथा कोभं मुञ्चति तथा कर्तव्यम् । एवं तेषु प्रतिबोधितेषु स क्षिप्तचि सी भूतस्तेषामन्तिके नीयते, नोत्वा च तेषां मध्ये यः कुलकादपि लघुतरः तेन सिंहः कर्णे धार्यते, हस्ती वा तेन घाट्यते । ततः स किप्तचित्तः प्रोच्यतेत्वत्तोऽपि यः कुलकतरोऽतिशयेन लघुः तेन एष सिंहः कर्णे गृहीतः । श्रथ वा स हस्ती श्रनेन घाटितः। त्वं तु विशेषि किं त्वमेतस्मादपि श्रीजीता ततो चामलम्यतामिति । 1 सत्यऽगिंग थंभेडं, पणोक्षणं तस्स एस सो हत्थी । मेरो चम्मत्रिका, प्रज्ञायच च दोनुं च ॥ यदि शस्त्रं, यदि वाऽग्निं दृष्ट्वा किप्तोऽभवत्, ततः शस्त्रमचि दियास्तम्भत्वा तस्य पादाभ्यां प्रणोदनं कर्तव्यं भणितव्यं च तं प्रति- एषोऽस्माभिरग्निः शस्त्रं च पादाभ्यां प्रणोद्यते, त्वं पुनरेताभ्यां विभेषीति यदि वा पानीयेनानृत्य दस्तादिसोमः स्पृश्यते मरायते एतस्मादपि तव किं नयम है। तथा यतो हस्तिनः तस्य भयमनूत् स हस्ती स्वयं पराङ्कुखो गच्छन् दयते, यथा-यतस्त्वं विजेषि स हस्ती नश्यति नश्यन् वर्तते, ततः कथं त्वमेवं भीरोरपि भीरुर्जातः । तथा यो गर्जितं श्रुत्वा भयग्रहीत् तं प्रत्युच्यते - स्थविरो नभसि शुष्कं च विकर्षति आकर्षति एवं चोक्त्वा शुष्कचर्मण आकर्षणशब्दः श्राव्यते, ततो जयं जरयति । तथा यद्यग्नेः स्तम्भनं न ज्ञायते, तदा द्वयोः अग्नी व विद्युतियं प्रतिपक्ष सन्त पुनरकस्मात्तस्य दयेते यावर भयं जीवति। " सम्प्रति वादे पराजयापमानतः किप्तचित्तीनृतस्य यतनामाह नितोऽमि तं पुण सहसा न लक्खिय जोश। पिक कवलज्जा, खित्तो पठनो ततो खुझे ॥ इह येन चरके वादे पराजितः स च ज्ञाप्यते यथोक्तं प्राक् । ततः स आगत्य वदति-पतेनाहं वादे पराजितोऽस्मि । तत्पुनः स्वयं जनेन सहसा न लक्षितम् । ततो मे लोकतो जयप्रवादोऽ. भवत् । एवमुक्ते स चरको धिक्कृतो धिक्कारेण लज्जाप्यते लज्जां प्राह्यते लज्जां च ग्राहितः सन् सोऽपसार्यते । ततः स क्षिप्तो खित्तचित्त भएयते किमपि पन्थानं गृहीतवान् वा दिननु सा पराजितः। तथा च त्वत्समक्रमेवैष धिक्कारं प्राहित इति, एवं यवनायां कियमाणायां यदि सकः प्रगुणीभवति ततः सुन्दरम् । तह वियनिपट्टमाणे, संरक्खम रक्खणे य चन गुरुगा । आणाइलो य दोसा, जं सेवति जंय पाविहिती ॥ तथाऽपि च एवं यतनायां क्रियमाणायामपि तिष्ठमिन माने तिप्तचित्तत्वे, संरक्षणं वक्ष्यमाणयतना कर्त्तव्या श्ररकणे प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुका गुरुमासाः । तथा आज्ञादय आais- नवस्था-मिथ्यात्व-विराधना दोषाः । तथा श्रसंरदममाणो यत्सेचने जीवनिकायविराधनादिकं यच्च प्राप्तोऽत्यननिमित्तं प्रायश्चितम् । अथ कि सेवते ? कि वा स्यति इति कावाण विराण कामणतेणा निवाय चैन । य जिसमे पएि उम्दा रक्वंति जयणा ॥ कायानां पृथिवीकायिकादीनां विराधना क्रियेत । ध्मापनं प्रदीपनकं तद्वा कुर्यात् । यदि वा स्तैन्यम् । अथ वा निपातनमात्मनः परस्य वा विधीयते, अवटे कूपे, अथ वाऽन्यत्र विषमे पतितो भवेत्, तदेवमसंरक्षणे इमे दोषास्तस्मात् रक्षन्ति यतनया व क्ष्यमाणया । साम्यतमेनामेव गाथां प्याविषयासुराद्दसस्सगिहादीप महे, तेथे ग्रह सो सयं वादी । रज्जा मारण पिट्टण - मुजये तद्दोस जंच सेसाणं ॥ माह सस्यं धान्यं तद् गृह्णातीति तद्गृहं तद्गृहं सस्यगृहं तदादीनि आदिशब्दात् शेषापणादिपरिग्रहः दहेत् स तया अग्निप्रदानेन भस्मसात्कुर्यात् एतेनानमिति व्याख्यातम् । यदि वा स्तेनयेत् । अथ वा स स्वयं किमपि निधेत एतेन स्तैन्यं व्याख्यातम् मारणं किमु यतिस चित्तत्वेन परवश श्व स्वयमात्मानं मारयेत् पिट्टयेत् यद्वापरं मारयन् पिट्टयित्वा स परमारणेण पिट्येत वा इति (तहोसा जं च सेसाणमिति ) तभ्य किप्तचित्तस्य दोषात् यच शेषाणां साधूनां मारणं पिनं वा तथा हि स रान् यदा व्यापादयति तदा परे स्वरूपमजानानाः शेषसाधूनामपि घातप्रहारादिकं कुर्युस्तन्निमित्तं मारणे षष्टव्यं शेषाणि तु स्थानानि सुगमानीति व्याख्यानयति यदुक्तम्-तस्मारूकन्ति यतनयेति । तत्र यतनामाह महिी उडनित्रे साय, आहारविगिंचणा वि उस्सग्गो । रक्ताण य फिमिए, अगवेसणे होंति च गुरुगा ॥ महद्धिको नाम ग्रामस्य नगरस्य वा रक्षाकारी तस्य कथनीयम था उनसना इति) मृदुवस्था संयमनीयो यथा स्वयमुत्थानंनिवेशनं कर्तुमीशो भवति तथा। यदि बातादिना धातुलोमोश्याभूदिति हायते तदा पथ्याहारपरिहारेण स्निग्धमधुरादिरूप आहारः प्रदातव्यः () उच्चारादेस्तस्य परिष्ठापनं कर्तव्यम् । यदि पुनर्देवताकृत एष उपद्रव इति ज्ञायते तदा प्रासुकैषणा क्रिया यत्नेन कार्या । तथा (वि उस्समो इति) किमयं वातादिना दोन देवत 2 Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४३) खित्तचित्त अनिधानराजेन्डः। खित्तचित्त उपजव इति परिक्षामाय देवताराधनाथै कायोत्सर्गः करणीयः। ततस्तस्य मार्गणमन्वेषणं कर्त्तव्यम् । तथा ये तान्यत्र वा ततस्तया आकम्पितया कथिते सति तदनुरूपो यनो यथोक्त- | भासने, रेषा अन्यगणा विद्यन्ते तेषां च निवेदनाकरणं,तेषा स्वरूपः करणीयः एवं रकतामपि यदि स कथञ्चित् स्फिटितः मपि निवेदनं कर्तव्यमिति भावः । यथाऽस्मदीय एकः साधु: स्यात् ततस्तस्य गवेषणं कर्तव्यम् । अन्यथागवेषणे प्रायश्चित्तं शिप्तचित्तो नहो वर्तते । ततस्तैरपि गवेषणीयः रष्टे च स संखत्वारो गुरुकाः । एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः । ग्रहणीयः । यदि पुनर्न गवेषयन्ति स्वगणवर्तिनोऽन्यगणवर्तिसाम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतो महर्षिकद्वारं विवृणोति- मोवा, तदा तेषां प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुमासाः । यच करि. अम्हं एस पिसाओ, रक्खंताणं पि फिलिए कया। ध्यति षदीय निकायविराधनादिकं तनिमित्तं च तेषां प्रायश्चि समिति॥ सो परिरक्खेयचो, महिहिए चेव कहणा न॥ बम्मासे पमियारिलं, अणिच्छमाणेस जजतरगो वि। रक्ता प्रस्यारतीति रक्कको, रक्तायां नियुक्तो राक्षिको वा प्रामस्य नगरस्य वा रक्षको कारणिके महर्षिके कथना कर्तव्या कुलगणसंघसमाए, पुन्चगमेणं निवेएज्जा ।। तस्मै कथयितव्यमिति नावः । यथा अत्र तस्मिन्नुपाश्रये - पूर्वोक्तेन प्रकारेण तावरस प्रतिधरणीयो यावत्वएमासा जवन्ति । स्माकं रक्तामपि एष पिशाचो प्रथिलः कदाचित्स्फिटति अप- ततो यदि प्रगुणो जायते, तर्हि सुन्दरम् । अथ न प्रगुणीभूतगच्छति । स 'इ' निश्चित्तं परिरक्षितव्यः प्रतिपन्नवत्सलवाद । स्ततो भूयस्तरकमपि तस्य प्रतिचरणं विधेयम् । अथ ते सा इति । व्याख्यातं महर्द्धिकद्वारम् । धवः परिश्रान्ता भूयस्तरकं प्रतिचरणं नेच्चन्ति, ततस्तेष्वनिअधुना 'उठनिवेसणाय' इति व्याख्यानयति च्छत्सु कुलगणसयसमवायं कृत्वा पूर्वगमेन कल्पोक्तप्रकारेण तस्मै निवेदनीयम् , निवेद्य च तदाझ्या वर्तितव्यमिति । मिउवधेहिँ तहा णं, जति जह सो सम्मि नढे । अध स साधुः कदाचिद् राजादीनां स्वजनः स्यात्, तत श्य अपवरग सत्यरहिते, वाहि कुदंमे असुष्मं च ॥ यतना विधेयामृबन्धस्तथा (णमिति) तं किप्तचित्तं यमयन्ति षश्नन्ति । यथा रमो निवेश्यम्मी, तोसि वयणे गवेसणा हुँति । स स्वयमुत्तिष्ठति, तुशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वान्निविशते च, तथा स तस्मिन्नपवरके स्थाप्यते । यत्र न किमपि शस्त्रं भवति । अोसहवेज्जा संबं-धुवस्सए नीम वी जयणा ।। अन्यथा स किप्तचित्ततया युक्तमयुक्तं चाऽजानानः शस्त्रं दृष्टा यदि राज्ञोऽन्येषां वा स पुत्रादिको भवेत, ततो राझा, उपलतेनात्मानं व्यापादयत, तस्य वाऽपवरकस्य द्वारं बहिः कुद कणमेतत् । अन्येषां षा स्वजनानां निवेदनं क्रियते। यथा-युष्यएडेन वा विशङ्कटादिना वध्यते येन न निर्गत्याउपगच्चति । तथा दीय एष पुत्रादिका किप्तचित्तो जात इति । एवं निवेदिते यदि अशून्यं यथा भवति एवंप्रकारेण प्रतिजाप्रियते, । अन्यथा | राजादयो अवते मम पुत्रादीनां क्रिया स्वयमेव क्रियमाणा वर्त ते । तत इहैव तमप्यानयतेति । ततः स तेषां वचनेन तत्र नीशून्यमात्मानमुपत्रभ्य बहुतरं किप्तो विकिप्येत॥ यते।नीतस्य तत्र गवेषणादि भवति। अयमन भावार्थ:-साधवो उन्धरयस्स य असती, पुच्चखया सती य खंमए अगमो। ऽपि तत्र गत्वा औषधं भेषजानि प्रयच्छन्ति प्रतिदिवसं च शतस्सोवरिं च चकं, न फिमा जह फिमतो वि।। रीरस्योदन्तं वहन्ति । यदि पुनः संबन्धिनः स्वजना वदेयुर्वयअपवरकस्य असति प्रभावे, पूर्वखनितकृपे निर्जलेस प्रक्षि- मौषधानि वैधं वा संप्रयच्छामः । परमस्माकमासने प्रदेशे प्यते, तस्याप्यन्नावे अवटो नवः खन्यते, खनित्वा तत्र सकि- स्थित्वा यूयं प्रतिवरथ, तत्र यदि शोभनो भावस्तदेवं क्रियते। प्यते, प्रविप्य च तस्यावरकस्योपरि चक्रं रथाङ्गं स्पगनाय अथ गृहस्थीकरणाय तेषां भावः। तदान तत्र नयनम । किन्तुदीयते, यथा सत्स्फिटन्नपि उपमानोऽपिन स्फिटतिन स्वोपाश्रय एव ध्रियते । तत्र च त्रिवपि आहारोपधिशय्यासु बहिर्गच्चति । यतना कर्तव्या। एष द्वारगाथा संक्षेपार्थः। साम्प्रतम 'आहारविगिचणेत्यादि' व्यायानयनि साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतो 'रमो निवेश्यम्मी' निकमहुरं च जतं, करीससेजा उ नो जहा वाऊ । इत्येतद् व्याख्यानयतिदब्विय धातुक्खोजे, ना उस्सग्ग तो किरिया ॥ पुत्तादीणं किरियं, सयमेव घरम्मि को विकारेजा। यदि वातादिना धातुक्षोभोऽस्य संजात इति ज्ञायते, तदा अणुजाणंते य तहिं, इमे व गंतुं पमियरांति ॥ भक्तमपथ्यपरिहारण स्निग्धं मधुरं च तस्मै दातव्यम,शय्या च यदि कोऽपि राजा, अन्यो वा तस्य किप्तचित्तस्य साधोः स्वकरीषमयी कर्त्तव्या, सा हि सोष्णा भवति, उपरणे च बातश्ले- जनो गृहे स्वयमेव साधुनिवेदनातू प्राक् आत्मनैव पुनादीनां मापहारः। तथा किमयं देविको देवेन भूतादिना कृत नपज्वः। क्रियां चिकित्सां कारयति, तदा तस्मै निवेदिते युष्मदीयः धानुक्कोभज इतिकाते देवताऽऽराधनाय उत्सर्गः क्रियते । तस्मि क्षिप्तचित्तो जात इति कथिते यदि अनुजानीते यथा तमत्र स. भक्रियमाणे यदा किश्चित्तया देवतया कायेतं तदनुसारेण | मानयतेति, ततः स तत्र नीयते नातं बसन्तमिमेऽपि गच्चवा ततः क्रिया कर्त्तव्या यदि दैविक इति। सिनः साधवो गत्वा प्रतिचरन्ति ।। संप्रति 'रक्वंताणं पि फिमिए' इत्यादि व्याख्यानयति- । श्रोसहवेज्जे देमो, पमिजग्गह णं तहिं चियं चेव । अगमे पलाय मग्गण, अन्नगणा वा विजेण सारक्खो।। तेसिं च नाय भावं, न देंति मा एं गिही कुज्जा ॥ गुरुगा य जं च जुत्तो, तोसिं च निवेयणाकरणं ॥ कदाचित्स्वजना ब्रूयुः । यथा-औषधानि वैद्यं च वयं दमः के'अगमे ' ति सप्तमी पञ्चम्यर्थे, ततोऽयमर्थः-अवटात - चलमिह अस्मिन्नस्माकमासन्ने प्रदेशे स्थितं णमित्येवं प्रतिजापात् उपलक्षणमेतत्, अपवरकावा, यदि पलायते, कथमपि गत, तत्र यदि तेषां भावो विरूपो गृहस्थीकरणात्मकस्ततस्ते Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४४) खित्तचित्त अभिधानराजेन्द्रः। खित्तचित्त षां तथारूपं भावमिङ्गिताकारं कुशलो ज्ञात्वा न ददाति न प्रय- ततः कथमयमप्रायश्चितभाक् ? । अत्र सूरिराहयति । न तेषामासमप्रदेशे नयतीतिजावः। कुतः इति प्राह- कामं आसवदारे-सु वहितो पलवियं बहुविहं च । मा एतं गृहस्थीकुर्युरिति देतोः। लोगविरुद्धा य पया, बोगोत्तरिया याश्या ।। सम्प्रति 'तीसु वि जयणा' इत्येतयाख्यानयति काममित्यनुमती, अनुमतमेतत् । यथा स आश्रवद्वारेषु चि. आहारनवहिसेज्जा-नग्गमउप्पायणादिसु जयंता । रकालं प्रवर्तितो बहुविधं च तेन प्रलपितं सोकथिहकानि लो. वायादी खोजम्मि बि, नयंति पत्तेय मिस्सा वा ॥ कोत्तरिकाणि च, लोकोत्तरविरुकानि च पदानि प्राचीर्णानि आहारे उपधौ शय्यायां च विषये उझमोत्पादनादिषु, मादि प्रतिसेवितानि । शब्दादेषणादिदोषपरिग्रहः। यतन्ते प्रयत्नपरा भवन्ति । उक- न य बंधहेउविगल-तणेण कम्मस्स उवचमो होइ। मोत्पादनादिदोषविशुद्धाहाराद्युत्पादनेन प्रतिचरन्तीति भावः । लोगो वि एत्य सक्खी, जह एस परब्बसो कासी॥ एषा यतना दैविके विप्तचित्तत्वे द्रष्टव्या । एवं वातादिना तथाऽपि च नैव तस्य च क्षिप्तचित्तस्त्र बन्धहेतुविकलधातुकोभेऽपि प्रत्येक साम्नोगिका मिश्रा वा असाम्नोगिकैः बेन बन्धहेतवो रागद्वेषास्तद्विकत्वेन तहितत्वेन कर्मण संमिश्रा वा पूर्वोक्तप्रकारेण यतन्ते । उपचयो जवति । कर्मोपचयस्य रागद्वेषाधीनत्वात् । तस्य चरापुव्वं दिवो न विही, इह वि करेत्ताण होति तह चेव । गद्वेषविकलत्वात् । न च तागद्वेषविकसत्यं वचनमात्रसिकम, तेगिच्छमि कयम्मी, आदेसा तिनि सुको वा ॥ यतो लोकोऽप्यत्रास्मिन्विषये साक्षी, यथा एष सर्व परवशोऽ. यः पूर्व कल्पाध्ययने ग्लानस्तत्र उद्दिष्टः प्रतिपादितो विधिः, कार्षीदिति। ततो रागद्वेषाभावान्न कर्मोपचयः। तस्य तदनुग. स एवं इहापि क्रिप्सचित्तसूत्रेऽपि वैयावृत्य कुर्वता तथैव त्वात् । जयति ज्ञातव्यः । चैकित्स्ये च चिकित्सायाः कर्मणि च कृते तथा चाहप्रगुणीभूते च तस्मिन् प्रयः आदेशाः । एके ध्रुवते-गुरुको रागदोसाणगया, जीवा कम्मस्स बंधगा इंति । व्यवहारःप्रस्थापयितव्यः। अपरे ग्रुवते-लघुकः । अन्ये पाच- रागादिविसेसेण वि, बंधविसेसो वि अविगीतो॥ कते-बघुस्वकः । तत्र तृतीयः आदेशःप्रमाणं,सूत्रोपदिष्यत्वात् । रागद्वेषाभ्यामनुगताः सन्तो जीवाः कर्मणो बन्धका भवअथवा स शुद्धो न प्रायश्चित्तजाक। न्ति । ततो रागद्वेषतारतम्येन बन्धविशेषो बन्धतरतमभावोsपरवशतया रागद्वेषाभावेन प्रतिसेवनादेव विभावयिषु- विगीतो विप्रतिपन्नः। ततःक्तिप्तचित्तस्य रागद्वेषान्नावतः कर्मोरिदमाह पचयाभावः। चउरो य इंति नंगा, तसि वयणभिम होति पएणवणा। ___ अमुमेवार्थ दृष्टान्तेन द्रढयतिपरिसाए मज्झम्मी, पट्टवणा होइ पच्छित्ते ॥ कुणमाणी विय चिहा, परतंता णट्टिया बहुविहान । यह चारित्रविषये वृझिहान्यादिगताश्चत्वारो भवन्ति भनाः।। किरियाफझेण जुज, न जहा एमेव एवं पि॥ ते चाने वक्ष्यन्ते-येषां च भङ्गानां वचनेन, माथायां यथा नर्तकी यन्त्रकाष्ठमयी परतन्त्रा परायत्ता परप्रयोगतारसप्तमी तृतीयार्थे, भवन्ति पर्षदो मध्ये प्रज्ञापना प्ररूपणा त्यर्थः । बहुविधा बहुप्रकारा अपि तुशब्दोऽपिशब्दार्थः । चेष्टाः तदनन्तरं यदि भवति शुद्धिमात्रनिमित्तं प्रायाचित्तं दातव्यम् । कुर्वाणा क्रियाफलेन कर्मणा न युज्यते । एवमेव अनेनैव प्रकाततस्तस्य प्रायश्चित्तस्य लघुकस्वरूपस्य, गाथायां सप्तमी | रेण अयमपि किप्तचित्तोऽप्यनेका भपि विरुद्धाः क्रियाः कुर्वापष्ठया, जवति प्रस्थापनादानमिति । णो न कम्मोपचयं प्रामोति । सम्प्रति चतुरो भनान् कथयन् प्रायश्चित्तदानानावं भावयति __ भत्र परस्परमतमाशङ्कमानमाहवकृति हायति उभयं, अवडियं च चरणं भवे चउहा। जइ इच्छसि सा सेरी, अचेयणा तेण से विमो नत्थि । खइयं तहोवसमियं, मीस अह खायखित्वं च ॥ जीवपरिग्गहिया पुण, बोंदी असमंजसं समया ॥ कस्यापि चारित्रं वळते, कस्यापि हीयते, कस्यापि बीते यदि त्वमेतदिसि अनुमन्यते । यथा (सरीति ) देशीव. हीयते च, फस्याप्यवस्थितं वर्तते । एते चत्वारो भङ्गामा. चनमेतत् । यन्त्रमयी नर्तकी अचेतना तेन कारणेन[से] तस्यारित्रस्य । साम्प्रतममीषामेव चतुर्णी भकानां यथासंख्येन न कम्मोपचयो नास्ति । वोन्दिस्तनुः पुनर्जीवपरिगृहीता विषयान्प्रदर्शयति- (खश्यमित्यादि ) वपकण प्रतिपने जीवेनाधिष्ठिता जीवपरिगृहीतत्वाचावश्यं तद्विरुद्धचेष्टातः क्षायिकं चरणं वर्तते । उपशमश्रेणीतः प्रतिपतने औपशमिक कर्मोपचयसंभवस्ततो या 'सेरी' दृष्टान्तेन समता आपादिता, चरणहानिमुपगच्छति । क्षायोपशामकं तबागद्वेषोत्कर्षापकर्षव सा असमञ्जसमयुज्यमाना अचेतना,ऽचेतनत्वेष्टान्ते चरष्टाशतः कोयते परिवईते च यथा विप्तं च 'पदैकदेशे पद न्तदार्शन्तिकयोवैषम्यात्। समुदायोपचारात्' क्षिप्तचिसचारित्रं चावस्थितं स्यातचारित्रे सर्वथा रागद्वेषोदयाभावात, क्षिप्तचित्तचारित्रे परवशतया अत्राचार्य श्राहप्रवृत्तेः ततो रागद्वेषाभावात्तीवे तदेवं यतः तिप्तचिते चेयणमचेयणं वा, परतंतत्तण दो वि तुलाई। चारित्रमवस्थितमसौ प्रायश्चित्तभागिति । पर पाह-ननु स न तया विसेसियं ए-त्य किं वीजण ती सुण विसेसं। क्किप्तचित्त आथवद्वारषु चिरकालं प्रवर्तितः बहुविधं वाऽसम- चेतनं वा स्था, अचेतनं वा चेतनत्वाऽचेतनत्वविशेषस्यात्रा:जसं तेन प्रापितं लोकलोकोत्तरविरुकं च । समाचरितम्। । प्रयोजकत्वात् । कथमप्रयोजकत्वम् । अत आह-परतन्त्रत्वेन प. Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) खित्तचित्त अनिघानराजेन्सः। खित्तचित्त रायत्ततया यतोद्धे अपितुल्ये ततो न किञ्चिदैषम्यम्।पर पाह- __ अहगुरुगो उम्मासो, गुरुगपक्खम्मि पडिबत्ती ।। न त्वया अत्र कर्मोपचयचिन्ताय किञ्चिदपि मनागपि विशे- गुरुको नाम व्यवहारो मासः मासपरिमाणः, गुरुके व्यवहारे पितं येन जीवपरिगृहीतत्वेऽप्येकत्र कर्मोपचयो भवत्येकत्र नेति। समापतिते एकः मासः प्रायश्चित्तं दातव्यमिति नावः। एवं प्रतिपाद्यमाह-प्राचार्यों नणति छूते शृणु भण्यमानविशेषम् । गुरुतरको भवेति चतुर्मासपरिमाणः । यथागुरुकः षण्मासः, तमेवाह पामासपरिमाणः । एषा गुरुकपके,गुरुके व्यवहारे त्रिविधेऽपि नणु सो चेव विसेसो, जं एगमचेयणं सचित्तेयं । यथाक्रमं प्रायश्चित्तप्रतिपत्तिः। . मह चेयणे विसेसो, तह भणमु इमं निसामेह ।। अथ लघुकादिव्यवहारप्रायश्चित्तमाहमनु स एव च यन्त्रनर्तकी स्वाभाविकनर्तकरष्टान्ततस्ततो तीसा य परमवीसा य, वीसा पहारसे व य । विशेष एवं शरीरं जीवपरिगृहीतमपि परायत्ततया चेष्टमान- दम पंच य दिवसाई, अदुसगपक्वम्मि पडिवत्ती ।। मचेतनमेकं स्वायत्ततया प्रवृत्तेः सचित्तं सचेतनमिति । पर सघुको व्यवहारः त्रिंशदिवसपरिमाणः । एवं बघुतरकः पञ्चमाह-यथैष चेतने विशेषो निस्सन्दिग्धप्रतिपत्तिविषयो भव- विंशतिदिनमानः। यथालघुको विंशतिदिनमानः । एषा लघुति । तथा नणतः प्रतिपादयतः। प्राचार्य आह-तत इदं वय- कव्यहारे त्रिविधे यथाक्रमं प्रतिपत्तिः । बघुस्वकः पश्चदशदिमाणं निशमय आकर्णय । चसप्रायश्चित्तपरिमाणः । एवं लघुस्वतरका दशदिवसमानः। तदेवाह यथालघुस्वकः पञ्चदिवसप्रायश्चित्तपरिमाणः एषा बघुस्वजो पवितो परेणं, हेऊ वसहस्स होइ कायाणं । कव्यवहारपके प्रायश्चित्तप्रतिपत्तिः । तत्थ न दोसं इच्छसि, सोगेण समं तहा तं च ।। अथ के व्यवहार केन तपसा परिपूरयति ? इति प्रतिपादनार्थमाहयः परेण प्रेरितः स च कायादीनां पृथिव्यादीनां व्यसनस्य सङ्घ गुरुगं चअट्ठमं खलु, गुरुगतरागं व होइ दसमं तु । हनपरितापनादिरूपस्य हेतुः कारणं भवति । तत्र तस्मिन् परेण प्रेरिततया कायव्यसनतोन त्वं दोषमिच्छसि। अनात्मवशत अहगुरुगवालसमं, गुरुगगपक्खम्मि पडिवत्ती॥ या प्रवृत्ते। कथं पुनर्दोष नेच्छसि ? इत्यत आह-लोकेन सम गुरुकं व्यवहारं मासपरिमाणम, अष्टमं कुर्वन् पूरयति गुरुलोके तथादर्शन मित्यर्थः । तथाहि-लोको यो यत्राउनात्मव- के व्यवहारं मासपरिमाणमष्टमेन वहति । यथा-गुरुतरक चतु. शतया प्रवर्तते तं तत्र निर्दोषमनिमन्यते। ततो लोके तथाद- सिप्रमाणं व्यवहारं दशमं कुर्वन् पूरयति दशमेनवहतीत्यर्थः। दर्शनतस्तमपि कायव्यसनहतुं निर्दोषमन्निमन्यताम् । यथा च यथागुरुकं कुर्वन् द्वादशे (शम) नेत्यर्थः । एषा गुरुकपक्के गुरुतं निर्दोषमिसि । तथा तमपि च विप्तचित्तं निदोषं पश्य कव्यवहारपूरणविषये प्रतिपत्तिः । तस्यापि परायत्ततया तथारूपासु चेष्टासु प्रवृत्तः । छटुं च चउत्थं वा, आयविवएगठाणपुरिमम् । एतदेव सविशेषं नावयति निव्वायं दायव्वं, अहबहुस्सम्मि सुखो वा ॥ पासंतो वि य काए, अपञ्चलो अप्पगं वि धारेनें । लघुकं व्यवहारं त्रिंशद्विनपरिमाणं षष्ठं कुर्वन् पृरयति । लजह पतितो अदोसो, एमेवमिमं पिपासामो॥ घुतरकं पञ्चविंशतिदिवसपरिमाणव्यवहारं चतुर्थ कुर्वन् । यथा परेण प्रेरितः प्रात्मानं विधारयितुं संस्थापयितुमप्रत्यलो यथासघुकव्यवहारं विंशतिदिनमानम् श्राचाम्वं कुर्वन् । एषा ऽसमर्थः सन् पश्यन्नपि कायान् पृथिवीकायिकादीन् विराध- लघुकत्रिविधव्यवहारपूरणे तपःप्रतिपत्तिः। तथा-लघुस्वकं यन् । अनिकापुत्राचार्य इव, अदोषो निर्दोषः। एवमेव अनेनैव व्यवहारं पञ्चदशदिवसपरिमाणम, एकस्थानकं कुर्वन् पूरय. प्रकारेण परायत्ततया प्रवृत्तिलक्षणेन इममपि किप्तचित्तमदोषं ति । लघुस्वकतरकव्यवहारं दशदिवसपरिमाणं पूर्वार्द्धकं कुपश्यामः। र्वन् । यथालघुस्वकन्यवहारं पञ्चदिनपरिमाण निर्विकृतिक इह पूर्व प्रगुणीनूतस्य प्रायश्चित्तदानविषये अय आदेशा कुर्वन्पूरयति । तत एतेषु गुरुकादिषु व्यवहारेषु अनेनैव क्रमेण गुरुकादय वक्तास्ततस्तानेव गुरुकादीन् प्ररूपयति- तपो दातव्यम् । यदि वा बघुस्वके व्यवहारे प्रस्थापयितव्ये गुरुगो गुरुगतरागो, अहागुरूगो य होइ ववहारो । सप्रतिपन्नव्यवहारतपःप्रायश्चित्तम् एवमेवालोचनाप्रदानमात्रबहुओ बहुयतरागो, अहामहूगो य होइ ववहारो॥ तः शुद्धः क्रियते । व्य० २२० । बहुसो लहुसतरागो, अहानहूसो य होइ ववहारो। सूत्रम्-खित्तचित्तं निग्गंथि निग्गंथे गिएहमाणे वा अवलं'एएसि पच्चित्तं, वुच्छामि अहाणुपुबीए । वमाणे वा नाश्कम । व्यवहारनिविधः। तद्यथा-गुरुकः, गुरुतरका, यथागुरुकश्व । ___ अस्य सूत्रस्य संवन्धमाहलघुका, लघुतरकः, यधालघुकश्च । लघुस्वः, लघुस्वतरका, नदुज्जंती व भया, सफासा रागतो व खिप्पेज्जा। यथालघुस्वश्च । एतेषां व्यवहाराणां यथानुपूर्ध्या यथोक्तपरि- संबंधविहिला ते, वदति संबंधमेयं तु | पाट्या प्रायश्चित्तं वक्ष्यामि । किमुक्तं भवति ?-एतेषु व्यवहारेषु समुपस्थितेषु यथापरिपाट्या प्रायश्चित्तपरिमाणमभिधास्ये। पानीयेनापोहमाना पाजयात किप्येत क्लिप्तचित्ता भवेदित्यर्थः। यद्वा संस्पर्शतो यो राग उत्पद्यते तस्माद्वा । तत्र साधौ अन्य. गुरुकादिव्यवहारप्रायश्चित्तमाह त्र गते सति विप्तचित्ता नवेत् । अथ क्तिप्तचित्ततासूत्रमारभ्यतेगुरुगो य हो मासो, गुरुगतरागो य होइ चनुमासो। | एवं संबन्धार्थ विधिज्ञाः सूरयोऽत्र सूत्रे एनं संवन्धं पदन्ति Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खीरहुम (७६) खित्तचित्त अभिधानराजेन्धः। भनेन संवन्धेनायातस्यास्य व्याख्या (खित्तचितं ति) किप्तं | खीणकसायवीयरागउउमत्थगणटाण-कीण कषायवीतरागमरागजयापमानैः चित्तं यस्याःसा विप्तचित्ता तां निर्ग्रन्थी नि उग्रस्थगुणस्थान-न। हादशे गुणस्थाने, पञ्चा.१ मार। प्रेन्यो गृहाति वा अवलम्ब्यमानो वा नातिकामति माशामिति सूत्रार्थः ।वृ॥६०। (वित्तचित्ताया निग्रंन्ध्याः प्ररूपणा किप्ताच (इदं च यथा चाप्यते, तथा मूलत एव भावितं 'खवगसेटि' तस्य निर्ग्रन्थस्येव भावनीया नवरं पुरुषाभिलाये रुयभिलापः शब्दे अस्मिन्नेव भागे ७२८ पृष्ठे) कर्तव्यः) खीणकोह-कीण क्रोध- त्रिकोणक्रोधमाहनीयकर्मणि, भौ०। खिप्प-नि-न० । शीघ्र, उत्त० ४ अ । विशे। सूत्रः । Krmaयामबा खीण पायासुनकम्म-दीणप्रायाऽशुभकर्मन्-०। क्षीणप्रायारा। संथा। श्रा०म० । अचिरे, पो. ३ विव० । "खिप्पमेव णि बाहुल्येन कीपानि अशुभकर्माणि चारित्रप्रतिबन्धकानि गिएह" शिप्रमेव गृण्हाति तूल्यादिस्पर्श कयोपशमपटुः यस्य स तथा । कोणक्लिएकमणि, ध०३ अधि०।। स्वादचिरैवेति । स्थार ६ ठा0। "खिप्पामेव दुवानसजायणाई" ० ३ वक०१। क्रियाविशेषणत्वे क्सीवता । तद्वति, खीण जोगि-कीणनोगिन्-त्रि०ा भोगो जीवस्य यत्रास्ति तनोगि त्रिवाच । "खिप्पं दवर सुचाइए" किं भवति शीघ्र कार्य शरीरं तत् कीरणं तपोरोगादिभिर्यस्य स कीणभोगी। वीणतकुद्भवति । उत्त०१००१ नौ दुर्वले, न. २ श०५ उ०। खिप्पगइ-क्षिप्रगति-पुं० दिककुमारडयोःअमितगत्यमितवाह | खीणमोह-वीण मोह-पुं० । वीणो निःसत्ताकीनूतो मोहो यनयोः लोकपानयुगले, भ० ३ श०८ ० । स्था। स्य स तथा । वयवीतरागे द्वादशगुषस्थाने वर्तमाने जीवे, खिप्पचारि-क्षिपचारिन-त्रि० । शीघ्रसंचरणशीले, विशेक । स०१४ सम० । सूक्ष्मसंपरायावस्थायां संज्वलमलोभमपिमिखिर-कर-सिञ्चने, च्या० पर० अक० सेट् । “क्षरः खिर-कर श्शेष वपयित्वा सर्वथा मोहनीयकर्मानावं प्रतिपन्ने निग्रन्थ भेदे, प्रव० ६३ द्वार। पज्झर-पश्चम-णिच्चल-णिट्टाः " ८।४ । १७३ इति खिरादेशः खीणमोहस्सणं अरहो तो कम्मंसा जुगवं खि'खिरह' करति । प्रा० ४ पाद ॥ ज्जति तं पाणावरणिज्जं दसणावरणिज्ज अंतरायं ॥ खिल नूमि-विक्षनूमि-स्त्री० । हलैरकृष्टायां मौ, प्रभ० २ श्राश्र0 द्वार। कीसमोहस्य कोणमोहनीयकर्मणोऽहतो जिनस्य त्रयः कमी शाः कर्मप्रकृतय इति उक्तश्च-"चरमे नाणावरणं,पंचविहं दसणं खिल्ल-खिल्ल-पुं० । खोल ति जनोक्तिप्रसिके, तं०। चउविगप्पं । पंचविहमंतरायं, खबश्त्ता केवली हो" ति॥ खिचहल-खिमहल-पुं० । स्वनाम्ना लोकप्रसिके कन्द, ध०५ स्था० ३ ठा०४ उ०। अधि० । प्रव०। खीणराग-वीणराग-पुं०। वीतरागे, ग.१ अधि। खिव-क्षिप-प्रेरणे, धा० । तुदा० उभ० सक० । " किपेर्ग खीण रागदोसमोह-वीणरागद्वेषमोह-पुं०।कीणा रागद्वेषमाहा लत्था-इक्व-सोल्ल-पेल्ल-णोल्ल-छुह-हुल-परी-घत्ताः।८।४।। यस्य सः। वीतानिध्वनाप्रीत्यज्ञाने, पं० सू०४ सू०।। १४३ । इत्यादेशो वा । पके खिवा' क्विपति । प्रा० ४ पाद ॥ खीण-क्षीण-त्रिका कि-क्त "कः खः कचित्तु छ-झौ"।८।१।। खीणवित्ति-कीणवृत्ति-त्रिकाकीणा वृत्तिः परा जीविका यस्य ३ । इति कस्य खः । प्रा०२ पाद । अपगते, । अनु० । नि- सः। जीविकारहिते,अष्ट० ३० अष्टा कीणमले, "मणेरिवानिजीर्णे, विशे०। जातस्य, कोणवृत्तेरसंशयम" द्वा० २० द्वा०। स्वीणअसुभणाम-क्षीणाशुभनामन्-पुं० । कोणमपगतं नरक-खीर-क्षीर-नाकि क्रन् दीर्घश्च । जश्ने,सरलद्रव्ये,याचा स्त. गत्यशुनपुभंगदुःस्वरानादेयायशाकीयादिकम शुभं नाम यस्य | न्ये, बृ० १ उ० 1 पिं०। प्रज्ञान प्रश्न । विशे। उत्तः । सूत्र। सा अशुभनामविप्रमुक्त, अनु । पञ्च कीराणि गोमहिष्यजोलकसंबन्धिभेदात विकृतयः। ध० खीणकसाय-दीण कपाय-पुं० । क्षीणा अभावमापन्ना कषाया | २ अधिक। आ. चू० । नि० ० । आव० । पश्चा०। प्रव०॥ यस्य स कीणकषायः । कपकश्रेणिद्वारा प्रतिहतकषाये, प्रव० । स्था। " एगतेण अपेयं, स्त्रीरं पुरजाश्यं तहिं देसे । सं. १६द्वार। सेइमं तत्थ जिया, गंमुलया सप्यममुक्का" ॥ १५ ॥ संस० नि. खीणकसायवीयरागउउमत्य-कीए कषायवीतरागनास्थ-पुंज कीरवरदीपस्य अधिपती देव, जी०३ प्रति०॥ कीणा अनावमापन्नाः कपाया यस्य स तीणकषायः तथाऽ- खीरइय-कीरकित-त्रि० । संजातक्षीरके,शा० १७० ७ ०। म्येष्वपि गुणस्थानकेषु कपकणिद्वारोक्तयुक्त्या क्वापि किया | खीरकाउली-कीरकाकोली-स्त्री०। कीरविदारीनामके साधातामपि कपायाणां वीणत्यसंभवात् क्कीणकपायव्यपदेशः सं. रणशरीरबादरवनस्पती,प्रका०१ पद । वाच०। प्राचा०। भवति । ततस्त यवच्छे दार्थ वीतरागग्रहणं, वीणकषायवीतरागत्वं च केबलिनोऽप्यस्तोति तद्यवच्छेदार्थ उमस्थब्रहणम् । यहा खीरजल-कीरजा-पुं० । कीरसमुळे ही। ग्वास्थस्य रागोऽपि नवतीति तदपनोदाथै वीतरागग्रहणं बी. | खीरम-दीराम-न। परमान्ने, अष्ट०५६ अष्ट। तरागश्चासौ छमस्थश्च वीतरागच्छद्मस्थः स चोपशान्तकषायोऽप्यस्तीति तयवच्छेदार्थ कोणकपायग्रहणं कोणकषायश्चा-1 खीरदुम-क्षीरदुम-पुं० । घटोदुम्बरपिप्पलादौ, क्षीरप्रधाने पक्के, सौ वीतरागच्छमस्थश्च । घादशे गुणस्थाने वर्तमाने जीवे.प्रवः णिचू०१०।पि। श्राव०। 'दब्वे खीरमादि' न्यग्रोधा२२४ वार । पञ्चा। दर्श० । कल्प। दि। पञ्चा०१५ विव०। Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७) खीरधाई अन्निधानराजेन्द्रः। खीरोद खीरधाई-वीरधात्री-स्त्री० । स्तनदायिन्यां धात्र्याम, ज्ञा०१/ वावीउ इत्यादि) वरुणवरद्वीपवत्सर्व वक्तव्यं यावत् "वाभु०१० । निथू । (धात्रीपिण्डे स्वरूपमस्या केयम) णमन्तरा देवा देवी उपासयंति सयंति जाब बिहरंति" नव रमत्र वाप्यादयः कीरोदकपरिपूर्णा वक्तव्याः पर्वतापर्वतकेषु खीरपूरसमप्पह-क्षीरपूरसमज- त्रिदुग्धपूरसदशवणे,उत्त. श्रासनानि गृहकाणि गृहकेष्वासनानि मण्डपकेषु पृथिवीशि३४.प्र.। "लापट्टाः सर्वरक्षमया वाच्याः शेष सथैव । पुण्डरीकपुष्पदन्ती खीरप्पभ-कीरमज-पुंगवीरवरद्वीपाधिपतौ देवे, जी०३प्रति चात्र कीरवरे पीपे यथाक्रम पूर्वार्धापरार्माधिपती छौ देवी खीरमसप्पियासव-कीरमधुसर्पिराश्रव-पुं० । कीराश्रवादि महर्दिकी यावत् पल्योपमस्थितिको परिवसतस्ततो यस्मात्तत्र सन्धित्रिके। वाप्यादिषूद क्षीरतुल्यं कारकीरप्रभौ तदधिपतिदेवाविति स द्वीपः क्वीरवरःतथा चाह-(सेएएण?णमित्यादि) उपसंहारषाखीरमहसप्पिसाऊव-माणत्रयणा नयाऽऽसवा हुंति ।५१६॥ क्यं चन्छादिसूत्रं प्राग्वत् ॥ जी०३ प्रति०। चं० प्र०। सू०प्र०। क्षीरं दुग्ध, मधु मधुरभव्यं, सर्पिघृतम्, एतत्स्वादूपमानव खीरसागर-क्षीरसागर-पुं० । दुग्धसमुझे, कल्प०२ क्षण । चना वैरस्वाम्पादिवत् तदाश्रवाः कीरमधुसर्पिराश्रवा भवन्ति। इयमत्र भावना।पुण्द्रेचुचारिणीनां गवां लक्षस्य कीरम् अर्का-खीरादिलचिजुत्त-दीरादिलब्धियुक्त-पुं० । कीरादिकमक्रमेण दीयते यावत् एवमेकस्याः पीतगोतीरायाः कीरं तत्किल ब्धिसम्पन्ने प्रादिशब्दाद्विद्यामन्त्रयोगवशीकरणादिकुशले, खातुरिक्यामित्यागमे गीयते । तद्यथोपभुज्यमानमतीव मनःश- व्य०१उ०। रीरप्रहादहेतुरुपजायते । तथा यहूचनमाकार्यमान मनःशरी खीरादिविग्घितता-कीरादिहिततनु-त्रि० । प्रचुरदरसुखोत्पादनाय प्रभवति, ते क्षीराश्रवाः कीरमिव वचनम् भासमन्तात् श्रवन्तीति व्युत्पत्तेः। एवं मधु किमप्यतिशायि भ्याशुपचितशरीरे, ०४ उ० । शर्करादि मधुरद्रव्यममृतमपि पुण्दूक्षुचारिगोतीरं मन्दाग्नि-खीरामाय-हीरामनक-न०। अवकास्थिके फसे, क्षीरवम्मधुकथितमपि विशिष्टवर्णापेतं मश्विव वचनमाश्रवन्तीति म- रे, पामलके, “फलपरिमाणं करे तत्थ एगणं कीरामलएणं" ज्वाश्रवाः घृतमिव वचनमाश्रवन्तीति घृताश्रवाः । उपलक-| उत्त०१०। णत्वाचामृतश्रषिणः इकुरसाश्रविण इत्यादयोऽप्यवसेयाः। खीरासव-कीराव-पुं० । यदचनमाकर्ण्यमानं मनःशरीरसुअथवा येषां पात्रे पतितं कदन्नमपि कीरमधुसर्पिरादिरस खोत्पादनाय प्रभवति स सब्धिविशेषसंपन्नः तस्मिन्, कीरमिव वीर्यषिपाकं जायते क्रमेण कीराश्रविणो मध्वाश्रविणः सपि-1 - वचनमासमन्तात् श्रवतीति व्युत्पते। प्रव० २७० द्वार० । राषिण इत्यादि । प्रव० २७० द्वार । ग । विपा० । प्रा०चू० । पा० खीरमेह-कीरमेघ-पुंगभरतैरवतयोम्या वर्णगन्धरसस्पर्शज-खीरासवनद्धि-कीराश्रवलन्धि-पुं०। कीरमिधाश्रयति कथयन् मके दुःसमदुःखमान्ते वृष्टिकारके हितीये महामेघे,ति० । जंग यस्या लब्धेः सा कीरावा सा सम्धिर्यस्यासौ कीराभवल('सप्पिणी' शब्दे वर्णकोऽस्य ) ब्धिः। कीराश्रधलब्धियुक्त, व्य० ३ उ०। खीरवती-कीरवती-स्त्री० कीरं विद्यते यस्याः सा । भूमिन, खीरिज्जमाण-कीयमाण-त्रि० । उद्यमाने, “ खारिणीमो गामतुप् प्रत्ययः । बहुक्षीरायाम, “दुग्घासे वीरवती गावी" | वीरो खीरिमाणाओ बेहाए" प्राचा० २७० १०४ उ० । ७०३उ०। खीरोद-कीरोद-पुं०। कीरबदुदकं यस्य । संथा। क्षीरवरखीरवर-क्षीरवर-पुं०। चतुर्थे हीपे,स्था०३ ठा०४ उ०। अनु० । द्वीपस्य परितः समुषभेदे, जी। वारुणोद णं समुदं खीरवरे णाम दीवे वट्टे जाव चि. तद्वक्तव्यताइति सव्वं । संखेजगं विक्खंभे परिक्खेवो य० जाव अ | खीरवरेणं दीवं खीरोदे णाम समुद्दे, वलयागारसंगणहो बदन खुइवावीउ० जाव सरपंतियासु खीरोदगपमिह संवितेजाव परिक्खिवित्ताणं चिटुंति समचक्कवाझसंहिते, नो विसमचकवालसंविते, संखेजाई जोयणसयाई क्विं . स्थान पासादीयाउ तासु णं खुड्डियासु० जाव विलपतियासु बहवे नप्पायपव्ययगा सव्वरयतामया० जाव पडिरूवा जपरिक्खेवो तहेव सव्वं जाव अहो। गोयमा! खीरोयपंमरगपुष्पदंता इत्थ दो देवा महिल्लिया. जाव परिवसं स्स णं समुद्दे उदगे से जहानाम तेमून महामारुपमअन्नति। से तेणटेणं जावणिच्चे जोतिसं सव्वं संखेज ॥ णतणसरसपत्तकोमनअच्छिएणतणगोमगवरुथुवारिणीणं (वरुणोद णमित्यादि) वरुणोदं णमिति पूर्ववत् समुफ की-| सवंगपत्तपुप्फपलकंकोलगसफलरुक्खा बहुगुच्चगुम्मकरवरनामद्वीपो वृत्तो बलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः स लिते सहिमपउरपिप्पलीफलितवशिवरविवरचारिणीणं मन्तात् संपरिक्तिप्य तिष्ठति। एवं यैव वरुणवरद्वीपस्य वक्तव्य- अप्पोदगपीतसइरसमजमिजागणिज्जयसुहे सीताणं सुपो. ता सैवेदापि द्रष्टव्या यावज्जीवोपपातसूत्रम् | संप्रति नामाम्बर्थ सितमुधाताणं रोगपरिव जिताणं निरुवहतसरीराणं कालमभिधित्सुराह-" से केणटेणमित्यादि " अथ केनार्थेन नदंत एवमुच्यते । क्षीरवरो द्वीपः कीरवरो द्वीपः, प्रनूतजनो प्पसंठाणं वितियसमप्पसूताणं अंजणवरगवलवलयजलधरतिसंग्रहाथै वीप्सायां द्विवचनं भगवानाह-गौतम-कीरवरे | जब्वं जपरिहनमरपरहुतसमप्पभाणं गावीणं कुंडदोहणाणं द्वीपे तत्र दो तस्य तस्य देशस्य तत्र प्रदेशे बहवः (खा- बचथी पत्ताणं रूढाणं मधुमासकाले संगहिने होज, Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) खीरोद अभिधानराजेन्सः । खुड्डग पातुरकेव होज, तासि खीरे मधुररसविगत्यवहुदवसं- संभावने-एयं खु हस । विस्मये-को खु एसो सहस्सपयुत्ते पयत्तमंदग्गिसुकष्कृिते । भाउत्तगुरूमच्छंडितोववेत सिरो। प्रा०२पाद । अवधारणे, आव० ३० । सूत्र। दश दशा । पचा। उत्तापाचा निश्चये,तं०।०॥ रखो । चाउरंतचक्कवास्स उवठवित्ते प्रासादणिज्जे वी वाक्यालङ्कारे, आचा० १६०६ १०३ उ०। सूत्रा हेतुप्रदर्शने, सादणिजे धीणणिजे० जाच सन्विदियगातपल्हायणि सत्त०२०। ज्जे वसेणं उववेते. जाव फासेणं नवे तारूवे सिया । नो खुइ-क्षति-स्त्री० । क्षवणं कुतिः । छीत्कारादौ शब्दविशेष, तिणहे समढे। खीरोदस्स णं से नदए एत्तो इट्ठयराये चेव " मम कत्थ वि सुई वा खुरं वा पविति वा असम्भभासायेणं पएणत्ते विमलप्पनाय इत्थ दो देवा महिटिया० माणे" भुर्ति वार्तामात्र, क्षुति तस्यैव सबन्धिनं शम्दं तमिहं नाव परिवसंति । से तेणणं संखेजा चंदा० जाव तारा । था । का०१६० १६ म० । एषाऽप्यदृश्यमनुष्यादिगमिका भवतीति गृहीता। भ० ३ श० १ उ०। (स्वीरवरेणमित्यादि) कीरवरे णमिति पूर्ववत् द्वीपं कीरोदो नाम समुखो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः समन्तात् संप खुज-कुब्ज-न० । “कुब्जकपरकीले कः स्खोऽपुष्पे "|१| रिक्षिप्य तिष्ठति शेषा वक्तव्यता कीरवरद्वीपस्येव वक्तव्या याव १०१॥ श्त्यनेन कस्य खः। चतुर्थे संस्थाने,यत्र शिरो ग्रीवं हज्जीवोपपातसूत्रम् । संप्रति नामनिमित्तमाभधित्सुराह-(से के स्तपादादिकं च यथोक्तप्रमाणलकणोपेतम् उदरादिमण्डलं तरु रणमित्यादि) अथ केनार्थेन भदन्त ! एष मुच्यते? कीरोदः स कुब्जम । जी०१प्रति० । तं । कल्प० । “हिछिनकायममहं। मुजः कीरोदसमुष इति भगवानाह-गौतम कीरोदस्य समु- अधस्तनकायं ममहम"श्हाधस्तनकायशब्देन पादपाणिशिरोरूस्योदकं यथा राजश्वक्रवर्तिनश्चातुरक्यं चतुःस्थानपरिणामप- ग्रीवमुच्यते, तद्यत्र शरीरलकणोक्तप्रमाणव्यन्निचारि यत्पुनः शेष र्यन्तगोकीरं चतु:स्थानपरिणामपर्यन्तता च प्रागेव व्याख्याता। तद्यथोक्तप्रमाणं तत्कुब्जमिति । स्था०६० । बक्रशरीरे, खण्डगुममत्स्यपिडकोपनीतं खएमगुडमत्स्यएिकाभिरतिश- त्रि वृ०१ उ० । बके, ओघ० । एकपावहीने,प्रव० ११०द्वार । येन प्रापितरसं प्रयत्लेन मन्दाग्निना कथितम् । अत्यग्निपरितापे नि० चूछ। चैरस्यापत्तेः। अत एवाह-वर्णेनोपपतें गन्धेनोपपेतं रसेनोपपेतम खुजणाम-कुब्जनामन-न० । संस्थाननामकर्मभेदे, यदुदयास्पर्शनोपपेतम् मास्वादनीयं बिस्वादनीयं दीपनीयं दर्पणीयं जीवानां कुब्जसंस्थानं नवति । कल्प०१कण । मदनीयं बृहणीय सर्वेजियगात्रप्रल्हादनीयमिति पूर्ववत् । ए. चमुक्त। गौतम पाह-"भवे एयारूवे सिया" भवेत् क्षीरसमद्र खुज्जत्त-कुब्जत्व-न० । वामनलकणे संस्थाने, प्राचा०१६०२ स्योदकमेतद्रूपम् । भगवानाद-गौतम! नायमर्थः समर्थः।कीरो- भ०३००। बस्य यस्मात्समुहस्योदकभितो यथोक्तरूपात क्षीरादिष्टतरमेव | खुजा-कुब्जा-स्त्री० । वक्रजङ्कायां शातवाहनदास्याम, ०११ यावन्मनाप्यायनतरमेवास्वादेन प्राप्तं विमल-विमलप्रभी च श०५ उ०1(अस्या पदाहरणम् 'अणणुभोग' शब्द प्र० यथाक्रम पूर्वार्धापराधिपती दौ देवी महार्षिकौ यावत्पस्यो- | भागे २०५ पृष्ठे उक्तम) पमस्थितिको परिवसतः ततः कीरमिवोदकं यस्य कीरवभिर्म | खुजिया-कुब्जिका-स्त्री० । वक्रजलायां दास्याम, नि०१व. लस्वभावयोः सुरयोः संबन्धि उदकं यत्रेति वा कीरोइ तथा | चाह-"से पएणोणमित्यादि" गतार्थम् । जी०३ प्रतिका सू०प्र०। ग०। झा० । भ०। अनु० चं०प्र०। स्था०। (चतुर्दशमहास्वप्नमभ्यगतोऽस्य वर्णकः) | खुज्जि (ण)-कुब्जिन्-त्रि० । कुजं पृष्ठादावस्यास्तीति कुखीरोदगा-कीरोदका-स्त्री० । कीरमिव (मेव) उदकं यासां | | जी। कुम्जे, आचा०१ श्रु०६ अ० १ उ०॥ ताः। उन्धजलासु वापीषु । जी० ३ प्रतिः। खुद-तुम-धा० । द्विधाकरणे, भ्वा० पर० सेट् " तुमे:-तोरखीरोदा-कीरोदा-स्त्री० । सुपदमाविजये अन्तनधाम, जं.४ | तु-खुट्ट-खुडोक्खुमोल्लुक्क-णिल्लुक्क-मुको-ल्यूराः" ॥८।४।११६॥ षकः । स्था० । “दो स्वीरोदाओ" स्था० ० ३ ०। इति तुडेः खुट्टखुमावादेशौ भवतः । खुट्टम, खुमन, तोडति । प्रा०४ पाद। खील-कील-पुं० । “कुब्जकर्परकीले कः सोऽपुष्पे"||| 'खुडिय-खंमित-त्रि० । “चण्डखरिमते णा पा"।।१। १।१८१ । इति कस्य खः । प्रा० । शङ्को, प्रा० १ पाद । । १३॥ इति णकारेण सहितस्यादेरस्य उत्त्वम । चिन्ने, खुड़िखीलगमग्ग-कीलकमार्ग-पुं० । मार्गनेदे, यत्र वालुकोत्कटे म ओ, स्वपिडो । प्रा०१पाद । रुकादिविषये कीबिकानिज्ञानेन गम्यते । सूत्र०१ श्रु० ११ १०। खुडुक्क-शल्याय-नामधातु । शल्यस्येचाचरणे, " तक्यादीनां खीलसंग्यि-कीलसंस्थित-न । कीलकाकृतिपात्रे, “जं - गवादयः" |८४|३६५॥ इति शल्यायस्य खरकादेशः विजा तं णहाति तं खीलसठियं" निचू. १००। "हिया खुडकर गोरमी" गौर स्त्री हदये शल्यायते । खीसिया-कीलिका-स्त्री० । हस्वकीले, " खीलियापो ग- | प्रा० ढुं. ४ पाद । निम्मातो गरुमो कतो" श्रा० म० द्वि०। खुड़-क्ष-त्रि० । शुष्कर्मकारिणि, ज्ञा०१ श्रु.१० अ० दशा। खु-खु-अन्य। "हुखु निश्चयवितर्कसंभावनविस्मये"दा।। लघुनि, आचा०२ धु०२ १०३ ३० । नि००। बासे, उत्त०१ १९८ । इति।निश्चयादिषु, (खु) तत्र निश्चयेतं खुसिरीए रहस्सं। अ०। नि० चू०। अधमे, करे, अल्पे, दरिद्रे च । वाच। मह ए खु हसर । संशये जलहरो ख धमवमलो ख खड्ग-कुद्र (ख)क-पु० । “गोणादयः"॥८।२।१७४। Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४९) अन्निधानराजेन्द्रः। खुड्डजंतु इति लस्य डः। प्रा०२ पाद । महत्प्रतिपके व्यभाववाले, मानिसस । भए अन्नद किं पुत्त!संपमीश्रोसि नेहण पहुयं पि "खुद्दगो सिसू बालो त्ति वुनं भवति" नि० चू०१ उ०। मं न पियसि । तेण जन्न । कत्तो मे वनाभिलासो, नणु से अत्र निकेपः। बराम्रो नन्दियो अज पाहुणपहिं आगपार्ह मम अग्गो विनिययजीदो विलोबनपणो विस्सरं रसतो मारिश्रो मिच्ग नाम ग्वणा दविए, खेचे काले पहाणपश्नावे । ताए भएण, नणु पुत्तया तया चेव ते कहिय प्रासरचिताई एएसि महंताणं, पमिवक्खे खुड्या होति ॥ १८४ ॥ एयाति । एस तेसिं विवागो अणुपत्तो ति" । अथावरार्थः । नामादिमहतां प्रतिपक्के तुल्लुकानि भवन्ति । अभिधेयवल्लिङ्गव- पातुरचिकित्साया अविषयभृतो रोगी, तस्य यथा मर्तुकामस्थ चनानि भवन्तीति न्यायात् । यथार्थ तुल्लकलिङ्गवचनमिति । पथ्यमपध्यं वा दीयते, एवमयमपि नन्दिको यानि मनोकाहारतत्रनामस्थापने कुम्ले । कव्यतुल्लका-परमाणुः अन्य चासौ कु- जातानि चरति तानि अातुरचीर्णानि, अतो वत्स! शुष्कतृणलकश्चेति । केत्रकुद्धकः-आकाशप्रदेशः। कालक्षुल्लक:-समयः। र्यापय स्वशरीरं निर्वाहय यत एतद्दीर्घायुषो लक्षणम् एवमेतेप्रधानछक त्रिविधम्-सचित्ता-ऽचित्त-मिश्रभेदात् । स- ऽप्यसंधिग्नकुडका यन्मनोझाहारादिभिरुपवाल्यन्ते तद् नन्दिचित्तं त्रिविधम्-द्विपदचतुष्पदापदन्नेदात् । द्विपदेषु कुल्लकाः कपोषणबद्रष्टव्यम् । वृ०१२०१ अङ्गालायकविशेषे, प्रा० । जला प्रधानाचानुत्तरसुगः । शरीरेषु तुल्लकमाहारकम् । चतुष्प. देषु प्रधानः खुल्लकः सिंहः । अपदेषु जातीकुसुमानि । अचि. खडगकुमार-कुलककुमार-पुं० । पुण्मरीकमारितकण्डरीकस्य तेषु-बजम प्रधानं कुद्धकं च । मिश्रेषु-अनुत्तरसुरा एव शय जार्यायाः यशोजद्रायाः पुत्रे, श्राव०४ अ० । श्रा०चू०। नीयगता इति । दश० ३० प्रतिकुल्लकमामलकाद्वदरं बद ('अलोभया' शदे प्र० जागे ७८५ पृष्ठे कथाऽस्य) रावणक इत्यादि । भावकुछ कम्-क्षायिको जावः । उक्तं हि | खुडगगणि-कुल्लकगणिन-पुं० । कुल्लके गणिनि, व्य०३०। वृद्धः-"सम्वत्थो वा जीवा खाश्यभावे वटुंति" सांसारिकत्वा- | ('पात्तिकुसम' शब्देऽस्य स्वरूपम् ) प३ चैतदन्यापशमिक एवं सर्वस्तोकतया जावकुलकं सं. भवतीति । उत्त०६अ। सधौ साधी, सूत्र०१ श्रु० ३ अ० २ खुट्टापयर-कुलकप्रतर-पुं० । सर्वलघुपदेशप्रतरे, न. १३ उ० । कुद्रकोदाहरणमपिपातिकबुझौ, श्रा० क० । नं० । श०४ उ० । अथ किमिद कलकप्रतर इति ? । उच्यते-इह लोश्राम.(भिकार्य गतानां तुद्वकानां 'उपसग्ग' शब्दे काकाशप्रदेश उपरितनाधस्तनप्रदेशरहिततया विवक्विता मविजागे ९०२० पृष्ठे कथा उक्ता ) ( भ्रष्टाचारनिग्रहे ताह एमलाऽऽकारतया व्यवस्थिताः प्रतमित्युच्यते । तत्र तिर्यगशकुद्धकस्य कथा) लोकस्य नोऽधोऽपेक्षयाऽप्रादशयोजनशतप्रमाणस्य मध्य भागे द्वौ सर्वलघू कुखकप्रतरी तयोर्मध्यभागे जम्बूद्वीपे रत्नक्षुल्लकविपरिणामसंभवे यतनामाह प्रजाया बहुसमे भूमेः भागे मेरुमध्येऽष्टप्रादेशिको रुचकस्तत्र उज्जलवेसे खुडे, करिति उचट्टणाश्चोक्खे य। गोस्तनाकाराश्चत्वार उपरितनाःप्रदेशाश्चत्वारश्चाधस्तनाः। एप न य मुच्चं असहाए, चिंतिम ने य आहारे ॥ एव च रुचकः सर्वासा दिशां विदिशां वा प्रवर्तकः । एतदेव सुद्धकान् उज्ज्यलवेषान् पाएकुरचोलपट्टधारिणः नवर्सनप्र च सकलतिर्यग्लोकमध्यं तौ च द्वौ सर्वलघू प्रतराव-लाइसं. कालनादिना च चोकान् शुचिशरीरान् कुर्वन्ति,न च, ते सुख ख्येयन्नागवाहल्याच्च लोकसंवर्तितौ रज्जुप्रमाणौ । तत एतयो का असहाया एकाकिनो मुच्यन्ते। वृषनाश्च,तेषां मनोज्ञान स्नि रुपयन्येऽन्ये प्रतराः। तिर्य अङ्गलासंख्येयभागवृच्या वर्षमाधिमधुरानादारानानीय ददति । उरभ्रदृष्टान्तेन च प्रज्ञापयन्ति । नास्तावद् कष्टश्या यावदुर्द्धलोकमध्यं तत्र पञ्चकरज्जुप्रमाणः प्रतरः। ततः उपर्यन्येऽन्ये प्रतराः तिर्यक अङ्गलासंख्येयभागतमेवाद हान्या हीयमानाः एतावदेवायसेयाः यायोकान्ते रज्जुप्र. आतुरचिलाइँ एयाइँ, जाइं चरइ नंदिओ। माणः प्रतरः। श्होर्ध्व लोकमध्यवर्तिनं सर्वोत्कृष्ट पश्चरज्जुप्रमाणं मुकत्तणेहि जावोहिं, एयं दीहानक्षवाएं ॥ प्रतरमवधीकृत्यान्य उपरितना अधस्तनाश्च क्रमेण हीय"जहा एगो ऊरणगो पाहुणनिमित्तं पोसिजर, सो य पीणि मानाः सर्वेऽपि प्रतराः क्षुल्लकप्रतग इति ब्यवाहियन्ते, यायसरीरो हलहाश्कयंगराओ कयकन्नलो सुहं सुहेणं अभिरम- घल्लोकान्ते तिर्यग्लोके च रज्जुप्रमाणः प्रतर इति । तथा तिइ, कुमारगा वि य तं नाणाविहेर्हि कीमाविसेसेहि कीला- यंग्लोकमध्यवत्ति सर्वत्रघुकुछ कमतरस्याधस्तिर्यगङ्गलासंख्ये. विति, तं च एवं लालिजमाणं द?ण वच्चगो माऊए नेदेण यभागवृद्धया बढ़मानाः२ प्रतरास्तावद्वक्तव्याः यावदधोलोकागोवियं दोहणए य तहाऽणुकंपाए सुक्कमवि स्त्रीरं न पिब । मते सर्वोत्कृष्टः सतरज्जुप्रमाणः प्रतरः। तं च सप्तरज्जप्रमाणं प्ररोसेणं ताए पुच्चियो, वच्छ! किं न धावसि ? तेण भणिय तरमपेक्ष्यान्ये उपरितनाः सर्वेऽपि क्रमेण हीयमानाः सुखकमम्मो ! एस नन्दियगो इट्टोहि जाव सजोगासणेहि अल प्रतरा अभिधीयन्ते, यावत्तिर्यग्लोकमध्यवर्ती सर्वलघुः क्षुल्लकारबिसेसेहिं अलंकारियो मुत्त श्व परिपानिज्जई, अहं तु कः प्रतरः। एषा सुबकपतरप्ररूपणा । तत्र तिर्यकलोकमध्यवमंदजग्गो सुक्काणि तणाणि कयाइ लभामि, ताएि विपन्जत्तगा. तिनः सर्वलघो रज्जुप्रमाणात तुचकप्रतगदारच्य यावदधो णि, एवं पाणियं पि न य मं कोई लालइ । तार.भन्न-पुत्त ! नवयोजनशतानि तावदस्यां रत्नप्रनायां पृथिव्यां ये प्रतराते प्रारचिंताई एयाई जहा पाउरो मरिनकामो जे मगाइ पत्थं उपरितनचुल्कातरा जायन्ते । तेषामपि चाधस्ताद ये प्रतरा चाअपत्थं वा तं दिजा, एचमेसो वि नन्दियो पोसिज्जर, यावदधोलौकिकग्रामेषु सर्वान्तिमः प्रतरः तेऽधस्तनक्षुद्धकाजया मारिजिहिर तया पिचिहिसि । अनया सो बच्चगो तं तराः । न०। नन्दियगं पाहुणएमु वदिजमारणं दटुंति सिनोविमाज पच्छन्नं | खजंत-जन्त-पुं०।कुष्पाणिनि, । व्य०४०। ८८ Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५० ) अभिधानराजेन्द्रः | खुड्डपाण खाद्य कुरुपाण-पुं० [ कुषा धमाधमन्तरभवे सियशापात्प्राणासादिमन्ता कुमाणाः पद्वत्रिचतुर सम्मेषु पकायेषु वासवे सूत्र० २ ० ० चव्विा खुद्दपारणा पत्ता तं जहा वेइंदिया तेइंदिया चउ रिंदिया संचिदियतिरिक्खजोगिया। था०४०४४० विदा खुट्टा पाला पता। तं जहा बेदिया तेई दिया चउरिंदिया समुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणिया तेनकाया वानकाइया । (वित्यादि) सुगमम् । परमिह क्षुद्रा अधमा यदाह - "श्र ल्पमधमं पण्यस्त्री, क्रूरं सरघां नटीं च षट् क्षुद्रान् ब्रुवत इति" श्रधमत्वं च विकलेन्द्रियतेजोवायूनामनन्तरनवे सिद्धिगमनाभावादू । यत उक्तम्- "जूदगपंकप्पजवा, ओरोहरिया उवच्चसिज्जा | विगलालभेज विरई, न च किं च बजे सुडुम[तसा]" ॥ १ ॥ सूतेजोवा इति तथा पतेषु देवात्पतेश्च । यत उक्तम्-" पुढवी श्राउवणस्सइ-गभे पज्जतसंजीवीसु सम्पाणवासो, सेसा गमिडिया " इति ॥ १ ॥ संमूच्छिमपञ्चेन्द्रियतिरश्चां चाधमत्वं तेषु देवानुपत्तेः तथा पञ्चेत्येवमनस्कतया विवेकभावेन निर्गुणस्वादिति वाचनान्तरे तु सिंहा व्याघ्रा वृका दीपिका का इति कुद्रा उक्ताः क्रूरा इत्यर्थः । स्था० ६ ० । खुट्टपावालकलस-क्षुद्रपातालकलश-पुं० लघुपातालकखयायास्यन्ते) जी० ३ प्रति तेच 'लवणसमुद्र' खड्डमड्डुइ-देशी- बहुशो व्याख्याने, " खुट्टमइत्ति वा बहुसोलि षा जोत्ति वा पुजापुणो त्ति वा एग ं" नि० ० २० उ० । परि०३० दारयादी. सूत्र० १० १० ० खुद्द - क्षुद्रमुख- त्रि० । मधुरमुखे मधुरभाषिणि, वृ० १४० । खुस-सस-पुं० पाणिनि पायनानविशेषे च । पञ्चा० १४ विव० । खुड्डा कुडा - स्त्री० । कुद रक् । वेश्यायां, कण्टकायां सरघायां म रखा गयेधुकायाम, वाय यात सरस्थाम, जं० १ वक्क० । दर्याम्, दशा० ७ श्र० । सुगम्य-बुद्धकयुग्म पुं० 1 महायुग्मापेक्षा अल्पेषु रा त्रिविशेषेषु ज० ॥ कणं भंते! खुडागम्मा पत्ता १। गोयमा ! चत्तारि खुट्टागकमजुम्मे, तेओगे,दावरम्ये, कलिओर से केणा जंते! एवं बुच, चचारि खुट्टा ता । तं जहा करुजुम्मे० जाव कलिओए १ । मोयमा ! जेणं रासीच करणं अवहारेणं अवीरमाणे चपनबसिए, सेतं खुट्टागकमजुम्मे । जेणं रासीचकपणं - बहारे अवद्दीरमाणे तिपलसिए से खुशगतेओगे । जेणें रासीच करणं आवहारेणं अवरिमाणे दु सिए से खुट्टागदावरजुम्मे । जेणं रासीच करणं अवहारेणं अवहीरेमाणे एगपज्जबसिए, सेचं खुट्टाक जियोगे से तेण जाव कलिभोगे । खुड्डागणियंत () युग्मानि वक्ष्यमाणा राशिविशेषाव महान्तोऽपि सन्तः शब्देन विशेषिताः रात्र चत्वारोऽशेत्यादिसंख्यावान् राशिः शुकम्मधीयते एवं त्रिकासादिको राशिः कुकसयोजः विभूति को राशिः कुलकद्वापरः। एकपञ्चप्रभृतिस्तु कुलककल्पोज इति । भ० ३१ ० १ उ० । कुरूकयुग्मविशेषणेन नैरयिकादीनामुपपातः ' उबवाय ' शब्दे द्वि० भागे ६६३ पृष्ठे उक्तः ) खुट्टागणिदंठ-कनैन्य-म० उत्तराध्ययने प पूर्वस्मिन् अध्ययने कामसकाममरणे उके। सकाममरणं निर्ग्रन्थस्य भवति ततो निर्ग्रन्थस्य आचारः षष्ठे अध्ययने कथ्यते । श्रयं पञ्चमषष्ठाध्ययनयोः सम्बन्धः । जावन्तिविज्जा पुरिसा, सच्चे ते दुक्खसम्भवा । @प्पन्ति बहुसो मूढा, संसारम्मि अनन्त ॥ १ ॥ यावन्तोऽविद्याः पुरुषाः ते सर्वेऽपि मूढाः संसारे बहुशो वारं चारं लुप्यन्ते श्रधिव्याधिवियोगादिभिः पीड्यन्ते । न विद्यते विद्या सम्यक ज्ञानं येषां ते अविद्या अत्र नम् कुत्सार्थवाचकः ये कुत्सितानसहिताः मिथ्यात्वोपहतचेतसो वर्त्तन्ते ते मूर्खा संसारे दुःखिनो जवन्ति । कीदृशे संसारे ? अनन्तके अपारे । कीदृशास्ते ? अविद्याः दुःखसम्भवा दुःखस्य सम्नवो येषु ते दुःखसम्भवाः दुःखभाजनमित्यर्थः । यावन्तः अविद्या इत्यत्र प्राकृततत्वात् अकारो ॥ १ ॥ मंत्र विद्यापुरुषोदाहरणं यथाकदमको भाग्यात् कापि किञ्चित् प्राप्नपुन पुराउदक स्मिन् देवकुळे रात्राषितः । तपकं पुरुषं कामकुम्भप्रसादेन यथेष्टनोगान् भुञ्जानं वीक्ष्य प्रकामं सेवितवान् । तुष्टेन तेनास्य भणितम् | जो तुभ्यं कामकुम्नं ददानि । उत कामकुम्ना वैधायिकां विद्यानविद्यासाधनपुरश्चरणादिभीरुणा विद्याभिम परमेवमेदेति भणितम् । विद्यारूपेण विद्याि घट एव तस्मै दत्तः। सोऽपि तत्प्रसादात् सुखी जातः । अन्यदापीतमद्योऽयं पुरुषस्तं कामकुम्भं मस्तके कृत्य नृत्य पातित वान् । भग्नः कामकुम्भः । ततो नाऽसौ किञ्चिदर्थमवाप्नोति । शोचति चैत्रम पनि मया तदा विद्या गृहीताभाष्य सदा निमन्त्रय नवं कामकुम्भमकरिष्यं पूर्ववदेवें सुखी श्रनविष्यम एवं अविद्या नराः दुःखसम्भवाः विनश्यन्ते ॥ १ ॥ समक्ख परिम तम्हा, पासजाई पहे बहू । अपणा सचमेसिज्जा, मिनिं भूपसु कप्पए ॥ २ ॥ मिर्त्ति तस्मादान मध्यात्वनां संसारमा परितः तत्वज्ञः आत्मना स्वयमेव परोपदेशं विनैव सत्यमेषयेत् रुद्भ्यो हितं सत्यमसंयमः परितः भूतेषु पृषि व्यादिषु मैत्री कल्पयेत्। किं कृत्वा बहुपाशतिपथा न् समय पाशाः पाश्चश्यहेतवः पुत्रक मन्द्रियादिजातीनां पन्थानः पाराजातिथास्तान् पारा जातिपधान् दृड्डा यदा हि पुत्रकलादिषु मोहं करोति तदा हि एकेन्द्रियत्वं जीवो वध्नाति ॥ २ ॥ माया पिया एसा भाया, जजा पुता व ओोरसा । नालन्ते मम ताणाय, लुप्तस्स सम्मुखा ॥ ३ ॥ परिमतः इति विचारयेदिति अध्याहारः कर्त्तव्यः। इतीति किं ? ते मम त्राणाय मम रक्कायै न भलं समर्थाः । कथंजूतस्य मम Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) खुड्डागणियंठ अभिधानराजेन्द्रः। खुड्डागणियंठ स्वकर्मणा पीज्यमानस्य। पते के माता, पिता, स्नुषा पुत्रवधूः, आयाणं नरयं दिस्स, नायइज्जताणामवि ।। माता सहोदरः, भार्या पत्नी, पुत्राः पुत्रत्वेन मानिता, च पुनः दोगुच्छी अप्पणो पाए, दिनं नुंजिन्ज भोयणं ॥ ७ ॥ औरसाः स्वयमुत्पादिता पते सर्वेऽपि स्वकर्मसमुद्भुतपुःखात रक्षणाय न समां भवन्तीत्यर्थः ॥३॥ साधुस्तृणमपि (नायइज्ज इति) न आददीत प्रदत्तं न गृहीत । कि कृत्वा प्रादानं नरकं रहा, आदीयते इत्यादानं धनधान्याएयमढे सपेहाए, पासे समियदंसाणे । दिकपरिग्रहं नरकं नरकहेतुत्वात् नरकं ज्ञात्वा इत्यर्थः । पुनः छिदे गेहिं सिणेहं च, न कंखे पुनसंथवं ॥४॥ साधुः (पाए दि)पात्रे इत्तं गृहस्थेन पात्रमध्ये प्रक्तिप्तं भोजनं शमितदर्शनः शमितं वस्तं दर्शनं मिध्यादर्शन येन स शमित- | शुरूाहारम् ( भुजेज्ज इति) नुञ्जीत । कथम्भूतः सन् (अप्पदर्शनः। अथवा सम्यक प्रकारण श्तं प्राप्त दर्शनं सम्यक्त्वं येन णो गुंछी) भात्मनो जुगुप्सी सन् । आहारसमये आत्मनिन्दका स समितदर्शनः पतारशः संयमी पतदर्थ पूर्वोक्तमर्थम् अश- सन् अहो धिक मम आत्मानमयं ममात्मा देहो वा पाहारं रणादिकम (सपेदाप) स्वप्रेक्काया स्वयुला (पासे इति) पश्येत् विना धर्मकरणे असमर्थः । किं करोमि धर्मनिर्याहार्थमस्मै हदि अवधारयेत् च पुनः गोर्डि) गृचि रसलाम्पट्यं च पुनः मेहं भाटकं दीयते इति चिन्तयन् आदारं कुर्यात् । न तु बलवीर्यपुत्रकक्षत्रादिषु रागं रिन्द्यात् । पुनः पूर्वसंस्तषः पूर्वपरिचयः पुष्टवाद्यर्थमाहारो विधीयते इति चिन्तयेत भित्रादत्तपरिग्रहाएकत्र प्रामादिवासस्तं न स्मरेत् ॥४॥ श्रवद्व-निरोधात् अन्येषामप्याश्रवाणां निरोधोऽप्युक्त पय ॥ गवासं मणिकुएमलं, पसवो दासपोरुसं। इह एगे न मनति, अपचक्खायपावगं । सव्वमेयं चश्त्ताणं, कामरूवी जविस्ससि ॥ ५॥ पायरियं विदित्ता गं, सम्बदुक्खा विमुच्चई ॥४॥ पुनरपि परिमतः प्रात्मानमिति शिकयेत् । अथवा गुरुः शि- इह अस्मिन् संसारे एके केचित् कापिलिकादयो कानवाध्यं प्रत्युपदिशति-हे पात्मन्! अथवा हेशिष्य ! एतत् सर्व त्य- दिन इति मन्यन्ते । इतीति किं ? पापकं हिंसादिकमप्रत्याक्त्वा कामरूपी स्वेच्मचारी भविष्यसि । एतेषु ममत्वं त्यज- ज्याय पापमनालोच्याऽपि मनुष्यः श्राचारिकं स्वकीयमतोद्भसि । तदा इह भवे तु वैक्रियलब्धिः अणिमामदिमागरिमाल- पानुष्ठानसमूह विदित्वा ज्ञात्वा सर्वदुःखात् विमुच्यते । ए. घिमाप्राप्तिप्राकाम्येशित्ववशित्वादिमान भविष्यास । परलोके तावता तत्वज्ञानात् मोक्तावाप्तिः इति वदन्ति । जैनानां तु काव निरतीचारसंयमपालनात् देवभवे वैक्रियादिलब्धिमान् त्वं नक्रियाभ्यां मोकः कानवादिनां तु कानमेव मुक्त्यामिति ॥६॥ भविष्यसि । तकि? तदाद-गवाइवं गावश्च पश्चाश्च गवावं जगान्ता अकरेन्ता य, बन्धमोक्खपइमिणो। पुनमणिकुपडलं मणयमनकान्तायाः कुपालग्रहणेन अन्येषा चायावीरियमेत्तेणं, समासासन्ति अप्पयं ॥ १० ॥ मायलकाराणां ग्रहण स्यात, सर्वे मणयः सर्वाएयलकाराणि च इत्यर्थः। पशवः अजैकपदमपट्यागुत्पादकरोमधारककुक्कुरा पुनस्ते एव मानवादिनो बन्धमोक्षप्रतिशिनः वाचावीर्यमानेदया, दासा गृहदासीन्यः समुत्पत्राः, दासाश्च पौरुषाश्च ण केवलं वाकशूरत्वेन प्रात्मानं समाश्वासयन्ति । बन्धन दासपौरुषम् एते सर्वेऽपि मरणान्न त्रायन्ते इत्यर्थः। तस्मात मोकश्च बन्धमोकी, तयोः प्रतिका प्रायशानं येषां ते बन्धमो. पूर्वम् एतत् त्यक्त्वा संयम परिपालयेदित्यर्थः। कप्रतिकिना, बन्धमोकका इत्यर्थः । “मन एव मनुष्याणां, का रणंबन्धमोकयोः । यत्रैवालिडिता कान्ता, तत्रैवालिङ्गिता थावरं जंगमं चेव, धणं धवं उवक्खरं । सुता" श्त्यादि प्रतिक्षां कुर्वाणाः । ते किं कुर्वन्तः प्रात्मानम् पञ्चमाणस्स कम्मोहि,नासं सुक्खान मोमणे॥६॥ प्राश्वासयन्ति भणन्तो कानमन्यस्यन्तः, च पुनः अकुर्वन्तः पुनरेतत्सर्व वस्तु कर्मभिः पच्यमानस्य जीवस्य दुःखान्मोचने क्रियामनाचरन्तः, प्रत्याख्यानतपःपौषधव्रतादिकां क्रियां नि. मझ समर्थ न भवति । पतत्किम् ? स्थावरं, गृहादिकं । पुनर्ज- न्दन्तःकानमेव मुक्त्यङ्गतयाऽङ्गीकुर्वन्त इत्यर्थः ॥१०॥ अमंच पुत्रमित्रभृत्यादि । पुनर्धनं गवादि,धान्यं बीयादि । पुन- न चित्ता तायए जासा, कुमो विजाणुसासणं । रुपस्करं गृहोपकरणम ॥६॥ विसना पावकम्मेडिं, वाला पएिमयमाणिणो ॥११॥ अज्कत्यं सन्नग्रो सन्वं, दिस्स पाणे पियाऽऽयए। पएिकतमानिनः आत्मानं पएिकतं मन्यन्ते इति पएिकतम्मन्याः,शानणे पाणिणो पाणे, भयवेराउ नवरए ॥ ७॥ नाहकारधारिण इति न जानन्तीत्यध्याहारः। इतीति कि? चित्राः साधुः सर्वतः सर्वप्रकारेण सर्वमध्यात्म सुखदुःखादिकं (दि प्राकृतसंस्कृताधाः षट् भाषा अथवा अन्या अपि देशविशेषात स्स ति) हा सर्वप्रकारेण सर्व सुख दुःखादिकमात्मनि स्थितं नानारूपा जाषा वा पापेभ्यो दुःनेभ्यो न त्रायन्ते न रक्षन्ति । तर्हि बात्वा सुखःखयोर्वेदकमात्मानं सात्वा । इष्टसंयोगादिहेतुभ्यः विद्यानां न्यायमीमांसादीनाम अनुशासनमनुशिकणं विद्यासमुत्पन्नं सुखं सर्वस्यात्मनः प्रियं स्यात् । वियोगादिहेतुभ्यः नुशासनं कुतः त्रायते,१, न त्रायते इत्यर्थः । अथ वा-विद्यानां समुत्पन्नं पुःखं सर्वस्यात्मनः अप्रियं ज्ञात्वा इत्यर्थः । च पुनः विचित्रमन्त्रात्मिकानां रोहिणीप्राप्तिकागौरीगान्धार्यादिषोडशप्राणिनो जीवान् प्रियात्मनो रष्टा, प्रियः प्रात्मा येषां ते प्रिया विद्यादेव्यधिष्ठितानामनुशासनम् अनुशिकणम् आराधनं कुतो स्मानः “ सब्वे जीवा वि इच्छंति जीविहं न मरिजिलं " नरकात्त्रायते ?। कीसदृशास्ते ? बाला तत्वज्ञाः । पुनः की इति वा हदि विचार्य प्राणिनो जीवस्य प्राणान् इन्द्रियो रशास्ते १- पापकर्मभिर्विषयाः, विविधमनेकप्रकारं यथा पासनिःश्वासायुबलरूपान् न हन्यात् । भयात् बैरात व स्यात्तथा सन्नाः, पापपषु कलिता इत्यर्थः ॥ ११ ॥ उपरमेत निवसंत । अथवा व्यंचूतः साधुः मयात वैराक्ष ड. जे केई सरीरे सत्ता, वो रूवे य सबसो। परतो निवर्तितः इति साधुविशेष कार्यव्यम् ॥७॥ मणसा कायवकेणं, सब्बे ते मुक्खसम्नना॥१॥ Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड्डागणियंत ये केचन ज्ञानवादिनः शरीरे शक्ताः सन्ति, शरीरे सुखान्वेषिणः सन्ति । तथा-पुनये वर्णे शरीरस्य गौरादिके, च पुनस्तथारूपे सुन्दरनयननासादिके, शब्दे रसे गन्धे स्प च । सर्वथा मनसा कायन वाक्येन सक्ताः संलग्नाः सन्ति । ते सर्वे दुःखसम्भवाः अस्य संभया दुःखभाजनं भवन्ति । मृगपतङ्गमनमधुपमा तत् इहलोके यथा र अनाज मृताः, तथा परलोकेऽप्यार्तध्यानेन दुःखिनः स्युरित्यर्थः ॥ १२ ॥ आवादीका संसारम्मि अणन्तर । तम्हा सव्वदिसं पस्स, अप्पमत्तो परिव्व ॥ १३ ॥ से ज्ञानवादिनो विविणः अनन्तके अपारे संसारे दीर्घमध्वानं दीर्घ मार्गमापन्नाः प्राप्ताः सन्ति । तस्मात्कारणात् सर्वो दिशं ज (७५२ ) अभिधानराजेन्: । भ्रमणरूपाम् । श्रष्टादश नावदिशः दृष्ट्वा साधुरप्रमत्तः प्रमादरहितः सन् परिव्रजेत् विचरेत् । अष्टादश भावदिशश्च श्मा: "पुढबि १ जल २ जल ३ वाऊ ४मूला ५ खंध ६ गा ७ पोरवीया य ८ । वि ६ ति १० च ११ पंचिदियतिरि १२ नारया १३ देवसंघाया १४ ॥ १ ॥ संमुच्मि १५ कम्मा १६ क स्मगा य १७ मण्या १८ तहंतरद्दीचा १८ । प्रावदिसा दिस्सर जं, संसारी नियमेाहिं” ॥ २ ॥ इति । संसारे प्रमादिनो जीवा इमासु अष्टादशनावदिशासु पुनः पु तत्यर्थः ॥ १३ ॥ बढ़िया कुमादाय नाव कमाइ वि। पुष्यकम्पक्खयाए, इमं देहं समुकरे || १४ || साधुः पूर्वकर्मकार्थमिमं देदं समुद्धरेत्, सम्यक शुद्धादारेण धारयेत् पुनः कदापि च परीषहोपसर्गादिभिनि कस्यापि साहाय्यमचा अभिपेत् अथवा कदापि विष यादिज्यो न स्पृहयेत् । किं कृत्वा ? - ( बहिया ) संसाराद्वहिस्तात् संसाराद्वहिर्भूतमूर्द्ध लोकाग्रस्थानं मोक्कुमादाय अभि लभ्य ॥ १४ ॥ विगिंच कम्मुणो हेडं, कालकंखी परिव्वए । मायं पिंमस्स पाणस्स, कडं लकूल जक्खए ।। १५ ।। कालका अवसरः साधुः कर्म हेतु कर्मकारणं मिथ्यात्वाविरतिरूपाययोगादिकम (चिर्मिच) विविन्यमात्मनः सकाशाद् पृथक्कृत्य परित्यजेत्संयममार्गे सारेत् कार्म स्वक्रियानुष्ठानस्य श्रवसरं काङ्क्षन्तीत्येवंशीलः कालकांकी, पुनः स साधुः पिण्डस्य आहारस्य तथा पानस्य पानीयस्य मात्रां परिमाणं लब्ध्वा भकयेत्; यावत्या मात्रया आत्मसंयमनिर्वाह: [ः स्यात् तावत्परिमाणम् श्राहारं पानीयं च गृहीत्वा, आदारे पानीयं न कुर्यादित्यर्थः कथंभूतमाहारम ? (क) गृहस्थेन श्रात्मार्थे कृतं, प्राकृतत्वात् विज्ञक्तिव्यत्ययः ॥ १५ ॥ 3 संनिहिं न कुम्बिला, सेवमायाऍ संजए। परखी पत्तं समादाय, निरविक्खो परिव्यए ।। १६ ।। पुनः संयतः खाधुपमात्रापि संनिधि न कुर्यात् नेपस्य मात्रा लेपमात्रा तथा लेपमात्रया, सं सम्यक्प्रकारेण निधीयते स्थाप्यते दुर्गतौ आत्मा येन स सन्निधिः घृतगुमादिसञ्चयस्तं खुड्डागभव न कुर्यात् यावता पात्रं विप्यते तावन्मात्रमपि घृतादिकं न सशवेत्। मधुराहारं कृत्वा (प) पात्रं समादाय गृहीत्वा निरपे कः सन् निःस्पृहः सन् परिव्रजेत् साधुमार्गे प्रवर्तेत कव (पक्खी ) यथा-पक्की आहारं कृत्वा (पतं) पत्रं तनूरुह मात्रं दीयाय तथा सारलो भवेत् ॥१६॥ सासमि लज्जू, गामे अनिओचरे । मत्तोपमभिवा गनेस || १७ | 1 एषणा समितो निर्दोषाहारग्राही ग्रामे नगरे वा, अनियतो नित्यवासरहितः सन् बरेमा साधुः - १(लज्जू) लजालुः लज्जा संयमस्तेन सहितः । पुनः कीदृश: ?अप्रमत्तः प्रमादरहितः । पुनः साधुः ? - ( पमलेहिं इति ) प्रमसेयो गृहस्येभ्यः पिण्डपातं भांगवेपयेत् त्पञ्चमीस्थाने तृतीया ॥ १७ ॥ एवं से उदाहु, अणुत्तरनाणी अणुत्तरदंसी अणुत्तरनाणदंसणधरे रहा नायपुत्ते जयवं वेसालिए वियाहिए वेमि ॥। १८ ।। सुधर्मास्वामी जम्स्यामिनं प्रत्याह से इति) स अन् ज्ञातपुत्रो महाबीर एवं (उदाह) उदाहृतवान् । श्रहं तवाग्रे इति ब्रवीमि । अर्हन् इन्द्रादिभिः पूज्यः ज्ञातः प्रसिकः सिद्धार्थक्षत्रियः तस्य पुत्रो ज्ञातपुत्रः कीदृशः महावीरः १- भगवान् अष्ट महाप्रतिहार्याद्यतिशयमाहत्म्ययुक्तः । पुनः कीडशः:बिशालला तस्याः पुत्रो वैज्ञानिकः अथवा विशालाि य-तीर्थ-यशःप्रभृतयो गुणाः अस्येति वैशासिकः। पुनः की शो महावीरः- (वियाहिप इति) व्याख्यातविशेषेण मारण्याता द्वादशसु परिषदासु समवसरणे धर्मोपदेशं व्याख्याता, धर्मोपदेशक इत्यर्थः पुनः को महावीर-अनुतरानी सर्वो त्कृष्टज्ञानधारी । पुनः कीदृश: ? - अनुत्तरदशी अनुतरं सर्वोत्कृष्टं पश्यतीत्येवंशलोऽनुत्तरदर्शी । पुनः कीदृशः ? - अनुत्तरज्ञानदर्शनवरः ज्ञान दर्शनादर्शने, अनुसरेचते ह अनुज्ञानदर्शने, अनुसरनदर्शने धरतीति धनुराद शधरः केवलवरज्ञानदर्शधारी इत्यर्थः अत्र पूर्वम अनुसरहानी अनुत्तरदर्शी इति विशेषणद्वयं मुक्त्वा पुनरनुत्तरानदर्शनघरइति विशेष, तेन केवहानकेवलदर्शनयोरेकसमयान्तरेण युगपदुत्पत्तिः सुचिता, अनयोः कथचिदो उमे दध सूचितः पुनरुक्तिदोषो न ज्ञेयः ॥ १८ ॥ इति कुशकनिवाय संपूर्णम् अध्ययने कस्य साधोनि प्रन्थित्वमुक्तमित्यर्थः उत० ६० । शृट्टागनिग्र्गयसुत जुल्लकनिर्ब्रन्यसूत्र-नः । शुकनिर्द्वन्यखुड्डागनिग्गंथसुत्त-क्षुल्लकनिर्ग्रन्थसूत्र नामकसूबे पट्टे उत्तराध्ययने, उत्त० ६ ० । "" खुट्टागन कुञ्जकभवः सर्वभवापेक्षा मधीया नवतीति क्षुद्धकभवः। तस्मिन क्षुल्लक जवग्रहणं च सर्वेषामप्येादारिशरीर भीयय से भगायामेव त्यादिषु मदारिकशरीरिणां तिर्थमनुष्याणामा धन्य तिः क्षुल्लकभवग्रहणरूपायाः प्रतिपादनाच्च । यत्पुनरावश्यकटीकायां तुलनकभवग्रहणं वनस्पतिष्वेव प्राप्यते इत्युक्तं तम्मतान्सरमित्यवसीयते इति । साम्प्रतमेकस्मिन् क्षुल्लकनवग्रहणे भावबिकाद्वारे कामगं निरूपयितुकामो पायन्यः आवलिका प Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड्डागनव अनिधानराजेन्डः। खुनिय कस्मिन् शुखकभवग्रहणे भवन्ति एतदेवाह-(भावलियाणं दोसे शिष्टेऽथे, “खुडियाश्रो खुड्दुवारियाओ" कुडिका लब्यस्तयेत्यादि) पावनिकानाम् "असंखिजाणे समयाणं समुदयसमिई था कुखद्वाराः। भाचा० २ श्रु० २ १०३ उ०। राण। सूत्र समागमेणं सा पगा प्रावबिय त्ति बुञ्चह" इति । इत्यागमप्रति " स्वडिया चैव मोयपडिमा" स्था०२ वा० ३२० । इयं च 5. पादितस्वरूपाणां द्वे शते षट्पञ्चाशदधिके भवत एकनुलक- व्यतः प्रश्रवणविषया क्षेत्रतो ग्रामादेवहिः, कालतः शरदि, निभवे एककुखकभवग्रहणे इति । कर्म०५ कर्म० । दाघे वा प्रतिपद्यते। नुक्त्वा चेत् प्रतिपद्यते चतुईशभक्तेन सखुड्डागभवग्गहण-चुनकनवग्रहण-न । क्षुल्नं लघु स्तोक- माप्यते अभुक्त्वा तु षोडशजक्तेन भावनस्तु दिव्याद्युपसर्गस. हनमिति । स्था० २ ठा०३ उ.। औ० । (विस्तरस्तु 'मोमित्येकार्थाः । कुलमेव तुल्लकम एकायुष्कसंवेदनकालो भवः यपडिमा' शब्दे अभिधास्यते ) "खुडियाविमाणपविभत्ति" तस्य प्रदणं संबन्धनं भवग्रहणं क्षुल्लकं च तद्भवग्रहणं च कु अस्पग्रन्थार्धा विमानप्रविनक्तिः कालिकश्रुतविशेषः । पा० । सकनवग्रहणम् । कुल्तकभवसंबन्धने, जी०१ प्रति०। (अस्य विस्तारो 'भवग्गहण' शब्द) खुडियाए णं विमाणपविभत्तीए पढमे वग्गे । सत्त तीसं खुडागसव्व ओभद्दपमिमा-कुष्कसर्वतोभप्रतिमा-स्त्री० । म | उद्देसणकाला पसात्ता॥ हत्यपेकया शुमायां सर्वतोभद्रप्रतिमायाम, अन्तः। कनिकायां विमानप्रविजक्तौ कानिकश्रुतविशेषस्तत्र किन्न ब. तत्स्वरूपं चेत्थम हवो वर्गा अध्ययनसमुदायात्मका नवन्ति । तत्र प्रथम वर्ग खडायं सव्वतोभद्दे उपसंपज्जित्ताणं विहरति तं चनत्य प्रत्यध्ययनमुद्देशस्य ये काबा इति स०३ समः। खाम-कुम्ल-त्रि० । मर्दिते, नि० २१ उ० । मग्ने, संथा।करोत कचनत्यं करेतित्ता सव्वकामगुणेय पारति पारिता ज्यस्ते. विहते, चूर्णीकृते च । वाचः। बटुं क. २ सम्ब० अट्ठमं २ सव्व० । दसमं २ खभिय-कुस्मित-त्रि० । भूमीपतनात् प्रदेशान्तरेषु नमिते, भ० सन्च० । दुवालसमं २ सव्व०। अट्ठमं । सब १ श०२ १०। । दसमं सन्च० दुवालममं सव्व०२। चन खत्त-कृत-त्रि० । संसारसागरे चुमिते, " जम्ममरणं च ते त्थं २ सच. । उ8 क० २ सव्व० २। दुनालसमं ५ खुत्ता" संथा। सव्व० २ । उ8 क. २ सध०२।अट्ठमं २ सव्व०२। खुद्द-कुद्र-त्रि० । अधमे, स्था० ६ ठा० । कुद्रजनाचरितत्वात् दममं सव्व०। क. सब० अहमं ५ प्राणबधे, प्रश्न०१ श्राश्र० द्वार । क्षुष्कर्मकारिणि, सूत्र०१ सव्व०। दसमं सम्ब० । दुवानमम सम्बन् श्रु०७०।नीने, उत्त० ३१ अ० ।"खुद्दो जणो नत्थि" चउत्थं क । सच । दसमं २ सव्व० । दुवा क्षुडो जनो दुर्जनलोकः । बृ०१ उ० । कृपणे, द्वा०१० द्वा०। लसमं सव०२ । चउत्थं २ सव्व० । उ8 क०। क्षौष-न । क्षौनाभित्रमरीभिः कृतः। मधुनि, बाच०। सच०। भट्ठमं २ मन्द० २ । एवं खयु एवं खुडाग | खुद्दकुट्ठ-कुद्रकुष्ठ-न० । एकादशकुष्ठादिषु एकादशकुष्ठभेदेषु, सब्बतोजहस्स तवोकम्मस्स पढम परिवामी, तिहिं मासे एकादश कुमकुष्ठानि तद्यथा-स्थूलारुष्कमहाकुष्ठत्रमदलपरिस पविसर्पसिध्मविचर्चिकाकिटिभपामापशततारुकसंज्ञानीति । हिं दसहिं दिवसेहिं अहासुत्तं० जाव आराहेती । दोच्चा प्राचा०१ श्रु०६ अ०१०। ते परिवामी ते च उत्थं करेति करोतित्ता विगतवजं पारोति | खुद्दमुह-तुमुख-पुं० । मधुमुने, मधुरजाषिणि, बृ०१ उ० । परितित्ता जहा रयणावनीए तहा एत्य वि ।। खुद्दाय-छात्मन्-त्रि० । क्रूरस्वनावे, “खुद्दार नासरसी " (खुट्टायं सव ओभद्दपमिमं ) निक्षुः प्रकामं महत्यपेक्कया कल्प०६ कण। सर्वतः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च नद्रा समसंख्येति सर्वतोभ-खद्दिमा-कृद्रिमा-स्त्री० । गान्धारग्रामस्य द्वितीयमच्छनायाम, का तथाहि-एकादीनां पञ्चकानामङ्कानां सर्वतो भावातू प- स्था० ७ ग०। नदश पञ्चदश सर्वत्र तस्या जायन्त इति स्थापनोपायगा-वधिय-ऋधित-त्रि० । बुभुक्किते, सूत्र०१ ० ३ ०१ उ०। था "एगाई पंचतेब, विप्रो मज्जंतु प्राइमयंति । सेसे कमेण विनं, जारण लहूं सम्वोनइं॥ १॥” इति तपोदि खप्प-मज्ज-धा० । स्नाने, तुदा० पर० अक अनि ! वाच०। नानीह पञ्चसप्ततिः । अन्त०७ वर्ग । " मस्जेराउद्द-णिन-बुइ-खुप्पाः" | १ | १०१ शति मस्जेः खुष्पादेशः । ' खुप्पइ'मज्जति । प्रा०४ पाद । खड़ागसिंहनिकीलिय-कुडकसिंहनिष्क्रीमित-न० । महासिंह कृप-पुं० । लतासमुदाये, प्रा०४ पाद । निष्क्रीमितापेक्कया कुद्रसिंहनिष्क्रीफितनामके तपसि, औ०। अन्त०। (तत्स्वरूपं 'सीहनिकोलिय' शब्दे वक्ष्यते) खुप्पिरं-मतम्-अव्य० । खुचयितुमित्यर्थे, “पञ्च खुपिउं जे" तं०। बुडिय-खणिमत-त्रि०। "चएमसएिमते णा वा" ।।१। ५३ । इति णकारेण सहितस्यादेरस उस्वम । चिन्ने, खुड़िो खुब्नंत-कभ्यत-त्रि० । अधो निमज्जति, स्था० ७ ठा0। खंमिनो । प्रा०१ पाद खब्जण-क्षोजण-न० । बहुमोहने, ओघ । संचलने, प्रश्न०१ खुडिया-क्षुधिका-स्त्री० । लघ्यामखातसरस्याम, जं०१वक। । आश्र० द्वार। जलाशयविशेष, प्रश्न०५ सम्बद्वार । लघुनि, स्त्रीत्ववि- खुनिय-नित-त्रि०ा भीते, प्रश्न०३ आश्रद्वारहोने, न०। Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुभिय (७५४) अभिधानराजेन्द्रः। खुहपिवासमहण भोघ । कलहे, ०३ उ०।श्रालोडिते,व्याकुले, वाच । “सम- वैमानिकदेवो जातः । इति कुल्लककथा । ग०२ अधिका(कुल्लकनआ खुभियचकवाल "शुनितानि चक्रवालानि जनमण्डलानि स्य धर्मपरिक्षायां समस्यापादपूर्तिः 'सम्मत्त' शब्द झेया। यत्र गमने तत्तथा भवत्येवं निगच्छतीति संबन्धः । भ६ गच्च कुल्लुकस्य पिपासापरिषहसहनं च 'पिवासा' शब्दे) श०३३ १०। | खल्लगपायसमास-कुल्ल कपादसमास-पुं० । लिङ्गिनां परीक्षणाय खुनियब-कनितव्य-न। कोभे कार्ये,प्रश्न०३ सम्ब० द्वार। | कृतायां सभायां सुद्धकेन कृते गाथापादसंवपे, आचा० १ खुमा-कमा-स्त्री०। अतस्याम, शणे, नीलिकायाम, वाच० । भु०४ अ०२ उ०। रोममुएमनसाधने, उत्त०१७ अ०।। खब-कुप-पुं० । हस्वशाखामूले वृत्त । झा०१ श्रु०१ अ०। खुर-कर-पुं । नापितोपकरणे, अनु०। सूत्र।तीपणे शरीरा- खुच्चय-वन्चक-न । पलाशादिपत्रमये दोनिके, १ व्य०२ उ० वयवकर्तने, सूत्र १ श्रु०५ अ० १३० । झा० । चुरे, स्था०४ बुहंकाण-कुट्यान-न० । सुधा क्षुत्परीपहोदयजन्मपीडाविग०४३01 "खुरे चेव एगधारत्ति" यथा कुर एकधार एवं शेषः। तया यध्यानं बुद्ध्वानं राजगृहपाशगत लोकसहगतरूमसाधुरुत्तर्गलक्षणेकधारः। प्रश्न ५ सम्ब० द्वार। कोकिला- कस्येव धातध्याने, पातु । के, गोखुरे, महापिण्डीतके वाणे च । वाच । खुहपिवास-कुत्पिपास-न । कुश्च पिपासा च कुत्पिपासम् । खुर-पुं० । शफे, झा० १७०३ अ० । कोबदले, नविनां ग-| बुनुक्का तृष्णयोः । जी०३ प्रतिः । न्धव्ये, खट्टापादे, वाच । नरयिकाणां कुत्पिपासे चिन्तयतिखरगुत्ता-कुरद्विकोक्ता-स्त्री०। चर्मकोटतायाम, "एवं खुरदु- इमीसे णं भंते ! रयणप्पहाए ऐरतिया केरिसयं युगुत्ताप" चमकीटत्वेन जायन्ते तथा हि-जीवतामेव गोमहिघ्या- हपिवास पच्चब्लवमाणा विहरति । गोयमा ! एगमेगस्स दीनां चर्मणोऽन्तः प्राणिनः संमूर्यन्ते, । सूत्र. २ श्रु०३ ०। णं रयण पनापुढविनेरतियस्स अमज्झाव पत्थवणाए सखुरधार-वरधार-त्रिका क्षुरस्येव धारा यस्यातिच्छेदकत्वादसौ वोदधी वा सव्वपोग्गझे ना आमयंमि पक्विज्जा । जो शुरधारः। शुरवत्तीणधारे, "असि खुरधारं गहाय" उपा०२ चेव णं से रयणप्पत्ताए पुढवीए नेरपए वितित्ते वा सित्ता अक्षुरो ह्यतितीकणधारो जवति। अन्यथा केशानाममुएमना. तू । इति कुरेणोपमा खड्गधारायाः । शा०१५०८ श्र। विताहे वा सित्ता परिसिया एं। गोयमा रयणप्पभाए जे ऐरश्या बुधं पिवासं पञ्चगुब्भवमाणा विहरति । एवंजाब खुरनिवद्ध-करनिवद्ध-पुंग शफवम्योः रासभवलीवर्दयोः,पिण अहे सत्तमाए॥ खरपत्त-कुरपत्र-न । तुरः (रः) एव पत्रं सुरपत्रम् ।। (रयणेत्यादि) रत्नप्रभापृथिवीनरयिकाः भदन्त ! कोरशं स्था० ४ ठा० ४ १० । कुरे, वि० १ श्रु० ६ ० । ज्ञा० । कुछ पिपासां प्रत्यनुभवन्तः प्रत्येक वेदयमाना बिहरन्त्य खुरप्प-कुरप्र-पुं० । प्रहरणविशेषे, दशा० ६ ०। श्रोत्रेन्द्रियं वतिष्ठन्त भगवानाह-गौतम ! ( एगमेगस्स गणमित्यादि ) प.तुरप्रसंस्थानसंस्थितम् । स्था०५ ग. ३ उ० । प्रज्ञा० । कैकस्य रत्नप्रजापृथिवीनरयिकस्य असद्भावस्थापना अ. विशे। सूत्र०। घासच्छेदनशस्त्रे, (खुरपी) लोके तत्तुल्याग्रफ- सद्भावकल्पनया ये केचन पुजा उदधयश्चेति शेषाः तान् बके शरे, वाच.। पास्यके मुखे सर्वपुद्रलान् सर्वोदधीन् प्रक्षिपत् तथाऽपि खरि-वरिन्-पुं०। स्त्री०। खुरोऽस्थास्तीति खुरी खुररूपावयव (नो चेव रणमित्यादि) नैव स रत्नप्रभाधिवीनरायकस्तृ मोथा वितृष्णो वा स्यात् । लेशतोऽत्र प्रवलभस्मकन्याध्युपेतः युक्ते, प्राव) ३ अ। पुरुषो दृष्टान्तः (एरिसिया णमित्यादि) इंशी मिति वाखून-कुल्ल-त्रि) लघी,प्रशा०१ पद । द्वीन्ष्यिभेदे,जी०१ प्रति०। क्यालङ्कृती गौतम ! रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाः कथं विपासा खुल्लक-क्षल्लक-त्रिका हस्वे, अन्त०४ वर्ग । बाले,कहकसम्बन्ध- प्रत्यनुजवन्तो विहरन्ति । एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं याच. श्वायम्-वसन्तपुरे देवप्रियः श्रेष्ठी तस्य यौवने भायाँ मृता पुत्रे. दधः सप्तमी । जी० ३ प्रतिः । वाच । रणाएवार्षिकेण सह प्रबजितः । ततश्च स कुलकः परीष हैर्वाध्य देवानाममानो वक्ति-तात!न शक्नोमि नपानही विना प्रवजितुम। मोहेन सोधम्मीसाणे देवा के रिसयं खुह पिवामं पञ्चान्भवमापिता ते अनुजानाति । पुनर्वक्ति-तात! न शक्नोमि शीर्षे सोदु. णा विहरति । गोयमा! णत्थि खुदं पिवासं पचणुम्भवमातपम् । पिता शीर्षे छत्रमनुजानाति । पुनर्वक्ति-तात!न शक्नोमि माणा विहरति० जावअणुत्तरो॥ भिकाटनं कर्तुम। ततः पिता आनीय दत्त। एवं भूमौ न संस्तारयितुं शक्रोमि । ततः पिता फलकमर्पयति । एवं सोचस्थाने कौर (सोधम्मीत्यादि ) सौधर्मेशानयो दन्त ! कस्पयोवाः कीकारयति । प्रकावयत्यङ्गं प्रासुकनीरेण । पुनर्वक्ति-तात!न शक्नोमि दृशं कुत्पिपासंकुश्च पिपासा च कुत्पिपासं प्रत्यनुभवन्तो विहरब्रह्मवतं पायितुम् । ततोऽयोग्योयमिति पित्रा निष्काशितः मृत्वा न्ति-आसते ?। गौतम ! नास्त्येतत् यत्तकुत्पिपासं प्रत्यनुजवन्तो महिषो जातः पिता चारित्रमाराध्य देवो जातः ।अवधिना सुतं विहरन्तीति । एवं यावदनुत्तरोपपातिकाः । जी०४ प्रतिः। महिषं पश्यति । स सार्थवाहरूपं कृत्वा तं महिषं गुरुभारमवाह खुहपिवासमहण-क्षत्पिपासामथन-त्रि० । कुच्च पिपासा च यत् । तात!न शक्नोमि इत्यादि पूर्वभवोतं पुनः कथयन् स्मार तयोर्मथनः क्षुत्पिपासामथनः चुत्तृमनाशने प्रवलाहारे, जी. यति। तस्य जातिस्मरणमुत्पन्नम् ।गृहीताऽनशनो महिषो मृत्वा ३ प्रति Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुद्दा कु ८ । १ । १७ । इत्यन्तस्य खुदा-कुत्र्-त्री० । हाssदेशः । प्रा० १ पाद। बुजुत्तायाम, स्था० १० ० ० श्रावण | कल्प० । ध इति कर्मण आख्यानम् भिनतीति निक्कुः । नि० चू० २० २० । व्य० । खुद्दापरिसह - कुत्परिषह पुं० । कुदेवात्यन्तव्याकुलत्व हेतुरप्यासंयमनवा आहारपरिपाकादिविपरीत सर्व प्रकार ते तत्परिष उत० अ० प्रथमपरीप क्षुद्वेदनामुदितान शेष वेदनातिशायिनीं सम्यग्विषमाणस्य जठराभविदाहिनीमागमविदितेन भक्तेन शमयतोऽनेपणीयं च परितः कुत्रीहविजयो भवति श्रवणीयप्रहखे तु न चि जितः स्यात् कुटपरीषदः । प्रय० द्वार श्राव० । " कुधार्त्तः शक्तिमान् साधु-रेषणां नातिप्रकृयेत्। दीनोबेल वि धान् यात्रामात्रोद्यतश्चरेत् " ॥१॥ घ० २ अधि० । मा० म० । तदेव विवाहafreछापरिगए देहे, तबस्सी भिक्खु थामत्रं । 11 ( ७५५) अभिधानराजेन्ड . पं न पर न पयावए ॥३॥ उत० ॥ दिगोरूपा तथा परितापः सर्वाङ्गीणसन्तापो दिगिन्या परिनयनादिया तो तृतीया परम-दि विपरित बुभुक्षाया देदे शरीरे सति तपोऽस्यास्तीति अतिशायने विनिः, तपस्वी विकृष्टाष्टमादितपोऽनुष्ठानवान् । स च गृहस्थादिरपि स्यात् । अत आह- भिकुर्यतिः । सोऽपि कीहम ? स्थाम तं तदस्य संयमविषयमस्तीति स्थामवान् । "भूम्नि प्रशंसायां वा मतुप्" अयं च किमिति ? । आइ-नन्यान द्विधा विदध्यात् स्त्रयमिति गम्यते । न वेदयेद्वाऽन्यैः फलादिकमिति शेषः । तथा-न पवेत् स्वयं, न चान्यैः पाययेत्, उपणाच नान्येवानुमन्येत तत एव च न स्वयं क्रीणीयात, नापि काययेत् न च परं क्रीणन्तमनुमन्येतस्य हननोपलक्षणत्वापी मन नय कोटी शुद्धिबाधां विधत्ते इति गाथार्थः ॥ २ ॥ किं चकालीकासे, किसे धमणिमंतर | मायने अमपास, अदीमणसो चरे ॥ ३ ॥ काली काकजङ्घा, तस्याः पर्वाणि स्थूराणि मध्यानि च तनुनि जवन्ति ततः कालीपर्वाणीच पर्वाणि जानुकूपरादीनिनाणिलोप समासः तथा - एवंविधैरङ्गैः शरीरावयवैः सम्यक् काशते तपःश्रिया दीप्यत इति कातीपर्वाङ्गसंकाशः । यद्वा-प्रकृते पूर्वापरनिपातस्वातरत्या ग्रामोद विनि व्यपदेशदर्शनाच्चासन्धीनामपि काली पर्वतायां कालीपर्वनिः संकाशानि सदशान्यङ्गानि यस्य स तथा । स हि विनोऽनुष्ठानतोऽपतिपिशितशोणित इत्यस्थिमवशेष एवंविध एव भवति अत एव कृशः कृशशरीरः । धमनयः शिरास्ताभिः सन्ततो व्याप्तो धमनिसन्ततः । एवंविधावस्थोऽपि मात्र पर जानातीति नातिल त्रोपयोगी । कस्येति ? श्राह श्रश्यत इत्यशनम् ओदनादि, पीयत इन पानं खौवीरादि अनयोः समाहारेऽनपात तथा दमणसो सि) सूत्रत्वाद्दीनमनाः श्रदीनमानसो वा अनाकुलचित्तधरेत् संयमापन यायात् किमुकं भवति प्रतिवाधितो पिधानको शुद्धमप्याहारमवाप्य न मित्रोष - खेम इत्यादिसूत्राषय योगी या न्यापरिमाणाप सोढव्यो भवतीति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ उत्त० । स्वानी नितिकार एवं सुचितं कुमार दि कुत्परी पहोदाहरणमाह-हत्थिमित्तो, जोयडिपुरहस्थित खड्डो य । उज्जो अडवी वयणीत्तो, पातोवगओ य सोदव्वं ॥ उत्तर्णन० १ ख एम (णि) विनिहस्तिमित्रो भोगक कायां दनार्थः पादपोप सादे देवि नमिति गाथाकराथों वृद्ध संप्रदायादव सेयः । उत्त०] सचायम्उज्जयिन्यां हस्तिमित्रो श्रेष्ठी वर्तते । तस्य हस्तिनुतनामवाल कोऽस्ति । अन्यदा हस्तिमित्रश्रेष्ठिनः प्रिया मृता दुःख गर्भवैराग्येन हस्तिमित्रश्रेष्ठसि साधुः समं विहरसी मित्रसाधुजफरनगरमागोटयां कण्टकेन ममयामेष स्थि तः। तमक्षमं दृष्ट्वा साधुनिर्भणितं दारकेण त्वां मार्ग बहिष्यामो मा विषादं कृथाः । तेन भणितम्-मदायुः स्तोकमेवास्ति, अतोऽहमंत्र भक्तं प्रत्याख्यामि, यूयं यात, मदर्थमत्र स्थितस्यान्यस्य क स्थापि साधोम भूद्विनाश इत्युक्तवन्तं तं प प्रत्यास्यानं कारयित्वा तत्रैवमुक्त्या अि गृहीत्वा ते साधवश्चेलुः । कुलकोऽर्द्धमार्गीत्तान्वितार्य पितृमो हात्तत्राऽऽयातः । तावत्तत्र गृहीताऽनशनः स मृतो देवोऽभूत् । कुलको ग्यासुतं न जानाति सुस्वरस्य पा भ्रमतिपि फलादि ना देव मोहेन निजदेदमधिष्ठाय अवसान भणितं कुत्र व्रजामि । तेन भणिनम् पषु धवनिकुजेषु व्रज । तन्निवासिनो जना भिक्कां दास्यन्ति । ततः तथेति णित्वा कुलकस्त त्र गतः धर्मलानमुच्चचार । स देवो नरनारीरूपं विधाय कर प्रसार्य दिव्यशक्त्या तस्मै भक्तपानादि ददौ । तावद् यावद् भोजनगरात् पश्चाद्वलिताः साधवस्ते नैव मार्गेण तत्राऽऽगताः । जीर्ण शवं दृष्ट्रा ज्ञातदिव्यप्रयोगास्तं कुलकं गृहीत्वा विजहुः यथा ताज्यां पितृपुत्रान्यां कुप सोढः तथा साम्प्रतिकमुनिनिरपि सोढव्यः । उत्त० २२० । ( 'परिसह ' शब्दे साधारणवक्तव्यता ) हापरिसहविजय कुत्परिषद विजय पुं० साधोराहा रगवेषिणः निरवद्यस्याहारस्थानाभे, ईषल्लाभे वा अनपगतछेदनस्याकालनि काम तिनिवृत्ते पदस्यावश्यकपरिहास मनाय प्य सहमानस्य स्वाध्यायध्यानभावनापरीत चेतसः उदीरणप्रबलकुद्वेदनस्यापि सतोषणीयपरिहारतोऽपरिदेवनेन कुद्वेदना सहने, पञ्चा० १ वि० । कुद्दापरीसह कुनपरीषद ५० हापरसह ' शब्दार्थे, 6 - - । । 1 कुहियजल - कुनितजल - त्रि० । कोभयुक्तजले, लवणसमुद्रे, "खुले कमिवाच महापाताल कलशगत वायुकोजात । भ० ६ ० ८ उ० । सेवा खेदना दायां वाचि०१० १० अ० । सेम-स्लेट न० धूलिप्राकारपरिक्षिसे नि० सू० १२३० मी० । रा० । विपा० । ग० । कल्प जी० । नि० चू | प्रांशुप्राका Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिधानराजेन्द्रः। खेत्त रनिवद्धे, । नं० । न० । उत्त० । ज्ञा० । स्था० । ६० ।। नूमि घरवत्पु सेउ, केउं पासायगिहमाई ।। आचा० । प्रश्न । कुल्लकप्राकारावेष्टिते, प्राचा० १ ध्रु०८ अ०८ उ० । व्य० । नद्यद्रिवेष्टिते, सूत्र. २७० २० । के विधा-सेतुः केतुश्च,तत्र (सेउरहवाइति)अरदट्टादिना सि. नगरविशेष, विशे० । खे अदति अट् अच्। स्प्रिट अच वा। सू च्यमानं यनिष्पद्यते सत्सेतुः । अत्रादिशब्दातमागादिपरिग्रहः । र्यादिग्रहे, सुनिन्दके, अधमे, अस्त्रभेदे, स च यष्टिरूपः। चर्म यत्पुनर्वर्षेण मेघवृष्चा निष्पद्यते तत् केतुः । ६०१ ० । ध० । णि, खिट् भावे करणे घञ्। मृगयायाम् , कर्तरि अच् । तृणे, न. उत्त। स्था। आव० । आ००। प्रामादियोग्यस्थाने,ध० ३ धनवृफिजीविनि, कफे, वाच । अधि०। 'खेत्ते काले जम्मे"इत्यादि(२०२५)। केत्रं जनपदप्रामनखेस-वेटक-पुं० । “वेटकादौ"।।।६। इति सं. गरादि,यदुक्तम्-"मगहागोव्वरगामें"इत्यादि । विशे०। संयमनि वा हार्थ केत्रगुणा अन्वेषणीयाः,जघन्ये केत्रे चत्वारो गुणाः। तब युक्तस्य खः । विषे, प्रा०२ पाद । क्षेत्रं त्रिविधम्-जघन्यम्, उत्कृष्टं, मध्यमं च । तत्र चतुर्गुणयु. स्फेटक-त्रि० । “वेटकादौ"८।२।६। ति स्फस्य सः । तं जघन्यम् । हिंसके, अनादरकारके च । प्रा०२ पाद । ते चामीखेमग-खेटक-न । फलके, प्रश्न० ३ श्राश्र0 द्वार । मुलहा विहारनूमी, विप्रारज्जूमी य सुबहसमायो । खेमठाण-खेटस्थान-न० । धूलिप्राकारावृत्तनगरविशेषे,विशे० सुलहा जिक्खा य जहिं, जहन्नयं वासखेत्तं तु ।। १ ।। प्रा० म० प्र०। यत्र विदारभूमिः सुलना, आसन्नो जिनप्रासाद इत्यर्थः । १ । खेडिअ-स्फेटिक-पुं० । “दवेटकादौ" ।। ६ । संयुक्त यत्र स्थण्डिसं शुद्ध, निर्जीवमनालोकं च।२। यत्र स्वाध्यायभूस्य खः । प्रा०२पाद । मिः सुलभा, अस्वाध्यायादिरहिता ३। यत्र भिवा च सुलजा४। खेड-खेल-पुं० । “गोणादयः"।८।२।१७४ । इत्यन्तस्य डः। तजघन्यं वर्षायोग्यं क्षेत्रम् । कल्प० १ कण । कीमायाम, प्रा०५ पाद । उत्कृष्ट त्रयोदशगुणोपेतं तानेव गुणानाहखेडा-खेला-स्त्रीलाखेला क्रीमा। शरिचतुरङ्गताद्यायामन्ताक्ष- चिक्रवद्वपाण-यडिल,वसही-गोरस-जनाउलोय वेज्जोय। रिकाप्रहेलिकादानादिजनितायाम् इन्द्रजालकगोलकखेलना- प्रोसह-निचया-हिवती, पासंका निकरव-सज्काए । द्यायां वा क्रीयायाम, ग०५ अधिक। यत्र (चिक्खलः) कर्दमो न्यान् भवति । प्राणाश्च द्वीन्द्रियादखेत्त-केत्र-न। 'कि' निवासगत्योः इति कियन्ति निवसन्ति जी. यो नूयांसो न समूच्छन्ति । यत्र भूयांसि स्थपिमहानि, वसतयवा अजीवाश्च अत्र इति उणादिके प्रत्यये क्षेत्रमिति। विशे० 'क्षि' इच द्वित्रादयो यत्र प्राप्यन्ते । गोरसंच प्रभूतं, प्रत्येकं भूयो जन निवासगत्योः अस्मादधिकरणे ट्रन् सूत्र० १ श्रु० १ अ० १ समाकुलः कुलवर्गः,वैद्यश्च यत्र विद्यते । औषधानि च सुप्रती१०। अवगाहदानलकणे आकाशे, सूत्र०१ श्रु०१ भ०१ । तानि । यत्र धान्यमतिप्रनूतम् । यत्र अधिपतिः प्रजानामतीवसुउ० सम्म । स०। प्रा० चू० । स्था० । " खितं खलु। रकको वर्तते । पाषरामाश्च स्तोका विद्यन्ते। भिका च मुल ना । भागास" इति वचनात् । प्रा० म०प्र०नि० ० । स्था। स्वाध्यायश्च निर्व्याघातः। एतदुत्कृष्ट वर्षासु योग्यं केत्रम् । पिराम०नि० । यत्रावगाढस्तस् केत्रमुच्यते, यथा परमाणो- साम्प्रतमेतद्गुणाभावे वर्षासु वसांप्रायश्चित्तमाहरागमे यत्रैकस्मिन् प्रदेशे अवगाढस्तदेकं प्रदेश केत्रमजि पारणा यमिन्नवसही, अहिवतिपासंमलिकवसकाए । हितम् । विशे। विपा० । लहुया सेसे लहुओ, केसिंची सव्वहिं लहुगा ।। खेत्तं मयमागासं, सबदव्वावगाहणा लिंग। यदि यत्र प्राणा प्रतिबहवो, यदि वा न विद्यन्ते । स्थरिमलातं दव्वं चेव निवा-समेत्तपज्जायो खेत्तं ॥ २०७॥ नि, वसतयो वा द्विवादिका न विद्यन्ते । अधिपतिर्वा नास्ति । तं च महासेणवणो-वनक्खियं जत्थ निग्गयं पुत्वं । पाषएमा वा बहवः । भिका वा न सप्रापा । स्वाध्यायो वा न सामाइयमन्नेसु य, परंपरविणिग्गमो तस्स ॥ २०८७ ।। | निर्वदते । तत्र वर्षाकालं करोति । तदैतेषु दोषेषु प्रत्येक प्रायक्षि' निवासगत्योः, क्वियन्ति-अवगाहन्ते निवसन्ति जीवा श्चितं चत्वारो लघुकाः । शेष (चिखल्लादिक) दोषे प्रत्येक दयोऽस्मिन्निति केत्रम् । तच्चाकाशं सर्वार्थवेदिनां मतम् । कथं लघुको मासः । केषांचिदाचार्याणां मतेन पुनः सर्वत्र सर्वेष्वपि भूतम? सर्वेषामपि जीवादिषव्याणां याऽवगाहनाऽवस्थानरूपा दोषेषु प्रत्येकं चत्वारो अधुकाः । सैव लिङ्गं चिन्हमुपयोगो यस्य तत्सर्वव्यावगाहनालिङ्गम् । संप्रति (चिखल्ले) दोषानभिधित्सुराहतचापरपर्यायेषु व्याणां गमनाद् द्रव्यमेव, केवलं निवासमा- नीसरण कुच्छणागा-रकंटगा सिज प्रायजेदो य । अपर्यायमाश्रित्य केत्रमुच्यते । तच्चोपाधिभेदाद बहुन्नेदम् । अत संजमतो पाणादी, अगाहनिमज्जणादीया । इह महासेनवनोपनक्षितमेव गृह्यते। विशेण धर्मादीनां च्याणां वृत्तिर्भवति यत्र तत् क्षेत्रम् । ल आव० केत्र यथा संख्ये. निस्सरणं नाम फेल्हसणम,कुत्सना अङ्गल्यन्तराणां कोथकाराः यप्रदेशावगाहनोऽसौ साधान्यनिष्पत्तिस्थाने,कल्प०६कण । कर्करकाः, कपटका बबूलगूलादयः (सिज्ज त्ति)देशीपदसस्योत्पत्तिभूमी, पश्चा०१ विव०। मेतत् परिश्रम इत्यर्थः। एष आत्मभेदः,पते श्रामविराधनादयो दोषा इत्यर्थः। संयमतः संयम पुनरयं दोषः-प्राणा द्वीन्द्रियादय। तच्च त्रिविधम् आदिशब्दात् पृथिवीकायादिपरिग्रहः ते विद्यन्ते तथा यदि सुखेत्तं सेउं केलं, सेन ऽरहट्टाइ केन वरिसेणं । खेनात्र गच्गमीति विचित्य सोदके कर्दमे गच्चति तथा कचि. Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५७ ) अभिधानराजेन्द्रः | खेत 1 दयानमति आदिदादिकमिताः सकद जलविप्र उत्थापयति तानिश्च प्राणादिविधाता मुखं गच्छ न् पुरुषादिखरराटनं निजशरीरोपकरणखरण्टनं चेति परिग्रहः । धुवणे वि होति दोसा, उप्पीलगादी यया उस च । सेदादीमा अपोषणे चीरनासो वा ॥ कर्दमाकुमार्गे गमनेन कदम उपकरणे लगति तथा कोपकरणस्य धावनेऽपि आस्तामधावने इत्यपिशब्दार्थः । दोषाः के ते इति । बाइ उत्पनादव पीक प्राणादीनां चनमादिश दात् शरीरायास स्वाध्यायविघातादिपरिग्रहः । अपि च वस्त्राणि शरीरं च प्रकालयतो वा कुशिकत्वमुपजायते । शरीरे, उपकरणे च कुशीकरणात् । अथ न प्रकालयति नहीं घावने रौककादीनामवज्ञासंभवः, चीरनाशश्च कर्दमेन शटनात् वाशब्दः समुच्चये । सम्प्रति प्राणसंवेदनाह सुरंगविच्छुगादिसु, दो दोसा संजमे य सेसेसु । च नियमा दोस्र दुगुंबिय, अमिन - निसग्ग धरणे य ॥ 'सुगा' नाम पिपीलिका, पिपीलिकाकादिषु शेषेषु च प्रा णेषु बाहुल्येन संभवत्सु द्वौ दोषौ । तद्यथा-संयमे चशब्दादात्मनि श्रात्मविराधना संयमविराधना चेत्यर्थः । तत्र वृचिकादिभिर्देशादात्मविराधना कीटकादित्वयाघाताच सं यमविराधना । स्थडिलाभावे दोषानाह - (नियमेत्यादि) स्थण्डिन्नाऽभावे प्रस्थऐिकले, जुगुप्सिते वा स्थएिमने, निसर्गे पुरीपश्रवणोत्सर्गे नियमात् दोषाः संयमविराधनादयः, तत्रास्थरिडले हरितकायादिव्यापादनात संयमविराधना, पादादिद सनादात्मविराधना, जुगुप्सिते स्थरिकले प्रवचनविराधना, श्रचैतदोषभाया म्युत्सृजति। किंतु धारयति तत बाहर दो आत्मविद्याः तथा च पुरीषादिधारणे जीवितनाशादि "मुनरोदे वतुं वचनिरोदे व जीवियं चति" स्वादि वचनात् । स्नानत्वे चिकित्साकरणतः संयमव्याघातः ॥ यत्र संकटा वसतिर्यत्र च द्वित्रादयो वसतयो न बज्यन्ते नत्र ( वासे) दोपानाह बसी संकडाए, चिरक्ष अविरलले नवे दोसा | बापावे व अणास ती दोसा ओच्चते ॥ वसतौ संकटायां सत्याम् उपधेः ( विरले ति ) विस्तारणे वा दोषा नवन्ति । के ते इति चेत् ? । उच्यते-यदि उपधिस्तीमितो विस्तायेते, ततः संकटत्वादन्यमप्यतीमितमुपधि तीमयति । अथन विस्तार्थ तर्हि व कोथमुपयाति तर सर्गतः शरीरस्य च मान्द्यमुपजायते । एकस्याश्च वसतेः कथमपि व्याघाते अन्यस्याश्च अभावे ग्रामान्तरं व्रजनीयम् । तत्र च व्रजति संयमात्मराधादि मार्गे हरितकायादिव्यापार यमविराधना । श्रगाधे सलिले प्रविशत श्रात्मविराधना । वसलाभतो वर्षाकालेऽपि वर्षपानावरुयमानात् पथि तस्तान् दृष्ट्वा लोकः ः प्रवचनं कुत्सयते ईशा पवैते वर्षास्वपि नाश्रमं क्वचिदपि लजन्ते इति प्रवचनविराधना । गोरखाऽभावे दोषानाह अतरंत वाल- बुड्ढा, अजाविता चैत्र गोरसस्स सती । जं पावदित्ति दोषं, आहारमसु पाणेसुं । १६० वत्त चतरन्तो नाम असहाः (असमर्थाः) तथा वाताः, वृकाश्च तथा-ये अनाविता येषां गोरसव्यतिरेकेण नान्यत्किमपि प्रतिभासते । ते गोरसस्य प्रसति अभावे माहारमयेषु प्राणेषु सन्तु यत् आगाढाना गाढपरितापनादिकं दोषं प्राप्स्यन्ति । तन्निमित्तं सर्वमपि प्रायश्चित्तमाचाय्र्योलप्स्यते तस्माद्यत्र तदभावस्तत्र न वस्तव्यम् । अत्र पर ग्रह न तो रसचाओ, पीयरसनोयणे य दोसा छ । किं गोरसे ? भंते!, ना सु चोयग ! इमं तु ॥ ननु सूत्रे रसानां कीरादीनां त्यागो भणितः "अनशनम्, ऊनोदरतावृत्तिः संक्षेपणं रसत्यागः इत्यादि कोणी तरसभोजने दो काम कायः शरीरोपचयादिभाषाः किं नदंत ! गोरसेन कर्त्तव्यम् । सूरिसंह भएयते । शृणु चोदक ! इदं वक्ष्यमाणम् । तदेवादकामे तु रसचागो, चतुत्यमंगंतु बाहिरतवस्स | सो पुसढ़ (डा) जति अस (हा) य सज्ज वायचि ॥ कामं तपस्तत्रत्यागचतुर्धम वा वषों भेदो बाह्य तपसः पदात्मकस्य केवलं पुनः शब्दः केवलार्थः। सरस्वत्यागः सहानां युज्यते संगच्छ सानामसमर्थानां रसानावे ल स्तत्कालं व्यापत्तिः मृत्युः । अन्यच्च अगिनाएँ तवोकम्मं परकमे मंजतोचि इति वृत्तं । तम्दा उत्तरसम्यान नियमतो होति सम्म ।। संयतः तपःकर्म्म प्रति, श्रग्लान्या पराक्रमेत् इत्युक्तं जगवता । तस्मात् न नियमतः सर्वस्य रसत्यागो भवति । जस्म उ सरीरजवणा, रुते पणीयं न दो साहुस्स | सोवियमिमं जल महराज समाही ॥ यस्य साधोः शरीरथापना न प्रणीतं प्रणीतरसमृते भवति । सोऽपि च अश्नुताम् पूर्वोक्ता असहा इत्यपिशब्दार्थः । 'हु' निश्चितं भिन्नपिण्डं घृतादिना मिश्रितं गलितपिएमं जुञ्जीत । अथवा यथासमाधि कहि केवलं मा भूदिति संपृएपानका दिना मला करमापयेत्। सम्पति " जनाध्ध" पदव्याश्यासार्थमाहच भंगो अजणा कुलाउले पेव तलिय जंगो छ । भोइयमादि माउस, कुआ-पमेवमादी ॥ जनकृया जना मपीति प्रथमो नङ्गः । जनाऽऽकुत्रं, न कुलाऽऽकुत्रमपि द्वितीयः । नजनकुलमिति तृतीय अन्ना समिति चतुर्थः। प्रयमभङ्गे बहूनि मानुषाणि, बहूनि च कुलानि । द्वि-कानि स्तोकानि, जनावतिषहचः कुले कुले नोजका दिजनानां सख्यायात तृतीयभन तो एकस्योष मनुषयो न बहूनि कुलानि नापि बहवो जनाः, कतिपयकुलानां प्रतिकु च स्तोकमानुषाणां भावात् । अत्र यौ भङ्गौ ग्राह्यौ तावाहजात्यादिना न जना कु. कुलाकुलमिति तृतीयो ग्राह्यः । एतदनुज्ञानात् प्रथमः सुतरामनुज्ञातो रूष्टव्यः, Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेत्त तस्योभयगुणोपेतत्वात् । श्राह च चूर्णिकृत - " जइ ताव यो मंगो भवानी प्रागेव पढमो भंगो पातो " इति । शेषौ तु घो नङ्गौ ज्ञाताऽनुज्ञातो कुलानामल्पस्वात् । सम्प्रति जनाsकुवतां कुलाऽऽकुञ्जतां च व्याख्यानयति( भोइय ) इत्यादि प्रथमभङ्गे च जनाऽऽकुत्रं भोजिकादिभिरतिप्रभूतैराकी मादिषुस्थानेषु तथाहि मदम्बेश कुलहा आदिशब्दात् पतनादिपरिम व्याख्यातं जनाऽऽकुलद्वारम् । () अभिधान राजेन्ः | अधुना वैद्यद्वारमद्वारं युगपदादवेजस्स प्रोसस्स च असती गिला पावे । बेज्जसगास तो आतो बेन ने दोसा | , यदि नाम कोऽपि ग्लानो जायते तदा, वैद्यस्य औषधस्य च अति भावे यत्नादाऽऽगादपरितापनादि प्राप्नोति तनिमितं सर्वे प्रायश्चित्तमाचार्यः प्राप्नोति । अन्यच तादृशकेमानवेोमायस्मिन् प्राने वैद्य स्य कामाने अनीयमाने या दोषा अनागामागाई या परितापन बनेनैहपकरणाद्यपहरणं व्याप मिस्वादिकमपि प्राप्नोति । एवमो साधुषु ग्रामान्तरे प्रष्यमाणेषु दोषा वाच्याः ॥ अधुना निवद्वारमचिपतिद्वारा नेचड़या पुण धनं, दत्ति असारचितादीसु । विम्पि होइ रक्खा, निरंकुसेसुं बहू दोसा || निवेनवे त्या ते ? सारा दरिद्राः, अञ्चिताः पूज्या राज्यमान्याः पितृपितृव्यादयो या श्रादिशब्दादनञ्चितादिपरिग्रहः तेषु, कयेणाऽन्यथा वा धान्यं ददति । ततः सर्वत्र भिका सुब्रनोपजायते । तथा अधिप विद्यमानेाजयतिरिषु मध्ये पुन सतो बहवो दोषा उपकरणापहारापमानादिलक्षणाः । पापरमद्वारमाह पासंदभाविप लगंतिम विसेमुली दवंति कन्नेव सहाया ॥ यदि स्तोका पापण्डास्ततीऽनादीनि म 1 भिन्नः पापा योजनेच्या गाथाय समीपमा ल अपीति संभावनेचः पुनरसं पपरिया ज्योतिपथावदन्यत् पात्र मिनां कल्पते । तत्साधूनां न कल्पते। तत एवं लोको भावितः सन् साधूनां कल्पिकं ददाति । तथा कार्येषु च बहुप्रकारेषु गृङ्गनादिताऽऽदित्रणेषु वयमपि पापण्डा, एतेऽपि च पाषण्डा धमस्थिता इति कृत्वा सहाया भवन्ति । सम्प्रति भिक्काद्वारमाह नागतवाल विमिट्ठा, गच्छस्स य संपया सुलभभिक्खे | न य एसाऍ घातो, नेत्र ठवणाए भंगो न ॥ सुनना निक्का यत्र तस्मिन् सुनभभिके ग्रामादौ वसतां ज्ञानस्तानस्य तपसश्वनशनादे विशिष्ट वृद्धिर्भवत्याहारो पष्टम्भतः, स्वाध्यायस्य तपसश्च कर्त्तुं शक्यत्वात् । तथा गच्छस्य सदस्ता अतिविशिष्ट जयति शिष्याणां खेत अनेकेषामागमात् । न च एषणाया घातः प्रेरणा, नापि स्थापनायाः मासकल्पवर्षा कल्परूपायाः । श्रथवा स्थापनाकुलानां भङ्गः प्रेरणा । स्वाध्यायद्वारमाह वातस्स पणगं, पण पछि भने सुतं । एग बहुमायो, कित्ती य गुणा य सज्जाय ।। यत्र स्वाध्यायश्चतुःकाल निर्वहति । तत्र वर्षावासः कर्मव्यः । यतः स्वाध्यायेऽमी गुणाः- सूत्रमा चारादिकं सूत्रतोऽर्थतस्तदुभयतश्च वाचयतः । पञ्चकं वक्ष्यमाणं संग्रहादिकं भवति । यथा च-वाचयतः पञ्चकं, तथा प्रतीच्छतः श्रोतुरपि प ञ्चकं तस्यापि संग्रहादिनिमित्तं श्रुतश्रवणाय प्रवृत्तेः । तथा बाच यतः प्रतीच्छतश्चैकाग्र्यं श्रुतैकपरतोपजायते । सा च विस्रोतसिकाऽवारिता जवति । तथा बहुमानं जक्ति: श्रुतस्य तीकरस्य च कृतं भवति । कीर्त्तिश्च श्रवदाता सकलधरामएमसव्यापिनी । यथा-भगवतः श्रार्यवैरस्येति । व्य० ४ उ० । गुणसंख्यामादचगुणवयं तु खेतं हो जहा , तेरमगुणको दोएदं मम्मि मक्रिमगं ॥ मायेतं जयति जयम णमुत्कृष्टम् । द्वयोर्जघन्योत्कृष्टयोर्मध्ये मध्यमकम् | तत्र अन्यं चतुर्गुणोपेतमाहमहती विहारभूमी, चियारभूमी व सुझजवित्तीय सुचना काही य जहिं जम वासखे तु ॥ यत्र महती बहारभूमिः मिकापरिभ्रमण भूमिः महती दि खारभूमिः । तथा यत्र वृत्तिर्भिका सुलभा । वसतिश्च सुलना । तत् जघन्यं वर्षक्षेत्रम् ॥ व्य० १० ४० पूर्वोकमनुगुणाधिकं पञ्चादिगुणं त्रयोदशगुणाच्च न्यूनं द्वादशगुणपर्यन्तं मध्यमं केत्रम् । एवं च उत्कृष्टे क्षेत्रे, तदप्राप्तौ मध्यमे, तस्यापि भप्रासौ जघन्ये । कल्प० १ क्षण० । अथ क्षेत्रस्याभवनव्यवहारः । तत्र क्षेत्रे तावदाभवनं प्राहवासासु निग्गयाणं, अहसू मासे मग्गणा खेते । आयरिय कहा से, नयणे गुरुगा य सबिने । असु ऋतुवरेषु मासेषु विहरतां वर्षासु विषये क्षेत्रे मागंगा प्रवति क्षेत्रमार्गणा। पच्च निर्गतानां साधूनां देवं प्र त्युपेक्ष्य प्रत्यागतानामाचार्यस्य पुरतः क्षेत्रगुणकथनं तच गच्छाभारादागतप्राचूर्णक साधुभिराकर निजाऽऽचार्यसमीपं गावा तस्य कथनम् । तत्र नयने प्रायश्चित्तं तत्र गतैः सचित्ते गृह्यमाणे चत्वारो गुरुकाः । साम्यतमेनामेव गाथां विवृणोति उप विहरंता, वासाजोगं तु पेहर खेत्तं । त्थाय गता वा उपेन खिता नियता वा ॥ योग्यं प्रयुकन्ते वा स्तया वा क्षेत्रप्रत्युपकणायोपेत्य गताः । यदि वा तस्मात् दोत्रान्निवृत्ताः केचित् स्वगच्छसाधवः समागताः । आलोयंते सोनं, साइंते ते उ अप्पणो गुरुणो । कहामि हो मासो, गयाण तेर्सि न तं खतं ॥ ते वास्तव्या गताः क्षेत्रं प्रत्युपेक्ष्य समागताः। ततो वा केत्राद् Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेत्त (७५९) खेत्त अन्निधानराजेन्डः। निवृत्ता प्राचार्याणां पुरतः मालोचयन्ति केत्रस्य गुणान् क- पतैरनन्तरोदितैःकारखैरनागतमेव जवति केत्रस्यानुक्कापना। थयन्ति । तत्र चान्येऽन्यस्मात्प्राघूर्णकाः समागतास्ते च तान् | संप्रति तेषां क्षेत्र प्रेक्ष्यमाणानां निर्गमे प्रवेशे च विधिवक्ष्यामि । तथा पालोचयतः श्रुत्वा गत्वा प्रात्मानो गुरोराचार्यस्य (सा प्रतिज्ञातमेव करोतिहंते) कथयन्ति । ततो ध्रुवं ते यावत्र तिष्ठन्ति, तावद्वयं केई पुवं पच्छा, निग्गया पुनमगया खेत्तं । गच्छामः, एवं कथने तेषां प्रायश्चित्तं लघको मास। नच गतानां सम सीमं पत्ताण य, तत्थ श्मा मग्गणा होइ ।। तेषां तत् क्षेत्रमानवति। केचित् क्षेत्रप्रत्युपेकणाय पूर्व निर्गताः, केचित्पश्चानिर्गताः, तथा सामच्छण निजविए, पयजेदे चेव पंथ पत्ते य । प्रवेशे पूर्वमतिगताः प्राप्ताः केत्रं, केचित्तत्र । समकालं सीमानं पणवीसादी गुरुगा, गणिणो गाहेण वेजस्स ।। प्राप्तानामियं वदयमाणा मार्गणा भवति-अनया गाथया पादसत भुत्वा यद्याचार्याः (सामच्छणं ति) संप्रधारयन्ति तत् त्रयेऽत्र समकं किल चतुर्भङ्गी सूचिता। केनं गच्छाम इति, तदा तेषां प्रायश्चित्तं पञ्चविंशतिदिनानि । ततस्तामेव दर्शयतिनिर्यापितं नाम अवश्यं गन्तव्यमिति निर्णयनं तत्र लघुको पुव्वं विणिम्गतो पुव्वं, पत्तो य पुन्ब निग्गतो। मासः। पद दे क्रियमाणे गुरुको मासः। पथि बजतां चतुर्लघुकम् । पुव्वं तु अतिगतो दो, ति पच्छा खेत्तमागो॥ केत्र प्राप्तानां चतुर्गुरुकम् । एतत् प्रायश्चित्तं गणिन भाचा जातावेकवचनम्, भतो बहुवचनं द्रष्टव्यम्। पूर्व निर्गताः पूर्वमेव यस्य, यस्य वाऽऽग्रहेण ते प्राचार्या व्रजन्ति । तस्याप्येतदेव प्रा. समकं प्राप्ताः।१। पूर्वनिर्गताः पश्चादेकतरे प्राप्ताः । २। पयश्चित्तम्। न च तत् केत्रं तेषाम् आनवति । तत्र गत्वा यदि सचित्तमाददति तदा प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। आदेशान्तरण इचादू विनिर्गताः पूर्व प्राप्ताः । ३ । इतरे पश्चाद्विनिर्गताः प. अनवस्थाप्यम्,अचित्ते उपधिनिष्पनं तस्मादविधिरेष न कर्तव्यः। श्चादेव च तत् क्षेत्रमागताः।४। पढमगनंगे इणमो, उ मग्गणो पुचऽणुमवेजाओ। तथा चाह तो तेसि होइ खेत्तं, अह पुण अच्छति दप्पेण ॥ एसा अ विही जाणिया, तम्हा एवं न तत्थ गंतव्वं । तत्र भङ्गचतुष्टयमध्ये, प्रथमके भने श्यं मार्गणा भवति-यदि गंतव्वविहीए पमि-लेहे कणं य तं खेत्तं ॥ पूर्वमेव समकं निर्गतैः,पूर्वमेव च समकं तत् केत्र प्राप्तः, पूर्वमेयस्माद्दोषोऽनन्तरोदितो विधिर्गाथायां नीत्वं प्राकृतत्वादेष | व च समकमनुज्ञापयन्ति । तदा तेषां भवति साधारणं केवम् । तत्र न गन्तव्यम्। अथ पुनः समकं प्राप्ता अपि एकतरे दर्पण तिष्ठन्ति । दो नाम खेत्तपमिलेहणविही, पढमुद्देसम्मि वमिया कप्पे। निष्कारणं, तदा यैः पूर्वमनुज्ञापितं तेषां तत् क्षेत्रम्। नेतरेषाम् । सचेव इहोइसे, खेत्तविहाणम्मि नाणत्तं ॥ एतदेव स्पष्टतरमाचष्टेक्षेत्रप्रत्युपेक्षणविधिः कल्पे कल्पाध्ययने प्रथमोद्देशे धर्णितः।। खेत्तमतिगया मोत्ति, वासत्ता जइ अच्छहो। स एवेद अस्मिन्नपि व्यवहारस्य दशमे उद्देशके अष्टव्यः । नव- पच्चा गयऽणुएणवए, तसिं खेत्तं विपाहियं ।। रमत्र केत्रभेदकथने नानात्वं श्हाधिक क्षेत्रभेदकथनमित्यर्थः । केत्रमतिगताः प्राप्ताः स्म इति यदि विश्वस्ता आसीरन् तदेव करोति न क्षेत्रानुज्ञापनाय प्रयतन्ते । तदा पासतां पूर्व प्राप्ताः किं, प. खेत्तपडिहणविही, खेत्तगुणा चेत्र बलिया एए । श्चाता अपि ये तेभ्यः पूर्वमनुशापयन्ति क्षेत्र तेषाम् । तत् क्षेत्र पेहेयव्वं खेत्तं, वासाजोग्गं तु जं कालं ।। पूर्व समकं प्राप्तानामविसमकं पूर्व वा न तु ज्ञापनमभूत्तदा कारणस्थितशतेष्टमाभवति । तत् क्षेत्रमन्यस्य पूर्वप्राप्तस्य पूर्वा केत्रप्रत्युपेक्षण विधिः, क्षेत्रगुणाश्च एते अनन्तरोदिता बम्मि नुशापकस्य वा। तथा कपको निष्कारणे क्षेत्रप्रत्युपेक्कणायन ताः । तत्र कस्मिन्काले वर्षायोग्यं केत्र प्रत्युपेक्वितव्यमनुकप पूर्व वर्तयितव्यो निषेधात्तेन कारणेन तस्य कपकस्य यत् क्षेत्रं यितव्यम् । तेन कपकेण वदनुशापित केत्रमित्यर्थः । तत्तैन लभ्यते । किंवा अत पाह यैः पश्चादप्यागतैरनुज्ञापितं तेषां तत् क्षेत्रम् । अथ कारणे खेत्ताण अल्पवम्मा, जेठा मूलस्स मुफपामिवए । केत्रप्रत्युपेकणाय कपकः प्रवर्तितस्तदा तेनानुशापितं न सअहिगरणोमाणो मा, मणसंतावो तहा होति ।। भन्ते केत्रम् । तथा-कपकस्य पारणके व्याकुना इति नाऽनुज्ञापज्येष्ठा,मूलस्य मासस्य शुद्ध प्रतिपदि शुक्लपके प्रतिपदि । क्षेत्रा यन्ति । तदान ते ततकेत्रम् । किंतु-यैरनुशापितं तेषामिति । तणामनुज्ञापना भवति। किं कारणम? अत पाह-"अहिगरणों": देवं गतःप्रथमो नङ्गः। त्यादि। अन्येऽपि तत्राकानतस्तिष्ठेयुस्तावद्विधिकरणं भवेत् । तथा सम्प्रति द्वितीय तृतीयं च भङ्गमधिकृत्य विवकृरिदमाहस्वपकेभ्योऽपमानं नुयात् । तथा च सति-महान्मनःसंतापः सुव्वविणिग्गय पच्छा, पविट्ठ पच्छा य निग्गया पुवं । प्रेरिता वयं परिभूताःस्म इति। अथवा-कलहं प्रवृत्तं वा भयुक्त- पविट्ठ कयरॉसि खेत्तं, तत्य इमा मग्गणा होई ।। वचनैर्मनःसंतापः स्यात् । तस्मात् ज्येष्ठामूत्रशुद्धप्रतिपदि पूर्व विनिर्गताः पश्चादन्यापेक्वया के प्रविष्टाः । अत्र परेकर्तव्या तथा ज्ञापना। पश्चाद्विनिर्गतापक्रया पूर्व प्रविष्टाः कतरेषां केत्रं भवति। तत्रयं एतदेवाह भवति मार्गणा। एएहिँ कारणहिं,अणागयं चेव होइ ऽनुमवणा। तामेवाहनिग्गम-पवेसणम्मि य, पहेताणं विहिं बुर्छ ।। गेलनादिहि कज्जे-हिं पच्छा (ई) ताण होति खेत्तं तु । Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६०) अभिधानराजेन्द्र खेत निकारण विस्सामा पच्छा ते ताउ न लभन्ति । पूर्व विनिता सन्तो यदि ग्लानादिभिः करपादा गच्छन्ति तदा तेषां पश्चादनियतमागच्छतां भवति क्षेत्रम् । अथ निष्कारणं यत्र तत्र वा स्थितास्तेन पश्चात् गतास्तदा ते प श्रादागच्छन्तो न लभन्ते क्षेत्रम, गतो द्वितीयो नङ्गः । तृतीयमधिकृत्याह हु, पच्छा ओवि पूराऽऽसमा समाव अाणं । सिम्यगई सभाषा, पुण्यं पत्तो लभति लेत्तं ॥ गाथायामेकवचनं स्पर्ककस्वाम्यपेक्षया परचाद्विनिर्गतोऽपि 'हु' निश्चितं दूरात् श्रासन्नात् समाद्वा श्रध्वनः स्वजावात् शीगतिरिति कृत्वा पूर्व प्राप्तस्तदा स लभते क्षेत्रम् । ग्रह प्रजावो, गतिभेदं काल बच्चती पुरतो । मा एए गच्छति य, पुरोगी ताहे न सर्पति ॥ श्रथ पुनर्माते, श्रन्ये, पुरतो न गच्छन्तीति, यास्यन्तीति । एवमको गति हत्वा पुरतो याति तदा स पुरोगाम्य न लभते क्षेत्रम् | भावस्याऽशुद्धत्वात् । समयं पि पत्थियाणं, सजावसिम्यगतिणो भवे खेत्तं । एमेव आसन्ने, दूरकाणी व जो पति ॥ समकमपि विवचितानां प्रस्थितानां मध्ये यः स्वनावशीघ्रगतिः ः सन् पुरतो याति तस्य तत् क्षेत्रम् । एवमासन्ने आसन्नावीरानो वा यः पुरतः समागच्छति अनुज्ञापयति च स लभते क्षेत्रम् | अवासम पत्ता, समयं देव अभावितो दाहिं । सादारणं तु तेसिं, दोएड वि वरमाण तं होर || अथवा श्रासन्नात् दूरात् वा समध्वा अध्वनः समकमेव तत् क्षेत्रं प्राप्ताः समकमेत्र द्वाभ्यामपि वर्गाभ्यां तत् क्षेत्रमनुज्ञापितं तदा तयोर्द्वयोरपि वर्गयोः साधारणं तत् क्षेत्रम् । गततृतीयो ङ्गतुन यदि पूर्वप्रविटे सह समनुज्ञापितं सदा साधारणम् । अथ पश्चात् पूर्वमाताबामिति । तदेवमुक्ता चतुर्भङ्गिका । सम्प्रति " समसीमं पसारा ” इत्येतदूव्याख्यानमादवासमयं दो वि, सीमं पत्ता उतत्य मे पुत्रं । जाणा वो तेसिं, न जे उदप्पेण अच्छंति || (अथ वेति प्रागुकापेया प्रकारान्तरी कापि वर्गी समर्थ सीमान प्राप्ती तत्र ये पूर्वमापयन्ति तेषां तत्त्रं न ये दश निष्कारणमेव तिष्ठन्ति तेषामिति श्रीमाग्रहणं द्वारा थायामुद्यानादीनामुपलक्षणम् । तेन तद्विषयामपि मार्गणामादउज्जा - गामदारे, सहिं पत्ताल मग्गरणा एवं । समयमणुन्ने सादर - गं, तु न लभंति जे पच्छा ॥ उद्यानं ग्रामद्वारं ग्रामग्रहणं नगरादीनामुपलकणम्। तथा वससिम प्राप्तानामेवमुक्तप्रकारेण माणा कर्तव्या । तामेव दर्शयति-यदि समकमनुज्ञापयन्ति ततः साधारणं, ये पुनः प श्चादनुज्ञापयन्ति से न लजन्ते । से पुण दोषी वग्गा, गणि आपरिवाण होत दोष तु गणिणं व होज्ज दोएहं, आयरियाणं व दाऐहं तु ॥ खेत तौ पुनद्व वर्गों द्वयोर्गण्याचार्ययोर्जवेताम् | गणी नामात्र वृषभः । एको वर्गो वृषभस्य, अपर आचार्यस्य । अथवा- -द्वयोर्गणिनोः यदि वा द्वयोराचार्ययोद्वाँ वर्गाविति । सत्रेयं मार्गणा श्रच्छंति मंथरे सव्वे, गणी नीति असंथरे । जत्य तुला भवे दो उवी, तत्विमा होति मग्गणा ।। यदि तत्र क्षेत्रं संस्तरणं तदा सर्वेऽपि तिष्ठन्ति । श्रथ सर्वेषामसंस्तरणं तदा असंस्तरेण गणी वृषभो निर्गच्छति । आचास्तिष्ठति । श्रथ द्वावपि वर्गों तुल्यौ द्वावपि गणिनौ द्वावप्याचार्यौ वा तदा तत्रेयं भवति मार्गणा । तामेवाह निष्फल्म 29 से जुंगियपायच्चिनासकरकया। एमेव संगतीणं, नवरं वृष्ट्वा उ नातं ॥ एकस्य निष्पन्नः परिवारः, एकस्याऽनिष्पन्नः । यस्य निष्पन्नः स ग च्छतु । इतरस्तिष्ठतु । अथ द्वयोरपि परिवारो निष्पन्नः केवलमेकस्य तरुणः, एकस्य वृषास्तिष्ठन्तु । इतरे गच्छन्तु । अय द्वयोरपि तरुणा वृद्धा वा । नवरमेकस्य शैका अपरस्य चिरप्रवजितास्ते गच्छन्तु । इतरे तिष्टन्तु । श्रथ द्वयोरपि शैकाः चिरप्रवजिता वा केवलमेकस्य जुङ्गितपादाकिनासाकरकर्णाः अपरस्याऽजुङ्गितास्तत्र जुङ्गितास्तिष्ठन्तु । इतरे गच्छन्तु । मथ द्वयोरपि जुहितास्तत्र ये पादजुङ्गिताः ते तिष्ठन्तु इतरे गच्छन्तु । सम्प्रति प्रवर्त्तिन्या संपतीनां अभिषेकयोश्ध मार्गणा कर्मव्या । ततस्तामाह - ( एमेव ) अनेनैव प्रकारेण संयतीनां मार्ग 9 कर्त्तव्या न वृद्धास्तु नानात्वतच्चेदान तरुण्यस्तिष्ठन्ति वृद्धा गच्छन्ति । शेषं तथैव । सम्प्रति संयतानां संयतीनां च समुदायेन मार्गणां करोतिसमरणाण संजतीण य, समणी अच्छंति नेति समणा उ । संजोगे विय बहुसो, अप्पा संघरणे ॥ भ्रमणानां संयतीनां व एकस्थाने उपस्थितानामसंस्तरणे धमएयस्तिष्ठन्ति । निर्गच्छन्ति भ्रमणाः। संयोगेषु च बहुशः प्रवर्त्तमा मेष्वसंस्तरणे अस्पषट्टै परिभाव्य बक्तव्यम् । अथैवम्-यत्र संयता जुङ्गिताः श्रमरायो वृद्धाः, तत्र जुङ्गितास्तिष्ठन्ति । वृद्धाः श्रमरायी निति । एवं गुरुनाघवं परिमण्यं स्वयुद्ध भावनीयम् । संप्रति क्षेत्रिकाऽक्षेत्रका संस्तरणासंस्तरणयोमीगणां करोति एमे जचसट्टा, तसाम्मि अप्य निति | जुंगियमादीएसु य, वयंति खेत्तीण ते तेसि || एवमेव श्रनेनैव प्रकारण क्षेत्रिकाऽक्षेत्रिकाणामपि संस्तरणे, असंस्तरणे व भावनीयम् तचैवम्-यदि संस्तरणं तदा क्षेत्रका श्रपि नवरम क्षेत्रिका भक्तसंतुष्टास्तिष्ठन्तु । सचित्तमुपधि चनल भन्ते । तस्मात् (तस्साऽनम्मित्ति) तस्य नक्कस्य भक्ताने असंस्तरणे इत्यर्थः । अप्रनवोऽक्क्षेत्रिका निर्गच्छन्ति । अथ केत्रिका जुङ्गिता, आदिशब्दादाता थियो व्रजन्ति यस्तिष्ठन्तु येषां च संस् दतिष्ठन्तु येषां यासंस्ता वृषावा क्षेत्रम् श्रनवति । उपलणमेतत् तेनादेशिनां कुरुकादीनां च न श्रभवति क्षेत्रम् | Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेत पत्ताण प्रणुन्नत्रणा, सारुविय - सिद्धपुत्त - सम्पीया । भोय महवर - शायि निवेया दु-गाडयाई वा ॥ लगाम सन्नि असती, पदिवस पचिए व गंणं । अहं रुइयं स्वयं नायं करे असि । खु क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाणां यत्र वीराः कर्त्तव्यस् मनुकापना भवत्यमा तानेवा ( ७६१ ) अभिधान राजेन्द्रः | - 1 दर्शनाय का भोजको प्रा मस्वामी | महत्तरा ग्रामप्रधानाः पुरुषाः। नापिता नखशोधका वा रिका इत्यर्थः । एतेषामनुज्ञापना कर्त्तव्या । यथा-वयमत्र वर्षारात्रं कर्तुकामाद्ययन्ये कचित्साधयते पामे कथयति (गाउाई ल्यादि) संज्ञ भवको न विद्यते । तदा द्वे गव्यूती गत्वा प्रतिवृषभे अन्तरपल्ल्यां वा गत्वा । यदि श्रावकोऽस्ति ततस्तस्य निवेदना कर्त्तव्या tesस्माकमिदं रुचितं के त्रमेतत् ज्ञातव्यम् | नाऽन्येषां कुरुष्वेति । जमणार समयाणं, अगुएरा वि ता वसंत खेचाहिं । वासावासद्वाणं, आसाढे सुदसमीए || यतनया सरूपिकादिकं सन्तमनुज्ञाप्य केलस्य बहिर्वसन्ति । वर्षावासस्थानं पुनराषाढशुरूदशभ्याम् । सम्प्रति " जयणाए" इत्यस्य व्याख्यानमाहसारूवियादिजयणा, असं वा वि साहए । बाहिं वा विविता वा सापायोग्गं ता वि गेएहए || सापिकादीनामभ्येषां वा यत्साधयति एषा यतना। श्यं च प्रागेवांका अथवा पूर्वगाथा प्रथमार्कस्यैवं यासा पिकादिकमनुज्ञाप्य क्षेत्रस्य बहिर्यतनया वसन्ति । तत्र तामेव यतनामास्थितास्तत्र वर्षा योग्य पादयन्तिकाः सर्वादिप्रत्य एक सम्राट आत्मनः परिपूर्णमुपधिमुत्यादयति । एकस्य प जनस्याधिकस्येति । एतदेवाह दोपदं जतो एगस्सा, निप्पज्जइ तत्तियं वहिट्टा उ । गुस्सा, संचरेचिति ॥ द्वयोरुपधिर्यस्मादेकस्मादन्यस्य निष्पद्यते उपसि कुटस्य तदपेक्षया द्विगुणस्तावन्मात्रमुपधि वर्षायोग्यं सर्वासु दि बहिस्थात्पादयन्ति यदि पुनः संस्तरन्ति तदा बहि प्रति वृषभप्रामान् अन्तरपक्षीं च वर्जयन्ति । न तत्र गच्छन्ति । उचारमत्तगादी, छाराssदी चैत्र वासपाउग्गं । संथारफनगमेज्जा, तत्थ वि ये चैव पत्र | ता बह: थिता एव उचरमानकादि दतथा कारादि आदिशब्दात्मादि रिग्रहः । धर्षाप्रायोग्यं तथा संस्तरकफलकशय्या अनुज्ञापयन्ति। अथ कस्मात्सर्वेषां सारूपिकादीनामनुज्ञापना क्रियते । उच्यतेएकस्य कथिते कदाचित्सोऽसद्भूतः स्यात् ततोऽनुज्ञापितमेव जायते स पुनः कथिते यदि प्रतिनदा १९१ सन्तस्ते अन्येषां साधूनामागतानां खेत कथयन्ति । चैवं वाहिस्तिष्ठन्ति । प्रतिवृपने अन्तरपल्यां ब तत्र ये न मोक्यन्ते । तथा चार पुत्रो यहि मामरूप्पो, एव दूरे खड्ड वामजोगं । वायंति तो अंतरपचियाए, जं कालेन य भुज्जिहत्ती ॥ एस्स पूर्णः खलु तेषां तत्र वर्षाप्रायोग्यतया संभावित क्षेत्रे अथवाआषाढशुरूदशमी अद्यापि दूरे। श्रन्यश्च वर्षाकालयोग्यं त्रं दरे ततः पादशमीचा पाया मो तस्यामनन्तरपल्यामुपलकणमेतन प्रतिवृषभे वा ग्रामे तिष्ठन्ति । अत्र आषाढशुरू दशम्यां वर्षायोग्ये क्षेत्रे समागच्छति - विवकाले एसा मेरा पुरा य आस। य । इयरबहुझे न संपड़, पविसंति अणागयं चैव ।। एषा मर्यादा पुनरसंविग्नले काले आसीत् संप्रति इतरबहुले पार्श्वस्थादिषटुले अनागतमेव प्रविशन्ति किं कारणम् ? अत आह पेहिए न हु अनेहिं पविसंता य पहिया । इयरे कामास पन्जा परिरजिया ।। " मेक्षेित्रे ननु नेषावतार्थिनो मोकाऽर्थिनः प्रविशन्ति । इतरे तु पार्श्वस्थादयः कालमासाद्य परिवर्जिताः पूर्वप्र तत्रापि प्रेरयेयुस्ततोऽनागतमेव प्रविशन्ति । तत्रायें कारणमाह नगराद्वारे वहि कुसुमस्यं मुनेहिं । जाणसी लाहि वर्षति । उगराहारे आका राम्रोद्यानप्रतिपत्तिकरणायाय स्वाप्यमानैगीषायां स्त्री प्राकृतत्वात् वयमाच्छादित तो: कुसुमाभूमिपमानेदितस्यमय भावना-हारे पूर्व बहव म्रका आसीरन् स्तोका वा बब्बूलास्ततो लोकेन बब्बूलान् द्वित्वा राम्रोद्यानस्य वृत्तिः कृताऽत्र बब्बूफल पतनतो बम्बू जाताः परिवमानः शालि समे विनाशिताः। तत उतिमानप्रतिपकिर णाय स्थाप्यमानैः । वयमाच्छादिता नूनमेतैरिति कुसुमम क्षणेति । अत्रोपनयमाहएवं पासत्यमादीओ, कालेन परिवद्धिया । पेलेज्जा माइठाणेहिं, सोच्चादी ने इमे पुरा ।। मानीयात् साधून स्थानीयाः पायया का लेन परिसंस्था यति किं विशिष्ट पावस्थादयइति आह वादयस्ते पुनरत्यमेव यमाणाः तानेवाऽऽहसोबट्टी अणपुच्छा मायापुच्छा जहट्टिने । जयट्टिएँ जंगते, ततिए समगुएल्या दोरडं || एके-या उपेत्य समागताः अपरे नापृष्ठाः समाययुध थवा मायापृच्छाः । एते इयेऽप्ययतस्थिताः तृतीयाः यतस्थिताः। तनाssधानां द्वयानां भरकमानानां कलहयतां गाथायां सप्तमी Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६२) अभिधानराजेन्द्रः । खेत पर्थे, बहुवचने एकवचनं प्राकृतत्वात् न किंचिदाभाग्यम । तृतीये यतस्थिते समानाकृता । साधारणं क्षेत्रम । एष द्वारायासमासार्थः । सांप्रतमेनामेव पिपरीषुः प्रथमतः सोच्या उद्दीति " पदं व्याख्यानयति गुरुणो सुंदरं खेतं, साहणं सोच पाहुणे । नएज अपणो गच्छं एस आट्टिया जितो ॥ बामय समागतै सुन्दरं मिति कयमानं प्राघूर्णकामनो गच्छं तत्र नयति । 'वा उपेत्य स्थित' उच्यते । सांना मायादर्शयतिपेहिनमहितं ना, उापड़ अणो अया तं । गोपालबाबाले पुच्छर भएको पुच्छी ॥ " प्रेम अन् अमेदितं इति यति इति । अन्यः पुनः दुःपृच्छ। यो न किमपि जानते। तानू गोपाल बरस पालान् पृच्छति। अन्य प्रत्युपेक्षितं किंवा मइति । अपि दो वे ते ततिओ पुष्पिं विडियो । सारुवियमादिकानं, वेतसेहिं न पे हियं ॥ तं तु वीसरियं तेसिं पत्था वा ते जवे । खेत्तिओ य तर्हि पत्तो, तत्थिमा हों मग्गणा ॥ सारोदितात्योस्थित अनाच्या माया यावस्थित इत्येवं लक्षविधिस्थितौ । तृतीयः पुनः सा पिकमादि कृत्या सूत्रोक्तेन विधिना पृष्ठा स्थितः यतस्तेषां वित्तत् विस्ता अनुज्ञापितास्ते प्रोषिता अजवन् । श्रन्ये च स्वरूपं न जानते । कुर्वते। अन्येति पूर्व प्रेपणेन के प्रत्युपेक्षितं स केत्रिकस्तत्र प्राप्तस्तत्रेयं वकुमाणा भवति मार्गणा । 1 सामेवाह उहियात जे उ तस्स नामं पि नेथियो । पुपुच्छी, जंने स्वत्तकारणा ॥ सत्र व उपेत्य स्थितस्य नामाऽपि नेकामः सर्वथा सर्वज्ञाऽऽज्ञप्रतिकूलतया दुर्गृहीतनामधेयस्वात् । यस्स्वनापृच्छ दुःपृष्ठ या पत्रकार कल कुतः। अहवा दो वि जंते, जयमापट्ठिएण ते । जियो दो वि नेऊ, जसं देइन सम्पहं ॥ अथवा द्वयति यतनाप्रस्थितेन सह जएकाते । ततः श्रवहा रे जाते के सूत्रो केन विधिना तौ जित्वा तयोर्जतं ददाति । अनुमानितस्यानुजानातीति नायः । तयां सयं सोच्चा, सङ्ग्राहीए व पुच्यिं । दो साधारणं खेयं दिहं तो स्वमधून उ ॥ तृतीयानां यतनां स्थितानां तच्चनतः क्षेत्रिकः स्वयं श्रुत्वा श्राद्धादीन्वा पृवा, ज्ञातं स्वरूपम्, यथा पृष्ठा विधिनैते स्थिताः । इयमत्र भावना - क्षेत्रित्रेण यतनास्थिता अपि पृष्टाः । किं भवन्तो स्वस्थता परंप खेत कथितं यथाऽनुज्ञातमिदं क्षेत्रमिति सत्रिकेखादयः पुनः। यूचुः यत पुनर्युष्माभिरनुज्ञापितं तदस्माकं वि स्मृतम्। यदि वान्ये प्रोषिता भूमये तैरनुज्ञापितालेरा कं कथितं तथैतैर्थ यमनुज्ञापिता इति एवं तेषां यथास्थिते स्वरूपे ज्ञाते साधारण मुभयेषां भवति क्षेत्रम् । विधिमा पृच्छातो यतमास्थितानामपि त्यात त्रान्तः कृपण पिनिसिकेनयथा स कपको विधिना शुरू गवेघयन् आधाकर्मण्यपि शुरूः । तथा इमे यतना स्थिता अपि शुकाः । एतदेवाह सुकं मत्रेसमाणो, पामखपतो जहा भने सुन्दो । तह पुष्किय ठायंता, सुका उजवे असढभावा ॥ यथा पायलस्य कीरान्नस्थ प्रतिग्राहकः शुद्धं गरेषयेत् । श्रा श्राकर्मण्यपि पयांसि गृह्यमाणां शुद्धः तथा विधिना पृष्टाः तिष्ठन्तोऽशनायाः शुका नवन्ति । अत्रैव प्रकारान्तरमाद अतिसंचरणे तेर्सि, उपसंपद्मा व तो इयरे । अविडिडिया दोनी अब इमामगणा अन्ना ॥ प्रतिसंस्तरणातिक्रमेण तेषां त्रिकाणामितरे वतनास्थायिनः क्षेत्रत उपसंपन्ना है। पुनः प्रागुकावधिधिस्थिती तेषाम् । अथ या श्यामन्या मार्गणा । सामेवाहपेडेऊ से पढ़ाना दिगं तु ओसरणं । पुच्छंता कर्हेती, अनुगस्य वयं तु गच्छामो ॥ केचित्साधात्रो वर्षाप्रायोग्यं क्षेत्रं प्रत्युपेक्षयाऽनुज्ञाप्य वेदं चिन्तयति । यथा अत्र प्रत्यासनेषु स्थानेषु समन्ततो बढ्यो - णि च वर्षाप्रायोम्याणि । तत्र प्रचुराणि न सन्ति समासन्नश्च काल तो माकेचिरानो सिद्धेरिति स्नानादिम सरणं सर्वेऽपि मिसिता भविष्यन्तीति तत्र गत्वा सर्वेषां विदि संकुचित्वा तदनन्तरं खानादिसमवसरणं त्या तेषां पृच्छतां कथयन्ति । प्रमुकत्र वयं वर्षा करणाय गच्छाम इति । घोस सोच पिच्छा पुनमतिगए पुच्छा । जिते परिणते पच्छ जयंते न से इच्छा 4 प्रागुक्त घोषणा कोऽपि धर्मकपालः धर्मअधिकास्तत्र थायका भूयांसः तिष्ठन्तीति, परिभाव्य निर्मयोस्तत्र पूर्वतरं गतो गत्वा च संहिनः संशिवर्गस्य प्रेक्षणा संस्वधर्मकथादिजिरात्मीकरणम् । ततः पश्चादागताः त्रिकास्तैः स पृष्टो युष्माकमग्रे कथितं ततः कस्मादिह त्वमागतः ? स तूष्णीक आसीत् । ततः किं पूर्व संप्रत्यपि भावकवर्गश्च तस्मिन्पूर्वस्थित परिणत आसीत् । ततः पश्चाद् मानन्तु वर्ष द्वयोरपि वर्तयामा सामाभवति (से) तस्य न निर्मर्यादा तस्य वा इच्छा जयति । साम्प्रतमिमामेव गाथां व्याचिख्यासुः प्रथमतो घोषणां संभवायतिबाला संजयाणं तो, वग्गेयानि पाउसो । नियामो अमुगे खेतं, घोसण मोठसाहणं ॥ संवतानां समंततः प्रत्यासनेषु बाहुल्यात् उपाद्मथाऽतिप्रत्यास प्रावृट्काले अपिशब्दादन्यानि च वर्णप्रायोम्याणि क्षेत्राणि प्रभुराये न सन्ति ततो मन्ये प्रविशति स्नानादि समय Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६३) खेत्त प्रन्निधानराजेन्द्रः। सरखे घोषादिकमन्योऽन्यकथनं कृतवन्तो वयं त्वमुक क्षेत्र | विग्रहो भवति । माऽविताणे काले तेषामसंस्तरणे अनिर्गचता खिताः स्म इति । तत्साधारणं भवति क्षेत्रम। पोपणस्यैव प्रकारान्तरमाह तत्र चाऽऽयं केत्रव्यवहारःविजिजंते व ते पत्ता, एहाणादीसु समागमो । प्राच्छिह सहग्गामा, कुदेसनगरोवमा सुहविहारा । पहप्पत्ते य नो कालो, सो घोषणयं ततो ॥ बहुगच्छवग्गहकरा, सीमाजेएण बसियवं ॥ साधूनां स्नानादिषु समागमो यो यत पागतः स तत्र प्र-विवक्तितस्य स्थानस्य समन्ततः सन्ति वृषभग्रामा किविशिरा स्थितस्ते च विवक्षिताः केत्रमनुशाप्य, तत्र प्राप्तास्तत्र यदेकेका ति आह-कुवेशे नगरोपमा पहुगोपग्रहकारिणस्तेषु सीगच्छस्य समीपे गस्वा क्रमेण कथ्यते । तदा कालोम प्राप्यते। माच्छेदेन वस्तव्यम् । तत्र वृषनके द्विविधम | ऋतुबशेषबरसत्रस्य भवनात । ततो ये संयममवाप्य चैम्यावा संप्रस्थि- कासे पा । एकैकं त्रिविधम् । तद्यथा-जयम्य, मध्यम, तास्तान प्रासन्नान् कृत्वा मेलापके मेलयित्वा महता शब्द सस्कृष्टं च। घोषणकं कुर्वते । यथा शुत साधवः । अस्माभिरमुकं क्षेत्र तत्र ऋतुबद्ध जघन्यमाहवर्षानिमित्तमनुशापितमिति।। जहियं व तिषि गच्छा, पठारमुभया जणा परिवसंति । "सोना सनिस्से" त्यादिव्याख्यानार्थमाह एवं बसना खेतं, तन्निवरीयं जवे इयां ॥ दाणादीमकलियं, सोऊणं तत्थ कोइ गच्छेजा। उभी जनौ । भाचायों, गला ऽवच्छेदकश्च । तत्राचार्य रमणिज्ज खतिय, धम्मकहालछिसंपयो । प्रास्मद्वितीया, गणाऽवध्दी प्रास्मतृतीयः । सर्वसंख्यया तदोषणं भुत्वा कोऽपि धर्मकथालब्धिसंपनो दामादिप्र- पथ परिवसन्ति। एतत् जघन्यम्, ऋतुबद्ध काले वृषभत्तेत्रम। धानभाइकलितं तत रमणीय क्षेत्रमिति कस्वा तत्र गच्छेत् । सविपरीतं यत्र सारशाः पच जना न संस्तरम्ति तत संयवकहाहि पाउ-हिकण प्रत्तीकोहि ते सके। भवति इतरत,मखूष क्षेत्रम् । यत्र द्वात्रिंशत् साधुसहस्त्राते विय तेसु परिणया, इयरे वि ताहि अणुप्पती॥ णि संस्तरम्ति । यथा-ऋषभखामिकाले ऋषभसेनगणधरस्य। संस्तवेन धर्मकथाभिश्च तान् श्राद्धान् प्रावर्य प्रावय भा. जघन्योत्कृष्टयामध्ये मध्यम वर्षाकाले यत्राचार्यः आस्मतृतीयः। स्मोकरति। तेऽपि च श्राकास्तेषु परिणता इतरेऽपि वधि गणाऽऽवदी स्वास्मवतुर्थःसर्वसंख्यया सप्तापवंप्रमाणा यत्र कास्तत्राऽनु पश्चात्प्राप्ताः । भयो गम्छाः संस्तरम्ति । एतत् जघन्यं वर्षाकालप्रायोग्यं वृषनोहति तेण जणिते, साढे पुच्छति ते वि यजति । नकेत्रमा उत्कर, मध्यमं चायथा-ऋतुबके कामे ईरशेषु बहुग. कोपमहकरेषु वृषनप्रामेषु सत्सु।यदि वा-पतेष्वेव साधारणेषु अच्छह जंते ! दोगह बिन तेसि इच्छाएँ सञ्चित्तं ॥ | क्षेत्रेषुन परस्परं जाम्नं कर्तव्यम् । सबित्ताऽऽदिनिमि तः त्रिनिगम्यतेति भणिते, ते पूर्वगताः भाकान् पृष्ठन्ति ।। किंत-सीमानेन वस्तम्यम। यामा वयम्। निष्काश्यमानास्तिष्ठामः। तेऽपि च भाकाकेत्रिकान तमेष सीमाच्छेदमाहसमागस्य जणन्ति-श्रासाध्वं भदन्ताः!यूयं येऽपि यतो यो. रपि वयं वर्तिध्यामह। तत्र तेषां पूर्वगतानामिच्या सचिसमु तुझं तो मम वाहि, तुज्क सचित्तं ममेतरं वा वि । पकणमेतदुपधिधन प्रवति । किंतु केत्रिकाणामेवेति । आगंतुग-वक्षुब्बा, धी-पुरिस-कुलेसु व विरेगो । असंथरे अनितणे, कुलगणसंघे य होइ वबहारो।। परस्परंवर्गेऽन्तगों व्यवहार एवं कर्तव्यः। मूलग्रामस्याऽन्तमध्ये यत् सचित्ताऽदितत युष्माकम् अस्माकं तुबहिःप्रतिवृषभा:केवइयं पुण खेत्तं, होइ पमाणेण बोधव्वं ॥ विषु।मथ वा-युष्माकमितरत्मचित्तम्। यदि वा-युष्माकमागभसंस्तरे अन्यत्र प्रसंस्तरणे पुनरनिर्गच्छन्तं कुछे गये सोय न्सुका,अस्माकं वास्तव्याआयुष्माकं लिया, अस्माकं पुरुषाः यदि भवति । प्रमाणेन योरून्यम । वा एतेषुकुषुयो सानःसयुज्माकम्। एतेषु तुकुरवस्माकमिति । ताऽऽहएत्य सकोममकोस, मूलनिवर्फ गामममुयंताणं । एवं सीमच्छेदं, करोति साहारणम्मि खेत्ताम्म । सचिने अच्चित्ते, मीसे य विदिनकामम्मि॥ पुलं वितेसु जे पुण, पच्छा एज्जाहि असे उ॥ अत्र क्षेत्रमार्गणायां यत् क्षेत्रमासयोग्य,वर्षाप्रायोग्यं वा। तत् स-1 कम्ये तु पषमुक्तम प्रकारेण साधारण के सीमावं कुर्वन्ति । काशम,अकोशं च। तत्र यत्सकोशम्-तत्पूर्वासु विश्वप्रत्येक स-1 घे पुनरन्ये तत्र पूर्वस्थितेष्यन्येषां केत्राणां न समागच्चन्ति । गन्यूतमूर्चमधश्चाऽद्धकोशम् मईयोजनेन च समन्ततो यस्य | खेते उपसंपमा, ते सम्बे नियमाउ बोचा। प्रामाः सन्ति । अकोशं नाम-यस्य मूलनिवन्धात्परता पक्षां दिशा-1 भाभव तत्था तेसिं, सबिताऽऽदीण किं नव ॥ मन्यतरस्यामेकस्यां योस्तिसुषु वा दिनु अटवीजलश्चापदा-1 ते सबै नियमेन क्षेत्रतः उपसंपना ज्ञातव्याः । अथ-तत्र क्षेत्र स्तेन पर्वतनदोव्याघातेन गमनं भिकाचर्या च न संभवति तदा तेषां तथास्थितानां सचित्तादीनांमध्ये किमाभाव्यं नवति। कि मशनिवखमात्रमकोशमातंग्रामममुश्वतां किमुक्तं भवति-तस्मिन् | बा नेति। सकोशे प्रकोशेचा के स्थितानामृतुवके काले निष्कारणमेकैका मासकल्पा बितीणोंऽनुकाता, कारणेन पुनर्नयानपिका तत्राहलो बर्षामु निष्कारणं चत्यारोमासाः कालो वितीयः। कारणे- नाल पुर पच्न संघुय, मित्ताइ व वंसया सचित्ते य । न पुनरपि प्रजूतोऽपि एवं विती काले सचिसे प्रचित्ते मिया माहारमेत्तगतिगं, संथरग-वसहि-अञ्चित्ते ।। Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेत उग्गहम्मि परे एयं लभते न अखेतितो । गादीनि दिनं तु कारणमिव सोझने ॥ ( ७६४ ) अभिधानराजेन्द्रः | 1 नायकाः पूर्वे संस्तुताः, पश्चात्संस्तुतानि मित्राणि, वयस्याश्च । सपिरे परकीये अतिको लभते अि आहारम् अशनाऽऽदिकम् प्रश्रवणमात्रकं, लेखमात्रकं च संस्तरकं परिशाटिरूपमा परिसाटिरूपं वा वसतिं च वस्त्राऽऽदिकं पुनदेसं लगते। कारणं श्रुतिस्तरणाऽऽदिलक्षणे पुनरदत्तमपि लभते । तदेवं गतं क्षेत्रद्वारम् । व्य० १० उ० । पकक्षेत्रे उपसंपद्यमानानां कस्य क्षेत्रमाभवति सम्प्रति " साहरण पत्तेगे" इत्यादि व्याख्यानयतिदोमादियामाहर साम्म सुनत्य कारणा एके । जति तं नवसंपजे, पुव्वठिया वी य सेकंतं ॥ दोषाः समाकराः समकमेकस्मिन् क्षेत्रे स्थितास्तेषां तत् क्षेत्रम् भजाव्यतया साधारणम् । तस्मिन् साधारणताः सन्तो यदि तमेके मन्ये सूत्रार्थ कारणापपद्यन्ते । अथवा ये पूर्वे समाप्तकल्पतया स्थितास्तेषाम् आनयति तत् क्षेत्रम्। न पश्चादागतानां समाप्त कल्पानामपि पूर्वस्थित अयदि दागच्छं सूत्रार्थका ! -यस्य समीपमुपपद्यते तस्य तत् संक्रान्तं तस्य तदानवति । नान्येषामिति भावः । ते हि तस्य भतीच्कीचूतास्तेन तेषां क्षेत्रमितरस्य संक्रामतीति । अथ नोपपद्यते। किंतु सूत्रम वा पृच्छन्ति । तत्राऽऽह चाहि तीहि दिवस सतां पृच्छामियं हरति । माणे राऽऽवनियमासो || पृच्छामिभिः पृच्यमानः परिपूर्ण दिवया धत् तत्केश्गतं सवित्तादि हरति गृह्णाति । त्रिपृच्छादानतस्तस्य क्षेत्रस्यैकं दिवसं यावत्तदाभवनात् । सप्तभिः पृच्चाभिर्माविकेति किमु भवति तासु पृष्ठमानः परिपूर्णमासं यावत्तत्क्षेत्रगतं सचित्तादि बजते मासं यावतस्य क्षेत्रस्य तदाजवनादिति । ( अक्खेत्तुवस्सए इति ) अक्षेत्रे स्थितानामुपाश्रये विशेषा मार्गणा कर्त्तव्या । सा चाऽऽप्रे करिष्यते । तथा यदि पृच्छयमानः श्रात्मीयमुपाश्रयं दूरम्, उ पलकणमेतत् आसन्नं वा । श्रावलिकाप्रविष्टम उपलक्षणमेतत् मएकलिकाप्रविष्टं वा, पुष्पाऽऽवकीर्ण वा कथयति । तदा तस्मिन् प्रायश्चित्तं मासो लघुकः, तं च पृच्छन्तं लभन्ते । एष संकेपाऽर्थो ब्यासाथीऽग्रे कथयिष्यते । श्रक्षेत्रे उपाश्रयस्य मार्गणा कर्त्तयेत्युक्तम् । समताप्रमाद दाग जाएं अकाण, सीसए कुलगणे पठय गामादिवाणमंतर देय उज्जाणमादीसं । इंदकीलमणोगाहो, जत्थ राधा जेहिं व पंच इमे । पुरोदियडी सेणावतिसत्यवादाय ।। मनःप्रतिमानां मे मिलितानामनुपानं यात्रा तनिमित्तं मिलितानाम् । अथवा र्द्धशीर्षकं यतः परं खेत्त समुदायेन सार्थेन सह गन्तव्यं सम्यग् मार्गवहनात् । तत्र मि लितानां ( कुल प्ति) कुसमवाय मिलितानाम् (गण सिग समवायमिखितानां चतु तत्समदायमिद्धितानाम् (मा माइ) इत्यादि । प्राममहे वा, आदिशब्दा नगराऽऽदिमदे वा उद्या नम या आदिशब्द समागादेम हे या इन्द्रकीलकम पा यत्र च सकलजनमनोग्राहो राजा यत्र वा इमे श्रमात्यपुरोहितश्रेष्ठि सेनापति सार्थवाहाः पञ्च गता वर्त्तन्ते । तत्र कथमपि गताः समकं स्थिताः तर्हि साधारणा वसतिः। अथ विषमं स्थितास्तर्हि ये पूर्व स्थितास्तेषां वसतिः भभवति । नेतरेषां प श्चादागतानाम् । तस्यां व वसतौ यः शिष्यतया उपतिष्ठति तं वसतिस्वामिनो लभन्ते नेतरे । "पुच्छ्रमाणे दूराऽऽवलियमासो" इत्यस्य व्याख्यानार्थमादपुफान कमी पावक्षिय जनस्या जने तिविद्धा । जो अभासे तस्स उ, दूरे कहंतो न बने मासो ॥ क्वचित् ग्रामे नगरे वा साधवः पृथक् उपाश्रये स्थिताः। ते चोपाअपास्त्रविधा भवेयुः तद्यथा- पुण्याऽयकीर्णकाः ममासिकाचा श्रावलिकास्थिता वा स्थापना 000000000 एतेषामुपाश्रयाणां मध्ये कुतश्चिदे-०००००० कतरस्मादुपाश्रयाद्विचारादिनिमि ० ० 0000 08000 0000 कोऽपि विनिर्गतस्तं दृष्ट्वा कोऽपि प्रविवजिषुः पृच्छेत् । यथाकुत्र साधूनां वसतिरिति । स ब्रूते किं कारणं त्वं पृच्छसि । शिष्यः प्राह-प्रवजिष्यमीति । तत्र यदि स एवं पृष्टः सन् (दूरे कहंतो न लभे मासो इति ) आत्मीयमुपाश्रयं दूरम, श्रासनं वा कथयति । तर्हि तस्य प्रायश्चित्तं लघुको मासः । न च तं शिष्यं लभते । कस्य पुनः स श्राभवतीति चेत् ? । तत श्राह-योऽन्यासे तस्य किमुक्तं प्रवति तस्मादवकाशात् यस्य प्रत्यासन्नतर उपाश्रयस्तस्य श्रनवति । किह पुण सायन्त्रा, उद्दिसियन्वा जहकमं सब्वे । पुच्छ संविग्गे, तत्थ व सब्बे व अका वा ॥ कथं कथयितव्या उपाश्रयाः । सूरिराह- उद्देष्टव्याः यथापुनः क्रमं सर्वे । यथा अमुकस्यामुकप्रदेशे । एवं कथिते यत्र व्रजति तस्य स श्रभवति । अथ पृष्ठति संविद्मान् बहुश्रुततरान् तपस्थित राँश्चेत्यर्थः। तत्र यथाभावमाख्यातव्यम् । वितथाऽऽख्याने मासलघुः । न च स तं लजते। किं तु ये तपस्वितरा बहुश्रुततराध तेषां स श्रनवति । श्रथ सर्वे अर्द्धांचा संविग्नास्ततस्तथैवाssख्याने यत्र स ब्रजति तस्य स श्रभवति । न शेषस्येति । एतदेव विशेषमाह सुन्या अमंदिरगे, जे अहियं ते य साहसी सच्चे । सिइम्मि जेसि पासं, गच्छति तेर्सिन असिं ॥ इथे पार्श्वस्था यो चिन्नास्ते यदि पृन्हा सेन कथनीयास्तेन मुक्त्वा शेषेषु पृष्टेषु ये यत्र विद्यन्ते तान् सम सर्वान् कथयति । शिष्टे च कथिते सति, येषां पार्श्व गच्छति यमाभवति नाम्येचाम् । 3. नीगाण व जया, हिरिबाले असंजमा हिगारे वा । एमेव देसरज्जे, गामेसु व पुण्त्रकहणं तु ॥ कोऽपि तस्मिन् प्रामे नगरे देशे राज्येन Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६५ ) अभिधानराजेन्द्रः । खेत कारणमिति चेत ? । उच्यते- निजकानां स्वज्ञातीयानां भयात् । मा निजका उपयाजयेयु जन्यामारुति यदि निजकानां समक्षं लज्जते । ततो हीनो वा । श्रथवा असंयमाऽधिकारः असंयमाधिकरणं तव प्रामादिकावादिप्रचुरत्वात् । ततोऽन्यत् प्रामादिकं यन्तुमनास्तचैव विचारादिगतं पृच्छेत् । यथा- कस्मिन् ग्रमि नगरे देशे राज्ये वा साधवः । एवमन्यस्मिन् राज्ये प्रामेषु या पुच्छायामेवं पूर्वोकेनैव प्रकारेण यथानावरून कर्त्तव्यम् किमुक्तं भवति यथा-त्रिविधेपायासरत परिवबहुश्रुतानां पृच्छायां व्याकरणमनाभाव्य, आभाव्य च वर्णितम् तथाजाऽपि द्रष्टव्यम्। तद्यथा-यत् यथा कथनीयं वितथाSsस्यते तस्य प्रायश्चित्तं मासलघु । तत्र च गतस्तेषां समीपमुरगच्छति । स तेषामाभवति । नान्येषामिति । अवा विदेसं संपट्टियगं तगं मुणेऊण | मायानियमिपहाणो विष्परिणाम इमो तु । अथवेति प्रकारान्तरे तच प्रकारान्तरं विपरिणामविषयं वक्ष्यमाणरीत्या ष्टयम् विचाराऽऽदिविनिर्गतं साधुंडा कोऽपि पण आदरेण कन्दतेनं तथा दमानं पृच्छति। कुतस्य कुत्र वा संप्रस्थित इति । स प्राऽऽह श्रमुकं देशं संस्थितः तत्र गत्वा प्रवजिष्यामि । तत एनमन्यदेशं संप्रस्थितं तं ज्ञात्वा मायी परनिकृतिराकारवचनास्वादनं यथाकुडाSSक्यावृत्येन नयते मायानिकृती प्रधाने यख स तथा एभि मकरादिभिर्विपरिणामयति । तान्येव विपरिणमस्थानानि चैस्याऽऽसीति दर्शयतिचेय साहू बसही, वेज्जा व न संति तम्मि देसम्म । पमिणीय - साम- साणो, वियारखेत्ता ग्रहिगमग्गो || यत्र त्वया गन्तव्यं तस्मिन् देशे चैत्यानि, यदि वा साधवः, श्रथ वा-संवसतयः, यद्वा-वैद्यान सन्ति । तथा बहवस्तत्र प्रत्यनीकाः । न च दानाऽऽदिप्रधानानि संझिकुलानि । श्वानः प्रभूताः, न च तत्र विचारभूमि, सर्वत्र पानीयाऽऽकुलत्वात् । नाऽपि तत्र विहारयोग्यानि क्षेत्राणि । अधिकश्च नूयान् मार्गः पन्था एतैः प्रकारैर्विपरिणामयति । तत्र प्रथमतभैत्यमधिकृत्याह बंद पुच्छा कहणं, अमुर्ग दे वयामि पर्छ । नत्यि तर्हि चेहयाई, दंसणसोही जतो होइ ॥ परया भक्त्या विचाराऽऽदिनिर्गतस्य साधोर्वन्दनम् । ततः पृच्छा कुत्र गन्तव्यम् । तदनन्तरं तस्य कथनम्-अमुकं देशं वजामि प्रवजितुमिति । एवमुक्तेस प्राऽऽह न सन्ति तत्र चैत्यानि बतो बेच्यो दर्शने शोधिः सम्यदर्शने निर्मलता नयति । कथं यो दर्शनशोध इति मत आह पूयं तु दहुं जगबंधवा, साहू विचित्ता समुर्वेति तत्य । Soजंगं च दट्ठू नवासगाणं, सेटस्स की धीर धम्मसदा ॥ जगन्धानां पूजां तत्र तेषु चैत्येषु साधयो विचिया भाग्या जयतराः समुपयन्ति मूर्ति दृष्ट्वा देशनां वा समाकर्ण्य तथा उपासकानां श्रावकाणां स्नानविक्षेपनाऽऽदिषु अञ्यङ्गं च १६२ राधास्तामन्येषां शुभ परिणामासः स्थिरति स्थिरी नवतीत्यर्थः । चैत्यानि तु तत्र न विद्यन्ते । ततः किं तत्र गत्वा स्वया कार्यम ? इति द्वारमाद न संति साहू तहियं विवित्ता, को खलु सो उसे संसम्म मम्मि लोप, सा जावया तुब्न वि मा ह बेज्जा ।। न सन्ति तत्र साधवो विविक्ता एकान्तसंविग्नाः। किं तु अव सन्नकीर्णोऽवसन्नव्याप्तः खलु स कुदेशः । अयं च लोकः संसगिहार्यः संसर्गात् हियते संसर्ग्यनुयायी जवति । तथाखानाव्यास्ततः संसर्गिहार्येऽस्मिन् लोके वर्तमानस्य तथाऽपि सा प्र वनभावना मा भूदिति तत्र न गन्तव्यम् । शय्याद्वारमाह सेना न मंत्री अवेसरिणा इत्वीपमगमादिकेणा । रेवन्त कस्यापि धर्मक " उच्छमादीसु य तासु निचं, वातपाचरणं न मुझे ॥ तत्र शय्या न सन्ति । अथवा पणीया न विद्यन्ते । यदिपरमात्मकृताः यदि वा स्त्रीपशुपपदका सचि सांसु चाऽऽत्मोत्थाऽऽदिषु श्रात्मकृताऽऽदिषु नित्यं सर्वकालं तिष्ठतां चरणं न शुद्ध्यति चारित्ररूनं जायते । वैद्यादिद्वारचतुष्टयमा बेला नित्थितहोसड़ाई, लोगो य पाएण सपच्चणीयो ॥ दावा सीप तहिं न संति, सोहि किरणो सहलूसएहिं ॥ तत्र वैद्याः, तथा श्रोषधानि च न संन्ति । लोकश्च प्रायेण तत्र प्रत्यनीकः । दानादिप्रधानाश्च संज्ञिनः भावकास्तत्र न सन्ति । तथा श्वभिः सदसूपके कोरे की व्याप्तः । विहारक्षेत्रद्वारमाहअवसम्म विचारभूमी, विहारखेानिय सत्य पत्थी । साहू किं, को दूरमण ममफरो से ॥ यत्र त्वया गन्तव्यं तस्मिन् अनूपदेशे जलमयदेशे विचारभूमिनोस्ति । नाऽपि तत्र सन्ति विहारयोग्यानि क्षेत्राणि । अन्यच्चसाधुवास्थितेषु तब को दूरमार्गेण (मरामफरो) गमनोकालविषयं सूत्रं भाषितम्। अधुना वर्षावासविषयं भावयन्ति वासासुं ममा, समत्ता जे वि या जत्रे वीसुं । सिन होइ खेतं, अह पुरा समसाय करेंति ।। तो तोस होति खेत्तं, को न पनू सिं जो उ रावणियो । लाभो पुण जो तख्या, सो सम्देति तु सामएणो ॥ पर्यास वर्षाका ये अमनोः परस्परोपसंपद्विका समा Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेत सासमाकपा विश्वक पृथक स्थिता भवेयुस्तेषां न भवति क्षेत्रम् । श्रज्यामसमाप्त कल्पत्वात् । अथ पुनः सुखदुःखादिनिमित्तं समनोकतां परस्परोपसंपदं कुर्वन्ति । ततो भवति तेषामाप्राप्यं क्षेत्रम परस्परोपसंपाद ( ७६६ ) अभिधान राजेन्खः । कः प्रतुः । उच्यते यो रात्निको रत्नाधिको यस्य पर्यायाधिकतया वन्दनादीनि क्रियन्ते (सिं) तेषां प्रचर्लाभः पुनर्यस्तत्र भवति स सर्वेषां सामान्यः साधारणः सर्वेषामप्यनार्यत्वाड पाध्यायत्वाद्वा ! उ अब नही बी, लिया सम्यकविया हुआ । ग्रो समनरुपी, एज्जादी व वं खेनं ॥ अथवा असमाविका यदि विश्व विश्वभ रन्यः समाप्तकल्पः समाप्तकल्पोपेतः पश्चादागच्छेत् तस्त्र तत् रेषां पूर्वस्थितानामपि समाचा अहवा दोन विरिण व समर्थ पत्ता समचकपीओ मर्सिबी तो तं खेनं दो साहरणं ॥ अथवा द्वौ वा त्रयो वा गच्छाः समाप्तकल्पिताः पृथक् पृथक कल्पोपेताः समकं प्राप्तास्ततस्तेषां सर्वेषामपि तत्क्षेत्रम् । श्राजाव्यतया साधारणं भवति । दुवा, कालकुजा समपुरणयं तु । तालपत्तो य समत्तकप्पो, साधारण से पहलेसि खेनं ॥ अपूर्णकल्पा श्रसमाप्तकल्पा द्वौ त्रयो वा गच्छाः स्थिता न च परस्परमुपसंपत गृहीता पश्चात् सूत्रार्थाऽऽदिनिमित्तमुपसंपदं गृहीतुमाररुधाः । ते च यत्कालं यस्मिन्काले समनोइतां परस्परमुपसंपदं कुर्युः कुर्वन्ति । तत्कालप्राप्तस्तस्मिन्काले प्रासाऽन्यः समाप्तकरूपस्तेषामपि तत् क्षेत्रम नवति साधारणम । परस्परोप संपग्रहण वेलायामेव समाप्तकरूपस्यापि प्राप्तत्वात् । संपति परस्परोप बारापतिन सूत्रम वाऽधिकृत्य य ग्राभवनविशेषस्तमभिधित्सुराहसाहाराडिया, जो भासति तस्स तं व हरति खेत्तं । बारगतं दिध पोरिसि, मुदुन जासे न जे ताहे ॥ साधारणस्थितानां साधारणाऽवग्रहाऽवस्थितानां मध्ये यः सूत्रमर्थ वा भाषते । तस्य तद्भवति क्षेत्रम् । न शेषाणाम् । श्रथ ते धारवारेण भाषन्ते । तत आह-यो यदा वारकेण दिनं, पौरुष मुहूर्त्त वा भाषते । तस्य तावन्तं काल मानाव्यम् । न शेषकालम् । इयमत्र जावना - यो (यति) दिवसा भाषते तस्य (तति) दिवसा नाभाग्यम् । अथवा प्रतिदिवस यो (यति) पौरुषी भांपते तस्य (a) पौरुपी यदि वा यो (पति) मुसो भाष तस्य तावत्कालमवग्रहः । न शेत्रकालमपीति । आलिया मंमलिया, पोमगकंमूह व जासेला । मुनासतिमा साइयादि ना असीर्तितु ॥ इढ सूत्रस्याऽर्थस्य वा जावणे त्रयः प्रकाराः। तद्यथा आवलिकया मण्डल्या घटककएमूयितेन च तथा विच्छिन्ना एकान्ते भ यति मरमन्त्री सा आवनिकायाः पुनः स्वस्थान एव सा मएमजी घोकटकण्डूयितं नाम यधारं वारं परस्परं प्रच्छन्नं तत्तयोः प खेत रस्परं कथितमिद पोटतिं तथा भाष मिडलिया घोषितेन या रात्र सुभाष सामायिका तायत्यात्म्याशी निम् त्राणि पूर्वेषु तु विशेष इति संप्रति मामाश्यप्रतिकरसमीपे दशकामध दशवैकामानाssवार्यस्य प्रवति क्षेत्रम । तथा एकस्य पा कालिकमधीते दशकाचा ।। श कालिप्रतिप्रकस्य पार्श्वे उत्तराध्ययनान्यधीते उत्तराभ्ययनवाबनाऽऽचार्यस्य भाजाव्यं क्षत्रम् । एवं यथोत्तरं तावद्भावनीयं यावदाऽशीतिसूत्राणि । मुझे जडुसरं खलु विलिया जा होति दिद्धि बायो ति । वि दो एवं अपत्यं नवरिनुं ।। यथा-सूत्रे यथोत्तरं वनिता पवमर्थेऽपि भावमीया तथा एक एकस्य पार्श्व आवश्य कार्थ वाचनाचार्यः पुनरारावश्यकाडये प्रतिकस्य समीपे दर्शवेकालिकाथंवाचनाचायस्य श्रा भवति । एवं तावद्वाच्यं यादीत saणामुपरि वेदमूत्रार्थाऽऽचार्यो व कव्यः । तद्यथा-एकस्य पार्श्वेादमानामधीतेति प्रार्थनाचार्यः पुनराशीतिप्रार्थयति समी दसूत्रार्थमधीते वेदसूत्रार्थवाचमाचार्यस्य श्राभाग्यं तत् क्षेत्रम् । मेवमीसम्म वि. मुलानो बलवगो पगासो छ । पुत्रrयं खलु बलियं, हेहिलत्या किमु सुयातो ॥ यमेव अनेनैव प्रकारेण मिथकेऽपि सूत्राऽर्थरूपोभयस्मिन्नचि वक्तव्यं सर्वत्र सूत्रात् बलवान् प्रकाशोऽर्थस्य प्रकाशकः तद्यथाएक एकस्य पार्श्वे आवश्यक सूत्रमधीते । तस्य समीपे पुनः सूत्रवाचनाचार्य श्रावश्यकस्यार्थमधीते । श्रावश्यकार्यवाचनाचार्य क्षेत्रम्। एवं तावद्भावनीयं पारशीतिसूत्रा वाचनाचार्यः सर्वेषाऽथस्तनात् पूर्वगतं वलीयः तथा चाह-पुण्यमित्यादि) पनि पूर्वगतं सूपं खलु अस्तयति बढी मासुरास्तनाद सूत्रा द्वतीय इत्यर्थः । तद्यथा-एक एकस्य पार्थो अावश्यकस्य सूत्रम भवते तस्य समीपे नराश्यात वाचनाचार्यः पूर्वग स्वताच्याशीतिः सूचाणि पूर्वगन सूत्राच पूर्वगताऽर्थो दलीयान् तत एकस्य पार्थो पूर्वगतसूत्रम धीते तस्य समीपे पूर्वगत सूत्र वाचनाचार्यः पूर्व गतमर्थ पूर्वगतसूत्रमधे पूर्वगताभवति । अथ किं कारणं शेषात्सुत्रादर्थाच्च पूर्वगतं सूत्रं बलीयः तत माहपरिकम्मे यस्था सुनेहि य नेहि सूया तेर्सि होइ विजासा उवरिं, पुव्वगयं तेण वलियं तु ॥ दृष्टिवादः पञ्चप्रस्थानः । तद्यथा परिकर्मणि सूत्राणि पूर्वगतमनुयोगचूलिकाका तत्र ये परिकर्मभिः सिकणिकप्रभूतिभिः स्वैधा तिसर्या मूचितास्तेषां सर्वेषामयेषां व उपरि पूर्णेषु विभाषा भवति । अनेकप्रकारात् तत्र नाभ्यन्ते ३स्पर्थः तेन कारणेन पूर्वगतं सूत्रं वलिकम सम्प्रति येन कारणेन सूत्रार्थी बनियान् तदभिधित्सुराह तित्यगरस्था (डा) णं त्यो सुतं तु गण हरल्या (हर) | Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७९७) अभिधानराजेन्द्रः । खेत अत्येण य जिज्जर, सुत्तं तम्हा उ सो बलवं । अर्थः खलु तीर्थकरस्थानं तस्य तेनाऽनिहितत्वात् । सूत्रं तु ग धरस्थानं तस्य तैर्डत्वात् । श्रर्थेन च यस्मात्सूत्रं व्यज्यते प्रकटीक्रियतेोऽर्थः सूत्र बलवान् अथ कस्मात् ? शेषाऽर्थेज्यको सुत्राऽर्थो बलीयानित्यत आहजम्हा उ छोड़ सोही, बेयसुयत्थे खलियचरणस्स । ता वसुत्यो पलनं मुभूा पुण्यगर्थ ।। यस्मात् स्वलितचरणस्य स्वचितचारिषस्य प्रेताऽचैन शोधिभवति । तस्मात्पूर्वगतमर्थे मुक्त्वा शेषात्सर्वस्मादप्यर्थात् भुताऽर्थो बलवान् तदेवमावलिकामधिकृत्योक्तम् । अधुना मण्डलीमधिकृत्याहमेसी पुग्दाय नपम्प कहिनादी । अनार अहिलमाणे बहुस्सुए वि ।। यथा अस्तादावनिकायामुकम् एवमेव मण्डस्यामपि रूटयम् । सा मण्डली क भवति ? इति चेत्। उच्यते- पूर्वाधीते महे रायमाने पाप धर्मकयाशास्त्रेषु देश मानवी माने बहुभुतेऽपि बहुश्रुतविषयेऽपि मण्डली भवति । तत्राप्याजाव्यमावनिकायामिष भय कथमावलिकायामिव भएकल्यामपिमिति उच्यते एक एकस्य पान मावश्यकमुज्ज्वासयति । आवश्यक वाचनाचार्यः पुनस्तस्य समीपेशवेकालिकंकालिकामात स्वादिसर्वे तथैव । तथा एक एकस्य पार्श्वे श्रावश्यकं नष्टमुज्ज्याजयति पोशावश्यक वाचनाचार्योऽयस्य समीपेशवेका लिकं, दशवैकालिकवाचनाचार्योऽप्यपरस्य समीपे उत्तराज्यमानि, उत्तराध्ययनवाचनाचार्योऽप्यभ्यस्य समीपे आचाराङ्गम । एवं वाताचार्यः पूतं ममन्यस्य पार्श्वे नाचा आनयति । न शेषाणामाभयनस्योत्तम कामयान्तिमेवस्थानादेालिकायामपि द्रयम् । तथा-यस्य पार्श्वे धर्मकथाशास्त्राणि योज्यायस्यधीयते वा संघाटस्य श्रभवति । न पाठ्यमानस्य । तथा बहुततरोऽपि यद्ययस्य समीपे प्रकीर्णक स्कंदायनाचार्यस्य आनयति बहुततरस्य । किंबहुना यो यो स्य समीपे पडत्पुरत्यादयति वास् मामयमित पचनाचायों हरतीति । essaलिकाया महमल्याश्च कः प्रतिविशेषः इति श्रत आहविद्याणि विसेसो, आलिया अंतर गति । मंमलिए सफा, सचितादी संकमति । श्रावलिका-मराकल्योः परस्परं खिन्नान्निरूपो विशेषः । श्रावसिका तिम्रा विविक्त एकान्तो जयति । म एमत्रिका स्वाक्ष "आबलिया तत्या, एमलिया हो अच्छिना उ" इति वाचनात् । देव मासिकायामुपाध्यायको ऽस्तमध्ये बि विके प्रदेशे तिष्ठति । मण्डल्या पुनः स्वस्थानमाभवनं च पाठयिसमितिसािदिषु क्षेत्रगत चिसाविषयम अधुना पोटधकृत्याह दोयहं तु संजयानं घोमककंड्यं करेंताणं । जो जाहे नं पुच्छर, सो ताहे पढिच्छतो तस्स ॥ खेत्तकप्प द्वयोः संयत यो घटक एमूयितमित्र (घोटककंडूश्यं) परस्परं प्रच्नमित्यर्थः । न कुर्वतां यो यदा यं पृच्छति स तदा तस्य प्र तीच्चकः । इतरः प्रतीच्यः तावत्तस्य मानवति । न शेषकालभिति । उपसंहारमाह एवं ता असमत्ते, कप्पे जतिो विहीन जो एस । एतो समत्तप्पे, वच्छामि विहिं समासेणं ॥ सायद समाकल्पे यो विधि स प नशितः । अतः कई समासेन समाप्तकल्पे विधि वक्यामि । प्रतिज्ञातमेव निर्षादयति गरियो, सेम्मिठियाण दोसु गामेसु । बासासु होति खतं, निस्संचारेण वाहिरतो । गोऽस्यास्तीति गणी गावच्छेदकप्राचार्य प्रतीतः। तयो प्रमयोः पृथक् पृथक् स्थितयोर्वर्षासु आजवति क्षेत्रम् । प्रामद्वयलक्षणम्। अन्तः क्षेत्रं स्थितयोः क्षेत्रमध्य व्यवस्थितयोर्न पुनः परस्परं गमनागमनतः । कुतः ? इति । श्राद-बहिर्निःसंचारेण स्वस्वप्रभावहिः पानीयहरिताऽऽद्याकुलतया संचारौ भवतः । बासायु समचार्थ, उग्गहो एगदुगपिंटिवाणं पि । सादारणं तु से पोछे दुद्धिं च पच्छ कर्म ॥ वर्षासु बहूनामाचार्याणां परस्परोपसंपदा समाप्त कल्पानां वर्षासु समाप्तजनाः समाप्तकल्पाः । श्रसमाप्तकल्पा जनाः श्र समाप्तकल्पाः ( एगदुगपिमियाणं पि) संप्राप्स्याऽप्येककाः सन्तः पिण्डिता एकपिएिमताः । अथवा द्विकेन वर्गद्वयेन एकः एकाकी, एकः पद्वगों। यदि वा एको द्विवर्गः, एकः पञ्चवर्ग इत्यादिरूपेण विमिताः द्विकपिडितास्तेषामेकद्विकपिएिमतानाम अपिशब्दात्त्रचतुष्कादिपरिमतानां यह मान यतिन शेषाणामसमापन तथा साधारणं शेकं वक्ष्ये साधारणः शैको यस्य भवति । तस्य तं वक्ष्ये । तथा द्विविधं च गृहस्थसाकपिकभेदतो द्विप्रकारं च । पश्चात्कृतमुपरिगणावस्छेदकपृथक्त्वं सूत्रे वक्ष्यामि । व्य० ४ उ० । (क्षेत्रे प्राप्तस्य शिष्यस्य श्रभवनव्यवहारः 'सीस' शब्दे ) (समकं क्षेत्रप्राप्तानामाभवनम् ' उबसंपया 'शब्दे द्वि० भागे १००१ पृष्ठे उक्तम ) ( संयतनिर्ग्रन्थपरिहारविशुद्ध्यादीनां स्वस्वस्थाने क्षेत्रतो मार्गशायसेवा) ( अविधिक्षेत्रम ओहि शब्दे व नागे १५१ पृष्ठे उक्तम ) " एताओ य कालातो सेतो मुहमतरागं जवति । कहं जेण अंगुलपमाण मे से आगाले जावतिया भागासपपसा ते बुद्धीप समय समए एगमेगं श्रागासपदेसं गहायअवरमाणा अग्रहरिमाया असंखा दिता भवंति तो कातो ये सतरा जयति " ० ० १० वर्ष क्षेत्रस्थापना 'पन्तुसणा' शब्दे (सामायिक श्रद्वारम् ' सामाध्य' शब्दे ) " जम्बुद्दीवे दीवे दस कखेत्ता पत्ता । तं जहा - नरहे, परवर, हेमवर, हेरमात्र हरिवस्ले, रम्गवस्से, पुत्रविदेहे, अवरविदेहे, देवकुरा, उत्तरकुरा " ॥ देहे अन्तःकरणे, कल सिद्धिस्याने कारे, त्रिकोणच कोणादिकपदार्थे वाच ('बेतारिय' रात्राणि खेती क्षेत्रत क्षेत्रम व्याऽऽधारमाकाशमात्रं वा । भ० ७ श०६ ४० । " स खेत कप - क्षेत्रकल्प - पुं० । देशविशेषाऽऽचारे, बृ० ६४० । क्षेत्रकल्पापाकल्पत्वे | पं० ना० । Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेत्तकप्प अभिधानराजेन्डः। खेत्तकप्प समासतः क्षेत्रकल्पप्रतिपादनायाद वक्वभूया नस्थि लोउत्तरं च अणाययणं पासत्थोसाकुसीलाएतो समासतो हं. वोच्छामि खेत्तकप्पं तु । इलिगमेत्तपडिच्चमा नत्थि एरिसे नेते विहरियचं को पुण मं देवल्लोगसरिसं, खेत्तं निप्पव्ववातियं जं च ॥१॥ आलंषणाई काऊणं ण विहर तत्थ ॥ १८ ॥ १० ॥ एसो तु खेत्तकप्पो, देसा खयु अमरन्चीसं । पं० जा० ण त्थि जई अग्गिनयं, निरग्गिताहमि य गिहा था । जत्थ य गुणा इमे तू, खेमाईया मुणेयव्वा । जहियं च सावयत्नयं, सीहादीणं । विजए देसे ॥२०॥ खेमो सिवो मुनिक्खो, अप्पप्पाणो उवस्सयमणुन्नो॥॥ जहियं च णत्थि चोरा-देवही पंथि मोसादी। एसो तु खेत्तकप्पो, गामनगरपट्टणाइन्नो । वालाउ सप्पगोणस्स,मादीदाबोहिगमयं चाथि जाहिं २१ (खेमोसिवादि) खमो-ममरविरहियो।सिवो-रोगविरहियो। मणसो समाहिकारो, सो रंमो होति पायवो । सुभिक्खो-परमपाणो । अप्पपाणो पि-वीलियाविरहिो। मूरो अणनगम्मो, जत्थ परिंदो तहिं सुहविहारं ॥२॥ उवस्सयमणुनो शत्थिनपुंसकाइविरहिओ। समासेज्ज कयपवर- साहुगुणे य वियाण-ति कुणति य सारण जो रक्खं । विवज्जिो , गामणगराकराणि बहूणि बासामासपानग्गाणि अहिरनमुबन्ने ते, छज्जिवनिकायसंजमे णिरता ॥२३॥ खेत्ताणि ॥६॥ जाणति जणो य एवं, जत्य तु साहष्ण गुणनिसहं । व्यासतो गाथामिरेव तद्विवर्णमाह सज्जाओ जहि सुज्झति,कुदिट्ठिगिनो णयविओ होति २४ खेमो डमरविरहितो, रोगाविरहितो य सिवो होति ।१०। एसण इत्थी सोही, य जत्थ तहियं निवासो तु | पनरन्न-पाणदोसा, होति सुनिक्खो मुणेयव्यो। जहियं च प्रणायतना, संति के पुण अणायतणा ॥२॥ जगासंखण मुरंग-पिसुगमसगादिविरहितो जो तु॥११॥ भणिय साहम्मि निन्न-वित्ता म्रत्युत्तरदेसपडिसेवी। सो होति अप्पपाणो, अप्पअभावम्मि थोवे य । एतेहिं जो देसो, पाइन्नो तहय अन्नतित्थीहिं ॥२६॥ समनूमिरेणुवज्जिय,परितुक्खमोवस्सया मानाश्रो॥१।। सत्थंधवाहगामा, पुलिंददेसा अणायतणा। गामणगरा वि य बहू, पाउग्गा मासकप्पस्स । एतारिसम्मि खेत्ते, अप्पमिबक्केण विहरियव्वं तु ॥२७॥ सजणजणो य भद्दो, जहियं च मान्नसाहुजोपीओ।१३॥ श्रावंबणा विकित्तुं, तु इमातिकातुं ण विहरति । तारिसए खेत्तम्मी, समणुनाश्रो विहारो तु। वसही संथारो न-तपाणवत्थे पमिग्गहे सेहा ॥२०॥ खेमो यसियोय तहा, खेमसुनिक्खो य एव संजोगा।१४॥ सट्टा य पुनसंथुय, असहं ते य पडिबंधो। ऐयव्वा उसु पदेसुं, सत्तसु वा आणुपुबीए । (वसहि) संथारखसहि सीयकाले निवाया, उराहकाले सीयसा, अहवोदयऽग्गिसावग-तकरबासनयवजिभोरंमो॥१५।। वासासु सीयविवज्जिया, अगोवरिसा संथारगा च । मरुक्स.........................................................। मार पाणयं च सीयलं वत्थाइतामसित्तकं सिंधवाइ लभं....................................................॥१६॥ ति पमिग्गहा इत्थं पारंपरया लम्भंति | सेहा उ उप्पज्जंति सका य दुद्धदघिया देति । पुष्वपच्चासंथुपसु नेहाणुराणिरविक्खा वि य जहियं, समणगुणविदूय जत्थ जणो। यपडिवंधण वा असहतस्स वा मासकप्पं पमिबंधो हो कि (उदय त्ति) उदएण य पेलिज्जति न बुऊतीर्थः । अ मासकप्पेण बहुतरीरियासु विराहणा नारगाईणं च परिहाणी, गिणा न झज्झति, घणकधामहम्मियम्गो कोट्टिमताणाश्रो को इतित्थवोच्छेयो य यो इजच भणध णितियवासे संवा. य । अदाकडाप्रो वसहीरो सरीरोवहितेण सावगतकर साइदोसा अंतोमासं संवसमाणस्स तो वधसंवासा दोसा परचकविरहिपसु देसेसु साहुविहारो अणुएणाम्रो । तत्थ य होर्हिति । एवं निपावसे दोसे असहंतस्स माद ॥१८॥ साणं कालपरिभोगी जणो सुतत्थपोरिसी कालं तश्याए पो- फासुया एसरिजायं, णियातापरितुक्खमा ॥२॥ रिसीए भिक्खवेलाए ॥१५॥ (गाहा) पुढवीपर य सूरो विसेतो जाणइ साटणं जहा पप अहिरनसोवनियमंगलभूया सव्व एरिसा साहुयानुग्ग, वसही दुभं न हि । संगजिया समणगुणा य जणो जाण आहारा ॥ १६ ॥ एमेव य संथारा, सुलना जोग्गा य साहणं ॥३०॥ एताणि चेचमाई-याणि पारीय खेतसहिआणि॥१७॥ जत्तं सुलजमणुनं च, परिसंपत्थि अन्नहि । पुचभणियाणि जाणि उ, ताई खलु सत्त य हति । बत्था पडिग्गहा वि य,सुखना सहाये एत्थ खेत्तम्मि॥३१॥ गाणस्स देसणस्स य, जत्थ य नत्थी य उवघातो ।।१।। अन्नत्थ उतभा तु, तेण तु एत्थं बहुगुणं तु । एसो तु खेत्तकप्पो, जहियं च अणायणा नच्छि । सवा आहारादी, देति जोग्गणिसंयुता चेव ॥३२॥ उदगजयतुणादी, जह कुंकणसिंधुतामलितादी ॥१६॥ पुर पच्च दट्टभट्ठा, य अन्नहिं पत्थि एरिसग्गा । (नाणस्स) नाणसणचरित्ताईणि जत्थ विही तवषियमसं उमुबद्धे मामकप्पे-ए विहारो तं ण सद्दहश्मेहिं ॥३३॥ जमजोगाण य परिवुट्टी अणायतणाणि य जत्थ लोहया । इस्थि संजम आतविराहण, वच्चंते गामणुग्गामं । पुरसनपुंसका वा, वाउरिया वा वाहलोद्धियचरगसक्काश्या वि. । णाणादाण य हाणा, जाग्ग खत्त तु मामा णाणादीण यहाणी, जोग्गं खेत्तं तु मग्गमाणेणं ॥३॥ Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेत्तकप्प खेताओ से संकममाणे मसायो । जे णीयते दोसा, मासंते परिवसेण ते चेव || ३५॥ एवं मासविहारे, मन्नतो बहुविहे य दोसे य । यो सद्दहति विहारं, ण तु विहरति तस्म आबादी || ३६ || मासोवरिं च लहुप्रो, णीया वासे य जे दोसा । ते सो पावति सव्वं एते सातंवणेहिं प्रत्यंतो ||३७|| किं एते पिसेसो जती मुसु । " शिकारणमि एवं परिबंधे कारणम्मि शिदोसा ||३८|| ते चैव जगणार, पुणे व सो पावती दोसो | काणि पुकारणाणि, जेहिं चिट्ठिज्ज एकठाणम्मि | ३ | भणति पुण्वदिट्ठा, जे खेमसिवादिया दारा । तेसिंचिय परिवक्खा, अक्खेमे असिव तह यदुभिक्खं |४०| बहुपासोबा, मणुन्नो जो तु दयमादी | तेहिंगडा सम्मि प्रत्यमाणा ॥४१॥ दिजपण ती रोशियनीयादिया दोसा | का जया तहियं जनति तहिँ कारणेहि तुट्ठितस्स ॥ अमवस्यनिवखा दिया तु यथा गुणेयव्या । क्ममादिसु वि, मक्खेतेसु तु कारणवसेणं ॥ ४३ ॥ हिंताणं तदियं मा तु अयणा मुन्ना । क्लेमें विसति पुरं संवावि आसतीओ ॥४४॥ क्वेमं व नत्था, तहि खेमं तो ण णिग्गच्छे। जदि प्रसिबं तु पहिका, ताहे अच्छंति ते तहिं चैव ॥ ४५ ॥ भिक्खे व नीति, श्रहवा सव्वत्थ दुजिक्खं । दुम्भवखजय तहियं, अच्छे वा विजय तह चैव ४६ । बहुपाये भाचा, पचकर्मते तु जया उ उपस्त आउकुति ।।४७|| अन्नाए सहीए, वंति य मज्जति य जिक्खं । जा जय जय जुज्जति, अणुचे उपस्तपम्पितं कुन् कपरसोमादी, गंधपती । - ( ७६६ ) अभिधानराजेन्द्रः | - उदगनए पलगामे, थले व वसही तर्हि तु गेएहंति ॥४६॥ अग्गिज मास, इंमिततलग व वसंत । रोगवहुले यवत्थाणि, वज्जए चार किए हेण तु विहारे । ५० | सत्येण वा वि गच्छे, वायं ति व जत्थ शिरवायं । जादयं सावयदोच्चा, तहियं एगणितो ण गच्छेज्जा | ५१ | गेयह सचिगुणं, गामस्स तु माझयारम्मि | विज्जातादीहिं पाझे हीनंतिए तो या विगच्छे ||२२|| राया व पवेती साहुगुणमाणमा तु । जत्य जो न विजाणति साहुगुणे तहि कहिले साहुगुणे ॥ परिभोगे प्रकासम्पी रात्रं कुव्वंति समझा। दूरेण कुतिय पनि एस व पभव ||५४|| " १९३ खेत्तकप्प कुलटा इत्थीचरिया - दिया य वज्र्जेति चरणा । वज्जेज्ज अणायतणा, णाणादीरण जत्थ नवघातो ।। ५५ ।। एवं जहसंजयंतु करेल जगणं विसमाणो । एसो तु खेत्तकप्पो, नवसग्गडवायसंजुत्तो | २६| पं०जा० ( निकारणम्मि गाहा-३०) कारण दोसा निक्कारणे एपसिं चैव वितियपयं ! कारण जत्थ वाहिं विहरंताणं क्लेमं । तत्थ श्रत्थे वि तत्थ य अक्खेमे जयणा नगरं पविसर । संवयं वा वासयंति ॥ श्रहवा जत्थ अन्हे अच्छे ति तत्थ खेमं तेा न विहरह। श्रसिवं वा अन्नत्थ वट्टमाणे तत्थ सिताहेत या दुषिता दुनि क्ख वा पणगपरिहाणार जयणा बहुषाण उवस्सए जममुदाइसु जयंति की डियासंचारएस कुंथुमाइपरे वा अनिक्खं वा मज्जखाइ जया छपश्यपयरे अन्हो परिभोगे अन्नासु वा वसही श्रविज्ञमाणीसु य ममुझे उवस्सए गंधे करेंति । सुपमज्जियं च करेति । उदयभरण वलाणि दति । उच्चे बसहिं गिरहूंति । अग्भिरण घणकवाडाइसु हम्मियतले सु वा वसंति । रोगे असिवाइभ वत्थाणि परिहरति । लोणनेहाइ सावयभए एगाणियाणि संचरति । गाममज्जे बसहिं गेएइति । सप्पेमं ते हि नीणेतिते करण सत्ये संचरति अकालपरिभोगसुरि सज्जायं करेति । अने धम्मं कर्हिति । सज्जायं च गार्हति । श्रहवावसीए वि एक्कम्मि वसंतस्स मासाइयं वा वासाद वा अन्न से या व सही ओ शचिनपुंससु दोसा फुलाउ मंदो करणाएं निवाया, उहकाले वा सीयलप्पवाया, वासासु वा नि निधडकवामदढकपिलवलियास अने व खेत्ते एयम्गुणसमा उत्ता बसही नत्थि । संधारगा चम्मरुषखाइ अहाकुमयामं कुणाइ । दोसवज्जिया ते प तेसु खेलेसु गरिन पाणं वा सबालवृष्ठा उल्लगच्छे पाठां मणुन्नं सपक्खपरपक्खोमाविवज्जियं उग्गमाइसुद्धं पाएगं च सीयलं असतं परं तत्थ लग्न | सुखे तेसु तारिसयं नत्थि । वत्थाय वासत्ताणार अढाकडया गुरुमाझ्या उम्गाणि तत्थ लग्नंति । परिग्गहाय (अलथिर) भिक्खुवधारणीया अहाकरुया तत्थ लग्भंति । सेहार जाकुरुवसंपता तत्थ गामे नगरे मेदावि करा सहाय तथगामे नगरे देस या सेवा इन्भसेसरवा ढाइ साहू विवज्जिया वरगतित्युं विज्जाईहि विष्परिणामिति । पुचपच्छया वा तम्मि अच्छमाणे सम्मदंसणं गेरहंति । पव्ययंति वा । एयनिमित्तं मन्त्रमाणो निद्दोसो निक्कारणे पच्चित्तं अच्यमाणस्स | जर पुरा कारणं श्रच्छमाणो अजयणाप अच्छ इ तत्थ दोसो का पुण जयगा ? जइ सपरिक्खेवो सबाहिरिया तत्य जर अंतो मासकप्पो वा वासावासो वा कुप्रो वाहिरिगा अपरिता सत्य चाहिरिया वसति संधारगा डगलय कुडमुनश्चार पासवणमत्ता वादि व नि पायरिया बाहिरपणभूमी हवा बाहिरिया विपवितासही या मथि पाउयानिपुंग विरहिया कुडकवाडा ताहे तस्मि चेव बसही पत्तणसंथारगकुमुमुह उच्चारमतयार अने गिति । असते चैव परिजुंजंति । वाहि वा अपरिभूते वाहिं भिक्खायरिथं हिंडति । पुि पच्छा संथवार परिहरंता उग्गममाश्सु जयंति । पं० धूर । 1 1 शादी नियती, तु पन्निता जम्मि जम्मिनाम् | १ | ********* Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेत्तकप्प एते सि सकाते, साबो मुणी व से खेत्ते ॥ धम्मिको आादी, तहि जारिसमाणि सेविया खेचा |२| अक्खेमसिवामादी-णि कप्पती तारिसे वासे || खेमादि अब्जतो, परिकुठेहिं पि वसति जयणाए | ३ | पगादी संजोगा, वक्वाणं सन्निकासस्स ।। - क्रमे सम्मिय, असिवं वज्जे वसेज्ज अक्खेमे ॥४॥ तदिद्विविधासो असिरे पुग्छ जीवणासो तु ॥ एवं ग्रोमादी, संजोगा तिगच उग्गमादीया || वसियां जेसु जहा तमहं वोच्छं समासेां ॥ कमजोगिसणिकासे, बहुतरगं जस्थ अवगा |६| जाणे थोक्तरियं च दाणिं तच्छ एयरे विहकाले || एतेसामन्नतरे संबधनिरहियो वसे खेचे |9| काल्लया अवराहे, संत्रलय मो वराहाणं ॥ संताप, बोदो तब मूसं या 01 आधारपर पमाणमा चरमम्मि ॥ एसो तु खेत्तकप्पो UL (आईकनी) माई के सिवाद जपु गोमो मो असियो होला। मो नाम जन्य उपदिविणासो उपलेउच्यतेक्सोमे उहि विणासो अनि अलि उ समासो बेव, अह श्रक्खेमो यदुभिक्खं च दुब्जिक्ले य गगरपरिहाणी । जयणा गुरुलाघवं वा नाऊण पत्र एक्कगसंजोपण जावइया संजोगा उट्ठेति तावद्दपसु अप्पाबहुयं नाऊणं जत्थ अप्पदोसं तसाखो नागरिया (आगा मी वि वि सन्निवासं गालो नाम अनासो पा ह अववादो वा नाऊण अप्पदोसतरे अच्छेजा जत्थ गुणा बहुतराणाप्पतरिया य हाणी दुविहा तत्थ काले बिउ - वर्ष वासासु य वसमाणो सुद्धो पर सामन्नतरे खेत्ते आलंबनविरहिओ पडिकुठे बेचे वसर तस्करसंपदिशावरा तयोषबेदी वा । स खेतको | पं० ० । गणिविद्याप्रकीर्णकेन च कितीति णित्पादन प्रसिद्धानि । प्रतीष्ठातीर्थ यात्रा लकण क्षेत्रद्वयप्रक्षेपेण च न व केत्राणि भवन्ति इति । ११७ प्र० सेन० ४ चल्ल० । खेत्तत्रखा क्षेत्राख्या-स्त्री० । एकत्र पट्टादौ चतुर्विंशतिप्रतिमासु, ध०२ अधि० । खेत गय-क्षेत्रगत - त्रि० । कर्षण भूमिसंश्रिते, प्रश्न० ३ संब० द्वार। खेडाका उप क्षेत्रस्थानाऽऽपुप्-१० क्षेत्रस्याकारस्य स्थान ( ७७० ) अभिधानराजेन्द्रः । ***************** भेदः पुफलाऽवगाहकृतः तस्याऽऽयुः स्थितिः। अथवा क्षेत्रे एकप्रस्थानं यत्पुरुलानामवस्थानं तद्रूपमायुः क्षेत्रस्थानाssयुः पुङ्गलानामाकाशावगाह स्थितौ भ० ५ ० g उ० । खेननाय -क्षेत्रज्ञान - न० । किमिदं मायाबहुलम् ? अन्यथा वा तथा साधुरिमा भाषितं वा नगराऽऽति विमर्पणक प्रयोगमतिसंपद्भेदे, उत्त० १ श्र० । स्था० । स्पा क्षेत्रमा स्त्री० क्षेत्रेषु जनानां प्रतिष्ठायाम पो० ७ विवि० । जीवा० । ( 'पा' शब्द विलोकनीया ) स्वत्युपमाणाइकम खेत्तपमाण-क्षेत्रप्रमाण न० । क्षेत्र विषयप्रमाणभेदे, अनु० । अथ क्षेत्र प्रमाणमभिधित्सुराह से किं तं खेपमा १ खेपमा दुविहे पते । तं महा - परमणिप्पा विज्ञागनिष्पद्ये । से किं तं प सपने? - पएस निपने एगपएसोगाढे, दुपए सोगाढे, तिपएसोगाडे, संखिज्जपरसोगाढे, असंखिज्जपरसोगाढे । सेतं परसणिप्पो से किं तं विभागनिप्पले ?- विजागनिपत्रे-"गुलविहत्थीरयणी, कुत्थी धणुगात्र्यं च बाधव्वं । जोयणढीपरं, लोगमलोगे वि श्र तहेव " ॥ १ ॥ (से कि माणे इत्यादि) दमपि द्विविधं प्रदेशा हद क्षेत्रस्य निर्विभागाविण्य प्रदेशनिष्यम विभागः पूवक्तस्वरूपस्तेन निष्पन्नं विभागनिष्पन्नम् ( ले किं तं पपसनिष्पत्रे) तत्रैकप्रदेशावगाढाद्यसंख्येपत्रे देशा ऽवगादपर्यन्तं प्रदे निष्पक्षम् । एकप्रदेशाऽऽद्यचमाढतथा एकाि प्रदेशैर्निष्पत्वादाऽपि प्रदेशनिष्पन्नता भावनीया प्रमाणता त्वेकप्रदेशाऽवगाहित्वादिना स्वस्वरूपेणैव प्रमीयमानस्वादिति विभागनिष्यादि । तयाऽऽद (गुविहथिगाहा ) अंगुलादिस्वरूपं च स्वत एव शास्त्रकारो वक्ष्यति । अनु० । खेचपलियोनम क्षेत्रपन्योपयन० काका- । क्षेत्रमाकाशं धानं पोपोपमम्। आकाशोकारकाल विशेष, अनु० कर्म० । ( 'पलिओषम' शब्दे स्वरूपतो ज्ञेयम ) खेतपाल क्षेत्रपाल - त्रि०/ क्षेत्रं पालयति । पाल थए । क्षेत्ररक्ष के व्यन्तरविशेषे, नैरवे, पुं० । षाच०। मथुरायां क्षेत्रपालसारमेयवाहनः तीर्थस्य रक्षां करोति। ती०६ कल्प । टिंपुर्यः क्षेत्रपा खेतपोग्गल परियह-क्षेत्र पुन्नपरावर्त्त - पुं० । क्षेत्रविषये पुललभुजपटू भाखरसङ्घस्य विघ्नौघमपोहति । सी० ४४ कप परावर्से, कल्प० 9 क्षण । ( अस्य स्वरूपं 'पुलपराधट्ट' शब्दे हेयम् ) स्वत्तय-क्षेत्रज-पुं० । क्षेत्रं भायां तस्यां जातः क्षेत्रजः । स्वधर्मेण नियुकायां पय पुरुषान्तरेण जनि पुत्र था पाएको पाण्डवाः, लोकरूढ्या तद्भार्याकुन्त्या एव तेषां पुत्रत्वात् न तु पापडोरादित्यादि निर्जनित्वादिति स्था० १० प्रा० ॥ खेत्तरोग- क्षेत्ररोग-पुं० । रोगाऽन्तराऽऽधारभूते कुष्ठाऽऽदिरोगे, द्वा० १० द्वा० । खेत्तलोय - क्षेत्रलोक- पुं० । क्षेत्रमेव लोकः क्षेत्रलोकः लोकनेदे, श्र० म० द्वि० । ( लोकशब्दे व्याख्यास्यते ) स्खेत्तवत्थुपमाणाइकम्प - क्षेत्रत्र (वा) स्तुप्रमाणाऽतिक्रम - पुं० । क्षेत्रमेव वस्तु वस्तु प्रन्यान्तरे तु क्षेत्रं च ख्यायते । उत०] १० । तयोः केशवास्तुनोः प्रमाणस्य योजनेन क्षेत्रान्तरादिमीमातिक्रमोऽतिचारः प० २० प्रत्याख्यानाले गृहीतमा एक परिमाण मदन्यक्षेत्रस्य वृतिम्यूसिसीमा उपनयनेन पूर्वजन माणातिक्रमे च । एष च इच्छापरिमाणस्य द्वितीयोऽतिचारः । उ० १ श्र० । आव० । Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेयस खेत्तवासि अभिधानराजेन्वः। वत्तवासि-केत्रवर्षिन-पुं० । धान्यापुत्पत्तिस्थाने वर्षणशीले मेघे, खेमंधर-हेमन्धर-joग केमं धारयत्यन्यकृतमिति यः स तथा । तवृत्पात्रे दानश्रुतादीनां निकपके पुरुषजाते,स्था०४ डा.४०। स्था ठा। अनुपद्रवताधारके राति का०१ शु. १उ.। खेतविवागा-क्षेत्रविपाका-खी। केत्रमाकाशं तत्रैव विपाक भो। भारते वर्षेऽवसापण्यां जाते षष्ठे (जं०२ वक०) उउदयो यासांताः केत्रविपाकाः कर्मप्रकृतिषु, कर्म ५ कर्म स्सपिएयां प्रापयति चतुर्थे, (स्था०१० ग01) ऐरवते वर्षे उपञ्चा० । (ताच 'कम्म' शब्दे अस्मिन्नेव भागे २५८ स्सपिण्यां नविष्यति पञ्चमे च कुलकरे, स०। पृष्ठे उक्ताः ) खेमकित्ति-केमकीर्षि-पुं०। भीषिजयेन्दुसरीणां शिष्ये, येन खेत्तबुद्धि-क्षेत्रवृद्धि-स्त्री० । दिखतस्थ चतुर्थेऽतिचारे,माव०१ कल्पवृत्तिपतिः कृता। श्रा क्षेत्रस्य पूर्वाऽऽदिदेशस्य दिखतविषयस्य हुस्खस्य यतो "तातीयीकस्तेषां, विनेयपरमाणुरन शाखेऽऽस्मिन् । वृद्धिर्वर्धनं पश्चिमाऽऽदिकेत्राऽन्तरपरिमाणप्रकेपेण दीर्धीकरणं भीकमकीर्तिसूरि-धिनिर्ममे षिवृतिकल्पमिति ॥ २२॥ केत्रवृतिः । यथा कि केनापि पूर्वाऽपरदिशोः प्रत्येकंयोजन- श्रीविक्रमतः कामति, नयनामिगुणेन्दुपरिमिते (१३८६) घर्ष। शतं गमनपरिमाणं कृतम् । स चोत्पत्रप्रयोजन एकस्यां दिशिन. ज्येष्ठश्वेतदशम्यां, समर्थितैषा च हस्ताऽर्के ॥२३॥ वतियोजनानि व्यवस्थाप्याऽन्यस्यां तु वशोत्तरं योजनशतं क- प्रथमादर्श लिखिता, नयप्रभप्रभृतियतिभिरेषा । रोति । भाज्यामपि प्रकाराभ्यां योजनशतस्यरूपस्थ परिमा- गुरुप्रयेगुरुभक्ति-भरोहनादिवाऽऽमतशिरोभिः ॥ २४ ॥ णस्याऽण्याहतत्वादित्येवमेकत्र केचं बर्बयतो व्रतसापेकत्वाद- सत्रादर्शेषु यतो, यस्यो वाचना विलोक्यन्ते । तिचारः चतुर्थः ध०२ अधिः। पञ्चा। विषमाश्च भाष्यगाथाः, प्रायः स्वल्पाश्च प्यूणिगिरः ॥ २५ ॥ खेनाइकंत-केत्राऽतिक्रान्त-जा के सूर्यसन्धितापत्र दिनमि- सूत्रे वा भाष्ये वा, यन्मतिमोहान्मयाऽन्यथा किमपि । त्यर्थः। तदतिक्रान्तं येन तत्केत्रातिकाम्तमातस्मिन् "जेणे निम्ग-लाजत वा विवृत वा, तान्मथ्या दुष्कृत भूयात् । ०६ उ०। ये णिग्गंधी चा फासुपसणिचं असणं पाणं खाइमं सामं मणु- खमत-क्षमत-पुकाकान्दनगरावासान स्वनामख्यात रह ग्गए मूरिष पडिग्गदित्ता उग्गए सूरिए पाहारमादार एसक तौ, यो हि महावीरान्तिके प्रवज्य घोमशवर्षपर्यायोऽनशनेन गोयमा! वेत्ताइते पाणभोयणे" भ०७०१०। । केवासमुत्पाद विपुले पर्वते सिक इति । अन्त०६ वर्ग ५ श्र०। खेत्ताभिग्गह-क्षेत्राऽभिग्रह-पुं०। खग्रामपरप्रामादिविषये क्षेत्रा- खमदेव-केमदेव-पुं० । कौशाम्म्यां जाते स्वनामख्याते पणिजे, श्रितभिकाऽनिग्रहे, औ० । ग। यस्तृतीयभवे ब्रह्मसेनो नाम वणिग् जातः ध०२अधि०। ('बखेत्तारिय-क्षेत्राऽऽर्य-पुं०। आर्यकेत्रजाते मनुष्ये, प्रका०१पद।। म्हसेन ' शब्देऽस्य कथा) [भार्यक्षेत्राणि पायरिय' शम्दे वि० भागे ३३५ पृष्ठे उक्तानि | खेमपुरा-केमपुरा-नी। पुरीनेदे, 'दोकोमपुरानो'। स्था०५ [अनार्यक्षेत्राणि 'अणारिय' शब्द प्रभागे ३१६ पृष्ठे द्रष्टम्यानि]| ठा० ३००। जं०। खेत्तावइ-क्षेत्रापत-स्त्री० । प्रत्यासनग्रामनगरादिरहिताल्पक्षेत्रे, खेमपुरी-लेमपुरी-स्त्री० । पुरीभेदे, या पूर्व धन्यानामासीत् । जी०१ प्रति। दर्श०। (अस्याः कथा नैवेद्यपूजायाम् ) खेत्तोववायग:-क्षेत्रोपपातगति-स्त्री०। उपपातगतिभेदे, प्रका० खेमराय-केमराज-पुं० । विक्रमवत्सराणामष्टमशतके भणहिल१६ पद । ('गड्प्पयाय' शब्दे वच्यते) पट्टननगरराज्यं कृतवति चापोत्कटवेश्ये नृपे,ती०५६ कल्प० । खम-केम-पुं० । कि-मन् पुं०म०। चोरनामगन्धकम्ये, वाच। खेमरूव-केमरूप-त्रिका प्रकारेण निरुपद्रवे, स्था० ४ ग० २ शिवे, मा० १० १०ास्था । उत्त। व्याधिरहिततया उ०। सूत्र। शिवे, उत्त०१३० उपख्वाउनावे, स्था०३ ग०३ उ०।। खेमलज्जिया-केमिलिया-स्त्री० । बेशपाटिकगणस्य चतुर्थशारा। निरुपद्रवे का०१४०१० । स्वचक्रपरचक्रायुपम-| खायाम, कम्प०८ कण । वाऽभावे, वृ०१ उ०। राजविप्लवशून्ये, दश०७०जी०1 खेमलिजिया-मिरिया- नीखेमलज्जिया'शब्दार्थ, तत्तदुपद्रवाचभावापादने, रा०शान्ती, सूत्र० १४०६०। सम्धस्य परिपालने, का०१४०५०। प्राप्तहानादिरकणे, खेय-खेद-पुं० खेदयति मन्दीकरोति कर्म अनेनेति खेदः । सं. करूप०१ कण । अशिवाभावात् देशसोक्ये, उत्त०३ भाका यमे, उत्त० १५ मा खपरसमयतत्वाधिगमे, आव०४०। भौ०। मुक्ती, न०। हैमा पाटलीपुत्रनगरराजजितशत्रोरमाल्ये जन्तुले,आचा०१७०४०१3०। परिश्रमे,अभ्यासे,ध०२ आ००१०पाषा "दो खेमानो" स्था०२ ग०४३० अधिप्राचााश्रमे, मा०म०वि०। विशे० क्रेशे, स्था० खमंकर-केमडुर-पुं० । केमं करोति " केमप्रियमोऽण ब" ७ठा दैन्ये, दैन्ये' इतिषचनात, औ०शोके, रोगे,षाच.। प्रवृत्तिजे क्लमे,द्वा०१७ द्वा०क्रियास्वप्रवृत्तिदेतो श्रान्ततायाम, ३।२।४ । इति (पाणि०) खच् मुम च । वाच०। अनुपरूवकारिणि रक्तके, सूत्र०२ १०६ अास्था का प्रोगा अष्टपटि षो०१४ विव०। तमे महाग्रह, कल्प०६ कण । चं० प्र० एकोनसप्ततिमे महाग्रहे। खेय-त्रिकासन-कर्मणि यत् टेरेत् । सननीये, परिसायाम, "दो खेमंकरा" स्था.२ ग०४ उ०/भारते वर्षे ऽवसर्पिपया ना तायप्रवतनाचात सता जाते पञ्चमे (जं. २ वके० ) परवते वर्षे भविष्यति उत्स-/खेया-खेदक-त्रि० । मेदोऽज्यासस्तेन जानातीति खेदकः। पिंपयां चतुर्ये (स०) भारते वर्षे सत्सपियां भविष्यति खेदः श्रमः संसारपर्यटनजनितस्तं जानातीति । प्राचा० १०२ तृतीये च कुलकरे, स्था१० ठा० । बसन्तपुरस्थनियष्टिपुत्रे, प्र०५० सनिपुणे, भाचा०१६०३१०१० । सूत्र। पिं०. ('परावतिय' शब्दे तस्य कथा) | माव.। जन्तुदुरबपरिच्छेत्तरि, प्राचा० १७०४०१० Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेयम (७७२), अभिधानराजेन्द्रः। खोदोदय खेदं संसारान्तर्वतिनां प्राणिनां कर्मविपाकजं वाखंअभिशुज्यति, भयभ्रान्ते, कल्प०३ कण । प्रश्नः । ब्याकुलीजानातीति खेदशो दुःखापनोदनसमर्थोपदेशदानात् सुत्र०२० क्रियमाणे, प्र० ३ श्राश्रद्वार। भु. ६० । गीतार्थे, अोघ० । " खेयन्नो " खेदः स-खोम-कोट-पुं० । दस्तोपरिप्रस्फोटने, उत्त० १२० । म्यक प्रायश्चित्तविधेः परिश्रमोऽज्यासः इत्यर्थस्त जाना- और-घालाने. गजवन्धयाम.ar| बोटजकल तीति खेदकः । तथाविधे आलोचना गुरौ, ध०२ अधि०।। क्षेत्रक-त्रि० । संसक्तविरुरुद्रव्यपरिहार्यकुलादिक्केत्रस्वरूपप व्यहिरण्याधिद्रव्ये, व्य०१3० । नि. चू०। खोम-त्रि० । खोम गतिप्रतिघाते। अच् । खम्जे,वाच । काष्ठरिच्छेदके, माचा० १ श्रु० २ ५ २० । खेयने से कुसले| भयप्राकारे, वृ० १ ०। महेसी" यदि या केत्रको यथाऽवस्थितात्मस्वरूपपरिकानादास्मक इति । अथवा केत्रमाकाशं तज्ज्जानातीति क्षेत्रको लोकालो खोमप्र-कोटक-। “वेटकादौ" 10 11६ इत्यनेन क्योः कस्वरूपपरिझातेत्यर्थः । सूत्र०१ श्रु०६अ। स्थाने स्वः। अङ्गुलीनस्वाग्रेण चर्मखण्मनिष्पीमने, प्रा०२ पाद। खेयाणुगय-खेदानुगत-त्रि० । नेदः संयमस्तेनानुगतः खेदानु- स्फोटक-पुं० । पूर्वसूत्रेण स्फोः अत्र हो । प्रणे, वाच । गतः । सप्तदशविधसंयमरते, उत्स०१५ अ०। खोमनंग-खोटभङ्गा-पुंग खोटं नाम यत राजकुले हिरण्याखेरि-खेरि-स्त्री०। परिशाटो, “धपस्नेरि वा" धान्यस्य स्खेरि दि द्रव्यं दातव्यम् । तस्य भङ्गः। खोटनब्जने 'खोडनंगो त्तिया परिशार्टि दृष्टा पृच्छति । वृ०२०। अखोडभंगो त्ति पा सकोडभगो त्ति वा एग" व्य०१०। खेल-खेल-न० । कण्ठमुखलमणि, भ० २ श० १ उ०।। निचा तं० । श्रा०म० । प्रय० । स्था। श्रावक । विशे० । कफसंघा-खोमिय -खोटिक-पुं० । रैवतगिरेः केत्रपाले, ती०५ कल्प० । ते, जं० २ बक । निष्ठीवन, झा०१०८ स्थाउत्त। खोद-क्षोद-पुं० । कुरसे, रा०। मधुनि, भ० ७ श०६ उ०। ध० । प्रश्न । तं । निचू०।। घूर्णने, पेषणे, (नायं क्षोदकमः) प्रा. म. द्वि० । कर्मणि खेलग-खेलक-पुं० । रास्तोत्रपाठके, ज्ञा० १ श्रु०१०।। घ रजसि, याच। खेलण-वेसन-न० । खेल स्युद। कीडायाम, प्राधारे न्युट् । मोटर-40 कोदोदसमडे.डी। शारिफलके, करणे ल्युट् वाच । क्रीडासाधने, प्रा० क०। खेलपमिय-खेलपतित-त्रि०। श्लेष्मपतिते, " खेलपमियमप्पा खोदवर-खोदवर-पुं० । जम्बूद्वीपाऽपेकया सप्तमे द्वीपे, स्था.३ णं न तर मच्छिा जहा विमोहे " ग०२ अधिक। ग०४०।०प्र० । सू०प्र० । खेलमनग-खेलमयक-न० । श्लेष्मपरिष्ठापनभाजने, प्रा०म० । घतोदे णं समुदं खोदवरे णामं दीवे वट्टबलायागारेजाप्र०ा खेलमका दीका गृहित्वा स्वयमेव लोचः कृतः। विशे०।। वचिति । तहेव जाव प्रचे खोदवरेणं दीवे तत्थ तखेलसंचाल-खेलसंचान-jor श्लेष्मसंचारे,ध०२ अधि० स०।। त्थ देसे देसे तहिं खुड़वावीओ जाव खोदोदगपडहत्थश्रो खेलासव-खेलाऽऽश्रव-त्रि० खेलं निष्ठीवनं तदाश्रवति सरती. उप्पातपब्बतगा सबवेरुलिया मया० जाव परिवसति । से ति खेलाश्रवम् । श्लेष्मकरके, शा० १०००। तेण्डेणं सव्वं जोसं तहेवण जाव तारा ।। खेलोसहि-खेलौषधि-पुं० खेलः श्लेष्म औषधिर्यस्य स तथा। (सेकेणंडेणमित्यादि) अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते । मा० म०प्र०। ग०। तृतीयलब्धियुक्ते, पा० । यत्प्रनावतः ले क्वोदवरो द्वीपः। भगवानाह-गौतम! कोदवरे द्वीपे तत्र तत्र मा सर्वरोगापहारकः सुरभिश्च भवति । प्रव० २७० द्वार० । देशे तस्य २ देशस्य तत्र २ प्रदेशे बहवः (खुड्याचीओ) प्रा० चू०। इत्यादि पूर्ववत् तावद्वक्तव्यं-"यावत वाणमंतरा देवा देवीउ खेश्व-खेल-न। 'खेन' शब्दार्थे, । प्रासयंति सयंतिजाव विहरंति" नवरं वाप्यादयः कोदोदकखेचावणधाइ-खेलापनधात्री-स्त्री। कीमनधाज्याम,प्राचा। घरपरिपूर्णा शति वक्तव्यम् । तथा पर्वतकाः पर्वनेम्वासनानि खेल्बुड-खेल्बुम-पुं० । अनन्तकायेऽनदे लोकरूदिगम्ये, ज०७| गृहकाणि गृहकेष्वासनानि मएमपका मण्डपकेषु पृथिवीशि लापहकाः सर्वात्मना वैडूर्यमयाः प्राप्ताः। सुप्रभमहाप्रभी च श०१०। यथाक्रमं पूर्वार्धापरार्धाधिपती द्वौ देवावत्र कोदवरेद्वापे मदखेव-केप-पुखिप घम् । निन्दायाम, प्रेरणे, अपने,हेमायाम, किंकी यावत्पल्योपमस्थितिको परिवसतः । तत्र कोदोदकयासाने,करणे घम् । गर्वे,विलम्बे,कर्मणि घम् गुच्छे,वाच। "के प्यादियोगात् क्षोदवरः स द्वीपः। अत पवाह-(से एएणद्वेपोन्तरान्तरान्यत्र, चिसन्यासोऽफलापहः" (१७) अन्तरा णमित्यादि)चहादिसूत्र प्राग्वत् (खोदवरेणं दीयमित्यादि) न्तरा योगकरणकालस्यैवान्यत्राधिकृतान्यकर्मणि चिनन्यासः कोदवरं णमिति पूर्ववत् । द्वापं कोदोदो नाम समुझो वृत्तो केपः । द्वा०१८ द्वा० । इत्युक्तलकणायां किप्तचित्ततायाम, वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् संपरिविष्य बो०१४ विवा तिष्ठति । चक्रवालविष्कम्भादिवक्तव्यता पूर्ववत् यावजीखेवण-वेपण-न । प्रेरणे, ज्ञा० १ श्रु० २ ० (नौकायाः के- घोपपातसूत्रम् । जी०३ प्रति। पणं मौकाशब्दे ) अपवादे, लङ्कने, मारणे, विक्केपे, यापने | खोदोदय-कोदोदक-पुं० । कोद इकुरस श्योदकं यस्य स च । वाच। तथा सूत्र १ श्रु ६० लवणसमुकापेक्कया सप्तमे समुद्रे, खोखुम्भमाण-चौकुभ्यमाण-त्रि० । नृशं कुभ्यमाणे, औ० ।। स्था ७ ग। Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोदोदय अनिधानराजेन्दः । खोल्ल खोदवरं पं दीवं खोदोदे नाम समुद्दे बट्टे वलया जाव मेव यावन्मन आपतरमेव भास्वादेन प्राप्तम् । इह प्रविरमपुस्तके संखेजाई जोयणसतपरिक्खेवेणं० जाव भटे, गोयमा ! अन्यथाऽपि पागे रश्यते, सोऽप्येतदनुसारेण व्याख्येयो बहुषु पुस्तकेषु न दृष्ट इति न लिखितः । पूर्णापूर्णप्रभौ च यथाक्रम खोओदस्स पंसमुहस्स उदये जहा से पासझमासलपसत्थे पूर्वा परार्काधिपती अत्र कोदोदे समुद्रे द्वौ देवी महार्द्धिको बीसंतनिफसुकुमालनूमिभागेसु छिन्नेसु कहनविसहनि यावत्पल्योपमस्थितिको परिवसतः। ततः क्वोद श्व कोदरस श्व रुवायवीयवावितेमु कासगपत्तयनिउणपरिकम्म प्रापा- सदकं यस्य स कोदोदः । तथा चाह-(से पपणमित्यादि) लियसुबुफिट्ठाण सुजाताणं लवणतणदोसबज्जिताणं गतार्थम् । चन्द्रादिसल्यासूत्र प्राग्वत् । जी०३प्रतिभासू०प्र०। चं० प्राप्रमाक्षुरसबद मिष्टोदकासु वापौषु,जी०३ प्रतिः। णयायपरिवट्टियाणं निम्मातसुन्दराणं परिणयमनपी जं० । रा० । क्षुसमुसत्केभुरखोदके, प्रका०१पद । जी०। परिजंगुरमुजातमधुररसपुप्फविरियाणं उपद्दवविवज्जिता | खोदाहार-सौराहार-त्रि० । मधुभोजिनि, भ०७ श०६ उ० । णं सीयपरिफासियाणं अभिणवजग्गाणं अनिलत्ता | खोभ-क्षोन-पुं० । संभ्रमे, भाव०५०।०म०। णं तिभायाणिछोमियवगाणं अविणीतमूलाणं गं- खोभित्तए-दोभयितुम्-अव्य० । एतद् (विवक्षित) विषय पपरिसोदिताणं कुसलनरकप्पियाणं नव्वुकाणं जाव पंडया क्षोभं कर्तुमित्यर्थे। उपा० २० । संशयिनो विपरिणामायितुएणं चवलगणरजंतजुत्तपरिगालितमेत्ताणं खोयरसे होज्ज | मित्यर्थे , उपा०२ मारा। बत्यवपरिपूये चानजातगमुबासिते अहियपसत्यलहगोव-खोभिय-कोजित-त्रि० । स्वस्थानावलिते, रा०। जं०। मेणं नवचेतो तहेव नवेयारूवे सिया, नो तिण समढे | खोभेत-क्षोनयत-त्रि० । ईषद् भूमिमुत्कीर्य तत्र प्रवेशयति । खोयरस्स णं समुदस्स बदये एत्तो इतराए चेव० जाव | का० १४० ३ क । सीदयति च । नि० चू०१७ उ० । प्रासारणं पाते पुएणभद्दमाणिभदा इत्य दुवे देवा० खोम-दाम-नाकापोसिकेतसीमये वा वस्त्रे, भ. १९२० जाव परिवसन्ति । सेसं तहेव जोतिसं संखेज चंदाई॥ । ११ २० । ज० । रा० । का० । जी० । स्था। अथ केनाऽर्थेन नदन्त ! एवमुच्यते कोदोदः समुरुः कोदोद ..| खोमगपसिण-तौमकप्रश्न-न० । प्रश्नविधानेदे, यया कौमके समुद्र इति । जगवानाह-गौतम ! कोदोदस्य समटस्य उदकंस ( पखे) देवताचतारः क्रियते । पूर्व प्रमव्याकरणानां यथा नाम इकृणां जात्यानाम् । जात्यत्वमेवाह-वरपुन्छगाणां वि षष्ठमासीदिदानीं तु नोपलभ्यते । स्था.१०म०। शिष्टानां पुन्द्रदेशोद्भवानां हरितानां शारुवलानां भेरण्डेक्षणां | खोमजुयल-क्षोमयुगम-नाकाासिकवयुगले,सपा०१७ था भेरएमदेशोद्भवानां वा स्कूणां (कासपोराणं ति) कृष्णपर्व- खोमिय-कौमिक-न। अतसीमये-(कल्प० २ कण)-कापीणाम नपरितनपत्रसमूहापेक्कया हरितालवत् पिजराणां अपनी- | सिके वा वस्त्रे, नि० चू०५०। सू० प्र० । आचा० स्था। तमूलानामपनीतमूलत्रिभागानां त्रिभागनिर्वाटितवाटानामूल- | खोय-दोद-पुं० 'खोद' शब्दार्थे । भागादपि त्रिनागदीनानामितिनावः , मध्यविनागावशेषाणामिति समुदायाऽर्थः । ( गठिपरिसोहियाणं ति ) प्रन्थिः पर्वग्र खोयाहार-कोदाहार-पुं०। भूकोदेनाहारो येषां ते भूमि विदार्य धिःशोधितोऽपनीतो येभ्यस्ते तथा, तेषांम्वत्रिजाग उपरितन मत्स्याद्याहारकेषु, दुःषमषमामनुप्येषु.भ० १७ श०६ उ०। त्रिभागे पर्वग्रन्धौ च नातिसमीचीनो रस इति तद्वर्जनं कोदरसो खारेय-खोरक-नः । वृत्ताकारे भाजनविशेषे, व्य. १०। प्रवेत् वनपरिपृतः श्लदणवस्त्रपरिपूतश्च चतुर्जातकेन सुष्टु अ- रुप्यमये महाप्रमाणनाजने, " तुज्झ पिया मह पिचणो, धारे तिशयेन वासितश्चतुर्जातकं त्वगेसाकेसराख्यगन्धद्रव्यमरिचा- अणूणगं सयसहस्सं । जब सुयपुव्वं दिजन, अह ण सुयं बोर त्मकम् । “त्वगेझाकेसरैस्तुल्यं, त्रिसुगन्धं त्रिजातकम् । मरिचेन यं देहि" नं0 दश । व्य० । मा०चू०प्रा० म०। ('वेण. समायुक्त, चतुर्जीतकमुच्यते ॥२॥ अधिकमतिशयेन पथ्यं न रोगः इया'शम्दे कथा) हेतुः सघुःपरिणामनघुर्वर्णेन सामर्थ्यादतिशायिना उपपेतः। एवं गन्धेन रसेन स्पर्शनोपपेतः भास्वादनीयो विस्वादनीयो वर्ष खोल-खोल-न० । मद्याधःकर्दमे, आचा०२७०१०० उ०। णीयो मदनीयो वृहणीयः सन्कियो गात्रप्रल्हादनीयः। एवमुक्त मद्यकिट्टविशेष, वृ०१०। तब मध्येन विकृतिः। पं००२ गौतम पाह-अवेयारूचे) भवेद भगवन् ! कोदोदकसमुक बार । गोरसभाविते वस्रोपेते,वृ०१०।राजपुरुषे, पिं०। स्योदकमेतपमा नगवामाह-मायमर्थः समर्थः, कोबोटक खो-खोल-न० । कन्धायाम्, खोई कोत्थरम, नि० स० । स्मारसमुद्रस्य उदकमस्मात् यथोक्तरूपात कारोदरसात् इष्टतर- १५००। कोरएटे, पृ०। ॥ इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपागच्चीय-कलिकालसर्वकल्प-श्रीमनटारकजैन श्वेताम्बराचार्य श्री श्री १००७ श्रीविजयराजेन्सूरिविरचिते अभिधानराजेन्छे खकारादिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् ॥ Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गय 21010 vooooooooooo गकार 050 05 (७७५) अभिधानराजेन्द्रः । ग - गज - पुं० । " क-ग-च-ज-त-द-पय-वां प्रायो सुक १९७७ । इति जत्रुक, हस्तिनि, प्रा० १ पाद । गत - पुं० क ग च ज० ८१ । १७७ । इत्यादिना तलुक प्रा० १ पाद । याते, श्रह अलगओ राया उस० १८ श्र० । गया - गढ़ा - स्त्री० । “क-ग-च-ज-त-०८११७७ । इत्यादिना रघुकथा दण्डकी जिसमदादिमयो मे प्रा० १ पाद । गइ - गति - स्त्री० । गम् भावादौ यथायथं किन् । गमने, औ० । सूत्र० । स्था० | दर्श० । चलने, मराम। गतिः प्रवृत्तिः क्रम इति बाद विरोपाहरणादिक्रियायाम ० । देवगतिःउकठार तुरियाए चलाए गाए जयथाए यूए सिम्पा दिव्वाए देगई‍ ॥ (कट्ठा त्ति) उत्कृष्टया अन्येषां गतिज्यो मनोहरया ( तुरियाए सि ) त्वरितया, चित्तौत्सुक्यवत्या ( चलाए ति ) कायचापव्यवत्या ( चंडाए ति ) चण्डया तीव्रया (जयाच शेषाचा उता मधूमादेरिव (सिया ) शोधा 'या' किया विपरिहारया (दिव्या देवयोग्यया ईश्या ( देवगईए त्ति) देवगत्या । कल्प० २ कण । भ० । सञ्चरणे, जं० ३ वक्ष० । (ज्योतिष्काणां गतिः ' जोइसिय' शब्दे वयते ) अपवादीनां गमनपरिणामे, विशे० । उत्पत्तिस्थानगमने, स्था० ६ aro | प्रज्ञापकस्थानापेतया मृत्याम्यत्र गमने ( सा चतसृषु विदिवति 'दिसा शब्दे वक्ष्यते) मरणानन्तरं मनुजत्वादेः सकाशात् नारकत्वादी जीवस्य गमने, “एगा गती " सा चैकस्यैकैव ऋज्यादिका नरकगत्यादिकपुलस्य वा स्थितिवैलकएयमात्रतथा चैकतयैकस्वरूपा सर्व जीवलानामिति । स्था० १ वा० १३० । " एगस्स जतो गतिरागती य एकस्याऽसहायस्य जन्तोः शुभाशुभसहायस्य गतिर्गमनं परलोके भवति । तथा आगतिरागमनं जवाकायदे व एकः प्रकु कर्म, नक्त्येकश्च तत्फलम् । जायते म्रियते बैंक, एको याति भवान्तरम् ॥ १ ॥ " इत्यादि । तदेवं संसारे परमार्थतो न " महायोधर्ममेकं विहायेगिणम्य मुनीनामयं मीना संगमस्तेन तत्प्रधानं वा ब्रूयादिति । सूत्र० १० १३ प्रगति स्पृशति प्रधि उपाद काश्यास्यते । श्राम द्वि । "गई दुविदा" (१२३ गाधाङ्क) " 1 गइ गतिर्वा द्विविधेति । तत्र गमनं गच्छति वा अनयेति गतिः । द्वे विधे यस्याः सेयं द्विविधा, वैविध्यं वक्ष्यमाणलक्षणमिति गाथार्थः । तथा बेदमेव वैविध्यमुपयाद्विविधा गति कगतिरिलिकागतिश्च पं० सं० ( अनयोः स्वरूपं स्वस्वस्थाने उम्) गम्यते तथाविधकर्मविवेजों प्राप्यते इति गतिः । कर्म० ६ कर्म० । प्रज्ञा० । गम्यते प्राप्यते स्वकर्मरजसा समाकृष्टैर्जन्तुभिरिति गतिः । प्रव० १५ द्वार । गतिः नामकारक त्यतित्यमनुजवनपर्यायपरि णतौ, कर्म० ४ कर्म० । पं० सं० । सा चतुर्धा नारकपतिस्तिर्यगतिमनुष्यगतिदेयगतिश्च । सद्विपाकवेद्यायां कर्मकृतौ च । साऽपि चतुर्धा । पं० सं० ३ द्वार । अत्राह-ननु सर्वेऽपि पर्याया जीवेन गम्यन्ते प्राप्यन्ते इति सर्वेषामपि तेषां गतिस्तथा च प्रामातिशब्दस्यैयमेव व्युत्पत्तिलेति नैव यतो विशेषे युत्पादितापि शब्दा कढितो गोशब्दवत्प्रतिनियतमेघार्थे विषयीकुर्वन्तीत्यदोषः । कर्म० १ कर्म० | आचा० | स० । विशे० । उत्त० | दर्श० भ० | प्रब० । / 1 पञ्चधा पंच गई पत्ताओ । तं जहा - निरयगई, तिरियगई, मग देवग, सिकिगई ॥ गमनं गतिर्गम्यत इति वा गतिः क्षेत्रविशेषो गम्यते वा अन या कर्मपुल संहत्येति गतिर्नामकर्मोत्तरप्रकृतिरूपा तत्कृता वा जीवावस्थितिः । तत्र निरये नरके १ गतिर्निरयश्चासौ गतिश्चेति वा २ निरयप्राधिका वा गतिः ३ निरयगतिः । एवं तिर्यक्कु ! तिरश्चां २ तिर्यक्त्वप्रसाधिका वा गतिः ३ तिर्यग्गतिः । एवं मनुष्यदेवी सिद्धी गतिविधि सो गतिसतिरिद नामप्रकृतिर्भास्तीति । स्था० ॥ वा० ३ ० | प्रब० । अष्टधा बा 1 अ गईो पछताओ तं जहा निरयगई, तिरियई,० जाब सिफिगई, गुरुगई पणोक्षणगई, पन्नारगई । स्था० ॥ ( अग इत्यादि) सुगमम् । नवरम् गुरुगइति भावप्रधानत्वात् निर्देशस्य गौरवामनयनान या परमाण्वादीनां स्वनावतो गतिः सा गुरुगतिरिति । या तु परप्रेरणात्सा प्रणोदनगतिर्वादीनामिव । या तु द्रव्यान्तराकातस्य सा प्राग्भारगतिर्यथा ना वादेरधोगतिरिति । स्पा०८ठा० । यद्वा दशधा दसवा गई पता जहा निरयगई निरयगड गई, तिरियगई, तिरियरिग्गड गई एवं० जाय सिकगई, सिक विहगई ॥ (विशेष निरयमायादिशब्दे (एकेन्द्रियादयो जीचा न्या क गच्छन्ति इत्यत्र ' उववाय ' शब्दे द्वि० ना० ६१६ पृष्ठे गतीनामुपपातविरश्च तत्रैव ९१५ पृष्ठे च ) सर्व सूत्रकदम्बकमघतारणीयम् । प्रज्ञा० नवरमि-प्र० १६१ द्वार ( गतिषु जीवस्थानगणस्थानचिन्तामार्गणा 'ठाण ' शब्दे करिष्यते ) नारकादीनां शीघ्रा गतिः रयाणं ते! कई सीहा गई कई सौदागसिए प छाते गोषमा 1 से जहाणामर के पुरिसे तरूणे बल Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गइ जुग जान सिप्पोबगर आउंटिक पाईपसारेज्जा, पसारियं वाई आउंटेजा, विकिष्ां वा मुट्ठि साहरेज्जा, साइपिंना चिक्खिरेला उम्मसि वा मिसेज विम्पिसिना उम्ला भने ए आरूने खो इट्टे समझे रयाणं एगसमा वा दुसएवा तिसमरण वा चिग्गहेणं जववज्जंति थेरड्याणं तहा सीहा गई वहा सीहे गविसइए पछते एवं जान बेमाशिवानं वरं पर्मिदियाणं च समय विग्ग जाणियने से तं चैव । "रयाणं " इत्यादि (कदं सीहा गइ ति ) कथं केन प्र कारेण कीदृशीत्यर्थः शीघ्रा गतिर्वारकाणामुत्पद्यमानाशी प्रागतिर्भवतीति प्रतीतम्। यदशेन च शीघ्रत्वेन शीघ्राखाधि ति च न प्रतीतमित्यतः प्रश्नः कृतः ( कदं सी गाविसप (स) कथमिति की सोदे गा घः गतिविषयो गतिगोचरस्तकेतुत्वात्काल इत्यर्थः । काशी शीघ्रा गतिः कीदृशश्च तत्काल इति तात्पर्यम् (तरुणे शि) प्रवमानवयाः स च दुर्बलोऽपिस्यादत आह- (बलवं ति) शरीरप्राणवान्, बलं च कालविशेषा द्विशिष्टं भवतीत्यत भाइ(जुगवं ति) युगं सुषमडुःषमादिः कालविशेषस्तत्प्रशस्त वि. शिवतु तस्यासोयुगवान् यायत्करणादिवं ( जुवाणे ) वयः प्राप्तः ( अप्पायङ्के ) अल्पशब्दस्यानावार्थस्वादनात रोग (चिरमाहत्थे स्थिरात सुख कवत् (दढपाणिपायपासविद्वंतरोरुपरिए ) रदं पाणिपाद यस्य पार्श्व पृष्ठन्तरे च ऊरू च परिणते परिनिष्ठिततां गते यस्य स तथा उत्तमसंहनन इत्यर्थः । ( तलजमलजुयस परिघनिभबाहू ) तलौ तालवृक्षौ तयोर्यमलं समश्रेणकिं यद्युगलद्वयं परिघाला तनिभौ तत्सदृशौ दीर्घ सरस पीनत्वादिना बाहू यस्य स तथा मेदमुद्वयसमायनिचियायकार) चम्ष्टया दुघणेन मुष्टिकेन च समाहतानि अभ्यासप्रवृत्तस्य निचितानि गात्राणि यत्र स तथाविधः कायो यस्य स तथा । चर्मेष्टादयश्च लोकप्रतीताः (" ओर सबल समणागर " ) अन्तरब*युक्तः ( लंघणपवणजइणवायामसमत्ये ) जवनश दः शीघ्रवचनः ( छेप) प्रयोगः ( दक्खे ) शीघ्रकारी | ( पत्तट्ठे ) अधिकृतकर्मणि निष्ठां गतः (कुस ले) आलोचितकामहाकर्मकः [मिति] उपायारनकः पविधस्य हि पुरुषस्य शीघ्रं गत्यादिकं नचतीत्यतो बहुविशेपादादिति कोवितम् (चिकिति विकिणी प्रमारितम् [] संकोच [वि [] चिकित् प्रसार समिति उन्नमित) निमीलयेत् काका ध्येयं, काकुपाने वायमर्थः । स्याद्यद्भुत एवं मन्यसे त्वं गौतम ! भवेत् तद्रूपं जवेत्स स्वभाषः शीघ्रताया नारकगतेस्तद्विषयस्य च यदुक्तविशेषण पुरुपबाहुप्रसारणादेरिति । एवं गौतममतमाशङ्क्य जगवानाह नायमर्थः । अथ कस्मादेवम्? इत्याहादि) प्रथमभिप्राया-नारकाणां गतिरेकवित्रिसमया बाहुप्रसारणादिका श्रसङ्ख्येयसमयेति । कथं तादृशी गतिर्भवति नारकाणामिति तत्र च ( एगलमरण व ति) एकेन समयेन उपपद्यन्त इति योगः । ते च ऋजुगतावेव, वाशब्द - ( ७७५) अभिधानराजेन्द्रः । 9 गइ विकल्पे । इह च विप्रदशब्दो न सम्बन्धितस्तस्यैक सामायिकस्यानावात् । (दुसमयेण वत्ति) द्वौ समयौ यत्र स द्विसमयः तेन विग्रहेणेति योगः । एवं त्रिसमयेन वा विप्रदेष वक्रेण तत्र द्विसमयो विप्रट, एवं यदा भरतस्य पूर्वस्या दिशो नरके पश्चिमायामुत्पद्यते तदेकेन समाप स्थानमिति । त्रिसमयविग्रहस्त्वेवम्-यदा जरतस्य पूर्वदक्षिणाया दिशो नरकेऽपरोसरायां दिशि गत्वोत्पद्यते तदा एकेनाधः समय याति द्वितीयेन तिर्यक्पथिमायां सुनीयेन तु - गेव बायां दिवुत्पत्तिस्थानमिति । तदनेन गतिकाल - कः । एतदभिधानाश्च शीघ्रा गतिर्थादशी तदुक्तमिति । श्रथ निगमनाद - ('रश्या' इत्यादि ) ( तहा सीहा गर ति ) यंथोत्कृष्टतः समयत्रये भवति । ( तहा साई गविसर ति) तथैव ( एर्गिदियाणं वचसमइए विग्गहे ति ) उत्कर्षनतुःसमय एकेन्द्रियाणां विग्रहो वक्रगतिर्भवति । कथम् ? - या हितादलो विदेश दियेकेन जीवानामनुश्रेणिगमनात् । द्वितीयेन तु लोकमध्ये प्रविशति । तृतीनो याति । चतुर्थेन तु श्रसनाडीतो निर्गत्य दिव्यवस्थि तमुत्पादस्थानं प्राप्नोतीति तच बाहुमीयते अन्य था पञ्चसमयोऽपि बिग्रदो भवेदेके द्रियाणाम्। तथाहि ना बदिस्तादधोलोके विदिशो दिशं यात्येन कमध्ये तीनो लो 39 गच्छति। ततः पचमेतत्पत्तिस्थानातीति । उक्तं च-" विदिसा उ दिलं पढ़ने, बीप पश्सर नामि मकमि । चरुतश्य तुरिए, दिसी विदिसिं तु पंचमए ॥१॥ तंव ति) “पुषिकायाणं भंते! कई सीहा गई " इत्यादि सबै यथा नारकाणां तथा वाच्यमित्यर्थः । भ० १४ श० १ ० । ( निर्मन्थानां गतिः गिंथ 'शब्दे ) (सामायिकादिसंयतानाच ' संजय ' शब्दे ) ( सामायशब्दे च सामायिकवताम् ) ( गतिमाभित्याल्पबहुत्वादि अप्पाबहुय ' शब्दे प्र० भागे० ६३० पृष्ठे विचिन्तितम् ) ( अथ के कतिगतिका कत्यागतिका इति आगर शब्दे ३०] भागे ४६ पृष्ठे विचिन्तितम् ) भवान्तरस्थिती क रूप० ६ क्षण । गम्यते सौस्थ्याय स्थैराश्रीयते इति गतिः । कल्प० २ क यमाने शरणे, सी०। सिद्धैर्गम्यते इति गतिः कर्म्मसाधनः । दश० १ ० । सिद्धी त स्याः सिद्धैर्गम्यमानत्वात् भ० १० १ ० । विशेष । रा० । सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्था इति । सूत्र ०१ श्रु० १५० । अवबोधे, विशे० प्रमाणे, आधारे क्तिन् । शरणे, पथिस्थाने च । गम्यते कमणिस्वरूपे विषये करणे अभ्युपायेनामी पाणियुकेषु प्रादिषु शब्दविशेषेषु "उपसर्गाः क्रियायोगे १४ ५६ | " गतिश्च " १।४ । ६० । वाच० । सम्प्रति किस अपि प्रकृतिषु प्राप्यन्ते किं वा न ? इति संशये सति तदपनोदार्थमाहतित्थगरदेवनिरियागं च तिसु तिसु गःसु बोधच्वं । पीओ ते सध्या वि गइ ॥६४॥ तीर्थकर नामदेवायुरका प्रत्येक तिस तिसृषु गतिषु बोद्धव्यम् । तथाहि तीर्थकरनाम नरकदेव मनुष्यगतिरूपासु तिसृषु गतिषु प्राप्यते, न विधिकरणस्ति कूपादाभावात् । तत्र गतस्य च तीर्थकरनामबन्धा संप्रवातनवस्याभाष्यात् । तथा तिर्थमनुष्यदेवगतिषु च देवाने Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७६) ग अभिधानराजेन्द्रः। गइप्पवाय नरकगती, नैरयिकाणां देवायुबन्धाऽभवात् । तिर्यक्मनुष्य- (गतिपरिणामे णं नंते! श्स्यादि) द्विविधोगतिपरिणामाता, भरकगतिषु च नरकायुः, न देवगती देवानां नरकायुर्वन्धा- था-स्पृशतिपरिणामः,अस्पृशतिपरिणामश्च । तत्र वस्त्वन्तरे भावात् । शेषाः प्रकृतयः सर्वास्वपि गतिषु सत्तामधिकृत्य प्रा- स्पृशतो यो गतिपरिणामः स स्पृशतिपरिणामः, यथा-ठिकरिप्यन्ते ॥ ६४॥ कम०६ कर्म०। काया जलस्योपरि यत्नेन तिर्यक प्रक्षिप्तायाः, सा दि तथा प्रक्षि गईद-गजेन्छ-पुं०। गजानामिन्डो गजेन्छः । शेषगजेज्योऽधि ता सती अपान्तराले जलं स्पृशन्ती स्पृशन्ती गच्चति बालज नप्रसिकमेतत् । तथाऽस्पृशतो गतिपरिणामोऽस्पृशतिपरिणाके, “वीरो गरंदमयगलसननियगयविकमो भयवं " गजे मो यस्तु न केनापि सहाऽपान्तराले संस्पर्शनमनुभवति तस्याआमदकलसमलितगतविक्रमः। अत्रापि मदकलशब्दस्य विशे स्पृशतिपरिणाम इतिजावः। अन्ये तुन्याचवते-स्पृशतिपरिपणभूतस्य विशेष्यात्परनिपातःप्राकृतत्वात, मदकलो मदम णामो नाम येन प्रयत्नविशेषात् केत्रप्रदेशात् स्पृशाकृति । भिगृहानस्तरुणो, गजानामिन्को गजेन्द्रः शेषगजेन्यो गुणैर- अस्पृशातिपरिणामो येन क्षेत्रप्रदेशान्न स्पृशन्नेष गच्चति । तत्र घिकत्वात, मदकलश्चासौ गजेन्श्च मदकलगजेन्द्रः तस्येव बुवामहे, नमः सर्वव्यापितया त प्रदेशसंस्पशव्यतिरेकेण गसललितो मनोशलीलया सहितो गतरूपो गमनम्पो विक्रमो | तेरसम्भवात् । बहुश्रुतेभ्यो वा परिजावनीयम् । वस्य स तथा । चं० प्र०१ पाहु। अत्रैव प्रकान्तरमाहगइंदपय-गजेन्छपद-न । गिरिमालपर्वताशरस्थे जलतीथें, ती. ३ कल्प० । ( दशार्णकूटपर्वते तस्य गजेन्द्रपदता 'अणि अहवा दीगतिपरिणामेय हस्सगतिपरिणामे य इति । स्सिोवहाण' शब्दे ३३० पृष्ठे) अथवेति प्रकारे अन्यथा वा गतिपरिणामो द्विविधः । गइकनाण-गतिकल्याण-पुं० । गतिर्देवगतिलक्षणा, कल्याणं तथा-दीघंगतिपरिणामः, दस्वगतिपरिणामश्च । तत्र विप्र. येषां ते गतिकल्याणाः। स स्था० । देवलोकरूपया शोभ रुपदेशान्तरप्राप्तपरिणामो दीर्घगतिपरिणामः । तद्विपरीतो हस्वगतिपरिणामः । प्रा० १३ पद । गति रयिकत्वादिजगत्या वा कल्याणेषु, सूत्र०।२ ०२०। गती, भागा पर्यायपरिणतिः, गतिरेव परिणामो गतिपरिणामः , जी. मियां मनुष्यगती, कल्याणं मोकप्राप्तिकणं येषां ते । मन वपरिणामभेदे, प्रका० १२ पद । स चतुर्दा " गतिपन्तरागामिनि भये मोक्ष्यमाणेषु, “ भरणुत्तरोववाइयाणं गह रिणामे ण नंते ! कतिविहे पामते? गोयमा ! चठकहाणाणं विश्कजाणाणं " कल्प० ६ कण। बिहे पमत्ते,तं जहा-नेरड्यगतिपरिणामे, तिरियगतिपरिणामे, नइकाय-गतिकाय-पुं० । चतस्प्लपि गतिषु नारकादीनां देहा मणुयगतिपरिणामे, देवगतिपरिणामे ।" प्रज्ञा०१५ पद। भिवत्वेन शरीरसमुच्ये, श्राव०५. । निरयगत्या गइपरियाय-गतिपाय-पुं० । चलने, स्था।(सा च त्रिभिः दिषु, प्रत्येक प्रत्यकं समापद्यमाने काये, प्रा० ० ०। पनि दिग्भिः प्रवर्ततोस्था०६गाइति "दिसा" शम्ने) मृत्वा (गतिसमापनस्य कायः 'काय' शब्द अस्मिन्नेव भागे ४४५ पृष्ठे उपापादि) घा गत्यन्तरे गमनलक्षणो यश्च वैक्रियलम्धिमान् गर्नानिगत्य प्र देशतो बहिः संग्रामयति स वा गतिपर्यायः । स्था० २ ठा०३ गचंचल-गतिचञ्चल-त्रि० । चश्चमशम्दवक्ष्यमाणार्थके च-| २०। (गतिपर्यायच तयोरेव गर्भस्थयोः मनुष्याणां पश्चेन्द्रिअलनेदे, वृ० १ उ०। यतिरश्चांच) गाचवल-गतिचपल-त्रि०ा गतिश्चपला स्वरूपत पव यस्य त- पविदग-गतिपींद्रिक-न । इह पूर्वीशब्देनाऽऽनुपूी नप्रतिचपलम् । चञ्चले, औः। एयते। भानुशब्दलोपः "ते सुग्वा" सिद्ध०३।२।१०८। इतिसूत्रेण, गश्णाम-गतिनामन्-न । गतिर्नारकादिपर्यायपरिणतिः, तद्वि-| यथा देवदत्तः देवः दत्त इति । ततो नरकादिगतिनरकाचानुपूर्वी पाका कर्मप्रकृतिरपि गतिः सेब माम गतिनाम | कर्म स्वरूपे नरकादिद्विके, कर्म०१ कर्म। कर्मा नामकर्मभेदे, यदुदयात नारकादित्वेन जीवो व्यपदि-गपचितिग-गतिपत्रिक-न० । नरकाचायुःसमन्विते न. श्यते । स०४२ सम०। प्रव० । भा० । पं० सं०। रकादित्रिके, कर्म०१ कर्म। गइनामनिहत्ताउ-गतिनामनिधत्तायुष्-न० । गति रकगत्या नप्पवाय-गतिप्रपात-पुं० । गमनं गतिः प्राप्तिरित्यर्थः। प्राप्तिदिसल्लकणं नामकर्म तेन सह निधतं निषिक्तमायुर्गतिनाम श्व देशान्तरविषया पर्यायान्तरविषया च, उभयत्रापि गतिशनिधत्तायुः । प्रायुबन्धनेदे। स०। भ० । प्रशा। ब्दप्रयोगदर्शनात्। तथादि-कगतो देवदतः ? पत्तनं गत; तथा गश्परिणाम-गतिपरिणाम-पुं० । गतिर्देवादिका तां नियतां येन पचनमात्रेणाप्यसौ गतः कोपमिति लोकान्तरोप्युभयथा प्रयोगः। स्वनावेनायुजी प्रापयति स श्रायुषो गतिपरिणामः । प्रायुः- परमाणुरेकसमयेन एकस्मासोकान्तादपरं लोकान्तं गपति । परिणामभेदे, स्था०६ ठाग देशान्तरप्राप्तिलकणे जीवपरि तथा तानि तान्यध्यवसायान्तराणि गच्यतीति । गतेः प्रपातो गामे, सूत्र.१७० १३१ उ०।। गतिप्रपातः । प्रज्ञा०१६ पद गतिशब्दप्रवृत्तिरूपनियततायाम, प्रशा०१६ पद। अधुना द्विविधं गतिपरिणाममाह गतिप्रपातजेदा:गतिपरिणामे पं ते कतिविहे पामते ? गोयमा!सुविहेपएणते, तंजहा-फुसमाणगतिपरिणामे य, मफुसमाणग- | कतिविहेणं ते! गइपवाए पम्पत्ते गोयमा [पंचवितिपरिणामे या हे गइप्पवाए पत्ते। तं जहा-पभोगगति तत्तगति बन्धन Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७७) अभिधानराजेन्दः। गइप्पवाय गप्पवाय छेदनगती उववायगती विहायगती । से किं तं पोगगती? | सहरपव्वयसपक्खं सपमिदिसि सिमखेतोचवायगती। जंपोगगती पत्ररसविहा पपत्ता । तं जहा-सचमणप्पो बुद्दीवे दीवे हेमवयएरमवयवाससपक्खं सपदिदिसि सिगगती, एवं जह! पओमो भणियो तहा पसा विना- खेत्तोववायगती । जंबुद्दीने दीचे महाववियट्टावडवट्टवेणियच्या. जाव कम्मगसरीरकायप्पभोगगती । जीवा- यसपक्खं समिदिसिं सिखेनोववायगती । जंबुद्दीवे णं भंते ! काविहा पोगगती पाना ? गोयमा ! प- दीवे महाहिमवंतरपिचासहरपचयसपक्खं सपमिदिसिं न्नरसविहा पत्ता । तं जहा-सच्चमणप्पभोगगती जाव सिद्धखेत्तोववायगती । जंबुद्दीवे दीवे हरिवासरम्मगवासकम्मासरीरकायप्पओगगती । नेरझ्याणं नंते ! कतिविहा। सपकखं सपमिदिसि सिमखेत्तोववायगती । जंबुद्दीवे दीवे पभोगगती पसत्ता ? गोयमा ! एकारसविहा पक्षाता। गंधावइमानवंतपरितायावहवे यकृसपक्वं सपमिदिसि सितं जहा-सच्चमणप्पोगगती, एवं उववन्जि उण जस्स चखेत्तोववायगती। जंबुद्दीवे दी णिमहनामवंतवासहजतिविहा तस्स ततिविहा भाणियव्या. जाव वेमा- रसपक्खं सपमिदिसि सिमखेत्तोववायगती । जंबुद्दीचे दीवे णियाणं । जीवाणं जंते ! कि सच्चमप्पओगती० जाव पुनविदेहावरविदेहसपक्वं सपमिदिमि मिचखेत्तोववायकम्मगसरीरकायप्पओगगती? गोयमा!जीवा सन्चे वि ताव गती । जंबुद्धीवे दीवे देवकुरुनुत्तरकुरूसपक्खं सपमिदिसिं होजा सच्चमणप्पप्रोगगती वि एवं ते चेव पुबवन्नियं सिघखेत्तोववायगती । जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्बयभाणियव्वं जंगा, तहेवळ जाव वेमाणियाणं । सेत्तं पओ- स्स सपक्खं सपमिदिसि सिद्धखेत्तोक्वायगती । बगगती। से कि तं ततगती ? ततगती जेणं जगाम वा० जाव वणसमुहस्त सपक्वं सपमिदिसि सिमखेतोक्वायगसन्निवेसं वा संपढिए असंपत्ते अंतरापहे व बट्ट । से ती । धायइखमे दीवे पुरिमपच्छिमछमंदरस्स पन्चतं ततगती । से कितं बंधनदनगती ? बंधनदनगती यस्स सपक्खं सपमिदिसि सिमखेत्तोववायगती । कालोजीवो वा सरीराश्रो सरीरं वा जीवाओ। सेत्तं बंधणछेदन यसमुद्दे सपक्खं सपमिदिसि सिमखेतोववायगती । गती । से किं तं उपवायगती ? जववायगती तिविहा पुक्रवरवरदीवले पुरिमद्धभरहेरवयवाससपक्वं सपमिदिपपत्ता । तं जहा-खित्तोववायगती भवोक्वायगती नोज सिं सिद्धखेत्तोषवायगती । एवं० जाव पुक्खरवरदीव पयोववायगती । से किं तं खित्तोववायगती ? खित्तोववा छिमद्धपुरिमच्छमंदरपव्वयसपक्खं सपमिदिसि सिद्धखेतो. यगती पंचविहा पामत्ता । तं जहा-नेरइयखेत्तोक्वायगती ववायगती । सेत्तं सिद्धखेत्तोववायगई । सेत्तं खेनोववातिरिक्खजोणियखेतोववायगती मस्सखेत्तोववायगती देव यगई । से किं तं भवोववायगई ? नवोववायगई चनधिखेत्तोववायती सिद्धखेत्तोववायगती । से किं तं नेरश्यखेनोववायगती ? जेरइयखेचोक्वायगती सचविहा परमत्ता । तं हा पमत्ता । तं जहा-नेरश्यक जान देवभवोववायगती। जहा-रयणप्पभापुढवीनेरइयखेत्तोववायगती० जाव अहे से किं तं नेरइयत्नवोक्वायगई ? णेरइयत्नवोववायगती सत्तमपुढवीनेरश्यखेतोचवायगती । सेत्तं नरश्यखेत्तोववाय सत्तविहा पएणत्ता । एवं सिच्वजो दो भाणियको गती । से किं तं तिरिक्खजोणियखेत्तोववायगती ? जो चेव खेत्तोक्वायगतीए सो चेव नवोक्वायगनीए । सेतं तिरिक्खजोणियखेत्तोक्वायगती पंचविहा पहाता । तं भवोववायगती । से किं तं नोनवोपचायगती ? । नोजजहा-एगिदियतिरिक्खजोणियखेत्तोववायगती० जाव पं वोववायगई सुविहा पएणत्ता । तं जहा-पुग्गलनोभवोवचिंदियतिरिक्खनोणियखेत्तोक्वायगती । सेत्तं तिरिक्खजो वायगती य सिक्छनोभवोववायगती य । से किं तं पुग्गलणियखेनोववायगती । से किं तं मास्सखेत्तोक्वायगती ? नोभवोववायगती ? पुग्गलनोजवोचवायगती जनं परमणुस्सखेत्तोववायगती दुविहा पत्मत्ता । तं जहा-संमु माणुपोग्गले लोगस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ पञ्चच्चिचिममणुस्सगन्नवतियमणुस्सखेत्तोववायगती । सेचं मित्वं चरिमंतं एगसमपणं गच्चइ । पञ्चचिमिद्याओ चरिमंतामणुस्सखेत्तोववायगती । से किं तं देवखेत्तोववाय ओ नत्तरिलं चरिमंतं एगसमएणं गच्छदाहिणिवाश्रो वा गनी ? देववेत्तोववायगती चनबिहा पाएणता । तं चरिमंताओ उत्तरिट्वं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति । एवं उ. जहा-नवणवई० जाच वेमारिणयखेत्तोववायगती । सेत्तं तरिक्षाओ दाहिणिवं० जाव हेडिवाओ उवरिल्लं । सेत्तं देवखेत्ताववायगती । से किं तं सिखेत्तोववायगती ? पोग्गलनोनवोचवायगत । से किं तं सिछनोनवोववायसिद्धखेतोक्वायगती अणेगविहा पहना । तं जहा गती ? सिद्धनोभवोववायगती मुविहा पाएगात्ता, तं जहाजंबुद्दीवे दीवे भरहेरवयवासस्स सपक्खं सपमिदिसि सि- अणंतरसिकनोभवोववायगती परंपरसिछनोभवोववायगदखेतोक्वायगनी। जंबहीवेदीने चाहिमवनसिहरिवा- ती य । से किं तं अणंतरसिकनोजयोववायगती। अ. Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७८) अभिधानराजेन्द्रः । गइप्पत्राय नंतर सिनोजवोव वायगई पन्नरस विहा पएलता, तं जहातित्थसिद्ध अणंतरनोजवोत्रवायगती य० जाव णेगसिकनोभवोचत्रायगती | से किं तं परंपरसिकनोभवोववायगती ? परंपरसिनोजवोववायगनी प्रोगविदा पष्ठत्ता, तं जहा - अपढमसमयसिन्धनोभवोचवावगती, दुसमयसिकनोजवोववातगती० जाव अनंतसमयसिनोभवोवायग ती । सेसं नोजवोववायगती । सेतं जववायगती । से किं संविहायगती १ विहायगती सत्तरसविद्दा पछत्ता । तं जहा - फूलमाणगती अफूसमाणगती उवसंपज्जमाणगती अणुवसंपज्ञमाणगती पोग्गलगती मंग्यगती नावागती Satara Tera छायावातगती लेस्सागती बेस्साaraगती उद्दिसयपत्रिभतगती चउपुरिसपविजत्तगती वं कगती पंगती बंधणविमायणगती । से किं तं फूसमाण गती ? फूसमाणगती जयं परमाणुपोग्गले दुपदो सेए० जात्र प्रणतपदेसियाणं खंधाणं अन्नपन्नं फुसित्तारण गती पत्रतइ । सेत्तं फूस माणगती । से किं तं अफमाणगती १ श्रममाणगती जन्नं एतेसिं चेत्र प्रफुसित्ताण गती पवत्तइ । सेत्तं अफसमागती । से किं तं उवसंपज्जमाएगती ? उवसंपअमाणगती जहां जंरायं वा जुवरायं वा ईसरं वा तलवरं वा मामंत्रियं वा कामवियं वा इन्जं वा सेडिं वा सेणावई वा स त्थवाहं वा उवसंपज्जित्ताणं गच्छति । सेत्तं नवसंपज्जमागती । से किं तं अणुवसंपज्जमाणगती ? अणुवसंपज्जमागती जन्नं एतेसिं चेव अन्नमन्नं अणुवसंपज्जिताणं गच्छति । सेत्तं अणुवसंपज्जमाणगती । से किं तं पोगलगती ? पोग्गलगती जन्नं परमाणुपोग्गलाणं० जाव प्रणं तं पदे सियाणं खंधाण गती पत्रत्तइ । सेतं पोम्गलगती । से किं तं मंडूपमती ? मंम्यगती जन्नं मंझए उप्पडित्ता उप्पमि ता गच्छति । सेतं ममूयगती । से किं तं णावागती : पाबागती जन्नं णात्रा पुव्व वेतालीय दाहिण्वेतालि जलपणं गच्छति, दाहिणवेतालिं वा अवरवेतालि जलपहेणं गच्छति । सेत्तं णावागती । से किं तं नयगती : नयगती जन्नं नेगमसंग हववहार उज्जुसृयसद्द समजिरूढएवंभूताणं णयाणं जा गती, हवा सव्त्रया त्रिजं इच्छन्ति । सेतं नयगती । से किं तं बायागती ? बायागती जेणं ह यच्छायं वा गयच्छायं वा नरच्छायं वा किन्नरच्छायं वा महोरगच्छायं वा गंधव्वच्छायं वा रहच्छायं वा बत्तच्छायं बा उवसंपज्जित्ताणं गच्छति । सेत्तं छायागती । से किं तं यात्रायगती ? बायाणुवायगती जं णं पुरिसच्छाया - गच्छति, नो पुरिसे छायं अणुगच्छति । सेतं बाया वायगती । से किं तं लेस्सामती १ लेस्सागती जन्नं कएहले For Private गइप्पवाय स्सा नीललेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए तारसतार ताफासचार भुज्जो भुज्जो परिणमति । एवं नीललेस्सा काउलेस्सं पप्प तारूवताए जाव० फासत्ताए परिणमति । एवं काउलेस्सा वि तेउलेस्सं, तेउलेस्सा वि पम्हलेस्सं, पहलेस्सा व सुकलेस्सं, पप्प तावत्ताए० जाव परिणमति । से लेस्सागती । से किं तं लेस्सावायगती ? लेस्सा वायगती जं लेस्साई दव्वाई परित्ताइत्ता कालं करे तलेसेमु उववज्जइ । तं जहा - कएहलेस्सेसु वा० जाव सुकिललेस्सेसु वा । सेनं लेस्साणुत्रायगती । से किं तं उद्दिपविभत्तगती ? उद्दिस्सपविजत्तगती जेणं प्रायरितं वा उनज्जायं वा थेरं वा पवत्तिं वा गणिं वा गणहरं वा मपात्रच्छेदं वा उाद्देसिय उद्दिसिय गच्छति । सेत्तं नहि पविजत्तगत । से किं तं चउपुरिसपविजतगती १ चपुरिसपविभत्तगत से जहा नामए चत्तारि पुरिसा समगं पज्जवडिया, समगं पट्टित्ता विसमं पट्टित्ता समगं पज्जवट्टिया विसमं पज्जवहित्ता विसमं पज्जवट्ठिया सेतं चपुरिसपविभत्तगती । से किं तं बंकगती ? बंकगती चलम्विहा पत्ता । तं जहा घट्टणता यंञणता लेसरणता पवमणया । सेत्तं वंकगती । से किं तं पंकगती ? पंगती से जहा नामए केइ पुरिसे सेईसि वा पंकसि वा उदयंसि वा कार्य जव्विहित्ता गच्छति । सेत्तं पंकगती । से तं बंधणविमायणगती ? बंधणत्रिमोयणगती जन्नं - बाण वा यंत्रामगण वा माउलिंगाण वा चिल्लाए वा कविट्ठाण वा जव्वाण वा फणसाण वा दाक्षिमा वा पारेताण वा क्खोला वा चाराण वा तंदुयारण वा पक्काणं परियागताएं बंधणाओ विष्पमुक्काणं वा विव्वाघाएणं देवीसाए गती पवत्तई । सेत्तं बंधण त्रिमोयणगती | सुगममा पदपरिसमाप्तेः, नवरं (जबूद्दीवे दीवे भरहेरवयवास - स्स सपक्वं समिदिसि सि त्तोववायगरन्ति ) जम्बूद्वीपे द्वीपे यद्भरतवर्ष मैरवतवर्षे च तयोरुपरि सिद्धिक्षेत्रोपपातगतिर्भवति । कथमित्याह - सपक्कं सप्रतिदिक्, तत्र सद् पक्काः पार्श्वः पूर्वापरदक्षिणोतररूपा यस्मिन् सिद्धक्षेत्रोपपातगतिभवने ततः सपर्क, सह प्रतिदिशो विदिश श्राग्नेय्यादयो यस्मिन् तत्सप्रतिदिक, क्रियाविशेषणमेतत् । एषोऽत्र भावार्थ:- जबूद्वीपे द्वीपे भरतैरावतवर्षयोरुपरि सर्वासु दिनु विदिक्षु च सर्वत्र सिद्ध केत्रोपपातगतिर्भवतीति । एवं शेषभूतेष्वपि भावनीयम् । उपसम्पद्यमानगतिसुत्रे - ( जां जं राश्यं वा ) इत्यादि । राजा पृथिवीपतिः, युवराजा राज्यचिन्ताकारी राजप्रतिशरीरं, ईश्वरः श्रणिमाद्यैश्वर्ययुक्तः, तलवरः परतुष्टनर पतिप्रदत्त पट्टबन्धषिभूषितो राजस्थानीयः, मामम्बिकः छिन्नमरुम्वाधिप, कौटुम्बिकः कतिपयकुटुम्बस्वामी, श्भमईतीति इभ्यो धनवान्, श्रेष्ठी श्रीदेवताभ्यासित सौवर्णपट्टभूषितोत्तमाङ्गः, सेनापतिंपतिनिरूपितचतुरङ्गसैन्यनायकः, सार्थवादः सार्थनायकः, नौग Personal Use Only Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंगदत्त अभिधानराजेन्दः । गरागइलक्षण तिसूत्रेषु ( जन्नं नावा पुन्ववेतालि) इत्यादि । तालिशब्दो | बवासस्मात्पूर्वपदव्याहतो विकल्पनियमोऽयं भक्तः । विकल्पो देशीवचनत्वाद्वेतालातटवाची । प्रज्ञा० १६ पद । गतेर्वा | म्याहतिर्भजना म्यजिचार इत्यर्थः । नियमो निश्चयोऽव्यभिचार प्रवृत्तः क्रियायाः प्रपातः प्रपतनं सम्भवः प्रयोगादिश्वर्थेषु इत्यर्थः। ततश्च पूर्वपदविकल्पोपतक्षित उत्तरपदनियमो यत्रासौ वर्सनं गतिप्रपातस्तत्प्रपातकमध्ययनं गतिप्रपातम् । भ०८०] विकल्पनियमःप्रथमो प्रगति। ७ उ० । गतिप्रपातप्रतिपादकेऽन्ययथिकान्प्रति स्थविरैःक शेष नात्रयं सोदाहरणं यथाथिते अध्ययने, भ. " तपणं ते थेरा भगवंतो अमउ- जीव जीवो जीवो, जीवइ नियमो मो विगप्पो य । स्थिप एवं पडिहणन्ति, एवं पडिहणेत्ता गप्पवायनाम - देवो जव्यो भन्नो, देवो त्ति विगप्पमो दो वि ॥२१५०।। ज्झयणं पसषसु । काविहे गं भंते! गइप्यवाए पपत्ते ! गो. यमा! पंचविहे गइप्पवाए पत्ते । तं जहा-पभोगगई तवगई जीवो जीवो जीवो, जीवो ति दुगे वि गम्मए नियमो । बंधपच्छेयणगई उबवायगई विहायगई पत्तोप्रारम्भ पश्रोगपदं जीवो जहोवनोगो, तहोवनोगो यजीवो ति॥१५ निरवसेसं भाणियन्वं० जाव से विहायगई सेवं भंते ! ते! व्याख्या-(जीवर जीयो जीवो जीवत्ति) इत्यनेन द्वितीयभा. त्ति"।भ०८०७०। प्रतिपादकं भगवतीसूत्रं सूचितम् । तदम-"जीवन जीये गतिप्रवाद-न० । गतिः प्रोद्यते प्राप्यते यत्र तति जीवे जीव गोयमा! जीवर ताव नियमा जीये जीये पुण सिय जीव सिय नो जीव" इति।इह 'जीवई'शम्देन दशषिधमाणप्रयादम् । भ०८ श०७ उ०॥ सकणं जीवन जीवितव्यमुच्यते। तत्र जीवनं तावनियमाजीचे, मइवन्धनपरिणाम-गतिबन्धनपरिणाम-पुं० । येनायुःस्वभा. अजीवे तस्य सर्वथाऽसंभवात् । जीवः पुनः स्थाजीवति स्याण बेन प्रतिनियतगतिकर्मबन्धो भवति, यथा नारकायुःस्वजावे. जीवति,सिरुजीवस्य जीवनासंजवादत इहोत्तरपदं व्याहतं म्यन मनुष्यतिर्यग्गतिनामकर्म बध्नाति; तदेव नारकगतिमामक भिचारात्। पूर्वपदं त्वम्याहतं, जीवनस्य जीवमन्तरेणाभाषादत मेति स गतिवन्धनपरिणामः। प्रायुःपरिणामभेदे,स्था ९ ठा एवाह-(नियमोमो विगप्पोय ति) पूर्वपदेष्यनिचारानिवगइय-गदित-त्रि०। प्रतिपादिते, प्रति। मो मतः। उत्तरपदे तु विकल्पो भजना व्याहतिय॑निचार इत्यर्थः। गरश्य-गतिरतिक-त्रि० । गतौ रतिरासक्तिःप्रीतियेषां ते ग- ततश्च नियमेनोपसक्षितो विकल्पोयत्रासौ नियमविकल्पनामतिरतिकाः समयकेत्रवर्तिषु अनुपरतगतिकेषु देवेषु । स्था० कोऽयमुत्तरपदव्यादतो द्वितीयो नमः । (देवो भव्धो भव्यो देवो २ ग०२ उ०। तिअनेनापि तृतीयभङ्गप्रतिपादकं प्राप्तिसूत्रं सूचितम् । तद्यथामहरागइलक्खण-गतिरागविलक्षण-न० । सकणभेदे, विशेष "देवे णं ते! भवसिद्धिप भवसिहिए? देवे गोयमा देवे सिय सत्स्वरूपं च विशे। भवसिशिप सिय भभवसिकिए भवसिहिए वि सिय देखे अथ "गश्राग ति" गत्यागतिलकणस्वरूपं प्रचिकटयिषुराह सिय नो देवेति" अत्र पूर्वपदवर्ती देवो भव्यत्वं व्यनिचरति अवरोप्परं पयाणं, विसेसण-विसेसणिज्जया जत्थ । प्रभव्यस्यापि तस्य संन्नवात, उत्तरपदवर्त्यपि प्रन्यो देवत्वं व्यनिचरत्यदेवस्यापि तस्य नरकादौ संन्नवादत उभयपदव्याहतगचागई य दोएहं, गच्चागइलक्खणं तं तु ॥ ११५६ ॥ मिदमत एवाह-(विगप्पमो दो वित्ति)ह प्राकृतशेल्या वयोरपरस्परं योद्धयोः पदयोर्यत्र विशेषणविशेष्यतया प्रानुक- पि पदयोर्विकल्पो व्याभिचार प्रत्यर्थः। ततश्च विकल्पयुक्तो विकस्येन गमनं गतिः । 'यथा जीवो जदन्त! देवः' इति, जीयम- स्पो यत्रासौ विकल्पविकल्पनामकोऽयमुभयपदव्याहतस्तृतीयो नूद्य देवत्वं पृच्च्यते । अत्र जीवपदादू देवपदे पानुकूल्येन य. भात। (जीवो जीवो जीवो जीवो तिहापि व्याख्या प्रकथास्थित्या गतिः। तथा प्रत्यावृत्या प्रातिकूल्येनागमनमागतिर्यथा प्तिसूत्रमेतद्रष्टव्यं, तद्यथा-"जीवे भंते! जीवें जीवे जीवे गोय. 'देवो जीवः' इत्यत्र देवमन्द्य जीवत्वं पृमयत श्तीह प्रत्यावृत्या मा! जीवे ताव नियमा जीवे,जीवे वि नियमा जीवे ति" हैकदेवपदाजीवपदे श्रागतिः। गतिश्चागतिश्च गत्यागती ताभ्यां ते स्य जीवशब्दस्योपयोगो वाच्यस्ततश्चोपयोगो नियमाजीयः, वा सकणं तदेतद् गत्यागतिलक्षणम् । एतच चतुर्धा, तद्यथा-पू. जीवोऽपि नियमाऽपयोगोऽत उजयपदव्याहतमिदमत एवाहर्वपदव्याहतम, उत्तरपदव्याहतम, उन्नयपदव्याहतम उभयप- "दुगे वि गम्मए नियमो" इत्यादि । पदद्वयेऽप्यत्र नियमो दाव्यादतं चति । तत्र पूर्वपदं व्याहतं व्यानिचारि यत्र तत्पूर्वपद- गम्यते । ततश्च नियमान्वितो नियमो यत्रासी नियमनियमानिव्याहतं लकणं पूर्वपदव्यभिचारीत्यर्थः पवमन्यत्रापि यथायोगं धान उभयपदाऽव्याहतश्चतुर्थो भङ्ग इति । समासः। अथ लोकेऽपि चतुर्विधमिदं गत्यागशिलक्षणं पतानेय बतुरो भङ्गान् सोदाहरणानाह भाष्यकार: प्रसिद्धमिति दर्शगन्नाहपुन्वावरोभएसुं, वाहयमबाहयं च तं तत्थ । रूवी घडो त्ति चूओ, दुम्मों तिनीझुप्पन्नं च लोयम्मि। जबो देवो देवो, जीवो त्ति विगप्पनियमोऽयं ॥२१५७।। जीवो सचेयणोत्ति य, विगप्पनियमादो सिका।२१६० इह पूर्वपदव्याहतम् अपरपदव्याहतमुभयपदव्याहतमुभयपदा- पूर्वपदव्याहतं यथा-'रूपी घटः' इति । अत्र रूपिणो घटस्य प. ज्यादतं चेति चतुर्का तद् गत्यागतिकणमुक्तम् । तत्र 'जीवे ते! टादेश्च भावात्पूर्वपदव्याहतिः, उत्तरपदं तु न व्याहतं; घटस्य देबे देवे जीके गोयमा ! जीवे सिय देवे सिय नो देवे देखे पुण रूपिण एव भावादिति विकल्पनियमः प्रथमो नङ्गः । उत्तरपनियमा जीवे' इति नुवनगुरुवचनाज्जीवो देव इति विशेषणवि. दव्याहतं ' चूतो द्रुमः' इति । इह चूतो द्रुम एव भवतीति न होण्यभूते पददये जीव इति पूर्वपदं देवत्वं व्यनिचरत्यपिाजीव व्याहतिः, दुमस्तुचूतोऽचूतश्व स्थादित्युत्तरपदव्याहतिरिति नि स्य देवस्यादेवस्य च नारकादेर्दर्शनात् । 'देवः किं जीवः? इति यमविकल्पो द्वितीयो भक्तः । उभयपदव्याहतं यथा-नीलोत्पलप्रत्यावृत्ती देवो जीवत्वं न व्यभिचरत्येव, देवस्य नियमेन जी मिति। नीलमुत्पलं मरकतादि च भवति, उत्पलमपि मास शु. Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (900) अभिधानराजेन्द्रः । गइरागइलक्खण क्लादिरूपं प्रयतीत्यपस्यन्निचारा विकल्पविस्तृ तीयो नङ्गः । उभयपदाव्याहतं यथा जीयः सचेतनः ' इति । जीवः खवेतन एव नयति चेतना जीवस्यैवेयुभयपदा व्यभिचारादू नियमनियमश्चतुर्थो भङ्ग इति । इत्येवं विकल्पनियमादयइन्त्रत्वारो भङ्गा लोकेऽपि सिका इति । तदेवमनिदितं गत्यागतित्रत्क्षणम् । विशे० । श्रा० म० द्वि० । गविसय-गतिविषय० गतिगोचरविषये थे । प्रति० । असुरकुमाराणं देवाणं श्रहे गइविसये सिग्घे इह यद्य पि गतिगोचर के गतिविषशब्देनोच्यते तथापि रेव गृह्यते शीघ्रादिविशेषणानां क्षेत्रे युज्यमानत्वादिति । ज० ३ ० २ उ० । 1 66 " मइसमाचा गतिसमापन पुं० गतिर्गमनं तां समाः प्राप्तास्तन्तो गतिसमापन्नाः गनिमासु पृथ्वीका कादियु स्था०| इतिहा दयाहाता तं जहा गइसमावनगा चैव अगइसमावन्नागा चैत्र || गतिर्गमनं तां समापन्नाः प्राप्तास्तद्वन्तो गतिसमापन्नाः । ये हि पृथ्वी कायिकाद्यायुष्कोदयात् पृथिवीकायिकादिव्यपदेशवन्तो विग्रहगत्या उत्पत्तिस्थानं प्रजन्ति, अगतिसमास्तु स्थिति मन्तः । स्था० । २ ० १ उ० सू० प्र० । गइसमाचभग-गतिसमापनक० गतिमसमिति 1 मापकाः प्राप्ताः गतिसमापन्नकाः अनुपततिकेषु देवेषु स्था० २ ठा० २ ० । ( ' श्रगसमावरण ' शब्दे प्र० भागे १५३ पृष्ठे दमक उक्तः ) " गड- पुं०- गो- पुं० गाय गमः करये मोग व्यउप्रात्रः ८ । १ । १५८ । गोशब्दे ओतः उश्राश्र इत्यादेशौ भवतः । गउश्रो गउश्रा गाओं प्रा० १ पाद । स्वनामख्याते पदे, वृषभस्य यानसाधनत्वात् । वाचः । गडा - गो-० । स्त्रियां "स्वस्त्रादेर्मा " ८ । ३ । ३५ । इति 56 33 डा प्रत्ययः गठश्रा प्रा० ३ पाद । गउम-गौम-पुं० । “ डो लः छ । १ । १०२ । इत्यस्य क्वाचि कत्वान्न मस्य लः । प्रा० १ पाद देशभेदे, तद्देशस्थे जने, ब० ० ब्राह्मणदे, गुडचिकारे मदिराभेदे, स्त्री० १ वाच० । गरि - गौरी - स्त्री० । “ स्वराणां स्वराः प्रायोऽपभ्रंशे " छ । ४ | ३२६ । इति प्रायिके स्वरादेशे । गउरि गोरि प्रा० ४ पाद । गौरवर्णायां स्त्रियाम्, "कपोलभित्तीरिव लोध्रगौरीः” वाच० । गंग-गङ्ग- पुं०। द्वैक्रियनिहवानां धर्म्माचाय्यें (तद्वक्तव्यता च 'दोकिरिय' शब्दे ) श्रा० म० द्वि० । विशे० । स्था० । उत्त० नि० । गंगदत्त - गङ्गदत्त - पुं० । पूर्वभवे नवमे वासुदेवे, ( स च गङ्गदच. नामा मः पितृ कारिया कमेण वासुदेवो जात इति 'चमण' शब्द कथा ) श्रा० क० आ० म० द्वि० । ० ० ० ० [पयनदेव वासुदेवयोः पूर्वजविकेच मया स० । हस्तिनापुर जाते मुनिसुव्रतशिष्ये अष्टिन स प्रवज्य कालं कृत्वा सम्यग्दृष्टिदेवो जात इति । भ० । शेणं कासेणं णं समए उबातीरे शार्म एवरे होस्था बफओ एमए चेइए, भते काले व गंगदत्त समरण सामी समोस० जाव पज्जुवास ते कालेI णं तेन समर्पणं सके देविंदे देवराया बनपाणी एवं ज वितिए उस तव दिव्येणं जावमा आगो जाव जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छ - वागच्छता जाव शासिता एवं बयासी देवे णं नं महि जात्र मक्खे बाहिरए पोग्गले परियाइसा पन् आगमि को इण्डे समट्टे देवे णं जंते महिए० जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पचू आगमित्तए ? इंता पन् ? | देवे एां जंते ! महिच्किए एवं पण अभिलावेणं गमिष 2 एवं जातिवि यागरितए वा ३, डंमिसावेत्तए वा निम्मिसावेत्तए वा ४, आउंटाचा पसारेच या ठाणं वा सेवा सीहियं वा वेत्तित्तए वा ६, एवं विव्वित्तए वा 9, एवं परियात पा जाता इमाई उ क्तिपसि वागरणाई पुच्छर संजति य बंदरण एणं वंदे | वंदेता तमेव दिव्वं जाणविमारणं दुरूह, दुरूह इत्ता जा मेव दिसिं पाठ तामेव दिसिं परिगए । भंते ि भगवं, गोयमे समणं भगवं महावीरं बंद मंस वंदिता मंसित्ता एवं वयासी अदा जंते! सके देविदे देवराया देवापि वेद नर्मस नाव पवास कि जंते! सके देविंदे देवराया देवा उक्लि तपसिणवागरणाई पुच्छर, पुच्छइत्ता संनंतियं बंद, बंदइत्ता० जाव पभिगए। गोयमादि समये भगवं महावीरे जगवं गोयमं एवं वयासी एवं खलु गोयमा । तेणं कालेां समणं महामुके कप्पे महामामाशिपरिमाणे दो देवा महिडिया जाय मसक्खा एगरिमाणंसि देवता - बा। तं जहा - मायमिच्छदिडी उबवसाए य, भमायी सम्पदिट्ठी, उवत्रपए म । तर से मायमिच्छद्दिट्ठीare देवे तं मायीसम्मद्दिट्टी नववमयं देवं एवं बयासी - परिणममाणा पोग्गला, जो परिणयाः अपरिणया, 'परिणमतीति पोग्गला' यो परिणया, अपरिणया । तए एं से श्रमायसम्म हिडीववर देवे तं मायीमिच्छदिट्ठीवागं देवं एवं वयासी परिणममाणा पोग्गला परि या जो अपरिया, परिमंतीति पोग्गला परिणया नो अपरिणया । तं मायीमिच्छविवगं देवं एवं पमि हण | एवं पडिहइत्ता ओहिं पउंज, ओहिं पड़ता मम भोईया आजो आनोएडा अयमेयारू० जान समुपज्जित्था । एवं खलु समणे जगवं महावीरे जंबुद्दीवे दीवे जारहे वासे जेणेव उल्लुयातीरे णयरे जेणेव एमजेए चेश्ए महापभिरूपं० नाव विहर, सेवं Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) गंगदत्त अभिधानराजेन्द्रः। गंगदत्त खलु समणं भगवं महावीरं वंदित्ता. जाव पज्जवासित्ता इमं लेणं तेणं समएणं हेव जंबुद्दीचे दीवे जारहे वासे हस्थिएयारूवं वागरण पुच्चित्तए त्ति कह एवं संपेहेइ । संपेहेइ- णापुरे णामं णयरे होत्था वहाओ, सहसंवत्रणे न जाणे त्ता चनहिं सामाणियसाहस्सीहिं परियारो जहा सूरिया-| वएएओ । तत्थ ण हत्यिणापुरे गयरे गंगदत्त णामं गाहाभस्स जाब णिग्घोसणादितरवेणं जेणेव जंबुद्दीवे दीवे | वई परिवसर, अहे जाव अपरिनुए । तेणं कालेणं तेण सभारहे वासे जेणेव नबुयातीरे पयरे जेणेव एगजंबूए | मएणं मुसिमुव्बए अरहा आदिगरे० जाव सव्वा सव्वचेइए जेणेव ममं अंतिए तेणेव पहारेत्यगमणाए । दरिसी आगासगएणं चक्कणं० जाव पकाहजमाणेणं पतएण से सके देविंदे देवराया तस्स देवस्स तं दिव्वं देवि- कट्टिजमाणेणं सीसगणसंपरिबुडे पुवाणुपुचि चरमाणे हिं दिव्वं देवज्जुति दिव्यं देवाणुनावं दिव्बतेयलेस्सं अ- गामाणुगामं० जाव जेणेव सहमवत्रणे उजाणे जाव विहसहमाणे अट्ठउक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छइ, पुइसा र६ । परिसा णिग्गया. जाव पज्जुवासइ । तएणं से संभंसिय० जाव पमिगए, जावं च एं समणे जगवं म- गंगदत्त गाहावई ईभीसे कहाए बच्ढे समाणे हहतुहन हावीरे भगवनो गोयमस्स एयमटे परिकहेश, तावं च णं जाव कयवझिसरीरे साओ गिहाओ पमिणिक्खम । प. से देवे तं देसं हवमागए । तएणं से देवे समण भगवं म- डिणिक्रवमइत्ता पादविहारचारेणं हस्थिणारं यरं मऊ हावीरं तिक्वुत्तो बंदइ एमंसद, वंदइत्ता णमंसइत्ता एव व- मज्केणं णिग्गच्छइ। णिग्गच्छइत्ता जेणवे सहसंबवणे उयासी-एवं खल ते! महासके कप्पे महासामाणे विमा. जाणे जेणेव गुणिमुम्बए अरहा तेणेव उवागच्चइ । उवागणे एगे मायी नववपाए देव ममं एवं क्यासी-परिणममा- च्वइत्ता मुणिसुब्वयं अरहं तिकवुत्तो आयाहिणप्पयादिणं. णा पोग्गना, यो परिणया; अपरिणया, 'परिणमंतीति पो जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवास। तए गणं मुणिग्गला' णो परिणया, अपरिणया। तएणं अहं तं मायी- सुन्वए अरहा गंगदत्तस्स गाहावइस्स तीसे य महति. मिच्छद्दिवीउववप्मगं देवं एवं क्यासी-परिणममाणा पो- जाव परिसा पमिगया, तए णं से गंगदत्ते गाहावई मुणिगला परिणया,णो अपरिणया, परिणमन्तीति' पोग्गला मुव्वयस्म अरहो अंतियं धम्मं सोचा णिसम्म हट्ठपरिणया, णो अपरिणया। से करमेयं भंते ! एवं गंगदत्ता- तुट्ट उट्ठाए उठे । नाडेपत्ता मुणिमुब्बयं अरहं वंदइ णमंसइ । दि! समणे भगवं महावीरे गंगदत्तं देवं एवं वयासी-अहं पि वंदऽत्ताणमंसश्त्ता एवं बयासी-सहामि णं ते ! जिग्गणं गंगदत्ता ! एवमाइक्खामि ४, परिणममाणा पोग्गला० थ पावयणं जाव से जहेयं तुब्भे बदह । जं वरं देवाणुजावणो अपरिणया, सच्चपेसे अटे । तए णं से गंगदत्ते दे- प्पिया ! जेट्टपुत्त कुमुंबे टावेमि । तए णं अहं देवाणुप्पिवे समणस्स जगवो महावीरस्स अंतियं एयमढे सोचा याणं अंतियं मुंडे जाव पव्वयामि । अहासुहं देवाणुप्पिणिसम्म हटतुट्ठ समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंस, वंदि. या!मा पडिबंध। तए णं से गंगदने गाहावई मुणिमुम्बएणं ता णमंसिसाणचा सो० जाव पज्जुवास । तए णं से अरहा एवं वुत्ते समाणे हनुढे मुणि सुव्ययं अरहं चंदइ ण. गंगदत्ते देवे समणस्य जगवो महावीरस्स अंतिए धम्म मंसह । चंदइत्ता गमंसइत्ता मुणिमुव्ययस्स अरहओ अंतियाओ सोचा णिसम्म हट्टतुड़े उठाए उढे । उत्ता समणं भग- सहसंपवणाओ उजाणाओपमिणिक्खमइ । पमिमिक्ख. वं महावीरं बंदइ णमंसइ, वंदश्त्ता णमंसइत्ता एवं वयासी- मइना जेागेव इत्थिणापुरेणयरे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागअहं पं नंते ! गंगदत्ते देवे किं भवसिछिए अभवमिचिए च्छड । उनागच्चरत्ता विपलं असणं पाएं जाव नववएवं जहा सूरियाभो० जाव बत्तीसविहं उवदंसे । उवदंसेइ- मावेश, नवक्खडावेइना मित्तणाइणियग. जाव आमंना. जाव तामेव दिसिं पमिगए ? भंते ! ति भगवं गोयमे ! ते। पामतेइना नो पच्छा पहाए जहा पूरणे जाव जेसमणं भगव० जाव एवं वयासी-गंगदत्तस्स णं ते! दे- टुपुत्तं कुटुं वे जावे। मिना जाव जेहपुत्तं च आपुबस्स सा दिव्या देविश्री दिव्या देवज्जुती० जाव अणुप्प- च्छद। आपुराना पुस्लिमहस्सवाहिणि सीयं दुरूहइ । दु. विट्ठा ? गोयमा ! सरीरं गया सरीरं अणुप्पविट्ठा कूमा- रुइत्ता मिनागाइणि राग० जाव परिजगणं जेट्टपुत्तेगा य गारसाला दिलुतो जाा सरीरं अगुप्पविहा। अहोणं भं- समणुगम्ममाणमन्गे सविहीर जायकवादितरवेणं हत्यिते ! गंगदत्ते देवे महिहिए. जाव महेसक्खे गगदत्तणं भं- णापुरंणयरं ममजोणं गन्ना णिगगच्छदत्ता नेणेव ते ! देवेणं सा दिव्या देविही दिवा देवज्जती किंणो सहसंववाणे उजागे तेणे व उवागतः । नवागनइत्ता छत्तासका० जान जेणं गंगदत्तणं देवयं मा दिव्वा देविमा० इच्छते तिथ्यगररादि पास एवं जहा-नुदायणे. जाव जाव अजिसमामागया? गोयमादि ! समणे भगवं महावीरे सयमेव आनणे उम्पुयड। उम्मुथइनासयमेव पंचमुष्टियं खोयं भगवं गोयमं एवं बयासी-एवं खबु गोयमा ! तेणं का- करेड । कोइला जेऐव मुणिमुव्बा अाहा एवं जहा नदायणे २९६ Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०२) गंगदत्त अन्निधानराजेन्डः। गंगा तहेव पदइए,तहेव एक्कारस अंगाई अहिजडजाव मासि- गंगप्पवायदह-गङ्गाप्रपातहद-पुं० । हिमवर्षधरपर्वतोपरियाए संलेहणाए सहि जत्ताई अणसणाए जान दे। घर्तिपग्रहदस्य पूर्वतोरणेन निर्गत्य क्रमेण यत्र प्रपतति तदेइत्ता आलोइयपमिकते समाहिपत्ते काझमासे, काझं कि स्मिन् हृदविशेषे, स्था० २ ठा० ३ उ०। ('गंगा' शम्देऽस्य स्वरूप दर्शयिष्यामि )" दो गंगप्पवायहहा " स्था०२ चा महासुक्के कप्पे महासामाणे विमाणे उक्वायमभाए दे ठा०३ उ०। वसयणिजसिजाव गंगदत्तदेवताए उववाहले । तए णं से गं-1 गंगा-गङ्गा-स्त्री० । पाहदानिर्गतायां खवणसमुद्र सङ्गतायां गदत्ते देवे अहुणोववामेत्तए समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए महानद्याम् । स्था० ३ ठा०४ २० । पज्जत्तिनावं गच्चइ । तं जहा-आहारपज्जत्तीए० जाव भा समाणपज्जत्तीए । एवं खलु गोयमा! गंगदत्त देवेणं सादि अथ गङ्गामहानदीस्वरुपमाहव्या देविहीन जाव अभिसमयागया। गंगदत्तस्स णं भंते ! तस्स णं पउमद्दहस्स पुरच्चिमिदेणं तोरणेणं गंगा महादेवस्स केवयं कालंबिई पमत्ता ? गोयमा सत्तमागरोवमा गई पन्बूढा समाणी पुरच्छानिमुही पंचजोअणसयाई इंठिई पत्ता। गंगदत्ते णं नंते !देवे ताओ देवलोगाओ आ पच्चएणं गता। गंगावत्तणकूमे आवत्ता समाणी पंचतेवीसं नक्खएणं० जाव महाविदेहे वासे सिकिदिइ० जाच अंतं जोपणसए तिलिया एगुणवीसइनाए जोअणस्स दाकाहिति ॥ सेवं ते! ते त्ति। हिणानिमुही पव्वएणं गंता महया घममुहपवत्तिएणं मु तावलिहारसंतिएणं साइरेगं जोअणसएणं पवाएणं पत्रम। (ते) इत्यादि । इह सर्वोऽपि संसारी बाह्यान् पुजलाननुपादा- गंगामहाणई जओ पवमइ इत्य णं महं एगा जिब्जिया यन काश्चित कियां करोतीति सिझमेव,किन्तु देवः किल महडिको,महर्दिकत्वादेव च गमनादिक्रियां मा कदाचित्करिष्यति पष्मत्ता। सा एं जिन्निपा अमजोणं आयामेणं छमइति सम्भावनया शक्रः प्रश्नं चकार-(देवे णं भंते ! ) श्त्यादि । कोसाई जोअणाई विक्खंनेणं अच्छकोसं वाहोणं मगरमुह(भासित्तप चा वागरित्तए व त्ति) भाषितुं वक्तुं व्याकर्तुमुत्तरं विउ संगणसंग्आि सव्यवश्रामई अच्छा साहा। गंगा दातुमित्यनयोविशेषः । प्रश्नश्वायं तृतीय, उन्मेषादिश्चतुर्थः,श्रा- महाणई जत्थ पवडड एत्थ णं महं एगे भंगप्पवायकुंमे णाम कुण्टनादिः पञ्चमः, स्थानादिः षष्ठः, विकुर्वयितुमिति सप्तमः, कंमे पामते सहिजोअणाई अायामविवजेणं एजअं जोपरिचारयितुमित्यष्टमः। (नक्खित्तपसिणवागरणाई ति). रिकप्तानीवोत्क्षिप्तानि अविस्तारितस्वरूपाणि, प्रच्छनीयत्वात्प्रभाः, अणसयं किंचि विसेमाहि अं परिक्खेवेणं दस जोणाई व्याक्रियमाणत्वाच्च व्याकरणानि यानि तानि तथा। (संनंतिय- उव्हेणं अ सएहे श्ययामयकूले समतीरे वइरामयपासाणे यंदणएणं ति) संभ्रान्तिः सम्भ्रमः औत्सुक्यं तया निर्वृत्तं सां- वस्तो सुवामसुन्भरययामयवालाए वेरुलिअमणिफभ्रान्तिकै यद्वन्दनं तत्तथा तेन । (परिणममाणा पोग्गला णो परिरणय ति) वर्तमानातीतकालयोर्विरोधादत एवाह-(अपरिण विअपमझपञ्चोअमे सुहोप्रारमहोत्तारे णाणामणितित्थमयत्ति) इधोपपत्तिमाह-परिणमन्तीति कृत्वा नो परिणतास्ते बको बट्टे प्राणपुव्वमुजायनप्पगंभीरसीअनजले संमपव्यपदिश्यन्त इति मिथ्या दृष्टिवचनम्। सम्यग्दृष्टिःपुनराह-(परि- त्तजिसमुणाले बहुउप्पलकुमुअणझिणमुभगसोगंधिअपोंकणममाणा पोग्गला परिणया नो अपरिणय त्ति) कुत इत्याह- रीअमहापोंमरीअसयपत्तसहस्सपत्तसयसहस्सपत्तए फुनकेपरिणमन्तीति कृत्वा पदलाः परिणता नोऽपरिणताः, परिणम सरोवचिए उप्पयपरिभुज्जमाणकमझे अच्छविमनपत्यसदिलन्तीति दियपुच्ते तत्परिणामसद्भावे, अन्यथाचान्यथाऽतिप्रसकात् । परिणामसद्भावे तु परिणमन्तीति व्यपदेशे परिणतत्वम पुप्तापम्हित्यभमतमच्छकच्चभअणे सउणगणमिहुणपविअपवश्यं भावि । यदि हि परिणामे सत्यपि परिणतत्वं न स्यात्तदा रिए सट्ठभइअमदुरसरणाइए पासाइए।से एं एगाए पउसर्वदा सदभावप्रसङ्ग इति। (परिवारो जहा सूरियाभस्स त्ति) मवरवेइमाए एगण य वणसंमेणं सब्बो समंता संपरिअनेनेदं सूचितम्-"तिहि परिसादि सहि अणियादि सत्तहिं। अणियाहिवईहिं सोलसहि आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अमोहि क्खिते वेडा वणसंमंगाणं पमाणं वयो अनाणियो। य बहूहि महासामागविमाणवासीहिं वेमाणिपहि देवेहिं सम्ि तस्सणं गंगप्पवायकुंमस्स तिदिसिं तो तिसोवाणपमिरूसंपरिवुडे" इत्यादि । (दिव्वं तेयलेस्सं असहमाणे त्ति) इह वगा पाप ता । तं जहा-पुरच्छिमेणं दाहिणणं पव्वच्चिमेणं किल शकः पूर्वभवे कार्तिकानिधानोऽभिनवश्रेष्ठी बभूव । गङ्ग- तेसिणं तितोवाणपमिरूवगाणं । अयमेश्रारूचे वणावासे प. दत्तस्तु जीर्णश्रेष्ठीति । तयोश्व प्रायो मत्सरो भवतीत्यसावसहनकारणं सम्भाव्यत इति । एवं (जहा सरियानो त्ति) अनेनेदं पत्ते । तं जहा-चइरामया णे मारिहामया पहाणा वेरुलिमचितं "सम्मादिट्टी मिच्छादिट्टी परित्तसंसारिप अणंतसं आमया खंजा सुवमरूप्पमया फनया बोहिक्खमईओ मुईसारिए सुलहयोहिए बहवोहिए पाराहए चिराहए चरिमे ओ वश्रामया संधा जाणामणिमया आवंबणा बाहाओ। भचरिमे इत्यादि " इति । न. १६ श.५ न० । ती०।। तेसिणं तिसोवाणपभिरूवगाणं पुरो पत्ते पत्तेअं तोनि०। विजयपुरस्थे मगधाया नर्तरि, गृहपती च । ध. र० । सागरदत्तस्य भार्यायां उदुम्बरदत्तस्य मातरि, स्त्री० । राणा पामत्ता । तेणं तोरणा णाणामणिमया णाणामविपा० ७ ० । णिमएस खंजेसु उणिविट्ठसंणिविट्ठा विविहमुत्तरोव Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंगा (७८३) अभिधानराजेन्यः । गंगा आविविहतारारूपोवचिआईहामिअउसहतुरगणरमगरवि- स्वतन्त्रतया समुरुगामित्वेन च प्रकृष्ठा नदी,एवं सिनवादिष्वपि हगवालगकिम्मररुरुसरजचमरकुंजरवणलयपनमसभात्तिचि शेयम् । प्रव्यूढा निर्गता सती पूर्वानिमुखी पञ्चयोजनशतानि पर्व. तेन पर्वतोपरीत्यर्थः। अथवा पं इति प्राग्वत्,पर्वते गस्वा गावता खंझुग्गयरवेश्अपरिगयानिरामा विज्जाहरजमन-1 तमनाम्नि कूटे,अत्र सामीप्ये सप्तमी। 'वटे गावः सुशरते' इत्या. जुअलजंतजुत्ता विवअञ्चीसहस्समानाणिया रूवगसहस्स दिवत् । गमावर्तनकूटस्याधस्तादावृता सती प्रत्यावृत्योयर्थः। कलिया जिसमाणा भिभिसमाणा चक्खुवाअणसा मु- पञ्चयोजनशतानि त्रयोविंशत्यधिकानि श्रीश्चैकोनविंशतिभागात हफासा सस्सिरीअरूवा घंटावाविचलिअमदुरमणहरसरा योजनस्य दक्षिणानिमुखी पर्वतेन गत्वा महान् यो घटस्तन्मु खादिव प्रवृत्तिनिर्गमो यस्य स तथा तेन । अयमर्थः-यथा घट. पासादीपा ४ । तेसिणं तोरणाणं उवरि बहवे अट्ठमंगल मुखाउजलौघो निर्यन 'खुभिखुभीति" शब्दायमामो बलीयाँध गा पाता। तं सोच्छियसिरिवच्छ० जाव पडिरूवा। तेसि निर्याति तथाऽयमपीति।मुक्तावलीनां मुक्तासरीणां यो हारस्तएं तोरणाणं उवरिं बहवे किएहचामरब्भया जान मुकिन्न- रसंस्थितेन तत्संस्थानेनेत्यर्थः, सातिरेक योजनशतं क्षुद्राहिमचामरभया अच्छा सएहा रूप्पपट्टा बरामयदंमा जलया- वच्छिखरतक्षादारज्य दशयोजनोद्वेधप्रपातकुए; यावद्धारापा तो मानं यस्योत सातिरकेयोजनशतिकस्तेन । तथा प्रपातेन मलगंधिा सुरम्मा पासाईया । तेसिणं तोरणाणं न प्रपतज्जलौधेन, अत्र करणे तृतीया,प्रपतति प्रपातकुएमं प्राप्नोपिं बहवे उत्ताश्च्चत्ता पडागाइपहागा घंटाजुअला चापर तीत्यर्थः । प्रदक्षिणाभिमुखगमनपञ्चयोजनशतादिसंख्यात्वे च जुआल नप्पलहत्थगा पनमहत्यगा० जाव सयसहस्सपत्त-| हिमवनिरिव्यासात् योजन १०५२ कक्षा १२ रूपात पङ्गाप्रवाहइत्यगा सबरयणामया अत्याजाव पडिरूवा। तस्स एं गं- व्यासे योजन६क्रोश १ प्रमिते शोधिते,शेष २०४६क्रोशे तु पादोगाप्पवायकुंडस्स बहुमज्जदेसभाए । एत्य णं महं एगे गंगा नं कापञ्चकं,तत्काद्वादशकात् शोध्यं,ततःशेषाः सप्त सपादाः कला। गङ्गाप्रवाहः पर्वतस्य मध्यभागेन पद्माहाद्विनिर्याति,तेना. दीवे णामं दीवे पत्ते अहजोअणाई आयामविक्खंभेणं स्या दक्षिणाभिमुखगङ्गाप्रवाहो न गिरिव्यासा“स्य, गन्तव्यत्वन सारेगाई पणवीसं जोषणाई परिक्खेवेणं दोकोसउसिए गङ्गाव्यासोन गिरिव्यासःयोजन १०४६ कक्षासपादसप्त ७ रूपो. जलंताओ सव्ववइरामए अच्छे सएहे । से णं एगाए पउपवर ऽक्रियते। जातं यथोक्तं योजन ५२३ कक्षा ३ यद्यप्यत्र कहावेश्याए एगेण य वणसंडेण मन्यो समंता संपरिक्खित्ते । त्रिक किंचित समधिकाद्धयुक्तमायाति तथाप्यल्पत्वान्न विवक्ति तमिति । अथ जिहिकाया अवसरः (गङ्गा महाणई जओ पवार वामओ भाणिअन्यो। गंगादीवस्स णं दीवस्स नपि बहु स्थ एं) इत्यादि । गङ्गा महानदी यतः स्थानात प्रपतति, अत्रान्तरे समरमणिजे नूमिभागे पमत्ते । तस्स णं बहुमज्कदेसभाए महती एका जिहिका प्रणासापरपर्याया प्रज्ञप्ता । (साण)इत्यादि। एत्य णं महं गंगाए देवीए एगे नवणे पत्ते । कोसं साजिहिका अर्द्धयोजनमायामेन षट्सक्रोशानि योजनानि विष्कआयमेणं अछकोसं विक्खंजेणं देसूणंगकोसं न, म्नेन गङ्गामूजव्यासस्य मातव्यत्वात् अर्द्धकोशं बाहल्येन पिएमेउच्चत्तेणं अणेगखंभसयसणिनिबढे० जाच मज्देस न विवृतं प्रसारितं यन्मकरमुखं जलचरविशेषमुखं तत्संस्थान संस्थिता, विशेषणस्य परनिपातः प्राग्वत् । सर्वात्मना वज्रमया जाए मणिपेढिाए सयणिजे से केणटेणं. जाव श्त्यादिकत्वम् । अथ प्रपातकुएमस्वरूपमाई.(गंगा महाणई)इत्यासासरे णामधेजे पत्ते । तस्स णं गंगप्पवायकुंमस्स दि। गङ्गा महानदी यत्र प्रपतति, अत्रान्तरे महदेकं गंगाप्रपातकुएमं दक्विणिवेणं तोरणेणं गंमामहाणई पन्हा समाणी नाम यथार्थनामकं प्रशतं कुण्डं षष्टियोजनान्यायामविष्कम्भा. न तरकृनरहवासए जेमाणी जेमाणी सत्तहिं सलिल्ला ज्याम् । अत्र करणविभावनायां मुझे "पणासं जोषणवित्थारो ५० चार सट्टा ६०" इति विशेषोऽस्ति। श्रीउमास्वातिवाचककृतज सहस्सेहिं आनरेमाणी अनरेमाणी अहे खंझप्पवाय म्बूद्वीपसमासस्त्रादावपि तथैव । इत्थं च कुण्डस्य यथार्थनामगुहाए वेअपव्वयं दानश्त्ता दाहिणभरहवासए जेमा तोपपत्तिरपि भवति । एवमन्येष्वपि यथायोग शेयमिति । तथा णी जेमाणी दाहिणजरहवासत्य बहुमज्झदेस जागं गंता | नवति नवत्यधिकं योजनशतं किञ्चिद्विशेषाधिक परिक्वेपेण श्रीपुरच्चाभिमुही आवत्ता समाणी चोद्दसहि सलिनासह- जिननद्रगणिक्षमाश्रमणपादाः स्वोपडकेत्रविचारसत्रे "आयामो स्सेहिं समाणा अहेज गई दालइत्ता पुरच्चिमेणं लवण विक्खंभो, साकुंमस्स जोषणा हुंति। नउअसयं किंचूर्ण, परि ही दसजो अणोगाहो"॥१॥श्त्यूचुः। तद्वत्तावपि श्रीमनयगिरिसमुदं समुप्पेइ गंगा णाम महाणई पवहेच्चस्स कोसाइं जो पादास्तथैव कणरीत्यापि तथैवागच्चन्ति,तेन प्रस्तुतसूत्रं गम्नी. अणाई विक्खंनेणं अछकोसं नव्हेणं, तयणंतरं च णं रार्थ बहुश्रुतैर्विचार्य,नाऽस्मादृशां मन्दमेधसां मतिप्रवेश इति । मायाए मायाए परिवट्टमाणी परिवट्टमाणी मुहे वा सष्टिं जो- यद्वा प्रस्तुतसूत्रं पद्मवरवेदिकासहितकुण्डपरिधिविवकथा प्रवृ. अणाई अफजो अणं च विक्रखंभेणं सकोसं जोअणं नव्वे. तमिति संभाव्यते,तेन न दोषस्तत्त्वं तु केवत्रिगम्यमिति। दशयोदेणं उभो जनान्युद्वेधेन उच्चत्वेन अच्छस्फटिकबहादिनिर्मलप्रदेशं श्लदणपासिं दोहिं पनपवरवेश्याहिं दोहिं वाणसं लक्षणपुननिष्पादितबादिःप्रदशं रजतमयं रुप्यमयं कूयं यस्य डेहिं संपरिकत्ता वेइया वणसंडवम प्रो जाणियव्यो ।। तत्तथा । समं न गर्तासद्भावतो विषमतौरवर्तिजलापूरितं स्थान (तस्स ण) इत्यादि। तस्य पद्महस्य पौरस्त्येन तोरणेन गङ्गा- यस्मिन् तत्तथा । वज्रमयाः पाषाणाः नित्तिबन्धनाय यस्य तत् । नाम्नी महानदी स्वपरिवारभूतचतुर्दशसहस्रनदीसंपदुपेतत्वेन तथा वजमयं तलं यस्य तत्तथा। सुवर्ण पीतहम.शुक्लरूप्यविशेषः Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७०४ ) अभिधान राजेन्द्रः । गंगा रजतं प्रतीतं तन्मयी वालुका यस्मिन् तत्तथा । वैमूर्यमणिमयानि स्फटिकरत्नसंबन्धिपटलमयानि प्रत्यवतदानि तटस प्रदेश यस्य स तथा सुबेनासामध्ये प्रवेशनं परिमन् तथा मुखेोत्सारी जलमध्या बहिनि र्गमनं यस्मिन् तत्तथा । ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः । तथा नानामणिनिः सुबद्धं तीर्थे यत्र तत्तथा । श्रत्र बहुव्रीहावपि कान्तस्य परनिपातो, प्रायदिदर्शनात या पर्तु क्रमेण नीचैस्तरावरू पण सुष्ठु अतिशयेन यो जातो वप्रः केदाराजलस्थानं तत्र गस्त्रीरमलब्धस्ताघं जलं यस्मिन् तत् तथा । संवन्नानि अलेनारितानि पलानि मित्तत्तथा भत्र बिसमृणानसाहचर्यात्पत्राणि पद्मिनीष्टियानि वान कन् प्रफु नानाकुमुदन लिन नसक पुरामकमा एक रिकशतपत्र खपत द्वानां विराणां करेतं विशेष निपातःमः परिज्यमानानि क मलानि उपलक्षणमेतत् कुमुदादीनि यस्मिन् तत्तथा । अच्छे स्वरूपतः स्फटिकमध्ये [रोग्य कारणेन निपूर्ण तथा प्रतिप्रभूता देशीशब्दोऽमन्तो मस्यपात्र तया कानां प्रविवरितमितस्ततो गमनं यत्र तत्तथा । ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः। तथा शब्दोन्नतिकं उन्नतशब्दकं, सागसा दिज रामपुरखरंच सभ्रमरादिकृतिया नादितं पलितं यत्र तत्तथा । श्रत्र च यत् कानिचिद्विशेषणानि प्रस्तुतपश्यमानादर्शपेक्षा व्यस्ततानि तवाभिगमवाप्यादिवर्णस्य बहुसमानता तद्नुसारेणेति बोध्यम्, एवमन्यत्रापि । (पासाईपत्ति ) अनेन " पासा दरिस अनि पमिक " इति पचमुष्ट प्राांतश्च प्राग्वत् । भथात्र पद्मवर वेदिकादिवर्णनायाद - (से गां) इत्यादि व्यक्तम् । अत्र मुखावतारोत्तारौ कथं जवतः इत्याह- (तस्स णं ) इत्यादि । तस्य गङ्गाप्रतापकुण्डस्य त्रिदिशि क्त्रिये व क्ष्यमाणत्रकणे त्रीणि सोपानप्रतिरूपकाणि प्रतानि, एताख्या प्राग्वत् शेषं व्यक्तम् । (तेसिणं) इत्यादि । व्यक्त, जगतीवरीकतुल्य त्वात् । नवरम्- (श्रालंबणा) श्रवतारोत्तारयोरालम्बन हेतू नूताः अवलम्बनवाहावयवाः, अवलम्बनबाह्या नाम घ्योः पार्श्वयोरवम्याभूताभियद रूपकाणां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं तोरणानि प्रज्ञप्तानि । तानि तोरखानि नानामणिमयानि नानामणिमयेषु स्तम्नेषु उपनिविष्टानि सामीप्येन स्थितानि तानि च कदाचिच्चलानि स्थानभ्रष्टानीत्यर्थः । अथवा पतीनितिन सम्यनिश्च तया अपदपरिहारेण च निविष्टानि ततो विशेषणसमासः। विधिधा नाना विनितिकवितामुक्ताफलानि, अन्तराशब्दोऽगृहीतसोऽपि स्वामयोस गमयति (अंतरांतसेवा) श्रारोपिता यत्र तानि । तथा विविधैस्तारारूपैस्तारिका रूपैरुपचितानि तो हि शोमा सारिकाबियते इति प्रती लोकेऽपि । ईहामृगाः वृकाः, ऋषता वृषभाः व्याला जुजङ्गाः, रुरबो मृगविशेषाः, शरना अष्टापदाः, चमराः श्राढव्या गावः, वमलता अशोकादिलताः प्रतीताः पद्मलताः पद्मिन्यः, शेषं प्रतीतम् एतासां नक्तयो विच्छिन्ना याभिस्ताभिश्चित्राणि । स्तम्भोतया स्तनोपरिसिया बसवेदिकया परिगतानि परिकारितानि गंगा सन्ति यानि श्रभिरामाणि श्रभिरमणीयानि तानि तथा । विद्याधरयोर्विशिष्टदशक्तिमत्पुरुषविशेषयोर्यनलं समश्रेणिकं युग द्वन्द्वं तेनेव यन्त्रेण संचरिष्णु पुरुष प्रतिमाद्वय रूपेण युक्तानि श्रा र्षत्वाच्चैवंविधः समासः । श्रथवा प्राकृतत्वेन तृतीयालोपात् । विद्याधरगति मिनि भाणां सहस्रमनीयानि परिवारणीयानि रूपकसहस्रकतितानीति स्पष्टम् । भृशमत्यर्थ मानं प्रमाणं येषां तानि तथा । (जि. भिसमाण चि) “ भासेभिसः " ८ । ४ । २०३ । इत्यनेन त्रिसादेशे प्रकृार्थप्रत्यये रूपसिद्धिः । श्रत्यर्थे देदीप्यमानानि लोकने सति तु ले यत्र तानि त्रिपदो बड़ी दिप विशेषं सुबोध नवरं घटा " न चञ्जिताया मधुरो मनोहरश्च स्वरो येषु तानि तथा। (तेसिणं) इत्यादि । श्रस्य व्याख्या प्राग्वत् । ( तेलिणं ) इत्यादि । तेषां तोरणानामुपरि बहवः कृष्णनामरध्वजाः, एवं नीलचामरध्वजादयोऽपि वाच्याः, ते च सर्वेऽपि कथंभूताः इत्याह- अच्छा श्रा काश स्फटिक तिनिर्मला, सालस्कन्धनिर्मा पिताः, रूप्यमया वज्रमयस्य दराभस्योरि पादा येषां ते तथा । वज्रमयो दरामो रूप्यपट्टमभ्यवर्त्ती येषां ते तथा । जलजानाविमानां पद्मादीनामिवाऽमलो, न तु कुरुण्यगन्धल त्रिभो यो गन्धः स विद्यते येषां ते जनजामनगन्धिकाः । “ तोऽनेकस्वरात् " ७ । २ । ६ । इति ( हैं ० ) इकप्रत्ययः । अत एव सुरम्याः (पासाईश्रा ) इत्यादि प्राग्वत् । (तेसिणं ) इत्यादि । श्रस्य व्याख्या प्राग्वत् । श्रथ गङ्गाद्वीपवक्तव्यतामाह(तस्स गंगप्पवाय) इत्यादि । तस्य गङ्गाप्रपातकुण्डस्य बहुमध्यदेशभागेश्त्र महानेको पासो द्वीपो 'गङ्गाद्वीप' इति नाम्ना द्वीपः प्रज्ञप्तः, मध्यलोपिसमासात् साधुः । श्रौ योजनास्वायामविषये सातिरेकाणि पञ्चविशति योजनानि परि केपेण द्वी कोशीपास श्र जलस्य जलेनावृतस्य क्षेत्रस्य द्वीपव्यवहारात् शेषं तम् । ( से णं ) इत्यादि । स गङ्गाद्वीप एकया पद्मत्ररवेदिकया एकेन बनखरमेन सर्वः समन्तात् संपरिक्षितः वर्णक प्रतियो जगती पद्मवर वेदिकावदिति । अथ तत्र यद्यदस्ति तदाह - ( गंगादीवरस णं ) इत्यादि । गङ्गाद्वीपस्योपरि बहुसमरमणीयो भूमिजागः प्रकृतः । तस्य बहुपदेशमा अन्तरे गंङ्गाया देव्या मदेकं नवनं प्रशप्तम् । श्रायामादिविनागादिकं शय्यावर्णपर्यन्तं सूत्रं सध्याख्यानं श्रीभवनानुसारेण शेयम् । अथ तामन्वर्थे पृच्छति ( से केण हेणं ) इत्यादि । व्यक्तम् । अथ गङ्गा यथा समुपसर्पति तथाद - ( तस्स णं ) इत्यादि । तस्य गङ्गाप्रपातकुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन प्रयूदाना खी महा महानदी उत्तरार्द्ध भ गच्छन्ती गच्छन्ती सप्तभिः सवित्रानां नदीनां सहस्रैरापूर्यमाणा आपूर्यमाणा म्रियमाणा भ्रियमाणा अधः खाएरुप्रपातगुहाया वेतापादभिर वर्ष क्षिपाईजरतवर्षस्य मध्यसागं गत्या पूर्वीनिमुखा आवृत्ता सोहि समय सम्पूर्ण आपूर्यमाणा इत्यर्थः । अधोमागे जगतीं जम्बूद्वीपप्राकारं दारयित्वा पूर्वेण अवणसमुद्रं समुपसर्पति अवतरतीत्यर्थः अथास्याप्र वाहमुखयो त्योघो दर्शयति ( गंगा ) याद गंगा महानदी प्रवदे यतः स्थानात् उद्वादुं प्रवर्त्तते स प्रवाहः । पद्मद्र तोरणमित्यर्थः । तत्र पढ़ सकोशानि योजनानि Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंगा (७५) अनिधानराजेन्जः। गंगा विष्कम्भेण तथा क्रोशाईमुधेन महानदीनां सर्वत्रोद्वेषस्य जलकुमार! यत्तव रोचते तन्मार्गय। जबरुवाच-तातममास्यस्वव्यासपश्चाशत्तमभागरूपत्वात् , अस्तीति शेषः । तदनन्त- यमानिलाषः यत्तातानुज्ञातोऽहं चतुर्दशरत्नसदितोऽखिलभ्रात. रमिति पदहतोरणीयभ्यासादनन्तरम,एतेन यावरकेत्र सध्या- परिवृतः पृथ्वी परिभ्रमामि । सगरचाक्रणा तत् प्रतिपत्रमा प्रश. सोऽनुवचस्तावत् केत्रादनम्तरं गङ्गाप्रपातकुएमनिर्गमादनम्त. स्तमुह सगरचकिणः समीपात सनिर्गतःसयनवाहनः। अनेक रमित्यर्थः । पतेन च योऽन्यत्र प्रवहशब्दे मकरमुखप्रणासनि- जनपदेषुनमन् प्राप्तोऽष्टापदपर्वते सैन्यमधस्ताग्निवेश्य स्वयम गमः प्रपातकुण्डनिर्गमो वाऽभिहितः स मोति श्रीअजयदेव- धापदपर्वतमारूढः । वास्तत्र भरतनरेन्द्रकारितं मणिकनकमूरिपादैः समवायाङ्गवृत्ती,श्रीमनयगिरिपादैश्व बृहत्केत्रसमास- मयं चतुर्विशतिजिनप्रतिमाधिष्ठितं स्तूपशतसतं जिनायतनवृत्तौ पचहतोरणनिर्गमपरत्वेनैव व्याख्यानाताएवमुद्वेधेऽपि म्। तत्र जिनप्रतिमा अनिवन्ध जकुमारण मन्त्रिणं पृएम-केन आयमामात्रया मात्रया कमेण क्रमेण प्रतियोजनसमुदितयोरुभयोः सुरुतवता इदमतीव रमणीयं जिनभवन कारितमी मन्त्रिणा कधिपायोधनुर्दशकवृक्षा प्रतिपावधनुःपञ्चकवेत्यर्थः। परिवर्ध- तम्-नवत्पूर्वजेन श्रीभरतचक्रिणेति श्रुत्वा जकुमारोऽवदत-प्र. माना परिवर्धमाना मुखे समुद्रप्रवेश द्वाष्टिं योजनानि अर्धयोजनं न्यः कश्चिदष्टापदसरशःपर्वतोऽस्ति यत्रेरशमन्यचैत्यं कारयामः। चविष्कम्भेण प्रवहनान्मुखमानस्य दशगुणात्वात मक्रोशं चतसृषु दिक्षु पुरुषास्तद्गवेषणाय प्रेषितास्ते सर्वत्र परिभ्रम्य योजनमुद्वेधेन सार्धद्वाषष्टियोजनप्रमाणमुखव्यासस्य, पञ्चाशत्त. समायाता ऊचुः-स्वामिन् ! दृशः पर्वतःक्वापि नास्ति । जलना मभागे एतावत एव लानात । उन्नयोःपार्श्वयोद्वाभ्यां पनवरचेदि- अणितम यद्येवं वयं कुर्म एतस्यैव रतां यतोऽत्र क्षेत्रे कामक्रमेण कान्यां वनस्वपमाभ्यां सपरिकिप्ता गङ्गेत्यर्थः। प्रतियोजनं धनुर्दश- लुब्धाः सर्वे नरा भविष्यन्ति, अजिनवकारणात् । पूर्वकृतपरिपाकवृद्धिस्त्वेवम्-मुम्बभ्यासात् प्रवहव्यासेऽपनीतेऽवशिष्टे धनुरूपे लनं श्रेयः, तच्च दण्डरत्नं गृहीत्वा समन्ततोऽयापदपार्श्वेषु जकृते सूरिवदायामेन जक्ते अन्धमिएप्रदेशगतयोजनसंख्यायागुण्य- हप्रमुखाःसर्वेऽपि कुमारा:खातुं लग्नाः तश्चदमरत्नं योजनस. ते यावतम्यात्तावत्युभयपार्श्वयोवृधिर्वाच्या । तथाहि-गङ्गायाः हस्रं भिस्वा प्राप्तं नागवनषु। तेन तानि (योजनानि) भिन्नानि रहा प्रबहे व्यासःयोजन ६ क्रोशमुखे तुयोजन ६२क्रोश शतत्र मुत्र- नागकुमाराः शरणं गवेषयन्तो गता नागराजज्वलनप्रभसमीपे : भ्यासात प्रवहण्यासे उपनीते जातं योजन५६क्रोश १, योजनानां कथितः स्वभवनविदारणवृत्तान्तः । सोऽपि संभ्रान्त उस्थितोऽ. चक्रोशकरणाय चतुभिर्गुणने उपरितनकक्रोशप्रक्षेपे च जाताः | वधिना ज्ञात्वा क्रोधोद्धरः समागतः सगरसुतसमीपम्भाणित. २२५ कोशे च धनुषांसहनद्वयमिति सहस्रद्वयन गुपयन्ते,जा- वांश्च-भो भोः! किं भवद्भिदएमरत्नेन पृथ्वीं विदार्य अस्मद्भवनोपतानि धषि ४५००००। ततः पञ्चचत्वारिंशता सहस्रैर्भज्यन्ने, द्रवः कृतः? अचिचार्य भवद्भिरतत्कृतम्।यत उक्तम्-"अप्पवहाए लब्धानि १०धवि। एकेन गुण्यन्ते,जातानि १०। 'एकेन गुणितं | नूणं,हाई वनं उत्तणाण भुवणम्मिाणियपक्खुबलेणंचिय,पडे सदेव नवति' इति न्यायाताएतावतीच समुदितयोरुभयोः पार्श्व- पयंगो परवम्मि"॥१॥ ततो नागराजोपशमननिमितं जहना भयोः प्रवहादेकस्मिन् योजने गते जलवृतिः अथ मूलादू योजन- णितम्-भो नागराज!कुरु प्रसादम,उपसंहर क्रोधसम्भ, कमध्यान्ते यदा वृद्धि तुमिप्यते तदा दश धषि द्विकेन गुण्य- स्वास्मदपराधमेकं,न ह्यस्माभिवतामुपवानिमित्तमेतत्कृतम नते, जातानि २०। एतावती प्रबहानुभयपाश्वयोर्योजनद्विकान्ते किन्तु अष्टापदचैत्यरकार्थमेशा परिखा कृता,न पुनरेवं करिष्या. वृतिः स्यात् । अस्याश्चाधे १०, एतावत्येकपाद्ये वृद्धिः। एवं स-1 मः। तत उपशान्तकोपो ज्वलनप्रभः स्वस्थानं गतः। जह्रकुमाबंत्र भाव्यम् । जं०४३००। रेण भ्रातृणां पुर एवं प्रणितम-एषा परिखा दुसंध्यापि जलगंगासिंधूत्रोणं महाणदीश्रो पणवीसं गाउयाणि पोहत्तेणं विरदिता न शोभते,तत इमां नीरेण पुरयामः। दण्डरस्नेन गङ्ग जिस्वा जगुना जलमानीतं, नृता परिखा। तजवं नागभवनेषु प्रा. घहमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारमंठिएणं पनातेण पदन्ति । तम् । जबप्रवाहसन्त्रस्तं नागनागिनीप्रकरमितस्ततः प्रणश्यन्तं (गंगा) इत्यादि । पञ्चविंशतिगन्यतानि पृथुन्वेन यः प्रपातस्तेनेति प्रेक्ष्य प्रदसावधिज्ञानोपयोगः कोपानलज्वालामालाकुलो ज्वलशेषः। (होतियोदिशोः पूर्वतोगङ्गा,मपरतःसिन्धुरित्य- नप्रन एवमचिन्तयत-अहो! पतेषां जलकुमारादीनां महापापा. थापग्रहदाद धिनिर्गने पञ्च पञ्चयोजनशतानि पर्वतोपरि गत्या | नां मया एकवारमपराधः शान्तः। पुनधिकतरमुपज्वः कृतः। दक्षिणाभिमुख प्रवृत्ते (घममुदपवित्तिएणंति ) घटमुखादिव ततो दर्शयाम्येषामविनयफलम् । इति ध्यात्वा ज्वलनप्रमेण पञ्चविंशतिकोशे पृथुलजिहाकाद् मकरमुखप्रणामात् प्रवृत्तेन तधार्थ नयनविषा महाफणिनः प्रेषितास्तः परिखाजलाम्तमुक्तावली नाम मुक्ताशरीराणां यो हारस्तत्सस्थितेन प्रपतज्ज- निर्गत्य नयनस्ते कुमाराःप्रलोकिता जस्मराशीभूताः सर्वेऽपि मसम्तानेन योजनशतोच्चूितस्य हिमवतोऽधोवर्तिनोः स्वकी- सगरसुताः । तथाभूताँस्तान् वीक्ष्य सैन्ये हाहारबो जातः । ययोः प्रपातकुएमयोः प्रपततः। स० २५ सम० । मन्त्रिणा उक्तम-एते तु तीर्थरका कुर्वन्तोऽवश्यभावितया श्मागंगासिंधूप्रोणं महाणदीओ पवाहे सातिरेगणं चउवीसं मवस्थां प्राप्ताः सतावेव भविध्यन्तीति किं शोच्यन्ते। अतस्व. रितमितःप्रयाणः क्रियते।गम्यते महाराजचक्रिसमीपमा सर्वकोसे वित्थारेणं परमत्ता ॥ स०२४ सम सैन्येन मन्त्रिवचनमस्कृतम। ततस्त्वरितप्रयाणकरणेन क्रमात जंबुद्दीचे दीवे मंदरस्स दाहिणेणं गंगामहाणदिं पंच महा- प्राप्तं स्वपुरसमीपे। ततः सामन्तामात्यादिभिरेवं विचारितम-सणदीनो सपप्पैति । तं जहा-जणा, सरळ, आदी, कोसी, मस्तपुत्रवधोदन्तः कथं चक्रिणो वक्तुं पायते । ते सदग्धा, वर्ष चालतानाः समायाता पतदपि प्रकामं प्रपाकर, ततः सर्वेऽपि मही । स्था० ५ ग० ३ ००। वयं प्रधिशामोऽग्नौ । एवं विचारयतां तेषां पुरः समायात पको गङ्गाऽवतार: द्विजः। तेनेदमुक्तम्-"भो धीराः! किमेषमाकुलीभूताः, मुशत सम्पदा जहफुमारेण कवित्सगरसम्तोषितः । स उवाच- | विषादयतः संसारे नकित्रिमुखं दुःखमत्यन्तमदतम Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंगा अभिधानराजेन्यः । गंगावत्त स्ति । भणितं च-"कामम्मि अणाईए, जीवाणं विविहकम्मव. करः । प्रधानपुरुवैः सर्वैरपि राजा धीरतां नीत उचितकृत्य सगाणं । तं नस्थि संविहाणं, जे संसारेन संभव"॥१॥अहं कृतवान् । अत्रान्तरेऽष्टापदासन्नवासिनो जनाः प्रणतशिरस्काश्च मगरचक्रिणः पुत्रवधव्यतिकरं कथयिष्यामि । सामन्तादिभि- क्रिणे एवं कथयन्ति यथा-देव! यो युष्मदीयसुतैरष्टापदरवणास्तवचः प्रतिपक्षम्। ततः स द्विजो मृतं बालकं करे कृत्वा 'दयो. थै गङ्गाप्रवाह पानीतः स आसनग्रामनगराण्युपकवान प्रसरऽस्मि' इति वदन सगरचक्रिगृहद्वारे गतः। चक्रिणा तस्य विनाप- तीति तं जवान निवारयतु । देव! अभ्यस्य कस्यापि तन्निवारणशब्दः श्रुतः। चक्रिणा स द्विज आकारितः। केन दोऽसि ? इति शक्तिर्नास्तीति।चक्रिणा स्वपौत्रो भगीरधिर्भणित वत्स! नागचक्रिणा पृषः,स प्राह-देव! एक एव मे सुतः सर्वेण दष्टो मृतः, राजमनुज्ञाप्य दएडरत्नेन गङ्गाप्रवाहं नय समुद्रम। ततो भगीरथिपतदःखेनाहं विझपामीति । करुणासागर ! स्वमेनं जीवय। प्र- रद्यपदसमीपं गतः। अष्टमजतेन नागराज पाराधितः समागतो स्मिन्नवसरे तत्र मन्त्रिसामन्ताः प्रापिता,प्राप्ताः, चक्रिणं प्रणम्य जणति-किंते सम्पादयामि,प्रणामपूर्व भगीरथिनानणितम-तत्र उपविष्टाः। तदानी चक्रिणा राजवैद्यमाकार्य उक्तम-एनं निविष प्रसादेनामुं गङ्गाप्रवाहम् उदाधं नयामि। अष्टापदासत्रलोकानां कुरु। वैद्येन तु चक्रिसुतमारण श्रुतवता उक्तम-राजन! यस्मिन् महानुपज्वोऽस्तीति । नागराजेन नणितम्-'विगतमयस्त्वं कुकुले कोऽपि न मृतः तत्कुलाद्भस्म यद्यानयसि तदैनमहं जीव रुष्व समीहितं,निवारयिष्याम्यहं जरतनिवासिनो नागान्' इति यामि। द्विजेन गृहे गृहे प्रश्नपूर्वकं भस्म मागितं, गृहमनुष्याः जणित्वा नागराजः स्वस्थानं गतःभगीरथिनापि कृता नागानां स्वमातृपितृभ्रातृदुहितृप्रमुखकुटुम्बमरणान्याचख्युः। द्विजश्चक्रि यलिकुसुमादिनिः पूजा । ततःप्रभृति लोको नागबविं करोति। समीपे समागत्य उवाच-नास्ति वैद्योपदिष्टतादृशभस्मोपनब्धिः, जगीरथिदएमेन गङ्गाप्रवाहमाकर्षन् भजश्व बहन् स्थनशैसर्वगृहे कुटुम्बमनुष्यमरणसद्भावात् । यद्येवं तत् किं स्वपुत्र लप्रवाहान्, प्राप्तः पूर्वसमुळं तत्रावतारिता गङ्गा तत्र नागानां शोचसि ? सर्वसाधारणमिदं मरणम् । उक्तं च-" किं अस्थि बविपजा विहिता।यत्र गङ्गासागरेप्रवाहिता तत्र'गासागरतीको भुवणे, जस्स जायाश्नेव पायाई। नियकम्मपरिणईए, ज यं जातम । गङ्गा जलना नीतेति 'जाहवी' भगीरथिनीतेति जागीम्मणमरणाई संसारे" ॥१॥ ततो ब्राह्मण ! मा रुद. शोकं मुश्चः। रयी' । जगीरथिस्तदा मिलितै गैः पूजितो गतोऽयोध्या,पूजितआत्महितं कार्य चिन्तय यावत् स्यमपि एवं मृत्युसिहन न कव श्चक्रिणा तुष्टेन स्थापितः स्वराज्ये । उत्त०१८ श्रा०म० । लीक्रियसे । विप्रेण भणितम्-देव! अहमपि जानाम्येवं, परं पु. गङ्गासंख्या-एका भारते, अष्ट मन्दरस्य पूर्वे शीताया महानद्या त्रमन्तरेण सम्प्रति मे कुलक्षयः। तेनाऽहमतीय दुःखितःत्वं तु दु:- उत्तरे,अष्ट च मन्दरस्य पश्चिमे शीतोदाया महानद्या दकिणे इत्येवं खिताऽनाथवत्सलोऽप्रतिहतप्रतापश्चासि,ततो मे देहि पुत्रजीवि- सप्तदश । स्था०८० । तदधिष्ठातृदेव्यां च । “ततो भरहो तदानेन मनुष्यभिक्काम । चक्रिणा नणितम्-भद्र! इदमशक्यप्रती- गंगोय वेद,पच्छा सेणावती उत्तरिलं गंगानिक्सडंओ य ये। कारम। नुक्तश्च-"सीयन्ति मध्यसत्ताई, पत्थन कम्मन्तिमन्तितं भरहो गंगाए सम् िवाससहस्सं नोगे भुंज" आ० म०प्र० ।गोताई । अदिटुपहरगम्मी, विहिम कि पौरसं कुणइ"॥१॥ ततः शालकमतेन काबप्रमाणभेदे।('गोसालय'शब्दे व्याख्या)। परित्यज्य शोकं कुरु परलोकहितम्।मूर्ख पर हते नष्टे मृते करो- जी० ॥ "गंगापुलिनवालुकीया अवदालो विदलनं" पादादिन्याति शोकम्। विप्रेण भणितम्-महाराज! सत्यमेतत्न कार्योऽत्र | सेऽधोगमनामिति भावस्तेन (सालिसं) इति सदृशकंगनाजनकेन शोकः। ततस्त्वमपि मा कुर्याः शोकम, असम्नावनीयं | पुखिनवालुकावदालसदृशम । जी० ३ प्रति।न। जवतःशोककारणं जातमासंभ्रान्तेन चक्रिणा पृष्टम-नोविप्र-की-गंगाकम-इनकण्ड-न० । गङ्गाप्रपातहदे, जं०४ वकः । तानि दृशं मम शोककारणं जातम् विप्रेण भणितम्-देव! तव षष्टिस तव पाष्टस च सप्तदश गावद्भावनीयानि । नवरं गङ्गाकुण्डानि नीलहस्राःपूत्राः कालं गताः। इदं भूत्वा चकी वज्रमहाराहतश्व नष्टचे वर्दषधरपर्वतदकिणनितम्बस्थितानि परियोजनायामाविष्कतनःसिंहासनानिपतितोमूचितः सेवकैरुपचरितश्च मूळऽव- म्भाणि मध्यवर्तिगङ्गादेवीसभवनदीपानि त्रिदिसतोरणसानेच शोकातुरमना मुत्कनकण्ठेन रुरोद। एवं विज्ञापांश्चकार- द्वाराणि येभ्यः । प्रत्येक दक्षिणतोरणेन गङ्गा विनिर्गत्य विजहा पुत्राः!हा हृदयदयिताः! हा बन्धुवल्लभाः! हाशुनस्वनावाहा यानि विभजन्त्यो भरतगङ्गावच्चीतामनुप्रविशन्तीति । स्था० - धिनीनाःहासकवगुणनिधयः!क मामनाथ मुक्त्वा यूयं गता] ग० । (पतच्च सूत्रतः 'कच्च' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १८५ युध्मद्विरहार्तस्य मम दारुणं ददतः हा निर्दय पापविधे! एक- पृष्ठे दर्शितम) पदे चैव सर्वान् बालकान् संहरतस्तव कि पूर्ण जातं? हा निष्ठुरहृदय ! स्वमसह्यसुतमरणःखसन्तप्तं किं न शतखएक नव गंगाकुड-गङ्गाकुट-न० । शुहिमवतः पञ्चमे कूटे, स्था० २ सि? । एवं विलपंश्चक्री तेन विप्रेण भणिता-महाराज! त्वं मम ग. ३१०।०। ('कूम' शब्देऽस्मिन्नव नागे ६१७ पृष्ठे माम्प्रत्येचम उपदिष्टवान्,स्वयं च कथं शोकंगच्चसि? इति। नक्त | तत्स्वरूपं दर्शितम्) ञ्च-"परवसणम्मि मुहेणं, संसारासायरं कहद लोश्रो।णिय- गंगाएहाण-गङ्गास्नान-न० । जाह्नवीमज्जने, वासु महारिसि बन्धुजणविणासो,सब्यस्स वि चलाधीरत्तं"॥२॥ एकपुत्रस्या- | एउ, जण जर सुश्सत्थु पमाणु । मायहं चक्षण नवंताह, दिवि पि मरणं :सह, कि पुनः षष्टिसहस्रपुत्राणां?,तथापि सत्पुरुषा दिवि गंगाएहाणु "प्रा० ४ पादे । व्यसनं सहन्ति,पृधिव्येव वज्रनिपातं सहति नापर इति अवन-] म्य सुधीरत्वमालमत्र चिलपितेन । यत उक्तम्-" सायं ताणं गंगादीव-गङ्गाजीप-पुं० । गङ्गाप्रपातमध्यस्थे गङ्गादेवीभवनपिनो ताणं, कम्मबन्धो उ केवलो। तो पंडिया न सीयन्ति, शोभिते द्वीपे । स्था०२ ठा०३ उ० (तद्वर्णको 'गंगा शब्दे उक्तः) जाणता जवरूवयं" ॥१॥ एवमादिवचनावन्यासैविप्रेण स्व " गंगासिंधुरत्तारत्तवईदेवीण दीवा अट्टट्ठजोयणाई आयामस्वीकृतो राजा । भणिताश्च तेनैव सामन्तमन्त्रिण:-रन्तु यथा विक्खंभेणं परमत्ता" स्था०८ ठा। वृत्तं षष्टिसहस्रपुत्रमरणव्यतिकरम। तेरुक्तः सोऽपिताति-गावत्त-गगावत-पुं० । आवर्तविशेष, कल्प० ३ कण । Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७) गंगावत्त अनिधानराजेन्द्रः। गठिभेय जी०"गंगावत्तश्च पयाक्षिणावत्ततरंगनंगुररविकिरणतरुणबोहि गिकान् सप्तसप्तनवान् रक्षप्रभादिगतद्विकादिसंयोगसस्कम - याकोसायंतपत्रमगंभीरवियडनाभा"गंगावर्तक श्व प्रदकिणा-| विप्रवेशनरकादिगतद्विकादिसंयोगाइच गणयित्वा यथा जीतभवर्ततररिवं तर स्तिसृभिर्वमिनिराः तरङ्गभङ्गराः। रवि- जानेकीकृत्य नङ्गसर्वाग्रमानयपरं प्रति प्रवेशनकं भिन्न भिन्नं स. किरणैः सूर्यकिरणैस्तरुणमभिनवं तत्प्रथमतया तत्कालमित्यर्थः, प्रिमायास्ति । प्रवेशनकलनासंबन्धस्तु न संनयतीति संभाव्ययदोधितं उनिखीकृतम , अत एषाकोशायन्त इत्याकोशायमानं ते। एवं गतित्रयमाश्रित्यापि यथासंभ केयम । किश्चैतद्विषये विकचीभवदित्यर्थः, पनं तद्वत्गम्भीरा च विकटा च नाभिये-| भगवतीसूत्रवृत्ती करणं दर्शितं नास्ति तेन लक्षतमो भागो व्यपां ते गडावर्तकप्रदक्षिणावर्ततरङ्गभङ्गररविकिरणतरुणबोधिता. स्या न लिखितुं शक्यत इति । ७७ प्र० सेन०१ उदा० । कोशायमानपगम्भीरविकटनामाः । जी. ३ प्रतिभा और गंज-गञ्ज-पुं० । गजि-घ-अवज्ञायाम,आधारे घम् गोष्ठागारे, गंगासय-गनाशत-न० । गोशालकमतेन महाकल्पान्तर्गतका-| BITA-.० । गोशालकमतेन महाकल्पाम्तर्गतका-] भाएमागारे, खनौ, पामरगृहे, हस्थाने, मद्यभारमे, मदिरागृहे, अपरिमाणभेदे । भ० १५ श०१ उ० ('गोसमय'शब्दे वक्तव्यता) | स्त्री० टा वाच । भोज्यविशेषेच, प्रश्न०५ सम्बद्वार । गंगासागर-गङ्गासागर-पुं०। यत्र गका सागरे प्रवहिता तस्मि गंजसाला-गजशाला-स्त्री०। घृण धनादिस्थाने, “ जत्य धणं दजिज्जति सा गंजसाला" नि००६ उ०। न तर्थिविशेषे, उत्त०१८ अ०। गंगेय-गाऽन्य--पुं० । भीष्मपितामह, ज्ञा०१४०१६अ। आर्य-गंठ-ग्रन्थ-धा० सन्दर्भ, वा चु० पक्के घा०प० सक० सेट् । महागिरिशिष्यधनगुप्त शिष्ये, द्वैक्रियनिहवानां धर्माचार्य, प्रा. पाच० । अन्धो गंठः ।।४।१२० । इति ग्रन्थो गंठादेशः । 'गंठे' ग्रन्थयति। प्रा०४ पाद। चू०१०। स्वनामख्याते पार्थापत्ययेऽनगारे, ग्रन्थ-पुं०। "प्रन्यो गंः" इति गंवः । मिथ्यात्वादी प्रान्तरे तद्वक्तव्यता चैवम् बोच । धनादौ तस्य धर्मोपकरणवर्जनात्तथात्वम् । स्था. नेणं काले तेणं समपणं वाणियगामे णाम णयरे हो- ५ ठा०३१०। श्राचा। स्था वमो दुइपलासे चेइए सामी समोसले, परिसा गंति-ग्रन्थि-पुं० । अन्य सन्दर्ने' इनि । कार्षापणादिपोटलिणिग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पढिगया। तेणं कालेणं कायाम , झा. १ श्रु०१० । औ० । पर्वणि, नङ्गस्थाने च , तेणं समरणं पासावञ्चिज्जा गंगेयं णामं अणगारे जेणेव आचा०१ श्रु०१०५ उ०। प्रयाप्रज्ञा० ग्रन्थिरिय प्रन्थिः। समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छइत्ता जीवेन कमेनिजरयताउनतिक्रान्तपूर्वकर्मस्थितिविशेषे, पञ्चा। घंसणघोलणजोगा, जीवेण जया हमेज कम्महिती। समणस्स भगवो महावीरस्स अदरसामते हिच्चा समणं खविया सव्वा सागरकोमीकोमीए मोत्तणं ॥१॥ भगवं महावीरं एवं बयासी । भ० ए श० ३२ ज०। । तीयबियघेवमेतं, स्वविय एत्थतरमि जीवस्स । (स्वतोऽस्वतो वा नैरयिकादय उत्पद्यन्ते इत्याद्युत्पादोद्धर्त- हवात हु अजिन्नपुब्बो, गंठी एवं जिणा घेति ॥२॥ नाविषयाणि प्रश्नोत्तरसूत्राणि "उववाय" शब्दे द्वि० भागे गंचित्ति सुकुम्भेओ, कक्खमघणरूढगुढगंठि व्य । १६५ पृष्ठे उक्तानि) जीवस्स कम्मजणि ओ, घणरागदोसपरिणामो ॥३॥ (प्रवेशनकवक्तव्यता च 'पवेसणय ' शब्दे वक्ष्यते) । ता इति तावद् प्रन्धिभेदप्रदेशं यावदित्यर्थः । पञ्चा०३ विवा ग्रन्थिः किमुच्यते ? इत्याहतप्पभिदं च णं से गंगेये आणगारे समणं भगवं महावीरं। गति ति सुदुम्भेश्रो, कक्खडघणरूढगूढगंठि च । पञ्चभिजाणइ सव्वा सव्वदरिसी. तएणं से गंगेये अण जीवस्स कम्मणिो , घणरागदोसपरिणामो॥१११।। गारे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो पायाहिणपयादिणं प्रन्थिरिति भण्यते, का? इत्याह-धनोऽतिनिधिमो रागद्वेषोदयकरे वंदे एमसइ। वंदित्ता णमंसित्ता एवं बयासी-इच्छामि परिणामः। कस्य?जीवस्य, कथंनूतः कर्मजनितः कर्मविशेषप्रत्यणं भंते ! तुम्भे प्रतिए चानज्जामाओ धम्माओ पंचमह-| यः। अयं च भेदोदुमाँचो दु:केपणीयो भवति। क श्च ? वल्कावयं एवं जहा कालासबोसियपुत्ते अणगारे तहेव जाणि देदारुविशेषस्य संबन्धी, कर्कशधनगूढरूढ ग्रन्थिारव। कर्कशो ऽतिपरुषः, घनः सर्वतो निबिरः, सघाद्रोऽपि स्यादित्याह रूढः यन्वं० जाव सव्वयुक्खप्पहीणे सेवं भंते ! नंते ! ति ॥ शुष्का, गूढः कथमप्युद्वेष्टयितुमशक्योऽतिप्रचयमापन्नः, यथै( तप्पनि च त्ति) यस्मिन् समयेऽनन्तरोक्तं बस्तु नगवता वंचूतो व्यग्रन्थिईनदी भवत्येवं रागद्वेषोदयपरिणामोऽप्यसौ प्रतिपादितं स एव समयः प्रभृतिरादिर्यस्य प्रत्यभिज्ञानस्य दुर्भेदो भवत्यतो प्रन्धिरिव ग्रन्थिय॑पदिश्यत इति । विशे०। तसथा। च शब्दः पुनरथे समुच्चये वा। ( से त्ति ) असोगविनेय-गन्यिजेद-पुं० । अतितीवरागद्वेषपरिणामविदारणे, (पश्चनिजाण (त्त ) प्रत्यभिजानाति स्म । किं कृत्वा ? द्वा० १५ द्वा० । इह गम्भीराऽपारसंसारसागरमभ्यमध्याइत्याह-सर्वज्ञ सर्वदर्शिनं जातप्रत्ययत्वादिति । न ए श सीनो जन्तुर्मिध्यात्वप्रत्ययमनम्तान् पुमनपरावर्त्ताननन्तदुः३१०। खनकाण्यनुभूय कथमपि तथाभव्यत्वपरिपाकवशतो गिगंगेयभंग-गाङ्गेयत्नङ्ग-पुं० । गायभङ्गानां गतिचतुथ्यमाश्रित्य | रिसारदुपयघोत्रनाकल्पे नानाभोगनिवर्तितयथाप्रवृत्तिकरणेमर्यायसंख्याऽनया रीत्वा, तेषामयं लक्षतमो नेद इति च प्र- न करणं परिणामोऽत्रेति' वचनादध्यवसायविशेषरूपेणासायमिति प्रश्नः। प्रयोत्तरम-नरकगतौ सर्वप्रवेशनकेबसंयो-युर्वर्जानि ज्ञानावरणीयादिकर्माणि सर्वापयपि पल्योपमासं Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७00) गंहि अभिधानराजेन्द्रः। गहि स्पेयभागम्यूनैकसागरोपमकोटाकोटीस्थितिकानि करोति ।। विज्जाय सिलिकाले,जह बहुविग्या तहा सोवि॥११॥७॥ अत्र चाम्तरे जीवस्य कर्मजनितो धनरागद्वेषपरिणामरूपः क. सजीवस्त्र प्रन्धिभेदे प्रवृत्तो घोरमहासमरशिरसि जं. शनिविमचिरप्ररूढगुपिलवक्रग्रन्थिव दुर्भदोऽभिन्नपूर्वो प्र. यापारुताउनेकशत्रुगणसुभट श्य, प्रादिशब्दाद महासमुकादिपिनवति । तदुक्तम् तारकयत परिश्राम्यति । यथा च सिरिकाले विद्या बहुवि"तीय विथोत्रमिते, सपिए थंतरंमि जीवस्स। ना संपवते साधकस्योपसगैमनःकोनं जनयति, तथा सोऽहवा दुअभिन्नपुखो, गट्ठी एवं जिणा विति ॥१॥ पि अस्थिभेद इति। गतित्ति सुदुम्भेश्रो, काखमघणरूदगूढगंठि व्य । अथ प्ररकःप्राहजीवस्स कम्मजणिो , घणरागदोसपरिणामो ॥२॥ इति । मंच प्रन्धि यावदभव्या अपि यथाप्रवृत्तिकरणेन कर्म कपयित्वा कम्पट्टिई मुदीहा, खविया जा निग्गणेण सेसं पि। प्रमन्तशः समागच्छन्ति। उक्तं च प्रावश्यकटीकायाम-प्रभव्य स खदेउ निम्गुणो चिय, किं पुणो दसणाईहिं ।।११६८।। स्यापि कस्यचिद्यथाप्रवृत्तिकरणतो प्रन्धिमामाच अर्हदा यदि अधिभेदात् पूर्व सम्यक्त्वादिगुणविकलेनेवानेन जन्तुना विविभूतिदर्शनतः प्रयोजनान्तरतो या प्रवर्तमानस्य तसा- सुदीर्घा बाघीयसी कर्मस्थितिः कपिता, तर्हि शेषमविकामाथिकलाभो भवति न शेषलान ति। एतदनन्तरं कश्चिदेव म सौ सम्यक्त्वादिगुणशून्य एव कपयतु, ततो मोक्कमप्येवहारमा समासन्नपरमनिवृतिसुखः समुसितप्रचुरमुनिवार मेवासादयतु, कि पुनः सम्यग्दर्शमादिगुणैस्तकेतुभिर्विकवीर्यप्रसरो निशितकुठारधारयेव परमविशुद्ध्या यथोक्तस्वरूप स्पितः ? इति। स्य अन्धेनेंदं विधाय मिध्यावस्थितेरन्तर्मुहर्तमुदयक्षणादुप. यतिक्रम्यापूर्वकरणानिवृत्तिकरणलकणविशुभिजनितसामो भत्रोत्तरमाहअन्तर्मुहर्तकालप्रमाणं तत्प्रदेशवेद्यदलिकाभावरूपमन्तरकरणं पारण पुचसेवा, परिपउई साहणाम्म गुरुतरिया । करोति । अत्र यथाप्रवृत्तिकरणाऽपूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरणा- होइ महाविज्जाए, किरिया पायं सविग्या य॥११ ॥ नामयं क्रमः तह कम्मविश्खवणे, परिमउई मोक्खसाहणे गुरुई। “जा गंठी ता पढम, गंठिं समायो भवे बीयं । प्रणियट्टीकरणं पुण, समसपुरक्खमे जीवे" इह दसणाइकिरिया, पुलहा पायं सविम्या य॥१२००। (गदि समच्छो महाविद्यासाधनवदेतद् अष्टव्यमा यथा महाविद्यायाः सिसात्ति )न्धि समतिकामतो जिन्दानस्यति । (संमत्तपुरकसमे सि) सम्यक्त्वं पुरस्कृतं येन तस्मिनासा धयिषितायाः प्रायः पूर्वसेवा नातिगु:, किन्तु परिमृद्ध। भवसम्यक्त्वे जीवे अनिवृत्तिकरणं नवतीत्यर्थः। पतस्मैिश्चान्त ति, तसाधनकाले तु या क्रिया सा गुरुतरा अतिगरीयस) रकरणे कृते सति तस्य मिथ्यास्वकर्मणः स्थितिद्वयं भवति । जवति, सविना च प्रायः संजायते ॥ विशे०॥ ग्रन्धिोदेनास्य तसंक्लेश शति । इह प्रधिरिव प्रन्थिहढी रागद्वेषपरिणामः, अन्तरकरणादधस्तनी प्रथमा स्थितिरम्तमहसंप्रमाणा।तस्मादेवा तस्य प्रन्दे अपूर्वकरण रजसूच्या विदारणे सति लम्धशुन्सरकरणादुपरितनी शेषा द्वितीया स्थितिः स्थापना । तत्र प्र. पमस्थिती मिथ्यात्वदाक्षिकवेदनादमौ मिथ्यारहिरेव । अन्तर्मुह. सतत्वमानसामात्रात्यन्तं न प्रागियातिनिबिम्नया संक्ले. शो रागद्वेषपरिणामः प्रवर्तते । नहि लन्धवेधपरिणामो मणिः सेन पुनस्तस्यामपगतायामन्तरकरणप्रथमसमय एवीपशमिकसम्यक्त्वमवाप्रोति, मिथ्यादलिकवेदनाभावात । यथा हि कथचिन्मलापूरितन्धोऽपि प्रागवस्थां प्रतिपद्यत इति । पतधनदावानलः पूर्वदग्धेन्धनम्बरं वा देशमवाप्य विध्यायति दपि कुतः? इत्याहन भूयस्तदन्धनमिति। यतो न भूयः पुनरपि तस्य अन्धेबन्धनं निष्पादनं दे सति संपचत इति । किमुक्तं तथा मिथ्यास्ववेदनवनदवोऽप्यन्तरकरणमवाप्य विध्यायति । भवति । यावत। प्रन्धिभेदकाले सर्वकर्मणामायुर्वजानां स्थि. तथा च सति तस्यौपशमिकसम्यक्त्वमानः। यदाहुःभीपूज्यपा तिरन्तःसागरोपमकोटाकोटिलकणाऽवशिष्यते तावत्प्रमाणमे दा:-" सरदेसंदधियं च विम्भाइ वणदखो पप्प। इमि वासी सम्यगुपलब्धसम्यग्दर्शनो जीवः कश्चित् सम्यक्वापस्स अणुदप, उबसमसम्म लहरजीचो"१॥ इति व्याव. पगमातीवायामपि तथाविधसंक्लेशप्राप्ती बध्नाति, न पुणितं प्रन्थिभेदसंभवमापशमिकसम्यक्त्वम् । कर्म०४ कर्म। मस्तं बन्धेनातिकामतोति ॥ध०१ अधि०। प्रन्धिच्छेदे, रा०। सतः किमित्याह अथ प्रन्धिभेदस्वरूपम-तत्र पञ्चेन्धियत्वसंकित्यपर्याप्तत्व जिनम्मि तम्मि माभो, सम्पत्ताईण मोक्खोकणं । पाभिस्तिसृभिः सब्धिभिर्युक्तः । अथवा उपशमलन्धिः उपसो यदुलभो परिस्सम-चित्तविघायाइविधेहिं ।।११६६॥ देशभवणलब्धिकरणत्रयहेतुप्रकृश्योगाग्धित्रिकयुक्तःकरणतस्मिन् ग्रन्थौ भिन्ने पयित्वा समतिकान्ते मोक्षहेतुनूतानां कालात् पूर्वमपि अन्तर्मुहूर्तकालं यावत् प्रतिसमयमनन्तगुण या विशुस्या विशुध्यमानोऽवदायमानचित्रसन्ततिः । प्रसम्यक्त्वादीनां लाभो भवति । स च प्रन्थिनेदो मनोविघात. मिथकसत्वानामभव्यसिकिकानां या विशोधिस्तामासक्रम्य वर्तपरिश्रमादिविनरतिसभी अतिशयेन दुष्करः, तस्य हि जी मानः। ततोऽनन्तगण विशुकः। अन्यतरस्मिन् मतिभुतविभकाबस्य प्रन्थिनेदं चिकीयोंविद्यासाधकस्येव विभीषिकादिन्यो न्यतमस्मिन् साकारोपयोगे चान्यतमस्मिन् वर्तमानस्तिमनोविघातो मनःक्षोभो भवति, प्रचुरपुर्जयकर्मशत्रुसंघातजया. मृणां विशुद्धानां लेश्यानामन्यतमस्यां लेश्यायां वर्तमानः, ज-महासमरगतसुनहस्येव परिभमश्वातिशयेन संजायत इति।। घन्यतस्तेजोमेश्यायां मध्यमपरिणामेन पालेश्यायामुत्कएपपतदेवाह रिणामेन शुक्नमेश्यायाम् । तथाऽऽयुर्वजांनां सप्तानां कर्मणां सो तत्थ परिस्सम्मइ, घोरमहासमरनिग्गयाइ । स्थितिमन्तःसागरोपमकोटाकोटीप्रमाणां कृत्वा प्रशुभानांक | Jain Education Interational Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंविभेय र्मणामनुभागचतुःस्थानकं सतं स्थानकं करोति शुभानां कर्मणां द्विस्थानकं सन्तं चतुःस्थानकं करोति । तथा धुप्रकृतिचत्वारिंशद बन प नावप्रायोग्याः प्रकृतीः शुभा एत्र बध्नाति । ता अप्यायुर्वजः, प्रतिविशुद्धपरिणामो हि बन्धमारभते । यदुत तिर्यग् मनुष्यो वा प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयन् देवगतिप्रायोग्याः शुभाः प्रकृतीनाति । देवो नैरथिको वा प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयन् मनुजगतिप्रायोग्याः शुभाः प्रकृतीर्बध्नाति । सप्तमनरकनारकः तिकिं नी बनाति, भवप्रायोम्यात् । बध्यमानस्थितिमन्तः सागर कोटाकोटिं बध्नाति, नाधिकां, योगवशात् । प्रदेशा प्रमुत्कृष्टजघन्यमध्यगं च बध्नाति । स्थितिबन्धे पूर्ण सत्यन्यस्थितिबन्धं प्राक्तन स्थितिबन्धाऽपेक्षया पल्योपमासंख्येयभागन्यूनं करोति । ततः प्रम्यं पयोमास येवभागन्यून क गोति। अतोऽयं स्थितियग्यं पूर्वपूर्वपेोपमाऽसंप यभागन्यूनं करोति । श्रशुभानां च प्रकृतीनां बध्यमानानामनुभाग द्विस्थानात मतिमनशुभायां च चतुःस्थानकं प्रतिसमपमनन्तगुकर्य करणं ययाप्रवृतं करोति पूर्व निकरणमति करणं परिणामविशेषः पतानिय पि करणानि प्रत्येकानि ततः उपायां लभते, सापि चाऽऽन्तर्मुहूर्त्त की यथाप्रवृत्त करणं च । "बतो, अवसायनगुणणा परणाममहानाणं, दोसु वि लोगा असंखिज्जा ॥ १ ॥ किमयमन्यदसावानामनया वर्धमानानां करणसमाप्ति यावत् वर्धते । ते कियन्ति अध्यव मानानि भवन्त द्वयोरपि यथा प्रकृत्य पूर्वकरणयोः परिणामस्थानानामनुसमय झोकाऽसंख्या भाति यथाप्रवृत्त करणे अकरणे प्रतिसम पेऽसङ्घयेप लोकाकाशप्रदेशराशिमाणानि अध्यवसायस्थानानि भवन्ति । तथाहि यथाप्रवृत्त करणे प्रथमसमये विधिस्थान मानवापेयाय लोकवाणानि द्वितीयसमये विशेषाधिकानि ततोऽपि तृतीयसमये विशेषाधिकानि एवं यावच्चरमसमयः | यमपूर्वकरणे य । अमृनि चाभ्यवसायस्थामानि यथावृत्तापूर्वक संबन्धीनि स्थाप्यमानान विपचतुर क्षेत्रमाचरणन्ति तयोरुपरि चाऽनितिकर 1 " या मुलीसंस्थानि उपर्युपरि अमृत अनु चिन्त्यमानानि प्रतिसमय मनन्त गुणवृद्ध्यः प्रवर्तमानान्यवगन्तविर्वपतितानि कल्पनया द्वी पुरुषी युगपत् करणप्रतिपन्न विवश्येते । तत्रैकः सर्वजघन्यया श्रेण्या प्रतिपन्नः, श्रपरः सर्वोत्कृष्ट्या विशोध्या । प्रथमजीवस्य प्रथमसमय मन्दा, द्वितीयसमये अनन्तगुणा, तृतीयेऽनन्तगुणा, एवं यावत् यथाप्रवृत्त करणस्याऽसंख्ययभागो गतो भवति । ततः प्रथमसमये द्वितीयम्य जीवस्य उनन्तकल्यम् । ततोऽपि द्वितीये उत्कृष्ट विशोधिरनन्तगुग्गा, तत उपरि जघन्यविशोगुणा एव एकैकं शिवस्थानमनतगुणं द्वयोर्जीवयोस्तावज्ज्ञेयं यावश्चरमसमये जघन्या विशोधिः। तत श्राचरमात् चरममभिव्याभ्य यानि अमुक्तानि शेराणि निस्थानानि तानि मेनिरगुणा (७१) श्रभिधानराजेन्द्रः । 99 नि । तदेवं समाप्तं यथाप्रवृत्तकरणम् । श्रस्य च यथाप्रवृत्तकपूर्व नामशेषकराभ्यां पूर्व प्रथमं प्र १९८ गंविभेय पूर्वप्रवृत्तमिति अस्मिश्वाकर स्थितिघातरघाती गुणश्रेणिर्वान प्रवर्तन्ते, केवलमुक्तरूपा विशोधिरेवानन्तगुणा । यानि या प्रशस्तानि कर्माण्यत्र स्थिती यामा विस्थानकं बध्नाति । यानि च शुनानि येषां चतुःस्थानकं स्थितिबन्धेऽपि च पूर्ण पूर्णे सत्यन्यं स्थितिबन्धं प्रत्यो पम संख्येयभान्यूनं च बलाति संप्रत्यपूर्वकरणमभिधीयते "बीवर बीसमये, सहमविश्रणंतरुकस्सा" इत्यादि वचनात् । द्विनीयथापूर्वकरण योषि स्थानाद् अनन्तगुणं वक्तव्यम् । एतदुक्तं भवति, नेढ यथाप्रवृत्तकरणवत् प्रथमो निरन्तरं विशोचिस्थानमनन्त्णं कार्य किन्तु प्रथमसमये प्रथमतो जघन्या विशोधिः सर्व स्तोका, सापि च यथाप्रवृत्त करणचरम समयवत् तावद् उत्कृष्टाद् विशोधिस्थानात् अनन्तगुणा । ततः प्रथमसमये एवोत्कृष्ट विशोधि रनन्तगुणा, ततोऽपि द्वितीयसमये जघन्या विशोधिरनमतगुणा, ततोऽपि तस्मिन्नत्र द्वितीयसमये उत्कृष्ट विशेोधि रनन्तगुणा, एवं प्रतिसमये तावद् वाच्यं यावच्चरमसमये उत्कृष्ट विशेोधिः। अपूर्वाणि करणानि स्थितिघानरघानगु मनिस्थितिबन्धानि पानि परिमन करण तथाहि अपूर्व करणे प्रविशन् प्रथमसमयमेव स्थितिघातं रसघातं गुणस्थितियन्धं चान्यं युगपदारभते तत्र स्थितिघातः स्थितिसत्कर्म्मणोऽग्रिमनागादुत्कर्षत उदधित्व प्रमाणं, जघन्येन पुनः परुषोपमसहदेवभागमात्रं स्थिति एक फिरति । उत्कीर्य च या स्थितिः श्रधो न खएमयिष्यति तत्र तद्दनिकं प्रतिपति अन्तर्मुहूर्तेन कालेन तत् स्थितिकएमकमुत्कीर्यते । एवं द्वितीय एवं तृतीयम एवं प्रताभि स्थितिरामसहस्राणि प तिक्रामन्ति । तथा च सति यद् अपूर्वकरणस्य प्रथमसमये सत्क मी चरमसमये गुणहीनं जातमर घाते तु शुभानां प्रकृतीनां यद् अनुभागसत्कर्म तस्यानन्ततमं भागं मुक्त्वा शेषाननन्तानुज्ञागनागान् अन्तिमवृत्तेन विनाशयति । ततः पुनरपि तप प्रागुक्तस्थानन्ततमं भागं रोषादिना शयति । यमनेकानि अनुमानखण्डल स्राणि एकस्मिन् स्थि तिस्रत्मे व्यतिक्रामन्ति । तेषां च स्थितिकानां सहस्रे द्विनीयमपूर्वकरणं परिसमाप्यते । स्थितिबन्धाद्वा तु अपूर्वकरणस्य प्रथमसमये अन्य एच अपूर्व पल्योपमसङ्ख्येयभागहीन स्थितिबन्ध श्ररज्यते । जीस्थितिघातस्थितिबन्धौ तु युगपदेवारज्येते, युगपदेव निष्टां यातः गुणश्रेणिस्तु "गुणसेढं । निक्खेवो, समये अरितो से ससे व नियो" ॥॥ भाविताच घातिस्थितिखण्डमध्यादतीकं गृहीत्वा उदयसमयात् प्रतिसमयम[संख्येचगुणतया निहिपनि प्रथममयेस्तोकं, द्वितीयसमये गुणं समये अपवं यावच्चरमसमयः । एष प्रथमसमयगृहीतदलिकनिकेप-विधिः एवं द्वितीयादिसमीतानामपि । इत्यनेन प्रमसमय स्तोकः, द्वितीयसमये श्रसङ्ख्येयगुणः, तृतीसमये अपेलिकन भवति पूर्वकरणस्य रूपमपि भवति निवृ करणस्य प्रथमसमयेऽपि ये वर्त्तन्ते ये च वृत्ता ये च वर्तिष्यन्ते तेषां सर्वेषामपि समाना एकरूपा विशोधिः । द्वितीयसमयेऽपि ये वर्त्तन्ते ये वृत्ता ये च वर्त्तिध्यन्ते तेषामपि समाधिशोधिः। एवं सर्वेष्वपि समयेषु नरं पूर्वतः परितन्तगुणाअधिकाविशोधि चरमसमर्थ पादन करणे - 1 - Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१० ) अभिधानराजेन्द्रः । गंतिभेष कालानामसुम परस्परमध्ययसानानां या निविद्यते परम निर समयास्तावन्ति अध्यवसायस्थानानि पूर्वस्मात् पूर्वस्माद् अनन्तगुणवृद्धानि भवन्ति । श्रनिवृत्तिकरणाकायाः सङ्ख्येयेषु भा एकान्ति मुहूर्त्तमात्रमधो मुक्त्वा मिथ्यात्वस्यान्तरकरणं करोति । अन्तरकरणकालश्चान्तर्मुहूर्त प्रमाणः । अन्तरकरणे च क्रियमाणे गुणमेः यतमं भागमुरितिमा दलिकं प्रथ मस्थितीत मुरणा गाल 可 बलेन मिमिया उपसि "मिच्छतु सम्ममोसमीयं सो ज स्स लध्नर, आयहियं अलरुग्वजं" ॥१॥ मिथ्यात्वस्योदये की णे सति स जीव उक्केन प्रकारेण उपशमिकं सम्यक्त्वं सजते । यस्य सम्यक्वस्य लाभेन यदात्महितमलब्धपूर्वमहदादितस्व प्रतिपत्यादि तलभ्यते । तथाहि सम्यक्त्वलाने सति जात्यन्धरूप सति जन्नोथावस्थितस्तु को जयति महाबाच्यातिनस्य बाध्यापक महांदः चत्रानिवृतिकरले क्रियमाणे यदि करोति तदा प्रथमं शमवंलभते जिः प्रथम सम्पत्वं लभते इति यः प्रथममुपशमेव लभते अपने करोति इति प्रपञिज्ज्ञानं तत्वोपयोगलक्षणं तस्य अन्यविकल्पैः । किम् ? ॥ ६ ॥ अष्ट० ५ अष्ट० । ( अत्र विशेषः' सम्मदंसण शब्देवोदय गंडि अणसणसरिसं पुष्ां वयंति पयस्स समय एणू ॥ ३ ॥ रात्रिचतुर्विधा ढारपरिहारस्थानोपवेशन पूर्वक ताम्बूलादिव्यापारणमुखद्धकरणादविधिना ग्रन्थिमहिन्यापास एकवाजिनः प्रतिमाद्विरोजिन शतिर्मिला उपवासाः स्युरिति वृद्धा नोजलजल व्यापारी हि प्रत्यय २ संजये मासे घटीचतुष्टय | संभवे त्वष्टाविंशतिः । यदुक्तं पद्मचरित्रेमुंज अरे, भिला जो निभोगेणं । सो पावर उववासं, अट्ठावीसं तु मासेणं ॥ १ ॥ इकं पि श्रह मुहुत्तं, परिवार जो चउव्विहाहारं । मासेण तस्स जाय, उपवासफलं तु परलोए ॥ २ ॥ दसरा, जजो 46 पविमकोडं । पुरा, होर ठिई जिणवरतवेणं ॥ ३ ॥ उपवासे भाई । जो कुगुर जहाधामं, तस्स फलं तारिसं भणिश्रं ॥ ४ ॥ युवा ग्रन्थिसािन मध्यनन्तरोद भा व्यम् । ध० २ अधि० । गंम गएम-पुं०० 'गर्मि बहनेकदेशे पोले जी० ३ प्रति० । झा० । जं० । प्रज्ञा । हस्तिकपोले, गएमके, पुं० । स्त्री० प्र० २६ द्वार। वीथ्यङ्के, पिटके, चिहे. वीरे हयभूषणे, बुदबुदे च । वाचः । गच्छतीति गएरुम गएरुमालायाम, 'जंदग" नि०० ३० रुधिरकोपो तस्फोटके, उत्त० १० अ० । श्राचा० । अपव्ये, उदकफेने, सूत्र० १४० ६ अ० । गएकसाधर्म्यात् कुचे, उत्त० ८ श्र० । वने, दाण्डपाशिके, लघुमृगे, नापिते च । दे० ना० २ वर्ग । मइया गएमजिका श्री वैशालीवनिप्रायोरन्तराने बढ़त नदीमे मुसरन् यीरस्वामी नाचिकेतः। अ०म० द्वि० । श्रा० चू० । गंग - गमक पुं० एक पशु प्रन्थोपाय ना पिने, यो हि ग्रामे उद्घोषयति । श्राचा० २ ० १ ० २ ० । चतुर्वेदसमवायसमयज्ञापनाय ब्राह्मणैः स्थाध्यमाने पुरुषे, व्य० ७ ० । श्रोघ० । गंडयल - गण्डतल न० । कपोझतटे, " अंगद कुंजल मट्टगंमतल गंटिजेयकान-ग्रन्थिभेदकाल - पुं० । यस्मिन् कालेऽपूर्व करणानिवृत्तिकरण प्रथिर्मियो भवति तस्मिन घ० अ० मंडियन ग्रन्थिभेदक यासाभ्यथाकारिसिहा० १० १८ श्र० । चौरविशेषे, प्रश्न० २ श्र० द्वार घुघुरादिना ग्रन्थिच्छेदके, विपा० १ ० ३ ० । मंडियन्थिनः प्रन्धनं न्यस्तेन नियम भा वादिप्रत्ययः । श० जी० । सूत्रसन्दर्भे, स्था० ४ aro ४ उ० । सूत्रग्रथिते माल्यादौ न० ९० ३३ ० । ० । नि० ० | दश० | कौशलातिशयाद् ग्रन्थिसमुदायनिष्पादिते रूपके, अनुग० प्रथितपुष्पादिनिर्वर्तितस्पस्तिकादी. श्रा चा० २ ० १२ अ० । गुल्मभेदे, प्रज्ञा० १ पद । मंडिय-ग्रन्थित त्रिसूत्री शे ग्रन्थिक- कर्मात्मको ग्रन्थो विद्यते येषां ते ग्रन्थिकाः क- गंडलेहा-गंमरे ( ले ) खा. स्त्री० ० प्राणिषु वन्धिकसत्येषु ग्रन्थिभेदं कर्तुमसम बु, सूत्र० २०५ श्र० । वाच० । प्र ठिल्ल-प्रन्थिमत्- त्रि० । ग्रन्थियुक्ते, भ० १ ० १० उ० । मंत्रिसयिकखाण-प्रन्थिसहितमत्वाख्यानन० न्थिभेदरूपे प्रत्याख्याने । तत्स्वरूपम् ग्रन्थिसहितं च निस्वमप्रमत्ततानिमित्ततया महाफलम् । उक्तं च " जे निश्चमपमत्ता, गंधि बंधन्ति गंटिल हिअस्स । सग्गापवग्गसुखं, तेहि निबद्धं सगंठमि ॥ १ ॥ भणिऊण नमुक्कार, नित्र्श्यं विस्सरणवजिन धन्नः । डन्ति गठिसाहियं, गंहिं सह कम्मगंठीहिं ॥ २ ॥ कुई अभावासं विदुरस्त अ महसि । उत्त० २ श्र० । स्था० । गंमपाणिया गरमपाशिका - स्त्री० । गरडयुक्का माणिका गएममाणिका । देशविशेषप्रसिद्धे धान्यमानभेदे, रा० । । कपोलपाल्याम, जं० २ वक्र । कपोनविरचितमृगमदादिखायाम्, नि० १ वर्ग० । रा० । शा० । गंमवच्छा-गमवक्षस्वी० गएर चोपचितापशिड रूपतया गलत्पूतिकपिराईनासम्भवाच तदुपमितस्याइएडे कुबावुको, ते च वास यासां तास्तथा। मांसपिण्डोपमस्तनकोरस्का स्त्रीषु, " नो रक्खसीसु गिज्झिजा, गंगवासु गन्रित्तासु " उत्त०८ अ० गंगवालिया - गएकपाणिका स्त्री० । वंशमयभाजनविशेषे, प्र० ७ ० ७ ० । गंमि - गरिम- पुं० । गच्छति प्रेरितः प्रतिपथादिना मीयते च कूर्दमानो वियोगमनेनेति गरिमा गएपश्वे, उस० १ ० Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) गंमि [ए] अनिधानराजेन्दः । गंडियाहामोग मंमि [ ] गरिमन-त्रि० । चतुर्धा गएक, तदस्यास्तीति | यावत्तेऽपि द्विकदिकसलया असत्या नवन्ति । एवं त्रिकत्रिकगाडी । गरममालावति, आचार श्रु०६ अ०१ उ०ा नि०चू०।। सङ्ख्यादयोऽपि प्रत्येकमसवयेयास्तावद् वक्तव्या याचनिरन्तरं उच्चूनगुल्फपादे, "गंडीगमीति वा वए" प्राचा० २६० चतुईशखका निर्वाणे। ततः पञ्चाशत्सर्वार्थसिखे, ततो भूयोऽपि ४०. उ०। चतुर्दशक्षा निर्वाणे । ततः पुनरपि पञ्चाशत् सर्वार्थसिद्धे। एवं पञ्चाशत्पडनाशत्सवपाका अपि चतुईशचतुर्दशलक्षातमंमिया-गाएमका-स्त्री० । सुवर्णकारादीनामधिकारिपयाम, रितास्तावद्वक्तव्या यावत्तेऽपि असत्यया भवन्ति । सकंचस्था०४ ठा०४ उ० दशम स्वएडे, ज्ञा०१ शु०१ मा प्राचा "चउदस लक्खा निवई, सिका पछो य हो सबढे। इक्ष्वादीनां पूर्वापरपरिच्चिन्ने मध्य नागे। गएिमकेव गदिमका।। एवेकेकट्ठाणे, पुरिसजुगा होन्त ऽसंखेजा ॥१॥ पकार्थाधिकारायां ग्रन्धपद्धती, नं०।। पुणरवि चोदसलक्खा, सिद्धा निवईण दो वि सबके। गंमियाणुयोग-गएिमकानयोग-पुं। इहैकवक्तव्यतााधिका- दुगटाणे वि असंत्रा, पुरिसजुगा दोन्ति नायव्वा ॥२॥ राऽनुगता वाक्पपतयो गरिकका उच्यन्ते। तासामनुयोगोऽर्थ- जाव य अक्खा चोद्दत, सिक्षा पन्नास होन्ति सम्बटे। कथनविधिसरिफकाऽनुयोगः, स० । जरतनरपतिवंशजातानां पन्नासहाणे विन, पुरिसजुगा होन्तऽसंखेजा ॥३॥ निर्वाणगमनानुत्तरविमानवक्तव्यताऽऽख्यानग्रन्थे, स्था०१०ठा। पगुसराउ ढाणा, सब चेव जाच पन्नासा। से किं तंगीमया शुओगे ?, गंमियाणुओगे-कुलगरगंमि पक्केकंतरढाणे, पुरिसजुगा होतऽसखेजा ॥४॥ स्थापनायाउ, तित्थयरगंमियाउ चकवट्टींगमियाउ दसारगमियान रणरा१४ारणपणछायाश्यासिद्धिा बलदेवगंमियान वासुदेवगमियान गणधरगंमियान जद्दवा [१२३४५६७८हारा०सर्वान हुगंडियाउ तवोकम्मगमियाउ हरिवंसगंमियाउ उमप्पणि-! ततोऽनन्तरं चतुर्दश लका नरपतीनां निरन्तर सर्वार्थसिके, गंमियान अवसप्पिणिगंडियाउ चित्तरगंभियान अमर-1 एकः सिकौ । नुयश्चतुईश सकाः सर्वार्थसिके, एकः सिद्धौ । नरविरिपनिरगगमणविविहपरियट्टणाणुओगेसु एवमाइ. एवं चतुर्दशचतुर्दशल कान्तरित एकैकः सिद्धौ तावद्वक्तव्यो यान गमियार आपविजंति पणविज्जति । सेत्तं गमिया यावतेऽप्येकैकका असंख्यया भवन्ति । ततो नूयोऽपि चतुई. शलक्षा निरन्तरं मरपतीनां सर्वार्थसिके, ततो द्वौ निर्वाणे । णु प्रोगे । सेत्तं अणुओगे || ततः पुनरपि चतुर्दशनकाः सर्वार्थसिके, ततो नूयोऽपि हो (से कि तमित्यादि) अथ कोऽयं गरिमकानुयोगः', सू-" निर्वाणे । एवं चतुर्दशचतुर्दशलकान्तरितौ द्वौ निर्वाणे ताव. रिराह-गरिकानुयोगेन, अथवा गारीमकानुयोगे सप्तमी, 'ण'] द्वक्तव्यौ यावत्तेऽपि विकद्विकसङ्ख्या असंख्यया भवन्ति । एवं इति वाक्यालङ्कारे, कुलकरगपिमकाः । इह सर्वत्राप्यन्तराल- त्रिकत्रिकसंख्यादयोऽपि, यावत्पश्चाशत्पन्चाशत्संख्याः चतुर्दशयत्तिन्यो बह्वयः प्रतिनियतकाधिकाररूपा गएिमकाः कु-1 चतुर्दशलकान्तरिताः सिद्धौ प्रत्येकमसंख्येया वक्तव्याः । ल करगएिमकाः । ततो बहुवचनं, कुलकराणां गदिमकाः कुल- उक्तं च-विवरीयं सम्बहे, चोद्दसत्रखा उ निचुमो एगो । सन्ने करगएिमकाः, यासु कुलकराणां विमतवाहनादीनां पूर्वभवज वयपारिवामी, पन्नासा जाव सिद्धीए । मनामादीनि सप्रपञ्चमुपवर्षयन्ते । एवं तीर्थकरगण्डिकादि. स्थापना चेयम्घभिधानवशतो जावनीय यावत् (चित्तंतरगंमियाउ त्ति)। चित्रा अनेकार्था अन्तरे ऋषभाऽजिततीर्थकरापान्तराले ग शिशाकाहारमिनि १४ारारारारारारारारारासान पिसकाश्वित्रान्तरगाएमकाः । एतदुक्तं भवति,ऋपनाजिततीर्थकरान्तरे ऋषभवशसमुद्भूतभूपतीनां शेषगतिगमनब्युदासेन ततः परं वेल नरपतीनां निरन्तरं निर्वाणे, तता द्वे सके शिवगतिगमनानुत्तरोपणतप्राप्तिप्रतिपादिका गएिमकाः चित्रा मिरन्तरं सर्वार्थसिद्धे। ततस्तिस्रो लका निर्वाणे, ततः पुतरगशिमकाः। तासांच प्ररूपणा पूर्वीचार्यरेवमकारि-द सुवु. नरपि तिम्रो लकाः सार्थसिद्धे । ततश्वतम्रो लक्षा निद्विनामा सगरचक्रवर्तिनो महाऽमात्योऽष्टापदपर्वते सगरचक्रव ोणे, ततः पुनरपि चतम्रो लकाः सर्वार्थसिके । एवं पञ्चपञ्च तिसुनेच्य आदित्ययशःप्रभृतीनां भगवहषजवंशजानां नरपती षट् पट् यावभयत्राप्यसंख्येया असत्येया लका वक्तव्याः। नामेवं सापामाख्यातुमुपक्रमते स्म । आह च-"पाश्चजसा प्राह चइंणं, जसजस्स पनप्पर नरवईणं । सगरसुयाण सुबुद्धी, इणमो तेण परदुमक्वाई, दो दो गणा य समगवञ्चन्ति । संखं परिकहे" ॥२॥ आदित्ययशःप्रभृतयो भगवन्नामेयवंशजाः सिवगसम्बहि, णमो तेसि विही होह॥१॥ प्रिखरामभरतामनुपाल्य पर्यन्ते पारमेश्वरी दीकामतिगृह्य त दो लक्खा सिद्धीप, दो लक्खा नरवीण सबके। स्वभावतः सकलकर्मवयं कृत्वा चतुर्दशलका निरन्तरं सिकिम एवं तिलक्खचवपंच, जाव बक्खा असंखेजा ॥२॥ गमन् । तत एका सर्वार्थसिद्धे, ततो भूयोऽपि चतुर्दशक्षक्षा नि. स्थापना चेयमरन्तरं निर्वाणे । ततोऽपि एकः सर्वार्थसिद्धमहाविमाने। एवं च- शशाबाहारगमोकेगताः तुर्दशचतुर्दशलकान्तरितः सर्वार्थसिकौ एकैकस्ताबद्वक्तव्यः, शिवशाहाहाकासर्याधेसिगिताः] यावत्तेऽध्येकैकका असङ्ख्यया भवन्ति । ततो भूयः चतुर्दशलका | ततः परं चतनः चित्रान्तरितगएिमकास्तद्यथा-प्रथमा एकानरपतीनां निरन्तरं निर्वाणे, ततो द्वौ सर्वार्थसिद्धे । ततः पुनरपि दिका पकोत्तरा, द्वितीया एकादिका द्वघुत्तरा, तृतीया एकाचतुर्दशलका निरन्तरं निर्वाणे, ततो नूयोऽपि द्वौ सर्वार्थसिद्धे। दिका युत्तरा, चतुर्थी यादिका ट्यादिविषमात्तरा । माह चएवं चतुर्दशचतुर्दशनकान्तरितौद्वौ द्वौ साधसिकेतावद्वक्तव्यौ। “सिवगइसब हिं, चित्तंतरमंडिया तमो चतरो । Jain Education Interational Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंढियाण योग एगा एगोठरिया, एगाइ बिउत्तरा बिया ॥ १ ॥ पगाइतिउरगा, तिगादिविसमुत्तरा चत्श्रो । तत्र प्रथमा भाव्यते प्रथममेकः सिद्धों, ततो द्वौ सर्वार्थसि । ततः त्रयः सिद्धी, ततश्चत्वारः सिद्धार्थं । ततः पञ्च सिद्धौ ततः पद सर्यायें एवमेकोतराया शिवसता द्वकत्र्यं यावदुभयत्राऽप्यसङ्ख्येया भवन्ति । उक्तं च"पढमाए सिद्धेको, दोणिश्रसम्बमिम्मि | ततो दिसा बारि होति सम् ॥१० इसजाय भाग १ स्थापना यम - १ ३ ५ ७ ६ ११ १३ २५ २७ २६ मोक्षे २ ४ ६ ८ १० १२ २४ २६ १८ २० सर्वा सम्प्रति द्वितीया जाव्यते तत ऊभ्यमेकः सिद्धौ त्रयः सर्वार्थ । ततः पञ्च सिद्धौ, सप्त सर्वार्थे। ततो नव सिद्धौ, एकादश सर्वा थे। ततस्त्रयोदश सिद्धौ, पञ्चदश सर्वार्थे । एवं द्वयुत्तरया वृद्ध्या शिवगतौ सर्वाध च तावद्वक्तव्यं यावदुभयत्राप्यसंख्येया भवसिकं च "ताई बिउत्तरा सिकेको तिचि होति चट्टे । एवं पंच व सत्तव, जात्र श्रसंखेजा दो वित्ति” ॥ १ ॥ २ स्थापना चेयम् ६. ५ ६ १३ १७ २१ २५ मोक्षे ३७६५६६ २३ | २७ मर्वार्थमिद्धौ ( ७६२ ) अभिधानराजेन्द्रः । संप्रति तृतीया भाव्यते- - ततः परमेकः सिद्धो चत्वारः सर्वार्थे। ततः सर्वा थें । एवं त्र्युत्तरया वृद्ध्या शिवगती सर्वार्थे च क्रमेण तावदवसेयं यावदुभयत्रापि असंख्येया गता नवन्ति । उक्तं च"एगच उसत्सदसगं, जाव असंखेजा होम्ति ते दो वि । सिवगतिसव्वधेर्दि, तिउत्तराप च नायश्वा ॥ १ ॥ ३ स्थापना चेयम् १ ७ १३ २६ २५ ३१३७४३ ४६ ५५ मो० ४ १० १६ २२ २८ ०४४० ४६ ५२ ५० सर्वा० सम्प्रति चतुर्थी माध्यते । सा च विचित्रा, ततस्तस्याः परि ज्ञानार्थमयमुपायः पूर्ववदेशितः कोशक्याखिका उपयः परिपया पट्टिकादी स्थाप्यते । तत्र प्रथमे त्रिके न किचिदपि प्रक्षिप्यते । द्वितीये द्वौ प्रकि येते । तृतीये पञ्च चतुर्थै नव पञ्चमे त्रयोदश, षष्ठे सप्तदश, सप्तमे द्वाविंशतिः श्रष्टमे षट् नवमेट्रो, दशमे द्वादश, एकादशे द्वादशेाविंशतिः पट्टिशति चतुर्दशे पञ्च विपद एकदा यति सदस स्वाद समतिः एकोनविंशे सप्तसप्ततिः विंशे एका सप्ताशीतिः प्रयोविंशे एकसप्ततिः कोनस शेत् अतिएको शितिः । उक्तञ्च " "ताहे नियमाइसिन लिया। पढमे, उपखेव से मोजो १॥ दुगपण नत्र तेरस, सत्तस्स वुवीस छ च श्रठेव । बारस चोद्दल तह, वीस वीस पणवीसा ॥ २ ॥ पक्कारस तेवीला, सीयःला सयरिसत्तत्तरिया । गंभिया भोग इगदुगसत्तासीती, एगत्तरिमेव बाय ॥ ३ ॥ रिसायास तया एए रासिकखेवा, तिगतं ता जहां कमलो " ॥ ४ ॥ पत्रेषु च राशिषु प्रप्तेिषु यद्भवति तावता मे सिफी सर्वार्थे चेत्येवंरूपेण वेदितव्याः । तद्यथा प्रायः सिडी, पञ्च सर्वार्थे । ततः सिद्धाष्टौ द्वादश सर्वार्थे । ततः पोश सिद्धौ, सवर्थे विंशतिः । ततः पञ्चविंशतिः सिद्धौ नव सर्वार्थे। तत एकादश सिद्धी, पञ्चदशस सर्वात एकोनत्रिंशत्सकौ, श्राविंशतिः सर्वार्थ । तततुर्दश पतिः। ततोऽशीतिः सिद्धौ चत्वारः सर्वार्थं । ततः पञ्च सिद्धौ, नवतिः सर्वार्थे । ततश्चतुःसप्ततिर्मुक्तौ पञ्चष्टः सर्वार्थं । ततो द्विसप्ततिः सिद्धौ, सप्ताविंशतिः सर्वार्थ एकोनपञ्चाशन्मुक्तौ प्रयुत्तरं शतं सर्वार्थे । तन एकोनत्रिंशत् सिद्धौ । उक्तञ्च "सिवगसम् दो दो हाणा विसरा मेघा जायो सट्टा गुणी पुण छाए " ॥ १ ॥ श्रत्र " जायेत्यादि " यावदेकोनत्रिंशरामे स्थाने विकरूपे पतिको भ ४ स्थापना - ३ ७ १६२५ २११७ २६ १६ ५= 50 ५७५/७२ ४६ २६ मो० १२२० ६ १५/३१२० २६७३ ४/६० ६५/२७/ २०३० | स० एवं व्यादिविषमोतरा गगिडका असंख्येयास्ताच्या यायनिस्वामिपिता जितशत्रः समुत्यन्नः । ना गण्डिकायां यदत्यमङ्कस्थानं तदुत्तरस्यामुत्तरख्यामादिमं द्रष्टव्यम् । तथा प्रथमायां गरिमकायामादिममस्थानं सिद्धौ, सर्वार्थसखे तृतीय सिद्धो, चनुष्ये एवमपि कदाि निशानssदर्शनतो जायते तत्र प्रथमायां गरिककायामन्त्यमकस्थानमेत्रिंशत्, तत एकोनत्रिशद्वारान् सा एकोनत्रिंशदूर्ध्वाधः क्रमे स्थाप्यते । तख प्रथमेऽङ्के द्वितीयदि "गणनतेरस "इत्यादयः क्रमेण प्रज्ञेषणीया राशयः प्रि ते । तेषु च प्रतेिषु सत्सु यद्युत्क्रमेण भवति तावन्तस्तावन्नः क्रमेण सिकौ सर्वार्थे एवं वेदितव्याः । तद्यथा- एकोनत्रिंशत्सवर्थ, सिद्धावेकत्रिंशत् । ततश्चतुस्त्रिंशत् सर्वार्थ सिद्धावतितचित्वारिंशास दो तत एकपञ्चाशत्सर्वार्थ, पञ्चत्रिंशत् सिकौ । सप्तशिरस थे, सिकायेकचत्वारिं । त्रिचत्वारिंशत्सवर्थे, सप्तपञ्चाशत् सिकौ । ततः पञ्चपञ्चाशत्सर्वार्थ, चतुःपञ्चाशत्सिद्धौ । स्वारिंशत्याचें द्वारिंशस I सिद्धौ नवनवतिः । षुत्तरं शतं सर्व्वार्थ, त्रिंशत् सिकौं । एक 1 1 समस नवतिः सर्वास सर्वार्थे, सिकावेकोनत्रिंशं शतम् । ततः पञ्चपञ्चाशत् सञ्चर्थ । स्थापना २६ ३४ ४२ ५५ ३७ ४३ ५५ ४० ७६ १०६ ३१ १०० ६८७५५५ म २१३८०३५४२०२४४२६६३० ११६८९५६ २६ लि एषा द्वितीया गरिमका । श्रस्यां च गण्डिकायामन्त्यमङ्कस्थानं पपद ततस्तूतीय महिकायामिवाम Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंथ (७९३) गंडियाणुरोग अभिधानराजेन्धः। स्थानम् । ततः पञ्चाशत् एकोनत्रिंशद्वारान् स्थाप्यते । ततः गंतिय-गन्तक-न। तृणजेदे, प्रका०१ पद। 15 नास्ति प्रवेपो, द्वितीयादिषु चाङ्केषु क्रमण द्विक गंतुंगत्वा-अध्य० । गमनं कृत्वेत्यर्थे, " गंतुं ताय! पुणो गपञ्चनवकत्रयोदशादयः पूर्वोक्तराशयः क्रमेण प्रक्वेपणीयाः प्र. क्किप्यन्ते । रह चादिममङ्कस्थानं सिकौ, ततस्तेषु प्रवेपणीयेषु | च्छे" तात पुत्र! गत्वा गृहम । सूत्र.११०३०२ उ०।। राशिषु प्रतिप्तेषु सत्सु यद्युत्क्रमण भवति तावन्तस्तावन्तःप्रथ गंतुकाम-गन्तुकाम-त्रि० । गन्तुमनस्के, गन्तुकामो नाम सोमाददारज्य सिद्धी सर्वार्थ इत्येवं क्रमेण वेदितव्याः। पवम ऽभिधीयते यः सदैव गन्तुमना व्यवतिष्ठते, वक्ति च कोऽस्य न्यास्वपि गएिमकासूक्तप्रकारेण भावनीयम् । उक्तं च गुरोः संनिधाने ऽवतिष्ठते ?, समर्थ्य तामेतत् श्रुतस्कन्धादि,ततो "विसमुत्तरा य पढमा, पबमसंस्त्रविसमुत्तरा नेया। यास्यामीति । तदेवंभूतः शिष्यो न योग्यः श्रवणस्य । श्रा०म०प्र० सम्वत्थ वि अतिलं, अन्नाए प्राइमं ठाणं ॥१॥ गंतुपञ्चागइया-गत्वाप्रत्यागतिका-स्त्री० । गत्वा प्रत्यागतं यअनणंतीसं वारा, ठावेउ नत्थि पढमपक्खेवो । स्या मिति । गोचरभूमिभेदे, उपाश्रया.जर्गतः सन् एकस्यां गृसेसे अडवीसाए, सब्वत्थ मुगाइयो क्लेवो ॥२॥ हपती निक्षमाणः केत्रपर्यन्तं गत्वा प्रत्यागउन् पुनर्द्धितीसिवगइपढमादाए, बीयाए तह य होइ सबके। यायां गृहपङ्की यस्यां भिक्कते। स्था०६ ग० । पश्चा० । पं० इय एगंतरियाई, सिवगइसवठाणाई॥३॥ व० । ध०। ग० । वृ०॥ एवमसंखेन्जाओ, चित्तरगंडिया मुणेयव्वा । गंतृण-गत्वा-अव्य० । गम्-क्त्वा "क्त्वस्तूनः" ।। ४।३१२। जाव जिअसत्तुराया, अजियजिणपिया समुप्पनो" ॥४॥ इति पैशाच्यां क्त्वाप्रत्ययस्य तूनादेशः । प्राकृते तु तूणादेशः। तथा अमरत्यादिविविधेषु परिवर्तेषु भवन्तमणेषु, जन्तूना यावेत्यर्थे, प्रा०४ पाद । “गंतूण जणस्स" गत्वा जनस्य सामिति गम्यते । अमरनरतियग्निरयगतिगमनमेवमादिका ग-1 यात्रिकलोकस्य । प्रश्न०३ आश्रद्वार। “कत्थ गंतूण सिक" शिमका बहव श्राख्यायन्ते । (सेत्तं गंडियाणुनोगे) सोऽयं ग-1 क्व गत्वा सिज्झइ ति। औ०। एमकानुयोगः। न०। स०। गंथ-ग्रन्थ-पुं० । अथ्यतेऽनेन अस्मादस्मिन्निति वा अर्थ इति गंमी-गएमी-स्त्रीण सुर्वणकारादीनामधिकरण्यां गण्डिकायाम, ग्रन्थः । ग्रन्थ्यते इति वा ग्रन्थः । श्रुते शास्त्रे. प्रा०म० प्र०। स्था०४०४ उ० कमलमध्यस्थकर्णिकायाम्, उत्त०३६१० श, संदर्भ, श्रा०म०प्र०। रा०1"गंधिजह तेण तो, तम्मि व तो तं मयं गंथो” (१३७३) अथ्यतेऽनेनास्मादस्मिन्वाऽर्थ गंमीतिदुग-गएमीतिन्दुक-पुं० । वाराणस्यां तिन्दुकोद्याने स्व इति तदेव ग्रन्थ उच्यते । अथवा तदेव अथ्यते विरच्यते इति नामख्याते यते, ती० ३८ कल्प। ग्रन्थः । विशे। गंमीपय-गएडीपद-पुं० । गएमीच सुवर्णकाराधिकरणिस्थान ग्रन्थनिकेपःमिव पदं येषां ते गए डीपदाः। हस्त्यादिषु चतुष्पदेषु, प्रका० सचित्ताई गंथो, दवे जावे इमं चेव । १ पद । स्था० । जीवा० । भ०। सूत्र। ग्रन्धद्वारमाह-द्रव्यतो नोश्रागमतो व्यतिरिक्तो अन्धस्त्रिविधः। गमीपोत्थय-गएमीपुस्तक-न० । पुस्तकभेदे, "बाहलपुत्तहि। सचित्तादि, सचित्तोऽचित्तो मिश्रश्च । एष त्रिविधोऽप्युपरि गमीपोत्यो तुबगो दीहो" ०३ १०। बाढल्यं पिएमः, | प्रथमसूत्रे । वक्ष्यते भावे ग्रन्धः, श्दमेव कल्पाध्ययनम् ।। वृ० पृयुत्वम् विस्तारस्ताच्या तुल्यः समानश्चतुरस्रो दीर्घश्च गएडी- १००। अनु०। प्रा० चू। स्था०। विशे० । प्राचा० । प्रपुस्तको झातव्यः, स्था०४ ग०२ उ० । नि००। प्रव० । ध्यते बध्यते कषायवशगेनात्मनोत ग्रन्थः । अथवा गध्नाति श्रावध०। दश। जीत। बन्नाति आत्मानं कर्मणेति ग्रन्थः । उत्त०६अ। बन्धहेगंमीरी-इकुखएडे, दे ना०२ वर्ग । तौ हिरण्यादौ, मिथ्यात्वादी च, स्था०२०१०। सूत्र। परिग्रहे, विशे० । स्था०। सूत्र०। गंमीव-धनुषि,देखना०२ वर्ग।अर्जुनस्यधनुषि, धनुर्मात्रे, वाचा अध ग्रन्थपदं, तस्य च नामादिभेदाच्चतुर्दा निकेपः। तत्र गंदपय-गएमपद-पुं० । स्त्री० । गएमः ग्रन्थयस्तयुतानि पदानि नामस्थापने गतार्थे । व्यग्रन्धस्त्रिधा, सचित्ताऽचित्तमिश्रनेयस्य । किञ्चुलुके, वाचला अदिवृश्चिककर्कटकादौ च,प्राचा० दात् । सचित्तश्चम्पकमा लेत्यादि । अचित्त एकावलिहारादिकः। मिश्रः शुष्कपत्रीमश्रिता प्रशस्तमाला । भावग्रन्थस्तु स उच्यते २ श्रु०१ १०४ उ०। येन केत्रवस्वादिना क्रोधादिना वाऽमी जन्तवः कर्मणा सहागंमूस-गरमूष-पुं० । गमि ऊपन् । मुखपूरणे, मुखान्तर्जबादौ स्मान ग्रन्थयन्ति । तं च नाघ्यकार एव सविस्तरं व्याख्यानयतिचोवाच । गएषोऽपि अभावे दन्तकाष्ठस्य मुखशुद्धवि. सो वि य गंयो दुविहो, बज्झो अन्जितरो अबोधव्यो। धिः पुनः कार्यो, द्वादशगण्डूपैर्जिह्वो ल्लेखस्तु सर्वदेति विधिना कार्य्यः । ध० २ अधिः । सूत्रः । अंतो अचोदसविहो, दसहा पुण बाहिरो गयो ॥१॥ गंमोपहान-गएमोपधान-न० । गल्लमसूरिकायाम, वृ०३ ०।। सोऽपि च भावग्रन्थो द्विविधस्तद्यथा-बाह्योऽज्यन्तरश्च बोद्ध. व्यः । तत्रात्यन्तरो ग्रन्थश्चतुईशविधो वक्ष्यमाणः, बाह्यः पुनर्ग्रगंतव्य-गन्तव्य-त्रि० । यातव्ये "तम्हा ण उ वीसंभो गन्तब्यो" | न्थो दशधा दशप्रकारो वक्ष्यमाण एव । सूत्र० ३ श्रु०४ अ०१ उ०। गंतब्बमवसस्स मे, उत्त०१२ अ०।। यदि नामैवं विविधो ग्रन्थस्ततो निर्ग्रन्ध इति किमुक्तं गंता-गत्वा-अव्यः । गम्-यवाप्रत्ययः। 'प्राप्य' इत्यर्थे, स्था०३ नवति ?, इत्याहनग०२०। सहिरन्नगो संगयो ति, तेण निग्गय अहव निक्खेवो । ain Education International Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६४) गंथ अभिधानराजेन्डः। करिसे अवचियगंथो, पतणुगंथो च निग्गंथो । वाइसति तदू हास्यम् ११॥ प्रियविप्रयोगादिविहनचेतोवृसिराक्रसहिरण्यक श्त्येकग्रहणे तजातीयग्रहणमिति न्यायाद् हिर न्दनादिका यत् करोति स शोकः १२ । सनिमित्तमानिमित्तं वा यद्विति तद्भयम् १३ । यत्पुनरस्नानदन्तपावनम रामलीगयसुवादिबाह्यग्रन्थसहित उपलकणत्वादान्तरग्रन्थ उच्यते। जोजनादिकमपरं मृतकलेवरविवादिकं जुगुप्सते सा जुनास्ति न विद्यते यस्य तयाविधो द्विविधोऽपि ग्रन्धः स निप्रेन्यः । अथवा निग्रन्थ इत्यत्र यो निशब्दः सोऽपकर्षेऽपच गुप्सा ॥ १४ ॥ एष चतुर्दशविधोऽप्याभ्यन्तरप्रन्थ उच्यते । ये वर्तते, ततश्चापचितः प्रतनुकृतो ग्रन्थो बाह्य पात्यन्तरश्च वृ० १२० । उत्त० । " गंथेहिं विचित्तेहि, आउकालस्स पारए " (११)। ग्रन्थैः सबाह्यान्यन्तरैः शरीररागादियेन स निर्ग्रन्थ उच्यते ॥ भिर्विविक्तस्त्यक्तः सद्भिग्रन्धर्वातानङ्गप्रविष्टैः प्राचा०१६०८ ___ अथ ययुक्तं वाह्यो ग्रन्थो दशधेति तद्विवरीषुराह अ०८ उ० । ग्रन्थत्वं हि कर्मबन्धहेतुत्वेन ब्याप्तम, प्रथ्नाति खेत्तं? कत्थंधण३धन-संचयो एमित्तणासंजोगो ६। संबध्नाति जीवः कर्ममलानिति ग्रन्थ इति व्युत्पत्तः। श्रा० म. जाण७सयणासणाणि यदासीदासं च कुवियं च १० ।। द्वि०। यत्र वस्तु-देहा-हार-कनकादौ मूर्गसंपद्यते तनिश्चयतः के धान्यनिष्पत्तिस्थानम् १, वस्तु नूमिगृहादि २, धनं सुव परमार्थतो ग्रन्थः । (वस्त्रपरिभोगेऽपरैः सह 'कप्प' शब्देऽस्मिणादि ३,धान्यं बीजजातिः४, संचयस्तुणकाष्ठादिसंग्रहःयामि नेव भागे २३१ पृष्ठे विचारितम) "सव्वं गथं कलहं च विप्पजत्राणि सुहृदया, ज्ञातयः स्वजनाः, संयोगः श्वशुरकुलसबन्ध इ हे भिक्खू"भिक्षुःसाधुः तथाविधं पूर्वोक्तं कर्मबन्धहेतुं सर्वग्रन्थं ति त्रिभिरप्यक एव ग्रन्थः६।यानानि वाहनानि, शयनासना बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विविधं परिग्रहं विशेषेण परिजह्यात परिनि च पत्यकपीकादीनिक, दास्यश्च दासाश्च दासीदासं ६, कु त्यजेत् । उत्त०८ अ० । “गंथं परिमाय इहज्ज धीरे " ग्रन्थ प्यं चोपस्कररूपं १०, इत्येष दशविधो ग्रन्थः॥ वृ०१ उ०॥ बाह्यान्तभेदभिन्नं झपरिझ्या परिझाय इहाद्यैव कालानतिसम्प्रति चतुर्दशविधमत्यन्तरग्रन्थमाह पातेन धीरः सन् प्रत्याख्यानपरिझया परित्यजेत् । प्राचा०१ श्रु० ३ ०२ उ० । शालकादिसंबन्धेषु, तज्ञार्याऽहित्राकोहे ? माणे माया ३, दिषु, प्रश्न० ४ सम्बद्वार । चतुर्दशे सूत्रकृताङ्गस्याऽध्ययने, लोने ४ पेज ५ तहेव दोसो अ६। स०२३ सम० । सुत्र०। प्रा००। प्रश्न०। ('विणय' मिच्चत्तं ७ व ८ अरइए, शब्दे समस्तमध्ययनं वक्ष्यते) रई १० हास ११ सोगो १२ जय १३ गुंग १४॥ | गंथदिङ-ग्रन्थदृष्ट-त्रि० प्रतिष्ठाकल्पादौ ग्रन्थे दृष्टे,ध०२अधि। क्रोधो मानो माया लोभश्चेति चत्वारः प्रतीताः।। प्रेमशब्देना. | गंथातीत-ग्रन्थातीत-पुं० । निम्रन्थे, सूब०१ श्रु०६ अ०। भिष्वङ्गलक्षणो रागोऽनिधीयते । दोषशब्देन तु अप्रीतिकल- | गंथिम-ग्रन्थिम-न० । 'गहिम' शब्दार्थे । कणो द्वेषः ६ मिथ्यात्वमहत्प्रणीतत्वविपरीताऽवयोधरूपम्, तचद्विविधं वा, त्रिपष्टाधिकशतत्रयभेदं वा, अपरिमितजेदं वा। गंदीणी-चक्षुःस्थगनफ्रीडायाम, दे० ना० २ वर्ग। तत्राऽनाभिग्रहिकं आभिनदिकं चेति द्विविधम, अनाभिग्रहिक गंध-गन्ध-o'गन्ध'श्रदर्शने । गन्ध्यते आघ्रायते इति पृथिव्यादीनाम् । गन्धः। कर्म०६ कर्म। पं० सं०। विशे। जी। प्रा०म०। . आभिग्रहिकं तु पम्धिम् उत्त। अनु । गन्धो घ्राणग्राह्ये पृथिव वृत्तौ, सम्म० ३ कानत्यि न तित्यो न कुरण, कयं भवे एइ नत्यि निव्वाणं । एक । वाच० । दुर्गन्धसुगन्धात्मके गुणे,उत्त०२८ अ० । जी। नत्यि य मोक्खो वाओ, बिहार्मच्चत्तजिग्गहिय ।। श्री० । गन्धो द्वेधा, सुरभिश्च दुरभिध, तत्र सौमुख्यकसु रनिः, वैमुख्यकृद् दुरनिः। साधारणपरिणामोऽस्यष्टो दुर्ग्रह षष्टयधिकशतत्रयविधं पुनरिदम शति संसर्गजत्वादेव नोक्तः। (स्था०) “एगे गंधे" घायते सिंध्यअसियसयं किरियाणं, आकरियवाईण होइ चुनसीई । ते इति गन्धो घ्राणविषयः । स्था० १ ० १ उ० । विशे० प्रा० अपाणी सत्तट्ठी, वेण्इयाणं च बत्तीसा॥ म० प्रज्ञा प्रव। “दविहा गंधा पम्पत्ताातं जड़ा-अत्ता अपरिमितनेदं तु चेव प्रणत्ता चेव, मणामा चेव अमणामा चेव"। स्था०२ ठा० ३० प्राणातिपातादीनां वर्णगन्धादयो 'वाम' आदिशब्दे वक्ष्यजावइया नयवाया, तावश्या चेव होति परसमया। न्ते । (सौधर्मेशानयोर्गन्धोऽन्यत्र)। गन्धेविति, गुणगुणिनोजावइया परसमया, तावइया चेव मिच्छना। रभेदादू मतुब्लोपाद्वा गन्धवत्सु, सूत्र०१ श्रु०६ ० । कोपवमनेकविकल्पमपि सामान्यतो मिथ्यात्वशब्देन गृह्यते,तिस- टपुटपाकादौ, सूत्र० १ ० ३ ० २ उ० । श्रा० म० । तमो नेदः । वेदस्त्रिविधः, पुंस्त्रीनपुंसकनेदात्। तत्र यत् स्त्रियाः दशा० । न । नि० चू० । पटवासादिरूपे, व्य. २ न०। पित्तोदो मधुराभिलाष श्व पुंस्यन्निवापो जायते स स्त्रीवेदः । कर्पूरसम्बन्धिनि, प्रज्ञा० २३ पद । चूर्णविशेषे, प्रश्न० १ यत्पुनः पुंसः श्लेष्मोदयादम्लाभियापवत खियामनिवाषो भव- आध० द्वार । रा० ति स पुवेदः। यनु पएडकम्य पित्तश्लेष्मोदये मजिकाभिलाषव- सुरभिगन्धवर्णकः। तत्र सुरनिगन्धस्वरूपप्रतिपादयन्नाहदुनयोरपि स्त्रीपुंसयोरभिलाषः समुदेति स नपुंसकवेदः । तेसिंणं भंते ! तणाण य मणीण य केरिसये गंधे पसत्ते।। इति त्रयोऽप्येक एव नेदःतथा यदमनोज्ञेषु शब्दादिविषयेषुसंयमे वा जीवस्य चित्तोद्वेगः सा अरतिः । यत्पुनस्नेष्वेव मनो से जहा नामए कोहपुमाण वा पत्तपुमाण वा चोयपुमाण का असयमे वा रमणं सा रतिः १० । यत्तु सनिमित्तमनिमित्तं । वा तगरपुमाण वा एलापुमाण वा हिरमेवपुमाण वा चंद Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६५) अनिधानराजेन्द्रः । गंध मावा माण या उतीरमाण वा चंदयमा कुंकुमपुमाश वा मरुगमा वा दमणगपुमाल वा जातिपुमाण वा जूहियमाण वा मचिया वा हायमनियमाण वा पासंतियमाण वा केलिपपुमाण या कप्पूरपुमाना पामलिनुमान वा अनुवाति उग्निमाणात वा निनिमाण वा कोडिजमाण वा विजमाणाण वा उक्खिरिज्जमाणाण वा विकरिज्जमाणाण वा परिनुक्षमाणा वा मालवा जंग साहरिजमाणाएं उराक्षा ममा पारायणोनिवृचिकरा सम्वतो समंता गंधा - निणिति जयेयाने सिगानो तिण समझे तेसि णं मणीय तो इडतराए चेव० जाव गंधणं पत्ते ॥ सम्प्रति गन्धस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह - ( तेसिं णं मणीणं ताण येत्यादि ) तेषां मणीनां तृणानां च कीदृशो गन्धः प्रज्ञप्तः । भगवानाह - ( से जहा नामए इत्यादि) प्राकृतत्वात् 'से' इति बहुवचनार्थः । ते यथा नाम गन्धाः श्रभिनिःस्रवन्तीति संकोन्यं तस्य पुटाः कोटाः तेषां 'या' शब्दः सर्वत्रापि समुच्चये, श् एकस्य पुटस्य न तादृशो गन्ध श्रायाति द्रव्यस्वल्पत्वात् ततो बहुवचनम् । तगरमपि गन्धद्रव्यम, एलाः प्रतीताः । चोयकं गन्धव्यम् । चम्पक दमनककुङ्कुमचन्दनोशीरमरुकजातियूथिकामलिकास्थानमः काकेतकीपालनमा कावासकर्पूराणि प्रतीतानि नवरमुशीरं वीरमूलं स्नानमलिका खानयोग्य मल्लिकाविशेषः । एतेषामनुकूलवाते आघ्रायकविवहितपुरुषाणामनुकूलवाते वाति, उद्भिद्यमानानामुद्घाट्यमानानांचा सर्वत्रासि निर्मित शयेन निद्यमानानाम् (कोटियमाणा वा ति पुरे परि मितानि यानि कोष्टादिगन्धद्रव्याणि तान्यपि परिमेये परिमाणोपचारात् कोष्ठपुटादीनीत्युच्यन्ते तेषां कुयमानानां दू स्वत्रे कुत्र्यामानानाम् । (उविज्जमाणाण वा इति) ऋणखमी - कियमाणानाम एतच्च विशेषणरुवं कोष्ठादिषयाणामनसेयम् । तेषामेव प्रायः कुट्टतः श्लक्ष्णखण्डीकरणसंभबालू न तु यूधिकानाम् (उक्लिरिज्जमानान वा इति) रिकादिनि कोठादिदानां कादिप्रयाणां वा उत्कीर्यमा णानाम् (विरिवीमायामितस्ततो विकीर्यमाणानाथ ( परिमाणाण या ) परिभोगाय उपभु ज्यमानानाम् । कचित् पाठे "परिनाज्जमाणाण वा " इति । स त्र पारिनाज्यमानानां पार्श्ववर्तिज्यो मनाग् मनाग् दीयमानानाम । ( नंडाच नंमं साहरिजमाणाण वा इति) भाण्डात् स्थानादू एकस्माद् अन्यद् भाएडं भाजनान्तरं संहियमाणानाम् । उदाराः स्फारास्ते वा मनोज्ञा अपि स्युरत आह- मनोज्ञा मनोऽनुप्रास्तच मनोत्वं कुछ स्याह-मनोहरा मनो हरन्ति आत्मवशं नयन्तीति मनोहरा यतस्ततो मनोज्ञाः । मनोद कुत इत्याह-प्राणमनोनित एवंभूताः सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्ततः सामस्त्येन गन्धा अनिनिःस्रबन्ति, जिताभिमुखं निस्सरन्ति । एवमुके शिष्यः पृच्छति( भवे एयारुवे ) इत्यादि प्राग्वत् । जी० ३ प्रतिश दुरभिगन्धवर्णकः घानिदिएण अपाय गंधाणी अमगुणपावकाई, किं ते? गंध अहिमम आसमम स्थिम गोममचिंग गसिपालमयमअहिममासममह सुण मारसीहदी वियमय कुद्दिपविह किमिहुरनिगंधेअ य एवमाश्रमपावन ते समणेणरुसियन्वं । अमृतादीन्येकादश प्रतीतानि न क रंदामृगः द्वीपी चित्रका चाहिमृतकादीनां इन्द्रः द्वितीयायहुवचनं दृश्यम तत आघ्रायेति क्रिया योजनीया । ततस्तेष्विति योगात्तेषु किं विवाह मृतानि जीवविमुकानि कुधितानि कोपतानि निनपूर्वकारविनाशन (किमिण ति) कृमिपति बहुरभिगन्धानि चात्यन्तामनोन्यानि यानि तानि तथा । तेषु अन्येषु चैवमादिकेषु गन्धेषु श्रमनोपपदेषु श्रमणेन रोषितव्यमिति । प्रश्न० । सम्ब० द्वार । ज्ञा० । श्राचा० । सचित दोषा जे भिक्खू सचित्तं पट्ठियं गंधं जिग्घर, जिग्यंतं वा साइज्जइ ।। १० ।। जे भिक्खू पूर्ववत सचित्ते दब्वे जो गंधो सो सचित्तपतिट्टितो, सोय असातिवं जो जियति तर मासतुरं प्राणादिणो य दोसा । दाणि विज्जुती जो गंध जीव, दपि सो तु ढोति सहितो । संबन्धमसंबद्धा व, जिंघणा तस्स दुविधा तु ॥ ११७ ॥ यस मिजो गंध सोस भवति तं पुणो दवं पुष्कफलानि तस्स जिवणा दुबिदा, नासाने संबद्धा वा, नासाग्रेऽसंस्पृष्टा, असंस्पृष्टा दूरे कृत्वा जिघ्रतीत्यर्थः । जिग्धंतस्ल इमे दोसा जो तं संबधं वा, अथवाऽसंबद्ध जिंधते निक्खू । सो आणाणवत्थं मिच्छारा पाये ।। ११८ ॥ जो साहू तं गंधं णासाए संबद्धं वा श्रसंबधं वा जिग्घति सो श्रणाभंगे अणत्रत्थाए य वट्टति, श्रोसि च मिच्छन्तं जणयति, आयसंज्ञमविराणा यवकृति । इमा संजमविराहणा खासामुदस्सिासा, पुष्कजीवन तदस्यिताएं च । आया विसपुष्फे साविषमनहिंतो ।। ११६ ॥ णीससंतस्स णासामुहेसु जो वायू तेण पुष्कजीवस्स संघइणादी भवति तद्ाति म पुण्के वेता अनिकादयः तेषां संपादि संभवति । इम राह णा, आया पच्छद्धं आयविराहणाकया विसपुष्कं भवति तेण मरति (तम्भावित से नाषितं तद्भाषितं प्रत्यनीकादिना श्रमच्चो वा णको तवनक्खितो दितो जहा तेरा वा णक्केण जोगविसनाविता गंधा कता सुबुद्धिमंत्रिवहाय इमागतार्थ । दाणिं श्रववातोवितियपदमणले अपने वा पयागरादी | Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंध (७६६) अभिधानराजेन्द्रः। गंध बाधा हवेज कोयी, विज्जुविदेसा ततो कप्पे ।। १२०॥ (कई णमित्यादि) कति दन्त ! गन्धाङ्गानि, क्वचित् गन्धा अणपज्जो जिंघेजा, अणपजो अजाणमाणो जिंधति अप्प इति पाठः, तत्र पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् 'गन्धाङ्ग इति ज्जो वा जाणमाणो पयागरादिसु त्ति रातो जम्गियव्वं । तत्थ गन्धाकानीति कष्टव्यं, प्राप्तानि?। तथा कति गन्धामशतानि प्रक्षकिंचि परिसं पुष्फफलं जेण जिंघिएण णिहाणए त्ति। श्रादिस. तानि नगवानाह-गौतम! सप्त गन्धाङ्गानि सप्त गन्धाङ्गशतादातो निकालाभे वा निमित्तं जिंघति । वाहीवाकोतिजि नि प्राप्तानि । इह सप्त गन्धाङ्गानि परिस्थूल जातिभेदादमूनिघिपण उवसमति तं विज्जुवदेसा जिंघति । तद्यथा, मुखं त्वक् काष्ठं निर्यासः पत्रं पुष्पं फलं च । तत्र मूलं मुस्तावालकोशीरादि, त्वक् सुवर्णवचीत्वचाप्रभृति, काष्ठं श्मेण विहिणा चन्दनागरुप्रनृति, निर्यासः कर्पूरादि,पत्रं जातिपत्रतमालपत्रादि, अचित्तमसंबधं, पुव्वं जिंघे ततो य संबछ । पुष्पं प्रियहुनागरपुष्पादि, फत्र जातिफलककङ्कोझकैलालवङ्गप्रअचित्तमसंबछ, सञ्चित्तं वेव संबद्धं ।। १२१ ॥ नृति, पते च वर्णमधिकृत्य प्रत्येकं कृष्णादिभेदात् पञ्च पञ्च भेदा इति वर्णपञ्चकेन गुण्यन्ते, जाताः पञ्चत्रिंशत् । गन्धचिअच्चिसे दवे गंधं असंबद्धं नासिकाग्रे (पुव्वं ति) पढमं जिंघति । ततो तं चेव अचित्तं संघरू। ततो सचित्तं संबकं जिंघ न्तायामेते सुरभिगन्धयः एवेत्येकेन गुणिताः, पञ्चत्रिशद जाताः । पञ्चत्रिंशदेव एकेन गुणिताः, तदेव भवतीति न्यायात ति ।। नि० चू०१ उ०। तत्राप्येकैकस्मिन् वर्णनेदे रसपञ्चकं व्यजेदेन विविक्तं जे भिक्खू अचित्तपतिहियं गंधं जिंघति, जिंतं वा प्राप्यते, ति सा पञ्चत्रिंशदू रसपञ्चकेन गुण्यते, जातं पञ्चसाइजइ । ए॥ सप्ततं शतम् । स्पर्शाश्च यद्यप्यष्टौ भवन्ति तथापि गन्धाङ्गेषु जे भिक्स अचित्तं गंधं जिंघतीत्यादि पिजीवे चंदणादिकले यथोक्तरूपेषु प्रशस्या व्यवहारतश्चत्वार एव मृदुमधुशीतोष्णगंधं जिंघति मासाहुं॥ सपास्ततः पञ्चसप्ततं शतम् । स्पर्शचतुष्टयेन गुण्यते. जातानि समशतानि । उक्तं च-मुन्नतयकहनिजास-पत्तपुप्फफसमो य जो गंधो जीवदहे, दब्वमीसो य होति अचित्तो। गंधंगा । वमादुत्तरजेया, गंधंगसया मुणेयन्वा " ॥१॥ संबद्धासंबका य, सिंघणा तस्स णातच्चा ॥३४॥ अस्या व्याख्यानरूपं गाथाध्यमसो तं संबका वा वितीयपदसचिसमसंबद्धम् । एता उजिंघा "मुच्चा सुवमवती, अगरवालो तमानपत्तं च । पढमुहेसो॥ नि० ०२००। तह य पियंगू (जाईफलं च) जाईए गधंगा गुणणाए। अह नंते ! कोहपुमाण वा केतईपुमाण वा अणुवायंसि सत्तसया पंचहि, वरणोहं सुरभिगंधण।। रसपणगेणं तह फा-सेदि यवउहि मेत्तेहिं"। नभिजपाणाण वा जाव ठाणाओहाणं संकामिजमाणाणं "अत्र (जाईए गंधंगा हति)जात्यजात्य देनामूनि गन्धानानि । किं को वाइ० जाव केतई वाति । गोयमा ! णो कोई शेष भावितम्। (कई णमित्यादि) कति नदन्त ! पुष्पजातिकुलवाति जाव णो केतईवाइ, घाणसहगया पोग्गला बाइ ॥ कोटियोनिप्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि ?। भगवानाह-गौतम ! ( अहेत्यादि ) ( कोहपुमाण वसि ) कोएं यः पच्यते षोमश पुष्पजातिकुलकोटियोनिप्रमुख शतसहस्राणि प्रशप्तानि । तद्यथा--चत्वारि जलजानां पनानां जातिलेदेन, तथा चत्वारि धाउसमुदायः स कोष्ट पव,तस्य पुटाः पुटिकाः कोष्टपुटास्तेषां, स्थबजानां कोरिएटकादीनां जातिभेदेन, चत्वारि महागुदिमकायावत्करणादिदं दृश्यम-"पत्तपुडाण वा चोयपुमाण वा तगरपु दीनां जात्यादीनां, चत्वारि महावृताणां मधुकादीनामिति । पुडाण बेत्यादि" तत्र पत्राणि तमानपत्राणि । (चोय ति)। धक, तगरं च गन्धद्रव्यविशेषः। (अणुवायसि ति) अनुकुलो जी०३ प्रति। वातो यत्र देश सोऽनुवातोऽतस्तत्र, यस्माइशाद वायरागच्छति गंधकासाइया-गन्धकाषायिका-स्त्री० । गन्धप्रधानेन कषायण तत्रेत्यर्थः । ( उब्जिज्जमाणाण व ति)प्राबल्येनोर्व वा दार्य- रक्ता शाटिका गन्धकाषायिका । सपा० १० गन्धप्रधानामाणानाम् । इह यावत्करणादिदं दृश्यम्-"निभिजमाणाण वा" | यां कषायरक्तायां शाटिकायाम, भ०१श० ३३००। कल्प० । प्राबल्याजावेनाधो वा दार्यमाणानाम् । “उक्करिज्जमाणाण वा | गंधघाणि-गन्धघ्राणि-खी। घ्राणेन्द्रियस्य पूर्णवृत्तिकरे ग. विकिरिज्जमाणाणाण वा" इत्यादि । प्रतीतार्थाश्चैते शब्दाः। (किं धाव्य, यावद्भिर्गन्धपूजगन्धविषये प्राणिरुपजायते तावतीकोटे वा इति) कोष्टो वाससमुदयो, (वाति) दूरादागच्छत्यागत्य | गन्धपूजलसंहतिरुपचाराद् गन्धघ्राणिरित्युच्यते । रा०। जो०। घ्राणग्राह्यो भवतीति भावः। (घाणसहगय त्ति)घायत इति घ्राणोदय-मान्यायक-न। गन्धरून्यकोदे, "गन्धटपणं नब्वाह गन्धो,गन्धोपनम्नक्रिया वा, तेन सह गताः प्रवृत्ताये पुद्गलास्त ता" स्था०३०१०।। घ्राणसहगताः,गन्धगुणोपेता इत्यर्थः। इति । भ०१६ श०६०। गन्धस्य नाणेन्द्रियग्राह्यस्याऽऽसक्तिः "इंदिय" शब्द दिला गंध-गन्धाढ्य-त्रि० । सन्धगुणसमृो, पञ्चा०३ विधः । भागे ५५६ पृष्ठे उक्ता। कपूरकस्तूरिकादिगन्धैः पूर्णे, वाच० । गंधंग-गन्धा -न। वामकप्रियहुपत्रकदमनकत्वकंदनीशीर-गंधणाम-गन्धनामन्- नगन्यत आघ्रायत इति गन्धस्तद्धेदेवदार्वादिषु गन्धकारणेषु, श्राचा० १ श्रु०१०१०। । तुत्वानामकर्म गन्धनाम । कर्म.१ कर्म । नामकम्मभेदे, । कई णं ते! गंधंगा पन्नता,कई णं भंते ! गंधसया य?।। অঘ শ্বনাম ব্রিখাইगोयमा! सत्त गंधंगा, सत्तगंधसया पन्नत्ता । मरहिरही रसा पण, तित्तकमुकसायअंबिला पहरा । Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७) गंधणाम अनिधानराजेन्द्रः। गंधमाया फासा गुरुमधुमिनखर-सीनएहसिणिद्धरुक्खट्ठा ॥४०॥ पष्मत्ते। गयदंतमंगणसंविए सबरयाणामए अच्छे । जो इह गन्धशब्दः प्रक्रमाजम्यते । ततः सुरभिगन्धोपुरभिगन्धश्च पासिं दोहिं पउपवरवाहि दोहिं अवणसमेहिं सचओ द्वेधा गन्धः । तत्र सौमुख्यकृत्सुरभिगन्धः, यद याज्जन्तुशरीरं समंता संपरिक्खित्ते गंधमायणस्स एं वक्खारपव्ययस्म कर्पूरादिवत् सुरजिगन्धं नवति, तत्सुरभिगन्धनाम । वैमुख्यद दुरभिगन्धः, यदयाजन्तुशरीरं लशुनादिवद पुरभिगन्धं उपि बहुसमरमणिजे मिजागेजाव प्रासयं विसयंति ।। भवति तद् दुरभिगन्धनाम । अत्राप्युभयसंयोगजाः पृथग् नो- (कहिणमित्यादि) भदन्त ! महाविदेहे वर्षे गन्धमादनो ना. क्ताः, एतत्संसर्गजत्वादेव भेदाऽविवक्षणात् । उक्तं द्विधा गन्ध म बक्षसि मध्ये गोप्यं के द्वौ संन्य कुर्वन्तीति वकस्काराः,तनाम ॥ कम्म०१ कर्म । साधा। पं० सं०। गन्धरूपे अ. जातीयोऽयमिति वक्षस्कारपर्वतो गजदन्ताऽपरपर्यायः प्राप्तः ?। थें, से कि तं गंधनामे?, गंधनामे सुविहे पहाते, तं जहा-सुर गौतम ! नीलवन्नाम्नो वर्षधरपर्वतस्य दक्विणनागेन, मन्दरपर्वजिगंधनामे दुरभिगधनामे । सेत्तं गंधनामे । अनु०।। तस्य मेरोरुत्तरपश्चिमायां च, अन्तराल वतिना दिग्विनागेन गंधदब-गन्धद्रव्य-न० । गन्धप्रधाने श्रीखण्डादौ, अत्त० १ वायव्यकोणेनेत्यर्थः । गन्धित्रावत्याः शीतोदोत्तरकृयवर्तिनाऽ. अ.प्रा०म० । नागकेसरे, वाच।। एमविजयस्य पूर्वेण, उत्तरकुरूणां सर्वोत्कृष्टभोगभूमिकेत्रस्य पगंधदेवी-गन्धदेवी-स्त्री० । सौधर्मे कल्पे देवानेदे, सा च पूर्व- श्चिमेन, अनान्तरे महाविदेहे वर्ष गन्धमादनो नाम वकस्कारप. भवे पार्श्वस्वाम्यन्तिके प्रवज्य कालं कृत्वा सौधर्मे कल्पे ग- र्वतः प्रज्ञप्तः। उत्तरदक्षिणयोरायतप्राचीनप्रतीचीनयोः पूर्वपश्चिन्धविमाने देवीत्वेनोपपन्नेति । नि०४ वर्ग। मयोदिशाधिस्तीर्णः त्रिंशयोजनसहस्राणि द्वे च नवोत्तरे योगंधपरिणय-गन्धपरिणत-त्रि० । गन्धतः परिणतः। गन्धभाजि, जनशते पट एकोनविंशतिभागान् योजनस्थायामेन । अत्र य. प्रज्ञा०१ पद। द्यपि वर्षधराद्रिसम्बन्धमूलानां वकस्कारगिरीणां साधिकैकाऽ. एशतद्विचत्वारिंशद्योजनामारणकुरुक्षेत्रान्तर्वर्तिनामेतावानायामो गंधपरिणाम-गन्धपरिणाम-पुं० । अजीवपरिणामभेदे, “गंध न संपद्यते, तथाऽप्येषां चक्रनावपरिणतत्वेन बहुतरक्षेत्राऽव. परिणामे गं भंते ! कतिविहे पत्ते ?, गोयमा ! दुविहे पाते । गाहित्वात् संभवतीति । नीलवर्षधरसमीपे चत्वारि योतं जहा-सुम्भिगंधपरिणामे दुन्निगंधपरिणामे य"॥ प्रज्ञा० जनशतानि ऊर्बोच्चत्वेन, चत्वारि गम्युतशतानि उद्वेधन, पञ्चयोजनातानि विष्कम्नेण, तदनन्तरं मात्रया मात्रया क्रगंधपिसा-देशी-गान्धिके, दे० ना०२ वर्ग। मेण क्रमेणोत्सेधोद्वेधयोरुच्चत्वोच्चत्वपरिवृद्ध्या परिवर्ध. गंधप्पिय-गन्धप्रिय-पुं० । पद्मखण्डनगरराजज्येष्ठपुत्रे ग०२ परिवर्धमानो विष्कम्भपरिहीयमाणः परिहीयमाणो मन्दरपअधिः । श्रा० म० श्राचा । (स चाऽपरमात्रा गन्धेन मारित तस्य मेरोरन्ते समीपे पश्चयोजनशतान्यू!ञ्चत्वेन, पञ्चगइति 'घाणेदिय' शब्दे द्रष्टव्यम्) व्यूतिशतान्युकेधेन, अङ्गलस्यासंख्यनागविष्कम्भेण प्रक... । ग. गंधमंत-गन्धवत-त्रि० । प्रशंसायामतिशायने वा मतुः । प्र-| जदन्तस्य यत संस्थान प्रारम्ने नीञ्चत्वमन्ते उच्चत्वमित्येवं, तेन संस्थितः सर्वात्मना रत्नमयः। श्रीउमास्वातिवाचककृतजम्बूद्वीशस्तगन्धयुक्ते, अतिशयितगन्धयुक्ते च । स्था० ४ ठा०४ उ० ।। पसमासप्रकरणे तु कनकमय इति, शेष प्राग्दत् । अथास्य प्राचासुत्र। मिसौनाग्यमायेदयति-(गंधमायणस्स इत्यादि)गन्धमादनस्य गंधमायण-गन्धमादन-पुं०। गजदन्तकगिरिविशेपे, प्रश्न० २ वस्कारपर्वतस्योपरि बहुसमरमणीयो भूमिनागः प्रज्ञप्तः । संबद्वार। अत्र यावत्पदद्विताब्यादिशिखरतनवर्णकगतं सर्व बोध्यम्। ज०४ गन्धमादनववस्कारगिरिप्रश्नमाह वक० । (कटान्यस्य 'कृ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ६२५ कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे गंधमायणे णामं वक्खारप- | पृष्ठे उक्तानि ) व्यए पाते। गोयमाणीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहि से केएटेणं जंते ! एवं बुच्चइ गंधमायणे वक्खारपन्चए णेणं, मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपञ्चच्चिमेणं,गंधियावइस्स वि गंधमायणे वक्खारपब्वए। गोयमा! गंधमायणस्स एं वक्खाजयस्स पुरच्छिमेणं,उत्तरकुराए पञ्चच्चिमेणं; एत्थ णं महावि रपब्वयस्स गंधे से जहाणामए कोहपुमाण वा० जाव पिसि. देहे वासे गंधमायणे णामं वक्खारपब्बए पामत्ते । उत्तरदाहि | जमाणाणा वा उकिरिजमाणाण वा विकिरिजमाणाण वा पणायए पाईएपमीणवित्थिाले तीसं जोणसहस्साई दणि रिभुजमाणाण वा० जाव उराला मणुमा० जाव गंधा अअ णवुत्तरे जोअणसए उच्च य एगणवीसश्नाए जोअणस्स भिणिस्तति | नये एआरूवे?,णो इणढे समझे, गंधमाय. आयामेणं गीलवंतवासहरपव्ययं । तेणं चत्तारि जोयणस एस्स ए इत्तो इतराए चेव जाय गंधे पत्ते, से एणटेणं याई न उच्च नेणं,चत्तारी गाउअसया उन्हेणं, पंचजो गोअमा! एवं बुच्चा गंधमायणवक्खारपव्वए गंधमायणअणसयाई विक्खंनेणं, तयाणंतरं च णं मायाए वक्वारपच्चए । गंधमायणे अ इत्य देवे महिडीए परिवसइ, मायाए उस्सेउव्वेहपरिमाणे परिवुकमाणे विक्खं- | अनुत्तरं च णं सासए णामधिजे ॥ जपरिहाणीए परिहायमाणे परिहायमाणे मंदरपव्वयं सम्पति नामार्थ पिपृच्चिषुराह-(से केणणामत्यादि) प्रतेणं पंचजोअणसयाई नई उच्चत्तेणं, पंचगाउअस नसूचं सुगमम् । उत्तरसूत्रे गन्धमादनस्य वक्तस्कारपर्वतस्य याइं उन्हेणं, अंगुलस्स असंखिज्जश्नागं पिक्खंभेणं| गन्धः स यथा नाम कोटपुटानां यावत् पदात .तगरपुटादीनां २०० Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७ ) गंधमायण अभिधानराजेन्द्रः। गंधहत्थि [ण] संग्रहः । रिष्यमाणानां वा संचूएर्यमानानां, उत्कीर्यमाणानां वा, 1 भेदे,जं०३ वक्षः। एकविंशतितमे अहोरात्रमहः,ज्यो०२ पाहुए। विकीर्यमाणानां वा, परिजुज्यमानानां वा, यावत् पदादू भा- चप्रकल्पसकुन्थुयक्षे,श्रीकुन्थोर्गन्धर्वयक श्यामवर्णः गडादू भाएडान्तरं वा संहियमाणानाामिति । उदारा मनोशाः, सिंहवाहनश्चतुर्भुजो वरदपाशकान्वितदक्षिणपाणिद्वयो मातुयावत्पदाद् गन्धा शति कर्तृपदम् , अभिनिःस्रवन्ति । एवमुक्ते बिङ्गाऽङ्कशाधिष्ठितवामकरद्वयश्च । प्रव. २६ द्वार० । मृगभेदे शिष्यः पृति-भवेत् तद्रूतो गन्ध इति । जगवानाह-नायम. कस्तूरी मृगे, घोटके, अन्तरानवसत्वे च । वाच । र्थः समर्थः । गन्धमादनस्य इतो भवक्तासन्धादिष्टतरक पत्र । गान्धर्व-ना गन्धर्यैः कृतं गान्धर्वम् । नाट्यादिके,रागगीत्यादिक यावत् करणातू कान्ततरक एवेत्यादि पदग्रहो निगमनवाक्ये,ते नार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-गन्धेन स्वयं माद्यतीव मदयति वा गीतं, पदस्थरताबाऽवधानात्मकं गान्धर्वमिति भरतादिशास्त्रतन्निवासिदेवदेवीनां मनांसीति गन्धमादनः । "बहुलम्" ।५। वचनात् । जं.१ वका आव० । नृत्तयुक्तगीते, विपा० १ श्र० १।। इति वचनात् कर्तर्यनद कृत्प्रत्ययः “घञ्युपसर्गस्य २०। कल्प। ध० । “गंधवण विवाहेण,सयमेव विवाहिबहुलम् । ३।२ । ७६ । इत्यत्र बहुलाधिकारादतिशायनादिव या" प्रा० म०प्र०ा स्था। दू मकाराकारस्य दीर्घत्वमिति । गन्धमादननामा चात्र देवो गंधव्वकंठ-गन्धर्वकाठ-न । गन्धर्वकाठप्रमाणे रत्नविशेषे, रा० । महर्डिकः परिवसति, तेन तद्योगादितिनाम । अन्यत् सर्व गंधवगाण-गन्धर्वगण-पुं० । गन्धर्वसमुदाये, जी0 ३ प्रति। प्राग्वत् । ०४ वक्व० । 'दो गंधमायणा' स्था० २ ० ३ गंधवघरग-गन्धर्वगृहक-न० । गीतनृत्याच्यासयोग्यषु गृहकेषु, उ० । स०। जं०१ वत० । रा०। जी। गधमायणकूम-गुन्धमादनकूट-न। गन्धमादनस्य तृतीये कूटे, | गंधवणागदत्त-गान्धबनागदत्त-पुं० । गान्धर्वप्रिये नागदत्त. जं.४ वक्षः । कुमारे, श्राव. ४ अ०। ("पमिक्कम" शब्देऽस्य कथा अव्या) गंधनया-देशी-नासायाम. दे० ना २ वर्ग । गंधव्वणिकाय-गन्धर्व निकाय-पुं० । गन्धर्वाणां व्यन्तराष्ट्रगंधर्वई-गन्धवती-स्त्री० । भूतानन्दावासस्थाने, “धरणस्स ना मभेदचूतानां निकायो वर्गों येषां ते गन्धर्वनिकायाः। गन्धगरनो, सुहबतिपरियार दक्खिणे पासे । गन्धवपरियाओ, र्वेषु, और। भूयाणदस्स उत्तरओ" ॥२२॥ द्वी। गंधवनगर-गन्धर्वनगर-न। सुरसमप्रासादोपशोभितनगरागंधवट्टय-गन्धवर्तक-न० । गन्धयुक्तोद्वर्तनचर्णे, यकि, “ गन्ध ऽऽकारतया दृश्यमानेऽर्थे, अनु । गन्धर्वनगरं नाम यश्चक्रव दिनगरस्योत्पातसूचनाय सन्यासमये तस्य नगरस्योपरि व्याणामुपलकोष्टादीनां यद्वर्तिचूर्ण गोधूमचूर्ण वा गन्धयुक्तं द्वितीयं नगरं प्राकाराट्टालादिसंस्थितं दृश्यते । प्रव० १६८ तत्" । उपा० १ अ.। द्वार।व्य०। गंधवाहि-गन्धवर्ति-स्त्री० । गन्धप्रयाणां गन्धयुक्तशास्त्रोद्देशेन "कपिसं सस्यघाताय, माजिष्ठं हरणं गवाम् । निर्वर्तितगुटिकायाम, स.। कस्तूरिकागुटिकायाम, झा० १ अव्यक्तवर्ण कुरुते, बलकोभं न संशयः ॥१॥ श्रु०१.. गन्धर्वनगर स्निग्धं, सप्राकारं सतोरणम् । गंधवहिनूय-गंधवर्ति नूत-त्रि० गन्धवर्तिभूतं सौरज्याऽतिश सौम्यां दिशं समाश्रित्य, राइस्तद्विजयंकरम् ॥ २॥ स्था०० ठा०॥ यात् । गन्धद्रव्यगुटिकाकल्पे, गाजीप्रझाला सा भ० । झा कल्प। गंधवमलप्पविनत्ति-गन्धर्वमा मलप्रविनक्ति-न० । गन्ध. मामलाऽऽत्यभिनयात्मके नाट्यभेदे, रा। गंधवर-गन्धवर-पुं० न० । प्रधानचूर्णे, ज्ञा० १ श्रु०१ अ० । गन्धप्रधाने चूर्णे, पञ्चा० ४ विव। गंधव्यसंघाम-गन्धर्वसङ्कट-पुं० । गन्धर्वयुग्मे, जं० १ वक्षः। गंधवाइकूम-गन्धपातिकूट-न । अष्टमे शिखरिवर्षधरपर्वतस्य | गंधवसाला-गन्धर्वशासा-स्त्री०। गानशामायाम, व्य०१०७०। कूटे, स्था०२ ग० ३३०। गंधवाणीय-गन्धर्वानीक-न० । गायनसम्हे, स्था ७ ठा। गंधवाय-गन्धवाद-पुं० । द्वासप्ततिकलानेदे, कल्प० ७ कण, नाट्यानीके, रा०। गंधवास-गन्धवर्प--पुं० । गन्धव्यवृष्टी, " पगं मई मयवासं | गंधविय-गान्धर्षिक-त्रि गन्धर्वे कुशलः, क । सङ्गीतच गंधवासं" श्राचा० ३ चू० । कुशले, वाच । प्रत्युत्पन्नविनाशिझाततायां गान्धधिकाऽsगंधविहि-गन्धविधि-पुं० । कोष्टपुटपाकादीनां गन्धानां प्रकारे, ख्यानं तत्रैव । स्या० ४ ठा० ३ उ० । दश। वृ० १ ०। गंधसमिद्ध-गन्धसमृद्ध-न० । गन्धिलावतीविजये गन्धारजगंधव-गन्धर्व-पुं०। देवगायने, उत्त०१०ा व्यन्तराऽटमजेदे, नपदप्रधाननगरे, प्रा० म०प्र० । श्रा० चू। औ०। स्था। भ01 उत्तः । सूत्र० स० । गन्धर्वा द्वादशविधा. गंधसानि-गन्धशालि-पुं०। गन्धप्रधानः शालिः । भामोदवस्तद्यथा-हाहा १ हह २तुम्वुरवः ३ नारदाः ४ ऋषिवादिकाः५।। ति धान्यभेदे, वासमतीप्रसिझे सुगन्धके शालौ, वाचः । भूतवादिकाः ६ कादम्बाः ७ महाकादम्बाः ८ रवताः विश्वा "तेहिं गन्धसालि श्रवहरई" प्रा० म. द्वि०। बसवः १० गीतरतयः ११ गीतयशसः १२ प्रज्ञा० २ पद ।। गधहात्य गंधहत्थि[ए]-गन्धहस्तिन्-पुं० । मदगलहस्तिनि, “त('द' श्रादिशब्देष्वेगामिन्द्रादयः) मनुष्यगायने राज्ञां श्रेणि- हेव पवित्थरितो सेयणतो गंधहत्थी" प्रा०म० द्वि०। स्व Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंधहत्थि [] नामया भावार्थ आह मन्त्री-मादयः समधिगंधिलाई गन्धिकूट गताया एव दर्शनलब्धेरुपपाते वर्त्तन्ते । कर्म्म० ६ कर्म० । स महानाचार्यः, श्राचाराङ्गादिषु पूर्वे तस्य वृत्तय आसन्, ततः शालाङ्गाचार्येण वृत्तिः कृता । तथा द्वारा च श्राचाराङ्गव्याख्योपक्रमे शीलाङ्गाचार्य एव " शस्त्रपरिज्ञाविवरण मतिगहनं च गन्धदस्तिकृतम् । तस्मात् सुखबोधार्थ, गह्राम्यहमञ्जसा सार 35 म् ॥१॥ आचा० १ ० १ ० १ उ० । (ouu) अनिधानराजेन्द्रः । गंधहारगगन्पहारक-पुं० प्रश्न० १ आश्र० द्वार। प्रज्ञा० । गंधार - गान्धार -- पुं०।" वायुः समुत्थितो नाने, कएवशीर्षसमाहतः। नानागन्धायहः पुष्यो गान्धारस्तेन हेतुना ॥१॥” इति। तृतीये स्वरे, स्था० ७ ० । अनु० । अपरविदेहे गन्धलायतीगन्धमादनवज्ञस्कारगिरिवरा सप्रयेत पर्वते स्वगाम ख्याते जनपदे, श्रा० चू० १ श्र० । श्रा० म० । ' खन्धार' इति स्याते भरत क्षेत्रीये जनपद मेवे, “इतोय गंधारवर सुपुरिसपुरं नरं, तत्थ नग्गई राया " आचू० ४ श्र० । ० । उत्त० । वैताढ्ये पर्वते दक्षिणविद्याधरश्रेण्यां स्वनामख्याते निकाये, कल्प० ७ ॠण | श्री वीरप्रतिमार्चनाऽऽगते नीरोगीभूते स्वनामख्याते श्रावके, कल्प० ६ क्षण । आ० म० । संघा० । गंधारराव गन्धारराज पुं० गन्धारजनराजे नम्मजिति जो तुमणारा सो मंजरीरिक रिद्धि समुपेडिया, गंधार व समय धम्मं ॥ १८ ॥ आव० ४ श्र० । नि० चू० । श्रा० क० । गंधारी गान्धारी-श्री सा बारिनेमेरसिके सिका दशासु पञ्चमे वर्गे तृतीयेऽध्ययने सूचितम् । अन्त० ॥ वर्ग । गन्धारदेशोत्पन्नायां कृष्णाग्रमहिष्याम, अन्त ५ वर्ग । स्था० । श्रा० क० । श्रीमिजिनस्य शासनदेव्याम, श्रीनेमिजिनस्य गान्धारी देवी व हंसाना चतुजा वरदकिरद्वया बीजपूरककुन्तकलित वामकरया च | प्रब० २७ द्वार | महाविद्याभेदे, आ० चू० । कल्प० । गंधावर - गन्धापातिन् - पुं० । हरिवर्षे वृत्तवैताख्य पर्वते, स्था० ४ वा० उ० । " गंधाववासी अरुणा देवी " स्था० २ ठा० ३ उ० (वृतापर्यंते 'रम्मग' शब्दे व्याख्या गंधाचासि [ ए ] गन्तवासियावतीन देवे, ' दो गंधावश्वास) अरुणादेवा' स्था० २ ठा० ३ ० । गंधियाना-गन्धिकशाला बी० गन्धप्रधानशालायाम्, ग. न्धिकशाला शौकिकशाला अन्याऽपि च एवमादिका गन्धप्रधाना सा गन्धिकशालेत्युच्यते । व्य० ६ उ० । गंधित गम्पिल० मन्दरस्य पश्चिमे शीतोदया उत्तरे - वर्तविजय क्षेत्रयुगले, " दो गंधिला 33 स्था० २ ० ३ उ० । "गंधिले विजये श्रवज्झा रायहाणी देवे वक्खारपत्रए " । गन्धिले विजयेऽवध्या राजधानी देवो वकस्कारः । जं० - जातीने तेषां देशे च ४ वक्ष० । गंधिलाई गन्धवती श्री० मन्दरस्य पश्चिमेन शीतोदा या महानद्या उत्तरेऽष्टानामन्तिमे चक्रवर्तिविजये, स्था० ८० । गन्धिलाच विजय अनुज्या रायहाणी " गन्धिनावलीविज राजधानी जं०] [४] वह दो गंधिला 66 स्था० २ ठा० ३ उ० । गंभीरपयत्थ भण्यिमग्ग मास्कार र्वतस्य तृतीये कूटे, जं० ४ वक० । स्था० । गन्धिलावती दीर्घवैताढ्य पर्वतस्याऽष्टमे कूटे च । स्था० ६ ठा० । गंयोदय गन्धोदकन० श्रीखण्डादिरसमिले जो प्र० । - । जले, कल्प० । शा० । सुगन्धवारिणि, कल्प० ३ क्षण । गंधोदगदाण- गन्धोदकदान- न० । सुरभिजलवर्षणे, पञ्चा० २ विव० । ― गंधोदगदाणा गन्धोदकदानादित्रियोन्मिश्रज लप्रभृतौ पञ्चा०८ विव० । गंगोदगपुप्फवृद्धि गन्धोदकपुष्पवृष्टि स्त्री० सीर्थकरदानसमये जायमाने चतुर्थे दिव्ये, कल्प० ७ क्षण० । " गंप्पि - गत्वा - अव्य० । गम- क्त्वा । “ एप्प्येपिएवेन्येविण्वः । ८ । ४ । ४४० । इति अपभ्रंशे क्त्वाप्रत्ययस्य पप्पिरादेशः । ततो गमेरेपिविण्योरेर्लुग्वा " । । ४ । ४४२ । इति एपि प्रत्ययस्यैकारस्य लोपः । गमनं कृत्वेत्यर्थे, “ गंपिष्णु वाणारसिहि, नर अह उज्जेणिहिं गंप्पि | मुश्रा परावहिं परम-पड दिव्वं तरि म जम्पि " || प्रा० ४ पाद | गंपिगु-गस्यापि शब्दार्थे । गंभीर गम्भीर नस्ता जी०३ प्रति० ॥ श्र० गम्भीरं नाम भवादिति शेषजनेन च प्रायेणाणीयमध्यभागं स्थानं भीमस्तापमितिनात् ०१ ब० । झा०] । रोषतोषाद्यवस्थायामप्य लब्धमध्ये, ध० ३ श्रधि० । रा० । जितेन्द्रिये, दर्श० । रा० । अतुच्छस्वभावे, प्रब० ६४द्वार | ग० ! व्य० | स्था । सूक्ष्ममतिविषयभावाभिधायिनि, षो० ६ विव० | दैन्यादिवत्वेऽपि कारणवशात् संवृताऽऽकारतया महति, स्था० ४ ठा० ४ उ० । झा० रा० । प्रति० । गम्भीरो नाम संपतीनां पुरुषायाचरणं राऽपि विपरिणाम याति । वृ० १० । अलक्ष्यमाणहर्षदैन्यादिभावे, पञ्चा० ११ विव। अदर्शितरोषतोषशोकादिविकारे, स० । विपुलचित्ते, पं० ०१ द्वारा । खेदसदे, श्राचा० १ ० १ ० १ ० प्रकाशे, दश० ५ ० १ ० । मेघशब्दवद् अतुच्छे स्वरे, झा० १ ० १६ श्र० । गम्भीरो नाम यतः प्रतिशब्द उत्तिष्ठते । वृ० १उ० । एकत्रिंशतमे ऋषभदेवनन्दने, कल्प०७ क्षण । जम्बीरे, पद्मे च । वाच० । गंजीरतर- गम्भीरतर- त्रि० । गन्तुमत्यन्तमलब्धमध्ये, जीवा० १ श्रधि। गम्भीरतरो मधुरः शब्दो यस्याः सा तथा । श्रा०म०प्र० गंजीरदरिस णिज्ज-गम्नीरदर्शनीय त्रि० अलक्ष्यमाणाऽन्तर्वृसित्वेन दृश्यमानेषु स० । गंभीरदेसणा- गम्भीरदेशना स्त्री० सूक्ष्मदेशनायाम्, परिणते गायाः पूर्वदेशनापेक्षा त्यसमाया धारमास्तिस्वंमोहादिकाया देशनाचा योगो व्यापारा कार्यः । मुक्तः पूर्व साधारणगुणप्रशंसादिरनेकधोपदेशः प्रोक र स यदा तदावारककम्मा सातिशयादङ्गाङ्गभावलक्षणं परिणाममुपगतो जवति, तदा जीर्णे भोजनमिव गम्भीरदेशनायामसी देशनाऽवतायत इति अि गंभीरपयरयभागमा गम्भीरपदार्थजतिमार्ग पुं० ब न्धमोकस्वतत्त्वलङ्कणे वचनपथे, पं० व०४ द्वार 39 Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) गंनीरपयत्थविरइय अभिधानराजेन्द्रः। गच्च गंजीरपयत्थविरश्य-गम्भीरपदार्थविरचित-त्रि० । गम्भीररे- | णि येषां ते गगनतबानुमिखच्छिखराः । जी०३ प्रति। रा० । तुच्छैः पदार्थानां शब्दानामधैरनिधेयैर्विरचितानि दृब्धानि स०। सू० प्र० । गम्भीरपदार्थविरचितानि । महार्थेषु, "सारा पुण थुई थोत्ता, गगणवदह-गगनवन-न० । वैतालये नगे उत्तरशोण्यां नगंभीरपयत्थविरश्या जे न," पञ्चा० ७ विक। मिविनमिभ्यां निवासित नगरभेदे. कल्प० ७ क्षण। गंभीरपोयपट्टण--गम्जीपोतपट्टन-न । समुद्रतटस्थे पोताव- गग्ग-गर्ग-पुं० । गौतमगोत्रविशेषभूतपुरुषे, स्था० ७ ठा। स लगनस्थाने ग्रामे, "जेणेव गंम्भीरपोय पट्टणे तेणेव जवाग- च नरद्वाजगोत्र इति स्मृतिः । तस्य गोत्रापत्यं गर्ग-यत्-गाचति" ज्ञा० १ श्रु० १७ अा। यः । तमोत्रापत्ये, पुंछा स्त्री० । वाच० । स्वनामख्याते मुनौ, गंजीरमझ--गम्भीरमध्य-त्रि । गम्भीरं मध्यं यस्य स गम्भी- "धेरै गणहरे गग्गे मुणी प्रासं।" गायों नाम गर्गगोत्रो. रमध्यः । अप्राप्तमध्ये भवार्णवे, अष्ट२२२ अष्ट । त्पन्नवाद गाग्यः । उत्त० २६ श्र० । (तस्य कशिप्यत्यागः 'खलुक' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ७२५ पृटे इष्टव्यः ) गं नीरमानिणी-गम्नीरमानिनी-स्त्री० । गम्भीरं जलं मलते प्रश्न:-गर्माचार्यत्यक्तपञ्चशतसाधूनां साधुत्यं सम्नाव्यते नवा? धारयतीति गम्भीरमासिनी । महाविदेहे सुवल्गुविजयेऽन्त स्वेच्छाचारित्यात् । उत्तरम-गर्गाचार्यत्यक्तशिप्याणां व्यवनदीमेदे, जं०४ वक० । स्था० । 'दो गम्भीरमा त्रिणीउ ' हारतः साधुत्वेऽपि परमार्थतः साधुन्याऽभाव एव संभास्था०२ ग० ३ उ०। व्यते । ही०५ प्रका० । पाशककबलि कमविपाकनामो ग्रेगं नीररोमहरिस-गम्जीररोमहर्ष-त्रि० । गम्भीरोऽतीवोत्कटो | न्धयोः कर्तरि स्वनामख्याते आचार्य, स च विक्रमसंवत् रोमोकों जयवशाद् येन्यस्ते गम्भीररोमहर्षाः। दृष्टिभयान- ६६२ वर्षे आसीत् । जै०६०। युन्यपत्ये फक-गाग्यायणः । केषु, यद्दर्शनमात्रे जन्तूनां जयसम्पादनेन मात्रार्गलरोमहर्ष- | यूनि तमात्रापत्ये, पुं० । स्त्री० । बहुपु यत्रो लुग अस्त्रियाम् । मुत्पादयन्तीति । जी० ३ प्रति०।। कुणिरोगाक्रान्ते मुनिन्नेदे, वाच । गंभीरस्रोमहरिमजणण-गम्भीररोमहर्पजनन-त्रि० । गम्नी- गग्गर-गाद-न । " संख्यागादे रः" । ७।११ २१६ इति रश्चासौ नीपणत्वानोमहर्षजननश्चेति गम्भीररोमहर्पजननः । दस्य र !" गग्गरं" प्रा०पाद ॥ जीपणे रोमहर्पजनने, भ.६ श०५ उ० । गर्गर-पुं० । स्त्री० । गर्गेति शब्दं गति । रा-क । गृ-वा गरन् । गंभीरविजय-गम्भीरविजय-पुं० । गम्भीरमप्रकाशं विजय | तरुणपशी. दधिमन्थननाण्डे च । वाच। आश्रयः । अप्रकाशाश्रये, "गंभीरविजया एए, पाणा दुष्पमिले-गग्गरी-गगरी-स्त्री० । गर्गर-अप्पार्थे ङीपू । स्वल्पघटे, वाचा हणा" (५६) दश०६अ। यावता वृष्टेनाकाशबिन्दुर्मिहती गर्गर। भूयते । विशेष अनु। गंभीरसहत्त-गम्भीरशब्दत्व-न० । मेघस्येव शब्दनत्वे चतु. | गच्च-गच्छ-पुं० समुदाये,प्रा०म०प्र०ा अनु०। एकाचार्यपरिथें सत्यवचनाऽतिशये, और। वारे, औ० । जीवा० । एकाचार्यप्रणेयसाधुसमुदाये, पञ्चा०१८ गंभीरा-गम्जीरा-स्त्रीाग्लानसाधु प्रति जागरणयोग्यायां सा विवाध० गच्चमानम्-तिगमाइया गच्छा, सहस्सयत्तीसई उ सभेण ।त्रिकादयंत्रिचतुःप्रतिपुरुषपरिमाणा गच्चा जवेयुः । च्याम, " काउंन उत्तणेइ" गम्भीरा या यावृत्यं कृत्वा न किमुक्तं जवति ?, पकस्मिन् गच्छे जघन्य तस्त्रयो जना भवउत्तणेइ, गर्वबुद्ध्या न प्रकाशयति सा । व्य: ५ उ० । चतुरिन्द्रियदे, प्रज्ञा १ पद । जी। न्ति, गच्छस्य साधुसमुदायरूपत्वात्तस्य च त्रयाणामधस्ता दभावादिति । तत ऊर्च ये चतुःपश्चप्रभृतिपुरुपसंख्याका गच्चागंजीराहरण-गम्नीरोदाहरण-ना महापुरुषगतेऽनुच्चज्ञाने, | स्ते मध्यमपरिमाणतः प्रतिपत्तव्यास्तावद्याबस्कृष्ट परिमाण पश्चाईविव०। न प्राप्नोति । किं पुनस्तद्, इति चेदत आह-(सहस्स बत्तीसगंभीरिम-गाम्नार्य-नापरैर अब्धमध्यो गम्भीरस्तद्भावो गा. ई उसनेण त्ति) द्वात्रिंशत्सहस्राएयेकस्मिन् गच्चे उत्कृष्ट साम्नीर्यम् । षो०४ विव० । अल्पशेमुष्याऽज्ञातमध्यत्वे, जीवा० धूनां परिमाणं, यथा श्रीषनस्वामिप्रथमगणधरस्य जगवत ३ अधि०। ऋषनसेनस्यति । वृ. ११० । व्यः । गगण-गगन-न० । अम्बरे, चं०प्र० १८ पाह० । आकाशे, अथ गच्छाचारोक्तगच्छविधिरभिधीयतेउत्त. २६ अ० । रा० । “ गगणमिव निरालंबो " | नमिकण महावीरं, तिअसिंदनमंसिधे महानागं । स्था०९ठा० । गच्छायारं किंची, नकरिमो सुयसमुद्दाओ॥१॥ ग। गगणतन-गगनतल-न । अम्बरतले, रा । चं० प्र० । जी।। इह हि साधुना इहपरलोकहितार्थ सदाचारगच्छसंबासो कल्प० ।स।" गगणतलविमविपुजगमणगश्चकनचनियम- विधेयोऽसदाचारगच्चसंवासन परिहार्यः, क्रमेण परमशुणप्यवएजइणसिग्घवेगा" गगनतले विमले विपले च या भाशुजफलत्वात् । तत्रापि अपरिकार्मितप्रदेशं चित्रकरणमिव, मनं तस्य सम्बन्धी शीघ्रवेग इति सम्बन्धः । गतिश्चपला स्व-1 सच्छिष्प्रवहणं समुद्रतरणमिव, अपरिवर्जिताऽपथ्यं तथ्यौरूपत पव यस्य तातिचपलं, तच्च तच्चलितं च गन्तुं प्र. षधकरणमिव, अव्याकरणाध्ययनमन्यशास्त्राऽध्ययनमिव, अप. वृत्तं तद्विधं यन्मनः पवनश्च तयोर्जयनशीलोऽत एव शीघ्रो। रिबद्धपी भित्तिचयनमिव.सघलीक लिम्पनमिव,अनम्भःसई वेगो येषां ते तथा । औ० । आकाशतले, नाश. ३३ उ०।। कमलरोपणमिव, अलोचनं मुखमरामनमिव. अन्तद्धं च श्रपकल्प० । गगनतलमम्बरमनुनिखान्ति अजिबडयन्ति शिखरा- रित्यकोन्मार्गगामिगच्छसहं सदाचारगच्चसंबलनांमत्युन्मार्ग Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०१ ) निधानराजेन्द्रः । गच्छ गामिङ्गतिं परित्यज्यैव सन्मार्गगामिनि गच्छे संवसनीयमितिज्ञापनार्थ प्रथममुन्मार्गमा मगध्पा परमापाय फलं दर्शयति प्रत्येगे गोयमा ! पाणी, जे उम्मग्गपट्टिए । गच्छम् संवसिता भई जवपरंपरं ॥ २ ॥ हे गौतम! केवन प्राणिनः सा ये उम्मायलिि उन्मार्गगामिनि गच्छे संवस्य संवासं कृत्वा, 'णं' इति वाक्या लङ्कारे, भवपरम्परां संसारपारपाटी भ्रमन्ति । अत्र वचनव्यत्यो दीर्घत्वं च प्राकृतत्वात् । एवमग्रेऽपि तत्र तत्र वचनादिव्यवयस्यत्व मिलोपादि प्राकृतस्यादि मपि स्वयमभ्यूह्यम् । असत्सङ्गो हि सतोऽपि शीलस्य विलयेन पातहेतुरेव । उच्यते चान्यत्रापि - "यदि सत्सङ्गनिरतो, जविष्यनिविष्यसि। श्रथाऽसज्जनगोष्ठीषु, पतिष्यसि पतिष्यसि ॥ १ ॥ रह "आयेंगे गोषमा ! पाणी" इत्यादि संगीतमामन्त्रणम हावीरनिवाक्योपलम्भाद हे मत! किंग्स के प्रा जिनः, ये उम्मार्गगामिनि गच्छे संवस्य भवपरम्परां भ्रमन्तीत्यादिरूपं यथासंभवि सनगवदामन्त्रण श्रीगौतमप्रश्नवाक्यमनुक्तमपि ज्ञेयम; प्रश्नमन्तरेण निर्वचनस्य प्रायोऽसंभवात् । एवमुत्तरत्रापि तत्र तत्र प्रश्नवाक्यं यथासंभवि स्वयमेव वाच्यमिति । (ग०) सदाचारलक्षणो गच्छः । अथ गाथात्रयेण सदाचारगच्छ संवास गुणानाहजावक-जाम दिया पक्खं मासं संपच्चरं पिया। सम्मग्गपछि गच्छे, संवसमाणस्स गोषमा ! ॥ ३ ॥ लीलाझमाणस्स, निरुच्छाहस बीमणं । पक्व सि, महाणुभागाण साहूणं ॥ ४ ॥ उज्जयं सव्वथामे, घोरवीरतवाइयं । के कम्प, तस्य विरियं समुच्छते ॥ ५ ॥ यामातुपा प्रहरं, दिनमदोरात्रम Sपि विनक्तिलोपः प्राकृतत्वात् । समाहारद्वन्द्वो वा चतुण पदानाम पञ्चदशदिनात्मक मापात्संवत्स द्वादशमासात्मकम् अपिशब्दाद्वर्षद्वयादिकं यावत् । वाराब्दो विकल्पार्थः । सम्मार्गस्थिते प्राप्तोकमार्गप्रवृत्ते गच्छे गये संवतो निवासं कुर्वाणस्य जन्तोरिति शेषः, हे गीतम क थंभूतस्य, लीलया अलसायमानस्य, अनल सोडलसो भवतीति अनसायते, अन सायते इति अलसायमानः, तस्य । चत्र “डाच् मोदिताः पितृ/४:३० (०) सूत्रेण प्राकृति गणत्वात् व्यर्थे क्यय् प्रत्ययः । निरुत्साढस्य निरुद्यमस्य (बीमणं तिष्ठ्यर्थे द्वितीया विमनस्कपशुपतिप पश्यतः अन्येषां महामु नागानां महाप्रभावाणां साधूनाम उद्यममनाम्नस्यं सर्वस्थासु सर्वक्रियासु कथं तमम् पोरा पोरं दारुणम पसर दुर ( वीर शि) वीरे भवं वैरं वीरैः साध्यमानत्वात् एवंविधं तप आहियंत्र तम आदिशन्दायादिकम् जिनके संशयरूपाम, अतिक्रम्य परित्यज्य स्थितस्येति शेषः । तस्य सुशीलत्वादिदोषयुक्तस्वापि वा प्रधानधर्मानुष्ठान सारूपं सोऽपि किम कमार्गक्रियां कुर्यादित्यर्थः, पष्ठाङ्गोशेल काचार्यवदिति । त्रीएयपि विषमाक्षराणीति गाथाच्छन्दांसि । ग० १ अधि० । २०१ गच्छ गच्छस्याऽगच्छत्वं यथा स्यात्तथाऽऽह जति जत्थ धगधग धगस्स गुरुणा वि चोड़ए सीसा । रागदो से विणु-सरण तं गोयम ! न गच्छ्रं ॥ ५० ॥ प्रज्वलन्ति अग्निवद् यत्र गच्छे ( धगधगधगस्स ति ) अनुकर शब्दोऽयं धगवगिति, धगधगायमानं यथा स्यात्तथेत्यर्थः । प्राकृतत्वाच्चैवं प्रयोगः । गुरुणाऽऽचार्येण, अपिशब्दादुपाध्यायादिनाऽपि च स ) नपादयामयुतमेत दित्यादिना प्रकारेण नोंदिते सति । के ?, शिष्या श्रन्तेवासिनः, के प्रति रागद्वेषेण प्रत्र समाहारद्वन्द्वादेकवचनम् । तथाऽनुशयेनापि 'हा कथं गिरतरातिदुःसहःसन्तापाया कुलीकृतान्तःकरण प्रत्रज्योररीकृता मया ' इत्यादिपश्चात्तापकरणेन चेत्यर्थः । अपिशब्दा शब्दार्थे यद्वा राम किंभूतेन ?, (विअणुसपण ति ) विगतोऽनुशयः पश्चात्तापो यत्र सद्यनुशयं, रोग पश्चातापरहितेनेत्यर्थः । गीतम गच्छो न भवतीति । ग० २ अधि० । उम्मग्गपट्ठियं गच्छं, जे वासे लिंगजीवा णं ॥ से णं निश्विग्यमकिलि सामंत | भेज्जा ते सिया भावे, मोक्खे दूरयरंतिए || (महा० ) ( अत्थेगे गोयमेत्यादिगाथास्तु गच्छावारपाठेन गतार्थाः ) वीरिणं तु जीवस्स, समुच्छलिए गोयमा ! ॥ जम्मंतर कर पाये, पाणी मुनेश निदद्दे । तुम्हा निणं निजामेलं गच्छे संमापट्टियं ॥ निवसेज तत्य आमम्मे, गोयमा ! संजए मुखी । से जय ! कयरे से गच्छे जेणं वा । एवं तु गच्छ स पुच्छा० जाव णं वयासी । गोयमा ! जत्थ णं समसत्तुमितपरैके चतसृनिम्मन विसुंद्धतकरणे प्रसायणाचीरू सपरोवयारमन्नुज्जर अचंतं बज्जीवनिकायवच्छझे सव्याविध्यमुके अर्थमप्यवादी सविसेसवितिय समयसमजावे के सम्वत्य अणिगृहिवबलवीरिपुरिसकारपरमे एतेषं संगई कप्पपारंजोगरिए एगते धम्मंतरावजी एवंवेणं ततरुई एगंलेणं इस्विका भत्तका तेएकढा रायकड़ा जणवयकहा परिजायारकहा एवं विभि विष महारस बचीसं विचिचसयमेषसम्वविगहा विष्पमुळे एते महासचीए द्वारसए सीसंग सहस्साणं राहगे सयलमहन्निसा समयमगिनाए जहोवइयमग्गपरूत्र ए बहुगुण कलिए मग्गट्टिए मक्ख लियसीसंगमहासत्ते महाणुजागे नाणदंसणचरणगुणोत्रवेए गाणी | महा० एन० । गच्छे बड़ी निर्जरा स्यादित्यागच्छे महाणुभावो, तत्य संतान नितरा विउक्षा | सारणावर चोपण-माईहिं न दोसपमिवणी ॥ ५१ ॥ गच्छः सुविहितमुनिवृन्दरूपः, महाननुनावः प्रजावोयरया सा Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८०२ ) अनिधानराजेन्खः । गच्छ महानुजाः । (तत्थ त्ति) तत्र गच्छे, वसतां वासं कुर्वतां निर्जरा कर्मति शेषः किं मूना है, विपुला महती कु त्याह-यतस्तत्र वसतां सारणावारणाचोदनादिनिः, मोडलाक किन दोषप्रतिपत्ति दोषादायकचित् कर्तव्ये जयतेदं न कृतमिति सारणा, अकर्तव्यानां निषेधो वारणा, संयमयोगेषु स्वसितस्याऽयुक्तमेतद्भवादृशां विधातुमित्यादिवरमधुरवचनैः प्रेरणं चोदना । श्रादिशब्दात्तथैव पुनः पुनः प्रेरणरूपा प्रतिचोदनेति । ग० २ अधि० । अथ शिष्यस्वरूपप्रतिपादनद्वारेण गच्छस्वरूपमेच प्रतिपादयन्नाद गुरु कलम, खरककसनिरगिराए । जए तह चि सीसा, भांग से गोमाग ॥ ५६ ॥ गुरुणाssवार्येण कार्य चाकार्य व कार्याकार्ये, तस्मिन्, मका चिकारकं निरगिरा अत्यन्त निरमराया भणिते प्रवृत्तिनिवृत्यर्थ कथिते सति ( तह त्ति ) तथेति यथा यूयं वदय तत्तथैवेति यत्र गच्छे शिष्या विनया जणन्ति, प्रतिपाद्यन्ते इत्यर्थः तं गच्छं दे गौतम ! घण्टालालान्यायेन प्रणति शिवाय सिंघा भणन्ति प्रतिपादयन्ति तीर्थकर गणधरादय इति शेषः । ग० २ अधि० । श्रार्थिकाभिः सह न संवदन्ति जत्य य अज्जादि समं, थेरा विन उल्लवंति गयदसणा । नय कार्यति त्थी, गोवंगा तं गच्छं ॥ ६२ ॥ यत्र च गच्छे आर्याभिः साध्वीभिः समं सार्धं स्थविरा श्रपि साधवः, किं पुनस्तरुणाः, 'न उल्लवंति' नाऽऽलापादि कुर्वन्ति । किंभूताः ?, गता नष्टा दशना दन्ता येषां ते गतदशनाः;न च ध्यायन्ति खीणां नारीणामशेषाङ्गानि तथाऽङ्गान्यी बाहुजयम ऊरुद्वयं पृष्टिः शिरः, हृदयम, उदरं च । उपाङ्गानि कर्ण नेत्र-नासिकादीनि । तं गच्छं वदन्तीति शेषः । ग० २ अधि० । (व्याख्या ६३ गाथा च 'अज्ञासंसग्गी' शब्दे प्र०जा० २२४ पृष्ठे ऽष्टव्या ) पद्काययतनावान् गच्छः । अथ पृथिव्याम्जीवयतनामाश्रित्य प्रस्तुतमेवापुडविग गरिमारु पापस्तसाथ विविहाणं । रविन पीमा, कीरइ मासा तयं गच्छ्रं ॥ ७५ ॥ पृथिवीं पृथिवीपृथिवीकाया, उदकं व उच वह्निश्च मारुतश्च वायुश्च प्रियन्ते तुजन्तवोऽनेनेति महत् मरदेव मारुतः स चा अतिनञ्चलत्येन 1 रोपकारी समीर वनस्पति प्रत्येकसाधारण रूपः साश्च द्वित्रिचतुः पचेन्द्रियरूपास्ते तथा तेषां विविधानामनेक प्रकाराणां, पीडा बाधा, मरणान्तेऽपि यत्र गच्छे मनसा, उपलक्षणत्वाद्वचनकायाभ्यां च न क्रियते मुनिनिः, हे गौतम ! स गच्यः स्यादिति । गाथाच्छन्दः। कच्चिदू 'वाउ त्ति' पदं तेनं सुकरमेय स्तूपतिः वेदम्-"आर्या द्वितीय केऽद्धे, यद् गदितं लकणं तत्स्यात् ॥ भयोरपियोरुपीतमुनि ॥१॥ इि जूपितमुंजे, जो पमने उस । नो दया तस्स जीवेसु. सम्मं जाणाहि गोयमा ! ||७३ || 23 गच्छ ( खज्जूरिपस मुंजेण ति ) खर्जूरीपत्रमयप्रमाजन्या मुञ्जमयबहरू वा यः खाधुरुपाश्रयं वसतिं प्रमार्जयति तस्य मुने बेषु दया या नास्ति, हे गौतम! त्वं सम्यग् जानीहीति । अनुष्टुप् बन्दः । जत्यय वादिराणि चिंमितं पिहिमाई। तिराहा सोसियपाणा, मरणे वि मुणी न गिएहंति ॥ ७७ || ( अस्या व्याख्या 'आनकाय ' शब्दे द्वि० भागे २४ पृष्ठे दृष्टया ) ग० २ अधि० । अथ स्पीकरस्परिकमिदमच सेयमित्यधिकृत्य प्रस्तुतमेवोद्भावयति जत्थित्थी करफरिसं, अंतरियं कारणे व उप्पने । दिडीबिस दिग्गी-पीस गच्छे ॥ ८३ ॥ यत्र गणे स्त्रीकरस्य स्पर्शः, अथवा स्त्रियाः करेण स्पर्शः स्त्रीकरस्पर्शस्तम् उपलक्षणत्वात् स्त्रीपादादिस्पर्श व कथंभूतम ?, (अंतरियं ) श्रपिशब्दस्येदाऽपि संबन्धाद् अन्तरितमपि वस्त्रादिना जातान्तरमपि किं पुनरनन्तरितम्, कारणेऽपि कपटकरोगोन्मत्तत्वादिके उत्पन्ने संजाते सति, किं पुनरकारणे दृष्टिविष सर्पविशेषः, दीमाथि ज्य हालाहलदीनि समाहारः तदिच बजे दूरतः त्यजेन्मुनिसमुदाय (सि ) स गच्छ स्यादिति शेषः ॥ ८३ ॥ बालाए बुड्ढाए, नत्तू हिश्राएँ अब जइणीए । न व कीर तफरिसं, गोषम! गच्छंतपं भणियं ॥८४॥ शहापचर्गस्य सर्वत्र संबन्धादयामाया अपि अप्राप्तयौवनाया अपेकिन प्राप्तयोवनाचा दावा अतिपोषनावा अधिक पुनरकियोवनायान एवंविधायाः कस्याः ?, इत्याह-नका पीजी तस्था अपि दुहिता पुत्री तथा अपि अथवा भगिनी स्वसा, तस्या अपि तालबद्धोपलक्षणत्वादस्य दौहित्री-भ्रातृजा जामेवी पितृमातृष्य-जननी मातामही - पितामहीग्रहः । कोऽर्थः ?, नप्तृकादीनामेकादशानां नानबद्धानामपि स्त्रीणां किं पुनरनाराबद्धानां तनुस्पर्शः, उपलक्षणत्वात् सविलासशब्दश्रवणादि च यत्र गच्छे न च नैव क्रियते दे गौतम ! स गच्छो भणित इति । इह हि संबन्धिन्या अपि स्त्रिया अङ्गस्पर्शादिवर्जनं, स्त्रीस्पर्शस्योत्कटमोहोत्वात् ग०२० क्रयविक्रयकारी गच्छो न भवति जस्व व मुणिनो कपकपात जमभट्टा । तं गच्छे गुणसार, पिसं व दूरं परिहरिजा ॥ १०२ ॥ यत्र गणे मुनयो इप्यसाधवः कथं मूल्येन पात्र पशिष्यादिग्रहणं विक्रयं च मूल्येनान्येषां पात्रादिकाणं कुन्ति। चशब्दादन्यैः कारयन्ति, अनुमोश्यन्ति वा किंभूता मुनयः ?, संयमभ्रष्टा दूरीकृतचारित्रगुणाः, गुणसागरति गौतमामन्त्रणम्, तं विषमालासमय दूरतः परिहरेत् खन्मुनिः । अत्र विषस्योपमा देशसाम्येन, यतो विषादेकं मरण भवति, संयमभ्रगच्छात्वनन्तानि जन्ममरणानि जवन्तीति । ग‍ २ अधि० । Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छ सुमधे बसे | 3 एवं शुभाशुभगच्छस्वरूपेऽवगते सति मुनिः किं कुर्यात् ? इत्याहसम्हा सम्म निहासे सम्मम्मप|ि वसिज्जा पक्ख मासं वा, जावज्जीवं तु गोयमा ! ॥ १०५ ॥ यस्मात् सच्छः संसारोच्छेदकारी, असफच्छश्च संसारवकः; तस्मात् सम्यग् निम्माल्य सम्यग् त्रिलोक्य, गच्छं गं सन्मार्गप्रस्थितं तत्र पक्कं वा मासं वा, उपन्नक्कत्वादू मासद्वयादिकं वा, यावज्जीवम, वातुरपि विकल्पार्थे एव, व सेन्मुनिः, हे गौतम! इति । ग० ३ श्रधि । ( वसतिरकणमधिकृत्यैकाकिग्या कृतिकादिकथा प्रतियोपायरये दोषो रात्री बस तेबहिर्गमने निर्मर्यादत्वादि च भागेऽस्मिन्नेव ३२ पृष्ठे 'एगा' शब्दे गच्छाचारपाठे षष्टव्यम् ) ( आर्यया गृहिसम दुष्टनाये दोषस्तु 'अज्जा' शब्दे प्रभागे २२० पृष्ठे कष्टव्यः ) गच्छमर्यादा " ( ८०३) अभिधानराजेन्द्रः । सेज ! केवइयं कालं० जाव गच्छस्त णं मेरा पवा? केवयं का जाव णं गच्छ मेरा पाकमेयन्त्रा । गोयमा ! जाव णं महायसे महासत्ते महाणुभागे दुप्पस अणगारे ताब णं गच्छमेरा पत्सविया, जाव णं महायसे महासत्ते महाणुजागे दुष्पसदे अणगारे ताब मेरा नाइकमेयन्त्रा । महा० ॥ जय गोपं एक कह वि गाय एकमनि होज्जा । तं गच्छं तिविद्देणं, वो सिरिय वज्ज असत्यं ॥ सूणारंभपवित्तं, गच्छं वेसुज्जलं बण वसेज्जा । जं चारिचगुणेो तु छतं निवासे था। महा० एम० । गच्छे आचार्यादीनामनावे न वसेत् । यत्र गच्छे पञ्चानामाबायोपाध्यायगणावच्छेदिप्रवर्तिस्यविररूपाणामसद्भाव यदि वा यत्र पञ्चानामन्यतमोऽप्येको न विद्यते तत्र न वस्तव्यम्, अनेकदोषसंजवात् तानेव दोपानाह एवं गिक्षा परियकुलकरजयादिपग्गो छ । अस्स ससस्सा, नीचियघाते चरणपात ॥ प्रकारे एकादिदीने मकोका मृतक स्थापनादौ, अपरो ग्लानप्रयोजनेषु, अन्यः परिज्ञायां कृतज्ञतप्रस्याख्यानस्य देशनादौ, अपरः कुलकार्यादौ व्यग्र इति; अन्य स्य पञ्चमस्याप्यन्यावस्थाप्राप्तस्य आलोचनाया असंभवेन सशल्यस्य सतो जीवनाशे वरणव्याघातश्चरणगात्रभ्रंशः, चरणभ्रंशे च शुभगतिविनाशः । अत्र पर आह एवं दोइ विरोड़ो, आसोपणपरिणतो छ को एतेन पमाणं, परिणामो वी न खलु अम्हं ॥ ये सति परस्परविरोधः। तथादि भवद्भिरिदानीमेवमुच्य ते सशल्यस्य सतो जीवितनाशे चरणभ्रंशः, प्राक्तवेवमुकम प्रदताबोचनेऽप्यालोचनापरिणामपरिणतः गुरु इति, ततो गच्छ भवति परस्परविरोधः अत्र गुरिराह (द) न त्यस्माकं स्वशक्तिनिगूहमेन यथाशकिरिदिन केवल परिणाम एकान्तेन प्रमाणं तस्य परिणामाऽऽभासत्य किन्तु सूपं प्रमाणो यथासि मन्वितः नावे गच्छे दस सूत्र तात्त्विक परिणाम एव नेति सशल्यस्य जीवितनाशे चरणनाशः । पुनरपि विि चोग किंवा कारण, पंचसीतहि न सिन् । दितो वाणियए, पिंमियत्थे वसिकामे || चोदक आह-यत्र पञ्चानां परिपूर्ण नामसद्भावस्तत्र न वस्त व्यमित्यत्र किं वा कारणम् ? को नाम दोषः १ सूरि अधि कृतार्थे वणिजा पिशितार्थेन वस्तुकामेन दृष्टान्त उपमा, गाधायां सप्तमी तृतीयार्थे । श्यमत्र भावना कोऽपि वणिकू, तेन प्रभूतोऽर्थः पिण्डितः, ततः सोऽचिन्तयत् कुत्र मया वस्तव्यम् ?, नमर्थ परिक्षेऽहमिति । ततस्तेन परिचिमयेदं निचिषये तत्थ न कप्पड़ वासो, आहारो जत्थ नत्यि पंच इने । राया रेल पणिर्म, नेवया खाय ॥ तत्र न कल्पते वासो यत्रेमे वक्ष्यमाणाः पञ्च नाधाराः। के ते ?, त्या राजा नृपतिः यो भिषण, अन्ये धनवन्तो नैतिकिका नीतिकारिणो, रूपयता धर्मपाठकाः । कस्मादिति चेत बाद दविरस जीवियस्स व बापातो हो जत्य नत्ये ते बापार वेगतर एस दम्वसंपादणा अफना || यत्र न समयेते राजादयः परिपूर्णाः पञ्च नियमो इविवस्व धनस्य, जीवितस्य वा व्याघातो भवेत् । वैद्येन विना जीवितस्य, राजादिनिर्विना धनस्य, व्याघाते चैकस्य धनस्य जीवितस्य वाव्यसंघाटना रूप्योपार्जना विफला, परिभोगस्यासंभवात् । श्रथवा राजुवरमा वा, महतरय अमच तह कुमारेहिं । एएहि परिग्गहियं वसेज्ज रज्जं गुणविसालं || शक्षा युवराजेन मदतर केशामात्येव तथा कुमा परिगृहीतं राज्यं गुणविशालं नवति गुणविशाल तसे | व्य० १ उ० । ( राजादीनां लक्कणानि स्वस्वस्थाने) : गच्छी जिनपथ अथ शिष्यः प्रश्नयतिगच्छे जिण कप्पम्मि विदोएह विकरो निष्फलागनिष्णा, दोनि च होती महि जनमध्ये कतरो महका प्रधान गुरुराहविष्यादनिष्पादित कृत्याद्वा तः । तत्र गच्छः सूत्रार्थग्रहणादिना जिनकॉल्पस्य नि अतोऽसो महः जनकल्य त्रेषु परिनिष्ठित इत्यसौ महर्किकः । इदमेव भावयतिदंसणनाणचरिते, जम्हा गच्छनि हो Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०४) अभिधानराजेन्द्रः। गच्छ गच्छ माता एएण कारणेणं, गच्छो न भवे महिन्धीओ ॥ अथ महे लाद्वयदृष्टान्तमाहदर्शनकामचारित्राणां यस्मानच्छे परिवृशिवति, एतेन कार- श्राणास्सरियसुहं, एगा अणुभवति जइ वि बहुपुत्ती। णेन गच्छो महर्डिको भवति । देहस्स य संठप्प, भोगसुहं चेव कालम्मि॥ पुरतो व मरगतो वा, जम्हा कत्तो वि नत्थि पमिबंधो । परवावारविमुक्का, सरीरसकारतप्परा निच्छ । एरण कारणेणं, जिणकप्पीओ महिहीओ ॥ मंडणए वक्खित्ता, भत्तं पि न चेयई अपया ॥ पुरतो वा विहरिष्यमाणक्षेत्रे, मागतो वा पृष्ठतः पूर्वविहतके द्वयोर्महे लयोर्मध्ये एका सप्रसवा यद्यपि बहुतरापत्यस्नपश्रेयस्मात्कुतोऽपि व्यतः कानतो भावतो वा प्रतिबन्धस्तस्य मादिबहुव्यापारव्यापृता तथापि सा गृहस्वामिनीत्वादाश्वयंजगवतो न विद्यते एतेन कारणेन जिनकल्पिको महर्किकः। सुखमनुभवति, काले च प्रस्ताव देवस्य संस्थाप्यं संस्थापनां अथ द्वयोरपि महद्धिकत्वं दृष्टान्तेन दर्शयति भोगसुखमपि च प्राप्नोति । या चाऽप्रजा अप्रसवा सा परन्यादीवा अन्नो दीवो, पइप्पई सो य दिप्पइ तहेव । पारविमुक्ता अपत्यादिचिन्तावर्जिता नित्यं सदा शरीरस्य सीसो श्चिय सिक्खंतो, आयरिओ होड नन्नत्तो॥ संस्कारमुखधावनादौ तत्परा माडनके विलेपनाभरणादी व्या क्षिप्ता सती भक्तमपि भोजनमपि न चेतयति न संस्मरति । दीपादन्यो द्वितीयो दीपो दीप्यते,सच मूलो दीपस्तथैव दीप्यते,एवं जिनकल्पिकदीपोऽपि गच्चदीपादेव प्रार्भवति,सच अर्थोपनयमाहगच्छदीपस्तथैव शानदर्शनचारित्रैः स्वयं प्रदीप्यते। यद्वा-यथा वेयावच्चे चोयण-वारण वावारणासु य बहस। शिष्य पव शिष्यमाणः सन् क्रमेणाचार्यों भवति,नान्यतोनान्येन एमादी बक्खेवो, सययं जाणं न गच्छमि ।। प्रकारेण, एवं स्थविरकल्पिक एव तपःप्रभृतिभिर्भावनानिरा यथा सप्रसवायाः स्त्रियो बहुब्यापारव्यग्रता नवति तथा गच्चस्मानं नावयन् क्रमेण जिनकल्पिको भवति, नान्यथा । अतो ऽपि, यथाऽऽचार्योपाध्यायादिवैयावृन्यम् । यावश्चक्रवालसामा. द्वावपि महर्द्धिको। चारी हापयतो नोदनां चाकृत्य प्रतिसेवनां कुर्वतो, वारणीअस्यैवार्थस्य समर्थनायाऽपरं दृष्टान्तत्रयं दर्शयितुं याच बहवो, वखपात्राद्युत्पादनविषया व्यापारणा, तदेवमानियुक्तिगाथामाह दिषु यो व्याकेपो व्याकुलत्वं तस्मातोर्गच्चे सततं निरन्तर दिटुंत गुहासीहे, दोन्नि य महिला पया य अपया य । ध्यानमेकाग्रशुभाऽभ्यवसायात्मकमात्मनो मगमनकल्पं न ज. गावीण दोनि वग्गा, सावेक्खो चेव निरवेक्खो॥ पति । जिनकल्पिकस्य तु वैयावृत्त्यादिव्याकेपरहितस्य निरप त्यनिया पात्मनो मएमनमिव निन्तरमेव तथा तदुपजायते, हपान्तोऽत्र गुहासिंहविषयः प्रथमः । द्वितीयो द्वे महिले, ए. का प्रजा अपत्यवती, द्वितीया अप्रजा अपत्यविकला । तृतीयो यथा भोक्तुमपि स्पृहा न भवति। गवां द्वौ वर्गों, एकः सापेक्षोऽपरो निरपेक्त इति । ___ अथ गोवर्गद्वयदृष्टान्तमाहतत्र गुहासिंहरष्टान्तं भावयति सलपाइयाओ, नस्संतीश्रो वि णेव धेनूश्रो । सीहं पाले गुहा, अविहाडं तेण सा महितीया। मोत्तूण वनगाई, हवन्ति सपरकमाओ वि। तस्स पुण जोवरणम्मी, पोणं किं गिरिगुहाए॥ नवि वच्छएमु सज्ज-ति वाहिओ नेव कच्छमाऊस । "अविहार्ड" इति देशीलाषया बालकं सिंदं गुहा पालयति व. सबलमगृहंतीओ, नस्संति भएण वग्यस्स || नमदिपव्याघ्रादिभ्यो रवति, तनिर्गतस्य तेत्यः प्रत्यपायसंजधात् । तेन कारणेन गुहा महर्द्धिका । यदा तु सिंहो यौवनं प्रा धेनवोऽभिनवप्रसूता गावः, ताः शार्दूमेन व्याघेण पातितास्त्राप्सोनवति तदा तस्य किं प्रयोजनं गिरिगुहया ?, न किञ्चिदि. सिताः सत्यो नश्यन्त्योऽपि वर्णकानि वन्सरूपाणि मुक्त्वा सप. त्यर्थः । स्वयमेव वनमहिषाद्युपश्यादात्मानं पालयितुं प्रत्यली राक्रमा अपि समर्था अपि नैव प्रधावन्ति न शीघ्र पलायन्ते,अ. पत्यसापेक्वत्वात् । यास्तु 'चाहिओं'बष्कयरायः, ता नापि वत्सनूतत्वादित्य सिंहो महर्द्धिकः। केषु सज्जयन्ति ममत्वं कुर्वन्ति, नापि वरमातृषु धेनुष, किन्तु अथाऽर्थोपनयमाह स्वबलभगृहमाना व्याघ्रस्य जयेन नश्यन्ति, निरपेक्षत्वात । दवावश्माईसुं, कुमीलसंसग्गिअन्ननथाहिं । एष रष्टान्तः। रक्खइ गणी पुरोगो, गच्छो अवि कोवियं धम्मे ॥ अथार्थोपनयमाहगणी प्राचार्यः, स पुरोगः पुरःसरो नायको यस्य स तथाविधो प्रायसरीरे आयरि-यवालबुहेसु अवि य सावक्खा। गच्छो गुहास्थानीयः । सिंहशावकस्थानीयसाधुधर्मे श्रुतचारित्रात्मकोविदमध्याप्य प्रबुद्ध व्यापदि, श्रादिशब्दात कुलगणसंघेसु तहा, चेइयकज्जाइएसुं च ।। केत्रकालभावापत्सु,तथा कुशीयाः पावस्थादयस्तैरन्यतीर्थिकै- यथा धेनवस्तथ गच्छवासिनोऽप्यात्मशरीरे प्राचार्य बालवृद्धघी साईयःसंसर्गस्तत्र चरतति । विश्रोतसिकाप्रमादमिथ्या- प्यपि च कुलगणसङ्ककार्थेषु चैत्यादिकार्येषु च सापेक्वाः, मतः स्वाधुपञ्चात् पात्रयति, अतो गच्छो महर्डिकः । यदा स्वसौद्वि- संसारव्याघ्रभयेन नश्यतोऽपि संहननादिवझोपेता अपि न शीघ्र विधेऽपि धर्मे व्युत्पन्नमतिः कृतपरिकर्मा जिनकल्पं प्रतिपन्न- पलायन्ते । जिनकल्पिकास्तु भगवन्त अात्मशरीराविनिरपेका स्तदा स्वयमेवाऽऽत्मानं द्रव्यापदादिष्वपि विश्रोतसिकादिवि- अधेनुगाव व स्ववीर्यमगूहमानाः संसारव्याघ्रानिष्प्रत्यूह रहितः सम्यक परिपालयति, अतो जिनकल्पिको महर्पिकः।। पलायन्ते । Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) गच्छ अनिधानराजेन्धः। गच्छवास ययेव तर्हि जिनकल्पो महर्दिकतर इत्यापनम,नेयम, यत पाह-/ उसरम-पतेषां नमस्कारपाठ-बन्दिमोचन-ब्रह्मपालनादिकं किरयणायर व गच्छो, निप्फाद नाणदसणचरिते। श्चित्केषाञ्चिन्मार्गानुयायि किंवा सर्वेषां शौनिक-लुब्धक-धी वराध्यवसायवपापहेतुरिति वचः सतां वक्तुमेवानुचितमिति एएण कारणेणं, गच्छो उ भवे माहिडीयो॥ किं प्रतिवचसा?॥१२॥ रत्नाकर श्व जिनकल्पिकादिरत्नानामुत्पत्तिस्थान यतो प्रश्नः-परपातिकसंपादितस्तोत्रादिकं माता-तुरुकादिसं. गजो वर्तते, निष्पादकश्च ज्ञानदर्शनचारित्रेषु, तेन कारणेन पादितरसवतीबदनास्वायमेव, कश्चिद्विशेषो वा? ॥ १३ ॥ मच्छो महर्दिकः। उत्तरम्-परपाक्तिकसंपादितस्तोत्रादीनां माता-तुरुष्कादिसंइदमेव भावयति पादितरसवत्युपमानं सतां वक्तुमेवानुचितमिति कि प्रतिवरयणेसु बहुविहेसुं, नीणिज्जतेसु नेव नीरयणो। चनेन? ॥१३॥ भतरो तीरइ काउं, उप्पत्ती सो य रयणाणं । प्रश्न:-तपागणसम्बन्धिश्राकः स्वकीय-स्वकीयेतरचैत्येषु च. न्दनादिकं मुश्चति, तत्र स्वकीयचैत्य सानदेतुरन्यत्र पापहेतुः, इय रयणसरिच्छेसं, पिणिग्गएK पि नेव नीरयणो। किं वोभयत्र साम्यम् ? ॥१४॥ जाय गच्छो कुणइ य, रयणब्लूते बहू अन्ने । उत्तरम्-तपापकीयः श्रारूः स्थकीयेषु परकीयेषु वा चैत्यषु चन तरीतुं शक्यते इति अतरो रनाकरः,स यथा बहुविधेषु रत्नेषु न्दनादि मुञ्चति, तत्र स्वकीयेषु यथा लाभस्तथा श्रीपरमगुरुनिष्कास्यमानेष्वपि नैव नीरतो रत्नविरहितः कर्तुं शक्यते । पादेरादेयतयाऽऽदिऐषु परकीयध्वपि लान एव कातोऽस्तिन कुतः?,इत्याह-यत उत्पत्तिराकरोऽसौ रत्नानाम् । इय' एवं गच्छ तु पापम् ॥१४॥ रक्षाकरोऽपि रनसरक्षेषु जिनकस्पिकादिषु विनिर्गतेष्वपि नैव प्रश्नः-द्वितीयादिपञ्चपर्वी श्रामविध्यादिस्वीयग्रन्थातिरिक्तप्रन्ये नीरतो जायते, प्राचार्यादिरलानां सर्वदैव तत्र सद्भावात् । क- क्वास्ति ? ॥ १५ ॥ रोति च पश्चादपि बहूनन्यान् साधून रत्नभूतानिति गच्चो उत्तरम्-द्वितीयादिपञ्चपा उपादेयत्वं संविग्नगीतार्थाऽऽचीजिनकल्पिकश्च उन्नावपि महर्डिको । पृ०१०। र्णतया संन्नाव्यते, अक्षराणि तु श्रारूविधेरन्यत्र दृष्टानि न स्मप्रश्न:--तन्मध्यस्थः (कपणकादिदशमध्यस्थः) कश्चि रन्ति ॥१५॥ दुकान-दर्शन-चारित्र-तपःप्रभृति शुभं कुर्वतां सहस्थानां गच्चव-गामिन-त्रि० । गमनशीले, प्रा०४ पाद । सानिध्यम, तदन्यस्तु वैपरीत्यं करोति, तयोः साम्यं न बेति?।। ७॥ गच्छंत-गच्छत-त्रि०। पथि वहति, प्राचा०२ श्रु०११०३उ०। उत्तरम-यथा प्रासादाविरक्कणविधाने गुन्नमेव फलं, तद्विप. गच्छगय-गच्छगत-त्रि० । गच्छमध्यपर्तिनि, ग.१ अधिः । रीतविधाने स्वशुनमेव, एवं ज्ञानादिशुनं समाचरतां सबस्थानां सान्निध्या सानिध्ययोरपि(शुभाशुभफले)॥७॥ गच्चणिग्गय-गच्छनिर्गत-त्रि० । अशिवत्यादिनिः कारणैरे. प्रश्नः-वर्णादिनिर्भेदे जात्या शुनामिव दशानां परस्परमतभेदेऽ. काकीभूते, ग.१ अधिः । परित्यक्तगच्छे, श्रोध। पिशाचिराधकत्वेन साम्यम. किंवा विशेष इति ॥८॥ गजपरिवा-राप्रतिव-विका गच्छवशतिमि भयर्थष्टउत्तरम-दशानां वर्णादिविचित्रत्वे साम्यप्रतिपादकं वचस्तु चेष्टया धर्मचारिणि, दर्श। गच्छपरिपालनप्रवृत्ते, व्य०४ उ०। नात्मीय, किन्तु परकीयमेव ।।८।। प्रश्न:-चैत्यादिधर्मकार्य कुर्वतामेषां तपागणसम्बन्धी शक्तिमान् | गच्छमाण-गच्छत-त्रि० । खनावचारेण चरति,भ०१२श०६उ०। श्रारूः सान्निध्य माध्यस्थ्यं विकारं या भजते तदा लाभो न गच्छवर-गच्छवर-० । सकलगप्रतिबके, ग.३ अधिः । बेति ? ॥१॥ उत्तरम-चैत्यादिधर्मकार्य कुर्वतां तेषां श्रीपरमगुरुपादरादेय गच्छवास-गच्छवास-पुं० । गच्छो गुरुपरिवारस्तस्मिन् वासो सयाऽऽदिष्टचैत्यादिधर्मकार्ये सान्निध्यकरणमायाति सुन्दरम, वसनम् । गुरुकुलवासे, (तत्रैव विषयं दर्शयिष्यामः) गच्छतदितरकायें तु माध्यस्थ्यमेव, न तु क्वापि वैपरीत्यकरणेन वासे हि केषाश्चित्स्वतोऽधिकानां विनयकरणं भवति, अन्येषां विरोधोत्पादनं श्रेयसे ॥६॥ च शक्षकादीनां धिनयस्य कारणं भवति, तथा विध्यादिकमप्रश्न:-नवानां लुम्पाकव्यतिरिक्तानां प्रतिमापूजा-स्तुती अशुचि लवध प्रवर्तमानेषु केचित्सारणं क्रियते, तथाविधेच स्वविलेपनगालीप्रदानरूपे?, अथवा-पूजास्तुतिरूपे ? इति ॥१०॥ स्मिन् केचित्कुर्वन्ति, एवं द्विरूपं वारणादि द्रष्टव्यम् । एवं च उत्तरम-नवानां पृजास्तुती अशुचिविलेपनगालीप्रदानरूपे परस्पराऽवेकया विनयादियोगे प्रवर्तमानस्य गच्छवासिनोइत्यादिवचनं तु सतामुच्चारार्हमेव न भवतीति किं प्रतिभा ऽवश्यं मुक्तिसाधकत्वमिति गच्छवासोऽपि मुख्यो धर्मः । बनेन ? ॥१०॥ यतः पञ्चवस्तुकेप्रश्न:-केषाश्चित्सवभक्तिं च कुर्वतां भूतार्त्तमद्यपवत साम्यम, "गुरुपरिवारो गच्चगे, तत्थ वसंताण णिजरा विचला। उत भक्तिजनितशुभप्रकृतिफलोदयो वा जन्मान्तरे? ॥११॥ विणयानो तह सारण-माईहिण दोसपभियत्ती ॥१॥ उत्तरम्-सखभक्तिमनक्तिं च कुर्वतां भूतार्तमद्यपवत् साम्य- अन्नोन्नाविक्खाए, जोगम्मि तर्हि तहिं पयमुनो। मित्यादिवाक्यं पूर्ववदेव प्रत्युत्तरितं बोध्यम् ॥ ११ ॥ णियमेण गच्छवासी, असंगपदसाढ़गो णेओ" ॥२॥ इति। प्रश्न:-एतेषां नमस्कारपाउ बन्दिमोचन-ब्रह्मपालनादिकं कि- गच्छे सारणादिगुणयोगादेव तं त्यक्त्वा स्वेच्छया विचरतां श्चित केषाश्चिन्मार्गानुयायि, किं वा सर्वेषां शौनिक-लुब्धक- | ज्ञानादिहानिरुक्ता । तथा चौघनियुक्ति:धीवराभ्यवसायवत्पापहेतुः? ॥ १२॥ __“जह सागरम्मि मीणा, संखोहं सागरस्स असहता। २०२ Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छवास अभिधानराजेन्द्रः। गच्छसारणा णिति तो सुडकामी, जिग्गयमिता विणस्संति ॥१॥ दत्वा वा न कारयति,न वा नोदनादिना खरएटयति, पषा सर्षाएवं गच्छसमुह, सारणमाईदि चोप्रा संता। प्यसारणाऽनिधीयते । प्रिंति तो सुहकामी, मीणा व जहा विणस्सति ॥२॥" प्राद-किं कारणमाचार्यस्य षट्कायानविराधयतोऽपि प्रायसारणादिवियुक्तस्तु गच्छस्त्याज्य एव, परमार्थतोऽगच्छ श्चित्तम्, उच्यते-स्वसाधूनुत्पथे प्रवर्तमानानसारयन्नसौ गत्वात्तस्य । धर्म ३ अधिः । श्रोधः । पञ्चा० । च्छस्य विराधनायां वर्तते । तथा चोक्तमिदमेव सहेतुकं गच्छे पुण वसंतस्स इमे गुणा बृहद्भायेजत्तो वासो रती धम्मे, अणायतगवजणं । " किं कारणं तु गणिणो, असारतिस्स होइ पचित्तं?। णिग्गहो य कसायाणं, एयं धीराण सासणं ॥ ३६१ ॥ चिट्ठति यो ण गणहरो, विराहणाए सगच्चस्स ॥ भम्पति हनु स जद्द गणी, विराहो होति गस्स। भत्तो वासोत्ति' । अस्य व्याख्या जह सरणमुवगयाणं, जीवियववरोवणं नरो कुणति । आयरियादीण जया, परित्तभया ण सेवति अकजं । । एवं सारणियाणं, आयरिश्रो असारो गरे। वेयावच्चऽजायणे-सु सजते तदुपयोगेणं ।। ३६२ ।।। किह सरणमुवगया पुण, पक्खे पक्खम्मि जं उबटुंति । पुटवर्क कंठं । 'रती धम्मे' अस्य व्याख्या वेयावञ्चपच्चद्धं; इच्छामि खमासमणो, कतकितिकम्मे उजं अम्हे"। अत प्राचार्यस्य सर्वमेतत् प्रायश्चित्तम् । पायरियादीणं वेयावश्यं करेति, अज्झयणं ति' सज्जायं करेति । 'तदुवोगेण ' सुत्तत्थोवोगेण वेयावश्चज्जयणेसु रज्जति अथवा यो भिकुरगीतार्थः, अपिशब्दाद् गीतार्थोऽपि, विषय लोलः सुस्वारसास्वादलम्पटोनूत्वा प्रलम्बानि गृह्णाति तस्यैरति करे त्ति वुत्तं जवति । अहवा तदुवोगो अप्पणा पाय व प्रायश्चित्तम् । रियादीहिं य नममाणो यावच्चज्झयणादिसु रज्जति । 'अणाययणवजण त्ति' अस्य व्याख्या अत्र चाचार्यविषया अष्टौ भकाः-अगीतार्थ प्राचार्यों गच्छं न सारयति विषयलोलश्च । अगीतार्थ प्राचार्यों गच्छंन सारएगो इत्थीगम्मो, तेणादिनया य असियतगारे। यति विषयनिःस्पृहश्व, इत्यादि । अत्र चान्तिमो भङ्गः शुद्धः, कोहादी व उदिओ, परिणिचावन्ति से अहो ॥ ३६३ ॥ शेषाः सप्त परित्यक्तव्याः। पुब्बकं कंग। “कसायणिग्गहो" अस्य व्याख्या कोदादीपच्चद्ध; देसो व सोवसग्गो, वसणी व जहा अजाणगनरिंदो । गव्यवासे वसंतस्स अ य पायरियादी परिणिचाति स रज्ज विद्युत्तसारं, जह तह गच्छो वि निस्सारो॥ कसाए गच्छवासे वसंतेण एवं वीरसासणं, बीरसासणे वा जं भणियं तं पाराहियं भवति । भङ्गासप्तकवी आचार्यो देश श्व सोपसर्गो,व्यसनी वा,यथा इमे य अम् गच्छवासे वसंतस्स गुणा अज्ञायकनरेन्को परित्यज्यते तथा परित्याज्यः । यथा च राका अचिन्त्यमानं राज्यं विलुप्तसारं नवति, तथा गच्छोऽप्यागाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्ते य। चार्येणासार्यमाणो निस्सारो भवतीति परिहरणीय इति संग्रह धमा आवकहाए, गुरुकुलवासं न मुंचंति ।। ३६४॥ | गाथाऽकरार्थः। कंठा। जम्हा गच्चबासे वसंतस्स एवमादी गुणा तम्हा णिका अथैनामेव विवरीषुः प्रथमतो "देसो व सोवसग्गो" रणे संविम्गे अवि अन्नगणसंकमोण कायचो । निश्च०१६ उ01 ति पदं व्याचष्टेगच्छचासि (ण)-गच्छवासिन्-त्रि० । गच्छप्रतियकेषु साधुषु, कणोदरिया य जहिं, असिवं च न तत्थ होइ गंतव्वं । वृ. १ उ.। (तेषां प्रवज्यादिद्वारै सकल्पप्ररूपणा 'थवि- तत्थ नवे न हि वासो, एमेव गणी असारणिश्रो॥ रकप्प' शब्दे वक्ष्यते) यत्र देशे अवमादरिका, अशिवं च, उपलकणत्वादपरोऽप्युपगच्छविहार-गच्चविहार-पुंगसामाचार्याम,व्य०१०।। द्रवो जवति, तत्र गन्तव्यं न भवति । अथ यत्र दरो बसतामेयगच्छसश्या-गच्छशतिका-स्त्री० । शतसङ्ख्यपुरुषपरिमाणेषु मौदर्यादिकमुत्पन्नं तत्र उत्पन्ने सति न वस्तव्यम् । एवमेच गच्छेषु, बृ० १ उ०। गणी प्राचार्यो असारणिको गच्छसारणाविकलो नागच्छसारणा-गच्चसारणा-स्त्री० । गच्छपरिपालने, दृ०।। नुगन्तव्यः। अगीतार्थस्तदयोग्यः । (प्रलम्बग्रहणे प्रायश्चित्तमुपदाह)। अथ "वसणी व जहा अजाणगनारंदो ति" व्याख्यातिअथ 'कस्स अगीयथोति' पदं व्याचिख्यासुराह सत्तएई वसणाणं, अन्नयरजुतो न जाणई रज्ज । कस्सेयं पच्चित्तं ?, गणिणो गच्छ असारतिस्स ।। अंतेउरे व अत्यइ, कज्जा सयं न सीलेइ ।। प्रहवा वि अगीयत्य-स्म निक्खुणो विसयलोलस्स ॥ यथा सप्तानां व्यसनानामन्यतरेण व्यसनेन युतो राजा राज्य शिष्यः प्रश्नयति-यदेतदन्यत्र ग्रहणादाबनेकधा प्रायश्चित्तमः। पालयितुं न जानाति । यो वा शेषव्यसनरनभिजूतोऽपि विषतं तत्कस्य नवति ? । सूरिराह-गणिन आचार्यस्य गच्छम- यलोलुपतया नित्यमन्तःपुरे प्रास्ते, सोऽपि कार्याणि व्यवहासारयतः सतः, असारणा नाम अगवेषणा-कः कुत्र गतः?, को रादीनि स्वयमात्मना न शीलयति, जावलोक इत्युक्तं भवति । था मामान्य गतः?,को वाऽनापृच्छया?,यद्वा-प्रलम्बं गृहीत्वा ततश्च यथेच्चमुकृत्तं खलाः प्रजाः संजायन्ते । एवमाचार्योऽप्यभागत्याऽऽलोचिते अन्येन वा निवेदिते यत्प्रायश्चित्तं न ददाति, गीतार्थों गीतार्थों का सातगौरवादिव्यसनोपहततया यदि स्व Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०७) गच्छसारणा अभिधानराजेन्डः। गच्छसारणा गच्छन सारयति तदा गच्छः सर्वोऽपि निरशः संजायते । यत-| भिक्षुरगीतार्थों गुरूणामनुपदेशेन प्रलम्बानि गृहाति तस्य सचैवमतो असारणिक आचार्यों दूर दूरेण परिहर्तव्यः ॥ र्वमेतत्प्रायश्चित्तम् । १०१ उ०। (व्यसनसप्तकं 'वसण' शब्दे इष्टव्यम्) गीतार्थोऽपि यदि देशमन्तरेण चाऽगीतार्थस्य स्वयमेव _ अथ प्रकारान्तरण भङ्गानाद कार्येषु प्रवर्त्तमानः, तस्यायं दोषो भवतिअहवा वि अगीयत्थो, गच्च न सारे इत्थ चनभंगो। सुहमाहगं पि कजं, करणविहणमावायसंजुत्तं । विइए भगीयदोसो, तइ न सारे-तरो सुघो। अनायदेसकाले, विवत्तिमुवजाति सेहस्स ॥ अथवा अगीतार्थो गच्छं न सारयतीत्यत्र चतुर्भङ्गी । गाथायां सुखेन साधः साधनं यस्य तत् सुखसाधकम “शेषाद्वा" पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् । सा चेयम्-अगीतार्थो न गच्छंन सार- ७।३।१७५ । इति कच्प्रत्ययः, सुखसाध्यमित्यर्थः । तदपि यति । अगीतार्थो गच्छंन सारयति २। गीतार्थो गच्छं न कार्य, करणमारम्भस्तद्विहीनं, तथा यस्य कार्यस्य यः साधसारयति ३। गीतार्थों गच्चं सारयति ४ । अत्र प्रथमस्य नोपायस्तद्विपरीतेनानुपायेन संयुक्तम् । ( अन्नाय त्ति ) दो दोषी, मगीतार्थत्वदोषः, असारणादोषश्च । द्वितीयस्य यद्यस्य कार्यमझातं तत्तेनारज्यमाणम् अदेशकाले चाऽनवसरे पुनरेक एव गीतार्थत्वदोषः । तृतीयस्तु यन्न सारयति स विधीयमानं शैक्षस्थानस्य विपत्तिमुपयाति, विपत्तिशब्देन काएकस्तस्यासारणादोषः । इतरश्चतुर्थो भङ्गः शुद्धः। यस्यासिफिरत्रानिधीयते । तदुक्तम्-" संपत्तिश्च विपत्तिइच, प्राद्यानां त्रयाणां प्रङ्गानां भावनामाह कार्याणां द्विविधा स्मृता । संपत्तिः सिकिरर्थेषु, विपत्तिश्च विदेसो व सोक्सग्गो, पढमी तइप्रोतु होइ वसणी व । । पर्ययः" ॥१॥ ततो न निष्पद्यत श्त्युक्तं भवति । बिइओ अजाणतुल्लो, सारो दुविहो दुहेकेको । तत्रैव निदर्शनमाहप्रथमः प्रयमनङ्गवर्ती भाचार्यः सोपसर्गदेश व परित्यक्तव्यः। __नक्खेणावि हु बिज्जद, पासाए अनिनवुट्टितो रुक्खो। तृतीयो गीतार्थोऽप्यसारणिकत्वाव्यसनीव राजा परित्यक्तव्यः। दुच्चेजो वह॒तो, सोच्चिय वत्थुस्स दाय ॥ द्वितीयः सारणिकोऽप्यगीतार्थत्वादइनरेन्तुल्य इति कृत्वा जो य अणुवायछिन्नो, तस्स इ मृलाई वत्थुनेदाय । परिहार्य इति चपर्यभिप्रायः । अथ निशीथचूर्यभिप्रायेण व्यास्यायते-प्रथमः सोपसर्गदेश श्च परिहार्य इति । द्वितीयः अहिनव उवायछिन्नो, वत्युस्स न होजेदाय ॥ पुनरगीतार्थः परं सारणिका, सच व्यसनीव ज्ञातव्यः । प्रासादे वटपिप्पलादिवृक्षोऽभिनवोत्थितोऽधुनोतः सन्न. किमुक्तं नवति? सोऽगीतार्थः सन् यत्किमपि स्वशिध्यान नो- | खेनापि, हुनिश्चितं, विद्यते छेत्तुं शक्यते, इत्यनेन कार्यस्य सुखदयति प्ता नोदना तस्य व्यसनमिव इष्टव्या । अतो व्यसनाभि- साभ्यतोक्ता। स एव वृक्षो व:मानः शाखाप्रशाखाभिः प्रसरन् भूतभूपतिवदसौ परिहार्यः । तृतीयः पुनरसारणिकत्वामीता- पुश्चेद्यो जवति, कुठारेणापि चेत्तुं न शक्यत इति भावः। अपर्थोऽध्यकनृपतुल्य इति कृत्वा परित्याज्यः । अस्मिश्च व्याख्याने रंच वास्तुनः प्रासादस्य भेदाय जायते । यश्चानपायेन मलो"देसो बसोवसम्गो, पढमो बियोन होइ वसण। ब। द्वारणकणोपायमन्तरेण किन्नः तस्यापि मूलान्यनुद्धतानि तो अजाणतुलो, ति" पाठो फष्टव्यः। पुस्तकेष्वपि बहुव- वास्तुन्नेदाय जायन्ते । एतेन चाऽनारम्भे, अदेशकालारम्भे, अयमेष श्यत इति । ययुक्तम्-" रज विलुत्तसारं, जह तह ग- नुपायारम्भे च सुखसाध्यस्यापि कार्यस्य विपत्तिः, क्लेशसाध्यछो विनिस्सारो सि" तदेतद्भावयति-"सारो दुविहो दुहे- ता चोक्ता । अथ देशकाले उपायेन विधीयमानस्य यथा निम्पमेको " सारो द्विविधः-लौकिको लोकोत्तरिकश्च । पुनरेकैको त्तिर्भवति तथा निदर्शयति-“अहिनव" इत्यादि उत्तराईम । द्विधा, बाह्य पात्यन्तरश्च। यस्तु वृतोऽभिनव चमतमात्र उपायेन प्रयत्नपूर्वकं छिन्ना, मृपतदेव ब्याचष्टे बान्यपि तस्योद्धृत्य करीषाग्निना दग्धानि, स वास्तुनो भेदाय गोममनधन्नाई, बज्को कणगाई अंत लोगम्मि। ननवति । एष दृष्टान्तः। लोगुत्तरियो सारो, अंतो बहि नाण-वत्थाई ।। अयमस्यैवोपनयःगोशम्देन गावो बनीवाश्वोच्यन्ते, उपलक्षणत्वाद् हस्त्यश्वा पडिसिक ति तिगिच्छा, जो न न करेइ अजिनवे रोगे। दीनामपि परिग्रहः । मधमलमिति देशस्खएमम्; यथा षयवति- किरियं सो उ न मुच्चइ, पच्चा जत्तेण चि करेंतो॥ मएडसानि सुराष्ट्रदेशः । अथवा गोमएडलं नाम गोवर्गः, उप सहमुप्पअम्मि जरे, अट्ठम काऊण जो वि पारे । सकणत्वान्महिप्यादिवर्गोऽपि । धान्यानि शानिप्रनृतीनि । श्रादिशब्दाद वास्तुकुट्यादिपरिग्रहः। एष लोकिको बाह्यसारः। क सीयलअंबदवाणी, न हु पउणइ सो वि अणुवाया ॥ नकं सुवर्णम् । श्रादिग्रहणेन रूप्यरत्नादीनि, एष अन्तरित्याभ्य- यस्य साधोवरादिको रोग उत्पन्नः स यदि, " तेगिच्छं नास्तरः सारो लोके लोकविषये मन्तव्यः । एतेन द्विप्रकारे भिनंदेज्जा, संबिक्खुत्तगवेसए । एवं खु तस्स सामन्नं, जं न जापि सारेण राज्यं पार्थिवेनाचिन्त्यमानं निस्सारस । सोकोत्त. कुन्जान कारवे" ॥२॥ इति सूत्रमनुश्रित्य प्रतिपिका चिकित्सेति. रिकः सारो द्विधा, अन्तर्बहिश्च । तत्रान्तःसारो ज्ञानम्, प्रा. कृत्वा अभिनवे रोगे क्रियां चिकित्सां न कारयति, स पश्चातदिशब्दार्शनचारित्रे च । बहिःसारो वस्त्रादिकः। श्रादिग्रहणेन स्मिन् रोगे प्रवृति गते सति यत्नेनापि महताऽप्यादरेण क्रियां शय्यापात्रादीनि गृह्यन्ते । अनेन च द्विविधेनापि लोकोत्तरिक- कुर्वाणो न मुच्यते रोगात् । यदि पुनरधुनोत्थित एव रोगे सारेणाचार्येणासार्यमाणो गच्छो निस्तारो जवतीति प्रकृतं, क्रियामकारयिष्यत ततो नीरुगभविष्यत । यो वा अनुपायेन तस्माणिनो गच्छमसारयत एतत्प्रायश्चित्तम् । अथवा यो क्रियां करोति सोऽपि न प्रगुणीजवति, यथा सहसोत्पन्ने Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (000) अभिधान राजेन्खः ॥ गच्छसारणा उपरेऽन्यस्मिन् वा अजीर्णप्रभवे रोगे सह समुत्यन्ने रोगम "अमेण निवारण" इति वचनादष्टमं कृत्वा योऽपि न केवलं शिपाया अकारक इत्यपिशब्दार्थ ( सीयवासित) शीतल क्रूराम्रव्यादीनि पारयति मा पेया कारणीया भवत्वितिकृत्वा सोऽपि न प्रगुणोजवति, अनुपायात् उपायाभावात् । प्रस्तुत तेन शीतप्रकृरादिना सरोगस्तस्य गाढतरं प्रकुप्यति । यदि पुनस्तेन पेयादिनाऽपारविष्यत् ततः परमपि धानेपणीयपारण सत्यं पापं तत्पाप्रायश्चिनोि यत् इत्युपायानुपायरुपमा न जानाति ततश्वाहातमदेशकाले वा कार्य कुर्वतस्तस्य शैकस्य विपत्तिमुपयातीति प्रकृतम् । अत्रैव तात्पर्यमाद संपत्ती य विपत्ती, य होज्ज कज्जेसु कारणं पप्प । अणुवायतो विपत्ती, संपत्ती कालुवा एहिं || संपतिश्व विपत्तिश्च कार्येषु कारकं कर्तारं प्राप्य भवति, यद्यज्ञः कर्ता ततस्तेनादेशकाले अनुपायत भारब्धस्य कार्यस्य विपतिर्भवति प्रथासो शस्ततस्तेन कालोपायान्य देशका ले उपायेन चारब्धस्य कार्यस्य संपत्तिः सिकियति । | उपसंहनादइय दोसार अगीय स्थि उ गीयम्मि कालरणकारिम्पि गीत्थस्स गुणा पुण, होंति इमे कालकारिस्स ।। ''गीता कार्यकरदो भवन्ति। गीतार्थेऽपि का महीनकारिणि होने वाधक वा काले कार्यकारिणि यत एव दोषा । यः पुनः गीतार्थ उपायेनारिके काले कार्य करोति, तस्य गीतार्थस्य कालकारिण श्मे गुणा भवन्ति । तानवाद आयं कारण गाढं वत्युं ज॒त्तं ससति जयणं च । सच सपविक्वं फलं च विधिवं निपाणाई ॥ 'आर्य' लाभं 'कारणं' आलम्बनं गाढमागाढं ग्वानत्वं च वस्तु " दकिमित्यनन्तरम्, युकं योग्यं सशक्तिकं समर्थ, पतनां त्रिपरिभ्रमयादिलणाम; एतदायादिकं सर्वमपि सप्रतिपर्क गीतार्थो विजानाति । श्रायस्य प्रतिपक्को नायः, कारणस्याका रजम गाढस्यानागादं वस्तुनोऽवस्तु युक्तस्यायुकं सशकि कस्याशक्तिको, यतनाया श्रयतनेति यथाक्रमं प्रतिपक्काः । तथा फलं चैहिकादिकं विधिमान् गीतार्थो विजानातीति नियुक्तिगाथासमासार्थः । गच्छसारणा इदमेव स्पष्टयनाह - असिवाइस कल्याणि किंचि खझियस्स तो पच्छा। वायवेयावच्चे, लाभे तवसंजमऽज्जयये ॥ स हि गीतार्थः प्रणम्यादिकं प्रतिसेयमान एवं चिन्तयति अशिवादिषु स्थानीयेषु कल्पप्रतिसेवा यो संगमस्थानेभ्यः स्वलितस्यापि मम ततः पश्चादशिवादिषु व्यतीतेषु वाचनां तां वैषा तपसंयमाध्य यनेषु उद्यमं कुर्वाणस्य यानायो सानो भविष्यति । अक प्रति सेवाजनितं चातीचा प्रायश्चितेन शोधयिष्यामीति बहुतरं बाजमल्पतरं व्ययं परिजाव्य गीतार्थः समाचरति । अगीतार्थः पुनरेव तदाप्यायन्ययरूपं न जानातीति । गतमायद्वारम् । अथ कारणगाढद्वारद्वयमाद नाणाइतिगस्सडा, कारण निक्कारणं तु तव्त्रज्जं । हिमकृविसविमूखमूलमागारं ॥ गीतार्थः कारणे एव प्रतिसेवते, नाकारणे । श्राह-किमिदं का र किंवा अकारणमिति आइ-ज्ञानादिजयस्वानदर्शनचारित्ररूपाऽधीय यत्प्रतिसेयते तत्कारणं, सेवमानस् निष्कारणमुच्यते। तथाऽगीताथों यद्देशमागाडे प्रतिसेय शमागाढ एव, पाशं पुनरनागाढे तादृशमनागाढ एव प्रतिलेad | अथ किमिदमागादम् ? किं वाऽनागाढम् । उच्यते-अहिना सर्पेण दष्टः कचित्साधुः विवादि सूचिका वा कस्यापि जाता, सद्यः कयकारि वा कस्यापि शूसत्यम एवमादिकमानुपाति सर्वमप्यागाद परी तुरघाति कुष्ठादिरोमात्मकमनागाडम | अथ वस्तुयुक्तद्वारे पाचआपरियाई वत्युं तेसि चिय जुन दोइ जं जोगं । गीय परिणामगावा, वत्युं इयरे पुण अवत्युं ॥ आचार्यादिः प्रधानपुरुषो यद्वा गीतार्थः सामान्यतो वस्तु भ रुपते, परिणामका वा साधवो वस्तु तारपा स्तुभूतं कार प्रतिशेते प्रतिसेाऽऽप्यते वा । इतरे प्रतिषकभूताः पुनरनायार्यादिरगीताचा परिणामका अतिपरिणा मका वा सर्वेऽप्यवस्तु भएयन्ते, एतेषामेवाऽऽचार्यादीनां यद्योग्यं रूपानीपधादिकं तद् युतं सद्विपरीतं पुनरयुकम क्तायुक्तस्वरूपं गीतार्थो जानाति, नेतर इति । श्रथ सशक्तिकयतनाद्वारयमाह घि सरीरो सत्ती, आयपरगता न तं न हावेति । जया तिपरिरया, अलने पच्छा पणगहाणी ॥ शक्तिर्वेधा, धृति-संनभेदात् । तत्र धृतिरूपां, शरीरां च संनवरूपामार परगतां च शकि हारवाऽऽचार्योऽन्यो पा अथ प्रतिपदं विस्तरामादकादीपारि, सह लाभे कुरा बाधिओ चिहुं । एमेत्र य गीयत्थो, आयं दहुं समायरइ || । शुल्कं राजदेयं यम आदिशब्दाद्भावकर्मकरवृत्यादिपरिगीतार्थस्तां न हापयतीत्यत्र चतुर्भङ्गी सूचिता सामा महः पथा शुल्क निम्योपदेतुभिः परिशुद्ध निवर्तितो यदि को ज्ञान उपकारा सति वाणिजो देशान्तरं गत्वा वाणिज्यचेष्टशं करोति श्रारभते । अथ लाभमुत्तिष्ठमानं न पश्यति ततो नारजते । एवमेव च गीतार्थोऽपि ज्ञानादिकमायं ज्ञानं दृष्ट्वा प्रसम्बाद्यकल्पां प्रतिसेवां समाचरति, नान्यथा । रमगता शक्तिर्विद्यते न परगता १, परगता नाऽऽत्मगता २, आस्मगताऽपि परगताऽपि ३, नाऽऽत्मगता न परगता ४। तत्र प्र यमन आचार्य आत्मनः शर्किन हापयति, परस्य पुनरशकि स्वाद्यथायोगं प्रतिसेवनामनुजामी द्वितीय मा प्रतिसेवते परस्य तु समर्थाऽनुजानाति उभयोरपिताना न प्रतिपते परस्यापि Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०ए) गच्छमारणा अभिधानराजेन्छः । गच्चसारणा म वितरति । चतुर्थभने पुनरुभयोरप्यशक्तत्वादात्मनाऽपि प्रति- कत्ता इव सो कत्ता, एवं जोगी विनायव्यो॥ सेवते, परेणापि प्रतिसेवापयति । तथा यतना खलु त्रिपरिरया 'अहवण त्ति' अखण्डमव्ययम् अथवाऽर्थे, कर्ता शास्ता कन्या । 'रीश् ' गती, परि समन्तात रयणं परिरया तीर्थकर उच्यते; यथा तेन तीर्थकरेण कृतं कार्य किञ्चिदपिन परिभ्रमणमित्यर्थः । त्रयः परिरया यस्यां सा त्रिपरिरया। कोप्यते, एवमसावपि गीतार्थो विधिना क्रियां कुर्वन् कर्ता श्व किमुक्तं भवति ?-एषणीयाहारान्वेषणार्थ स्वग्रामादौ तिम्रो तीर्थकर इवाकोपनीयत्वाकर्ता अष्टव्यः । एवं योग्यपि चाराः सर्वतः पर्यट्य यथेषणीयं न लनते ततः पश्चादलाभे भप्राप्तौ पञ्चकपरिहाण्या यतते।। ज्ञातव्यः । किमुक्तं नवति ?, यथा तीर्थकरः प्रशस्तमनोवाकाय योगं प्रयुजानो योगी भएयते, एवं गीतार्योऽव्युत्सर्गापवादबल. अथ फलद्वारम-गीतार्थः प्रथममेव कार्य प्रारभमाणः परि वेत्ता अपवादकियां कुर्वाणोऽपि प्रशस्तमनोवाकाययोगं प्रयुप्रावति । पवमनुत्तिष्ठतो ममाऽन्यस्य वा फलं भविष्यति, न | श्रानो योगीवजातव्यः । था। तत्तु फवं द्विविधम् । तदेवाह एबमाचार्योक्ते शिष्यः प्राहइह परलोगे य फलं, इह आहारा कमेकस्स । किं गीयत्यो केवलि, चनविहे जाणणे य गहणे य । सिछी सग्ग सुकुलता, फलं तु परसोश्यं एयं॥ तुझे रागदोसे, अणंतकायस्स बज्जणया । महलोकफलं, परलोकफलं चेति फलं द्विधा । तत्रेहलाकफ- कि गीतार्थः केवली येन तीर्थकृत श्व तस्य वचनं करणं पा समाहारादि, आदिशब्दावलपात्रादि । तथा सिकिगमनं, स्वर्ग- कोपनीयम् । सूरिराह-श्रोमिति ब्रूमः । तथाहि-न्यादिभेदागमनं, सुकुलोत्पत्तिश्च, एतत्पारलौकिकं फलम् । एतदू स्य- चतुर्विधं ज्ञानं, तद्यथा केवालनस्तथा गीतार्थस्यापि, मध्येकैकस्याऽऽत्मनः परस्य च परस्परोपकारेण यथा, भवति तथा यत्प्रलम्बानामेकानेकग्रहणविषयं विषमप्रायश्चित्तप्रदानं, तथा गीतार्थः समाचरति । यच्च गीतार्थोऽरक्तद्विष्टः प्रतिसेवते, यश्च तत्र तुल्येऽपि जीवत्वे रागद्वेषाभाचो, या वाऽनन्तकायस्य सत्र नियमादप्रायश्चित्ती नवति। वर्जना, पतानि यथा केवली प्ररूपयति तथा गीतार्थोऽपीति माह-केन पुनः कारणन प्रायश्चित्ती ? । उच्यते द्वारगाथासमासार्थः।। खेत्तोऽयं कालोऽयं, करणमिणं साहो उवाअोऽयं । विस्तरार्थ प्रतिपदं विभणिषुराहकत्त ति य जोगि त्ति य, इय कडजोगी वियाणाहि ।। सव्वं जेयं चनहा, तं वेइ जिणो जहा तहा गीतो। यो न रागे न देखे किन्तु तुलादरामवद् द्वयोरपि मध्ये प्रव. चित्तमचित्तं मीसं, परित्तऽणंतं च लक्खाणतो।। ते सोजा नण्यते । केोऽभवादोजाः केवीजाः। काले भवमौदर्यादी भोजाः कालौजाः, क्षेत्रे काले च प्रतिसेवमानो न सर्वमपि जगत्त्रयगतं जेयं चतुर्धा। तद्यथा-व्यतः, क्षेत्रता, रागद्वेषाच्या दृष्यते इत्यर्थः । कथम् !,श्त्याह-यतः स गीतार्थः कालतो, भावतश्च । तच्चतुर्विधमपि यथा जिनः केवली ते तथा करणमिदं सम्यक क्रियेयम, एवं क्रियमाणे महती कर्मनिर्जरा गीतार्थोऽपि । यद्वा-(तं वेद त्ति)तच्चतुर्विध क्षेयं यथा जिनो वेत्ति जानाति तथा गीतार्थोऽपि श्रुतज्ञानी जानात्येव । तथादि. प्रवतीति विमृशति । तथा ज्ञानदर्शनचारित्राणि साधनीयानि, तेषां च साधकोऽयमुपायो यदसंस्तरणे यतनया प्रलम्बसेवनम। यथा केवल सचित्तमचित्तं मिश्रं परीत्तमनन्तं च लकणतो वधा कृतयोगी गीतार्थः स कर्तेति च योगीति भएयते। 'इय' जानाति प्रापयति वा, तथा श्रुतधरोऽपि श्रुतानुसारेणैव सपवं विजानीहि, इति नियुक्तिगाथासमासार्थः। चित्तलकणेन सचित्तमाएवमचित्तमिश्रपरीत्ताऽनन्ताम्यपि स्वस्वअथैनामेघ विवृणोति ल तणावपरीत्येन जानाति, प्ररूपयति चेति केवलौव द्रष्टव्यः । श्रीयन्ततो खिचे, काले जावे य जं समायर। आह-केवली समस्तवस्तुस्तोमवेद), श्रुतकेचली पुनः केवल ज्ञानानन्ततमभागमात्रज्ञानवान्, ततः कथमिव केवली तुल्यो कत्ता नसो प्रकोप्पो, जोगी व जहा महावेजो॥ भवितुमर्हति, श्त्याहयोजोनूतो रागद्वेषविरहितो गीतार्थः केत्रेऽध्वादौ, काले कामं खलु सव्वा , नाणेणऽहिश्रो दुवालसंगीतो। निकादी, भावे च रलानत्वादौ, प्रनम्बादिप्रतिसेवारूपं यत्किमपि समाचरति,स सम्यक् क्रियेयं साधकोऽयमुपाय इत्यालोच्य पन्नत्ताइ न तुबो, केवलनाणं जो मयं ॥ कारी का, अकोप्योऽकोपनीयः, अरणीय इत्युक्तं जवति । काममनुगतं खल्वस्माकं सर्वज्ञः केवली द्वादशानिनः भुतकेक श्वेत्याह-योगीव यथा महावैद्य शति। यथेतिदृष्टान्तोपन्यासे, वञ्जिनः सकाशाद ज्ञानेनाधिकः,परं प्रक्षप्त्या प्रशापनया भुतकेस योगी धन्वन्तरिः, तेन च विभङ्गज्ञानवलेनाऽऽगामिनि काले वलिनः केवली तुल्यः । कुतः, इत्याह-यतः केवलज्ञानं मूकम प्राचुयेण रोगसंभवं दृष्टा अष्टाकायुर्वेदरूपं वैद्यकशास्त्रं चक्रे, प्रमुखम् । किमुक्तं नवति?-यावतः पदार्थान् श्रुतकेवली भाषते तञ्च यथाऽऽनाय येनाधीतं स महावैद्य उच्यते । स चायुर्वे तावत एव केवल्यपि। ये तु श्रुतज्ञानस्याविषयभूता भावाः केव लिनाऽवगम्यन्ते तेषामप्रज्ञापनीयतया केबसिनाऽपि वक्तुमशक्यदप्रामाण्येन क्रियां कुर्वाणो योगीव धन्यन्तरिरिव न दूषणभाग स्वात् । (१०) (इतोऽग्रे 'णाण' शब्दे मतिश्रुतभेदप्रस्तावादवगभवति।यपोक्तक्रियाकारिणश्च तस्य तचिकित्साकर्म सिध्यति । म्तव्यः) श्रुते द्वादशाङ्गत्रतणे सूत्ररचनया निबद्धोऽनन्तस्याएवमत्रापि योगी तीर्थकरस्तदुपदेशानुसारेणोत्सर्गाऽपवादा बन्तभेदभिन्नत्वादित्यभिप्रायः । भ्यां यथोक्तां क्रियां कुर्वन् गीतार्योऽपि न वाच्यतामहति। अथ "कत्त ति य जोगित्ति य" पदद्वयमेव प्रकारान्त आह-कथमेतत्प्रतीयते, यथा प्रज्ञापनायामनन्तभागः श्रुते रेण व्याख्याति निबद्धः? । उच्यतेअहवण कत्ता सत्था, न तेग कोविज्जती कप किंचि। । जं चउदसपुव्यधरा, उहाणगया परोप्परं होति । २०३ Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (50) गच्छसारणा अनिधानराजेन्द्रः। गच्चसारणा तेण न अणंतजागो, पन्नवाणिज्जाण जं सुत्तं ॥ सुवालसविहे तवोकम्मे, जे णं सुनवउसे सययं च समिईसु, यद् यस्माच्चतुर्दशपूर्वधराः षट्स्थानगता अनन्तनागादिस्थान जेणं सुगुत्ते सययं तिमु गुत्तीसु,जे णं पाराहगे ससत्तीए भ. वर्तिनः परस्परं भवन्ति। कथमिति चेत्, उच्यते-इह चतुर्दशपूर्वी द्वारसाहं मीलंगसहस्साणं,जेणं अविराहगे,एगंतेणं ससत्तीए चतुर्दशपूर्विणः किं तुव्यः,किंवा हीनः?,किंवा अभ्यधिकचिन्तायां सत्तरसविहस्स णं संजमस्स उस्सग्गरुई, जे णं तत्तरुई,जेणं निर्वचनम-तुल्यो वा,हीनो वा,अभ्यधिको वा ? यदि तुल्यस्तर्हि समसत्तुमित्तपक्खो ,जेणं सत्तभयहाणविप्पमुक्के,जे णं अट्ठमनास्ति विशेषः, अथ हीनस्ततो यदपकया हीनस्तमुद्दिश्यान यहाणविप्पजदे,जे णं नवएहं बंजचेरगुत्तीणं विराहण्णभीतभागहीनो वा, असंख्येयजागहीनो वा, संख्येयभागहीनो वा, संख्येयगुणहीनो वा,असंख्येयगुणहीनोवा,अनन्तगुणहीनोवा?। रू, जेणं बहुमुए,जेणं आयरियकुलुप्पन्ने,जेणं अदीणे, जे अथान्यधिकस्ततो यदपेकयाऽभ्यधिकस्तं प्रतीत्याउनन्तभागा- णं अकिविणे, जेणं अणालसिए,जेणं संजइबग्गस्स पमिभ्यधिको चा, असंख्येयनागात्यधिको वा, संख्येषभागाभ्य- पक्खे, जेणं सययं धम्मोवएसदायगे, जेणं सययं ओहसा. धिको वा,संख्येयगुणाभ्यधिको घा, असंख्येयगुणाभ्यधिको वा, मायारीपरूचगे,जेणं मेरावट्टिए,जेणं अमामायारीजीरू,जेणं अनन्तगुणाभ्यधिको वा? असहमाने सर्वेषामप्यकरलाभे षट्रस्थानपतितत्वमेव कथं जाघटीति उच्यते-एकस्मात सूत्रा आलोयणारिहपायचित्तदाणपयच्छणक्खमे, जेणं बंदणदनन्ताऽसंख्येयप्तस्येयगम्यार्थगोचरा ये मतिविशेषाः श्रुतज्ञाना-1 मंमलिविराहणजाणगे,जेणं पडिकमणमंडलिविराहणजाणभ्यन्तरवर्तिनस्तैः षट्स्थानपतितत्वं न विरुध्यते। तमुक्तम्-"-| गे जे णं नसमझिविनाणजाणगे,जेणं झाणममन्निविक्खरखंभेण समा, ऊणऽहिश्रा टुति मशवसेसेहि। ते पुण मई. राहणजाणगे, जे णं वक्खाणमंमलिविराहणजाणगे, जेणं बिसेसे, सुयनाणभंतरे जाण ॥" एवंविधं च षट्रस्थानपतितत्वं प्रज्ञापनीयानामनन्ततमभागमात्र पत्र श्रुतनिबके घटमानक श्रामोथणामममिविराहणजाणगे, जेणं समुद्देसमंमलिपिभवति । यदिह सर्व एव प्रज्ञापनीया नावाः श्रुते निबका भवे. राहणजाणगे, जे णं पन्चजाविराहणजाणगे,जे णं उवठ्ठायुस्तर्हि चतुर्दशपूर्विणोऽगि परस्परंतुल्या एव भवेयुन पदस्था- वणाविराहणजाणगे, जे णं उद्देससमुद्देसाणविराहणजाणनपतिता इति । अत एवाह-तेन कारणेन यत्किमपि श्रुतं चतु गे,जेणं दव्वत्तकालभावंतरायचियाणगे, जेणं दबखेत्तदशपूर्वरूपं तत् प्रज्ञापनीयानामनन्ततमो भागो वर्तते इति । कालजावालंबणाविप्पमुक्के, जे णं सवाझवुदृगिलाणसेहसिअथ यदुक्तं प्रज्ञापनायां द्वावपि तुल्या, तद्भावनामाद क्खगसाहम्मिगह जावट्ठावणकुसले,जेणं परूवगे नाणदंसण. केवझविनेयऽत्थे, सुयनाणेणं जिणो पगासेइ । चारित्ततवोगुणाणं,जे णं वरणधरए पजावगे नाणदसणचा. सुयनाणकेवली विहु, तेणेवऽत्ये पगासे ।। रित्ततवोगुणाणं,जेणं दढसंमत्ते,जेणं सययं अपरिसाई,जेणं केवझेन विडूया ये अर्थास्तान यावत् श्रुतझानेन जिनः केसी प्रकाशयति । इह च केवलिनः संबन्धी वाग्योग एव, श्रोतृणां धीश्मा, जे णं गंभीरे, जे णं मुसोमशेसे, जे गं भावथुतकारणत्वात, कारणे कार्योपचारात् श्रुतज्ञानमुच्यते, न दिणयरमित्र अणभिनवणीए तवतेएणं,जे णं सरीरोपुनस्तस्य जगवतःकिमध्यपरं केवलझानव्यतिरिक्तं श्रुतज्ञानं वि- वरमे वि बकायसमारंजविवजा, जेणं तबसीलदाणपचते। "नटुम्मि उगसमथिए नाणे" इति वचनात् । थुतशानकेबल्यपि तानेच भावतस्तेनैव श्रुतझानेनार्थान् जीवादीन् प्रकाश जावणामयचउबिहधम्मतरायनीरू, जेणं सवासायणायति । अतः श्रुतकेवलिकेवलिनी हावपि प्रज्ञापनया तुल्यावि. भीरू, जेणं द्विरससायागारवरोद्दट्टग्माणविप्पमुक्के, जेणं तिस्थितम । तदेषं यथा केवनी व्यक्षेत्रकालभावैर्वस्तु जाना- सव्वावस्सगमुज्जुत्ते, जे णं सविसेसनफिजुत्ते, जे णं प्रावति तथा गीतार्थों ऽपि जानीते । वृ०१०। नि० चू०। मियपिबियामंतिओ वीणायरेजा अयजं, जेणं नोचहनिदे, गच्छसारणायोग्यो गुरुः, तथाभूतेन गुरुणा स्वाध्यायः कार्य:- | जेणं नो बहुभोई, जेणं सव्वावस्सगनायज्माणपमिमासे जयवं केरिसगुण जुत्तस्स णं गुरुणो गच्छनिक्खेवं काय भिग्गहे घोरपरीसहोवसगे सुनियपरीसहे, जे णं सुपत्तसंमं। गोयमा!जेणं सुधए, जे णं सुसीझे,जेणं दढचारित्ते, गहसीले,नेणं अपत्तपरिट्ठवणविहिन्न,जेणं अणद्वयवोंदी, जेणं अणिदियंगे, जे णं अरहे,जेणं गयरागे,जेणं गयदोसे, जे गं परसमयससमयवियाणगे,जेणं कोहमाणमायालोभममजेणं निजियमोहमिच्चत्तमसकलंके,जे णं उसंते,जे णं सुवि कारदितिहासखेमकंदप्पणाहवायविष्पमुक्के धम्मकहासंसारमाय जगहिती, जेणं मुमहावरणमग्णमल्लीणे, जेणं शत्थिक वासविसयाभिन्नासादीणं वेरग्गुप्पायगेपडिवोहगे भव्वसत्ता. हापमिणीए, जेणं जत्तकद्दापमिणीए, जेणं तेणगकहाप एं,सेणं गच्छनिक्खेवणाजोणे,से गं गणी, से गं गणह. मिपीए, जेणं रायकहापमिपीए,जेणं जणवयकहापमि रे, से णं तित्थे,से एं तित्थयरे,से णं अरहा,से णं केवळी, पीए,जेणं अचंतम कंपसीले,जे णं परतोगपञ्चवायभीरू, से णं जिणे, से णं तित्थुब्लासगे,से णं बंदे,से णं पुजे,से जेणं कुसीनपमिणीए,जेणं विनायसमयसम्भावे,जेणं ग णं नमसणिज्जे, से एं दट्टने, सेणं परमपवित्ते, से ए परहियसमयपेयाले, जे णं अहनिसाणुसमयटिए अहिंसाल- मकदाणे, से णं परममंगो, से सिच्ची,से णं मुत्ती, से क्खणे दसविहे समणधम्मे, जेणं उज्जते अहनिसाणुसमयं । णं सिवे, से णं मोक्खे,से एं वाया,से णं संमग्गे, से णं म. Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छसारपणा (११) श्रभिधानराजेन्द्रः। गच्छायार ती,से पं रने,से णं सिके,सेणं मुत्ते,से णं पारगए, से णं तथादि-शिष्टाः क्वचिदिष्टे वस्तुनि प्रवर्तमाना इष्टदेवतानमस्कादेवे, से णं देवदेवे, एयस्स गोयमा ! गणाणिक्खेवं कुजा, रपूर्वकं प्रायः प्रवर्तन्ते । शिपश्चायमप्याचार्य इति शिपसमाचार: परिपालितो भवत्विति मङ्गलमनिधेयम् ।आह च-"शिष्टाः शि. एयस्स एं गणनिकखेवं कारवेजा, एयरस णं गच्छनि पृत्वमायान्ति, शिष्टमार्गानुपासनात् । तवनादशित्वं, तेषां क्खवणं समणुजाणेज्जा । अन्नहा णं गोयमा ! आणानंगे। समनुपद्यते"॥१॥ तथा सम्बन्धादीनि श्रोतृजनप्रवृत्त्यर्थमभि• महा०५ अ०। धेयानि । तथाहि-यदसंबद्धं तत्र न प्रवर्तन्ते प्रेक्वाधन्तो दशदापायस्थदीक्वितात्सायोर्गणइचलतीति कुत्रोक्तमस्ति । अत्र मिमादिवाक्ये श्व, पवं निरभिधेयेऽपि काकदन्तपरीकायामिव, एवं निष्प्रमार्जनेऽपि कण्टकशाखामर्दन श्वेति । अतः संयन्धासंविन आचार्यादिः संविग्नगीतार्थाद्यनावे संविग्नभक्तपार्श्व दिप्रतिपादनं श्रोतृणां शास्त्रे प्रवृत्त्यङ्गम् । अथासर्वाऽवीतरागवस्थादिपावें यदा प्रायश्चित्तमङ्गीकरोति तदा पुनर्वतारोपरूपं चनानां व्यभिचारित्वसंजवेन सम्बन्धादिसद्भायनिश्चयाजावाप्रायश्चित्तं कश्चित्प्रतिपद्यते, एवं दग्रन्थोक्तानुसारेण समाधा नेतः प्रेक्कावतां प्रवृत्तिरत्र भविष्यति। या पुनः संशयात्प्रवृत्तिनमवसेयम्। इति श्रीहरिविजयसूरिणं प्रति परिमतकेवलर्षिग स्तां संबन्धादिवचनं बिनैव भवन्ती को निवारयितुं पारयतीति णिकृतः प्रश्नः।ही. ३ प्रका। न श्रोतृप्रवृत्त्य संबन्धादिवचनम् । सत्यं, किंतु शिष्टसमयपरि. गच्छाणुकंपणह-गच्छानुकम्पनार्थ-पुं० । सबालवृक्षस्य गच्छ- | पालनार्थ भविष्यति, शास्त्रकारा ह्येवं प्रवर्तमानाः प्र.यः प्रेक्ष्य स्थानुकम्पनहेती, नि०यू०१ उ०। पं० भा०। पं० चू०।। न्ते इति । गच्छगयार-गच्छाचार-पुं० । गच्चस्य सुविहितमुनिसमु- प्रन्धकृद् गच्छाचाराऽभिधप्रकीर्णक चिकीर्षुमन-संबन्धादायस्याचारः। शिष्टजनसमाचरितक्रियाकलापप्रकीर्णकविशे- निधेय-प्रयोजनाभिधायिकामिमां गाथामाहपानिधेये, तारशे प्रकीर्णके च । ग०। नमिकण महावीरं, तिअसिंदनमंसिधे महानागं । "उदोधो विदधेऽजाना-मिव भव्यशरीरिणाम् । गच्छायारं किंची, नुचरिमो सुगसमुद्दाओ।॥ २॥ गवां विलासर्यनासौ, जीयाद्वीररविश्विरम् ॥१॥ नत्वा प्रणम्य, कमित्याह-महावीरं, विशेषेण ईरयति विपति पदप स्वगुरुणां, सदा सदाचारचरणचुञ्चूनाम् । कर्माणीति वीरः। “विदारयति कर्माणि, तपसा च विराजते । नत्वा विदधे विवृति, गन्नाचाराल्यसूत्रस्य" ॥२॥ तपोवीर्येण युक्तश्च,तस्माद्वीर इति स्मृतः"।१। इति सक्वणानिरुयह तावच्गनादौ मनसम्बन्धानिधेयप्रयोजनान्यन्निधातव्यानि। काद्वा बीर,महांश्चासौ श्तरवीरापेकया वीरश्न महावीरः,तम्। तत्र विघ्नविनायकोपशान्तये शिष्यजनप्रवर्तनाय शिष्टसमयप- जन्ममहोत्सवसमये तनुशरीरोऽयं कथं जलभाम्भारं सोढा?,इति रिपासनार्थ चेष्टदेवतानमस्काररूपं भावमङ्गलमुपादयम् । तथा शकशङ्काशसमुकरणाय नगवता वामचरणाष्ठनिपीमितसुमे. श्रोतृजनप्रवृत्त्यर्थ शिष्टममयपरिपालनार्थ च संबन्धादिप्रयं रुशिखरमकम्पमानमहीतसोहसितसारस्पतिकोनशङ्कितब्रह्माएमवाच्यम् । तथाहि-इह श्रेयोनूते वस्तुनि प्रवर्तमानानां भाएमादरदर्शनप्रयुक्तावधिज्ञानशातप्रनाबातिशयविस्मितेन वाप्रायो विघ्नः संभवति, श्रेयोभूतत्वादेव, श्रेयोनूतं चेदम . स्तोपतिना व्यवस्थापितैवंविधनाम चारमतीर्थाधिपतिः स्वर्गापवर्गहेतुत्वात् । विघ्नोपहतशतेश्च शाखार्नुश्विकीर्षि- शेषजिनत्यागेन च महावीरहरी प्रवर्तमानतीर्थाधिपन परतशास्त्राऽमंसिद्ध्याऽभितपुरुषार्थस्याऽनिष्पत्तिर्मा भूदिति वि- मोपकारित्वात्।किंभूतम्,त्रिदशेन्द्रनमस्थित त्रिदशाः सुमनस. नविनायकोपशमनाय मात्रमुगदेयम् । आह च-" बहुधि- स्तेपामिन्द्रास्त्रिदशेन्द्रास्तै मस्थितस्तम् । तथा महाभाग, मग्यार सेयाम, तेण कयमंगलोययारेहिं । सत्ये पयाट्टियन्वं, वि.। हान् भागः " भागा पाई . .. " हे. जाए महानिहीए व ॥" ननु मानसादिनमस्कारतपश्चरणा- वचनाद्भाग्यं परमैश्वर्यादिमाप्तिहेतु तीर्थनामकर्मोदयरूपं य. दिना मजमान्तरेणैव विघ्नोपघातसनावादिष्टसिकिनविष्यतीति स्यासौ महाभागस्तम । ततः किमित्याह-गमनस्य सुविहिकिनेन ग्रन्धगौरवकारिणा वाननिकनमस्कारेणेति । सत्यम्, तमुनिसमुदायस्याचारः शिष्टजनममाचरितः क्रियाकलापो किन्तु श्रोतृप्रवृत्यर्थमिदं भविष्यति । तथाहि-यप्युक्त- गच्छाचारस्तमुरुरामः प्रकाणेकरूपत्वेन पृथक्कुम्भों, वयमिति न्यायेन कर्तुरविघ्नेष्टसिकिः स्यात्तथापि प्रमादयतः शिष्यस्य । शेषः । अनेन चास्माभिधेयमुक्तम् । ननु भद्रवादस्वाम्यादिभिघदेयतानमस्काररुपमङ्गनं विना प्रक्रान्तग्रन्धाध्ययनश्रवणा- रेष गच्याचारस्योद्धतत्वात किं नु न मुद्धरणेनत्याशझ्याह. दिषु प्रवर्तमानस्य विघ्नसंजवादप्रवृत्तिः स्यात् । मङ्गलवाक्यो- किञ्चित् संक्तिप्तमेध, पूर्वाचाहि प्रपञ्चतः स उड़तो, वयं तु पन्यासे तु मङ्गलवचनानिधानपूर्वकं प्रवर्तमानस्य मानव- मन्दमतिसत्यानुग्रहार्थं संकेपेण तमुहराम इत्यर्थः । अनेन च चनापादितदेवताविषयशुननावव्यपोहितविघ्नत्वेन शास्त्रे प्रवृ- प्रकीर्णककरणविषयायाः स्वप्रवृत्तः प्रयोजनमुक्तम्। यतः "प्रयो. तिरप्रतिहततरा स्यात्। तया देवताविशेषनमस्कारोपादाने सति जनमनुद्दिश्य मन्दोऽपि न प्रवत्तते"। तथा संक्तिमप्रकार्णकदेवताविशेषगदितागमानुसारीदं शास्त्रमत उपादेयमित्येवंविध- स्य सुखाध्ययत्यादिना विस्तरबग्रन्थत्यागेन श्रोतारोऽत्र प्रयबुद्धिनिवन्धनत्वेन शिष्यवृत्त्यर्थमिदं भवतीति । आह च- तिता भवन्ति, ननु श्रोतृजनप्रवत्तकविशेषणकदम्बकोऽयमपीदं “मंगमपुवपत्तो, पमत्तसीसो वि पारमिह जा । सत्थे घि- प्रकीर्णकमसबझेनावीतरागेण च भवतोध्रियमाणमविसंवादा. सासणाश्रो,गोरवादिह पयट्टे जा" ॥ १॥ ननु मङ्गल विकलाना- थिनां न प्रवृत्तिविषयो नविष्यत्यसर्वज्ञवचने विसंवादाशनका. मपि बहुतमशास्त्राणां दृश्यते संसिद्धिः, श्रोतृजनप्रवृत्तिश्चोत, निवृत्तरित्याशङ्कमान आह थुतसमुद्रात, श्रुतं कल्पव्यवहारादिततः किमनेननिकान्तिकेन शाखगौरवकारिणा चमडोनाभि-रूपं तदेव गम्भीरत्वादिगुणः समुद्रः श्रुतसमुस्तस्मात । यदि हि हितेन सत्यम किं तु शिष्टसमयपरिपासनार्थमिदं भविष्यति । स्वरचितादेर्मयोधियत तदा व्यजिचारशङ्कया नेदं प्रवृत्तिवि | Jain Education Interational Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१२) गच्छायार अभिधानराजेन्द्रः। गज्ज षयः स्यात् । तदेवमस्या गाथायाः पूर्वार्द्धन मङ्गलमभिहितम् । वान् दूषगणिपादोपसेवी पूर्वान्तर्गतसूत्रार्थधारको देववाचको उत्तरार्द्धन तु सविशेषणमभिधेयं मुख्यवृत्त्याऽभिहितं, तदभि- योग्यविनेयपरीकां कृत्वा संप्रत्यधिकृताऽध्ययनविषयस्य शानधाने च गौणवृत्या प्रयोजन,संबन्धश्चोक्तः। तथाहि-अस्य द्विविध स्य प्ररूपणां विदधाति-" नाणं पंचविदं पातं" इत्यादीति । प्रयोजनम्-अनन्तरं,परम्परं च । पुनरेकैकं कर्तृश्रोत्रपेक्वया द्विधा, ननु यद्येवं तर्बात्र गौतमप्रझे श्रीमन्महावीरनिर्वचनरूपं सूत्रमतो तत्र कर्तुरनन्तरप्रयोजनं सोपतो विनेयानां गच्छाचाराधिगम- भगवान् गच्छाचारप्रकीर्णककर्ताऽपीत्यमेव सूत्र रचयति स्मेति । करणं, परम्परंतूपकारद्वारेण कर्मक्यानिर्वाणम् । श्रोतृणां पुनर. ग०१ अधिक। नन्तरं प्रकीर्णकस्य संक्षिप्तत्वादल्पायासेन गन्गचाराधिगमः, श्रीगच्छाचारप्रकीर्णकीकातःपरम्परं निर्वाणमवति । इदं च प्रयोजनमभिधेयाभिधानेन साम "प्रायः स्वकीयोदितमप्यतादृशं, दिभिहितम् । न हि पुरुषार्थाऽनुपयोगिवस्तुनोऽनिधानाय - सर्वाङ्गभाजां जगतीह रोचते। सन्तःप्रवर्तन्ते,तत्वहानिप्रसङ्गात् । तथाऽस्य प्रकीर्णकस्येदं प्र. इयं मदुक्तिस्तु ममैव नो तथा, योजनमिति दर्शयतादर्शित एवास्योपायभावनवणः संबन्धस्त कथं परेषां रुचये भविष्यति?॥१॥ र्कानुसारिणःप्रति तथादी प्रकीर्णकमुपायो वर्तते,उपायान्त न चाभूपृद्धोक्तवृत्ति-रस्यादर्शास्तु नूरिशः। रेण विवक्किताधिगमकरणादीनामसिद्धेः, अत एवेदमेवाधि तथाऽप्यस्ति गुरूपास्तिः, समस्त स्वस्तिदाऽन्मनः॥२॥ गमादिकरणमस्योपेयमितिआह च-"संबन्धः प्रोक्त एव स्या यदन मतिवैगुण्यात, ग्रन्थामन्यासतस्तथा। देतस्यैतत्प्रयोजनम् । श्त्युक्ते तेन नो वाच्यो, भेदेनासौ प्रयो भ्रमाद्वा विवृतं सर्वा-गमेनापि विरोधभाक॥ ३॥ जनात्"॥१॥ इति । तथा श्रुतसमुजादित्यनेन श्रद्धानुसारिण: विभक्त्यादिविरुरूंच, मिथ्यादुष्कृतमस्तु तत् । प्रति गुरुपर्वक्रमसक्कणोऽपि संबन्धोऽभिहितः। तथाहि-प्रथमतो शोधयन्तु च तत्वज्ञाः, कृत्वा तत्र घृणां मयि ॥ ४॥ (युग्मम्) जगवता परमाईत्यमहिम्ना विराजमानेन वर्द्धमानस्वामिना विचारोपनिषद्भेद-समुच्चयचिकीर्षया । गच्छाचारः प्रतिपादितः, ततः सुधर्मस्वामिना द्वादशस्कन्धे गच्याचाराभिधप्रन्थ-वृत्ति निर्मितवानहम"॥५॥ (ग) सूत्रतया निवद्धः, ततोऽप्यार्यभद्रबाहुस्वाम्यादिभिः कल्पादिषु " तेषां श्रीसुगुरुणां, प्रसादमासाद्य संश्रुतानन्दः। समुदतः, तेभ्योऽपि मन्दमेधसामवबोधाय संकिप्याऽस्मिन् प्र घेदागिरसेन्दु १६३४ मिते, विक्रमनूपासतो घर्षे ॥७३॥ कीर्णके समुध्रियते । अत एव परम्परया सर्वज्ञमूलमिदं प्रकी- शिप्यो नूरिगुणानां, युगोत्तमानन्दविमनसूरीणाम् । कमित्यवश्यमबदातधियामुपादेयमिति गाथानन्दः ( ग.)। निर्मितवान् वृत्तिमिमा-मुपकारकृते विजयविमलः ॥ ७४॥ नन्विदं प्रकीर्णकं केन विरचितमिति । उच्यते-"महानिसीह- कोविद विद्याविमला, विवेकविममाभिधाश्च विद्वांसः । कप्पाओ, ववहाराको तदेव य । साहुसाहुणिप्रहार, गच्चाया- मानन्दविजयगणयो, विचिन्तयन्तो गुरौ भक्तिम ॥१५॥ रं समुकि" ॥१॥ श्तीहैव वक्ष्यमाणवचनादेवेदमवसी- शोधनसिखनादिविधा-वस्या वृत्तव्यधुः समुद्योगम। यते-यपुतेदं प्रकीर्णकं श्रीभद्रबाहुस्वामिपादविरचितग्र- स्युर्बाढमादरपराः, उतेह कृत्ये कृतका वा ॥७६॥ ग०४अधिक। धादित्य उद्धतत्वेन तदग्निाविना पूर्वान्तर्गतसूत्रार्थधारण गच्चिय-गच्चिदण-गत्वा-प्रव्य० । “कृ-गमो डमुन्नः" । ८ । केनाप्याचार्येण विरचितमिति प्रायो ज्योतिष्करएकप्रकीर्ण ४।२७२ । इत्यस्य वैकल्पिकत्वात् पके"क्व श्य-दणी" कं चालज्यवाचनानुगतेन पूर्वगतसूत्रार्थधारिणा केनाच्याचार्य ८।४।२७१ । शौरसेन्यां क्त्वाप्रत्यस्य इय दूण इत्यादेशी भ. ण विरचितम् । उक्तं च श्रीमलयगिरिसूर्यादेस्तत्प्रथमगाथा वतः । गमनं कृत्वेत्यर्थे, प्रा०४ पाद । सौ-अयमत्र पूर्वाचार्योपदर्शित उपोद्घातः कोऽपि शिष्योऽल्पश्रुतः कश्चिदाचार्य पूर्वगते सूत्रार्थधारकं चाऽनभ्य श्रुतसागरपा गचिल्ल-गच्छवत-त्रि० । गच्छवासिनि, वृ० १७०। रगतं शिरसा प्रणम्य विज्ञपयति स्म । यथा-भगवन् ! श्च्छामि | गच्चवज्काय-गच्छोपाध्याय-पुं० । गनायके, व्य०२२० । युष्माकं श्रुतनिधीनामन्ते यथावस्थितं कालविभागं ज्ञातुमिति । | गज-गर्ज-धा० । ऊर्जाहेतुकशब्दे, भ्वा० ५० अक सेट् । "गतत पवमुक्ते सति आचार्य प्राह-श्रृणु वत्स! तावदित्यादि । तथा जैर्बुक्कः" ।। ८ । इत्यस्य पाकिकत्वात् 'गज्जा' तद्वितीयप्राभृतवृत्तावपि संख्यास्थानके सशस्वमाश्रित्याक्तम् ।। यथा-इह स्कन्दिनाचार्यप्रवृत्तो दुःषमानुजावतो पुर्मिकप्रवृ गर्जति, प्रा०४ पाद । स्या साधूनां पग्नगुणनादिकं सर्वमप्यनेशत् । ततो पुर्भिका गद्य-न । ब्रह्मचर्याध्ययनवत, (सूत्र. १ श्रु० ११०१०) तिक्रमे सुभिक्तप्रवृत्तौ द्वयोः संघयोर्मेसापकोऽभवत । तद्यथा शत्रपरिज्ञाध्ययनवद् वान्दोनिष (स्था० ४ ठा०४ उ०) पको वनज्यामेको मधुरायाम।तत्र च सूत्रार्थसंघटने परस्परवा प्रथमेऽविधगेयभेदे, यत्र स्वरसंचारेण गचं गीयते । जं०१ चनाभेदो जातः । विस्मृतयोहि सूत्रार्थयोः स्मृत्वा संघटने वक्ता जी०। पं० भा०। जयत्यवश्य वाचनाभेदो न काचिदनुपपत्तिः । तत्रानुयोगद्वारा गद्यलकणमाहदिकमिदानी वर्तमानं माथुरवाचनाऽनुगतं ज्योतिष्करएमकसूत्र महरं हेननिजुत्तं, गहियमपायं विरामसंजुत्तं । कर्ता चाचार्यो वानभ्यः,तत इहेदं संख्यास्थानप्रतिपादनं चाल- अपरिमियं चनसाणे, कव्वं गजं ति नायव्वं ।। ७७॥ भयवाचनाऽनुगतमिति नास्यानुयोगद्वारप्रतिपादितसंख्यास्थानः मधुरं सूत्रार्थोनयैः श्राव्यम्, हेतुनियुक्तं सोपपत्तिकम, प्रथित सह विसदृशत्वमुपलभ्य विचिकित्सितव्यमिति । यथा वा नन्द्य- बद्धमानुपूा, अपादं विशिष्टच्छन्दोरचनाऽयोगात्पादवर्जितम, ध्ययनं देववाचकेन, उतं च श्रीमक्षयगिरिसूरिपादेरेव नवृत्ती।। विरामोऽवसानं तत्संयुक्तमर्थतो न तु पाउत इत्येके। यथा-"जियथा-तदेवमीप्रदेवनास्तवादिसंपादितसकल सौपिहित्यो भग- णवरपादारविंदसंदाणि नरुणिम्मस्सहस्स" एवमादि "अस Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गज्ज माणि न चिरत्ति” यतिविशेषसंयुक्तमन्ये, अपरिमितं चायमाने वृहद्भवतीत्येके । अन्ये तु अपरिमितमेव जयति बृहदिस्वर्थः श्रवसाने मृडु व पठ्यत इति शेषः । काव्यं गद्यम, इति एवंप्रकारं ज्ञातव्यमिति गाथाऽर्थः ॥ ७७ ॥ दश० २ श्र० । गर्जत गर्न नयानं मुखति उस० २० - अधुना कियाह इति नवमं माहरिपत्र देणं, गयागइयं जलं बियाणंतो । पमिहरड़ लोगसनं, सुपरिक्खियकार ओ धीरो ॥ ६८ ॥ गरिका एकका, तासां प्रवाहः संचरणम् । एकस्या अनुमा र्गेण सर्वासां गमनं रिकाप्रवाह द्वारगाथायामादिशब्दः की डिमोदकार्थानुमतिकमवचारितकारिणं जनं लोकं विज्ञानयुज्यमानः परिहर ति,लोकसंज्ञामविचारितरमणीयां लोक हरिं, कुरुनन्नरेन्द्रकन् कभूतः सा सुपरीक्षितकारक सुप श्री मतिमानिति ०१० कथा तु 'कु' शब्देऽत्रैव जागे ५६० पृष्ठे प्रष्टव्या ) गड्डड्-गर्दन - पुं० | "गई मे वा " || २३७ गई ईस्य डो वा भवति इति दस्य डः । प्रा० २ पाद | खरे, " गइहे व गवं मज्जे, विस्तरं नयई नयं 39 स०३० सम० । गड्डा - गर्त्ता - स्त्री० । महत्यां खड्डायाम, जी० ३ प्रति० ॥ ४] द्वार । ध० । श्राचा० । जं० । गज्जल गर्जल - न० | गर्जितसमानशब्दं कुर्बति वस्त्रविशेषे, गढ-घट-घा० चेष्टायाम, ज्वा० आत्म० श्रक० सेट्र। घटेगंढः " नि० चू० 9 उ० । श्राचा० । ८ । ४ । ११२ । घटेगढ इत्यादेशो वा भवति इति गढादेशः । 'गढ' घटते । प्रा० ४ पात्र । गज्जह-गर्जन- पुं० | 'गज्जभ' शब्दोतार्थे, श्रा० म० द्वि० । (१३) अभिधानराजेन्द्रः । 1 गजा गर्जनफ-२० पुरभेदे यत्र मासकाविहारेस्थि विजयसेनसूरिभिरङ्कारदाहकः परीक्षितः पञ्चादि 'गजनी' (अफनानिस्तान) इति पाठे मोराजनगरे दी वरेण हम्मीरनाना म्लेच्छराजेन पचभीपुरो शिक्षादि त्यो मारितः । ती १७ कल्प । गज्जणसद्द - देशी - मृगवारणध्वनौ, दे० ना० २ वर्ग । गज्जन-गर्जन - पुं० । अपरोत्तरस्यां शुद्धविदिग्वाते, प्रा० म० द्वि० ! गज्जरग - गर्जरक-न० । 'गाजर' इति प्रसिद्धे कन्दने, गग्माण गपाश पुं० पोडके, गुज्जाश्रयेण वल्लः स्यादू, गद्याणं ते च पोडश । कल्प० १ कण | गज्जिता - गर्जिता-त्रि० । गर्जितकृति, स्था० ४ ठा गज्जिय - गर्जित- न० । मेघध्वनौ, प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार | प्रय० । ज्ञा० । स्था० | जी० । जिस-गणित-० गर्जितराब्दो जलसमुथो, पा युसमुत्थो वाऽन्यद्वा किमपीति प्रश्ने, उत्तरम् - स्थानाङ्गवृत्तौ स्याने स्थान स्तनितानि शब्दानां व्याख्याने मित्यर्थ करणान्मेघस्य व जलमयत्वाद् गर्जितशब्दो जलसमुद्भवः नाम्यते । वायुसमुग्ध शग्दो गर्जितकराणि तु शाखे नोपलभ्यन्त इति । ५ प्र० । सेन०२ उद्घा० । गज्जवक - ग्राह्यवाक्य-त्रि० नायके, आचा०१ ० १ ० १३० । गहन-गहून पुं० घरणस्य नागकुमारेन्द्रस्य नाराकाधि पती, स्था० ७ ठा० । २४ 66 प्रव० गठिय-प्रथित-न० शास्त्रेषूपनि ०२ डा० १० गमु - गत्वा - अव्य०। “कृगमो मरुः ८६४२१२ इतक्या प्रत्ययस्य मडुआदेशः । गमनं कृत्वेत्यर्थे, प्रा० ४ पाद । गमुल-गमुद्र-सायनादी पानीये ०२अधिनस्थान गइ गर्न पुं० “गर्ते डः ८ २ ३५ । गर्तशब्दे संयुक्तस्य मः । प्रा० २ पाद् । श्वभ्रे भ०७ श० ६ ० । निम्ने भूजागे, अधोलोकप्रामादौ च । भ० ६ श० ३१ ३० । चतु " गडरिया गइरिका-श्री पूननायाम, प्रेम' इति पदजी, सू० १ ० ३ ० ४ उ० । गडरियापवाह- गइरिकाप्रवाह पुं० । ६० । एडकानामेकस्या अनुमान सां सर ०० गण गढित्तए - ग्रथयितुम् - अव्य० । दृढबन्धनवन्धीकर्तुमित्यर्थे, जी० ४ प्रति० । गरिब-यृद्ध-त्रि० अभ्युपपचे आचा०२ २०२८०२४० | दशाः ॥ अवबद्धे, सूत्र० २ ० १ श्र० । श्राचा० । प्रन० प्रधित इव ग्र चितः आहारविषयस्ते हरतुभिः संदर्भिते. २०१४०७० ज्ञा० । विपा० । सूत्र० । पदपानवन्धेन वा श्लोकबन्धेन वा बडे, वृ० ३ उ० । शास्त्रेपूपनिब, स्था० २ ० १ ० । गढयगिव - ग्रथितगृद्ध - त्रि० । अत्यन्तं गृद्धिमति, प्रश्न०२ श्राश्र० द्वार । गण- गण - पुं० । मल्लादीनां समूहे, उत० १५ श्र० । स्था० । आ० चू० । एकवाचनाऽऽचारक्रिया स्थानां ( ० म० प्र० । स्था०कल्प ) परस्परसापेकाणामनेरुकुलानां साधूनां समुदाये, पं० ० १ द्वार स्था० । प्रति० [सं० प्र० । ० । गच्छे, नं० प्र० । व्य० भा० चू० । प्रश्न० । ० । सम्प्रति गणस्य निक्केपमभिधित्सुराहनामादिगणो चन्दा, दव्त्रगणो खलु पुणो जवे तिविहो । लोइय कुप्पवयरिणो, लोउत्तरियं य बोधव्वो । नामादिरूपो गणश्चतु चतुष्प्रकारः । तद्यथा-नामगणः, स्थापना गणो, ज्यगणो, जावगणश्च । तत्र यस्य गण इति नाम सनामगणः । गणस्य स्थापनाऽवराटकादिषु स्थापनागणः । व्यगणो द्विधा श्रागमतो, नोचागमतश्च । तत्राऽऽगमतो गणशब्दार्थज्ञाता, तत्र चानुपयुक्तः। नो बागमतस्त्रिधा - इशरीरजव्य शरीरतयतिरिकमे तत्र शरीरेस्त्रिया तथा लौकिकः कुपायचनिको लोका सरिका । तेषामपि द सवितादिसमूहो, लोगम्मि गणो छ मापूरादी | पापम्मी सोउचरओनमनीयाणं ॥ Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) गण अनिधानराजेन्डः। गणतत्ति सचित्तादिसमूहः-सचित्तसमूहः.अचित्तसमूहो, मिश्रसमूह- गणट्ठकर-गणार्यकर-त्रि० । गणस्य साधुसमुदायस्यार्धान् च व्यगणः । तत्र सचित्तसमूहो यथा-मवगणः, तथा पुरे प्रयोजनानि करोतीति गणार्थकरः। गच्छस्य भादारादिनिरुपभवः पौरस्तस्य गणः । अचित्तसमूहो यथा-वसुगगाः। मिश्रसमू- एम्भके, स्था० ४०३ उ०। दो यथा-सुवर्णालङ्कारभूषितो मल्लगणः,पौरगणो वा । कुमावचने गणण-गणन-न० 1 परिसचाने, स्था०१ ग.१००। कव्यगणो यथा चरकादिगणः। चरकः परिव्राजकः, आदिशब्दाज्यां दुरङ्गादिपरिग्रहः । बौकोत्तरिको व्यगणः-श्रवसन्नागी- गणणग्ग-गणनाग्र-न० । गणनायाः परस्तात्प्रवर्तने, नि. तार्थानां समूहः। किमुक्तं भवति?-पार्श्वस्थादिगणैर्यदि वा प्रव. चू० १००। आचा। (विस्तरस्तु 'अग्ग' शब्द प्रथमभागे चनविडम्बककुमतप्ररूपकगणोऽथवा उगीतार्थगणो लोकोत्त- १६४ पृष्ठे अष्टव्यः) रिको व्यगण इति । भावगणो द्विधा-आगमतो, नोप्राग गणघाण-गणनस्थान-न०। गणने संख्यायां स्थाने, व्य मतश्च । तत्रागमतो ज्ञाता तत्र चोपयुक्तो गोश्रागमतः। १००। श्राह गणणा--गणना-स्त्री० । गणनाविषये एकद्वयादिशीर्षप्रहेलिकाउपत्य नज्जुयाणं, गीयपुरोगामिणं अगीयाणं ।। पर्यन्ते स्थानभेदे, स्था० ठा०१०। प्राचा। संख्याने, स्था. एसो खलु नारगणो, नाणादितिगं व जत्थऽस्थि ।। ५०३ उ० । संख्यायाम, सूत्र. २१०२०। गीतार्थानामुक्तानां शक्त्यनुपगृहनेन संयमे प्रवर्तमानानाम्। गणणाइया-देशी-चरामघाम, दे० ना०२ वर्ग। भयवा अगीनानामपि, अपिशब्दो लुप्तोऽत्र अष्टव्यः, गीतपुरोगामिनां तया मिथितानां समूहो भावगणः । एप अनन्तरो- गणाणणंतय-गणनानन्तक-न० । संख्यामानव्यपेक्षे अनन्तके, दितो भावगणो नोग्रागमतो जावगणः । अथवा किंबहुनाक्त- स्थाग०१001('अणंतग' शब्दे प्र० भागे २६० पृष्ठे न ?, यत्र ज्ञानादित्रिकमस्ति स नोप्रागमतो भावगणः।। व्याख्योक्ता) जावगणेणऽहिगारो, सो न अपनाविए न संभवति । । गणणातिकंत-गाण नातिक्रान्त-त्रि० । असंख्येये, "गण णमतिइच्छातियगहणं पुण, नियमण हेनं तो कुण ॥ कंतत्ति वा असंखज त्ति या एगट्ठा" प्रा००१०। भावगणेन नोआगमतो भावगणेनाधिकारः प्रयोजनम्, स च | गणणायग-गणनायक-पुं०। प्रकृतिमहत्सरे, राजा औ०। भावगणो यथोक्तरूपः स्वयमप्रवाजिते नास्ति तस्मात्स्वयं ज्ञा० । स्था। अनु०। साधवः प्रवाजनीयास्ते परिवारतया कर्तव्याः । अथवा प्रमा-गणणाम-गणनामन-न०। महाधिशेषाभिधायके शम्दे, मनु । चत्याचार्य यः परिवारः सको नियुक्तिकारद्वारगाथायामिच्छत्रिक.ग्रहण नियमहेतुं करोतीति । व्य.३ उ०। (तीर्थकृतां से कि त गणनामे | गणनामे मद्धे मवादिन्ने मल्लधम्मे मद्धगणसंख्या तित्थयर'शब्दे वक्ष्यते) मलादिगणवद्गणः । स्कन्धे, | सम्मे मददेवे मबदासे परसेणे मदरक्खिए। सेत्तं गणनामे। अनु० विशेा परिवारे, प्रा० म०प्र० । चोरनामगन्धद्रव्ये, ग- “से किं तं गणनामे" इत्यादि । इह मवादयो गणास्तत्र य श, स्वपथ, वाच०। पाश्व स्थादिदीक्तिसाधागणो नवति, न स्मिसाम्नि वर्तते तस्य तन्नाम गणस्थापनानामोच्यते ' मल्ले घेति प्रश्नः । उत्तरम--पार्श्वस्थादिदीक्षितमुनर्गणो भवति । | मदिने' इत्यादि । अनु० । यदुक्तं महानिशीथतृतीयाध्ययनप्रान्तप्रस्तावे-" सत्तगुरुप गणणासंखा-गए नासड्या-स्त्री०। एकादिकायां संस्थायारंपरकुसीले इगधितिगुरुपरंपरकुसीले" इत्यस्यार्थोऽत्र विक म्, अनु०। ल्पद्वयभणनादवेमवसीयते यदेकद्वित्रिगुरुपरम्परां यावत्कुशीलत्वेऽपि तत्र साधुमामाचार सर्वधोच्चिन्ना न जवति। तेन से किं तं गणणासंखा । गणणामंखा एगो गणणं न उबेड़ यदि कश्चिक्कियोद्धारं करोति तदाऽन्यसांभोगिकादिभ्यश्चारि दुप्पनिइसंखातं संखेजए असंखेजए अतए । त्रोपसंपदं गृहीत्वैव क्रियोद्धारं करोति, नान्यथेति किश्च-कश्चि. "से कि तं गणणासंखा" इत्यादि । एतावन्त पते इति संख्याशिवपार्वे प्रवजितस्तान् विहाय साधुसमीपे भागतस्तस्य तं गणनासंख्या। तत्र (एगो गणणं न उबे)पक.स्तावमणनं तदेव प्रायश्चित्तं यदसौ सम्यग् मार्ग प्रतिपद्यते, स एव च संख्यां नोपति, यत एकस्मिन् घटादी र घटादिवस्त्विदंतिष्ट. तस्य व्रतपयर्यायो, न भूय उपस्थापना कर्तव्येति बृहत्कलातृ तीत्येवमेव प्रायः प्रतीतिरुत्पद्यते, नैकसंख्याविषयत्वेन । अथवा तीयत्रएडेप्रीति । २ प्र. सेन ३ बल्ला। प्रादानसमर्पणादिव्यवहारका एक वस्तु प्रायोन कश्चिद्रणयगणो -गणतम् --अव्यः । गणश इत्यर्थे, गणशो यदुशोऽने । त्यतोऽसंव्यवहार्यत्वादल्पत्वाद्वा नैको गणनासंख्यामवतरति; तस्माद् द्विप्रभृतिरेव गणनासंख्या।साच संख्येयकादिनेदभिन्ना। कश इति यावत् । सूत्र० २ श्रु. ६अ। तद्यथा-संख्येयकमसंख्येयकमनन्तकम । अनु०। गणंत-गणयत-त्रि० । पालोचयति, सूत्र.१ भु०४ अ० १ गणणिक्खेव-गणनितेप-पुं० । यो यत्रोपाध्यायादिस्थाने स्थि. उ०।"भावी गणंतेणं " भावतः परमार्थतो गणयताss. परमाथता गणयताऽऽ | तस्तन इत्वरं तत्पदमात्मसमस्याऽन्यस्य साधोनिक्केपे, ध०४ स्मनोऽन्विच्छता सता । पश्चा० ४ विव०। अधिका('उद्देसणा' शब्दे द्वितीयभागे८१६ पृष्ठे गणावच्छेदकगणग-गणक-पुं० 1 ज्योतषिके, औ० । कल्प०। भगणित, । स्य निकेप उक्तः। स च जिनकल्पिकस्य 'जिणकप्पिय ' शन्दे भाण्डागारिके इति वृद्धाः। झाश्रु०१ अ० । 'चर्मकारस्य द्वी । अष्टव्यः) पुत्रा, गएको वाद्यपुरकः' तस्मिन् संकीण जातौ च । वाचा गणतति-गणतति-रखी। गणचिन्तायाम, प्रतिः । Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (a) अभिधानराजेन्द्रः । गणथेर A गर गणस्थर मौकिकस्य सीकोगरिकस्य व्य वस्थाकारिणि, तद्भश्च निग्राहके स्थविरभेदे, स्था० १० ठा० । “ सो होति गणथेरो गणथेरगुलेहिं जबवेतो " पं० जान • गणथेरेण कथं गणो न वोक्काम" पं० ० । गणधम्म - गणधर्म-पुं० । मलादिगणव्यवस्थायाम, यथा समपादपातेन विषमग्रह इत्यादि । दश० १ अ० । जैनानां वा कुलसमुदायो गणः कोटिकादिस्तद्धर्मः, तत्सामाचारी | गणसामाचार्याम्, स्था० १० ठाम गणः समुदायो, निजज्ञातिरिति यावत् । तस्य धर्मः । स्वस्वप्रवर्तिते विवाहादिके व्यवहारे, जं० २ वक्ऋ० । गणधर - गणधर पुं० [अनुसरहादर्शनादिधर्मग परतीत गणधरः । अनुत्तरज्ञानदर्शनादिधर्मगणधरे, “सेजंभवं गणहरं, जिणपडिमा दंसणेण पनिबद्धं । " श्रा० म० प्र० । पं० चू० । सूत्रकर्तरि श्र० म०प्र० । तीर्थकृच्छिष्ये, कल्प० ६ ऋण । गणनायके, कल्प ७ कण । गौतमस्वाम्यादौ, विशे० । स्था० । वन्दनमुखेन गणधरस्वरूपम् - कारस गिलहरे, पापवयस्वंदामि । सव्वं गणहरवंस, वायगवंसं पत्रयणं च ।। १०६२ ॥ अनुचरज्ञान शेनादिगुणानां वणं धारयन्तीतिकादशाऽपि मादी बन्दे कता ? इत्याह-प्रकर्षेण प्रधाना श्रादौ वा वाचकाः प्रवाचकाः प्रवचनस्यागमस्य । एवं ताब मूत्र गणधर वन्दनं कृतम्। तथा सर्वे निरवशेषम्, गणधरा जम्बूप्रभवशय्यम्भवादयः शेषा श्राचार्याः तेषां परम्परया प्रवा हो वंशस्तम् । तथा वाचका उपाध्यायास्तेषां वंशस्तम् । तथा प्रवचनं बन्दे इति नियुक्तिगाथार्थः ॥ १०६२ ।। अथ भाष्यम् , पुजा महत्वचा, पवनारोका गारा वि पुजा पायगा पत्र-पगस्स ते वारसंग || २०६३ ।। जया या रानपण मुहं लहर । विपिं गहरण सह १०६४ ओ जह मूलमुयप्पनवा, पुज्जा जिणगणहरा तहा जेहिं । शुभमणीयमिदं विंसो कि नो १।१०६५। जिणगढ रुग्गयस्स वि, सुयस्स को गहणधरणदालाई । कुणमाणो नइ गणरायगसो न होनाहि २०६६। सीसहिया बत्ताशे, गलाहिना गणहरा तयत्यस्स । सुतस्सोकाया, सो तेसि परंपराओ ।। १०६७ ।। पग पावणं पत्र वारसंगमि तस्स । जबतारो पुग्नापि विसेसे तो पुजं ।। १०६८ ॥ मानव यथार्थस्य यता तीर्थकर तथा गणधरा अपि गौतमादयः पूज्याः, यतस्तेऽपि प्रवचनस्य द्वादशाङ्गस्य सूत्रतः प्रवाचका एव इति तेषामपि नमस्कारः कृतः । अथवा यथा राज्ञा पृथ्वीपतिना श्राज्ञातं तदाज्ञापितमर्थादिकं राजनियुक्तानाममात्यादीनां प्रणतः सुखेनैव लभते, तथा प्रणतिप्रसन्नैजिनवरेन्द्रैर्विहितं विस्तीर्ण मङ्गलादिकं गणधर प्रणतः सुखेनैव लभत इति तेषामपि नमस्कारः । श्रथ सामान्येन शेषाचार्योपाध्याय नमस्कृतौ हेतुमाइ - ( जहेत्यादि ) गणधर या " यथा मूलश्रुतस्य द्वादशाङ्गी सम्बन्धिनोऽर्थस्य सूत्रस्य च प्रनबा देतवो यथासंख्यं जिना गणधराश्च पूज्याः, तथा यैरिदंतयोदशी का वदानीतं तेषां शेषाचार्य रूपगणधरोपाध्यायानां वंशः कथं न पूज्य ?, श्रपि तु पूज्य एवेति । किञ्च " जिणेत्यादि अथ वि शेषतो गराचराणाम उपाध्यायानां च नमस्तहेतुमाह ( सीसेत्यादि ) यथा गणाधिपा गौतमादयः, गणधरास्तु जस्वादयः शेषाचा द्वादशास्य कारो व्याख्यातारः सन्तः शिष्यवर्गस्य हिताः, तद्धितत्वाच्च नमस्क्रियते; तथा तत्सूत्रस्य वकारः पाठयितारः सन्त उपाध्याया अपि शिष्यहिता एव वंशश्च तेषामेवोपाध्यायानां परम्परकः पारपर्यव्यवस्थितः समूहः, अतः शिष्यहितत्वात्सोऽपि नमस्क्रियते । शेषं सुबोधमिति । विशे० । श्रा० म० । श्रा० चू० । अथ कस्य तीर्थकृतः कियन्तो गणधरा इति दर्श्यते"एवं विजिणं च । वोच्चं गणहरसंखं, जिलाण नाभं च पढमस्स ॥ ४७ ॥ उसभजिणे खुलसीती, गणहर उसनसेण श्रादी य । अजियजादे नउमि तु सीहसेणो नवे आदी ॥ ४८ ॥ चारुय संभवजिणे, पंचाणउती य गणहरा तस्स । पढमो य वज्रनाभो, अभिनंदण तियधिकस्यं तु ४६ ॥ सोलसयं सुमइ सओ वमरात्रिय पढमगणहरो तस्स । सुखमणि सयमेको रंगमहराणं ॥ ५०॥ होश सुपासविज्जो, पंचाणडतीय गणहरा भवे तस्स । नंदो य सीयलजिणे, एकासीति मुणेयव्या ॥ ५१ ॥ सिसेरी, पदमो सिस्सो व गोभी दोइ । यी भूमो यो वासपुञ्जस् २ || विमलजिणे छप्पन्ना, गणहरपढमो य मंदरों होइ । पपासाऽणंतजिणे, पदमो सिस्सो जसो नाम ॥ ५३ ॥ धम्मस्स होश्ऽरिडो, तेयाल्लीसं च गणहरा तस्स । चक्की उच्य पढमो, बत्तालीसा य संतिजिये ॥ ५४ ॥ कुंथुस्स भवे संघो, सत्त तीसं च गणहरा तस्स । कुंभ य अरजिणिदे, तेत्तीस च गणहरा तस्स ॥ ५५ ॥ भिसंसिगो मलिजिणे, अठावीसं च गणहरा हाँति । मुणिसुव्वयस्स मला, श्रहारस गणहरा तस्स ॥ ५६ ॥ सुभो नमिजिणवसभे, एक्कारस गणहरा चरिमदेहा । मिस्स वि अहारस, गणहर पढमो वेरदत्तो ॥ ५७ ॥ पासस्स श्रजदियो, पढमो अठेव गणहरा जाणया । जिलबीरे एक्कारस, पदमो से इंदजूई उ ॥ ५८ ॥ गणरसंखा भणिया, जं नामो पढमगणहरो तस्स" । ति० । जगयत आदितीर्थंकरस्य चतुरशीतिर्मणः तथा मिनः पञ्चगपति संजयगाथस्य द्वघुत्तरं शतम अभिनन्दनस्य पोडशोत्तरं शतं. सुमतिनाथस्य परिपूर्ण शतं पद्मप्रनस्य ससाधिकं शतं सुपास्य पञ्चनवतिः चन्द्रप्रभस्य त्रिनवतिः, सुविधिस्वामिनोऽशीतिः, शीतलस्य एकाशीतिः, श्रेयांसस्य षट्सप्ततिः, वासुपूज्यस्य षट्षष्टिः, विमलस्य सप्तपञ्चाशत्, अनन्तजिनस्यास्यारिंशत् शान्तिनाथस्य पत्रिंशत्, कुन्थुनाथस्य पञ्चत्रिंशत्, श्ररजिनस्य त्रयत्रिंशत्, मज्ञिस्यामिनेो श्रष्टाविंशतिः, मुनिसुव्रतस्य अष्टादश, नमिनाथस्य सप्तदश, अरिष्टनेमेरेकादश, पार्श्वनाथस्य दश वर्षमानस्वामिश्र एकादरीवेन पादचतुर्विंश 1 , Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०१६) अभिधानराजेन्द्रः | गणधर 1 तेस्तीर्थकृतां यथाक्रमं गणधराणां मूलसुत्रकर्तॄणां प्रमाणम् । प्रव० १५ द्वार। आ० म० । (तित्थयर ' शब्देऽपि वच्यते ) पासस्व अरिहा पुरिसादाणी अस्त ग्रह गया अट्ठ गणरा होत्या तं जहा“ सुने व सुभपोसे य, बसिके बंभवारिय सोमे सिरीपरे चैव वीरजदे जसे " || पार्श्वस्यायोचितमतीर्थकरस्य (पुरादास सि) पुरुषाणां मध्ये बादानीय आदेशः पुरुषादानीयात गणाः समानवाचनाक्रियाः साधुसमुदायाः, अष्टौ गणधरास्त आपका सूरयः। इदं तत्या स्थानाङ्के प श्रूयते । केवलमावश्यके ऽन्यथा । तत्र धुक्तम्- " दसनवगं ग णारा माणं जिणिदाणं" ति । कोऽर्थः ?, पार्श्वस्य दश गणाः, गणधराश्च । तदिह द्वयोरल्पायुष्कत्वादिना कारणेनाविव काऽनुमन्तव्येति । स० सम० । वीरस्य - समयस्स भगवओो महावीरस्त एकारस गया एका रस गणरा होत्या तं जहा वंदन गई बाउजू वि सोहम्मे मंमिए मोरपुते अकंपिए अपनाए मे पभासे । स० ११ सम० । कल्प० । अथैषां सर्वेषां वक्तव्यताउप्पनमिते नम्म पाउथिए नाणे । राईए संपत्तो, महसेणवणम्मि उज्जाणे ॥ उत्पन्ने प्रादुर्भूते अनन्तशेयविषये केवलज्ञाने, नष्टे च ब्रानस्थि के मत्यादिकाने देशाच्छेदेन केवल नातं तत् प्रथमपीठिकायाम् रात्री प्राप्तो महमेव उद्याने, उच्यते भगवतो हानरत्ययासम स्तरमेव देवाश्चतुर्विधा अभ्यागता श्रासन् अत्यद्भुतांच प्रहर्षयस्तो छानोत्पादमहिमां चकुः तत्र भगवानपते नात्र कश्चित् प्रब्रज्याप्रतिपत्ता विद्यते । तत एतद्विज्ञाय न विशिष्टधर्मकथनाय प्रवृत्तवान् केवलं कल्प एष यत्र ज्ञानमुत्पद्यते, जघन्यता देता व पूजा प्रतीच्या देशना व कर्तव्येति संपदेशन कृत्वा दशसु योजनेषु मध्यमा नाम नगरी, तत्र सोमिलाय नाम ब्राह्मणः, स यज्ञं यटुमुद्यतः, तत्र चैकादशोपाध्यायाः खस्वागताः, ते च चरमशरीरा भवान्तरोपार्जितगणधरन्धयश्च साद] विहायासंख्येवाविनिः परिवृतो देवतेन दिवस श्वशेषं पन्थानमुद्द्योतयन् देवपरिकल्पितेषु सहस्रपत्रेषु नवनीत स्पर्धेषु पचेषु चरणन्यासं विदधानी मध्यमनगय महसेनवनोद्यानं संप्राप्तः । अमरनररायमहितो, पत्तो वरधम्मचक्कवट्टित्तं । पीयम समोसरणे, पापाए कमाए । अमरा देवाः, नरा मनुष्याः, तेशं राजनः तैर्महितः पूजितः, प्राप्तो धर्मवरचक्रवर्तित्वं धर्म्मवर प्रभुत्वम्। द्वितीयं पुनः समवसरणमम पापाय मध्यमायां प्राप्त इत्यनुवते ज्ञानोत्पत्तिस्थानकृतपूजापेया वास्याभ्यधिकता ॥ नत्य किर सोमिलज्जो, ति माहणो तस्स दिक्वकालम्मि पचरा जावा, समागया जन्नयामम्मी ॥ तत्र पाप मध्यमायां किस पूर्वपत् सोमलार्य इति गणधर ब्राह्मणः, तस्य दीक्काकासे योगकाले पौरा विशिष्टनगरनिवासि लोकाः जनाः सामान्यलोकाः, जानपदा नानाजनपदभवा लोकाः समागता यज्ञपाटे । अत्रान्तरे एते विविते, उत्तरपासम्मि जवामस्त । तो देवदाणविंदा, करेति महिमं जिदिस्स ।। एकान्ते विवि पहाटस्योत्तरपाततो देवदानवेन्द्रा जिनेन्द्रस्य महिमां कुर्वन्ति पाठान्तरं वा "कासी महिमं जिदिस्स " कृतवन्त इत्यर्थः । अमुमेवार्थे सविशेषं भाष्यकार यादभरणवई वाणमंतर, मोइमवासी विमावासी प सीएँ परिसा, कासी नाष्पयामहिमं ॥ भवनपतियस्तरज्योति मानवाधिपद ज्ञानोत्पत्तिमदि मामर्षापुः कृतवन्तः ॥ आ०म० द्वि० । तत्र भगवतः समवसरणे निष्पन्ने सति अत्रान्तरे देवकृतजयशब्द संमिश्रदिव्य दुन्दुभिशब्द । कनोत्फुल्लनयनगगनावलोकमोपलवर्गसमेत सुन्दानां वाकसमयाग नानां परिघोषोऽयतो स् प्रियतः वागता देवा इति । तथा चाद सर्व तं दिव्त्रदेव घोसं, सोऊं माणुस तहिं तुट्टा | जमिए इहं, देवा किर आगया इह इ ॥ मनुष्यास्तव यहपाटके तुहा अहो विस्मये, यज्ञेन जयति लोकानिति याजिकः, तेन इष्टं यतो देवाः किल आगता अत्रेति । किल शब्दोऽसंशये एव तेषामप्यत्रागमनात् तत्र यज्ञपाटके वेदाऽर्थविद एकादशापि गणधरा ऋत्विजः ः समम्वागताः । तथा चाह एक्कारस वि गणहरा, सच्चे उन्नयविसालकुलसा । पावाऍ महिमा, समोसा जन्नाथम्पी ॥ एकादशापि गणधराः समवसृता यज्ञपाटे इति योगः । किंभूता?, इत्याद - सर्वे निरवशेष उन्नताः प्रधानजातित्वात् विशापितामहपालाः प्रायेष नं शा श्रन्वया येषां ते तथाविधाः पापायां मध्यमायां समवसृता एकीभूना पड़ा। आइ-1 - किमाख्याः किंनामानो वा ते गणधरा इति ?, उच्यतेपढमेत्य इंदई, बीए पुसा होइ अमिति । व बाजू ततो विपने हम्मे प । मंमियमोरियपुत्ते, अकंपिए चैत्र अयलजाया य । भवले य पचासे, गणधरा होति वीरस्स || प्रथमोऽत्र गणधरमध्ये इन्द्रभूतिर्द्वितीयः पुनर्भवति श्रग्निनूतिस्तृतीयो वायुभूतिः, चतुर्थी व्यक्तः, पञ्चमः सुधर्मा स्वामी, पठो मरिडकपुत्रः सप्त मौर्यपुत्रः पुत्रः प्रत्येक संयोपिक नवमोऽबता दो मेलाय्यः, एकादशः प्रभासः । एते गणधरा भवन्ति वीरस्य ॥ जं कारण निक्खम, वोच्छं एएसि आणुपुत्रीए । तित्यं व सहम्मातो, निरपच्चा गणइरा सेसा ॥ 9 Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०१७) अभिधानराजेन्द्रः । गणघर यत्कारणं निमितं निष्कमयं तदनित्यतद् एतेषां गणधराणामानुपूय परिपाठ्या दये तथा तीर्थ सुध त् पञ्चमाद् गणधरादू जातं यतो निरपत्याः शिष्यरहिताः शेषा इन्द्रनृत्यादयो गणधराः । तंत्र जीवादि संशयापनोदनिमितं गणधर निष्क्रमण मिति कृत्यायो यस्य संदर्शनार्थमाहजीवे कम्मे ती सूप तारिसय बंध मुले प देवा नेरया वा पुचे परलोय निम्नाथे ॥ यस्तो जीव संशयः किमस्ति ? नास्तीति द्विती यस्य कर्मणि । यथा - ज्ञानावरणं । यादिलक्षणं कर्मास्ति ?, किं वा मास्तीति । तृतीयस्य तीति ) किं तदेव शरीरं स एव तिन पुनर्जीवतायां तस्य संशयः चतुर्थस्व भूतेषु संशयः किं पृथिव्यादीनि नूनानि सन्ति, किंवा ने ति । पञ्चमस्य (तारिसय त्ति) किं यो यादृश इह भवे सोऽन्यस्मिन्नपि तावत्तादृश एव ?, उतान्यथाऽपीति संशयः । षष्ठस्य बन्ध मोकश्च तस्मिन् संशयः । यथा-बन्धमोक्षौ स्तः, किं वा नेति कर्मसंशयादस्य को विशेष है। उच्यते स कर्मस तागोचरः, श्रयं तु तदस्तित्वे सत्यपि जीव कर्मसंयोगविभागगोचर इति । सप्तमस्य किं देवाः सन्ति ?, किं वा न सन्तीति संशयः । अष्टमस्य नारकाः संशयगोचराः किं ते सन्ति न सन्तीति यमस्य यत् किं पुष्यमेव प्रक प्राप्तं प्रकृष्टसुखहेतुस्तदेव चाऽपचीयमानमत्यन्तस्वल्पावस्थं दुःखस्य, उत तदतिरिक्तं पापमस्ति?, आहोस्विदेकमेवोभयरूपम, उत स्वतन्त्रमुभयमिति । दशमस्य परलोके संशयः, सत्यप्याssत्मनि परलोको भवान्तरनक्षणः किमस्ति ?; किं वा नास्तीति ? | एकादशस्य निर्माण संशयः - निर्वाणं किमस्ति किं वा नेति ? । श्रह-बन्धमोक संशयादस्य को विशेषः ?। उच्यते स दि नभयगोचरः, श्रयं तु केवल विभागविषय एव । तथा किं संसारानावमात्र एव मोक्षः ?, किं वा अन्यः १, इत्यादि । साम्प्रतं गणधर परिवारप्रदर्शनार्थमाह पंच पंचसया, असया व होति दाऐह गया || दोरखं तु जुगलगाणं, तिसयो तिसयो हवइ गच्छो । पञ्चानामाचानां गणधराणां प्रत्येकं प्रत्येकं परिवारः पञ्चशतानि, तथा अर्द्ध चतुर्थस्य येषु तानि श्रर्द्धचतुर्थानि अर्कचतुर्थानि श तानि माने ययोस्ती तयोः प्रत्येकं गणे इद् गणः समुदाय एवोच्यते, न पुनरागमिकः । तथा द्वयोर्गणघ युगलको प्रत्येकं गच्छ किंमुखं भवति:उपानांची प्रत्येकं समानः परिवारः । श्रा० म० द्वि० । श्राव० कल्प० । ( गणधर संशयाऽपनयनवक्ततततत्संशयविषयवाचकशब्देषु द्रव्य) क्षेत्रादिद्वाराणि साम्प्रतमेतेषामेव वक्तव्यताऽशेपप्रतिपादनार्थे द्वारगाथामाद से से काले जम्मे गोचमगार उपस्थपरियाए । के लिय आउ आगम, परिनिव्वाणे तत्रे चेत्र । २०२५. । अत्र एकारान्ताः शब्दाः प्राकृतत्वात् प्रथमाद्वितीयान्ता द्रष्टव्याः । ततोऽयमर्थः - गणधरानधिकृत्य क्षेत्रं जनपदग्रामनगरादि वक्तम्यं जन्मभूमिषांच्येत्यर्थः तथा कालो नयोगोप २०५ गणधर तो वाच्यः । तथा जन्म वक्तव्यं, जन्म व मातापित्रायतमित्यतो मातापितरौ वाच्यौ । तथा गोत्रं यद् यस्य तद्वाच्यम् । "अगर उत्थपरिया" इति । पर्यायशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते श्रगारपर्यायो गृहस्थपर्यायो वाच्यः, तथा ब्रह्मस्थपर्यायश्चेति । तथा केवलिपर्यायो वाच्यः, आयुः सर्वायुष्कं वाच्यं तथा श्रागमो वाच्यः कस्य के आगम श्रासीदिति । तथा परिनिर्वा णं वाच्यम, कस्य भगवति जीवति परिनिर्वाणमासीत्, कस्य वा भगवति परिनिर्वृते इति । तथा तपो वक्तव्यम-यथा किं के नापवर्गे गच्छता तप श्राचरितमिति । चशब्दात्संहननादि च वक्तव्यमिति गाथासमुदायार्थः । इदानीमार्थप्रतिपाद्यते तत्रायद्वारावयवार्थाभिपि रसया प्राह मगहा गोव्रगामे, जाया तिनेत्र गोयमसगोता । कोखागसन्निवेसे, जाओ विषतो मुहम्यो य ॥ ६६॥ मगधेषु जनपदेषु गोर्वरग्रामे जातास्त्रय एवाद्या गणधराः । कथमेते प्रयोऽपीत्यत आह- गौतम सगोत्राः, समानं गोत्रं येषां ' सगोत्राः, गौतमेन गोत्रेण सगोत्राः गौतमसगोत्राः, गौत माभिधगोत्रयुक्ता इत्यर्थः । तथा कोल्लाकसन्निवेसे जातो व्यक्तः सुधस्तु । मोरीयसन्निवेसे, दो भायरो मंमिमोरिया जाया । कोसलाए, मिहिलाऍ अकंपितो जातो ||६७ || मौर्यसन्निवेशे द्वौ भ्रातरौ मण्डिकमौर्यौ जातौं, अचलश्च कोशलायां, मिथिलायामकम्पितो जात इति । लुंगी यसभिसे, मेयो वच्चभूमिए जातो । पिपासे, रायगिडे गाहरो जाओ ॥६८॥ तुझिकसन्निवेशे वत्सभूमौ कौशाम्बीविषये इत्यर्थ: मेताय जातः । जगवानपि च प्रभासे राजगृहे गणधरो जातः । सम्प्रति कालद्वाराऽवयवार्थप्रतिपाद्यः । कालश्च नक्षत्रचन्द्रयोगोपति इति यद् यस्य गमनृतो न तदभिधित्सुराद्दजेडा कत्तिय साई, समणो हत्युचरा मयाओ य रोहिणि उत्तरसाढा, मिगसिर तह अस्सिली पुस्सो ॥६५॥ इन्द्रभूने जन्मन कत्रं ज्येष्ठा, अग्निभूतेः कृत्तिका, वायुभूतेः स्वातिः, व्यक्तस्य श्रवणः, सुधर्मस्य हस्त उत्तरो यासां ता हस्तोत्तराः, उत्तरफल्गुन्य इत्यर्थः । मरिमकस्य मघा, मौर्यस्य रोहिणी, अकम्पितस्य उत्तराषाढा, अचलभ्रातुर्मृगशिराः, मेतार्यस्य अश्विनी, प्रभासस्य पुष्यः । अधुना जन्मद्वारं प्रतिपाद्यं, जन्म च मातापित्रायत्तमिति गणभृतां मातापितरावेव प्रतिपादयति सुई पणमिचे, पम्पिल देव मोरिए चेन देवे य वसू दत्ते, वझे य पियरो गणहराणं ॥ ७० ॥ श्रद्यानां त्रयाणां गणभृतां पिता वसुभूतिः, व्यक्तस्य धनमित्रः सुधर्मस्य धम्मित्रः, महिमकस्य धनदेवः, मौर्यस्य मौर्य:, अङ्कपितस्य देवः, अचलभ्रातुर्वसुः, मेतार्यस्य दन्तः, प्रभासस्य बलः, एवं पितरो गणधराणां जयन्ति । पुढवि वारुणि जदिला, य विजयदेवा तहा जयंती य । Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०२०) गणधर अभिधानराजेन्दः । गणधर नंदा य वरुणदेवा, अश्भद्दा मायरो चेव ।। ७१॥ __ सम्प्रति सर्वायुष्कमाहश्राद्यानां त्रयाणां गणभृतां माता पृथिवी, व्यक्तस्य वारुणी, | बाणनई चनहत्तरि, सत्तरि तत्तो नवे असीई अ। सुधर्मस्य जहिला, मएिमकमौर्यपुत्राणां विजयदेवा पितृभेदेन, एगं च सयं तत्तो, पणनई चेव तेसीई ॥ ७॥ धनदेवे हि पञ्चत्वमुपगते मएिमकपुत्रसहिता मौर्येण धृता, अहत्तरं च वासा, तत्तो बावतरं च वासाई। ततो मौर्यो जातः। अविरोधश्च तस्मिन् देशे इत्यदूषणम । जयन्तीनामा अकम्पितस्य, नन्दा अचलभ्रातुः, वरुणदेवा मेतार्य बावट्ठी चत्ता खत्रु, सब्वगणहराउयं एयं ।। ७ए । स्य, प्रतिभा प्रभासस्य । इन्द्रजूतेः सर्वायुनिवतिवर्षाणि, अग्निभूतेश्चतुःसप्ततिः, वा. संप्रति गोत्रद्वारान्निधानार्थमाह युभूतेः सप्ततिः, व्यक्तस्य अशीतिः, सुधर्मस्य एक वर्षशतं, मरिमकस्य पञ्चनवतिवर्षाणि, मौर्यपुत्रस्याशीतिः। अकम्पिततिन्नि य गोयमगोत्ता, जारहाअऽग्गिवेसवासिट्ठा। स्याष्टासप्ततिः, अचलभातुर्दासप्ततिः, मेतार्यस्य द्वाषष्टिः, प्रजाकासवगोयमहारिय, कोमिन्न दुगं च गोत्ताई ॥ ७॥ | सस्य चत्वारिंशत् । एवं क्रमेण गणधराणां सर्वायुष्कमिति । प्रय आद्या गणनृतो गौतमगोत्राः, भारताजो व्यक्तः, अग्नि श्रा० म० द्वि० । आव०। वैश्यायनः सुधर्मः, वासिष्ठो मरिमकः, काश्यपो मौर्यिकः, थेरेणं इंदनूती बाणनश्वासाई मन्त्राउयं पालइला सिगौतमोऽकम्पितः, हारीतो अचभ्राता, कौण्डिन्यो मेतायः के बुके।। प्रभासश्च । स्थविर इन्द्रभूतिर्महावीरस्य प्रथमगणनायकः । स च गृहअधुना अगारपर्यायद्वारप्रतिपादनार्थमाह स्थपर्यायं पञ्चाशतं वर्षाणि, त्रिंशत उद्मस्थपर्याय, द्वादशं च पन्ना छायालीमा, वायाला होंति पनपन्ना य । केवलित्वं पालयित्वा सिफ इति सर्वाणि द्विनवतिरिति । स० पणसही वावन्ना, अमयालीसा य गयाना ।। ७३ ॥ ए२ सम। छत्तीसा सोलसगं, आगारवासो जवे गणहराणं । थेरेणं अग्गिनई गणहरे चोवत्तारं वासाइंसव्वाउयं पालउमत्थपरीयागं, अहकमं कित्तस्सामि ।। ७४ ॥ इत्ता मिके० जाव प्पहीणे ॥ इन्धनतेरगारपर्यायः पञ्चाशद्वर्षाणि, अग्नितेः षट्चत्वारिंश तत्राऽग्निभूनिरिति महावीरस्य द्वितीयो गणधरः गणनायतु, वायुनतेाचत्वारिंशत्, व्यक्तस्य पञ्चाशत् , सुधर्मणः कः, तस्येह चतुःसप्ततिवर्षाएयायुः। अत्र चायं विभागः-षट्च त्वारिंशद्वर्षाणि गृहस्थपर्यायः, द्वादश छद्मस्थपर्यायः, षोमश पञ्चाशत, मरिडकस्य पञ्चषष्टिः, मौर्यस्य द्विपश्चाशत् , अक केवलिपर्याय इति । स०७४ समः। पितस्याऽष्टाचत्वारिंशत, अचलभ्रातुः षट्चत्वारिंशत, मेतार्यस्य षट्त्रिंशत्, प्रजासस्य षोमश ॥ अत उर्दू बद्मस्थपर्यायं थेरे णं अपिए अट्ठहत्तर वासाई सव्वाउयं पानइत्ता यथाक्रम कीर्तयिष्यामि । सिके जाव पहीणे ॥ प्रतिज्ञातमेवाह अकम्पितः स्थविरोमहावीरस्याऽष्टमो गणधरः, तस्य चाटस. तीसा बारस दसगं,वारस वायान चोदसदुगं च। प्रतिवर्षाणि सर्वायुः। कयम्, गृहस्यपयार्ये अष्टचत्वारिंश त्, उद्मस्थपर्याये नय, केवलिपर्याये चैकविंशतिरिति । स० नवगं वारस दस अ-ट्ठगै च जनमत्यपरियाओ ।।७॥ ७८ सम। इन्द्रनूतेश्वग्रस्थपर्यायस्त्रिंशद्वर्षाणि, अग्निन्तेर्वादश, वायुनू आगमद्वारप्रतिपादनार्थमाहतेर्वर्षदशकं, व्यक्तस्य द्वादश, सुधर्मणो द्वाचत्वारिंशत, मरिमकस्य चतुर्दश, अकम्पितस्य वर्षनवकं, अचलभातुर्दादश वर्षा सव्वे य माहणा जच्चा, सब्वे अज्झावया विऊ। णि, मेतार्यस्य दश, प्रनासस्य वर्षाष्टकम्, एषामेव यथाक्रम सव्वे दुवानसंगी य, सव्वे चोदसपुषिणो॥७७॥ बवास्थपर्यायः। सर्वे ब्राह्मणा जात्याः प्रशस्तजातिकुलोत्पन्नाः । तथा सर्वे केवझिपर्यायपरिज्ञानोपायमाह अध्यापका उपाध्यायाः,विदन्तीति विदो विद्वांसः,चतुर्दशविद्याउमत्थपरीयागं, अगारवासं च बुकसिचाणं । स्थानपारगमनात् । तानि चतुर्दशविद्यास्थानान्यमूनि-"अनानि सव्वाउयस्स सेसं, जिणपरियागं बियाणाहि ।। ७६ ।। बदाश्चत्वारो, मीमांसा न्यायविस्तरः । धर्मशास्त्रं पुराणं च, ग्यस्थपर्यायमगारवासं च व्यवकलय्य यत् सर्वायुष्कस्य शेष विद्या घेताश्चतुर्दश" ॥१॥ तत्राङ्गानि षट् । तद्यथा-शिक्षा,कतथ जिनपर्यायं विजानीहि । ल्पो, व्याकरणं, निरुक्तं, छन्दो,ज्योतिषं चेति । एतेन गृहस्थागम स चायं जिनपर्यायः उक्तः। लोकोत्तरागमप्रतिपादनार्थमाह-सवें द्वादशाङ्गिना, तत्र स्वस्पेऽपि द्वादशानाध्ययने द्वादशानिनोऽभिधीयन्ते । ततः संबारस सोलस अट्ठा-रसेव अट्ठारसेव अटेव । पूर्णद्वादशाङ्गज्ञापनार्थमाह-सर्वे चतुदर्शपूर्विणः। सोलस सोलस तह ए-गवीस चोदस सोलस य ॥७॥ परिनिर्वाणद्वारमाह-- इम्भूते केवलिपर्यायो द्वादशवर्षाणि, अग्निनूतेः षोमश, परिनिव्वुया गणहरा, जीवंते नायए नव जणाओ। पायुजूतेरष्टादश, व्यक्तस्याष्टादश, सुधर्मणोऽष्टी, माएिमकस्य पीमश, मौर्यपुत्रस्य षोमश, अकम्पितस्य एकविंशतिः, अचल इंदजूइ सुहम्मो य, रायगिहे निव्वुए वीरे॥७॥ भ्रातुश्चतुर्दश, मेतार्यस्य षोमश, प्रजासस्य षोमश। जीवति कातके शातकुलोत्पन्ने,वीरे भगवति, नव जना, इन्द्रनू मामि Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) गणधर अभिधानराजेन्द्रः। गणधर तिः, सुधर्मश्च स्वामिनि वीरे निवृते परिनिर्वृतः। तत्रापि प्रथम अथास्य सूत्रस्य कः संवन्धः?, तत आहमिन्द्रसूतिः, पश्चात् सुधर्मस्वामी । यश्च यश्च कालं करोति मुहतो वि पनिच्चन्ने, अप्पमिसेहो त्ततिप्पसंगायो । स सुधर्मस्वामिनो गणं ददाति, तेषां तथाविधसन्तानप्रवृत्ति हेतुभूताचार्यानवात् । सुधर्मस्वामी तु काझं कुर्वन्निजशिष्या धारेच्च अणापुच्छा, गणमेसो सुत्तसंबंधो । य जम्बूस्वामिने गणं समर्पितवान् । द्विधातोऽपि व्यतो भावतश्च, परिच्चन्ने परिच्छदोपेत प्रा. चार्यस्त्रयमपि च द्विधातः परिच्छन्ने गणधारणस्य न प्रतिषेध अधुना तपोद्वारमाह इति कृत्या किमनुझ्या स्थविराणां कार्यमिति बुख्या माऽतिप्रसंमासं पाओवगया, सव्वे वि य सव्वलछिसंपन्ना । गतः स्थविराणामनापृच्छया गणं धारयेदतस्तत्प्रतिषेधार्थमिदं बज्ज रिसहसंघयणा, समचनरंसा य संठाणे ।। सूत्रमारभ्यते। एषोऽधिकृतमूत्रस्य संवन्धः । अनेन संबन्धेनायात स्याऽस्प व्याख्या-भिक्षुरिच्छेद् गणं धारयितुम् । तत्र (से) तस्य सर्य एव गणधरा मासं यावत् पादपोपगमनगता। द्वारगाथो-| न कल्पते स्थविरान् गच्छगतान् पुरुषान् अनापृच्च गणं पन्यस्तचशब्दार्थमाह-सर्वेऽपि सर्वलब्धिसंपन्नाः, भामर्षीष-1 धारयितुम् । कल्पते (से) तस्य स्थविरान् प्रापृच्चय गणं धारयिध्याद्यशेषलब्धिसंपन्नाः। तथा वज्रर्षभसंहननाः समचतुरनाश्च तुम, स्थविराश्च (स) तस्य वितरेयुरनुजानीयुगणधारणम, पूसंहननाः । समचतुरस्राइच संस्थाने संस्थानविषये। प्रा० म० घोक्तैः कारगैरहत्वात्,तत एवं सति (से) तस्य कल्पते गणं धाद्वि०विशे० । एवं चतुश्चत्वारिंशच्छतानि द्विजाः प्रव्रजिताः । रयितुम् । स्थविराश्च (से) तस्य न वितरेयुः, गणधारणानहत्वातू, तत्र मुख्यानां त्रिपदीग्रहणपूर्वकमेकादशाङ्गचतुर्दशपूर्वरचना ग- एवं सति न कल्पते गणं धारयितुम् । यः पुनः स्थविरैरवितीर्णमणधरपदप्रतिष्ठा च । तत्र द्वादशाङ्गीरचनाऽनन्तरं नगवाँस्तेषां ननुज्ञातः गणं धारयेत् ततः (से) तस्य कृतादनन्तरादपन्यायातदनुज्ञां करोति,शक्रश्च दिव्यं वज्रमयस्थालं दिव्यचूर्णानांभृत्वा | प्रायश्चित्तं वेदो वा परिहारो वा, वाशब्दादन्यद्वा तपः। एप सू. त्रिजुवनस्वामिनः सन्निहितो नवति । ततः स्वामी रत्नमयसिं- त्राकरार्थः। हासनामुत्थाय संपूर्णा चूर्णमुष्टिं गृहाति, ततो गौतमप्रमुखा ए. नावार्थ नाध्यकृदाहकादशापि गणधग ईषदवनता अनुक्रमेण तिष्ठन्ति । देवास्तूर्यध्वनिगीतादिनिरोध विधाय तूष्णीकाःशएवन्ति । ततो भगवान् का देसदारसणं, आगतऽपहाविऍ नवरया थेरा । पूर्व भणति-"गौतमस्य व्यगुणपर्यायैस्तीर्थमनुजानामीति," असिवादिकारणेहि, न गवितो साहगस्सऽसती॥ चूर्णाश्च तन्मस्तके किपति । ततो देवा अपि चूर्णपुष्पगन्धवृष्टि सो कानगतम्मी नव-गतो विदेसं व तत्य व अपुच्छा। तदुपरि कुर्वन्ति,गणं च भगवान् सुधर्मस्वामिनं धुरि व्यवस्था थेरे धारेय गणं, जावनिसिह अणुग्याया। प्यानुजानाति । इति ॥१२१॥ कल्प०६कण । ती । "अत्थं नासअरहा, सुत्तं गयति गणहराणि नणं" (१९१६) इति । (ग देशदर्शननिमित्तं गतेन ये प्रवाजितास्तान् यदि आत्मनो यावणधारिणां सूत्रकरणं 'सुय' शब्दे चतुर्थभागे व्याख्यास्यते ) स्कधिकान् शिष्यतया बन्नाति, ततस्तस्य प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकविशे० । सूत्र० । अत्यन्ताप्तगोचरश्रद्धास्थैर्यवतोऽनुष्ठानात्तीर्थ म। तथा देशदर्शनं कृत्वा तस्मिन्नागते अप्रस्थापिते च तस्मिकृत्त्वं, मध्यमश्रकासमन्विताऊणधरत्वम् । यो बि० । गणस्य नाचार्यपदे स्थविरा यस्याचार्या उपरताः कालगताः, यदि वा गच्छस्य धारकत्वाकणधरः। उत्त०२६ अ०। गणनायके प्राचा स प्रत्यागतोऽप्यशिवादिभिः कारणैः, यद्वा साधकस्य (अस. य, स्था०८०संथा। गणधरश्च यैर्गुणयुक्तस्य नरस्य तित्ति) अनावनाचार्यपदेऽस्थापितोऽत्रान्तरे चाचार्यः ततगणधरणाईत्वं नवति तद्युक्त एवेति । स्था०० ठा०। यस्त्वा स्तस्मिन् कालगते, यदि वा गतो विदेशं तत्रैव विदेशे गणं धार चार्यदेशीयो गुर्वादेशात्साधुगणं गृहीत्वा पृथग् विहरति स यितुमिच्छेत, एतेषु सर्वेवपि कारणेषु समुत्पन्नेषु यदि स्थगणधरः । श्राचा०३७०१ अ०१० उ०। “चिन्तयत्येवमेवैतत. विरान् गच्छमहतोऽपृष्ठा, यद्यपि तस्याचार्येण भावतो गणो स्वजनादिगतं तु यः । तथाऽनुष्ठानतः सोऽपि,धीमान् गणधरो निस्टोऽनशातस्तथापि स्थविरा आपृच्चनीयाः। तत श्राह-भानवेत्" ॥१॥ द्वा० १५ द्वा० । पं० सं०।(भथ कीदृशः कथं वा बनिसृष्टमपि गणं धारयति तर्हि तस्य स्थविरानापृच्छाप्रत्यय प्राचार्यपदे स्थाप्यते इति 'आयरिय' शब्दे द्वि० भागे ३०३ प्रायश्चित्तम् । अनुद्धाता गुरुकाश्चत्वारो मासाः। उपसकणमेतद पृष्ठे उक्तम) अज्ञानावस्थामिथ्यात्वविराधनारूपाश्च तस्य दोषाः। नवरमिह भिवोर्गणधारणसूत्रम् - सयमेव दिमाबंध, अणणुमाते करे अणापुच्छा। थेरेहिं पमिसियो, सुखा लग्गा उवेइंता ।। निक्खू य इच्छेजा गणं धारित्तए नो कप्पइ से येरे अणापुच्छित्ता गणं धारित्तए । कप्पइ से येरे पापुच्छित्ता गणं यो नाम स्वयमेव आत्मच्छन्दसा को मम निजमाचार्य मुक्त्वा उन्य प्रापृच्चनीयः समास्ति',इत्यध्यवसायतः पूर्वाचार्येणाननुशाधारित्तए थविरा य से वियरेजा। एवं से कप्पागणं धारित्त तश्राचार्यपदे तस्यास्थापनातू । स्थविरान् गच्चमहत्तररूपान् भ. ए थेरा य से एगे वियरेज्जा । एवं से णो कप्पई गणं धारि- नापृच्छय दिग्वन्धं करोति, स्थविरैः प्रतिषेधनीयः यथा निवर्त. तए,जमं थेरेहिं अविदिन्नं गणं धारेति से संतराए ए ते-'आर्य! तब तीर्थकराणामाझ लोपयितुं न युक्तम् । एवं प्रतिचोदितोऽपि यदि न प्रतिनिवर्तते तर्हि स्थविराः शुकाः, वा परिहारे वा जे ते साहम्मिया नहाए विहरति । णत्थि स तु चतुर्गुरुके प्रायश्चित्ते लग्नः। अथ स्थविरा उपेक्षन्ते तहिं ते पंतसि केइ जेदे वा परिहारे वा ॥॥ उपेक्काप्रत्ययं चतुर्गुरुके लग्नाः, यत एवमुपेक्षायामनापृच्चायां च Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०२०) गणधर भनिधानराजेन्द्रः। गणधरवंस तीर्थकरानिहितं प्रायश्चित्तमाझादयश्च दोषास्तस्मात् स्थवि- अबहुश्रुतस्य गीतार्थस्य गणं ददति चत्वारो गुरवः । रैरुपेका न कर्तव्या, तेन च स्थविरा आपृच्चनीयाः। अस्य च प्रमादादिना निशीथसूत्रं विस्मृतमथै पुनः स्मरतीसगणे येराणऽमती, तिगयेरे वा तिगं तुबट्टाति ।। त्ययहुश्रुतस्य गीतार्थत्वम् । यद्वा-प्राज्ञाधारणादिमात्रव्यवहासे वा सति इत्तरियं, धारेइ न मेक्षितो जाव ॥ रेण बहुश्रुतस्यापि गीतार्थत्वमिति । बहुश्रुतस्यागीतार्थस्य द. दति चत्वारो गुरवः । अनेन चाचारप्रकल्पाध्ययनं सूत्रतोडअथ स्वगच्छे स्थविरा न सन्ति तर्हि गणे स्वकीये गच्चे स्थविराणामसति अभावे, ये त्रिककुअगणसंघरूपे स्थविरास्तान् | धीतं,न पुनरर्थतः श्रुत्वा सम्यगधिगतमिति बहुश्रुतस्यागीतार्थ त्वम् । बहुश्रुतस्य गीतार्थस्य ददतीत्यत्र चतुर्थे भने शुद्धः । यो त्रिकस्थविरान्, त्रिकं वा समस्तं कुलं वा गणं था सचं घा अबहुश्रुतो गणं धारयतीत्यत्रापि चतुर्भङ्गी, तत्रापि पावतोवा इत्यर्थः, उपतिष्ठेत। यथा-ययमनुजानीत मह्य दिशमिति । ऽगीतार्थश्च सन् निसृष्टं गणं धारयति, अबहुश्रुतो गीतार्थों अथ अशिवादिभिः कारणैर्न पश्येत्कुलस्थविरादीनामसत्यभा. वेश्वरिकां दिशं गणस्य धारयति, यावत्कुलादिभिः सह धारयति, बहुश्रुतोऽगीतार्थों धारयति । त्रिष्वपि चतुर्गुगणो न मिलितो भवति । रुका, बहुश्रुतो गीतार्थो धारयतीत्यत्र शुद्धः । अत पवाह भत्रिकेऽपि त्रिष्वप्याद्यभङ्गेषु गणदायकधारकयोरुनयोरपि जेन अहाकप्पेणं, च अणुम्मायम्मि तत्थ साहम्मी । | गुरुकाश्चतुर्गुरवः । चरमे चतुर्थे भने शुद्धत्वाद्दायको धारको विहरंति य वच्चाए, न तेसि ओ न परिहारो ।। चाऽनुज्ञातो न तत्र कश्चिद्दोषः । वृ०१उ० । आर्यिकाप्रतिये तु सार्मिकाः स्वगच्छवर्तिनः परगच्छवर्तिनो वा यथा- जागरके साधुविशेषे, स्था०४ ग० ३ ० । "पियधम्मे दढय. कल्पेन श्रुतोपदेशेन तेषां सूत्राद्यर्थ तत्रोपस्थापनाविषये त. म्मे, संविग्गे वज्जो य तेयस्सी। संगवहग्गहकुसले,सुत्तस्थदर्धाय सूत्राणामर्थाय , आसेवनाशिक्षायै चेत्यर्थः, अनु- विक गणाहिवई" ॥१॥ वृ०१०। निचू० । पं० ब०। झाते गणधरण तत्र गच्छे विहरन्ति, ऋतुबके काले मास- तीर्थकरगणनृतां मिथो भिन्नवाचनत्वेऽपि सांभोगिकत्वं नवति, कल्पे न वर्षासु वर्षाकल्पे न तेषां तत्प्रत्ययो यदेषोऽनुज्ञातो गणं नवा?, तथा सामाचार्यादिकृतो नेदो भवति न वेति प्रश्ने, उत्तधारयतीति तन्निमित्तमित्यर्थः । प्रायश्चित्तच्छदो न परिहार रम-गणभृतां परस्परं वाचनाभेदेन सामाचार्या भपि कियान् उपक्षक्षणमेतन्नान्यद्वा तपः श्रुतोपदेशेन तेषां सूत्राद्यर्थ तपोप- नेदः सनाव्यते। तभेदे च कथञ्चिदसांभोगिकत्वमपि सन्नाव्यत स्थानात् । विषयलोनता हि तस्याःसमीपमुपतिष्ठमानानां दोषः,न इति।८१ प्र० सेन०२ उवागणधरो ज्येष्ठोऽन्यो वा तीर्थस्थापसूत्राद्यर्थमिति । (अस्य विशेशविस्तरस्तु 'आयरिय' शब्दे द्वि० नादिने एव तीर्थकरस्य व्याख्यानानन्तरं व्याख्यानं करोति, चत जागे ३३५ पृष्ठे अटव्यः)व्य०३ उ० । इदानीन्तनानामपि यो- सर्वदा भगवट्याख्यानाऽनन्तरं मुहूर्तमेकं व्याख्यानं करोतीति ग्यानां गणधरपदं युज्यते।अपवादपदमपुष्टमवनम्म्य नैवैदंयुगी- प्रश्ने,उत्तरम-ज्येष्ठोऽन्यो वा गणधरः सर्वदा द्वितीयपौरुभ्यां व्यानसाधूनामपि युज्यते कालोचितानुपूर्वीमपहाय गणधरपदाचारो- ख्यानं करोतीत्यराण्यावश्यकवृत्त्यादी सन्ति, न तु तीर्थपणम्। मा प्रापन्महापुरुषगीतमादीनामाशातनाप्रसङ्गः। तेषामा- स्थापनादिने एवं मुहर्तमकं करोतीति । १७५ प्र०। सेन. शातना स्वल्पीयस्यपि प्रकृष्टपुरन्तसंसारोपनिपातकारिणी । ३ उल्ला । तथा " संखाईए उ नवे, साहह जं वा परोउ यत उक्तम्-"बूढो गणहरसद्दो,गोयममाईदि धीरपुरिसेहिं । जो पुच्छिज्जा । नयगं अणाश्सेवी, बियाणजश्ए स उमत्थो" ॥२॥ तं वइ अपत्ते, जाणतो सो महापावो" ॥१॥ तत पतपरि- इयं गाथा गणधरानाश्रित्योक्ता,सामान्यतचतुर्दशपर्वणो बेति?, भाव्य संसारभीरुणा कथञ्चिद्विनयादिना समर्जितेनापि स्व- तथा तत्रावधिज्ञानी संख्येयानसंख्ययांश्च भवान् पश्यति १,एवं शिष्ये गुणवति कालोचितवयापर्यायानुपूर्वीसंपने गणधर- मनःपर्यायशान्यपि २, केवलज्ञानी तु नियमतोऽनन्तान् ३, पदाध्यारोपः कर्तव्यो न यत्र कुत्रचिदिति स्थितम् । नं०।- जातिस्मरणं तु नियमतः संख्येयानित्याचारावृत्तौ प्रोक्तमन्यथा प्रायश्चित्तम् ॥ स्ति । अथ चतुर्दशपूर्वी कति भवान् जानातीति, चतुर्दशपूर्वततः शिष्यः प्रश्नयति-कोरशस्य गच्छो दीयते । अयो- विदोऽसंख्यातान नवान् जानन्तीति प्रघोषः सत्योऽसत्यो बेति ग्यस्य वा गच्छं प्रयच्छन्नयोग्यो वा गचं धारयन् कीरशं प्रश्नः। उत्तरम्-'संस्खाइए उ भवे' इयं गाथा गणधरानाश्रित्यैषाप्रायश्चित्तं प्राप्नोति । उच्यते वश्यके प्रोक्ताऽस्तीति तयैतदनुसारेणान्योऽपि संपूर्णचतुर्दशपूर्वअबहुस्सुएँ ऽगीयत्ये, निस्सिरए वा वि धारए व गणं । विदः संख्यातीतान् भवान् जानन्तीति प्रघोषोऽपि सत्यस्संभातदेवसियं तस्सा, मासा चत्तारि भारीया ॥ तव्य इति । ६ प्र० । सेन०२ उहा। अवहतो नाम येनाचारप्रकल्पाध्ययनं नाधीतम,अधीतं वा परंगणधरगंमिया-गणधरगएिमका-स्त्री० । यत्र गणधराणां पू. विस्मारितम्, अगीतार्थो येन बेदश्रुतार्थो न गृहीतो, गृहीतो वा जन्मानिधीयते तादृश्यां वाक्यपस्तौ, स०। परं विस्मारितः,तस्मिन् बहुश्रुतेऽगीतार्थे यो गणं गच्छनिसृजति निविपति, तस्य चत्वारो नारिका मासाः। यो वा अबहुश्रुतोऽ- गणधरपानग्ग-गणधरप्रायोग्य-पुं० । गणधरपदस्य प्रायोग्ये, गीतार्थो वा गाणं निसृष्टं धारयति तस्यापि चत्वारोमासा गुरुका। व्य०२उ०। पतच दिवसनिष्पनं प्रायश्चित्तम् । द्वितीयादिषु तु दिवसेषु यत्पाश्चित्तमापद्यते तपरिष्टावक्ष्यते । गणधरलकि-गणधरलब्धि-स्त्रीला त्रयोदश्यां लम्धी, ययुक्तो अथैनामेव निर्मुक्तिगाथां जावयति गणधरो जवति । पा०। प्रवः । अबहुस्सुअस्स देश व, जो वा अबहुस्सुओ गणं धरए। गणधरवंस-गणधरवंश-पुं० । गणधरस्य तत्मवाहस्य प्रतिपादभंगतिगम्मि वि गुरुगा, चरिमे भंगे अपनाओ। कत्वासणधरवंशः । समवायाङ्के, स०। Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १) गणधारि (ए) थाभिधानराजेन्द्रः। गणहरगंडिया गणधारि(ण)-गणधारिन्-पुं० । गणधरे, आ.म.द्वि०। (सम- चउ गुरुगा चेव, तस्सेव वारससमायो अपूरेतस्स चउसहुगा । बसरणे गणधारी व्याख्यानयति इति 'समोसरण'शब्दे चतु- | एस सोही गच्छतो णितस्स भणिता । नि० चू०६०। भागे व्याख्यास्यते) "जगदेकतिनकभूता, जयन्ति गणधा- ('अवुसराश्य' शब्द प्र.नागे ८१३ पृष्ठे 'नवसंपया' शम्दे रिणः सर्वे।"चं० प्र०१पादु०। द्वि० नागे च विस्तरो अष्टव्यः) गणजत्त-गणभक्त-न । समवायभोजने, नि००८ उ०। गणसगहकर-गणसंग्रह कर-पुं० । गणस्याहारादिना ज्ञानादिना च संग्रहकारके, स्था०३ ठा०४ उ०। गणराय-गणराज-पुं० । समुत्पन्ने प्रयोजने ये गणं कुर्वन्ति ते गणसंग्रहकदाचार्य उपाध्यायो वा कतिभिर्भवैः सिध्यति ?गणप्रधाना राजानो गणराजाः । सामन्ते, भ०७ ० १ उण प्राचा० । “ ततो भगवं सालि नगरि संपत्त, तत्थ पायरियनवज्काए णं भंते ! सविसयंसि गणं अगिलाए संखो नाम गणराया"पा० म.द्वि०। सेनापतौ च । श्राव०३ संगिएहमाणे अगिलाए नवगिएहमाणे कहिं भवग्गहणेम०।" रयसि च णं समणे जगवं महावीरे कालगप० जाव | हिं सिज्कइ० जाव अंतं करे ? । गोयमा ! अत्थेगश्ए सवमुक्खप्पहीणे तं रयाणं च नव मलई नव लेच्चई। तेणेव नवग्गहणणं सिकर, अत्यगइए दोच्चेणं भवग्गहकासी कोसलगा अघारस वि गणरायाणो "कल्प० ६ कण । णेणं मिज्कइ, तच्चं पुण नवग्गहणं नाइक्कमइ । गणवइ-गणपति-पुं० । उज्जयन्तशैलशिस्त्रे विक्खलनगरे (पायरियउवज्झाए णं ति) आचार्येण सहोपाध्याय आचामजरसकुएडस्योपरि वर्तमानगणपतिमूर्ती, ती०४ कल्प। योपाध्यायः।( सविसयंसित्ति) स्वविषये अर्थदानसूत्रदानलगणवदेव-गणपतिदेव-पुं०। काकन्दीयराजनेदे,ती० ५० कल्प। कणे (गणं ति) शिष्यवर्गम् (अगिलाए त्ति) अखेदेन संगृह न स्वीकुर्वन् , उपगृह्णन् नपष्टम्नयन् , द्वितीयस्तृतीयश्च भवा गणविउस्सग्ग-गणव्युत्सर्ग-पुं० । गणत्यागरूपे द्रव्यव्युत्सर्ग मनुष्यभवो देवभवान्तरितो दृश्यः चारित्रवतोऽनन्तरो देवभनेद, औ०। घो जवति । न च तत्र सिद्धिरस्तीति परानुग्रहस्यानन्तरं फलगणवेयावच्च-गणवैयावृत्त्य-पुं० । कुन्नसमुदायस्य सेघालक मुक्तम् । भ०५श०६०। णे नवमे वैयावृत्यदे, औ०। गणसंगिति-गणसंस्थिति-स्त्री० । गणस्य मर्यादायाम, यथा गथसंकम-गणसंक्रम-पुं० । वसुराजगणादवसुराजगणं संक्र अशिष्येऽयोग्यशिष्ये महाकल्पश्रुतं न दातव्यम् । व्य० १ उ०। मति, नि. चू गणसंम (म्म) य-गणसंमत-पुं० । महत्तरादी प्रवचनप्रभासूत्रम् वके, व्य०१०। जे भिक्खू वुसराश्याओ गणाो अबुसराइयं गणं गणसम-दशी-गोष्टीरते, दे० ना०२ वर्ग । संकमइ, गणं संकमंतं वा साजा ॥१५॥ गणसामायारी-गणसामाचारी-स्त्री० । गणसामाचारी गणं वुसिरातियागणातो, जे निक्खू संकमे अवुसिराति। । विषीदन्तं चोदयति । कथम् ?, इत्याहपढमवितियचनत्थे, सो पावति आणमादीणि ॥३५ना पमिलेहणपप्फोटण, बालगिनाणाश्वेयवच्चेया। (सित्ति) तो खुसिरातिए चनभंगो काययो, चउत्थनंगो सीदंतं गाहेई, सयं च न जत्त एएसु ॥ अवस्थु, ततियनंगे कि पडिसेहो ?, आचार्य श्राह-तत्थ ण प्रत्युपेकणं चक्षुषा निरीकणं, प्रस्फोटनमाखोटादिकम,एतयोपडिसेहो,कारणे पुण पढमभंगे उवसंपदं करोति,सा य उपसं लग्नानादिवेयावृत्त्ये च सीदन्तं प्रत्युपेक्षणादि ग्राहयति-कारपया कालं पदुश्चतिविहा । श्मा गाहा यति, स्वयं च पतेषु स्थानेषुसततमुद्युक्तः। उक्ता गणसामाचारी। छम्मासे उवसंपद, जहा वारससमा न मज्झमिया । व्य०१० उ० । प्रत्युपेकणा बालवृद्धादिवयावृत्यादिकार्येषु स्वय. आवकहा नकोसो, पमिच्छ सीसे तुजा जीव ॥३५॥ मुद्यतोऽग्नाम्या गणं प्रेरयति गणसामाचारी । श्राचारविनय भेदे, प्रव० ६४ द्वार। उवयंपदा तिविहा-जहम्बा,मझिमा,उक्कोसा । जहन्ना छम्मा गणसोनाकर-गणशोभाकर-पुं० । गणस्यानवद्यसाधुसामासे, मज्झिमा वारसवरिसे, उक्कोसा जावजीवं, एवं पउिच्चग | चारीप्रवर्तनेन वादिधर्मकर्मनैमित्तिकविद्यासिम्त्यादिना था स्स सिस्से पगविहा चेव, जावजीवं पायरिओण मोत्तब्यो । शोनाकरणशीले पुरुष, स्था० ४ ठा० ३ उ० । उम्पासेऽपूरेत्ता, गुरुगा वारससमासु चनलहुगा । गणसाजायर-गणशोभाकर-पुं०। 'गणसोनाकर' शब्दाथें, वेण परमासियत्तं, नणितं पुण आरते कजे ॥३६०॥ स्था० ४ ग. ३००। जेणं पडिगेणं उम्मासिता वसंपया कता,सो जति उम्मा-गणसोभि ( )-गणशोभिन-पुं० । गण बादप्रदानतः शोसे अपूरेत्ता जाति तस्स चनगुरुगा, जेण वारसबरिसा कता | प्रयतीत्येवंशीलो गणशोभी । गणशोभाकरे पुरुषजाते, व्य. ते अपूरेत्ता जाइ चउल हुँ, जेण जावजीवं नवसंपदा कता| १००। तस्स मासलहुं, उम्मासाणं परेणं णिकारणे गच्छंतस्स मास | गणहर-गणधर-पुं० । 'गणधर' शब्दार्थे, प्रा०म०प्र०। सहु, जेण वारससमा वसंपदा कता तस्स वि छम्मासे चउगुरुत्रा चैव, वारसमासातो परेण मासलडं | गणहरगमिया-गाधरगएिमका-श्री० । 'गणधरगंमिया' वेव, जेण जावजीवं संपया या तस्स उम्मासे अपरंतस्स | शब्दार्थ, स। Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२२ ) अभिधानराजेन्द्रः । गण हरपाठा गण हरपा उम्ग-गणपरमायोग्य व्य०२ उ० । गहरा फिगणचरलब्धि-बी० गणधरादिशब्दायें गणधरपाठ शब्दायें पा० | प्रब० । गणइस गणधरवंश-पुं० गणधरस 'शब्दायें स गद्दारि - गणधारिन् पुं०] 'गणधारि' शणार्थे, बा०म०शि० ।] गणाजीव- गणाजीव- पुं० । मलादिगणीयमात्मानं सूत्रादिनोपद भक्तादिग्राहके श्राजीवनेदे, स्था० ५ ठा० १३० । गणावि गणाधिप-प्रधानरेषु विशे गणाभिभोग-गणाभियोग- पुं० गणः स्वजनादिसमुदायस्त स्याभियोगो गणाभियोगः । ध० २ अधि० गणवश्यतायाम्, उपा० १ अ० । गणावकमण - गणापक्रमण - न० । गणा इच्छादपक्रमणं निर्गमो गणापक्रमणम् । गच्छनिर्गमे, स्था० । सत्तविहे गाव पातं जहा सम्मा रोमि, एगइया रोएम, एगइया नोरोमि सव्ययम्मा वितिच्छि म एगइया वितिमिच्छामि एवा नो वितिगच्छामि, सधम्मा जुट्टणामि, एगइया जुदुणामि, पगड्या नो जुहुणामि इच्छामि भंते विहारपमिमं उपसंपत्तिया बित्तिए । सप्तविधं सप्तारं प्रयोजनमेदेन मेदा मोपकारादिति सर्वान् धर्मा नू निर्जरा हेतून् श्रुतभेदान् सूत्रार्थोभयविषयान् श्रपूर्वग्रहणावेस्मृतीनीतरागरूपाचारिकपणचेयावृम्यरूपान् रोचयामि रुचिविषयी करोमि चिकीर्षामि । ते चामुत्र परगणे संपते, मेहता दिगामध्यभावात् मतस्तदर्थं स्वगथापकमामि भदन्त । इत्येयं गुरुद्वारेणैकं गणापक्रमणमुलम् अथ सर्वधर्मान् रोचयात् कथं पृच्छा थपगम्यत इत्युच्यतेामि भंते! हामि मं" इत्यादि पृानसाम्यादिति चेरतुर " पत्तियामि रोमि" इत्यत्र व्याख्यातैवेति । क्वचिषु " सव्वधमं जाणामि एवमेगे श्रवकमे" इत्येवं पाठः तत्र ज्ञानी अहमि ति किं गणेनेति मदादपक्रामति । तथा ( एगश्यति ) एककाद कश्चन धर्माचारित्रधर्मान् वा रोचयामि चिकीषांम एक कौश्च तम चारिधर्मान् था नो यानि चिकी मि इत्यतचिकीर्षितधर्माणां स्वगणे करणसामध्यजाबादप क्रमामि भदन्त इति द्वितीय तथा सर्वधर्मानुलणार संशयविषयीकरोमि पदार्थ स्वगयापकमामीति तृतीयम३यमेकाकिसामि एककानू नो विचिकित्सामीति चतुर्थम् ४। तथा (जुडुणाभित्ति ) जुहोमि अन्येभ्यो ददामि न च स्वगणे पात्रमस्त्यतोऽपक्रमामीति पञ्चमम् ५ एवं षष्ठमपि । तथा इच्छामि णं जदंत!' धर्माचार्य एकाकिनो गच्छनिर्गतत्वा जिन कल्पिकादितया यो विहारो वितरणं तस्य या प्रतिमा प्रतिपत्तिः प्रतिज्ञा, सा एकाकिविहारप्रतिमा, तामुपसंपद्या. श्रीकृत्य विहर्तुमिति सप्तममिति ७ । अथवा सर्वधर्मान् रोमिमिति तेषां स्थिरीकरणार्थमुपकमाथि ककान् रोचयामि यद्द वे, एककांश्च नो रोचयामीत्य द्धितानां भ गणावकमण द्धानार्थमपक्रमामीत्यनेन पदद्वयेन सर्वविषयाय, देशविषयाय च सम्यग्दर्शनाय गणापक्रमणमुक्तम् । एवं सर्वदेशविषय संशयविनोदकेन सम्ययम्मा वितिष्ठामि इत्यादिपद ज्ञानार्थमपक्रमणमुक्तम् । तथा सर्वधर्मान् जुहोमीति जुहोते रहनाराणार्थस्य च सेवावृतिदर्शनादाचराम्यतु तिष्ठामोति यावत्, तथा एककान् नो सेवामीति सर्वेषामासेव्यमानानां विशेपार्थमनासेवितानां च कृपणवैयावृत्यानां कारित्रधर्माणामासेवार्थमपक्रमामत्यनेन पदद्वयेन तथैव चारित्रार्थमपक्रमणमुक्त मिति । उक्तञ्च "नाणडु दंसणडा, चरणका एकमाइसंकमणं । संजोगट्टा व पुणो, आयरिया व णायचं " ॥ १ ॥ इति । तत्र ज्ञानार्थे " सुत्तस्स व अत्थरस व उजयस्स व कारणा उ संकमणं । वीसज्जियस्स गमणं, जीओ य नियतर कोए " ॥ १ ॥ सि। दर्शगमनायकशास्त्रार्थ दर्शनार्थे चारित्रार्थ यथा "परि ऐसे बिहा"देशे द्विविधा दोषा इत्यर्थः । "यसोसाय दोसा य" ततो गणापक्रमणं जवति "गच्छम्मिय सीयंते, आयसमुत्थेहि दोसहि" ॥१॥ ति । संभोगार्थं नाम यत्रोपसंपन्नस्ततोउप विभागका सह सत्यकामतीत आचार्यध नामाचार्यस्य महाकल्पश्रुतादि श्रुतं नास्त्य तस्तदध्यापनाय शिष्यस्य गणान्तरसंक्रमो जवतीति । इह च स्वगुरु पृष्ठैवसर्जितेनाऽपक्रमितव्यमिति सर्वत्र पृच्छार्थो व्याख्ययः । उक्तकार वापादिकालात्परतोसर्जित गच्छेदिति निष्का रणगणापक्रमणं त्ववि धेयं, यतः "आयरियाईण जया, पच्चिसजया न सेवर अकिचं । वैयावश्चऽज्जयणे, सुसज्जप तव श्रोगणं" ॥१॥ सूत्रार्थ तथा "गो इत्थादिन या य अयियगारे " ( गृहस्थान ) "कांहादी च उदिसे, परिनिव्वावंति से अत्ति " ॥ १ ॥ स्था० ७ are पंचाई ठाणेहिं आपरियडवन्यावस्त्र गणात्रकमले पाते । तं जहा - आयरियनवज्झाए गणंसि त्र्याएं वा धारणं वा नो सम्मं पठंजित्ता भवइ । आयरियउत्रकाए गणंसि श्रहारायणियाए किकम्मं वेणइयं नो सम्मं पउंजिना जव आपरिवार गसि जे सुपज्जबजाए धारिति ते काले णो सम्ममणुपवादेत्ता जवइ । आायरियउवजाए गणंसि सगणियाए वा परगणियाए वा निग्गंथी ए हिसे भव मित्ते गाइगणे वा से गयाओ अवकमेजातेर्सि संगोग्गयाए गणाचकपणे पाते || श्राचार्योपाध्यायस्य आचार्योपाध्याययोर्वा गणाद् गच्छाद अपक्रमणं विनिर्गमो गणापक्रमणम् । श्राचार्योपाध्याय - योर्गणे गच्छविषये श्रां वा योगेषु प्रवसंनह्मणां धारणां या विधेयेषुणांनो मेव सम्यग्यथौचित्यं प्रयोक्ता तयोः प्रवर्तनशीलो भवति । इदमुक्तं भवति दुर्विनीस्वाणस्य तं प्रयोकुमशक्नुवद गणादपक्रामति कालिका दित्येकम तथा गविषये पधारनाधिकतया यथा कृतिकर्म, तथा वैनायकं विनयं तो नैव सम्यक् प्रयोक्ता भवत्थाऽचार्य संपदा, साभिमानत्वात् । यत श्राचार्येणापि प्रतिक्रमणामणादिवितानामुचितनिया क 66 " तीयः तथा खसी पानिपताना पत्रका रान् उद्देश कायनादीन पारयति परितस्तानि काले काले यथावसरं न सम्यगनुप्रवात्रयिता तेषां पाठयिता भवति । 'ये'ने नगमित्यर्थ Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) गणावक्कमण अभिधानराजेन्सः। गगिट्टी विनीतस्वात्स्वस्य वा सुखत्रम्पटत्वाद् मन्दप्रज्ञत्वाति गणादप- गणाचारये, उत्त० ३ अ० । अनु। सः । गच्छाधिपती, व्य०१ कामतीति तृतीयम् । तथाऽसौ गणे वर्तमानः (सगणियाए त्ति) | १० । प्राचा० । सूत्र० । अस्य पाव आचार्याः सूत्राधम. स्वगणासंबन्धियां (परगणियाए त्ति) परगणसरकायां निम्रन्थ्यां ज्यस्यन्ति । कल्प. ६ कण। तथाविधाशुभकर्मवशवर्तितया सकलकल्याणाश्रयसंयमसौ एकं पि जो मुहत्तं, सत्तं पमिवोहि वे मग्गे। । धमध्याद् बहिलेश्यान्तःकरणं यस्यासौ बाहिलेश्य भासक्तो अवतीत्यर्थः । एवं गणादपक्रामतीति न चेदमधिकगुणत्वे समुरासुरम्मि वि जगे, तेण हुँ घोसिय ऑणाघोस ।। नास्याऽसंभाव्यम् । यतः पठ्यते-“कम्माइ तूणिघणचि-क नए अस्थि विस्सं, ति केइ जगवंदणीयकमजुयझे। णा गरुयाइ वज्जसारा । नाणयिं पि पुरिस, पंथाओ जोसि परिहियकरणे-कवकमक्खाणवोनिहीकालं ।। उप्पर नेति" ॥१॥ इति चतुर्थम् । तथा मित्रज्ञातिगणो वा जूऍ प्रणागऍ काले, ण केइ इह होति गोयमा ! सूरी । सुहत स्वजनवर्गो वा ( से ) तस्याचार्यादेः कुतोऽपि कार णामग्गहणेण विजे-सि होज नियमेण पच्चितं ।। णादणादपक्रामेदतस्तेषां सुहृत्स्वजनानां संग्रहाद्यर्थ गणाद एयं गच्छववत्थं, दुप्पसहाणंतरं तु जो खंमे। पक्रमणं प्रज्ञप्तम् । तत्र संग्रहस्तेषां स्वीकारे उपग्रहो वखादिभिरुपष्टम्भ इति पञ्चमम् । स्था०५ ठा०२ उ०। (गणादरम्य तं गोयम ! जाण गणि, निच्छयोऽणतसंसारी॥ किश्चिदकृत्यं कृत्वा पुनः स्वगणमुपसम्पद्येत तत्र विधिः 'उ- जसयलजीवजगम-गलेककराणपरमकल्लाणं । वसंपया' शब्दे दि० भागे १००८ पृष्ठे अष्टव्यः) सिद्धिपए वोच्चिन्ने, पच्छित्तं होइ तं गणियो ।। गणावच्छेइय-गणानच्छेदक-त्रि०। गणस्यावच्छेदो विभागों तम्हा गणिणं समस-तुमित्तपक्खेण परहियरएणं । शोऽस्यास्तीति । स्था० ३ ठा० ४ उ० । गणका-चन्तके, कल्लाणकंखुणा अ-प्पणो वि आणाण संघेया।। प्राचा०२ श्रु०१ अ०१० उ० । यो हितं गृहीत्वा गच्चगेपष्टम्भायेवोपधिमार्गणादिनिमित्तं विहरति । स्था० ४ ग०३ उ०। एवं मेरा ण लंघेयव्व ति ॥ अधुना गीतार्थस्य स्वरूपमाह एयं गच्छववत्यं संघित्तु नगारबेहि पमिवके। नकावणा पहावण-खेत्तोवहिमग्गणासु अविसादी। । संखाईए गणिणो, अज वि बोहिं न पावति ।। मुत्तत्थतदुभयविऊ, गीयत्याए वि साहुं ति ।। ण अनंति हि य अने, अणंतहुत्तो वि परिजमंतित्यं । उत्प्राबल्येन धावनमुद्धावनं, प्राकृतत्वाच स्त्रीत्वनिर्देशः, कि- चउगइभवसंसारे, चेडिज चिरं सुदुक्खत्ते । महा०५अण मुक्तं भवति?-तथाविधे गच्चप्रयोजने समुत्पन्ने प्राचार्येण संदि- "सुत्तत्थे निम्माल, पियवधम्मोऽणुवत्तणाकुसलो। होऽसंदिष्टो वा प्राचार्य विज्ञप्य यथैतत्कार्यमहं करिष्यामीति । जाईकुलसंपन्नो, गंभीरो सद्धिमंतो य ॥१॥ सस्य कार्यस्यात्मानुग्रहवुना करणं उद्धावनम, शीघ्रं तस्य संगहुधम्गहनिरओ, कयकरणो पवयणाणुरागी य । कार्यस्य निष्पादनं प्रधावनम्, केत्रमार्गणा केत्रप्रत्युपेक्षणा,नप- एवंविहो य भणिो गणसामी जिणवारदेहि" ॥२॥ धिरुत्पादनम्, एतासु येऽविषादिनो विषादं न गच्छन्ति,तथा सू. स्था०६ ठा। प्रार्थतदुभयविदः, अन्यया हेयोपादेयपरिझानायोगात, ते पता गणी आवश्यके प्रमाद्येत तदा प्रायश्चित्तम्रशा एवंविधा गीतार्याः, गणावच्छेदिन इत्यर्थः । व्य०१०। भाव। ध। से जयवंजेणं गणी किंचि आवस्सगंपमाएजा। गोयमा! अथ गणावच्छेदकयोग्य गुणानाह जे णं गणा अकारणिगे किंचि खणमेगमवि पमाए, से गं प्रनावनोछावनयोः, क्षेत्रोपध्येपणासु च । आवस्सगं उवइसेज्जा जओणं तु सुमहाकारणिगे वि संते गअविषादी गणावच्चे-दकः सूत्रार्थविन्मतः ।। ७४॥ णी खणमेगमवी ण किंचि णिययावस्सगं पमाए से णं वंदे प्रत्रावना जिनशासनस्योत्सर्पणाकरणम्, उझावना उत्प्राबल्ये. पूए दहब्वे जाव णं सिके बुझे पारगए खोणकम्पमले न धावना, गोपग्रहार्थ दूरक्षेत्रादौ गमनामत्यर्थः। तयोश्च पुनः केवं प्रामादियोग्यस्थानम, उपधिः कल्पादिः, तयोरेषणा मार्ग नीरए उबइसेन्जा; सेसं तु महयाए बंधेणं मत्थाणे व गा, गवेषणेति यावत् । श्रासु अविषादी खेदरहितः। तथा सू नाणिहिए। एवं पच्छिते विहिं सो न णाणुढती अदीणमत्रार्थवित् उचितसूत्रार्थज्ञाता, ईदृशो गणावच्छेदकस्तत्संको णोज जइ य जहायामं जे से आराहगे भणिए ।। मतः प्राप्तो जिनैरिति शेषः, न पुनर्गुणरहित इति जावः । महा० ७ अगणावच्छेदके, व्य०४०। घ. ३अधि(कियत्पर्यायस्य गणावच्छेदकत्वं कल्पत इति गणिगणसमकिय-गणिगुणस्वनन्धिक-पु० । गाणना गुणा 'आयरिय' शब्दे द्वि० भागे ३३१ पृष्ठ उक्तम् ) यस्य स्वा च स्वकीया चलब्धिर्थस्य स गणिगुणस्वलब्धि. गणावच्छेदय-गणावच्छेदक-पुं० । 'गणावच्छेश्य' शब्दार्थे, | कः । प्रवाजितुमुपग्रहीतुं च शक्ते, पश्चा० १८ विव०। स्था० ३ ०४०। गणिनि-गणर्द्धि-स्त्री० । ज्ञानदर्शनचारित्ररूपसम्पदि, स्या० । गणि-गणिन्-त्रि० । गणः साधुसमुदायो यस्यास्ति स्वस्वामिसम्बन्धेनासौगणी स्था० ३ ठा०३ उ० प्र०ागणः साधुस गणिकी तिविहा परमत्ता । तं जहा-णाणिही दसणिकी मुदायो जुयानतिशयवान् वा गणानां साधूनां वा यस्यास्ति स चरित्तिही | अहवा गणिही तिविहा पमत्ता । तं जहा-सगयो । खासमठा गुणगणो वाऽस्यास्तीति।नं। प्रवका आचाग । चित्ता अचित्ता पीसिया ॥ Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२४) गणिही ग्राभिधानराजेन्द्रः। गणियपकिरिया कानििवशिष्टश्रुतसम्पद, दर्शनार्द्धःप्रवचने निश्शङ्कितादित्वं, | से कि तं गणिमे 1 गणिमे जम्मं गणिज्जइ । तं जहा-एगो प्रवचप्रभावकशास्त्रसंपता । चारित्रद्धिनिरतिचारता-सचित्ता दस सयं सहस्सं दससहस्साई सयसहस्सं दससयसहशिभ्यादिका,अचित्ता वस्त्रादिका,मिश्रा तथैवेति । इह च विकुबणादिऋद्धयोऽन्येषामपि जवन्ति, केवलं देवादीनां विशेषव स्साई कोमी, एएणं गणिमप्पमाणणं कि पत्रोअणं, एएत्यस्ता इति तेषामेयोक्ता इति । स्था० ३ ० ४ उ० । णं गणिमप्पमाणेणं जितगनितिनत्तवेअणआयव्वयसंसिगणिणी-गणिनी-स्त्री० । प्रवर्तिन्याम, व्य०७०। आणं दन्नाणं गणियप्पमाणं निवित्तिलक्खणं नव । सेत गणिमे॥ गणिपिमग-गणिपिटक-ज० । गणो गच्छो गुणगणो वाऽस्यास्तोति गणी आचार्यः, तस्य पिटकमिव पिटकम, सर्वस्वमि "से किं तं गणिमे" इत्यादि। गण्यते संख्यायते वस्त्वनेनेति गस्पर्थः। गणिपिटकम् । अथवा गणिशब्दः परिच्छेदवचनोऽस्ति। णिमम्,एकादि । अथवा गण्यते संख्यायते यत्तदूणिमं, रूपकातथा चोक्तम्-"प्रायारम्मि अहीए, जं नाो होह समणधम्मो दि । तत्र कर्मसाधनपकमङ्गीकृत्याइ-(जम्पमित्यादि) गएय। तम्हा आयारधरो, जन्नइ पढमं गणहाणं " ॥१॥ ततश्च ते यद्णिमम् । कथं गएयत?, इत्याह-(एगो इत्यादि) एतन गगणिनां पिटकं गणिपिटक, परिच्छेदः, समूह श्त्यर्थः। नं। णिमप्रमाणेन किं प्रयोजनमित्यादि गतार्थमेव । नवरं भृतका क मकरो,भृतिः पदात्यादीनां वृत्तिः,जक्तं भोजन, वेतनकं कुविन्दा. सास्था। गणिपिटकभेदा: दिना व्यूतवस्त्रव्यतिकरेऽर्थप्रदानम् । एतेषु विषये प्रायव्ययसं श्रितानां प्रतिबद्धानां रूपकादिव्याणांगणिमप्रमाणेन निवृत्तिकडविहे एं भंते ! गणिपिमए णं पसचे । गोयमा ! | लक्षणमियत्ताऽवगमरूपं भवति तदेतद्वणिममिति । अनु । दुवालसंगे गणिपिमए पसत्ते । त जहा-आयारो० जाव उत्त। गणिमं यदेकादिसंख्यया परिच्छिद्यते, तश्च ऋषभे दिहिवाओ । से किं तं पायारो। पायारे णं समणाएं राज्यमनुशासति प्रवृत्तम् । प्रा०म०प्र० । णिग्गंथाणं आयारगोयरा । एवं अंगपरूवणा ना गणिय-गणिक-त्रि० । गणितके, रा० । " गणिधे जाणा पियवा जहा एंदीए जाव “ सुत्तत्यो खल पढमो, गणिो " अनु। बीओ निज्जुत्तिमीसो भणियो। ताओ यणिरवसेसो, गणित-न० । गएयते इति गणितम। ओघका कीटिकासंकलएसविहो होइ अणुप्रोगो" ॥१॥ नादिके, स्था० १० ग० श्रूयते च वज्रान्तं गणितमिति। नं० । सल्याने, स्था० ठा० ।नं। कल्प० । विशे० । का० । संक(एवं अंगप्ररूपणा भाणियबा जहा नंदीए ति) एवमिति | लिताधनेकभेदे पाटीप्रसिद्ध सङ्ग्याने, जं.२ धक्क० । कलापूर्वप्रदर्शितप्रकारवता सूत्रेणाऽचाराद्यङ्गप्ररूपणा भणितव्या, भेदे, स० ७१ सम । एकद्वियादिसंख्याने, तश्च भगवता पथा नन्द्याम,साच तत एवावधार्या । अथ कियदुरमियमङ्गप्र सुन्द- वामकरेणोपदिष्टमत एव तत्पर्यन्तादारज्य गण्यते । रुपणा नन्युक्ता वक्तव्यत्याह-(जाव सुसत्थो गाहा) सूत्रार्थ मा० म०प्र० प्रा० चू० । बीजगणितादी, प्राचा०३ चू०। मात्रप्रतिपादनपरः सूत्रार्थोऽनुयोग इति गम्यते, खलुशब्दस्त्येवकारार्थः,स चावधारण इति। एतदुक्तं भवति-गुरुणा सूत्रा दशप्रकारं तु गणितमिदम्धमात्रानिधानलकणः प्रथमोऽनुयोगः कार्यः। मा भूत प्राथमि- परिकम्मुरज्जुरासी, चवहारे तह कलासवधेय। कविनेयानामतिमोह इति द्वितीयोऽनुयोगः सूत्रस्पर्शकनियु पुग्गलजावंतावे, घणे य घाणवग्गवग्गे य । तिमिश्रः कार्य इत्येवंभूनो जणितो जिनादिभिः । तृतीयश्च तृतीयः पुनरनुयोगो निरवशेषो, निरवशेषस्य प्रसक्तानुप्रसक्त एषां संस्थानानां मध्ये समचतुरनं संस्थानं प्रवरत्वात् पौएम. स्यार्थस्य कयनात । एषोऽनन्तरोक्तः प्रकारत्रयलक्षणो भवति, रीकमित्येवमेते हे अपि पौण्डरीके, शेषाणि तु परिकर्मादीनि स्याद्विधिविधानमनुयोगे सूत्रस्यार्थेनानुरूपतया योजनलकणे गणितानि, न्यग्रोधपरिमण्डलादीनि च संस्थानानि, इतराणि विषयभूते इति गाथार्थः । भ०२५ श०३ उ०। उत्त। सूत्र०। कण्डरीकान्यप्रवराणि भवन्तीति यावत् । सूत्र०२ श्रु०१०। गणिनामर्थपरिच्छेदानां पिटकमेव पिटकं स्थानं गणिपिटकम, | यथा पश्च महार्णवा इति संख्याते, स्था०५०१०नि० अथवा पिटकमिव वा लजुकवाणिजकसर्वस्वाधारभाजनवि- ० । वेसवाडियगणस्य प्रथमे कुले, कल्प०८कण । शेष श्व यत्तस्पिटक गणिपिटकम् । ०। कल्पा अनलाग-गाणियपकिरिया-गणितप्रक्रिया-स्त्री० । गणितपरिज्ञानोपाये, णिनः सर्वार्थसारजूते प्रवचने, पा० । पिटकमिव पिटकं गणि- सूत्र० । तद्यथा-" एकाद्या गच्छपर्यन्ताः, परस्परसमा. पिटकं रत्नसर्वस्वाधारकल्पं जवति । स०१ समः । हताः । राशयस्तरि विज्ञेयं, विकल्पगणिते फलम" ॥१॥ गणिपिमगधारग-गणिपिटकधारक-त्रि० । समस्तद्वादशाङ्गी- प्रस्तारानयनोपायस्त्वयम्-तत्र " गणितेऽन्त्यविभक्त तु, धारके, कल्प. क्षण। लब्धं शेषैर्विनाजयेत् । आदावन्ते च तत् स्थाप्यं, विगणिनद-गणिभा-पुंग आर्यसंनतेः षष्ठे शिध्ये,कल्प०८क्षणा कल्पगणिते क्रमात" ॥ १ ॥ श्रयं श्लोकः शिष्यहितार्थ विवियते-तत्र सुखावगमार्थ षट् पदानि समाश्रित्य तावत् गणिम-गणिम-न० । नालिकेरपूगीफलादिके, यदाणतं सद्वय- श्लोकार्थो योज्यते । तत्रैवं षट् पदानि स्थाप्यानि-१२३४५६ वहारे प्रविशति ।ज्ञा० १ श्रु०८ ० । स्था० । प्रा० चू० । "गणिमं जं दुगाश्याए गणणाए गमिळति" तच्च हरीतक्यादि । नि.चू०१०। १२३४५ २१३४५ १३२४५ ३१२४५ २३१४५ ३२१४५ Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) गणियपकिरिया अभिधानराजेन्द्रः। गाणिविज्जा एतेषु परस्परताडनेन सप्तशतानि विंशत्युत्तराणि गणितमु- गुणोवषया) गीतनृत्यादीनि विशेषतः पण्यस्त्रीजनोचितानि च्यते,तस्मिन् गणितेऽन्त्योऽत्र पट्कः, तेन भागे हृते विशत्युत्त- चतुःषष्टिविज्ञानानि ते गणिकागुणाः। अथवा वात्स्यायनोक्तारंशतं लज्यते, तच्च षमा पङ्कीनामन्त्यपङ्की षट्कानां न्यस्यते, नि आलिङ्गनादीन्यष्टी वस्तूनि, तानि च प्रत्येकमष्टभेदत्वाच्चतु:तदधः पञ्चकानां विंशत्युत्तरमेव शतम् । एवमधोऽधश्चतुष्क- षष्टिर्भवन्तीति । चतुःषष्टचा गणिकागुणैरुपता या सा, तथा त्रिकद्विकैकानां प्रत्येक विंशत्युत्तरशतं म्यस्यमेवमम्स्यपली एकोनशिद्विशेषा एकविंशतीरतिगुणाः, द्वात्रिंशच पुरुषोपचासप्तशतानि विंशत्युत्तराणि भवन्ति, एषा च गणितप्रक्रियाया राः कामशास्त्रप्रसिद्धाः। ( नवंगसुसपमिबोहिय ति) द्वे श्रोत्रे, आदिरुच्यते,तथा यत्तद्विशत्युत्तरं शतं लब्धं तस्य च पुनः शेषेण | बकुषी, हे घ्राणे, एका जिह्वा, एका त्वक, एक चमन इत्ये. पञ्चकेन जागेनापहते सम्धा चतुर्विशतिस्तावन्तस्तावन्तश्च तानि नाङ्गानि सुप्तानि इव सुप्तानि यौवनेन प्रतिबोधितानि पञ्चकचतुष्कत्रिकद्वकैका प्रत्येकं पञ्चमपङ्क्ती न्यस्या बाव- स्वार्थग्रहणपटुतां प्रापितानि यस्याः सा तथा "अहारसदेसीविंशत्युत्तरं शतमिति । तदधोऽग्रतो न्यस्तमई मुक्त्वा येऽन्ये भासाविसारय ति" दिगम्यम्। (सिंगारागारचारवेस त्ति) तेषां यो यो महत्संख्यः स सोऽधस्ताच्चतुर्विशतिसंख्य पव | शृङ्गारस्य रसविशेषस्यागारमिव चारुवेषो यस्याः सा तथा तावद् न्यस्यो यावत्सप्तशतानि विंशत्युत्तराणि पञ्चमपलावपि (गीयरगंधवनकुसल त्ति) गीतरतिश्वासौ गन्धर्बनाट्यपूर्णानि भवन्ति, एषा च गणितप्रक्रियेत्यभिधीयते । एवम- कुशला चेति समासः । गन्धर्व नृत्तयुक्तगीतं, नाट्यं तु नृत्तमेनया प्रक्रियया चतुर्विशतेः शेषचतुष्ककेण जागे हते षट् अभ्यन्ते, बेति (संगयगवभणियविदियविनासनलियसंलावनिक्षणजुत्तो. तावन्तश्चतुःपङ्क्तौ चतुष्ककाः स्थाप्याः, तदधः षट् त्रिकाः घयारकुसल ति) रश्यम, सङ्गतानि गतादीनि यस्याः सा तथा, पुनदिकाः, नूय पककाः, पुनः पूर्वन्यायेन पतिः पूरणीया, पुनः सललिताः सुप्रसन्नतोपेताये संलापास्तेषु निपुणा या सा तथा, षट्कस्य शेषात्रकेण भागे हते द्वौ लन्येते, तावन्मात्री त्रिको युक्ताः सताये उपचाराव्यवहारास्तेषु कुशक्षा यासा तया, ततः सृतीयपङ्क्तौ शेषं पूर्ववत् । शेषपतिद्वये शेषमङ्कद्वयं क्रमो- पदत्रयस्य कर्मधारयः। (सुंदरथण त्ति) पतेनेदं दृश्यम्-"सुक्रमान्यां व्यवस्थाप्यमिति ॥ सूत्र० १ ० १ ०१ उ०। दरथणजघणवयणकरचरणणयणलावमाविलासकसिय त्ति " गणियलिवि-गणितलिपि-स्त्री० । ब्राहया लिपविधाने, प्रका० व्यक्तम, नवरं जघनं पूर्वः कटीभागस्य, लावण्यमाकारस्य स्पृ. हणीयता, विलासः स्त्रीणां चेष्टाविशेषः (कसियज्जय त्ति) ज१ पद । वीकृतजयपताका "सहस्साभे ति" व्यक्तम् (विदिन्नछत्तचामणियमुहम-गणितसूक्ष्म-न० । गणितं कोटिकासंकलनादि, | मरवालवीयणिय सि) वितीर्ण राज्ञा प्रसादतो दत्तं वत्रचामतदेव सूक्मं सूक्ष्मबुद्धिगम्यत्वात् । सक्कानेदे, स्था० १००। ररूपा बालव्यजनिका यस्यै सा तथा, ( कनीरहप्पपाया वि होत्थ त्ति) कीरथः प्रवहणं तेन प्रयातं गमनं यस्याः सा गणिया-गणिका-स्त्री० । विलासिन्याम् , शा. १७०१०। तथा, वाऽपीति समुच्चये (होत्थ त्ति) अभवदिति। (आहेबच्च आमा। ति) आधिपत्यं प्राधिपतिकर्म । इट यावत्करणादिदं दृश्यम् (पोरवच्चं ) पुरोवत्तित्वम्, अग्रेसरत्यमित्यर्थः । (भट्टितं) अहोण जाव सुरूवा बावचरिकनापंमिया चउसहि भर्तृत्वं, पोषकत्वं, (सामित्त) स्वस्वामिसंबन्धमात्रम्, (महत्सर. गणियागुणोववेया एकूणतीसे वि सेसे रममाणी एकती. गत्त)शेषवेश्याजनापेक्षया महत्तरत्वम, (आणाईसरसेणाव) सरइगुणप्पहाणा बत्तीसपुरिसोवयारकुसमा एवंगमुत्तप- आवेश्वर पाशाप्रधानो यः सेनापतिः सैन्यनायकस्तस्य नाव: मिबोहिया अट्ठारसदेसीजासाविसारया सिंगारागारचारुवे कर्म वा आझेश्वरसेनापत्यमिव आझेस्वरसेनापत्यम, (करे माणी) कारयन्ती परैः, (पालेमाणी)पालयन्ती स्वयमिति । सा गीयरइगंधवणकुसला संगयगयभणियविहियविला- | विपा० २ ० । “गणियायारकरेणुकोत्यहत्थीणं" (गणियायार सललियसंलाबनिनणजुत्तोवयारकुसला सुंदरथणा जह- त्ति) गणिकाकाराः सकामायाः करेणवस्तासां (कोत्थ ति) णवयणकरचरणलावामविलासकलिया ऊसियधया स उदरदेशस्तत्र हस्तो यस्य कामक्रीमापरायणत्वात्स तथा, इह हस्सझंना विदिउत्तचामरवाझवेयणिकया कलीरहप्पया चेत्समासान्ता षष्टव्यः । झा०१ २०१०। या होत्या बहूणं गणियासहस्साणं आहेवचं पोरेवचं गणियागुण-गणिकागुण-पुं०। आलिङ्गनादिके विलासिनीगुसामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं आणाईसरसेणावचं करेमाणी णे, का० १७०३०। पालेमाणी विहर॥ गणियाणुयोग-गणितानुयोग-पुं०।सूर्यप्रक्षप्यादी अनुयोग(महीण चि) अहीना पूर्णपञ्चेन्द्रियशरीरेत्यर्थः । यावत्कर-| भेदे, प्राचा० १ श्रु० १ ० १ २० । णात्-" सक्वएवंजणगुणोवेया माणुम्माणपमाणपडिपुनसु-गणियावर-गणिकावर-न० विलासिनीप्रधाने, का० १७०१ जायसम्बंगसुंदरंगी"इत्यादि षष्टव्यम । तत्र सकणानि स्वस्तिक- अ० ज०। विपा० । "गणियावरनाडजकलियं" गणिकावमकणादीनि, व्यसनानि मषीतिलकादीनि, गुणाः सौनाम्यादयः, मानं जलकोणमानता, उन्मानमर्धजारप्रमाणता, प्रमाणताऽष्टोत्त रैश्याप्रधाननाटकीयैर्नाटकसम्बन्धिनी निर्मात्रैः कलिता या सा रशताङ्कलोच्छ्रयतेति (बावत्तरिकलापंमिय ति) खाद्याः श तथा ताम । भ०११ २०११ उ०।। कुनरुतपयन्ता गाणतप्रधानाः कलाः प्रायः पुरुषाणामेवाभ्यास- गणिविज्जा-गणिविद्या-स्त्री। उत्कालिकश्रुतविशेष, नं० । योम्या, स्त्रीणां तु विशेया पव प्राय इति । (चउसहिगणिया- सबालवको गच्छो गणा, सोऽस्यास्तीति गणी प्राचाया, तस्य २०७ Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२६ ) निधानराजेन्द्रः । गणिविज्जा विद्या ज्ञानं गणिविद्या, सा चेह ज्योतिष्कनिमित्तादिपरिज्ञानरू पावेदितव्या, ज्योतिष्कनिमित्तादिकं हि सम्यक् परिज्ञाय प्रवा जनसामायिकारोपणोपस्थापनश्रुतोद्देशानुज्ञागणारोपण दिशानुशाविहार क्रमादिषु प्रयोजनेषूपस्थितेषु प्रशस्ते तिथिकरणमुहूनक्षत्रयोगे यद्यत्र कर्त्तव्यं भवति तत्तत्र सूरिणा कर्त्तव्यं, तथा खेन करोति तर्हि महान् दोषः । उक्तं च- " जोइसनिमित्त नाणं, गणिणो पश्चावणाइकज्जेसु । ववजुज्जर तिहिकरणा-ह जाएणनहा दोसो" ॥१॥ ततो यानि सामायिकादीनि प्रयोजनानि यत्र तिथिकरणादौ कर्त्तव्यानि भवन्ति तानि तत्र यस्यां ग्रन्थपरतौ व्यावपर्यन्ते सा गणिविद्या । नं० । पा० । गणिव्य-गणिक-पुं० । स्वनामख्याते कस्याचदू धर्मातरि, "सीसो सझिलो वा गणिन्वश्रो वा न सावर ( ७०१ गाथा ) पं० ० ३ द्वार । गणि संपया-गणिसम्पद - स्त्री० । गणानां साधूनां वा गणः समुदायो भूयानतिशयवान् वा यस्यास्तीति गए। आचार्यस्तस्य सम्पत् समृद्धिर्जावरूपा गणिसंपत् । प्रव० ६४ द्वार । आचारश्रुतशरीरवचनादिकायामाचार्य्यगुणद्ध, स्था० । विहा गणिसंपया पत्ता । तं जहा आयारसंपया सुयसंपया सरीरसंपया वयासंपया वायणासंपया मसंपया पयोगसंपया संगपरिक्षा णाम अट्ठमा ॥ गणः समुदायो भूयानतिशयवान् वा गणानां साधूनां वा यस्यास्ति स गणी आचार्यस्तस्य सम्पत् समृद्धिर्भावरूपी गणिसम्पत्, तत्राचरणमाचारोऽनुष्ठानं स एव संपद्विभूतिस्तस्य वा सम्पत् सम्पत्तिः प्राप्तिराचारसम्पत् । सा च चतु, संयमधुयोगयुक्तता चरणे नित्यं समाभ्युपयुक्ततेत्यर्थः। श्रसम्प्रग्रह - त्मनो जात्याद्युत्सेकरूपग्राद वर्जनमिति जावः २ । श्रनियतवृत्तिरनियतविहार इत्यर्थः ३ । वृषशीलता वपुर्मनसोर्निर्विकारतेतियावत् ४। एवं श्रुतसम्पत्, साऽपि चतुर्द्धा । तद्यथा बहुश्रुतता युगप्रधानागमतेत्यर्थः १. परिचितसूत्रता, विचित्रसूत्रता स्वसमयादिभेदात् ३, घोषविशुद्धिकरता च उदात्तादिविज्ञानादिति । शरीरसम्पञ्चतुर्द्धा आरोहपरिणाढयुक्तता उचितदैर्घ्यविस्तारता इत्यर्थः, अनचत्रांप्यता, अलज्जनीयाऽङ्गतेत्यर्थः २, परिपूर्णेन्द्रियता ३, स्थिरसंहननता चेति ४, वचनसम्पच्चतुर्द्धा । तद्यथा-श्रादेयवचनता १, मधुरवचनता २, अनिश्चितवचनता, मध्यस्थव चनतेत्यर्थः ३, असंदिग्धवचनता चेति ४। वाचनासंपश्चतुर्द्धा । तद्यथा-विदित्वादेशनं विदित्वा समुद्देशनं परिणामिकादिक शियं ज्ञात्वेत्यर्थः २, परिनिर्वाप्य याचना पूर्वदत्तालापकानधिगम शिष्यं पुनः सूत्रदानमित्यर्थः ३, अर्थनिर्यापणा श्रर्थस्य पूर्वा परसाङ्गत्येन गमनिकेत्यर्थः ४ । मतिसंपञ्चतुर्द्धा श्रवग्रदेहापा धारणाभेदादिति ४। प्रयोगसम्पच्चतु, श्इ च प्रयोगो वादविषयसूत्रात्मपरिज्ञानं वादादिसामर्थ्यविषये पुरुषपरिज्ञानं किं नयोऽयं वाद्यादिः २ क्षेत्रपरिज्ञानं ३ वस्तुपरिज्ञानम, वस्त्विह वादकाले राजामात्यादि ४| संग्रहः स्वीकरणं तत्र परिक्षा ज्ञानं नामाभिधानमष्टमी सम्पत् । सा च चतुर्विधा । तद्यथा - बालादियोग्यत्रविषया १, पीठफलकादिविषया २, यथासमयं स्वाध्यायनिकादिविषया ३, यथोचितविनयविषया चेति ४ । स्था ८ वा | प्रश्न | दर्श० । ६०र० । सुयं मे आज संतेणं जगवया एवमवखायं - इह खलु येरेहिं 39 For Private गणि संपया त्रिधा गणिसंपदा पत्ता, कयरा खलु थेरे हिं गणिसंपदा पत्ता । इमा खलु थेरेहिं जगविहा गणिसंपदा पत्ता । तं जहा श्रायारसंपदा १ सुतसंपदा २ सरीरसंपदा ३ वयणसंपदा ४ वायणासंपदा ए मतिसंपदा ६ संयोगसंपदा ७ संगहपरिक्षा णामं अडमा । से किं तं प्रयारसंपदा ।। प्रायारसंपदा चउठिवढा पाणता । तं जहा - संजमधुवजोगजुत्ते यावि न ति १ असंगहियप्पा २ अणियतावर्त्त ३ वुसीले या विजवति । सेत्तं श्रायारसंपदा । से किं तं सुतसंपदा १, सुतसंपदा चविधा पत्ता । तं जहा - बहुसुते यावि जवति १, परिचित सुते यावि भवति १ विचित्तमुते यावि नवति ३, घोसवसुद्धिकरण यावि जवति ४ । सेत्तं सुतसंपदा । से किं तं सरीरसंपदा । सरीरसंपदा चउन्विहा पत्ता । तं जहा - प्रारोहपरिणाह संपन्ने यादि भवइ १, अणोतप्पसरीरे 2, थिरसंघयणे ३, बहुपरिपुसिदिए यावि नवति १४ । तं सरीरसंपदा | से किं तं वगणसंपदा ? | वयणसंपदा चन्दिा पत्ता । तं जहा आदिज्जवयणे यावि जवति १, महुरवयणे यावि भवति २, प्रणिस्सियवयणे यावि भवति ३, फुरुत्रयणे यात्रि भवइ ४ । सेतं वयण संपदा । से किं तं वायण संपदा ? | वायणासंपदा चउब्विहा पत्ता । तं जहा - विश्यं उद्दिसति विश्यं वापति परिणिव्वावियं वाएइ प्रत्यपिज्जवर यावि भवति । सेतं वायणासंपदा । से किं तं मतिसंपदा ? | मतिसंपदा चडव्विधा पष्ठता । तं जहा - उग्गहमतिसंपदा १, ईहामती०२, अवायमती ३, धारणामती । से किं तं उग्गहमती । उग्गहमती बबिधा पत्ता । तं जहा खिप्पं उगिएहति, बहुं उगिति, बहुविहं उगिएहति, धुवं उगिएहति, अणिस्सियं उगिएहनि, असंदिग्धं उगिएहति । सेत्तं उग्गहमती । एवं ईहामती वि। एवं वायमती । से किं तं धारणामती ? | धारणामती विधा पत्ता । तं जहा बहुं धरेति, बहुविधं धरेति, पोरा घरेति, दुरं घरेति, आणि स्मियं घरेति, असंदिदं धरति । सेतं धारणामती । सेत्तं मतिसंपदा से किं तं पयोगसंपदा ? | पोगसंपदा चढव्विधा पात्ता । तं जहा 1 विदाय वायं पउज्जित्ता जवति, परिसंविदाय वादं पजित्ता जवति । सेत्तं विदाय वादं परंजित्ता भवति, वत्युं विदाय वायं परंजित्ता भवति । सेत्तं पयोगमतिसंपदा । से किं तं संगपरिणा नाम संपदा ! | संगहपरिष्मा नाम संपदा चउन्त्रिहा पत्ता । तं जहा - बहुजणपानग्गताए वासावासेसुखेचं पडिले हित्ता जवति, बहुजणपाउग्गताए पारिहारिय पीढफलग सेज्जासंथारयं उगिरिहत्ता जवति, काले पं भगवंतेहि जगवंतेहिं Personal Use Only Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) गाणसंपया अन्निधानराजेन्दः । गणिसंपया कालं समाणइचा जवति, अहागुरुसंपूइत्ता नवति । सेत्तं] संपद्विषयः पूर्वप्रश्नः. द्वितीयस्तु तद्विषयभेदान्तरकापनविषय संगहपरिमा। इति समुच्चयविशेषविवक्षायां न विरोध इत्यलं प्रसनेन । प्रस्तुतमुपस्तूयते-यः संयमध्रुवयोगयुक्तश्चापि भवति १ असं. "सुयं मे माउसंतेणं" इत्यादिव्याख्या प्राग्वत् । अष्टौ विधाः प्रकारा प्रतिगृढीतात्मा २ अनियतवृत्तिः ३ वृद्धशीलश्चापि भवति । यासां ता अष्टविधाः । (गणिसंपद त्ति) गणोऽस्यास्तीति तत्राचारो नाम प्रथममत, तस्मिन् अधीते दशविधश्रमणध. गणिराचार्यस्तस्य संपद श्व संपदो गणिसंपदः प्राप्ताः प्रम- मोशातो भवति, तस्मादाचारानं यो भणति सूत्रतोऽर्थतः संपिताः। तद्यथा-प्राचारसम्पत् १, श्रुतसंपत् २, शरीरसम्पत् ३, पद्युको भवति यः स आचारसंपत् । (संजमेत्यादि) संबचनसम्पत् ४, वाचनासम्पत् ५,मातिसम्पत् ६,संयोगसंपत्७, यमो नाम चरणं, तस्य ये ध्रवा अवश्यं कर्तव्यत्वाद् योगा: संग्रहपरिका नाम सम्पत् । अत्र च प्रत्येकमही प्रकारा गणिसं- प्रति खनास्वाध्यायादयः तैर्युक्तो जवति । अथवा संयमः सप्त. पदो वर्णयिष्यति, तदेवमुपन्यस्ताः प्रकाराः । साम्प्रतं ततं दशप्रकारः पञ्चाश्रवाद्विरमणमित्यादिकः, तस्मिन् ध्रुवो नित्यो सूत्रं वक्तव्यं, तत्र प्रथम संपातमिदमादिसूत्रम्-(से किं तं योगो व्यापारो यस्य स संयमध्रुवयोगयुक्तः । अथवा संयमे गणिसंपया इति)अथास्य सूत्रस्य कः प्रस्तावः?,उच्यते-प्रश्नसूत्र ध्रुवो नित्यो योगो यस्य स सयमध्रुवयोगयुक्तः। चशब्दादू झा. मिदम, पतच्चादावुपन्यस्तमिदं ज्ञापयति-पृच्चतो मध्यस्थस्य नादिबपि नित्योपयोगः। अपिशब्दग्रहणात् असंयमेऽपि योजबुझिमतोऽपिनो भगवदर्हदुपदिष्टतत्त्वप्ररूपणा कार्या,न शेषस्य। यति इत्यका १॥ असंप्रगृहीतः अनुत्सेकवानात्मा यस्य सोऽसंप्र. तथा चोक्तम-"मध्यस्थो बुद्धिमान्यायी,श्रोता पात्रमिति स्मृतः" गृहीतात्मा, निरनिमान इत्यर्थः । यथा अहमाचार्यों बहुश्रुतस्तइति । पात्रं योम्योऽधिकारी चोच्यते । सर्वजगज्जन्तुनिवहहिता- पस्वी सामाचारकुशलो जात्यादिमान वा इत्यादि मदरहितः२॥ पाऽभ्युस्थिता प्राचार्यास्ताणविशेषणविशिष्टस्यैवाल्पाऽकरम- भनियता भनिश्चिता वृत्तिर्व्यवहरणं विहारो वा यस्य सोऽनिय. संदिग्धं पारावारस्येवाऽतितरां गूढाशयं भवाम्नाभ्युत्तारणप्र. तवृत्तिर्यथा ‘गामे एगराई नगरे पंचराई' इत्यादिका । अथवा परपोतसमानमहार्थरूपं श्रीजिनागमं संप्रदर्शयन्ति । स एव स निकेतं नाम गृह, तत्र वृत्तिर्वर्तनं यस्य स निकेतवृत्तिः, न निकेम्यग् रकति, तविपरीतस्तु नाशयति । यत उक्तं च-'आमे घमे तवृत्तिरनिकेतवृत्तिः । अथवा चतुर्थादितपोविशेषरेषणासमिइत्यादि' ततोऽयोग्यस्यागमार्थो न देयोऽनुपधानादनुष्ठानस्य तियोगेन च निकतवृत्तिः परिचितगृहेम्वगन्ता शर्त ३। वृच । यत उक्त स्थानाले-" चत्तारि अवायणिज्जा पन्नता। जुशीलो निभृतशीलः, श्रवचनशील शति यावत् । अर्थग्रहणासंजहा-अविणीए,विगश्पडिबके,अविनसियपाहुडो,मायो"तत्र त् वृशेषु ग्लानादिषु सम्यग्वैयावृत्त्यादिकरणकारापणयोरु"बिगइपभिव" इत्यस्यार्थ उपधानकारी इति, न तु उपधान धुक्तो भवति,एवंविधः। अयवा वृद्धशीलतातावद दु:खितमनसि मिति। कोऽर्थः । उच्यते-पष्टज्यते श्रुतमनेनाऽऽचाम्लादितपो. चनिनृतस्वभावता,निर्विकारतेति यावत् (सेत्तमित्यादि)सैषा विशेषरूपेण च, योगविधिनेति यावत् । उपधीयते तदुपधानं, आचारसंपत् चतुर्विधा । एवंविधाचारविशिष्टस्य श्रुतं भवति, ततश्च य एवंविधानुष्ठानयुक्तो भवति तस्यैवार्थसूत्रनेदा दीयमानं च यथोक्तं गृह्णाति,सा श्रुतसंपत्।तांपिपृच्चिषुरिदमाह ( से कि तमित्यादि) अथ का सा श्रुतसंपत !, सूरिराह-श्रुतसंछूतं देयमिति शापितं भवति, इति कृतं प्रसकेन । प्रकृतमनु पत चतुर्विधा प्राप्ता । तद्यथा-बहुश्रुतश्चापि भवति १, परिचिसरामः-तत्र 'से' शब्दो मगधदेशीप्रसिको निपातस्तत्रशब्दार्थ, तसूत्रः २, विचित्रसूत्रः३, घोषविशुद्धिकारकः । तत्र बहुश्रुतोअथशब्दार्थे वा कष्टव्यः। स च वाक्योपन्यासार्थः । किमिति प युगे युगे प्रधानः श्रुतेन एतावता यस्मिन् काले यावानागमो जवति रिप्रश्ने (तंति) तावदिति द्रष्टव्यम् । तथ क्रमोदद्योतने । तत तस्मिन् काले तावन्तं संपूर्ण हेत्वर्थयुक्त्यादिनिर्जानाति, युग. एष समुदायार्थ:-तिष्ठन्तु श्रुतसंपदादीनि प्रष्टव्यानि तावद, प्रधानागम ति जावः । चरान्दाद् बहुवारित्रः । अपिशमाचारसम्पदानन्तरंच नषामुपन्यस्तत्वात् । तत्रैतावदेव तावत् दाद बहुपर्यायः, स चैवं जघन्यतः पञ्चवार्षिकः, उत्कर्षत एपृच्छामि-किमाचारसंपदिति । अथवा प्राकृतशैल्या अभिधे- कोनविंशतिवर्षपर्यायः॥ परिचितसूत्रः-उत्क्रमक्रमवाचनादिभिः यवद् लिङ्गवचनानि योजनीयानीति न्यायादेवं द्रष्टव्यम्,तत्र का स्थिरसूत्रोऽस्खलितागमः । विचित्र-स्वपरसमयादिपर्यायैजीतावदाचारसंपदिति एवं सामान्येन केनचित्प्रश्ने कृते सतिज. नाति, अथवाऽर्थेन विचित्र बहुविचारणायुक्तं जानाति । अथगवान् गुरुः शिष्यवचनानुरोधनानुश्चार्य किञ्चिच्चियोक्तं प्रत्यु- वा उत्सर्गापवादौ सामान्यविशेषैर्वा विचित्र जानाति स वि चार्य पाह-'चउबिहा पन्नत्ता' इति । अनेन चागृहीतशि- चित्रसुत्रः३। घोपविशुद्धिकारकः-घोषा उदात्तादयः, तेषां शुप्याभिधानेन निर्वचनसूत्रेणैतदारथे, न सर्वमेव सूत्रं गणधर-| विधाष शुकिः, विशेषेण शुकिर्विशुद्धिस्तां करोतीति घोषविशुप्रश्नतीर्थकरनिर्वचनरूपं किन्तु किश्चित्तथा, किञ्चिदन्यथापि, | रिकारकः। यतः स्वयं घोषविशुद्धिमान् अन्यानपि तथैव स्वरबाहुल्येन तु तथारूपम् । यत उक्तम्-"अन्य भासर अरदा, सुत्तं शुफिकारः। घोषा उदात्तादयः, तेषां शुद्धिघोषशुद्धिः । (सेत्तं) गंयंति गणहराणिउणं । सासणस्स दियहाए, तत्तो सुत्तं पव पूर्ववत् । सांप्रतं शरीरबलवद् एव श्रुतं चतुर्विधं नवति, अतः सह"॥१॥ इत्यादि । तत्राचारसंपञ्चतुर्धा प्रश्नप्ता प्ररूपिता,यदा | शारीरं संपदमेव पिपृतिपुरिदमाह-(से किं तमित्यादि) तीर्थकरा एव निर्वकारस्तदा अयमर्थो अवसयोऽन्यैरपि ता- प्रश्नसूत्र व्यक्तम् । सूरिराह-शरीरसंघश्चतुर्विधा प्राप्ता। तद्यथा करैर्यदा पुनरन्यः कश्चिदाचार्यस्तन्मतानुसारी तदा तीर्थकर- पारोहपरिणाहसंपूर्णश्चापि भवति १, एवमनवत्राप्यशरीरः२, गणधरैरिति । चातुर्विध्यामिवोपदर्शयति-(तं जहा ) तद्यथेति स्थिरसंहननः ३, बहुप्रतिपूर्णन्द्रियः ४। इह चारोहो देध्य, वक्ष्यमाणभेदकथनप्रकाशनार्थम् । ननु पूर्वमेव 'कयरा खलु अ- परिणाहा विस्तार,ताभ्यां संपूर्णः। चापिशब्दावन्याङ्गसुन्दरत्वट्ठविहा गणिसंपदा' इत्यनेन स्पष्टमेवेति किमर्थं पुनः “से किं स्थापकाविति । येन उच्यते लौकिकैरपि यत्राकृतिस्तत्र गुणा व. तं" इत्यादिना पृच्छति, पुनरुतत्वात् । उच्यते-सामान्यतः सन्तिप्रिनवाप्यम्-नावत्राप्यम बज्जनं यस्य सोऽयमनवत्राप्यः। Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 020 ) गणि संपया अथवा पत्रापयितुं वज्जयितुमर्हः शक्यो वाऽवत्राप्यो लज्ज गृहाति ४ अनिश्रितमचगृह्णाति असन्दिग् ५, नीयः, न तथाऽनवत्राप्यः यतो हीनशरीरस्तु लज्जोत्पादको हिष्मति प्रमुच्चारितमात्रमवपृथ्वाः शिष्यैति । भवति । स्थिरसंहनन बलवतशरीरः पवि अथवा परवादिति पृविचारमात्रमवति यथा निषु शक्तिमान् भवति । बहुपद्रया प्रतिनानामनिग्रहस्थानादिदोषा न संमत उक्ताऽननु परिपूर्णन्द्रियो ऽनुपदचरादिकरण एवं सर्वार्थसा वादेन च वादे पराजितत्वं भवति १, बहुमिति एकत्राधनपति दिपूर्ववत् । शरीरमुतसम्प मुकानि पञ्च पर प्रन्यशतानि चापति २ ब ४ । सेत्तमित्यादिपूर्ववत् बहुविधमिति तस्यैव प्रायो बचनसंपद् भवति श्रतस्तां पिपृच्छिषुरिदमाह लिखति, धारयति, मनसि संख्यां गणयति, स्वमुखेनाऽन्यदासेकिदि सूरि-वचनसंचा कानमप्यताले कथयति अनेकेश्यो प्राचानश्वापि भवति चा श्रनिचितवचनः ३, असन्दिग्धवचनः ४ । तत्रादेयवचनः सकवजनग्राह्य वाक्यः श्रोतारः श्रुत्वा यद्वाक्यं प्रमाणं कुर्वन्ति । चापिशब्दावादेशान्तरदानेऽपि न कोऽपि तद्वाक्यमन्यथा करोतीति धोका १, मधुरं रशाद स्वेन शब्देवत्वमर्याद एवं यथा लोकोत्या सावधानिनो दशावधानिनश्योरूयन्ते तथाकरोतीति । भयमिति न कदापि विस्मारयति सत्यवचनानि एवं महावान लोके राह्लादमुपजनयति तदेवंविधं वचनं यस्य स तथा २ । अनिनिरागादिना वाक्कायवर्जितः । मन्दि परिस्फुटाः सर्वे संदेदरहितं युज्यते । एवं विधस्य वाक्यश्रवणान्न संशयेदिति ४ । सेत्तमित्यादि प्राग्वत् । अधुना एवंविध एव शिष्याणां वाचनां दातुं समर्थो जवतीति याचनापरं प्रश्नधिमा से कियादि कराव्यम् । गुरुराह - (मात्यादिना दित् दिशति १ दिया समिति २. परिनिर्वाण्य वाचयति ३, अर्थनिय पश्चापि भवति । तत्र विदित्वोद्दिशति यथा यो गावधिक्रमेण सम्योगेनाभवेयमुद्दिशति समुदितया यायोगसामाचार्येव स्थिरपरिचितुं कुर्विति अन्दया अपरिणामिकादायक घटनहिनजोदाहरणेन दोपतंजवात् । अथवा श्रामनाजने वा निक्षिप्तं कीरं विनइयति एवमयोग्ये दत्तं सूत्रं विनश्यतीति २ । ( परीति ) सर्वप्रकारं निःर्वापयतो निरो निःसंदिग्धादिभृशार्थदर्शनाद् भृशं गमयते पूर्वापकादिमनात्मनि परितः शिष्यस्य सूचयताऽशेषविशेषणका प्रतीषय पप्रदानेन प्रयोजकत्वमनुभूय परिनिर्वाप्य धात्रयति सूत्रं प्रद दात निषेव स्तुतस्य निरिति ना मर्यादा पूर्वापरास्वयंवेषां च कथनतो निर्गमयति निर्यात इति निर्वाच 1 तमित्यादि सुगम जात्यमेवोपदिष्ट उत्पन्न भवति । जातिग्रहादविशिषजातिमत एव विशिष्टबुद्धि संभव इति दर्शितं भवति, अन्यथा हि परसार्थिकेतितत्पुराऽसमर्थसदा ता अनिधानराजेन्ऊ: प्रतिजिनालयपिचेतिमतिसंप वितुमिदमाह (से किं तं) इत्यादि प्रश्नसूत्रं व्यक्तम् । भगवानाह मतिसंपवतुर्विधा महता तद्यथावदेव १ ईहा २ अपायः ३ धारणा ४ । तत्र सामान्यार्थस्य श्रशेषविशेपरिनिर्देश्यरूपणच सा वासी मति संपच्चावग्रहमतिसंपत् एवमन्या श्रपि १ । नवरं ईहा तद विशेषालोचनम् २ । प्रकृतार्थविशेषनिश्चयोऽपायः ३, श्रव गतार्थस्वाऽविच्युतिस्मृतिवासना धारणा ४ । सांप्रतमवग्रहमतिसंपद्भेदान् जिङ्गासुरिदं प्रश्नयति - ( से किं तं ) इत्यादि व्यक्तम् | सूरिराह षडिधा षट्कारा प्रशप्ता । तद्यथा-विप्रमवगृद्धति, बहुकमत २२ ध्रुवमव प्रशस्यते प्रत्युतराव नाम पुस्तकादि निरपेकमेव पठति, भवगृह्णाति च । अथवा एकवारं सुतं पुनर्ददायि वदति तदैव व समर्थो भवति नान्यथैवंविधाने भवति किं तु स्मारणनिरपेक्ष एव भवतीसिनाम सन्देवजितमवद्धाति नतु प तत्र साशङ्क एवंविधरच स्वयं निःसंदेहत्वात् श्रन्यानपि निःसमदेतथा पपिता भवति इति पचमित्यमहामतिसंपत् ि प्रमत्रगृह्णतीरथादिषत्यकारा या २ मित्य मुनैव क्रमेण पद्मकारा अपायमतिसंपद् अपि वर्णनीया ३ अधुना धारणा मतिसंपदं जिज्ञासुः परिपृच्छति (से किं तं) इत्यादि सुकरं प्रश्नसूत्रम गुरुराद हेत्यादि) व्यक्तम तद्यथा बहु धारयति १ धारवति २ पुरा धारयति३र्द्धरं धारयति ४, अनिधितं धारयति असंदिग्धं धारयति इति पनि यानि नवरं (पोरा ) पुरा जी प्रभूतकालयविचारयति सा पृच्छति तदा रा समर्थवदति - गणिसंपया वयं गयगमनगुपितं धारयति सेतमित्यादि नियमनयाक्यं व्यक्तमिति । इदानीं मतिसंपत्समन्वित एव प्रयोगसंपद्योस्पो भवति इति प्रयोगमतिसंपदं जिज्ञासुरिदं पृच्छति से कि तं इत्यादि प्रश्न कपय गुरुराह प्रयोगमपचतु विधा प्रज्ञप्ता । तद्यथा श्रात्मानं विदाय वादप्रयोक्ता भवति २, क्षेत्र विवाद प्रति वस्तु दायाद क्ता भवति । तत्र श्रात्मानं वादादिव्यापारकाले किममुं प्रतिवादिजेतुरिति न वेति (विहायसि ) बिहानी जानीते, ततो (वादं इति) धर्मे कथयितुं चादं वा कंतु प्रयोक्ता इति श्रात्मानं वादं प्रयोजयिता जवति । एवं पदं यथा किमियं पर्वत सौगता, सांख्या, अभ्या वा, तथा प्रतिनादिवती, त दितरा वेति । अथवा " जाणिया भजाणिया दुश्चिवत्ता वा क्वचित् (पुरिसंघेति ) तत्र पुरुष एवैतादृशो वाच्यः २ ( विदायेति ) किमिदं क्षेत्राय बहुलम् ऋजु परिणतं बात था साधुभिराचितं नातं नगरादीति बायोका जवति, अन्यथा हि तत्स्वरूपाऽपरिज्ञाने सहसा वादकरणे प राजयप्रसङ्गात् ३ । 'वस्तु विदायेति किमिदं राजामात्यादिसभासद विवादस्तु दारुणं वा भकभकेवेति परचादिप्रभृति बह्नागम महपागमं वा । श्रथवा वस्तुशब्दानुपलक्षिता द्रव्य १ क्षेत्र २ का ३वस्वादयः ४, तान् विदाय वाद इति उपलक्षणत्वातु सामाचारीप्रभृतिप्रयोक्ता भवति । तत्र अव्यम् इदमनुष्ठानादि कर्तुं स किं वास्नानादिकं निर्वाहयितुं वा समर्थो भवि यति नवेति क्षेत्रमिदं किं मासकल्पकल्पादि करण , Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिसंपया (२६) अभिधानराजेन्डः। ग्यं भवति,न वेति कालं विदाय किमयं कालस्तथाविधोग्रतपः- गणाध्यका-नकामोदरसङ्गतान" ॥१॥ इत्यत्र भवानीत करणाय युक्तो भवति, न वेति । अथवा इदमिदानी कर्तव्यमि- सुतान् संसारेथानीतशास्त्रान् वा गणाध्यकान् गणपनिदेवान् त्येवं वस्त बालग्लानर्बल कपकाचार्योपाध्यायराजर्षिवृष- गणधराश्च अक्कामोदरमतान नर गणधराँश्च अक्कामोदरसङ्गतान् लम्बोदरान् आत्मानन्दरसं भगीतार्थादि विदाय तथाविधाऽऽदेशदानाहारोपधिशय्यादि । प्राप्तान वेति श्लिष्टार्थप्रतीतेः । जीत। यथोचितप्रयोक्ता भवति, एवंविधज्ञानयुक्तो यथोचितकार्येषु | गतकिलेस-गतक्लेश-त्रि० । गतसमस्तरागादिक्केशे, चं० प्र० प्रवर्तमानो न गणस्य द्वेष्यो भवतीति ।। 'सेत्तं' इत्यादि । पूर्ववत् । अधुना प्रयोगमतिसंपत्समन्वितस्यैव संग्रहपरिझाको १ पाहु । शल्यं भवति, अतस्तान्येव प्रश्नयितमाह-( से किं तं) इत्यादि गति-गति-स्त्री० । चूलिकापैशाचिके गस्य कः प्राप्तः " नादिव्याख्यातार्थम् । सूरिराह-संग्रहपरिक्षा चतुर्विधा प्राप्ता । तद्यथा-| युज्योरन्येषाम्"।८।४।३२७ । इति न जवति । प्रा०४ पाद । बहुजनमा योग्यतया वर्षावासषु केत्र प्रतिलेखयिता भवति। गमने, प्रश्न०४ संब. द्वार । नामकर्मोदयसंपाये जीवपर्याये, बहुजनप्रायोग्यतया प्रातिहारदार्वादेरवगृहीताजवति काले। प्रश्न०५प्राथद्वार। कालं संमानयिता भवति ३। यथागुरु संपूजायिता भवति ।। गत्त-गते-पुं० । श्वभ्रे, भ०१५. श०१०। ईषायाम, पढ़े च । तत्र बहवा जना बहुजना प्रस्तावात् साधवः, अथवा बहुसं- दे. ना०२ वर्ग। ख्याको जनो जातावेकवचनम्,तत्रापि स एवार्थः,तस्य प्रायोग्य गात्र-न० । अङ्गे, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार । शरीरे, उत्त-१६ योग्यमिति, तस्य भावो बहुजनप्रायोग्यता, तया करणभूतयेति। (वासावासासुत्ति) वर्षासु वर्षासु वर्षाकाले वर्षा वृष्टि अ० । जीवा । औ०। 'गत्ततालुक्खए इव' । प्रज्ञा० १७ पद । वर्षा वर्षासु वा आवासोऽवस्थानं वर्षावासस्तस्मिन्, स्त्रीत्वं गत्तिगकारपविनत्ति-गतिगकारमविभक्ति-न । गकाराकृत्यप्राकृतत्वात् । तत्रं बालवृष्दुर्बलग्लान कपकाचार्यादीनां तथा- | जिनयात्मके नाट्यनेदे, ग० । योगवाहिनामितरेषां वाऽऽहारादिगुणोपेतं वृहत्कल्पानुसारतोगटतोय-तोय-पं० । अभ्यन्तरपश्चिमायाः कृष्णराजेरग्रे चशेयम्, तत्प्रतिलेखयिता शेषकाने गवेषयिता नवति, तदप्रति जा लोकान्तिकविमान परिवसति लोकान्तिकदेवभेदे, स्था० लेखने स्थितानां पीठाहारादिसंकीर्णतादिदोषप्रसङ्गात् । ननु वर्षाग्रहणमिति किमर्थम् ?, शेषकालेऽपि तत्प्रतिलिख्यते म०। प्रव। श्रा०म० । ज्ञा० । “गद्दतोयतुसियाणं देवाणं सत्त देवा सत्त देवसहस्सा पमत्ता" । स्था०७ ठा० । "गहतोएवेति चेत् । उच्यते-अन्यस्मिन् काले अन्यत्रापि गम्यते, परं यतुसियाणं देवाणं सत्तइत्तरि देवसहस्सपरिवारए पम्मत्ते" तत्र वर्षासुन तथेति तद्ग्रहणम १तथा बहुजनप्रायोग्यतया (पडिहारिप त्ति ) प्रतिहारः प्रत्यर्पणं प्रयाजनमस्येति प्रातिहा गर्दतोयानां तुषितानां च देवानामुभयपरिवारसंख्यामीलनेन रिकं पीठमासनं पट्टकादिफलकमवष्टम्भनफलकं कोष्ठवि. समसप्ततिदेवसहस्राणि परिवारः प्रज्ञप्तानीति । स०७७ सम० । शेषः, शयनं वा, यत्र प्रसारितपादैः सुप्यते संस्तारको लघु- गद्दभ-गर्दभ-पुं० । स्त्री० । रासभे, 'गधा' इतिख्याते, स्त्रियां तरशयनमेव, एतेषामवगृहीता भवति । इदमपि वर्षावासे एव, | जातित्वात् ङीप् । प्रा० क० । युवराजसचिवदीर्घपृष्ठपुत्रे, यतश्चतुर्मासकमध्ये एवं वृद्धसामाचारी दृश्यते, न्यूनोदरता- बृ० १ ०। ('जुवराज' शब्दे वक्ष्यते) दितपःकरणं पर्युषणाकल्पकर्षणं विकृतेः परित्यागो विशेष गहभय-गर्दजक-पुं० । 'गदश्या ' तिख्याते प्राणिनि, कारणमन्तरा पीठफत्रकादिसस्तारकादानम् उच्चारादिमात्रक श्राचा०२ श्रु०३ १०१ उ० । श्रा०म० । उत्पलनामके गन्धसंग्रहणं लोचकरणं शैकप्रव्राजनं प्राग्गृहीतभस्मगलादिपरि अव्ये, श्वेतकुमुदे, विमङ्गे च । न । वाच० । त्यजनमतेषां तु ग्रहणं द्विगुणवर्षोपग्रहोपकरणं धरणमित्यादि अग्रे “कल्पाध्ययन" स्वयमेव वक्ष्यते सूत्रकारः,इति कृतं गहनाल-गर्दभाल-पुं० । वक्ष्यमाण “गद्दभालि" शब्दार्थे, प्रसङ्गेनेति । काले यथोचितप्रस्तावे एव स्वाध्यायोपधिस भ.२श०२१०। मुत्पादनप्रत्युपेकणाध्यापननिकादिकरणात्मकम्, अनुष्ठानं, सं गद्दजानि-गर्दनालि-पुं० । स्वनामख्याते परिव्राजके, यच्चियः मानयिता स्वस्थान आदरकरणेन प्रतिपत्तिका नवति ३। स्कन्दक श्रासीत् । भ.२श २ उ०।स्वनामख्यातेऽनगारप्रतथा गुरुमिति येन गुरुणा प्रताजितो यस्य पार्श्व वा प- घरे, यदन्तिके काम्पित्येश्वरः संजयो नामाऽनगारः प्रववाज । द्वितः तं गुरुं संपूजयिता इति स्वयमाचार्यत्वे प्राप्तेऽपि मा। ती० २५ कल्प । उत्त। पतेषां विनयहानिर्भवत्विति कृत्वा अभ्युत्थानवन्दनकाहा-गजिन-गभिझ-पुं० । स्वनामख्याते उज्जयिनीनृप, या हि रोपधिपथिविश्रामणचरणसंवाहनाशुश्रुषादिनिर्विनयहेतभिःस- साध्वीनतमजकत्वन कालकाचार्यणोन्मलितः । नि० चू. १० म्यग् यथा भवति तथा पूजयिता जवति, न पुनः प्राप्तप्र- उ०। पश्चा० । ती०। (गर्दजिल्लकथा तु "अधिगरण" शब्दे तिष्ठस्तथा भवतीति ४। सेत्तमित्यादि निगमनवाक्यं व्य प्र. भागे ५८२ पृष्ठे काकाचार्यप्रस्तावे निरूपिता) तार्थम । दशा०४ अगणिसंपद यत्राभिधीयते तदध्ययनमपि तथैवोच्यत इति । आचारदशानां चतुर्थेऽध्ययने, स्था.१००। गदजी-गर्दभी-स्त्री० । गर्द-अभच । गौरा-ङी । अग्निप्रक तिके कीटभेदे, स्वाथै कः । गर्दभिका । रोगे, संज्ञायां कन् । अ. गणेत्तिया-गणेत्रिका-स्त्री० । रुघाककृते कनापिकाजरणवि पराजितायाम, श्वेतकण्टकार्याम, कटल्यां च । गर्दनजातिशेषे, ज्ञा० १ श्रु० १६ अ० । औ० । भ०। स्त्रियाम, वाच० । गर्दभीरूपधारिण्यां गर्दजिल्लराजरक्षिकायां गणेस-गणेश-पुं०। द्विपास्ये सम्बोदरदेवे, वाचा गणधरेच। विद्यायाम, नि०चू.१० उ०। जीत । " निष्पत्यूहं प्रणिदधे, भवानीतनयानहम् । सर्वानपि गह-गर्दन-पुं० । 'गद्दन' शब्दार्थे, आ० का २०० Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गदही गरी-गर्दनी - बी० 'गी' शब्दार्थे नि०० १०४० ॥ गऊ गार्ग्य न० तात्या १०३ ०१ ४० । गपि स्पृष्ट० मयादित० १ श्र० । गुरुः प्रतीताः ते श्रदिर्येषां शकुनिका-शिवादीनां गम्यमानत्वादात्मनस्तद निवारणादिना तद्भयकरि करभादिशरीरानुप्रवेशेन च गुद्धादि भक्षणम् किमुच्यतेस्याह (पिच) ः स्पृष्टं स्पर्शनं यस्मिंस्तद् यदि वा गुद्धानां भयं स्पृष्टमुपलकणत्वादरादि च मर्तुर्यस्मितद्युद्धस्टम सहा कक पूर्णिका पुप्रदानेनाप्यारमार्ग गृादिभिः स्पृष्टादि भक्कयतीति । उत्त० ५ ० 1 गृरूस्पृष्टाभिधानमनाथ पतितगोकलेवरादिवदध्वनि निपतनरूपम् । तं । गन-गण- पुं० " णो नः” | ८ | ४ | ३०६ । इति पैशाच्यां णस्य नः । समुदाये, प्रा० ४ पाद । गन्न गर्न पुं० जननी ०" ते "गर्ने कुat व्युत्क्रान्त उत्पन्नः । स्था० ५ ठा०१ ४० । गर्भाशये, स्था० २ ० ३ उ० | सजीवपुत्र पिएमके, भ०५ ० ४ उ० । उदरसवे, स्था० १० ठा० 1 प्राणिनां जन्मविशेषे, स्था०४ ४ ०४३० अथ गर्भाधिकारः (०२०) अभिधानराजेन्द्रः | सुगड़ गए दस दसा वाससा जह विजयंति। संकझिए वोगसिए, जं चानं मेसयं होइ ॥ २ ॥ जतियमेते दिवसे, नशियराई होइ उसासे । गजमिवसइ जीवो, आहारविहिं च वृच्छामि ॥ ३ ॥ 9 राजपत्रवर्षशतायुषो ज तोर्यथा दश दशा अवस्था त्रिजजन्तीति पृथग् भवन्ति तथा यूयं शृणुतक सति ? गणिते पकद्वयादिक्रियमाणे सति तथा दश दशाः संकलिते एकत्र मीलिते, तथा व्युत्कर्षिते निष्काशिते सति 'वास परमाई तोहर यादिना बच्चायुशेष नवति तदपि यूयं शृणुत |२| यावन्मात्रान् दिवसान् यावद्रात्रीः याय यायासान् जीयो गर्ने वसतिसाद बद मनादिके आदारविधि, शब्दाच्छरीरमादिस्वरूपं च वक्ष्ये भणिष्यामीति ॥३॥ तन गर्ने श्रहोरात्राणां प्रमाणमाहदुनि अोरतसर, पुराणे सत्तसत्तरि देव । गब्जम्मि बस जीवो, अकमहोरत्तमण्णं च ॥ ४ ॥ एए न अहोरचा नियमा जीवस्स गन्भवासम्म । sterहियान इसो, उवघायवसेण जायंति ॥ ए ॥ २०० सप्तत्यधिके ७७ श्रन्यदर्धमहोरात्रं च जीवो गर्भे वसति तिष्ठति एतावता नवमासान् सार्द्ध सप्त दिनान् जीवो गर्भे तिष्ठतीत्यर्थः ||४|| (एए उ ) एते उतरूपा श्रहोरात्रा निश्चयेन जीवस्य गर्भवासे प्रति (इति) अस्मादुकाइदोराप्रप्रमानात् उप वातदोषेण हीनाधिकअप (जाति) नामनेकार्थत्वाद्भवन्तीत्यर्थः । तुशब्दोऽप्यर्थः, स च योजित इति ॥ ५ ॥ 6 अथ गर्भे मुहूर्तानां प्रमाणमाह सहस्सा ति छ, सगा मुहुताण पद्मनसाय | गन्जगओ वसई जिओ, नियमा होलाहिया इतो ||६|| ( अह०) अी सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चविंशत्या कान मुहूर्तानि ८३२५ निश्चयेन जीवो गर्भे वसति । तानि च कथं भवति कलहणाः सततत्यधिकदिशताहोरात्रा २७७३२० गब्भ स्य च पञ्चदश मुहूर्तानि किंप्यन्ते, जातानि ८३२५ इति । इत उकरूपात् ०३२४ वातदोषादिविकारेण दीनाधिकान्यपि मुह तानि वसति गर्ने जीव इति ॥ ६ ॥ अथ गाथायेन गर्ने निश्वासाप्रमाणमाहतिभेव य कोमीओ, चउदसस्य हवंति सयमहस्साई । दस चेन सहस्सा, पुनि सवा पावसा य ॥ ७ ॥ उसासा निस्लासा, इनियमित्ता हवंति संकलिया । जीवस्स गन्जवासे नियमा, हीणाहिया इनो ॥ ८ ॥ (विशेष व उसासा) तिखः कोटयः चतुर्दश शतस तुर्दशीत्यर्थः दशसहस्राणि ३१४१०२२५ । (इत्तियमित्त त्ति) एतावन्मात्राः सङ्कबिता एकीकृता जीवस्य गर्भवासे निश्चयेन निःश्वासोच्सा भवन्ति। कथमेकस्मिन्नन्तर्मुहूर्ते सप्तत्रिंशकृतानि त्रिसप्तत्यधिकानि ३ ७७३ निःश्वासोच्छ्वासा भवन्ति, एतैश्च यदैतानि ८३२५ उरूपाणि मुनिगुण्यन्ते तदा यथोक्तम् २१४१०२२० वतीति । इत उक्तरूपाद् दोषादिकारणेन हीनाधिका निःश्वासोच्छासा भवन्तीति ॥ ८ ॥ अयादाराधिकारे किञ्चिद्गदिस्वरूपमाह(आठसो!) इथं नानिरिठा, सिर दुगं पुण्फना सियागारं । तरस य हिट्ठा जोणी, होमुद्दा संविया कोसा ||६| (आवसो इत्थी०) हे आयुष्मन् ! हे गौतम ! स्त्रिया नायां नामेरीनाग पुष्पालिकाकारं सुमनोवृत्तसदृशं शिराद्विकं धमनियुग्मं वर्तते, च पुनस्तस्य शिराद्विकस्याधो योनिः स्मरकूपि का संस्थिताऽस्ति । किंभूता ?, अधोमुखा । पुनः किंभूता ?, (कोस सिं) कोशा, खङ्गपिधानका55कोरत्यर्थः ॥ ॥ तस्य डा चूप इस मंजरी तारिसा सम्स | तेरिकाले फुकिया, सोशियलवया विमोयंति ॥ १० ॥ (तस्स य) तस्याश्च योनेरधोऽधोभागे चूतस्याऽऽम्रस्य यादृश्यो मञ्जर्यो वल्लयों भवन्ति तादृइयो मांसस्य पललस्य म जय भवन्ति ता मञ्जर्यो मासान्ते स्त्रीणां यदजस्रमसं दिनत्रयं अति ताल धर्मस्य तस्मिन् स्फुटिताः प्रफुखाः सत्यः शोणितलवकान् रुधिरबिन्दून् विमुञ्चन्ति श्रवन्ति ॥ १०॥ सं०।" सप्ताई कललं विन्यात् ततः सप्ताहमर्बुद अर्जु जायते पेसी, पेसीतोऽपि घनं जवेत् " ॥ १ ॥ वाच० | " कोसायारिं जोणि, संपत्ता सुकमीसिया जझ्या | तझ्या जीवनवाए, जुग्गा भणिया जिणिदेहिं ॥११॥ (फोसा) ते रुधिरविन्दवः कोशकारां योनिं संप्राप्ता सन्तः मातुदिनान्ते पुरुषसंयोगेनाऽसंयोगेन Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१) गब्म अभिधानराजेन्दः। गठन वा पुरुषवीर्येण यदा मिलिताः(तस्य त्ति) तदा जीवोत्पादे गर्भ शुके निर्दोष गर्भाशयादिषट्रे इत्यर्थः । तथा चसंभूतिलकणे योग्या भणिताः कथिता जिनेन्ः सर्वरिति ।११।। "ऋतुस्तु हादश निशाः, पूर्वास्तिनोऽत्र निन्दिताः। ननु कथं पुरुषासंयोगे पुरुषसंभव इति ? । यमुक्तं स्थानाङ्गे- एकादशी च, युग्मासु, स्यात्पुत्रोऽन्यासु कन्यका ॥४॥ "पंचहि नाणेदि इत्थी पुरिसेण सावं असंवसमाणी वि गम्भंध- पदा संकोचमायाति, दिनेऽतीते यथा तथा । रेज्जातं जह-इत्थी सुवियमा त्रिसन्ना सुकपोग्गले अधिज्जिा ऋतावतोते योनिः सा, शुक्रं नैव प्रतीच्छति ॥५॥ १. सुकपोग्गलसंस वा से वत्थे अंतो जोणिए अशुपवेसज्जा मासेनोपचितं रक्तं, धमनीज्यामृतौ पुनः । २,सयं वा से ३, परो वा से सुक्कपोमाने अणुपयेसज्जा ४, सी- ईषत्कृष्णं विगन्धंच,वायुयोनिमुखादेत"६।(स्था०५ठा०२७०) आदगवियडेण वा से प्रायममाणीप सुकपोग्गले अणुपवेसेज्जा तथा चाविश्वस्ता योनिरविध्वस्तं बीजम् १, अविश्वस्ता यो५, इच्चेतेहिं पंचहि ठाणेहिं जाव घरेज्जा"(स्था०५ ०२०) निः विश्वस्त बीजम २, विश्वस्ता योनिरविध्वस्तं बीजम ३, परिधानवर्जितेत्यर्थः । दुर्निषण्णान् पुरुषशुक्रपुलान् कथञ्चि विश्वस्ता योनिर्विध्वस्तं वीजम् ४, चतुर्यु भङ्गेषु श्राद्यभने एव पनिमानित योन्याकर्षणेन संगडीयात उत्पत्तेरवकाशोन शेषेषु त्रिविति। तत्र पञ्चपञ्चशिका नारी १, तथा शुक्रपुत्रसंसृष्टं 'से' तस्याः स्त्रिया वस्त्रमन्तर्मध्ये विध्वस्तयोनिः । सप्तसप्ततिकः पुमानिति द्वादशमुहूर्तान् यावद् योनाब नुप्रविशदू, ह च वस्त्रमित्युपलक्षणं तथाविधमन्यदपि बीजमविध्वस्तं स्यात,तत ऊर्व विध्वस्तमिति द्वितीयाजवृत्ताअनुप्रविशदिति २, स्वयमिति पुत्रार्थिनीत्वाच्छीलरक्षकत्वाच्च | विति । तथा पुमान् पुरुषः प्रायः पञ्चसप्ततिवर्षेज्यः परत कर्ध्व[ से ति ] सा शुक्रपुमलान् योनावनुप्रवेशयेत् ३, (परो वे ति) मबीजो भवेत, गनाधानयोग्यवीजविवर्जित इत्यर्थः । श्वधूप्रतिकः पुत्रार्थमेव (से) तस्या योनाविति ४, शीतोदक-1 कियत्प्रमाणायुषामेतन्मानं अष्टव्यम् ?, इत्याहलकणं यद्विकटं पल्व लादिगतामत्यर्थः । तेन वा [से] तस्या | वाससयाउयमेयं, परेण जा होइ पुचकोमीओ। प्राचामत्याः पूर्वपतिता उदकमध्यवर्तिनः शुक्रपुमला अनुप्रविशेयुरिति । तस्सऽके अमिझाया, सव्वानयत्रीसजागो य ।। १४ ॥ अथावस्तयोनिकालमान जीवसंख्यापरिमाणं चाह वर्षशतायुषामदयुगीनानामेतद् गर्भधारणादिकालमानमुक्तम् । परेण तर्हि का वार्ता ?, इत्याह-(परेण त्ति) वर्षशतात्परतो वर्षवारस चेव मुहुत्ता, उवरिं विषंस गच्छई सान। द्वयं त्रयं चतुष्टयं चेत्यादि यावन्महाविदेहमनुष्याणां या पूर्वकोजीवाणं परिसंखा, लक्खपहुत्तं च नकोसं ॥१॥ टिःसर्वायुषि स्यात् तस्य सर्वायुषोरट्टै तदर्द्ध यावदम्बाना गर्न(वारस०) सा पुरुषार्यसंयुक्ता योनिद्वादशैव मुहूर्तान याव धारणयोग्या स्त्रीणां योनिद्रष्टव्या। ततोऽपि परतः सकृत्प्रसवध र्माणोऽम्ञानयोनयोऽवस्थितयौवनत्वात् पुंसां मनः सर्वबस्वस्ता नबति । तथा [उवरि ति] द्वादशमुहूर्तानन्तरं सा यो. निर्विध्वंसं गच्छति, प्राप्नोतीत्यर्थः। अयमाशयः-ऋत्वन्ते स्त्रीणां स्यापि पूर्वकोटिपर्यन्तस्यायुषोऽन्त्यो विंशतितमो भागो बीज नरोपनोगेन द्वादशमुहूर्तमध्य एव गर्भभावः, तदनन्तरं वीर्य इति ॥ १४ ॥ तं० । प्रव०। विनाशत्वाद् गर्भाभाव इति । तथा मनुष्यगर्ने जीवानां गर्नज अथ कियन्तः पुनर्जीवा एकस्याः स्त्रियो गर्भ एकहेलयैवोन्तूनां परिसंख्या, संख्या-मान, सकपृथक्त्वमुत्कृष्टतो प्रवति । त्पद्यन्ते, कियतां च पितृणामेकः पुत्रो जवति?, इत्यादसिद्धान्तभाषया द्विप्रनृतिरानवज्यः संख्या कथ्यत इति ॥१२॥ | रत्तुकडाओ इत्थी, लक्खपुहत्तं च बारस मुहृत्ता। अथ कियद्भचो वर्षेभ्यः पुनर्व गर्भत्रियो न पिअसंखसयपुहत्तं, बारसवासा न गन्जस्स ॥१५॥ धारयन्ति, पुमाँश्चावीर्यो नवति इति प्रसङ्गतो निरूपयितुमाह अनान्यत्राप्यात्वाद्विभक्तीनां वैचित्र्यं ज्ञातव्यमिति । मासान्ते त्रीणि दिनानि यावत्खीणां यनिरन्तरमनं स्रवति तदत्र रक्तपणपन्ना य परेणं, जोणि पमिलायए महिलियाणं । मुच्यते, तेन रक्तेन रूधिरेण उत्कटायाः पुरुषवीर्ययुक्तयोन्या पणसत्तरी परओ, पारण पुमं भवे वीभो ॥१३॥ । एकस्याः स्त्रिया गर्ने जघन्यत एको द्वौ वा यो घोत्कृष्टतस्तु (पणप०) महिलानां स्त्रीणां प्रायः प्रबाहेण (पणपन्ना यत्ति) (सक्वपुहुसं ति) लकपृथक्त्वं नवनवगर्भजजीवा सत्पद्यन्ते पञ्चपश्चाशद्वर्षेज्यः (परेणं ति) ऊर्ध्वं योनिः प्रस्नायति, गर्नधा- | इत्यर्थः । निष्पत्तिं च प्राय एको द्वौ वा गच्छतः, शेषास्त्वल्परणाऽसमर्था भवतीत्यर्थः । भावार्थोऽयं निशीथोक्तो यथा- जीवित्वात्तत्रैव म्रियन्ते। एको द्वौ वा इत्युक्तं व्यवहारापेक्कया, " इत्याए जाव पणपन्नवासा न प्रति ताव अमिनाया जाणी" निश्चयापेक्कया तु ततोऽधिकं न्यून वा जयतीति द्रष्टव्यमिति । पार्तवं स्याद्, गर्भ च गृहातीत्यर्थः । “पणपन्नधासाए पुण चशब्दात स्त्रियाः संसक्तायां योनौ द्वीन्द्रिया जीवा जघन्यत कस्स वि अत्तवं भवति, न पुण गभं गेराहर, पणपन्नाए परो । एको द्वौ वा त्रयो बोत्कृष्टतो नवलप्रमाणा उत्पद्यन्ते। तप्तायःन अत्सवं नो गब्नं गेराह ति" तथा चोक्तं स्थानाङ्गटीकायाम-| शलाकान्यायेन पुरुषसंयोगे तेषां जीवानां विनाशो भवति। स्त्रीपु"मासि मासि रजः स्त्रीणा-मजनं स्रवति ध्यहम् । रुषमैथुने मिथ्यादृष्टयः अन्तमुहूर्तायुषः अपर्याप्तावस्थाकालवत्सराद् द्वादशादूर्व, याति पश्चाशतः क्वयम ॥१॥ कारिणः अष्टौ प्राणधारकाः नारकदेवयुगमाग्निवायुवर्जितशेपूर्णषोमशवर्षा स्त्री, पूर्णविशेन सङ्गता। षजीवम्थानागमनस्वजावा मुहूर्तपृथक्त्वकायस्थितिकाः अ. शुद्ध गर्नाशये १ मार्गे २, रक्ते ३ शुक्र ४ ऽनिले ५दृदि६॥२॥ संस्येयाः संमूनिममनुण्या उत्पद्यन्ते चेति । तथा (बारसमुवीर्यवन्तं सुतं सूते, ततो न्यूनाद्वयोः पुनः ।। हुत्त ति) पुरुषबीर्यस्य कालमानं द्वादश मुहर्तानि,पतावत्काल. रोग्यल्पायुरधन्यो वा. गों नवति नैव वा" ॥३॥इति। । मेव क्रशोषिते ऽविध्वस्तयोनिके भवत शति । (पिन तिपि Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) गब्भ भनिधानराजेन्द्रः। गब्भ तृणां संख्या पितृसंख्या, तस्याः शतपृथक्त्वं भवति । अय- जीवा कि सन्धियः सशरीरो व्युत्क्रामात ?माशयः-उत्कृष्टतो नवानां पितृशतानामेकः पुत्रो जायते, 4- जीवेणं नंते ! गम्भं वक्कममाणे किं मइंदिए वक्कम, अणिंतमुक्तं भवति-कस्याश्चिद् दृढसंहननायाः कामातुरायाश्च यो दिए वक्कमइ। गोयमा! सिय सईदिए वकमइ,सिय अणिदिए षितो यदा द्वादशमुहूर्तमध्ये उत्कर्षतो नवभिः पुरुषशतैः सह संगमो भवति तदा तदीजे यः पुत्रो भवति स नवानां पि वक्कम । सेकेणटेणं । गोयमा ! दबिदियाई पडुच्च अणिदिए तृशतानां पुत्रो भवति । उपलकणत्वात्तिरश्चां च बीजं द्वाद- वक्कमइ,नाविंदियाई पमुच्च सइदिए वक्कम,से तेणटेणं । जीवे शमुहूर्तान् यावद्योनिभूतं भवति, ततश्च गवादीनां शतपृथ- एं नंते ! गम्भं वक्कममाणे किं सरीरी वक्कमइ,असरीरी वक्क. कत्वस्यापि बीज गवादियोनिप्रविष्ट बीजमेव । तत्र च बी- मइ। गोयमा सिय ससरीरी वक्कम, सिय असरीरी वक्कमजसमुदाय एको जीव उत्पद्यमानस्तेषां बीजस्वामिनामुत्कपतः पुत्रो भवति । मत्स्यादीनामेकसंयोगेऽपि शतसहस्रपृ से केणटेणं । गोयमा मोरालियवेनब्बियाहारयाई थक्त्वं गर्ने उत्पद्यते, निष्पद्यते चैकस्मिन्नपि गर्ने लक्पृथक्त्वं पमुच्च असरीरी वक्कमइ, तेयाकम्माई पमुच्च ससरीरी पुत्राणां स्यादिति । ननु देवानां शुक्रवाः किं सन्ति, उत चक्कम, से तेणढणं गोयमा!। जीवे एंजते ! गन्भं वक्कन। उच्यते-सन्त्येव परंते वैक्रियशरीराल्तर्गता इति न गी ममाणे तप्पढमयाए कमाहारमाहारे । गोयमा! माउधानहेतवः तं०। (शति 'पुत्त' शब्दे स्पष्टयिष्यामि) ओयं पिनमुक्कं तं तमुजयससिटुं कलुसं किब्बिसं तप्पढअथ कियन्तं कालं भवस्थित्या जीवो गर्ने वसति १, इ. त्याइ-( वारस० ) गर्भस्य स्थितिवादशवर्षमुहूर्तप्रमाणा भ. मयाए आहारमाहारे । भ०१ श०७ उ०। वति । एतमुक्तं भवति-कोपि पापकारी वातपित्तादिदृषिते दे अथ जीवो गर्भ व्युत्पद्यमानः किमाहारमाहारयति, ततश्च वादिस्तम्भिते वा गर्ने द्वादश संवत्सराणि निरन्तरं तिष्ठति कि स्वरूपो भवति ?, इत्याहउत्कृष्टतः, जघन्यस्त्वन्तर्मुहूर्तमेव तिष्ठति, भवस्थित्या गर्नाs. इमो खल जीवो अम्मापिनसंजोगे माउओयं पिउसुकं तं धिकारात् ।" उदगगम्भेणं भंते ! कालो केव चिरं होइ?, तदुभयसंसटुं कसुसं किविसं तप्पढमयाए आहारं आहागोयमा ! जहम्मेणं इकं समय, उक्कोसेणं उम्मासा" उदकग. में कालान्तरे वृष्टिहेतुः पुल परिणामः, तस्य समयानन्तरं रिसा गन्नत्ताए वक्कमइ । पएमासानन्तरं वर्षणात् । अयं च मार्गशीर्षादिषु वैशाखान्ते सत्ताहं कसलं होइ, सत्ताहं होइ अय्यं । षुसन्ध्यारागादिलिङ्गो भवतीति । तुशब्दान्मनुष्यतिरश्चां काय. 'अव्वुया जायए पेसी, पेसीओ य घएं भवे ॥ १७॥ स्थितिश्चतुर्विंशतिवर्षापयुत्कृष्टवर्षप्रमाणाऽवगन्तव्या, यथा "इमो स्खलु त्ति" यावत् " वक्कमह ति" मुत्कलम् । अयं कोऽपि स्त्रीकाये द्वादश वर्षाणि जीवित्वा तदन्ते च मृत्वा नथा जीवः खलु निश्चितं (दाहिणकुच्चीए ) पित्रोः संजोगे विधकर्मवशात् तत्रैव गर्भस्थिते कलेवरे समुत्पद्य पुनर्वादश (माउओयं ति) मातुरोजो जनन्या आर्तवं, शोणितवर्षाणि जीवतीत्येवं चतुर्विंशतिवर्षाण्युत्कर्षतो गर्ने जन्तुरव मित्यर्थः ( पिउसुकं ति ) पितुः शुक्रस, इह यदिति शेषः (तंतिष्ठते । केचिदाहुः-हादशवर्षाणि स्थित्वा पुनस्तत्रैवान्यजी ति ) तदाहारं तस्य गर्भञ्युत्क्रमणस्य ( पढमयाए ) तत्प्रथवस्तच्छरीर उत्पद्यते तावस्थितिरिति ॥ १५॥ . मतया (आहारित त्ति) तैजसकार्मणशरीराभ्यां मुक्त्वा अथ कुकी पुरुषादयः कुत्र परिवसन्तीत्याह गर्भतया गर्भत्वेन (वक्कम त्ति) व्युत्क्रामति, उत्पद्यते इत्यर्थः। दाहिणकुच्छी "रिस-स्स होइ वामाएँ इस्थियाओ य । किंभूतमाहारम, तदुन्जयसंस्पृष्टं कसुषं मलिनम् (किविसं ति) उभयंतरं नपुंसे, तिरिए अटेव वरिसाई ॥१६॥ कर्बुरमिति । ततः केन क्रमेण शरीरं निष्पद्यते ?, इत्याह-सत्ता( दाहिण ) पुरुषस्य दकिणकुकिः स्यात्, दकिणकुक्षौ व हमित्यादि यावद्भवेत्ति पद्यम् । सप्ताऽहोरात्राणि यावत् शुकशोसन् जीवः पुरुषः स्यादितिभावः १ । स्त्रिया वामकुक्तिः स्या जिंतसमुदायमात्र कललं भवति । ततः सप्ताहोरात्राणि अर्बुदो भवति, तत एव शुशोणिते किश्चित् स्यानीभूतत्वं प्रतिपात्, वामकुक्की वसन् जीवः स्त्री भवतीति भावः । नपुंसके उन्नयान्तरं स्यात् , कुक्किमध्यभागे वसन् जीवो नपुंसको जा यते इति । ततोऽपि चार्बुदात्पेसी मांसखएकरूपा भवति । यते इति नावः ३॥ ततश्चानन्तरं सा घनं समचतुरनं मांसस्त्रएकं भवति ॥१७॥ तो पढमे मासे करिसूणं पनं जायइ १। बीए मासे पेसी स्त्रीपुरुषनपुंसकलकणानि यथा“योनेसृत्वमस्थैर्य, मुग्धचञ्चबता स्तने । संजायए घणा । तइए मामे माउए डोहलं जणइ ३ । पुंस्कामितेति सिङ्गानि, सप्त स्त्रीत्वे प्रचक्षते ॥१॥ चनत्थे मासे माऊण अंगाई पीणेइ ४। पंचमे मासे पंच पिं. महने खरता दीर्घ, शौएगीरं श्मश्रुधृष्टता। मियायो पाणिं पायं सिर चेव निव्वत्तए। छट्ठ मासे स्त्रीकामितेति लिङ्गानि, सप्त पुंस्त्वे प्रचकते ॥ २॥ पित्तसोणियं उवचिण ६। सत्तमे मासे सत्तसिरासयाई स्तनादिश्मश्रुकेशादि-नावाभावसमन्वितम् । नपुंसकं घुधाः प्रादु-ौहाऽननसुदीपितम्" ॥ ३ ॥ ७०० पंचपेसीसयाइ ५०० नवधमणीओ नवननइंच रोअथ तिरश्चां गर्भे जवस्थितिमाह-( तिरिए.) तिरश्चां मकूवसयसहस्साई निवत्तेइ ६०००००, विणा केसमंसुगर्भ भवस्थितिरुकृष्टतोऽपी वर्षाणि, ततः परं विपत्तिः, प्रसवो णा, सह केसमंसुणा अष्ट्ठाओरोमकूवकोमीओ निव्वत्ते वाता जघन्यतोऽमुहर्तमाना भवस्थितिरिति ॥१६॥ तं। ३५०00000|७| अहमे मासे वित्तींकप्पा हवा ।। Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०३३) गब्भ अभिधानराजेन्द्रः। गम्भ (तो पढमे०) तत इह च तच्चुकशोणितमुत्तरोत्तरपरिणाममा- णभेदाद द्वैधानि व्यन्डियाणि। तत्र निवृत्तिीबंधा-अन्तो बहिसादयत् प्रथमे मासे कर्षानं पलं जायते । “पश्चगुजाभिर्माषः, | इच २, तत्रान्तः श्रोत्रेन्धियस्यान्तर्मध्ये नेत्रगोचरातीता केवलि. पोमशभिर्मापैः कर्षः,चतुर्भिः कः पलम्" इति वचनात् । प्रयः | रया प्रतिमुक्तककुसुमाकारा देहावयवरूपा काचिभिवृत्तिरस्ति, कर्षाः स्युरितिभावः १, द्वितीये तु मासे पेसी घनस्वरूपा भव. या शब्दग्रहणोपकारे वर्तते । चक्षुरिन्जयस्यान्तमध्ये केवलि. ति, समचतुरस्रं मांसखएमं जायत इत्यर्थः २, तृतीये मासे गम्या धान्यमसूराकारा काचिन्निवृत्तिरस्ति,या रूपग्रहणोपकारे तु मातुर्दोहदं जनयतीत्यर्थः ३, चतुर्थे मासे मातुरङ्गानि वर्तते। घाणेन्द्रियस्यान्तमध्ये केवलिष्टा अतिमुक्तककुसुमाप्रीणयति, पुष्टानि करोतीत्यर्थः ४, जीवः पञ्चमे मासे पाणि- कारा देहावयवरूपा काचिनिवृत्तिरस्ति, यागन्धग्रहणोपकारे इय-पादय-मस्तकरूपाः पञ्चपिएमकाः पञ्चाकुरान् निवर्त- वर्तते ३। रसनेन्द्रियस्यान्तमध्ये जिनगम्या करप्रहरणाकारा यति, निष्पादयतीत्यर्थः ५, षष्ठे मासे पीयते जलमनेनेति पित्तं, देहावयवरूपा काचिनिवृत्तिरस्ति, या रसग्रहणोपकारे बर्तते पित्तं च शोणतं तद उपचिनोति, पुष्टं करोतीत्यर्थः ६, सप्तमे ।। स्पर्शनेन्द्रियस्यान्तः केवलिरष्टा देहाकारा काचिन्निवमासे सप्त शिराशतानि ७०० पञ्च पेसीशतानि ५०० नत्र धमन्यो । त्तिरस्ति, या स्पर्शग्रहणोपकारे वर्तते ५ । बहिनिवृत्तिस्तु नबनायो नवनवतिरोमकूपशतसहस्राणि निवर्तयति । रोम्णां या सर्वेषामपि श्रोत्रादीनां कर्णशष्कुलिकादिका दृश्यते, सेव तनूरूहाणां कूण श्व कूपा रोमकूपाः, रोमरन्ध्राणीत्यर्थः, तेषां मन्तव्या । उपकरणेन्द्रियं तु तेषामेव कदम्बगोलकाकारादीनवनवतिलता इति केशश्मश्रुणी विना, तत्र केशाः शिरोजाः, नां खङ्गस्य वेदनशक्तिरिव ज्वलनस्य दहनशक्तिरित था या इमभूणि कृर्चकेशाः ६६०००००, केशश्मश्रुभिः सह (अधुझाउ. स्वकीयस्वकीयविषयग्रहणशक्तिस्तत्स्वरूपं द्रष्टव्यम् २। तथा सि) सा स्तिस्रो रोमकूपकोटीः निवर्तयतीति ३५०००००० कानावरणकर्मकयोपशमाद् जीवस्य शब्दादिग्रहणशक्तिरूपं H७॥ अष्टम मासे तु शरीरमाभित्य (वित्तीकप्पो ति) निष्पन्न- सब्धिभावेन्डियम १॥ यत्तु शब्दादीनामेव ग्रहणपरिणामलक्षणं प्रायो जीवो भवतीति ॥८॥ तदुपयोगभावन्धियमिति २। तत्र यानि व्यम्ब्यिाणि तानि अत्राधिकारे इन्धनुतिः जनोपकाराय त्रैशलेयं सर्व जीवानां पर्याप्ती सत्यां भवन्ति, यानि च भावन्द्रियाणि तामि सर्वनूतदयैकरसं प्रश्नयति संसारिणां सर्वावस्थानावीनीति। तथा नयनस्य विषयोऽप्रकाजीवस्स णं जंते! गन्नगयस्स समाणस्स अस्थि उच्चा शकवस्तुपर्वताद्याश्रित्यात्माङ्गलेन सातिरेक योजनाकं स्यात् । प्रकाशके त्वादित्यचन्द्रावधिकमपि विषयपरिमाणं स्यात् । रेचा पासवणे वा खेलेइ वा सिंघाणे इवा ते इ वा पि नात्र विषये नियमः कोऽपि निर्दिशोऽस्ति सिकान्ते, यतः पुष्करते इ वा मुक्के वा सोणिए इवा ?। नो इणढे सपढे । से केणडे- घरद्वीपादिमानुषोत्तरपर्वतसमीप कर्कसंक्रान्ती मनुष्याः प्रमाएणं जंते ! एवं वुच्चइ-जीवस्स णं गन्नगयस्स समाणस्स णाङ्कलनवैः सातिरेकैरेकविंशतियोजनल कैर्व्यवस्थितं रवि पनस्थि उच्चारे इ वा जाव सोणिए इवा?। गोयमा! जीवेणं | श्यन्तः प्रोच्यन्ते शास्त्रान्तरे इति। जघन्यतस्त्वत्यासन्नरजोमला देरग्रहणादलसंख्येयभागात्परतः स्थितं वस्तु चक्षुषो विषयः गन्भगए समाणे जे आहारमाहारे त चिणाइ सोइंदियत्ताए | १॥ श्रोत्रस्य द्वादशयोजनान्युत्कृष्टविषयो मेघगर्जितादौ शघ्राण१चविखदियत्ताए ३ घाणिदियत्ताए ३ जिजिदियत्ता रसनस्पशनानां तूत्कृष्टं नव योजनानि, जघन्यतस्तु चतुर्णाए४ फासिंदियत्ताए ५ अहिअद्विमिंजकेसमंसुरोमनहत्ताए मप्यङ्गलमसंख्ययभागादागतं गन्धादिकं विषयः। मनसस्तु केवमे एएणं अटेणं गोयमा एवं बुच्चा-जीवस्स एणं गन्नगय- लज्ञानस्येव समस्तमूर्ताऽमूर्तवस्तुविषयत्वेन केत्रतो नास्ति स्स समाणस्स नत्थि उच्चारे वा० जाव सोणिएइवा ॥ विषयपरिमाणं,मनसोप्राप्यकारित्वादिति। विषयपरिमाणं चा प्रेन्जियविचारे प्रात्माङ्कलेनैव केयमिति। तथा[अहिअट्टिमिंज] (जीवस्सणं भंते ! इत्यादि ) हे भदन्त ! जीवस्य जन्तोः | अस्थ्यस्थिमिजकेशश्मश्रुरोमनस्वतया चिनोतीति । तत्रा'' वाक्यालङ्कारे, गर्भगतस्य गर्नत्वं प्राप्तस्य (समाणस्स स्थि हइम्, अस्थिमिजा अस्थिमध्यावयवः, केशाः शिरोजाः, त्ति) सतः, अस्ति विद्यते, वर्तते इत्यर्थः । उच्चारो विष्ठा, ''| श्मश्रुणि कूर्चकशाः,रोमाणि कवादिकेशा इति। से'अथानेनार्थेइति रूपप्रदर्शने. अलङ्कारे, पूरणे वा, वेति विकल्पार्थे । प्रस्रवणं न अनेन कारणेन हे गौतम! हे इन्द्र नूते ! एवं पूर्वोक्तं प्रोच्यते सूत्रम्, खेलो निष्ठीवन, सिंघाणेत्ति ) नासिकाइलेप्मा, (वंते)। प्रकर्षण प्रतिपाद्यते, जीवस्य गर्भगतस्य सतो नास्ति सञ्चारो धमन, पित्तं मायुः, शुक्र वीर्य, शोणितं रुधिरं "सुक्के । वा सो- यावच्चाणितमिति। णिए वा" ति पदद्वयं भगवत्यादिसूत्रे न दृशते,प्रागम.वि. पुनर्गीतमो ज्ञातनन्दनं प्रश्नयतिचार्यमिति । (नो रण०) नो नैव (इत्ति ) अयमनन्तरो- जीवेणं नंतेगब्भगए समाणे पडू मुहणं काचालयं आहारं तत्वेन प्रत्यकोऽथों भावः समर्थो बलवान्, वक्यमाणदूषणमुद्वरप्रहारजर्जरितत्वात्। गौतमस्वामी प्राह-(से केणटेणं ति) अथ पाहारित्तए। गोयमा! नो पण समढे । से केणद्वेणं नंते ! केन कारणेनेत्यर्थः । हे जदन्त ! एवं प्रोच्यते-जीवस्य गर्भगत एवं वुच्चइ ? गोयमा! जीवे णं गभगए समाणे सबओ श्रास्य सतो नास्ति उच्चारो यावच्छगणितमिति जगवान् प्राह- हारेइ, सबओ परिणामेइ, सचओ ऊससेइ, सव्व ओ नीसहे गौतम!जीवः 'ण'वाक्यालङ्कारे,गर्भगतः सन् यदाहारमाहा. सेश,अभिक्खणं आहारेइ, अभिक्खणं श्परिणामेइ,अजिरयति तदाहारं श्रोत्रेनियतया१चक्षुरिन्द्रियतयारघ्राणेन्द्रिय तया ३ जिडेन्जयतया ४ स्पर्शनेन्धियतया ५ चिनोति,पुष्टीभावं क्खणं२ऊससेइ, अनिक्खणंश्नीससेइ,आहच आहारेइ, नयतात्यर्थः । इन्द्रियाणि वैधानि-पुद्रलरूपाणि द्रव्योन्द्रियाणि १, | आहच्च परिणामे, पाहच्च ऊप्ससेइ, आइञ्च नीससे, माउलन्युपयोगरूपाणि तु भावन्द्रियाणि २ 'पुनर्निवृत्त्युपकरणलक- जीवरसहरणी पुनजीवरसहरणी, माउजीवपमिवका २०ए Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) गम अभिधानराजेन्द्रः। गठभ पुत्तजीवफुमा तम्हा आहारेइ तम्हा परिणामेइ अवरा ककषायाम्लमधुराणि द्रव्याणि साहारयति । तत्र तिक्तानि वि य ग पुत्तजीवपभिवका माउजीयफुमा तम्हा चिणा, निम्बचर्भटादीनि १, कदकानि श्रादकतीमनादीनि २, कषाया णि वल्लादीनि ३, अम्नानि श्रारनालकादीनि , मधुराणि कीतम्हा नवचिणा से एपण अटेणं गोयमा ! एवं बुञ्च रदम्यादीनि ५,[तो एगदेसेणं ति] तासां रसधिकृत्यादीनामेजीवे पंगभगए समाणे नो पह मुहेणं कावलियं आहारं कदेशस्तेन सह [ोयं ति] ओजसं शुकशोणितसमुदायरूपमाश्राहारित्तए । जीवे णं गजगए समाणे किमाहारं आहा- हारयति । यद्वा-त्वगेकदेशेन मातुराहारमोजसा मिश्रेण लोमरे। गोयमा ! जं से माया नाणाविहारो रसविगईओ भिर्वेति शेषमाहारयति । कथमित्याह-"तस्स फले इत्यादि यातित्तकमुयकसायंबिलमदुराई दबाई आहारेइ । तो एग बजीमति" तस्य गर्नस्थावस्य [जणणीप ति] जनन्या मातुः जाभिरसहरणी नाभिनासमस्ति । किंजूता ?, फल वृत्तसरशी, देमेणं ओयमाहार । "तस्स फलविंटसरिसा, नप्पलनासो उत्पलनाबोपमा च । पुनः किंभूता?,[ परिवका ] गादलना, बमा हवइ नाजी। रसहरणी जणणीए,सयाऽऽइ नानीऍप- क-जाभौ, कथं ?, सदा 'आई' वाक्यासतारे ।[तीए तितया विचा" ॥१॥ नानीए तीए गन्नो आयं आईयइ एह- (नाभीए तिजननीनाभिप्रतिबद्धया रसहरण्या[गम्भाओयं ति] यंतीए ओयाए तीए गन्चो विव३० जाव जान ति। गर्भ उदरस्थजन्तुः, प्रोजसं मातुरादारमिदं शुक्रशोणितरूपम [आईया ति] आददाति गृहातीति। [अपढ़यंतीए भोयाए (जीवेण)हे नदन्त ! हे भवान्त! हे दयैकरस! कृतवाग्वृष्ट्याऽऽद्रा- | तीए ति] तस्यां तया वा नोजनं कुर्वत्या सत्यां भोजनं क यितव्यहृदयवसुन्धर! जीबोगर्भगतः सन् प्रनुः समर्थः मुखेन | त्या वा ओजसा मातुराहारमिश्रेण शुकशोणितरूपेण गों স্বপন বরন কান্তিম মহানাদিম(মাহি । विवर्धते वृकिं याति यावज्जात इति । "भुजा भुंज-जिम-जेमसियाहतुमदनं कर्तुमिति?। आह जगदीश्वरः हे गौतम! नाऽय- कम्माऽएह-समाण-चमढ-चड़ाः" 16।४।११०। इति प्राकृतमर्थः समर्थः। श्री गौतमः प्राह-(से) अथ केनाथन एवं प्रोच्यत।। सूत्रेण तुजधातोः 'अयह 'इत्यादेशः। विश्वकवत्सलो धीर: पाह-हे गौतम! जीवो गर्जगतः सन् (स. पुनौतमो वीरदेवं प्रश्नपतिज्वउ ति) मर्वात्मना सर्वप्रकारेण आहारयति, आहारतया का गं भंते ! मानभंगा पएणत्ता । गोयमा! तो मागृहातीत्यर्यः। मवंतः सर्वात्मना परिणामयति,शरीरादितया गृह्णानीत्यर्थः । बता सर्वात्मना उच्चसिति,सर्वप्रकारेण कवश्वास नअंगा पएणत्ता । तं जहा-मंसे सोणिए मत्युसिंगे। कर गृलातीत्यर्थः। सर्वतः सर्वात्मना निःश्वसिनि, श्वासमोक्कणं करो- णं भंते ! पिउअंगा पएणता? । गोयमा ! तो पिउअंगा तीत्यर्थः । अभीषणं पुनःपुनराहारयति, अभीक्ष्णं परिणामयति, पएणता । तं जहा-अद्विअद्विमिजाकेसम्मुरोमनहा। अभीषणमुत्रसिति,अभीषणं शिःश्वसिति । (श्राहय त्ति)कदा (करणं नंते !) हे भदन्त ! णमिति वाक्यालङ्कारे, कति मा. चिदाहारयति कदाचित्राहारयति, तथास्वन्नावत्वात् । कदाचिन परिणामयति,कदाचिन्न परिणामयति, कदाचिदुनृसिति, तुरङ्गानि पार्तवबहुलानीत्यर्थः,प्रतानि? जगदीश्वरो जगत्त्रा ता जगद्भावविज्ञाता वीर पाह-हे गणधरगौतम! श्रीणि माकदाचिनोच्चसिति, कदाचिनिःश्वसिति, कदाचिन्न निःश्वसि तुरङ्गानि प्रशप्तानि मयाऽन्यश्च जगदीश्वरैः । तद्यथा-मांसं पलति । अथ कथं सर्वत आहारयतीत्याह-( माउजीव०) रसोहि लम् १ शोणितं रुधिरम् २ (मत्थुलिंगेति) मस्तकं भेजकम। यते श्रादीयते यया सा रसहरणी, नाभिनालमित्यर्थः । अन्ये वाहुर्मेदापिप्फिलादि मस्तुलिङ्गमिति । तं०भ०। मातृजीवस्य रसहरणी मातृजीवरसहरणी । किामस्याह-पुत्रजीवरसहरणी पुत्रस्य रसोपादाने कारणत्वात् । गर्नादपि किं केचिज्जीवा नरकं देवलोकं वा गच्चन्ति ?, कथमेवामित्याह-मातृजीवप्रतिबका सती सा यतः (पुत्तजीव इति गौतमो वीरं प्रश्नयतिफुमा ति ) पुत्रजीवं स्पृष्टवती । इह च प्रतिबहता गा- जीवे गां जंते ! गब्भगए समागे नरएसु उवव जिजा। गोदसंबन्धः, तदंशत्वात् । स्पृष्टता च संबन्धमात्र, तदंशत्वात् ।। यमा ! अत्येगइए उववजिजा, अत्थेगइए णो नववजिअथवा मातृजीवरसहरणी १ पुत्रजीवरसहरणी २ चेति द्वे उजा। से केणट्रेणं भंते ! एवं बुच्चइ जीवेणं गजगए समाणे माड्यो स्तः, तयोश्चाद्या मातृजीवप्रतिबद्धा पुत्रजीवस्पृष्टेति । (तम्ह ति) यस्मादेवं तस्मान्मातृजीवप्रतिबद्धया रसहरण्या नरएसु अत्येगाए उववजिजा,अत्थेगए नो उववजिज्जा। पुत्रजीवस्पर्शनात आहारयति, तस्मात्परिणामयति । (अव गोयमा ! जेणं जीवेणं गन्नगए समाणे सन्नी पंचिंदिए रावि यत्ति) पुत्रजीवरसहरण्यपि च पुत्रजीवप्रतिबका सती | सवाहिं पज्जतीहिं पजत्तए वीरियनसीए विभंगनाणमधीमातृजीवं स्पृष्टवती यस्मादेवं तस्माचिनोति शरीरम । उक्तं च ए विउब्धियाद्धिपत्ते पराणीयं आगयं सुच्चा निसम्म परसे तन्त्रान्तरे-“पुत्रस्य नाभौ मातुश्च,हृदि नामी निबध्यते । ययाऽसौ पुष्टिमाप्नोति,केदार व कुल्यया ॥१॥ इति । (से) अथानेनार्थेन निच्चुहइ, वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणइ, समोहणित्ता हे गौतम ! एवं प्रोच्यते-जीबो गर्भगतः सन् न प्रतुः समर्थः चउरंगिणिसिन्नं सन्नाहेइ,सन्नाहइत्ता पराणीएण सकिं संगाम मुखन कावलिकमाहारमाहतुमिति । पुनौतमो वीरं प्रश्नयति- संगामेड़,सेणं जीने अत्थकामए १ रजकामएश्नोगकामए जीवो गर्जगतः सन् किमाहारमाहारयति । गौतम ![ज से ३कामकामए , अत्यकंखिए ? रज्जकंखिए इनोगकंखिए ति माया ] से तस्य गर्भलत्वस्य माता गर्भधारिणी (नाणा) नानाविधा विविधप्रकारा रसरूपा। रसप्रधाना विकृतीर्दु ३ कामकंखिए ४, अत्यपिवासिए१ जोगपिवासिए रज्जग्याचा रसविकारास्ता प्रादारयति । तथा यानि तिक्तकटु- पिवासिए ३ कामापवासिए। पिवासिए ३ कामपिवासिएप, तञ्चित्त ? तम्मणे २ तबस्से Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०३५) अभिधानराजेन्द्रः । गब्भ ते ६ २ तदवसि ४ चिजवसाचे तदपियकरणे 9 तब्जावाभावए । एयंसि च एवं अंतरस कालं करिज्जा नेरइएमु उववज्जिज्जा | से एएणं हे एवं बुच गोपमा ! जी हां गए समाणे राए अ स्येगइए निम्ना प्रत्येगइप नोउनमा । ( जीवे णं गज०) हे नदन्त ! जीवो गर्भगतः सन् मृत्वेतिशेषः । नरकेषूत्पद्यते ? | हे गौतम! अस्ति विद्यते ( पगइति ) एकका कवि स गतः राजादिरूप] उत्पद्यते मस्ति अयं पकः यदुत एककः कश्चिनोत्पद्यते, हे गौतम! अस्ति वि धने (एग ति) एककः कश्चित् । (से) अथ केनार्थेन दे भ दन्त एवं जीयो गर्भगतः सन् नरकेषु अस्येकक उत्पद्यते श्रस्त्येकको नोत्पद्यते ? हे गौतम ! (जे णत्ति) यो जीवः यामलियायालङ्कारेसादारादिका वि द्यते यस्य स संज्ञी. पञ्च इन्द्रियाणि श्रवण १ घ्राण २ रसन ३ चक्षुः ४ स्पर्शन ५ लक्षणानि विद्यन्ते यस्य स पञ्चेन्द्रिय, सर्वा निराहारशरीरेन्द्रियच्चासनाषा मनोलक्कणाभिः पतिः पर्या सभापतिमा मनुष्यगर्भस्थ नरके देखोपिनातीत्युकं भगति पूर्वपूर्वकिि पूर्ववैविध्या वैक्रियलब्धि प्राप्तः सन् यद्वाकः विभङ्गज्ञान लब्धिकः वैक्रियलब्धिकः, वैकिलब्धि पानी से आगतं प्रामा (निसम्म) निशम्य मनसा धायें परसे मिच्नइति) स्वदेशान् अनन्तानन्तर गर्नवासाद्वहिः कि पति निष्काशयति, निष्काश्य विष्कम्भवादल्याच्यां शरीरप्रमाणम्, आयामतः संख्ये प्रयोजनप्रमाण जीवप्रदेशद एकं निस्सृजति, बैंक (मोद) समयन्ति महतो भब ति । तथाविधपुफल ग्रहणार्थ समवहत्य चत्वारि गजाश्वरथपदातिलक्षणानि श्रङ्गानि विद्यन्ते यस्याः यस्यां वा सा चतुरङ्गिणी (ति) सेनां कटकमित्यर्थः (सात) करोसीत्यर्थः । सज्जां कृत्वा परानीकेन सा संग्रामं संग्रामपति युकं करोत्यर्थः (सेणं जये ) मितिवाकपालंकारे, युकर्ता जीवः ( अत्थकामए सि ) अर्थे सव्ये कामो चाचामात्रं यस्यासावर्धकामः १, एवमन्यान्यपि विशेषणानि । नवरं राज्यं नृपा २, भोगा गन्धरसस्पर्श ३ कामी शब्दरूपे (अस्थ रितिका गुरास करियर्थः अर्थे च्ये काङ्क्षा सं जाता अस्येति अर्थकाङ्क्षितः एवमन्यानि १ राज्यात २ जोगका कामकाङ्क्षिता (प्रत्यविचासिए (स) पिपासेव पिपासा प्राप्तेऽप्यर्थे अतृप्तिः श्रर्थेऽर्थस्य वा पिपासा संजाताऽस्येति अर्थपिपासितः एवमन्यानि १ । राज्यपिपासितः २ भोगपिपासितः ३ कामपिपासितः ४ ॥ (स) तथाऽराज्यभोगकामे व सामान्य योगरूपं यस्यासी सचिन १ सम्म) तपा मनोवैशेषोपयोगरूपं यस्य स तन्मनाः २ तल्लेस्से ति) तत्रैवा चांदी लेश्या भारमपविशेष पयासी श्य ३ अवसिप ति) शहाध्यवसायोऽध्यवसितः ४ (ततिसा येति ) तस्मिन्नेवार्थादौ तीयमारम्नकानादारज्य प्रकर्षयापि अध्यवसानं प्रयत्नविशेषणलणं यस्य स तची वाध्यवसानः ५ गब्भ (सबसे) तदर्थमर्यादिनिमित्तम उपयुक्तो ऽवहितस्त दर्थोपयुक्तः ५ । (तदयिकरणे ति तस्मिन्नेवार्थादौ श्रर्पितानि श्राहितानि इन्द्रियाणि कृतकारितानुमतिरूपाणि वा येन स सातकरण (तदनादी सा तद्भावनया त्यक्त्वा अर्थादिसंस्कारेण जावितो यः स तद्भावनाभावितः । (पयंसि त्ति ) एतस्मिन् समितिवाक्यालङ्कारे । वेदित) संग्रामकरणारे कारण कुता नरकेषु गाढवंयस्था महारानी मिथ्यादृष्टिर्नर के यातीत्यर्थः से' अर्थवेवार्थेन प्रोते दे गीतम! जीवो गर्नगतः स नरकेषु एकः कि स्ति एककः कश्चिनोत्पद्यते इति । C तमो वीरं प्रश्नयतीत्याद जीवे णं जंते ! गन्नगए समाणे देवलोगेमु जवबजिज्जा ?। गोयमा येगइ उपजिला अत्येग नो - जा। सेकेणडे ते ! एवं तुच प्रत्येगइए उवत्रजिना, प्रत्येगइए नोउववज्जिज्जा ? । गोयमा ! जेणं जीवे गजगए समाये सभी पंचिदिए सम्माि fore य की दिनाणसीए तहारूस म वा माputस वा अंतिए एगमात्र आयरियं धम्मियं या निसम्म ओ से जय तिब्वसंवेगजायस तिम्रायरचे से जीवे माग‍ पुराणकामए २ सम्गकामए मुक्काम ४ चम्पर्क खिए १ पुणकखिए 2 सग्गकखिए ३ मुक्खखिए ४, चम्पासिए ? पुष्पवासिय सम्मदिवासि ३ मुक्खपिवासिए ४ तच्चिते १ त २ तब्लेस्मे ३ - दज्जवसिए ४, तत्तिव्वज्जावसाणे ए नदपियकरणे ६ तयहोते तब्जावरणाजाविए ८। एयंसि णं अंतरं कालं करिजा देवarea जववज्जिज्जा | से एए अ गोपमा ! एवं वृच अत्यंगार उपजिजा, प्रत्येगइए मो वा ॥ ( जीव णं) जीवो हे भदन्त ! गर्नगतः सन् देवलेोकेषु पग अस्ति एकका क स्ति एककः कश्चिनोत्पद्यते । 'से' अथ केनार्थेन हे भवन्त ! एवं प्रोच्यते कश्चिदुत्पद्यते ? हे गौतम! यो जीवो गर्भगतः स न पनि पर्याव सत्यवचायें, मासद्वयमध्य नीतिपूर्वक किलका पूर्वमचिकाचिनः तथारूपस्य तथा विधस्य, उचितस्येत्यर्थः । श्रमणस्य साधोः, वाशब्दो देवलोकोत्पादहेतुत्वं प्रतिश्रमणमाह, न वचनयोस्तुल्यत्वप्रकाशनार्थः । ( माहणस्स त्ति ) मा हनमा इन इत्येवमादिशति स्वय स्थूलप्राणातिशयादिसमाया तु यस्य देशतः सद्भावाद् ब्राह्मणो देशविरतः, तस्य वा यद्वा-श्रम णः साधुस्तस्य माहनः परमगीतार्थः, तस्य वा (तिए ति) स मीपे एकमप्यास्ताम ने कम आर्यम् आरा यातं पापकर्मेज्य - स्यार्थः श्रत एव धार्मिकमिति । सुवचनं शोभनवाक्यं श्रुत्वा भा Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गब्भ गब्भ अभिधानराजेन्द्रः। कार्य निशम्य मनसा अवधार्य (तउ सि) तदनन्तरमेव स ग- तत्थ जाय, दुएहं पि रत्तमुक्काणं तुदभावे नपुंसो ३, प्रस्थजन्तुः भवति जायते । (तिब्बसं०) तीसंवेगेन नृशं दु: इत्यीयो य समाअोगे विवं तत्थ जाय॥ खालकाकुलभवभयेन संजाता सम्यगुरपन्ना श्रद्धा श्रमानं धर्मादिषु यस्य स तीवसंवेगसंजातश्रकः । (तिब्धध। तीवो यो (जीवे गं भंते !) जीवो हे भदन्त ! गर्भगतः सन् [उत्ताणए धर्मानुरागो धर्मबहुमानस्तेन रक्त इव रञ्जित इव यः स तीवध बेति ] उत्तानको पा सुप्तोऽनुमुखो घेत्यर्थः । [पासिद्धिए वे. मानुरागरक्तः, स गर्भस्थवैराग्यवान् जीवः, णं वाक्यासंकारे। ति] पार्श्वशायी वा (अम्बरकुजए वेति) आत्मफलवत् कुम्ज (धम्मकामए त्ति) धर्म श्रुतचारित्रलकणे कामो वाचामात्रंय. शति (अस्थिज्जति) आसीनः सामान्यतः। एतदेव विशेषत स्य स धर्मकामकः १। पुण्ये तत्फलभूने शुभकर्मणि कामो य. उच्यते-(चिद्विज्ज बेति) उर्चस्थानेन (निसीइज्ज घेति ) स्य स पुण्यकामकः । स्थानाने तु-अन्नपानवस्त्रालयशयना निषदनस्थानेन (तुयहिज्ज वेति) शयीत निद्रयेति [श्रास. सनमनोवचनकायकणं नवविधं पुण्यं प्रतिपादितं जगदी इज्ज वेति] आश्रयति गर्भमध्यप्रदेश [ सज्ज वेति ] शेते श्वरेण भगवतेति। स्वर्गे देवलोके कामो यस्य स स्वर्गकाम- निद्रां बिना मात्रा मातरि वा [सुयमाणीए ति ] शयनं कुर्वकः मोके शिव अनन्तानन्तसुखमये कामो यस्य स मोक्षका- स्या कुर्वत्यां वा (सुयश त्ति) स्वपिति निद्रां करोतीत्यर्थः, मकः । एवमग्रेऽपि,नवरं काका गृहिरासक्तिरित्यर्थः। धर्म का. (जागरमाणीप त्ति) जागरणं कुर्वत्या कुर्वत्यां वा, जागति अन संजाताऽस्येति धर्मकाङ्कितः१,पुण्यकाशितः२,स्वर्गकाङ्गितः३, | निझानाशं कुरुत इत्यर्थः । सुखितया सुखितो नवति, दु:मोक्षकाविन्तः४,पिपासेव विपासा प्राप्तेऽपि धर्मेऽतृप्तिः,धर्मपिपा. खितया कुखितो भवति ( हंता! गोयम त्ति) हन्त इति कोमसा संजाताऽस्येति धर्मपिपासितः १, पुण्यपिपासितः२, स्वर्ग लामन्त्रणार्थः। दीर्घत्वं च मागधदेशीप्रनसमुभयत्रापि। (जीवेणं पिपासितः३,मोक्षपिपासितः४ा तश्चिते'इत्यादि सप्त विशेषणानि गजगए समाणे इत्यादि) प्रत्युच्चारणं तु स्वानुमतत्यप्रदर्शधर्मपुण्यस्वर्गमोक्के शुभानिवाच्यानि। तश्चित्तः तम्मनाः२तवे मार्थम्। वृद्धाःपुनराहुः-'हंता गोयमा!' इत्यत्र हन्त इति एवमेत. श्यः३,तदध्यवसितः ४,तत्तीवाध्यवसायः५,तदर्थोपयुक्तः६,तद दिति अत्युपगमवचनं यदनुमतं तत्प्रदर्शनार्थम् । 'जीव ण पिंतकरणः ७, तद्भावनाभावितः (पयंसिणं ति) पतस्मिन् | गभगए ' इत्यादि प्रत्युच्चारितमिति । हे गौतम ! जीवो गर्भअन्तरे धर्मध्यानावसरे काझं मरणं (करिज्ज ति) कुर्यात गतः सन् उत्तानको धा यावद् दुःखितो नवति इति । अथ तदा देवलोकेषु उत्पद्यते । (से)अथ तेनार्थेन हे गौतम ! पूर्वोक्तं पद्येन गाथाचतुष्टयन दर्शयति इत्याह-थिरजायं०] एवमस्माभिःप्रोच्यते अस्ति एककः कश्चित स्वर्गे उत्पद्यते । स्थिरेण निर्विघ्नेन जात उत्पन्न गर्नस्थिरजातस्तं [ रक्खा अस्ति पककः कश्चिन्नोत्पद्यते इति । तं० भ०। ति] रकति सामान्येन पालयति । ततः सा जननी तं सम्यम् यस्नादिकरणेन रकति । [ संवाह त्ति ] संवहति गमना55गर्भाधिकारे पुनौतमस्थामी वीरं प्रश्नयति गमनादिप्रकारेण [ तुयट्टर ति] त्वम्बर्तयति, रक्कति प्राडाराजीवेणं भंते ! गब्जगए समाणे उत्ताणए वा पासिद्विए | दिना पासयति पात्मानं, गर्भ च इति । [अणु०] अनुस्वापिति शेते । [सुयंतीए त्ति स्वपत्यां सत्यां स्वपत्या सत्या वा जागवा अंबरं कुज्जए वा, अत्थिज्ज वा, चिहिज वा, निसिज्ज रत्यां जागरत्या वा जागर्ति, गर्भः उदरस्थजन्तुः । जनन्याः वा, तुयहिज्ज वा, आसइज्ज वा, सज्ज वा, माउए मुयमा- सुखितया सुखितो प्रवति, दुःखितया दुःखितो भवति । णीए सुयइ,जागरमाणीए जागरइ, सुहीयाए सुहीओ नव नथारो विष्ठा, प्रस्रवणं मूत्रं, खेलो निष्ठीवन, सिंघाणं ना सिकालमापि [ से तस्य गर्नसत्त्वस्य गर्नस्थस्य नास्तीइ, दुहियाए दुक्खिो जवा ? | हंता गोयमा! जीवे णं | ति जननीजठरस्थो जीव आहारत्वेन तु यद गृढाति तदगन्जगए समाणे उत्ताणए वा० जाव दुक्खिो जव। । स्थ्यस्थिभिजनखकेशश्मश्रुरोमेषु पूर्वव्याख्यातेषु [परिणामो "थिरजायं पि हु रक्ख,सम्म सा रक्खइ तमोजणणी। ति] परिणमतीत्यर्थः ३ [ एवं ] एवमुक्तप्रकारेण [ बुंसंवाईई तुयट्टइ, रक्खड़ अप्पं च गन्नं च ॥१॥ दिम ति] शरीरमतिगतः प्राप्तः सन् गर्भे जननीकुको सं. घसति संतिष्ठते चारकगृहे चौरवत् । [ दुक्निो जीवोत्ति] प्राणुमुया सुयंतीए, जागरमाणीऍ जागरइ गम्भो। अग्निवर्णाभिः सूचीभिः जिद्यमानस्य जन्तोः यारशं दुःखं मुहियाइ हाइ सुडिओ, दुहियाए दुक्खिो होइ ॥२॥ जायते ततोऽप्यएगुणं यद् दुःखं नवति तेन सरशेन पुःनेन उच्चार पासवणे, खन्नं संघाणओ व से नऽस्थि । पुखितो भवति जीवो गर्भे, किंभूते गर्ने ?, तमसा अन्धकारो अट्ठीयमिंजनहके-समंसुरोमेसु परिणामो ॥३॥ यत्र तत् तमसन्धकारं, परमं च तत्तमसन्धकारं, महान्धकार मित्यर्थः। तस्मिन् अमेध्यभृते विष्ठा पूणे प्रदेशे जीववसनस्थानके एवं बुदिमइगो, गम्भे संवस इक्खिो जीवो।। ४ इति, [आउसो! तो इत्यादि] हे आयुष्मन् ! हे जनते! परमतमसंऽधकारे, अमिज्जनरिए पपसं ति" ॥४॥ ततोऽष्टममासानन्तरं नवमे मासे अतीते वा अतिक्रान्ते वा.प्र. अाउसो तमो नवमे मासे तीए वा पप्पन्ने वा प्रणागए त्युत्पन्ने वा वर्तमाने वा अनागते. वा अप्राप्ते चतुर्णा स्यादिकवा च नएहं माया अम्पायरं पयायइ । तं जहा-इत्थि वा पाणां वक्ष्यमाणानां माता जननी अन्यतरं चतुर्णी मध्ये एकतरं [पयायत्ति प्रसूते,प्रसवं करोतीत्यर्थः। (तं जहत्ति) तत्पूर्वोक्तं इत्थीरूवेणं १, पुरिसंवा पुरिसरूवेणं, नपुंसगं वा नपुं. यथा स्त्रियं वा स्त्रीरूपेण ख्याकारेण प्रसूते १, पुरुषं वा पुरुषकसगरूदेणं ३, बिंब वा विबरूवेणं ।। अप्पं सुकं बहुमं | पेण पुरुषाकारण०२,नपुंसकं वा नपुंसकरूपेण नपुंसकाकारण शायं इत्थं तत्य जाय १, अप्पं ओयं बहं मुकं परिमो। ३.बिम्ब वा बिम्धरूपेण बिम्बाकारण०४ बिम्बभिति गर्जप्रतिवि Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गब्भ (०३७) अभिधानराजेन्द्रः | शति कृतिपरियामो, न तु गर्म एवं पते कथं जायस (अप्यं०) अल्पशुक्रम [ बहुचति] बहुम [ भोयंति ] ऋतुरार्तवं स्त्री तत्र गर्भाशये जायते उत्पद्यते १, अबहुकं पुरुषस्तन जायते २ द्वयोरपियोनावे समाये सति नपुंसक जायते ( इस्थिति ) स्त्रिया नायः [ श्रयति ] भोजसा ( समाश्रोगे (ति) समायोगो वातवशेन तत्स्थिरीभवनलक्षणं स्योजः समायोगस्तस्मिन् सति, बिम्बं तत्र गर्भाशये प्रजायते ४ । तं । कथं स्वपिति अह णं पसत्रएकालसमयंसि सीसेण वा पाएहिं वा आगच्छममा तिरियमागच्छा स्पि "कोइ पुण पावकारी, वारस संवच्छराइ नकोसं । अत्थरगन्जवासे, अध्यनये अमुषम्मि" ॥ १ ॥ (अह णं इत्यादि) अथानन्तरं '' वाक्यालंकारे, प्रसवकालसमये जन्मकालावसरे शीर्षेण वा मस्तकेन वा पादाच्यां चरणाया समागच्छति इति सम "सम्मं गच्छति " पाठे सम्यग् अनुपघातहेतुत्वादागविमातु योग्या नियमति (तिरियम) तिरधीनो विना मरणमापद्यते, निर्गमाभावादिति (कांश पु०) कोऽपि पुनः पापका प्रघात रामाजविदारण जनमुनि महाशातनाविधावापा तपित्तादिदूषितो देवादिस्तम्भितो वेति शेषः। द्वादश संवत्स राणि उत्कृष्टतः (अत्थर सि) तिष्ठति । तुशब्दाद् गर्भोक्तं प्रबलं दुसमन गर्नाले गर्भगृहे किंभूते शु प्रभवे चिके अशुयात्मके इति । तं० । स्था० । गर्भान्निर्गतस्य च यत्स्यात्तदाह वाणि य से कम्माई बढाई पुढाई विहिताई कडाई पडत्रियाई अभिनिविडाई अभिसमयागयाई उदिमा णो वसंता भवंति, तओ जवइ बुरूवे दुब्ब दुधे बुरसे फासे ते अए अमु अमशुभमणामे हीस्सरे दीणस्सरे अस्सिरे अकंतस्मरे अप्पियस्सरे अस्सरे अमयस्सरे अणामस्सरे अणाएज्जवयणं पच्चायाए त्रि जवइ, बसवज्जाणि य से कम्माई नो बदाई पसत्थं नेयं जात्र आदेज्जवयणं पच्चायाए वि जब से वे नंवे । (वाणि यत्ति ) वर्णः इत्राघा, बध्यो हन्तव्यो येषां तानि वर्णवध्यानि, अथवा वर्णाद्वाह्यानि वर्णबाह्यानि, अशुजानीत्यर्थः । चशब्दो वाक्यान्तरत्वद्योतनार्थः । ( से (स) तस्य गर्भमितस्य ( बढाई ति ) सामान्यतो बद्धानि (बुद्धाति) पोषितानि गाढतरबन्धतो निधतानि उमाप वर्तनकरणवशेषकरणयोग्यत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः । अथवाकयतः पूर्व स्पृशनीति ( कमाई ति ) निकालि तानि, सर्वकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः । ( पट्ठवियाई ति ) मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजातित्र सादिनाम कर्मादिना सहोदयत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः । ( अभिनिविडाई ति ) तीमा - नुजावतया निविष्टानि ( अभिसमन्नागयाई ति ) उदयाभि २१० मुखीभूतानि (द) उस् व्याकरणेन दिन व्यतिरेकमाह ( जो उता निष्टादीनि व्यापाताम्येकाचोनिया ( दीनस्सरेमि स्वरः (दणस्सरे ) स्थितस्य स्वये यस्य स दीनस्थ (अणादेयाविति टना प्रत्याजातश्चापि समुत्पन्नोऽपि चाऽनादेयवचनो भवति । भ० १ ० ७ ० । ननु नवमासमात्रान्तरितमपि प्राक्तनं भवं सामान्यजीवः किं न स्मरतीत्याह जायमाणस्स जं दुक्खं परमाणस्स वा पुणो । तेन क्स्त्रेण संमूढो, नाइसर न अपणो ॥ २ ॥ बीसरसरं रसंतो, सो जोणिमुहाल निष्फिकइ जीयो । माएँ अप्पयो विय, वेयराम जयेमाणो ॥ २ ॥ जायमानस्य गर्भाभिःसरमाणस्य उत्पद्यमानस्य वा दुःखं न पति वा अथवा पुनप्रियमासस्य पञ्चत्वं कुर्वाणस्य च दुःखं भवति तेन खेन संमुद्रा महामोहमा प्रजातिया चलनवमात्मीयं स्वकीय मुद्रामा प्राणी न स्मरति कोऽहं पूर्वभवेदेवादिकोऽयमिति न जानातीति ॥२॥ (बीस) परम करुणामयं (सरं तिस्रं सगर्भस्थ जीवो योनिमुखात् [निफिटर ति] निष्कामति मातरात्मनोऽपि च वेदनामतुलां जनयन उत्पादयन् ॥३॥ तं० । महा० । " कुर्वन् गग्भ गम्भपरयम्पि जीवो, कुंजीपागम्य नरयसंकासे । वृत्थो प्रमिज्जमज्जे, प्रसुप्पनवे असुइयम्मि ॥ ४ ॥ पित्तस्स पस्सिय फरस य सोयिस्स विव मम । सुचस्स पुरीसस्स य, जाया जह यच किमित व्व ॥ ए ॥ [ गम्नध० ] गर्भगृहे जीवः कुम्भीपाके कोष्ठिका कृतितप्तलोदभाजनसह नरकसह नारकोत्पत्तिस्थान [] उपस्थितः स्थितः, श्रमेध्यं गूथं, मध्ये यस्य गर्भस्य स श्रमेध्यमयास्मिन् चित्रम्य अशुबिके अपवित्र स्वरूपे ॥ ७ ॥ [ पिस०] पित्तस्य 'सिम्भस्य' श्रेष्मणः शुक्रस्य शोषितस्य सूत्रस्य पुरीषस्य विद्वाया मध्ये मध्यभाजायते उत्पद्यते ? [ वच्चकिमित व्य]ि वर्चस्कमिक विष्ठानिलङ्गवत् । यथा कृमिद्वन्द्रियजन्तुविशेष उदरमध्यस्थविष्ठायामुत्पद्यते तथा जीवोऽपीति ॥ ५ ॥ तं । संथा | शौचादि जगतस्य तं दाणि सोयकरणं, केरिसयं होइ तस्स जीवस्स १ । सुकरुहिरागराओ, जस्सुप्पती सरीरस्थ ॥ ६ ॥ एयारिसे सरीरे, कलमलजरिए मिज्जसंनूए । निययं विगणितं सोपमयं केरिसं तस्स ॥ ७ ॥ (दा०) (दाति दान करणं शरीरसं स्कारकरणं कीदृशं भवति तस्य गर्भनिर्गतस्य जीवस्य ? यस्य प्रङ्गुरशरीरस्योत्पत्तिः प्रादुर्भावः शुक्ररुधिराकरात् वीर्यखनेः वर्तत इति ॥ ६ ॥ [ पया० ] एतादृशे शरीरे कलमलभूते उजलाकर्मादिपूर्ण श्रमेयसंभूते विभ निश्रयं विगणिज्जत' इति पदद्वये सप्तम्या द्वितीया 4 6 2 Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३७) गब्भ प्रन्निधानराजेन्द्रः। गन्न 1८।३।१३७ । इति सप्तभ्यर्थे द्वितीया। निजके श्रात्मीये विणी, तथाविधवेश्यावदिति । ऋती ऋतुकाले नो नैव नि[ बिगणिज्जंतं इति ] श्रात्मपरेषां जुगुप्सायोग्ये शौचमदं काममत्यर्थ बीजपातं यावत् पुरुष प्रतिषेधते इत्यवंशीला निपवित्रत्वाङ्गीकारलवणं यथा मयाऽस्य स्नानचन्दनादिना प कामप्रतिषविणी , वापीति उत्तरविकल्पापेक्षया समुच्चये । सवित्र विधेयमिति । यहा-शौचेन वस्त्रचन्दनाचरणादिना मागता वा (से) तस्यास्ते प्रतिविध्वंसन्ते योनिदोषामुपहतमदो गर्यो यत्र सनत्कुमारचक्रीवत् तच्छौचमदं, यथा कीर शक्तयो जवन्ति, मेहनविस्रोतसा वा योनेदिः पतन्तो विध्वंसशं मम शरीरं शोभतेऽलङ्कागदिनेति । यदि बा-एवंविधे शरीरे न्ते इति । उदीर्ण चोत्कटं तस्याः पित्तप्रधानं शांणितं स्यातकुत्रापि रोगादिना विनष्ट शोकमदं शोकाङ्गीकारकरणं, यथा थाबीजामिति, पुरा धा पूर्व वा गर्भावसराद् देवकर्मणा देवक्रिहा! मम सुन्दरं शरीर स्फोटकादिना विनष्टमिति कीरा तस्य यया देवताऽनुभावेन, शक्त्युपघातः स्यादितिशेषः । अथवा दे. जीवस्येति ॥ ७॥ तं०। ( पञ्चाकारः स्त्री गर्भ धरति न धर घश्च कार्मणं च तथाविधव्यसंयोगो देवकार्मणं, तस्मादिति, ति च तत्र पुरुषाऽसयोगेऽपि गर्भसंभव ति तु स्थानाङ्गे प्रो पुत्रलकणं फलं पुत्रफलं, पुत्रो वा फलं यस्य कर्मणस्तत्पुत्रफकमस्ति, तश्चास्मिक्षेत्र शब्दे ८३१ पृष्ठे तंपुलवयालीय १२ सं, तद्वा नो निविष्ट नवति, अलब्धमनुपात्तं स्यादित्यर्थः। “थोवं गाथा-टोकायां समुद्धतमिति न पुनरुच्यते) वहुं निवेसं" इत्यादी निवेशशब्दस्य लानार्थस्य दर्शनात्। अथवा पुत्रं फलं यस्य तत्पुत्रफलं दानं तजन्मान्तरे अनिर्विष्टमदन. अथ पुरुषसंगताऽपि स्त्री कथं गर्भ न धरति ? बति, निर्विष्टस्य दत्तार्थत्वाद् । यथा 'नाऽनिवि लब्भई' ति। पंचहिंगणाहिं इत्थी पुरिसेण सम् िसंवसमाणी विगभं | स्था०५ ठा०२७०। नोधरेजा। तं जहा-अप्पत्तजोवणा, अइकंतजोबाणा, जा गर्भपतनकारणानि "पसुपक्खिमाणुसाणं, बाझो जो विह विप्रोजए पावो। इचंका, गेसनपुट्ठा, दोमणंसिया, इच्चेएहिं पंचहिं गणेहि सो अणवच्चो जायइ, अह जाय तो विवज्जिजा ॥१३॥ इत्यी पुरिसेण सद्धि संवसमाणी वि गब्ज नो धरेजा। तत्पडका मया किं, त्यक्ता वा त्याजिता अधमबुद्ध्या ? । पंचाहें गणेहिं इत्थी पुरिसेण सधि संवसमाणी वि गब्नं लघुवत्सानां मात्रा, समं वियोगः कृतः किं घा? ॥२४॥ नो धरेज्जा । तं जहा-निच्चोउआ अणोन्या वावन्नसोया तेषां पुग्धापायोड-कारि मया कारितोऽथवा सोकैः । बाविकसोया अणंगपडिसेविणी, इच्चेएहिं पंचहि गणेहिं किंवा सबाझकोन्दुरु-बिलानि परिपूरितानि जबः ॥१५॥ किंथा साण्डशिशून्यपि, खगनीमानि प्रपातितानि [धि। इत्यी पुरिसेण सछि संवसमाणा वि गब्नं नो घरेज्जा । पिकशुककुर्कटकादे-त्रिवियोगोऽथवा विहितः ॥ १६ ॥ पंचहि ठाणेहिं इत्यी पुरिसेण सम् िसंवसमाणी वि गन्नं कि बा बालकहत्याऽ-कारि सपत्नीसुतायुपरि दुपम । नो धरेजा । तं जहा-उसि णो णिगामपमिसेविणी वा चिन्तितमचिन्यमपि वा, कृतानि कि कार्मणादीनि ? ॥१७॥ वि जवइ, समागया वा से सुक्कपोग्गझे पमिविकसति, किंवा गर्भस्तम्भन-शातनपातनमुखं मया चके । तन्मन्त्रनेपजान्यपि, किं वा मयका प्रयुक्तानि ॥ १८ ॥ उदिने वा से पित्तसोगिए पुरा वा देवकम्मुणा पुत्तफसे अथवा भवान्तरे किं, मया कृतं शीलखएडनं यशः। वा नो निविटे जवड, इच्चेएहिं० जाव नो धरेज्जा ॥ यदिदमुःखें तस्मा-द्विना न संजयति जीवानाम् ॥१६॥ यतःঅন্নামী মায আম্বাহান্ধাহাবৰামাৰাৰ , সমানकान्तयौवना वर्षाणां पञ्चपञ्चाशतः पश्चाशतो वा परत आर्तवा कुरंगरंमत्तणपुजगाई, घंमत्तनिवृविसकन्नगाई। ऽभावादेव (यतोऽवाचि-'मासि मामीत्यादिगाथात्रयम'। तत्र लहति जम्मंतरभग्गसीला, नाऊण कुज्जा दढसीलभावं"५. कल्प०४क्षण। तन्दुलवयालीय १३ गाथाटीकायां ८३१ पृष्ठेऽत्र भागे भ्यरूपि, गर्भपोषणविधिःमत पवावधार्यम) तथा जातेर्जन्मत आरभ्य बनभ्या निर्वाजा जा. तए एं सा तिसला खत्तियाणी राहाया कयबलिकम्मा तिवण्या। तथा ग्लान्येन ग्लानत्वेन म्पृष्टा ग्लान्यस्पृष्टा रोगादि- कयकोउयमंगलपायच्चित्ता सव्वालंकारविनसिया तं गम्भं ता। तथा दीर्मनस्यं शोकाद्यस्ति यस्याः सा दौमैनस्थिका, तथा जातमस्याइति दौमनस्थितेति । "इच्चेपहिं इत्यादि"निगमनम्। नाइसीएहिं नाइडएहेहिं नाइतित्तेहिं नाइकमुएहिं नाइमित्यं सदा, न व्यहमेव, ऋतू रक्तप्रवृत्तिलक्षणो यस्याः सा कसाइएहिं नाइअंबिलोहिं नाइमहरेहिं नाइनिहिं नाइनित्यर्तुका । तथा न विद्यते ऋत रक्तरूपः शास्त्रप्रसिद्धो वा सुक्खेहिं नाइनोहिं नाइसक्केहिं सव्वत्तुभप्रमाणही यस्याः सा भनृतुका, (कियत्यः खलु ऋतुनिशाः, कस्यां कन्या, जोयणाच्छायाणगंधमटेहिं क्वगयरोगसोगमोहभयपरिस्सकस्यां च पुत्रः समुत्पद्यते, इत्यादि विषये "ऋतुस्तु द्वादश मा, जंतस्स गन्नस्स हियं मियं पत्थं गन्जपोसणं तं देसे प्र निशाः" इत्येतद गाथात्रयं ८३१ पृष्ठे व शब्द प्रोक्तम) तथा व्यापन्नं विनष्ठ रोगतः स्रोतो गर्नाशयचिद्रलकणं यस्याः काले अाहारमाहारेमाणी विविचमउएहिं सयणाससा व्यापनस्रोताः । तथा व्यादिग्धं व्याविरूपा वातादिव्याप्तं णेहिं पइरिकसुहाए माणसाए विहारनूमीए पसत्थदोविद्यमानमप्युपहतशक्तिक स्रोत उक्तरूपं यस्याः सा व्या हला संपुग्नदोहरा सम्माणियोहमा अविमाणियदो. दिग्धस्रोता, व्याविहस्रोता था । तथा मैथुने प्रधानमन मेहनं जगइन तत्प्रतिषेधोऽनङ्गम, तेनानोनाहार्यलिशादिना अन हला बुच्चिन्नदोहझा ववणीयदोहमा सुहं सुहेणं श्रासह, सेवा मुखादी प्रतिषेया अस्ति यस्याः, अनङ्ग वा काममपरा सयप, चिट्ठध, निसीआइत्यहइ,विहरइ, सुहं सुदेणं तं गम्भं परपुरुषसंपर्कतोऽतिशयेन प्रतिषषत इत्येवशीला अनमति- पारवहरु । Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) गवन अनिधानराजेन्डः । गम्भावित 'तए णं सा' इत्यादितः 'परिवहे' हति यावत् । तत्र ततः सा निर्जना भत पव सुखा सुखकारिणी तया, मनोऽनुकसया मनाप्र. त्रिशला कृत्रियाणी (राहाया कयबालकम्मा) स्नाता, कृतं वधि- मोददायिन्या एवंविधया विहार जुम्या चकमणासनादिनम्या कर्म पूजा यया ( कयको जयमंगझपायच्छित्ता) कृतानि कौतुक कृत्वा । अथ सा निशाला किंविशिषा सती तं गर्भ परिवहति , मङ्गलान्येव प्रायश्चित्तानि यया सा, तथा सर्वालङ्कारभूषिता प्रशस्ता दोहदा गर्भप्रभावोद्भूता मनोरथा यस्याः ला तथा । सती, तं गर्भ नातिशीतैनात्युष्णः नातितिरी तिकटुकैः ना ते चैवम्--- तिकषायैात्यम्लैनातिमधुरः नातिस्निग्धै तिरूकः ( नाइउ "जानात्यमारिपटई पटु घोषयामि, हि ति ) नात्याः , नातिशुष्कः, सर्तुषु ती ती भ दानं ददामि सुगुरुन् परिपूजयामि । ज्यमाना सेव्यमाना य सुखहेतयो गुणकारिणः, तैः। तमुक्तम् तिर्थेश्वराचनमहं रचयामि सधे, "वर्षासुनवणममुतं,शरद जलं गोपयश्च हेमन्ते । शिशिरे चा वात्सल्यमुत्सवभृतं बहुधा करोमि ॥ १ ॥ मलकरसो.घृतं वसन्त गुमश्चान्ते"॥१॥ एवंविधैभोजनाच्छाद सिंहासने समुपविश्य यरातपत्रा, नगन्धमाल्यैः, तत्र भोजनं प्रतीतम, आच्छादनं वस्त्रे, गन्धः संत्रीज्यमानसविधा सितचामराभ्याम् । पटवासादयः, मास्यानि पुष्पमाला, तैर्गर्भ पोषयतीति शेषः । आईश्वरत्वमुदिताऽनुभवामि सम्यम्, तत्र नातिशीतसादय पव आहारादयो गर्भस्य हिताः, म तु नूपाक्षमौस्लिमणिशासितपादपीठा॥२॥ अतिशीतलादयः, ते हि केचिद्वातिकाः, केचित् पैत्तिकाः, के-1 आरुह्य कुञ्जरशिरः प्रचलत्यताका, चित श्लेष्मकराइच, ते च अहिताः । यदुक्तं वाग्भट्टे वादिननादपरिपूरितदिग्विभागा। "वातलैश्च जावेद गर्भः, कुम्जान्धजम्बामनः । लोकैः स्तुता जयजयति रवैः प्रमोदापित्तः स्वन्ततिः पिङ्गः, श्वित्री पाण्मुः कफात्मनिः" ॥१॥ दुद्यान केनिमनघां कलयामि जाने" ॥ ३ ॥ इत्यादि । तथा पुनः सा किविशिष्टा ?, संपूर्णदोहदा सिद्धार्थराजेन सर्व"अतिलवणं नेत्रहर-मतिशीतं मारुतं प्रकोपयति । मनोरथपूरणात, अत एव समानितदोडदा पूर्णीकृत्य तेषां अत्युष्णं हरति बझं, अतिकामं जीवितं हरति" ॥१॥ निर्वर्तितत्वात, तत एव अधिमानितदोहदा, कस्यापि दोहभन्याच-मैथुन-यान-वाहन-मार्गगमन-प्रस्खलन-प्रपातन-प्र- दस्य अवगणनाऽनावात् । पुनः किंविशिष्टा ?, युच्छिन्नपीमन प्रधावना-अभिघात-विषमशयन-विषमासनो-पवास-वेग- दोहदा पूर्णवाञ्छितत्वात, अत एव व्यपनीतदोहदा, सर्वथा विघाताऽतिकक्षाऽतितिक्ता-ऽतिकटुका-उतिनोजना-ऽतिरोगा- असदोहदा ( सुई सुण ति) सुखं सुखेन गनांनायाध. ऽतिशोका-ऽतिकार-सेवा-ऽतीसार-वमन-विरेचन-प्रेखोलना- या (श्रास सि) प्राश्रयति आश्रयणीयं स्तम्भादिकमवऽजीर्णप्रभृतिभिर्गर्भो यन्धनान्मुच्यते, ततो नातिशीतलाद्यैरा- लम्बते (सयह ति) शत निझां करोति (चिट्ठा त्ति ) ऊर्व डारायैस्तं गर्भ सा पोषयतीति युक्तम् । अथ सा त्रिशला कधं- तिष्ठति (निसीय ति) निषीदति आसने उपविशति [ तुभूता, (वबगयरोगसोगमोहभयपरिस्सम त्ति) रोगा ज्वरा- यह ति] न्यग् वर्तयति निखां बिना शय्यायां शेते इत्यर्थः। था, शोक पवियोगादिजनितः, मोहो मूच्छी, भयं भीतिः.प. [विहरइ ति] विहरति कुट्टिमतले विचरति, अनेन प्रकारेण रिश्रमो व्यायामः, पते व्यपगता यस्याः सा तथा, रोगादिर- च सुखं सुनेन तं गर्भ परिवहतीति ।।१५।। कल्प०४ कण । ज०। हिता तिनावः । यत एते गर्नस्य अहितकारिणस्तपुक्तं सुश्रुते- | "गर्ने वातप्रकोपेण, दौईदे चावमानित । नवेन्कुन्जः कुणिः "दिवा स्वपत्याः स्त्रियाः स्वापशीलो गर्नः,अञ्जनादन्धः,रोदना- पड़ः, मृको मिम्मिन एव वा" ॥१॥ आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। द्विकृतष्टिः,स्नानानुलेपनाद् दुःशीयः,तैयाभ्यनात कुष्ठी,नस्वापक- । ('कायट्टिइ' शब्देऽस्मिन्नेव जागे ४६१ पृष्ठे उदकगादीनां तनात् कुनखी, प्रधावनाचञ्चलः, हसनात् श्यामदन्तोष्ठतालु-| कायस्थितिनिरूपिता ) कुक्का, नाटकसन्धिलेदे, पनसकण्टके, जिलः, श्रतिकथनाच प्रलापी, अतिशब्दश्रवणाद् बधिरः, अ- अपवरके,"नाकृष्णचतुर्दश्यां यावदाप्लबते जनम् । तावद् गर्न बलखनात् स्खलतिः, व्यञ्जनकेपणादिमारतायाससेवनादु- विजानीयात्' उक्त जानकृष्णचतुर्दश्यां गङ्गाजलप्लावनस्थान, न्यतः स्यात्"। अन्ने, अग्नी, पुत्रे च । वाच । तथा च कुलवृक्षाः स्त्रियस्त्रिशला शिक्कयन्ति- गन्जकरा-गर्जकरी-स्त्री० । गर्भाधानविधायिन्यां विद्यायाम, "भन्दं संचर मन्दमेव निगद व्यामुञ्च कोपक्रम, सूत्र० २ श्रु०२ अ०। पथ्यं तव वधान नीविमनघां मा माऽट्टहास कृथाः। गन्जगरा-गर्जकरी-'गम्भकरा' शब्दार्थाथै, सूत्र०२भु०७० आकाशे भव मा सुशेष्व शयने नीहिर्गच्छ मा, देवी गर्भनरासा निजसखीवर्गण सा शिक्ष्यते" ॥१॥ । गन्जघरक-गर्भगृहक-न० । गर्भगृहाकारे, रा०। जं० जी० । अथ सा त्रिशला पुनः किंकुर्वती ?, [जं तस्स ग- मोहनग्रहस्य रतिगृहस्य मोहजनकगृहस्य घाऽन्तभवन, का० भस्सेत्यादि ] यत्तस्य गर्नस्य हितं तदपि मितं न तु १ श्रु०००। न्यूनम, अधिक वा, पथ्यं प्रारोग्यकारणम, अत एच गर्भ- गायक-'गन्जघरक' शब्दाथार्थ, शा०१७०० पोषक, तदपि देशे चितस्थाने न तु अाकाशादौ, तदपि काले | भोजनसमये न तु अकाले आहारम आहारयन्ती विवि- भटिड-गर्जस्थिति-स्त्री० । गजस्थितिविचारे' दुचउकास' समउपाहे सयणासणेदि ति] विविक्तानि दोपरहितानि मद- गाथाधिकारे सप्तमजिनस्याष्ट मासा एकोनविंशतिदिनानि च, कानि कोमलानि यानि शयनासनानि, तैः, तथा[परिकस- तत्कथं घटते?, 'दुचउ' गाथायां पायां जिनानामष्टमासादि हाए मणाणुकूलाप विहारभूमीपति]प्रतिरिक्ता अन्यजनापेकया। कथितमस्त्येवं तु सप्त ज्ञायत इति प्रश्ने, उत्तरम्-'दुच ठर' गा. Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) गन्नहि भनिधानराजेन्सः। गन्जसाहरण थायाः सप्तमस्थाने शेषजिनग्रहणं कृतमस्ति, तेन · मासा उदकगा भवन्ति । व्य०७०।गर्भस्य तदारम्जस्य मासश्रा नव' इत्यत्र षमामष्टौ मासाः, शेषजिनानां च नव मासा स्तत्सदितो मासः। गर्भारम्भमासे, गर्भसहिते मासे च । वाच०। उक्ताः सन्ति, तेन मप्तमजिनस्य नव मासा एकोनविंशतिदिना-गभर-गहर-त्रिका गहने, आव०४०। दम्ने, वने, निकुञ्ज, नि गर्भस्थितिरितिबोध्यम् ११४ प्रगसेनप्र०२ उल्लाम(तित्थयर शब्दे विस्तरोऽस्य रुष्टव्यः)मत्स्यकछपवृषमहिषशुकसारसादि | पुं०। रोदने, विषमस्थाने, अनेकार्थसङ्कने च । न० । गुहायाम, | न. स्त्री० । वाच।। जलचरस्थलचरखचरतिरश्चामायुषो गर्ने स्थितिश्च कियती गब्भय-गर्भज-त्रि० । स्त्रीगोत्पन्ने गर्भव्युत्क्रान्तिके, अनु। परमितिरिति प्रश्ने, उत्तरम-जलचरस्थलचरखचरतिरश्चामायुर्मानं 'गम्भनुजलयरोजय' इत्यासंग्रहणीगाथातो "मएमआऊ गन्नवकंति-गर्जव्युत्क्रान्ति-स्त्री०। गर्भाशये उत्पत्ती, स्था० । समगयाई हयाइ चउरंसजाउअस्स ॥ गोमहिसदृस्वराई, पणस दोएहं गजवकंती पसत्ता । तं जहा-पाणुस्साणं चेव, साणाइदस मंस" ॥१॥ ति"वीरं जय सेहरपय, इति केत्रविचार- पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं चेव । गाथातश्चावसेयम् । तेषां गर्भस्थितिमानं तु जघन्यतोऽन्तर्मु- तेषां गर्ने गर्भाशये व्युत्क्रान्तिरुत्पत्तिर्गनव्युत्क्रान्तिः,मनोरपत्यानि इर्समुत्कर्षतचाप्टौ वर्षाणीति भगवत्यादौ प्रतिपादितमस्तीति । मनुप्यास्तेषां, तिरोऽञ्चन्ति गच्छन्तीति तिर्यञ्चस्तेषां संबन्धिनी ४१० प्र० सेनप्र० ३ उहा। योनिरुत्पत्तिस्थानं येषां ते तियेग्योनिका. ते चैकेन्द्रियादयो:गन्नत्य-गर्नस्थ-पुं०। मनुष्ये, तिर्यग्योनिके च गर्जव्युत्क्रान्ति-| पिजवन्ति इति विशिष्यन्ते, पञ्चेन्द्रियाश्च तियग्योनिकाश्चेति प. के, स्था०२ ठा०२ उ०। चन्छियतिर्यग्यौनिकास्तेषाम् । स्था० २ ० ३ उ० । दोएहं गन्नत्याणं आहारे पन्नत्ते । तं जहा-मणुस्साणं गन्नवकंतिय-गर्भव्युत्क्रान्तिक-पुं० । गर्भ व्युत्क्रान्तिरुत्पत्ति वैषा, व्युत्क्रान्तिशब्दोऽत्रोत्पत्तिवाची, तथा पूर्वाचार्यप्रसिः । चेव, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव । दोएहं गन्न यदि वा गर्भाद् गर्भावासाद् व्युत्क्रान्तिनिष्क्रमणं येषां त्याणं वुली परमत्ता । तं जहा-मणुस्साणं चेत्र, पंचें- ते गर्जव्युत्क्रान्तिकाः। शेषाद्वा' ७।३।१७॥ इति कच् समासान्तः। दियातरिक्खजोणियाणं चेव । एवं निवु विगुब्वणा गइप- प्रका०१पद । नं। जी । गर्भजे मनुष्ये, तिरश्चिच । अनु०। रियाए समुग्धा कालसंयोगे आयाइ मरणे । स्था० । गर्नव्युत्क्रान्तिकमानुष्यास्त्रिधा-कर्मभूमिजा अकर्मभू मिजा अन्त:पजाश्चेति । स । प्रज्ञा०। द्वयोरेव गर्भस्थयोराहारोऽन्येषां गर्भस्यैवाभावादिति, वृद्धिः गम्भवासवसहि-गर्भवासवसति-स्त्री० । गर्जाश्रयनिवासे,ौला शरीरोपचयः निर्वृद्धिस्तकानिर्वातपित्तादिभिः, निःशब्दस्याभावार्थत्वात, निरुदरा कन्येत्यादिवत् । वैकियलब्धिमतां गम्भसाहरण-गर्नसंहरण-न । गर्भस्य उदरसत्वस्य संहरणबिकुर्वणा । गतिपर्यायश्चलनं, मृत्वा वा गत्यन्तरे गमनलकणो मुदरान्तरसंक्रामणं गर्भसंहरणम्।नगवतो महावीरस्य पुरन्दरा. यश्च वैक्रियलब्धिमाम् गर्भानिर्गत्य प्रदेशतो बहिः संग्रामयति दिष्टेन हरिनैगमेषिदेवेन देवानन्दाभिधानब्राह्मण्युदरात त्रि. स वा गतिपर्यायः। उक्तञ्च भगवत्याम-"जीवे णं भंते! गम्भगए शाभिधानाया राजपत्न्या उदरान्तरे संक्रामणे, स्था० १० समाणे नेरपसु उववज्जेजा ?। गोयमा ! अत्यंगइए उबवजे- ठा० ('वीर 'शब्दे चैतस्पष्टीनविष्यति ) गर्नान्तरसंजा भत्थेगए नो उववज्जेज्जा । सेकेणणं । गोयमा ! क्रमणमात्रे च । भ०। से णं सन्निपंचिदिए सव्वाहि पज्जत्तीहिं पज्जसप बीरि अत्र प्रश्नोत्तरेयलद्धिए वेउब्धियलहिए पराणीयमागयं सोशा निसम्म हरी णं ते! हरिणेगमेसी सक्कदए इत्थीगभंसाहरमाणे पपसे निच्छुना, निन्छुभाता बेडब्बियसमुग्धापणं समो किंगभाओ गब्भं साहरइ, १ गम्जाओ जोणिं साहर३२, हण, चामरंगिणि सिन्नं विन्धर, विउब्वश्त्ता चाचरंगिणीए सेणाए पराणीएणं सद्धिं संगाम संगामे " इत्यादि जोणीोगन्भं साहरइ३, जोणीओ जोणिं साहरइ । गोसमुद्धातो मारणान्तिकादिः । कालसंयोगः कामकृतावस्था, यमा! नो गम्भारो गन्नं साहर११, नो गन्जाओ जोणिं प्रायातिर्गर्भानिमः। मरणं प्राणत्यागः । स्था० २ ठा० साहरइ २, नो जोणीश्री जोणि परामुसिय परामुसिय अ ३००। व्वाबाहेणं अब्बावाहं जोणीओगम्भं साहर। पनू! णं भंते! गर्भार्थ-पुं० दयगतार्थे भावार्थे, पो० १६ विवः। हरिणेगमेसी सकस्स एणं दूर इत्थीए गन्नं नहसिरंसि वा गम्भदंसि(ण)-गर्जदर्शिन्-त्रिणगर्भष्टरि गर्भवासिनि,आचा। रोमकसि वा साहरित्तए वा नीहरित्तए वा। हंता। पनू! जे मोहदंसी से गन्भदंसी, (जे गजदंसी से जम्मदंसी)। | नो चेवणं तस्स गन्जस्त किंचि आवाहं वा विवाहं वा यो हि मोहंम्पतो वेत्यर्थपरित्यागरूपत्वात् ज्ञानम्य परिहरति उप्पाएजा छविच्छेदं पुण करेज्जा ए मुहमं च णं साहबेति, यदि वा यो मोडं पश्यत्याचरति स गर्भमपि पश्यति, गर्भ रिज्ज वा नीहरिज वा ॥ वसतीत्यर्थः । भाचा० १७० ३ १०४ उ०। इह च यद्यपि महावीरसंविधानाभिधायकं पदं न रश्यते, गम्भपोसण-गर्जपोषण-न । गर्नपोषके, ज०११ २०११ उ०।। तथापि हरिनैगमेषीति वचनात तदेवानुमीयते, हरिनैगमेषिणा भगवतो गर्नान्तरे नयनात् । यदि पुनः सामान्यतो गर्भहरणगजमास-गर्जमास-पुं० । कार्तिकादौ यावद् माघमासे, यत्न विवकाऽनविष्यत्सदा 'देवे णं ते!' इत्यवक्ष्यदिति । तत्र हरि Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ०४१ ) अभिधानराजेन्ः | गन्जसाहरण रिन्द्रः, तत्संबन्धित्वाद् हरिनैगमे वेषीति नाम । ( सकदूर ति) शदूतः शक्रादेशकारी पदात्यनीकाधिपतिः येन शकादेशा [गवान्महावीरो देवानामशिला संत इति (इ स्थगनं ति) स्त्रियाः संबन्धी गर्भस्त्रीगर्भस्तं (साइरमाणे ति ) अन्यत्र नयन् । इद चतुर्जङ्गिका-तत्र गर्भाह गर्भाशयादवधे शयान्तरं संदरति प्रवेशयति गर्म सीडलक्षणमिति प्रकृतमित्येक १ तथा प्रदवधेर्योनिं गर्भनिर्गमद्वारं संहरति, योन्योदरान्तरं प्रवेशबतीत्यर्थः २ | तथा योनितो योनिद्वारेण गर्भ संदरति गर्भाशयं प्रवेशयतीत्यर्थः ३ तथा योनितो योनेः सकाशाद् योनि संहरति नयति, योन्योदरानिष्काश्य योनिद्वारेणैवोदरान्तप्रवेशयतीत्यर्थः एतेषु शेषनिषेधेन नीयमनुज्ञानाद(परा मुसियेत्यादि) परामृश्य परामृश्य तथाविधकरणव्यापारेण संस्पृश्य संस्पृश्य स्त्रीगर्भमन्याबाधमन्याबाधेन सुखं सुखेनेत्यर्थः, योनितो योनिद्वारेण निष्काश्य गर्भ गर्भाशयं संहरति । गर्नमिति प्रकृतं बच्चे बनतो निमनं स्त्रीगर्तस्पोकं तम्रो कन्या तयादिनिष्पन्नोऽनिष्या गर्भः स्व भावाद् योग्यैव (नर्गच्छतीति । अयं च तस्य गर्भस्य संहरणे श्राचार] उक्तः । अथ तत्सामर्थ्यं दर्शयन्नाह - 'पभू णं' इत्यादि । (नसिरंसि सि नसा ( सारि शितुं (रि) विमतिपरिणामेन नाशिरसो रोमकूपाज्ञा नितु निष्काशवितुं (भावाति बाधां (विवाद ति) विशिष्टबाधां (विच्छेदं ति) शरीरच्छेदं पुनः कुर्यात्, गर्भस्य दिच्छेदकृत्वा नखाप्रादी प्रवेशयितुमशक्यत्र सु डुमं चणं ति ) इति सूक्ष्ममित्येवं लध्विति । भ० ५ ० ४ ४० । गन्नार दिन- गजदिदिन न० गर्भनिष्क्रमण ज्ञानानिर्वाणदिवसे पु, पञ्चा० बिब० । 1 गन्भिज्ज - गार्जेय - त्रि० । गर्भे भवा गार्जेयाः । नौमध्ये उच्चावचकर्मकारिषु, का० १ ० ८ ० । - 1 गन्जि - गर्जित- त्रि० । “गनितातिमुक्ते णः " | 0 | १ | २० | इति तस्य णः । जातगर्ने, प्रा० १ पाद । गब्जिय-गर्मित त्रि० निर्धतशीर्षके, दश० ७ अ जात गर्भे, डोकिते, वृक्कादी, हा० १ ० ७ म० । श्राचा० । गभेज्ज - गार्जेय - त्रि० । 'गन्जिज' शब्दार्थे, का० १० ८ अ० । गम-गम-पुं० । वस्तुम्यवच्छेदे, अनु० सू० बोधे, विशे० अ विधानाभिधेयवशतोऽर्थपरिच्छेदे, नं० । स्था० स०| व्याख्याने, विशे० | गणितादिविशेषे, विशे० प्रा० म० । सदृशपाते, बिशे० | मा० म० । चतुर्विंशतिदरमकादौ प्राव० ॥ श्र० । वाचनाविशेषे, का० १ ० १ ० पथिनि, स्था० ७ ठा० । जिगीषयांत्रायाम, द्यूतभेदे, बाच० । गमने च । आचा० । गमग- गमक-वि० गमयति गम्-मिन्छन्। नमोधके, वाच० । प्रापके, विशे० । 1 गमेपिय मिसिर दिइयो तदेषाि राजा नव नक्त्रत्ता गमणसिद्धा" ॥११॥ ६० प० ८ प० । “गतं न ग यत सामगतं नैव गम्यते । गतागताविनिर्मुकं गम्यमानं तु गम्यते " ॥१॥ विशे० सू० स्वाध्यायादिनिमित्तं सि मणे, "गमणागमणे पाणकमणे बीयकमये" श्राव० ४ ० । जिगीषेोः प्रयाणे, बाच० । ध० । व्याख्याने, विशे० वेदने, नं०। आ० म० । प्राप्तौ च । झा० १ ० १ ० । गमणगुण-गमनगुण-पुं० । गमनं गतिः, तद्गुणो गतिपरिणाम - रितानां जीवलानां सहकारिकारणावतः कार्यम नां जलस्येव यस्यासौ गमनगुणः । गमने वा गुण उपकारो जीबादीनां यस्मादसौ गमनगुण इति । स्था० ८ ठा० | मत्स्यानां जल व जीवपुलानां गत्युपष्टम्नदेतौ गुणतः पुरुला स्तिकाये, भ० २ श० १० ० । गमणमंगल-गमनम एडल - न० । सूर्यस्य गमनयोग्य भएको, ज्यो० ४ पाहु० । -गमणया - गमनता - स्त्री० । स्वार्थिकस्तुमर्थे ताप्रत्ययः । " गमये लोगमया" गमनागमनाय गन्तुमर्थ गमनतायै गन्तुमिति बान्दसत्वेन तुमर्थे युट् प्रत्ययः । स्था०४०३०० गमयस-गमनस-गमनप्रवणे, रा० गमणागमण - गमनागमन - न० प्रज्ञापकं प्रतीत्यान्यस्थानाहू ग मनमागमनं गन्तुं प्रत्यागतस्य, गमनं चागमनं च गमनागमनम् । नि० चू० ११ उ० । हस्तशताद् बहिर्गमनादौ जीत० | "गमणागमणार परिक्कम हि " ईर्यापथिकीं प्रतिक्रामतीत्यर्थः । म० १२ श० १४० ॥ गमणागमण विहार- गमनागमन विहार- न० । गमनं च नकापर्थमाज्ञयामिः आगमनं प्रत्यावृत्तिविहारका प्रामान्तर्गमनं स्वाध्यायादिनिमित्तं वसत्यन्तर्गमः । समाहारद्वन्द्वः । गमनादित्रिकेयधिप्रतिक्रमविषये पञ्च०१७० गमणिया-गमनिका स्त्री० संचितास्याने स्था० १० जान गमणी-गमनी श्री गमनप्रकर्षसाधिकार्या विद्याधरवि 1 द्यायाम, झा० १ ० १६ अ० । गमय - गमक-पुं० । गमग ' शब्दार्थार्थे, विशे० । गमिय-गमिक न० गम अस्त्यर्थे प्रत्ययः प्रङ्गयुके - तविशेषे, आ० चू० १ ० । जंग-गणिवागपियं, जं सरिगमं च कारणवसे । गाहाइ अगमियं स्वय कायम दिडिवाए वा ॥५४५।। गमाः नकाः गणितादिविशेषाय तदु तत्संकु गमिकम अथवा-गमाः सदृशपाठास्ते च कारणवशेन यत्र बहवो भवन्ति मविप्राय वादे हत्थेपर्यन्ते याद दमत्र संबध्यते । यत्र प्रायो गाथालोकवेष्टकाद्यसदृशपाठात्मकं तदगमिकम् । तचैवंविधं प्रायः कालिकश्रुतमिति गाथार्थः ॥ ५४६ ॥ विशे० । ० म० । वृ० । गमण-गमन - न० | गम-न्युट् । गतौ, शा ०१ ४०१ अ० | मावा०| यदि संयोगविभागकारणे नेयाथिसम्मत दे सम्म २ काएक इंसगत्या चङ्क्रमणे, झा० १ ० ९ ० । अन्यतोऽन्यत्र (दश० ४ ० ) परिभ्रमणे, स० । ( 'विहार' शब्दे गमित प्रदर्शिते उपनीते ते ००१० गमनविधिं, साधूनां वक्ष्यामि) गमननाणि - "पुस्सऽस्मिणि । गमेष्पिण- गत्वा श्रव्य० । अपभ्रंशे यात्वेत्यर्थे,“गमेरेप्पिण्वेप्प्योरे २११ Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमेपिता गयविक्रम सुम्बा " ॥ ८ | ४ | ४४२॥ अपभ्रंशे गमेर्धातोः परयोरेपिशु-पप्पि गयचरणमलण- गजचरणमलन-न० । हस्तिपादैः पीडयित्वा इत्यादेशयोरेकारस्य लुग् वा भवति । इति सोपानावपक्षे "गंग गमेपिणु जो मुश्रइ, जो सिवतित्थ गमेप्पि" प्रा० ४ पाद । गमेस- गवेष था अन्वेषणे अ-रा०म० सेद् "गवेथे दुल्ल-ढंढोल-गमेस - घत्ताः ८ ४ १८६॥ इति गवेषेर्गमेसाऽऽदेशः। गमेस- गवेषयते " प्रा० ४ पाद । प्राणनाशने, स० ।" अ य गयचक्षणमल पणिम्मदिया की - रंति " प्रश्न० ३ माश्र० द्वार । गयजहिपद्वाण- गजजूधिकस्थान-१० वर्ष तिष्ठ ति तादृशे स्थाने, माचा० २ ० ११३० | गयजोव्वण- गतयौवन-त्रि अतिकान्तद्वितीययसिद्ध प्राय इत्यर्थः । पं० व० १ द्वार | 1 I गम्यधम्म- गम्यधर्म पुं० लौकिक धर्मभेदे, स च यथा दक्षिणामाया उत्तरापथे पुनरगम्या दश० अ० ग्राम्यधर्म-पुं० [प्राम्यस्प प्राकृतम्य दाजिकादयमः । व्ययाये, मैथुन, वाच० । गणगड-गगनगति-पुं० बसवनगर पसिगगनमण्डअनुप दर्श K ( ८४२ ) अभिधानराजेन्द्रः । गम्ममाण - गम्यमान - त्रि० । गम्-कर्मणि यक्, शानच् । “ग मादीनां द्वित्वम्" | ८ | ४ २४६ । इति कर्मणि अन्त्यस्य द्वित्वम् । प्राप्यमाणे, प्रा० ४ पाद । गम्यागम्य विभाग गम्यागम्प विजाग - पुं० । गम्यागम्ये लोसेवन परिहाररूपः विषयनियमने “गस्यागम्यविभागं, त्यक्त्वा सर्वत्र वर्तते जन्तुः” । पो०४ विव गय - गज-पुं० । स्त्री० । गजभेदे, अच् । हस्तिनि, तं० । दश० । पिं० | प्रब० । श्र० । " सायं सत्तमं गश्रो " । अनु० । गजसुकुमाले, अन्त० ३ वर्ग । - त्रि० । व्यवस्थिते, स्था० १० ठा० औ०। स्थिते, मनोगतं गतमनसि स्थितमिति । उ० १ श्र० । झा० आ० म० । प्राप्ते, उत्त० १६ अ० । सूत्र० । श्रातु० । प्रवृसे सूत्र० १ ० १ अ० १ ० । प्रविष्ट, स्था० ४ ठा० १ उ० । प्रतीते, समाप्ते, पतिते, बाच० । जावे क्तः । गमने श्राचा० १०३ म० । ० प्र० । रा० । सविलाससंक्रमणे, चं० प्र० २० पाहु० । जी० । गद-पुं० । श्रच् । रोगे, मेघध्वनौ, कुष्ठे, विषभेदे, न० | बाच० । गयंक - गजाङ्क - पुं० | दिक्कुमारेषु श्र० । गायक - गजकर्ण - पुं० । श्रभाषिकद्वीपस्य परतो ऽन्तये, तद्वास्तव्ये मनुष्ये च । जी० ३ प्रति० | प्रब० । उत० | स्था० । नं०] । कर्म० । प्रज्ञा० । ( ' अन्तरदीव ' शब्दे प्र० प्रा० ८९ पृष्ठे प्रदर्शित ) नात मनुष्ये च सूत्र० २५० १ अ० | प्रब० । रायकरेणु - गजकरेणु-राजकमभिकाया ० गयकलन - गजकलन- पुं० हस्तिशावके, रा० । गयगय-गजगत-त्रि००। गयग्गपय-गजाग्रपद - चा० २ ० ३ ० इ-न० | स्वाभिधेयतां प्राप्ते दशार्णकूटे, आ गयणमएस-गगनमएल पुं० [स्वनामस्यान गरराजे वर्श० गयदंत- गजदन्त-पुं० । करिदन्ते, रा० ज्येष्ठाया गजदन्त संस्थानम् । जं० १ वक्ष० । गयदंतसमाण - गजदन्तसमान त्रि० गजदन्ताकारे, रा० गयपंति - गजपरिक स्त्री०कमव्यवस्थित हस्तिसमूहे, २०१६ श०६ ४० । गयपतिया - गतपतिका - स्त्री० । विधवायाम, औ० । गयपुर- गजपुर-न० कुदेशप्रधाननगरे हस्तिनापुरे, प्रा० १० प्रथ० । भाव० । कुरुजनपदाने नगरे यत्र बहुपुत्र मनसुतः श्रेयानासीत् । प्रा० म० प्र० । प्रज्ञा० । “ गयपुरं च कुरु" सूत्र० १० ५० १४० । "आकरः सर्ववस्तूनां, देशोऽस्ति कुरुनामकः । समुद्र इव रत्नानां गुणानामिव सज्जनः ॥ १ ॥ पुरं पुरं तत्र महोर्मिभिः। सदैव नर्मदा जज्ञे, नूनं या दृश्यतेऽधुना ॥ २ ॥ तत्र बाहुबलेः पुत्रः, सौम्यः सामप्रभो नृपः । चित्र पद्मा हितानन्दः, शूरस्तीवः प्रतापवान् ॥ ३ ॥ स्तनयस्तस्य यौवराज्यदाऽऽस्पदम् । श्रीमत्यद्यापि विश्वश्री - क्रोडान्तर्यद्यशः शिशुः " ॥ ४ ॥ श्रा० क० ( 'इरिथणावर' शब्दे तत्कल्पो वक्ष्यते ) गयमाइ - गजादि - त्रि० । हस्तिप्रभृतौ उत० ३६ श्र० । गयमारिणी - गजमारिणी स्त्री गुच्छ भेदे प गयमुद - गजमुख- पुं० । शष्कुलीकर्णस्य परतोऽन्तद्वीपे उत्त ३६ श्र० । ('अंतरदीव' शब्दे प्र० भागे ८६ पृष्ठे निरूपितः ) अनार्यदेशभेदे, तद्वासिनि मनुष्ये च । प्रब० १४० द्वार गयलक्खण- गजलकुल २० दस्तिपरिज्ञानात्मकार्या पञ्चत्रिंशत्कलायाम, जं० २ वक्ऋ० | सूत्र ० | झा० | कल्प० । स०| गयवर - गजवर - पुं० । गजेन्द्रे, " गयबरकरसरिसपीचरोक " जपतोत्पतिः शैलस्यैवम गर्व दशार्णस्य तु शक्रः समागतः ॥ १८ ॥ गजेन्द्रारूढ एवाथ, त्रिः प्रादक्षिणयत्प्रम् । ततो दशास्ये तत्पदान्युत्थितान्यगं ॥ १०५ ॥ देवानुभावास्थातोऽथ गजेन्द्र इत्यसी । सस्मिन्महामुनिमेकं प्रत्यास्याय दिवं यदी" ॥२०॥ भा० क० गयविकम-गजविक्रम पुं० मतगजीकायाम, पूर्वाषाढाचा अ० चू० । प्राच० ० म० । ” । गजविक्रमः स्थानम् । जं० १ वऋ० । कल्प० २ कण 1 गयवरपत्थंव-गजवरमार्थयमान मतङ्गजान् प्रार्थयमा मे तुमारोऽभिमत शके तच्छीले प्र ३ आश्र० द्वार । Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयत्रीही मयबीड़ी - गजवीधी-स्त्री० । गजसंज्ञके त्रिभिर्नत्रैरुपलकि शुक्रादिमहाग्रहचारक क्षेत्र भागे, स्था० एठा० । गयसंघाट - गजसङ्कट- पुं० हस्तियुग्मे, जं० १ धक्क० । गयसस - गजश्वसन - पुं० । हस्तिशुण्डादपमे, "गयस सरासुजायसन्निभोरू” गजश्वसनस्य हस्तिनासिकायाः सुजातस्य सुनिनस्य सन्निने सरशे ऊरू जङ्गे यस्य स तथा । "समुग्गणिमगूढजाणू” समुङ्गः समुप्रकाख्यभाजन विशेषस्य, तत्पिधानस्य च सन्धिः, तद्वन्निमग्नगूढे अत्यन्तनिगूढे मांसलत्वादनुनते जानुनी प्रष्ठीवती यस्य स तथा । मौ० । गयसाझ - गजशाल - न० दक्तिशालायाम, नि०यू०८ उ० । गय सिरीय - गतश्रीक त्रि० । निःशो, ज० श० ३३ ४० । (८४३) अभिधानराजेन्द्रः । सहवाइ ( ) - गजसिंहवादिन् पुं० । इन्द्रभूतिना सह बीप्रभोरन्तिकं गतै वादिनि, कल्प० ६ क्षण । गयमुकुमाल - गजमुकुमार - पुं० । विष्णो घुभ्रातरि सहि भग वतोऽरिष्टनेमिजिननाथस्यान्ति के प्रब्रज्यां प्रतिपद्य श्मशाने कृतकायोत्सर्गन्त्रण महातपाः शिरोनिदितजाज्वल्यमानाङ्गारजनितात्यन्तवेदनोऽल्पेनैव पर्यायेण सिद्धिमाप्तवानिति । स्था०४ डा० १ उ० । तद्वक्तव्यता चैवम् जति क्वेवो मस्स २ एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समरणं वारवतीए यरीए जहा पढमे० जान अरहा रिट्ठनेमी समोसढे । तेणं कालेणं तेणं समए - रहारिने मिस्स अंतेवासी छ अणगारे भायरो सदोदरा होत्या, सरिसया सरितया सरिवया नीलुप्पलगत्रलगुलियम सी कुसुमप्पगासा सिरिवच्छंकियवच्छा कुसुमकुंरुलद्दलया नलकूवरसमाया, तते णं से व अणगारा जं चैव दिवस मुंडा जविता अगारातो प्रणगारिया पव्वइया तं rai र अडिनेमिं वदति, नमसंति, नमसित्ता एवं बयासी - इच्छामो णं जंते ! तुज्जेहिं अन्भणुमाया समाना नावजीवाए छ छडेणं प्रणिक्खितेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरित्तए । अहासुहं देबाखुपिया ! मा पडि० । तते णं ते व अणगारा अरहा अरिङनेमिया अन्यछाता समाणा जावजीवाए बडं बट्टे अपिक्खिते तत्रो कम्मेण जात्र विहरंति, तते णं ते अणगारा या कयाती दुखमणस्स पारणयंसि पढमाए पोरसीए सजायं करेंति । जहा गोयमो० जाव इच्छामो एवं उट्ठक्खम स्स पारण तुज्जेहिं अन्यगृछाया समाणा तर्हि संघाडएहिं वारवतीए यरीएजाब अत्तर अहासुहं, तते खं ते अणगारा रहतो अरिनेमिया अन्याया समाणा भरदं द्विनेमिं वदति, नमसंति, अरहतो अरिष्ट्ठनेमिस्स अंतिया सहस्त्रवणाओ पडिनिक्खमंति, परिनिक्खमित्ता तिर्हि संघा कहिं अतुरिता ० जाव अडंति, तत्थ एवं एगे संघा गयसुकुमाल डर वारवती रायरीए उच्चनीचमज्जिमाई कुलाई घरसमुदास्स भिक्खायरियाए अरुमाणे वसुदेवस्स रो देवतीए देवीए गिहिं पविडे, तते णं सा देवी एते अणगारे एज्जमाणे पासति पासिता ढण्जाव हियया आसणाओ अन्भुट्टेति, अन्त्ता सत्तट्टपयातिं तिक्खुत्तो प्रायाणिपयाहिणं करेति, करेतित्ता वंदति णमंसति, वंदित्ता नमसित्ता जेणेव भतघरे तेणेव उवागच्छति, जवागच्छतित्ता सीह केमराणं मोगाण थालं भरेति, थालंजरेतित्ता ते अणगारे पहिलाजेति, मिलानेतित्ता वंदति, एमंसति, वंदित्ता एमंसित्ता पडिविसज्जैति, तदा तरं च ां दोचे संघाडए वारवतीए एयरीए उच्च० जाव विसज्जेति, विसज्जेतित्ता तदा तरं च णं तचे संघार वारवतीए एयरीए उच्चनीच० एवं व्यासी-किं णं देवापिया ! कस्स वासुदेवस्स इमीसे वारखतीए णयरीए व जोय प्रो० जात्र पञ्चक्खदेवलोयया य समणा निग्गंथा उच्चनीच० जाव अम्माजा भत्ताणं णो लभति, तेण ताई चैव कुलाई जत्तपाore ओप्पविसंति, तते णं ते अणगारे देवतिं देवि एवं वयासी-लो खलु देवा! कएहस्स वासुदेवस्स इमीसे वारवती यरीए० जाव देवलोयनूयाणं समणा णिग्गंथा उच्चनीच० जाव श्रममाणा जनपाणं को लनंति, णो चेन ताई चैत्र कुलाई दोच्चं पि तचं पि जत्तपाणाए अणुप्यविसंति । एवं खलु देवाणुपिया ! ब्रम्ह नद्दलपुरे गरे रागस्स गाहावतिस्स पुत्ता मुलसाए जारियाए अत्तयाए atri सोरा सरिया० जाव नलकुबरमाणा अरहो afts मिस्स अंतिए धम्मं सोच्चा संसारन उब्विग्गा भीया जममरणाएं मा० जाव पव्वइया, ततेां अम्हे जं चैव दिai पतिता तं चैत्र दिवस अरहं रिट्ठनेमिं वंदामो, णमंसामो, इमं एतारूवं अचिग्गहओ गेएहामो, इच्छामो,तुज्जे अग्भणुमाया समाणा० जाव महासुहं, तते णं हे अरहो मिस्स अन्यणुमाया समाणा जावजीवए ब बट्ठे० जाव विहरामो, तं अम्हे अज्ज दट्ठक्खमणपारणयंसि पढमाए पोरिसीए स० जाव प्रममाथे तव गेहं अणुविडा, ते को खबु देवाणुपिया ! तच्चेव णं श्रम्हे अम्हे अने एवं निंदेति, एवं वदति, वदंतित्ता जामेव दिसं पाउब्या तामेव दिसं पडिगया, ततेां से देवतीए देवीए अयमेयावे अन्नत्थीए समुप्पच्छे एवं खलु अहं पालासपुरे गरे अतिमुत्तेणं कुमारसपणेणं वालत्तणे वागरिया म्हं देवापिया ! अपुत्ते पयाइस्स सिरीसए० जाव णलकवरमाणे णो चैव णं जारहे वासे अणाउयं मयाओ तारिसए पुतेयाइ पोस्तंति, तं णं मिच्छा इमे पञ्चकखमेव दिसती जारहे वासे प्रणावित्र्यं मया खलु सरिसए For Private Personal Use Only Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) गयसुकुमाल अभिधानराजेन्दः। गयसुकुमाल जावपुत्ते पयायानो,तं गच्छामि णं अरहं परिहनेमि वंदामि, | णित्ता सुचिरं निरिक्खति,निरिक्खइत्ता वंदति, नमसति, न. णमंसामि, इमं च णं एयारूवं वागरेणं पुच्चिस्सामि त्रि- मंसइत्ता जेणेव अरहा अरिष्टनेमिस्स तेणेव उवागच्छति, रकडु एवं संपेहेति,संपेहेतित्ता कोडंवियपुरिसे सद्दावेति, सद्दा. वागच्छतित्ता अरहं अरिहनेमि तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं बेतित्ता एवं वयासी-बहुकरणजाणपवरं जाव उपवेति, करेति,करेतित्ता वंदति,णमंसति.तमेव धम्मियजाणपवरं प्रोजहा देवाणंदाए जाव पज्जुवासति, तं अरहा अरिहनेमी रुहति, अोरुहतित्ता जेणेव वारवती णगरी तेणेव उवागच्चदेवई देवि एवं क्यासी-से गुणं तब देवई इमे - अणगारे | ति, नवागच्छदत्ता वारवति एयरिं अणुप्पविसति, आप्पविपासंति, अयं अन्नत्यिअंधा एवं खल अहं पालासपुरे | सतित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव वा हरिया उचट्ठाणसाला णयरे अतिमुत्तेणं तं चेव० जाय णिग्गच्चित्ता जेणेव ममे | तेणेव नवागता, धम्मियाओ जाणपवरात्रो पच्चोरुहति, अंतिए तेणेव इन्चमागया,से णणं देवई अत्थे समत्थे । ईता पचोरुहतित्ता जेणेव सए वासघरए जेणेव सयाणिज्जे तेणेच अस्थि । एवं खलु देवाणप्पिए । तेणं कालेणं तेणं समरणं नवागच्चति, उवागच्छतित्ता सयंसि सणिज्जंसि नीसियंभद्दलपुरे णगरे णागे णामं माहाक्ती परिवसइ, अहे तस्स | ति,तीसे पं तते देवतीए देवीए अयं अब्जस्थिते व समुप्पपणागस्स गाहावती मुलसा णामं भारिया होत्था । तं सा हो एवं खलु अहं सरिसए.जाव णलकूवरसमाणे सत्तपुत्ते मुलसा गाहावती बालत्तण चेव निमित्तिएणं वागरिया, पयाया, नो चेव णं मए एगस्स वि वालत्तणए समुन्नए, एस एं दारियाणि दुनविस्सति, तते णं सा मुनसा वाल- एस वियणं कण्हे वासुदेवे छएहं श्मासाणं मम अतीयं पायं पजिति चेव हरिणेगमेसि देवभत्ती यावि होत्या, हरिणेग- वंदति, हव्वमागच्छति,ते धमाओणं ताओ अम्मा० ४ जीमेसिस्स देवस्स पणामं करेति, करेतित्ता कबाकविं से मम्मे णियगकुच्चिसंन्याइ थणमुरासुरूयाई महुरसएहायाजाव पायच्छित्ता उद्बगपमसाडया महरि पुष्फञ्च- मुद्वावयाइ मम्मयपपियाइ थाणमूलक क्खदेसजागं श्रएं करेति, जाणुपायपमिया पणामं करेति, करेतित्ता ततो निसरमाणा मुद्धं याति,पुणो य कोमलकमलोवमेहिं हत्येपच्छा आहारं ति वाणीहारं ति वा करेइ, करेतिता तेणं | हिंगिएहतीप्रोणं उच्छंगनिवेसियाई दंति,समुद्मावते सुमहुरे तीसे सुलसाए गाहावणीए नत्तिबमाणसुस्सूसाए हरिणे- पुणो पुणो मंजुलप्पजाणिते, अह णं अधमा अपुछा प्रकगमेसी देवे आराहिए यावि होस्था । तते णं से हरिणेगमे यपुम्मा एत्तो एकतरमविन यता उबढ़य० जान क्रियायति, मं सी देवे सुलसाए गाहावतिणीए अणुकंपणहाए सुनसं गाहा- चणं कएहे वासुदेवे एहातेजाव विनासते देवतीए देवीए वइणी तुमं च णं दोणि वि सममेव सगन्जयाओ करेति, सते | पायं वंदति, हब्वमागच्चति,तते णं से कण्हे वासुदेवे देवति णं तुज्के दो वि सममेव गम्भे गिएडेड, गिडेहइत्ता सममेव । देवि पासति,उवहत जाव पासित्ता देवतीए देवीए पायग्गहणं गन्ने परिवहह, सममेव दारए पयाया, तते णं सा सुलसा करेंति,करेंतित्ता देवतिं देवि एवं वयासी-अमया णं अम्मो ! गाहावाणी विणिहायमावळे दारए पयाविति,तते से हरि- तम्हे ममं पासित्ता हडजाव भवह,कि एणं अम्मो मज तुम्हे ऐगमेसी देवे सुलसाए गाहावणीए अणुकंपणहाए विणि- मोहयज्जाव कियायही तते णं सा देवती देवी कएहं वासुडायमाणे दारए करयलसंपुढं गेण्ड, गेहता तब अंतियं देवं एवं क्यासी-एवं खनु अहं पुत्ता!सरिसए० जाव नलकमाहरए, साहरएत्ता तं समयं च णं तुमं पिपवरह मासाणं वरसमाणा सत्तपुत्ते पयाया, नो चेव णं मए एगमवि वालसुकुमालदारए पसवसि,जे वि अणं देवाणुप्पियाप! तव प्रत्ता ताणे अजूते, तुमं पिय पं पुत्ता ममं नएहं २ मासाणं ते वि य तब अंतियातो करयलपुमेणं गेएहंति, गेएहत्ता अंतियं पायं वंदए, हव्यमागच्चसितं धम्मामोणं ताओ मम्मसुलसाए गाहावणीप अंतिए साहरइ,तर चेवणं देवतीए यामोजाव क्रियामि,तं से कराहे वासुदेवे देवतिं देवि एवं ते पुत्ता नो मुलसाए गाहावणीए पुत्ता, तते णं सा देवई वयासी-माणं तुम्भे अम्मो! ओहय०जाव कियायह,अहणं तदेवी अरहो अरिट्टनेमिस्स अंतिए एयमढे सोचा निस- हा वत्तिस्सामि जहा एणं ममं सहोदरं कणीयसे भाउए नरिम्म हहतुट्ठ० जाव हियया अरई अरिहनेमि वंदति, मंस- स्सति त्ति कटु देवतिं देवि ताहिं इटाहिं वग्गेहि समासाति, नमसत्ता जेणेच ते उ प्राणगारा तेणेव उवागच्छति, सेति, समासासित्ता तओ पडिनिक्खमति, पडि निक्खमतित्ता उवागच्छत्तिा ते छप्पिय अणगाराणं बंदति, नमंसति, नम- | जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छति,उवागच्चतित्ता जहा सइत्ता आगयपद्धेया पप्फुतलोयणा कंचुयपमिकिवत्तिया अभओ। णवरं हरिणेगमेसियस्स अट्ठमभत्तं पगिएहति जाय दरितवलियवाहा धाराइतकलंवपुप्फगं पि व समुसियरोमकूवा अंजलि कटु एवं क्यासी-इच्छामि णं देवाणुप्पिया! सहो. ते प्पि य आगारा अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणा. पेहमा- दरं कणीयसं जानयं विदिम, तते णं हरिणेगमेसी वाम Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४५) अभिधानराजेन्द्रः | गयसुकुमाल देवं कएवं एवं व्यासी- दोडिति णं देवा तव देवलोयचुति) यासां मन्ये इति सहोदरए कहीय भाउ से सम्मुक भाव पचो अरहो अरिनेमिस्स अंत मुंडे जा पञ्चस्सति, कादं वासुदेवं दोघं पितचं पि एवं वयासी- जामेव दिसं पाउन्नूए तामेष दिसं पडिगए तते यां से कर वासुदेवे पोसहसालातो पढिनिग्गता शेव देवती देवी तेथेव उनागच्छति, उन्नागच्छतिना देवती देवीए पायग्गहणं करेति, करेतित्ता एवं क्यासी-होहिति अम्मो ! मम सहोदरे कणीय से भाउ ति कट्टु देवति देविं साहिं हार्दिजाव आसासेति, आ सासेतिया नामेत्र दिसं पाउन्नूते तामेव दिसं पचिगते । ( जइ उक्खेबो त्ति ) " ज ण भंते ! अंतगडदसाणं तच्चस्स वग्गल सत्तमस्ल अज्जयणस्स श्रयमट्टे पत्ते " (अमस्स ति) "अट्टमस्स भंते! के अट्ठे पत्ते अमस्स णं श्रयमठे पनते" इत्युपक्षेपः तत एवं खादरियस) 3 शाः समाना [ सरितयति ] यः सरित] स सृग्वयसः, नीलोत्पलगवल गुलिकाऽत सीकुसुमप्रकाशाः, गमादि अतसी धान्यविशेषः, श्रीबरसासः कुसुम पूरक पुष्पलमानाकृतिक र्णानरणं तेन भद्रकाः शोभना ये ते तथा, तावस्थायं विशेषणं न पुनरनगारायस्याश्रयमिदमित्येके । अन्ये पुनरादर्भकुसुमद्रः सुकुमाका इत्यर्थः । त तु बहुश्रुतगम्यम् । नलकूवरसमाना वैश्रवणपुत्रतुल्याः, इदं च तो देवानां पुत्रा न सन्ति (जंचे दिव सं) यत्रैव दिवसे मुम्मो भूत्वा अगाराद् अनगारितां प्रत्रजिताः ( तं चैव दिवसं ति ) तत्रैव दिवसे (कुलाई ति) गृहाणि (भुजो २ ति ) भूयो भूयः पुनःपुनरित्यर्थः ( लघुकरपोत) लघुकरादिवर्णकयुक्तं वानप्रवरमुपस्थापयन्ति । (जा देवदास) जगदिता यथा देवानन्दा नग महावीरप्रथनमाना गता तथेयमपि भणनीया (निंदु ति) मृतप्रमविनाने यत्र पडण्यनगाराः तत्रोपागच्छति, तांश्च सा वन्दत ( आपण ति ) आगतवस्त्र वा पुत्रस्नेहेन स्तनागतस्तन्या ( पप्फुल्ललोयण सि) प्रफुल्ले श्रानन्दजलेन लोचने यस्याः सा तथा परिचित) परिको पिकिमो विस्तारित इत्यर्थः कम्बुको परवाणः हर्षातिरेकीभूतशरीरया वया सा तथा वादिमा स्वा स्टेट की बाजी बखाः सा प्राकृताचे दरव बाड़ा (धारापुपि समुरियरोमकृवा चाराजलधाराभिरादतम यत् कदम्बपुष्यं तसि रोमाणि कूपकेषु यस्याः सा तथा ( श्रयमम्भस्थिर त्ति ) इहैवं हम अयमेवाविति परिचते मणोगए संकप्पे समुपज्जिया ) तत्रायमेतत्रूप अभ्यर्थितः चिन्तितः स्मरणरूपः प्रार्थितोऽनित्रापरूपी मनोगतो मनोविकाररूपः संकल्पो विकल्पः समुत्पन्नः। धन्नाओ गं ताओ" इत्यादि । धन्या धनमर्हन्ति वत्स्यन्ते वा यास्ता धन्याः ता इति यासा मित्यपेक्षया श्रम्बाः स्त्रियः पुण्या पवित्राः कृतपुष्पाः कृत सुकृताः कृतार्थाः कृतप्रयोजनाः कृतलकणाः सफलीकृत लकवणः (जासिं २१२ गयसुकुमाल 9 नितः निजकुक्षिभूतानि किम्भरूपाणीत्यर्थः । स्तनडुग्धे लुब्धानि यानि तानि तथा, मधुराः समुद्वापाः येषां तानि तथा मन्मनमव्यक्तमीपत्र संवलितं प्रजल्पितं येषां तानि तथा स्तनमूलात् कक्षा देशनागमनिसरन्ति, मुग्धकान्यव्यक्तविज्ञानानि नवन्तीति गम्यते । पुनश्च कोनलकम सोया दाही उत्सङ्गनिशि तिसाद सुमधुरान् पुनः पुनः मणितान् मज्जुनं मधुरं प्रभणिते भणितिः येषु ते तथा तान् घ्ह सुमधुरा नित्यभिधाय यन्मज्जुल प्रणितानीत्युक्तं तत् पुनरुक्तमपि न पुष्टं, सम्भ्रममणितत्वादस्येति । (पत्तो त्ति) विभक्तिपरिणामापाविशेषणमिम्भानां मध्यात् एकतरमपि श्रन्यतरविशेषणमपि डिम्भं न प्राप्ता इत्युपहतमनःसङ्कल्पा भूमिगत टिका करतपर्यस्तमुखात (नहात्तिस्थामिति (जियसेतिया घुरित्यर्थः (जहा अनोस) यथा प्रथमे ने अजयकुमारोऽएवं कृतवानेवमयमपीति, नवरं केवलमयं विशेषः -- अयं हरिणेगमेपेिण श्राराधनाय अष्टमं कृतवान् स तु पूर्वसम्मतिकस्य देवस्येति (वितियां ति) विस्तीर्ण दत्तं युष्मामिति अन्त० ४ वर्ग । , तं सा देवई देवी या कथाई तंसि तारिसगंसि० जाव सीहं, सुमिणे पासित्ता णं परिबुद्धा० जार हतुहियया गजं परिवहति। तते णं सा देवती दे वी व मासा० जाव सुरजपुत्री विलक्खारससरसपारिजाततरुण दिवाकरसमप्पनं सव्वाणमुकु माझं जान सरूवं गयतालुयसमाणं दारयं पयाया, जमणं जहा मेहकुमारे० जाव, जम्हाण अम्हं इमे दारए गयताबुयसयाणे तं होऊणं म्हं एयस्त दारगस्स नामवेज्जे गकुमाझे, तते ते सदारगस्त अम्मा पिरो नाम कथं ग परिवसति " O कुमालोत्ति, सेसं जहा मेहे० जात्र अलं भोगसपत्ये जाते याच होत्या । तते वारवतीय जयरीए सोमले नाम मा उच्यना सुपरिनिहिते या होत्या वस्तु सोमिलस्साहस मोमसिरी का माहनी होत्या, सुकुमान० तस्म णं मोमिलस्स घ्या सोमसिरीए माहणीए अथवा सोमा नामंदारिया होत्या, सुकुमाल जा सुरूवा, रुवोणय जोवणेण य०जाब लात्रमेण य उकिडा उ कसरीरे यादि होत्या, तते सा सोमा दारिया अलवा कया एहाया० जाव विनूसिया बहुहिं खुज्जाहिं० जात्र पपिता सयाओगिहातो मिनिमति, पमिनिक्खमतित्ता नेणेव रायमग्गे ते उत्रागच्छति, उवागच्छतित्ता रा यस गए उसपूर्ण कीलमाणी २ चिह्नति तेणं hi अरहा मी समोसढे, परिसा निग्गया, तते सेक वासुदेवे इमसे कहाए बट्टे समाणे एहाए० जा Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) गयसकमास . अभिधानराजेन्द्रः। गयसुकुमाल विजूसिते गयसुकुमालेणं कुमारेणं मदि हस्थिकंधवरगते महाकासंसि सुसाणंसि एगराश्यं महापमिमं नवसंसकोरंटमस्सदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं सेयवरचाम-1 पजित्ता णं विहरति, ते अहामहं देवाणुप्पिए ! तते राहिं उद्धवमाणीहिं वारवतीए एयरीए मकं मझेण अ- णं गयअणगारे अरहा अरिहनेमिस्स अन्भणुमाया रहो अरिहनेमिस्स पायदए, निग्गच्छमाणे सोमं दारियं समाणे अरहं अरिट्टनेमि वंदति, नमंसति, नमसतित्ता पासति. पासतित्ता सोमाए. दारियाए रूवेण य जोवणेण य अरहतो अरिहनेमिस्स अंतियाओ सहसंववणाओ नज्जालावणोण य० जाब विम्हिए, तए ण कएहे वासुदेवे कामुं. णातो पमिनिक्खमति, पमिनिक्खमतित्ता जेणेव मद्यकाने वियपुरिसे मद्दावेति, सहावेतित्ता एवं वयासी-गच्छह णं सुमाणे तेणव उवागच्चति, नवागच्चतित्ताथमिवं पमिलेतुज्झे देवाणुप्पिया! सोमिलं माहणं जाचित्ता सोमदारिया | हेति, उच्चारपासवणनूमि पमिलेहेति, शसिं पन्नारगगिण्हह, तं कमंऽतेनरांस पक्खिवह, ततै णं से एसा गय- तणं० जाव दो वि पाए साइट्ट एगराश्यं महापसुकुमालस्स कुमारस्स नारिया जविस्सति,ते कोमुवियजाव णिमं नवसंपजित्ताणं विहरति, इमं च णं सोमिले मापक्खिवंति, तए णां से काहे वासदेवे वारवतीए नयरीए मऊ मामियम अटाए वापतीमो नारीको शित. मझे निग्गच्छति, निग्गच्छतित्ता जेणेव सहसंबवणे० व्वं निग्गते समिहाश्रो य दब्जे य कुसे य पत्तामोमं च गेणहनि, जाव पज्जुवासति, तते एं अरहा अरिहनेमी काहस्स गेएहतित्ता तो पमिनियत्तइ, पमिनियत्तइत्ता महाकालवासुदेवस्स गयमुकुमालस्स कुमारस्स तीसे य धम्मकहा स्स मुसाणस्स अदूरसामंते णं वीयीवयमाणे संकाकालकामे पमिगते, तते णं से गयमकुमाले अरहा अस्टिनेमिस्स समयसि पविरलमाणुस्संसि गयमुकुमाझं अणगारंपासति, पाअंतियं धम्मं सोचा जाव णवरं देवाणुप्पिया! अम्मापियर सतित्ता तं वयरंसरति,सरतित्ता आसुराते एवं वयासी-एस हां प्रापुच्छति जहा मेहो महोबियावत्यं जाव पट्टियकुल, जोगयसुकुमाले कुमारे अपत्यिएजाव परिवजिते जेण मम तते णं से कएहे वासुदेवे इमीसे कहाए अद्धढे समाणे धूअं सोमसिरीए नारियाए अत्तए सोमं दारियं अदिजेणेव गयसुकुमाले कुमारे तेणेव उवागच्छति, उवागच्चतित्ता हृदोसपतितं कसावत्तिणि विप्पजहित्ता मएमे० जाव गयसुकुमालं आलिंगति, जच्छंग निवेसति,नुच्छंग निवेसति पवाए तं सयं खलु ममं गयसुकुमालस्स कुमारस्स वत्ता एवं वयासी-तुम्हे णं ममं महोदरे कणीयसे भाया तंमा राणिजातमं करतते एवं संपेहति,संपेहतिता दिसापमिहणं ण तुमं देवाणुप्पिया! इयाणि अरहो मुंडे जाव पचयाहि, अहेणं तुमे वारवतीए एयरीए महया २ राधाभिसेएणं करोति, करेतिता सरसं मट्टियं गिराहात, जेणेव गयसुकुमाले अनिसिंचिस्सामि, तते णं से गयमुकुमालेणं कण्हेणं वामु अणगारे तेणेव नवागच्छति, गयसुकुमानस्स अणगारस्स देवेणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठति, तं से गयसुकु मत्थए मट्टियापालिं वहति, वहतित्ता जिझंती नो चिय गाऊ माले कएहे नासुदेवे अम्मापियरो य दोचं तचं पि एवं यासी फुद्धियकिंसुयसमाणे खयरंगारे कमवणं गएहति, गेएहतित्ता एवं खलु देवाणुप्पिए! माणुसयाकामा खेसासवा पीतासवा० गयसुकुमालस्स अणगारस मत्थए पक्विवति,पवित्ववतित्ता जाव विप्पजहियव्वा भविस्संति, तं इच्छामि णं देवाणु जीते ४ ततो खिप्पमेव अवक्कमति, अवकमतित्ता जामेव दिपिया तुज्झहिं अन्जणुमाए समाणे अरहो अरिहनेमि संपाउन्भते तामेव दिसं पमिगए. तते णं से गयसुकुमानस्स अंतिए० जाव पवइत्तए, तते णं ते गयमुकुमाले कण्हे स्स अणगारस्स सरीरगांस वेयणा पाउन्नूया उज्जनाजाव वासुदेवस्स अम्मापिअरो य जाहे नो संचाएति, बहयाहिं दुरहियासा तं से गये अणगारे सोमिलस्स माहणस्समअणुलोमाहिं० जाव आघवित्तए वा परमवित्तए वा सन्न णमा वि अप्पदुस्समाणे तं उज्जलं जाव दुरुपहियासेवित्तए वा ताहे प्रकामाई चेव एवं वयासी-तं इच्छामो ए| ति, तते णं से गयसुकुमाले अणमारे तं उज्जझंजाव - जाया! एगदिवसमविरजमिरिं पासित्ता ते निक्खमणं जहा। हियासेति, सुभेणं परिणामेणं पसत्यप्रकबसाणेणं तयावमहावनस्स० जाव तमाणाते तहाजाव संजमति । ततेणं से | राणिजाण कम्माएं कम्मरयविकिरणकर अपुचकरणं अणुगयसुकुमाझे कुमारे अणगारे जाते रियासमिश्ए० जाव। प्पविट्ठस्स असते अणुत्तरेजाव केवझवरणाणदसणे समुगुत्तभचारी, तते णं से गयसुकुमाने जं चेव दिवसं पव्वतिए प्पने, तओ पच्चा सिद्धेजात्र सम्बदुक्खपहीणे तत्थ णं अतस्सेव दिवसस्स पञ्चावरएहंकालसमयंसिजेणेव अरहा अ- हासन्निहं तेहिं देवहिं समं पाराहित त्तिकह दिव्वे सुराभगंरिष्ठनेमी तेणेव नवागच्छति, उवागच्छतित्ता अरहं अरि-| धोदए वढे दसवणे कुसुमे निवामिते चेबुक्खे वेकते दिवे हुनेमि तिक्वुत्तो आयाहिणपयाहिणं बंदति, मंस- गीयं गंधवनिनाए यावि होत्था। तते णं से काहे वासदेवे ति, इच्छामि गं भंते ! तुम्केहिं अब्जाम्पाते समाणे कचं पाउप्पभायाए० जाव जलते एहाए जाव विभूसिते इ. Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४७ ). अभिधानराजेन्द्रः । गयसुकुमाल त्थिखंधवरगते सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणे सेयवरचमाराहिं उद्भुवमाणीहिं २ महया भमचमगपहकरचंदपरिक्खित्ते वारवति नगरिं मज्जं मज्जेणं जेणेव अरहा - रिनेमी ते पहा रथगमलाए. ततेणं से कहे वासुदेवे वारवतीए नगरीए मज्झ मज्जेणं निजेणं निग्गच्छमाणे एवं पुरिसं पासति जुषं जराजज्जरियदे० जाव किल्लेतं महमदावाओ इट्ठगरासीओ एगमेगं गं गढ़ाय वहिया रत्यापहातो तोगिनं अणुप्पविमाणं पासति, पासतित्ता तं से कहे वासुदेवे तस्स पुरिसस्स अणुकंपण्डाए हस्थिधवरगते चेत्र एवं इट्ठगं गेएहति, गेएहतित्ता बहिया रत्थपहातो तोहिं अणुपविसति, तते णं कद्देण वासुदेवेण एगाए गए गहियाए समाणीए प्रोगेहिं पुरिमा से महाल इरासि वहिया रत्थपहातो अंतोघर सिं विसिए, तते से कहे वासुदेवे वारवतीए नयरीए म मज्भेणं निग्गच्छति, निगच्छतित्ता जेणेव रहा अरिट्ठनेमी तेणेत्र उवागच्छति, उवागच्छतित्ता० जाव वंदति, नमसति, नम॑सतित्ता गयसुकुमाचं अणगारं असेसमाणे अरइंडिनेमिं वदति, नमसति, एवं क्यासी - काह णं जंते! से ममं महोदरे कणीयसे माया गजसुकुमाले अणगारे, जं एं अहं वंदामि, नम॑सामि, तते णं अरहा अरिट्ठनेमी कएहं वासुदेवं एवं वयासी - साहितेां कण्हा ! गयसुकुमालेणं अलग पण अहो, ततेां से कहे वासुदेवे अरहं अरिट्ठनेमिं एवं वयासी - कहां भते ! गयंसुकुमाले अणगारे साहितो अप्पणी अहो ? । तते गं से अरहा अरिट्ठनेमी के एह वासुदेवं एवं खलु कहा गयमुकुमालें अणगारेणं मम क लं पश्चात्ररएडकालसमयंसि बंदति, नम॑सति, नम॑सतित्ता एवं वयासी - इच्छा० जाव उवसंपज्जित्ता णं विहरति, तते णं तं गयमुकुमारं अणगारं एगे पुरिसे पासति, पासतित्ता आसुरु ० जाव सिके; तं एवं खलु कहा गयसुकुमाले एवं अणगारे - णं साहितो पण अट्ठो; तते गं से कएढे वासुदेवे अरहं श्र रिनेमिं एवं बयासी-से केणं भंते! से पुरिसे अप्पत्थिय० जात्र परिवज्जेते, जेणं ममं सहोदरं कणीयसं जायं गयसुकुमालं गारं काले चैव जीविया ववरोविति, तते गं अरहारिनेम कहं वासुदेवं एवं व्यासी-मा णं कहा ! तुमं तस्स पुरिसस्स पदोसमापज्जादि, एवं खलु कएहा ! ते पुरिसेणं गयमुकुमालस्स अणगारस्स साहिज्जे दिखे। कं णं जंते! तेणं पुरिसेणं गयसुकुमालस्स साहिज्जे दिष्छे । तं रामहं वासुदेवं एवं बयासी से णू कड़ा ! तुमं ममं पायं वंदिनं हन्त्रमागच्छ्रमाणे वारवईए एयरी एवं पुरिसं पासति जाव अणुष्पविसति, जहा एां कहा ! तुमेतस पुरिसस साहज्जे दिछे, एवामेव कएहा ! तेणं गयसकमाल पुरिसें गयसुकुमालस्म अणगारस्म गभवनयम हस्स संचियं कम्पं उदीरमाणे बहुकम्पणिज्जरत्थं साहज्जे दिसे । तणं से कहे वासुदेवे अहं अरिनेमिं एवं वयासीसेणं जंते! पुरिसे मए कई जाणियन्त्रे । तर गं अरहा मी सकडं वासुदेवं एवं वयासी जया णं कण्ढा ! तुमं वारवतीए एयरीए प्रणुपविसमाणे पासित्ता ठितए चैत्र वितरणं कालं करिस्सर, तं ने तुमं जन्णेज्जासि, एस पुरिसे। ततेां से करढे वासुदेवे रहं अरिनेमिं - दति, नम॑सति, जेणेव आजिसेयं हत्यिरयणं तेव उवागते, effroad रुतित्ता जेणेव वारवती णयरी जेव सए गिहे तेणेव पहारत्यगमणाते तं तस्स सोमलस्स माइणस्स क० जाव जयंते अयमेयारूवे अज्जत्थिते ४ समुप्प। एवं खलु कहे वासुदेवे र रिनेमिं पाय वंदते निग्गए, तं णायमेयं रहा, विसायमेयं अरहा, सुतमेयं भरदा, सिद्धमेयं रहा जविस्सति, कएहस्स वासुदेवस तं न नज्जति कण्हे वासुदेवे ममं केरण वि कुमारे मारिस्सति तिकट्टु जीतो ४ सयातो गिहातो पमिनिक्वमति, पढिनिक्खमतित्ता कएहस्स वासुदेवस्स वारवर्ति पविस्समाणस्स पुरतो सियपक्खि सपनिदिसिंहमागते, ततेां से सोमले माहणे कहं वासुदेव सहसा पासिता भीता ४ जितिए चैव वितिनेदेणं कालं करेति, रणसि सव्वंहिं सति सन्निवदिते । तते गं से कएहे वासुदेवे सोमलं माहणं पासति, पासतित्ता एवं क्यासी-एसणं जो देवापिया ! सोमले माहणे अपत्थियपत्थिते ० जाव परिवज्जिते, जेणं ममं सहोदरे कणीयसे मायायसुकुमाले अणगारे अकाले चैव जीविताओ ववव चि कट्टु सोमिलं माहणं पाणेहिं कढावेति, तं भूमिपाणएणं अक्खावेति, जेणेव सर गेढे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छतित्ता सयं गेहं अणुप्पविट्ठे । एवं खलु जंबू ! तेां कालेणं तेणं समयं वारवतीए नगरीए जहा पढभए० जाव विहरति । "तसि तारिसयांस" इत्यादौ यावत्करणात् शयनादिस्य वर्णकी साद्यन्तौ (सुमिणे पासित्ताणं परिबुद्धा० जाव इति) इतो यावत्कराष्टतुष्टा स्वभावग्रहं करोति, शयनीयात् पादपीठाचा रोहति राज्ञे निवेदयति । स तु पुत्रजन्म तत्फलमादिशति ' पाठग त्ति' स्वपाठक शकुनिकानाकारयति तेऽपि तदेवाऽऽदिशन्ति, ततो की तदादिष्टमुपश्रुत्य ( परिवहइ सि ) सुखं सुखेन गर्भ परिवदतीति द्रष्टव्यमिति । ( जवसुमित्यादि ) जपा वनस्पतिविशेषः, तस्य सुमनसः पुष्पाणि, रक्तबन्धुजीवकं लोहितबन्धुकं, पञ्चवर्णमपि भवतीति रक्तग्रहणम्, लाकारसा यावकरसः, सरसपारिजातकम्, अम्बानसुरद्रुमविशेष कुसुमं. तरुण दिवाकर दद्दिनकरः, एतैः समा एतत्प्रज्ञातुस्येत्यर्थः ; प्रभा वर्णो यस्य स तथा रक्त इत्यर्थः । तं सर्वस्य जनस्य नयनानां कान्तः For Private Personal Use Only Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) गयसुकुमाल अभिधानराजेन्सः । कमनीयोऽनिलषणीय इत्यर्थः। सर्वनयनकान्तस्तं (सुकुमाल त्ति) कमरजाधियोजकम् ( अपुवकरणं ति) अष्टमगुणस्थान'सुकमालपाणिपायमित्यादि' वर्णको दृश्यः यावत् सुरूपमिति ।। कम [ अणते ] इह यावत्करणादिदं दृश्यम्-"अणुत्तरे नि(गयतालुयसमान) कोमलत्वरक्तत्वाभ्यां (रिवब्वेय इत्यादि) ब्वाघाए, निरावरणे कसिणे परिपुम्मे त्ति" सिद्धे इह यावत् ऋग्वेद-यजुर्वेद-सामवेदा-धर्वणवेदानां साङ्गोपाङ्गानां सा-| करणात् "बुके मुत्ते परिनिए त्ति" दृश्यम् । [गीतं गंधवनिरको धारकः, पारग इत्यादिवर्णको यावत्करणाद् दृश्यः। "व-| नाए ति] गीतं सामान्यं,गन्धर्व तु मृदङ्गादिनादसंमिश्रमिति । झुम्"ि इत्यत्र बहीभिः कुब्जिकाभिः, यावत्करणावद् वामान- [अडचम्गपहगरवंदपरिक्खित्ते ] भटानां ये चटकरप्रकरा कानिः चटिकाभिः परिक्तिप्ता इत्यादिवर्णको दृश्यः। (जहा मेहो। विस्तारवत्समूहास्तपां यहन्दं तेन परिक्षिप्तः [पहा रथगमणामहोलियावच्छ ति ) यथा प्रथमे ज्ञाते मेघकमारो मालां पिध-| | पत्ति] गमनाय संप्रधारितवानित्यर्थः। ( जुम्म ) यह यावत् क. यत्युरस्येवमयमपि, केवलं तत्र मात्रा तं प्रतीदमुक्तम्, एतास्तव रणात् ( जराजजरियदेहं श्राउरं फुसियं) बुभुक्तिमित्यर्थः । भार्याः सदृग्वयस्यः सरशराजकुवेन्यः तायदेताभिः सार्फ 'पिवासियं मुबलं ति' अष्टव्यमिति । (महमहालयाउ त्ति) विषयसुखमित्यादि तदिह न वक्तव्यम, अपरिण।तत्वात् । त. महन् महत इष्टिकाराशेः सकाशात् (बहुकम्मनिउजरत्थं मा. स्य कियद वक्तव्यं हि (जाव वट्टियकुल ति) वं जातो | हिज्जे दिन ति) प्रतीतम् [चिति नेएणं नि] श्रायुःकयेण भयाउस्माकमिटः पुत्रो नेच्छामस्त्वया वियोग सोदु, ततोऽतुलान् दध्यवसानोपक्रमेणेत्यर्थः। [ तन्नायमेयं अरहय ति] नदेवं क्षातृय भोगान् यावद्वयं जीवाम इत्यत आरज्य याव- नं सामान्येन, एतद् गजमुकुमारमरणमर्हता जिनेन (मुयमय दस्मासु दिवं गतेस् परिणतवयाः वद्धिते कुलवंशे तं कुकार्य ति ) स्मृतं पूर्वकाले ज्ञातं सत् कथनावसरे स्मृतं भविष्यति, निरपेकः सन् प्रवजिग्यतीति ( खेलासवा ) इह यावत्कर- विज्ञातं विशेषतः सोमिलेनैवमभिप्रायेण कृतमेतदित्यवमिति णात् 'सुकासवा सोरिणयासवा' यावत् अवश्यं विप्रहातव्यः। शिष्टुं कृष्णवासुदेवाय प्रतिपादितं भविष्यतीति [सियपवित्र (आवित्तए त्ति ) श्राख्यातुं, जणितुमित्यर्थः । (निक्सममां सपडिदिसं ति] सितपकं समानपाव सममेवेतरपार्वतया जहा महाबबस्स त्ति) यथा भगवत्यां महावयस्य निष्क्रमणं रा- सप्रतिदिक समानप्रतिदिक्तया अन्यार्थमभिमुख इत्यर्थः । ज्याभिषेकशिविकारोहणादिपूर्वकमुक्तमेवमस्यापि वाच्यम् । कि. अभिमुखागमने हि परस्परं समावेव दक्विणचामपाश्वोः भवतः। मित्याह-[ जाव तमाणाए तदा जाव संजमा त्ति] तस्य प्रव- एवं विदिशावतीति। "एवं खलु जंबू समणेणं० जाय जगवया जितस्य किल भगवान् उपदिशति स्म-"एवं देवाणुप्पिया!चि- संपत्तेणं अहमरस अंगस्म अंतगमदसाणं तच्चस्स वयस्स ट्रियन्वं निसीयव्वं कुयष्ट्रियव्वं भुंजियन्वं भासियध्वं एवं उदाए श्रट्ठमस्म अज्झयणस्स अयम पएणत्ते ति वेमीति" निगममहार पाणेहिं भूपहिं जीवहिं सहिं संजमेस्सं संजामियब्धं मनम्। अन्त०४ वर्ग। संथा। श्रा०म० । श्रा०चू०। प्रा०क०। अस्सिचणं अटु नो पमायेयवंतपण से गयसुयमाले अणगार गया-गदा-स्त्री० । धातुपाषाणमयगोलकाग्रके सकुटविशेषे, भगवंतं अरहंतरिम्नमिस्स अंतिए इमं एयारूवं धम्मियं उ. स. । प्रश्न । प्रहरणविशेषे, रा० । झा० । वासुदेवादीनां वएस सम्म एमिच्नए, पमिच्नमाणाए तह गच्चन,तद चिट्ठर, तह कौमोदकी नाम गदा । प्रव० २१२ द्वार । पाटलवृक्के, वाच० । निसीय,तह कयहर, तह भुंजर तद भास, तह उहाए पाहि ४संजमणं संजमशत्ति जंचेव दिवसं पवश्य" इत्यादि गजसुकु गया-स्त्री० । गयो गयाऽसुरो गयनृपो वा कारणत्वेनास्त्यमारमुनेः प्रतिमाप्रतिपत्तिनिधीयते, तसर्व नारिष्टनेमिना स्था अच् । पिएमदानमुख्यतीर्थे, वाच०। तपदिष्पत्वादविरुष्म, इतरथा प्रतिमाप्रतिपत्तावयं न्यायो यी-जानीक-न। कुम्जरकटके, उत्त०२८ अ० । यथा-"पडिवज्झइ पयानो संघयणधिरजुनो महासुत्तो पमिमाश्रो जावियऽपासमं गुरुणा अग्णाओगच्छे थिय निम्मानो५ गया गामि (ण)-गतानुगामिन्- त्रिगतमनुगच्छति, दर्श०। जापुबा दसभव असंपुणो नवमस्स तह बत्थु होइ जहमो सुया-गयादियोसरण-गजाद्यपसरण-न। प्रयत्नविशेषलकणे गभिगमोत्ति" (सिं पम्भारगतेणं ति) ईषद् वनसेन, यावत्तिक- जामवशिविकाप्रभतिज्यो देवावग्रहगमनप्रवणेभ्योऽवरतरणे, रणात पतत् द्रष्टव्यम्-"बग्घारियपाणी" प्रलम्बनुज श्त्यथः। | ०१२ विव०। "अणिमिसाणयणे सुक्खपोग्गलनिवद्धदिछी" (सामिधेयस्स ति)। समित् ( समिहाश्रा ति) इन्धनकाधिक गयारोहण सिक्खा-गजारोहणाशक्षा-स्त्री० । हस्त्यारोहणासमूलान् दर्भान (कुमति)दर्भाग्राणीति (पत्तामोम्यं च ति) च्यासलक्षण कलाभदे, स०। शाखशाखाशिवामोटितपत्राणि, देवताऽर्चनार्धानीत्यर्थः। (अ-गयावाय-तापाय-त्रि0) अपायरहिते,निरपाये,षो० ११ विव०। दिदोसपश्यं ति) दृष्ट दोषः चौर्यादिः यस्याः ला तथा सा चासो पतिता च जात्यादेवहिष्कृता इति दृष्टदोषपतिता,न तथे गयाहर-गदाधर-पुं० । कौमोदक्या गदाया धारके वासुदेवे, त्यदृष्टदोषपतिता अथवा न दृष्टदोषे एतत्यदृष्टदोषपतिता (काल सत्त० ११ अ०। वत्तिणि त्ति) काले नोगकात्रे यौवने वर्तत इति कालवर्तिनी गर-गर-पुंध गरयत्याहारं स्तमायति कार्मणं वा गरा मोघः। (विष्यजाहित्ता)विप्रहाय (फुल्लियकिसुयसमाणेति) विकसित काव्यसंयोगजे विषविशेषे, यो वि० । “ अणेगाणं उवविपलामकुसुमसमानान्, रक्तानित्यर्थः । खादिगङ्गारान खदिरदा. सवाणं णिगरो अकालघायगो गरो जणति " नि००१ रुविकारभूनानगारान्, (कभरणं ति) 'कप्पउज्जत्रा' इत्यत्र उ० । अनुष्ठानभेदे, द्वा०। यावतकरणात बढ़व एकार्थाः, विपुलास्तीवाः, चएमा प्रगाढाः। 'कढी कशा इत्येवं बकणा प्रष्टव्याः। (अप्पदुस्समाणे त्ति) दिव्यजोगाऽजिलाषेण, गरः कालान्तरे क्षयात् ॥१॥ पन्, प्रहषम गच्चान्नत्यर्थः । ( कम्मरयविकिरणकरं) दिव्यनोगस्यानिन्नापः ऐहिकभोगनिरपेकस्य सतः स्वर्गसु Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर खवाऽछाल कणः, तेनानुष्ठानं गर उच्यते, कालान्तरे भवान्तरपोषनाशेनाऽनर्थ संपादनात् गरो हि कुइ न्यसंयोगजो विषविशेषः, तस्य च कालान्तरे विषमविकास प्रा दुर्जयतीति यापेक्षा जनितमतिरिष्यते मोनया पेक्ायामध्य धिकस्य बनवत्वादिति संभावयामः । द्वा० १३ द्वा० । यो विं० । बबादिकरणानामन्यतमे, जं० ७ ० । उत्त० । त्रिशे० । श्रा० म० । आा० चू० । सूत्र० । रोगे, दूध्ये, निगरणे च । वाच० । (८४६) अभिधानराजेन्द्रः | गरक्षिगाव- गरलिकावरू त्रि०मितिले नि०० १३० ॥ गरहंत-गईमाण- त्रि० । निन्दति सूत्र० १ ० १ श्र० २ उ० । गरढ़ापा गईणा स्त्री० [परसममात्मदोषोद्भावने म० १७० ३४० परलोकानां पुरतः स्वदोषप्रकाशने, उत्त० । गराए णं भंते ! जीवे किं जणयइ १ । गरहण्याए अपुरेकारं जणय, अपुरेकारगर हां जीने अप्पमस्येहिंतो जो गेहिंतो नियचे, पसरये व परिवहन, पसत्यनोगपडिय य णं णगारे अनंतघाइपज्जवे खवेइ || ७ || सामायिए भंते! जीवे किं जड़ है। सामायिए सावळजोगविर जण्यड़ || G ।। चब्बीसत्यएणं भंते ! जीवे किं जाय‍ ? । चडवीसत्थएणं दंसणविसोहि जणयइ || ए || बंद एवं जंते ! जीवे किं जणय १ । वंदणएवं नीयागोयं कम्म खये, दागो कम्मं निबंध सोहणं च प्रपमिह 1 फलं निम्नने दाहिणावं पणं जाय ।। १० ।। परिक्रमणं भंते! जीने किं जणय १ । पमिश्रणेणं यच्चाणि पिइ, पिडियाच्छिदे पुण जीवे निरुदास सवनचरिते अट्टसु पत्रयणमायासु उवउत्ते अपुहते सुप्पपिडिए बिरह ||११|| काउस्सग्गेणं ते! जीचे किं जणयह फाउस्सोणं तीयमुपपादितं विसो विषपायच्छित्ते य जीवे निव्वुयहियए हरियजरो व् जारवहे पसत्थज्झाणोचगए सुहं सुद्देणं विहरइ ।। १२ ।। पञ्चकखाणं भंते ! जीवे किं जगह ? । पञ्चकखाणं आसवदाराई निरंज, पचक्खाणं इच्छा निरो नणय, इच्छा निरोहं गए य ां जीवे सन्वदव्वेसु विणीयत रहे सीए विहर ।। १३ ।। । कमियां परिभावयत् न निन्दामाषेण तिष्ठेत् किन्तु गमपि कुर्यादिति तामाह - ( गरिहया प्ति ) गर्हणेन परसमक्षमात्मनो दोषोभावनेन ( अपुरेकारं ति) पुरस्करणं पुरस्कारः, गुणवानयमिति गौरवाध्यारोपः, न तथाऽपुरस्कारोSassस्पदत्वं तं जनयति, श्रात्मन इति गम्यते । तथा चापुरस्कार प्राप्तोऽपुरस्कारगत सर्वत्रानो जीवा कदाचित कदभ्यवतीति वास्तेभ्यः कर्मदेतुभ्यो योगेभ्यो नितेन तान् प्रतिपत प्रशस्त योगांस्तु प्रतिपद्यते इति गम्यते ! ( पसत्थजोगे परिधन्ने य ति) प्रतिपप्रशस्तयोगो ऽनगारोऽनन्तावा २१३ गरदाया नदर्शने हेतुं शीलं येषां तेऽनन्तघातिनस्तान् पर्यवान् प्रस्ता बाद् ज्ञानावरणादिकर्मणः, तदूघातित्वलक्षणान् परिणतिथिशेषान्पयति यति पर्ययाभिधानं तद्रूपतय यस्य विनाश इति स्थापनार्थम उपलणं चैनमुक्ति प्रः सर्वप्रयासस्य मासिक प्राप्तिरेव फलत्वेन प्रष्टव्या ॥ ७ ॥ आलोचनादीनि सामायिकवत एव तत्रतो भवन्तीति उच्यते-सामायिकेनोक्तरूपेण सदावद्येन वर्तत इति सावद्याः कर्मबन्धदेतवो योगा व्यापाराः ज्यो विरतिरुपरमः सावययोगदिना जनयनिनद्वन्या सहितस्यय सामावि कार्यकारणभावासंभव इति वाच्यम्, केषुचित तुल्या वृच्छायादिवत् कार्यकारणभावदर्शनात् एवं सर्वत्र भावनीमसामायिकं च प्रतिकामेन तत्तारः स्तोतव्यान तेच स्वतस्तीर्थकृत पचति तस्तवमादधतुर्विंशतिस्त नियतीकीर्तनात्मकेन दर्शनं सम्य तस्य विशुकिस्तदुपघातिकर्मापगमतो निर्मलीभवनं दर्शनविवृद्धिस्तां जनयति ||९|| स्तुत्वाऽपि तीर्थकरान् गुरुचन्दनक पूर्वि तत्याने पशिने तदाह यन्दनापित ममकुलोत्पतिनिधनं कर्म कृपयति रूपेण त्रं तद्विपरीतरूपं निबध्नाति । सौभाग्यं च सर्वजनस्पृहणीयतारूपमप्रतिहतं सर्वत्राऽप्रतिस्खलितमत एवाझा यथोदितप्रतिरूपा फलं प्रयोजनमाहाल निर्वर्तयति हि प्राय देवकपदयसंभवादादेववाक्याभि ति । दक्षिणावं चानुकूलभावं च जनयति, लोकस्येति गम्यते । तन्माहात्म्यतोऽपि सर्वः सर्वावस्थास्वनुकूल एव भवति ॥१०॥ पतगुणास्थिनेवापिर्थे पूर्वपश्चिमयोस्तु तदाऽपि प्रतिकमितयमिति प्रतिम समाद्प्रतिश्रमाचे प्रतीपनिवर्त सानां प्राणातिपातनिवृत्यादीनां पापती राणि व्रतच्छिद्राणि पिदधाति स्थगयति, अपनयतीति यावत् । तथाविषय के समीप पुनर्जी निरुद्धाश्रवः, सर्वथा हिंसाद्याश्रवाणां निरुत्वात् । अत एवासमं सबलस्थानेरकर्युरीकृतं च तथाऽ प्रच नमातृकासु उपयुकोपधानवाद त पचादिद्यमानं पृथक्त्वं प्रस्तावात् संयमयोगेभ्यो वियुकत्वस्वरूपं यस्यासाव पृथक्त्वः सदा संयमयोगवान् श्रप्रमत्तो वा, पाठान्तरा तथा सुप्रणिहितः सुष्ठु संयमे प्रणिधानवान्, पाठान्तरतो वा सुष्ठु प्रणिहितान्यसन्मार्गात प्रच्यात्य सन्मार्गे व्यवस्थापितानीन्द्रियाण्यनेनेति सुप्रणिहितेन्द्रियो विहरति संयमाध्वनि या [[ति ॥ ११ ॥ चत्र बानीको श तमाह- कायः शरीरं, तस्योत्सर्ग श्रागमोतीत्या परि त्यागः कायोत्सर्गः तेनातीतं चेह चिरकालभावित्वेन प्रत्युत्प मिव प्रत्युपासनकालावितात्प्रय समुपचारात् प्रायश्चित्तरं सानोपनयांत विशुपति जो नि स्वस्थीकृतं हृदयमन्तःकरणमस्येति निर्वृतहृदयः क इव (श्रो हरियत्ति ) अपहृत्योपसारितो भर इति भारो यस्मात्स तथा इतिक्रमः। ततो भारं तीजादेराकृतिगण स्वात् कप्रत्यये भारवही वाहीकादिः स इव । जारप्राया हि श्र तीचाराः वतः तदुपनयने अपहृतजरभारवह इव निर्वृतहृदयो Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरहणया भवतीति भावार्थः । स च ध्यानं धर्माद्युपगतः प्राप्तो धर्मध्यानोपगतः, पाठान्तरतः प्रशस्तध्यानध्यायी सुखं सुखेन सुख परम्परा विहरत इहपरलोक पोते या रिति ज्ञावः ॥ १२ ॥ एवमप्यशुद्ध्यमाने प्रत्याख्यानं विधेयमिति तदाह - ( पच्चक्खाणं ति ||१३|| उत्त० २ श्र० । गरदनिजगी विन२० द्वार गरहित गर्हितुम् अन्य गुरुमती बारा गु मित्यर्थे, स्था० २ ठार ३३० ॥ गरहित्ता - गर्हित्वा-मध्य समकं निन्दित्वेत्यर्थे, आचा०३ चू० । गरक्षिय - गर्हित- त्रि । निन्दिते दश० ६० सूत्र० । कुत्साssरूपये पं० सू० १ सूत्र निन्ये गालीप्रदाने पञ्चा० ६ विवः । गतिप्रमाकर्मी , ( ८५० ) निधान राजेन्द्रः । २०१३लोकोनोरीया मद्यमांसस्थाने पि अवये नृ० १ ० । गरदिपकुलकुनाले माया० २०१ 1 श्र० २ उ० । गरह्नियमिष्ठायार गर्हितमिथ्याचार व गर्हिता नि मियानागमोत्तमार्गसमाचारा मिध्यात्वाविरतिपाद योगलक्षणः श्रनिकालासेविता ये ते तथा । श्रासेवितमिथ्यादो २० गरहियन्त्र - गर्हितव्य - त्रि० । परसमकं निन्दितव्ये प्रश्न० १ सम्व० द्वार गरिया ५० बी० गरिमन्०रु०२६ ३० गुरोर्भाव मनित्र गरादेशः । वेमजल्याद्याः स्त्रियाम् " । 5 । १ । ३५ । ' एसा गरिमा एस गरिमा' प्रा० १ पाद । वज्रप्राप्तौ योगे सिद्धिने, द्वा० २६ द्वा० । सूत्र० । गुरुत्वगुणे च । वाच | गरिहा गर्दा - स्त्री० । 'ग' 'गल्ह' कुत्सायाम। 'गुरोश्च दवः' ३। ३।१०३। (पाणि २) इत्यकारः टाप् । श्रावस "श्रीहीन क्रियादिप्रधावित्" १८ २०१०४ इत्यन्त्यव्यञ्जनात्पूर्व इकारः । प्रा० २. पाद प्राकाश्ये, आ० चू० ४ ० । परसमकं दोषोघाट आतुर | आ०० | दश० गुरुसमनात्मनो निन्दायाम, स्था०४ ठा० २० पा० श्रा०म० । प्रति । "सचरित्तपच्छयावो जिंदा रिहा गुरुसमक्खं" पा० स्था० । झा० । सा च नामादिने. दातू पोढा भवति । तथा चाह" नाम ठपणा दविए. खित्ते काले य जावे य । एसो खलु गरिहार, किवी बच्चि हो हो | नापासा स्वगुलोचनानुपन्यस्य वा विस् स्यादि नावार्थो वक्तव्यो यावत् प्रशस्त येहाधिकारः । श्र० ४ श्र० पा० सुत्र० । अगदीयां पतिमारिकादृष्टान्तः"एकत्राध्यापको विप्रस्तस्यासीत् तरुणी प्रिया । छत्रे भर्त्रा बलिं देहि, काकेज्यः साऽप्यवोचत् ॥ १ ॥ विभेम्यहमिति च्छात्राः, उपाध्यायनिदेशतः । रन्ति वारकेतां, तत्रैकोऽचिन्तयत्प्रधीः ॥ २ ॥ न मुग्धा किं त्वसत्येषा, स तचरितमीक्षते । नर्मदा परकूले च, गोपेन सममस्ति सा ॥ ३ ॥ नर्मदां निशि कुम्भेनो-त्तरन्ती चास्ति साऽन्यदा । सम्युत्तरन्तश्राच ध्येको जन्म ४ ॥ सो स्टैस्तया प्रोचे पसे । मुक्तस्तथाऽपोचे ॥ ५ ॥ निवृत्तोऽथ द्वितीयेऽहनि खस्किकः । बलिदानां मन्दस्वरमवोचत् ॥ ६ ॥ दिवा विभेषि काकेभ्यो, रात्रौ तरासे नर्मदाम् । कुतीर्थानि च जानासि जलजन्त्वविरोधनम् ॥ ७ ॥ सावदत् किं करोम्यत्र यनेच्छन्ति जवादृशाः । उपाचचार तं साउथ, स ऊचेऽध्यापकात् श्रपे ॥ ८ ॥ सा दध्यौ मारयाम्येनं, नर्ताऽसौ स्यादू यथा मम । बिनाश्य पिटके पिया तावमुज्भिम् ॥ ५ ॥ व्यन्तर्याऽस्तम्मिपिटक, मूर्ध्ना साऽथ वनेऽभ्रमत् । गलत्युपरि मांसं तद्वाध्यमानाऽथ सा क्षुधा ॥ १० ॥ उद्विग्ना स्वचरित्रेण, गर्हते स्वं गृहे गृहे । व्रतं साऽयाऽग्रहदेवं कार्या दुष्कृतगण । " ॥ ११ ॥ श्र० क० ॥ यनिन्दार्या चिपकता उदाहरण सा जहा रा परिणीया अप्पाणं निंदियाश्या तहा कयव्वा, हेठा कहाणगं कहियं ति पुणो न भन्न प्रायनिन्दायां वहन्युदाहरणानि योगसंग्र बन् क्षणं पुन गरिहा 35 हा दुड्डु कयं ढाड कारियं श्रमयं हति । अंतो अंतो रुज्झर, पच्छातावेण वेतो ॥ गरिहा वि तहा जाई-यमेव नवरं परप्पगांसणया । दव्वम्मिय मरुयाणं, नावेसु बहू उदाहरणा " ॥ गर्दा अपि तथाचैव निन्दजातीय परमेतावान् विशे षः, प्रकाशनया गर्दा जवति । किमुक्तं भवति ? - या गुरोः प्रत्यगुप्सासा गर्दैतिवचनात्। साऽपि नामादिदा तत्र नामस्थापने अनादृत्याह-व्ये व्यगर्हायां मरुकोदाहरणम् । तश्चेदम्- "आणंदपुरे मरुओ एहुसाए समं संवास काऊण उवज्जायस करे | जदा सुमिण‍ एडुसाए समं वासं गतो मिति । " भावगर्हायां साघुरुदाहरणम् । "गंतूण गुरुसमीवं, काऊणय अंजलि विषय मूलं । श्रहमप्पणा तह परे, जाणाबि स एस गरिहाम्रो" ॥ १ ॥ श्रा० म० द्वि० पा० । विशे० । गर्दै रिहा गरिदा पाता से जहा मासा वेगे गरिड़, वयसा वेगे गरिहर अहवा गरिदा पनिहा पाचा । तं जहा दीहं एगे अद्धं, हस्सं एगे अद्धं ॥ विधानं विधा, द्वे विधे नेदौ यस्याः सा द्विविधा, गर्हणं गर्हा, दुश्चरितं प्रति कुत्सा । सा च स्वपरविषयत्वेन द्विविधा । साऽपि मिथ्यारनुपयुक्त सम्पदां मधानगत्यर्थः । इयाब्दस्याप्रधानार्थस्यात् उक्तं च दिठो दुदवसहोति । श्रंगारभम्रो जह दव्वायरिश्रो सया भ - Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) गरिहा अनिधानराजेन्द्रः। गरिहा ब्वोत्ति"॥ सम्यग्दृष्टस्तुपयुक्तस्य भावगर्हेति चतुळ, गहणीय. नाणे दंसणचरणे, सुत्ते अत्थे य तदुभये चेव । भेदानाबदुप्रकाराबासा चेह करणापेकया विविधोक्ता। तथा अह होति तिहा गरिहा, कायो वाया मणो वा वि ।। चाह-(मणसा वेगे गरिहात्ति) मनसा चेतसा, वाशब्दो विकल्पार्थोऽवधारणार्थो वा । ततो मनसैव, न वाचेत्यर्थः । का साने दर्शने चारित्रे चेति त्रिविधा गहीं भवति । तत्र ज्ञानगर्दा योत्सर्गस्थो दुर्मुखसुमुखानिधानपुरुषद्वयनिन्दितोऽननिष्ठुतस्त नाम-ननु पवितनैव किं तदीयन ज्ञानेन । दर्शनगर्हा नु मिथ्यारमिहुचनोपलब्धसामन्तपरिभूतस्वतनयराजवार्तो मनसा समारब्ध नास्तिकप्रायोऽसौ। चारित्रगर्हा-सातिचारं चारित्रोऽचारित्रोपुत्रपरिजवकारिसामन्तसंग्रामो वैकल्पिकप्रहरणक्षये स्वतीर्थकग्र वाऽसौ। अथवा-सूत्रे अर्थे तदुजये चेति त्रिविधा गहीं। तत्र सूत्रं हणार्थव्यापारितहस्तसंस्पृष्टलुपिकतमस्तकस्ततःसमुपजातपश्चा. तस्य शङ्कितस्खलितमर्थ पुनरवबुध्यते । यद्वा-अर्थ नायबुध्यते सापानसज्वालाकलापदन्दह्यमानसक कमेन्धनो राजर्षिः प्रसन्न सूत्र पुनरागच्छति । चन्नयमपि वा तस्याविशुद्धं न जानाति वा चन्छ श्व एकः कोऽपि साध्वादिर्गहते जुगुप्सते, गामिति ग किमपीति ३॥ अथ वा कायवागमनोभेदात् त्रिधा गही। तत्र म्यते । तथा वचसा वा वाचा,अथवा वचसैवन मनसा,भावतो कायगा-तेषामाचार्याणां शरीरं हुण्डादिसंस्थान, विरूपं था। दुश्चरितादिरक्तत्वाज्जनरञ्जनार्थ गहाप्रवृत्ताकारमर्दकादिप्रा. वाग्गा -मन्मनं काहनं वा ते जल्पन्ति । मनोगर्दा-न तेषां यसाधुवत् एकोऽन्यो गहते इति । (अथवा मणसा बेगे गरिह तथाविधमूहापोहपाटबं तथा ग्रहणसामर्थ्यमिति । अधषा त्रित्तिइह अपिच संनावने, तेन संजाव्यते अयमर्थोऽपि-मनस्यै विधा गर्दा भवति। को गर्हते, अन्यो वचसेति । अथवा मनसाऽपिन केवलं वचसा प्रकारान्तरेण गहामेवाहएको गहते, तथा वचसाऽपि न केवलं मनसा एक इति, पवयसि आम कस्म, ति सकासे चामगस्स निदिहो। स एव गर्हते, उभयथाऽप्येक एवं गर्हत इति भावः। - आयपराधिगसंसी, उवहणति परं इमेहिं तु ॥ न्यथा गर्हावैविध्यमाह-(अहवेत्यादि) अथवेति पूर्वोक्तद्वैविध्य- कोऽपि शैक्षकेणापि साधुना पृष्टः-प्रव्रजसि त्वम् । स प्राहप्रकारापेकया द्विविधा गर्दा प्रज्ञप्तेति । प्रागिव अपिः संभावने । आमम् । कस्य सकासे इति पृष्टः सन् भूयोऽप्याह-अमुकस्य तेन अपि दीघो वृढती अमां कालं यावदेकः कोऽपि गते ग. समीपे । पवं निर्दिष्टे उक्ते स साधुरात्मानं परस्मादधिकं ईणीयम, आजन्मापीत्यर्थः। अन्यथा वा दीर्घत्वं विवक्तया भाव- शंसितुमाख्यातुं शीलमस्य श्त्यात्मपराधिकशंसी परमेभिः नीयम,आपेक्षितत्वात दीर्घन्दस्वयोरिति । एवमपि -हस्वामल्पां| वचनैरुपहन्ति । यावदेकोऽन्य इति । अथ वा दीर्घामेव यावद्,-हस्वामेव याव तत्यथादिति व्याख्येयम, अपेरवधारणत्वादिति । एक एव वा द्विधा अवहुस्सुतावमुकं, अहउंदा तेसुवाधिसंसम्गि । कालभेदेन गर्हते, भावभेदादिति । स्था०५ ०१ न० । ओसामा संसग्गी, व तेसु एकेक्कए दुन्नि ।। तिम्रो गर्हाः अहं बहुश्रुतः, सोऽबहुश्रुतः । अहं विशुरूपाउकः, स पुनरतिविहा गरिहा पन्नत्ता । तं जहा-मणसा वेगे गरहइ, व विशुरूपाठ।। यद्वा-यथाच्छन्दास्ते आचार्यास्तैर्वा यथाच्छन्दै: यसा वेगे गरह,कायला धेगे गरह,पावाणं कम्माणं अ सह ते गाढतरं संसर्गिणः,गाथायां तृतीयाथें सप्तमी । अवसन्ना वा तैः सार्ध संसगिंणो वा, एवं पार्श्वस्थादायप्येकैकस्मिन् करणयाए । अहवा गरहा तिविहा पन्नत्ता । तं जहा-दीहं| वेदी द्वौ द्वौ दोषावेवमेव वक्तव्यौ । संगे अकं गरहइ,सहस्सं वेगे अद्धं गरहर, कार्य वेगे भय कायवाडमनोगहीमेव प्रकारान्तरेणाहपडिसाहर पावाणं कम्माणं अकरणयाए॥ सीसोकंपण हत्ये, काम दिसा अच्चि काइगी गरिहा । (दोहं वेगे श्रद्धं ति) दीर्घ कालं यावदित्यर्थः । तथा कायम | बेला अहो य हत्ति य, णामं ति य वायगी गरिहा ।। प्येकः प्रतिसंहरति निरुणकि,कया?-पापानां कर्मणामकरणतया | शीर्षकम्पन,हस्तविनम्बन, कर्णमोटनम,अन्यस्यां दिशि स्थानहेतुभूतया, तदकरणेन तदकरणतायै वा तेभ्यो गईते, कायं| म, अक्विनिमीलनम् अनिमिषलोचनस्य वीक्षणमवस्थानम, पषा वा प्रतिसंहरति तेभ्योऽकरणतायै । स्था०३ ग०१०।। सर्वाऽपि कापिकी गर्दा। यत्तु यस्यां वेलायां नाम न ग्रहीतव्यम ज्ञानदर्शनचारित्रगहीं। अथ त्रिविधां गही व्याचिख्यासुस्त- अहो कष्टं हाहाकारकरणं नाम च तस्य कदापि न ग्रहीतव्यमिस्वरूपं तावदाह त्यादिभाषणम्, सा वाचिकी गही। सीसो कंपण गरिहा, हत्थ विसंविय अहो य हकारो।। अह मानसिगी गरिहा, सूइज्जति ऐत्तवत्तरागोहिं। वेला कमा य दिसा, अवत्तु णाम ण घेत्तव्वं ॥ धीरत्तणेण य पुणो, अनिणंदइ णावि तं वयणं ।। गही नाम शक्केण पृष्टः सन् शीर्षाऽऽकम्पनं करोति, हस्तौ वा अथानन्तरं मानसिकी गर्दा-मनसि तमाचार्य जुगुप्सते । धुनीते, विलम्बितानि वा करोति, हस्तावोष्ठौ वा बिलम्बयतीत्य- कथमेतत् ज्ञायते ?, इत्याह-नेत्रवक्त्रयोः संबन्धिनो ये रागा थः। यद्वा-ब्रवीति-अहो प्रत्रज्या,हाकारं वा करोति-हा हा कष्टं मुकुलनविनायी जवनादयो विकारास्तैः सूच्यते मानसिकी यदेवं नष्टो लोकः (वेल ति) नामापि तस्य न वर्तते अस्यां। गर्दा इति, भणिते साध्धिदं कृत्यमेतद्भव्यानामित्यादिवचोभिर्न बेलायां ग्रहीतुमिति, कर्णी वा तदीयनामग्रहणं स्थगयति, यस्यां। तदीयं वचनमभिनन्दते, धीरतया वा तूपीकमास्ते, एवमन्यतवा दिशि स तिष्ठति तस्यां न स्थातव्यामिति ब्रवीति । सपलक-1 रस्मिन् गहाप्रकारे कृते तस्य शङ्का नवति-अवश्यमकार्यकारी जात्याद क्विणी वा निमीत्रयति । यद्वा-नामापि तस्य निरत्रपैन | स प्राचार्यादिः संभाव्यते, न चामी साधवोऽलीकं भाषन्ते, ग्रहीतव्यम् । मतः आस्तामेतद्विषयं पृच्छादिकमिति । अहमपि तत्र गत आत्मानं नाशयिष्यामीति । Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरिहा य, एतानि या विष्परिणामपदाणि सेहस्स | वहिणियप्पाला, कुब्वंति णिज्जुया केई || पतानि चानन्तरोक्तानि श्रन्यानि च अव्यक्षेत्रकालभावा: शस्य विपरित इस मनोङ्गाहारादि दानियाले मनोनुकूले प्रदेश स्थापयति कालतो- वेलायामेव भोजयति । भावतः - तस्थाकर्षणार्थं हित मधुरमुपदेशं ददाति के उपकृतिः कैतवार्थ प्रयुधमाकाराच्छादनं प्रधाने ते तथाचा विपरिणामपदानि कुर्वन्ति ( ०५२) अभिधान राजेन्द्रः । भ० गल जस्स वा गरुगीयते, जा इत्थी जस्त साहुस्स । माचलपुहियादिया भव्वा सा गरुगी भवति । नि० चू० १० । गरुय - गुरुक-पुं० । ' गरुत्र' शब्दार्थे, प्रा० १ पाद । गस्यणिपश्य गुरुकनिपतित प्रश्न० ३ श्राथः द्वार । गरुयत्त गुरुकत्व - न० । 'गरुअत्त' शब्दार्थे, भ० १ श० ६ ० । तन्वीतुल्येषु " ६ । २ । ११३ | इति गरुवी-गुर्वी खो०] । अन्त्यञ्जनस्योकारः । प्रा० २ पाद गुरुत्वविशिष्टायां, गर्भव उपसंहरनाद एएमामायरं, कप्पं जो अनिचरे बोजे । थेरे कुलगणसंधे, चाउम्मासा भने गुरुगा || एतेषामव्याहतादिद्वारकलापप्रतिपादितानां कल्पानामन्यतरकल्पं विधाय आचार्यादिलोभदोषतोऽतिश्चरेत् श्रतिक्रामेत, तं सम्यग् ज्ञात्वा कुलगणस्थविरं कुलादिसमवायेन वा तस्य पा वत् तं शक्रमाकृष्य चत्वारो माला गुरुकास्तस्य प्रायश्चित्तं दातव्यम् । श्रथ स्थविरैः समवायेन वा भणितोऽपि तं शक्रं न समर्पयति ततः कुलगण संघबाह्यः क्रियते । धृ० ३ उ०नि००। (गह संयमोऽगसंयम इति 'कालासवेलिय' शब्देऽस्मिन्नेव जा पृष्ठे उक्त राज्यकरणे "जिंदग " 1 च गडा" । श्रोष० । मृपावादभेदे गर्दा तु त्रिधा । एका साव व्यापारप्रवर्तिनी । यथा क्षेत्रं कृषेत्यादि । द्वितीया अप्रिया काणं काणं वदतः । तृतीया श्राक्रोशरूपा । यथा श्ररे बान्धकिनेय ! इत्यादि । धर्म० २ अधि० । दश० । गरुअ--गुरुक - पुं० । “ गुरौ के वा" । ८ । १ । १०६ । गुरौ खार्थे के सति आदेतो वा भवति गुरुप्रा० १ पाद | अधःपतन हेतावयोगोलकादिगते स्पर्शे, अनुe | वज्राविद् गुरुस्पर्शप प्रा० १ पर गरीबास, पा०६ रुल-गरुडव्यूहन गरुडासैन्यरचनायाम, जं० २ । चित्र | महाशिलादिके, झा० १ ० १ ० । “गुरुयं जपति” गुरुकं वादरं स्वस्य जिह्वा छेदनाद्यर्थकम्। प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार। (गशब्दे प्रयमभागे १५८ पृष्ठेऽस्य दण्डकः ) गरुप्रविश्य - गुरुकनिपतित- न० । विद्युदादिगुरुकद्रव्यनिपातजनितध्वनी, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार । गरु-गुरुकस्व-१० , वक्ष० । प्रश्न० | गरुलावास - गरुमावास-पुं० | देवकुरुषु गरुडजातीयस्य वेणुदेवाऽभिधानस्याssवासे, स०८ सम० । गरुलासण- गरुमासन- न० । श्राखनभेदे, जी० ३ प्रति० ॥ जं० ॥ येषामासनानामधो गरुडा व्यवस्थिताः । रा० । गरुलोववाय-गरुमोपपात पुं० भूकमपथ्ये कह ये भंते ! जीवा गरुयत्तं हव्यमाच्छति १ । गोयमापाचामुखा दिया मेरा परीसह-कोह मारा-माया लोड पेज- दोस- कलह अग्नक्खाण-पेसुन -रति-श्र रति परपरिवाद माया-मांस मिच्छा सणसणं एवं गोयमा ! जीवा गरूयतं हन्यमागच्छंति" भ० १ ० ६ उ० । ० ० क गुरु कथं या सधुक जीवा गच्छतीति 'कम्म' शब्दे श्रस्मिव भागे २४४ पृष्ठे उत्तम ) गरा - गुरुकाय - घा० अगुरुर्गुरुर्नवति, गुरु- क्यइ । श्रगुरोर्गुरोरिवाचरणे, "क्यो यलुक्" । ८ । ३ । १३८ । क्यङन्तस्य यत्रोपः । ' गरुआ । गरुआ श्रर' । प्रा० ३ पाद । गरुई - गुर्वी स्त्री० । 'उतो मुकुत्रादिष्वत्' । ८ । १ । १०७ । इत्यादेरुतोऽत्वम् । प्रा० १ पाद ज्येष्ठायाम, पञ्चा० ६ विव० । 'जा शेषे पाल्प रावर्तकस्य साधोर्गरुडो देव उपतिष्ठते । स्था० १० वा० ॥ व्य० । गल-गल-पुं० [० १०द्वारा० सर्जर वाद्यभेदे, वाच० । वभिशे, न० । शा० १४० १० श्र० । विपा० । प्र० । दश० ।" गलकाल कलोहदंमवर उदरवस्थिपडीपरिपीलिया तथा गल इव वडिशामेव घातकत्वेन यः स गलास वासी काल लोहदसमश्य काय ते उपज बस्ती देशे पृष्ठ पृष्ठे 66 गलगवलापरिपीडिता ये ते तथा। प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार बलणमारणाणि " गलस्य कण्ठस्य गवलस्य शृङ्गास्थावलनं च मोटनम् । अथवा गतस्य वनादावलनं मारणं चेति तानि च । प्रश्न० ९ श्राश्र० द्वार । नाशे, विघ्ने च। श्राचा० १ श्रु० १ ० १ ० । विशे० ॥ श्र० म० । + " " स्याम, वाच० । गरुन्न-गरुम - पुं० । “मो लः " || १ २०२ । इति मस्य लः प्रा० १ पादराम पराजे वेणुदेवे " सूत्र० १ ० ६ श्र० । पञ्चकूटशाल्मलीषु, पञ्च गरुडाः देवास्था० १० डा० मानुषोत्तरपर्वतस्य ध्ये णं रयणकृडा गरुलस्स वेणुदेवस्स " द्वी० । गरुडलानत्वात् सुपर्णकुमारे भवनपतिविशेषे, स०५२ सम० श्र० । ० ॥ भ० । कल्प० । जं० प्रश्न० । रा० । शा० । 1 " गरुलायततुंगनाथ गरमस्वायता दीर्घा व अकुटिला मुद्दा उन्नता नासा नासिका येषां ते गरुमायतदीर्घतुङ्गनासाः । प्रज्ञा० २ पद | जी० । स्था०| 'महापउमरखस्स' अरिष्टोत्त रदेवे, स्था० २ ठा० ३२० ॥ गरुलकेन- गरुरु केतु-पुं० । गरुरुध्वजे वासुदेवे, स० । गुस्ल गोविंदवाइ(ए) - गरुडगोविन्दवादिनपुं० इन्द्रभूतिना समं वीरान्तिकं गते वादिनेदे, कल्प० ६ क्षण । गरुलज्झय-गरुरुध्वज-पुं० । गरुडालेख्य रूप विहङ्गोपेते ध्वजे, " श्रहसयं गरुलज्जयाणं " रा० । वासुदेवे, प्रा० म० प्र० । देवे, स० । अविश्य शब्दार्थे, । , Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) गलई अन्निधानराजेन्डः। गवसणा गई-गसकी-खी । अनन्तजीववनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० १ पद । गवक्खजाल-गवाजाल-न० । गवाक्षाकृतिरत्नविशेषदामगवंतणयण-गलन्नयन-न० । गलन्ती नयने यत्र तद् गलनय- समूहे, जी. ३ प्रतिः। जं० । रा० । जानकोपेते गवाक्षे नम् । करनयने, तं०। च । औ०। गलग-गलक-पुं० । करावे,प्रश्न १ आश्रद्वार । मत्स्ये.वाच। गवच्च-गवच्छ-पुं०। आच्छादने, राम गलगवखुर्जावण-गझकवलोल्लम्बन-न०। ७ त०। कण्ठे हठात गवच्चिय-गवच्छित-त्रि० । गवच्छ पाच्छादनम् । गवघ्याः सं. वृकशाखादावुदन्धने, प्रश्न० १ आश्र द्वार। जाता पश्चिति गवच्छिताः । प्राच्छादितेषु, राजिं० । “कि एह सुत्तसिकगवच्चिया"। जी० ३ प्रति० । मनग्गह-गलग्रह-पुं० । गलहस्तदायके, कल्प० ३ कण । गवय-गवय-पुं० । गवाकृती, प्रश्न०१आश्र द्वार । वृ० । नि. गलत्य-किप-धाला प्रेरणे, तुदा० सक्-अनिट् । “विपेगलत्थाइ च । वत्तकण्ठे, अनु० । वनगवे, नं०। प्रश्न । “गां दृष्ट्वा यम ख-सोल्ल-पल-णोख-रह-इन-परी-घत्ताः"।८४।१४३।। रण्येऽन्यं, गवयं वीक्षते यदा । भूयोऽवयवसामान्यइति क्विर्गवत्थादेशः। 'गलत्थर, ग्विई विपति । प्रा०४ पाद। तुलकरकम् ।" स्था०४ ग०३ २०। प्रशा। गलत्थलिग देशी-क्षिप्ते, दे० ना० २ वर्ग। गवल-गवल-न० । मादिषे शृङ्गे, औ० । उपा। जी । गलरव-गलरव-पुं० । गलेनाब्यक्तशब्दरटने, आव०४०।। प्रा० मा प्रज्ञा । जं। रा० । प्रश्न । अन्तामा० । उत्त। गललग्गुक्खित्त-गलसग्नोस्किप्त-त्रि० । गलं वमिशं तत्र लग्नः | गवलगुलिया-गवलगुटिका-स्त्री० । माहिषङ्गस्य निाधडतकर विद्धत्वात्, उक्तिप्तो जनाद्धतः। ततः कर्मधारयः। ब- रसारनिर्वर्तितायां गुटिकायाम् , जं०१ वक्षः । जी० । रा०। मिशेन विके जलादुन्नीते, झा०१ श्रु०१० अ०। गवालिय-गवालीक-न० । गोविषयेऽनृते, अल्पक्षीरां बहुक्कीगललाय-गललात-त्रि० । करनात्ते, औ० । “गलं ललाम | रां बहकीरां वा अल्पकारामित्यादि वदति, ध०२ अधि। गल लायवरभूमणाणं" औ०। प्रश्नः। श्राचा निचू । उत्त। गलि-गनि-त्रि० । गलत्येव केवलं न तु बहति गच्छति पति गवास-गवाश्व-न० । गौश्च अश्वश्च "गवाइवानृतीनि च" गतिः । उत्स०१ अादर्धिनीते. उत्तराखल.स्था ।२।४।११ । श्त्येकवद्भावस्तथारूपता च । गोघोटकयोः, १०१ उ०। भाचा०। सम्म ३ काण्ड । गलिअं-देशी-स्मृती, दे० ना० २ वर्ग। गविट्ठ-गवेषित-त्रि०1 गवेषणयाऽऽप्ते, व्य०४ उ०। गलिगद्दह-गलिगभ-पुं० । अविनीते रासभे, " जारिसा म-गवेधा-गवेधका-स्त्री० । चारणागणस्य चतुर्थशास्त्रायाम् , म सीसामो, तारिसा गलिगद्दहा । गद्धिगद्ददे चश्त्ता णं, दर्द | कल्प०८ कण। पगिएहए तवं" ॥ उत्त० २७ अ०। गवेजग-गवेलक-पुं० । स्त्री०। गावश्चैलकाश्चोरणिका गवेल. गलिय-गलित-त्रि० । वीनूय करिते, कल्प०४ कण । वाच। काः। गवारभ्रेषु, करणिकेषु च । स्था०७ ग०। का० । अनु०॥ गझियस्स-गलिताइच-पुं० । दुविनीततुरगे, उत्स० १० गवत-गवेष-धा० । अन्वेषणे, चुरा० । गवेषेर्दुदुच-ढंढोल-गगलोई-गुडुची-स्त्री० । “उतो मुकुलादिवत्" । ८।१ । १०७ । मेस-घत्ताः"1८।४।१८६ गवेषेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । दुंदुख्लश, ढंढोबइ, गमेसर, घत्तइ. गवेस । इत्यादेरुतोऽत् । प्रा०१ पाद। " ओकूष्माएडी-तूणीर-कर्पूर प्रा०४ पाद। स्थूल-ताम्बूल-गुडूची-मूल्ये"।।१।१२।। इति कारस्य बोकारः । प्रा०१ पाद । वही विशेषे, प्रव०४ द्वार । ध०। गवेसइत्ता-गवेसयित-त्रि० । अन्वेष्टरि, “ सम्म गवेसस्ता भगाउदा-देशी-दस्तेन गलग्रहणे, ज्ञा० १ श्रु०० वर" स्था०४०२ उ०।। गवेसग-गवेपक-त्रि० । अन्वेषके, उत्त० १४ अ० ! "अवि तुट्ठो गन्नप्फोम-देशी-ममरुके, दे० ना०५ वर्ग । नविरुको उत्तमट्टगवेसओ" उत्तमार्थ गवेषकः मोवाऽनिगरमसूरिया-गल्लममूरिका-स्त्री लघुरूपे गहापधाने,जीता लाषी । उत्त०२५०। गलोझपाणिय-न० । गमुकजले, "पुसिंदो पुण उवयारवाजिएणं गरमा-मावेषण-न। गवेष्यते अनेनेति गवेषणम् । मागणागल्लोद्यपाणिपणं राहवेति" । नि० चू०१ उ० । दृय सद्भतार्थविशेषाभिमुखे व्यतिरेकधर्मपरित्यागतोऽन्वगव-गो-पुं०ास्त्री०।मृगादौ पशी, सूत्र०१७०३०३०।। यधर्माध्यासालोचने, न० 1 का० यधर्माध्यासालोचने, नं०1शा० । पिं०। प्रोघ०। यथा स्थावोले, को। 'णावेव निश्चेतव्ये इह शिरःकण्डूयनादयः पुरुषधर्मा न घ. गवख-गवाक्ष-पुं० । वातायने, जी०३ प्रति०। प्रश्न । गोमु.! टन्ते । औ०। याम, इन्द्रवारुण्याम, शाखोटे, अपराजितायाम, गवाही गवसण्या-गवपणता-स्त्री०। गवेषणस्य जावो गवेषणता। शक्रवारुण्यां, गवाको जाबके कपौ। है। वाचः। "हायाम, नं। गवक्खकरणाइ-गवाककरणादि-नं० । वातायनरचनाप्रभृति-गवेमणा-गवेषणा-स्त्री० गवेषण गवेषणा । पि० । अनुपनत्यके पा० १३ विव। मानस्य पदार्थस्य सर्वतः परिभावने, पिं०। Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गवेसणा अभिधानराजेन्द्रः। गवसणा ____संप्रति गवेषणाया नामादीन भेदानाद पुरा वि वाया नायंता, न उणं पुंजकपुंजका ॥ नाम उवणा दविए, भावम्मि गवसणा मुणेयचा । विदितं प्रतीतमेतत् कुरङ्गाणां यदा यस्मात श्रीपर्णी सीदति, दवम्मि कुरंग गया, जग्गम नप्पायणा नावे ॥ ७ ॥ धातूनामनेकार्थत्वातू न फलति,तस्मान्नेदानी फलानि संभवन्ति, (नामं ति) नामगवेषणा, स्थापनागपणा, एते च एषणे सप्र. संभवन्तुचा तथापिकथं पुजकपुञ्जकाकारेण स्थितानि । वापञ्चं स्वयमेव जावनीये । ऽव्ये द्रव्यविषया,भावे भावविषया च। तवशाद,ननु पुराऽपि वातावान्ति स्मन पुनरेवं पुजकपुजकाः सत्र द्रव्यविषया आगम-नोभागमभेदात् द्विधा । तत्रागमतो ग. फलानामभवन् । तस्मात् कूटमिदमस्माकं बन्धनाय कृतं वर्त ते, इति मा यूयमेतेषामुपकएउमगमत । एवमुक्ते यैस्तद्वचः प्र. वेषणा शब्दार्थज्ञाना,"तत्र चानुपयुक्तः अनुपयोगो द्रव्यम" इति तिपन्नं ते दीर्घजीबिनो बनेषु स्वेच्चाविहारसुखभागिनश्चाऽजयबचनात् । नोआगमतस्त्रिधा- इशरीर-जव्यशरीर-नश्यति न्त, यस्त्वाहारलम्पटतया तद्वचनं न प्रतिपन्नं,ते पाशबन्धादिः रिक्तभेदात् । तत्र शरीरभव्यशरीररूपे व्यगवेषणे ए खागिनोऽभवन् । इह यद् यूथाधिपतेः श्रीपीफलसदृशमोदपणे इब भावनीये । शरीरनव्यशरीरव्यातिरिक्तगवेषणा स. कद्रव्यसदोषत्वानर्दोषत्वपर्यालोचनं सा व्यगवेषणा। इह निचित्तादिषव्यविषया। तत्र कुरङ्गगजा उदाहरणम् । तथा चाह युक्तिकारेण "पसत्य अपसत्यस्यमाओ" इति प्रतिपादयता दा(दवम्मि कुरंगगया ) व्ये-द्रव्यविषयायां गवेषणायां टन्तिकोऽन्यथः सूचितो अष्टव्यः। स चायम-यथाधिपतिस्था. कुरता मृगाः, गजा हस्तिनो दृष्टान्ताः । भावे नायविषया नीया प्राचार्याः, मृगयूथस्थानीयाश्च साधवः,तत्र ये गुरुनियोगवेषणा । ( उगमउपायण त्ति ) सूचनात्सूत्रमिति न्याया गत प्राधाकमादिदोषदुष्टाहारपरिहारिणस्ते प्रशस्तकुरकोपमा बुद्गमोत्पादनादोषविमुक्ताऽऽहारविषया । जएण्याः, ये स्याहारलाम्पट्यतो गुर्वाशामपाकृत्याऽधाकर्मायमुक्त-दवम्मि कुरंगगया' इति तत्र कुरङ्गादृष्टान्तं गाथा- दिपरिभोगिनो बनूवुः, ते अप्रशस्तकुरसहशा वेदितव्याः। प्र. द्विकेनाऽभिधित्सुराह त्राथें च कथानकमिदम-हरन्तो नाम संनिवेशः, तत्र यथाग मं विदरन्तः समिता नाम सूरयः समाययुः । तत्रच जिनदत्तो नियसत्तु-देवि-चिनस-जपविसणं कणगपिट्ठ-पासणया। नाम श्रावक श्रासीत् । स च जिनवचनात्साधुभक्तिपरीतचे. दोहन दुबल पुच्छा, कहणं आणा य पुरिसाणं ॥८॥ ता दानशौएमः कदाचिसाधुनिमित्तं भक्तमाधाकर्म कारिसीवन्निसरिसमोयग-करणं सीवनिरुक्खहेतुस् । तवान् । सूरयश्च सर्वमपि तं वृत्तान्तं कथञ्चित्परिझातवन्तः । ततम्तैःसाधवस्तत्र प्रविशन्तो निवारिताः। यथा-भोः साधवः! आगमण कुरंगाणं, पसत्य अपसत्थउवमाओ ॥१॥ तत्र साधुनिमित्त श्राहारः कृतो वर्तते इति मा तत्र यूयं सुगम, नवरं भावार्थः कथानकादवसेयः । तदम्-विति- गच्छत । एवमुक्ते यैस्तद्वचः प्रतिपन्नम, ते आधाकर्मपरिजोगप्रतिष्ठितं नाम नगरं, नत्र राजा जितशत्रुः, तम्य भार्या पट्ट- जनितपापकर्मणा न बहा गुर्वाज्ञाच परिपाझिता, ततः शुद्धमहाराझी नाम्ना सुदर्शना, तस्याः कदाचिदापनसरवायाः राज्ञा शुद्धतरसंयमपवृत्तिमावतो मुक्तिसुखभागिनोऽभवन् । ये त्वासह चित्रसभायां प्रविष्टायाचित्रलिखितान् कनकपृष्टान् मृगान- हारनाम्पट्यता भावितं दापमनवगणय्याऽऽधाकर्मणि झपा वलोक्य तन्मांसभक्षणे दोहदमजायत । दोहदे चासंपद्यमाने व वमिशनिवेशिते मांसे प्रवृत्तास्ते कुगति हेत्वाधाकर्मपतस्याः खेदवशतः शरीरस्य दौर्बल्यमभवत् । तच्च दृष्ट्वा नृप रिभोगतो गुर्वाशाजनातश्च दीघतरसंसारजागिनो जाताः । तिः सखेदं तां पृष्टवान् । यथा-हा प्रिये! किमतीव शरीरे तव सांप्रतं गजदृष्टान्तमाहदौर्बल्यमजायत। ततः सा दोहदमचकयत् । ततो राजा सत्वरं कनकपृष्ठकुरकानयनाय पुरुषान् प्रेषितवान् । तेऽपि च पुरुषाः | हत्यिग्गहणं गिम्हे, अरहोह भरणं व सरसीणं । स्वचेतसि चिन्तयामासुः-शह यस्य यत् वल्लभं स तत्रासक्तस्सन् अच्चुदएण नलवणा, आरूढा गयकुमाऽऽगमणं ॥ प्रमादभावं भजमानः सुखेनेव बध्यते, कनकपृष्ठानां च कुरङ्गा हस्तिग्रहणं प्रया कार्यमित्येवं राश्चिन्ता, ततस्तद्ग्रहणाय जामिष्टानि श्रीपर्णीफनानि, तानि च संप्रति न विद्यन्ते, ततस्त ग्रीष्मकालेऽपि पुरुषप्रेषणा, तैश्च सरसीनामरघट्टकैर्भरणं कृतं, च्छदृशान मोदकान् कृत्वा श्रीपर्णीवृकतलेषु च सर्वतः पुजक ततोऽन्युदकेन नलवनान्यतिशयेन प्ररूढानि, गजकुलस्यागपुज्जकाकारेण विप्ल्या तेषां समीपे पाशान् स्थापयामः, इति तथैव कृतम् । ते च कनकपृष्ठा रुरवो निजेन यूथाधिपतिना सह मनभिति गाथाऽकरार्थः । नावार्थस्तु कथानकादवसेयः। तथे. स्वेन्कृया परिभ्रमन्तस्तत्रागताः। यूथाधिपतिश्च श्रीपर्णीफला दम-प्रानन्दं नाम पुरं, तत्र रिपुमर्दनो नाम राजा, तस्य नार्या कारान् पुजकपुजकाकारेण स्थितान मोदकानवलोक्य मृगानु धारिणी, तम्य च पुरस्य प्रत्यासन्नं गजकुलशतसहसंकुलं तवान् । यथा-भो करवः ! युष्माकं बन्धनार्थमिदं केनापि धूर्तेन विध्यमररायम् , ततो राजा कदाचित् गजबलं महाकृतं कूटं वर्तते, यतो न संप्रति श्रीपर्णीफलानि भवन्ति, न च वलमित्यवश्यं मया गजा ग्रहीतव्या इति परिभाव्य गज ग्रहणाय सत्वरं पुरुषान् प्रेषयामास । ते च पुरुषाश्चिन्तिसंजयस्यपि पुजकाकारण घटन्ते । अथ मन्येथास्तथाविधपरि. नुमद्वातसंपर्कतः पुरजकपुञ्जकाकारेण घटन्ते, तदयुक्तम, ननु तवन्तो यथा-गजानां नलचारिरनीष्ठा, सा च संप्रति प्रीष्मकाले पुराऽपि वाता वान्ति स्म, न तु तथा कदाचनाप्येवं पुजकपु. न संभवति, किं तु वर्षासु । तत श्दानोमरघट्टैः सरसीविभृमो, येन नलवनान्यतिप्ररूढानि भवन्ति । तथैव कृतम् । नलवनप्रजकाकारेण जवन्ति स्म । त्यासाश्च सर्वतः पाशा मण्डिताः। इतश्च परिभ्रमन्तो यथातथा चैतदेव नियुक्तिकारः पति धिपतिसहिता हस्तिनः समाजग्मुः, यूथाधिपतिश्च तानि वविश्यमयं कुरंगाणं, जया सीवानि सीयइ । नानि परिजाव्य गजान् प्रति उवाच-भोः स्तवेरमाः!नाऽमूनिन Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) गवेसणा अमिधानराजेन्डः। गहण लवनानि स्वाभाविकानि, किं त्वस्माकं बन्धनाय केनापि धूर्ने- मतोः"16।२।१५ए । इति मतोः स्थाने इरादेशः । मर्वयुक्ते, न कृतानि कटानि, यत एवं नलवनान्यतिप्रदान सरस्यो | प्रार२ पाद । वाऽतोचजलसंभृता वर्षासु संनयम्ति,नेदानी प्रीष्मकाले 'अपगम-ग्रस-धा। अदने, "ग्रसेघिसः" ।४।२०४। प्रसेधिस अवीरन्-प्रत्यासनविन्यपर्वतनि:रएप्रवाहत एवं सरस्थो भृता इत्यादेशो वा भवति । घिसन, गसई' असति । प्रा०१ पाद । नवनानि चातिप्ररूढानि, ततो नामुनि कृटानि । तदयुक्तम । अन्यदाऽपि हि खलु निर्जरणान्यासीरन् , नचैवं कदाचनाप्य गह-ग्रह-पुं० । ग्रह अच्। अनुग्रहे, निर्वन्धे, प्रादाने, ग्रहणे, स्वीतिजलभृताः सरस्योऽभूवन् । कारे, अनेछ । रणोद्यमे, मलबन्धे, वाच० । गीतस्य नरकेपा. तथा च तदर्थसंग्राहिकामेव नियुक्तिकारो गाथां पठति रम्भरसविशेधे, दश०२ . । गायें, तात्पर्ये, आचा०१ श्रु० ३.३० । “गहाणुमेो सरीरमिति" स्था०१ ठा० विश्यमेयं गयकुमाएं, जयारोहंति नलवणा। १ उ० । कर्मणो बन्धे, दश० ४ ० । ज्योतिष्कभेदे रावादी, अन्नया वि करंति दहा, न पण एवं वहूदगा। प्रश्न० २ प्राथ. द्वार । स्था० । (ग्रहाणां सोऽप्यधिकारो विदितमेतत् गजकुलानां यदारोहन्ति अतिशयेन प्ररूढानि जब 'जोइसिय' शब्द)(अङ्गारकादयो नावाः केत्वन्ता अधाशोत्यन्ता न्ति नवनानि तस्मानामूनि स्वाभाविकानि। अथ निझरणवशा-1 महाग्रहाः स्वस्थाने) देवं प्ररूढानि । तत आइ-अन्यदापि हुदा करन्ति, न त्वेवं कदा- गहकबोल-राही, दे० ना०२ वर्ग। चनापि बहुदकाः सरस्योऽभवन् , तस्माद् धूर्तेन केनाप्यमूनि | गहगजिय-ग्रहगर्जित-न० । प्रहसंचालनादौ गर्जितानि स्तकूतानि कूटाननि मात्र ययं यासिए । पचमुक्ते यैस्तद्वनःप्र. नितानि ग्रहगर्जितानि । भ० ३ २०६०। प्रहचारदेतुकेषु तिपन्नं ने दीर्घकाल वने स्वेच्छाविहारसुखभागिनो जाता ,यैस्तु गजितेषु, जी. ३ प्रतिः । नकृनं ते बन्धबुनुकादिदुःख मागिनः । इहावि गजयूथाधिपते-गहगण-ग्रहगण-त्रि० । ग्रहसमूहे, " गहगयदिप्पंतरिक्खतानल वनसदोषनिदोषरूपतया परिभाविता व्यगवेषण, दाष्टी. रागणाण मज्झे" कल्प० ३ कण । न्तिकयोजना तु पूर्ववत् स्वयमेघ भावनीया । तदेवमुक्ता न्य 4 गहगणोरुणायग-ग्रहगणोरुनायक-पं०। प्रहगणस्य ग्रहसगवेषणा। सांप्रतं नावगवेषणा कर्तव्या, सा चोझमोत्पादनाशुखाऽऽहारविषया। पिं०। एवणागवेषणाशब्दावेकार्था। पञ्चार मूहस्योरु महान् नायको यः स तथा । सूर्ये, कल्प० ३ कण । १३ विव० । प्रोघ० । पंचू । व्यतिरेकधर्मालोचने, और गहचरिय-ग्रहचरित-म० । ज्योतिष्क ज्योतिःशास्त्रे, व्यः । गन-गर्व-पुं० । अनुशये, अनु० । माने, प्रव० २१६ घार । | ०। तत्परिशनि. स०७३ समः । शौरमीये, न. १५ श० १ उ । श्राचा । तदात्मके गौणमो.| गहजुरू-ग्रहयुक-न । अन्यस्य ग्रहस्य मध्येनेकस्य गमने, जी०३ प्रतिः । ग्रहयोरेकनक्षत्रे दक्विणोत्तरेण समश्रोणितयाहनीयकर्मणि, स०५२ सम० । ऽवस्थाने, भ० ३ २०६ उ.1 गन्धिय-गर्वित-त्रि० । अभिमानिनि, कल्प० ३ कण । गहण-गहन-न० । गह-ल्युट "कृच्छगहनयोः कषः" । ७।२। अथगर्वितमाह १२ । इति (पाणि) सूत्रनिदेशात, पृषो० वा -हस्वः । 'गह' पुरिसम्मि दुन्विणीए, विणयविहाणं न किंचि आइक्खे।। गहने, ल्युट् वा । निर्जयप्रदेशे, अरण्यक्षेत्रे, आचा० २ श्रु० ३ न वि दिज आचरणं, पलियत्तियकन्नहत्थस्स ।। 4.३ उ० । धवादिवृतः कटिसंस्थानीये, सूत्र०१ श्रु०३ अ०३ 30। अतिशयेन गुपिले, नं० । आव। स्था। व्य० । ह यः श्रुतमधीयानः तदवलेपादेव च दुविनीतो भवन्नु । वृक्तगहरे, विण। प्रश्न । श्रोघ० । वननिकुजे, दश० ८ पलभ्यते, तादृशे पुरुषे विनयविधानं कर्म विनयनोपाय आचा अ.। वृक्षवल्लीलतावितानवीरुत्समुदाये, ज०१ श. १ उ० । रादिश्रुतजातं, किश्चिदपि स्तोकमपि नाऽऽचक्कीन, यतो नापि सूत्रः। गदनमिव गहनम् । परश्यामोहनाय वचनजाले, भ. नैव दीयते श्राभरणं कुएमलकङ्कणादिकं परिकर्तितकर्णहस्त १७. श. ५ नः । तदात्मके गौणमोहनीयकर्मणि, स. ५२ स्य पुरुषस्य । एवं श्रुताचरणमपि विनयविकलाङ्गस्य जिनव सम० । गहनमिव गहनं दुर्लक्यान्तस्तन्त्रत्वात् विशतितमे चनवेदिना न दातव्यम् । गौणालोके, प्रश्न २ आश्र० द्वार । अथाऽस्यैव सविशेषमपात्रताख्यापनार्थमाह ग्रहण-न० । पुं० । गृह्यते ऽवगम्यते शब्दादरों ऽनेमहवकरणं नाणं, तेणेच उ ने मदं समुवहति । नति ग्रहणम् । दर्शने, स्था०२ ठा० १ उ० । गृह्यते इति कणगभायणसरिसा, अगदो विविमायते तेसि ॥ ग्रहणम् । कृत "बहुलम" 1५1१।२। इति (हैम वचनात् क मण्यनट् । शब्दषयसमूहे, श्रा० म०प्र० । वाग्व्य निकुरम्बे, मार्दवं माननिग्रहस्तकरणं तत्कारकं ज्ञानं तेनैव ज्ञानेन ये विशे। गृह्यते अनेनेति ग्रहणम् । आक्केपके,गृह्णाति इति ग्रहणम। सुर्विदग्धा मदमहङ्कारं समुद्वहन्ति। कथंन्ता ऊनकभाजनसशा बहुलवचनात्कर्तरि ल्युट् । ग्राहके, गृह्यते इति ग्रहणम् । कर्मणि असंपूर्णमृद्घटादिनाजननुल्याः, यथा किल तत् नमनमायते ल्युट । गृह्ये, उत्त० ३२ अ०।"रूवस्त चक्न गहणं वयंति" तथैतेऽपि पुरधीतविद्याअवतया निजपाएिकत्यगर्वाध्माता य. विशिष्टेन हि रूपेण चक्षुराकिप्यते तद्वदन्त्यभिदधति तीदपि तदपि अपन्तस्तिष्ठन्ति। तेषामगदोऽपि विपापहारमप्यौषधं कृतः, अनेन रूपचक्षुषोाह्यमादकनाव उक्तः । तथा च-न विषायते विषरूपतया परिणमते । गतं गर्वितद्वारम् । वृ० १उ०। ग्राहकत्वं विना ग्राह्यत्वम, नापि प्राह्यत्वं बिना ग्राहकत्वम् । गम्बिर-गर्ववत-त्रि० । "पारिवडोनाल-वन्त-मन्ते-सेर-मणा उत्त३ भ० । 'प्रह' भावे ल्युट् । बालोचने, विशे० । प्रारमनो Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) गहण अभिधानराजेन्सः। गहण ऽवधारणे, उत्त०१०। स्वीकरणे, पञ्चा. १० विव०। उपादा- एएसिं नाणतं, वोच्छामि अहाणापुबीए॥ ने, सूत्र० १ श्रु०१४ भ० । श्रा० म० । नि० चू। पञ्चा०। त्रिविधं च भवति ग्रहणमा नद्यथा-सचित्तग्रहणम,अचित्तग्रहणं, आदाणे गहणम्मि य,णिक्खेवो होति दोन्नि वि चउक्को। मिश्रग्रहणं च । एतेषां त्रयाणामपि नानात्वं यथानुा वक्ष्यामि । ग्रहणेऽपि नामादिकश्चतुर्धा निक्षेपो द्रष्टव्यः। भावार्थोऽप्या तत्र सचित्तग्रहणं तावदाहदानपदस्येव द्रव्यः, तत्पर्यायत्वादस्यति । एतच्च ग्रहणं नैगम- सच्चित्तं पुण सुविहं, पुरिसाणं चेव तह य इत्थीएं। संग्रहव्यवहार सूत्रार्थनयाभिप्रायेणाऽऽदानपदेन सहानोच्य- एकेक पि य इत्तो, पंचविहं होइ नायव्वं ॥ मानं शक्रेन्द्रादिवदेकार्थमभिन्नार्थ भवेत् । शब्दसमनिरूदेत्थं सचित्तग्रहणं पुनदिविधम, तद्यथा-पुरुषाणां वाऽऽचार्यादी. तशब्दनयाभिप्रायेण नानार्थ नवेत् । सूत्र० १ ० १५ भ० । मां, स्त्रीणां प्रवर्तिनीप्रभृतीनाम् , एकैकमपि इतो मूलभेदापेशास्त्रार्थोपादाने, ध०१ अधि। गुरुसमीपे इत्वरं यावत्कालं कया पञ्चविधं वक्ष्यमाणनीत्या पश्चप्रकारं भवति ज्ञातव्यम् । पा व्रतप्रतिपत्तिः। ध०२ अधि। गुगमूले थुतधर्मेत्यादिविधिना कुतः पुनः तेषां पुरुषाणां स्त्रीणां वा प्रदणं क्रियते इत्याहसम्यक्त्वव्रतोपादाने, ध०२ अधिक। उदगागणितेणोमे, अच्छाण गिलाण साबय पदुढे । गिएड गुरुण मूले. इत्तरमियरं व कामह ताई॥ तित्थाणुसजणाए, अइसेसगमुद्धरे विहिणा ।। गृह्णाति प्रतिपद्यते, गुरुणामाचार्यादीनां मूले समीपे,अानन्दव. उदकवाहनाचार्यादयो नेतुमारब्धाः (अगण त्ति ) मदाताप्राह-स श्रावको देशविरतिपरिणामे सतिव्रतानि प्रतिपद्यते, भसति वा । किश्वाऽतः। यद्याद्यः पक्का-किं गुरुसमीपगमनेन?, नगरप्रदीपनके वा दाहस्तेषां समुपस्थितः (तेण ति)शरीरमाध्यस्य सिद्धत्वात् । प्रतिपद्यापि प्रतानि देशविरतिपरिणा स्तना प्राचार्यादीन् व्यापादयितुमिच्छन्ति, अवमं पुर्भिक्ष, तत्र भक्तपानलाभाभायात्राणसंशयस्तेषामुपतस्थे, अध्यानमचिम एव साभ्यः, स चास्य स्वत एव सिद्ध इति, गुरोरप्येवं प. रिश्रमयोगान्तरायदोपपरिहारः कृतः स्यादिति । द्वितीयश्चे मापातं महदरण्यं,तं प्रपन्नानामपान्तराझे बुनुक्षापरिश्रमादीन रमतो गन्तुमशक्नुवतां जीवितं संशयतुलामाधिरूढम, (गिलाण सहि दयोरपि मृषावादप्रसङ्गात्परिणामाभावे पालनस्याप्यसं. सि) शूखविषविशूचिकादिकमागाढग्लानदमुपपादितम् । वानवात् । तदेतत्सकलं परोपन्यस्तमचारु । उभयथाऽपि गुणोपर पदाः सिंहव्याघ्रादयः, तैरुपद्रोतुमारब्धः, प्रद्विपुः प्रद्वेषमापनो ग्धेः । तथाहि-सत्यपि देशविरतिपरिणामे गुरुसमीपप्रतिपत्तो राजा साधूनां प्राणापहारं कर्तुमभिलपति । एतेषु आगाढकातन्मादात्म्यान्मया सगुणस्य गुरोराङ्गाऽऽराधनीयेति । प्रतिकानि रणेषु तीर्थानुपज्जनाय तीर्थस्याव्यवच्छेदनानुवर्तनाय योउतिभयाद् व्रतेषु दृढता जायते, जिनाझा चाराधिता प्रवीति । शायी विशिष्टपात्रतः प्रवचनाधारः पुरुषस्तं विधिना पक्ष्याउकंच माणनीत्या समुरूरत । "गुरुसक्खिनो दुधम्मो, संपुनविदी कयाहि य विसेसा।, अथ यदुक्तमेकैक पञ्चविध प्रहणं भवति, तत्र पुरुषतित्थयराणं आणा, साहुसमीपम्मि बोसिरओ" ॥ विषयं तावदाहगुरुदेशनाश्रवणोदनूतकुशलतराध्यवसायाकर्मणामधिकतरः क्योपशमः स्यात्तस्माचाल्पं व्रत प्रतिपित्सोरपि बहुतमव्रतप्र आयरिए अभिसेगे, निक्खू खुढे तहेच थेरे य । तिपत्तिरुपजायते इत्यादयोऽनेके गुणा गुरोरन्तिके प्रतानि गृ- गहणं तेसिं इणमो, संजोगगमं तु वोच्छामि ।। पहतः संभवन्ति, तथाऽमन्नपि विरतिभावो गुरूपदेशश्रवणा- आचार्यो गच्चाधिपतिः, अभिषेकः सूत्रार्थतन्जयोपेत प्रा. निश्चयसारपालनातो वाऽवश्यंभावी सरल हृदयस्यतिद्वयोरपि चार्यपदस्थापनादः, निक्षुः प्रतीतः, क्षुल्लको बालः, स्थविरो गुरुशिष्ययोमृषावादाभाव एव गुणलाभात् । शगय पुनर्न वृद्धः, पतेषां पञ्चानामपि ग्रहणमनन्तरमेव वक्ष्यमाणं संयोगदेयान्येव गुरुशा बनानि, ग्यस्थतया पुनरझक्तिशाठ्यस्य श- मसंयोगतो गमाः प्रकार यस्य तत्तथा वक्ष्यामि । ठस्यापि दाने गुरोः शुष्परिणामत्वाददोष एव । न चैतत् स्व. प्रतिक्षातमेव निर्वाडयतिमनीषिकयोच्यते । यदुक्तं श्रावकाशप्तौ सचे वि तारणिजा, संदेहानो परक्कमे संते । "संतम्मि विपरिणामे, गुरुमूलपवजणम्मि एस गुणो। दढया आणाकरण, कम्मखयोवसमवुझी य ११॥ एकिकं अवणिज्जा. जाव गुरू तस्थिमो नेदो । इह अहिए फलभाचे, न होश उभयपलिमंथदोसो वि । पराक्रमे शक्ती सत्यां सर्वेऽप्याचार्यादयस्तारशातु मंदेहान्न तय भावम्मि वि एह वि, न मुसावाश्री वि गुणभावा ॥२॥ धाादकनिमजनरक्षणात्तारणीयाः, एकैकोऽपि यावद् गुरुरपतम्गहणोसिय तो, जायकालेण अप्सढभावस्स । नेतन्यः, किन्तु तत्राय भेदो भवति । स्यरस्स न देयं चिय, सुमो छलिश्रो वि जर असदो" ॥३॥ | तरुणोनिफन्न परिवारे, सलदिए जो विहोति अन्भासे। कृतं विस्तरण । कथं गृहातीत्याद-इत्वरं चतुर्मासादिप्र- अनिसेगम्मि य चनरो, सेसाणं पंच चेव गमा ॥ मितमितरद् वा यावत्काधिकं वा कालं यावदर्थपरिज्ञानानन्तरं, इह द्वावाचा, एकस्तरुणोऽपरः स्थविरो,यद्यस्ति शक्तिस्ततो तानीति प्रस्तुतवतानीति । ध० २० । एकेन्द्रियादीनामुपादा द्वावपि तारणीयो, अथ नास्ति, ततस्तरुणो निस्तारणीयः । नम् । प्राव०४०। (गृहीतानां च परिष्ठापनं 'परिट्ठाब- अथ द्वावपि तरुणी, ततो यस्तयोनिष्पन्नः सम्यकसूत्रार्थकुश. णा' शब्दे, गृहीतस्य पुनः परिष्ठापनं तु परिघावणिया' शन्दे) लः स तारथितव्यः। अथ द्वावपि निष्पन्नावनिप्पी वा, ततो अन्यानि प्रहणानि यः सपरिवार स तारणीयः। अथ द्वावपि सपरिवारावपरिवातिषिहं च हो गहणं, सच्चित्ताचित मीसगं चेव । रौ वा, ततो यस्तत्र सलब्धिको लम्धिसंपन्नस्तं तारयेत् । अप Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५७) गहण अभिधानराजेन्द्रः। गहण द्वावपि सन्धिकावलब्धिको वा, ततो योऽज्यासे अस्ति स्थितः तरीतुं शक्नोति, इतरस्तु तरुणः समर्थतया कदाचित स्वस निस्तारणियः। अत्रार्थे विशेषसंप्रदाया-द्वयोरभ्यासे स्थित- यमेव संदेहमुदकबाहकहरणरूपं प्राणसंदेहकारणं प्रतरेत् । योर्यस्तरीतुमशक्तः स तारण यः। एवमेते आचार्यस्य पञ्च गमा अतोऽत्र उदारं स्थूरमिदं भवदीयं वचनं यदलवांस्तक्ष्णो गृह्यअभिहिताः,अभिषेकस्तु नियमान्निष्पन्नो भवति, अन्यथा तत्वत ते, अबलस्तु स्थविरो मुच्यते। प्राचार्यपदस्थापनयोग्यत्वानुपपत्तेः। ततस्तस्मिन्नभिषेके निष्प इत्थं परेणोक्त सूरिराहमानिष्पन्नगमाभावात शेषाश्चत्वारोगमा एवमेव वक्तव्याः। शेपाणां निकुक्षुल्लकस्थविराणं पश्चापि गमा भवन्ति, ते चाचा आय परे नवगिएहइ, तरुणो थेरो य तत्थ जयणिज्जो । यवद्वक्तव्याः। न च बालस्य निष्पन्नता श्रीवज्रम्वामिन श्वजा अणुवक्कमे वि थोबी, चिट्ठ कालो उ थेरस्स ।। वनीया, तरुणता तु प्रथमकुमात्वे वर्तमानस्य, शेषस्य तु वृद्धता तरुण आचार्यादिरपूर्वसूत्रार्थग्रहणतपःकर्मकरणादिना, वस्त्रमन्तव्या। त्रयाणामपि च निक्षुप्रभृतीनां परिवारो गुरुप्रदत्तो पात्रादिसंपादसूत्रार्थप्रदानादिना चाऽऽत्मानं परांश्चोपगृहाति, मातापितृभ्रातृजगिनीप्रभृतिप्रवजितस्वजनवर्गो वा इष्टव्यः । स्थविरस्तु तत्राऽऽत्मपरोपग्रहकरणे नजनीय. कदाचित कर्तु अथ स्त्रीविषयं पञ्चविधग्रहणमुपदर्शयति समर्थः, कदाचित्तं नेति भावः । तथा अनुपक्रमेऽपि आयुष पवितिणिजिसेगपत्ता, थेरीतह भिक्खुणी य खुड्डी य। उपक्रममन्तरेणापि स्थविरस्य स्तोक एव कालोऽवशेषस्तिष्ठति, गहणं तासिं इणमो, संजोगगमं तु वोच्छामि । तरुणस्य तु सोपक्रमायुषोऽपि स्तोको वा भवेद, बाघीयान् वा, ततो "सोबकमम्मि देहे" इत्यादि यमुक्तं तत्कि वदेत् ? । प्रवर्तिनी सकसाध्वीनां नायिका, अनिषेकं प्राप्ता प्रवतिमीपदयोग्या, स्थविरा वृक्षा, नितुणी प्रतीता, क्षतिका वा अथ यदुक्तं बालवृद्धादयो लोकेऽप्यनुकम्पनीया इति तत्वलाः एतासां पश्चानामपि ग्रहणमिदमनन्तरमेव संयोगगम रिहाराय लौकिकमेव दृष्टान्तमाहस्तं संयोगतोऽनेकप्रकारं वक्ष्यामि । दुग्घासे खीरवती, गावी पुस्सा कुडुंबभरणट्ठा । यथाप्रतिझातमेवाह मोत्तु फलदं च रुक्खं, को मंदफला सझिन्न पसे ।। सव्वा वि तारणिजा, संदेहाओ परकमे संते । दासं दुर्मिकं तत्र यथा कीरवती, भूम्नि मतुप्रत्ययविधानात् एकेकं अवणिज्जा, जा गणिणी तत्थिमो नेदो ॥ बहुक्कीरा, गौः कुटुम्बभरणार्थ पोष्यते-चारिप्रदानादिना पुष्टि तरुणी निष्फत्रपरिवारा,सन दिया जा य होइ अन्नासे। नीयते, एवमस्माकमपि य प्राचार्यादिस्तरुणादिगुणोपेततया अभिसेगाए चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा ।। श्रात्मनः परेषां चोपग्रहं कर्तुं समर्थः स निस्तीर्यते, तस्य निस्ता रणे दि बहुना बालवृक्षादीनामपि तदाश्रिता अनुकम्पा कृता,अदं गाथाद्वयं साधुगतगाथाद्वयमिव व्याख्येयम् । थ तं परित्यज्य सुखकस्त्वचिरादिम्तस्य श्रापदं स्तार्यते, ततो परः प्रेरयन्नाह बहवो बालादयस्तदाश्रिताः परित्यक्ता भवन्ति । अपि च-फलबासा य वुला य अजंगमा य, लोगे वि एते प्राणुकंपणिज्जा।। नादिना पुष्टिदायिनं वृकं मुक्वा को नाम मन्दफलान् वा वृक्काम् सवाणुकंपाएँ समुज्जएहिं, विपज्जोऽयं कहमीहितोने॥ पुष्णीयात्-सरणिसालेलसेचनादिना पुष्टि प्रापयेत्, न कोपी त्यर्थः। उपनययोजना प्राग्वत् द्रष्टव्या। उक्त सचित्तग्रहणम् । यासाश्च वृक्षाश्च अजङ्गमाश्चेति लोकेऽपि तावदेते अनुकम्पजीया इष्यन्ते, अतः सर्वेषामपि निर्विशेषमनुकम्पायां समु अथ मिश्रग्रहणमाहचतैः कथमयं 'ने' प्रवद्भिर्विपर्य या चैपरीत्यमीहितमङ्गीकृतं य- एमेव मीसए वी, नेयव्वं हो आणुपुबीए । देवं बालस्थविरौ परित्यज्य आचार्यादीनिस्तायन्ति, वृद्धं वा- वोच्छेदे चनगुरुगा, तत्य वि आणाणो दोसा ॥ ऽजक्रममाचार्य विमुच्य तरुणस्तार्यते । पर एवं प्रत्युत्तरमाशङ्कां परिहरन्नाह एवमेव मिश्रविषयमपि ग्रहणमानुपूपी आचार्यप्रवर्तिम्यादि परिपाट्या ज्ञातव्यं भवति । अथ यथोक्तक्रममुखवय विपर्यासेन जइ बुझी चिरजीवी, तरुणो थेरो य अप्पसेमाऊ। पुरुषाणां स्त्रीणां चाग्रहणं करोति ततश्चतुगुरुकाः । तत्रापि सोवक्कमम्मि देहे, एयं पि न जुज्जए वोत्तुं । चाज्ञादयो दोषा भवन्ति । यदीत्यथशन्दार्थे,अथैवं भवतां बुद्धिः स्यात-चिरजीवी प्रनूत- ___ अथ मिश्रग्रहणं कीदृशं प्रतिपत्तव्यमित्युच्यतेवर्षजीवितस्तरुणः,स्थविरः पुनरल्पशेषायुःस्तोकशेषायुष्कः,अतः मीसगगहणं तत्थ न, विनिवामो जो सर्जममत्ताम् । स्थविरं विमुच्य तरुणं तारयामः । एतदप्यसमीचीनम् । कुत इस्याह-सोपक्रमे अध्यवसाननिमित्तादिभिर्गतायुष्कापक्रमका अहवा वि मीसयं खलु, उनो पच्चक्खो घोरो॥ रणैः सप्रत्वपाये देहे सति एतदपि चिरजीवितादिकं वक्तुं इह यः सभाण्डमात्राणां पात्रमात्रकाद्युपकरणसहितानां सान युज्यते। ध्वीनां वा विनिपात उदकवाह के निमज्जनं तत्र तद्विषयं यद् प्र. अवि य हु असहू थेरो, पयरत्तियरो कदा संदेहं। हणं तन्मिश्रग्रहणमुच्यते। अथ वा यदुभयोरपि साधुसाध्वी लक्षणयोः पक्कयोः घोरो रौद्रो युगपदुदकवाहकेनापहरणओरालमिदं बलवं, जं घेप्पइ मुच्चई अवलो ॥ लक्षणोऽत्ययः प्रत्यपायस्ततो यद् प्रहणं तन्मिश्रग्रहणामिति मपिचेत्य न्युच्चय, हुनिश्चये, स्थविरो वृद्धत्वादेवासहिष्णुन मन्तव्यम् । ११५ Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमा (५८) गहण अभिधानराजेन्द्रः। गहण अथामुमेव द्वितीयव्याख्यानपकमजीकृत्य तिर पतामेव गायां व्याख्यानयतिस्करणविधिमाह श्रोहे नवग्गहम्मि य, अजिनक्गहणं तु होइ अचित्तो। सव्वत्थ वि आयारियो, नित्यीरइ तो पवित्तिणो होइ।। इयरस्स वि होइ दुहा, गहणं तु पुराण उवहिस्स ।। तो अभिसेगं पत्तो, सेसेस तु इत्थिा पढमं ॥ श्रचित्तस्य वनपात्रादेरनिनवग्रहणं विधा-भोघापधिविषयम, इयोरपि पक्षयोरुदकेन द्रियमाणयोर्यद्यस्ति शक्तिस्ततो युग- भोपग्रहिकोपधिविषयं च । इतरस्यापि पुराणोपधिग्रहणं विधा पनिस्तारणं कार्यम् । अथ नास्ति युगपनिस्तारणसामर्थ्य ततः उपस्थापनाग्रहणमुपस्थापितग्रहणं चेत्यर्थः। सर्वत्रापि प्रथममाचार्यों निस्तारणीयः । प्राचार्यानन्तरं प्रवर्तिनी अथ वा अभिनवग्रहणमिदमनेकविधम्सारयितव्या भवति, ततः प्रवर्तिन्या अनन्तरमभिषेकपदं प्राप्तः, जायणनिमंतणुवस्सय-परियावनं परिवविय नहें । ततः शेषेषु तु निक्षुप्रभृतिषु पदेषु प्रथमं स्त्री निस्तारयितव्या, ततः पुरुषः । तदा दि भिक्षुनिकुण्योर्मध्ये प्रथमं भिक्षुणी, ततो पम्हुट्ठ पमिय गहियं, अभिनवगहणं अणेगविहं । मिस्तारणीयः, क्षुछ कक्षुल्लिकयोमध्ये प्रथम कुलिका, ततः। याचा अनिलषणं, निमन्त्रणा गृहस्थानामत्यर्थना,तत्पुरस्सरं क्षुद्धकः । स्थविरयोः प्रथम स्थविरा, ततः स्थविर इति । पद्वस्त्रादेर्ग्रहणं, यापाश्रये पर्यापन्नस्य पथिकादिजिविस्मृत अथ किमर्थ तेषु प्रथमं स्त्री निस्तार्यते परित्यक्तस्य वस्त्रादेर्ग्रहणं, यय परिष्टापितस्य भूयः कारण प्रहणम, अथ नटं हारितं, 'पम्हुटुं' विस्मृतं, पतितं हस्तात पअन्नस्स वि संदेहं, दवं कंपति जा लयाओ च । रिभ्रष्ट.गृहीतं प्रत्यनीकेन बलादाचिद्य स्वीकृतम,पतेषां पुनर्लअवलाओ पगइजया-लुगा तु रक्खा अतो इत्थी । धानां यद् ग्रहणमेवमादिकमनेकविधमभिनवग्रहणं मन्तव्यम् । अन्यस्यापि पुरुषादेः संदेहमापदं दृष्ट्वा स्त्रियः पवनसंप. अथ याञ्चानिमन्त्रणाग्रहणयोर्विधिमतिदिशन्नाहतो लता श्व कम्पन्ते, याश्च अबत्राः प्रकृत्या स्वभावेनैव जो चेव गमो हेडा, उस्सग्गाउ वत्थगहणे तु । व भयालुका भयबहुना अतस्ताः स्त्रियःप्रथमं रक्षणीयाः। विहोवहिम्मि सो चिय, कास त्तिय किं ति कीस ति॥ माह-साधुसाध्वीनां निस्तारणे किमेष एवाचार्यप्रवतिन्यादिके क्रम उतान्यथाऽप्यस्ति ? सच्यते य एव गमः प्रकारोऽधस्तात् पीठिकायां कायोत्सर्गादिके वस्त्रग्रहणविषयो वर्णितः, स एवाऽत्र द्विविधोपधेरौधिकौपग्रअस्तीति घूमः । तथा चाह हिकल कणस्य सत्कमेतद्वस्त्रपात्रादिकं पूर्वमासोदू, भविष्यति जं पुण संजामो, जाविणमहियममुकवत्थो । घा, कस्माद्वा प्रयच्छसीति पृच्छात्रयशुको षष्टव्यः। नपाश्रयपतत्थुकम पि कुणिमो, अोदइए वणियनूया य ॥ पिनवखादिग्रहणविषयस्तु विधिरिहैबोद्देश्यक पुरस्तादपुनः दुल कादिकमपि अमुकादाचार्यादेः वस्तुनः सकाशात भिधास्यते। परिष्ठापितादेस्तु यथा कारण तो भूयो ग्रहणं क्रियते प्रवचनप्रनावनादिभिर्गुणैरधिकं सातिशयं भाविनं भविष्यन्तं तथा व्यवहाराध्ययने भणियते । गतमभिनवग्रहणम् । अथ संभावयामः । तत्र वयमुक्तमपि यथोक्तक्रमोन्लङ्घनमपि कुर्महे, पुराणग्रहणम् । तश्च द्विधा-उपस्थापनाग्रहणम, उपस्थापिकल्लकादिकमपि प्रथमं तारयाम इत्यर्थः । कथंभूता इत्याह-के तग्रहण च। दश्च व्ययः, औदयिकश्च लाभः, बेदौदयिकम; तत्र वणिग्जूताः तत्राऽऽधं तावदाहसन्तः । किमुक्तं नवति ?-यथा वणिग्देयं प्रतलाजमल्पव्ययं कोप्परपट्टगगहणं, वामकरानामियाऍ मुहपोति । वस्तु, तस्य ग्रहणं करोति । एवं वयमपि यत्र विशिष्टपात्रते वस्तुनि गृहीते प्रवचनप्रजायनातीर्थाव्यवच्छेदादिको नूयान रयहरण हस्थिदंतु-अएहि हत्येहुवट्ठवणं ॥ लाजः समुज्जृम्नते, स्वल्पश्चेतरपरित्यागलवणो व्ययः, तंकुल पराभ्यां चोलपट्टस्य प्रदणं कृत्वा वामकरस्थया अनाकादिकमपि गृह्णीम इति। एवं तावदुदकविषयं ग्रहणमभिहितं, | मिकया मुखपोतिकां गृहीत्वा राजोहरणं हस्थिदन्तोन्नताज्यां तथैव एतेष्वपि सचित्तमिश्रभेदात् तद् द्विविधमपि वक्तव्यम। हस्ताज्यामादाय उपस्थापनं कर्तव्यं शकस्य व्रतस्थापनाधिअथाचित्तग्रहणमन्निधित्सुराह षये इत्यर्थः। अथोपस्थापितग्रहणमाहअञ्चित्तस्स उ गहणं, अनिनवगहणं पुराणगहणं च । उवगवियस्स महणं, अहलावे चेव तह य परिनोगे। श्रोघरवणाएँ गहणं, तह य उबट्ठाविए गहणं ॥ एक्ककं पायादी, नेयध्वं आणुपुत्रीए । अचित्तं वस्त्रपात्रादिकमुपकरणं, तस्य ग्रहणं द्विधा-अभिनव. उपस्थापितस्य यदुपकरणं तद विधा-यथाभावः, परिभोगग्रहणं, पुराणग्रहणं च । तत्राभिनवं प्रथममेघ यद् वस्त्रादर्ग्रहणं इच । अनेन च द्विविधेनापि ग्रहणेन पकैकं पात्रादिकं भानुपू. सदभिनवग्रहणं, पुराणस्य प्रागगृहीतस्य चोलपट्टकादेः कूर्प- ा परिपाच्या नेतव्यं प्रदीतव्यम् । रादिना ग्रहणं विधा-श्रोधोधिविषयम, उपस्थापनायां ग्रहोपस्थितौ तद्ग्रहणम् । तत्रोपस्थापनायां हस्तिदन्तोन्नताका इदमेव नावयतिरहस्तादिनिर्यजजोहरणादि गृह्यते तदुपस्थापना ग्रहणम् । 7. पमिगवियं तु अत्थइ, पायाई एस होतऽहाभायो । पस्थापितस्य छेदोपस्थापनीयचारित्रं प्रापितस्य यनुपर्धा- सहन्य पाण जिक्खा-निविण पायपरिजोगो॥ रणं, परिजोगो वा तदुपस्थापितग्रहणम्। पत्पात्रादिकं प्रतिष्ठापितं विवक्तितसाधुलकणेन स्वामिना Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) गहगा अभिधानराजेन्सः। गहण प्रगृहीतं सत प्रास्ते तदिदानी परिभुज्यते, पष यथाभावो भव- संश्लाघितम, अतो नैव भवता वक्तुं युज्यते। अथवा नात्र पर्व ति । तच्च परिप्रदो, धारणमित्यर्थः । परिजोगो नाम यत्पा- रुष्यामो गर्व फतुमहामः । कुत इत्याह-अहे मूजने प्रकृतित्रादि यस्यां वेलायां परितुज्यते. तच्च सत् शोभनमाचार्यादि- रेषा, यथाविधज्ञानविकलोऽप्येष औरत्यमुबहति॥ प्रायोग्यं यद् व्यं यापान भैकं वाऽऽत्मनो योग्यं सत्पात्रे क्षपकः प्राह. गृह्यते, निर्लपनं वाचमनं, तेन विधीयते । एष पात्रस्य परिभोगः । ह च पात्रशब्देन प्रतिगृहीतमात्रकं वा गृहीतं तथा मूलेण विणा हु केलिसे, तलु पवले य घणे य सोनइ । पाणिदयत्यं संथर, पमज चिलिमिलि निसिज्ज कालगते । न य मूलविजिन्नए घडे, जामादीणिं धरे कत्था ॥ गेशन लज्ज असहू, व्यण सागारिए लोगो।। मुखेन विना तरुवेकर, चशब्दावर्षिशब्दाथी,प्रवरोऽपि प्रधानो पि,सहकारादिरपीत्यर्थः। घनोऽपि पत्रबहुलोऽपि, कीरशःशो. वर्षाकल्पादिके प्राणिदयार्थमकायादिजीवरकाया निमित्तं प. भते?,न कीडगपीति भावः। एवं बिनयमूलविकलो धर्मोऽपिम रिभोक्तव्यं कल्पत्रयं, शीतरवार्थ संस्तारकोत्तरपट्टकैः स्तरण शोभा विभर्ति, तथा न च नैव मूले वुध्ने विभिन्नो घटो जलादी. मास्तृतं तदर्थम, रजोहरणं च प्रमार्जनार्थ गृह्यते, चिलिमिलि. नि वस्तूनि क्वचिदपि धारयति । एवं धर्मघटोऽपि विनयमूलः का दवरिकादावुपयुज्यते रजोहरणस्य, निषद्याद्वयं निषदना. संजातनिषो न किमपि ज्ञानादिजवं धारयितुमोटे, अतोऽt र्थमादीयते । ( कालगए ति) कागतस्याऽवादनार्थमनम्त. विनयं कारयामीति प्रक्रमः। कादिकं गृह्यते,ग्यानत्वं वा कस्यापि संजातम्-अप्रावृतः सुखनाऽऽस्तामिति कृत्वा तस्याने चिलिमिनिका दीयते। (सज्जत्ति) किंवा मर न नार्य, विहे गहणम्मि जं जहिं कमती । मज्जाव्यपगमनार्थ चोलपट्टकोपरि युज्यते (असदुत्ति) राजादि- | जन अभिनवगहणं, सच्चित्तं तेन नाय ।। प्रत्रजिता असहिष्णवस्ते कल्पादिकं प्रावृणीयुः। (दण ति) __ सचित्ताऽचित्तभेदात् द्विविधेऽपि ग्रहणे यद् यत्राभिनय नखहारीणकापिप्पलकादिना नस्त्रप्रलम्बादीनां वेदनं क्रियते पुराणं वा कामति, तत तत्र मया किंवा न ज्ञातं, येनैव न जाना. (सागारिए त्ति) शैक्षस्य संज्ञातकानां सागारिक, ततः कल्पा-1 सि ग्रहणस्वरूपमित्याद्यभिधीयते, इतरः प्रतिबूते भएयते - दिकं प्राचार्य प्रच्छन्ने स्थाप्यते । एवमादिकः सोऽपि यथा- प्रोत्तरम-अजिनवं सचित्तग्रहणं त्वया न विज्ञातम् । तस्विदम्योगमौघिकस्योपग्राहकस्य चोपधे परिभोगो मन्तव्यः । उक्तं अफारस पुरिसेसुं, वीसं इत्थी दस नपुससुं । पुराणग्रहणम् । तदुक्तौ च समर्थितमचित्तग्रहणम । पन्नावणा अणारहा, अनलाए एत्तिया बुत्ता। एवं कपकेण त्रिविधे ग्रहणे प्ररूपिते सति इतरः प्राह अडयानसिं एते, बज्जित्ता सेसगाण तिएहं ति। नवरि काहमि हिट्ठा, ण याणसि वयणं न होइ एवं तु । अजिनवगहणं एयं, सचित्तं तेन विनायं ॥ चनरो गुरुगा पुच्चा, नासेहिसि तुं जहा वेजो ॥ पुरुषेषु पुरुषविषया "बालबुले नपुंसे य" श्यादिगाचायोक्ता यमुपरि कथयितुं योग्यं तत्त्वमधस्तात् पूर्व कथयसि । इयमत्र अष्टादश भेदाः, स्त्रीषु त पव गुर्विणीबालबरसासहिता बिभावना-यद्भवता प्रथममेवाऽऽचार्यादिविषयं पुराणसचित्तप्रह शतिभेदाः, नपुंसकेषु तु 'पंए वाइए कीवे' इत्यादयो दश प्रेणमभिहितं तदशक्कलकणानिनवसचित्तग्रहणप्ररूपणादर्द्ध दाःप्रवाजनाया अनर्हा अयोग्याः, अत एव एतावन्तो नेवा प्रप्ररूपयितुं योग्यमासीत्, अजिनवपुराणपर्याययोः पूर्वपश्चात् नया इति निशीथाऽध्ययने उक्ताः । अली नूषणपर्याप्तिवारणेषु कालभावित्वेन भावात, तस्य चाभिनवसचित्तग्रहणस्य भवता इति धातुपाठादपर्याप्ताः, प्रवज्यापरिपालने असमर्धा इत्यर्थः। प्ररूपणव न कृता, अत एव न जानासि प्रहणस्वरूपं यथा एतान् सर्वसंख्यया अष्टाचत्वारिंशभेदान् वर्जयित्वा, शेषाणां बद बन्दित्वा विनयन पृच्छ इत्येवमहंकारदूषितं वचनतयोक्त प्रयाणामपि पुरुषस्त्रीनपुंसकानां प्रव्राजनं कर्तुं कल्पते । एतदमेवमभिधीयमानं न भवति सतां पूजनीयमिति वाक्यशेषः। निनवग्रहणं सचित्तं ते त्वया न विज्ञातम् । एवं तेनोक्ते सति एवं कुर्वाणस्य भवतः चत्वारो गुरुकाः। क्षपकः पृच्छति-कम कपकः सती नोदनेत्यभिधाय प्रवृतस्तथैव यथा रताधिको मम कुणमापतितं येनैवं प्रायश्चित्तं प्राप्मोमि? इतर पाद-वं वनप्रदानं कर्तुमर्हति । बृ० ३ उ० । निस्तारणे, म्य०१००। पल्लवग्राहितया सम्यक सिद्धान्ताऽभिप्रायमविज्ञाय जल्पसि।। (राजविरे सीदतां निस्तारणं 'राय?' शब्द) एवं च प्रशापयन् स्वमात्मना नष्टोऽन्यानपि नाशयिष्यसि, निर्ग्रन्थीसमुद्धरणम्पथा स प्रथमोद्देशकभणितो वैद्यः" पूर्वाहे वमनं दद्या-दपराहे विरेचनम् । पंचहिं नाणेहिं समणे निग्गये निग्गंथिं गिएहमाणे वा वातिकेष्वपि रोगेषु, पथ्यमाहुर्विशेषणम्"॥१॥ अवलंबमाणे वाणाइक्कमइ । तं जहा-निग्गथिं चणं अत्रयरे इतिश्लोकमात्रं गृहीत्वा चिकित्सां कुर्वन विनष्टः, एवं प्रवान- पसुनाइए वा पक्खिजाइए वा ओहाएज्जा, तत्थ निग्गंथे पीति चिरन्तनगाथासमासार्थः। निग्गंथिं गिएहमाणे वा अवलंबमाणे वा माइक्कमह ॥ अथैनामेव किञ्चिद् विवृणोति (गिरहमाणे त्ति ) बाह्वादाबले गृहन् अवलम्बमानः पतबयणं खलु नत्थि कत्थई, गवभरियं कुससहि पूजिय। । न्ती बाहादी गृहीत्वा धारयन्, अथ वा " सब्वंगियं तु गहणं, अहवा न विपक्खनस्सिमो, पाई एस अजाणुए जणे॥ करेण अवलंबणं तु देसम्मि नि" नातिकामति स्वाचारमा इतरः केपकं कृते ईरशं मां वन्दित्वा विनयेन पृच्च प्रत्येवंरूपंग-| घा गीतार्थः,स्थविरो वा, निन्धिको यथा कथञ्चित् पशुजाबंझरितमहकारभारगुरुकं वनं कुशसविंदविन कुत्रापि पूजि-। तीयो हप्तगवादिः, पविजातीयो गृध्रादिः (मोहापालि). Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०६०) अभिधानराजेन्द्रः। गहण पहन्यात्, तति उपहनने गृहन्नातिक्रामति, कारणिकत्वात्। नि- निन्धीं गृह्णन्तीं दृष्ट्वा कोऽपि मिथ्यात्वं गच्छेत् अहो! मायाझारणत्वे तु दोषाः। यदाह-"मिच्चत्तं उड़ाहो,विराहणा फास- विनोऽमं अन्यद्वदन्ति अन्यश्च कुर्वन्ति, स्मृतिकरणं वा भुक्तभोभावसंबंधो। पडिगमणाई दोसा, जुत्तानुत्ते य नायब्वा" ॥२॥ गिनो जवति । श्रनुक्तनोगिनस्तु कुतूहलं.ततश्च संयमाधिराधना, स्था० ५ टा०२ उ०। स्पर्शतश्च जावसंबन्धो जवनि । प्रतिगमनादयो दोषा शुक्ता. निगए निगयि दुग्गंसि वा विसमंसि वा पव्वयंसि वा नामभुक्तानां वा साधुसाध्वीनां ज्ञातव्याः । अथ विषमपदं व्याख्यातिपखलमाणिं वा परडमाणिं वा गिएहमाणे वा अवलंब तिविहं च होति सिम, तमि सावय मणुस्सविसमं वा । पाणे वा नाइकमड़ । निग्गंथे निम्गथि सेयंसि वा पंकसि वा तंसि वि सो चेव गमो, णावोदग ते य जतणाए । पणगंसि वा उकसमाणिं वा उद्ज्कमाणिं वा गिराहमाणे वा अलंयमाणे वा नाइकमइ ।।निग्गंथे निग्गंथि नावं आ त्रिविधं च भवति विषमम्-भूमिविषम, श्वापदविषम, मनुष्य विषमं च । नूमिविषमं नाम गर्तपाषाणाद्याकुलो भूभागः। श्वारुजमाणि वा० नाइक्कम। पदमनुष्यविषमे तु श्वापद मनुष्यजुर्गवन्मन्तव्ये । अत्र नूमिअस्य सूत्रत्रयस्य संबन्धमाह विषमेणाधिकारः, पर्वतपदं तु प्रतीतत्वात् न व्याख्यात, सो पुण दुग्गे लग्गे-ज कंटओ लोयण म्मि वा अणुगं । तस्मिन्नपि विषमे पर्वते वा निर्ग्रन्थी गृह्णतश्चतुर्गुरुकप्रायश्चि त्तादिरूपः स एव मगो भवति, यो दुर्गे भणितः। तथा नावुदके इति दुर्गसुत्तजोगो, थझा जन्नं चेयरे दुविहे ॥ नौकादौ च वक्ष्यमाणस्वरूपे निर्ग्रन्थी गृह्णतो निष्कारणे त यः पूर्वसूत्रे पादे प्रविएः कण्टको, लोचने बाऽणुकं प्रविष्टमुक्तं, एव दोषाः। (जयणाए त्ति) कारणे यतनया दुर्गादिषु गृढीस कण्टकस्तश्चागुकं दुर्गे गच्छत प्रायो लगेत, अतो दुर्ग- यादवलम्बेत वा । यतना चाग्रतो वक्ष्यते । सूत्रमारज्यते, इत्येष धर्गसूत्रस्य योगः संबन्धः। धुर्ग च स्थलं, प्रस्खलनप्रपतनपदे व्याचष्टेततः स्थलाजनं जवतीति कृत्वा दुर्गसूत्रानन्तरमितरस्मिन् द्वि. नूमी' असंपत्तं, पत्तं वा हस्य जाणुगादीहिं । विधे पङ्कविषये नौविषये च सूत्रे प्रारम्नः क्रियते । अनेन संबग्धनायातस्यास्य व्याख्या-निग्रन्धो निर्ग्रन्थीं उर्गेचा,विषम दा, परिखलणं णायव्वं, परमण नूमीए गनहिं ।। पर्वते वा (पक्वलमाणि वत्ति) प्रकर्षण स्खलनगन्या गच्च नूमावसंप्राप्तं हस्तजानुकादिनिःप्राप्तं वा प्रस्खलनं ज्ञातव्यम, न्ती भूमावसंप्राप्तां चा पतन्ती पतितुकामामित्यर्थः । (पण्डमा | भूमौ प्राप्तं सर्वगात्रैश्च यत्तत्पतनम् । रण व ति) प्रक्रर्षेण नूमौ सर्वैरपि गात्रैः पतन्ती ( गिएदमाणे व ___ अथवा वि दुग्ग विसमे, थद्धं जीतं व थेरो तु । ति) बाहादावने गिढन् वा (अवलंबमाणे यत्ति) अवलम्बमानो सिचयंतरेतरं वा, गिएहतो होति निद्दोसो।। वाहादौ गृहीत्वा धारयन् , अथ वा गृहन् सर्वाङ्गीणं धार अयबेति प्रकारान्तरद्योतकः,उक्तास्तावनिग्रन्थी गृह्णतो दोषाः, यन्नवलम्बमामो देशतः करेण गृहन् , साहयनित्यर्थः । नाति परं द्वितीय एव दुर्गे विषमे वा तां स्तब्धां भीतां वा तार्थः कामति स्वाचारमाझा वा इति प्रथम सूत्रम । द्वितीयसूत्रमप्ये. घमेव, नवरं पङ्को नाम पङ्के पनके वा मजले यत्र निमज्जते, स्थविरः, सिचयेन वस्त्रेणान्तरितामितरां वा गृहन् निर्दोषो भः यत्र वा पङ्कः कईमः,यत्र वा पनको नाम आगन्तुकप्रपतनहेतुभू. वति । व्याख्यातं प्रथमसूत्रम् । तज्वरूपकद्देम पव, तत्र वा, उदकं प्रतीतं, तत्र वा (उकसमा. संप्रति क्षितीयसूत्रं व्याख्यातिणि वत्ति) अपकसन्तीं पङ्कपनकयोः परिसन्ती (सपुज्क- पंको खलु चिक्खिल्लो, आगंतपय ओ दुओ पणो । माणि च त्ति)अपोह्यमानां वा उदकेन च। नीयमानां गृह्णन् सो पुण सजनो सेमो, सीतिज्जति जत्थ विहे वी ।। अत्रनम्बमानो वा नातिकामति । तृतीयसूत्रे निग्रन्थीनामेव नाम पङ्कः स्ना 'चिक्खिल्ल' उच्यते,आगन्तुकप्रतनको द्रुतश्च पनको पसंतीला अवरोहन्ती वा गुडन् वा अवलम्बमानो वा नाति यत्र पुनर्द्विविधेऽपि पड्के पनके वा 'सीजति' निमजते, स कामतीति सूत्रत्रयार्थः। पुनः सजलः सेक उच्यते ! सम्प्रति भाष्यकारो विषमपदानि व्याचष्टे पंकपणएसु नियमा, उगसण उज्कणं सिया सेए । तिविहं च होति मुग्गं, रुक्खे सावय मणुस्सदुग्गं वा । थिमियम्मिणिमजए भा, सजले सेए सिया दो वि ॥ णिकारणम्मि गुरुगा, तत्थ वि आणादिणो दोसा ।। पङ्कपनकयोनियमादपकसनं इसनं भवति,सेके तु 'उदुज्ज' त्रिविधं च भवति दुर्गम् । तद्यथा-वृतदुर्ग,स्वापददुर्ग, मनु-| अपोहनं पानीयन हरणं स्यात, स्तिमिते तु तत्र निमजनं नवभ्यर्ग च । यवृक्षरतीव गहनतया दुर्गमम, यत्र वा पथि वृक्षः त्। सजले तु सेके द्वे अपोदननिमज्जने स्याताम् । पतितस्तद्वकम् । यत्रव्याघ्रसिंहादीनां भयं तत् श्वापददुर्गम। अथ तृतीयं सूत्रं व्याख्यातियत्र म्लेच्छबोधिकादीनां मनुष्याणां भयं तन्मनुष्यपुर्गम् । एतेषु त्रिवपि पुगेषु यदि निष्कारणां निग्रन्थी गृह्णाति, अवलम्बते ओयारण उत्सारण, अत्थरण च मुग्गहे य सतिकारो। था, चतुर्गुरु, प्राचादयश्च दोषाः। वेदो व दुवेगयरे, अतिपेलण नाव मिच्चत्तं ॥ कारणे निर्ग्रन्थीनामवतारयन्नारोपयेत्,उत्तारयेद् च,यश्चास्तमिच्चत्ते सतिकरणं, विराहणा फासनावसंबंधो । रणं च दुर्घहे वा करोति, सदा स्मृतिकारो तुक्तभोगिनो भूयो पडिगमणादी दीसा, नुत्ताजते य ऐयव्वा ।। भवति, छेदो वा नखादिनिर्द्धयोरेकतरस्य भवेत् । प्रतिप्रेरणा Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गहण अनिधानराजेन्द्रः। गहण च, नाबो मैथुनाभिलाष उत्पयेत, मिथ्यात्वं वा तत् दृष्ट्वा क- च गिएहति,ते एवमाहंसु-ता राहणं देवे चंदं सूरं च गेएहचिच्छेत् । एते नाबुदके निर्ग्रन्थी गृह्णतो दोषा उक्ताः। माणे वुद्धं तेणं गिरिहत्ता बुद्धतेणं मुयति , बुद्धतेणं अथ नावुदके पोपरि वा तारयतो दोषानाह गिठिहत्ता मुझतेणं मुया, मुच्छतणं गिएिहत्ता बुअंतो जले वि एवं, गुज्जंगफास इच्चपिच्चंते । कंतेणं मुयश, मुरतेणं गिएिहत्ता मुमनेणं मुयति, मुच्चेज व आपन्ना, जा होउ करेज वा हावे ।। वामभुयंतेणं गएिहत्ता वामनुयतेणं मुयति, वामनुअन्तर्जन्ने अपि जवान्यन्तरेऽपि गच्छन्तीं गृह्णत एवमेव दोषाः | यंतेणं गिरिहत्ता दाहिणनुयंतेणं मुयति, दाहिणजुयंतणं मन्तव्याः, तथा गुह्याङ्गस्पर्श मोह दियात् । उदिते च मोहे यदीच्छति, नेच्छति वा तत उन्नयथा दोषाः । यद्वा स नदी गेएिहत्ता वामनुयंतेणं मुयति, दाहिणनुयतणं गेएिहत्ता णमोहः तां जलमध्ये मुश्चेत । आपना यस्माद्भवेद्, करोतु वा दाहिणनुयतेणं मुयति । तत्थ जे ते एवमासु-ता पत्थि णं हावान्मुखविकारानिति । कारणे तु नौबुदके लेपोपरि वा अव. से राहुदेवे जेणं चंदं सूरं च गेएहति ते णं एवमाहंसुतारणम, उत्तारणं वा कुर्वन् यतनया गृह्णीयादवलम्बेत ।। तत्य णं खलु इमे पणरस कसिणा पोग्गमा पसत्ता । तं भथ ग्रहणालम्बनपदे व्याख्याति जहा-सिंघामए । जढिलए २ खतए खरए ४ अंजणे ५ सव्वंगियं तु गहणं, करेंति अवझवणेगदेसम्मि। खंजणे ६ सीलए ७ हिमसीअलेज केझासे ए अरुप्पजह सुत्तं तासु कयं, तहेव वतिणो वि वतिणीए ॥ भे १० पणे ज्जए ११ तरपवरए १२ कविझए १३ पिंगलप्रणं नाम सर्वाङ्गीण करायां यद् गृह्यते, अवलम्बनं तु तदु- ए १४ राहुए १५ । ता जता णं एए पसरस कसिणा च्यते-यदेकस्मिन् देशे बाह्नादौ ग्रहणं क्रियते । तदेवं यथा | पोग्गमा सया चंदस्स वा सूरस्स वा लेसाणुबंधचारिणी तासु निग्रंथीषु सूत्रं सूत्रत्रयं कृतम्। किमुक्तं नवति?-यथा निग्रंन्धो निर्ग्रन्श्याः कारणे ग्रहणमवसम्बनं वा कुर्वन्नाझामतिकाम जवंति, तया ए मणुस्सलोगे मणुस्सा वयंति-एवं खलु राहू तीति सूत्रत्रयेऽपि भणितं तथैवार्थत इदं द्रष्टव्यम, तिनोऽपि चंदं वा सूरं वा गेएहति । साधोरपि दुर्गादौ पङ्कादौ नावुद कादौ वा प्रपतन्त्या वतिन्याः कथं केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया राहुकर्म राहुक्रिया आख्याकारणे ग्रहणमवलम्बनं वा कर्त्तव्यम् । ता इति वदेत् ? । एवमुक्ते भगवान् तद्विषये द्वे परतीर्थिकप्रकया पुनर्यतनयेत्यत पाह तिपत्ती, ते उपदर्शयति-(तत्येत्यादि) तत्र राष्ट्रकर्मविषये ख ल्विमे वे प्रतिपत्ती प्रइते-" तत्थेगेन्यादि" तत्र तेषां द्वयानां जुगलं गिलाणगं वा, असदुं अमेण वा वि अतरंतं । परतीथिकानां मध्ये एके परतीथिका एवमाहुः-'ता' इति पू. गोवालकंवुमादी, संरक्षण एालवफाद।। र्षवत् । अस्ति,णमिति वाक्यालंकारे। स राहुनामा देवो,यः चयुगलं नाम-बालो वृकश्च, तद्बा, अपरं ग्लानम, अत एवास- न्द्र सूर्य वा गृहाति ॥१॥अत्रोपसंहारः (पगे पुण एवमाइंस) एके विष्णुं दुर्गादिषु गन्तुमशक्नुवन्तम; अन्येन ग्लानत्वयर्जनका. | पुनरेवमाहुस्ता इति पूर्ववत् । नास्ति स राहुनामा देवो यश्चन्द्रं रणेन अतरन्तमशक्तं, गोपालं कम्बुकादिपरिधानपुरस्सरं, ना-| सूर्य वा गृहाति। तदेवं प्रतिपत्तिद्वयमुपदर्य संप्रत्येतद्भावनार्थलबद्धा, संयती, श्रादिग्रहणादनालवद्धाऽपि संरक्रति गृह्णाति, माह-(तत्थेत्यादि ) तत्र ये ते वादिन पवमाहु-अस्ति सराअवलम्बते वा इत्यर्थः । वृ० ६ उ०1 नं। दुनामा देवो यश्चकं सूर्य वा गृहातीति त पवमाहुः त एवं निग्गंथे निग्गथि णावं आरुहमाणे वा श्रोरुहमाणे चा। समतनावनिकां कुर्वन्ति-( ता राह णमित्यादि ) ता इति पूर्व वत् राहुदेवश्चकं सूर्य वा गृह्णन् कदाचित् बुध्नान्तेन गृहीत्वा णाइक्कमइ । खेत्तइत्तं दित्तइत्तं जक्खाइ8 उम्मायपत्तं उनस पुनान्तेनैव मुञ्चति, अधोभागेन गृहीत्वा अधोजागेनैव म्गपत्तं साहिगरणं सपायच्चित्तं भत्तपाणपमियाइक्खित्तं मुञ्चतीति नावः । कदाचित् बुध्नान्तेन गृहीत्वा मूर्द्धान्तेन मु भट्ठजायं निग्गये निग्गंथिं गिएहमाणे वा अवलंबमाणे ञ्चति,अधोभागेन गृहीत्वा उपरिभागेन मुश्चतीत्यः । अथ वा. चाणाकमइ । कदाचित मूर्फान्तेन गृहीत्वा वुध्नान्तेन मुश्चति । यदि वा-म. (नावमारूहमाणे त्ति) प्रारोहयन् (प्रोरुहमाणे त्ति) अवरो पन्तिम गृहीत्वा मूर्द्धान्तेनैव मुञ्चति । भावार्थः प्राग्वत् दयन्नुत्तारयन्नित्यर्थो नातिकामतीति । तथा वितं नष्टं रागभ भावनीयः । अथ चा-कदाचित् वामनुजान्तेन गृहीत्या सापमानैश्चित्तं यस्याः सा । स्था० ५ ठा०२ उ०। धामभुजान्तेन मुश्चति । किमुक्तं भवति?-वामपान गृहीत्वा (कित्तचित्तादीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने ) चन्द्रसूर्योपरागे, घामपाश्वेनैव मुञ्चति । यदि बा-वामनुजान्तेन गृहीत्वा द. क्विण तुजान्तेन मुञ्चति । अथ वा-कदाचित् दकिणचजान्तेन पश०४०। प्रा० चू०। गृहीत्वा वामभुजान्तेन मुश्चति, यद्वा-दक्किण तुजान्तम गृहीत्वा ता कहं ते राहुकम्मे आहिता ति वदेजा।तत्य खलु श्मा- दक्विणनुजान्तेन मुश्चति इति। भावार्थः सुगमः। (तत्थ जे ते इ. तो दोपमिवत्तीतो परमत्तातो। तत्थेगे एवपासु-ता अस्थि त्यादि ) तत्र तेषां द्वयानां परतीथिकानां मध्ये ये ते धादिन एणं से राहुदेवे, जे णं चंदिमं सूरं च गेएहति १ । एगे पुण वमाहुः-यया नास्ति स रादुदेवो यः चन्; सूर्य वा गृह्णाति, ते एव माहुः-" तत्थ णं" इत्यादि । तत्र जगति णमिति वाक्याएवमाईमु-ता एत्थि णं से राहुदेवे, जेणं चंदं सूरं च गेएहति। लङ्कारे, इमे वक्ष्यमाणस्वरूपाः पश्चदश घेदाः कृत्स्नाः पुशलाः तत्य जे ते एवमाइंस-ता अस्थि णं से राहदेवे जे ए चंदं सरं प्रजातियथेत्यादिना तानेव दर्शयति-एते यथा संप्रदायवैवि Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०६२) अभिधानराजेन्डः। गहण रुपेन प्रतिपत्तव्याः-" ता जता णं" इत्यादि । ततस्तदा ण- | राह आगच्छमाणे घा०४ चंदलेस्सं आवरेत्ता एं पच्चोमिति वाक्यालङ्कारे, एते अनन्तरोदिताः पञ्चदश भेदाः कृत्स्नाः सकर, तदा ण मणुस्सलोए मणुस्सा बदात-एवं सल्लु समस्ताः पुजलाः ( सया इति ) सदा सातत्येन इत्य राहस्स णं चंदे बंते, एवं जया णं राहू आगच्छमाण वा० पः। चनस्य वा सूर्यस्य वा लेश्यानुबन्धचारिणः चन्ऽसूर्यविम्बगतप्रभानुचारिणो भवन्ति । तदा मनुष्यलोके मनुष्या जाव पारयारमाण वा चंदोस्त अहे सपक्खिं सपबदन्ति यथा एवं स्खलु राहुश्चकंवा सूर्य या गृह्णातीति । ०। मिदिसिं पावरेत्ता णं चिट्टर, तया ण मस्सलोए मपुत्सा प्र०२०पाहु०। वदंति-एन खलु राहुणा चंदे पत्थे, एवं खलु राणा रायगिडे जाव एवं वयासी-बहुजणे णं नंते ! असमझ- चंदे पत्थे। स्स एवमाइक्खइ० जाव एवं परूवेश्-एवं खलु राह चंदं (मिच्छं ते एवमासु त्ति) इह तवचनमिथ्यात्वम, अप्रामागेएहइ एवं ख०२, से कहमेयं भंते ! एवं । गोयमा ! | णिकत्वात्कुप्रवचनसंस्कारोपनीतत्वाच्च । ग्रहणं हि राहुन न्द्रयोर्विमानापेतं, न च विमानयोग्रासकप्रसनीयसंभवोऽस्ति, जान से बहुजणे अमममस्स० जाव मिच्छं ते एवमाइंसु । आश्रयमात्रत्वानरभाबनानामिव । अथेदं गृहमनेन प्रस्तमिति अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि० जाव परूवेमि-एवं दृष्टस्तद्यवहारः, सत्यं, स बस्वाचाद्याच्गदकभावे सति, खलु राहुदेवे महिष्हीए. जाव महेसक्खे वरवत्यधरे वरमय- नान्यथा, आच्छादननावेन च प्रासविवक्षायामिहापि न धरे वरगंधधरे वराभरणधारी, राहुस्स णं देवस्स णव णा. विरोध इति । अथ यदत्र सम्यक तदर्शयितुमाहमधेजा परमत्ता । तं जहा-सिंघाडए जमिलए खत्तएं खरए (अहं पुणेत्यादि । (खंजणवमा ति) वजनं दीपमाधिका मलस्तस्य यो वर्णस्तद्वदाभा यस्य तत्तथा (साउयवमाभ त्ति) दद्दुरे मगरे मच्छे कच्चभे काहसप्पे । राहुस्स एणं देव (लारपंति)तुम्बकं, तहापकायस्थं ग्राह्यमिति । (प्रासरास्स पंच विमाणा पणत्ता । तं जहा- कएहा नीला लो- सिवमा त्ति ) भस्मराशिवर्णाभ, ततश्च किमित्याह-(जदाहिया हालिदा मुकिवा । अत्यि कालए राहविगाणे रणमित्यादि) (आगच्चभाणेव त्ति) गत्वाऽतिचारेण ततः प्रतिखंजणवामा पएणते, अत्थि नीलए राहुबिमाणे लाउ. निवर्तमानः कृष्णवर्णादिना विमानेनेति शेषः । (गच्छमाणे ध त्ति) खनाबचारेण चरन् , एतेन च पदद्वयेन स्वानाधिकी पवमाने पमत्ते, अत्थि णं लोहिए राहुविमाण मंजि गतिरुक्ता । (विउध्वमाणे व त्ति) विकुलणां कुर्वन् (परियाटुवएणामे पणते, अस्थि पीतए राहुविमाणे हालिदवाणाने रेमाणे व ति) परिचारयन् कामक्रीमां कुर्वन् , एतस्मिन् द्वयेपरमत्ते, अत्यि मुक्किल्लए राहुचिमाणे जासरासिवमाने प- इतित्वरया प्रवर्त्तमानी विसंस्थुलचेष्टया स्वविमानमसमञ्जसं मात्ते । जदा णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा चलयति, पतञ्च द्वयमस्वाभाविकविमानगतिग्रहणायोक्तमिति । (चंद लेस्सं पुरच्छिमेणं पावरेत्ता णं ति) स्वविमानेन चन्द्रविविनम्बमाणे वा परियारेमाणे वा चंदलेस पुरच्छिमेणं मानाचरणे चन्दीप्तेगवृत्तत्वाश्चन्द्रोश्यां पुरस्तादावृत्य ( पचपावरेत्ता णं पञ्चच्छिमेणं वीईवयति, तदा णं पुरचि- च्छिमेण वीवयह त्ति) चन्द्रापेकया परण याति इत्यर्थः। (पुरमेणं चंदे उवदंसेति, पञ्चच्छिमे णं राह, जदा णं राह | छिमेणं चंदे उवदंसह,पश्चच्छिमेणं राहु त्ति)राहपेकया पूर्वस्यां प्रागच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विनव्यमाणे वा परिया- दिशि चन्छ आत्मानमुपदर्शयति, चन्द्रापेकया च पश्चिमायां रेमाणे वा चंदलेस्सं पञ्चच्छिमेणं आवरेत्ता णं पुरचि राहुरात्मानमुदर्शयतीत्यर्थः। एवंविधस्वभावतायां च राहोश्व न्द्रस्य यद्भवति तदाह-(जया णमित्यादि) "श्रावरमाणे" इत्यत्र मेणं वीईवय, तदा णं पञ्चच्छिमेणं चंदे उवदंसेति, द्विवचनं तिष्ठतीति क्रियाविशेषणत्वात् । (चंदे ण राहुस्स कुपुरच्छिमेणं राहू । एवं जहा पुरच्छिमेणं पञ्चच्छिमेण य ब्जी भिम सिराहोरंशस्य मध्येन चन्द्रो गत इति वाक्ये चन्छदो आलावगा भणिया तहा दाहिणेण य उत्तरेण य ण राहोः कुविभिन्ना इति व्यपदिशन्तीति । (पच्चोसका ति) प्रत्यवसपति व्यावर्तते [वंते ति] वान्तः परित्यक्तः (सपदो भानावगा भाणियन्वा । एवं उत्तरपुरच्चिमेणं दाहिण किस सपमिदिसंति)सपकं समानदिक् यथा भवति, सप्रपञ्चच्चिमेण य दो आनावगा भाणियब्धा । एवं दाहि तिदिक यथाभवतीत्येवं चन्नवेश्यामावृत्यावष्टभ्य तिष्ठतीत्येणपुरच्छिमेणं उत्तरपञ्चम्मेिण य दो पालावगा जा- | वं योगः। श्रन आवरणमात्रमेवेदं वैनसिकं चन्द्रस्य राणा शियन्वा । एवं चेव० जाव तदा णं उत्तरपञ्चच्छिमेणं चंदे प्रसनम, न तु कार्मणमिति । उवदंति, दाहिणपुरच्छिमेषां राहू, जदा णं राहू आग अथ राहो दमाहधमाणे वा गच्छमाणे वा विउबमाणे वा परियारमाणे | कतिविहे णं नंते राहू पम्पत्ते। गोयमा! दुविहे राहू परमचे। वा चंदलेस्सं आवरमाणे २ चिट्ठर, तदा ६ मणुस्सलाए तं जहा-धुवराहू य,पचराहू य । तत्य णं जे से धुवराद,सेणं मास्सा वदंति एवं खनु राहू चंदं गिएहश् । एवं जदा बहुलस्स पक्खस्स पामिवए पसरसतिजागे णं पसरसभाणं राहू आगच्छमाणे वा०४ चंदलेस्सं पावरेत्ता णं गं चंदलेस्सं आवरेमाणे २ चिट । तं जहा-पढमाए पासेणं वीईवयइ, तया णं मणुस्मलोए मणुस्सा वदंति- पढम भाग, वितियाए वितियं जागं जाव पसरसेसु पम्सएवं खल्नु चंदेव राहुस्स कुच्छी जिल्याए। एवं जदा एं। रसम जाग, चरमसमए चंदे रचे जबइअवसेसे समए चंदे Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयं वा गेएहत ) पाच मति अहवासवर्ग (६३) गहा अन्निधानराजेन्डः । गहोसणा रत्ते वा विरचे वा जव । तामेव मुक्तपक्खस्स बदंसे- प्राचार्य माह-"अञ्चत्य नहि तमसा-निभूयते अंससी विमाणे २ चिइ । तं जहा-पढमाए पढमं भागं० जाव सुज्ऊतो । तेण न वदृच्छे प्रो, गहणे उ तमो तमोबहुलो नि" ॥२॥ (तत्थ ण जे से पवेत्यादि । वायालीसाप मासाणं) सार्कस्य प. परमेसु पपरसमं भागं चरमसमए चंदे रत्ते भवड, पत्रयोस्योपरि चन्छस्य लेश्यामावृत्य तिष्ठतीति गम्यं, सूर्यस्याप्रवसेसे समए चदे रत्ते वा विरचे का जव । तत्थ प्येवमुत्कृपतयाऽटचत्वारिंशता संवत्सराणामिति । न. १५ णं जे से पन्धरादू से जहागणं गएडं मासाणं उको- श०६ उ०। सगमा "ससिणो वा रविणो वाजत्रा गहणं तु सेणं वायालीसाए मासाणं चंदस्स, अमयानीसाए दोर एगस्स। तहमा तं सब्वोस,ताण नेयं मणु अलोए" ॥७॥ संवकराण सूरस्स ॥ मं० । निर्जनस्थाने, दे० ना०२ वर्ग । [काविहे पमित्यादि ] यश्वस्य सदैव सन्निहितः गहणकप्प-ग्रहणकल्प-पुं० । सूत्रार्थोजयप्रदणप्रकारे, निया सञ्चरति स ध्रुवराहुः । माह च-" किएहं राहुबिमाणं, दाणिं गहणकप्पणेनिच्चं देण होइ अविरहेयं । चउरंगुलमप्पत्तं, देहा चंद- सुतऽत्थतदुभयाणं, नत्ती बहुमाण विणयमच्छरं । स्स तं चरर ति" ॥१॥ यस्तु पर्वणि पौर्णमास्यमावस्ययो उकुमुणिसेज्जअंजन्नि,गहितागहिताणि य पणामो ३८८ अन्द्रादित्ययोरुपरागं करोति स पर्वराहुरिति ॥ [ तत्थ णं जे "सुसं मत्थं उनयं वा गेण्हते भत्ती बहुमाणा अट्टाणाति,वि. से धुबराहू इत्यादि] [पाडिवए त्ति प्रतिपद प्रारभ्येति शेषः। णओ पबंजियम्बो (बोरं ति)आश्चर्य मन्यते-अहो! श्मेपञ्चदशभागेन स्वकीयेन फरणनतेन पञ्चदशभागम [चंद सु सुतस्थपदेसु परिसा अविकला जावा जंति । अहवा-श्रास्स लेस्सं ति] विभक्तिव्यत्ययाचन्द्रस्य लेइयायाश्चन्द्रबिम्ब श्वर्यभूतं विनयं करोति तिचनायसंपनो भोसि पि संवेग सम्बन्धिनमित्यर्थः । श्रावृण्वन् २ प्रत्यहं तिष्ठति ॥ [ पढमाए जणंतो अत्थे णियमा संणिसिज्जं करेति, सुत्तेवि करेति। वायत्ति ] प्रथमतिथौ [पारसेसु ति] पञ्चदशसु दिनेषु अमावस्थायामित्यर्थः। “पम्परममं भागं श्रावरित्ता ण निहात्ति" या. णायरियइच्छाए वा सुणेति । नकुरुजित्ता रयहरणणिज्जास्यशेषः। एवं च यद्भवति तदाह चरिमेत्यादि] चरमसमये प ए वा कयंजली एवं पुच्छमाणे वि सुतं पुणं कयकन्छभो पढ़ति। जया पुण आलावयं मग्गंति तदा कयंजली कयप्पणामो शादश नागोपेनस्य कृष्णपकस्याम्तिमे काले कालविशेषे पाच य। किं च-अंग सुयखंध अज्झयणं उद्देसगा भचिहिकारा कोरको भवति, राहुणोपरक्तो भवति, सर्पथाऽप्याच्छादित इत्यर्थः । अवशेषे समये प्रतिपदादिकाले चन्मो रक्तो वा, सुतबके य गुरुणो दिसे समत्ते वा (गहिर त्ति) अवधारिएण विरक्तो वा भवनि; अंशेन राहुणापरक्तोऽशान्सरेण चानुपरक्तः, अवधारिते वा सिस्सेण पणामो कायम्बो'। नि००१ मा पाच्गदितानाचादित इत्यर्थः [ तामेव त्ति ] तमेव चन्मने गहाणगुण-ग्रहणगुण-पुंग। ग्रहणमौदारिकशरीरादितया प्रायज्यापश्चदशनार्ग शुक्लपक्षस्य, प्रतिपदादिग्विति गम्यते, उप ता वा वर्णादिमत्वात् परस्परसम्बन्धनक्षणं वा तद्गणो धर्मों दर्शयन् २ पञ्चदशनागेन स्वयमपसरणतः प्रकटयंस्तिष्ठति । यस्य स तथा । गुणतः पुमनास्तिकाये, " गुण ओ गहणगुणे" (चरिमसमये त्ति) पौर्णमास्यां चन्द्रो विरक्तो भवति, सर्वथै- स्था० ५ ठा० ३ उ० । भ०।। य युक्तीभवतीत्यर्थः, सर्वथाऽनाच्छादितत्वादिति । चायं | महणजाय-ग्रहणजात-न। श्रोत्रेन्ष्येिण गृह्यमाणे भाषाजावार्थ:-षोमशभागीकृतस्य चनस्य षोडशा भागोऽवस्थित | व्ये, आचा०२ श्रु. ३ अ०३ उ० ('जाय' शब्देऽस्य व्याख्या) एवास्ते। ये चान्ये भागास्तत्र राहुः प्रतितिथ्यकैकं भागं गणदन-ग्रहणव्य-म०। ग्रहणप्रायोग्यकमेदलिके, क०प्र० कृष्णपके श्रावृणोति, शुक्ले तु विमुञ्चतीति । उक्तञ्च ज्योति गहणता-ग्रहणता-स्त्री० । शिक्षणे, स्था० ० ठा। कररामके-"सोलसनागे काऊण, उमुबई हायवेत्थ पारस । सत्तियमेत्ते भागे, पुणो वि परिचई जारह" ति ॥ १॥ इह तु गहणप्पगार-ग्रहणप्रकार-पुं० । परिच्छेदे, "परिच्छेद त्ति वा पोमशनागकल्पना न कृता, व्यवहारिणां षोमशभागस्थावस्थि- गहणप्पगारे त्ति वा एगहा" प्रा० ० १ ०। तस्यानुपजकणादिति संभावयाम इति । ननु चन्द्रविमानस्य गहणवग्गणा-ग्रहणवगेणा-स्त्री० । प्रहणप्रायोग्यायां वर्गणापञ्चैकपष्टिनागन्यूनयोजनप्रमाणत्वात राहुविमानस्य च ग्रहथि- | म, पं० सं०५द्वार । ( 'बम्गणा' शन्देऽस्य व्याख्या) मानत्वेनाईयोजनप्रमाणत्वात्कथं पञ्चदशे दिने चन्प्रविमानस्य गणविमा-गहन विदगे-पुं० । पर्वतैकदेशावस्थितवृकवमहत्वेनेतरस्य च लघुत्वेन सर्वावरणं स्यात् ? इति। अत्रोच्यते । लीसमुदाये, सूत्र. २ श्रु०२ अभ“एगो पन्वतो बहुपदि यदिदं ग्रहविमानानामर्द्धयोजनमिति प्रमाणं तत्प्रायिकम्, ततश्च पव्यतेहिं विगं" नि० चू० १०। प्राचा। राहोहस्योक्ताधिकप्रमाणमपि विमानं सम्नाव्यते । अन्ये पुनराहु-संघीयसोऽपि राहुविमानस्य महता तमिस्ररश्मिजालेन गहणसिक्खा-ग्रहणशिक्षा-स्त्री। "विशुद्धमुपधानेन, प्राप्तं का. तदानियत इति । ननु कतिपया दिवसान् यावद् ध्रुवराहु लक्रमेण च । योग्याय गुरुणा सूत्र, सम्यग्देयं महात्मना" ॥१॥ विमानं वृत्तमुपलभ्यते. ग्रहण इच कतिपयांश्च न तथेति इत्युक्तलक्षणे. ('सिक्खा' शब्देऽस्य व्याख्या) ध०३ अधिक। किमत्र कारणम् । अत्रोच्यते-येषु दिवसेषु अत्यथै तमसा | गहणी-ग्रहणी-स्त्री०। गुदाशये, तं.। ०। जी हातनिभूयते शशी, तेषु तद्विमानं वृत्तमाभाति, येषु पुनर्नान्निभू- | श्रियाम, दे० ना०२ वर्ग। यतेऽसौ विशुद्ध्यमानत्वासेषु न वृत्तमाभाति । तथाचोक्तंधिगहणेसणा-ग्रहणेषणा-स्त्री० । प्राहारग्रहणरूपे एषणाभेदे : शेषणवत्याम-"वट्टो कश्वय-दिवसे धुवराहणो बि- निच.१०।पि। मोघ । पश्चा०1 (बारहोषणा माणस्स । दीसा परंनदीसक, जह गहणे पचराहस्स" 'पसणा' शब्दे अस्मिन्नेव नागे ५३ पृष्ठे रन्या) Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०६५) गहणोग्गह अन्निधानराजेन्डः। गाढतिक्खग्गणह गहणोग्गह-ग्रहणावग्रह-पुं० । अपरिग्रहस्य साधोः पिण्डवस- | गहिया-गृहीत्वा-अध्य० । उपाहायेत्यर्थे, “गहिया हु भन्नयपतिवस्त्रपात्रग्रहणपरिणामे, प्राचा० २ श्रुः ७ अ० १००। जायक्वालादिणो बहवे" सूत्र. १ श्रु० ४ अ० १२० । गहंदंड-ग्रहदण्ड-पुं० । दएमा श्व दण्डास्तिर्यगायताः श्रेणयः, गहियानहप्पहरण-गृहीतायुधप्रहरण-त्रि० । गृहीतानि श्राग्रहाणां मङ्गलादीनां त्रिचतुरादीनां दण्डा ग्रहदण्माः । भ० ३ | युधानि शस्त्राणि प्रहरणाय परेषां प्रहारकरणाय येन स तथा । श० ६ उ० । दगमाकारव्यवस्थितेषु ग्रहेषु, जी० ३ प्रति०। अथ वाऽऽयुधान्युत्केप्यशस्त्राणि खनादीनि, प्रहरणानि तु केगहन-ग्रहण-नाधारणे, पैशाच्यां णस्य नः । “कथं तापसे प्यशस्त्राणि नागचादीनि, ततो गृहीतानि आयुधानि प्रहरणाबेसगहनं कतं"।प्रा०४ पाद । नि येन स तथा । सायुधप्रहरणे, भ०७ श०६०। महभिन्न-ग्रहनिन-न० ग्रहविदारिते नक्कत्रे, विशे० प्रा० गहिर-गजीर-त्रि० । 'पानीयादिष्वित्'।८:१।१०१॥ इति दस्थः। मा यन्मभ्यं ग्रहो विनिय निर्गच्छति । जीत ।“गहभिन्नं च | प्रा०१पाद । अलब्धमध्ये, प्रज्ञा०२ पद । “गहिरहसियगीयबजये सत्त नक्खचे"द०५०ग्रहभिन्ने शोणितोमारः। व्य० णचणरई" गंभीरेषु हसितनर्तनेषु रतिर्येषांते । जी०३ प्रति०। १ उ०॥६०व० गहीरिय-गाम्नीर्य-न० । “स्याद् भव्यचैत्यचौर्यसमेषु यात्" गहमसल-ग्रहमशल-न० । मुशलाकारव्यवस्थितेषु प्रहेषु, ८।२।१०७। इति संयुक्तस्य यात्पूर्व इद | असम्धस्तापत्वे, मी. ३ प्रति० । ग्रहाणाम यतासु श्रेणिषु च । भ० ३| प्रा०५ पाद । श०७०। गहेत-गृहीत्वा-मव्य । उपादायन्यथे, “जति णं पुब्वमरीगहर-देशी-गृध्रे, दे० ना०३ वर्ग। सरोसं, समुग्गरे तेसुप्पले गहेतुं" सूत्र० १ श्रु०५०२०। गढ़वा-गृह पति-पुं० । गृहस्वामिनि, वृ०१ उ०। गा-गै-धा० गते, "भ्यागो गौ" ॥४॥६॥ इति गाऽऽदेशः। गहबई-देशी-ग्रामीण, शशिनि च । दे० ना०२ वर्ग। 'गाइ-गाइ । गायति'! प्रा०५ पाद । गहसिंघाडग-ग्रहशनाटक-न० । ग्रहाणां शृङ्गाटकफलाकारेणा- | गाय-गीत-न० । कृते गाने, “सुछु गाश्यं सुछ वाश्यं सुधन ऽवस्थाने, भ०३ श०७ उ० । ग्रहयुग्मे च । जी० ३ प्रति। | चियं" आव० ४ ०। गहसम-ग्रहसम-न० । प्रथमतो वंशतन्यादिनिर्यः स्वरो गृही-गानुच्छोलण-गात्रोत्तोलन-न० । अधावने, स्था० . तस्तत्सम गीयमानं ग्रहसमम । स्था०७० । स्वरसाम्येन | ग०३००। गाने, स्था०७०। गाजय-गव्यत-न० । द्विधनुःसहस्रप्रमाणे केत्रे, प्रज्ञा०१ पद । गहाय-गृहीत्वा-श्रव्य० । मादायेत्यर्थे, दशा० ७ ० ।। "चहत्थं पण धन, उनि सहस्सा गाउयं तसि"प्रव०३ रा।सूत्र०। ५४ द्वार । जी।भ० । अनु० । स्थ: । कोशद्वये च, ओघ.। गहावसच-ग्रहाऽपसव्य-न० प्रहाणामपसम्यगमने,प्रतीपगममे, गागर-गागर-पुं० । स्त्री० । परिधानविशेष, जं० ३ वक। भ०११ श०१०। प्रश्न०। मत्स्यभेदे च । प्रज्ञा० १ पद । गहिअ-देशी-वक्रिते, दे० ना०५ वर्ग। गागलि-गागनि-पुं० । पिठरस्य यशोमतीकुक्किसम्जूते पुत्रे, यो गहिश्रा-देशी-काम्यमानायां स्त्रियाम, दे०मा०५ वर्ग। दि पृष्ठचम्पायां प्रव्रजभ्यां शालमहाशालाभ्यां राज्ये था पितो गौतमान्तिके प्रवजितः केवली भूत्वा सिद्धः। सत्स०१० गहिय-गृक-त्रि० । अभ्युपपन्ने, “प्रायाणसोयं गहिए वाले " अ० प्रा०० प्रा० मा०चा ती०। (इति 'प्रज्जमाचा०१ श्रु०४०४००। वर' शब्दे प्र० भागे २१६ पृष्ठे उक्तम) गृहीत-त्रि०। ग्रह क ईट् । “पानीयादिग्वित्" ।।१। गागेज-देशी-मथिते, देना०२ यर्ग। १०१। श्तीकारस्य -हस्वः । प्रा०पाद । उपास्ते, प्रा००१ गागेजा-देशी-नवपरिणीते, दे० ना.२ वर्ग। प्र० प्रा०म०। अस्पर्शनत उपाते,भ०१३ श०७ उ०। राजपुरुषैबंद्धे, प्रश्न: ३ आश्र द्वार । स्वीकृते, औ० । सूत्रः। गाढ-गाद-न । गाह-क्तः । अतिशये, दृढे च । वाच । अहिनाशाते, वाच० "वयारियं ति वा प्रहीतंति वा प्रागमि. विषमुचिकादिषु, ग०२ अधिः । अत्यर्थे,प्रश्न०१माश्रद्वार। यंति वा गहितं ति वा एगहा" उत्त०२०। प्रोगसूत्राप्रत्यर्थमुपनीते,सूत्र. १६०५१०१३० निविसे, गहियट्ठ-गृहीतार्थ-त्रि० । गृहीतः स्वीकृतोऽर्थो मोकमार्गम्पो । मं०।वाढे, भ०१श०२३० । अप्रीतिकरणे, व्य० २० । पेन स गृहीतार्थः । सूत्र०२ श्रु०७ अ० । परानिमायग्रहणतः । | बहुमस्थितिके, उत्त.१९ अा अत्यन्ते, कल्प०२कण। (का० १० १०) अर्थावधारणात् (न.३श.५० गाढगिलाण-गाढग्नान-त्रि० । सन्निपाताभित्रूततया तीवादशा.) अवधारिततस्वे, दर्श। तुरे, पञ्चा० विव०। गहियवक्क-गृहीतवाक्य-त्रिभसर्वत्रास्वनिता,ग०१अधिः। गादतिक्खग्गणह-गाढतीक्ष्णाग्रनख-त्रिण गाढमत्यन्तं तीक्ष्णाश्राचा०। सपादेयवचने, प्रवचनकथनयोग्ये, तस्य हि स्वल्प- नि अग्राणि येषामेवंविधा नखा यस्य स तथा । प्रतितीदनखे, मपि वचन महार्यमिव प्रतिभाति । प्रव११ द्वार । कल्प०२क्षण। Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाम (७६५) गाढदुक्खा अभिधानराजेन्द्रः। गाढदुक्खा-गादडःखा-खी० । गाढ दुःखरूपायां बननायाम, | आउजिदियमामो, पिउगायो जावगामो य॥ प्रश्न०१आश्रद्वार। नामग्रामः, स्थापनाग्रामो, अव्य ग्रामश्च, भृनयामश्च, पातोद्यगादपेना गादप्रेरण-न । प्रत्यर्थप्रेरणे,प्रश्न० ३ आश्र० द्वार। ग्रामः, इन्डियग्रामः, पितृग्रामो, मायग्रामश्चेति गाथासमुदयार्थः। अथाव यवार्थमनिधित्सर्नामस्थापने कुष्णत्वादनादृत्य न्य. गादरुट्ठ-गावरुष्ट-वि० । अत्यर्थ, प्रश्न. ३ आश्र द्वार। ग्राम व्याचष्टेगाढालंधणलग्ग-गाढालम्बनलन-त्रि० । एकालम्बने स्थिरतया जीवाजीवसमुदओ, गामो को वा नओ कहं इच्छे । व्यवस्थिते, श्राव. ५ अ। आदिनयोऽणगविहो, तिर्विकप्पो अंतिम नो उ ।। गाढीकय-गाढीकृत-त्रि० । शणसूत्रगाढबद्धसूचाकलापवत् जीवानां गोमहिषीमनुष्यादीनामजीयानां च गृहादीनां यः मात्मप्रदेशैः सह गादबद्ध कर्मणि, भ०६ श० १ उ०। समुदयः स व्यग्राम उच्यते । श्ट च सर्वज्ञोपक्षप्रवचने प्रायः गादोषणीय-गाढोपनीत-त्र० । गाढमत्यर्थमुपनीतं दौकितं 5. सर्वमपि सूत्रमर्थश्च नयैबिचार्यते । यत उक्तम्-"नस्थि नपहि कृतककारिणां यत्स्थानं तत् । सूब०१ श्रु०५ अ० १०। विहां, सुतं अन्थो य जिणमए किंचि । श्रासज्ज उ सेयारं, "गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्म" सूत्र० १ श्रु०५ १०१ उ०। नएन य विसारोवूया" ॥१॥ अत एपोऽपि जव्य ग्रामो नयैर्विस्टैनिधत्तनिकाचिकावस्यैः कर्मनिकिते, सुबर १ श्रु.५ चार्यते-कोनाम नयः कं व्यग्रामं कमियतीति तत्र नया: म.२३०। सामान्यतः सप्त, नैगमसंत्रहव्यवहारऋजुत्रशब्दसमभिरुद्वैवं भूतनेदात् । इह तु समभिरूद्वैवंभूतयोः शब्दप्राधान्याभ्युपगगाण-गान-१० । गीते, जी०३ प्रति० । “गीय विततं घणं मपरतरा शब्दमये एवान्तर्भावो विवक्ष्यते, ततश्चादिनयों नुसिणं अप्पे चउधि गायंति" प्रा० चू०१०। नैगमः, सोऽविशुद्धविशुद्धविशुद्धतरादिभेदाद नेकविधः, अगाणंगयिाय-गाणणिक-मुंः। गणाणं षामासान्यन्तर एव न्तिमन्यस्तु शब्दः, स त्रिविधः, शब्दसमभिरूद्वैवंभूतभेदात् । सस्क्रामतीति गाणिक इत्यागभिकी परिभाषा । उत्त०१७ तत्रानेकविधनेगमानामन्यान्यप्यपि पक्षाणि यानि मा० । परमासाभ्यन्तर पच गणाणान्तरं सङ्कामति, उत्त. वक्तव्यानि तानि नाम ग्राहं संगृह्णन्नाह - १७५०। गावो तपाइ सीमा, आरामुदपाणचेमरूवाणि । गाणङ्गणिकमत ऊर्द्ध वक्ष्ये, तमेवाह वाई। य वाए मंतर, उगह तत्तो याहिपती॥ बम्मास अपूरित्ता, गुरुगा बारमसमासु चउलहुगा। गावः १ तृणानि २ उपलकणत्वात्तणाहारकादयः । सीमा ३ तेण परं मासलह, गाणंगणि कारणे भइतं । पारामम् ४ उद पानं कूपः ५ चेमरूपाणि ६ वाहितिः ७वाण मन्तरं देवकुलम ८ अवग्रहः । ततश्चाधिपतिः १० इतिनियुउपसंपन्नः साधुः कारणाभावे पगमासानपूरयित्वा यथे। क्तिगाथाऽकरार्थः। अथ नावार्थ उच्यते-प्रथम नैगमः प्राह-याकस्मातणादपरं गणं संक्रामति तदा तस्य चत्वारो गुरुकाः | वन्तं नूभागं गायश्चरितुं व्रजति तावान् सर्योऽपि प्राम इति परामास्याः परतो यावत् द्वादश समा वर्षाणि, ता अपूरयित्वा व्यपदेश लभते । ततो विशुद्धनैगमः प्रतिमणतिगन्तश्चतुर्वघुकाः, ततः परं द्वादशभ्यो बज्य कट्टै निष्कारणं गावो वयंति दूरं, पि जंतु तणकट्टहारगादीया । गणाकणं संक्रामतो मासलघु, "भारणंगणि त्ति" नाबप्रधानो निदेशः, ततो गणं गणिकत्वं, कारणे ज्ञानदर्शनचारित्राणा मुरुट्टिते गताएं-ति अत्य संते ततो गामो ॥ मन्यतरस्मिन् पुष्टालम्बने समुत्पनेनाज्यं सेवनीयम । किमुक्तं परिस्थूरमपि परग्राममपि चरितुं व्रजन्ति, ततः किमेवं सोभवति?-कारणे मध्ये द्वादशमन्तः परमासं चा गणाणं संक्राम- ऽप्येक पव ग्रामोभवतु?, अपि च एवं वतो भवतो नूयसामपि न प्रायश्चित्तभाग् भवतीति । गतं माणङ्गणिकद्वारम् । मपि परस्परमसिदवीयसां प्रामाणामेकग्रामतैव प्रसज्जति,न वृ०१०नि० चू०। चैतदुपपन्नं, तस्मातावान् ग्रामः, किं तु यत् यावामात्र केत्र गाम-ग्राम-पुं० । गम्यो गमनीयोऽष्टादशानां शास्त्रे प्रसिकानां तृणाहारककाप्टढारकादयः सूर्य उस्थिते तृणाद्यर्थ गताः सन्तः कराणामिनि व्युत्पत्या, असते वा बुद्ध्यादीन गुणानिति व्युत्पत्या सूर्य अस्तमयति तृणादिभारकं बद्धाः पुनरायान्ति, एतावत् क्षेत्र ग्रामः ॥ वा पृषोदरादित्यान्निरुक्तविधिना ग्रामः । वृ० १ ०। रा०। व्यक। जी०। प्रश्न । दशा । नि०चू० । आचा० । अनु०। परसीमं पि वयंति दु. मुछतरो भणति जा ससीमा नु। उत्तः । पा० । प्राचुर्येण प्रामधर्मोपेतत्वात् करादिगम्यो चा उजाण अवत्ता वा, उकोलंता उ सुखयरो॥ ग्रामः । श्राचा०२ श्रु०१.२ उ० करवति, कल्प०४ क्षण। जनपदास्यासिते, श्री० । जननिवासलकणे, अए०१८ अट। शुद्धतरो नैगमो नणति-यद्यपि गवां गोचरक्षेत्रादासन्नतरं मनिवेशविशेष,प्रइन ३ आश्रा द्वार । भ० । ज्ञा०। कएटकथा चूभागं तृणकाष्ठाहारका व्रजन्ति, तथापि ते कदाचित्परसोमाटकावृते जनानां निवासे, उत्त०२०। सूत्र। ममपिवजन्ति, तस्मान्तावान् ग्राम उपपद्यते! 'अहं ब्रवीमि-या बत स्वा आत्मीया सीमा पतावान् ग्रामः। ततोऽपि विशुरुतरः ग्रामगदनिक्केपमाद प्राह-मैवम । अतिप्रचुर के ग्राम इति बोचः, किंतु यावस. नामं उवणा गामो, दव्यग्गामो अनूतगामो य । स्यैव ग्रामस्य संबन्धी कूपः तावद् ग्राम शति । नतोऽपि विशु २१७ Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०६६) अभिधानराजेन्द्रः | गाम कतरो ब्रूते-उद्यानमारामस्तावद् ग्राम इति भएयते शुद्धतमः प्रति नणति - एतदपि भूयस्तरं केत्रं न ग्रामसंज्ञां लब्धुमर्हति श्रहं भणामि पादपानं तस्यैव ग्रामस्य संबन्धी कूपः सायाम इति । ततोऽपि विशुन इदमप्यतिप्रभूतं क्षेत्र रूपाणि ममानि गच्छन्ति तावद् ग्रामः । ततोऽपि विगुरुतरः प्रतिवक्ति-पतयतिरिक्कतया न समीचीनमाभाति ततो यावन् भूभागमतिलघीयांस बालका उत्क्रीमन्तो रिङ्गन्तः प्रयान्ति ता बान् ग्राम इति । एव विसु निगम - स्स वइपरिक्खेव परिवुका गामो । वारस चि एवं संग्रह नहिँ गायसमवाओ ॥ विचित्राभियाणां पूर्वमास अधि प्रतियो सर्वानिपरिपा गस्तावान् ग्राम मुच्यते । अथ संभई व्यतिक्रम्य लाघवार्थमत्रैव व्यवहारमतमतिविशति (वहार वि एवंतिया नगम स्यानेके प्रतिपत्तिप्रकाराः प्ररूपितास्तथा व्यवहारस्याप्येवमेव प्ररूपणीयाः, तस्य व्यवहाराभ्युपगमपरायणत्वात् । बालगोपा सादिना च लोकेन सर्वेशमप्यनन्तरोकभेदानांचा ग्राम तया व्यवहरणीयत्वात् । संग्रहस्तु सामान्यग्राहित्वाद्यत्राः स्य ग्रामवास्तव्यलोकस्य समवाय एकत्र मासनं भवति तद् यामन्तरदेव कुत्रादिकं प्रति । A इदमेव प्रकारान्तरेणाऽऽहबाप कार्ड मेगा मिसगायो । तं देवलं सभा वा मज्झिमगोडा पता वा यद्वा प्रथमं कृत्वा निवेश्य, शेषः सर्वोऽपि ग्रामो निविशते, स संग्रहनयामिप्रायेण ग्रामः । तच देवकुलं वा भवेत्, सभा वा ग्राममध्यमवर्ती वा गोष्ठः प्रपा वा । ॥ व नियोग भावप्रपदं विवृण्वन् ऋजुसूत्रनयमनमाहउज्जुस नियोश्रो पचयबर तु हाइ एक्केकं । उद्वेति सेा जस जस्स सो गामो ॥ ऋजुसूपस्य स्वकीयार्थग्राहक परकीयोऽनभ्युपग मातृस्यत्त्येकमत्याग्रहरूपमेकैकं गृहं इति प्रतिपत्तव्यम् । नियोग इति ग्राम इति चैकोऽर्य ग्रह चवि शेषन्चूर्णिन् - "गामो त्ति वा नियोश्रोत्ति बागडुं ततो दिवई" इति व्याख्यानयन् शब्दनयमतमाह-' उडेइत्ति' इत्या दिशब्दस्य शब्दाख्यनयस्य कस्यापि वशेन ग्राम उत्तिष्ठते-उइसी भवति वायति भूपोश्यानं करोतिसमास्याधि पनि डुमईति ये तु तत्र तद्वर्तिनः शेषास्ते श्रशेषा श्रभ्युपसर्जनं । तत्वान्न ग्रामसंज्ञां लभन्त इति भावः । चिन्तितं नय मागण्या ग्रामरूपम् । अथ ग्रामस्यैव नये संस्थानह तस्सेच उ गामस्सा को किं संज्ञाणमिच्छति नद्यो छ । सत्यमेव इति खलु मञ्जगादीया || तस्यैव ग्रामस्य संस्थानं को नयः किमिच्छतीति चिन्यते, तत्र तावदिमानि मलकादीनि ग्रामस्य संस्थानानि भवन्ति । तान्येवाहउचाग ओसंस्त्रिय, संमए गए विविछे । गाम जित्ती पमान बलभी, अक्खा मग रुयग कामवए ॥ श्रस्ति ग्राम उत्तान कमल्लुकाकारः, श्रास्त ग्रामोऽत्राङ्मुखमलकाकारः, एवं संपुटकमकाकारः, खएममलकमपि त्रिविधं वाच्यम् । तद्यथा-उत्तानकख एक मलक संस्थितः, श्रवाङ्मुखखएममझ कसंस्थिनः संपुटकमसंस्थितमि संस्थितः, पडालिकासंस्थितः, बलभीसंस्थितः, अक्षपादकसंस्थितः रुचकसंस्थितः काश्यपसंस्थितश्चेति । श्रथैषामेव संस्थानानां यथाक्रमं व्याख्यानमाडम गामस्सगडो, बुद्धिच्छेदा ततो उ रज्ज्यो । निवम्य पादे गिरतीओ व पत्ता ॥ इह यस्य ग्रामस्य मध्यभागे अगमः कृपस्तस्य बुद्ध्या पूर्वादिषु दिन निष्काम्य पादपरिकृत्या त्यस्तास्तान् वामनवृति प्राप्तवान् त उपयोग तलानां सीमीभूतास्तत्र च पटहच्छेदनोपरताः, ए ईदृशउत्तानस्थित ग्राम उच्यनेनमुखम्य दाराव स्यैवमेव वाच्यं, नवरं यस्य ग्रामस्य मध्ये देवकुलं वृको बाउ स्तरस्तस्य देवकुलादेः शिखरात रज्जयोऽवतार्थ तिर्यग् तावश्रीयन्ते यावर्ति प्राप्ताः ततो अधोमुखी नृय गृहाणां मूलपादान् गृहीत्वा पदच्छेदेनोपरतः, एषोऽवाङ्मुखनलक संस्थितो ग्राम तथा पप मनाने कृपस्नस्य चोपन वृद्धस्ततः त्रोत्पादना यावद् वृतिं प्रप्ता ग्रामस्य तत ऊर्ध्वाभिमुखीभूय गत्वा लानां मणीभूताः बृहस् सोऽयमुखी फूपसंबन्धिनीनां रज्जूनामग्रभागः समं संघटन्ते । होई । अधैकसंपुटक मल्लका का नाम ग्रामःजइ कूपाई पास-म्मि होति तो खंड पुव्वावर रुक्खहिं, गामो जेहिं भवे जित्ती ॥ यदि वादीनि भनिदिशि भवन्ति ततः खएडमलकाकारास्त्र वधोऽपि ग्रामो यथाक्रमं मन्तव्यः । तत्र यस्य ग्रामस्य बहिरेकस्यां दिशि कूपस्तामेवैकां दिसं मुख वासु सप्तसु दिनिवृतियो परि हस्तान्यासाद्य पटहच्छेदेनापरमन्ते, एष उत्तानकखण्ममल्ल ककारः । अपाङ्गमा रोपेयमेव नवरं यस्यैकस्यां दिशि देवकुलमुच्चैस्तरो वा वृक्तः । संपुटकखण्डम लाकारस्तु यस्यैकस्य दिशि कूपस्तदुपरिवृ शायद पुरवावर' इत्यादि। पूर्वस्यामपरपवदिशि सम व्यवस्थितस्थित ग्राम या वे पासकिए पमाली, वलभी चउकोणगेछु दीडा छ । चउको जमा हर्बति अक्वामतो तुम्हा ॥ पालिकासमेकस्मिन्गलं समश्रेण्या व्यवस्थितम् । तथा यस्य ग्रामस्य चतुर्ष्वपि कोणेषु दीर्घा वृका व्यवस्थिताः स वलनीसंस्थितः। श्रथ वा यदू म लानां युवाज्यासस्थानम् । तद्यथा-समं चतुरस्रं भवति, एवं यदि ग्रामस्यापि चतुर्षुकोणेषु हुमा नयन्ति ततोऽसी मि समचतुरस्रतया परिधिमानराद्वाट संस्थितः । Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाम । बट्टागारविएहिं रुपयो पुत्र बेढितो तरुबरेहिं तेको काम, घरगं कासवं विती ॥ (०६७) अभिधानराजेन्ड: । यद्यपि ग्रामः स्वयं न समस्तथापि यदि रुचकतया शैलवत् वृत्ताकारण्यास्थतैः वृक्षर्वेष्टितस्तदा रुचकसंस्थितः । यस्तु ग्राम एव त्रिकोणतया निदिष्टः, वृक्का वा त्रयो यस्य बहिः प्रयत्र : स्थिताः एकनो द्वौ अन्यनस्त्वेक इत्यर्थः। पब उजयथाऽपि काश्यपसंस्थितः काय पुनस्सं यत्रं भवत्येवमयमपि प्रामः । इति भावितानि सर्वापयपि संस्थानानि । अथ को नयः किं संस्थानमिच्छति ? इति भाव्यतेपढमे सपडछेदं, प्राकासव समग कोट्टिमं तड़ओ । नाणि हिपति वा सहनया तिमि इच्छति ॥ प्रथमोऽत्र नैगमनयः सपदच्छेदलकणं संस्थानं प्रतिपद्यते । ग्रहोप्येवमेव मन्यत इत्यत्रवान्तर्भाव्यते । व्यवहारस्तु भित्तिसंस्थानादारभ्य श्राकाश्यपसंस्थानं मन्यते । तृतीय ऋजुमां कामानां या साद भूमिकानां यत् संस्थानं तन्मन्यते । त्रयस्तु शब्दनया ज्ञानिनमधिपति वा ग्रामसंस्थानं स्वामित्वे नेच्छन्ति । नव्या मंगविसंगहियो तिमि नियमा मिनादिजा कासव, अमंगो वेति संडा ॥ ', नैगमो द्विधा सांग्राहिको सांग्रहिकश्च । संग्रहणं संग्रहः, सामान्यमित्य प्रयोजनमतिसहि सामान् पगमपर इत्यर्थः । तद्विपरीताऽसग्रहिकः । तत्र यः सांग्रहिकः स नियमात्रिविधमुत्तानका वाङ्मुखसंपुटकभिन्नं सपूर्ण वा खण्डं वा मल्लकम् । तस्य यत्पटहच्छेदलक्षणं संस्थानं तन्मन्यते । अम फस्तु मितिसंस्थानमा कृत्या यावकाश्यपसं स्थानमेतानि सर्वाण्यपि छूले, प्रतिपद्यत इत्यर्थः । संग्रहव्यव हारी महिपोरेय नेगमपोर्यथासंख्यमन्तपनीयादिति न पृथक् प्रपद्येते । निम्मा घर व शुभिए, तओ दुहणा वि जात्र पार्वति । नाहिस्सा इस तु तृतीयसूत्रक्रमप्रामाण्येन ऋजुसूत्रः । स ( निम्म त्ति ) मूलघरात स्तुपका उपल णत्वात् कटकानां. कुट्टमानां वा यत्संस्थानं माले घा, भूमिकादाय संपादनार्थमत्र कुट्यमाने घणा मुरा कर्द्धमुक्किप्यमाना यावद्राकारातलं प्राप्नुवन्ति तावन्मर्याद कृत्य यत्संस्थानमेतत्स प्रत्येकं ऋजु मन्यते । तथा ज्ञानिनो ग्रामपदार्थशस्य, प्रामाधिपतेवा यत्संस्थानं तदेव शब्दनयस्य ग्रामसंस्थानतयाऽभिप्रेतमिति गतं सव्यग्रामद्वारम् । प्रथ जूनादिग्रामभैदान नाययनिचउदसविडो पुण भये नूनम्गामो तिहा उ आतोज्जा । सोतादिदियगामी, तिविहा पुरिसा पिउग्गामो || भूताः प्राणिनस्तेषां प्रायः समः स चतुर्दशविधः । तथाचाह दियमिव सचियर पदिय समितिचक । पज्जताऽअज्जचा नेणं चचदस ग्गामा || गाम केन्द्रियाद्विविधाः सूक्ष्माबाद नामकर्मोदय[वर्त्तिनः सूक्ष्मा, व दरनामक मौदयवर्त्तनो बदराः। द्वीन्द्रियाः कृम्यादयः, त्रिन्द्रियाः- कुन्धुपिपीलिकादयः, चतुरिन्द्रियाःभ्रमरादयः। पञ्चेन्द्रिया द्विविधाः- संज्ञिनः, असंज्ञिनश्च । संज्ञिनःगर्म जति मनुष्याः, देवनारकाश्च । असंज्ञिनः:- संमूद्दिमास्तिर्यइमनुष्याः। एते च स्वयोग्य पर्याप्तिभिः पर्याप्ता वा स्युर पर्याप्ता पर्याप्तिर्नाम शक्तिः सा चाहारशरीगेन्द्रियप्राणातिपात भाषा मनःपर्याप्तिमदात् षोढा । तत्र यथाशक्त्या करणजूनया भुक्तमाहारं खलु रूपरसतया करोति सा श्राहारपर्याप्तिः । यया तु रनमाहारे धानुरूपतया परिणमयति सा शरीरपर्याप्तिः । यया धातुरूपया परिणमितादाहारादीन्द्रिय प्रायोग्यद्रव्याण्युपादायैकपादन्द्रियरूपतया परिणमध्य स्पशदिविषय परिज्ञानमतिमा इन्द्रपति यया पुरु सभाषामनः प्रायोग्यानि दलिकान्यादाय यथाक्रममुच्द्वासरूपतया भाषात्वेन मनस्त्वेन वा परिणामय्यात्रम्य च मुञ्चति सा क्रमेण प्राणातिपातपर्याप्तिः, भाषापर्याप्तिः, मनः पर्याप्तिः । एता चाकमा येग्मनुष्यान्तानां पञ्च संशिपञ्चान्द्रयाणां च षट् जवन्ति । एवं पूर्वोका सापि भेदाः पदमनाथ तुद्दशत्रिवो नूतग्रामः ॥ प्रतोद्यग्रामस्तु विधा- पजग्रामो म ध्यमग्रामो, गान्धारग्रामच एतेषां च स्वरूपमनुयोगद्वारशास्त्रा दमेयामः श्रोत्रादीनामिन्द्रियाणां समुदायास सम्पूर्ण धनुखकेन्द्रियाश्रममेद्विशि तुरिन्द्रियैनइति पितृयामस्तु विविधाः पुरुषाः । तद्यथातियोपुरुष मनुष्यदेवयत॥ तिम्पारन बीमा पितिविद्धमिच्छति । नाणात जावे, जो व तेर्सिसमुपती ॥ तिथे पोनि अन देवाखियो नरा मनुष्य यांत मातृप्रायमपि विधिवमिति पूर्वग्यः । किम योगार्थ तथा चारकोश सूमा मेडिया "इत्या दि । तथा जा भिक्खुणी पिउभ्गामं विश्नवेश्" इत्यादि । भावनामतया ज्ञातव्याः । के पुनस्ते ? । उच्यते " तिस्थगरा जिल चउदस, जिने संविग्ग वह असंवि चन्द्रस, सारुविच सण-परिभाषामो ॥ तीर्थकरी अर्हन्तः सामान्य के वञ्जिनः अवधिमनःपर्याय जिना वा चतुर्दशपूर्विणो दशपूर्विणश्च प्रतीताः (भिन्ने नि ) असंपूर्णदशपू वैधारिणः संविग्ना उद्यतविहारिणः, असं विग्नस्तद्विपरीताः सानिमा शिरसो 6 " नः पश्चात्कृतविशेषाः, ( वय त्ति ) प्रतिपन्नापुव्रताः श्रावकाः, (मणाचा अविरत सम्यग्रर्थः प्रतिमा भविम्बानि एष सर्वोऽपि दर्शनादिना मात्र पर हम युकं तीर्थकरान ज्ञानादिरत्नत्रय संपत्समन्वितानां भावप्रामत्वं, ये पुनरसंविग्नादयस्तेषां कमियात्यते नैव दोषः । तेषामधि धोकं धर्ममाकप तस्तेषामपि भाषामत्यमुप यथावस्थितपणाकारियां पार्श्वतो सम्यग्दर्शनादिलाभ उदयते पद्यत एवेति कृतं प्रसङ्गेन । । Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०६८) गाम अभिधानराजेन्द्रः। गामकंटक तीर्थकरा ति पदं विशेषतो जावयति शा० १ श्रु०१ अाइन्द्रियगणे च । उत्त० ३ अ0 । “यथा कुटुचरणकरणसंपन्ना, परीमहपरायगा महानागा। म्बिनः सर्वे-ऽप्येकीभूता भवन्ति हि ॥ तथा स्पराणां सन्दोहो, तित्यगरा नगवंतो, भावेण उ एस गामविही ॥ ग्राम इत्यानधीयते ॥१॥" इत्युक्ते म्बरसङ्घभेदे, पाच । चरणकरणमंपन्नाः परीपहपगजेतारो महानागास्तीर्थकरा "पएसि णं सत्ताई सराणं तयो गामा पमत्ता । तं जहा- स. जगाम,मजिकमगामे,गंधारगामे। सत्त स्सरा तो गामा,मुचणा भगवन्तो दर्शनमात्रादेव भव्यानां सम्यग्दर्शनादिबोधिधीज एगर्विसती"। स्था०७४.०। जनपदे च । वाच। प्रसूतिहेनवो भायमानतया प्रतिपत्तव्याः । एवं जिनादिष्वपिमावनीयम् । एष सोऽपि भावग्रामविधिमन्तव्यः। गामउम-देशी-ग्रामप्रधाने, देना०२ वर्ग। प्रतिमा अधिकृत्य जावनामाद गामऊम-ग्रामकुट-पुं०। प्राममहत्तरे, पृ० ३ उ०। जा सम्मनाचियाओ, पमिमा इयराण नावगमो । गाममे-देशी-उलेन प्रामन्नांतरि, दे० ना०५ वर्ग । भावो जड़ नस्थि तिहिं, नणु कारणकजओवयरो ।। | गामंतिय-ग्रामान्तिक-पुं० । ग्रामादिकमुपजीयन्तो प्रामस्थान्ते याः सम्यगनाविताः सम्यग्दृष्पिपरिगृहीताः प्रतिमास्ताःत्रावग्राम समीपे बसन्तीति प्रामान्तिकाः। दशा० १० । प्रामोपजीउच्यते, नेतरा मिथ्याधिपरिगृहीताः आह-सम्यग्नाविता अवि/ विनि तीर्थकविशेषे, सूत्र० २७०२ अ०। आचा० । प्रतिमास्तावदानादिनावशून्यास्ततो यदि ज्ञानादिरूपो भाव-गायकंटक-ग्रामकण्टक-पुं०। ग्राम इन्डियग्रामस्तस्य कण्टका श्व स्तत्र नास्ति ततस्ताः कथं नावग्रामो नवितुमर्हन्ति । उच्यते ग्रामकएटकाः । इन्द्रियवर्गप्रतिकूल शब्दादिषु. कएटकत्वं चैषां ता अपिडा भयजीवस्याककुमागदरिब सम्यग्दर्शना. पुःखोत्पादकत्वेन मुक्तिमार्ग प्रति विघ्नहेतुन्या च । उत्त० ३ घुडीयमानमुपलभ्यते, ततः कारणे कार्योपचार इति कृत्वा ता ० दशा औ० । काणानांचजनरुकालापेषु च । श्राचा०१ मपि भावग्रामो भएयते । थु० ८ ० ३ ०। प्रत्र परः प्राह साधुः क्रूरसस्वैरभित्रुतः संयमाचश्यते, पुःसहत्याद् प्रामकएवं खु नाचगामो, पिए हबमाई बिजह मयं तुब्नं । एटकानाम् । तानधित्याहएममवच्छं को गु हु, अविबरीतो वदिजाहि ॥ अप्पगे पडिजासन्ति, पमिपंथियमागता । यथा सम्यग्जावितप्रतिमानां कारणे कार्योपचारद्भावयामस्वं पडियारगता एते, जे एते एव जीविणो ॥ ॥ युध्माकं मतमभिप्रेतम, एवमेव निवादयोऽपि भावग्राम पर भवतां प्राप्नुवन्ति, तेषामपि दर्शनेन कस्यचित्सम्यग्दर्शनोत्पा अप्पेगे वह जुंजंति, नगिणा पिंमोलगाऽहमा । दात् । सूरिराह-पतत्वदुकमवाच्यवचनं, भवन्तमममञ्जमाला मुंडा कंडूविणटुंगा, उज्जल्ला असमाहिता ॥ १० ॥ पितं विना को नु अविपरीतः सम्यग्रस्तुतस्ववेदी वदेत् , एवं विप्पमिवन्नेगे, अप्पणा न अजायगा। अपि तु नैवेत्यभिप्रायः। तमओ ते तमं जति, मंदा मोहेण पाउमा ॥ ११॥ कुत इति ?, आह (अप्पेगे इत्यादि) अपिः संभावने । एके के चनाऽपुत्रजा वि हु सम्मुप्पाओ, पास दद्दूण निएहए होजा। धर्माणः अपुण्य कर्माणः प्रतिभापम्ति धने-प्रतिपन्थाः मिच्चसहयसईया, तहा वि ते वजणिज्जाओ। प्रतिकूलत्वं तेन चरन्ति प्रातिपन्धिकाः साधुविद्वेषिणः, सद्भा बमागताः, कश्चित् प्रतिपथे वा दृष्या अनार्या एतद् ब्रुबतेयद्यपि हिनिहवानपि दृष्ट्वा कस्यचित् सम्यभर्शनोत्पादो संभाव्यते एतदेवंविधानां तद्यथा प्रतीकारः पूर्याचरितस्य भवेत् तथाऽपि ते मिथ्यात्वमतस्के तत्वाभिनिवेशः, तेन हता। कर्मणोऽनुभवमेके गताः प्राप्ताः स्वकृतकर्मफलमोगिनो य स्मृतिः सर्वज्ञवचनसंस्कारलकणा दुर्वातेन शस्यवधेषां ते एते यतय एवं जीवन्ति परगृहाण्यटन्तोऽन्तप्रान्तभोजिनो मिथ्यात्यहतस्मृतिकाः, एवंविधाइच बडीभिरसद्भावोद्भावना- दत्तादाना लुञ्चितशिरसः सर्वभोगवञ्चिता दु:खितं जीवन्तीति। भिरास्तां लोकचेतांसि विपरिणामयन्तः पूर्वसन्धमपि पीज. किश्च-(अप्पे इत्यादि) अप्येके केचन कुमृतिप्रस्ता मात्मनोऽपरेषां चोपघ्नन्तो दुरंदरेण वर्जनीया इति यतश्चैव. अनार्या वाचं युञ्जन्ति भाषन्ते-तद्यथैते जिनकल्पिकादयो मतो नैते भावग्रामतया नवितुमर्हन्तीति प्रकृतम् । नग्नाः, तथा (पिमोलग सि) परपिएममार्थकाः, अधमाः मलाअथात्र कतरेण प्रामेणाधिकार?, उच्यते बिलत्यात् जुगुप्सिता,मुण्मा लुञ्चितशिरस,तथा कचित्करमूआहारजवाहिसयणा-सणोवनोगेसु जो न पानग्गो। कृतक्षतः रेखाभिर्वा विनाङ्गा विकृतशरीरा अप्रतिकर्मशरी रतया वा कचिद्भोगसंलवे सनत्कुमारबत विनष्टाङ्गाः, तथोकतो एवं वयंति गाम, जेएऽहिगारो इदं सुत्ते ॥ जल्लः शुष्कप्रस्वदो येषां ते उज्जल्ला तथा असमाहिता अशोमाहारोपधी प्रतीतो, शयनं संस्तारकः, आसनं पीठादि. ए. जना बीभत्सा दुष्टा वा प्राणिनामसमाधिमुत्पादयन्तीति ॥१०॥ तेषामुपभोगेषु यः प्रायोग्यः। किमुक्तं भवति ?-एतानि यत्रक- सांप्रतमेतदभाषकाणां विपाकदर्शनायाऽऽह-(एवमित्यादि) पानि प्राप्यन्ते तमेतं प्रामं वदन्ति प्ररूपयन्ति सूरयो नात्र सू. पवमनस्तरोक्तरीत्या एके अपुण्यकर्माणो विप्रतिपन्नाः साधुसंश्रेऽधिकारः प्रकृतमिति व्याख्यातं ग्रामपदम् । वृ०१०। एवं मार्गद्वेषिणः प्रात्मना स्वयमकाः। तुशब्दादन्यषां च वियकिना मगरादीनामपि निक्केपपदानि व्याख्यातव्यानि। समूहे, आय०४ बचनमकुर्वाणाः सन्तस्ते तमसोझानरूपादुत्कृष्एं तमो यान्ति म०। आ० । जनसम्हे, अष्ट० ३ अए । दशकुलसाहसिके । गच्छन्ति । यदि वा-अधस्तादप्यधस्तनी गतिं गच्छन्ति । यतो Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) गामकंटक अन्निधानराजेन्छः। गामिय मन्दा कानावरणीयेनाऽवधाः , तथा मोहेन मिच्यादर्शनरूपेण | गामबह-ग्रामत्रध-पु०। ६ त०। प्रामायघाते, नि००१: उ० । मावृता प्राध्यादिताः सन्तः षिक्तप्रायाः साधुविद्वेषतया कुमार्गगा जवन्ति । तथा चोक्तम्-"एक हिचकुरमसं सहजो विवेक गाममारी-ग्राममारि-स्त्री० ग्रामे युगपद रोगविशेषादिना बढ़ना स्तद्वद्भिव सह संवसति द्वितीयम् । पतद् द्वयं भुषि न यस्य कालधर्मप्राप्ती, जी. ३ प्रतिः। स तस्वतोऽन्ध-स्तस्याऽपमार्गचलने समु कोऽपराधः?" ॥१॥ | गामरक्खय-ग्रामरक्षक-पुं० । त्रिकचत्वरादिव्यवस्थितेषु प्रा॥११ ॥ सूत्र.१ श्रु० ३१०१०। मरकाकारिषु, श्राचा १ श्रु० अ०२ उ० । गामकंटकोपसग्ग-ग्रामकएटकोपसर्ग-पुं० । शन्छियग्रामप्रति- | गापरोग-ग्रामरोग-पुं० ग्रामव्यापिनि रोगे, जं० २ वक्षः। कूजोपसर्गे, भ० ए श० ३३ ४० । गाममठिय-ग्रामसस्थित-न० । प्रामालम्बनत्वाद् ग्रामाकारे वि. मामकुमारि-ग्रामकुमारि-स्त्रीला प्रामे कुमारका प्रामकुमारकास्ते. ज्ञाने, भ. ८०१ उ०। पामियं ग्राममारिकााग्राममानक्रीडायाम, मूत्रशु०१00 गामससरियग-ग्रामसंसायक-न। ग्रामे ससारणीय कथनाय, गामगोड-पेशी-प्रामप्रधाने, दे० ना० २ वर्ग। श्राचा १९० २५ उ.। गामहण-देशी-ग्रामस्नाने, दे० ना०२ घर्ग। गामघायग-ग्रामघातक-पुं० । माममारके दुःपुरुषे, प्रश्न ३ प्राध० द्वार। |गामाग-ग्रामाक-पुं० । स्वनामख्याते सनिवेशे, वत्र प्रतिमा स्थितस्य वीरस्य बिभेलको नाम यकः पूजां कृतवान् । प्रा०म० गामट्ठाण-ग्रामस्थान-न० । उकसग्रामस्याने, कल्प०५ण । | द्वि० । श्रा० चू०। मामणिमण-ग्रामनिर्भमन-न । प्रामसम्बधिनि जलनिर्ग-गामागर-ग्रामाकर-jo 1 ग्रामाः करवन्तस्तेषु प्राकरा लोहाधुमे 'वाल' इति लोके प्रसिके, कला०४ कण । त्पत्तिनूमयः। ग्रामस्थितलोहाद्युत्पत्तिभूमिषु, फस्प० । गामणिमंतिय-ग्रामनिमन्त्रिक-पुं० । परतीथिकविशेषे, सूत्र०२ गामागर-नरग-खेड-कबम-ममंत्र-दोणमुह-पट्टणा-स ०७भ०। म-संवाह-सन्निवेसे ।। गामण-गामन-न । भूमौ सर्पण, भ• ११ श०११ ००। (गामेत्यादि) ग्रामाः करवन्तः, अकाराः लोहाद्युत्पत्तिभ मयः, नगराणि कररहितानि, खेटानि धूलिप्राकारोपेतानि, गामणि-ग्रामणी-पुं०। स्त्री । ग्रामसमूह नयति प्रेरयति स्वस्व. कर्बटानि कुनगराणि, मडंबानि सर्वतोऽर्धयोजनात्परतो अवकार्येषु नी-क्विप्-णत्वम | वाच0 "क्विपः" ||३४३॥ इति स्थितग्रामाणि, द्रोणमुखानि यत्र जलस्थलपथावुभावपि नवतः, ईदम्तत्य -हस्वो वा। प्रा० ३ पाद । प्रधाने, प्रामाध्यके, नापिते, पत्तनानि जनस्थनमार्गयोरन्यतरेण मार्गेण युक्तानि, प्रश्रममुं० । ग्राम प्रामधर्म नयति भोगिके, ग्रामेण मैयुनव्यापारेण न- स्तीर्थस्थानानि, तापसस्थानानि वा, संवाहाः समनमौ कृषि यति कालम् । बहुजनभाग्यायां स्त्रियाम, वेश्यायां नीलिकायां कृत्वा कृषीवला यत्र धान्यरकाथै स्थापयन्ति, सनिवेशाः सार्थचा स्त्री विष्णी, घाच० । ग्रामप्रधाने,दे० ना०२ वर्ग । कटकादीनां उत्तरणस्थानानि; एतेषां द्वन्द्वः, तेषु तथा । मामणी-ग्रामणी-पुं० । स्त्री० । गमणि' शब्दार्थे, प्रा० ३ पाद । कल्प.४क्षण। गामणीसुअ-देशी-ग्रामप्रधाने, दे० ना० २ वर्ग । गामाणुग्गाम-ग्रामानुग्राम-न०। एकस्माद् ग्रामाववधिभूताऽत्तर प्रामाणामनतिक्रमो ग्रामानुग्रामम् । ग्रामपरम्परायाम, एकनामागामधम्म-ग्रामधमें-पुं० । ग्रामा इन्द्रियग्रामाः, तेषां धर्मः ख घुपश्चाद्भावाज्यां ग्रामोऽनुग्रामः । ग्रामश्च अनुग्रामश्च ग्रामानुनाषः। इन्द्रियाणां यथास्वं विषयेषु प्रवर्तने, प्राचा०१ श्रु०५ | ग्रामम । स्था०४ ग०४ उ०। ग्रामादनन्तरे प्रामे,ध०३माधि। अ०४ उ० । विषयोपनोगगते व्यापारे, प्राचा० २ ० १ ० गच्छतोग्रेऽनुकूले ग्रामे च । नि० चू० ३००।" गामानुगाम ३१० । ग्राम इन्द्रियग्रामो कडेस्तद्धम्मः। विषयानिमाये, स्था० दृश्जमाणे" प्रामानुग्राम वन् एकस्माद् प्रामाइनन्तरग्रा१० ग०। शब्दादिषु कामगुणेषु, प्रश्न आश्रद्वार। मैथुने, ममनुलक्यन्नित्यर्थः । राप्राचा०। औ०। झा० । उत्त०। "उत्तरमणुयाण आहिया गामधम्मा हमे अणुस्सुर्य" सूत्र०१ नि००नि००। "गामाणुगामं रीयंतं अणगारं अर्कि०२५०२ उ० । प्राचाप्रामा जनपदाश्रयास्तेषां तेषु वा । चणं"। उत्त३०। धर्मः समाचारो व्यवस्थेति ग्रामधर्मः । लौकिकर्मभेदे, सच प्रतिग्राम भिन्न शति । स्या० १० गाः । दश। गामायार-ग्रामाचार-पुं०1विषये, म० म०प्र०। "मामायारा गामद्ध-प्रामार्ष-पुं० । प्रामे उत्तरापथाना प्रामस्य प्रामाई इ विसया" प्रा० म०प्र०। ति संका। आह चूर्णिकृत-"गामसुत्तिदेसणतीछन्न रंगामेसु | गामारमप्पयारणिरय-ग्रामारण्यप्रचारनिरत-त्रि० । प्रामारसिणियं होइ उत्तराबहाणं, एसा भणिइ ति" वृ० १ उ०। ण्ययोः प्रचारविषयनिरते, ज. ७ श६ उ० । गामपह-ग्रामपथ-पुं० । ग्राममार्गे, नि० चू० १२०। । गामाहिवई-ग्रामाधिपति-पुं० । जोगिके, वृ०४ उ०। गामपिंडोलग-ग्रामपिएडोलक-पुं० भिक्षयोदरभरणाये ग्राम-गामिय-ग्रामिक-त्रिका प्रामधर्माश्रिते, आचा०अ०८०२ माश्रिते तुम्दयरिमजे, आचा० १ ००४०। १०। प्राममहत्सरे, नि० चू०२०। | कर Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गामिल्लय (७०) अभिधानराजेन्डः। गारव गामिक्षय-ग्रामीण-त्रि०। ग्रामे भवः । "मिल्नडुल्लो भवे" ॥८॥ णवचनं व्रते तदा माससघु । 'अब्वो! वप्पो!' भ्रातः! मामक!, २।१६३ ॥ इति नाम्नः पर शतप्रत्ययः। प्रा०२पाद । ग्रामभवे उपसकणत्वादम्ब!झागिनेय ! इत्यादीन्यपि यदि वक्ति तदा मनुष्ये, " ते य गामिखए जस" आ० म०प्र०। चतुर्लघु । अथ भरिन् स्वामिन् ! भोगिन् ! इत्यादीनि गौरव. गामेयग-ग्रामेयक-त्रि० । ग्रामजाते, ग्रामेयकास्तिर्यञ्चो द्विधा गाणि वांसि ब्रूते तदा चतुर्गुरुका आझादयश्च दोषाः । कुत्सिता जुगुप्सिताश्च । बृ०१ उ०। (ग्रामेयकोदाहरणम् 'अ संथवमादी दोसा, हवंति धी मुम! को व तुह बंधू । णणुयोग' शब्द प्र. भागे २८६ पृष्ठे निरूपितम) मिच्चत्तं दियवयणे, ओनावणता य सामिति ॥ गाय-गात्र-न. शरीरे, नत्त० अ० । शरीरावयवे, सूत्र. २ भ्रातृमामकादीनि वचनानि बुवाणेन संस्तवः पूर्वसंस्तवादिकश्रु० २ अ० । ज्ञा० । औ० । " गायस्सुम्बट्टणाणि य" गात्रस्य पः कृतो भवति । ततश्च प्रतिबन्धादयो बहवो दोषा भवन्ति । कायस्योद्वर्तनमेवानाचरितानि उत्तनानि पङ्कापनयनलकया अम्ब! तात! इत्यादिब्रुवतः श्रुत्वा सोकश्चिन्तयत्-महो! पतेनि । दश ३ अ०। षामपि मातापित्रादयः पूजनीयाः, भवितिकाश्च मन्त्रयन्तो भूगायगंठिभेय गात्रान्थिनेद-पुं० । गात्रान्मनुष्यशरीरावयववि यस्तरा दोषाः । यद्वा-सद्गृहस्थस्तेनासनूतसंबन्धोद्घाटनन रुष्टो यात-धिगमुण्ड! कस्तवात्र बन्धुःस्वजनोऽस्ति । येन शेषात् कट्यादेः सकाशात ग्रन्थिं कार्षापणादिपोहलिका भिन्द प्रलपसि । उपलकणामदम अरे ! हरे! इत्यादि अवतः परो म्त्याच्चिन्दन्तीति गात्रग्रन्थिभेदकाः । प्रन्धिच्छेदकतस्करेषु, ब्रयात-त्वंताबन्मां न जानीषे कोऽहमस्मिततः किमेवमरे इत्याऔ०। का० । शरीरविनाशकारिषु च । रा०। दि जणसि। एवमसंखडादयो दोषाः। द्विजयचने च ब्राह्मण ! गायदाह-गात्रदाह-पुं० । नीरोगीकरणाथैः पशूनां गावदग्धता- इत्येवमनिधाने मिथ्यात्वं भवति। स्वामिन् ! इत्याद्यनिधाने करणे, तत्स्थाने च । “जराश्रोगमरताणं गोरुमाणं रोगप- च प्रवचनस्यापभ्राजना भवति । गतमगारास्थितवचनम् । गृहसवणत्यं जरथ गाभा डऊंति तं गायदाहं भमति"। नि० स्थवचनं देशीभाषामाश्रित्य भणेत् । वृ०६००। ('अवयण' चू०३ उ०। शब्दे प्रथमभको ७६६ पृष्ठ चतुर्गुरुकाः प्रायश्चित्तमुक्तम्) मायपचणण-गात्रप्रतणन-न । शरीरस्य चोरणे, प्रश्न०५ अथार्यागृहस्थानापानाषणे दोषमादसंबद्वार। जत्थ य गिहत्थभासा-हि भासए अजित्रा सुरुवा वि। गायलंग-गात्राभ्यङ्ग-पुं० । तैलादिना गात्रस्याज्यजने, तं गच्छंगुणसायर!,समणगुणविवजिअं जाण ॥११॥ दश०३०। यत्र च सुरुष्टाऽपि कथमपि कारणवशेन भृशं रोषं गताऽपि, गायब्जंगण-गावान्यजन-न० । सहस्रपाकतैलादिभिः गात्र- किं पुनररुया, आर्या गृहस्यभागभिः 'तव गृहं ज्वलतु' 'तब स्यान्यने, प्राचा० ११० अ०४ उ०। शवं कर्षयामि''तवाकिणी स्फुटिते' 'तव पादौ कृत्तौ स्तः'इत्यागायरी-देशी-गगर्याम्, दे० ना०२ वर्ग। दि कोरसावधापाभिर्भाषते, हे गुणसागर! तं गच्छं भ्रमण गुणविवर्जितं जानीहीति गाथाच्छन्दः। ग०५ अधिक। मायलटि-गाययष्टि-स्त्री० । तनुबतायाम, सम्म २ काराम।। गारथी-अगारस्त्री-श्री। अविरतिकायाम, वृ० ३ उ० । गार-गार-पुं० । पाषाणशृनिकायाम् , वृ०४ उ० । कर्करके, गारव-गौरव-नगुरोर्भावः कर्म वेति गौरवम् । 'पाच गौरखें व्य०४०। भगार-न० । प्राकृतेऽकारलोपः। गृहे,सूत्र०१ श्रु०२ १०३ उ०। ।। १ । १६३ । इत्यौत आत्वम् । प्रा० १पाद । प्रतिबन्धे, अनि "गारभावसंतेहिं" अगारं गृहं तदाद्यकरलोपळू गारमित्युच्यते। लाषे च । प्रा०० ४ ० । तत्र व्यभावभेदभिन्नं गौअगारजावसद्भिः सेवमानैः । आचा०१ श्रु.५१०३००। रवं वज्रादेः भावगौरवमनिमानलोभाभ्यामात्मनोऽशुभनाघगारइल्ल-गौरववत-त्रि० । गौरवाणि ऋद्धिरससातलकणानि गौरवं संसारचक्रवामपरिभ्रमणहेतुकर्मनिदानमिति भावार्थः। श्राव०४०। विद्यन्ते यस्य स गौरववान् । गौरवान्विते, कर्म० १ कर्मः। मारत्थ-अगारस्थ-पुं० । गृहस्थे, नि० च १००। तो गारवा पन्नत्ता। तं जहा-इडिगारवे,रसगारवे,सातागारवे । गारत्थिय-अगारास्थित-पुं० । अगारंगेहं तकृत्तयोऽगारस्थि. तत्र अध्या नरेन्जादि पूजालकणया, भाचार्यत्वादिलक्षणया वाऽनिमानादिद्वारेण गौरवं ऋमिगौरवम, ऋद्धिप्राप्य ऽनिताः। गृहिषु, स्था० ६ ठा० । वृ० । मरुकादिभिकाचरे, नि० मानप्राप्तिप्रार्थनाद्वारेणाऽऽत्मनोऽशुभो भावोजावगौरवामित्यर्थः। च्. २ उ०॥ एवमन्यत्रापि, नवरं रसो रसनेन्द्रियार्थो मधुरादिः, सातं सु. गारत्थियवय ग-अगारस्थितवचन-न० । अगारस्थिता गृ स्वमिति । अथ वा-ऋष्यादिषु गौरवमादर इति। स्था० ३ वा. हिणस्तेषां वचनम । वृ.१ उ०। मामकभागिनेयेत्यादिभणने, I Hउ०। स्था०६ठा। अथागारस्थितवचनमाह ऋद्धयादिगौरवे च दृष्टान्तःअरें!हरें वंजण! पुत्ता,अन्वो वप्पोत्तिनायामाम!त्ति। "मपुरामागमन्मगु-राचार्यः श्रुतपारगः। धर्मोपदेशवान् लब्ध्या, भविकप्रतिवोधकः ।।१।। भट्टी! य सामि! जोगिय!,लदुओ लहुआ य गुरुश्रा य॥ समृद्धाः श्रावका भक्त्या, भोज्यानि सरसानि च । मरे! इति वा हरे। इति ब्राह्मण! इति वा पुत्र!इति बायद्यामन्त्र । सुखेनावस्थितिस्तत्र, तस्याभूत्सर्वकालिकी ॥२॥ Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) गारव अन्निधानराजेन्दः । गावी ऋद्धिरससातरूपं, ततोऽभूगौरवत्रयम् । गालण-गालन-न। घनमसृणवत्राद्धान्तम शुद्धिकरणे, विध्वं नित्यवासी स तत्रासी-दतो बौल्याद्विशेषतः ॥ ३॥ सने च । नि०१ वर्ग । श्राचा गालने,प्रश्न०१ श्राश्रद्वार । घायुःकये स मृत्वाऽभूद्, यको निर्धमने पुरः । __तञ्च न कार्यम्ज्ञात्वा चाधः स्वं शिष्यान स्वान्, संझाभूमिमुपागतान ॥४॥ दृष्टा प्रासारयदीर्घा, जिह्वां बोधयितुं सुधीः । जे निक्खू वियमं गाले गालावे गालियमाहड दिज. तेवेकः सात्विकः साधु-रूचे त्वं कोऽसि गुह्यक!? ॥५॥ माणं पडिगाहेइ पमिग्गहनं वा साइजः ॥७॥ स ऊचे वो गुरुर्मृत्वा, लोल्यादीहक सुरोऽभवम्। परिपूणगादीहिं गासेति, तस्स चउलहुं,प्राणादिया य दोसा। नित्यवासं ततो यूयं, परित्यज्य कृतोद्यमाः ॥ ६॥ विहरवं क्रियानिष्ठाः, अभध्वं मा स्म दुर्गतिम् । जे निरखू वियदंतं, गालिजा तिविहकरणजोगणं । श्रुत्वा गुरुवचो दृष्ट-प्रत्यया गौरवेषु ते ॥ ७॥ सो भाणा अणवत्थं, मिच्छत्तनिराहणं पावे ॥२२॥ तदैवाऽऽवेद्य भव्यानां, व्यहार्पस्त्यक्तगौरवाः "" अप्पणो गालेश, अमेण या गालावे, गालेतमणुमोदति। पतं श्रा० का आवा संथाध० । प्रश्न । पातु सासूत्र वितहकरणे श्मे दोसा, सेसं कंठं । परिवारगौरवे, ब्य। इहरह वि ताव गंधो, किमु गालितम्मि जं च उज्झिमिया। परिवारविधम्मक-हवादिखमगा तहेव ने मित्ती। खोमेसु पक्कसम्मि य, पाणादिविराहणा एव ।। २३ ॥ विजा रायणिए गा-रवो इत्ति अहहा होइ ॥ (शहरह त्ति)अगालिजंतस्स विगंधो, गालिजंते पुण सुहतर परिवारगौरवम् १ ऋद्धिगौरवम् २धर्मकथकोऽहमिति गौरवम् | ३ वाद्यमिति गौरवम ४ कपकोऽहमिति गौरवम् । नैमित्ति गंधो,खोलपक्कसेसुं उज्झिज्झमाणेसु उकिमिता जयति। मज्जकोऽहमिति गौरवम ६ विद्यागौरवम् ७ रत्नाधिकतागौरवम् । स्स हाऽधो य गीमादिकिट्टिसं खोलेसु गए किम्ममादि किट्टिइत्येवममुना प्रकारेणाधाऽष्टप्रकारं गौरवं भवति । व्य०३०।। संपकसं अमं च खोपकसेसु छमिजमाणेसु मक्खिगपिपीपादरे, प्रश्न० २ आश्र द्वार । गर्वे, स्था० १० ठा० । सिगाविदारणा, मधुविंदोबक्खाण उभयप्राणिविदारणा । गारवकारण-गौरवकारण-न० । गर्व निबन्धने, वृ० १ उ०। वितियपदं गेलमे, वेज्जुएसे तहेव सिक्खाए । गारवट-गौरवार्थ-त्रि । गौरवनिमित्ते, “एयाणि गारवठा,कु एतेहि कारणेहिं, जयणा इमा तत्य कातव्या ॥२४॥ णमाण आनिमोगियं बंधे " पं०व०४ द्वार। कारणे श्माए जयणाए गएहजगारवाण-गौरवदान-न । गौरवेण गर्वेण यद्दीयते तद्रौरव पुवपरिगालियंत-स्स गवसण पढमताएँ कायव्वा । दानम् । दानभेद, " नटनतमुष्टि केन्यो, दानं संबन्धियाधुमित्र पुवापरगालेय-स्सा तीतो अप्पणा गाले॥ २५ ।। ज्यः। यहीयते यशोऽर्थ,गर्वेण तु तद्भवेद् दानम्"॥१॥स्था०१०ठा। रिजूरिति कण्ठ्या। गारववंदण-गौरववन्दन-न । चतुर्दशे बन्दनकदोषे, प्रब०। सम्ववियम्सुत्ता जहा णिदोसा सदोसा भवंति तहा आहचतुर्दशदोषमाद कारणगहणे जयणा, दत्ती तिन्ज गालणं चेव । "गारव सिक्खाविणीसोऽहं" (१६०) (गारव त्ति) गौरवनिमित्त कीयादी पुण दप्पे, कजो वा जोगमकरेंतो ।। २६ ॥ बन्दनकमिति। कथं तदिति । पाह-"सिक्खाविण ओहं ति"शिका दसीसुतं,जणासुतं, गालणासुतं च। एते सुत्ता कारणिया। वन्दनकपदानादिसामाचारीविषया,तस्यांविनातः कुशमोऽहमि. एतेसु कारणेसु वियडं घेप्पइ, गहणे जिद्दोसा जयणं करतो, स्यवगच्चन्त्वमी सर्वेऽपि साधव इत्यभिप्रायवान् यथावदायत्ती- जयणं अकरेंतस्स दोसा नवंति। कोयगरपामिच्च परियाट्ट अज्जाचाराधयन् यत्र वन्दते तद्गौरववन्दनकामित्यर्थः। प्रव०२ द्वार। दिया पुण सुत्ता दप्पतो पमिसिद्धा, दपतो गेराहंति, सदोसा प्रायः । श्रा० ० । वृ. । ध। कज्जे श्रववादतो गेराईतो जति तिमिन वारा सुद्धं सगणं पचंगारवपिसेसजोग-गौरव विशेषयोग-पुं० । गुरुत्वस्य पूजनीय अंति, पणगपरिहाणी पठं जति, ता सदोसो। निचू०१६ उ०। यत्वस्याऽधिक सम्बन्धे, पो० १० विव०। गानणा-गालना-स्त्री० । गर्भपातनप्रकारे, येन गनों वीभ्य मारविय-गौरवित-त्रि० । ऋध्यादिगौरवं संजातमस्येति । ऋ. करति । विपा० १ श्रु०६अ। विरससातानामन्यतमेन गौरयेण गरुतरे, सब गाली-गाली-खी० । चकारमकारादिकायामसद्वाचि, प्रव० अ०१०।०प्र० ।गध०॥ ३८ द्वार । स्था० । " देवतु ददतु गाली गालिमन्तो भवन्तो, मारिहत्यिया-गाहस्थी-नी। गृहस्थानामियं भाषा गार्हस्थी, बयमिह तदनावा-नैव दाने समर्थाः " उत्त०२ अ०। पुत्र-मामक-भागिनेयेत्यादिः। तस्यां भाषायाम, प्रव०२३ मारगालेमाण-गालयत--त्रि० । अतिवाहयति, न०६ श० ३३ उ०। गारुन-गारुम-न ! मन्त्रशास्त्रलेदे, स्था०६ ठा। गावाण-ग्रावन-पुं० । “पुस्यन प्राणो राजवच्च" ।।३।५६। त्यमाझ-न-धा० । प्रदर्शने, णिच् । तस्य " नशेविंउम-नास- चन्तस्य आणादेशः। पाषाणे,प्रा०३पाद । गिरौ चा है।वाच। व-हारब-बिप्प-गाम-पलावा:"1८1४:३॥ति गायादेशमगावी-गो-स्त्री० । गव्याम, रा० । प्रा० म०। (गोदृष्टान्त: 'गाल'नाशयति । प्रा०४पाद । 'अणणुप्रोग'शब्दे प्रथमभागे २०५ पृष्ठे उक्तः)"गावीयो हरि Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०७२। गावी अन्निधानराजेन्डः। गाहा याओ" श्रा०मा०।"खारीणियारो गावो" प्राचा.गाहणाकुमल-ग्राहणाकुशल-पु०। प्रतिपादनशक्तियुक्त, ग० २०१०४ उ०॥ १अधि)। म हि बहीनियुक्तिभिः शिष्यान् बोधयति। प्राचा. गाम-ग्रास-पुं० । ग्रसु भदने । प्रसनं ग्रासः । फवलपक्केपे, ग्रस्थत इति च ग्रासः । कवले, विशे। गाहा-गाथा-स्त्री० । गाय अ-टाप् । संस्कृतेतरनापानिवाmr_mmm सीमा से निवतिय यामार्यायाम, जं०२ वक्षः । तलकणञ्चपहाए " प्रासाथै चिजसादौ निपतति, प्राचा. १९० "विषमाकरपादं वा, पादैरसमं दशधर्मवत । तन्त्रेऽस्मिन्पदास, गायेति तत्पमितैक्रयम्"। दशधर्मवदिति । गाह-गाध-०। उधे, स्था० १० ठा० । स्ताधे, स्था० । "दश धर्म न जानन्ति, धृतराष्ट्र ! निबोधत ॥ ठा०४ उ०। मत्तः प्रमत्त उन्मतः, श्रान्तः कको बुझुक्कितः। ग्राह-पुं०। प्राहो प्रहणम् । गृहीतौ, नि० ०१ उ० । मादाने, स्वरमाणश्च भीरुश्च, लुब्धः कामी च ते दश"। हस्तव्यापारे, वाच । सर्पग्राहके गारुमिकादौ, वृ०१० ।त. इति गृह्यते, उत्त०३६ अ०। स्था० । तुकजीवे जसजन्तुभेदे, उत्त०३६ अ०। प्रश्नातथा सूत्रम् " यच्छन्दो नोक्तमत्र, गाथेति तत्सरिभिः प्रोकम" इति । "सेति गाहा? गाहा पञ्चविहा पम्पत्ताातं जहा-देली बदगा ग०१अधि०भ०। मदुया पुलगा सामागारा । सेत्तं गाहा।" प्रशा०१ पद । जा। "लमैतत्सप्त गणा, गोपेता जयनि नेह विषमे जः। गाहक-ग्राहक-गाग्रह एवुल् । श्येनपक्किाण, विषवैद्य च । प्रदी षष्टोऽयं न ल घुर्वा, प्रथमे नियतमार्यायाः ॥ तरि, त्रि० । झापके, लिङ्गेनिज्यादौ,याचा प्राचार्य, प्राहयती षष्ठे द्वितीयत्नात्परके न्ले. मुखलाच्च स यतिपदनियमः । चरमे पञ्चमके. तस्मादिह जवति षष्ठो लः"॥२॥ तिव्युत्पतेः । शिष्यै च, गृहातीति व्युत्पत्तेः। व्य० ३ उ०। शिक्क आय व संरकृतेतरजापासु गाथासंति ॥ यितरि गुरी, उत्त०१ अा अर्थपरिच्छेदकारिणि, वृ०१०। कथयितरि, प्रा० म० कि०। निक्केपः णाम ठवणा गाहा, दव्यग्गाहा य जावगाहा य । गाहगसुद्ध ग्राहकशुध-न0 । ग्राहकशुध्या शुद्देऽशनादिदाने, यत्र ग्रहीता चारित्रगुणयुक्तः । विपा० २ श्रु. १ उ। पोत्थग-पत्तग-शिहिया, सो होई दबगाहाम्रो ॥१३६।' (णाम उवणेत्यादि ) तत्र गाथाया नामादिकश्चतुर्ब निक्षेपः। गाहगगिरा-ग्राहकगिर-स्त्री० । ग्राहयतीति ग्राहिका, मा चासो नत्रापि नामस्थापने कुम्मत्वादनादृत्य व्यगाथामाह-(सू०१ गीश्च ग्राहकगीः । श्रा०म० द्वि० । अर्थपरिच्छेदकारियां भग शु०१६ १०) आगमतो, नोश्रागमतश्च । नत्र आगमतो शाता, वद्वाचि, वृ०१ उ० प्रा० का तत्र चानुपयुक्तोऽनुपयोगो व्यमिति कृत्वा । नोभागमतस्तु गाहण-ग्राहण-न० । ग्राहयतीति वाहणम् । याह्यते शिष्य ए- विधा-शरीरद्रव्यगाथा, भव्यशरीररुव्यगाथा, ताज्यां विनदिति बाहुलकारकर्मण्यनट, ग्राहणम् । प्राचारादिसूत्रे, व्य. निर्मुक्ता च । “सन गुरू विसमा,से हया ताण छहणहजनया । ३००। प्रतिपाद्यस्य विवक्रितार्थप्रतीतिजनके बचास, प्रश्न गाढाप पच्चके, भेओ ग्ट्ठो त्ति शकलो" ॥२॥ इत्यादिलकणन२ संब० द्वार । श्रादापने, पं० भा। क्षिता पत्रपुस्तकादिन्यस्तेति । सूत्र०१७०१०१००। तत्र गाहण तवचरितस्सा, गहणं चिय गाहणा होति । शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता व्यगाथा पत्रकपुस्तकादिन्य स्ता । तद्यथा-"जयति णवणन्निण कुवलय-वियसियसरवत्सकिह पुण चरित्तगहणं, होजहि जन्नति इमोहिं तु ॥ पत्तनदलच्यो। वीरो गयंदमयगम-सुखसियगयविकमो भगवं" वेरग्गेणं अहवा, मिच्छत्तो होइ संमत्तं । ॥१॥ अथ चेयमय गाथा षोमशाध्ययनरूपा पत्रकपुस्तकन्यस्ता संमत्तान चारतं, अहवा होजाइमेहि गहणं तु ।। रूव्यगाथति। भावगाथामधिकृत्याऽऽहसवणो णाणविणाणे, एमादी गाहण चरिते य । होत पुण जावगाहा, सागारुवोगनावाणिप्पना । अहवा वी उबएसो, एगढ़ होति गाहणा यति । महरानिधाण जत्ता, तेण गाहा ति ए बिति ॥ ४०॥ तह उवदिसति जहनं, चारित्तं गेएहती सोतु ॥ (होति पुणेत्यादि ) भावगाथा पुनरियंजवति । तद्यथा-यो:अविराहणम्मि य गुणो, दोसाय विराहणाचरित्तस्स । सौ साकारोपयोगः वायोपशमिकतावनिष्पनो गाथां प्रति तहगाहिज्जति जहतं, ओगाढोहोति चारित्ते॥ व्यवस्थितः सा भावगाथेत्युच्यते, समस्तस्याऽपि च श्रुतस्य णाणे य चेव तहदं-सणे य जाति गहणेण संजूया। कायोपशमिकभावे व्यवस्थितत्वात्। तत्र चानाकारोपयोगस्या संभवादवमभिधीयते इति । पुनरपि तामेव विशिनष्टि-मधुरं एयाति गाहंते, गाहणता वन्निता एसा॥ पं0 भा०। । अतिपेशल माभिधानमुच्चारणं यस्याः सा मधुराभिधानयुक्ता, चरित्रप्रतिपत्तिः ग्राहणा शति । चरित्र प्रतिपसिविशुद्धं, गाथाउन्दसोपनिवरूस्य प्राकृतस्य मधुरत्वादित्यभिप्रायः। गीकथं बा चारित्रं भविष्यति ?। (वरग्गेण ) वैराग्यतया | यते पठ्यते मधुराक्षरप्रवृत्त्या, गायति वा तामिति गाथा, यत गुर्भिवति। एवमित्यवधारणे । एताःप्रतिपत्तयः। प्रतिपत्तिरिनि | पचमतस्तेन कारणेन गाथामिति तां प्रवते, णमितिवाक्याम्याकरणं, प्रकारो वा । पं० चू० । सूत्र० । सहारे पनां वा गाथामिति । Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाहा (०७३) अभिधानराजेन्द्रः | श्रन्यथा वा निरुक्तमधिकृत्याऽऽह गाड़ीकया व अस्था, अया सामरण देणं । एए होंति गाहा, एसो अन्नो वि पजाओ ॥ ४१ ॥ गाव इत्यादिकृत पिएमा विक्षित सन्त एक महिला या सा गाधेति । अथवा सामुदेवच्छ साया सा दोनिय लोके, गाधैति तत्पण्डितैः प्रोक्तम्" । एषोऽनन्तरोक्को गाथाश सदस्य पर्यायो निरुक्तस्तात्पर्यार्थी द्रष्टव्यः । तद्यथा - गीयतेऽसौ गायति वा समिति गाधीकृता वाऽयो सामुद्रेयवाद अन्यो वा स्वयम निधिना विधेय इतेि । पिडितार्थप्रादित्यमधिपारस अज्जणे, पिंडितप्रत्थे जो अवि तह त्ति । पिंडियत्रयणे अत्यं, गेहे तम्हा ततो गाहा ॥ ४२ ॥ पारस इत्यादि) प्यययनेषु प सर्वेष्वपि य एवं व्यवस्थितोऽस्मतिथं यथावस्थितपिण्डितार्थवचनेन यस्माद् प्रश्नात्येतदध्ययनं षोडशं ततः पिहितार्थग्रथना प्राथेत्युच्यत इति । सूत्र० १ ० १६ अ० । विचित्रा गाथा यथा-"समगं नक्खता योगं, जोयंति समगं उक परिणमति । णच्चुप णाश्सीत्रो, वहूदओ होइ नक्खतो "॥ १ ॥ अस्यां च गाथायां पञ्चमाष्टमावंशको पञ्चकलावितीयं विचिश्रेतिदोदिते बहु विचित्रेति गाथा " पति पंचकलो गए" इति स्था० ५ ठा० ३ ० | "कई च एक्का गाहाए" एकया च गाथया लालित्यादिकाव्यधर्मोपेतया श्रुतया कवि जानीयात् । तद्वचनारूपे कलानेदे, स० । श्री० । [झा० । प्राक्कनपञ्चदशाध्ययनस्य गानानाथ गाथा वा तत्प्रतितत्वादिति । सूत्रकृत्प्रयमश्रुतस्कन्धस्य षोडशेऽध्ययने, स० १६ सम० । प्रतिष्ठायाम, "सेसपयाथ य गाहा" इह गाथा प्रतिष्ठो ते निश्चितिरित्यर्थः 'गा' प्रतिष्ठाप्सियोति धातुय चनात् । श्र० ४ ० । गृहे, " गाढ़ा घर गिमिति पगडा व्य०८ उ० । गादान-प्रदान००१ प्रि गृहस् पतिः स्वामी गृहपतिः । सूप०२ गाद्दापनि ० ४ ० । वृ० । गृहस्थं, श्राचा०२ श्रु० १ २०१० । कोष्ठागारनियुक्ते, स्था० ७ ठा० । स०| ऋद्धिमद्विशेषे, उत्त० १ श्र० । गाथापति -पुं० । गृहस्थे, कल्प० ६ कण भ० | स्वधमं चर तो निवास्थानम् । जं०२ वक० "नागे नामं गाहावरे"। श्रन्तः ४ वर्ग । "मकाई नामं गाहावई” । अन्तर ७ वर्गं । श्रा० म० । शय्यादातरि च स्था० ५ ठा० ३ उ० । कालो दायादीनामन्यतत्यधिके ० ७ ० १०० मन्द्रस्य पूर्वे सीतामहानद्या उत्तरेण अन्तर्नद्याम, स्था० १० ठा० । गाडावर ओग्गर-गृहपत्यव० पनि एमलिको रा जा तस्याऽवग्रहः। प्रति०॥ गृहपतेर्या महत्तरादेग्रमपाटकमवयः। मात्रा०२ श्रु०७ श्र० १ ० नवग्रहभेदे, श्राचा०२ श्रु० ७ ० ॥ गाद्दावडकरंमंग-गृड्पतिकरएमक-नः । श्रीमत्कौटुम्बिक करइनके स्था० ४ ar० ४ ० । २१६ गाढ़ावई गाहाइकुल - गृहपतिकुल - न० | गृहपतिर्गृहस्थस्तस्य कुलं गृहम । श्राचा० २ ० १ ० १ उ० | नि० । गृहिगृहे, भ० ८ ० ६ उ० । चू० गाथापतिकुल १० गृहस्थ कल्प गाहाबरवणगृहपतिर १०कानपुर स्था० ७ डा० गुरुपनितिगृहस मुचितेतिताःयादिधान्यानां समस्ता सहकारादिफलानां सकलाविशेषाणां निष्पादक । प्रव० २१२ द्वार । गाहालाई प्राावती खी० मन्दरस्य पूर्वतः शीतोवा महा नद्या उत्तरे (स्था०३०४ ४०) सुकच्छ विजये ऽन्तर्नद्याम्. जं०। कहि णं जंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेदे वाने गाढावर्धकुंटे णामं कुंडे पत्ते । गोयमा ! सुकच्छस्स विजयस्स पुरच्छिमे महाकच्यस्त विजयस्त पथमेणं तस्म बास हरप परसदाहिनेति एत्थ सां पुद्दीचे दीवे महानिदे वासे गाहावइकुंम कामं कुंडे पत्ते । जहेव रोहिअंसाकुंमे तत्र जाव गाडावईदीवे भवणे, तस्म णं गाडावईकुंमस्स दाहिणि तोरण गाहावई महाराई पल्यूा समाणी सु कच्छमहाकच्छ विजय दुडा विभयमाणी हा विभा अावसाए सलिनासहस्सेहिं समग्गा दाहिणेणं सीआमहाई समुप्पेई । गाहावई यां महाई पड़े मुद्दे अ सत्य समापाची जोप्रास विक्संमेश अमो अणसयाई उव्वेदेणं उनओ पासिं दोहिं पलमवरवेइ आहिं दोहिं संडेहिं० जाव दुहविव ॥ हिदि कमल जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदे वर्षे ग्राहावत्या श्रन्तर्नद्याः कुएमं प्रभवस्थानं ग्रादावती कुएम नाम कुमं प्रप्तम् ? गौतम ! सुकच्छस्य विजयस्य पूर्वत्यां महाकच्छस्य विजयस्य पश्चिमा नीलो वर्षचरपर्वतस्य दाक्षिणात् नितम्बे अत्र सामीप्यकेऽधिकरणे सप्तमी; तेन नितम्बसमीपे पत्र] जम्बूद्वीपे महाविदेदे वर्षे ग्राहानाम राम रोहित योजना यामविष्कमित्यादिरीया शेषमकिपायाव ग्राहावतीद्वीपं जवनं चेति । उपलकणं चैतत् तेनार्थसूत्रमपि भा वनीयम् । तथाहि "से केण देण भंते! एवं वुश्च गावावईदीवे ? | गोमा बसाई गादावश्दीवममप्पनाई समवाई" इत्यादि । अधास्माद् या गामा (मियादि) पड स्य दाक्षिणात्येन तोरणेन ग्राहवती महानदी प्रव्यूढा सती सु कच्छमहाकच्छविजय द्विधा विभजमाना विजजमाना श्रष्टावि शत्या नदीसहस्रैः समग्रा सहिता दक्षिणेन जागेन मेरोईकपादिशि शीतां महानदीं समुपसर्पति। अधाविका कमाइ (गाहाय मित्यादि) पाहावतीमहानदी हा श्री मुखेशीताप्रवेशे सर्वत्रापि स्वस्त देवा देय द कंबोज विक्रमेण योजना 1 Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) गाहावई अनिधानराजेन्द्रः। गिरपिट्ठ धेन सपादशतयोजनानां पञ्चाशद्भाग एतावत एव लानात , सोलसमे अज्झयणे, अणगारगुणाण वमणा भणिया। पृपुत्व च प्राग्वत् । तथाहि-महाविदेदेष कुरुमेरुभशालवि- गाहासोलमणाम, अज्झयणमिणं उवदिसंति ॥ ४३ ॥ जयवकस्कारमुखवनव्यतिरेकेणान्यत्र सर्वत्रान्तनद्यः । ताश्च (सोलसमे इत्यादि ) षोमशाध्ययने ऽनगाराः साधवस्तेषां पूर्वापरविस्तृतास्तुल्यविस्तारप्रमाणास्तत् एतत् करणाबकाशः। तत्र मेरुविष्कम्भपूर्वापरजाशालवनायामप्रमाणं चतुःपञ्चाश गुणाः क्षान्त्यादयस्तेषामनगारगुणानां पञ्चदशस्वप्यध्ययनेम्व भिहितानामिहाभ्ययने पिण्डितार्थवचनेन यतो वर्णनाऽभिहितासदस्राणि, विजय १६ पृपुत्वं पञ्चविंशतिसहस्राणि चतुःशता. इतो गाथाषोडशाभिधानमध्ययनमिदं व्यपदिशन्ति प्रतिपादयनि पमुसराणि, वनस्कारपृपुत्वं चत्वारि सहस्राणि, मुखवन न्ति ॥ सूत्र.१ श्रु१ अ० १ उ०। प्रा००। द्वयरपृयुत्वं ५८४४, सर्बमीलने नवतिसहस्राणि द्वे शते पञ्चाश के.पतजनापविभवक्षणादोयशोधित नागाहिय-ग्राहित-असंयम प्रति वर्तिते,सूत्र. १०२.१७०। सप्त शतानि पश्चाशदग्राणि। पतच दक्किणे अत्तरे वा भागे अन्त-गाहिया-ग्राहिका-खी० । भक्लेशनार्थबोधिकार्या वाचिकारनद्यः षट् सन्तीति पद्भियिनज्यते, लब्धः प्रत्येकमन्तर्नेदीना- याम,ौ। मुक्तो विष्कम्भ इति। आयामस्तु विजयाऽऽयामप्रमाणः,विजयवः । गाहीकह-गाथीकृत-त्रि । पिएमीकृते, "गाहीकया व भत्था, कस्कारान्तनंदीमुखवनानां समाऽऽयामकत्वात् । मनु "जाव-| इया सलिलाओ, माणुसलोगम्मि सबम्मि २६ पणयालीस | अहवा सामुद्दएण देणं " सूत्र० १ श्रु० १६ अ०। सहस्सा, आयामो दोर सबसरिभा ॥"ति वचनात गठि-गृष्टि-नीला "इत्कृपादो" ८११२०। इति तस्वमा प्रा० कथमिति संगच्छते? । उच्यते-इदं वचनं भरतगङ्गादिसाधा-१पाद । "वक्रादावन्तः" ||२६|| इति अनुस्वारागमः। सकरणं, तेन यथा तत्र नदीकेत्रस्याल्पत्वेनानुपपत्तावत्यर्थकोट्टाकक- प्रसूतायां गवि, प्रा०१पाद। रणमाश्रयणीयं, तथाऽत्रापि । अत्र श्रीमलयगिरिपादाः केत्रस-A -धागनिसायाम.दिवा०पOROसेटावाचा मासवृत्तौ जम्बूद्वीपाधिकारे"एताश्च प्राहावतीप्रमुखा नद्यः सर्वा अपि सर्वत्र कुपडाद्विनिर्गमे शीता शीतोदयाः प्रवेशे च तुल्यप्र. "युधबुधगृधक्रुधसिधमुहां ज्भः" 1८111२१॥ इत्यन्त्यस्य ज्झः। माणविष्कम्मोद्वेधाः"इत्युक्त्वा यत्पुनर्धातकीखएमपुष्करार्धाधि 'गिजकेह' गृभ्यति।प्रा०४पाद। स०। प्राप्तस्यासन्तोषेणाप्राप्तस्याकारयोर्नदीनां द्वीपेशद्विगुणविस्तारं व्याख्यानयन्तःप्रोचुः-“यथा कालावन्तो भवन्तीति। स्था०५ठा०१3०1"कसि वा एगे गिजम्बूद्वीपे रोदितांशा-रोहिता-सुवर्मकला-रूप्यकुलानां प्राहा ज्झे " एकः कथं गृध्ये तात्पर्यमासेवां वा विदितकर्मपरिबत्यादीनां च द्वादशानामन्तनदीनां सर्वाग्रेण षोडशानां नदी. णामो विध्यात् युज्येत गाय यदि तत् स्थान प्राप्तपूर्व नाभविष्य नां प्रघहे विष्कम्भो द्वादश योजनानि सार्द्धानि, नवधः कोशमे. तश्चानेकशः प्राप्तितस्तल्वाभासाभयोनोत्कर्षावकर्षों विदस्यात् । कं, समुद्रप्रवेशे ग्राहावत्यादीनां च महानदीप्रवेशे विष्कनो यो प्राचा० १ ०२५०३ उ० । जन १२५, उद्वेधो योजन २क्रोश २ इति। तन्न पूर्वापरविरोधी।। ग्राह्य-त्रि० । हस्तादिना प्रादेये, स्था० ३ वा०२ २० । उत्त। यतस्तथैव तैरत्र लघुवृत्यजिप्रायेण प्रबहप्रवेशयोर्विशेषोऽभिहित | गिफमाण-गृध्यत-त्रि० । गाध्ये विदधति, भाचा० ३ च। इति कथनेन समाहितमा, एवमत्रापि लघुवृत्तिगतस्तत्राभिप्रायोदार्शतो वर्तते। उनयत्रापि तत्वं तु सर्वविदो विदन्तिा किंच-आसां नि• चू। सर्वत्र समविष्कम्भकत्वे आगमवद्युतिरप्यनुकमा। तथाहि-पासांगीडिया-गिड़िका-नी० । कन्दुकवेपिण्यां चक्रयष्टिकायाम, विष्कम्भवैषम्ये उन्नयपाववर्तिनोविजययोरपि विष्कम्नवैषम्य | प्रव० ३० द्वार। स्यात् । इष्यते च समविष्कनकत्व मिति । शेषं व्यक्तमिति । जं०४ वक। "दो गाहावई" स्था० २ ठा०३ उ०। | गिएहमाण-गृहद-त्रि० । बाह्वादावणे आददाने, १०६ उ०। माहावईकुंम-ग्राहावतीकुण्ड-न० । ग्राहावतीनिर्गमकुण्डे, जं. गिएिहयन्व-ग्रहीतव्य-त्रि०। उपादेये,अनु । मा० म०। ४ वक०। गिफ-गृद्ध-त्रिका 'गृधु'अनिकालायाम् । क्तः,प्राप्ताहारादौ मागाहामुत्तधर-गाथासूत्रधर-पुंनिशीथकल्पव्यवहारयोर्ये पीठे सते, अतृप्तत्वेन तदाकालावति.भ० १४ श०७ १०। आव। ते एव गाथासूत्रे, तहरन्तीति । निशीथादिपीठिकायाः सूत्रतो स्था।का। सूत्र ०। प्रथित,अध्युपपन्ने,दशा०६ प्र० ।माचा०। धारके, नि००२ उ० सूत्र०। प्राक् शब्दादिविषयलवसमास्वादाद (प्राचा०१६०१ गाहासोलसग-गाथाषोडशक-पुं० । गाथाख्यं षोमशमध्ययन अ०५ उ०) लम्पटत्वं गते,तं । विशेगा "विसपसु गिद्धा" यस्मिन् श्रुतस्कन्धे स तथा । सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमे श्रुतस्कन्धे, विषयबोलुपाः । प्रा० चू. ३ अ०। मूर्धिते, सत्र०२ श्रु०६ सूत्र० १ श्रु० १ ० १ १०॥ अ० । उत्त० । दत्तावधाने रमणीरागमोहिते, सूत्र १०५ सोनसयगाहा सोनसगा पामत्ता। तं जहा-समए.वेयालिए, अ० १२० । गृहिमति, प्रश्न०२ श्राश्र० द्वार । “ कम्मि गि को तुम" गृद्धस्त्वं मूढो मूर्खः । २० । उत्रसग्गपरिन्ना, इत्थीपरिन्ना, निरयविनत्ती, महावीरथुई, । कुसीलपरिजासिए, वीरए,धम्मे, समाही, मग्गे, समोसरणे, गृध्र-पुं०। (गीध ) पक्तिविशेषे, भ०२श०१ उ० । प्रश्न । आहातहिए, गंये, जमश्ए, गाहा । स० १६ सम०। गिद्धपिट्ठ-गृध्रस्पृष्ट-गृदस्पृष्ट-गृध्रपृष्ठ-ना गृधैः पक्तिविशेषैर्गुरुर्वा सूत्रकृताङ्गस्य षोडशेऽध्ययने, तत्वभेदपायाख्येति कृत्वा मांसमुन्यैः शृगासादिनिःस्पृष्टस्य विदारितस्य करिकरभरासूत्रार्थमधिकृत्याऽऽह सभादिशरीरान्तर्गतत्वेन यन्मरणं तद् गृध्रस्पृष्टं वा खस्पर Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिकपिड नैर्वा भक्तिपृष्ठस्य यत्तद् गृधपृष्ठम् । प्र०२०१०। गृ स्पर्शगं कलेवरायांमध्ये निरात्मनो न तमित्यर्थः । चा० १ ०१६] [अ० शुभैः स्पृष्टं स्पर्शनं यस्मिन् तद् गृध्रस्पृष्टम् । यदि वा गृधाणां भदयं पृष्ठमुपलचणत्वा दरादि च करिकरमादिप्रवेशेन महात्वस्य सूपमिस्त गृपृष्ठमिति । मरणभेदे स्था०२०४४० । भिक्खणं 'गिट्टि उल्लंघणा बेहासं । एए दोनिवि मरणा, कारणजाए अणुच्छाया ॥१०३०॥ गृधैः स्पृष्टं स्पर्शनं यस्मिन् तद् गृधस्पृष्टं, यदि वा गृधाणां मयं पृष्ठमुपज्ञकृष्णत्वादादि चतुर्यतः तद् पृष्ठम कपूलिकापुत्रानं यस्मिन् तद्ष्ठ यदि वा भ्राणां भयं पृष्ठमुपलक्षणत्वात् प्रथमतः प्रतिपादनमनन्तमदासत्वनिचयतया कर्मनिर्जरां प्रति प्राधान्यक्यापनार्थम् । प्रव० १५७ द्वार ।" गिहिं पुहुं, गुजैनियमित्यर्थः । तं गोमालेवरी प्राणं पविधिपाएं भक्ववेद । श्रहवा-पेट्टोदरादिसु अलतपुडगे दाउ अप्पाणं गिद्धेहि नक्खवेश" । नि० चू० १२ ४० । गिक पिडा-गृहपृष्ठस्थान १० पृष्ठमरणस्थाने, यत्र वो गृहादिभणार्थे रुधिरादिलिप्तदेहा निपत्य तिष्ठन्ति । श्राचा० १ ० १ ० । (mak) अभिधानराजेन्द्रः । कि इन रिंखि वृद्ध व रिद्धिन् पुं० प्रथचरागलेनद वरिङ्गकर्तृत्वेन स्वनाम्ना स्याते पुरुषविशेषे, पिं० तथा क. चिकोऽपि पुरुषो नादेशाची पदासा रसत्यमासनमुपविष्टा बखान जनमा, तयो कम्-मम समोपे स्थालमादाय समागच्छ । सोऽपि यत्प्रियतमा समादिशति तन्मे प्रमाणमिति वदन् तस्याः समीपे गतः। तया परिवेषितं नोजनं, तत उक्तम-नोजनस्थाने गत्वा वक्ष्य। ततः स मोजनस्थानं गत्वा लोन लेनती मनं याचितम्। साच प्रत्युवाच - स्थालमादाय समागच्छ । ततः उस्कोर्ट स्थान तोके एवं तादिकमपि गृह्णाति । तत एतल्लोकेन ज्ञात्वा दासेन गृध श्व रितीति नाम कृतमेष गृध व रिङ्ग।। पिं० । गिद्धि – गृद्धि श्री० । शृ-पि" १। १२८ । गायें. तात्पर्ये सेवायाम, सू० १ ० ६ ० विषयाभिका ङ्खायाम, उत्त०६ अ० स्वा०। गाभ्यें, ममत्वे, सूत्र० १ ० ६ श्र० । । श्रविद्यमानपरिग्रहप्रतिबन्धे, ध० ३ अधि० । मूर्च्छा, गृद्धिः, परीषद इत्येकार्थाः । विशे० । निम्नश्री पुं० प्राकृतेः ततः " दो म्भो वा" । । ४ । ४१२ । इति पशंसे म्हजागस्य मकाराकातो प्रकारः । उष्णे, प्रा० ४ पाद । । । - - गिरितडाग | गिम्हकान्नप्पारंभ - ग्रीष्मकालप्रारम्भ - पुं० | उष्णकालमार चैत्रशुक्लपक्के, व्य० ७ ० गिम्हवारास श्रीव्यवासर- " संयोगोऽध्ये" ८४२०३ इति श्रीमदासादन] सः श्रीषासरेषु प्रा० ४ पाद गिरा-गिर-श्री० " शेरा ॥ ११६ ॥ इत्यन्त्यस्य रा प्रा० १ पाद । वाखि सूत्र० १४० १२ प्र० । कप० । शा० । "वकं वयणं च गिरा" दश ७ ० "शक्रपूज्यं गिरामीथं, ती स्मृति" मीरामीशं वाचस्पतिमिति नातिकम तप्रवर्त्तयितुर्वृहस्पतेः सुचा। तथा गिरां बाबाम लक्ष्मीं शोत्रां श्यति यस्तं परमार्थतः पदार्थप्रतिपादनं हि चाचां शोना, तां 1 तासामपोमात्र गोचरतामाच ज्ञानस्ताथागत स्तनूकरोत्येवेति विशेषणाssवृत्या सुगतोपक्केषः । रत्ना० १ परि० । श्राचा. पायदां गिरं गृह्णाति । नि० चू०२० उ० । गिरि-गिरि- पुं० गृणन्ति शब्दायन्ते जननिवासभूतत्वेन (का० १० १३०) गोपाल गिरि चित्रकूट- प्रभृतिषु (२०७ ०६०) पर्वतेषु विशे० बालविकायाम्, स्त्री० । वा ङीप् । नेत्ररोगे, गिरिणा काणः । गेन्दुके, पूज्ये, त्रि० । निगरणे, स्त्री० । “भथान्धकारं गिरिगह्वरस्थम् " | "गिरस्तरिस्थानिय तावदुच्चकैः” मेचे, चाच गिरिकंदर- गिरिकन्दर- पुं० । गिरिगुहायाम, प्रश्न०२ माश्र० द्वारा। व्य०। पर्वतगुदायाम, कल्प० ४ कण । गिरिमय गिरिकटक-पुं० पर्यतनितम्बे ०१०१०० गिरिकलिया-गिरिकर्णिका-स्त्री० । षञ्जीविशेषे, घ०२ अधि० प्रच० । प्रज्ञा० । गिरिकुडर गिरिकुदर १० पर्यंतकुजे श्री० । । - गिरिंगिट-गिरिगृह १० भ० । श्राचा० । पर्वतोपरि गृहे स्था० ०१० गिरिगुहा- गिरिगुहा-श्री० कन्दरे प्रश्न ३ सम्बद्वार नि० चू० । 39 गिरिजा गिरियज्ञ-पुं० [ कोकणदेशेषु सायाहकालनाविनिप्रकरणविशेषेगिरियज्ञः कोि भवति । विशेष चूर्णिकारः पुनराह - " गिरिजनो मत बालसंखडी प्रश्न, सामालविस वरिसारते नवइति वृ० १० । गिरिजा गिरियात्रा - श्री० गिरियमने, १० १ ० १ ० - । । गिरिलाई गिरिनदी-पटिया सं० गिम्ह— ग्रीष्म – ०। " पहम हम धाम ह्यांम् २|७४ | इति ध्मस्य म्हः । प्रा० २ पाद । वैशाखज्येष्ठात्मके, शा०१ ०६. श्र० । ज्येष्ठाषाढात्मके वा । सूत्र० १ ० ३ ० १ ० मनुर्तुकले, खं० १२ पाडु० सू० २० उच्काले ० १ गिरिगर- गिरिनगर-न० स्वनामध्या नगरे पत्रविधिना निजको बणिगासीत् विशे० प्रा० कृ० । गिरियास- गिरिनाल-पुं० [ब्रयन्तती० ३। ('उज्जयंत' शब्द द्वितीयभागे १३६ पृष्ठे कल्प उक्तः ) 1 ० १ अ० । धम्मंत, संथा० ज० ॥ गिम्हकाल- श्रीष्मकाल पुं० उपकाले प्र० ५ सम्ब० गिरितमाग- गिरितटाक पुं० स्वनामस्थाते संनिवेशविशे कापुराची गतः उच्च० १३० द्वार । सू० प्र० । Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०७६) गिरिपक्खंदण अभिधानराजेन्सः । गिलाण गिरिपक्खंदण-गिरिप्रस्कन्दन-न० । दूतो धावित्वा गिरेः गिरिविवरकुहर-गिरिविचरकुहर-न० । गिरीणां विवरकुहप्रपतनेन मरणे, नि० चू० ११ उ०।। राणि । गुहासु, पर्वतान्तरेषु च । भ० ४ श० ३३ ३० । औ० । गिरिपक्खंदोलिय-गिरिपक्षान्दोलित-पुं० । गिरिपके पर्वत- गिरिसरिनबल-गिरिसरिरुपल-पुंग पर्वतनदीपाषाणे,विशे०। • पाव चिन्नकण्टकगिरावाऽऽत्मानमान्दालयन्ति ये ते तथा।। मरणविशेषेण मुमूर्षुषु, औ०। | गिरिसेण-गिरिसेन-पुं० । चन्द्रोदरराजपुत्रे, ध० र० । गिरिपमण-गिरिपतन-न० । यत्रारुदैरधः प्रपतनस्थानं ह. गिला-ग्लानि-स्त्री० । ग्लानी, "अगिलाए येयावडियं" प्य० श्यते तस्मात्पर्वतादुपत्याऽधःपतनेन मरणे, स्था० २ ठा० २ उ० । नेदे, स्था० ८ वा। ४ उ० । नि० ० । भ०। गिलाण-खान-त्रिगलायतीति ग्लानः। नि००१ उ०) लेगिरिपडियक-गिरिपतितक-० । गिरेः पर्वतात्पतिताः, गिरि. के-नः। "बात"८४१०६॥ इति मात्पूर्व इत् । प्रा०२पाद । मन्दे, र्धा महापाषाणुः पतितो येषामुपरि ते तथा । गिरिपतनेन मरण- प्राव०४०।कीणहर्षे, झा० १ श्रु० १३ अ० । व्याय धर्मकेषु, औ०। रशक्ते, स्था० ३ ०४ उ01 भ० । भिक्षाटनादि कमिसगिरिपमियग-गिरिपतितक-पुं० । 'गिरिपमियक' शब्दार्थ, मर्थे, सूत्र.१७० ३ ० ३ उ० । रोगिणि साधी, सूत्र० १ गिरिपन्नार-गिरिमाग्नार-न०। पर्वत नितम्बे, संथा। श्रु० ३ अ०३ ३० । ज्वरादिरोगाकान्ते, प्रव०६६ द्वार । व्य०। ज्वरविप्रमुक्ते, नि० चू०। गिरिमाहा-गिरिमृत्स्ना-स्त्रीभूधरमृत्तिकायाम,अष्ट०४ अप० । (१) ग्लानं प्रति गवेषणम्गिरिम-गिरिमह-पुं० । गिर्य्यसबे, प्राचा०३श्रु.१०२ उ०॥ जे भिक्खू गिलाणं सोचा णच्चा ण गवेमइ, ण गवेगिरिराय-गिरिराज-ए। सर्वेषामपि गिरीणामुश्चत्वेन तीर्थ संतं वा साइज्जइ ।। ४२ ॥ करजन्माभिषेकाश्रयतया च राजा गिरिराजः । मेरी, सू० प्र०५ पादु । च००। जत्ति णिसे, जिक्य पुचप्लियो, 'ग्' हर्षक्षये । इमस्स अध मेरोः समयप्रसिकान पोडश नामानि प्रश्नयितुमाह रोगातंरण वा सरीरखीण, सरीरक्खप य हरिसक्खनो भव नि, तं गिलाणं अम्म समीवाश्रो सोचा सयं वा णातूण जो रण मंदरस्स णं ते! पनयरस कति णामधेजा पत्ता? | गवेसति तस्स चउगुरुं । ज सो गिलाणो अगविडो पाविहिति, गोयमा ! सोलस नामधेजा पामत्ता । जं जहा-"मंदर १ परिताबादि तपिप्फ पच्छित्तं पावति, तम्हा गवेसियव्वा । मेरु २ मणोरम ३, सुदंसण ४ सयंपने य ५ गिरिराया ६॥ सग्गामे सउबस्सए, सग्गामे परमवस्सए चेव । रयणोच्चए सिलोचय ,मज्के लोगस्स ह एाभी अ१०॥१॥ खेत्ततो अनुगामे, खेत्तवाहि सगच्छपरगच्चे ॥ अत्ये ११ य सूरियावत्ते १२, मूरियावरणे १३ ति य ।। सोच्चा ण परममीवे, सयं व णाऊण जो गिलाणं तु । उत्तमे१४ अ दिसादी अ१५,वमेंसेति १६ असोलस"||शा ण गवेसयती भिक्खू, सो पावति आणमादीणि ॥ ( मंदरस्स णमित्यादि ) मन्दरस्य पर्वतस्य भगवान् कति असिवे प्रोमोयरिए, रायडे नए व गेलमे। नामधेयानि नामानि प्राप्तानि ?। गौतम ! घोमश नाम अघाणरोहए वा, ण गवेसेजा वितियपदं ।। धेयानि प्राप्तानि । तद्यथा-" मन्दरे" इत्यादि गाथाद्वयम् । मम्दरदेवयोगात् मन्दरः, एवं मेरुदेवयोगान्मेरुरिति । नन्वेवं नि० चू० १० उ०। मेरोः स्वामिद्वयमापद्यतेति चेदुच्यते-पकस्यापि देवस्य नामवयं (२) अथ ग्लानद्वारं विभावयिषुराहसंत्रवतीति न काऽऽप्याशङ्का, निर्णीतिस्तु बहुश्रुतगम्येति । सग्गामे सउवस्सए. सग्गामे परउवस्सए चेव । तथा मनांसि देवानामप्यतिसुरूपतया रमयतीति मनोरमः । खेत्ततो अन्नगामे, खेत्तवाहि सगच्छपरगच्छे॥ तथा सुष्टु शोभनं जाम्बूनदमयतया रत्नबहुलतया च मनोनिवृत्तिकरं दर्शनं यस्यासो सुदर्शनः, तथा रत्नबहुलतया स्वयमादि सोऊण ऊ गिलाणं. उम्मग्गं गचपडिपहं वा वि। स्यादेरिव प्रजा प्रकाशो यस्यासौ स्वयंप्रनः । चः समु- मग्गाओं असमग्ग, संकमई आणमाईणि ॥ बये, तथा सर्वेषामपि गिरीणामुश्चत्वेन तीर्थकरजन्माभिषेका स्वग्रामे स्वोपाश्रये तिष्ठता श्रुतं, यथा-अमुकत्र ग्लान इति । प्रयतया च राजा गिरिराज इत्यादि षोमश । जं०४ वक०। स्वग्रामे वा परेषां साधूनामुपाश्रये कुतोऽपि प्रयोजनादाय(विस्तरस्त्वस्य 'मंदर' शब्दे) तेन, यद्वा-केत्रान्तः केत्राभ्यन्तरे अन्यग्रामे भिक्षाचर्या गतेन, गिरिवर-गिरिवर-पुं० । पर्वभिमस्खलाभिर्दष्टापर्वतैर्वा सुगों यदि वा-क्षेत्रबाहिरन्यग्रामेष्वपि वा वर्तमानेम, एतेषु स्थानेषु विषमः सामान्य जन्तूनां दुरारोहो गिरिवरः। पर्वतप्रधाने, सूत्र० स्वगच्छ वा परगच्छे वा ग्लानः श्रुतो भवेत, श्रुत्वा च ग्लानं य १७०६० । प्रधानपर्वते, भ० ६ श० ३३ उ०। श्रौ० । पर्वत-| उन्मार्गमटवीगामिनं पन्थानं प्रतिपथं वा येन पथा पायातस्तराजे, झा०१०१०। मेव पन्धानं गच्छति मागाद्वा विवक्तितपथादन्यं मार्ग संक्रामति गिरिविदारण-गिरिविदारण-पुं०। स्वनामयाते कृष्णवासु- स प्राप्नोति आज्ञादीनि दोषपदानि । श्रादिशब्दादनवस्थामिदेवसदृशे यादवे, ती० २ फल्प । (स च मृत्वा रैवतगिरेः केत्र- ध्यात्वविराधनापरिग्रहः । एवंकुर्वाणस्य वा यस्यान्ते ग्लानोऽपाल उपपच शति 'रेवय'शब्दे वक्यते) प्रतिजागरितापनादिकं प्रामोति तनिष्पन्न प्रायश्चित्तम । बचत) Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (0७७) गिलाण प्राभिधानराजेन्मः। गिलाण अत पवार णवेयावच्च अनुट्टियस्स सपण बाजेणं असंथरमाणस्स सोऊण ऊ गिलाणं, पंथे गामे य भिक्खवेलाए। जा तंग पमितप्पड, एहा पमितप्पंतं वा साइज्जइ ॥४॥ जइ तुरियं नागच्छद, लग्ग गुरुए स चउमासे ।। भिक्खू, गिझापोय पुग्ववक्षिपो, जो साहू गिलाणस घेयाष. भुत्वा ग्लान पथि वा गच्चन प्राम घा प्रयिष्टो निवा पर्य- धकरण अनुट्टिने जाब गिलास श्रीसह पाउगंषा भत्तपाणं टन् यदिखिरितं नरकणादेव नागांत ततेो लगति प्रामोति था उप्पापति, सरीरगकितिक.म्म चा करेनि, ताव घेलातिकमो, स चतुरा मासान् गुरुकान् । चेातिकमे अमंतो णो पडियप्पति, पचं तस्स असंथरे प्रमो यन एवमतः जो ण पडियप्पति भत्तपाणादिणा, तस्स चउ गुरुगा, परितावजह भमरमहुय रिगणा, निवर्तती कुसूमियम्मि चूयवणे । णादिणिपणं चगिलाणो य सो परिचत्तो भवति, तम्हा तस्स श्य होइ निवअव्वं, गेलने काइवयजढेणं ॥ पडितप्पियध्वं । पथा भ्रमरमधुकरीगणाः कुसुमिते मुकारते चूतवने सहकार (६) सीसो पुच्चति-गिलाण घेयायचे कैरिसे साहू बनखएडे मकरमपानलोलुपतया निपतन्ति, इत्यमुनैव प्रकारे णि नजति ? प्राचार्य आहण भगवदाझामनुवर्तमानेन कर्मनिर्जरालाभलिप्सया ग्लाने खतिखमं पदवियं, असढमलोलं च सद्धिसंपमं । समुत्पन्ने कैनवजमेन मायाधिप्रमुक्तेन त्वरितं निपतितव्यमाग- दरवं सुभरमसुचिरं, हिय यग्गाहं अपरितत्तं ॥१४।। म्तव्यं जयति । एवं कुर्यता सार्मिकत्वं वात्सल्यं कृतं भवति, कोहणिमहो खंती.अक्कममाणस्स वि जम्स खमाकरणे साममात्मा च निर्जराकारे नियोजितो भवति । स्थमस्थि सो खेतीप खमो भाति ।अहवा-खतीक्षमः,आधार इत्य(३) तस्य ग्लानस्वस्य प्रतिबद्धामिमां द्वारगाथामाह- थामाणणिग्गहकारीमयिओ।मायाणिग्गदकारी असदोदि. सुके सही इच्चका-रे असत्त मुहिअ उमाण सके य । यविसणिग्गहकारी अलोलो, उक्कस्सं पा दटुं या जो एसणं अणुवत्तणा गिलाणे, चालन संकामणा तत्तो।। ण पेवेति सो वा अलोलो, अलुद्ध इत्यर्थः। लक्षिसंपयो जहापप्रथमतः शुरु इति द्वारं वक्तव्यम् । ततः श्रद्धी धजावानिति द्वा यवत्थं पुस्स मित्ता गिलाणाऽऽपत्तियं सिग्धं करोता दक्खे अप्पेरम । तत इच्छाकारद्वारम् । तदनन्तरमशक्त.द्वारम्। ततः सुखि ण अंतपतहियाजाचेतित्ति। सभरो कुब्धसेह इत्यर्थः। असुधिरो तद्वारम् । तदा तु अपमानद्वारम। ततोऽपि सन्धद्वारम् । ततोऽनु अणिद्दामू । गिाणस्स जो वत्तिमणुयत्तति,अपत्थं च ण करोति, पर्तनाग्लानस्य, उपक्षकणत्वादू वैद्यस्य च वक्तव्या, सतश्चालना, सोहिययम्गाही, गिलाणस्स चा अणुप्पिओ जो, सुचिरं पिगि. संक्रमणा च ग्लानस्थानिधातव्ये ति द्वारगाथासमुदायार्थः। लाणस करेंतो जो ण भजति सो अपरितत्तो। (४) अधावयार्थ प्रतिद्वारं प्रचिकटयिषु. प्रथमतः सुत्तत्यपडीवर, णिज्जरपेही जियंदियं दंतं । __ शुद्धद्वारं भावति कोउहलविप्पमुक्कं, अशाणुकिन्ति सउच्चाहं ॥४८॥ सोकण ऊ गिलाणं, जो उवयारेण श्रागतो मुखो। जोय सुतस्येसु अपमियको,गृहीतसूत्रार्थ इत्यर्थः णिजरापेहीणो नो उ उवेहं कुज्जा, अग्गड़ गुरुए मवित्यारे ।। कयपमिकित्तिए करेति,जिइंदितोजो इट्टाणिद्वेहि विसपहिं रागभुत्वा ग्लानं यः साधुणुरूपचारेण वक्ष्यमाणेन ग्लानसमीपमा- दोसे ण जाति,सुकरदुक्करेसु महप्पकारणेसु य जो अविकारेण गतः,स शुको,न प्रायश्चित्त भाक् । यस्तु अपेक्षां कुर्यात्,सलगति | नरं उन्बहति सो, जो इंदियणोइंदिसु वा दंतो ण डाति, कोउमामोति चतुरो गुरुकान सविस्तरान् ग्लानारोपणासंयुक्तान् । ए सयंथिप्पमुक्को, काउं जो पिरतणेण णो विकन्थति-को प्रमो उपचारपदं व्याचट एवं काउं समत्यो ति? तुज् वा एरिसं नारिसं मए कयं ति,जो उवचरइ को एऽतिन्नो, अहवा उवचारमित्तगं एइ। एवं ण कथयति सो प्रणा कित्ती । अणालस्सो समच्छाहो। नवचरइ व कज्जत्थी, पच्चित्तं वा विसोहे ।। प्रवा-अबभमाणो वि जो श्रीवसप्लो मग्गति सो सउच्चाहो। यत्र ग्लानो वर्तते तत्र गत्वा पृच्छति-(को प्रतिमो सि) द्वि आगाढमणागाढे, मद्दहगणिसेवगं च सहाणे ।। सीयार्थ प्रथमा । नुरिति प्रश्शे। युष्माकं मध्ये 'अतिनं' ग्लानं क पाउरवेयावच्चे, एरिसयं तू निजिज्जा ॥४॥ उपचरति?,कः प्रतिजागर्ति?। यद्वा-धातूनामनेकार्थस्वादुपचरति आगाढे गेगायके,अणागाढेवा,श्रागाढे खिप्पं करणं, अणागाको नु युष्माकं मध्ये 'अतिन्नो' ग्लानो येनाहं तं प्रतिजागर्मि । दे कमकरणं जो करेति । अहवा-पागाढजोगिणो अणागाढअथ वा-उपचारमात्रं लोकोपचारमेव केवलमनुवर्तयितं म्मान- जोगिणो या जहा किरिया कायब्वा जा वा जयणा, एवं सब्वं समीपमेति आगच्छति। यदि वा-कार्यार्थी सन्नुपचरति।किमुक्तं जो जाणति तो य उम्सग्गाववाए सहहति, ते य जो सहाणे भवति?-कार्य किमपि ज्ञानदर्शनादिक तत्समीपादादीयमानः प्र- णिसेवति, उस्सग्गे उस्मगं, अववाए अववाय,अहवा-अट्ठाणं तिजागर्ति, प्रायश्चित्तं वा मे भविष्यति यदि न गमिष्यामीति बि. पायरियाति, तसि जं जत्थ जोग्गं तं तस्स उप्पापति, देति य, सन्त्याऽऽगत्य च प्रायश्चित्तं विशोधयति । एष सर्वोप्युपचारो परिसो गिलाणवेयायच्चे णि उज्जति। द्रष्टव्यः । वृ० १ उ०। ०। (७) विपरीतकरणे दोषमाह(५) तदकरणे प्रायश्चित्तम एयगुणविप्पहुणं, वेयावच्चम्मि जो उ ठावेज्जा । जे भिकाव गिलाणवेयावच्चे अन्तुढियस्स गिलाणपाउ आयरिओं गिलाणस्सा,सो पावति आगमादीणि ।। ग्गेण दबजाएणं अनाजमाणे जो तं पमियाइक्खेइण [त ए पामयाइक्खइ,णम | घभितगुणविवरीतं जो गिलाणवेयावचे ग्वेति सोपायरिपमियाइक्वंतं वा साइज्जा ।। ४४ जे जिक्खू गिझा- भोभाणादी दोसे पावति । २२० Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७) गिलाण अन्निधानराजेन्डः। गिलाण एतेमि परूवणता, तप्पमिपक्खे य पेस-तस्म । यमा अस्थि, तम्हा कोहीभो माणी बहुदोसतरो, तम्हा कोहि पच्छित्तविनासणता, विराहणा चेव जा जस्स ॥१२॥ ग्वेज्जा,णो माणि । एवं सम्यपदेसु वियामणा कायम्वा । पतेसि खंतिमातियाणं पयाणं यथार्थ प्ररूपणा कायन्या । तप्प श्याणि सुत्तत्योमिपक्खे मंनियनमस्स कोडिणो, महविपस्स माणणा,असह जे निक्खु गिलाणस्सा, बेयावच्चेण वाव जिक्ख । इस माई एवमादियाण पच्चित्तविभासा कायमचा, व्याख्या लोनेण कुप्पएणं, असंथरंतं ण पमितप्पे ।। ४६७ ॥ इत्यर्थः । मजोग्गे हि य यावच्चे जिउज्जंतेहिं जा गिला- | पावडो व्यापृतः प्राकणिकः तस्य भिक्खुणो अयो भिक्यू जस विराहणा सा य वत्तम्या पमिपक्खदोसला । जो ण पमितप्पति, तस्स चउगुरूं, परितावणादिणिप्फणं । इमं पच्चित्तं इमं च पावतिगचिऍ कोहे विसए, दोसू बहुगा तु माइणो गुरुगो। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराघणं तहा विषं। पाचति जम्हा तेणं, तं पमितप्पे पयत्तेणं ॥४ ॥ लोभिदियाण रागे, गुरुगा सेसेसु लहु जयणा ।। ४६३ ।। तम्हा तस्स पडितप्पियब्वं सपयतेण । माणिस्स कोहिणो मजिशंदियस्स विसपसु दोसुकारिणो चचबहुगा पचित्त,मायाविणो मासगुरूं, लोजिस्स अजिदियस्स कारणे ण पडितप्पेजा विपरागकारिणी च गुरुगा, (सेसेसु त्ति) अलफिसंपायो अद- वितिपयपदं अणवट्ठो, परिहारतवं तहेव य वहति । पखो मरो सुधिरोहिग्यास्कूिलो परितंतो सुत्तस्थापडिवुको अन्तट्ठिय बोजी वा, सनहा वा अलब्नंते॥४ ॥ अणिजारपेही अदंतो कोहली अप्पप्पसंम) अनुच्चाही श्रा प्रणवद्धतवं जो वदति साहू, सोण पमितप्पेज्जा,अणवत्थोपा गाढणागादेसु विवरीयकारी असदहणगो परट्ठाणरिणसेवी, कारणे गिनायवेयायचेणं अनुट्टितो, (गिलाणं पाओगेत्यादि) पतेसु ल हुमासो भयण स्ति। एते सम्चे पदा मासबहू पत्रित्ते. भिक्खू गिलाणो य पूर्ववत् । अन्भुहितो वैयावृत्त्यकरणोचतः, ण भायन्ना, योजयितव्या इत्यर्थः। अहवा-भणय त्ति श्रादेसं. पाउग्गं पोसहजत्तं पाणं वा, तम्मि असते जति सो बेया. तरेण चा चउल हुगा । अहवा-भयण त्ति अंतराकम्मोदपण वचकरो अम्बेसि साहणं ण कदेति,आयरियस्स बा,तो चगुअली भवति, सो य सुनको, जर पुण सलहा अप्पाणं प्रस रुगं, परितावणातिणिफणं च। मिति दसति तो अममायारिणिफणं मासन्नई, पवं सेसेसुविउज्ज वत्तब्ध। श्रानरपाउग्गम्मी, दवे असते वावमो तत्थ । एवं ता पच्चित्तं, तोस जो पण ठवेज ते न गणे। जोजिकावू णातिक्खति,सो पावति आणमादीणि ॥१०॥ पायरिय गिलाणवा, गुरुगा सेसाण तिविहं तु ॥४॥ घायमो व्यापृतः नियुक्तः जति अयोसि ण कहति तो प्राणा दिणो दोसा। एवं पच्चित्तं पमिपक्चे जे कमाश्या दोसाता तसि भणिया,जो (दव्यजाए ति) अस्य सूत्रस्य व्याख्यापुणो आयरियो पते गणे गिलागणादिवेयावधकरणे ग्वेति,त. स्तच उगुरुगा,सेसा जरठायेति, तेसि श्मतिविधं पचित्तं-उ. जायग्गहणे फासुं, रोगे वा जंतु पानग्गं । बज्झातो जा ज्वेति,तो चउलहुं, वसभस्स मासगुरूं, भिक्खु- तं पत्थं भोयणं वा, भोसहसंथारवत्यादी ।। ५०१॥ स्स मासल हुं । अहवा-उबकायस्स चउलहुं, गीयत्थस्स भि- कएगा। फ्नुस्स मासगुरूं, अगीयत्यस्त मास हुं, एवं वा तिविधं अचंतिसमातिएसु कलमातिकरतेसु गिलाणस्स गाढादिपरि मलन्भमाणे प्रसि साधूणं कहिजते श्मे दोसातावणादिया दोसा। परितावमहामुक्खे, पुच्चापुच्छे य किच्छपाणेय। इमे य भवंति किन्जुस्सासे य तहा, समोहते चेव कागते ॥५०॥ इहलोइयाण परलो-इयाण लघीण फेमितो होति । परितारणा सुविधा प्रणागाढगाहापासे छप्पया गाहा। पते मा आउगपरिहीणा, देवा वलात्तमा चेव ॥४ ॥ चेव गहित्ता पसु असु पदेसु जहासंखं इमं पतिइहलोश्या प्रामोसहिखोसहिमादी, परसोश्या सग्गमोक्खा चतुरोनहगा गुरुगा, छम्मासा होति बहुग गुरुगा य । तेसि फेडितो नवति । जहा आउगे पहचंते वलव बेदो मूलं च तहा, अणवढप्पो य पारंची ।। २०३॥ समा देवा जाना, एवं गिलाणो विसमाही असहकाणी अ. जम्हा पते दोसाजारोहगो भवति, तिरिआकुगतीसु अगच्छति,ण वा इहलोए तम्हा आलोए जा, संभोइऍ असति असंजोए । आमोसहिमादीनो लद्धीभो उपाएति । जम्हा एते दोसा बे. जश्कण व प्रोसम्मे, सम्मेव नसकिहाणिहरा ।।१०॥ यावशकरो ण ठवेयचो!। बालोअणं णाम अम्मसिं पाख्यान, तं च माझ्या समस्ये, एयगुणसमग्गस्स तु, असतीए ग्वेज अप्पदोसतरं । ससति अभ्यगच्छे संमोतियाणं, तेससति प्रयसभोतियाणं, तेवेयालणा उ इत्यं, गुणदासाणं बहुविगप्पा ॥ ४५६ ॥ ससति पणगपरिदाणीप जतितुं जाहे मासलहुं पत्तो तारे वम्मियगुणसमग्गाभाये अपदोसतरं वेति,प्रदोस पच्चित्ताs- सन्नी ण कदेति, ज एवंण करेति तो सम्वेव इहलोयपरलो. पुत्रोमो जाणेज्जा, दोलवियानणेण य बह विकप्पा उपजं. इयलकिहाणी दोसो भवति । इहरोति, मनाण्यायतस्यत्यर्थः । ति। जहा-कोहे माणो अस्थि, णधि वा ।माणे पुण कोदोनि- नवे कारणं, जेण अपेसि या कहेजा वि वितियपदम। Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) गिलाण निधानराजेन्दः। गिलाण दो वेव एणगामे, उदगादीहिं व संजमेगतरे। संयोगा औषधद्रव्यमीसनप्रयोगास्तद्विषयो रटः पाठश्चिकितस्स व अपत्यदने, जायंते वा कालम्मि ॥५०५॥ । त्साशास्त्रापयविशेषो येन स संयोगष्पा । आर्षवामाथाते दो विचेव जैणा एगो गिलाणो, एगो पमियरगो, सो पमि यामिन्प्रत्ययः। यदि घा-तेन व्यसंयोगाः कुतोऽपि सातिशपरगो अधाभावे कस्स कहेउ, अरणगामे वा अराणे साहु यज्ञानविशेषादुपत्रधाः, शास्त्रे वा चरकसुश्रुतादिकं सर्वमपि णो, कम्स को परिचरगो । सदगागणिहत्यिमीरबाहि तेनाधीतं, वैद्यो वा स पुरा पूर्व गृहाश्रमे भासीत्, ततो न गादी, पतेसिं संभममाणे पगतरे वट्टमाऐ, अप्पं परिभूतेसु. विसर्जनीयः। दिसो दिसि फुडितेसु कस्स साहो वा दब्बं लम्नति तं अस्थि य से जोगवाही, गेमन्नतिगिच्छणाएँ सो कुसलो। गिलाणम्स अपत्यतेण प्रोसि ए कहेति, गिलाणो वा अप्पत्थं सीसे वाचारेत्ता, तेगिच्छं तेण कायन्नं ॥ दन्वं मम्गति, तेण वा णो कहेति मलेसि, अकाले वा जायते यदि तस्याऽऽगन्तुकस्य गच्छे योगवाहिनः सन्ति, सच तेण ण साधयति, महवा गरिदियविगिचितो मम्मति, ते य स्वयं ग्लानचिकित्सायां कुशलः, ततः शिध्यान सूत्राथपौरुषीअसे प्रपरिणया ताहे ण साधयति मा विपरिणामस्संति, पव प्रदानादौ व्यापार्य स्वयं तेन ग्लानस्य वैकित्म्यं चिकित्साकर्म मादिहि कारण िमसातो सुखो ॥ निचू०१००। कर्तव्यम् । उपलकणमिदम्-तेन कुलगणरूप्रयोजनेषु गुरुका. हान्यदपि प्रेषणे वनपात्रा-पादने वा यो यत्र योग्यस्तं सत्र न्या. असणं वा पाणं वाजेसज्ज वा गिलाणस्म अन्ना- पाय सर्वप्रयत्नेन स्वयं ग्लानस्य चिकित्साकम कर्तव्यमा एचरियं परिजु जे पारंचियं, गिलाणेणं अपमिजागरिएणं (६) सूत्रार्यपौरुषी व्यापारणे विधिमाहभुजे उबवावणं, मन्चमविणयकतन्वं पारिबिच्चा गिला. दाकणं वा गच्चड, सीसेण च वाऍ अन्नहिं वाए। एकतन्न न करेज्जा. अवंदे गिलाणकतव्वं मा विनाविकण | तत्यऽन्नत्य व काले, सोहिए समुदिसहहिहे। निययकतव्वं पमाएज्जा, अवंदे गिलाणकप्पं ण उत्तारेज्जा स्त्रार्थपौरुप्यौ दत्त्वा ग्लानस्य समीपं गच्छति, गत्वा च चि. अहमं गिनाणेणं सदिरे एगसदेण गंतुं जमाइसे तं न | कित्सां करोति। अथ दूरे ग्वानस्य प्रतिश्रयः, ततः सूत्रपौरुषी कुज्जा पारंचिए. नवरं जड़ णं से गिनाणे सद्दविते अहा दत्त्वा अर्थपौरुषी शिष्येण दापयति, भथ दवीयान् स प्रतिश्रय स्ततो वे अपि पौरुष्यौ शिध्येण दापयति, प्रथात्मीयः शिष्यो एं सन्निवायादीहिं तुम्जा मियमाएं सेहविजा, तो जमेव वाचनां दातुमशक्तस्ततो येषां वाचकानामाचार्याणां सम्मानम्तः गिलाणेण माइ, तं न कायव्वं, ण करेजा संघवज्को । सूत्रमार्थ वा स्वशिष्यान् बानयति, अथ तेषामपि नास्ति वाचनामहा० ७ अ०। प्रदाने शक्तिस्ततोयदिने अनागादयोगवाहिनस्तदा तेषां योगो (८) भथ असावानिति द्वारमाह नितिप्यते । अथ गाढयोगवाहिनस्ततोऽयं विधिः-(तस्थमस्थ सोऊण ऊ गिलाणं, तरमाणो आगो दवदवस । इत्यादि)यत्र के सम्मानस्तत्र अन्यत्र वाकेत्रे स्थितास्ते अनागाढसंदिसह किं करेमी, कम्मि व अटे निवजामि ? || योगवाहिन आचार्येण वक्तव्याः। यथा-आयोकालं शोधयत। ततस्तैर्यधावत् कालग्रदणं कृत्वा यावतो दिवसान् कालः पहियरिहामि गिलाणं, गेलो वावडाण वा काहं । शोधितस्तावतां दिवसानामुद्देशेन कामान् सर्वानप्याचार्यों तित्थाणुसज्जणा खल, भत्ती य कया हवइ एवं ॥ ग्लाने हटे प्रगुणीभूते सत्येकदिवसेनैवोदिशति, यावन्ति पुनर्दि. ग्लानं प्रति जाग्रददं महती निर्जरामासादयिष्यामीत्येवंविधया नानि कालग्रहणे प्रमादः कृतो गृह्यमाणो वा कालेन शुरूः तेषाधर्मश्ररूया युक्तः श्रावानुच्यते । स च श्रुत्वा ग्लानं स्वरमाण: मुद्देशेन काला न उदिश्यन्ते। भवणानन्तरं शेषकार्याणि विहाय पन्धानं प्रतिपन्नः सन् 'दव (१०) तत्र के संस्तरणाभावे अन्यत्र गच्चतां विधिमाहस्वस्सत्ति' कृतमागच्छन् गिति मानसमीपमागतः,ततो ग्ला- निग्गमणे चनभंगो, अद्धा सव्वे विनिति दोन्हं वि। मप्रतिचारकानाचार्यान् वा गत्वा भणति-संदिशत भगवन्तः! जिक्खवसही असती, तस्साए विज्जा ॥ किंकरोम्यहम? कस्मिन् वा अग्लानप्रयोजने युष्माभिरहं नि. ततः केत्रानिर्गमने चतुर्भङ्गी भवति । गाथायां पुंस्वनिर्देशः बोज्यः, अहं तावदनेनाभिप्रायेणाऽऽयतो, यथा-प्रनिजागरिप्या प्राकतत्वात् । वास्तव्याः संस्तरन्ति नागन्तुकाः, भागन्तुकाः मि ग्लान, ग्लानवैयावृत्ये वा व्यापृताये साधवस्तेषां भक्तपानप्र संस्तरन्ति न वास्तव्याः, न वास्तव्या नवागन्तुकाः संस्तरन्ति, दानविश्रामणादिना वैयावृत्यं करिष्यामि। एवं कुर्वतातीर्थस्या वास्तव्या अध्यागन्तुका अपि संस्तरन्ति । यत्र येऽपि संनुसजनानुवर्तना कृता भवति, नक्तिश्च तीर्थकृतां कृता नवति; स्तरन्ति तत्र विधिः प्रागेवोक्तः । यत्र तु न संस्तरन्ति तत्रायं "जे मित्राणं पहियर, से ममं नाणेणंदसणेणं चरित्तेणं पविज विधिः-प्रथमभने भागन्तुकानां, द्वितीयनले वास्तव्यानामः "इत्यादि भगवदाझाराधनाता इत्थं तेनोक्ते यदि स्वयमेव वा यावन्तो वा न संस्तरन्ति तावन्तो निर्गच्छन्ति, ततीयभर प्लानवैयावृत्यं कुर्वन्ति कर्तुं प्रभवन्ति, ततो ब्रुवते प्राचार्याः इयोरपि वर्गयोराः सर्वे वा ग्लानं सप्रतिचरकं मुक्त्वा निबजतु यथास्थानं जवान, वयं ग्लानस्य सकसमपि वैयावृत्यं । गेच्छन्ति । एवं भिकाया वसतेचाऽसत्यभावे निर्गमनं द्रष्टव्यम्। कुर्वणाः स्म इति । ये च तस्य ग्लानस्य अनुमता अभिप्रेतास्तान् प्रतिचरकान मथ ते न प्रभवन्ति यदि वा स चैवंविधगुणोपेतो वर्तते ग्लानस्य समीपे स्थापयन्न गन्तव्यम् । असावान् इति द्वारम् । संजोगदिट्टपाठी, तेणुवलका व दन्नसंजोगा । (११) प्रथेचाकारद्वारमाहसत्यं व वेणऽधीयं, वेज्जो वा सो पुरा आसी॥ | अनणित कोई न शश, पत्ते थेरेहि हो उवालंभो। Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिलाण (0.) गिलाण अनिधानराजेन्द्रः। दिडतो महितिए, सवित्थररोवणं कुजा ।। गरणं रात्रौ प्रहरकप्रदान, पेषण मौषधीनां चूर्णनं. भाएमधारणं कोऽपि साधुयावृत्यकुशलः परम अन्येनाभणिनः-"आर्य! पहि सपाननोजनानां धारणं, तम्य ग्लानस्य प्रति जागरकाणांच गिकारेण म्यानस्य वैयावृत्ति कुरु"इत्यनुक्तासनेच्नात वैया. साधूनामुपधिमपि प्रत्युपक्तिमशक्तः ?, ये बबीबि-किंकत्यं कर्तु,सच श्रुत्वाऽपिग्मान न तस्य समीपं गच्छति।कुन्नगणसह रिष्यामि बराकोऽहमिति ?। स्थविराश्च ये कारणनूताः पुरुषाः,कुत्र सामाचार्यःसीदम्ति,कुत्र (१३) अथ सुखितहारमाहचोत्सर्पन्तीति प्रतिचरणाय गच्छन्तरेषु परिपृच्छन्ति, ते तत्र मुहिया मोति य भणती, अत्यह वीमत्थया मुहं सव्वे । प्राप्ताः,नश्च स पृट प्राचार्यः,नसर्पन्ति ते शानदर्शनचारित्राणि, सन्ति या चित्प्रत्यासनपरिसडे साधवः, ग्लागो बा कुशाप एवं तत्य नर्णते, पायच्चित्तं भवे तिविहं ॥ प्रवता श्रुत इति । स प्राह-इतः प्रत्यासन्ने पच प्रामे सन्ति साध. एकत्र के मासकलपस्थितः साधुभिः श्रुतम-अमुकत्र ग्नान पा, तेषां चास्त्येको ग्लान इति । ततस्तैस्तस्योपानम्भः प्रदत्त: इति। तत्र केऽपि साधबो नणन्ति-नानं प्रति जागरका बजामो यदि तेषां सानो वर्तते ततस्न्यं तस्य प्रतिचरणायं कि न गतः?। घयमाश्तरः कोऽपि भणति-सुखितानस्मान् मा दुःखितान् कुरु__ स प्राह त, यूयमपि सर्वे विश्वस्ता निरुद्विग्नाः सुखं सुखेन तिष्ठत । तत्र बहुसो पुरिज्जंता, इच्छाकारं न ते मम करिति । गत्या मुधैव दुःस्वस्यात्मानं प्रयच्चामः । किं युष्माकमयं श्लोको न कर्णकोटरमुपागमत ?। यथा “ सर्यस्य कार्यकारी, स्वार्थविपदिमुंफणया दुक्खं,दुक्खं च समाहि अप्पा ।। घाती परस्य हितकारी । सर्वस्य च विश्वासी, मूखों ऽयं नाम बहुशो नूयो भूयः पृच्चमाना अपि ते साधवः कदाऽपि ममे विज्ञेयः ॥१॥" एवं तत्राप्रशस्य भणत स्त्रिविधं प्रायकार म कुर्वन्ति । भन्यञ्च-अहमन्यर्थितस्तत्र गतस्तैश्च प्रति श्चित्तं भवति । नद्यथा-यद्याचार्य एवं प्रवीति ततश्चतुर्गुक, मुपिडतोऽपि निषिकः,यथा-पूर्ण जयता वैयावृत्यकरणेनेति । एवं प्रतिमएमनया महन्मानसं पुःखमुत्पद्यते,याशं चाऽऽहं ग्लानस्य उपाध्यायो घीति चतुर्लघु, भिकुर्ववीति मासगुरु । पैयावृत्यं करोमिईदृशमन्यः कोऽपि न वेत्ति?, परमात्मानं श्ला (१४) अथापमानद्वारमाहपयितुं मुखं दुष्करं भवति, अतः कथमनज्यर्थितस्तत्र गम्चा- भत्तादिसंकिलेसो, अवस्स अम्हे वि तत्थन तरामो। मीति। ततः स्थविरैस्तस्य पुरतो महर्डिको राजा नस्य काहिंति केत्तियाणं, ते तेणेव तेमु अदत्ता । रष्टान्तः कृतः । यथा-" एगो राया कत्तियपुन्निमार मरुयाणं दाणं देव,एगो मरुगो चारसविजाठाणपारगो भोझ्याए जणिो अम्हहिँ तहिँ गएहि, श्रोमाणं नग्गमाइणो दोसा। . तुम सचमरुगाहियो,बच्च रायासमी, उत्तमं ते दाणं दाहिश एवं तत्थ जणंते, चाउम्मासा जवे गुरुगा ।। ति।सो मरुतो नणा-पगं ताव रायकिविसं गिहामि, वि- तथैव ग्नानं श्रुत्वा केचि जणन्ति-व्रजामो ग्लानप्रति जागरइयं अणिमंतिमो गच्छामि।जह से पितिपितामहस्स अणुग्गहेण णार्थम् । अपरे सुबते-तत्रान्येऽपि ग्लानं श्रुत्वा बहवः प्रतिपोश्रणं,तो मं आगंतुं तत्थ नदिशश्व हियस्स या मे दाहिए। चरकाः समायाता भविष्यन्ति, ततो महान् भक्तपानादिभोयाए भणिओ-तस्स अस्थि बहू मरुगा तुज्म सरिच्छा अणुभा- संक्शो भविता, अवश्यमसंदिग्धं वयमपि तत्र गता न हकारिणा, जड अप्पणो तदविणेण कर्ज तो गच्छ । जहा सो तरामो न निर्वहामो ग्लानप्रतिचरणार्थमागतानां किमरुनो अम्भत्थणं मग्गंतो इहलोइयाणं कामभोगाणं अणा- यतां ते वास्तव्यविश्रामणादिप्राघूर्णककर्म करिष्यन्ति ?, यतभागी जाओ, एवं तुमं पि अभत्थणं मग्गंतो निज्जरालाहस्स स्ते तेनैव ग्लानेन तेषु कार्येषु अदत्ता प्राकुलीनूताः । तथा मणाभागी भविस्ससि ॥" इत्थमुपालज्य चतुर्गुरुकारोपण अस्माभिरपि तत्र गतैनियमादवमानम, अवश्यमुमदोषाश्चाधा. सविस्तरां परितापनादिप्रायश्चित्तविस्तरयुक्तां तस्य प्रयच्छन्ति। कर्ममिश्रजातप्रभृतयः। श्रादिशब्दादेषणादोषाश्च नविष्यन्ति । गतमिध्याकारद्वारम् ॥ एवं तत्र तेषां भणतां चत्वारो मासा गुरुका भवेयुः । (१२) अथाऽशक्तद्वारमाह (१५) अथ लुन्धद्वारमाहकिं काहामि वराओ, अहं खु अोमाण कारओ होई। अम्हे सो निजरही, अत्यह तुब्ने वयं से काहामो। एवं तत्य भयंते, चानम्मासा भवे गुरुगा ॥ अत्यि य प्रभाविया एं, ते वि य णाहिंति काऊण ॥ कोऽपि साधुः कुत्रगणस्थविरैस्तथैव पृष्टः प्राह-क्षमाश्रमण ! मासकहपस्थितैः साधुनिःश्रुतम्-ययाऽमुकत्र ग्रामे ग्यानः संजालोके यः सर्वथा अशक्तः पङ्गप्रायः स वराक उच्यते । सोऽहं तोऽस्ति । तच्च केत्र वसतिपानकगोरसादिनिः सर्वैरपि गुणेपराकस्तद्देशं गतः किं करिष्यामि ?, नबरमहं तत्र प्राप्तोऽव रुपेतं, ततस्ते लोभाभिभूत चेतसश्चिन्तयन्ति-बानमन्तरेण न मानकारको नविष्यामि । एवं तत्र स्थविराणां पुरतो नणतस्त शक्यते केत्रमिदं प्रेरयितुम । अधोगधामो वयमिति चिन्तयित्वा स्य चतुर्मासा गुरुवो जवन्ति । तत्र गत्वा भणन्ति-वयं निर्जराथिनो ग्लानवैयावृत्त्यकरणेन सच स्थविरेरिस्थमन्निधातव्यः कर्मवयमभिषमाणा हायाताः स्म, तो यूयं तिष्ठत, वयं नव्वत्त खेल संया-र जगणो पेस भाणधारणया। 'से' तस्य ग्लानस्य चैयावृत्यं करिष्यामः सन्ति च अस्माकमन्नातस्स पमिनग्गयाण य, पमिलेहे पि अस्सत्तो । विताः शैका,तेऽपि चास्मान् वैयावृत्यं कुर्वतो हा हास्यन्ति । प्रार्य ! ग्लानस्योद्वर्त्तनमापि कर्तुं न शक्नोषि, एवं खेलमल्लक एवं गिलाणलक्खे-ए संठिया पाहण तिनकोसं । स्य भस्मना भरणं, भस्मपरिष्ठापनं वा, संस्तारकस्य रचनं,जा- मग्गंता चमदती. तेर्सि चारोवणा चहा ।। Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिलाण ( १) गिलाण निधानराजेन्द्रः। एवं ग्लानसंबन्धि यहृदयं मिषं तेन नत्र संस्थिताः सन्तः कथनीयम-दमेवंभूतमिति गीतार्थत्वेनापरिणामदोषस्य चासप्राघूर्णका प्रतिकृत्वा लोकादुत्कृष्ट स्निग्धमधुरऽयं लभन्ते । भवात् । अगीतार्थस्य पुनर्निकोः शुशालाभे चिकित्सामशुद्धन अथ न स्वयं लोकप्रियच्छति ततेो मार्गयन्तः प्राघूर्णका चयमि- कुर्वन्तो मुनिवृषभा यतनया कुर्वन्ति, न चाऽऽशुद्धं कथयन्ति । ति मिषेण च संनापमाणास्तान के चमढयन्ति । चमदिते च यदि पुनः कथयन्ति, अयतनयावा, तदा लोऽपरिणामित्वात केत्र ग्लानप्रायोग्यं न लभ्यते, ततस्तेषामियं चतुर्थिधा आरोप- भनिन् अनागादादिपरितापनमनुभवति, तनिमित्त प्रायणा कर्तव्या। तद्यथा-व्यतः क्षेत्रता कालतो भावतश्च । भित्तमापतति मुनिवृषभाणाम् । यद्वा-अतिपरिणामतया सो. (१६) प्रायश्चित्तम् । तत्र व्यतस्ताबदाह ऽतिप्रसझं कुर्यात् तस्मान कथनीयं, नाप्ययतना कर्तव्या । फासुगमफासुगे वा, अचित्तचित्ते परित्तऽयंते य । भय कथमपि तेनागीतार्थन मिक्षुणा ज्ञात जवति । यथा-अकअसिणेह सिणेहकए, अणहाराहार बदु गुरुगा ।। ल्पिकमानीय मां दीयते, तदा तस्मिन्नेजति अगीतार्थे निता प्रज्ञापना क्रियते । यथा-लानार्थ यदकल्पिकमपि यतनया सेक्षेत्रोद्वेजनादोषेण मानप्रायोग्यमलभमाना यदि प्राशुकमवभा. व्यते , तत्र शुद्धो ग्लानो यतनया प्रवृत्तेरल्पीयान् दोषो. पन्ते, परिवासयन्ति था, ततश्चत्वारो लघुका, अप्राशुकमवभा. शुभग्रहणात सोऽपि पश्चात्प्रायश्चित्तेन शोधयिभ्यते । एवंपन्ते, परिवासयन्ति या, ततमत्वारो गुरुकाः । इह च प्राशुकमे रूपा च प्रज्ञापना क्रियते तरुणे दीर्घायुवि । यस्तु बरूस्तरुणो पणीयममाशुश्मनेषणीयम् । प्राह चनिशीयचर्णिकृत-इह फा वाऽतिरोगग्रस्तो चिकित्सनायः स भक्तप्रत्याख्यानं प्रति प्रोसुगं एसणिजं"। अचित्तं अबभाष्यमाणे, परिवास्थमाने नाचतु साहाते । यदि पुनः प्रोत्साह्यमानोऽपि न प्रतिपद्यते, तदा भ. घु, सचित्ते चतुर्गुरु, एवं परीते चतुर्लघु,अनन्त के चतुर्गुरु, अ राडीपोतान्यां दृष्टान्तः कर्तव्यः। स्नेहे चतुर्सघु, सस्नेहे चतुर्गुरु, अताहारे चतुसंधु, पाहारे संप्रति भएडीपोतावेव दृष्टान्तावाहचतुर्गुरु । उक्तं व्यनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम । जा एगदेसे अदढा उ भंमी, सालिप्पए सा उ करे: कजं। म नेत्रनिकपनमाहलुछस्सऽनंतरतो, चाउम्मासा हवति उग्घाता । जा मुन्चला संतविया विसंती,न तं तु सीलंति विसन्नदारूं ।। जो एगदेसे अदढो उ पोतो, सो लिप्पते सो उ करे कज्ज । चहिया य अग्घाया, दवाख्ने पसज्जण या ॥ जो दुव्वलो सो ठवितो विसंतो,न तं तु सलिंति विसन्नदारूं।। उत्कृष्टजव्यलोमन केत्रमुद्वेजयतो लुब्धस्य केत्रात्यन्तरतो वृत्तद्वयमपि कपच्यम् । ग्सानप्रायोग्ये अलज्यमाने चत्वारो मासा उद्धाताः। कंत्रस्य ब. एसेव गमो नियमा, समाणीणं दुगविवजितो हो । दिरलभ्यमाने एवं चत्वारो मासा अनुदाता गुरवः । अत्र च मानप्रायोग्यस्य द्रव्यस्यामा प्रसज्जना प्रायश्चित्तस्य वृद्धिः आयरियादी जहा, पवितिणिमादीणि वि तहेव ।। प्रामोति। यो गमोऽनन्तरमू प्रसूत्रादारभ्य श्रमणानामनिहितः, एष एव कथमित्याह गमो नियमात संयतीनामपि वक्तव्यः। किमविशेषेण?, नेत्याह. खेत्तवहि अघजोपण, वुधी गुणेण जाव बत्तीमा । द्विकवर्जितः-पाराञ्चितानवस्थाप्यनक्षणद्विकवर्जितो भवति व. चउगुरुगादी चरिमं, खित्ते .................... || तव्यः, तदापत्तावपि तासां तयोदानाभावात् । उपलकणमेत. तू-परिहारतपः तासांन भवति । यथा च प्राचार्यादीनां त्रिविधो केषाद्वहिरद्धंयोजनं गत्वा ततो यदि ग्लानप्रायोग्यं जव्यमान नेद उक्तस्तथा प्रवर्तिम्यादीनामपि त्रिविधो भेदोऽयमातव्यः । यति तदा चतुर्गुरवः। एवं योजनादानयति षट् लघवः योजन तद्यथा-प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी, भिक्षुकी च। तत्राचार्यस्थानीयादानयति पर गुरवः। योजनचतुष्टयादानयति छेदः। योजना. या प्रवर्तिनी, उपाध्यायस्थानीया गणावच्छेदिनी, नितुस्थानीएकादारयति तदा मूत्रम् । योजनषोमशकादानयति अनवस्था. या निक्की च । तदेवं मूलसूत्रादारज्य यत् प्रकृतं तत् परिसप्यम । द्वातियोजनानि गत्वाग्मानप्रायोग्यमानयति पाराश्चिक- माप्तम् । व्यः १०। नि0 चू० ।। म। अत एवाह-क्षेत्रवहिरईयोजनादारज्य द्विगुणेन परिमाणेन .................... काले इमं होइ । केत्रस्य वृद्धिस्तायत कर्तव्या यावद् द्वात्रिंशद्योजनानि । एषु च काले कालविषयमिदं वक्ष्यमाणं भवति । चतुर्गुरुकादिकं चरमं पाराश्चिकं यावत्प्रायश्चित्तम् । इत्थं केत्रविषयं प्रायश्चित्तमुक्तम् ।। वृ० १ उ० । तत्र तावत्प्रकारान्तरेण क्षेत्रनिष्पन्नमेवाह(१७) सचित्ताऽचित्तचिकित्सा अंतो वहिं नसभइ, ठवणफासुग महयमुच्चकिच्च कानगए। तिविहे तेगिच्छम्मी, उज्जुय वाउलणमाहणा चेव । चत्तारि छच्च लहु गुरु, दो मूलं तह दुगं च ॥ पापवणमणिच्छते, दिहतो डिपोएहिं ॥ केत्रस्यान्तर्वा बहिवा खानप्रायोग्यं न लज्यते इतिकृत्वा प्रात्रिविधे त्रिप्रकारे माचार्योपाध्यायभिकुलकणे विचिकित्स्ये सुकस्य स्थापना परिवासनां करोति चतुर्लघु, तेन परिवासि. चिकित्स्यमाने, गीताथै इति गम्यते । ऋजुकं स्फुटमेव, व्या. तेन जक्तेन ग्लानो यद्यनागाढं परिताप्यत ततश्चतुगुरुक, मपृतनसाधना व्यापृतक्रियाकथनम् । इयमत्र भावना-मात्रा हती दुष्कासिकामाप्नोति षट् वधु, मूर्गयां पट्गुरु, कृच्चूप्राणे र्याणामुपाध्यायानां गीतार्थानां च भिक्षुणां चिकित्स्यमानानां वेदः, कन्ट्रोच्चासे मूल, समवढ़ते मारणान्तिकसमुद्घातं कुधीयदि शुरूंप्राशुकमेषणीयं न लभ्यते, तदान तत्र विचारः। अथ णे ग्लाने अनवस्याप्यं, कालगते पाराश्चिकम् । प्राशुकमेषणीयं न बज्यते, अथवा अवश्यं चिकित्सा कर्तव्या, অথ স্কালনিন্ম মামাवदा अशुभमप्यानीयते, तथाभूतं चानीय दीयमानं स्फुटमेव । पदम राइ ठविते, गुरुगा विश्यादिमत्तहिं चरिमं । २२१ Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १) गिलाण अभिधानराजेन्डः। गिलाण परितावणाभावे, अप्पत्तियकूयणाईया।। ज्यते, अकासेच याचमानं ग्लानं यते-याबद्वेला नयति ताव. प्रथमां रात्रि परिवासयतश्चतुर्गुरुकाः, द्वितीयां रात्रिमादौ प्रतीकस्य, ततो वयमानीय दास्याम इति। न पुनर्ब्रयते-न दा बयमिति। कृत्वा सप्तभी रात्रिनिश्चरमम् । तद्यथा-द्वितीयां रजनी परिवासयति पद लघवः तृतीयस्यां षद गुरवः, चतुर्थी छेदः, पञ्चम्यां अय केत्रे ग्लानस्यानुवर्तनामाहमुलं,षष्ठयामनवस्थाप्यम.सप्तम्यां पायश्चिकम् । अथ भावनिष्पन्न- तत्येव अमगामे, बुच्छंतरऽसंथरंत जयणाए । माह-"परितावणा" इत्यादि पश्चाद्धमा परितापनादिनावनि संथरणेसणमादि, च्छन्नं कमजोगि गीयत्ये॥ पन्नं मन्तव्यम् । तथा स परितापितः सन्नप्रीतिकं करोति चतुलघु, कूजन सशब्दाक्रन्दनम, श्रादिग्रहणादनायोऽहं, न किम प्रथमतस्तत्रैव ग्रामे प्रायोग्यमन्वेषणीयम् , तत्र यदि न लप्यमी मह्यं प्रयच्छन्तीत्यवमुद्दाहं कुर्यात् ततश्चतुर्गुरुकम्। ज्यते तदा अन्यनामेऽपि, अथासावन्यनामो दुरतरस्ततो (बु च्वंतरत्ति) अन्तराले अपान्तरालग्रामे उषित्वा द्वितीये दि. अथ परितापनादिपदं व्याख्यानयति ने भानयन्ति, अर्धवमप्यसंस्तरणं भवति, ततः (संधरंतजयअंतो वहिं न सन्नइ,परितावएपदयमुच्चकिच्छकानगए।। णाप त्ति) अकारप्रश्लेषादसंस्तरतो सानस्यार्थाय यतनया पचत्तारि उच्च बहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ।। श्वकपरिहाण्या गृहन्ति । अथ खानार्थ व्यापूतानां परिचरक्षेत्रस्यान्तर्बहिर्वा न सभ्यते इतिकृत्वा ग्लानस्यानागाढा काणां संस्तरणं तत (एसणमाइत्ति) एषणादोषेषु, आपरितापना भवति चतुर्बघु, श्रागाढपरितापनायां चतुर्गुरु, दिशब्दादुद्दमादिदोषेषु च, पञ्चकपरिहाण्या यतितव्यम् । अथ दुःखापुःख्ने षट् लघु, मू मूनें षट्शुरु, कृच्छ्रपाणे वेदः, प्रतिदिवसं ग्लानप्रायोग्यं न लज्यते ततश्चन्नमप्रकट कृतयोगी, कृस्ट्रोच्चासे मूलं, समवहते अनवस्थाप्यं, कासगते पाराश्चि गीतार्थों वा तत् प्रायोग्यं द्रव्यं परिवासयन्ति । यथाकार्णि तच्छेदश्रुतार्थः प्रत्युच्चारणासमर्थः कृतयोगी, यस्तु च्छेदश्रुकम । एवं तावदाहारविषयमुक्तम् । अथोपधिविषयमभिधीयते तार्थ श्रुत्वा प्रत्युच्चारायतुमीशः स गीतार्थ उच्यते । एष द्वा रगाथासमासार्थः। अंतो वहिं न लब्भर, संथारगमहयमुच्चकिच्छकालगए। अथैनामेव विधरीषुराहचत्तारि छच्च लहु गरु, दो मूलं तह दुगं च ॥ पमिलेह पोरसीओ, वि अकाचं मग्गणा उ सग्गामे । भतिचमढिते के अन्तर्वा बहिवळ संस्तारको न लज्यते, ततो खितंतो तदिवस, असशविपासे व तत्य वसे ॥ सामस्थानागाढपरितापनादिषु चतुर्लघुकादिकं तथैव प्राय अपिशब्दः संभावनायाम, यदि सुलभं कश्यं ततः प्रत्युपेक्वां, श्चित्तं द्रष्टव्यम्। सूत्रार्थपौरुप्यौ च कृत्वा स्वग्रामे अनबनाधितस्य मार्गणा भत्र परिष्ठापतापदं समुद्घातपदं च गाथायां साकानोत ततो मा नून्मुग्धविनेयवर्गस्य व्यामोह तिकत्वा कतन्या, भथैवं न लन्यतेऽनोऽर्थपौरुषी हापयित्वा, यद्येवसाकादभिधानार्थ मिमां गाथामाह मपि न लज्यते, ततः सूत्रपौरुषी परिहाप्योत्पादनीयम् । अथ त थापि न लभ्यते, धुर्सभं वा तत् अन्यं, ततः प्रत्युपेकणां, दे परितावमहादुक्खे, मुच्छामुच्छे य किच्छपाणगते । अपि च पौरुष्यो अकृत्वा स्वग्रामे अनवजाषितं मार्गयन्ति, स्व. किच्चुस्सासे य नहा, समुघ ए चेव कालगते ॥ प्रामे अनवभाषितं न लन्यते, ततः केत्रान्तः सोशयोजन केगतार्था । उक्तं लुब्धकद्वारम् । वृ.१२०नि०चू। प्राज्यन्तरे परप्रामे पौरुषीद्वयमपि कृत्या अनवभाषितमुत्पाद. (१८) अथानुवर्तनाद्वारमाह यन्ति;अत्राप्यर्थपौरुष्यादिहापना तथैव इष्टव्या । अथ तत्राप्यनअणुयत्तणा गिलाणे, दबट्टा खा तहेव वेजहा। षभाषितं न सभ्यते, ततः स्वक्षेत्रस्वग्रामयोरवभाषितमुत्पाद्य तदिव समानयन्ति, अथ स्वकेत्रे तहिवसं न प्राप्यते, ततः परअसती अन्नो वा, आणेनं दोहि वी कुज्जा ॥ केत्रादपि तद्दियसमानेतव्यम् । अथ केत्रबहिर्तिनो यतो प्रामाग्लानप्रायोग्यं यत् जक्तपानादि कन्यं, स एवार्थः प्रयोजनं. देरानीयते तन्न प्रत्यासनं, किंतु दूरतरं, न तद्दिवसं न प्राप्यव्यार्थस्तमुत्पादयद्भिग्लानस्यानुवर्तना कर्तव्या (तहेव बे ते, ततः परकेत्रादपि तद्दिवसमानेनव्यम् । अथ क्षेत्रबाहिर्तिप्र. बहुति) तथैव वैद्यस्यार्थमुत्पादयद्भिानस्यानुवर्तना विधे स्यायातुं शक्यते, विनाशि वा तद् द्रव्यं मुग्धादिक, ततःप्र. या। यदि स्वग्रामे द्रव्यवैद्ययोरजावस्ततोऽन्यप्रामादपि न्य. त्यालनग्रामस्यासति, विनाशिनि वा उज्ये गृहीतव्ये अपराहे वैद्यावानीय द्वाज्यामप्यनुवर्तनां कुर्यात् । गत्वा तत्र रात्री वशेत, उषित्वा च सूर्योदयवेलायां गृहीत्वा अथैनामेव गाथां व्याचिस्यासुराह द्वितीये दिने तत्रानयन्ति । अथ दीयतरं तत केत्रम्, प्रविजाते उ अपत्थं, भणंति जायाम तं न लगन्नाणे। नाशि द्रव्यं च, ततोऽपान्तरालयामेरजन्यामुषिताः सूर्योदये तत्र विणि यहाणा अकाले, जा वेन न विंति न न देमो॥ गत्वा तद् व्यं गृहीत्वा भूयः समागच्चन्ति। ग्लानो यद्यपश्यं व्यं यानते ततःसाधवो भणन्ति-वयं याचामः, एतदेवाहपरं किं कुर्महे नबतामनिप्रेतं नूयो नूयः पर्यटद्भिरपि न लज्यते 'जे' अस्माभिः, इत्यं जणद्भिग्लानोऽनुवर्तितो भवति। यद्वा. वित्तवाहिया वाणे,विसोहि कोमि च तिन्नितो काढे। ग्नानस्याग्रतः पात्रकाण्युग्राह्य प्रतिश्रयान्निर्गत्यापान्तरालप पइदिवसमलन्ते, कम्मं समइच्चिओ उपए ।। थाद्विनिवर्तनां प्रत्यागमनं कुर्वन्ति, तस्य पुरतश्चेत्थं युवते-वयं | केत्रबाहिर्वा गत्या प्रथममनवभाषित ततोऽवभाषितं पूर्व तगता अभूम परंन लब्धम्, भकाले पागत्या याचन्ते तेन न ल. दिवसे अनन्तरोकया नीत्या यथायोगमानयेत्। एष विधिरेषणी Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (561) अभिधानराजेन्द्रः । गिलाण यविषयो भणितः । अथेषणीयेन नासौ ग्लानः संस्तरति ततः सक्रोशयोजन क्षेत्रस्यान्तः स्वग्रामपरग्रामयोः पञ्चकपरिहाण्या तदप्राप्तौ क्षेत्रबाहिरपि पञ्चकपरिहाण्या तद्दिवसं ग्लानप्रायोग्यमुत्यादयन्ति एवं पदोन हादिकां विशोधिकोटिमतिक्रान्तो जयति तदा ( काढे ति) मामप्रायोग्यमौषधादिकमन्येन स्वयं वा नाक्याधयेत् । एवं प्रतिदिवसमलश्यमाने पदा आधाकमपि समतिक्रान्तः तदपि तद्दिवसं न प्राप्यत इत्यर्थः । ततो विशुद्धमविशुद्धं वा महानयोग्यं यमुत्पाद्य स्थापयेत् परिचासयेत् ये तु ग्ला नस्य प्रतिसरकार यदि कार्यक्षे न्तः स्वार्थमपिममाना न संस्तरन्ति तत एषणादिदोषेषु पञ्चकपरिहाणिया हन्ति । " या परिस्यते तत् की स्थाने स्थाप्यते इति । श्रहसम्बरगस्स असती, चिलिमिलि जयं च न वनो पासे ससइ पुराणादिसु, उर्विति तद्दिवस पहिलेहा ॥ कृतयोगिना, गीतार्थेन वा तदन्यस्मिन् गृहापवरके स्थापमीयम्। अथनास्ति वः तो सतावेच योऽपरियो कोण कस्तत्र चिनिमिनि उहानागीतार्थकणं यथा न पश्यति तथा स्थाप्यम्, यदि ग्लानस्तत्पश्यति तदा स यदा तदा तस्याभ्यवहारं कुर्यात् । श्रगीतार्थस्य तु तत् विपरिणामपत्वादयो दोषा भवेयुः (तस्वरचि तस्यापरिनोभ्य स्थानस्याभावे पुराणः पश्चात्कृतः तस्य गृहे, श्रादिशब्दात् मातापितृसमानेषु स्थापयन्ति, तस्य च तद्दि बसं प्रत्युपेणा कर्तव्या । तद्दिव नाम प्रतिदिनम् पहुकं देश्याम" दिवस म दिनहे इत्तिअप असे उ दोहि वी कुजा ।" इत्यस्य व्या. क्यानमाड फासुगमफासुगेण च, अविचेतर परिचऽतेां । आहार तदितर, सिणेह इयरेश वा करणं ।। प्राशुकेन, अमाशुकेन वा अनि, तरे या सविन अनन्तेन व बाहारेण अनाहारेण वा नसिकेन, इतरेण वा परिवासितेन, सस्नेहेन, इतरेण वा श्रस्नेहेन, ग्लानस्य चिकि लायाः करणमनुज्ञातम् । गता ग्लानानुवर्त्तना । बृ० १ उ० । कल्प० । श्रघ० । पं० चू० । (१६) अथ वैद्यानुवर्त्तनाभिधित्सुः प्रस्तावनां रचयन्नादविज्यं न चैव पुच्छर जाणंता चिंति तस्स उपादद्धं । पिलगाइएस च तदा अजाएगा पुच्छए विज्जं ॥ महान पूर्वबैनैव पृच्छथ आत्मन्देवप्र चरणं कुरुथ । ततो यदि ते साधवो जानन्तः चिकित्सायां कुशलास्ततो पन्ति स्माजिर्वेयः प्रागेव पृष्टस्तस्यैवायमुपदेश इति यद्वा-प्रतिश्रयानिर्गत्य कियन्तमपि जागं गत्या मुहूर्तमात्रं तत्र स्थित्वा समागत्य ब्रुवते श्रयं वैद्येनोपदेशो दत्त इति । पिलगं गण्डकः, श्रादिग्रहणेन शीतलिका, दुष्टवतो वे. स्वादिपरिग्रहः पश्यपि यदि कास्तवः स्वयमेव कुर्वन्ति अथाऽज्ञास्ततो 'विजं 'वैद्यं पृच्छन्ति । गिलाण अत्र शिष्यः पृच्छति कि उप्पन गिलाको म उहोदगापा बुड़ी । किंचि बहु भागम, श्रमे जुत्तं परिहरंते ॥ कथं केन हेतुना ग्लान उत्पन्न यूरि-भूयांसः खलु रोगातङ्का यद्वशाद् ग्लानत्वमुपजायते, "तनुष्यत् त्रीणि शुष्यन्ति रोगो से यदि यदिको वि शेषेण साच्योभ्यरोगता तो जयाकारः पच यस्य रोगस्य पथ्य तत्तस्य कार्यम् । यथा-वातरोगिलो घृतादिपानं पितरोगिणः शर्करा योजन रोगिणो नागदह समिति दयाया बुद्धि ) उपवास क यदि रोका पारयति तमोदकं प्रतिष् मिक्वानि अमित वाप्तदिनानि ए या दिनं दीयते, ततः किञ्चित् उष्णोदकेन मधुरोल्ल्वणं स्तोक सदा दिने वाद एवं नीचे (स) बहुतरं मधुरोण उपोद के प्रय ते (नागेति चतुर्थीला नरोप द्वौ भागानुष्यो दकस्य (प्रदेश) मधुरो पोमे) विभाग उष्णोदकरूपी भागी मधुरोचनस्य स सप्तके दिने वा युक्तं किञ्चिन्मात्रं उष्णोदकं शेषं तु सर्वमपि मधुरोपणमित्येवं दीयते तदनन्तरं द्वितीयारपि सहाय वाहिमादीनि परिहरन् समुद्दिशति बाधत्पुरातनमादा परिचितुं समर्थः सपना, एा उष्णोदकादि। श् च सर्वाऽप्येकं दिनं ध्यान दिन तु धूपभिप्रायेणेति मन्तव्यम् । अथ अट्ठम त्ति' पदं व्याख्यानयना - जाव न मुक्के ता असणं तु मुक्के वि ऊ अनत्तट्ठो । असस अड उई नाऊण रूपं च जं जोगं यावदसौ ज्वरचकरोग दिना रोगेण न मुक्तस्तावदनशनमभकार्यलय, मुक्तेनापि बैकं दिवसमा कार्थो विधेयः अथासावसहिष्नताएं करोति रोगविशेषं यदेव योग्यं शोषणमशोषणं वा तत्र कार्यम्, यद्येवं कुमासी रोग उपशाम्यति ततः सुन्दरम्। 2 (२०) अथ नोपशाम्यति ततः को विधिरिति ?, ग्रहएवं पिकीरमा विज पुच्छे अठायमाणम्मि । विजाय अट्टगं दो, अणिष्टि इट्वीणिष्ठिरे || पवमपि क्रियमाणे यदि रोगो न तिष्ठति नोपशाम्यति ततस्तमप्रतिष्ठति वैकिलो बेचा है। आह-वेद्यानांही ये किराहती इतरे पर देखा तो था । तदेव दर्शयति संगम, दित्ये लिंगि सावए सभी । अस्सादृष्टि गइ गई व कुसले तेगिच्छं ॥ संविग्न उद्यतविहारी अग्निस्तद्विपरीत २ विशेष मात्रः ३, श्रावकः प्रतिपन्नासुव्रतः ४, संज्ञी अविरतसम्यदृष्टिः ५. असंही मारः ६ स चत्रिधान्येन गृहीतमि Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1 ) गिलागा अभिधानराजेन्सः । गिलाण प्यारधिः ७, अनिग्रहीतमिथ्या दृष्टिः ८, परतीर्थिकञ्चति ।। स्य व्यापारः प्रशस्ताप्रशस्तनपः ततः संगारः संकेतो गृहिणां प(दिरथे यत्ति) दृष्ट उपलब्धो अर्थः वेदश्रुताभिधे- हातकृतादीनां यथा कर्तव्यः, ततो बैदोनौपचादिविषय उपदेयरूपो येन स दृष्टार्थों, गीतार्थ इत्यर्थः । एतत्पदं सप्रतिप- शः, यथा दीयते, नतस्तमुपदेशं श्रुत्वा यथा स्वयं तुलना समत्र सर्वत्र योजनीयम् । तद्यथा-यः संचिग्नः स गीता- कर्तव्या । तदेतत्सर्वमपि वक्तव्यमिति द्वारगाथासमासार्थः । थो वा स्यादगीतार्थों था। पवममयिम्नाटीङ्गस्यश्रावकमाझिम्व- अथ विस्तरार्थः प्रतिपाद्यने, तत्र प्रथमं नोदक पृच्चाद्वार पि गीतार्थमगीतार्थत्वं च द्रष्टव्यम, तथा चर्णिकृता व्याख्या- शिष्यः पृच्चति-कि ग्लानो वैद्यसमीपं नीयताम', अथ वैध सत्यात् । अननिगृहीतादयस्तु प्रयोऽपि नियमादगीतार्थाः । पर ग्लानसकाशमानीयताम् ? । अत्र कधिदाचार्यदेशीयः ( वित्ति) संचिग्नासंबिग्नी नियमादवृद्धिकौ. शेषास्तु प्रतिवचनमाहऋछिमन्तो वा अनृझिमन्तो वा भवेयुः । सर्वेऽपि चैते प्रत्येक पाडिय ति य एगो, नेयम्बो गिलाण एव विजघरं । द्विधा-कुशला अकुशलान, गत्यागतिर्विचारणिका, सा चामी. पां कर्तव्या । तद्यथा-प्रथम संविग्नगीतार्थेन चिकित्साकर्म एवं तत्य भयंते,चाउम्मासा नवे गुरुगा। कारयितव्यम. अथासौ न लज्यते ततोऽसंविग्नगीतार्थेन, एकः कश्चिमाह-वैद्ये खानातिकमानीयमाने प्राभृतिका - सदप्राप्तावसंचिग्नागीतार्थेना ऽपि । एवं लिङ्गस्थादिष्वपि सं- क्ष्यमाणलकणा भवति, अतो ग्लान एव वैद्यगृह नेतव्यः । झिपर्यन्तेषु भाधनीयम. तेषां संप्राप्तौ पूर्वमनभिगृहीतमिथ्याह इत्थमाचार्यदेशीयेनोक्ते सूरिसराह-एवं नत्र ग्लाननयनधिपये टिना,ततोऽभिगृहीतमिथ्यात्वेन. तदनन्तरं परतीथिंकेनापि का- भणतो भवतश्चत्वारो मासा गुरुका भवन्ति ।। रयितव्यम् । एते च पूर्वमनधिमन्तो गवेषणोपान ऋद्धिमन्तः, केयं पुनः प्राभृतिकेति ?, अत पाहतदीयगृहेषु प्रवेशतया यहुदोषसद्भावात एवं ते च यदि चि. रहहत्थिजाणतुरए, अतुरंगाईहि शत्ति कायव हो। कित्साकुशला भवन्ति तत इत्यं क्रमः प्रतिपत्तव्या-सचिग्नगीतार्थः सोऽकुशली, यस्त्वसंविग्नगीतार्थः स कुशलः, ततः आसण महिय उदए, कुरुकुय सघरे उ परजोग्गो । संविग्नगीतार्थ परित्यज्यासविग्नगीतार्थेन कारणीयः। एवं बह- रथहस्तिनौ प्रतीनी, यान शिबिकादि, तुरगः प्रसिकः, अतुर. म्यप्यपान्तराले परित्यज्य यः कुशवस्तेन बैकित्स्य कारयितव्यम् । हा गन्त्री, पतरादिशब्दादपरण वा विदनायाति श्रागांत एषा गत्यागनिःप्रतिपत्तव्या। यद्वा-(इगिइराग त्ति) ऋद्धि धैये कायानां पृथिव्यादीनां वधो भवति। तथा समायातस्यामति गन्यागती कुर्वाणे महदधिकरणं भवति, अतोऽनृद्धिना सनं दातव्यं, वानस्य च शरीरे परामृष्ट व्रणादिपाटने वा कृते कारयितव्यम् । नचैतत् स्वमनीषिकाविजृम्भितम् । यत भाद कुरुकुचाकारापणे मृत्तिकायाअकस्य च वधो भवति, स्वगृहे विशेषचूर्णिकृत्-“मह वा गरागइत्ति, हिमंताण इंतजंता तु परयोगेण सर्वमपि भवति, न साधूनां कमप्यधिकरणं जवतीत्यर्थः। मे अहिगरणदोसा, तम्हा अणिहिणा कारेयव्यं ति"॥ अमुमेवार्थमपराचार्यपरिपाट्या दर्शयति एषा प्राभृतिका धैो ग्लानसमीपमानीयमाने यतो भवति अतः किमिति, पाहसंबिम्गेतर लिंगी, वश्भवणागाढागाढे । लिंगत्यमाश्याणं, एहं वेजाण गम्म उम्मून्नं । परउत्थिय अट्ठमए, इही गरागई कुसखे ॥ संविग्गमसंविग्गे, उवस्सगं चेव आणेज्जा ।। संविग्नः१,श्तरश्वासंबिग्नः२, सिङ्गी चेति प्रयोऽपि प्राग्यत् ३, प्रती प्रतिपत्राणुवतः४, अबती अधिरतसम्यग्दृष्टिः ५, अनागा लिङ्गस्थादीनां पलामपि वैद्यानां गृहं ग्लानं गृहीत्वा गम्यताम, दाऽनभिगृहीतदर्शनविशेषः ६, आगाढोऽनिगृहीतमिध्यादर्श नेते उपाश्रयमानेतव्याः, अधिकरणदोषयात् । संविमोऽसंधिनः ७, परथिकः शाक्यपरिब्राजकादिरष्टमः । प्रश्व एतौ द्वावप्युपाश्रयमेवानयेत, दापानावात् । एवं परेणोक्ते श्रािह"इडीगारा कुसले ति" व्याख्यानार्थमनन्तरोक्तकमविपर्यासे प्रायश्चित्तमाह वातातवपरितावण, मयपुच्छा सुम्म किमु मरणकुमी । बोच्चत्ये चन लहुगा, अगियत्थे चनरों मासऽणुग्याया। सच्चेव य पाहमिया, नुवस्सए फासूया सा उ ।। ग्लानो वैद्यगृहं नीयमानो वातनाऽऽतपेन च महती परितापनाचनरो य अणुग्घाया, एवमकुसलेण करणं तू ॥ मनुभवति (मयपुरुज सिसोकः तं तथा नीयमानं दृष्ट्वा पृच्छतिसंविग्नं गीतार्थ मुस्वा असंविग्नगीतार्थेन कारयति,एवमादि किमेष मृतो यदेवं नीयते ?, (सुमे त्ति)स म्लानो नोयमानोविपर्यस्तकरणे चत्वारो मघवः, गीतार्थ मुक्त्वा अगीतान का उपान्तराले अपजाणः, ततो वैद्यन यावत् मुखमुदाटितं तावत रयति चत्वारो मासा अनुदाताः, कुशलं बिहाया कुशलेन शून्यं जीवरहितं शवं तिष्ठतीति विज्ञाय यात कि मदीयं गृहं कारयति चत्वारोऽनुद्धाता मासाः, यत एवमतः कुशलेन इमशानकुटी यदेनं मृतमानयन ततः स वैद्यःशवस्य स्पृष्ठोऽहचिकित्साकारणमनुज्ञातम् । मिति कृत्वा सचेलः स्नायात् , फलहकान्यन्तरे वा गण(२१) अथ वैद्यसमीपं गच्छतां विधिमनिधित्सुराह- पानीयं दापयेत, ततो न तु सैव प्राभृतिका समधिकतरा प्रचोयगपुच्चागमणे, पमाणनवगरणसउणवावारे । बेत, उपाश्रये पुनः प्राशुकपानकादिना सा क्रियते तेनोनसंगारो य गिहीणं, उवएसो चेव तुलणा य॥ का विराधना भवतीति । गतं नोदकपृच्गद्वारम् । प्रथमतो नोदकपृच्छा वक्तव्या,ततो गमनं वैद्यसकाशे साधूनां, (२२) अथ गमनद्वारमाहततस्तेषामेव प्रमाण,तत उपकरणं,ततः शकुना,तदनन्तरं पैट नग्गहधारणकुसले, दक्खे परिणामए य पियधम्मे। Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिलाण (ust) अभिधानराजेन्सः । गिलाण कालन्नू देसन्नू, तस्सागुमए अपेसिज्जा । कूर्चमुएमनादि कारयेत, कारस्य भस्मनः, उत्कुरुटकस्य कबेयेन दीयमानमुपदेशं ये कागत्येवावबुध्यन्ते,नचिरादपि विस्मा चवरपुञ्जकस्य, उपलकणत्वाद् वुसादीनां वा समीपे स्थितः, रयन्ति,ते अवग्रहधारणाकुशवाः,तान्, तथा दक्वान् शीघ्रकारि स्फोटकादिना वा दूषितं कस्याप्य छिन्दानो घटमलाबुकं वा णःपरिणामकान्यथास्थानमपवादपदपरिणमनशीलान् प्रिय भिन्दानः शिराया चा भेद कुर्वाणो न प्रच्छनीयः । अथ ग्झानधर्मणो धर्मश्रद्धालून, कालज्ञान वैद्यास्तिके प्रविशतो यःकालः स्थापिकिञ्चित चेत्तव्यं,भेत्तव्यम्,ततः वेदनभेदनयोरपि प्रष्टव्यः। प्रस्तावस्तद्वोदिनो, देशज्ञान् यत्र प्रदेशे वैद्य उपविष्टस्तं प्रशस्त भथासौ शुजासने उपविष्टो रोगविधि बैद्यशास्त्रपुस्तकं प्रसन्नमु. मप्रशस्तं वा ये जानते, तान् , तथा तस्य ग्लानस्य वैद्यस्य खः प्रलोकयति,अथ वा रोगविधिः चिकित्सा, तां कस्यापि प्रयुवा ये अनुमता अभिप्रेतास्तान् वैद्यसकाशं प्रेषयेत् । जान प्रास्ते, ततः प्रष्टव्यः । स च वैद्यः पृष्टः सन्नुपदेशं षा दद्यात, वानसमीपे वा प्रागमनं कुर्यात् । ___ अत्रैव व्यतिरेकप्रायश्चित्तमाह (२६) अथ सङ्गारश्च गृहिणामिति द्वारं व्याख्यानयतिएअगुण विप्पमुक्के, पेसिंतस्स चनरो अणुग्घाया। पच्छाकमे य सन्नी, दंसणहा भद्द दाणसके य । गीयत्थेहि य गमणं, गुरुगा य इमेहिँ गणोहिं ।। मिच्छट्टिी संबं-धिए अपरतिस्थिए चेव ।। पते अवग्रहधारणाकुशलत्वादयो ये गुणास्तैविमुक्तान ने पश्चातकृतश्चारित्रं परित्यज्य गृहवासं प्रतिपन्नः, संकी गृहीतापयत प्राचार्यस्य चत्वारो अनुघाताः प्रायश्चित्तम् । गीतार्थश्च तत्रागमनं कर्तव्यं, चतुर्गुरुकाश्च प्रायश्चित्तमेभिर्वक्ष्यमाणैर्म णुव्रतः, दर्शनसंपन्नो अविरतसम्यग्दृष्टिः, तथा जद्रकः सम्य क्रवरहितः परं सर्वशासने, साधुषु च बहुमानवान् , दानश्रयो स्तव्यम् । (२३) तान्येवाभिधित्सुः प्रमाणोपकरणद्वारद्वयमाह दानरुचिः, मिथ्यावृष्टिः शाक्यादिशासनस्थः, संबन्धी स्वजन: परतीर्थिकः सरजस्कपरिव्राजकादिः, एतेषां संकेतः क्रियते।यएक्कग दुगं चउकं, दंमो या तहेव नीहारी। था-वैद्यस्य पार्श्व वयं गच्छामोजवद्भिस्तत्र संनिहितवितव्यम्। किएहे नीले मइले, चोन्न रय निसज्ज मुहपत्ती । यदसौ ब्यात् तत् युष्मामिः सर्वमपि प्रतिपत्तव्यम् । यद्येकः साधुवैद्यसमीपे प्रेष्यते ततः स वैद्यो यमदएमोऽयमाग- ये वैद्यसमीपे प्रस्थापितास्ते वैद्यस्येदं कथयन्तित इति सुनिमित्तं गृह्णीयात्, अथ द्वौ प्रेष्यते ततो यमदताविवती वाहि नियाण विकारं, देसं कालं वयं च धातुं च । मन्येत, अथ चत्वारःप्रेष्यन्ते,ततो नीहारिणः शवस्य स्कन्धदायिनो अमी ति मनुयात,एतावतांच प्रेषणे चतुर्गुरुकम्।उपक आहार अग्गि धिइबल, समुइं च कहिंति जा जस्स ।। रणद्वारे यदि कृष्णं नीलं मलिनंबा, उपकरणं चेह चोलपट्टको व्याधि ज्वरादिरोगं, निदानं रोगोत्थानकारणं, विकारं प्रव. रजोहरणं निषद्याक्ष्योपेतं मुखवत्रिका, उपकरणत्वादौर्मिक- ईमानरोगविशेष, देशं ग्लानत्वोत्पत्तिनिबन्धनप्रवातादिप्रवेसौत्रिकीच कल्पाविति मन्तव्यम, ततः शुरूं श्वेतं चोपकरणं शं, कालं रोगोत्थानसमयं पूर्वाह्वादिकं, वयश्च तारुण्यादिक, वृहीतव्यम् । धातुं च पातादीनां धातूनामन्यतमो य उत्कटस्तम्, पाहा. (२४) अथ शकुनधारमाद रमल्पभोजित्यादिलकणम, अग्नियनं जाग्रो पहिरस्य मन्द: मइल कुचेले अब्ज-गीयल एसण खुज्ज वमले य। प्रबलो वा, इत्येवं धृतिबलं सात्विकः, कातरो वा इत्येवं, तथा (समुह त्ति)प्रकृतिः, सा च या यम्य जन्मतः प्रभृति, तां कासायवत्थ उछु-लिया य कज्जं न माहेति ।। च कथयन्ति । नंदी तूरं पुस्म-स्स दंसणं संखपमहसदो य । (२७) वैद्यस्य उपदेशद्वारम्चिंगारउत्तचामर, एमादीई पसत्थाई। कलमोदणो उ खीरं, ससकर तूनियाझ्या दब्वे । अनयोाण्या प्राग्वत् । नूमिघरेऽग खेत्ते, काले अमुगीइ वेलाए। भावमणमाइएमुं, चाजम्मासा हवंतऽणुग्घाया ।। इच्छाणुलोम नावे, न य तस्स हिया जहिं नवे विसया। एवं ता वच्चंते, पत्ते य इमे नवे दोसा ।। अहव ण दित्तादीमुं, पमिसोमा जा जहिं किरिया।। भापतनं द्वारादौ शिरसो घट्टनम, आदिशब्दात्प्रपतन,प्रस्खलन अनन्तरोक्तव्याधिनिदानादि श्रुत्वा वैद्यःस्वगृहस्थित एव - वा संजातम् । अपरेण वा वस्त्रादौ गृहीत्वा पश्चान्मुख आकृष्टः, व्यादिभेदाश्चतुर्विधमुपदेशं दद्यात् । तद्यथा-व्यतः कलमशाकुत्र वा वजसीत्यादि भणितः, गच्छ तमेव वा केनापि कृतम् । सेरोदनं, तथा क्षीरं च सशर्करमस्य दातव्यं, तथा तूलिकायां एवमादिषु अपशकुनेषु संजातेषु यदि गच्छति तदा चत्वारो शाययितव्यः, आदिशब्दात् गोशीर्षचन्दनादिना विवेपनीय. मासा अनुराता भवन्ति, एवं तावद व्रजतो मन्तव्यम् । अथ त्यादि । केत्रतो भूमिगृहे, पक्वेष्टकागृहे चाऽयं स्थापनीयः,कावैद्यगृहं प्राप्तस्तत इमे दोषाः परिहर्तव्या भवन्ति । लतोऽमुकस्यां वेलायां प्रथममहारादौ भोजनमयं कारणीयःः (२५) तानेव प्रतिपादयन् व्यापारद्वारमाह भावतो यदस्य स्वकीयाया इच्छाया अनुलपमनुकूलं तदेव कर्तव्यं, नास्याऽऽझा कोपनीया । तथा यत्र तस्य ग्लानस्य विसामऽब्नंग उवट्टण, लोय नारुकुरुमें बिंदभिदंतो। षया अहिताः अनिष्टाः क्रन्दितविलपितादिरूपा गोतवादित्रगोमुहासणरोगविहि, नवएसो वा वि आगमणं ।। चरा वा शब्दादयो न भवन्ति, तत्र स्थापनीय इति शेषः। (प्रह एकशाटकपरिधानो यदा वेद्यो जवति तदा प्रष्टव्यः, एवं | चण त्ति) अथ वा-दृप्तादिषु दृप्तचित्तप्रभृतिषु प्रतिलोमा किवेलादिना अभ्यानं, कल्फलोध्रादिनोद्वर्तन, लोचकर्म बा| या कर्तव्या, तत्र रप्तचित्तस्यापमानना, यथा-अपमानादिना २२२ ____ Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (05) गिलाण अभिधानराजेन्द्रः। गिलाण पहतचित्तस्य तस्य दर्याव्यतिरेकज उन्मादःशाम्यति, संमान भवयवार्थ तु प्रतिहारमनिधित्सुराहमा यकाविष्टस्य तु यथायोगमपमानना वा विधेया, ज्वरादौ वा अन्तुट्ठाणे गुरुगा, तत्य विप्राणादिणो दोसा । रोगविशेषणादिका क्रिया या यत्र विद्यते सा च तत्र विधयेति। मिच्छत राश्याएं, तस्स कुलस्स व विराहणया ॥ (२८) अथ तुलनाद्वारमाह अभ्युत्थाने गुरुकाः, तत्राप्याज्ञादयो दोषा भवेयुः, तथा मिअपमिहणंता सोउं, कयजोगाऽलजितस्स किं देमो। ध्यात्व राजादयो ब्रजेयुः, आदिग्रहणेन राजामात्यादिपरिग्रहः । जहविभवा तेगिच्छग, जा लंनो ताच जूहंति ।। ते हि चारपुरुषादिमुखादाचार्य वैद्यस्याभ्युत्थितं श्रुम्बा स्वयं वैयेन दीयमानमुपदेशमप्रतिघ्नन्तस्तद्वचनमविकुट्टयन्तः भुत्या | बा दृष्ट्वा चिन्तयेयु:-"अमी श्रमणा अस्माकमन्युत्थानं न कुर्वआत्मानं तोल ।न्ति-किमेतत् कसमशाल्यादि लप्स्यामहे, नवे- न्ति अस्मभृत्यस्य तु नीचतरस्यत्थमन्युत्तिष्ठन्ते, अहो ! दुईति। यदि विनायत-ध्रुवं लप्स्यामहे ततो न किमपि प्रणन्ति । पृधर्माणोऽमी" इति प्रतिविद्विष्टा वा यत्तस्पैयाचार्यस्य, यदि वा अथ न तस्य ध्रुवो लाभः, ततो जणन्ति-यथा युष्मानिरुपदे- कुलस्य, सङ्घस्थ वा विराधनां कुर्युः, तनिष्णनं प्रायश्चित्तम् । शा दत्तास्तथा वयं योगं करिष्यामः, परं यदि कृतेऽपि योगेन अध्भुटाणे गुरुगा, तत्थ वि आणाइणो नवे दोसा । बनामहे, ततस्तस्य किं दद्मः अपि च वैद्यकशास्त्रे ययाबिन मिच्छत सो व अन्नो, गिलाएमादी विराहणया ॥ वा यथाऽनुरूपा, चिकित्सा भणिता, यस्य यारशी विनूप्तिस्तस्य अधैतदोषभयादाचार्यों नोत्तिष्ठति,तत्रापि च गुरुकाः,तत्राप्यातदनुरूपैरोषधैः पथ्यैश्च चिकित्सा क्रियते इत्यर्थः । अतो यय झादयो दोषा नवेयुः, स च वैद्योऽन्योचा दृष्ट्वा मिथ्यात् गच्छेमपि जानीथ-यथाऽस्माकं सर्वमपि याचितं अन्यते, नाऽयाचि तु,यथा-अहो! तपस्विनोऽपि गर्वमवहन्ति प्रद्वियोवा वैद्यो ग्लातमा अतो यदा कलमशात्यादि याच्यमानमपि न प्राप्यते, नस्य क्रियां न कुर्यात, अपप्रयोगे वा कुर्यात, एवं ग्लानविराधसदाकिंदातम्यमिति , इत्येवं वैद्योपदेशमुपसर्पयन्तस्तावजू. नाम,पादिशब्दादाचार्यादेर्वा राजवल्लभतया विराधनां कुर्यात् । इम्ति मानयन्ति यावद्यस्य यस्य कोषवकरादेः कीरशर्करा यद्वा-युग्माकं देहे अमुको व्याधिर्वत्तते तश्चिकित्सार्थममुकमौषदेवी लामो भवति । धं दास्यत शति भणित्वा विरुद्वौषधमदामनाचार्य विराधयेत् । तुनामेव प्रकारान्तरेणाह यत पते दोषा अतोऽयं विधिः कर्तव्यःनियएहि असहेहिं, को इभलेना करेमडं किरियं । । गीयत्ये आणयणं, पुदि उहित्तु होइ अनिनायो। तस्सऽपणो य थाम, नाउँ जावंच अामना ॥ गिलाणस्स दसएं धो-वणं च चुनादि गंधे य ।। ग्लानस्य कोऽपि संज्ञातको वैद्यो जत्-निजकैरौपधैरद गीताद्यस्य प्रतिश्रये आनयनं कर्त्तव्यं, यदि ते पञ्च जनाग्लानस्य करोमि क्रियां, प्रेषयत मदीये गृहे मानमिति । स्ततः संघाटकप्रथमत पवागच्छति । अथ त्रयस्तत एकस्तततो गुरुभिः पृथेन ग्लानेन तस्यात्मनश्व स्थाम वीर्य तोलनी मध्यात्मघममागच्चति, श्रागस्य च गुरूणां कथयात-वैद्य भागयम् । किमेव वैद्य औषधानि पूरयितुं समर्थो, न वा ?। अदम च्छतीति । ततो गुरुयो द्वे श्रासने तत्र साधुभिः स्थापयन्ति । पिकि धृत्या बनवान् ?, आहोखिदवयवान् । भावो नाम किमेष स्वयं तु चक्रमणलक्ष्येण पूर्व वैद्यागमानावात् प्रागेवोधम्म हेतोचिकित्मां चिकीर्षुः स्वगृहे मालाकारयति, ताहो त्थायार्थ स्थिता आसते, गीताश्चाभिवेदायतव्यम्-पष घेरा निष्काम गाभिप्रायेणेति । यद्यसौ गृहस्य ओषधपूरो समर्यो, शति । प्राचार्यैश्व पूर्वमनालपतोऽपि वैद्यस्यात्रिलापः कर्तव्यः। यदि च स्वयं धृत्या बनवान्, यदि च धर्महेतोः संशातक पूर्वन्यस्तेन चासनेनोपनिमन्त्रणीयः। तत्र प्राचार्यो वैद्यश्च द्वास्तस्मात्कारयति, तत एवं तस्यात्मनश्च वीर्य जावं च सात्वा वप्यासने उपविशतः,ततो ग्लानस्य दर्शना कार्या । कथमिति । गुरुगाम नुहां प्रदीत्वा तत्र गन्तव्यम् । माह-ग्लानस्य यमुपकरणे शरीरे वा अशुचिनोपलितं अथ वैद्यो यात तस्य धावनं प्रक्षालनं कर्तव्यं, चशब्दातू खेला कायिकीजारिसयं मेशन, जा य अवस्था न वट्टए तस्स । संज्ञामात्रकायैकान्ते स्थापनीयानि,भूमिकाय उपलेपनं सन्माअहट्टण न सका, वोत्तुं तं वच्चिमो तत्थ ॥ जनं च विधेयम। तथापि यदि पुर्गन्धो भवति ततः पटकवासायारशं युप्मानिधानत्वमाख्यातं, या च तारशी तस्यावस्था दिचूदि तत्र विकीर्यते,प्रादिशब्दात् कर्पुरादिभिः सुगन्धिदपर्तते, तदेतदष्ट्वा न शक्यते किमप्यौषधादि वक्तुं, उपदेष्टुं च, म्यैः शुजो गन्धोपनीयते, ततः प्रावृतशुष्कवासाः शुचीनूतो ततस्तत्रैव ग्लानसमीपे बजाम इति । ग्लानो वैद्यस्य दयते। यदि तस्य किश्चिद्धोणाादकं पाटयितब्य (२६) एवं भरिणत्वा प्रतिश्रयमागतस्य यो विधिः कर्त्तव्यस्त- तदा तस्मिन्पाटिते सति उष्णोदकादिप्राशु हस्ते दातव्यम् । मभिधिसुर्धारगाथामाह भयोष्णोदकमसौ नेच्छति ततः पश्चातकतादयो मृत्तिकामुद अन्भुट्ठाणे पासण, देसण जद्दे निती य आहारो। । वा प्रयच्छन्ति । गतमभ्युत्थानासनदर्शनाकारत्रयम् । (३०) अथ नजकद्वारमाहगिलाणस्म आहारे, नेयव्यो आणुपुबीए॥ चउपादा य तिगिच्छा, को जेसज्जाइ दाहिई तुम्नं । प्रथममभ्युत्थानविषयो विधिर्वक्तव्यः, तत आसनविषयः, ततो ग्लानस्य दर्शना यथा क्रियते, ततो (भदेत्ति) नको वैद्यो तहियं च पुनपत्ता, जयंति पच्छाकमा अम्हे ॥ यथा चिकित्सामेवमेव करोति, इतरस्य तु भृप्तिर्मजनादिकं, वैद्यो ब्रूयात्-चिकित्सा चतुष्पादा भवति । चत्वारः पादाचतुचिकित्सावेतनम, आहारश्च तथा दातव्यः, खानस्य च तथा | तुथाशरूपा यस्या सा चतुष्पादा। तद्यया-आतुर तुर्थाशरूपा यस्यां सा चतुष्पादा। तद्यया-आतुरः, प्रतिचरको, माहारे यतना कर्तव्या। एवं सर्वोऽपि विधिरानुपा प्ररुप्य- | वैद्यो, भेषजानि। प्रतः को नामास्य योग्यानि भेषजानि युप्माकं माणो ज्ञातव्यः । इति समुदायार्यः। प्रदास्यति । ततस्तत्र दत्तसङ्केततया पूर्वप्राप्ताः पश्चात्कृतादयो Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिलाण अभिधानराजेन्द्रः। गिलाण भणन्ति-वयं दास्याम इति । एवं तावद्भको वैद्यः क्रियां करोति पश्चात्कृतादीनामभावे यद्ययतनया प्रतिषेधयन्ति-न तब तृर्ति न चान्यत्किमपि स्पृहयति। वा जतं वा दास्याम इति, ततश्चतुर्गुरुकाः, श्राज्ञादयश्च दोषाः। (३१) यस्तु प्रान्तस्तमुद्दिश्य नूतिद्वारमादारद्वारं चाद तस्माद्यनना एभिः स्थानः कर्तव्या (भिक्षण त्ति) निका कृत्वा वयं दास्यामः, (दलित) ऋद्धिमता घा निष्कामता यत् कोई मजणगविहि, सयणं आहार वहि केवमिए । कापि निक्किप्तं तद् गृहीत्वा दास्यामः, द्वितीयपदे वा कचित्कारगीयत्थेहि य जयणा, अजयण गुरुगाइ आणाई । णे जाते सति तदर्थजातं गृहीतं तत हरितं दास्यामहे (रदिए कश्चिद्वधो श्रूयातू-मजन स्नानं तस्य विधिः प्रकारो मज्जन- | ति) पश्चात्कृतादिरहिते पर्व जणन्ति-(जं भाणिहिसि जुत्तंति) विधिः, तैलाभ्यङ्गनादिप्रक्रियापुरस्सरं स्नानमित्यर्थः। शयनं प. | यत् त्वं भणियसि तद्यथाशक्ति करिम्यामो,यद्वा अस्माकंयुक्तस्पङ्कादि, आहारो भोजनम,उपधिर्वस्त्रादिरूपः (केयमियत्ति) | मुचितं तद्विधास्याम इति। पकाः। एतत्सर्वे मम को नाम दास्यतीति। ततः पश्चात्कृतादि. प्रथासौ वैद्यो ध्यातभिरभ्युपगन्तव्यम् । यद्ययतनया अत्युपगच्छन्ति, प्रेषयन्ति बा, ततश्चत्वारो गुरुकाः, प्राज्ञादयश्च दोषाः। एषा पुरातनी गाथा। अरिहयग त्य भगवं!, सक्खी गवेह जे ममं देति । प्रथैनामेव विभावयिषुराह धंतं पि दुखकखी, ण बन्नइ दुद्धं अघेणुतो ।। एयस्स नाम दाहिह, को मजणगाइ दाहिई मज्झं। भगवन् ! अहिरण्यकाः स्थ यूयमतः साक्षिणः स्थापयत, ये ते चेवणं भवंती, जं इच्छसि अम्हे तं सव्वं ।। मम पश्चात्प्रयच्छन्ति । अमुमेवार्थ प्रतिवस्तृपमया मुढयति उत्तं पित्ति) देशीय बनवादातेशयेनापि मुग्धकालीन सनते पतस्य वानस्य, नामेति संजायनायां, यद्यत्प्रायोग्यं भेषजादि, दुग्धमधेनोः सकाशात् ।। तत्सर्वे दास्यथ, मे स पुनर्मज्जनकादि को दास्यति ? इत्युक्ते एवं वैद्येनोकेन किं कर्तव्यमिति ?. श्राहत एव पश्चात्कृतादयो (णमिति) तं वैद्यं भगन्ति यद्यदिसि तत्सर्व वयं दास्याम शति । पच्चाकमाइजयणा, दावणकज्जेण जा जाणिय पुलि। जं एत्य अम्हें सव्य, पडिसेहे गुरुग आणादी । सम्घाविजयविहणे, ते चिय इच्छंतगा सक्खी ।। एपसिं असईए, पमिसेहे गुरुग आणादी। पश्चात्कृतादिविषया मज्जनकादिदापनकार्येण या पूर्व यतना भणिता सैव इद मन्तव्या, नवरं ये पश्चास्कृतादयः श्रध्या, बिये चैते पूर्व पश्चात्कृतादयः प्रज्ञापितास्तदत्र ग्लानस्य युष्माकं जवेन च विहीनास्त एव श्च्छन्तः सन्त इह साक्षिणः स्थाययोपयुज्यते तत्सर्व वयं दास्याम इत्युक्ते सति यः साधुस्तान ते । यथा-वयं भिकाटनं कृत्वा यथाअब्धमतस्य दास्याम इति । धिकरणभयात्प्रतिषेधयति, तस्य चत्वारो गुरुकाः, प्राशादयश्च दोषाः। अथ न सन्ति पश्चात्कृतादयस्तत पतेषां असत्यनाचे यो अध ते साकीनवितुं नेच्छन्ति ततो यः ऋद्धिमत्प्रवाजितः स बैद्य प्रतिषेधयति, न घयं भवतो मज्जनादि दास्याम इति, दं ब्रूयाततस्याऽपि चतुर्गुरुकाः, आझादयश्च दोषाः । पंचसयदाणगहणे, पलालखेलाण छड्डाणं च जहा। पश्चात्प्रतिषेध्यमानेषु यद्वैद्यश्चिन्तयति तदाह सहसं व सयसहस्सं, कोडी रज्ज व अमुगं वा ।। जुत्तं सयं न दाजं, अनि देते विऊ निवारिति । एवं ता गिहिवासे, आसी व श्याणि किं णिहामो। न करिज्ज तस्स किरियं, अवप्पओगं व से दिज्जा॥ जंतुन्न मह य जुत्तं, तं उग्गादम्मि काहामो ॥ युक्तममीपां स्वयमदातुम,अपरिग्रहत्वात, यश्च पुनरन्यान् ददतो यथा पलालखेलयोनईनं विधीयते तथा दीनानाधादिज्यो निवारयन्ति,तन्न युज्यते, एवं प्रद्विष्टः सन् तस्य ग्लानस्य क्रियां वयं रूपकाणां पञ्चशतानि हेलयैव दानं दत्तवन्तः, उपार्जनामम कुर्यात, अपप्रयोग वा विरुद्वौषधयोग ‘से' तस्य दद्यात पि कुर्वाणाः पञ्चशतानां ग्रहणमेवमेव कृतवन्तः,एवं सहन, शतप्रयुञ्जीत; तस्मादन्यान्न निवारयेदिति । सहस्र, कोटी राज्यम, अमुकम् अनिर्दिष्टसंख्यास्थान, लीलयैदाहामो त्तिस्य गुरुगा, तत्थ वि आणाइणो भवे दोसा।। व वयं दत्तवन्तः, स्वीकृतवन्तो बा, तदस्माकं गृहवासे विभूसंका व सयएहिं, हिऍ नटे तेणए वा वि॥ तिरामीत्, श्दानी पुनरकिश्चनाः श्रमणाः सन्तः किं भणियापश्चातकृतादीनामनावे यदि साधयो भणन्ति-वयमवश्यं ते मः, किं करिष्याम इति नावः, परं तथाऽपि ग्लाने उदाढे प्रसर्वमपि दाम्याम ति, तदा चत्वारो गुरुकाः, तत्राप्याज्ञादयो गुणीभूते सति यत्तवास्माकं च युक्तम नुरूपं तत्करिष्याम इति । दोषा भवेयुः। तथा कस्यापि हिरण्यादौ केनचित् हृतेऽन्यथा वा एवं तावत् स्वग्रामे वैद्यविषया यतना भणिता । अथ स्वग्रामे वैद्यो न प्राप्यते ततः परप्रामादप्यानेतव्यः । मष्टे सति शङ्का जयनि-अहिरण्यसुवर्णा अप्यम। यहास्याम इति तणन्ति, तन्नूनमेतैरेव गृहीतमिति । यद्वा-सूत्रकैरारत तत्र विधिमाहकादिनिस्तत् श्रुत्वा राजकुले गत्वा सूच्यते । यथा-स्तेनका पाहिजे नाणत्तं, वाहिं तु भईऍ एस चेव गमो। पते श्रमणा ये वैद्यस्य हिरण्यादिकं दातव्यतया प्रतिपद्यन्ते, पच्याकडाइएसुं, अरहिऍ रहिए उ जो जणिो ॥ सतो ग्रहणाकर्षणादयो दोषाः । पाथेयं नाम कण्टकमईनवेतनं यत्तस्य जक्तादि दीयते तत्र पमिसेह अजयणाए, दोसा जयणा इमेहि गणेहिं । नानात्यं विशेषः,वास्तव्यवैद्यस्य सन संभवति,अस्य तु जवतीति भिक्खण इति विइयपद, रहिए जंजाणिहिसि जुत्रं ॥ | भावः। तत्र च बहिनामादागतस्य भृतौ मजनादौ बेतने एप एष Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (05) गिलाण अभिधानराजेन्द्रः। गिलाण गमो द्रष्टव्यः, पश्चात्कृतादिभिररहिते रहिते वा योऽनन्तरमेव पट्टकावास्तीर्य शयनं कार्यते, तथाऽप्यनिच्छति उत्तरोत्तरं ता. मणितः। घनेतव्यं यावत् तूलीपल्यङ्कावयानीय शाययितव्य इति । अथात्रैवं यतनाविशेषमाह अथ भक्तपदं नाघयतिमज्जणगादिच्छते, वाहिं अन्जितरं च अणुसट्टी। समुदाणिोदणोम-तो व णिच्छति वीसु तवणा वा। धम्मकहविज्जमते, निमित्त तस्सह अनोवा ॥ एवं पि णिच्छमाणो, होइ असंने श्मा जयणा॥ मज्जन खानम,अादिशब्दादभ्यङ्गनोद्वर्तनादिकं बहिर्घामे पागा समुदानं नामोच्चावचकुलेषु भिक्काग्रहणं,तत्र बन्धःसामुदानिकः, पन् अभ्यन्तरे प्राग् ग्लानसकाशे प्राप्ते यदीच्छति, ततः सर्व "अध्यात्मादिज्य इकए"।६:३।७६॥ इति (हैम०) इकण प्रत्ययः । तस्य पश्चात्कृतादयः कुर्वते। तेषामभविऽनुशिष्टिः क्रियते। यथा स चासाघोदनश्व सामुदानिकोदनः, स प्रथमतो वैद्यस्य दायतीनां न कल्पते गृहिणः स्नपनादि कर्तु, भवतश्च मुधा कुर्व- तव्यः, अथासौ तं भोक्तु नेति, ततो मात्रकं वर्सापनीयं,तत्र तो बहु फलं भवति। अथ तथाऽपि नोपरमति. ततो धर्मकथाः प्रायोग्यं तदर्थं गृहीतमिति भावः । अथ तथाऽपि नेच्छति ततो कर्तव्याः,तथाऽप्यप्रतिपद्यमाने विद्यामन्त्रनिमित्तानि तस्य वैद्यस्य (वीसुत्ति) पृथगोदनं, व्यञ्जनमपि पृथग् ग्राह्यम्,अथ शीतनमावर्जनार्थ प्रयुज्यन्ते, अन्यो वा तानि प्रयुज्य वशीक्रियते, मिति कृत्वा तन्नेति , तदा (तवण त्ति) तदेव यतनया तापततस्तस्य वैद्यस्यासौ मञ्जनादि कार्यते। यितव्यम, परमप्यनिच्कृति अलभ्यमाने वा इयं यतना भवति । अथ धर्मकथापदं भावयति तामेवाहतह धम्म कहिंति जहा, होइ संजउ सनि दाणसहोव।। तिगसंवच्चर तिगग-एगमणेगेय जोणिघाए य । वाहिया उ अएहायंते, करिति खुड्डा इमं अंतो॥ संसहमसंसहे, फासुयमफासुए जयणा॥ आक्षेपणीयप्रभृतिभिः तस्य तथा धर्म कथयन्ति यथाऽसौ येषां शालिव्रीहिप्रभृतीनां संवत्सरत्रयादूर्द्धमागमे विध्वस्तसंयतो भवति, संझी वा गृहीतावतो, अयिरतसम्यग्दृष्टिा, योनिकत्वमुक्तं तेषां ये त्रिवार्षिकास्तन्दुलास्ते (तिगडुगएग दानश्रद्धो मुधैव साधूनामारोग्यदानशीलो भवति । अथ ध त्ति) प्रथमतखिछटिता गृहीतव्याः, तदभावे द्विछटिता, तेषामकथालम्धिर्नास्ति ततो विद्यामन्त्रादयः प्रयुज्यन्ते, तेषामनावे मलाने एकछटिता अवि। अध त्रिवार्षिका न प्राप्यन्ने ततो हितस्यामाका दीयन्त्रेभएयते चासौ-बहिर्गत्वा स्नानं कुरुता अथ वार्षिकाः, तेषामलाभे एकवार्षिका अपि व्युत्कान्तयोनिकाःसबहिः स्नातुं नेति ततो बहिरस्नाति तस्मिन् क्षुद्धका दं तस्त्रियकछटिताः क्रमेण प्राया। तदलाने (श्रणेगय त्ति)एषां वक्ष्यमाणमन्तः प्रतिश्रयस्याभ्यन्तरे कुर्वन्ति । धान्यानामनकानि वर्षत्रयाद्वहुतराणि वर्षाणि स्थितिः प्रतिपाउसिणे संसढे वा, तूमी फलगाइ भिक्ख वाइ। दिताा यथा-तिसमुझमाषादीनां पञ्च वर्षाणि, अतसीकहकोछ वप्रभृतीनां सप्त वर्षाणीत्यादि तेषामपि तन्दुलाः पञ्चवार्षिकाःत्रि. अणुसट्ठी धम्मकहा, विजनिमित्ते य वहि अंतो ॥ घेकाटिताः क्रमेण ग्राह्याः अत्रापि वर्षपरिहाणिव्युत्क्रान्तयोनिहष्णोकेन प्रतीतेन, संसृष्टेन गोरसरसन्नावितेन अपरेण वा | कत्वं च तथैव दृष्टव्यम् । इद च येषां यावती स्थितिरुक्ता ते प्राशुकेन, क्षुल्लकास्तं स्नपयन्ति, शयनमाश्रित्य भमौ फलके, तावती स्थिति प्राप्ताः सन्तो नियमाद् व्युत्क्रान्तयोनिकाः,ये त्व आदिशब्दापल्यङ्कादिषु वा स शारयते, भोजनं प्रतीत्य भैकं चापिन परिणतास्ते तुव्युत्क्रान्तयोनिका श्रव्युत्क्रान्तयोनिका बा जिला पर्यटनेन लब्धमानीय तम्य दातव्यम् (वमुश्राइत्ति)बटु- जयेयुः, इति (जोणिघार त्ति) व्युत्क्रान्तयोनिकानामभावे भक मष्टकमयं नाजनम,आदिग्रहणात्कांम्यपात्रादिपरिग्रहः, एतेषु व्युत्क्रान्तयोनिका अपि, ये योनिघातेन गृहिभिः साध्वर्थमभोजनमसौ कारयितव्यः,हिरण्यादिकं कविणजातं याचमानस्य चित्तीकृतास्तेऽप्येवमेव गृह्यन्ते। तथा दध्यादिनाजनधावनं संस्अन्तरिति वास्तव्यवैद्यस्य,बहिरित्यागन्तुकवैद्यस्योजयस्याप्यनु- टपानकम; उष्णोदकं, तन्दुलधावनादि घा असंसटपानकम, शिष्टिः, धर्मकथाविद्यानिमित्तानि, प्रयोक्तव्यानीति संग्रहगाथा- उत्जयमपि प्रथमतः प्राहाक, तदनावे प्रप्राशुकमपि यतनया यत् समासार्थः। प्रसविरहितं तत्तदर्थ गृहीतव्यम्। अथैनामेव भावयन्नाह अथैनामेव नियुक्तिगाथां भावयतिसेबुबट्टणएहावण, खुड्डासति वसन अनलिंगणं। चकंतजोणिनडा, दुएकलमणे विहोइ एस गमो। पट्टउगादी जूमी, अणिच्चि जा तूलिपबंके ।। एमेव जोणिघाए, तिगाइ इतरण रहिए वा ।। कुल्लकास्तं वैद्यं तैनाभ्यङ्ग्य कक्लेनोवोष्णोदकादिना | त्रिवार्षिकादयो ये व्युक्रान्तयोनिकास्ते त्रिछटिता प्रायाः, ते. प्राझुकेन एकान्ते स्नापयन्ति, अथ कुल्लका न सन्ति, स्न- पामभावे येकगटितानामप्येष एव गमो, यत्तेऽपि व्युत्क्रापयितुं वा न याचन्ते, ततो ये वृषभा गच्चस्य शुनाशुभका- म्तयोनिका गृह्यन्ते । एवमेव च योनिघाते साध्वथै कृते (तिरणे नारोद्वहनसमर्थास्तेऽन्यनितेन गृहस्थादिसंबन्धिना स्ना- गाइ ति) त्रिकटिता गृहीतव्याः, तेषामभावे त्रिवार्षिकामादिक वैद्यस्य कुर्वन्ति, "पट्टगा"इत्यादि।स वैद्यःशयितुकामः दयो यथाक्रम करामापनीयाः। अथ नास्ति कोऽपि कण्डयिता,तत प्रथमतो भूमौ संस्तारपट्टमुत्तरपट्टकं च प्रस्तार्य शाय्यते । अथ इतरेणाव्यक्तलिङ्गेन रहिते वा सागारिकवर्जिते प्रदेशे स्वयं माऽसौ पट्टये स्वप्तुमिच्छति, तत और्णिकसौत्रिकी कल्पौ प्र- करमयति । यद्वा-(रहिए ति ) पश्चात्कृतादिभिगृहस्थैः स्तायेते, तथापि यदि नेच्छति, ततः काष्ठफलके संस्तारोत्तर- रहिते एषा यतना कर्त्तव्या। Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (0 ) गिलाण अनिधानराजेन्डः। गिलाण तेच तन्दुलाः कथमुपस्कर्सव्या इति ?, पाह शिष्यः पृच्चति-कथमसंयतस्य संस्पभाजनं संयतः प्रका. पुजारते अवचु-ज चुनि सुक्खघामससिर अविके। लयति?,कि निमित्तं था वैद्यस्य मञ्जनादिकमियत्प रिकर्म क्रियते ?। उच्यतेपुन्नकय असइ दाणे, ठवणा लिंगे य कल्लाणे ।। पूयाईणि वि मग्गइ, जह विज्जो आनरस्स नोगट्ठी। पूर्व प्रथमं गृहिभिः काष्ठप्रकेपणादायुक्तः पूर्यायुक्तः, तस्मिन् पू. युक्ते, पूर्वत प्रक्चुलके प्रथमं तम्बुलानुपस्करोति, तदभावे तह विज्जे पमिकम्मं, करिति वसभा वि मुक्खट्टा ।। पूर्वतप्तायां चुल्ल्याम, अथ चुल्ल्यपि पूर्वतप्तान प्राप्यते, तत ई. यथा वैद्यो जोगार्थी आतुरस्य रोगिणः पूयं पकरक्तं, तदारशानि दामणि प्रतिप्योपस्करोति, नद्यथा-गुस्काणि नााणि, दीनि, मादिशब्दातू शोणितप्रभृतीन्यप्यशचिस्थानानि माजधनानि वंशयन रन्ध्रपुक्तानि, अशुषिराणि अस्फुटिताान, त्वचा पति शोधयति, तथा वृषभा भपि मोकार्य वैद्यस्य सर्वमपि रहितानि बा, अधिद्धानि घुणैरकृतककाणि, ईशानि दामणि प्रतिकर्म मजनादिकं कुर्वन्ति । पच्यमाणप्रमाणोपेतानि पूर्वकृतानि च ग्रहीतव्यानि । भथ पूर्व यस्तु न कुर्यात्तस्य प्रायश्चित्तमाहरुतानि न सन्ति ततः स्वयमपि तेगं प्रमाणोपेतत्त्वं कर्तव्यं,तथा पाचमानस्य वैद्यस्य (दाणे सि) अर्थजातदान कर्तव्यम । कथमि तेइच्चियस्स इला-णुलोमगं जो न कुज्ज सइ लाभे । ति,अत माह-(ग्वण सि) शैक्केण प्रवजता यन्निकुादिषुद्र. अस्संजमस्स भीतो, अलस पमादी च गुरुगा से ।। विणजातं स्थापितं तस्य दानं कर्तव्यम् । (लिंगि त्ति) स्वलिलेन | चिकित्सया चरति जीवति वा चैकित्सिको वैद्यः,तस्य या म. परसिङ्गेन गृहसिङ्गेन वा अर्थजातमुत्पादनीयम् । (कदाणे त्ति) | जनादाविन, तस्या अनुनाममनुकलं प्रतिकर्म, सति लामे प्रगुणीभूतस्य ग्लानस्य तत्पतिचरकाणां च पश्चकल्याण साभसंजचे (अस्संजमस्स भीओ त्ति) पञ्चभ्यर्थे षष्ठी। असंयबातम्यम्। मादसंयसवैयावृत्यकरणलवणागीतोऽलसः प्रमादी च यो म अथ प्ररूप्यमाणदारूणां प्रमाणादिकमाह- कुर्यात्, तस्य चत्वारो गुरुकाः । इत्थकमत्त दारुग, निच्छद्विय अधुणिया अहाकडया। मथ मानवैद्ययोःयावृत्यकरणान्युपदर्शयतिअसई ३ सयंकरणं, अघट्टपोवक्खडमहाऊ ।। सोगविरुषं दुपरि चओ न कयपडिकिई जिणाऽऽएाय । हस्ताई द्वादशाङ्गलानि, तन्मात्राणि तावत्प्रमाणदेभ्योपेतानि, निच्चलिकानि गद्वारहितानि, अधुणितानि घुणैर विकानि, दा अतरंतकारणा जे, तदट्ट ते चेव विजम्मि || कणि भवन्ति । ईशानि च यथाकृतानि गृहीतव्यानि, यथा ग्वानस्य यदि फ्यावृत्त्यं न क्रियते, ततो सोकविरुद्ध जयति । फतानामसत्यभावे स्वयंकरणं यात्मनैव दस्तार्धप्रमाणानि क्रिय- लोको घूयात्-धिगमीषां धर्म,यत्रै मान्धसंभवेऽपिशमनाथम्ते,गलिश्चापनीयते इत्यर्थः। उपस्कृते च भक्ते उल्मुकानां घट्टना | स्वमिति । तथा परस्परमेकवचनप्रतिपन्या दिना यः कोऽपि लोन कर्त्तव्या, किन्तु यथायुषमानुपाल्य स्वयमेव विध्यायते । कोत्तरकः संबन्धः, स दुःपरित्यजो दुःपरिहर इति ग्लानस्य अथ पानकयतनामाह वैयावृत्यं कार्यम । कृतप्रतिकृतिश्चैव जयति, ग्लानेन पूर्व हरेन सकंजिऍ चाउलगदए, जसिणे संसहमेतरे चेव । ता यदात्मनि नपकृतं तस्य प्रत्युपकारः कृतो भवतीति भावः। जिनानां या प्राज्ञा-अम्नान्या वानस्य वैयावृत्यं कुर्यादित्या. एहाणपियणाइ पाणग, पादास वोर दद्दरए । दिलवणा सा कृता भवति । एतानि भतरो ग्लानस्तस्य वै. पानीयं याचतो वैद्यस्य काक्षिकं दातव्यं, यदि तन्नेचति ततः। यावृत्यकरणानि, तदर्थ ग्लानार्थ यद्यस्य वैयावृत्य करणं, त. (चावल उदक) तन्दुसधाचनं. तदन्यनिति उष्णोदकं संशएं | त्राऽपि तान्येव लोकविरुरूपरिहारादीनि कारणानि एण्यानि। प्रावकं वा तर ति) प्राशुकमनिच्चति अप्राकमपि, यावत्कपूरपासितम्। एवं स्नानपानादिषु कार्येषु पानस्य दातव्यं, तच अथ ग्लानस्य मज्जनादिविधिमतिदिशन्नाहप्रथमतः पात्रके स्थाप्यते । श्रथ नास्त्यतिरिक्त पात्रक, न चासौ एमेव गिलाणम्मी, विगमो उ खलु होइ मजणाईभो। तत्र सापयितुं तं ददाति ततो वारके स्थापयित्वा दर्दरयति, मुखे सविसेसो काययो, लिंगविवेगेण परिहीणो॥ मनेन चीघरेण बनाति, येन कीटिकादयः सत्वा नाभिपतन्ति, मावितं भैकपदम् । एप पर ग्लानेऽपि मज्जनादिको गमः प्रकारो भवति, पथा घेद्यविषय उक्तः, नवरं सविशेषो नक्तिबहुमानादिविशेषसहितो, भय 'वसुकादिति' पदं भावयति सिविवेकन परिहीयः सर्वोऽपि कर्त्तन्यः ।। बहके सरायकंसिय-तंवकरयर सुवनमाणसेले। भोत्तुं सए व धोवइ, अणिचि किमि खुश्वसभा वा ॥ मथ ग्लानवैधयोरनुवर्तनायां महार्यत्वं दर्शयनाहपटुकं कमानक, तत्रासौ भोजनं कारयति । अथ तत्र नेच्छति को वोच्छ गेलन्ने, दुविहं अणुअत्तणं निरवसे । ततः शराबे, तत्रानिच्चति कांस्यनाजने, तत्राप्यनिच्छति ताम्र- जह जायइ सो निरुओ, तह कुज्जा एस संखयो । माजने, तत्राप्यनियति रजतस्थाले सुवर्णस्थाले मणिशैलमये ग्लाने सति डिविधा अनुवर्तना-ग्लानविषया,वैद्यविषया च। प्राजने भोजयितव्यः । भुक्त्या चाऽसौ स्वयमेव तद्भाजनं धा. तां निरवशेषां सम्पूर्णी को नाम शेषं वक्ष्यति ?, बदुवक्तव्यत्वाच बति । अथ नेति धावितुं ततः 'किटी' स्थविरश्राविका सा| कोऽपीत्यभिप्रायः। अतो यथाऽसौ ग्लानो निरुग् जायते तथा प्रकावयति, तस्या प्रभाव नका, अलकाणामनायेषभाः।। कर्यादेष संकपः संग्रहः, अपदशसर्वखमिति यावद। Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिलाण (८५०) अभिधानराजेन्द्रः । अथ वैद्यस्य दानं दातव्यं विधिमा आगंतु पर जापन, पम्मानणें तत्य कइयदितो पासादे वादी, बल्यूकुरुमे तहा श्री ॥ - माने प्रगुणे जाते सति आगन्तुकवैद्यो यदा दक्षिण वाचते सदा भश्यते च धर्मव्यवहरप बद संभवति तदेव ग्रहीतव्यम् करिता तत्रोच्यतेयथा केन चित् क्रयिकेण गान्धिकापणे रूपकान् निचिप्प मणिसममेतेः किञ्चिद्रानजातं दद्याः, ततः सोऽन्यदा तथापणे मद्यं मार्गयितुं लग्नः । वणिजा प्रोक्तः ममापणे गन्धपण्यमेव व्यव हियते, नास्ति मद्यम, अतस्त्वं गन्धपण्यं गृहाणेति । एवमस्माक अपि धर्माणा धर्मे गृहातु भवान् नास्ति विणजातमित्युक्ते यदि नोपरमति, ततः शैक्षेण प्रवजता यन्निकुजादिषु परिष्ठापितं तदानीय दीयते, तस्याभावे यमुत्सन्नस्वामिकं कापि प्रासादे, कूपे वा, आदिशब्दान्निमनादिषु वा निधानं, तथा शनिपतितास्तु तदुकसमितिकृत्वा वास्तुकु मुच्यते, तत्र वा यनिधानं तदवधिज्ञानिनः, उपलक्षणत्वाद्दशपूर्वप्रभृतीनां वा पाओं पृष्ट्वा ततः प्रासादादिस्थानादानीय वैद्यस्य दातव्यम् | वास्तन्यवैद्यस्य दानविधिमाह त्यव्य पडणें जाया, धम्मादाणं पुणो अधिच्छंते । सा वि होइ जयणा, रहिए पासायमाईया ॥ प्रगुणीभूते ग्लाने वास्तववैद्यो यदि पाचनं कुरुते ततस्त या धर्मपादानं द्रयं तदाप्यं (पुसो ति पुनः भूयो भूयः प्रज्ञाप्यमानोऽपि यदि धर्मादानं नेच्छति तदा म रहिते सैव प्रासादादिका बतना क क्या याऽनन्तरगाथायामभिहिता । द्वयोरप्यागस्तु वास्तव्यवैद्योपथि पाचतोविधिमाहउहिम्पि पडग साग, संवा चित्रण या दुगभेदादाहिंडण, सहि परलिंग हिंसाई ॥ उपधी उपकरणे. पटशाटकः परिधानं, संवरणं प्रच्छदपटः, श्र स्वयं संस्तरणंतु या पानि मार्गयतः ततस्तथैव धम्मप अथ नोद्विकं साधुयुगं तो यो भेदः प्रकारः तेनादिन्देन विहिरि दिकमुत्पाद्य वैद्यस्य प्रयच्छन्ति नावाप्यते ततोऽनुशहिता तथानुपरतस्य पादयो जोत्पाद्य प्रयन्तन्ति । द्वितीयपदेन दद्यादपि यत आह विपपदे कालगए, देसुधारणे व बोदगाई। सवाई असई वा बहारऽपयाथ अदसाई ॥ द्वितीय वैजाने वा साध स्पाम आदिशब्दात्परयकेभ्यो या भवेन देशस्योत्थाने उदशीनवने आशिया आणि पुनिराज बाजा सति श्रसति वा सर्वथैव यत्राणामन्त्राभे व्यवहारः क्रियते, व्यव दारेण च निर्जितस्य तस्य न प्रयच्छन्ति, व्यवहारेण वा कारणि गिलाण केमा प्रमानानि शाकानि पत्राणि दर्शयतिकर्मशास्वानानि यानि सन्ति । अथ विज्ञातं मा करमगमाद बे रुच्ये ते तह व केस केभिए । डिसाद, पूजेदो | पदमावा तस्य दीयन्ते ताम्रमयं दानायकं हियते, तथा दक्षिणापथे काकिणी रूपं रूप्यमयं तन्मयं वा नाणकं मति बानिमा 'इम' नाम सुपर्ण त व्यथ · नवति । यथा पूर्वदेशे दीनारः कवडिको नाम । यथा तत्रैव पूर्वदेशे केनरानियो विशेष पतेषामप्युत्पादकं कुर्वता के वृन्देन वा हिरड कव्य अनुशिष्टादीनि प्रयोक्तव्यानि । लिङ्गमितिपदं व्याक्यायते - पूजितमर्चितं पति तत्र विविधो भेदः कर्तव्यः किमुत देशे पानां मया पूजितं ते लिङ्गेन दचिणजातमुत्पादयन्ति या प्रज्ञापयति । द्वितीयपरे विणजातमपि न दद्यात् कथमिति १, आह कानगर, मुाणे च बोडियादीसु । सिवादी असई वा वचहारऽरिगा समया ॥ द्वितीयपदे वैद्ये मनाने या कालगते, देशस्य वा बोधिउसने अशवादी वा संजाते या सर्ववाला अर्थ वैद्य न दधाव व्यवहारे समुपस्थिते ते आरण्यकामा भवन्तीति सात् सर्वत्रापि सुव्रतीतं परं तथाप्येतनामचैरस्नानिविज्ञा गवारचं ततो लोको तिन शासनं पतिज्यो हिरण्यादि दातुम् । यत उक्तम्- "गृहस्थस्याऽन्नदानेन, वानप्रस्थस्य गोरसात् ॥ यतीनां च हिरण्येन, दाता स्वर्गे न न गच्छति ॥ १ ॥ एवं व्यवहारो लक्ष्यते । अथ कल्याणक पदं व्याख्यानयतिपणम्मिय पच्चितं दिजइ कल्लाएगं कुवएदं पि । बूढे पायच्छिते, पार्वती मंडल दो वि ।। भूते सति द्वयोरपि प्रतिकयोः कल्पाच देवमविशेपखोके, ग्लानस्य पञ्चा प्रतिचरकाणां त्वेककल्याणकं दातव्यम् | आदेशान्तरेण वा योरपि पञ्चमन्त ततो यूढे प्रायश्विशि भवानप्रतिचरकवर्गी भोजनादि प्रशिता । अथोपसंहरन्नाह अवतार सादने विक्षेप बनिया विहा इतो चालणदारं, वुच्छं संकामणं चुज ॥ प्रायोग्यपत्रिषया वैयविषया चैषा द्विविधा अनुष ना वर्णिता ॥ (३२) इत ऊर्द्ध चालनाद्वारं, संक्रामणाद्वारं च उभयतो म्लानवैद्यद्वय विषयं वहये त्रिज्जस्स व दव्त्रस्तव, अट्ठा इच्छंत होइ उक्स्लेवो । यो पुत्रदिडो, भारविड पुनरि ॥ Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए१) गिलाण अनिधानराजेन्यः । गिलाण वैद्यस्य वा व्यस्थ वा औषधादिलकणस्य असति यदि स्नान | गोः, परिहासहिताः स्त्रियः । सद्वीजं हि हित केत्रं, हितं सैन्य चिति प्रामान्तरं गन्तुं तदा तस्योरकेपश्चालमा कर्तव्या, यदि सनायकम्" ॥१॥ ततो नीत्वा ग्लानमन्यं प्रामं सर्वे प्रयत्नेन प्र. रात्रौ भन्यं भवति तदा पन्थाः पूर्वमेव इष्टः कर्तव्यः, प्रारक्षिका तिचरणं कर्तव्यमिति । गतं चालनाद्वारम् । स्य पूर्वमेव वयं रात्रौ ग्लानं गृहीत्वा गमिष्याम्रो भवता चौरा (३३) अथ संक्रमणाद्वारमाहविशया न गृहीतव्या इति णितिः कर्तव्या इति । सो निजई गिलाणो. अंतरसंमेलणाएँ संछोभो । अथास्या एव नियुक्तिगाथायाः पूर्वार्थ भावयति नेऊण अन्नगामं, मन्न पयत्तेण कायन्वं ॥ चउपाया हि तिगिच्छा, इह विजा नत्यि न विय दवाई।। एवमुक्षिप्य यं प्रामं स नागरग्लानो नीयते, ततो ग्रामादन्यो प्रमुगत्य प्रत्थि दोनि वि, जइ इच्छसि तत्थ बच्चामो ॥ ग्लानो नगरमानीयमानोऽस्ति, तेषामुनयेषामपि साधूनामन्तरा कापिकेचे वैध औषधानि वा न सन्ति, ततो ग्लानं प्रतिवरका अपान्तराले संमिलना, ततः परस्परं वन्दनं कृत्वा निराबाधं मवीरन्-चिकित्सा चतुष्पादा भवति, परमिह वैद्या न सन्ति, इष्टा वानयोः 'संछोभं' संक्रामणं कुर्वन्ति-नागरा ग्रामीणग्लानं, मापि च द्रव्याणि औषधादीनि अत्र सन्ति, अमुकत्र ग्रामे नगरे पाअपि वियेते, प्रतो यदि त्वमिच्छसि ततस्तत्र बजाम इति प्रामीणास्तु नागरग्लानमित्युक्तं भवति । नीत्वा चान्यं प्राम नगरं वा सर्व प्रयत्नेन प्रतिचरणमुभयैरपि कर्तव्यम् । खानः प्रतिभाणतः॥ किं पुनरमिधाय ते ग्लानसंक्रामणां कुर्वन्तीत्युच्यतेकि काहि मे विज्जो, नचाइअकारयं हं मऊं। जारिस दधे इच्छह, अम्हे मुत्तूण ताण लम्निहिह । तुम्भे वि किलेसेमि य, अभुगत्थमहं हरह खिप्पं ।। इयरे वि जयंतेवं, निवत्तिमो नेह अतरंतो॥ मार्य यदि नाम पत्र वैद्यो जवति ततः किं ममासौ करिष्य नागरा प्रामेयकान् यते-याचशानि तितकटुकादीनि व्या. ति, यतोजक्तादीनां न कारको ममेह विद्यते, तस्मिश्चाकारके णि सानार्थमिथ, तानि तादृशानि अस्मान् मुक्त्वा विना न युमानपि मुधैव परिवेशयामि, ततो माममुकत्र ग्रामे नगरे वा लप्स्यध्ये। इतरेऽपि ग्रामेयका नागरान् एवं भणन्ति-य्यमस्माकिममपहरत नयत, येन में तत्र भक्तादिकारकः स्यात, एवं निर्विना दुग्धादीनि न लप्स्यध्वे । ततस्ते द्वये अपि परस्परमभिहवाणोऽसौ प्रामान्तरं प्रति चालयितव्यः । दधति-यद्येवं ततो निवर्तामहे, यूयममुमतरन्तं ग्लानं नयत,वर्य चासनायामेव कारणान्तरमाह युध्मदीयं नयाम इति। साणुप्पगनिक्खहा, खीणे दुकाइयाण वा अट्ठा। एवं संक्रामाणं करवा तत्र च ग्रामे नगरे वा नीवा सर्वप्रयत्नेन अन्जितरेतरा पुण, गोरससिंजुदयपित्तट्ठा ॥ प्रतिचारणा विधेया,न पुनर्निर्मतयेत्थं चिन्तनीयं,भणनीयं वानागरं ग्लानं, सानुप्रगे प्रत्यूषवेनायां लज्यते या भिक्षा सा देवा हुऐ संपन्ना, जं मुक्का तस्स णं कयंतस्स । सानुप्रगभिवा, तदर्थ ग्राम नयन्ति. नगरे हि प्राय उत्सूरे सोहु अतिक्खरोमो, अहिगं वावारणासीलो ॥ निका लज्यते, तावीच बेला प्रतीकमानस्य ग्लानस्य कासा- तेणेव सीझ्या मो, एयस्स वि जीवियम्मि संदेहो । तिक्रान्तभोजिन्वेन जठराग्निमाद्यमुपजायते। अतः सानुप्रगे स. पारमेव भिका यद ग्रामे सभ्यते तदर्थ ग्लानो ग्राम नीयते। मगरे पणो विन एसऽम्हं, तं वि करिजा न व करज्जा। पुग्धादीनि पुर्लभजव्याणि कोणानि,अतस्तेषां समर्थाय प्राभ्य- हुरवधारणे,नूनं (णे) अस्माकं देवाः प्रसन्नाः,यद् मुक्ता वयं तस्तरा नगरवास्तव्यसाधवो बानमन्यत्र नयन्ति, इतरे पुनामी- स्मात्कृतान्तात् । गाथायां पञ्चम्यर्य षष्ठी । श्ह कृतान्तशब्देन कृतंपग्लानप्रतिचरकाः नानस्य गोरसेन,सिनः श्लेष्मा,तस्योदयो निष्पादितं बलपि कार्यमन्तं नयतीति व्युत्पत्या कृतघ्न उच्यते । माता, पित्तं चाक्षुभितमिति परिभाब्य तदुपशामकद्रव्या यद्वा-कृतान्तो यमः, तत्तुल्यत्वादसावपि कृतान्तः। अत एवाहसामुत्पादनार्थ ग्लानं नगरं नयन्ति । सहि अतितीक्ष्णरोषः पुनः पुना रोपणशीलो, दीर्घरोषी चेत्यअथ वा नागरग्लानचालनाचामिदं कारणम् थः । अधिकमत्यर्थ व्यापारणशीलः, कृताकृतेषु कार्येषु भूयो नियुड़े। यद्वा-तेनैव ग्लानेन सीदिताः खेदं प्रापिता वयमतो परिहीणं तं दध्वं, चमदिजंतं तु अभमन्नेहिं । अस्य कर्तुं न शक्नुमः। अथ वा-रतस्यापि जीवने संदेडः, ततः कालाइकते उय, वाहीपरिबहिश्रो तस्स ।। कि निरर्थकमात्मानं परिक्लेशयामः। प्रगुणीभूतोऽपि चैष नाअन्यान्यग्लानसङ्घाटकैः स्थापनाकुसेषु चमढमानं सत्परि. स्माकं प्रविष्यति,तदप्यन्यदीयस्य कुर्यादू वा,न बा, अतो वयमकीणं तद्रव्यं खानप्रायोग्यम्, अथवा वैद्येन ग्यानस्योपदिष्टम-स पिन कुर्महे । एवमादीनि ब्रुवाणानां तेषां निर्धाणामाचार्येण पारमेव भवता नोक्तव्यं, तदानी च नगरे न लभ्यते, इतस्तेन शिक्षा दातव्या, न तूपेक्षा विधेया। कालातिकान्ते ऽतरन्तस्य व्याधिः सुष्ठतरं परिवर्धितः । यत आहएवमादीनि कारणानि विज्ञाय ते परस्परं भणन्ति जो उ उवेहं कुजा, पायरियो केणई पमादेणं । उक्खिप्पिक गिलाणो, अन्नं गामं च तं तु नेहामो। पारोवणा न तस्सा, कायव्वा पुन्वनिद्दिट्ठा ।। नेऊण अन्नगाम, सच पयत्तेण कायव्वं ।। यस्तु यः पुनराचार्यः केनापि प्रमादेन प्रमत्तः सन्नुपेक्षां कुरिक्तप्यतां ग्लानो, यतस्तमन्यग्रामं नेष्याम श्त्येकवाक्यतया र्यात, तस्यारोपणा मिर्दिष्टा, कर्तव्याश्चत्वारो गुरव इत्यर्थः। निमित्य सवारमेव निर्गन्तव्यं, यतः प्रत्यूषसि शीतलायां बेक्षा (३४) अय चेयमारोपणागां नीयमानो ग्लानो न परिताप्यते।कि-"प्रत्यूषसिदिता मा. नवेहपीतियपरिता-वणमहयमुच्छकिच्छकालगए । Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (003) अभिधानराजेन्द्रः | गिलाण चचारि च लड़ गुरु ओो मूलं तह दुगं च ॥ यो ग्लानस्योपेां करोति तस्य चन्यागे गुरुकाः, उपेक्षायां कृतायां यद्यप्रीतिकं ग्लानस्य जायते ततोऽपि चत्वारो गुरवः, अनागारिताले घु, भाइपरितापे बरु महा सम स्थाप्यं कालगते पाराञ्चिकम् । हवेोभासण परितापममुच्छाल गए । चचारि यस गुरु, श्रो मूलं वह दुगं च ॥ पेयांस ग्लानः स्वयमेव गत्वा गृहस्थानवापते चत्वा रो लघवः, तस्य तत्र गच्छतः शीतवातातपैः परिश्रमेण बाडनामाढपरितापनानि जायन्ते ततः प्रध सममन्सरा धोनीत्या रूष्टव्यम् । उवेहोजाणवणा-परितावण महयमुच्छ किच्छकालगए । लडु गुरु, बेदो मूत दुगं च ॥ चचारि · उपेक्कायां ग्लानो नक्तपानमौषधं वा भवनापणेनोत्पाद्य स्थापबति नदिने दिने पर्यटनं तायारो गुरवः सेन परिपाखितेन शीतस्थाद नागापरितापनादीन्युपजायते प्रा. यश्चित्तयोजना प्राम्यत् । उवेहोजासण करणे, परितावणमयमुच्छ किच्छ कालगए । चत्तारि बच्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह डुगं च ॥ पेयां यदि भाष्य स्वयमेीचधाकरोति गृह स्थैव कारयति, तदा चत्वारो गुरवः स्वयं कुर्धतः चिकित्साधनादस्थैर्या कारयतोऽगागाढ परितापादीनि भवन्ति । शेषं प्राग्वत् । बेहास ओहाणे, सलिंग पटिसेवां निवारिते । गुरुगा अनिवारिते, चरिमं मूर्त व जे जत्य ॥ अतिजागतो लानो यदि निर्देदेन वैहायसं मरणमभ्युप गच्छति, ततस्तेषां समतिजागरकाणां चरमं पाराकिम अथा यथावनं करोति ततो स्पस्थित प्रति सेवन करोति । यदि तथा प्रातमानं वारयति तदा चतुर्गुरुकाः, अथ न निवारयति ततो यद्यत्राप्राशु श्रमेषणीयं वा गृह्यमाणे प्रायश्चित्तं तत्तत्र प्राप्नोति । अथ निर्धमी येषु स्थानेषु ग्लानं त्यजेत म्याद संविमागीरथा, संविग्गा खड्ड तबडगीपस्था । संविग्गमसंविग्गा, नवरं पु ते गीयत्या || संविग्ग संजय गीपत्या खलु तदेवगीयत्या | संविग्गमसंविग्गा, नवरं पुरण ता असंविग्गा || संयताश्चतुर्द्धा संविग्ता गीतार्थाः १ संविग्ना श्रगीतार्थाः २ संविग्ना गीतार्थाः ३ श्रसंविग्ना अगीतार्थाश्चेति ४ । संय त्योऽपि चतुर्विधाः संविग्ना गोतार्थाः १ संचिन्नागतार्थः २] प्रसंविग्ना गीतार्थाः ३ श्रसंविग्ना श्रगीतार्थाः ४ । तेभ्य स्थानेषु खानं परित्यजतः प्रायश्चित्तमाहघरो बहुगा गुरुगा, छम्पासा होति सदुग गुरुगा य । दो मूलं च तद्दा, पोय पारंची ॥ गिलाण द्वितीये - प्रथमे स्थाने ग्लानं परित्यजति चत्वारो लघुका खारो गुरुकाः, तृतीये बरामासा लघवः, चतुर्थे बरामासा गुरधः, पञ्चमं छेदः, षष्ठे मूलम, सप्तमे अनवस्थाप्यम् । श्रष्टमे पारा चिकं भवति । यदि वा संविग्ग नीयवासी, कुसील प्रसन्न तह य पासत्या । संसत्ता विटाया, अदा चेव अट्टमगा || संविग्नाः १ नित्यवासिनः २ कुशीलाः ३ श्रयन्नाः ४ पावस्थाः ए संसक्ताः ६ विटकाः ७ यथाच्छन्दाश्चैव श्रष्टमाः । पतेषु परित्यजतो यथासंख्यमिदं प्रायश्चित्तम्चहरो बनुगा गुरुगा, उम्यासा होति सहुत गुरुगाय । वेदो मूलं च ता अप्पो व पारंची ॥ चत्वारो लघुकाः १ चत्वारो गुरुकाः २ परामासा लघुकाः ३ मासा गुरुकाः ४ दो ५ मूलं च ६, तथा अनवस्थाप्यञ्च ७ पाकि अथ वा सचिग्गा सिज्जातर, सावग तह दंसणे अहानदे | दाणे सही वह परतिस्थिन परतित्यमा चैव ॥ संविग्नाः प्रतीताः । शय्यातरः प्रतिश्रयदाता | धावको-ग्रीतापुव्रतः ३। दर्शनसंपन्नः - श्रविरतसम्यग्दृष्टिः ४॥ यथाभरूकःशासने बहुमानवान् ५ | दानश्राद्धिको दानरुचिः ६ । परतीचिका-शादिपुरुषः परर्थिकादिपापनि ८ तेषु परित्यजतो यथाक्रममेदं प्रायश्चिद चरो लहुगा गुरुगा, उम्मासा होति लहुग गुरुगा य । दो मूलं च तद्दा, अणवट्टप्पो य पारंची ॥ उता गाथा । अथ क्षेत्रः प्रायश्चित्तमाद उवस्य निवेता सा ही गाममय गामदारे प । उज्जाणे सीमाए, सीमामा ॥ चउरो लहुगा गुरुगा, छम्मासा होति सदुग गुरुगा य । बेदो मूलं चता, अप्पो व पारंची ॥ केशान्तरं संक्रामितुमुपाधये म्लानं परित्यश्च यदि गच्छति तदा चत्वारो लघुकाः, उपाश्रयानिष्काश्य निवेशितं यावदानीय परिहरति चत्वारो गुरुकाः, साहिकायां परमासा लघवः । प्राममध्ये परामासा गुरवः । ग्रामद्वारे छेदः, उद्याने मूलम् प्रा मसीमनि परिष्ठापयति अनवस्थाप्यम्, स्वप्रामसीमानमतिक्राम्य परित्यजन् पाराचिक इति । यत एवमतो न परित्यजनीयः । " कियन्तं पुनः कामवश्यं प्रतिचरणीयः ?; उच्यतेउम्मासे परिभो, गिलाण परिवहई पपचेणं । जाहे न संथरेज्जा, कुलस्स न निवेदणं कुज्जा | येन स नानः प्रब्राजितो यस्य चोपसम्पदं प्रतिपन्नः स द्याचार्यः पौरूषीप्रमादमपि परित्य प्रयत्नेन परमासान् खानं परिवर्त्तयति प्रतिचरति । यदा पदस्वपि मासेषु पूर्वेषु स ग्ला Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८ ) गिलाण प्रनिधानराजेन्द्रः। गिलाण मोन संस्तरेत प्रगुणीभवेत् । यदा-श्राचार्य एव स्वयमन्याभि- मह वा वि सो जणेजा, बडेउ ममं तु गच्छहा तुन्भे। मणचिन्ताभिन संस्तरेत, ततः कुलस्य निवेदनं कुर्यात्, कुलस होउ त्ति भणिऍ गुरुगा, प्रणमन्ना आवई विइया॥ मयायं कृत्वा तस्य समर्पयेदित्यर्थः। अथ या स सानो भणेत्-मां नईयित्वा यूयं गच्चता एवमुक्त यदि ततः कोऽपि माधुजवत्वेवमिति भणति तदा तस्य चत्वारो गुरुकाः। संबराणि तिनि य, कुलं पिपरियहई पयत्तेणं। इयं प्रकारान्तरेणान्या द्वितीया प्रापदुरुयते । जाहे न संथरिजा, गणस्स न निवेदणं कुज्जा । तामेबाहश्रीन् संवत्सरान् कुसमपि प्रायोग्यभक्तपानौषधादिभिः प्रयत्नेन पच्चंतमिलिक्वेसुं, वोहियतेणेसु वा वि पहिए । परिवर्तयति,ततत्रिषु न यदा स संस्तरेत् तदा गणस्य निवेद- । जणवयदेसविणामे, नगरावणासे य घोरम्मि । मं कुर्यात् । बंधनाविप्पोगे, भमाएँऽपुत्ते वि बट्टमाणम्मि। तत: तह वि गिन्नाण मुविहिया, वच्चंति वहंतगा साहू ॥ संवच्छरं गणो वा, गिलाण परियट्टई पयत्तेणं । प्रत्यन्ताः प्रत्यन्तदेशवासिनो ये मनेगास्तेषु,तथा योधिकस्तेना जाहे न संथरिज्जा, संघस्स निवेयणं कुज्जा ।। नाम ये मानुषाणि हरन्ति, नेषु सत्सु, यो जनपदस्य, देशस्य एक संवत्सरं यावत् गणोऽपि ग्लानं महता प्रयलेन परिवर्त वा तदेकदेशभूतस्य विनाशो विध्वंसस्तस्मिन् , तथा नगरयति,ततो यदा न संस्तरेत ततः सङ्कस्य निवेदनं कुर्यात्, ततः विनाशे च, घोरे रौद्रे उपस्थिते, बन्धुजनानां स्वातिलोकानां सक्यो यावज्जीवं तं सर्वप्रयत्नेन परिवर्तयति। मरणभयात्पसायमानानां यः परस्परं विप्रयोगस्तस्मिन्, कथं भूते-अमातापुत्रे स्वस्थ जीवितरवणाणिकतया यत्र माता पुत्रं गाधात्रयोक्तमर्थमेकगायायां संगृह्य प्रतिपादयति म स्मरति,पुत्रोऽपि मातरं न स्मरति,तस्मिन्नपिवतेमाने,ये सुछम्मासे श्रायरिओ, कुलं तु संवच्छराई तिमि भने । विहिताः शोभनविहितानुष्ठानास्ते, तथाऽपि ग्लान बहन्तो . संवच्चरं गणा वी, जावजीवा य संघो उ ।। जन्ति, न पुनः परित्यजन्ति ।। ध्याख्यातार्था । एतका यो भक्तविवेक कर्तुं न शक्नोति तमुद्दिश्य ततोऽसौ ग्लानः प्राहद्रष्टव्यम् । यस्तु भक्तविवेकं कर्तुं शक्नोति तेनाष्टादश मासान् तारेह ताव नंते ! , अप्पाणं किं मएनयं वहह । पावत् प्रथमतश्चिकित्सा कारयितन्या, विरतिसहितस्य जी- एगालंवणदोते-ण मा दु सव्वे विणस्तिहिह ।। वितस्य पुनः संसारे पुरापत्वात् । ततः परं यदिन प्रगुणीभवति तारयत ताबद्भदन्त! यूयमात्मानमस्मादपारादापापारावारात, ततो भक्तविवेकः कर्तव्य इति । भागाढे कारणजाते सति कि मामृतमिव मृतम् अद्यश्वीनमृत्युसंभवतया शबप्रायं बहत, वैयावृत्यं कुर्यादपि, परित्यजेद्धा म्यानम । अपि या मदीयमेव यदेकमालम्बनं तदेव बहनो विनाशकारण(३५) किं पुनस्तत्कारणजातमिति !, उच्यते तया दोषस्तेन मा यूयं सर्वे विनयथ। असिवे ओमोयरिए, रायडुट्टे भए व गेलने। एवं च जणियमेत्ते, पायरिया नाणचरणसंपन्ना। एएहि कारणेहिं, अहवा वि कुसे गणे संघे ।। . अचवा मणनिय हितयं, संताणकरिं वश्मुदाही । प्रशिये, अवमादयें, राजद्दिष्टे, भये वा शरीरस्तनसमुत्थे, एवं च ग्लाने भणितमात्रे सति प्राचार्या ज्ञानचरणसम्पन्नाः, (गेलो त्ति) सर्वो वा गच्छो ग्लानीनूनः कस्य का प्रतिचरणं संविनगीतार्था इति नायः। प्रचपलामत्वरितां, स्वराकारपस्य करोती पतैः कारणैरथवा कुलस्य गणस्य सवस्य पा समर्पिते मरणभायस्याऽजावात,अनलीका सत्यां ज्ञातसारत्वात,हिसामग्लाने स्वयं कुर्यन्नपि शुद्धः। परित्यजने स्वियं यतना-अशिवे नुकूमां,परिणामसुन्दरस्वात, संत्राणकरीम प्रार्तजनपरित्राणकासमुत्पने देशान्तरं क्रामन् ग्लानमन्येषां प्रतिबन्धस्थितानां । रिणी, याचं समुदाहतवन्तः। साधूनां समर्पयति तेषामनावे शय्यातरादीनां समीपे, साधर्मि कथमिति ?, पाहकस्थलीषु वा,देवकुखेषु वा निकिपति । एपमेवावमौदर्थभये च सव्वजगज्जीवाहियं, साहुं न जहायों एस धम्मो णे । द्रष्टव्यम् । राजद्विष्टे योकस्य गच्छस्थ प्रद्वेषमापनो राजा ततीऽस्य साधूनां समययति । अथ सर्वेषामपि प्रद्विएस्ततः भाव अति य जहामो साई, जीवियमित्तण किं अम्हं॥ कादिषु निक्षिप्य बजति । सर्वस्मिन् जगति ये जीवास्त्रमस्थावरभेदभिन्नास्तेषामभय दायकतया हितं सर्वजगजीवहितं साधं न जहामो न परित्यउत्सर्गतः पुनरेतैरपि कारणैर्निविपति। किंतु स्कन्धे त्यस्य जामः, एपोऽस्माकं धर्मः सामाचारी,यदि च साधु प्रजहामस्ततः __ वहन्तीति ! प्राह च किमस्माकं जीवितमात्रेण सदाचारजीवितविकलेन बहिः प्रा. एएहि कारणोहि, तह विवईतीन चेव बद्विति। णधारणमात्रेण, प्रयोजनं, न किञ्चिदित्यर्थः। असहिद्वा न चयंती, उवगरणं नेवगिनाणं॥ तं वयणं हियमधुरं, पासासंकुरसमुन्न सयणो । पतः कारणैयद्यपि ग्लानो नितिप्तं कल्पते, तथापि वदन्ति, नैव | समणवरगंधहत्थी, वेइ गिलाणं परिवहंतो॥ तदेयंविधं वचनं हितं परिणामपथ्यं, मधुरं श्रोत्रमनसां प्रहापरित्यजन्ति । अथासहिष्णवो वा बोदुमसमर्थाः,तत उपकरणं दकं,तथा आश्वास एवारःप्ररोहस्तस्य समुद्भव उत्पत्तिर्यस्मात परित्यजन्ति, नैव ग्लानम् । तदाश्यासाडुरसमुद्भवमानस्याश्वासप्ररोहर्वाजमिति भावः। २२४ Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिलाण स्वजन व स्वजनः स श्राचार्यः श्रमणवरगन्धहस्ती, यथा गज कलानां यूथाधिपत्यपदमुदमानो गिरिकन्दरादिवदुर्गे स्वपि पतितो न परित्यागं करोति, एवमयमपि गणधर पदमनुपालयन् विषमदशायामपि श्रमणवरान परित्यजतीति श्रमपावरन्यस्तीत्युच्यते सा परिवहन परिवर्तय मनन्तरोकं ब्रवीति । तत इत्थं तदीयवचनं श्रुत्वा समीपवर्तिनामगारिणामित्थं स्थिरीकरणमुपजायते ज संजय जसो ददमित्तिचं महुतकारितं । जड् वंभं जइ सोयं, एएसु परं न अन्नसुं ॥ यदि मंथमः पञ्चाथविरमणादिरूपो पदि तपोऽनशनादिरूपंीक निलसह पचोककारित्वं भगवदाकाराधकत्वं यदि ब्रह्म श्रष्टादशभेदभिन्नं ब्रह्मचर्य, यदि शौचं निरुपलेपना-सद्भावसारता, एतानि यदि परमेतेष्वेव साधुषु प्राध्यन्ते नाम्येषु शाक्यादिपरतीर्थ केषु तेषामेवंविधस्या मप्रतिचरतविधेरद्विष (028) अभिधानराजेन्ड 1 मो न परित्यक्ताय इत्युक्तम् । अथास्यन्तिके भये तमपरित्यजतां यदि सर्वेषामपि विनाश उपढाकते, ततः को विधिरिति ?, आह चागाढे व सिया, निक्खित्तो जइ वि होज्ज जयणाए । न विदोएह नि पम्मो. रिजुभावविचारिणा जयं ॥ अत्यागाढे अत्यन्तम्लेच्छ्रादिभये, वाशब्दः पातनायाम, सा प्रागेव कुना, स्पात् कदाचित या रामदेवच सानो नमो भवेत् तथापि द्वयोरपि ग्लानप्रतिपरकयो मन्तव्यः । कुत इत्याह-येन कारणेन द्वापितो कुटिलो मोके पनि यो भावः परिणामस्तत्र विव रितुं शीलमनोरितिमाधिधारिणी। ततश्ध पतो जसोय निलो, मिच्छत्त विराहणा य परिहरिया । साम्य उपसंते तं विमति ॥ तैराचायैः साधुभिश्च तादृशेऽपि नये सहसैव नानमपरित्यज विपुलं दिग्विदिक्प्रचारि यशः प्राप्तं तथा मिच्या परि त्यागसमुत्थमन्येषां तस्य वा मिथ्यादर्शनगमनं तत्परिहृतं वि राधना व मानस्य सहायविरहितस्य संयमात्मविषया, सा परिता साधर्मिकरानुभव या हत्यागाद्धं नयमुपशान्तं भवति तदा वानं मार्गेपन्त, शोध यन्तीत्यर्थः। गतं स्यानद्वारम् । वृ०२३०। (निर्ग्रन्ध्या निर्मन्थेन वा पिकच परिनीति शब्दे नियुपाये निर्धन्यस्य गमने चिकित्सा 'स' शब्देवताचार्यस्या ' परिय' शब्द द्वितीयभागे ३१८ पृष्ठ उक्ता । ग्लानार्थेषु प्रत्र'पद' शप 4 कुल निक्स गिलास, भगिलाए समाहिए (२०) भिक्षणशीला जितुर्खानस्यापदोरपरस्य निकोवैयावृत्यादि कं कुर्यात् कथं कुर्यादेतदेव विशिनष्टि पाशा समाहितः समाधि प्राप्त यथा यथाऽऽत्मनः समाधिरुत्पद्यते तथा पिएमपात धेयमिति । सूत्र० १ ० ३ ० ३ उ० । जना भ (२६ नार्थमा जिक्खागा पायेंगे एवमा समान वा बसमा वा गामा गामं दूइज्माणे वा मणुखं जागणजायं झजित्ता से भिक्खु गिलाइ से इंदरसाहर से निव यो जुजेज्जा, तुमं चेत्र णं जुंजेज्जाति, से एगतितो जोक्खामि त्तिकहु लिडंचिय पलिउंचिय आस एज्जा । त जहाइमे पिंमे इमे लोए इमे तित्तए इमे ककुए इमे कसाए मे अविले इमे महुरे को खलु एतो किंचि मिलाएस्स सदति त्ति माइहाणं संफासे, गो एवं करेज्जा, तदेव तं अलोएज्जा जहा त्रितं गिलाणस्स सदति तं तित्तियं तित्तए त्ति वा कडुयं कमयं कसायं कसायं मंत्रिलं त्रिनं महुरं महुरं । शिक्खागा खायेंगे एमासु-समाये वा बसमा वा गामागामं दूइज्माणे व मनुष्यं भोयणजातं नजित्ता से य जि गिलाय गिलाड़ से इंदर तस्सादरह से य भिक्वूणो हुंजेग्ना आहारेज्जासि णं, णो खलु इमे अंतराए ग्राहरिस्सामि इसेवा आपनाई वातिक्रम्प माझ्हाणं परिहरिष गिबाणस्वदिसा मारेला वा । 9 " भिक्खागा णामेगे " इत्यादि । निकामदन्ति भिताटाः, मिक्षणशीलाः साधव इत्यर्थः । नामशब्दः संजावनायां वक्ष्यमाणमेघां संजायते । एके केचन एवमाहुः साधुसमीपमागत्य वक्ष्यमाणमुक्तवन्नः तव साधवः समाना या सांभोगका भवेयुः, वाशब्दाद सांभोगिका वा । तेऽपि वसन्तो वास्तव्याः अज्ञाता वा ग्रामादेः समागना भवेयुः । मेषु कतिपनि नमान सत्ते तान सांजोगकादींस्ते भिक्षाटा: मनोइजोजनलाभे सस्येमाहुरिति संबध स इति एतन्ममहारजा " इंदह " गृडीत यूयम्' ' इति वाक्यालंकारे । तस्य वानस्याऽऽहरत नयत तस्मै प्रयच्छत इत्यर्थः । यानश मुझे ग्राहक पापीयते रथमेव मुश्येति स मिर्मिकस्तातू ग्लानाथै गृहीत्वाऽऽहारं तत्राभ्युपयन्नः सन्नेक एवाई भोक्ष्य इति कृत्वा तस्य ग्लानस्य (पलिउंचिय पलिजांचय त्ति ) म. नो २ गोपित्वा वातादिरोणमुद्दिश्य तस्यालोकयेत् दर्शयेद्, यथा अपथ्योऽयं विषममिति बुद्धि तो डोकिया वत्ययं पिण्डो भवदर्थे साधुना दत्तः, किं त्वयं ( सोए त ) कहा, तथा तिका, कटुकषायोऽसो मधुरो स्वादिष त्यान्नातः किञ्चित् ग्लानस्य सदतीति उपकारेण वर्त्तत इत्यर्थः। - मातृस्थानं संस्पृशे चैतनकुनेयथा च कुर्या यति तथाऽयास्यतमेव महानयास्थि मिति । एतदुकं भवति-मातृस्थानपरित्यागेन यथास्थित मेदिति शेषं सुगम तथा "माया" मिकाटा साधो मनोमादा समय वास्तव्यान् प्राधू | कान् वा ग्लानमुद्दिश्यैवमूचुः एतग्मनोज्ञमाहारजातं गृह्णीत यूयं ग्लानाय नयत, स चेत् न लुङ्क्ते, ततोऽस्मदन्तिकमेव ज्ञानार्थमादनपेत्य यथान् रायमन्तरेणाऽऽहरिष्यामीति प्रतिज्ञायाऽऽहारमादाय लागान्ति कं गत्वा प्राक्तनान् भक्तादिदोषानुदूघाट्य ग्लानायादन्या स्वत पीपाद या ततस्तस्य साधोनिवेदयति Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिलाण मम शूलं वैयावृत्यकाल पर्याप्त्यादिकमन्तरायिकमभूदतोऽहं तत् ग्लानकं गृहीत्वा नायात इत्यादि मातृस्थानं संस्पृशेदेतद्दशाह स्पेतानि पूर्वोकान्यायतनानि कर्मोपादानस्थानानि उपातिकम्प सम्यक् परिहृत्य मातृकापरिहारेण ग्लानाथ बा दद्यात् दातृसाधूसमीपं वाऽऽहरेदिति । श्राचा० २४० १ अ० ११ उ० । (निर्मन्थानां निर्मन्थानां च ग्लाम्ये मिथो वैयावृत्यं 'वेयावच्च ' शब्द प विषयसूची (१) प्रति गम् (२) ग्लानद्वारे कुत्र कुत्र ग्लानान्वेषणं कर्तव्यमितिविरूपणम् । (३) ग्लानत्वप्रतिबरुद्वारसंग्रहः । (४) शुकद्वारे ग्लामसमीपगमनोपचारादयः । (५) ज्ञानस्थोपचाराकरणे प्रायश्चितम् । (६) नवेत्येकीशस्य साधोर्नियोजनम् । (७) विपरीतकरणे दोषाः । (८) द्वारे प्रति निर्धारित वैयात्यकरणमा (ए) सूमार्थपीसीध्रविधिः। (१०)संगरणाभावेऽधिः । (04) श्रभिधानराजेन्द्रः । प्ररूपष्यम् । (११) इच्छाकारद्वारे महर्द्धिकदृष्टान्तः । (१२) द्वारे प्रति स्थविरोक्तिः । (१३) मादेन लगाकर (१४) अपानद्वारेऽमानप्रिय प्रायवितम् । (१५) सुधद्वारे वैयावृत्यमिषेण मनोज्ञभोजनाभिलाषुकगमने जनपददर्शनम्। (१६) त्रादिकमपि प्रयति । (१७)साम (१८) अनुवर्तनाद्वारे ज्ञानवैद्ययोरनुवर्तनाविस्तरः । (१६) वैद्यनाथ प्रस्तावना, कथं न प्रश्नश्च । (२०) पशुपति रोगे दर्शनं । (२१) वैद्यसमीपं गच्छतां विधिः प्राभृतिका प्ररूपणं च । (२२) मनद्वारे रास्य पुरुषस्य बेद्यसमीप प्रेपणं कर्त व्यमितिप्ररूपणम् । ( २३ ) ये न प्रेषणीयास्तेषां निरूपणम् । (२४) कुलद्वारे समीपे गच्छतः कुनाशकुन विचाराः । (२५) वैद्य प्राशस्य शकुनाकुनाचाराः । (२६) संगारद्वारे वैद्यसमीपं प्रस्थितस्य साधोर्येषां सानधिरावश्यकी तेषां निरूपणम्, वैद्यसमीपे यत्कथनीयं तन्निरूपणं च । ( 29 ) वैद्यस्य उपदेशाद्वारे अन्यत्रकालभाव रूपेण नानानुवर्तना । (२८) वैद्योपरि हैः साधुभितुलना कर्तव्या । (२६) प्रतिश्रयमागतस्य वैद्यस्य यो विधिः कर्तव्यस्तत्र द्वारसंग्रहः । (३०) नरूकद्वारे वैद्यग्लानयोरनुवर्तनायां विस्तरः । गिहगसपण (३१) भूतिद्वाराsहारद्वारयोः स्वीयान्यद । यद्माभस्थयेो धर्मकथाssदियतना | (३२) चालनाद्वारे ग्लानचालनायां कारणानि । (३३) संक्रामणाद्वारे नागरामी नागयोग संड्रोम (३४) ग्लानस्योपेक्कायां त्यागे च प्रायश्चित्तं. कियन्तं कालं पुनः प्रतिचरणीयो स्लान इत्यादिनिरूपणम् । (३५) यैः कारणैग्लीनस्य त्यागस्तेषां निरूपणम् । (३६) मानार्थपणाबचता । गिलाणभत्त-खाननक्त- न० । ग्लानस्य नीरोगतार्थे निकुकदानाय यत् कृतं भक्तं तद् ग्लाननक्तम् । भ० ५० ६ उ० लानः सन्नारोग्याय यद्ददाति तत् । श्रौ० नानो रोगोपशान्तये यद्दाति, ग्लानेभ्यो या यहीयते । स्था०६ ठा० । ग्लानस्य रोगोपशमगार्यमारोग्यशालायां महानस्य वा दीयमाने प्रत. नि०यू०६४० गिलाणवेयात्रच्च-ग्लानवैयावृत्य - न० [ न० 1 ग्लानस्य प्रक्तपानादिपिष्टम् भ० "कुमा भिक्यू गिलाqस्स अपिलार समाहिए"। सूत्र० १० ११ अ० । ६० । " विलापि ग्लानि खीमे विशे० मा स्था ठा० १ उ० । सूत्र० । गिलायमा येण लायन'' पनि ४० पनि अभिभूयमाने स्पा० ३ ०३३० निमुपपचे ०२ परिहारकल्पस्थितस्य ग्लानस्य परिहार ' शब्दे प्रतिपत्तिः ) गिलास (ए) स्वासन पुं० नमके व्याची सच बात सोत्कटतया श्लेष्मन्यूनतया जायते । श्राचा० १०६ भ० १ ३० गिलिय - गिलित त्रि० । प्रहिते, भहिते च । वाच० श्राय० । गिनि गिनि - स्त्री० । मानुषं गिनतीय गिल्लिः । हस्तिन उपरि कोररूपेऽर्थे भनु० । शा० भ० जी० रा० । पुरुषद्वयो कायाम् २०२० पुरुषपरिस दोलिकायां वा । दशा० ६ ० ॥ जं० ॥ गिव्वाण - गीर्वाण - पुं० । इन्द्रयमकुबेरादिषु देवेषु श्र० प्र० प्र० गिद्द -गृह- न० । प्रासादे, ध० २ अधि० । गृहाणि प्रासादास्ते त्रिविधाः खाता उद्धता उजयरूपाश्च । दश० ६ ० | सकुट्टिमं गृहम, कुट्टीमा शाला । नि० चू० ११ उ० । श्रावसथे, सूत्र० १ श्रु० १० अ० । अगारे, सूत्र० १ २०२ श्र० । “गिटगढ़णेण वा ' सम्यं घरं घेप्पति ३० विहिवा ०३० काति शब्देये च "गि दीपा गृहेदी जयदीपं श्रुतज्ञानमपश्यन्त इति वृत्तिः । सूत्र० १० एच० । जवनभेदे, जी० ३ प्रति० । 3 गिरंतर गृहारन० स्योम्सले ०३ ८० गिड़ंतरणिसिज्जा - गृहान्तर्निषद्या स्त्री० । गृहस्यान्तर्मध्ये गृहयोर्षा मध्ये निषद्या चाऽऽसनम् । सूत्र० १ ० १ ० - हस्य गृहयोर्वा अपान्तराले उपवेशने, दश० ३ अ० 'गोपराप विट्ठस्स, णिसिजा जस्स कप्पर" । दश० ६ श्र० । गम गमन-२० निमगमने ३०२०। - 4 Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ०१६) अभिधानराजेन्द्रः । गिहत्य गिस्य गृहस्थ हमारे वितीति गृहस्थ सूत्र०२ भु० १ ० । प्रगारिणि, पञ्चा० ७ चिवट "ब्रह्मचारी गृहस्थका वानप्रस्थो यतिस्तथा" द्वितीयाश्रमिनि नि०० १४० ० ० १ ० ० यासा व्यापारे, दर्श० । गृहस्थनाव पत्र श्रेयान् । पं० ० १ द्वार । घ० । भवधावित्वा गृहस्थो नवेद । व्य० १ ० । (तत्र कर्त्तव्यम् तृतीया १३० पृष्ठे कम ) रे गृहलिने निष्ठतीति गृहस्थः । पश्चात्कृतभेदे, व्य० ४ ३० । " असिहो ससिहो य गिरथो, रयहरबाबाड होइ सारूची " । म्य० ४ उ० । गृहस्थः पश्चात्कृतो द्विविधोऽशिखः सशिखश्चयः केशान् धारयति ससचिः पस्तु मुरायमेन सिद्धति सोऽशिको नयति रजोडरणधर्ज. रजोहर दण्डकपात्रादीनामुपलक्षणम्, ततोऽयमर्थः यः शिरसो मुरामनमा कारयतिन रजोहरदयमकपाचादिक धरते सो ऽशित इति । व्य० ४ उ० । गित्पणिक्लेग - गृहस्थनिक्षेपक पुं० एहस्याधिक्षिपति, यथा अमुकोss नियुज्यताम् । नि० यू० १५ उ० । गिहत्यभाव - गृहस्थजात्र- पुं० । गृहस्थत्वे, पञ्चा० १० वि० । गित्वनासा - गृहस्वभाषा श्री० मर्मोद्घाटनशापादानकारमकारादिवचने, ग० ३ अधि० । गृहस्थानां भाषा: "मम्मा आई बाप जाई" इत्यादिकायां भाषायाम, गृहस्थैः सह साथधनाषायां वा "तं गच् गच्छवर, गिहत्थनासा उ नो जत्थ " ग० ३ अधि० । गित्यमुंड - गृहस्य मुएम-५० सुरेश मुने ०४० सिगृ० गृहस्थस्य प्रदायकस्य संघबि सं विकृत्यादिन्येोपकरोटिकादिमाजनंत गृहस्थसंसृष्टम् । गृहिणोपलिप्ते भाजने, पञ्चा०५ विव० विकृ दिवेोपलिप्रदायकस्य संबन्धिकरोड घ० २ अधि० ततोऽन्यत्र विकृत प्रत्यक्यायते विकृत्यादिसंसृष्टभाजनेन दीयमानं भक्तमकल्प्यन्यावयवमिश्रं भवति न तद्भुज्जानस्याऽपि भङ्ग इति भावः । पञ्चा० ५ विव० | गृह रोदनादिमियदिना स्वप्रयोजनाय प्रिय०४ धार। घचाघ० । I घरधूमोहकज्जे, दहु किडिने य कच्छु परधूमम्मि शिबंध जाति अपगाडा द प्रसिद्धं, किनिभं जंघासु कालाभं रसियं वहति, कच्छुः पा मागतादिवादुम्मति, परधूमे सुत्तदिबंधा गिवत्थ या तो खातिगढ़ थालो असे व रोगा सुटता सु सहाताणि भवउत्थिरण गरदावेनस्स एतदेव पच्चिसे, अि जासु वि रोगेसु किरिया कायया। तित्थिणं, अह वा गारत्थिरण सामावे | सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ||२५|| हत्थे अपावेतो, पीढादिफले जिए सकायं वा । तं डविराधण कए, अहि उंदुर पच्छकम्मे वा ॥ २६६ ॥ यत् गार उमेदोसा (त्येव गाड़ा भूमिहितो हत्या पातो वादिफलं तु तत्यारो मेरातिमि फलेपितोनियाजिए जिसका या इत्यादि विराखा, मंडगाणि या दिराखा कणयं पडेज्जा, अहि चंदुरेण या खज्जेजा, भारत्या विवाद पाकम्मं करेज्जा तम्हा ण तेहिं गेरहावे, अप्यणा चैव ! पुत्रपढिसामितस्सा, गवेणा पढमताएँ कातव्त्रा । कम्मति तागारत्थि एण अथवा विभतित्वीणं । परिसामण कार्ड जे घूमे जता व साहुस्स ॥ २७६ ॥ (कप्पति साग) वारत्वमपि घरधूमं सामावेडं कप्पति ॥ नि० ० १ ४० । गिहमेहि-गृहमेधिन्- पुं० । गृहस्थे, " या गतिः क्लेशदग्धानां गृहेषु गृहमेधिनाम्। बिभ्रतां पुत्रदारांस्तु तां गतिं व्रज पुत्रक ! " ॥ १ ॥ सूत्र० १ ० २ ० १ उ० । गिलिंग सिट - गृहलिङ्गसिद्ध-पुं० । मरुदेषीप्रभृतिषु गृहवि विद्यमान एव सिकेषु स० । प्रज्ञा० ॥ नं० । गिलिंगी-गृहलिनि० निजामतिप्रभृतिषु । गिहव-गृहपति-पुं० [माएमालिके राजनि २०१६ ०२४० । गिल्यसार-गृहस्थसार गृहियां सार एवं सार सर्वस्वार्थसाधकत्वात् भावय पञ्चचिय मेव येते ि गिनुवारकाना चू० ३ उ० । गिधूम - गृहधूम - पुं० । गृहस्थे धूमे, मि० चू० । 1 जे जिगिपूर्व अन्नछत्रा या गारत्विरण वा गिश्च गृहवर्चसून हस्य समन्ततः स्थाने "शिव परिसामावेइ, परिसार्टतं वा साइज्जइ ॥ ५६ ॥ (जे निक्यू परधूममित्यादि) भाषादि मास से पेरता, परोहड वा वि जत्थ वा वयं "। निब्यू० ३ उ० ल० ! विछा-गृत्स० तेस्तैमा दुवचनैरामानं गृहस्थस्य रोचयति, पृ० १ ० । नित्य-गृह-परिदिते चले नि०यू०१२४०४०० परमं स घेण्यांत निक्खु च परिहेर परिहंतं वा साइनइ ॥ १५॥ गिविधं पाक्षिदारयं भुज्जंतस्थ चडल आयादिया दोसा । गतादी । ||२४।। परिसादितामति, तो पच्छा अप्पणा सामे ||२७| जति पुत्र परिसाडियं ण लग्भति तेण पच्छा भव्यणा साडेति, जयणाप, जदा पुन्वभणिया दोसा ण भवंति । कारणे पुण हिंसामायेोतिवितियपदेहोस भइदा सिह परोवण अनेजा । अपना विसम्नमाण होना दोम्भवो कोई ||२६| अप्पा असदूघरे वा परे वाण लग्नति, अगारी वा तस्थ पउिचत भयो या कोति हियमहादिपदिनुभयो होग्ज, एचमादिकारण उपेचितं । Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८९७) अभिधान राजेन्द्रः । गिवत्थ कंठा । गिहिमित्ते जो उ गमो, नियमा सो चेत्र होति हिवत्ये । नायब्बो तु मतिमया पुच्चे रम्य व पदम्मि ।। ७१ ।। इमे बिसेससा कोहित, पपतिलिए अंकिते व अवियतं । दुर्गागं जूय ताण, उष्फासण घोष धूपणता ॥ ७२ ॥1 मूसगेण कुट्टितं पमाणातिरितं, छिन्ने दोसा, अच्छिन्ने सफज्जडाणी, घयतेला दिणा वा अंकियं, पमादि कारणेहि भ वियतं जवति, साधूणं अराहाण परिमलेण वा दुगंधं जुगुंइति ज्पति-उपया जयंति उति या उपा सायेति संजते परिभुषं उप्फोसति धावति या गंध या धूपेति ०० १२० । । १ गहवास गृहवास गृहस्थजाये, सू० १०००० गवा पाप व मतो बस दुखिओ तम् । चारितमोहनं निज्जिणि उज्जमं कुणइ ।। ६५ ।। गृहवास गृहस्थतां पाशबन्धन विशेषमिव मन्यमानो जावयन् वस दुःखितो दुनिया पाकिस शपतितो विडङ्गमो नोत्पतितुं शक्नोति, कष्टं च तत्रावस्थानं कयति एवं संसारभीरुरपि मातापित्रादिप्रतिद दीतुमपारयन् शिवकुमार श्त्र भावभावको गृहवासे दुःखेनावतिष्ठते । अत पत्र चारित्रमोहनीयं चरणावारकं कर्म निर्जेतुमपनयतुं प्रयनं करोति, तपःसंयमादाविति शेषः । शिवकुमारकथा वेयम "अस्थि विदेदे मे सुपणे विजय । वीयसोपलोया, परनपरी वीयसोप हि ॥ १ ॥ यमपरपमो पढमरहो नाम नरवई तर घर सील इत्थिताना, माला तस्स पाणपिया ॥ २ ॥ ताणं अब रहो, विसिहचिट्टो सया वि धम्मि हो । पुतोय सिवकुमारो, सिरीससुकुमारकरचरणो ॥ ३ ॥ तस्य कामसमिद्धो, सत्थाहो मासखमणपारणए । सागरचंददि पनिनादर नायतियकत्रियं ॥ ४ ॥ तर गिद्दे अफारा, वसुहारा सुरगणेढि परिमुक्का । ढं निसमिय संतं, सिवकुमरो हरिसिओ दिए ॥ ५ ॥ गंतु मुनिसदिय उचविस पाणमि । तो सागरचंद्रगुरु, एवं से कयह धम्मकं ॥ ६ ॥ इट्सला पविसी, सुहेलिणो पाणिणो कुणांत सया । तं च विस्मितयं पुण, लग्भद्द सुविसुद्धचरणेण ॥ ७ ॥ पात सुद्धं गिवासहियस्स गेय संभव । तो तब वह जुत्तं, घितुं श्रइनिम्मलं चरणं ॥ 5 ॥ सोड सिनो पुच्छर, भयवं ! किं पुग्वभवभवो नेहो ? | पिच्छतस तुमं, वहु अहिवाहिओ डरिसो ॥ ए ॥ तो हा मुदमुनिदो पूरा सुगामस्मि । नरहरि गंदा रे ॥ १० ॥ नवताभिनवदे-वनामया भाउणो दुवे आसि । कारुण वयं सुरं, पत्ता सोहम्मष्यमि ॥। ११ ॥ भजो जयदेवो तुमेस जाओ। सो पुण्यमपसिदा मह विसर एस तुह हरियो ॥ १२ ॥ शो गिहवासविरतो, सिबो पयंपर मुर्गिद ! तुद्द पासे । २२५ गिष्वास माणसं १२ ॥ श्य भगिय नमिष गुणो सो तुम पुच्छ पिणो । निविड पडि बंधबंधुर दियया ते बिंति हे यन्त्र ! ॥ १४ ॥ जर तो अम्दाज अम्दे पुच्छि गदेसि वयं । दिक्खानि सेहपणा, तो णे रसणा सया हो ॥ १५ ॥ श्य अविस अंतेर्हि, जणपार्ह सिवो निसेहिनं सव्वं । सावज्रं परिवज्जर, नावजइत्तं तर्हि चेव ॥ १६ ॥ पञ्चथनिमिसं कश्म कारियों को निषेो ॥ ७॥ पुत ! सिवकुमारेणं पव्वज्जानिला सिएण श्रदेहिं श्रविलजिएमोणं पमिवन्नं संपयं भुतुं पिन इच्छ, तं जहा जाणसि तहानं भयादिनं सम वेण पतसुविदिन्नभूमिभागो सिवं असंकियं उपसंपज्जसु चितो सोच पणन - सामि ! करिस्लं जं जुतं ति, उबगो सियकुमारसमीपं निस्सीहिये चारिवार पतिरामाणमिति ग्रामी णो । सिवकुमारेण चिंतियं-एस इब्न पुतो श्रगारी साहुविषयं प इंजिठो, पुच्छामि ताच, तेरा भविश्र, इग्मपुस ! जो मया गुरुण सागराद्दत्तस्स समीवे साहूहिं विणश्रो पजुजमाणो दिले सो तुम पढतो, सो कोकिन विरुर है। म्मेण भणिय - कुमार ! आरहए पत्रयणे विणओ समणाणं सा वगाणं च सामन्नो, जिणवयणं सचं ति जा दिठी सावि साहार णा, समणा पुण मध्ययधरा, अणुवणो सागा, जीवाचाहि गमपचहा भाग कि साहयो समयप्ति, सागरपारगावे दुवालसविहं के विसेसति सि । ता कुमर! तुमं समना-वनावश्री चंद्रणारिहोसि धुवं । पुच्छामि किंतु पयं किं चतं भोयणं पितए ।। १८ ।। देहो या विरहयो न मये। तदभावे न व चरणं वरणानाये को सिद्धं ॥ १६ ॥ किंव निरय आहारं देदादा मुि कम्मर, तुमपि कुमर गिषसु ॥ २० ॥ श्राहारो निरधज्जो, संपज्जर किह ए मञ्झ गिहवासे १ । तो वरमनोयणं इ-म्भपुत्त ! एवं सिवो श्राह ॥ २१ ॥ इब्भोजणे तं श्र जपनि सुगुरु श्रहं व तुह सीसो । संपाइस्सं सव्यं. जं इच्छसि तमिट निरव ॥ २२ ॥ पण सिवो सिबत्थी, ज एवं तो करितु तवं । श्रयंधिलेगा काहूं, पारणयं असुडवारणयं ॥ २३ ॥ तो सम्म दधम्मो, अहदढधम्मस्स सिवकुमारस्स । बेयावश्चं निरव असणमादेहि पकरई ॥ २४ ॥ पासं पिवगिवासं, बंधुजणं बंधणं व मनतो । कानं बारस वरिसे, ढरिसेण सिवो उदग्गतयं ॥ २५ ॥ जाओ मिलिसियारो सुरो बने । दाऊ तो परायनपरे ॥ २६ ॥ इम्भस्स रिसहदत्त-स्स धारणीपणइणी संजाओ । पुसो मं बु पाहिजन २७ ॥ नवनवर कणयकोडी, चदय सुरूवान श्रट्ट कन्नाश्रो । अम्मापण पमप्यमुजणं योहि बहुयं ॥ २७ ॥ सिरिवीरजिपि रस्सियन देशो पासे सुम्मस महच्या विषय दिव ॥ २३ ॥ Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (DEE) अभिधानराजेन्मः। गिहवास गिहिधम्म होऊण जुगपहाणो, चिरकालं सासणं पभावे । (अहव तिअथवा कारणप्रदर्शने, ओसघहेतुं दातारं घरे असउपाडियवरनाणो, जंबू सामी सिवपत्तो॥ ३०॥ हीणं पडिच्छति, संखडीप चा वेवं पमिक्खति. भरियं भायणं इति शिव इव गेहवासपाशे जाब मुंबति ताय संघामो पमिति,वासे वा पमंते अत्थति, य इह दधीत विरागसङ्गमङ्ग!। धुरादिउचहणेण वरेच्छाए बाघातो, जहा पुव्युत्ता दोसा न स हि यदि चरणं लभेत नात्र भवंति, तहा जयणाए अस्थिो कप्पति । ध्रुवमसमं तदवाप्नुयादमुत्र"॥३१॥ ध०र०॥ एएहि कारणोहिं, अणुएणवेऊण विरहिते देसे । गिहावट्ट-गिहावर्त-पुंग। गृहमेव आवर्तों गृहावर्तः । गृहाश्रमे, अत्यंतऽववातेणं, अववायावायता चेव ।। ७८॥ सूत्र० १ ० ४ ० १ उ०। घीयमुपमंगादिविरहिते देसे गिडिवत्तिं सामि अणुमावेश गिहि-गहिन्-पुं० । गृहस्थ, पञ्चा० ४विधा प्रब० । “गिहि अत्यंत ऽववारण उम्भडिया। अबवाप पुण अववाओ अवधाणो पायमियं " दश. ३०। सूत्र०। (गृहियतिनोभेदोऽ- ओ भन्नति, तेण अववादेण णिसीदन्तीत्यर्थः । नि० चू. न्यत्र ) यथाभनक, नि• चू० २ उ०॥ १२ ३०। गिहिकन्जचिंतग-गृहिकायेचिन्तक-त्रि० । अगारिकृत्य करणत-गिहितिगिच्छा-गृहिचिकित्सा-स्त्री. गृहस्थान्ययधिके चिकिस्परे, ग. ३ अधि। सायाम, नि० चू०। गिहिजोग-गृहियोग-न० । मूया गृहस्थसम्बन्धे, द्वा० २७ जे मिक्व गिहितिगिच्छं करेइ, करंतं वा साइज ॥१७॥ द्वा० । दश। ने सुत्तफासेगिहिणिसेज्जा-गृहिनिषद्या-स्त्री०पर्यादा गृह्यासने,नि चूना जे भिमव तेगिच्छं,कज्जा गिहि अहव असतित्थीणं । जे मिक्खू गिहिणिसेज वाहेश, वाहतं वा साइजइ ।१६।। सुहमतिगिच्छा मासो, सेसतिगिच्छाएँ लहु आणा ||७|| गिहिणि सेज्जा पलियंकादी, तत्थ णिसीदंतस्स चतुलहुं, श्रा- विरए वा अविरए वा, विरताविरते व तिविह तोगच्छं। गादिया य दोसा। में जं जुनति जोग्गं, तणयसंधणं कुण ती ॥७॥ गोयरमागारयं वा,जे मिक्खू निसेवए गिहिणिज्जं । । तिगिच्छा णाम रोगप्रतीकारः वमनबिरेचनप्रभ्य नपानादिपायारकहादासा,अक्वायस्सावधातो य ।। ७३ ॥ भिः । तं जो गिहीण अधवा अन्नतिथियाणं करोति, तस्स मिक्खायरिया गतो, आगतो वा धम्मं यत्तुकामा अायारकहा, | सुहुमतिगच्छाए मासलहुं, वायरए चल हुं, प्राणादिया य सत्य जे दोमा भणिया ते गिहिणि सेज्जं वाहेतस्स इह वत्त- दोसा सुहमतिनिच्छा णाम णाहं वेजो अहापदं देति, अप्पणो ब्या, अस्थाने अपवादापवादश्च कृतो भवति । वा किरितं कहेति, चतुष्पादं वा तिगिन्नं करेति, शिक्षाणो श्राकिश्चान्यत् णिज्जतो णिज्जंतो ज विराधेति तंणिप्पा पावति, किरियकरणे बंजस होतऽगुत्ती, अमोणं पियवहो नवे अह वा । काले वा जं कंदमूलादि बहेति, पच्छा नोयणकरणे वा, अध वा सो रोगविमुको किमिकरगादिकजं जं जोगं करेति, स तेण चरगादीपमिवातो, गिहीण अक्यित्तसंकादी ||७|| तिगिचिगा तम्मि जोगट्टाणे संधितो भवति,अथवा सरोगी जं खरए खरियासु एहा-व्यदृण खुरेनचे संका। जोगकरी पुब्यं श्रासि से रोगकाले अब्बावारो तम्मि अत्थति, रचणे अगिमिकाए, दार वती संकणा हरिते ॥ ७५ ॥ रोगविमुको पुण तट्ठाणसंधाणं करेति,व्याघ्राय सारमवत् सामगिहिणिसेज्ज वाहितस्स बंजरअगुत्ती भवति, किमेसंजाना ाद्वहुसत्वोपरोधी भवति, इत्यतो चिकित्सा न करणाया। णि बहो चिठति त्ति अवियत्तं मेहणासंका भवति, चरगादिस वितियपदे करेज्जा वायण स संजतो संकिजति, खेते वा खए अगणिणा वा दके असिवे ओमोयरिए, रायड्ढे नए व गेलो। दारेण वा हरिते बती वा नेतुं हरिते साधू संकिजति, जम्हा अघाएरोहए वा, जयणाए कप्पते कातुं ।। ७१॥ पते दोसा तम्मा णो गिहिणिसेज्जं चाहे। . इमेसि पुण अणुष्मा गच्चे असिवादिकारणसमुप्पन्ने पमओयणा जयणाए करिता सुद्धा। उच्चु सरीरे वा, सुव्वल तवसोसिओ व जो होजा । धमा जयणाथेरे जुण महले, वीसं नणे वि स हतसंको ।।७।। पासत्थमादियाणं, पुव्वं देसे ततो अविरइयं ।। वानसत्तं अकरतो मतपकियमरीरो नमति । रोगपीमिश्रो सुहुमातिविजमंते, पुरिसेत्थि चित्तस चित्ते ॥ ७॥ दुबल सरीरो, तवसोसियमरीरो वा जो थेर ति सद्विवरिसे विसेसेणं जुन्नसरीरे, 'महले ति' सब्वेसि बुकृतरो संविग्गा जाहे पणगपरिहाणीए चतुलहुं पत्तो ताहे पासत्थेसु पुच यमधारी विसंभणे वि सोचव हतसंको, महया तत्थ णिसन्नो पुरिसेसु पच्छा इच्चियासु तओ णपुंसेसु देस त्ति पच्चा दससंकिजति जो केण दोसेण सो इतसंको । विरतेसु एवं चेव, ततो अविरते, अप्पबहुचिंताए वा अत्यो उवउज्ज वत्तव्यो । नि: चू० १२ उ० । ध। अहवा प्रोसहहेतुं, संखे संघाडए व वासासु । गिदिधम्म-गृहिधर्म-पुं० । गृहमस्यास्तीति गृही, तद्धमैः। नित्यवाघायाम्म तत्था, जयणाए कप्पतीगतं ॥ ७७॥ नैमित्तिकानुष्ठानरूपे अगारिध,"सामान्यतो विशेषाश्च,गृहिध. Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (DEL) गिहिधम्म अभिधानराजेन्द्रः। गिहिधम्म मोऽगथं द्विधा ।" तत्र सामान्यतो नाम सर्वविशिष्टजन अत एवसाधारणानुष्ठानरूपः, विशेषात् सम्यग्दर्शनाणुव्रतादिप्रतिप- अपुनर्बन्धकस्यार्य, व्यवहारेण तात्विकः। तिरूपः (ध०) अध्यात्मभावनारूपो, निश्चयेनोत्तरस्य तु ॥ ३६८ ॥ तत्राओं नेदं दशभिः श्लोकैर्दर्शगति इत्युक्तं योगबिन्दी । यस्वापुनर्बन्धकस्याप्युपलकणत्वात्स. म्यग्रष्टवादीनामपि वृत्तौ ग्रहणं कृतं तद पेकयैवेति तचमतद. तत्र सामान्यतो गृहि-धर्मो न्यायार्जितं धनम् । यं परमार्थः-निश्चयेनानुपचारित धर्मानुष्टानमप्रमत्तसंयतानामेव, वैवाह्यमन्यगोत्रीयैः, कुलशीलसमैः समम् ॥५॥ प्रमत्तसंयनादीनामपि त्वपेक्षया निश्चयव्यवहाराभ्याम् अपुनर्वशिष्टाचारप्रशंसारि-पत्यजनं तथा । न्धकस्य तु व्यवहारेणैव, तेन सामान्यतो गृहिधर्मो व्यवहारेइन्द्रियाणां जय उप-नुतस्यानविवर्जितः ॥६॥ पाऽपुनर्बन्धकापेकयैवति स्थितिमिति ॥ १४॥ सुपातिवेशिमके स्याने, नातिप्रकटगुप्तके । सप्रने सामान्यतो गृहिधर्ममनिधाय सांप्रतं तत्फलं दर्शयन्नाहअनेकनिर्गमद्वारं गृहस्य विनियेशनम् ॥ ७॥ पापभीरुकता ख्यात-देशाचारप्रपालनम् । एतद्युतं सुगार्हस्थ्यं, यः करोति नरः सुधीः । सर्वेष्वनपवादित्वं, नृपादिपु विशेषतः ॥ ७ ॥ लोकद्वयेऽप्पसौ जूरि-सुखमामोत्यनिन्दितम् ।। १५ ॥ पतेनानन्तरोदिसेन सामान्यगृहिधर्मण संयुतं सहितं सुगाआयोचितव्ययो वेषो, विजवाद्यनुसारतः। ईस्थ्यं शोभनगृहस्थानावं यः कश्चित्पुण्यसंपन्नः सुधीः प्रशस्तमातापित्रर्चनं सङ्गः, सदाचारैः कृतज्ञता ।। ७ ॥ बुद्धिर्नरः पुमान् करोति विदधाति, असौ सुगार्हस्थ्यकर्ता सो. अजीर्णेऽभोजनं काले, नुक्तिः साम्यादसौख्यतः। कद्वयेऽपि होकपरलोकरूपे, किं पुनरिहलोक पवेत्यपिशवृत्तस्यज्ञानवृछाही, गहितेष्वप्रवर्त्तनम् ।। १० ।। ब्दार्थः, अनिन्दितं शुभानुबन्धितयाऽगईर्णायं भूरि प्रचुरं सुखं शर्मालेति लभते। इति प्रतिपादित सामान्यतोगृदिधर्मफलम। जत्तव्यचरणं दीर्घ-दृष्टिर्घर्भश्रुतिर्दपा ।। अथ एतद्गुणयुक्तस्य पुंसः सदृष्टान्तमुत्तरोत्तरगुणअष्टबुछिगुणैर्योगः, पदपातो गुणेषु च ॥११॥ द्धियोग्यतां दर्शयतिसदाऽननिनिवेशश्च, विशेषज्ञानमन्वहम् । तसिन प्रायः प्ररोहन्ति, धर्मबीजानि गहिनि । यथाईमतिथौ साधौ. दीने च प्रतिपन्नता ॥१२॥ विधिनोप्तानि बीजानि, विशुघायां यथा चुचि ।। १६ ॥ अन्योन्यानुपघातेन, त्रिवर्गस्याऽपि साधनम् । प्रायो बाहुल्येन धर्मबीजानि लोकोत्तरधर्मकारणानि । प्रदेशाकालाचरणं, बलाबलविचारणम् ॥ १३ ।। तानि चामूनि 'योगदृष्टिसमुच्चये 'प्रतिपादितानि "जिनेषु कुशलं चितं, तन्नमस्कार एव च । याहलोकयात्र च, परोपकृतिपाटवम् । प्रणामादि च संशुद्ध, योगबीजमनुत्तमम् ॥ १॥ ही: सौम्यता चेति जिनैः, प्रऊतो हितकारिनिः॥१४॥ उपादेयधियाऽत्यन्तं, संझाविष्कम्भणान्वितम। दशनिः कुलकम् । तत्र तयोः सामान्यविशेषरूपयोः गृहस्थधर्म- फलामिसन्धिरहितं, संगद्धं ह्येतदीदृशम् ॥ २॥ योर्वक्तमुपक्रान्तयोर्मध्ये सामान्यतो गृहिधर्म इति अमुना आचार्यादिप्यपि ह्येत-द्विगुद्धं भावयोगिषु । प्रकारेण हितकारिभिः परोपकरणशार्जिनेरईद्भिः प्राप्तः प्ररू चेयावत्यं च विधिव-च्छाशयविशेषतः ॥३॥ पितः, इत्यनेन संवन्धः । (एषां व्याख्याऽन्यत्र) ध०१ अधिक। नवोद्वेगश्च सहजो, द्रव्याभिग्रहपालनम् । ननु तथापि धर्मसंग्रहिण्यां निश्चयनयमतेन शैलेशीचर- तथा सिद्धान्तमाश्रित्य, विधिना झेखनादि च ॥४॥ मसमय एवं धर्म उक्तः, तत्पूर्वसमयेषु तु तत्साधनस्यैव लेखनापूजनाभ्यां च, श्रवणं वाचनोद्ग्रहः । संभव:-"सो न भवक्खयहेक, सेलेसीचरमसमयभावी जो। प्रकाशनाथ स्वाध्याय-श्वेतना भावनेति च ॥५॥ सेसो पुण निच्चयो, तस्सेव पसाहगी नणि ओ ॥१॥"त्ति दुःखितेषु दयाऽन्यन्त-मद्वेषो गुणवत्सु च । पचनात्। अत्र तु निश्चयतो धर्मानुष्ठानसंजयश्चाप्रमत्तसंयता- औचित्या सेवनं चैत्र, सर्वत्रैवाऽविशेषतः"॥६॥ नामेवेति कथं न विरोध इतिवेत?नाधर्म संग्रहिण्यां धर्मस्यैवा- इति तस्मिन् पूर्वोक्तगुणभाजने गेहिनि गृहस्थे प्ररोहन्ति । भिधिसितत्वेन तत्र धर्मपदव्युत्पत्तिनिमित्तग्राहकैयनूतरूप- प्रकर्षण स्वफत्राबध्यकारणत्वेन प्ररोहन्ति धर्मचिन्तादिलक्षणानिश्चयनयस्य शैलेशीचरमसमय एवं प्रवृत्तिसंभवात् , अत्र रादिमन्ति जायन्ते । उक्तञ्चतु धर्मानुष्ठानपदव्युत्पत्तिनिमित्तग्राहकैवंभूतरूपनिश्वयनयस्या. "वपनं धर्मबीजस्य.सत्प्रशंसादि तहतम। प्रमत्तसंयत पत्र प्रवृत्तिसंभवेन विरोधलेशस्याप्यनव- तच्चिन्ताद्यङ्करादि स्यात्, फलसिकिस्तु निवृतिः ॥१॥ काशात् । हन्तै निरुपचरितो भावाज्यासोऽप्रमत्तसंयतस्यैव चिन्तासन्युध्यनुष्ठान-देवमानुषसंपदः । प्रमत्तसंयतदेशविरताविरतसम्यग्दृशां त्वापेक्षिकत्येनौपचारि- क्रमेणारसत्काएम-नालपुष्फसमा मताः" ॥२॥ क एवं प्राप्त इत्यपुनर्वन्यस्यैवौपचारिक इति कथं युज्यत इति कोदशानि सन्ति प्ररोहन्तीत्याह-विधिना देशनाऽईबालादिपु. चेत् । यथा पपवनयव्युत्क्रान्तार्थवाही द्रव्योपयोगः परमाणा- रुबौचित्यलक्षणेन उप्तानि निक्किप्तानि, अतितिप्तेषु हितेषु घेवाऽपश्चिमविकल्पानिर्वचनः, तथा निश्चयनयव्युत्क्रान्तार्थग्राही । कथमपि धर्मस्यानुदयात् । यत उपदेशपदे-"अकए बीजक्नेये, व्यवहारनयोऽप्यपुनर्बन्धक एव तथेत्यभिप्रायादिति गृहाण।। जहा सुवासे वि नभई सस्सीतहधम्मवीजविरदे न सुस्समाए Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५००) गिद्धिधम्म गीतिजुत्तिह स्वाजने दशकांपाादी ०१०२००२७०। अत्र प्रायश्चित्तम् [वि] [तर] ॥ १ ॥ यथेतिथे बीजानि शापादीनि | मिडियन-गुह्यमत्र १० घटीकरकादिके मि००१२० विका अनुपहतायां भुवि पृथिव्यां विधिमानि सन्ति प्रा यो ग्रहणादकस्मादेव पक्कं तथा भव्यस्वे क्वचिन्मरुदेव्यादावन्यथानावेऽपि न विरोध इति ॥ १६॥ धर्म० १ अधि० सप्त क्षेत्रादिगृहि धर्मः । ध० १ अधिणपर्व कृत्ये, साम्प्रतं तेषामेव पर्यादिकृत्यानि व्यत्या पर्वसु सर्वेषु चतुर्मास्य च दाय मधिकर्म०२ अपि० । अथ जम्मादिकृत्यानि । यथा-" चे १ पडिम २ पट्टा ३, सु पत्राणाय ४ पयठवण ५। पुच्छपलेहणवायण ६, पोसइसालाइ कारवणं ॥ १॥ " धर्म० २ अधि धारूविधौ तु गृहनि पापकर्माणि जन्मस्तानि परं सानि सामा पदिधर्माधिकारी पाणीति तत्रैव निखितानि तान्यषि पूर्वे व्यायास्यानि प्रतिमा विशेषत उपयोगित्वात्स्यतन्यमेव मूले पते ते वात्रमिति । धर्म० २ अधि० । गृहकृत्यकरणरूपे खीकलाभेदे, कल्प० ७ कृण । गृहस्थधर्म पनित्यभिधाना दिपगृहस्थधर्मानुगते, तदनुसारिणां च वच:- " गृहाथमसमो धर्मो न भूतो न भविष्यति । तं पालयन्ति ये धीराः, क्लीयाः पाषण्ममाश्रिताः" ॥१॥ अनु० | गिविभाषा गृहिभाजन न० गृहस्थसम्बन्धिस्थाप्रतिज्ञा दिकांस्यनाजनादिके, दश० ६ अ० जीत० । ६५० । तत्र भोजनं निषिद्धम अभिधानराजेन्ः | कंसेसु कंसपारसु, कुंडमोसु वा पुणो । वोऽसणपाणाई, आपारा परिभस्सई ॥ ५१ ॥ कंसेषु कटकादिषु कंसपात्रेषु तिलकादिषु कुरा ममेदेिषु ह स्तिपादाकारेषु मृन्मयादिषु जामोऽनपानादि तदन्यदोष रहितमपि श्राचारात् भ्रमणसंबन्धिनः परिस्पति अपेतीति ५१ ॥ कथमिति ?, आदसीओसमारंभे, मचो उडणे । जाई बन्नंति नूयाई, दिट्ठो तच्छ अंसजमो ॥ ५२ ॥ मनन्तरोदिष्टनाशनेषु भ्रमणा प्रयते भिरिति शीतोदकेन चायनं कुर्वन्ति तदा शीतोदकममारम्भे सच्चे वनोदफेन प्राजनयापनारम् तथा मात्रकथावनोऽभने कुपममोदादिषु कालन जलत्यागे, यानि द्विप्यन्ते हिंस्यन्ते भूतान्यकायादीनि सोऽत्र गृहिजाजनभोजने दृट उपलब्धः केवलज्ञानास्वता] असंयमस्थ मोरितार्थः ॥ ५२ ॥ किम्ब पच्छा पुरे कम्मं, सिया तत्थ न कप्पड़ । मन तिनिया गिट्टिभाषणे ॥ ५३ ॥ पश्चात्कर्म पुरःकर्म स्यात्र कदाचित् भवेत गृहिभाजनभोजने पवारपुरकर्मभावस्तु कयदित्येके । अन्ये तु जन्तु तावत्साधवो वय पश्चाद्भोदयाम इति पश्चात् कर्मव्यत्ययेन तु पुरः कर्म व्याचचते । एतच न कल्पते धर्मचारिणां यत एवमत तदपश्चात्कर्मदिपरिहारामुले निर्धा तिघा दिनाज अनन्तरोदिते इति षार्थ बच्चो वृद्धि माखनदोषः तद्भिदानाशस्थानविधिः ०६० जे भिक्खू गिरिमले सुंजुवामाइ ॥ १४ ॥ गिमितो घटिकरगादि तत्थ जो असणादि इंजति, तस्स " चल । जे भिक्खू गिहिमत्ते, तसथावरजीवदेहाणि । जेजा असणादी, सो पावति आमादने।। ६७ ।। सो विमोविधोपायरजी पदे निप्पो बात निष्पन्नो था । सेसं कंठं । से इमे सच्चे त्रिमोहपादं, तेसिं केवलिय पकभोगे य । एते तसप्पिन्ना, दारुगमनुत्राइया इतरे ।। ६८ । सुबन रयत-तंघ - कंसादीया सब्बे लोहपादा हरिथदंतमया, महिसादिसि या कर्म या पको विडि मणिमा ओज माणादिया हमे दोखा पाकम्मे कणिमणेय काया । आणणयापवाहण, दरतुत्ते हरिएँ बोच्छेदो ॥ ६६ ॥ जे या गड़ी से धोतुं पंतो पाककला संजयान भोजनयेला या जाहि उपसु हंजीहामो सि, पुणे जिमनानिमअणोरणायमणेसु बक्कायविराहणा वाणिज्जंतं णिज्जंत या भने अव अर्थ पचदावेक्षा साधूण या दरनुते मगाव, तस्थ अवस्थ अंतरापरोसा देत सफाणी, साहिं वा भाणीतं हीरेज्जा पच्चजातण फलपसु वहडेसु विराधणा बुता सा इढ गेहमत्ते भाणियव्वा, सकज्जद्दापी. पट्टोभमा पुपो संजया देह जिहा पर दोसा तम्हा गिहिमत्ते ण झुंजियभ्यं ॥ नि० चू० १२ उ० । गिटिव- गृहिक- ००१० गिहिटिंग-गृडिलिङ्ग १० स्थान येथे ०१७०१ गिहिवास गृहिदास पुं० प्रगारवाले, “गिदिवासे पोष रिश्राए । दश० १ चू० । गिद्दिवास मज्ज - गृहिपाशमध्य- न० । गृहिणां पाशकल्पानां पुत्रकलत्रादीनां मध्ये, "डुल्लहे खलु जोगी ही धम्मे" ६८०२ बू०| गिहिसंक्रिलिट्ठ-गृहिसंक्लिष्ट - त्रि० । गृहिसंबन्धिनां द्विपदचतुष्पदधान्यादीनां तृप्तिकरण प्रवृत्ते, प्रव० २ द्वार । गिहुत्तप- गृहोत्तम न०/गृहाणामुत्तमं गृहोत्तमम्ः वरप्रासादे, स० गिलुय गृहैलुक पुं० । उम्बरे, नि० ० १३ उ० । घ्राचा०। देह क्याम, वाच० । गी इ-गीति - स्त्री० । गै· क्तिन् । गाने, ग्राउन्दोर्भेदे च बाख० । " " ततो गीतिमिमां जमी " । ० १ ० । गीतियुति- गीतियुक्ति प्र० गीतिगंधीविविध परविधिकलादि७० Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीतिया अन्निधानराजेन्द्रः। गीय गीतिया-गीक्किा-स्त्री०। पूर्वाळसरशापरालक्षणायामार्या- कंसिकादिशब्दविशेषः ४ काकस्वरमश्लक्ष्णमश्राव्यस्वरम, याम्, जं०२ वक्त ताहेश्मो गीतियं पगिया-सुट्ट गाश्यं सुद्ध अनुनासं नासाकृतस्वरम् ६, पते पर दोषा गीतस्य भवन्ति । पाइयं" । प्राच० ४ मा । मौ० । कक्षाभेदे, हा १ अष्टौ गुणानाह७०१०। पुष्पं रत्तं च अनं-किगं च वत्त च तहेवमविघुटुं। गीय-गीत-न । मै भाबे । गाने, जं. २षक । प्रश्न । महुरं समं मुसलिमें, अह गुणा होतिगेअस्स ।।२।। जी० । उत्त।का। कर्मणि क्तः ।ध्रुवकादिन्दोनियले वृ०१ नरकंगसिरविसुद्धं, च गीयते मउअरिभित्रपदवकं । उ० । नाट्यवर्जिते, औः । तातच्चलिते, जीत गये, प्रइन०५ समतानपच्चुखेवं, सत्तस्सरसीजरं गेअं ॥२५॥ सम्ब० द्वार गीतं पदस्वरतालावधानात्मकं गान्धर्वमिति भर अक्खरसमं पदसम, तानसममयसमगहसमं वादि । तादिशास्त्रवचनात् । जं। तं । त्रिविधं गीतम्-तथा गीतक नीससियोससिअसमं. संचारसमं सरा सत्त ॥२६॥ ला, सा च निबन्धनमार्गश्रमिकमार्गभिन्नमार्गभेदात् त्रिधा । तत्र-“सात स्वरात्रयो प्रामाः, मुर्छना एकविंशतिः । ताना स्वरकलाभिः सर्वानिरपि युक्तं कुर्वतः पूर्णम १, गेयरागेण एकोनपश्चाशत, समाप्तं स्वरमएमलम"॥१॥श्याच वि. रक्तस्य भावितस्थ रक्तम् २, अन्यान्यस्फुटशुभस्वरविशेषाण शाखिलशास्त्रादवसे येति । स०७२ सम। करणादलस्कृतम ३, अक्षरस्वरस्फुटकरणाधक्तम् ४, विको शनमिव यद्विम्बरं न भवति तदविघुटम ५, मधुमत्तकोकिस्वरप्रपूरणानन्तरम् लारुतवन् मधुरस्वरम् ६, तामवंशस्वरादिसमत्वगतं समम ७, सत्त स्सरा को वा, हवंति गीयस्स का हवइ जोण।। स्वरघोलनाप्रकारेण शुझातिशयेन लनतीव यत् सुकुमालं कन समया ओसासा, कन वागीयस्स आगारा? ||१|| तत् सुललितम् । एते अष्टौ गुणा गीतस्य भवन्ति, पतद्विरहितं सच सरा नानीओ, हवंति गीयं च रुइयजोणी न । तु बिमम्बनमात्रमेव तदिति । किश्चापक्षक्षणत्वादन्येऽपि नीतगु. णा भवन्ति, तानाह-चकारो गेयगुणान्तरसमुथयार्थः। उर:कपायसमा ऊसासा, तिमि य गीतस्स आगारा ॥३०॥ एशिरोविशुद्धं च । अयमर्थः-यपुरसि स्वरो विशालस्तीरोभाईमनयारभंती, समुबहता य मज्म्यारम्मि । विशुद्ध,कएठे यदि स्वरो वर्तितोऽतिस्फुटश्च तदा करविशुरूअवसाणे उज्जुत्ता, तिमि विगीयस्स आगारा ।।१॥ म, शिरसि प्राप्तो यदि नाऽनुनासिकस्ततः शिरोविशुद्धम। अथ इदानीं तु तद्विनिर्गतेभ्यो भरतविशाखिशादिशाभ्यो विझे या उर:कएनशिरस्सु श्लेष्मणाऽव्याकुलेषु विशुद्धेषु प्रशस्तेषु या इति। "सत्तस्सरा को गाहा"इह चत्वारःप्रश्नसूत्राः। कुतः यत्रीयते तदुरस्कएशिरोविशुद्ध, गीयते, गेयमिति संबध्यते। इति कस्मात् स्थानात् सप्त स्वरा उत्पद्यन्ते, का योनिरिति का। किविशिष्टमित्याह-मृकं मृदुनाऽनिष्टुरेण स्वरेण यहीयते जातिः,तथा कति समया येषु ते कनिसमया उच्चासाः किंपरिमा तन्मृदुक,यत्राक्षरेषु घोलनया संचरन् स्वरो भवतीति घोलनाणकामा इत्यर्थः। तथा प्राकाराः आकृतयः, स्वरूपाणीत्यर्थः। उ बहुलं रिभितं, गेयपदैर्व विशिष्टविरचनया रचितं पदं च सरमाह-"सत्तसरा नाभीओ" इत्यादि गाथा स्पष्टा, नवरं रुदितं द्वन्द्वः, ततश्च पदत्रयस्य कर्मधारयः । ( समतालपोवं योनिः समानरूपतया जातियस्य तदा रुदितयोनिकम,(पायस ति)तालशब्देन हस्ततालसमुत्थः, उपचारानन्दो विवक्षित, मा उच्छासा) यावद्भिः समयैर्वृत्तस्य पादः समाप्यते तावत्सम मुरजकांसिकादिगीतोपकारकाऽऽतोद्यानां ध्वनिः प्रत्युतकेपः, या उभासा गीतेर्भवन्तीत्यर्थः। प्राकारानाह-[आईगाहा] प्रयो नर्तकीपदप्रोपलकणो वा प्रत्युतकेपः, समौ गीतस्वरेण गीतस्याकाराः स्वरूपविशेषलक्षणा भवन्ति इति पर्यन्ते संबन्धः। तालप्रत्युत्तेपौ यत्र तत्समतासप्रत्युतक्केपम् । (सत्ससरसीकिं कुर्वाणा इतिमाह-(आरभंति) आरम्भमाणाः गीतामिति ग भरंति) अकरादिभिः समं यत्र तत्सप्तस्वरसीजरं गीतमिति । म्यते,कथं जूतमित्यादि [प्राइमन ति] आदौ प्रथमतो मृठ कीम ते चामि सप्त स्वराः-(अक्सरसमं गाहा ) यत्र दोघेऽक्करे सम प्रादिमृत, तथा समुदहन्तश्च कुर्वन्तश्च महता, गीतध्यने दी? गीतस्वरः क्रियते, हुस्वे इस्वः. सते प्लतः, सानुनासिके रिति गम्यते । मध्याकारे मध्यभागे तथा अवसाने च कृपयन्तो तु सानुनासिकः तदकरसमं, यदीतपदं यत्र स्वरे अनुपाति गीतध्वनि मन्डीकुर्वन्ते इत्यर्थः । प्रादौ मृदु मध्ये तारं पर्यन्ते | भवति तत्रैव गीते गीयते तत्पदसम, यत्परस्परानिहतहमन्दं नीतं कर्तव्यम, प्रत पते मृतादयनयो गीतस्याकारा स्ततालस्वरानुसारेण गोयते तत्तानसम, श्रृङ्गदाचिन्यतरभवन्तीति तात्पर्यम्। वस्तुमेयनाङ्कलीकोशकेन समाइततन्त्रीस्वरप्रकारो लयः, त मनुसरता स्वरेण यनीयते तल्लयसमं, प्रथमतो बंशतन्यादोसे अट्ठगुणे, तिमि अवित्ता दोइ नणिईयो। दिनियः स्वरो गृहीतस्तत्समानस्वरेण गीयमानं प्रहसम, जो नाही सो गाशहि, सुसिक्खिो निःश्वसितोसितमानमनतिक्रमती ययं तनिःश्वसितोरंगपज्झम्मि ॥२॥ चुसितसम, वंशतव्यादिवेवाशुलिसंचारसमं यत्रीयते तजीभं दुभमुप्पित्य, नत्तानं च कमसो मुणेमळ । रसंचारसमम् । एवमेते स्वराः सप्त भवन्ति । इदमुक्तं प्र. कागस्सरमणुणासं, ग्रोसा होति गेअस्स ॥२३॥ वति-एकोऽपि गीतस्वरोऽज्ञरपदादिग्निः सप्तभिः स्थानः सह पम् दोषा वर्जनीयाः,तानाह-भीतमुत्त्रस्तमानसं यद् गीयते सामस्त्यं प्रतिपद्यमानः सप्तधास्वमनुजवतीत्येते सप्त स्वरा श्त्यको दोषः १बुतं स्वरितम् २ 'उप्पित्थं श्वासयुक्तं, त्वरितं अकरादिभिः समा दर्शिता भवन्तीति गीतचयः सूत्रबन्धः। च। पाठान्तरेण "रहस्स ति" इस्वस्वरं, लघुशब्दमित्यर्थः । उ. सोऽएगुण एव कर्तव्य इत्याहचालमुव्यावल्यार्थे, अतितालमवस्थानताखंचत्यर्थः। तामल निहोसं सारमंतं च,ऊजुत्तमसंकिय । १२६ Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीय (०२) प्राभिधानराजेन्छः। गीयत्व उवणीअं सोवयारं च, मियं महुरमेव य ॥ २५ ॥ मुत्तत्थ तउनयविऊ, गीयत्या एरिसा हुंति ।। समं असमं चेत्र, सम्वत्थ विसमं च । उत्प्राबल्येन धावनमुकाबनं, प्राकृतत्वाश्च स्त्रीत्वनिर्देश किमुक्त तिथि वित्तपया होंति, चमत्थं नोबसन्न ॥२६॥ भवति?-तथाविधे गच्छप्रयोजने समुत्पत्र प्राचार्येण संदिष्टो सक्कया पायया चेव, भणिई होंति दोशि वा।। असंदिष्टो या प्राचार्यान् विज्ञप्य यथैत्कार्यमहं करिष्यामीति सरममतम्मि गीयते, पसत्या इसिनासिया ॥२७॥ तस्य कायस्थात्मानुग्रहबुद्ध्या करणं उसावनम, शीधं तस्य कार्यस्य निष्पादनं प्रधावनं. केत्रमार्गणं केत्रप्रत्युपेकणा, केसी गाय, महुरे, केसी गायइ खरं च रुक्खं च । पधिरुत्पादना, पतासु येऽविषदिनो विषादं न गच्चन्ति, तथा केसी गायति चनरं, केसी अविनवितं दुतं केसी ? ॥२८॥ सूत्रार्थतदुभयविदः, अन्यथा हेयोपादेयपरिज्ञानायोगात् । तेष. गोरी गायति महुरं, सामा गायति खरं च रुक्खं च । । तारशा एवंविधाः, गीतार्थाः गणावच्छेदिन इत्यर्थः। व्य०१ कानी गायति चउर,काणा अविनंबिअंदुतं अंधा ।।२६।। उ“गोयत्यो य विहारो" ग १ अधि। (निहोसमित्यादि) तत्र 'अलियमुवधायजणयमित्यादि' द्वात्रिं- गीयं मुणितेग, विदियत्यं खलु वयांत मीयत्यं । शत सूत्रदोषरहितं निर्दोषम् ,विशिवार्थयुक्तं सारमन्तं .गीत गीरण य अत्घेण य, गीयत्थो वा सुयं गीतं ।। निवभार्थगमकहेतुपुक्ततया दृष्ट हेतुयुक्तम ३, उपमाद्यवङ्कारयुक्तम. सकृतम्४,उपसंहारोपनय युक्तमुपनीतम्५,अनिष्ठराविगुलाबज गीतं मुणितमिति चैकार्थम्, ततश्च विदितो मुणितः परिमीयार्थवाचकं सानुप्रासं वासोपचारम६,अतिवचनविस्तररहि झातोऽर्थः दसूत्रस्य येन तं विदितार्थ खबु बदन्ति गीतार्थम, सं संकिप्ताकर मितं ७,मधुरं श्रभ्याम्दार्थ ८, गेयं भवतीति शे यद्वा-गीतेम चयन च यो युक्तःस गीतार्थो नण्यते,गीतार्धापः। "तिमि य वित्ताति (?)" यदुक्तं तत्राह-(सममित्यादि) घस्य विद्यते ति अभ्रादित्वादप्रत्ययः। अथ गीतं किमुच्यतेपत्र वृत्ते चतुर्वपि पादेषु संख्यया समान्यवराणि नवन्ति तत् श्रत पाह-श्रुतं सूत्रं गीतमित्यभिधीयते । सम, यत्र प्रथमतृतीययोर्वितीयचतुर्थयोश्च पादयोरकरसंख्या एतदेव भावयतिसमयं तदर्धसम, यत्तु सर्वत्र सर्वपादेवक्षरसंख्यावषम्योपेतं गीएण हो गीई, अत्यी अत्येण होइ नायचो । नधिषमम (जं ति) यस्मावृत्तं भवतीति शेषः। तस्मात् त्रय एवं गीएण य प्रत्येण य, गीयत्थं तं विजाणाहि ॥ वृत्तप्रकाराजवन्ति, चतुर्थस्तु प्रकारो नोपलभ्यते, असत्वादित्य. पाएवमन्यथाऽप्यविरोधेनव्याख्येयभिदामिति।"दुमि य मणिओ ('विहार' शम्दे पत व्याख्यास्यते)ग०१अधि०। पञ्चा०।०। ति' (१) यमुक्तं तत्राह-(सक्कएत्यादि) भणितिर्भाषा,स्वरमएमले व्याध० । प्रति०। ६०००। प्रवपूर्व चतुर्दशपूर्वी गीतार्थोपम्जादिस्वरसमू, शे कएउमा गतिविचारप्रस्तावादिदमपि ऽभवत्, श्दानी प्रकल्पधारी भवति। व्य. ३ न०। पृच्छति-"केसी गाय"इत्याद प्रश्नगाया सुगम,नवरं (केसत्ति) __ अथ गीतार्थोपदेशः सर्वोऽपि सुखावहो भवतीत्यादकीरशी, स्त्री इत्यर्थः । ( खरंति) स्वरस्थनिं, रूकं प्रतीतं, चतुरं गीअत्यस्स वयणेणं, विसं हानाहानं पिवे । दकमविलम्बितं परिमन्पर,दुतं शावमिति ।"विस्सरं पुण केरिसि अविकप्पो अभक्खिज्जा, तक्खणे जं समुदवे ॥१४॥ सि"गाथाद्विकमिदम (१) अत्र क्रमेणोत्तरमाह-(गोरी गायइ महुरमित्यादि) अत्रापि "विस्सरं पुण पिंगल त्ति" गाथाद्विकमेव,(१) परमत्थो विसं नो तं, अमयरसायणं खुतं । व्याख्या सुकरैव, नवरं पिङ्गला कपिला इत्यर्थः॥समस्तस्वरम निधिकप्पणसंसारे, मोवि अमयस्समो ॥ ४५॥ पडलसंकेपाभिधाने, अनु । जं० । जी। प्रा०म० । “ अप्पे. गीतार्थस्य वचनेनोपदेशेन तद्विषं गरलं , किंभूतं ?गया चम्विहं गीयं गायति-क्खित्तं पयतं मंदरोइयावसाणं" हालाहलं स्थावरविषभेदरूपं, निर्विकल्पो गतशङ्कः सन् मा०चू०१०। रा०ा गीयं विलबियं ( इति वदति स्वयंबुरूः)। सुधीः पिवेत् , भक्षयेच, तत्र-5वरूपं पिवेत् , अद्रवं तु भक्षेत। गीतं विलसितं (इति वदति महाबलः) श्रा०म०प्र०।तत्प- तरिकम ?-यद्विषं ततक्षणे भकणक्षणे एव समुजावयेत, माररिज्ञानात्मके कमानेदे, झा० १२१अ । कल्प० । ध्वनिते, येत् इत्यर्थः । विषलक्षणहेतुमाह-परमार्थतस्तद् गीतार्थोपदिष्ट का०११०१०। शब्दिते, घो०१. विव० । कथिते, पो० विषं न स्यात् 'खु' निश्चितं तद्विषम् अमृतरसायनममृतमेव पवित्रा सिके, संथा० । विज्ञातत्याऽकृत्यप्रकणार्थे, प्रव. रसायनं जराव्याधिजिदौषधम, अमृतरसायनं, हितकारी१०२ द्वार । सूत्रार्थावहिते, वृ० १३०। गीतार्थे, व्य०१ उ०।। त्यर्थः । यषि निर्विघ्नं करोति तद्विषं न मारयति । यतः स मृगीयनस-गीतयशस-पुं० । गन्धर्वाणां द्वितीये इन्जे, स्था० २ तोऽपि मरणं प्राप्तोऽपि अमृतः, स जीवन्नेव जयतीत्यर्थः । गी ग०३ उज। औ०। प्रज्ञा । ('अम्गमहिमी' शब्दे प्रथम- तार्थोपदेशेन विषमकणस्याप्यायती शाश्वतसुखहेतुत्वादिति भागे १७१ पृष्ठे अस्य अग्रसहिष्य उक्ताः) । वले, गन्धर्वानी. प्रसङ्गाशीतार्थसंविग्नयोरत्र चतुर्भङ्गी-"संविग्गए नाम एगे नो काधिपती च । स्था०७०। गीअन्धा १, नो संविग्गा नाम एगे गीयत्या २,संविभ्गा नाम पगे गीयत्थ-गीतार्य-पुं० । गीतो विज्ञातकृत्याकृत्य लत्तणोऽयों येन गीयस्था वि३,नो संविम्गा नाम एगे नो गीयत्था विधातत्यन स गीतार्थः । बहुश्रुते, प्रक० १०२ द्वार । अधिगतनिशीथादि ताव पढमभंगिल्ला धम्मायरिया, जो नाम कि तेण संविम्गेणं भूतसूत्रार्थे, ध०३ अधिक। सूत्रार्थविदि, पश्चा० १०वि० द्वा०। जो गीयत्थत्तविरहिो। पंवादशंकानि० चू। श्राव० । विशे। "जओ सुयं पदम तो दया, एवं चिर सम्बसंजए । अधुना गीतार्थस्य स्वरूपमाह अन्नाणी किं काही, किंवा णाही व्यपावगं?॥१॥ उछावणापहावण-खेचोवहिमग्गणामु अविसादी। तहा-"जा हेउवायपक्चम्मि, हेउश्रो भागमे य आगमित्रो। Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०३) गीयत्य अनिधानराजेन्धः। गीयत्थणिस्सिय सो ससमयपन्नर ओ. सिद्धंतविरहगो अन्नो ॥१॥ नन ने धर्माचार्यां इत्येष चतुर्थो नमः । अत्र तु तृतीयेनाधिउस्समासुयं किंची, किंची अवाश्यं भवे सुत्तं । कारः ॥ इति अनुष्टुपविषमाकरेति गाथाछन्दसी॥४४॥४५॥ दुनयसुत्तं किंची, सुत्तस्स गमा मुणे यब्वा ॥२॥ ग०२ अधि० । महा। सावजणवजाणं, वयणाणं जो न जाण बिसेसं। गीतार्थसमाचरणं प्रमाणमूपुत्तुं पि तस्स न खमं, किमंग! पुण दसणं का?॥३॥ अवलंविऊण कज्जं, जंकिंचि समायरति गीयत्या । "जे आगमरहस्सविगला वि होऊण गच्छं परियटृति बाहि ब. हुस्सुयाणुगी कुयंता वि न ते नबंधकूवाो जोवाणं उत्ता थोवावराह बहुगुण, सम्बेसि तं पमाणं तु ॥ ७ ॥ रणाय अलं । किं बहुणा-उम्मासियामुक्कराकरियारओ वि अवलम्याऽऽश्रित्य कार्य यत्किञ्चिदाचरन्ति सेवन्ति गीतार्था भगीयत्यो गुरू विसं व विसहरु व्य स्खलसंगु व कुत्रडासंबंधु आगमविदः, स्तोकापराधं बहुगुणं मासकल्पाविहारवत सर्वेषों व भीमसाणं व उस्सहियपिसाउ व्व डज्झमाणमहारनं व प-1 जिनमतानुसारिणां तत्प्रमाणमेव, उत्सर्गापवादरूपत्वादागमरिहरिय ब्यत्ति । एष प्रथमभङ्गः ॥१॥ तहा अन्ने गीयत्था स्यति गाथार्थः। नो संबिग्गा, तन्ध वि किं नाम तेण सुरण प्रत्येण या णापण णय किंचि अणुन्नायं. पमिसिर्फ वावि जिणवरिंदेहिं । न जम्हा संवेगो पायारो वा पयट्टर, केवलं गलतालुसोसणफलं । जो-"जहा स्वरो चंदणभारवाही, भारस्सनागीन हु तित्थगराणं प्राणा, कजे सच्चेण होगव्यं ॥ 60॥ चंदणस्स । एवं खु नाणी चरण हीनो, नाणस्स भागी न नैव किश्चिदनुज्ञातमेकान्तेन प्रतिषिकं वापि जिनवरेन्द्रैर्भगवहुसम्गई"॥ शिः,किन्तु तीर्थकराणामाझा श्यं यत कार्ये सत्येन भवितव्यं, तहा न मातृस्थानतो यत्किञ्चिदवलम्बनीयमिति गाथार्थः IGON "आउज्जनकुसमा, वि नट्टिया तं जणं न तोसेइ । किमित्येतदेवमित्याहजोगं अजुजमाणी, निदं खिसं च सा लहइ ॥॥ दोसा जेण निरंज-ति जेण खिज्जति पुनकम्माई। पलिंगनाणसहि प्रो, कारयजोगं न जुर्जा जो उ । न लह स मुक्खसुक्खं, लहइ य निदं सपक्खाओ ॥२॥ सेसो मोक्खोवाओ, रोगावत्यासु समणं व ॥ १ ॥ जाणतो वि य तरिउं, काइयजोगं न जुज नईए। दोषा रागादयो येन निरुध्यन्ते अनुष्ठानविशेषेण येन दीयन्ते एसो वुद्दा सोए, एवं नाणी चरणही ओ" ॥ ३॥ पूर्व कर्माणि, शेषाणि ज्ञानाबरणादीनि, एषोऽनुष्ठानविशेषो "जह साली महया परिस्समेण निष्फाइश्ता कुढ़ागारे युभि- मोकोपायः। दृष्टान्तमाह-रोगावस्थासु शमनमिव औषधानुष्ठानसा जश्तेहि सानोहि खजपिज्जाइनो सबभोगो न कीर३, मितिानक्तं च भिषग्वरशास्त्रे."उत्पद्येत हिसाऽवस्था,देशकातो सालिसंगहो अफलो हवह, अह तेहिं उवजोशो कीर, तो सामयान् प्रति। यस्यामकार्य कार्य स्यात्,कर्म कार्य च वर्जयेत" सफलो भव, तो एवं नाणेण नाऊण हेयमुवादेयं च वत्थु हेयं ॥१॥ इति गाथार्थः ॥८६॥ पं० २०२ द्वार । धर० । (गीतार्थः हिचा उवादेप पयहिज्जति, अवा इत्थ संधिगपखवाई केवलितुल्य इति" गच्छसारणा" शब्देऽत्रैव भागे ८०६ पृष्ठे सुद्धपरूवगो वंदर, न य वंदावेड, चारगुणगणसंगो भव, प्ररूपितम्) (गीतार्थस्यागीतार्थस्येव प्रायश्चित्तं पच्छित्तदातो श्रागामियत्ताए सुलज़बोहियत्तेण पाराहगो भव। ण' व्याख्यावसरे) सदनुष्ठायिनि, दर्श०। पूर्वसूरी, जी०१ एष द्वितीयो जङ्गः२।जे ते संविग्गा गीयत्था, ते नाणसंप प्रति०। संथारानगरस्थितवृद्धलघुगीतायैः शाखापुरे शय्यातर• यासंप उत्तयार चरणगुणप्पहाणयाए आराहगत्तेण धम्मायरि गृहं कृतं, तपस्थगीतार्थस्तद्गृहे आहारादिकं प्राज़, न वा। य गुरू भण-सोमसुणसु वट्टमाणे काले जं नाणं यश, तस्स तथा-शास्त्रापुरस्थगीतार्थ गरमध्ये शय्यातरगृहं कृतं भवति सुतत्यहि सुत्तत्थाओ गहियहा पत्तता विनिच्चियता गायत्था तदा तत्रस्थगीतार्थस्तदूगृहे आहारादिकं ग्राह्यं, न वा ?। तदूसमत्ये वट्ठाईण मणुभावो वीरियमगोवित्ता संविग्गा"॥ था-क्रोशत्रयावधि वृद्धगीताथैः शय्यातरगृहं कृतं तत्पालनीय. जओ सुयं न वेति प्रश्ने, उत्तरम-नगरस्थितगीतार्थः शाखापुरे शय्या"को वा तहा समत्थो, जह तेहिं कयं तु धीरपुरिसाह। तरगृहं कृतं नवति तदा तद्गृहे नगरस्थगीतार्थादिजिस्तत्र स्थगीतार्थादिभिस्तत्रस्थसाधुभिश्वाहारादिकं न ग्राह्य, तथा जहसत्ती पुण कीरइ, दढप्पश्ना हबह एवं ॥१॥ कालोचियजयणाए, मच्छररहियाण उज्जमंताण । शास्त्रापुरस्थगीतानगरमध्ये शय्यातरगृहं कृतं भवति तदा तगृहे तत्रस्थसाधुभिः शाखापुरस्थसाधुभिश्चाहारादिकं - जणजत्तारहियाणं, होइ जश्त्तं जहण सया"॥२॥ प्राचं, परं परस्परं तद् गृहं ज्ञापनीयं, तथा-क्रोशप्रयाज पुण जयंताणं वि पमायबहुलत्तयाए कह विलियं, न | तेण चारित्तविराहणा।जओ-"कटयपहिव्व क्खनणा,तुल्ला हुज्जा वधि वृष्कृतशय्यातरगृहं मुख्यवृत्त्या सर्वैरपि साधुभिःपापमायरक्षणाओ।जयणावो विमुणिणो,चारितंकण सा हणह" लितं युज्यते, परमधुना स विधिः सत्यापयितुं न शक्यते, त॥१॥तहा-अवबायपयालंबणे विसुरुचरणे चेव जहा काउ-1 थापि यदा ज्ञायते तदा सत्याप्यते इति परम्पराऽस्तीति। किं चस्सगो उस्सम्गो नहाणेण कायब्यो, अवधारण अतरंतो यत्रोषितास्ततः स्थानात यस्यां वेलायां निर्गता द्वितीयदिने ता वत्या वेलायाः परतोऽशय्यातरोनवतीत्यावश्यकटिप्पनके प्रति ह निसन्नो करिज्जा, तह वि हु असहू निसन्नो उसंवाहुवस्सए वा कारणे सह वि य निसन्नो" इत्यादि श्रारुप्रतिक्रमणचूर्णिगतमि शेयम । ५३ प्र० सेन० ३ उहा। ति। एष तृतीयो भङ्गः३।ये तु न संविग्ना न गीतार्था ज्ञानक्रियो-गायत्थणिस्सिय-गीतार्थनिश्रित-त्रि०ागीतार्थसंयुक्त बहुलभयविकला केवलं लिङ्गमात्रोपजीदिनो धर्मस्यानाराधकते। तसमन्विते गीतार्थे, पञ्चा० ११ विव० व्या प्रव० । षो. Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीयत्यपरिमाह श्रीवत्यपरिग्गदगीतार्थपरिग्रह पुं० [गीतार्थप व्य० ४ उ० । गीयमाथ गीतमान १० सङ्गीतशास्त्र परिहानात्मके क अभिधानराजेन्द्रः । ( २०४ ) कल्प० 9 कण । 1 गीयर - गीतरति - स्त्री० । गीतेन श्रीमायाम, श्री० गन्धर्वा खामि भ० ३०० स्था० ( गीतरतेरप्रमहिष्यः 'अगमदिसी' शब्दे प्रथम भागे १७१ पृष्ठे बाप स्था०७० | गीते रतिर्यस्य सः गीतप्रिये, जी० ३ प्रति०। गीतेन या रती रमणं क्रीडा ला प्रिया येषां गीतरतयो वा लोका येषां ते तथा । और। "गौयरई गंधव्त्रनह्कुसला" गीतरतिश्वासौ ग. पाटलाचेति समासः गन्ध युकं गीतं नाट तु नृत्तमेवेति । विपा० १ श्रु० २ श्र० । गीते रतिर्येषां ते गीतरहर्षितमनसो गन्धहर्षितमनसः ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः तेषाम जी० ४ प्रति I मीयाणाकरण- गीता झाकरण १० सेचने पश्च० ४] द्वार । गीवा- प्रीवा स्त्री० कण्डे भी० कन्धरायाम, को० - 1 गुंठ-गुच्छ पुं०।१२६त्यनुस्वाराग मः । स्तवके, प्रा० १ पाद । गुंडा-देशी-बिन्दी, अधमे - गीयवाय गीतवादित वयाचे, " उचियमिह यानेच य-मुचियाण वयाइ पमिहि जं रम्मं" । पञ्चा० ६ विष० । गीयविहि- गीतविधि - पुं० । गीतं गानं तद्विधयः । कोकिलारुतानुकारित्वादि काकस्परानुविधायित्यादिषु च। उत्त गीवसह गीतशब्द- पुं० पचमरागादि १६ अ० । दे००२ वर्ग ४१२६ गुंज इस बा० ज्यादासे, "इसेर्तुङ इति इसेगुञ्जादेशः । 'गुज्जर,' 'हसर,' हसति । प्रा० ४ पाद । गुंज - देशी- हास्य कर्तरि, दे० ना० २ वर्ग -गुद शिविशेषाने जं० १० ०" गुंजतथं कुरुरोप" रा० । कृष्णभागादन्यजागत बी० गुंज - गुञ्जार्द्ध-न - न० गुरुजाया श्र कणम् । गुज्जाया रक्तभागे, कल्प० ३ कण । गुंजकराग गुञ्जार्कराग-२ गुजाया हि नमतिरकं भवनि. कृष्णं सतो गुजाराम " इति घा "। जी० ३ प्रति० । रा० । - गुंजा गुज्जा-श्री० ०" गुंजा गुजन गुरुजा प्रधानानि यानि च दमार्गप्रति लानि कुटयास तेथूपगूढं गुरुजनककुहरोपगूढम् किमु कं भवति तेषां देवकुमाराणां देवकुमारिका तस्मिन् प्रेममयेगायत गीतं तेषु प्रेक्षागृह मण्डपकेषु च कुहरेषु स्थानि रूपाणि प्रतिशब्दसहखायुत्थापयते इति । श०। जम्भायाम, श्रात्रा ० १ ० १ ० ७ उ० । बोडियाख्ये, अनु० । रक्तकृष्णफत्रविशेषे, का० १ ० १ ० । प्रका० गुग्गुलु अनु० । धान्यमायफलद्वयपरिच्छिन्ने, स्था० वा० । प्रतिमाने, स्था० ४ ठा० १ उ० । ज्यो० । "गुञ्जका तु यवैस्त्रिभिः” तं० । कनी चर्यायाम, वाच गुंजालिया - गुञ्जालिका स्त्री० । वक्रसारण्याम, प्रश्न ०५ सं० 1 द्वार | जं० जी० । प्रशा० ॥ भ० औ० । अनु० । “पुक्खरिणिश्रो वा मंडलिसंठियाश्रो श्रनोभकवाड संजताश्र गुंजासिश्रा नन्नति" नि० चू० १२ ब० । गुज्जालिका दीर्घा गम्भीराः कुटिलाः । आचा० २ ० ३ ० ३ उ० । वक्रनद्याम, प्रका० ११ पद । रा गुंजावाय-गुजावात पुं० । गुआ भम्भा तगुञ्जन् यो बाति स गुजावातः । भाचा० १ ० १ ० ७ उ० । शब्द कुर्वन् वाति । वायुकायभेदे, जी० १ प्रति० भ० । प्रज्ञा० । गुंजिय गुमित न० गुजायमाने महायनी अ० । नि० चू० । श्रा० चू० । देशी-पिडीते ००२ वर्ग गुंजो-नृद्-लस-धा० | उत्कर्षेण लसने उसने, “उल्लसेरूसासुंभ- जिस पुल भाभ-गुंजोद्धारोषा "४।२०२ । इति उसे जलादेशः 'गुरुजोझ' '' चल्लसति । प्रा० ४ पाद । दे० ना०श गुंठ-गुएउत्रि० मायाविनि व्य० ३४०मि० ० । गुंग्समाण - गुण्ठसमान - पुं० | दुर्व्यवहारिमेदे, व्य० । 1 , मरह्लामपुच्छा, केरिया सामगुंत साहिए । पावरटिज दसिया गणणे पुणो दाणं ॥ गुंगहि एवमादीहि हरति मोहितु तं तु बवहारं । पको लाटो गन्डमा किमपि नगरं व्रजति, अपान्तराले च पथि महाराष्ट्रको मिलितः, तेन ब्लाटस्य पृच्छा कृता । कीदृशाः खलु 'लाटाः गुण्ठा मायाविनो भवन्ति । स प्राह-पश्चात्साधयिष्या मि मार्गे गतशीलता तो न शीते महाराष्ट्रकेण प्रावारो गन्ध्यां प्तिः, तस्य च प्रावारस्य दशका लाटेन गणिताः, ततेा नगरप्राप्तौ महाराष्ट्रिकेण प्राचारो ग्रहीतुमार - लाटो हुने कि मदीयं प्रचारं गृहास है। एवं तयोः परस्परं विवादो जात महाराष्ट्रिय लाटो राजःविचा लाटोप पृष्ठ महाराष्ट्रात प्राधारहिं कथ य-कति दशा अस्य सन्ति ? | महाराष्ट्रिकेण न कथिताः, तेन च कथिता लादेन, इति महाराष्ट्रको जितः। ततो राजकुलादपसृत्य सादेन महाराष्ट्रकाकार्य प्रारं त्या ते परमित्र ! यस्या पृष्टम-कीरशा लाटा गुण्ठा भवन्तीति तदशा लाटा गुण्डा भवन्तीति यमादिनिभिर्मायाजियों मे प्रस्तुतं व्यवहारं हरति अपनयति स गुण्ठसमानः । व्य० ३० मिव-गुमित त्रि० । प्रावृते याचा० १ ० २ २० १४० । व्याप्ते, " उणी जह पसुगंभिया " सूत्र० १० २ ० १ ० प्रेरिते, "विस्मडिता द्वारा "बि तरसा गुंडियं गेति । " नि० न्यू० १ ३० । गुग्गुलु - गुगुलु-पुं० । 'गुग्गुलुभांर गहाय मरुयच्छं आगनो' । याव०४ अ०। 'गुग्गुलुन्बयाकरीरयलिबपंचगम सगणे” । स०प्र० । Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (you) अभिधानराजेन्द्रः | गुच्छ गुच्छ गुच्छ (म)-०-० सं० किए। सुतं स्वति या जो सोवा का ० १ ० १ वश्या निश्वं गुच्छि स्थाप ताकापसीज म० । जं० । स्तवके, उत्त० । २ श्र० । “निश्चं या" यद्यपि गुयोरविशेषो नामको विशेष प्रायः ०१०१० पाश्चादक तुलसी कुस्तुम्भरी पिप्पलीनीयादिषु माचा०] १ ० १ ० ४ ० । जी० प्रज्ञा० । न० औ० | १० | शा० । पर्याये, सिपारुगस्य गुच्छे प्रा० । । 1 से किं तं गुच्छा ! | गुच्छा अरोगा पत्ता तं जहा "बस पुणु-ई व तह करीना सुपक्षा सल्ल रूबी दीली, तुलसी तद् माडलिंगी य ॥ १ ॥ त्युंजरि पिप्पनिया अतसीपीय कायमाईया | पडोला कंदलिया, वायोया वत्थुले वदरे ॥ २ ॥ पत्त नरसी य उरए, हवइ तह जत्रासए य बोधव्वे । णिग्गुंमि अक तूवरि, आढई चैव तलओमा || ३ || पाण कासमद्ग, अग्याम साम सिंदुवारे य करमद अट्ट रूसग, करीर एरावण महत्वे ॥ ४ ॥ जाउल तमाला परिली, गपमारि शिकुयकारिया भैमी । जावर केयइ तह गंज पामझा दासि अंकोझे " ॥ ५ ॥ जे याव तपगारा । सेत्तं गुच्छा । प्रज्ञा० १ पद । गुच्छ्रिय-गुच्छित त्रिः । संजातगुच्छे, गुच्छश्च पत्रसमूहः । जं० १ वक्क० । “निश्च्वं गुच्छिया " । रा० । गुलर गुर्जर देशमेदे ०७ अनु गुज्ज - गुह्य - त्रि० । “साध्वस-ध्य ह्यां ज्झः” । ८ । २ । २६ । इति ह्यस्य ज्झः । प्रा० २ पाद । रहस्ये, अनु० । प्रश्न० । गुह्यमिव गुह्यम् । लज्जनीयव्यवहारगोपनीये, झा० १ ० १ ० ॥ भ० । लिने, ध० २ अधि० । मृगीपदे, नि० ० ४ उ० । गोपनीयत्वामैथुने, प्रश्न० ४ आश्र० द्वार | गुज्जग-गुह्यक- पुं० यके, को० । “अपस्समाणो परसामि, देवे गुगे" । स० ३० सम । " केलासभवणा एप, गुज्झगा समुवठिया " स्था०५ ठा० ३ उ० । गुणुचरिय-गुह्यानुचरित - न० । सुरसेविते, दश० ७ ० । गुज्जदेस - गुह्यदेश-पुं० । लिङ्ग, "सुजायवरतुरगगुज्झदेसा” । प्रश्नः -द्वार । गुग्मजासण गुणभाषण १० रहस्यान्यारूपाने मृपाबादातिबारे मुखं गूहनीयं न सर्वस्मै पकथनीयं रा जादिकार्य संबद्धं तस्यानधिकृतेनैवाकारेङ्गितादिभिर्ज्ञात्वाऽन्य प्रकाशनं गुह्यभाषणं, यथा- एतेहीदमिदं च राजविरुद्धादिकं मन्त्रयन्ते, अथवा गुह्यभाषणं पैशुन्यं, यथा द्वयोः प्रीतो सत्यामेकस्याकारादिनोपलज्याभिप्रायमितरस्य तथा कथयति यथा प्रीतिः प्रणश्यति । श्रस्याप्यतिचारत्वं रहस्याभ्याख्यानवास्थादिनैवेति तृतीयोऽतिचारः ०२ अधि गुग्झसाल गुबशाल न० रहस्यथाखायाम, नि०यू०ड० २२७ | गुज्ऊहर देशी- रहस्यमेदिनि दे० ना० २ वर्ग गुरुकापरिय-गुद्यानुपरितन० श्रु० ४ अ० १ उ० । गुण गुम्फोकासिय-गुझावका शिक०सूता सखनीयाचा स्थगनीया अवकाशादेशाः, अवयवा इत्यर्थः । रहस्येषु, प्रश्न० ४ सम्ब० द्वार । विचरले आचा० २ गुट्टमज्झ - गोष्ठमध्य-म० गोकुलान्तरशब्दार्थे, आव० ४ श्र० । गुंतु देशी-अत्रमध्ये उच्छलयति । दे० ना० २ वर्ग गुंत-देशीया दे० ना० २ वर्ग गुड-गुम- पुं० । श्रसक्काथे, ध० २ अधि० । द्रवगुडपिएडगुडादौ स्था० ४ डा० १० गुडो द्विभेदो गुरुषिगुडमेन प्र० ४ द्वार तनुषाणविशेषे प्रश्न०३ श्राश्र० द्वार । गुमदालि - देशी- पिएमीकृते, दे० ना० २ वर्ग । गुम सत्य - गुमशास्र न० पुराने, पत्र य कः प्रतिबोधितः। श्रा० क० ( ' विज्ञासिक' शब्दे वट्टकरयक वक्तव्यता ) गुडिय - गुमित त्रि० । गुडा महतनुत्राणविशेषः, सा जाता येषा ते गुमिताः । गुमेन सज्जितेषु, विपा० १श्रु० ३ ० ॥ गुंड - देशी - मुस्तोद्भव लचकाण्यतृणे, दे० ना० २ वर्ग । गुणा ५० नं० गुण ] -भावे करा गुणाच्चाः की " ||८||३४|| इति वा क्लीबत्वम् । " विदवोह गुणाइ मग्गति" प्रा० १ पाद । धनुषो मौर्व्याम, वाच० सूत्रे, विपा०१ ०२ भ० । शुभ्रे, अप्रधाने, दैम० धम्मै, स्था० ५.०३ ० विशे० प्रशस्ततायास्, झा० १ ० १ ० यथाऽऽत्मनः जीवरूप स्मृतिजसाचिकीपीजियमपाशंसत्यादिज्ञानविशेषः । विशे० | ज्ञानदर्शनचारित्ररूपा वा उत्त० १६ श्र० । श्राव० । आ० म० कान्त्यादयः । अनु० स० । आवा० नं० | चारित्रविशेषाः "सत्तावीसं अणगारगुणा स०१ सम० । प्रइन० । "इकतीसं सिद्धागुणा " स० ३१ सम० श्रष्ट० । गुणव्रतानि । स चारित्रवृद्ध्यादयः पं० व० ३द्वार । मूलोत्तरगुणाः । सूत्र ० २०६ ० ० "गुणचयम, मुवि जामो पश्चक्खो" । स्था० १ ० १०० प्रश्न० नं० । श्रष्टादश शी[सू० १ ० ११ २० गुणानिधीवरुणामयुपासना प्रतिदिनं प्रमादात थाविधारित्रयाच भक्तीति 33 46 1 19 पर्ययात् । ज्ञा० १ ० १० श्र० । महर्द्धिप्राध्यादयः। स० । सौचाभ्यादयः । भ० २ श० १ ० विपा० । मृदुत्वादायादयः । नि० परो३ वर्ग | विशिष्टर्द्धिप्राप्तिज्ञान्त्यादयः । विशे० । काकरभिर्निरीहता, विनीता सत्यमनुत्पतित विद्या विनोदोऽनुदिनं न दोनता, गुणा इमे सत्यवतां भवन्ति ॥ १ ॥ ६० २० नोदम्बानर्थितामेति न चाम्नोमि ते। आत्मा तु पात्रतां नेयः, पात्रमायान्ति सम्पदः ॥ १ ॥ " मं० 1 विभवसुखदयो वा औ० पुरुषस्य गुणाः सीन्दययः । [झा० १ ० १ ० । कान्तिनकणाः पुरुषगुणाः । झा० १ ० । Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण १ अ० । शौर्यादिलका वा । ज्ञा० १ ० १ अ० । व्यायामविक्रमादिकाः । सुत्र० १ ० ४ श्र० १० । विषयसूची (१) सतां गुणानां नाशदीपनी । (२) गुणस्य पञ्चदशधा निक्केपः । (३) आवर्तरूपा गुणाः । (४) मूलस्थानरूपा गुणाः । (५) द्रव्यपर्यायार्थिकनयभेदेन गुणविचारः । (६) गुणलक्षणम् । (७) गुणपर्याययोर्भेदे विचारः । () इम्बेण सह गुणपर्याय विचारः । (६) व्यक्तिरूपवर्णनम्। (१०) गुणाः । (११) विशेषगुणानामाख्यानम् । ( ए०६) अभिधानराजेन्द्रः | ( १२ ) स्वमाना एव गुणाः । (१) गुणानां नाशनदीपनीचउर्दि डायोसिंते गुणे पासेला तं जहा फोडे, पनिनिवेसे, कयणुयाए, मिच्छत्ताहिणिवेसेां । चहिं ठाणेहिं - संगुले दीपेतं जदा अन्नासवत्तियं परच्छंदा एवत्तियं, कज्ज हेडं, कयपमिकइए इति वा । अनन्तरं क्रिया उक्तास्तद्वांश्च सदसद्द्भूतान् परगुणान्नाशयति, प्रकाशयति चेत्येवमर्थ सूत्रद्वयं तच सुगमम्, नवरं सतो विद्य मामान् गुणान्नाशयेदवनाशयेदपत्रपति । न मन्यते क्रोधेन रोषेण, तथा प्रतिनिवेशेनैष पूज्यते, श्रद्धं तु नेत्येवं परपूजाया असहन लक्षणेन कृतमुपकारं परसंबन्धिनं न जानातीत्य कृतशः, तद्भावस्तता, तया, मिथ्यात्वाभिनिवेशेन बोधविपर्यासेनेति । चतं च"रोसेण परिनिवेसे-ण तह य कयतुमिच्चभावेणं । संतगुणे नासिसा, जास अगु असंते वा २ इति सोऽविद्यमानान् ( कचित्संतेति पाठः) तत्र च सतो विद्यमानान् गुणान् दीपयेत् परेदित्यर्थः अन्यासो हेवाको वर्णनीया या प्र त्ययो निमित्तं यत्र दीपने तदभ्यासप्रत्ययं दृश्यते अभ्यासानिर्विषयाऽपि निष्फलाऽपि च प्रवृत्तिः संनिहितस्य च प्रायेण गुणानामेव ग्रहणमिति, तथा परच्छन्दस्य पराभिप्रायस्यानुवृत्तिरनुवर्त्तना यत्र तत्परच्छन्दानुवृत्तिकं दीपनमेव, तथा कार्यहेतोः, प्रयोजननिमित्तं चिकीर्षितकार्य प्रत्यानुकूल्यकरमायेत्यर्थः तथा कृते उपकृते प्रतिहतं प्रत्युपकार, तयस्थास्ति स] कृतप्रतिकृतक इति वा प्रत्युपकति हेतोरित्यर्थः ॥ अथवा प्रतिकृतयेति पकृतं गुणा कीर्तिताः स तपासतोऽपि गुमान प्रकारार्थमुकीर्तयतीत्यर्थः । इती रूपप्रदर्शने, वा विकल्पे, इदं च गुणनाशनादि शरीगेण क्रियत इति । स्थाo daro ४० । (आत्मनो गुणावकत्थनं दोषायेति ' जिणकप्रिय ' शब्दे वदयते ) || उपकारे, स्था० ५ ठा० ३ उ० । गुणाः साधनमुपकारकामित्यनर्थान्तरम् । उत्त० १ ० । "जो तु गुणो दोलकरो, ण सो गुणो दोस पत्र सो होति । श्रगुणो बी होति गुणो जो सुरिविच्छ होति ॥ ७६६॥ नि०यू० १६ ० गुण्यतेऽभिधत्ते ऽन्विष्यते सव्यमिति गुणः । शब्दरूपरसगस्पर्शादिके, श्राचा० । (२) तत्र गुणस्य पञ्चदशधा निक्केपःदव्वे खेसे काले, फल पजव गला करण अन्नासे । गुणा गुणगुणे या गुणगुणे, जवसीलगुणे य जावगुणो ॥७७॥ दो दयं चिप गुणारा जं सम्मि संभव हो। सचित्ते चिते, मीसम्म य होइ दव्वम्मि ॥ ७८ ॥ संकुचिप विपत्तिं एसो जीवस्स हाई जीवगुणों। पूरे इंदि गं, बहूपगुणं ॥ ७६ ॥ देवकुरु समसमा सिद्धी निजया दुगाइया चेव । , कला जोगाज्जुवंके, जीवमजीवे व भावपि ॥ ८० ॥ व्य दब्वे खेत्ते गाडा" नामगुणः, स्थापनागुणाः, अव्यगुणः, क्षेत्रगुणः, कात्रगुणः, फलगुणः, पर्यवगुणः, गणनागुणः, करणगुणः,भ्यासगुणः, गुणबगुणः, श्रगुणगुणः, भवगुणः, शीलगुणः, मान्गुणखेति गायासमासाः सदेचं सूत्रानुगमने सूत्रे समुचरते निष नियुक्यनुगमेन तदवयवे निक्तिप्ते सत्युपोद्घातनिर्युकेश्वसरः । साउद इत्यादिना द्वाराधाद्वयेनानुगन्तस्य ॥७७॥ साम्प्रतं सूत्रस्पर्शिका निर्युकेरवसरः, तथापि सुगमनामस्थापनाव्युदासेन अन्यादिकमाह - (दव्वगुणो गाहा) तत्र द्रव्यगुणो नाम द्रव्यमेव, किमिति गुणानां यतो गुणनिदान संभवात् ननु च गुणयोकणविधानद। द्भेदः। तथाहि द्रव्यलक्कणम् - "गुणपर्याविधानपिकाशीवादिकमिति' गुणअक्षणम्-'इज्याश्रयिणः सहवर्तनो निर्गुणा मुखा इति विधानम पि. ज्ञानेच्छाद्वेषरूपरसगन्धस्पर्शादयः स्वगता इति दोषोपध्ये वित्तमित्रभेदेमिने गुणस्तादात्म्येन स्थिताः तत्राचित्यं द्विरुरूप विधा aisassकाश भेदभिन्नम् । तच्च गतिस्थित्यवगाढदानवकणं, गुणोऽप्यस्यामूर्त्तत्वागुरुलघुपर्यायलक्षणः, तत्रामूर्त्तत्वं त्रयस्यापि स्वरूपं न प्रेदेन व्यवस्थितमगुरुलघुपयांयोऽपि तत्वाव मृदो मृत्विमस्थाको पक्त रूपमपि तद्देशप्रदेशपरमाणु नेदं तस्य च रूपादयो गुणाः, अभेदेन व्यवस्थितनेदेनानुपलब्धेः संयोगविभागात् स्वात्म या सचि समप्युपयोग कूल कि जीवन तस्माद्भिज्ञानादयो गुणाः, तद्भेदे जीवस्याऽचेतनत्वप्रसंगात् । तत्संबन्धाविष्यतीति चेत् अनुपासितगुरोरिदं वचः यतो हि स्वतोऽसी शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते, नान्धः प्रदीपशतसंबन्धेऽपि रूपालोकनाथा लमित्यनवेय दिशा मिश्रच्यो पालकत्वसंयोजना स्वबुद्ध्या कार्येति गाथार्थः । तदेवं व्यगुणयोरेकाकरवे प्रतिपादिते सत्याह शिष्यः तत्किमिदानीमभेदोऽस्तु न तदप्यस्ति यतः सर्वथा भेदे ऽयुपगम्यमाने वनस्पत्येकेनैयेन्द्रियेण गुणान्तरस्याप्युपलब्धेरपरेन्द्रियवैफल्यं स्यात् । तथाहि-नूतफलरूपादौ चक्षुराद्युपलभ्यमाने रूपाद्यात्मभूतावयवि ज्याव्यतिरिकरणादेरप्युपलब्धिः स्याद्रूपादिस्वरूपपदेष दः स्वात् यदि रूपादी समुपन्यमानेऽन्येऽपि समुपलभ्ये सारिपचदिति तदेवं दानेदोषपत्तिनिर्व्याकुलितमतिः शिष्यः पृष्ठति उभयथापि दोषापत्तिदर्शनात्कथं गृह्णीमः । श्राचार्य श्राह श्रत एव भेदोsस्तु तत्रादपत्रे ज्यगुणश्यते तु भाषो गुण इति । तथाहि गुण गुणिनो पोचपविणोः सामान्यविशेषयोरपवावयविनो दादण्यवस्था नो वैवात्मभावसद्भावात् । - Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए०७) गुण अभिधानराजेन्द्रः। माह हि तु सांसारिक सुखफमाभास एव फसाध्यारोपानिष्फमत्यर्थः। प"दब्बं पज्जवधिव्यं, दवविउत्ता य पजवा ऽत्यि । र्यायगुणो नाम व्यस्यावस्थाविशेषः। पर्यायः स एव गुणः सप्पायनिंगा, हंदि दवियलक्षणं पयं"। पायगुणः, गुणपर्याययोनयवादान्तरेणाभेदाच्युपगमात, सच "नयास्तव स्यात्पदलाना श्मे, रसोपविष्टा इव लोहधातवः। निर्भजनारूपो,निश्चिता भजना निर्भजना, निश्चितो जाग इत्यर्थः। प्रवन्त्यनिप्रेतफना यतस्ततो, जवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः" ॥ तथाहि-स्कन्धव्यं देशप्रदेशेन भिद्यमानं परमाएपन्तं भेदं ददा. ति, परमाणुरप्येकगुणकृष्णद्विगुणकृष्णादिना अनन्तशोऽपि प्रेद्यइत्यादि स्वयूस्थैरबहु विजृम्भितमित्यलं विस्तरेण । एतदेव नियुक्तिकारः समस्तव्यप्रधाने जीवाव्ये गुणमदेन मानो नेददायोति। गणनागुणो नाम द्विकादिकः,तेन च सुमहतोऽ. व्यवस्थितमाह-(संकुचियगाहा) जीवो हि सयोगिवीर्यस पिराशेर्गणनागुणेनेयत्ताऽवधार्यते। करणगुणो नाम कलाकौशलं, दव्यतया प्रदेशसंहारविसर्गाच्या आधारवशात्प्रदीपवत् सं. तथाहघुद कादौ करणपाटवार्थ गात्रोतकेपादिकांक्रियांकुवान्ति। अज्यासगुणो नाम नोजनादिविषयः।तद्यथा-तदहर्जातबालकोऽपि कुचति, विकसति च, एष नीवस्यात्मभूतो गुणो, नेदं विनाऽपि नवान्तराभ्यासात स्तनादिकं मुख एव प्रतिपति,उपरतरुदितश्च तस्योपलब्धेः। तद्यथा-राहोः शिरः, शिलापुत्रस्य शरीरमिति । जवति । यदि वा अज्यासवशात्संतमसेऽपि, कंवबादेर्मुखधिवरे तदनव एव वा सप्तसमुद्घातवशात् संकुचति, विकसति च । प्रत्तेपायाकुमितचेतसोऽपि च तुदमात्रकण्डूयनमिति । गुणागुणो सम्यग् समन्तत उत्प्राबल्यन हननमितश्चेतयात्मप्रदेशानां प्र. माम-तत्र गुण एव कस्यचिदगुणत्वेन विपरिणमते । यथा-जीकेपणं समुद्धातः। स च कषाय-वेदना-मारणान्तिक-क्रिय-तेजसा-हारक-केवलिसमुद्धात-नेदात्सप्तधा । तत्र कषायसमुद्धा घोपेतस्य ऋजुत्वाख्यो गुणो मायाविनःप्रत्यगुणो भवति । तोऽनन्तानुबन्धी क्रोधाद्युपहतचेतस आत्मप्रदशानामितश्चेतश्च उक्तं चप्रोपः,इत्येवं तीव्रतरवेदनोपहतस्याऽपि बेदनासमुद्घातः। मार "शाठ्यं हीमति गएयते व्रतरुचौ दम्भः श्रुतौ कैतवं, णान्तिकसमुद्धातो हि मुमूर्षारसुमत प्रादित्सितोत्पत्तिप्रदेश प्रा. शूरे निधृणता ऋजौ विमतिता दैन्यं प्रियाभाषिणि । लोकान्तादाऽऽत्मप्रदेशानां भूयो भूयःप्रतपसंहाराविति। बैकि तेजस्विन्यवलिप्तता मुखरता वक्तर्यशक्तिः स्थिरे, यसमुद्धातो वैक्रियत्नब्धिमतो वैक्रियोत्पादनाय बहिरात्मप्रदेश- तत्को नाम गुणो जवस स विदुषां यो पुर्जनैनाङ्कितः"?॥१॥ प्रक्षेपः, तैजससमुद्घातस्तैजसशरीरनिमिन्नं तेजोलेश्यालब्धि- अगुणगुणोनामाऽगुण एव कस्य चित गुणत्वेन विपरिणमतां तेजोमेश्याप्रपाक्सरे इति। श्राहारकसमुद्घातश्चतुर्दशपू- मते, स वक्रविषयो, यथा-गौलिरसंजातकिणस्कन्धो गोगण विदः प्राहारकलब्धिमतः कचित्सन्देहाऽपगमनाय तीर्थकरा- स्य मध्ये सुखेनैवाऽऽस्ते । तथा चन्तिकगमनार्थमाहारकशरीरसमुपादातुं बहिरात्मप्रदेशप्रकपः । "गुणानामेव दौर्जन्या-द्धरि धुर्यों नियुज्यते । केवलिसमुद्घातं तु समस्तलोकव्यापितयाऽन्तनीतान्यसमु- असंजातकिणस्कन्धः, सुखं जीवति गांगलिः" ॥१॥ खातं नियुक्तिकारः स्वत पवाचष्टे-पूरयति व्याप्नोति,'हन्दी'त्युपप्र- भवगुणो नाम भवत्युपपद्यते तेषु तेषु स्थानेविति नारकादिदर्शने, किं,लोकं चतुर्दशरज्वात्मकमाकाशखएम, कुतो, बहुप्ररे. भवः,तत्र तस्य वा गुणो भवगुणः, सच जीवविषयः। तद्यथाशगुणत्वात्। तथा हि-त्पन्नदिव्यज्ञान आयुषोऽल्पत्वमवधार्य वे- नारकास्तीब्रतरवेदनासहिष्णवस्तिलशश्निसन्धानिनो अवदनीयस्य च प्राचुर्याइएमादिक्रमेण लोकप्रमाणत्वादात्मप्रदेशानां धिमन्तश्च भवगुणादेव भवन्ति, तिर्यश्चश्व सदसद्विवेकविकला लोकमापूरयति। तदुक्तम्-'दएमकवाडे मंथतरे य' इति गाथाथः। अपि सन्तो मगनगमनलब्धिमन्तो गवादीनां च तृणादिगतो व्यगुणः । केत्रादिकमाह- देषकुरुगाहा ] वेत्रगुणः दे. कमप्यशनं शुजानुभावेनापद्यते, मनुजानां वा शेषकर्मकयो, वकुर्वादि,कासगुणे सुषमसुषमादि,फत्रगुणे सिाहिः,पर्यवगुणे नि- देवानां च सर्वशुभानुनावो भवगुणादेवेति। शीलगुणो नामाऽपरै. प्रेजना,गणनागुणे द्विकादि,करणगुणे कलाकौशल्यम,अभ्यासगु- राक्रुश्यमानोऽपि शीलगुणादेव न क्रोधवशो जवति । अथवाणे भोजनादि,गुणागुणे ऋजुता,अगुणगुणे वक्रता,भवगुणशीन शब्दादिके शोजने अशोभने वा स्वभावादेष विदितवेद्यवन्मागुणयोभावगुणार्थमुपात्तेन जीवग्रहणेन गतार्थत्वानाथायां पृथग-। ध्यस्थमवलम्बते। नावगुणो नाम नावा औदयिकादयः,तेषां गुणो नुपादानम । नवगुणो जीवस्य नारकादिभवः,शीलगुणो जीव एव नाम भावगुण,स च जीवाजीवविषयः,सच जीवविषयः प्रादक्षान्स्यायुपतो, भवगुणे जीवाजीवयोरिति । एवं संयोज्यकैको यिकादिः षोढा । तत्रौदविका प्रशस्तश्च,तीर्थकराऽऽहारकशरीराव्याख्यायते तत्र देवकुरु उत्तरकुरुहरिवर्षरम्यकहैमवतैरवत- दिप्रशस्तः, अप्रशस्तस्तु शब्दादिविषयोपभोगहास्यरतीत्यादि, षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपकाऽकर्मभूमीनामयं गुणो-यात तत्रत्य- औपशमिक उपशमश्रेष्यन्तर्गतायुष्कक्षयानुत्तरविमानप्राप्तिलमनुजा देवकुमारोपमाः सदाऽवस्यितयौवना निरुपक्रमायुषो कणः,तथा सत्कर्मानुदयावरणश्चेति । क्षायिकनावगुणश्चतुर्का । मनोशशब्दादिविषयोपभोगिनः स्वभावमार्दवाऽऽर्जवप्रकृतिभ- तद्यथा-क्षीणसप्तकस्य पुनर्मिथ्यात्वागमनं कोणमोहनीयस्याएकगुणासन्नदेवलोकगतयइन जवन्ति।कालगणोऽपि जरतैरा- वश्वंभाविशेषघातिकर्मक्षयः कोणघातिकर्मणोऽनावरणज्ञानपतयोस्तिसृथ्वप्येकान्तसुषमादिषु समासु स एव सदाऽवस्थि- दर्शनाविर्भावोपगताशेषकर्मणोऽपुनर्भवस्तथाऽऽत्यन्तिकैकान्तितयौवनादिरिति, फलमेव गुणः फलगुणः, फलश्च क्रियाया भ- कानाबाधपरमानन्दलकणः सुखावाप्तिश्चेति कायोपशीमकदर्शवति, तस्याश्च क्रियायाः सस्यग्दर्शनशानचारित्ररहिताया ऐहि- नावाप्तिरिति पारिणामिको भव्यत्वादिरिति सान्निपातिकस्वीकामुष्मिकाथै प्रवृत्तयोरनात्यन्तिकोऽनैकान्तिको नवन फलगु- दयकादिपञ्चभावसमकालनिष्पादितः । तखथा-मनुष्यगत्युगोऽप्यगण एव श्रवति, सम्यदर्शनशानचारित्रक्रिया स्वैकान्ति- दयादौदयिका संपूर्णपश्चेन्छियत्वावाप्तेः कायोपशामक, दर्शनकात्यन्तिकानावाधसुखाऽस्याःसिकिःफलगुणोऽवाप्यते। एतदुक्तं | सप्तककयात् कायिकः, चारित्रमोहनीयोपशमादौपशमिका, जवति-सम्यग्दर्शनादिकैच क्रिया सिद्धिफलगुणेन फलवती,अपरा| भवत्वात्पारिवामिक शति । उक्तो जीवभावगुण सांप्रतमजीव Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (200) गुण प्रथमान्तं मागधदेशीवचनस्यादेकारान्तं सामान्यदेशार्थाभिधा यति । गुण्यते निद्यते विशिष्यतेऽनेन द्रव्यमिति गुणः । स चेह शब्द रूपरसगन्धस्पर्शादिकः स इति सर्वनामप्रथमान्तमु द्दिष्ट निर्देशार्थानिधायीति । मूलमिति निष्पन्नं कारणं प्रत्यय इति पर्यायाः, तिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थानं मूलस्य स्थानं मूलस्थानम्, "व्यवच्छेदफलत्वाद्वाक्यानामिति " न्यायात् । य एव शब्दादिकः कामगुणः स एव संसारस्य नारकतिर्यमराऽमरसंस्थितिलक्षणस्य यन्मूलं कारणं कषायास्तेषां स्थानमाश्रयो वर्तते यस्मान्मनोज्ञेतर शब्दाद्युपलब्धौ कषायोदयस्ततोऽपि संसार इति । श्रथवा मूलमिति कारणं तचाष्टप्रकारं कर्म, तस्य स्थानमाश्रयः कामगुण इति । श्रथवा मूलं मोहनीयं तद्भेशे वा कामस्तस्य स्थानं शब्दादिको विषयगुणः । अथ था मूल शब्दादिको विषयगुणस्तस्य स्थानामिष्टानिष्टविषयगुण इति । अथ वा-मूत्रं मोहनीयं तद्भेदो वा कामस्तस्व स्थानं शब्दादिव्यवस्थितो गुणरूपः संसारमा वा शब्दाद्युपयोगानन्यावाद् गुणः । अथ वा मूलं संखारस्तस्व शब्दादयः स्थानं, कषाया वा, गुणोऽपि शब्दादिकः कषासुतियपरिवतो वास्प्रेतिपदि वा संसारस्य शब्दादिकवाय मूलं रिण्तः सन्नात्मा, तस्य स्थानं शब्दादिकं, गुणोऽप्यसावेवेति । ततश्च सर्वथा य एव गुणः स एव मूलस्थानं वर्तते । ननु च वर्तनक्रियायाः सूत्रे ऽप्यनुपादानात् कथं प्रक्षेप इति । उच्यते यत्र हि काचिद्विशेषक्रिया नैवोपादायि, तत्र सामान्य क्रिया- श्रस्ति, नबति विद्यते वर्तत इत्यादिकानुपादाय वाक्यं परिसमाप्यते । एवमन्यत्रापि इयमिति अथवा मूलप्रवा स्थानमिति कारणं, मूलं च तत्कारणं चेति विगृह्य कर्मधारयः । ततश्च य एव शब्दादिको गुणः स एव मूलस्थानं संपाद्यं प्रधानं वा कारणमिति शेषं पूर्ववदिति । साम्प्रतमनयोरेप गुणमूलस्थानयोर्नियम्य नियामक नावं दर्शयस्तदुपाशानां 1 पापादन] जास्करन्यायेन परस्परतः कार्यकरणनाव सूत्रेव तत दर्शयति-मूला से मुसि) यदेव संसारमूलानां वा कपायाणां स्थानमाश्रयः शब्दादि को गुणोऽप्यसावे अथवा कषायमूलानां शब्दादीनां यत् स्थानं कर्म संसारो वा तत् तत् खजात्रापत्तेर्गुणोऽप्यसावेवेति । अथवा शब्दादिकषायपरिणाममूलस्य संसारस्य कर्मणो वा यत् स्थानं मोहनीयं कर्म शब्दादिकषायपरिणतो वाऽऽत्मेति तद्गुणावाप्तेगुणोऽप्यसावेव । यदि वा संसारकषायमूलस्याऽऽत्मनो यत्स्थानं] विषयामिष्योऽसादपि शब्दादिविषयत्वादगुणरूपं येति अत्र च विषयोपादानेन विषयको उपक्षेपात सुचनावाच सूत्रस्येत्येवमपि यम यो गुणेषु वा वर्त्तते स सुस्थाने.. याने या वने यो स्थान बने सब गुणादी तित इति । य एव जन्तुः शब्दादिके प्राख्यावर्णितस्वरूपे वर्त्तते स एव संसारमूलकपायादिस्थानादी द्वितीय सूत्रापेक्षादायम अनन्तमत्रस्येवमपि प्रष्टव्यम् । यो गुणस्स एवं मूलं, स एव च स्थानं, य (४) मूलस्थानरूपा गुणाः जे गुणे से मुलाणे जे मुलाने से गुणे इति से गुणई। म्मूत्रं तदेव गुण स्थानमपि तदेच, यत् स्थानं तदेव गुणों, मूलमहया परिताषेणं बसे प मपि तदेवेति, यो गुणः शब्दादिकोऽसावेष संसारस्य कपायकारणत्वम् स्थानमप्यसाकेन्वेवम एवमन्येष्वपि विकल्पेषु योग्यच विषयाप्तिः यो गुणे वर्त्तते स मुळे स्थाने चेत्येवं सर्वत्र इष्टव्यम् । इह च सर्वशप्रणीतत्वादनस्वार्थता सूत्रस्थावगन्तव्य तथादि-मंत्र पायादिकमुप गुण भावगुणः, स चौदयिकपारिणामिकयोरेव संभवति, नान्येषां कस्ता उकसाया विवक्षया यदुत काश्चित् प्रकृतयः पुनर्विपाकिन्य एव भवम्ति काता उच्यते-दारिकादीन शरीराप संस्थानानि त्रीण्यङ्गोपाङ्गानि षट्संहननानि वर्णपञ्चक गन्धद्वयं पञ्च रसा अष्टौ स्पर्शा अगुरुलघु नाम उपघातो नाम पराधातो नाम खद्योतो नाम आतपो नाम निर्माणं नाम प्रत्येकं नाम साधारणं नाम, स्थिरं नाम अस्थिरं नाम शुभं नाम अशुनं नाम। एताः सर्वा अपि विपात्यः सत्यपि जीवयविपाकि स्वादासामिति पारिणामिक जीवगणस्तु धानादिपरिणामित्र, सादिपरिणामिति। तत्रनादिपारिणामिको धर्माधमांकाशानां गतिस्थित्याल, सादिपारिणामिक जेन्द्र परमानन्तरोत्पतिरिति गाथा तात्पर्यार्थः । उक्ता गुणाः । आचा० १ ० २ अ० १ उ० । (३) श्रावर्तरूपा गुणाः जे गुणे से या जे आवट्टे से गुणे उ श्रहं तिरियं पाई पासमा रुवाई पासति सुखमाने सदाई 3 पाई मुच्यमाणे रुपे मुच्छति सदेसु भात्रि । यो सर्त परिभ्रमन्ति प्राणिनो पत्र स संसार एकवचनोपन्यासात् पुरुषोऽत्र संबध्यते या शब्दादिगुणे वर्तते स म्रायतें वर्तते यचाव वर्तते स गुणे बर्तते इति अथ य पते गुणाः संसारावर्तकारणभूताः शब्दादयः ते किं नियतदेशभाजः उत सर्वदिक्षु इत्यअथमित्यादि) महाकदिनकरस्तं रूपगुणं पश्यति प्रासादम्यां दिषु अधमित्यधस्तात् गिरिशिखरप्रासादादिरूढोऽधोव्यवस्थितं रूपगुणं पश्यति शब्दार्थे भवामि ?) वर्तते। गृहमिवादिव्यवस्थितं रूपनिक पश्यति तिर्यक्रशब्देन चादिशो दिशश्च परिगृहमा प्राचीनमिति कृपणम्-अन्य अध्येतदादिति पतासु दिक्षु पश्यन् चक्रुर्ज्ञानपरिणतो रूपादिव्याणि चकुर्मातया परिणतानि पश्यत्युपलजत इत्यर्थः । तथा-तासु च नृशृणोति नृपः श्रोत्रेण नान्यथेति प प्रतिवादिन चोपलात्संसारपात किंतु यदि कादिषु करोति तस्य इति दर्शयितुमाह-मित्यादि) पुनरुद्धच्छ सम्बन्धनार्थमुपादानम्, मूर्च्छजरूपेषु रामपरिणाम या रम्यते रूपादिविंशदे पति मदिः सम्भावनायां समुचये वा प विषयग्रहणाश्च शेषा अपि गन्धस्पर्शा गृहीता नवन्ति । एकग्रढगाचजातीयानां ग्रहणात्, आद्यन्तग्रहणाद्वा तन्मध्यग्रहणमवसेयमिति । श्राचा० १ ० १ अ० ५ उ० । श्रभिधानराजेन्द्रः । 'जे जे से' आदिमयन्यस्तु मे उस भगवया एवमखाये" किं तत् श्रुतं भवता यद्भगवता आयुष्मता म? जे गुणे से मूलहाणे) पसिनाम I - Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए०ए) अनिधानराजेन्सः। गुण न्यस्त, कषायाम क्रोधादयश्चत्वारः, क्रोधोऽप्यनन्तानुबन्धादि स्य मतेन पर्याय एवं तथ्य निरुपचरितं वस्तु, व्यं पुनस्तेष्वेष भेदन चतुर्का-अनन्तानुबन्धिनोऽप्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्र- पूर्वापरीभूतपर्यायेषूपचारतो व्यवहियते, न तु परमार्थतस्तदमाणानि बन्धाध्यवसायस्थानि, अनन्ताश्च तत्पर्यायाः, तेषां च स्ति, तेषु पर्यायेषु उपचारस्तदुपचारस्तस्मादिति समासः। तेन प्रत्येकं स्थानगुणनिरूपणमनन्तार्थता सूत्रस्य संपद्यते। सा च तस्मात्कारणात्पर्याय एवाऽस्य मुख्यतया सामायिकम्, न तु ग्मस्थेन सर्वायुषाऽप्यविषयत्वाचाऽशक्या दर्शयितुम.दिग्दर्शनं जीवाव्यमिति ॥२६४५॥ तु कृतमेवाऽतोऽनया दिशा कुशाग्रीयशेमुष्या गुणमूलस्था इदमेव पर्यायार्थिकनयमतं युक्तितः समर्थयन्नादनानां परस्परतः कार्यकारणजावः, संयोजना च कार्येति । त- पज्जायनयमयमिणं, पज्जायत्यंतरं को दव्यं । देवं य एव गुणः स एव मूलस्थानं, यदेव मूलस्थानं स पव ज्वलंजव्यवहारा-जावाओ खरविसाणं व ॥३६४६।। गुण इत्युक्तम् । ततः किमिति ?, अत आह-(ति से जह रूवाशविमिट्ठो, न घमो मव्वप्पमाणविरहाओ। गुणही महया इत्यादि ) इतिहेतोर्यस्मानन्दादिगुणपरीत मात्मा कषायम्यस्थाने संवर्तते, सर्वोऽपि च प्राणी गुणार्थी तह नाणाइविसिट्ठो,को जीवो नामऽणखेो ?॥३६४७।। गुणप्रयोजनी गुणानुरागीत्यतस्तेषां गुणानामप्राप्ती प्राप्तिनाशे पर्यायनयस्येदं मतम्-पर्यायवेव पूर्वापरीभावतः सदैव सातचाऽऽकाङ्खाशोकाभ्यां स प्राणी महताऽपरिमितेन परि सम त्येन प्रवृत्तेषु भ्रान्त्या व्योपचारः क्रियते, न पुनः पर्यायेन्ततो यः परितापस्तेन शारीरमानसस्वभावेन पुःखेनाभिनूतः भ्योऽर्थान्तरं निम्नं जव्यमस्ति । प्रयोगः-नास्ति परकल्पितं व्यं, पर्यायेज्योऽन्तरत्वात,खरविषाणवदिति। अथवा-नास्ति पर. सन् पौनःपुन्येन तेषु तेषु स्थानेषु वसत्तिष्ठेकुत्पद्येत् । किंभूतः सन-प्रमत्तः, प्रमादश्च रागद्वेषात्मको, द्वेषश्च प्राया न रागमृते, परिकल्पितं द्रव्यं, पर्यायेभ्यो भेदेनानुपत्रभ्यमानत्वात,व्यवहारेरागोऽप्युत्पत्तरारभ्यानादिजवाज्यासात् । आचा०१ श्रु०२० ऽनुपयुज्यमानत्वात् वा स्वरविषाणवदिति । यथा वा-रूपरसग न्धस्पर्शज्योविशिष्टो जिनो घटो नास्ति,सर्वप्रमाणाविरहात,स. १० सूत्र वैशेषिकसम्मतगुणाः-गुणाश्चतुर्विंशतिः । तद्यथा"रूपरसगन्धस्पर्श-संख्यापरिमाणानि पृथक्त्व संयोगविजागौ प्रमाणैः ग्रहणाभावादित्यर्थः,खरविषाणवदिति । तथा तेनैव प्र. कारेणाऽनाख्येयः पर्यायविरहेण सर्वोपाख्यारहितो ज्ञानादियो परत्वाऽपरत्वे बुद्धिः सुखदुःखे इच्छा द्वेषौ प्रयत्नश्च"इति सूत्रोक्ताः विशिष्ट व्यतिरिक्तः को नाम जीवः ?, पूर्वोक्तेयः एव हेतुभ्यसप्तदश। चशब्दसमुचिताश्च सप्त-भवत्वं गुरुत्वं संस्कारः स्नेहो धर्माधौं शब्दश्चेत्येवं चतुर्विंशतिगुगाःसंस्कारस्य वेगभा स्तयतिरिक्तो नास्ति कश्चनाप्यसाविति भावः॥२६४६॥२६४७॥ अथेदमेव पर्यायार्थिकमतं नियुक्तिकारोऽपिकिञ्चित्समर्थयबादवनास्थितिस्थापकनेदान्त्रैविध्येऽपि संस्कारस्वजात्यपेक्षया एकस्वाच्छीयौदार्यादीनां चात्रैवान्त वान्नाधिक्यम स्या। प्रा. नप्पति वियंति य, परीणामति य गुणा न दवाई। म. । आव०। प्रा० चू० । द्रव्यगुणानां परस्परमजेदः । सम्म. दन्नप्पजवा य गुणा, न गुणप्पजवाइँ दबाई ॥२६४।। ३ काण्ड । नित्यस्य चाकारणत्वान्न चतुःसङ्ख्यं परमाएवात्मकं उत्पद्यन्ते व्ययन्ते च, तथा-अनेनोत्पादव्ययरूपेण परिणमन्ति नित्यव्यं सम्भवति (इत्यन्यत्र प्रत्यपादि) सम्म ३ काण्ड । गुणा। चशब्द पवकारार्थः। तस्य चैवं प्रयोगः-गुणा एवोत्पा [७] नमन्ति गगणा इति व्याधिका-गुणाः स्वल्यौपचारिकत्वा- दव्ययरूपेण परिणमन्ति,न तु द्रव्याणि,अतस्त एव सन्ति,उत्पाइसन्त एव.व्यव्यतिरेकेण तेषामनुपसम्भात् । ततश्च न्यग्भूत. दव्ययपरिणामवत्स्वात,पत्रनीत्ररक्तादिवत, तद्यतिरिक्तस्तु गुणी गुणग्रामो जीव एव मुख्यवृत्त्या सामायिक न तु पर्याया इति नास्त्येव,उत्पादव्ययपरिणामरहितत्वाध्यासुतादिवदिति। किद्रव्यार्थिकनयो मन्यते । अाह-जनु रूपादयो गणा यदि म ञ्च (दव्यप्पभवाय गुणा नत्ति) द्रव्यात्प्रभवो येषां ते व्यप्रनया सन्ति, तर्हि कथं लोकस्य व्ये तत्प्रतिपत्तिः। उच्यते-भ्रान्तैवे. गुणा न जवन्ति, चशब्दोऽप्यर्थे । तस्य चैवं संबन्धः-नापि गुयम, चित्रे निम्नोन्नतप्रतिपत्तिवदित्यस्य नयस्याऽनिप्रायः। स णेभ्यः प्रभवो येषां तानि गुणप्रजवानि च्याणि भवन्ति, नएव सामायिकादिगुणः पर्यायार्थिकनयस्य परमार्थतोऽस्ति, न कारस्योभयत्राऽपि संबन्धात् । ततश्च न कारणत्वं नापि कार्यत्वं तु जीवाव्यं, यस्माजीवस्यैष गुणो जीवगुण इति, तत्पुरुषो. जव्याणामतस्तेषामभावः सतः कार्यकारणरूपत्वादिति । अथ ऽयं, स चोत्तरपदप्रधानः । यथा-तैसस्य धारा तैलधारोति, वा अन्यथा व्याख्यायते-जव्यप्रभवाश्च गुणा न भवन्ति, गुणप्रन चात्र धारातिरिक्तं किमपि तैलमस्ति । एवं सानादिगुणाति. भवानि तु व्याणि जवन्ति, पूर्वापरीभावेन प्रतीत्य समुत्पादरिक्तं जीवद्रव्यमपि नास्तीति पर्यायार्थिकनयाऽभिप्रायः । इति समुत्पन्नगुणसमुदाये व्योपचारप्रवृत्तेः । तस्माद् गुण एवं नियुक्तिकाराशयः। सामायिकमिति नियुक्तिगाथार्थः ॥१६४७ ॥ विशे। अत्र जाप्यम् (६) गुणलकणम: गुणः सहभावी धर्मो, यथाऽऽत्मनि विज्ञानव्यक्तिशइच्छद जं दबनो, दव्वं तच्च मुवयारो य गुणे।। क्त्यादिरिति ॥ ७॥ सामइयगुणविसिट्ठो, तो जीवो तस्स सामइयं ॥३६४॥ सहभावित्वमत्र लक्कणं, यथेत्यादिकमुदाहरणं,विज्ञानव्यक्तिर्यपज्जाभो चिय वत्थु, तत्थं दव्वं च तदुवयाराओ। स्किश्चिद् ज्ञानं तदानीं विद्यमानं, विज्ञानशक्तिरुत्तरज्ञानपरि णामयोभ्यता । मादिशब्दात् सुखपरिस्पन्दयौवनादयो गृपज्जवनयस्स जम्हा, सामश्यं तेण पज्जाओ ॥२६४५॥ ह्यन्ते ॥७॥ रत्ना० ५ परि०। यद्यस्माद्रव्यार्थिकनयस्तथ्यं सत्यं द्रव्यमेवेच्छति, गुणांस्तू- (७) गुणपर्याययोर्भेदे विचार:-ये सहनाविनः सुख. पचारत एव मन्यते,न तु सत्यान् , ततस्तस्मात्सामायिकगुण- ज्ञानवीर्यपरिस्पन्दयौवनादयस्ते गुणाः, ये तु क्रमवृत्तयः सु. विशिष्ट उपसजनीभूतसामायिकादिगुणो मुख्यतया जीव एव, खपुःखहर्षविषादादयस्ते पर्यायाः । नन्वेवं त एव गुणास्त एवं तस्य व्यार्थिकनयस्य सामायिकमिति । यस्मात्पर्यायार्थिकनय- पर्याया इति कथं तेषां द इति चेत', मेवम, काझाभेदवि २२० Jain Education Interational Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए१०) प्रभिधानराजेन्द्रः । गुण " " मेवानुभूत्येवमेषां सर्वथा मेद इत्यपि भन्तव्यम, कथञ्चिदभेदस्याप्यविरोधात् । न खल्वेषां स्तनकुम्भादि दो किन्तु धा भेदः, स्वरूपापेया तु भेद इति । रत्ना० ५ परि० । अनु० । सहभावी गुणो धर्मः पर्यायः क्रमभाव्यथ । मित्रा अभिश्राखिविधाः मिलता इमे ॥ २ ॥ सद्भाषीति) यस्य सहनाची यावद्रव्यभाषी यो धर्मः स गुण उच्यते । यथा जीवद्रव्यस्योपयोगाख्यो गुणः, पुत्रअस्य ग्रहणं गुण धर्मास्तिकायस्य गतिहेतुत्वं गुणः प्रथमस्वास्थ स्थितिहेतुत्वं गुणावर्तनाहेतुत्वं गुणा देव यमुत्पद्यते तदेव समवेतास्तेन इज्येण गुणा उत्पद्यते पी गुणिनः समानसामग्रीका स तरविषाणवत् इति । अनादिनिधनानां द्रव्यगुणानाम, उत्पत्तिदर्शनं व्यवहारतः कृष्णादिघटवत् । अथ क्रमभावी अयाभावी पर्यायः यथा जीवस्य नरकादिया पुलस् परपचाः, पर्मस्य व्यञ्जनार्थ अध जनार्थपर्याय कालस्य जनार्चपर्यायी आकाशस्य व्यञ्जनार्थ पर्यायौ । एवं इव्याणां संख्याकृतो भेदः, लक्षणादिकृतो. उमेदः प्रदेशा विनागतः त्रिविधाः, उपचारेण नवविधाः, एकैक. किया उत्पाद युक्ताः। इत्थं चमपि जैनप्रमाणप्राप्तानि द्रव्याणि, इति व्यगुणप योपा प्रत्येकं परस्परं मिश्रा श्रभिप्रास्त्रिविधाणियुताः सन्तीति व्याख्येयम् ॥ २ ॥ (G) अथ ध्येण सह गुणपर्याययोर्भेदं दर्शयन्नाहमुक्तायः श्वेततादिज्यो, मुक्तादाम यथा पृथक् । गुणपर्याय शक्तिस्तथाऽऽचिता ॥ ३ ॥ तादिकसामान्यं पूर्वापरगुणोदयम् । पिरमारथ्यादिक संस्थाना अनुगेका यया स्थिता ||४|| (मुक्तेति यथा मुकाः मौकिकानां श्येननादिभ्यक्ष मीकिमा भिन्न पर्तते तथैव शक्तिर्गुणाय भिन्नाऽस्ति । तथाऽत्र समाधिः- गुणपर्याययोक्तेः सकाशात पृयदि व्यकिप्रशसनाधिना मिश्रा अधक इत्यर्थः । श्वेततादयो मौक्तिकानां गुणस्थानिनः, मौक्तिकाः प स्थानिनः। एतद् द्वयं निनमपि व्यस्थाने मुक्तादानि संगतमनिनं सत् मुक्तादामेति व्यवहारो जायते । इति दृन्त योजना | अथवादित्यमान सामान्यविशेषरूपमनुभव न सामान्योपयोगेन निकासामान्य भासते, विशेषोपयो गेन घटादिविशेषं च भासते, तत्र यत्सामान्यभानं तत् अभ्यरूपं यश्च विशेषः स गुणपर्यायरूपो ज्ञेयः ॥३॥ अथ सामान्यं द्विप्रका दादपूर्ववो गुण विशेषतयो कारणं पूर्वापरगुणोदयं पूर्वापरपर्याययोरनुगतमेकं द्रव्यं, त्रिकालानुयायी यो वस्त्वंशः तदूयता सामान्यमित्यभिधीयते । निदर्शनमुन्नानमेव चाविमो लिपाइयोके संस्थान अनुमता पूर्वापाचारण करणामध्य रूपातिक तथाऽकारास्थिता बनता सामान्यं कथ्यते । यदि च पिएमकुलादिपर्यायेषु अनुगतमेकं मृद् ध्यं न कथ्य से तर्हि घटादिपर्यायेषु अनुगतं घटादिद्रव्यमपि न कथ्यते । गुण तथा च सर्व विशेषरूपं भवति, क्षणिकवादिबौद्धमतमायाति । श्रथवा सर्वद्रव्येषु एकमेव द्रव्यमागच्छति इति । ततः घटादिद्रये सामान्यसदादिन्येाऽनुभवानुसारेण परापरोतासामान्यमवश्यमकर्तव्यम् घटाद्रियाणि तो पर्यायाची पुनर्मृदादिषन्याणि बहुपर्यायीनि सन्ति, इत्थं नरनारकादिषव्याणां विशेषो ज्ञातव्यः । एतत्सर्वमपि नैगमनमत तथा संग्रहनयमते तु सतपादेन एकमेव द्रव्य मापद्येतेति विज्ञेयम् ॥ ४॥ बन्या० २ अध्या० स० । (१) अथ च व्यक्ति-रूपी पर्यायी वाहस्वस्वजात्पाहि न्यस्यो, गुणपर्यायव्यक्तयः । । शक्तिरूपो गुणः केषां चिन्मते तन्मृषाऽऽगमे ॥१०॥ ( स्वेति ) स्वस्पजात्या सहभाविकमतविधिकल्पनाभिजस्वभावेन वर्त्तमाना गुरापयययो भूयस्यो बहुप्र काराः सन्ति इति । अत्र कश्चिद्दिगम्बरानुसारी शक्तिरूपो गुण इति कथयनादयतो पर्यायकारणं द्रव्यम् गुणकार इव्यपययोग्य वान्यचाभावः यथा-मरनारादयो यथा चाव्ययणुकादयः पुनर्गुण पर्याय योगुणस्यान्यचानाको यथा मतिश्रुतादिविशेषः । अथ वा जवस्थासिद्धादिविशेषः । पतौ द्रव्यगुणी स्वस्वजात्या शाश्वती पर्यायेण चाशाश्वती, संगि रन्तं । परमार्थतस्तु आगमयुक्त्या पतत्सर्वे मृषा असत्कल्पनमित्यवधायें, प्रमाणाभावात् ॥ १० ॥ अथ गुणपर्य्याययोरैक्यं प्रदर्शयन्नाह - पर्यायान्न गुणो निन्नः संमतिग्रन्यसंमतः । यस्य दो विज्ञातः स कथं कथ्यते पृथक् ॥ ११ ॥ पर्यायात् गुणो भिन्नः पृथक् न, किं तु पर्याय एव गुण - स्वर्थः कणः संमतिसंमतः संमतिव्रन्ये श्रीमत्सि चाव्याचा समुच्चारितः। तथा च दूध'परिगमणं पञ्जाश्रो, प्रकरणं गुण सि तुल्लट्ठा ॥ तह वि न गुण सि भाइ, पज्जवणयदेसणं जम्मा इति तथा कमवित्वं पर्याय चानेककरणमा पर्या यस्य लक्षणान्तरमेवास्ति इयं तु एकमेवास्ते ज्ञानदर्शना दिभेदकार्यपि पर्याय एव परं गुणो न कथ्यते । यस्मात् द्रव्यपयोग देशना वर्त्तते, परंतु गुणपर्यायान अर्थमाचार्य १०२॥ एवं सति गुणः पर्याप 66 ॥१०६॥ द्रव्यं १ गुणः २ पर्याय ३ श्वेति नामत्रयं पृथक् कथं संकलितम् ? इत्थं केचन व्याचक्षते । तानाह यस्य गुणस्य विवक्षाकृतो जेदः तस्य नामान्तरमपि स्यात् । विवका हि नयस्य कल्पना, यथा-तैलस्य धारा, अत्र तैलात् धारा भिन्ना प्रदर्शिता, तथाऽपि भिन्ना नास्ति, तथैव सद्भावी गुणः, क्रमजावी पर्यायः, इति भिन्नत्वं विवक्तिं, परं परमार्थदृशा भिन्नत्वं नास्ति । तस्माद्यस्य भेद उपचरितो भवेत् स कथं भिन्नत्वेन व्यपदिश्यते ?। यथा उपच रितगुणे दृशन्तवचनं गौर्दोग्धि इत्यत्र गौर्न दोग्धि तद्वत्, तपचरितगुणोऽपि शक्तित्वं न धत्ते इति ॥ ११॥ द्रव्या० २ श्रध्या अ० म० । अथ व पर्यायान्निइति प्रमापयन्ति तान् दूष यन्नाह गुणो व्यं तृतीयं चेत्, तृतीयोऽपि नयस्तदा । " Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) गुण अभिधानराजेन्द्रः। सिमान्ते ऽव्यपर्याया-र्थिकनेदान्नयद्वयम् ॥ १॥ यथामति यथास्यात्तथा पूर्वप्रणेतृणं विस्तारपुर्बोधत्वेन स्वमा यदि गुणस्तृतीयः पदाथों द्रव्यपर्यायात् भिन्नोऽन्यः पदार्थों तिविषयो यथा स्यात्तथा वक्ष्ये कोर्तयिष्यामि इति ॥ १॥ मावो भवेत् तर्हि तृतीयो नयोऽपि लभ्यते । स्त्रे तु द्रव्यार्थिकप. अथात्र गुणभेदान् समानतन्त्रप्रक्रियया प्रतिपादयन्नाहायाधिक इति नयद्वयमेव कथितम्।नयान्तरं यदि प्रभाविष्य तत्रास्तित्वं परिझेयं, सदनूतत्वगुणं पुनः। नदाऽत्यत् , अतो नयद्वयादपरो नय एव न । उक्तं च संमती वस्तुत्वं च तथा जाति-व्यक्तिरूपत्वमुच्यते ॥२॥ "दो ऊ णया भगवया, दवद्रियपजवाहिया नियया। (तति) अस्तित्वं तत्र इदं परिझय-सत्तातो यो गुणो नयति, ज पुण गुणो वि हुतो, गुणाध्यणयो वि जुज्जंतो। १०७॥ तस्मात्सनूतताया व्यवहारो जायते, स चास्तित्वगुणः१,वस्तुजं च पुण भगवया ते-सु तेसु सुत्तेसु गोयमाणं । स्वं च जातिव्यक्तिरूपत्वम्। जातिःसामान्यमा यथा-घटे घटत्वम्। पज्जबसम्माणियया, वागरिया तेण पज्जाया" ॥ १० ॥ व्यक्तिर्विशेषः। यथा-घटः सौवर्णः, पाटलिपुत्रिको, वासन्तिका, कपादीनां गुणसंझा सूत्रे न भाषिता परं तु " वामप- कम्बुग्रीव इत्यादि।भत एव अवग्रहेण सर्वत्र सामान्यरूपं भासते, खबा गंधपजवा" इत्यादिपाठः पर्यायशम्न पठितः, अपायेन विशेषरूपस्याऽऽभासो जायते। पूर्णोपयोगेण संपूर्णधतथाऽपि गुणो न कथ्यते। अन्यश्च-"एगगुणकालए" इत्यादि- स्तुग्रहो जायते । इत्थं वस्तुत्वं द्वितीयो गुणः ॥२॥ स्थानेष्वपि गुण शब्दो यश्च दृश्यते सोऽपि गणितशास्त्रसिद्ध घव्यत्वं व्यजावत्वं, पर्यायाधारतोन्नयः । पायविशेषः संख्यावाचको शेयः, परंतु गुणाऽस्तिकनयविषयघाचको न । उक्तं च समतिग्रन्थमध्ये प्रमाणेन परिच्छेद्यं,प्रमेयं प्रणिगद्यते ॥ ३ ॥ "जपंति अस्थिसमए, एगगुणो दसगुणो अणंतगुणो । अगुरुलघुता सूदमा, वाग्गोचरविवर्जिता । रुवाईपरिणामो, भन्न तम्हा गुणविसेसो।। ११० ॥ प्रदेशत्वमवित्नागी, पुऊलः स्वाश्रयावधि ||४|| गुणसहमंतरेण वि, तं तु पजवविसेससंखाणं । सिज्माणवरं संखा, ण सत्थधम्मो ण य गुणो ति॥११॥ अथ व्यत्वं जातिरूपम् । द्रवति तांस्तान्पर्यायान् गच्चजह दससु दसगुणम्मि य, एगम्मि दसत्तणं समं चेव । तीति द्रव्यं तस्य नावस्तत्वम् । व्यभावो हि पर्यायाधारताभिअहियम्मि गुणसहे, तहेव एयम्मि दबं"॥ ११ ॥ व्यङ्ग्यो जातिविशेषः। व्यत्वं जातिरूपत्वात् गुणो न भवति । एवं गुणः पर्यायात् परमार्थदृशा भिन्नो नास्ति । तस्माट्रब्यमिव ईकुनैयायिकादिवासनया पाशङ्का न कर्तव्या, यतः-सहशक्तिरूपता कथं स्यादित्यनिप्रायः ॥ १२ ॥ भाचिनो गुणाः,क्रमभुवः पर्यायाः,ईदृश्येव जैनशासने व्यवस्थाऽ. भय केचन पयार्यस्य दक्षं गुण इति वदन्तो गुणं शक्तिरूपमेव स्तीति । द्रव्यत्वं चेद्गुणः स्याद्रूपादिवत्कर्षापकर्षभागि स्यामन्यानाश्च विवदन्ते, तान् दूषयन्नाह दिति तु कुचोद्यम, एकत्वादिसंख्यायाः परमतेऽपि व्यभिचारण पर्यायस्य दवं यहि, गुणो ऽव्येण किं तदा । तथा व्याप्त्यभावादेव निरसनीयम् ३ । प्रमाणेन प्रत्यक्षादिना परियं यदूपं प्रमाणविषयत्वं प्रमेयत्वं तदित्युच्यते। तदपि कगुणपर्याय एवेयं, गुणपरिणामकल्पना ॥ १३ ॥ थञ्चित अनुगतसर्वसाधारणं गुणोऽस्ति, परम्परासंबन्धेन प्रमायहि गुणः पर्यायस्य दलम् उपादानकारणं भवति, तदा द्रव्येण त्वज्ञानेनापि प्रमेयव्यवहारो जायते। ततः प्रमेयत्वं गुणस्वरूपादकिमिति किं प्रयोजन?,जयप्रयोजनं गुणेनैव सिमित्यर्थाद्वगुण- नुगतमस्तीति ।।३।अगुरुठघुता अगुरुबघुर्नाम गुणः,सा कीदृशी?, पर्यायावेव पदार्थों उपदिश्यतां तृतीयस्याऽसंजबात इति सूचमा, श्राझाग्राह्यत्वात्। यतः-"सूक्ष्म दिनोदितं तत्वं,हेतुभिनव नियमः । पुनरत्र कश्चित्कथयिष्यति-व्यपर्यायगुणपर्याय- हन्यते। आशासिद्धं तु तदू ग्राह्य,नान्यथावादिनोजिनाः"॥१॥पुनः रूपे कार्य भिन्ने स्तः । ततश्च व्यगुणरूपकारणे अपि भिन्ने कीडशी ?. वाग्गोचरविवर्जिता वचनद्वारा वक्तुमशक्या । यतःस्तः । इति कल्पनया वादी असत्यः । कथम-कार्य कारणो- 'अगुरुलघुपर्यायाः सूक्ष्मा अवाग्गोचरा इति । अगुरुलधुर्नाम्ना पचारात् कार्यमध्ये कारणशब्दप्रवेशो जायते । तथा-कारणभेदे पञ्चमो गुणः, अगुरुलघुत्वमिति ध्येयम् । अथ (प्रदेशत्वमविभा. कार्यभेदः सिद्ध्यति,अथ च कार्यजेदसिसौ कारणभेदसिद्धिरित्य गी,पुलः स्वाश्रयावधि इति) अविनागी पुल इति यावत् के न्योन्याश्रयनाम दूषणमुत्पद्यते । तस्मात् गुणपर्यायस्तु गुणप- तिष्ठतीति तावत् केवव्यापिष्णुत्वं प्रदेशत्वगुणः।यस्य विभागो रिणामस्यैव पटान्तरजेदकल्पनारूपः, तत एव केवलं सं- न जायते विजक्तव्यवहारता न स्यात्, पुनर्यावरकेत्रमास्थाय भावना, परंतु परमार्थतो न हि । अथ च व्यादिनामत्रय- तिष्ठति स्थिती,तावत्केत्रावगाहित्वं प्रदेशत्वम्। पुनः कीदृशम?, मपि दोपचारेणैव शेयम् । १३ ॥ च्या०२ अध्या। स्वाश्रयावधि-स्वशब्देन आत्मा पुजलात्मकः, तस्य य प्राधार: (१०) आहेतसमतगुणा: श्राश्रयः, स एवावधिमर्यादा यस्य तत् स्वाश्रयाऽवधि । एताश्रीनाभेयजिनं नत्वा, गुणदेतृगुरुं तथा । वता तदेवार्थत्वं स्वेन यावत्केत्रे स्थितं तावति के आश्रयावगुणभेदानह वक्ष्ये, क्रमप्राप्तान ययामति ॥१॥ धित्वमप्यस्ति इति शेयमिति षष्ठो गुणः ॥ ४॥ (धीनानेयजिनमिति ) नाभरपत्यं नाभेयः, श्रीयुतो नाभेयः | चेतनत्वमनुजूति-रचेतनमजीवता । श्रीनाभेयः, स चासौ जिनश्च श्रीनानेयजिनः, तं श्रीनाभेयजिने भऋषजनाथं,नखा नमस्कृत्य, तथा तेनैव प्रकारेण, गुणदेष्टगुरुं रूपादियुक्तमूर्तत्व-ममूर्तत्वं विपर्ययात् ॥ ५॥ गुणा वाणीगुणास्तानादिशतीति गुणदेष्टा, स चासौ गुरुश्च सामान्येन समाख्याता, गुणा दश ममुच्चिताः। गुणदेवगुरुः,तं नत्वा नमस्कृत्यति निर्विनसमाप्तिकामाय मङ्गल परस्परपरीहारात, प्रत्येकमष्ट चाऽष्ट च ॥ ६॥ मिति । अहं गुणभेदान् क्रमप्राप्तान द्रव्यन्यावर्णनानन्तरं प्रस्तुतान् अथ चेतनत्वमात्मनोऽनुभूतिरिति अनुजवरूपगुणः कथ्यते,योऽहं Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) अभिधानराजेन्डः। गुणा सुखदुःखादि चेतये-अहं सुखी अहं दुःखी, इति चेतनाव्य- गुणेषु पुद्रलद्रव्यस्य वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-मूर्तत्वा-ऽचेतनत्वाघहारः, ततो जातिवृद्धिनग्नवतसरोहणादिजीवनधर्मा नव- नि षट् सन्ति, आत्मव्यस्य ज्ञानदर्शनसुखवीर्यामूर्तत्वचेतनम्तीति चैतन्यं सप्तमो गुणः ७ । एतस्माद्विपरीतमचैतन्यम् त्वानि इति षट् गुणा भवन्ति । अथान्येषां द्रव्याणां समुदायेन अजीवमात्रम् अजीवता, जमत्वाच्चेतनावैकल्यमिति अचेतन- श्रय एव गुणा भवन्ति, एको निजगुणाः, अचेनत्वम, अमूर्वस्वं गुणः रूपादियुक् मूर्तत्वं मूर्तता गुणः, रूपादिसन्निवेशा- मित्यादि विमृश्य धार्यम् ॥८॥ (अन्येषामिति) अन्येषां व्याणां भिव्यङ्ग्यपुद्गलाव्यमात्रवृत्तित्वम् ६ । अमूर्तत्वं गुणो मूर्त- पृथक् पृथक् त्रयः त्रयः गुणाः। यथा-धर्मास्तिकायस्य गतिहेतुता स्वाभावसमन्वितत्वमिति १० इति दशैव । अत्राचेतनत्वा- गुणः, अचेतनत्वं गुणः, अमूर्तत्वं गुणः। एवं त्रयोऽधर्मास्तिकायमूर्तत्वयोश्चेतनत्वमूर्तत्वाभावरूपत्वान्न गुणत्वमिति नाशङ्क- स्य स्थिति हेतुत्वाऽचेतनत्वाऽमूर्तत्वादयः, आकाशास्तिकायनीयम, अचेतनामूर्तद्रव्यवृत्तिकार्यजनकतावच्छेदकत्वेन व्य- स्य अवगाहहेतुत्वाऽचेतनत्वाऽसूर्तत्वादयः, कालस्य वर्तनावहारविशेषनियामकत्वेन च तयोरपि पृथक्गुणत्वात्, नमः। हेतुत्वाऽचेतनत्वाऽमूर्तत्वादयः, इत्यादि केयम् । अथ चेतनपर्युदामार्थकत्वात्तत्र गर्भपदवाच्यतायाश्चानुष्णाशीतस्पर्श - स्वाद्याश्चत्वारः सामान्यगुणाः, चेतनत्वाऽचेतनत्वमूर्तत्वाऽमूस्यादौ व्यनिचारेण परेषामप्यभावत्वानियामकत्वाद्भावान्त- तत्वानि सामान्यगुणेषु अपि सन्ति, विशेषगुणेषु च सन्ति, रम् । अभावो हि कयाचित्तु व्यपेक्कया इति नयाश्रयणेन तत्र किं कारणं चेतनत्वाद्याश्चत्वारः सामान्यगुणाः, स्वजादोषाभावाश्चेति ॥ ५ ॥ एते दश गुणाः सामान्यगुणाः समु- स्पेक्वथा अनुगतव्यवहारकारः सन्ति, तस्मात्सामान्यचिताः सर्वेषां व्याणां समुच्चयेन कथिताः। तत्र मूर्तत्वमम्- गुणाः कथ्यन्ते ॥९॥ परजात्यपक्कया चेतनत्यादयः अचेतत्वं, चेतनत्वमचेतनत्वं चेति चत्वारो गुणाः परस्परपरिहा- तनत्वादिकेच्या स्वाश्रयव्यावृत्तिकराः सन्ति, ततो विशेषगुणाः रेण तिष्ठन्ति । तत पकैकस्मिन् द्रव्ये प्रत्येकं प्रत्येकमष्टौ प्राप्यन्ते। परापरसामान्यवत्मामान्यविशेषगुणत्वमेषामिति भावः । एत तत्कथम्?, यत्र चेतनत्वं तत्राचेतनत्वं नास्ति, यत्र च मूर्तत्वं एव विशेषणेति स्पष्टम् ॥ १०॥ (विशेषेणेति ) शानदशनतत्र च अमूर्तत्वं नास्ति, एवं द्वयोरपसरणात् शेषमष्टकमेव सुखवीर्या पते आत्मनो विशेषगुणाः, स्पर्शरसगन्धवाः तिष्ठति, तेन प्रतिद्रव्यमष्टेव गुणाः सामान्याः सन्तीति पते पुलस्य विशेषगुणाः, इत्येतद्यत् कथितं तदियं स्थूध्येयम् ॥६॥ लव्यवहृतिः स्थूलव्यवहारः, यतश्च अष्टौ सिकगुणाः, पक(११) अथ विशेषगुणान् व्याख्यासुराह त्रिशसिकगुणाः. एकगुणा: कालकादयः, पुमला अनन्ता इत्यादि विचारणया विशेषगुणानामानन्त्योत्पत्तिः, सा च झानं दृष्टिः सुखं वीर्य, स्पर्शगन्धौ रसेक्षणे । ग्मस्थज्ञानगोचरा नास्ति । अतोऽर्थेन ते कथं गुण्या:, गतिस्थित्यवगाहत्व-वर्तनाहेतुतापराः ॥ ७ ॥ तस्माकर्मास्तिकायादीनां गतिस्थित्यवगाहनावर्तनाहेतुत्वोपचैतन्यादिचतुर्निस्तु. युक्ताः पोमशसंख्यया । योगग्रहणाख्याः पमेवास्तिवादयः। सामान्यगुणास्तु विवक याऽपरिमिताः, इत्येवं न्याय्यम् । षमा सक्कणवतां लवणानि षविशेषेण गुणास्तत्रा-ऽऽप्यात्मनः पुऊलस्य षट् ॥ ७॥ डेवेति हि को न श्रद्दधाति ?॥ अन्येषां चैव व्याण, त्रीणि त्रीणि पृथक् पृथक् । " नाणं च दसणं चेव, चरितं च नवो तहा। स्वजात्या चेतनत्वाद्या-श्चत्वारोऽनुगता गुणाः।। ए॥ वीरियं उवोगो य, एवं जीवस्स सक्खणं ॥१॥ एत एव विशेषेण, गुणा अपि जिनेश्वौः। सब्बंधकारउज्जोया, पभाया वा तहेव य। परजातेरपेनाया, ग्रहणेन परस्परम् ।। १०॥ वन्नरसगंधफासा, पुम्गलाणं तु लक्षण" ॥२॥ विशेषेण गुणाः सन्ति, बहुस्वभावकाश्रयाः। इत्यादि तु स्वनावविभावनकण्योरन्योऽन्येनान्तरीयकत्वप्रति पादनायेत्यादि पारमतैर्विचारणीयम् ॥११॥ (स्वभावेति) स्वनाअर्येन ते कयं गुण्याः,स्थूलव्यवहृति स्त्वियम् ॥ ११ ॥ वगुणतो निजत्वव्यवहारेण धर्ममात्रविवक्या अनुवृत्तिव्यावृस्वनावगुणतो भिन्ना, धर्ममात्रविवक्षया । त्तिसंबन्धेन च पते जिन्नाः पृथक् पृथक् सन्ति,न कोऽपि कश्चिद्स्वस्वरूपस्य मुख्यत्वं, गृहीत्वा समुदाहृताः॥ १।। मिश्रीभवति; परं तु स्वस्वरूपस्य निजनिजरूपस्य मुख्यत्वं प्रा(मानमिति) मानगुणा, रष्टिदर्शनगुणः, सुखमिति सुस्वगुणः, धान्यं गृहीत्वा अनुवृत्तिसंबन्धमात्रमनुसृत्य समुदाहताः यधीर्थमिति वीर्यगुणः, एते चत्वार प्रात्मनो विशेषगुणाः। पुनः स्वभावाः सन्ति त एव गुणीकृत्यदर्शिताः । नत इदमत्र बोध्यम्-धमापेक्कया अत्र पते गुणत्मकाः पदार्थाः पृथकस्वभास्पर्शगन्धी स्पर्शगुणः, गन्धगुणः, रसेकणे रसगुणः,ईक्षणं वर्ण घगुणतो भिन्ना उक्तास्तत्तु निजकीयनिजकीयरूपमुख्यतां गृगुणः, पते चत्वारः पुद्गलस्य विशेषगुणाः। शुद्धद्रव्ये अविकृतरू हीत्वैव स्वभावगुणीकृत्य उपदिष्टा इत्यर्थः तस्मादत्र गुणविपा एते अविशिष्टास्तिष्ठन्ति, ततः पते गुणाः कथिताः, विक मागं कथयित्वा अग्रे प्रतिपाद्यमानपद्ये स्वजावविभागयोः कथतस्वरूपास्ते पर्यायेषु मिनन्ति, इत्येवं विशेषोऽत्र विज्ञेयः । तथा नमुदाहरिष्यतीति ध्येयम् ॥ १२॥ पुनः गत्यादयो गुणा हेतुतापराः, एतावता गतिहेतुता, स्थितिहनुता, अवगाहहेतुना, वर्तनाहेतुता, एते चत्वारो गुणाः प्रत्ये- अस्तिस्वभाव एषोऽत्र, स्वरूपेणार्थरूपता ॥ कं धर्मास्तिकायाऽधर्मास्तिकायाऽऽकाशास्तिकायकालक- स्वभावपरभावाच्या-मस्तिनास्तित्वकीर्तनात् ॥१३॥ व्याणां क्रमेण सन्ति, विशेषगुग्णाश्चत्वारः ॥ ७ ॥ अथ एतेषां द्वादशगुणानां चैतन्यादिचतुभिर्युक्ताश्चेतनत्वाऽचेतनस्वमूर्तन्या न चेदित्यं तदा शून्यं, सर्वमेव नवेदिदम् । मूर्तत्वादिभिश्चतुभिः सहिताः सन्तः षोडश गुणा भवन्ति । तेषु | परजावेन सचे तु, सर्वमेकमयं भवेत् ॥ १४॥ Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) भाभिधानराजेन्डः। गुणट्ठाण (मस्तिस्वभाव इति) अति गुणप्रस्तावनायांप्रथममस्तिस्व- विशे० । मंशे, अनु० । गुपयते संख्यायते इति गुणः । अनु० । प्रावस्तु एष स्वरूपण निजकीयरूपेण अर्थरूपता कन्ययाथात्म्य "गुणकारके त्ति गुण पकारसं " पा०। (मूलगुगाा उत्तरगुणास्वरून्यस्वकेत्रस्वकालस्वन्नावैश्वनावरूपता एब केया,कस्मात् ।। श्व लेशतः कपिलेन चौरणामुपदेशे दीयमाने 'कपिल' शम्दे (स्वभावपरजावाभ्यामस्तिनास्तित्वकीर्तमात्) यथा स्वनावेन तृतीयभागे ३६० पृष्ठे दर्शिताः) मस्तित्वं स्वभावोऽस्ति, तथैव परजावन नास्तित्वं स्वभावोऽप्यास्ति,ततोऽत्र मस्तिस्वभावः कारणी वर्तते,कथं तत्?,अस्तिस्वना गुणो -गुणतस-प्रव्य० । कार्यत इत्यर्थे, भ० २ श १० उ०। बोदितत्र निजरूपेण भावरूपताऽस्ति,यथा परस्वजावेन नास्ति- गुणकर-गुणकर-त्रि० । कम्मनिर्जरालकणोपकारकरणे, पस्वजावानुभवन,तथा निजनाचेन स्वजावानुभवनमपि जायते, प्रत | शा०५ विव०। रममत्र कार्यरूपोऽस्तिस्वनाव इति ॥१३॥ (न चेदिति) चेद्य-गुणकरणाणकरण-न। योजनाकरणे, प्रा. चू०१०। दि अस्तिस्वनाबो नाङ्गीक्रियते, परभावापेक्षया यथा नास्ति या यथा नास्ति- गुणानां प्राप्ती, भा०म० द्वि०। त्वं, तथा स्वभावापेक्षयाऽपि नास्तित्वावलम्बने सति सर्व जगदिदं प्रपच्यमानव्यतिकरमपि शून्यं भवेत्। तस्मात् स्वतन्या गुणकार-गुणकार-त्रिका प्रत्यासराशी, स०५४ सम उपेक्षया अस्तिस्वनावः सर्वथैवाङ्गीकरणीयः, परभावेन परद- गुणकारय-गुणकारक-त्रि । येन गुणकेन गुरुयते तस्मिन्, ज्याद्यपेनयापिनास्तित्वस्वभावोऽप्यवश्यमङ्गीकर्तव्य इत्यर्थः। । विशेलानि च। तथा च परभावेनापि सतामस्तिस्वनावमलीकुर्वतां सर्व गुणगणाघ-गुणगणोघ-पुं० । गुणनिकरप्रवाहे, पो०१५ विवा स्वरूपेण अस्तित्वे जायमाने च जगदेकरूपं भवेत; तत्तु सकमशास्त्रव्यवहारविरुषमास्त, तस्मात्परापेक्षया नास्तिस्वना- गुणग्गाहिय-गुणग्राहिक-त्रि०। गुणं गृहाति, गुण-प्रह-णिनिव एव समस्ति [अन्या०]। कप्रत्ययः । गुणग्रहणशीले, पा० । गुणानुरक्ते चा ध० ३अधिक। (१२) स्वमाना एवं गुणाः गुणचंद-गुणचन्छ-पुं०। साकेतेश्वरचन्द्रावतंसकराजस्य प्रिअनुपचरिताः स्वीय-जावास्ते तु गुणाः खनु । यदर्शनायां जाते पुरे, प्रा० म०वि०। " मुणिचंदो राया गुणएकाव्याश्रिता गुणाः, पर्याया उत्नयाश्रिताः ।।१०।। चंदो युवराया" प्रा० चू०१ अ० । स्वनामख्याते मुनौ, पि० । एवं स्वभावोपगता गुणास्तु, अन्यो ऽपि गुणचन्छनामा नणी बैक्रमीये ११३६ वर्षे बजशास्खायां चान्द्रकुले सुमतिवाचकस्य शिष्य आसीत, तेन नेदेन सम्यक् कथिताश्च योग्याः। च मागभ्यां महावीरचरित्रं रचितम । ०३० । शतमुख. अहित्क्रमाम्नोजसमाश्रितानां, पुरे चन्डिकाभतरि श्रेष्ठिनि, सागरदत्तस्य श्रेष्ठिनः पुत्रे प्रि. जव्यात्मनां ज्ञानगुणार्यमत्र ॥ १८ ॥ यद्गुलतिकापतौ, पिं०। (अनुपचरितेति ) अत्र दिगम्बरप्रस्तावना वर्तते. 'काय गुणजत्तिब-गुलयत्नवत्-त्रि० । गुणेषु यतमाने, १०१००। स्वसमयेऽपि उपस्कृता वर्तते,परंतु अत्र किमपि चिन्त्यं वर्तते, मुणजोग-गुपयोग-पुंग कमादिगुणसंपन्धे, प्रश्न १ सम्बद्वार। सेन तद् दृरखं निराचिकीर्षुराह-अनुपचरिता उपचारवर्जिता गुणहाण गुणस्थान-न० । गुणा शानदर्शनचारित्ररूपाः जीवस्वये निजकीयस्वजावाः ते गुणाः,गुणानां हि सहनावित्वाऽपचा जाबविशेषाः, तिष्ठन्ति गुणा अस्मिन्निति स्थानम् । गुणानामेव रोन विद्यते । निष्कर्षस्त्वयम्-स्वभावो हि गुणपर्यायान्यां भिन्नो न स्यात, तस्मात् योऽनुपचरितो नावः स एव गुण इति, अथ शुध्याप्रिकर्षापककृतः स्वरूपभेदे, प्रव०१० कार । कर्म। यश्च उपचरितः सपर्यायः कथ्यते । अत एव च्याश्रिता गुणाः, परमपदप्रासादशिखरारोदणसोपानकल्पे, कर्म कर्म। मि. मभयाश्रिताः पर्यायाः।तथोक्तमुत्तराध्ययने गाथाद्वारा-"गुरपाण थ्यारश्चादिकेऽयोगिकेवलिपर्यवसाने जीवानां स्वरूपानेदे, मासो दब्च, एगदब्वस्सिया गुणा । सक्वणं पज्जवापं तु, उ. श्रा० चू० ५ ०। दी। पं० सं० । कर्म०। भनो अस्सिया प्रवे" (उत्त०२८ अ०) इति ॥१७॥ यदि च विषयसूचीस्वजन्यादिग्राहकेणास्तिस्वभावः, पररुच्यादिग्राहकेणं नास्ति (१) गुणस्थाननिर्वचनम् । स्वनावः, स्यादिस्वभावोपगता गुणाः खनावसहिता इत्युपग (२) गुणस्थानानि चतुर्दश । म्यते । तदोजयोरपि व्याधिकविषयत्वात् सप्तभनयामाद्यद्वि. (३) गुणस्थानान्तरम् । तीययोभनयोः द्रव्यार्थिकपळयार्थिकाभयेण प्रक्रिया नज्येतेत्या (५) कायस्थितिः, काममानम् । चत्र बहुविचारणीयम् । एवमनया रीत्या स्वभावाः स्वभावयुक्ता (५) गुणस्थानानां जीवस्थानानि । गुणाश्च देन प्रकारकथनेन सम्यक शास्त्रोक्तरीत्या कथिताःप्र- (६) तेम्वेव जीवस्थानेषु गुणस्थामप्रकटनम् । काशिताः,श्रीमद्वाचकमुस्थयशोविजयपाठकमतल्लिकारचितप्रा (७) गुणस्थानकेषु बन्धः।। कृतपारष्टा लिखिता इत्यर्थः। किमर्थमत्र कस्मै कार्याय कथि (८) गुणस्थानकेषु बन्धहेतवः। ता,इति प्रयोजनपद,ज्ञानगुणार्थ, केषाम् . अईतां वीतरागाणां () उदीरणास्थानानि गुणस्थानेषु । कमाश्चरणास्त पवाम्भोजानि कमलानि तत्र समाश्रितानां श- (१०) गुणस्थानकेषु भावाः। रणीनूतानां भव्यात्मनां जव्यलोकानां कानगुणा मया कथिता (११) मार्गणास्थानेषु गुणस्थानानि । इत्यर्थः॥१८॥ द्रव्या०१३ अध्याग विविधार्थसम्वादरूपे प्रामाएब- | (१२) गुणस्थानकेषु मार्गणास्थानानि । हेती,सागुण्यन्ते संख्यायन्ते ति गुणाः । पिण्डशुध्यादिषु, (१३) उपयोगाः। Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) गुण्ठाण अन्निधानराजेन्द्रः। गुणहाण (१४) हीरविजयसूरि प्रति विमलहर्षगणिकृतप्रश्नः। यभागः, स्तरगुणस्थानकानां तु जघन्यमन्तर्मुहूर्तमित्यरार्थः । (१) श्होत्तरोत्तरगुणारूढानां जन्तूनामसंख्येयगुणनिर्जरा- भावार्थ पुनरयम्-योनादिमिथ्याष्टिरुद्वलितसम्यक्तृमिश्रपुष्जो माक्यम, उत्तरोत्तरगुणाश्च यथाक्रममविशुच्चपकपविशुक्षिप्र- घा मिथ्याष्टिः पशितिसत्कर्मा सन्नन्तरकरणादिना प्रकारेणोकर्षरूपाः सन्तो गुणस्थानकान्युच्यन्ते । कर्म०५ कर्म० । पलब्धौपशमिकसम्यक्त्वोऽनन्तानुषन्भ्युदयात्सास्वादनभावमा (२)तानि चतुर्दश साथ मिथ्यात्वं गतः सन् यदि तदेव सास्वादनत्वं पुनर्लन्यतेकम्म विसोहिमग्गणं पहुंच चनदस गुणहाणा पमत्तातं उन्तरकरणप्रकारेणैव,तदा जघन्यतोऽपिपल्योपमासंख्येयभामोजदा-मिच्छदिती ।यणसम्मदिछ। सम्माभिट्ठिी । लभते,नार्वाकाकिं कारणमिति चेत?,उच्यते-यतःसास्वादना मिथ्यात्वं गतस्य प्रथमसमये सम्यक्त्वमिश्री सत्तायामअविरयसम्मदिही देसविरए, पमत्तसंजए, अप्पमत्तसंजए, चाय तिष्ठत एवान च तयोः सत्तायां वर्तमानयोः पुनरौपशमिनियहिननियट्टिवायरे, मुहमसंपराए, बसंतभोहे चा, फसम्यक्त्वं सभते , तद्भावात्सास्वादनं दुरापास्तमेव । यदि खीणमोहै, सजोगीकेवली, अजोगीकेवन्नी । स० | पुखद्वयसनावे औपशमिकसम्यक्त्वस्य न साजस्तहि पस्योपमासं. १४ सम०। क्येयभागेऽप्यतिक्रान्ते कथं सास्वादनमानः इति चेत, उच्यते-रह सम्यक्त्वमिश्रपुजौ मिथ्यात्वं गतःप्रतिसमयमुर्तयते,तहति मिच्छे सासण मीसे, अविरय देसे पमत्त अपमत्ते । प्रतिसमयं मिथ्यात्वे प्रक्रिपतीत्यर्थः। अनेन च क्रमेणताघुवर्णनियष्टि अनियहि सुहुमु-बसम खीण सजोगि अजोगिगु गा॥ मानी पल्योपमासंख्येयभागेन सर्वथोर्तितौ निःसत्ताकंनीसी (गुण त्ति) गुणस्थानानि,ततः "सूचनात्सूत्रमिति"न्यायात् भवतः, प्रथमेवकर्मप्रकृत्यादिस्वाभिहितत्वात्।ततःपल्योपमासंपदैकदेशेऽपि पदसमुदायोपचाराद्वा इहैवं गुणस्थानकनिर्देशो द्र पयेषनागेन मिश्रसम्यक्त्यपुस्जयोरवर्तितयोस्तदन्ते कश्विजन्तु एव्यः। तद्यथा-मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् ? सास्वादनसम्यग्दृष्टिगुण. पुनरप्योपशमिकसम्यक्तमासाद्य सास्वादनत्यं गचतीत्येवं सा. स्थानं २ सम्यग्मिध्यादृष्टिगुणस्थानम् ३ अविरतसम्यग्दृष्टिगुण स्वादनस्य पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तरं जवतीति । नन्वेकस्थानस, देशविरतिगुणस्थानम् प्रमत्तसंयतगुणस्थानम् ६मप्र दोपशमश्रेणः प्रतिपतितः सास्वादननावमनुभूय यदा पुनरप्यमत्तसंयतगुणस्थानम् ७निवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानम, ८ अ न्तर्मुहूसेनेतामेवोपशमणि प्रतिपद्य ततः प्रतिपतितः सास्थानिवृत्तिवादरसंपरायगुणस्थानस, सूक्कासम्परायगुणस्थानम् १० दनन्नावं लजते, तदा जघन्यतोऽपमेयान्तरं सत्यते, तत्किमिति उपशाम्तकषायवीतरागछमस्थगुणस्थानम् ११कीणकषायीत. पल्योपमासंख्येयभागोजघन्यमन्तरमित्युक्तम्।सत्यम्-उपशमने रागमस्थगुणस्यानम् १२ सयोगिकेलिगुणस्यानम् १३ अयो णेः प्रतिपतितो यः सास्वादनत्वं गच्छति,स केवलं मनुजगतिगिकेवजिगुणस्थानमिति १४ । तत्र गुणा ज्ञानदर्शनचारित्ररूपा भाबित्वेनापत्वान्नेह विवक्कित इतीतरस्यैव प्रभूतस्य चतुर्गजीवस्वभावविशेषाः, स्थानं पुनरत्र तेषां शुद्धिविशुद्धिप्रकर्षा तिवर्तित्वादन्तरालचिन्तेति। इतरगुणस्थानकेभ्यश्च मिथ्यारह पकर्षकृतः स्वरूपनेदः, तिष्ठन्त्यस्मिन् गुणा इति कृत्वा । गुणानां सम्पमिश्याराष्टिअविरतसम्यग्दृष्टिदशविरतप्रमत्ताप्रमत्तोपस्यानं गुणस्यानम् ॥२॥ कर्म०२ कर्म । चतुर्दशगुणस्थामकेषु शमणिगतापूर्वकरणानिवृत्तिपाइरसूचमसम्परायोपशान्तमोहसमारोहन् जन्तुः किं क्रमेण, एकादिव्यवधानेन चा चतुर्दश लक्षणेभ्यः परिभ्रः पुनर्जधन्यतोऽन्तर्मुहूसे ऽनिकान्ते तान्येष गुणस्थानं स्पृशतीति ? प्रश्ने, उत्तरम्-चतुर्दशगुणस्थानकेषु गुणस्थानकानि लभन्ते, इति तेषां जघन्यतोऽन्तमुहर्समेवान्तसमारोहन जन्तुः किं कमेण, एकादिब्यवधानेन वा चतुर्दशगु- रालं भवति। तथाहि-कश्चिजीव उपशमश्रेण्यारूढः सन्नुपशाणस्थानं स्पृशतीति यत्पृष्टं,तत्र अनादिमिथ्याटिस्तावश्चतुर्थ गुण. न्तत्वमपि संग्राण्य प्रतिपत्तितो मिथ्यारष्टित्वं यावदवाप्रोति,तो स्थानकं याति, न तु द्वितीयतृतीये, तदनु यदि उपशमणिमा- भूयोऽप्यन्तर्मुहूसेन तान्येवोपशान्तगुणस्थानान्तानि यदाऽऽरोहति, रभते तदैकादशं यावत्क्रमेण याति। यदिच-कपकस्तदैकादशं तदा शेषाणां सास्थादनमिश्रगुणस्थानकर्जितानां गुणस्थानकाविढाय चतुर्दशं यावत्क्रमेणेति विज्ञायते । विशेषस्तु विशेषाय- मां प्रत्येकं जघन्यत मान्तमौ हूर्तिकमन्तरं जयति; एकस्लिध नवे बोधकशास्त्रगम्य इति । इति गुणविजयगणिकृतप्रश्नस्यात्त- पारद्वयमुपशमणिकरणं समनुज्ञातमेव । उक्तं च-"एगभवे रमाही. ३ प्रका। दुक्खुतो, चरित्तमोई वसमिजा"। तत्र सास्वादनं प्रति जव. (३) अन्तरम् इहोत्तरोत्तरगुणारूदानां जन्तूनामसंख्येयगुणनि- भ्यान्तरस्योक्तत्वात् श्रेणिप्रतिपतितस्य च मिश्रगमनाभावात्तयोअंराभाक्त्वमुक्तमुत्तरोत्तरगुणाश्च यथाक्रममविशुद्ध्यपकर्षवि. पर्जनमुक्तं, श्रेणिगमनानावे तु मिश्रस्य सास्वादनबर्जशेषगुणशुक्रिप्रकर्षस्वरूपाः सन्तो गुणस्थान्यान्युच्यन्ते, अतस्तेषां गुण- स्थानकानांच मिथ्यारष्ट्यादीनामप्रमत्तान्तानां परावृत्य परावृत्य स्थानकानां जघन्यमुत्कृष्टं चान्तरालं प्रतिपादयन्नाह- गमनत प्रान्तमौहर्तिकमन्तरं प्राप्यते। कपककोणमोहसयोमिके. पलियासंखंसमुहू, सासण इयरगुण अंतरं हस्सं । बल्ययोगिकेवझिनों त्वन्तरचिन्ता नास्ति, तेषां प्रतिपातस्यैवा. गुरु मिच्छि वे सही, इयरगुणे पुग्गलम्तो भावादिति । उक्तं जघन्यमन्तरं सर्वगुणस्थानकानाम । इदा।।४॥ नीमुत्कृष्टमन्तरमाह-"गुरुमिच्छिवे सही" इत्यादि । गुरु उत्कृ. मह 'भामा सत्यभामेति' न्यायात्, पल्पः पत्योपमा संख्यांशोs टमन्तरम। (मिचिति) मिथ्यात्वे मिश्यादृष्टिगुणस्थानकस्य म्तमुहर्तच जघन्यमन्तरमिति योगः केषामिति,आह-सास्वादना- | षट्पष्टी षट्पष्टिद्वयम् । श्रयमत्र भावार्थ:-यः कश्चिजन्तुर्विशुकिधेतग्गुणाश्च अवशिष्टगुणस्थानकानि सास्वादनेतरगुणास्तेषाम्।। वशास्मिथ्यादृष्टित्वं परित्यज्य सम्यक्त्वं प्रतिपन्नस्ततः सागरो. प्राकृतत्वादत्र विभक्तियोपः । अन्तरं विवक्षितगुणस्थानावसितेः पमषट्पष्टिप्रमाणमुत्कृष्एं सम्यक्त्वकाझं प्रतिपाल्यान्तर्मुप्रच्युतानां पुनस्तत्प्राप्तिर्व्यवधानमन्तरालमिति यावत्। हस्वंज-| हर्शमेकं सम्यगमिथ्यात्वं गति; ततो भूयोऽपि सधन्यमा तत्र सास्वादनगुणस्थानकस्य जघन्यमन्तरंपल्योपमासंक्ये. म्यक्त्वमासाद्य सागरोपमषट्पटिं यावत्तदनुपाल्य त कसे Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५) गुण्डाण भनिधानराजेन्षः। गुणहारा योनसियति सोऽयव मिथ्यात्व नति। तत इत्थं साग स्थानकविचारनिर्दिनन्यायेन प्राप्तसास्वादनाव भिसमरोग्मषट्पशिखया सामयतो मिश्रान्तमुहर्तनरभवाधिकमुक. येकमवतिष्ठते, अन्यस्तु द्वौ समयो, अपरस्तु त्रीन् समयार । मिथ्यात्वस्यान्तरानं नवतीति । (श्यरगुण ति) इतरगुणस्थान- एवं यावत्कोऽपि षमावलिकाः,तत ऊर्द्धमवश्यं मिथ्यात्वमुपगकविषये। कोऽर्थः-मिय्यारष्टिगुणस्थानकापेक्षयाऽन्यगुणस्थान- जति तत परमेकस्य जीवस्य सास्वादनगुणस्थानककालो केषु सास्वादनादिषूप्रशान्तमोहान्तेषु गुरु अन्तरमुत्कृष्टोऽन्त-| जघन्यतः समयः प्राप्यते, उत्कर्षतः षडावनिकाः, तथा रालकालो भवति। कियदित्या-(पुग्गलरून्त त्ति) सूचकत्या | मिश्रोपशमौ मिश्रगुणस्थानकौपशमिकसम्यक्त्वे जघन्यत उसत्रस्य पुनस्य पुनपरावर्तस्याई पुझपरावर्ताई, तस्या- कर्वतश्चान्तर्मुहूर्तप्रमाणम् । तथाहि-सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थातर्मभ्यं पुद्गल परावर्तान्तिःकिश्चिद्नं पुद्गलपरावामित्यर्थः।। नकं जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्तप्रमाणं सुप्रसिद्धम्, “ सम्मादिमत्र तात्पर्यम्-सास्वादनादय उपशमश्रेणिगतापूर्वकरणाद्युप- मिच्गदिकी, अंतो मुहुतं इत्यादि " वनप्रमाण्यात् , केवलं शान्तमोहान्ताभ जीवा निजनिजगुणस्थानकावस्थितेयंदा प. जघन्यपदे तदन्तर्मुहर्त लघु एव्यम, उत्कृष्टपदे तु त. रिम्रास्तदोत्कृष्टतः किचिडून पुनपरावर्ता यावदपारसंसा. देव वृहत्तरमिति, औपशमिकसम्यक्त्वमपि प्राथमिकमुपशरपाराबारमध्यमबाह्य पुनः तानि गुणस्थानकानि लभन्ते, ना. मश्रेणिसंभवं वा जघन्यत उत्कर्पतश्चान्तर्मुहर्तप्रमाणं, तत्र प्रा. चोक, तत ऊब सम्यक्त्वादिगुषार संप्राप्यावश्यं जीवाः | थमिकमन्तर्मुहूर्तप्रमाणं प्रतीतम्। तथाहि-यदि तदानी देशविर. सिध्यन्तीति । ततो देशोनापुद्रबपरामाममेपामुत्कृष्टमम्तरं त्यादिकमपि स्पृशति, तथापि तस्याऽन्तर्मुर्तमेव कालं याभवति । क्षपकनाणमोहादीनां चान्तरमेव नास्ति,प्रतिपाताभा- पदवस्थानं, ततः परं कायोपशमिकसम्यक्त्वनावात्, देशविरपादिति । कर्म० ५ कर्म० । पं० सं०। (गुणस्थानकेन्वेव धर्त- स्यादिप्रतिपत्यभावे तु कोऽपि सास्वादमनाचं गष्टाति, कोमानानां जन्तूनामल्पबहुत्वम्-'अप्पाबहुब' शये प्रथमभागे पिकायोपशमिकं सम्यक्त्वम्, उपसमश्रेणिसंवमध्यौपशमिकं ६३ए पृष्ठे उक्तम) [गुणस्थानकेषु नदीरणा 'उदीरखा' शब्दे सम्यक्त्वमान्तमौर्तिकमुपशमश्रेणेरन्तर्मुर्तप्रमाणत्वात् । त. द्वितीयभागे ६६४ पृष्ठे उक्ता] था कायिकरष्टिः कायिकसम्यग्दृष्टिरमन्तादा अनन्तकालं या. (४)कायस्थितिः । सम्प्रत्येकस्मिन् जीवे मुलस्थानेषुविभा बद्भवति, कायिकं हि सम्यक्त्वं प्रादुर्भून न कदाचिदप्यपैति, गेन काबमानमाह जीवस्य तथास्वभावस्वात् । ततस्तत्सम्यक्त्ववान्सकलमपि प. यवसितं कालं यावद्वति ॥४०॥ होइ आणाइ भणतो, अण्णा संतो य साइसंतो व । देसूणपोग्गलदं, अंतमुटुत्तं, चरिमपिच्छो ॥३४ वेयग अविरयसम्मो, तेत्तीसयराइ साइरेगाई। यह मिथ्याराष्टिःकालतचिन्त्यमाननिधा प्राप्यते । तद्यथा-मना. अंतमहत्ताओं पु-चकोमिदेसो न देसूणा ॥४१॥ पनन्तः,अनादिसान्तः,सादिसान्तश्च। तत्राभन्यो नभ्यो वा कश्चि बेदकाऽविरतसम्यगरिः बायोपशमिकाऽविरतसम्यग्दृष्टिः तथाविधोऽप्राप्तव्यपरमपदोऽनाचनन्तः, तस्याऽमादिकालादाएभ्याऽऽगामिन सकलमपि काझं यावन्मिध्यात्वापगमसंजवाना. जयन्वतोऽन्तर्मुहुर्त यावद्भवति, ततोऽन्तर्मुहृत्तीदारज्य तावटलपात्, दस्तु भव्योऽनादिमिथ्याधिरवश्यमायस्यां सम्यक्त्वम भ्यन्ते यायमुत्कर्पतवारशत्सागरोपमाणि सातिरेकाणि चाप्स्यति समिध्यादृष्ठिः कानमाश्रित्यानादिसान्तः,यस्तु तथा भवन्ति, कथं सातिरकाणि प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि यावद्वेद. भव्यत्यपरिपाकरशादवाण सम्बवंततः केनापि कारणेन पुनः काऽविरतसम्यग्दृष्टिलेच्यते इति चेत् । उच्यते-इह कचिदितः सम्यक्त्वात्परिम्रो मिथ्यात्वमनुभवति, स भूयः कालान्तरे नि. स्थानापुरूष्टस्थितिम्वनुत्तरविमानेपूत्पन्नः, तत्र चाऽविरतस. यमतः सम्बकत्वमवाप्स्यति, ततः स मिथ्याराष्टिः सादिसान्तः। म्यग्रष्टित्वेन त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिः,ततस्तस्मात्स्थासथाहि-सम्यक्त्वलानानन्तरं मिथ्यात्वमासादितमिति सादिः, नात् युत्या अत्राप्यायातो यावदद्यापि सर्वपिरत्यादिकंन प्रतिपुनरपि कालान्तरे नियमतो मिथ्यात्वमपगमिष्यतीति सान्तः। पनते, तावदविरत एवेत्येकस्य वेदकाविरतसम्यग्दृष्ट मनुष्यनएष एव सादिसान्तो मिथ्यारष्टिजघन्यतोऽन्तर्मुहुर्त कालं याव वसंबह इति कतिपयवर्षाधिकानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि यति, सम्यक्त्यप्रतिपाताऽनन्तरमन्तर्मुहतेन कालेन नूयोऽपि प्राप्यन्ते। तथा (पुचकोमीदेसो उदेसूणा) देशसंयतः पुनः, सम्यक्स्वप्राप्तः,उत्कर्षतो देशोनं किञ्चिन् न्यून पुफलपरावतीच तुर्याक्यभेदे । उक्तंच-"तुः स्याद्भेदेऽवधारणे।" जघन्यतोs. प्रतिपतितसम्यग्दृष्टः, देशोनपुनपरावाईपर्यन्ते नियमतः न्तर्मुहर्तमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, तत्रान्तर्मुहूर्तभावना इयम् कोऽप्यविरतादिरन्तर्मुहूर्तमेकं देशविरति प्रतिपद्य पुनरप्यविरतासम्यक्त्वलानसंभवात. अत एव साधनन्तरूपो मिथ्याष्टिन भ. पति, सादितायां सत्यामुत्कर्षतः किचिदनपुयपरावाईप दित्वमेव प्रतिपद्यते । देशोनपूर्वकोटिभावना त्वेषा-श्द किस यन्ते नियमतो मिथ्यावापगमसंभवात् ॥ पं०सं०३द्वार । कोऽपि पूर्वकोट्यायुष्को गर्भस्थो नवमासान्सातिरेकान् गमतदेवमुक्तमेव जीवस्य मिथ्यारगुिणस्थानका लमानम् । स यति,जातोऽप्यष्टी वर्षाणि यावद्देशविरतिं सर्वविरति वा न प्रति. पद्यते, वर्षाष्टकादधो वर्तमानस्य सर्वस्यापि तथास्वाभाव्यात म्पति सास्वादनमिश्रगुणस्थानकयोरौपशमिकसम्यक्त्वस्य, कायिकसम्यक्त्वस्य च कालमानमाह देशतः सर्वतो वा विरतिप्रतिपत्तेरनावात् । भगवनस्वामिना व्यभिचार इति चेत् । तथाहि-भगवान्वजस्वामी पाएमासिकोऽपि प्रावलियाणं उकं, समयादारम्भ सासणो होइ । मावतः प्रतिपन्न सर्वसावद्यविरतिः श्रयते। तथा च सूत्रम्-"उम्मामीसुवसम अंतमुह, खाइयदिट्ठी अणंतचा ॥४०॥ सियं उसु जयं, माऊण समन्नियं वंदे" इति सत्यमेतत् किं त्वियं एकस्मात्समयादारज्य यावदाबलिकाना षटकं, तावत्सास्वा | शैशवेऽपि भगवद्वज्रस्वामिनो भावतश्चरणप्रतिपत्तिराश्चर्यभूता बनो भवति। इयमत्र भावना-एकासास्वादनो जीवः पूर्वं गुण- | कादाचित्कीति न तया व्याभिचारः। अथ कथमवसीयते !, येथे Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण्डाख प्रन्निधामराजेन्छः। गुगाहाण बजस्वामिनः शिवेऽपि चरणाप्रतिपातमा कादाचित्कीति । स्त्रीणाजोगीणतो, देसस्सेव जोगिणो कालो ॥४॥ बच्यते-पूर्वसरिकतव्यास्यामात् । तथा च-पञ्चवस्तुके प्रम अपूर्वपरणादारज्य यावदुपशान्तः,फिमुक्तं प्रवति -प्रकस्याप्रतिपत्तिकालनियमविचाराऽधिकारे गाथा रणानिवृत्तिपादरसूदमसंपरायोपशान्तमोहा: प्रत्येक समयादार" तयहो परिदयखेतं, न चरणभावो घि पायमेपसिं। भ्योत्कर्षतोऽन्तमुहर्स यावरुवन्ति। तत्र समयमात्रभावना-कमाहय भावकहगं, सुत्तं पुण हो नायवं"। श्चिदुपशमभेण्यामपूर्वकरणत्वं समयमात्रमनुभूयाऽपरः कोऽपि मस्या व्याख्या-तेषामष्टानां वर्षाणामधोवर्तमाना मनुष्याः | अनिवृत्तियादरसंपरायत्वं प्राप्य तत्समयमात्रमनुभूय, तदन्यः परिजवक्त्रं जवन्ति, येन तेन वाऽपि शिशुषात्परिभूयन्ते, तथा कोऽपि सूक्ष्मसंपरायत्वं संप्राध्य, तदपि समवमात्रमनुभूय, पर: चरणभावोऽपि चरणपरिणामोऽपि प्राय पतेषां वर्षाएकादधो- कोऽपि पुनरुपशान्तमोहत्वमवाच्य,तदपिसमयमात्रमनुभूय,द्वि. वर्तमानानां न भवति । यत्पुमः पूत्रम्-"छम्मासियं छतु जयं, तीय समयेऽनुत्तरसुरेषत्पद्यते । तत्र चोत्पनानां प्रथमसमय ए. माऊण समश्रियं वंदे" इत्येवरूपं तव (बाहचनावकहगं) वाविरतत्वमित्यपूर्वकरणाहीनां समयमात्रत्वम, अन्तर्मुहर्तनावकादाचित्कभावजयक, ततो वाष्टकादधः परिभवत्रत्वाञ्च- ना तु सुगमा; अपूर्वकरणादीनामन्तर्मुहुर्तानन्तरमवश्यं गुणस्थारणपरिणामाभावाच्च नदीवन्ते इति ॥४१॥ नकान्तरसंक्रमान्मरमामा, कपकघेण्यां त्वपूर्वकरणादीनां प्रत्येसम्पति प्रमत्ताप्रमत्तसंयतगुणस्थामफबोरेफ जीपमाधिकृत्य कमजघन्योत्कृष्टमम्तमुहूर्तमवसेयम् । कपकश्रेण्यामारुदस्याकाखमाबमाह कृतसकलकर्मवयस्य मरणासंजवात। तथा (खीणाजोगी तो इति) वीणानां कोणकपायाखामयोगिनां भवस्थाऽयोगिसमयाक अंतमुद्र, पमचअपमत्त जयंति मुही। केवलिनामजन्योत्कृष्ठमन्तर्मुदतमवस्थानम् । तथादि-क्षीणकषादेसूणपुचकोटिं, अत्रोचं चिहि चबंता ॥ ४॥ बाणां म मरणमन्तर्मुहूर्तानन्तरं च मानावरणादिघातिकम्मत्रसमयादेकरमादारभ्य मुनयः प्रमत्ततामप्रमत्सतां चा ताबद्भजन्ति यक्षवात्सयोगिकेवालगुणस्थानके संक्रमः । नवखायोगिकेवलि. यावदुत्कर्षतोतर्मुहूर्त, सतः परमपश्यं प्रमत्तल्याप्रमत्ततादि- नां तु हस्वपञ्चाकरोतिरणमात्रकालावस्यायितया, परतः सिद्धभावात, प्रमत्तस्व व प्रबचताऽऽदिभाषालू । श्वमत्र भावना- स्वप्राप्तिः, अतो याबामप्यजघन्योत्कृष्टमन्तमुहर्तमवस्थानम् । प्रमत्तमुमयोऽप्रमत्तमुनपो वा बचपत पकं समयं प्रन्ति, तथा (देसस्सेव जोमिलो कालो) देशस्वेव देशविरतस्येव योतदनन्तरं मरसभामाविरतत्वभावात् , पर्वतस्वन्तर्मुहत्रे, गिनः सयोगिकेवलिनः कालो वेदितव्यो, जघन्यतोऽन्तमहत्तम, ततः परमवश्यं प्रमत्तभावो देशविरतत्वं पा, मरकं वा। मप्रम- उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी इत्यर्थः, अत्राऽन्तर्मुहूर्तमन्तकृत्केवतस्याऽपि प्रमत्तताभेल्यादौ देशविरतत्वादिकं चेति । भथैतदेष मिनो विकेयम् । देशोना च पूर्वकोरिः सर्वोत्कृष्टा सप्तमासजातकथमवसितमम्सच्दू बूद्ध प्रमत्तस्वात्रमत्तादिजाबोऽप्रमत्तस्य स्य वर्षाएका चरणप्रतिपल्या शीघ्रमेवोत्पादितकेवलकापा प्रमत्ताविनाया, बाबता देशविरतादिवत् प्रभूतमपि नस्य पूर्वकोट्यायुषो बेदितव्या । तदेवमुक्तं गुणस्थानकेषु वि. कालं कस्मादेती म भवतःच्यते-ह बेषु संक्लेश- प्रामे काल मानम् । पं०सं०२ द्वार। प्रव०॥ स्थानेषु वर्तमामो मुभिः प्रमत्तो नपति, बेषुप विशोधिस्थानेषु (५) सम्प्रति गुणस्थानकान्याहवर्तमामोऽप्रमत्तस्थानी संक्लेमस्थामाथि,विशोधिस्थानानि च प्रत्येकमसम्बेवसाकाकाशप्रदेशप्रमासानि भवन्ति । मुनिश्च सुरनारएम पत्ता-रि पंच तिरिएमु चोद्दस मासे । पथावस्थितबुभिजाब बर्तमानो वाबदुपशमभेषि, कपाश्रेणि इगिविगनेमू जुयर्स, सम्वाणि पणिदिमुवति ॥ २८॥ वा नारोहति, ताबदव तथालाजान्बात्संक्लेशलामेश्चन्त - इत्तै स्थित्वा विशोधिस्थानेषु गालि, विशोधिस्थामेचम्यन्त मुरेषु मारकेषु च प्रत्येक मिथ्याहरिसास्वादनमिभाविरतसमदूत स्थित्वा भूवः संक्वेशस्थानेषु गमति, रवं निरन्तरं म्यापिलवणानि चत्वारि मुणस्थानकानि जवन्ति । तान्येव दे. प्रमत्ताप्रमत्तयोः पराबच्चीः करोति, ततः प्रमत्ताप्रमत्तनाबावु शविरतिसहितानि पञ्चगुणस्थानकानि तिर्यक्षु भवन्ति, चतुईत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुह कावं वावग्नुभ्वेते, न परतः । तथा चोक्तं शाऽपिमनुम्बे,तत्र मिथ्यात्वाधयोगित्वपर्यन्तसंघभावसंभवात् । शतकवृहचूी-“श्त्वं संकिनिस्सा बिसुम्भर वा विरो तथा एकेन्द्रियेषु विकलेषु विकलेन्द्रियेषु द्वित्रिचतुरिन्छियरूपेषु अंतमुहुत्तं० जाब कावं न परो, तेसं संफिनिस्संतो संकिले विध्यारपिसास्वादनलक्षणं गुणस्थानकयुगलं भवति । सास्वासट्टाणेसु शंतोमुहुत्त का भाब पमतसंजओ होइ,विसुज्क बनत्व सन्धिपप्तिानां करणापर्याप्तानां करणापर्याप्तावस्थायातो विसोहिहाणेसु अंतामुलं कावं. जाब अप्पमत्तसंजभो मवसर्व तथा पञ्चनियेषु पञ्चेन्द्रियद्वारे सर्वाणि चतुर्दशापि होश इति"। अब प्रमत्ताप्रबचनावपरावृत्तः किबन्तं कालं गुणस्थानकामि भवन्ति, मनुष्येषु सर्वनावसंजबात् ॥ २० ॥ यावनिरन्तरं करातीबत बाह-(देववेत्यादि) देशोनां पूर्व- सन्वेसु वि बिच्छो वा-उतेउमुहमतिमं पमोत्तणं । कार्टि पावर मी प्रमत्ताऽप्रमत्तभावावलोऽन्यं परस्परं जज सासायनो उ सम्मो, सनिमे सेससबिम्मि ॥२५॥ न्तौ तितः, प्रवचनावोऽन्तानन्तरमप्रमत्तनाचं भजन म. प्रमत्तनाचोऽन्तद्व न्तरं प्रमत्तभावं भजन निरन्तरं ताच सर्वेचविचमेषु स्थावरेषुब मिण्याटिमकगं गुणस्थानकमबि. द्वाति बाबदेशोनां पूर्वकोटीमित्वर्यः । देशोनता च पूर्वकोट्या शेषेणाक्सवम् तथानिचायुलूदमत्रिकं चमूमनन्धपर्याप्तकसा. बानत्वनाविवाएकापक्रया करव्या ॥ ४२ ॥ धारणरूपं विमुल्य शेषषु लब्धिपर्याप्तषु करणैश्चाऽपर्याप्तेषु सकिसम्पात शेषगुणस्थानकानामेकं जीवमाधिकृत्य कालमानमाह नि पर्याप्ते च सास्वादनः, सास्वादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानं जब ति, सुशन्दो लब्धिपर्याप्तस्वित्यादिविशेषणसूचकः। तथा [सम्मा समयानो अंतमुह, अपुचकरणाउ नाव उनसंतो। | ति अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानं साकतिक पर्याप्तापर्याप्तलक्षणे, Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) गुमाढाए अभिधानराजेन्द्रः। गुणहाण पाणि पुनः सम्यग्मिच्यारदेिशविरतादीन्येकादश गुणस्था- स्थानकानि, ये तु सयोग्ययोगिकेवलिगुणस्थानके ते तत्र न सं. मकानि साहिनि पर्याप्त भएन्यानि ॥२ए। भवतः,सयोम्ययोगिकेवलिनोः संशित्वाऽयोगात,नदयोगध मनोमा वायर ता वेए-मुतिसु वि तह सन्चसंपरापम् ।। विज्ञानाजावात् । न चाप्येकान्तेन तयारसंशित्वं भव्यम, इन्यम नोऽपेकया संशिवस्याऽपि व्यवहाराता तथा चाह-केवझिनीन सोजम्मि जाव मुहमे, छोसा जाब सम्मो सि ।।३०॥ संकिमी, मनोविज्ञानानावात् . नाप्यसंकिनी. कम्यमनःसंबन्धायावत बादरोऽनिवृत्तिवादरसंपरायत्वं तावजीवाः सर्वेऽपित्रि पेक्षया संक्रित्वव्यवहारात् । नुक्त च सप्ततिकाचूर्णी-"मणकपुवेदेषु स्त्रीनपुंसकलक्षणेषु, तथा त्रिवपि च संपरायेषु को रणं केवलिणो वि अस्थि, नेण सनिणो बुञ्चति, मणोविनाणं धमानमायारूपेषु व्याः। किमुक्तं भवति ?-त्रिषु घेदेषु, त्रिषु च पहुच, ते समिणो न हवंति त्ति" ॥ ३२॥ कोधमानमायारूपेषु संपरायेषु मिथ्यादृष्टयादीन्यनिवृत्तिचादरसम्परायपर्यन्तानि नव गुणस्थानकानि भवन्ति । एषमन्यत्रापि अपमत्त्वसम अजोगि, जाव सम्बे वि अवीरयाईया । भावना द्रष्टव्या। तथा लोभे यावत सूक्ष्मः सूचमसंपरायस्तावत्स- बेयगनवसमखाश्य-दिडी कमसो मुणे यया ।। ३३ ।। बैऽपि जीवा मिथ्यारधिप्रभृतयो वेदितव्याः, तथा यावत् (सम्मो इह यथासंख्येन पदयोजना कर्तव्या। सा चैवम् अविरतादसि) अविरतसम्यग्हरिस्तावत् पमपि लेश्या भवन्ति ॥३०॥ योऽप्रमत्तान्ताः वेदकसम्यग्दृष्टयः, अविरतादय उपशान्तमो. अप्पुनामु सुका, नत्थि अमोगिम्मि तित्रि सेसाणं। हान्ता प्रौपशमिकदृष्टयः, अविरतादयोऽयोगिपर्यन्ताः कायिपीसो एगो चउरो, असंजया संजया सेसा ॥३१॥ कसम्यग्दृष्टयः,कमशः क्रमेण यथासंख्यरूपणोक्तलकणेन मन्त व्याकिमुकं भवति ?-वेदकसम्यक्त्वेऽविरतसम्यग्दृष्ट्यादीन्यअपूर्वादिषु अपूर्वकरशादिषु गुणस्थानकेषु [ सुक्का ति ] प्रमत्तपर्यन्तानि चत्वारि गुणस्थामकानि, श्रीपशमिकसम्यकन्वे एका अकलेश्या भवति, म शेषा लेश्याः। तथा-प्रयो- त्वविरतादीभ्युपशान्तमोहपर्यन्तानि अष्टौ गुणस्थानकानि, कागिनि भयोगिकेवसिगुणस्थानके साऽपि शुक्रमेश्या नास्ति, यिकसम्यक्त्ये अविरतादीनि अयोगिपर्यन्तानि एकादश गुणअश्यत्वादयोगिकेवखिनः, तथा शेषाणां देशविरतप्रमत्तसं- स्थानकानि, मिथ्याष्टिसास्वादनमिश्रेषु पुनः स्वं स्वमेव गुणयताप्रमत्तसंयतानां तिनस्तेजःपनशुक्लरूपा बेश्या भवन्ति । स्थानम् । एतथानुक्कमपि सामर्थ्यांदवसीयते इति नोक्तम् ॥३३॥ सूत्रे तु 'तिनि ति' नपुंसकनिर्देशःप्राकृतवकणात् । यदा पाहारगेम तेरस, पंच अणाहारगेसु वि नवंति । व पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे-"लिङ्ग व्यभिचार्यपि" । इदं च लेइयात्रयं देशविरतादीनां देशविरत्वादिप्रतिपत्तिकाने द्रष्टव्यम् । जणिया जोगुवयोगा- मग्गणा बंधगे जाणमो ॥३॥ अन्यथा षडपि लेश्याः। उक्तं च-सम्यक्त्वदेशविरतिसविरतीनां आहारकेवऽयोगिकेवनिवर्जाणि शेषाणि त्रयोदश गुणप्रतिपत्तिकालेषु शुभसश्याश्रयमेव,तदुसरकालं तु सर्वा अपि से- स्थानकानि, अनाहारकेषु मिथ्यादृष्टिसास्वादनाधिरतासम्यम. श्याः परावर्तन्तेऽतीति। तथा योगे मनोवाकायरूपेऽयोगिकेवलि- टिसयोग्ययोगिकेवानिलकणानि पञ्च गुणस्थानकानि, तत्र सबर्जानि शेषाणि त्रयोदश गुणस्थानकानि मतिश्रुतावधिज्ञानेश्व- योगिकेवलिगुणस्थानकमनाहारके समुद्घातावस्थायां, शेषाणि विरतसम्यग्दृष्टपादानि कीएमोहपर्यन्तानि नव गुणस्थानकानि, | सुप्रतीतानि ॥ पं० सं०१ द्वार । प्रव० । कर्म। मनःपर्यायक्षाने प्रमत्तसंयतादीनि कीगमोहान्तानि सप्तगुणस्था- (६) अथ जीवस्थानेषु गुणस्थानानि प्रचिकटयिषुराहमकानि, केवलज्ञानकेवनदर्शनयोः सयोग्ययोगिकेवसिसकणं गुण बायरअसन्निविगले, अपज्ज पढमविय समिअपजत्ते । स्थानकातक,मत्यहानश्रुताझानविनङ्गशानेषु मिथ्याष्टिसास्वादनमिश्रलकणानि चीणि गुणस्थानकानि, चतुरचक्षुरवधिद अजयजुय सन्निपज्जे, सव्वगुणा मिच्छ सेसेसु ॥ निषु मिथ्यादृष्यादीनि कोणमोहान्तानि द्वादश गुणस्थानका- ततो पादरश्च वादरैकेन्द्रियाः पृथिव्यस्खुवनस्पतिझक्षणाः, नीति सुधिया नावनीयम् । तथा मिश्रो व्यामिश्रः संयम प्रत्येको असंहीच विशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञानविकलः, विकसाश्च देशविरत इत्यर्थः, चत्वारो मिथ्यादृयादयोऽसंयताः, शेषाश्च विकलेजिया वीडियत्रीन्छियचतुरिन्डियाः 'द्वन्द्वे' बादरासंसंयताः, तत्र प्रमत्ताऽप्रमत्तसामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहार. झिविकलं, तस्मिन् बादरासंझिविकले । किंविशिथे !, ( अपज विशुक्रिकसंयमसंजविनः, अपूर्वकरणाऽनिवृत्तिपादरी सामा- त्ति ) अपर्याप्ते, कोऽर्थः १. अपर्याप्तबादरैकेन्द्रियेषु पृथिव्यम्बुयिकदोपस्थापनसंयमसंमबिनी, सूनसंपराये सूक्कासंपरा- वनस्पतिषु,तथाऽपर्याप्ते संझिनि, तथा बिकलेषु द्वीन्ऽियत्रीन्द्रियसंयमः, उपशान्तमोहकीमोहसयोग्ययोगिकेवलिनो यया- यचतुरिन्छियेष्वपर्याप्नेषु, किमिति ? प्राह (पढमविय त्ति)ह स्थातचारित्रिणः ॥ ३१॥ 'सव्यगुणा' इतिपदाद् गुणशब्दस्याकर्षणं. ततः प्रथमं मिथ्यारअभबिएस पढम, सव्वाणियरेसु दो असन्नी । ष्टिगुणास्थानं.द्वितीयं सास्वादनगुणस्थानं भवति । अथ तेजो. वायुवर्जनं किमर्थमिति चेत् ?, उच्यारे-तंजोबायूनां मध्ये सम्यसप्पीसु वार केवलि, नो सभी नो असमी वि ।। ३ ।। क्वलेशवतामप्युत्पादाभावात्, सम्यक्त्वं चासादयतां सास्थाअत्रव्येषु प्रथम मिथ्यादृष्टिलक्षणं गुणस्थानकम.श्तरेषु च भ- दनभावाभ्युपगमात् । नन्ध केन्द्रियाणामागमे सास्वादननायो, व्येषु सर्वाणि मिथ्याथ्यादीन्ययोगिकेवलिपर्यन्तानि चतुर्दशाs- नेष्यते उन्नयाजावा, "पुढवाइपसु संमत्तलकीप" इति परमम्पि गुणस्थानकानि नवन्ति । तथाऽसंशिषु संशिवजितेषु द्वे मि- निप्रणीतवचनप्रामाण्यात् । अत पवागमे एकेन्द्रिया अशानिन च्याष्टिसास्वादनलक्षणे गुणस्थानके, नत्र सास्वादनसम्यग्दृष्टि- एवोक्ताःद्वीन्द्रियादयश्च केचिटपोप्तावस्थायां सास्वादननागुलास्थानकं लम्धिपर्याप्तस्य करणापर्याप्ताऽवस्थायां वेदितव्यम्। वाभ्युपगमात ज्ञानिन नक्ताः, कोचिच्च तदभावादशानिनः, यदि तथा संक्रिनि सयोग्ययोगिकेयसिवानि शेषाणि द्वादश गुण- | पुनरे केन्द्रियाणामपि सास्वादननावः स्यात्, सर्दि तेऽपि दीन्द्रि ५.३० Jain Education Interational Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणद्वा 1 यादिवत् उभयथाऽप्युच्चेरन्, न चोच्यन्ते यदुक्तम्- "एगिदिया णं अंते ! किं नार्थी, अन्नाणी ? गोयमा ! नो नाणी, नियमा अणी । तथा वेदिया णं भंते ! किं नाणं। श्रन्नाणी ? । गौमा ! ना) वि, अन्नाणी वि" इत्यादि । तत्कथमिहापर्याप्तबाइयेवियम्बुवनस्पतल कृणेषु गुणस्थान कभाव उक्तः ? सत्यमेतत् किं तु मा त्वरिष्ठाः सर्वमेतद प्रतिविधास्याम इति । ( सन्निश्रपज्जत्ते भजयजय त्ति ) संशिन्यपमिथ्यादृस्यादनप्रकृणगुणस्थानकडूपमयतयुतं जयति । यमनं गतं. विरतिरित्यर्थः। न विद्यते यतं यस्य सो5: अविरत सम्यग् तेन संयुपयुतम्। ३ मुक्तं नवसंज्ञित्यमिवासनाविरि सम्पन्न गुणस्थानानि यति न शेषाणि सम्यधियादृष्ट्यादीनि तेषां पर्याप्तावस्थायामेव भावात् । (सन्निपज्जे स गुण) संििन पर्याप्ते समिध्यादन्ययोगि पनि गुणस्थानका सर्वपरिणामसंभवात्। अथ कथं संशिनः सयोग्ययोगरूपगुणस्थानक्रद्रयसंभवः १, त गावे तस्यामनस्कतया संशित्वायोगात् ? । न । तदानीमपि हि तस्य पनवस्त्रोऽस्ति समनस्काविशेषेि व्यवह्रियन्ते ततो न तस्य भगवतः संहिताव्याघातः । यदुक्तं स सतिकापूर्वी "मणकरणं पथि तेण संधिनो म ांति,मणाविन्नाणं प्रमुञ्च ते सन्शिणो न भवति त्ति" (मिच्छ से सेसुसि) मिध्यात्वं शेषेषु भणितावशिष्टेषु पर्याप्ताऽपर्याप्तसुक्ष्मपपत्रीचतुरिन्द्रियाम (०२०) श्रभिधानराजेन्द्रः । लवणेषु सप्तसु जीवस्थानेषु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमेव भवति, न सासादनमपि । यतः परभवादागच्छतामेव घण्टा लामान्यायेन सशमास्यादयतामुत्पत्तिकाल वापस्थायां जन् मां लभ्यते न पर्याप चतुरपि तदाक अपनेयेऽपि न साइनसंजय सासादनस्य मना शुभपरिणामरूपत्वात् महासंलिपरिणामस्य च सूक्ष्मेन्द्रियमध्ये स्वादिति॥३॥ न निरूपितानि स्थान पानकानि कर्म [ परीसह 'शब्दे गुणस्थानकेषु परी]। । (9) गुणस्थानकेषु बन्धनः अपने गुणस्थानेषु न गयान्यमुयमुखांचा कर्माणि कृपिठाने तथा चित्रणः प्रथमं ताब . " धनपूर्वकं चिकटराअभिनवकम्पणं बंची आहेण तस्य पीसस | तित्ययराहारगडग - वज्तं मिच्छम्मि सतरसयं ॥ ३ ॥ मिथ्यात्वादिभिर्हेतुभिरभिनयस्य नूननस्य कर्मणो हानाथ राहणमुपादानं बन्ध इत्युच्यते बघेन सामाम्पेन, नैकं बिस्थानकात्यर्थः तत्त) तत्र बन् शनि कर्म भवतीति शेषः तथाहिमनिज्ञानावरणतज्ञानावरणय विज्ञानावरणन मनःप ज्ञानावरणं, केवलज्ञानावरणमिति पञ्चधा ज्ञानावरणम् | निद्रा निद्रा निद्रा प्रदान नाम नाम अवधिदर्शनावरणं केवलशरणमिति नवदर्शनम् द्विवासात वेदमीयमानमनिमेतद्यथा 1 1 " गुणद्वा मध्यं सम्यमिति दर्शनम नुबन्धी क्रोधो मानो माया लोभः, श्रप्रत्याख्यानावरणः क्रोधो मानो माया बोजः, प्रत्याख्यानावरणः क्रोधो मानो माया लोभः, संज्वलनः क्रोधो मानो माया लोभ इति षोमश कपायाः । स्त्रीपुन्नपुंसकमिति वेदश्य हास्यं रतिः पतिः शोको न जुगुप्सेति हास्यप मिहितं नयनोपायाः प्रा युश्चतुर्द्धा नरकायुस्तियेगा युः मनुष्यायुः देवायुरिति । श्रथ नामकर्म] द्विचत्वारिंशद्वयम् तद्यथा चतुर्दश पिण्डप्रकृतयः अ प्रत्येक प्रकृतयः, त्रसदशकम्, स्थावरदशकं चेति । तत्र पिएडकृतय इमाः- गतिनाम जातिनाम शरीरनाम श्रङ्गोपाङ्गनाम बन्धननाम संघातनाम संहनननाम संस्थाननाम वर्णनाम गन्धनाम रसनाम स्पर्शनाममानुपूर्वीनाम विहायोगतिनामेति भासां मेदाः प्रदृश्यन्ते नरकसिमनुष्यदेवगति नामभेदार गति नाम एकेन्द्रिय द्रीय जातिनामेति पञ्चधा जातिनाम । श्रदारिकवैक्रियाहारक तैजसकामेरा शरीरनामेति पञ्चधा शरीरनामेति । औदारिकाङ्गोपाङ्ग बैंकि यामाहारकाङ्गोपाङ्गं नामेति त्रिधाङ्गोपाङ्गनाम ब मनाम पञ्चाश्रदारिकयनादिशरीरवत्यं संघातनमपि। संहनननाम षभेदम वज्रऋषभनाराचम, ऋषजनाराचं, नाराम नाराचं का सेवा देतानामधिसमचतुरन्यग्रोधपरिमलं सादिधानं कुबेति । वर्णनाम पञ्चधा-कृष्णं नीलं लोहितं हारि शुक्लं चेति । बन्धनामद्विधा सुरभिगन्धनाम, दुरभिगन्धनामेति रसनाम पाकिटुकषायम अम् मधुरं वेति। स्पर्शनामामृदु मघु शीतम उपस्निग्धं धनुपूर्वी चतुर्था नरकानुपूर्वी सिमानुपूर्वी मनुष्यानुपूर्वी देवानुपू चेति विद्वायोतिर्विद्या प्रशस्ताियोगतिरहयोगतिरिति खासां तुदेशकृतीनामुत्तरमेदाश्रम पूर्वोक्ताः पञ्चषष्टिः । प्रत्येक प्रकृतयस्त्विमाः - पराघातनाम, उपघातनाम, उच्चासनाम, आतपनाम, उद्योतनाम, अगुरुलघुनाम तीर्थकरनाम, निर्माणनामेति सदशकमिदम्-सनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, प्रत्येकनाम, स्थिरनाम. शुभना म, सुभगनाम, सुस्वरनाम, आदेयनाम, यशः कीर्त्तिनामेति । स्थावरदशकं पुनरिदम-स्थावरनाम सुमनाम, अपर्याप्तनाम, साधारणनाम, अस्थिरनाम, अशुभनाम, फुर्जगनाम, डु:स्वरनाम, नानाम अयशः कीर्तिनामेति राः पश्येप्रकृतयो प्रसदशकं स्थायर शकं च । सर्वमंीलने त्रिनयतिः । गोत्रं द्विधा-उचैर्गोत्रं, नीचेगोत्रं च । अन्तरायं पञ्चधा-दानान्तरायं, लाभान्तरायं, भोगान्तरायम, उपभोगान्तरायम्, वीर्यान्तरायं चेति । एवं च कृवा कानावर यः पच दर्शनावरणे नय बेदनीये मोहन आयुषि चतस्रः नानि त्रिनवतिः, गोत्रे, अन्तराये पञ्च सर्वमेवारिंशं शतं भवति । तेन च सतायामधिकारः उद्योदरणयोः पुनरोदारिकादिनानपञ्चानामादारिकादिसंघानानां च पचानां यथास्वदारिकादिषु पञ्चसु शरीरेष्वन्तर्भावः । वर्णरसगन्धस्पशांनां यथासं पदानां विशतिमपनीय नेषामेव चतुमभिन पोराकमिदम्बन्धनसंघातनसहितमाशापनीयते शेा द्वाविं शेन शतेनाधिकारबन्धे तु सम्बमिध्यात्वसम्यययोः Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणष्ठाण अभिधानराजेन्सः। गुवाहाण संक्रमेणव निष्पाद्यमानत्वाइन्धो न संभवतीति तयोर्वाविंश- प्रोधपरिमएमझसंस्थानं सादिसंस्थानं वामनसंस्थानं कुब्जसंतिशतादपनीतयोः शेषेण विंशत्युत्तरशतेनाधिकार इति स्थानमिति तथा काकादिगोलकन्यायान्मध्यशब्दस्यात्रापि योप्रकृतिसमुत्कीर्तना कृता । प्रकृत्यर्थः स्वोपझकर्मविपाकटा- | गः, ततो मध्यानि मध्यमानि प्रथमान्तिमवर्जीनि संहननानि अ. कायां बिस्तरेण मिरूपितस्तत पवावधार्य इत्यलप्रसङ्गेन ।। स्थिनिचयात्मकानि, तेषां चतुष्कं संहननचतुष्कम। ऋषभनाराप्रकृतं प्रस्तुमः-तत्र बन्धे सामान्येन विशं शतं नवतीति प्र- चसंहननं नाराचसंहननम् अर्द्धनाराचसंहनन कीलिकासंहननरुतम, तदेव च विशं शतं तीर्थकराहारकद्विकर्जे तीर्थकरा- मिति। [निउत्ति नीचैर्गोत्रम, उद्योतम् । कखगतिः कुः कुत्सिता. हारकढिकरहितं सप्तदशोत्तरं शतं (मिम्मित्ति) भीमसेनो प्रशस्ता खगतिविहायोगतिः, अप्रशस्तविहायोगतिरित्यर्थः । भीम इत्यादिवत्पदवाच्यस्यार्थस्य पदैकदेशेनाप्यभिधानद- [स्थिति] स्त्रीवेदः, इत्येतासां पञ्चविंशतिप्रकृतीनां सास्वादने शनात मिथ्यात्वे मिथ्यारष्टिगुणस्थाने इत्यर्थः । एवमुत्तरे- ऽन्तोत्र बभ्यन्ते, नोत्तरत्रेत्यर्थः । यतोऽनन्तानुबन्धिप्रत्ययो वपि पदवाच्येषु पदैकदेशप्रयोगो द्रष्टव्यः । [सतरमयं ति] ह्यासां बन्धः, स चोत्तरत्र नास्तीति । ततश्चैकाधिकशतात्पञ्चसप्तदशाधिक शतं सप्तदशशतं बन्धे भवतीति । अयमत्राभि- विशत्यपगमे (मीसि त्ति) मिश्रे सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने प्रायः-तीर्थकरनाम तावत्सम्यक्त्वगुणनिमित्तमेव बध्यते । ष, प्ततिबन्धे भवति । ततोऽपि [ आउयमबंध ति] द्वयोममाढारकशरीराहारकाङ्गोपाङ्गअक्षणमाहारकद्विकं स्वप्रमत्तय- नु ,युर्देवायुघोरबन्धो वायुरबन्धस्तस्मात घ्यायुरबन्धादितितिसंबन्धिना संयमनैव । यदुक्तं श्रीशिवशर्मसूरिपादैः शतके. हेतोश्चतुःसप्ततिर्नवति । इदमुक्तं भवति-श्ह नारकतिर्यगायुषी "संमत्तगुणनिमित्तं, तित्थयर संजमेण श्रादारमिति"। मिथ्या. यथासंख्यं मिथ्यादृष्टिसास्वादनगुणस्थानयोर्व्यवच्छिन्ने, शेषं तु रष्टिगुणस्थाने पतत्प्रकृतित्रयवर्जन कृतं, शेषं पुनः सप्तदश. मनुष्यायुर्देवायुद्धयमवतिष्ठते, तदपि मिश्रो न बध्नाति, मिश्रस्य शतं मिथ्यात्वादिभिहेंतुभिर्वभ्यत इति मिथ्यारष्टिगुणस्थाने सर्वथा आयुर्वन्धप्रतिषेधात । उक्तं च-"सम्माभिच्चदिही, तद्वन्धइति । ३॥ पाउयबंध पि न करे। ति"। ततः षट्सप्ततेरायुद्धथाऽपगमे मन्वेता मिथ्याष्टिप्रायोग्याः सप्तदशशनसंख्याः सर्वा अपि | चतुःसप्ततिर्नवताति ॥५॥ प्रकृतय उत्तरगुणस्थानेषु गच्छन्त्युत काश्चिदेवेत्याशक्याह- सम्मे सगसयरि जिणा-उबंधि वरनरतिगवियकसाया । नरपतिग जाइथावर-चउ हुँमायवरिवहनपुमिच्छं। नरमगंतो देसे, सत्तही तिअकसायंतो ॥ ६ ॥॥ सोलंतो गहियसय, सासणि तिरियीणउहगतिगं ॥४॥ [समिति] अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थाने [सगसयरि ति] स. नरकत्रिका-नरकगतिनरकानुपी नरकायुल कणम, (जा. तसप्ततिप्रकृतीनां बन्धो भवति। कथमिति चेत् । उच्यते-पूर्वोक्तैष स्थावरचउ ति) चतुःशब्दस्य प्रत्येकमजिसंबन्धात जाति-| चतुःसप्ततिः [जिणानुबंधि त्ति ] तीर्थकरनाममनुष्यायुवायुचतुष्क पकेजियजातिद्वोन्द्रियजाति त्रीजियजातिचतुरिन्द्रि- ईयबन्धे सति सप्तसप्ततिर्भवति । एतमुक्तं भवति-तीर्थकरनाम पजातिस्वरूपं, स्थाघरचतुष्कं स्थावरसूक्ष्मापयांप्तसाधार- तावत्सम्यक्त्वप्रत्ययादेवात्र बन्धमायाति, वे च तिर्यङ्मनुष्या जलकणं, हुगमम प्रातपं वेदपृष्ठं (नपुत्ति) नपुंसकवेदः। अविरतसम्यग्दृशस्ते देवायुर्बध्नन्ति,ये तु नारकदेवास्ते मनुण्या( मिच ति । मिथ्यात्यमित्येतासाम ( सोलतो ति ) युर्वजन्ति, ततोऽत्रेयं प्रकृतित्रयो समधिका लज्यते,साच पूर्वोपोमशानां प्रकृतीनां मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने ' तत्र भाव न. कायां चतुःसप्ततौ क्षिप्यते,जाता सप्तसप्ततिरिति । [वर ति] सरत्राभायः' इत्येवंशक्षणोऽन्तो विनाशः कयो भेदो व्यवच्छे- | वज्रबननाराचसंहननम् [नरतिगत्ति नरत्रिकम् नरगतिनरा. द उच्छेद इति पर्यायाः। इयमत्र भावना-एता दि षोमश प्र-| नुपूर्वीनरायुलकणं,[वियकसाय त्तिद्वितीयकमाया भप्रस्यास्या रुतयो मिथ्याष्टिगुणस्थान एव बन्धमायान्ति, मिथ्यात्यप्रत्यय- नावरणाः क्रोधमानमायासोभाः [उरलदुग त्ति]ीदारिकद्धिकस्वादेतासाम । नोत्तरत्र सास्वादनादिषु, मिथ्यात्वानाबादेव । मौदारिकशरीरोदारिकालोपाङ्गलकणमित्येतासां दशप्रकृतीना. यत पताः प्रायो नारकैकेन्द्रियविकोन्डिययोग्यत्वादत्यन्ताऽ- मविरतसम्यग्दृष्टावन्तो जवति, पता अत्र बध्यन्ते. नोसरनेत्यर्थः। शुभत्वाच मिध्यारष्टिरेव बनातीति सप्तदशशतात्पूर्वोक्तादे. भयमवानिप्रायः-द्वितीयकरायांम्नावदुदयाभावान्न वध्मानि दे. सदपगमे शेषकोत्तरं प्रकृतिशतमेवाऽविरत्यादिहेतुनिः सा- शविरतादिः । कषाया घनन्तानुबन्धिवर्जावेद्यमाना एवं बध्यन्ते स्वादने बन्धमायात्यत एवाह-(गहियसयसासणि त्ति) एका. "जे वेए३ ते बंधई" इति वचनात् । अनन्तानुबन्धिनस्तु चतुर्विधिकशतं सास्वादने बध्यते । "इगहियसय" इत्यत्र विनक्तिलोपः शतिसत्कर्मानन्तवियोजको मिथ्यात्वं गतो बन्धावलिकामा प्राकृतत्वात्। एवमन्यत्राविविज्ञक्तिझोपःप्राकृतलकणवशादवसे- कालमनुदितान् बन्नाति । यदाहुः सप्ततिकाटीकायां मोहनीययः। (तिरिधीणमुहगतिगं ति)त्रिकशब्दः प्रत्यकं संबध्यते। तिय- चतुर्विंशतिकावसरे श्रीमलयगिरिशादा:-" इह सम्यग्दृष्टिना कत्रिक-तिर्यग्गतिः, तिर्यगानुपूर्वी, तिर्यगायुर्लकणं, स्त्यान- सता केनचित प्रथमतोऽनन्तानबन्धिनो विसंयोजिता:' पतावद्वित्रिक-निजानिकाप्रचलाप्रचलास्त्यानस्थिरूपं, दुर्भगत्रिक तैव स विश्रान्तो न मिथ्यात्वादिक्षयाय स उद्युक्तवान्, तथापि उर्जगवरानादेयस्वरूपमिति ॥४॥ धसामयभावात् । ततः कालान्तरे मिथ्यात्वं गतः सन् मिथ्याअणमकाऽऽगिइसंघय-णचउनिउज्जोयकुखगइस्थिति।। स्वप्रत्ययतो भूयोऽप्यनन्तानुबन्ध्रिनो बध्नाति। ततो बन्धावसिका पणवीसंतो मीसे, चउसयरि आउय अवंधा ।। ५॥ यावन्नाद्याप्यतिक्रामति तावत्तेषामुदयं विना बन्ध ति। नरत्रिक पुनरकान्तेन मनुष्यवेद्यम् । औदारिकद्विकं वज्रऋषभनाराचसं. चतु:शब्दस्य प्रत्येक योजनात् (श्रण त्ति) अनन्तानुबन्धिच- हननं च मनुष्यतिर्यगेकान्तवेद्यम् । देशविरतादिषु देवगतिवेतुष्कमनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोजाख्यम। मध्यामध्यमा आ- चमेव बध्नाति,नान्पत्तेनासां दशप्रकृतीनामविरतसम्यग्दृष्टिपन्तबर्जा मारुतयः संस्थानानि मध्याकृतयः,तासां चतुष्कंन्य- गुणस्थानेऽन्तः। तत एतत्प्रकृतिदशकं पूर्वोक्तसप्तसप्ततरपनीयते । Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणहाण अभिवानराजेन्द्रः। गुणहाण सतो [देसेसनट्रिलि] देशे देशविरतगुणस्थाने सप्तपष्टिवष्यते, ] ( पणभागि सि) पचाना मागानां समाहारः पन्चमा[तियकसायं तु सि] तृतीयकपणयाणां प्रत्यास्यामाचरणकोषमा- , तस्मिन् पशभामे, पशम मागेवित्यर्थः । इदमुलं भवतिममाचासोभानां देशविरतेऽन्तस्तदुत्तरेषु तेषामुदयामाघात अपूर्वकरयाबायाः समसु प्रागेषु विक्कितेषु प्रथमे ससअनुदितानां चापधात "जे यह ते बंधा" स्विचनादिति मागेऽष्टपञ्चाशव, तत्र च व्यवच्छिन्ननिद्राप्रवलापनबने भावः । एतच प्रकृतिचतुष्कं पूर्वोक्तसप्तरपनीयते ॥६॥ पदपश्चासत, सा व द्वितीये सप्तभागे तृतीये सप्तमागे चतुर्थ तेवद्धि पमत्ते सोग प्ररइ अथिरदुग अजस अस्सायं । लमनाग पञ्चमे सप्तमागे षष्ठे सप्तभाने भवतीत्यर्थः मित्रच पठे सप्तमांगे मासां त्रिंशत्प्रकृतीनामन्तो भवतीत्याह- सुरदुच्चिज्ज उच्च सत्त व, नेइ सुरानं जया निहं ॥ ७॥ अगेत्यादि सुद्धिकं सुरगतिसुरानुपूर्वीरुपमा(पणिदि ति) - (तेवहिपमसिसि) त्रिषष्टिः प्रमत्तेमध्यते । शोकः अरतिः, श्रेलियजातिः, सुखगतिः प्रशस्तविहायोगतिः, (सलनपति) [अधिरगति] अस्थिरधिकमस्थिरात्ररूपम [भजस ति] असनवकं सवादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिरजुनसुभगसुस्वरादेयनअवसः कीर्तिनाम, असातमित्येताः षट् प्रकलयःप्रमसे (बुष्टि कणम [उरलावणुति प्रौदारिकसरीरं विना, औदारिकाबत्ति) प्राकृतत्वादादेशस्य, म्यवच्छिद्यन्ते कीयन्ते, बन्धमाभि- जोपानं चविनेत्यर्थः, (तणु त्ति) तनवः शरीराणि, [उवमति] स्येति भावः । यद्वा-सप्त वा व्यवच्छियन्ते । कथमिति !, पाह-| उचानानि । श्वमुक्तं भवति-वैक्रियशरीरमाहारकशरीरं तेज(मे सुरा जया निकं ति ) बदा कश्चित्प्रमत्तः सन् सुरायुर्व- सशरीरं कार्मणशरीरं बैक्रियाङ्गोपाङ्गमाहारकालोपाकं चेति । समारभते, निष्ठांच नति, सुगयुर्वन्ध समापवतीत्यर्थः । तदा | (समचउराप्ति) समचतुरक्षासंस्थानं निमिण ति] निर्माणं [जि. पूर्वोकाः पर सुगयु-सहिताः सप्त व्यवषिचन्ते इति ॥७॥ जसि] जिमनाम, तीर्थकरनामेत्यर्थः [बन्नजगुरुनहुचउतिच. गुणसहि अप्पमत्ते, सुराउ बंधंतु जइ इहागच्छे । तुम्हापस्य प्रत्येकमनिसंबन्कावर्णचतुष्कं वर्णगन्धरसम्पर्शम्प म, मगुरुलघुचतुष्कम-मगुरुलघुपयातपराधातोयासलकपअबह अटावन्ना, जं प्राहारगदुगं बंधे ॥८॥ मित्येतासां प्रिंसत्मकतीन (लसिन्तिपछोऽशो भागः पमंशः, [गुणसहित एकोनषष्टिरप्रमत्ते, बध्यते इति शेषः कथमि "मयूरध्वंसकादिवाल्ममालः । यथा-तृतीयो भागस्त्रिभाग इ. ति:,पाह-सुरायुवघ्नन् देवायुबन्ध कुर्वन् , यदि चेदिहाऽप्रम- ति। मंत्र मकारस्थ नकारः "शेलः"।८।१।२०। शति प्राकृतसगुणस्थाने पागच्छेत् । श्यमत्र भावना-सुरायुर्वन्ध हि प्रमत्त | सूत्रेण । तस्मिन् पमंशे, ततः पूर्वोक्तषट्पञ्चाशत् इमानिशत्प्र. पवारजते, नाऽप्रमत्तादितस्थातिविशुद्धत्वात, भायुकस्व तु कतयोऽपनीयन्ते, शेषाः पविशतिः प्रकृतयोऽपूर्वकरणस्य, घोलनापरिणामेनैव बन्धनात, परं सरायुर्वघ्नन् प्रमचे किञ्चि- [चरमि चि] चरमेऽन्तिमे सप्तमे सप्तभागे बन्धे, लभ्यन्ते इत्यसावशेषे सुरम्पुर्वन्धेप्रमतेऽप्यागच्छत् । पत्रच सावशेषं सु यः। घरमे च समभागे हास्यं च रतिश्च [कुच्चति ] रायुनिष्ठां नयति । तत एकोनषष्टिरप्रमते जयति , "देवासयंच कुत्सा च जुगुप्सा भयं च हास्यरतिकुत्साभयानि, तेषां मेदो बकं नायब्वं अप्पमतीम्म ति" वचमात। [अत्रह अमावसति] | व्यवच्छेदो हास्यरतिकुत्साभयभेवो भवतीति । एताश्चतस्रःअन्यथा यदि सुरायुर्बन्धः प्रमत्तेनारग्धः प्रमत्तेनैव निष्ठां नीतः। कृतयः पूर्वोक्ताशतेरपनीयन्ते. शेषरा दाविंशतिः, साचानिवृस्ततोऽष्टपश्चाशदप्रमत्ते नवतीति। ननु यदि पूर्वोक्तनिषष्टेः शो तिवादरप्रथमभागे भवतीति ॥ ॥१०॥ कारत्यस्थिरद्विकाव्यशोऽसातलकणं प्रकृतिषट्रमपनीयते, तहि __ एनदेवाहसा सप्तपञ्चाशद्भवति, अथ सुरायुःसहितं पूर्वोक्तप्रकृतिपटमपनीयते तहि षट्पञ्चाशत,ततःकपमुक्तमेकोमपष्टिरष्टपश्चाशद्वाऽ- अनियहिभागपणगे, इगेगहीणो सुचीसविहवंधो । प्रमते इत्याशक्याह-(जं पाहारगदुगं बंधेतियद्यस्मात्का- पुपसंजमण चउएई, कमेण यो सतरसुदुमे ॥११॥ रणादाहारकद्विकं बन्धे नयतीति शेषः। अयमत्राशया-अप्रमत्त. भनिवृत्तिनामपञ्चके, अमिवृत्तिबादरासायाः पञ्चसु जागेच्छियतिसंवन्धिना संयमविशेषणाहारकद्विकं वध्यते, तस्नेह ल त्यर्थः। सपूत्रोक्तो द्वाविंशतिबन्ध पकैकहीनोवाच्यः, एकैकलिज्यते इति पूर्वापीतमप्यत्र वियते । ततः षट्पञ्चाशदाडारक - भागे एकैकस्याः प्रकृतेर्बन्धव्यवच्छेद इत्यर्थः । कथामिति, द्विककेपे प्रयापश्चाशद्भवति, सप्तपञ्चाशत्पुनराहारकदिककेपे | पाह-[पुमसंजलण चउपहं कमण छेउसि] क्रमेणानुपूा प्रथमे एकोनषष्टिरिति ॥G भागे पुंवेदस्य छेदः, त्तत एकविंशतेर्बन्धः, द्वितीये भागे संज्यप्रडवन अपुन्नाइ-म्मि निद्दद्गंतो छपन्न पणभागे। खनकोधस्य वेदः, सतो बिंशतेबन्धः, तृतीये भागे तु संज्वलमुरमुगपणिदिसुखग, तसनव उरमविणुतावंगा ।।। नमानम्य छेदः, तत एकोनविंशतबन्धः, चतुर्ये नागे संचल नमायायाः ना, ततोऽष्टादशाना बन्धः, पञ्चमभागे सवलनसमचरनिमिणमिणव-पभगुरु लहचन ग्लंसि तीसंतो। लोभस्य छेदः, उत्तरत्र सदधाम्यवसायस्थाना जात्रः छेदहेतु, चरमे वीसबंधो, हासकुच्चनयनेत्रो॥१०॥ संज्यमनलालस्य तु बादरमपरायप्रत्ययो बन्धः, सचोत्तरत्र नास्तास्यतश्वदः, ततः सूक्ष्मसंपराये सप्तदशमकृतीनां ब[अमवा अपुश्वाम्मिसिह किसापूर्वकरणासायाः मतभा- न्धो नवतीत्यात प्राइ-[ सत्तरमुटुमिति ] स्पष्टम ॥ ११ ॥ गाःक्रियन्ते । तत्रापूर्वस्याऽपूर्वकरणस्याऽऽदिमे प्रथमे सप्तभागे ऽधापश्चाशत् पूर्वोक्ता भवन्ति । तत्र चाये मनमागे निवाधिकस्य चनदंसणुच्च जसना-णविग्यदसगं तिसोलसुनो। निकाप्रचनासक्षणस्याऽन्तो भवनि,अत्र बध्यते, नोत्तरत्रापि, न. तिनु सायबन्ध छेओ, सनोगिधं तु तो अ॥१॥ तरत्र तबन्धाभ्यवसायस्थामाभावाद, उसोध्ययमेव हेतु- (चनमण त्ति) चतुर्णा दर्शनानां समाहारश्चतुर्दर्शनं, चतुर्दरनुसरणीयः, ततः परं षट्पश्चाशद्भवति । कथमिति ?, आह- शनाऽचचुदर्शनाइवधिदर्शन केवनदर्शनरूपस, नभत्ति उच्च Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) अभिधानराजेन्द्रः । गुपाहाय | मषम् [जस सि] यशः कीर्तिनाम [नायविपदसति] ना. विमान दशकामति, एतासां षोडशप्रकृतीनां सूक्ष्म संपराये बन्धस्योच्छेदो भवति एतद्वन्धस्य साम्परायिकत्वादुत्तरेषु च साम्परायिकस्य कषायोदयहणस्याभावादिति। [नि बाधत] त्रिषु उपशान्तमोदक्षीण मोह सजोगिकेवलिगुणस्थानेषु सःतबन्धः, सातस्य योगप्रत्ययस्य द्विसामयिकस्य तृतीयमये थानाभावादिति भावः, न साम्परायिकस्य, नस्य कषायप्रत्ययत्वात् । - भाग्यसुधाम्बोनिधि" उनीमोदा, केवलि पगविधा पुण दुसमयविश्य स्स बंधगा न उण संपरायस|१| इति । [श्री सजोगि त्ति ] रुमरुकमणिन्यायात्सातबन्धास्पेसंबधाने पच्छे सातपोऽस्ति योगमायायनोसरायोगि केलिगुणस्थाने, योगाभावात् ततोऽबन्धका प्रयोग केवल उस परिक्षा प्रथमा तिन दो चल विश्वमिच्छविरह-पथश्या सायमोसाहतीसा जोगे बितिपचइया - हारगजिएवज्ज सेसाओ || ३ || प्रत्ययशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धाच्चतुःप्रत्ययिका सातलक्षणा प्रवृतिः। मत्प्रत्यधिक पोडश तयः मिथ्यात्वाविर तिप्रत्ययिकाः पञ्चत्रिंशत्प्रकृतयः । योगं विना त्रिप्रत्ययिका मियायाविरतिपाय प्रत्यधिकाऽऽहारक द्विक जिनयोः शेषाः प्रकृतय इति गाथाऽक्षरार्थः । भावार्थः पुनरपम्-सातनकणा प्रकृतिश्चत्वारः प्रत्यया मिथ्यात्याविरतिकषाययोगा यस्याः सा चतुःप्रत्ययिका " अतोऽनेकस्वरात्। " ७।२ । ६ । इति (हम) प्रत्ययः मिथ्यात्वादिभिधतुर्भिरपि प्रत्य पैः खातं यत्यर्थः । तथादि-सामियाब भ्यत इति मिथ्यात्वप्रत्ययं शेषा अप्यविरत्यादयस्त्रयः प्र स्वःसन्ति प्राधान्येन विवक्षित स्वात् तेन तदन्तर्गतत्वेनैव विवक्षिताः, एवमुत्तरत्रापि । तदेव मिध्यात्वानावेऽप्यविरतिमत्सु सास्वादनादिषु बध्यत इति अविरतिप्रथम सदेव काययोगवत्सु प्रमत्तादिषु संप यावसानेषु बध्यत इति रूपायप्रस्थथम योगययस्तु पूर्वतदन्तर्गत विषयते । सदेोपशान्तादिषु केवल योगयासुमि ध्यात्वाविरतिकषायाभावेऽपि बध्यत इति योगप्रत्ययम् । इत्येवं सातलक्षण प्रकृतिश्चतुःप्रत्ययिका तथा मिथ्यात्व प्रत्ययिकाः बोश प्रकृतयः । इह यासां कर्मस्त वे " नरयतिग जाइथावर च हुंडाय व बेघ, नपु मिच्छं सोलंतो " इतिगाथावय येन नारकत्रिकादिषोडशप्रकृतीनां मिथ्यारन्तः उक्तः ता मिथ्यात्वप्रत्यया जयन्तीत्यर्थः राज्ञाये बध्यते तदभावे तर सास्वादनादिषु न कयमत इत्यन्ययव्यतिरेका मिश्यात्वमेवाssसां प्रधानं कारणं, शेषप्रत्ययत्रयं तु गौर्णामिति । तथा मिथ्यात्वा चिरति प्रत्ययिकाः पञ्चत्रिंशत्मकृतयः तथा दि "सामणि तिरि थप दुहरा ति मागि संघ चड नियइति सूत्रानतिक त्रिक प्रभृतिपञ्चविंशतिप्रकृतीनां सास्वादने बन्धव्यवच्छेद् उक्तः । तथा " वरनरतियविकार इति सूत्रायययेन वज्रऋषभनारायादीनां दशान प्रकृती देशप बन्धव्यवच्छेद उक्तः । एवं च पञ्चविंशतेर्दशानां च मीलने पञ्चप्रकृतयो मिध्यात्याविरतिप्रत्यधिका पताः शेषप्रत्यये सुगार यामादादिति भावः तिष श्राहारकद्विकतीर्थ करनामवजः सर्वा अपि प्रकृतयो योगयकित्यधिका भवन्ति मिष्याविरतेषु सपायेषु च सर्वेषु सूक्ष्म सम्परायासानेषु यथासंभवं बध्यन्त इति मिध्यात्वाविरतिकपात्र प्रत्ययनिधाभवत्यर्थः । उपशालमोहादिषु केपयोगवत्सु योगा बन्यो नास्तीति योगप्रत्यययजनमन्यपश्यतिरेकसमराम्यात्कार्य कारणतावस्येति हृदयम् । आहारकशरीराद्वारकाङ्गोपाङ्गलकणाद्वाराकसकरनामनोस्तु प्रत्ययः "संमतगुणनिमि तित्ययरं संजमेण श्राहारं " इति वचनात् संयमः सम्यक्त्वं चादिभिहित इतोह तद्वजनमिति । उक्तं प्रासङ्गिकम् । कर्म० ४ कर्म० | पं० सं०। " 35 तो यति] बन्धस्यान्तोऽनन्तश्च बन्धशब्दस्याप्रे षष्ठीनोपः, प्रा कृतत्वात् तमु भवति यत्र हि गुणस्थाने पास बन्धहेतुव्यवच्छे] [स्त्र सांस्यान्तः पयानमध्याद खाने व्यवधिप्रबन्धन प्रकृतीनां मयाविरक्ति काययोगा बन्धहेतवः तेषु मिथ्यात्वं तत्रैव व्यवच्छिन्नं ततश्च मिष्याटिगुणस्थाने तासां बन्धस्यान्त तत इतरेषु कारणकल्पेन बन्धभावादितरासां बन्धस्यानन्तः। तत उत्तरेष्वपि तद्व कारणता कल्पेन बन्धाभावात् । इत्येवमयेध्वपि गुणस्थानेषु प्रकृतीनां स्वस्वबन्ध हेतुव्यवच्छेदाऽव्यवच्छेदाज्यां साकल्यचैकस्वशाद्बन्धस्यान्तोऽनन्तश्च भावनीय इति । १२॥ कर्म्म २२ कर्म | [5] गुणस्थानकेषु बन्धहेतवः । अधुना बन्धस्य मूल हेतून गुणस्थानकेषु चिन्तयन्नाह इस पर पतिगु चतिदुगपचओ मंचो (२) । [ इस च परा तिमुले इत्यादि] पटना-एकस्मिन् मिवाकरो मध्यावर पिप्रायवा तयो यस्य स चतुःप्रत्ययो बन्ध नवति । अयमर्थः- मिथ्यात्वादिभिश्चतुर्भिः प्रत्ययैर्मिथ्यादृष्टिगु स्थानकवर्त्ती जन्तुर्ज्ञानावरणादि कर्म बध्नाति । तथा चतुर्षु गुणस्थानकेषु सास्वादनमिश्राविरतदेशविर तिलकणेषु त्रयो मिथ्यात्ववर्जिता अविरतिकषाययोगल कणाः प्रत्यया यस्य स त्रिप्रत्ययो बन्धो भवतीति । अयमर्थः- सास्वादनादयश्चत्वारो नित्यादेश गुणस्थानके पद्यपि देव विविरतिशब्देने सर्वविरतेरेव विवक्तित्वादिति । तथा पञ्चसु गुणस्थानकेषु प्रमत्ताप्र मतापूर्वकरणादि सूक्ष्म संपदा पाययोगाभियौ यस्य स द्विप्रत्ययो बन्धो भवति । इदमुकं जबतिमिध्यात्वादिरतिप्रत्ययस्येतेभ्य मात्रा कपयोग प्रत्ययद्वयेनामी प्रमत्तादयः कर्मबध्नन्तीति । तथा त्रिषु उपशान्तमदीयमोहसयोगिकेवलिरामेषु गुणस्थानकेषु एक पत्र मिध्यात्वाविरतिरूपायाभावात् योगः प्रत्ययो यस् स एकप्रत्ययो भवति । श्रयोगिकेवली भगवान् सर्वयाऽप्य भारत मूल गुणस्थानकेषु ॥ ५२ ॥ २३१ गुण हाण संप्रत्येतानेव मूलबन्धहेतून विनेयवर्गानुप्रहार्थमुत्तरप्रकृतीराधियन्तियन्नाह Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२) गुणहाण अभिधानराजेन्द्रः । गुणहाण इदानीमुत्तरबन्धभेदान् गुणस्थानकेषु चिन्तयन्नाह- क्वितेत्यदोषः। एतच्च वृहतकबृहच्चार्णिमनुश्रित्य लिस्त्रितमिति पणपन्न पन्नतियहि-यचत्त गुणचत्त छचन्दुगवीसा। न स्वमनीषिकया पारिजावनीया। तथाऽप्रत्याख्यानावरणोदय स्यास्य निषिकत्वादित्यप्रत्याख्यानावरणचतुष्टयं न घटां प्राञ्चसोलस दस नव नव स-त्त हेउणो न उ अजोगिम्मि ॥५॥ ति, तत एते सप्त पूर्वोक्तायाः षट्चत्वारिंशतोऽपनीयन्ते, तत मिथ्यादृष्ौ पञ्चपञ्चाशद्वन्धहेतवः। मासादने पञ्चाशबन्धहेत. एकोनचत्वारिंशद्वन्धहेतवः शेषा देशविरते भवन्ति । तथा बः। चतुःशब्दस्य प्रत्येक संबन्धात व्यधिकचत्वारिंशदित्यर्थः। षट्विंशतिबन्धहेतवः प्रमत्ते भवन्ति । [साहारदुत्ति] सहाहारबन्धदेतवो मिश्रगुणस्थानके, पमधिकचत्वारिंशद्वन्धहेतवोऽ कद्विकेनाऽऽहारकाहारकमिश्रवक्षणेन वर्तते इति साहारकाद्वका। विरतगुणस्थानके, एकोनचत्वारिंशद्वन्धहेतवो देशविरतगुणस्थानके, विंशतिशब्दस्य प्रत्येक संबन्धात् पविशतिबन्धहेत अविर गार तिकसा-यवज अपमत्ति मीसदुगरहिया। वः प्रमत्तगुणस्थाने, चतुर्विंशतिबन्धहेतवोऽप्रमत्तगुणस्थानके, चनवीस अपुच्चे पुण, वीस अविउत्रियाहारे॥१७॥ द्वाविंशतिबन्धहेतवोऽपूर्वकरणे.पोमश बन्धहेतवोऽनिवृत्तिबाद- साविरतेदेशविरतेऽपनयनाच्छेषा एकादशाऽविरतय इह गृह्यरे, दशबन्धहेतवः सूक्ष्मसंपराये, नव बन्धहेतवः उपशाम्तमोहे, न्ते। तृतीयाः कषायानिकषायाः प्रत्याख्यानावरणाः,तपूर्जास्तद्नव बन्धहेतवः कीणमोहे.सप्त बन्धहेतवःमयोगिकेवलिगुणस्था- विरहिताः साहारकद्विका च सैवकोनचत्वारिंशत्पविशतिर्भमे,न तु नैवायोगिन्ये कोऽपि बन्धहेतुरस्ति बन्धा नावादेवेति ॥५४॥ वति । इदमत्र हृदयम्-प्रमत्तगुणस्थाने पकादशधाऽविरतिः अथाऽमूनेव बन्धहेतून् भावयन्नाह प्रत्यारुयानाबरणचतुष्टयं च न संभवति, आहारकद्विकं च संभ पति, ततः पूर्वोक्ताया एकोनचत्वारिंशतः पञ्चदशकेऽपनीते, पणपन्न मिचि हारग-दुगृण सामाणि पन्न मिच्नविणा। द्विके च तत्र प्रतिप्ते किंशतिबन्धहेतवः प्रमत्ते भवन्तीति । मिस्सदुगकम्मश्रण विणु, तिचन मीसे अह छचत्ता।।५५।। तथा-अप्रमत्तस्य लब्ध्यऽनुपजीवनेनाहारकमिश्रवैक्रियमिश्रमिथ्याइटावाहारकाहारकमिश्रलक्षणद्विकोनाः पञ्चपञ्चाश- लकणमिश्रद्विकरहिता सैव षविशतिश्चतुर्विशतिबन्धहेतयोदूबन्धहेतवो जवन्ति, आहारकद्विकवर्जनं तु "संयमवतात. ऽप्रमत्ते भवन्ति । अपूर्व अपूर्वकरणे पुनः सैव चतुर्विंशतिर्दैदयो नान्यस्येति " वचनात् । सास्वादने मिथ्यावपश्चके- क्रियाहारकरहिता द्वाविंशतिबन्धहेतवो नदन्तीति ॥ ५७ ।। न विना पञ्चेशद्वन्धहेतवो भवन्ति, पूर्वोक्तायाः पञ्चपञ्चाशतो अरदास सोन वायरि, मुहमे दस वेयसंजलपति विणा। मिथ्यान्वयन कपनीते फवाशद्वन्धहनवः सास्वादने एव्याः। मिश्रे त्रिचत्वारिंशद्वन्धहेतबो जवन्ति । कथमिति ?,आह-मिश्रद्धि खीणुवसंति अलोना, सजोगिपुन्बुत्तसगजोगा।। ५० ।। कमौदारिकमिश्रवैक्रियमिश्रल कणं, (कम्म ति) कार्मणशरी- एते च पूर्वोक्ता हात्रिंशतिबन्धहेतयोऽउहासाहास्यरत्यरतिरम (अण नि) अनन्तानुबन्धिनस्तैर्विना । श्यमत्र भावना- शोकजयजुगुप्सालक्षणहास्यषटूरहिताः षोमश बन्धहेतवः 'न सम्ममियो कुणः कालमिति" वचनारसम्यगमिथ्यार [वायरि त्ति] अनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थानके नवन्ति,हास्यापरलोकगमनानावात् औदारिकमिश्रबैक्रियमिद्विकं कारण दिषट्रस्यापूर्वकरणगुणस्थानक एव व्यवच्छिम्मत्वादिति नायः । चन संभवति, अनन्तानुबन्ध्युदयस्य चास्य निषिद्धवादन- तथा त एव पोमश त्रिकशब्दस्य प्रत्येक संबन्धाद्वेद त्रिकं स्त्रीमतानुबन्धिचतुष्टयं च नास्ति, अन एतेषु सप्तसु पूर्वोकायाः पुनपुंसकलकणं,संज्वलनत्रिक सज्वलनक्रोधमानमायारूपं, तेन पञ्चाशतोऽपनीजेषु शेषास्त्रिचत्वारिंशद्वन्धहेतवो मिथेनवन्ति। विना दश बन्धहेतवः सूक्ष्मसम्पराये नवन्ति । वेदत्रयस्य संज्यअथानन्तरं पदचत्वारिंशद्वन्धहेतवो भवन्ति ॥ ५५ ॥ मनक्रोधमानमायात्रिकस्य चाऽनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानक समिस्सकम्म अजए, अविरडकम्मरत्रमीसविकसाए। एव व्यवच्छिन्नत्वात् । त एव दश अलोभा लोभरहिनाः मुत्तु गुणचत्त देसे, उचीस साहार पमेत्ते ।।५६।। सन्तो नव बन्धहेतवः कीणमोहे उपशान्तमोहे च भवन्ति, क इति?,आह-अयते अविरते,कथमिति?,आह-समिस्सकम्म मनोयोगचतुष्कवाग्योगचतुष्कौदारिककाययोगबकणा नव बत्तिद्वयोर्मियोः समाहारोद्विमिधं.द्विमिदं च कार्मण चद्विसिश्र. न्धहेतवः उपशान्तमोहे कोणमाहे च प्राप्यन्ते, न तु लोकार्मणं, सह द्विमिश्रकाणेन वर्तते या त्रिचत्वारिंशत् । इयम भः, तस्य सूक्ष्मसम्पराय एवं व्यवचिन्वात् । सयोगिप्रजायना-अविरतसम्यग्दृष्टः परलोकगमनसंभवात्पूर्वापनी केवलनि पूर्वोक्ताः सप्त योगाः । तथाहि-औदारिकमौदारितमौदारिकमिश्रौक्रिय मिश्रलकणं द्विकं कार्मणं च पूर्वोक्तायां कमिधं कार्मण प्रथमान्तिमौ मनोयोगी, प्रथमान्तिमौ वाविचवारिंशति पुनः प्राप्यते, ततोऽविरते षट्चत्वारि म्योगी चेति । तत्रौदारिकं सयोग्यवस्थायामौदारिकमिश्र कार्मण काययोगी समुद्धाताऽवस्यायामेव वदितव्यौ ।" मिश्रीशद्वन्धहेतवो जवन्ति । तथा-देशे देशाविरते एकोनचत्वारिंशद दारिकयोक्ता, मतमषष्ठद्वितीयेषु ॥ कार्मणशरीरयोगी, चतुर्थक बन्धहेतबो भवन्ति । कथमिति?, आह-अविरतिस्त्रसाऽसयमरूण पञ्चमे तृतीयेच॥१॥" शतिः प्रथमान्तिममनोयोगी भगवतोऽनुकामणम, औदारिकमिश्र, द्वितीय कपायानन्याख्यानावरणा त्तरसुरादिभिर्मनसा प्रष्टस्य मनसव देशनानः प्रथमान्तिमवान मुक्त्वा शेषा एकोनचत्वारिंशदिति। अत्रायमाशयः-विग्रहग ग्योगी त देशनादिकाले । अयोगिकेवलिनि न कश्चिद्वन्धहे तोसावपर्याप्पकावस्थायां च देशचिरतेरभावान्कामणोदारि कमिश्र गम्यापि व्यवच्छिन्नत्वात् । उक्ता गुणस्थानकेषु बन्धःइयं न संभवति, प्रसाऽसंयमाद्विरतत्यान्त्रसाविरतिनं जाघटी तवः ॥ ५ ॥ ति। ननु प्रसासंयमान् संकल्पजादेवासीविरतो, न त्वारम्नजापितत्कथन सौ त्रसाबिरतिः सोऽप्यनीयते । सत्यमा फितु सम्प्रति गुणस्थानकेष्वेव बन्धं निरूपयन्नाहगृहिणामशक्यपरिहारत्वेन सत्यप्यारम्नजा प्रसाबिरतिर्न विव. अपमनंता सत्त-8 मीसअप्पुबवायरा सत्त । Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (023) अभिधानराजेन्धः | गुणहाण बंध स्मोपगमुपरिमापगाजोगी ॥ ए८ ॥ मिथ्यादृष्टिप्रभृत्योऽयमान्ताः सप्ता वा कर्माणि ि मिश्रापूर्वकरणानवृत्तिवादराः समैव बध्नन्ति तेषामायुबन्धानावात् तत्र मिश्रस्य तथास्वासाव्यात्, इतरयोः पुनरतिविशुकत्वात्, आयुबन्धस्य च घोलनापरिणाममिबन्धनत्वात् । (सुहुमुति सूक्ष्मसंपरा महाजनपद कर्माणि बात मोनीयबन्धस्य बादरकषायोदयनिमित्तत्वात् तस्य च तदजावातू, श्रायुबन्धाभावस्त्वतिविशुत्वादवसेयः । ( पगमुवरिमि चि) एकं सवेदन करना प इर्त्तिन उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवझिनो बध्नन्ति, न शेकर्माणि तन्तुत्वानावा अन्य सर्वकर्मधर दितोऽयोगी चरमगुणस्थानकात सर्ववन्यदेत्यभावादिति उक्ता गुणस्थानकेषु बन्धस्थानयोजना ॥ ५६ ॥ भावाघोदीर्यते, शेकाले तु सायरा इति साम्प्रतं गुणस्थानोदयसत्तास्थानयोजनां निरूपयन्नाहसंदर, अविमोह लिए सच खीम्म । चरम से पति मद ॥ ६० ॥ उ संते ।। सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकमनिव्याप्य सत्तायामुदये चाटावपि कर्मकृतो भवन्ति यमर्थमिवागुणस्थानकमारभ्य सूक्ष्मलम्परा यावत्सायायेव कर्माणि प्राप्यते मोहं बिना मोदनार्थ वर्जयित्वा प्रकृती ये क्षीणमोगुणस्थानके सामुद. मोहनीयस्य दी खात्। (चउचरिमपुगे ति) चरमद्विके सयोग्य योगिकेवलिगु णस्थानद्वये सत्तायामुदये च चतस्रो घातिकर्मप्रकृतयो नवन्ति, पातिकर्मपथ्य क्षणात [अरु संत संत [[] तुराभ्यस्य व्यवहितसंबन्ध मोहगुणस्थानके पु मरावपि कर्मप्रकृतयः सायां प्राप्यन्ते तोड़वे मोनीयोदयानावादिति भावः । उक्ता सत्तोदय स्थानयोजना ॥ ६० ॥ (१) साम्प्रतमुदीरणास्थानानि गुणस्थानकेषु निरूपयितुमाहउइति पमतता, सगड मीसट्ट वेय आज त्रिणा । उग अपचार तो उ पंचम ॥। ६१ ।। मिष्याविभूतयः प्रशाम्ता याद्याप्यनुभूयमानभवायुरावलिका शेषं न भवति तावत् सर्वेऽप्यमी निरन्तरमप्रावधि मावलिकाऽयशेषे पुनरभूपा युपि मय आपलेपण उदयप्रभावात् तथास्वाभाव्यात् । ( मीसऽऽ ति ) सम्यग्मिथ्यादृष्टिः पुनराचैव कर्मास्यति, न तु कदाचनापि समय मिथानक वर्तमान सत आयु ला शेवभाषा । सावशेयुष्क एव परित्यज्य सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं वा नियमात्प्रतिपद्यत इति । अधमन्तात्वाऽयमतापूर्वकरणानिवृत्तिवादलावेया विना वेदनीयायुषी अन्तरेण पट् कर्माणि उदीरयन्ति तेधामनिविशुना वेदनीयुपदीयम्यस्थ नाभावात् । (छ पंच सुडुमो सि) तत्र पट् अन्तरोक्तानि तानि च सायरयन्ति याम्मोहनीयमालिका नवति । आलिकाऽवशेषे मोहनीयेतस्यादरिणाया। पाणि पञ्चकर्मापयति सूक्ष्म सि गुयद्वारा उपशामकर्मास्यति न वेदनीयानीयक मोतिदायुः कारणं प्रागेवोकं मो वेद्यमानमेवदीर्यते " इतिवचनादिति ॥ ६१॥५ दोखी दुजोगी, अदीरगजोगियो उपता । [१२] नमोऽनन्तरोक्तानि पञ्च कर्मारयति तानि च ताबीरयति यावदानावरणदर्शनाय रथान्तरायाख्यायलि काननेषामप्युदीर जाया श्रभावात् । द्वे एव नामगोत्रलकणे कर्मण) उदीरयति । (दु जोगिन्ति ) द्वे कर्मणो नामगोत्राख्ये योगा नाम मनोवा रूपा विद्यन्ते स योगी, सयोगिकेचयति न शेषाणि धातिकर्म एव मननयो दीरणासंजय बेदमीयादीरणा पूर्वोक्तकारणादेव न भवति । (अणुदीरगऽजोगि प्ति) श्रयोगिकवली न कस्यापि कर्मण दरक योगसव्यपेत्वाद्दीरणायाः, तस्य च योगाभावादिति । उक्ता गुणस्थान के पूदीरणास्थानयोजना । (१०) गुणस्थानेषु भावाः संप्रति जीवभूतेषु गुणान केषु भावान् निरूपयिषुराह सम्पातिगचभावा व पवमामवसंते ॥ च खापुच्चि तिन्नि, सेस गुडाए गेगजिए ॥ ७० ॥ [सम्मानि चादिष्वऽविरतम्यभूितु 46 र्षु चतुःष्यनिशाचरप्रमत्ताऽप्रमत्तलषु गुणस्थानकेष्विति वक्ष्यमाणपदस्यात्रापि संबन्धः कार्यः [तिग च भावत्ति ] त्रयश्चत्वारो वा भावाः प्राप्यन्ते इति भावः । तत्र कायोपशमिकसम्यग्योि भावा बज्यन्ते । तद्यथा यथासंभव मौदयिकी गतिः, क्षायोपश मिमियादिसम्पत्वादिपरिणामिकं जीवतिज्ञाय कसम्पद। पशमिकसम्यग्दष्टे बाचारो भाषा लभ्यते य स्तावत्पूर्वोक्ता एव चतुर्थस्तु क्षायिकसम्यग्दृष्टेः कायिकसम्यक्त्व लक्षणः, श्रपशमिकसम्यग्दृष्टेः पुनरौपशमिक सम्यक्त्वभाव इति । [ च पवसामगुवसंते त्ति ] चत्वारः पञ्च चा भावा परामको पशान्तयोर्भवन्ति किमुकं पति अनि वृतिवादसूक्ष्म गुणस्थानकपनी जन्तुरुप च्यते, तस्य चत्वारः पञ्च वा जावा जयन्ति । कथमिति चेत् ?. उच्यते - त्रयस्तावत्पूर्ववदेव, चतुर्थस्तु कीणदर्शनत्रिकस्य थेणिमारोढतः कायिकसम्यक्त्यलकणोऽन्यस्य पुनरैरापशमिक. स्वभाव इति श्रीषामेव तु मध्ये निवृतियारम संपरायगुणस्थानक द्वयवर्तिनोऽप्योपशमिक चारित्रस्य शास्त्रारेषु प्रतिपादनादीपशम उपशान्त उपशान्तमोगुणस्थानकवर्ती तस्यापि चत्वारः पञ्च वा भावाः यारोपशमकपदर्शिता खीणा चित्ति ] चत्वारो नावाः कारणापूर्वयोः की मोहगुणस्थानपूर्वराननेत्यर्थः क्षीणमोदे यः पूर्ववत्, चतुर्थः ज्ञायिकसम्यक्त्व चारित्रलक्षणः पूर्वकरणे तु त्रयः पूर्ववत्, चतुर्थः पुनः क्षायिकसम्यक्त्वस्वभाव प्रपश मिकसम्यक्त्वस्वभावो वेति [ तिनि सेलगुडाणगत्ति ] त्रयः त्रिसंख्या भावा भवन्ति, केष्वित्याह-विभक्तिशोपाच्छेषगुणस्था नकेषु मिथ्यादृष्टिस्तास्वादन सम्यग्मिथ्या दृष्टियोगिकेवल्य 1 1 Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ) निधानराजेन्खः । गुणद्वाय मोद योनि पक्षिणेषु तप मिष्यारयादीनां विकी गत कामिकान्द्रियाणि पारचत्वमित्येते त्रयो भावाः प्रतीता पत्र । सयोगिकेवरूपयोगिकेवलिनः पुनरौदयिक मनुजगतिः, क्षायिकं केवलज्ञानादिपरिणामिकं जीवत्यमित्ययरूपाय इति आह किमम त्रिभृतयो भावा गुणस्थान केषु विश्यमाना सर्वजीवाधार था चिन्त्यरते हैं, चाहोस्विदेकजीवाधारइति बाहजति एकजीवाचारयेत्नानामो मन्तब्यो, मानाजाबापेक्या तु संभविनः सर्वेऽपि भावा भवन्तीति ॥ अ धुनैतेषु गुणस्थानकेषु प्रत्येकं यस्य जावस्य संबन्धिनो यावन्त उत्तरभेदा यस्मिन् गुणस्थानके प्राप्यन्ते इत्येतन्सोपये। गित्वादस्माभिरभिधीयते । तद्यथा कायोपशमिकभावनेदा मिथ्यादृष्टिसास्वादनयोरन्तरायकर्म कोपराम जदानादिलब्धिपञ्चकाज्ञानप्रयचतुदर्शनाऽचक्षुर्दर्शनलक्षणा दश भवन्ति, सम्यग्मिध्याददानादिलम्बिपञ्चकज्ञानप्रयदर्शनप्रयमिश्रकप सम्यक्त्यल दानेदा त अविरतसम्पन् यवत एव द्वादश, विरतौ च द्वादशसु मध्ये देशविर यो प्रमाप्रसोध देतेषु पूर्वप्रदार्थतेषु द्वादशस्त्रेव सर्वविरतिमनः पर्यायज्ञानप्रक्षेपेचदेश पूर्वकरणानिवृत्तिबाइरदमसम्परायेषु चतुर्दशयः स्वम्यक्त्वापसारणे प्रत्येकं त्रयोदश, उपशान्तमोहकी मोहयोवयोदशभ्यश्ारिषापसारणे ३. कायदर्शन जायज प्राप्यन्ते ॥ चुनौविकनावदा जायन्ते मिथ्यादृष्टावङ्गानालिवाय एकविंशतिरधि मेदा भवन्ति, सास्वादने एकविंशतियोगि : देशविते च देवनारगनाये बरा प्रमते च तिर्यगात्यसंयमाऽभावे पञ्चदश, अप्रमत्ते च पञ्चदराज्य आले यात्रिकामा द्वारा अपूर्वकरणे निवृत्तिवाद द्वादशभ्यस्तेजा दशमसम्पशेवसंज्वलन लोभमनुजगतियुक्त वेश्याऽसिद्धत्वल कणाश्चत्वार श्रीविका भाव उपशात मोदयोगिकेवल चतु कमा या बलाय भयोवनिस्तु मनु स्वसिद्धस्यपदकभावनं प्राप्यते श्रमिकमा मेदारितादाम्यामां यामिकसम्प कामरूप औपरामिमेदः प्राप्यते श्रपशमिकारि राज्यपशान्तं यावत् प्राप्यते चमेरापिकसम्पत्यरूपवरवादार स्वाप्यते क्षीणमोठे कायिकं सम्यक्त्वं चारित्रं च प्राप्यते, स योगिवव्ययोगिकेवविनोस्तु नवाऽपि कायिकभाचाः प्राप्यन्ते । परिणाममा सास्वादनादार पणनीयादी भवतः योगिवल्य योगिकेवलिनोस्तु जात्वमेवेति भव्यत्वस्य च प्रत्यासन्नविस्थापनामा प्रायवादिना बेलचिकारले शास्त्रान्तरेषु मोकमिति नास्मानियो । यस्य भावस्य भेदा यस्मिन् गुणस्थानके यावन्त उक्तास्तेषां संभवतामेदानामेकर मीलने सति तावद्भेदनिष्पन्नः पशुः मानिकमाजेदस्ननि गुणस्थानके भवति । यथामिथ्यादृष्टावौदायिक भावभेदा एकविंशतिः, कायोपशमिकभा यजेदा दश, परिणामिक भावभेदास्त्रयः, सर्वे भेदाश्चतु गुग्रहाण त्रिशत् । एवं सास्वादनादिष्यपि संप्रविजायभेदमीने सायद निष्पन्नः पशुः साधिपतिभासभेदाः। एतदर्थसंग्राहिण्यश्चैता गाथा यथा 66 पण अंतराय अन्ना-ण तिनि श्रचषखुचषखु दस पए । मिच्छे ससाणे य, वंति मसिए अंतराय पण ॥ १ ॥ नात्तिगदंसणतिगं, मौसग सम्मं च बारस इति । एवं च श्रविरयम्मिवि, नवरि तर्हि दंसणं सुद्धं ॥ २ ॥ देसे य देसविरई, तेरसमा तह पमस अपमत्ते । मणपज्जवपक्खेवा, चउदस श्रप्पुव्यकरणं च ॥ ३ ॥ वेगसम्मेण विणा तेरस जा सुदुमसंपराओोति । ते यि बसमखीणे, चरितविरहेण वारस च ॥ ४ ॥ बाओवसमिगनात्रा ण किसणं गुणपर पमुख कया । उदयभावे हरिह, ते वेय पहुश्च सेमि ॥ ५ ॥ उगायी समिद्धि छाप हुति बीसं च । मिच्छेण विणा मीले, श्गुणीलमनाविरहेण ॥ ६ ॥ एमेव अविरयम्मी, सुरनारयगर बियोगश्रो देसे । सत्तरस हुति ते थिय, तिरिगर अस्संजमाभावा ॥ ७ ॥ पर पम्मी, अपमते सतिगरि । से श्चिय बारस सुक्के-गलेसभ दस भपुव्वम्मि ॥ ८॥ अब हमे संजोग । अंतिम लेस असिक सजावओो जाए बचभावा ॥ ३ ॥ संजललोविरा, उपसंतीण केलीण ति साभाया जाय जोगिनो भावदुगमेव ॥ १० ॥ अविरयसम्मा उवसं तु जाव चवसमगखाइगा सम्म । अनियट्टीश्रो उवसं तु जाव उवसामियं चरणं ॥ ११ ॥ खीणम्मि सम्मं चरणं च दुगं पि जाण समकालं । नव नव खाद्गभावा, जाण सजोगे अजोगे य ॥ १२ ॥ जीवसमतम्य मिष्ठमि । ड साणाई खीणंते, दोन्नि श्रव्यत्तवजाऊ ॥ १३ ॥ सजोगिम्म अजोगिम्मिय, जीवतं वेव मिच्छमाईणं । समभावमी सणाच भावं मुण सन्निवायं तु ॥ १४ ॥ " व्याख्यातप्राया एवैताः, नवरमेकादश्यां गाथायां (उचसमगखागास अनेनोपशमिक कायिक सम्ययरूपमपम कायिकभावदद्वयं युगपज्ञाचवाचे निरूपित सादायोपान्तमो यावत्कस्यचिदोपशमिक सम्यकत्य पशमिकभावभेदः प्राप्यते, कस्यचित्पुनः कायिकसम्यक्त्वरूपः कायिकनावभेदश्चेति ॥ ७० ॥ कर्म० ४ कर्म० । (११) मार्गेणास्थानकेषु गुणस्थानकाने अवधा प्रतिज्ञातमेव निर्वादयशाहपतिरिपत्र सुरनर, नरसनिपदिभव्यवसि विगलन्दगवणे, वुवु एवं गव ॥ १५ ॥ पञ्च गुणस्यानकानि मिध्यादृरिसास्वादन मिश्रावितसम्य देशविणानि (तिरिति तिर्यग्यौ चतु शब्दस्य प्रत्येकं योगात्सुरे सुरगतौ चत्वारि रगतमगुणस्थानका नि, नरके नरकगतौ चत्वारि प्रथमगुणस्थानानि भवन्ति न देशविरतादीनि तेषु अवस्वभावतो देशतोऽपि विरतेरभावादिति Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) गुणडापा निधानराजेन्द्रः । स नरेनरगती, संहिनि विशिष्टमनोविज्ञाननाजि प सेका सयपि चतुर्दशापि गुणस्थानकान धन्ति एतेषु मिथ्यावादी नामयो गिवेव यवसानानां सर्व जावानामपि संभवात् ( इग ति ) एकेन्द्रियेषु सामान्यतः, (निगल सि ) विकलेन्द्रियेषु भुवि पृथ्वी काये, उदके अष्काये, वने वनस्पतिकाये ( दुदु त्ति ) द्वे द्वे आये मिध्यात्व सास्वादनलकणे भवतः । तत्र मिविशेषेण सर्वेषु सास्वादनं तु तेजोवा बाहरै केन्द्रियद्विषतुरन्यधन्यवनस्पतिषु लप के. करवतके न सर्वेध्विति तथा एकम ध्यात्वलवणं गुणस्थानकं भवति-केषु इति ?, आह-गत्या गमने , नतु नायकमा गतित्रतास्तेषु सास्वादभा पगतस्य तेषु मध्ये उत्पादाभावात् अभव्येषु चेति ॥ १६ ॥ यतिका नवदम सोने पर अजय दु ति प्रभाण तिगे। वारस अचक्चक्स पढना अखाड़ चरम चक्र ||२०|| देवेण कपायाणां समाहारकिपायं को धनान मायालणं, रिकिपाये [पदमिति ] प्रथमानीति प मरुकमणिन्यायेन संयंत्र योग्य तो वेदे खीपुंनपुंसकल नेकपायये च प्रथमनिमियाचादीनि निवृत्तिवादरपतानि न गुणानिति न शेष अि बादरगुणस्थान एव वेदत्रिकस्य कषायत्रिकस्य चोपशान्तत्वेन कीणत्वेन वा शेषेषु गुणस्यानेषु तदसंजवात् । लोभे लोभकपाये दशगुन पूर्वोक्तानि दशमं तु सूक्ष्मपराय पाकिस्य वेद्यमानत्वात् । चत्वारि प्रथमानि अनर्थ कोरि मेमियात्यादरम्यान गुणस्थानानि चन्तीति । [ ति प्रति]ि अज्ञानाधिके मत्यज्ञानश्रुताश्चानविभङ्गज्ञानलक्षणे, प्रथमे द्वे गुणस्थानके मिथ्यादृष्टिसास्वादनरूपे जवतः, न मिश्रमपि । यतो यद्यपि मिश्रगुणस्था न यथास्थितवस्तुनाति तथापि न तान्यज्ञानान्येव सम्यान ज्यामिएन मिगुणस्थानकम यते च मिथ्यात्वाधिकस्य मिश्रान व्यपत्वाऽचिकस्य पुनः सम्यग् हानवाज्यमिति" ज्ञानले शमायतो न मित्रगुणस्थानकमज्ञानत्रिके सभ्यते इत्येके प्रतिपादयन्ति तमतमधिकृत्यास्माभिरपि 'हे' युक्तम अन्ये पुनराडु: प्रज्ञानत्रिके प्राणिगुणानानि तथा मिया सास्वादनं सम्यग्दृष्टिश्च । यद्यपि "मिस्सम्म वामिस्सा " इति वचनात् ज्ञानव्यामिश्राण्यज्ञानानि प्राप्यन्ते, न शुरूाज्ञानानि, तथापि तान्यज्ञानान्येव, शुरू सम्यक्त्वमूलत्वेनात्र ज्ञानस्य प्रसि अन्यथादित्वस्यापि "" 1 तदा सास्वादनस्याऽपि ज्ञानाभ्युपगमः स्यात्, न चैतदस्ति, तस्याझानित्वेनान्तरमेवेह प्रतिपादितत्वात् तस्मादशानत्रिके प्रथमं गुणस्थानकत्रयमवाप्यते इति” । तन्मतमाश्रित्याऽस्माभिरपि कम इत्युकंतु केवलन वा विदन्तीति। द्वारा प्रथमानि गुणधानानि जयन्ति यतो मियादतिम हफ्तेषु गुणस्यानेष्यकुदर्शनचक्षुर्दर्शन संभवात् । यथाख्याते चारित्रे चरमाएयन्तिमानि चत्वारि उपशान्तमोहक्कीणमोढसयोगिकेवल्ययोगिकेणनिवारि गुस्थानानि भवति पुकपापाप्रावादिति ॥ २० ॥ २३२ गुणद्वाय दुखि परिहारे । ओहिदुगे ||२१|| मनाशि मगजवाई, सामइयछेय व केवलगि दो चरमा - जयाइ नत्र मइ मनोज्ञाने मनपा [सगति] स्थानकानि नवन्त कानीति ?, श्राह यताऽऽद नि, तत्र 'यमूं' उपरमे, यमनं यतं, स म्यक्सावद्याऽपरममित्यर्थः यतं विद्यते यस्य स यतः प्रमत्तयतिः यत श्रादौ येषां तानि यताऽऽदीनि प्रमत्ताऽप्रमतापूर्वक रणानिवृतिवाद संपोपशान्तमोहकीणमोहवणानीति सामायिके वेदोपस्थापनेच बारियतानि गुण स्थानानि प्रमन्ताऽयमनिनिवाद त्यर्थः । द्वे गुणस्थानके माध्यम परिहारविचारित्रेत्यर्थः राण त्यारित्रे वर्त्तमानस्य 1 1 केवलज्ञान केवलदर्शनरूपे द्वे गुणस्थाने भवतः, के इति ?, श्राह - चरमेऽन्तिमे सयोगिकेवलिगुणस्थानकाऽयोगिकेवलिगुणस्थानके इति ( अजयाइ नव मसु श्रधिदुगे ति ) श्रयतो विरतः स श्रादौ येषां तान्ययतादीन्यविरतसम्यग्दृष्टादीनि णमो पर्यवसान नत्र गुणस्थानकानि अन्तिमम तिने अधिक अवधि क्षणे न शेषाणि नयादिव ध्यासस्यानमिवायोगा यत्तु अवधिदर्शनं तत्कुतश्चिदनिप्रायाद्विशिष्टश्रुतविदो मिथ्याहयादीनां नेच्छन्ति, तन्मतमाश्रित्यास्माभिरपि तत्तेषां न भणितअथ च सूत्रे मियाद । नामप्यधिदर्शनप्रतिपा यदाह मुरासुरनर किधरविद्याचरपरमाद मुकुटको | विटङ्कनिघृष्टचरणारविन्दयुगलः श्रीमुधर्मस्वामी पचमासणगारोचते कि नाणी? । गोयमा ! नाणी वि। श्रन्नाणी विज‍ नाणी ते अत्थेगश्या तिनाणी, अत्थेगइया बननाणी, जे तिनाणी ते आभिणिवोहियनाणी सुचना हिवासी जे नाणी ते निणियो सुयनाणी ओहिना | मणपजवनाणी, जे गाणी ते नियमा म नाणी सुयअन्नाणी विभंगनाणं । इति ।" अत्र हि ये अज्ञानिनस्ते मिथ्यः पवेति मिथ्यावारीनामप्ययचिदर्शनासूत्रे प्रतिपादितं पानी यदा सास्वादननावे माव वा वर्तते तत्राऽपि तदानीमवधिदर्शनं प्राप्यत इति । यत्पुनः स योग्ययोगिकेच लिगाथानकद्वि तत्र मतिज्ञानादि न संभवदेव केवलहानस्य प्रादुर्भावात "नम्मि उ छाउमत्थिर नावे " इति वचनप्रामाण्यादिति ॥ २१ ॥ प्रेम उपसमि च यगि, खड़गे उकार मिच्छ तिथि देखे । सुमे व सगा तेरस जोगे प्रहार सुकाए ।। २२ । काकाकिगोलकन्यापदिहानादीनि इति पत्र ततोऽदान्तमोहान्तानि गुणस्थानामिक सभ्यत्वेति मन्नार के ज्ञा योपशमिकापरपर्याये गुणस्थानकानि भवन्ति । कायिकसम्यकराग्ययोगकेवल पानान्येकादश गुणस्थानका निमियात्यत्रिके मिथ्या दिसाचादमिलणे देशे देशविते, सूक्ष्मे सूक्ष्मसम्पराये चः समुचये स्वस्था मं निजस्थानम इदमुकं सवति मिध्यामि पादानस्थानं खानमार्गणास्थाने साद गु पस्चानं निश्रगार्मणास्थाने मिश्र गुणस्थानं, देशसंयममा " Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९२६) गुणट्ठाण अन्निधानराजेन्डः। गुणहाण गंणास्थाने देशविरतगुणस्थानं, सूक्षासम्परायसंयममार्गणा-| विरतसम्यग्दृष्टौ चेत्येवं गुणस्थानकत्रये संक्षिपञ्चन्छियोऽपि स्थाने सूक्मसम्परायगुणस्थानम् । तथा-योगे मनोवाकायल- लज्यते, तस्य च यथोक्ताऽऽहारकद्विकेन्नाहारककाययोगाऽऽहाक्वणे अयोगिकेवलिवर्जितानि शेषाणि त्रयोदश गुणस्थानानि रकमिश्रकाययोगलकणेनोना रहितास्त्रयोदश योगाः संभवन्ति । भवन्ति, सर्वेप्वप्येतेषु यथायोग योगत्रयस्यापि सम्भवात्। तथा. यत्पुनराहारकद्विकंतचतुर्दशपूर्विण एव । यदभ्यधायि-"आहाआहारकेषु श्राद्यानि त्रयोदश गुणस्थानानि जवन्ति, सर्वे- रदुर्ग जायश् चउदसपुन्विम्सेति"। न च मिथ्यारष्टिसास्वादनाज्वप्येतेषु प्रोजोलोजप्रक्पाहाराणामन्यतमस्याहारस्य यथायोगं यतानां चतुर्दशपूर्वाधिगमसंभव इति । तथा पूर्वपञ्चके पूर्वसम्भवात् । तथा (सुक्काए त्ति) शुक्लोश्यायां प्रथमानि करणानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसम्परायोपशान्तमोहकोणमोहलकणे त्रयोदश गुणस्थानानि जवन्ति, न त्वयोगिकेवलिगुणस्थानं, त नव योगा भवन्ति । तद्यथा-चतुर्बिधो मनोयोगः, चतुर्विधो स्य श्याऽतीतत्वादिति:॥ वाग्योगः, औदारिककाययोग इति, न शेषाः,अत्यन्तविशुद्धता पा तेषां वैक्रियाहारकद्विकारम्नासंभवात,तत्र स्थितानां च स्व. अस्सन्निसु पढममुगं, पढमतिनसासु उच्च दुमु सत्त। भावत एव श्रेण्यारोदानावात् । मौदारिकमिश्रमपप्तिावस्थायां पढमंतिम दुग अजया, अणहारे मग्गणामु गुणा ॥२॥ कामणे स्वपान्तरालगती। यहोने अपि केंवनिसमुद्घातावस्थायां असंविषु संझिव्यतिरिक्तेषु प्रथमं मिथ्याइटिसास्वादनमकणं ततस्ते अप्यत्र गुणस्थानकपञ्चके न संभवत इति। तथा-त एप गुणस्थानकवयं भवति, तत्र मिथ्यात्वमविशेषेण सर्वत्र द्र. पूर्वोक्ता नव योगाः सवैक्रियाः सन्तो दश योगा मिधे सम्यगमिध्यम, सास्वादनं तु लब्धिपर्याप्तकानां करणापर्याप्तावस्था ध्यादृष्टिगुणस्थानके भवन्ति । तथाहि-चतुर्विधमनोयोगचतुर्षियामिति । प्रथमासु तिसृषु लेश्यासु मिथ्यात्वादीनि प्रमत्ता. धवाग्योगौदारिकवैक्रियलक्षणा दश योगा मित्रे भवन्ति, न तानि षट् गुणस्थानानि जवन्ति । 'चः' समुच्चये, कृष्णनीन शेषाः। तयथा-आहारकद्धिकस्यासंभवः पूर्वाधिगमासंबादेव, कापोतलेश्यानां हि प्रत्येकमसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणा कार्मणशरीरं वपान्तरालगतौ संभवति, अस्य च मरणासंभवेम्यव्यवसायस्थानानि, ततो मन्दसंक्लेशेषु तदभ्यवसायस्था भापान्तरालगत्यसलवस्ततस्तस्याप्यऽसंनवः । अत पचौदारिनेषु तथाविधसम्यक्त्वदेशविरतिसविरतीनामपि सद्भावोन कबक्रियमिधे अपि न संभवतः, तयोरपर्याप्तावस्थाभावित्वात् । विरुभ्यते । नक्तं च-"सम्यक्त्वदेशविरतिसर्वविरतीनां प्रति ननु मा गद्देवनारकसंबन्धिवैक्रियमिश्र, यत्पुनर्मनुष्यतिरबांसप्रत्तिकाले शुभश्यात्रयमेव भवति, उत्तरकालं तु सर्वा अपि म्यग्मिथ्यादृशां वैक्रियलब्धिमतां वैक्रियकरणसंन्नधेन तदारम्नमेश्याः परावतेन्तेऽपीति" । श्रीमदाराध्यपादा अप्याहु:-"संम काले वैक्रियमिश्रं भवति,तत्कस्मानान्युपगम्यते ?। उच्यते-तेषां ससुयं सव्वा-सु लहर सुद्धासु तीसु य चरितं । पुज्वपमिवन्न बैक्रियकरणासंभवादन्यतो वा यतः कुतश्चित्कारणात्पूर्वाचार्यभो पुण, अन्नयरीएन लेप्साए" ॥१॥ श्रीभगवत्यामप्युक्तम्-"सा र्नान्युपगम्यते,तन्न सम्यगवगच्चमः,तथाविधसंप्रदायाजावात्, माश्यसंजए णं भंते! करलेसासु हुज्जा? गोयमा! सुबेसासु पतच प्रागेवोक्तमिति । तथा त एव पूर्वोक्ता नव योगाः सवैहोजा,एवं छेभोवद्यावणियसंजए बीत्याद।"॥ तथा द्वयोस्तेजोले क्रियतिका क्रियवैक्रियमिश्रसहिताः सन्त एकादश देशे देशश्यापनलेश्ययोः सप्त गुणस्थानानि भवन्ति, तत्र षट् पूर्वोक्तान्ये विरते नवन्ति, अम्बडस्येव वैक्रियझन्धिमतो देशविरतस्य बै. प,सप्तमं स्वप्रमत्तगुणस्थानकम, अप्रमत्तसंयताभ्यवसायस्थाना क्रियारम्भसंभवादिति ॥ ४६॥ पेक्षया मिथ्यारयादीनां प्रमत्तान्तानां तेजोमेश्यापनलेश्या- साहारदुग पमत्ते, ते विउ वाहार मीस विण इयरे । तारतम्येन जघन्याऽत्यन्ताविशुद्धिके कष्टव्ये । तथा-अनाहार- कम्मुरलगताइम-मणवयणसजोगिन अजोगी ॥४७॥ के पञ्चगुणस्थानानि भवन्ति। कानीति?, पाह-प्रथमान्तिमद्वि- पूर्वोक्का पवैकादश योगाश्चतुर्विधमनोयोगचतुर्विधवाग्योगौकायतानीति । द्विकशब्दस्य प्रत्येकं योगात् प्रथमद्विकं मिथ्या- दारिकक्रियाद्विकलकणाः साहारकटिका पाहारकाहारकमिरष्टिसास्वादनलकणम, अन्तिमधिकं सयोगिकेवल्ययोगिकेव- श्रसदिताः सन्तस्त्रयोदश योगाः प्रमत्ते भवन्ति, औदारिकामलिलक्षणम् । अयत इति, अविरतसम्यग्दृष्टिश्चेति । तत्र सफार्मणकाययोगाभावस्तु पूर्वोक्तयुक्तरेबाबसेय ति । त पक्ष मिथ्यात्वसास्वादनाविरतसम्यग्दृष्टिलक्षणं गुणस्थानकत्रयमना पूर्वोक्तात्रयोदश योगा वैक्रियमिश्राहारकमिश्रं विना एकादश हारके विग्रहगती प्राप्यते, सयोगिकेवलिगुणस्थानकं स्वनाहा योगा अप्रमत्ते । यत्तु वैक्रियमिश्रमाहारकामधं च, तब मभव. रके समुद्धातावस्थायां तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु द्रष्टव्यम् । ति, तक्रियस्याहारकस्य च प्रारम्भकाले प्रवति, तदानी यदबादि-"चतुर्थतृतीयपञ्चमेष्वनाहारक शति"। अयोगिकंव- च लन्युपजीवनादिनौत्सुक्यभावतः प्रमादभावः संभवतीति । ल्यवस्थायां तु योगरहितत्वेनौदारकादिशरीरपोषकपुल- तथौदारिकमिश्रमपर्याप्तावस्थायां, कार्मणं स्वपान्तरालगती, प्रदणाभावादनाहारकत्वम, "औदारिफवैक्रियाहारकशरीरपो- या-उने अपि केवलिसमुद्घानावस्थायां, ततस्ते मप्यत्र पकपुमलोपादानमाहारः" इति प्रवचनोपनिषद्वदिनः । एवं मा- गुणस्थानकेन संभवत इति । तथा-फार्मणमौदारिकाद्वकमौदागंणास्थानेषु गत्यादिषु (गुण ति) गुणस्थानकानि अभिहि- रिकौदारिकमिश्रलकणमन्त्यादिममनसी सत्या ऽसत्यामृषरूपी तानि ॥२३॥ मनोयोगी,अन्त्यादिमवचने सत्याऽसत्यामृषरूपाचाग्योगो चेति (१२) गुणस्थानकेषु मार्गणास्थानानि । सम्पति गुणस्थान सप्त योगाः सयोगिफेवलिनो भवन्ति,कार्मणादारिकमिश्रे तु सकेम्वेव योगान् व्याख्यानयनाह मुद्धातावस्थायामिति। न नैव पञ्चदशयोगमध्यादेकेनापि योगेन युक्तोऽयोगी अयोगिकेवली भवति, योगाभावनिबन्धनत्वादयोमिच्छदुग अजः जोगा-हारदुगुणा अपुन्यपणगे न। गित्वावस्थाया शर्त । नक्ता गुणस्थानकेषु योगाः॥ ४७॥ पणवइनरनं मनिन-न मीसि सविउन्न दुग देसे ॥४६॥ [१३] मधुनतेम्वेवोपयोगानभिधातुकाम पाहमिथ्यार रितिकं मिथ्याष्टिसास्वादनलकणम, तत्र भयते, अ. तिअनाण दुदंसाइम, दुगे अज देसि नाणदंसतिगं । Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) अभिधानराजेन्यः । गुणद्वाण 1 मीस मीसा समणा, जयाइ केवन्निदुर्गतदुगे ॥ ४८ ॥ मादिमद्विकेमिष्यारसास्वादनलक्षणे प्रथमद्वितीयगुणानकद्वये इत्यर्थः । [ तियनाण डुदंसति ] त्रयाणामज्ञानानां स माहारा त्यहानताज्ञानबिज्ञानरूपं दर्शनं दश द्वयोर्दर्शयोः समाहारो द्विदशै चकुर्दर्शनाऽचक्कुदर्शनरूपमित्येते पञ्चोपयोगा मिध्यादृष्टिसास्वादनया जेवन्ति । त्रिकशब्दस्य प्रस्पेकमभिसंबन्धात् हानत्रिकं मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानरूप दर्शविणमिति,नशेषा सर्ववित्यभावाद से पूर्वोका ज्ञानत्रिकदर्शनप्रकरूपाः पशुपयोगा मिले सम्यग्मिवादगुणस्थान के मिश्रा महानसहिता कन्याः तस्योपष्टिपतित्व केवलं कदाचित्सम्पा यतो ज्ञानबाहुल्यं, कदाचिच मिध्यात्वबाहुल्यतोऽज्ञानबाहुयं समकऋतायां तूभयांशसमतेति । श्रस्मिंश्च गुणस्थानके यदवधिदर्शनमुक्तं तत्सैद्धान्तिक मतापेकया द्रष्टव्यमित्युक्तं प्राकू। [ समया जयाइ सि ] 'य' उपरमे यमनं तं सर्वसा विरतं, तद् विद्यते यस्य स यतः, "अजादिज्यः” ७ । २ । ४६ । इति (म० ) श्रप्रत्ययः । प्रमत्तगुणस्थानकवर्ती साधुः, यत आदिषां गुणस्थानकानां तानि यतादीनि प्रमत्ताऽप्रमत्तापूर्व करणानिवृतिवाद हम सम्परायेोपशान्तमोदी मोद यानि सप्त गुणस्थानकानि तेषु पूर्वोका नकद नत्रिकायाः पयोगाः [ समण सि] मन:पर्ययज्ञानसहिताः सप्तभवन्तीनिशेषामियात्वघातिन द्विकं केवलज्ञान केवल दर्शन व कणोपयोगद्वयरूपमन्तद्विके सयो. गिके बल्ययोगिकेवराचरमगुणस्थानकटुवे भवति न शेषा दश ज्ञानदर्शनलक्षणाः, तदुच्छेदेनैव केवज्ञान केवलदर्श नोत्पते: “नटुम्मि गमस्थिर नाणे " इतिवचनात् । तदेवमभिदिता गुणस्थानकेषूपयोगाः ॥ ४० ॥ साम्प्रतं यदिद प्रकरणे सूत्राऽभिमतमपि कार्मग्रन्थिकाभिप्रायानुसरतो नाचिताद सारणभावे नाणं विगाहारए उरसमितं । गिंदसु सासायो, नेहाहिगयं सुयमयं पि ॥ ४६ ॥ सास्वादनाचे सास्वादनसम्यग्वे सति ज्ञानं भवति माज्ञानमिति भ्रमतमपि सिद्धान्तसंमतमपि तथाहि "बे दिया किना । गोयमा ! न P जे नाणं ते नियमा दुना श्रामिणो हियमाणी सुचना जे अन्नाणी ते विनियमा दुअछी । तं जड़ा-मश्श्रन्नाणी, सुयअन्नाणी" इत्यादिसूत्रे प्रियादीनां नित्यमनिदितम् तथास्वादनाचे कयैव न शेषसम्यक्कापेकया, असंभवात् । उक्तं च प्रज्ञापनाटीकायाम् - " वेदियस्त दो नाला कहं लम्भंति । भाइ-सासायणं परुच्च तस्सापज्जत्तयस्स दो नाणा लब्भंति " । ततः सासादनभावेऽपि ज्ञानं सूत्रसंमतमेव । तच्चेत्थं सूत्रसंमतमपि नेह प्रकरणे विज्ञानमेव कर्मप्रन्धाभिप्रायारणात्। तदभिप्रायम्-सास्वादनस्य मिथ्यात्वानिमुखा तत्सम्य क्वस्य मलीमसत्वेन तन्निबन्धनस्य ज्ञानस्यापि मलीमसत्वादज्ञानरुपतेति तथा सूत्रे किये आहारके चारम्यमा तेन प्रार मान सौदारिकस्यापि मिश्रीभवनादीद्वारिक मिश्रमुक्तमिति । तथा बाद प्रज्ञापनाटीकाकारः- “यदा पुनरौदारिकशरीर चैकियो मनुष्यः, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको वापस गुणहाण बावयुकायिक वा बेकिये करोति नदीदारिकरयोग वर्तमान प्रदेशादवि वैरिपोम्यान लामादाय या पिशरीरपर्याप्त्या पर्याप्त न गच्छताम श्रता, व्यपदेशश्च मौदारिकस्य, प्रधानत्वात् । एवमाहारकेणापि स हमिश्रताव्याहारयति चैतेनैवेति तस्यैव व्यपदेशः " इति । परित्यागकाले बैंकियस्याहारकस्य च यथाक्रमं वैक्रियमिश्रमाहारकमिश्र चातकं च श्री प्रज्ञापनाटीकायाम-' आहारकशरीरी भूत्वा कृतकार्यः पुनरप्यौदारिकं गृह्णाति, तदाहारकस्य प्रधानत्वादौदारिकप्रदेशं प्रति व्यापाराजावान्न परित्यजति यावत्स वाहारकं तायददारिकेण मिश्रति आहारकाम शरीरका योग" इति तचैव-वैविदारकारम्भका श्रोतारिकम सूत्रेऽनिहितमपि नेह प्रकरणेऽचितं कार्मग्रन्धकेर्गुणविशेष प्रत्ययसमुत्थविशेष कारणतया प्रारम्भका परित्याग वैकियस्याहारकस्य च प्राधान्यविवणेन क्रिया कमिवाभिधानात् तद्ायस्य बेहानुसरणात्। तथा केन्द्र [स] धनोऽयं निर्देशः सास्यादन नावः सूत्रे मतः, अन्यथा द्वीन्द्रियादीनामिवैकेन्द्रियाणामपि नित्यमुते, किन्तु विशेषतः प्रतिदि ते किं गाणी मनोनय मामाणी" इति सातिषेधः सूत्रे मतो केनचित्कारणेन कार्यन्धकैर्नाभ्युपगम्यते सहा प्रक रोनाधिकयते तदभिप्रायस्यैवेह प्रायोऽनुसरणादिति [नेहाहिमप] वेतन परिणामेन प्रतिबन्ध तथैव संबन्धितमिति ॥ ४६ ॥ अधुना या अभिधिसुराह सुसा सेलिगं, गिउसु का अमोगि अलेसा बंस मिच्छ अविर, कसाय भोग चिट ट्रेक || ए०|| षट्सु मिथ्यादृष्टिसास्वादनमिश्रा ऽविरतदेशविरतप्रमत्तलकपणेषु गुणस्थानकेषु स कृष्णनीला लेश्या भवन्ति (तिगं इगि) एकस्मियम सगुणस्थानके तेज तेजःपश्यनि मित्यर्था | स्वपूर्ण करणानिवृत्तिवादग्मसम्परायोपशान्तमोह की णमोहयोगिषु गुणस्थानकेषु शु कलेश्या नवति, न शेषाः पञ्च । प्रयोगिनोऽयोगिकेवलिनोलेइयाः श्रपगतलेश्याः। इह लेश्यानां प्रत्येकमसंख्येयानि लोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि ततो मन्दाध्यवसायस्थानापेक्षा श्वादीनामपि मिथ्यावादी कृष्णामपि प्रतापि संभव न विरुध्यत इति गुणस्थानकेषु लेश्याः कर्म० ४ कर्म गुणस्थानब दय सत्तास्थानानां स्वामित्वं 'कम्म' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३१२ पृष्ठे वक्तम् । पयोदय सत्तास्थानानां संबेधोऽपि अस्मिव जागे कम्म' शब्दे ३०६ पृष्ठे दर्शितः ) [१४] श्रीहीरविजयसूरिं प्रति विमन हर्षगणिकृत प्रश्नः। यथापञ्चविशतिभाषितानाम "रिसेि 1 ६ मां साधून समस्थानस्थिम मिनारे कालस्थाविधगुणस्थानकवर्त्तित्वमिति प्रश्ने स रम्-" उभयमपि भवतु अभ्यवसायानां वैवि काकरानुपपत्तिभावाश्च ॥ ३ ॥ ही० १ प्रका० । गुणास्पदे, पञ्चा०८ विव० । Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए ) गुणहाणविभागकाल अनिधानराजेन्डः। गणापडिवत्ति गुणहाणविजागकाल-गुणस्थानविजागकान-पुं० । गुणस्था- इव रत्नधिशेष श्य,मकारः पूर्ववत. उज्ज्वलतरकमतिशयनिर्मनेषु पार्थक्येन तद्भावापरित्यागार्थविषये काले,पं०सं०२ द्वार।। बं प्रमोदकरणाद्गुणवत्प्रीतेः सम्यक्त्वं दर्शनमिति गाथार्थः॥३॥ गुणवाणसिकजणग-गुणस्थानसिहजनक-त्रिका प्रमत्तता विमलगुणप्रशंसामेव गाथानवकेनाहऽऽदिगुणविशेषनिर्मलताधायक, पञ्चा०१५ विव० । जीवतु चिरं परोपा-वयणी परहिएक्ककयचित्ता। गुणण-गुणन-न० । परावर्तने,अत्यासे, विशे। स्था। श्रा० जे हि एगहिं व आगम-सरस्स गाहत्तणं पत्तं ॥४॥ म० । व्य० । दश । गुणनिकाऽप्यत्र । स्था०४०३ उ० । एसो सो धम्मकही, अणेयपिगमलालयं महुरवयणरसं । गुणणाम-गुणनामन-न । गुणरूपे अर्थे, “से किं तं गुणनामे?, जस्स वयणारविंदे, भमर व पियंति जब्वजणा ।।५।। गुणनामे पंचबिहे पम्मत्ते । तं जहा-वहानामे, गंधणामे,रसणा- एसो परवाइगई-दकुंननिदन्नणकेसरिकिसोरो। मे, फरसणामे, संगएणामे, सेत्तं गुणणामे" अनु० । सलहिज्जइ मूरी दं-सएस्स तिलो महाभागो ॥६॥ गुणणि'फन्न-गुणनिष्पन्न-ना गुणप्रधाने,विपा० १U०२०। विप्फुरइ जस्स वयण-म्मि भारई नट्टिय व्य कन्वम्मि । गुणणिप्फमसणामा-गुणनिष्पन्नस्वनामा-स्त्री० । गुणैः कृत्वा लझियपयसारसिंगा-रसुंदरा झत्ति सो धन्नो ।।७।। निष्पन्नं स्वं स्वकीयं नाम यासां ताः गुणनिष्पन्नस्वनाम्न्यः । एगंतरोववासा-इगुरुयतवतवियतणुयदेहस्स । गौणनामिकासु, तथाहि-एकै कपरमाणवः परमाणुवर्गणाद्वयोः एयस्स चेन जम्मो, कम्पमहाधंतसूरस्स ।। G॥ परमारबोर्वर्गरणा द्विपरमाणुवर्गणा इत्येवं नाम्नां वर्गणा "गाणं परसमयावेहामणत-कगंयपरमत्थकहयसोहीरो । गुणणिप्पमं नामधिज्जं करेति " क०प्र०। स कयत्थो जस्स मई, वन्निजइ विउसलोएहिं ।। ए॥ गुण णिहि-गुणनिधि-पुं० । संयमानुगता ये गुणास्तेषां निधि एसो समत्यदंसण-पत्नावणागुणमहि संजुत्तो । रिव तैः परिपूर्णो गुणनिधिः । ज्ञानादिगुणरत्ननिधाने, व्य. ३ रयणायरो ब्व रेहम, सययं अक्खलियमाहप्पो ॥१०॥ उ०। पञ्चा०। गुणत्तयी-गुणत्रयी-स्त्री० । शानदर्शनचारित्रगुणत्रये, अष्टः कप्पडुम न वियरति, जे उ संघस्स कप्पियच्छेअं। अणवरयं ते धन्ना, सुसावया दसणुचरणा ॥११।। ८ अट। किं बहुणा सन्वेसि, जियाण सलहेसु गुणगणं जीव!। गुणत्युइ-गुणस्तुति-स्त्री० । क्षान्त्यादिगुणश्लाघायाम, जी । तुजवएसो एसो, जइ मज्झत्थं पियं तुज्क ॥ १५॥ अत्रिशमाहरे जीव ! किं व जेसिं, तए सुयं इय मयं बहु पयारं । प्रकटार्थाः । नवरं प्रथमगाथया आगमधरगुणो वर्णितो, द्वि तीयया धर्मकथकस्य,तृतीयया वादिनः, चतुर्थ्या कवेः, पञ्चतेसि पि गुणे सलहसु, जड़ मज्झत्यं मणे धरम् ॥१॥ म्या तपस्विनः, षष्ट्या तर्कग्रन्यव्याख्यातुः, सप्तम्या समस्तगुणरे जीव ! भो आत्मन् ! किं वा परं. येषामनिर्दिष्टनाम्नां त्वया वताम, अटम्या श्रावकाणां, नवम्या समस्तजीवानां, नैमित्तिप्रवता श्रुतभाकर्णितमितीत्थं मतमभिप्रायो,बहुप्रकारं नानाभेद, कविद्यासिद्धाःसाम्प्रतं प्रायो न सन्तीति तद्गुणगाथा न कृता। तेषामपि, न केवल मन्येषामित्यापिशब्दार्थः । गुणान् क्षान्यादीन, जीवा० ३० अधि। श्लाघय प्रशंसय, यदि माध्यस्थ्यं रागाद्यनावो, मनसि चित्ते, गुणदोसविनावण-गुणदोषवित्तावन-न। अर्थानालोचने, धारयसि धत्से, अन्यथा तन्मतपणेन मत्सर एव स्फुटः पञ्चा०विवः। स्यादिति गाथार्थः ॥ १॥ गुणद्धि-गुणद्धिं-स्त्री० । गुणश्रियाम, पञ्चा० ७ विव० । सगुणश्लाघामेवाह गुणचिजोग-गुणफियोग-पुं०। गुणश्रीयुक्तत्वे, पञ्चा०७विव०। धन्ना मुणग किरियं, कुणंति धारिति मलिणवत्थे न।। परिवजि अदब जण-चवहारा वारियारंजा ॥२॥ गुणधारि-गुणधारिन-त्रि० । अष्टादशशीलाङ्गसहनधारिणि, सूत्र १ श्रु० ११ अ० । (अष्टादशशीलाङ्गसहस्रस्वरूपम् 'गुरुधन्याः पुण्यनाजः एते प्रत्यकाः साधयो, वर्तन्त इति किया कुलवास' शब्दे द्रष्टव्यम्) ध्याहारः । य किमित्याह-मुनीनां साधूनां क्रियामारम्भं प्रत्युपेवणादिकां कुमन्ति चेन्ने, धारयन्ति पुनर्निदधति मलिनव गुणपक्खवाय-गुणपक्षपात-पुं० । सौजन्यादिषु बहुमाने, गुण स्त्रान्.तुः पुनरर्थे योजित एव । परीति मामस्त्येन वर्जितस्यक्तो पक्कपातः-गुणेषु सौजन्यौदार्यधैर्यदाविण्यस्थैयप्रियप्रथमाभिव्यार्जनाय चिणार्थ व्यवहारो वाणिज्यादिको यैस्ते,तथा वा भाषणादिषु स्वपरयोरुपकारकारणेवात्मधर्मेषु पक्कपातो बहुरितारम्भा निपिगृहकरणादिपापक्रिया इति गाथार्थः ॥२॥ मानं तत्प्रशंसासाहाय्यदानादिनाऽनुकूला प्रवृत्तिः । गुणपक पातिनो हि जीवा प्रबन्ध्यपुण्यबीजनिषेकेणेहामुत्र च गुणग्राम। सूत्रकृतसंबद्धां गाथामाह संपदमारोहन्ति । ध० १ अधिः । अन्नेमि पि पसंसह, विमलगुणा जेण जीव! तुह होइ । फलियं बुजलतरयं, परोयकरपाउ सम्पत्तं ॥३॥ गुण पगरिस-गुणप्रकर्ष-पुं० । गुणातिशये, पञ्चा विव । अन्येषामपि पूर्वव्यतिरिकानां प्रशंसय नाघय विमल गुरगान गणपडिवत्ति-गुणप्रतिपत्ति-स्त्री० । गुणाभ्युपपत्ती, पञ्चा तिशयान यन जीव प्राणिन् तव भवतो भवति जायते म्फटिक विव। Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( एश्ए ) गुडिव गुणपमिवस- गुणप्रतिपन्न - त्रि० । गुणाः मूलोत्तररूपास्तान्प्रतिपन्नः, गुणैः प्रतिपन्नः पात्रमिति कृत्वा गुणैराश्रितो गुणप्रतिपन्नः । मूलोत्तरगुणसम्पन्न, नं० । अभिधानराजेन्द्रः | गुणपुरिस - गुण पुरुष - पुं० | व्यायामविक्रमधैर्यसत्वादिप्रधाने पुरुषे, सूत्र० १ ० ४ श्र० । गुणपेहि ( ) - गुणप्रेक्षिन - पुं० । गुणान् श्रप्रमादादीन्प्रेते - छीलश्च यः । श्रप्रमत्तादौ दश० ॥ श्र० २ उ० । यो यस्य या वन्तं गुणं पश्यति तस्य तमेव प्रेक्षते पुरस्करोति, दोषेषु सत्स्वप्युदास्ते । तस्मिन् कर्म० २ कर्म० । गुणवल्लभ - गुणवलभ-पुं० । प्राकृतभाषानिबरू नेमिनाथचरित्रकाव्यकृत्याचार्ये, जै० ६० । गुणमंत - गुणवत् - त्रि० । पिएडविशुद्ध्याद्युत्तरगुणोपेते, माचा० २ श्रु० १ ० ६३० । गुणमवगुणमद्दत्त्र० । गुणैर्महति, श्रावण २ अ० । गुणरयण - गुणरत्न-त्रि० । गुणा एव रत्नानि यस्याऽसौ गुणरनः । रत्वस्वरूपगुणभृते श्रा० म० प्र० । सोमतिलकसूरेस्तृतीये शिष्ये, पुं० । ० ४ अधि० | तपागच्छीय देवसुन्दर सृरिशिष्ये, सच विक्रम संवत् १४५६ मिते विद्यमान आसीत्, षम्दर्शनसमुच्चयटीकां क्रियारत्नसमुच्चयनामानं च ग्रन्थं व्यरीरचत् । जै० इ० । गुणरणिहि - गुणरत्ननिधि-पुं० । ज्ञानादिमाणिक्यनिधाने, पञ्चा० ७ विव० । गुणरय वियरण-गुणरत्नवितरण - न० । सम्यक्त्वबीजसम्यग्दर्शनादिलक्कणगुणमाणिक्यविश्राणने, पञ्चा० ७ विव० । गुणरयण संत्रच्छर--गुणरत्नसंवत्सर - न० । तपोनेदे, भ० । इच्छामि णं भंते! तुज्जेहिं अन्माए समाणे गुणरयणं संवच्छरं तवोकम्मं यत्रसंपजित्ता एवं विहरित्तए । ग्रहासुहं देवाप्पिया ! मा परिबंधं करेह । तए णं से खंदए - गारे समो भगवया महावीरेणं अभगुम्पाए समाले० जाव नमसिचा गुणरयणं संवच्छरं तवोकम्मं उवसंपज्जि - ताणं विहरइ । तं जहा-पढमं मासं चनत्थं चरत्थेणं - निक्खिणं तवोकम्पेणं दिया ठाणुकुकुए सूराभिमुद्दे - यावणभूमी यावेमाणे रतिं वीरासणेणं अवाउमेण य, दोघं मासं छ बट्टे अनिक्खित्तेगं दिया ठाणुकु सूराजिमुहे यावणभूमीए आयावेमाणे रत्ति वीरासणेणं वाउमेण य, एवं तच मासं अट्ठमं अमेणं, चउत्थं मासंदसमं दस मेणं, पंचमं मासं वारसमं वारसमेणं, ब्रहं मासं चोदसमं चोदसमेणं, सत्तमं मासं सोलसमं सोलसमेणं, अमं मासं अट्ठारसमं द्वारसमेणं, नवमं मासं वीस मं वीसइमेणं, दसमं मानं बावीस बावीसइमेणं, एक्कारसमं मासं चवीसमं चडवीसइमेणं, वारसमं मासं बच्चीसहमं मेणं, तेरसमं मासं अट्ठावीसइमं अट्ठावीस इमेणं, चोदसमं मासं तीसइमं तीसइमेणं, पन्नरसमं मासं वत्ती - २३३ For Private गुणरागि चनत्तीसमं चउत्तीसदिया ठाणुक्कुमुए सूयावेमाणे रतिं वीरासणेणं सइमं बत्तीसइमेणं, सोलसमं मामं इमेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मे राभिमु यावणभूमीए वाउ मेणं । गुणानां निर्जराविशेषाणां रचनं करणं संवत्सरेण सत्रिनागवर्षेण यस्तिपसि तद्गुणरचनसंवत्सरम् । गुणा एव वा रत्नानि यत्र स तथा गुणरत्नः संवत्सरो यत्र तत् गुणरत्न संवत्सरं तपः इह च त्रयोदश मासाः सप्तदशदिनाधिकास्तपः कालः, त्रिसप्ततिश्च दिनानि पारणककाल इति । एवं चायम् "पारस वीस चडवी- स चेव चडवीस पावसा य । चडवीस एक्कवीला, घनवीसा सत्तवीसा य ॥ १ ॥ तीसा तेतीसा वि य. चवीस वीस अठवीसा य । तीसा बत्तीसा विय, सोलसमासेसु तबदिवसा ॥ २ ॥ पारस दस पंच चउर पंचसु यतिचितिष्ठिति । पंचसु दो दो य तहा, सोलस मासेसु पारणगा " ॥ ३ ॥ इह च यत्र मासे श्रष्टमादितपसो यावन्ति दिनानि न पूर्यन्ते, नावन्त्यग्रेतनमासादाकृष्य पूरणीयानि अधिकानि चाग्रेतनमा तव्यानि । (त्थं चत्थेणं ति ) चतुर्थ भक्तं यावद्भक्तं त्यज्यते यत्र तच्चतुर्थम, इयञ्चोपवासस्य संज्ञा, एवं पष्टादिकमुपवा सद्वयादेरिति । (अणिक्खित्तेणं ति ) अविश्रान्तेन ( दियति ) दिवा, दिवस इत्यर्थः । (गलुक्कुरुप त्ति ) स्थानमासनमुकु 'दुकमाधारे पुतालगनरूपं यस्याऽसो स्थानोत्कुटुकः । (वीरासणेणं ति ) सिंहासनोपविष्टस्य भून्यस्तपादस्यापनीतसिंहासनस्यैव यदवस्थानं तद्वीरासनं, तेन । ( श्रवाउडे यति) प्रावरणाभावेन च । भ० २ ० १ ० | झा० । गुणरयण सायर- गुणरत्नसागर- पुं० गुणा महाव्रतादयस्त एव रत्नानि विशिष्टफलहेतुत्वात् सर्ववस्तुसारत्वाच्च गुणरत्नानि तान्येव बहुत्वात् सागर इव सागरः समुद्रो गुणरत्नसागरः । पा०| रत्न कल्पप्रभूतगुणे, " जे श्र इमं गुणरय णसायरमविराहिऊण तिष्ठि संसारा ” मूलगुणात्मनि नि० चू० १४० । मूलगुणादिसंपन्ने च | प्रश्न० ५ संव० द्वार । गुणरहिय-गुणरहित- त्रि० । गुणविकले सदोषे, दर्श० । गुणराग - गुणराग- पुं० | वन्दनीयाईदादिगताईत्वभगवत्वादिगुणबहुमाने, पञ्चा० ६ वि० । गुणरागि- गुणरागिन - पुं० । गुणेषु गाम्भीर्य्यस्थैर्य प्रमुखेषु रज्यतीत्येवं शीलो गुणरागी । प्रव० २३८ द्वारा गुणिपक्षपातकृति दशगुणविशिष्टे श्रावके, स हि गुणपपातित्वादेव सगुणान् बहु मन्यते निर्गुणांश्चोपेक्षते । ६० १ अधि० । पञ्चा० । इदानीं गुणरागिगुणमाहगुरागी गुणवंते, बहु मन्न निग्गुणे उवेश | गुणसंग पवत्त, संपत्तगुणं न मइले || १६ || गुणेषु धार्मिक लोकभाविषु ग्ज्यतीत्येवं शीलो गुणरागी, गुणभाजो यतिश्रावकादीन् बहु मन्यते मनःप्रीतिभाजनं करोति यथा श्रहो ! धन्या एते, सुत्रब्धमेतेषां मनुष्यजन्मेत्यादि । तर्हि निगुणान्निन्दतीत्यापन्नम्, यथा-देवदत्तो दक्षिणेन चक्षुषा पश्यती Personal Use Only Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए३०) गुणरागि अभिधानराजेन्द्रः। गुणसंकम त्युक्ते वामेन न पश्यतीत्यवसीयते। तथा चाहुरेके-"शत्रोरपि | येन खण्डप्रशस्तिदमयन्तीकथारघुवंशटीका वैराग्यशतकटीकागुणा ग्राह्याः, दोषा वाच्या गुरोरपीति ।" न चैतदेवं धार्मि- सिंहासनद्वात्रिशिकादयो ग्रन्थाः कृताः, अयमाचार्य कोचितमित्याह-निर्गुणानुपेक्वते असंक्लिएचित्ततया तेषामपि संवत् १५६० मित आसीत् । जै००। निन्दा न करोति । यतः स एवमा सोचति - गुणविसेसासय-गुणविशेषाश्रय-पु. । व्यगुणकर्मसमुदाये, " सन्तोऽप्यसन्तोऽपि परस्य दोषाः, "व्यक्तिर्गुणविशेषाश्रयो मूर्तिरिति"। अस्यायों वार्तिककारमतेननोक्ताः श्रुता वा गुणमावहन्ति । विशिष्यत इति विशेषः,गुणेन्यो विशेषो गुणविशेषः, कम्माभिवैराण वक्तः परिवयन्ति, धीयते। द्वितीयश्चात्र गुणविशेषशब्द एकशेष कृत्वा निर्दिष्टः तेन श्रोतुश्च तत्वन्ति परां कुबुझिम्" ॥ १ ॥ गुण पदार्थों गृह्यते ।गुणाश्च ते विशेषाश्च गुणविशेषाः, विशेषग्रतथा हणमाकृतिनिरासाथै,तथा ह्याकृतिः संयोगविशेषस्वभावा, सं. "कामम्मि अणाईप, अणाइदोसेहि वासिए जीवे । योगश्च गुणपदार्थान्तर्गतः। ततश्चासति विशेषग्रहणे आकृतेरपि जं पाविथइ गुणो वि हु, तं मन्नह भो महच्चरियं ॥२॥ ग्रहणं स्यात् । न च तस्या व्यक्तावन्तर्भाव ध्यते; पृथकस्वशब्देभूरिगुणो विरल श्चिय, पक्कगुणो विहु जणो न सम्वत्थ । न तस्या उपादानात् । आश्रयशब्देन अव्यमभिधीयते। तेषां निहोसाण वि नई, पसंसिमो थोवदोसे वि" ॥३॥ गुणविशेषाणामाश्रयस्तदाश्रयो,द्रव्यमित्यर्थः। सूत्रेतच्छन्दसोपं कृइत्यादिसंसारस्वरूपमालोचयन्नसौ निर्गुणानपि न निन्दति, स्वा निर्देशः कृतः । एवं च विग्रहः कर्त्तव्यः-गुणविशेषाश्च गुणकिं तूपेकते, मध्यस्यभावमास्त इत्यर्थः । तथा गुणानां संग्रहे स-1 विशेषाश्चेति गुणविशेषाः, तदाश्रयश्चेति गुणविशेषाश्रयः, समामुपादाने प्रवर्तते यतत, संप्राप्तमङ्गीकृतं सम्यग्दर्शनविरत्यादिकं हारद्वन्द्वश्वायम्। "लोकाश्रयत्वात लिङ्गस्येति" नपुंसकलिङ्गनिन मशिनयति सातिचारं करोति, पुरन्दरराजवत् । ध०र० ॥ देशातेनायमर्थो नवति-योऽयं गुणविशेषाश्रयः सा व्यक्तिश्वोच्यते, गुणवई-गुणावती-स्त्री० । जम्बूद्वीपे पूर्व विदेहे पुष्कलावतीवि- मूर्तिश्चेति। तत्र यदा द्रव्ये मूर्तिशब्दस्तदाऽधिकरणसाधनो द्रजये पुएमरीकिणीनगरे वज्रसेनचक्रिणो राश्याम,प्रा० म०प्र०। एव्या-मूछन्त्यस्मिन्नवयवा इति मूर्तिः। यदा तु रूपादिषु तदा श्रा००। कर्तृमाभर मूर्धान्त कव्ये समवयन्तीति रूपादयो मूर्तिः। व्य क्तिशब्दस्तु व्ये कर्मसाधनो, रूपादिषु करणसाधनः। जाप्यगुणवंत-गुणवत्-०। पञ्चभिगुणैर्विशिष्टे श्रावके, ध० र० । कारमतेन तु यथाश्रुति सूत्रार्यः। गुणविशेषाणामाश्रयो व्यमेव अधुना तृतीयभावश्रावकलकणं गुणवत्स्वरूपं निरूपयिषुः व्यक्तिमूत्तिश्चेति तस्येष्टम् । यथोक्तम्-“गुणविशेषाणां रूपरमगसंबन्धगाथामाह Fधस्पशानां गुरुत्व-वत्व-घनत्व-संस्काराणामव्यापिनश्व पजइ वि गुणा बहुरूवा, तहा वि पंचहि गुणेोहँ गुणवंतो। रिमाणविशेषस्याऽऽश्रयो यथासंनवं तद्रव्यं मूर्तिमूर्षिछतावप्रद मणिवरे भणियो. सरूवमसि निमामोह ॥४॥ यत्वादिति" आकृतिशब्देन प्राण्यऽवयवानां पारायादीनां. नवयद्यपीत्यभ्युपगमे. अभ्युगतमिदमस्माभिर्यदुत-गुणा बदुरूपा बहु- यवानां चाइल्यादीनां संयोगोऽभिधीयते । सम० १ कापम । प्रकारा औदार्यधैर्यगाम्नीर्यप्रियंवदत्वादय,तथापि पञ्चभिर्गुणै | गुणवुष्ट्रि-गुणवृषि-स्त्रो । कर्मनिरायाम, व्य. १००० । गुणवानिद भावभावकविचारे मुनिवरैर्गीतार्थसरिभिर्भणित उ. अनुपमानन्दरसदानदक्केनुयष्टिपुष्टिप्राये स्वगतझानादिगुणवतः, म्यरूपं स्वतस्वमेषां गुणानां निशामयाऽऽकर्णयति शिष्यप्रो. केने, पञ्चा०१८ विव०॥ साहनाय क्रियापदम, प्रमादी शिष्यः प्रोत्साह्य श्रावणीय इति झापनार्थमिति ॥४२॥ गुणवेतएह-गुणवैतृषाय-न । विषयवैराग्ये, यदाहुयोगाचा स्वरूपमेवाऽऽह र्याः-तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्णायम् । ध०४ अधिक। सज्काए करणम्मि य, विणयम्मि य निच्चमेव उज्जुत्तो। गुणव्यय-गुणवत-न० । अणुव्रतानां गुणायोपकाराय व्रतानि । सव्यत्य एनिनिक्सो, वह रुई सुटु जिण वयणे ॥४॥ ध० २० । श्रावकधर्मतरोरुपचयल कणगुणनिबन्धनत्वेनात्मशोभनमध्ययनं स्वेनाऽऽत्मना वाऽध्यायः,स्वध्यायः, स्वाध्यायो सत्ताविप्रतिपित्सुश्रावकवतेषु,पञ्चा०१ विव० । अपव्रतानां पवा, तस्मिन्नित्यमुद्युक्तः इति योगः (१) तथा करणेऽनुष्ठाने (२) रिपालनाय भावनानूतानि गुणवतान्यभिधीयते-तानि पुनस्त्रीविनये गुर्वद्यभ्युत्थानादिरूपे नित्यं सदैवोद्युक्तः प्रयत्नवान् भ णि भवन्ति । तद्यथा-दिकपरिमाण, भोगोपभोगवतम, श्रवतीति प्रत्येकमभिसंबन्धादिति गुणत्रयम् (३)तथा सर्वत्र सर्व नर्थदमविरमणामिति । २७६ । श्रा० । पञ्चा। भ०। श्राव० । प्रयोजनेचैहिकामुमिकेषु न विद्यतेऽभिनिवेशः कदाग्रहो यस्य भा. चू० । ध० । [एषां त्रयाणां व्याख्या स्वस्वस्थाने] मोऽनजिनिवेशः प्रज्ञापनायो भवतीति चतुर्थी गुणः,तथा वह- [अणुवतस्वरूपम् 'अणुब्वय' शब्दे ४१६ पृष्ठे गतम्] निधारयति निमिन्ना.श्रधानमित्यर्थः । पुष्ट वाढं जिनवचने गुणसंकम-गुणसक्रम-पुं० । सङ्क्रमभेद, पं० सं०५ द्वार । पारगतगदिन अागमे इति । ध००। इदानी गुणसंक्रमस्य लकणमाहगुणवंतपारतंत-गुणवत्यारतन्त्र्य--न० । विद्यमानसम्यगवान गुणसंकमोब-तऽमुभप्पगईण पुन्यकरणाइ ॥१७॥ क्रियागुणानामधीनन्ये, डा०२२ अप० । अपूर्वकरणादयोऽपूर्वकरणप्रभृतयो अबध्यमानानामहाभप्रगणवरियद-गणवर्जिन-त्रि० । “ जघयां यः" ।।४।२६२। कृतीनां संबन्धि कर्मदलिकं प्रतिसमयमसंख्यथ गुणतया ब. झते मागध्यां जस्य यः । गुणरहिते, प्रा० ४ पाद। ज्यमानासु प्रकृतिषु यत् प्राक्षिपन्ति स गुणसंक्रमः । गुणोन गुणविजय-गुणविजय-पुं०। स्वनामख्या जयसोमसूरिझिये, प्रतिसमयमसंख्येयलकणेन गुणकारेण संक्रमो गुणसंक्रमः । Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुगर्सकम तथाहि मिध्यात्वतपनारायुर्वजानां मिथ्यादृष्टियोग्यानां त्र योदशानाममन्त्रानुवन्धनमायुरुयोजनांच सास्वादन योग्यानामेकोनविंशतिप्रकृतीनां यतो मिथ्यात्वमनन्तानुबन्धिपूर्वरात पदाचित सम्पष्ट्या पयन्ति तो शुभ अशुभप्रकृतीनां गुणक्रम आ युषां च परप्रकृतौ न संक्रमः, ततो मिथ्यात्वादिप्रकृतीनामिह वर्जनं, तथा अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणकषायाष्टकास्थिरा सर्व संख्यया जानुभयशः कीर्त्तिशोकारत्य सातावेदनीयानां षट्चत्वारिंशत्प्रकृतीनाम् अशुजानां बध्यमानानामपूर्वक[रादाय गुणसंक्रमो भवति निद्राको हास्परनिजुगुप्यानो स्वपूर्वकरणे स्वस्यधन्यवच्छे दादारभ्य गुणसंक्रमो वेदितव्यः अपरोऽर्थ:- अपूर्व करणाद यो पूर्वकरणाकरणप्रभृतयोऽयु नमकृतीनां मध्यमानांदलिकमध्ये गुणनया यात्यमाना प्रकृतिषु यत् प्रक्षिप्यते स गुमः तेन कृपण कालेनानुबन्धिमिथ्यात्वं सम्यमिध्यात्वानामप्यपूर्वकरसादाज्य गुणकमः प्रथ र्त्तते । तदेवमुक्तं गुणसंक्रमस्य लक्षणम् । क० प्र० । गुणसंपल- गुणसम्पन्न- - त्रि० । गुणसहिते, उत्त० २० भ० । गुणसंविण गुणपिनद्ध००४ संव० द्वार । (३१) अभिधानराजेन्द्रः । - त्रि० । ज्ञानादिगुणमित्याचाय्र्यादौ, गुणसमिद्ध-गुण समृद्धपञ्चा० २ विव० । गुणसमय गुगासतिगुरु तो ० १ श्रु० ५ अ० ४ ० । गुणसमुदाय-गुणसमुदाय पुं० अनेकशाभिश्चामादिगुणस मूहे, पञ्चा०८ विष० । गुणसपफलिय-गुणशतकालय वि० श्रीदास्यनेकगुणोपेते अधि । श्राचा० । गुणसहस्वकलिय-गुणशतसहस्रकलित० दश शीबाङ्गसहस्रे टादशशीलासहस्रयुक्ते, "गुणसय सहस्तकलियं, गुणुत्तरं च सा श्रहिल संताणं ।” “गुणाएं सयं गुणलयं, गुणयाणं सदस्सा, बंदोनंगजया सकारस्स इस्लता । ते य श्र रसीला कि संखियं वा कसे, चारित्तं, " नि०० ६ उ० । गुणमयागर - गुणशताकर पुं० । गुणशतानामनेकेषां गुणनामा करो निधानं गुणशताकरः प्रनूनगुणालये संघेन्य० २ उ० । बृ० । गुणसागर गुणसागर गुणसमुद्र "गुरुणा गुणसागराणं मेहावी " दश० ९ श्र० ३ उ० । गंजपुरनगरवासिरत्नसञ्चितश्रेष्ठपुत्रे, स च नवपरिणता एव वधूविहाय धर्मध्यानं ध्यायन् केवलमवाप, पश्चात्ता अपि असेधिषुः । ध० र० । सागरचन्द्रशिध्ये सिद्धसेन दिवाकरकल्पासमन्दिरस्तोत्रपरि टीकाकार के मुनौ जै० इ० ॥ गुणसागरमुणी-गुणसागरमुनि पुंस्वनामयते मुनौ यो डि पुरोहितपुत्रेण दत्तेन पृष्टः- तत्रैतस्य वैत्यागमने दोषा न वेति । ती० ५४ कल्प० । " गुणसापर-गुणसागर-कुं० । 'गुणसागर शब्दार्थ, ए अ० ३ उ० । - गुणागर गुणसिद्धि - गुणसिद्धि स्त्री० | शब्दस्य यौगिकार्थप्रदर्शने, दश० १ ० । गुणसिलय-गुणशिलक न० राजगृहनगरचैत्ये, अन्त० g वर्ग । "तेकाले समय से रायगि पारे श्रोत रायविहस्य यर दहिया उतरपुर दिसी जार गुणसिलर णामं चेइए होत्था । " भ० १ ० १ ३० । नि० । विशे० आ० ० । अनु० । उत० । चू गुणसुंदर - गुणसुन्दर - पुं० । सुहस्तिश्यामायन्तराले जाते द पूर्वस्थिि गुणमुडियप्य-गुणसुस्थितास्मन त्रिसंग्रहादिषु सु भावसारं स्थित आत्मा येषां ते तथा । सङ्ग्रहो पग्रह कुशलेषु, दश० ६ ० १ ० 1 MARDA गुण सेटिगुणश्रेणि स्त्री० [उपानस्थिि नाकरणेऽयतारितस्य दलिकस्यान्तर्मुहममाणमुद परिपणाच प्रतिक्षण देखिने कर्म० २ कर्म० | दर्श० पं० सं० । स्थापनाअधुना श्रेणिगुणस्वरूपमाहगुणासेट निक्लेवों, ममये समये अवगुणणार | अकागाइरिसो, सेसे मेमे व निक्लेको ।। २२० ॥ यत् स्थितिखएककं घातयन्ति तन्मध्यात् दक्षिकं गृहीत्वा उदयसमयादारभ्य प्रतिसमयमसंख्येयगुणतया परिक्षिपति । तद्यथाउदयसमये तो सम - समये "गुणधार का दुगाहरितो " द्वा यावदन्तर्मुहूर्त्त चरमसमयं तच्चान्तर्मुहूर्त्त पूर्वकरणानिवृत्तिकरणाला मनागपि रिकं वेदितव्यम योजन स्वियम् -- गुणश्रेण्यां निक्षेपः समये समये असंख्येयगुणतथा पूर्वमपूर्वमवापेक्षा उत्तरोत्तरसमये वृयात्मकः । सोऽपि कातिरिक-अपूर्वकरणानिवृतिकरण कालाभ्यामत्र्यधिकः । एष प्रथमसमये गृहीतदलिकनिकेपविधिः । एवं द्वितीयादिसमयगृहीतानामपि दलिकानां निक्केपविधिया अन्यश्च-गुणवचनसमयदालिक पत्र गृह्यते तत् स्तोकं द्वितीयसमये असंख्येयगुणं, ततोऽपि तृतीयसमये श्रसंख्येयगुणम्। एवं तावद्वाच्यं यावद् गुणश्रेणिद लिकनिकेपः शेषे शेषे नवतिः उपरि च न वर्द्धते ॥ ३३२ ॥ गुणसेण गुणसेन पुं० येनाग्निशर्माणमुपहसता नवमभवानुसमरादित्यवािदव सेपम् प्राक्तनीये नवमभवे समरादित्यजीवे, आचा० १ श्रु० ३ श्र० २३० ॥ गुगलपनगरस्थसागरदन द्वितीये पं० -न० । राजगृह सत्क चैत्ये, श्रा० क० । गुणसेलक - गुणशैलकगुण से हर - गुणशेखर - पुं० । सागरदत्तश्रेष्टिपुत्रे, पि० । चन्द्रसूरिशिष्ये सोमतिलकदेवेन्द्रसूरिणोर्गुरौ श्रयमाचार्यः विक्रमसंवत् १४२० वर्षे विद्यमान आसीत् । जै० ३० । गुणसोभम्गगण-गुणसौभाग्यगणिनपुं० [नामा - सिमि यतः प्राप्ततयारिकाननचनमालापेन वैचारिक काय िसम्पूर्ण तं गुहागर-गुणाकर-पुं० गुणसमुळे स्वनामपाते आचायें मायार्थः विक्रमसंवत ११० . श्र Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एपघु (ए३२) गुणागर अभिधानराजेन्सः। गुणाणुराग ताऽऽख्यानमणिकोशोपरि टीकाकरणे आम्रदेवमूरिणे सा- अत पाह-गुरुतराणि कायिकनावनावित्वाद् यानि गुणरनाहाय्यं दनम् । द्वितीयोऽप्येतनामा विक्रमसंवत् १५९६ मित | नि कायिकज्ञानदर्शनचारित्राणि, तेषां यो लाभस्तदर्थी तदनिविद्यमान प्रासीत् । जै० इ० । लाषवान् । तथाहि-भवत्येवोद्यमवतामपूर्वकरणकपकश्रेणिकगुणाणुराइत्तण-गुणानुरागित्व-न० । गुणवत्प्रीती, "गुणाणुरा- मेण केवलज्ञानादिसंप्राप्तिः-सुप्रतीतमेतदिति ॥१२२॥ गित्तणं धरसु" जी०६ अधि०। गुणानुरागस्यैव प्रकारान्तरेण सक्षणमाहगुणाणुराग-गुणानुराग-पुंग। गुणविषयकरागे प्रावधावकनि सयणु त्ति व सीस तिव,उवगारित्ति व गणिबउ व्यत्ति ॥ घ०र०॥ पडिवंधस्स न हेक, नियमा एयस्स गुणहीणो ॥१३॥ षष्ठं गुणानुरागमाह स्वकीयो जनः स्वजनः,तिशब्दस्त दसूचको,वाशब्दः समुजायइ गुणेसु रागो, सुरुचरित्तस्म नियमओ पवरो। चये,हस्वत्वं तु प्राकृतशैल्या । शिष्यो विनेयः, 'इति-वा' शब्दा पूर्ववत् । उपकारी नक्तपानदानादिना पूर्वमुपकृतवान् , 'इतिवा' परिहरइ तओ दासे, गुणगणमालिन्नसंजणए ॥ १०॥ शब्दो प्राग्वत्। (गणिवउ बत्ति)एकगच्छवासी, इतिवा'शब्दो जायते संपद्यते गुणेषु पूर्ववदेव, एतेषामेकैकेऽपि-प्रायः प्रतिबन्धकारणं भवत्येतस्य "वय समण धम्म संजम, वेयावश्चं च बंभ गुत्तीयो। पुनर्गुणानुरागिणो नियमाग्निश्चयेन, न नैव, हेतुनिमित्तमेकोऽपि नाणाइतियं तव को-हनिम्गहाई य चरणमेयं ॥१॥ भवत्येतेषाम् । किंविशिष्टः सन्निति !, माह-गुणहीनो निगुणः। पिंडविसोही समिई, नावण पडिमा उ इंदियनिरोदो। "सीसो सजिलो वा, गणिवत्रो वा न सोम्ग नेश।जे तत्थ पडिलेहण गलीओ, अभिग्गहा चेव करणं तु" ॥२॥ नाणदसण-चरणा ते सोग्ग जात्रो" ॥१॥ [इति कृत्वा ॥ इत्यागमप्ररूपितेषु मूल गुणोत्तरगुणसंहितेषु रागः प्रतिबन्धः अथ चारित्रिणां तेषां स्वजनादीनां किं विधेयमिति आहशुरुचारित्रस्य निष्कासंयमस्य नियमतोऽवश्यंभावेन प्रवरः करुणावसेण नवरं, अणुसास तं पि सुद्धमग्गम्मि । प्रधानो,न मिथ्या इति जावः। परिहरति वर्जयति, ततस्तस्माद्गुणानुरागाहोषान् दुष्टव्यापारान्, किंविशिष्टान् ?, गुणगणमानिन्य. अचंताजोग्गं पुण, अरत्तदुट्ठो नबेहे ॥१४॥ संजनकान् ज्ञानादीनामशुद्धिहेतून भावसाधुरिति ॥१२०॥ करुणा परदुःखनिवारणबुद्धिः। उक्तंच-"परहितचिन्ता मैत्री, ___गुणानुरागस्यैव लिङ्गमाह परदुःखनिवारिणी तथा करुणा ॥ परसुखतुष्टिर्मुदिता, परदो षोपेतणमुपेक्षा" ॥१॥ तद्वशेन तासिकतया, नवरं केवलं, गुणनेसं पि पसंसइ, गुरुगुणबुलीइ परगयं एसो। रागदोषपरिहारणानुशास्ति शिक्कयति, तमपि स्वजनादिकम, दोसझवेण वि निययं, गुणनिवहं निग्गुणं गण॥११॥ अपिशब्दात्तदितरमपि, वेति ?, पाह-शुद्धमार्गे यथावगुणझेशमवि,प्रास्तां महीयांसं गुणमित्यपेरर्थः। प्रशंसति श्लाघते स्थितमोकाध्वविषये। तद्यथापरगतमन्यसत्कमेष भावसाधुः, उत्तमप्रकृतित्वान्महतोऽपि "किं नारकतिर्यनर-विवुधगतिविचित्रयोनिभेदेषु ॥ दोषानुत्सृज्य स्वरूपमपि परगतं गुणं पश्यति । कुथितकृष्ण वत संसरन सततं, निर्विषो पुःखानरयेषु ॥१॥ सारमेयशरीरे सितदन्तपति पुरुषोत्तमवत्। [गणाऽनुरागविषये येन प्रमादमुद्धत-माश्रित्य महाधिहेतुमस्वलितम् । पुरुषोत्तमचरित्रम् 'पुरिसोत्तम' शब्दे उदाहरिभ्यते ] तथा संत्यज्य धर्मचित्तं, रतस्त्वमार्येतराचरणे ?॥२॥ दोषलवेनाप्यल्पप्रमादस्खलितेनापि निजकमात्मीयं गुणनिवहं यन्न प्रयान्ति जीवाः, स्वर्ग यश्च प्रयान्ति विनिपातम् । गुणकलापं निर्गुणमसारं गगणयति कल्पयति-धिमां प्रमादशील तत्र निमित्तमनार्यः, प्रमाद ति निश्चितमिदं मे ॥ ३॥ किञ्चमिति भावनया प्रकृतो जावयति, कर्णस्थापितविस्मृतशुण्ठीखएपश्चिमदशपूर्वधरथ्रीचञस्वामिवदिति । [श्रीववस्वामि केवनं रिपुरनादिमानयं, सर्वदैव सहचारितामितः। चरित्रं सुप्रतीतत्वात् नेद प्रतन्यते] ध०र०। यःप्रमाद शति विश्रुतः परा-मस्य वित्तशमतामकुरिगताम् ॥४॥ यत्करोति विकथाः प्रथावती-यत् खनेषु विषयेषु दृष्यति । गुणानुरागस्यैव लिङ्गान्तरमाह सुप्तमत्त इव यद्विचेष्टते, यन्न वेत्ति गुणदोषयोर्जिदाम् ॥ ५ ॥ पाल संपत्तगुणं, गुणसंगे पमोयमुबहइ । ऋभ्यति स्वहितदेशनेऽपि यत्, यच्च सीदति हितं विदन्नपि । नजमइ जावसारं, गुरुतरगुरणरयाणलाभत्थी ॥ १२॥ लोक पप निखिल पुरान्मन-स्तत्प्रमादकुरिपोर्विजम्भितम् ॥६॥ पालयति रक्षति वर्षयति व जननीय प्रियपुत्रं संप्राप्तं सम्य इत्यवेत्य परिपोष्य पौरुषं, दुर्जेयोऽपिरिपुरेष जीयताम् । कमक्कयोपशमोपलब्धं गुणं ज्ञानदर्शनचारित्रादिरूपं, तथा गुणे यत्सुखाय न भवन्त्युपेकिताः,व्याधयश्च रिपवश्च जातुचित्"७॥ गल्यानां सङ्गे मील के. चिरप्रोपितस्निग्धवन्धसंप्रयोग श्व प्र. इत्यादिविविधवाचोयुक्तिभिरुत्पादितसंवेगं तं शुद्धधर्म प्रमोदमानन्दमुन्याघल्येन वहात प्राणोति । तद्यथा वर्तयति । प्रज्ञापनीयश्चेदसौ स्यातू. अत्यन्तायोग्यं बाढमप्रज्ञा"असनां सङ्गपडून, यन्मनो मलिनोकृतम् । पनीयम, पुनस्तमरक्तद्विष्टो रागद्वेषरहित उपेक्षते अवधीरयतन्मेऽद्य निर्मलीभृतं, साधुसंबन्धवारिणा ॥१॥ ति, “ उपेका निर्गुणेग्विति" वाक्यमनुसृत्येति गाथार्थः ।१२४॥ पूर्वपुण्यतरोरद्य, फयं प्राप्तं मयाऽनघन । गुणानुरागस्यैव फत्रमाहसङ्गेनासङ्गचित्तानां साधूनां गुणधारिणाम" ॥२॥ उत्तमगुणाणुराया, कालाईदोसओ अपत्ता वि । नया राणानुगगादेवोद्यच्चनि प्रयतते नायमारं सजाय सुन्दरं या गुणसंपया परत्य वि, न दुबहा होइ भव्वाणं ॥१३॥ थानात ध्यानाध्ययनतपःप्रभृतिकृत्येपिनिगम्यते किमिति. उत्तमा उत्कृपा गुणा ज्ञानादयः,तेष्वनुरागःप्रीतिप्रकर्षः,तस्मा Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ०३३) अभिधानराजेन्द्रः | गुणापुराग देवो का पाप आदिशब्दात् संहननादिपरिग्रहत दोषानकारिया ततोऽसा प्रात्यपेरर्थः । गुणसंपत्परिपूर्णधर्म सामग्री, वर्तमानजन्मनीति गम्यते । परत्र भाविनये, अपिः संन्नायने, संभवति तत्रैव - गुत्तसूरि-गुप्तभूरि-पुं० । त्रैराशिक निह्नवमतप्रवर्त्तकरोह गुप्तगुरौ भाषा भवति भध्यानां मुक्तिगमनयोम्यानामिति । उ गुणानुरागरूपं षष्ठं जावसाघोर्लिङ्गम् । ध० र० । गुणासाय–गुणास्वाद-पुं० । गुणेष्वास्वादो येषां ते गुणास्वादाः। उत्त० ३२ अ० । विषयास्वादलोलुपेषु, आधा० १ ४०५ श्र० ३ ० । गुणाहिय गुवाधिक वि० गुणैः स्वस्मिन् स्थितैविंग नादिभिरधिके, "गुणाहिए वंदणए, उनमत्थगुणा गुणे प्राणसो | गुणि (ए) गुणिन् १०० १२ द्वा० "रे त्यागिनि विदुषि च वसति जनः स च जनाद्गुणी भवति ॥ गुणव ति धनं धनाच्छ्रीः, श्रीमत्या जायते राज्यम् " ॥ १ ॥ भा० म० द्वि० । प्रा० चू० । गुणिय-गुणि० बहुशः परावर्तिते व्य०३४० गुगुत्तर- गुणोत्तर १० गुणासासरं च गुणोत्तरम, अथवाऽन्ये पि गुणा शान्तिमादयः तेषामुत्तरं गुणोत्तर सरागयानि० चू० १६०० । गुप्पा-गुणोत्पादन १० रविशेषोत्पादने भ० ७० रित्रे, १ उ० । गुशोवनेय-गुणोपेत त्रिगुणा रम्यतादयः तैरुपेतं युतं यत् तथा । श्र० । रम्यतादिगुणोपपेते, रा० । विपा० । प्रशस्तयेनोपपेते प्रियंवदत्वादिनिरूपयेते । रा० गुएन-उर-धूम्रपा० रादिना येनप्रकारे, उण्ठ:" 10४६यर्थन्तस्य गुप्त इत्यादेशः। गुण्टर प के जूस उलपति प्रा०४ पाद " 33 गुप्त गुप्त-त्रि० । “कगटमतदपयशपस पामूर्ध्वे लुक |८|२|७७ । इति पलुक् । प्रा० २ पाद । मनोवाक्कायकर्मभिः( श्राचा० १ ० ३ ० ३ ० ) असंयमस्थानेज्यो रहिते, उस० १५ अ० । सूत्र० । गुप्तित्रयेण स्थिते, उस० १५ श्र० । ध गुनयोऽप्रतीकाराप्रती चार प्र५ सम्बद्वार वृतिकरणादिभिः (कल्प० ६ क्षण) गुप्ता बहिः प्राकारावृताः । [झा० १६० १३ श्र० प्रा० । पराऽप्रवेश्ये, जी० ३ प्रति० । स्वामिभेदकारिणि, रा० [ गौतमगत्रिकाल गुत्तकुमार गुप्तकुमार-पुं० योतमा कामन्तरजाम गोत्रीये स्थविरे, कल्प० ० कृण । - त्रि० । कपाटद्वयोपेतद्वारेषु वृ० १ ० भ० गुत्तदुवार - गुप्तद्वारकेषाञ्चिद् द्वाराणां स्थगितत्वात् ( रा० ) अन्त० १ श्रु० १३ श्र० । स्था० । गुजराण देखी पितृभ्यो लालाने ००२ वर्ग पालिय-पाक्षिक पुं० गुनः प्रवेश्य पनि सेतु गुप्तपालिकाः। जी०३ प्रति पुराश्वेश्यबन्धावृते, रा० । गुलबंधवारि -[ ए ] गुब्रह्मचारिन् ०० गुप्तं नवभि श्री रतिं मा मैथुनविरमणं परतीतिविम २३४ गुत्तिभेय स्था० ० गुप्तं सम्पादितविराजितम प ब्रह्मचर्यं चरतीति । कल्प० ६ कण | शा० । ब्रह्मगुप्तियुके ब्रह्मचरणशीले भ० १ ० १ ३० । से आचार्ये, चा०क० । गुत्तायरिय गुप्ताचार्य पुं० । श्रीगुप्तसूरौ, यच्छिष्येण रोहगुप्तेन त्रैराशिक दृष्टिः समुत्पादिता । कल्प० क्षण । गुत्ति - गुप्ति - श्री० गोपनं गुप्तिः खियां विप्रत्ययः आगन्तुक कच्चवरनिरोधे, आ० म० प्र० । संघरे, विशे० | आत्मसंरक्षणे मुमुक्ोरशुभयोगनिद्र, ध० ३ अधि० । ज्ञा०| कल्प० । उत्त० । संथा० रा० । गोपनं गुप्तिर्मनः प्रभृतीनां कुशनानां प्रवर्तनमकुशलानां च नियममिति आमणसिकाइया गुरुओ तिथि समयहि पवियारेयरका मिहिकाओ जो ॥१॥ स्था० ३ ० १ उ० । तिस्रो गुप्तयः प्रतीचाराप्रती चाररूपाः । [२०] [१] ००० "समिधो नियमा मुसो. गुलो समस म भयो ! कुवयमुईरंतो, संवयगुप्तो विसमिश्रो वि प्ति " ॥२॥ एताश्चतुर्विंशतिदण्डके चिन्त्यमाना मनुष्याणामेव, तथापि तु नरकादीनामित्यत आह-संजयम पुस्साणं " इत्यादि कव्यम् । उक्ता गुप्तयः । स्था० ३ ठा० १७० । स० [ श्र० प्र० । प्रव० । श्रघ० । सुत्र० । श्राष० । [मनोगुप्स्यादिदादरणानि स्वस्थस्थाने] संलीनतायाम, पा० " गुलि ट्ठिओ पमायं रुंभ " यदा किन गुप्तिषु मनोगुप्त्यादिषु स्थितो यो प्रत्यया प्रमादस्तं निरोधाच तत्प्रत्ययं कमपि न बध्नाति । वृ० ३३० । गुप्तिप्रमादे मि घ्याचारप्रतिक्रमणम जीवयकारी सायाम, प्रश्न० १ संव० द्वार। आत्यन्तिक्यां रक्षायाम, वृ० १ उ० । ज्ञा० । रक्षाप्रकारे, स्था० वा० । सिंदिप गुमन्द्रय-शि० नया गुप्त्युपेतब्रह्मचारिणि, [सू० २०१० स्थविषयेषु रागादिनेन्द्रियाणामप्रवृ स्था० ६ ना० । उत्त० । - । गुचिकर-गुप्तिकर गुलिकरणशील गुप्तिकरः "तुतीला शब्दकलहगाथादेरादुमन्दात् ॥ ५ । १ । १०३ ॥ इति (हैम० ) टप्रत्ययः । गुप्तिकारके, आ० म० प्र० । संयमोऽध्यपूर्वकम्मैक चपरागमननिरोधेनोपने भावाद गृहशोधने पचनप्रेरितपरागमननिघायपाता यनादिस्थगनवत् । श्रा० म०प्र० ॥ रकाकारके, नि०चु०२. ४० । गुतिगुन-गुप्तिगुप्त० महाचस्येमियुके, गुप्तिभिर्मगोयादिभिर्वत्यादिभिर्ब्रह्म या प था। प्रश्न० ४ संव० द्वार । गुचित्रेय गुप्तिनंद वि० गुनगुन गुतिवेदमांनामकोट के बने ग०३ अधि० । | स्रो तभी गुचीओ पाओ तं महा-महगुती वयनी कायगुली | संजयमणुस्सानं तो गुसीओ पचताओ। तं जड़ा-मण-वय-काए । Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरह (ए३४) गुत्तिसंरक्खणहेल अभिधानराजेन्सः । गुत्तिसंरक्षण देउ-गुप्तिसंरक्षण हेत-पुंoगोपनीयव्यसंरकण- जाई मोगर तह जू-हिया य तह मसिया य वासंती । हेती, ज०१४ श०२ उ०॥ वत्युल कत्थुल सेवा-लगत्य मगदंतिया चेव ।। ॥ गुत्तिसेण-गप्तिसेन-पुं० । अस्यामवसर्पिण्यां भरतकेचे जाते षो. चपंग जाई णवणी-झ्या य कुंदे तहा महाकुंदे। डशे जिने, स०४ समः । एवमणेगागारा, हवन्ति गुम्मा मुणेयना" ॥३॥ सेतं गुत्ती-देशी-बन्धने, २च्चायाम, वचने, बतायाम, शिरोमाट्ये गुम्मा | प्रशा० १ पद ॥ च । दे. ना२२ बर्ग। सेरिकागुल्माः नवमालिकागुल्माः कोरण्टगुल्माः बन्धुजीवकगुत्यह-देशी भासपतिणि, दे० ना.२ वर्ग। गुल्माः मनोवद्यगुल्माः बीजकगुल्माः बाणगुल्माः कणवीरगुगुंदा-देशी-श्मश्रुणि, दे८ ना०५ वर्ग। ल्माः कुब्जकगुल्माः सिन्वारगुल्माः जातिगुल्माः मुरगुल्मा: गुन-गुण-पुं० । “णो नः" ।८।४।३०६ पैशाच्या कारस्य यूथिकागुल्माः मल्लिकागुल्माः वासन्तिकगुल्माः वस्तुबगुल्माः कस्तुलगुल्माः सेवालगुटमाः, अगस्त्यगुल्माः मृगदन्तिकागुल्माः नो भवति । उपकारे, “गुनगनयुत्तो" । 'गुनेन' । प्रा०४ पाद ।। चम्पकगुल्माः जातिगुल्मा नवनीतिकागुल्माः कुन्दुगुल्माः महागुप्प-गोप्य-त्रिकारहसि, एकान्ते, स्था०४० १००। कुन्दगुल्मा सैरिकादयो लोकतःप्रत्येतव्याः। गुल्मा नाम द्वस्वगुप्पंत-गुप्यत-त्रि० । “गुप्यर्विर-णमौ"101४१५० । इति स्कन्धबहुकाण्डपत्रपुष्पफरोपेताः,ततः सर्वत्र विशेषणसमासः। विरणमादेशाऽभावे तयारूपम् । व्याकुलीभवति, प्रश्न. ३ जी० ३ प्रति० । वृन्दे, सूत्र २ श्रु० २ अ० । आश्र० द्वार। गुम्मम-मुह-धा० । "मुडेगुम्म-गुम्मडौ"10।४।२०७ । मुगुप्पमाण-गुप्यत-त्रि० । व्याकुलीभवति, कल्प० ३ कण। हेरेताबादेशौ वा भवतः। 'गुम्मह'। 'गुम्मड) मुज्झर' मुह्यति । प्रा०४ पाद । देना०२ घर्ग। गुप्त-देशी-शयनीये, संमृढे, गोपिते च । दे० ना० २ वर्ग। गुम्मागुम्मि-गुल्मागुल्मि-श्रव्य० । गुल्मं वृन्दमात्रम, गुल्मेन च गुंपा-देशी-विन्दौ, अधमे च । दे० ना०५ वर्ग। गुल्मेन च भूत्वेत्यर्थे, औ० । “गुम्मागुम्मि कुडाकुड़ि अपेगया गुप्फ-गुल्फ-पुं० । "द्वितीयतुर्ययोरुपरि पूर्वः"१८।२।१०|| वाएंति"। गुल्म गच्चैकदेशः। औ०। हात फस्योपरि प्रथमः । प्रा०२पाद । गल्फके.जी. ३ प्रतिक गुम्मिअ-देशी-मूलोत्सन्ने, दे० ना०५ वर्ग। औ० । ज० । पादग्रन्थो, वाच । गुल्फः गुटुः प्रपदः आप्रपदः | गुम्मिय-गोल्मिक-पु० । गुल्मन समुदायन सचरन्तात गाा खुरकः निस्तोदः पादशीर्षश्चेति पर्यायाः। है । काः । प्रारक्षिकाणामप्युपरि स्थायिनि, व्य०१ उ । गौरिमका गुंफ-देशी-गुप्तौ, देना०२ वर्ग। नाम ये राकः पुरुषस्थानकं बढ़ा पन्थानं रक्कयन्ति । वृ०१ उ०॥ गुफा-देशी-शतपद्याम, दे. मा० २ वर्ग । गुल्मिन-त्रि० । पूर्णिते, वृ० १ उ० । गुम-तम-धा0--चलने, “भ्रमेष्धिरिटिन गदाल-दरादाल-ब-गुम्मी-गुल्मी-स्त्री०॥ त्रीन्द्रियजीवनदे उत्त०३६ अ०। इच्छायाम्म भम्मम-भमड-भमाम-जलअगट झण्ट-झम्प-नम-गम-फ | म, दे० ना.५ वर्ग। म फुमदुम-दुस-परी-पराः" ।८।४।१६। इति नर्ग-गह-गुह्य-न। "धेह्योः" ।।२।१२४ । हकारयकारयोर्वि माऽऽदेशः । गुमहाप्रा०४ पाद । पर्ययः । गोप्ये, प्रा०२ पाद । गुमड-देशी भ्रमति, दे. ना०५ वर्ग। गुरु-गुरु-पुर। गृणाति यथावस्थितं शास्त्रार्थमिति गुरुः । धर्मो पदेशादिदातरि, श्रा०म०प्र० । सम्यग्ज्ञानक्रियायुक्ते सम्यग्धगुमगुमंत-गुमगुमायमान-त्रि० । शब्दविशेष कुर्वाणे, औजंग।। मशास्त्रार्थदेशके, यदाह-"धर्मज्ञो धर्मकर्ता च, सदा धर्मपगुमगुमाइय-शुगुमायित-त्रि० 1 गुमगुमायन्ति स्म, अकर्मक रायणः। सत्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थ-देशको गुरुरुच्यते" ॥१॥ स्वाकर्नरिक्तप्रत्ययः । गुमगुमेतिशब्दं कृतवनि, "महुकरित्रमर-1 ध. २ अधि० । अष्ट। पश्चा०। गौरवाहे, उत्त. १० । गणगुमगुमाइयं"। राणाश्री। मधुरं शब्द कुर्वति, कल्प० ३ कण।। धर्माचार्य, पश्चा०१ विव० । उत्तः । प्रव०नि०चू । सम्यगुम्म-गुल्भ-पु। न० । इस्वस्कन्धबहुकाएमपत्रपुष्पफलोपेते, गुरुवरणपयुपासनाऽविकलतया यथावस्थिततत्त्ववेदितार, जी. ३ प्रतिशलतासमूहे, विशे० वनस्पतिभेदे, जी०३प्रतिमा पिका "गुर्वायना यस्मात, शास्त्रारम्ना भवन्ति सर्वेऽपि । तस्मागुल्मानि तु नवमालिकावासन्तिकासेरयककोरियककोरिटर्ब दुर्वाराधन-परेण हितकाविणा भाज्यम" ॥१॥श्रा० म०प्र०) धुजीयकवारणकरवीरसिन्चारविचकिल जानियथिकादयः । अनुशधर "माणुस्सं उत्तमो धम्मो, गुरुनामाइसंजुओं"। प्राचा० १ ०९०५ उ०। झा० । औ०। प्रज्ञाभ ध०र०। गुरुगुणयुक्त एव गुरु:जारा० जी०। पतदेव सूत्रकृदाह गुरुगणरहियो वि हं, दट्टयो मूलगुणविउत्तो जो। से कि तं गुम्मा?। गुम्मा प्रागविहा परमत्ता । तं जहा- ण उ गुणमेत्तविहीणो, ति चंमरुद्दो नदाहरणं ॥३॥ "सेरियए णोमाझिय, कोरंटय बंधुनीवग मणोज्जे। गुरुगुणरहितोऽपि, अपिशब्दोऽत्र पुनःशब्दार्थः। ततश्च गुबीयय वाण करणवीर, कुजय तह सिंधुवारे य ॥ १॥ रुगुणरहितो गुरुन भवति । गुरुगुणरहितः पुनः, इह गुरुकु Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु ३५) अभिधानराजेन्द्रः। नवासप्रक्रमे स एव द्रष्टव्यो ज्ञातव्यः, मूलगुणवियुक्तो म- जगवानेष सौख्येन, स्वगच्छे निवसन्मया । हावतरहितः, सम्यम्झानक्रियाविरहितो बा । यो न तु न हो दशां महाकष्ट, प्रापितः पापिना मुधा ।। २०।। पुनर्गुणमात्रविहीनो मूलगुणव्यतिरिक्तप्रतिरूपताविशिष्टोपशमा- एवं भावयतस्तस्य, प्रशस्तध्यानवह्निना। दिगुणविकलः । इति हेतोः गुरुगणरहितो द्रष्टव्य इति प्रक्र- दग्धमन्धनत्वेन, केवलज्ञानमुतम ॥ २१ ॥ मः। उपप्रदर्शनार्थो वा इतिशब्दः । उक्तं चेहाथै-"काल परिहा- ततस्तं तद्वसनाऽसौ, सम्यङ् नेतुं प्रवृत्तवान् । णिदोसा, पत्तो काइगुणविहीण । अम्मेण वि पवजा, दायब्वा प्रभाते च स तं दृष्टा, करवाहितमस्तकम् ॥ २२॥ सीनतेण"॥१॥ अवार्थे कि ज्ञापकमिति,प्राह चरामरुश्चण्ड- | आत्मानं निन्दति स्मैव-मधन्योऽहमपुण्यवान् । रुद्राभिधानाचार्य उदाहरणं झापकम्। तत्प्रयोगश्चैवम-गुणमात्र- यस्य मे सति रोषाग्नि-शममेघे बहुश्रुते ॥२३॥ बिहीनोऽपि गुरुरेध, मुझगुणयुक्तत्वात, चरामरुजाचार्यवत् । परोपदेशदक्षत्वे, बहुकाले च संयमे । तथा ह्यसौ प्रकृतिरोषणोऽपि बहूनां संविग्नगीतार्थशिष्याणा- न जातो गुणरत्नानां, प्रधानः कान्तिसद्गुणः ॥ २४ ॥ ममोचनीयः विष्टिबहुमानविषयश्चानूत् । अयं तु शिष्यो धन्योऽत्र, गुणवानेष सत्तमः । तत् कथानकं चैवम् यस्याद्य दीक्षितस्याऽपि, कोऽप्यपूर्वः क्षमागुणः ॥ २५ ॥ चएमजाभिधानोऽभू-दाचार्योऽतिबहुश्रुतः । एवं सद्भावनायोगात, वीर्योल्लासादपूर्वतः। झानादिपञ्चधाचार-रत्नरत्नाकरोपमः॥१॥ प्राचार्यश्चएमरुद्रोऽपि, संप्राप्तः केवनश्रियम् ।। २६॥ असमाचारसंशोक-संज्वलत्कापवाडवः। इति गाथार्थः॥ ३५ ॥ संक्लेशपरिहाराय, गच्छपाचे स्म तिष्ठति ॥२॥ गुरुगुणरहियो उ गुरू,न गुरु विहिच्चायमो न तस्सिट्ठो विहरश्च समायातः, उज्जयिन्यां कदाऽप्यसौ। विविक्तोद्यानदेशे च, तस्थौ गच्चस्य सन्निधौ ॥ ३॥ अपत्य संकमेणं, ए उ एगागित्तगणं ति ॥ २४ ॥ अथ श्रीमत्सुतः कोऽपि, सुरूपो नवयौवनः । गुरुगुणाः सझानसदनुष्टानविशेषाः, ते रहितो हीनो गुरुप्रधानवस्त्रमाल्यादि-भूपितो मित्रवेशितः ॥ ४॥ गुणरहितः। तुशब्दः पुनरर्थः । गुरुधर्माचार्यो, न गुरुन धर्माविवाहानन्तरं क्रीम-नागतः साधुसन्निधौ। चार्यो भवति, सुवर्णगुणविक सुवर्णमिव । ततश्च (विहिचायतन्मित्रैः केलिना प्रोक्ता-स्तं पुरस्कृत्य साधवः ॥५॥ मोचत्ति)ह मकारोऽलाक्षणिकः। ततश्च विधित्याग एवाऽऽगमिअस्मत्सखममुं यूयं, हे भदन्ताः ! विरागिणम् । कन्यायेन परिहार पव । तस्य गुरोरिष्टोऽनिमतो जिनानाम । स निर्बिमं जवकान्तारात, प्रवाजयत सत्वरम् ॥६॥ चन यथा कथञ्चिदत पवाह-अन्यत्र गुरुकुलान्तरे, संक्रमेण साधवस्तु तकान् सात्वा, चसूरीकरणोधतान् । प्रवेशेन, न पुनरेकाकिन्वेन एकाकिविहारितयेति । गुरुकलाऔषधं सूरिरेषा-मित्यालोच्य बभाषिरे ॥ ७ ॥ न्तरसङ्क्रमणविधिश्च-" संदिछो संदि-स्स चेव संपज्जा भा नकाः ! गुरवोऽस्माकं, कुर्वते कार्यमीरशम् । उपमाई। चउभंगो पत्थं पुण, पढमो भंगो हव सुद्धो"॥१॥ इत्यावयं तु नो ततो यात, गुरूणामन्तिकं लघु ॥८॥ दिरागमप्रसिद्ध इति । सर्वथा गुरुरहितेन न भाव्यमिति भा. केलिनैव ततो गत्वा, गुरुमूचुस्तथैव ते। वः । यदाह-"एसणमणेसणं वा, कह ते नाहिति जिणवरमयं सूरिणा भणितं तर्हि, भस्माऽऽनयत सत्वरम् ॥६॥ वा। कुरिणम्मि व पायाना,जे मुक्का पञ्चइयमेत्ता"॥१॥इतिशब्दः येनास्य लुञ्चनं कुर्मो, वयस्यैस्तु ततो लघु । प्राग्वदिति गाथार्थः ॥ २४ ॥ तदानीतं ततः सूरिः, पञ्चमङ्गल पूर्वकम् ॥ १० ॥ ननु यदि गुरुकुल पव वस्तव्य,तदा कथमुक्तं दशबैकाबिके ?, सुश्चनं कर्तुमारेने, तद्वयस्यास्तु लजिताः । यथा-" ण या बभेजा नि उणं सहायं, गणाहियं वा गणो चिन्तितं चेत्यपुत्रेण, कथं यास्याम्यहं गृहे ? ॥ ११ ॥ समं वा । एक्को पि पाबा विवजयंतो, विहरिज कामेसु अ. स्वयमाश्रितसाधुत्वः, स खुश्चितशिरोमुखः । सजमाणो ॥१०॥" (दश०२ चू०) इत्येतदाशङ्कयाहततो विसृज्य मित्राणि, गुरुमेवमुवाच सः॥ १२ ॥ जं पिय ण वा लनेजा, एक्को वीचा दिनासियं सुत्ते । भदन्त ! परिहासोऽपि, सद्भावोऽजनि मेऽधुना। रङ्कत्वेनापि तुष्टस्य, सौराज्यं मे समागतम् ॥ १३ ॥ एवं विसेसविसयं, णायव्वं बुछिमंतहि ॥ २५ ॥ ततः स्वजनराजाद्याः, यावन्नायान्ति मत्कृते । यदपि च यच्च न वा लभेतैको ऽपीत्यादि इत्येतत्पदद्वयं तावदन्यत्र गच्चामो, नोचेद्वाधा जविष्यति ।।१४।। प्रागुक्तमेवोपलकणम् । भाषितमुक्तं, सूत्रे दशबैकालिकाख्ये,एत. गुरुर्बभाषे यद्येवं, ततो मांग निरूपय।। दिदं सूत्रम् , विशेषविषयं विशिष्टपुरुषगोचरं,न पुरुषमात्रविषयतथैव कृतवानेष, वृत्तौ गन्तुं ततस्तकौ ॥ १५ ।। म, ज्ञातव्यमवसेयम् , बुद्धि मद्भिः प्रवननगर्भाधवेदिनिः, यतो श्राचार्यः पृष्ठतो याति, पुरतो याति शिष्यकः । " व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरिति " गाथार्थः ॥ २५॥ पञ्चा० रात्री वृहत्वतोऽपश्यन्, माग प्रस्खलितो गुरुः ॥१६॥ ११ विव० । ५० ब० । ( 'अणुओग' शब्दे प्रथमभागे ३५५ पृष्ठे रे पुष्ट ! शैक!कीहक्को, मार्गः संवीक्षितस्त्वया। तदहों गुरुरुक्तः) इति वाणो दरमेन, शीर्षे तं हतवान् कुधा ॥ १७ ॥ षट्विधे उपक्रमे गुरुचित्तोपक्रमः। अत्र परः प्राहएवं स चएडरोषत्वा-च्चलितः स्वलितः पथि । शिरस्यास्फाटयन् याति, तं शिष्यं क्षमिणां वरम् ॥१७॥ को वक्खाणाऽवसरे, गुरुचित्तोवकमाहिगारोऽयं ?। शिष्यस्तु जावयामास, मन्दभाग्योऽस्म्यहं यतः। भाइ वक्खाएंग, गुरुचित्तोवकमो पढमं ।। ३० ।। महाजागो महात्माऽयं, महाकष्टे नियोजितः ॥ १६ ॥ नन्यावश्यकस्यानुयोगो व्याख्यानमिह प्रक्रान्तं, ततस्तदवसरे Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (0/1) अभिधानराजेन्द्रः । गुरु प्रस्तुते को पमप्रस्तुतेोपक्रमेणाधिकारः । सरमादभयादि नएपने प्रतिविधानम्-दयाख्यानमि ह प्रस्तुतं जवता गीयते, तद्गुरु चित्तायत्तमेव । ततश्च गुरुचिसोपक्रमः प्रथममेव व्याख्यानस्याङ्गं कारणम, कारणमन्तरेण च कार्यस्याज्ञावात् तस्मिन् प्रकृते तत्कारणस्याधिकारा निधानं किम्बदमस्तुतमिति ॥३०॥ न केवलं गुरुचि सोपक्रमः प्रथमं व्याख्यानानं, किन्तु यानि कानिमान् खापयमपुस्तकपाखपाद्वारा सहायादीनि व्याख्यानाङ्गानि तानि सर्वाण्यापि गुरुविताय नियमो वर्तते तस्माद्यागुरुविसु भवति या कार्यमिति दर्शयचाह गुरुचितायत्ताई, वागाईं जेय सब्वाई । तो जेण सुप्पसन्नं, होई तयं तं तहा कजं ||३१|| गतार्थैव, नवरं गुरुचितं च तदा सुप्रसुन्नं भवति यदा शनिताकायनिः शिष्यस्नक्रमानुकूल्येन प्रयतन सोमप्रस्तुत इति भावः ॥ ३१ ॥ गुरुचित्तप्रसादनोपायानेचाह जो जेण पगारे, तुस्स करणविपापचीहिं । आराइणारं मग्गो, सो विवाहम्रो तस्स ॥ ६२२|| आगारिंगिपकुमलं जड़ सेयं वायसे वर पुजा । विनि विकू विरम् प कारणं पुच्छे |३२| निवपुष्पेिण गुरुणा भवित्र गंगा की पह । संपाइयर्व सीसो, जह तह सव्वत्य कायन्वं ||३४|| तिस्रोऽपि सुगमा, नवरं प्रथमाधाय 'करोदिकरणं गु दिसम्या नियोऽनिमुखगमना 55 सनत्रदानपर्युपास्यखलिबानुब्रजनादिलक्षणः, अनुवृत्तिस्त्विङ्गितादिना गुरुचिसं विज्ञाय तदाऽनुकूल्ये प्रवृत्तिः, तानिः । द्वितीयगाथायामाकारेनिकुत्रं शिष्यं प्रति यदि वे पाय पूज्या गुरवो वस्त थापि [] तेषां संवन्धि पत्रोन विकुवेन प्रतिपाद विरहे च तद्विषयं कारणं पृच्छेदिति । नृपपृष्टेन गुरुणा नणितो 'गङ्गा केन मुखेन वति ततो यथा सर्वमपि गुरुभणितं शिष्यः संपादितवांस्तथा सर्वत्र सर्वप्रयोजनेषु कार्यम् । इति तृतीयगाथात्तरार्थः । भावार्थस्तु कथानकादवसेयः । विशे० [तथ 'अहसेस' शब्दे प्रथमनागे १६ पृष्ठे गुरुवैयावृत्यप्रस्तावे उक्तम् ] तदेवं गुरुभावोपक्रमे नया मंत्र व्यवस्थापिते सति परः प्राहगुरुमयगणं, को सोचको प्रोगोऽस्य ? | गुरु चित्तपसायत्यं, ते वि जहाजोगमा प्रोज्जा ॥ ९३५ ॥ मनुकम्यायेन युकं तर्हि गुरुमहगां गुरुभावोपक्रमणं, शेषा णां तु नामस्थापनाप्याकमान कोपयोगः १ येनयुपन्यस्ताः प्रोत्तरमाह जनु गुरुवप्रसाद पि शेषपक्रम यथायोगं यथाप्रस्तावमायोज्याः सप्रयोजनस्येनाभ्यूद्या इति ||३५|| तदेवं व्याद्युपक्रमाणां गुरुवित्तप्रसादनोपयोगमा परिकम्मनाला श्री देसे काजे व जा जहा जग्गा । खाऽऽहाराइकश्मे ||३६|| ताओ दबाई हिजो गद्दन्बो, देसे काले परे विद्ययेणं । चिचण् अकूलो, सीसो सम्मं सुषं लहर ||६३७|| का देगे मरुमलादीक िमायेन केनचिट प्रकारेण योग्या उचिताः पाकर्मनाशनाः परिकम्मविनाशा भवन्ति ता व्यक्षेत्रका लानां गुरोराहारादिकार्येषु शिष्येण तचित्तप्रसादनार्थं कर्त्तव्याः । तत्र व्यस्य दधिक्षीरनीरादेर्गुsayriरस्तादिक्केपेण परिकर्म भावनीयम्, क्षेत्रस्योपाश्रयादेरुपलेपनादिना कालस्य मुदे शिक्षीका घटिकादितिपादन ज्यान्तरसंयोगादिना भावनीय इति । तत इत्थं गुरुचितं प्रसादयन् शिष्यः मिति -[उपपत्यादि] उपहितानि गुरोराहाय दोकितानि कृतपरिकर्माणि योग्यासनपाचख पाश्रीषादनियाणि येन स उपतियांग्यः शि । शेषं सुगमम् ॥ ६३६ ॥ ६३७ ॥ गुरु समाधानान्तरमाह ralaकमसाम-पत्रो मया पगयनिरुवओोगा वि । अछात्य सोवोगा एवं चिय सम्बनिक्वेयो ||२०|| यदि वा मते प्रस्तुते निरुपयोगाः प्रकृतनिरूपयोगाः पर्व भूता अपि सन्तो नाम स्थापनाव्याद्युपक्रमाः उपक्रम सामान्यतोत्रमता उपन्यस्ताः । कुतः ?, इत्याह- अन्यत्र स्थानान्तरे सोपयोगा इतिकृत्वा, न केवलमत्रैवासौ न्यायः, किन्त्वन्यत्र शास्त्रे, अन्येषु या शास्त्रेषु ये केचन बहुप्रकारा नामादिनिपातेषां सर्वेषामप्यपरसमाधानाभावे इदमेव समाधानं वाक्यमिति । तदेवं नामादिभेदेदेशितमुपक्रमस्य पतिधाम ॥१२०॥ यदि वा अन्यथैवायमुपक्रमः पचि इति दिव विषुः प्रस्तावनामाहगुरुभावोचकमयं कयमऊपणस्स उनिया [ ए३९] तदेवं नामादिजेदैः षमिधे उपक्रमे विचार्यमाणे कृतं गुरुभावोपक्रमणम्, तत्करणे च दर्शितमेकेन प्रकारेणोपक्रमस्य पनिधस्वमविशे याति चचार्थतस्यमिति गुरुः प्रवचनार्थतिपादकतया पूज्ये मं० स्था० तीर्थकरमणधरादी, विशे० । सूत्र० । वाचनाऽऽचायें, श्राण विद्यादायिनि व्य० १४० प०। ०म० पितामहे आय०० मातापितृप्रती पूज्बे " माता पिता कलाचार्य्यः पतेषां शातयस्तथा । वृद्धा धर्मोपदेष्टारो, गुरुवर्गः सतां मतः १॥ घ० २ अधि० | स्था० | अनु० कल्याणमिषे पं० सू० ४ ० "गुरवो यत्र पुज्यन्ते यत्र धान्यं सुसंस्कृतम् ॥ अदन्तकलडो यत्र तत्र शक्र ! वसाम्यह म् ॥ १ ॥ सूत्र० १ ० ३ ० २३० । बृहति व्य० १३० । महति, पञ्चा०] १० वि० दुनिया प्रक्षिम दो निपतति तस्मिन् गुरुम् यथावादिविशे० । ॥ ० म० । अयोगमन्ती अयोगोलकादिस्पर्श स्था० १ ० १ ० | कर्म्म० । ( किं सव्यं गुरु, किं वा लघु, इति ' अगुरुलहुय' शब्दे प्र० भागे १५७ पृष्ठे चक्तम् ) बृहस्पती देवाचार्ये, प्रभाकरा मीमांसकने कवि यः या पदान्ते 66 सानुस्वारो वसन्तो दीर्घायुरूप त्वसौ, " वक्ते दीर्घत्रर्णादौ वाच२। Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) गुरुमाएस अन्निधानराजेन्सः। गुरुकुलवास गुरुपाएस-गुवादेश-पुं० । गुरोः सविकापने, ध०३ अधिः। गुरुकम्म-गुरुकर्मन्-त्रि० । पापोपहतचिसवृत्ती, दर्श। गुरुअणुणा-गुवेनुज्ञा-स्त्री० । पित्रादिकुमपुरुषानुशायाम, पो. गुरुकुल-गुरुकुल-न । गुरोः सान्निध्ये, "न हि नवति निर्षि५विव गोपक-मनुपासितगुरुकुलस्य विज्ञानम्।दर्शितपश्चाद्भावं,पश्यन गुरुप्रमुट्ठाण-गुर्वन्युत्थान-न० । गुरोरज्युत्थानास्याऽऽचा नृत्यं मयूराणाम" ॥२॥ ध० २ अधिः। य॑स्य, प्राघूर्ण कस्य वा प्रागमनं प्रतीत्याऽऽसनत्यजने, ध० १अधि०। गुरुकुलवास-गुरुकलबास-पुं० । धम्माचार्यान्ते नियसने, पगुरुमाणा-गुर्वाडा-स्त्री रत्नाधिकाऽऽदेशे, पञ्चा० १२ विव०। श्वा० ११ विव० । गुरुगृहनिवासे, पश्चा० ११ विव० । प्राचा० । रक्षाधिकाऽऽझायाम, पञ्चा०५विव०। गुरुकुमबासे गुणाः, विपरीते च दोषाःगुरुआणापारिमुक-गुर्वाझापरिशुक्ल-त्रि । गुर्वाझ्या परिशुद्धो असो पमिबंधेणं, गुरुकुमवासं ण चेव भावसती। निर्दोषस्तत्सम्पादनाय गुर्वाशापरिशुरुः । गुर्वाझ्या निदोघे, तेणं ण हिजती ऊ, के पुण पमिबंधिमे मुए सु।। पश्चा०२० विव। सो गामो सावश्नो, तं नई जद्दोजणो जत्थ । गुरुग्राणानंग-गुर्वाशाभङ्ग-पुं० । धर्माचार्याऽऽदेशविराध- एताई सनरंता, गुरुकुलवासं न रोगति ।। नायाम, पञ्चा० ५ विव०। सक्कारो सम्माणो, पूय मोहो इप्रो तहिं गामे । गुरुप्राणाराहण-गुवाहाराधन-न० । भावसाधोः सप्तमे लिङ्गे, आयरिओ महतरओ, एरिमा जे तहिं सदा ॥ ध०र०। सम्प्रति गुर्वाज्ञाराधनरूपं सप्तमलिङ्गमाद सच्चंदुट्ठाणणिव-ज्जास्स सच्चंदगहितजिक्खस्स । गुरुपयसेवानिरओ, गुरुग्राणाराहणम्मि तद्वित्थो। सच्छंदजंपियस्स य, मा मा सत्तू वि एगागी॥ चरणजरधरणसत्तो, होड जई ननहा नियमा ।। १२६ ॥ एतेहि ज अजागी,सीताइए न देति तुरंतु | अत्र कश्चिदाह-पूर्वाचार्यश्चारित्रिणो लिङ्गपरमेवोक्तम् । तो ता हिज्जति सो ऊ, गुरुकुलवामं असेवंतो।। यदवाचि-" मग्गाणुसारि १ सखो २, पनवणिजो ३कियावरो एतेहि न पमिवज्जे, अणुसटिं तारिसं परिसमत्तं । चेव४॥गणरागी ५ सकारं-भसंगओ ६ तह य चारित्ती ॥१॥" का पुण सामायारी, जिणकप्पे होति-मा सातु ॥ तत्कुत्रदं सप्तमं गुर्वाज्ञाराधनरूपं भावसाधोसिंहं मणितम् ।। खेत्ते काले चरित्ते, तित्थे परियागे आगमे वेदे । उच्यते-चतुर्दशशतप्रकरणप्रासादसूत्रधारकल्पप्रनुश्रीहरिभकसूरिनिरुपदेशपदशास्त्रे भणितमेवेदमपि लिङ्गम् । तथा चैतत् | कप्पे लिंगे लेस्सा, गणणा जाणे यऽजिग्गाहे ।। सूत्रम्-"एयं च अस्थि लक्खण-भिमस्स नीसेसमेष धनस्स ।। पव्वावण मुंमावण, मणसा वह वि से अणुग्धाता । तह गुरुवाणासंपा-मणं च गमगं इह लिंगं" ॥१॥ ध०र०।। कारणनिप्पमिकम्मे, जत्तं पप्पो जतति ताए । गुर्वाज्ञाकारिणो विशेषतः प्रशंसामाह एसो जिणकप्पो खल, समासतो वएिण ओ सविनवणं ।। ता धन्नो गुरुआणं, न मुयइ नाणाश्गुणमणिनिहाणं । पं० भा०। सुपसन्नमाणो सययं,कयन्नुयं मणसि नावंतो ॥ १३ ॥ अथ गुरुकुलवासमोचने दोषोपदर्शनेन तदाशाया पव यस्माद् गुर्वाज्ञा गरीयसे गुणाय तस्माद्धेतोर्धन्यो गुर्वाझा न प्रकृष्त्वसमर्थनायाऽऽहमुञ्चति,सुतिशयेन प्रसन्नमना निर्मलमानसो निष्ठुरमपि शि. एयम्मि परिच्चत्ते, आणा खस जगवतो परिश्चत्ता । तितो न कुप्यति कमुषयति न चान्तकरणं,न वहति प्रद्वेषं स्मरन् कुन्तलदेवीबातम्। केवलम्-"जं मे बुझाऽणुमासंति,सीएण फरसे. तीए य परिचागे, दोएह वि लोगाण चाउ ति॥१४॥ ण वा। मम लातुति पहाए,पयो तं पमिस्सुणे"॥१॥कयम्?,स. एतस्मिन् गुरुकुले, परित्यक्ते विमुक्ते, पाझोपदेशः,खलुरवधाततमनवरतं कृतकतामुपकाराबिस्मृतिरूपां मनसि हृदये भावयन् रणार्थः । प्रयोगश्चास्य दर्शयिष्यते । नगवतो जिनस्य.परित्यक्तैव व्यवस्थापयन् । तद्यथा-"टोमु ब्व दबदलेतो,प्रहयं विनाणनाण- विमुक्तैब,तदत्यागरूपत्वात्तस्याः। ततः किमित्याह-तस्याश्च भगव. बिलपण । देउ न बंदणिजोकन म्हि गुरुसुत्सहारेण ॥१॥" इत्थं दाहायाः पुनः परित्यागे विमोचने सति,द्वयोरप्युनयोरप्यास्ताचूत एव धन्यो भवति, धर्मधनाईत्वादिति । ध०र०। मेकस्य, लोकयोवयोरित्यर्थः। त्यागो भ्रंशो नवति, विशिष्टनिगुरुग्राणाहियोग-गुर्वाज्ञाभियोग-पुं० । परिहारप्रधाने श्रा- | यामकाजावेनोजयलोकविरुष्प्रवृत्तेः। इतिशब्दो वाक्यार्थसमा ताविति गाथार्थः॥१४॥ तोपदेशे, पश्चा० १२ विव०। यस्मादेवगुरुपायर-गर्वादर-पुं० । गुरुबुद्धौ, "भावेह कुणह गुरुआयरंच ता न चरणपरिणामे, एयं असमंजसं इहं होति । गुणपत्तेसु” कुरुत विदधीत गुर्वादरं गुरुबुकिं गुणवत्पात्रेषु कलिकालोचितयतनावत्स्विति ॥ दर्श०। प्रासासिफियाणं, जीवाण तहा य भणियमिणं ।।१।। गुरुई-गुीं-स्त्री० । लघुशरीरायाम, का० १ श्रु.१०।। तत्तस्मातोन नैव,वरणपरिणामे चारित्राध्यावसाये सति, पत द्गुरुकुममोचनादिकम,असमञ्जसमसाधुकर्म.इह साधुधर्माधि. गुरुनग्गहोअट्ठाण-गुर्ववग्रहावस्थान-न । प्रत्युपेक्षितोपधे कारे, भवति जायते। किं सर्वेषां न भवतीत्याशङ्कयाह-भासनसि. निक्षेपे. पं0 व०२ द्वार। दिकानामदूरवर्तिनिर्वृतीनां, जीवानां जन्तुनाम,उतार्थसंवाचा२३५ Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुकुलवास अनिधानराजेन्डः। गुरुकुलवास उगमवचनप्रस्तावनाऽर्थमाह-तथा चेत्युपप्रदर्शनार्थो, भणित- कान्तिः क्रोधनिग्रहो, यतिधर्मो जवतीतियोगः। चशब्द उत्तरमुक्तमागमे, इदं वदयमाणगाथासूत्रमिति गाथार्थः ॥ १५ ॥ पदापेक्षया समुच्चयार्थः । माईवं मृदुना, मानविवेक इत्यर्थः । यदुक्तं तदेवाह प्रार्जवमृजुता, मायाधिवेक इत्यर्थः । मुक्तिलोलविवेकः, णाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसण चरित्ते य । तपोऽनशनादिक, संयमः पृथिव्यादिसंरकणलक्षण, पताधन्ना आवकहाए, गुरुकुलवास रण मुंचंति ॥ १६॥ | नि च मार्दवादिपदानि झुप्तप्रथमैकवचनानि, समाहारकानस्य श्रुतज्ञानादेःजवति स्याद्,जागी जाजनं.गुरुकुधे वसन्नि द्वन्द्वसमासयन्ति वा अष्टव्यानि । बोधव्यो झेयः। तथा-सत्यं प्र. ति प्रकृतं, प्रत्यहं वाचनादिनावात् । तथा स्थिरतरकः पूर्वप्र तीतं, शौचं नावतो निरुपलेपता, अचौथमित्यन्ये । पाकिञ्चन्यं तिपनदर्शनोऽपि सन्नतिशयस्थिरो भवति, दर्शने सम्यक्त्वे, श्र च कनकादिरहितता, ब्रह्म च ब्रह्मचर्य, चशब्दाः समुच्चयार्याः। वहं स्वसमयपरसमयतत्वश्रवणात् । तथा-चरित्रे चरणे स्थिरतरो यतिधर्मः साधुधर्मो बोद्धव्य इति गाथाऽर्थः ॥१णा भवति, अनुवेनं वारणादिनाचात् । चशब्दः समुच्चये । यत एवं | गुरुकुले वसतां कान्त्यादि सिर्भिवति, तद्विपर्यये पुनर्यद्भततो धाया धर्मधनं लब्धारः, यावत्कथं यावज्जी, गुरुकुल. वति तदर्शयन्नाहवासं गुरुगृहनिवसनं, न मुञ्चन्ति न त्यजन्तीति गाथाऽर्थः । त- गुरुकुलबासचाए, ऐसाएं इंदि सुपरिमुद्धि त्ति । देवं चरणपरिणामे सति गुरुकुलमोचनरूपमसमजसं न भव- सम्मं णिरूवियब्वं, एयं सति णि उणबुडीए ॥२०॥ तीति स्थापितम् ॥१६॥ गुरुकुलवासत्यागे गुरुगृहनिवासत्यजने साति, न नैव, एतेषां अथ गुरुकुले तिष्ठतो यद्भवति तदाह क्वान्त्यादीनां श्रमणधर्मतया मताना, इन्दीत्युपप्रदर्शने.सुपरिशुतत्थ पुण संविताणं,आणाआराहणा ससत्तीए । किसुष्ठविशुक्रिनवति,इतिः प्राग्वत् ।सम्यगविपर्यस्ततया बुध्या, अविगलमेयं जायति, बजकानावे वि जावेणं ॥ १७ ॥ न पुनर्गुरुकुले वसतामितरेतरस्नेहरोपविषादादीनां नाबादेवतत्र गुरुकुले, पुनःशब्दो विशेषणार्थः। तद्भावना चैवम-चरणे णायाश्च प्रायो वाधासंभवादपरिशुफिरेव क्षमादीनामित्येवं सति गुरुकुमत्यागो न भवति,गुरुकुले पुनः संस्थितानां तिष्ठताम् । विपर्यस्ततयाः विपर्यस्तत्वं चाऽस्या पकाकित्वे बहुतरदोषोक्तः। पागन्तरेण-बसताम,आशाराधनादाप्तोपदेशपासनात,स्व शक्त्या यदाद-' एगस्स को धम्मो' न्यादि । निरूपयितव्यमालोचनिजसामध्येन, यथाशक्तीत्यर्थः। अधिकलं परिपूर्णम,पतचरणं, नीयम् । एतत् कमादीनामपरिशुद्धत्वं, सकृत्सदा, निपुणबुद्ध्या जायते संपद्यते, प्रागुक्तन्यायेन ज्ञानादिवृद्धिसद्भावात् । ननु | सूक्ष्मधिया इति गाथार्थः ॥ २० ।। गुरुकुले बसतोऽपि कदाचित् तदविकलं न रश्यत इत्याशङ्कयाह न केवनं गुरुकुलबासत्यागिनः कमादीनामपरिशुकि, तदभाबाह्याभावेऽपि प्रत्युपेकणादिबाह्यसदनुष्ठाना सद्भावेऽपि ग्या- वोऽपि स्यादिति दर्शयन्नाइमाद्यवस्थासु, अपिशब्दः परमताज्यनुज्ञानार्थः । कथमित्या-1 खंतादभावउ च्चिय, णियमेणं तस्स होति चाउ ति । ह-भाबेन परिणामेन, सद्गुरूपदेशश्रवणसंजनितसंवेगेनेत्यर्थः। बंभ ण गुत्तिविगमा, सेसाणि मि एव जोज्जा ॥१॥ इति गाथार्थः ॥१७॥ क्वान्न्याद्यभावत एव कमामभृतिसाधुधर्मविशेषाभावादेव, गुरुकुलवासमेव पुरस्कुर्वन्नाह कषायोदयादेवेति भावः । नियमेन सबथैव, यस्तु क्वमादिग-- कुलवहुणायादीया, एत्तो चिय एत्य दंसिया बहुगा। एयुक्तस्यापि पुष्टासम्बनेन गुरुकुलत्यागो भवत्यसौ कथञ्चिपत्थेव सेविषाणं, खंतादीणं पिसिधित्ति ॥२८॥ दत्याग एवेत्येतदर्थख्यापनार्थ नियमग्रहणम् । तस्य गुरुकुलस्य, फुलवधूझातादयः कुलीनाङ्गनोदाहरणप्रभृतयः, शिष्यं प्रत्यु- जबति जायते, त्यागस्त्यजनं, स्मारणाद्यसदनात्। श्राह चपदेश। इति गम्यते । (पत्तो चिय त्ति) यतो गुरुकुले वसतां नि "जह सागरम्मि मीणा, संखोनं सागरम्स असहंता । णनारगमनयानोपमानमविक चरणमुपजायते,इत एवास्मा निति तओ सुहकामी, निग्गयमेत्ता विणस्संति ॥१॥ देव कारणात, अत्र गुरुकुलामोचने विषये.दर्शिता नुक्ता प्रागमे, एवं गच्छसमुद्दे, सारणवीईहि, चोइया संता। बका यहयः । तत्र कुलवधृज्ञानमेवम-"ता कुलवधुनाए, कजे निति तो सुहकामी, मीणा व जहा विणस्संति ॥ २॥" निम्भस्थिएहि बि कहि चि ॥ एयस्स पायमलं, श्रामरणतं न इतिशब्दो वाक्यार्थसमाप्तौ । अनेन च गुरुकुलत्यागारप्रामोत्तम्बं"॥१॥दिशब्दात्कन्याझानादिग्रहः तथाहि-"जे माणि- क्याञ्चित् क्षमादीनामभाव उक्तः । अथान्येषां नदनन्तरं तयासययं माणयंति,जत्तेण कनवनिवेमयति ॥ ते माणए माणरि- माह-ब्रह्म ब्रह्मचये न भवति, तत्यागे गुप्तिविगमात् ब्रह्मगु. हे तबस्सी,जिदिए मवरएस पुजा"।५ 91 ननु साधुधर्मे प्रक्रान्त प्य नावान, यतिजनसहायता हि ब्रह्मचर्यगुप्तिर्वर्तते । यदाहकमादीनामेवोत्कर्षण युक, नपत्यात्तस्य, कि.गुरुकुल वासोत्क- "काउ मणो वि अकलं, न तरह काऊण बहु मज्के।" शेषषु पंगेनाऽऽध्यमात्रयातस्येन्याशक्याइ-अत्रैव गुरुकुले, नान्यत्र, का वार्तेत्याह-शेषाएयपि ब्रह्मव्यतिरिक्तान्याप, तपःसंसमादीसंस्थितानां सम्यग्विनीतनया स्थिताना, सतां यतीनां क्वान्या- नि. पवमनेनैव न्यायेन गुप्तिविगमलक्षणेन न संभवन्तीत्येवम, दीनामपि क्रमाप्रभृतीनामापि,माधुधर्मतया सम्मतानां गुणानां, योजयेत् संबन्धयेत, असहायतायाः सामान्येन समस्तन केवलमहलाकिकानामधीनामिन्यपिशध्दार्थः । सिद्धिनिष्प- व्रतभङ्गहेतुत्वादिति गाथार्थः ॥ २ ॥ त्ति, प्रकर्षवृत्तिा भवनि, इनिदानः प्रायदिति गाथार्थः ॥१७॥ गुरुकुले वसतां गुणान्तरोपदर्शनायाऽऽहतान्यादीनामेघोपदर्शनायाऽह गुरुबेयावच्चेणं, सदगुट्ठाणसहकारिजावाओ । खंती य पदव जब, मुत्ती नव मंजमे य वोधये । विउलं फलमिनस्सव, विसोबगेणावि ववहारे ॥३॥ सच सोयं पाकि-चणं च नंच जनिधम्मो ।। १५॥ । गुरुवयावृत्येन आचार्य विषयेण भक्तादिदामग्लानताप्रतिच Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९) गुरुकुलवास निधानराजन्डः। गुरुकुलवास रणादिनकखन हेतुना, सदनुष्ठाने गुरुगते जिनप्रवचनार्थप्रका सग्गाहा किरियरया, पर यणखिसावहा खुद्दा ।। ३७ ।। शनगच्छपालनादौ, सहकारिभावो यः सहायकरणं, स तथा, पायं अहमगंठी-तमार तह दुक्करं पि कुव्वता । तस्मात्सदनुष्ठानसहकारिभावतः किम् ?, इत्याह-विपुलं महत्, फलं कर्मक्कयतकणं, गुरुकुलबासिनो भवति । कस्मिन्निवेत्या. बज्का व ण ते साह, धंखाहरणेण विया ॥ ३ ॥ ह-इभ्यस्येव सुवर्णलक्षादिमानमहाधनपतोरव, सरकेन, विंशो ये तु ये पुनः,तथा तस्मादुक्तप्रकारात,विपर्यस्ता विपरीताः कुपुरुपकेनाऽपि तदीयाव्यविंशतितमभागेनाऽपि, श्रास्तां सर्वेण । पाःअकृतज्ञाः अकल्याण नाजनत्वेन गुरुजनमवमन्यन्त इत्यर्थ: व्यवहारे वाणिज्ये क्रियमाण सति । तथाहि-लक्षपतिसंब तेन साधव इति योगः। कथं विपर्यस्ता इत्याह-सम्यक यथावन्धिना लकविंशतिभागेनाऽपि,प्रास्तां सर्वेण सहस्रपञ्चकलकणे. त् ,गुरुलाघवं सारासारनाविभागं, गुरुकुलबासैकाकिविहारयोन व्यवहारतो वणिकपुत्रस्य महान् बाभो भवति, एवं गुरोर्वै रिति गम्यम । अजानन्तोऽनवबुध्यमानाः। अयमभिप्रायः-यद्ययावृत्यमात्रमपि कुर्वन् महत्फलमासादयति, गुरुविषयवैया पि ते गुरुकुलमने कसाधुसंकीर्णतया संभवदनेषणापरम्परस्नेहवृत्यमात्रस्यापि महत्वादिति । अन्ये त्वादुः-इत्यस्य गृडागतस्य रोषादिदोषतया बहुदोघम, एकाकिन्धं चैतहोपाभावादल्पदोष विशोपकेनापि व्यवहारे सत्कारे घणिकपुत्रो महत्फतमासा कल्पयन्ति, तयाऽप्येतन तेषां सम्यानम, प्रागमवाधिनत्यादयति । इति गाथाऽर्थः ॥ २२ ॥ दस्य, आगमवाधा च प्रागुपदर्शितेति । तथा स्वग्राहात् स्वकीगुरुकुत्रवासाऽभावे च यत्स्यासदाह याभिनिवेशात,आगमापारतव्यादित्यर्थः क्रियारता मिक्ताशुद्ध्यइहरा सदंतराया, दोसोऽविहिणा य विविहजोगेसं।। प्रतिकर्मताग्रान्तोपधितातापनामासकपणाद्यनुष्ठाननिरताः,तथा प्रवचनखिसावहाः शासनाऽपभ्राजनाहतवः, अनागमिकत्वेनैहंदि पयस॒तस्सा, तदादिक्खावसाणेसुं ।।२३ ॥ काकित्वेन च प्रवचनगुप्तिरकायामसमर्थत्यात् । तथा-कुबास्तुइतरथा गुरुकुल वासत्यागे, सदा सर्वदा, अन्तरायात् वैयाव. च्गः, श्रात्मनि बहुमानात, गुरुषु चावज्ञापरत्वात् । कृपणां था, स्यतपोझानचरणविशुद्धयादीनां गुरुसंसर्गसाध्यगुणानां व्याघा तथाविधजनावर्जनपरत्वात् । करा वा,शेषसांधषु पूजाविच्छेदातादिप्राप्ते, सतां वा शोभनानां वा गुणानामन्तरायः सदन्त- भिप्रायत्वादिति ॥ ३७॥ तथा-प्रायो बाहुल्येन, अभिन्नग्रन्थय: रायस्तस्मात, दोषो दूषणं भवति । तस्य गुरुकुलवासिनः सकृपयनवाप्तसम्यग्दर्शना। अयमभिप्रायः मिथ्या दृष्योऽपिभितथा प्रविधिना यो यत्र प्रवज्यादाने विधिस्तदभविन, गुरो म्नग्रन्थयः,तेनैवंविधाऽसमीक्तितकारिणो नवन्तीति । कथं तहिं रनुपासनतः सर्वसंविग्नसामाचारीप्रावी गयाभावादन्याय्येनेत्य ते दुष्करतराणि तपसिल सेवन्त इत्याशङ्कया ह-तमसोऽज्ञानार्थः । चशब्दः समुच्चयार्थः, विविधयोगेषु बहुविधव्यापारेष, त, तथा तत्प्रकारं मासक्षपणादि, दुष्करमपि प्रकृष्टमपि, श्रा"हंदि'श्त्युपप्रदर्शने, प्रवर्तमानस्य व्याप्रियमाणस्य, गुरुकुलत्या स्तामदुष्करम, कुर्वन्तो विदधानाः, बाह्या इव कृतीर्थिका श्य, गिनः। किंभूतेषु योगब्धिति,श्राह-तस्मात् गुरुकुसत्यागिनोऽन्ये न नैव. ते गुर्वाज्ञाकारिणः, साधवः संयताः, विझेया झात. उपरे तदन्ये, तेषां या दीक्षा प्रवाजनं, साऽवसाने येषां सूत्रार्थ व्याः, जिनाक्षोत्तीर्णत्वात् । इहैवार्थे दृष्टान्तमाह-वाकोदाहरग्रहणप्रत्युपेकणादिसामाचार्यनुपालनादीनां ते तथा, तेषु णेन काकज्ञातेन । प्रयोगश्चास्यैवम्-ये निर्गुण वस्तु समाश्रिताः, तदन्यदीक्षाऽवसानेषु । शानक्रियागुणेषु हि पूर्व स्वयं निष्पद्य न ते स्वार्थनाजो दृष्टाः, यथा मृगतृष्णासरःश्रयिणः काका, ते, ततः पश्चादीकादाने प्रवर्तते इति कृत्वोक्तम्-तदन्यही का. आश्रिताश्च निर्गुणं गच्छबहि गं गच्चन्यागिन इति । ऽवसानेचिति । दोषश्चादिकपारलौकिकानावाप्तिः, इत्यतः। स्थितमेततू-"एसा य पराप्राणा,पयमा जं गुरुकुलंन मोनम्बं" काकज्ञातं चैवम्इति गाथार्थः ॥ १३॥ पश्चा० ११ विव० । "सुम्वादु शीतनं स्वच्छं, पद्मरेणुसुगन्धि च । अथ ययुक्तं गुरुकुलं न मोक्तव्यमित्यत्र विषय धारयन्ती जनं वापी. काचिदासीद् मनोहरा ॥१॥ विनागं दर्शयन्नाह तस्यास्तटेऽभवन् काका-स्तेषु चापे पिपासिताः । गुरुकुलामोचकानेव पुरस्कुर्वन्नाह अन्विन्तोऽपि पानीयं, नाश्रयन्ति स्म ते च ताम ॥२॥ ततो दृष्ट्वा पुरोवर्ति-मृगतृष्णासंरासि ते। जे इह होति सुपुरिमा, कयएणुया ण खल ते ऽवमन्नति। । तानि प्रतिप्रयान्ति स्म, वापी हित्वा जलाऽर्थिमः ॥ ३॥ कल्लाणभायणत्ते-ण गुरुजणं उत्नयोगहियं ॥ ३६॥ कश्चित्तु तानुवाचैव-मेषा भो मृगतृष्णिका । ये केचन, इह मनुजलोके, जवन्ति स्युः, सुपुरुषा उत्तमनराः, यदि वोऽस्ति जलार्थित्वं, तदाऽऽश्रयत वापिकाम ॥ ४ ॥ पुरुषग्रहणं च नारीणामुपलकणम । कृतज्ञकाः गुरुविहितोपका- ततः केचित्तदाकपर्य, वापीमेव समाश्रिताः। रशाः, नखबु नैव, ते उक्तस्वरूपाः, अवमन्यन्ते अवयन्ति । केन भूयांलस्त्ववधीयत-मृगतृष्णां ययुः प्रति ॥ ५॥ हेतुनेत्याह-कल्याणजाजनत्वेन ऐहिकाद्यभ्युदयपात्रत्वन। किवि- ततो जलमनासाद्य, ते विनाशमुपागताः। धमित्याह-गुरुजनं धर्माचार्यम्, उभयनोकाहेतं लोकद्वयेऽघुप. वापी समाश्रिता ये तु, बभूवुस्ते कृतार्थकाः ॥ ६॥ कारकमिति । उक्तं च-"नि ग्योऽपि जमेोऽध्यानाकृतिरपि वापीतुल्योऽत्र विज्ञेयो, गुरुगच्छो गुणाअयः । प्राझोपहास्योऽपि हि, मूफोऽप्यप्रतिभोऽप्यसमपि जनानादेयवा- धर्माधिनस्तु काकाभा- श्चारित्रं जलसन्निभम् ॥ ७॥ क्योऽपि हि ॥ पादास्पृश्यतमोऽपि सजनजनैनम्यः शिरोनिर्भ- मृगतृष्णासरस्तुल्या. गुरुगच्छादू बहिः स्थितिः। वेत्, यत्पादद्वितयप्रसादनविधेस्तेज्यो गुरुभ्यो नमः " ॥१॥ तच्छिक्कादायको झयो, गीतार्थस्तकृपापरः ॥ ८ ॥ इति गाथार्थः ॥ ३६॥ चारित्रापात्रता प्राप्ताः, काकवत के ऽपि कुग्रहात् । अथ गुरुकुलमोचकान्निन्दयत्राह गुरुगच्छबहिर्वासं, संश्रिता ये तपस्विनः ॥६॥ जे उनह विवजत्था, सम्म गुरुलाघवं अयाएंती । अल्पास्तु केऽपि सद्वोधा-चारित्रे पात्रतां गताः। Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुकुलवास 35 काका श्वैव ये धन्याः गुरुगच्यमुपाश्रिताः ॥ १० ॥ इति गाथार्थः ॥ ३८ ॥ अथ गुरुकुलाागिन एच करविहारकारिशवेन ये बहु मन्यन्ते सानू शिकवितुमाह तेसि बहुमत उपगमोषणा अफिला । तम्हा तित्थगराणा-त्रिषसु जुत्तोऽत्थ बहुमाणो | ३६॥ तेषां गुरुकुलानि हुने पक्षपान करण सम्मार्गनुमोदना अनामिकाचा किफ है, इति आह-अनिष्टफना श्रनभिमतफला, दुर्गतिप्रयोजनेत्यर्थः । आढ "जो उपदेश मोहदोषेण । सो खाना श्रणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे " ॥ १ ॥ (तम् ति ) यस्मादेवं तस्मातीर्थकास्थितेषु गुरुकुलवासादिजिना देशातेषु साधुषु युक्तः सङ्गतः अत्र विचारे, बहुमानः पक्षपातो, नेतरेषु इति गाथार्थः ॥ ३६ ॥ पञ्चा० ११ विव० । गुरुकुलासेचनमतुजेहिं पिन एसो, संसारा मत्रिमहाकडिलम्पि सिकिरत्थवाहो, जसे वर्ण पि मोतयो || ५६४|| प गुरुः संसाराटवी महाकडिले गहने सिडिपुरखार्थवाहः, तत्रानपायेन नयनात्, यत्नेन कणमपि मोक्तव्यो मेति गाथाऽर्थः ॥ ५४ ॥ णय पमिकूले, वयणं एअस्स नारासिस्स । एवं निवासचा सफलो होइ तुम्हार्थ ।। ५५ ।। नत्र प्रतिकूलयितथ्यमशक्त्या वचनमेतस्य ज्ञानराशेः गुरोरेवं गृहवासत्यागः प्रव्रज्यया यत् सफलो नवति युष्माकमाशाराधनेनेति गाधार्थः ॥ ५५ ॥ हरा परमगुरू आणानंगो निसेवियो हो । ये न कुर्य ये न कार ये नाऽनुम ति ६०२० यन्ति न्यन्ते ६००० ६००० मनसा २००० " निर्जिताडा निर्जितनय निर्जितमैथु निर्जित परि रसज्ञ) झी नसंको ग्रह संज्ञ ५०० ५०० ५०० ५०० १०० वसा कायेन २००० २००० ( ९४०) निधानराजेन्धः | ओन्द्रियाद्रिय रसनेन्द्रिय प १०० १०० १०० १०० गुरुकुलवास विद्या होति तम्मी, निमा इहलोअपरसोभा ॥ ५६ ॥ इतरथा तद्वचनप्रतिकूलनेन परमगुरूणां तीर्थकृतामाज्ञाभको निषेधितो भवति निष्फली च भवतस्तसि नियमादिलोकपरलोकाविति गाथाये ॥ ५६ ॥ ताकुलचाणं, जो निम्नत्थि िव कर्हिषि । अस्स पायमूलं, आमरणं न मोचनं ॥ ५७॥ सत्यः सेोदाहरसेन कार्ये निर्भहितैरपि सा तस्य गुरोः पादमूलं समीपमामरणान्तं न मोक कानमिति गाथार्थः ॥ ५७ ॥ गुणमाह ज्ञानस्य यास्स होइ नागी, धिरवरओ दंसणे परिते । आपका गुरुकुलासं ण मुंचति ॥ ५८ ॥ रामरूप नयति नागी गुरुकुले वसन् स्थिरतरो दर्शनेरि नदर्शनादीनाम तो चन्यात्सर्वका गुरुकुलवासं न मुञ्चन्तीति गाथार्थः ॥ ५८ ॥ पं० २०४ द्वार "लज्जा दया संजम बंभचेर-कल्लाणभागिस्स विलोहिताणं । जे मे गुरु सय अनुसात से गुरु सययं पूपामि ॥१॥ इत्यादिताने सुदेश संपादने मे देशं लब्धुमिच्ादेश प्रमाणः समीपस्थात् इत्थंभूतधरणरथरणे चारित्ररोरुहने समय भ सुविहितो नान्यथा प्रणितविपरीतो, नियमान्निश्चयेनेति । कथं पुनरेष निश्चयोऽवसीयत इति १, श्रह । " सम्यगुणमूल, नोि आपारपदमसुते गुरुकुलवासोऽवस्सं वसिज्ज तो तत्थ चरणत्थी ॥ १२७॥ सर्वे गुण दारूपाः दानयनोपायप्रेम"जोए १ करणे २ सन्ना, ३इंदिय 8 जोमाइ ५ समणधम्मे य६ । सीलिंगसहस्साणं, अट्ठारसगस्स निप्फसी " ॥ १ ॥ 1 स्थापना शीलारथस्येयम् पृथिवीका अष्काया- तेजस्काया- वायुकाया वनस्पति- इन्डिया न्द्रियार चतुगिन्द्र पञ्चेन्द्रिय- अजीविका याग्न रम्भ रम्भ १० १० रम्भ १० कायारम्भ उभ १० १० स्न १० याग्न १० कायारम्न यारम्भ १० १० १० तान्नियुतान् समादेवान् माजेवान् मुक्तियुतान् तपोयुतान् संयमयुतान् मभ्ययुतान् शौचयुतान् अक्रिञ्चनान् ब्रह्मयुनानू सुनो बन्दे मुनीन बन्दे मुनीन् बन्द मुनीन् वन्दे मुनी बन्दे मुनी बन्दे मुनीन् बन्दे मुनीन् बन्दे मुनीन् वन्दे मुनीन् वन्दे १ ३ ४. ५ 9 ८ ६ १० Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) अभिधानराजेन्कः गुरुकुलवास तेषां मूलभूतः प्रथमकारणं, भणित उक्तः, श्राचारः प्रथममङ्गं तस्य प्रथमसूत्रे " सुयं मे श्रउसंतेणं भगवया एवमक्वायं " इति वचनरचनाप्रकारे यथाहुरुवास गुरुपादपच्छायासेवनम् । श्रयमत्र भावार्थ:- श्रीसुधर्मस्वामी ज म्बूस्वामिनं कथयांत स्म श्रुतं मया वसता भगवतः समीपे निष्ठता दमामर्थमिति का नरस्य भावार्थः सर्वे धर्मार्थना गुरुसेवा विधेयेति । यस्मादेवं तस्माइसेसिष्ठेसत्र गुरुकुले चरणार्थी चारित्रकामी । तथा च गच्छे वसतो गुणः"गुरुपरिवारो गच्छो, तत्थ वसंताण निजरा विचला। विणया तहा सारण - माईहि न दोसपमिवती ॥ १ ॥ विषो वहाव रजिस सकले नि, वित्रेश्रो पावर न मर्हि " ॥ २ ॥ नयागने यतेराहारफिरेवमुपधारित्रकहेतुघुष्यतेः यदुक्तम्"असतो असं नस्थि चारिचमि असते, सव्वा दिक्खा निरत्थीया " ॥ १ ॥ तथा- " जिणसासणस्स मूलं, भिक्खायरिया जिणेहिं पद्मता । इत्थ परितप्यमाणं तं जासु मंदसदी " ॥२॥ बिनमध्ये दुष्करेष प्रतिभासते इत्ये काकिना से विधेयक ज्ञानादिनामेन कार्यम्मूलभूतं चारित्रमेव पालनीयं मूले सत्येच सामचिन्ता ज्यायसीतिमेवं षोः यतो दन्त गुरुपायाद्वितीय व्यपेक्षाभावालाभस्यातिदुर्जयतरत्वात् कणे कृणे परिवर्तमान परिणामेने का किया विरेन पालयतुं शक्यते तथा बोम्एगानियस्स दोसा, पी साणे तदेव पमिणीय भिक्खविसोहिमन्वय, तम्हा सविइजए गमणं" ॥१॥ तथा "पिलिज्जे सणमिको" इत्यादि । ततस्तद्भावे कथं मूसभूतं चारित्रमेव पालनीयमित्याद्युक्तम् ? अथ कश्चिद् गाढदाढर्घाशयः शुको दिनाऽपि निर्वाहयेदात्मानं सोऽपि " सव्वजिप पडिकुटुं अणवत्थाथेरकप्पभेश्रो य ॥ एगो य सुयाउतो, विरार तवसंजरा ॥१॥ इति विराधकत्वाच सुन्दरतामास्कन्दति ॥ १२७ ॥ तथा चाड् सूत्रकारःएयस्स परिच्याया मुकुंद विन सुंदरं भणियं । कम्पाइ वि परिसु, गुरुप्रणावचिणो विंति ॥ १२० ॥ एतस्य गुरुकुल वासस्य, परित्यागात्सर्वतो मोचनेन, शुद्धोवादि युद्धनैकप्रमुखम् श्रादिशब्दात् युद्धोपाश्रय्वस्त्रपात्रादिपरिग्रहः । न सुन्दरं शाभनं भणितं निगदितमागमकैरित्युपस्कारः । तथाच - जीवाऽनुशासने तदुक्ति:"सुदा जतो, गुरुकुलबागाइड विषेश्रो । सरस्स सरपिच्छायाविणो ॥ १०० ॥ ६० र० । एवं गुरुबमा का सलगच्गुणबुडी || अणवत्या परिहारो, ति गुणा एमाईया || १३|| एवं मूल गुणसमन्वितं गुरुममुञ्चता, सन्मार्गोग्रमं च कारयता, गुरुबहुमानः कृतो भवति, कृतज्ञता चाराधिता नवति, सकल २३६ गुरुकुलवास गगुणवृदिस्था मर्यादा) परिहारः कृतो भवति । एवमादयो गुणा भवन्ति । ध० २० । अत्रानुशासनम् गच्छे गुरु चिप प केई चरति धम्मत्थी । तंपि न संगयमेयं, जम्हा सुत्ते इमं भणियं || ए मायादिसमुदाय, गुरुवयश्ध सूरिभाषेतं, 'चिय' शब्द समुचयार्थः परिहत्य केपि केवन, चरन्ति पर्यट न्ति, धर्मार्थिनश्चारित्रप्रयोजनाः, तदपि गच्छत्यागादिकं न के पूर्वोकमित्यपिशब्दार्थ मे गादि यस्मात्सू उपदेशवदास्येदं पुरोवर्ति भणितं उक्तमिति गाथार्थः ॥ ६६ ॥ कुंजतो, गुरुकुलचागाइनेह किन्नेभो । सवरस्स सरक्खपिच्छ-त्य घायपायाचित्रणतुल्लो ॥१००॥ शुकादिमः शुचित तु जिकाssदि, आदिग्रहणाच्छेषानुष्ठानग्रहः, गुरुकुल त्यागादिना गुरुशिकारद्वारेण प्रवचने योद्धयः । किविशिष्ट शयरनपेय सरजस्कास्तापसविशेषाः तेष पियान मानिस घातविनाशः तत्र पादान विदेशीजायापो तनाव सेन . तुल्यः सदृश इति गाथार्थः ॥ १०० ॥ भावार्थस्तु कथानकावसेयः । तथेदम्-किलर नरपतेरवा मीनके मनाक् दग्धाः कृतानि च तेषां जातानि ततो नरपतिना वैद्यः पृष्ठः- कपनेते या भविष्यन्ति तेनोक-यदि मायूरपिनम् इत्युके न दानयनार्थ निजपुरुषा यावते परिभ्रम्य समता राम्रः समीपे चितैः देव न कुत्रापि मयूराङ्गने सन्ति मुरायान्तेदितानि धारयति न च जीवन्तो मुञ्चन्ति इदमेव तेषां व्रतम् । राज्ञोक्तम्-यद्येवं ततो " तान् समानयंत पिच्छान् परं प्रायनिजचरणा न जगतो ते तत्र जम् सान्नाशयति पादास्पर्शनमरोस र गुणरा र्गस्य ते पर्यटन्ति, तस्मादुत्तरगुणसङ्गेऽपि शुद्धभक्ताभ्यवहारल क्षणे गपवाऽऽसितव्यमिति । इदानीं गुरुवचना करणे सिद्धान्तगाथामाहदसवालसोड़ मास मामखमणाहिं । करितो गुरुवर्णतसंसारिओ भवि ॥ १०१ ॥ उत्तानार्था ॥ १०१ ॥ " यदि पुनर्गगुरु सर्वथा निचिलो भवति तत भागमोक्तविधिना स्पजनीयः परं कालापेक्षा बोउम्यो विशिष्टतरः तस्योपसंपद् ग्राह्य न पुनः स्वः स्थानम्यमिति हृदयम् एतो जीवानुशिष्टिमाददेवाएँ विहामिदो सपंजरे गच्छवास गुरुवयणे । जीव ! तुमं चिरचित्तं, करेसु ता सिद्दिसिहरं व ॥ १०२ ॥ देलया लीला "विद्यामिति” देशीमायाविनाशितं दोषा रामात जीवननिरोधकत्वापरं तेन तस्मिन् गाने उलणे जीव! आत्मन् भवान् स्थिरं निश्चलम् अनुस्वारोऽत्र प्राकृतत्वात् लुतः, चित्तं मानसं कुरुतत् किमिव शिखरे शिखरमिव प 1 1 Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए४२ ) निधानराजेन्द्रः । गुरुकुलवास मिवेति गाथार्थः ॥ १०२ ॥ जीवा० १७ - १० अधि० । अत्र दृष्टान्तमाह जहा दियापोतराजार्त सावासमा पविडं मनमाणं । तमचाइयं तरुणमपत्चजातं, डंकाइ अन्यतमं हरेला ॥ २ ॥ यथेतितोप्रदर्शन प्रकारे जपत प ििशशुका मेव विशिनष्पितन्ति गच्छन्ति येति प श्रं पकपुटं, न विद्यते पत्रजातं पोद्भवो यस्यासाचपत्रजातः । तंत्र स्वकीयादावासका वनमा प्लवितुमुत्पतितुं मन्यमानं तत्र तत्र पतन्तमुपलभ्य, तं द्विजपोतं ( अचाइयं ति) पक्काभाधातुमसमर्थम् अपप्रजातमिति कृत्वा मांसपेशी कल्पं, ढड्डाद क्षुद्रवाः पिशिताशिनोऽयकगमं गमनाभावे मंमसमर्थ, हरेयुश्वादिनोत्कृप्य नयेयुर्व्यापादयेयुरिति ॥ २ ॥ प्रोसिए तकरिति णच्चा । ओजासमाणे दविपस्स वित्तं, या किसे दहिया आपनो ॥ ४ ॥ "ओसाणमिच्छे" इत्यादि । श्रवसानं गुरोरन्तिके स्थानं, तथाजीवं समाधि सन्मार्गानुष्ठान रूपमिच्छेद जिलषेन्मनुजो मनुयः साधुरित्यर्थः स एव परमार्थतो मनुष्यो यो यथाप्रतिज्ञातं निर्वाहयति । तच सदा गुरोरन्तिके व्यवस्थितेन सदनुष्ठानरूपं समाधिमनुपालयता निर्वाचते नान्यत्तदर्शयतिगुरोरन्तिकेऽनुषितोऽव्यवस्थितः स्वच्छन्दविधायें । समाधिः सदनुष्ठानरूपस्य कर्मणो यथाप्रतिज्ञातस्य वा नान्तरो भवतीति ज्ञात्वा सदा गुरुकुलवासोऽनुसर्तव्यः, तत्रहितस्य विज्ञानपहास्यप्रायं भवतीति । उक्तञ्च - " न हि भवति निर्दिगोपकमनुपातिकस्य विज्ञानम् । प्रकटितप पश्यत प्रदर्श सेपि धम्मं, निस्सारियं बुसिमं मनमाना ॥ दियस्स छावं व अपत्तजायं, हरिंसु ां पावधम्मा अयेगे ॥ ३ ॥ त्यं मयूरस्य " ॥ १ ॥ तथा जाङ्गलविलग्नवाकां पाणिप्रहादेवारोऽनुपाखितो राह संजालगवर्मा पाणिप्रहारेण व्यापादितवानित्यादयोऽनुपासितगुरोबंडवो दोषा संसारवनाथा भवन्तीत्यवगम्यामया मर्यादा रोरन्तिके स्थातव्यमिति दर्शयति- अवभासयन्नुद्भासयन् सम्यगनुतिष्ठन् द्रव्यस्य मुक्तिगमनयोग्यस्य सत्साधोः रागद्वेषरहितस्य सर्वज्ञस्य व्यावृत्तमनुष्ठानं तदनुष्ठानतो मायमं कधिकः कथनतो बोद्भासयेदिति तदेयम् यतो गुरुकुलचासो बहूनां गुणानामाचारो भयो न निष्क से नि र्वन्तिकाद्वा बढिः स्वेच्छाचारी न भवेत्, आशुप्रज्ञ इति क्षिप्रप्रज्ञः, तदन्तिके निवसन् विषयकषायाभ्यामात्मानं हियमाणं ज्ञात्वा क्षिप्रमेवाचार्योपदेशात्स्वत एव वा निवर्तयति सत्समाधौ व्यवस्थापयतीति ॥ ४ ॥ सूत्र० १० १४ श्र० । "एवं मे" इत्यादि। एवमित्युक्तप्रकारेण तुराः पूर्वस्वाद्विशेषं दर्शयति-पूर्व संज्ञानत्वादव्यता प्रतिपा दिवा त्वष्टतयेति । अयं विशेष-यथा द्विजोत्तमसंज्ञा स्वतं शुद्धसत्वा विनाशयन्ति एवं शिष्यक अभिनयप्रयजनं सूषार्थानियमार्थमपुर थर्माणं सम्यग रिनधर्मपरमार्थ नेकपापमीणः पारिकाः प्रतारयन्ति प्रतापगममुषासारयन्ति निःसारितं सन्तं वि वयोम्मुखनामापादितमपगतपरलोकभयमस्माकं पश्यामित्येवं गुरुकुलवासचाय-गुरुकुलवासत्याग-पुं० गुरुगृहनिवासत्य मन्यमानाः यदि वा (सिवारि सानो नि सारे मापकं द्विजामि पनि गुरुकुञ्जवासि (ए) गुरुकुलवासिन् पुं० । गुरुकुलाक्षिमनेन गुरुप्रतिबजे पं० ० ४ ० , यः पापचर्माण मिध्यात्वाविरतिप्रमादकषायक पितारात्मानः कुतीर्थिकाः स्वजना राजादयो वाऽनेके बडवो हृतव तो, डरन्ति, हरिष्यन्ति चेति कालत्रयोपलकणार्ये भूतनिर्देश इति । सायादिकादीना तारयन्ति पा मानवालनविपापहारशिखादादिका प्रत्ययादृश्यते सगुणास्ति तथा नराजादिनिषे निराश्रितम, याऽप्यहि सोच्यते जवदागमे, साऽपि जीवाकुलस्वास्यःसाध्या नापि भवतां स्नानादिकं शोमती त्यादिकाभिः शठोक्तिभिरिन्द्रजाल कल्पाभिर्मुग्धजनं प्रतारयन्ति । स्वजनादयश्चैवं विप्रलम्भयन्ति । तद्यथान्न जयन्तमन्तरेणास्माकंचिदस्ति पोषक, पोयो वा स्वमेवास्माकं सर्वस्वं स्वया बिना शून्यमाभाति तथा शब्दादिविषयोपजोगामन्त्रणेन सक | पतिदेवम पुए धर्मा प्रकार प्रतापहरेयुरिति ॥ ३ ॥ समेकित साचोतो पदयो दोषाः प्रादुर्भवस्यतः सदा गुरुपादमूले स्वयमत्येवमादप्रमाणमिच्छे समाि गुरुगदरिस 66 जने, पञ्चा० ११ वित्र० । गुरु-गुरु-पुं० श्रष्टमादौ मासपरिमाणान्ते प्राय १०१ ४० गुरुपद्वारे मासपरिमानाहमेन ०५०। ककरणतापूरणीये, ( 'सुत्त' शब्दे प्रसंगोपात्तमस्य स्वरूपम् ) 'गुरुगो य होइ मासो" गुरुको नाम व्यवहारो मासो मालपरिमाणः गुरुके व्यवहारे समापतिते मास एकः प्रायश्चित्तं दातव्यः । व्य० २ उ० । गुरुगड़-गुरुगति स्त्री० भावप्रधानाचा निर्देशस्य गौरवेण ध । भावप्रधानत्वानिर्देशस्य स्तिर्यग्गमनस्वभावतो गतिः सा गुरुगतिः। गतिनेदे, स्था० ८ठा०| गुरुगच्छविसील - गुरुगच्छवृद्धिशील त्रि० । श्राचार्यसमुदायोपच प्रकार प्रति गुरुगतर - गुरुकतर - पुं० । चतुर्मासात्मके प्रायश्चि 66 गुरुगतरगोमासो" गुरुतरको भवति चतुर्मासपरिकर्मा सपरिमा णः । व्य० २ उ० । गुरुगति-श्री० 'गुरुगर' शब्दार्थे ०० गुरुगदरसण - गुरुकदर्शन- १० गुरुप्रौढानि पोचरनिम्यादीनि स्वाद सुन्दरासि यानि दर्शनानि च प्राकृतयस्तषु तं । " Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए४३) गुरुमय श्रभिधानराजेन्द्रः। गुरुपरंपरागम गुरुगय-गुरुगत-त्रि० । भागवततापसशाक्याद्याश्रिते मिथ्यात्वे, गुरुणिवेयण-गुरुनिवेदन--1०। सर्वात्मना गुरोः प्रव्राजकस्यादर्श। ऽऽत्मसमर्पणे, ध० ३ अधिक गुरुगुणरहिय-गुरुगुणरहित-त्रि० । मूलगुणधियुक्ते "गुरुगुणर रुगुणर- गुरुत्त-गुरुत्व-न । सर्वत्र गौरवलाभे, यो०बि०। हिरो अहि, दटुब्बो मूलगुणविउत्तो जो " । ध० ३ गुरुदन्च-गुरुजव्य-न० । गुरुयतिसत्केषु मुखवत्रिकासनादिषु, आध०। पञ्चा। ध०२ अधि। गुरुगुरु-गुरुगुरु-पुं० । पितामहस्थानीये गुरोः सम्बन्धिनि, गुरुदार-गुरुदार-पुं०व० वा पितृव्यकलाग्राहकोपाध्यायादीवृ०४ उ०। नां पूज्यानां स्त्रियाम, अनु०।। गुरुजण-गुरुजन-पुं० । गुणस्थसाधुवर्गे, पाव० ३ ०।। गुरुदेववेयावच्च-गुरुदेववैयावृत्य-न० । धर्मोपदेशकानामईतांच गुरुजणपूया-गुरुजनपूजा-स्त्री० । गुरुजनस्य उचितप्रतिपत्ती, प्रतिपत्तिविश्रामणाज्यर्थनादौ नियमे, ध०१ अधिक। ध०२ अधिः । गुरवश्व यद्यपि धर्माचार्या एवोच्यन्ते, तथाऽ-1 पीह मातापित्रादयोऽपि गृह्यन्ते । यमुक्तम-"माता पिता कना-| गुरुदेवाइपयण-गुरुदेवादिपूजन-न०। गुरुदेवादिपूजाविषये ब. चार्यः, पतेषां कातयस्तथा ।। वृद्धा धर्मोपदेष्टारो, गुरुवर्गः सतां | । हुमाने, यो वि०। मतः"॥१॥ध०२ अधिश विशेषस्त्वत्र पय गु रुदेवोग्गहलूमि-गुरुदेवावग्रहत्तमि-स्त्री०। प्राचार्यदेवाश्रयनुगुरुणियोग-गुरुनियोग-त्रि० । गुरवो धर्माचार्यास्तेषां। । वि,"गुरुदयोमाहनूमी-प जत्तो चेब होति परिभोगो।" पश्चाo नियोगो व्यापारणं गुरुनियोगः । उत्त०४०। पश्चा० । १२ विव०। गुरुदोस-गुरुदोष-पुं०। गुरुर्महान् दोषोऽशुभकर्मबन्धादिरूपोय. गुरुणिोगविणयरहिय-गुरुनियोगविनयरहित-त्रि० । माता-1 | स्मिन्नसौ गुरुदोषः। पापकृति, “वयभंगो गुरुदोसो, थोवस्स वि पित्रादिषु नियोगे अवश्यतया कर्तव्येन विनयेन रहिते, भ० पालणा गुणकरी ।" पञ्चा०५ विवः। ७० ६ ००। गुरुदोसारंजिता-गुरुदोषाराम्जता-स्त्री० । गुरुन् दोषान् प्रवचगुरुणिग्गह-गुरुनिग्रह-पुं० । मातापितृपारवश्ये गुरूणां चैत्यसा नोपघातकारिण पारन्धुं शीलमस्येति गुरुदोषारम्भी, तद्भावधूनां प्रत्यनीककृतोपद्रवे, उत्त० २ ०। स्तत्ता । गुरुदोषकरणे, पो० १ विव। अथ गुरुनिग्रहे कथा गुरुपमिणीय-गुरुमत्यनीक-त्रि०। गुरूंप्रति शानाचवर्णवादभा"भिक्कूपासकसूरेकः, श्राद्धपुत्रीमयाचत । पणादिना प्रतिकूले, पातु। न दत्ते श्रावकः सोऽथ, साधन शाम्येन सेवते ॥१॥ गुरुपमिवत्ति-गुरुपतिपत्ति--स्त्री०। मातापितृधर्माचार्यदेवतासप्रावधार क्रमाज्जात-स्ततः सद्भावमूचित्रान् । कणानां गुरुणामुचितपूजायाम, ध०। अतः पाकेन पुत्री स्वा, दत्ता तां परिणीतवान् ॥२॥ सा चेत्थं योगशास्त्रेस्थितः पृथग्गृहं कृत्वा, कुरुते धर्ममाईतम् । "मत्युत्थानं तदालोके-ऽभियानं च तदाऽऽगमे। पितरौ तस्य भितणां, चतुर्नक्तमन्यदा ॥ ३ ॥ शिरस्यालिसंश्लेषः, स्वयमासनढौकनम ॥१॥ कचे ताभ्यामेकशोऽद्य, वत्लेहि सौगतान्तिके। भासनाभिग्रहो भक्त्या, वन्दना पर्युपासनम् । स ययौ भिक्षुणा तस्या-निमन्त्रितफलं ददे ॥४॥ तद्यानेऽनुगमश्चेति, प्रतिपत्तिरियं गुरोः" ॥२॥ प्यन्तर्यधिष्ठितः सोऽथ, गृहायातोऽवदत्प्रियाम् । दिनकृत्येऽपिनक्तं विधेदि निकूणां, सा नैच्छत्पातिवेश्मिकैः ॥५॥ "आसणेण निमंतेत्ता, तओ परिश्रणसंजुओ। साऽध कारितवान् सर्व, सा गुरूणामचीकथत् । घंदर मुणिणो ताहे, स्वंतागुणसंजए"॥ध०२ अधिक पश्चा। प्रापयद् गुरवस्तस्या-स्तद्विद्याछेदनषिधम् ॥ ६॥ गुरुपयसेवा-गुरुपदसेवा-स्त्री० । पत्रिंशद्गुणसमन्विता गुरवमथ सा पयसा सार्द्ध, तदपीप्यत्तदैव च । स्तेषां पदानि चरणास्तेषां सेवा । गुरुचरणानां सम्यगारानष्टा तद्यन्तरी पुष्टा, जातः स्वाभाविकोऽध सः ॥ ७॥ धने, ध०र०। किमेतदिति तत्पृष्टे, कथिते प्रिययाऽखिने । गुरुपरंपरागम-गुरुपरम्परागम-पुं० । तीर्थकद्गणधराचार्यादितस्मासुकानपानादि, साधुन्यो दत्तवान् सुधीः" ॥5॥ आह-तदाने को दोषः । उच्यते-तेषां तद्भक्तानां च मिथ्या क्रमेण प्रवचनार्थागमे, अङ्गः।। स्वस्थिरीकरणं, धर्मवुख्या तद्दाने सम्यक्त्वलाचनम, श्रा- | गुरुपरम्परागमवक्तव्यतेत्यम्रम्नदोषश्च । अनुकम्पया दद्यादपि । उक्तं च-“सम्वेहि तेणं अज्जमुहम्मसामिणा एवं बुने समाणे हद्दतुट्ठचित्तपि जिणोड, दुजयजिअरागदोसमोहेहिं । सत्ताणुकंपणट्टा, माणंदिए जंबू एवं वयासी-कहं गं भंते ! मुरुपरंपरागमो दाणं न कहिंचि पमिसिकं" ॥१॥ स्वयमपि च भगवन्तः जण जंबू! समावेणं जगवया महावीरेणं तो आगमा सांवत्सरिकदानमनुकम्पया दः । " संमत्तस्स समणो पपत्ता । तं जहा-अंतागमे, अणंतरागमे, परंपरागमे । वासापणं श्मे पंच अश्यारा जाणिवा, न समायरिअब्वा । तं जहा-संका, कंखा, विजिगिचा, परपासंमप अत्थो अरहताणं भगवंताणं अंतागमे । मृत्तमो गणसंसा, परपासंडसंथयो । प्रा० क०" । (शङ्कादिषदाहर-| हराणं अंतागमे । गणहरससाणं अतरागमे । तो परं पानि स्वस्वस्थाने) | सबसि परंपरागमे । अग। भंते ! समारोह पसत्ता। Jain Education Interational Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुपरतंत (४४) अभिधानराजेन्द्रः। गुरुवयण गुरुपरतंत-गुरुपरतन्त्र-त्रि० । शानिनिश्रावति, द्वा० २७ द्वा०। गुरुमहत्तर-गुरुमहत्तर-पुं० । गुर्थोमातापित्रोहनराः पूज्याः, गुरुपरिवार-गरुपरिवार-पुं० । साधुवगें, "गुरुपरिवारो गच्छो, अथवा-गौरवाईत्वेन गुरवो महत्तराच वयसा वृहत्वाद ये ते तत्थ वसंताण णिजरा बहुला ।" पं०व०३ द्वार। गुरुमहत्तराः । गुगौरवाह त्वेन वा महत्तरेषु, गुरुषु महत्तरेषु च। स्था० १००। गुरुपारतंत-गुरुपारतन्त्र्य-न० । ज्ञानाधिकाचार्याऽऽयतत्वे, पञ्चा० ११ विव० । षो०। “तत्य गुरुपारतंतं, विणो स. गुरुमह-गुरुमुख-न । प्रिवन्दने, " जत्ताविहाणमेयं, पाऊज्मायसारणा चेव। " पञ्चा• १८विव०। णं गुरुमुहान धीरेहिं । " पञ्चा० ११ विव० । गुरुपुच्चय-गुरुपृच्छा-स्त्री० । रत्नाधिकप्रश्ने, “गुरुपुच्चाए णि- गुरुमूल-गुरुमूल-न० । गुरोराचार्यस्य मूलमन्तिकम्। ध०२प्रोगकरणं" पञ्चा० १२ विव० । धि०। पञ्चा। कक्षाचार्यादेः समीपे, प्रा० म०प्र० " गुरु मूले निवसंता, अणुकूला जेन इंति उगुरुणं ॥एपसि तु प. गुरुपूयण-गुरुपूजन-न० । भक्तपानवस्त्रप्रणामादिनिरभ्यर्चने, याणं, दूरंदरेण ते दुति " ॥५॥ आव०४०। हा० २४ अष्ट। गुरुपूया-गुरुपूजा-स्त्री० । वाचनाऽऽचार्यपूजायाम, श्रा। गुरुय-गुरुक-न०। प्रधो गमनखजावे, बज्रादरिव स्पर्शनिदे, विशे० । स्था। "इरिससायगुरुए-णं भोगासंसगिद्धे।" आह गुरू पूयाए, कायवहो होइ जइ वि हु जिणाणं । स्था० २ ठा०२ उ० । गुरुकर्मणि, स्व०१७०११ अ०। तह वितई कायवा, परिणामविमुकिहेऊओ ॥३४६॥ प्राह गुरुरित्युक्तवानाचार्यः-पूजायां क्रियमाणायां कायव. गुरुयण-गुरुजन-पुं० । धर्माचार्य, पञ्चा० ११ विव० । धः पृथव्याधुपमर्दो यद्यपि भवत्येव जिनानां रागादिजेतृणामि- गुरुयणपूया-गुरुजनपूजा-स्त्री०। मातापितृधर्माचार्यादिपजने, त्यनेन तस्याः सम्यग्विषयमाह-तथाऽप्यसौ पूजा कर्तव्यैव ।। पञ्चा० विव० । कुतः ?, परिणामविशुद्धिहेतुत्वादिति ॥३४६॥ श्रा। गुरुपूजा-गरुयनहय-गरुकलघक-नातिर्यग्गामिवायुज्योतिष्कविमानासत्कं सुवर्णादि द्रव्यं गुरुद्रव्यमुच्यते, नवा? ॥१०॥ प्रागेवं पू. दिके, गुरुलघुभयस्वभावे रुव्ये, विशे० प्रा०म० भ० स्थाon जाविधानमस्ति, न वा? ॥ ११ ॥ कुत्र खेतदुपयोगीति प्रसा. घम् ? ॥ १२ ॥ इति प्रश्नत्रये उत्तरम्-गुरुपूजासत्कं सुवर्णा ('अगुरुल हुय' शब्दे प्रथमभागे १५७ पृष्ठे वक्तव्यता) दि गुरुषव्यं न भवति, स्वनिधायामकृतत्वात् । स्वनिश्राकृतं गुरुयसिरिमोहरायाणापरवस-गुरुकश्रीमोहराजाशापरवशच रजोहरणाव्यं गुरुव्यमुच्यते इति ज्ञायते ॥१०॥ हेमाचार्या- त्रि०। महाशाननृपतिशासनाऽऽयत्ते, जी० १ प्रति। णां कुमारणलराजेन सुवर्णकमलैः पूजा कृताऽस्ति, एतदक्षरा | गुरुलाघव-गुरुलाघव-न। गुरु च सारं, सघु चासारं, तयोनाणि कुमारपालप्रबन्धे सन्ति ॥११॥"धर्मलाभ इति प्रोक्ते, दूरादु- वो गुरुलाघवम् । प्रव०४ द्वार । सारेतरताविभागे, पश्चा० खितपाणये । सूरये सिद्धसेनाय, ददौ कोटि नराधिपः" ॥१॥ ११ विव०। ही०३ प्रका। गुरुनाघवचिंता-गुरुलाघवचिन्ता-स्त्री० । सारेतरालोचने, गुरुपूयाकरणरइ-गुरुपूजाकरणरति-त्रि०। गुरवः पूज्या लो पञ्चा०१८ विव०। किका लोकोत्तराश्च । तत्र लौकिकाः पित्रादयो वृक्षाश्च, लोकोसरा धर्माचार्यादयः, तेषां पूजाकरणे रतिर्यस्य । गुरूणां यथो गुरुद्वाव-गुरुलाप-पुंग "हस्वः संयोगे दीर्घस्य" ॥१४॥ चितविनयादिषिधौ शक्तिमति, दर्श। ति मध्योकारस्य हस्वः । गुरुसंबन्धिन्युडापे, प्रा०१ पाद । गुरुप्पवेस-गुरुपवेश-पुं० । गुरूणामुपदेशदानाय प्रामादिप्रवेशे, | गरुवग्ग-गरुवर्ग-पुं०। गौरववछोकसमुदाये, “ माता पिता क. ध। तत्र गुरुप्रवेशोत्सवः सर्वाङ्गीणप्रौढाऽऽसम्बरचतुर्विधश्री. लाचार्यः, पतेषां ज्ञातयस्तथा । वृद्धा धर्मोपदेष्टारो, गुरुवर्गः सङ्कसंमुखगमनश्रीगुवोदिसकसत्कारादिना यथाशक्ति कार्यः । सतां मतः" ॥२॥द्वा०१२ द्वा० । षो०। ध०। यतः-"अभिगमणवंदणनमंसणेण" इत्यादि । ध०२ अधि। | गुरुवय-गुरुवचस्-ना सूरिणिते, जी०१ प्रति०। गुरुफासणाम-गुरुस्पर्शनामन्-न । स्पर्शनामभेदे, यमुदयाजनुशरीरं वज्रादिवद् गुरु भवति । कर्म०१ कर्म । गुरुवयण-गुरुवचन-न० । रत्नाधिकाक्षायाम, पञ्चा। गुरुतत्त-गुरुजक्त-त्रिः । गुरवः पूज्याः, तेषु भक्तो गुरुभक्तः । गुरुआएसेणं वा, जोगंतरगं पि तदहिगं तमिह । गुरुबहुमानिनि, पो० ११ विव० । गुरुग्राणाजगम्मि, सव्वेऽपत्या जो भणितं ॥ ४५ ॥ गुरुजनि-गुरुभक्ति-स्त्री०। गृणातिशास्त्रार्थमिति गुरुः। पादच. गर्वादेशेन रत्नाधिकाऽऽझ्या । 'वा' शब्दो विकल्पार्थः। योगा"धर्मको धमका च, मदा धर्मपरायणः । सस्वेन्यो धर्मशा- नरमपि स्वभूमिकासदशयोगादर्थकथनादरेन्यो योगो व्यापासाथ-देशको गुरुरुच्यते" ॥१॥ नम्य भक्तिः । गुरुवहुमाने, हा०३ रो खानप्रतिजारणादि योगान्तरम, तदेव योगान्तरकम, तदपि, अष्टः । गरयो माना पितृधर्माचार्यादयः, नेषां भक्तिः। मातापित्रा- प्रास्तां स्वभूमिकासहशयोगम । यः करोति तस्यानुबन्धनावदीनामामनादिप्रतिपत्तो, कर्म० १ कर्म० । धर्माचार्यचहुमामे। विधिरिति प्रक्रमः । कस्मादेवमिति ?, अत पाह-तस्मात्स्वनपञ्चा०२ विक। मिकामहशयोगादर्थकधनादेरधिकं प्रधानतरं तदधिकम, पुष्टागुरुनाव-गुरुनाव-पुं०। गुरुरयं गुणात्मकत्यादित्येवंरूपेऽभयव. लम्बनवेदिभिर्गरभिरुपदिष्टत्वात् । तदिति योगान्तरं ग्लानप्रसाये, गुरुये गौरवाईत्ये च । सा तिचरणादिः । इद प्रक्रमे । अथ स्वभूमिकाचित एव योगो वि Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) अभिधानराजेन्द्रः | गुरुवयण यः, किं गुर्वादेशान्तेन कृतेनेति । अत्राह गुर्वाशान धर्माचार्यादेशविराधने, सर्वे समस्ताः, अनर्था अपाया भवन्ति । एतदेव कुत इति ?, आदइ-यतो यस्मात्कारणात्, भणितमुक्तमागमेषामनर्थप्रतिपादनपरं वचनइतिगा चार्थः ॥ ४५ ॥ तदेव वचनं दर्शया - समासेहिँ मासक मासखमणेहिं । अकरितो गुरुवणं, तसं सारियो होति ॥ ४६ ॥ षष्ठाष्टमदशमद्वादशैः क्रमेणोपवासद्वयादिस्वरूपैः । तथा-मासार्कमासकृपणैः प्रसिद्धैः । इह व्यक्त्यपेतं बहुवचनम् । इद् कोऽपीतिशेषो र अनार गुरुवचनं रत्ना धिकाकास, अनन्तसंसारिकोऽनन्तभव भ्रमणर्युक्तो भवति जाय से । यतः संविग्नगीतार्थ गुरवो नवन्ति, ते चाऽऽप्तोपदिष्टमेवादिशन्ति, अभिनिवेशिकं तदकरण मिध्यात्वो दयाशानन्तसंसारिक तपश्चरणतोऽपि भवति त द्रुतम् । इति गाथार्थः ॥४६॥ पञ्चा० ॥ विष० । जी० । गुरुवयणाणुमार - गुरुवचनानुसार गुरवो जिनादय:, तेषामुपपदेश माझा, तस्यानुसार भानुरूपं गुरूपदेशानुसारः आज्ञा करपे, पश्चा० १३ वि० । गुरुवयोगगुरुबचनोपगत त्रि० गुरोः सकाशाद्वचन मुपयाते, विशे० । अनु० । गुरुप्रदत्तया वाचनया प्राप्ते, ग० २ अधि० । - गुरुविण गुरुनित संसारोपयोपदेशकेषु 2णते, पहचा० १७ विव० । गुरुविनय- पुं० गुरोर्यद्मानादी, पो० गुरुविनयस्वरूपमाह औचित्यात् गुरुसितुमानस्तत्कृतङ्कवाचिचम् ।। श्राज्ञायोगस्यरस स्वकरणता चेति गुरुविनयः ||२|| औचित्यादीदित्येन पुरुषभूमिकापेक्षा गुरुतिर्गुरुषु वर्त्तनं वैयावृत्यद्वारेण बहुमान प्रान्तरः प्रीतिविशेषो नावप्रतिबन्धः सदन्तःकरणलक्षणो न मोहो, मोहो हि ससङ्गप्रतिपत्तिरूपः शास्त्रे निवार्यते, गुरु गौतम स्नेह प्रतिबन्ध न्यायेन तस्य मोक्षं प्रत्यनु गुरुसज्जिडग सत्यं कृतं भवति । इति गुरुविनयः । एवमेते सर्वेऽपि प्रकारा त्यात गुरुपादयो गुरुनियो भवति प्रागुका पो १३ विव० 1 गुरुविनयस्य किं मूल इति बह ?, सिकान्तया सरसदगमयमृत्युपरावनं चैव । दुष्कृतकृतका लोचनमय मूलमस्याऽपि ॥ १७ ॥ " सिद्धान्तेत्यादि " सिद्धान्तकथा स्वसमयकथा सत्सङ्गमश्च सत्पुरुषसंपर्कश्च, मृत्युपरिभावनं चैवावश्यंभावी मृत्युरिति । यथोकम-नरेन्द्र दिवाकरेषु निर्वमनुष्यामरनारकेषु । मुनीन्द्रविद्याधर किन्नरेषु, स्वच्छन्दसीलाचरितो हि मृत्युः " ॥१॥ इति दुष्कृतानां पापानां सुकृतानां च पुण्यानां विपाको ऽनुभाबः, तदालोचनं तद्विचारणं हेतुफन्ननावद्वारेण, अथाऽनन्तरं मूलं कारणमस्यापि गुरुविनयस्य सर्वमेतत्समुदितम् ॥ १५ ॥ अधुना गुरुविनयसहितस्य प्रतिपादितस्यादेयतामुपद शेयमाह एतस्मिन् स्वल्लुपत्नो विदुषा सम्यक् देव वर्तव्यः । मूलमिदं परमं सर्वस्य हि योगमार्गस्य ।। १६ ।। " एतस्मिन्नित्यादि" एतस्मिन् खलु एतस्मिन्नेव प्रायुक्ते सिकान्तकथादौ यत्न आदरो, विदुषा चिचक्कणेन, सम्यक् संगतः स. देव सर्वकालमेव कर्तविधेय आलमनियाकारण मिदं सिद्धान्तकादि, परमं प्रधानं सर्वस्य हि योगमार्गस्थ सकलस्य योगवर्त्मनो यतो वर्तते ॥ १६ ॥ षो० १३ विव० । गुरुविनयफलं प्रतिपादयन् गुरुविनयमादजोगिए गुरुमणं जन्नतं जाओ पसन्नमणो । सहमित्र पिज्जतं तं तस्स सुहावढं होई || पुनहिँ चोइया पुर- कएहि सिरिजायां भवियसत्ता । गुरुमागमेसि जहा, देवयभित्र पज्जुवासंति ।। बहुसोक्खसयस इस्सा-ण दायगा मांयगा हसवाणं । महा० ‍अ० । गुरुवी- गुर्वीं-बी० । “ तम्बी तुल्येषु " | ८ | २ | ११३॥ इत्यन्त्यव्यञ्जनस्योकारः गुयविशिषे स्त्रीश्वविशिष्टेऽयं गर्भवस्थाम प्रा० 9 पाद । पकारकत्वानुकूलस्य तु भावप्रतिबन्धस्यानिषेधा गुरुवेगकर गुरुवेगकृत श्रि० मातापितृवित्तसन्तापकारिणि, ततः सफलकल्याण सिद्धेः यो हि गुरुकृतमुपकारमात्मचिचयं विशिष्टविवेकसंपतया जानाति यथाऽस्मास्वनुग्रहप्रवृतेः स्त्रकीयक्तेशनिरपेक्षतया रात्रिन्दिवं महान् प्रयासः शास्त्राभ्ययनपरिज्ञानविषयः प्रभूतं कालं यावत् कृत इति स कृत उ नामप्युपकारं भूयासंमन्यते अथवा तयोर्लोकप्रसिद्धयोर्विभागेन कृतस्य मतिपाटवाद्विशेषविषयं स्वरूपं परिच्छिनति, न पुनर्जकतया कृतमपि साक्षात्प्रणालि का वा न वेत्ति ततस्तद्भावः कृतज्ञता, तेषु गुरुषु कृतज्ञतासदिनं विकृतावित्तम् । श्राज्ञायोगः नियोगःस्वनम् । यथा राजा ऽऽज्ञा राजशासनं, तस्या योग उत्साहस्तया या आया योगः संबन्धः न तितति तेषां गुरूणां सत्परता यह तैरूकं ततचैव विद्यमानेषु स्वभूयमानेषु वा संपादयत्येवं तद्वचः २३७ हा० २५ अष्ट० । गुरुसइ - गुरुस्मृति - स्त्री० । धन्यास्ते ग्रामनगरजनगदादयो येषु मदीया धर्माचार्या विन्तीति । गुरुस्मरणे, घ० २ अधि० । गुरुसस्त्रिय गुरुसाक्षिक १० गुरु ० त्रिविधं हि प्रत्याख्यानकरण- आत्मसाक्षिकम् १, गुरुसाचिकम २, देवसाविकम् ३ चेति । गुरोः पार्श्वे प्रत्याख्यानं कामेवाख्यानं यदासीकरोति गुरुसाक्षिकम्। विशेषेाऽसौ गुरुखाक्षिकम॥१॥ गुरुमा हिता जयति प्रत्यास्थानपरिणामस्य "गृह स्मो" धर्म २ अधि० । गुरुसलिम गुरुसहाध्यायिक गुरूणां सहाध्यायिनि पितृस्थानी ०४ ४० Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९४६) अभिधानराजेन्द्रः । गुरुसादम्मियसुरसूया गुरुसाहम्पियनुसाया गुरुस धर्मिकशुभूषणता श्री०स्वोपदेः समानधर्म कर्तु सेवायाम उत० २७ ४० दीकाद्याचार्याणां साधर्मिकाणां च सामान्य साधूनां शुश्रूषण तायाम्, न १ श० ९४० । गुरुशुश्रूषणताफलं प्रष्टुकामः शिष्य श्राह गुरुसाहम्मिय सुस्सूसणयाए णं भंते ! जीवे किं जणय‍? गुरुसाम्बियापा विणयपमिवचि जयः । वियपभित्रने य णं जीवे प्रणच्चासायासीझे नेरइयतिरिक्त्रोशियमस्सदेवकुमईओ निरुम्ज, ब संजलमापाच मनुस्सदेवयुगओ निवन्धर, सिग च विसो पसल्या चणं विषयमूलाई सन्काई साइ, अ य बहवे जीवे विषयइता नबइ ।। ४ ।। हे गवन् ! गुरुणामाचार्याणां साधार्मिकाणां एक शुश्रूषया सेवनया जीवः किं जनयति ? । तदा गुरुराहगुरुधर्मका विनयप्रतिपाविनयन्यारा चिनाकार जनयति विनयं प्रतिपन्नः प्रतिप्रविनयीविनीत्यायतनाशी सम्वाद अभ किनिन्दादीला वर्णवादाद्याज्ञाननानिवारकः सन् नरकतिर्ययोनि तथा मनुष्यदेवयोः कुगतिं च रुणाई निषेधयति, आचार्यासामाननानिवार को नये नरकयोनी नात्पद्यते तिर्यग्योनी मनुष्येषु , काही पुणे संस्थसनमक्तियमानतया मानवेषु मनुष्यः स्वात् श्रापा तेन पर्सेन करणं जेवलनं मतिरभ्युत्थानादिका बहुमानोऽभ्यन्तरप्रीतिविशेषः वर्णसंवलनं च भक्ति बहुमा नश्चवर्णमंज्यमानाः तेषां भावो वर्णसंज्वलनबहुमानता, तथा वर्णन बहुमानतया पुमान् भवेत् यस्य गुणला घामक्रियन्ते तासून स्वा दिग्वदेोऽपि महाका स्पायच पुनः स सिर्फ स मोरून विशेषेोधयति प्रस्तानि धर्मकार्याणि शोधति । स च स्वयं विनयमूलं सर्वकार्यशोधकः सन् अन्यान् अपि बहून् जीवान् विनेता विनयग्राहयिता भवति । उत्त० २६ प्र० । गुरूणां पर्युपासनं तेन समुचित कर्तव्यकरगाङ्गीकाररूपां जनयति, “त्रिनयपरिवरणे ' इति प्राग्वत् । | प्रतिनङ्गीकृतो विनय येन स तथा चः पुनरर्थे, जीवः (अणामापणास अनीवार्य सम्पादिला पतिनाशयतीत्याशानना, तस्याः शीलं तत्करणस्वभावात्मकस्येस्वामीनारानाशः कोऽचैरुपरि वादादिपरिदेविया विनियोनिकमनुष्यदेवदु गतिरिति नैराकानि विनियो स्वार्थिके कनि नैरयिकः । तिर्यग्योनिनैरयिके प्रतीते, मनुष्यदेवडुंगेनी निि ततोगत्याशानवाया अभावेन तत्रागमनान् । तथा वर्षे श्लाघा, नवलगुजा का, बहुमानः भान्तरः प्रीतिविशेषः, एषां द्वन्द्वे भविप्रत्यये च गुल वर्णज्वलनभक्तिव मानता, तथा प्रक्रमाद् गुरूणां विनयप्रतिपत्तिरूपया ( माणुस्सदेवसुगति) मानुष्य देवसुगती विशिएकुलैश्वर्येापलक्षिते निबध्नाति तत्प्रायोग्य कर्मनिष धनेनेति भावः सिद्धिमुसिकसुगति दिशो यति सम्म सम्यग्दर्शनादिविशोधनेन प्रास्तानि च प्रशंसास्पदानि विनानि सर्वकार्याणी तद्यानादीनि परत्र च मुक्ति साधयति निष्पादयति कि मेवं स्वार्थसाधक दवासाविवाद अन्य बहु जीवान् वि विनयं प्रायिता, स्वयं सुस्थितस्योपादेयवचनत्वात् । तदुकम-"डिओ डाव परं ति"। तथा च विनयमूलत्वादशेषपसां तापसेन परार्थसाधकोऽप्यसो भवत्येवेति भावः ॥ ० २६० ( पाईटीका ) गुरुयुस्यूलग-गुरुमुभूषक० माराध्ययस्य शुश्रूष साम्प्रतं गुरुशुश्रूषक इति पञ्चमं भावभावकमाहसेवा कारणेण व संपादण जावो गुरुजणस्स । य, मुस्म्मणं कुतो गुरुमुसो हवई चउहा || ४७ सेवया पर्युपासनेन २, कारणेन मम्यजनप्रवर्त्तनेन २ संपादनं गुरोरीवादीनां प्रदानम ३, नावश्चेतोवमानः ४, तावाश्रिस्वसंपादन] नावतः गुरुजनस्याराज्य वर्गस्य गुरुषको नवतीति । (ध० १०) इह यद्यपि गुरवो मातापित्रादयोऽपि पात्र धर्मप्रस्तावादि धर्माचार्या प्रस्तुता इति । ध० २० । सेवई कालम्मि गुरु अकुतो जाणजोगवापायं ॥ ५० ॥ वले पर्युपास्ते, कालेऽवसरे, गुरुं पूर्वीकस्वरूपं कथमकुर्वन् ध्यानंधयानादि. योगाः प्रत्युपेक्षणावश्यकादयः तेषां व्याघातमन्तरायं, जीर्णश्रेष्ठिवत् । घ० २० ( तत्कथा- 'जिससे कि ' शब्दे वयते ) गुरुमुस्सल- गुरुशुश्रूषण - न० । मातापितृपरिचरणे, "प्रारम्भमङ्गलं हास्या गुरुशुश्रूषणं परम् । " ६० २५ १० गुरुगुस्सा- गुरुशुश्रूषा श्री गुरूपरिचर्यायाम द भूषा पुनस्त्रिविधा 66 गुरुसुस्सा तिविहा, सेवासंपारणेण नायया । लोयगुरुपियंगे, ताणं सुस्सुम कुरा आहारवत्थपत्ता- इसु उमर इच्छियारेसु । भावे उप-मपसरे पर किबे । हवा वि गुरु सम्मतराहगा तेण होइ तिविहा वि । नवरं कालोनया, तिविहा वि सुहाएबंधफत्ता ॥ का सुपर प विस्सामणार पकरे | वाहाविषज्जण्ट्ठा, साहूणं सव्वकालम्मि आहारवत्थपत्ता-श्याइ सर एसणीऍ निश्यं पि ढोह मण दु चित्तो, बिसेस पत्तकालम्मि ॥ मुहा गुरुणं पापमपि "दर्श० । गुन-गुम-पुं० । इतुरसकाथे, भाव० ६० प्रा० द्विधा, जय-पिण्डभेदात् । स्था० ६ ठा० औ० । मच्छेमिमाणं "अनु "वर्षासु प्रणमतं शरदि | । गुमो स्वंम गुल जलं Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुल गोपम। शिविर गुरु" • ॥ १ ॥ सूत्र० १० ० ० १४० । स्नुहीवृक्षे, ख० । टाप् । वाच० । गुलकय-गुमकृत् - त्रि० । गुरुसंस्कृते, प्रश्न ५ सम्ब० द्वार | गुगुंधनमिचमेरुत्या गुन । ४ २६ इति एत गुप्पे दशः । ' गुलगुलर' उन्नमयति । प्रा० ४ पाद | गुलमुत्राय गुदागुद्रावित न गुलगुलेतिशब्दानुकरणम् । ततः प्रत्ययः । हस्तिशब्दे, जं०५ वक० । अनु० गुलपाणिय-गुरुपानीय–न० | गुमाधारस्थे जले, स० १ सम० । "गुलो जीप कवलीय कजिति, तत्थ जं पाणीयं कथं तत्तमतसं वा तं गुलपाणियं भति" नि० चू० २० । तच गु मनिर्विकृतिकम् । ध० २ अधि० । गुलल-कृ-धा० । चाटुकरणे, " चाटौ गुलसः गुलबर वस्त्र हत्यादेशः तीत्यर्थः । प्रा० ४ पाद । गुललावनिया- गुमापनिका श्री० (४७) अभिधानराजेन्द्रः । गुषुच्छ... गुरुजनेषु वा 33 ॥ ८६ । ४ । ७३ ॥ चारो सिकाय ० २० पा० स्था० भ० । । । गुल ने देशी - बादुकरोति, दे० ना० २ वर्ग गुलै-देशी-चुम्बने, दे० ना० २ वर्ग गुलिया - गुटिका - स्त्री० । वटिकायाम्, उत० ३ अ० । स्था० | [झा०म० अ० वर्णविशेषे मी० संयोगनिष्पादित गोजिकायाम. शा० १ ० १३ श्र० रा० । मुखप्रकेपकस्य रूपपरावर्तादिकारिकायां गुटिकायाम, पिं० । उत० । गुलिका-गुटिका- स्त्री० | तुम्बरवृत्त न्यू गुटिकायाम् वृ० १० पीनिकायाम् जी ३ प्रति - गुलु गुति वि० [सानगुन के गुमकं च लतासम् १००० चनुकर णशब्दः, ततः प्रत्ययः । हस्तिशध्दे, रा० ॥ जं० । गुचिप्रदेश २ वर्ग - देशी भ्रमिते दे० ना० २ वर्ग I I गुवलय - कुवलय-न० नीझोपले, "मुद्दियगुचलवनिहाएं" नं०। गुत्रिय - गुप्त त्रि० । व्याकुलीभूते तुच् स्या० ३ ठा० ४ उ० । गुनिल गुपित - त्रि । गहने, नि० चू० २३० । गम्नीरे, वृ० ३ " उ० । अ०म० । ०३ प्रापनस गुपिणी - गुर्विणीखी स्वायामपि । गर्भवत्याम, दरा०५ श्र० । "तस्स भद्दा भारि या गुग्विणी " ० म० द्वि० । गुहंचवाराोषान्वकारालोक - तमोप्रधा नन्दे, ल० । गुहा गुद्दाखी पर्वतकन्दरायाम् प्र० प्रा० द्वार जं० ॥ अ स्था० । गुहास्त मित्रगुहादयः नं० । सुग्ङ्गायाम; दशा० ७ ० । सिंहपुच्छीलतायामः शालपर्ण्यम. अकृत्रिमे देवखाते, हृदये, बुद्धी, गुद-नावे भिदा । संवरणे, स्त्री० वाच० । 1 गूड- गूड- त्रि० प्र० स०३० सम० गु अनुपये नि० सू० १० उ० औ० । विशे० प्रकटवृस्याऽज्ञायमाने, प्रब० ४] द्वार कथमायुषमयेऽनि प्रचयमापत्रे विशे "प्रकाशयश्च लोके मे, गूढगर्नाऽभवत प्रिया" प्रा० क० । “सुगिफा" गूढगुल्फी घुण्डकौ येषां ते तथा । प्रश्न ४ श्र० द्वार गूढचोर - गूढचोर-पुं० । प्रच्छन्न चौरे, प्रइन० ३ ० द्वार । गृहस्थ- गूढार्थ श्र० गूढो गुमो ऽवगम्यमानोऽथ यस् गूढार्थम् अप्रकाशपा, विशे० 1 गूढदंत-गूढदन्तत-पुं० । विद्युन्मुखस्य परतोऽन्नद्वीपे प्रज्ञा० १ पद नं० प्र० । उत्त० । स्था० । भरतवर्षे भविष्यति द्वितीयचकि, ती० २१ कल्प श्रेणिकस्य धारियां जाते पुत्रे, स न वीरजिनान्तिके प्रवजितः मृत्वा वैजयन्ते उत्पन्नः इत्यनुपपाताद्वितीय अनु ('अंतरदीव ' शब्दे प्रथमभागे ६ पृष्ठेऽस्य वक्तव्य तोक्ता ) गृहमुलोनिगूढमूपावनि खा० अपवित्रे रामागे दुखिहे च । तं । गूढसिराग गुडशिराक बिनपाणशिराविशेषेप्र० ४] द्वार प्रज्ञा० । गूढयिपगूढहृदय त्रिलयामिशा कोहि उदायिनृपमारकादिवत्तथाऽऽस्माभिप्रायं सर्वथैव निगूहति यथा नाऽपरः कखिद्वेति । कर्म० १ कर्म० । गुवंत - गुप्यत् त्रि० । ज्याकुजीभवति, 'गुप्' व्याकुले इति वच गूह - गूथ न० । पुं० | गूथ-कः । अर्द्धर्चा० । विष्ठायाम, तं । नात् । भ० १५ श० १ उ० । गूहण - गूहन - न० १०। स्वरूपस्य गोपायने मायाविशेषे भ० १२ श० ५ ० | तदात्मके मोहनीय कर्मणि, स०५२ सम० । गृहमाण- गूहमान वि० गोपायति ०१०१० गृह-ग्रह-धा० । उपादाने, "हेगृ॑एहः” ॥ ८ । ४ । ३९४ ॥ इत्यपभ्रंशे प्रदेर्धातोर्गृएद इत्यादेशः । “पढ गृराहाप्पयु व्रतु" प्रा० ४ पाद | गे गै पुं० । शब्दे, गीते च गैः पुमान् शब्दगीतयोः । पका है -न० ।" च्य्यादौ " ॥ ८ । १ । ५७ ॥ इति दुख-कन्दुक-० "अदेरस्वेम्बम् (प्रा० मरा" १०२त कः दर्मिते गोल के "गे" इति ख्याते प्रा० १ पाद | गूढायार-गूढाचारर त्रि० । गूढो मायाग्रन्थिगुपित आाचारः प्रवृत्तिर्यस्य स गूढाचारः, गूढ आचारो येषां ते गूढाचाराः । ग दादिषु सू० २०२० गूढापारि ण्) - गूढाचारिन् त्रि० प्रापति ख० ३० सम० | "गूढाया। निगूहिज्जा" सूत्र० २ श्रु० २ ० । गूढापच गूढ़ाव से गूढभासावाचा गुदावर्त्तः मेन्दुवरकस्य दारुप्रन्धादेव श्रावर्त्तने, स्था० ४ ठा० ४ ० । - Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गेज्ज गेडाकारवखकयणिलय गेज्ज -प्राह्म-त्रिए। पद् प्राये" ८१७८॥ प्राह्मशब्दे आदे. रात एव भवति । 'गे' आदेये, प्रा० १ पाद । समः । (' ठान' शब्दे चैषां स्थानानि वक्ष्यन्ते) उच्चत्वम्"मेगा देवा दोरयणीओ व उपपन्नता स्था० २ ठा० ३ ० । गेयह ग्रह था "महोपलमेर-निवारादिपच्यु याः" ॥०४।२००८ ॥ इति महादेशः 'ह' सुद्धा T1 अंगुलिकाझीपक १० कास्योर्मकारयेषु सं० प्रा० ४ पाद । ro अ २१० ॥ इति घेदादेशाभावे तथारूपम्। श्रादायेत्यर्थे, प्रा० १ पाद । गेय-गेय - न० । गानयोग्ये, स्था० ४ ० ४ उ० | स्वरसंचा रेण गीतिप्रायं निथरूम तद्यथा- कापिलीयमध्ययनम् घुवेलासम्मी, संसारम्मि दुकखपउराए।" इत्यादि । सूत्र० १ ० १ ० १ उ० । सरकरणं, सरे संचारो वा गेयं । नि० चू० १७ उ० । गेरिहम गृहीत्वा व्य० "कस्या- तुम तव्येषु घेत" ॥४। गेविजविमापत्यत्रैवेयकविमानमस्तट ० लोक पुरुषस्य ग्रीवाभवानि कानि तानि तानि प्रस्ताः प्रवेष कविमा मानविशेष समूहेपु. स्था० । तो विज्जविमाणपत्यडा पत्ता । तं जहा-हिट्टिमगेविमापत्थडे मक्किगेविविमाणपत्यमे उबरिमविज्जविमापत्थ मे | हेमगेविज्जविमाणपत्यमेतिविहे पचाने । तं जहा - हिडिमडिट्टिमगेविज्जविमापत्थमे हिडिममज्झिमगेविज्ज विमापत्थडे हिविरिविज्जविमाणपत्य मे । मज्झिमगे विज्जवि - मापतिपिपासे से जहा-मझिम हिहिमगेविअरिमाणपत्य ममममगेविविमाणपत्यमेमकिमपरमविमापत्थ मे । उवरिमविज्ञामाशापत्यमेतिविदे पाते । तं जहा- छबरिमहिडिमगेविज विमाणपत्य मे सवारममज्झिमविश्वमापस्यमे वरिमजवरिमगेविज्जविमाणपत्थ मे । ( स्था० ३ ० ४ ० ) नव विविमापत्यमा पत्ता । तं जहा हिष्ट्ठिमगेत्रिज्जविमाणपत्थ मे हि द्विममज्झिमगे विज्जवि - माणपत्य मे हिडिमउवरिममेदिश्मविमाणपत्य मक्तिमढिट्टिम विज्जविमाणपत्थडे मज्जिममज्जिम गेविज्जविमापत्थ मे मतिरमविजविमापत्य मे उपरिमहिहिमगेविज्जाविमाणपत्य मे उबरिममज्झिमगेविज्ज विमापत्यमे उपरिमउपरिमगेविज्जविमाण पत्थडे । एसि नवएदं गेविज्जगाणं विमाणपत्यमाणं नत्र नामघेज्जा पता जहा भरे सुमदे सुजाए सोमणसे पियदंसये समोव पढे जसोहरे स्था० ए ० गेवेय - ग्रैवेय- न० । प्रीवाऽऽभरणे, “अरुहार चारस्थं वा मेवेयं वामकुमं वा ॥ आचा० १ ० २ चू० । गेह - गेह न० । वास्तुविद्याप्रसिद्धगृहे, सु० प्र० ४ पाहु० ॥ खं० प्र० । गृहे, स्था० ३ ठा० ४ उ० । “गेहं ति वा गिदं ति वा एगहं" नि० ० २४० । - ( ए४८) अभिधानराजेन्द्रः । अधुना गेयमाद तंतिसमं तालसमं, वन्नसमं गहसमं लयसमं च । कन् तु होइ, पंच गीयसभाए || १७६ ।। तन्त्रीसमं तालसमं वर्णसमं ग्रहसमं लयसमं च काव्यं तु नत्र तिर्थ व गीयत इति यं पञ्चविधमु विमिर्गीतसंज्ञायां गेयाख्यायाम् । तत्र तन्त्री समं वीणादितत्रीशब्देन तुल्यं, मिलितं का । एवं तालादिष्वपि योजनीयम् । नवरं ताला हस्तगमाः, वर्णा निषादपञ्चमाऽऽदयः प्रहा उत्क्षेपाः, प्रारम्भ विशेषान्चे लावनविशेषाः "तत्य किस कोमिदिम सो सरो उठेति, सोलयो ति " गाथार्थः ॥ १७६ ॥ दश० नि० २ "अप्पेगा देवा चउध्विदं गेयं गायंति । तं जहा- उक्खिसाय पायसाय मंदा रोश्यावसाणं । रा० । “ चउब्विद् गेये पप । तं जहा उक्लिप पर मंदप रोविंद" स्था० ४ ०४ ०। (अष्ट गुणा 'गीय' शब्दे अस्मिन्नेव भागे ६०१ पृष्ठे उक्ताः ) गेरिय गैरिक-म० गिरी भयम्-ठम् वाची 46 1 श० ५० १३० पृथ्वीका यभेदे, प्राचा० १ ० १ ० ४ ० । मणिभेदे, सूत्र० २०३ श्र० प्रा० । धातुरक्तवले त्रिदरिमनि परिव्राजके, प्रथ० ६४ द्वार। गैरिकरजितवाससि भ्रमणभेदे, पिं० श्रमणनेत्रे, स्था० ५ ठा० ३ ० । श्राचा० नं० कापिले, पिं० । अचलस्य प्रजापतिपुत्रस्य प्रतिपक्षे, ति० । गेरूप--गैरिक--१२। 'गैरिव' शब्दार्थे प्राचा० १०१ २०४४० गेम - नान्य न० । ग्लानत्वे महानभावे, श्राव० ४ ० " गेलनं रोगो वा जये आतंको वा " । नि० चू० १५ उ० । (आगाभेदौ इति ' गिलाण " शब्दे श्रस्मिन्नेव भागे ८७७ पृष्ठे उक्त विवेकनरम "कुलकुक्षिग्रीवाज्यः इवायलकारेषु ॥४२३६॥ इति पाणि०) चाच । ग्रीवाऽऽभरणे, श्री० रा० । जं० प्रश्न | प्रीवाबन्धने, शा० १० २ श्र० ग्रेविव ग्रीवा लोकपुरुषस्य त्रयोदशपरिवर्त्तिप्रदेशः, तन्निविष्टतयाऽतिम्राजिष्णुतया त प्रेषका देशमा अि यकाः । उत्त० ३५ अ० । विशे० । अनु० । श्र म० । कल्पा सीमाना कासीम निकदेवभेदेषु स० ३५ - 35 गेहाकाररुवस्वयत्रिय-गेहाकारवृक्षकृत निलय पुं० नेहाकामेषु तो निष्यादितो निलयावालो यैस्ते हाकारवृककृतनिलयाः ॥ युगलिकमनुप्येषु, अं० २० । ( "तीसे णं समाए तत्थ तत्थ बहवे गेहागारा णामं कुमगणा गत्ता" इत्यादि नवमकल्पवृक्षस्वरूपप्रतिपादकं सबै सुकम्बोि भागे १०७ पृष्ठे प्रष्टव्यम् ) Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोजूह (Ut) गेहागार अनिधानराजेन्डः। गेहागार-गेहाकार-पुं० । गेदं गृहं तद्वदाकारो येषां ते गेहा- | गोउर-गोपुर-न० । गोभिः पूर्यते इति गोपुरम । पुरद्वारे, जी० ३ काराः । भवनत्वेनोपकारिषु, सुषमसुषमायां नवमेषु कल्पवृक्षु, । प्रतिः। नगरप्रतोल्याम्, न. ५ श० ७ १० । प्रतोलीद्वाराणां स्था० १० ठा। सः । गेहस्यवाऽऽकारो यस्य स गेदाकारः । परस्परतोऽन्तरे,अनु०प्राकारद्वारे, जी०३प्रति। "दो बना. गृहसंस्थानसंस्थिते,त्रिका चं० प्र० । जं० । जी । तं० (वर्णक- णगा पागारपमिणिवद्धा ताण अंतरं गोपुरं" नि चू०८ उ०। स्वस्य श्रोसप्पिणी' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १०७ पृष्ठे उक्तः)। श्रेष्ठधारे, कैवर्तीमुस्तके, वाच । गेहायार-गेहाचार-पुं० । गृहकृत्याचरणरूपे कलाभेदे, कल्प० गोनन-गोकल-न । बजे, गवां समूहे, गोष्ठे, आव० ३ ०। ७ कण। “सामी गोउलगतो" प्रा. म०प्र० । “प्राउट्टो गोउलाणि गेहावण-गेहापण-पुं० । गृहयुक्त प्रापणे, चं० प्र०४ पाहु । विउन्वित्ता" प्राव० ३ ०। गेहि-गृषि-स्त्रीगायें, अनिमा, सूत्र०१ १०६अ। गोकम-गोकर्म-पुं० । गौनॅत्रं कर्णो यस्य । सर्प, गौरिख कर्णावप्राप्तार्थेप्यासक्ती, भ० १२ श०५ उ० । ग्रामे, ग्राम्यसुखे, नि. स्य। अश्वतरे, मृगभेदे, वाचविखुरचतुष्पद विशेषे, प्रश्न०१ चू.१००। अभिष्वने, आव०४ १० । अनिकालायाम, उत्त. आश्रद्वार। गोकर्णद्वीपवासिमनुष्ये च । स्था०४ ग०२०। ७ ० । “मव्वं गेहिं परिमाय, एस पणते महामुणी " प्रव०। प्रा० । उत्त०। गोकर्णमनुष्याणां गोकर्ण पो नामा सर्वा गृद्धि प्रोगकारको दुःस्वरूपतया परिक्षाय प्रत्या द्वीपः। जी. ३ प्रति।। ज्यानपरिक्षया परित्यजेत् । परित्यागे गुणमाह-'एस' इत्या- गोकमादीव-गोकर्णदीप-jor वैषाणिकस्य परतोऽन्तीपे,नं०। दि । एष इति कामपिपासापरित्यागी, प्रकर्षण नतः प्रही, संयमे, कर्मधूननायां वा महामुनिर्जवति नापर शति । प्राचा०१| गोकलिंज-गोकलिज-न । गोचरणार्थ महावंशमयभाजनश्रु० ६ ० २२० । “पुढोवमे धुणे विगयगेहिं" सूत्र० १७० विशेष, मल्लायाम, भ. ७२०८००। गोकलिजं नाम यत्र ६ अ० । गौणमोहनीयकर्मणि, स० ५२ समः ।। गोभकं प्रतिप्यते । रा०।। गोहे-गहिक-पुं० । भर्तरि, " गेहिमो हरियो सरणा- गोकुक्षिणी-गोकुलिना-स्त्री० । गापालिकायाम, "तदानी जिनग" उत्त०२०। दास्याश्च, गोकुसिन्याश्च चेतसा ॥ उपप्रयाग मेसोऽभूत्, गाजगोहिमाण-गृषिध्यान-न० । गहिहिराहाराद्यस्यन्तमाका- | मुनयोरिव ॥ १॥" प्रा० क० । इक्षा, तस्या ध्यानं गृहिण्यानं, मथुरामङ्गोरिव कण्डराजस्य | गोखीर-गोतीर-न। धेनुपुग्धे,कस्प०३ कण।का।श्री०। मुक्तवतस्येव वा दुर्ध्यान, प्रातु। गोकीरपाएरं मांसशोणितमिति तृतीयोऽतिशयस्तीर्थकृताम। गेहिधम्म-गेहिधर्मा-पुं० गृहस्थधर्म एव श्रेयानिति भभिसंधा-1 स० ३४ सम। य तथोक्तकारिणि, ज्ञा०१ श्रु०१४ अ०। गोखीराभ-गोक्षीराभ-त्रि गोकीरपारमुरे, "रुहिरं गोखीरागएियव्य-गृहीतव्य-त्रि० । गृह्यते उपादीयते कार्यार्थिनिरि नं निविसं पांरं मंसं" औ०। ति गृहीतव्यः । कार्यसाधके, उत्त०१०। उपादेये, आव.] गोषयममण-गाघृतमएमन गोघयमंमण-गोघृतमएमन-पुं० । गोघृतसारे, "गोघयमएडणं" ६ अर उपा०१०। गो-गो-पुं० । गच्छतीति गौः । विशे० प्रा०म० । गोशब्दाद | गोपायय-गोघातक-पुं०। गोने,गोधातके,पापजीविनि, 'कसाई गोधूमस्ततशक्तवश्च ।जै० गा० । खुरककुदविषाणसास्नाला इतिप्रसिके, सूत्र०१ श्रु०१० ४ उ.। लाधवयवसंपन्ने पशौ, जै० गा० । बलीव, स्था०२ ठा०१०। | गोचोर-गोचोर-त्रि० । चोरविशेषे, यो हि धेनुं चारयति। रा०। "गोशब्दः पशुजूम्यप्सु, वाग्दिगर्थप्रयोगवान् । मन्दप्रयोगे दृष्टयम्बु-वज्रस्वर्गानिधायकः॥१॥" शति । अनु० । स्था०। प्रश्न. ३ श्राश्र० द्वार। दाचि, सूत्र० १ ० १३ अकादश। प्रा०म० । रश्मो, वजे. | गोच्चय-गोच्छक-पुं० । पात्रवस्त्रप्रमार्जनहेतुकम्बलशकसरूपे, खगें, चन्छ. सूर्ये, ऋषभनामौषधे, करणे-डो-नेत्रे, कर्तरि-डो- प्रश्न: ५सम्ब० द्वार। पात्रोपकरणे, तस्य प्रमाणम-एका वित. घाणे, वाचि, स्त्री० । दिशि, नुवि, जले, मातरि, पुलस्त्यभा- स्तिश्चत्वार्यलानि चतुरस्रम। "होइ य मजणहेक, गोच्छको र्यायाम, स्त्री० । इन्छिये, पशुमात्रे, वृषराशी, नवमसंख्यायाम, भाणवत्थाएं।" पतदुक्तं नवति-गोचकेन पटलानि प्रमृज्यन्ते। वाच । आदितीर्थकृवाञ्छने, हैम । औ०। कम्बनमयपात्रकोपरि दीयते। वृ०३ उ०। पं० व०। गोअमज्जिया-गौतमाथिका-स्ना। ऋषिगुप्तान्निर्गतस्य माण-गोचिय-गचित-त्रि० । गुच्छवति, रा०। संजातगुच्छ, गुच्चश्व वगणस्य द्वितीयशास्त्रायाम, कल्प० ८ कण। पत्रसमूहः । भ०१ श०१ उ० । बा । श्रो। गोपारफली- गोरफली-स्त्रीभगोआरफली चणकादिविदा-गोजलोया-गोजमौका-स्त्री० । जलौकजन्तुविशेषद्वीन्द्रियभे. स्य नज्जिका च द्विदलं स्यान्न वेति प्रश्ने, उत्तरम-द्विदलं, दे, प्रज्ञा०१५ पद । जी भवतीति । १६१ प्र० सेन० २ उल्ला। गोजह-गोयय-पुं० । गोसमूह, पूर्व नन्दगोपादीनां गवां यूथाः गोमावरी-गोदावरी-स्त्री० । नदीभेदे, गोदावरि ! सरस्वति ! कोटीबद्धा आसीरन्, श्दानी ते तथाभूता न सन्ति, किन्तु प. इति जसे तीर्थावाहनमन्त्रः। वाचाप्रा। चदशादिसंख्याकाः । व्य० १०००। २३८ आयकः ॥१॥” इति । अनुज गोच्छय-गो गाजूर Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (एए.) गोज अभिधानराजेन्दः । गोहिलू गोज्ज-गोज-पुं०। गायके, "जाव गोजो आढवेइ "। नि0 अवधौ प्रत्याख्यातवस्तुन आशंसासंभवात् । प्राशंसाशब्दे सूत्रे चू०१ उ० । “एगाम्म पएसे गोज्जो रम्मित्रो" दश०१०। प्राकृतत्वादनुवारलोपः। गोकग-गृह्यक-पुं०। देवविशेषे, "केलासभवणाए पगोगु- एवं बदन् गोष्ठामाहिलो विनयेन निषिकः। तदा च नवमपूज्झगो समुवठिो"पि। वस्य यदवशेषमजूत्तत्समाप्तम् । तथाभिनिवेशाद् पुर्वसिकापुगोइंगण-गोष्ठाइगण-पुं० । गोष्ठमध्ये, श्राव०४०। पाचार्येण सह गोष्ठामादिलो वादार्थ हुढौके । तत्र स्वपर्क स्थापयन् आचार्येणोचे-अहो आर्यन हि साधूनां कालावधि. गोहामाहिल-गोतामाहिल-पुं० । आर्यरक्तिसूरीणां मातुले, प्रत्याख्यानं मृताः सेविष्याम इत्याशसार्थ, किं तु देवभवे मा तवक्तव्यता किञ्चिदत्र तूइतना इत्यर्थः । एतचाश्रद्दधाने तस्मिन् सर्वसङ्घन मिलित्वा एवं विहियपुहत्ते-हि रक्खियज्जेहिँ पूसमिनम्मि | कायोत्सर्गेण देवता आकृष्टा, सा प्रागता नवाच-श्रादिशतु विए गणम्मिकिर गो-ट्टमाहिलो पडिनिवेसेणं ।२२६६। सक्व: । उक्ता सङ्ग्रेन-गत्वा तीर्थङ्करं पृच्च-यद् दुर्वलिकापुष्पमि प्राचार्यप्रमुखःसको वक्ति तत् सत्यम?;चत गोष्ठामाहिलोक्तम् । सो मिच्छत्तोदयो, सत्तमओ निन्हवो समुप्पणो (२२६७) तत्साहाय्याय च सङ्घः कायोत्सर्गेण स्थितः । सा तीर्थङ्करं एवमुक्तप्रकारेण विदितानुयोगपृयक्त्वैरायरक्तितसूरिनिर्दिवं यि- पृष्ट्वा आगेता उवाच-सङ्गः सम्यग्वादी, इतरो मिथ्यावाद। यासुभिधूततैलबवघटादिप्ररूपणां सकलगच्चसमकं विधाय निवः । स तदपि न श्रद्दधे, मिथ्यावादिन्येषा, न तत्र गता। दुर्वलिकापुष्पमित्रे गणिन्याचार्य स्थापिते यो मथुरानगर्यामन्य- ततः सकेन बाह्यः कृतः, अनालोचिताप्रतिक्रान्तश्च कालं गतः । तीर्थनसहवचस्वीतिकृत्वा वाददानार्थ सूरिभिर्निजमातुलको प्रा०क० । आ० चू०। (गोष्ठामाहिसाबछिकानामुत्पत्तिः, तन्मतं गोष्ठामाहितः प्रेषित आसीत, स यशःशेषेषु त्रिषु प्रतिवादिनं च'कम्म' शब्दे अस्मिन्नेव भागे २५६ पृष्ठे उक्तम) गोष्ठामाहिसाः जित्वा समागतःसन'मामचंभूतं वचस्विनं परित्यज्य अन्योऽय-| स्थविराः स्पृष्टमबद्धमेष प्ररूपयन्ति स्म । उत्त० ३ ० । मृषिककल्पः सिभिराचार्य उपवेशितः, तत्पश्य कीदृशं तैः कृ. प्रा० म०। तम,"इत्यनिप्रायतः,तथा तांच घृतपटादिप्ररूपणां श्रुत्वा प्रतिनि | गोहिदासी-गोष्ठिदासी-स्त्री० । जनसमुदायदासिकायाम, वेशेन गाढानुशयेन यो मिथ्यात्बोदयो जातः,ततः तस्मात्स गोष्ठामाहिला सप्तमो निहवःसमुत्पन्नः २२६६।२२६७। विशेष प्राOROTI "सिहो विज्जुमतीए गोहिदासीए"। प्रा० म०प्र०॥ "पंच सया चुनसीया, तइया सिद्धि गयस्स वीरस्स। गोद्विधम्म-गोष्ठिधर्म--० । गोष्ठिव्यवस्थायाम, इह च समवप्रावकियप्राण दिट्ठी, दसउरनयरे समुप्पन्ना ॥१॥ यसां समुदायो गोष्ठी, तद्व्यवस्था पुनर्वसन्तादाविदं कर्तव्यदसरनगरुन्छुघरे, अजरक्खियपृसमित्ततिगयं च । मित्यादिलक्षणा । दश०१०। गोट्ठामाहिलनवम-मेसु पुच्छा य विझस्स" ॥२॥ नवरं बिभ्योऽष्टमे कर्मप्रवादपूर्वे कर्म प्ररूपयति। यथा-जीवःप्र- गोटिव-गोष्टिवत--त्रि०। गोष्ठीपतौ, अन्त०७ वर्ग । विपा। देशैर्षकमात्र कर्म तदेव विघटने,शुष्ककुड्यापतितचूर्णमुष्टिवत् ।। द्वाविंशतिगोष्ठीवत्पुरुषेषु, वंग। किञ्चित्स्पृष्ट कालान्तरेण विघटते, आई लेखकुड्ये सस्नेहचूर्णपत् । किश्चिदरूस्पृष्टं निकाचितं वजययापिण्डन्यायेन जीवेन "जतिनरनमिरसुरनर-सिरिसेहरकिरणरश्यसस्सिरियं । सहकीभूतं चिरेणाऽपि वेद्यते । तत श्रुत्वा गोष्ठामादिल पाह नमिङ सिरिवीरपयं, तुच्छ मुयहीलगुप्पत्तिं ॥ १ ॥ नैवं शास्त्रकृतसंमतम् । पाह वीराउ वीसमे वरि-से सिरिसुहम्मस्सामिनिव्वाणं । पुट्ठो जहा अबद्धो, कंचुश्णो कंचुआं समने। . तत्तो चूयालेसे, सिको जंबू चरमनाणी ॥२॥ एवं पुट्ठमवई, जीवं कम्मं समझे ॥ १ ॥ तउ इकारमवरिसे, पभवस्सूरी गो तियसभवणं । यथा भवः कञ्चुकिनं समन्वेति एवं स्पृष्टमबद्ध कर्म जीवं तेवीसाए सिज्ज-जवो य तत्तो गओ सगं ॥३॥ समन्धेति, जीवेन सहाविनागबकं कर्म न वियुज्यते । विभ्येनो- जसनहगुरू तत्तो, सीसो सिज्जं भवस्स समयन्नू । क्तम्-ममैवं गुरुभिराख्यातम् । स ऊचे-स्वद्गुरुः किं विजाना- विहरतोऽयं पत्तो, सावत्थीकुट्ठगुजाणं ॥ ४॥ ति? तेन शङ्कितेन गुरुः पृएः-किमिदं मया न सम्यक् श्रुतम।। सिरिभदवाइसंजू-इविजयसीसा दुवालसंगधरा । गुरुराह-सन्यक श्रुतम् । इदमित्वमेव नान्यथा । तेन गोष्ठामादिलोक्तं कथितम । गुरुराह-पतन्मिथ्या, यथा-अयःपिएम व पासट्ठिया य निश्छ, कुणंति सुस्सूसणं गुरुणो ॥५॥ हिःमर्वात्मना मंबध्यते, वियुज्यते च; एवं कमाऽपि । इत्येतद अह जवाहसीसो, महिलाए अग्गिदत्तनामेणं । गुरोात्वा विन्ध्यन स भणितः-इत्थमाचार्या भणन्ति । ततः लच्छिग्गे उज्जाणे, सो पमिमाइडिओ तवं चरइ ॥६॥ स नूष्णी स्थितः । अन्यदा नवमे पूर्व साधूनां प्रत्याख्यानं व- इचो दुवीसपुरिसा, गोहिल्ला मजमंसपरवसगा। गयते । यथा-" पाणाइवायं पश्चक्खामि जावज्जीवाप " इत्यादि । गोष्ठामाहिलो वक्ति-नैवं, तर्हि कथमित्याह कामलयाए रत्ता, वियरति सया तदुजाणे ।। ७॥ पञ्जक्खाणं सेअं, अप्परिमाणाइ होई कायव्यं । पासंती तं साहुं, मइंधा निम्घिणा अईपावा । जेसि तु परीमाणं, तं दढे पाससा होइ ॥१॥ । अइतिक्खसत्यहत्था, धावंति वहाय समकालं ।।८।। प्रत्याख्यानम् अपरिमाणकृतं श्रेयः, कृतपरिमाणं पुर, पर्णे पमिया य अंधकूवे, सध्वे गण मन्षुणा गहिया । Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए५१ ) अभिधानराजेन्द्रः । गोहिल अन्नुन्नसत्यपहिया, चिंतेइ मुणी सकरुणाए || ए | हा हा कालसमए, वरायया जीवियान वुच्छिन्ना । जिधम्पकरहिया ते, कत्य वि पत्ता मुइ नाणी ॥ १० ॥ इय चिंतित्ता साहू, पारिता काजसग्ग तर चलिओ । जत्थेव य गुरुगुरुणो, इरियाए समागम तत्य ||११|| काऊ य किइकम्मं, तस्स य गुरुरणस्स भद्दबाहुस्स । संभूविजयस्स वि, तढ़ पुरो कयंजनी पुच्छे " ॥ १२॥ इत्थं पुच्छा-भयवं ! ते दुवीसगा गोहिला पुरिसा श्रद्मि कालं कालधम्मेण पत्ता कहिं उत्रवन्ना ? | कत्थई वा जोणिमंडले कम्मणा परिन्नमिस्संति । ते दुबीसगा किं सुलोहित्तिणो, जयाहु दुलहवोहिवत्तिणो, त्ति पासिय मम संसयं विहामेज ? | नए एं से जसनद्दगुरू तुंगियाय सगुतिवगवगए दिट्टिवायंतभावियंतकरणे सुनवप्रो गं पजमाणे तेसिं दुीसगोडिल्लाणं पुरिसाएं गईओ उबवायं कम्मणा जोणीमंडल परिब्जमणं बोहिदुल हूं नाऊण तं गिदत्तसी एवं वयासी-ग्रग्गिदत्ता ! ते गोहिल्ला पुरिसा तुम या पावेमाणे मज्जपरवगा अंधकूचम्मि पमिया समाणा परूप्पर तिक्ख सत्येहिं बिनंगुवंगा अदृदुवसा पुणो पुणो कामलयं गणियं कखमाणा अंतमुहुत्ताए तदज्जवसा०, तीसे एां कामलयाए गणियार तेहिं गो पुरुसोहं किमिजोयिचाए संकमाहिं अला पुरदि यासा घणवेयणा पाउन्या । तीसे णं वेयगाए कामलया गणिया पीडिया समाणी अगाणं विज्ञाणं चिमिच्छ्रगा यं उवदंसेमाणी बहुमंततंत्र्यासेधसज्जेण पमियारं करेमाणी संचिट्ठति । तया णं अग्गिदत्ता ! एगए एवं विज्जे सत्यकम्मे लग्योवाए डरो य विधारणए ते दुवीस - किमिकीडगा वेइंदिया अद्वियमंससोणियत्रका साहरिय जलजरियभायणे पमुत्ता कामलया उवदंसेइ, पुणो वि थणमंसचम्मं संधिसुत्तेण मालेइ, संरोहणोसहेण समाहिजइ । तए अग्गिदत्ता ! सा कामलया तेहिं दुबीमकी मगेहि यणमज्जकडिएहि उप्पन्नसमाहिया जयणी तं विज्जं विउण णपाणखाइमसाइमवत्थमालंकारेण य जीवियारिहपीइदाणेण यतासइत्ता त्रिसज्जेइ । तए णं सा कामला गणिया ते किमिकीमगेसु पुव्वबंधाणुसया सकरुणं चिंतेड़ मा इमेसि ववशेवणं मम हत्याओ भविस्सर ि गहाय महिलाए पुरीए खाइयमज्जवडिय लुम्गंध सुकसोशियकोट्ठगंसि उभ्यइ । तत्थ वि ते 5वीस किमिकी मगा श्रायत्रबुहातएहिं अभिनूया समाया तमु तपहुतेहिं कालं गया । तणं अगदत्ता ! साहारणवणेस मृत्याकंदएस एगिंदियताए उबवज्जिस्संति । ती ओ कालेहिं खणिज्जमा कट्टिज्जमागं ते दुबीस किमिसचा पुढवीदगागपत्र एव For Private गोहिल्ल णस्सइएस पंचसु एगिंदियेसु जहन्नमज्जिगगहिरं पूरिस्संति । ततो विग्गिदत्ता ! ताणं दुवीसकिमिजीवाणं तीसे एणं कामलयाए उयरंसि गंगोलयत्ताए उत्पत्ती भविस्मति । त चिणं दिलं विरयेणं, तेसि दुबीसगंमोलगाणं हिडारणदारेणं पुरीसलित्तंगाणं पाकियाणं अंतमुत्ता वि नाणं तत्येव पुरी से इंदियत्ताए नृप्पत्ती जविस्सति । ततो अिंतमुत्तान एणं ते दुवीसा तेइंदिया विदन्ना समाला तमेव पुरी से चोरिंदिया होदिति । एवं च णं तीसे कामलयाए उच्चारपासवण खेल जल्ल सिंघाणवंतपित्तेसु मत्तवारं विगलिंदियत्तणं जहाकमं पाविर्हिति । इत्थमेगुए तीसजववत्तव्त्रया । तओ पुलो अग्गिदत्ता ! ते दुवी सगोडिन्नपुरिसा तीमइमे भवे ती गणियाए गेहे मोगगहणनिमणे मंमुक्का समुप्पिस्संति । ततो दिएपुहुत्तेणं प्राउमइकम्प इगतीसिमे जवे मूलया गब्ब्जवा तीसे कामनया गणियाए गेहे होर्हिति । तो य मासपहुत्ता आठक्खएणं पुतीसहमे भत्रे तीसे णं कामझयाए गणियाए गिहे सरदारदेसम्मि गता सूरतं अणुहवस्तति । तत्थ ते दुत्रीसगा सूयरा रुद्दा पयंका पीणखंधा कामगिया दाढात्रिविवया कदम चिट्ठाविभित्तगत्ता तेणं चेत्राद्वारेणं विति कप्पेमाणा परुप्परं रोदस्सरेणं गुंजमाणा बहुएं पाणीणं विमद्दणट्ठाए अप्पाणं सरिसं मन्नमाला वासपत्तट्ठिखणं कालं किच्चा सेलसरीरगावया तेत्तीस मे भवे अवंतीण सु सोवागकुलेमु उव्वज्जिस्संति । तत्थ वसगा सोवागा बुद्धिं पत्ता हुंडाणे दीहदेता लंबोयरा नीलीयरा विसिन्ननासिका अदंसणिज्जा जाणं दुगंडामुप्पायमाशा सकम्मकुसला अत्रि डोर्हिति । तए णं ते दुवीसकम्मकुसलत्तणेणं विएणाणगुणेण य उवाए कम्मुपाययेण वहुतरदविणजायं एगो मेल्लइस्संति । तद्दन्नजीविट्ठाए उवजुंजे माणा विहरति । इत्यंतरम्मि अग्गिदत्ता ! सा कामनया गणिया बुद्धिं पत्ता समापी बहू अत्थाय मग्गणा य भिक्खायरियाण य अत्ययमाणी परियरमारणी निययस्य जणं प्रापुच्छित्ता परिव्वायगधम्मे परिधागा महिलानयरीओ निगच्छति । निग्गच्छित्ता कासीजावयमज्झट्ठिय सुरसरिजब कंठियाणं परिव्वायगाणं अंतिए आगया सासणमूलं परिव्वायगधम्मं उसंपजित्ता गं चिट्ठ; तए णं सा कामलया गलिया सुपरिव्वाइया भविस्सर । अयाइ साकामलया परिव्वाइया कासीजावयाश्रो बढ़िया स व्यतित्याइन सडयाए नियगुरु आपुच्छित्ता वहिया जणवयविहारं विकरमाली तित्थानमममाणी अतिदेसयिभिप्पासरी सुगाहिं परिव्वाइगाहिं सबि स परिधु Personal Use Only Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोहि (ए५२) अभिधानराजेन्द्रः। गोहिह डा धाउरत्तवत्थपरिहिया तं दंडिकुट्टियं अंकुमवरमालप- जुयनं बुहियं ति कट्ट विसज्जिहिति। तए णं अग्गिदत्ता ! वित्तियहत्या समाजा आगमिस्मइ । तए णं सा कामलया | ते दुवीसनंगा अकम्मा अकालविज्जुपारण पज्जलियंगा परिवाइया सिप्पासरीतमेसु समागयं जाणित्ता प्रणेगे भविस्संति। तीएणं पणतीसश्मे नवे मज्के विसएमु पुहो पुहो अवतिजणवयमग्झिरा सेटिसेणावश्मंतिणो वहवे उत्तमा | कुलेसु चउदस विजापारया दिया समुप्पज्जइस्संति । तते य माझिमा य पुरिसा इत्थिा य जत्ताए हन्नमागमिस्सं- एं ते दुवीसदिया धाराउरे जन्नदत्तदियामंतणेणं जमवामति । तत्य णं ते वीससोवागा तीसे णं जत्ताए आगमिस्संति।। म्मि ठिया पिहियदुवारा दम्वेहिं घरहिं हवणं करेमाणा तीसे णं कामलया परिवाश्या तेसि सिट्टी० जाब इत्थीएं वज्झग्गिाणा नहिएण दवा हुंता अट्टज्माणोवगया पिपुरो सोयमूलं परिवायगधम्मं परूवेई । एवं खल अम्हे वासासोसियकंग सिप्पाणईए दहम्मि मच्छा होहिंति । सोयमूले धम्मे पन्नते। से वि य सोए दुविहे पन्नते। तं जहा- एवं सत्तभववत्तव्ययायो जलयराणं मज्के, तओ णं नवदव्वसोए ! लावसोए अ। दन्नो उदयपट्टियाए य, जववत्तव्वया स्वयरजोणीसु, तो य एकारसभववत्तभावो दसेहि य मंतेहि य । जंएं अम्हं किमिहि अ- व्वया थलयराणं मज्झे । एवं च णं अग्गिदत्ता! दुससुई जवइ, स य मट्टियाहें लिंपिज्जइ, तो सुद्धोदएणं द्विभवग्गहणं णेयच्वं । तेर्सि इत्यंतरम्मि दुसहिमे भवे ते पक्वालिज्जड, तते णं सा असुई मुई हवा, एवं खलु गोहिवपुरिसजीवा मिया गप्पजिस्मति । तए णं ते दुसत्ता जलाभिसेए सते परं पयं गच्छति । तया णं ते मुवी-1 वीसमिया बुद्धिं पत्ता अपरिकम्मवणदवग्गिदका सेलपरिससोवागा कामजयापरिन्चाइयावृतं सोयं धम्म सोच्चा | गावया तेसहिमे नवे मज्झे विसएमु सावयवाणियकुहतुट्ठा धम्म अभिसद्दहमाणा रोहमाणा कामलयापरि- लेसु पुहो पुहो समुप्पजिस्संति । तए णं ते दुवीसवाणिव्वाश्याए अंतिए तियपयाहिणावं सोयमूलं धम्म यगा जम्मुक्कवानवत्था विसायपरिणयमित्ता दुट्ठा पिट्ठा पडिवन्जिहिंति, पुणो वि कयपणामा सए गिहेसु कुसीला परवंचणा खलंका पुन्वनवमिच्छत्तभावाओ जिपमिगमिस्संति, परिचायगधम्मपरमजता होहिंति । अह णमग्गपमिणीया देवगुरुणिंदणया तहारूवाणं समणाणं ते वीससोबागा मिच्छादसणधारिणो एणधम्मप- माहणाणं पमिट्ठकारिणो जिणपस्मत्तं तत्तं अमन्नमाणा मिणीया हुंता सेसाणं पंचदरिसणाणं, विसेसो अत्तपसंसिणं वहूर्ण नरनारीणं सहस्साणं पुरओ नियकजिण मरापबन्नाणं संजयसवाणं जिणवयणाणं अवएणवाइ- प्पियं कुमग्गं आवेएमाणा पनवेमाणा परूवेभाणा जिणणो पडिणीया निंदणीया होहति। तो ते दुवीमसोबागा | पमिमाएं भंजणया णं हीसंता खिमंता निंदंता गरिहंपरिचायगधम्माणुरत्ता जिणधम्मस्म अवलवायं उच्चारे- ता परिहवंता चेइयतित्थाणि साहुसाहुणी य नहावसंमाणा अमया कया आमंतणे प्रणेगाहिं गिहियं दाणं ति। तया णं अग्गिदत्ता! सा कामक्षया परिवाइया - श्राहारेमाणे मरएमएवखमाणे पंचवासं परिव्वायगधम्म | बहुत्तरिवासाइं गिहनासं किच्चा दुतेरसवासाइं परिवायगपरमभावपरियागं पाउणित्ता आउक्खयम्मि तत्थेत्र अवंतिदेसे धम्ममणुरत्ता चनरुत्तरं वाससयं सन्याउयं पाउणित्ता चरतीमइगे भवे भंडसकुलेसु उववज्जिाहिति । तो णं ते दु. सत्तअहोरत्तनिरसणहिया कालं किच्चा वाणविंतरस्स वीसनंडिया कमेण वुद्धि पत्ता दुट्टा रुद्दा साहस्सिया विया-| सुबत्थस्स दाहिणे दिसि देसूणपद्विघाउया मुवत्या नाम लचारिणो अणेगसेडिसेणावअमच्चनरवणो भमचिट्टे देवी उप्पजिस्सति । सा सुवत्या वाणविंतरी ओहिणा विहरमाणा विहरिस्संति । अम्मया कुमत्यननयरम्मि बंजदी पुन्बबहुनवसंबंधिणो ते दुचीसवाणियगे पासित्ता हटवरायापुरमओ अमुसवेसविमंत्रियं अमुमदासपरिकीलियं तद्वा ताणं दुवीसवाणियगाणं दुट्ठाणं. जाव परिदुद्दचिटुं नवदंसयाणा एगं साहुजुगझं अहमपारणंसि हवंताणं पुन्चभवपत्तो सहियाणं परमपिईए सागोयरचरियाए विहरमाणं पामिस्संति । एयम्मि समए हाएज्जं करिस्सति । तया णं अग्गिदत्ता ! ते दुएगाणं तत्य दुट्ठपुरोहिएणं कयसन्ना ते दुवीसभंडगा कनक वीसवाणियगा दुट्ठा० जाव परिहवंता तीसे णं सुवमारवं कमाणा पहाविस्संति, तं साहुजुगलं संघसंति, परियावइस्संति, किलामइस्संति, हीलस्संति, खिसिरसंति. त्यावाणवंतरीए साहज्जेणं धणेणं धन्नेणं पुत्तकलित्तिनिंदिस्संति, पुरोहियपमुखाणं हा जणस्संति, नह वि | आएणं पीईसकारसमुदाएणं वटिस्संति । तया णं ते दुवीसहुत साहुजयनं मोणावलंबियं दहण संता तत्ता समाणा | वाणियगा मुट्ठा० जाव परिहवंता धनेणं धन्नेणं० जाव समुसयमेव संसहचिघाइंमि महवनावं पमिवन्नातं साहणं दाएणं वट्टिया समाणा वाहाहिं अप्पाणं अफोडिस्संति वि Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोहिल (५३) अभिधानराजेन्डः। गोणणाम बग्गिसंति,बहणं नरनारीसहस्साणं पुरओ एवं परूवइस्सं- | जसजदे जिणवयणे, दढचित्तो होह पइदिवहं" ति-जओ णं अम्हाणं एस धम्मे सम्बे अहे परमढे, सेसे ॥ इय बंगलियाए सुयहीबुप्पत्नी अज्जयण संमत्तं ॥ एष्टो, हंनो माणुस्सा! पासह-अम्हाणं किच्चफलं इह-गोटी-गोत्री-स्त्री० गावाऽनेका वाचस्तिष्ठन्ति पत्र। स्था-घमर्षे कः। लोए वि पय,किमंग! पुण फलकहणं ति तुम्हे वि अम्ह | "अम्बाम्बगोभूमिसव्यापद्वित्रिकुशेकशमकङ्गामजिपुञ्जिपरमे बहि. धम्मानुटाणपरा होह त्ति कङ्क प्राहियं नियगमइविगप्पिगं | दिव्यग्नियः स्थः" ||३६७॥ इति (पाणि) षत्वम । गौरा० सच्छंदवुद्धिमग्गं आइक्वइस्संति । एवं च णं अग्गिदत्ता ! डीम् । वाच । "कगटमतदपशषसक पामूर्व लुक्" । ते वीसवाणियगा पन्जट्ठमावयधम्मगा छाडं दरिसणेणं ॥।२।७७॥ इति षमुक् । प्रा०२ पाद । महत्तरादिपुरुषप. श्वकपरिगृहीते, पृ० २१० । जनसमुदायविशेपे, झा० १ मझे एगमावि दरिसणममहहंता सकप्पियं पहं पहावेमाणा| श्रु०१६ अ०। परस्पराऽऽलापे, पोष्यवर्गे च । चाचा असंखकालं जाव दुलहबोहियत्ताए कम्मं पकरिस्संति, सा-गोड-गोड-पुं० । देशभेदे, कल्प० ७ कण । स च देशो वामिपरुवियस्स सुयस्स हीलणेणं जविस्सइ । तया णं सुयही- देशाइकिणस्यां समुद्रास्तिके । (प्रश्न.१ आश्र द्वार) अनायलणयाए समणाणं निग्गंयाणं नो उदए पूना सक्कारे संमा क्षेत्रवनन्तवति । तद्वासिनि म्लेच्चजातीये मनुष्ये च । प्रब० णे नविस्सइ, अइदुक्कर धम्मपालणं भविस्सइ । तएणं अ २७१ द्वार। स० प्र०। गोमवागरण-गौमव्याकरण-न। विंशतिव्याकरणानां पोडग्गिदचा ! दुवीसवाणियगा सुहा० जाव परिहवंता पन्नर शे, कल्प०१ कण। सवासाई अहिकंच अणणुपुबीए चउरंत नवनवइवासप-मोमी गौमी-स्त्री० । गुडनिष्पन्नायां मदिरायाम, वृ० २००। रियागं पाउणित्ता सोलसरोगायंकाहिं परित्या समाणा| "प्रोजःप्रकाशकवणे-बन्ध आडम्बरः पुनः ॥ समासयमा भट्टज्माणोवगया कालं किच्चा धम्माइपुढवीए पढमपयरम्मि | गौडी," इत्युक्तलकणे काव्यरीतिभेदे, वाच । दसवाससहस्साहिईए नेरइयत्ताए उववन्जिहिति । तमो य | गोइ-गौस्य-न० । गौल्यरसोपेते मधुररसोपेते , भ० १० लगिस्सइ धूमके उग्गहो, तस्स छिई तिन्नि सया तेत्तीसा| श०६ ३० । एगरासिवरिसाणं, तम्मि य मीणपाटो उ मिच्छनावं - गोण-गो-पुं० । " गोणादयः" ।।२।१७४॥ इति गोशम्दस्य डिवज्जएान णाणाविहजाणीम कम्मणा तेसि परियटणं स्थाने निपातः। प्रा०२पादावनीवर्दे,दश०५०१० श्राचा। इविस्त । एवं पं अग्गिदत्ता ! जीवा सावयत्तणमवि उत्त। श्रो। स्थान प्रश्न । ०। प्रज्ञा । “गोणं वियातं"। प्राचा०२ श्रु० ३ ० ३ उ०। लबूण सुयहीलणाए उबहवोहिणो हविस्संति । गौण-न। गुणैर्निर्वृत्तं गौणम् । उत्स.२९ प्र०। गौणानि "ग्रह अग्गिदत्तसाहू, पुणो वि पुव्वं गुरुकयपणामा । गौणनिष्पमानि। प्रश्न०१ आश्रद्वार । गुणेभ्य प्रागतं गौणम् । अज्ज! कया होही सुय-हीला अवि कया उदो ॥१॥ कल्प. ४ कण । स्था० । “अभ्यभिचारी मुख्यो-ऽविकलोऽसा. जणइ जसजद्दसूरी, सुउवोगेण अग्गिदत्तमणिं । धारणोऽन्तररश्व, विपरीतोऽर्थो गौणः"। स्या०६ श्लोक। नि. सुणमु महानाम! जहा, सुयहीलणमह जहा उदभो॥।॥ चू० । " गोणं गुणणिप्पन्नं नामधेनं करिति ।" किमुक्तं भवति?, इत्याह-गौणशब्दोऽप्रधानेऽपि वर्तते इत्यत उक्तं गुणमोक्खान वीरपहुणो, दुसएहिँ य एगनवअहिपाहिं। निष्पन्नम् । औ०। सूत्र० । भाचा० । शा०विशे० । गुणप्रधाने, वरिसाइ संपनिवो, जिणपमिमावावगो होही ॥३॥ विपा०१ १०५० । नामनि, पिं०। ('नाम' शब्दे व्याख्या)। तत्तोसोलसरहिं, नवनवइ पुणो जुएहि वरिसेहिं । से किंतं गाणे । गोणे खमइ त्ति खमणो, तप ति तपते दुट्ठा वाणियगा, अवन्नइस्संति सुयमेयं ॥४॥ पो, जलइ त्ति जमणो, पवई त्ति परणो । सेत्तं गोणे । तम्मि समएँ अग्गिदत्ता !, संघसुयजम्मरासिनक्वत्ते। "से किं तं गोणे" इत्यादि,गुणनिष्पन्न गौणं,यथार्थमित्यर्थः । अमतीसमे दुट्ठो, लगइस्सइ धूमकेउगहो ॥५॥ तच्चानेकप्रकारं, तत्र कमत इति कमण इत्येतत् कमालवणे. न गुणेन निष्पन्न, तथा तपतीति तपन इत्येतत्तपनलकणेन गुतस्स लिई तिन्नि सया, तेत्तीसा एगरासिवरिसाणं ॥ णेन निवृत्तम, एवं ज्वलतीति ज्वमन इतीदं ज्वननगुणेन संभूत. तम्मि यमीणपइको, संघस्स सुयस्स उदयत्थी ॥६॥ । म् । इत्येवमन्यदपि भावनीयम् । अनु० । इय जसभद्दगुरूणं, वयणं सोच्चा मुणी सुवरग्गो॥ गोणंगुल-गोलागूल-पुं०। लङ्गरे वानरे, भ० १२श०८ उ०। पायाहिणं कुणतो, पुणो पुणो बंदणं कुण॥७॥ गोएंगुझवसभ-गोलाङ्घनवृषभ-पुं०। गोलाङ्कलानां वानराणां आपुच्छिकण सूरिं, सुगुरुं तह भद्दवाहुसंजूझं । मध्ये महान् स एव वा विदग्धः, विदग्धपर्यायत्वात् वृषभ शब्दस्य । विशिष्टवृषभे, ज० १२ श०८१०। संमेहणं पवनो, गोऽग्गिदत्तो पढमकप्पे |८|| गोणणाम-गौणनामन-न। गुणैर्निष्पन्न गौणं, तच्च नाम व श्य सुयहीअणुपायण-फसाफ जाणिकप अन्ने वि। | गौसनाम। यौगिकनाम्नि, प्राचा०१ श्रु०५ भ० १ उ०। Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोणपोत्तय अनिधानराजेन्द्रः । गोत्तास गोणपोत्तय-गोपुत्रक-पुं० । गोवत्से, उत्त०५ अ० मण्डोरपत्यानि मएमवाः । वसिष्ठस्यापत्यानि वासिष्ठाः-षष्ठगगोणगोनूत-गौणगोनूत-नि० । बलीवर्दकल्पे, बृ०२ उ० । णधरायसुहस्त्यादयः। तथा ये काश्यपास्ते सप्तविधाः । एके काश्यपशब्दव्यपदेश्यत्वेन काश्यपा एव ।मन्ये तु काश्यपगोत्रगोणनखण-गोशक्षण-न० । सास्नाविलरूदयो मूषिकन विशेषततशपिमल्यादिपुरुषापत्यरूपाः शाएिकल्यादयोऽवगन्त. यनाश्च न शुभदा गाव इत्यादिके गोजातीयसकणे, जं. २ व्याः । स्था० ७ ग० । पते च प्रत्येक सप्तसप्तेति सवक० । द्वात्रिंशतकलाभेदे, साक्षा। संकनया एकोनपञ्चशत् । सः । का० । भ० । स्था०। गोणस-गोनश(स)-पुं०।निःफणाहिविशेषे,प्रश्न०१ श्राश्र द्वार। नं० । निः । तद्विपाकवेधे कमर्माण च । कारणे कार्योजी। प्रशा० । सरीसृपभेदे, का०१ श्रु० ८ अ०।। पचारात् कर्मण सपादानविवक्षया गूयते शम्मयते सच्चागोणसखाश्याइ-गोनसखादितादि-पुं० । स्त्री० । "गोणसखइ- बचैः शब्दैरात्मा यस्मात् कर्मण उदयप्राप्तास झोत्रम् । याद रप्पुए वा वि" । (७) श्राव०५ अागोनससरीसृपनक्षित पं० सं०३द्वार। कर्म । दशा । प्रव० । पूज्योऽपूज्योऽयमिप्रभृती,पादिशब्दात गोधेरकादिपरिग्रहः । पञ्चा०१६ विव०। त्यादिव्यपदेश्यरूपां गां वाचं त्रायते इति गात्रम् । स्था०२ गोणागिति-गवाकृति-पुं० । गवये, नि० चू० १ उ० । ठा० उ० । सप्तमे कर्मणि, उत्त० ३३ अ० । तच्च द्विधा -" गोत्ते कम्मे दुविहे पम्मत्ते । तं जहा-नचागोए चेव, गोणिय-गाविक-त्रि० । गोक्रयविक्रयकारिषु, व्य०१ 101 णीयागोए चेव" । स्वरूपं चास्येदम-"जह कुंभारो भएमा गोणिपाण-गोपान-ज०। गवां यत्र पानं तस्मिन, वृ०३० । कुणा पुज्जेयराज लोयस्स ॥श्य गोयं कुण जिय,सोए पुज्जेयगोणिवच्छ-गोवत्स-पुंगधेनुवत्से, पिं०।। रा वत्थु" ॥१॥ उचैर्गोत्रं पूज्यत्वनिबन्धनम्, इतरविपरीतगोणिसजा-गोनिषद्या-स्त्री० । गोरिवोपवेशने, स्था० ५ मा स्था०२ ग० ४०० । प्रका। ग०१०। सम्प्रति द्विन्नेदगोत्रकर्माभिधित्सुराहगोणी-गो-स्त्रीजगवि, "गोणीणं संगेल्लं' गवां स्त्रीगवानां 'सं. गोयं मुहुच्चनीयं, कुलाल व मुघम भलाईयं । (५१) गेलं ' समुदायः । व्य०४ उ० । श्रा० चू० । विशे० प्रा०म०। गोत्र प्राग्वर्णितशब्दार्थ द्विधा द्विभेदम् ।कथमित्याह-'उपनीचं' (प्राचार्यशिध्ययोग्यायोग्यत्वे गोदृष्टान्तोऽन्यत्र) उचंच नीचं च उच्चनीचम, उच्चैर्गोत्रं, नीचैर्गोत्रमित्यर्थः। पतच गोतित्य-गोतीर्थ-न० । ६ त० । गवां तडागादाववतारमार्ग, कुबालश्य कुम्नकारतुल्यं शोजनोघटः सुघटः पूर्णकलशः,'भुम्भगोतीर्थमिव गोतीर्थम् । बवणसमुघादेवतारवयां भूमौ, स्था० सं' मध्यस्थानं सुघरभुम्भले आदी यस्य तत्कृतोपकरणस्य तस्सु१००।क्रमेण नीचतरे प्रवेशमार्गे, जी०३प्रति०। (लवणस- घटभुम्नलादि, करोतीति शेषः । अयमत्र भावा-यथा हि कुनामा मुष्शब्देऽस्य व्याख्या) पृथिव्यास्तादृशं पूर्णकलशादिरूपं करोति यारशं लोकात कुसुगोतित्थविरहिय-गोतीर्थविरहित-पुं० । समनूसी, दी। "गो- मचन्दनाक्षतादिनिः पूजां लभते, स एव नुम्भलादि तादृशं तित्थेहि बिरहियं, खेत्तं नलिणोदगसमुद्दे" ॥१६॥ द्वी०।। विदधाति यादशमप्रक्किप्तमद्यमपि लोकानिन्दा सनते । कर्म०१ विषमेश्वतारनूमिर्जवति । स्था० १० वा। कर्म०॥ पं०सं०। कल्प० । आचा।श्रा०।(अनुभागादयोऽस्य गोतिहाणी-गोत्रिहायनी-स्त्री० । त्रिवर्षजातायां गोवत्सि। प्रथमभागे अनुन्नागादिशब्दषु तृतीयभागे २०० पृष्ठे 'कम्म' शम्दे च संबन्ध उक्तः ) गां वाचं त्रायतेऽर्थाषिसंबाकायाम, तं०। दनतः पालयतीति गोत्रम् । समस्तागमाधारभूते, सूत्र०१ गोत्त-गोत्र-न । 'गूई' शब्दे, गूयते संशब्दयते उच्चावचैः श धु० १० अ० । पर्वते, संभावनीबोधे, कानने, केत्र, मागे, मैर्यत् तद् गोत्रम् । उच्चनीचकुलोत्पत्तिलक्षणे पर्यायविशेषे, छत्रे, सके, को, विते. धने, वाच० । (गोत्राणां भेदाः स्वपं० सं० ३ द्वार । तथाविधैकपुरुषप्रभवे वंशे, ध०१अधि०। स्वशब्दे) यथार्थकुले, विपा० १ श्रु०१०। सत्त मूलगोत्ता पसात्ता। तं जहा-कासवा, गोयमा,वस्था, गोत्तजोगि (ण )-गोत्रयोगिन-पुं०। गोत्रवन्तो योगिनो गोत्रयो गिनः । पो०१३ विव० । गोत्रमात्रेण योगिषु, द्वा०१८ द्वा। कोत्था, कोमिया, मंमवा, वसिट्ठा । 'सत्तमनगोत्ता' इत्यादिना ग्रन्थेन गोत्रविनागमाह। सुगमश्चा गोत्तफस्सिया-गोत्रस्पर्शिका-स्त्री० । वल्लीभेदे, प्रज्ञा० १ पद। यम,नवरं गोत्राणि तथाविधैकैकपुरुषप्रजवा मनुष्य सन्ताना -गोत्तमय-गोत्रमद-पुं० । उच्चैोंने इक्ष्वाकुवशहरिवंशादि के सं. सरगोत्रापेक्तया मूलभूतानि श्रादिनूतानि गोत्राणि मूलगोत्राणि, | जातोऽहमित्येवमात्मकेमदे, सूत्र० श्रु०१३ १०। काशे नवः काश्यो रसस्तं पीतवानिति काश्यपः,तदपत्यानि काम गोतागार-गोत्राकार-पुं० ई०स०। नामाकृतिषु,चं०प्र०१०पाहु। श्यपाः, यथा-मुनिसुव्रतनमिवर्जा जिनाचकवादयश्च क्षत्रियाः | सप्तमगणधरादयो द्विजा जम्बूस्वाम्यादयो गृहपतयश्चेति । इह | गोत्रागार-न० । कुलगृहे, चं०प्र० १० पाहुः । स्था। च गोत्रस्य गोत्रवदभ्यो भेदादचं निर्देशः, अन्यथा काश्यपमिति गोतावमय-गोत्रापगत-त्रि० । गोत्रादेरपगते, सूत्र० १ ० वाच्य स्यात्। एवं सर्वत्र । तथा गोतमस्याऽपत्यानि गौतमाः क | १३ अ०। त्रियादयः। यथा-सुब्रतनोमजिनौ नारायणपद्मवर्जवासुदेवबलदेवा नूत्यादिगणनाथत्रयं वैरस्वामीचा तथा वत्सस्यापत्या गोतास-गोत्रास-पुं० । श्रीमस्य कूटग्राहस्य पुने, स्था० । नि बत्सा:-शय्यम्भवादयः। एवं कुत्सा:-शिवनृत्यादयः, "को- | गात्रासितवानिति गोत्रासः । अयं दि इस्तिनागपुरे भीमाज्छ सिवनूक्ष्मपि य" इति वचनात् एवं कौशिकाः षडबकादयः।। निधानकटग्राहस्योत्पमाभिधानाया भार्यायाः पुत्रोऽनुत्, प्रस. Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए५५) अभिधानराजेन्द्रः । गोनास बाबाने महापावसनाराज्यानायासिता पोचने चार्य गोमांसान्यनेकधा भक्तितवान्, ततो नारको जातः, ततो वाणिजामनगरे विजयसार्थवाहमद्रामायेपोनिन पुत्रो जातः, स च कामध्वजगणिकार्थे राज्ञा तिलशो मांसच्छेदनेन त स्वादनेन च चतुष्पथे विरुध्य व्यापादितो नरकं जगामेति । स्था० १० ३००। विपा० । (गोधास व कल्यताप्रतिपदं द्वितीयमध्ययनं सर्वे कर्मविपाकदशानां द्वितीयाऽध्ययनसूत्रम्"" द्वितीयभागे ७४६ पृष्ठे वचम् )। गोथुन - कौस्तुभ पुं० मणिविशेषे, स० । - प्रथमवेलन्धर गोस्तूप पुं० प्राच्यां लवणसमय नागराजनिवासनू पर्वते, स०५२ सम० । स्था० । प्रथमवेबन्धनागराजे, जी०३ प्रति० स० एकादशजिनस्य प्रथमशिष्ये, 1 अस्य द्वितीय नामार्थइति ० ति०] मानुष्योत्तरस्वा फूटे उत्तरदिक द्वी गोधून - कौस्तु-पुं० । गोथुभ' शब्दार्थे, स० । 4 गोधूमा गोस्तूपा स्त्री० [पाश्चात्यस्यानपर्वतस्य पाश्चात्य यांबाया स्था०३४०३४०] पूर्वदिम्याम्यजनपर्वतस्यापरम्यां मन्दारिया जी०३ प्र०ि त०] दक्षिणपात्रत पर्वतस्य पश्चिमायां दिशि नवमिकाम्या शुकाप्रमहिष्या 1 राजधान्याम्, स्था०४ वा० २उ० नि० । गोदास- गोदास - पुं० । भद्रबाहोः प्रथमशिष्ये, कल्प०८ कुण तस्मान्निर्गते गये का । कल्प० ८ क्षण । वीरजिनेन्द्रस्य नवानां गणानां प्रथमे, स्था० ६ ठा० । गोदेव- गोदेव त्रि० गोशब्देन खुरककुद विषाणसास्नाला लाद्यवयवसंपन्नः पशुरुच्यते, तत्र विधेयता लक्ष्यते । ततो गौरिव विधेयानि देवानीन्द्रियाणि यस्य स तथा । जितेन्द्रिये, - • गोभिर्भूतार्थगर्भाभिर्वाग्भिर्दीव्यति स्तौति । गोदेवप्रशंसके ०गा०| गोदोहिया-गोदोहिका - स्त्री०) गोर्दोहनं गोदोड्कििा, तद्वद्या- | श्री गोदोदिका दशा० ७ ० स्था० गोदोहनप्रवृत्तस्येवाप्रपादतला ज्यामवस्थानक्रियायाम्, पञ्चा० १८ विव० गोदोकानमा - वीरासणगोदोई, मुलुं सच्चे पिता कति । ते पुण पमुच चे मुसा अभिग्ग पप्य ॥ अनन्तरोका समानां मध्याद वीरासनं गोदोहिकासनं मुकरना शेषास्थानादीनि सर्वापि तासां कल्पन्ते ब्रा सूत्रे ताम्यपि प्रतिषिद्धानि तत्कथमनुज्ञायन्ते इत्याह-तानि पुनः शेष स्थानानिवेशं प्रतीत्य कल्पन्ते न पुनरभिग्रह न सूत्राणि पुनरप्यानि तमु भवति अभिप्रविशेषास्थानानि यतीनां न कल्पन्ते सामान्यतः पुनरवक्ष्यकादिवेलायां यानि क्रियन्ते तानि कल्पन्त एव । वृ० ५ ० । गोध-गोध-पुं० देशभेदे, तद्वासिनि जने च । प्रज्ञा०४ पद । गोपुच्चात्रियगोपुच्छसंस्थानस्थित त्रि कृत गोपुच्छ संस्थान संस्थिते, जी ० ३ प्रति० । गोपुच्को ह्यादो स्थूलोऽन्ते सूक्ष्मस्तद्वत् । स्था० ५ ० २ ० रा० । गोय गोकन गोवृष्ठास्पतिले पानके, २०१५ ०१ ४० गोपुर - गोपुर-१० गोभिः पूर्वते इति गोपुरम्प्रतोद्वारे । गोमय उत्त० ६ श्र० । प्रतोली कपाटमित्यन्ये । प्रश्न० १ आश्र० द्वार । प्राकारद्वारे, रा० । ज्ञा० । पुरद्वारे, चं० प्र० ४ पाहु० । "पागार कारसा गं, गोपुरट्टालगाणि य" । (१८) उत्त० १ ० गोप्पय-गोष्पद-नं० । गोपदमिते क्केत्रे, "जहा समुद्दो तहा गो प्पयं" अनु० । गोप्पलेड़िया-गोत्रलेखा श्री० [अल्पशा सका था य भूमिं गावः प्रलिहन्ति तस्याम, आचा० २ चू० । गोफणा - गोफणा - स्त्री० । चर्मदवारकामयेऽये 'गोफण ' इति प्रसिके, स० । गोल-गोल - पुं० शरणमनिवेशवासिनि स्वनामख्याते ब्राह्मणे यस्य शालायां मङ्कलिपुत्रो गोशालो जातः । भ०१५० १ ३० । स्था० । श्रा० म० । गोपालं-गोमा - पुं० गोजयुकन्दको गो भकालकः "गोभादो विष बहुरूपनको यो वेब" यथाभलिन्दगोभ कुकसा शोदन निस्सयमवाचमित्या दि सर्वमेकत्र मिलितं भवति । व्य० १ उ० । गोभर गोम-पुं० शालिभद्रस्य पितरि राजगृहवासि ष्ठिनि स्था० १० arot मोभूमि-गोपि श्री० गोवभूमी । । ० ० १ ० " ततो विहरता सामी गो िवश्चेति, तच्छ अडवीवणे सयगावी चरंति" प्रा० म० द्वि० ततः स्वामी गांभूमिं गतः ततो राजगृहे श्रष्टमं वर्षावासम् । कल्प० ६ कण । गोमंस-गोमांस-पुंग गवां मांसे, गोमांसाऽनक्षणात्केचिद् मोक्षं वदन्ति । सूत्र० १० अ० । गोमम - गोमृत - पुं० | गौश्वासौ मृतश्च । गोशवे, जी० ३ प्रति० । विवा० ॥ गोमढदेव - गोमदेव - पुं० । ऋषभदेवस्य बाहुबलैश्च प्रतिमाभेदे, उत्तरापथे कलिङ्गदेशे गोमतः श्री ऋषभः, दक्षिणापथे गोमदेवः श्रीः ०४ गोमय - गोमय- पुं० न० । गोः पुरीषम् - मयट्, अर्धचदिः । गोपुरीषे, वाच० । छगणे, भ० ५ श० २० । गोकरीषे, नि० चू० । गोमयप्रतिग्रहणे दोषा जे भिक्खू दिया गोमयं पनिगाहेत्ता दिया गोमयं कार्यसि व लिपेज वा विलिपेज वाला विपितं वा साइज्जइ ॥ ३७ ॥ जे भिक्खू दिया गोमयं पनिगाहेत्ता रति कार्यसि वणं आलिंपेज्ज वा विलिपेज्ज वा आक्षितं वा विलितं वा साइ[इ] ॥ ४० ॥ जे भिक्खू रा गोमयं पभिगाता दिया कार्यसि व आलिपेज वा विलिपेश वा अलितं वा विपि वा साइज ॥ ४१ ॥ जे शिक्खू रति गोमयं पमिनाना रचि कार्यसि वर्ण आलिया विलिपेज्ज वा प्रापितं वा विलितं वा साइज्जइ ॥४२॥ चक्कभंगसुतं उच्चारेथव्वं, कायः शरीरं व्रणः कृतं, तेण गोमयेन सत् विलिप परिसि रिवासिते बडगे पडल तबकाचिखिको आादिया दोसा चउमंगे । Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) गोमय अनिधानराजेन्धः। गोयम दिय रातो गोमएणं, चउक्कमयणातु जा वणे वुत्ता। । खद्वीपवासिनि मनुष्ये च । स्था० ४ ० २२० । प्रमा एनो एगतरेणं, मक्खेताऽऽणादिणो दोसा ॥ १६ ॥ श्रीऋषभस्य अयोध्यास्थसारकके यक्के, ती० १३ कल्प० । चउभयणा चउनंगो, ततियउसए जा वणे वृत्ता हंगोमुहदीव-गोमुखद्वीप-पुं० । शकुलिकरणस्य परतोऽन्तपि, पि समेव । स्था०४ ० २ ००। ('अंतरदीव' शब्दे प्रथमभागे ए६ पृष्ठेतच्चुप्पतितं सुखं, अचिनूतो वेयणाएँ तिवाए। ऽस्य वक्तव्यतोक्ता) प्रदाणो अञ्चहितो, तं सुक्खहियासते सम्म ॥१७॥ । गोमुही-गोमुखी-स्त्री। वाद्यभेदे, "सलं रवर मुझंगो गोमुही" अव्योच्चित्तिपिमित्तं, जीयट्टाए समाहिलं वा । अनु०। सा गोमुत्री लोकतोऽबसेया । राप्रा० ०। गोमेज्ज-गोमेद-पुंगमणिभेदे, सूत्र.२ १०३० । “गोमेज्जएतेहि कारणोहिं, जयणा आझिंपणं कुन्जा ॥ १० ॥ रायरूपए" उत्त०२ अाराका प्रकाo"गोमेजमया इंदकीला" पूर्ववत् । गोमयगहणे मा विही गोमेदकरत्नमयी इन्धकोला । रा०। अजिएवबोसाऽसति, इतरे नवयोगकाउ गहणं तु । गोमेड-गोमेध-पुं०। श्रीनेमिजिनस्य यक्के,सच त्रिमुखः श्याममाहिस असतीगन, अणातवत्थं व विसघाती॥१६|| कान्तिः पुरुषवाइनः परभुजो मातुसिङ्गापरसुचक्रान्वितदकिणकबोसिरियमेतं घेत्तन्वं, तं बहुगुणं. तस्सासति इयरं चिरकाल- रत्रयोनकुमशुसशक्कियुक्तो वामपाणित्रयश्चाप्रभ० भाद्वार। बोसिरियं,तं पि उपभोग करेतुंगरणं,दिणसंसपिमाहिसं घ-गोमिय-गोल्पिक-j. 'गोमिभ' शब्दार्थ, वृ०३ उ०। सम्ब,मादिसाऽसति गब्बं,तं पिणातवत्थं,गयायामित्यर्थः । सं असुसिएं विसघाती जवति, प्रातवस्थं पूण ससिरं, सण गोम्ही-गोमी-स्त्री० । कर्णशृगालाण्ये, व्य० ७०० प्रका०। गुणकारी । निचू०१२ उ०। श्रीन्द्रियजीवभेदे, जी०१ प्रति०। अनु०नि०पू०।१०। गोमयकीमय-गोमयकीटक-पुं० । चतुरिन्जियजीवविशेषे, जी गोयनोद-पुं० । उपुम्बरादिफले, भाव० ६ ०। प्रका। प्रति०। गोत्र-नाचनीचकुलोत्पत्तिलक्षणे पर्यायविशेषे,पं०स०३वार। गोमयणि स्सिय-गोमयनिश्रित-पुं० । कुन्थुपनकादिषु जीवेषु, गोतम-पुं० । गोभिस्तमो ध्वस्तं यस्य । पृषो। मुनिनेदे, प्राचा० १० १०४ उ०। पाच । इस्वे बलीव च । औ०। गोतमस्य ऋषरपत्यं मौतगोमाणसिया-गोमानसिका-स्त्री० । शय्यारूपे स्थानविशेषे, मः। "ऋण्यन्धकवृष्णिकुरुन्यश्च"।४।१ । ११४ । (पाणि.) जी०३ प्रति०।" गोमाणसिया च ततिया" तावन्मात्रा एको. इत्यणप्रत्ययः। नं० । गौतमः सन्ताने,ते च कत्रियादयो यथानपञ्चाशत् । जी०३ प्रति०। रा०। सुनतनेमीजिनौ नारायणपयवर्जवासुदेवयनदेवा इम्बनूत्यागोमाणसी-गोमा (पा) नसी-स्त्री० । शय्यारूपे स्थानविशेषे, दिगणमात्रयम । स्था. “जे गोयमा ते सत्तविहा पणत्तातं जी०३ प्रति० । । जहा-ते गोयमा ते गम्गा ते नारदाया ते अंगिरसा तेसकराना ते गोमिअ-गौल्मिक-पुं० । गुल्मेन चरन्तीति गौल्मिकाः। स्थान नक्सराभा ते उदत्ताजा।" स्था०७ गा पाचूमा०म०। * गोयमो य गोत्तेणं " गौतमो गोत्रेण, गोतमाहयवंशजात रक्षपालेषु, वृ. ३ उ० । बद्धस्थानेषु, १०१ उ० । गुप्तिपालेषु, प्र.३भाभा द्वारये राशः पुरुषाः स्थानकं बवा रकयन्ति । | इत्यर्थः। अं०१ वक्षः। ११ उ०। गौतमस्वामिवर्णकःगोमिकभमोवगरण-गौहिमकमाएमोपकरण-10 गौस्मिकप- तेणं काले णतेणं समए णं समणस्स जगवभोमहावीरस्स रिच्छदविशेष, प्रश्न० ३ आश्र द्वार । जेटे अंतेवासी इंदनूती णाप श्रणगारे गोयमगोते ण गोमियोमत-त्रि० । गावोऽस्य सन्तीति गोमान् । गोस्वामि- सत्तुस्सेहे समचउरंससंगणसंठिए बजरिसहणारायसंघयनि, "गोहिंगोमिए" अनु।"गोमिया सुकिलिया कसिणवत्थ णे कणगपुझगणि घसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे मि तेहिं घेप्पंति" नि० चू०२ उ०। महातवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवागोमुत्तिया-गोमूत्रिका-स्त्री। गोलीबईस्य मूत्रणं गोमूत्रिका। गोप्रश्रवणोत्सर्गे, तदाकारा गोचरमिरपि गोमूत्रिका । ग. सी उच्छूढसरीरे संवित्तविनलनेउलेस्से चउद्दसपुत्री २ अधिः । उत्त। वक्रायां कुटिलायां गृहपङ्क्ती, दशा०७ चउणाणोवगए सव्वक्खरसप्लिवाती समणस्स भगवमो अ०। पश्चा। वृ। स्था० । अष्टानां गोचरनमीनामन्यतमस्यां महावीरस्स अदरसामंते उजाणू अहोसिरे काणकोटोगभूमौ, "माइनो सम्नियट्ट गोमुत्तिया वको।"पं०३०२ बार। ए संजमेणं तवसा अप्पाणं नावेमाणे विहरइ ॥ गोमूत्रिका च परस्पराभिमुखगृहपतयोमपङ्कोकगृहं गत्वा दक्षिणपदकगृहे यातीत्येवं क्रमेण श्रेणियसमाप्तिकरणे (तेणमित्यादि ) तेन कालेन तेन समयेन श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (जे? त्ति)प्रथमः [अंतेवासि ति] शिष्यः । जयति । ध०२ अधिक। भनेन पदइयेन तस्य सकलसानायकत्वमाह। [इंदभूह सि] गोमुह-गोमुख-पु० । आदिनाथस्य यक्षे, स च सुवर्णो गजवा- इन्द्रनतिरिति मातृपितृकृतं नामधेयम[नाम ति] विभक्तिविपरिहनश्चतुर्नु जो बरदाक्षमासिकायुक्तवाणिपाणिद्वयो मातुलित- णामात नाम्नत्यर्थः । अन्तेवासी किल विवकया श्रावकोऽपि पाशकान्वितवामपाणिद्वयश्च । प्रव०२३ द्वार प्रा.कागोम- | स्यादिस्यतभाह-[अणगारे ति]नास्यागारं विद्यत इत्यन Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयम (५७) गोयम अभिधानराजेन्सः । नगारः। अयं चावगीतगोत्रोऽपि स्यादित्यत पाह-(गोयमगोत्ते ण शीलं यस्य स तथा । (उच्छूढसरीरे त्ति) उच्छूढम् उज्जितति) गौतमसगोत्र इत्यर्थः । श्रयञ्च तत्कालोचितदेहमानापे | मियोज्झितं शरीरं येन तत्संस्कारत्यागात्स तथा। (संखित्तवि. क्या न्यूनाधिकदेहोऽपि स्यादित्यत श्राह-( सत्तुस्सेहे त्ति) सबतेउलेस्से त्ति) संक्किप्ता शरीरान्तलीनत्वेन हस्वतां गता वि. सप्तहस्तोच्छ्रयः । श्रयं च बक्षणहीनोऽपि स्यादिस्यत पाह- पुला विस्तीर्णी अनेकयोजनप्रमाणवेत्राश्रितबस्तुदहनसमर्थ[समचरंससंगणसंठिए त्ति समं नानेपरि अधश्च सकल- स्वात्तेजोलेश्या विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रनवा तेजोज्वाला पुरुषलकणोपेतावयवतया तुल्यं, तच्च तच्चतुरनं च प्रधान यस्य स तथा । मूलटीकाकृता तु-" उच्छ्ढसरीरसंस्वित्तधिसमचतुरस्रम । अथवा-समाः शरीरमकणोक्तप्रमाणाविसंवादि- पुलतेयलेसे ति" कर्मधारयं कृत्वा व्याख्यातमिति । (चन्हसन्यश्चतस्रोऽनयो यस्य तत्समचतुरस्रम् । अनय स्त्विह चतुर्दिग्ना. पुटिव नि) चतुईशपूर्वाणि विद्यन्ते यस्य तेनैव तेषां रचितत्वागोपलक्विताः शरीरावयवा इति । अन्ये स्वाहुः--समा अन्य दसौ चतुर्दशपूर्वी अनेन तस्य श्रुतकेववितामाहास चावधिकानाधिकाश्चतस्रोऽप्यश्रयो यत्र तत्समचतरश्रम । अश्रयश्च पर्य नादिविकलोऽपि स्यादत आह-चिउनाणावगप ति) केबसवासनोपविष्टस्य जानुनोरन्तरम, आसनस्थ ललाटोपरिभा- शानवर्जज्ञानचतुष्कसमन्वित इत्यर्थः । उक्तविशेषणद्वययुक्तो गस्य चान्तरं,दक्विणस्कन्धस्य वामजानुन अन्तरं, वामस्कन्ध- पि कश्चिन्न समग्रश्रुतविषयव्यापिकानो भवति । चतुर्वेशपूर्वस्य दक्विणजानुनश्चान्तर मिति । अन्ये त्वाहुः--विस्तारोत्सेधयोः । विदां षदम्थानकपतितत्वन श्रवणादित्यत आह-(सव्यक्खरसं. समत्वात समचतुरनं तश्च तत् संस्थानचाकारः समचतुरस्त्र- निवाइ ति) सवे च ते अक्षरसन्निपाताश्च तत्संयोगाः सर्वेषां संस्थानं, तेन संस्थितो व्यवस्थितो यः स तथा । अयञ्च दीन- चाकराणां निसन्निपाताः सर्वावरसन्निपातास्ते यस्य शेयतसंहननोऽपि स्यादित्यत आह-(बजरिसहणारायसंघयणे त्ति) | या सन्ति ससर्वाकरसन्निपाती, श्रव्याणि वा श्रवणसुखकावह संहननम् अस्थिसंचयविशेषः । वज्रादीनां लक्षणमिदम "रि- रीणि अक्कराणि साङ्गत्येन नितरां वदितुं शीलमस्येति श्रसभो य होइ पट्टो, वजं पुण कीलयं वियाणाहि । भो म- व्याक्करसान्त्रवादी, स च एवंगुणविशिष्टो भगवान् विनयराकडवंधो, णारायं तं वियाणाहि" ॥१॥ तत्र वज्रं च तत्कीवि- शिरिव साक्षादितिकृत्वा शिष्याचारत्वाच्च (समणस्स भगकाकीलितकाष्ठसम्पुटेोपमसामर्थ्य युक्तत्वात् , ऋषभश्च लोहा वो महावीरस्स अदूरसामंते) विहरति इति योगः। तत्र दिमयपट्टबद्धकाष्ठसम्पुटोपमसामर्थ्यान्वितत्वाद्वजर्षनः। स चासौ दुरं च विप्रकृष्टं सामन्तं च सन्निकटं, तनिषेधाद दूरसानाराचश्च उभयतो मर्कटबन्धनिबरूकाष्ठसम्पुटोपमसामो मन्तं, तत्र नातिदूरे, नातिनिकट इत्यर्थः । किंविधः संस्तत्र पेतत्वात् वज्रर्षजनाराचः,सचासौ संहननमस्थिसंचयविशेषोऽ विहरतीत्यत आह-( उम्लु जाणु त्ति ) ऊर्द्ध जानुनी यस्यानुत्तमसामर्थ्ययोगाद्यस्यासौ वज्रर्षभनागचसंहननः । अन्ये तु. सावूकंजानुः, शुरूपृथिव्यासनवजनादौपग्रहिकनिषद्याया भकीलिकादिमत्वमस्नामेव वर्णयन्ति । अयश्च निन्द्यवर्णोऽपि भवाचोत्कुटुकासन इत्यर्थः। (अहोसिरेत्ति ) अधोमुखो नोर्दू स्यादित्यत आह-(कणगपुलगनिघसपम्ह गोरे) कनकस्य सु तिर्यग्वा विक्तिप्तदृष्टिः, किन्तु नियतभूभागनियमितष्ठिरिति वर्णस्य (पुलग त्ति) यः पुलको लवस्तस्य यो निकषः कषपट्ट भावः । (काण कोट्ठोवगए त्ति ) ध्यानं धर्म्य शुक्लं वा तदेव के रेखालक्षणः, तथा । (पम्द त्ति) पद्मपदमाणि केसराणि तब्बू कोष्ठः कुसूलो भ्यानकोष्ठः, तमुपगतस्तत्र प्रविष्टो ध्यानकोष्ठो. कौरो यः स तथा । वृरुव्याख्या तु-कनकस्य न सोहादेर्यः पुल पगतः । यथाहि कोष्ठके धान्य प्रक्तिप्तमविप्रसृतं भवत्येवं स का सारो वर्णातिशयस्तत्प्रधानो यो निकषो रेखा तस्य यत्प नगवान् ध्यानतोऽविप्रकाणेन्द्रियान्तःकरणवृत्तिरिति ( संजका बहलत्वं तद्वनौरो यःस तथा । अथवा-कनकस्य यः पुल को मेणं ति) संवरेण [ तवस त्ति ] अनशनादिना, चशब्दः समुअद्भुतत्वे सति बिन्दुस्तस्य निकषो वर्णतः सदृशो यः स तथा। च्चयाओं बुप्तोऽत्र भव्यः । संयमतपोग्रहणं चानयोः प्रधान(पम्ह त्ति) पद्म, तस्य चेह प्रस्तावात्केसराणि गृह्यन्ते, ततः मोक्षाङ्गत्वख्यापनार्थम् । प्रधानत्वञ्च संयमस्य नवकर्मानुपापावनौरो यः स तथा । ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः । अयश्च विशिष्चरणरहितोऽपि स्यादित्यत आद-( उन्गतचे ति) दानहेतुत्वेन, तपसश्च पुगणकर्मनिर्जरणहेतुत्वेन भवति चाभिउग्रमप्रधृष्यं तपोऽनशनादि यस्य स उग्रतपाः, यदन्येन प्राकृ नवकर्मानुपादानात् पुराणकर्मक्षपणाच्च सकलकर्मक्यलक्त णो मोक्ष इति (अप्पाणं भावमाणे विहर त्ति) आत्मानं तपुंसा न शक्यते चिन्तयितुमपि तद्विधेन तपसा युक्त इत्यर्थः। वासयंस्तिष्ठतीत्यर्थः॥ (दित्ततवे सि)। दीप्तं जाज्वल्यमानदहन श्व कर्मवनगहनदइनसमर्थतया ज्वलितं तपो धम्मेध्यानादि यस्य स तथा । (त तए णं से भगवं गोयमे जायस जायसंसये संजायकोसतवे ति)। तप्तं तपो येनासौ तप्ततपाः। एवं हि तेन तत्तपस्त उहले उप्पमसले उप्पामसंसए उप्पलकोउहवे संजायतं येन कर्माणि सन्ताप्यन्ते न तपसा स्वात्माऽपि तपोरूपः सट्टे संजायसंसए संजायकोउहवे नहाए नट्ठति । उहाए सन्तापितो यतोऽन्यस्यास्पृश्यमिव जातमिति (महातवेत्ति) उतॄत्ता जेणेव समणे जगवं महावीरे तेणेव उवागच्छ । आशंसादोषरहितत्वात् प्रशस्ततपाः। (उराले ति) भीम उग्रादिविशेषणविशिष्टतपाकरणात्पावस्थानामल्पसत्वानां भयान उवागचित्ता समणं जगवं महावीरं तिखुत्तो आयाहिक इत्यर्थः । अन्ये त्वाहुः-[ नराले ति] उदारः प्रधानः [घोरे णपयाहिणं करे। करेइत्ता वंदइ, णमंसइ,वंदित्ता णमंसित्ता त्ति ] घोरो निघृणः, परीषदेन्डियादिरिपुगणविनाशमाश्रित्य पच्चासले णातिदूरे मुस्सूसमाणे मंसमाणे अनिमुहे विनिर्दय इत्यर्थः । अन्ये त्वात्मनिरपेक्षं घोरमाहुः-(घोरगुणे ति) णएणं पंजलिउडे पज्जुवासमाणे एवं क्यासी-॥ घोरा अन्यैपुरनुचरा गुणा मूलगुणादयो यस्य स तथा (घोर- (तपणं से सि) ततो ध्यानकोष्ठोपगतविहरणानन्तरं, णमितवस्सि त्ति) घोरैस्तपोनिस्तपस्वीत्यर्थः । ( घोरबंजरवासि | तिवाक्यालङ्कारार्थः 'से' इति प्रस्तुतपरामर्शायः । तस्य तु ति) घोरं दारुणमल्पसत्वैधुरनुचरत्वाद्यब्रह्मचर्य तत्र वस्तं । सामान्योकस्य विशेषावधारणार्थमाह-(भगवं गोयमे ति) कि. २४० Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५) गोयम अनिधानराजेन्षः। गोयम मित्याह-(जायसवे इत्यादि जातश्रमादिविशेषणः सन्नुत्तिष्ठ- घन्दते बाचा स्तौति । ( नमसा ति) नमस्यति, कातीति योगः। तत्र जाता प्रवृत्ता श्रद्धा इच्छा वक्ष्यमाणार्थतत्वज्ञानं येन प्रणमति [ नचासन्ने त्ति ] न नैव प्रत्यासन्नोऽतिप्रति यस्यासौ जातश्रद्धा तथा जातः संशयो यस्य स जातसं- निकटः, अवग्रहपरिहारान्नात्यासन्ने वा स्थाने, वर्तमान इति शयः । संशयस्त्वनवधारितार्थज्ञानम् |स चैवम-तस्य नगवतो गम्यम् । [ नाइदरे ति] न नैवातिदूरोऽतिविप्रकृष्टोऽनौचि. जातोभगवतादि महावीरेण "चलमाणे चलिए" इत्यादौ सूत्रेच. त्यपरिहारात नातिदूरे वा स्थाने [ सुस्सृसमाणे त्ति] जगवद्धसन्नर्थश्चन्नितो निर्दिष्टः, तत्र च य एव चवन् स एव चत्रित इत्युक्तः, चनानि श्रोतुमिच्छन् [अजिमुहे ति] अनि भगवन्तं बक्कीकृत्य ततश्चैकार्थविषयावेतौ निर्देशौ चलम्निति वर्तमानकालविषयः, मुखमस्येत्यभिमुखः । तथा [विणएणं ति] विनयेन हेतुना चलित इति चातीतकालविषयः, अतोऽत्र संशयः-कथं नाम [पंजलिम्मे त्ति] प्रकृष्टः प्रधानो सन्नाटतटघटितत्वेन अञ्जलियपषार्थो वर्तमानः स एवातीतो भवतीति ?, विरुद्धत्वादनयोः ईस्तन्यासविशेषः कृतो विहितो येन सोन्याहितादिदर्शनात्प्रा. कायोरिति । तथा [ जायकोऊडल्ले ति ] जातं कुतू- अलिकृतः [पज्जुवासमाणे ति ] पर्युपासीनः सेवमानोऽनेन च डनं यस्य स जातकुतूहलो, जातौत्सुक्य इत्यर्थः । कथ- विशेषणकदम्बकेन श्रवणविधिरुपदर्शितः। श्राह च-"णिहावि. मेतान् पदार्थान् नगवान् प्रज्ञापयिष्यतीति । तथा-( उप्पन्न. गहापरिवजिएहि गुत्तेहि पंजलि उर्हि । भत्तिबहुमाणपुव्वं,उ. सके त्ति) उत्पन्ना प्रागनूता सती नूता श्रद्धा यस्य स उत्पन्न वउत्तेहिं मुणेयध्वं ॥१॥ इति [एवं वयासि त्ति एवं वक्ष्यमाणभरूः। अथ जातश्रा इत्येतावदेवास्तु किमर्थमुत्पन्नश्रद्ध इत्यनि- प्रकारं वस्तु अवादीमुक्तवान् । भ०१श०१०। विपा०। (यधीयते, प्रवृत्तश्रद्धत्वेनैवोत्पन्नश्रद्धत्वस्य बन्धवात,न ह्यनुत्पन्ना दवादीत् तत् 'कजकारणभाव' शब्देऽत्रैव भागे १६७ पृष्ठे निश्रमाप्रवर्तत इति। अत्रोच्यते-हेतुत्वप्रदर्शनार्थम् । तथाहि कथं रूपितम) श्रीवीरजिनेन्जस्यन्तूतिर्वायुतृतिरनितिश्चेति त्रय प्रवृत्तश्रद्धः,नच्यते-यत उत्पन्नश्रा इति हेतुत्वप्रदर्शनश्चाचितमे- आद्याः शिष्याः, तेषु इन्धभूतिरेवातिप्रसिकः, तत्प्रश्नप्रतिवचव,वाक्यालकरत्वात् तस्यायदाहुः "प्रवृत्तदीपामप्रवृत्तभास्करी, मरूपत्वादागमस्य । यदाह जगवान् वीर:-" चिरसंथुप्रोसि प्रकाशचन्द्र बुबुधे विभावरीम्।" इह यद्यपि प्रवृत्तदीपस्वादे- गोयमा !"पं० स०२द्वार । जं०। उपा० । विशे०। बाप्रवृत्तभास्करत्वमवगतं तथापि अप्रवृत्तभास्करत्वं प्रवृत्तदी- गौतमेत्यत्र भगवताऽऽत्मनस्तुल्यताऽदर्शि यथापत्वादे तुतयोपन्यस्तमिति । "उप्परणसंसप अप्परणकोहल्ले रायगिहे. जाव परिसा पडिगया गोयमादि । समणे भगवं ति" प्राग्वत्। तथा “संजायसवे" इत्यादि पदषदकं प्राम्बत् , नवरमिह समशब्द: प्रकर्षादिवचनः । यथा-" सजातकामो महावीरे जगवं गोयमं आमंतेत्ता एवं बयासी-चिरसंसिबलजिद्विभूत्यां, मानातू प्रजानिः प्रतिमाननाच्च ।" ऐश्वर्य होसि मे गोयमा!,चिरसंथुतो सि मे गोयमा!, चिरपरिप्रकर्वेग जातेच्छः कार्तवीर्य प्रति । अन्ये तु-"जायसहे" चितोमि मे गोयमा, चिरजुसिरोसि मे गोयमा !, चिराइत्यादि विशेषणद्वादशकमेवं व्याख्यान्ति-जाता श्रका यस्य प्रष्टुं णुगोसि मे गोयमा,चिरागुवत्तीसि मे गोयमा !, अणंतरं स जातकः। किमिति जातक इत्यत आह-यस्माजातसंशयः देवलोए अणंतरं माणूम्सए नवे किं परं मरणकायस्स इदं वस्त्वेवं स्यादेवं वेति । अथ जातसंशयोऽपि कथमित्यत पाह-यस्माज्जातकुतूहः कथं नामास्याथमवभोत्स्ये इत्यभिप्रा भेदा, इतो चुता दो वि तुद्वा एगट्ठा अविसेसमणाणत्ता भ. यवानिति। एतश्च विशेषणत्रयमरग्रहापेकया द्रष्टव्यम् । एवमुत्पन्न- विस्साम । न. १४श०७ उ० । संजातसमुत्पन्नश्रद्धवादय ईहापायधारणाभेदेन वाच्या। अन्ये ("तुद्ध" शब्दे व्याख्यास्यते)(गौतमस्वामिनः तुङ्गिकापुर्यो स्वाहुः जातश्रमत्याद्यपेकयोत्पन्नश्ररुत्वादयः समानार्था विवक्ति गोचरचर्यायै गमनं 'उबवाय' शब्दे द्वितीयभागे ६७६ पृष्ठे एतार्थस्य प्रकर्षप्रवृत्तिप्रतिपादनाय स्तुतिमुखेन ग्रन्थकृतोक्ताः, न व्यम) पञ्चदशशततापसानां गौतमस्वामिना परमान्नेन पारणा चैवं पुनरुक्तदोषाय । यदाह-"वक्ता हर्षभयादिनि-राक्तिप्तमनाः कारिता, तत्र लब्धिपरमान्नमदत्तमिति साधूनां कथं कल्पते स्तुवंस्तथा निन्दन् । यत्पदमसकृद् ने, तत्पुनरुक्तं न दोषाय" ॥१॥ इति ( हार नति) उत्थानमुत्था, ऊर्द्ध वर्तनं, तया इति प्रश्शे, उत्तरम्-अत्रकोऽपि परमानपतहोऽक्षीणमहाउत्थया उत्तिष्ठति को जवति । 'उडे' इत्युक्त क्रिया रम्न नसलब्धिप्रनावेणैव सर्वेषां प्राप्त इत्यत्रादत्तं किमपि शातं ना. मात्रमपि प्रतीयते, यथा वक्तुमुनिष्ठत इति । ततस्तद्यवच्छे स्ताति बोध्यामिति ॥२॥ हैं|०३ प्रका०। निर्वाणगमनं चेत्यम्बायोक्तमुत्थायेति । (उट्ठाप उडेर ति ) उपागम्यतीत्युत्ता। स्वकीयनिर्वाणसमये देवशर्मणः प्रतिबोधनाय क्वापि प्रामे स्वारक्रियापेकया उत्थानक्रियायाः पूर्वकालतानिधानाय उत्था मिना पितः, श्रीगौतमः तं प्रतिबाध्य पश्चादागच्छन् श्रीवीरयोत्यायेति क्त्वाप्रत्ययेत निर्देिशनीति। (जेणेवेत्यादि) यह निर्वाणं श्रुत्वा वजाहत श्व शून्यः कणं तस्थौ । बजाण च "प्रसरति मिथ्यात्वतमो, गर्जन्ति कुतीर्थिकौशिका अध। प्राकृतप्रयोगादव्ययत्वाधा येनेति यस्मिन्नेव दिग्भागे श्र. दुर्भिक्कममरवैरा-दिराक्षसाः प्रसरमेष्यन्ति ॥१॥ मणो नगवान् महावीरो वर्तते ( तेणेव त्ति) तस्मिन्नेव दि. राहुग्रस्तनिशाकर-मिव गगनं दीपहीनमिव जवनम् । [भागे उपागमति, तत्कालापेक्तया वर्तमानस्वादागमनक्रियाया घरमानविभक्त्या निर्देशः कृतः, उपगतवानित्ययः। उपागम्य जरतमिदं गतशोनं, त्वया विनाऽद्य प्रनो ! जझे ॥२॥ च श्रमणं भगवन्तं महावीरं कर्मनापन्नं ( निक्खुत्तो ति) कस्याहिपीठे प्रणतः पदार्थान् , पुनः पुनः प्रश्नपदीकरोमि। श्रीन बारान् त्रिकुम्वः (आयाहिणपयाहिणं करेइ त्ति) प्रा. कं वा नदन्तेति वदामि को वा, किणादतिणहस्तादारज्य प्रदक्विणः परितो भ्राम्यतो दक्षिण मां गौतमेत्यानगिरा ऽथ वक्ता"?॥३॥ पत्र प्रादक्षिणप्रदकिणोऽतस्तं करोतीति। (वंदर सि) हा हा हा वीर!किकृतं यदीडरोऽवसरेऽहं दूरीरुता, कि Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पता पारखा ५५ अवसामा२पास ३५सम०। (V५६) गोयम निधानराजेन्द्रः। गोयमकेसिज्ज माएमकंमएमयित्वा बालवत्तवाञ्चलेऽलगिध्यम, कि केवप्नजा- पितवोकम्मं तहेव फासेति णिरवसेसं, एवं जहा खंदो तहा गममार्गयिष्यम, कि मुक्ती संकीसमनविष्यत, किं वा तव भा. रोऽनविष्यत् यदेवं मां विमुच्य गतः । एवं च वीर ! वीर! चिंतेति,तहा आपुच्छति,तहा थेरेहिं सकिं मेत्तुंजए पन्नए इति कुर्वतो वी वी इति मुखे लग्नं गौतमस्य । तथा इंशात वी दुरुहति, मासियाए सलेहणाए वारस वरिसाई परियाओ० तरागा निःस्नेहा भवन्ति, ममैवायमपराधो यन्मया तदा श्रु जाव सिके । अन्त०१ वर्ग । स्था। तोपयोगो न दत्तः,धिग् इमम् एकपाक्तिकं स्नेहम, अलं स्नेहेन, गोतमो द्वस्वो बलीवर्दः, तेन गृहीतपादपतनादिविचित्रशिकेएकोऽस्मि,नास्ति कश्वन मम, एवं सम्यक् साम्यं भावयतस्त- ण जनचित्ताक्षेपदक्केण भिकामटति यः स गौतमः । औ०। स्य केवलमुत्पेदे-" मुक्खमग्गपवनाणं, सिणेहो बजसिखना ।। ग० । सघुतराकमालाचर्चितविचित्रपादपतनादिशिकाकषायबखीरे जीवन्तए जाओ,गोयमं जं न केवत्री" ॥१॥प्रातःकाले इ- प्रतिवृषभकोपात्तकणनिकासाहिणि, हा० १७० १४ अ० । डाधैमहिमा कृतः। अत्र कविः-"अहंकारोऽपि बोधाय,रागोऽपि गोवतिके, सूत्र०१ श्रु०७०। अनु० । आचा० । पञ्चदशशतगुरुजक्तयेविषादः केवलायानूत,चित्रं श्रीगौतमप्रभोः,"॥१॥स तापसानां गौतमेन लब्धिपरमानेन पारणा कारिता, तत्परमा च द्वादशवर्षाणि केवलिपर्यायं परिपाल्य दीर्घायरितिकृत्वा । वैक्रियमन्यवेति प्रश्ने, उत्तरम्-न तद्वैक्रियं किं त्वकोणमहानसुधर्मस्वामिने गणं समर्प्य मोक्षं ययौ।सुधर्मस्वामिनोऽपि पश्चा- सीलब्ध्यैव तत्परमा तावज्जातमिति । २० प्र० सेन. ३ स्कवनोत्पत्तिः। सोऽप्यष्टौ वर्षाणि विहृत्य जम्बूस्वामिने गणं उल्ला । गौतमपतङ्गहतपसि पतहे प्रथम यन्नाणकं मुच्यते त. समर्प्य सिद्धिं गतः।१२७। कटप०६ कण । “कुन्दोज्ज्वल कीर्ति- प्राणकं ज्ञानस्यार्थे समायाति,अन्यथा वा.तत्तपःकरणं कुत्र प्रन्थप्ररः, सुरभीकृतसकलविष्टपाजोगः । शतमख शतविनतपदः,श्री. मध्ये प्रोक्तमस्तीति प्रभे, उत्तरम्-गौतमपतहतप श्रागौतमगणधरः पातु" ॥१॥ कर्म०१ कर्म०। ( सर्वैव गौतमगण- चारदिनकरग्रन्थे प्रोक्तमस्ति,परं तत्र नाणकमोचनमुक्तं नास्ति, धरवक्तव्यता 'इंदनूह' शब्दे प्रथमभागे ५४० पृष्ठे अन्यत्र च यदि कापि प्रसिद्धं नाणकमोचनं तदा तद ज्ञानव्यं न भवनिरूपिता । मगधेषु नन्दिग्रामे कणवृत्तिकगौतमस्य ' एसणास- ति, तेन यथायोगं मानार्थ यतीनां वैद्याद्यर्थ वा व्यापारणीमिई' शब्देऽत्रैव भागे ७३ पृष्ठे कथा)अन्धकवृष्णेः पुझे,अन्त०। यमिति । ११० प्र० सेन०४ उदा० । तस्स णं अंधगरिहस्स रमो धारणी नामं देवी होत्या। गोयमकेसिज्ज-गोतमकेशीय-न । त्रयोविंशे उत्तराध्ययने, स. वमो-तए णं सा धारणी देवी अप्पया कयाई तंसि तारि ३५ समः। संगसि सयणिज्जसि एवं जहा महवझो सुमिणं देसणं क जिणे पासि त्ति नामेणं, अरहा लोगभए । हणा जंमं वायत्तणं कनाउ य जोवणं पाणिग्गहणं कला संबुछणा य सम्वन्नू, धम्मतित्ययरे जिणे ॥१॥ पासादनोगा य णवरं गोयमकुमारे णाम भट्ठएहं राय पार्श्व इति नाम अहंन अजूत तीर्थकरोऽजत कीरशःस जिनः बरकमाणं एगदिवसेणं पाणिं गेएहावेति अट्ठ उ दाउ, ते परीषदोपसर्गजेता, रागद्वेषजेता वा, पुनः कीरशः स पार्श्वजिणं काले णं ते णं समए णं अरहा अरिहनेमी आदिकरे० मः,लोकपूजितः लोकेन त्रिजगता अर्चितः,पुनः कथम्नूतःसः!, जाब विहरति । चउबिहा देवा आगया,कएहे विनिग्गते,तते [संबुझप्पा ] संबुद्धात्मा तत्वावबोधयुक्तात्मा, पुनः कीरशः णं काले णं तस्स गोतमस्स कुमारस्स जहा मेहे तथा णि स पार्श्वः, सर्वज्ञः, पुनः कीदृशः पार्श्वः?, धर्मतीर्थकरः धर्म एव ग्गते धम्म सोच्चा जणवरं देवाणप्पिया ! अम्मापि भवाम्बुधितरण हेतुत्वात्ती धर्मतीर्थ करोतीति धर्मतीर्थकरः, पुनः कीदृशः? जयति स्म सर्वकर्माणीति जिनः,द्वितीयजिनवियरो आपुच्छामि देवाणुप्पियाणं एवं जहा मेहे कुमारे जाव शेषणे श्रीपार्श्वस्य मुक्तिगमनं सूचितं, तदा हि श्रीमहावीरः अणगारे जाए ईरियास मितेजाव इणमेव णिगाथं पावयणं प्रत्यकं तीर्थकरो विहरति, श्रीपाश्वनाथस्तु मुक्ति जगामेति ना. पुरतो काउंविहरति । तते णं से गोतमे अप्पया कयाती अर-1 हो अरिहनेमिस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामा- तस्स रोगप्पश्वस्स, पासी सीसे महायसे । तियमादीयाई एकारम अंगाई अहिज्जति, अहि- केसीकुमारसमणे, विजाचरणपारगे ॥२॥ जित्ता बहुहिं चनत्थ० जाच भावेमाणे विहरति ।। तस्य लोकप्रदीपस्य श्रीपाश्वनाथतीर्थकरस्य केशीकुमारः तं भरहा अरिहनेमी अमया कयाती वारवतीतो णगरीतो शिष्य आसीत्, कुमारो दि अपरिणीततया कुमारत्वेन एव श्रमणंदणवणातो पमिणिक्रवमइ, पडिनिक्खमइत्ता वहता रणः संगृहीतचारित्रः कुमारश्रमणः केशीकुमारश्रमयः। कथम्न तः सः?.महायशाः महाकीर्तिः,पुनः कीदृशो?,विद्याचरणपारगः मणवयविहारं विहरति,तते णं से गोतम अणगारे अप या क ज्ञानवारित्रयोः पारगामी ॥२॥ ताई जेणेव अरहा अरिहनेमी तेणेव उवागच्छति,उवागवित्ता श्रोहिनाणसुए बुके, सीससंघसमाउले । अरिहं अरिहनेमि तिक्वुत्तो आयाहिणपयाहिणं वंदति, नम. गामाणुगाम रीयंते, सावत्यि नगरिमागए ॥ ३ ॥ सति,एवं वयासी-इच्छामिण नंते ! तुजोहिं अब्भणुमाते स स केशीकुमारभ्रमणः श्रावस्त्यां नगर्याम् आगतः,किं कुर्वन् ? माणे मासियभिक्खुपडिमं उपसंपज्जित्ताणं विहारित्तए, एवं | माननाम रीयन्ते इति ग्रामानुग्रामं विचरन्. कीरशः?, [श्रो. जहा खंद ओतहा नारस निवपडिमाओ फासेति,गुणरयणं हिनाणसए बड़े इति] अवधिज्ञानश्रुताभ्यां बुद्धोऽवगततत्व: Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयमकेसिज्ज श्रानिधानराजेन्डः। गोयमकेसिज्ज मतिश्रुतावधिज्ञानसहितः, पुनः कीरशः?, शिष्यसबसमाकुलः श्रायारधम्मपणिही, इमा वा सा व केरिसी ॥११॥ शिष्यवर्गसहितः॥३॥ अयम अस्मत्संबन्धी धर्मः, कीदृशः,वा इति विकटपे,वाशब्दो. तिंऽयं नाम नजाणं, तम्मी नयरमंझले । ऽथवाथें वा, अथवा-अयं धर्मों दृश्यमानगणभृतशिष्यसम्ब. फामुए सिज्जसंयारे, तत्थ वासमुवागए॥४॥ न्धी कीदृशः पुनरयम्, प्राचारधर्मप्रणधिरस्माकं कीरशः, स केशिकुमारश्रमणस्तत्र श्रावस्त्यां नगर्यो तस्याः श्रावस्त्याः | पुनरेतेषां वा आचारधर्मप्रणिधिः कीदृशः, प्राकृतत्वात लिङ्ग व्यत्ययः, प्राचारो वेषधारणादिको बाहाः क्रियाकलापः,स एव नगरमएमले पुरपरिसरे तिन्मुकं नाम उद्यानं वर्तते, तत्रोद्याने धर्मः, तस्य प्रणधिर्व्यवस्थापनम आचारधर्मप्रणधिः, पृथक प्राशुके प्रदेशे जीवरहिते शय्यासंस्तारे वासम् उपागतः, श १ कथं सर्वोक्तस्य धर्मः, तत्साधनानां च दमनुज्ञातुमिज्या वसतिः,तस्यां संस्तारः शय्यासंस्तारः, तस्मिन् समवस्त वाम इति भावः ॥११॥ इत्यर्थः ॥ ४॥ चाउज्जामो य जो धम्मो, जो श्मो पंचसक्खिओ। अह तेणेव कालेणं, धम्मतित्थयरे जिणे । देसिनो वकमाणेणं, पासेण य महामुणी ॥१२॥ जगवं वफमाणे ति, सबलोगम्मि विस्सुए ॥ ५॥ अयशब्दो वक्तव्यान्तरोपन्यासे, तस्मिन् एव काले धर्मतीर्थक अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो। रो जिनो भगवान् श्रीवर्द्धमान इति सर्वलोके विश्रुतोऽनूत ॥५॥ | एककज्जपवन्नाणं, विससे किं नु कारणं ।।१३॥ [युग्मम्] तस्स मोगपश्चस्स, आसि सीसे महायसे । यश्वायं चातुर्यामो धर्मः पान महामुनिना तीर्थकरेण दशितः, चत्वारश्च यमाश्च चतुर्यमाः, तत्र यश्चातुर्यामः चाजयवं गोयमे नाम, विजाचरण पारगे ॥६॥ तुर्वातिको-अहिंसा-सत्य-चर्यित्याग--परिग्रहत्याग--लक्कणो तस्य श्रीवर्द्धमानस्वामिनो लोकप्रदीपस्य तीर्थकरस्य गौतमः | धर्मः प्रकाशितः । यश्च पुनरयं धर्मो वर्द्धमानेन पञ्चशिमामा शिष्योऽनूत्, कथम्नूतो गौतमः ?,महायशाः महाकीर्तिः, | किकः, पश्चशिक्षितो वा, पञ्चनिमहावतैः शिक्वितः पञ्चशिपुनः कीदृशो गौतमः ?, विद्याचरण पारगः ज्ञानचारित्रधारी, क्विता प्रकाशितः,पञ्चसु शिक्कासु भवः पञ्चशिक्षिकः, पञ्चमहापुनः कीरशो गौतमः ?, भगवान् चतुझीनी मतिश्रुत्यवधिमन:- प्रतात्मः अहिंसासत्यचौर्यत्यागमैथुनपरिहारपरिग्रहत्यागलकपर्यायज्ञानयुक् ॥ ६ ॥ णो धर्मः प्रकाशितः॥१२॥ पुनर्बर्द्धमानम अचेलको धर्मः प्रकाबारसंगविक बुझे, सीससंघसमाउने।। शितः, अचेलं मानोपेतं धवलं जीर्णप्रायम् अपमूख्यं वस्त्र धागामाणुगामं रीअंते, सो वि सावस्थिमागए ॥ ७॥ रणीयमिति वर्कमानस्वामिना प्रोक्तम, असत श्व चेलं यत्र सस गौतमोऽपि प्रामानुग्राम विहरन् श्रावस्त्यां नगर्यामागतः, अचेलः, अचेल एव अचेलकः, यत वस्त्रं सदपि असत् इव कीरशो गौतमः, द्वादशाङ्गवित एकादशाङ्गानि दृष्टिवादसहिता तत् धार्यमित्यर्थः । पुनयों धर्मः पाइन स्वामिना सान्तरोसरः नि येन गौतमेन सम्पूर्णानि, ज्ञातानीत्यर्थः । पुनः कीदृशो गौ सह अन्तरेण उत्तरेण प्रधानबहुमूल्येन नानावणेन प्रलम्बन तमः?, बुद्धो हाततस्वः, पुनः कीदृशः?, शिष्यसकसमाकुलः ॥७॥ वस्त्रेण च वसते यः स सान्तरोत्तरः-सचेलको धर्मः प्रकाशितः, एककार्य मुक्तिरूपे कार्य प्रवृत्तयोः श्रीवीरपाश्र्वयोर्विशेषे किं नु कोहगं नाम उज्जाणं, तम्मी नगरमंमले । कारणं को हेतुः, कारणभेदे हि कार्यमेदसम्भवः,कार्य तु उभफासुए सिज्जसंथार, तत्थ वाममुवागए । योरेकमेव, कारणं च पृथक २ कामति भावः? किमिति प्रो, तस्याः श्रावस्त्या नग- मएमसे परिसरे क्रोएकं नाम उद्या- नुरिति वितर्के ।। १३॥ नं वत्तते तंत्र प्रासुके 'सिज्जासंधारे' बासम अवस्थानम् उ. अह ते तत्थ सीसाणं, विनाय पवियक्कियं । पागतः प्राप्तः ॥ ८॥ समागमे कयमई, उनमो केसिगोयमा ॥१४॥ केसीकुमारसमणो, गोयमो य महायसे ॥ भो वि तत्थ विहरिसु, अहीणा सुसमाहिया ॥॥ अथानन्तरं तयोरुभयोस्तत्र श्रावस्त्याम् आगमनानन्तरं के शिगौतमौ तौ उनी समागमे कृतमती अभूताम् । किं कृत्वा १, केशिकुमारश्रमणध पुनर्गौतमः, पतो उभौ अपि व्यवहाष्टम शिष्याणां च क्षुल्लकानां प्रवितर्कितं विज्ञाय विकल्पं शात्वा ।१४। भागाताम, कारशौ तौ उभौ ?, महायशासौ, पुनः कीदृशौ ?, गोयमो पमिरूवन्नू, सिस्ससंघसमानले । मनीनो मनोवाकायगुप्तिवाधितो, पुनः कीदृशौ ?, सुसमाहिती सम्यक समाधियुक्तौ ॥६॥ जेट्टं कुलमविक्खंतो, तिंदुअं वणमागो॥ १५ ॥ गौतमस्तिन्मुकं वनम् आगतः केशिकुमाराधिष्ठिते बने आगतः, उत्तयो सीससंघाणं, संजयारणं तवस्सिएं । कीरशो गौतमः, प्रतिरूपः प्रतिरूपो यथोचितविनयः तं तत्थ चिंता समुप्पन्ना, गुणवंताण ताणं ॥१०॥ जानातीति प्रतिरूपक्षः, पुनः कीदृशः १, शिष्यससमाकुलः नत्र तस्यां श्रावस्त्यामुन्नयोः केशिगौतमयोः शिप्यसकानां शिष्यवृन्दसहितः, गौतमः किंकुर्वाणः ?, ज्येष्ठं फुलम् अपेसंयतानां तपस्विनां साधूनां गुणवतां ज्ञानदर्शनचारित्रवतां दयमाणः ज्येष्ठं वृहं प्रथमभवनात्पार्श्वनाथस्य, कुलं सन्तानं विनायिणां परजीवरक्षाकारिणां परस्परावलोकनात् चिन्ता स. चाग्यत इत्यर्थः ॥ १५॥ मुम्पन्ना विचारः समुत्पन्नः ॥२०॥ केसीकुमारसमणे, गोयमंदिस्समागयं । केरिसो वा इयो धम्मो,इमो धम्मो व केरिसो।। पमिरुवं पमीवत्ति, सम्मं च पदिवज्जइ ॥ १६ ॥ Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०६१) अभिधानराजेन्द्रः | गोयमके सिज्ज केशिकुमार गौतम धगतं दृड्डा सम्यक प्रतिरूपाम् श्रागतानां योग्यां प्रतिपति सेवां, प्रतिपद्यते सम्यक् [क] [१६॥ पलाले फाल्नु तत्य, पंचमं कुसता थिय । गोयमस्स निसिजाए, विप्पयं संपणार ॥ १७ ॥ तत्र तिम्बुकीचाने एव केशकुमारक्षम गौतमस्य निषद्याये गौतस्य उपवेशनार्थे प्रायुकं नियमं चतुर्विधं पलानं पचमानि कुशतृणानि चकारात् अन्यान्यपि साधुयोम्यानि तृणानि (संपणाम ) समर्पयति । पञ्चमत्वं हि कुशतृणानां पलालभेदेन । चतुर्विधं पलानं यथा-" तणपणगं पन्नन्तं, जिहि कम्मट्ट महणेहिं । साली १ बीही २ कोदव २, रालग ४रने तणा ५ पञ्च ॥ १ ॥ " इति वचनात् चत्वारि पलालानि साधुप्रस्तयोम्यानि पञ्चमं दि ददातु शि कुमारभ्रमणेन गौतमस्य प्रस्तारणार्थे प्रदत्तमिति भावः ॥ १७ ॥ केसीकुमारसमो, गोयमे व महायसे । उनओनिसन्ना सोईति दरमा ॥ १८ ॥ ताकेकिमारभ्रमण पुनर्गेौतमो महायशाः पती उ रात्र विन्दुकोद्याने विष उप शोभेते विराजे, कथम्भू सोती है, चन्द्रादित्यसमप्रभः ॥ १० ॥ समागया बहू तत्थ, पासएका कोठगा मिया । गिरेस्था अनेगाओ, साहसीओ समागया ॥ १० ॥ तत्र तस्मिन् तिन्दुकोद्याने, बहवः पाखएमा अन्यदर्शिनः परिव्राजकादयः समागताः कीदृशास्ते पाखएमा, कौतुकात् मृगाः माश्च मृगा इव महानिमा तु पुनः अनेक लोकानां सहस्रं समागतम् श्रनेका प्रचुरा लोकानां सहरूयपि श्रार्षत्वाद, समागता तत्र संप्राप्ता ॥ १८ ॥ देवदाणवगंधा, जक्खरक्स किन्नरा । दिस्सा चयाणं आसी तत्य समागमो ॥ २० ॥ रात्र यस्मिद् प्रदेशे देवदानव किन्नराः, समागता इति शेषः। च पुनस्तत्र अदृश्यानां भूतानां केली किनयन्तराणां समागमः सङ्गम आसीत् ॥ २० ॥ पुच्छामि ते महाभाग !, केसी गोयममन्यवी । केसि तु गोयमो इणमव्यर्थ ।। २१ । तयोर्जपमाह तदा केसी गौतमची किमब्रवीदित्याह हे महाभाग से स्याम् अदं पृच्छामि यदा केशिकुमार इत्युकं यदा केशिकुमारभ्रमणं तं गोतम दम्॥ २१ ॥ पुच्छ तेहिच्छे से फोर्स गोयममदी। तो केसी प्रभार गोयमं मन्द ।। २२ ॥ गौतमो वदति - भदन्त ! हे पूज्य ! ते तव यथेच्छं यत् तब चेतस अवभासते तत् त्वं पृच्छयम प्रश्नं कुरु इति केशकुमा रं प्रति गौतमोऽब्रवीत् 'गौतमम्' इति प्राकृतत्वात् प्रथमास्थामेद्वितिया तो गौतमवाक्यादनन्तरं केशिकमारो गीतमेन मुज्ञातः सन् गौतमेन दत्ताः सन् गौतमं प्रति एवं वक्ष्यमाणं वचनमब्रवीत् ॥ २२ ॥ चाउलामो जो पम्मो, जो इमो पंचसिक्सियो । १ टीकाकारकरीत्या "लोगाएं तु अगाओ" इति पा ऽनुमीयते । २४१ गोयमकेसिज्ज देखि मापासेा य महामुखी ॥ २३ ॥ एककज्जपवनाणं, विसेसे किं नु कारणं । धम्मो विहे मेदावी !, कदं विष्पचओ न ते १ ॥ २४ ॥ हे गौतम! पाइन मुनिना तीर्थकरे या कोऽयम् अस्माकं धर्मो दिए, पुनर्योऽयं धर्मोप अशिक्षिकः पञ्चात्मको दिष्टः कथितः ॥२३॥ एककायें मोसाधन कार्ये प्रपन्नयोः श्रीपामहावीरयोविंशेषे मेवे किं कारणम् ?, हे मेधाविन्! द्विविधे धर्मे तव कथं विप्रत्ययो न प्रयति ? | यतो द्वौ श्रपि तीर्थकरौ द्वावपि मोक्षकार्यसाधने प्रवृत्तौ कथमनयोर्भेद इति हेतोस्तव मनसि कथं विप्रत्ययो न भवति सन्देहो न भवति ? ॥ २४ ॥ तो केसि तंतु, गोयमो इणमन्त्रवी । पक्षा समिक्ख धम्म-तत्तं तत्तविणिच्छयं ||२५|| ततोऽनन्तरं केशिकुमारभ्रमन्तं कथयन्तं गौतम इदम अमी- केशिकुमारभ्रमण मातिधर्मस्य पर मार्च पश्यति धर्मतस्वं युद्ध्या एवं विलोक्यते "सुरमं धर्मे सुधीति" इति वचनात् कीदृशं धर्मतत्त्वम् तस्यविनिश्वयं तत्वानां जीवादीनां विशेष यो पस्मिन् तत् तस्यनि यम् के धर्मतस्वस्य श्रवणमात्रेण निश्चयों न प्रयति, किन्तु प्रज्ञावशादेव धर्मतत्वस्य विनिश्चयः स्यादिति भावः ॥ २५ ॥ पुरिमा उज्जुङ्गाओ, पकट्टा य पश्चिमा मज्जिमा उपचाओ, तेरा धम्मो दुहा को || २६ ॥ शकुमारश्रमण ! पुरिमाः पूर्वे प्रथमतीर्थ कृत्साधवः आदीश्वरस्य मुनय ऋजुजमाः ऋजवश्च ते जडाश्च ऋजुजडाः, बनूबुरिति शेषः । शिक्षाग्रहणतत्पराः ऋजवः, दुष्प्रतिपाद्यतया जमा सूखः शब्दो यस्मादर्थे पश्चिमा पश्चिमती साधवो महावीरस्य मुनयो वक्रजडाः - वक्राश्च ते जडाश्च वक्रजडाः, वाः प्रतिबोधसमये वक्रज्ञानाः, जमाः कदाग्रहपराः, तादृशा तुमा मध्यमती रानाती कृत्साधवः ऋजुप्राज्ञाः बभूवुः, ऋजवश्च प्राज्ञाश्च ऋजुप्राज्ञाः, ऋजः शिक्का ग्रहण तत्पराः, पुनः प्राज्ञाः प्रकृष्टबुरूयः, सेन कारणेन दे मुने ! धर्मो द्विधा कृतः ॥ २६ ॥ - पुरिमाणं दुब्बिसोको परिमाणं दुरापालओ चे कप्पो मज्झिमाणं तु, सुविसाज्भो सुपासो ॥। २७ ॥ [ पुरिमाणं इति ] प्रथमतीमधून कल्पः साध्वाचारो दुर्विशोध्यः दुःखेन निर्मलीकरणीयः, ऋजुजमाः कल्पनीयाः कल्पनीयज्ञानविकलाः, पुनधरमाणां चरमतानां दु रनुपालकाःखेन अनुपात्यते इति दुरनुपालक, महावी रस्य साधवो वक्रजमाः वक्रत्वाद्विकल्पबहुलत्वात् साध्वाचार जानन्तोऽपि कर्तुमशक्ता तु पुनर्मध्यमगानां द्वाविंशति तीर्थसाधूनाम्बजितनाचादारज्य पायापर्यन्ततीर्थक रमुनीनां कल्पः साध्वाचारः सुविशेोध्यः, सुपालकश्च साध्याचारसुखेन निर्मीयना सुखेन पाल्पा, द्वाविंशतितीकृत्साधयहि अमाशाः स्तोकेनोफेन बहुशः तस्माचातुनैतिको धर्म सहिष्ठ मैथुनं हि परिषदे एव गण्यते, आदीब रस्य साधूनां यदि पञ्च महाव्रतानि प्राणातिपातविरविपाया दविरतिमैथुनविरतिपरिग्रहविरतिरूपाणि च १ कप Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) गोयमकेसिज्ज अभिधानराजेन्दः । गोयमकेसिज्ज तदा ते ऋजुजडाः पञ्चमहाव्रतानि पालयन्ति, नो चेत्ते व्रतभङ्गं | दिकं च यत् पुनोंकलिङ्गस्य प्रयोजन साधुवेषस्य प्रबत्तनं कुर्वन्ति, ते तु यावन्मात्रमाचारं शृण्वन्ति तावन्मात्रमेव कुर्व- यत्तीर्थकरैरुक्तं तत् लोकस्य प्रत्ययार्थ लोकस्य गृहस्थस्य न्ति, अधिकं स्वबुद्ध्या किमपि न विदन्ति । महावीरस्य साधवो- प्रत्ययाय, यतो हि साधुवेषं बुञ्चनाद्याचारं च दृष्ट्वा अमी बतिऽपि चेत्पश्च महाव्रतानि शृण्वन्ति तदैव पालयन्ति, तेऽपि न इति प्रतीतिरुत्पद्यते । अन्यथा विडम्बकाः पाखएिमनोऽपि वक्रा जमाश्च, चेत् चत्वारि महाव्रतानि शृण्वन्ति तदा पूजाद्यर्थ वयं वतिन प्रति वीरन्, ततश्च वतिषु अप्रतीतिः चत्वार्येव पात्रयन्ति, न तु पञ्चमं पानयान्त । वक्रजमादिकदान- स्यात, अतो नानाविधविकल्पनं, लिङ्गप्रयोजनं च पुनर्यात्रार्थ हप्रस्ताः अतीव हठधारिणः, द्वाविंशतितीर्थकत्साधवः ऋजवः संयमनिर्वाहार्थ, यतो दि वर्षाकल्पादिकं विना वृष्टयादिना संप्राकाश्चत्वारि श्रुत्वा सबचित्वात पनापि व्रतानि पालयन्ति । यमनिर्वाहो न स्यात, तेन वर्षाकल्पादिकं वर्षतुयोग्यः प्राचार तस्माश्चत्वारि व्रतानि प्रोक्तानि, तस्मात धर्मो द्विविधा कृतः-चा- उपकरणधारणं च दर्शितम्, पुनर्ग्रहणं ज्ञानं तदर्थम इति ग्रतुर्वतिकः, पञ्चवतात्मकश्च । स्वस्वारकपुरुषाणाम् अभिप्राय | हणार्थ, कानाय इत्यर्थः । यदि कदाचित् चित्तविप्लवोत्पत्तिः विज्ञाय तीर्थकरैर्धर्म उपदिष्ट इति नावः ॥ १७ ॥ स्यात्, परीषहोत्पत्तौ संयमे परतिरुत्पद्यते, तदासाधुवेषधारी साहु गोयम ! पन्ना ते, बिन्नो मे संसओ मो। मनसि एतादृशं शानं कुर्यात्-यतोऽहं साधोर्वेषधारी अस्मि, यअन्नो वि संसो मज्जं, तं मे कहसु गोयमो!॥ २८॥ तो "धम्म रक्खड वेसो" इत्युक्तत्वात श्त्यादिहेतोसिंधारण शेयम् ॥ ३२॥ इति श्रुत्वा केशिकुमारः श्रमणो वदति-हे गौतम ! ते तव साधु प्रशाऽस्ति सम्यक् बुकिरस्ति, मे मम अयं शंसयस्त्वया अह भवे पश्चाओ, मोक्खसब्यसाहणे । छिन्नो दूरीकृतः । अन्योऽपि मम शंसयोऽस्ति, तमिति तस्योत्तरं नाणं च दंणणं चेव, चरित्तं चेव निच्छए ॥३२॥ हे गौतम! त्वं कथयस्व । इदं वचनं हि शिष्यापेक्षं, न तु तस्य पुनौतमो वदति-हे केशिकुमारश्रमण ! निश्चयेन येन ये मोक्षकेशिमुनेऊनत्रयवत एवंविधः शंसयसम्भवः ॥२८॥ सद्भतसाधनानि ज्ञानदर्शनचारित्राणि सत्यानि साधनानि निअचेलगो य जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो। श्वयनये वर्तन्ते, अथ प्रतिज्ञा भवेत् श्रीपाश्र्वनाथमहावीरयोः देसिओ वचमाणेण, पासण य महायसा ॥३॥ श्यम् एका एवं प्रतिका नवेत, श्रीपाश्र्वनाथस्याऽपि मोकस्य साधनानि ज्ञानदर्शनचारित्रारयेव, श्रीवीरस्थापि मोक्षस्य साएककज्जपवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं । धनानि शानदर्शनचारित्राण्येव, श्रीपाश्र्ववीरयोरेषा प्रतिका निलिंगे दुविहे मेहावी ,कहं विप्पच्चो न ते ॥३०॥ मा नास्ति इत्यर्थः । वेषस्य अन्तरम् ऋजुजडवक्रजमाद्यर्थः, बर्द्धमानेन चतुर्विंशतितमतीर्थकरेण यो धर्मोऽचेनकः-प्रमाणो मोक्षस्य साधने वेषो व्यवहारनये केयः, न तु निश्चयनये वेषः। पेतजीर्णप्रायो धववस्त्रधारणात्मकः साध्वाचारो दिष्टः,च पुनः निश्चये तु शानदर्शनचारित्राण्येव,तत्र ज्ञानं मतिज्ञानादिकम, दपाइवेन महायशसा त्रयोविंशतितमतीर्थकरेण योऽयं धर्मः सा शनं तस्वरूचिः, चारित्रं सर्वसावद्यविरतिरूपं, तस्मात् निश्चयव्यम्तरुत्तरःपञ्चवर्णबहुमूल्यप्रमाणरहितवस्त्रधारणात्मकःसाध्वा बहारनयो ज्ञातव्यौ श्त्यर्थः ॥३३॥ चारः प्रदर्शितः, हे मेधाविन् ! एककार्यप्रतिपन्नयोः श्रीवीरपा- साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो । शवयोर्विशेषे भेदे किं कारणं को हेतुः?,हे गौतम! द्विविधे लिने अन्नो वि संसओ मऊ, तं मे कहम गोयमा ! ॥३४॥ जिप्रकारके साधुवेषभेदे तब कथं विप्रत्ययो न उत्पद्यते कथं सन्देहो न जायते । उभौ अपि तीर्थकरी मोक्ककार्यसाधको अस्या अर्थस्तु पूर्ववत्, नवरं प्रसङ्गतः शिष्याणां व्युत्पत्यय कथं ताभ्यां वेषभेदः प्रकाशितः?,इति कथं तव अयं संशयो न जानन्नपि अपरमपि वस्तुतत्वं गौतमस्य स्तुतिद्वारण पृच्छन्नभवति? ॥३०॥ न्योऽपि संशयोत्पादी आह ॥ ३४॥ केसि एवं बुवंताणं, गोयमो इणमन्नवी । अणेगाणं सहस्साणं, मज्के चिट्ठसि गोयमा ! । विनाणेण समागम्म, धम्मसाइणमिच्चियं ॥ ३१॥ । ते य ते अलिगच्छंति, कहं ते निजिया तुमे ॥३॥ गौतम एवं ब्रुवाणं केशिकुमारं मुनिम् इदम् भववीत्-हे केशी वदति-हे गौतम! अनेकेशं शत्रुसम्बन्धिनां सहस्राणां केशिमुने ! तीर्थकरैर्विज्ञानेन विशिष्टज्ञानेन केवलज्ञानेन स. मध्ये त्वं तिष्ठसि, ते च अनेकसहनसंख्याः शत्रवस्ते इति मागम्य यत् यत् यस्य उचित तत्तथैवशात्वा धर्मसाधनं त्वाम अभिलकीकृत्य गच्चन्ति संमुखं धावन्ति, ते शत्रवस्त्वया धर्मोपकरणं वर्षाकल्पादि इदम् ऋजुप्राइयोग्यम,दं वक्रजम- | कथं निर्जिताः? ॥३५॥ योग्यम् इति ईप्सितम् अनुमतम् श्ष्टं कथितमिति यावत, यतो अथ गौतम उत्तरं वदतिहि शिष्याणां रक्तवर्णादिवस्त्रानुशाने वक्रजमत्वेन रञ्जनादिषु __ एगे जिए जिया पंच, पंचे जिये जिया दस । प्रवृति दुनिवारा पब स्यात, पाश्वनाथशिष्यास्तु ऋजुप्राइवेन | शरीराच्चादनमात्रेण प्रयोजनं जानन्ति, न च ते किश्चित्कदाग्रह दसहा उ जिणित्ता णं, सबसत्तू जिणामि हं॥३६ ॥ कुर्वन्ति ॥३१॥ हे केशिमुने! एकस्मिन् शत्रौ जिते पञ्च शत्रवो जिताः, पञ्चपञ्चयत्यं च योगस्स, नाणाविहविगप्पणं। सुजितेषु दश शत्रवो जिताः,दशैव वैरिणो वशीकृताः दशप्रका रान् शत्रून जित्वा सर्वशत्रून जयाम्यहम् । यद्यपि चतुों कषाजत्नत्यं गहणस्यं च, लोगे लिंगप्पोयणं ।। ३॥ याणाम अवान्तरजेदन षोडश संख्या जवति, नोकषायाणां हे केशिमुने! नानाविधं विकल्पनं नानाप्रकारोपकरणपरि- नवानां मीलनात् पञ्चविंशतिभेदा भवन्ति, तथापि सहनसंख्या कल्पनम् अनेकप्रकारोपकरणचतुर्दशोपकरणधारण वर्षाकल्पा- न भवति, परंतु तेषां जयस्वात् सहस्रसंख्या प्रोक्ता ॥ ३६॥ / Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयम केसिज्ज अथ कशी पृच्छति सत्य इइ के बुत्ते, केसी गोयममन्त्री | (२०६३) अभिधानराजेन्द्रः । सितं तु गोयमो इमम्बवी ॥ ३७ ॥ हे गौतम! रात्र के उशिकुमारो नितमश्वम अधीनमा केशिनिय एवं वन्तं गौतम दम ववीत् ॥ ३७ ॥ गप्पा अजिए सन् कसाया इंदिपाणि य ते निणि जहानार्थ विराम अहं मुणी ! ॥ ३८ ॥ हे मुने! एक आत्मा चित्तं, तस्य अभेदोपचारात् आत्ममनसोरे. कीभावे मनसः प्रवृत्तिः स्यात्, तस्मात् एक आत्मा अजितः श यो रिपु, अनेक दुःखहेतुत्वात्। एवं सर्वेऽप्येते सरो रमेदात् एकस्मिन् मा जिते चत्वारः कपायास्तेषां मॉलनात् पञ्चपञ्चसु श्रात्मकषायेषु जितेषु इन्द्रियाणि पञ्च जितानि, तदा दश शत्रवो जिताः। श्रात्मा, कषायाश्चत्वारः, एवं पञ्च, पुनः पश्येन्द्रियाणि, एवं दशैव आत्मरूपायाः, नोकषाया इन्द्रियाणि । पते सर्वे शत्रवोऽजिताः सन्ति, तान् सर्वान् शत्रून् यथान्यायं वीतरागो जिल्ला महं विरामि मध्ये तिष्ठपि प्रतिवद्धविहारे विचरामि पूर्वदि काले अनेकेषां सहस्राणां भरीणां मध्ये तिष्ठसि इत्युक्तम्, उत्तरसमये तु कषायाणाम् अवान्तरभेदेन षोमशसंख्या भवति, नोकषायाणां नवानां मीलनाथ पचविंशतिमेदा भवन्ति तथा स्मेन्द्रियाणामपि सह संख्या न प्रयतेि, परंतु पतेषां दुर्जयत्वात् सहस्रसंख्या उक्तेति भावः ॥ ३८ ॥ साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नो वि संसओ मऊ, तं मे कहसु गोयमा ! ॥ ३५ ॥ अस्यार्थस्तु पूर्ववत् ॥ ३५ ॥ दीसंति बहवे लोए, पासबद्धा सरीरिणो । मुकपासो लहुब्नूओ, कई तं विहरसी मुणी ! ॥ ४० ॥ पुनः केशीतितममुने! ढोके संसारे बहुचः शरीरिणः पाशकाः दृश्यन्ते, त्वं मुक्तपाशः सन् लघुभूतः सन् कथं विचरसि दे मुने ! ॥ ४० ॥ ते पासे सम्सो खिचा निहंगा उवायच्यो । " मुकपासो लतू विहराम अहं मुखी ॥ ४१ ॥ तान् पाशान् सर्वान् बिस्वा पुनः पाश लघुतोऽहं विहरा उपायेन बुद्ध्या निहत्य सु ४१ ॥ पासा य इइ के बुत्ते, केमी गोयमपव्ववी। तो केसि तं तु गोयमो इणमव्वव ॥ ४२ ॥ इति मौमवाक्यादनन्तरं केशिभ्रमण गौतम-गीतम ! पाशाः के उक्ता बन्धनानि कानि उत्तानि ? । तत इति पृच्छकेशिकुमार गौतम ॥ ४२ ॥ रागदोसादयो तिम्या, नेहपासा जयंकरा । जिंद जहानार्थ बिहरामि जहक ॥ ४२ ॥ हे केशमुने! जीवानां रागद्वेषादयस्तीयाः कठोराः प्रेमशक्याः स्नेहपाशा मोहपाशा उक्ताः कोटास्ते स्नेहपाशाः १, गोयमके सिज्ज जयंकराः जयं कुर्वन्तीति भयङ्कराः रागद्वेषी यादी येषां ते रागद्वेषादयः, रागद्वेषमाहा एव जीवानां जयदाः, तान् स्नेहपाशान् यथान्यायं वीतरागोतोपदेशेन बिरवा, यथाक्रमं साध्वाचारानुक्रमेण विराम साधुमार्गे विचरामि ॥ ४३ ॥ साहु गोयम ! पन्ना ते, बिन्नो मे संसश्रो इमो । अन्नो वि स तं मे कहसु गोयमा ! अस्यार्थस्तु पूर्ववत् ॥ ४४ ॥ अंतोहिययसंनूया, नया चिट्ठ‍ गोयमा ! | फल्लेइ बिजयी, साउ उकरिया कई ? ||४५॥ हे गौतम! साला सावल्ली स्वया कथं केन प्रकारेण उद्धृता उत्पादिता ? सा का?, या बता अन्तर्हृदयसम्भूता सती तिष्ठति, अन्तर्हृदयं मन उच्यते, एतावता मनसि उता पुनर्या वल्ली विषयाणि फलानि तयाणि विषमहदाखि विषफलानि उत्पादयति, पर्यन्तदारुणतया विषोपमानि फलानि यस्या लताया नवन्ति ॥ ४५ ॥ तं लयं सम्सोविता, उकरिता समूलियं । विरामि जहानायं, मुको मि विसभक्खा || ४६ ॥ गौतमो वदति-हेमुने! तां तां सर्वतः सर्वप्रकारेण - स्वा खराडीकृत्य पुनः समूलिकां मूलसहितामउत्पा टप यथान्यायं साधुमार्गे विरामि ततोऽहं विषणात् विषोपमाद्वारात कोऽस्मि ॥ ४६ ॥ या व इ का कुत्ता, केसी गोचममब्वषी ! केसिंयुतं तु गोयमो इणमव्वव ॥ ४७ ॥ गौतम ! जता इति का उक्ता ?, इति पृष्ठे सति इति ब्रुवन्तं केशिमुनि गौतम इदम् अमीत् ।। ४७ ।। भवतहा लेया बुत्ता, भीमा भीमफलोदया । तमुक जहानागं विहरामि महामुनी ! ॥४०॥ हे केशिमुने ! भये संसारे प्रकृति बीउका कीशी सानीमा भयदायिनी पुनः कीदृशी, भीमफजादेया भोमो दुःखकारणानां फलानां दुष्टकर्मणाम् उदयो विपाको यस्याः सा भीमफलोदया दुखदायककर्मफल "लो नमूलानि पापानि " इत्युक्तत्वात् । तां तृष्णावतीं यथान्यायम उद्धृत्य श्रहं विहारं करोमि ॥ ४० ॥ साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नो वि संसओ मतं मे अर्थस्तु पूर्ववत् ॥४६॥ संपजझिया पोरा, अम्मी चिह्न गोवमा ! जे महंत सरीरत्या, कहं विज्झाविया तुमे ? ॥ ५० ॥ गोपमा ॥ ४६ ॥ हे गौतम! संप्रज्वलिता जाज्वल्यमाना घोरा भीषणा श्रग्नयः संसारे तिष्ठन्ति ये अनो दन्ति ज्वालयन्ति तेऽग्नयस्त्वया कथं विध्यापिताः ?, कथं श मिता इत्यर्थः ? ॥ ५० ॥ महामेष्यसूयाओ, गिक्क पारि जमुत्तमं । सिंचापि सवयं ते उ, सिचा नेत्र मर्हति मे ।। ५१ ।। Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६४) अभिधानराजेन्द्रः | गोयम केसिज्ज हे केशिमुने! महामेघप्रसुतात् महामेघसमुत्पद्यात्म नदीप्रवाहा पारि पानीयं गृहीत्वा तान् अन् तरं सिञ्चामि ते श्रग्नयो जलेन सिक्ताः सन्तो मां नैव ददम्ति, कथम्भूतं तत् चारि ?, “ जमुत्तमं " जलेषु उत्तमं सर्वेषु जलेषु मेघोदकस्यैव उत्तमत्वात् ॥ ५१ ॥ अग्गीय इइ के कुत्ते, केसी गोयममव्ववी । सओ केसिंयुतं तु गोयमो इामव्यवी ।। ५२ ।। सदा के शिश्रमण गौतममममम! - तय इति के है इति उक्तवन्तं केशिकुमारं मुनि गौतम इदम् भग्रवीत् ॥ ५२ ॥ कसाया अग्गियो बुता, सूयसीलतो जलं । सुयधाराजिया संता, जिना हु न महंति मे ॥ २३ ॥ " हे केशिमुने ! कषाया अग्नय उक्ताः श्रुतं शीलं तपश्च जलं पर्ततेत व मध्योपदेशः महामेयस्तीर्थकर, महात चागमः, ते कषायाग्नयः श्रुतधारानिहताः श्रुतस्य आगमवाक्य उपनाशीलतपसोऽपि चारा व धारास्ताभिरभि हता विध्यापिताः श्रुतधाराभिहताः सन्तो, निन्नाः विध्यापिताः । 'इ' निश्चयेन, 'में' इति मां न ददति मां नयन्ति ॥५३॥ साहु गोयम ! पक्षा ते जिओो मे संसयो इमो अन्नो त्रिसंसयो मज्ऊं, तं मे कहसु गोयमा ! ॥ ए४ ॥ अर्धस्तु पूर्वच ॥ ५४ ॥ अइसाहसियो जीमो, वुडस्सो परिचावई । जंसि गोय ! मारूढो, कहूं तेण न हीरसी १ || २५ || हे गौतम ! अतिसाहसिको दुष्टाश्वः परिधावति यस्मिन् गौतम ! त्वम आरूढोऽसि तेन दुष्टाश्वेन कथं न हियसे कथम् उन्मार्ग न नीयसे ?, सहसा अविचार्य प्रवर्तते इति साहसिक अविचारिताध्वगामी पुनः की भीमो भयानकः ॥ ५५ ॥ पातं निगिएहामि, सुपरस्सीसमाहियं । न मे गच्छ सम्म मगं च पटिवज्जई || ६ || गौतम पति-दे केशिमुने त मार्गे व्रजन्तम् अहं निगृपदामि वशीकरोमि, कीदृशं तं टावं ?, श्रुतरश्मिसमाहितं सिद्धान्त वल्गया बद्धं, ततः स मे मम दुष्टाश्वः उन्मार्ग न गच्छति, स दुष्टाश्वो मार्गे च प्रतिपद्यते अङ्गीकरोति ॥५६॥ मस्से यश के बुत्ते, केसी गोयममव्ववी ? | तो केसि तंतु, गोयमो इणमव्ववी ॥ ५७ ॥ केशी पृच्छति हे गौतम! अश्व शतकात इति ब्रुवन्तं केशिमुनि गौतम इदमत्रवीत् ॥ ५७ ॥ यो साइसिओ जीमो, दुइस्सो परिभावई । तं च सम्मं निगिएहामि, धम्मसिक्खऍ कंथगं ॥ ए८ ॥ दे केशिमुने! मनो दुष्टाभ्यः साहसिकः परिधावति इतस्ततः परिभ्रमति तं मनोमेशा धर्माभ्यासनिमि कथकमिव जात्याश्वमिव निगृहामि वशीकरोमि, यथा जात्यावो वशीक्रियते, तथा तं मनोदुष्टाश्वं वशीकरोमि ॥ ५८ ॥ सादु गोषम! पद्मा ते विचो मे सो इमो गोयमकेसिज्ज यो वि सोम से मे कह गोयमा ! || अर्थस्तु पूर्ववत्॥५६॥ कुप्पहा वहवो लोए, जेहिं नासंति जंतयो । का कह वहंतो से न नासिसि गोयमा ! १ ॥ ६० ॥ हे गौतम! लोके बहुचः कुपधाः कुमार्गाः सन्ति कुमा तो नश्यति दुर्गतिने तो वियन्ते ते मार्गा वन्ते इत्यर्थः । हे गौतम ! त्वम् अध्वनि वर्तमानः सन् कथं न नश्यसि नाशं न प्राप्नोषि सत्पथात् त्वं न व्यवसे १ ॥ ६० ॥ जे यमग्गेण गच्छेति, जे यम्मापडिया । ते सव्वे वेड्या मज्ज, तो ए एस्सामि हूं मुली ! ॥ ६१ ॥ दे केशिमुने ! ये यजना मार्गेण वीतरागोपदेशेन गच्छन्ति, च पुनर्ये ऽभव्याः उन्मार्गप्रस्थिताः भगवडुपदेशाद्विपरीतं प्रचलितास्ते सर्वे मया विदिताः प्रन्यामध्ययोः समासम्म योर्ज्ञानं मम जातम् इति भावः । 'तो' इति, सस्मात्कारणात् अहं न नश्यामि अपरिहाना मा न प्राप्नोमि ॥ ६२॥ मग्गेय इइ के कुत्ते, केसी गोयममन्यवी । तो कोर्स तंतु मोयमो इणमव्ववी ? ।। ६२ ।। अस्यार्थः पूर्ववत् ॥ ६२॥ कुप्पवयपासंगी, सच्चे उम्मापहिया । सम्मणं तु जिक्खायं, एस मग्गेहि उसमे ॥ ६३ ॥ हे केशमुने! कुत्सिताने प्रवचनानिचनानि कुदर्शनानि, तेषु पाखण्डिनः प्रवचनपारिकनः एकान्तवादिन तेस उन्मार्गस्थिता उन्मार्गगामिनः सन्ति सम्माने तु पुनर्जिनाच्या तं विद्यते एष जिनका सर्वमार्गेषु उत्तमः सर्वमार्गेया प्रथामोयायमूलत्वात् इत्यर्थः ॥ ६३ ॥ साहू गोयम ! पचा ते, छिनो मे संसयो इमो अन्नो वि संसयो मज्ऊं, तं मे कहसु गोषमा ! ॥६४॥ अर्थस्तु पूर्ववत् ॥ ६४ ॥ महालदगवेगेणं, बुद्धभाणाय पाणिणं । सरणं गई पड़डा व दीव के मसी मुणी !! ।। ६५ ।। केश गौतमं प्रति पृच्छति हे गौतम मुने महोदयेन महाजनप्रवाहन बह्यमानानां प्रचतां प्रवंद्वी क मन्यसे १ इति प्रनः कीदृशं द्वीपम् ?, शरणं रक्षणकमम्, पुनः की गतिम आधारभूमिम पुनः कीदृशं प्रतिष्ठां स्थिराव स्थानहेतुम् । द्वीपं निवासस्थानं जलमध्यवर्त्ति ॥ ६५ ॥ प्रत्थि एगो महादीवो, चारिमको महालयो। महाउदगवेगस्स, गई सत्य न विज्ञइ ।। ६६ ।। हे केशमुने! वारिमध्ये पानीयान्तरे महासयो विस्तीर्णः एको द्वीपोऽस्ति द्विता आपो मिस द्वीप द्वीपे महोदयस्य मतिनं विद्यते पातालकल जलवेगस्य गमनं नास्ति । अपरत्र द्वीपे प्रलयकाले समुद्रजन स्य गतिरस्ति परं द्वीपे सति तत्र नास्ति ॥ ६६ ॥ दीवे य इइ के वृत्ते, केसी गोयममव्ववी । तओ केसिंबुवंतंतु, गोयमो इमन्त्री १ ।। ६७ ।। केशी गौतमं पृच्छति दे गौतम! द्वीपम् इति किमुक्कम ?, ३त्युक्तवन्तं केशिभ्रमणं प्रति गौतम ॥ ६७ ॥ Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयमकेसिज्ज अनिधानराजेन्द्रः। गोयमकेसिज्ज जरामरणवेगेणं, बुड्डमाणाण पाणिणं । नग्गो विमझो भाणु, सबलोगप्पजकरो। . धम्मो दीवो पट्टा य, गई सरणमुत्तमं ॥६॥ सो करिस्सइ उज्जोय, सव्वलोगम्मि पाणिणं ॥ ७६ ॥ हे केशिमुने ! जरामरणजलप्रवाहेण चुडतां च वहतां गौतमः प्राह-हे केशिमुने!पर्वलोकानाकरो विमलो भानुरुतः, प्राणिनां संसारसमुळे श्रुतधर्मचारित्रधर्मरूपं द्वीपं वर्तते। सजानुः सर्वस्मिन् लोके सर्वेषां प्राणिनामुयोतं करिष्यति,स. मुक्तिसुखहेतुधर्मोऽस्तीति भावः। कीदृशः स धर्मः?, प्रतिष्ठा नि- स्मिन् लोके प्रनां करोतीति सर्वोकप्रनाकरः, सर्वलोकालोश्वसं स्थानम्,पुनः कीदशो धर्मः?, गतिर्विवे किनाम् आश्रयणीयः कप्रकाशको निर्मझो वादलादिना अनाच्छादितनानुरेव सर्वेषां स धर्म उत्तम प्रधानं स्थानं शरणमस्ति इति नावः ॥६॥ प्राणिनां सर्वत्रोद्योतं करोति,नान्यः कोऽपि तेजस्वी पदार्थ इति साहु गोयम ! परमाते, छिन्नो मे संसश्रो इमो । जावः ॥ ७६ ॥ अन्नो वि संसओ मज्झ, तं मे कहसु गोयमा॥६६॥ जाणू य इइ के वुत्ते, केसी गोयममव्यवी । अर्थस्तु पूर्ववत् ॥ ६ ॥ तो केसिं वुवंतं तु, गोयमो इणमन्नवी ॥ ७॥ अन्नवंसि महोहंसि, नावा वि परिधावई । तदा केशिमुनिरौतमं पृच्छति-हे गौतम ! भानुरिति क उक्तः?, जंसि गोयम ! मारूढा, कहं पारं गमिस्ससि ॥७०॥ | केशिमुनिर्गौतमम् इत्यत्रबीतू, ततः केशिमुनिमितिघुवन्तं गौतम हे गौतम ! महौघे अर्णवे महाप्रवाहे समुझे [नावा इति ] | इदम अब्रवीत् ॥ ७॥ मी परिधावति इतस्ततः परिभ्रमति, यस्यां नौकायां त्वम उग्गयो खीणसंसारो, सम्वन्नू जिवनक्खरो। मारूढः सन् कथं पारं गमिष्यसि कथं पारं प्राप्स्यसि ॥७॥ सो करिस्सा नज्जोयं, सबलोगम्मि पाणिणं ॥ ७० ॥ जा उ अस्साविणी नावा, न सा पारस्स गामिणी । हे केशिमुने ! कोणः संसारो भवभ्रमणं यस्य स कोणसंसारः जाय निस्साविणी नावा,सा न पारस्स गामिणी ॥७२॥ क्यीकृतसंसारः, सर्वज्ञः सर्वपदार्थवेत्ता, जिनो रागद्वेषयोर्विहै केशिमुने! या नौः श्राधाविणी निजसहिताऽस्ति, प्राधव- जेता, सजास्करः सूर्यः, सर्वस्मिन् खोके चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोबति आगच्छति पानीयं यस्यां सा प्राधाविणी, सा नौः पारस्य के सर्वेषां प्राणिनामुयोतं करिष्यति प्रकाशं करिष्यति ॥७॥ गामिनी नास्ति, या निश्राविणी निभिसा नौः, सा तु साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो। पारस्य गामिनी ॥ ७१॥ अन्नो वि संसो मझ, तं मे कहमु गोयमा ।। ७ए। अथ केशी पृच्छतिनावा य इइ का वुत्ता, केसी गोयममव्यवी । अर्थस्तु प्राग्वत् ॥ ७॥ तो केसि बुवंतं तु, गोयमो इणमबवी ॥ ७॥ सारीरमाणसे दुक्खे, बज्झमाणाण पाणिणं । सरीरमाहु नावि चि, जीवो वुच्चइ नाविनो। खमं सिवं अणावाहं, गणं किं मन्नसी मुणी !? ||७|| संसारो अन्नवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो ।। ७३ ॥ अथ पुनः कशिश्रमणो गौतम पृच्छति-हे गौतम मुने! शारिमौ इति का उक्ता ?,केशी गौतमम् अत्रवीत्। ततः केशि ब्रुवन्तं रिकैः शरीरात् उत्पन्नः, तथा मानसैः मनस उत्पबै खाध्य. गौतम श्दम अब्रवीत् ॥ ७२ ॥ हे केशिमुने ! शरीरं नौवर्तते, मानानां पीव्यमानानां प्राणिनां त्वं क्षेमं व्याध्यादिरहितं. शिवं जीवो नाविकः नौखेटक उच्यते । संसारोऽर्णवः समुफ उ जरोपवरहितम,अनावाधं शत्रुजनाभावात् स्वभावेन पीमारतः। यं संसारं समुकं महर्षयस्तरन्ति, एतावता महर्षयः स्व हितम, पतादर्श स्थानं किम् मन्यसे ?, मां वदेति शेषः ॥७॥ जीवंतपोऽनुष्ठानक्रियावन्तं नौवाहकं नाबिकं कृत्वा चतुर्गतिनम- अस्थि एगं धुवट्ठाणं,लोगग्गम्मि दुरारुई। णरूपे भवार्णवे स्वशरीरं धर्माधारकत्वेन नावं कृत्वा पारं प्रा जत्थ नत्थि जरामच्च, वाहिणो वेयणा तहा ॥ १ ॥ नुवन्ति, मोकं वजन्तीति भावः ॥७३॥ हे केशिमुने! लोकाग्रे लोकस्य चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य अग्रं लोसाहु गोयम! पन्ना ते, छिन्नो मे संसो इमो।। काग्रं तस्मिन् लोकाग्रे, एकंध्रुवं निश्चलं स्थानम् अस्ति, कथअन्नो वि संसो मऊ, तं मे कहसु गोयमा ! ॥४॥ म्भूतं तत्स्थानम?,"दुरारुह"पुःखेन पारुह्यते यस्मिन् तत् दुराअर्थस्तु प्राग्वत् ॥ ७४॥ रोह, दुष्प्राप्यमित्यर्थः। पुनर्यत्र यस्मिन् स्थाने जरामृत्यून स्तः अंधकारे तमे घोरे, चिट्ठति पाणिणो बहु । जरामरणे न विद्यते,पुनर्यस्मिन् व्याधयः,तथा वेदना वा,वातपिको करिस्सइ उज्जोयं, सव्वलोगम्मि पाणिणं ॥७॥ नकफलेमादयो न विद्यन्ते ॥७॥ मथ पुनः केशिश्रमणो गौतमं पृच्छतिन्दे गौतम!अन्धकारतमसि ठाणे य इइ के वुत्ते, केसी गोयममवत्री। प्रकाशाभावे बहवः प्राणिनस्तिष्ठन्ति, अन्धकारतमःशब्दयोर्यद्य- तो केसि बुवंतं तु, गोयमो इणमव्ववी ।। २ ॥ न्येक एव अर्थस्तथाऽप्यत्र अन्धकारशब्दस्तमसो विशेषणत्वेन ततः केशिश्रमणो गौतमम इदम अब्रवीत?, हे गौतम ! स्थानम प्रतिपादितम् । कीरशेतमसि?,अन्धकारे अन्धं करोति लोकमि- इति किमुक्तम ?, ततः केशिकुमारमिति त्रुवन्तं गौतम इदम त्यन्धकार तस्मिन् अन्धकारे, पुनः कीदृशे तमसि ?, घोरे रौद्रे अब्रवीत् ॥ २॥ भयोत्पादके,हे गौतम! पतारशे सर्वस्मिन् लोके सर्वेषां प्राणिमां सर्वजीवानां का पदार्थ उद्घोतं करिष्यते प्रकाशं करि निव्वाणं ति अवाहं ति, सिकि लोगग्गमेव य । यति?॥ ७५॥ खेमं सिवमणाबाई, जंचरंति महेसियो।।८३ ॥ २४२ Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०६६) अभिधानराजेन्द्रः | गोयमकेसिज्ज तं ठाणं सास पा लोगगम्मि कुरारुई । संपता सोपंति जयोतकरा मुखी ! |८४ (युम्मम्) हे केशिमुने! शाम्यतं सदातनं वासं या लोकापर्त ते यत्थान सम्याप्ताः सन्तो भवघातकराः संसारप्रवाहविनाशका मुनयो न शोचन्ते शोकं न कुर्वन्ति । कीदृशं तत्स्थानम् ?, दुरारोहं दुःखेन तपःसंयमयोगेन सा इति दुरा रोहं दुष्प्राप्यम् । इति द्वितीयगाथया संबन्धः । अथ प्रथमगा- गोयमगोत्त - गौतमगोत्र - त्रि० । गौतमाहयगोत्रसमन्विते, सं० चार्य पुनः यत् स्थान पनिनमनिरुध्यतेकानि तानि नामानि ?, निर्वाणम् इति, अबाधम इति, सिद्धिरि ति, लोकाग्रम् एव च पुनः केमं, शिवम् इति नामानि । एतादृशैः सार्थकैरभिधानैर्यत् स्थानम् उच्यते । तेषां नास्नामर्थो यथानिर्वान्ति संतापस्य श्रभावात् शीतीभवन्ति जीवा यस्मिन् इति निर्वाणम्। न विद्यते बाधा यस्मिन् तत् अबाधं निर्भयम् । सिध्यन्ति समस्त कार्याणि भ्रमणानावाद यस्याम इति विद्धिः श्रोकस्य अम अमभूमिर्लोकान् पर्व क्षेमं केमस्य शाश्वतसुखस्य कारकमुपयानावात् पुनर्यत् स्थानं प्रति म susarai यथा स्यात्तथा चरन्ति व्रजन्ति सुखेन मुनयः प्राप्नुवन्ति मुनयो हि चक्रवर्त्यधिक सुखभाजः सन्तो मोक्षं लभन्ते इति नावः ॥ ८४ ॥ साहु गोय! पन्ना ते दिन्नो मे संसओ इमो । नमो ते संसयातीत!, सव्वसुत्तमहोदही ॥ ८५ ॥ अकेशिकुमारो मुनिवमं स्तौति हे गौतम! ते तब महा सायी वर्त्तते मे मम अयं संशयः सन्देहो दूरीकृतः संशयातीत ! हे सर्वसूत्रमहोदधे ! सकन सिकान्त समुद्र तुभ्यं नमो नमस्कारोऽस्तु ॥ ८५ ॥ एवं तु संसर छिने, केसी घोरपरक्कमे । ! जिवंदित्ता सिरसा, गोयमं तु महायसं ॥ ८६ ॥ पंचमढव्ययं धम्मं परिवत जावो । पुरिमस्स पच्छिमम्मि, मग्गे तत्थ सुहावहे ||G9|| (युम्मम् ) केशिकुमारश्रमणो भावतः श्रद्धातः ( पुरिमस्स इति ) प्रथम. तोमार्गे पश्चिमीकरस्य मार्गे अर्थात् मादीश्वरमहा बीरयोर्मार्गे तत्र के उद्याने दारूपं धर्मप्रतिपद्यते अङ्गीकरोति का गौतमं शिरखा मस्तकेन अभिन्नमस्कृत्य, क सति, एवम् श्रमुना प्रकारेण गौतमेन संशये छिने तिकीट गौतम, महायशसम् कीदृशः केशी मुनिः घो पराक्रमः पुरुषाकारयुक्त, पूर्व केशिकमारभ्रमन रिव्रतानि गृहीतान्यासन् तदा गौतमवाक्यात्पञ्च महाव्रतान्यङ्गीकृतानीति भावः ॥ ८७ ॥ केसीगोयमओ निच्चं, तम्मि आसि समागमो । मुसीलसमुकरिसो, महत्यत्यविणिच्छ ॥ ८० ॥ || तत्र तस्यां नगयी केशिगीतमयोनित्यं समागम आसीत्। तयोः पुनः श्रुतशीलसमुत्कर्षः श्रुतज्ञानचारित्रयोः समुत्कर्षोऽतिशयोऽभूत, पुनस्तयोरुभयोर्महान् अर्थविनिश्चयोऽभूत शिक्का व्रतस्वादीनां निर्णयोऽभूत् ॥ 50 || मोसिया परिसा सव्वा सम्ममां समुपहिया । या ते पसीयंतु, जगवं ! केसि ! गोयमा ! || इति वेमि । गोयरचरिया सदा सर्वा परित्तोषिता प्रीणिता सम्पक मार्गे सर्वा परिषत् समुपस्थिता साधाना जाता ती भगवती यती केशिगोतमी परिषदा संस्तुतो प्रसादर्ता प्रसनी भवतां स तामिति शेषः, इत्यहं ब्रवीमि । इति सुधम्मस्वामी जम्बूस्वा मिनं प्राह ॥ ८ ॥ इति केशिमीठमा ऽध्ययनं संपूर्णम् । उत्त० २३ प्र० । प्र० १ पाहु० सू० प्र० । गोयमदीव - गौतमद्वीप - पुं० । लवणसमुद्रपश्चिमायां दिशि द्वादशयोजन सहस्राचाद्य दशसहस्रमाने सुस्थिताभिधानपणसमुद्राधिपतेयनेनालस्कृती स्वनामस्याने स०६६ सम० । प्रज्ञा० । जी० । गोयमसगुत्त गौतमसगोत्र वि० समानं गोत्रं येषां से सगा गौतमेन गोत्रेण भगोत्रा गीतमसगोत्राः। गीतमाभिधानात्रकेषु, आ० म० द्वि० । गोयर - गोचर - पुं० । गोरिव चरणं गोचरः । यथाऽसौ परिचितविशेषमपहायैव प्रवर्तते, तथा साधुरपि जित्तार्थम् । उत०३० । पञ्चा० । श्रवण गोरिव चरति यस्मिन्स गोचरः । बत०२ प्र० । उत्तमाधममध्यमले घरद्विस्य मिकाटने २०१ ० भिक्षाग्रहणविधौ, स० । भ० । उत० । नं० । गोचरः सामयिकत्वाद गोरिव चरणं गोचरः, अन्यथा गोचारः तदर्थ सूचकत्वाश्च वुमपुष्पिकाऽध्ययनविशेषो गोचरः । दर्शवेकालिकरूप प्रथमेऽध्ययने, बच्चा गोधरत्येवमविशेषतः साधुनायट तथ्यं नरोत्तमाधममध्यमेषु कु त्सकदृष्टान्तेनेति । दश०१०। अधिकरणे श्रच् । गवां चारिस्थाने, पृ०३ उ० / चरणक्षेत्रे, झा०१ ०१७० । विषये, आ० म० द्वि० । स्था० | यो० बि० प्रा० चू०। भाचा०] श्राष० । विषयः प्राप्तिगोचर एकार्थाः । प्रा० चू० १ ० । गोयरकाल - गोचरकाल - पुं० । गोचरचर्या वेलायाम्, कल्प० ६ कण । । गोयरमा न०- अगोचर- पुं० प्रकृतत्वाद्गोचरस्थ पर नागोया सि' प्रधाने गोचरे, “अहिं गोपरां तु " | सच० ३० अ० । गोचराग्र-न० । गोचरस्याग्रं प्रधानं यतोऽसावेषणायुक्तो गृह्णाति, न पुनर्गेौरिव यथाकथञ्चित् । उत० १ अ० । श्रभ्याहताधाकर्मादिपरित्यागेन (००१०) प्रधानपिक उत्त० २४ श्र० । गोयरग्गगय-गोचराग्रगत- त्रि० । ग्रामान्तरं भिक्षार्थी प्रविष्टे, दश० ५० १० । गोयरग्गपविट्ठ- गोचराग्रमविष्ट - त्रि० । गोचरानं प्रधानपिण्डग्रहणं तन्निमित्तं प्रविष्टो गृहे प्रस्थितः। उत्त०२४ अ० । ग्रामान्तरं भिक्षाप्रविष्टे, दश०५ श्र० १० । “गोयरम्गपविठस्स, णिसिजा जस्स कप्पर" । दश० ६ श्र० । गोपरचरिया - गोचरचर्या श्र० गोधरणं गोचर चर ब य, गोचर इव चयां गोचरचय । भिक्ताचर्थ्यायाम्, आ० ० ४ ० । व्य० । Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयरचरिया श्रभिधानराजेन्द्रः। गोयरचरिया विषयसूची (४७ ) जिलिङ्गस्पो न ग्राह्यः। (४) लवणग्रहणम्। (१) कथं गोचरचर्या कर्तव्या । (४६) वनस्पतिप्रतिष्ठितम् । (२) गोचरचर्यानिरूपणम् । (५०) बन्नग्रहणे तत्परिष्ठापनम् । (३) भिक्षाघारम्। (५१) सुरनिं गृह्णाति असुरभि परिष्ठापयति । (४) भिक्काटनविधिः। (५२) अनगन्धः। (५) वर्षासु दिशमापृच्च्य गन्तब्यम । (५३) प्राचार्याद्यर्थे विधिः। (६) गच्छतो धार्याधार्याणि कार्याकार्याणि तत्रावश्यकद्वा- (५४) ग्लानार्थ गृहीत्वा स्वयं नाभीयात् । रम। (५५) गोचरे भोजनम् । (७) उपकरणद्वारम् । (५६) गोचरादागमनम् । (0) कायोत्सर्गद्वारम् । (५७) गोचरातिचारालोचनम् । (९) कस्मिन् काले प्रविशेदिति कालद्वारम्। (५८) गोचरातिचारे प्रायश्चित्तम । (१०) नित्यनक्तिकादेःप्ररूपणम् । (५६) निर्ग्रन्धीमां जिकाविधिः। (११) कासातिक्रान्तक्केत्रातिकान्तपानभोजने वक्तव्यता। (६०) सर्वसंपत्कर्यादिभिक्कानिरूपणम् । (१२) रात्रौ भिक्षा न ग्रहीतन्या । (६१)नमरदृष्टान्तेन भिक्षायां निर्दोषत्वसिकिः। (१३) कतिवारान् गजेदिति प्रमाणद्वारम् । (१) कथं गोचरचर्या कर्तव्या(१४) मात्रकं गृहीत्वा गन्तव्यमिति मात्रकद्वारम् । (१५) यस्य च योगद्वारम् । “जहा कवोतोय कपिजलो य,गावो चरंती इव पागमाभो । (१६) संघाटकं कृत्वा गन्तव्यम् । एवं मुणी गोयरियं चरेजा,नो हीलए नो वि य संथवेजा"। (१७) उच्चावचकुलेषु चरेत् सामुदानिकः । "लाभालामे सुहक्खे सोभणासोनणे भत्ते वा पाणे वा (१८) मार्गे यथा गच्छति तथा निरूपणम् । समणो तुरिहको चरति " । मा० चू०४ अ०। (१६) स्थाणुकएटकादिवक्तव्यता, गृहपतिद्वारे स्थाणुक (२) गोचरचर्यानिरूपणम्एटकादिवतव्यताच । "जधा वा सो बच्चो दिवसनिसाए छुहाए य परिताधितो (२०) षद्काययतना। बिताए अविरतियाए पंचविहविसयसंपउत्ते एतेणं पाणिए (२१) वृष्टिकाये निपतति यत्कर्तव्यं तनिरूपणम् । दिज्जमाणे तम्मि इच्चियम्मिन तुच्चंगच्चति,नवाऽनेसु चित्तं देति. (२२) प्रवेशवक्तव्यता । किंतु चारियाणि एव एगग्गमणो सो पालोएति; एवं साधू (२३) काकादीन् संनिपतितान् प्रेक्ष्य न गच्छेत् । विपंचविहेसु विसएसु असज्जंतो भिक्खायरियाए उवढत्तो (२४) गां दुह्यमानां प्रेक्ष्य न गच्छेत् । चरति, तेण गोचरातीते य गोचरचरियातीए गोचरचरियाए (२५) गृहावयवानालम्य न तिष्ठेत् , न वाडव्यादि दर्शयत। य भिक्खादिया जिक्वेसणा" ॥ श्रा० चू०४० स्था० । (१६) अगार्या सह न तिष्ठेत् । ('भिक्खाग' शब्द घुणदृष्टान्तेन भिक्षाप्ररूपणा) (२७ ) ब्राह्मणादिकं प्रविधं दृष्ट्वा प्रवेशविचारः। (३) अथ भिक्षाद्वारमनिधित्सुराह(२८) ग्रामपिएमोलकादि प्रविष्टं दृष्ट्वा प्रवेशविचारः। तत्र गोचरचर्यायाः सर्वोऽधिकारोऽत्रैव प्रदर्यते, नवरमेष(२६) परनामे दिएडन विधिः । पणोत्पादनोद्गमदोषाणां स्वस्वस्थाने व्याख्या, इह तु जिनक(३०) आहारे तुमे गोचराटनम् । ल्पिकानां स्थविरकल्पिकानां निर्गन्धीनां च भिक्षणविधिरुप(३१) ग्रहणविधिः । दर्शाते(३२) याच्यं वस्तु राष्ट्वा याचेत, नान्यथा याचेत । जिणकप्पिप्रऽजिग्गहिए-सणाएँ पंचएहमन्नतरियाए। (३३) धन्दमानं न याचेत। (३४) भुजानाद् याचनम। गच्छे पुण सव्वाहिं, सावक्खो जेण गच्छो उ॥ (३५) ग्राह्यवस्तूनामत्युष्णग्रहणे विधिः । जिनकल्पिकाः-अनिगृहीतया पञ्चानामुतादीनामन्यतरया ए. (३६) आधाकर्मिकादिविचारः। पणया नक्तम् एकधा पानकं गृहन्ति, गच्छे गन्नवासिनः पुनः (३७) आकरखन्यादौ विचारः। सर्वानिरप्यसंसृष्टादिभिरेषणाभिर्भक्तपानं गृहन्ति, कुत इत्याह(३७) आरण्यकादीनाम विचारः। सागेको पालवृकाद्यपेकायुक्तो येन कारणेन गच्छ इति । (३६) उत्सवेषु अर्द्धमासिकादिषु विचारः। आह-किमिति गच्छवासिनः सर्वाभिरप्येषणाभिर्गृहन्ति, किं (४०) वादिखपडादिवतव्यता। तेषां निजरया न कार्यम्', उच्यते(४१) औषधविषयो विधिः । बाले चुवे सेहे, अगियत्ये नाणदंसणप्पेही । (४२) क्रीतप्रायमित्यादिविचारः। दुव्वलसंघयणम्मि उ, गछि पइसणा नणिया । (४३) नौकागतम्। षष्ठीसप्तम्योरथ प्रत्यजेदाद बासस्य वृरुस्य शक्तस्य अगीतार्थ(४४) तण्मुलप्रसम्बादिवक्तव्यता। स्य ज्ञानदर्शनप्रेक्विणो ज्ञानार्थिनो, दर्शनप्रभावकशास्त्रार्थिनश्चे(४५) पर्युषिताहारोन ग्राह्यः । त्यर्थः । दुर्बलसंहननस्य वा समर्थशरीरस्यानुग्रहार्थ गच्छे प्र(४६) बहिर्निर्हतम्। कीर्णा अप्रतिनियता एषणा भणिता भगवद्भिरिति । Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०) गोयरचरिया अभिधानराजेन्द्रः । गोयरचरिया अधतान्येव पदानि गाथाद्वयन भावयति चरे मंदमणुविग्गो, अबक्खित्तेण चेयसा ॥२॥ तिक्खबुहाओ पीमा, उड्डा निवारणम्मि निक्खिाया। (से इति) असंघान्तोऽमूर्छितो प्रामे वा नगरे वा, उपलकणत्याइय जुयनसिक्खरोमुं, पोस भेओ य एकतरो॥ दस्य,कटादौवा,गोचराप्रगत इति।गोरिव चरणं गोचर उत्तसुचिरेण वि गीयत्थो, न होहिई न वि सुयस्स आजागी।। माधममध्यमकुलेष्वरक्तद्विष्टस्य निक्षाटनम, अनःप्रधानोऽभ्यापग्गहिएसणचारी, किमहीन धरेउ वा अवलो?॥ हताधाकर्मादिपरित्यागेन तद्गतस्तद्वर्ती, मुनिर्भावसाधुश्चरेत् अभिगृहीतयैवैषणया नक्तपानग्रहणे प्रतिकाते तया वा लब्धे | गच्छेत,मन्दं शनैः शनैः, न द्रुतमित्यर्थः। अनुद्विग्नः प्रशान्तः प. स्तोके वा लब्धे सति बालवृकशैककाणांतीक्ष्णया दुरधिसहया | रीषदादिभ्योऽबिभ्यत् अव्याक्तिप्तेन चेतसा वत्सवणिग्जायायाकुधा,उपलकणत्वात् तृषा चमहती पीडा भवति,उडाहोवा भवेत्।। न्तात् शब्दादिश्वगतेन चेतसा अन्तःकरणेन एषणोपयुक्तनेति सहि बालादिरित्थं लोकपुरतो यात्-पते साधवो मां कुधा तृषा सूत्रार्थः ॥२॥ पामारयन्तीति। तथा निवारणे विवक्षितामेकामेषणां विमुच्या __ यथा चरेत् तथैवाहन्यास प्रतिषेधे विधीयमाने सति बालादयश्चिन्तयेयुः-अहो! पुरो जुगमायाए, पेहमाणो महिं चरे । निक्किपत्यमीषां, ततः प्रद्वेषं गच्छेयुः, नेदो वा एकतरः जोवस्य बज्जतो वीयहरियाई, पाणे य दगमट्टियं ॥३॥ चारित्रस्य वा विनाशोऽमीषां भवेत्, इति बालवृद्धयुगले शैक्षके षा नियन्त्र्यमाणे दोषा मन्तव्याः। तथा अगीतार्थः सुचिरे पुरतोऽग्रतो युगमात्रया शरीरप्रमाणया शकटो संस्थितया, णापि कालेन गीतार्थो न अविष्यति,नापि श्रुतस्याचारादः, उप दृष्टयेति वाक्यशेषः । प्रेक्षमाणः प्रकर्षेण पश्यन् , महीं भुवं लकणत्वाइर्शनप्रभावकशास्त्राणां वा, अन्नागी, कीडश श्त्याह चरेत् यायात, केचिम्नति योजयन्ति, न शेषदिगुपयोगेनेति गप्रगृहीतैषणाचारी प्रग्रहीता अभिग्रहवती या एषणा तयारी त. म्यते, न प्रेकमाण एव, मपितु वर्जयन् परिहरन् धीजहरितानि, त्पर्यटनशीलधरो वा,अबसो पुर्बलसंहननः संप्रणीताहाराद्युप. अनेनानकभेदस्य वनस्पतेः परिहारमाद । तथा प्राणिनोद्वीन्छिम्भाभावे किं सूत्रमर्थ वा अधीता, धारयिता वा,अत एतेषा यादीन्, तथोदकम् अकार्य, मृत्तिकांच पृथवीकार्य, चशब्दात मनुग्रहार्थ गच्छे प्रकीर्णा एषणा दृष्टा ॥ ०१०। तेजोवायुपरिग्रहः । रष्टिमानं त्वत्र लघुतरयोपलब्धावपि प्रवृगोचरचर्यायां विधि: तितो रक्षणायोगात्,महत्तरया तु देशविप्रकर्षणानुपलब्धेरितिसंपत्ते निक्खकालम्मी, असंनंतो अमुच्चिो । सूत्रार्थः । उक्त समयविराधनापरिहारः ॥३॥ इमेण कमजोगेण, भत्तपाणं गवेसए ॥१॥ __अधुनाऽऽत्मसंयमविराधनापरिदारमाह(संपत्ते इति) संप्राप्ते शोभनेन प्रकारेण स्वाध्यायकरणादिना ओवायं विसमं खा', विजनं परिवज्जए। प्राप्ते, भिक्षाकाले निकासमये, अनेनासंप्राप्ते भक्तपानेषणाप्रतिषे. संकमण न गच्छेजा, विजमाणे परकमे ॥४॥ धमाह, अलाभावाखएम्नान्यां दृष्टादृष्टविरोधादिति । असंचा अवपातं गादिरूप, विषमं निम्नान्नतं, स्थाणुमूर्द्धकाष्ठं, धितोऽनाकुलो यथावऽपयोगादि कृत्वा, नान्यथेत्यर्थः। अमू- जलं विगतजलं कईम परिवर्जयेत्, एतत्सर्व परिहरेत् । तथा चिंतः पिण्डे शब्दादिषु वा अगृद्धो विहितानुष्ठानमिति कृत्वा, संक्रमेण जलगर्सपरिहाराय पाषाणकाष्ठरचितेन न गच्छेत, मा. न तु पिएकादावेबासक्त इति । भनेन वक्ष्यमाणलकणेन क्रमयो स्मसंयमविराधनासंभवात् । अपवादमाह-विद्यमाने पराक्रमे, गेन परिपादीव्यापारण,भक्तपानं यतियोग्यमोदनाऽऽरनालादि, | अन्यमार्ग इत्यर्थः । असति तु तस्मिन् प्रयोजनमाश्रित्य यतगवेपयेत् अन्वेषयेदिति सूत्रार्थः ॥ १॥ दश०५०१ उ०। नया गछेदिति सूत्रार्थः॥४॥ मथास्या एवं विधिमभिधित्सुरिगाथामादपमाण काले प्राव-स्सए य संघाडगे अ उवगरणे । अवपातादौ दोषमाहमत्तग काउस्सग्गा, जस्स य जोगो सपमिवाखो॥ पवमंते व से तत्य, पक्खलंते व संजए । प्रमाणं नाम कतिवारान् पिएकपातार्थ गृहपतिकुलेषु प्रवेट- हिंसेज्ज पाणच्याई, तसे अव थावरे ॥५॥ व्यमिति । ( काले ति) कस्यां वेलायां निकाथै मिर्गन्तव्यम् । प्रपतनु वा असो तत्रावपातादी गादी प्रस्खलन वा संयतः (प्राबस्सग ति) मावश्यकं संज्ञाकायिकीलकणं,तस्य शोध साहित्यात व्यापादयेत प्राणिभूतानि,प्राणिनो द्वीन्द्रियादयः, नं कृत्वा निगन्तव्यम, (संघाडगेत्ति) संघाटकेन साधुयुग्मेन नूतान्येकेन्द्रियाः। एतदेवाह-प्रसानथवा स्थावरान् प्रपातेनानिर्गन्तव्यं नैकाकिना, (उवगरणि त्ति) सर्वोपकरणमादाय मानं चेत्येवमुभयविराधनेति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ निकायामवतरणीयम, (मत्तग त्ति) मात्रकं गृहीतव्यम (कास सम्गि त्ति) उपयोगनिमित्तं कायोत्सर्गः कर्तव्यः (जस्स य तमहा तेण न गच्छेजा, संजए सुसमाहिए । जोगो त्ति) यस्य च सचित्तस्य वा योगः संबन्धो भविष्यति, सइ अन्नण मम्गेण, जयमेव परक्कमे ॥६॥ लाभ इत्यर्थः। तदप्यहं गृहीष्यामीति जणित्वा निर्गन्तव्यम् । तस्मात्तेनावपातादिमार्गेण न गच्छेत् संयतः सुसमाहितो भ(सपमिवक्लो त्ति ) एष प्रमाणादिको द्वारकापः सप्रति. गवदाझावर्तीत्यर्थः । न गच्छेत् न यायात, सत्यन्येनेत्यन्यस्मिपक्कस्यापवादो वक्तव्य शति द्वारगाथासमासार्थः॥ वृ०१०। न समादी मार्गेणेति मागें, गन्दसत्वात् सप्तम्य तृतीया,अस(४) सम्प्रति भिक्षाटनविधिप्रदर्शनार्थमाह । ति त्वन्यस्मिन मार्गे तेनैवावपानादिना यतमेव पराक्रमेत, यत___ तत्र यथा गवेषयेत्तदाह मिति क्रियाविशेषणं, यतमात्मसंयमविराधनापरिहारेण यायासे गामे वा णगरे वा, गोयरग्गगो मुणी। दिति सूत्रार्थः ॥ ६॥ दश०५०१ उ०। Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयरचरिया क्षेत्रयतामा तड़े बुच्चावया पाणा, जतट्टाए समागया । तं उज्जयं न गच्छिज्जा, जयमेव परक्कमे ॥ ७ ॥ तथैवोच्चावचाः शोभनाऽशोभनदेन नानाप्रकाराः, प्राणिनो कार्य समागताः पखिमानृतिकादिष्वायता भवन्ति तर्क तेषामभिमुखं न गच्छेत्, तत्संत्रासेनान्तरायाधिकरणादिदोषात् । किन्तु पतमेव पराक्रमे तदुद्वेगमनुत्पादयति सूत्रार्थः ॥७॥ (QUEE) अभिधानराजेन्द्रः । किञ्च गोयरग्गपविट्टो य, न निसीइज्ज कत्थइ । कई च न पधिना, चिट्ठित्ता व संजय ||८|| मोराप्रविस्तुमिहार्थं प्रविष्ट इत्यर्थः । न निपीत गोपविशेषः कचिद् गृहदेवकुलादी, संयमेोपघातादिप्रसङ्गात् । कथां च धर्मकथादिरूपां न प्रबध्नीयात् प्रबन्धेन न कुर्यात्, अनेने व्याकर कालानुशमा त पचा-कालपरिग्रहेण संयत इत्यनेषणा द्वेषादिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः । चक्का क्षेत्रयतना । दश० ५ ० २३० । भिक्खु मुयचे कपदधम्मे, गागरं च अनुप्यविस्सा | से एसणं जाणलेस च अन्नरस पाणस्स प्रणानि ।। १७ ।। स एवं मदस्थानरहितो भिऊपशीलो भिक्षुः । विशि हि-सुनेच स्नानविलेपनादिसंस्कारानाबादची शरीरं यस्य स मृतार्थः । यदि वा मोदनं मुत, तद्भूता शोजनाऽच पद्मादिकालेश्या यस्य स भवति मुदः, प्रशस्तदर्श लेश्यः । तथा दृष्टोऽवगतो यथावस्थितो धर्मः श्रुतधर्मचारित्राख्यो येनर तथा चैवंभूतः कचिदवसरे ग्रामं नगरमन्यद्वा मठादिकमनुप्रविश्य भिकार्यमसानुत्तम प्रतिसंहननोपपक्षः शेषणां गवेषणादिको जान सम्यगवगननेपण चोकदोषादिकां तत्परिहारं विपाकं च सम्यगवगच्छन्नन्नस्य पानस्य बा, अनावोऽयुपपन्नः सम्यन् विहरत्। तथाहि स्थविरक दिपक द्विवारिंशदोषरहित मां एडीयुर्जिनक तुपवस्यभिग्रहः साधेमा: संसदमा उ तह होति अप्पलेवा य | उम्गहिया पग्गदिया, उज्मियधम्मा य सत्तमिया " ॥ १ ॥ अथवा यो यस्याभिग्रहः स तस्यैषणा, अपरा वनेषणेत्येवमेत्रणा नेषणा 4 3 क्वचित्प्रविष्टः सन्नाहारादावमूर्च्छितः सम्यक शुरू भिकां गृहीयादिति ॥ १७ ॥ सूत्र० १ ० १३ भ० । (श्राचाप्योपस्तु (ओ) साध्य शब्दे पहयते ) (५) दिशावासावासं पज्जीवसियाणं निग्गंथाण वा निग्गंयीण वा कप्पर, अन्नयरिं दिसिं वा अणुदिसिं वा अवगिज्झिय भ तंवा पाणं वा गवेसित्तए, से किमाहु जंते ! | उस्सन्नं समया जगतो वासामु त्वसंपत्ता जति तपस्सी बलेक लंते मुच्छिज्ज वा पवमिज्ज वा, तमेत्र दिसिं वा अणुदिवासमा भगवंतो परिजागरंति ॥ ६१ ॥ २४३ गोयरचरिया वासेत्यादितः पडिजागरंति त्ति " यावत् । तत्र ' अन्नयरे' इत्यादिपतदिशं पूर्वादिकाम, अनुदिशम् आग्नेय्यादिकां विदिशम (मिहिनां दिश माग्नेय्यां वा यास्यामीत्यन्यसाधुत्र्यः कथयित्वा भक्तपानं गवेषचयितुं कहते। "सेकिमियाद"कुन शिष्य, गुरुराह (ति) प्रायः भ्रमणा भगवन्तो वसु तपःसंप्रयुक्ताः प्रायश्चित्तवदनार्थ संयमार्थं स्निग्धकाले मोहजयार्थे वा बछादितपधारिणो भवन्ति च तपस्तपसैव कृशाइस अत एव क्यान्ताः सन्तः कदाचिम्प श्रमणास्तान् तत्रैव दिगादौ प्रतिजाप्रति गवेषयन्ति, अथाकथयि स्वा गतास्तु कुत्र गवेषयन्ति ? ॥ ६१ ॥ 16 [६] गच्छतो धार्याधार्याणि कार्याकार्याणि च । श्रथावश्यक द्वारम्यदाऽऽवश्यकमशोज्य निर्गच्छति तदा मासादयो दोषाय, विराधना च प्रवचनादीनाम् तद्यथाभिकामटता सं का समागच्छेय, रातो यातिपात्रका पानाबा व्युत्सृजति तदा प्रवचनविराधना-" अहो ! अशुचयोऽमी " । अथैतद्दोषजयात् न व्युत्सृजति तत आत्मविराधना । अथ प्रतिश्रयमागत्य पानकं गृहीत्वा संज्ञाभूमी जति ततो देशकाले स्फिरिते सति निकामभमान पण प्रेर ततः संयमविराधना, यत एवमत श्रावश्यकं शोधयित्वा निर्गन्तव्यम् । गतमावश्यकद्वारम् । बृ० १ ० । श्रनाभोतो ग्लानादिषु कार्येषु व्यापूतः सनावश्यकमप्यशोध्य नि निसंज्ञया बाध्यमानो यदि प्रतिश्रयः प्रत्यासनस्ततो निवर्तते, अथ दूरे, ततो यदि कालो न पूर्यते, तदा तयोरेकः पापकाणि धारयति इतरः संज्ञां व्रजति । अथ सागारिकास्तत्र पश्यन्ति ततः समनोज्ञानां प्रतिश्रयं गत्वा व्युत्सृजति, तदभावे अमनोज्ञानां संविग्नानां तेषामसामे पार्श्वस्थादीनां तेषामप्यभावे सारूपिकाणां तदभावे सत्रकाणां तेषामप्राप्तौ भावकाणां वैद्यस्य वा गृहे, पतेपामा राजमार्ग मध्यभागे या गृहस्था प्रकाचिकीत्सृजतिगृहपतिस्तां सं त्याजयति तदा राजकुले व्यवहारो लत्त्यते । यथा-" त्रयः श या महाराज ! अस्मिन् देहे प्रतिष्ठिताः । दासूत्रपुरीषाणां प्राप्तं वेगं न धारयेत् " ॥ १ ॥ ० १ उ० । " " " ( 9 ) अथोपकरणद्वारम् - सर्वमप्युपकरणमादाय भिक्षायामहिम्यम्, यदि सर्वोपकरणं वृद्धाति तदा मासलपु उपधिनियमं वा तथा तेषां मिक्षामतिं गतानां प्रति अस्थापित उपधिग्निकामेन होत, दमककोभो वा जवेन स्तेनोभो या रोपां भिकामटतां सहसा समातित इतिहा तत एव ते पलायिताः, ततो यदुपधि विना तृणग्रहणादि कुर्युः, तनिष्पन्नं प्रायश्चित्तमिति । गतमुपकरणद्वारम् । वृ० १ ० । सेभिक्खू वा जिक्खुणी वा गाहायतिकुलं पविसिकामे सव्वं भंगगमाया गाहावतिकुलं पिंडवायपरियाए पविसेज वा क्खिमेल वा से भिक्खू वा निक्खुणी या बहिया विहारभूमिं वा विधारभूमिं वा शिवखममाणे वा पविसमा वा सयं भंगगमाया बहिया विहारभूमि वा विधारभूमि वा क्खिमेज वा परिसेल वा सेवा Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) अभिधानराजेन्द्रः | गोयरचरिया गोयरचरिया " भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे सव्वं भंडगमायाए या पशाम्यति ततः सुन्दरं गोदाम पतानि व तानि गुरुसमीपे स्थापत्या समागच्छामीति यदि प्रत्यनीक गामागा दूजा | गृहमनाभोगतः प्रविततो महता शब्देन तथा बोलं करोति यथा भूयान् लोको मिलति, त्रयाणां गृहाणां वा मध्यस्थितः सन्नुपयोगं कृत्वा भिक्कां गृह्णीयात् । पञ्चानामपि महाव्रतानामविक्रमं महता प्रयत्नेन परिहरेत् सर्वोपकरणमपि स्तनयत्यनीकापमा वृद्धत्यादधुनोत्थितम्लानत्वाद्वा न याद यत्पुनरवश्यमेव प्रदीप पात्रमा घोलपट्टको जोहर मुखका चेति । पृ० १४० ( स्थविरः किमुपकरण मादाय गोचर गच्छतीति श्रश्मुतय' शब्देऽपि प्रथम जागे ७ पृष्ठे रूष्टव्यम् ) " कक्खपटिग्गढ़ - श्यहरणमायाए काय प्रतिग्राहकं रजोदरशंसादायेत्यर्थः ००४० (5) कायोत्सर्गद्वारम् - 6 39 स निर्गच्छनिर्गतो जिनकल्पिकादिः गृहपतिकुलं प्रवेष्टुकामः निरवशेषं रुकं धर्मोपकरणमादाय गृहपतिपिता प्रषिद्धा ततो निष्कामेडा, तस्य चोप करणमनेकं भवति । तद्यथा-तत्र जिनकल्पिको द्विविधः छषपाणिरच्छिरूपाणि । तत्राच्चिद्रपाणेः शक्त्यनुरूपाभिग्रह विशे बाद् द्विविधमुपकरणम् । तद्यथा-रजोर मुखवत्रिकाकस्प चित् त्वक्त्राणार्थे कौमपटपरिग्रहात् विविधम्, अपरस्योदकविदुपरितापादि रक्षणार्थमोजिक पदपरिग्रतासहि तरस्य द्वितीयमपटपरिमहात् पचासति जि नकल्पिकस्य सप्तविधपात्रनिर्योगसमन्वितस्य रजोहरणमुखखादिमेण यथायोगं नयविधो दशविध एकादश दशविधधोपधिर्भयति पानियों"पतं पाचंधी पायवणं च पायकेसरिया । परुलाई रयताणं, च गच्छत्री पायणिजोगो " ॥ १ ॥ अन्यत्रापि गच्छता सर्वमुपकरणं गृहीत्वा गन्यमाह से भक्" इत्यादि स भिमादेदिविहारभूमि या स्वाध्यायभूमि तथा विचारभूमि वा वि सर्गमिं सर्वमुपकरणमादाय प्रविशेनिष्कामेद्वितीय ग्रामान्तरेऽपि तृतीयं सुषम 1 "6 साम्प्रतं गमनाभावे निमित्तमाह सेभिक्खु वा भिक्खुणी वा ग्रह पुण एवं जाणेज्जा तिब्वदेसियं वा वा वासमाये पेहाए तिम्बदेसिय मा महियं समिवयमाणे पेहाए महावारण वा रयं समुज्हुयं पेहार तिरिच्छसंपातिमा वा तसा पाणा संचमा सविय माला पेहाए से एवं एच्चा यो सव्वजंरुगमायाए गाहावकुलं पिंमवायपरियार पविसेज वा शिक्खमेजबानहिया विहार वा विधारभूमिं वा पविसेल वा क्खिमेज्ज वा गामाग्गामं दूइजेज्जा ॥ ( सेन इत्यादि) स मितुरथ पुनरेवं विजानीया। तद्यथा तीव्रं वृहतद्वारोपेतं देशिकं बृहत क्षेत्रव्यापि तीव्रं च तद्देशिकं चेति समासः । बृहतद्वारं महति क्षेत्रे वतं मे तथा तीनदेशक महति देशे अन्धकारोपेत महिकां या भूमिकां संनिपतन्ती प्रेक्ष्योपय तथा महावातेन वा समुतं रजः प्रेक्ष्य, तिरश्चीनं व संनिपततो गच्छतः प्राणिनः पतगादीन संस्कृतान् घनान् प्रेक्ष्य स निकुरेवं स्वा गृहपतिकुलादौ उद्दिष्टं सर्वमादाय न गच्छेन्नापि निष्कामेद्वेति । इदमुकं भवति सामाचारी एषा यथा गच्छता साधुना गच्छनिर्गतेन तदन्तर्गतेन वा उपयोगो दातव्यः । तत्र यदि वर्ष महिकादिकं जानीयासतो जिनकल्पिको न गच्छायेव यत स्तस्य शक्तिरेषान्यथा परमासं यावत् पुरीषोत्सर्गनिषेधं विदघ्यात् । इतरस्तु सति कार यदि सदा सर्वमुपकरणं गृहीस्वा गच्छेदिति तात्पर्यार्थः। श्राचा० २ ० १ ० ३ उ० । द्विती पदम-यत्र श्वानगवादयो दुष्टा भवन्ति, तद् गृहं यद्यनाजोगतः प्रविष्टः, ततः कुट्यकनिधं याति, द एमकेन वा तान् वारयति, यदि काचिदरितिका तमुचयेत् ततो धर्मका कर्त्तव्या त कायोत्सर्गमा जति मासमधु दोषात्र कश्चित योग प्रतिपन्नः, तस्य तद्दिचसमासाम्लं स चोपयोग कायोत्सर्गमत्यागतो नः करदीया समायातः पश्चाधुभिस्तस्याचा स्मारितं ततः स यदि तं समुद्दिशति तदा योगविराधना । ततः कायोत्सर्गे कृत्वा निर्गच्छेत् । तत्र च कायोत्सर्गे चिन्तयेत् । यथा-श्रद्य किं मे आचाम्लम, उत निर्विकृतिम उताहो समचार्यम आहोश्विदेकासनक शति इत्थमुपयोगं गत्वा प्रत्याख्यानानुगुणमेवाऽऽदारं कति । ०१ ० द्वितीयपदम् कायोत्सर्गादीन्यपि खानादिकार्येषु त्वरमाणो न कुर्य्यात्। वृ० १४० (१) अथ कालद्वारम् कस्मिन् काले निशार्थे निर्गन्तव्यम् । उच्यते यः कृषको बालोद या चितेन प्रथमा कामः स सूत्रपौरुष कृत्या निर्गच्छति, अथ तावतीं वेलां न प्रतिपालवितुं समः ततोऽपयां निर्गच्छति पचतिमा पर्य टति तदा मासलघु, भद्रकप्रान्तकृताश्च दोषा भवन्ति । त साघुरतिप्रभात एष कस्यापि गृहं गत्वा निहां पाचितथा न्, स च गृहपतिद्रकः सुप्तामविरतिकामुत्थापयेल, ततस्तस्यामुत्थितायामधिकरणं जवेत; यस्तु प्रान्तो भवति, स - यात्" किमुन्मतो वर्तसे प्रमा पर्यटसि सुखरा त्रिकं या समाधासीरिति यहा कोऽपि प्रामान्तरं प्रस्थितः प्रथममेव तं साधुं दृष्ट्वाऽपशकुनं मन्यमानः प्रद्वेषं यायात् प्रकुर्यात् येोनासिकाया मटति तदाऽपि मासलघु। "अकाले चरसी निक्खु" (दश०५०) इत्यादि गाधोकाच दोषाः। एवमुष्णस्यापि प्रक्तस्याप्राप्तेऽतिकाते वा एत एव दोषा मन्तव्याः । वृ० १ ० । काले निक्समे भिक्खु, कालेन य परिकमे । कालं च विवज्जिता, काले कालं समायरे ॥ ४ ॥ ( कालेनेति) यो यस्मिन् प्रामादी सचितो भिका करणभूते निष्कासिनो वता स्वाध्यायादि निष्पद्यते तावता प्रतिक्रामेत् निवर्तेत । भणिसंखे, कालो तिमिि भंगावर्जयित्वा येन स्वाध्यायादिन संभाव्य स खल्वकालः, तमपास्य, काले कालं समाचरेदिति सर्वयोगोपसंप्रहार्थ निगमनम्। विज्ञानानां समाचरे, स्वाध्यायादि Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए७१) गोयरचरिया अनिधानराजेन्डः। गोयग्चरिया घेझायां स्वाध्यायादीनीति । उक्तं च-"जोगो जोगो जिणसा- | सव्ने वि गोयरकाला गाहावइकुझं भत्ताए वा पाणाए वा सम्म" इत्यादि । इति सूत्रार्थः ॥६ निक्खमित्तए वा पविमित्तए वा ॥ २४॥ __ अकालचरणे दोषमाह वासावासमित्यादितः 'अव्वजण जाएण वेति'यावतातत्र (निय. अकाले चरसी भिक्ख, कालं न पमिलेहिसि । भत्तियस्से ति) नित्यमेकाशाननः साधोः (एगं गोअरकाल ति) अप्पाणं च किलामेसि, संनिवेसं च गरिहसि ॥ ५॥ | एकस्मिन् गोचरचर्याकाले ( गाहावश्कुलमिति ) गाथापतिअकालचारी कश्चित् साधुरलब्धभैक्षः, केनचित् साधुना प्राप्ता गुहस्थस्तस्य कुलं गृहम् (भत्ताए त्ति) नक्तार्थम [पाणाए भिक्षा न वेत्यनिहितः सन्नेवं ब्रूयात्-कुतोऽत्र स्थएिकलसंनिवेसे त्ति ] पानार्थ निष्कमितुं प्रवेष्टुं कल्पते, न तु द्वितीयं बारम, भिवास तेनोच्यते-काले चरसि निको! प्रमादात्स्वाध्या परं ["णऽमत्थेत्यादि"] णकारो वाक्यादौ असङ्कारार्थः। अन्यत्र यनोभावा कावं न प्रत्युपेकसे किमयं भिक्षाकास्रो,न वेति । श्र. प्राचार्यादिवैयावृत्यकरभ्यः, तान् वर्जयित्वत्यर्थः । ते तु यदि कालचरणेनाऽऽत्मानं च ग्लपयसि, दीर्घाटनन्यूनोदरभावेन सं पकं वारं भुक्ते च वैयावृत्यं कर्तुं न शक्नुवन्ति.तदा द्विरपितुनिवेशं च निन्दसि गहसि, जगवदाझालोपतो दैन्यं प्रतिपद्येति अते, "तपसो हि वैयावृत्यं गरीयः" इति ।[अव्वंजणजापण व. स्वार्थः॥५॥ त्ति ] यावत् व्यञ्जनानि वस्तिकृर्चकवादिरोमाणि न जातानि तावत् क्षुद्धकचलिकयोरपि द्विर्तुजानयोन दोषः । यदा धैयावृ. यस्मादयं दोषः संभाव्यते तस्मादकालाटनं न कुर्यादित्याह त्यमस्यास्तीति वैयावृत्या,वैयावृत्यकर इत्यर्थः। प्राचार्यश्च वैयासइ काले चरे जिक्रव, कुज्जा पुरिसकारिअं । वृत्यश्च आचार्यवैयावृत्यौ, एवं च उपाध्यायादिष्वपि, ततश्च मलानु त्ति न सोएज्जा, तवु त्ति अहिबासए ॥ ६ ॥ आचार्योपाध्यायतपस्विग्लानकुडकानां तद्वैयावृत्यकराणां च द्वि योजनेऽपि न दोष इत्यर्थो जातः॥२०॥ "वासावासं" इत्यादिसति विद्यमाने काले भिक्कासमये चरेद्भिश्ः। अन्ये तु ज्याच. तः "पविसित्तपत्ति" यावत् । [चउत्थभत्तियस्स ति] पकान्तकते-स्मृतिकाल एव भिकाकालोऽभिधीयते । स्मर्यन्ते यत्र रोपवासिनः साधो,अयमेतावान् विशेषः-[ज से पानी निक्खनिनुकाः स स्मृतिकालस्तस्मिन् चरेद्भिक्षुः निक्वार्थ यायात, मेत्ति ] यत् स प्रातनिष्कम्य गोचरचर्यार्थम् [पुवामेव ति] कुर्यात पुरुषकारं सति जघाबले बीर्याचारं न लधयेत् । तत्र प्रथममेव [वियमगंति ] विकटं प्रासुकाहारं भुक्त्वा [ पिश्चा चालाभेऽपि भिक्षाया अक्षाभ इति न शोचयेत् , वीर्याचारारा इति ] तक्रादिकं पीत्वा [ पडिग्गहं ति] पात्रम [ संलिहिय धनस्य निष्पन्नत्वात् । तदर्थ च निकाटनं,नाहारार्थमेवातो न शो ति] संलिख्य निर्लेपीकृत्य, [संपमाजिय त्ति] संप्रमृज्य प्रकाचेत, अपि तु तप श्त्यधिसहेत्, अनशनं न्यूनोदरतालकणं ल्य [से असंथरिज्ज त्ति ] स यदि संस्तरेत निर्वहेत् तर्हि तपो नविष्यतीति सम्यग्विचिन्तयेदिति सूत्रार्थः ॥६॥सक्का तेनैव भोजनेन तस्मिन् दिने परिवसेत् । अथ यदि न संस्तरेत् कानयतना। दश.५ अ०२०। स्तोकत्वात्, तदा द्वितीयवारमपि भिक्षतेत्यर्थः ॥२१॥ "वासा(१०) नित्यभक्तिकादेः वासमित्यादि" सूत्रत्रयी सुगमा । नवरं, चतुर्मासकं स्थितस्य वासावासं पज्जोसवियाणं निच्चभत्तियस्स लिक्खुस्स षष्ठनक्तिकस्य षष्ठभक्तिकारिणः भिक्षोः द्वौ गोचरकाली, गृहकप्पति एगं गोअरकालं गाहावाकुलं भत्ताए वा पाणाए स्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थ वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा [२२] अष्टमनक्तिस्य चतुःपञ्चाशुपवासकारिणः सर्वोऽपि गोचरकाबा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, णमत्थायरियवयाव लः, यदा इच्ग भवति तदा भिक्षते न तु प्रातगृहीतमेव चेणं वा, एवं उवज्झायवेयावच्चेणं तवस्सियावच्चेणं गिला. धारयेत् , संचयजीवससक्तिसाघ्राणादिदोषसंभवात । कल्प० पावेयावच्चेणं खकुरण वा कुडियाए वा अवंजणजाएण वा ॥२०॥ वासावासं पज्जोसरियाणं चनस्थ नत्तिअस्स (११) कासातिकान्तक्षेत्रातिक्रान्तपानभोजनेजिक्खस्स अयं एवइए विसेसे-जंसे पाश्रो निक्खम्म पु-| नो कप्पा निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा असणं वा ब्बामेव वियडगं नुच्चा पिच्चा पमिग्गहग संलिहिय संपमन्जि- पाण वा खाश्मं वा साइमं वा पढमाए पोरिसीए पडिग्गाय से य संथरिज्जा, कप्पड़ से तदिवसं तेणेव जत्तट्टणं हित्ता पच्छिम पोरसिं उवाइणावित्तए नेव आहच्च उचापजोसवित्तए-से य नो संथरिज्जा, एवं से कप्पा वच्चं इणेविए सिया, तं णो अप्पणा अँजिज्जा, नो अन्नेसिं पि गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा अणुपएज्जा, एगते बहुफामुए थंडिले पमिलेहिता पमपविसित्तए वा ॥२१॥ वासावासं पज्जोसबियाणं छट्ठल- ज्जित्ता परिवेयव्वे सिया,तं अप्पणा नुंजमाणे अन्नोसि त्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति दो गोयरकाला गाहावश्कुलं वा दलमाणे आवज चाउम्मासियं परिहारहाणं उम्घाश्य। जत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा नो कप्पड निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा असणं वा पाणं ॥२२॥ वासापासं पज्जोसवियाणं अहमभत्तियस्स नि- वा खामं वा साइमं वा परं अजोयणमेराए उवायक्खुस्स कप्पंति तो गोयरकाला गाहावइकुलंजत्ताए वा णावित्तए नेव आच्च उवाणाविए सिया, तंणो अपाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ।।२३।। वासा प्पणा मुंजेज्जा जाव पावज्जर, चाउम्मासियं परिबास पज्जोसवियाणं विगिभत्तियस्स जिक्खस्स कप्पति हारहाणं नग्धाश्यं ॥ Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) गोयरचरिया अभिधानराजेन्सः । गोयरचरिया अस्य सूत्रद्वयस्य संबन्धमाह न्ति तदा गृहिण श्व संचयिनो भवन्ति, चिरं वाऽवतिष्टमानं भावस्स उ अतियारो, मा होज्ज इती तु पत्युते सुत्ते । तद्भक्तपानं संसज्येत, संसक्तं च साधूनामुपभोक्तुं न कल्पते,वि वेक्तुं च परिष्ठापयितुं तद् दुःखं भवति, यतस्तत्र परिष्ठाप्यमाने कालस्स य खेत्तस्स य, दुवे उ सुत्ता अतीयारो॥ यैः प्राणिभिः संसक्तानं विनाशमाप्यते। जावस्य ब्रह्मवतस्य परिणामस्यातिचारः अतिक्रमो मा भूदित्यनन्तरप्रस्तुते सूत्रे प्रतिपादिते। अथ कालस्य च केवस्य एमेव सेसएसु वि, एगतरविराहणा उभयतो वि । चातिचारोऽतिक्रमो मा नूदिति द्वे सूत्रे प्रारभ्यते । अनेन सं- असमाहि विणयहाणी, तप्पच्चयणिज्जराए य॥ बन्धेनाऽऽयातस्यास्य सूत्रद्वयस्य व्याख्या-नो कल्पते निम्र एवमेव शेषेष्वपि दीर्घादिषु द्वारेषु नावना कर्तव्या, सा व स्थानां वा निग्रन्थीनां वा अशनं वा पानं वा खादिम स्वादिमं प्रागेव कृता, न वा एकतरस्य साधो जनस्य वा विराधना दी. वा प्रथमायां पौरुष्यां प्रतिगृह्य पश्चिमा पौरुषी (उवाणा र्घजातीयादिषु भवति,उभयमात्मा संयमश्चेति द्वयम्। तस्य विरावित्तपत्ति) अपानाययितुं संप्रापयितुमिति [नेव आहश क| धना उन्नयविराधना । [असमाहि ति] अग्निना दह्यमानस्यादाचिउपानाययितुं स्यात, ततस्तदशनादिकं स्वयं नो जुञ्जीत, समाधिमरण,भारेणाक्रान्तस्य वा असमाधिपुःखेनावस्थानं भन वा अन्येषां साधूनामनुप्रदद्यात् किं पुत्तस्ता विधेयमित्याह वेत् , गुरुप्रभृतीनां च विनयहानि कुर्वतस्तत्प्रत्ययनिर्जराया अपि एकान्त बहुमायके स्थएिमले प्रत्यवेक्ष्य चक्षुषा प्रमृज्य रजोह हानिर्भवति ॥ रणेन परिष्ठापयितव्यं स्यात् , तदाऽऽत्मना शुञ्जानोऽन्येषां वाददान प्रापद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमुद्धातिकम् । एवं के. पच्चित्तपरूवणता, एतेसि उतए य जे दोसा । त्रातिक्रान्तसूत्रमपि वक्तव्यं, नवरमर्द्धयोजन अक्कणाया मर्यादाया गाहतकरणे य दोसा, दोसा य परिहवेंतस्स ।। अतिक्रामयितुमशनादिकं न कल्पते स्यात्तदुपानायितं नवेत्ततो पतेषां संचयादीनां सर्वेषामपि प्रायश्चित्तप्ररूपणा कर्तव्या। यः स्वयं तद्भुङ्क्ते अन्येषां वा ददाति, तस्य चतुर्लघुकमिति सा च प्रागेव लेशतः कृता, स्थापयतो निक्षिपतश्च ये दोषाः, ये सूत्रद्वयार्थः ॥ ___ अथ नियुक्तिविस्तरः च गृहीतेन कार्याणि कुर्वतो भाजनभेदप्रभृतयो दोषाः,ये च परि ष्ठापयतो दोषास्तेऽपि च वक्तव्या इति । वितियान पढम पुब्धि, नवातिणे चउगुरुं च प्राणादी। यत पतावन्तो दोषा:दोसा संचऍ संस-त्त दीह साणो य गोणी य ॥१॥ अगणिगिलागुत्तारे, अन्भुट्ठाणे य पाहुणणिरोधे । तम्हाउ जहिं गहितं, तहिँ भुजाण वज्जिया भवे दोसा। एवं सोधिण वज्जति, गहणे वि य पावती वितियं ॥ मझायविणयकाइ य, पयलंतपलोडणे पाणा ||२|| तस्माद्यस्यामेव पौरुष्यां ग्रहीतं तस्यामेव भोक्तव्यम, एवं कुआस्तां तावत् पश्चिमा चतुर्थी पौरुषी, किन्तु द्वितीययाः पौरु- तो दोषाः पूर्वोक्ता वर्जिता जवन्ति । परः प्राह-नत्वेवं शोधिन प्याः प्रथमाऽपि पूर्वा नण्यते । प्रथमायाश्च द्वितीया पाश्चा- विद्यते यतो गदणे वियत्तियावनिक्षां गृहाति तावदेव द्विती. त्या, एवं तृतीयाया द्वितीया पूर्वा, द्वितीयायाः पाश्चात्या चतुर्थ्या यां पौरुषीं प्राप्नोति । स्तृतीया पूर्वा, तृतीयस्याः चतुर्थी पश्चिमा । ततः प्रथमायाः भिराहपौरुध्या द्वितीयायामशनादिकमतिकामयतश्चतुर्गुरुकाः, आशादयश्च दोषाः, तथा संचयो भवति, चिर वाऽवतिष्ठमानं एवं ता जिणकप्पे, गच्चम्मि व उजिया जे दोसा। तदशनादिकं प्राणिभिः संसक्तं भवति, दीर्घजातीयो वा इतरासि किंण होती, दब्वे सेसे पिजतणाए । श्वा वा समागच्चत, ततः स वनाजनव्यग्रहस्त उत्था- एवं तावजिनकल्पिकानामुक्तं तश्चयस्यामेव गृहीतं तस्यामेव तुमशक्नुवन् ताभ्यां वाद्येत, गौवलीवर्दस्तेन वा पाहन्येत, अत्रामविराधनानिप्पनं चतुर्गुरु, तद्भयेन वा इतस्ततः स्पन्दमा भोक्तव्यम, गच्छवासिनस्तु प्रथमायां गृहीत्वा यदि तद्वरितनो भाजनं भिन्द्यात, तत्र चतुर्वधु, तेन विनयपरिहाणिस्तनिष्प मतिकामयन्ति, तदा ये संचयादयो दोषा उक्तास्तान्प्राप्नुव न्ति, द्वयोरपि परः प्रेरयति-इतरयोद्वितीयतृतीययोः पौरुष्योरनम् , अथैतेषां भयान्नितिपति ततश्चतुलघु. ( मणि ति) शनादि व्यं धारयतां किमेते दोषा न भवन्ति । शुरुराह-भवअग्नाबुस्थिते भारव्यापृतत्वेनाऽनिर्गच्छन् दहोत, तत्प्रतिबन्धेन न्ति, परं कन्ये भुक्तशेषे कारणे यतनया धार्यमाणा दोषान वा उपधेर्दाहो भवेत , तत नपधिनिष्पन्न प्रायश्चित्तं, म्लानस्य जवन्ति । वैयावृत्यमुदत्तनादिक भारव्यापूतो न करोति, अक्रियमाणे प कथं पुनस्तदुद्वरितं नवति ?, इत्याहरितापनादिकं स प्रापयात्,तनिष्पन्नं चतुर्वघुकादि पाराचिकान्तम, ग्रन्धि निक्किप्य करोति ततो मासलघु,तेन गृहीतेन तावु पडिल्लाभणा बहुविहा, पढमाए विणासिमविणासी । सजति प्रसन्नायमानस्य वा भोजनं चीत तस्य च प्रलोटने तत्थ विणासिं लुंजे-ऽजिम्मपरिने य इतरं पि॥ पानकादिना प्लाव्यमानाः प्राणिनो विपद्यन्ते । अभिगताकेन दानश्राद्धन वा कचित् कारणैः प्रथमपौरुभ्यां ___ अथामूनेव संचयादिदोषान् व्याचष्टे बहुविधाः प्रतिमाभनाः,ततो बहुभिर्भक्ष्यनोज्यद्रव्यरित्यर्थः। तच निस्संचया उ समणा, संचयितु गिही व होति धारेता। कव्यं द्विधा-विनाशि, अविनाशिचा कीरादिकं विनाशि, अव गाहनादिकमचिनाशि। तत्र यद्विनाशि व्यं तन्नमस्कारपौरुषीसंसत्तेऽणुवनोगो, सुक्खं च विगिंचि होति । प्रत्याश्यानं कुर्वतो तुजते, शेषसाधूनां यद्यजीर्ण, यदि वा तैः निःसञ्चयाः श्रमणा उच्यन्ते, ततो यदि तेऽपि ग्रहीत्वा धार- परिखान, तस्या विकृतेः प्रत्याख्यानं कृतम् । अजक्ताथो वा प्र. Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) गोयरचरिया अन्निधानराजेन्फः। गोयरचरिया त्याख्यातः, आत्मार्थिका वा ते, तत इतरदविनाशि कन्यं भिक्खादिवियारगते. दोमा पमिणीयमाणमादीया। शुञ्जते। उप्पज्जते जम्हा, ण हुलब्जा हिंडितुं तम्हा ।। अमुमेवार्थ व्याचष्टे भिक्काविचारादों गतानां प्रत्यनीकश्वानगवादयो बहवो दोषा जइ पोरासिं पवन्ना, गर्मेति तो सेसगाण ण विसजे । यस्मादुत्पद्यन्ते तस्मान्न हि नैव साधुना हिण्डितुं लभ्यम् । अगौताऽजिम्मे वा, धरेंति ते मत्तगादीसुं ॥ अहवा आहारादी, णेव णिययं हवंति घेत्तव्वा । यदि पौरुषीप्रत्याख्यानवन्तस्तद् अव्यं सर्वमपि गमयन्ति नि णेवाऽऽहारेयव्वा, तो दोसा वज्जिया होंति ॥ र्षाहयितुं शक्नुवन्ति, ततः शेषाणां पूवार्डप्रत्याख्यानिनां न अथवा-आहारादयो नियतं सर्वदा न गृहीतव्या भवन्ति, किविसर्जयेयुर्न दधुः । अथ ते सर्वमपि न गमयन्ति, ततः पूर्वार्द्ध न्तु चतुर्थषष्ठादिकं कृत्वा सर्वथैवाशक्तेनाऽऽहारो ग्राह्यः। यद्वाप्रत्याख्यानिनामपि दीयते । अथ तेषामप्यजीर्ण, ततो मात्रका नैव कदाचिदप्याहारयितव्यम्, एवं दोषा अपायाः सर्वेऽपि दिके धारयन्ति । वर्जिता जवन्ति। एवं परेणोक्ते प्रिराहअथवा अमुना कारणेन धारयत् भषति सज्झमसकं, कज्ज सज्कं तु साहए मतिमं । तं काउ कोइ न तरइ, गिलाणमाईण दाउमच्चुएहे। अविसज्कं साधेतो, केलिस्सति ण तं च साधेति ।। नाउं व वहुं वियरइ, जहासमाहिं चरिमवज्जं ।। जायते अत्र प्रतिवचनम्-कार्य द्विविधम्-साध्यमसाध्यं च, तदशनादिकं कृत्वा जुक्त्वा कश्चित् ग्लानादीनां प्रायोग्यमादाय | तत्र मतिमान् साध्यमेव कार्य साधयति, नासाध्यं, तुशब्द दातुमत्युष्णे अतीवाऽऽतपे चटिते न शक्नोति, एतेन कारणेन एवकारार्थः । यस्तु युष्मादृशोऽविसाध्यं साधयति, स केवलं धारयतू । यद्वा-बहु प्रभूतं भैक्षं लब्धं ततो न परिष्टापयितव्यं क्लिश्यति; न च तत्कार्य साधयति । यथा मृत्पिएमेन पटादिभवेदिति ज्ञात्वा गुरवोऽशनादेधारणं वितरन्ति,अनुजानन्तीत्य- साधनाय प्रवर्तमानः पुरुष इति, असाध्यं चात्र निक्काचर्यार्थः। (जहासमाहि ति) प्रथमपौरुष्यां लब्धं परमथाप्यजीम,ततो दावपर्यटनम् । यावज्जीयते तावत् धारयेदपि, एवं यथा यथा समाधिर्भवति कुत शति चेत् ?, उच्यतेतथा तथा जुञ्जीत,परं चरमवर्ज चतुर्थी पौरुषर्षी नातिक्रमयेदि ___ जति एयविप्पहूणा, न च णियमगुणा भवे निरवसेसा । तिनावः। आहारमादियाणं, को नाम कह पि कुवेज्जा ? | तत्रावधार्यमाणा श्यं यतना यद्येतैराहारादिनिर्विविधं प्रकर्षेण हीना रहितास्तपोनियमगुसंसज्जिमेमु बुन्नइ, गुलाइ लेवाम इयरे लोणाई। णा निरवशेषा भवेयुः, तत आहारादीनां को नाम कथामपि जं च गमिस्संति पुणो, एमेव य भुत्तसेसे वि ।। कुर्यात्, अत आहारग्रहणार्थ निकामटमीयमिति प्रक्रमः, पतेन ( संसज्जिमेसु) संसक्तियोग्येषु लेपकृतेषु गोरसादिद्रव्येषु "अहवा आहारादी" इत्याद्यपि प्रत्युक्त अष्टव्यम् । इदमेव सविशेषमाहगुडादिकं प्रतिप्यते येन न संसज्यते, इतरत्राम लेपकृतं, तयदि संसक्तियोग्यं,तदा लवणादिकं प्रक्षिपेत्,न गुमं, यश्च प्रथ मोक्खपसाहणहऊ, णाणाती तप्पसाहणो देहो। मपौरुण्यां द्वितीयपौरुष्यांचा नुक्त्वा पुनर्गमिष्यन्ति, कियतीम देहचा आहारो, तेण तु कालो अणुमातो। पिवेलांप्रतीक्ष्य नूयो भोक्ष्यन्त इत्यर्थः। तत्रापि भुक्तशेषेधार्य- इह मोक्षप्रसाधनहेतवो ज्ञानादीनि ज्ञानदर्शनचारित्राणि, तेषां माणे एष एव गुडादिप्रक्षेपणरूपो विधिर्भवति । च प्रसाधनो देहो भवति, अतो देहार्थमाहार इष्यते, सच चोएइ धरिजंते, जइ दोसा गिएहमाणि किंन नवे। काले गृह्यमाणो धार्यमाणश्चारित्रस्यानुपघातको भवति, तेन कारणेन कालोऽनुज्ञातः । नस्सग्ग वीसमंते, उन्नामादी नदिक्खंते ॥ कथमित्याहनोदयति प्रेरयति-प्रागेव यद्येवं जक्तपाने धार्यमाणे दोषाः,ततो भक्तादौ गृह्यमाणे किमिति श्वानगवादयो दोषा न जवन्ति?,भ काले अ अणुएणाए, जति वि हु बग्गेज तेहि दोसेहिं । बन्त्येव । तथा कायोत्सगे कुर्वतोऽपि त एव बहुपरितापनादयश्च सुको उवादिणंतो, लगते उ विवज्जऍ परेणं ॥ दोषाः। पवं विश्राम्यतोऽपि त एव दोषाः। नझामकभिक्काची ये आद्यप्रहरप्रयलकणो द्वितीयादिपौरुषीत्रयात्मको वा कालो गतास्तदादीनपि [उदिक्खंतेत्तिप्रतीकमाणस्य तएव दोषा:? भक्तपानादेर्धारिण अनुज्ञातः, एवंविधे अनुझाते काले यद्यपि तैः पर एवं प्राह पूर्वोक्तदोबैलग्येत स्पृशेत, तथापि शुद्धः। अनुज्ञातकालात्परे। णातिकामयन् विपर्ययः, अविद्यमानेष्वपि दोषेषु स प्रायश्चित्तो एवं अवातदंसी, थूले वि कहं ण पासह अवाए। मन्तव्यः। इंदी णिरंतरोऽयं, भरितो लोगो अवायाणं ॥ पढमाए घेत्तुएं, पच्छिमपोरिसि उवादिणति जो तु। यद्येवं यूयमपायदर्शिनः सूक्ष्मानपायानपि प्रेक्षध्वे,ततः स्थूला- ते चेव तत्थ दोसा, वितियाए जे जणिऍ पुनि ।। नपि भिक्षाचर्यादिविषयानपायान् कथं न पश्यथ ?, 'हदि' प्रथमायां पौरुष्यां गृहीत्वा पश्चिमां पौरुषी योऽतिकामयति, इत्युपदर्शने, पश्यन्तु भवन्तः-यदेवं निरन्तरोऽप्ययं लोकोऽ- | तत्र ते दोषाः, ये पूर्व प्रथमायां गृहीत्वा द्वितीयामतिकामयपायानां भृतः । कथमिति चेत् ?, उच्यते तो जिनकल्पिकस्य भणिताः। २४४ Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयरचरिया (०४) अभिधानराजेन्द्रः । अनि तानि वक्ष्यमाणकारणानि सज्जायलेक्सीव्वण-नायणपरिकम्मसट्टरादीहिं । सहस अणाजोगेण व उपादि होज जा परिमा || स्वाध्याये श्रतीवोपयोगाद्विस्मृतम्, एवं लेपपरिकर्मणं कुर्वतो, बासी भाजनं वा परिकर्मयतो देशादिकं वा स माजानं कुर्वतः आदिशब्दः सहरस्थाने कजेदसूचकाए तेषु यदयं सहसाकार, अनाभोगोऽत्यन्तविस्तृतिः। एवं सहसाकारेानभोगेन वा चरम चतुर्थी या मितं भवति । च्वाणापि विचिण परिसंचरंतम्मि । अमस्सगेरह जाएं च असती तरसेव ॥ यतैः कारणैरादत्य कदाचिदतिक्रामितं जवेत्ततो विगिव्य परि स्वस्थ परिक्षा दिवसचरमं प्रत्याख्यानं कर्तव्यम्। अथन - स्तरति ततः काले पूर्वमा अन्नस्यासनादेर्यहणं नोजनं च कर्तव्यम् । अथ कालो न पूर्यते, न वा तदानीं पर्याप्तं लश्यते ततो यतनया, यथा-अगीतार्थाः तदेवेदमनादिकमिति न जानन्ति, तथा तस्यैव परिप्रोगः कर्तव्यः । वियपरण गिलाण - रस कारणा अधव वातिले ओमे । अाण परिसमाणो, मज्जे ग्रहवा वि उत्तिष्ठे | द्वितीयपदे यानस्य कारणात्यायोग्यं भादिकमतिरिक्तमि कालं धारयेत् जानकृत्ये वा ताच व्यापूतः यावस्वमपी अथवा अपने पर्यटन एव चतुर्थी संजाता, अवनि या प्रवि शन् सार्थवोऽतिकमयेत्। एवमभ्यनो मध्ये वर्तमानः ततो या उतीय संस्तरभातिक्रमजीत था, न कश्चिद्दोषः। व्याख्यातं कालातिकान्त अथ केत्रातिक्रान्नसूत्रं व्याख्यानयतिपरम जोयणाश्र, उज्जाणपरेण च गुरू होंति । आयादिनो व दोसा चिराया संगमाता || प्रयोजनं द्विगम्यूतं ततः परमनादिकमतिक्रम्यतश्चतुर्गुरुकाः स्युः । अप्रोद्यानादपि परेणातिक्रमयतश्चतुर्गुरुकाः, भाज्ञादयश्च दोषाः, संयमात्मनश्च विराधना । तामेवाह भारेण वेदणार, या पेहती खाणुमादि अभिपाओ । इरिया पगलिय तेग, भाषणभेदो व बकाया ॥ मारेकान्तो बेदनाभितः कादीनि तैः कीलकादिभिर्वा अनिदम्यते । अथवा (अभिघाओ चि) वटशाखादिना शिरसि वा न शोधयति, नयनेन म रूपाने पतिते पृथिव्यादिविराधना, स्तेनैर्वा स समुद्देशो हियेत, पिपासार्तस्य वा शीलस्य प्राजनभेो भवेत् । तत्र कायचिराधना, आत्मनः परस्य च तेन विना परिहाणिः। परः प्राद उज्जाणारएणं, तर्हि किं ते एा जायते दोसा ? | परिहरिया ने होज्जा, जंति वि तहिं खेत्तमावज्जे ॥ उद्यानादारतो प्रामादेरानीयमाने भक्तपाने किं ते दोषा न जायन्ते यदेवमुचानात्परत इत्यभिधीयते । सूरिशद-ते दोषा गोयरचरिया तथाऽप्यननुज्ञात स्तीर्थकरवचनप्रामाण्येन परिहृता भवन्ति, क्षेत्रे तान् दोषानापद्यन्ते । पुनरपि परः प्रेरयति एवं सुत्तं अफलं, सुत्तनित्रातो इमो तु जिएकप्पो । ཞུ་ गच्छम्म अकोण, केसि ची कारणे से पि ॥ मनुद्यानात परतो नातिक्रामयितव्यं ततो यव " परमद्धजोयणे मेराठ ति ” सूत्रं भणितं, तदफलं प्राप्नोति । भाचार्यः प्राह यदप्रोद्यानात्परतो नातिक्रमयितव्यमित्युच्यते स एप सूत्रार्थनिलो जिनकल्पिक विषयो मन्तव्य ना परत इत्यादि सूवासविषयम्। केाचिदाचार्याणा यमप्रायः यथा गवासिभिरयुत्सर्गतरा तिक्रामणीयम् कारणात्तु तदप्यर्द्धयोजनं नेतव्यम् । एवमापनादिकं सूत्रम यथा "केसिचि कारणे तं पि त्ति" । अन्यथा व्याख्यायते-पाचार्यबालवृद्धादीनां कारणे तद्यथेयोजन गम्यते । इदमेव भावयति 1 सखेचे जहण सम्मति भत्तो दूरे वि कारणे जतति । मिडिणो विचितमाणाऽऽगतम् गच्छे किमंग ! पुछा है। स्वत्रे स्वग्रामे यदा न लगते तदा दूरेऽप्याचार्यादीनां कार से मानणार्थं यतते प्रयोजनमपि गति पिच यद्यपि स्वग्रामे प्रायुर्वेलज्यते, तथायुत्सर्गतस्तन दिण्डनीयम् । कुतः, इत्याह-यदि तावद् गृहिणोऽपि क्रयविक्रयसम्प्रयुक्ता अनागतं प्रापूका घृतगुडलवणादीन चिन्तां कुर्वन्ति, किम येषां विक्रयः प्राकाद्यर्थमनागतं न चिन्तनीयम् । ततः--- संपायेंगे उपणाकुले सेसे बालबुद्वादी तरुणा बाहिरगामे, पुच्छ दिनंतऽगारीए । स्वग्रामे यानि दानश्रद्धादीनि स्थापनाकुलानि तेषु गुरूणां संघाटक एकः प्रविशति, यानि स्वग्रामे शेषाणि कुलानि तेषु बासहिष्प्रभृतयो हिण्डन्ते ये तु तस्यास्ते बां पर्यटन्ति । शिष्यः पृच्छति-किमादरेण क्षेत्रं प्रत्यपेक्षा रकते ?| गुरुराह - श्रगार्या दृष्टान्तो ऽत्र क्रियतेपरिमियमचपदाणे, जेहादवहरति योग योगं तु । पाहुवा विद्याल प्रागत, विसय आसासणा दाणं ॥ दो कविजयणिश्रो अगारीय विस्त एकमेवादियं दिवसपरिचयपरिमितं देति घरे किंवा धारेति गारी चिंता आदि पयस्स अहितो, मिलो वा वा पदोसार आगमति तोकि दाई है। बुद्धि थिय तंदुलाविया घोषयो फेमिति काले बहु संप अश्या तस्स मित्तो पदोसकाले श्रागतो, श्रावणं श्रारस्त्रियभया गंतुं न सकति, वणियस्स चिंता जाया, विसनो, कहमेतस्स [असं] दाहामीति अगारी दिवस भणमितं भावं जाणा भणाति मा विसादं करेहि, सव्वं से करेमि । तीए श्रजंगादिया पहावे विसिडमादारं भुजाविधो मुझे मितो पजाब पुणो जेमे गतो शियो वि तुझे नारियं अप रिमियं देमि, कतं ति। तीय सव्वं कहियं । तुठेण बाणिपण सा Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयरचरिया परवितिय सो घरसा सममि " थारार्थःप रिमिताने तिच्यादगारी स्तोकस्तोकमपह रति प्राचूर्णकस्य च विकाले आगमनं ततो गृपतिषि तया तस्याऽऽश्वासना कृता, ततः प्राघूर्णकस्य भक्तपानदानमकारि ॥ एवं पीवुडी, विवरीयsोण होइ दिहंतो । लोगुत्तरे विसेसो, असंचया जेण समणाओ || (१५) अभिधान राजेन्द्रः । मायेतयोः सुहृदो परस्पर प्रीतिवृद्धिरुपजायते विप रीतश्चान्येन प्रकारेण दृष्टान्तो भवति । तत्र यदि परमितभक्तमयादगार स्तोकस्तोकं नापहरति ततः सुहृदादेः प्राक स्य स्नेहच्छेदो नवति, एवं यदि गृहस्था श्रागमनं चिन्तयततः कुशिम् साधुभिः सुतरामनागतं चिन्तनीयम् अ पिलोको वेग असंचयः श्रमणास्तेन कारणेन विशेषतः क्षेत्रं रक्षणीयम् ॥ जावो परगामे, हिंडमार्णेति सहि इह गाये । देन बाह्यादी कारणजाते व सुलनं तु ॥ जनस्यास्मीपदेषु प्राममध्ये या मिलितस्यालापः प्रवादो भवति साचवः परमे हिमित्या निक्षामिहानयन्ति तत केवलं वसतिरेवेह ग्रामे श्रमीषाम् । एवं श्रुत्वा गृहपतयः स्वस्वमहला आदिशन्ति ये बालादयोऽत्र हिण्डन्ते तेषामादरेण सविशेषं प्रयच्छत विधायां विन्तायां प्रापूर्णकादिकारणजाते च सुलभं तु, यदि देशकाले प्रदेशकाले वा दिएमन्ते तदा शुभं भवति ॥ पाहुणविसेसदाणे, णिज्जर किती य इहर विवरीयं । पुत्रि चढण सिग्गा, न देति संतं पि कज्जेसु ॥ प्राघूर्णकस्य विशेषेणाssदरेण प्रक्तपाने दीयमाने परलोके निर्जरा सोच कीर्त्तिर्भवति तवृद्धि, परस्प रोपकारिता च भवति । इतरथा प्राघूर्णकस्याक्रियमाणे पतदेव विपरीतं भवति, निर्जरादिकं न भवतीत्यर्थः । कथं पुनस्तान नवतीत्याह-पूर्वमा दिने २भूमिः समानि परिभ्रान्तानि स्थापनाकुलानि सदपि गृहे वि द्यमानमपि घृतादिकं इव्यं प्राघूर्णकादिकार्येषु उत्पन्नेषु न प्रयच्छन्ति । एवं गुणदोषान् विज्ञाय क्षेत्रं प्रयत्नेन रक्षणीयमिति प्रक्रमः । , श्रयं चापरस्तगुणो भवति बोरी इह दिहंतो गच्छे वायामों वा च पतिरिकं । केड पुरातत्थ जण आणेवाये नणिय दोसा ।। बदियां निकारने क्रियमाणे प्रानृतं यदध्यादिकं प्रायोग्यं प्राप्यते । तथा चात्र वदरीदृष्टान्तो भवति । श्रपि च गच्छे एचैव सामाचारी गणितज्ञा मटनीयं, व्यायामश्च मोहचिकित्सानिमित्तं तैः कृतो भवति । तत्र बहिर्ग्रामे चशब्दादिह वा परग्रामे ' परिक्कं 'एकान्तं भावति मुत्कमित्यर्थः । यद्वा [ पतिरिकं ति] प्रचुरं प्रकपानं सायाप्राचार्यदेशीया यते तत्रैव बहिश्रमे भो जनं कर्त्तव्यं यतो ये पूर्वमानयतो भारवेदनाऽयो दोषा भषि शास्ते पत्र परिता नयन्ति निराकरिष्ये) गोयरचरिया अथ बदरीदृष्टान्तमाह गामभासे बदरी, नीसंद कमुष्फला व कुज्जा य । पक्कामालमचेमा, स्वायंतियरे गता दूरं ॥ सिग्घरं ते गा, तेसऽएदेसि च दिति सयमेव । खायंति एव इह इ, आायपरसुहावड़ा तरुणा || कस्यापि ग्रामस्यान्यासे प्रत्यासन्ती बदरी, सा ग्रामनिन्द पानीयेन संवर्द्धिता, ततः कटुकफला संवृत्ता । अन्यश्च सा स्वभात सुखा रोहा तस्यां च कानिचित् फलानि प कानि कानिचित्कटुकानि । अथवा (पक्रमेति मन्दपक्कानि, तत्र ये श्रवसाचेटका बालकाः, ते तां वदरीं सुखारोहामारुह्य कटुकान्यपि वदराणि भक्तयम्ति, तान्यपि स्वल्पतया न पर्याप्तानि भवन्ति, इतरे नाम अनलसा उत्साहवन्तःश्वेटका बालकाः, ते दूरमटवीं गताः, तत्र महावदरीवनेषु परिपक्कानि वदराणि यथे खादन्ति । ततो यावत्ते अलसास्तस्यां कटुकवदय विश्यमाना असते, तावते दूरगामिनो बालका श्रात्मनः पर्याप्तं त्या पोलकनारामातः शीघ्रतरमागताः तेषामा नामन्येषां च गृहे स्थितानां स्वजनानां वदराणि पर्याप्त्या ददति स्वयमेव च भवन्ति पमिहापि गच्छवासे तरुणा निकष वीर्यसंपना उत्साहयतो बहियोंमे हिमा नः परेषां च बालवृद्धादीनां सुखावहा भवन्ति । कथम् ?, इति चेत्, उच्यते स्वीरद हिमादियाण य, खम्भा सिम्पतर पदम परिके । उगमदोसा विजढा, भवंति यणुकंपिया वितरे ॥ यथा ते अल साश्टकास्तथा बालवृद्धादयोऽपि कटुबदरीकल्पे समिर मे प्रत्यहमुज्यमानतया चिरमपि दिवममानाः कोकूरादिकमेव लभन्ते, तदपि न पर्याप्तं, ये तु तरुणा ब हित्रां गच्छन्ति ते मनसः ततःयादीनां प्रायोग्यद्रव्याणां लाजस्तेषां बहिर्ग्रामे नवति, शीघ्रतरं च ते स्वच्छति पदम सि) प्रथमासिकां स्वयं कुर्व म्ति बालादित्यः प्रथमतरं वा समागच्छति (पति) प्रचुरपानमुत्पादयन्ति उमदोषा विजया परिस्ता भवन्ति, इतरे च बालाऽऽद यो अनुकम्पिता जवन्ति । 4 अमुमेवार्थ सविशेषमाद एवं एवं उग्गमदोसा, चिज परिक्कया अणोमानं । मोहतिमिच्छा य कता, विरियायारो य अणुचिठो ॥ द्भिस्तैरुरुमदोषा प्राथाकर्मादयः परित्य का भवन्ति (पकिय सि) प्रचुरस्य प्रपानस्य लाभो भवति गावं पापमानेन भवति मोहचिकित्सा च परिश्रम पोयात्यादिभिमोहस्य निप्राकृतो भवति । बीयरनुष्ठितो भवति । " अथ परः प्राह लग्यायतो परे उपाणिं तम्म पुग्न जे नणिता । नारदीया दोसा, तचैव इहं तु सर्विसेसा ॥ नतु शोभनमिदं यदयोजनं गम्यते किन्तु तेषां भरितारासामाचार्य सकाशमागच्छतां ये पूर्वमुद्धातात्परेणातिकामपति पारादयो दोषा भणितास्त एवेह सविशेषा भवन्ति । Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयरचरिया (ए७६) अभिधानराजेन्छः। गोयरचरिया ततः किं कर्तव्यमित्याह परः प्राहतम्हा च ण गंतव्वं, तहिं भोत्तव्यं ण वा वि भोत्तव्वं ।। एवं पिपरिच्चत्ता, काले खमए असहुपुरिसे य । इतरा मे ते दोसा, इति नदिने चोदगं भवति॥ काले गिम्हे न नवे, खमनो वा पढमवितिएहिं ।। तस्मादाचार्यसमीपे भक्तपानेन गृहीतेन न गन्तव्यं, किन्तु तत्रै| यतस्ते बुभुक्तितृषिता नाराकान्ताः शीतलवातातपैरजिहताः व बहिर्गामे भोक्तव्यम्,एवं नाराऽदयो दोषाः परिहृता भवन्ति।। पन्थानं बहन्ति यूयं तु शीतलच्छायायां तिष्ठत, एवमपि ते (न वा विनोत्तन्वं ति) वाशब्दः पक्कान्तरद्योतकः। अथ भवतो। परित्यक्ताः । सूरिराह-तेषामपि कालं कपकमसहिषापुरुष च भणियन्ति-नैव बहिमे जोक्तव्यं तत एवम । इतरथा (भे)। प्रतीत्य प्रथमालिकाकरणमनुज्ञातम, तत्र कारो नामनकणस्तभवतां त एव भारादयो दोषाः परिहृताः। एवमुदिते भणिते स. स्मिन् प्रथमालिकां कृत्वा पानकं पिबन्ति, तपको वा प्रथमति सूरिनोंदकं नणति-यदि तत्र समुद्दिशन्ति ततो मासलघु, द्वितीयपरीषहाभ्यामतीव बाधितः प्रथमालिकां कुर्यात् । जवतोऽप्येवं भणितो मासलघु, तैश्च तत्र प्रायोग्यं समुहिशद्धि अत्र परः प्राहराचार्यादयः परित्यक्ताः, तेषां प्रायोग्यमन्तरेण परितापनादि जइ एवं संसटुं, अप्पत्ते दोसियाइणं गहणं । संभवात्। संवण निक्खा मुविहा, जहममुक्कोस तिय पणए । आइ-किमित्याचार्यमन्तरेण न सिध्यति यदेवं तदर्थ प्रायोग्यमानीयते ?, इत्याह यद्येवमसौ बहिरेव प्रथमालिकां करोति ततो जक्तः संसष्ट भवति, संसृष्टे च गुादीनां दीयमानेऽभक्तिः कृता नवति ?। जद एयविप्पहूणा, तबनियमगुणा नवे निरवसेसा ।। गुरुराद-अप्राप्ते देशकाले दोषात्तादेर्ग्रहणं कृत्वा येषु वा कुलेषु आहारमाइयाणं, को नाम कहं पि कुब्वेजा। प्रभाते चालाने पर्यटन्तःप्रथमालिकां कुर्वन्ति,भोजनस्य च कल्पं यद्यतेनाऽऽचार्येण विहीणाः, एनमन्तरेणेत्यर्थः । तपोनियम- कुर्वन्ति । प्रथमालिकाप्रमाणं च द्विधा-लम्बनतो, भिक्वातश्च । गुणा निरवशेषा भवेयुः, तत आचार्यप्रायोग्यानामाहारादीनाम तत्र जघन्येन त्रयो लम्बनाः कवलाः, तिरश्च भिक्का, उत्कर्षतः न्वेषणे को नाम कथामपि कुर्वीत ? , न कश्चित् । इदमत्र पञ्च लम्बनाः पञ्च वा भिकाः। शेषं समपि मध्यमप्रमाणम् । हृदयम्-सोऽपि तपोनियमादिकः प्रयासोऽस्माकं संसारनि अथ तैः कुत्र किं ग्रहीतव्यामिति निरूपयतिस्तरणार्थ, ते च तपःप्रभृतयो गुणा गुरूपदेशमन्तरेण न सम्यग् एगत्थ होइ भत्तं, वितियम्मि पडिग्गहे दवं होति । गम्यन्ते, न वा निरवशेषा अपि यथावदनुगन्तुं शक्यन्ते, अतः गुरुमादी पाउग्गं, जत्तं विश्ए उ संसत्तं । संसारनिस्तरणार्थमाचार्याणां प्रायोग्यनयनादि कर्तव्यमेव वै. साधुद्वयस्य द्वौ प्रतिग्रहौ, द्वौ च मात्रको भवतः, तत्रैकस्मिन् यावृत्यमिति । प्रतिग्रहे भक्तं प्रतिग्रहीतव्यं,द्वितीये एवं पानकं भवति। तथैकअपि च स्मिन् मात्रके प्राचार्यादीनां प्रायोग्यं गृह्यते, द्वितीये तु संसजति ताव लोइयगुरू, से लहुय सागारिय पुढविमादी। । तं भक्तं वा पानकं वा प्रत्यपेकतो यदि शुरूः ततः प्रतिग्रहे श्राणयणे परिहरिया, पढमा आपुच्छ जतणाए । प्रक्षिप्यते। यदि तावल्लौकिकोऽपि यो गुरुः पिता ज्येष्ठबन्धुर्वा कुटुम्वं जति रिको तो दवम-त्तगम्मि पढमालियाएँ गहणं तु। धारयति तस्मिन्ननुक्तेन भुञ्जते, यश्चोत्कृष्टं शाल्योदनादिकं तत्त- संसत्तगहण दव-सभे य तत्थेव जं पंता ।। स्य प्रयच्छन्ति, ततः किं पुनर्यस्य प्रनाबेन संसारो निस्तीर्यते यदि रिक्तोऽसौ ज्वमात्रकः, ततः तत्र प्रथमालिकाया ग्रहण तस्य प्रायोग्यमदत्त्वा एवमेव भुज्यत । यस्तु भुते, तस्य मासल- वक्तव्यम, एवं संसृष्टं न नवति । अथवा-तस्मिन् 5वमात्रके घु । वसतेरभावात् तत्र भुञ्जानान् सागारिको यदि पश्यति | संसक्तं नवं गृहीतं, वं वा तत्र क्षेत्रे दुर्लनं, ततस्तत्रैव नक्ततदा चतुर्लघु, आझादयश्च दोषाः। अस्थगिमले च समुद्दिशता प्रतिग्रहे यत्प्रान्तं, तदेकेन हस्तेनाकृष्यान्यस्मिन् हस्ते कृत्वा पृथिव्यादिविराधना, प्रानयने तु सर्वेऽप्येते दोषाः परिदता | समुद्दिशति, एवं संसृष्टं न भवति। भवन्ति, अतो गुरुसमीपमानतव्याः । द्वितीयपदे प्रथमालिकां| कुर्वन्तो गुरुमापृष्ठय गच्छन्ति । यतनया च यथा संसृष्टं न जव विइयपयं तत्थेव, सेसं अहवा वि होज्ज सव्वं पि । ति तथा प्रथमालिका कर्तव्या ॥ तम्हा तं गंतव्वं, संसहूँ जति वि तहवि सुद्धो॥ चोदगवयणं अप्पा-Sणुकंपिओ ते य भेय परिचत्ता। द्वितीयपदमत्रोच्यते-अतीव बुद्धक्वितास्तत्रैवात्मनः सविभागं शुजते,शेषं सर्वमप्यानयन्ति। अथवा-तत्रैव सर्वमात्मपरमं नागं आयरिए अणुकंपा, परसाए इह पसंसाणया ।। भुजते, यत एष एवंविधो विधिस्तस्माद्विधिना गन्तव्यम,विनोदकवचनं नाम-परःप्रेरयति-यावत्ते ततो ग्रामात्प्रत्यागच्छन्ति | धिना आनेतव्यं,विधिना वा तत्रैव जोक्तव्यम् । एवं सर्वत्र विधि तावत् तृषाकुधाक्लान्ता अतीव परिताप्यन्ते, एवं प्रस्थापय-| कुर्वन् यद्यपि दोषैः स्पृष्टो नवति तथाऽपि शुरुः। द्भिर्भवद्भिरात्मा अनुकम्पितः,ते च साधवः परित्यक्ता जयन्ति।। कथं पुनः सर्व वा भिक्काचर्यागतेन भोक्तव्यमित्याहगुरुराह-ननु मुग्ध!त एवानुकम्पिताः । कथमित्याह-(प्रायरिए। इत्यादि) ते यदाचार्यवैयावृत्यनियुक्ताः, एषा पारलौकिकी तेषा अंतरपदीगहितं, पढमागहियं य भुंजए सव्वं । मनुकम्पा इहलोकेऽपि ते अनुकम्पिताः,यतो बहुभ्यः साधुसा संखमिधुवनंभे वा, जं गहियं दोसिणं वा वि । ध्वीजनेभ्यः प्रशंसामासादयन्ति । यदन्तरपछिकायां गृहीतं, प्रथमपौरुषीगृहीतं वा, तत्सर्वमपि Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७) गोयरचरिया अभिधानराजेन्द्रः। गोयरचरिया भुले, यत्र वा जानन्ति संखड्यां ध्रुवो लानो भविता सत्र यत्पूर्व | पं० जाव साइमं पडिग्गहित्ता परं वत्तीसाए कुक्कुडिअंडगृहीतं तत्सर्वमपि भोक्तव्यम्, यद्वा दोषात्तं गृहीतं तदशेषमपि गप्पमाणमेत्ताणं कवनाणं आहारमाहारेइ एस णं गोभोक्तव्यम्। यमा ! पमाणाइते पाणभोयणे । अट्ठकुक्कुमिअंमगप्पमाणदरहिंमिए व भाणं, भरियं जुत्तं पुणो वि हिंमिज्जा। मेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे अप्पाहारे । दुवालस कुछकालो वाऽतिक्कमई, मुंज्जा अंतरा सव्वं ॥ डिअंमगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे । अवकोअथवा-दरहिएिमते अर्द्धपर्यटिते एव भाजनं भृतं, ततोऽल्प मोयरिया। सोलसकुक्कुमिअंगप्पमाणमत्ते कवले पाहासागारिके तत्पर्याप्तं नुक्त्वा पुनरपि हिएडेत । अथवा-याव रमाहारेमाणे नागपत्ते । चन्बीसं कुक्कुमिअंमगप्पदाचार्यान्तिके प्रागच्चति तावत्कारोऽतिकामति-चतुर्थपौरुषी लगति, सूर्यो वाऽस्तमेतीत्यर्थः । ततः सर्वमप्यन्तरा तत्रैव माणे० जाव आहारमाणे ओमोदरिया । बत्तीसं कुक्कुचुजीत। मिश्रमगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे पमाणपरमहजोयणातो, नजाण परेण जे भणियदोसा। । पत्ते । एको एकेण विघासेण कणगं आहारमाहारेमाआहच्चुवातिणाविऍ, ते चेवोस्सग्गअववातो॥ णे समणे निग्गंथे नो पकामरसभोइत्ति वत्तव्यं सिया, एस मथारूयोजनात्परेणातिकामयति तदा ये उद्यानात्परतोऽति- णं गोयमा ! खेत्ताइक्कतस्स कामाकंतस्स मग्गाइककामणे दोषाः पूर्व भणितास्त एव अष्टव्याः। अथवा-पाहत्य तस्स पमाणाश्कंतस्स पाणनोयणस्स अट्टे पाते। ज० कदाचिदनानोगादिना अतिक्रामन्ति ततस्तावेघोत्सर्गापवादो। सत्सर्गतस्तन्न भोक्तव्यम, अपवादतः पुनरसंस्तरणे भोक्तव्य ७श०१ उ० (मूलपारस्य सुगमत्वात् टीका नात्र गृहीता) मिति भावः। वृ०४००। अत्रैव दृष्टान्तमभिधित्सुराहजे जिक्ख पढमाए पोरिसीए असणं वा पाणं वा खा- दिटुंतोऽमच्चेणं, पासादे गं तु रायसंदिहे। इमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता पच्छिम पोरिसिं उवाइणावेइ, दवे खेत्ते काले, भावेण य संकि से। उवाइणावंतं वा साइज्जइ ॥ ३७ ॥ नि० चू० १२ न० । गाथाक्षरयोजना सुगमा । भावार्थस्त्वयम्-केनापि राका वितियाउ पढमपुचि,उवातिणे चउगुरू य आणादी। ०४उ01 | अमात्य आइप्तः-शीघ्रं प्रासादाः कारयिष्याः । स चामात्यो " दिवसस्स पढमपोरिसीए नत्तं पाणं घेत्तुं चरिमति कच्ये सुब्धस्तान् कर्मकरान् द्रव्यतः केत्रतः कालतो भावचउत्थपोरसी, तं जो संपावेति, तस्स चतुल हुं, भाणा तश्व संक्श यति । दिया य दोसा"। नि० चू० १२ उ० । कथमित्याह प्रलोयणसक्कयं सुक्खं, नो पगामं च दबतो। ने निक्खू परं अजोयणमेराओ परेण असणं वा पाणं खित्ते अणुचियं उएहे, काले उस्सूरजोयणं ।। बा खाइमं वा सामं वा वाणावेश, उवाश्णावंतं वा साइन्जइ ॥ ३८॥ भावे न देति विस्सामं, निहुरेहिं च खिंसइ । जियं नितिं च नो देश, नट्ठा अकरें दमणा ।। परमद्धजोयणाओ, असणादी जे उवातिणे भिक्खू । न्यतोऽलवणसंस्कृतं विशिष्टसंम्काररहितं,शुष्कं वातादिना सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे ॥१७॥ शोषं नीतं, बबचणकादि, तदपि न प्रकामं न परिपूर्ण ददाति । पुगालयं अजोयणं, जो तो खेत्तप्पमाणो परेण अस- केत्रतो-यत्तस्मिन् केत्रे अनुचितं भक्तं पानं वा तद् ददाणार संकामेइ, तस्स चतुलढु, प्राणादिया य दोसा नि०० ति, तथा नष्णे कर्म कारयति, काले उत्सूरे भोजनं दापयति । १२ उ०। भावतो-न ददाति विश्राम, निष्ठरैश्च वचनैः खिसयति । जितअहते! खत्ताइकंतस्स कालाइकंतस्स मग्गाश्कंत- मपि च कर्मकरणतो लज्यमपि भृति मूख्यं न ददाति । स्स पमाणाइकंतस्स पाणभोयणस्स के अटे पसते ? ।। एवं च सति ते कर्मकराः प्रासादमकृत्वाऽपि नाः पलायिगोयमा ! जे गं निग्गथे वा फासुएसणिजं असणं पाणं ताः, स्थितः प्रासादोऽकृतः. राज्ञा चैतत् ज्ञातं, ततोऽमात्यस्य दण्डना कृता । अमात्यपदाच्यावयित्वा तस्य सर्वस्वापहरणं खा पं साइमं अणुग्गए सूरिए पडिग्गहित्ता नग्गए सूरिए कृतमिति । एष रष्टान्तः। प्राहारमाहारेइ, एस णं गोयमा ! खेत्ताश्कते पाणभोय साम्प्रतमुपनयमाहथे। जे णं निग्गंये वा० जाव सामं पढमाए पोरिसीए अकरणें पासायस्स उ, जह सोऽमच्चो उ दमितो रन्ना। पमिग्गहेत्ता पच्छिमं पोरासिं उवायणाबित्ता आहारमा- एमेव य आयरिए, उवणयणं होति कायव्वं ॥ हारेइ एस णं गोयमा ! कालाश्कंते पाणलोयणे । जे एं यथा प्रासादस्याकरणेऽमात्यो राज्ञा दगिमतः, एवमेवाचार्य निग्गंथे० जाव साइमं परिग्गहित्ता परं अफजायणमेराए उपनयनं जयति कर्तव्यम् । तथैव राजस्थानीयेन तीर्थकरेण बीकमावइत्ता आहारमाहारेइ, एम णं गोयमा ! मग्गा अमात्यस्थानीयस्याऽऽचार्यस्य सिफिप्रासादसाधनार्थमादेशोद तः, सच कर्मकरस्थानीयानां साधूनां व्यादिषु तत् करोति इकते पाणनोयणे । जेणं निग्गंथे वा फासुएसणिजे- । यथा ते सर्वे पालयन्ति | २४५ Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयरचरिया तथा चाह कज्जम्मित्र नो विगितिं नत्तं पंतं न तं च पज्जतं । खेतं खखेनादी, कुसहि उमामने चैव ।। तयाऍ देति काले, मे वुस्सग्गवादितो निच्चं । संगह-जग्गहे विय, न कुइ भावे पयडो य ।। (Som) यतः कार्येऽपि समापतिते विकृतिं घृतादिकां न ददाति, भक्तमपि प्रान्तं दापयति तदपि च न पर्याप्त बलु केवादीन् प्रेषयति, खलु क्षेत्रं नाम यत्र तु किमपि न प्रायोग्यं लभ्यते, आदिशब्दात् यत्र स्वपकृतः परपकतो वाऽपचाजना, तदादिपरिग्रहः कुतीया स्थापयति, उाम वा प्रामे वा तदा वा प्रेषयति । कालतः सदैव तृतीयायां जोजनं ददाति । श्रवमेऽपि दुर्मादिको नियम भारत संघ शानादिभिः उपग्रहं वस्त्रपात्रादिभिर्न करोति । प्रचएमश्च प्रकोपनशीलः। अभिधानराजेन्द्रः । ओर मोडतरे चैव दो वि एए असाइगा । - विवरीयवित्तिणो सिटी, अने दो वि य सागा ॥ सोलोकोसरेऽपि च पावनन्तरोको सोमप्रसाद विपरीतवर्तिनः पुनरुमवासिि ति कृत्वा अन्यौ द्वावपि व्यतो भावतश्च प्रासादस्य साधकौ । सिकीपासायामि सगस्स करणं पाहो । दबे खेने काले जाने व न संकिले ॥ " - सिद्धिप्रासादावतंसकरणं चतुर्विधं भवति । तद्यथा-अध्यतः, क्षेत्र कालतो. भावतश्च ततो गीतार्थो इन्यादिषु साधून न] साति एवं तु निम्ती से निय अचिरेण सिद्धिपासार्थं । सिपि इमो विही आहारेकवर होति ॥ एवं यादिषु संक्लेशाकरणतस्ते साधवोऽचिरेण स्तोकेन कालेन सिद्धिप्रासादं निर्मायन्ति तेषामपि सिद्धिप्रसाद निर्मााणामाहारयिं यमाणो विधिः । समेपाद श्रद्धमसणस्म सं जणस्स कुज्जा दवस्स दो भागं । वापवियारणडा, भागं काय कुला || अमुदरस्य दधिमती मनादिसदितस्याशनस्य योग्यं कुर्यात् हौ भागौं द्रवस्य पानीयस्य योग्यौ, षष्ठं तु भागं वातप्रविचरणाथेमूनकं कुर्यात् । इयमत्र जावना उदरस्य पक् भागाः कल्पन्ते, तत्र त्रयो भागा अशनस्य सव्यञ्जनस्य, द्वौ भागौ पानीयस्य, पट्टो वातविचरणाय तच साधारये प्रकारो भागाः सव्यञ्जनस्याशनस्य, पञ्चमः पानीयस्य षष्ठो वातप्रविचाराय, उष्णकाले द्वौ भांगावशनस्य सव्यञ्जनस्य, त्रयः पानीयस्य षष्ठा वातप्रविचारणायेति । एसो आहारविदी, जह प्रणिता सम्याक्सीहि । धम्मावस्गजोगा, जेण न हायंति तं कुज्जा ।। एप आहारविधि सर्वणिता, पेन व प्रकारेण धर्मनिमित्ता अवश्यकर्तव्या योगा न हीयन्ते, तं कुर्यान्नान्यदिति ॥ व्य०८ उ० सूत्र० श्र० । दश० । गोवरचरिया " जे गं पढमाए पोरिसीए अणश्चंताए तहयाए पोरिसीए श्र इतर भत्तं वा पाणं वा पमिगाहेज वा परिभुंजेज वा, तस्स पुरिम । " महा० ७ श्र० । (१२) रात्रौ भिक्का न ग्रहीतव्या नो कपड़ निम्गंधाण वा निग्गंधीण वा राए वा बियाले ना असणं वा पाणं वा स्वाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहि तर । अस्य संबन्धं घटयनाह वयाहिगारे गए राईवयमसपाल इमो । उदाहु थेरा, मा पीला होज सन्वेसिं ॥ पूर्वसूत्रे द्वितीयाहोऽनुज्ञानन्तरेण वन परिमोकयमिति तृतीयस्पाधिकारा महतः तस्मिँश महते रात्रिव्रतपालनार्थमिदं सूत्रं स्थविरा श्रीभवादुस्वामिना तवन्तः । कुत इत्याह- मा तस्मिन् षष्टव्रते भग्ने सर्वेषामपि महाव्रतानां पीमा विराधना भवेत् इति कृत्वा । प्रकारस्तरण संबन्धमा हवा पिंमो भणियो, न य जणिओ गहणकालं तु । तर गवाए वारे अतरे सुते । अथवा " निर्मार्थ व माहाकुलं पिंडामिया " इत्यादिषु सूत्रेषु पिण्डो मतिः न च तस्य पिएजस्य ग्रहणकालो प्रणितः कदा गृह्यते, कदा नेति । श्रतः पूर्वसूत्रेभ्यो यदयान्तराखमिदमेव सूत्रं, रात्र तस्य पिण्डस्य ग्रहणं कृपाय रात्रौ निवारयतीत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-नो कल्पते निर्मन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा रात्रौ वा विकाले वा अशनं घा ओदनादि, पानं या अयादि खादिमं या फलादि स्वादिमं वा शुरख्यादि प्रतिग्रहीतुम इति सूत्राक्षरार्थः । अथ माध्यविस्तर रातेव पियाले वा सेका राई ओफिसिङ्ग विकालो । चउरो अाया, चोदगपमिवाऍ श्राणादी | रात्री वा विकावेति यदुकं सूबे, तर सध्या विरुध्यते इतिनिरुक्तिवशात् शेषा सर्वाऽपि रजनी, विगतः सन्ध्याका मोति विकास सभ्यते । केाविदाचार्याणां दिवसण मात् सन्ध्याविकास शेषा तु रात्रिस्तेनपारदारिकायो अत्रेति कृत्वा तयोरात्रिधिकाोकं चतुर्विधमाहारं गृह्णतो भुञ्जानस्य च चत्वारो अनुद्धाता मा साः प्रायश्चित्तम् । वृ० १ ४० ॥ (१३) कतिवारान् गच्छेत् ar विस्तरार्थमभिधित्सुः प्रमाणद्वारं भावयतिदोन्नि नापाक तया आवत मासिवं लहुये। गुरुगो उपस्थीए, पाउम्पासो पुरेकम्ये ॥ चतुर्थभक्तिस्य ही बारी गोरचर्यामतुमनुज्ञाती, अथ तृती यं पारमति तत श्रापद्यते मासिकं सघुकम अथवा पर्यटति, तदा गुरुको मासः। स्त्रीत्वं सर्वत्र प्राकृतत्वात् । अथ तृसीयादीन् वारान् भिकार्य प्रविशतिततो गृहियः पुरा कर्म कुर्व म्ति, तत्र चत्वारो मासा लघव इति । एषा नियुक्तिगाथा । अथैनामेव भाष्यकृद्विवृणोति 19 सइमेव निगम, चतुस्वजतिस्स दोभि वितके । स गोयरकाला, विधि मे त्रि तिहिं ॥ Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (760) गोयरचरिया सकृदेव एकवारमेव नित्यनक्तिकस्य भक्ताय वा पानाय वा नि र्गमनं कल्पते, चतुर्थभक्तिकस्याभ्युत्सर्गतः सकृदेव भिक्कामटितु कल्पते। अथ तदानीं पर्यटताऽपि तेन परिपूर्णो भक्तार्थो न ल धः, ततोऽलब्धे सति तस्य द्वावपि गोचरकालावनुज्ञातौ यस्य विकृष्टनक्तिको दशमद्वादशमाद्दिक्षपकः, तस्य सर्वेऽपि गोचरकाला कल्पन्ले (मेवितिदिति पतिकस्य योगकालयोः, अष्टमनफिकस्य तु त्रिषु गोचरकालेषु भिकामटितुं कल्पते । स्वास्मतिः किमर्थ पष्ठादिमतिकानां ध्यादिगोचरका तानामनुज्ञा ?, उच्यते संखुन्ना जेणऽन्ता, डुगाइ छडादिणं ततो कालो । तणुत्ते अवलं, जायइ न य सीतलं होई ॥ संयानि संकुचितानि येन कारणेन षष्ठादितपसा अन्त्राणि प्रतीतानि । ततः षष्टादिभक्तिकानां द्विकादिको गोचरद्वयादिकः कालोऽनुज्ञातः अपि च प्रथममेकवारं मुस्ततो द्वितीयादिकं चारमनुक्तस्तस्य भुक्तानुमुक्तस्य, व्यादीन् वारान् शुक्तवत इत्यर्थः । बलं भूयोऽपि महादिकरणे सामर्थ्यमुपजायते, न चेत्थं तद्भकं शीतलं भवति, सद्यो गृहीतत्वात्। यदि ह्येकमेकवारं प र्यता यद् गृहीतं तन्मध्यात् किञ्चित् समुद्दिश्य द्वितीयादिवारं समुद्देशनाथै शेषं खापयेतात व शीतलं त सब कामदेहस्य कारकमिति कृत्यादयो गोचरकाला अनुज्ञाता इति । भान अत्र पर प्रायसी हादिको वाय बिनति तावत्येकेनैव दिवसेन पूरयति, ततः को नाम गुणस्तस्य नक्तच्छेदनेन ?, उच्यतेबहुदेवसिया जाता, एकदिशेषं तु जइ वि जुंजेज्जा | यि चागतितिखागमनाबधाईया ॥ अभिधानराजेन्द्रः । बहुदैव सिकानि भक्तानि यद्यप्यसावेकदिनेनैव षष्ठादिभक्तिको शुञ्जीत, तथापि प्रक्तच्छेदने त्यागतितिकैकाग्रप्रभावनादयो गुणा जवन्ति । त्यागो नाम-यादीन् दिवसान् सर्वथैव भक्तार्थपरिहारः, तितिक्का कुधापरीषहस्याधिसहनम् ऐकाध्यं तु सूपरास्थानम्योपयुकता प्रभावना नाम अहो! श्रमीषां शासनं विजयते यत्तादृशास्तपखिन इति । श्रादिश दादन्येषामपि कर्मणि काजननं गृहिणांचा यस्याप्रतिपतिरित्यतः षष्ठादिनतिकस्य व्यादिगोचरकालानु ज्ञानम. नित्यभक्तिकस्तु यदि द्वितीयं वार निक्कार्थमवतरति मासनघु, तृतीयबारं मासगुरु, चतुर्थे वारं चतुर्लघु, पञ्चमं चतुर्गुरु षष्ठं षट्लघु, सप्तमं षट्गुरु, अष्टमं छेदः, नवमं मूलं, दशममनवस्थाप्यथ एकादशं वारं पाकिम चतुर्थप्रतिकादीनामतिदेशमाह जह एस एत्थ वुडी, ओरमाणस्स दसहि सपदं च । सेसेपि तत्थ विडीव सोहीए ॥ यथा द्वितीयादिवारं जिज्ञामवतरत एषा लघुमासादारभ्य प्रा. यश्चित्तस्य वृद्धिर्भणिता, दशनिश्च दशसंख्याकैः स्थानैः स्वपदं परात्यिकस्योक तथा शेषेष्वपि भकि दिषु यत् तृतीयकारादिकं प्रायश्चित्तस्थानं युज्यते, तत्र तदारसोधे प्रायसिसस्य विवृद्धिः कर्तव्या तथा चतुर्थन किस्तृतीयं वारं मिहामपतरति मासलपु चतुर्थ मासगुरु गोयरचरिया पञ्चमं चतुर्लघु, पष्ठं चतुर्गुरु, सप्तमं बम्लघु, अष्टमं षम्गुरु, नथमं बेदः, दशमं मूलम, एकादशमनवस्थाप्यम, द्वादशं वारं पर्यट तः पाञ्चिकम् । एवं षष्ठभक्तिकस्यापि द्वादशं वारमवतरतः पाराशियदाह विमतियस्स पियारसर्दि पाप पारंचिति" । अश्मभक्तिकस्य तु चतुर्थचारादार त्रयोदशं वारं यावत्पर्यटतो लघुमासादिकं पाराञ्चिकान्तमिति । गतं प्रमाणद्वारम् | बृ० १ उ० । द्वितीयारं प्रविशति जे भिक्खू गादावति पिमवापमियाए पनि पदियाक्स समाये दो पि तमेव कुलं पविस, अणुव्यक्तिं वा साइज ।। १२ ।। " जे झिक्खू गाहावतिकुलं पिंमवातपडियाए" इत्यादि । ( पमियाक्खिपत्ति ) प्रत्याख्यातः श्रतित्थावितेति भणियं भवति, दोघं पुनरपि तमेव प्रविशति, तस्स मासलहुँ, आणाश्णाय दोसा | णिज्जुत्तिगाड़ा जे जिक्खू गादावति - कुलमतिगऍ पिंमवातपमियाए । पच्चक्ति समाणे, तं चेत्र कुलं पुणो पविसे ॥ २७ ॥ जे ति पिले, भिक्खू पूर्ववत गिहस्स पती पती स्कुलमित्यर्थः अतः प्रविष्ट, मिपातयभिया पश्च खातो प्रतिषिद्धः प्रत्याख्यानेन ( समाणे ति ) समः प्रत्याख्यानेत्यर्थः । श्रड्वा-' समाणे ति ' पश्चक्खाच ति होउं तमेव पुनः प्रविशेत् । गाहा सो आणा अणवत्थं मिच्छत्तविराध तथा दुविधं । पावति जम्हा तेणं, पच्चक्खाते तु एा पत्रिसे ॥ 25 ॥ दुविदा विराहणा-याप, संजमे य । जम्हा पते दोसा पा वति, तम्हा ण तं पुणो कुलं पविसे । अथ पविसति तो श्मे दोसादुपदचतुष्पयणासे णोदविणे व महण खणणे य बारिकामी दोषादि का भये तस्य ॥ २ए ॥ तम्मि कुले दुपदं दुअक्खरियादि, चउपपदं श्रसाद, हरि वा सो संकिज्जति, एवं उद्दविते, घरादिदाह, क्खत्ते य क्खतिते मंडिकामी उम्भामगो एह सादिआण ताण वा दूर करे, यं किस्सिंकिते या जंतमायने साइडि घर भरियं ति, रायकुले कहेज्ज, एवं गेएहणादयो दोसा । कारणे तु पुण दोघं पतिवितिय पदमा जोगे, अचितं गेला पगत पाहुणए । रायडे रोध, अदाने वा विविविकप्पं ॥ २० ॥ अणाजोगेण दोच्चं पि पविले, तमणीश्रो संविया जत्थ तं अत्रियं दानं संचियादी, दुर्मिकं वा, गिलाणकारणेण वा भुज्जो पासति एवं पाहुणगातिपस वि. वा वितिविि आदी मजे अवसाय महया मेलयादिपलु कम्जेसु पस चित्रे लग्भाति परियज्ञकिये पुणो तेसु चेष गरे दोयं वारं पविसति । गाड़ा एतं तं चैव घरं, पुव्यघरसंकमेण वा मूढो । Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए०० ) गोयरचरिया पुच्छा पुर्ण सेसे, कति कम अपुच्छो या ॥ ३१ ॥ अणानोपविट्टो निर्माण सुतार्थ भणति एवं तं चैव परं तिरसंक्रमेण या पथिको प्रति घ घरं ति । (सेसेसु ति ) गिलाणादिसु कारणेसु गिहीसु पुया 'गिज्ञानका दोषं पि भगत सि अभिधानराजेन्द्रः । कहति । गाहा चावितकुलाणि पविसति, प्रदेसकाले वि जेसु से प्रसि । सूखे पुणरागते, मदमसु च मे आसि ।। ३२ । यासासी पविसं भाविता कुला, सिपा संतोष जयंति ते दो पि कारणे पविति। काले वि जेसु कुत्रेसु श्रासी, तेसु पुणो देसकाले पविसति, जं निक्खाकाले सुष्णं असिवेसु पुणो पविसति, भद्दकुलं वा असुजं श्रासि तत्थ के कारणेण भिक्खा ण दत्ता, तं पुणो पविसति । नि० ३ उ० । - " चू० (१४) मात्रकं गृहीत्वा गन्तव्यम् । मात्रकद्वारम्अथ मात्रकद्वारे व्यापायते मात्र कमी मास लघु, आचार्यादीनां प्रायोग्यं मात्रकं विना कुत्र गृह्णातु ?, यदि न गृह्णाति तदा यदा ते अनागाढमागाढं वा परिताप्यन्ते, तन्नि नातं समुद्दियुततो महाम्यादयो दोषा इलभयस्य वा घृतादेस्तदिवस लाभो जाता, यदि मार्क नास्तीति कृत्वा तत्तु न गृह्णाति तदा मासलघु, संसक्तभक्तपानं वा मात्रकं विना क शोधयतु ?, यदि मात्रक्रमभविष्यत् ततस्तत्र शोधयित्वा परिष्ठापयेत् प्रतिपरिक्षिपेक्षा यतएवमतः क व्यं मात्रकग्रहणम् । गतं मात्रकद्वारम् । बृ० १ ३० । द्वितीयपदे मात्रकमप्यनाभोगादिना न गृह्णीयात् । पृ० १ उ० । घ० । औ० । (१५) यस्य च योगद्वारम् - यस्य वस्त्रपात्रादेयोगः संबन्धो प्रविष्यति तदपि गृहीयामीति यदि न प्रयति, तदाऽपि मास पात्रादिकं च प्रहीतुं न कल्पते । वृ० १ ८० । (१६) संघाटकं कृत्वा गन्तव्यम् । अथ संघाटकद्वार जाध्यकृदेव व्याख्यानयति- गागियस्त दोसा, साणे इत्थी तदेव पडिणीए । जिक्खविसोहि महवय तम्हा सविनर गमणं ॥ काकी पर्यत तदा दोषाः स एकाकी व दि मिकां शोधयति, तदा पृष्ठतः श्वानः समागत्य तं दशेत् । प्रथ श्वानमवलोकते, तत एषणां न रक्षति, तमेकाकिनं दृष्ट्रा काि स्प्रेषितभर्तृका, विधवा वा स्त्री, यहिः प्रचाल मल जमाना द्वारं पि धाय तं गृह्णीयात् प्रत्यनीको वा तमेकाकिनं दृष्ट्वा प्रतापनादि कुर्यात् भिकाविशोधिरिति एकाकी यदि त्रियुगृहेषु निक दीयमानां हातात ति तत इतरयोदयको प्रद्वेषो भवेत् । द्वयोस्तु निर्ग तयोरेक एकत्र भिक्षामाददान एवोपयोगं ददाति । द्वितीयस्तु शेषगृहद्वयादानीयमानं भिक्काद्वयमपि सम्यगुपयुङ्क्ते, महाव्रतानिवा एकाकी विद मध्यापिवेत् १ पलादि वा प्रयुञ्जीत २, हिराक या विक्षितं गुरुकर्मतया स्तेनयेन् ३, अविरतिकां वा रूपवर्ती गोयरचरिया दृष्ट्रा समुदी मोहतया प्रतिसेवेत् ४, भैण या समं पतितं सुर्यादिगृहीयादिति । यत एते दोषास्तस्मात् सद्वितीयेन गमनं कर्तव्यम, संघार्थः। स पुनरेकाकी कैः कारणैः संघाटिकं न गृह्णातीत्युच्यते गारवर काहीए, माइले असु निकम्मे । इन मचादिहिय, भ्रमन्नेवा संघाटो । गौरविको नाम सिंपन्न वि , 9 चेयं भावना-संघाटके यो रत्नाधिकः सोऽसन्धिमान, अवमरलाधिस्तु लब्धपः ततोऽसाभिकामुत्पादय ति प्रतिश्रयमागतयो तयोः राधिको मएमसीस्थविरेण मयते येायमुख प्रतिगृदं ततोऽवमरनाथका स्वदिदि तम् इदानीमस्य रत्नाधिकः प्रभुरतूत, येनास्य पार्श्वे प्रतिमहो पाते इति कषायितः सन्नेकाकित्वं प्रतिपद्येत (काहीएस) कथाश्रितीति कार्थिकः कथाकथनै कनिष्ठ स गोचरं प्रविष्टः कथाः कथयन् द्वितीयेन साधुना गुर्वादिभिर्वा वार्यमाणोऽपि नोपरमते, तत एकाकी भवति । मायाबान् भद्रकं २ मुक्ता शेषमानयन्नेकाकी जायते । अलसश्चिरगोचरचर्याभ्रममनः सन्नेका पति तुग्धस्तु दधिदुग्धादिका वि कृतीः खलु नाभ्यमानः पृथगेव पर्यटति निर्मा] पुनरनेषणीयं जिरेकर प्रतिपद्यते (ति) दुमकाले एकमुपसंपद्यते (अचादिद्धिय सि) मात्मार्थिक आत्मक स स्वतन्धसामनेोत्पादितमहं गृहामीत्यकाको प्रयति । श्रमनोशो नाम सर्वेषामप्यनिष्टः, कलह कारकत्वात् असावप्येकाकी पती काररसंघाट, संघाटको न भवति । | अथैतेषामेकाकित्यप्रत्ययं प्रथमा लघुया य दोन गुरुप्रो, ग्रह तइए चन गुरू य पंचमए । सेसा मासलओ, वा आवश्नाई जत्थ | योगीरविककाधिकयोमावारो समयः तृतीयकस्य मायाघतो गुरुको मासः, पञ्चमस्य लुब्धस्य चत्वारो गुरवः, शेषाणामलस निर्द्धर्मादीनां मासलघु । यद्वा-संयमविराधनादि यत्रापद्यते तन्निष्पन्नं तत्र प्रायश्वित्तम् । गतं संघाटकद्वारम् । बृ० १ उ० तथा संघाटकं विनाऽपि निर्गच्छेत् । कथमिति चेत् ?, उच्यतेयदि दुर्भिते विरमप्यदित्वा पर्याप्त सभ्यते प तो न पुनरेकाकी अथ द्वयोरप्येकैव निशा लभ्यते, न च कालः पूर्यते तत एकोऽपि पर्यदेवयदि सर्वेऽपि स्वदत्वादात्मलब्धिका भवन्ति, तदा प्रतिषेधितव्यः श्रथ कोअपि प्रियधम मातृस्थानविरहित भारमधिकत्वं प्रतिप द्यते, ततः सोऽनुज्ञातयः । यः पुनरममोहः स अन्यान्यः साधुभिः समं संयोज्य प्रश्यते । यदि सर्वेऽपि नेच्छन्ति, ततः परित्यज्यनीयोऽसौ अथ स एवैकः कलहकरणस्तस्य दोषः, अपरे निलभत्वादयो बढ्यो गुणाः, एषणाको वाऽतीव - टः, ततो न परित्यक्तव्य इति । बृ० १ ३० । (१७) उच्चावचकुलेषु चरेत् सामुदानिका समुश्राणं चरे निक्खु, कुलं उच्चावयं सया। नीयं कुलमइकम्म, ऊसढं नानिधारए ॥ २५ ॥ Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए०१) गोयरचरिया समुदानं नायकमाधिश्व चरेद्भिः केवाह कुलाय सदा, गर्हितत्वे सति विजयापेकया प्रधानमप्रधानं च। यथापरिपाट्येव चरेत्सदा सर्वकालम, नीचं कुलमतिक्रम्य विजवापेक्षया प्रभूतनरत्नाभार्थमुच्छ्रितम् ऋद्धिमत्कुलं, नाभिघारये पायात अभिष्वङ्गसोलावादिप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥२५॥ किं चप्रदीणो वित्तमेसिज्जा, न विसीएज पंगिए । अमुवि जोयणम्मि माझे एसणारए ॥ २६ ॥ श्रदीनो व्यन्यमङ्गीकृत्य न म्लानवदनः, वृत्तिर्वर्तनम, एयेत् गवेषयेत् न विचति अलाभे सति विवाई न कुर्यादपडितः साधुः अमृतिः- भोजने, लामे सति मात्रा ब्राहारमार्थ प्रति पचणारतः उन्मोत्पादनैपपातीति सू श्रार्थः ॥ २६ ॥ अभिधानराजेन्द्रः । पच भावत बहु परपरे अस्थि, निषिद्धं खाइमसाइमं । न तत्थ पंमिश्र कुप्पे, इच्छा दिज्ज परो न वा ॥ २७ ॥ बहु प्रमाणतः प्रभूतं, पर असंयतादिगृति विविधमनेकप्रकार, खाद्यं स्वाद्यम, पंतच्चाशनाद्युपलक्षणम् । न तत्र पएिमसः कुप्येत् सदपि न ददातीति न रोषं कुर्यात् किं तु इच्छा चेद्यात् परो न वेति, इच्छा परस्य, न तत्रान्यत्किञ्चिदपि चिन्त दिति सामायिक याचनादिति वार्थः ॥ २७ ॥ एतदेव विशेषणादवाजचं पानं व संजए । प्रतिस्स न कुप्पेक्षा, पच्चले विय दिसाओ ॥ २० ॥ शयनाशयत्येकापावा संपत सो न कुप्येत् तत्स्वामिनः प्रत्यदेऽपि च दृश्यमाने शयनासनादाविति सूत्रार्थः ॥ २८ ॥ दश० ॥ श्र० २ ० । (१०) मार्गे वा गच्छति सेभिक्खु वा खुणी बा० जाव समाये अंतरा से बप्पाणि वा फसिहाणि वा पागाराणि या तोरणाि वा अगलाणि वा अग्गलपासगाणि वा सति परक्कमे संजयामेव परकमेज्जा, यो उज्जुबं गच्छेन्ना, केवली वूया - श्रयाणमेयं से तत्थ परक्कमेमाणे पयलेज्ज वा, पत्रडेज वा से सत्य पक्षमाणे ना परममाणे वा तस्य से कार उचारेण वा पासवण वा खेझेण वा सिंघान वा तेण वा पित्तेण वा पूरण वा सुकेण वा सोणिएण या उपलिसिया तहयगारं कार्य र अतरहियाए पुढी यो ससारीदार पुढवीए णो ससरक्खाए पुढवीए णो चित्तमंताए सिलाएको चित्तमंताए बेलूए कोलावासंसिवा दारुण जीवपतिडिए नंगे सपा जान सताए यो आपले बाणोपमज्जेज वा संझिवा, पिसिन वा, उम्मलेन वा आउन वा आयाजना, पावेन वा । उज्ज से पुण्यामेव अयं ससरकख तां वा प वा कहुं वासकरं वा जाएज्जा, जाइत्ता से तमायाए एगंतनवकमेज्जा २ । २४६ गोयरचरिया असावा गारंभिवा पडिले दियर पमज्जिय२ तो संजयामेव श्रमज्जेज्ज वा०जाव यावज्ज वा । से भिक्खु वा निक्खुणी वा० जाव पविछे स माणे सेज्जं पुण जाणेज्जा, गोणं वियानं पमिपहे पेहाए, महिसं वियालं पडिपड़े पेढाए, एवं मनुस्सं ग्रासं हथि सी व गं दीवियं अच्छं तरच्छं परासरं सीयालं विरानं सुरणयं कोलसृएयं कोकंतियं चेत्ताविखंडयं त्रियानं पडि पहे पहाए. सति परकमे संजयामेव परकमेज्जा, यो उज्जुयं गच्छेज्जा | ( से भिक्खू वेत्यादि ) स निकुर्भिक्षार्थं गृहपतिकुलं पाटकं रथयां ग्रामादिकं वा प्रविष्टः सन्मार्ग प्रत्युपेक्षेत । तत्र यद्यन्तराऽन्तराले 'से' तस्य निक्कोच्छन एतानि स्युः । तद्यथा-वप्राः समुन्नता भूनागाः प्रामान्तरे वा केदाराः तथा परिखावा, प्राकारा वा गृहस्य पत्तनस्य वा, तथा तोरणानि वा, तथाऽर्गलावा, पाशका यत्रालाग्राणि निचिपन्ते, एतानि चान्तराने ज्ञात्वा प्रक्रम्यते अनेनेति मो मार्गम्यस्मिन् सति संवत च तेन कमेनमिति । ब्रूयात्यादानं कर्मादानम् एतत् संयमात्मविराधना, श्रतस्तामेव दर्शयनिमल तस्मिन् पादिते मार्गे पराश्रममाणो गच्छविषमस्वामार्गस्य कचित्प्रकम् प्रपतेद्वा, स तत्र प्रस्खलन प्रपतन् वा म्हां कायानामन्यतमं वि राधयेत् । तथा तत्र 'से' तस्य काय उच्चारेण वा प्रवऐन वा ले मणा वा सिङ्घाणकेन वा वान्तेन वा पित्तेन वा पूयेन वा शुक्रेण वा शोणितेन धा उपलिप्तः स्यादित्यत एवंभूतेन पथा न गन्तव्यम् । श्रथ मार्गान्तराभावात् तेनैव गतः प्रस्खलितः सन् कर्दमाकुर्यादि तथाप्रकारम शु चिकनकायमा पहि स्निग्धा पृथिवीशकलेन, एवं कोना घुणास्तदावासनृते दारुणि, जीवनतिष्ठिते जाएंडे सप्राणिनि यावत्ससन्तानको नो नैव सदामृज्यादू. मापि पुनः पुनः प्रमृज्यात्, कईमादि शोधयेदित्यर्थः । तथा तत्रस्थ एव 'न संलिहेजा' न संलिखेन्, नोद्वर्तनादिनोइलेत. नापि तदेव पुनः प्रत्यकुर्यात्पूर्वमेत दनन्तरमेव भए सरजस्ता ले स्थितः सन् गात्रं प्रमृज्याच्छोषयेत् शेषं सुगममिति किं च - " से भिक्खू " इत्यादि । स भिक्षुः भिक्कार्थं प्रविष्टः सन् पपयोगं कुर्यातच यदि पुनरेव जानीयात्ययात्र चियादिमा समाधानं गप्पा दुष्टमित्यर्थः पन्थाः प्रतिपथः तस्मिन् स्थितं प्रत्युपेक्य, शेषं सुगम, थावत् सति पराक्रमे मार्गान्तरे ऋजुना पथा आत्मविराधनासंभवात् न गच्छेत् नवरं ( वग ति) वृकं, द्वीपिनं चित्रकम् (अच्छेति ) ॠ (परासरं त्ति ) सरभं ( कोलसुवा महाशुकरं (क) ल रात्रौ कोको इत्येवं रारट्रीति, (चेत्ताविलंडयं ति) आरण्यो जीवविशेषः, तमिति । आचार २ ० १ ० ५ उ० । (१६) मार्गे स्थाणुकण्टकादि सेभिक्खू वाणी बजाय समाणे अंतरा से भवाओ Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयरचरिया बा खाया कंट वापसी या भाया बिसवा विनसेवा परिवादलेग्ना सति परकमे संजयामेव पर कमेज्जा, गो उज्जुयं गच्छेज्जा ॥ " से भिक्खू स्यादि "समा सम्माग योगं दद्यात्तत्रान्तरात्रे यद्येतत्पर्यापद्येत् स्यात् । तद्यथा अवपातो गर्तः स्थाणुर्वा, एटको वा 'घली' नाम स्थलादधस्ताद वतरणम्, राजविषम' मः तत्राऽमसंयमधिनसंभवात् पराक्रमे मार्गान्तरे सति ऋजुना पया न गच्छेदिति । श्राचा० २ ० १ श्र० ५ उ० | पं० भा० । पं० चू० । गृहपतिद्वारे कल्टकादि ( ए०२) निधानराजेन्द्रः । सेभिकख वा वा गाहावनिकुलस्त दुवारवाई कंटग दिया परिपिहितं पेहाए तेस पुण्यामेव उपा भवतं अभिलेहियर अपमजियो अगुल बा, पविसेज्ज वा क्खिमेज्ज वा, तेसिं पुत्रमेव उवग्गहं अत्रिय मिलेहिय २ पमज्जिय १ तम्रो संजयामेव अवगुणेज्ज वा, पविसेज्ज वा क्खिमेज्ज वा ॥ "सेभियादि" समाविष्टः सन् गृहपति कुलस्य ( वारवाहं ति) द्वारभागः तं कण्टकशाखया पिदितं प्रेदय येषां तद् गृहं तेषामवग्रहं पूर्वमेवाननुज्ञाप्यायाचित्वा तथा प्रत्युद्देश्य चक्रुपा अपमृत्य रजोहरणादिना को अवगुणेज्जत्ति ) नैवोद्घाटयेद् उद्घाटय च न प्रविशेत्, नापि निष्कामे तथाहि पति प्रगच्छेत् न च वस्तुमान उद्घाटद्वारे मान्यश्वादिप्र विसेदित्येवं संयमारमाराधने सति कारणे अपवादमाह सर्वे तेषां मनुहाय याचि स्वाप्रत्युपेय प्रमृश्य च गृहोघाटनादि कुर्यादिति । एत जवति-स्वतोद्वारमुद्घाट्य न प्रवेष्टव्यमेव, यदि पुनर्लानाचा 1 दिप्रायोग्यं तत्र लभ्यते, वैद्यो वा तत्रास्ते, दुर्लभं वा व्यं तत्र प्रविष्यति असति पनि कार द्वारि व्यवस्थितः सन् शमं कुर्यात् स्वयं वा यथाविद्घाट्य प्रवेष्टव्यमिति । श्राचा० २ ० १ ०५ उ० । तत्र प्रविष्टस्य विधिं दर्शयितुमाह(२०)शेषतः पृथिवीकाय यतनामाह इंगालहारिए रासिं, तुसरासि च गोमयं । मसरफ्लो पाहिं सोनं नऽकमे ॥ ७ ॥ अङ्गाराणामयमा तमाङ्कार राशिम एवं ज्ञारराशि पराशि, गोषमराशि राशि सजाय पां सवित्तपृथिवीरजोगुरिकताज्यां पादाभ्यां संयतः साधुः तमनन्तरोदितं राशि, नातिक्रमेत् मा भूत्पृ ॥७॥ वियतनामाहनावाने महिषा पतिए । महावा व वातेनामेवा ।। ८ ।। गोयरचरिया न चरेद्वर्षे वर्षति भिक्कार्थी प्रविष्टो वर्षणे तु प्रच्छन्ने तिष्ठेत् । तथा मिहिकायां वा पतन्त्यां सा च प्रायो गर्नमासेषु ति । महावाते वा वाति सति, तदुत्खातरजोविराधना दोषात् । तिर्यक् संपतन्तीति तिर्यक्पाताः पतङ्गादयः तेषु वा सत्सु कचिद शनिरूपेण न चरेदितिसूत्रार्थः ॥ ८॥ उक्ता प्रथमव्रतयतना । साम्प्रतं चतुर्थत पतनाच्यते म चरेज्न बेससामंते, पंजवाणु जयारिस्त दंतस्स हुआ तत्य विद्युत्तिया । ॥ न चरेद्वेश्यासामन्ते मणिगृहसमीपे किंविशि इति आह्मानयने ब्रह्मच मैथुनविरतिरूपं पश मानयत्यामतं करोति दर्शनाशेपादिनेति ब्रह्मचानयनं तस्मिन् दोषमाह-ब्रह्मचारिणः साचस्य मोइन्द्रियमायां भवेत्तत्र वेश्याखामन्ते विधासिका राप संदर्शनस्मरणापध्यानकचबरनिरोधतः ज्ञानश्रद्धाजलोज्नेम संयमस्य शोषफना चित्तविक्रियेति सूत्रार्थः । एष सकृश्चरणदोषो वेश्या सामन्तसङ्गत उक्तः ॥ ६ ॥ सांप्रतमहान् बाधमा प्रणायचे परंतस्स संसगी अभिक्खणं । , हुजा वयाणं पीना ऊ, सामन्नम्म य संस ॥१०॥ अनायतने अस्थाने वेश्यासामन्तादौ चरतो गच्छतः संसण संबन्धेन श्रभीक्ष्णं पुनः २ किमिति ? आह-भवेद्रतानां प्राणातिपातरित्यादीनां पीमा साहितो भावना, श्रामण्ये श्रमणनावे च द्रव्यतो रजोहरणादिसंधारणरूपे भूयो भावप्रधान देती संशयः काचिदनिष्कामत्ये वेत्यर्थः । तथा च वृरूव्याख्या "वेसादिगयनावरस मेहुणं पीमिठाई, अझोगेणं पसणाकरणे हिंसा, पहुध्यायणे अपुच्छ अवलंबणाऽसचवणं, श्रणमा य बेसादंसणे अदन्तादाणं, ममलकर परिभादो वर्ष सम्यययपीमा दन्यसामने पुष संयोग चि "सूत्रार्थः ॥ १० ॥ निगमयन्नाह तम्हा एवं वियाणित्ता, दोसं दुग्गइवगुणं । बजर बेससामंत, मुणी एवंतमस्सिए ।। ११ । यस्मादेवं तस्मादेतत् विज्ञाय दोषमनन्त रोदितं दुर्गतिवर्द्धनं वर्जयेद्वेश्या सामन्तं मुनिका मोहमार्गमानि इति सूपार्थ ॥११॥ आद-प्रथममधिनाऽनन्तरं चतुविधनोपन्यासः किमर्थम उच्यते प्राधान्यख्यापनार्थम अन्यतविराधनातुत्वेन प्राधान्यं तथ तो दर्शितमेवेति विशेषमासाणं च सूइयं गात्रिं दित्तं गोणं इयं गयं । भिजु दूरओ परिवञ्जए । १२ ॥ श्वानं लोकप्रतीतं, सूतां गास्, अभिनवप्रसुतामित्यर्थः । रतं च दर्पितम किमिनि ? आह" गो वं गर्ज " मोणो बली ब होवो, गज हस्ती तथा किमिति आ स्थानं फलानि खङ्गादिनिः पतदूरतो दूरेण परिवर्जयेत् श्रात्मसंयमविराधनासंभवात् । इवसूतगोप्रभृतिभ्यश्रात्मविराधना, मिम्भस्थाने बन्दनाद्यागमनपतन Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (53) अभिधानराजेन्द्रः । गोयरचरिया भमनलुनादिना संयमविराधना, सर्वत्र चाऽऽत्मपात्रमेदा दिनोजयविराधनेति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ मत्रेय विधिमाह अणुन्नए नात्रणए, अप्पहिडे अणाउने । इंदियाई महाभागं दमचा मुखी घरे ।। १३ । अनुतो तो जायत इयतो-नाकाशदर्शी भा. बतो न जात्याद्यभिमानचान् मायनो स्वभावाभ्यामे व्याननतोऽनीकाः, भावानयननः अपादिना घीनः । अप्रहृष्टः प्रहसन्, अनाकुलः क्रोधादिरहितः, इन्द्रिया. णि स्पर्शनादीनि यथामार्ग यथाविषयं दमयित्वा इनि स्पर्शादिषु रागद्वेषरहितो मुनिः सारे विपर्यये प्रभूदोषप्रसङ्गात्। तथाहि हास्य भावो तईयों न रति । द्रव्यावनतः वक शति संभाव्यते, इनकइति मयते स्याउनई इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ . जावावनतः किं चदवदवस न गच्छेज्जा, जासमाणो य गोयरे । हसतो नाभिगच्छेज्जा, कुलं उच्चावयं सया ॥ १४॥ रिमित्यर्थः भाषमाणो वा गोचरे नग च्छेत् । तथा इसन्नाभिगच्छेत् कुलमुच्चावचं सदा । उच्चं व्य भावनेदाइ द्विचाग्यो चलवासि भाषा दियुक्तम् । एवमवचमपि व्यतः कुटीरकवासि, भावतो जात्यादिदर्शनमिति । दोषा उभयविराधनालोकोपघातादय इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ अवैध विधिमाहझालो चिग्ग दारं, संधि दगभरणाणि य । चरंतो न विनिकाए, संकाणं विवज्जए ।। १५ ।। अवलोकं नियूंड कादिरूपं, 'थिम्गलं' चितं द्वारादि, सन्धिश्चितं क्षेत्रपाणि चरन् निकास नविनिध्यायेत् न विशेषेण पश्येत् शङ्कास्थानमेतदवलार्द, अतो विवर्जयेत् तथा च महादो तत्राराज्ञायत इति सूत्रार्थ ॥ १५ ॥ रनो गिवईणं च, रहस्साऽऽरक्खियाण य । " " संकिलेसकरं ठाणं दूरओ परिवज ।। १६ ।। पतीनां श्रेती, "हसा " इति योगः । धारक्षकाणां च राममायादीनां रहस्थानं गुह्यावर कमादि संकेशकरमसदस्य मन्त्रदे वाचादिनेति दूरतः परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ दश० ५ अ० १ ० । (२१) वृष्टिकाये निपतति वासावासं पज्जोसविसयस्स नो कप्पड़ पाणिपमिग्गद्दियस्स निक्खुस्स कणगफुसियमित्तमवि बुडिकायंांसे नित्रयमासि० जान गाहाइकु पचित्तिए वा निक्खमित वा ॥ २८ ॥ "वासवासं" इत्यादितः "पविसित्तर त्ति" पर्यन्तम् । तत्र (पाविपडिस्सिसि) पाणिपास्य जिनक गोयरचरिया (कणगफुलिश्रमितमत्रि ) फुलारमात्रम्, एतावन्त्यपि वृष्टिकाये निपतति सति गोचरचर्यायां गन्तुं न कल्पते ॥ २८ ॥ वासावासं पज्जोसवियस्स पाणिपमिग्गहियस्स जिक्खुस्स नो कप अनिहिंसिपिंगचार्य पमिगाहिता पज्जोस चिचए, पोसमास सहसा बुद्धिका निवडा दे जुबा देसमादाय से पाणिणा पाणिं परिपिहित्ता उरंसि वा एं निझिक्रिस वा ए समाभिज्जा, अहाउभाणि लेणाणि वा जवागच्छिज्जा, रुक्खमलाणि वा बागचिज्जा जहा से तत्थ पाणिसि दए वा दगरए वा दगफुसिया का हो परियावन ॥ २५ ॥ "वासावासं" इत्यादितः "परियावजइत्ति " यावत् । तत्र जिनकल्कि पाणिपात्रस्य साथी (वात) डिपा शिं प्रति अहिंस) अनाच्छादि जोवित्तरति ) पर्युषितुं श्राहारयितुं न कल्पते ( पज्जोसवेमाणस्स त्ति) कदाचित् आकाशे जुञ्जानस्य देशं यदि सहसा श्रर्द्धभुक्तेऽपि वृष्टिपातः स्यात्तदा पिण्डपातस्य क्त्वा देश चादाय पानिमाहारदेशसहित हस्तं पाणिना द्वितीयस्तेन परिपिधाय श्रच्छाद्य उरसि निलीयेत निक्लिप वा । तं साहारं पाणि कक्कायां वा समाहरेत् अन्तर्हितं कुर्यात् एवं च कृत्वा यथावन्नानि गृहिभिः स्वनिमित्तमाच्छादितानि लयनानि गृहाणि उपागच्छेत्वृक्षमुनानि वा यथा ( से ) तस्य पाणी दकादीनि पि न द बढ्यो बन्यो करतो विन्मात्रम् ( दगफुसिया ) फुसारम, अवश्याय इत्यर्थः। यद्यपि जिनकल्पिकादेर्देशांनदशपूर्वरत्वेन प्रागेव पर्योपयोगो भवति तथा संभवति तथापि उत्पाद कहानुिपयोगोऽये नवति ॥ २६ ॥ , उतमेवार्थे निगमाहू वासाचा पज्ञोसपिवस्त पाणिपमिमास्म भिक्खुस्स जं किंचि कणगफुसियमिदं पि निवति नो से कपड़ गाहाइकु प्रताप वा पाणाए वा निक्खमित्त वा प विसित वा ॥ ३० ॥ "बासावासं पज्जोसवियाणं" इत्यादितः " पविसिसप सि यावत् तत्र (कणगपति को लेशम पानी का लक्ष्य फुसिया "फुसारमात्र त कणकं, तस्मिन्नपि निपतति जिनकल्पिकादेर्भिकायै गन्तुं न कल्पते ॥ ३० ॥ उक्तः पाणिपात्रविधिः। 44 31 अथ पात्रधारिणो विधिमाद वासावासं पज्जोसवियरस पभिग्गहपारिस्स भिक्खुस्स नो कप्प पारिकायंसि गाहाबड़कुलं प्रचार वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा, पविसित्तए वा, कप्पर से अप्यवुडिकायंति संतरुचरंसि गाहाबकुलं मनाए वा पाहा या निमित्त वा परिचित्त वा ।। ३१ ।। " वासावासं " इत्यादितः "पविसित्तर त्ति " यावत् । तत्र Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४) गोयरचरिया अभिधानराजेन्द्रः । गोयरचरिया (पमिग्गहधारिस्त ति ) पात्रधारिणः स्थविरकल्पिकादेः (ध. गाहावश्यं पिकवायपझियाए अणुपावट्ठस्स निगिकिय ग्घारियबुष्किासि त्ति) अविच्छिन्नधारा वृष्टिः, यस्यां वर्षाक बुटिकाए निवज्जा,कप्पड़ से अहे आरामंसि वा जाव उवाल्पो तीवं बा श्रवति, कल्प वा भित्त्वाऽन्तःकायं श्रायति या वृ. ठिस्तत्र विहर्नु न कल्पते । अपवादे तु तत्रापि तपस्विनः श्रुदस. गच्छिनए ॥ ३७॥ हाश्च भिक्षार्थ पूर्वपूर्वाभावे औणिकेन औष्टिकेण ताणेन सौ. ( वासावासं पज्जोसवियस्स ) चतुर्मासिकं स्थितस्य प्रेण वा कल्पेत, तथा तालपत्रेण पालाशच्छत्रेण वा प्रावृता (निम्गंथस्स) साधोः (निग्गीए)साध्याश्व (गाहावाकुलं) विहरत्यपि । (मतरुत्तरंसित्ति) अन्तरः सौत्रकल्पः, उत्तर औ. गृहस्थगृहे (पिवायपडियाए) भिवायहणार्थम् (श्रगुप्पाचणिकः, ताज्यां प्रावृतस्याल्पवृष्टौ गन्तुं कल्पते ॥ ३१ ॥ हस्स) अनुप्रविष्टस्य (निगिझिय-निगिज्झिय) स्थित्वा स्थिवासावासं पजोसवियस्स निगंथस्स निग्गंधीए वागाहा स्वा (बुटिकाए ) वृष्टिकायः (निवजा) निपतेत, तदा (कप्प३) कल्पते ( से) तस्य (आरामसि वा) आरामस्थाधो वा (जाव वइकुलं पिमवायपमिश्राए पविट्ठस्स निगिकिय निगि- उवागछित्तए ) यावत् उपागन्तुम् ॥ ३७॥ झिय बुटिकाए निवजा, कप्पड से अहे आरामंसि तत्य नो से कप्पा एगस्स निग्गंयस्स एगाए णिग्गंथीए वा अहे उवस्सयंसि वा अहे वियडगिहंसि वा अहे रुक्ख एगो चिट्टित्तए १, तत्य नो कप्पा एगस्स निग्गयस्स मूलंसि वा नवागच्चित्तए ।। ३२ ॥ दुएहं निग्गयीणं एगो चिट्ठित्तए २,तत्थ नो कप्पड दुबई "वासावासं" इत्यादितः "नवागाच्चत्तपत्ति" यावत्। तत्र "पिं. निग्गंथाणं एगाए निगथीए एगो चिट्टित्तए ३, तत्थ मवायपमित्रापत्ति" यावत् । तत्र (पिमवायपडिपाए त्ति) पिराडपातो भिकानाभः, तत्प्रतिझ्या अत्राहं लप्स्ये इति धि. नो कप्पइ दुएहं जिग्गंयाणं दुराहं निग्गंथीणं एगो चिया अनुपविष्टस्य गोचरचर्यायां गतस्य साधोः [निगिकि य २ द्वित्तए ४, अत्यि य इत्थ केई पंचमे खुट्टए वा खुडिया त्ति] स्थित्वा २, वर्षति घनः तदा ( अहे पारामंसि त्ति) वा अन्नोसि वा सोए सपमिदुबारे एवं एहं कप्पइ एगआरामस्य अधः (अहे नबस्सयंसि व ति ) साम्भोगिका- ओ चिट्टित्तए ॥ ३८॥ माम् इतरेषां या पाश्रयस्याधः, तदभावे [अहे बियमगिहसि अथ स्थित्वा २ वर्षे पतति यदि पारामादौ साधुस्तिष्ठति त्ति] विकटगृहं मामपिका, यत्र ग्राम्यपर्षपविशति, तस्याधः तदा केन विधिनेति । पाह--"तत्थ नो से कप्पश्" इत्यादितः [अहे रुक्खमूलसि यत्ति ] वृकमूलं वा निर्गकरीरादिमूत्रं "पगो वित्तिपत्ति" यावत्। शब्दार्थः सुगमः। नाबार्थस्तु-न तस्य या अधः ( वागवित्तए त्ति) तत्रोपागन्तुं कल्पते ॥३२॥ करूपते एवम् एकस्य साधोद्वाज्यां साध्वीभ्यां सह, द्वयोः साकल्य०६ कण। ध्वोरेकया साध्व्या सह, द्वयोः साध्वोर्तयां साध्वीच्यां सह वासावासं पज्जोसवियस्स निग्गंथस्स निग्गंथीए वा क्यातुं न कल्पते । यदि चात्र पञ्चमः कोऽपि कुखकः शुल्लिका गाहावइकुलं पिमवायपमियाए अणुप्पविट्ठस्स निगि वा साकी स्यात्तदा कल्पते । अधवा-अन्येषां ध्रुवकर्मिक सोहकारादीनां वर्षयध्यमुक्तस्वकर्मणां संलोके तत्रापि ( सपझिय वृहिकाए निवज्जा, कप्पइ से अहे आरामं मिसुधारे त्ति)सप्रतिद्वारे सर्वतो द्वारे सर्वगृहाणां धा द्वारे सि वा जाव रुक्खमूलांस वा नवागच्चित्तए, नो से [ एवं राहंति ] अत्र 'राहमिति' वाण्यालंकारे, तत एवं पञ्चमं कप्पा पुधगाहिएणं जत्तपाणेणं चेलं उवायणावित्त-1 विनाऽपि स्थातुं कल्पते ॥ ३८॥ प, कप्पइ से पुनामेव वियडगं भुच्चा पमिग्गहगं संलि- वासावासं पज्जोसवियस्स निग्गंथस्स गाहावडकुलं पिंदियश संपन्जिय २ एगोजमगं कह साबसेसे मूरि- मचायपमियाए० जाव उवागच्चित्तए, तत्थ नो कप्पा एएजेणेच उस्सए तोणेव उवागवित्तए, नो से कप्पड़ तं | गस्स निग्गंथस्स एगाए अगारीए एगओ चिहित्तए, रयणि नचायणाविना ।।.३६॥ एवं चउभंगी, अस्थि णं इत्थ केई पंचमे थेरे वा "यासावासं" इत्यादितः " उबायणा वित्तपति " पर्यन्तम् । थेरिया वा अन्नेसि वा संलोए सपमिछुवारे एवं कप्पा तत्र (येसं उबाय गावित्तए त्ति बेलातिक्रमयितुं न कल्पते। एगयो चिट्टिनए-एवं चेव निग्गंथीए अगारस्स य तहि कि कुर्यादिति ?, आह-आरामादिस्थितस्य साधोः यदि भाणियन् ॥ ३६॥ वर्ष नोपरमति तदा विकदम । न ममादिशुरुमशनादि भुक्त्वा पीन्या च (एगो भंग कट्टनि) एकत्रायनं मुबद्धं जागरूक चतुर्मास स्थितम्य साधोः गृहस्थगृहे निकाग्रहणार्थ यापात्रायुपकरणं कृत्वा वपुषा सह प्रावृत्य वर्षांप मेधे ( माव. चत नपागन्तुम, तत्र नो कल्पते एकस्य साधोः एकस्याः श्रामेमे सारेपाने) सायशेपे अनस्तामने म (जेणेव उयस्सपत्ति) विकाया एकत्र स्थातुस, एवं चत्वारो जणाः । यदि स्यात् अत्र यत्रोपाश्रयम्नत्रागतं कल्पते, परं न कल्पने तारावि वसतेहः कोऽपि पञ्चमः स्थविरः स्थविरा वा साक्षी भवान, तदा स्थातुं (उवायणा वित्तए ) एकाकिनो हि यहि मनः माधोः स्वपर कल्पते,अन्येषां बा दृष्टिविषयः बहुद्वारसहितं वा स्थानम्, पर्व ममुन्धा बढ्यो दोषाः मनवेयुः, साधयों वा वसतिस्था अधृ. कल्पते एकत्र स्थातुस,एवमेव साध्याः गृहस्थस्य च चतुर्भङ्गी ति कुयूरिति ॥ ३६॥ घाच्या । तथा एकाकित्वं च साधोः साङ्घाटिके उपोषितसु खिते या कारणाद्भवति, अन्यथा हि उत्सगतस्तु साधुरात्मना चासावासं पन्नोस वियरस निगंयस्स निम्गयाए वा द्वितीयः माल्यस्त ज्यादयो विहरन्ति ॥३९॥ कल्प०६ कण। Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए ) गोयरचरिया अनिधानराजेन्षः। गोयरचरिया सुत्ते जहा निबंधो, वग्यारिऍ भत्तपाणमग्गहणं । जाणेजा, रससिणो बहवे पाणा गासेसिणाए संथमे संणिवनाणट्टि तबस्सी अण-हियासि वग्धारिए गहणं ॥एन्॥ तिए पेहाए। तं जहा-कुक्कुमजातियं वा सूयरजातियं वा अ"णो कम्पति रिणग्गंधाणं वा णिग्गीणं वा वग्धारियट्टिकायसि ग्गमिंसि वा वायसा संथमा संमिवडिया पहाए सह पाहावतिकुलं वा भत्ताए वा पाणाप वा णिक्खमित्तएवा, पवि परक्कमे संजयामेव परिक्कमेज्जा, णो उज्जयं गच्छेज्जा। सित्तए वा॥" बग्घारियं णाम तिमि-वासंपमति, जत्थ वा णिश्चं बासकप्पो वा गलति, जत्थ वा वासकप्पं नेत्तणं भंतो काव्य स भिक्षुनिकाथै प्रविष्टः सन् यदि पुनरेवं विजानीयात् । त. बखेति,पयं घग्घारियवासं बरिसे ण कम्पति भत्तपाणं घेत्तुं,सुने यथा-बहवः प्राणाःप्राणिनो रस्यत आस्वाद्यत इति रसा, तमेष्टुं जहा णिवंधो, तहान कल्पतीत्यर्थः । अबग्घारिप पुण फप्पति शीनमेषां ते रसैषिणः,रसान्वेषिण इत्यर्थः। ते तदथिनः सन्त: प्रत्तपाणग्गहणं कालं, "कप्पति से अप्पट्टिकायंसि संतरुत्तर पश्चात् प्रासार्थ क्वचिसादौ संनिपतिताः, तांश्चाहारार्थ संस्कसि" संतरमिति अंतरकप्पो,उत्तरमिति वासाकप्पकंवली, इमेहि तान् घनान् प्रेक्ष्य ततस्तदभिमुखं न गच्छेदिति संबन्धः, तांब कारखेदि वितियपदे पग्धारियवुष्ट्रिकार वि अत्तपाणग्गहणं प्राणिनः स्वनामग्राहमाह-कुकुटजातिकं वेत्यनेन च पक्विजातिकज्जति-(णाणही पच्छक) —णाणिहित्ति, 'जदा कोपि साहू रुद्दिष्टा, शूकरजातिकमित्यनेन चतुष्पदजातिरिति । अप्रपिण्डे अज्झयणं, सुतं,खधं, अंग वा अहिजति,बग्घारिययास पडति, वा काकपिएड्यां वा बहिकिप्तायां वायमाः संनिपतिता भवे. साहे सो बग्धारिए विहिमति। अहवा-वृहाबू अपहियासोव युः,ताँश्च एप्रितस्ततः सति पराक्रमेऽन्यस्मिन्मार्गान्तरे संयतः पारि हिंडह,पते तिष्ठि बग्धारिते संतरुत्तरा हिमंति, संतरुत्त सम्यगुपयुक्तः, संयतामन्त्रणं वा, ऋजु तदनिमुखं न गच्छेत् । रस्य व्याख्या पूर्ववत् । अहवा-श्ह संतरं जहासत्तीय चरस्थ. यतः तत्र गच्छतोऽन्तरायं भवति, तेषां चान्यत्र संनिपतितानां माद। करैति, उत्तरमिति बालसुत्तादिएण अमेति च । वधोऽपि स्यादिति । प्राचा० २ १० १०६ उ०। संजमखेत्तचुयाणं, णाणहि तवस्सि अणहियासी य । (२४) साम्प्रतं गृहपतिकुलं प्रविष्टस्य साधोविधिमाह गां मुह्यमानां दृष्ट्वा न गच्छेत्भासज्ज भिक्खकानं, उसूरकरणेण जतियव्वं निचू०१००० से निक्खू वा निक्खुणी वा गाहावइ० जाव पविसितु(२१) प्रवेशः कामे सेजं पुण जाणेजा-खीरािणिश्राओ गावीश्रो मामि न गच्छेना, गोयरग्गगओ मुणी । खीरिज्जमाणीओ पहाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा कुलस्स नूमि जाणित्ता, मियं नूमि परकमे ॥॥ साइम वा उवखडिज्जमाणं पहाए पुरा अप्पजूहिए सेवं भतिमि न गच्छेत् अननुज्ञातां गृहस्थैः, यत्र अन्ये निकाचरा, णचा णो गाहावश्कुलं पिमवायपमियाए णिक्खमेज्ज बा, नयान्तीत्यर्थः । गोचराप्रगतो मुनिः। अनेनान्यदा तम्मनासं. प्रवमाह-किता , कुलस्य नूमिमुत्तमादिरूपामवस्थां ज्ञात्वा पविसेज्जवा। मिता मि तैरनुकातां पराक्रमेत् , यत्रैषामप्रीतिर्नोपजायत इति स भिक्षुहपतिकुलं प्रवेष्टुकामः सन्नथ पुनरेवं विजानीयात् । सूत्रार्थः ॥ २४॥ यथा-कीरिपयो गावोऽत्र दुह्यन्ते,ताश्च उधमानाःप्रेक्ष्य,तथाsविधिशेषमाह-- शनादिकं चतुर्विधमप्याहारमुपसंस्क्रियमाणं प्रेक्ष्य, तथा (म. प्पजूहिए त्ति ) सिकेऽप्योदनादिके पुरा पूर्वमन्येषामदत्ते स. तत्थेव पडिहिज्जा, मिनागं वियक्खणो। ति प्रवर्तनाधिकरणापेक्षी पूर्वत्र च प्रकृतिभद्रकादिः कश्चिद्यसिणाणस्स य वच्चस्त, संलोगं परिवजए ।। २५ ।। ति रमा श्रद्धावान् बहुतरं दुग्धं ददामीति वत्सकपीमां कुर्यात्, तत्रैव तस्यामेव मितायां भूमौ प्रत्युपेकेत सूत्रोक्तेन विधिना असेयुर्वा दुह्यमाना गावः,तत्र संयमात्मविराधना, अर्द्धपकीदने भूमिजागमुचितं भूमिदेशं विचकणो विद्वान् । अनेन केवला. पाकाथै त्वरयाऽधिकं यत्नं कुर्यात, ततः संयमविराधना इति, गीतार्थस्य भिक्षाटनप्रतिषेधमाह-तत्र च तिष्ठन् स्नानस्य, तदेव शात्वा स निगृहपतिकुलं पिरमपातप्रतिक्रया न प्रवितथा वर्चसः विष्ठायाः संलोकं परिवर्जयेत् । एतदुक्तं प्रवति शेन्नापि निष्कामेदिति।। स्नानमूमिकायिकादिभूमिसंदर्शनं परिहरेत् प्रवचनमाधवप्रस यच कुर्यात्तदंशयितुमाहभाव, अप्रावृतस्त्रीदर्शनाच रागादिभावादिति सूत्रार्थः ॥ २५ ॥ सेतमायाए एगंतमत्रक्कमित्ताश्मणावायमसंलोए चिटेजा। किच प्रह पुण एवं जाणेज्जा-खीरिणीयो गावीश्रो खीरिदगमट्टियायाणे, बीयाणि हरियाणि य । याओ पेहाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परिवज्जतो चिट्ठजा, सब्बिंदिसमाहिए ॥ २६ ॥ । उवक्खडियं पेहाए पराए जूहिते,स एवं णचा तो संसदकमृत्तिकादानम्, आदीयतेऽनेनेत्यादानो मार्गः । उदकमृ. त्तिकानयनमार्गमित्यर्थः। वीजानि शाठ्यादीनिच,हरितानिर्वा जतामेव गाहावतिकुलं पिमवायपमियाए पविसेज्ज बा, दीनि, चशब्दादन्यानि च सचेतनानि, परिवर्जयस्तिष्ठेदनन्तरो निक्खमेज्ज वा, निक्खागाणामेगे एवमासु समाणे वा व. दिते देशे सर्वेछियसमाहितः शब्दादिजिरनाक्किप्तचित्त इति समाणे वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे-खुडाए खलु अयं गासूत्रार्थः! दश०५१०१3०। मे समिरुकाए णो महालए,से हंता ! जयंतारो बाहिरगा(२३) काकादीन् संनिपतितान् प्रेक्ष्य न गच्छेत् । णि गामाणि जिक्खायरियाए यह, सति तत्येगतियस्स से निक्खू वा निक्खुणी वा० जाव समाणे सेज पण भिक्खुस्स पुरे संथुया वा पच्छा संयुया वा परिवसति, तं २४७ Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६) गोयरचरिया अनिधानराजेन्द्रः। गोयरचरिया जहा-गाहावती वा गाहावणीनो वा गाहावतिपत्ता वा ज्य सचावचेभ्यः सामुदानिक भिकापिण्डमषणीयमुझमा दिदोषरहितं वैषिकं केवलवेषावाप्तं धात्रीदतनिमित्तादिपिगाहावइधूयानो वा गाहावइसुहाओ वा धाईतो वा | एडदोषरहितं पिएपातं जैक्षं प्रतिगृह्य प्राघूर्णकादिनिः सह दासा वा दासीओ वा कम्मकरा वा कम्मकरीत्रो वा तह प्रासैषणादिदोषरहितमाहारमाहारयत्, तत्तस्य निकोःसामध्यं प्पगाराई कुलाई पुरे संयुयाणि वा पच्छा संथुयाणि वा संपूर्णो निकुनाव इति। आचा०२ श्रु० १ ०४०। पुन्वमेव जिक्खायरियाए अणुप्पविसिस्सामि, अवि य इत्य [२५] गृहावयवानालम्व्य न तिष्ठेत् , नवाऽङ्गत्यादि लभिस्सामि पिमं वा लोयं वा खीरं वा दधिं वा नवणी दर्शयत्यं वा घयं वा गुलं वा तेवं वा महु वा मज वा मेसं वा। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव पविछे समाणे णो संकुलिं वा फाणियं वा पूयं वा सिहरिणि वा, तं पुव्वा- गाहावति कुलस्स मुवारसाहं अवलंबिय अवलंबिय चिढेमेव नुच्चा पेचा पमिग्गहं संलिहिय संपमन्जिय तो पच्छा जा, णो गाहावतिकुलस्स दगडणमत्तए चिडेज्जा, णो भिक्खुहिं मकिं गाहावइकुलं पिमपायपडियाए पविसि- गाहावतिकुलस्स बंदणिनदयं पविढेजा, णो गाहावतिकुस्सामि वा,निक्खमिस्सामि वा,माझ्हाणं सफास,ना एव करे- सस्स सिणाणस्स वा बच्चस्स वा संलोए सपमिदुवारे चिट्टेबजा, से तत्थ भिक्खूाहिं सकि कालेण भणुपविसित्ता ज्जा, णो गाहावतिकुलस्स आलोयं वा थिग्गलं वा संधि तस्थितरेयरेहिं कुलेहिं समुदाणियं एसियं वसियं पिंमवायं वा दगभवणं वाहाउ पगज्जिय पगज्जिय अंगुलियाए वा पमिगाहेत्ता आहारं पाहारेज्जा, एयं खलु तस्स भिक्खुस्स उद्दिसिय नदिसिय डामिय उपसमिय णिज्झाएज्जा, यो रा जिक्रतुणीए वा सामग्गियं ॥ गाहावंति अंगुलियाए उद्दिसिय उद्दिसिय जाएज्जा,णो [से तमादायेत्यादि] स भिक्षुस्तमर्थ गोदोहनादिकमादाय गाहावति अंगुझियाए चानिय चालिय जाएज्जा,णो गाहागृहीत्वाऽवगम्येत्यर्थः । तत एकान्तमपक्रम्य च गृहस्थानामना वति अंगुलियाए तज्जिए तज्जिए जाएज्जा, पो गाहावर्ति पाते असंलोके च तिष्ठत्,तत्र तिष्ठन्नथ पुनरेवं जानीयाद् । यथा- अंगुलियाए उग्सपिय उखुडंपिय जाएज्जा, णो गाहावई कीरिपयो गावो दुग्ध इत्यादि पूर्ववद् व्यत्ययेनालापका नेपा बंदिय बंदिय जाएज्जा, णो वयणं फरुसं वदेज्जा ।। बावन्निष्कामेत्प्रविशेद्वति। पिण्डाधिकार पवेदमाह-"भिक्खागेत्यादि" भिक्षणशीमा भिक्कुका नामैके साधवः केचन एवमुक्तव. “से मिक्ख वेत्यादि।" स भित्रिकाथै गृहपतिकुलं प्रविष्टः सम्झैतत् कुर्यात् । तद्यथा-नो गृहपतिकुलस्य द्वारशाखामवलम्तः किंभूतास्ते इति ,प्राह-समाना ति जलाधलकीणतयैकस्मिन्नेव के तिष्ठन्तः, तथा बसमाना मासकल्पविहारिणः, त म्याऽवलम्ब्य पौनःपुन्येन नृशं वा अवलम्य च तिष्ठत् । यतःसा पवंभूताःप्राघूर्णकान् समायातान प्रामानुग्रामं दूयमानान् गच्छ जीर्णत्वात्पतेत,दुप्रतिष्ठितत्वाद्वा चत,ततमसंयमात्मविराधत एवमूचुः । यथा-कुल्लकोऽयं प्रामोऽल्पगृहभिक्षादौ वा, तथा नेति। तोदकप्रतिष्ठापनमात्रके सपकरणधावनोदकप्रक्षेपस्थासंनिरुद्धः सूतकादिना, नो महामिति पुनर्वचनमादरल्यापनार्थ ने प्रवचनजुगुप्सानयान तिष्ठत् । तथा (बंदणिउदयं ति) पाचम, मतिशयेन कुल्लक इत्यर्थः। ततो "हन्ता!" इत्यामन्त्रणं यूयं मनोदकप्रवाहनूमौ न तिष्ठेत । दोषः पूर्वोक्त एव । तथा स्नानवजवन्तः पूज्याः बहिग्रामेषु निक्काचर्यार्थ बजतेत्येवं कुर्यात् । यदि बःसंसोके,तत्प्रतिद्वारं वान तिष्ठताएतदुक्तं भवति-यत्र स्थितः स्नानघर्चःक्रिये कुर्वन् गृहस्थः समवाक्यते,तत्रन तिष्ठेदिति। वा तत्रैतस्य वास्तव्यस्य भिक्कोःपुरः संस्तुताः प्रातृव्यादयः पश्चात् संस्तुताः श्वशुरकुलसंबकाः परिवसन्ति,तान् स्वनाम दोषश्चात्र दर्शनाऽऽशङ्कया निःशङ्कतक्रियाया अन्जावेन निरोधप्रोग्राहमाद । तद्यथा-गृहपतिर्वेत्यादि सुगमस, यावत्तयाप्रकाराणि पसंभव इति । तथा नैव गृहपतिकुलस्याऊलोकस्थानं गवाका. कुलानि पुरः पश्चात्संस्तुतानि पूर्वमेव जिक्षाकालादहं तेषुनिक्षार्थ दिकम (थिम्गलं ति) प्रदेशपतितसंस्कृतम, तथा (संधिति) प्रवेच्यामि, अपि चैतेषु स्वजनादिकुरवाभिप्रेतं लाभ लप्स्ये,तदेव चौरस्नातं नित्तिसन्धि घा, तथोदकभवनमुदकगृह, सर्वाएपप्ये. दर्शयति-पिण्डं शाल्योदनादिक,(लोयमिति) इन्द्रियानुकलर तानि शुजं परिगृह्य पौनःपुन्येन प्रसार्य,तथा अङ्गाल्योदिश्य,तथा साधुपेतमुच्यते, तथा कीरं वेत्यादि सुगम, यावत "सिहरिणी कायमवनम्योत्रम्य च,ननिध्यापयेन्न प्रलोकयेत नाप्यन्यस्मै प्रदबेति' नवरं मद्यमांसे छेदसूत्राभिप्रायेण व्याख्येये। अथवा-क शयेत् । सर्वत्र द्विवचनमादरस्यापनार्थम् । तथाहि-तत्रहित. श्चिदतिप्रमादावष्टब्धोत्पन्नगृध्नुतया मधुमासाद्यप्यनीयादतस्त नष्टादौ शङ्कोत्पद्यतेति । अपि च-"नो गाहावईत्यादि "।स सुपादानम् । (फाणिय त्ति) सदकेन द्राकृतो गुरुः कथितो वा, निकुडपतिकुल प्रविष्टः सन्नैव गृहपतिमहल्याऽन्यार्थमुद्दिश्य शिस्त्ररिण। मार्जिता, तम्बम्धं पूर्वमेव भुक्त्वा , पेयं च पीत्वा तथा चालयित्वा, तथा तर्जयित्वा जयमुपदर्य, तथा कण्डयन पनग्रहं संलिह्य निरवयवं कृत्वा,समृज्य च वस्त्रादिनाऽऽता कृत्वा, तथा गृहपति वन्दित्वा वाग्भिः स्तुत्वा प्रशंस्य,नो याचेमपनीय, तनः पश्चापागते भिक्षाकाले विकृतवदनः प्राघूर्ण ताप्रदत्ते च नैव तद्गृहपति परुषं वदेत्। यथा-यकस्त्वं परगृहं कनिकुभिः साई गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिझया प्रवेक्ष्यामि, रक्कसि.कतस्ते दानवातव,जद्रका जवतोन पुनग्नुष्ठानम,अपिच निष्कामध्यामि घेन्यभिसन्धिना मातृस्थानं संम्पृशेदसावि मकरद्वयमेतरि-नास्ति नास्ति यदुच्यते, तदिदं देहि दद्दीति त्यतः प्रतिषिध्यते, नैवं कुर्यादिति । कथं च कुर्यादित्याह-(से विपरीतं भविष्यति । प्राचा०२ श्रु.१०६ 101 अन्यच्चतत्यत्यादि ) स भिस्तत्र प्रामादौ प्राघूर्णकनिक्षुभिः साई काजेन मिकाऽचसरेण प्राप्तेन गृहपतिकुलमनुप्राविश्य तत्रेतरे अम्गन फनिहं दारं, कवाम वा वि संजए। Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयरचरिया अवसंविया न चिट्टिज्जा, गोयरग्गगो मुणी ॥ एए ॥ अर्गलं गोपादादिसंबन्धिनं, परिघं नगरद्वारादि संबन्धिनं द्वारं शाखामयम, कपाटं धारयन्त्रं वाऽपि संयतः, अवलम्ब्य न तित धनादोषात गोव निकाि मुनिः संयत इति पर्यायी पदेशाधिकारादावेवेति सूत्रार्थः । उक्ता द्रव्ययतना ॥ ६ ॥ भावयतनामाह सममा वाचि किविणं वा बीम संकर्म भराडा, पाणट्ठा एवं संजय ।। १० ॥ अमयं निर्वग्यादिरूपं ब्रह्म विवापि कृपया प एमोलकं, वनीप, पञ्चानामप्यन्यतमम् उपसंकामन्तं सामीप्येन गच्छन्तं गतं वा भक्तार्थ पानार्थ वा संयतः साधुरिति पार्थः ॥ १० ॥ सममित न पविसे न वि पि चलुगोरे । एंगतमवकमित्ता, तत्थ चिट्टिज्ज संजए ॥। ११ ॥ (1/50) अभिधानराजेन्द्रः । तं श्रमणादिमतिक्रम्यलय न प्रविशेत, दीयमाने च समुदाने तेभ्यो न तिष्ठेच्चकुर्गोचरे । कस्तत्र विधिरिति ?, श्रादएकान्तमवक्रम्य तत्र तिष्ठेत संयत इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ अभ्यथैते दोषा इत्याद वणीमगस्स वा तस्स दायगम्सुजयस्स वा । अप्पत्तियं सिया होज्जा, लदुषं पत्रस्वा ॥ १२ ॥ नीपकस्येत्येतच्मणाद्युपलकणं, दातुर्वा, उभयोर्वा अप्रीतिः कदाचित्यात्मकतेतेषामिति लघुत्वं वनस्प का उत्तरायदोषखेति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ तस्मान्नैवं कुर्यात, किंतुपमिसेहिए दिने वा, तो तम्मि नियत्तिए । नवसंकामज्ज जन्तट्ठा, पाथद्वार व संजय ॥ १३ ॥ प्रतिषिद्धे वा दत्ते वा ततः स्थानान्तस्मिन्वनोपकादौ निवचिंते सति उपसंकामेकार्थ पानार्थ वाऽपि संवत इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ दश० ५ ० २८० । (२६) श्रगार्या सह न तिष्ठेत् वासावासं पज्जोसवियाणं निग्र्गयस्स गाहावइकुलं पिंमबायपमियाए० जान जागति, तत्य नो कप्पड़ एगस्स निथस एगार गारीए एगो चिट्ठित्तए, एवं जंगी, अत्थि इस्व के पंचमे येरे वा थेरिया वा असि वा संलए सपमिदुवारे, एवं से कप्पर एगय चित्तिए, एवं चैव निग्गंथीए अगारस्स य भाणि - यव्यं ॥ ३५ ॥ चतुमर्कस्थितस्य साधोः खनियाव पागन्तुं तत्र नो कल्पते एकस्य साधोः एकस्याः श्राविकाया एकत्र स्थातुम, एवं चत्वारो भङ्गाः, यदि स्यात् श्रत्र कोऽपि पञ्चमः स्थविरः स्थविरा वा साक्षीभवति, तदा स्थातुं क पते मन्येषां वा दृष्टिविषयः, बहुद्वारसहितं वा स्थानम एवं कल्पते एकत्र स्थातुम, पवमेव साध्याः गृहस्थस्य च चतुङ्गी बाच्या, तथा एकाकित्वं च साधोः साङ्घाटिक उपोषिते असु गोयरवरिया खिते वा कारणाद्भयति, अन्यथा हि उत्सर्गतस्तु साधुरात्मना द्वितीयः साध्यस्तु ज्यादयो विहरन्ति ॥ ३६ ॥ कल्प० कण (एलुको देहली, तस्मात्परतो न प्रवेष्टव्यमिति 'सुग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ४ पृष्ठे उक्तम् ) ज्जा, (२७) मानादिकं प्रविशेसेनिक्खू वा भिक्खुणी वा० जाव समाणे सेज्जं पुष जायेज्जा-समर्थ वा माइ वा मामपिमोलगं वा प्रतिि वा पुचि पेहाएको तेर्सि संझोए सपाकेवल या आयाणमेतं पुरा पेहाए तम डाए परो वूया - असणं वा पाया वाइमं वा साइमं वा आदरूपज्जा, ग्रह भिक्खू णं पुण्त्रोत्रादिट्ठाए सपतिठाए सहेउए सकारणं एसो जंणो ते में संलोए सपमिवारे चिट्ठेज्जा, से माता का प्रवकम्म अणावामसंलोए चिट्ठेजा 2, से परो अणावायमसंलए चिट्ठेमाणस्स असणं बा० ४ दलजा, सेवं पदेना आउथे ! समया इमे मे असणं वा० ४ 1 सितं जह चां परिचाए चां समालि पभिगाचा तुतिलामो उवेज्जा, अवियाई एवं मममेव सिया, एवं माइट्ठासंकासे, जो एवं करेजा से तमाताएं कस्य गच्छेजा, से पुम्पामेव आलोपना आउदो समया इमे ने असणे त्रा० ४ सव्वजणाए सिट्टा, तं अंजह चां, परिजाएह च णं, सेवं वदतं परो वदेज्जा आउसंतो ! समा ! तुमं चेत्र णं परिजाएहि, से तत्थ परिजाएमाणे णो प्रपण २२ मई २ रसिये २ दिं २ लुक्खं २, से तत्थ अमुच्चिए अगि गढिए अथक्कोचनये बहु सममेव परिजाएजा से परिजाएमाणं परो वदेज्जा आउसंतो ! ममला ! माणं तुझं परिनाहि, सन्धे वेगतिया जोक्खामो वा, पेड़ामो वा, से तत्व हुंनमाणो यो अप्पो ख ख० जान क्ले से तत् मुछिए ४ पटु सममेव मुंजे पा पीएज्ज वा ॥ 9 २ - णं [ से भिक्खू वेत्यादि ] स भिक्षुग्रमादौ भिक्कार्थी प्रविष्ट यदि पुनरेवं विजानीयात् गृहे श्रमणादि पूर्वप्रत्रिष्टं प्रेया दातृप्रतिग्राहिकासमाधानान्तरायभयान्न तदा लोके भिद्वारं प्रतिमाह का समाधाना नाव किन्तु तं भ्रमणादिकं मिार्थमुपसंस्थि समादायान्कामकामे अकस्य चान्येषां चामापा विजने असंलोके च संतिष्ठेत । तत्र च तिष्ठतः स गृहस्थः (से) शस्य निर्वाहारमात्या प्र " यथा यूर्व बहवो भिकार्यमुपस्थिताः व्याक हारं विभजयितुमक्षम, अतो हे आयुष्मन् ! श्रमणाय श्राहारश्च तुर्विधेऽपि ते युष्मभ्यं सर्वजनार्थे मया निसृष्टो दत्तः, तत्सास्तं स्वयच्या तमादारमेण वा भुवं परिवाद Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) गोयरचरिया अभिधानराजेन्द्रः। गोयरचरिया प्रज्य पा गृहीतेत्यर्थः। तदेवविध आहार उन्मार्गतो न ग्राह्यो, यवस्थितः पृच्छति-विद्यते किंजिकावेलाऽत्र प्रामे, उतन। दुर्भिक्षे वा अश्वानर्निर्गतादौ वा द्वितीयपदे कारणे सति कान् पृच्छति !, अत आह-तरुणं मध्यम स्थविरम । एकैकस्य गृहीयात्, गृहीत्वा च नैवं कुर्यात् । तद्यथा-तमहारं गृहीत्वा तू-| विद्ध्यान्नव पृच्छाः कर्तव्याः, यथा अधस्तात् प्रतिपादिताः ष्णीका गच्चन्नवमुत्प्रेक्षेत । यथा-ममैवायमेकस्य दत्तः, अपि तथैवात्रापि न्यायः । अत्र तरुण स्त्रीनपुंसकम, मध्यम श्रीबाऽयमरूपत्वान्ममैवैकस्य स्यात् । एवं चमातृस्थानं संस्पृशेदतो पुनपुसक, स्थविर खीपुनपुंसकमिति ॥२॥ मैवं कुर्यादिति । यथा च कुर्यात्तथा दर्शयति-स निचुस्तमाहा. एवं पृष्ठा यदि तत्र भिक्षावेला ततकणमेव, ततः को रंगृहीत्वा तत्र श्रमणाद्यन्तिके गच्छेत् । गत्वा च स पूर्वमेवादा विधिरिति !, अत पाहबेब तेषामाहारमालोकयेद्दर्शयेत् । इदं च ब्रूयात् । यथा-भोपायु- पायपमज्जण पमिले-इणा य भाणदुग देसकालम्मि । मन्तः श्रमणादयः! अयमशनादिक माहारो युप्मभ्यं सर्वजना- अप्पत्ते चिय पाए, पमज्ज पत्ते य पायजुगं ।। ६३ ॥ र्थमविभक्त एव गृहस्थेन निसृष्टो दत्तः। तत् ययमेकत्रनुञ्जध्वं| तत्राहि प्रामान्ते उपविश्य पादप्रमार्जनं करोति, किं कारणवा, विनजनं वा, 'से' अथैनं साधुमेवं युवाणं कश्चिच्छ्रमणादि. म?,तत्पादरजः कदाचित्सचित्तं कदाचिम्मिश्रं लग्नं जवेत, प्रामे रेवं धूपात-यथा भो आयुष्मन् ! श्रमण ! त्वमेवास्माकं परिजा च नियमादचित्तं रजः, अतः प्रमार्जयति, पुनश्च प्रत्युपेक्षणं कजय, नैवं तावत् कुर्यात् । अथ सति कारणे कुर्यात् , तत्रानेन रोति, पात्रद्वितयस्य-पतग्रहस्य, मात्रकस्य च एवं देशकावे विधिनेति दर्शयति-स निक्षुर्विभाजयन् प्रात्मनः खद्धं खद्धं भिकावेलायां प्राप्तायां करोति । अथाचापि न भवति निकाकाप्रचुरं प्रचुर (डायं ति) शाकम (ऊसदंति) सत्सृतं वर्णा- लमततः तस्मिन्नप्राप्त निकाकाले पादौ प्रमार्जयन् तावदास्ते,यादिगुणोपेतम् । शेष सुगमम् । यावदक्तमिति न गृह्णीयादिति । वत् भिकाकामःप्राप्तः,ततस्तस्मिन् प्राप्ते सति तस्यां बेलायांपाअपि च-भिकुस्तकाहारे प्रमूचितोऽगृशोऽनारतोऽनध्युपपन्न अद्वितयं प्रत्युपेक्कते । एवमसौपावद्वितयं प्रत्युपेक्ष्य प्राम प्रविश्त्येतान्यादरण्यापनार्थमेकाथिकान्युपात्तानि कथञ्चिन्दाद् शन् कदाचित् श्रमणादीन् पश्यति, ततस्तान् पृच्चति । व्याख्यातव्यानीति (बहुसममिति) सर्वमत्र समं किञ्चित्सि एतदेवाहक्यादिना यद्यधिकं भवेदिति, तदेवं प्रभूतसमं परिजाजयेत् । समणं समणिं सावय, साविय गिहिअन्नतिथि वहि पुच्छे। तं च साधुं परिभाजयन्तं कश्चिदेवं ब्रूयात् । यथा-आयुष्मन् ! भ्रमण ! मा त्वं परिजाजय,किंतु सर्व एव चैकत्र वयं भोक्ष्या अत्थिह समण सुचिहिया, सिढे ते सालयं गच्छे ॥६॥ महे,पास्यामो वा तत्र परतीर्थकैः साईन भोक्तव्यम्, स्वयथ्यै श्रमणं श्रमणी श्रावक श्राविकां गृहस्थम् अन्यतीर्थिकं पा पार्श्वस्थादिभिः सह सांभोगिकैः सहोपासोचनां दत्वा तु बहिर्टष्ट्वा पृष्चति, पताननन्तरोक्तान् सर्वान् दृष्टाऽऽपृच्च यत्र जानानामयं विधिः। तद्यथा-नो आत्मन इत्यादि सुगममिति । सन्ति श्रमणाः, किं विशिष्टाः, शोभनं विहितमेषामिति शोभ[२७] महानन्तरस्त्रे पहिरालोकस्थान निषिक, सांप्रतं तत् नानुष्ठानाः, ततश्च एतेषामन्यतमेन कथिते सति ततस्तेषामेव प्रवेशप्रतिषेधार्थमाह-ग्रामपिण्डोलकादि प्रविष्टं रष्ट्रा श्रमणादीनामालयमावासं गच्छेत् । से भिक्खू वा निक्खुणी वाजाव समाणे सेज्जं पुण जाणे ततस्तेषामालयं प्राप्य किं करोति !, श्त्यत आहज्मा-समणं वा माहणं वागामपिमोलगंवा अतिहिं वा पुग्य समणुमेसु पवेसो, बाहि ठवेऊण अन्ने किकम्मं । पविढे पेहाए को तेस्रो वातिकम पविसेज्ज वा, भासेज्ज वा, खग्गुढो संतेमुं, उवणा जच्छोज वंदणयं ॥६५॥ से तमायाए पगंतमवक्कमेज्जा, अणावायमसंसोए चिट्ठज्जा, यदि दि तत्र समनोझा एकसामाचारीप्रतिबद्धाः, ततस्तेषां मध्ये प्रविशति । अथान्ये अमनोज्ञा भवन्ति, ततोबाह्यत सपकभह पुण एवं जाणेज्जा-पमिसेहिए वा दिन्ने वा ततो तम्मि रणं स्थापयित्वा प्रविश्य कृतिकर्म द्वादशावते बन्दनां ददापियट्टिते संजतामेव पविसज्ज वा, अवभासेज्ज वा, एवं ति । अथ तेऽसंविळपाक्तिका अयममा नवन्ति, ततो बहिर्व्यवखलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं ॥ स्थित एव वन्दनां कृत्वा भवाधां पृच्छति । अथ ते संविझपा[से निक्खू वेत्यादि ] स निर्भिक्षार्थ ग्रामादौ प्रविष्टः सन् क्षिका अवमन्ना जयन्ति, श्रथ ते अवमग्नाः स्वगूढप्रायाः, ततो पदा पुनरेवं विजानीयात् । तद्यथा-पत्र गृहपतिकुले श्रमणादि. बहिरेवोपकरणं संस्थाप्य पुनश्च प्रविश्य तेषाम उच्चोभं वन्दनं करोति ॥६५॥ कः प्रविष्टः,तं च पूर्व प्रविष्टं श्रमणादिकं प्रेक्ष्य, ततो न तान् श्र. गेलएकाइप्रवाहं, पुच्छिय सयकारणं च दीवंतो। मणादीन् पूर्वप्रविष्टानतिक्रम्य प्रविशेत् नापि ततस्थ एवावनाघेत दातारं याचेत । अपि च-स तमादायावगम्यकान्तमपक्रा जयणाए ग्वणकुले, पुच्चइ दोसा अजयणाए ॥६६॥ मेत, अनापातासंसोकेच तिष्ठेत्तावद्यावत् श्रमणादिके प्रतिषिके एवं सर्वेश्वेतेषु अनन्तरोहितेषु समनोकादिषु प्रविश्य ग्लापिपडे वा तस्मै दत्ते, ततस्तस्मिन्निवृत्ते गृहानिर्गते सति ततः नायबाधां पृष्ट्वा स्वकीयमागमने कारणं दीपयित्वा निवेश संयत एवं प्रविशेत, प्रवभाषेत बेति, एवं च तस्य निको सा यतनया मधुरवाक्यलकणया स्थापनाकुलानि पृच्छति, अयमध्यं संपूमा भिक्षुभाव इति । प्राचा०२०१०५ उ० । तनया पृच्छति दोषो वह्यमाणो यतोऽतो यतनया पृच्छति । [संबभिगमननिषेधः 'संखमि' शब्दे वश्यते] पतानि तानि स्थापनाकुलानि[२५] इदानी परप्रामे हिएमनविधिः दाणे अनिगमसले, सम्पत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते । पुरो जुगमायाए, गंतूणं अन्नगामे बाहिरियो। मामाए अवियत्ने, कुलाई जयणाऍ दाएंति ॥ ६७॥ तरुणे मकिम थेरे, एव पुच्छाओ जहा हिडा॥६॥ खगूढप्रायाः स्निग्धमधुराचाहारबम्पटाः, स्वन्नावाद् पक्रापुरतो युगमाचं निरीक्ष्यमाणो गत्वा अन्यप्रामं संप्राप्य बहि- चारा निकाक्षवो वा Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए ) गोयरचरिया अनिधानराजन्यः। गोयरचरिया दानश्राहकः, अभिगमनधारूकः, यस्मिन् कारणे श्रापन्ने प्रवि- दानयेत्पाननोजनं,गृहीति गम्यते । तत्रायं विधिः-अकल्पिक मनेशन्ति तत्कुलम, सम्यक्त्वधरकुलं, मिथ्यात्वकुझं. मामक:-"मा | षणीयं न गृह्णीयात, प्रतिगृह्णीयात् कल्पिकमेषणीयम,एतश्चार्थामम समणा घरं आयंतु" तत्कुलं ( अवियत्तं ) अदानकुलम- पन्नमपि कल्पिकग्रहणं द्रव्यतः शोजनमोभनमप्येतदविशेशीलकुदम् । एतानि कुलानि, ते वास्तव्याः, साधोस्तस्य यत- षेण ग्राह्यमिति दर्शनार्थ सातामुक्तमिति सूत्रार्थः ॥२७॥ नया दर्शयन्ति ॥ ६७॥ आरती सिया तत्थ, परिमामिज भोयणं । तथा चैतानि कुलानि दर्शयन्ति दितिय पमियाक्खे, न मे कप्पर तारिसं ॥ २० ॥ सागारि वणिम सुणए, गोणे पुरमे दुगंजियकुलाई। हिंसागं मामागं, सव्वपयत्वेण बज्नेज्जा ।। ६७ ॥ प्राहरन्ती आनयन्ती निकाम् अगारीति गम्यते, स्यात् कदाचि तत्र देशे परिशादयेत् इतश्चेतश्च विक्विपेत् नोजनं वा पानं वा । सागारिकः शय्यातरः, तद्गृहं दर्शयन्ति, तथा "वणिमत्रो" ततः किमित्याह-ददतीं प्रत्याचक्षीत प्रतिषेधयेत्तामगारीम् । दरिद्रः, तस्य गृहं च दर्शयन्ति, तत्र हि एतदर्थ न गृह्यते- सयव प्रायो नितांददातीति स्त्रीग्रहणम् । कथं प्रत्याचक्षीत?,इत्यत स हि दरिद्रः असति जक्ते लज्जां करोति, यद्वा-यत्किञ्चि- श्राह-न मम कल्पते तादृशं परिशाटनावत,समयोक्तदोषप्रसङ्गात्। दस्ति तहत्वा पुनरात्मार्थ रम्धनं करोति, तथा-श्वा यत्र पुष्टो दोषांश्च भावं च ज्ञात्वा कथयेत् मधुविन्ददादरणादिनति गृहे तश्च, गौर्वा यत्र पुष्टः तच, (पुमे त्ति) पुण्यार्थ यत्र बहु सूत्राथः ॥२८॥ रन्धयित्वा श्रमणादीनां दीयते । अथवा-पूर्णयन् गृहस्थैबहुभि किचस्तश्च प्रदर्शयन्ति,जुगुप्सितं च लिम्पकादि,तच्च, हिंसाकं सौ संमद्दमाणी पाणाणि, वीयाणि हरियाणि य । करिकादिगृहं,तच, 'मामगं' चोक्तम् । एतानि प्रदर्शितानि सर्वप्रयत्नेन परिहर्तव्यानि ॥ ६८ ॥ श्रोघ । प्राचा० । सार्द्धचतु. प्रसंजमकरि नच्चा, तारिसिं परिवज्जए ।।२।। मासकमध्ये साचगव्यूतद्वयप्रमाणां नदीमुत्तीर्य भिक्का गृह्यते । संमदेयन्ती पद्भ्यां समानामन्ती, कानित्याह-प्राणिनो द्वीही०४ प्रका० । (परचक्रेणोपरोधे भिक्षा 'उपरोध'शब्दे न्द्रियादीन्. बीजानि शाल्यादीनि, हरितानि दुर्वादीनि, असंयद्वितीयभागे १०७ पृष्ठे अष्टव्या । समवसरणे भिक्षाद्वारं च मकरी साधनिमित्तमसंयमकरणशीहां, शात्वा तारशीं परिवतत्रैव ए१० पृष्ठे निरूपितम् । केत्रमतिलेखकानां मार्गे जयेत् ददती प्रत्याचकीतेति सूत्रार्थः ॥ २० ॥ लिकाटनं ' मासकप्पविहार ' वक्तव्यतायाम् । श्राचार्यो हि तथारिमतुं न याति शति 'अइसेस' शब्दे प्रथमभागे १७ पृष्ठे साहहु निक्खियित्ता णं, सचित्तं घट्टियाणि य । उक्तम् ) तीर्थकृत उत्पन्न केवलज्ञानदर्शना भिक्षार्थ न पर्य तहेव समणहाए, उदगं संपादिया ।। ३०॥ टन्ति, यतस्तस्यामवस्थायां भिक्काटनेन प्रवचनलाघवसंभपात् । उक्तं च-"देविंद चक्कवट्टी, ममनिया ईसरा तसवरा य । संहृत्यान्यस्मिन् भाजने ददाति, "तं फासुगमवि वज्जए, तत्थ अगिच्छंति जिणिदे, गोयरचरियं न सो अमर" ॥१॥ प्रा० फासुए फासुयं साहरड, फासुए अफासु साहर, अफासुए म०वि०। फासुथ साहर, अफासुए अफासुग्रं साहर, तत्थ जं (३०) आहारे कुछ गोचराटनम फासुग्रं फासुए साहरश, तत्थ वि थेवे थेवं साहर, थेवे सेज्जा निसीहियाए, समावन्नो अगोयरे । चहुयं साहर, बहुए थेवं साहरइ, बहुए बहुअं साहर," पवमादि यथा पिएमनियुक्तौ तथा निक्तिप्य भाजनगतमदेयं अजावगट्ठा भोचाणं, जइ तेणं न संथरे ॥२॥ षट्सु जीवनिकायेषु ददाति, सचित्तमलातपुष्पादि घट्टयित्वा शुयायां वसतौ, नेषेधिक्यां स्वाध्यायभूमो. शय्यैव वाऽसम- संचाल्य च ददाति, तथैव श्रमणार्थ प्रवजितनिमित्तम, उदकं जसनिषेधान्नषेधिकी, तस्यां समापन्नो वा गोचरे कपकादि- संप्रणुद्य भाजनस्थं प्रेर्य ददाति । इति सूत्रार्थः ॥ ३० ॥ गत्रमवादी, अयाचदर्थ शुक्त्वा , न यावदर्थम्, अपरिसमाप्त आगहश्त्ता चमत्ता, आहारे पाणलोयणं । मित्यर्थः । 'ण' इति वाक्यालङ्कारे, यदि तेन भुक्तेन न संस्तरेतू न यापयितुं समर्थः, कपको विषमवेलापत्तनस्थो सानो दितियं पमिश्राइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ३१ ॥ वेति सूत्रार्थः ॥२॥ तथा चावगाह्य उदकमेवात्माभिमुखमाकृष्य ददाति, वर्षासु गृहागणादिनिहितं जलं स्वाभिमुखं कृत्वा दत्ते। तथा चालयित्वा तमो कारणमुप्पन्ने, जत्तपाणं गवेसए। उदकमेव ददाति । उदके नियमादनन्तवनस्पतिरिति प्राधान्य. विहिणा पुवाउनेणं, श्मेणं उत्तरेण य॥३॥ ख्यापनार्थ 'सचित्तं घट्टयित्वेत्युक्तेऽपि' भेदेनोपदानम् । अस्ति ततः कारणे वेदनादावुत्पन्ने पुष्टालम्बनः सन् भक्तपानं गवे. चायं न्यायो यदुत “सामान्यग्रहणेऽपि प्राधान्यख्यापनार्थ जेदेषयेत् अन्वियेत् । अन्यथा सकृद्भुक्तमेव यतीनामिति, विधिना नोपादानम" यथा-ब्राह्मण आयातः,वसिष्ठोऽप्यायात इति । ततपूर्वोक्तेन प्राप्ते भिकाकाले इत्यादिना अनेन च वक्ष्यमाणवक्त- श्वोदकं चालयित्वा श्राहरेदानीय दद्यादित्यर्थः। कि तदित्याहणेनोत्तरेण चेति गाथार्थः ॥ ३ ॥ दश०५ अ०२ उ० । पानभोजनमोदनारनालादि। तदित्थंनूतांददतीं प्रत्याचकीत नि. (३१) अथ ग्रहणविधिमाह राकुर्यात,न मम कल्पते तारामिति पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥३१॥ तत्थ से चिट्ठमाणस्स, आहरे पाणभोयणं । दश०५०१ उ०पं०व०। अकप्पियं न गेपिहज्जा, पमिगाहेज्ज कप्पियं ।। २७॥ (३२) याच्यं वस्तु दृष्टा याचेत, नाऽन्यथातत्र कुलोचितभूमौ, (से) तस्य साधोस्तिष्ठतः सत आहरे। वासावासं पजामवियाणं अत्थेगइयाणं एवं वृत्तपुवं २४८ Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए.) गोयरचरिया अभिधानराजेन्द्रः। गोयरचरिया नवइ-अट्ठो नंते ! गिलाणस्सीसे अवएज्जा-अट्ठो। से| एवमन्नेसमाणस्स, सामन्नमणुचिट्टइ ॥३०॥ पुच्छिन्वे-केवइए णं अहो ?। से वएज्जा-एवइए णं अहो। यो न वन्दते कश्चिद गृहस्थादिः न तस्मै कुप्यत्,तथा वन्दितः गिन्माणस्स, जं से पमाणं वयइ, से य पमाणो पित्तव्बे, । केनचित् नृपादिना न समुत्कर्षेत् । एवमुक्तेन प्रकारणान्वेषमाण स्य भगवदाझामनुपालयतः श्रामण्यमनुतिष्ठत्यस्खएडमिति सूसे अविनवेजा। से अविनवेमाणे लभेजा, से अपमा प्रार्थः ॥ ३०॥ णपने होउ अलाहि इय वत्तव्वं सिया । से किमागु नंते ! । स्वपक्षस्तेयप्रतिषेधमाहएवइएणं अट्ठो गिलाणस्स । सिया णं एवं वयंतं परो वर सिया एगइओ लर्बु, लोनेण विणिगृहइ । जा-पमिगाहेहि अजो!, पच्चा तुमं भक्खसि वा,पाहिसि मा मेयं दाश्यं संतं, दणं सयमायए ॥ ३१ ॥ वा,एवं से कप्पइ पभिगाहित्तए,नो से कप्पा गिलाणनीसाए | स्यात्कदाचिदेकः कश्चिदत्यन्तजघन्यो लन्धोत्कृष्टमाहारं लो. पमिगाहित्तए॥१॥ वासावासं पज्जोसवियाणं अस्थि णं थे | भेनाभिवगेण विनिगूहते, 'महमेव भोये' इत्यन्त प्रान्ताविना राणं तहप्पगाराइं कुलाई कडाई, पत्तियाई, थिज्जाई, वेसा-| छादयति । किमित्यत आह-मा ममेदं भोजनजातं दर्शितं सत् सियाई, संमयाई, बहुमयाई, अणुमयाई जवंति, तत्य से नो रष्ट्वा प्राचार्यादिः स्वयमादद्यादात्मनैव गृहीयादिति सूत्रार्थः३१॥ कप्पा अदक्षु वस्त्तए-"अत्यि ते आजसो ! इमं वा" । से अस्य दोषमादकिमाहु नंते !?,सही गिही गिएहड़ वा,तेणियं पिकुज्जा।१६। अत्तगुरुप्रो बुद्धो, बहुं पावं पकुव्वइ । " वासावासं" इत्यादितः "कुज्जे ति" यावत् । तत्र मुत्तासमो असे होइ, निव्वाणं च न गच्छह ॥ ३॥ (अस्थि त्ति) अस्त्येतत् ‘णमिति' प्राम्वन् (थेराणं ति)। मात्मार्थ एव जघन्यो गुरुः पापप्रधानो यस्य स आत्मार्थस्थविराणाम् (तहप्पगारा ति)तथाप्रकाराणि अजुगुप्सितानि, गुरुः सुब्धः सन् इंद्रभोजने बहु प्रभूतं पापं करोति, मायया कुलानि गृहाणि । किंविशिष्टानि ?, (कमाईति) तैरन्यैर्वा श्रा दारिद्रं कर्मेत्यर्थः । अयं परसोकदोषः । इहलोकदोषमाहवकीकृतानि (पत्तियाई ति) प्रीतिकराणि (थिज्जा ति) पुस्तोषश्च नवति, येन केनचिदादारेणास्य क्षुद्रसस्वस्य तुष्टिः प्रीतौ दाने वा स्थैर्यवन्ति (वेसासियाई ति) निश्चितमत्र कर्तुं न शक्यते, अत एव निर्वाणं च न गच्छति, इहलोक एव लपस्येऽदमिति विश्वासो येषु तानि वैश्वासिकानि, ( स. धृति न लभते । अनन्तप्तंसारिकत्वाद्वा मोक्षं न गच्छतीति सूत्राम्मयाति) येषां यतिप्रवेशः संमतो जवति तानि सम्मतानि थैः ॥ ३२॥ दश.५ अ०२ उ०। (बहूमयाईति) बहवोऽपि साधवः समता येषाम, अथवा (३४) आनाद् याचनमबहूनां गृहमनुष्याणां साधवः संमता येषां तानि बहुमतानि । अह तत्थ कंचि नुंजमाणं पेहाए । तं जहा-गाहावड़यं (भणुमताई ति) अनुमतानि दातुमझातानि, अथवा अणुरपि क्षुल्लकोऽपि मतो येषु सर्वसाधुसाधारणत्वात्, न तु मुखं रष्ट्वा वाजाव कम्मकरिं वा, से पुन्नामेव आलाएज्जा। पाउसो! तिलकं कुर्वन्तीति अनुमतानि अणुमतानि वा जवन्ति । “त त्ति वा मणि त्ति वा दाहिसि मे एतो अपयरंभोयणजास्थ से इत्यादि " तत्र तेषु गृहेषु (से) तस्य साधोः (अदक्खु यं, से सेवं वंदतस्स परो हत्यं वा मत्तं वा दचि वाभायणं ति) याच्यं वस्तु अरचा इति वक्तुं न कल्पते । यथा-हे प्रायु- वा सीतोदकवियडेण वा नसिणोदगवियडेण वा उच्चगेलेज मन् ! इदं २ वा वस्तु अस्ति, इत्यदृष्टं वस्तु प्रधुं न कल्पते इत्यर्थः। (से किमाहुमतेत्ति) तत् कुतो भगवन् ! इति शिष्य वा, पधोएज्ज वा, से पुवामेव आनोएज्जा । आउसो ! त्ति प्रभे, गुरुराह-यतयस्तथाविधाः। (सकृित्ति) श्रद्धावान् गृही वाजगिणि!त्ति वा मा एतं तुम हत्थं वादवि वा भायणं वा मूल्येन गृहीत, यदि च मूख्येनापि न प्राप्नोति तदा स श्रमाति सीतोदगवियदणे वा उसिणोदगवियडेण वा उच्चगेलेहि वा, शयन ( तेणियं पित्ति)चौर्यमपि कुर्यात् । कृपणगृहे तु अरष्टा पधोएहि वा, अभिकंखसि मे दातुं, एमेव दलयाह, से सेंव पि याचने न दोषः ॥ १६ ॥ कल्प०९ कण । वदंतस्स परो हत्यं वा०४ सीओदगवियडेण वा उसिणो(३३) वन्दमानं न याचेत दगवियडेण वा उच्छोसेत्ता पयोश्त्ता पाहव दाएज्जा, इत्थियं पुरिसं वा वि, डहरं वा महबगं । तहप्पगारेणं पुरे कम्मकरेणं हत्येण वा०४असणं वा पाणं वंदमाणं न जाज्जा, नो अणं फरुसं वए ॥ २५ ॥ वा खाइमं वा साइमं वा अफासुयं भणेसणिज्जं. जाव णो खियं घा पुरुषं वाऽपि, अपिशब्दात्तथाविधं नपुंसकं वा, 'महर' तरुणं, महलकं वा वृद्धं वा, वाशब्दान्मभ्यमं वा, वन्द पडिगाइजा॥ मानं सन्तं भड़कोऽयमिति न याचेत, विपरिणामदोषात् । - (अह तत्थेत्यादि ) अथ भिक्षुस्तत्र गृहपतिकुवे प्रविष्टः सन् म्नाद्यनावेन याचितादाने न चैनं परुषं ब्रूयात-वृथा ते बन्द. कञ्चन गृहपत्यादिकं नुजानं प्रेक्ष्य भिक्तः पूर्वमेवालोचयत्नमित्यादि । पाठान्तरं वा-बन्दमानो न यावेत, ललिव्याकरणे यथाऽयं गृढपतिः तद्भार्या वा,यावत्कर्मकरी वा भुते। पर्यालोन, शेषं पूर्ववदिति सूत्रार्थः ।। २६॥ व्य च सनामग्राहमाह । तद्यथा-(पाउसो सि) अमुक इति गृहपतेर्भगिनीत्यामन्ध्य 'दास्यसि मे भस्मादाहारजातादन्यतथा। तरजोजनजातम्' इत्येवं याचेत, तच्च न वर्तते, एवं कर्नु जे न बंदे न से कुप्पे, वंदिनो न समुक्कसे । कारणे वा सत्येवं वदेत-मथ (से) तस्य त्रिकोरेवं बदतो Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए ) गोयरचरिया अभिधानराजेन्द्रः। गोयरचरिया याचमानस्य परो गृहस्थः कदाचिस्तं मात्रं दर्वीभाजनं पा नवेत्. तथाकुर्वाणं च दृष्ट्वैतद्वदेत । तद्यथा-अमुक इति वा नगिशीतोदकविकटेन अपकायेन उष्णोदकविकटेनोष्णोदकेनाप्रा- तीति चेत्यामन्त्र्य मैवं कृथा यद्यभिकाङ्कसि मे दातुम,तत एवं सुकेन त्रिदण्डोद्धतेन पश्चाद्वा सचित्तीभूतेन ( उच्छोलेज त्ति) स्थितमेव ददस्व, अथ पुनः स परो गृहस्थः (से) तस्य भिक्कोसककुदकेन प्रकालनं कुर्यात् [ पहोएज्ज त्ति ] प्रकर्षेण वाह- रेवं वदतोऽपि सूपेण च यावन्मुखेन वा वीजित्वा पाहत्य तथास्तादेावनं कुर्यात, स भिकुर्हस्तादिकं पूर्वमेव प्रकाल्यमान- प्रकारमशनादिकं दद्यात, स च साधुरनेषणीयमिति मत्वान मालोचयेत, दत्तावधानो भवेदित्यर्थः। तच्च प्रकाल्यमानमा- परिगृह्णीयादिति । आचा०२ श्रु० १०७ २० । नि००। लोच्य 'अमुक' इत्येवं स्वनामग्राहं निवारयेत, यथा-मैवं कृथास्त्वमिति । यदि पुनरसौ गृहस्थः हस्तादिकं सचित्तोदकेन [३६] अाधाकर्मिकादिविचार:प्रकाल्य दद्यात, तदप्रासुकमिति ज्ञात्वा न प्रतिगृतीयादिति । इह खल पाईणं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदीणं वा माचा०२ शु०१भ०६००। संतेगतिया सहा भवंति गाहावी वा० जाव कम्मकरी किञ्च वा, तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वं जवति-जे इमे भवंति मदोण्हं तु मुंजमाणाणं, एगो तत्थ निमंतए। मणा जगवंतो सीलमंता वयमंता गुणमंता संजया संचुदा दिज्जमाणं न इच्छेजा, बंद से पडिलेहए ॥३७॥ बंजचारिणो उवरया मेहुणाओ धम्माओ, णो खलु एतेसिं यो जतोः पालनां कुर्वतोरेकस्य वस्तुनः स्वामिनोरित्यर्थः । पकस्तत्र निमन्त्रयेत् तहानं प्रत्यामन्त्रयेत,तदीयमानं नेच्छेमुत्स. कप्पति आधाकम्मिए असणे वा०४ भोत्तए वा, पायत्तए वा. गतः, अपितु छन्दमाभिप्रायम् (से) तस्य द्वितीयस्य, प्रत्युपेक्केत सेज्जं पुण इमं अम्हं अप्पणो सअटाए णिहितं । तं जहानेत्रवक्त्रादिविकारैः, किमस्येदामिष्टं दीयमानं, नवेति?, श्ष्टं चेद्, असणं वा०४ सव्वमेयं समणाणं णिसिरामो, अवियाई वयं गृह्णीयात, न चेन्नैवेति । एवं भुजानयोरभ्यवहाराद्यतयोरपि पच्या वि अप्पणो सअट्ठाए असणं वा०४ वेतेस्सामो, एयोजनीयम, यतो ' जिः'पालने उभ्यवहारे च वर्तत इति सत्रार्थः ॥ ३७॥ यप्पगारंणिग्योसं सोचा णिसम्म तहप्पगारं असणं वा०४ ततः अफासुयं अणेसणिज्जंजाव लाभे संते णोपमिगाहेज्जा ॥ दोएहं तु खंजमाणाणं, दो वि तत्थ निमंतए । [इहेत्यादि ] इहेति वाक्योपन्यासे, प्रज्ञापककेत्रे वा । खलुशदिज्जमाणं पडिच्चेज्जा, जंतत्थेसणियं नवे ॥३०॥ दो वाक्यालङ्कारे, प्रज्ञापकाद्यपेक्षया प्राच्यादौ दिशि सन्ति विद्वयोस्तु पूर्ववव तुजतो तुजानयोर्वाद्वावपि तत्रातिप्रसादेन 'धन्ते पुरुषाः, तेषु च केचन श्रद्धालवो भवेयुः,ते च श्रावकाः प्र. निमन्त्रयेयाताम्। तत्रायं विधिः-दीयमानं प्रतीच्छेत् गृह्णीयात् | कृतिनद्रका वा, ते चामी गृहपतिर्थावत्कर्मकर) वेति, तेषां यत्तषणीयं भवेत्तदन्यदोषरहितमिति सूत्रार्थः ॥ ३८ ॥ चेदमुक्तपूर्व भवत्-णमिति वाक्यालङ्कार, य श्मे श्रमणाः सादश०५०१ उ०। धवो जगवन्तः शीलवन्तोऽष्टादशशीलासहस्रधारिणो प्रतव. (३५) ग्राह्यवस्तूनामत्युष्णग्रहणे विधिः तो रात्रिभोजनविरमणषष्ठपञ्चमहाव्रतधारिणो गुणवन्तः पिसे जिक्खू वा जिक्खुणी वाजाव पविढे समाणे से जे पुण | एमविशुद्ध्यायुत्तरगुणोपेताः संयता इन्जियनोइन्द्रियसंयमवन्तः जाणेज्जा-असणं वा पाणं वा खाइमंवा साइमं वा अच्चुसिणं संव्रता पिहिताश्रवद्वारा ब्रह्मचारिणो नवविधब्रह्मगुप्तिगुप्ताः वा अस्संजए भिक्खुपमियाए सूत्रेण वा विदुरणेण वा ता उपरता मैथुनधात् अष्टादशविकल्पब्रह्मोपेताः, एतेषां च न कल्पते आधाकम्भिकमशनादि भोक्तं, पातुं वा, अतो लियंटेण वा पत्तेण वा साहाए वा साहाभंगेण वा पेहुणेण यदारमार्थमस्माकं निष्ठितं सिद्धमशनादि०४, तत्सर्वमेतत्यः वा पेहुणहत्येण वा चेोण वा चेलकमेण वा इत्येण वा मु-| श्रमणेभ्यो [णिसिरामो ति] प्रयच्छाम । अपि च-वयं पश्चादाहेण वा मेज्ज वा, वीएज्ज वा, से पुच्चामेव आलोएन्जा। स्मार्थमशनाद्यन्यत् वेतयिष्यामः संकल्पयिष्यामो निवर्तयिप्रानसो!त्ति वा नगिणि! त्ति वा माएतं तुमं असणं वा पाणं प्याम इति यावत्, तदेवं साधुरेवं निघाफ ध्वनि स्वत एय वा खाइमं वा साइमं वा अच्चुसिणं मुप्पेण वाण्जाव फूमाहि श्रुत्वाऽन्यतो वा कुताश्चनिशम्य झात्वा तथाप्रकारमशनादि पश्चात्कर्मभयादप्रासुकमनेषणीयं मत्वा लाभे सति न प्रतिवा, वीयाहि चा, अभिकंखसि मे दातुं, एमेव दनयाहिसे सेवं | गृहीयादिति । आचा०२ श्रु० १ अाएउ । वदंतस्स परो मुप्पेण वा० जाव वीयित्ता आहह दलएज्जा, (३७) आकरखन्यादौतहप्पगारं असणं वा० अफासुयं०जाव णो पनिगाहेजा।। जे जिक्ख णवगनिवेसे अयागरंसि वा तवागरंसि सन्नितुहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यदि पुनरेवं विजानीयात्। यथा वा तनागरांसि वासीसागरंसि वा रयणागरांसि वा भत्युष्णमोदनादिकम असंयतो नितुप्रतिझया शातीकरणार्थ सूपेण वा, बोजनेन वा, तालवृन्तेन वा,मयूरपिच्छकृतव्यजनेनेत्यर्थः। बहरागरंसि वा अणुप्पविसित्ता असणं वा पाणं वा खातथा-पत्रेण वा,शाखया,शावाजलेन,पल्लवेनेत्यर्थः। तथा बण,व इमं वा साइमं वा पमिगाहेड, पमिगाहंतं वा साइज्ज॥३७॥ इंकलापेन वा,तथा वस्त्रेण वा वस्त्रकर्णेन वा मुस्खेन वा तथाप्रका- अयं लोह, तं जत्थ उपपज्जति, सो प्रयागारो, तवं, सीसगं, रेणान्यन वा कनचित् (फमेज वेति) मनवायना शीतीकर्यात हिरमं रुप्पयं सुबमां, बहरं रत्नावशेषः पाषाणक, तत्थ जा ग. इस्तादिनिर्बा वीजयत,स जितुः पूर्वमेवालोचयत् दत्तोपयोगो। एहति, तस्स मासलहु, माणादिया य दोसा। Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए ) गोयरचरिया अभिधानराजेन्द्रः । गोयरचरिया अयमाश्आगरा खलु, जत्तियमित्ता य आहिया सुत्ते । । तहव्वे अम्मदव्वे वा कया, सा अत्थेजा, तहव्वं जं चेव घरातो तेसू असणादीणं, गिएहताऽणाश्णो दोसा ।। ११०॥ णीतं, आमदब्व-जं अडवीए कंदचुराणादि सप्पज्जति । पत्थयणं दानं श्मं करेतिमंगले अमंगले वा, पवत्तणणिवत्तणे य थिरमाथिरे। कम्मं कीतं पामि-च्चियं च अच्छेअऽगहणे विगिच्छं । दोसा णिव्विसमाणे, इमे य दोसा णिविट्ठम्मि ॥११॥ कंदादीण व घातं, करेंति पंचिंदियाणं च ॥३२॥ पुढवि ससरक्ख हरिते, सञ्चित्ते मीसए हिए मका । अप्पणो कम्मं ति अम्मं करेंति,अप्पणो वा क्रीणाति, पामिश्चंति सयमेव कोइ गिएहति, तमीसाए अहव अम्मो ॥११२|| उचिएह गेराहति, अएणेति वा अच्चिदंति, अह ण गेएहति पणवगणिवेसे असत्यावहतां सचित्ता पुढवी, अहवा धान स्थयणं, तो विगिच्छति छुहाए, जं अणागादादि परिताविज्जमहिताखतिताए हत्था खरंटित्ता ससरक्खेण वा इत्येण दे ति। अहवा-नुक्खितो कंदादि गेएहति, तत्थ परित्ताणतनिष्फम्म, ज, णवगणिवेसे वा हारियसंजवो सचित्तमीसस्स, तस्थs अहवा-भुक्खितो जं झावगतित्तिरादि घातिस्सति,परितावणामेण सुवमातिते हरिते साहू संकिजति । अहवा कोइ संजतो दिणिप्फमं, तिमु चरिमं । बारमातो णिगच्छमाणाए जो गएहति लुको तसिक्वमि उकामो सयमेव गेराहति । अहवा-साहुणि तस्स श्मे दोसा गाढ़ास्साते अप्लो कोइ गेएहति, तत्थ प्रासंकाए गेरहणकणातिया दोसा, जम्हा पते दोसा तम्हा गवगणिवेससु णो चुपण खउरादि दाउं, कप्पटग देह कोव जह गोणे । गेएहेज्ज। वट्टण प्रमाणयणे, खउरादि वऽसंखडे भोई ॥३२६॥ कारणे गेरहेजा वि चुएणो बदरादियाण, गोरखदिरमादियाण सनरो, जत्तसेसं वा साधूणं दाउं कप्पद्विपहिं पुतणनुभत्तिजगादिपहिं असिवे प्रोमोगरिए, रायडुढे नए व गलप्ले । अमेहि य तदासाए अत्थमाणेहिं आतिजमाणो जे वणे अद्धाणरोहए वा, जतणा गहणं तु गीयत्ये ।। ११३॥ कंदे मूले चाणख उरभत्तसेसं वा । ते भणंति-दिया पूर्ववत् ॥ नि० चू०५ उ०।। मेहि साधूणं, एवं भणते ते परमा रुराणं करेंताणि, ताणि (३८) श्रारण्यकादीनाम दट्ठणं पदोसं गच्छेज्ज, जहा गावो पिंमणिज्जुत्तीप, तेसु वा जे निक्खू प्रारमयाणं वणट्ठयाणं अस्वीजत्ताए पहि बढ़तेसु अमवीनो अयं वा आणेति, खउगदिनोत्ति भारियाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पमि यातिए सह असंखडं नवति, अंतरायदोसा य, जम्हा एव मादि दोसा, तम्हा वणं पविसंताणं णेताण वाण घेत्तव्वं भवे । गाहेइ, पमिगाहंतं वा साइज ॥१३ ।। ___ कारणे तु" जे पारमाणं वणदाणं अमविजत्ताए पयहिणं इ-| भसिवे प्रोमोयरिए, रायढे नए व गेलो। त्यादि"अरगणं गच्छंतीति आरएणगा, वणं ठावंतीति वण अद्धाणरोहए वा, जयणा गहणं तु गीयत्थे ॥ ३२७ ॥ ट्ठा, पारण्या बनार्थाय धावन्तीत्यर्थः । तेसिं जत्तापहियाणं जो (जयण ति) पणगपरिहाणीए जाए चउसई पत्तो तादे सावअसणाती गेएहति,जत्तापर्मिणियत्ताणं असणादिसेसं,खउरादि सेसं गेपदति । नि००१६ उ०। वा, जो गेपहति, तस्स आणादी दोसा, चउरहुं च पच्चित्तं । [३६] उत्सवेषु अमासिकादिषुतणकट्ठाऽऽहारगादी, प्रारमं वणं च कान विहोया। जे भिक्खू वा जिक्रवुणी वा गाहावइकुलं पिकवायपडिअमर्षि पविसंताणं, णियत्तमाणाण तत्तोय ।। ३१॥ | याए अाणपविढे समाणे से जं पुण जाणेज्जा-असणं वा आदिसहातो पुप्फफलमूलकंदादीणि, तेसिं वाणं अडविं| विसंताणं जं संबलं कतं, तो णियत्ताणं जं किंचि चु पाणं वा खाइमं वा साश्मं वा अमिपोसहिएमु वा अएणादी, सेसं कं। कमासिएमु वा मासिएमु वा दोमासिएसु वा तेमासिएमु वा तणकट्ठपुप्फफलमू-लकंदपत्तादिहारका चेव । चाउम्मासिएसु वा पंचमासिएसु वा छम्मासिएसु वा नकसु पत्थयणं वच्चंता, करेंति पविसंत सेसं च ॥ ३२॥ वा उऊसंधीसु वा उऊपरियट्टेसु वा वहवे समणमाहणतणादिहारगा अमवि पविसंता अप्पणो पत्थयणं करेंति, तिाहाकवणवणामग एगाता उक्त तिहिकिवणवणीमगे एगातो उक्खातो परिएसिज्जमाणे सेसं वरियं । पेहाए दोहिं नक्खाहिं परिएसिज्जमाणे पेहाए तिहिं अडविं पविसंताणं, अहवा पत्ते य पमिणियत्ताणं । । उक्खाहिं परिएसिज्जमाणे पेहाए चनहिं उक्खाहिं पजे निक्खू असणादी, पमिच्छते आणमादीणि ।।३२३॥ | रिएसिज्जमाणे पेहाए कुंमीमुहातो वा कसोवातितो वा इमो लो समिहिसमिचयाओ वा परिएसिज्जमाणे पेहाए तहप्पगारं पच्छाकम्ममतीते, णियट्टमाणे य बंधवा तेसिं। असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अपुरिसंतरकर्म अत्थिज्जा तदा सा, तद्दब्वे अमदब्बे य ।।३२४॥ । जाव अणासेवितं अफासुयं अणेसणिज्जंग जाव णो पअमवि पविसंतणं ज संबलं कयं, तं साधूणं दातुं पच्चा अ झिगाहेज्जा, अह पुण एवं जाणेज्जा-पुरिसंतरकर जाव प्पणो अरणं करेति, सणियट्टणे विण घेत्तव्वं, तेसि बंध वा, । प्रासेवितं फासुयं० जाव पमिगाहेज्जा । Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) गोयरचरिया भभिधानराजेन्सः। गोयरचरिया स नाव भिक्षुर्यत्पुनरशनादिकमाहारमेव नूतं जानीयात् । त. चयदि यः कश्चित् श्रमणब्राह्मणातिथिकृपणवनीपकादिरापत. पथा-अष्टम्यां पौषध उपवासादिकः अष्टमीपौषधः स विद्यते ति, तस्मै सर्वस्मै दीयत इति मन्यमानो पुरुषान्तर इति कृतायेषां ते अष्टमीपौषधिका नत्सवाः । तथा अर्द्धमासिकादयश्च, दिविशेषणविशिष्टमाहारादिकं न गृहीयात् । प्रथापि सर्वस्मै न ऋतुसंधिः ऋतोः पर्यवसानम,ऋतुपरिवर्तः त्वन्तरमित्या- दीयते, तथापि जनाकीर्ममिति मन्यमान पवंभूते संस्खमिधिशेष दिषु बहुन् श्रमणब्राह्मणातिथिकपणवनीपकानेक स्मारिपठरगाद न प्रविशेदिति । एतदेव सविशेषणं प्राह्यमाह-"अहेत्यादि" गृहीत्वा फरादिकं ( परिपसिजमाणे त्ति) तद्दीयमानादा- अथ पुनरभूतमाहारादिकं जानीयात् । यथा-दत्तं यत्तेच्या रेण नोज्यमानान् प्रेक्ष्य रष्ट्वा, एवं द्विकादिकादपि पिचरकादू श्रमणादिभ्यो दातव्यमथानन्तरं तत्र स्वत पर तान् गृहस्थान गृहीत्वेत्यायोजनीयमिति। पिठरक एव संकटमुखः कुम्भी (क- तुआनान् प्रेक्ष्य रा माहारार्थी तत्र यायात् तान् गृहस्थान् स्वसोवातितो)पच्छापिटकंवा तस्माद्धि.कस्मादिति, (संति) संनि. नामग्राहमाह । तद्यथा-गृहपतिभार्यादिकं हुञ्जानं पूर्वमेवाऽऽसोकधिौरसादेः सन्नित्यः तस्मावति (परिएसिज्जमाणं पेहार येत् पश्येत् प्रचुं प्रनुसंदिष्टं वा यात्। तद्यथा-आयुष्मनि!भगिति) पवंचूतं पिएमं दीयमानं दृष्ट्वा अपुरुषान्तरकृतादिविश- नीत्यादि दास्यसि मह्यमन्यतरद्भाजनजातमित्येचं बदते साधवे पणमप्रासुकमनपणीयमिति मन्यमानो साने सति न प्रतिगृह्णी- परोगृहस्थ आहुत्याऽशनादिकं दद्यात्। अत्र च जनसंकुलत्वात् सति पादिति । एतदेव सविशेषणं ग्राह्यमाह-"अहेत्यादि" अथ पुनः वाऽन्यस्मिन् कारणे स्वत एव साधुर्याचेत, अयाचितो वा गृदसमिकुरेवंभूतं जानीयात्ततो गृहीयादिति संबन्धः। तद्यथा- | स्थो दद्यात् , तत्मासुकमेषणीयमिति मन्यमानो गृहीयादिति : पुरुषान्तरकृतमित्यादि। प्राचा०२ श्रु०१ १०२ उ०। साम्प्रतं येषु कुलेषुभिक्षार्थ प्रवेएव्यं, तान्यधिकृत्याह- जे भिक्खू वा जिक्रवणी वा० जाव पविढे समाणे से निक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावाकुलं पिंडवायपहि- | से जाई पुण कुलाई जाणेज्जा । तं जहा-नग्गकुलाणि याए अणुपचिढे समाणे से जं पुण जाणेज्जा-असणं वा वा भोगकुलाणि वा राइसकुलाणि वा खत्तियकुलाणि वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा समवाएसु वा पिंडणियरेसु | इक्खागकुलाणि वा हरिचंसकुलाणि वा पसियकुलाणि बा इंदमहेसु वा खंदमहेसु वा रुद्दमहेसु वा मुगुंदमहेसु वा वा वेसियकुलाणि वा गंमागकुनाणि वा कोहागकुलाणि नूतमहेसु वा जक्खमहेसु वा णागमहेसु वा थूभ- वा गामरक्खकुमाणि वा बोकसालियकुलाणि वा अमहेसु वा चेइयमहेसु वा रुक्खमहेसु वा गिरिमहसु वा | मयरसु वा तहप्पगारेषु कुलेषु अदुगुंबिएसु वा अगरहितेसु दरिमहेसु वा अगडमहेसु वा तमागमहेसु वा दहम- | वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा फामुयं एसहेसु वा णदीमहेसु वा सरमहेसु वा सागरमहेसु वा णिज्जंग जाव पमिगाहेज्जा । प्रागरमहेसु वा अम्मतरेसु वा तहप्पगारेसु विरूवरू- "से भिक्खू " इत्यादि ! स निकुर्भिक्षार्थं प्रवेणुकामो यानि वेसु महामहेसु बट्टमाणेसु वहवे समणमाहणअतिथिकि-| पुनरेवंभूतानि जानीयात् , तेषु प्रविशेदिति संबन्धः । तद्यथावणवणीमएम् एगातो उक्खातो परिएसिज्जमाणे पेहाए | उग्रा प्रारक्तिका भोगा राज्ञः पूज्यस्थानीय राजन्याः सखिसं. स्थानीयाः क्षत्रिया राष्ट्रकूटादय इक्ष्वाकव ऋषभस्वामिवंदोहिं० जाव समिहिसप्पिचयातो वा परिएसिज्जमाणे पे शिकाः हरिवंश्या हरिवंशजा अरिष्टनेमिवंशस्थानीयाः (पहाए तहप्पगारं असणं वा०४ अपुरिसंतरक वा जाव सिय त्ति] गोष्ठाः वैश्या वणिजः गएमकाः नापिताः, येहि यो पडिगाहेज्जा,अह पुण एवं जाणेज्जा-दिलं जंतेसिं दा- ग्रामे उद्घोषयन्ति, कोट्टागाः काष्ठतककाः, वर्ककिन इत्यर्थः । यव्वं,अह तत्थ भुंजमाएं पेहाए गाहावतिभारियं वा गाहा- वोकशानियाः तन्तुबायाः, कियन्तो या वक्ष्यन्ते ?, इत्युपसंहर. वतिजगिणिं वा गाहावतिपुत्तं वा गाहावतिधूयं वा मुएहं वा ति-अन्यतरषु वा तथाप्रकारेवजुगुप्सितेषु कुलेषु नानादेश विनयसुखप्रतिपत्यर्थ पर्यायान्तरेण दर्शयत्यगोषु, यदि वाधातिं वादासं वादासिं वा कम्मकरं वा कम्मकरिं वा से पु जुगुप्सितानि चर्मकारकुलादीनि, गह्याणि दास्यादिकुवानि, वि. नामेव आलोएन्जा-आउसे त्ति वा नगिणि त्ति वा दाहि पर्यभूतेषु कुलेषु लज्यमानमाहारादिकं प्रासुकमेषणीयमिति सि मे एत्तो अमायरं भोरणजायं, सेवं वदंतस्स परो असणं मन्यमानो गृहीयादिति । प्राचा०१ श्रु०११०२००। वा०४ाइटु दलएज्जा,तहप्पगार असणं वा०४ सर्यवाणं (४०) इक्ष्वादिखण्डादिजाएज्जा, परो वा से देजा, फासयं० जाव पमिगाहेजा।।] से निक्खू वा निक्खुणीवा से जं पुण जाणेज्जा-अंतरुच्चुयं तथा “से भिक्खू" इत्यादि । स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतमाहारादि- वा उच्चगमियं वा उच्बुचोयगंवा उच्सुमेरुगंवा उच्चुसालगं कं जानीयात तदपुरुषान्तरकृतादिविशेषणम् । अप्रासुकमनेष- वा उच्चमालगं वा संबलिं वा संवलियालगं वा अस्सि गीयमिति मन्यमानो न गृहीयादिति सम्बन्धः । तत्र समनायो खनु पमिग्गहियसि अप्पे सिया भोयण जाए बदु उज्जिमेशकः संखच्छेदश्रेण्यादेः पिएमनिकरः पितृपिएक मृतकभक्तमित्यर्थः । इन्डोत्सवः प्रतीतः, स्कन्दः स्वामिकार्तिकेयस्तस्य यधम्मिए तहप्पगारं अंतरुच्चुयं वा० जाव संवलियालगं महिमा पूजा विशिष्ट काले क्रियते । रुकादयः प्रतीताः, नवरं | वा अफासुयं० जाव णो पमिगाहेज्जा। मुकुन्दो बलदेवः, तदेवंजूतेषु नानाप्रकारेषु प्रकरणेषु सत्सु तेषु "से" इत्यादि । स भियत्पुनरेवंभूतमाहारजातं जा Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४) गोयरचरिया श्रानिधानराजेन्द्रः। गोयरचरिया नीयात् । तद्यथा-(अंतश्यं वसि) इकपर्वमध्यम् । ( उच्छु- मसिदा सचेतना, तथा भर्जितां सकृटकवारं ददती प्रत्यागंमियं ति) सपर्वेक्षुमकलम ( चोयगं) पीलिते कुच्चोदिकं चक्कीत, न मम कल्पते तादृशं भोजनमिति सूत्रार्थः ॥२०॥ [ मेरुगं ति] अग्रम [ सालगं ति ] दीर्घशास्त्रा [ मालगं ति] तहा कोलमणुस्मिन्नं, वेणुयं कासवनालियं । शाखकदेशः [संबलि ति] मुझादीनां विध्वस्तफलिः [सं. तिलपप्पमगं नीम, प्रामगं परिवज्जए ॥२१॥ अतिथालगं ति ] यवादिफलीनां पाकः । अत्रैवंभूते परिगृहोतेऽप्यन्तरिक्ष्वादिकल्पमशनीयं बह परित्यजनधर्मकमि- तथा कोनं बदरम अस्यिन्नं बघुदकयोगेनाऽनापादितधिकाराति मत्वा न गृह्णीयादिति । प्राचा०२ श्रु०१ अ० १०००। तर, बेणुकं बंसकरिवं, कासवनाक्षिकं श्रीपफिलम, अस्विनपरपीमादिप्रतिषेधाधिकारादिदमाद मिति सर्वत्र योज्यम् तिलपर्पट पिटतिलमयम,नीम नीमफल म, आम परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः॥२१॥ नप्पलं परमं वा वि, कुमुथं वा मगदंतियं । तहेव चानलं पिटु, वियर्ड वा तत्तनिव्युम । अन्नं वा पुप्फ सचित्तं, तं च संचुचिया दए।॥ १४ ॥ तिलपिट्ठ पूपिन्नागं, आमग परिवज्जए॥२॥ उत्पलं नीलोत्पलादि, पद्ममरविन्दं वाऽपि, कुमुदं वा गर्दभकं वा, मगदन्तिकां मेत्तिका, मद्धिकामित्यन्ये, तथा-अन्यद्वा तयैव तान्पुलं पिष्ट, लोट्टमित्यर्थः। विकटं वा शुद्धोदक, तप्तपुष्पं सचित्तं शाल्मलीपुष्पादि, तच्च संलुच्यापनीय छित्त्वा, निर्वृतं कथितं सत् शीतीनूतं, तप्तानिवृतम वा अप्रवृत्तत्रिदराम, रद्यादिति सूत्रायः॥ १४॥ तिमपिष्टं तिल लोट्ट, पूतिपिण्याकं सर्षपखसम, भामं परिवर्जये दिति सूत्रार्थः ॥ २२॥ तं भवे भत्त पाणं तु, संजयाणं अकप्पियं । दितियं पमि आइक्खे, न मे कप्पश्तारिसं ॥१५॥ कविढे माउलिंगं च, मूलगं सूत्रवत्तियं । नप्पलं पउमं वावि, कुमुयं वा मगदंतियं । आमं असत्यपरिणयं, मणसा वि न पत्थए ॥२३॥ अन्नं वा पुप्फ सच्चित्तं, तं च संमदिया दए ॥ १६ ॥ कपित्थं कपित्थफलं, मातुलिङ्गं च वीजपूरक, मूलकं सपत्र जालक,मूलवनिका मूलकन्दचक्कलिम्,आमपणकाम,भशस्त्रपतं भवे नत्त पाणं तु, संजयाणं अकप्पियं । रिणतां स्वकायशस्त्रादिनाऽविध्वस्तामः अनन्तकायचात गुरुदितियं पडिआइक्खे, न मे कप्पर तारिसं ॥१७॥ स्वख्यापनार्थमुन्जयम् । मनसाऽपि न प्रार्थयेदिति सूत्रार्थः ॥२३॥ तादृशं भक्तपानं तु संयतानामकल्पिक, यतश्चैवमतो ददती | तहेव फनमंयूणि, बीयमाण जाणिय । प्रत्याचक्कीत-न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ एवं विलगं पियालं च, आमगं परिवज्जए । २४॥ तच्च संमृध दद्यात् । संमर्दनं नाम-पूर्वच्छिन्नानामेवा परिणतानां मर्दनम्। शेष सूत्रद्वयेऽपि तुल्यम्। आह-एतत्पूर्वमप्युक्त तथैव फलमन्थून बदरचूर्णान,बीजमन्थून यवादिचूर्णान झात्वा मेव-"संमहमाणी पाणाणि, वीयाणि हरियाणि य।" इत्यत्र । प्रवचनतो विभीतकं विभीतक.फलं, प्रियाल वा प्रियालफ च, अच्यते-सामान्येन विशेषाभिधानाददोषः ॥१७॥ श्राममपरिणतं परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥२४॥ दश०५ अ०२०। ___ तथा __ उन्मिश्रम्सासुयं वा विरालियं, कुमुयं नष्पक्षनालियं । असणं पाणगं वा वि, खाइमं सामं तहा। मुणालियं सासवनालियं, उच्चुखमं अनिव्वुमं ॥१८॥ पुप्फेसु होज्ज उम्मीसं, वीएसु हरिएमु वा ॥ ५७ ॥ सालूकंवा उत्पलकन्द, बिरालिका पलासकन्दरूपां, पर्ववधि- अशनं पानकं वाऽपि खाद्यं स्वाद्यं तथा पुष्पैर्जातिपाटलादिप्रतिपर्ववलिप्रतिपर्वकन्दमित्यन्ये, कुमुदोत्पलनाली प्रतीतो, भिर्भवेऽन्मिश्रं वीजैहरितैर्वेति स्वार्थः ॥ ५ ॥ तथा मृणालिका पनितीकन्दोत्या, सर्वपनालिका सिद्धार्थकम तं नवे भत्तपाणं तु, संजयाणं अकप्पियं । अरी, तथा इसुखएकम, अनिर्वृतं सचित्तम् । एतवानिवृतग्रहणं सर्वत्राभिसंबध्यत इति सूत्रार्थः ॥ १८॥ दितियं पमियाक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ७ ॥ किंच तादशं भक्तपानं तु संयतानामकल्पिक, यतश्चैवमतो ददती तरुणगं वा पवानं, रुक्खस्स तणगस्स वा। प्रत्याचक्कीत, न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ॥५८॥ दश०५ अ.१ उ० । ( उझमोत्पादनादोषाः स्वस्वस्थाने निरूपिताः) अन्नस्स वा वि हरियस्स, आमगं परिवज्जए ॥१५॥ (४१) साम्प्रतमौषधिविषयं विधिमाहतरुणं वा प्रवालं पल्लवं वृतस्य चिञ्चियिकादेः, तृणस्य वा मधुरतृगादे,अन्यस्य वाऽपि हरितस्याऽऽऽकादो आमम अपरि से भिक्खू वा भिक्खूणी वा गाहावश्कुम्नं पिमवायपमिणतं परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥१५॥ याए अणुपविढे समाणे से जाओपुण ओसहिओ जाणेज्जा- . कसिणाओ सासियाओ अविदमकमाओ अतिरिच्छितरुणियं वा छियामि, आमियं जज्जियं सई। मातो अवोच्छिम्माओ तरुणियं वा विवामि अणनिक्कंदितियं पमिश्राइक्खे,न मे कप्पइ तारिसं ॥२०॥ ताभज्जितं पेहाए अफासुयं अणेसणिज्ज तिमल्ठमाणे लाने सरुणां वा असंजातां (लिवामिमिति ) मुसादिफलिम, मामा-। संते यो पमिगाहेज्जा ।। तथा Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) अभिधानराजेन्द्रः । गोयरवरिया "सेलू यदि " नावपिति प्रविष्टः साः पुनरौषी शालीजादिक एवंभूता जामीयात्तथा क सिणाश्रोत्ति) कृत्स्नाः संपूर्ण अनुपहताः । अत्र च द्रव्यभावायांचा खोपा भाषामा सवित्ताः, तत्र कृत्स्ना इत्यनेन चतुर्भङ्गकेषु श्राद्यं ङ्गत्रयमुपात्तम् । (सासियाओ ति) जीवस्य स्व आत्मीय उत्पत्तिप्रत्ययो यासु ता स्वाश्रयाः, अविनष्टयोनय इत्यर्थः आगमे च कामांचदीनामनिकालः पयते भंते! सालीणं केवायं कालं जोणी संचि‍ १" इत्याद्यालापकाः । निता अनुपा टिता इत्यर्थः। (अतिरिच्छत्ति) तिरश्चीनं विना कन्द श्रीकृताः, तत्प्रतिषेधादतिरश्चीनच्चिन्नाः। एताश्च व्यतः कृत्स्नाः, भावतोसरा न व्यवच्छिन्ना अव्यवच्छिन्नाः, भावतः कृत्स्ना इत्यर्थः तथा [तरुशिवा ] तरुणीपरिपका [] मु फलिम तामेव विधिना [अनियंति अनि जीविकामा सचेतनेत्यि साम वग्नाममनामविचितमित्यर्थः इति प्रे जूनमाहारकमनेषणीयं या मन्यमानः सति न प्रतिगृह्णीयात् । 1 वास्तमेतदेव विषेणाऽऽहसेभिक्खू या भिक्खुणी वा जाव पावडे समाने से गायो पुण ओसीओ जानेका अफसियाओ असासियाओ विकमाओ तिरिच्छा मात्र प्रयोच्चिलाओ त वाचा अतिजविजय पेहाए फासूपं एसणिज्जं ति मममाणे लाभे संते णो पडिगाहेज्जा ।। "से भिक्खूवा" इत्यादि । स एव भावभिकुर्याः पुनरौषधीरेवं जानीयात्। तद्यथा प्रकृत्या संपूर्ण तो भावपूर्व मखाश्रयो विनष्टयोनयः, द्विदलकृता ऊर्द्धपाटिताः, तिरश्चीनछिन्नाः कन्दलीकृताः, तथा तरुणिकां वा फर्नी, जीवितादपकानग्मां चेति तदेवंभूतमहारजातं प्रासुमेषणीयं च मम्य. नो लाभे सनि कारणे गृहीयादिति । प्राप्राविकाराद्वारविशेषमधिकृत्याह सेक्खू वा भिक्खुणी वा० जात्र पविसमाणे से जाओ पुण जपावा जिया या बाउलं वा चाउलपलं वा सई संजंजियं फासूयं समिमा लाने संते यो पनिगान्जा || "से भिक्खू बा" इत्यादि । स जावभिकुर्गृहपति कुलं प्रविष्टः स नू इत्यादि पूर्ववद्यावत् (पियं वत्ति) पृथुकं जातावेकवचनम् । नवस्य शालिव्रीह्यादेरग्निना ये लाजाः क्रियन्ते त इति, बहुरजस्तुपादिकं यस्मिंस्तद्वरा (भजियंति प गोधूमादेः शीर्षकम अन्यद्वा धूमादित मादेर्मन्थं चूर्म, तथा चाउलास्तरमुला : शालिन ह्यादेः, तएव चूर्णीकृतास्तत्कणिका या (पति) तदेवंभूतं पृथुकायादारजातं महदेवारम ( संभज्जियं ति ) आमर्दितं किञ्चिदग्निना किञ्चिदपरशस्त्रेणाप्रा सुकमनेबणीयं मन्यमानो लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् । गोयरचरिया एतद्विपरीतं प्राह्यमित्याह से जिक्खू वा भिक्खुणी वा० जात्र समाने से जं पुष जाज्जा-पिहूयं वा० जात्र चाउलपलं वा असई भाज्जयं दुक्खुतो वा न तितो वा भजिये फासूर्य एसपिज्ज०जाव लाने संते पडिगहिज्जा | " से भिक्खू या" इत्यादि पूर्व म्यादिना कामदार लाने सति गृह्णीयादिति । आया० २ ० १ अ० २४० । (४२) क्रीतप्रायादि सदमे कशाप्रासु मन्यमानो सेभिक्या क्वा० जाव पविडे समाने से जं पुजाज्जा असणं वा पाणं वा साइमं वा साइमं वा अस्सप मियाए एवं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाएं नूताई जी - बाईसचाई समारंभ समुद्दिस की पामि सि अभिदं आए यारं असणं या पार्थं वा खाइ वा साइमं वा पुरिसंतरकर्ड वा अपुरिसंतरकर्ड वाहियानीह वा अणीहमं वा अत्तट्ठियं वा अणतडियं वा परिजुत्तं वा परित्तं वा आसेवियं वा अणासेवियं वा फासूयं वा० जाव णो पनिगाहेज्जा, एवं बहवे साहम्मिया एवं साहम्मिणि बहवे साहम्मिणीओ समुद्दिस्स चचारि प्रभावगा नाशयन्ना ॥ 1 " से मिलू" इत्यादि सतगृहपतिकुलं प्रविष्ट समाज नो प्रतिपादि पडियाए ति ) न विद्यते स्वंयमस्य सोऽयमस्वः, निर्ग्रन्थ इत्यथे कि प्रकृतिक पर्क साधार्मिकं साधुं समुद्दिश्य निस्वोऽयमित्यभिसंधाय प्राणिनो नूनानि जीवाः सवाश्चैतेषां किञ्चिद्भेदात् नेदः तान् समारभ्येत्यनेन मध्यग्रहणात्संम्नसमारम्भा गृहीताः, एतेषां च स्वरूपमिदम्" संकप्पो संरंभो, परियावकरो नये समारंभो । आरं भाएं तु सप्" इत्येयं समारम्भादि समुद्दिश्याधिकृत्य कर्म कुर्यादित्यनन सर्वा विशुद्धिकोटिगृह - ता तथा कीर्त मूल्य (पर स्माद्वलादाच्छिनम ( श्रसिद्धं ति ) श्रनिसृष्टं तत् स्वामिना अनुसतं बलकादिभ्यानं येतीलं स पिविद्या करिता सदाहारजानं चतुर्विधमपि तथाप्रकारापा तस्मारुषः पुरुषा तत्कृतं वा, अपुरुषान्तरकृतं वा तेनैव दात्रा कृतं तथा गृहान्निर्गमनिया तथा वातेनैव दात्रा तस्माद्वहु परिचुक्तम परिकं वा, तथा स्तोकस्वादितमनाश्वादिनं वासवमा सुकमनेषणीयं य मनोहा सति न प्रतिगृह्णीयादित्येतत् प्रथमचरमतीर्थकृतोरकल्पनीयम, मध्यतीर्थंकराणां चान्यस्य कल्पत इति एवं बहुन् साधनिकान् समुद्दिस्य प्रायद् वाध्यम तथा साध्वसूत्रमध्ये कत्वबहुत्वाच्यां योजनीयमिति । श्राचा० २ ० १ ० १ ० (४३) नौकागतम् - जे भिक्खू पावान णावागयस्स असणं वा पाणं बा Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) गोयरचरिया प्राभिधानराजेन्षः। गोयरचरिया खाइसंवा साइमंत्रापमिगाहेइ, पमिगाहंत चा साइजइ।।१।। गाहाजे जिक्ख णावान जनगयस्स असणं वा० ४ पमिगाहेश । एत्तो एगतरेणं, संजोगेणं तु जो उ पनिगाहे । पमिगाहंत वा साइज्जइ ॥ २० ॥ जे जिक्खू गावान | सो आणा अणवत्यं, मिच्छत्तविराहणं पावे ॥श्या पंकगयस्स असएं वा०४ पमिगाहेश, पभिगाहंत वा करावधा। सोलसमभंगो-थलगो थलगतस्स समुदस्स नं. साज्जा ॥२१॥ जे निक्खणावाउ थनगयस्स असणं तरदीये संभवति । सा पुढवी सचित्ता. मीसा बा. ससणिपा०४ पमिगाहेश,पमिगाहंतं वा साइज्ज ॥२२॥ जे जि.| जानकारी का वा, तेण पमिसिज्झति। काव जलगो णावागयस्स असणं वा०४ पमिगाहेइ,पमि इमं वितियपदंगाईतं वा साइज्जइ ॥२३॥ जे भिक्खू जन्मगो जनगयस्स असिवे प्रोमोयरिए, रायडुढे भए व गेलो । असणं वा०४ पमिगाहेइ, पमिगाहंतं वा साइज्जइ ॥२॥ अदाणरोहए वा, जयणा गहणं तु गीयत्था॥३०॥ जे निक्खू जागओ पंकगयस्स असणं वा०४ पमिगाहेइ, जयणा पणगपरिहाणी, मीसपरंपरहितादि वा जयणा, भा णि यन्वा । नि० चू०१० उ०। पमिगाहंतं वा साइज्ज ।। २५॥ जे निक्खू जलगो थलगयस्स असणं वा० ४ पमिगाद्देश, पडिगाईत वा साइ [४४] तणमुअप्रलम्यादिजय ॥२६॥ जे जिक्खू पंकगो णावागयस्स असणं वा० से निकखू वा निक्खुणी वा से जं पुण जाणेज्जा-पिहुयं वा पमिगाहेइ. पमिगाईतं वा साइज्जइ ||२७|| जे भिक्खू ! बहुरयं वा जाव चानलपनंब वा असंजए जिक्खुपमियाए पंकगओ पंकगयस्स असणं वा०४ पडिगाहेब, पमिगाइंतं वा । चित्तमंताए सिलाए जाच मक्कमसंताणाए कोटेंसु बा, कोसाइज ॥२८॥ जे निक्खू पंकगो जलगयस्स असणं ट्रेति वा,कोट्टेस्संति वा, उप्पिणिंसु वा, नप्पिणिति वा, उवा०४ पमिगाहेर,पडिगाहंतं वा साइज्जइ ॥श्ा जे भिक्खू प्पिणिस्संति वा, तहप्पगारंपिहं वा जाव चानसपलंवं वा पंकगो थक्षगयस्स असणं वान्ट पडिगाहेइ,पमिगाहंत वा अफासुयं० जाव को पडिगाज्जा । साइज्जइ ॥ ३० ॥ जे निक्ख थलगओ णावागयस्स अ. " से भिक्खू वा " इत्यादि । स भिडिंकाथै गृहपतिसणं वा०४ पमिगाहेश, पमिगार्हतं वा साइज्जइ ॥३१॥ कुलं प्रविष्टः सन् यदि पुनरेनं विजानीयात् । तद्यथा-पृथुकं शाल्यादिलाजान् (बहुरयं ति) बहकम (चाउलपलवं ति) जे भिक्खू थलगमो जलगयस्स असणं वा०४ पमिगाहेश, अर्द्धपकशाल्यादिकणादिकमित्यवमादिकमसंयतो गृहस्थोनिपमिगाहंतं वा साज्जइ ।। ३। जेभिक्ख थलगओ पं- कप्रतिइया भिकुमुहिश्य चित्तमत्यां शिलाय तथा सबीजाया कगयस्स असणं वान्धपमिगाहेइ,पडिगाहंतं वा साज्जा सहरितायां सागमायां यावन्मर्कटसन्तानोपेतायामकुहिषुः कु॥३३॥ जे निकाव थलगो थलगयस्स असणं वा०४| ट्टितवन्तः तथा कुट्टन्ति, कुट्टिष्यन्ति वा । एकवचनाधिकारेऽपि च्चान्दसत्वात् तद्व्यत्ययेन बहुवचनं अष्टव्यम् । पूर्वत्र वा जातावेपमिगाहेक, पकिंगाहंतं वा साइज्जा ।। ३४॥ कवचनम,तत्र पृथुकादिकं सचित्तं वाऽचित्तमयां शिलायां कुगादा दृयित्वा ( उप्पिणिसुत्ति ) साध्वर्थ वा तावद्दत्तवन्तो, ददति, णा जले पके थक्षे, संजोगा तत्य होंति णायव्या। दास्यन्ति चा, तदेवं तथाप्रकारं पृथकादि शात्वा लाभे सति नो तत्य गएणं एको, गमणाऽऽगमणेण वितियो उ ॥८॥ । प्रतिगढीयादिति । आचा०२७० १०६ उ० । णायागतो भिक्खू णावागयस्सेव दायगस्स हत्यातो अ- से भिक्ख वा जिक्खणी वा जाव समाणे से जं पुण सणादीहिं पमिगाहोत, तस्स चउलहुँ । अण्णेसु तिसु भंगेसु जाणेज्जा-असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अगजिक्ख णावागतो चेव, दायगा जलपंकथलगता, एतेसु चउरो भंगा। अन्नेसु चउभंगसु निक्खू जलगतो, दायगा णावाजन्न णिणिक्खित्तं तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खामं वा सापंकथलगता। अमेसु चसु निक्खू पंकगो, दायगा णा- इमं वा अफामुयं० जाव लाभे संते णो पडिगाहेज्जा, केवबाजसपंकथलगता । अमेसु चउसु भिक्खू थनगतो, दायगा ली व्या-पायाणमतं असंजए भिक्खपमियाए उस्सिणावाजन्नपंकथलगता । एते सन्चे सोलससु वि पत्तेयं चढ चमाणे वा निस्सिचमाणे वा आमज्जमाणे वा पमज्जमाणे लहुं, णाचगते दायगे पमिसेहो । एतेसु णावजलपंकथलप. वा उत्तारेमाणे वा उप्पएणेमाणे वा अगणिजीवे हिंसेज्जा वा, देसु ठितो भिक्खू दायगस्स सहाणपरढाणसंजोगेण ठियस्स हत्थानो गेरहंतस्स दुगसंजोगाऽनिलावं अमुंचतेण सोनस अह निकावणं पुचोवदिट्ठा एस पइएणा एस हेतू एस प्रंगा कायम्वा, पूर्ववत् । तत्थ कम दरिसेश्-(तत्थ गएणं कारणं एसुबएसो जं तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइम एको ति ) णावारूढो णावागयस्स हत्थातो गेएहति, एस वा साइमं वा अगणिणिक्खित्तं अफास्यं प्रणेसणिज्ज पढमभंगो, णावागतो जलगयरस इच्छदायगस्स भाग साजे संते णो पडिगाहेजा। च्छमाणस्स जबध्यिस्स इत्यातो गएहति, एवं पंकथनेसु वि गमणागमणेण ततियचउत्थभंगा । एवं सेसभंगा वि "से भिक्खू वेत्यादि ।" स निकहरतिकुलं प्रविष्टश्चतुर्बिंध. बारस बज्ज भाणियब्वा । मप्याहारमन्नावुपरि निकितं तथाप्रकारं ज्वाबासंबकं लाभे Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) गोयरचरिया निधानराजेन्छः। गोयरचरिया न प्रतिगृह्णीयात् । अत्रैव दोषमाह-केवाली ब्रूयात्-आदानं | संचयमिणिं करिती, अन्नत्थ वि नूण एमेव ।। कर्मादानमेतदिति। तथाहि-असंयतो गृहस्थः भिक्कुप्रतिझया तप्राप्युपरि व्यवस्थितमाहारमुसिञ्चन भातिपन, निस्सिञ्चन् शैक्कण गृहिणा वा केनापि तत्राशनादौ परिवासिते दृष्टे मिरत्वोद्वरितं प्रतिपन्,तथा मार्जयन् सकृत् हस्तादिना शोधयन्, ध्यात्वं नवेत्-एवंविधं संचयं ये कुर्वन्ति कथं ते श्रमणा असं. तथा प्रकर्षेण मार्जयन शोधयन्. तथाऽबतायरन्, तथा प्रवर्त चया भवन्ति । यथा सर्वस्माद्रात्रिभोजनाविरमणमित्यभिग्रह पन् तिरश्चीनं कुर्वन् अग्निजीवान् हिंस्यादिति । अथानन्तरं गृहीत्वा लुम्पन्ति, तथा नूनमिति वितर्कयाम्यहम्-भन्यत्रापि भिकूणां साधूनां पूर्वोद्दिष्टा एषा प्रतिक्षा, एप हेतुः, पनत्कार प्राणिवधादावेवमेव समाचरन्ति । बम,अयमुपदेशो,यत तथाप्रकारमाग्निसंबरूमशनाद्यग्निनिक्किप्त अथ सवे दोषा अमो भवन्तीति पदं व्याचष्टेमप्रासुकमनेषणीयमिति ज्ञात्वा लाने सति न प्रतिगृह्णीयात् । निके दवे पणीए, पावज्जण पाणि तकणा पमणा। प्राचा० २ श्रु०१ अ० ६ उ० । (४५) पर्युषिताहारो न ग्राह्यः आहार दिट्टदोसा, कप्पड़ तम्हाणाहारे।। वह वक्ष्यमाणेऽन्त्यगतसूत्र भणितं यत् गृहादिकं तैलवर्जितम् नो कप्पद निम्गंधाण वा निगंधीण वा पारिवासियस्स | अज्यं भवति तदेव स्निग्धमुच्यते। यत्तु सौवीरयादिकम् असेपाहारस्स० जाव तयप्पमाणमित्तमवि नूमिप्पमाणमित्तमवि पकृतं, यच्च दुग्धतशवशाद्रवघृतादिकं लेपकृतं, तदुभयमपि तोयविदुप्पमाणमित्तमवि आहारमाहारित्तए नऽनत्य आगादं भवमित्युच्यते । तथा चाह-"तत्थ पणियं तु निद्धतं चिय प्रह सरोगायंकेमु॥ सिया अनिलबसं । सोवीरगदुकादी,दवं अमेवाम सेवा॥" व्याख्याता । प्रणीतं नाम-गृढस्नेहं घृतपूरादिकम आखाअस्य संबन्धमाह द्यकं, यद्वा-बहिः स्नेहन म्रतितं ममकादि, अपरं वा स्नेहाव. नदियोऽयमणाहारो, इमं तु सुत्तं पमुच्च आहारं । गाढं कुरुणादि प्रणीतमुच्यते । तथा चाह- "गूढसिणहं उवं, तु अत्थे वा निसि मोयं, पिज्जति सेसं पि माए व ।। खजग मक्खियं च ज वाहि। नेहागाई कुरुणं,तु एबमाई पर्णीयं अयं मोककलो अनाहारः पूर्वसूत्रे उदितो भणितः । इदं तु सूत्र. तु॥"गतार्था । एवंविनवे प्रणीते च रात्रौ स्थापिते कीटिका. माहारं प्रतात्याऽऽरभ्यते । अर्थतो वा निशि मोकं पीयत इत्यु दयः प्राणिजातीया आपद्यम्त, पवन्तीत्यर्थः। अत्र गृहकोनिकातम् । अतः शेषमप्याहारादिकमेवं रात्री आहारयेदिति प्रस्तुतं दितर्कणपरम्परा वक्तव्या। (पडण त्ति) स्पन्दमाने भाजने सूत्रमारज्यते । अनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्य व्याख्या-नो क. अधस्तात्प्राणिजातीयाः संपतन्ति । परः प्राह-तस्वतो दोषा ल्पते निर्ग्रन्थाणां निर्ग्रन्थीनांचा परिवासितस्याऽऽद्वारस्य मध्यात् पाहारे दृष्टाः तस्मादनाहारे परिवासयितुं करपते । स्वयमाणनामपि भूतिप्रमाणमात्रमपि तोयबिन्दुप्रमाणमात्र. सूरिराहमपि यावदाहारमाहर्तुम् । त्वममाणमात्रं नाम-तिबनुषत्रिभागमात्र, तच्चाशनस्य घटते । भूमिप्रमाणमात्रम्-(पतदतनस्तु अमयरो विन कप्पड, दोसा ते चेव जे नंणियपुवा। 'पारियासिय' शब्दे वयते) [६० ] [ सेसं ति ] शेष- तदिवसं जयणाए, विश्ए आगाढ संविग्गे ॥ माहारं तस्य परिवासितस्य यदि तितुषत्वकमात्रमयाss. अनाहारोऽपि न कल्पते स्थापयितुं, यदि स्थापयति ततश्चहरति,सक्तुकादीनां शुष्कचूर्णमे कस्यामङ्गलौ यावती भूमिमात्रा तुलघु, त एव च विराधनादयो दोषाः,ये पूर्वमाहारे नणिताः। सगति तावन्मात्रमपि पिबति, ततोऽस्य पानस्य विन्दुमात्रमपि तस्मादनाहारमपिन स्थापयेत् यदा प्रयोजनं तदा तद्दिवस वियद्यापिबति, तदा चतुर्गुरु, आज्ञा च तीर्थकृतां कोपिता भवति। जीतकहरीतकादिकं माम्यते, अथ न लभ्यते दिने दिने मार्गयतो पते चापरे दोषाः वा गर्हितः, ततो यननया यथा अगीतार्था न पश्यन्नि, तथा मिच्छत्तमसंचाए, विराहणा सत्तुपाणजाईओ। मिनीवपदमाश्रित्य आगाढे कारणे सायग्नो गीतार्थः स्थापयसंमुच्छणा य तकण, दवे य दोसो इमो होति ॥ ति। घनवारण वर्मणा वा छईयति, पाश्वतः कारणावगुएमयति, नभयकासं प्रमार्जयति ॥ अशनादि परिवास्थमानं हष्टा शैक्कोऽन्यो वा मिथ्यात्वं गच्छेत, बडाहं वाकुर्यात्-कथमहो! अम। असंचयिका.?, परिवासिते तु जह कारणऽणाहारो, कप्पड़ तह जवज इयगे वि । संयमात्मनिराधना भवति, सक्तुकादिषु धार्यमाणेषु करिणि- वोच्चिमम्मि मर्मवे, विश्यं अद्धाणमासु ! कादयः प्राणिजातयः संमूळन्ति, पुलि कादिषु लालादिसं. मूना च भवति । अपुरो वा तत्तर्कणमजिलापं कुर्वन् पार्श्वत: यया कारणे अवाहारः स्थापयितुं कल्पत,तधेतरोऽप्याहारोऽपि परिभ्रमन् मार्जारादिना जयते,एवमादिका संयमाऽऽस्मविराध. कारणे कल्पते स्थापयितुम । कथमित्याह-व्यवच्छिन्ने 'मव' ना, आत्मविराधना च तत्राशनादौ लालाविषः सर्पो लाला मु. कारणे स्थिताः सन्तो द्वितीयपदं संवश्चन्ते । तथाहि-तत्र पिशेत, त्वग्विषो वा जिवन् निःश्वासेन विषी कुर्यात्, उन्दुरो वा प्पल्यादिकं दुर्लभ, प्रत्यामन्नं प्रामादिकं तत्र नास्ति. ततः प. रिवासयेदपि, यथा कारणे पिप्पल्यादिकं स्थापयन्ति तथा द्विखालां मुञ्चेत वे चाहारे एते वक्यमाणा दोषा जवान्त । तीयपदे अशनाद्यपि स्थापयेत् । (प्रमाणमादीसुत्ति) अध्वप्र. तत्र "मिछत्तमसंचए ति" पदं व्याख्याति गन्ना अध्वकल्प स्थापयेयुः, श्रादिशब्दात्प्रतिपन्नम्पार्थस्य सेह गिहिणा व दिटे, मिच्छत्तं कहमसंचया समणा। | लानस्य वा योग्यं पानकादिकं स्थापयेत् । २५० Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( c) गोयरचरिया अभिधानराजेन्छः। गोयरचरिया "वोच्छिन्नमम " पदं व्याख्याति धोः (पुवागमणणं ति ) आगमनात्पूर्वकालं पूर्वायुक्तस्तन्दुलोपुच्छिन्नम्मि मर्मवे, सहसरुगप्पायनवसमनिमित्तं । दनः कल्पते, पश्चादायुक्तः (जिलिंगसूत्ति) मिलिङ्गसूपो मसूरदिद्वत्याई तंचिय, गिएहती तिविह जेसज्ज। दालिसषदालिः, सस्नेहसूपो वा न कल्पते । अयमर्थः-तत्र यः पूर्वायुक्तः साध्वागमारपूर्वमेव स्वार्थ गृहस्थैः पक्तमारब्धः, स व्यवच्छिन्ने ममम्बे वर्तमानानां सहसा शूनविशूचिकादिका | कल्पते,दोषानावात् । साध्वागमनानन्तरं च यः पक्तमारब्धःस रुगुत्पयेत,तस्योपशमनिमित्तं रष्टार्थो गीतार्थः,प्रादिशब्दात् सं. पश्चादायुक्तःसन्न कल्पते,उस्मादिदोषसंजवात् । एवं शेषालाविग्नादिगुणयुक्तास्ते अनागतमेव तदेव व्यं गृहन्ति, येनोप पकद्वयमपि भाव्यम् । ३३ । (३४)। (३५) कल्प. क्षण। शमो भवति, तश्च भेषजं व्यं त्रिविघ-बातपित्तश्लेष्मभेषजमे. (पानकवक्तव्यता 'पानक' शब्दे । मांमशन्दे मांसविचारः) दात त्रिप्रकार केयम् । वृ०५ उ०। ने भिक्खू पारियासिया पिप्पकिंवा पिप्परिचुछ वा सिं (४८) लवणग्रहणम्गवेरचमं वा जाव पारियासियं विनंवा गोणं. उब्जिय से भिक्खू वा भिक्खणी वा० जाव समाणे से जं पण बालोणं आहारे, आहारतं वा साइज्जइ ।। १०॥ जाणेज्जा-विसं वा लोणं उभियं वा लोणं अस्मंजए भिपारियासियं णाम-रातो पज्जुसियं, भभिमा पिप्पली, सापव क्वपडियाए चित्तमंताए सिलाए० जाव संताणाए भिंदिसहुमा भेदकता चुन्ना, एवं मिरीयसिंगवेराणं पि, सिंगवेरं सुं. सुवा,भिदंति वा, निदिस्संति वा, रुचिंसु वा,रुचिंति वा, जी,जत्थ विसर लोणं णस्थितत्थ न सो उपञ्चति, तं बिललोणं रुचिस्संति वा, वलिंस वा लोणं उम्नियं वा लोणं अफाभन्नति. उभियं पुण सयंसहं,जहा सामु सिंघवं वा, एव. मुयं० जाव णो पमिगाहेज्जा। मादि परिवासितं आहारतस्स आणादी दोसा, चउगुरुं च । नि.चू० ११ उ०। "से भिक्खू बेत्यादि।" स भिकर्यदि पुनरेवं विजानीयात्। तत यथा-(विलं इति) खनिविशेषोत्पन्नं लवणम,भस्य चोपलकणा(४६ ) बदिनिहतम् र्थत्वात् सैन्धवसौवर्चलादिकमपि अव्यम। तथोद्भिजमितिसे निरखू वा जिक्खुणी वा से जं पुण जाणेज्जा-असणं | समुद्रोपकर क्वारोदकसंपर्कात् यदुद्भिद्यते लवणम,अस्याप्युवा पाणं वा खाइमं वा सामं वा परं समुहिस्स व पसरणार्थत्वात् कारोदकसेकात् यद् भवति रुमकादिकं तहिया णीहडंतं परेहिं असमणुमायं अणिसिटुं अफा दपि ग्राह्यम, तदेवंनूतं लवणं पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टायां शिक्षामुयं जाव णो पनिगाहेज्जा, तं परेहिं समणम्पायंस यामत्सुः कणिकाकारं कुर्युः,तथा साध्वर्थमेव निन्दन्ति, भेत्स्य न्ति था, तथा श्लणतरार्थ। रुचिंसु वत्ति) पिष्टवन्तः, पिषमणिसिटुं फासुयं लाने संतेजाव पमिगाहेजा, एवं खल। ति, पेक्ष्यन्ति था, तदपि लवणमेवं प्रकारं ज्ञात्वा नो. गृहीतस्स निक्खुस्स का जिक्खुणीए वा सामग्गियं ॥ यात् । आचा०२ श्रु०१ १०६ उ० । स पुनर्यदेवभूतमादारजातं जानीयात् । तद्यथा-परं चारजटादि- से भिक्ख वा भिक्खुणीवा जाव समाणे सियासे परो अकमुद्दिश्य गृहानिष्क्रान्तं यश्च परैयदि भवान् कस्मैचिद्ददाति सदा ददात्वित्येवमननुज्ञातं,न तु दातुर्वा स्वामित्वेनानिसृष्टं वा, जिहह अंतो पमिग्गइंते विसं वा लोणं उभियं वा लोणं पसदहुदोषदुत्वादनासुकमनेषणीयमिति मत्वा न प्रतिगृह्णीयात्, रिभाएत्ताए णीहडु दलएज्जा,तहप्पगारं पडिग्गहगं परहत्यविपरीतं तु प्रतिगृह्णीयादित्येतत्तस्य भिकोः सामध्यमिति । सि वा परपायंसि वा अफासुयं णो पडिग्गाहेज्जा, से आहच्च भाचा०२ श्रु०१०६अ पडिगाहिते सिया,तं च णातिदूरगए जाणेज्जा, से तमायाए (४७) भिसिङ्गसूपो न प्राय: तत्य गच्छेज्जा २, पुम्बामेव आलोएज्जा-आउसो! तिवा तत्य से पुब्बागमणेणं पुधाउत्ते चाउलोदणे पच्छानते | जणीति वा इमं ते किं जाणता दिगं,उदादु अजाणया। से मिलिंगसूचे कप्पइसे चाउरोदणे पमिगाहित्तए,नो से कप्पइ य भणेज्जा-णो खयु मे जाणया दिम, अजाणया भिलिंगस्वे पमिगाहित्तए । ३३ ।। तत्य से पुव्वागमणेणं काम खलु । आउसो !इदाणिं णिसिरामि, तं जहा-भुंजह पुचानत्ते भिलिंगसूचे पच्छाउत्ते चाउलोदणे, कप्पा से | चणं, परिजाएह च णं । तं परेहिं समणुमायं समणुसह मिलिंगसूबे पझिगाहित्तए, नो कप्पइ चानलोदणे पमिगा-1 ततो संजयामेव तुंजेज वा, पीएज वा, जं च णो संचाएहित्तए ॥३॥ तत्य से पुवागमणेणं दो वि पच्छा नुत्ताई, ति, जोत्तए वा पायए वा साहाम्पिया, तत्थ वसंति संनोझ्या एवं नो से कप्पति दो वि पमिगाहित्तए, जे से तत्य पु- समणुएणा अपरिहारिगा अग्गया, तेसिं अणुप्पदायव्वं वागमणेणं पुयाउत्ते से कप्पड पडिगाहित्तए, जे से तत्थ सिया,णोजत्य साहम्मिया जहेव बहुपरियावो कीरति तहर पुवागमणेणं पच्छाउत्ते से नो कप्पड़ पडिगाहित्तए ॥३५॥ कायव्वं सिया,एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा जिक्खुणीए वा "तत्थ" इत्यादितः "पमिगाहित्तपत्ति" यावत् सूत्रत्रयं सुगमम्। सामाग्गियं ।। मवरम (तत्थे ति) तत्र विकटगृहे वृकमलादीस्थितस्य सा- "से"त्यादि । स निवहादी प्रविष्टः, तस्य च स्यात्कदा Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (LEE) अभिधानराजेन्द्रः | गोयरचरिया चित्परो गृहस्थः ( श्रभिट्ट तो हति) अन्तः प्रविश्य, पतद्भहे काष्ठपट्टकादौ ग्लानाद्यर्थे खएमादि याचमाने सति विमंत्रा लवणं खनिविशेषोत्पन्नमुनिजं वा लवणमाकराद्युत्पन्नं (परिभा एत ति) दातव्यं विज्ञाव्य, दातव्यद्रव्यात् कश्चिदशं गृहीत्वेत्यर्थः । ततो निःसृत्य दद्यात्तथाप्रकारं परहस्तादिगतमेत्र प्रतिषेधः येत्, तच्च (ग्राहच्चेति) सहसा प्रतिगृहीतं जवेत, तं च दातारमदूरगतं ज्ञात्वा स भिक्षुतवणादिकमादाय तत्समीपं गच्छेद्, गत्वा च पूर्वमेव तलवणादिकमालोकये दर्शयेत् एतच्च ब्रूयात्-अमुक! इति वा, अगिनि ! हात या, एतच्च लवणादिकं त्वया जानता दत्तमुनाऽजानता?। एवमुक्तः सन् पर एवं वदेत् । यथा- पूर्व मया अजानता दक्षं साम्प्रतं तु यदि भवता तेन प्रयोजनं, ततो दत्तमेतत् परिभोगं कुरुध्वं तदेवं परैः समनुज्ञातं समनुसृष्टं सत्प्रासुकं, कारणवशात् श्रप्रासुकं वा भुञ्जीत, पिवेद्वा । यच्च न शक्नोति भोक्तुं पातुं वा तत् साधर्मिकादिज्यो दद्यात्, तदनावे बहुपपन्नविधि प्राक्तनवत् विदध्यात् एतस्य भिक्षोः सामग्रयमिति । श्राचा० २ ० १ ० १० च० । दश० । ( ४६ ) वनस्पतिप्रतिष्ठितम् सेभिक्खू वा जिक्खुणी वा० जात्र समाणे से जं पुरा माज्जा- असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा बसका पतिट्ठियं तप्पगारं असणं वा० ४ वणस्सइकाय पतिर्द्वियं फासूयं प्रसणिज्जं लाने संते यो पार्कगाजा, एवं सकाए वि ॥ ' से भिक्खू वा' इत्यादि । स निकुगृहपतिकुत्रं प्रविष्टः सन् यत्पुनरेवं जानीयाद्वनस्पतिकायप्रतिष्ठितं तं चतुर्विधमप्याहारं गृह्णीयादिति । एवं सकायसूत्रमपि नेयमिति । अत्र च वनस्पतिकाय प्रतिष्ठितमित्यादिना निक्षिप्तास्य पादोषोऽनेिहितः, एवमन्येऽप्येषणादोषा यथासंभवं सूत्रेष्वेवायोज्याः । चाचा० २ श्रु० १ श्र० ७ ० । ( वनीपकपिएकोऽपि स्वस्थाने ) (५०) बह्नन्नग्रहणे तत्परिष्ठापनम् - से जिक्र वा भिक्खुणी वा बहुपरिया जोयणजायं गाता हवे साहम्मिया तत्य वसंति संजोइया सममा अपरिहारिया दूरगया, तेसिं अणालोइया अणामंतिया परिधत्रेति, माइकाणं संफासे, यो एवं करेज्जा, से समादाय तत्थ गच्छेज्जा, से पुन्त्रामेत्र आलोएज्जा - श्राउसंतो! समणा ! इमे मे असणे वा पाणे वा खाइमे वा साइमे बा बहुपरियावणे, तं जुंजह च णं, से सेवं वदतं परो वदेज्जा संतो ! समणा! आहारमेयं असणं वा पाणं वा खाइम साइमं वा जावतियं २ परिसट, तावतियं २ भोक्खामो वा, पेहामो वा, सव्त्रमेयं परिसढाइ, सव्वमेयं भोक्खामो वा, पेहामो वा !! 'से' इत्यादि । स भिकुर्बह्ननादिपर्यापनं लब्धं परिगृह्य बहुमिर्वा प्रकारैराचार्यग्ज्ञानप्राघू काद्यर्थे फुले भडव्यादिभिः पर्यापनमाहारजातं परिगृह्य तद्वहुत्वानोक्तुमसमर्थः । तत्र च साधमिंकाः सांभोगिकाः समनोशा अपरिहारिका एकार्थश्वासापकाः । For Private गोयरचरिया इत्येतेषु सत्सु श्रदूरगतेषु वा ताननः पृच्छद्य प्रमादितयः परिष्ठाप येत् परित्यजेत, एवं च मातृस्थानं संस्पृशेत्, नैवं कुर्यात्, यश्च कुर्या तदर्शयति स भिनुस्तदधिकमाहारजातं परिगृह्य तत्समीपं ग च्छेद, गत्वा च पूर्वमेवालोकयेद्दर्शयेदेवं श्रूयात्-आयुष्मन् ! भ्रमण ! ममैतदशनादि बहु पर्यापन्नं, नाहं जोक्तुमक्षमतो यूयं किं भुवमः । तस्य चैवं वदनः स परो ब्रूयात् यावन्मात्रं जोक्तुं शक्नुमस्तावन्मात्रं भोक्ष्यामहे, पास्यामो वा, सर्वे वा परिशटत्युपयुज्यते तत्सपूर्व जोदयामहे पास्याम इति । आचा० २ ० १ ० ६३० । ('संथ' शब्दे संस्तव वक्तव्यता संसक्तव्याच्या 'संसस' शब्दे ) (५१) सुरनिं गृह्णाति असुरभि परिष्ठापयति से जिक्खू वा जिक्खुणी वा० जाव समाणे अयरं भो जायं पनिगाहेता सुभि सुजि जोच्चा दुभि दुनि परिवेति माइकाणं संफासे, णो एवं करेजा, सुन्भिं वा वा सव्वं भुंजे. छह एज्जा से जिक्खू वा भिक्खुणी वा० जाव ममाणे यरं वा पाणगजायं पनिगाहेत्ता पुष्कं वित्ता कसायं परिद्ववेति, माइकाणं संफासे, णो एवं करज्जा, पुष्पं पुष्फेति वा कसायं कसायेति वा सन्चमेयं भुंज्जा, णो किंचि वि परिवेज्जा | "से" इत्यादि । स भिकुरन्यतरजोजनजातं परिगृह्य सुरामेर म कल, दुर्गन्धं दुर्गन्धं वा परित्यजेद् वीप्सायां द्वर्वचनम मा तृस्थानं चैवं संस्पृशेत्, तच्च न कुर्यात् । यथा च कुर्यात्तद्दर्शयतिसुरभि वा दुर्गन्धं वा सर्व जीत, न परित्यजेदिति ॥ एवं पानकसूत्रमपि, नवरं वर्षगन्धोपेतं पुष्पं तद्विपरीतं कषायं वीप्सायां द्विर्वचनम् । दोषश्चानन्तरसूत्रयोरादारगाड्यांत् सूत्रार्थहानिः, कर्मबन्धश्चेति । श्राचा० २ ० १ ० १ ३० ॥ जे भिक्खू परं पाणगजायं पडिगाहिता पुप्फं २ आइयंति, कसाइयं परिछाव, परिट्ठावंतं वा साइज‍ ४२ ॥ अन्यतरग्रहणात् श्रनेके पानकाः प्रदर्शिता भवन्ति । खरामकपानगुल सक्करादालिम मुद्दिनाचिचादिपाने, जातग्रहणात् प्रा सुकं, पडीत्युपसर्गे, ग्रह श्रादाने, विधिपूर्वकं गृहीत्वा पुष्कं णाम रफ सहि पधाणं, कसायं स्पर्शादिप्रतिलोममप्रधानं, कषायं बहुलं कसुत्रमित्यर्थः । स्वसमय संज्ञाप्रतिबद्धमिदं सूत्रम् । एवं करैतस्स मासलडुं । एस सुत्तस्था । अदुणा णिज्जु सिगाढा जं गंधरसोवेतं, अच्छे व दवं तु तं जत्रे पुष्कं । दुभिगंधर, कलुवा तं जवे कलु || ३१४|| कंठा । गाहा धिसूदमित्रि दवे, पत्तेयं अव एकतो चेव । जे पुप्फमादिशत्ता, कुज्ज कसाए विचिणयं ।। ३१५ ॥ दोसि वि-पुप्फ, कसायं च, एगम्मि वा भाषणे, पत्तेयेसु वा प्राय पुष्फमाता, कसाए परिद्ववणं करेज, तस्स मासबहूं, इमे य दोसे पावेज | गाहा सो आणण अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं तदा दुविधं । पावति जम्दा तेणं, पुत्र कसाए-तरं पच्छा ।। ३१६ ॥ Personal Use Only Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयरचरिया अनिधानराजेन्डः। गोयरचरिया भायसंजमविराहणा पुवं कसायं पिवे, इतरं पुप्फ पच्छा। विगिंत्रणारिहस्स बक्खाणं इमं । गाहाजो पुष्फ पुव्वं पिवे, कसायं परिष्वेति, तस्सिमे जं होति अप्पयं जंच-पुणेसियं तं विगिंचणरिहं तु । दोसा । गाहा विसकतमंनकतं वा, दयविरुई कतं वा वि॥३१॥ तम्मि य गियो अब, णेच्छे अलता एसणं पेढे । अपेयं मज्जमांसरसादि, अणेसणीयं तु उम्गमादिदोसजुत्तं, परिवगविते य कूमे, तसाण संगामदिटुंतो ॥ ३१७॥ अहवा अपेयं श्मं पच्चद्धण-घिससंजुत्तं, वसीकरणादिमंतेष अच्छदवे गिद्धो अझ कसायं णेच्छति पातुं, तं कसायं परि षा अभिमंतियं, दवविरुद्धं जहा-खीरविलाणं। ध्वे पुणो वि हिमंतस्स सुत्तादिपलिमंथो, अच्छं अलभंतो वा पसणं पेल्लेज्ज, प्रायविराहणादियाय बहु दोसा। कलुसे य परि. जे जिक्खू अम्मयरं भोयणजायं पमिगाहित्ता सुन्जि एविए कूमदोसा । जहा-कूडे पाविणो वति, तहा तत्थ विम. मुब्जि भुंजइ, मुब्जि दुभि परिहवेइ, परिहवंतं वा साइजियादी पडिवति । श्री य तत्थ बहवे पयंगा णिपतंति, ज्ज ॥४३॥ विवान्निगादि य संसज्जति,एवं बहुतसघातो दीसति। पत्थ सं. सुनं सुम्भी, असुभं दुब्भी, शेषं पूर्ववत् । गामदिटुंतो-तत्थ कलुसे परिबिए मच्छियाप्रो लम्गति, तेसिं घरकोश्वा धावंति,ताए वि मजारी,मज्जरीए सुणगो,सुणगस्स गाहावि अयो सुणगो, सुणहणिमित्तं सुणहसामिणो कलति, एवं वरमेण य गंधेण य, रसेण फासेण जंतु उववेता । पक्वापक्खीर संगामो जवति। जम्दा एने दोसा तम्हाणोपुप्फ तं जोयणं तु सुन्नि, तबिवरीतं भवे दुभि ॥ ३२॥ आदिए कसायं परिष्वेति । इमा सामायारी-वसहिपालो अर्थ जं नोयणं वामगंधरसफासेहिं सुभेहिं ब्ववेत, तं सुम्भिं भतो भिक्खागयसाहुअागमणं गाउं गच्छमासज एवं दो तिमि पति, इतरं दुभिं। पा भायणे उम्गाहेति, तो जो जहा साधुसंघामगो प्रागच्छति, तस्स तहा पाणभोयणाओ अच्छतेसु जायणेस परिग्गालेति,एवं प्रहबा गाहाअच्छं पुढो कउजति, कसुसं पि पुढो कज्जति, तं कसायं पुच्चा रसासमवि दुगंधि, नोयणं तु न पूर्तियं । पा अपुजा वा पुव्वं पिबंति,तम्मि णिहिते पुच्छा पुष्पं पिवंति। सुगंधिमरसालं पि, पूइयं तेण सुब्भि तु ।। ३२३ ॥ पुच्चस्स इमे कारणा । गाहा रसेण नववेयं पिभोयणं दुब्भिगंध ण पूजितं, दुम्भिमित्यर्थः॥ आयरिऍ अभाविऍ पा-णगढता पादपोसधुवणट्ठा । अरसालं पि भोयणं सुनगंधजुत्तं, पूजितमित्यर्थः । होति य सुहं विवेगो, सुह आयमणं व सागरी पच्चा॥३१०।। ___गाहामायरियस्त पाणाए प्रायमणाए,एवं अभाविए सेहस्स बिउ घेत्तण जोयणदुर्ग, पत्तेयं अहव एक्कतो चेव । सरकादं पाणहता,पायपोस अपाणदारं, पतेसि धुवणहा,उच्चारियस्स य सुहं विवेगो कज्जति, ण कूडातिदोसा नवंति। जे सुन्जि हुँजित्ता, दुब्जिंतु विगिचणं कुन्जा ॥ ३४॥ सागारिए य आयमणादि सुहं कज्जति । सुभिं दुनिं च भोयणं एक्कतो पत्तेयं घेतुं जो साहू सुम्भिं गाहा मोच्चा दुन्भिं परिवेति, तस्स मासाहु, इमे य दोसाभाणस्स कप्पकरणं, दवणं वहिआयमंतो वा। सो आणा आणवत्यं, मिच्छत्तविराधणं तथा दुविधं । ओभावणमग्गहणं, कुजा वुविधं च वोच्छेदं ।। ३१॥ पाचति जम्हां तेणं,दुभिं पुब्बेतरं पच्छा ॥३२शा कंठा।। प्रच्छ जायणकप्पकरणं भवति, बहले पुण श्मे अहम्मत श्मे य दोसारा, असुचितरत्वात अगहणं वा करेज, सर्वलोकपाषराम. धर्मातीता घेते अब्राहा, अणादरो वा अम्महणं, दुविहं वो रसगेहि अधिक्खाए, अविधिमयंगालपक्कमे मायी। नेदं करेज, तद्न्यान्य द्रव्ययो, तद्रव्यं पानकम् , अन्यव्यं लोभे एसण वाघा-तो दिलुता अजमंगहि ॥३२६ ॥ भक्तवस्त्रादि, अह वा तस्स साधो अन्नस्स या साधो अव- रसेसु गही नवति, अम्मसाहूहितो अहिगं खायति, जोयणपमाबापणं पुण परिवतो वि सुझो। जातो अहिगं खायति,एगओ गहियस्स नकरित्तु सुभं स्वायति, जतो। गाहा इतरं रडेति, कागसियालगखइयकारगगेही, एवं अविही वितियपदोएिह विबहू,पीसे व विगिं वाणारिहं होइ। जवति, इंगालदोसो य नवति, रसगिको गच्छे अधिति अल भनो गच्छामो पक्कमति,अपक्रमतीत्यर्थः। मायी-मंमलीए रमाअविगिंचणारिहेवा, जवाणिजे गिलाणमायरिए ॥३२॥ लं अलभंतो निक्खागो रसालं भोत्तुमागच्छति, भद्दक नहक दो वि वद-पुष्फ,कमायं च णज्जति,जहा अवस्सं कायं परिटु- नोचा विवम् विरममाहारतीत्यादिरसभोयणे लुद्धो एसणं वि विजनि, जाविनं पिज्ज निताहेतं न पिचंति, पुष्फ पिवंति, पेवेति, पत्थ दिटुंतो अजमगू । जहा-"अजमंगू आयरिया बहुएस पत्तेयमहियाणं विही,अहमीसं गहियं, नत्थ गालिए पुष्पं स्सुया वहुपरियारा मधुरं पागता. तत्थ सहि धरिजत्ति, ता पद्यं, कमायं थोवं,ताहे तं परिदृविज्जति, पृष्फ पिवंति, अह-| कानंतरण ओमम्मा जाता, कालं काऊणं भवणवासी उववमो, चा-कसायं विनिणारिदं होउजा, अणेसाणिज्जति,नाहे परि- साहपडिवोहणता आगो सरीरमहिमाए अद्धकत्ताए जीई टूविजनि, अदया-अविचिंचणारिह पि जंपायरियातीण जाव- णिवाति। पुच्चिो -को भवं? जपाति-अन्जमंगू हं। साधू सखाणिग्नं ण नवति, पवं परिद्वावेतो सुको। यभसासिउंगतो,पतंदोसा। पडिपक्से अज्जसमुहात रस Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००१) गोयरचरिया अनिधानराजेन्डः। गोयरचरिया गेहीभीता पकतो सव्वं मेलेउ भुंजति, तं च अरसं विरसं वा कदाचित् कस्मिंश्चित् क्के प्राचार्यप्रायोग्यं दुलनं भवति, वि सम्बं भुजे, ण दुए, सूत्राभिहितं च कृतं भवति । ततश्च सर्व एव सङ्घाटकाश्चाचार्यप्रायोग्यस्य ग्रहणं कुर्वन्ति । "रसगेहि ति" अस्य व्याख्या ततश्च तत् घृतादि कदाचित सर्व एव लजन्ते, ततश्च तदुद्वरति, मुब्जीदगजीहो, णेच्छति छातो वि भुजित इतरं ।। अन्येषां च साधनां पर्याप्तम, एवमाचार्यार्थ गृहीतस्य शुरू स्यापि परिज्ञापना जवतीति । तथा खानार्थमप्येवं गृहीतं आवस्सऍ परिहाणी,गोयरेदीहो इ उफिणिया॥३७२।। यदुवति, प्राघूर्णकानामप्येवमेव, तथा दुर्लभलाभे सति सइतरं दुभिति लभंतो विसुन्जिनत्तणिमित्तं दीहं भिक्खाय (रेव सङ्घाटकैर्गृहीतमुहरतीति। तथा च-(सहसदाणे) अप्रतरियं अडति, सुत्सत्यमादिए सुत्तआवस्सएसु,परिहाणी भवति, किंतदाने सति प्रचुरमुरति, ततश्चैवं भवति, अजाताऽपरिभ्वादुन्भियस्स किणिया परिहायणिया। पनिका, तत्र वाचार्यादीनां ग्रहणेवयं विधिवक्ष्यमाणो “अधिक्खाए ति" अस्य व्याख्या भवतीति ॥ ११३॥ मणुमं नोयणज्जाय, मुंजताण तु एकतो । कश्चासाविति ? अत आहमुंजओ साहुनी सम्,ि अधिक्खाए य वुञ्चती ॥३२॥ जइ तरुणो निरुवहाओ, तुंजइ सो मंमलीऍ आयरिओ। मनसो रुचितं मनोझं भोअणं, जातमिति प्रकारवाचकः, असहुस्स वीसगहण, एमेव य होइ पाहणए ।। ११४॥ साधुभिः सा भुखतः जो अधिकतरं खाए सो अधिक्स्वाश्रो केचन एवं भणन्ति-यद्यसावाचार्यः तरुणो, निरुपहतपश्चेन्द्रियभए । जम्हा एते दोसा श्व, ततः स्वल्पशो मरामल्यामेव भुतेसामान्यम् । अथ 'असर' असमर्थः, ततस्तस्य विष्वक ग्रहणं प्रायोग्यस्य कर्त्तव्यम् । तम्हा विधी' लुंजे, दिसम्मि गुरूण सेस रातिणिते। एवमेव प्राघूर्ण केऽपि विधिष्टिव्यः। यदि प्रापूर्णकः समर्थः,ततो मुयति करंबे ऊण, एवं समता तु सव्वेसि ।। ३३ ।। | नैव तत् प्रायोग्यस्य ग्रहणं कर्तव्यम्,अथासमर्थः,ततः क्रियते इति। का पुण विदी. जाप पायरियगिलाणयासवुलपादेसमादिया. केचित्पुनरेवं भणन्ति । यत-समर्थस्याप्याचार्यस्य प्रायोणं उहिय, पत्तेयगहियं वा दिसं, ससं मणसिं रातिणिश्रो सु. ग्यग्रहणं कर्तव्यम् ॥ ११४॥ जिग्निदब्वाधिरोहेण, करंबे तु मंमलीए भुजति, पवं सब्वे. यदुत पते गुणा भवन्तिसिं समता भवति, एवं पुव्वुत्ता दोसा परिहार्रिया नवंति।। सुत्तत्थाथरीकरणं, विणो गुरुपयणं बहूमाणे। कारण परिवेजा भवइ य सहावुही, वुही बलवणं चेव ।। ११५॥ वितियपदें दोम्मि वि वहू, मीसे व विगिचणारिहे होज्जा। प्राचार्यस्य प्रायोग्यग्रहणेन सूत्रार्थयोः स्थिरीकरणं भवति, यतो अविगिंचणारिहे वा, जवणिज गिनाणमायरिए॥३३॥ मनोझाहारेण मूत्रार्थयोः सुखनैव चिन्तयति, वाचाऽसक्तस्य अत आचार्यस्य प्रायोग्यग्रहणं कर्तव्यम् । तथा विनयश्चानेन प्रकारेख पूर्ववत् कं। प्रदर्शितो भवति , गुरुपूजा कृता भवति, सेहस्य च आचार्यजंहोज अभोजं जं, चणेसियं तं विगिचणरिहं तु । कृते बहुमानःप्रदर्शितो भवतीति; अन्यथाऽसौ सेंहनं चिन्तयविसकय मंतकयं वा, दयविरुई कतं वा वि ॥ ३३१।। ति-यदुत न कश्चिदत्र गुरुर्नाऽपि लघुरिति, अतो विपरिणापूर्ववत् ॥ ३३१ ॥ नि० च्० २ २०॥ मो भवति । तथा प्रायोग्यदानतश्च श्रद्धावृद्धिर्भवति , तथा बुद्धेबलस्य च वर्द्धनं कृतं भवति, तत्र महती निर्जरा भवती(५२) अनगन्धः ति ॥ ११५॥ सेनिक्खू वा भिक्खुणी वाजाव पविसमाणे से आगं- एएहि कारणेहिँ उ, केइ सहुस्स वि श्यंति अणुकंपा। सारसु वा आरामागारेसु वा गाहावतिकुलेसु वा परि गुरुअणुकंपाए पुण, गच्छे तित्थे य अणुकंपा ।। ११६ ।। यावसहेसु वा अमरांधाणि वा पाणगंधाणि वा सुर एभिः पूर्वोक्तकारणैः कश्चित्समर्थस्यापि प्राचार्यस्यानुकम्पा कर्तव्या इत्येवं वदन्ति । यतः गुरोरनुकम्पया गच्छे तीर्थे चानुभिगधाणि वा अग्याय से तत्य अासायवमियाए मुछिए कम्पा कृता भवति, यतश्चवमतः प्रायोग्यग्रहणं गुरोः कर्तव्यगिके गढिए अज्झोपवले अहो गंधो अहोगंधोको गं- मिति ॥१६॥ धमाघाएज्जा ॥ कीदृशं पुनराचार्यप्रायोग्यं ग्राह्यमिति ?, अत आह"से भिक्खू वा" इत्यादि। (प्रागंतारेसु बेति) पत्तनाद बहिर्ग सइ लाभे पुण दन्वे, खेत्ते काळे य भावो चेत्र । देषु तेषु यागत्यागत्य पथिकादयस्तिष्ठन्तीति, तथा रामगृहे गहणं तिमु उक्कासं, भावे जं जस्स अणुकुलं ।।११७|| धु था, पर्यावसथेविति भिक्षुकादिमठेषु चेत्येवमादिष्यन्नपान सति विद्यमाने लाभे द्रव्यतः केत्रतः कालतो नावतश्च सत्कृष्ट गन्धान सुरभीनानाय स निकुस्तेयास्वादनप्रतिज्ञया मूलि प्राह्यम् । इदानीं नियुक्तिकारो व्याख्यानयन्नाह-(गहणं तिसु तोऽयुपपन्नः सन्नहो गन्धः, अहो गन्ध इत्येवमादरवान्न ग. उक्कोसं)ग्रहणं त्रिषु यत्रकालेषु उत्कृष्टं कर्तव्यम, भावे यग्धं जिवृक्षेविति । प्राचा०२ श्रु० १०८००। द्वस्तु यस्यानुकूलं तत् गृह्यते । [५३) प्राचार्याद्यर्थ तु इदानी भाष्यबयाख्यानयति-तत्र द्रव्योत्कृष्टता प्रदर्शयन्नाहभायरिए य गिलाणे, पाहुणए उल्लहे सहसदाणे। । कलमोयणे तु पयसा, उक्कोसो हाणि कोदवसो तु । एवं होइ अजाया, श्मा न गहणे विही हो ॥११३॥। तत्थ वि मिउ तुप्पयर, जत्थ व जं अच्चियं दोसु ॥१२॥ २४१ Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११००२) गोयरचरिया अभिधानराजेन्सः । गोयरचरिया कलमशाल्योदनं पयसा तह अन्यत उत्कृष्ठं ग्राह्यं तदवाने हान्या च्चादेति, मा मेतं दातियं तं दट्टणं सयमातिए एवं आतावत् गृह्यते यावत् कोऽवलम्। 'कोहवं चाउनयं' तत्रा यरिए वा जाव गणावच्छेए वा णो खत्रुमे कस्स पिकिंचि प्ययं विशेषः क्रियते-यदुत तदेव चाउलयं मृदु गृह्यते,तथा (तुप्पयरंति)स्निग्धतरं तदेव बाउलयं गृह्यते, उक्तं द्रव्योत्कृष्टम् । वि दायव्वं सिया,माइहाणं संफासे, णो एवं करेज्जा । से तश्दानी क्षेत्रकालोत्कृष्टप्रतिपादनायाऽऽह मायाए तत्थ गच्छेज्जा पुवामेव जत्ताणए हत्ये पमि(जत्थ व जं अच्चियं दोसु) द्वयोः केत्रकालयोः यद्वस्तु यन्त्र | गई कडु इमं खात्ति २ आलोएज्जा,णो किंचि वि णिपूजितं तत् तत्र गृह्यते। एतदुक्तं भवति-यद्यत्र के बहुमतं व्यं गुहेज्जा, से एगतिओ अम्पायरं भोयणजायं पमिगाहेज्जा, तत् तत्र तस्मिन् केत्रोत्कृष्टमुच्यते, तच्च ग्राह्य, तथा यद्वस्तु य जयं भोचा विवर्ष विरसमाहरति, माइहाणं संफासे, स्मिन् काले कालोत्कृष्टमुच्यते । भावोत्कृष्टं पुनः नियुक्तिकारेणैव णो एवं करेजा। व्याख्यातम् । उक्तं प्रसंगागतम् ॥११८॥ इदानी यमुक्तमाचार्यादीनां गृहीतं सदू यथोद्वरति, "से" इत्यादि । स भिकरकतरः कश्चित्साधारणं बहूनां सातथा प्रतिपादयन्नाह मान्येन दत्तं, वाशब्दः पूर्वोत्तरापेक्वया पक्वान्तरद्योतकः। पिण्ड पातं परिगृह्य तत्साधर्मि काननापृच्छ्य यस्मै रोचते तस्मै तस्मै माने सइ संघामो, गिराहा एगो न इयरहा सके। स्वमनीषिकया [खद्धं खद्धं ति] प्रजूतं प्रनूतं प्रयच्छति, एवंतस्सऽप्पणो य पज्ज-त्तगेएहणे होइ अरेगं ॥ ११ ॥ च मातृस्थानं संस्पृशेत्,तस्मान्नैवं कुर्यादिति । असाधारणपियदि तस्मिन्केत्रे घृतादीनां स्वभावेनैव आभोऽस्ति, ततस्तस्मि एमावाप्तायपि यद्विधेयं तद्दर्शयति-" से इत्यादि।" स भिकुम्काले सति प्राचार्यार्थमेक एव संघाटकः प्रायोग्यं गृह्णाति (इ. स्तमेषणीयं केवलवेषावाप्तं पिएममादाय तत्राचार्यायन्तिके गवरद त्ति) यदा तस्मिन् केत्रे प्रायोवृत्त्या प्रायोग्यस्य लाभः, तदा छेत् । गत्वा चैवं वदेत्-यथा आयुष्मन् ! श्रमण! सन्ति विद्यन्ते सर्व एव संघाटकाः तस्याचार्यस्य श्रात्मनश्चार्थे, पर्याप्तग्रहणे । मम पुरः संस्तुता यदन्तिके प्रवजितास्तत्संबन्धिनः, पश्चात् सति अतिरिक्तं भवति, ततश्च तत् परिष्ठाप्यते ति ॥११॥ संस्तुता वा यदन्तिके अधीतं श्रुतं बा, तत्संबन्धिनो वा इदानीं " गिलाण त्ति" व्याख्यानयनाह अन्यत्रावासितास्तांश्च स्वनामग्राहम । तद्यथा-प्राचार्योऽनुयोगेलनगहणनियम, नाणतोहासियं पितत्य नवे । । । गधरः, नपाध्यायोऽध्यापकः, प्रवृत्तियथायोगं वैयावृत्यादौ सा ओहासियमुबरियं, विगिंचए सेसगं मुंजे ॥१२॥ धूनां प्रवर्तकः,संयमादौ सीदतांसाधूनां स्थिरीकरणात् स्थविरः, ग्लानस्य यनियमेन प्रायोग्यग्रहणं, यदि परं नानात्वम "ओजा गच्छाधिपो गणी,यस्त्वाचार्यदेशीयो गुर्वादेशात् साधुगणं गृ. सितं पि"प्रार्थितमपि तत् ग्लाने भवति, ग्वानार्थ प्रायोग्यस्य हीत्वा पृथग्विहरति स गणधरः । गणावच्छेदकस्तु गच्छकार्यप्रार्थनमपि क्रियते,ततश्च"ओभासितं" प्रार्थितं यत् सानार्थ,पुन चिन्तकः (अवियाइंति ) एवमादीनुद्दिश्यैतद्वदेत् । यथा-अहमेश्व यदुवरति,ततस्तद् विगिच्यते परित्यज्यते, (सेप्सगंभुंजे त्ति) तेभ्यो युष्मदनुज्ञया (ख खळं ति) प्रभूतं प्रनूतं दास्यामि । तशेष यदनवभासितम् अप्रार्थितम् उक्षरितं, तं नुजीत कश्चि देवं विज्ञप्तः सन् पर प्राचार्यादिर्यावन्मात्रमनुजानीते तावसाधुरिति,माघूर्णकोऽपि प्राचार्यवम्याख्यातो व्यः ॥१२॥ मात्रमेव निसृजेद्दद्यात, सर्वानुज्ञया सर्व वा दद्यादिति । किञ्चश्दानी “दुल्लभे त्ति” व्याख्यानयनाह "से इत्यादि सुगमम,यावग्नवं कुर्यात् । यच्च कुर्यात्तदर्शयति-स मुबहदव्यं व सिया. घयाइ घेत्तण सेसमुस्सति । भिक्षुस्तं पिएममादाय तत्राचार्याद्यन्तिकं गच्छेद्, गत्वा च सर्व यथावस्थितमेव दर्शयेत,न किञ्चिदयगृहेत् प्रच्छादयदिति । सा. योवं देमि व गेहा-मि वेति सहसा ते अयरिं ॥१॥ म्प्रतमटतो मातृस्थानप्रतिषेधमाह-"से इत्यादि।"सभिकुरेकतरः दुर्लजाव्यं वा स्याद्भवेत् घृतादि, तद् गृहीत्वोपनुज्य च य- कश्चिदन्यतरद्वर्णाद्युपेतं मोजनजातं परिगृह्याटन्नेत्र रसगृध्नुपछेषं तदुत्सति, एवं वा परिष्ठापनिका भवति । ('सहसदाण- तया भाकं भज भुक्त्वा यद्विवर्णमन्तप्रान्तादिकं तत्प्रतिश्रये त्ति' व्याख्या ' परिवणा' शब्द वदयते) श्रोघ०। समाहरत्यानयति, एवं च मातृस्थान संस्पृशेत्, न चैवं कुर्या(५४ ) ग्वानार्थ गृहीत्वा स्वयं नाश्नीयात् दिति ॥ श्राचा०२ श्रु०१ अ० १० उ० । से एगतिओ साहारणं वा पिंडवायं पमिगाहेज्जा, ते णिग्गंध च गाहावइकुलं पिंडवायपमियाए अणुप्पविसाहम्मिए अणापुच्छित्ता जस्स जस्स इच्छइ , तस्स तस्स विलु केइ दोहिं पिंडोहिं उबनिमंतेज्जा-एगे आजसो! अप्पखरख दलयति, माइट्ठाणं संफासे, णो एवं करेजा,से णा भुजाहि, एग थेराणं दक्षयाहि, से य तं पमिगाहेज्जा, तमायाए तत्थ गच्चे जा,पुवामेव आलोइज्जा-आउसंतो! | थेरा य से प्राणुगवेसियब्बा सिया, जत्येव अणुवगेसमाणे समणा ! संति मम पुरे संयुया वा, तं जहा-आयरिए वा| थेरे पासेज्जा, तत्येव अणुप्पदायव्ये सिया,नो चेव णं अउज्झाए वा पवत्ती वा थेरे वा गणी वा गणहरे वा ग- णुगवेसमाणे थेरे पासेज्जा, तं नो अप्पणा तुंजेज्जा, नो णावच्या वा,अपियाई एतेसिं खद्धं खर्फ दाहामि, से- अमेसिं दावए, एगते अणावाए अचित्ते बहुफासुए थंमिणेवं वयंत परो वजा-काम खलु पाउसो! अहापजत्तं णि- ले पमिलेहित्ता परिमज्जित्ता परिहवियव्ये सिया । निग्गसराहि,जाइयं जावयं परोक्यतावश्यं तावइयं णिसिरे थंच पं गाहावइकुलं पिमवायपडियाए अणुप्पविढं के जजा, सव्वमेयं परो वयति,सव्वमेयं णिसिरेज्जा । से एगति- | तिहिं पिंमेहिं उवनिमंतज्जा-एगं आउसो! अप्पणा मुंजाहि, ओगा जोयणजायं पमिगाहेत्ता पत्तेणं नोयणेणं पलि- दो थेराणं दलयाहिसे य ते पमिगाना,थेरा य अणुग Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००३) गोयरचरिया अभिधानराजेन्द्रः। गोयरचरिया बेसमाणे सेनंत चेव० जाव परिववियत्वे सिया। एवं जाव | मवग्रह, मेधावी साधुः, प्रतिच्छन्ने तत्र कोष्ठकादी, संवृत उपयुदसहिं पिमेहिं उवनिमंतेज्जा, णवरं एगं ाउसो! अप्पणा क्तः सन्साधुः, ई-प्रतिक्रमणं कृत्वा, तदनु हस्तकं मुखबस्त्रिका रूपम्, श्रादायेति वाक्यशेषः। संप्रमृज्य विधिना तेन कार्य, लुंजाहि, नत्र थेराणं दसयाहि,सेसं तं चेव० जाव परिवि तत्र तुजीत संयतः, रागद्वेषावपाकृत्यति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ यव्वे सिया । निग्गंथं च णं गाहावश्कुलं. जाव केइ दोहिं तत्थ से तुंजमाणस्स, अद्वियं कंटओ सिया । पडिग्ग हेहिं उवनिमंतेज्जा-एगं ाउसो! अप्पणा पमिनुजा तणकट्ठसकरं चावि, अन्ने वा वितहाविहं ।। ८४|| हि, एग थेराणं दलयाहि, सेय संपनिगाहेज्जा तहवे. जाव तत्र कोष्ठकादौ से' तस्य साधो आनस्य अस्थि, कष्टको तं नो अप्पणा परिणुजेजा, नो अमोसिं दावए, सेसं तं चेव वा स्यात्, कथञ्चित गृहिणां प्रमाददोषात, कारणगृहीते पुल जाव परिदृवियध्वे सिया, एवं ० जाव दसहिं पडिग्गहेहिं,एवं एवेत्यन्ये , तृणकाष्टशर्करादि चापि स्यात, चचितभोजने अन्य. जहा पमिग्गहवत्तव्यया जणिया, एवं गोच्छगरयहरण चो-| द्वाऽपि तथाविधं वदरकर्कटकादीति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ लपट्टगकंवललट्टीसंथारगवत्तव्यया जाणियव्यास जाव दस तं उक्खि वित्तु न निखिवे, आसएण न छहए। हिं संथारएहिं उवनिमंतेज्जा. जाव परिहवियव्वे सिया। हत्येण य गहेऊएं, तं एगंतमबक्कमे ।। नए । निर्ग्रन्थः पुनगृहपतिकुलं गृहिगृहम [पिंझवायपमियाए ति] तदस्थ्यादि उतक्षिप्य हस्तेन यत्र क्वचिन्न निकिपेत , तथाऽsपिएमस्य पातो भोजनस्य पात्रे गृहस्थानिपतनं, तत्र प्रतिज्ञा स्पेन मुखेन नोज्झेत , अपितु हस्तेन गृहीत्वा तदस्थ्यादि कावडिः,पिराडपातप्रतिज्ञा, तया, पिएमस्य पातो मम पा-| एकाम्नमवक्रामेदिति सूत्रायः ॥ ५॥ वे भव स्विति बुद्धयेत्यर्थः । [ उवनिमंतेज्ज त्ति ] निको गृहा एगंतमत्र कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिया । णेदं पिएमद्वयमित्यभिदध्यादित्यर्थः । तत्र च "एगमित्यादि।" [से यत्ति ] स पुनर्निर्ग्रन्थः । [तं ति] स्थविरपिण्डम [ थे | जयं परिच्चेज्जा, परिदृष्य पडिक्कमे ॥ ६॥ राय से त्ति]। स्थविराः पुनस्तस्य निम्रन्थस्य [सिय त्ति]| ___ एकान्तमवक्रम्य, अचित्तं प्रत्युपेक्ष्य यतं प्रतिष्ठापयेत्, प्रतिष्ठास्युर्जबन्तीत्यर्थः । [ दावप सि ] दद्यादापयेद्वा, अद-| प्य प्रतिका मेदिति, भावार्थः पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ सादानप्रसङ्गाद् गृहपतिना हि पिएमोऽसौ विवक्तितस्थ- (५६) गोचरादागमनम् । वसतिमधिकृत्य भोजनविरेभन एव दत्तो नान्यस्मै इति ( एगते ति ) जना विधिमाहलोकयर्जिते ( अणावाए ति ) जनसम्पातवर्जिते सिया य भिक्खू इच्छेज्जा, सिज्जमागम्म जुत्तुयं । (अत्रित्ते नि)अचेतनाऽचेतनमात्र एवेत्यत आह-(बहुफासुए सपिंडपापमागम्म, उमुयं से पडिलोहिया ।।०७॥ ति) बहुधा प्रासुकं बहुप्रासुकं, तत्रानेन चाऽचिरकाल कृते विस्तीणे दुरावगाढे त्रसप्राणवीजरहिते चेति संगृहीतं रुष्टव्यमि स्यात्कदाचित्तदन्य कारणाभावे सति भिकुरिच्छेत् शय्यां बस. ति। (से य तेत्तिस च निर्ग्रन्थस्तौ स्थविरपिण्डौ ( पडि तिमागम्य परिभोक्तम् । तत्राऽयं विधिः-सह पिएमपातेन विशुमगाहेजत्ति) प्रतिगृह्णीयादिति । निर्ग्रन्थप्रस्तावादिदमाह-“नि. कसमुदानेनाऽऽगम्य, वसतिमिति गम्यते,तत्र बहिरेवान्दुकं स्थान गंथं चणं" इत्यादि । भ०८।०६ उ०। (ग्लानं प्रति विशेष प्रत्युपेदय, विधिना तत्रस्थः पिएमपात शोधयेदिति सूत्रार्थः॥८॥ 'गिलाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ! पृष्ठे गतः) ( गोचर तत उर्द्धम्चांयामकृत्यं प्रतिसेव्याऽऽलोचना 'आलोयणा' शब्दे द्वि विणएणं पविसित्ता, सगासे गुरुणो मुणी। तीयभागे ४२५ पृष्ठे, साराधको विराधको वेति 'श्रारा- हरियावहियमायाय, आगो य पडिक्कमे ॥७॥ हग' शब्दे द्वितीयभागे ३७७ पृष्ठे, अाराधना च 'श्रारा-| विशोध्य पिण्डं बहिर्वितयेन नैपोधिकी 'नमः वामाश्रमणाभ्यः' इणा' शब्दे द्वितीयभागे ३८६ पृष्ठे द्रष्टव्या) अब्जलिकरणसवाणेन, प्रविश्य, वसतिमिति गम्यते । सकाशे (५५) गोचरे भोजनविधिमाह गुरोर्मुनिः, गुरुसमीपे इत्यर्थः । र्यापथिकीमादाय "इच्छामि सिया य गोरग्गगो, इच्छेज्जा परित्नोत्तुअं। पडिकमिउं इरियावहियाए" इत्यादि पवित्वा सूत्रम् । श्रा गतश्च गुरुसमीपं प्रतिक्रामेत, कायोत्सर्ग कुर्यादिति सूत्रार्थः । कोहगं भित्तिमूलं वा, पमिझेहित्ताण फासुयं ॥ ७ ॥ (५७) गोचरतिचारालोचनम्म्यात्कदाचिनोचराग्रगतो नामान्तरं निकां प्रविष्ट श्च्बत्परि आजोश्त्ताण निस्सेस, अइयारं जहकों। भोक्तुं पानादिविपासाद्यनिभूतः सन् , तत्र साधुवसत्यभावे कोष्ठकं शून्यवट्टमवादि, भित्तिमूझं वा कुड्यैकदेशादि, प्रत्युपेक्ष्य गमणागमणे चेव, जत्ते पाणे च संजए॥८ ॥ चकृषा, प्रमृज्य च रजोहरणेन, प्रासुकं बीजादिरहितं चेति तत्र कायोत्सर्ग प्राभोगयित्वा ज्ञात्वा निःशेषमतिचारं यसूत्रार्थः ॥ २॥ थाक्रमं परिपाट्या, त्याह-गमनागमनयोश्चैव, गमने गच्छता, अागमने प्रागच्छतो योऽतिचारः, तथा भक्तपानयोश्च , जक्ते तत्र पाने च योऽतिचारः, तं संयतः साधुः कायोत्सर्गस्थो हृदये आणुन्नवित्तु मेहावी, पडिच्छन्नम्मि संवमं । स्थापयेदिति सूत्रार्थः ।। HE || दश. ५ अ०१०। (अत्र कीटक हत्थगं संपमज्जित्ता, तत्य लुजिज्ज संजए॥३॥ | स्थापयेद् नुजीत वेति बहुविचारः 'प स्थापयेद् जुजीत वेति बहुविचारः 'परिवणा' शब्दे वक्ष्यते) अनुज्ञाप्य सागारिकपरिहारतो विश्रमणव्याजेन तत्स्वामिन- वासावासं पज्जोसवियाएं नोकप्पइ निग्गंथा वा नि Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयरचरिया अभिधानराजेन्द्रः। गोयरचरिया थीण वा अपरिन्नएणं अपरिन्नयस्स अट्ठाए असणं वा जवन्ति । तेषां च भरकानां मध्ये यस्मिन् भड़के कालो नपपाणं वा खाइयं वा साइमं वाग्जाव पमिगाहित्तए॥१०॥से | र्याप्यते, तस्मिन् वर्तित पव शेषेषु चतुर्भङ्गकेषु भजनां विक ल्पनां करोति ॥७६८॥ किमाह भंते !?। इच्ला परो अपरिन्नए भुजिज्जा, इच्छा परो इदानी भजनां दर्शयन्नाहन तुजिज्जा ॥४१॥ "वासावासं" इत्यादितः "न जिज्जे ति"यावत्सूत्रद्वयम्।तत्र अन्न व बए गाम, अयं भाणं च गेएह सइ काले । "अपरिमएण" इत्यादि । त्वं मम योग्यमशनम् आनयः' इति पढमे विइए छप्पं-चए य भएँ सेसऍ नियते ॥७६ए। अपरिझोन अज्ञापितेन साधुना 'अहं तव योग्यम अशनादि अन्य ग्राम वा व्रजति काले पर्याप्यमाणे, अन्यश्च भाजनं प्रानेष्ये' इत्यपरिज्ञप्तस्य अज्ञापितस्य साधोः (अट्ठाए त्ति) गृह्णाति पर्याप्यमाणे काले सति, एवं प्रथमभङ्गके, द्वितीयेच, अर्थाय कृते अशनादि परियहीतुं न कल्पते ॥ ४० ॥ अत्र शिष्यः षष्ठे पश्चमे भङ्गके च भजनां सेवनां करोति काले सति, येषु पृच्ाति-( से किमाहु भंते त्ति) तत्कुतो भदन्त ! ?। गुरुराह भङ्गकेषु कालो न पर्याप्यते तेषु नियन्येत, तेषु न गन्तव्यं नि. "इच्छेत्यादि।" इच्छा चेदस्ति तदा परो यदर्थमानीतं स भु काया इत्यर्थः । स च पर्याप्यमाणकासो द्विविधः-जघन्यः, जीत, इच्छा न चेत्तदान भुञ्जीत, प्रत्युतैवं वदनि-केनोक्तमा. उत्कृष्टश्च ॥ ७६५ ॥ सीत् यत्त्वया पानीतम ?। किंच-अनिच्या दातिएयतवेद तत्र जघन्यप्रतिपादनायाऽऽहतुते तदा अजीर्णादिना बाधा स्यात्, परिष्ठापने च वर्षासु बोसिच्च मागयाणं, वसु धाविऍ मत्तए च नृमितिए । स्थगिमलदौर्लभ्याघोषः स्यात, तस्मात्पृष्ठा आनेयम् ॥ ४१ ॥ पमिलेह भएथमिए, सेसऽत्यमिए जहन्नो न॥७७०॥ कल्प०६क्षण। संज्ञा व्युत्सृज्य भागतानां, मात्रकं च, यस्मिंस्तोयं गृहीत्वा गत जग्गम उप्पायगए-सणाएँ वायाल होति अवराहा।। प्रासीपनार्थ, तस्मिन् उकापितशोषिते सति, भूमित्रिके सोहे समुदाएं, पमिवसे वच्चम् वसहिं ।। ७६५ ॥ च-कायिकरमौ द्वादश स्थरिकलानि, संज्ञानूमौ द्वादश स्थ. एवं साधोरुकमोत्पादनैषणाभिर्विचत्वारिंशदपराधा भव- रिडलानि, कानूमौ त्राणि स्थरिमलानि, एवमस्मिन् मित्रिस्ति । तैः समुदान मिकां शोधयित्वा विविख्य ते ततः 'पडि-| तये प्रत्युपेक्तिते सनि, यदाऽनस्तमनं भवति अस्मिन् प्रदेशे,(से. घराणे' लब्धे सति भक्तादौ वसति प्रयान्ति ।। ७६५ ॥ सअत्थमिते त्ति) शेषोपधिम अस्तमिते श्रादित्ये प्रत्युपेक्षिते, इदानी तद्भक्तं गृहीतं सत् शोधयित्वा वसतिं प्रवि-- यदा अयमित्यनूतः काल इति स जघन्य इति ॥ ७० ॥ शति, केषु स्थानेष्वत श्राह इदानीमुत्कृष्टकानप्रतिपादनायाऽऽहअन्नघर देउले वा, असइ य ओवस्तगस वा दारे । नुत्ते वियारनूमि, गयाऽऽगयाणं तु जह य जग्गाहे। संसत्तकंटगाई, सोहेउमुवस्सगं पविसे ॥ ७६६ ॥ चरिमाएँ पोरिसीए, नकोसो सेसे मज्मिो ॥७२॥ गृहीत्वा भक्तमुपाश्रयाभिमुखो वजस्तदम्यगृहे तत्जक्तं प्रत्युपेक्ष्य भुक्ते सति विचारनूमि संज्ञाभूमि गत्वा आगतानां यथा उग्रततो वसति प्रविशति,तदभावे देवकुले वा, तदसति-यदि गृहा-| हे आगच्छति चरमपौरुषी चतुर्थप्रहरः, अथ चा-चरमपौरुषी दीनामनावस्तदोपाश्रयद्वारे संसक्तं सः, कण्टकैर्वा यद् व्याप्तं, पादोनचतुर्थप्रहरो यथा आगच्छति, यस्यां वेलायाम, अयमतत् शोधयित्वा प्रोदय संसक्तादिनक्तं, तत उपाश्रयं प्रविशा | स्कृष्टः कालः, शेषस्त्वन्यो मध्यमकान इति ॥ ७७१ ॥ ति ॥ ७६६॥ तेन च भिकामटित्वा विनिवृत्त्य प्रविशताकिं कर्तव्यमत माहएवं तस्य प्रत्युपेक्षतः कदाचित् संसक्तं भवति, तत्र किं करोतीत्यत आह पायपमजण निस्सी-हीया तिन्नि उकरे पवसाम्म । संसत्तं तनोच्चिय, परिदृवित्ता पुणोदगं गेएहे। अंजलि गणविसोही, दमग उवहिस्स निक्खयो ।।७७॥ बहिरेव यसतेः पादौ प्रमाजयति, निषेधिकात्रितयं करोति कारणे मत्तगगहियं, नम्गाहिऍउड पविसणया ।।७६७।। प्रविशन्, पुनश्च गुरोः पुरस्तादञ्जलिना नमस्कारं करोति "नमो यदि तत्रसंसक्तं पानकनवेत, ततोऽस्मादेव स्थानात् प्रतिष्ठाप्य बमासमणमिति " तथा प्रविष्टश्च स्थानं विशोधयति, तत्र पुनरप्यन्यद्भवं गृगहाति, तथा ग्लानादिकारणेन च मात्रके यद | दएमकस्यापधेश्च निक्के करोति ॥ ७७॥ गृहीतमासीत्तत् पतद्ग्रहे प्रक्किप्य प्रविशति । ततस्तस्य साधु इदानी मेनामेव गाथां भाष्यकारो व्याख्यानयनाहजिराण्यातम्-यदुत ग्लानस्यान्यद् लब्धिमतो निष्कारणं मात्रकोपयोग परिहर, निष्कारणमात्रकोपयोगे च प्रमादा एवं पच्चुप्पो, पविसउतिन्नि य निसीहिया होति । भवन्ति , एवमसौ परिशुद्धे सति भक्त प्रविशति नपाश्र अग्गद्दारे मज्के, पवेसे पाए असागरिए ॥७७३॥ यम् ॥ ७६७॥ एवं प्रत्युत्पन्ने खब्धे सति भक्ते प्रविशतस्तिस्रो निषेधिकाअथाशुरू भवति, ततः परिष्ठाप्य किं करोति?,इत्यत आह- भवन्ति। क?, अग्रद्वारे प्रथमा, तथा द्वितीया मध्यमदेशे धमतः, गामे य काले जाणे, पहुप्पमाणे हवंति भंगट्ठा । प्रवेशे च मूलद्वारस्य तृतीयां निषेधिकां करोति , पादौ च प्रमाजयति, यदि कश्चित्सागारिको न भवति । अथ तत्र सागाकाले अपहुप्पति त-त्य वट्टिए सेसए जयणा ।।७६०॥ रिको भवनि, ततः वरण्डकाभ्यन्तरे प्रमार्जनं करोति । अथ यदा ग्रामं पर्याप्यते, काश्च पर्याप्यते, नाजनं च पर्याप्यते, मध्यमे ऽपि जबति-द्वितीयनिषीधिकास्थानेऽपि जति सागा. एवमस्मिनये पर्याप्यमाणे सति, पदत्रयनिष्पना अष्टो भाका रिकः ततः मध्ये प्रविश्य प्रमाजयति पादौ, अनेन कारणेन प. Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयरचरिया अनिधानराजेन्डः। गोयरचरिया वाद्भाध्यकारेण पादप्रमार्जन व्याख्यातम,येन तदनियतं घर्तते, जंति,एगा वि थेरी धुत्ती संभाविज्जति,एगा तरुणी तकणिजा"। निषाधिकास्वकृतास्वपि कारणवशात सजवतीति ॥ ७७३ ॥ _यस्मादेते दोषाः तस्मादयं विधिःइदानीमजल्यवयवं व्याख्यानयन्नाद पुरतो य मग्गतो वा, येरीऊ मके होति तरुणीउ । इत्युस्सेहो सीस-प्पणामणं वाइओ नमोकारो । अइगमणे निग्गमाणे, एस विही हो कायव्वा ॥ गुरुजायणे य माए, वायाएँ णमो न उस्सेहो ॥७॥ पुरतो मार्गतश्च स्थविरा नवन्ति, मध्यन्नागे तरुण्यः, एवं बहीहम्तोच्छूयं नमस्कारार्थ करोति, शीर्षप्रणमनं करोति, वाचा नां संभूय पर्यटन्तीनामुक्तम्, जघन्येन तु तिस्रः सहैच पर्यटन्ति, च "नमो स्वमासमणाणं" इत्येवं नमस्कारं करोति । अथ तद्गुरु तत्रैका स्थविरा पुरतो, द्वितीया स्थविरैव पृष्ठतः, तृतीया तरुभिवाभाजनं भवति, मात्र च गुरु गृहीतमनलीभिः, ततश्चैवं | णी तयोद्धयोरपि मध्ये, एवमतिगमने गृहपतिगृहप्रवेशे, निर्गमगुरुणि भाजने सति शिरसा प्रणाम करोति, वाचा नमो इत्येवं | ने च,तत पर निर्गम एष विधिः कर्तव्यो नवति । ते, हस्तोच्छ्रयं न करोति, यतोऽसौ गुरोर्मात्रकस्याधे इस्तो इत्तः संधारणार्थ ततश्च नोच्चूयं करोति ॥७७४॥ोघ० (गुरये कुत इति चेदुच्यतेनिवेदयेत् भुञ्जीत चेति 'भोयण' शब्दे वक्ष्यते) निगमादऽसंकणिज्जा, अतक्कणिज्जा य साण-तरुणाणं । (५७) गोचरातिचारे प्रायश्चित्तम् अन्नोन्नरक्खणेसण, वीसत्य पवेसकिरियाए । गोयमा ! जेणं भिक्खू पिंमेसणाभिहिएणं विहिणा त्रिकादयः पर्यटन्त्योऽशाङ्कनीया जवेयुः,श्यानतरुणानां च अतर्कअदीपमाणसा वजंतो दीयहरियाई, पाणे य दगम णीया अनभिलपणीया भवन्ति । उपभवत्स्वपिन इवानगवादिषु अन्योऽभ्यं सुखेनैव रकणं कुर्वन्ति,एषणां च सम्यक शोधयन्ति, ट्टियं प्रोवायं विसमं खाणुं रनो गिहबईणं व संकट्ठाणं विश्वस्ताश्च सत्यो गृहस्थकुलेषु प्रवेशनिर्गमादिक्रिया: कुर्वन्ति । वि बज्जतो पंचसमियतिगुत्तो गोयरचरियाण पाहुमियं यत्र कोष्ठको भवेत्तत्रायं विधिःन पमियरिया, तस्स णं चनुत्थं पायच्चित्तं उबइ- थेरी कोट्ठगदारे, तरुणी पुण होइ तीऍ णो दूरे । सेज्जा । जय शं नो अनत्तही उवणकुलेमु पविसे, खवणं विश्य किढी वारवहिं, पञ्चत्थियरक्खणटाए ।। सहसा पमिवुत्थं पमिगाहियंतं तकखणा ण पारडवे, नि- एका स्थविरा कोष्टकस्यापवरकस्य द्वारे, तरुणी पुनस्तस्याः रुवहवे थंडिले खवर्ण अकप्पं पमिगाहेजा,चनुत्थाइ जहा स्थविराया नातिदूरे प्रवेशे,या तु द्वितीया 'किढी' स्थविरा, सा जोगं कप्पं वा पमिसेहेइ उबट्ठावणं, गोयरपविट्ठो कहं वा द्वारस्य बहिस्तिष्ठति । किमर्थमित्याह-प्रत्यनीका,तस्य रक्कणा थे, यदि कोऽयुपसर्ग कुर्यात, तदा सुखेनैव वोलं कृत्वा सनिविकह वा उन्नयकहं वा पत्यावेज वा,उदीरेज वा, कहेज्ज वार्यते। वा,निसामेज वा,कई गोयरमागो य,जत्तं वा पाणं वाजे जाणंति तबिहकुसं, संबुद्धीए चरिज्ज अन्नोन्न। सज्जं वा,से जेणं चिंतियं, जहा य चित्ते,जं जहा य पमिग्ग ओराम निच्च लोयं, खुज्ज तवो आजले सहाया ।। हिय, तंतहा सव्वं आलोएज्जा पुरिमहं,इरियाए अपडि तद्विधानि ताह यानि संभावनीयोपद्वाणि कुलानि सम्यम् कंताए जत्तपाणाश्यं आलोएज्जा पुरिम४ । महा० अ०॥ जानन्ति, ज्ञात्वाऽथ प्रथमत एव परिहरन्ति । अन्योऽन्यं परस्पर (गोचरातिचारप्रतिक्रमणं पडिक्कमण ' शब्दे एष स्थ-1 संबुद्धया संमत्या चरेयुर्जिताचर्या पर्यटेयः,मा नवसंमत्यांपविरकल्पिकस्य भिक्कणविधिरुतः। जिनकल्पिकस्य तु 'जि- र्यटन परस्परमसंखडादयो दोषाः। या च उदारा रूपातिशययुणकप्पिय 'शब्दे) क्ता संयती, सा नित्यमेव सोचमात्मना करोति ( खुजत्ति ) (एए) निर्ग्रन्योनां तु भिक्षाविधिरेवम् तस्याः धृष्ठप्रदश कुन्जकरणी स्थापयितव्या, तपश्चतुर्थादि सा अथ भिक्कानिर्गमद्वारमभिधित्सुराह कारापणीया, पाकुले जनाकाणे बह्वीभिश्च सहायाभिः सहिता दो येरि तरुणि थेरी, दोन्नि उ तरुणीन एकिया तरुणी। सा भिक्षादौ हिण्डापनाया। चनरो अ अणुग्घाया, तत्थ वि आणाणो दोसा ।। अथ तासां वृन्देन निकाटने कारणान्तरमाहअत्र गुरुनियोगतः चूर्णिरव लिख्यते-"जति दोन्निथेरीओनि-1 तिप्पमिइ अमंताओ, गिएहंतऽनन्नाहिं चिये तिमि । गच्छंति निक्खस्स वा, तरुणी थेरी य जति वा, दो तरुणी उनिग्गजति बा,एगा थेरी जति निग्गच्छति वा,एक्किया तरुणी संजमदव्वविरुषं,देहविरुषं च जं दध्वं ।। जति निग्गवति वा।" तत्राऽप्याझादयो दोषाः। त्रिप्रभृतिवृन्दे निकामटन्स्योऽन्यान्यस्मिन् पृथक् पृथप भाजने, कुत इत्याह चशब्दः प्रागुक्तकारणापेक्षया कारणान्तरद्योतनार्थः । अनि चनकम नोजरई, संका दोसा य थेरियाणं पि। त्रीणि द्रव्याणि सुखेनैव गृह्णन्ति । तद्यथा-संयमव्यविरुषी, देहविरुकं च यत् सत्यम्। कुट्टिणिसहिता वीए, ति धुत्त तकण चउत्थीसु ॥ एतान्येव प्रतिपादयतिदोएहं थेरीणं दोसो-वे अभिन्नरहस्सीउ होज्जा, संका, पाकि, मन्ने केणा पुत्तिकिच्चेण नि उत्तिया न असंकणिज्जाउत्ति पालंकलसागा, मुग्गकयं चामगारसुम्मीसं । काचं, तरुणी थेरी य, लोगो भणजा-कुट्टिणिसहिया हिंमति संसज्जती उ अचिरा, तंपिय नियमा ददोसाय॥ वितिए, तिपगारे निग्गमस्स-दो तरुणीमो धत्तीमो सजावि- पासशाकं महाराष्ट्रादीप्रसिकं,लब्धशाकं कौसुम्भशासनकम। २५१ Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००६) गोयरचरिया अन्निधानराजेन्द्रः। गोयरचरिया पते अन्योऽन्यं मिलिते सूक्ष्मजन्तुभिः संसृज्येते, यश्च मुझकृत. प्रस्तुतयोजनामाह-- म, उपलकणवादन्यदपिद्विदलं, तदप्यामगोरसोन्मिथं सदाच- जह फूमा हसई सइ, घटिया एवमेव थीवेदो। रादेव सूक्ष्मजन्तुभिः संसज्यते, संसक्तं च नियमात्, "एके द्वी दिप्पा अतिकिढियाण वि, आलिंगन-छेदणादीहिं ।। दोषौ समाहृतौ द्विदोषम्" तस्मै, द्विदोषाय भवति,संयमोपधासामोपघातरूपं दोषद्वयं करोतीत्यर्थः । यथा फुफुकाग्निधीटतः सन् (हसात्ति) देदीप्यते, एवमेव स्त्री वेदोऽप्यालिहूनच्छेदनादिभिरुदीरितः स्थविराणामपि दीप्यते, दहि तिल्लाई उभयं, पय सोवीरा य हुँति य विरुष्का किं पुनस्तरुणीनामित्यपिशब्दार्थः । देहस्स विरुद्धं पुण, सीनएहाणं समाअोगो। ___ आह-स्थविराणां कथं वेदोद्दीपनं भवतीत्युच्यतेदधिबे, श्रादिशब्दादन्यदप्युनय मिालतं सद्यत्परम्परविरुद्ध, न वो इत्थ पमाणं, न तवस्सित सुयं न परियाअो। ये च पयःसौवीरे दुग्धकाजिके परस्पर विरु तत् अव्य. विरुद्ध मन्तव्यम्, देहस्य पुनर्विरुकं यः शीतोष्णयोध्ययोः पर अविक्खीणम्मि बेदे, धीलिंगं सव्वहा रक्खं ॥ स्पर समायोगः । एतानि पृथक् पृथक् भाजनेषु गृह्यमाणानि नवयो वाद्धकादिकमत्र विचारे प्रमाणं,न वा तपसित्वमनशनान संयमाद्युपधाताय जायन्ते । दितपःकर्मकारिता, न वा श्रुतमाचारादिकं सुबह्वप्यवगादितं, अपि च नचा पर्यायो माघीयःप्रवज्याकाल लवणः । एतेषु सत्स्वपि वेदोदयो भवेदित्यर्थः । अपि च-क्षीणेऽपि वेदेखीभिः स्त्रीलिङ्गं नत्यि य मामागाई, माउग्गामो य तासिब्जासे । सर्वथा रक्ष्यमाअत एव स्त्री केवलिपथोक्तामाथिकोपकरणप्रायसीनएहगिएहणाए, सारक्खण मक्कमेकस्स। रणादियतनां करोतीति भावः। न सन्ति तासां मामकानि कुलानि-न हि कोऽपि स्त्रीजनं आह-याद ताः स्नानादिपरिकर्मरहिताः, ततः किंगृहे प्रविशन्तमीय॑या निषेधयतीति भावः । मातृग्रामश्च कोऽपि तासु रागं ब्रजति, येनत्थं यतना क्रियते', नाम-समयपरिभाषया स्त्रीवर्गः, चशब्द पवकारार्थः । तत् कि उच्यते-- मुक्तं भवति?-स्त्रीवर्ग एव प्रायेण भिक्षादायकः, स च तासां काम तवस्सिणीश्रो, एहाणवणविकारविरयाओ। संयतीनामज्यासे स्त्रीत्वसंबन्धमधिकृत्य यश्चास्यासन्नो वर्तते, तह वि य सुपाउआणं, अपेसणाणं चिमं हो ॥ मतस्त्रिप्रवृतीनामपि पर्यटन्तीनां सुखेनैव भक्तपानं पर्याप्तं काममनुमतं यथा तपस्विन्यःस्नानोद्वर्तनविकारविरताः,तथापि भवति । शीतोष्णग्रहणेन च संरक्कणमेकैकस्याः परस्परं कृतं सुप्रावृतानां नित्यमेव बहुभिरुपकरणैराचादितानाम्,अप्यैषणाप्रवति। नां वा व्यापाराणाम , इदमनन्तरमेव वदयमाणं शरीरसौन्दर्य कथं पुनरिति, अत पाह भवति । एगत्थ सीयमुसिणं, च एगहिं पाणगं च एगत्य। तदेवाह रूवं वन्नो सकुमा-स्या य निच्छवी य अंगाणं। दोसऽभस्स अगहणे, चिराडणे डोज्जिमे दोसा॥ एकत्र प्रतिगृहे शीत पर्युषिहं गृह्णन्ति, एकस्मिन्नुष्णम्, एकत्र होति किर सन्निरोहे, अज्जाण तवं चरंतीणं ॥ व पानकमाएतक तिसृणामटतीनां भवति । अथ द्वे पर्यटतस्तत रूपमाकृतिः, वर्णो गौरवत्वादिः,सुकुमारता कोमलस्पर्शता,स्निएकत्र प्रतिग्रहे उष्णं,हितीयं तु पानकं,पर दोषान्नं कुछ गृह्यन्तु। ग्धता च कान्तिमती गवस्त्वक, अङ्गानां शरीरावयवाना मिति। स्वार्थ परिजोक्तुं न कल्पते । भथोष्णमध्ये दोषाऽन्नं गृह्णन्ति, तदा नीरूपादीनि आर्यिकाणां संनिरोधे बहुप्रकारेण प्रावरणादिधियदेहविरुदं भवति । अथ दोषान्नं न गृहन्ति, ततो दोषावस्या माणानां भवन्ति । ततो नियुक्तियुक्ता पूर्वोक्तानां सा यतनेति । प्रणे चिराटनम, चिरं पर्यटन्तीनां तरुणादिकृतो मागें स्त्रीये. वृ०१उ०। र उद्दीपत। (६०)सर्वसंपत्कर्यादिभिक्षानिरूपणम्तथा चामुमेवार्थ दर्शयितुं वेदस्वरूपमाह त्रिधा जिक्षाऽपि तत्राऽऽद्या, सर्वसंपत्करी मता। थी पुरिसो अ नपुंसो, वेदो तस्स उग्गमे पगारा उ । द्वितीया पौरुषघ्नी स्यात, वृत्तिनिता तथाऽन्तिमा । विधेत्यादि व्यक्तः ॥ ॥ फुफुम दवग्गिसरिसो, पुरदाहसमो नवे तओ॥ वेदनिधा--स्त्रीवेदः, पुरुषवेदो, नपुंसकवेदश्चातस्य तु त्रिधाऽ सदाऽनारम्भहेतुर्या, सा भिक्षा प्रथमा स्मृता । पि यथाक्रम-त्रिविधस्यापि यथाक्रमममी प्रकाराः-स्त्रीवेदः फुफु एकबाले व्यमुनो, सदाऽनारम्भिता पुनः ॥ १० ॥ माग्निसहशः करीषाग्नितुल्यः । यथा-करीषाग्निरन्तर्धगधगन्ना- (सदेति)सदा अनारम्जस्य हेतुर्या भिक्का, सा प्रथमा, सर्वसं. स्ते, न परिस्फुटं प्रज्वलति, न वा विध्याययति , चाक्षितस्तु पत्करीस्मृतातिद्धेतुत्वं च सदाऽऽरम्भपरिहारेण,सदाऽऽनारम्भ. तत्कणादेवोद्दीप्यते, एवं स्त्रीवेदोऽपि । पुरुषवेदस्तु दवाग्निसह- गुणानुकीर्तनाभिव्यइम्यपरिणामविशेषाहितयतनया वा। सदाऽशः। यथा-दवाग्निरिन्धनयोगतः सहसैव प्रज्वल्य विष्पापयति, नारम्भिता तु-एकबाले व्यमुनी संविग्नपाक्तिकरूपे न संभवति। एवं पुरुषवेदोऽपि । तृतीयो नपुंसकवेदः, स पुरदाहसमः । यथा- इदमुपलकणम्-एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्नस्य श्रमणोपासकस्यापि हि महानगरदाहे वह्निः प्रज्वलितः सन्नाद्रं वा शुष्क वा सर्वत्र | प्रतिमाकालावधिकत्वादनारम्जकत्वस्य न तत्संभवः, न च त. दीप्यते, पवमेव नपुंसकवेदोऽपि त्रियां पुरुषे वा सर्वत्र दीप्यते। द्रिकायाः सर्वसंपत्करीकल्पत्योक्त्यैव निस्तारः । इत्थं हिन चोपशाम्यति, इत्थं वेदत्रयखरूपं दृश्यम् । यथाकथञ्चित्सर्वसंपत्करीयमिति व्यवहारोपपादनेऽपि न Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००७) गोयरचरिया अभिधानराजेन्द्रः। गोयरचरिया पौरुषम्नीत्यादि,व्यवहारानुषपादनात् । तथा च-"यनिाना- [अन्येति] अन्येषां स्वव्यतिरिक्तानां दायकानामबाधेनाऽपीदियुक्तो यो, गुर्वाज्ञायां व्यवस्थितः । सदाऽनारम्भिणस्तस्य, स. मनेन मुख्यथा सर्वसम्पत कर्या भिकया,अलिवमरवत्,प्रकृत. संपत्करी मता" ॥१॥ इत्याचार्याणामभिधानं संभवानिमा- मकारितमकल्पितं च पिएमं गृहतः । सामन्यं चारित्रसमुख्या येणैव, जिनकल्पिकादौ गुवाहाव्यवस्थितत्वादेरिव सदाऽना. पूर्णत्वं भवति। अलिवदित्यनेनाऽऽनयनप्रतिषेधः,तथासत्यभ्यारम्भित्वस्थ फलत पच अहणात । अन्यथा-बकणाननुगमापत्ते- हृतदोषपसङ्गात् । साधुवन्दनार्थमागच्छद्भिगृहस्टः पिपमानद्रव्य सर्वसंपत्करीमुपेक्ष्य भावसर्वसम्पतकरीलक्षणमेष वा - यमेनाय नविष्यति, तदागमनस्य वन्द नार्थत्वेन साध्वर्थपितमिदमिति यथातन्त्रं भावनीयम् ॥१०॥ एडानयनस्य प्रासङ्गिकत्वादिति चेत्,नैवमपि मालापहृताधगिदीक्षाविरोधिनी निका, पौरुपनी प्रकीर्तिता । वारणादिति वदन्ति ॥ १३ ॥ धर्मलाघवमेव स्यात्, तया पीनस्य जीवतः ॥११॥ नन्येवं सद्गृहस्यानां, गृहे जिक्षा न युज्यते । (दीकेति) दीक्षाया विरोधिनी दीक्षावरणकर्मबन्धकारिणी अनात्मम्भरयो यत्र, स्वपरार्थ हि कुर्वते ॥१४॥ भिका पौरुषम्नी प्रकीर्तिता, तया, जीवतः पीनस्य पुष्टाङ्गस्य ध. (नन्वेवमिति) मनु एवं संकहिपतपिएमस्याऽप्यग्राह्यत्वे सदर मेलाघवमेव स्यात् । तथाहि-गृहीतव्रतः पृथिव्याधुपमईनेन हस्थानां शोजनब्राह्मणाद्यगारिणां गृहे भिक्षा न युज्यते यतेः,हि सुद्धोञ्छजीविगुणनिन्दया च भिकां गृह्णन् स्वस्य परेषां च धर्म- यतोऽनात्मम्जरयोऽनुदरम्भरयो यत्र पाकादिविषयं स्वपराथै स्थ लघुतामेवापादयति । तथा गृहस्थोऽपि यः सदाऽनारम्भ. कुर्वते । निक्काचरदानासंकलन स्वार्थमेव पाकप्रयत्ने सदगृहविहितायां भिकायां तनुचिरामात्माममात्रयन् मोहमाश्रयति, स्वस्थभङ्गप्रसङ्गात, देवतापित्रतिथिभत्र्तव्यपोषणशेषनोजनस्य सोऽप्यनुचितकारिणोडमी खल्वाईता इति शासनावर्णवादेन गृहस्थधर्मवश्रवणात्। न च दानकासात्पूर्व देयत्वबुध्या असधर्मलधुतामेवाऽऽपादयतीति तदिदमुक्तम् कल्पितं दातुं शक्पत इत्यपि अष्टव्यम् ॥ १४ ॥ "प्रकायां प्रतिपन्नो य-स्सद्विरोधेन वर्तते । संकल्पभेदविरहो, विषयो यावदार्थकम् । असहारम्भिणस्तस्य, पौरुषनीति कीर्तिता॥१॥ पुण्यार्थिकं च बढता, इष्टमत्र हि पुर्वचः ॥ १५ ॥ धर्मलाघवन्मूढो, भिक्कयोदरपुरणम् । करोति देन्यापीनाङ्गः, पौरुषं हन्ति केवलम् ॥२॥" (संकल्पेति) अत्र हि "असंकल्पितः पिएमो यतेाहाः" इति अत्र प्रतिमाप्रतिपन्नभिक्षायां दीक्षाविरोधित्वाभावादेव नाति धचने हि संकल्पनेदस्य यतिसंप्रदानकत्वप्रकारदानेनात्मकव्याप्तिरिति ध्येयम् ॥ ११ ॥ स्य विरहो उर्वचः केनेति ?,आह-यावदार्थकं यावदार्थनिमि तनिष्पादितम,पुरयायिक पुण्यनिमित्तनिष्पादितं च, पिएमं दुष्ट क्रियान्तरासमर्यत्व-प्रयुक्ता वृत्तिसंझिका। वदता अन्यधोक्तासंकहिपतस्वस्य यावदर्थिकपुण्यार्थिकयो दीनान्धादिष्वियं सिद्ध-पुत्रादिष्वपि केचित् ॥ १॥ सत्वेन तयोग्राह्यत्वाऽऽपत्तेः। (क्रियान्तरेति) क्रियान्तरासमर्थत्वेन प्रयुक्ता, न तु मोहन, तदाहचारित्रशुलीच्या वा, वृत्ति संझिका भिका नति; इयं वदी "संकल्पनं विशेषेण, यत्रासौ दुष्ट इत्यपि । नान्धादिषु संनवति । यदाह परिहारोन सम्यक स्या, यावदार्थकवादिनः॥१॥ " निःस्वान्धपङ्गबो ये तु, न शक्ता क्रियान्तरे । विषयो वाऽस्य वक्तश्या, पुण्यार्थ प्रकृतस्य च । जिकामदन्ति वृत्त्यर्थ, धृन्तिभियमुच्यते ॥ १ ॥ असंनयानिधानात् स्या-दाप्तस्थानाप्तताऽन्यथा" ॥२॥ नातिदुधाऽपि चामीपा-मेषा स्यान्न धमी तथा। शति ॥१४॥ अनुकम्पानिमितवादू, धर्मलापत्रकारिणः ॥२॥" उच्यते विषयोऽत्रायं, जिने देये स्वजोग्यतः। तथा सिद्धपुत्रादिष्वपि केषुचिकृत्तिनिका संभवति । श्रादिमा सारूपिकग्रह, दीनादिपदाव्यपदेशत्वाश्यं पृथगुक्तिः । श्रू संकल्पन क्रियाकाले, उष्टं पुष्टमियतया ॥१६॥ यन्ते चोत्प्रनजिता अमी जिनागमे निकुकाः । यतो व्यवहार | (उच्यत इति) अत्रायं विषय उच्यते, यदुत क्रियाकाले पाघुमुक्तम्-"जो भणुसासिओए पडिनियतो सो सारूवि- कनिर्वतनसमये, स्वनोग्यादात्मीयनोगाहात् श्रोदनादेनिन्नेप्रत्तणेण वा सिम्पुत्तत्तण वा अच्छुड कंचि कालं । ऽतिरिक्ते देये प्रोदनादौ, इयत्तया "एतावदिह कुटुम्बाय एताच. मारूविश्रो णाम-सिरमुंभो भरजोहरणो अलाउयाहि भि- चार्थिभ्यः पुण्याथै चेति" विषयतया, पुठं संवनितम, संकल्पक्खं दिम, अभज्जो प्र। सिद्धपुत्तो जाम-सवासो नं दुधम, तदाह--"विभिन्न देयमाश्रित्य, स्वजोयाद्यत्र वस्तुनि । निक्ख हिंडद वा, ण वा, बरामएहि वेटलिभं करेक, मट्टि बा | संकल्पनं क्रियाकाले, तदृष्टं विषयोऽनयोः" १॥१६॥ द्वा०६द्वा०। धरेति ति।"केषुत्रिदित्यनेन ये नत्प्रवजितत्वेन क्रियान्तरास- अकृतोऽकारितश्चान्य-रसंकल्पित एव च। मस्ते गृह्यन्ते । येषां पुनरत्यन्तावद्यभोरूणां संवेगातिशयेन प्रवज्यां प्रति प्रतिबकमेव मानसं, तेषामाद्यैव भिक्का । एतथ्यति यतेः पिएमः समाख्यातो, विशुधः शुचिकारकः ॥१॥ रिक्तानामसदारम्भाणां च पौरुषध्येव "तत्त्वं पुनरिह केवसिनो प्रकृतः क्रयणहननपवनैर्भोज्यतया स्वयमनिर्वतितः, पवमेवाकाविदन्ति" इत्यष्टकवृत्तिकद्वचनं च तेषां नियतभावापरिज्ञानसूः। रितश्चाविधापितः। चकारः समुश्चये, अन्यैः कर्मकरादिनिरसंकचकमित्यवधेयम् ॥१२॥ ल्पित एव च क्रयणादिप्रकारैः साधवे इदं दास्यामीत्यननिसंअन्याबाधेन सामग्यं, मुख्यया जिक्षयाऽशिवत् । धितः,अन्यैरेष एवकारेणान्यथाविधपिएमस्य साधोरमाह्यतामा. हाबाह च-"पिम असोढयंतो, अचरिती एत्थ संसमो मंत्थि । खतः पिएममकृत-मकारितमकल्पितम् ॥ १॥ चारित्ताम्म असते, सब्बा दिक्खा निरत्यीया ॥" चकार Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयरचरिया पि कसमुचये, अहतादिपदेश कृपणकारणतदानात मतदानपचनपाचनतनकोटीन एस्योकेति यतेः पृथिष्यादिसंयतः पिएम मोदगादिः, उपलऋणत्वादस्य शथ्योपकरये च समाख्यातो विगतरागादिशेषकपदार्थ सार्थस्वभावाच मा सनहसंवेदनेन नि. बणनगरगमनासमानमा गीयमाचरणकरणविशुद्धियो पलभ्यसम्यगभिहितस्तीर्थ करैरिति नान्तरायशेषः तेषाम पुनः किचिचः पिण्ड शाद-विक सकलदोषवियुक तथा विशुद्धत्वादेव कारकः कर्ममा विका कारीति अकस्मादादिपमो यतेः समायात इत्याह-विशुद्ध विशुद्धरू एव कृतादिदोषरहित एव शुद्धिकारको भवति नान्यो, विशुद्ध्यर्थी च यतिर्भवप्रपञ्चोपचितकल्मषमलपटलस्येति ॥ १ ॥ असंकल्पित एव चेत्युक्तम, तस्य च परमतेनासंजवमुपदर्श यन्नाह ( १०००) अभिधान राजेन्द्रः । यो न संकल्पितः पूर्व देवबुद्धया कथं नु तम् । ? ददाति कश्विदेवं च सविशुद्धो वृयोदितम् ।। २ ।। न यः पिण्डो ने संवितोऽभिसन्धितः पूर्वे दानकालात् देवबुद्ध्या दातव्योऽयं मया भिक्षुभ्य इत्येवंरूपया धिया, कथमिति केपे, 'नु' इति वितके, केन प्रकारेणन, कथञ्चिदिति यावत् पिमं ददाति निकुदायका मा थी, न कोपीयर्थः दानार्थमपितस्य असावेन दातुमश क्यादिति भावः एवं अमुना प्रकारेणासं तस्य देव स्यासंभवे सति सोऽसंकल्पितपिएमो विशुद्ध निरवद्य इति प्राकृ तथा व्यर्थम् अवदितं मणितमिति ॥ २॥ असंकरित व विरामो ब्राह्मो पतेरित्यतस्तत्रेयान्युपगमे दूषणान्तरमाह " न चैवं सगृहस्थानां, मिक्षा प्राद्या गृहेषु यत् । स्वपरार्थं तु ते यत्नं कुर्वन्ति नान्यथा कचित् ॥ ३ ॥ न केवलमसंकल्पितपिएमा संजवेन व्यर्थ तत् प्रतिपादनं, मि. का च न ग्राह्या सद्गृहेषु भवतीति वाक्यार्थः । पदार्थस्वेवम्नेति प्रतिषेधे, चशब्दो दूषणान्तरसमुच्चये एवमिति, असंकल्पि तपिषमाभ्युपगमे सति, सद्गृहस्थानां ब्राह्मणादि शोजनाऽगारि गृहेषु वेश्मसु भिचादानं प्राह्मादाय कुत तदित्यत आह-यत् यस्मात्कारणात्, स्वपरार्थे तु आत्मभिकारनिमित्तमेष ते सद्गृहस्थाः पक्षं पाकनिवर्तनप्रकुर्वते विदधति नान्यथा निकाचरदानासंकल्पेन, स्वार्थमेव कचित् कदाचनापि निमित्तमेवपाक सद्गृहस्थायादित यस्मात् स्वकर्मा जीवनकुल्यैः समानषनिर्वैवादानुगा मिस्वं देवतापिप्रतिथिपोषणं शेषभोजनं चेति स्थ मे मतिधिध यतिरपि प्रयति, भोजन कालोपस्थापित्या स्यापीत्यर्थः ॥ ३ ॥ । पर पत्राचार्यमतमाशङ्कयमानमाहसंकल्पं च विशेषेण, यत्राऽसौ कुष्ट इत्यपि । परिहारो न सम्यक् स्याद्, यावदर्थिकवादिनः ॥ ५ ॥ नमभिसंधानं विशेषेामु साधये दातव्य मित्येवम सामान्यतः पत्र पिएम असीस एव पियमो से दो S 3 गोयरचरिया नान्यः इत्यपि यमलरोदितोऽपि न केवलमसंकल्पित पापमन सम्यपिशब्दार्थः परिहारः पूर्वप पण, 'म' नैव, सम्यक् संगतः स्याद्भवेत् । कस्येत्याह यावदर्शिकादिनस्तव यावन्तो यत् परिमाणास्वनिमिते प्रयोजनं यस्य निष्पादने सादधिकः परमः तमपि परिहार्य तपशीलः स तथा तस्य यावदर्थिवादिनः यानिमि निष्पादितपिपरिहारादिवाद्भयत इति भावः । बद , तोऽनिमि "यातिय मुद्दे पाये समुदेवं । समणाणं आपलं, निग्गंधाणं समासं ॥ १ ॥ " इति । तथा " असणं पाणगं था वि, खाश्मं साइमं तदा । जं जाणिज्ज सुणेज्जा वा, दाण्डा पगमं इमं ॥ २ ॥ तं भवे जत्तपाणं तु, संजयारा अकप्पियं । दितियं परियारक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ३ ॥ " ॥ ४ ॥ पूर्वपवाह " - विषयो वाऽस्य वक्तव्यः पुरुषार्थ प्रकृतस्य च । अजवायनात्स्यायन्यथा ॥ ए ॥ यावदर्थिकपिपरिदारवादिना भयतापूर्वोपरिहारासम्य मनो डियो या गोरोबाक पार्थः श्रपवाधिक पिएमस्याः अनुमििवशे षमाश्रित्य निवर्तितोऽयं परिहार्य इत्येवं गोचरान्तरपरिकल्पनयैवायं शक्यः परिहर्ते, नान्यथा इति भावः । तथा न केवलं याव. दर्शिकपिण्डस्य विषयो वक्तव्यः । पुण्यार्थे पुण्यनिमित्तं प्रकृतस्य च निष्पादितस्यापि स वक्तव्यः, यतः पुण्यार्थे प्रकृतस्यापिपरस्य परिहारोऽभ्युपगम्यते नवद्भिः । यदाह असणं पाणगं वां वि, खाश्मं साइमं तहा ॥ जं जाणिज्ज सुणिञ्जा वा पुट्टपत्यादि परिरायमपीति, तस्यापिविषयविशेषो वाच्य इति भावः । अथ किंविषयान्तराभिधानेनेत्याचार्यमतमाशङ्क्याह-अन्यथा यावदर्शिक पुण्यार्थप्रकृतपिएमयोर्विषयविशेषाप्रतिपादने, श्राप्तस्य कीएरागद्वेषमोहदोपताऽसत्येने कारसहितस्य शास्त्रप्रणेतुरनाना अकीणदोषत्वेनाहितत्वं स्याद्भवेत्, कुत इत्याह असंभवानिधाना तू अविद्यमानः संभवो यस्य यावदर्शिकादिपिएम परिहारस्य सोसंभवः, तस्यानिधानं. तस्मात् श्रसंप्रवश्च तस्य स्वपरार्थे तु ते यत्नं कुर्वते नान्यथेत्यनेन दर्शित पयेति पूर्वपः ॥ ५॥ त्रोत्तरमाहविभिन्नं देवमाश्रित्य स्वनोस्याद्यत्र वस्तुनि । संकल्पनं क्रियाकाले, तद्दुष्टं विषयोऽनयोः ॥ ६ ॥ विभिश्रमतीनं देयं दातव्यमनादित्यात्य कु तो विभिन्नमित्याह - स्वनोग्यात् विद्याकतात्मीयोदनादिभोगातू यत्र यस्मिन् वस्तुनि श्रोदनादिपदार्थे, संकल्पनमेतावदिकुटुम्बातावार्थभ्यः पुण्याचे बोनिसंधान क्रियाकाले पाकानवर्त्तनसमये तदिति यदेतत्सङ्कल्पनं तह दोषद्विपयो गोचरोऽनयोः यावदर्शिका प्रकृतयोरपि पविधकल्पनयन्ती पिडविशेष परिहाविति भाव इति ॥ ६ ॥ Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००६) गोयरचरिया प्राभिधानराजेन्द्रः । गोयरचरिया सङ्कल्पनानन्तरं तु न सुमित्येतदाह चारित्तम्मि असते, सवा दिक्खा निरत्थीया ॥१॥ स्वोचिते तु यदारम्ने, तथा संकल्पनं कचित् । सिजं असोहयंतो, अचरिती इत्थ मंसो नस्थि । चारित्तम्मि असंते, सव्या दिक्खा निरस्थीया ॥२॥ न दृष्टं शुभभावत्वात, तच्छापरयोगवत् ॥ ७॥ पत्थं असोहयंतो, अचरित्ती इत्य संसो नस्थि । स्वस्य शरीरकुटुम्बादेः, उचितो योग्यः स्वोचितः, तस्मिन् , तुशबदः पुनःशब्दार्थः,यदिति संकल्पनम्, प्रारम्ने पाकादिरूपे सति, चारित्तम्मि असंते, सम्वा दिक्खा निरत्थीया॥ ३॥ तथा तम प्रकारण स्वयोग्यातिरिक्तपाकशुन्यतया, संकल्पनमिदं पत्तं असाहयतो अचरित्ती इत्थ संसो नत्थि । स्वार्थमुपकल्पितमन्नमतो मुनीनामुचितदानेनाऽऽत्मानमथ पू चारित्तम्मि असते. सव्वा दिक्खा निरत्थीया"॥४॥ तपापमाधास्यामीति चिन्तनं, कचित् कस्मिाश्चिदेवारम्भे, न तु इदं चोरमर्गतः सति संस्तरणे झेयम, असंस्तरणे तु अशुखमास्वनुचितन्यपाकरूपे,तदित्यस्येह दर्शनातू तत्संकल्पनं, न दु ग्रहणेऽप्यदोषः । यदुक्तम्-" संथरणम्मि असुद्ध" इत्यादि। एम न दोषवत,न तत् पिएमदूषणकारणम.कुत इत्याह-शुनभाय. ध. ३ अधिक। स्वात चिसविशुद्धिमात्रत्वात, न हि तत् संकल्पनं साध्वाधर्थ [१] भ्रमरदृष्टान्तेन भिकायां निदोषत्वसिद्धिःपृथिव्यादिजीचोपमर्दनिमित्तम, अपि तु दायकस्य शुभभावमा- जहा मस्स पुप्फेसु, जमरो आविय रसं । – तदिति नावः। विदित्याह-गुफापरयोगवत, यः शुरुःप्र. न य पुप्फ किनामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं ॥२॥ शस्तोऽपरयोगः संकल्पनव्यतिरिक्तव्यापारोमुनिवन्दनादिनद्वत । यथाहि मुनिविषयो नमनस्तवनादिरमवद्यो व्यापारोन अत्राह-अथ कस्मादशावयवनिरूपणार्या प्रतिज्ञादीन्विहाय पिसमदूषणकारणमेवमेवंविधसंकल्पनमपीति भायनेति ॥ ७ ॥ सूत्रकृता रष्टान्त पयोक्त इति । उच्यते-"रान्तादेव हेतुप्रतिके यमुक्तमसंभविनोऽसंकल्पितस्याभिधानादाऽऽप्तस्यानाप्ततेति, अन्यूछे" इति न्यायप्रदर्शनार्थम । कृतं प्रसनेन, प्रकृतं प्रस्तुमःसत् परिहरन्नाह तत्र-यथा येन प्रकारेण, दुमस्य प्राग्निरूपितशब्दार्थस्य, पुष्पेषु प्राग्निरूपितशब्दायेंम्वेव, असमस्तपदाभिधानमनुमेये गृहिब्रुमादृष्टोऽसंकल्पितस्यापि, लाभ एनमसंजयः । णामाहारादिषु पुष्पापयधिकृत्य विशिष्टसंबन्धप्रतिपादनानोक्त इत्याप्ततासिसिः, यतिधर्मोऽतिदुष्करः॥८॥ मिति । तथा चान्यायोपार्जितवित्तदानेऽपि ग्रहणं प्रतिदिकदृष्ट उपलब्धोऽसंकल्पितस्यापि यत्याद्यर्थमसंन्जावितस्यापि,न] मेव । भ्रमरश्चतुन्धियविशेषः । किम् ?, प्रापिबति मर्यादया केवलं संकल्पितस्यैव लानो भवतीत्यदृष्ट इत्यपिशब्दार्थः ।। पिवत्यापिबति । कम् ? , रस्यत इति रसस्तं, नियांसं, लाभः प्राप्तिः, पिएमस्येति गम्यते । यतो गृहस्था अदित्सवोऽ. मकरन्दमित्यर्थः । एष दृष्टान्तः । अयं च तद्देशोदाहरणमधिकृत्य पि स्वगृहकान्तारादिषु, तथा जिथूणामनाघेऽपि, तथा राज्या- बेदितव्य इति । एतच्च सूत्रस्पर्शिकनियुक्तौ दर्शयिष्यतो रक्त च दौ भिक्षाऽनवसरेऽपि पाकं कुर्वन्ति, तथा कश्चिदत्यपीति सूत्रस्पर्श स्थियमन्येति । अधुना दृष्टान्तविम्मिाह-न च नैव रश्यते। माह च-"संभवह य एसोवि हु,केसिंचि य सूयगाइ. पुणे प्राग्निरूपितस्वरूपं, क्लामयति पीडयति, सच नमरः, भावे वि । अवि सेसुबलंभाओ,तत्थ वि तल्लानसिकीरो॥१॥"एवं प्रीणाति तर्पयत्यात्मानामति सूत्रसमुदायार्थः । भवयवार्थ तु च यदुक्तम-"यो न संकल्पित" इत्यादि,तथा-"न चैधं सद्गृह नियुक्तिकारो महता प्रपञ्चन व्याख्यास्यति । स्थानाम" इत्यादि च। तत् परिहतम् । गाथा चेह-"सहाविय तथा चाहकेह इह, विसेसनो धम्मसत्थकुसलमई । श्य न कुणंति वियाण-मेवं जिक्खाइप च इमे ॥१॥" यद्यसंकल्पितस्या जह भमरो ति य एत्थं, दिटुंतो होइ आहरणदेसे । पि पिएमस्य बाजो दृष्टस्ततः किमिति । आह- एव. चंदमुहिदारिंगेयं, सोमत्तऽवहारणं ण सेसं ॥१००।निक मिति-अनेनासंकल्पितप्रकारेण पिरामलाभदर्शने सति, असं- यथा भ्रमर इति चात्र प्रमाणे दृष्टान्तो जघत्युदाहरणदेशमधिभवः-प्रसंभावना, अप्राप्तिरसंकल्पितपिण्डस्य, नोक्तो नाभिहि- कृत्य,यथा-चबमुखी दारिकयमित्यत्र सौम्यत्वावधारणं गृह्यतः, आप्तेन । ततःकिमिति,आह-इतिशब्दो हेत्वर्थः। तेन - ते, म शेष कलङ्काङ्कितत्वाऽनवस्थितत्वादीति गाथार्थः॥१०॥ संभविपिगडस्याननिधानाकेतोः, संनविन एवाभिधानादित्यर्थः। याप्तताया असंभविपिण्डानिधानसजावितानाप्तनाव्यतिरेक एवं जमराहरणे, अणियतवित्तित्तणं न सेसाणं । भूतायाः, सिकिः प्रतिष्ठा, आप्तासिकिः, शास्तुरिति गम्पते।। गहणं दि©तविसु-छि सुत्न जणियाइमा चऽना।१०१शनिका अथवा भवत्वसंकल्पितपिएमस्य संभवः, तथापि तद्वत्तेर्दुष्कर एवं भ्रमरोदाहरणे अनियतवृत्तित्वं, गृह्यत इति शेषः । न स्वात् नत्प्रणेतुरनाप्तवेत्याह-यतिधर्मों मूत्रगुणोत्तरगुणसमुदाय. शेषाणामविरत्यादीनां समरधर्माणां, ग्रहणं दृष्टान्त ति। रूपः,अतिदुष्करोऽनीव दुष्परिपाख्य इति प्रसिद्धमेव, नानेनाऽऽप्त एषा हटान्तविशुद्धिः सूत्रे जणिता, इयं चान्या सूत्रस्पर्शिनियुस्थानाप्तता नवति। अनन्योपायत्वान्मो कस्येति ।हच-"दुकरयं ताविति गाथार्थः ।। १०१॥ दश० १० । ६०व०।( वि. मह पय,जाधम्मो दुक्करोचिप पसिसोकिं पुण एस पयत्तो,मोक्ख शेषस्त्वत्र "धम्म" शब्दे । विहङ्गमष्टान्तः "विहंगम" शम्दे) फलतेण एयस्स"१॥ इति । ततो हे कुतीर्थिकाः! यदि ययमा- ( स्थापनाकुलव्याख्या "गवणाकुल" शब्दे) यतिः श्रामगृहे स्मनो यतिबेन सर्वसंपत्करी निकां मन्यध्वे,तदा प्रकृतादिगणो. गत्वोपविश्य नकादिकं गृह्णाति,न वेति प्रश्ने,यतिः श्रागृहे कारणं पेतपिपडपरिग्रहः कार्य इति प्रकरणगार्य इति ॥८॥ हा०६ विनोपविश्य भक्तादिकंन गृह्णाति.कारणे तु गृह्णाति"तिन्हमामय. अष्ट०। पश्चा रागस्स,निसिजा जस्स कप्पा जरा अनिभूयस्स,गिलाणस्स पिण्डाद्यशोधने दोषः तवस्सिणो"॥६०॥ इति दशवकालिकषष्ठाध्ययने प्रतिपादितत्वा"पिमं असोदयतो, प्रचारिती श्त्य संसो नत्थि। दिति । १२४ प्र०ासेम०३द्वा०। २५३ Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयरणिसिज्जा अनिधानराजेन्धः। गोल गोयरणिसिज्जा-गोचरनिषद्या-स्त्री० । गोचरगतस्य निषदने, गोरखर-गौरखर-पुंग गौरवर्णगर्दभे, सच जात्यन्तरमेव, कच्छाव्य० १० ॥ रण्यादावुत्पद्यमानो 'गोरखलेति' नाषाप्रसिकः। प्रशा०९ पद । गोयरपवेस-गोचरप्रवेश-पुं०1 गोचरार्थ प्रवेशे, दश०५०गोरागिरि-गौरगिरि-jo 1 श्वेतपर्वते, "गोरगिरि नाम पव्वतो, गोयरजमि-गोचरनमि-खी । भिक्षाचर्यावीथ्याम्, भिक्षाच- तस्स णिज्करे सिवो,तंच पगो बंभणो, पुसिंदो य भश्चति । याविषये मार्गविशेषे, ध०५ अधिः । ताश्च पौवा-"3-1 नि० चू०१ उ०। पसत्ता । त जहा- १ पेडा २ अपेमा गोरमिग-गौरमृग-न । गौरमृगचर्मनिष्पन्ने यने, आचा० २ ३ गौमुसिया पतंगवीहिगा ५ संकायद्या गंतुं पश्चागया"।। स्था०६०।६०व०। श्रु०५ म०१ उ०। अष्ट चेमा: गोरव-गौरव-न० । महासामन्तादिकृताभ्युत्थानादिप्रतिपत्ती, " उज्जुग गंतुं पच्चा-गई य गोमुत्तिा पयंगविही । जं. ३ वकागमने च । गौरवशब्दो गमनपर्यायः। स्था००। पेमा य पद्धपेमा, अन्तितर बाहि संवुक्का ॥१॥" गोरस-गोरस-पुं० । गवां रसो गोरसः, व्युत्पत्तिरवम,प्रवृत्तिऋज्वी १ गत्वा प्रत्यागतिः २ गोमूत्रिका ३ पतङ्गबीथिः४ पेटा ५ अर्द्धपेटा ६ आभ्यन्तरशम्बूका ७ बहिः स्त्येवम्-गोमहीप्यादीनां दुग्धादिरूपे रसे, स्था४०१०। शम्बूका चेति । त्र ऋग्वी-स्ववसतेः ऋजुमार्गेण समश्रे तके, वृ०१ उ० । स च शालनकऽन्तर्भवति । प्रश्न०५ संब० णिव्यवस्थितगृहपती निवाग्रहणेन पङ्किसमापने, ततो द्वितीय द्वार । सू०प्र०व्या स्थाना'प्रामगोरससंपृक्तद्विदलम्' इत्यन पती पर्याप्तेऽपि निवाग्रहणेन ऋजुगत्यैव निवर्तने च भवति गोरसशम्देन किंव्याख्यातमस्तीति प्रश्ने,उत्तरम-गोरसशब्देन - १६ गत्वा प्रत्यागतिस्तु-एकपडौ गच्चतो द्वितीयपत्ती च ग्धं,दधि, तकं च त्रयमपि परम्परयाभिधीयमानमस्ति,योगशाखा प्रत्यावर्तमानस्य भिवणे २; गोमूत्रिका च-परस्परानिमुख वृत्तौ गोरसशब्दार्थो व्याख्यातो नास्तिा३३०प्र०ासेन०३उला। गृहपत्योर्वामपकत्येकगृहे गत्वा दक्विणपाइकत्येकगडे यातीगोरसविगइ-गोरसविकृति-स्त्री० । गोरसे विकृतयः,शरीरमनसोः स्येवंक्रमेण श्रेणिद्वयसमाप्तिकरणे नवति ३, पतङ्गबहीथिश्च- प्रायो विकारहेतुत्वात् । गोरसरूपासु विकृतिषु, " चत्तारि अनियनकमा ४ पेटा च-पेटाकारं चतुरस्र केत्र विभज्य | | गोरसबिगो पामत्तानो । तं जहा-खीर दहि सपि णवमध्यवर्तीनि गृहाणि मुक्वा चतसृध्वविदितु समश्रेण्या भिकाणीअं।" स्था०४०१००। णे भवति ५ : अपेटा च-प्राग्वत् केनं विभज्य दिग्वयसंब. |गोरहग-गोरयक-पुं० । कल्होडके, वृ०१ उ०। प्राचा०वि. गृहश्रेण्योकिणे ६, अन्तःशम्बूका च-मध्यभागात् शसावर्तगत्या भिक्षमाणस्य बहिनिस्सरणे जबति ७, बहिः | वर्षबलीवर्दे, सूत्र.१ श्रु०४० २००।दश। शम्बूका तु-बहिर्नागात्तथैव भिक्कामटतो मध्यभागागमने भः । गोरा-देशी-लागलपकती, चक्षुषि, ग्रीवायां च । देना०२वर्ग। पतीति ८ ॥ ध० ३ अधि। वृ० । पं०व० ! निर गोरि-गौरी-स्त्री० । "स्वराणां स्वराः" ॥ 01 ४ । २३० ॥ प्रागोयरि-गोचरि-स्त्री० । चतुर्मासकमध्ये " सकोसं जोअणं | योऽपभ्रंश इत्यस्यहस्वत्वम् । गौरवर्णायां खियाम्, प्रा० ४ जिक्खायरियाए गंतुं पमिनिअत्तए" इत्युक्तं श्रीकल्पसूत्र, एत पाद । दनुसारेण चैत्यगर्वादिबन्दनाद्यर्थ गन्तुं कल्पते, न घेति प्रश्न | गोरिहर-गौरीहर-न ।स. द्वन्द्वः । “दीर्घहस्वी मिथो वृत्तौ" उत्तरम-"भिक्खायरियाप" इत्येतत्पदं चैत्यगुरुवन्दनाद्यर्थ- ति दीर्घस्य द्वस्वः। उमामहेश्वर, प्रा०१ पाद। गमनस्योपक्षणपरमवसीयते, आवश्यकहारिनख्यां द्विक्रियनिहवस्य शरत्काले नद्युत्तरणपुरस्सरं गुरुवन्दनादिप्रवृत्ति |गोरी-गौरी-स्त्री०। गौर-डीए । प्रा० । गौरवर्णस्त्रियाम, नास्तीति ॥ ५६ प्र० । सेन०३ बा। "गोरी गायह महुरं"।प्रा०३ पाद। स्था०। अनुहा०। पार्वत्या. मोयवग्ग-गोत्रवर्ग-पुं० । गोत्रप्रकृतिसमुदाये, कर्म०२ कर्म । म, शिवपल्यास, प्रा०को । बलमातरि, बलकोट्टनार्यायाम, उत्त०१५ ० । कृष्णवासुदेवस्याष्टानामग्रमहिषीणां द्वितीगोयसुह-गोत्रशुज-न । उचैर्गोत्रे, दश १ । यायाम, सौ चारिएनेमेरन्तिके प्रव्रज्य सिद्धति । अन्त०५ गोयावरी-गोदावरी-स्त्री० । नासिकपुरसविधानिर्गते पूर्वसमुः। वर्ग । स्था० । कल्प० । महाविद्याभेदे. "गोरी मणुना मद्रसंगते नदीभेदे," स भण गोयावरि !, पुवसमुद्देण साह- णुनपुब्बगा।" प्रा० चू० १० । कल्प० । बहुवचने या संती। " व्य० उ०। "ईतः सेश्वाऽऽवा"।८।३।२८ ॥ इति जश्शसोराकारः। गोयावाइ-गोत्रवादिन-पुं० । ममोश्चैगोत्रं सर्वलोकमाननीयं ना.| 'गोरीश्रा' प्रा०३ पाद। परस्येत्येवं वादिनि, “एगे गोयावादी माणावादी" आचा०१ गोरेय-गौरेय-० । वैतात्यपर्वतदकिणविद्याधरश्रेणिव्यवश्रु०३०३ उ०। स्थिते निकायनेदे, कल्प० ७ कण । गोयावाय-गोत्रवाद-पुं० । गोत्रोद्धाटनेग वादे, यथा-काश्यपस-1 गोरोयणा-गोरोचना-स्त्री० । गोज्यो जाता रोचना हरिद्रा। गोत्रो वसिष्ठसगोत्रो वेति । सूत्र. १ श्रु० ६ ०। स्वनामण्याते गन्धद्रव्ये, वाच । गोपित्तज्ञातायाम, पश्चा०४ गोर-गौर-त्रि० । अवदाते, ज्ञा० १ श्रु०८० । गौरवर्णयुक्त वर्णभेदे, पुं० । वाच । “खारं लवणं १ दहणं, हिमं च २ अ. गोरंफीमी देशी-गोधायाम, देना.२ वर्ग। गोरविनदो रोगी ३ । परबसगुणो अचुलो, केवलगोरत्तणेऽ-| . घगुणा" ॥१॥ कल्प०७ क्षण | गोधूमे, १०१3०1नियन गोल-गोन-पुं०। वृत्तपिएके, (पुरुषरष्टान्तेन गोलप्ररूपणा 'रि Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोस धान्निधानराजेन्डः। गोवरग्गाम सजाय' शब्दे वक्ष्यते)"जह अयगोसो धंतो" प्रहा०१ पद । गोनियालिंग-गोलिकालिङग-म० । मधेराश्रयविशेपे, जी. गोलो जतुगोल। मुचकत्वात्तस्य जतुगोलाध्मातोपमया भिक्का-३प्रतिका प्रहणप्रतिपादके छमपुष्पिकाऽभ्ययने, दश गाली-गौरी-स्त्री० । "रस्य सोया"1018|३२६ ॥ हति "जह जउगोसो अगणि-सणातिदरेण यावि पास । चलिकपैशाचिके रस्य स्थाने घालः । पार्वत्या, "पनमय सका काऊण तहा, संजमगोलो गित्थाणं । दूरे अणेसणाई, श्यरम्मी तेण संकाई । पनय-पकुप्पित-गोलीचमनग्ग-लगा-पति-बियं "प्रा०४राद। मन्थिन्याम, दे० ना०२ वर्ग। सम्हा मियनूमीप, चिहिज्जा गोयरग्गगो ॥" दश०१०। कन्दुके,सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ नागकेत्रभेदे,मएडले,मदनकवृक्के, गोलेहणिया-गोलेनिका-स्त्री० । गोभिद्यमानायामूषनूबाचः । "होस गोल वसुनित्ति, पुरिस नेवमासयो'दश०७० मौ, नि० चू० ३३०। माचाo'गोलेति' देशविशेषापेकया कुत्तागर्भ पुरुषामन्त्रणम।। गोनोम-गोलोम-पुं०। दीन्डियनेदे, जी०१ प्रति०। डा०१७०६ म० । दश । देशीप्रसिकांनष्टर्यवाचकः। दशगोलोमप्पमाण-गोलोमप्रमाण-त्रिका प्रमाणविशेषे, गोलोमा ७० काश्यपगोत्रविशेषभूते पुरुषापत्यरूपे शारिमल्यादौ, माणा अपि कंशा न स्थापनीयाः। कल्प. कण। स्था०७ठा साकिरण, देना०२ वर्ग। गोलक्खण-गोलक्षण-नातागोःशुभाशुभसूचके चिह्न गोन-गोल-पुं०।देशभेदे, यश चणकग्रामे चाणक्यो ब्राह्मणो भेदे,वाच । तत्प्रतिपादकशालेच। सूत्र. २ श्रु. २०। जातः। प्रा० म० द्वि । श्रा० । विम्बाफले, झा० १मु. गोलग-गोलक-पुं० । वर्नुले पाषाणादिमये, अनुपिण्डे, सूत्र० २ १०५०औत्पत्तिक्यामुदाहरणम् । आ.म.द्वि। गोल्लास-गोल्लास-पुं० । देशभेदे, यत्र चाणक्यो जातः । मणिके, प्रालिरिके, गुमे च, गन्धरसे, कमाये, विधवायाः माक। जारजे पुत्रे, वाच। | गोन्हा-गोहा-श्री विम्याफले, मा०म०प्र०। विम्यास, गोलगोलच्छाया-गोलगोनच्छाया-स्त्री० । गोर्षहुभिर्मिलि. ना. वर्ग। न्वा निष्पादित एको गोलः,स गोलगोलः,तस्य धाया गोलगांव-गोप-गस्त्रीय गां नूमि या पाति रवति । पा-कः। जातिलच्छाया, गोलैबहुनिमिलित्वा निष्पादितस्यैकस्य गोलस्य | भेदे, स्त्रियां डी । प्रामाधिकृते, भरकके च । पुं०। गोष्टाध्यक्ष गयायाम, चं०प्र० ६ पाहु०। चावाच० । गोरक्षके, उपा० ७ ० । प्रा० म०। प्रा० गोलच्चाया-गोलच्छाया-गोलमात्रस्य छायायाम, चं० प्र०६ चू० । गोपायति, गुप्-अच् । रक्कके, स्त्रियां गौरा० की । पाहुः । स०प्र०। "शालिगोप्यो जगुर्यशः" उपकारके, त्रि०। वाच । गालपुंज-गोलपुञ्ज-पुं०।६ तागोमोत्करे, सू०प्र० ६ पाहु। चं०प्र०। गोवा-गोपति-पुं०६ता “पो वः" २३१॥ इति पस्यापन गोलपुंजच्छाया-गोलपुञ्जच्छाया-स्त्री०। लोगोत्करन्यायाया प्रा०१पाद।गवेन्दे, ज्ञा० १ श्रु० अागवां पशूनां पत्यौ शिवे, म, सू०प्र०६ पाहु । चं०प्र० । वृष, नमिपतौ, नृपे, श्रीकृष्णे, किरणपतौ सुय्ये, स्वर्गपती शक्रे, ऋषजनामौषधे, वाच । गोलबट्ट-गोलवृत्त-त्रि० । गोलववृत्ते, रा० । गोवग्ग-गोवर्ग-त्रिका गवां समूहे. "पगं च णं महं सेयं गोवरगं गोलवट्टसमुम्गय-गोलवृत्तसमुदगक-पुं० । गोसकाऽऽकारे पृत पासिसाणं पडिबुद्धे ॥५॥" स्था० १० ठा। श्रा० क०। समुद्गके, भ० १० श०८ १०। गोवत्ति-गोव्रतिक-गोवतं येषामस्ति ते गोवतिकाः । । गोला-गोदावरी-स्त्रीला "गोणादयः" ।।२।१७४॥ इति नि गोचानुकारिणि तपस्विनि, अनुते हि वयमपि किल पातनासोमादेशः। नदीविशेष, प्रा०२ पाद । गधि, गोदावर्याम, तिथंच वसाम इति भावनां भावयन्तो गोनिर्निर्गच्छन्तीनिः सामान्येन मद्याम, संख्यायां च । दे० ना०२ वर्ग। सह निर्गचन्ति, स्थिताभिस्तिष्ठन्त्यासीनाभिरूपविशन्ति, गोलावनिच्छाया-गोलावलिच्छाया-स्त्री.। गोलानामवलिगों नुजनानिस्तदेव तृणपत्रपुष्पफशादि शुञ्जन्ति । ततःसावलिः, तस्य गया गोसावसिचाया । गोलपडियाया- "तहते गावीहि सम, निग्गमपवेसणाइ पकरंति । जति जहा याम, सू० प्र० ६ पाहु। चं०प्र०। गावी, तिरक्खवासं निनावंता॥१॥" अनु। औ० ग०। गोलिय-गोलिक-पुं० । गुमकरके, व्य० एउ०। गोवय-गोष्पद-न। गोः पदम, गावः पद्यन्ते यस्मिन् देशे वा। गामिक-त्रि०ा मथितविक्रयके, वृ०१ उ०। गाः पदजाते गर्ने, गोपदप्रमाणे च । गोनिः सेवितदेशे, तदगोलिया-गुटिका-स्त्री० । वटिकायाम, रााअनु। सेविते वनादौ च । प्रजासत्रस्थे तीर्थभेदे, वाच । स्था। गोलिका-ना० । वृत्ताऽऽकृती बालक्रीमनापकरणे, प्रव०३८ | गोपद-न० । गोपदप्रमाणे गते, स्था० ४ ग०५००। पार । “तीए दासीए घमो गोलियाए भिन्नो, तं च अधिति | गोचर-देशी- करीधे, दे०मा०५ वर्ग। करिति दट्टण पुणराबत्ती जाया" दश०२०। गोवरग्गाम-गोवरग्राम-पुं० । मागधीये स्वनामख्याते प्रामे, बगोनियायण-गोलिकायन-पुं०। कौशिकगोत्रविशेषजूते पुरुष, प्रेन्द्रभूत्यादयो गणधरा उत्पन्नाः । गुब्बरमाप इत्यपि । मा. सदपत्येषु च । स्था५ ग०१०। क०1श्रा । Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोवसायण अभिधानराजेन्द्रः। गोसालग गोमायण-गोवलायन-। गोवलस्य गोत्रापत्ये, सू० प्र० | गोस-गोस-पुं० । प्रत्यूषसि, पं०५०२ द्वार । भाव । नि. १० पाहु । चं०प्र० । । चू० । प्रातःशब्दाथे, व्य० ६ उ० । श्रा० । बोले, उष्णकाले, गोवा-गोवल-पुं०। गोवल्लस्य गोत्रापत्ये, पदैकदेशे पदस- चाचा नाते, दे०मा०२ वर्ग। मुदायोपचारात् । " गोवल्लायते" जं०७ वक। गोसराण-देशी--मुखे, दे० ना०२वर्ग। गोवलायण-गोवझायन-पुं० । 'गोवलायर्ण ' शब्दाथै, सु० गोसंखी-गोसहखी-पुं० । मागधीयगोवरप्रागवास्तव्ये आभीप्र.१० पाहु। राधिपती, आ०म०प्र० प्रा० कापा. चूप्रव०। गोवाम-गोवाट-न। गोशालायाम, गोष्ठे, वाच । स्था। ति। गोसंधिय-गोसन्धित-पु । गोपाले, आव०६०। गोवाल-गोपाल-पुं०।। गां भूमि पशुनेदं वा पालयति । गोसालग-गोशालक-पुं० । मजलिसुभद्राभ्यां गोबलग्राह्मणपालि-अण, उप० सा नृपे, गोरक्तके, उत्त० २२ अ० स्थवि- | गोशालायांजातत्याद गंशालकः।कल्प० २कण। स्वनामच्याते रसुस्थितप्रतिबुद्धे शिष्ये, कल्प०८ लण। प्रा० मानूपप्रद्योतन- मालिपुत्रे श्रीवीरशिष्ये, (स च प्राग्भवे ईश्वरमुनिरासादिति पुत्रपाल के, प्रा० चू०४०। कत्रियाच्चूषकन्यायां, समुत्प- "इस्सर" शब्दे द्वितीयभागे ६४५ पृष्ठे आवेदितम्) बस्तु यः सुतः । स गोपाझ ति केयो, भोज्यो विप्रैर्न संशयः ते कालेणं तेणं समएणं सावत्थी णामं णयरी होत्या । ॥५॥" इति पराशरोक्तेसङ्कीर्णजातिभेद, वाच।। वहभो-तीसे णं सवत्थीए एयरीए उत्तरपुरच्चिमे दिसिगोवालगिरि-गोपालगिरि-पुंज गोवर्द्धनगिरौ,ती०९ कल्प० । गोवालय-गोपानक--पुं० । गोपालयति-पानि-गवुन् । ६ त.। भाए, तत्य ण कोहए णामं चेइए होत्था। वमओ-तत्य गोरक्षक, भूमिरतके च । वाच । सूत्र। एं सावत्थीए णयरीए हालाहला हामं कुंचकारी आजीगोवाली-गोपाली-स्त्री० । लताभेदे, प्रज्ञा० १ पद । वियउवासिया परिवसइ, अशा जाव अपरिजूया, आजीगोविंद-गोपेन्द्र-पुं० । योगशास्त्रकृति,यो०वि० । स्वनामख्याते वियसमयंसि लट्ठा गहियहा पुच्चियट्ठा विणिच्चियट्टा वाच केन्छ, यो वि। ल । पं०व० । “गोविंदाणं पि नमो, अहमिंजपेमाणुरागरत्ता अयमाउसो! आजीवियसमए अके, अणुभोगविलधारणिंदाणं । णिच्चं खंतिदयाणं, परुवणे 5- अयम? परमढे, सेसे प्रणढे ति आजीवियसमएणं अप्पासुमिदाणं ॥१॥"नं०। एं जावेमाणी विहर । तेणं कालेणं तेणं समएणं गोविन्द-पुंग। छन्दया प्रवज्यया प्रव्रजिते स्वनामख्याते शाक्य- | गोसाले मखालिपुत्ते चउवीसवासपरियाए हालाहलाए कुंजभक्त प्राप्तबोधे,स्था.१०वा०व्यातत् कथा चैवम्-कश्चिद् गोविन्दमामा शाक्यमतभक्तो जिनागमरहस्यग्रहणार्थ कपटेन यतीभ्य कारीए कुंजकारावणंसि आजीवियसंघसंपरिबुडे आजीविप्राचार्याणां पावें सिमान्ताध्ययनं कुर्वाण स्तेनैवाधीयमानसूत्रे यसमएणं अप्पाणं जावेमाणे विहार ।। ण परिणामविशुभिप्रादुर्भावात्सम्यक्त्वं प्राप्य साधुभूत्वा सूरि- "तेणं" इत्यादि। (मंस्खलिपुत्ते त्ति ) मखल्यभिधानमङ्मपदं प्राप्त इति तं । व्य०। पं० भा० । कर्मस्तवटीकाकारके पुत्रः । (चवीसवासपरियाप ति)चितुर्विंशतिवर्षप्रमाणप्रदेवनागसूरिशिष्ये च । जै० ३० । सूर्यशिवपुड्याः सूर्य- बज्यापर्यायः। श्रिया भर्तरि स्वनामख्याते ब्राह्मणे, महा० १ चू० । विष्णो तएणं तस्म गोसालस्स मखलिपुत्तस्स अप्पयाकयाई इमेज च । को। स्या०। ('सुसढ' शन्देऽस्य कथा) दिसाचरा अंतिय पाउन्नवित्यातिं जहा-साणे, कणंदे,कम्सिगेविंदणिज्जुत्ति-गोविन्दनियुक्ति-स्त्रीगदर्शनप्रनायके स्वनामक्याते प्रमाणपन्थे, नि० चू० १०० । पृ० । प्रा० चू० । यारे अच्छिंदे,अग्गिवेमायणे,अज्जुणे,गामायुपुत्ते।तए णं ते तस्कृतिश्चैवम्-गोविन्दो नाम धौद्धानिक्षुः, स एकेन जैनाचार्येण गदिसाचरा अट्ठविहं पुतगयं मग्गदसमंसएहिं मदंसणेहिणिमष्टादश वारान् वादे पराजितः चिन्तितवान्-यावषां सिद्धान्त- ज्जूहिति। सएहिं मदंसणेहिं णिजहिंतित्ता गोसालं मखन्निस्वरूपं न जानामि तावन्न शक्नोमि जेतुमिति तस्मेवाचार्यस्या पुत्तं उबट्ठाईस । तएणं से गोसाझे मंखलिपुत्चे तेणं अडंगस्स न्तिके सामायिकादिपवनच्छलेन सर्व श्रुतं जग्राह, ततस्तस्प्रनावाकानावरणापगमे सम्यक्त्वपरिणतात्मा व्रतमादर्द, पश्चादू महानिमित्सस्स केण उद्बोयमेत्तेणं सम्बोसिं पाणाणं सम्बेसि गोविन्दनियुक्तिनामकं दार्शनिकनन्यं चक्रे नि चू० ११ उ.। नूयाणं सव्वेसि जीवाणं सव्वेसि सत्ताणं इमाईब अणगोविंददत्त-गोपेन्द्रदत्त-पुं० । स्कन्दनाचार्यस्य सतीर्थे, इकमाणिज्जाई वागरणाईवागरइ । तं जहा-लानं, अलाचं, व्य. १०। मुह, दुक्खं, जीवियं, मरणं। तए णं से गोसाले मंखमिपुत्ते तेगोविय-गोपित-त्रि०। रक्षिते, नि०३ वर्ग। सूत्रा परवतवर्षे । णं अटुंगस्स महाणिमिनस्स केणइ उदोयमेतेणं सावत्थीजाते कुलकरे, ति। एणयरीए अजिणे जिणप्पनावी अणरहा अरहप्पलावी गोवी-देशी-चालायाम्, दे० ना०२ वर्ग । अकेवनी केवलिप्पलावी असनम सव्वाप्पनावी अजि. गोवीय-वे शी-अजल्पाके, दे० ना०२ वर्ग। णे जिणसई पगासमाणे विहर । नए णं सावत्थीए णयगोवीही-गोवीथी-स्त्री० । गोसंज्ञके चतुर्निक्षत्ररुपलतिते | रीए सिंघामग० जाव पहेसु बहुजणो असमास्स एवमाइ. शुकादिमहायहवार नागे, स्थान। इक्खइ० जाव एवं परूवेइ-एवं खल देवाणप्पिया! गोसाले Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2022) अभिधानराजेन्द्रः । गोसालग खलिते जिणे जिप्पन्नात्री० जात्र पगासमाणे विहर। सेकहमेयं मध्ये एवं १ । तेणं कानेणं तेणं समयां सामी समोसढे० जान परिसा परिगया । तेणं कालेयं तेणं समरणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेद्रे अंतेवासी इंदचूई uri अणगारे गोयमगोत्तेनं जाव छ बड़ेगां एवं जहा वियस विदेस जाव श्रममाणे बहुजणसद्दं णिमामेह । बहुजो मध्छस्स एत्रमाक्खड़० ४-“ एवं खलु देवापिया ! गोसाले मंखन्निपुत्ते जिले जिचप्पलाची० जाव पगासमाणे विरह, से कहमेयं मध्ये एवं " १ । तए णं जगत्रं गोयमे बहुजणस्स अंतियं एयम सोच्चा सिम्प० जाव जायस० जाव भत्तपाएं पमिदंसेइ, ० जान पज्जुवासमाणे एवं वयासी एवं खलु प्र हं जंते ! ई तं चैव जात्र जिएसदं पगासमा विदर, से कहमे भंते! एवं । इच्छामि णं भंते ! गोसालइस खलि तस्स उड्डाणपरियाणियं परिकहियं १ । गोयबादि समये जगत्रं महावीरे भगवं गोयमं ! एवं वयासीअं णं गोयमा ! से बहुजणे मस्स एत्र माइक्ख ६० ४"एवं खलु गोसाले मंखलिपुत्ते जिग्मे जिणप्पलाबी० जान पगासमाणे विहरड़, " तं णं मिच्छा । अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि० जाव परूवेमि एवं खलु एयस्स गोसालस मंखलिपुत्तस्स मंखीि णामं मंखे पिता होस्था । तस्स णं मंखलिमंखस्स जद्दा णामं भारिया होत्था, सुकुमान्न० जाव पडिरूवा । तए सा जदा भारिया - या कमाई गुब्विणं । यावि होत्या । तेणं काक्षेणं तेणं समएणं सरवणे णामं सवित्रेसे होत्या, रिवत्यमिप० जाव सहिणनप्पगासे पासादीए। तत्थ णं सरवणे सवेिसे गोवले णामं माहणे परिवस, अढे जाव अपरिनए रिउन्त्रेय० जाव सुपरिणिट्टिए यानि होत्या । तस्स ं गोल माणस गोसाला यात्रि होत्या । तए गं से मंखलिखा या कया जाए भारियाए गुन्जिए सद्धिं चितफल गहत्थगए मंखत्तणेणं अप्पाणं जावेमाणे पुत्रापुचिरमाणे गामा णुगामं दूइज्जमाणे जेणेव सरवणे सचिवेसे जेणेव गोबहुलस्स माइणस्स गोसाले, तेव वागच्छइ । उवागच्छता गोत्रहुलस्म माइणस्स गोसालाए एगदेसंसि मणिक्खेवं करेड । करेइत्ता सरवणे सात्रेसे उच्चणीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदायस्स भिक्खारिया माणे सही सन्बो समंता मग्गणगत्रेस करे | बस | एसओ समता मग्गणगवेसणं करेमाणे असत्य वसहिं अक्षमाणे तस्सेव गोबहुलस्स माइ इस गोसालाए एगदेसंसि वासावासं उनागए। तए सा २२८४ गोसालग अदा जारिया एवएडं मासाणं बहुपदिपुछाणं श्रद्धट्ठमाइंदियाणं वीकंताणं सुकुमाल जात्र पारू दारगं पाता । तए तस्स दारगस्स अभ्यापियरो एकारसमे दिवसे बीकं० जान बारसाडे दिवसे प्रयमेयारूवं गांणं गुणणिष्पं ग्रामधेनं करेति जम्हा णं म्हं मे दारए गोत्रनस्स माइणस्स गोसालाए जाते, तं ढोल अहं इमस्स दारगस्म णामवेज्जं गोसाले ति । तए णं तस्म दारगस्त अम्मा पियरो णामघेज्जं करेंति - गोमाले त्ति । तए णं से गोसाले दारए उम्मुकवालभावे विमा परिणयमेते जुब्वणगमत्पत्ते सयमेव पाकिएकं चितफम करे | करेइतः चित्तफलगद्दत्यगए मंखत्तणेणं अप्पाणं नावेमा विहर । तेणं कालेयं ते समएणं श्रहं गोयमा ! ती वासाई अगाग्वासमज्भे वसित्ता सम्मापिङहिं देवत्तं गएहिं एवं जहा नावणाए जान एगं देवदूतमादाय मुं भविता अगाराम्रो अणगारियं पञ्चतए ॥ ( दिसावर नि ) दिशां चरन्ति यान्ति मन्यन्ते भगवतो वयं शिष्या इति दिक्चराः, देशाटा वा दिक्चराः, भगवच्छयाः पार्श्वस्थीभूता इति टीकाकारः । " पासावधिज्ञ" चूर्णिकारः ( अंतियं पाउन्नवित्थ ति ) समीपमागताः । (श्रदुविहं पुण्वगयं ममाहसमं ति ) अष्टविधमष्टप्रकार, निमि मिति शेषः। तचेदम- दिव्यम्, उत्पातम, आन्तरिकं, भौमम, आनं स्वरं, लक्षणं, व्यजनं सेति । पूर्वगतं पूर्वाभिधानश्रुतविशेषमध्यगनं, तथा मार्गों गीत मार्गनृत्यमार्गल क्षणी संभाव्यते । (इसम ति) अत्र नवमशब्दस्य सुतस्य दर्शनान्नवमदशमाविति दृश्यम् । ततश्च मार्गों नयमदशमौ यत्र तत्तथा । (सपाहिं ति) स्वकैः स्वकीयैः (मइदंसणेहिं ति ) मतेर्बुकेर्मत्या वा, दर्शनानि प्रमेयस्य परिच्छेदनानि मतिदर्शनानि, तैः । (निज्जूर्हिति ति) निर्यूथयन्ति - पूर्वलक्षणश्रुतपर्याय्य्थानिकरियन्ति, उद्धग्न्तीत्यर्थः । (वासु) उपस्थितवन्तः श्राश्रितवन्त इत्यर्थः । (अहंTea (स) अष्टभेदस्य (केण चि) केनचित् तथाविधजनाविदितस्वरूपेण ( उल्लोयमेसेणं ति) उद्देशमात्रेण (श्माई छ. अश्कमणिज्जाति) हमानि षट् अनतिक्रमणीयानि व्यक्तिचारयितुमशक्यानि ( वागरणाई ति ) पृष्टेन सता यानि व्याक्रियन्ते श्रभिधीयन्ते तानि व्याकरणानि, पुरुषार्थोपयोगित्वाचेतानि षम् उक्तानि, अन्यथा नष्टमुष्टिनिम्तालुकाप्रभृतीन्यन्यान्यपि बहूनि निमित्त गोचरीभवन्तीति । (अजिये जिणप्पलाषित ) अजिनोऽवीतरागः सन् जिनमात्मानं प्रकर्षेण लपतीत्येवं शी. लो जिनप्रलापी । एवमन्यान्यपि पदानि वाव्यानि । नंवरमन् पूजार्दः केवली परिपूर्णज्ञानादिः । किमुक्तं भवति ? - " अजिणे" इत्यादि। ( एवं जहा विश्यसप नियंडुद्देसप त्ति) द्वितीयशतस्य पञ्चमोदेश के ( उड्डाणपारियाधियं ति ) पारियानं विविधव्यतिकरपरिगमनं तदेव पारियानिकं चरितम् । उत्थानाज्जन्मन श्रारभ्य पारियानिकम् उत्थानपारियानिकम, तत्परिकथितं प्र वरिति गम्यते । (मंखे (त) मज्ञः- चित्रफल कव्यप्रकरो भिशुकविशेषः। " सुकुमाल " इह यावत्करणादेवं दृश्यम् - "सु कुमालपाणिपाया लक्खण रांजणगुणांचवे या० " इत्यादि । "रि Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोसासग अभिधानराजेन्सः । गोसालग बत्यमियः" इह यावत्करणादेवंरश्यम-" रिकत्यमियसमि वजीरो अंतरा विगणं आगासे अहो दाणे२चि पमुइयजणजाणवए०" इत्यादि । व्याख्या तु पूर्ववत् । (चिसफ- धुढे ५। तए णं रायगिहे णयरे सिंघामग० जाब पहेसु ब. लगहत्वगए ति)चित्रफलकं हस्तं गतं यस्य स तथा। (पाहिए हुजणो अमममस्स एवमाइक्खइ० जाव एवं परूवइ-पसे कं ति) एकमात्मानं प्रति प्रत्येकं, पितुः फरकाद्भिनमित्यर्थः। (अगारवासमऊ वसित्तत्ति)अगारवासं गृहवासमध्युष्यासे एं देवाणप्पिए ! विजए गाहावई, कयत्य णं देवाणप्पिए ! व्या (पवं जहा नावणाए त्ति)आचारद्वितीय श्रुतस्कन्धस्य पञ्च | विजए गाहावई, कय पुले णं देवाणुप्पिया! विजए गाहावई, दशे अध्ययने । अनेन चेदं सूचितम्-"समत्तपइम्सेनाहं समणो कयलक्खणे देवाणुप्पिया ! विजए गाहाबई, कया णं लोहोहं अम्मापियरम्मि जीवते ति "समाप्तानिग्रह इत्यर्थः । या देवाणुप्पिया! विजयस्स गाहावइस्स, सुनकेणं देवा"चिचा हिरमं चिच्या सुवम् चिचा बनमित्यादीति :" (भ०) एप्पिए ! माणुसाए जम्मजीवियफले विजयस्स गाहावइस्स, तए णं अहं गोयमा ! पढमं वासं अघमासं अधमासेणं जस्स णं गिहंसि तहारूवे साधुसाधुरूवे पहिलाभिए समाणे खममाणे अध्यिगामं हिस्साए पढमं अंतरावासं वासावा. इमाई पंच दिवाई पाउन्नूयाई । तं जहा-वसुधागवुट्टा० जाव सं उवागए। दोचं वास मासं मासेणं खममाणे पुचाणपु अहो दाणेश घुढे, धणे एं कयत्थे कयपुरणे कयनबि चरमाणे गामाणुग्गामं दइज्जमाणे जेणेव रायगिहे खणे कया णं बोया मुलद्धे माणुस्सए जम्मजीवियफले णयरे जेणेव नानिंदा वाहिरिया जेणेव तंतुवायसाला, तेणेव विजयस्स गाहावइस्स जस्त० । तएणं से गोसाझे मखस्वागच्छशानबागच्चत्ता प्रहापभिरूवं नग्ग उग्गिएहामिा बिजम अंतिपयम सोचा शिसम्म ममपअहापभिरूवं उग्गहं उग्गिरिहत्ता तंतुवायसालाए पगदेसास प्रसंसए समुप्पणकोउहवे जेणेव विजयस्स गाहावइस्स गिहे, पासावासं उबागए। तए णं अहं गोयमा! पढमं मासक्ख तेणेव उवागच्च । नवागच्छत्ता विजयस्स गाहावऽस्स मणं उपसंपन्जित्ताणं विरामि । तर से गोसाझे मंख- गिहामि वसुहारांसि वुष्टिं दसवमं कुमुमं णिवमियं, नम लिपुत्ते चित्तफनगहत्थगए मंखतणेणं अप्पाणं भावमाणे | च णं विजयस्स गाहावइस्स गिहाओ पडिणिक्खमपुनाणुपुब्बिं चरमाणे. जाव दहजमाणे जेणेव रायगिहे माणं पास । पासश्ता हहतढे जेणेव ममं अंतिए. णयरे जेणेव णालिंदा बाहिरिया जेणेव तंतुवायसाला, तेणेव उवागच्छइ । उवागच्चइत्ता ममं तिक्वत्तो भातेणेव नवागच्चइ। उवागच्चइत्ता तंतुवायसानाए एगदेसंसि | याहिणं पयाहिणं करेइ । करेइत्ता ममं वंद, णमंभंमणिकख करोति। करेतिता रायगिहेणयरे उच्चणीयम्जाव सर, मंसइत्ता ममं एवं वयासी-तुब्ने णं भंते ! मर्म अपत्य कत्थ वि वसहिं अन्नभमाणे तीसे य तंतुवायसाझाए धम्मायरिया, अहं णं तुम्भं धम्मंतेवासी । तए णं अहंगोएगदेससि वासावास मुवागए, जत्थेवणं अहं गोयमा!। तए यमा ! गोसालस्स मखलिपुत्तस्स एयमढ णो आढामि, णं अहंगोयमा! पढममामक्खमाणपारणगंसि तंतुवायसाझाए णो परिजाणामि, तुमिणीए संचिहामि। तए णं अहं गोयमा! पडिणिकवामिातंतुवायसाझाए पमिणिक्खमित्ता नालिंदाबा- रायगिहा ओणयरामो पमिणिक्खमामि, पमिणिक्खमामिहिरियं ममज्मेणं जेणेव रायागेहे णयरे जच्चणीय जाव अ. ताणादिं वाहिरियं मझ मज्झणं जेणेव तंतुवायसाना, कमाणे विजयस्स गाहावश्स्स गिहं अणुप्पविटे।तएणं से विज- तेणेव उवागच्छामि । उवागच्छामित्ता दोचं मासक्खमणं एगाहानई मम एज्जमाणं पासइ । पासइत्ता हहतुहाखिप्पामेव | उपसंपज्जित्ता णं विहरामि । तए एं अहं मासक्खमणपाभासणाओ अन्नुढेइ । अन्नुढेइत्ता पादपीगो पञ्चोरुज- रणगंसि तंतुनायसालाओ पडिणिक्खमामि । पडिणिक्खतिपिबोरुनतिना पाययाओ उम्मुयहाउम्मुयइत्ता एगसामियं मामित्ता णालिंद वाहिरियं मऊ मणं जेणेव रायउत्तरासंगं करेइ करेइत्ता अंजलिम ननियहत्थे ममं सत्तट्ठपयाई गिहे णयरे जाव प्रमाणे आणंदस्स गाहावस्स अणुगच्छइ आगच्चश्त्ता ममंतिकवुत्तो आयाहिणं पयाहिणं गिहं अणुप्पविहे । तए णं से आणंदे गाहाबई मर्म करेइ । करेइत्ता ममं वंदइ, णमंतइ, एमसइत्ता ममं विउलेणं एन्जमाणं पासइ । पासइत्ता एवं जहेच विजयस्स, एवरं अमणपायाखाइमसाइमेणं पमिक्षाभिस्सामित्ति तुझे, पमित्रा- मम विलाए खज्जगविहीए पमिलाजिस्सामीति तुहे.सेसं नेमाणे वि तुट्टे, पमिन्नाजिते वि तुट्टे । तए णं नस्स विजय- तं चेव, जाव तच्चं मासक्खमणं उनसंपजित्ता णं विहरामि। स्स गाहावइस्स तेणं दव्वमुच्चेणं दायगसुकेणं पमिग्गह- तए णं अहंगोयमा ! तच्चं मासक्खमणं पारणगंसि तंतुवायमुरणं तिविहेणं तिकरणसुदेणं दागेणं मए पमिझाभिए सानाओपमिणिक्खमामि । पडिमिक्खमामित्ता तहेव० जाव समाणे देवाउयं णिवद्धं,संसारए रितीक ए. गिहंसि य से इमाई अडमाणे सुदंसणस्स गाहावइस्स गिहं आगप्पविढे । तए णं पंच दिव्बाई पानब्याई । जहा-वसुहारावुघा? दसघव- से सुदंसणे गाहावई एवरं ममं सबकामगुणिएणं मे कुसुमे णिवातिते २ चेयुक्खेवे कए ३ बाढयाो दे- जोयणेणं पमिलानेति। सेसं तं चेव, जाव चउत्यं मासक्ख Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोसालग अभिधानराजेन्द्रः। गोसालग माणं उपसंपज्जित्ता णं विहरामि । तीसे णं णालिंदा वाहि-| यासी-तुब्जेणं भंते ! मम धम्मायरिया, महंतु अंतेरियाए अदूरसामंते एत्य णं कोबाए णाम सशिवेसे होत्या।। पासी। तएणं अहं गोयमा! गोसालस्स मंखलिपुत्सस्म एयमसभिवेसवस्ट ओ-तत्थ णं कोसाए समिसे बहु णामं माह. टुं पमिमुणेमि । तएणं अहंगोयमा! गोसालेणं मंखमिपुत्तेणे परिवसइ अक्के जाव अपरिजूए रिउव्वेय० जाव सुपरि- सकि पणियन्नूमीए छव्वासाईबानं अलाभ मुहं दुक्खं णिहिए यावि होत्या । तए णं से बहुले माहणे कत्तियचान-! सकारमसकारं पच्चणुजवमाणे अणिच्चजागरियं विहम्मासियपामिवयंसि विनझेणं महुघयसंजुत्तेणं परमम्मेणं रित्या । तए णं अहं गोयमा! अमया कयाई पढमसरयमाहणे आयामेत्या। तए णं अहं गोयमा! चउत्यमासक्ख- कालसमयंसि अप्पट्टिकायंसि गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं मणपारणगंसि तंतुवायसालाअो पमिणिक्खमामि । पमि- सद्धि सिद्धत्यगामाओणयरामो कुम्मगाम एयरं संपहिए णिक्खमामित्ता णालिंदा बाहिरियं मऊ मज्केणं णिग्गा विहाराए । तस्स एं सिकत्यगामस्स एयरस्स कुम्मगामचामि । णिग्गच्छामित्ता जेणेव कोद्धार समिवसे उच्चणी- स्स य एयरस्स य अंतरा एत्थ णं महं एगे तिलयंनए प० जाव अममाणे बहुलस्स माहणस्स गिह अप्पवितु।। पत्तिए पुटिफए हरियगरेरिजमाणे सिरीए ईव - तए णं से बहुझे माहणे ममं एज्जमाणं तहेव० जाव ममं वसोभेमाणे २ चिट्ठइ । तए णं से गोमाले मंखलिपुत्ते तं विउलेणं महुघयसंजुत्तेणं परमहोणं पमिलाजिस्सामीति तुढे, तिलभ पासइ । पासश्त्ता ममं वंदइ,मंसइ,वंदित्ताणमंसेसं जहा विजयस्सजाव बहुले माहणे बहु । तएणं से | सित्ता एवं वयामी-एस णं भंते ! तिलयंजए कि णिप्पगोसाले मंखलिपुत्ते ममं तंतुवायसालाए अपासमाणे | जिस्सइ, णो णिप्पजिस्सइ!,एए य सत्त तिमपुप्फजीवा उरायगिहे एयरे सन्निंतरवाहिरिए ममं सब्बो समंता दाइत्ता नदाइत्ता कहिंगच्चिहिंति,कहिं उववजिहिति । तए मग्गणगवसणं करेइ । ममं कत्यवि सुई वा खुई वा पउ- एं अहं गोयमा ! गोसाझं मंखमिपुत्तं एवं वयासी-गोतिं वा अलजमाणे जेणेव तंतवायसाला, तेणेव उवाग- माया! सणं तिलयंजए णिप्पजिस्सा, णो णो णि छ । उवागच्चइत्ता सामियाओ य पामियाओ य कुंमि- प्पजिस्सइ, एए य सत्त तिलपुप्फजीवा उद्दाश्त्ता उद्दाइत्ता याओ य वाणहाम्रो य चित्तफलगं च माहणे आयामेइ । एयस्स चेव तिलयं भगस्स्स एगाए तिनसंगलियाए सत्त पायामेइत्ता सउत्तरोहें मुंडं करेइ। करेइत्ता तंतुवायसाला तिला पच्चायातिस्संति । तए णं सेगोमाने मंखलिपुत्ते मम श्रो पडिणिक्खमइ । पमिणिक्खमइत्ता णानिंदं बाहि एवं प्राइक्खमाणस्स एयमझु णो सद्दहति,णो पत्तियति,णो रियं मझ मजेणं णिग्गच्छः । णिग्गच्चइता जेणेव रोएइ, एयमढे असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे मर्म कोबागसणि वेसे तेणेव उवागच्चइ । जबागच्चइत्ता पणिहाय अयं णं मिच्छावादी जवन ति कह मम सए णं तस्स कोरागरस समिवेसस्स बहिया बहुजणो अंतियाओ सणियं सणियं पच्चोसकइ । पञ्चोसक्कडत्ता प्रसमसस्स एवमाइक्खइ० जाव परूवश्-“धमे देवाणु- जेणेव से तिलथंभए तेणेव उवागच्छइ । उवागच्चपिया! बहुले माहणे,तं चेव जाव जीवियफले बहुल इत्ता तं तिलथंभगं सखेड्डयायं चेव नष्णामे । उप्पास्स माणस्स बहु०"तए णं तस्स गोसालस्स मखलिपुत्त- मेदत्ता गंते एमे। एमेइत्ता तक्खणमत्तं च गोयमा ! स्स बहुजएस्स अंतिय एयमढे सोचा णिसम्म अयमेयारूवे दिवे अन्जवहार पाउन्जए। तएणं से दिने अम्भवहप्रभत्थिएन्जाव समुप्पज्जित्था। जारिसियाणं मम धम्मा- लए खिप्पामेव पतणतणाए, खिप्पामेव विज्जुयाइ, खिप्पायरियस्त धम्मोवएसगस्स समस्स जगवो महावीरस्स | मेव पचोसगंणातिमट्टियं पविरलपप्फुसियं रयरेणुविणासणं इसी जुत्ती जसे वले वीरिए पुरिसकारपरक्कमे लके पत्ते अ. दिनसलिलोदगं वासं वास । जाणं से तिलयंजए आसत्थजिसमधागए णो खलु अस्थि तारिसियाणं असस्स कस्स वीसत्यए पच्चायाए बछमूले तत्थेव पतिहिए। ते य सत्त वितहारूवस्म समणस्स वा माहणस्स चा इव्हीजुत्ती० जाव प तिलपुष्फीवा उद्दाइत्ता ३ तस्सेव तिथंजगस्स एगाए रक्कमे लच्के पत्ते अजिसमामागए। तं हिस्संदिकं णं एत्थं तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाया । धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे जगवं महावीरे भविस्स- (पढमं वासंति) विभक्तिपरिणामात्प्रव्रज्याप्रतिपत्तेः प्रथमे तीति कट्ट कोद्वागसशिवेसे सभितरवाहिरिए मम सन्च- वर्षे ( निस्साए ति) निश्राय निश्रां कृत्वा ( पदम अंतरावास श्रो समंता मग्गणगवेसणं करे। ममं सबो० जाव करे ति) विनक्तिपरिणामादेव प्रथने अन्तरमवसरो वर्षस्य पृष्टेमाणे कोरागसमिवेसस्स बहिया पणियनूपीए मए सकिं यंत्रासावन्तरवर्षः। अथवाऽन्तरेऽपि जिगमिषितकेत्रमप्राप्यापि यत्र सति साधुजिरवश्यमावासो विधीयते सोऽन्तरावासो अनिसमयागए । तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते हहतुढे मम वर्षाकालः, तत्र । वासंति) वर्षासु वासश्चातुर्मासिकमयस्थानं विक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं जाव मंसिचा एवं व- वर्षावासः, तमुपागत उपाश्रितः (दोच्च वासं ति) द्वितीये Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१६ ) अभिधानराजेन्द्रः । गोसालग वत्र ( ततुवायसाल ति) कुविन्दशाला ( जमिलियहस्थ ति) जलना मुकुलिनौ मुकुलाकारी कृती हस्तौ येन स तथा (सुद्धेणं ति) द्रव्यमोदनादिकं शुद्धमुप्रमादिदोषरहितं यत्र दाने तथा तेन, (दायगसुद्धेणं ति ) दायकः शुको यत्राशंसादिदोषरहितत्वात् तत्तथा तेन, एवमितरदपि ( तिविद्देणं ति ) सत्तलकणेन त्रिविधेन, अथवा त्रिविधेन कृतकारितानुमतिभेदेन, त्रिकरणशुद्धेन मनोवाक्कायशुकेन । ( वसुहारा बुट्ट ति ) वसुधारा व्यरूपा धारा वृष्टाः ( अहो दाणं ति ) अहो' शब्दो विस्मये, ( कत्थे णंति) कृतार्थः कृतस्वप्रयोजनः । ( कयलक्खणे ति ) कृतफल वज्ञऋण इत्यर्थः । (कया णं लोय त्ति) कृतौ कृतशुभफसौ, अत्रयवे समुदायोपचाराल्लोको इहलोकपरलोको (जम्म जीवियफले ति ) जन्मनो जीवितव्यस्य च यत्फलं तत्तथा (तहरु साहुसाहरू सि) तथारूपे तथाविधे, श्रविज्ञातव्रतविशेष इत्यर्थः । साधौ श्रमणे साघुरूपे साध्वाकारे (धम्मं - चासि सि ) शिल्पादिग्रहणार्थमपि शिष्या जयन्तीत्यत उच्यते - धर्मान्तेवास) । (खज्जगविहीर ति ) खण्डखाद्यादिलक्षणभोजनप्रकारेण (सञ्वकामगुणिरणं ति) सबै कामगुणा अभिलापावित्र्यजूता रसादयः संजाता यत्र तत्सर्वकामगुणितं सेन (परमणं ति) परमान्नेन सैरेय्या ( मायामेत्थ सि ) श्राश्रामितवान् तद्भोजनदान द्वारेोच्छिष्टता सम्पादनेन तच्छुभ्यर्थमाचमनं कारितवान्, जोजितवानिति तात्पर्यम् (सब्जितरबाहिरिए ति) सहाभ्यन्तरेण विभागेन बाह्येन च यत्तलथा, तत्र ( मग्गणगवेसणं ति) अन्वयतो मार्गणं, व्यतिरेकतो गवेषणं ततश्च समादारद्वन्द्वः। (सुवति) श्रूयत इति श्रुतिः शब्दः, तां चक्षुषा किलादृश्यमानोऽर्थः शब्देन निश्चीयत इति श्रुतिग्रहणम् । (खुरं वति) कवणं क्षुतिः, छीत्कृतं ताम् । एषाऽप्यदृश्यमनुध्यादिगमिका भवतीति गृहीता (पडलि बत्ति ) प्रवृत्तिबातम (साडियाओ) परिधानवस्त्राणि (पाडिया (स) उत यत्रस्त्राणि कचिद् "जंकियाओ सि" दृश्यते । तत्र भलिका न्धनादिभाजनानि ( माहणे श्रायामे ति ) शाटकादीनर्थान् ब्राह्मणान् लम्भयति, शाटकादीनर्थान् ब्राह्मणेभ्यो ददातीत्यर्थः । (सउत्तरोडुं नि ) सह उत्तरोष्ठेन सोत्तरोष्ठं सस्मधुकं यथाभवतीत्येवं (मुंरं ति) मुएमनं कारयति नापितेन (पणियभूमी लि) पणितभूमौ भाएकविश्रामस्थाने, प्रणीतमा वा मनोभूमौ (अभिसमयागर ति) मिलितः (एयमहं पडिलऐमिति ) अभ्युपगच्छामि, यश्चैतस्याऽयोग्यस्याप्यभ्युपगमनं भगवतस्तदवीणरागतया परिचयेनेत्ने गर्भानुकम्पा सद्भावावनस्थतया वाऽनागतदोषानव गमादवश्यं भावित्वा चैतस्यास्येति नागनीयमिति । (पणियभूमिए सि ) पणित भूमेरा प्रणीतमौ वा मनोभूमौ बितवानिति योगः । (अणिडच जागरियं ति ) अनित्यचिन्तां कुर्वन्निति वाक्यशेषः । (पढ मसरयकालसमयंसि सि ) समयभाषया मार्गशीर्ष पौषौ शरदभिधीयते । तत्र प्रथमशरत्कालसमये मार्गशीर्षे ( अप्पबुट्टिकार्यसि सि ) अपशब्द स्वाववचनत्वादविद्यमानवर्षे इत्यथेः । अन्ये तु "अश्वयुक्कार्तिकौ शरत्" इत्यादुः । अब्बूटिकायत्याच्च तत्राऽपि विहरतां न दूषणमिति; एतच्चासङ्गतमिव, जगवतोऽप्यवश्यं पर्युषणाकर्त्तव्यत्वेन पयुषण कल्पेऽभि हितस्यादिति । (हरियगरेरिजमाणे ति ) हरितक इति कृत्वा (रिमाणं चि) अतिशयन राजमान इत्यर्थः । ( तप बं अहं गोसालम गोमा ! गोसालं मंत्रिपुत्तं एवं क्यासि ति) २६ यङ्गगवतः पूर्वकालप्रतिपशमौनानिग्रहस्यापि प्रत्युत्तरकालं तदेकादिकं वचनमुत्कलमित्येवमभिग्रहग्रहणस्य सम्भाव्यमानत्वेन न विरुरुमिति (तिलसंगलिया त्ति ) तिलफत्रिकायाम् । ( ममं पणिहाय सि) मां प्रणिधाय मामाश्रित्यायं मिथ्यावाद । यत्विति विकल्पं कृत्वा । (अम्भवति) अभ्ररूपं वारो जलस्य दसकं कारणमभ्रवाई सकम ( पतणतणाव ति) प्रकर्षेण तण तणायते गंजतीत्यर्थः । ( नद्योदगं ति ) नात्युदकं यथा भवति ( नातिमट्टियं ति ) नातिकर्दमं यथा भवतीत्यर्थः । ( पविरलपप्फुलियं ति ) प्रविरलाः प्रस्पृशिका विषो यत्र तत्तथा ( रयरेपुचिणासणं ति ) रजो बातोत्पादितं व्योमषचिरेणवश्च भूमिस्थितपशवस्तदुपशमिकम् । ( सलिलोदगघासं ति ) सलिलाः शीतादिमहानद्यस्तासामित्र यमुदकं रसादिगुणसाधर्म्यात् तस्य यः सलिलोदकवर्षो ऽतस्तम् । [ बरुमूले ति ] बद्धमूलः सन् । [तत्थेव पतिठिए चि] यत्र पतितस्तत्रैव प्रतिष्ठितः । [ भ० ] तणं अहं गोयमा ! गोसा लेणं मंखलिपुत्रेण सहि जेणेव कुम्मगामे णयरे तेणेव उवागच्छामि । तर एां तस्स कुम्मगामस एयरस्स बाहया वेसियायणे णामं कालतवस्ती बहं बड़ेअणिक्खित्तेणं तत्रोक मेणं उकं वादाओ परिज्जिय श् सूराभिमुंह आयावणचूमीए मायाबेमाणे बिहरइ । आाइच्चतेयतविया से उप्पीओ सब्बो समंता अनिणिस्सर्वेति पाणनूयजीवस तदयइयाए, एयं णं पनिया २ - त्थेव भुज्जो को पचोरुभइ । तए णं से गोसाले पंखलिपुते वेसियायणं बासतव स्सिं पास । पासचा ममं अंतियो सणियं २ पच्चीसकइ । पच्चो सकइत्ता जेणेव वे सियाय नामवस्सी तेणेव उवागच्छइ । उत्रागच्छत्ता वेसियायणं वालतत्रस्सिं एवं वयासी - किं नवं मुणी सुथिए, उदाहु जूयासेज्जायर ? । तए मे से बेसियायणे वालतवस्सी गोसालस मंखलिपुत्तस्स एयमहं णो आढाइ, जो परिजा , तुसिलीए संचि । तए णं से गोसाले मंखलि पुचे वेसियायणं वालतत्रस्सि दोघं वि एवं वयासी- किंभ बं मुणी मुणिए० जाव सेज्जायरए १ । तए णं से बेसियायणे वाझतत्ररूसी गोसान्नेणं मंखलिपुत्तेणं दोचं पितचं पि एवं वृत्ते समाणे प्रामुरुत्ते० जाव मिसिमिसेमाणे प्रायावातूमी पञ्चोक । पचोसकइत्ता तेयासमुग्याएणं समोहएइ । समोसा सचट्ठपयाई पञ्चोसकर । पच्चो सकता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स बढ़ाए सरीरगं तेयं णिसिर । तए पां अहं गोयमा ! गोसाझस्स मंखीिपुत्तस्स भरणुकंपण्डयाए वेसियायणस्स बाह्मतत्रस्सिस्स मा उसिनतेयलेस्सा तेय पडिसाहरणहगाए, एत्य णं अंतरा श्रहं सीयलियं तेयनेस्सं पिसिरामि, जाए सा ममं सीयलियाए तेयलेस्साए बेसि - पायास्स बाझवर स्सिस्स सा उसियतेयलेस्सा पहिया । Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोसालग अभिधानराजेन्द्रः। गोसालग तएणं से वेसियायणे चालतवस्सी ममं सीयलियाए तेयझे- आइक्खह, जाव एवं परूवेह-गोसाला! एस णं तिलस्साए सा सिर्ण तेयझेस्सं पमिहयं जाणित्ता गोसासस्स भए णिप्पजिस्सइ, णो णिपज्जिस्सा," तं चेव पञ्चायाइ. मंखलिपुत्तस्स सरीरस्स किंचि प्राचाहं वा वावाहं ना छवि-स्संति, तं णं मिच्छा, इमं च णं पञ्चक्खमेव दीम चेदं वा अकीरमाणं पासित्ता सा उसिणं तेयोस्सं पडि- तिनयंजए णो णिप्पाले अणिपसमेव, ते य सत्त तिलपुसाहरइ । पमिसाहरश्त्ता ममं एवं वयासी-से गयमेयं जगवं!, फजीवा उदाइत्ता उद्दाइत्ता णो एयस्स चेत्र तिनयंगस्स गयगयमेयं भगवं! । तए णं से गोसाले मंखमिपुत्ते ममं एवं | एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पञ्चायाता । तए णं बयासी-किं णं ते ! एस जयासिज्जातरए तुम्भे एवं व- अहं गोयमा ! गोसानं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-तुमं एं यासी-"से गयमयं जगवं! गयगयमेयं भगवं!"। तए ण | गोसाना ! तदा ममं एवं प्राइक्खमाणस्स० जाव एवं पअहं गोयमा गोसाले मंखलिपुत्तं एवं वयासी-तुमं णं गो- स्वेमाणस्स एयमणो सद्दहसि, णो पत्तियसि, णो रो. साला! वेसियायणं वासतवस्सि पास । पासइचा ममं अं| यसि, एयमढे असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएपाणे मम तियामो सपियं पञ्चोसकसपच्चोसकइत्ता जेणेव वेसियायणे पणिहाय, अयं णं मिच्छावादी भवउ ति कह ममं अंतिबालतबस्सी, तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छइना वेसियायर्ण याओ सपियं सणियं पच्चोसकइ । पञ्चोसक्कइत्ता जेणेव मे पालतवास्सिं एवं बयासी-"किं नवं मुणी मुणिए, उदाह तिन्नभए तेणेव उवागच्चानवागच्चइताजाव एगंतभूयासेजायरए ?"। तए णं से वेसियायणे वालतवस्सी तव मंते एढेसि, तक्रवणमेत्तं गोसाना! दिव्चे अन्नबद्दलए पा. . एयमढ णो माढाइ, णो परिजाणड, तुसिणीए संचिह। उन्ए। तए णं से दिने अन्जबद्दलए खिप्पामेव तं चेत्रण सए णं तुर्म मोसामा । बेसियायणं वालतबस्सिं दोच्चं पि जाव तिलयंभगस्स एगाए तिनसंगलियाए सत्त तिला तचं पि एवं वयासी-"किं नवं मुणी० जाव ज्यासेज्जायरए। पच्चायाता। तं एस एं गोसाला!से तिथंजए णिप्पो, " | तए णं से बोसयायणे वालतबस्सी तमं दोच्च णो अणिप्पाममेव । ते य सत्त तिलपुप्फजीवा उहाउत्ता उदा. सच्चं पि एवं वुचे समाणे प्रासुरुचे० जाव पच्चोसका। इत्ता एयस्स चेत्र तिलयंजगस्म एगाए तिनसंगलियाए पञ्चोसक्कश्ता तब वहाए सरीरगं तेयझेस्सं णिसिर । तर सत्त तिला पच्चायाता। एवं खबु गोसाला! वणस्सइकाइएं अहं गोसाना ! तब अणुकंपणड्डयाए बेसियायणस्स याओ पनपरिहारं पारहरंति। तए णं से गोसाले मंस्खलि. पालतबस्सिस्स सा य तेयपढिसाहरणट्टयाए एत्थ पुत्ते ममं एवमाइक्खमाणस्स० जाव परवेमाणस्स एयम अंतरा सीयलिय यलेस्स णिसिरामि० जाव पडिहयं णो सदहति । णो सहतित्ता एयम असइंहमाणे० जाव नाणित्ता तब सरीरगस्स किंचि आवाई वा बावाहं वा - भरोएमाणे जेणेव से तिलयंजए तेणेव उवागच्च। उविच्छेदं वा अकीरमाणं पासित्ता सा उसिणं तेयलेस्सं वागच्छत्तिा तानो तिथंजयाओतं तिनसंगलियं खुइति । पमिसाहरति । पडिसाहरतित्ता मर्म एवं वयासी-“से गय खइित्ता करयसि सत्त तिने पप्फोमेइ। तए णं तस्स मेयं जयवं,मयययमेयं जगवं!"तए एं गोसाले मंखलि. गोसाबस्स ते सत्त तिले गणेमाणस्स अयमेयारूने अम्भपुत्ते ममं अंतियाश्रो एयमटुं सोचा णिसम्म भीए० जाव | त्यिए जाव समुपज्जित्या-एवं खलु सबजीचा वि पसंजायजए ममं एवं वयासी-कहिणं भंते ! संवित्तविउ- उपरिहारं परिहरति । एस एणं गोयमा ! गोसानस्स मंससतेयलेस्से जबइ ? । तए णं अहं गोयमा ! गोसालं मं- लिपुत्तस्स पउद्दे। एम णं गोयमा ! गोमासस्स मखलिपुत्तस्खलिपुत्तं एवं बयासी-जे णं गोमाला! एगाए सणहाए स्म ममं अंतियाओ आयाए अवकपणे पालते । तए थे कम्मासपिमियाए एगण य वियमासरणं बढ बढणं अ- से गोसाने मंखलिपुत्ते एगाए सणहाए कुम्मामपिडियाए णिक्खेचेणे तवोकम्मेणं न वाहाभो पगिकिय पगि- एगेण य वियमासरण छ० ग्रहण न वाहाम्रा पार किय जाब विहरइसे एं अंतो गएहं मासाणं संखित्तवि. ज्जिय ५० जाब विहरइ । तए णं से गोसाले मंखलिममतेनमेस्से जवइ । तए णं से गोसाले मंग्निपुत्ते मम एय- पुसे भंतो एहं मासाणं संखित्तविनखतेयलेस्से जाए। मटुं सम्मं विणएणं पमिसुणे। तए णं अहं गोयमा अमया (पाणभूयजीवसनदयध्याए सि) प्राणादिषु सामान्येन या कयाइ गोसालेणं मंखलिपुत्तणं सकिं कुम्मगामाप्रोणयरा- दया सेवार्थः प्राणाविदयार्थः, तद्भावस्तत्ता, तया, अथवाभो सिफत्यगामं पयरं संपडिए विहाराए, जाहे य मोतं षट्पदिका एव प्राणानामुपासादीमा भावारप्राणाः, नवनधर्म करवाताः,उपयोगक्षणत्वाज्जीवा,सत्त्वोपपेतत्वात्सत्वाः,ततः देसं हवमागया, जत्य णं से तिमयंजए । तए णं से गोसा-|. कम्मंधारयः,तदर्थतायै, चशम्दः पुनरर्थः। (तत्थेव सि) शिर:ले मंखमिपुत्ते ममं एवं वयासी-तुम्ने णं भंते तदा मर्म एवं प्रतिक (किं भवं मुणी मुणिए जि) किं भवान् मुनिस्तपस्वी २५५ Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१० ) अभिधानराजेन्यः । गोसालग मातः । ( मुशिप चि ) ज्ञाते तत्वे सति ज्ञात्वा वा तत्वम् । श्र थवा-नवान् मुनी तपस्विनी (?) (मुणिए ति) मुनिकस्तपस्वीति, अथवा भवान् मुनिर्यतिः, उत मुणिको ग्रहगृहीतः (उदाहु ति) 'उताहो' इति विकल्पार्थो निपातः । (ज्यासेज्जायरए ति ) यूकानां स्थानदातेति। (सत्तट्टपया पश्च्चोसकर त्ति) प्रयत्न विशेषार्थः, सुरभ्रश्य प्रहारदानार्थमिति । ( सा उसिणं तेयलेस्सं ति ) स्वां स्वीयामुष्णां तेजोलेश्याम् । ( से गयमेयं जगवं गयगयमेयं भगवं ति ) अथ गतगतमेतन्मया हे जगवन् ! यथा जगवतः प्रसादादयं न दग्धः सम्मार्थत्वाश्च गतराब्दस्य पुनः पुनरुच्चारणम्। इद च योशालकस्य संरकणं नगवता कृतं तत्सरागत्वेन, दयैकरसत्वाद्भगवतः । यच्च सुनक्षत्र सर्वानुभूति मुनिपुङ्गबयोर्न करिष्यति, तद्वीतरागत्वेन, सन्ध्यनुपजीवकत्वादवश्य माविभावत्वा द्वेत्यवयमिति । (संखित्तविचलते यलेस्स त्ति ) सङ्क्षिप्त प्रयोगकाले अविपुला, प्रयोगकाले तेजोलेश्या लब्धि विशेषो यस्य स तथा ( सणहाए त्ति) सनखया यस्यां पिरिमकायां बध्यमानायामङ्गुलीनखा अङ्गुष्ठस्याघो गलन्ति सा सनखेत्युच्यते । ( कुम्मासपिडियाए त्ति ) कुल्माषा भर्द्धखिन्ना सुकादयः, माषा इत्यन्ये ( वियडासएं ति ) विकटं जलं, तस्याशयः भाश्रयो वा स्थानं विकटाशयो विकटाश्रयः । तेन अमुं प्रस्तावाच्चुलुकमा हुर्बुद्धा: ( जाहे य मो त्ति ) यदा च स्मो भवामो वयम् । (अनिष्फामेव त्ति ) मकारस्याऽऽगमिकत्वादनिष्पन्न एव ( वणस्त्रइकाइयाओ पट्टपरिहारं परिहरति सि ) परिवृत्य २ मृत्वा यस्तस्यैव वनस्पतिशरीरस्य परिहारः परिवर्तः, परिवर्तवाद इत्यर्थः । ( श्रयाप श्रवक्कमणे ति ) आत्मना प्रादावेवोपदेशमपक्रमणमपसरणम् । (भ० ) तर णं तस्स गोसालस्स मंखन्निपुत्तस्स अध्यया कयाई इमे दिसाचरा अंतियं पाउन्भवित्या । तं जहा-साणे तं चैव सव्वं० जाव अजिये जिएसई पगासमाणे विहरs | सं णो खलु गोयमा ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पन्नात्री० जाव जिणसद्दं पगासमाणे विहरण ; गोसाले णं मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलाची० जाव पगासमाणे विहरइ । तए णं सा महई महालिया महन्वपरिसा जहा सिवे० जाव पमिगया । तए णं सावत्थीए एयरीए सिंघामग० जाव बहुजणो अामास्स० जाव परूवेश - देवापिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिएप्पला बी विहर, तं मिच्छा । समणे जगवं महावीरे एवमाइक्खइ० जाव परूवे । एवं खलु तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स खनी खामं मंखे पिता होत्या । तए णं तस्स मंखस्स एवं तं चैव सव्वं भाणियां ० जाव जिणे जिणप्पलावी जिपसदं पगासमाणे विहरइ । तं पो खषु गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी० जाव विहरइ; गोसाले णं मंखालेपुते अजिणे जिणनावी विरह | समणे जगवं महावीरे जिणे जिए - लावी० जाव जिणसद्दं पगासमाणे विहर। तए णं गोसाले मंखलिपुत्ते बहुजणस्स अंतिए एयम सोच्चा थिसम्म मासुरुचे०जाव मिसिमिसेमाणे आयावणभूमी प्रो पञ्चादभइ । गोसालग पच्चरुनइत्ता सावत्थि णयरिं मज्भं मज्जेणं जेणेव हालाहलाए कुंजकारीए कुंजकारावणे, तेणेत्र उवागच्छइ । उवागच्छत्ता हालाहलाए कुंनकारीए कुंभकारावणंसि - जीविसंघसंपरि महया अमरिसं वमाणे एवं चावि विर । तेणं काले तेणं समर्पणं समणस्स भगवओो महावीरस्स अंतेवासी आणंदे णामं थेरे पगइनद्दए० जाव त्रिणीए बद्धं छहेणं अणिखित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तसा अप्पा भावेमाणे विहरइ । तए णं से आणंदे थेरे क्खमाणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए एवं जहा गोयमसामी तत्र पुच्छइ । तदेव० जाव उच्चणीयमज्जिम० जाव प्रमाणे हालाहल्लाए कुंभकारीए कुंजकारावणस्स अदूरसामंते बीईया | तर यं से गोसाले मंखलिपुत्ते प्राद थेरं ढाला जाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स प्रदूरसामंते बीईयमाणं पासा । पासइत्ता एवं व्यासी - एहि ताब दा! एवं मं उवभियं णिसामे । तए णं से आं दे येरे गोसाले मंखलिपुत्तेणं एवं वृत्ते समाणे जेणेव हालाहलाए कुंनकारीए कुंजकारावणे जेणेव गोसाझे मंखलिपुत्ते, तेणेव उवागच्छइ । तए णं से गोसाले पंखत्रिपुत्ते आणंदं थेरं एवं वयासी एवं खलु आणंदा ! इतो चिरातीताए श्रद्धाए केई उच्चावया वणिया प्रत्यत्थी अत्थबुद्धा अत्यवेसी अस्यखिया अत्यपिवासिया अत्यगवेसयाए णाणाविहविलपरिणयनंडमायाय सगडी साग मेणं सुबहु भत्तपाणपत्थयणं गहाय एगं महं अगामियं पोहियं विष्णावादीहम अमविं अणुप्प विद्या । तए तेसिं वणियाणं ती अगामियाए अणोहियाए बिष्ठात्रायाए दीह मकाए अडवीए किंचिदेसं अप्पत्ताणं समाणं से पुव्वगाहिए उदर अणुपुत्रेणं परिभुज्जमाणे २ खीणे । तए एां से वणिया खीखोदगा समाण तहाए परिन्जवमाणा श्रम सावेंति । सावेंतित्ता एवं व्यासी एवं खलु देबाणुप्पिया ! अहं इमीले अगामियाए० जाव अमवीए किंचि देतं श्रणुप्पत्ताणं समाणाएं से पुत्र गहिए उदर अणुपुवेणं परिभुजमाणे परितुंजमाणे खीणे, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! म्हं इमी से प्रगामियाए० जाव अमवी - ए उदगस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेतर ति क हुमास अंतिए एयम परिसुति । परिसुर्खेतता तीसे भगामियाए० जाव अमवीए उदगस्स सव्वओ समंता मग्गगवेसणं करेंति । उद्गस्स सव्वओो समंता म गगनेस करेमाणे एगं महं वणखंमं प्रासादेति । किएदं किएहोजासं० जाब पिकुरुबनूयं पासादीयं० जान पमिरूवं; तरस णं वणखंमस्स एवं बहुमज्झदेसभाए एत्थ मगं बम्पीयं प्रासादेति । तस्स णं वम्मियस्स चा Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१९) प्रनिधानराजेन्द्रः । गासालग रिपु अग्गया अनिसिडा तिरियं सुसंपगहिया हे पणगरुवाओ पणगकसंठाणसंठि - या पासादीयाओ० जाव परिरूवाओ । तए से वशिया तुट्टा समं० जाव सद्दार्वेति । सदावेंतित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाप्पिया ! अम्हं इमीसे - गामियाए० जाव सव्व समता मग्गणगवेसणं करेमाणे इमे खंडे आसादिए, किएदे किएहोनासे । इमस्स णं वखंमस्स बहुमज्झदेसभाए इमे वम्मीए आसादीए । इमस्स पां वम्मीयस्स चत्तारि पुत्र अब्भुग्गयाश्रो० नाव पमिवा तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमस्स बम्मीयस्स पढमं वपि भिंदित्तए, अवियाई उरालं उदगरयणं प्रसादिसामो । तए णं ते वणिया समस्त अंतियं एयमहं पमिसुर्णेति । पमिसुर्णेतित्ता तस्स वम्मीयस्स पढमं पि निर्देति । तेणं तत्य अच्छं पत्यं जच्चं तयं फालिपवमानं उरालं उदगरयणं प्रासादेति । तए णं ते वणिया हट्टा पाणियं पित्रति । पिवेतित्ता वाहणाई पर्जेति । पजेंतित्ता भायणाई नरेंति । भर्रेतित्ता दोचं पि श्रम एवं वयासी एवं खलु देवापिया ! अम्हेहिं इमस्स वम्मीयस्स पढमाए बप्पाए जिमाए जराले उदगरयणे अस्सादिए, सेयं खलु देवाप्पिया ! अम्हं इमस्स वम्मीयस्स दोचं पिवप्पं भिंदितए, एत्थ उरानं सुवारयणं अस्सादेस्सामो। तर ते वणिया अमणस्स अंतियं एयम पडिसुर्णेनि । परिसुर्णे तित्ता तस्स वम्मीयस्स टोचं पिवं भिंदंति । तत्थ अच्छ्रं जच्चं तावणिज्जं महत्यं मद्यं महरिहं रानं सुवरणं अस्सादेति । तए णं ते वणिया हट्ठट्ठा नायणाई भरेंति । जतित्ता पत्रहणाई नरेंति । नरेंतित्ता तच्चं पि प्रणमं एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! अम्हे इस वम्मीस पढमाए बप्पाए जिमाए उराले उदगरयणे अस्सादिए,दोच्चाए बप्पाए भिम्झाए उराने सुवार अस्सादिए । तं सेयं खलु देवाप्पिया ! तच्चं पिव मिंदित्तए, वियाई इत्य उरालं मणिरयणं अस्सादेस्सामो । तर ते वणिया श्रमास्स अंतियं एयमहं परिसुर्णेति । पमिसुर्णेतित्ता तस्स वम्मीयस्स तच पि वप्पं जिंदंति । तेणं तत्य विमलं पिम्पलं णित्तलं शिकलं महग्घं महत्यं महरिहं उरालं मणिरयणं अस्सादिति । तए णं ते वणिया तुडा चायणाई नरेंति । नरेंतिचा पवहणाई भरेंति । नरेंतित्ता चउत्थं पिठामध्यं एवं वयासी एवं खलु देबाणुपिया ! म्हे इमस वम्मीयस्स पढमाए बप्पाए जि ए राले उदगरणे अस्सादिए । दोच्चाए बप्पाए भिण्णा उराले सुवणरयणे अस्सादिए । तच्चाए बप्पाए गोसालग भिणार उराले मरियणे अस्सादिए । तं सेयं खलु देवाएप्पिया ! अम्मं इमस्स वम्मीयस्स चलत्थं पि वप्पं जिंदितर, अवियाई इत्थ उत्तमं महग्धं महत्यं महरिहं नरालं वररयणं अस्सादेस्सामो । तए णं तेसिं वणियाएं एगे after हियकाम सहकामए पत्थकामए श्राणुकंपिए णिस्तेयसिए हियसुहरिणस्सेसकामए ते वलिए एवं वयासीएवं खलु देवापिया ! अम्हे इसस्स वम्मीयस्स पढमाए ature भिएure नराने उदगरयणे० जाव तच्चाए वप्पाए जिणार उराले मरियणे अस्सादिए । तं दोउ अन्नाहि पज्जतं णे, एसा चनत्थी वप्पा मा निज्जउ, चउत्थी एं पासउवसग्गा यात्र होज्जा । तए णं ते वणिया तस्स वणियस्स दियकामगस्स सुहका मगस्स० जान हियमुहणिस्सेसकामगस्स एवमाइक्खमाणस्स० जावं परूवेमाणस्स एयमहंगो सद्दति० जाव णो रोयंति । एयम असद्दहमाणा ० जाव अरोपमाला तस्स वम्मीयस्स चत्यं पि वप्पं भिंदति । तेणं तत्थ उग्गविसं चंमविसं घोरावलं महाविसं अतिकायमहाकायं मसिमूसा कालगं नयणविसरोस पुष्पं अंजणपुंजगिरप्पगासं रत्तच्छं जमन्नजुयलचंचलचलंतजीहं घरणितज्ञवेपिभूयं उक्कमफुम कुलिजमुलकक्खमविकडफडा मोवकरणदच्छं लोहागरधम्ममाणधमधर्मेतघोसं अणागलिय चंडं तिब्बरोसं समुहं तुरियं चवनं धर्मतं दिडिविसं सप्पं संघर्हेति । तए से दिट्टिविससप्पे तोहं बणिएहिं संघट्टिए समाणे प्रामुरुत्ते० जाव मिसिमिमेमाणे सहियं सवियं उट्ठे । उहेइचा सरसरसरस्स वम्मीयस्य सिद्दतलं दुरूह | रूहइत्ता आदिच्चं निब्जाइ । निब्जाइता ते वणिए मिसाए दिडीए सव्वधो समंता समभिन्नोति । तए वयादिविसेणं सप्पेणं अमिसाए दिट्ठीए सन्नसमंता समजिलोया समाणा खिप्पामेव सभ्भमत्तोवगरमायाए एगाहचं कूडाइचं भासिरासीकया यावि होत्या ॥ [ जदा सिवे त्ति ] शिवराजर्षिचरिते [ महया अमरिसं ति ] महान्तममर्षम् [ एवं चाविति ] एवञ्चेति प्रज्ञापकोपदर्थमानको पचिह्नम्, अपीति समुच्चये [महं उद्यमियं ति ] मम संबन्धि महद्वा विशिष्टमौपम्यमुपमादृष्टान्तमित्यर्थः । (चिरातीताय श्रद्धा ति ] चिरमतीते काले [ उच्चावयति] उच्चावचा उसमानुत्तमाः । [ अत्यस्थि ति] रूव्यप्रयोजनाः । कुत एवमित्याह - [ अत्थसुद्ध ति] अव्यलालसाः, अत एव [अत्थ गवेसि ] अर्थगवेषिणोऽपि । कुत इत्याह - [ श्रत्थकंस्त्रियसि ] प्राप्तेऽप्यर्थेऽविच्छिन्नेच्छाः । श्रत्थपिवासिय ति ) । अप्राप्तार्थविषय सज्जात तृष्णाः । यत एवमत एवाह "अत्थगवे सणयाए" इत्यादि। (पणियभंडे (स) पणितं व्यवहारः, तदर्थे भारामं, पणितं वाकयाणकं तद्रूपं भाण्डं, न तु भाजनमिति पणितजाएमम्। (सगडी सागडेणं ति) शकट्यो गतिकाः शकटानां मन्त्रीविशेषाणां Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोसालय समूहः शाकटं, ततः समाहारद्वन्द्वोऽतस्तेन । [ नसपाणपत्य[A] भक्तपानरूपं यत्पयोदशम्य तथा (भगामियंति अनामिकाम, अकामिकां या अनमिलापविषयनूनाम् (अणोहियंत) विद्यमानजीविकामतिगढ़ नत्वेनाविद्यमानोहां पा [विश्वाचार्य [] व्यवसायोपाद्याया ददमति) दीमा दीर्घकाल या "किएदं किशोभासं० "इट यावत्करणादिदं दृश्यम् -" नीलं नीलोजासं हांरयं द्वारश्राभासं " ●इत्यादि ” | व्याख्या चास्य प्राग्वत् [ महेगं वम्मीयं ति] महासमेकं वक्ष्मी [पु] वपूंषि शरीराणि शिखरात्यिर्थः [ अग्गयाओ] अभ्युतानि अम्रतानियो " [ अभिनिसमाओति ] अनिविधिना निर्गताः सदास्तदवयवरूपाः केसरिस्कन्धाद्येषां तानि अभिने तेषामुतं स्वरूपम्। अथ निर्ववाह [तिरियं सुपहियाओ सि] सुसंप्रगृहीतानि सुसंवृतानि तानि विस्तीर्णीनीत्यर्थः । अकिंतानीत्याह हे पाओस ] सर्पापाणि या पन्नगस्योदरच्छिन्नम्य पुच्छत ऊर्डीकृनमर्द्धमधोविस्तीर्णमुपर्युपरि चातिश्लक्ष्णं भवतीत्येवंरूपं येषां तानि तथा । पद्मगारूपाणि वर्णादिनाऽपि भवन्तीत्याह- पण गगणसंय ओोस) भाषितमेव (दरानं उदगरपणं आ स्थायमभिप्रायः पर्वविधभूमिगले किलेोदकं भवति वक्ष्मी या प्रिटोविष्यति त ( १०३०) निधानराजेन्द्रः । ני गोसालग स तथा तम । अंजनपुंज नगरपगास ति) भजन पुञ्जानां निकरस्य प्रकाश दीप्तिर्यस्य स तथा तं पूर्व कालमुहितु दीप्तिरिति न पुनरुततेति ( रतच्छं ति ) रक्ताक्कम ( जमलजुय " चलचलंतजी ति) जमलं सह युगलं इथं चञ्चयथा भयत्येवं चलययोरतिषसयोजस्य स तथा प्राकृतस्वाच्चैत्रं समासः (धरणितलवेणिभूयं ति ) धरणं तमस्य वेणीछूतो यनिताशिरस केशवस्यविशेष व या द लक्ष्णपश्चाद्भागवादिसाधर्म्यात स तथा तम् । [ ठक्करकुमकु डिलजकुत क मवियमफडा टोवकरणदच्छं ति ] उत्कटो बलवतान्यानयत्यात्, स्फुटोस चक्रः तत्स्वरूपत्वात् जटिलः स्कन्धदेशे केसरिणामित्राहीनां केसरसगावात फर्कन चिकटवलीयः स्फटाटोपः फणासंरम्भः तत्करणे दक्को यः स तथा तम् । [ लोहागरधम्ममाणधमधमेत घोसं ति ] लोहस्येवाकरे ध्यायमानस्याग्निना ताप्यमानस्य घमघमायमानां धमधमेति वर्णव्यक्तिभिबोत्पादयन् घोषः शब्दो यस्य स तथा तं [ अणागलियचंतिरो ति] भमिर्गखितोऽनिरितो नातिया - यश्वण्डः तीव्र इत्यर्थः तीम्रो रोषो यस्य स तथा तम् [ समुद्द तुरियं चवलं धर्मतं ति ] गुनो मुखः श्वमुखं, तस्य वा चरणं भ्वमुखिकाकौलेयकस्येव भषणतः स्वरितयपनमतिचतया धमन्तं शब्दायन्तं कुर्वन्तमित्यर्थः । [ सरसरसरस्स वि ] सर्पगतेरनुकरणम् [आइचं निम्भार सि] आदित्यं पश्यति दृष्टि विषस्यार्थ [सर्भममतोवगरणमापार सि] सह भाषममात्रया पणित परिच्छदेन उपकरणमात्रया च मे ते तथा [एगा ति] एकैव चाहत्या माइन प्रहारो यत्र प्रकरणे तदेकात्यं तत् यथा भवत्येवम् कथमित्याह [[माहत] पाषाणमयवारणमहायास्वेवाहत्या आहमनं यत्र त कूटाहस्यम्, तद्यथा भवतीत्येवम् । भ० । त्यांजे से बणिए से बलिया विकाप जाव विशिस्सेसकाम से णं पिया देवता सम मतो गरमायाए सियगं यरं साहिए। एवमेव आनंदा! तब विधम्माचरिएवं धम्मोपसणं समोणं साय उराले परियार अस्मादिए । नराला किचित्रासह सिलोगा सदेवासुरलो पुति, गुति, घुवंति इति खलु समणे जगत्रं महावीरे इति । तं जदि मे से अज्ज किंचि वदति, संत वेणं पगादयं कुटाइ भासरासि करेमि । जहा वा वालेणं ते वणिया । तुमं च णं आणंदा ! सारक्खामि, संगोचामि जहा वा से बाहर तेसिं बलिया हियकाम ०जाब जिस्सेसकामए अणुविषार देवपार समजाव साहिए। गच्णं तुझं आणंदा! धम्मायरियरस धम्मोपमगस्स समणस्स णावपुत्तस्स एव परिकदेहि । तर से आणंदे थेरे गोसालणं मंखलिपुत्तेणं एवं वृत्ते समाणे भीए जान संजायनर गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंतिमाओ हालाहलाए कुंभकारीए कुंजकारावणाओ पक्लिप | पाणिखमा सिम्यं तुरियं साचत्यं यर म मज्जेणं णिग्गच्छइ । गिगच्छचा जेणेव कोट्ठए जलं भविष्यतीति । (अच्छं ति) निर्मलं [पत्थं ति ] पथ्यं रोगोप-, शमहेतुः [जच्वं ति] जास्यं संस्कारहितम् [तष्यं ति । तनुकं, सुरमित्यर्थः । [ फालियवमाभं ति ] स्फटिकवर्णत्रदाभा यस्य तन्तथा। अत एव (उरालंति) प्रधानम् [ उदगरवणं ति] उदकमेव रत्नं उदकत्वम् उदकजाती तस्योत्पाद [ वाहणारं परतिति] वीर्यादिवाहनानि पाययन्ति [अति] निरस्येव [[ति ] [] - सहस [[महत्वं ति] महाप्रयोजनं [ महम् ति ] महामू [[]] [[म]गिता [नि मि] नाविकमलरहित] [नि ति ] निस्तलम् अनिवृत्तमि स्पर्थः [] निष्फलं प्रासादिरत्नदोषरहित] [[रति ] पानिधानरत्न [ दितकाम चि] इह दिनमपायानावः | सुहकामए ति ] सुखमानन्दरूपः [ पत्थकामर ति] पथ्यमिव पथ्यम् श्रानन्दकारणं वस्तु [ अणुकंपि ]ि अनुकम्पया चरतीत्यानुकम्पकः [ निस्सेपसिए चि] निःश्रेयसं विकृतीत नेपाअध कृतवाणिजस्योकैरेव गुणैः कश्चिद्युगपद्येोगमाद [हियेत्यादि ] ( होउ अादि परज ने कितना पर्याप्तमित्येते शब्दाः प्रतिषेधायकत्वेनैकार्थाः आपातकप्रतिषेधप्रतिपादमार्थमुखाम (सायादि सि) इवापीति सम्मानार्थ विति) विषम् (मधिति) दष्टकनरकायस्थ ऊगिति व्यापकविषं (घोरविसं ति ) परस्परया पुरुषसहस्रस्यापि हनन समर्थविम (महावि नि ) जम्बूद्वीपप्रमाणस्याविशेषस्य व्यापनसमर्थविषम् [अइकायमहाकायं ति) कायान् शेषादीनामतिक्रान्तोऽतिकायोत एव महाकायः स कर्मचारोऽथवाऽतिकायानां मध्ये महाकायोऽतिकायमहाकायो (सिमाकालगति) मी कसं सुब र्णादितापनन्नाजनविशेषः ते श्व कालको यः स तथा तं (मयविसरोस पुष्पं ति) नयनविषेण दृष्टिविषेण रोषेण व पूर्णो यः - Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२१) गोसालग अभिधानराजेन्द्रः। गोसालग चेइए जेणेव समणे जगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छद ।। णे समणं जगवं महावीरं वंदह, णमंसइ, जेणेव गोयमादि ! नवागच्चश्त्ता समणं नगवं महावीरं तिनुत्तो आयाहिणं सपणा णिग्गंथा तेणेव उवागच्छ । उवागच्चश्त्ता गोयमापयाहिणं करे। करेइत्ता वंदा, णमंस, णमंसइत्ता एवं | दि! समाणे णिग्गंथे आमंते। आमतेइत्ता एवं वयासी-एवं बयासी-एवं स्वम् अहं ते ! बटुकमणपारणगंसि | खलु अज्जो ! टक्खमणपारणगंसि समणेणं भगवया महातुम्नेहिं अन्नगुमाए समाणे सावत्थीए णयरीए उच्चणीय। वीरेणं अब्भाणुमाए समाणे सावत्थीएणयरीए उच्चणीय० जाव अममाणे हालाहलाए कुंभकारीएन्जाव वीईचयामि। | तं चेव सब जाव णायपुत्तस्स एयमट्ठ परिकहेहि। तं मागं तए णं से गोसाले पंखलिपुत्ते ममं हालाहनाए जाव पा- अज्जो! तुम्भं के गोसालं पंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयसित्ता एवं बयासी-एहि ताव आणंदा! इओ एगं मह णाएपडिचोइप्रो. जाव मिच्छ विप्पमिवणे, जावं चणं श्राप्रवमियं णिसामहि । तए णं अहं से गोसालेणं मखझिपुत्ते- वंदे थेरे गोयमाईणं समणाणं णिग्गंथाणं एयमई परिकणं एवं वुत्ते समाणे जेणेव हानाहलाए कुंभकारीए कुंजका हेहि, तावं चणं से गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारावणे जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते, तेणेव मवागच्छामि। नए रीए कुंजकारावणाश्रो पमिणिक्खमइ ! पमिणिक्खमपत्ता एं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं बयासी-एवं खर आजीवियसंघसंपरिमे महया अमरिसं वहमाणे सिग्धं माणंदा । इमो चिराइयाए अद्धाए के उच्चावया| तुरियं० जाव सावधि णयरिं मऊ मज्केणं णिग्ग । बणिया, एवं तं चेव सव्वं णिरवसेसं भाणियब्वं जाव णिग्गच्चत्ता जेणेव कोहए चेहए जेणेव समणे जगवं णियगं एयरं साहिए' । तं गच्छह णं तुम भायंदा ! महावीरे तेणेन उवागच्च । उवागच्चत्ता समस्स भगवधम्मायरियस्स धम्मोवएसगस्स जाव परिकहोहि । तं पण ओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं जगवं महावीर चंते ! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं तेएणं गाइचं कूमाच्च एवं वयासी-सुट्टणं आउसो ! कासवा, ममं एवं वयासी3B नासिरासिं करेत्तए। विसरणं ते! गोसालस्स मखान- साहणं आउमो ! कासवा ! ममं एवं बयासी-गोसाले पुत्तस्स जाव करत्तए । समत्येणं नंते ! गोसाले मखलिपुत्ते मंखमिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी, गासाने,३०जे णं गोसाने तवणं जाव करत्तए । पनूण आणंदा! गोसाले मंखग्निपुत्ते मंखलिपुत्ते तव धम्मंतेवासी, सेणं सुक्के सुक्कानिइए जवित्ता सवेणं जाव करेत्तए, विसरणं आणंदा गोसाले जाब कालमासे कालं किच्चा अमायरेसु देवलोएम देवताए उव. करेत्तए , समत्येणं आणंदा ! गोसाझे जाव करे- वो । अहं णं नदाई णामं कुंडियायणीए अज्जुणस्स गोनए । यो चेवणं अरहंते जमते परियावाणियं यमपुत्तस्स सरीरगं विप्पजहामि । विपजहामित्ता गोसानस्स पुण करेजा, जावएणं आणंदा! गोमालस्स मंखलिपु- मंखलिपुत्तस्स सरीरगं अणुप्पविसामि । आप्पविसामित्ता सस्स तबतेए एनो अणतगुणविसिट्टयाए चेव तवतेए अण- इमं सत्तमं पउट्टपरिहारं परिहरामि। जेवि याई पाउसो ! गाराणं जगवंतो खंतिखमा पुण अणगाराजगवंतो। जाव- कासवा! अम्हं समयंसि केइ सिज्सुि वा, सिझितिवा, इए णं आणंदा ! अपगाराणं भगवंताणं तत्रतेए एत्तो सिज्झिस्संति वा, सम्बे ते चउरासीइमहाकप्पसयसहस्साई प्रणंतगुणविसिद्वतराए चेव तवतेए थेराणं जगवंताणं मत्त दिवे सत्त संजहे सत्त सम्मिगन्ने सत्त पउपरिहारे खंतिखमा पुण थेरा जगवंतो | जावइए णं आणंदा !| पंचकम्माणि सयसहस्साइंसद्धिं च सहस्साई बच्चसएतिमिय थेराणं नगवंताणं तवतेए एत्तो अणंतगुणविसिठ्ठतराए | कम्मंसे अपवेणं खवइत्ता तओ पच्छा सिज्मति, वुमति, चेव तवतेए अरहताणं चगवंताणं खंतिखमा पुण अरहंता मुञ्चति, परिणिबाईति, सबउक्खाएमंतं करिंसु वा , जगवंतो। तं पणं आणंदा! गोसाझे मंखलिपुत्ते सवेणं ते. करिति चा, करिस्संति वा ॥ एणं० जाव करेत्तए, विसरणं आणंदा! जाव करेत्तए, [परियाए ति] पर्यायोऽवस्था[कित्तिवासइसिसोगति] समत्येणं आणंदा! ० जाव करेत्तए, जो चेव णं अरहते | शह वृरुव्याण्या-सर्वदिन्याप। साधुवादः कीर्तिः,एकदिग्यापी भगवते परियावणियं पुण करेजा। तं गच्छह णं तुम आ वर्णः, अदिग्व्यापी शब्दः, तत्स्थान एव श्लोकः, श्लाघेति यावत् [सदेवमणुयासुरलोए ति] सह देवैः मनुजैरसुरैश्च यो लोको जंदा ! मोयमादीणं समणाणं णिग्गंयाणं एयमट्ठ परिकहे. जीवलोकः स तथा तत्र[पुबंतित्तिप्लवन्ते गच्छन्ति,"प्लु"गताधिहिमाण प्रज्जो ! तुम्भं के त्रि गोसालं मंखलिपुत्तं धम्पियाए | तिवचनात् [गुवंतित्ति] गुप्यन्ति व्याकुलीभवन्ति, "गुप"ज्यापमिचोयणाए पमिचोइओ, धम्मियाए पमिसारणाए पमि- कुसत्वे इति वचनात [पुतित्ति ] कचित्तत्र स्तूयन्ते अनिनसारो, धम्मिएणं पमोयारेणं पमोयारेभो,गोसालेणं मंख-| न्यन्ते. काचेत् परिनुमन्तीति दृश्यते.व्यक्तं चैतदिति । एतदेव दर्शयति- "इति खल्वित्यादि" इतिशब्दः प्रख्यालगुणानुवालिपुतणे समणेहिं णिग्गंथेहि मिच्छ विष्पडिबसे । तए गं| दार्थः। [तं ति] तस्मादिति निगमनम्। [तवेणं तेएणं ति] से प्राणंदे थेरे समणेणं जगण्या महावीरेण एवं वृत्ते समा- तपोजन्यं तेजस्तप एव, तेन तेजसा तेजोलेश्यया। जहा Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2022) अभिधानराजेन्द्रः । गोसालग वा वाले ति ] यथैव व्यालेन जगन [ सारखामिति ] संरकामि दाहभयात् । [ संगोवामि त्ति ] संगोपयामि म स्थानप्रापणेन [ पनूत्ति ] प्रजविष्णुर्गोशालको नस्मराशि कर्तुमित्येकः प्रश्नः । प्रचत्वं चद्वित्राविषयमात्रापेकया, तत्करतश्चेति । पुनः पृच्छति - "विसरणं" इत्यादि । अनेन च प्रथमो विकल्पः पृष्टः। "समत्येणं" इत्यादिना तु द्वितीय इति [पारियावनियंति] परितापनिक क्रियां पुनः कुर्यादिति । [ अणगाराणं ति] सामान्य साधूनाम् [ अंतिम ति] कान्त्या क्रोधनि हेण कमन्त इति कान्तिकमाः [ येराखं ति ] श्राचार्यादीनां वयःश्रुतपस्रयस्थविराणाम् | [ पडिवोयणाए सि] तन्मतप्रतिकूला चोदना कर्त्तव्यप्रोत्साद्ना प्रतिचोदना, तथा । (पमिसरणाप चि) तन्मतप्रतिकूलतया विस्मृतार्थस्मारणा प्रतिस्मारणा, तया । किमुक्तं भवति धम्मिरण" इत्यादि। (पडोगारेणं ति ) प्रत्युपचारण प्रत्युपकारेण वा । [पमोयारे सि ] प्रत्युपचारयितुम्प्रत्युपचा रङ्करोतु एवं प्रत्युपकारयतुं वा [मिच्छं विष्पडिवो [] मिथ्यास्वं वाऽनार्यत्वं विशेषतः प्रतिपन्न इत्यर्थः । [ सुघु णं ति] उपालम्भवचनम् [उसो ति ] हे आयुष्मन् ! चिरप्रशस्तजीवित ! (कासव ति) काइयपगोत्र ![सत्तमं पट्टपरिहारं परिहरामित्ति ] सप्तमं शरीरान्तःप्रवेशं करोमीत्यर्थः । [जे वि पाई ति ] येऽपिच । 'आई ति ' निपातः । “चरासी इमहाकप्पससहस्वाई” इत्यादि । गोशालक सिद्धान्तार्थः स्थाप्यो, वृद्धैव्यख्यातत्वात् । माह व चूर्णिकारः- “ संदिद्धलामो तस्तिस्स न लिखिजर चि ।" तथापि शब्दानुसारेण किञ्चिदुच्यते चतुरशीर्ति महाकल्पशतसहस्राणि कवित्वेति योगः । तत्र कल्पाः कालविशेषाः, ते च लोकप्रसिद्धा अपि जवन्तीति तद्यवच्छेदार्थमुक्तम् । महाकल्पा वक्ष्यमाणस्वरूपाः तेषां यानि शतसहस्वाणि लकाणि तानि तथा [ सत्त दिव्वेत्ति ] सप्त दिव्यान् देवजवान् [ सत्त संजू ति ] सप्त संयूथानि निकायविशेषान् [सत सन्निमभि ति] सझिगर्भान् मनुष्यगर्भवतीः। एते च तन्मतेन मोकगामिनां सप्त सान्तरा भवन्ति । वक्ष्यति चैवमेवैतान् स्वयमेवेति । [सस पउट्टपरिहारे सि] सप्त शरीरान्तरप्रवेशान् । एते च सप्तमसगिर्भानन्तरं क्रमेणावसेयाः तथा पञ्चेत्यादाविदं सम्भाव्यते -[ पंच कम्मणि सयमस्साई ति ] कर्म्मणि कर्म्मविषये, कर्म्मणामित्यर्थः । पञ्च शतसहस्राणि काखि [ तिथि य कम्मंसे चि ] श्रीश्च कर्म्मभेदान् [ खवस्त ति ] पयित्वा श्रतिवाह्य । [ भ० ] । से जहा वा गंगा महापदी जओ पवूढा, जार्द वा षज्जुवरिया, एस अछा पंच जोअणसयाई प्रायामेणं, जोणं विक्खंभेणं, पंचधणुइसयाई नब्बेहेणं, एएणं गंगापमाणे सत्तगंगाओ एगा महागंगा, सत्त महागंगाओ मा एगा सादीणगंगा, सत्त सादीगंगाओ सा एगा मच्चुगंगा, सत्त मच्चुगंगाओ सा एगा लोहियगंगा, सत्त लोहियगंगाओ सा एगा अवंतीगंगा सत्त - गंगाओ सा एगा परमावर्ती । एवामत्र सपुव्वावरेणं एगं गंगासयहस्सं सत्तर सय सहस्सा छच्च गुणप गंगासया भवतीति मक्खाया। तासि दुविहे नकारे पत्ते । तं जहा - मोदिकलेवरे चैव वादरवोदिकलेवरे चैव । For Private गोसालग तत्थां जे से सुमोदिकक्षेवरे से इप्प, तत्थ एंणं जे से बादरवों दिकलेवरे तओ णं वाससए गते एंगमेगं गंगावायं वहाय जावइणं कालेां से कोडे खीणे णीरए क्षेित्रे णिहिए जब से तं सरे, एएवं सरप्पमा ऐ तिथि सरसयसादस्सीओ से महाकप्पे, चउरासीतिमहाकष्पससहस्साई से एगे महामाणसे, प्रांताओ संजूहाओ जीत्रे चयं चइता उवरि माणसे संजूहे देवे उबबज्जिहति । से णं तत्थ दिव्वाई भोग भोगाई भुंजमाणे त्रिहरिता ताओ देवलोगाओ आउक्खणं नवक्खरणं ठिक्खणं अतरं चयं चत्ता पढमे सगिन्भे जीवे पच्चायाति । से णं तहिंतो अनंतरं उच्चट्टिता मकिल्ले माणसे संजू देवे नववज्जइ । से णं तत्य दिव्वाई भोगजोगाई जाव विहरता ताम्र देवलोगाओ ग्राउ० २ जाव चइता दोच्चे सगिन्जे जीवे गच्चायाति से णं तहिंतो अतरं उन्नत्ति हो माणसे संजूहे देवे उववज्जइ । से णं तत्थ दिव्वाई० जाव चइता तच्चे सभिगन्धे जीवे पच्चायाति । से णं तहिंतो जात्र नव्याट्टत्ता उवरि माणसुत्तरे संजूहे देवे नववज्जइ । से एां तत्थ दिव्वाई भोगं चइता चलत्ये समिग जीवे पञ्चायाति । से एं तओहिंतो प्रतरं तन्त्रहिता मझिले माणमुत्तरे संजूहे देवे नववज्जइ । सेणं तत्थ दिव्वाई जोग० जाव चइत्ता, पंचमे सम्मिगने जीवे पञ्चायाति । से णं तओहिंतो अांतरं उच्चट्टित्ता हिडिले माणसुत्तरे संजू हे देवे नववज्जति । से णं तत्थ दिव्वाई भोगाव चत्ता, सपिगन्ने जीवे पच्चायाति, सेणं तहिंतो अंतरं उच्चट्टित्ता वंभलोगे णामं से कप्पे पछ | पाईपडियायए उदीदा हिविच्छिो, जहा गण पदे० जाव पंच व सगा पछत्ता । तं जहा - असोग मेंसएण् जात्र परूिवा, से णं तत्य देवे उववज्ज, से सां तत्य दससागरोत्रमा दिव्वाई जोग० जाव चइत्ता, सत्तमे समिमन्भे जीवे पच्चायाति, से णं तत्थ गवएवं मासाएं बहुपमिपुमाणं अद्धमा जात्र वीइकंताणं सुकुमालगजहलए मिउकुंडल कुंचिकेसर मट्टगंडतलकलपीठए देवकुमारसमप्पनए दारए पयाते । से णं अहं कासवा ! तए पं अहं आसो ! कासवा ! कोमारियाए पव्वज्जाए कोमारिएणं वंभचेरवासेणं प्रविद्धक एएए चेत्र संखाणं पनिसभामि, सं० २ इमे सत्तमं पउट्टपरिहारं परिहरामि । तं जहाएसेज्जस्स मल्लरामस्स मंत्रियस्स रोहस्स नारद्दाइस्स अज्जु - गस गोयमपुत्तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स; तत्य णं जे से पढमे पट्टपरिहारे, सेणं रायगिहस्स एयरस्स वहिया मंमिनिसि चेयंसि उदायणस्स कंमियायणस्स सरीरं विजहामि । विप्पजहामित्ता एसेज्जगस्स सरीरगं प्रणुप्पवि Personal Use Only Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२३) अभिधानराजेन्द्रः । गोसालग सामि विसामित्ता बावीसं वासाई पढमं पउट्टपरिहारं परिहरामि । तत्थ णं जे से दोच्चे पउट्टपरिहारे, से एं पुरस्स एयरस बहिया चंदोयरांसि चेइयंसि एणेजगस्स सरीरगं विप्पजहामि । विष्पजहामित्ता मारा मस्स सरीरगं अणुप्पविमामि । अणुप्पविसामित्ता एगवीसं बासाई दोच्च पट्टपरिहारं परिहरामि । तस्य मां जे से तच्चे पट्टपरिहारे, से णं चंपाए एयर ए बहिया अंग मंदिर म्मि चेइयंसि मनरामस्स सरीरं विष्पजहामि । विप्पजहामित्ता मंमिस्स सरीरगं प्रणुष्पविसामि । अणुप्पविसामित्तावीसं बासाइं तच्चं पट्टपरिहारं परिहरामि । तत्थ णं जे से चनत्ये पट्टपरिहारे, सेणं वाणारसीए रायरीए बहिया काममहाariसि चेयंसि मंमिस्स सरीरं विष्पजहामि । विष्वजदामित्ता रोहस्स सरीरं अणुष्पविस्सामि । रोहगस्स सरीरं अणुपविसामित्ता एगूणवीसं वासाईं चलत्थं पउट्टपरिहारं परिहरामि । तत्थ णं जे से पंचमे पट्टपरिहारे, से प्रालंभियाए पायरीए वहिया पत्तकालगंसि चेयंसि रोढस्स सरीरगं विप्पजहामि । विप्पजहामिता भारद्दाइस्स सरीरगं अणुविसामि । त्र्णुप्पविसामित्ता अट्ठारस वासाई पंचमं पट्टपरिहारं परिहरामि । तत्य णं जे से बट्टे पउट्टपरिहारे, सेवेसाली एयरीए वहिया कंमियायणंसि चेयंसि नारदाइस्स सरीरगं विप्पज हामि । विप्पजहामित्ता अज्जुणस गोयमपुत्तस्स सरीरगं श्रणुप्पविसामि । अणुप्पविसामित्ता सत्तरस वासाई बहुं पउट्टपरिहारं परिहरामि । तत्थ जे से सत्तमे परिहारे, से णं इहेव सावत्यीए णयरीए हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावांसि अज्जुणस्त गोयमपुत्तस्स सरीरगं विप्प जहामि । विष्पजह। मित्ता गोसान्नस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं लं थिरं धुवं धारणिज्जं सीयस उपहसं खुदासदं विविदंसमसगपरीसहावस सहं थिरसंघणं ति कट्टु तं अणुप्पविसामि । अणुष्पविसामित्ता तं सोलन वासाई इमं सत्तमं पट्टपरिहारं परिहामि । एवामेव ग्राउसो ! कासवा ! एगेणं तेत्तीसें बाससरणं सत्त पट्टपरिहारा परिहरिया भवतीति मक्खाया । तं सुड्डु णं जसो ! कासवा ! ममं एवं वयासी । " से जहा " इत्यादिना महाकल्पप्रमाणमाह-तत्र - ( से जहा व सि ) महाकल्पप्रमाणवाक्योपन्यासार्थः (जाई या पज्जुवत्थिय चि) यत्र गत्वा परि सामस्त्येनोपस्थिता उपरता, समाप्तेत्यर्थः । ( एस णं श्रद्धति ] एष गङ्गाया मार्गः । [ एएणं गंगापमाणेणं [ति ] गङ्गायास्तन्मार्गस्य नाभेदात् गङ्गाप्रमाणेनेत्युक्तम् [ एवा.. मेशि ) उक्तेनैव क्रमेण [ सकुत्र्यावरेणं ति ] सह पूर्वज गङ्गादिना यदपरं महागङ्गादि तत्सपूर्वापरं, तेन, भावप्रत्ययलोपदर्शनात्स पूर्वापरतयत्यर्थः ।" तासिं विदे" इत्यादि । तासां गोसालग गङ्गादिगतवालुका कणादीनामित्यर्थः । द्विविधः उद्धारः, उत्तरद्वैविध्यात् । ( सुमर्वोदिकलेवरे वेव सि) सूक्ष्म वोन्दीनि सूक्ष्माकाराणि कलेवराण्य सङ्ख्यातखएमीकृतवासुकाक रूपाणि यत्रोद्धारे स तथा [ वायरवदिकलेवरे चैव त्ति ) चादरवन्दीनि बादराकाराणि कलेवराणि वालुकाकणरूपाणि यत्र स तथा (उप्पत्ति) न व्याख्येयः, इतरस्तु व्या ख्यय इत्यर्थः। (श्रवहाय त्ति) अपहाय त्यक्त्वा [से कोट्ठे सि] स कोष्ठो गङ्गासमुदायात्मकः ( खीणे ति) कीणः, स चाविशेषसद्भावेऽप्युच्यते, यथा क्षीणधान्यं कोष्ठागारमत उच्यते । (रए ति) नीरजाः, स च तद्भूमिगतरजसामप्यभावे वच्यत इत्यादि (निल्लेषे ति) निर्लेपः भूमिमित्यादिसंश्लिष्टसिकताले पाभावात् । किमुक्तं भवति ? - निष्ठितो निरवयवीकृत इति । (से तं सरे ति) अथ तत्तावत्कालख रामं सरःसंज्ञं नवति, मानससंह सर इत्यर्थः (सरप्यमाणे ति ) सर एवोकलकणं प्रमाणं वक्ष्यमाणमहाकल्पादेर्मानं सरः प्रमाणम् ( महामाणसं चि ) मानसोलरं यदुकं चतुरशीतिर्महाकल्पशतसहस्राणांति तत्प्ररूपितम् । अथ सप्तानां दिव्यादीनां प्ररूपणायाह ( श्रणंताओ संजूहाश्रोति] अनन्तजीव समुदायरूपान्निकायान् ( चयं चरत्त चि) च्यवं च्युत्वा च्यवनं कृत्वा चयं वा देहम 'बहत सि' त्यक्त्वा [उवरिल्लेत्ति] उपरितनमध्यमाधस्तनानां मानसानां सद्भाषातदन्यव्यवच्छेदाय उपरितने इत्युक्तम् ( माणसे ति ) गङ्गादिप्ररूपणतः प्रागुक्तस्वरूपे सरसि सरः प्रमाणायुष्कयुक्ते इत्यअर्थः । ( संजू हे त्ति ) निकायविशेषे (देवे चववज्जइति ) प्रथमो दिव्यभवः सहिगर्न सघासूत्रातेव । एवं त्रिषु मानसेषु संयूथेषु श्राद्यसंयूथसहितेषु चत्वारि संयूथानि त्रयश्च देवभवाः तथा । ( मानसोत्तरेति ) महामान से पूर्वोक्तमहाकल्पप्रतिमायुष्कवति यश्च प्रागुक्तं चतुरशीतिमहाकल्पशतसहस्राणि कपयित्वेति तत् प्रथममहामानसापेक्षयेति व्यम् । अन्यथा त्रिषु महामानसेषु बहुतराणि तानि स्युरिति । एतेषु बोपरिमादिभेदात्त्रिषु मानसोत्तरेषु श्रीएयेव संयूथानि त्रया देवभवाः । श्रादितस्तु सप्त संयूथानि षट् च देवभवाः । सप्तमदेव भवस्तु ब्रह्मलोके स च संयूथं न भवति सूत्रे संयुथत्वेनाननिहितत्वादिति । ( पाईणपमिणायए उदीदाहिणविच्छिन्नेति ] इढायामविष्कम्भयोः स्थापनामात्रत्वं मन्तव्यम् । तस्य प्रतिपूर्ण चन्द्रसंस्थान संस्थितत्वेन तयोस्तुल्यस्वादिति । [ जड़ा ठाणपदे त्ति ] ब्रह्मलोकस्वरूपं तथां वाच्यं यथा स्थानपदे प्रज्ञापनाद्वितीयप्रकरणे । तश्चैवम्- "परिपुचं दसंठाणसंविए अश्चिमालीभासरासिध्यभे" इत्यादि । " असोगवर्मेस " इत्यत्र यावत्करणात - " सत्तित्रावर्डेसर चूयवस मज्जेय बनलोयवसए" इत्यादि दृश्यम् । [ सुकुमा लगभद्दल ति ] सुकुमारकश्चासौ भद्रश्व नषमूर्तिरिति समासे कारकारी स्वार्थिकाविति । [ मिठकुंडल कुंचिय केस ए ति ] मृदवः कुण्डमिव दर्भादिकुए कलकमित्र कुञ्चिताश्च केशा यस्य स तथा [ महगंमतपीठप चि ] मृष्टग एकले कर्णपीठके कर्णाभरणविशेषौ यस्य स तथा । देवकुमारवत्सप्रभः देवकुमार समानप्रभावो यः स तथा कशब्दः स्वार्थिक इति । [ कोमारिया पव्वज्जाए ति ] कुमारस्येयं कौमारी, सैव कौमारिकी, तस्यां प्रव्रज्यायां विषयभूतायां सङ्ख्धानं बुद्धि प्रतिबेभ इति योगः। [ अविकार वेव सि] कुश्रुतिशलाकया म विरुकर्णो व्युत्पन्नमतिरित्यर्थः । [ एके वस्सेत्यादि ] हैणका For Private Personal Use Only Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२४) गोसालग मानिधानराजेन्दः। गोसालग क्यः पञ्च नामतोऽनिहिताः, पुनरन्त्यौ पितृनामसहिताधि- खलिपुत्ते सन्माणुईणाम अणगारे एवं बुत्ते समाणे श्राति। [ अलं थिरं ति] अत्यर्थ स्थिर, विक्षितकालं याचदय सुरुत्ते सव्वाणुतूतिं अणगारं तवेणं तेएणं एगाहचं कूडाप्यं स्थायित्वात् । [धुवं ति] ध्रुवं तद्गुणानां ध्रुवत्वादत पव धारणिति] धारयितु योग्यम। एतदेव भार्वायतुमाह-[सी. हचं भामिरासिं करे। तए णं से गोसाले मंखलिपुले सन्यादि] एवंभूतं च, तत्कुत इत्याद- [थिरसंघयणं ति] | वाणुजूतिं तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूमाहच्चं भासरासि विघटमानसंहननमित्यर्थः । [ति कत्ति, इतिकृत्वा इति करेत्ता दोश्चं पि समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहिं तोक्तदनुविशामीति । (भ०) पाउसणाहिं अाउसइ०, जाव मुहं एस्थि । नेणं कासाधु णं आउसो! कासवा! ममं एवं बयासी-गोमाले लेणं तेणं समरणं समणस्स भगवो महावीरस्स अंमंखलिपुत्चे ममं धम्मंतेवासी, गोसाले मंखनिपुत्ते ममं धम्म- तेवासी कोसलजाणवए मुणक्खत्ते णाम अणगारे पगतेवासी । एवं समणे भगवं महावीरे गोसानं मखलिपुत्तं भदए जाब विणीए धम्मायरियाणुरागणं जहा सन्चाणुएवं नयासी-गोसामा से जहाणामए तेणए सिया गामेस तूई तहेब जाव सच्चेव ते सा च्छाया, जो अम्मा । तएणं एहिं परिन्जवमाणेश् कत्थइ गत्तं वादरिं वा दुग्गं वाणिसं वा से गोमाले मंखमिपुत्ते सुणक्खत्तेणं अणगारेणं एवं वृत्ते पवयं वा विसमं वा अणस्सादेमाणे एगेणं महं उमालोमेण समाणे आसुरुत्ते मुणवत्तं अणगारं तवेणं तेएणं परिता. पा सणसोमेण वा कप्पासपम्हेण वा तगसूरण वा अनाणं बेइ । तए णं से सुणक्खत्ते अणगारे गोसालेणं मंस्खलिपुत्तेणं पावरेत्ता णं चिज्जा । सेणं अणावरिए श्रावरियामिति तवे तेएणं परिताविए ममाणे जेणेव समणे जगवं महावीरे, अप्पाणं मया, अपच्चले य पसमिति अप्पाणं मलाइ, तेणेव उवागच्छइ। उवागच्चडता समणं भगवं महावीर सिप्रणयुके बुकमिति अप्पाणं मएण, अपलायए पलाय. खुत्तो वंद, एमसइ । मंसत्ता सयमेव पंच महब्बयाई मिति अप्पाणं मलाइ, एवामेव तुम्हं पि गोसाला ! अणमे भारुहेई । पारुहेश्त्ता ममणा य समणीओ य खामे । संते असमिति नपखंजसि, तंमा एवं गोसाला!,णारिहसि खामेइत्ता पालोइयपमिकते समाहिपत्ते आणुपुबीए कागोसाला, सच्चे ते सा गया, जो अमा । तए से | लगए । तए णं से गोसाले मंखालपुत्ते सुणवत्तं प्रणगारं गोसाले मंखझिपने समणेणं भगवया महावीरणं एवं वुत्ते | तवण तरण पारतावचा त तवेणं तेएणं परितावेत्ता तचं पि समणं भगवं महावीर समाणे भासुरुत्ते समयं भगवं महावीरं उच्चावयाहिं उच्चावयाहिं आनसणाहिं आउसइ, सव्वं तं चेष जाव भानसपाहि आउसइ । अाउसत्ता उच्चावयाहिं नदसणा- मुहं एस्थि । तएणं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंखनिहिं उम्सेइ । नसेइना उच्चावयाहिं णिम्भत्थणाहिं पि- पत्तं एवं क्यासी-जे वि ताव गोसावा!तहारुवस्स समणभत्थेइ। णिन्नत्येऽत्ता उच्चावयाहिं णिच्छोमणाहिं णि- स्स वा माहणस्स वा तं चेव जाव पज्जुवासति, किमंग! चोमेइ । णिच्छोमेइत्ता एवं वयासी-एढेसि कदाइ, विण पण गोसाला,तुम्हें मए चेव पन्चाविएन्जाव मए चेव बटुहेसि कदाइ, जडेसि कदाइ, णडविणटनसि कदाइ, अज्ज स्मुईकए,ममं चैत्र मिच्छं निप्पमित्रगणे,तं मा एवं गोसाला !, ए नवसि, णाहि ते ममाहितो सुहमत्यि। तणं कालेणं तेणं जाव जो असा । तएणं से गोसाले मंस्खलिपुत्ते समणेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी पाईण- जगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे आमुरुत्ते तेयासमुग्पारणं माणयए सवाणुजूई हामं अणगारे पगइनए नाव विणी- समोहणइ। समोहणत्ता सत्तट्ठपयाई पच्चोसका पिच्चोसक्काचा ए, धम्मायरियाणरागणं एयमढे असहहमारणे नहाए उडे । समणस्स जगत्रो महावीरस्स बहाए सरीरगंसि तेयं पद्वेश्त्ता जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छद । णिस्सरइ । से जहाणामए पाउकलियाइ वा वायममनिभवागच्छइत्ता गोसानं पंखलिपुत्तं एवं बयासी-जे विताव | याइ वा सेलसि पा कुमुयंसि वा थंनंसि वा थभंसि वा गोसामा ! तहारूवास समणस्स वा माहणस वा अंतियं | श्रावरिजमाणा वा णिवारिजमाणा वा, सा णं तत्थ एगमवि पारियं धम्मियं मुबयणं णिसामेड. सेवितावत णोकमइ, पोपकमइ, एवामेव गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स चंदड,णमंसइ०,जाव कहाणं मंगझं देवयं चेइयं पज्जुवास । तरतेए समणस्म जगवो महावीरस्स बहाए सरीरगं किमंग! पुण तुमं गोसाला!-जगवया चेव पञ्चाविए,जग- णिसिटे समाणे,से णं तत्थ णोक्काइ, णोपक्कमइ, अंचियंबया चेव मुंमाविए, भगवया चेव सेहाविए, जगवया चेव | चियं करे। करेइता मायाहिणं पयाहिणं करेइ । करेइत्ता सिक्खाविए,नगवया चेव बहुस्सुईकए,भगवनो चैन मिच्छ नई वेहास उप्पइ। ते से णं तोपमिहए पमिणियत्तणविपभिव, तमा एवं गोसाझा!,पारिहसि गोसामा! माणे तस्सव गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरंग अणुमसरचेव ते साच्छाया, णो अपणा।तए से गोसाले- हमाणे प्रणमहमाणे अंतो भणुप्परिट्टे । तएणं से Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२५) अभिधानराजेन्द्रः । गोसालग गोसा मंखलिपुत्ते सणं तेएवं अमाइट्ठे समाणे समणं गवं महावीरं एवं बयासी तुमं णं आसो ! कासवा ! ममं तवेणं तेषणं माट्ठे समाणे तो बहं मासाणं पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवतिए छउमत्थे चैव कालं करिस्सइ । तए णं समाणे जगवं महावीरे गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी - णो खलु अहं गोसाला ! तब तवे तेरणं अमाइट्ठे समाणे अंतो बरहं मासा० जाब कार्ल करिस्सामि । अहं णं माई सोलस वासाई जिणे मुहविरामि । तुम्हं णं गोसाझा ! अप्पणा चैत्र सरणं तत्रेणं तेषणं श्रष्माट्ठे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स पित्तज्जरपग्गियसरी रे०जाव बनुमत्ये चैव कालं करिस्ससि । सए णं सावत्थीए एयरीए सिंघारुग० जाब पहेलु बहुजणो मस्स एवमाक्खइ० जाव एवं परूत्रे एवं खलु देवापिया ! सावत्यीए एयरं रोए बढ़िया कोट्ठए चेइए दुवे जिला संझति । एगे एवं व्यासी तुमं पुत्रि कालं करिस्ससि । एगे एवं वदंति-तुमं पुवि कालं करिस्ससि । तत्थ ए के सम्मावादी, के मिच्छावादी ! । तत्थ पंजे से पहाणे जाणे, से वदंति - समणे भगवं महावारे सम्माबादी, गोसाले मंखलिपुत्ते मिच्छावादी, प्रज्जो त्ति ! समणे जगवं महावीरे समणे णिग्गंथे ग्रामंतेत्ता एवं वयासीअज्जो ! से जहाणामए तणरासीति वा कडरासीति वा पत्तरासीति वा तयारासीति वा तुसरासीति वा जुसरासीति वा गोमयरासीति वा अवकररासीति वा अगणिकाfor गणिज्यूसिए गणिपरिणामिए हयतेए गयतेए ते जडतेए बुत्तते विण्डतेए० जाव एवामेव गोसाले मंखनिपुत्ते ममं बहाए सरीरगंसि तेयं णिसिरिता हयते गयतेए० जाव विद्वतेए, तं देणं अज्जो ! तुब्नं गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए परिचोयणाए पडिचोएह, धम्म०२ धम्मिए परिसारणाए पकिसारेह, ध०२ धम्मिए पढोयारेणं पडोयारेह,ध ०२ अट्ठेहि य हेऊहि य पसिरोहिय बागरणेहिय कारणेहि य निष्पट्टपसिएवागरणं करेह । तए णं से समा गिंया समोणं भगवया महावीरेणं एवं वृत्ता समाणा समणं जगत्रं महावीरं वंदइ. एसइ । वंदित्ता एमसिचा जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते, तेणेव उवागच्छ‍ । नवागच्छत्ता गोसालं मंखलिपुत्तं वम्मियाए परिचोयणाए पमिचोएंति, ध० २ धम्मियाए परिसारणाए पकिसारेंति, ध०२ धम्मिएणं पमोयारेणं पमोयारंति, घ० २ हेहिय डेकहिय कारणेहि य० जाव वागरणं करेंति । तए णं से गोसाले खाढीपुत्ते समणेहिं णिगंथेहिं धम्मियाए पडिचोणार परिचोइज्जमाये० जाव पिप्पडपसिणवागरणे २५७ For Private गोसालग कीरमाणे सुरूत्ते० जाव मिसिमिसेमाणे णो संचाए । समणाणं णिग्गंथाणं सरीरगस्स किंचि आवाहं वा बावाहं वा उप्पनए बचिच्छेदं वा करेत्तए । तए णं ते आजीत्रिया येरा गोसालं मंखलिपुत्तं समणेहिं णिग्गंथेहिं धम्मिए पडिचोयणाए परिचोएज्जमाणं धम्मियाए पडिसारणाए परिसारिज्जमाणं धम्मिएणं पमोयारेणं पोयारिजमा अहिय देऊहि यण्जाव कीरमाएं आसुरुतं० जाव मिसिमिसेमाणे समणाणं णिग्गंधाणं सरीरगस्स किंचि आवाई वा चावाहं वा दविच्छेदं वा अकरमाणे पासा । पासइता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंतियाओ आता वकमंति | अवकमंतित्ता जेणेव समणे जगवं महाबीरे, तेणेव उवागच्छंति । उवागच्छंतिता समयं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो याहिणं पयाहिणं कट्टु बंदंति, एमंसेति । वंदिता मंसित्ता समणं जगवं महावीरं उवसंपज्जित्ताणं विहरति । त्या आजीवियथेरा गोसालं चैव मंखलिपुत्तं जवसंपज्जित्ता णं विहरति । तए गं से गोसाले मंखलिपुत्ते जस्साए हव्यमा गए, तमहमसाहेमाणे रुंदाई पलोएमाणे दीहुएहाई नीसलमाणे दाढियाई लोमा लुंचमाणे वर्ड कंड्रयमाणे पुर्यात्रि पप्फोडेमाणे हत्थे विणि माणे दोहिं वि पाएहिं भूमिं कोट्टेमाणे हा हा हो तोऽहमस्सीति कट्टु समणस्स भगवओो महावीरस्स अंतिया कोट्टया चेहयाओ परिणिक्खमइ । परिणिक्खमइत्ता जेणेव सावत्थी एयरी जेणेव हालाहलाए कुंनकारीए कुंन कारावणे, तेणेव जवागच्छछ । नत्रागच्छत्ता हालाहलाहिं कुंनकारीहिं कुंभकारावणंसि श्रंबकूण गहत्थगए मज्जपाणगं पियमाणे भिक्खणं गायमाणे क्खिणं चमाणे क्खिणं हालाहलाए कुंभकारी अंजलिकम् करेमाणे सीतझएणं मट्टिया पाणए आणिउदरणं गाताई परिसिंचमाणे विहर। - जो ति ! समणे भगवं महावीरे समणे णिग्गंचे आमंते एवं व्यासी जाणं जो ! गोसालेणं मंखलिपुते मर्म बढाए सरीसि तेयं सिह, से णं अलाहिपज्जत्ते सोन्झसहं जणवयाणं । तं जहा- अंगाणं गाणं मगहाणं मलयाणं मालवगाणं अच्छाएं बच्छाएं कोच्छाएं पाढाएं लाढणं वज्जीणं माझीणं कासीणं कोसलगाएं श्रवाहात संभुत्तराणं घाताए वहाए उच्छादण्डयाए जासीकरणापय श्रज्ज ! गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहare कुंभकारी कुंनकारावांसि श्रत्रकूण गहत्यगए मज्जपाणं पियमाणे जि०जाव अंजलिकम्मं करेमाणे विहरइ । ( गतं व ति ) गर्त स्वभ्रम् ( दरि ति ) शृगालादिकृतनूविवरविशेषम्, ( दुग्गं ति ) दुःखगम्यं, बनगहनादिति । ( निनं Personal Use Only Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२६) गोसालग अभिधानराजेन्सः । गोसालग ति) निम्नं शुष्कसरप्रभृति (पव्वयं व ति) प्रतीतम् .(वि. कृकाटिकायाम् [पुयग्निं पप्फोडेमाणे ति] पुततटीं पुतप्रदेश समं ति) गर्नपाषाणादिव्याकुलम , (एगेणं महं ति ) एकेन | प्रस्फोटयन् । [विणिभुणमाणे ति]विनिर्धन्वन् । [हा हा अहो महता (तणसुपण यत्ति ) तृणसूकेन तृणाग्रेण ( अणावरिए होऽहमस्सी ति कट्ट ति] हा हा अहो हतोऽहमस्मीति ति) अनावृतोऽसावावरस्यारूपत्वात् (उपनंभास ति) उप- कृत्वा, इति भणित्वेत्यर्थः। [अंबकूणगहत्थगए सि] अाम्रफलह लम्भयसि, दर्शयसीत्यर्थः। (तं मा एवं गोसाल ति) हि फु- स्तगतः स्वकीयतपस्तेजोजनितदाहोपशमनार्थमाम्रास्थिकंच र्षिति शेषः । ( नारिहसि गोसाल ति) ह चैवं कर्तुमिति पन्निति भावः। गानादयस्तु मद्यपानकृता विकाराः समवसेयाः शेषः। (सच्चेव ते सा च्वाय त्ति) सैव ते छायाऽन्यथा दर्शयि. [मट्टियापाणएणं ति] मृत्तिकामिश्रजलेन, मृत्तिकाजलं सामासुमिष्टा, छाया प्रकृतिः [ उच्चावयाहिं ति] असमञ्जसानिः [श्रा- न्यमप्यस्त्यत श्राह-[ श्रायंचणिजदएणं ति । इह टीका उसणादिति] मृतोऽसि त्वमित्यादिभिर्य चनराकोशति शपति व्याख्या-भातन्यनिकोदकं कुम्भकारस्य यद्भाजने स्थितं तेम[उद्धंसणाहिति] दुष्कुलीनेत्यादिभिः कुलाभिमानपातना- नाय मृन्मियं जसं तेन [अलाहि पजते सि] अलमत्यर्थ - थैर्वचनैः [ उसेह ति] कुलाद्यभिमानादधःपातयतीव [नि- र्याप्तः शको,घातायेति योगः (घातापत्ति) हननाय तदाश्रितवभत्थणाहिं ति] न त्वया मम प्रयोजनमित्यादिभिःपरुषवच. सापेकया [वहार त्ति ] बधायै, तच तदाश्रितस्थावरापेक्षया नैः [निभत्थे ति] नितरां दुटप्रभिधत्ते [निच्छोडणाहि [उच्चादणट्टयाए ति] उच्छादनतायै सचेतनाचतनतद्तवस्तुति] त्यजास्मदीयांस्तीर्थकरालङ्कारानित्यादिभिः [निच्गेडे च्छादनायेति, एतच प्रकारान्तरेणाऽपि भवतीत्यग्निपरिणामोति प्राप्तमार्थ त्याजयतीति [ नटेसि कयाइत्ति नष्टः स्थाचा- पदर्शनायाह-[जासीकरणयाए ति] (भ०) रनाशादसि जवसि त्वमा [कया ति] कदाचिदिति वित. तस्स विणं बज्जस्स पच्छादणहयाए इमाई अट्ठ चरमाई कार्यः। अहम् एवं मन्ये यदुत नतस्त्वमसीति [विणसित्ति] मृतोऽसि [भहोसि ति] भ्रष्टोऽसि सम्पदा व्यपेतोऽसि त्वं, पपवे । तं जहा-चरिमे पाणे,चरिमे गए,चरिमेणहे, चम्मेि धर्मत्रयस्य योगपद्येन योगानविनष्टभ्रष्टोऽसीति [नाहित्ति] अंजलिकम्मे,चरिमे पोक्खलस्स संवट्टए महामेहे,चरिमे सेनैव ते [पाईणजाणवए त्ति] प्राचीन जानपदः, प्राच्य इत्यर्थः। यणए गंधहत्यी, चरिमे महासिलाकंटए संगामे | अहं चणं [पब्वाधिए ति] शिष्यत्वेनान्युपगतः "अनुवगमो पव्वज श्मीसे ओसप्पिणीए चवीसाए तित्थंकराणं चरिये तित्यत्ति" वचनात् । [मुंभाविए त्ति ] मुएिकतस्य तस्य शिष्यत्वे. नानुमननात् । [ सेहाविए त्ति ] बतित्वेन सेवितः , व्रतिसमा कर सिन्झिस्सइ, जाव अंतं करेस्सं । जंपिय अज्जो गोचारसेवायां तस्य भगवतो हेतुभूतत्वात् । [सिक्खाविए ति] साले मंखलिपुत्ते सीयलएणं मट्टियापाणएणं प्रायंचणिउशिकितः तेजोवेश्यााएदेशदानतः [बहुस्सुईकए सि] नियति- दएणं गायाइं परिसिंचमाण विहरत, तस्स विणं वजस्स पबादादिप्रतिपत्तिहेतुभूतत्वात् । [कोसनजाणवर ति] अयोध्या च्छादणहाए इमाई चत्तारि पाणगाई चत्तारि अपाणगाई देशोत्पन्नः । [वा उक्कलियाइ व ति] वातोत्कलिका, स्थित्वा स्थिवा यो वातो वाति सा वानोत्कलिका [वायमंत्रियाइ वत्ति] पासवे । से कि तं पाणए । पाणए चउबिहे पलत्ते । तं मएकलिकाभिर्यो वाति। "सेसि वा" इत्यादौ तृतीयाथै सप्तमी। जहा-गोपुट्ठए इत्थमदियए आतवतत्तए मिलापब्भट्टत्तए, से [श्रावरिजमाणे त्ति ] खल्यमाना [ निवारिज्जमाणि ति]] तं पाणए । से किं तं अपाणए?। अपाणए चनविह पम्मत्ते। निवर्त्यमाना [नोक्कम ति]न क्रमते न प्रभवति ।[नो पक्कमहति | तं जहा-थालपाणए तयापाणए सिंवलिपाणए मुकापाप्रकर्षेण न क्रमते[अंचियचिति] अञ्चिते सकृते. अञ्चितेन सः णए। से किं तं थालपालए । याअपाणए जे णं दाथानगं तेन वा देशेनाश्चिः पुनर्गमनमञ्चिताश्चि! अथवा-अध्यागमनेम सह आञ्चिरागमनमच्याश्चिः,गमागम इत्यर्थः। तां करोति । वा दावारगंवादाकुंनगं वा दाकन्नसंवा सीयमगंवानसा[अनाश् त्ति] अन्वाविष्टोऽभिव्याप्तः [सुहत्थि ति] सुह. गहत्थेहिं परामुसइ, न य पाणिय पिवइ,से तं थालपाणए । से स्तीव सुहस्ती [ अहप्पहाणे जणे ति] यथाप्रधानो जनो, यो । किं तं तयापाणएजेणं अवं वा अंबामगंवा जहा पओगयः प्रधान इत्यर्थः । [अगणिज्जामिर त्ति ] अग्निना मातो द पदे० जाव वोरुं वा तिंदुयं वा तरुणगंवा आमगंवा प्रासिगंसि ग्धो, भ्याभितो वा ईषदग्धः ( अगणिज्भूसिए सि) अग्निना सेवितः, कपितो वा [ अगणिपरिणामिए त्ति ] अग्निना परिण आविसोइ वा, पवाझेति वा, ण य पाणियं पिवश्, से तं तमितः पूर्वस्वभावत्याजनेनाऽऽत्मनावं नीतः। ततश्च हततेजो यापाणए । से किं तं संवलिपाणए ?। संवलिपाणए जेणं धूल्यादिना गततेजाः । क्वचित् स्वत एव नष्टतेजाः, कचिदव्य- कलमंगलियं वा मुग्गसंगलियं वा माससंगन्नियं वा सिंवकी जूततेजाः, भ्रष्टतेजाः. ध्यामतेजा इत्यर्थः। लुप्ततेजाः, कचिद लिसंगलियं वा तरुणियं श्रामियं श्रासिगंसि आविसले (भूततेजाः, 'लुए' बेदने,"निदिर वैधीभावे" इति वचनात् ।। किमुक्तं भवति ?-विनष्टतेजाः निःसत्ताकीनततेजा एकार्था बा, पवाइ वा, ण य पाणियं पिवइ, से तं संवक्षिपाते शब्दाः । (ग्दणं ति) स्वाभिप्रायेण यथेष्टमित्यर्थः । णए । से किं तं सुधापाणए ?। मुद्धापाणए जे णं उम्मासे (निप्पटुपसिणवागरणं ति) निर्गतानि स्पृष्टानि प्रश्नव्याक- | सुघखाइम खाइ, दोमासे पुढविसंथारोवगए दोमासे कट्ठसंरणानि यस्य स तथा तम । [रुंदाई पोएमाणे ति] दी | थारोवगए दोमासे दब्भसंथारोवगए,तस्स बहुपडिपुष्पाणं दृष्टिं दिक्षु प्रतिपन्नित्यर्थः । मानधनानां हतमानानां लकणमिदम्। [दाहुबहाई नीससमाणि त्ति ] निःस्वासानीति गम्यते।। छएहं मासाणं अंतिमराइए इमे दो देवा महिहिया जाव [ दाढिया शोमा ति] उत्तरोष्ठस्येव रोमाणि। [ अवटुंति महंसक्खा अंतिय पाउन्नति । तं जहा-पुष्पानद्दे य,माणि Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२७) अभिधानराजेन्द्रः | गासाग 1 नदेय । तरणं से देवा सीयझिएहिं नएहिं इत्थेहिं गायाई परामुसंति । जेणं ते देवा साइज्जइ, से आसीविसत्ताए कम्मं पकरे | जे ां ते देवे णो साइज्जर, तस्स णं संसि सरीरगंसि अगणिकार्य संभवति, से णं सए तेएवं सरीरगं कामेइ । कामेश्ता तम्रो पच्छा सिज्जति, ० जात्र अंतं करोति, से तं सुदापाणए । तत्थ णं सावत्थीए यरी अपुलेामं आजीवियनवासए परिवस, ठे जहा हालाहला, जीवियसमए अप्पाणं भावमाणे विहश । तए णं तस्स अयं पुलस्स आजीवियजवासगस्स अएणया कयाइ पुव्त्ररत्तावरत्तकालसमय से कुटुंबजागरियं जागरमाणे अयमेयारूवे अज्जत्थिए० जाव समुप्पज्जि - त्या किं संविया हा पत्ता ? । तए णं तस्स य अयं पुलस्स जीवियउवासगस्स दोचं पि श्रयमेयारूने अज्जत्थि ए० समुज्जित्था । एवं खलु मम धम्मायरिए धम्मोत्रए - सए गोसाले मंखलिपुत्ते उप्पाणाणदंसणधरे० जान सन् सव्वदरिसी इहेव सावत्थीए णयरीए हालाहलाए कुंभकारी कुंभकारावांसि आजीवियसंघसंपरिवुमे - जीवियसमए अप्पाणं जावेमाणे विहरइ । तं सेयं खलु मेकां जाव जयंते गोसालं मंखझिपुत्तं वंदित्ता ० जाव पज्जु वासित्ता इमं एाणुरूवं वागरणं वागरित्तए ति कट्टु एवं संपेइ | संपेहित्ता कलं० जाव जलंतं एहाए कय० जात्र अप्पमह ग्यानरणालंकि यसरी रे साओ गिद्दाओ पमिणिक्खमइ । पडि क्खिमइता पादविहारचारेणं सावत्थिं नयरिं मज्जं मज्जेणं जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंजकारावणे, तेणेव नवागच्छइ । नवागच्छ इत्ता पास। पासइत्ता गोसालं मंखझि पुतं हालाहलाए कुंनकारीए कुंभकारावणंसि यंत्रणगइत्यं जात्र अंजलिकम्मं करेमाणे सीयलियाए मट्टिया ० जावगायाई परिसिंचमाणं पासइ । पासइत्ता लज्जिए विलि तर विसायं पञ्चोक । तए णं ते आजीवियथेरा अयं आजीत्रिय वासगं लज्जियं० जाव पञ्चोसकपाणं पास | पासइत्ता एवं वयासी - एहि ताव अयपुंबा ! इतो । तर णं से त्र्यंपुले आजीवियनवासए आजीवियथेरेहिं एवं वृत्ते समाणे जेणेव आजीविथथेरा, तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छत्ता आजीवियथेरे बंदइ, णमंसइ । वंदित्ता एमंसित्ता एच्चासणे०जात्र पज्जुवासति । - tigers ! आजीवियरा अयंपुलं आजीविय वासगं एवं बयासी-से खूणं जे अयंपुला ! पुव्वरत्तावरत्तकालसम सि० जाव किं संठिया हल्ला पएलत्ता । तए पं तव अयंपुला ! दोचं पि श्रयमेया तं चेत्र सव्वं भाणियनं० जाव सावत्थि यरिं मज्भं मज्जेणं जेणेव हालाहलाए कुंनकारीए कुंभकारात्रणे जेणेव इह, तेणेव इव्त्रमागए। से यू For Private गोसालग पुला ! समहे, हंता प्रत्थि । जं पियiger ! मारिए धम्मोवएसए गोसाले खलि पुते 'हालाहलाए कुंभकारीए कुंजकारावांसि श्रत्रकूणगढ़त्यगए०जाव जलिं करेमाणे विहरइ । तत्थ वि ां जगदं इमाई चरिमाई पणवे । तं जहा-चरिमे पाणे० जान करेस्स | जेविय अपुला ! तव धम्मायरिए धम्मोare गोसाले मंखलिपुत्ते सीयन्नयाएवं मट्टिया० जाव विरंति, तत्थ विणं भगवं इमाई चत्तारि पाणगाई, चत्तारिपागाई पण; से किं तं पाणए ? | पाणए० जाव तो पच्छा सिज्यंति० जाव अंतं कति । तं गच्छद तुमं त्र्यं पुला ! एवं चेत्र तत्र धम्मायरिए धम्मविएसए गोसाले पंख लिपुत्ते इमं एयारूत्रं वागरणं वागरेहि । तए सेले जीवियउवासए आजीवियस एहि थेरेहिं एवं वुत्ते समाणे हडतृट्ठ • लट्ठाए उट्ठेइ । उट्ठेइत्ता जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव पहारेत्यगमणाए । तर णं ते आ जीवियथेरा गोसालस्म मंखलिपुत्तस्स त्र्यंबकूणगए मात्र - वडाए एगंतमंते संगारं कुव्वंति । तए शं से गोसाले मंखलिपुत्ते आजीविया थेराणं संगारं पडिच्छइ । पनिछत्ता कूणगं गतमंते एमे । तए एं से अयंपुले श्राजीवनवासए जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते, तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छत्ता गोसानं मंखलिपुत्तं तिक्खुत्तो० जाव पज्जुवास | त्र्यंपुलाइ ! गोसाले मंखलिपुत्ते आजीवियउवासगं एवं वयासी-से पूणं त्र्यंपुला ! पुत्ररत्तावरतकालसमयंसि० जान जेणेव ममं अंतियं, तेरोत्र इन्वमागए। से अपुला ! डे समडे, दंता प्रत्थि । तं णो खलु एस कूण वचोयएणं एस। किं संविया दला पत्ता । तं जहा - वंसीमूलसंत्रिया हल्ला पत्ता, वीणं वापहिरिवीरगा, बी०२ । तए गं से अयंपुले प्राजीत्रियउवास गोसाले मंखलिपुत्तेणं इमं एयारूवं वागरणं वागरिए समाणे तु ० जाव हियए गोसालं मंखलिपुत्तं बंद, एमसइ | वंदना एसा पसिलाई पुच्छइ । पुच्छइत्ता अट्ठाई परियादियइ । परियादियइत्ता उट्ठाए उट्ठे । उट्ठता गोसावं मंखसिपुत्तं बंद, एसइ | बंदइत्ता नम॑सत्ता०जात्र पि गए । तर से गोसाले मंखलिपुत्ते पण मरणं श्राभोएइ । भोत्ता आजीविययेरे सहावे । सहावेत्ता एवं वयासी तुजे देवाप्पिया ! ममं कालगयं जाणित्ता सुरचिणा गंधोद एहादेह । सुरभिणा गंधोद एवं एहाडे - हत्ता पम्हल सुकुमालए गंधकासाइए गायाई बूढेह । गायाई बूढेदइत्ता सरसेणं गोसीसेणं गायाई अणुलिंपह | हित्ता महरिहं हंसलक्खणं पमसामगं नियंस | नियंसेवा सव्वाकारविजूसियं करेड । करेता पुरिस Personal Use Only Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२८) गोसालग अभिधानराजेन्द्रः। गोसालग सहस्सवाहिणी सीयं दुरूदेह । पुरूहइत्ता सावत्थीए णयरीए नार्धामि जयन्ति । पुष्कलसंवर्सकादीनि तु त्रीणि बाह्यानि प्रकसिंघामग० जाव पहेसु महया सद्देणं नग्योसेमाणा एवं तानुपयोगेऽपि चरमसामान्याजनचित्तरञ्जनाय चरमाएयुक्ता नि, जनेन हि तेषां सातिशयत्वाच्चरमता अकीयते, ततस्तैः बदह-एवं खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे सहीतानामाम्रकूणकपानकादीनामपि सा सुश्रख्या नवविति जिणप्पन्नाची जाच जिणसई पगासमाणे विहरिता। इमी से बुद्धयेति । (पाणगाइंति) जलविशेषा व्रतियोम्याः ( अपाणयाई श्रोसप्पिणीए चनवीसाए तित्यगराणं चरिमे तित्यगरे ति) पाजकसरशानि शीतलत्वेन दाहोपशमहेतवः। ( गोपुष्प सिझे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे, इझीसकारसमुदएणं मम त्ति) गोपृष्ठाद्युत्पतितम । (हत्यमहियए त्ति) हस्तेन मर्दितं, मलितमित्यर्थः । यथैतदेव पातन्यनिकोदकम् । (थालपाणप सरीरगस्स णीहरणं करेह । तए णं ते आजीविया थेरा त्ति) स्थालं वटुं तत्पानकमिव दाहोपशमहेतुत्वात्स्थालपानकगोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमट्ट विणणं पडिसुणेति । म । उपलकणस्वादस्य भाजनान्तरग्रहोऽपि दृश्यः। पचमन्यान्यतए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स पत्तरत्तंसि परिण- पि, नवरं त्वग्लीशम्बलीकसापादिफसिका । ( सुद्धापाणममाणंसि पमिलचसम्मत्तस्स अयमेयारूवे अभत्थिए। एसि) देवहस्तस्पर्श इति (दाथालयं ति) उदका स्थानजाव समुप्पज्जित्था-णो खलु अहं जिणे जिणप्पसावी. कम् । (दावारगं ति) उदकवारकम् (दाकुंभग ति) इह कुम्भो महान् । (दाकससं ति) कसशस्तु लघुतरः (जहापजाव जिणसई पगासमाणे विहरइ । अहं गोसाले मंखलि ओगपए त्ति) षोमशपदे, तत्र चेदभेवमधीयते-" भव्वं वा फपुत्ते समणवायए सपणमारए समणपमिणीए आयरियन- णसं वा दालिमं चा " इत्यादि । (तरुणनं ति) अभिनवम् । बझायाणं अयसकारए भवणकारए अकित्तिकारए वहू- [श्रामगं ति अपक्कम [श्रासगंसित्ति] मुखे आपोमयेदीषत्प्रहिं प्रसन्नावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य अप्पाणं वा पीमयेत् प्रकपत श्ह यदिति शेषः। [कल ति] कलायो धान्यविशेषः । ( सिंवलि ति) वृक्षविशेषः । "पुढविसंधापरं वा तउभयं वा बुग्गाहेमाणे वुप्पाएसमाणे विहरिता, रोवगए" इत्यत्र, वर्तते इति शेषो दृश्यः । ( जे णं ते देवे सएणं तेएणं अणाश्हे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स पित्तज साजा त्ति ) यस्तो देवौ स्वदतेऽनुमन्यते (संसि त्ति) रपरिगयसरीरे दाहवकंतीए उमत्थे चेत्र कालं करेस्सं । स्वके, स्वकीये श्त्यर्थः। [हल्ल त्ति गोवालिकातृणसमानाकारः समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी०जाव जिणसई कीटकविशेषः "जाव सम्वणू" इह यावत्करणादि दृश्यम्पगासमाणे विहर, एवं संपेहेइ । संपेहेत्ता आजीवियथेरेस "जिणे अरहा केवनीति" 'वागरणं ति' प्रश्नः [वागरित्तपति] प्रष्टुम[विलिए त्तिव्यलीकितः सञ्जातव्यलीका वेमे ति] बीडा दावेइ । सद्दावश्त्ता जच्चावयं सवहस्ताविपकरेइ । पकरेइत्ता एवं अस्यास्तीति बीडः, लज्जाप्रकर्षवानित्यर्थः । नमाथे अस्त्यर्थ घयासी-णो खलु अहं मिणे जिणप्पनावी०जाव पगासमाणे प्रत्ययोपादामात विजने विनागे यावदयपुलोगोशालकान्तिविहरइ, अहं णं गोसाले मंखसिपुते समणवायए. जाव केनागच्चतीत्यर्थः । [संगारं ति] सङ्केतम अयं पुलो भवत्समीपे उमत्थे चेव कालं करेस्सं | समणे जगवं महावीरे जिणे प्रागमिष्यति,ततो भवानाम्रकूणकं परित्यजतु,संवृतश्च भवत्येवं रूपमिति ।[तं नो खलु पस अंयकूणपत्ति]तदिदं किलाम्रास्थिक जिणप्पलावी जाव जिणसई पगासमाणे विहरइ। तं तुम्जेणं न भवति यदूवतिनामकल्पं यद्भवताऽऽम्रास्थिकतया विकल्पितं, देवाणुप्पिया! ममं कालगयं जाणित्ता वामपाए सुंवणं बं- किं त्विदं यतवता दृष्टं तदानत्वक। एतदेवाह-[अंबचोयएणं एस घह । बंधित्ता तिक्वुत्तो मुहे नहुनहति । उहुनहत्ता ति] इयं च निर्वाणगमनकाने आश्रयणीयैव, त्वक्पानकत्वादसावत्यीए यरीए सिंघामग० जान पहेसु आकविक स्येति तथा हल्ला संस्थान यत्पृष्टमासोत्तदर्शयन्नाह वंसीमूलसं ट्ठिय ति] इदं च वंशीमूलसंस्थितत्वं तृणगोवालिकाया @ि करेमाणे महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा एवं ब- लोकप्रतीतमेवेति । एतावत्युक्ते मदिरामदविववितमनोवृत्तिरदह-णो खत्रु देवाणप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे सावकस्मादाह-[वीण वा पहिरिवोरगा] पतदेव द्विरावर्तयति जिप्पलावी. जाव विहर । एस णं गोसाले चेव मंखन्मि पतच्चोन्मादवचनं तस्योपासकस्य शृण्वतोऽपि न व्यलीककापुत्ते समणघायएज्जाव उउमत्ये चेव कालगए। समणे जग रणं जातं,यो दि सिद्धि गच्छति,सचरमंगेयादि करोतीत्यादि बचनैर्धिमोहितमतित्वादिति । (हंसलक्खणं ति) हंसस्वरूपम्, घं महावीरे जिणे जिणप्पझावी. जाव विहर। अणिवी शुक्समित्यर्थः, हंसचिहुं वेति । [इडीसक्कारसमुइएणं ति] असकारसमुदएणं ममं सरीरगस्स नीहरणं करेज्जह । एवं ऋख्या ये सत्काराः पूजाविशेषास्तेषां यः समुदायः स तथा, वदित्ता कामगए। तेन । अथवा-ऋद्धिसत्कारसमुदायरित्यर्थः । समुदायध जनानांसद्धः। (समणघायए त्ति) श्रमणयोस्तेजोलेश्याकेपसक्ष(वजस्स त्ति)श्रवद्यस्य, वज्रस्य वा, मद्यपानादिपापस्येत्यर्थः । णघातदानात घातदो घातको वा, अत एव श्रमणमारक (चरमे त्ति)न पुनरिदं भविष्यतीतिकृत्वा चरमम । तत्र पान- इति । (दाहवतीय ति) दाहोत्पत्त्या [ सुवेणं ति] वल्ककादीनि चत्वारि स्वगतानि, चरमता चैषां स्वस्य निर्वाणगम- रज्ज्वा [ब्दुभह ति ] अवष्ठीव्यते निष्ठीव्यते, क्वचित् " उच्छुनेन पुनरकरणात् । एतानि चकिल निर्वाणकाले जिनस्यावश्यं नत्ति " रश्यते, तत्र चापसदं किश्चित् विपतेत्यर्थः। [श्राकभावीनीति नास्त्येतेषु दोष इत्यस्य, तथा नाहमेतानि दाहोप कृविक िति आकर्षविकर्षिकाम् ।(ज०) शमायोपसेवामीत्यस्य चार्थस्य, प्रकाशनार्थवादवद्यापच्छाद- तरण ते श्राजीविया थेरा गोसालं पंखसिपुर्च कालगयं Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोसालग श्रानिधानराजेन्द्रः। गोसासग जाणित्ता हासाहलाए कुंभकारीए. कुंजकारावणस्स सुवा- अदरसामंते छठंबढेणं अणिक्खित्तेणं २ उर्फ बाहाम्रो राई पिनि। पिहेंतित्ता हालाहलाए कुनकारीए कुंजकारा- जाव विहर । तए णं तस्स सीहस्स अणगारस्स झाणपणस्स बहमज्कदेसजाए सावत्यि णयरिं आलिहंति । आ- तरियाए वट्टमाणस्स अयमेयारूवेजाव समुप्पज्जित्था-एवं लिहंतित्ता गोसाबस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरंग वामे पादे खलु मम धम्मायरियस्स धम्मोवएसगस्स समणस्स नमुंवेणं बंधति । वयंतित्ता तिक्खुत्तो मुहे उडुनहति । नझुनई | गवो महावरिस्स सरीरगंसि विउले रोगायके पाउन्लूए तित्ता सावत्थीए एयरीए सिंघामग जाव० पहेसु आक- उज्जले जाव उपत्थे चेत्र कालं करेस्सइ, वदिस्संति य कुविकष्टि करेमाणे णीयं सद्देणं उग्घोसेमाणा उग्योसेमाणा अमानत्यिया-उनत्थे चेव कालगए । इमेणं एयारूवणं एवं बयासी-णो खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते महया मणोमाणासएणं सुक्खणं अजिजूए समाणे माअजिणे जिणप्पनावी०जाव विहरिए । एस एं गोसाले चेव यावणनूमीश्रो पञ्चोरुना। पचोरुभत्ता जेणेव माबुयाकमंखलिपुत्ते समणघायए. जाव उमत्थे चेव कालगए, जए, तेणेव उवागच्चइ । उवागच्छइत्ता मालुयाकच्छयं अं. समणे जगवं महावीरे जिणे जिणप्पन्नाची० जाव विहरइ।। तो २ अप्पविसइ । अणुप्प विसइत्ता महया महया सद्देसवहपमिमोक्खमणगं करेंति । करेंतित्ता दोच्चं पि पूयास-1 णं कुहुकुहस्स परुले मजो त्ति! समणे जगवं महावीरे सकारथिरीकरणट्टयाए गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स वामाअो| मणे णिगये आमंतेत्ता एवं बयासी-एवं खयु अज्जो ! पादाभो सुवेयंति । मुंवेयंतित्ता हालाहलाए कुंजकारीए ममतेवामी सीहे णामं अणगारे पगइजद्दए तं चेव सव्वं कुंजकारावणस्स चारवयणाई अवगुएंति । अवगुएंतित्ता | भाणियन्वं. जाव पहले, तं गच्छह णं अजो! तुम्ने सीहं गोसालस्स मखलिपुत्तस्स सरीरगं सुरजिणा गंधोदएणं अणगारं सद्दह । तए णं ते समणा णिग्गंया समणेणं भएहाणेति तं चेव० जाव महया महया इट्टीसक्कारसमुदएणं गवया महावीरेणं एवं बुचा समणा समणं भगवं महावीरं गोसान्नस्स मंखलिपुनस्स सरीरगस्स पीहरणं करेंति । बंदति, णमंसंति । बंदिता मंसित्ता समणस्स भगवो मतए णं समणे जगवं महावीरे अस्मया कयाई सावत्थीओ | हावीरस्स अंतियायो सालकोट्ठयाओ चेइयाो पमिणिएयरीनो कोट्ठयाओ चेश्याओ पहिणिक्खमइ । पडिणि-| क्खमंति । पमिणिक्खमंतित्ता जेणेव मायुयाकच्चए जेणेव क्खमइत्ता बहिया जणवयविहारं विहर । तेणं कालेणं | सीहे अणगारे, तेणेव उवागत । नवागच्चत्ता सीई तेणं समएणं मिंढियगामेणाम णयरे होत्था। वाओ-तस्स आणणारं एवं वयासी-सीहा! तब धम्मायरिया सद्दावेइ । एं मिंढियगामस्स एयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसि- तए णं सीहे अणगारे समणेहिं णिग्गंथेहिं सदि मालुयाकभाए एत्थ ण सालकोहए नाम चेइए होत्था । वमो-पुढ- च्याप्रो पमिणिक्खमा । पक्षिणिक्खमइत्ता जेणव समणे बीसिनापट्टओ, तस्स णं सालकोढगस्स चेइयस्स अदूरसा- जगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ । उवागच्चइत्ता समणं भमते एत्थ णं महेगे मायाकच्छे यावि होत्था। किएहे कि- गर्व महावीरं तिक्वुत्तो आयाहिणं पयाहिणं जाव पज्जुवाएहोजासेजाव निकुरुंवत्तए पत्तिए पुप्फिए फलिए हरि- सइ । सीहादि ! समणे जगवं महावीरे सीई अणगारं एवं यगरेरिजमाणे सिरीए अईच अईव नवसोभेमाणे उबसो वयासी-से गुणं सीहा काणंतरियाए वट्टमाणस्स अयमेभेमाणे चिट्ठइ । तत्थ णं मेढियगामे पयरे रेवती णाम गा- यारूवेजाव परुणे, से पूर्ण ते सीहा! अरे समटे हता बावणी परिवसइ, अश्वाजाव अपरिज्या । तए णं समणे अत्थि । तंणो खलु सीहा ! गोसासस्स मंखलिपुत्तस्स तभगवं महावीरे अप्पया कयाइं पुवाणुपुचि चरमाणेज्जाव | वेणं तेएणं अणाइडे समाणे अंतो छएहं मासाणंजायकाजेणेव मिंढियगामे णयरे जेणेव साझकोट्ठए चेइए चेव० जाव लं करेस्सं । अहंणं अमाई सोलस वासाई जिणे सुहत्थी परिसा पमिगया । तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स विहरिस्सामि । तं गच्छह पं तुमं सीहा! मिढियगाम यरं सरीरंगसि विनले रोगायंके पाउन्नूए नजलेजाव दूरहि- रेवतीए गाहावइणीए गिहे। तत्य णं रेवतीए गाहावईए मम यासे पित्तन्जरपरिगयसरीरेदाहकतीए यावि विहरइ । अवि- अट्ठाए दुवे कबोयसरीरा उबक्खमिया,तेहिं णो अट्ठो अत्थि। याई लोहियवच्चापि करेइ, चाउवणं वागरेशाएवं खल्लु समणे से अमे पारियासिए मज्जारकमए कुक्कुममंसए तमाहराहि, जगवं महावीरे गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं अ- तेणं अट्ठो । तए सीहे अणगारे समणेणं जगवया महाणाइट्टे समाणे अंतो उएडं मासाणं पित्तज्जरपरिगयसरीरे वीरेणं एवं बुत्ते समाणे हतु० जाव हियए समण भगवं दाहवकंतीए छनमत्थे चेव कालं करेसति । तेणं कालेणं तेणे | महावीरं बंदइ, णमंसइ । वंदइत्ता पमंसश्त्ता अतुरियमचसमए णं समणस्स जगवो महावीरस्स अंतेवासी सीहे | वलमसंभंतं मुहपोत्तियं पमिलेहेइ । पमिलेहेइत्ता जहा गोय णामं अपगारेपगइजदए. जाब विणीए मायाकच्छगस्सा मसामीज्जाव जेणेव समणे भगवं महावीरे,तेणेव उवागच्छ। २५८ Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोसालग अभिधानराजेन्द्रः। गोसालग उवागतासमणं जगवं महावीरं वंदर,णमंसइ । बंदित्ता | हटे २ भंते ति । भगवं गोयमे समणं जगनं महाणमंसिचा समणस्स भगवो महावीरस्स अंतियाओ सा- वीरं बंदइ, एमंसइ । बंदइत्ता णमंसश्त्ता एवं बयासीलकोट्ठयाओ चेइयाओ पमिणिक्खमइ । पमिणिक्खमइत्ता | | एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी पाईणजाणवए भतुरिय० जाब जेणेव मिंढियगामे यरे, तेणेव उवा- सवाणुनूई णामे अणगारे पगश्नद्दए. जाब विणीए. से गच्छद । उवागच्इत्ता मिढियगाम यरं मग्झं मझेणं णं जंते ! तदा गोसालेणं मखत्रिपुत्तेणं तवेणं तेएणं जेणेव रेवईए गाहावणीए गिहे, नेणेव जबागच्च ।। जासरासीकए समाणे कहिं गए, कहिं उववरमे । एवं उवागच्चइत्ता रेवईए गाहावश्णीए गिहे अणुप्पविढे । तए। खलु गोयमा ममं अंतेवासी पाइणजाणवए सवाणुणं सा रेवई गाहावणी सीहं अणगारं एजमाणं पास। नूई णाम अणगारे पगभदए. मात्र विणीए, सेणं पासश्त्ता हतुखिप्पामेव आसणाओ अन्नुढेइ । अन्भु- तदा गोसालेणं मखमिपुत्तेणं जासरासीकरेपाणे उहूं चंदिहेइत्ता सीहं अणगारं सत्तट्ठपयाई अणुगच्छ । अणुग- मसूरिए० जाव बनलंतगमहासक्के कप्पे वीईवइत्ता सहस्सारे सुत्ता तिकावुत्तो आयाहिणं पयाहिणं बंदणमंस । बंद-| कप्पे देवत्ताए उवव । तत्य णं अत्येगश्याणं देवाणं अइत्ता एमसइत्ता एवं बयासी-संदिसंतु णं देवाणुप्पिया!| हारससागरोवमाई लिई पासत्ता। तत्थ णं सव्वाणुनइस्स वि किमागमणप्पोयणं । तए णं से सीहे अणगारे रेवति | देवस्स अट्ठारस सागरोचमाई ठिई पत्ता । से णं सव्वाणुगाहावइणि एवं वयासी-एवं खनु तुम्हे देवाणुप्पिए ! सम-| ईदेवं ताओ देवसोगानो आनक्खएणं विक्खएणंजाव एस्स भगवो महावीरस्स अट्ठाए दुवे कवोयसरीरा| महाविदेहे वासे सिकिहिति, जाव अंतं करोहिति । एवं स्वखमिया, तेहिं णो अट्ठो, अस्थि ते अप्ले पारियासिए खयु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कोसलजाणवए मुणक्खचे मज्जारकमए कुक्कममंसए तमाहराहि, तेणं अट्ठो । तए णं णाम अणगारे पगइजदए जाब विणीए, से एं भंते ! तदा सा रेवती गाहावइणी सीहं अणगारं एवं वयासी-केसणं | गोसालेणं मखलिपुत्तेण तवणं तेएणं परिताविए समाणे सीहा ! सेणाणी वा तवस्ती वा, जेणं तब एस अहे, मम | कालमासे कालं किच्चा कहिं गए, कहिं उबवले ?। एवं ताव रहस्सकए हन्बमक्खाए ?, जो पं तुमं जाणासि ?, खबु गोयमा ! ममं अंतेवासी सुणखत्ते णाम अणगारे एवं जहा खंदए० जाव जो अहं जाणामि । तए पं पगइजद्दएण्नाव विणीए, से णं तदा गोसालेणं मंखलिपुसा रेवती गाहावश्णी सीहस्स अणगारस्म अंतियं एय-| तेणं तवेणं तेपणं परिताविए समाणे जेणेव ममं अंतिए, मह सोचा णिसम्म हट्ठा जेणेव भत्तधरे, तेणेव उवाग- तेणेव नवागच्छइ । नवागच्छइत्ता वंद, णमंस। वंदइत्ता छ। बागच्चइत्ता पत्तगं मोएइ । जेणेव सीहे अणगारे णमंसइत्ता सयमेव पंच महब्बयारं आरुहइ । प्रारुहश्त्ता तेणेव उवागच्छ । उवागच्छइत्ता सीहस्स अणगारस्स पमि- समणाओ समणीओ य खामेइ । आलोइयपमिकंते समाग्गहगंसि तं सव्वं सम्मं णिसिरह । तए णं रेवतीए गाहा- हिपत्ते कानमासे कालं किच्चा उठं चंदिमसूरिए० जाव वइणीए तेणं दबसुकेणं० जाव दाणेणं सीहे अणगारे | प्राणयपाणयारणकप्पे बीईवश्त्ता अच्चुए कप्पे देवताए पमिन्नाभिए समाणे देवानए निवके,जहा विजयस्स.जाव उववले । तत्य णं अत्यंगझ्याणं देवाणं वावीसं सागरोजम्मजीवियफले रेवईए गाहावणीए रेव० शतए णं सीहे। वमाई ठिई पसत्ता । तत्थ णं सुणक्खत्तस्स वि देवस्स श्रणगारे रेवतीए गाहावइणीए गिहाम्रो पमिणिक्खमइ।। वावीसं सागरोबमाई, सेसं जहा सवाणुनूइस्स० जाव अंतं पमिणिक्खमइत्ता मिढियगाम णयरं मझ मज्केणं णि- काहिति । एवं खबु देवाणप्पियाणं अंतेवासी कुसिस्से गो. ग्गच्छद । णिग्गच्छइत्ता जहा गोयमसामी० जाव भत्तपाणं साले णाम मंखलिपुत्ते से पंजते ! गोसाले मंखलिपुत्ते पमिदंसे । पमिदसेइत्ता समणस्स भगवओमहावीरस्स पा. कालमासे कासं किच्चा कहिं गए, कहिं उबवले । एवं पिंसि तं सव्वं णिसिरइ । तए णं समणे भगवं महावीरे खत्रु गोयमा! ममं अंतेवासी कुसिस्ले गोसाले णामं मंखभमुच्चिए जाव अणज्कोववाले विनमिव पप्पगएणं अ-1 मिपुत्ते समणघायएक जाव उउमत्थे चेव कालं किच्चा उर्छ पाणेणं तमाहारं सरीरकोढुसि पक्खिवइ । तए णं सम चंदिममूरिएण्जाव अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववम् । तत्थ ण एस्स जगवमो महावीरस्स तमाहारं आहारियस्स समा अत्यंगइयाणं देवाणं वावीसं सागरोवमाई लिई पएणत्ता । णस्स विपुले रोगार्यके खिप्पामेव उवसंते, हट्टे जाए। तत्य गं गोसालस्स वि देवस्स वावीसं सागरोवमाई चिर्ड अरोगो वझियसरीरे तुट्ठा समणा, तट्ठीमो समणीओ, तुट्ठा पणता ॥ सावया, तुझीओ साविया ओ, तुट्ठा देवा, तृट्ठीओ देवीओ, [पृपासकारथिरीकरणट्टयाए ति] पूजासत्कारयोः पूर्वप्राप्तयोः सदेवमणुयासुरे लोए हटे जाए, समणे भगवं महावीरे स्थिरताहेतोः। यदि तु ते गोशालकशरीरस्य विशिष्टपूजांच Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोसालग अनिधानराजेन्मः। गोसालग कुर्वन्ति, तदा लोको जानाति नायं जिनो बनूब, न चैत जिन-[ दीवे भारहे वासे विझगिरिपायमले पुमेसु जणवएम सतशिष्या इत्येवमस्थिरौ पूजासत्कारौ स्यातामिति तयोः स्थिरी सुवारे पयरे सुमहस्स रमो नदाए भारियाए कुन्जिसि करणार्थ ( अवगुणंति ति) अपावृण्वन्ति. [ सालकोटुए नाम पुत्तत्ताए पञ्चायाहिति । से णं तत्थ णवएहं मासाणं बहुपचेश्प दोत्था वमो तितर्मको वाच्यः । स च "विराईए" श्त्यादि. "जाब पुढविसिलापट्टन ति" पृथिवीशिलापट्ट मिपुष्माणं० जाव विश्कताणं० जाव सुरूवे दारए कवर्णकं यावत् । स च " तस्स णं असोगवरपायवस्स हेट्ठा | पञ्चायाहिति । जं रयणिं च गं से दारए पयाहिति. तं ईसिं खंधी समबीणे" इत्यादि [मायुयाकच्छए त्ति ] माबु- रयणिं च णं सयदुवारे पयरे सब्जितरबाहिरए नारका नाम एकास्थिका वृक्तविशेषाः तेषां यत्ककं गहनं तत्तथा। ग्गसो य कुंजग्गसो य पनमत्रासे य रयणवासे य वासे वा[विउले ति ] शरीरव्यापकत्वात् । [ रोगायके त्ति ] रोगः पीमाकारी, स चासावातश्च व्याधिरिति रोगातङ्कः । सिहिति । नए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो एकारसमे [ उज्जले ति ] उज्वलः पीमाऽपोहलक्षणविपक्वनेशेना- दिवसे वीइकते जाव संपत्ते वारसाहदिवसे अयमेयारूवं प्यकलङ्कितः । यावत्करणादिदं दृश्यम्-" तिनले " जीन् गोणं गुणनिप्पमं णामधेनं काहिति । जम्हा णं अम्हं इमंमनोवाकायल कणानोंस्तुल यति जयतीति त्रितुलः "पगाढे” सि दारगांसे जायसि समाणसि सतदुबारे णयरे सभिंतरप्रकर्षवान् “ कसे " कर्कशाव्यमिवानिष्ट इत्यर्थः । "कमुए" तथैव "चंडे" रौद्रः “तिब्वे" सामान्यस्य झगिति वाहिरएज्जाव रयणवासे य वासे बुट्टे, तं होऊणं अम्हं इममरणहेतुः “सुक्खे सि" दुःखो दुःखहेतुत्वात् "दुग्गे ति" | स्सदारगस्स णामधेशं महाप उमे महा०शतए णं तस्स दारदुर्गमिव अनभिभवनीयत्वात् । किमुक्तं नवति?-(दुरहियासे गस्स अम्मापियरोणामधेनं करोहिंति-महाप उमे, महा०२। ति) पुरविसहः सोदुमशक्य इति । (दाहवकंतीए त्ति) दाहो तए णं महाप उमं दारगं अम्मापियरोसा तिरेगट्ठवासजायगं व्युत्क्रान्त उत्पनो यस्य स स्वार्थिकप्रत्यये दाहव्युत्क्रान्तिकः । जाणित्ता सोभणंसि तिहिकरणदिवसणखत्तमुहुत्तंसि (अवियाई ति ) अपि चेति अत्युच्चये, 'आ' इति वाक्यानहारे । (लोहियवश्वाए त्ति) लोहितव स्यपि रुधिरात्मक महया पहया रायाजिसेगेणं अनिसिंचेहिंति । से ण तत्थ पुरीषाण्यपि करोति, किमन्येन पीडावर्णनेनेति भावः । तानि हि राया भविस्सइ, महया हिमवंतवसाओ०जाव विहरिस्सइ । किलात्यन्तवेदनोत्पादके रोगे सति भवन्ति । (चाउवमं ति) तएणं तस्स महाप उमस्स रमो अम्ममा कयाई दो देवा महिचातुर्वराय ब्राह्मणादिलोकः । (झाणंतरियाए नि ) एकस्य हिया० जाव महेसक्खा सेणाकम्मं काहिति । तं जहा-पुरमभद्दे ध्यानस्य समाप्तिरन्यस्यानारम्भ इत्येषा ध्यानान्तरिका, तस्याम् । (मणोमाणसिपणं ति ) मनस्येव न बहिर्वचनादिभिरप्र य, माणिनद्दे य । तए णं सतवारेण यरे वहवे राईसरतमकाशितत्वात यन्मानसिकं दुःखं तन्मनोमानसिक, तेन "वे वर जाव सत्यवाहप्पमितीओ असममं सद्दावहिंति। सदाकचोया" इत्यादेः श्रयमाणमेवार्थम् केचिन्मन्यन्ते, अन्ये वेहितित्ता एवं वदेहिति-जम्हा णं देवाणप्पिया! अम्हं स्वाहुः कपोतका पक्तिविशेषस्तद्वद् द्वे फलेवर्णसाधर्म्यात, ते क महापनमस्स रसो दो देवा महिलिया०जाव सेणाकम्मं करेंपोते कृष्माएमे हुस्वे कपोते कपोतके,ते चते शरीरे च वनस्प ति।तं जहा-पुमभद्दे य, माणिभद्दे य, तं होऊणं देवाणुतिजीबदेहत्वात्कपोतकशरीरे। अधवा-कपोतकशरीरेश्वधूसवर्णसाधादेव कपोतकशरीरे कूष्माएमफले एव ते उपस्कृते पिया! अम्हं महापनमस्स रमो दोचे विणामधेने संस्कृते (तेहि नो अहो त्ति) बहुपापत्वात् । (पारियासिए देवसेणेति शतए णं तस्स महापउमस्स रछो दोचे वि त्ति ) परिवासितं ह्यस्तनमित्यर्थः । “मजारकडए" इत्या- णामधेजे भविस्सइ देवसेणेति । तए णं तस्स देवसेणस्स देरपि केचिच्छ्रयमाणमेवार्थ मन्यन्ते ! अन्ये त्याहुः-मार्जारो वा रमो प्रलया कयाई से ते संखतनाविमलससिगासे चनईते युविशेषस्तपशमनाय कृतं संस्कृत मार्जारकृतम्। अपरेवाहु:मार्जारो विरालिकाऽभिधानो वनस्पतिविशेषः, तेन कृतंभावित हत्थिरयणे समुप्पजिस्सइ । तए णं से देवसेणे राया सेयं पत्सत्तथा । किं तदित्याह-कुकुटमासकं वीजपूरककटाहम । संखतलविमलससिगास चउइंतहत्थिरयणं पुरुढे समाणे (आहराहि सि) निरवद्यत्वादिति । (पत्तगं मोए नि) पात्र- सतवारं एयरं मज्झ मज्केणं अमिक्खणं अजिक्खणं कंपितरिकाविशेषं मुश्चति, सिक्कके उपरिकृतं सत्तस्मादवतार अभिजाहिंति य,णि जाहिंति य । तए णं सतदुवारे पायरे वयतीत्यर्थः । ( जहा विजयस्स ति) यथेहैव शते विजयस्य वसुधारााकमेवमेतस्या अपि वाच्यमित्यर्थः । “विलमित्रत्या हवे राईसर० जाव पभित।ओ अप्समझे सद्दावेहिति-जम्हा दि।"विले श्व रन्ध्र इव पन्नगभूतेन सर्पकल्पेनाऽऽत्मना कर- । णं देवाणप्पिया! अम्हं देवसेणस्स रखो से ते संखतलणभूतेन तं तं पिहानगारोपनीतमाहारं शरीरकोष्ठ के प्रतिपती- ससिगासे चउइंते हत्थिरयणे समुप्पामे, तं होऊणं देवाति । (हत्ति ) हलो निर्व्याधिः (आरोगो त्ति) निष्पीमः । णापिया! अम्हं देवसेस्स रमो तवे विणामधेजे वि(तुहले जाप त्ति) तुष्टस्तोषवान्, दृष्टो विस्मितः, किमस्मादेव मन्नवाहणोति,निमझवाहणे । तए णं तस्स देवसेणस्स रएको मित्याह-"समणे" इत्यादि (हत्ति ) नीरोगो जात इति (भ०) तचे विणामधेज्जे विमलवाहणे ति। तए णं से विमझवाहणे सेणं ते! गोसाले देवे तानो देवमोगानो आनक्खए- राया अपया कयाइसमणेहिं णिग्गंथेहिं मिच्छं विपडिवपं० जाव कहिं नवजिहिति ॥ गोयमा ! इहेव जंबहीवे। ज्जेहिंति, अप्पेगइए बाउसिहिति, अप्पेगए उपहसिदिवि, Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३२) गोसालग अभिधानराजेन्द्रः। गोसालग अप्पेगइए णिच्छोडें हेति, अप्पेगए णिब्भच्छेहिति.अप्पेग-| वियोजायष्यति [ निभत्येहि ति ] आक्रोशव्यतिरिक्तर्वचइए बंधेहिति,अप्पेगइए किरुंजहिति, अप्पेगश्याणं रवि नानि दास्यति [ पम्मारेहिड त्ति ] प्रमारं मरणक्रियाप्रारम्नं करिष्यति प्रमारयिष्यति [उद्दवेहि ति अपदावायष्यति, मारच्छेदं करेहिति, अप्पेशइए पम्मारोहिंति, अप्पेगइयाणं नहवे यिष्यति । (उबहवेहिइत्ति) उपवान् करिष्यति [प्रागिदिहि हिति.अप्पेगइयाणं वत्थपमिग्गहकंवरपायपुच्छणं आच्छिं- त्ति] ईपच्छेत्स्यति [विच्छिदिहिह त्ति विशेषेण विविदिहिति,विच्छिंदिहिति, निंदिहिति, अप्पेगश्याएं जत्तपा- धतया वा बेत्स्यति । [भिदिहिर ति] स्फोरयिष्यति पात्रापे णं वोच्छिंदिहिति, अप्पेगइए णिमारे करेहिति, अप्पेगए क्यमेतत् अपहरिष्यत्युद्दालयिष्यति । [निन्नारे करेहिति त्ति] निगरान् नगरनिकान्तान् करिष्यति ( रज्जस्स व त्ति) णिविसए करेहिति। तए णं सतदुवारे णयरे बहने राई राज्यस्य बा,राज्यं च राजादिपदार्थसमुदायः। श्राह च-"स्वाम्यसर जाव वदिहिंति-एवं खलु देवाणुप्पिया ! विमलवाह- मात्याश्वराष्ट्र, कोशो ऽर्गबलं सुहृत् । सप्ताङ्गमुच्यतेरापं, बुद्धिणे राया समोहिं णिग्गंयेहि मिच्छं विप्पमिवसे अप्पेगए सर्वसमाश्रयम" ॥ १ ॥राष्ट्रादयस्तु तद्विशेषाः, किन्तु राष्ट्र आउसति जाव णिव्विसए कारेति , तं णो खजु देवा जनपदैकदेशः। [विरमंतु णं देवाणुप्पिया! पयस्स अटुस्स णुप्पिया ! एयं अम्हं सेयं, णो खलु एयं विमलवाहणस्स अकरणयाए ति] विरमणं किन वचनाद्यपेक्कयाऽपि स्यादत उच्यते , अकरणतया करणनिषेधरूपतया । ज०। रमो सेयं, जो खलु एयं रजस्स वा रहस्स वा वलस्स तेणं कालेणं तेणं समएणं विमनस्स अरहो पनप्पए मु. वा वाहणस्स वा पुरस्स वा अंतेजरस्स वा जणवयस्स वा मंगले णाम अणगारे जाइसंपले जहा धम्मघोसस्स वमो० सेय, जेणं विमलवाहणे राया समणेहिं णिग्गंथेहिं मिच्छं जाव सखित्तविउन्नतयलेस्से तिएणाणोवगए सुमिनागविप्पडिपस, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं विभल स्स उजाणस्स अदूरसामंते छ8 उडेणं अणि क्खित्तेणं. वाहणं रायं एयमलु विष्णयेत्तिए ति कड्ड अपमानस्स जाव आयावेमाणे विहरिस्सइ । तए णं से विमलवाहणे राअंतियं एयमढे पमिसुणेति । पमिसुणे तित्ता जेणेव वि या अप्पया कयायि रहचरिउ काउं णिज्जाहिति । तए णं मझवाहणे राया , तेणेव उनागच्छइ । उवागच्छश्ना से विमलपाहणे राया सुनूमिभागस्स उजाणस्स अदूरसाकरयलपरिग्गहियं विमलवाहणं रायं जएणं विजएणं मंते रहचरियं करेमाणे सुमंगलं अणगारं बढ बढेणं० जाव वाति । वकावेंतिता एवं वदिस्सहिंति-एवं खा पायावेमाणे पासिहिति । पासहितित्ना श्रासुरुत्तेजाव मिदेवाणुप्पिया ! समणेहिं णिग्गंथेहिं मिच्नं विप्पमिवामा सिमिसेमाणे सुमंगसं अणमारं रहसिरेणं पोहावेहिति । तअप्पेगइए उसइ०, जाव अप्पेगए निधिसए कारे एणं से सुमंगले अणगारे विमलवाहणेणं रमा रहसिरेणं ति, तं णो खलु एवं जं णं देवाणुप्पियाणं सेयं, जो पोलाविए समाणे सणियं सणियं नहेहिति । जडेहितित्ता खलु एवं अहं सेयं, णो खनु एवं रज्जस्स वा० दोच्चं पि उर्ल वाहात्रो पगिझिय पगिकिय जाव आयाजार जणवयस्स वा सेयं, ज ण देवाणुपिया ! समाहिं णिग्गंथेहि मिच्छ विप्पमिवमा, तं विरमंतु देवाणुप्पिया! वेमाणे विहरिस्सइ । तए णं से विमझवाहणे राया मुमं गलं अणगारं दोच्च पि रहसिरेणं णोल्लावेहिति । तए णं एयमहस्स अकरणयाए । तए एं से विमलवाहणे राया से सुमंगले अणगारे विमलवाहणेणं रमा दोचं पिरहसिरेणं तेहिं बहुर्हि राईसर० जान सत्यवाहपनिईहिं एयमझु विपत्ते समाणे णो धम्मोत्तिणो तवोत्ति मिच्छाविणएणं ए पाल्लाबिए ममाणे सणियं सणियं उद्वेहिति । उद्धेहितित्ता यमर्ट पमिसुणेहि, तस्स णं सयवारस्स एयरस्स बहिया श्रोहिं पजेहिति । ओहिं पउंजेहितित्ता विमलवाहणस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए, एत्थ णं मुभूमिनागे नज्जाणे रएणो तीयका आनोएहिति। ती. विमलवाहणं रायं जविस्सइ सम्वोत्तयवाओ । एवं वदिहिति-णो खबु तुमं विमानवाहणे राया, यो खबु तुमं देवसेणे राया, णो खत्रु तुझं महापउमे राया, तुम णं (भारग्गसोय त्ति) भारपरिमाणतः, भारश्व भारक: पुरुषोद्वह- इओ तच्चे भवग्गहणे गोसाले णामं मंखलिपुत्ते होत्था नीयो, विंशतिपलशतप्रमाणो वति। (कुभग्गसो यत्ति)कुम्नो समणधायए० जाव उ उमत्थे चेव कामगए, तं जति ते तदा जघन्य आढकानां षटया,मध्यमस्त्वशीत्या,उत्कृष्टः पुनः शतेनेति (पचमवासे य रयणवासे य वासे वासिहिति त्ति) वर्षों वृष्टि- सव्वाणुलूणा प्रणगारेणं पत्तमा वि होऊणं सम्म सहिबर्षिष्यति भविष्यति। किंविध इत्याद-पद्मवर्षः पद्मवर्षरूप एवं यं खमियं तितिक्खियं अहियासियं, जइ ते तदा सुणरत्नवर्ष इति [सेप ति] श्वेतः। कर्थभूतः[संखतलविमलसन्नि- क्खत्तणं अणगारणं पनूणा वि होऊणं सम्मं साहियं खगास ति] संखस्य यद्दलं खराक तलं वा रूपं विमलं मियं० जाव अहियामियं, जइ ते तदा समणेणं जगवया मतत्सत्रिकासः सदृशो यः स तथा, प्राकृतत्वाश्चैवं समासः ।। (माउसिहिइत्ति) आक्रोशान् दास्यति (निच्छोमेहिश त्ति)। हावारण पनूष्णाव. हावीरेणं पण वि० जाव अहियासियं, तं णो खबु अहं पुरुषान्तरसम्बन्धितहस्ताद्यवयवाकारणतो ये श्रमणास्तांस्ततो तहा सम्मं सहिस्सं० जाव अहियासिस्सं अहं ते णवरं स Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोसालग (१०३३) . अभिधानराजेन्द्रः। गोसालग हयं सरई ससारहियं तवणं तेएणं एगाहचं कूमाहचं ना-| चमाए धूमप्पभाए पुढवीए उक्कोसकाल जाव उवाहिता सरासिं करेजामि । तए णं से विमन्नवाहणे राया सुमंगाणं | उरएसु नववन्जिहिति । तत्थ वि णं सत्थवज्झे दोच्चं पि प्रणगारेणं एवं बुत्ते समाणे प्रासुरुत्ते. जाव मिसिमिसे- पंचमाए० नाव उव्वट्टित्ता दोचं पि उरएस उवत्राजिहिति, माणे सुमंगलं अणगारं तच्चं पि रहसिरणं णोलविहिति । जाव किच्चा चमत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए उक्कोसकातए णं से सुमंगले अणगारे विमझवाहणेणं रएणा तच्चं पि साहित्यसि० जाव उव्वट्टित्ता सीहेसु उववजिहिति। तत्थ रहसिरेणं पोल्लाविए समाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसे विणं सत्यवज्के तहेव कालं किच्चा दोच्च पिचनत्थीए माणे अायावणनूमीओ पच्चोरुभइ । पचोरुभइत्ता तेयासमु- पंकप्पभाएग्जाव उवट्टित्ता दोचं पि सीहेमु उत्रवाजिहिति म्याएणं समोहणहिनि । समोहणहितित्ता सत्तकृपयाई- जाव किच्चा तच्चाए वालुयप्पनाए पुढवीए उक्कोसकाल चोसफिहिति । पच्चोसक्किहितिता विमलवाहणं रायं जाव जन्वट्टित्ता पक्खीसु नक्वज्जिहिति । तत्थ वि सहयं सरहं ससारहियं तवेणं तेएणंजाव भासरासिं क णं सत्यवझे जाव किचा दोचं पि वाबुयप्पभाए. रोहिति । सुमंगलेणं भंते ! अणगारे विमलवाहणं रायं सह- जाव उच्चट्टित्ता दोचं पि पक्खीसु उववजिहिति. पं० जाव जासरासिं करेत्ता कहिं गच्छिहिति,कहिं उवव- जाव किच्चा दोचाए सकरप्पभाए० जाव उव्वहिता जिहिति । गोयमा! सुमंगले णं अणगारे णं विमलबाहणं सरीसवेसु उववजिहिति । तत्थ वि णं सत्यवज्के रायं सहयं जाव भासरासिं करता बहहिं ब्रहमदसमवा. जाव किचा दोचं पि दोच्चाए सकर० (६)जाव उन्चलस जाब विचिचेहिं तवोकम्मोहिं अप्पाणं भावमाणे ब हित्ता दोच्चं पि सरीसवेसु उववजिहिति जाब किच्चा हहिं वासाइं सामन्मपरियागं पाउणिहिति । बहूहिं वासांई श्मीसे रयणप्पनाए पुढवीए उकोसकानठिइयंसि परयंसि सामपपरियागं पाणिहितिता मासियाए संलेहणाए। रइयत्ताए उववज्जिहिति०,जाव उबट्टित्ता समासु उबवसहि भत्ताई अणसणाइं० जाव छेदेत्ता मासोइयपमिकते जिहिति । तत्थ वि एं सत्यवझे. जाव किच्चा असली समाहिपत्ते उद्धं चंदिममूरिए जात्र गेवेजगविमाणे ससयं नववज्जिहिति । तत्थ वि णं सत्थवज्झे० जाव किच्चा दोवीईवश्वा सव्वट्ठसिके महाविमाणे देवताए उवव- चं पि इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पलिअोवमस्म असंखेजिहिति । तत्थ णं देवाणं अजहएणमणुकोसेणं तेत्तीस जइनागढिइयंसि णरयसि परइयत्ताए उववजिहिति । से सागरोवमाई ठिई पएणचा । तत्य पं मुमंगलस्स वि णं तओ० जाव उधट्टित्ता जाउं इमाई खहचरविहादेवस्स अजहहामणुकोसेणं तेतीसं सागरावमाई निई गाइं भवंति । तं जहा-चम्मपक्खीणं सोमपक्खीणं समुपएणचा । से एं भंते ! सुमंगले देवे ताओ देवलो- ग्गपक्खीणं वियतपक्खीणं, तेसु अणेगसयसहस्सक्खुत्तो गानो. जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिति०, जाव उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता तत्येव भुज्जो २ पचायाति । सम्बत्य भंत काहिति । विमलवाहणे णं भंते ! राया सुमंगझेणं अ विणं सत्थवज्के दाहवकंतीए कालमासे कानं किच्चा पगारेषं सहयं० जाव भासरासीकए समाणे कहिं गति | जाई इमाई तुयपरिसप्पविहाणाई जवंति । तं जहाहिति, कहिं नववजिहितिगोयमा ! विमन्नवाहणे राया गोहाणं णनलाणं जहा परमवणापदे० जाव जाहगाणं मुमंगलेणं अणगारेणं सहयं० जाव भासरासीकर समाणे चउप्पइयाणं तेसु अणेगसयसहस्सक्खुत्तो सेसं जहामहे सत्चमाए पुढवीए नकोसं कालहितियंसि परयसि - | खहचराणंजाव किया जाइं इमाई नरपरिसप्पविहाणाई रक्ष्यताए उववजिहिति; से णं तो अणंतरं उब्धट्टित्ता | भवंति। तं जहा-एगखुराणं दुखुराणं गंमीपदाणं सणहपमच्छेसु उववज्जिहिति । तत्य विणं सत्यवके दाहवताप दाणं तेसु अणेगसयसहस्सजाव किच्चा, जाई इमाईजकालमासे कालं किच्चा दोच्चं पि अहे सत्तमाए उको-| बचरविहाणाइनति । तं जहा-मच्छाणं कच्छभाणंजाव सकासहितियंसि गरगंसिणेरश्यत्ताए उववजिहिति । से| सुंसुमाराणं तेमु अणेगसयसहस्सा जाब किच्चा जाइं इमाई णं तो अणंतरं उन्नहित्ता दोच्चं पि मच्छेसु उववाजिहिति, चउरिदियविहाणाई भवति। तं जहा-अंधियाणं पोत्तियाणं वत्थ विणं सत्यवकेजाव किच्चा ,बट्ठीए तमाए पुढवीए जहा पणवणापदे० जाव गोमयकीमाणं, तेमु अणेगसय० उकोसकालहिश्यसि परयंसिरक्ष्यत्ताए नववन्जिहिति । से जाब किच्चा जाई इमाई तेदियविहाणाई भवति ।तं जहागं तोहिंतो० जाव जवाहिता इस्थियास नवाजिहिति ।। ओवचियाणं० जाव हत्यिसोमाणं तेसु अणेग जाब किसत्य विणं सत्यवज्के दाह० जाव दोच्चं पि नहीए तमाए च्चा जाई इमाई वेदियविहाणाई भवंति । तं जहा-पुलापुढवीए नकोसकाल जाव नव्याहत्ता दोच्चं पि शत्थियास | किमियाणं० जाव समुद्दलिक्खाणं तेमु अणेगसय० जावपवन्जिहिति । तत्य विणं सत्थवज्के जाव किच्चा पं. किच्चा जाई इमाई वणस्सहविहाणाइं नवंति । तं जहा २५५ Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोसालग अभिधानराजेन्यः। गोसालग रुक्खाणं गुच्छाएं जाव कुहुणाणं तेसु अणेग० जाव | सनिहिति० जाव विराहियसामएणे जोसिएमु देवेस पञ्चायाइस्सइ । उस्समं च णं कडुयरुक्खेसू कमुपवती- उववाजिहिति । से गं तओ अणंतरं चयं चइता माणुस्स मुसब्बत्थ विणं सत्यवके०.जाव किच्चा जाई इमाई विग्ग लभिहिति०, जाव अधिराहियसापएणे कालमासे बाउकास्यविहाणाई नवंति । तं जहा-पाईणवाताणं जाव कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववजिहिति । से सुदवाताणं तेसु अणेगसयसहस्स० जाव किच्चा, जाई इमाई तोहितो मणंतरं चयं चइता माणुस्सं विग्गहं मजितेउकाश्यविहाणाई जवति । तं जहा-इंगालाणं. जाव हिति, केवलं बोहिं बुझिहिति । तत्थ विणं अविराहिमरियकंतमणिणिस्सियाणं तेसु अगसयसहस्स० जाव यसामठो कालमासे कालं किच्चा सणकुमारणं कप्पे देवकिच्चा, जाई माई आउक्काश्यविहाणाई जति । तं जहा- त्ताए उववाग्जिहिति । से गं तमोहितो एवं जहा सणंओसाणंजाव खातोदगाणं तेसु अणेग०जाव पञ्चायाति- कुमारे तहा भनोए महामुके प्राणए पारणे, से णं तमो स्सा । नस्सह्यं च णं खारोदएमु खातादपसु सम्वत्थ वि जा अविराहियसामएणे कालमासे कालं किच्चा सम्बछ. ए सत्थवज्० जाब किच्चा माई पुढविकाइयविहाणाई | सिद्ध महाविमाणे देवत्ताए उववज्जिहिति। सेतोभवंति । नं जहा-पुढवीणं सकराणं० जाव मृरिकताणं, तेस| हिंतोमणंतरं चइत्ता महाविदेहे वासे जाइंश्माइंकुलाइंभअणगसय० जाव पञ्चायाहिति । उस्सथं च णं खरवादर- बति अाइं० जाव अपरित्तयाई तहप्पगारेसु कुलेसु पुसत्तार पुदविकाइएसु सम्बत्य विणं सत्यवके. जाव किच्चा, पच्चायाहिति। एवं जहा उववाइए दरूपइएणवत्तमया,सा रायगिहे णयरे बाहिं खरियत्ताए उपजिहिति । तत्य विणं चेव वत्तब्धयाणिरवसेसा जाणियव्वाजाव केवलवरणासत्यवके जार किच्चा दोच्चं पि रायगिहे पयरे अंतो पदसणे समुप्पजिहिति। तए णं दरुपले केवली अप्पणो खरियताए उववज्जिहिति । तत्य विणं सत्यवज्के जाव तीतर्फ प्राजोएइ । आनोएकत्ता समणे णिग्गंये सहाविहिकिच्चा इव जंबुद्दीवे दीवे जारहे वासे विकगिरिपाय ति। सदाविहितित्ता एवं वदिहिति-एवं खलु अहं अज्जो! मले विभेले सपिवेसे माहणकुसंसि दारियत्चाए पच्चाया इनो चिरातीयाए अदाए गोसाले मंखलिपुत्ते होत्या, हिति । तए णं तं दारियं अम्मापियरो उम्मुक्कबालनावं समणघायएन्जाव उमस्ये चेव कालगए,तं मूलगं च णं मोबणगमणप्पत्तं पभिरूविएणं मुक्केणं पमिख्वएणं विग अहं अजो! अणादीयं प्रणवदग्गं दीहम चाउरंतसंसारएणं पभिरूवियस्स जत्तारस्स जारियत्ताए दस्सइ । कतारं अणुपरियट्टइ । तं माणं अज्जो! तुळं पिके भवतु सा णं तस्स नारिया जविस्सर, इट्टा कंता० जाव अणुमया भायरियपमिपीए उवज्झायपाडपीए मायरियउवज्झायाजमकरंमगममाणा तेहकेला इव सुसंगोविया चेलपेला श्व एं अयसकारए अवएणकारए मकित्तिकारए, माणसे विमुसंपरिग्गहिया रयणकरंमग विव सुसारक्खिया सुसंगो एवं चेव अबादीयं अणवदग्गं० जाव संसारकंतारं प्रा. विया माणं सीयं माणं उएई० जाव परिस्सहोवसम्गं फुसंतु। तए णं सादारिया अप्सया कयाइ गुम्विणी सुसुरकुला परियट्टिहिति , जहाणं अहं । तए णं ते समणा णिग्गंया भो कुलघर णिजमाणी अंतरा दवग्गिजालाभिहया काम. दरूपइएणस्स केवलिस्स अंतियं एयमढे सोच्चा णिसम्म मासे कालं किच्चा दाहिणिवेमु अग्गिकुमारेसु देवेसु दे भीया तस्या तसिया संसारभयुबिग्गा दरूपइमं केवझिं बताए उववजिहिति । से णं तरोहितो अणंतरं उब-| बंदिहिति, णमंसिहिति; तस्स ठाणस्स पालोइएहिंति, हिता माणुस्सं विग्गडं ललिहिति । निहितित्ता केव निदिहिंति०, जाव पमिवजहिति । तए णं दरूपो केवटी सं वोहिं बुझिहिति । वोहिं बुझिहितित्ता केवलं मुंडे | वहुई वासाई केवलपरियागं पानाणिहिति । पाणिहितित्ता जावत्ता अगाराओ अणगारियं पन्चशहिति । तत्थ विय एं अप्पाणं आउससं जाणित्ता भत्तं पच्चक्खाहिति, एवं जहा विराहियसामझे कालमासे कालं किच्चा दाहिणिवेम असु. नववाइए० जाव सबक्वाणमंतं काहिति । से नंते ! रकमारे देवेसु देवत्ताए उववजिहिति । से णं तओहिं- जंते! तिम्जाव विहरइ । तेयाणिसग्गो सम्पत्तो श्रद्धणं । तो. जाव उच्चाहत्ता माणुस्सं विग्यहं तं चेवण्जाव विरा विमलस्म सि] विमलजिनः किसोरतापपयामेकविंशतितहियमामले काल० जाव किच्चा दाहिणिल्लेस णागकुमा- मः समवाये रश्यते, स चावसर्पिणीचतुर्थ जिनस्थाने प्राप्नोरेसु देवत्ताए उववन्जिहिति । से तोहितो अणंतरं| ति। तस्माचार्वाचीनजिनान्तरषु बधः सागरोपमकोट्या ऽतिक्रान्ता लभ्यन्ते, अपश्च महापद्मो द्वाविशतेः सागरोपमाउबत्तिा एवं एएणं अजिलावणं दाहिणिवेसु विजु णामन्ते भविष्यतीति दुरवगममिदम् । अथवा योद्वाविंशते: कुमारेसु एवं अग्गिकुमारेसु बजंजाव दाहिणिवेसु थणि सागरोपमाणामन्ते तीर्थकदुत्सप्पिण्यां भविष्यति, तस्यापि पकुमारसु से गं तो नाव उव्वहित्ता माणुस्सं विग्गई। विमल ति नामसंभाव्यते,अनेकाभिधानाभिधेयत्वान्मदापुरुषा Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोसालग भनिधानराजेन्द्रः। गोसीसावसि भामिति । (पअपए लिशियसन्साने, जहा धम्मघोसम्स- (अंनोबरियत्साए ति) नगराभ्यन्तरवेश्यावेम, विशिष्टवेश्याबमोसि)। यया धमंधोषस्यकादशशतकादशोदेशकान्निहि- त्वेनेत्यन्ये (पमिविएणं मुक्केणं ति) प्रतिरूपकेनोचितम शकेम तस्य वर्णकस्तथाऽस्य पाध्यः। सच"कुलसंपो बलसंपो" दानेन । (भंमकरंगसमाणे ति) बाजरणभाजनतुल्या आदे त्यादिरिति । (रहचरियं ति)रपचर्याम (नोखाबहिति) या श्स्यर्थः। (तेखकेला सुसंगोविय सि) तैसकेमा तैलाश्रयो नोदयिष्यति प्रेरयिष्यति, सहितमित्यादय एकार्थाः [सस्थव- नाजनविशेषः सौराष्ट्रप्रसिक,सा व सुष्ठ सोप्यासनोपनीया ज्के ति) शनवभ्यः सम् (दाहकतीए सि) दाहोत्पत्या प्रवत्यन्यथा मुठति , ततश्च तेलहानिः स्यादिति । (सपेसा इस कासं कृत्वेति योगः दाहव्युत्क्रान्तिको वा भूत्वति शेषः। इह च सुसंपरिग्गहिय तिचेलपेटावत् वनमञ्जूष सुष्ठ संपरिवृता यथोक्तक्रमेणैवासंक्षिप्रभृतयो रत्नप्रभादिषु यत सत्पद्यन्ते - निरुपनवे स्थाने निवेशिता (दाहिणिल्लेसु मसुरकुमारसु देवेसु स्यसो तथैवोत्पादितः। पाच-"मस्सनीखमु पढमां, दोषांच देवताए उववजिहिति) विराधितश्रामण्यत्वादन्यथाऽनगासरीसिषा त पक्खी। सीहा जंति चउत्थी, सरगा पुण पं. राणां वैमानिकध्वधोत्पत्तिः स्यादिति । यद-"दाहिणि सु वर्मी पुढवी ॥१॥ हिं च इस्थियात्रो, मच्छा मउया य सत्त- ति"प्रोच्यते, तत्तस्य करकर्मत्वेन दक्षिणक्षेत्रेवेवोत्पाद इति मी पुढावि।" इति। [सहचरविहाणाईतिरह विधानानि दाग कृत्वा । ( अविराहियसाम सि) आराधितचरण इत्यर्थः । (चम्मपक्खीणं ति) वस्गुलीप्रभृतीनां [लोमपक्षीणं ति] भाराधना बेह चरणप्रतिपत्तिसमयादारज्य मरणान्तं यावनिइंसादीनाम् (समुन्गपक्खीणं ति) समुभकाकारपक्वतां मनु- रतिचारतया तस्य पालना। श्राह च-" माराहणा य एत्थं, व्यक्षेत्रबहिर्वर्तिनाम् [विययपक्खीणं ति] विस्तारितपकवतां | चरणपमिवत्तिसमयमो पभिई । भामरणंतमजस्सं, संजमपसमयक्षेत्रबहिर्तिनामेवेति प्रणेगसयसहस्सखुत्तो"इत्यादि रिपालणं विहिणा" ॥१॥ एवं चेड यद्यपि चारित्रप्रतिपतु यदुक्तम, मम्सान्तरमवसेयम, निरम्वरस्यापोन्द्रियस्यला- तिभवा निराधना युक्ता अग्निकुमारवय॑भयनपतिज्योतिएकप्रस्योत्कर्षतोऽप्यष्टनवप्रमाणस्यैव भावात् । यदाह-"पचेदिय. स्वहेतुनषसहिताश, अविराधनाभवास्तु यथोक्तसौधर्मादितिरियनरा,सत्तहनवा नवग्गहणे"शति [जहा परमवणापरति]] देवोकसर्वार्थसिरुघुत्पत्तिहतवः सप्त, अष्टमश्च सिकिगमनभव प्रकापनायाः प्रथमपदे।तत्र चैवमिदम्-"सरडाणं समाणं".| इस्येवमष्टावश चारित्रनवा उक्ताः। श्रूयते चाटैन भवाश्चारित्रं स्यादि (एगखुराणं ति) अश्वादीनाम् (बुखुराणं नि) गवादीनाम भवति, नयाऽपि न विरोधः, अविराधनाभवानामेव ग्रहणादि(गंमीपयाणं ति)हस्त्यादीनां[सणहपयाणं ति] सनापदानां सिं- ति। अन्ये स्वाहु:-" अट्टनवा उचरिते" इत्यत्र स्त्रे आदानमहादिनखराणां कमभानाम् । इह यावत्करणादिश्यम्-"गा- पानांवृत्तिकताव्याख्यानत्वाचारित्रप्रनिपत्तिविशेषिता एव प्रवा डाणं मगराणं ति" | "पोतियाणं" इत्यत्र[जहा पम्मषणापसि] प्राह्या नाविराधनाविशेषणं कार्यम, अन्यथा यद्भगवता श्रीमअनेन यत्स्चितं तदिदम-"मच्छियाणं गमसियाणमित्यादि" | महावोरण हानिकाय प्रवज्यावीजमिति दारिता तनिरर्थकंस्या"उबियाणं" इह यावरकरणादिवं रश्यम्-"रोहिणियाणं कुं. | त. सम्यक्त्वमावेणैव बोजमात्रस्य सिम्त्वात् । यकुचारित्रदानं पूर्ण पिपीसियाणमित्यादि" । "पुलाकिमिया" स्यत्र याव- तस्य तदष्टमचारित्रे सिकिस्तस्य स्यादिति विकटपादुपपत्रं करणानि रश्यम-"कुचिकिमियाणं गंरूपलगाणं गोलोमाण- स्यादिति । यच दशसु विराधनानवेषु तस्य चारित्रमुपवर्णितं मित्यादि" [रुक्खाणं ति] वृक्षाणामेकास्थिकबहजीवकभेदेन । तद् व्यतोऽपि स्यादिति नदोष इति । अन्ये त्वाहुः-नाहि. विविधानां, तोकास्थिका निम्बाम्रादयः, बहुवीजाः अस्थिक- तिकारवनानमात्रायष्टम्मादेव अधिकृतसूत्रमन्यथा व्याख्येयं भतिन्दुकादयः। (गुच्छाणं ति) वृन्ताकीप्रभृतीना, यावत्करणादि- पति, मावश्यकचूर्णिकारणाऽऽप्याराधनापक्षस्य समर्थितत्वा. श्यम्-"गुम्माणं लयाणं वल्लीणं पब्धगाणं तणाणं घलयाणं दिति। "एवं जहा उववातिए." इत्यादि भावितमेवाम्ममहरियाणं भोसहीणं जलरुहाणं ति" तत्र गुटमानां मधमासिका. परिवाजककथानक शत। भ० २५ श० १ ० । उपा०। प्रभृतीनां सताना पचलतादीनां वल्लीनां पुष्पफसप्रिभृतीनां पर्व- करूप० । मा० चू०। खा. ('वीर' शब्दे भगवतो गोकाणाम श्चुमनृतीनां तृणानां दर्जकुशादीनां बमयानां तालत- शालकेन सह विचारो वक्ष्यते ) मालादीनां हरितानाम अध्यारोहकतन्दुझीयकादीनाम् औषधी-गोसामा-गोशाला-श्री। गवां शालायाम,यत्र गवादयस्तिमां शालिगाधूमप्रभृतीनां जलाहाणां कुमुदादीनां [कुछणाणं ति] छन्ति । नि००००मा०म०। “विभाषा सेनाध्याकुहुणानाम प्रायकायमभृतिभूमिस्फोटानाम [नस्सनं वत्ति शालानिशानाम "।२।४।२५ । (पाणि ) इति वा बाहुल्येन पुनः। (पाणवायाणं ति)पूर्ववातानाम। यावत्कर नपुंसकत्वम । वाच०। णाविश्यम्-"पमीणवायाणं दाहिणवायाणमित्यादि" (सुअवायाणं ति मन्दस्तिमितयायूनाम् । नासाणामिह यावत्क. गोसीस-गोशीर्ष-न० । स्वनामस्याते चन्दनविशेषे, का० । रणादिदं यम-“जालाणं मुम्मुराणं प्रवीणमित्यादि" तत्रच "गोसीससरसरत्तचंदनदहरदिन्नपंचंगुलितलं" गोशीर्षस्य ज्वालानामनलसंबकस्वरूपाणां मुर्मुराणां फुस्फुकादौ मसणा चन्दनविशेषस्य सरसस्य च रक्तचन्दनविशेषस्येव दर्दरेण चपे. ग्निरूपाणाम् । अर्विषामनलाप्रतिबद्धज्वालानामिति ।(भोसाणं टारूपेण दत्ताभ्यस्ताः पश्चाङ्गलयस्तला हस्तका यस्मिन् कुति) रात्रिजमानामाद यावत्करणात्-"हिमाणं महियाण ति" ब्यादिषु तत् तथा । शा०१०१०। प्रश्न रा०जी०। (खामोदयाणं ति ) खातायां भूमौ यान्युदकानि तानि खातो मा०म० स०। कल्प० । प्रशाासू०प्र०। “गोसीसचंदणं दकानि, तेषाम् । (पुढवीणं ति) मृत्तिकानाम । (सकराणं | च गंधाणं" संथा। प्रा०म० । गोशीर्षचन्दनमयीदेवतापति) घग्घरट्टानाम् । यावत्करणादि रश्यम्-"बालुयाणं उव.] रिगृहीता कृष्णस्य नेर्यासीत् । विशे० । हरिचन्दने, तं०। माणं ति।" (सुरिकताणं ति) मणिविशेषाणाम् (वारिय-गोसीसावनि-गोशीर्षावलि-नी। गोशीपुमलानां दीघक साप सि)नगरबर्विसिवेश्यात्वेन, प्रान्तजवेश्यात्वेनेत्यन्ये।। पायां श्रेणी, ज०७ वक। Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोह श्रानिधानराजेन्डः। गोड-गोड-पुं०। प्रामेयके, विशे। "ततो गोहः प्रयात्ययम्"। प्राचा०। प्रशा० । प्रा०म० ज० था। मा० का प्रामप्रधानार्थे, दे० ना०५ वर्ग। गोजी-देशी-मार्याम्, दे० ना०२ वर्ग। गोहण-गोधन-न० । गवां धनं समूहः। गोसमूहे , गौरेय ध. गोठी-देशी-मञ्जर्याम् , दे ना० २ वर्ग । नमस्य । गोरुपधनवति, त्रिवाच० "गोहणं किमेत्य सद्धं ति।" पं० व० १ द्वार । गोंड-देशी-कानने, दे० ना०२ वर्ग । गोहा-गोधा-स्त्री० । सरीसृपभेदे, भ०७०३० सूत्रःगोही-देशी-मार्याम्, दे० ना०२ धर्ग। गोहिया-गोधिका-स्त्री०। जपरिसर्पिणीभेदे, जी०२प्रतिक। गोंदीण-देशी-मयूरपिसे, दे० ना०२ वर्ग । गोधाचर्माऽवनद्धे वाद्यविशेषे , अनु । भाएमानां कक्षाहस्तग- गोहो-देशी-भटे, पुरुषे , दे० ना० २ वर्ग । arssतोगविशेषे, प्राचा० २६०२चू । ग्नि-संस्कृतशब्दः । वाक्यासारे, 'पुरुष एवं नि' वेदः । गोहम-गोधूम-पुं०। धान्यभेदे, शा० १७० १६ अ०। नारङ्गे, है। प्रा० म०वि०। विशेः । AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA Oloalaakealestoolcakesknakoolookeatrakonicoloatkokoalratralekalcaicalcatookcotcoloksatsalcokokcocolsalcoloalsobaloss काका क inakootkhte ७ इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकप-श्रीमन्नटारक जैन श्वेताम्बराचार्य श्री श्री १०७ श्रीविजयराजेन्सूरिविरचिते अजिधानराजेन्छे गकारादिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् ॥ . OPORONIC 《《《《《长长长长长长长长长长长长长长长长沙》《《《《 രാരാരാരിരാരോ രാരിരാരാര 00000000000000000000000000 Page #1060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घंटा घकार (१०३७) भाभिधानराजेन्सः। तथा बाद मूलटीकाकार:-घृतमण्डो घृतसार इति सुकथितो ASIAAAAAAAAAAAE यथोक्तामिपरितापतापिता टहरे स्थानान्तरे वाऽज्याद्यसंक्रमिmasalsokoolcotoolsalboicotoolootosex तः सद्यो विस्यन्वितः तत्कालनिष्पादितो विश्रान्त उपशान्तकचवरः सहकीकर्णिकारपुष्पवर्णाभो वर्णेनोपपेतो गन्धेन रसेन स्पर्शनोपपेत प्रास्वादनीयो विस्वादनीयो दीपनीयो मदनीयो बृहणीयः सन्द्रियगात्रप्रल्हादनीयः। एवमुक्के गौतम माह (भवे एपारवे सिया) भवेत घृतोदकस्य समुहस्योदकमेतड्पR ogermosesyoseyeooomesexe मानगवानाह-नायमर्थः समर्थः,घृतोदकस्य समुहस्य उदकashum मितो यथोक्तस्वरूपात्रतरं यावन्मन माप्ततरमेव आस्वादेन प्रप्तम । कान्तसुकान्तौ यथाक्रम पूर्वार्धापरार्धाधिपती, पत्र घृतोदे समुद्रे महर्शिकी यावत् पल्योपमस्थिको परिवसतस्ततो प-प-धकारस्योच्चारणस्थानं जिह्वामूलम,"जिह्वामूझे तु कुः | घृतमिवोदकं यस्यासौ घृतोदः तशाचाह-"से एअंडेणं" इत्याप्रोक्तः" इति शिकोतः। 'अकुहविसर्जनीयानां करा' इत्युक्ति- दि सुगमम् । चन्द्रादिसंख्यासूत्रमपि सुगमम । जी०३ प्रतिका स्तु जिह्वामूलरूपकएउपरा । अस्योचारणे प्राभ्यन्तरः प्रयत्नः स्था । अनु० । दुःषमदुःषमान्त विनि घृतमघापरनामके स्पर्शः, जिह्वामूलस्पर्शनेन तदुच्चारणात् । अत एवास्य स्प- महामेघे, “पुक्खलसंबका वि य, खारोदघतोदभमयमेहो शवर्णत्वम् । बाह्यप्रयत्नास्तु घोषनादसम्बारमहाप्राणाः।वाचा य।" तिला घृतमिव उदकं यासांताः। घृतसमानोदकासु वाघटायाम, धर्धरशम्दे च । वाममारणे, स्मरणे, घाते, घण्टा. पीषु, जी० ३ प्रति।रा। पाम, किहिणीरवे, शक्ती, भैरवे देवे, पुण्ये, प्रवाहे, पाबऐन घंधल-ऊकट-पुं० ।" शीघ्रादीनां वहिलादयः"111४२२॥ प। पुं०। घोरे धुरो र च। न० । ५० को। इत्यपभ्रंशे ऊकटस्य घंघलादेशः। कमहे, प्रा० ४ पाद । पश्म-अध्य० । “घश्मादयोऽनर्थकाः" 100 ४ । ४२४ । इति अपभ्रंशे 'घई' इत्यनर्थको निपातः प्रयुज्यते "घ विव घंघसामा-घशाला-स्त्री०। बहुकार्पटिकसेवितायां शासायाम, रीरी खडी, होश विणासहाँ कालि । "प्रा०४ पाद । व्य०७० । “जा अतिरित्ता वसही बहुकप्पडिगसेषिया सा घनोद-वृतोद-पुं० । सो विस्यन्दितगंग्घृतस्वादुतत्कालवि घंधसाला" भाव०४०। निचु०स० । आचावातकसितकर्णिकारपुणवर्णाभतोये घृतवरद्वीपस्य समन्ततो वर्स तापनादिरहितायां वसती, प्राचा०१७०० अ०२२० । माने समुद्र सू०प्र०२० पाहु० । जी। घंघो-देशी-गृहे, दे० ना० २ वर्ग। पनवरंणंदी घमोदे णामं समुहे बडे वलयागारसंगणु-घंघोरो-देशी-म्रमणशीसे, दे०मा०२वर्ग। संठिचे जाब चिट्ठति समचका तहेव दारा पदेसा जीवा | घंट-घएट-नाष्टिवादस्य सूत्रभेदे, स०। य अहो । गोयमा ! घनोदस्स णं समुइस्स उदए जहा से | घंटा-घण्टा-खी० । “टो डा" १५ ॥ श्यत्र स्वजग्गफुझसम्लरिमुकुलकनियारसरसबमुविमुच्छकोरंट- रादित्यधिकारादत्र न मादेशः । प्रा०१ पाद । 'घर्टि'शपकरणे दामपिडितरसणिगुणतेयदीवियनिरुबहतचिसिद्धसुंदरतर-1 चु० अन् । काकिएयपेकया किश्चिन्महति, रा० कांस्यनिस्स मनायदधिमथिततदिवसगहिवणवसीयदछणाचित- म्मिते वायभेदे, याचा मुकदितउधावसज्जवीसंदितस्स अहियं पीचरसुरभिगं घपटावर्णक:घपाहरमधुरपरिणामदरिसणिज्जपच्छणिम्पलमुहोवभोग तोसणं घंटाणं इमेयारूवे वणावासे पत्ते । तं महागरम सरयकामम्मि होज गोघयवरस्स मंडे भवे एतारूचे जवणयामयामो घंटातो बतिरामईश्रो साझातोणाणामाणिमसिया। नो णडे समहे, गोयमा ! घतोदस्स एं समुद्दे या घंटापासा तवणिज्जामईतो संकलातो रययांमयातो रज्जूएत्तो श्?तरे जाव अस्साएण पसत्ते,कंते सुकता य इत्य तो ताोणं घंटाओ इंसस्सराओ मेहस्सराओ सीदस्सराभो हो देवा महिलाया. जाव परिवसंति सेसं तहेव. जाव घुमुहिस्सराओ कोंचस्सराअोणंदिस्सराओ दिघोसातो तारागणकोमिकोमीयो। सीहस्सराश्रो सीघोसातो मंजुस्सरातो मंजुघोसातो सुस्सघृतबरंद्वीप, घृतोदो नाम समुसो वृत्तो वलयाकारसंस्थान रातो सुस्सरनिग्घोसातो उरालेणं मणएणेणं मणहरेणं कामसंस्थितः सर्वतः समन्तात् संपरिक्तिप्य तिष्ठति । शेषं यथा घृ मणणिब्युश्करणं सच्चेणं ते पदेसे सन्यो समंता प्रातबरस्य दीपस्य यावजीवोपपातसूत्रम् । श्वानी नामनिमित्तम- पूरेमाणीतो० जाब चिट्ठति । निधित्सुराह-"से केपट्टणं" इत्यादि । अथ केनार्थेन नदन्त!पय तासां च घण्टानामयमेतपो वर्णावासो वर्णकनिवेशः प्रकमुच्यते-घृतोदः समुःघृतोदः समुरू ति। नगवानाह-गौ. सातद्यथा-जाम्बूनद मय्यो घण्टा वनमय्यो लाला नानामणितम! घृतोदसमुरूस्य उदकं स यथानाम सकललोकप्रसिका मया घण्टापावाः, तपनीयमय्यः श्याला यासु ता अवलम्बिशारदिकः शरत्कालभावी गोघृतवरस्य मएडःघृतसंघातस्य ए-| वास्तिष्ठन्ति, रजतमथ्यो रज्जवः। "तप्रोणं घंटाम्रो" इत्यादि। वपरिमार्ग स्थित घतं समपम श्त्यनिधीयते, सार इत्यर्थः।। ताच घपटाः (सस्सरा) हंसस्येव मधुरः स्वरो यासा ता. ___Jain Education Intemat२६० Page #1061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1025) अभिधानराजेन्द्रः । घंटा दुन्दु सस्वरा, मेघस्येवाति दीर्घः स्वरो यासां ता मेघस्ययः। सिंह स्वेव प्रजुन देशव्यापी स्वरो वासांत सिहस्वराः भिस्वरानन्दस्वराः, द्वादशविधतूर्यसंघातो नन्दिः । मन्दिषत् घोषो द्वादो यासां ता नन्दिघोषाः मज्जु प्रियः स्वरो यासां ता मनुस्वराः, एवं मञ्जुघोषा, कि बहुना -सुस्वराः सुस्वरो। "तराणं" इत्यादि प्राग्वत् । रा० भौ० । जी० । घंटाकरण- पण्टाकर्ण पुं० श्रीपर्वतस्यायां स्वनामस्याता यां श्रीमहावीरप्रतिमायाम्, ती० ४५ कल्प । 1 घंटाजाल - घण्टाजाल - न० । किक्रिएयपेक्षया किञ्चिन्महतीनां hari दामसमूहे, रा० । जी० । घंटाजुस - घण्टायुगल-न० घण्टाइन्बे, ग० । घंटावलिपटारसि० घण्टापट्टी रा० श्री० । घटावलिचलिय- घण्टावलिचलित न० । घण्टापङ्केश्वलने, भ० ११ श० ११ उ० । घंटिय-परिटक० घटया चरन्ति तांबदन्तीति घटि का। 'राखखिया' इतिप्रासि घण्टाबादनजीविके, कल्प० क्षण | भ० । घंटिपण-परिकगण-पुं० घण्टावाकसमुद्दा जं० २ 1 घट-घट-पुं० । घट्-अच् । “टो डः ॥ ११९५ ॥ इति स्वरात्परस्यासंयुक्तस्थानादे टस्य मः प्रा० १ पाइ घटतेऽसी घटनादू वा घटः । विशे० | सूत्र० । जलाद्याहरणार्थ क्रियामाचष्माने, विशे० । स्था० । श्रा० म० प्रा० चू० बुध्नोदकपालात्मके पदार्थों, अनु० । “घडा घडव्विहा पाता। तं जहा-बिड्कुडे, बोडकुडे, खंडकुड्डे, लगले प्ति । बिद्दो जो मूत्रनिद्दो, बोडो जस्स - ट्टा खिंडो से उस गो सेव शिंदे जं दूदं तं गलति बोने तापनि अति बडे पण पाण डिजर आदि इच्छा थोवेण वे संभर, खंडे एस बिसेसो-खंडा वोकाणं संपुन सवं धरेति । एवं चैव सीसा चत्तारि समोतारेयया सम्वत्थ विराहणाचर्चा भाणियव्वा" । प्रा० चू० १ ० यमकटितम छाप-पटकटितटपाप-पुं० [ शरीरस्य मध्यमागे कः ततोऽन्यस्यापि मध्यभागः कटिरिव कटिरित्युच्य विरम घटेन अन्योन्या वेशतो निविडा कडितटे मध्यभागे गया येषां ते तथा । मध्यमनोरच्याये, रा० । । श्ह ते यमकार पटकार पुं०] घटकारण कषादि विशे०म० घमग-पटक पुं० अघुपटे जं० २ ० । अनु घटरूपमुपे, आ० चू० ४ श्र० । घग्घरं - देशी- जघनस्थवस्त्रभेदे, दे० ना० २ वर्ग । माघहन न मिथः सजातीयादिना, स्पर्शनेन पा खाल्लने, दश०४ श्र० । ज्ञा० । घट्टनेति वा विचारणेति वा पृच्छे- घमण- घटन-न० | अप्राप्त संयमयोगप्राप्तये यत्ने, प्रश्न० १ संव ति वा विस्फालनेति वा एकार्थिकानि पदानि । वृ० ४ ० । पगपट्टनकपु० पाषाणां पर्षखमाश्रमणताकारके पा वक० । घंटिया - पण्टिका - स्त्री० । आभरणविशेषे, ज्ञा० १ श्रु० एम० । औ० । प्रश्न० । घुघुरिकायाम, जं० २ वक्० । घंटियाजाल - घण्टिकाजाल - नं० । क्षुद्रघटिकासमूहे, श्रा० 성공 । । सण- घर्षण नं० 'घुस' नावे पुट् वाचाय चन्दनस्येव पेषणे, शा० प्र० प्र० ० ० विशे० " पमिति सदा गहि तत्य परंपरे मनिवारा माणि तिलगुमेण वेधं काउं, श्रादिसहातो मोतिया, कट्ठादित्ति दणकट्ठा घरिसादिसु घृष्यंति" । नि० चू० १ उ० । वृ० । सिग पतिकपेषिते औ० घट्टणा-घट्टना[स्त्री० । श्रानने, श्रोघ० । कदर्थनायाम, आचा० १०० १४० घट्टगातो जायमाने उपसर्ग | ०१ श्रु० ३ ० १ ० । श्रा० म० । पट्टिय पति प्रेरिते 1 घडानोज्ज घट्ट घृष्ट त्रि० प्राकृते तु शब्दस्य प्रयोगो न भवति पे तुजवत्येव । प्रा०२ पाद “ऋतोत्" | |१| १२६ ॥ इत्याकारस्याऽवम् प्रा० १ पादप प्रापिते पृष्टमध खरशाणया, पाषाणप्रतिमावत् । जी० ३ प्रति० । प्रा० म० । भ० । औ० । स० । स्था० । रा० । जं० । सुधादिखर पिण्डेन, ( श्राचा० २ ० २ ० १ च०) मसृणपाषाणादिना वा ( वृ० ३ उ० । चं० प्र० 1 कल्प० । सू० प्र०) घट्टकेन घर्षिते, पृ० १ उ० । येषां लक्ष्मीकरणार्थ फेनादिना घुटे भा विनोरमेदोपचारात घुष्टाः धनु० सुनकेषु, श्री० बेषु विषमभूमिभजन कम्प०४ राण पम्पद्धा० । चेष्टायाम, भ्वा० सात्म० सक० सेट् घटादि ततो णिच् । वाच| "घटेः परिवामः" ॥ ८ ॥ ४ । ५०॥ इति घंटेपर्यन्तस्य परिवामादेशाभावपके 'घर' घटयति। प्रा०४ पाद। 'घडए' घटते । नि० ० १३० । 1 पाणे, बृ० ३ ० । घट्टया पहनता खी घट्टस्य भावे प्रवृत्तिनिमित्ते घशावा-पटनी श्री० उपेन०१२ ४० । - - स्त्री० । घट्टनशब्दस्य प्रज्ञा० १६ पद | संघट्टने, श्रा० । स्था० । - । ०३० र परस्पर०१० रा० विक्षिप्य वार्त आव० ४ श्र० । “ घट्टियाए फंदियार खोभियाए " वीणायाम योगता चन्दनसारकोपेन गाढतरं वीणादयमेन सह तनयाः स्पृष्टाया इत्यर्थः । जं० १ बक्क० । रा० । द्वार। अनु० । घमणा-पटना-श्री० मीलने घा०म० हि० सं ००१०१ ४० परस्परादि संघर्षणायाम विशे० । घमदास - घटदास - पुं० | जलवाहके दासे, श्राचा० १ ० २ ० ० । जलवाहिन्याम, स्त्री० । सूत्र० १० १५ प्र० । रुमान पटवानपुं० पूज्यमाने नि०पू० १४० । ॥ घडमुह घरमुख- पुं० कल सवदने, स० । घमय-घटक- पुं० । 'घर' शब्दार्थे, जं० २ ० । घमा - घटा स्त्री० । महत्तरादि गोष्ठी पुरुष समवाये. वृ०३४० व्य ० । पदाजोल-पटाजोज्य- १० महरानुनहरूयादेवरावा प्रोज्ये, व्य० १० ० । Page #1062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घडाविता अभिधानराजेन्द्रः। अभिमंतब पमाविता-घटयित्वा-अन्य निर्माप्येत्यथें, प्रा०म०वि०॥ साधूनामुपकारे न व्याप्रियते, तोपकरणं, किंतु अधिकरणम्। "जं जुञ्ज उवयारे, उवगरणं तंसि होह उवगरणं । मारे घमिनघडा-देशी-गोप्चाम, देना०२वर्ग । अहिगरणं," इति वचनात् । यः स्वाधिकरण, तत्र परिस्फटिघमिमंतय-घटीमात्रक-न० । घटीसंस्थानमृण्मयभाजनवि- तेऽपि संयमविराधनाऽऽत्मविराधनाव्यतिरिक्कोपधिभारवहशेष, वृ० । नादनागाढपरितापनादिका (विश्यं ति) द्वितीयपदमत्र भवकप्पा णिग्गंधीणं अंतोनिचं घमिमंतयं ति धरित्तए वा तिकिं पुनस्तादित्याह-लामकारणे समुत्पन्ने साधूनामपि घटीपरिहारत्तए वा। मात्रकाहणं युवते , तदपि शौचवादिषु शिष्येषु देशविशेषषु घा, तदुत्तरत्र भावयिष्यते। भल्य सूत्रस्य संबन्धमाह अथ किमर्थमत्र चतुबंधु प्रायश्चित्तमुक्तम् । अत्रोच्यतेश्रोहामिऍचिझिमिनिए, सुक्खं बहुसोप्रति निति विया विहपमाणऽतिरेगे, मुत्तादेसेण तेण लहुगाओ । प्रारंजो धमिमंते, निसिं च वुत्वं इमं तु दिवा ।। मजिकमगं पुण उर्डि, पञ्च मासो भवे लहुरो॥ चिलिमिलिकया , उपलकणस्वात्कटवयेन च , भषघाटिते द्विविधं द्विप्रकारं गणनाप्रमाणभेदाद्यत्प्रमाणं,ततोऽतिरिके पिनके सति द्वारे रजन्यां मात्रकमन्तरेण बहिः कायि पधौ सूत्रादेशेन चतुर्वघुका भवन्ति । यत उक्तं निशीथसूत्रे-"जे क्यादिव्युत्सर्जनार्थ बहुशो निर्गमप्रवेशेषु दुःखमाथिका निर्म भिक्खू गाणाहरितं वा पमाणारित्तं वा उहि धरे से पन्ति, प्रविशन्ति च अत्रायं घटीमात्रकसुत्रस्यारम्नः । यद्वा- अवस्संचाउम्मासियं, परिहरणे हाणं उग्घाश्य" इत्यतः सूत्रादेनिशायां रात्री मात्रके यथा कायिकी व्युत्सृज्यते, तथाऽनन्तर- शेन चतुर्बघुकं यदातपविनिष्पनं चिन्त्यते तदा अयं घटीमासत्रेऽर्थतः प्रोक्तम,इदं तु सूत्रं दिवा मात्रकमधिकृत्योच्यते इति। त्रको मध्यमोपधियवतरतीति कृत्वा मध्यमं पुनरुपधि प्रतीअनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्य व्याख्या-कल्पते निर्घन्धीनामन्त मन्त- त्यसघुको मासो भवति ॥ लिप्तं घटीमात्रकं घटीसंस्थानं मृन्मयभाजनविशेष धारयितुंवा अवधारयितुं परिहर्तुं चेति पदद्वयव्याख्यानमाहपरिहर्तुं वा। धारयितुं नाम-स्वसत्तायां स्थापयितुं, परिहत्। इतु धारणयाउ अभोगो, परिहरणा तस्स हो परिभोगो। परिज़ोक्तुम, एष सूत्रार्थः। अथ नियुक्ति: सुविहेण वि सो कप्पड़, परिहारेणं तु परिजोत्तुं ॥ पमिमंतंऽतो मित्तं, निग्गंधीणं अगिएहमाणीम्।। बह विधा परिहारः। तद्यथा-धारणा परिहरणा, भभोगोऽस्या पारणं,संयमोपबृंहणार्थ स्वसत्तायां स्थापनमित्यर्थः। परिहरणा चउगुरुगाऽऽयरियादी, तत्थ वि प्राणाश्णो दोसा।। नाम-तस्य घटीमात्रकादेरुपकरणस्य परिजोगो व्यापारणम,पते. अन्तमध्ये लिप्त सेपेनोपदिग्धं घटीमात्रकं निर्ग्रन्थीनामगृहा न द्विविधेनापि परिहारेण स घटीमात्रको निग्रन्धीनां परिजोत तीनां चतुर्गुरुकाः (मायरिया ति) भाचार्य एतत्सूत्रं प्रव कल्पते, सच दिवसं चेत्पानकपूर्णस्तिति । सिम्या न कथयति चतुर्गुरु, प्रवर्तिनी प्रायिकाणां न कथ अथ किमर्थमयं गृह्यत इत्याहयति चतुर्गुरू, आर्यिका न प्रतिशुपवन्ति मासलघु, तत्रापिघटी उहाहो वोसिरणे, गिलाणआरोवणाय धरणम्मि । माशकस्याग्रहणेऽकथनेऽप्रतिश्रवणे वाऽऽक्षादयो दोषाः।। विदयपए असई वा, निनो वा प्रचलितो वा॥ माह-स घटीमात्रका कीशो जवति ?, इत्याह संयतीभिरुसगतो अव्यप्रतिबकायां वसतौ स्थातव्यं, बत्रप. अपरिस्साई मसिणो, पगासवइणोस मिम्मो बहुओ। टीमात्रकाग्रहणेऽगारिकाणां पश्यतां बहिः कायिकीव्युत्सर्जने मुयसियददरपिहुणो, चिट्ठा भरहसि बसहीए ॥ नडादःप्रवचनलाघवमुपजायते । अथ कायिक्या वेगं धारयन्ति, स इति घटीमात्रका पानकेनात्यन्तभावितत्वादश्यं न परि ततो धारणे ग्लानारोपणा, यत एवमतो गृहीतग्यो घटीमात्रका अवतीत्यपरिस्रावी,मसृणः सुकुमार,प्रकाशः प्रकटं वदनं मुख. संयतीभिः। द्वितीयपदम-असत्यविद्यमाने घटीमात्र, यदि वा मस्येति प्रकाशवदनः, मृन्मयो मृत्तिकानिष्पन्नो,लघुकः स्वरूप. विद्यते घटीमात्रकः परं भिन्नो भद्मः,अलिप्तो वा, अत एवोहा भारः, शुचि पवित्रं, चाक्षमित्यर्थः । शितं श्वेतं शुक्रवर्णाद्युपेतं, अव्याप्रियमाणा, ततो बहिर्गत्वा कायिकीयतना म्युत्सर्जनीदर्दरपिधानं वस्त्रमयं बन्धनं यस्य स शुचिसितदर्दरपिधानः, या, निर्धन्याः पुनरप्रतिककोपाश्रये तिष्ठन्ति, अतस्ते घटीमात्र. एवंविधः, परहसि प्रकाशप्रदेशे वसत्यां तिष्ठति । कंन गृहन्ति । नो कप्पइ निग्गंथाणं अंतोलि घमिमंतं धारिचए वा कारणे तु गृहन्त्यपि साउऍ असइ सिणेहो, ठाइ तहिं पुन्बजाविऍ कमाहे। परिहत्तए वा । सेहो व सोयवाई, धरति देसं च ते पप्प ।। प्रस्य व्याख्या प्राग्वत्। मलाबुपात्रकस्याभावे ग्मानार्थ च स्नेहं ग्रहीतव्यं, पूर्वजाषित मत्र नियुक्ति: कटाहक,घटीमात्रकं वा गृहीतव्यं,यतस्तत्र गृहीतः स्नेहातिष्ठसाहू गिएइ बहुगा, प्राणाइ विराहणा अणवाहिति।। ति, न परिश्रवति, शैको वा कश्चित् साधूनां मध्ये मत्यन्तं शीविश्यं गिझाणकारणे, साहूण वि सो अवादीसु।। । चवादी, नाचार्य घटीमात्रकं गृह्णीयात, देश वा देशविशेष यदि साधुर्घटीमात्रकं गृहाति तदा चत्वारो लघुकाः, माझा-| शौचवादबहुलं प्राप्य घटामा शौचवादबहुलं प्राप्य घटीमात्र धारयन्ति यथा गौमविषये। या दोषाः, विराधना च संयमात्मविषया । तत्र (अणुव अथ तस्यैव ग्रहणे विधिमाहहिति) साधूनामयमुपधिन भवति। किमुकं भवति?-यत्किता गहणंतु महागढए, तस्सासइ होइ अप्पपरिकम्म। Page #1063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४०) अभिधानराजेन्द्रः । घडिमतय सास कुमिगादी, पेतुं नाला मिति ॥ प्रथमतो वधाकृतस्य घटीमात्रकस्य ग्रहणं करूप्यं तस्यासति अत्यपरिकर्मयोग्यं गृहीतम्यं तस्यासति निकादि गृहत्या मालानि वियोज्यन्ते । बृ० १ ० । 3 [I पमियब्व-घटितव्य - त्रि० । श्रप्राप्तानां संयमयोगानां प्राप्तये पडिय - घटयित्वा - अय० । संचाल्येत्यर्थे, दश० ५० १० घणनिचिय - घननिचित त्रि० । घनो लोडमुरस्तद्वन्निचितं निमिम । अतीव निधिमे, औ० । अतिशयनिविडे, " घणनिघमित - त्रि० । युक्ते, और चिवविध" नमन निमिती निमितरचय मानौ सिताविव बलिती वृत्तौ स्कन्धौ यस्य स तथा जी० ३ प्रति० रा० " प्रणनिधियागारनि इडियसिरा " घनमतिशयेन निचितं घननिचितं, सुष्ठु अतिशयेन पानि पानि यत्रतत् सुब कालक्षणम, उन्नतं मध्यभागे उच्यं यत् कूटं तस्याकारो मूसिंस्तनमुन्नत कूटाकारसदृशमिति भावः पिश्मितं स्वकर्मणा संयोजिनं शिरो येषां ते धननिचित सुबद्धल कृणोत कूटा कारनिममितः जी०३ प्रति० गाढनियोजने, "घणनिश्चियनिरं तरनिविदाएं " घननिचितानि कपाटादिद्वारपिधानामारश खादिषु गाढनियाजनेन तानि च तानि निरन्तरं कपाटादीनामन्तरात्रायेन निश्ािणि च मीराणि नितिन रन्तरनिरिक्षकाणि । म० ७ ० ८ ४० ॥ पणतव पनतपन० तुपपत्यके तपसि उत०३० घणदंत- पनदन्त पुं०] स्वनामस्यान्तासिनि मनुष्ये च प्रका० १ पद । स्था० । उत्त० । ( तद्वर्णको 'अंतरदीष ' शब्दे प्रथमभागे १७ पृष्ठे उक्त प्र० ए श० ३३ उ० । " ० ४ कार्यायां घटनायाम् घडिया- घटिकाखी० । मृरामयकुल्लुमिकायाम, सूत्र० १ अ० २३० । षष्टघुदकपलमानायाम् (सूत्र० १ ० १ ० १ उ० ) नलिकायाम्, तत्परिमिते काले च । आव० ४ भ० । मरुक - घटोत्कच- पुं० भीमसेनस्य दिमिम्बायां जनिते पुत्रे, " भीमरोएस्स पश्चादो हिमीद दिडिबाद कोण वशमदि । " प्रा० ४ पाद । I -धन-पुं०' इन मूर्ती अप्-धनादेश वाच० मेथे, औ० । प्रइन० रा० ॥ श्र० प्र० । स्था० । श्रात्र० । घ० । प्रावृदकालाविनि मेघे, जी० ३ प्रति० प्रा० । बोदमुरे, तं० । प्रश्न० । व्याप्ते, त्रि० प्रा० १ पद । श्रचा०। दृढे, त्रि० श्राव० ५] [अ०] निचिते वि० जी० प्र०नि०सू० १ भु० १ ० १ ० । अविरले, त्रि० । कल्प २ क्षण | बदलतरे, म० रा० । निश्छि, न० । रा० । वृ० । ज्ञा० । निविमे, पुं० । रा० ॥ जं० । औ० त० ॥ कल्प० । वृ० । विशे० । झा० । निविमप्रदेशोपचये, नं०प्र० २० पाहु० सू० प्र० । अतिशये, रा०। प्र० । तालप्रनृतिके, जं० ५ वक्ष० । कांस्यतालादिके, जं० २ बह० | जी० भ० । स्था० । कांसिकादौ, रा० ॥ श्रा० म० । जी० । तन्तुभिः समे, नि० चू० २३० । सान्द्रे, पृ० ३ ० । समरूपे च वाये, न० । सू० प्र० १२ पाहु० । श्राचा० । प्रा० दमदाने, पुं० वा०३ जा० ४ ४० सं क्याने, पुं० । विशे० । आव० । कर्म० । घनः सख्यानम्, यथायोगोऽसमधिराशितिः इति वचनात्। स्था० १० | " ज्ञ॰ । मुस्ते, समूहे, दा, विस्तारे, शरीरे, कफे, अभ्रके, पूर्णे, सम्पुटे, त्रि० । मध्यमनृत्ये, न० । लौटे, न० । स्वचे न० ॥ "समानः प्रदिष्टः" इत्युके समायवाच "घणकमिडछापति" इह शरीरस्य मध्यभागः कटिः, ततोऽम्यस्यापि मध्य भागः कटिरिय टि स्ट । नान्योन्य शाखानुप्रवेशिता निविडा कटिस्टे मध्य मागे यायस्य स धनकटितटच्छ्रायः मध्यजागनिविमतरsata इत्यर्थः। कचित्पाठः 'घनकडियकडच्छ ए" इति । तंत्रायमर्थः कटः संज्ञातोऽस्येति कति कटारे इत्यर्थः कटितश्चासौ कटा कटितकटः, घना निविडा कटिनकटस्येव अधोभूमौ गया यस्य स धनकटितटयायः ज०३ प्रति घणकवाढ-घनकपाट-न० निश्विकपाटे, प्रश्न०२ श्र० द्वार । घणकोट्टिम - घनकुट्टिम - नol घनकुट्टेन अयोघनताडनेन निर्वृचे, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार । घणघणाइय- घनघनायित न० । रथवत् चीत्कुर्वति, जं० ५ प० । अनु० । घारज्जु घणनिचय- घननिचय- त्रि० । अत्यर्थनिधिमे, प्रश्न०४ प्रा० द्वार। " घणनिचयवह्नपालि खंधे " घननिश्चितोऽत्यर्थ निविडो कर्तुः पालि डागादिपाचोराशो यस्य स तथा । उपा० भ० । घणपयर - घनप्रतर - पुं० । घनः प्रतर एव, घनं च प्रतरं च धनप्रतरम् । प्राकृतत्वाद्विन्दुलोपः । सर्वत्र च प्रतरपूर्वक एव धनः प्ररूप्यते, इहापि तथैवोपदर्शयिष्यते, ततः प्रतरघन इति निदेशः प्राप्तः, अल्पाक्षरत्वाद घनशब्दस्य पूर्वनिपातः । ततखेकैकं परिमण्डलादि प्रतरं धनं च भवतीति गम्यते । उत्त० १ अ० । घणमिच्छत पनमिध्यात्व न निधिमिध्यात्वे "घमि कालो कालो व दोइ नायन्यो कालो अ पनि धीरे हि विदि" ० १ अधि० ध्वनिसाधर्म्याट् घणमुग-घनमुदङ्गपु० । घनो घनाकारो ध्वनि साधयो - दङ्गः । सू० प्र० १८ पाहु० । घनो मेघः तदाकारो यो मृदङ्गः ध्वनिगाम्भीर्यसाधम्र्म्यात् । स्था० वा० । मेघसमानगम्भीरमईले स्था०८ ठा० जी० । कस्प० । प्र० मौ० । पशमुग- धनमुत्रपुं० घणइंग शब्दार्थे, स्थादा घणरज्जु - घनरज्जु-स्त्री० । घनीकृतासु रज्जुषु, प्रव० १. द्वार । 1 तिथि सपा सेवाला, रज्जूर्ण होति सम्मलोगम्मि । बरं होई जयं, सतपणेगिमा संखा || ए२ए ॥ सर्वमपि चतुर्दशात्मके लोके धनीकृते शरादि त्रीणि शतानि भवन्ति । अथ घनीकर संस्थान का संपते हो ज ति) चतुरनं सर्वतः समचतुरस्रं जगत् लोको भवति, संवर्तितं रिति शेष विचारिंशदुसर संख्या, सप्तानां धनेन समत्रिराशिहतिर्धनः इति वचनात् यो पं विस्तारमेन जायते। एतदुक्तं भवति संयर्तित लोकस्थाss 1 Page #1064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४१) घणरज्जु अभिधानराजेन्द्रः । घतोद यामविष्कम्भवाहल्यानां प्रत्येक सप्तरज्जुमानत्वात सप्तकेन गु-/ “सब्वे वि य ण घणोदहिविसजायणसहस्सा" घनोदधयः एयन्ते, जाता एकोनपञ्चाशत्,साऽपि पुनः सप्तकेन गुण्यते,जा- सप्तमपृथिवीप्रतिष्ठाननूताः सामानिकाः इन्धसमानर्धयः सा. तानि त्रीणि शतानि त्रिचत्वारिंशानीति । एतश्च व्यवहारमाश्रि-| हरुयः विशतिसहस्राणि । स०२० सम० । स्था० । “सत्तसु त्योक्तं, निश्चयतस्तु-एकोनचत्वारिंशदधिकत्रिशतसंख्यानामेष | घणवापसु सत्त घणोदहीण इडिया" स्था०७ ठा०। प्रका। घनरज्जनां संचवात । तथाहि-षट्पञ्चाशतसंख्यास्वपि पङ्कि-घणोदहिवलय-धनोदधिवलय-न० । घनोदधिरेव वलयमिव धु" तिरियं चउरो दोसुं" इत्यादिगाथाकथितानि चतुरादीनि वलयं कटकं घनोदधिवलयम् । वलयाकारे घनोदधौ, स्था०३ प्रतरत्रण्डकानि पकैकपङ्किगतानि पृथक् पृथक् वय॑न्ते,सरश- ठा०४उ । वलयाकारे पृथिवीपर्यन्तवेष्टके समु,प्रज्ञा०२पद । द्विराशिघातो वर्ग इति वचनाश चतुष्कादयोदङ्काशतुष्कादि-घयो-देशी-उरसि, रक्ते च । दे. ना०२ वर्ग। भिरेव गुण्यन्ते इत्यर्थः । जाताः षोमशादयोदङ्काः, तेषां च सर्व. घतमंम-घृतमएम-पुं० । घृतसार, यो घृतसङ्घातस्योपरिमीलने च दश सहस्राः, षण्मयत्यधिके च द्वे शते स्वएमकानां भागे स्थितं घृतं स मएम श्त्यभिधीयते, सार इत्यर्थः। तथा प्रवन्ति । अस्य च राशेधनरज्जुसमानयनाय चतुःषष्टया भागो हियते, ततो जायते एकोनचत्वारिंशदधिका द्विशतसंख्या एवं चाह जीवाभिगममूलटीकाकार:-'घृतमपडो घृतसारर' इति । घनरज्जव इति । उक्तंच जी. ३ प्रति। "उवरित्यहत्थप्प-नपयरपश्चक्खदिखमाणं । घतवर-घृतवर-ना तीरोदस्य समुषस्य परितो द्वीपनेदे, जी। षम्गं कुणह पिटुप्पिदु, संजोगे विजय गणियपयं ॥ खीरोदं णं समुदं घतबरे णाम दीवे बट्टे वलयागारसंसहसेगारस दुसया, बत्तीसपहिया अहम्मि खंमाणं। गणसंवितेजाव परिक्खिवित्ता णं चिट्ठति समचकवाने नो समदीडपिदुम्बेहा-णरज्जव उरंसमाणेणं ॥ विसमचकवाले संखेजविक्खंजपरिधिपदेसाजाव अट्ठो । चत्तारि सहस्साई, चवसहिजना उकुलोगम्मि । पनरह सहस्स तिरियं, चउरूणं जायमुनपसि ॥ गोयमा घतवरे णाम दीवे तत्य २ वहवे खुड्डा खुड्डिया वा घउसही विभत्तं, गुयाला दोसया हविजेवं । वीन० जाव घतोदगपमहत्थान उप्पीयपव्ययगा जाव लोए घणरणं, । " प्रव० १४३ द्वार। खमखडगा सबकंचणमया अठा० जाव पडिरूवा कणगघणचट्ट-घनवृत्त-नासवेतःसमे मोदकवदनवृत्ते, भ० २५ २० कणगप्पना इत्य दो देवा महिळ्यिा चंदा संखेजा। ३००। उत्त। (तस्वं च 'संजोग' शब्दे परमाणूनां संयोगप्र. क्षीरोदं णमिति पूर्ववत, समुषं,घृतवरो नाम द्वीपो. वृत्नो वलरूपणावसरे प्ररूपयिष्यते) या कारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात संपरिक्षिप्य तिष्ठति। घणवलय-धनवाय-न० । नरकपृथिवीनां पार्श्ववर्तिनि वृत्ता- अत्रापि चक्रवालविष्कम्भपरिक्केपपावरवेदिकाबनखएमद्वाराकारतोयविशेष, पिं०। न्तरप्रदेशजीवोपपानवक्तता पूर्ववत् । संप्रति नामनिमित्तमभिघणवान-धनवायु-पुं० । रत्नप्रभाषधोपर्तिनि घनरूपे वायुवि- धित्सुराह-"सेकेण्डेणमित्यादि"। अथ केनार्थेन जगवन् ! एवशेषे, उत्त० ३६ अ०। मुच्यते-घृतबरो द्वीपो घृतबरद्वीप इति । भगवानाह-गौतम! घणवाय-धनवात-पुं०। रत्नप्रभानां नरकपृथिवीनामाधारतया घृतवरद्वीपे"तत्थ तत्थ देसे तहिं ताह" इत्यादि। अरुणवरद्वीपव्यवस्थितेऽधो वर्तिनि अत्यन्तघने पिएमीभूते वातविशेषे, पिं०। वत सर्व तावद्वक्तव्यं यावत "वाणमंतरा देवा देवीश्रोय प्रास. जी। प्राचा० । स्था। यंति सयंति, यावद्विहरंति" इति, नवरं चाप्यादयो घृतोदकपरि पूर्णा इति वक्तव्य,तथा पर्वताः पर्वतेष्वासनानि,गृहकाणि गृहके. घणवाही-देशी-इन्छ, दे० ना०५ वर्ग। वासनानि,मएमपका मण्डपकेषु पृथिवीशिलापट्टकाः सर्वात्मा घणविज्जुया-धनविद्युता-स्त्री० । दिछुमारीनेदे, स्था० ६ ठा० । ना कनकमया इति वक्तव्यं, कनककनकप्रभौ चात्र द्वौ देवा यथापणवृहि-धनवृष्टि-स्त्री० पञ्चम्यां स्नीकलायाम् ,कल्प०७वण ।। क्रम पूर्वापरा धिपती महाको, यावत् पल्योपमस्थितिको घणसंखान-घनसंख्यान-न० । अष्टमे सक्यानभेदे, घनः स परिवसतः, ततो घृतोदवाप्यादियोगात,घृतवर्णदेवस्यामिकत्याच घृतबरो द्वीप इति । तथा चाह-" से पयोणमित्यादि ।" ज्यानं यथा-वयोधनोऽष्टौ समत्रिराशिहतिरिति वचनात् । चन्दादिसंख्यासूत्र प्राग्वत् । जी. ३ प्रति०। सू०प्र०। चं० प्रा स्था०१० ठा। अनु । स्थान घणसंताण-घनसंतान-पुंग कोलिके,पं०व०२द्वार।निचूाधा पत्त-क्षिप-धा०1 प्रेरणे, उभ सक० सेट् । याच० "क्षिपेर्गघणसार-घनसार-पुं० । घनस्य मुस्तकस्य सारः। कर्पूरभेदे, श सत्थाइम्खमोलपेटनणोटलबुहहुलपरीघत्ताः " ॥८।४। रदिन्मुकुन्दघनसारनीहारहारेत्यादि' घनो निविमः सारोऽस्य ।। १४३ ॥ इति कित्तादेशः। 'घत्तइ 'क्विपति । प्रा०४ पाद । दक्षिणावर्तपारदे, वृतदे, जले, श्रेष्ठधारिदे, वाच । संथा। गवेष-धा० । अन्वेषणे, चुरा० श्रात्म० सेट् । व च० । “गवेषपणिय-घनित-न० । गर्जिते, सू० प्र०२० पाहु। दुंदुल्लदंढोल्पगमेसघत्ताः"018 | १८६॥ इति गवेषेधत्तादेपणोदहि-घनोदधि-पुं० । घनः स्त्यानो हिमशिलावत् उदधिर्ज-I शः। 'घतज्ञ, गवेसई' गवेषयते । प्रा०४ पाद । 'तह घतइति' मनिचयः, स चासौ स चेति घनोदधिः। स्था० ३ ०४ उ०। तथा खेटयते । तं०। प्रत्यक्कत उपलभ्यमानाया रत्नमनायाः पृथिव्या अधोधनाघत्तिघकारप्पक्नित्ति-घति घकारपविभक्ति-स्त्री.घकामीभूतोदक उदधिर्धनोदधिः। जी०३प्रतिका औलानरकप- राकृत्यभिनयात्मके नाट्यविशेषे, रा०। थिवीनामाधारभूतेषु कठिनतोयेषु समुत्रेषु, पिं० प्रवासातोद-घृतोद-पुं०। 'घओद' शब्दार्थे, सू० प्र०२० पाहु । Page #1065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घतोय (१०४२) अभिधानराजेन्द्रः। घरग घतोय-घृतोद-पुं० । 'घतोद' शब्दार्थे , सू० प्र० २० पादु० । जहा उज्जेणोए, काले तु-जेहासाढमासेसु, भावो-धिज्जाघत्य-ग्रस्त-न० । अभिभूते , आव० ४ अ० । तिणी पुब्धिणी, तीसे नत्तुणा दिवसेर नहं मासेहिं पंसाबहिनि धम्म-धर्म-पुंग घरति अङ्गात् घृ-सेके, क्षरणे, कर्तरि मानि० पिंडिओ वारं घट्टो, घृतस्म बिताए उववज्जिहिति त्ति, सा यकल्ले वा परे वा विहिति त्ति कातूण तेण य जातितं, असं णस्थि गुणः । वाच । केषांचिदाचार्याणां मते चतुर्थस्य द्वितीयो न । तह वि मितं,सा हहुतुहमणसा देज्जा,परिमाणी-जंतियं गच्छप्रा० ४ पाद । अङ्गनिष्पन्दे स्वेदे, श्रमजवारिणि , घरत्यङ्गम स्स उबउज्जति सो यनितो चेव पुच्छति-कस्स केत्तिपण घपण नेनेति करणे मक् । आतपे, ग्रीष्मकाले, तयोरङ्गस्वेदसाधन कजं? । प्रा० चू०१०। प्रा०म० । विशे। स्वात्तथात्वम् । प्रातपयुक्ते दिवसे, वाच । उष्णे, स्था० ४ ग० ४ उ०। सूत्रः। घयमेह-घृतमेघ-पुं० । दुःषमउम्पमान्तभाविनि महामेघे , जं. घम्मट्ठाण-धर्मस्थान-न० । उष्णप्रधाने स्थाने , सूत्र०१ श्रु० । ३ वक्षः । ५०१०। प्रातपस्थाने, सूत्र० १श्रु० ५ अ० ११०। |घयविहिपरिणाम-घृतविधिपरिणाम-पुं० । “घयविहिपरिणा मं करे " उपा० १ ०। घम्मा-धर्मा-स्त्री० । सप्तसु नरकपृथिवीपु प्रथमायां नरकपृथिव्याम, "धम्मा णामेणं रमणप्पभागो तेणे" जी०३ प्रतिका स्था। घयसागर-घृतसागर-पुंग घृतोदे समुद्रे, दी। घम्मोइ-देशी-गएफुसंझे तृणे, दे० ना० २ वर्ग । |घयसित्त-घतासक्त-पुं० घृततर्पिते, “निव्याणं परमं जाइ, घयघम्मोडी-देशी-मध्याह्ने, मशके, ग्रामीसंकेतृणे च । दे० ना० १ सित्त ब्व पावर"। निर्वाण निवृतिः, स्वास्थ्यमित्यर्थः । परम प्रकृष्टं याति प्रामोतीत्यनिसंबन्धः । क श्व (घयसित्ते व ति) वर्ग। इवस्य निन्नक्रमत्वात, घृतेन सिक्तो घृतासक्तः, पुनातीति पाघय-घत-पुं० न० । घृ-सेके क्तः । अर्चादिका वाच01 "ऋतो. वकोऽग्निोंकप्रसिध्या, समयप्रसिद्ध्या तु पापहेतुत्वात्पापकः, तु"1८।११२६। श्रादे ऋकारस्यात्वं भवति । घृतं,'घयं। प्रा०१ तद्वत् सिञ्चनतया तृणादिनिर्दीप्यते, यथा घृतेनेत्यस्य घृतसिपाद । दुग्धभवे, वाच० । “सर्पिविलीनमाज्यं तु, घनीनूतं घृतं क्तस्य निवृतिरनुगोयते, ततः सविशेषणस्यास्य दृष्टान्तस्येनाभिभवेत्"। इत्युक्ते घनीभूते श्राज्ये, घृतगुणनेदादि उक्तम् । यथा धानमिति भावनीयम् । यद्वा-निर्वाणमिति जीवन्मुक्ति याति, "घृनमाज्यं हविः सर्पिः, कथ्यन्ते तद्गुणा अथ। "निर्जितमदमदनानां, वाकायमनोविकाररहितानाम् । विनिवृत्तघृतं रसायनं स्वादु, चक्षुष्यं वह्निदीपनम् । पराशाना-मिहैव मोक्तः सुविहितानाम्" ॥१॥ इति वचनात, कशीतं वीये विषालदमी-पापपित्तानिलापहम् । यंभूतः सन् घृतसिक्तपावक श्व तपस्तेजसा ज्वलितत्वेन प्रअल्पानिध्यन्दि कान्त्योज-स्तेजोलावण्यवुद्धिकृत् ॥ तर्पिताग्निसमान इति । उत्त० ३ ०। स्वरस्मृतिकरं मेध्य-मायुध्यं बलकृद्गरु । घर-गृह-पुंग न०| गृह्यते धर्माचरणाय 'ग्रह'-गेहाथै कः। वाचा उदावर्तज्वरोन्मादशूतानाहव्रणान् हरेत् ॥ स्निग्धं कफकर रकःक्षयवीसपरक्तनुत्" वाचदर्श स्था। "गृहस्य घरोऽपतौ"॥८।२।१४४ ॥ इति घरादेशः । प्रा० घृतमपि चतुर्भेदं गवादिसंबन्धित्वेनैव प्रव०४द्वार । “उद्दीणं २पाद । सामान्यजनानां सामान्ये (भ०५ श० ७ ०० । अनु०) दधि नस्थि, नवणीय घयं पि ते णस्थि ।" आव०६०। श्रा० अपवरकादिमात्रे, स्था० ५ ग०१०। कटकुड्यदेहलीपट्टाचू० । “घृतेन वर्धते मेधा" । वृ०५०। सूत्र । दिसमुदायात्मके (अनु.) वेश्मनि, दर्श० । प्रश्न । घयासब-घृताश्रव-पुं० । घृतमिव वचनमाश्रवन्तीति घृताश्र- घरंतर गृहान्तर-न० । गृहमेवान्तरं गृहान्तरम, गृहद्वयात वाः । सन्धिमतेंदे, प्रा० म०प्र०। त्रयाद्वा परतो गृहे, नि० चू० ३ उ०। घयकिट्ट-घृतकिट्ट-न० । घृतमले , तच्च घृतेन विकृतिः । ध० घरकमी-गृहकुटी-स्त्री० । स्त्रीदेहे, तं०। २ अधि०। घरकोइला-गृहकोकिला-स्त्री० । गृहगोधायाम, पिं०। सूत्र। घयकिट्टिया-घृतकिट्टिका-खा० । घृतमले, प्रव०४ द्वार।। घरग-गृहक-नावासनवने,अत्र ककारः स्वार्थिकाजश्वका घयगुनपुराण-घृतगुमपूर्ण-स्त्री०। घृतगुमसमन्विते , पञ्चा० तस्स णं वणसंमस्स तत्थ तत्य देसे देसे तहिं तहिं ब८ विव०। हवे आलिघत मालियाघरा कयलिघरगा लयाघरगा अघयघट्ट-घृतघट्ट-त्रि० । घृतसंबन्धिनि किट्टे, यो हि महियाव त्थणघरगा पेच्छणघरगा पन्जणघरगा पसाहपघरगा गमित्युच्यते । वृ० १ उ०। पं०व० । यण-घतन--पुं० । भाएडे, “घयणवच्चले णियच्चन्नो।" पं० ब्नघरगा मोहणघरगा सालयघरगा जालयघरगा कुसुमघव०४ द्वार । प्रव० । श्रा० क । प्रा०म० । रगा चित्तघरगा गंधबघरगा आयंसघरगा सबरयणामया ज्यपक्कोसहि-घृतपकोषधि-स्त्री० । पक्वोषधोपरि तरिकारूपे अच्छा सण्डा लमा घट्टा मट्ठा पीरया निम्ममा णिसर्पिषि, प्रव० ४ द्वार । ध। पंका निकंकमच्छाया सप्पभासस्सिरीया सउज्जोया पाघयपुराणघृतपूर्ण-पुं०1 अपूपे , ( घेवर) “सद्यः प्राणकरा सादीया दरिसणिज्जा अनिरूवा पडिरूवा ॥ हृद्याः, घृतपूर्णाः कफापहाः"। सूत्र० १श्रु० अ० । " तस्स" णं इत्यादि । तस्य वनखएमस्य मध्ये तत्र तत्र प्रदेशे घय समित्त-घतपुष्पमित्र-पुं०। आयरक्तिसूरेः शिष्ये, पाचून| तस्यैव देशस्य तत्र तत्र एकदेशे,बहूनि आसिगृहकाणि-आलि "घयपूसमित्तस्स इमा सद्धा-दबतो-घतं सप्पाएतव्वं खेत्तो। बनस्पतिविशेषः, तन्मयानि गृहकाणि मालिगृहकाणि, मालिन Page #1066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४३) घरग भन्निधानराजेन्डः। घार्षिदियणिग्गह रपि वनस्पतिविशेषः,तन्मयानि गृहकाणि मालिगृहकाणि,क-घसी-घमी-स्त्री. मिराजी. जी. ३ प्रति० । स्थलादधस्तादलीगृहकाणि, लतागृहकाणि च प्रतीतानि (प्रत्यणघरगार. दवतरणे च । श्राचा०२ श्रु०१० ५ उ०। ति) अवस्थानगृहकाणि-येषु यदा तदा वाऽऽगत्य बहवः सुखा. सिकया प्रतिष्ठन्ते,पक्कणकगृहकाणि-यत्रागत्य प्रेवणकानि वि घाण-गायन-स्त्री०। 'गै' शिल्पिनि ल्युट "गोणादयः" ॥८॥२॥ दधनि,निरीक्वन्ते च,मजनकगृहकाणि-यत्रागत्य स्वेच्छया म १७४॥ इति निपातनातू घाश्रणाऽऽदेशः। प्रा.५ पाद । गाजनकं कुर्वन्ति, प्रसाधनगृहकााणि-यत्रागस्य स्वं परं च मएम नोपजीविनि, त्रि०वाच।। पन्ति, गर्भगृहकाणि-गर्भगृहाकाराणि (मोहणघरगा शति) मोहनं घाइया-घातिका-स्त्री० । अन्येन घातयिच्याम, जं. २ वक्त। मेथुनासेवा, "रमियमोहरयाई" इति नाममालावचनात । तत- | घातिता-स्त्री० । विनाशितायाम, झा• अाविपा। प्रधानानि गृहकाणि मोहनगृहकाणि, वासन्नवनानीति नावः। घाइकम्म घातिकर्मन्- नशानावरणदर्शनावरणमोहनीयान्तशालागृढकाणि-पट्टशानाप्रधानानि गृहकाणि, जालकयुक्तानि रायाख्यकर्मचतुष्टये, डा० ३० अष्ट। गृढकााण,कुसुमगृहकाणि-कुसुमप्रकरोपचितानि गृहकाणि,चि. गृहकाणि-चित्रप्रधानानि गृहकाणि, गन्धर्वगृहकाणि-गीतन: पणच घाएंत-घातयत्-पुं० । विनाशकारके, पं. घ.४ द्वार। त्याभ्यासयोग्यानि गृहकाणि, आदर्शगृहकाणि-आदर्शमयानी घाय-घात-पुं० । वधे, झा. १७०८ अ०। प गृहकााण। एतानि च कथं नूतानीत्यत पाह-" सम्वरयणा- घाम-घाट-पुं. 1 संघाटे, सौहृदे, वृ. १२.। मस्तकावयवाव. मया" इत्यादिविशेषणकदम्बकं प्राग्वत् । जी०३ प्रति० । । शेषे. का. ११.८०। घरघरंत-घरघरत-पुं० । कम्पमाने, पिं० । नि० चू०। घामिय-घाटिक-पुं०। घाटः सौहृदं विधत्तेऽस्येति घाटी,स एष घरघरग-घरघरक-पुं० । कण्ठाभरणविशेषे, जं०१ धक्क०। घाटिकः। सहजातकादौ वयस्ये, वृ०१ उमित्रे,वृ०१ नाका घरघंटो-देशी-चटके, दे० ना० २ वर्ग। घाण-घान-नातिलपीमनयन्त्रे, पिं०। तिमपीमनयन्त्रादौ सघरट्ट-अरघट्ट-पुं० । पपोते घटमालिकया जलाकर्षकयन्त्र- कृप्रक्षेप्ये वस्तुनि, प्रव. ४ द्वार । विशेषे, नि० चू० १ उ०। घ्राण-न'घ्रा' करणे ल्युट् । वाचा नासिकायाम्,जं.१ वक्ता घरणी-गृहिणी-स्त्री० । कलत्रे, दर्श० । प्राचाराप्रश्न विशे"दो घाणा" प्रज्ञा १५ पद । स्था। घरपंति-गृहपति-स्त्री०। 'साहो' इति ख्यातेऽथे, नि००३ घाणमणिबुडकर-घ्राणमनोनितिकर-त्रि० । नासासचिवउ० । पि०। चेतः सुखोत्पादके, जं. १ बक्का रा.। घरयंदो-देशी-आदर्श, दे० ना०२वर्ग। घाणसहगय-घ्राणसहगत-त्रि• घ्रायत शति घ्राणो गन्धगुणः, घरस गृहवास पुं०। प्राकृतत्वाद् वाशब्दश्नोपः। गृहाश्रमे,०३उ० तेन सहगतास्तत्सहचरितास्तद्वन्तो घ्राणसहगताः । घाणेन्द्रि. यसहचरितेषु पुफलेषु, भ०१८ श.७ उ•। घरसमणि-गृहशकुनि-पुं० । गृढावस्थिते शकुनौ, व्य०२ उण घाणामय-घ्राणमय-त्रि• घ्राणग्रहणरूपेऽर्थे, "घाणामओ सोघरसमुदाण-गृहसमुदान-न० । गृहेषु समुदानं भिकाटनं गृ क्खाओ अब्बवरोवित्ता जवर" घ्राणमयात्सौख्यात् गन्धोपाइसमुदानम् । भक्ष्ये, न.३ वर्ग । भ०। दानरूपात अव्यपरोपयिता अभ्रंशकता घ्राणमयेन गन्धोपाघरसमुदाणिय-गृहसमदानिक-पुं० । गृहसमुदायं प्रति गृहं पासम्नाजावरूपेण खनासंयोजयिता भवति । स्थाएगा निका येणं ग्राह्याऽस्ति ते गृहसमुदानिकाः। अभिग्रहविशे घाणारिस-घ्राणार्श-न नासिकायां जायमानेझेरोगे,अोघः। षवत्सु आजीवकश्रमणेषु, औ०। घरसामिणी-गृहस्वामिनी-स्त्री० । जायायाम, प्रा०म०विघाणि-घाणि-स्त्री. । तृप्ती, झा० १ श्रु०१०। स्था•। तृप्तिपरिवी-देशी-पल्ल्याम् , दे० ना २ वर्ग। जनकशक्ती, विशे। परिस-घर्ष-पुं० । चन्दनस्येव घर्षण, झा०१ श्रु०१६ अ०।। घाणिंदिय घ्राणेन्धिय-नानासिकेन्डिये, शा.११० १७ श्रा उत्त । श्राम। श्रा..। प्रज्ञा ।ग.1 प्रश्न. । (अस्य घरोइला-गृहकोकिला-स्त्री० । गृहगोधायाम, प्रइन० १ आश्र० सोदाहरणव्याख्या' इंदिय' शब्दे द्वितीय जागे ५४८ पृष्ठे द्वार । प्रज्ञा० । जी। रुष्टव्या) घरोन-देशी-गृहनोजनभेदे, दे० ना०२ वर्ग। घाणिं दियणिग्गह-घ्राणेन्द्रियनिग्रह-पुं०। स्वविषयानिमुखमघरोनिया-गृहकोकिला-स्त्री० । 'घरोइला' शब्दार्थे, प्रश्न.१| नुधावतो घ्राणेन्द्रियस्य नियमने , उत्तः । आश्र० द्वार। घाणिदियनिग्गहे ते! जीवे किं जणयइ । घाणिघरोली-देशी-गृहगोधिकायाम, दे० ना.२ वर्ग। दियनिग्गदेणं मणुयामणुहोसु गंधेसु रागदोसनिग्गई जणयघदो-देशो-अनुरक्त, देना० २ वर्ग। इ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधा , पुचवच्छ च णिजरेइ । घसा-घसा-खो० । सुषिरत्नमिषु, इश० ६ ०i बृहतीषु नूमि हेभदन्त ! हे स्वामिन् ! घ्राणेन्द्रियनिग्रहण जीवः किं जनयति? राजिषु, प्राचा०२ श्रु०१० अका गुरुर्बदति-हे शिष्य ! घ्राणेनिध्यनिग्रहेण मनोकाऽमनोझेषु गन्धेघमिय-यर्षित-न• । करीषादिना घर्षिते, दशा ५ भ.। सूत्र। षु रागद्वेषनिग्रहं जनयति । ततो रागद्वेषजयातू रागद्वेषोत्पन्नं घसिर-धसित-वि• । बहुभाक्षिणि, बृ.१२.। कर्मन बध्नाति. पर्वोपार्जितं कर्म च निरयति। उत्त०२एमा Page #1067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४४) पाणिदियमुंड पानिधानराजेन्डः। घुसिरसार पाणिदियमुंड-घ्राणेन्डियमुण्ड-पुं० । घ्राणेन्जियविषयासंस-| धुटियं-घुएटयत-त्रि० । पिबति, तं०। तमुएमनेदे, स्था० १० ठा। घुग्ध-घूत्क पुं०। “हुहुरुघुग्धादयः शब्दचेष्टाऽनुकरणयोः" ।८।४। घाय-घात-पुं० । घात्यन्ते व्यापाद्यन्त नानाविधैः प्रकारयस्मिन् ४२३॥ इति चेष्टाऽनुकरणे घुग्घादेशः। 'घुग्घश्त्याकारके चेष्टाप्राणिनः स घातः । संसारे, सूत्र. १ श्रु०७० सर्वदा परि- अनुकृत शब्द, " ताजि बिरह गवक्वेर्दि मका घुग्घर दे" णामपरिणतोऽनुपशान्तो हन्यते प्राणी स्वकृत कर्मविपाकेन य-| प्रा०४ पाद । स्मिन् स घातः। नरके, सूत्र० १ श्रु०५१ ०। विनाशे, | घुग्घुच्छणयं-देशी-खेदे, दे० ना०२ वर्ग । सूत्र.१७०१०२ उ०। प्रहारे, ज्ञा० १ श्रु० १८० । घुग्घुरी-देशी-मण्डूके, दे० ना०२वगे। मारणे, सूत्र० १ श्रु०११ अ० । प्रलये, विशे० दिरामादिभिस्तामने, प्रा० म०प्र०ा हनने च । प्रश्न २ श्राश्र0 द्वार । स्था। घुग्घुवंत-घुग्घुवत्-त्रि० । घूत्कारशष्यं कुर्वाणे, का• १ . चं० प्र० । निर्युएठने, वृ० १ ००। ८ अ.. घायग-घातक-पुंछ । मारके, शा० १९०२० । हिंसके,प्रश्न० । घुग्घुस्सुसयं-देशी-साशङ्कभाणिते, दे. ना.२ वर्ग । १ श्राश्र0 द्वार । अन्येन घातयितरि, जी०३ प्रति० । प्राणिव. घुग्घर।-स्त्री । तलितकादौ, न.प्र.ध.। घोपजीधिनि, पश्चा०६ विवा। "अनुमन्ता विशसिता,संहती घुट्टवाण-देशी-गिरेगमे, पृथुशिक्षायां च । दे. ना.धर्ग। क्रयविक्रय।। संस्कर्ता चोपभोक्ता च, घातकश्चाट घातकाः"॥ | घट्ट-घुष्ट-स्त्री.। घुष् क्त-इमभावः। उच्चशब्देन प्रकटिताभिप्रा. इति मनुः। सूत्र० १७० १ अ० २ उ०। ये शब्दिते, वाक्यादौ न । वाचकथिते, तं• । घोषिते, पायगता-घातकता-खी मारकतायाम, भ०१२श०७301 | व्य. उ. प्रा. म.। घायण-घातन-न० । मारणे, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार । घुमुक्क-गजे-धा। रवे, वाचः । “तयादीनां गेल्लादयः" । घायणा-घातना-स्त्री० । षष्टयां गौणदिसायाम, प्रश्न १ आ-| ३६॥ इत्यपनशे गजेंघुमुक्कादशः! "गगणि घुमुक्कर मेह" गग१० द्वार । ने मेघो गर्जति । प्रा.दु. ४ पाद । घायणो देशी-गायने, दे० ना० २ वर्ग । घुण-घुण • । कोलाण्ये जन्तुविशेषे, तस्कृते छिके च । भाव. घायमाण-घातयत-त्री०। पापादयति, सूत्र० २६० १ .। प्राचा. । (घुणदृष्टान्तेन निक्षाकशब्दप्ररूपणा 'भिश्र०प्राचा०। क्खाग' शब्दे धक्यते) घुणंत-घूर्णमान-पु. । नयाविह्वलत्वाशाम्यति , प्रश्न. ३ माघारी-देशी-शकुनिकाख्ये पक्किणि , दे० ना० २ वर्ग। • द्वार। पारो-देशी-प्राकारे, दे० ना० २ वर्ग । घत्ति-देशी-गवेषिते, दे. ना.२ वर्ग। घारंतो-देशी-घृतपूरे , दे० ना० २ वर्ग। घुम्म-पूर्ण-धा। भ्रमणे, अक• उभ• सेट् । वाच । "पूर्णे - घास-पास-पुं० । कवले, उत्त० अ०। श्राहारे च । सूत्र | संघोलघुम्मपहल्लाः" |४|११७॥ इति पूर्णेघुम्मादेशः। 'घुम्मा' श्रु०१ ० ४ ०। आचा। घूर्णति , घूर्णते । प्रा०४ पाद । घासेसणा-ग्रासैषणा-स्त्री०। प्रासोनोजनं, तद्विषया एषणा शु-| घुम्मत-पूर्णत-त्रि.। म्राम्यति, औ० काशुरूपर्यालोचनम्, भोजनविषयायां शुद्धाशुद्धपर्यालोचनाया- घुणवुणिमा--देशी-कर्णोपकर्णिकायाम, दे० ना.१ वर्ग। म, प्रव०६३ द्वार । ध० । ओघापिं0 (अस्य निक्केपादिकम 'पसणा' शब्द अस्मिन्नेव जागे ५५ पृष्ठे द्रष्टव्यम् । दोषा अपि | घुयग-घुट्टक-पुं०। लेपितपात्रमसृणताकारके पाषाणे, पिं.। ६७ पृष्ठे अष्टव्याः ) घुरुधुरी-देशी-मएमके, दे. ना.२ वर्ग। घि_-देशी-भत्सिते, दे० ना० २ वर्ग। घल-चूर्ण-धा। भ्रमणे, अक. उभ० सेट् । बाच.।“घणेप्रिंमु-ग्रीष्म-पुं०। प्रसते रसान् ‘ग्रस' मनिन् । वाच०।"प्रसेधि- | घुलघोल घुम्मपहवाः" ॥८४|११७॥ इति घुलादशः। 'घलइसः" ८।२।२०४। ति घिसादेशः। प्रा०४ पाद । ज्येष्ठाषाढमास धुम्मइ-घोसाइ' घूर्णति, घूर्णते । प्रा०४पाद। द्वयात्मके ऋतुभेदे, वाचा धर्मकाले, व्य०४ 30। उष्णकाले, घुबा-घुझा-खााद्वान्द्रयमद, प्रकार उत्त० २ अ० । उणाभितापे च । सूत्र० ११० ४ ० २ उ० । घसल-मन्य-धागविलोमने, क्रयादि. परमिक सेट् । वाचा घिटो-देशी-कुब्जे, दे० ना०२ वगे। "मन्घु सलविरोलो" ॥८४१२१॥ इति घुसलादेशः। 'घुससई' घिणा-घृणा-स्त्री० । " इत्कृपादौ"८।१।१२८ । इति प्रादेः। मध्नाति । प्रा०४ पाद । तश्त्वम्। प्रा० १ पाद । दयायाम, आध०४ अ0संथाघसिण-घसण-म०। घुषि (सि) वा ऋणक-पृषो नसोपः। घषेः घित्तु-गृहीतुं-अव्य० । प्रहणं कर्तुमित्यर्थे , ज्यो०४ पाहु० । । पस्य सश्च । बाच० "इत्कृपादो"।।१।१२८॥ इति श्रुत चित्तण-गृहीत्वा-अश्य० । ग्रहणं कृत्वत्यर्थे, प्रश्न० १ भाथ० इत्वम् । प्रा० १ पाद । कुङ्कम, त्रि०ा "घुसणैर्यत्र जलाशयोदरे" द्वार। इति । वाच। घिसर-देशी-ना मत्स्यबन्धनभेदे, विपा०१९०११०। घसिणि-देशी-गवेषिते, दे० ना०२वर्ग। घुघरो-देशी-उत्करे, दे० ना०२ वर्ग। घसिरसार-देशी-अवस्नाने, मसूरादीनां पिटे, दे० ना० वर्ग। Page #1068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घूघरी पूपरी श्री० 'घुग्घरी' शब्दार्थे, स० प्र० घूणाग - घूणाक- न० | स्वनामख्याते सनिधेशे, यत्रागतम्य श्रीपीरजिस्य शुभलक्षणानि पुष्पेण सामुदि बू० १ अ० । धूप पू० कोशिके ० १ ० म० उसके प्रति । प्यारि-घूकारि पुं० का सं ( १०४५) अभिधानराजेन्द्रः । 66 पूरा-पूरा श्री० अङ्कायाम, खसकायां च सूत्र०२ -२० । घेतथ्य ब्रही तम्पत्रि" त्यामध्ये घेत् " 85 8 २१० । इति प्रदादेशः । प्राो, प्रा० ४ पाद । धेनुं ग्रहीतुम्प्रयातुम्-सज्येषु त् १४२१-४ इति प्रदेशः प्राझे प्रा० ४ पाद बेतु प्राण- गृहीत्वा अध्य "त्यातुमराम्येषु चेतु " ॥→ । ४ । ११• ॥ इति प्रदेर्घेदादेशः । प्रणं नृत्येत्यर्थे, प्रा. ४ पाद । सार्थेऽन्यत्रापि 'घेच्छं ' दीध्यामि नि. चू. १४० गृहीत्वा यथा तुम सम्येषु तु"10181 २१. इदादेः प्रत्यर्थे प्रा० ४ पाद पेप्प-ग्रह-पान इस्तव्यापारजे, स्वीकारे, हाच धादि सन० सक० सेट् । वाच "प्रप्पः "८४२५६॥ ग्रहेः कर्म्मभावे 'प्य' इत्यादेशो भवति क्लु पेप्पर, गेरिग्ज' प्रा० ४ पाद नि० चू० । । । - " 1 घोट्टपा धा० पाने, स्वाद पर सक० अनिट् पाच । | ॥ ४१ ॥ इति पिवतेघड़ा "पिः 37 देशः । ' घोट्टर, पित्र'। प्रा० ४ पाद । घोमदेशी दे० ना० २ वर्ग " - घोडा-पोटक पुं० [अजाये, घ० २ अधि० चतुष्पदस्थल चरपञ्चेन्द्रियतैर्य्यग्योनिकै कखुर मे दे। . प्रज्ञा० १ पद । तुरङ्गमे च ग०३ अघि प्रथमे सदोषे, "बासोग्य विमायं चापि वा।" प्रद्वार। श्राकुश्तिस्यै कपादस्य घोटकस्यैव स्थानं घोटकदोषः । प्रव० ४ द्वारा । आय० । प्रज्ञा० । घोड मूल्य- पोटफ एपित १० इयोः संयतयोपटक करमूयितमिव घोटकक एमूयितस्, यद् वारं वारं परस्परं प्रच्छ ततयोः परस्परकण्डूपितमिव घोकटकथितम्। परस्परं व्य० ४ उ० ॥ घोमयग्गीव-घोटकग्रीव-पुं० । अबग्री वापरनामके त्रिपृष्टपाक्यप्रथमबासुदेवप्रातशत्रो. भा० म० प्र० । मा० खू० । घोमयं पुच्छ घोटक पुच्छ न० । अश्ववालो, "पोरपुच्छं व पोपुच्छं तस्स मंसुर । " उपा० २ अ० । घोल आय० । व्य० तं पश्चा० । उत्त० । दारुणे, रा० ग० । धाचा० । निर्घुणे, नि० १ वर्ग । श्र० । रा० । जं० । सु० प्र० । विशे० । चं० प्र० । ज्ञा० । श्रात्मनिरपेके, भ० १ ० १ उ० । दिने, भ०३ श० २ ० । जयदे, उत्त० १६० । नयानके, सूत्र १ भु०५ अ० १ उ० दारुणक्रियाकारिणि, प्रश्न ०१ श्राश्र०द्वार । उस० बिरो० नं०] याच "घोर निरंकंदरच सभस्थभाषा" पोरो रौद्रा प्राणनाशनम अगाधमित्य मितभयं यस्मात् भावात सा धिपदेवपतिराजस्येव, स निकुरम्बकन्दरः, कमिति श्रव्ययशब्द उदकवाचकः, चलन् पुरुषं पुरुषं प्रति भ्रमत वीभत्सो भयङ्करः छह, परत्र महाभयोत्पादकत्वात् एवंविधो भाव अन्तरमायाबायोपासता घोरनिकुरम्यकन्द्रसमाचा तासां खीणाम संग "घोररूपदिरूपरंत" घोरं यपं दीप्तं प्तं वा तद्धारयति यः स तथा तम् । भ० १६ श० ६ उ० । घोरकड - घोरकष्ट- त्रि० । प्रतिकष्टे, प्रश्न० १ अभ० द्वार । घारेगुण घोरगुण ५० घोरो निर्माण पहेन्द्रियकपायाख्याणां रिपूणां विनाशे कर्त्तव्ये, अन्ये त्यात्मनिरपेक्षं घोरमाडु, 'घोरगुणो' घोरा अम्रनुचरा गुणाः मूलगुणादयो यस्य स तथा । अन्यैर्दुरनुचरगुणे, श्री । जं० सू० प्र० । रा० । विपा० भ० चं० प्र० । - । 1 पारेतन -पोस्तपस् न० भाजी विकतपसि घोरमात्मनिरपे घोरविम - घोरविष- पुं० । परम्परया पुरुषसहस्रस्यापि हननसअर्थविषे सर्पे, भ० १५ श० ११० । उत० ॥ ० ॥ धोराय पोरन० पुं० [घोराश्यन्यैरनुचराणि मतानि महावतेषु तानि सन्त्यस्य तथा । ज्ञा० १ श्रु० १ श्र० । नि० । 5धरमहाव्रतधारिणि, उत० १ ० । , चाच " घोरागारं तवच्चरणं कर 15 आ० म० द्वि० । 1 पोपट घोटकमुख पुं० घोटकस्येय मुखमस्य । किन्नर घोरागारयोराकार - दिवाती २० ३८० २४० ॥ विशेषे अनु घोडमुद्दी पोटकमुखी खं०] । घोटका कारमुख मनुष्य खियास, पोरी-देशी शलभविशेषे दे० ना० २ वर्ग पृ० ६ ० । जीत० । नि० यू० । घोडिय घोटिक पुं० । मित्रे, पृ० ५ उ० । ate-ate-fuo | ge-wy, đề, go to पनि० २ वर्ग २६२ तपः । स्था• ४ ग० । ww पोरसवस्ति (ए) घोरतपस्थिन् पुं०। धोरैस्तपोभिस्तपस्वी । घोरतपस्वी । दारुणतपःकर्तरि ज्ञा० १ ० १ अ० । श्रौ० । भ० ति० सू० प्र० । रा० । जं० घोरधम्म - घोरधर्म - पुं० | धोरो भयानको धर्मः । सर्वाश्रवनिरोधाहुरनुयरेधम्र्मे आया० १ ४० ६ ० ४ ३० ॥ " । " घोरपरक्कम - घोरपराक्रम- पुं० । घोरः पराक्रमः धर्मानुष्ठानविधिर्यस्य सः। उत्त० १४ अ० । रौद्रमनोषले क्रोधादिचतुष्कपायायां जये रौद्रसामध्ये उच्च १२ प्र० । घोरवंन चेरवासि ( ए ) - घोर ब्रह्मचर्यवासिन् पुं० । ० घोरं च तद् ब्रह्मचये चाम्पस-खेन यदनुते तस्मिन् घोरब्रह्मवर्षे वस्तु शीसमस्येति घोरमाययैवासी उत्कृ ण् ब्रह्मचारिणि, शा० १ ० १ अ० । जं० ॥ चं० प्र० । सू० प्र० । रा० ॥ श्र० । नि० । घोरो देशी नाशिते घोल - घोल - ५० । न० । घुड- कर्मणि घञ्, मस्य लः । वाचन ०२ अधि०० वाचत मचितवन गालिते - Page #1069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घोस सस्नेहमजलं मथितं घोलमुच्यते । सशरं निर्जलं घोलं, वातपित्तहरं स्मृतम् ॥ १ ॥ मस्तुना रहितं गायं दधिरे पड़े । जीर सैन्धवसंमिश्रं, घोलं घनतरं स्मृतम् ॥ २ ॥ जीरसैन्धवसंयुकं घोलं वातप्रणाशनम् । अतीसारे च मन्देोहितं यं बलप्रदम् ॥ ३ ॥ "हिजीरयुतं घोलं सैन्धवेन च संयुतम् । भवेदतीव वातघ्न-मर्शोऽतीसारहृत् परम् ॥ १ ॥ दं पुष्पिं वस्तिलविनाशनम् । मूत्रकृच्छ्रे तु गुरुं पाण्डुरोगे सचित्रकम्” ॥२॥ वाच० । पोलंत पोलतू त्रि० । दोलायमाने, श्री० आ० म०प्र० रा० ॥ घोल घोलन - न० । अङ्गुष्ठाङ्गुलिगृहीतचाल्यमानयूकाया श्व मर्दने, आ० क० । श्रा० म० । विशे० । महा० । घोलवटक-पोलक्टक न० घोलयुके बटके प्रच० ४ द्वार । ध० 1 ( १०४६) अभिधानराजेन्द्रः । " पोलिप-पोलिस-५० दधिघट व पटश्व वा घोलनां प्रापितेषु राजदविमपुरुषेषु बी० सूत्र " घोलिये- देशी-शिलातले. हवकृते च । दे० ना० २ वर्ग । पोस घोष पं० 'ए' आधारे धम् । वाच yayay 3 I 9 ॥ | १ | २६० ॥ इति षस्य सः । प्रा० १ पाद । भाजीरपल्ल्याम, तस्यां गोभिर्नादान्तथात्वम् । वाच० । गोकुले, बृ० १ ४० । “ घोसो गोवलं वि य एग " घोष इति गोकुलमिति वैकार्थम् । वृ० ४ उ० । गोठे स्था० २३०४३० - तरि अच्- गोपाले, वाच० । शब्दे, शा० १ श्रु०६ श्र० । सर्वदिव्यत्रुटितशब्दसन्निनादविशेषे, जी० ३ प्रति०। घण्टाऽनुप्रवृत्तरणितमिव यः शब्दः तस्मिन् तं० । अनुनादे, ज० ६ श० १ उ० । वदान्तादिस्वरविशेषे नं० । श्र० । अनु० । न । “खयां यमाः स्वयः क ँ पौ, विसर्गः शर एव च । एते श्वासानुप्र. दानाः, अघोषाश्च विवृएवते ॥१॥ कएवमन्ये तु घोषाः स्युः,” इति शिको वर्णोच्चारणमेवनी, मेघांन मशके, घोषलतायाम], [स्त्री० । वाच० कुमाराणामिन् प्र० ३ श० ८ उ० | स० । स्था० । चतुर्थदेवलोकस्थविमानभेदे, स० । लोकपालादयो जोकपालादिशन्देषु वयो "देव वनमादाय घोषानुपस्थितान्।" चाच घोसव घोषयुतन ( यथावस्थितैासादिनिर्घोषैयुंके, बृ० १ उ० । "शो" घोसाली घोसण-पोषण १० पुष-भावे स्युद् ध्यानी, नि००१४ भावे ल्युट् | उच्चशब्देन शापने व्यापारभेदे, याच श्रा०म० रा० घो सधै फोकल गमाविमाणामिति " कीरामघोषणं भविष्यतीत्येवं घपने कुतरन दसी क बैठे घोषणदक तथा एका घोषणापणैकविपर्य चित्तं येषां ते एकाग्रचित्ताः, एकाग्रचित्तत्वेऽपि कदाचिदनुपयोगः स्यादत उपयुकमामा ततः पूर्वपदेन विशेषणस मासः । तेषां पटहेण घोषणां कारितवान् । रा० । श्रा० म० । घोसवती घोषवती स्त्री प्रयोतनृपपुण्य बाताया दा स्याम् आ० क० । श्र० चू० । " घोसवसुद्धिकर - घोषविशुद्धिकर- पुं० । श्रुतसम्पद्भेदे, य० । घोषविशुद्धिमाह घोसा उदत्तमादी, तो विमुषं तु घोसपरिसुद्धं । एस सुतोपसंपप, सरीरश्वसंपयं अतो युद्धं ॥ घोषा उदात्तादयस्तैर्वशुद्धं घोषविशुद्धं, तत्करणशीलो घोषविशुद्धिकरः । एषा चतु तोपसंपद व्य० २०४० । घोसविमुक कारण-पोषविशुद्धिकारक पुं० श्रुतसम्पत्संपन मेदे, दशा० घोषविशुद्धिकारका घोषा उदासादयः तेषां - घौषशुद्धिः विशेषेण शुद्धिर्विशुद्धः, तां करोतीति घोषविशुकारक यतः स्वयं घोषगुद्धिमान् अन्यामपि तथैव स्वरसिकारकः । दशा० ४ श्र० । " * of siveinsceicoboivoiticisciscississoorieccccccccccv.coooooooja घोसविसुद्धिकरणा घोषविशुद्धिकरता-० । सम्प उदात्तानुदात्तादिस्वरविशुद्धिविधायितायाम्, उत्त० १० स्थान घोससम घोषमम न० उदासानुदात्तस्वरितकम्पितद्रुतविलम्वित विटिपेश्वरनिपते. प्रा० सू० १६० वाचनाचार्याभिहितो दात्तानुदात्तस्वरितलक्षणैर्घोषैः सदृशत्वेनैव गृहीते, विशे० । गुरुना घोषाः तत्र तथा पत्र पेणापि समुच्चार्यन्ते तद्घोषसमम् । श्र० प्र० प्र० । ग० । अनु० । घोसहीण घोषहीन - उदात्तादिघोषरहिते घोसामिया कोपातकी श्री० ० ४ ० चर घोषातकी पृषो० कोपातील तायां, श्वेतघोषालतायाम् वाच० रा० । प्रव० । जं० जी० । श्रा० म० । प्रज्ञा० । फले, न० । प्रज्ञा० १ पद । घासाली - देशी- शरद्भवे वलिनेदे, दे० ना० २ वर्ग । dhoodho • इति श्रीमत्सौधर्मवृतपागच्छीय-कलिकाल सर्वकल्प- श्रीमनहारकजैन श्वेताम्बराचार्य श्री श्री १००८ श्री विजयराजेन्द्रसूरिविरचिते निधानराजेन्द्रे घकारादिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् ॥ 0:00:00 Page #1070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Saroticviodicaloricor चकार Rasalsalcolvolcalsash (१०४७) अभिधानराजेन्छः। चउकसायावगय चश्त्ताच्युत्वा त्यक्त्वा-अव्याच्यवनं कृत्वेत्यर्थे, स्था० नगा कल्पना त्यागं कृत्वेत्यर्थे,आचा०१०६०२ उ०। भा और Seoelotoaleatoasagoloaloeloe चइत्ताण-त्यक्त्वा-अव्या त्यागं कृत्वोत्यर्थे, "कणकुएमगं चर ताणं विठं भुंजः सूयरे (५) " उत्त०१ अ.। चइत्तु-त्यक्त्वा-न० । अव्या त्यागं कृत्वेत्यर्थे, “स देवगंधब मणुस्सपूश्ये, चश्त्तु देहं मलपंकपुब्वयं (8८)" उत्त० १ अ० । രരരരരരരരം ജ चउकट्ठी-चतुष्काष्ठी-स्त्री०। चतुरस्राकारे काष्ठचतुष्टये, "चउकहिं का कोणे घडो वति" नि००१ उ०। चनकप्पसेगसित्त-चतुष्कल्पसेकसिक्त-त्रिका चतुर्भिः सेकविच (य)-च-अव्य० । 'चि' मः । समुच्चये, ध०२ अधिः। यः कल्पैः सिक्ते प्रोदने, चत्वारश्च कल्पाः सेकविषयारसवविपा० । कर्मा पं० सं० । नि० न्यू० । पञ्चा० । संघा० । स०|| तीशास्त्राभिशेयेज्यो भावनीयाः। जी० ३ प्रति० । रा० । सामान्यसमुच्चये, प्रश्न०१ श्राश्र० द्वार । एकाथिकसमुचये, प्रश्न. १ आश्र द्वार । अनुक्तसमुश्चये, जीता चनकारणपरिसुक-चतुष्कारणपरिशक-त्रिका निर्णयहतुच. अप्यथै, षो० ६ विव० । पुनरथें, दर्श० । व्य० । प्रश्न । पञ्चा० । तुष्कनिर्णीतदोषाभावे, “ चउकारणपरिसुद्ध, कसदतावदिशब्दार्थे, विशे० । अवधारणे, पं० सं०१३ द्वार । निचू।। तालणाए य । जं तं विसघातिरसा- यणादिगुणसंजुयं हो" दशा स्तुतावुत्कर्षणे, दर्श। लकणे, विशेषे, नि०चू०१०। ॥३६॥ पञ्चा०१४ विव०। पञ्च । संघा० । पूरणे, नि००१०। प्रा०म० । पाद- चउकारणसंजुत्त-चतुष्कारणसंयुक्त-त्रि० । चतुर्भिः कारणः पूरणे, नि० चू०१०। अनुमती, नि० चू० १ उ० । जेदप्रदर्श- संयुक्त कारणचतुष्कसहिते, उत्त। ने, नि० चू०१ उ० । अर्थानुकर्षणे, नि००१ उ०। उपप्रदर्श "मोक्खमग्गगई तश्चं, सुणेड जिणभासियं । ने, औ० । अतिशयवचनप्रदर्शने, नि० चू०४ उ० । प्राधि चउकारणसंजुत्तं, नाणदसणलक्खणं" | उत्त० । क्ये, प्राचा०१ श्रु०१ १०४ उ० । संकेपेण आख्याने, चशब्दा "नाणं च दंसणं चेत्र, चरितं च तवो तहा। क्वचित्केचित् संक्षेपेण आख्यायन्ते । सं० । “चः पुंसि चे एस मग्गो त्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहि" ॥ तने चन्द्रे, चौरेऽही चारुदर्शने ।" " चान्वाचयसमाहारे-त- पष चतुष्कारणरूपो मोकमार्गो जिनः केवनिभिस्तीर्थकरच रेतरसमुच्चये । समासार्थेऽव्ययम्" एका० । पुं० । तुरुक, भरे, प्राप्तः । उत्त० २८ अ०। रुधिरे, त्रिविमलार्थे, अव्य० मिथोयोगे, एका। "चः पुंल्लिने निशानार्थे, तुरुक्के तस्करे भरे । चउक्क-चतुष्क-त्रि० । चत्वारि परिमाणमस्येति चतुष्कः। "संचा शोभायां स्त्रियामुक्ता, रुधिरे चं नपुंसके । ख्याडतेश्चाशत्तिष्टेः कः "॥६।४।१३०॥ ति ( हैम.) चशब्दस्त्रिषु सिनेषु, विमलार्थेऽव्ययः स्मृतः। का प्रत्ययः। पिं०। " संख्याया अतिशदन्तायाः कन्"॥५॥ समुच्चयान्वाचययोः, पक्षान्तरनिरूपणे ॥ १। २२ ॥ इति (पाणि) कन् । उत्त० . ० । चतसृणां समासिके समाहारे, मिथो योगेऽप्युदाहृतः" । पका० । च रथ्यानां समागमे, वृ०१०। चतुष्पथयुक्त स्थाने, शा०१ श्रु० एमेशे, कच्छपे, त्रि०ार्जने, निर्वाज, अन्य० । तुल्यस्वे देतो. १० । यत्र रथ्या चतुष्टयं मिवति । कल्प०४ कण । भ०। विनियोगे, वाच०।. ०रा०1" चक्कचश्चरं चम्मुहं" औ०। स्था० । अनु० जं०।का।श्रा०म०॥"सिप्पामेव जो देवाणुप्पिया! विजयाए चन-त्यक्त्वा-अव्य० । त्यागं कृत्वेत्यर्थे, जीवा० १अधिक। रायहाणीए संघामगेसु पत्तिएसु य चनक्केसुय ।" जी०१ चश्ऊण-च्युत्वा-त्यक्त्वा-अन्य० । व्यवनं कृत्वेत्यर्थे, उत्त. प्रतिस्थापना-+"सीले चनक्कं दब्वे, पाउरणाजयणभोप्रात्यक्त्वा विहायेत्यर्थे, पश्चा०१६ विव० । "चाळण गार-1 यणादीसु । भावेऽ ओहसी, अनिक्स-मासेवाणा चेव ॥" पासं,चरित्तिणो तस्स पालणाहेडं।" पं.व.१ द्वार । प्राचा सूत्र.१७० ७ अ०। “चनक्को कम्ममासओ" इत्यादि। चश्त्त-चैत्य-नाचित्याया इदम् अण् । “अइदैत्यादौ च" ॥ ८१ चतसृभिः काकिणीनिनिष्पन्नत्वात् । चतुष्के, अनु० । चतुर्जिः १५१॥ इति ऐतः 'अ'इत्यादेशः। एत्वापवादः। प्रा०१ पाद। "त्यो. स्तम्भैः कायति, के-कः । चतुःस्तम्भयुक्ते मएमपे, वाच० । ऽचैत्ये" ।। २।१३॥ इह अचैत्य इति पर्युदासान चः। प्रा० |चनकनश्य-चतुष्कनायिक-न । वयचतुष्काभिप्रायतश्चिन्त्य२ पाद । प्रामादिप्रसिद्ध महावृक्के, देवावासे वृझे, जनानां स.| माने सूत्रे, स.।। नास्थतरो, श्रापतने, चिताचिह्न, जनसभायां, यज्ञस्थाने, ज. चनक्कर-चतुष्कर- त्रिचत्वारः करा यस्येति चतुष्करः।चनानां विश्रामस्थाने, देवस्थाने च । वाच । तुर्तुजे देवे, उत्त०८१०। चैत्र-पुं० । चित्रानकत्रेण युक्ता पौर्णमासी चैत्री, साऽस्मिन्मासे चउकसायोगय-चतुष्कषायोपगत-त्रि० । क्रोधाद्युदयवशगअाए । “वैरादौ वा"।।१।१५२ ॥ इति पतो वा इरा. देशः। प्रा०१ पाद । स्वनामख्याते शुक्रप्रतिपदादिदर्शान्तरूपे ते, पाण। मासे, पाच०। चउकसायावगय-चतुष्कषायापगत-त्रि० । अपगतक्रोधादिक Page #1071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) चनक्कसायावगय अभिधानराजेन्द्रः। चनत्यभत्त पायो यः सः । दश० ८०१ उ० । क्रोधादिनिरोधकर्तरि, लोवे झोवणं ते अत्र,तेऽत्र,पटो अत्र पटोऽत्र,घटोअत्र,घटो. दश०८ भ०१०। ऽत्र, से तं लोवेणं से किंतं पगईए। पगईए अग्नी एतौ,पद घउकाल-चतुष्कास पुं० दिवसरजनिप्रथमचरमयामेषु , आव० इमो,शाले एते, माले इमे, से तं पगईए। से किं तं विगारेणं ?। ४०।" चउकालं सज्जायं करित्तए।" स्था०४ ग.१००। विगारेणं दएमस्य अग्रं-दएमाग्रं, सा भागता-साऽऽगता, चउकोण-चतुष्कोण-त्रि०। चतुरस्र, "सत्ताराओ मणिसु. दधि इदम् , दधीदम्, नदीइह, नदीह,मधु उदकम्-मधूदकम्, पलामो चउकोणाश्रो" चत्वारः कोणा यासां ताश्चतुष्कोणाः।। एतच्च विशेषणं वापीकूपान् प्रति अपव्यम । राजाजा। बधू गह-वधूह । से तं विगारेणं । से तं चनणामे । चउगइय-चतुर्गतिक-त्रि० । चतसृणां गतीनामन्यतमस्यां गतौ "से कितंचनामे" इत्यादि मागच्चतीत्यागमोऽन्वागमादिस्तेन विद्यमाने, पं० सं०५ द्वार । कच्छपे, पुं० । स्त्री हेमावाच निम्पन्नं नाम,यथा-"पद्मानीत्यादि""धुदस्वरादीसुः" इत्यनेनात्र स्वागमस्य विधानात । उपलक्षणमात्र वेदम-संस्कार उपस्कार चउगाउय-चतुर्गव्यूत-न । गज्यूतचतुष्टये, “चउगाउप जो इत्यादेरपि सुडाद्यागमनिष्पन्नत्वादिति । लोपो वर्णापगमरूपपणे पस।" स.४ सम• । स्तन निष्पन्नं नाम-यथा तेऽत्रेत्यादि "पदोत्परः पदान्ते" इत्यादिचनगुरुग-चतर्गरुक-पुं० । चत्वारश्च ते गुरुकाश्चतुर्गुरुकाः। ना अकारस्येद मुप्तत्वात नामत्वं चात्र तेन तेन रूपेण नमनास्ते "मायरियगिझाणवच्चलं ण करेति चउगुरुगा, पत्तेयं खमगस्स इति व्युत्पत्तेरस्त्येवेतीत्थमन्यत्रापि वाच्यम । उपलक्षणं चेदमपाहुणगस्स बच्चनं ण करेति चउबहुगा।"नि००१ उ०। मनस् ईषा-मनीषा बुद्धिः ।भ्रमतीति भ्ररित्यादरपिसकारमकाचनचलणपश्हाण-चतुश्चरणप्रतिष्ठान-पि० । चतुर्भिश्चरणैः रादिवर्णलोपेन निष्पन्नत्वादिति । प्रकृतिः स्वभावोवर्णलोपाचप्रतिष्ठिते, "चउचलणपश्टाणा, गोहिया पंचमं सरं । माउंघरो नावः,तया निष्पन्नं नाम,यथा-अग्नी पतावित्यादि "द्विवचनमनौ" य धेवययं,मदानेरी यसत्तम॥२॥" चतुर्भिश्चरणैः प्रतिष्ठान नुवि श्त्यनेनात्र प्रकृतिभावस्य विधानात् । निदर्शनमा चेदम्-सरसि. यस्याः सा । स्था० ७ ठा० । अनु० । जं, कपडे कालःइत्यादीनामपि प्रकृतिनिष्पश्चत्वादिति। वर्णस्याघउचामरवालवीइयंग-चतुश्चामरबालवीजिताङ्ग-बिलाचतुर्णी न्यथानाचापादनं धिकारः, तेन निष्पन्नम्-दएमस्याग्रं,दएमाप्रमिचामराणां बाबीजितमहं यस्य स तथा । चामरचतुष्ककेशै. स्यादि।"समानःसवणे दीपो भवति" इत्यादिना दीर्घत्वसवणस्य जितविग्रह, भ०७ श. ६०० वर्णविकारस्येह कृतत्वात,उदाहरणमात्रं चैतत् , तस्करःपोमशेचनज्काइया-चतुायिका-स्त्री०। घटकस्य रसमानविशेषस्य स्यादेरपि वर्णविकारसिद्धत्वादिति। तदिह यदस्ति तेन सर्वेणापि नाम्ना भागमनिष्पनेन वा लोपनिष्पन्नेन वा प्रकृतिनिर्वृत्तेन वा चतुर्थभागमात्रे मानविशेषे, भ०७श००००। विकारनिष्पनेन वा भवितव्यम,मित्यादिनाम्नामपि सनिरुतत्वापर-चतये-त्रिः। "स्त्यानचतुर्थाथै वा" ॥८ ॥ ३३ ॥ एषु| भामचतर्धा"तजमाहित्यादि" aaaaa rti संयुक्तस्य गे वा भवति । प्रा० २ पाद । चतुर्णी पूरणः। संग्रहाचतुर्नामेदमुच्यते, "सेत्तं च उनामेति" निगमनम् ।अनु। येन चतुःसंख्या पूर्यते ताशे तुरीये, वाचक। चनतंतुय-चतुस्तन्तुक-न । तन्तुचतुष्टये , पश्चा०८ विषः। पउहाणपरिणामपज्जत्त-चतुःस्थानपरिणामपर्याप्त-नका चातुर. क्ये,जी०३प्रति०('चातुरक्कगोस्वीर'शब्द व्याण्याऽस्य वक्यते) चनतीस-चतविंशत-स्त्री०। चतुरधिकायो त्रिंशत्संख्यायाम, "चउतीसवुद्धवयणातिसेसपचे " चतुर्विंशडुकानां जि. चळणना-चतर्नेवति-खा। चतुरधिका नवतिसंग्यायाम , नानां (वयण ति ) बचनप्रमुखः सर्वस्वभाषाऽनुगतं वचनं " चढणासहस्साई,बप्पणहियं सयं कसा।" स० सम०। धर्मावबोधकरमित्यादिनाक्तस्वरूपा येतिशेषास्तान् प्रानो चनणयय-चतुर्नयक-नासंग्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दरूपनयचतुः | यः स तथा । औ०। एयोपेते, संग्रहादिनयचतुएयेन चिन्त्यमाने, नं०। चउत्थ-चतर्य- त्रिचतुःसंख्यापूर्वके चत्वरे, विपा. १० पठणाणोवगय-चतुर्मानोपगत-त्रि.। मतिश्रुतावधिमनःपर्याय-| ३० ज्ञानरूपकानचतुष्टयसमन्विते, चं०प्र०१ पाहुगरासाकेवलका- | चउत्थानत्त-चतर्थभक्त-ना केवलमेकं पूर्वदिने, उपवासदिने, नवर्जझानचतुष्कसमन्विते, भ०१०१००। चतुर्थ पारणकदिने भकं भोजनं पारहरतो यत्र तपसि तच्चचनणारीप्रोमिणण-चतुर्नार्यवमान-न। चतुःसंख्या नार्यः | तुर्थभक्तमा प्रवृत्तिस्तु चतुर्थभक्तशब्दस्यकोपवासे, स्था०३ स्त्रियः चतुर्नार्यः, तामिर्मजल्याभिः " भोमिणणं ति" भवमानं ग.३० पश्चा० । प्रोक्षणकं सोकशास्त्रासिकं चतुर्नार्यवमानं भवति । चतसृभिर्ना तेषु चतुर्थभक्त शायश्चित्तम्रीभिः क्रियमाणे प्रोखणके, पश्चा०८विव०। सहसाऽणानोगेण व , जेसु पमिक्कमणमभिहियं तेसु । बनणाम-चतुर्नामन्-न० । मागमादिचतुणकरिनिष्पने प्राजोगेण वि बहुसो, अइप्पमाणे य निधिगई ॥४४॥ मामिन, अनु। धावणमेवणसंघरि-सगमण किड्डाकुहावर्णास । से किंतं चनणामे। चउणामे चनबिहे पम्मत्ते। तं जहा-| उक्किगीयछलिय-जीवरुआईमु य चनत्था ॥ ४ ॥ प्रागमेणं सोवेणं पयईपणं विगारेणं से किं तं आगमेणं?। सहसाऽनाभोगः प्रागुक्तस्वरूपः, सहसाऽनाभोगेन वा येषु पा. भागमेणं पद्यानि पयांसि कुएमानि, सेतं आगमेणं सेकिता सितान्त्रित्तेषु सानकषु प्रतिक्रमणाई प्रायश्चित्तमाभिहितं तेषु सा Page #1072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४ए) चमत्थभत्त श्रनिधानराजेन्द्रः। चउडा मकेषु मध्ये भाभोगेनापि, कोऽर्थः?-जाननपि, बहुशः पुनयंदा जवान्त, हीनाधिक्येनेति शेषः । तथाहि-सकलाभिलाप्यवस्तु. सेवते अतृप्यन, अतिमात्र वा तदेवासेवते. तत्र सर्वत्र निर्विक- वेदितया य उत्कृष्टचतुर्दशपूर्वधरः,ततोऽन्यो हीन-हीनतरादिरातिकं प्रायश्चित्तम अनन्तरगाथायां जानतः पौनःपुन्यासेवायां गमे इत्थं प्रतिपदितः। तद्यथा-"अणंतभागहीणे या , असंखेजमायश्चित्तमुक्तम, सा च शैकस्य दुर्दान्तस्य संभवति, दुर्दा- भागहीणे वा, संखेजनागहीणे वा, संखेज्जगुणहीणे वा,असं. म्तम्भ धावनादिकमपि कुर्यात् ॥४४॥ अतस्तदर्थमाह-(धाव- जगुणहीणे चा, अणंतगुणहीणे था।" यस्तु सर्वस्तोकाऽभिलाग्य. थे ति) धावनमतिवेगन गमनं, मेपनं वरणमाधुचकन, स. वस्तुमायकतया सजघन्यः,ततोऽन्य उत्कृष्ट उत्कृष्टतरादिरप्येवं गर्भगमनम्-माबयोः कः शीघ्रगतिरिति स्पर्द्धया गमनं सम- प्रोक्तः । तद्यथा-"अणंतनागम्भहिए वा, असंखेजनागम्भाहए श्रेणिस्थितस्य पाऽयनं, क्रीडा सारिचतुरङ्गताद्याः (कुहावण वा संस्खेज्जन्नागम्नहिप वा संखळगुणब्नहिए या असंखेज्जगुत्ति) कुहविस्मापन, अदन्तस्य धुरादित्वादिनि "ईपिपन्थ्या- गन्जढिए वा, अणंतगुणभहिए वा।" तदेवं यतः परस्परं षट्सिविदिभिदिकारितान्तेभ्यो युः।" इति युप्रत्ययः । कुहनादिवि- स्थानपतिताश्चतुर्दशपूर्वविदः, तस्मात्कारणात् यत् सूत्रं चतुर्दस्मयकारिणी, दन्तक्रिया इन्द्रजालगोलकबेसनाद्याः, आदि- शपूर्वलकणं,तत प्रज्ञापनीयानां भावानामनन्तभाग एवेति । यदि शम्दात् समस्याप्रहेलिकादयो गृह्यन्ते, उत्कृष्टर्वकारपूबकः क. पुनर्यावन्तः प्रज्ञापनीया भावास्तावन्तः सर्वेऽपि सूत्रे निबद्धा लकलः, गातं गानं, छेक्षितं सिरिटतं तस्करसंझा, जीवरुतं म- भवेयुः,तदा तद्वेदिनां तुल्यतैव स्यात् ,नषट्स्थानपतितत्वमिति यूरमार्जाराकसारादिलपितम, प्रादिशब्दादजीयरुतम अरघ. भावः, इति गाथार्थः ॥ १४२ ॥ विशे० । शकटपाटुकादिशब्दरूपं, चः समुच्चये, पतेषु सर्वेषु शुक्रिक चतुर्दशपूर्विणो विकुर्वणाकचतुर्थम् ॥४५॥ जाता पजू णं ते ! चोद्दसपुची घडाओघमसहस्सं पाओ पउत्थभत्तिय-चतर्थनक्तिक-त्रिका केवममेकं पूर्वदिने दे उप- पडसहस्सं कडाप्रो कमसहस्सं रहाो रहसहस्सं उत्तावासदिने चतुर्य पारणकदिने भक्तं नोजनं परिहरतोयत्र तप ओ उत्तसहस्सं दंमारो दमसहस्सं अभिनिव्वदृत्ता सि तच्चतुर्थभक्तं, तपस्यास्ति स चतुर्थभक्तिकः। प्रवृत्तिस्तु चतुर्थभक्तशब्दस्य एकाद्युपवासे इति । स्था० ३ ० ३ उ० । उपदंसेत्तए । हंता पनू । से केणटेणं पनू चोदसपुची एकान्तरोपवासिनि साधौ, कल्पकण। जाव उवदंसेत्तए । गोयमा! चोदसपुब्बिस्स णं अणंताई चउत्थी-चतुर्थी-स्त्री० । चन्द्रस्य चतुर्थकलायाः प्रवेशनि- | दवाई उकारियाभेएणं जिज्जमाणाई लछाई पत्ताई गमनरूपक्रियात्मकतिथी,व्याकरणोक्तेषु ' भ्याम्भ्यस्'इति भाभिसमयागयाई नवंति, से तेएटेणं जाच ग्वदंसित्तए, प्रत्ययेषु च । बाच० । “चाउद्दसिं पनरसिं च,जिज्जा अटर्मि च सेवं भंते भंते ति॥ भवामि चाचि चचत्थि च,वारसिं च पुण्डंपि पक्खाणं ७। (घडामो घडसहस्सं ति ) घटादवधेघंटनिस्रां कृत्वा घटस२०प० प.ज्यो । विशे।"चउस्थी संपयावणे" संप्रदाने इसम (अभिनिवट्टित्ता) अग्निनिर्वर्त्य विधाय भुतसमुत्थलचतुर्थी । भनु । यथा-भिकवे भिक्कां दापयति ददाति वेति। ब्धिविशेषेण उपदर्शयितुं प्रभुरिति प्रश्नः । (नकारियानेएणं संप्रदानस्योपलकणत्वादेव- " नमःस्वस्तिस्वाहास्वधाऽसंघ ति) इह पुगलानां भेदः पञ्चधा भवति, स्खएकादिभेदात् । तत्र पस्योगाथ" ॥२॥३॥ १६ ॥ ति चतुर्थी भवति । स्थान खएममेदः खगमशो यो भवति झोष्टादेरिव, प्रतरभेदोऽभ्रपवा। नमो देवेभ्यः स्वाहा, अग्नये, इत्यादिषु संप्रदाने चतुर्थी टक्षानामिव, चूर्णिकाभेदस्तिलादिचूर्णबत, अनुतटिकाभेदोऽव. भवतीत्येके । अन्ये तु उपाध्यायाय गां ददाति इत्यादिम्वेव टतटभेदवत, सत्कारिकानेद एरण्डवीजानामिवति, तत्रोत्का. संप्रदाने चतुर्कीमिच्छन्ति । अनु। रिकादेन भिद्यमानानि (सद्धाईति) लब्धिविशेषात् प्रहचनदंत-चतुर्दन्त-पुं०। चत्वारो दन्ता अस्थ। ऐरावते इन्धगजे, | णविषयतां गतानि । (पत्ता ति) तत एव गृहीतानि (अनि. पाच । स्था। कल्प। सममागया ति) घटादिरूपेण परिणमयितुमारब्धानि, ततस्तैपउदसण-चतुर्दर्शन-न० । चतुर्णा दर्शनानां चक्षुरादीनां समा घंटसहनादि निवर्तयति, भादारकशरीरवनिर्वयं च दर्शयति हारे, दर्श। चक्षुर्दर्शनाऽचकुर्दर्शनावधिदर्शनकेवलदर्शनरूपे, जनानाम्, यह चोत्कारिकाभेद ग्रहणं तद्भिन्नानामेव व्याणां कर्म०२ कर्म। वियक्तितघटादिनिष्पादनसामर्थ्यमस्ति, नान्येषामिति कृत्वेति ॥ पउदेवसण-चतुर्देवसेन-पुं० । “जम्हा देवा सेणं, पडियम्गीच भ०५ श० ४००। चउद्दह-चतुर्दश-त्रि०।" संख्यागद्देरः"॥ १२६ पुश्वसंगश्या। ताहे चउदेवसेणो, देवासुरपूजितो नाम" ॥४॥ बिमलवाहननाम्नि तीर्थकरे, तिः । संख्यावानिनि गादशब्दे च दस्य रो भवति । इह असंयुक्त स्येवेत्युक्तेनेह ! प्रा०१पाद । चतुरधिकदशसंख्याजेदे, तत्संचउद्दसपुन्धि-चतुर्दशपूर्विण-पुलाचतुर्दश पूर्याणि विद्यन्ते यस्य, स्याते पदार्थे च । वाचः। तेनैव तेषां रचितत्वात,असौ चतुर्दशपूर्वीः। श्रुतकेपलिनि, च. प्र.१ पादु । जंक चतुर्दशपूर्विणः पदस्थानपतित्यम । नि० चउद्दिस-चतुर्दिक-न० । दिकचतुष्टये, “माणसुत्तरस्सणं 4५०१५ १० । बिशे। व्ययस्स चचहिसिं चत्तारि कूमा पसत्ता" चतसृणां दिशा समाहाश्चतुर्दिक, तस्मिंश्चतुर्दिशि,अनुस्वारः प्राकृतत्वात्। स्था. जं चोइस्सपुन्वधरा, छट्ठाणगया परोप्परं होति । १ ठा०१०। तेण उभर्णतजागो, पन्ननणिजाण जंमुत्तं ॥१४॥ चना -चतुको-अव्य० । प्रकारे धा च । चतुष्पकारे, यद्यस्मात्कारणाचतुर्दशपूर्वधराः पद्स्थानपतिताः परस्परं । पाच । पञ्चा २६३ Jain Education Interational Page #1073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - चनघालय अभिधानराजेन्द्रः। चनवग्ग पउधान्य-चतुर्धातुक-त्रि० । चतुर्भिधातुभिनिष्पन्ने, मूत्र। चउप्पद-चतुष्पद-पु.। चत्वारि पदानि पादा येषां ते। स्था.१० बौद्धाश्चतुर्धातुकमिदं जगदाहुरित्येतदर्शयितुमाह- ग. । अध्यादौ, नि० चू० ३ उ•। चतुष्पदा दशधा-"गावी मपुढवी आन तेऊ य, तहा वाऊ य एगो । हिसी उठी, अय एलग पास आसतरगा या घोमग गद्दभ हत्थी, चचप्पदा होति दसधा उ॥" नि.चु.२उ०। पते प्रतीता नवरचत्तारि धानणो रूवं, एवमाइंसु अञ्चटे ॥१०॥ मस्यां वाहीकादिदेशोत्पन्ना जात्या अश्वाः, अश्वतरा वेगसरा पृथिवीधातुरापश्च धातुस्तथा तेजो वायुश्चेति, धारकत्वात्यो- अजात्या घोटकाः। घ.२ अधि. श्राचा.स.पा.चू०। पकत्वाच्च धातुत्वमेषाम् । (एगन त्ति) यदेते चत्वारोऽप्येका सूत्र. । विशे।दश। श्राव•। अमु.। कारपरिणति बिनति कायाकारतया, तदा जीवव्यपदेशमश्नुबन्तः। तथा मोचुः-चतुर्धातुकमिदं शरीरं, न तन्नतिरिक्त चतुष्पदमाहमात्माऽस्तीति । (एवमाहंसु अञ्चटेत्ति) अर्चटा बौद्धधिशेषा गावी मडिसी नट्ठी, अय एलग आस आसतरगा य। एवमाहुरभिहितवन्त इति । क्वचित् "जाणगा" इति पाठः। घोमग गद्दह इत्यी, चप्पयं होइ दसहा उ ॥ २३ ॥ सत्राप्ययमर्थः-जानका इनिनो वयं किलेत्यभिमानाग्निदग्धाः गौमहिषी उष्ट्री अजा एडका अश्वा अश्वतराश्व घोटका सन्त पवमाहुरिति संवन्धनीयम्। अफलवादित्वं चैतेषां क्रियाक- गईमा हस्तिनश्चतुष्पदं भवति दशधा तु । पते गवादयः ण पव कर्तुः सर्वात्मना नष्टत्वात क्रियाफलेन सम्बन्धाभाघादव- प्रतीता पध,नवरमश्वा वाहिकादिदेशोत्पन्ना जात्याः, अश्वतरा सेयम् । सूत्र.१७०१०१ उ०।(अस्मिन्नव भागे ७०५ पृष्ठ वेगसरा अजात्या घोटका इति गाथार्थः । दश०६ भ.। 'स्वणिय' शब्दे वाणिकत्वं निराकृतम) तदेवं क्षणिकस्य विचारा. चनबिहा चउप्पया पएणत्ता । तं जहा एगखुरा दुखुरा कमत्वात्परिणामानित्यपक एव ज्यायानिति । एवं च सत्यात्मा परिणामी ज्ञानाधारो भवान्तरयायी जूतेन्यः कश्चिदन्य एव गंमीपदा सणहपदा। शरीरेण सहायोऽन्योऽन्यानुवेधादनन्योऽपि । तथा सहेतुकोऽपि चतुष्पदा स्थलचरपञ्चेन्छियतिर्यञ्चः, एकः खुरः पादे पादे येषां नारकतिर्यमनुष्यामरभवोपादानकर्मणा तथा तथा विक्रियमा- ते एकखुरा अश्वादयः, एवं द्वौ खुरौ येषां ते तथा तेच गवादयः, णत्वात् पर्यायरूपतयोति,तयाऽत्मस्वरूपाप्रच्युतनित्यत्वादहेतुको- गएमी सुवर्णकारादीनामधिकरणी गरिमका, तद्वत्पदानि येषां ऊपीति। प्रात्मनश्च शरीरव्यतिरिक्तस्य साधितत्वाच्चतुर्धातु- तेतथा ते हस्त्यादयः (सपहप्पयत्ति) सनखपदा नास्त्ररासिंहा. कमानं शरीरमवेदमित्येतदुन्मत्तमलपितमपकर्णयितव्यमित्यलं दयः। स्था०४ ग.४ उ.प्ल ववादिषु करणेषु नवमे करप्रसनेनेति । सूत्र० १ श्रु०१ अ० १ उ० । णे, सूत्र०१ १०१०१०।"श्रमावासाए दिवा चप्पयं" चनपत्थ-चतुष्पस्थ-न० । चत्वारःप्रस्थाः समाहुताश्चतुष्प्रस्थ अमावास्यायां दिवा चतुष्पदं करणम् । श्रा० म०प्र०। म । बाढके , तोल्यत्वचिन्तायां पञ्चाशत्पलेषु , ज्यो०२पाहु० । प्रा००। विशे। चनपाल-चतुष्पास-न० । 'चउपासका'ऽभिधानप्रहरणकोशे । m-10'चपासकाऽभिधानपण चउप्पयथायरपचिंदियतिरिक्खजोणिय-चतुष्पदस्थलचर" सूरियाभस्स देवस्स चउपाले णामं पहरणकोसे।" रा० ।। पश्चन्धियतिर्यग्योनिक-पुं० । चत्वारि पदानि पादा येषां तेच. चउपुरिसपचिजत्तगइ-चतुष्पुरुषपविजक्तगति-स्त्री० । चतुर्धा तुष्पदास्ते च ते,स्थ चरन्तीति स्थलचराश्चेति चतुष्पदस्थपुरुषाणां प्रविभक्तगतौ , प्रज्ञा.। सचरास्ते च ते पञ्चन्छियाश्चेति विग्रहः , पुनस्तियम्योनिकासे किं तं चउपुरिसपवित्जत्तगती । चनपरिसपविभत्तग चेति कर्मधारयः । स्थलचरपञ्चेन्जियतियंग्योनिकनेदेषु, स्था०१० ठा० । सूत्र० । (एषामाहार 'आहार' शब्दे द्वितीती से जहानामए चत्तारि पुरिसा समगं पज्जवडिया यजागे ४९६ पृष्ठे उक्तः) समग पहिता , पिसम पहिता विसमं पज्जवट्ठिया , सेतं चनप्पयविहिपरिमाण-चतुष्पदविधिपरिमाण-त्रि०।चउपुरिसपविजत्तगती। नुष्णदानामुपभोगपरिमाणे, उपा. १०('आणंद' शब्दे चतुर्धा पुरुषाणां प्रविनक्तगतिः चतुष्पुरुषप्रविनक्तगतिः, तब-| द्वितीयभागे १.६ पृष्ठे सूत्रं अष्टव्यम) तुर्धात्वस् " रामगं पज्जवध्यिा" इत्यादिना शेयम् । प्रशा० चनप्पया-चतुष्पद्या-स्त्री-। पीपीपूर्णिमायाम, चतुष्पद्या पौरुषी १६ पद। चउप्पइया-चतुष्पादिका-स्त्री । नुजपरिसर्पिणीभेदे, जी. २ स्यात् । चतुर्भिः पदैगम्यमाने दिनप्रहरे, उत्त० २६ अ०। प्रति । चनप्पदी-चतुष्पदी-स्त्री० स्थलचरतियगनीभेदे,“से किंतं चवपदीओ ? । चप्पदीयो चउबिहारो पम्मत्तानो । तं चउपज्जाप-चतुष्पर्याय-त्रि. । चत्वारः पर्यायाः नामाकारद्रव्य जहा-एगखुरीश्रो० जाव सम्प्पईयो।" जी• २ प्रति । भावलक्षणा यत्र तच्चतुष्पर्यायम् । नामादिचतुर्विधनिक्षेपनि चतुश्चरणात्मके पद्ये, वाच. । क्षिप्ते , विशे.('निक्खेव 'शब्देऽस्य व्याख्या द्रष्टव्या) घउप्पमोयार-चतुष्पत्यवतार-त्रि०। चतुर्यु भेदनकणालम्बनान-चप्पुमय-चतुष्पुटक-न । चतुर्भिः पुटकैरुपेते, " सयमेव चप्रेकालकणेषु पदार्थेषु प्रत्यवतारः समवतारो विचारणीयत्वे. उप्पुमयं दारुमयं । " भ• ३ श. उ.। न यस्य तश्चतुर्विधप्रत्यवतारम् । भ. २५ श.एउ.ग. चिउबग्ग-चतुवेग-j• चतुर्णा वर्ग, आचा• २ . २० । स्था । "चउपडोयारं नाम एकेकं तत्थ चउब्विदं " चतर्णी धर्मार्थकाममोक्काणां वर्गः समुदायः। धमार्थकाममोकेषु नि• • ४०.।. चतुर्ष पुरुषार्थेषु, वाच । Jāin Education International Page #1074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाग पादे चतुर्थी,स्था ३४ चभाग चतुर्भागचतुव्य- चतुर्भुज - पुं० । चत्वारो भुजा दस्ता श्रस्य । नारायणे, चादण तो जखमी, चडम्भुवपुत्तमम्भुचमणग्धं " ॥ सूत्र• १० ३ श्र० १३० । भंग-पुं० चतुङ्ग श्री वामतः समासाच्चतुङ्गी, चतुर्भङ्गं वा लिङ्गता चात्र प्राकृतत्वात् । चतुर्षु नङ्गेषु "सु णामं एगे सुद्धे, सुद्धे णामं एगे असुद्धे, असुदे णामं एगे सुद्धे, असुके णामं एगे श्रसु चनभंगो" स्था• ४ ० १ ३० । परजाइया चतुर्जागिका श्रीमाणिकावर गवार्ता चतुष्पमानागिका माणिकायाश्चतुर्भागवर्तिनि रसमानविशेष, अनु० । चनमाट्टया-चतुर्मृत्तिका-स्त्री० । चैलेन कुट्टितायां मृत्तिकायाम्, " सह माया कुट्टिया चचमडिया" नि० ० १०४० मट्टिया । लोलोचपुं चतुर्मुरिकलोचे कल्प 1 - - प्रयोगवरपाववस्त्र अ० नाव सयमेव चउमुहि सायं करे। करदेता डेनचे अपाय घासादादि नक्सस जोगमुत्रागएवं उग्गाणं भोगाणं राइमाणं खचियाणं चहहिं सहस्ोहि सार्द्ध एवं देवदुसमादाय मे भविता अगाराम्रो अणगारियं पव्व ॥ २११ ॥ अशोकवृक्षस्य भावाने लोखं करोति चतसृभिक्षोंचे कृते सति अवशिष्टाम् एकां मुष्टियुचयोः स्कन्धयोरुपरि लुन्तीं कनक कलशाचे राजमानां नीलकमलमलामि विलोक्य च श कस्य श्रप्रहेण रक्षितवान् " बणं " इत्यादि सुगमम् ॥२११॥ कल्प● ७ कण० । (१०५१) अनिधानराजेन्थः । मुमुख० कारि मुखान्यस्य चतुरानने वेपसि, चतुद्वारे गृहे, नग चतुर्षु मुखेषु, त्रि० औषधभेदे, पुं० वाच तुमुखे पथि यस्माच्चतुष्यपि दिधु पन्यानो निस्सरन्ति । श्रा० म० प्र० । जी० । चतुर्द्वारे देवकुलादौ, औ० भ० । कल्प० । स्था०] श्राचा० अनु० ज्ञा० स्वनामस्याने पाटलिपुत्रस्य शकि, "यं पयं च नयरं, पाडलिपुत्तं तु विस्सुयं लोए । पत्थं होई राया, चउम्महो नाम नामेणं ॥ " का० १ ० १ अ पातुरन दिनश्ये घाया० २५०३०० चर - चतुर- त्रि० ब० व० चत् तरन् । चतुः संख्यायाम्, चतुःसंख्यासमन्विते च । 1 चतुरशब्दस्य निशेषःनाम उचणा दविए, खेचे काले व गणण जावे य निक्खेवो य च एदं, गणनासंखाऍ अहिगारो ॥ उत्त० ३ अ० । - नामस्थापनेचे इन्ये विनायें सचितावित मिश्राणि द्रम्याणि चतुःसंयता विहितानि चतुः संख्यापरि चिना आकाशदेशा यत्र वा चत्वारो विचार्यते, काले च चत्वारः समयावलिकादयः कालभेदाः यदा चामी व्याख्यायन्ते गणनायां चत्वार एको द्वौ त्रयश्चत्वार इत्यादि, गणनाऽन्तःपा चतरंग तिनः, भावे चत्वारो मानुषत्वादयोऽजिधास्यमाना जावाः। एषां मध्ये नाधिकारः उच्यते गणना संययाऽधिकारः किमुकं भवति -गणना चतुर्भिरधिकारस्तैरेव पक्ष्यमाणानामङ्गानां गण्यमानतया तेषामेवोपयोगित्वादिति गाथार्थः ॥ उत्त०३ श्र० । "रंगुल सुप्यमाणकंबुरसरिसम्गीया" चतुरङ्गल सुठु प्रमाणं यस्याः सा तथाविधकम्बुवरसदृशी चान्नततया वलित्रययोगाच्च प्रधानशङ्खसदृशी ग्रीवा कण्ठो यस्य तथा । जी० ३ प्रति । पुं० [पकवतो स्तिशालायां च कार्यद दो आपने निपुणे च वि० नायकभेदे, पु० चतुर-अय् चतुःसंख्याविशिष्टे विबाच " । " कंसी गायद मंडुर केसी गाय खरं च रुक्खं च । केसी गाय चचरं, केसि विलंवं दुतं केसी ॥ " स्था० ७ aro " चनरंग- चतुरङ्ग - न० • । चत्वारि चतुर्गुणितानि ( उत्त• ३ ० ) अङ्गानि मनुष्यादिजावाङ्गानि, (उत्त० ४ अ०) तेषां समाहारः मानुष्यमंश्रुतिश्रद्धातपःसंयमची चतुष्टयपे ०३ मोकोपायसाधने, उत्त० ३२ अ० । नाती गीतो, चउरंगं सव्वलोयसारंग | नम्पिय चठरंगे, न हु मुसई को चरं । अगीतार्थी निर्यापकः, तस्य कृतभक्तप्रत्याख्यानस्य चतुर चतुर्णामङ्गानां समाहारा कथंभूतमित्याह-स लोकसारा प्रधानामेत्यनर्थान्तरम, सर्वेषाम पि त्रयाणामपि लोकानां यानि श्रङ्गानि तेषां सारमिति । विशिष्ट प्रधानं सर्वलोकसारीणचतुरनन यं जवति चतुरङ्गम्, किं तु खुल्लकादिदृष्टान्तैरतिशयेन दुष्प्राव्यं ततोऽगीतस्य समीपे भक्तं न प्रत्यारूपेयम् ॥ किं पुसा संचरंगे में नहं दुखनं पुरखो हो । मार्क्स धम्मसुती सका तवसंजये चिरियं ॥ किंत चतुरयन सत् न भवति । सू रिह मानुष्यं मानुषत्वं धर्मश्रुतिः धर्म्मश्रवणं, श्रद्धा, तपसि संयमे च वीर्यमिति । व्य० १ ० । अङ्ग श्र०म० उ० । चचारि परमंगाणि लहाणी अंतुगो । माणुसत्तं सुई सन्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥ १॥ "बचारि " इत्यादि । वारि चतुःसंयानि परमा च तानि प्रत्यासनोपकारित्वेन अनि मुक्ति मानि परमानि मानि दुःखेन लभ्यन्त इति कृत्या दुध्याध्यापि हास्मिन् संसारे, कस्य है, यति जन्तु स्तस्य देहिन इत्यर्थः । पठ्यते च देहिन इति । कानि पुनस्तानि ?, मनास शेते मानुषोऽथवा मनोरपत्यमिति वाक्ये "मनोज ४११६१इति गमे च मानुषत्यमनुना पति या चार्थकरणादिभ्यः सामान्यशब्दा श्रपि विशेषेऽवतिष्ठन्ते इति न्यायाद्धपिता संयमे आश्रयविरम वाचात्मनः समुतविशेषे र्तयति श्रात्मानं तासु तासु क्रियास्थिति वीर्ये च सामर्थ्य विशेषम् इति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ तत्र मानुषत्वं दुर्लभं तदर्शयितुमाहसमाजमा या संसारे, नाणागोचामु जासु | Page #1075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०५२) चनरंग अभिधानराजेन्मः। चनरंग कम्मा नाणाविहा कह, पुढो विस्संजिया पया ॥ ॥ । “बोकसो " धर्मान्तरनेटः । तथा च वृक्षाः- “भणसुद्दीमो जाओ निसातो ति वुति , पंत्रणेण वेसीप जाम्रो अंधतो समन्तादापन्नाः प्राप्ताः समापन्नाः । 'ण' इतिवाक्यालङ्कारे। के। स्याह-संसारे, तत्रापि क्व, मानेत्यनेकार्थो,गोत्रशब्दश्च नामपर्या ति बुच्चति, तत्थ निसारणं जो अंचट्रीए जामो सो घोक्सो भवति।"इच कत्रियग्रहणामुत्तमजातयः, चएमालग्रहणालीपः, ततो नानागोबास्वनेकाभिधानासु जायन्ते जन्तव आस्वि. चजातयः, "वोकस"प्रहणाथ सङ्कीर्णजातय उपलविताः,ततः ति जातयः क्वत्रियाद्याः, तासु । अथवा-जननानि जातयः, ततो मानुषत्वादुकृत्येति शेषः, कीटःप्रतीतः,पतङ्गःशलनाचःसमु. जातिषु क्वप्रियादिजन्मसु नानाहीनमध्यमोत्तमभेदेनानेक गोत्रं चये, ततस्तको वा(कुंथुपिपीलिकत्ति) चशब्दस्य मुप्तनिर्दिपासुतास्तथा तासु। अत्र हेतुमाह-क्रियन्त इति कर्माणि,झाना एत्वात्कुन्थुः पिपीलिका च, नवतीति सर्वत्र संबध्यते। शेषपरणादीनि, नानाविधानि अनेकप्रकाराणि, कृत्वा निर्यय॑. (पुढो तिर्यग्भेदोपक्षतणं चैतदिति स्त्रार्थः॥४॥ त्ति)पृथकर भेदेना किमुक्तं भवति?,एकैकशः(विस्सभियत्ति) विशेरलाक्षणिकत्वात् विश्वं जगद् विभ्रति पूरयन्ति कचित् क किमित्थं पर्यटन्तस्ते निर्विधन्ते ,न घेत्याहदाचित्पस्या सर्वजगद्व्यापनेन विश्वभृतः । नक्तंच-"ण. एवमावट्टजोणीसु, पाणिणो कम्मकिविसा । स्थि किर सो पएसो, लोए वालग्गकोमिमतोधि । जम्मण. ननिन्बिजति संसारे, सबहस य खत्तिया ॥५॥ मरणाबाहा, जत्य जिपहिं न संपत्ता" ॥१॥ इदमुक्तं भवति-अ. कम्मसंगेहि संमूढा, इक्खिया बहुवेयणा । पाध्यापि मानुषत्वं स्वकृतविचित्रकानुनायतः पृथग्गतिभागिन्य एव भवन्ति, का?,प्रजा जनसमूहरूपाः, तदनेन प्राप्तमनु प्रमाणुसासु जोणीसु, विणिहम्मति पाणिणो ॥६॥ व्यत्वानामपि कर्मवशाद्विविधगतिगमनं मनुध्यत्वं संभहे पषममुनोक्तन्यायेन,आवर्तनमावर्तः परिवर्तइति योऽर्थो युवन्ति तुरुक्तः । यद्वा-संसारे कर्माणि नानाविधानि कृत्वा पृथ- मिश्रीभवन्ति कार्मणशरीरिण औदारिकादिशरीरैराशु जन्तवो गिति भिन्नासु नानागोत्रास्यनेककुलकोटघुपमक्षितासु जातिषु युपते सेवन्ते ता इति वा योनय पावतॊपलक्विता योनय. देवाद्युत्पत्तिरूपासुसमापन्नाः संप्राप्ताः,घर्तन्त इति गम्यते। "" | स्तासु,प्राणिनो जन्तवः, कर्मणोक्तरूपेण,किल्विषा अधमाः कर्मइति प्राग्वदविधम्मिताः सजातविधम्नाः सत्यः, प्रक्रमाकर्म- किरिधषाः, प्राकृतत्वाद्वा पूर्वापरनिपातः। किस्विषाणि क्रिष्टतया स्वेव तद्विपाकदारुणत्वापरिकानात्। का?-प्रजायन्ते इति प्रजाः | निकृष्टधायशुजानुबधीनि कर्माणि येषां ते किल्विषकर्माणोन नि. प्राणिन इति सम्बन्धः। तदनेन प्राणिनां विविधदेवादिभवनव- विद्यन्ते कदैतद्विमुक्तिरिति नोद्विजन्ते, क आवर्तयोनय इत्याहमूलत एव मनुजत्वदुर्भन्नत्वे कारणमुक्तमिति सूत्रार्थः ॥ २॥ संसारे भवे, केविव के न निर्विद्यन्ते इत्याह-सर्वे च तेऽर्धाय भमुमेवार्थ भावयितुमाह मनोकशब्दादयो, धनकनकादयो या सर्वार्थास्तेविव, क्षत्रिया राजानः। किमुक्तं भवति?-यथा मनोकान् शम्दादीन शुजानानां एगया देवलोएम, नरएस वि एगया। तेषां तदर्थोऽमिवर्धते, पवं तासु योनिषु पुनरुत्पत्या कलङ्कली. एगया आसुरं कायं, आहाकम्भेहि गच्छइ ॥३॥ भावमनुभवतामपि भवाभिमन्दिनां प्राधिनामिति, कथमन्य था न तत्प्रतिघातार्थमुघच्युरिति भावः। पागन्तरंथा-"सबक (एकदेति ) एकस्मिन् शुभकानुभवका दीव्यन्ति देवाः, श्य स्खतिय ति" वो भिनमः, ततः सर्वैः शयनादिनिरर्थः तेषां सोका उत्पत्तिस्थानानि देवगत्यादिपुण्यप्रकृयुदयविषय प्रयोजनमस्येति सर्वार्थः, क्वत्रियः, स चार्थाद्वाराज्यः, तत्ततो तया सोक्यन्ते इति कृत्वा तेषु देवलोकेषु,नरान् कायन्ति योग्य- यथाऽसौ न निर्विद्यते अर्थात्सर्वार्थान्प्रार्थयमानः, तथैतेऽपि प्रा. तयाऽऽयन्तीति नरकाः, तेषु रत्नप्रभादिषु नारकोत्पत्ति णिनः सुखान्यभिमपन्तः,अनिर्विधमानाश्च कर्मनिनावरणीयास्थानेषु, भपिशब्दस्य चार्थत्वात् तेषु चैकदा गुजानुभवकाले,त. दिभिःसन सम्बन्धाः कर्मसंयोगास्तैः,यवा-कर्माण्युक्तरूपाणि, पैकदा तथाविधभावनाभावितान्तःकरणावसरे,असुराणामय. तक्रियाधिशेषात्मकानि वा, तथा सज्यन्तेऽमीषु जन्तब इति मासुरस्तमसुरसम्बन्धिनं, चीयत इति कायः, निकायमित्यर्थः। सङ्गाः,शब्दादयोऽभियङ्गविषयाः,त एव च कर्माणि च साश्च बालतपःप्रभृतिरपि तत्प्राप्तिरिति दर्शनार्थ देवसोकोपादानेऽपि कर्मसङ्गास्तैः. समितिभृशं मूढाः वैचित्र्यमुपगताः संमूदा:पुनरासुरकायग्रहणम । अथवा-देवलोकशब्दस्य सौधादिषु समसातात्मकं जातमेषामिति दुःखिताः । कदाचितन्मानसमे. कढत्वात्तदुपादानमुपरितनदेवोपनकणमिदं चाधस्त्यदेवोपक्षकणमिति न पौनरुक्षम (माहाकम्मेहि ति)प्राधानमाधा करण व स्यादत पाह-बहुवेदना वेदनाः शरीरव्यथा येषां ते तथा, मित्यर्थः। तदुपलक्षितानि कर्माण्याधाकम्माणि, नैः किमुक्तं भ मनुष्याणामिमा मानुष्याः, न तथाऽमानुष्यास्तासु नरकतिपति-स्वयं विहितैरेव सरागसंयममहारम्भासुरजावनादिनि र्यगाभियोग्यादिदेवदुर्गतिसंबन्धिनीषु , योनिष्वभिहितरूपासु, देवनारकासुरगातिहेतुभिः क्रियाविशेषैर्यथाकर्मभिर्या तत्त बिहन्यन्ते विशेषेण निपात्यन्तेऽर्थात् कर्मभिः कोऽर्थो न तत उत्ता. लभन्ते, प्राणिनो जन्तवः,तदनेन सत्यप्यावर्ते निदानगवात्कप्रत्यनुरूपचेष्टितर्गच्छन्ति यान्ति । इति सूत्रार्थः॥ ३॥ मंसनसंस्तवात् दुःखदेतुर्नरकादिगत्यनुत्तरणन प्राणनो मनुजएगया खत्तिो होइ, तो चं नानोक्कसो। त्वं न लभन्त इत्युक्तमिति सूत्रद्वयार्थः॥५॥६॥ तत्री कीमपयंगोय, तो कुंथुपिपीलिया ॥४॥ कथं तर्हि तदवाप्तिरित्याह(एकदेति ) मनुष्यजन्मानुरूपकर्मप्रकृत्युदयकाले, (खत्तिय त्ति ) 'क्षण' हिंसायाम् । कणनानि कतानि, तेभ्यस्त्रायत कम्माणं तु पहाणाए, आणुपुची कयाइन। इति क्षत्रियो राजा भवति; तत इति तदन्तरं तको वा प्राणी जीवा सोहिमणुप्पत्ता, प्राययंति मणस्सयं ॥७॥ चपमानःप्रतीतः । यदि वा-शुओण ग्रामपयां जातश्चएमाल, कर्मणां मनुजगतिनिबन्धकानां तुः पूर्वस्माविशेषयोतकर, Page #1076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०५३) चरंग अभिधानराजेन्छः। चमरंग पति प्रकृष्ट हानमपगमः प्रहाणं, तस्यायो लानः प्रहाणायः, भाऽतिशयपुरापा।कुतः पुनः परमपुज्ञजत्वमस्याश्त्याह-श्रुत्वामसस्मिन् । यद्वा-सूत्रत्वात्प्रहाणौ प्रदान्या वा तद्विवन्धकानन्ता- कार्य, न्यायेन चरति प्रर्वते नैयायिको, न्यायोपपन्न इत्यर्थः । नुबन्ध्यादिकर्मसु प्रहीणेषु कुतश्विदीश्वरानुप्रदादेस्तदप्राप्तः, स्वं मार्ग सम्यग्दर्शनाचात्मकं मुक्तिपथं प्राप्तमपि, बहवो नैक अन्यथा दि तवैफल्यापतिः अनेन "मको जन्तुरनीशोऽय-मात्म | एव, परीति सर्वप्रकारम ( भस्सहति)भ्रस्यन्ति च्यवन्ते, प्रमः सुखपुःखयो। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्,स्वभ्रं वा स्वर्गमेव था।" क्रमानैयायिकमार्गादेव, यथा यमालिप्रभृतयो, यच्च प्राप्तमप्य॥ श्स्यपास्तं भवति । अथ कथं पुनस्तेषां प्रहारिणरित्याह-मानु. पैति तच्चिन्तामणिवत्परमसंनमेवेति भावः । इहैव केचिपूर्व्या क्रमेण, न तु झगित्येव, तयाऽपि (कयाइ उनि)तुशब्द. मितववक्तव्यतां व्याख्यातवन्तः, उचितं चैतदप्यास्ते पति स्यैवकारार्थत्वात्कदाचिदेव, न सर्वदा, जीवाः प्राणिन:-शुदि सूत्रार्थः ॥६ विष्टकर्मविगमारिमकाम 'अनु' तध्घिातिकम्मापगमस्य, एतत् त्रयावाप्तावपि संयमवीर्यदुर्लजत्वमाहपश्चात्प्राप्ताः, भाददते स्वीकुर्वन्ति मनुष्यताम । पागन्तरतः (आजायते मणुस्सयंति) सुष्प्रत्ययात् मनुष्यतायां तदेव तन्निव सुई च बच सकं च, वीरियं पुण दुलहं। कमनुजगत्यादिकम्मोदयादिति भावः। अनेन मनुजत्वानिबन्ध वहवे रोयमाणा वि, नो यणं पमिवज्जए ॥१०॥ ककर्मापगमस्य तथाविधकालादिसव्यपेकत्वेन दुरापतया मनु- श्रुति, चशम्दान्मनुष्यत्वम, (बद्धं ति) प्राग्लन्वाऽपि, कांच प्यस्वदुर्घनत्वमुक्तमिति सूत्रार्थः॥ ७॥ पीय प्रकृमात्संयमविषयं, पुनःशब्दस्य विशेषत्वात विशेषण कदाचिदेतदवाप्तौ श्रुतिः सुझजैव स्यादत माह मनम, यतो बहवो नैक पव रोचमाना अपि न केवसं प्राप्तमाणुस्सं विग्गई लई, सुई धम्मस्स उबहा। मनुष्यत्वाः शृण्वन्तो वेन्यपिशब्दार्थः । श्रदधाना अपि, (नो जं सोच्चा पमिवति, तवं खंतिमाहंसयं चेति) चशब्दस्यैवकारार्थत्वान्नैव, 'णं' इति वाक्यालङ्कारे। ॥ अथवा-(जो य णं इति) सूत्रत्वात् (नोयणं पविज इति) (माणुस्सं ति) सूत्रत्वान्मानुष्यकं मनुष्यसम्बन्धिनं विशेषणं तत एव प्रतिपद्यन्ते । चारित्रमोहनीयकर्मोदयतः सत्यकिगृह्यते.मात्मना कर्मपरतन्त्रणति विग्रहः तं मनुजगत्याधुपलाक रतन्त्रणति विग्रहः। तं मनुजगत्याचपसाक-णिकादिवन्न कर्तुमच्युपगच्छन्ति इति सूत्रार्थः॥१०॥ तमौदारिकशरीरम,(अर्बु ति) अगम्यमानत्वालवाऽपि श्रुति. संप्रति उर्जनस्यास्य चतुरङ्गस्य फसमाहकर्णनं कस्य धारयति, दुर्गती निपततो जीवानिति धर्मः । माणुसत्चम्मि पायाभो, जो धम्म सोच्च सरहे। .: तथा च वाचक: तबस्सी बीरियं लचं,संवुमे निष्णे रयं ॥११॥ "प्राम्सोकविन्मुसारे, साकरसन्निपातपरिपवित।। मानुषत्वे मनुजत्वे पायात प्रागतः, किमुक्तं भवति ?-मानुषधृ धारणार्थो धातु-स्तदर्थयोगाद्भवति धर्मः॥५॥ त्वं प्राप्तो य इत्यनिर्दिष्टस्वरूपो, य एव कभिकर्म श्रुत्वा (स. दुर्गतिभयप्रपाते, पतन्तमन्त्रयकरदुखंभप्राणे। दहे सिद्धते रोचते,(तपस्सिसि) दानादिविरहिततया प्रशसम्यक्त्वरितो यस्मादू, धारयति ततः स्मृतोधर्मः ॥२॥" स्थतपोन्वितः कथं, बीय संयमोद्योग सम्वा संवृतः स्थगि तस्यैषमम्वर्थनाम्नो धर्मस्य दुर्घना दुरापा प्रागुक्तानस्यादिहे. तसमस्ताधवः । स किमित्याद( निबुणे सि) नि नोति तुतः। सच-"मृद्धी शय्या प्रातरुत्थाय पेया,जकं मध्ये पानकं चाप नितरामपनयति, रज्यते स्वचस्फटिकवबुद्धस्वभावोऽप्याराहेद्राकाखएवं शर्करा चारा, मोश्चान्ते शाक्यपुत्रेण र स्माऽन्यथात्वमापद्यत इति रजःकर्म वध्यमानकं पयं च तदपपः" इत्यादि सुगतादिकल्पितोऽपि स्यादतस्तदपोहायाऽऽह-यं नयाच्च मुक्तिमाप्नोति इति भावः । उभयन “लिप्स्यमानसि. धम्मै भुत्वा प्रतिपद्यन्ते अङ्गीकुर्वन्ति तपोऽनशनादि बादशविध कौच" ५।३।१०। इति(हैम०)वा सट् । इह च श्रद्धानेन सम्यक्रमकान्ति क्रोधजयनकणं मानादिजयोपलक्षणं चैषा भहिंसयनि मुक्तं, तेन चकानमाक्षिप्त,दीपप्रकाशयोरिव युगपदुत्पादातो, अहिंस्रतामसिनशीलतामनेन च प्रथमवतमुक्तमेतच शेषवतो. तथा च " सम्यग्दर्शनकानचारित्राणि मोक्षमार्गः" इति न विक पक्षणम,पतत्प्रधानत्वाषाम,एतत्तुल्यानि दि शेषनतान्यवं ध्यत इति सूत्रार्थः॥१७॥ च तपसः कान्स्यादिचतुष्कस्य महावतपञ्चकस्य चाभिधानादशविधस्यापि यतिधर्मस्थानिधानमिह च यद्यपि भुतेः शाब्दं इत्यमामुष्मिकं फनमुक्तमिदानीमिहैव फलमाहप्राधान्यं तथापि तस्यतो धर्म एव प्रधान, तस्या अपि तदर्थ- सोही उज्जुयभूयस्स, धम्मो मुदस्स चिट्ठ। स्वादिति,स एव यच्छब्देन परामृश्यते । अथ च काक्वा मीयते निव्वाणं परमं जाइ, घयसित्त व पावए ॥ १॥ यम्णत् श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते तपःप्रभृतिना श्रुत्वा "सोचा जाणति शुभिः कषायकालुण्यापगमो, जवतीति गम्यते । फजुकभूतस्य कमाणं, सोचा जाणति पावगं" इत्यागमात् तत एवमतिम चतुरङ्गमाप्या मुक्ति प्रति प्रगुणीभूतस्य, तथा च धर्मः कान्स्याहार्यतया पुरापयमिति सूत्रायः ॥८॥ दिः, शुद्धस्य शुद्धि प्राप्तस्य तिष्ठत्यविचलिततयाऽऽस्ते इतिायाश्रुत्यवाप्तावपि श्रादुर्लजतामाह कस्य तु कदाचित् कषायोदयात्तद्विचलनमपि स्थादित्याशप्राइच सवर्ण लवं, सदा परमानुसाहा । यः,तदयस्थितौ च निर्वाणं निवृतिः,स्वास्थ्यमित्यर्थः परमं प्रकृष्टसोचा नेयानयं मग्गं, वहवे परिजस्सई ॥७॥ म्, " एगमासपरिवाए समणे वंतरियाणं तेयलेसं बीईव यति" इत्याद्यागमेनोक्तं नैवास्ते, राजराजस्य तत्सुखमिन्यादि. (मादति ) कदाचित् श्रतणं प्रक्रमावमाकर्णनम्, उपक नाच वाचकवचनेनानूदितं, याति प्राप्नोति, क श्व[धयसिजस्वाम्मनुष्यत्वं च लभ्वेति,अपिशब्दस्य गम्यमानत्वात सगवा-सेवत्तिवस्य भित्रक्रमत्वात्, घृतेन सित्तो घृतसिक्तः,पुनाऽप्यपाप्याऽपि,श्रका कचिरूपा, प्रक्रमाकर्मविषयैव, परमवलं. तीति पावकोऽग्निलोकप्रसिया,समयप्रसिद्ध्या तु पापहेतुत्वा Page #1077 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) चनरंग अभिधानराजेन्द्रः। चटरंग त्पापकः तद्वत सचन तथा तृणादिनिर्दीप्यते यथावृतेनेति,म. तियगादित्यस्यनावमा यदुक्तम्-"मन्यमाना अपुनश्च्यवनमिस्य घृतसिक्तस्य निर्वृतिरनुगीयते।ततः सविशेषणस्यास्य रस- ति"॥१४॥ सूत्रोक्तमेव हेतुंसूत्रकृदाह-'अप्पियेत्यादिना । अपिस्तत्वेनाजिधानमिति नावनीयम। यद्वा-निर्वाणमिति जीवनम- ताः प्राकृतसुकृतेन दौकिता श्व केषां काम्यम्तेऽभिलण्यन्त इति कि याति"निर्जितमदमदनानां वाकायमनोविकाररहितानां वि. कामाः देवानां कामाः देवकामा दिव्याङ्गनास्पर्शादयः। कामरूपम् निवृत्तपराशानामिहैव मोकः सुविहितानामिति" वचनात् । क. (विउब्विणोति) सूत्रत्वात् कामरूपविकरणा यथेष्टरूपानिनिवधंभूतः सन् घृतसिक्तपावक श्व तपस्तेजसोज्ज्वलितत्वेन घृत-| र्तनशक्तिसमन्विताः । कुर्वन्ति हि ते उत्तरवैक्रियाणि समवसरतर्पिताग्निसमान इति सूत्रार्थः । पठन्ति च नागार्जुनीया:-"च- णागमनादिषु तथा तथेति येऽपि प्रयोजनाभावान कुर्वन्ति तेषाउद्धा संपयं लद्ध, श्हव ताव भायते । तेयते तेजसंपन्ने, घयास- मपि शक्तिरस्त्येवेत्येवमुच्यते । ऊर्द्ध कल्पोपरिवर्तिषु अवेयकेषु से ब्व पावए ति"॥१॥ तत्र च-चतुर्धा चतुःप्रकारां संपदं संपत्ति | अनुत्तरविमानेषु च कल्पेषु सौधर्मादिषु, यदि वा-ऊर्फ उपरि प्रक्रमान्मनुष्यत्वादिविषयां लब्ध्वा, इहैव लोके तावत, प्रास्तां कल्पन्ते विशिष्टपुण्यभाजामवस्थितिविषयतयेति, सौधर्मादयो परत्र, भ्राजते मानश्रिया शोभते, तेजते दीप्यते तेजसा अर्थात्त- प्रैवेयकादयश्च सर्वेऽपि कल्पा एव तेषुतिष्ठन्ति प्रायुःस्थितिमपोजनितेन संपनो युक्तस्तेजः संपन्नशेषं प्राग्वदिति सूत्रा- नुपालयन्ति पूर्वाणि वर्षसप्ततिकोटिलकपदपश्चाशतकोटिसहथः॥१२॥ सपरिमितानि बहुनि, जघन्यतोऽपि पस्योपमस्थितित्वात नत्राइत्यमामुष्मिकमैहिकं च फलमुपदर्य शिष्योपदेशमाह-- ऽपि च तेषामसंख्येयानामेव संजवात्। एवं वर्षशतान्यपि बहनि पूर्ववर्षशतायुषामेव चरणयोग्यत्वेन विशेषतो देशनौचित्यविगिं च कम्मणो डेउं, जसं संचिणु खतिए । मितिख्यापनार्थमित्थमुपन्यास इति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ पाढवं सरीरं हिचा, जहूं किमई दिसं ॥ १३ ॥ तत्किमेषामेतावदेव फसमित्याशङ्कय पाह(विगिं च त्ति) पृथक कुरु, कर्मणः प्रस्तावान मानुषत्वादि. तत्थ विच्चा जहागणं, जक्खा आउखए चुया । निवन्धकस्य हेतुम उपादानकारणं मिथ्यात्वाविरत्यादिकम् । तथा-यशोहेतुत्वाद्यशः सञ्जयो विनयो वा यदुक्तम्-"एवं ध. उति माणुसं जोणि, से दसंगेऽनिजायए ॥१६॥ म्मस्स विणओ, मूलं परमों से मोक्खो।जेण कित्तिसुयं सिग्धं, तत्र तेषु उक्तरूपोत्पत्तिस्थानेषु स्थित्वेत्यासिस्वा यथास्थानमिति णीसेसंचाभिगच्छ"शति । तत्संचिनु भृशमुपचितं कुरु, कया? यद् यस्य स्वानुरूपमिन्दादिपदं तस्मिन् यक्का आयुःकये स्वस्व. कान्स्या उपलकणत्वान्मार्दवादिभिश्च, ततः किं स्यादित्याद जीवितावसाने च्युताः भ्रष्टाः ( उवेति त्ति) उपयन्ति मानुषा(पाढवंति) पार्थिवमिव पार्थिव शीतोष्णादिपरीषहसहिष्णुतया णामियं मानुषी तां योनिमुत्पत्तिस्थानम् । तत्र च "से" इति स समदुःखसुखतया च पृथिव्यामिव जवम् पृथिवी हि सर्वसहा सावशेषकुशलका कश्चिजन्तर्दशाङ्गानि भोगोपकरणानि कारणानुरूपं च कार्यमिति भावः । यदि वा-पृथिव्या विकारः वक्ष्यमाणान्यस्यति, दशाङ्गोऽभिजायते पकवचननिर्देशस्तु वि. पार्थिवः स चेह शैलः ततश्च शैलेशीप्राप्यापेक्वयाऽतिनिश्चलत- विसदृशशीलतया कश्चिद्दशाङ्गः कश्चिन्नवाङ्गादिरपि जायत इति या शैलोपमत्वात्परप्रसिद्ध्या वा पार्थिव शरीरं तनु हित्वा त्य- वैचित्र्यसूचनार्थः ॥ यद्वा-'से' इति सूत्रत्वात् तेषां दशाक्त्वा ऊर्द्धदिशमिति सम्बन्धः प्रक्रामति प्रषेण गच्चति । येन नामकानां समाहारोदशाली प्राकृतत्वाच पुंसा निर्देशो जायते। भवानित्युपस्कारायवा-सोपस्कारत्वात सूत्राणामेव नीयते एवं उपनोग्यतयाऽभिमुख्येनोत्पद्यत इति सूत्राथः ॥१६॥ कुर्वन् भव्यजन्तुरूर्व दिशं प्रक्रामति । ततस्त्वमतिरढचेता इत्थ कानि पुनर्दशाङ्गानि इति?, प्राहमित्थं च कुरु श्त्युपदिश्यते । 'प्रक्रामतीति च' वर्तमानसामी. खेत्तं वत्थु हिरएणं च, पसवो दास पोरुसं। प्येन निर्देश प्रासन्नफलप्राप्तिसूचक इति सूत्रार्थः ॥१३॥ चत्तारि कामखंधाणि, तत्थ से उबव जइ ॥ १७॥ इत्यं येषां तद्भव पव मुक्त्यवाप्तिस्तान प्रत्युक्तम येषां तुन तथा तान् प्रत्याह मित्तवं नायव होई, उच्चागोए य वएणवं । विसालसेहिं सीझेहिं, जक्खा नत्तरउत्तरा। अप्पायके महापन्ने, अभिजाए जसो वने ॥ १० ॥ 'कि' निवासगत्योः,क्षियन्ति निवसन्स्यस्मिशिति केत्रम् प्रामामहासुक्का व दिप्पंता, मन्नता अपुणञ्चवं ॥१४॥ रामादि सेतुकेतभयात्मकं वा। तथा-वसन्स्यास्मन्निति वास्तु अप्पिया देवकामाणं, कामरूवविउविणो । खातोच्छूितोजयात्मकंवा। हिरण्यं सुवर्णम् । उपलकणत्वात् रूउ कप्पेसु चिट्ठति, पुवावाससया बहू ।। १५॥ प्यादि च । पशवोऽश्वादयः। दास्यते दीयते एज्यः इति दासाः मागधदेशीयभाषया विसहशैश्च स्वचारित्रमाहनीयकर्मक्कयो- पोष्यवर्गरूपास्ते च । (पोरुसं ति) सूत्रत्वात् पौरुषेयं च पशमापेक्षया विजिग्नः शीर्वतपालनात्मकैरनुष्ठानविशेषैः किं पदातिसमूहः दासपौरुषेयं चत्वारः चतुःसंख्याः । अत्र दि ज्यन्ते पूज्यन्त इति यक्काः, यान्ति वा तथाविधदिसमुदये- क्षेत्रवास्त्विति चैकाहिरण्यमिति द्वितीयः। पशवः इति तृतीयः। ऽपिक्कयमिति यक्षाः ऊभ्य कस्पेषु तिष्ठन्ति इत्युत्तरेण सम्बन्धन दासपीयमिति चतुथेः। एते किमित्याह-काम्यत्वात्कामा मनाक उत्तरोत्तरा उत्तरोत्तरविमानवासिनः। उत्तरोपा उपरितनस्था- शब्दादयः तदेतवः स्कन्धास्तत्तत्पुजनसमूहाः कामस्कन्धा नवयुनर प्रधानो येषु ते अमी उत्तरोत्तरा महाशुक्ला अतिश- यत्र भवन्ति इति गम्यते। प्राकृतत्वाश्च न निशस्तत्र तेषु कुलेषु योज्ज्वलतया चन्जादित्यादयः ते श्व टीप्यमानाः प्रकाशमानाः (से इति)स उत्पद्यते जायते अनेन वैकम जमुक्तम्। शेषाणि तु अनेन च शरीरसंपयुक्ता । सुखसंपदमाह-मन्यमाना मनस्यव- नवाङ्गान्याह-मित्राणि सहपांशुक्रीडितादीनि सन्त्यस्येति मित्रधारयन्तः शम्दादिविषयावाप्तिसमुत्पन्नरातिसागरावगाढतया | वान्।ज्ञातयः ख जनाः सत्यस्यातहातमान् वान्।ज्ञातयः खजनाःसन्त्यस्येति शातिमान् जवति। उचसंक्ष्यातिदीर्घस्थितितया वा किं न पुनश्च्यवनम् अपुनश्च्यवः तमर्थ- दिकयेऽपि पूज्यतया गोत्रं कुत्रमस्येत्युबैगोत्रः चः समुचये। वर्णः Jain Education Interational Page #1078 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०५५) चनरंग निधानराजेन्धः। चउरिदिय श्यामादिस्निग्धत्वादिगुणैः प्रशस्योति वर्णवान् । अस्पान्तकः | चउरंगीय-चतुरङ्गीय-न० । चतुरन्यः मानुष्यधर्मश्रुतिश्रया आतङ्कविरहितो नीरोग इत्यर्थो महती प्रज्ञास्येति महाप्रज्ञः। तप.संयमधीयचतुष्टयरूपेज्यो हितं तत्स्वरूपवर्णनेन चतुरङ्गीपण्डितोऽभिजातो घिनीतः । स हि सर्वजनाभिगमनीयो | यम् । उत्तराध्ययनानां तृतीये अध्ययने, उत्त० ३ उ० । भवति । दुर्विनीतस्तु शेषगुणान्वितोऽपि न तथेति अत एव चउरंगली-चतरङ्गली-स्त्री०। चत्वार्यसलानि सुष्छु प्रमाण य. च-(जसो ति) यशस्वी तथा च सति-(वले सि) वली का स्याः। चतुरङलमितेऽथे, प्रश्न०४ाश्र द्वार । प्रारम्बधे चतु. र्यकरणं प्रति सामर्थ्यवान् उभयत्र सूत्रत्वान्मत्वर्थीयलोपाएकै रकुल मिते, स चतुरङ्गालमेवोभयतोऽन्तत उपगृहति । वाच । कोऽपि हि मित्रवत्वादिगुणस्तकार्यान्निनिर्वतनकमः किं पुन रमी समुदिताः शारीरसामर्थ्यवान्वह बझीति ॥ १७ ॥ चरंत-चतुरन्त-न० । “अतः समृद्धयादी वा" ८॥१॥४४। समृकि इत्येवमादिषु शदवादेरकारस्य दीपों भवति । समृ. तत्किमेवविधगुणसंपत्समन्वितं मानुषत्वमेव तत्फलमित्याह ध्यादेराकृतिगणत्वात् । चतुरन्तम्-'चाउरन्तं' ।प्रा०१पाद । जोच्चा माणुस्सए नोए, अप्पमिरूवे अहाउयं । चतुर्गतिके संसारे, स्त्र. १ श्रु०५ ०२२० । पुलं विसुधसम्मे, केवलं बोहिवुझिया ॥ १५॥ | चउरंतमहंत-चतुरन्तमहान्त- त्रिचतुरन्तं चतुर्विभागं दिग्नेभुक्त्वा सेव्य मानुष्यकान्मनुष्यसम्बन्धिनो ज्यन्त इति भो- दगतिभेदाच्यां महान्तं महायाम, यत् । तस्मिन्, " चउरंतमहंगा मनोझशब्दादयस्तान विद्यमानं प्रति प्ररूपयति प्रकर्षत्वेना. तमणवदग्गरुहसंसारसागरं" औ०। न्यत तुल्यमेषामित्यप्रतिरूपास्तान् यथायुःआयुषोऽतिक्रमेण पूर्वे चउरंस चतुरश्र-त्रि०ा चतस्रोऽश्रयोकोणा यत्र तत्समासान्ता पूर्वजन्मनु विशुद्धो निदानादिरहितत्वेन सद्धर्मः शोभनधर्मोs. प्रत्यये चतुरश्रम, अनु० । तालव्यमध्यस्यैव अच प्रत्ययो निपास्येति विशुरूसकर्मः अकेवलवत्वाच्च "धर्मादनिच्केवलात" त्यते । न तु दन्त्यमध्यस्य, दन्त्यमध्ये तु चतुम्रिरित्येव सुप्रात:५।४।१२वाशतिपाणि) अनिच्न भवति । केवलामकलां वाधि सुश्वेति, तालव्यस्यैव ब्रहणात् । वाच० । "अक्खगसम. जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिलकणां वुध्या अनुनूय प्राप्येति यावत् । चरंससंगणसंग्यिाओं" स्थानमा अनु। “एगे चउरं. ततोऽपि किमिति ? आह से" स्था०७ गत्ता सारा तेणं नरगा अन्तो वहा वाहि चउरंग मुलहं मत्ता, संजमं परिवज्जिया । चरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंचिया" (प्रशा०1)"चउरंस संगणपरिणया" चतुरश्रसंस्थानपरिणताः कुम्भिकादिवत तवसा धुयकम्मसे, सिद्धे हवइ सासए,तिमि ॥२०॥ पुलाः । प्रका०१ पद । चतुष्कोणे, ब्रह्मसन्ताने केतुभेदे, पुं०। चतुर्णामङ्गानां समाहारश्चतुरजी तामभिहितस्वरूपां दुर्लन | अन्यूनातिरिक्ते । वाच । प्रापां मत्वा ज्ञात्वा संयम सर्वसावद्ययोगविरतिरूपं प्रतिपद्या-चउरंसपसत्यसमाणिमान-चतुरस्रप्रशस्तसमललाट- त्रिच. सेव्य तपसा बाह्येनान्तरेण च[धुय] अपनीतम [कम्मसे ति]| तरनं चतुष्कोणं प्रशस्तं प्रशस्त लवणोपेतं समम् कधिस्तकार्मग्रन्धिकपरिजाषया सत्कमानेनेति धुतकौशः तदपन- या दक्षिणोत्तरतया च तुल्यममाणं ललाटं यासां ताश्चतुरस्रयनाथ बन्धादीनामप्यर्थतोऽपनयनमुक्तमेव । यद्वा-धुताः कर्म- समलाटाः । सुलक्षणललाटे, जी० ३ प्रतिः। णोऽशा भागा येन स तथाविधः, किमित्याह-सिद्धो भवति स च किमाजाविकमुत परिकल्पितसिस्वत्पुनरिहेति तनेति ? चनरासी-चतुरशीति-स्त्री० चतुरधिका अशीतिः।चतुरधिकाभत आह-शास्वतः शश्ववद्भवनात् शश्वरनं च पुनर्भवनिवः । शीतिसंख्यायाम, तत्संख्यान्विते चा वाचकानन्द्यध्ययने, "सपगन्धनकर्मवीजात्यन्तिकोच्छेदात तथा चाह "दग्धवीजे यथा मेणं असीइसयं किरियावईणं चउरासी अकिरियावाणं" रा०। त्यन्त,प्रादुर्भवति नाङ्करः। कर्मवीजे तथा दग्धे,न रोहति भवाङ्करः चउरिदिय-चतुरिन्डिय-पुं० । चत्वारि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षु. ॥१॥" इति । पुनस्तस्ये हागमनकल्पनमतिमोइविक्षसितम तथा करणानि इन्छियाणि येषां ते चतुरिन्छयाः। चमरमक्किकामशच स्तुतिकृत-" दग्धेन्धनः पुनरुपैति भवं प्रमथ्य , निर्वाणमप्य- कवृश्चिककीटपतङ्गादिषु संसारसमापन्नजीवभेदेषु, कर्म० ४ नवधारितभीकनिष्ठम् । मुक्तः स्वयं कृतभवश्व परार्थशूरः सच्चा कर्म०। पं०सं०।जी।पि प्रज्ञा०।०म० श्रावस्था । शनप्रतिइतेविह मोहराज्यम्"॥१॥ इति सूत्रार्थः ॥२॥ इ. संम्प्रति चतुरिन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापनामाहति परिसमाप्तौ प्रवीमीति प्राग्वदित्युक्तोऽनुगमः। उत्त० ३ ०। से किंतं? चनरिंदियसंसारसमावभाजीवपावणाचनरिंदिचउरंगत-चतुरङ्गान्त- त्रिचतुरङ्गेषु नरकतिर्यकनरामरगतिक-| यसंसारसमावसजीवपालवणा अगविहा परमत्ता। तं जहा. पेवन्तः पर्यन्तो यस्य स तथा। चतुरन्ते संसारे, व्य० ३००। "अंधिय पोत्तिय मेच्छिय, मगसिग्कीमे तहा पयंगे य । वउरंगवग्गुरापरिवुड-चतुरङ्गवागुरापरिवृत-त्रि० । " चउरं- | ढंकण कुक्कुम कुक्कड, नंदावते य सिंगिरिमे "किएहपत्ता गिणी सेणा-हत्थी। अस्सा,रहा, पाइका, सा एव वग्गुरा" तया नीलपत्ता लोहियपत्ता हलिदपत्ता सुक्किन्सपना चित्तपक्खा परिवृतः अहेमगा रूढेहिं" संमताद्वेष्टिते, नि० चू. १५ उ०। विचित्तपक्खा ओहंजलिया जन्मचारिया गम्भीग जीशिया चउरंगिणी-चतुरङ्गिणी-स्त्री० । चत्वारि गजाश्वरथपदातिस तंतवा अत्थिरोडा अत्थिवेहा सारंगा नेउरा दोला भमरा कणानि अङ्गानि विद्यन्ते यस्या यस्यां पा सा चतुरङ्गिणी। हस्त्य भरिली जरुन तोड्डा विच्चुया पत्तविच्चुया गणविच्चुया वादिसमुदितायां सेनायाम, तं० । नि० चू०।"चरंगिणीए सेणाए, रक्ष्याए जहक्कम । तुरियाणं संनिनाएणं, दिवेणं गगणं जमविच्चुया पिग्गमा कएगा गोमयकीडा जे यावने फुसे" ॥१२॥ उत्त०१२ अ०। तहप्पगारा सच्चे ते समुच्छिमा नपुंसगा ते समासो Page #1079 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०५६) चरिदिय अभिधानराजेन्द्रः। चनवीसत्यय सुविड़ा पमत्ता । तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जतगा य । चउबिहाहार-चतर्विधाहार-पुं०। चतुर्विधाहारे, श्राद्धविधाएएसिं णं एवमाइयाणं चरिंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं धशनादिचतुष्काधिकारे स्त्रियाः संभोगे चतुर्विधाहारो न नज्यनवजाइकुझकोडिजोणिप्पमुहसयसहस्साई नवंतीति मक्खा ते बालादीनामोष्ठादिचुम्बने तु नज्यते । विधाहारे तदपि कल्प ते। अत्र प्रथम स्थाने मुखसङ्गमेऽपीति पदं नास्ति तर्हि पृच्छयं । सेत्तं चरिंदियसंसारसमावसजीवपमवणा ॥ तां श्राद्वानामग्रे मुझसङ्गमे त्रिचतुर्विधाहारप्रत्याख्यानयोको "से किं तमित्यादि । एतेऽपि चतुरिन्जिया लोकतः प्रत्ये- उभङ्गो बति प्रइने-उतरम् बासादीनामित्यत्रादिशब्दात स्त्रिया सव्याः। एतेषां व पर्याप्ताऽपर्याप्तानां सर्वसंख्यया जातिकुल को-| अपि मुखसंगमे ज्यत ति कायते । २२५ प्र० सेन० ३ उल्ला) टानां नवलका भवन्ति । शेषाकरगमनिका प्राग्यत । उपसंहार-चवीस-चतविशति-स्त्री।चतुभिरधिका विशतिश्चतुर्विशमाह-"सेतं" इत्यादि । उक्ता चतुरिन्द्रियसंसारसमापन विचितभिरधिकायां विशतिसंख्यायाम, तत्संख्येयेचा जीवप्रकापना । प्रका०२पद । स्था• । प्राचा• । प्रश्न ।। बिमानामा..। जी० । भ० । उत्त०। तत्रिपदर्शनार्थमाहचतुरिन्जियवक्तव्यतामाह नाम उवणा दविए, खेत्ते का तहेव भावे य । चाउरिदिया उजे जीवा, दुविहा तेपकित्तिया। चउवीसयस एसो, निक्खेबो छबिहो होई॥ पज्जत्तमपज्जत्ता, तेसिं जेए मुह मे ॥१४६ ॥ अंधिया पोत्तियाचेव, मच्छिया मसगा तहा । (नाम) नामचतुर्विंशतिः, स्थापनाचतुर्विशतिः, ग्यचतु. विंशतिः, क्षेत्रचतुर्विंशतिर्जीवस्याजीवस्य वा यश्चतुर्विशतिरि भमरे कीमपयंगे य, दिकुणे कुंकमे तदा ॥ १७ ॥ ति नाम क्रियते। चतुविशत्यक्षरावली वा स्थापनाचतुर्विंशकुकुमे सिंगरीमीय, गंदावते य विंगिए । तिः । चतुविशतिशब्दस्य पपोऽनन्तरोदितो निक्केपः पमिधो भव मोने या जिगरीमी य, चिरली अधिवेहए ॥१४॥ ति। तत्र नामचतुर्विंशतिः जीवस्य अजीवस्य वा । यश केषांचित् मच्छिले मागहे आच्छि, रोमए चित्तपत्तए । स्थापनाचतुर्विशतिश्चतुर्विशतिद्रव्याणि सचित्तचित्तीमश्रने दभिन्नानि तत्र सचित्तामि द्विपदचतुष्पदापदभिन्नानि । मधिउहिंजालीय जलकारी, णीयया तंवगाश्या ॥ १४॥ तानि फार्षापणादीनि । मिश्राणि द्विपदादीनि एवं कटकायलाइइ चनरिदिया एए, ऐगहा एवमाश्या । कृतानि त्रिचतुर्विशसिर्विवतया चतुर्विशतिक्षेत्राणि परतालोगस्स एगदेसम्मि, ते सव्वे परिकित्तिया ॥१५॥ दीनि क्षेत्रप्रदेशा वा चतुर्विशतिः क्षेत्रचतुर्विंशतिः । कालब. संतइ पप्पणाईया, अपज्जवसिया वि य । तुर्विंशतिश्चतुर्विंशतिः समयः ? एतत्कासस्थितिर्वा कम्यं का लचतुर्विशतिः। जावचतुर्विशतिश्चतुर्विशतिभावसयोगाः चतुहि पडुच्च साध्या, सपज्जवसिया विय ॥१५॥ विशतिगुणं कृष्णादिकन्यं वा सा च चतुर्विंशतिः । इद सचितउच्चेव य मासातो, उक्कोसेण वियाहिया। द्विपदमनुष्यचतुर्विशत्यधिकार इति गाथार्थः । मा०म०वि० । चरिदिय पाउद्विई, अंतोमहत्तं जहमिया ॥ १५॥ चवीसत्यय-चतर्विशतिस्तव-पुं० । चतुर्विशतितीर्थकराया संखेजकालमुक्कोस, अंतोमुहुत्तं जहएिणया । नामोत्कीर्तनपूर्वकगुणकीर्तने, श्रम। चरिदियकायीठई, तं कायं तु अमुचना ॥ १५३ ॥ नामनिष्पन्ने निक्षेपे चतुर्विशतिस्तवाभ्ययनशब्दाः प्ररूपणीयाः । भणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहामियं । सया चाहविनदम्मि सए काए, अंतरेयं वियाहियं ।। १५४ ॥ चनबीसगत्ययस्स उ, निक्खेवो होई नामनिष्फो। एएसिं वपो चेव, गंधतो रसफासओ। चवीसगस्म को, थयस्स चनको होई॥ साठणादेसोवावि, विहाणाई सहस्ससो ॥१५५ ।। चतुर्विशतिस्तवस्य निक्केणे नामनिष्पन्नो भवति।स चाम्यनुन. सूत्रदशकम् इदमपि तथैव चतुरिन्द्रियालिलाप एव विशेषः। स्वावयमेव, यदुत जतुर्विशतिस्तव इति तुशब्दो वाक्यभेदोपदपतद्भदाश्च केचिदतिप्रतीता एव । अन्ये तु तत्तद्देशप्रसिद्धितो शनार्थः । वाक्यनेदश्च अध्ययनान्तरवक्तव्यताया उपकपाविशिष्टसंप्रदायाच्चानिधेयाः। तथा-पडेवमासानुत्कृष्टषां स्थि. दिति । तत्र चतुर्विंशतिशब्दस्य निकेपः षट्विधः स्तषशब्दस्य तिरिति दशकार्थः । उत्त० ३६ अ.। स्था० । उत्त। भ० । चतुर्विधः तुशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वादध्ययनस्य च । एष चतुरिन्द्रियाणां परिजोगं परिभोग' शम्ने वक्ष्यामि) गाथासमासार्थः। प्रा०म०वि०। चउवग्ग-चतुर्वग-पुंगधर्मार्थकाममोकसमुदाये,बाचा"चउवग्गे तत्सूत्राणिविदुसर्स,यराऽऽगंतुम्गा उपश्चंतिवेत्यवानो असंथरे,मोत्तण लोगस्सुजोयगरे, धम्मतित्थयरे जिणे । गिलाण संघामे" | चनवग्गो णाम-वस्थव्वा संजयासजतीतो अरिहंते कित्तस्स, चवीस पि केवली ॥१॥ थि:आगंतुगा संजया संजतीनोयापतेचउवग्गा । नि०चू०१५ भस्य व्याख्या-तल्लकणं चेदम-"संहिता च पदं चैव, पदार्य: बउविगप्प-चतुर्विकल्प-त्रि० । चतुष्प्रकारे, व्य० १ उ.।' पदविग्रहः। बालना प्रत्यवस्थानं, व्याख्या स्त्रस्य षट्विधा" ॥१॥ चउबिह-चतर्विध-त्रि०ाचतम्रो विधा भेदा यस्य तत्तथा । वास्खलितपदोच्चारणं संहिता । सा च प्रतीता । मधुना प. चतुष्प्रकारे, स्था०४ ग०१३०रा०। दानि लोकस्य उद्योतकरान् धर्मतीर्थकरान् जिनान् माईतः Page #1080 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउवीसत्यय अनिधानराजेन्दः। चनवीसत्यय कीर्तयिष्यामि चतुर्विशतिमपि केवलिन इति । अधुना पदार्यः- मतीर्थकग एवेति। उच्यते-इह सोकैकदेशोऽपि ग्रामकदेशे प्राबोक्यते प्रमाणेन दृश्यते इति लोकः। अयं चेह तावत्पञ्चास्तिका- मशन्दवत लोकशब्दप्रवृत्तिदर्शनात् माभूत्तदुद्योतकरेप्पवधिथात्मको गृह्यते तस्य लोकस्य उद्योतकरणशीला उद्यातकरा- विभङ्गशानिध्वर्कचन्द्रादिषु वाक्यसंप्रत्यय इति, तद्यपदेशाथै स्तान् केवसालोकेन तत्पूर्वकवचनदीपेन वा सर्वलोकप्रकाश- धर्मतीर्थकरानियुक्तम । आह-यद्येवं धर्मतीर्थकरानित्येताबदे. करणशीलानित्यर्थः । तस्मात् मुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारय- वास्तु सोकस्योद्योतकरानिति न वाच्यम् उच्यते-इहमोके येतीति धर्मः । उक्तश्च-“जुर्गतिप्रस्तान् जन्तून, तस्माकार- ऽपि नद्यादिविषमस्थानेषु सुधिकया धमाधमवतरणतीथंकरयते यतः । धते वैतान् गुजस्थाने, तस्मारूम इति स्मृतः"॥१॥ णशीलास्तेऽपि धर्मकरा भएयन्ते। ततो माभूदिति मुग्धवुडीतीर्यते संसारमागरो भनेनेति तीर्थ धर्म एष, धर्मप्रधान नां संप्रत्यय इति तदपनोदाय लोकस्योद्योतकरानित्याह-अपरवा तीर्थ धर्मतीय तत्करणशीक्षाः धर्मतीर्थकरास्तान तथा स्त्याह-जिनानित्यतिरिच्यते । तथाहि-यथोक्तप्रकारा जिना रागद्वेषकषायेन्द्रियपरीवहोपसर्गाऽष्टप्रकारकर्मजेतृत्वाजिना- एच भवन्ति इति । सच्यते-"ह केषांचिदिदं दर्शनम "शानिनो स्तान् तथा अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यरूपां पूजामईन्तीत्यर्हन्तः धर्मतीर्थस्य,कारः परमं पदम । गत्वा गच्चन्ति भूयोऽपि,भवं तान् अर्हतः कीर्तयिष्यामि नामभिः स्तोष्ये । चतुर्विशति- तीधनिकारतः"इत्यादि। ततस्तन्मतपरिकल्पितेषु यथोक्तप्रकारेरिति संख्या अपिशब्दो भावतस्तदन्यसमुथयार्थः । केवलं षु मानूसंप्रत्यय इति तद्व्यवच्छेदार्थमित्याह-जिनामता रागा कानमेषां विद्यते इति केवलिनः तान् केवशिनः, इतिपदार्थः । दिजेतारस्ते तनयपरिकल्पिता जिना न भवन्तीति तीर्थनिकापदविग्रहोऽपि यानि समासभाजि पदानि तेषु दर्शित एव । रतः पुनरिह भवारोत्तादादन्यथा स न स्यात् । बीजाभावात संप्रति चालनावसरः-तत्र तिष्ठतु तावत् । सूत्रस्पर्शिकानयु- तथोक्तमन्यरपिक्तिरेवोच्यते । स्वस्थानत्वात् । उक्तञ्च-"अक्खलियसंहिया, बक्खाणबउकए दरिसियम्मि । सुत्तफासियनिज्जुत्ति, वित्य अज्ञानपांशुपिहितं, पुरातनं कर्मबीजमविनाशि। रत्थो मो होई ॥" चालनामपि वाऽत्रैव वक्ष्यामः तत्र लोक तृष्णाजलाभिषिक्त, मुश्चति जन्माइकुरं जन्तोः ॥१॥ योद्योतकरानिति यदुक्तम् ॥१॥ प्रा०म० द्वि०। दग्धे बीजे यथात्पन्तं, प्रादुर्भवति नाइकुरः। अधुना जिनादिप्रतिपादनार्थमाह कर्मवीजे तथा दग्धे, न रोहति जवाकरः" ॥२॥ जियकोहमाणमाया, जिअसोहा तेण जिणा होति । माह-यद्येवं जिमानित्येतावदेवास्तु लोकस्योद्योतकरानिअरिणो हन्ता रयं हंता, अरिहंता तेण वुच्चंति ॥ त्यादिव्यतिरिच्यते । नच्यते-इहप्रवचने सामान्यतो विशिष्टजितक्रोधमानमायाः जितलोभा येन कारणेन नगवन्तस्तेन भ्रतधरादयोऽपि जिना उच्यन्ते । तद्यथा-श्रुतजिनाः अवधिजिकारणेन ते जिना भवन्ति । " परिणो इंता " इत्यादि नाः, मनःपर्यायशानिजिनाः, उद्मस्थवीतरागाश्च । ततो मानुत्तेगाथादलं यथा नमस्कारनियुक्तौ व्याख्यातं तथैव इष्टव्यम् षु संप्रत्यय इति तदपनोदाय लोकस्योद्योतकरानित्यासांप्रतं कीर्तयिष्यामीत्यादिव्याचिख्यासुरिदमाह-(कित्त ति) चप्यदुष्टम । अपरस्त्वाह-अर्हत इति न वाच्यम् । खल्वनप्राकृतत्वात् कीर्तयिष्यामि, नामभिर्गुणैश्च।कि नूतान्? कीर्तनी तरोदितस्थरूपा अहव्यतिरेकेणापरे संभवन्ति । उच्यतेयान स्वबाहोनित्यर्थः । कस्येत्यत्राह-सदेवमनुजासुरस्य बो अहंतामव विशेष्यत्वान्न दोषः । श्राह-यद्येवं तर्हि अईत इ. कस्य त्रैलोक्यस्येतिनावः। गुणानुपदर्शयति-दर्शनशानचारि त्येतावदेवास्तु लोकस्योद्योतकरानित्यादि पुनरप्यर्थकम् । त्राणि मोक्षकारणानि तत्रैकवचनं समाहारत्वात्तथा तपोषि न तस्य विशेषणत्वात विशेषणसाफल्यस्य च प्रतिपादितत्वानयोऽत्र दर्शितो यैस्तत्र त एवं कर्मविनयात्तपोनियमः । दिति । अपरस्त्वाह-केवलिन इति न वाच्यम यथोक्तस्वरूपा णामहतां केवलित्वव्यभिचारानावात् । “सति च व्यानिचारसं. चनवीसं तिय संखा, नसभादीया य जममाणा उ। भधे विशेषणोपादानं फलवत" तथा चोक्तम्-"संभवे व्याभ। अविसद्दगहणाओ, एरवयमहाविदेहेसु ॥ चारविशेषणमर्थवावति"। यथा नीझोत्पल मिति । व्यभिचाराभचतुर्विशतिरिति संख्याते च भूषनादिका भएयमाणा पव वे तु तपादीयमानमपि न कञ्चनार्थ पुष्णातीति । यथा-कृष्णो चतुःशब्द पवकारार्थः । अपिशब्दग्रहणात् पुनरैरावतमहाविदे- भ्रमरः शुक्ला बलाहका इति तस्मात केवलिन इत्यतिरिच्यतेनाहेषु ये भगवन्तस्तग्रहोऽपि वेदितव्य श्वसूत्रे “ तात्स्थ्यात् भिप्रायापरिझानात रहकेवलिन एव यथोक्तस्वरूपा महन्तो नान्ये सटव्यपदेश" इति न्यायादैरावतमहाविदेहाश्चेत्युक्तमा (प्रा०म०) इति नियमादर्थस्वेन स्वरूपकानार्थमिदं विशेषणमित्यनवद्यम् न सांप्रतमत्रैव चालनाप्रत्यवस्याने विशेषतो निदश्यते तत्र लोक- खल्यकान्ततो व्यभिचारसंभवे एव विशेषणोपादानं फलवत्, स्योद्योतकरानित्युक्तम् अत्राह-अशोभनमिदं यदुक्तं लोकस्येति उभयपदव्यभिचारे एकपदव्यभिचारे यथानीलोत्पलमिति । एलोको हिचतुर्दशरज्वात्मकत्वेन परिमितः केवलोद्योतस्थाप- कपदव्यभिचारे-अबव्यं पृथिवीजव्यमिति । स्वरूपमापने यथा रिमितो लोकालोकव्यापकत्वात् यद्वक्ष्यति-"केवलियनाणसंभो परमाणुरप्रदेश इत्यादि। तस्मात केवलिन इत्यपुष्टम् पाह-यद्येवं खोगोयं पगासेई"ततःसामान्यत द्योतकरान् । यदि वा-लो. केवलिन श्त्येवं सुन्दरम् । शेषं तु लोकस्योद्योतकनित्यादि क्यलोकयोरुद्योतकरानिति वाच्यं न तु साकस्यति तदयुक्तमाभ किमर्थमिति । उच्यते-दहश्रुतकेवनिप्रनृतयोऽपि केवलिनो वि. प्रायापरिज्ञानात् । इहलोकशब्देन पञ्चास्तिकाया एवं गृह्यन्ते द्यन्ते तन्मा भूत्तेषु संप्रत्यय इति तत्प्रतिक्केपार्थ लोकस्योद्योततत आकाशास्तिकायनेद एव । लोक इति नाथ युक्तः नचैतद. करानित्याद्युक्तम् । एवं ध्यादिसंयोगापेक्तया विचित्रनयमताभिमार्च यत उक्तम-"पंचन्थियकायमइयो लोगो" इत्यादि। अप- | झेन स्वधिया विशेषणसाफल्यं वाच्यमिति । (प्रा०म०वि०)सं. रस्वाह-लोकस्योद्योतकरानित्यप्तावदेव साधुधर्मठीयकरानि- | प्रति विमलः । विगतमलो विमलः ज्ञानादियोगाद्वा विमलः तत्र तिन वक्तव्यं गतार्थत्वात् । तथाहि-ये लोकस्थोद्योतकरास्तेधः । सर्वेऽपि भगवन्त इत्थंभूता श्तो विशेषमाह-"विमलतणू ना. १६५ Page #1081 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चवीसत्थय हद्धं गभग तो मातुए सरीरं उ । बुद्धी य प्रतिविमला, जानो तेण बिमलो ति" । इदाणिं श्रणंतो- तत्रानन्त कमीशयादनन्तः अनन्तानि वा ज्ञानादीन्यस्येति सर्वे हि "विश्रांता कम्मं सालीया सम्बेसि अनादिदि"" 'च तं दामं सुमिणे ततो तो " रत्न विविनं रत्नखवितं अनन्तमतिमाप्रमाणं दाम स्वभे जनन्या दृष्टमतोऽनन्त इति । संप्रति धम्मंः- दुर्गती प्रपतन्तं सर्वघातं धारयतीति धर्मः तत्र सर्वे ऽपि भगवन्त ईदृशास्ततो विशेषमाह - "गन्नगए जं जणणी, जायसुधम्मति तेण धम्मजिणो” । जगवति गर्भगते येन का रथेन विशेषतो जननी धर्मे दानादिरूपशोषण तेन नामतो धर्मजिनः । श्रा० म० द्वि० । ( चलभमित्यादिति नोऽपि गाथाः व्याख्याताः ऋषभादि शब्देषु ) ( १०५०) अभिधानराजेन्द्रः | उसजमजियं च वंदे, संजवमनिनंदणं च सुमहं च । पउमप्पई सुपासं जिणं च चंदप्पई वंदे ॥ २ ॥ सुविदि च पुप्फदंतं, सीयलसिज्जं च वासुपुजं च । विमलमच जिणं, धम्मं संति च वंदामि ॥ १ ॥ कुंयुं परं च मति, वंदे मुणिसुव्त्रयं नमिजिणं च । बंदामिरिनेमिं पासं तह वकमाणं च ॥ ४ ॥ एवं मए अभिथुआ वियरयमला पड़ीराजरमरणा । चवीस पि जिवरा, तित्ययरा मे पसीयं तु ॥ ५ ॥ कित्तिय वंदिय महिया, जे जे लोगस्स उत्तमा सिका । दिनानं समादिवरमुत्तमं दितुं ॥ ६ ॥ चंदे निम्मायरा, आइये अहियं पयासमरा । सागरवरगंजीरा सिका सिद्धिं मम दिसंतु ॥ ७ ॥ आव० २ अ० । श्रा० चू० । श्रा० म० । ल० । ध० (श्रावकस्यपि चतुर्विंशतिस्तवोऽस्ति इति श्रावेदितम, 'श्रवस्य' शब्दे द्वितीयागे ४५७ पृष्ठे ) जिनगुणोत्कीर्तनाधिकारवति अध्ययनविशेषे पा०| उपसदंदय चतुर्विंशतिदएमक पुं० स्था० चतुर्विंशशिपप्रतिवद्धो दमको वाक्यपरूतिश्चतुर्विंशतिदारुकः । स इद्द वाच्य इति शेषः । स चायम्-" नेरश्या १ श्रसुराई १०, पुढवाईन्दा जोतिसिया १, (वेमाणिय १ दंमओ एवं" ॥१॥ भवनपतयो दशधा "असुरा नागसुवन्ना, बिज्जू अग्गी यदीव उदही य। दिसि पवणथणियनामा, दसहा एप वणवासि ॥१॥ ति " एतदनुसारेण सूत्राणि वाच्यानि यावश्चतुर्विंशतितमम् । स्था० १ ० १ ० । नदी सासपरिजाय चतुर्विंशतिवर्षपर्याय त्रिचतु - शतिवर्षपरमा० १५० १० परचितुर्विध० चतस्रो विधा मेदा यस्य तत् चतुर्विधम् । स्था० ४ ठा० १ उ० । चतुःस्वभावे, भ० १८० ४ उ० विहं गेयं गायति " रा० । चनसडि चतुष्षष्टि-स्त्री० । चतुरधिकषष्टिसंख्यायाम्, "चउसही सही लू सदस्साओ असुरकरजा" प्रज्ञा०२पद चउसठिया चतुःषष्टिका स्त्री० । मणिका तुःषष्टितमभा निष्यचतुःप्रमाने रसमानविशेषे मनु० म० चउसरणागमन चनसट्ठिलडिय - चतुःषष्टिलष्टिक - त्रि० । चतु षष्टिर्लष्टीनां शरा णां यस्मिन्नसौ । शराणां चतुष्षष्टधा युने, स० ६४ सम० । चरण चतुःकान १० रात्रितुः श्रचानम् । श्रद्धानचतुष्टयान्विते सम्यक्त्वे, प्रव०१४७ द्वार । चतुर्विधे श्रद्धाने च । ध० २ अधि० । - च समयसिक चतुःसमयसिक पुं० [सिद्धत्यसमासमये सिके परम्परासिद्धभेदे, प्रज्ञा० १ पद | चनुसरण - चतुःशरण - न० । प्रकीर्णकविशेषे, सेन० । चतुःश ध्यानमुपाखकानां कथं कार्यते यतीनां योगं बिना सहन ध्यायः श्राद्धानां तु मनारणैव पाठस्तत्र कि शास्त्रं बलीयः का वा गच्छसामाचारीति । प्रश्ने उत्तरम् - चतुःशरणादीनि चत्वारि प्रकीर्णकानि आवश्यकयत्प्रतिक्रमणादिषु बहूपयोगित्वादुपयो गोटनमन्तरेणापि परंपरयाऽनिधीयमानानि सन्ति सेव प्रमाणमिति । ४०८ प्र० । सेन० ३ उल्ला० । चतुःशरणप्रकीर्णकस्य गुणनं प्रतीनां श्रद्धा व कालवेलायाम् अस्वाध्यायदिने च यति न वेतिप्रश्नः । उत्तरम- चतुःशरणप्रकीर्णकगु कासवेलायामपि कापते अस्वाध्यायदिनेषु कल्पत इति । ३८६ प्र० । सेन० ३ उल्ला० । 44 चउसरणगमन-चतुःशरणगमन - न० । चतुमर्हत्सिक साधुकेवलिप्रशप्तधर्माणां शरणगमनम् । चत्तारि सरणं पवजामि" इत्यादिरूपे प्रधानरोपगमे पं० ० ३ ० पञ्चा चतुःशरणगमनं चैवम्"रागादिदोषाः सर्वाः विश्वपूजिताः। यथार्थवादिनः शररायाः शरणं मम ॥ १ ॥ ध्यानाग्निदग्धकर्माणः सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः । अनन्तसुखवीर्येाः सिद्धाश्च शरणं मम ॥ २ ॥ ज्ञानदर्शनचारिष युताः स्वपरतारकाः। जगत्पूज्याः साधवश्च, जवन्तु शरणं मम ॥ ३ ॥ संसारदुःखदर्ताकर्ता च जिनप्रणीतथमेथ, सदैव शरणं मम ॥ ४ ॥ एवं श्रावकस्य चतुःशरणकरणं मढ़ते गुणाय यदाह-"रंगो जिम्मोन को रंगसरणमविनक वो न का हारिओ जग्मो ९॥हि" - "जं मणका, पकारिममहि आयरिश्चं धम्मविस्मयुद्धं सायं गरिहामि तं पार्थ" ॥१॥ इत्यादि। ध० २ अधि० । जावज्जीवं मे भगवंतो परमतिलो अनाहा अत्तरासंनारा खीणरागदोसमोहा अर्चितचिंतामणी नवजझधिपोआ एतसरणारा सरणं, तहा पहीजरामरणा प्रवे यकम्मकर्झका पणडवावाहा, केवलनाणदंसणा सिद्ध पुरनिवासी निमगया सव्वा कप कचा सिद्धा सरणं, तहा- पसंतगंभीरासया सावज्जजोगविरया पंचविहायारजागा परोवारनिरया पनमाइनिदंसणा झाणज्झयणसंगया विशुमायनाचा साहू सरयां तहां सुरासुरमा - अपजियो मोहतिमिरंसुमानी रागदोस विसपरममंतो देऊ Page #1082 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५५) अभिधानराजेन्द्रः । चलसरगागमन सयझकलारणाणं कम्मत्रणविहावसू साहगो मिद्धभावस्स केवलमानो धम्मो जावज्जीवं मे भगवं सरणं ॥ "जाव मे भगवंतो धरता सरणं" इति योगः (जायया मे मम भगवन्तः सम " न्तः शरणमिति योगः। श्रत्र यावज्जीवमिति कालपरिमाणं, परतो भङ्गभयात् पुनरवधित्वेन परतोऽप्यधिकृतशरणस्येष्टत्वात् । अत एव विशेष्यन्ते ( परमतिलोभणाहा ) परमात्र ते दुर्गभित्रिनायास अत्र त्रिलोकासिनो देवादयः परियत एव विशेष्यन्ते तरसंभारासरः सर्वोतमदेकभार नामकर्मणो येषां ते तथा । त एव विशेष्यन्ते (स्खीणरागदोसमोहा) कीणरागद्वेपमोहाः मायाप्रीत्याना येषां ते तथा ए विशेष्यन्ते। अनि अनियमितातिक्रान्तापवर्गविधायकत्वेन विशेष्यन्ते जपो परत्वेन एवं विशेष्यन्ते त सरसा) एकान्तशरण्याः सर्वाधितहितत्वेन क एवं भूताः किं वा एत इत्याह- (अरहंता सरणं) अतः शरणं ताशोकाचरमदाप्रातिहार्य लक्षण पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तः ते मम शरणमाश्रय इति (सहा पट्टीण जरामरणा) सिकाः शरणम् इति योगः । तथा न केवलमर्हन्तः किं तु सिद्धाः शरणमिति क्रिया । किंविशिष्टस्ते इत्याद प्रीजरामरणाः प्रणे सदाऽपुनमवित्ये न जरामरणे येषां ते तथा, जन्मादिवीजानावात्। एत एव विशेष्य ते। (अवेकम्म कलंका) अपेत कर्मकलङ्काः अपेतः कर्मकलको तथाविधाः सर्वथा कर्मरहिता इत्यर्थः एव विशेच्यन्ते - ( पणठवावाहा ) । प्रणष्टव्याबाधाः प्रकर्षेण नष्टा क्षीणा ब्याबाधा येषां ते तथा, सर्वव्यावाधावर्जिता इति भावः । पत एव शिष्यन्ते केवल) केवलाना केवले सम्पूर्ण ज्ञानदर्शने येषां ते तथाविधाः, सर्वज्ञाः सर्वदर्शिन इत्यर्थः । एत एव विशेष्यन्ते - ( सिद्धिपुर निवासी ) सिद्धिपुर निवा सिनः सिद्धिपुरे कान्ते निवस्तुं शीलं येषां ते तथा, मुकियासिन इति गर्नः। एत पय विशेष्यन्ते (निरुवमहसंगया)। निरुपमधुखसंगताः । निरुपमसुखेन विद्यमानापेकेण संगता इति समासः असांयोगिकानन्दयुक्ता इत्यर्थः एत एव. वि. शेष्यन्ते - ( सव्वहा कयकिच्चा ) सर्वथा कृतकृत्याः । सर्वथा प्रायं वैस्ते तथा निहितार्थ इति भावः । क एवंभूताः, किं वा पत इत्याह - ( सिका सरणं) सिद्धाः शरणं सिद्ध्यन्ति स्म सिद्धाः परमतत्वरूपास्ते मम शरणमाश्रय इति "ला पसंतभीरासया साधू " शरणमिति योगः । तथा न केवलं सिद्धाः शरणं, किन्तु साधवः शरणमिति क्रिया । किं विशिष्टास्त इत्याह- प्रशान्ताः कान्तियोगात् गम्भीरोऽगाधतथा श्राश्रयस्थितपरिणाम येषां ते प्रशाम्त गम्भीराशयाः । एवं विशेष्यन्ते (सागरिया) सहाययेन सावयः पापो योगो व्यापारः कृतादिरूपः तस्माद्विरताः सावयोगविरताः। स एव विशेष्यन्ते ॥ पंचविहाराणा पञ्चविधमाचा मानाचारादिनेमिषं जातिधाचार जानकाः । एत एव विशेष्यन्ते । ( पउमादिविदंसणा ) पद्मादीनि पोत्यजतस्थितिभावेऽपि तदस्पर्शनेन कामप्रोगापेयैवमेव भाव इति निदर्शनानि येतेदर्शनाः । श्रदिशन्दाच्चराः पत पच बिशे चउसरणगमन ष्यन्ते [काणज्ययणसंगया ] ध्यानाध्ययनाभ्याम् एकाग्रचिन्तानि - रोधस्वाध्यायलक्कणाभ्यां संगता ध्यानाध्ययनसंगताः एत एव विशेष्यन्ते । (विमाभाषा) विशुद्धमानो विहितानुष्ठानेन भावो येषां ते विशुद्धयमानभावाः, क एवं भूताः किं वा पत इत्या- साहू सरणं तत्र सम्पदर्शनादिनिः सिद्धि साधयन्तीति साधवः, मुनयः इत्यर्थः । ते मम शरणमाश्रयः इति । "तड़ा सु सुरपूजिओ केवलिपत्तो धम्मो यावज्जीवं मे जयवं सरणं" इति योगः । तथा न केवलं साधवः शरणं किं तु केवलिप्रज्ञप्तो धर्म्म इति संबन्धः । किंविशिष्ट इत्याह- (सु सुरमनुपूर सुरसुरमनुजेः पूजितः सुरासुरमनुजपूजि तः सुरा यतिवैमानिका, असुरा व्यन्तरजनपथ मनु पुरुषविद्याधराः श्रयमेव विशेष्यते (मोहम स्तिमिरमिय मोतिमिरं सद्दर्शनवारक तस्माली शुमाली पादादिश्वकल्यः श्रयमेव विशेष्यते (रागदोसविपरममंतो) रागद्वेषविषमिव रागद्वेषवितस्य पर मन्त्रः तद्वातित्वेनेति जावः । अयमेव विशेष्यते । (ट्रेक सयलकह्राणा) हेतुः कारणं प्रवर्तकत्वादिना सकत देवत्वादीनाम् । अयमेव विशेष्यते । (कम्मचणविभावसू) कर्मयमस्य ज्ञानावरणीयादिरूपस्य विभा दाहकत्वेन । अयमेव विशेष्यते । (साधगो सिरुभावस) साधको निवर्तकः सिरुभावस्य सिद्धत्वस्य तथा तथा तत्संपादकत्वेन को ऽयमेषं किं वेत्याह- (केवलिपणत्तो धम्मो) केवलिमसः केषरूपितो धर्मः श्रुतादिरूपः (जावरजी मे भगवं सर) याजीवमिति पूर्ववत् मे मम भगवान समग्रश्व र्यादिगुणयुक्तः शरणमाश्रयः । एतश्चतुः शरणगमनम् । एकार्थसाधकत्वेन प्रतानामध्यविरुद्धमेव । एष एव परमार्थः । "चत्तारि सरणं पवज्जामि भरते सरणं पवज्जाम । सिके सर णं पयामि। साहू सरणं पवज्जामि केवलिएव धम्मं स रणं पवज्जामि त्ति" पं० सू० १ सू० । सावज्जजोगविरई - उक्तित्तणगुणचउअपमिवत्ती । वलियम्स निंदणाचण- तिगत्यगुणधारणा चैव ॥ १ ॥ चारितस्स विसोही, कीरह सामाइएण किल इद्द यं । सावज्जेयरजोगाss - बज्जरणा सेवणत्तय ॥ २ ॥ दंसणयार चिसोही पीसा पत्या किन य । अवगुण कित्ता-रूवेणं जिएबरिंदाणं ॥ ३ ॥ नाणाइया न गुणा, तस्स पन्नवत्तिकरणाओ । द विहिणा, कीरइ सोही उ तेसिं तु ॥ ४ ॥ वयस्यतेस पुणेो विडिया में निंदणापाडेकमणं । ते पडिकमणं, तेसि पि य कीरए सोही ॥ ए ॥ चरणाश्याया जकर्म णतिगिद्धरूपेणं । किमणो सुद्धा, सोही तह काउसग्गे || ६ || गुणधारण, पच्चक्खाणे तवइयारस्स । विरियायारस्स पुछो सध्येहिं चिकीरए सोही ॥ ७ ॥ गयवसइसी जिसे दापससिदिययरं ऊयं कुंभं । पउमसरमागरविमा-णजवणरयणुच्चयसिहिं च ॥ ८ ॥ अमरिंदमरिंदमुनि-दबंदियं वंदित महावीरं । V Page #1083 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चनसरगमन प्राभिधानराजेन्सः । चउसग्णगमन कुससाणवंधुबंधुर-मज्क्रयणं कित्तस्सामि ।।६।। जवणघरधरणखंभा, सिधा सरणं निरारंभा॥२६॥ घउसरणगमणमुक्कम-गरिहासुकमाणमोप्रणा चेव। मिद्धसरणेण नववं-जहेर साहुगुणजणिअअणुराया। एस गणो अणवरयं, काययो कुसलहेन त्ति ॥ १० ॥ मेणिमिदंतमुपस-त्थमत्थ उ तत्थिमं जाई॥३०॥ अरिहंतसिफसाद-केवझिकहि नो मुहावहो धम्मो । जिअलोप्रबंधुलोकुसाई, सिंधुणो पारगा महानागा। एए चनरो चउगई-हरणा सरणं बह धनो ॥ ११ ॥ नाणाइएहिँ सिवसु-खसाहगा साहुणो सरणं ॥३१॥ अह सो जिण नत्तिनरु-वरंतरोमकंचुअकरालो। केवझिलोयरसोडी, विउलमई मुय हरा जिणमयम्मि । पहरिसरण उम्मीसं, सीसम्मि कयंजली भण।।१।। पायरियउवज्काया, ते सव्वे साहुणो सरणं ॥३॥ रागहोसअरीणं, हंता कम्मट्ठगाइँअरिहंता । नूनदमदसनवपुब्बी, दुवाझमिक्कारसंगिणो जयई । विसयकसायारीणं, अरिहंता इंतु मे सरणं ॥ १३ ॥ जिणकप्पाऽहामंदिय-परिहारविसुधसाहू य॥३३॥ रायसिरिमवकसित्ता, तबचरणं चक्करं प्रचारित्ता। खीरासवमहुआसव-संभिन्नस्सो अकुतुबुद्धी य । केवलिसिरिमरिहंता, अरिहंता इंतु मे सरणं ॥४॥ चारणवेचब्बियपया-सारिणा साहुणो सरणं ॥३४॥ धुइवंदणमरिहंता, अमरिंदनरिंदपूअमरिहता। नज्जियवइरविगेहा, निश्चमदोहापसंतमुहसोहा । सासयमुहमरिहंता, अरिहंता इंतु मे सरणं ॥ १५॥ अनिमयगुणसंदोहा, हयमोहा साहणो सरणं ॥३५॥ परमणगई मुणंता, जोईदमहिंदझाणमरिहता। खंमियमिणेहदामा, अकामधामा निकाममुहकामा । धम्मकहं च कहना, अरिहंता इंतु मे सरणं ॥ १६ ॥ सुपुरिसमणाजिरामा, आयारामा मुनी सरणं ॥ ३६॥ समजिप्राणमहिम, अरिहंता सच्चवयणमरिहता। मिल्हियविसयकसाया, उजियघरघरणिसंगसुहसोया । बंजव्वयमरिहंता, अरिहंता हुँतु मे सरणं ।। १७ ॥ अकलियदरिसविसाया, साहू सरणं गयपमाया ॥३७॥ प्रोसरणमवसरित्ता, चउतीसं अश्सए निसेवित्ता। हिंसाइदोसमुन्ना, कयकारुना सयंभुकप्पन्ना। धम्मकई च कहंता, अरिहंता ढुंतु मे सरणं ।। १० ।। अजयामरहरवुन्ना, साढू सरणं मुकयपन्ना ॥ ३८॥ एगाइगिराऽणेगे, संदेहे देहिणं समत्यंता । कामवितणावुक्का, कलिमलमुक्का विविहचोरिका । पावरयसुगयरिका, साहू गुणरयणचच्चिका ॥३॥ तिहुय गमणु सासंता, अरिहंता हूंतु मे सरणं ॥ १६॥ वयणामएण नुवणं, निव्वावंता गुणेसु ठावंता। साहू तासु ठिया , आयारियाई तउ अ साहू । जिअलोअमुघरंता, अरिहंता हुंतु मे सरणं ॥२०॥ साहुगहणेण गहिया, ते तम्हा साहुणो सरणं ॥ ५० ॥ प्रच्चन्नुयगुणवंते, नियजम सहरपसाहि पंदते । पमिवन्नसाहुसरणो, सरणं काउं पुणो वि जिणधम्मे । निययमणाअणंते. पडिवजे सरणमरिहते ॥१॥ पहारे सारामंच, पवंचकंचुअं चियतणू भणइ ॥४१॥ सज्मियजरमरणाणं, सम्मनदुखुत्तनस्स सरणाणं। पवरसुकराहिपत्तं, पत्तेहिं वि नवरि केहि दिन पत्तं । तिहुयणजणमुहयाणं, अरिहंताणं नमो ताणं ॥२॥ तं कवक्षिपन्नत्तं, धम्म सरणं पवन्नो हं।। ४२॥ अरिहंतसरणमलमुद्धि, लद्धमुविसुचसिक्कबहुमाण।। पत्तेण अपत्तेण य, पत्ताणि य जेण नरसुरसुहाई। पणयसिररइयकरकमल-मेहेरो सहरिसं जपई ।। २३ ।। मुक्खमुहं पुण पत्तेण, नवरि धम्मो स भे सरणं ॥४॥ कम्मट्ठक्खयसिका, साहावियनाणदंसणसमिछा। निहाझियकबुसकमो-कहलुसुहजम्मो खलीकयमहम्मो। सबद्दलचसिद्धा, ते सिधा इंतु मे मरणं ॥२४॥ पमुहपरिणामरम्मो, सरणं मे होन जिणधम्मो ॥ नियमोयमच्छरत्था, परमपयत्या अचिंतसामत्था । कासंतरा वि न मयं, जम्मा मरमरणवाहिसयसमयं । मंगलसिफपयत्या, सिद्धा सरणं मुहपमत्था ॥ २५ ॥ अमयं च बहुमयं जिण-मयं च सरणं पवन्नो हं ॥४॥ मुक्खे य पमिवक्खा, अमृढलक्खा सजोगपचक्खा। पसमियकामपमोहं-दिहादिहेमु न कालियविरोहं । साहावियत्तमुक्खा, सिषा सरणं परमसुक्खा ॥२६॥ सिवमुहफलयममोहं, धम्म सरणं पवन्नो हं ॥ ४६॥ पमिपिद्रियपमिणीया, समग्गकाण ग्गिदकृनववीया। नरयगडगमणरोहं. गणसंदोहं पवानिक्खो। नोईसरसरणीया, सिवा सरणं सुमरणीया ॥२७॥ निहणियवम्महलोह, धम्म सरणं पवन्नो हं॥४७॥ पावियपरमाणंदा, गुणनीसंदा विदिनभवकंदा। जासुरसुवन्नसुंदर-रयणालंकारगारवं महयं । लहईकयरविचंदा, सिका सरणं खचियदंदा ॥२०॥ निहिमित्र दोगच्चहरं, धम्म जिणदेसियं वंदे ॥४॥ नवादपरमवंभा, उदाहसंजा विमुक्कसरना। चनसरणगमणसंचिय-सुचरियरोमंच चियसरीरो। Page #1084 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंचल (१०६९) चनसरणगमन अभिधानराजेन्धः । कयदुक्कडगरिहा अस-हकम्मक्खयकखिरोजाइ ||वह चंकमंत-चक्रममाण-त्रि० । चलनम्वभावे, औ० । कल्प० । इह जरियमन्नभपियं, मिच्छत्तपञ्चत्तणं जमाहिगरणं। चक्रम्यमाण-त्रि.। चलनस्वभावे, औ० । कल्प.। जिणपवयणपमिकुहूं, दुहुँ गरिहामि तं पावं ॥५०॥ चकमण-चक्रमण-1०। उपाश्रयान्तरे शरीरश्रमव्यपोहार्थमिमिच्छत्ततमधेणं, अरिहंताईसुं अनवयणं । तस्ततः संचरणे, स। अन्न पेण निरइयं, इम्हि गरिहामि तं पावं ।। ५१ ॥ चक्रमणगुणानुपदर्शयतिमुअधम्मसंपसाह, सुपावपक्षिणीयआई जरअं। वायाई सहाणं, वयंति कुविया उ सन्निरोटेणं । अन्नेस अपावेसं, इएिंह गरिहामि तं पावं ॥ ५२ ॥ लाघवमग्गिपमुत्तं, परिस्समजयो अचमतो ॥ भन्नेसु अ जीवेसुं, मित्ती करूणाइगो अरेसु कयं । अनुयोगदानादिनिमित्तं यश्चिरमेकस्थानोपवेशनलकणः स निरोधस्तेन कुपिताः स्वस्थानाच्चालिता ये वातादयो धातपरियावणाई दुक्खं, एिंड गरिहामि तं पावं ।। ५३ ॥ बस्ते चक्रमतो भूयः स्वस्थानं व्रजन्ति लाघवं शरीरे लघुजं मणक्यकाएहिं, कयकारयामहिं पायरियं । भाव उपजायते। अग्निपटुत्वं जाठरानलपाटवं च भवति । यश्च धम्मविरुद्धमसुकं इम्हि गरिहामि तं पावं ॥ २४ ॥ व्याख्यानादिजनितः परिश्रमस्तस्य जयः कृतो जवति । एतेच. प्रह सो दुक्कमगरिहा, दलिउक्कमदुक्कमो फुझ जणइ। वक्रमतो गुणा भवन्ति । वृ०३०नि० चू० । भाव० । भ्रमणे, सुकमाणुरायसमुइ-न्नपुन्नपुक्षयं करकरालो ।। ५५ !! मा० ११०१०॥ अरिहंतं अरिहंते-मुजं च सिद्धत्तणं च सिधेसु । | चंकमिय-चक्रमित-न० । गतिविभ्रमे, " चंकमियं ठियं जंपि यंव, विप्पमित्तं च सविलासं । मागारियवहुविधे, बटुं - प्रायारं पायरिए, उवज्झायं तं उवज्काए ॥५६॥ सेयरे दोसा"॥ ३७॥ नि०चू०१०।। साहूण साहुकिरियं, देसविरई च सावयजणाणं । अणुमन्ने सव्वेसुं, सम्मत्वं सम्मदिट्ठीणं ॥१७॥ चंकारणोग-चकारानुयोग-पुं० । समाहारेतरेतरयोगसअहवा सव्वंचिय वी-परायवयणाणुसारि जमुकडं। । मुखयान्याचयाऽवधारणपादपूरणाधिकवचनादिषु, (स्था) (चकारे त्ति) अत्रानुस्वारोऽलाकणिका, यथा-"सुके कालत्तए वि तिविहं, अणुमोएमो तयं सव्वं ॥ ५० ॥ सणिचरे " इत्यादि । ततश्चकार श्त्यर्थः । तस्य चानुयोगो मुहपरिणामो निचं, चनसरणगमाइआयारं । यथा-चशब्दः समाहारेतरेतरयोगसमुच्चयान्वाचयावधारजीवो कुसझपयमीउ,बंध बंधाउ सुहाणुबंधीयो॥५॥ पादपूरणाधिकवचनादिषु इति । तत्र-(इत्थीनो सय गगाणि यति) हसूत्रे चकारः समुच्चयार्थः स्त्रीणां श. मदाणुभावा वहा तिवानावा कुपाइ ता चेव । यनानां चापरिभोग्यतातुल्यत्वप्रतिपादनार्थः। स्था०१०म०। अमुहायो निरणुवंधा,उ कुण तिब्बाउ मंदा उ ॥६०॥ चंगवर-चंगवेर-पुं० । काष्ठपाध्याम, "पीढए चेगवेरे य, नंगखे ता एवं कायन, बुहिहिं निच्चं वि संकि सम्मि । मयं सिया । जंतलट्ठी व नाभी वा, गमिया व असं सिया" होइ तिकालं सम्मं, असंकि सम्मि सुकयफनं ॥६१॥ ॥२०॥ दश०७०। चनरंगो जिणधम्मो, न को चउरंगसरणं वि। चंगेरी-चढ़ेरी-स्त्रीला महत्या काष्ठपायां, वृहत्पाटलिकायां च। न कयं चउरंगो नव-च्छेभोन कओ हा हारिओ जम्मो।६श प्रश्न०१आश्रद्वार । रा०। बा०म० जी०। प्रज्ञा० । वह जीवपमायमाहारि,वीरभई नमेवमज्जयणं । चंचत-चञ्चत-त्रि०। मनोहारिणि, मष्ट०३२ अष्ट। जासुपातसजमव-ऊकारणं निबुझ्सुहाणं॥६॥द०पनचंचपूम-चञ्चुट-पुं० । प्राघातविशेष, "खुरचलणचंचपुमेहि चनासिर-चतुश्शिरस-नं० । चत्वारि शिरांसि यस्मिन् तचतुःशि. | धरणिभलं अभिहणमाणं" जं. ३ वक। मप्रवेशे क्षमणाकाले शिष्याचार्ययोरखना चंचन-चञ्चन-वि०। सोले, स्था०1 निष्कम्य पुनः प्रवेशे तथैव शिरोद्वयम् । शिरश्चतुष्टययोगिनि चलनेदाःबन्दनके, ध०३ अधिः । आव० । स०। गइगणनासनावे, बहुभो मासो उ होइ एकेको । पउहा-चतुर्दा-अन्य० । चतुःप्रकारे, 'चउडविवागति' सतुक | प्रणाईणो य दोसा, विराहणा संजमावाए । क्षेत्रजीवभवनपुअलविपाकाः प्रकृतीर्वक्ष्ये । कम० कर्मः। पञ्चाश्चतुर्दा तद्यथा-गतिचञ्चः, स्थानचञ्चन्ना, भाषाशाला, चनहार-चतुराहार-पुं० । चतुर्णामशनपानस्खादिमस्वादिमानां- भावचञ्चनश्च । एतेषामेकैकस्मिन् अघुको मासःप्रायश्चित्तम प्रा. स्यागे, ल.प्र.। झादयश्च दोषा विराधनासंयमे आत्मनिचातत्रसंयमविराधना गतिचञ्चनस्य त्वरितं गच्छतः पृथिव्यादीनां कायानामुपमचोरग-चकोरक-पुं० । 'चक' तृप्तौ । मोरन् । स्वाथै कन् ।। दनमाभात्मविराधना-प्रपतनप्रस्खलनदेवतातुलनादिका। एवं स्वनामख्याते पक्षिमेदे, पाच । प्रश्न। स्थानचञ्चलादिष्वप्युपयुज्यात्मसंयमविराधना वक्तव्या।। पोवाड्य-चयोपचयिक-त्रि० । वृद्धिहान्यात्मके, प्राचा.१) अथ गतिस्थानत्रश्चली तावदाहसु०१०५० दावविभो गइचं-चलो उगणचंचलो इमोतिविहो। २६३ Page #1085 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंचल कुड्डा सई सई व लसह व पाए वा विष्लभ ॥ शब्दो हुनार्थवाचकस्ततो द्वावद्रधिको नाम द्रुत - गामी स गतिचञ्चलो नस्यते । स्थानचञ्चलः पुनरयं त्रिविधस्तद्यथा असो निपराः सन् पृयाकरचरणादिभिः कुम् आदिशब्दात स्तम्भादिकम सहदनेकशः स्पृशति वाशब्द उ सरापेकृया विकल्पार्थः यो वा निपल एच इतस्ततो साम्यति | २ | पादौ वा विकिपति पुनः पुनः संकोचयति प्रसारयति चेत्यर्थः ॥ ३ ॥ 1 भाषाचपलमाह भासाचपलो चउदा, असंति अतियं असोहणं वा त्रि । असभाजोग्गमनम्भ, अहि तं उ प्रसमिक्वं ॥ प्रापाचपलतु अापी असज्यापी समीहितप्रलापी, देशकालप्रलाप च त्रासमापतुं शीलमस्येप खापी, अथ अदिति कोऽर्थादितिनीको भनं वा अभिधीयते तत्रालीकम साधुम् असाधुं वचीमीति - साधुं साधुमित्यादि, अशोजनं गर्वादिदूषित वचनम-तथा-असमायोग्यम सभ्यमभिधीयते, श्ह सजा एकत्रोपविष्टशिष्टपुरुषसमुदायः, तथा चोक्तम्- “धम्मत्थ सत्यकुसला, सभासया जत्य सा सभा नाम । जा पुण श्रविहिपलुट्टा, बुहहिं सा शाप मेहा तस्याः सभाया योग्यं यद्वचनं तत् सत्यम् । तद्विपरीतमसज्यं तच्च दास चरमान इत्यादिकम्। जकारमकारादिवाक्यरूपं वा सत्यपितुं शीलमस्येत्यसम्यप्रलापी अनुहित्याक मिदं पूर्वापरविरुद्धं किं वा इहपरलोकबाधकमित्याद्यविमृश्य यद्वदति तत् वचनमसमीहितमुच्यते । तत्प्रलपनशीलोऽसमीचितप्रलापी । अथादेशकालप्रलापिनमाहकज्जविवर्त्तिदहुं, जाइ पुत्रं मए उ त्रिष्ठायं । एवमिदं तु विस्सति प्रदेसकालप्पलाची उ (२०६२) निधानराजेन्द्रः । कार्यविपति कार्यस्य विनाशं दृष्ट्वा कवि भगति यथामया पूर्वमेव विज्ञातमिदं कार्यमेवं भविष्यति । यथा केनचित् साधुना पात्र लेपितं ततो रुडं सत् कुतोऽपि प्रमादतः कामनो दात्वं स्यापयन् प्रयोति देवेदं परिकर्मयितुमार देव मया हाते बचे निष्पन मपि प्रयन्ते । एष एवं विधोऽदेशकाले अनवसरे प्रलपनशीबोदेशी व्याख्यातुर्विधोऽपि भाषाचपलः । अथ जायचमाइ जं जं सुयमत्यो वा, उद्दिद्वं तस्स पारमप्पत्तो । अयमा पद्मवगाई। उ जायचत्रले || " किं पुनस्तदित्याह - तेणे सावय भोस, खिचाई बाइ सेहवोरिणो । चंड परियालमाई, वनपजेय वियप ॥ जयेन श्वापनयेन या हुतमपि मच्छे दोषः महान चा कधिदागादस्तस्योपधाननिमित्तं शीप्रम प्रायश्चित्तमाप्नुयात् (वित्ताई इति ) किप्तचित्त आदिशब्दात् तचित्तो यक्काविष्ट उन्मादप्राप्तश्च पते स्थानचञ्चलत्वमपि कु । न च प्रायतिमाप्नुयुःपदा ( चार सि) वादिनो बुद्धि परिभवितुमीकमपि ब्रूयात् यथारोह गुलेन पोशाल रिव्राजकमतिभ्यामोहनाचे "जीवा अजीवा नोचीचातियो राशयः स्थापिताः। तथा कस्य पण्डकादिन्युत्सर्जनविधेये तं निर्भयासज्यमपि भणेत येनोद्वेजितः स्वयमेव गणान्निकम्प गच्छेत प्राथाय वा कुमास्यानोपरमन्ते देशका विमपि कुर्यात् । यथा कमाश्रमणा अमुक संघ तोमुकश्च श्रावको मम पुरत श्वं जगति यथा त्वदीया गुरवः पार्श्वस्था जवन्तः संभाव्यन्ते एतच्च मया पूर्वमपि विज्ञातमासी त् यथा कमाश्रमणानामेवमाचरतामपवादो भविष्यति । एवमु के ते श्लोकभयेनैवोपरमन्ते । बालो वा केलि कन्दर्पादिकुव णोऽपि न निवर्तते ततोऽत्र हितमपि यदपि भाषित्वा निवारणीयः । आदिग्रहणात्प्रत्यनीकादयो वा खरपरुषादिप्रापणैः उपशमयितव्यः । तथा तदुभयच्छेदे इति कस्याचार्यस्य पूर्व सूत्रमर्थो वा विद्यते तस्योजयस्यापि तत्पार्थ्यादनधीयमानस्य व्यय १ कृणा यद् यावश्यक कामकार्व्रन्थस्य तं सूत्रमय या उदि यचयुक-पुं नार्थदशविशेषे तद्वास्तव्ये मनुष्ये च । प्रारब्धं तस्येत्यत्रापि वीला गम्यते । तस्य तस्य पारमप्राप्तः सन्यान्यमाणामा बारादिरूपपरापर शास्त्रतरूण पलबान् तन्मध्यगतालापक श्लोकगाथारूपान् सूत्रार्थलवान् स्वरुया ग्रहीतुं शीलमस्येति पलुवग्राही तुः पुनरर्थेः य एवंविधः स पुनर्भवचपलो मन्तव्यः जवेत्कारणं येन वञ्चकत्वमि कुर्या भवतः पूरयं शास्त्रमर्द्धपतितम मुक्वा ततस्त दुयमध्येयमिति यथाक्रमं पतिस्थानमाचचप द्वितीय मव सातव्यम् । एतप्राथोक्तप्रकारेण कलापमन्तरेण ये गतिचपग्रादयस्तद्विपरीता ये गानापारियल ते स्थ कल्पायनस्यानुयोगमन्तीति गतं पञ्चलद्वारम -१ अनवस्थित, विशे] प्रज्ञा जी मतीयच. श्री विमुक्तस्थैर्ये, झा• १ श्रु० १ श्र० । चपले, श्रौ । भ० नं० । प्रश्न० | " चंचलजी हे धरणीयतं चेति भूश्रं " उपा० २ ० । पंचा-पञ्चाश्री० ''अन्ननिर्मिक " चश्चेव " श्वा कन् “ सुप् मनुष्ये " ५। ३ । ए८ शते तस्य (पाणि०) लुप् तृणमपुरुषे याच चमचञ्चानानि चमरस्व राजधान्याम्, द्वी । स्था० । चंचुचिय-चचुरित । प्राकृतत्वाच्या सुरितमित्यस्य - चिषमिति कुटिलगमने श्र० । चञ्चूश्चित - न• । चचुश्शुकचऽवुः तद्वद्वतयेत्यर्थः उच्चितं उच्चताकारणं पादस्य सच्चितं वा उत्पादनं पादस्यैवं चचुष्टि तम् । पादोत्थापने, " चंचुच्चियत लिम्पुलियचलचचल चंचल गईणं " मा ०। चंचुमालय त्रि० देशी-रोमाध्यिते । प्रव० २७३ द्वार । सुत्र० । चंम - चएफ - त्रि० । क्रोधने, उ० १ ० ० | श्राव•| • कोपसहिते सक्रोधनिध्यातचिते उ० १० अ० । क्रोधने, चारनटवृत्याश्रयणकर्त्तरि, उस० १७ श्र० । रामकोपने परुषभाविनि उस० १ ० रोपणे, दश १ ८० । उत्कटरोषे, शा० १ ० १८ म० रौद्रे, उत्त० २६ अ० जी० ॥ भ० । स० । भौ० । ज्ञा० । तीब्रे, कल्प०२ कण | जं० ॥ · Page #1086 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्निधानराजेन्द्रः। चमिक्किन प्रइन।कर्कशे, स्था.८० । तिन्तिमीवृके, यमकिरकरे, क्त्वा तचिरसि दण्डप्रहारोद्भतरुधिरप्रवाहं पश्यतःपुनस्तवकादैत्यजेदे च । ।अत्यन्तकोपने, त्रि०ावाच । मणं कुर्वतः केवलज्ञानमापुरिति विनीतशिष्यैराशैभाव्यम्। चमकम्मा-चएमकर्मव-त्रिका चएम कोपोत्कटतया रोखामिधा- इति चएमरकाचार्यस्य कथा । उत्त०१० श्रावका प्रा0क01 मरसविशेषप्रवर्तितत्वादतिरौद्रं कर्म समाचरणं येषां ते ।। मा० चूज पश्चात दशा चण्डरुद्राचार्याः शिष्यस्य स्कन्धे उ. रोककर्मकर्तृषु, प्रव० २७३ द्वार। उपविश्य चलिता इति सत्यं नवेति प्रश्नः मत्सरम-श्रीउत्तराचमकोशिय-चएमकौशिक-पुं० । वीरस्य उपसर्गकारिणि क- ध्ययनवृत्ति प्रमुखबहुग्रन्थानुसारण चण्डरुजाचार्येण शिष्यस्य स्मिचित्सपें, पा. काकल्प.मा० मा पा० स्था। कथितं स्वमग्रतो गमनं कुरु पश्चारसाग्रतश्चलितश्चण्डरुजाचा(ततकथा 'वीर' शब्द) र्यास्तु पृष्ठतश्चमिताः कस्मिश्चिदग्रन्थे कथितमस्ति, यचिभ्यस्य स्कन्धे भुजां दत्वा चसिता शति १३ प्र० सेन० ३ उडा० । चमकय-चएमध्वज-पुं० । 'अरुखुरीति' नामनत्यम्समगरस्य माएडलिकरालि, प्रा००। मा० चूल। चंएहविस-चएमविष-पुंग। चरामं झगिति अल्पकालेनैष दष्टशचंडदंम-चएडदएम-१०। रौदण्डकर्तरि, “पावा पचंमदमा, | रीरव्यापकं विषं यस्य सः गिति दष्टशरीरव्यापकविषयुक्ते स का० १७०८ म०। उत्त० भ०। प्रणारिया णिग्घिणा णिपणुकंपा। धम्मोत्ति भक्खरा,जेसुण णज्जंति सुविणो वि" सूत्र.१०५०१०। मा-चएमा-स्त्री० । तथाविधमहत्त्वानावेनेषत्कोपादिभावास चंमपज्जोय-चएम्प्रद्योत-पुं०। मालवदेशभूपसेव्ये उज्जयिन्या एका चमरादीनां देवेन्काणां मध्यमायां पर्षदि, । भ० ४ श०१ नगर्याः स्वनामख्याते राकि, विशे।(उदयनेन पराजयः 'उ. उ० जी० । स्था० । गत्युत्कर्षयोगाद्रौद्रायां देवगतो, भ०६० दयन' शब्दे द्वितीयभागे ७८३ पृष्ठे अक्तः) उत्ताताखा) १० उ०। दुर्गानायिकाभेदे, “उप्रचण्डा प्रचएमा च, चण्डोग्रा मा० म० । प्रनि ।(काम्पिल्यराजेन द्विमुखेनास्य पराजयः। चएमनायिका । चएका चरामवती चराम-नायिकाप्यतिएिमअस्मै मदनमज्जाः दानं च 'दुमुह' शब्द) का" चोरनाम्नि गन्धरूव्ये, शबपुष्पीद्रुमे, लिङ्गिनीमता याम, कपिकचाम, माखुपराएाम, श्वेतदूर्वायां च । नदीचमपिंगल-चएमपिङ्गल-पुं० । स्वनामख्याते चौरे, स चरा भेदे, एतासां चण्डवीर्यत्वात् तथात्वम । कोपनायां त्रियाजगणिकारत ति राका मारितः। प्रा० मापाचा (तस्यैव म, च । वाच० । रुषायां तीवायामतिशायिन्याम सत्कराक्षः पुत्रो जूत्वा जातिस्मरणेन स्वयं संबुद्ध शत णमोकार टायां वक्तुमशक्यायाम, उत्त०१८ ० । “विपुला कसा शब्दे उदाहरिभ्यते)। पगाढा चंमा पुहा तिब्वा दुरहिय ति" एकार्थाः। विपा०१ चंममेह-चएममेघ-पुं० । अश्वग्रीवस्य प्रतिवासुदेवस्य स्वनाम भु०१०। विपुला तीवा चण्डा प्रगाढा कमी कर्कशा .. ख्याते दूते, यः प्रजापतिसुतस्य त्रिपृष्ठवासुदेवस्य सभायामाध. त्येवं लक्षणा अष्टग्या । अंत०४ वर्ग। प्रवरापरनामिका श्री. र्षितः । प्रा० म०प्र० । मा० चू० । पासुपूज्यस्य जिनेन्द्रस्य शासनदेव्याम, सा च श्यामवर्णा तुर. चंमरुह-चएमरुष-पुं०। प्रकृतिरोषणे स्वनामस्याते प्राचार्य । गवाहना चतुर्तुजा बरदशक्तियुक्तदक्षिणकरयुगा पुष्पगदायुततत्कथा चैवम् घामकरद्वया च । प्रव०१६ द्वार । " उज्जयिन्यां चएकरुषत्रिः समायातः स रोषणप्रकृतिः | चंमानिल-चएमानिल-पुं०। चराममारुते,०२ वक्ष०ा "चमासाधुन्यः पृथक् एकान्तस्थाने प्रासनं चके मानकापात्प- मिलपहपतित्वधाराणिवायपनर "-०७ श६उ01 त्तिरिति चित्ते विचारयति । श्तश्च इभ्यसुतः कोऽपि नवपरि- चमाधर-चएमाधर-त्रि० । चएमाधरोष्ठे, विपा० १ श्रु०२०। णीतः सुहृत्परिवृतस्तत्रागत्य साधून वन्दते। कैश्चित्तन्मित्रैर्हा-चंमाल-चएडाल-पुं० । स्त्री०। चण्डेन असमस्य चएमेन वा स्येन प्रोक्तम् । अमुंप्रवाजयता साधुभिर्वरमित्यभिधाय गुरुदर्शि- | कलितः स चातिकूरत्वाच्चएडाः । उत्त०१ ०ा शुभेण ग्राह्यतः। तेऽपि गुरुसमीपे गताम तथैव तैरुकम।गुरुभितिमानयेति ण्यामुत्पन्ने, आचा० १ ० १ अ०१०। उत्स० । "माहणा स्त्रप्रोके तेन नवपरिणीतन हास्यादेव स्वयंतिरानीता गुरुभिर्व तिया बेस्सा, चंडामा अदुवोकसा। पसि पावेसिया सहा,जे य मादेव गृहीत्वा तल्लोचः कृतः। सुत्दः खिन्नास्तदा नष्टाः तस्य प्रारम्भणिस्सिया" सूत्र०१ श्रु०० अ०।“ रेवयसरमंताओ, तु कृतलोचस्य अघुकर्मतया मतः परं मम प्रव्रज्यवास्तु इति प- हति हजाविणो। कुचेला य कुवित्तिय, चोरा चंडासमुट्ठीरिणामः सम्पन्नः। ततस्तेनो केक्षिः सत्यं नृतः। अथ अन्यत्र ग या" ॥१३॥ अनु । करकर्मणि-वाच। म्यते। गुरुराह-अहो शिष्य ! साम्प्रतं रात्रिर्जाता अहं रात्रौ न चंडालिय-चएमालीक-न। चण्डः क्रोधस्तवशादलीकम् । पश्यामि । तेन स्वस्कन्धे गुरुरारोपितः उचनीचप्रदेशे माग वहतातेन गुरोः खेद उत्पादितःखिनेन तेन गुरुणा भस्य शिरास यद्वा-चएमाले, चएकामजातौ नवं चएमालीकम् । अनृतनापणेदरामप्रहारा दत्ताः। असौ मनसि एवं विचारयति-"अहो म. चण्डालकर्मणि, उत्त.१०। हात्मायं मयेशीमवस्थां प्रापितः" इति सम्यग्भावयतः तस्य चंमिक-चाएिडक्य-जा रौद्राकारकरणे, क्रोधकषायविशेषका. केवलज्ञानमुत्पन्नं केवलज्ञानबलेन समप्रदेश एव वहन् गुरु- ये, गौणमोहनीयकर्मणि, स०५१ सम० भ०। भिरेष उक्तः-मारिःसार इति। कीदृशः समो वहनसि तेनोक्तं चंमिकिन-चाएिमक्यित-त्रि० । चाएिमस्यं रौद्ररूपत्वं संजा. युमतप्रसादात मे समं वहनम् । गुरुभिरुक्तं किम् अरे ज्ञानं समु. नमस्येति चामिक्यितः संजातचारिडक्ये प्रकटितरोधरूपे, स्पन्नं तवा तनोक्तम्-कानमेव गुरुभिरुकं प्रतिपाति अप्रतिपाति,वा भ७श०८ उ० का नि००। विपा० । ज० दारुणीच. सनातम-प्रप्रतिपाति । गुरवस्तु हामया केवलीपाशातित इत्यु- ते,विपा०१०१०। रोषण।नूते, नि०१ वर्ग । मासु Page #1087 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद (१०६४) चंडिवित्र अभिधानराजेन्द्रः। इते रुठे कुविए चंडिक्किये मिसिमिसियमाणेति" एकार्थाः।। (कामभोगौ 'जोइसिय' शब्दे वन्यस्य) (चरूस्य गातेसत्त०२११०। परिमाणम् 'मंगल' शब्द) (ज्योत्स्नावक्तव्यता 'दोसिणा' शब्द) चंडिक-देशी-रोषे, दे० ना.३ वर्ग। चकस्य परिवार:चंभिय-देशी-कृत्ते, दे. ना०३ वर्ग। एगमेगस्स गं भंते चंदस्स केवा महग्गहा परिवारा?, चंमिल-देशी-पोने, दे० ना० ३ वर्ग। केवइया एक्खत्ता परिवारा, केवड्या तारागणकीमाचंमीदेवग-चएमीदेवक-पुं० । चक्रधरप्राये चण्डीजक्ते,सूत्र०१ कोडीओ पणत्ताओ?। गोअमा! अहासीमहग्गहा परिभु०७०। वारो। अट्ठावीसं णक्ख ता परिवारो। गवट्ठिसहस्साई चंद (5) चन्छ-पुं०। 'चदि' माहादे । णिच् रक । “स. एक्सया तारागणकोमाकोमीएं पएणना ॥ पत्र सबरामचन्छे" ॥८।२ । ७६ ॥ इत्यचन्द्रपर्युदासान रे पकैकस्य भदन्त! चन्छस्य कियन्तोमहाग्रहाः परिवारः। तथा फस्य मुक । चन्छ' संस्कृतसमोऽयं प्राकृतशब्दः। अत्र "रो कियान्त नकत्राणि परिवार तथा कियन्यस्तारागणकोटाको. नया" ॥८॥।८० ॥ इति विकल्पो न भवति । निषेधसा व्यः परि वारजूताः प्रज्ञाप्ताः? जगवानाद-गौतम! अष्टाशीतिमात् । संस्कृतसमे तु वा रलुक 'चंदो चन्छो'। प्रा०२ महाग्रहाः परिवार। अष्टाविंशतिनकत्राणि परिवारः। षट्पष्टिस. पाद । “बर्गेऽन्त्यो वा"॥८।१।३० । इति परसवर्णो वा । इस्राणि नवशतानि । पञ्चसप्तशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि ताराप्रा.१पाद । ज्योतिष्काणामिन्छे, स्था० २ ठा०३० भ०। गणकोटाकोटीनां परिवारभूतानि प्राप्तानि। यद्यप्यत्र पते चन्द्रस। शशधरे, औ०। चन्द्रःशशी निशाकर नमुपतिः रजनी- स्येव परिवारतयोक्तास्तथापि सूर्यस्यापीत्वादेते एव परिकर इत्येवमादिचन्छपर्यायाः। प्रा००१ म. प्रा० म.। वारतयाऽवगन्तव्याः समवाङ्गजीवाभिगमसुत्रवृत्यादौ तथादप्रका० । स्था•। सूत्र.। प्रभ० । भ० । प्रव० । शनात् । जं. ७ वक्षः। स०। (पर्वचन्द्रमप्तः पर्वविचारः तस्य पूर्वापरयर्तमानभववक्तव्यता 'पन्य' शब्द) [ युगमध्ये चन्द्रसूर्याः 'जुग' शब्दे ] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायागहे नामं नगरे गुणसि वर्णकःलए चेइए सेणिए राया, तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी | ससिं च गोखीरफेणदगम्यस्ययकलसर्पमुरं । सुर्ज हि समो सढे । परिसा निग्गया, तेणं कालेणं तेणं समएणं भयनयणकतं । पमिपुम । तिमिरनिकरघणगुहिरवितिमिचन्दो जोऽसिंदे जोइसराया चंदवर्भसए विमाणे सभाए मुह-| रकरं । पमाणपक्खंतरायवेडं । कुमुप्रवणविवाहगं । निसाम्माए चंदसि सीहासणंसि चनहिं सामाणियसाहस्सी-| सोहगं । सुपरिमट्ठदप्पणतलोनमं । हंसपडुवन्नं । जोइसमुहमहिं० जाब विहरति । इमं च णं केवलकप्पं जवुद्दीवे दीवे वि- मगं । तमरिपुं । मयणसरापूरगं । समुहदगपूरगं । पुम्मणं । उलेणं मोहिणा आभोएमाणे पासति पासित्ता समणं | जणंदइयवजिनं पाएहिं सोसयंत । पुणो सोमचारुरूवं । जगवं महावीरं जहा मरियाभे आनिमोगि सदावित्ता पिच्छा। सा गगणमंमलविसालसोमचंकम्ममाणतिनयं । नाव सुरिंदाजिगमणजोगं करेता तमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति| रोहिणिमणहिअयवसाई देवी पुषचंदं समुझसंतं ॥३॥ सुस्सरा घंटा०जाव विउन्त्रणा। नवरं जोयणसहस्सं वित्थिन "ससिं चेत्यादि" ततः पुनः सा त्रिशला देवी षष्ठे स्वप्ने शशिप्रचतेवहिजोयणसमृसियं महिंदज्जत्तो पणवीसं जोय- नं पश्यति। भय कीदृशम (गोत्रीरं ति) गोकोरं धेनुदुग्ध फेनं प्र समूसिते सेसं जहा मरियाभस्समजाव आगतोणविही सिद्ध दकरजांसि जलकणाः (रणयकलस त्ति) रजतकलशो सहेव० जाव पमिगतो । नि० ३ वर्ग । स्था। सप्यघटः तद्वत्पाण्डुरम उज्ज्वलम। पुनः किंविशिष्टम-(सुभं ति) बाभम् । सौम्यमापुनः किंविशिष्टम्-(हिअयनयणकंत)अत्र लोका(चन्मस्य अग्रमाहिण्यः 'अग्गमहिसी' शब्दे प्रथमन्नागे १७५ नाम इति शेषः। ततध-लोकानां हदयनयनयोकान्तं बहुभम । पृष्ठे उक्ताः) (अनुनावश्चन्बसूर्यादीनाम 'जोशसय ' शम्दे)। पुनः किविशिष्टम-(पमिपुम्मं ति) प्रतिपूर्ण पूर्णमासीसत्कम । (अमावास्यायोगः चन्द्रेणामावास्यापौर्णमासीयोगश्चान्द्रमा पुनः किविशिष्टम् “तिमिरनिकरेत्यादि " तिमिराणाम अन्ध. सवतम्यता 'जोग' शब्दे,) (अयनं चन्मस्य 'अयन'। काराणां निकरण समूहेन (घण ति) घना निविडा गम्भीरा ये शब्दे प्रथमजागे ७५१ पृष्ठे कष्टव्यम् ) ( अवजासनम कति धनगहरादयः तेषाम अन्धकाराभावकरं बनगहरस्थिताम्धकासूर्य्याः कति चन्द्राः सर्वलोकमवनासयन्ति इति जोसिय' रनाशकम् इत्यर्थः। यमुक्तम-"विरम तिमिरसाहसादमुष्मा-द्यदि शम्बे)“दो चंदा इह (जंबूद्वीपे) चतारि य सागरे लवणतोप| रविरस्तमितः स्वतस्तः किम । कलयास न पुरो महोमहोर्मिघायलंडे दीवे, वारस चंदा य सूराय" स्था०२ ग०३ उ०।। स्फुटतरकैरवितान्तरितमिन्दुम्" ॥१॥ पुनः किंविशिष्टम्-(पमा(चन्द्रसूर्यादानां संख्यानं जम्बूद्वीपादिशब्दषु,) ( चन्द्रसू-। णपक्वंतरायलेहं ति) प्रमाणपक्षौ वर्षमासादिमानकारिणौ यौ याणामावृत्तय 'माउहि' शब्दे द्वितीयभागे ३० पृष्ठे उक्ताः) पक्षी शुक्लकृष्णपक्की तयोः (अंतत्ति) अन्तर्मध्ये पूर्णिमायाम् इत्य(उच्चत्वम् 'जोइसिय' शम्बे) (चन्द्रस्योद्धातादिचन्द्रिकादि। र्थः। तत्र (राय सि) राजन्यः शोभमानाः लेखाः कला यस्य स व सूर्यस्येव 'सूर' शब्द केयम् ) (चन्द्रोपपातः 'उघवाय तथा तम् । पुनः किंविशिष्टं शशिनम-कुमुश्रवणविवादग) कुमुशम्दे)(चन्द्र ः द्वितीयभागे 'उड'शब्दे ६५२ पृष्ठे सक)॥ वनानां चम्कावकालिकमबवनानां विबोधकं विकाशकं यतः Page #1088 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६५) अभिधानराजेन्द्रः। "दिनकरतापन्याप-प्रपनमू नि कुमुदगहनानि । उत्तस्थु- जागं० जाव पारसीए पएणरममं भागं । चरिमे समए चंदे रमृतदीधिति-कान्तिसुधासेकतस्त्वरितम्" ॥३॥ पुनःकिविशि विरत्ते जवति । अवसेसे समए चंदे रत्ते य वित्तेय भवति ।। एम शशिमम-(निमासोरगत्ति) निशाशोभकं रात्रिशोनाका. रकमापुनः किंविशिष्टम् शशिनम-"सुपरिम?" त्यादि । सुप अयं णं पुणिमासिणी । तत्य खनु मातो वावहिपुम्मिमातो रिमृष्टं सम्यक प्रकारेण रतादिना उज्ज्वलितं यत् दर्पणतलं | वावठि अमावासातोपासत्तातो।वावढिएए कसिणा विरागा। तेन उपमा यस्य स तथा तम।पुनः किंविशिष्टम-हिंसपमुवयं एए चउबसे पव्वसिते एए चरबीसे कसिणरागसए ता इसषत पटुवर्णम् उज्वलवर्णमित्यर्थः । पुनः किंविशिष्टं जावतियाणं पंचएहं संवच्छराणं समया एएणं चउन्नीसेणं शशिनम ( जोसमुहमंमगं) ज्योतिषां मुखमएमकम । पुनः कि विशिष्टम-( तमरिपुं ] अन्धकारवैरिणम । पुनः किं सतेणं ऊणगाए वति ताणं परित्ता असंखेजा देसरागविराविशिष्टम-(मयणसरापूरगं) मदनस्य कामस्य शरापूरमिव गसता नवंतीति मक्खाता। ता अमावासातो गं पुछिमासितूणीगमिव , अयमर्थः-यथा धनुर्धरः तूणीरं प्राप्य मुदितो णी चत्तारि वायाले मुहृत्तसते छातानीस वावहिभागे मु. निःशएं मृगादिकं शरैविध्यति एवं मदनोऽपि चन्छोदयं प्राप्य दुत्तस्स माहितातिवदेजा । ता अमावासातो णं अवामासा निःशङ्को जनान् बाणाकुलीकरोति । पुनः किं विशिष्टम"समुह " इत्यादि । समुमोदकपूरकं जसधिवेसावर्ककमि अट्ठापंचासीते मुटुत्तसते तीसं च वाचट्ठिभागे मुहुनस्स त्यर्थः । पुनः किंविशिष्टम्- उम्मणं ति) धर्मनस्क व्यप्रम् । आहियाति वदेजा। ता पुसिमासिणीतोणं अमावासाचत्तारि ईरशम ( दश्यवनियन्ति ) दयितेन प्राणवल्लनेन रहितं वायाले मुटुत्तसते तं चेव ता पुएिणमासिणीतो णं पुछिअनं विरहिणीलोकम इत्यर्थः । ( पाएहि सोसयंतं ) पादैः मासिणी अहापंचासीते मुहत्तसते तीसं च वावहिभागे किरणैः शोषयन्तं षियोगिदुःखदम इत्यर्थः । यत:-" रजनिमाथ! निशाचर! मते! विरहिणां रुधिरं पिवसि ध्रुवम् ।। मुहृत्तम्स आहिताति वदेजा । एस णं एवइए चंदे मासे सदयतोऽरुणता कथमन्यथा, तब कथं च तके तनुताभृतः मासे । एसएं एवतिए सगसे जुगे ॥ ॥१॥" (पुणो ति) पुन शन्दो धुरि योजितः। पुनः किं- "ता कदंते" इत्यादि 'ता' इति पूर्ववत् । कथं केन प्रकारेण विशिएम-(सोमचाररूवं ति) यः सौम्यः सन् चारुरूपो स्वया भगवन् ! चन्नमसो वृश्चद्धी प्राख्याते इति षदेत । मनोहररूपः तम् । प्रेत शति क्रियापदम (सा) त्रिशला। किमुक्तं नवति-कियन्तं कालं यावत् चन्मसो वृद्धिः कियन्तं पुनः किविशिष्टम- गगणमंमल सि) गगनमण्डलस्य कालं यावदपवृद्धिस्त्वया भगवन् ! अान्याता इति वदेत । एव. माकाशतमस्य ( विसाले सि । विशासं विस्तीर्णम् । मुक्त भगवानाह-"ता अ" इत्यादि 'ता' इति पूर्ववत् । अष्टौ (सोमसि । सौम्यं सुन्दगकारं (चंकम्ममाण ति)चक्र- मुहूर्त शतानि पञ्चाशीत्यधिकानि । एकस्य च मुहूर्नस्य त्रिंशतं म्यमाणं चलनस्वनावं पवंविधं तिलकं तिलकमिव शोजाकर द्वाष्टिभागान यावद्ध्यपवृद्धी समुदायेन आख्याते इति वदेत् स्वात् । पुनः किविशिष्टम,-"रोहिणीमणे" स्यादि । रोहिण्या तथा धेकस्य चन्द्रमासस्य मध्ये एकस्मिन् पके.चन्नमसो वृ. अन्जवल्लनायाः (मण त्ति) मनश्चितं तस्य (हिश्रय ति) द्धिरेकस्मिन् चापवृषिः, चन्द्रमासस्य च परिमाणमेकोनत्रिहितदो हितकार। एकपाक्षिकप्रेमनिरासार्थ हितद इति विशे- शतरात्रिन्दिवानि । एकस्य च रानिन्दिवस्य हात्रिंशतद्वावधिपणम् । इरशः। वनहं ति) वनो यस्तम इदं कविसमयापे. भागाः रात्रिन्दिवं चत्रिंशदूमुहूर्त करणार्थमेकोनत्रिशता गुण्यते कया। अन्यथा-रोहिणी किस नक्षत्रं नवचम्झयोश्च स्वामिसे. जाताम्य शतानि सप्तत्यधिकानि ८७० मुहत्तीनाम् । येऽपि बकभाष पव सिद्धान्ते प्रसिद्धः। न तु खीभर्तृभावः। (देवी) च द्वापष्टिमागा रात्रिन्दिवस्य तेऽपि मुहूत्तसत्का भागकरणार्थ त्रिशाला पूर्णचन्कम, वं विशेष्यम् । (समुसतं) ज्योत्स्नया त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि नवशतानि षष्टयधिकामि ए६. तेषां शोभमानम् ॥ ३० ॥ कल्प. ३ कण । द्वापराचा नागो दियते लब्धाः पञ्चदश मुहूर्ताः १५ ते मुहर्तचन्द्रमसो वृद्धिः राशी प्रक्षिप्यन्ते जातानि मूहूर्तानामष्टौ शतानि पञ्चाशीत्यधिता कहं वे चंदमसो बहोवही प्राहिताति वदेजा। कानि[८८५] शेषाश्चोदरन्ति । त्रिंशदापष्टिभागा मुहूर्यस्य, एतदेव प्रतिविशेषावबोधार्थ वैविध्येण स्पष्टयति-"ता दोसिणावा अढे पंचासीते मुहृत्तसते तीसं च वावडिभागे मुबु पक्रवातोणं" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत । ज्योत्स्नाप्रधानः पका सस्स भाहितातिवदेजा । ता दोसिणापक्खातो णं अं- ज्योत्स्नापकः शुक्लपक्क इत्यर्थः। तस्मात् अन्धकारपकमयमानो धकारपक्खं भयमाणे चंदे चत्तारि वायाले मुद्त्तसते गच्छन् चन्भः चत्वारि मुहूर्तशतानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि, गयात्रीस च वावहिजागे मुटुत्तस्स जाई चंदे रजति, तं षट्चत्वारिंशतं च द्वाष्टिभागान् मुहूर्तस्य यावदपवृद्धि जहा-पदमाते पढमं जाग जाव पएणरसीते पएणरसम गच्चतीति वाक्यशेषः । यानि यथोकसंण्यानि मुहर्तशतानि यावत् चन्छो राहुविमानप्रभया रज्यते कथं राज्यत इति। जागं चरिमे समए चंदे रचे भवति । अवससे समए चंदे| तमेव रोगप्रकारं तद्यथेत्यादिना प्रकटयति प्रथमायां प्रतिपरत्ते य विरते य जवति । इयं णं अमावासं एत्थ णं पढमे | लकणायां तिथौ परिसमाप्नुवत्यां परिपूर्ण प्रथम पञ्चदशं जागं पन्ने अमावासा | ता अंधारपक्वतोपं दोसणापक्खं अ यावत् रज्यते । द्वितीयायां परिसमाप्नुवत्यां तिथौ परिपूर्ण यमाणे चंदे चत्वारि वायाले मुहत्तसते गयालीसं च वाव द्वितीयं पञ्चदशभागं यावता एवं यावत पश्चादश्यां तिथौ परि समाप्नुवयां परिपूर्ण पश्चदशभागं यावत् तस्याश्च पञ्चदश्याः भिागे मुडुचस्स जाई चंदे विरज्जा । तं जहा-पढमाए पढमं] तिथेचरमसमये चहा सर्वात्मना राइविमानप्रजया रक्तो नवति Page #1089 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद प्रनिधानराजेन्दः। रोहितो भवतीति तात्पर्यार्थः । यस्तु षोमशो भागो द्वापष्टि- पर्वशब्दस्य वाच्यत्वात् तासां च पृथक पृथक् द्वाधिसंख्यानामे भागद्वयात्माकोऽनावृत्य तिष्ठति स स्तोकवादश्यत्वाचन कत्र मीलने चतुर्विशत्यधिकशतत्वात् एवमेव युगमध्ये सर्वसं. गएयते । " अवसेसे "इत्यादि पञ्चदश्यास्तिथेश्वरमसमयं- कानया चतुर्विशत्यधिकं कृत्स्नरागविरागशनम् “ता जाव. मुक्त्वा शेषेषु सर्वेष्वपि समयेषु चन्द्रो रक्तो भवति । विर- श्याणं " इत्यादि । यावन्तं पश्चानां चन्द्रचन्द्राभिवतिरूपाक्तश्च ।कियान् स तस्य राहुणा श्रावृतो भवति कियांश्चानावृत णां समयाः एकेन चतुर्विशत्यधिकेन समयशतेन एतावन्तः इति जावः । अन्धकारपकवक्तव्यतोपसंहारमाह-"इयं णं" - परिमिताः असंख्याता देशरागविरागसमयाः एतेषु सर्वेष्वस्यादि। इसमन्धकारपते पञ्चदशीतिथिः 'ण' इति वाक्यालंकारे पि चन्द्रमसो देशतो रागविरागभावात् यत्तु चतुर्विशत्यधिअमावस्यानाम्नी तत्र च युगे प्रथमे पर्व श्रमावास्या, श्ह मुख्य- के समयः शतं तत्र द्वाषष्टिसमयेषु, कृत्स्नो रागो द्वाषष्टिसमयेषु वृत्या पर्वशब्दस्याभिधेयममावस्या पौर्णमासी च । उपचारात कृत्स्नो विरागस्तेन तवर्जनमित्याख्यातं मया इति गम्यते । भगव. पक्के पर्वशब्दस्य प्रवृत्तिः। तत् उक्तम्-"इत्थ णं परमे पब्वे प्रमा- वचनमेतत् सम्यक् श्रमेयम् । संप्रति कियत्सु मुहूर्तेषु गतेषु बासा" इति । अथ कथं चत्वारि मुहूर्तशतानि चत्वारिंशदधि- अमावास्यातोऽनन्तरा पौर्णमासी ? कियत्सु वा मुहूर्तेषु गतेषु कानि षट्चत्वारिंशच द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य ? उच्यते-रह शुक- पौर्णमास्या अनन्तरममावास्या इत्यादि निरूपयति-"ता - पक्षः कृष्णपको वाचन्द्रमासस्या? ततःपक्षस्य प्रमाणं चतुर्दश- मावासातोणं" श्यादि सुगमस् । नवरम अमावास्याया भनरात्रिन्दिवानि रात्रिन्दिवस्य सप्तचत्वारिंशतद्वापष्टिनागाः, रात्रि- न्तरं चन्द्रमासस्यान पौर्णमासी, पौर्णमास्या अनन्तरमझमादियस्य परिमाणं त्रिंशत् मुहूर्ताः इति। चतुईश त्रिंशता गुण्यन्ते सेन चन्द्रमासस्यामावास्या, अमावास्यायाश्च अमावास्याजातानि मुहूर्तानां चत्वारि शतानि विंशत्यधिकानि ४२० येऽपि परिपूर्णेन चन्द्रमासेन, पौर्णमास्या अपि पौर्णमासी परिपूर्णेन व सप्तचत्वारिंशत द्वाषष्टिभागाःरात्रिन्दिवस्य तेऽपि मुहर्तभाग- चन्द्रमासेन भवति । यथोक्ता मुहर्तसंख्या । उपसंहारमाहकरणाथै त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि चतुर्दशशतानि दशोत्त "एस णं" इत्यादि । एष अष्टौ मुहूर्तशतानि पश्चाशत्यधिकानि राणि १४१० तेषां द्वाषष्टया भागो न्हियते लब्धाः द्वाविंशतिमु. द्वात्रिंशच द्वाष्टिभागा मुहूर्तस्येति एतावान् पतावत्प्रमाणश्वदूस्तेि मुहतराशौ प्रतिष्पन्ते जातानि मुहूर्तानां चत्वारि श- बमासः। तत एतावत्प्रमाणं शकलं खामरूपं युगं चन्द्रमातानि द्विचत्वारिंशदधिकानि ४४५ शेषास्तिष्ठन्ति-षट्चत्वारिंश- सप्रमितं युगं सकलमेतदित्यर्थः। चं०प्र०१३ पाहु ।स। वापष्टिभागाः मुहूर्तस्य ४६ तदेवं यावन्तं कासं चन्द्रमसोऽप- (राहुभेदाः 'राहु' शब्दे ) (राहु सकाशचन्द्रसूर्यग्रहवृषिःतावत्कासप्रतिपादनं कृतम्। अथ यावन्तं काळं वृकिस्तावन्त णवतव्यता 'गहण' शब्दे अस्मिन्नेव भागे ८६१ पृष्ठे गता)। मनिधित्सुराह-"ता अंधकारपक्खातोणं" इत्यादि । ता इति चन्भवृच्या जीवानां वृद्धिहान्योपूर्ववत्। अन्धकारएकात् 'ण' इति वाक्यालङ्कारे ज्योत्स्नापकं शु. जति णं भंते ! समणेणं जगवया महावीरेणं० जावपकमयमानश्चः चत्वारि द्विचत्वारिंशदधिकानि मुहूर्तश. संपत्तणं नवमस्म नायज्स्स अयमढे पसत्ते दसमस्स एं तानि षट्चत्वारिंशतं च द्वापष्टिभागान् मुहर्तस्य यावत् किमुपगच्छति इति वाक्पशेषः । यानि यथोक्तसंख्यानि मुहर्ता भंते!णायज्झययस्स समणे णं भगवया महावीरेणं जाव सानि यावश्चन्ः तैर्विरज्यते राहुविमानेनानावृतो भवतीति ।। संपत्तेणं के अढे पाणते एवं खलु जंवू ! तेएं कालणं विरागप्रकारमेवाह-"तं जहे" इत्यादि । तद्यथेत्यादि । विरा-| तेणं समएणं रायगिहे णाम गरे होत्या तत्य णं रायगिहे गप्रकारः प्रदश्यते-प्रथमायां प्रतिपक्षणायां तिथौ-प्रथमं पञ्च- णयरे सेगिए णाम राया होत्या । तस्स एं रायगिहस्स दशभागं यावश्चन्छो विरज्यते। द्वितीयायां द्वितीयं पञ्चदशभागं पावतापवं यावत् पश्चदश्यां पञ्चदशभागम् । तस्यां च पश्चदस्यां। एयरस्स पहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीजाए एत्य णं गुणतिथीपार्णमासीरूपायां चरमसमये चन्द्रो विरक्तो भवति; सर्चा सेलए णाम चेइए होत्या तेणं कामेणं तेणं समएण समणे स्मनाराइविमाननानावृतो नवतीति जावः। तं पञ्चदश्याश्चरमस- भगवं महावीरे पुन्वाणुपुचि चरमाणे गामाणुगामं मयं मुक्मवा शुक्लपक्वप्रथमसमयादारज्य शेषेषु समयेषु चन्द्रोरक्तअभवति विरक्तश्व नवति देशतोरक्को भवति देशतोविरक्तश्चेति हजमाणे मुहं सुहेणं विहरमाणे जेणेव गुणसेलए चेइए प्रायः । मुहूर्तसंख्या जावनाच प्राग्वत कर्तव्या । शुक्रपकवत तणेव समोसढे परिसा णिम्गया सेणियो वि राया भ्यतोपसंहारमाह-"इयं णं" इत्यादि। श्यमन्तरादिता पञ्चदशी. णिग्गो धम्म सोच्चा परिसा पमिगया तए णं गोयमे तिथिः पौर्णमासीनाम्नी अत्रच "जुगेण" पूर्ववत् । द्वितीयं पर्व समयं जग महावीरं एवं क्यासी-कहणं नंते ! जीवा पूर्णनासी अथैवंरूपा युगे कियन्तोऽमावास्याकियन्त्यश्च पौर्ण वहति वा हायति वा गोयमा ! से जहानामए बहलपक्खमास्य इति। युगे तद्गतसर्वसंख्यामाह "तत्थ खा" इत्याद । तत्र युगे खरिखमा एवं स्वरूपा द्वापष्टिः पौर्णिमास्यो द्वापष्टिश्चामावा स्स पामिवयाचंदे पुलिमाचं पणिहाय होणे वोर्ण हणे स्याः प्रप्ता तथा युगे चम्ममस पते अनन्तरोदितस्वरूपाक- सोमयाए हीणे णिच्याए हाणे कंतीए हीणे एवं स्नाः परिपूर्णा रागा द्वायष्टिरमावास्यानां युगे द्वाषष्टिसंख्या दित्तीए जुत्तीए गायाए पभाए ओयाए लेस्साए मंझनेणं प्रमाणत्वात् तास्वेव चन्मसः परिपूर्णरागसंभवात् पते अन- तयाणंतरं च णं वीयाचंदो पामित्रयं चंदं पणिहाय हीणतन्तरोदितस्वरूपा युगे चन्द्रमसः कृत्स्ना विरागाः सर्वात्मना रागाभावाद् द्वाष्टिः युगे पौर्णमासीनां द्वापष्टिसंख्यात्मकत्वात् राए वोणं जाव मंमलेणं तयाणं तरं च णं तइयादेवीइतास्वेव चन्द्रमसः परिपूर्णविरागसंभवात्। तथा युगे सर्वसंख्य. याचंदं पणिहाय होएतराए व गंजाब मंडलेणं एवं खनु यापक चतुर्विशत्यधिकं पर्वशतम् । अमावास्यापोर्णमासीनामेव । एएणं कमेणं परिहायमाणे परिहायमाणे जाव अमावसाचं Page #1090 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६७) अभिधानराजेन्द्रः । चंद देउसि पणिहाय हो वो जान को ले वामेव समाउसो ! जो अहं निधो वा निग्गंधी वा० जाव पब्बतिय समाणे हीणे संतीए एवं सुधीर गुचीए अनवेषां महदेणं लाघनेणं सध्येयं तपणं धियाए प्र किंचाएवं चेरवासे णं तयाणंतरं च दीणतराए खंतीए जान हीणतरा वंभचेरवासणं एवं खलु एएवं क मेणं परिहीयमाणे परिमाणे राखेतीए० जाव नहे चरवासे से जहा वा सुकपक्वस्त पामिवयाचंदे - मावासाचंदं पणिहाय अहिए बो० जाव आईए मंमलेणं तपातरं च बीयाए चंद्रे पाश्विवाचंद पनिहाय अहियतराए वो जात्र अहिययराए मंगलेणं एवं खलु एएवं कमेणं परिवमा०२ जाब पुचिमानंदेचा उदसिदं पक्षिय परिपुए बच्छेनं० नाव पविपुखे मंडलेणं एषामेव समासो ! जब पचतिए समाने अदिए खेती जाव बंजरवाणं तयानंतरं च णं महिष्यराए खेतीप्० जाव बंभचेरवासे णं एवं खलु एषणं कमेणं परिवमाणे० २ जाव परिपु मचेरवासे णं एवं खसु जीवा बहु वा हासि एवं खजं समयेणं जगच्या बहावीरे०जाब सं पदसमस्सया प्रमाणे चित्रेमि ॥ दशमं विशियस्य सायं पूर्वेण सह संवरथः अनन्त राध्ययने विरतिवशवर्त्य वशवर्त्तिनोरनर्थेत राबुक्काविह तु गुरुहानिवृकिलकणानर्थाः प्रमाद्यप्रमादिनोरभिधीयेते । इत्येवं संबन्धमिदं सबै सुगलं नवरं जीवानां व्यतो ऽनन्तत्वेन प्रदेशतका प्रत्येक मं सख्यात प्रदेशत्वेन । वस्थित परिमाणत्वात् वर्कन्ते गुणैहयन्ते च तैरेव अनन्तरनिर्देशत्वेन हानिमेव तावदाह - "से अस्यादि" [पणिहा ]ि प्रणिधावायवर्णेन शुक्लाल मेन सोम्यतया सुखदर्शनीयनया स्निग्धया कक्षा का [मस्या कमनीयतया दीया दीपनेन वस्तुप्रकाशनेनेत्यर्थः [तुती पत्तियुक्त्या आकाशसंयोगेन खएडेन हि मण्डले नाल्पतरमाकारसंयुतेन पुनर्यायत्संम्पूपर्णेनेति गयाया जलादौ प्रतिषिम्बलक्षणया शोभया वा प्रजया वा उमनसमये द्युतिस्फुरण - तया [श्रया सि] भोजसा दादापनयनादिस्वकार्यकरणशक्या लेश्या किरणपा मण्डलेन वृतता मयादिगुणानिच कुशीत गुरुणामयुपासनात्प्रतिदिनं प्रमादपदसिवमालधाविधचारित्रावरणकम्मोदयाय भवतीति गुणवृद्धि तद्विपर्ययादिति । एवं च होममानानां जीवानांना लम्प निर्वाणसुखरुपायाप्तिरिश्वनथेः । आह च खं कालप बसे, परिहार पर पर पायपरो राम्रो उघरविग्घर निरंगो विमानानां तु दायितार्थाचा तेरर्थ इति । विशेषयोजना पुनरेवम् 'जह चंदो तह साहू, राहुबरोदो जदा तह पमाश्रो ॥ वरणाइगुणगणो जह, तहा खमाईलमणधम्मो ॥ १ ॥ विपणिं, हातो हा समनस्स । सहपुरा परियो बि सीमा २ पाखाहू दातो पद समाईदि । 1 बंदगुप्त जायर नष्चरितो, ततो डुक्साइं पावाई " ॥ ३ ॥ तथा-"गुणोवि हो, गुरुजोगो अभियसंवेगो । पुनरुवो जाय, विवद्धमाणो ससो व्व ॥ ४ ॥ इति” " १० १०० संस्थाने 'जो' शब्दे]] [जिनस स्व श्रावकस्य स्वनामख्याते पुत्रे, कल्प० १ कण । रुचकस्य पर्वतस्य दक्षिणतः सप्तमे फूटे, डी० आल्हादजनकरूपमा कर्पूरे, स्वर्णे, जसे कापि पुं० विसर्गवर्णे, दि सौ रक कमनीये वि० मयूरपि मेखके हे० शोणमुकाफले, मृगशिरोग पकाई बाच दाक्षिणात्यानां ज्योतिष्काणामिन्, स्था० १ ० १ ० । चंद-वन्ध-पुं० " स्वार्थे कथा " ॥ ८ २ १६४ ॥ इवि स्वार्थे कः शमिति प्रा० २पाद चंदलो- देशी- मयूरे, दे० ना० ३ वर्ग । चंद - चर्तु चन्द्रऋतीज्यो०१४ पाहु ('उड' शब्दे दितीयभागे ६०२ पृष्ठे वक्तव्यतोका ) चंदकंत चन्द्रकान्त त्रि० ० ० ० देवलोकस्थे, स्वनामख्याते विमाने, स० ३ सम० । वाच० । चंदकंता-चन्द्रकान्ता - स्त्री । गान्धाराधिपतेः शतबलनामराजस्य कान्तायाम, महाबलस्य मातरि आ० क० । चक्षुष्मतो द्वितीयकुलकरस्य पत्न्याम, आ० क० श्रा• म० । स० ॥ श्र० ० । ति । स्वनामख्यातायां नगर्य्या च । यत्र विजयसेनो नामराजा आसीत् । कल्प० १ कृण । चंदकिति चन्द्रकीर्ति पुं० सारस्वतटीकाकार के नागपुरीयतपागच्छाचार्ये राजरत्न सूरिशिष्ये, जै०६०। विमलसूरिशिष्ये, धर्मघोषाचार्यस्योपशिष्ये ० ० चंदकुमार-चन्द्रकुमार पुं० । अयोध्यापतेर्हरिसिंहस्य पृथ्वीचन्द्रनाम के कुमारे, ध० र० । चंदकुल- चान्द्र कुल-न - न० । श्रीवज्राशिष्यवज्र सेन सूरिशिष्यचन्द्रसूरिनिर्गत मूलचन्द्र कुलस्या जनि च तत ग० ४ अधि० । हा० | ती० | चंदकूम-धडकूटन० चतुर्थदेवलोकस्थे विमाने सक्षम जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पश्चिमेन च सप्तमे चनामख्यात कूटे, स्था० ०६ dio चंदकेउ चन्द्रकेतु-पुं०। अयोध्याधिपतौ स्वनामख्याते राशि, दर्श० । चंद--पुं० काति के क मयूरपुच्यस्ये I चन्द्राकारे पदार्थे, अमर गये मास्यभेदे सितमरिचे, न शिग्पीजे न चामदायकः मन मुखाः रातो कुडिकागतेलात प्रतिविम्बितरामस्थाचोमुखपुतलिका वामलोच चंद्रगणिचन्द्रगणिन् पुं० स्यनामके सुमतिवाचक शिष्ये येन विक्रम सम्वत् ११३६ श्री वीरचरित्रनामा ग्रन्थः अभयदेवसूरिशिष्यैः प्रश्नाचाय्यैरिति। ३० । चंदगवेज्ज चन्द्रकमेध्यन० चन्द्ररूपं बेध्यं चन्द्रकलेप्य श्रातु । व्य० 1 राधाबेधे, तद्वद्द् दुराराध्ये अनशने. च । नि० चू० ११ उ० । वृ० । स० । ६० प२ । चंद्रगुच- चन्द्रगुप्त - पुं० । मैौर्यग्ग्रामसंजाते चाणक्येन तन्द्राज ० , 9 Page #1091 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद गुवं प्राभिधानराजेन्द्रः। चंदचस्थि. सिंहासनमारोहिते स्वनामस्याते पाटलिपुत्रराजनि, भा० चू। मचे याहीति सोत्तीर्णः, चन्द्रगुप्तरथं ययौ ॥ ३६॥ तत्कथा चैवम्-नन्दराजकदायितश्चाणिक्यो नन्दाबयं प्रत्य- जग्ना न वारकास्तस्या-मारोहन्त्यां त्रिदपरुपवक् । मिकाय - शकुनान्मौर्यतेऽमुष्मा-गावि राज्यं न बान्वयान् ॥ ३७॥ "मौर्यग्रामे स नान्दोगा-त्परिव्राजकवेषनाक। गत्वाऽन्तः सौधमीकित्वा, तंचमुक्या चणिप्रसः । तत्र प्रामपतेः पुड्या-श्चन्यानेऽस्ति दोहदः॥१३॥ कन्यका विषकन्येति, कात्वाधात्पर्वतस्य ताम् ॥ ३० ॥ पृष्टः परिबाट तत्पूत्य, सोऽबक् चेहत्तमेनकम् । स तस्यां करलग्नाया-मप्यभून्मरणातुरः । बोहवं पूरग्राम्यस्या, स्तदप्यातरमन्यत ॥ १४ ॥ कचे वयस्य! नियते, मौर्योऽवादीन्मणिमणिः ॥ ३९ ॥ तत्र राकादिने जाते, कारितः पटमण्डपः। चाणिक्यो कुटी चक्रे, निवृत्तः सोऽथ तन्मृतौ । भृत्वा स्थालं च दुग्धेन, रसबद व्ययोगिना ॥ १५॥ भभूधाज्यद्वयम्बामी, चाणिक्यो राजवाडकः ॥ ४०॥ नभोमध्यगते चन्छ, तत्रानारयत सा सुता। कुर्वन्ति चोरिकां नान्दा-स्तदा रकन् बिमार्गयत । निण बिम्बितं चंबंकीरान्तर्वोक्ष्य सा पपौ ॥ १६ ॥ मनन्तं मत्कोटकानुष्ण-जलक्षेपेण तद्विले ॥४१॥ उपयोरापितइच प्राक, निद्रमाच्छादयत्पुमान् । प्रेक्ष्याप्राचीकुविन्दं स, नादानं करोषि किम । पूर्णेऽस्या दोहदे पुत्र-अगुप्ताभिधी ऽभवत ॥१७॥ सच मेऽदशन्सूसु-मेको ननस्म्य[स्ततः ॥ ४२॥ ववृधे स क्रमात्स्वर्ण-सिरि चाप चणिप्रमूः । रौद्रं ज्ञात्वा तं प्रात, राकार्याऽऽरक्षकं व्यधात् । चन्गुप्तोऽन्यदा रमे, राजनीत्याऽर्भकैः समम ॥२०॥ विश्वास्याभनय चौरान, ससानग्धासद गृ॥४३॥ चाणिक्योऽध्यागतः प्रेक्ष्या-याचन् मे देहि किंचन । मिक्षा नैकत्र लब्धाऽनू-द्रामे तं प्रत्यथाऽदिशत। कने गृहाण गा पता, इंता कोऽपि न-गृहतः ॥१५॥ कार्यावंशवृत्तिशूलै, स्तमप्राकी कृतेऽन्यथा ॥ ४४. ऊचे किं तं न जानासि, वीरलोज्या वसुंधरा । विमृश्य पारिणामिक्या, धिया कोशविवृद्धये । तच्छुत्वा चणिसूर्जी, तेजोस्त्यस्य नृपोचितम् ॥ २० ॥ दीनारै जनं भृत्वा, एतं रेमे चणिप्रसः ॥१५॥ पृष्ठं कस्यायमूचेऽनः, परिवादसूनुरेषकः। कुटैः पाशैः समं पौरैः, स्थालं गृह्वात्वमुंजयी । एदि सोऽहं परिवार भोः, कुर्वे त्यां सत्यभूशुजम् ॥ २१ ॥ दीनार में जयेदद्या-देवं कोशश्चिराद्भवेत् ॥ ४६ . चाणिक्यस्तं गृहीत्वाऽसौ, सैन्यं स्वर्णैरमेलयत् । ध्यात्वोपायमधान्यं स, पौरान म्योकस्यभोजयत्। करोध पाटलीपुत्रं, भन्नो नन्देन मोऽनशत ॥ २२ ॥ मय चापाययतेषु, मत्तेष्यथ ननत सः॥४७॥ ष्ठाश्वबारमायान्तं, मौर्य पावने ऽकिपत। ऊचे वेधानुरते मे, वाससी स्वर्ण कुरिककाम् । स्वयं च रजको जातः, पृष्टस्तेनेदमूचिवान् ॥१३॥ विदयमं च यशो राजा, होला वादयतात्र भोः ॥ ४॥ मौर्यः पद्मसरस्यैष, तं दृष्ट्वोत्तीर्णवान् हयात् । ऊचेऽन्यो व्रजतो मत्त-हस्तिनो लक्रयोजनम्। चाणिक्यस्य समाश्वं, मुक्ताऽसि मोचकेऽमुचत् ॥ २४ ॥ पदे पदे स्वर्णवृष्टि, होलां वादयतात्र भोः॥४॥ पातु यावज्जले ताव-चाणिक्येन हतोऽसिना । ऊचे परस्तिला उता, यावन्तः स्युस्तिलाटके। चन्मगुप्तमथाकार्या-धिरोऽप्याश्वं पनायिती ॥२५॥ सावन्तः सन्ति सहा मे होला वान्दयताऽनो. पृष्ठोऽसित्वं यदानेन, मवाशिष्टं तदा त्वया। कवेऽन्यो दीर्घवगायाः, पूर्व नद्यास्तपास्यये। किदध्ये सोऽवदन्नून-मेवमार्यस्य शोभनम् ॥१६॥ एकात्रणै रुन्छ, होला वादयताऽव भोः ॥५१॥ कातं तेनाथ योग्योऽयं, न मे व्यभिचरत्यसौ। तदहर्जातजात्याच, किशोराणां परोऽवदत् । मौर्य चुधात मुक्ताऽथ, चाणिक्यांचाययातबान ॥२७॥ छादयाम्यंशकंशोधां, होला वादयतात्र भोः॥५२॥ मा कासीकोऽपि नो टुक्तं, विप्रस्य बहिरीयुषः । ऊचऽन्यः शालिरत्ने द्वे, छिन्ने कि प्ररोहितः। विपाद्योदरमादाय, दभ्योदनमुपागतः ॥२८॥ शामिप्रसूतिगर्दज्यो, होला वादयताऽत्र नोः ॥ ५३॥ भोजयित्वा चन्द्रगुप्त, ग्रामेऽन्यत्र गतो निशि । शुक्सवासाः सुगन्धाङ्गो, निरुणोऽनुचयः प्रियः। चाणिक्यो मिकितुमगाद्, वृष्याग्रेऽभभोजने ॥ अप्रवासी सहस्रशो, होस वादताऽनमो॥५४॥ विसेप्य क्षेप्यथै केन, दग्धः क्षिप्तोन्तरे करार पक्रयोजनमत्तेम-गतिमित्यर्थलककाः। समूचे स्थविरा वत्स!, चाणिक्यशशोऽस्ति किम ॥ ३०॥ तथैकतिलजतिल-मितान् शतसहस्रकान् ॥ ५५॥ पृष्टाऽनेनावदत्पूर्व, गृह्यते पार्श्वतस्ततः। एकाहमक्षणाज्यं वै-काहास्वानमासि मासिच। कटेदिमवतः सोऽगात्, कृतश्च पवंतः सुहृत् ॥ ३१॥ कोष्ठागारभृतः शाली-शाणिक्याय ददुश्च ते ॥ ५६ ॥ ग्राह्यमानार्कमित्युक्त्वा, द्वौ नन्दो दमा वनजतुः । भा.क. नं.मा००।प्राव. मा०म० स्था। पपातकंन पुगे तत, प्रविष्टोऽन्तखिदगिमकः ॥ ३२॥ प्राव. प्रा०मा चन्द्रगुप्तस्य विन्दुसारस्तस्याशोकशीस्तविज्ञायेम्बकुमारीणां, प्रजावान पतत्यदः। स्य सम्पतिराज इत्येवमुत्तरोत्तरं समृद्धिमन्त प्रासन् ततो माययोत्थापितस्तेन, जगृहे तत्पुरं जवात् ॥ ३३ ॥ हासश्च ।। विशे• । कला• । सिंहलद्वीपे रत्नज्योत्सा हवं द्वाभ्यां ततो विश्वक,पाटलीपुत्रपत्तनम् । श्रीपुरनगरस्थाधिपतौराजनि, ती०१.कल्प। मन्दो यावद्धर्मद्वार, चाणिक्योडाजगाद च॥ ३४ ॥ पन्मात्येकरथे तत् स्वं, सर्वमादाय निःसर। चंदचरिय-चन्छचरित-नाचनस्य ग्रहपतेश्चरितं चमचरिमन्दः प्रियां सुना स्वेका, व्यं चादाय नियंयो॥४॥ तम् । चम्बस्व वर्णसंस्थानप्रमाणनत्रयोगराप्रहादिके सूत्र. चन्द्रगुप्तं प्रविशन्वं, कन्याऽपश्यहषा सताम् । Page #1092 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदचार अभिधानराजेन्दः । चंदणक्खत्तजोग पंदचार-चन्छचार-पुंगचन्छस्य मण्डलोपसंक्रमले,(चं.प्र.) चंदणकलस-चन्दनकलश-पुं०। मानल्यघटे, कल्प.५क्षण। तत्र प्रथमचन्द्रचारपरिकानार्थ तद्विषयं प्रभसूत्रमाह- जी.। औ०। सा कहं ते चंदवारा आहिया ति वएजा?। ता पंचसवच्च- | चंदणक्खत्तजोग-चन्द्रनक्षत्रयोग-पु. । चन्द्रेण सह नक्षत्रस्य रिए णं जुगे अजिइइणखत्ते सत्तसहिचारे चंदेणं सकि। योगे, (ज्यो.) बोयं जोएइ, सवणे णक्खत्ते सत्तष्ठिचारे चंदेण समि पर्वसु चन्मनक्षत्रयोगः, तत्परिज्ञानार्थ करणमाहजोगं जोएति,एवं० जाव च उत्तरासादाणक्खत्ते सत्चहिचारे चनवीससयं काऊ-ण य पमाणं सत्तहिमेव फझं । चंदेण सदिं जोएइ ॥ इच्छापब्बेहि गुणं, काऊणं पन्जया सका॥१॥ "ता कहते"इत्यादि । 'ता'इति प्राम्बत् कथं केन प्रकारण,कया अहारसहि सएहिं, तीसेहिं सेसगम्मि गुणियम्मि । संख्यया रत्यर्थः। ते त्वया भगवन् ! चारा प्राख्याता इति वदेत। तरेस उत्तरोहिं, सएहि अनिजिम्मि सुरुम्मि ॥२॥ भगवानाह"ता पंच" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् पञ्चसांवत्सरिके चबादिपञ्चसंवत्सरप्रमाणे युगे युगमध्ये अभिजिनक्षत्रं सत्तहिसट्ठीणं, सनग्गेणं ततो न जं सेसं । सप्तषष्टिचारान् यावत बरेण सायोगं युनक्ति।किमुक्तं नव तं रिक्खं नायव्वं, जत्य समत्तं हवइ पव्वं ॥३॥ ति?-बन्योऽभिजिनक्षत्रेण सह संयुक्तो युगमध्ये सप्तपष्टिसंख्यान् | राशिकाविधीचतुर्विशत्यधिक प्रमाणं प्रमाणराशि कृत्वा सप्तषचारान् बरतीति। कथमेतत्प्रत्येयमिति चेत् । उच्यते-हयोग- टिस्पं फलं फलराशिं कुर्यात, कृत्वा वा ईप्सितैः पर्वनिगुणं गुणमधिकृत्य सकलनकत्रमएमलीपरिसमाप्तिरेकेन नक्षत्रेण मासेन कारंविदध्यात्, अनुविधायचाऽधनराशिनाचतुर्विशत्यधिकेन भवतिानकत्रमासाथ युगमध्ये सप्तषष्टिः,पतचा नावयिभ्यते।। शतेन नागेहते यल्लन्धं ते पर्याया कातव्याः। १। यत्पुनः शेषमवततः प्रतिनकापर्यायमेकैकं चारमभिजिता नत्रेण सह च. तिष्ठते तत् अष्टादशनिः शतैत्रिंशदधिकैः संगुण्यते, संगुणिते कस्य योगसंभचादुपपद्यते चन्बोऽनिजिता नक्षत्रेण सह | चत्तस्मिन् ततखयोदशनिःशतैर्युत्तरैरनिजित शोधनीयः।।त. संयुक्तो युगमध्ये सप्तपष्टिसंख्यातं चरतीति। एवं च प्रति नक्षत्र तातस्मिन् शोधिते सप्तपष्टिसंख्यायाःद्वाषष्टयः,तासांसर्वाग्रेण यभावनीयम् । चं० प्र० १० पाहु.। द्भवति। किमुक्तं भवति-सप्तपरया द्वाषष्टौ गुणितायां यद्भवति,तेन चंदचूल-चन्धचूम-पुं० । खेचराधिपती, दर्श। हरिश्चन्द्रम भागे हते बन्धं तावन्ति नक्कत्राणि शुरुनि कटव्यानि,यत्पुनस्तहीपतिसमये बनवराहरूपं विकृत्यायोध्यापरिसरस्थितशका- तोऽपि भागहरणादपि शेषमवतिष्ठते ततकं महातव्यम, कारचैत्याश्रमभरि स्वनामख्याते राजनि, ती० ३८ कल्प। यत्र विक्तितं पर्व समाप्तमिति । एष करणगाथात्रयाक्वरार्थः।३। चंदच्छाय-चन्द्रच्छाय-पुं० । मलिनाथेन सह प्रवजितेऽङ्गरा- भाषनास्वियम्-यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन सप्तपष्टिपर्या. जे, "चंदच्चाए अंगराया,"ज्ञा० १ अ० अ० । स्था। या लज्यन्ते,तत एकेन पर्वणा किं सभामहे |राशित्रयस्थापना. सम्पायां चबायराजः कदाचिदहनकाभिधानेन भाव- ।१३४।६७।१।अतः चतुर्विशत्यधिकपर्वशतरूपोराशिः प्रमा. केण पोतवणिजा चम्पावास्तव्येन यात्राप्रतिनिवृत्तेन दिव्ये कु. एभूतः सप्तपष्टिरूपः फलम, तत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिणुपयएकलयुग्मे कौशलिकतयोपनीते सति पप्रच्छ, यदुत-यूयं बहुशः ते,जातस्तावानेव । तस्याऽऽधेन राशिना चतुर्विशत्यधिकेन शतेन समुद्रं लायय, तत्रच किश्चिदाइचय॑मपश्यत? असाववोचत् भागहरणम,सच स्तोकत्वात भागं न प्रयच्छति। ततो नत्रास्वामिन् ! अस्यां यात्रायां समुष्मध्येऽस्माकं धर्मचालनार्थ देवः नयनार्थमष्टादशभिः शतैत्रिंशदधिकैः सप्तपष्टिनागैर्गुणयिष्याम कभिदुपसर्ग चकार, अविचलने चास्माकं तुटेन तेन कुएमल इति गुणकारच्छेदराशिः , परार्द्धनापवर्तना जातो गुणकाररायुगलाद्वितयमदायि, तदेकं कुम्भकस्यास्मानिरूपनिन्ये, तेनाऽपि शिः नवशतानि पञ्चदशोत्तराणि ६१५, दराशिषिष्टिः, तत्र मनिकन्यायाः कर्णयोः स्वकरेण विन्यासि, सा च कन्या त्रिभु सप्तषष्टिनवभिःत्रिःपञ्चदशोत्तरैर्गुपयते, जातानि एकषष्टिसहबनाश्चर्यभूता उष्टेति । स्था• गातं.। नाणि त्रीणि शतानि पश्चोत्तराणि६१३०५,एतस्मादभिजित प्रयो. चंदजसा-चन्छयशम्-खी । मित्रप्रभोः राज्ञो राजगृहस्थायां दशशतानि वधुत्तराणि शुद्धानि स्थितानि । शेषाणि पटिसहभार्यायाम् , प्रा० क० । पद्मिनीखण्डनगरराजस्य भार्या माणि व्युत्तराणि ६०००३। तत्र दराशिभषाष्टरूपः सप्तपष्टया याम्, पाव०४० प्रा० चूछ। संघा० । प्रथमकुमकरस्य गुएयते, जातानि एकचत्वारिंशतशतानि चतुःपञ्चाशदधिकाविमलवाहनस्य स्वनामख्यातायां चतुर्दशपल्याम , ति० । नि ४१५४ । तैर्मागो हियते, लब्धाश्चतुर्दश । तेन श्रवणादीनि स्था०स०मा० म०। पुण्यपर्यन्तानि चतुर्दश नक्षत्राणि तिष्ठन्ति अष्टादशशतानि स. चंदज्मय-चन्मध्वज-पुं० । चतुर्थदेवलोकस्ये स्वनामख्याते तचत्वारिंशदधिकानि १८४७, एतानि मुहूर्तानयनार्थ त्रिंशता विमाने, स०३ सम 'अरुस्खीरीति' प्रत्यन्तनगरस्य माएम गुण्यन्ते , जातानि पञ्चपञ्चाशतसहस्राणि चत्वारि शतानि सिके राकि, मा० चू०४ अ०। दशोत्तराणि ५५४१०, तेषां जागे हते लब्धास्त्रयोदश मुहूर्ताः। शेषाणि तिष्ठन्ति चतुर्दशशतानि अष्टोत्तराणि १४०० । एतानि चंदण-चन्दन-० । स्वनामख्याते गन्धप्रधाने वृक्षविशेष, द्वापष्टिनागानयनार्थ द्वाषष्टया गुणयितव्यानीति । गुणकारच्छेमा०म०प्र० प्रज्ञा प्राचा००रा०। सूत्राशा० । दराश्योः द्वाषष्टया उपवर्तना क्रियते, तत्र गुणकारराशिर्जात ए. रुचकपर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि स्वनामस्याते कूटे, द्वापा। जं० ककदराशिः सप्तषष्टिः, एकेन च गुणित सपरितनो राशिचंदणकयचच्चाग-चन्दनकृतचर्चाक-त्रि० । चन्दनकृतोपरागे, र्जातस्तावानेव, ततस्सप्तरचा जागे हते लम्धा एकविंशतिः, अ.१वक्षनरा. पञ्चादवतिष्ठते एकः सप्तपरिभागः, एकस्य च सप्तपष्टि २६४ Page #1093 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७० ). अभिधानराजेन्द्रः । चंदगखतजोग चंदगड भागस्य आगतं प्रथमं पर्व अश्लेयास्त्रयोदश मुहूर्त्तान् एकस्य दशमस्य मृगशिरः १० विध्याउ च मुहूर्त्तस्य एकविंशतिद्वाषष्टिभागानेकस्य च द्वाषष्टिभाग- उत्तराषाढा ११ । द्वादशस्यादितिरदितिदेवतोपलक्षिता पुनर्वसुः स्यैकं सप्तषष्टिमा मुक्त्वा समाप्तमिति तथा यदि चतुर्दश १२ । त्रयोदशस्य श्रवणः १३ । चतुर्दशस्य पितृदेवा मघाः १४|| त्यधिकेन पर्वतेन सायन्ते त पचदशस्य अजः प्रजादेवतोपलहिता पूर्वरूप १० योंकि ? राशिस्थापना १२४ ६७-२ स्पेन स्यार्यमा, अर्यमा देवतोपलक्षिता उत्तरफाल्गुन्यः १६ सप्तदशस्य राशिना मध्यराशियते जातं चतुस्त्रिंशदधिकं शतम १३४, अभिवृद्धिदेवतोपलक्किना उत्तरभरूपदा : १७ । अष्टादशस्य तस्याऽद्येन राशिना चतुविशत्यधिकशतरूपेण नामोहिते- चित्रा १८ । एकोनविंशतितमस्याश्वोऽश्वदेव तो पलकिता मश्विनी ब्ध एको नक्षत्र पर्यायः स्थिताः शेषा दश । तत एतान् नक्कश्रानय- १६ | विंशतितमस्य विशाखा २० | एकविंशतितमस्य रोहिणी नार्थमष्टादशभिः शतैस्त्रिंशदधिकैः सप्तषष्टिभागैर्गुणयिष्याम २१ द्वाविंशतितमस्य मूलम् २२ प्रयोविंशतितमस्य श्रा इति गुणकारच्छेद राश्योर नाऽपवर्तना, अपवर्तनाजातानि गुण- २३ । चतुर्विंशतितमस्य पिष्यग्देवतोपलक्षिता उतराषाढा कारराशिनि पञ्चदशोत्तराणि षयन्ते जातानि एक- २४ पञ्चविंशतितमस्य पुष्यः २६ षद्विशतितमस्य धनिष्ठा नववशतानि पञ्चकानि १५० तेभ्यस्त्रोता- २६ । सप्तविंशतितमस्य भगो, जगदेयतोपका पूर्वफाल्गुनी निइतराणि अभिजित वृद्धानि स्थितानि पश्चा २७ । अहाविंशतितमस्या जोऽजदेष तोपलक्षिता पूर्वपदा प्रतिशतानि श्रष्टचत्वारिंशदधिकानि ७८४८, तत्र द्वाषष्टि- २८ | एकोनत्रिंशत्तमस्य श्रर्यमा, अर्यमादेवतोपलक्षिता उत्तररूपच्छेदराशिः सप्तपश्या गुरायते, जातान्येकचत्वारिंशदाता- फाल्गुन्यः २६ । त्रिंशत्तमस्य पूषा, पूषदैवतको रेवती ३०। एकनि चतुःपञ्चाशदधिकानि ४१५४, तैर्भागो हियते, लब्धमेकं त्रिंशत्तमस्य स्थातिः ३१ द्वात्रिंशसमस्या निरनियोि श्रवणरूपं नकुत्रं, शेषाणि षटूत्रिंशच्छतानि चतुर्नवत्यधिताः कृतिकाः ३२मस्य मित्रदेवा, मित्रनामा देवा कानि ३६६४ पनि सीनि यद विशता गुण्यन्ते जात यस्याः सा तथा, अनुराधा इत्यर्थः ३३ । चतुस्त्रिंशनमस्य रोकेल दशसहस्राणि ही शतानि वित्राणि १२०८२०, दिग्री ३४ पतस्य पूर्वाषाढा ३४ शिसमस्य अष्टौ विंशत्युत्तराणि ! । तेषां राशिना माये ते अध्याप२६ पुनः २६ समस्या, उत्तराषाढा इत्यर्थः शेषाणि तिष्ठन्ति अष्टाविंशशतानि षोडशोत्तराणि २०१६, ३७ हिरदेव सोचसहित रेषाको पतानि द्वापट्टिभागानयनार्थ द्वापरया गुणतियानि तत्र नचत्वारिंशत्तमस्य वसुः, वसुनामदेवोपलक्षिता धनिष्ठा ३ए । गुणकारच्छेदराश्योद्वषिष्टधाऽपवर्तना । तत्र गुणकारराशिरेककस्पारिंशतमस्य भगो जगदेवोपलचिताः पूर्वफगुन्यः ४० रूपो जातवेदराशि पत्र फेन उपरितनो राशिकचत्वारिंशत्तमस्य अभिवृद्धिरभिवृद्धि नामक देयोपति गुणितो जातस्तावानेव । तस्य सप्तषष्टधा भागे हते लब्धाः सरभरूपदा ४१| द्वाचत्वारिंशप्तमस्य हस्तः ४२ विचत्वारिंशसद्वाचत्वारिशद्वादिभागस्य हो सप्तमहिमागी तत आगतं मस्य अभ्वः, अश्वदेवता अश्विनी ४३ । चतुश्चत्वारिंशत्तमस्य, बिद्वितीयं पर्व घनानस्पतिक शाखा४४ पञ्चचत्वारिंशसमस्य कृतिका ४५ पारिशम मुहूर्तस्य द्वायाचारात्पटिलागार एकस्य च द्वापरिभागा ह स्वज्येष्ठा ४६| सप्तचत्वारिंशत्तमस्य सोमः, सोमदेवोपल हितं मृकाः समाप्ति गच्छतीति। एवं वेदाप पर्वसु समाशिक्षामशिनम् ४७ अापत्यारिमस्वायुरायुर्देवा पूर्वाषाढाः णि भावनीयानि । ४० । एकोनपञ्चाशतमस्य रवि रविनामपदे योपलक्षित संप्रति युगपूर्वा तत्प्रदिकाः पञ्च गाथा पतिसप्प घणिट्ठा अज्जम, अभिवृद्धि चित्त श्रास वईिदग्गी । रोहिणि जेट्ठा मगसिर, बीस दिइ सवण पिउदेवा ॥ अज अज्जम अभिवृष्टी, चित्ता आसो तह विसाहा उ । रोहिणि मूझो अहा, वीसग पुसो तह पथिट्टा य ॥ जग अन अज्जम पूसा, साई अम्मी व मित्तदेवा य । रोहिणि पुढा, पुणम्य बीसदेवाय ॥ अहि बसु जगाऽनिवृी, स्वस्स विमा कतिया जेा । सोमा रवी सवणा, पिउ वरुण भगानिवुढियां चित्ता ।। अस्स विसाड़ा अग्गी, सूझो अहाय विस्स पुस्तो य । एए जुगपुम्वद्धे, दुसपिबेमु णक्खता ॥ प्रथमस्य पर्वणः समाप्तौ सर्पः सर्पदेवतोपलक्षितम् अश्लेषा नक १। यस्य धनिष्ठा २। तृतीयस्य अर्यमा, अर्थमादेवतोपकिता उत्तरफाल्गुन्यः ३ । चतुर्थस्य अभिवृद्धिरनिवृद्धिदेवतोपलकिता उत्तरपदा ४ | पञ्चमस्य चित्रा ५ । षष्ठस्य अश्वः अश्वदेवतोपलक्षिता अश्विनी ६ । सप्तमस्य इन्द्राग्निदेवोपलक्षिता विशाखा ७ । श्रष्टमस्य रोहिणी ८। नवमस्य ज्येष्ठा ए। सुनक्षतम् ४६ । पञ्चाशत्तमस्य श्रवणः ५० । एकपञ्चाशतमस्य पिता, पितृदेवाः मघाः ५१। द्विपञ्चाशत्तमस्य वरुणो, वरुपण देवोपल कितं शतभिषकूनक्षत्रम् ५२ । त्रिपञ्चाशत्तमस्य भगो, जगदेवाः उत्तरफाल्गुन्यः ५३ चतुःपञ्चाशत्तमस्वामिवृद्धिरभिवृद्धिदेवा उत्तरभद्रपदा ५४ । पञ्चपञ्चाशत्तमस्य चित्रा ५५ षट्पचाश समस्याभ्यो ऽभ्यदेवा ५६ स प्तपञ्चाशत्तमस्य विशाखाः ५७। श्रष्टपञ्चाशत्तमस्य श्रग्निरनिदेवोपलक्षिताः कृत्तिकाः ५८ । एकोनषष्टितमस्य मूलम ५६ षष्टिस्य आर्द्रा ६० । एकषष्टितमस्य विष्वग्देषा उत्तराषाढाः ६१ । द्वाषष्टितमस्य पुष्यः ६२ एतदुपसंहारमाह- "ए" इत्यादि । पाणि नक्षत्राणि युगस्य पूर्वा यानि द्वापटिसंख्यानि पर्यासि तेषु क्रमेण वेदितव्यानि । एवं प्रोक्तकरणवशात् युगस्योतरार्द्धमपि क्रमेण द्वापटिसंस्येषु पर्वस्ववगन्तव्यानि ज्यो १५ पाहु. ६० प० । चंदणखोकि - चन्दनखोटि - स्त्री० । गोशीर्षचन्दनस्य खोटो, व्य० ३ च०। (चन्दनखोटकदृष्टान्तेन भ्रष्टस्याचार्यस्य खरटना 'आयरिय' शब्देमागे ३२२ पृष्ठे ठक्का ) चंदणघम- चंदनघट- पुं०। चन्दनकलशे, "चंदणघडसुकयतारेण Page #1094 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७१) अभिधानराजेन्द्रः । चंदणघड परदारदे सभागा" चन्दनघटैश्चन्दनकलशैः सुकृतानि सुष्ठु कृतानि, शोभनानि इति तात्पर्यार्थः। यानि तोरणानि तानि चन्दनघटसुकृतानि प्रसिद्धानि, प्रतिद्वारे देशभागे यस्यां सा तथा । ज००३ प्रति• । चंदजा - चन्दनार्या - स्त्री० । वीरजिनस्य प्रथमशिष्यायाम्, ति० । स० । चंदनपुरु- चन्दनपुट-न । चन्दन मुख्यगन्धद्रव्यपुटे. घुटपरिमिते चन्दनाख्यगन्धद्रव्ये, रा० । चंदणपेसिया - चन्दनपेषिका - बी० । चन्दनपेषणकारिकायां, हरितालादिपेषिकायां च । भ० ११ श० ११ उ० 1 चंदवाला - चन्दनबाला स्त्री० । श्राय्र्यचन्दनायां श्रीमहावीरस्य प्रयमशिष्यायाम्, ती० १२ कल्प | "चन्दना सा कथं नाम, बालेति प्रोच्यते बुधैः १। मोकमादत्त कुल्माबै- महावीरं प्रतार्य या ॥ १ ॥ " कल्प० ६ कण । चंद विजेवण - चन्दनविलेपन - न०| मलयजात्युपलेपने, पञ्चा० 5 विव० । चंदणसार- चन्दनसार - पुं० । चन्दनस्येव सारोऽस्य । वज्रमेदे, ६ त० । घृष्टचन्दनसारे, वाच०।" चंदणसारणिम्माविय (जी० ३ प्रति० ) " कोणपरिघडियाए " चन्दनसारो गर्भस्तेन निर्मापितो यः कोणो वादनदण्डस्तेन परिघट्टिता । जं० १ वक्ष० । जी० । चंदणा - चन्दना - स्त्री । महावीरजिनस्य प्रथमशिष्यायाम्, ० क० । श्रन्त० । कल्प० । श्र० म० । द्वीन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा० १ पद । चंदणागरी - चन्दनागरी स्त्री० । उत्तरवति सदात्स्थावरा निर्ग तस्योत्तरवलि सहगणस्य चतुथ्य शाखायाम्, कल्प० ० कण । चंदणुक्खितगाय सरीर - चन्दनोत्क्षिप्तगात्रशरीर- त्रि० । चन्दनोपलिप्ताङ्गदे, भ० श० ३३ ० । रा० । चंदणोकि गाय सरीर - चन्दनोत्कीर्णगात्रशरीर- त्रि० । चन्द प्रतीतेन खरकीर्णमिवात्कीर्णे गात्राणि शरीरं यस्य स त था । दशा० १० श्र० । चन्दनेन श्री चन्दनेनोत्कीर्ण चर्चितं गात्रं शरीरं येन स तथा । चन्दनचर्चितदेदे, तं० | चंददरिसणिया - चन्द्रदर्शनिका स्त्री० । जातपुत्रस्य चन्द्रदर्शनेोत्सवविशेषे, ( कल्प०) तद्विधिश्चायम्- जन्मदिनादिनद्वयातिक्रमे गृहस्थः गुर्वत्प्रतिमा रूप्यमयीं चन्द्रमूर्ति प्रतिष्ठाप्य अचित्वा विधिना स्थापयेत् । ततः स्नातां सुबखानरणां सपुत्रां मातरं चन्द्रोदये प्रत्यक्कचन्द्रसंमुखं नीत्वा “ ॐ श्रच द्रोऽसि निशाकरोऽसि नक्षत्रपतिरास सुधाकरोऽसि श्रोष गर्भोऽसि अस्य कुलस्य वृद्धिं कुरु २ स्वाहा” इत्यादि चन्द्रमन्त्रमुच्चार्यमाणश्चन्द्रं दर्शयेत् । सपुत्रा माता च गुरुं प्रणमति, गुरुश्वाशीर्वादं ददाति । स चायम् - "सर्वोषधीमिश्रमरीचिराजिः, सर्वापदां संहरणप्रत्रीणः । करोतु वृद्धि सकलेऽपि वंशे, युष्माकमिन्दुः सततं प्रसन्नः " ॥ १ ॥ कल्प० २ कृण । चंददद - चन्द्रद - पुं० | जम्बूद्वीपे उत्तरकुरुषु दशभिः काञ्चनाभिधानैश्चन्द्रसमाननामदेवाधिवासैदेश योजनान्तरैः पूर्वापरव्यवस्थितैर्गिरिजिरुपेते महान्ददे, स्था०५ डा०२ उ० जी० चंददीव चंददिए- चन्द्रदिन - न० । प्रतिपदादिकायां तिथौ, “ चेददियेगं एगुणतीसं मुहुत्ते सातिरेगे मुहुत्तग्गेणं " पं० सं० ५ द्वार । चंददीत्र - चीप पुं० । चन्द्राणां द्वीपे ( जी० ) संप्रति जम्बुद्धीपगतयोर्जम्बुद्वीपसत्कयोश्चन्द्रयोश्चन्द्रसत्कचन्द्रद्वीपप्रतिपादनार्थमाद काणं ते! जंबुद्दीन गाणं चंदाणं चंददीवा णामं दीवा पत्ता । गोयमा ! जबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्त्रयस्स पुरच्छि मेणं लवणसमुदं वारसजोयएस इस्साई श्रोगाहित्ता एत्थ णं जंबुद्दीवगाणं चंदाणं चंददीवा नामं दीवा पत्ता । जंबुद्दीनं ते कूतिं जोयणातिं चत्तालीसं च पंचाणउतिजागे जोचणस्स उसिया जलतातो लवण समुदं तेणं दो कोसे ऊसिता जलतातो वारसजोयणसहस्सातिं आयामविक्खंजेणं सेसं तं चैव जहा गोतमदीवस्स परिक्खेवो । पउमवरवेतिया पत्तेयं पत्तेयं वणसंमपरि० दोहण विवस भो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा० जाव जोइसिया देवा ग्रासयति । सिणं बहुसमरपणि जस्स भूमिभागस्स पासादबडेंस का वावडिं जोयलाई बहुमज्ज० महिपेढियाओ दो जोयगात्रो० जाव सीहासणा सपरिवारा जाणियन्त्रा, तहेब अहो । गो वो खुड्डि खुड्डिया म्रो बहुहिं चंदवद्याभाई चंदा य इत्य देवा महिडिया० जाव पनि श्रोत्रमद्वितीया परिवसंति । तेणं तस्य पत्तयें पत्तेयं चनएहं सामाणियस इस्सी० जाव चंददीवाणं चंदाल य रायहाणीणं अन्नसं च बहूणं जोतिसियाणं देवा यदेवीण य आहेवबं० जाव विहति । से ते गोयमा ! चंददीवा० जाव णिच्चा । “ कहि णं भंते ! " इत्यादि । क भदन्त ! जम्बूद्वीपगतयोर्जम्बूद्वीप सत्कयोधन्द्रयोश्चन्द्रद्वीपो नाम द्वं । पौ प्रइतौ ?| भगवाना- गौतम ! इत्यादि । सर्वे गौतमद्वीपवत् परिभावनीयं, नवरमजम्बूद्वीपस्य पूर्वस्यां दिशीति वक्तव्यम् । तथा प्रासादाव तंसको वक्तयः । तस्य चायामादिप्रमाणं तथैव नामनिमित्तचि स्तायामपि यस्मात् तुलात्तुलिकावाप्यादिषु बहूनि उत्पन्नानि यावत् सहस्रपत्राणि चन्द्रप्रभाणि चन्द्रवर्णानि चन्द्रौ ज्योतिश्चन्द्र ज्योतिषराजौ मर्द्धिकौ यावत्पल्योपमस्थितिको परिवसतः, तौ च चन्द्रौ प्रत्येकं चतुर्णां सामानिकसहस्राणां चतसृणामग्रमहिषीणां सपरिवाराणां तिसृणां पदां घानामनीकानां सप्तानामनीकाधिपतीनां षोमशानामात्मरक कदेवसहस्राणां स्वस्य स्वस्य चन्द्रद्वीपस्य स्वस्याः स्वस्याः चन्द्रानिधायाः राजधान्याः श्रन्येषां च बहूनां जोतिष्काणां देवानां देवीनां चाधिपत्यं यावद्विढरतः, ततस्तद्गतोत्पलादीनां चन्द्राकारत्वात् चन्द्रवर्णत्वात् चन्द्रदेवस्वामिकत्वाश्च तौ चन्द्रद्विपाविति । कहि ते ! जंबुद्दीबगाणं चंदगाणं चंदाणन एाम रा यहाणीओ पसत्ताओ ?। गोयमा ! चंददीवाणं पुरच्छ्रिमेणं तिरियं जाव मम्मि जंबुद्दीवे दीवे वारसजोयणसहस्सातिं Page #1095 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०७२) अभिधानराजेन्द्रः । चंददी ओगाहिता तं चैत्र पमा० जाब महिडिया चंदा देना चंदा देना। चन्द्रानिधे व राजधान्यौ, तयोश्चन्द्रद्वीपयोः पूर्वस्यां दिशि तिर्यग संस्थेयान् पिसमुद्रान् व्यतिव्रज्याम्यस्मिन् जम्बूदीपे द्वीपे द्वादशयोजन सहस्राण्यवगाह्य विजयराजधानी सदृशे कम्ये । सूर्याणामपीष कहि णं भंते ! जंबुद्दीचगाणं सुराणं सुरदीना णाम दीवा पत्ता ? । गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पञ्चयस्स पच hi लवणसमुहं वारसजोयणसहस्सातिं श्रगाहित्ता तं क्षेत्र उच्चतं प्रायामत्रिक्खंभेण परिक्खेवो वेदियावणसंडा भूमिजागा० जाव प्रासयंति । पासायवमेंसगाणं त चेत्र पमा मणिपेढिया सीहासणा सपरिवारा अट्ठो उप्पलाई सूरपभाति सूराय इत्य देवा० जाव रायहाणीओ सकाणं दीवाणं पञ्चच्छिणं भष्मम्मि जंबुद्दीचे दीवे सेसं तं चेत्र० जब सूरा देवा ॥ एवं जम्बूद्वीपगत सूर्य सत्कसूर्य द्वीपावपि वक्कष्यौ, नवरं जम्बूद्वीपस्य पश्चिमायां दिशि एतमेव सक्षणसमुद्रमवगाहा वक्तभ्यं राजधान्यापि स्वकद्वीपयोः पश्चिमायां दिशि अन्यस्मिन् जम्बूद्वीपे वक्तव्ये, शेषं सर्वे बरूद्वीपवद्भावनीयं, नवरं चन्द्रस्थाने सूर्यग्रहणमिति । संप्रति लवणसमुद्रगतचन्द्रादित्यद्वीपव कव्यतामाहकहि णं जंते ! जितरलावणगाणं चंद्राणं चंद्रदीवा णाम दीवा पष्छत्ता ? । गोयमा ! जंबूमंदरपन्च यस्स पुरच्छिमे गां लवण समुद्दे वारसजीयणसहस्सातिं श्रगाहित्ता एत्य सं अजितरावणगाणं चंदारणं चंददीवा णाम दीवा पष्ठात्ता । जहा जंबूदी बगा चंदा तहा जाणियन्त्रा, एवरं रायहाणीश्र मम्मि झवणे सेमं तं चेत्र । एवं अजितरावणगाणं मूराणं वि लवण समुदं वारसजोयणसहस्सातिं तं चैव स जाणीव | "कहि णं भंते! " इत्यादि । लवणभवी लावणिको अभ्यन्तरौ च तो लावणिकौ च अभ्यन्तरलावणिकी, शिखाया अर्वाक्चा रिणावित्यर्थः । तयोः सूत्रे द्वित्वेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वात् । शेषं सुगमम् । नगवानाह - गौतम ! जम्बूद्वीपस्य पूर्वस्यां दिशि पतमेव लवणसमुद्रं द्वादश योजन सहलाएयवगाह्याऽत्र पत स्मिन् अवकाशे अभ्यन्तरलायणिकयोश्चन्द्रपौ नाम द्वीपो ensपावित्यादि जम्बू द्वीप गत चन्द्रसत्कचन्द्रद्वीपवनिरवशेषं वक्तव्यम् | नवर मंत्र राजधान्यौ स्वकयोद्वीपयोः पूर्वस्यां दिशि अभ्यस्मिन् लवणसमुद्रे द्वादशयोजन सहस्राण्यवगाह्य वेदिमध्ये एनमभ्यन्तर लावणिक सूर्य सत्कसूर्यही पायपि वक्तव्यौ, नवरं जम्बूद्वीपस्य पश्चिमायां शिशे एतमेव लवणसमुद्रं द्वादशयोजन सहस्रापयवगाह्य वक्तव्यौ राजधान्यावपि स्वकयोपियोः पश्चिमायां दिशि अन्यस्मिन् लवणसमुद्रे द्वादशयोजनसभायवगाह्येति । " कहियां भंते! बाहिरिज्ञावशगाणं चंददीवा नाम देवा पा चंददीव एत्थ ता? | गोयमा ! लवण समुद्दस्स पुरच्छिमिलाती वेदियंतातो समुपचच्छि वारसजोयणसहस्साइं श्रगाहित्ता बाहिरिलावणगाणं चंददीवा पत्ता घायतिसंमं तेणं प्रकूण उइजोयणातिं चत्तालीस पंचाणउ - तिभागे जोयणस्स उसित्ता जलतातो लवणं समुद्द ते दो कोसे उसिता बारसजोयणसहस्साइं श्रायामविक्खनेणं पडमवरवेइयावरणसमे बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा मणिपेढिया सीहासणा सपरिवारा सो चेव चट्टो रायहाणीश्रो साणं दीवाणं पुरच्छिमे णं तिरियमसं० प्रणम्पि लवणे समुद्दे तहेब सब्बं ॥ "कहि णं भंते!" इत्यादि । क्व भदन्त ! बाह्यलावणिकयोश्चन्द्रयोद्वीपी नाम द्वीपो प्रशप्तौ ?। बाह्यलावणिको नाम लवणसमुद्रे शिखाया परिश्वारिणौ चन्द्रौ । भगवानाह गौतम ! लवणसमुद्रस्य पूर्वस्माद्वेदिकान्तात् अर्थाक लवणसमुद्रं पश्चिमदिशि द्वादशयोजन सहस्राण्यवगाह्य भत्र बाह्यनायणिक योश्चन्द्रयोश्च द्वीपो नाम द्वीपी प्रकृतौ तौ च धातकी व एक द्वीपान्तेन घातhironीपादेशिकोननवतियोजनानि चत्वारिंशतं च पञ्चनवतिभागान् योजनस्योदकादूर्द्धमुच्छ्रितो लवण समुद्रदिशि द्वौ कोशौ, शेषा वक्तव्यता अभ्यन्तरलावणिके चन्द्रपवद्वक्तव्या । अत्रापि राजधान्यौ स्वकयोः द्वीपयोः पूर्वस्यां तिर्यसस्येयान् द्वीपसमुखान् व्यतिव्रज्याम्यस्मिन् लवणसमुळे वक्तव्ये | कहि णं जंते ! बाहिरलावणगाणं सुराणं सूरदेवा नाम दीवा पत्ता ? लवण समुदं पच्चच्छिमिला तो वेतियंताओ लवणसमुदं पुरच्छिमेणं वारसजोयण सदस्साई घायतिखमदीवं तेणं प्रद्धेकूणतिं जोयणातिं चत्तालीसं च पंचाणउतिभागो जो लवणसमुहं तेषां दो कोसे कसिया सेसंतदेव० जाव रायहाणी सगाणं दीवाणं पञ्चच्त्रिमेणं तिरियमसंखेज्जलवणे चैव वारसजोयणं तहेव सव्वं जाणियन्वं । एवं बाह्यलावणिक सूर्य सत्कसूर्यद्वीपायपि वक्तब्यौ, नवरमत्र लवणसमुद्रस्य पश्चिमात् वेदिकान्तात् लवणसमुद्रं पूर्वस्यां दिशि द्वादशयोजन सहस्राण्यवगाह्येति वक्तव्यो राजधान्यावपि स्वकयोपयोः पश्चिमायां दिशि अन्यस्मिन् लवणसमुझे इति । संप्रति धातकी एमगत चन्द्रादित्य द्वीपव कव्यतामभिधित्सुराद् कहि णं भंते ! घायतिसंडे दीवगाणं चंदाणं चंददीवा पाता । गोयमा ! धायतिसंगस्स दीवस्स पुरच्छिमिलाओ वेदितातो कालोयणं समुदं वारसजोयणसदस्साई ओगाढित्ता एत्थ णं धायतिसंमदीवगाणं चंदाएं चंददीवा मंदीचा पत्ता, सव्वतो समता दो कोसा ऊसित्ता जनंतातो वारसजोयणसहस्साइं तदेव विक्खंज परिक्खेवो जूमिजागो पासादवमेंसया मणिपेढिसीढामणा सपरिवारा अड्डा वहेब रायहाणीओ सकाणं दीवाणं पुरच्छ्रिमेणं For Private Personal Use Only Page #1096 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०७३) अभिधानराजेन्द्रः । चंददीत्र अम्मि धापतिसंमे दीवे सेसे तहेव । एवं धायतिसंगगावि सूरा। बरं धायतिसंमस्स दीवस्स पञ्चच्छिमिलातो बेतियंसामो कालोयणसमुदं वारसजोयणं तदेव सम्बं० जाव everyीओ सूराणं दीवाणं पञ्चच्छ्रिमेणं अष्ठम्मि घायति खंडे दीवे सव्वं तत्र । " कहिएं भंते!" इत्यादि । क भदन्त ! धातकीखण्डदीपगतानां चन्द्राणां तत्र द्वादश चन्द्रा इति बहुवचनं चन्द्रद्वीपानामदीपाः प्रकृताः । नगवानाह-गौतम ! धातकी एकस्य पूर्वस्यां दिशि कालोदं समुद्र द्वादशयोजन सहस्राएयावग्राह्य अत्र घात की खण्डगतानां चन्द्राणां सम्रुद्वीपानामहोपाः प्रज्ञप्ताः । ते च जम्बूद्वीपगतचन्द्रसत्कचन्द्रद्वीपवद्वकन्याः नवरं ते सर्वासु दि जनादूर्द्ध द्वौ क्रोशी उच्छ्रिता इति वक्ततव्यं तत्र पानीयस्य सर्वत्रापि समत्वात् राजधान्योऽपि तेषां स्वकीयानां द्वापानां पूर्वतस्तिर्यगसंक्ययान् द्वीपसमुखान् व्यतिव्रज्यास्मिन् धातकी । द्वादशयोजन सहस्राण्यावगाह्य विजयाराजधा नीलकन्या एवं धातकी एड गत सूर्य सत्क सूर्य द्वीपः अपि वक्तअपाः। नवरं धातकी अएकस्य पश्चिमान्तात् वैदिकान्तात् कालोसमुद्रं द्वादशयोजन लहस्राययवगाह्य वक्ततव्या राजधान्योपि स्वकीयानां सूर्यद्वीपानां पश्चिमदिशि अन्यस्मिन् धातकीखराडे द्वीपे शेषं तचैत्र । संप्रति कालोद समुद्र गतचन्द्रादित्य सत्कद्वी पवकव्यतां प्रतिपादयिषुराह कहिणं भंते! काय गाणं चंदाएं चंददीवा पाता ? गोयमा ! कालोयणस्स समुहस्स पुरच्छिमिलाओ वेतियं कालोपणं समुदं पञ्चच्छि मेणं वारसजोयणसहस्साई प्रोगाहित्ता एत्थ णं कालोयण चंदाणं चंददीवा सव्वतो समता दो कोसा ऊसित्ता जयंतातो सेसं तदेव० जाव रायहाणी बसगाणं दीवाणं पुरच्छ्रिमेणं अमम्मि काझोयणं समुद्दे वारस जायां तहेव सब्बं० जात्र चंदा देवा । एवं सूराण त्रि । वरं चंद्राणं कालोयां पञ्चच्छिमिला तो वेति तातो कालोयणं समुदं पुरस्यिमेणं वारसजोयणसहस्साई प्रोगाद्दिता तत्र रायहाणी ओ सगाए दीवाणं पञ्चच्छिमे एं याम्प कालोयणं समुद्दे तक्षेत्र सर्व्वं । एवं पुक्खर बरगाणं चंदाएँ पृक्खवरदी वस्ल पञ्चच्छिमिद्धा तो वेतियंताओ पुक्खवरसमुद्दे वारस जोयणसहस्साई श्रोगाहिता चंददीवा म पुक्खरबरे दीवे रायहाणीओ महेव । एवं सूराण वि दीवा पुक्खवरदीवस्स पञ्चत्थिमिलाओ बेइयंताओ सुक्खरोदं समुदं वारसजोयणसहस्साई श्रोगाहिता तदेव सव्वं जात्र रायहाणीओ दीविलगाएं समुद्दे समुहगाणं समुद्दे चेत्र एगाणं अभ्यंतरपासे एगाणं बाहिरए पासे हाणी दीविनगाणं दीवस समुद्दगाणं समुद्देनु सरिसणमत्तेमु इमे णामा अणुगंतन्त्रा - जंबुद्दी वे लवण धायकालोदपुक्खरे वरुणे खीरघयखोयांदी अरुणवरे कुंमले For Private चंददीव रुपए आज रणवत्यगंधे उप्पलतिलयर पुढविष्ठिरघणे वासरहदी विजया बक्खारकपिंदा कुरुमंदिरमावासा कुंमा क्खत्त चंदसूराय । एवं जाणियन्त्रं ॥ "कहि णं भंते!" इत्यादि ।" कालोयगाणं " इत्यादि । क भदन्त ! कानोकानां काल्लोद सत्कानां चन्द्राणां चन्द्रपानामद्वीपाः प्रज्ञप्ताः । । भगवानाह - गौतम ! कालोद समुद्रस्य पूर्वस्मात् वेदिकान्तात् कालोदसमुषं पश्चिमदिशि द्वादशयोते च सर्वासु दिनु जलादूर्ध्वं द्वो क्रोशावुच्छ्रिताः । शेषं तथैव जनसस्राण्यवगाह्यात्र कालोदगतचन्द्र णां चन्द्रद्वीपाः प्रकृताः। राजधान्योऽपि स्वकीयानां द्वीपानां पूर्वस्यां दिशि तिर्यगसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्यास्मिन् कालोदसमुझे द्वादशयोज• नसहस्राएयवगाह्य विजया राजधानावत वक्तव्याः। एवं कालोदक सूर्य सत्कसूर्यद्वीपा अपि वक्तव्याः । नवरं कामोदसमु• रूस्य पश्चिमान्तात् वेदिकान्तात् कालोदसमुद्रं पूर्वदिशि द्वादशयोजन सहस्रा पयवगाह्येति वक्तव्यम् । राजधान्योऽपि स्वकीयानां द्वीपानां पश्चिमदिशि अन्यस्मिन् कालोदसमुखे शेषं तत्रैव । एवं पुष्करवरद्वीपगतानां चन्द्राणां पुष्करवरद्वीपस्य पूस्मात् वेदिकान्तात् पुष्करोदसमुद्रं द्वादशयोजन सहस्र एपबाह्य द्वीपा वक्तव्याः राजधान्यः । स्वकीयानां द्वीपानां पूर्वस्यां दिशि तिर्यगसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्यान्यस्मिन् पुकरवरद्वीपे द्वादशयोजन सहस्राएयवगाहा पुष्करवरद्वीपगतसूर्याणां द्वीपाः पुष्करवरद्वीपस्य पश्चिमान्तवेदिकान्तात् पुष्करवरसमुद्रं द्वादशयोजन सहस्त्राण्यत्र गाह्य प्रतिपत्तव्याः । राजधान्यः पुनः स्वकीयानां द्वीपानां पश्चिमदिशि तिर्यगसंख्येयान द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्यान्यस्मिन् पुष्करवरद्वीपे द्वादश योजन सहस्त्राण्यवगाह्य पुष्करवरसमुद्रगतचन्द्रसत्कीपाः । पुष्करवर समुद्रस्य पूर्वस्मात् वेदिकान्तात् पश्चिमदिशि द्वादशयोजन सहस्राण्यवगाह्य वक्तया राजधान्यः । स्वकीयानां दीपानां पूर्वदिशि तिर्यगसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतित्रज्याम्यस्मिन् पुष्करवरसमुझे द्वादशयोजन सहस्त्रेभ्यः परतः पुष्करबरसमुद्रगत सूर्य सत्क सूर्य द्वीपाः पुष्करवरसमुद्धस्य पश्चिमाद दिकान्तात् पूर्वतो द्वादशयोजन सहस्राण्यवगाह्य राजधान्यः । पुनः स्वकीयानां द्वीपानां पश्चिमदिशि तिर्यगसंख्येवान् द्वीपस सुधान् व्यतिव्रज्यान्यस्मिन् पुष्करोदसमुखे द्वादशयोजन सहस्रा एपवगाह्य प्रतिपत्तव्याः। एवं शेषद्वीपगतानामपि चन्द्राणां च द्वीपः स्वस्त्रद्वीपतात् पूर्वस्मात् वेदिकान्तादनन्तरे समु द्वादशयोजन सहस्रावयवगाह्य वक्ताः । सूर्याणां सूर्यदीपाः स्वस्वद्वीपगतात् पश्चिमात् वेदिकान्तात् अनन्तरे समुझे राजधान्यश्चन्द्राणामात्मीय चन्द्रधीपेभ्यः पूर्वदिशि अन्यस्मिन् सदशनाम के २ द्वीपे । सूणामपि श्रात्मीयसूर्यद्वीपेभ्यः पश्चिमदिशि तस्मिन्नेव सदृशनामके अन्यस्मिन् द्वीपे द्वादशयोजनसहस्रेभ्यः परतः शेषसमुहगतानां तु चन्द्राणां बन्धद्वीपाः स्वस्वसमुत्रस्य पूर्वस्मात् वेदिकान्तात् पश्चिमदिशि द्वादशयोज सहस्राण्यवगाह्य सूर्याणां तु स्वस्थसमुद्रस्य पश्चिमात् वेदिकान्तात् पूर्वदशि द्वादशयोजन सहस्राएयवगाह्य चन्द्राण राजधान्यः स्वस्वीपानां पूर्वेदिशि अन्यस्मिन् सदृशानामके ससुड़े सूर्याणां राजधान्यः स्वस्वद्वीपानां पश्चिमदिशि केबलमप्रेतनशेष समुद्रगतानां चन्द्रसूर्याणां राजधान्योऽन्यस्मिन् नाम के द्वीपे समुझे वा अग्रेतने पञ्चाचने वा प्रतिपचव्याः Personal Use Only Page #1097 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७४) अभिधानराजेन्द्रः | चंददीव मातन एवान्यथाऽनवस्थाप्रसक्तेः । एतच्च देवद्वीपादक सूर्यवरावभासं समुद्रं यावत् । चंदपत्ति एवं लागे जक्ख जूते वि चाहं दीवसमुद्दाणं कहि जंते ! सयं रमणदीवगाणं चंदा चंददीवाणामदीचा पत्ता । गोयमा ! सयंथुरमणस्स दीवस्स पुरत्थिमिला तो वेतियंतातो सयंजुरमणोदगं समुदं वारसजो देवीपादिषु तु राजधानीः प्रति विशेषस्तमभिधित्सुराहकहि णं जंते ! देवदीवगाणं चंदाणं चंददीवाणामं दीवा पत्ता | गोमा ! देवदीवस्स देवोदं समुदं वारसजोयाई गाहित्ता तेणेव कमेणं पुरस्थि मिलाओ वेतियंता - सो० जाव रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पुरत्थिमे एं देवोदं समुदं संखेज्जातिं जोयणसहस्सातिं जग्गाहित्ता एत्य णं देवदीवगाणं चंदा चंदाओ नाम रायहाणीतो पछतायो । सेसं तहेव देवदीवचंदा देवा । एवं मूराण । विहेत्र । कहि णं जंते ! सयंजुरमणसमुद्दकाणं चंद्राणं गोयमा ! णवरिं पच्चात्यमिला तो वेदियंतातो पञ्चत्थिमे णं च जायिन्वो तम्मि चैव समुद्दे | सहसा तदेव रायहाणीतो सगाणं सगाणं दीवाणं पुरात्थिमेणं सयंजुरमणोदगं समुद्दे पुरत्थिमेणं असंखेज्जाई जोयाई तत्र । एवं मूराण वि। सयंतुरमणस्स पच्चत्थि - मिला तो वेतियंतातो रायहाणीओ सका सकाणं दीवापचत्थमेणं सयंभुरमोदगं समुदं प्रसंखेज्जा | सेसं त सभुरमणस्स समुहस्स पुरत्थिमिल्लाओ वेतियतातो सयंरमणं समुदं पच्चत्थिमेणं वारसजोयणसहस्साइं श्रोगाहिचा सेसं तं चैव एवं सूराण वि सयंजुरमणस्स पच्चत्थिमिल्ला सयं रमणोदसमुदं पुरत्थिमेणं वारसजोयणसहसाई जग्गाहिता - रायदायी ओ सगाणं सगाणं दीवाणं पुरत्थमेणं ॥ " कदि णं जंते !" इत्यादि । क्व भदन्त ! देवद्वीपगानां चन्द्राणां चन्द्रद्वीपानामहीपाः प्रशप्ताः | भगवानाद - गौतम ! देवीपस्य पूर्वस्मादिकान्तात् देवोदं समुद्रं द्वादशयोजनसहस्रात्यवगाह्य अत्रान्तरे देवद्वीपगानां चन्द्राणां चन्द्रद्वीपाः प्र कृप्ताः इत्यादि प्राभवत राजधान्यः स्वकीयानां चन्द्रद्वीपानां प चिमदिशितमेव देवद्वीपमसंख्येयानि योजन सहस्राष्यवगाह्यात्रान्तरे देवी पगानां चन्द्राणां चन्द्रानामराजधान्यः प्रज्ञप्तास्ता अपि विजयाराजधानीवत वक्तव्याः "कर्दि णं भंते!" इत्यादि । क्व भदन्त ! देवद्वीपगानां सूर्यद्वीपानामदीपा प्रकृताः। भगवामाह - गौतम ! देवद्वीपस्य पश्चिमान्तात् वेदिकान्तात देवोद समुद्रं द्वादशयोजन सहस्राएयवगाह्येत्यादि राजधान्यः स्वकी मां सूर्यद्वीपानां पूर्वस्यां दिशि तमेव देवद्वीपमसंख्येयानि योजन सहस्रा यवगाह्येत्यादि । कहि णं जंते ! देवससुद्दगाणं चंदाणं चंददीवा पछत्ता । गोयमा ! देवोदगस्स समुदस्स पुरथिमिला तो वेतियंतातो देवोदगं समुदं पञ्चच्छि मे णं वारसजोयणसहस्साइं तेणेव कमेणं० जाव रायहाणीओ, सगाणं दीवाणं पञ्चच्छ्रिमेणं देवोदगं समुद्दे असंखज्जाई जोयणसहस्सातिं उग्गाहित्ता एत्थ देवोदगस्स पच्चत्थिमिला तो वेतियंतातो देवोदगं समुदं पुरत्थि मे वारसजोयणसहस्सातिं प्रोगाहित्ता रापहाणं ओ सयां सयाएं पुरत्थिमे णं समुदं संखेज्जाई जोयणसहस्सा । " कहि णं भंते!" इत्यादि । क्व ? भदन्त ! देवसमुद्रगाणां च ाणां चन्द्रद्वीपानामद्दीपाः प्रकृताः । गौतम ! देवोदकस्य समुस्य पूर्वस्मात वेदिकान्तात् देवोदकं समुद्रं पश्चिमदिशि द्वादशयोजन सहस्राण्यवगाह्यात्रान्तरे देवोदकसमुद्रगाणां चखाणां चन्द्रदीपाः प्रज्ञप्तास्ते च प्राम्वत् राजधान्यः स्वकीयानां चन्द्र पानां पश्चिमदिशि देवोदकं समुद्रमसंख्येयानि योजन हस्त्राण्यवगह्यात्रान्तरे वक्तव्याः । देवोदकसमुद्रगाणां सूर्याणां सूर्यद्वीपः देवोदकस्य समुद्रस्य पश्चिमान्तात् वेदिकान्ताव देवादकं समुद्रं पूर्वदिशि द्वादशयोजनसहस्त्राण्यवगाह्यात्रान्त रे वक्तव्या राजधान्योऽपि स्वकीयानां स्वकीयानां सूर्यद्वीपानां पूर्वदिशि देवोदकं समुद्रमसंख्येयानि योजनसहस्राएयवगाह्य । For Private एवं नागयभूतस्वयम्भूरमणद्वीप समुद्र चन्द्रादित्यानामपिककव्या द्वीपगतानां चन्द्रादित्यानां चन्द्रादित्यतीपा अनन्तरे समुझे। समुद्रगतानां तु चन्द्रादित्यानां स्वस्वसमुझे पव। चाह च मूलटीकाकारोऽपि एवं शेषद्वीपचन्द्रादित्यानामपि द्वीपा श्रनन्तरसमुष्ववगन्तव्याः राजधान्यश्च तेषां पूर्वपरतोऽसंख्येयान् पममुद्रान् गत्वा ततोऽन्यस्मिन् सदृशनाम्नि द्वीपे भवन्ति श्रन्यानिमान् पञ्चद्वीपान् मुक्त्वा देवनागयक्ष जूतस्व यम्भूरमणाख्यान् तेषु चन्द्रादित्यानां राजधान्योऽन्यस्मिन् द्वीपे तु तस्मिन्नेव पूर्वापरतो वेदिकान्तात् असंख्येयानि योजनसहस्राण्यवगाह्य जवन्ति इति इह बहुधा सुत्रेषु पाठभेदार परमेतावानेव सर्वत्राण्यर्थो नार्थजेदान्तरामित्येतदूव्याख्यानुसारे चंदय-चन्द्रार्क- न० । अष्टमीचन्द्रे, (जी-) " चंदरूसमणि सर्वेष्वनुगन्तव्या न मोग्धव्यमिति । जी० ३ प्रति० । मालाश्रो" चन्द्रार्देन श्रष्टम चन्द्रेण समं समानं लालटं पास ताः चन्द्रार्कसमललाटाः । जी० ३ प्रति० । चंदकसम-चन्द्रार्कसम त्रि० । शशधरसमप्रविभाग लहरो, "न्त्रिणसमलमचंदरूसमणिडाला " जी० ३ प्रति० । चंदपडिमा चन्द्रप्रतिमा स्त्री० । चन्द्र श्व कला कहानिज्यां या प्रतिमा सा चन्द्रप्रतिमा । प्रतिमाजेदे, शुक्लप्रतिपदि एकं कालमभ्यवहृत्य ततः प्रतिदिनं कवलवृद्ध्या पञ्चदश पूर्णमाझ्यां कृष्णप्रतिपदि च पञ्चदश मुक्त्वा प्रतिदिन मेकहान्याऽमावस्यायामेकमेव यस्यां भुङ्क्ते । (स्था० ) यस्यां तु कृष्णप्रतिपदि पञ्चदश क्वा एकैकहान्या अमावस्यायामेकं शुक्लप्रतिपदि चैकमेव ततः पुनरेकैकवृद्ध्या पूर्णिमायां पञ्चदश के सा वज्रस्येव मध्यं यस्यास्तन्विर्थः । सा वज्रप्रध्या चन्द्रप्रतिमेति (स्था०) एतदेवसूत्रदाह" दो पडिमाओ पाओ तं जहा- जबम चैव पदमा वम चैव चंदपडिमा” | स्या०२ठा०३४०॥ चंदपति-चन्द्रप्रज्ञप्ति - स्त्री० । चन्द्रचारप्रतिपाद के प्रन्ये, पा० । सा चावाह्यप्रकोपकरूपा । आ०४ ०१ ०। Personal Use Only Page #1098 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०५) संदपरिवेस अनिधानराजेन्द्रः । चंदमंडल चंदपरियेस-चन्द्रपरिवेस-j । चन्द्रस्थ परितो बसयाकारप-1 जेसि नाम तेहिं, परोक्यारम्मि निरएहि ॥ ७ ॥ रिजाती, जी०३ प्रतिकाअनु० इयपायं पुवायरिय-रक्ष्यगाहाण संगहो एसो । चंदपन्नय-चन्प र्वत-पुं० । जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पश्चिमे शी विहिओ अणुग्गहत्यं, कुमग्गलग्गाण जीवाणं ॥५॥ सोदाया महानद्या उत्तरे को, वक्तस्कारपर्वते, स्था०४ ग०२ ४००। “दो चंदपवया"। स्था०५ ठा०३ उ०। चम्यादीनां रिद्धिपर्यवसानपदानां प्रथमाकरैः प्रथमवणः ये. चंदपाणिलेह-चन्डपाणिरेख-त्रि.। चन्दाकाराः पाणौ रेखा | षां नामानिधानं तेश्चन्द्रप्रनसरितिरित्यर्थः। कर्थनूतैः परोपकावस्वस तथा। श्री.।जी। प्रश्नवाचकाकृतिहस्तरेखे, तं०।। रमिरतैरिति निगदितप्रकारेण प्रायः पूर्वाचार्यरचितगाधानिरेष चंदप्पन-चन्धमन-पुं०। समस्येव प्रभा ज्योत्स्ना सौम्बले सङ्कटो विहितो निष्पादितोऽनुग्रहार्थ कुमार्गनम्नानां कुप्रवचन कुदेशनावासितान्ताकारणानां भव्यप्राणिनामिति गाथावयार्थः श्याविशेषोऽस्पेसिबलप्रभः। तथा देयाश्चन्द्रपानदोडदोड (दर्श) दर्शनशुक्टिीका तु तच्छिष्यधर्मघोषप्रनूणां शिष्येण भूत चन्द्रसमवर्णश्च भगवान इति चन्प्रभः। ध०२ अधि०।। विमलगणिना वैक्रमवत्सरे-१९८५ तेति समयोऽस्य मतिभस्थामवसर्पिणयां भरतवर्षे जाते ऽयमे तीर्थकरे ,स. । सत्र सर्वेपि तीर्थकतश्चन्द्रवत् सोमश्वाकास्ततो विशेष | मद्भिस्वयमेवाभ्यूह्यः । दर्श। माह-" जणणीए चंदपियणम्मि, दोहसो तेण चंदाभो" येन | चंदप्पभा-चन्छप्रभा-स्त्री० । चंद्रस्येव प्रभा श्राकारो यस्याकारणेन नगवति गर्भगते अनन्याश्चन्द्रपाने दौहरमजायत च. स्सा । सुपविशेषे, जी०३ प्रति. चन्द्रस्य प्रथमायामग्रमाहिमसाशवर्णध नगवान् तेम चलाभवनकप्रभ इति विश्नुतः । प्याम ,ज्ञा० २ श्रु.१०।०भ० । सू०प्र० । स्था। मा० म.दि। मनु । प्रव०। (अन्तरम । आयुः । उच्चत्वम् दशमतीर्थकरस्य शीतलस्य चतुर्विंशस्य च वीरस्य निष्कमणवर्णः । एवमादयः सर्वेऽधिकाराश्चनप्रभखामिनः 'तित्थयर'। शिविकायाम, स.पा.म.द्वि०। ति। कल्प० । शो वक्ष्यन्ते)(यस्मिन् समये जरते चन्नप्रभो जातस्तस्मि संप्रति शिविकाप्रमाणप्रदर्शनार्थमाहम्समये ऐरवते दीर्घसेनजिनः संजो)। चन्द्रकान्तमणी, रा०प० म०। प्रा०चू००प्रका० । जी०कस्प० । पंचासयायामा, घyणि विछिन्नपन्नवीसं तु । "तेसि णं" इत्यादि । तेषां तोरणानां पुरतो वेढे चामरे प्रक्षप्ते उत्तीसं जब्बेहा, सीया चंदप्पना भणिया॥ सानि च चामराणि “ चंदप्पभवश्वेरुलियनाणामणिरयणस पञ्चाशतमायामो दैर्य यस्याः सा पञ्चाशदायामा धषि बिपदमाउ ति" चंपनः चन्द्रकान्तो वजं बैहय च प्रतीतं पञ्चविंशतिं विस्तीर्णा तथा पशिनं धषि नधा बचा शिबन्धप्रभषजबर्याणि शेषाणि च नानामणिरत्नानि खचितानि बेषु दएमेषु तथा एवंरूपावित्रानानाकारादएका येषां चामराणां विका चन्द्रप्रभाऽभिधाना गणधरैभणिता॥ तानि तथा सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात !जी०३ प्रति।चतुर्थदेवलो अनेन शास्त्राय पारतन्त्र्यमाहकस्थ विमानभेदे, नास०३ समाचलस्य ज्योति केन्द्रस्य सीयाए मज्यारे, दिव्यं मणिकणगरयणविवइयं । सिंहासने, नाका०२७०१ मा श्रीचक्रप्रभचरित्रमध्ये प्रजापुत्रे. सिंहासणं महरिहं, सपायवीयं जिणवरस्स। णाग्निसातिकामध्ये ऊम्पाचक्रेश्स्युक्तमस्ति। तत्किमिति तथा दु शिविकावा मध्य एव मध्यकारस्तस्मिन् दिव्यसुरनिर्मितं मणजयराजा तत्र गतस्तद्भवनं कथ्यते किंवा पातालगृहं तस्मासस्तीअपहत्य गतस्तत्र नरका दर्शिताः पश्चादेयतया बहिर्मुक्तः स. यश्चन्द्रकान्तादयः कनकं देवकाञ्चनं रत्नानि मरकतेन्द्रनीलादी निः परिसुन्दर्याः पावें गतस्तत्र किनवनपसिनिकाये किं प्यन्तर. विवइयं 'देशीपदमेतत् तषितामत्यर्थः। सिंहप्रधानमानिकाये या तथा दुर्जयराजः कुत्र भवनमध्येऽस्ति सर्षाङ्गसु सनं महान्तं भुवनगुरुमहतीति महाईम् । सहपादपाठं यस्य येन वा तत्सपादपीठं जिनवरस्य कृतमिति वाक्यशेषः। ग्दरीच ततोऽधः कुनास्ति तथाऽष्टापदेगतस्तत्रेन्केण वस्त्राणि प्रा. म. द्वि०। समपितानि नानि कि वैक्रियाएयौदारिकानि चेति प्रश्ने-3. तरम-प्रजापुत्रेणाग्निखातिकामध्ये उम्पादत्ता फमंच दिव्यानु-चन्दनागा-चन्द्रनागा-स्त्री० । सिन्धुमहानद्यां संगतायां जबभावेन प्राप्तं तथा दुर्जयराजो बासस्थानं भूमिकाविश्वरमध्ये | | समर्पिकायाम स्वनामख्यातायां नद्याम, स्था०५ ठा०३ ३०॥ मनुष्यसंबन्धियां राजधान्यामस्ति तथा सर्वाङ्गसुन्दरीव्यन्तरी व्यिन्तराचंदमंगल-चन्द्रमण्डल-न। चन्द्रविमाने, स०६२ समः। तवासस्थानं व्यस्तरनिकायेऽस्ति तथास्ति अपत्यागत इत्यादिसर्व तधिससितं केयं तथाऽष्टापदे वखाम्यर्पितानि तान्यो अथ चन्द्रमामयवक्तव्यताहहारिकानि केयानीति ॥ ४६०प्रासेन० ३ नमा। तत्र सप्त अनुयोगद्वाराणि-मएमलसंख्याप्ररूपणा, मएमलकेपंदप्पजविहार-चन्मभविहार-jor नासिक्यपुरे पत्तनमहो. त्रप्रपणा, प्रतिमण्डलमन्तरप्ररूणा, मएमझायामादिमानम्, म सवे प्रजापतिना कारिते चन्प्रभस्वामिचैत्ये, ती-२० कल्प । न्दरमधिकृत्य प्रथमादिमण्डलाबाधा, सर्वाभ्यन्तरादिमएमला-- चंदप्पनमूरि-चन्द्रमजसरि-पुं० । चम्गच्चीये दर्शनशुचिमू यामादि, सुदृतंगतिः। सकर्तरि स्वनामख्याते प्राचार्य, (दर्श०) तत्रादौ मण्डससंख्याप्ररूपणं पृच्छत्तिनामनिरुक्तिश्चैवम संप्रति स्वयमेव वस्तुगृहीतनामधेयो कति णं ते ! चंदपंगला पप्लत्ता। गोयमा! पप्परस चंप्रगवान् ग्रन्थकारः स्वनामव्युत्पत्त्या प्रकटयन् प्रन्य। स्वरूपं प्रयोजनं च दर्शयन्निदं गायाध्यमाह दममता पमत्ता जंबुद्दीवे णं भंते!दीवे केवोगाहिचंदादिपहवसूरि-पपनिवहपढमवन्नहिं । चा केवइया चंदमंझला पाचागोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे Page #1099 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदमंडल चंदमंडल अही जोधणसयं भोगादिया एत्य णं पच पदमंगला | रिंदे कपडाकः सोऽपि मन्तर प्रक्षिष्यते जाएं पणात्ता । "कति ते!"त्यादि कति नदन्त ! च सानि] गयाना गौतम! पञ्चममलानि प्रमानि यांमध्ये कति द्वीपे कति पतिव्यत्वपृच्छवि जम्बूद्वीपे महन्त ! द्वीपे किवगाह्य क्रियन्ति चन्द्रममलानि प्रप्तानि । गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे श्रशीत्यधिकं योजनश तमवगाह्य पञ्च चन्द्रमण्डलानि प्रकृप्तानि । योजनानि ५२० यश्च पूर्वोद्वरित एकः एकषष्टिजागः सप्तचत्वारिंशति प्रतिप्यन्ते. जानम् ४८ एकषष्टिभागाः । ननु पञ्चदशसु मएमलेषु च चतुरासम्भवाच देशभिर्भाजनं युक्किम स सचन्वारो भागा इति कथं संगच्छते । उच्यते- मामलान्नर क्षेत्र राशः ४६७ मन्तरेतुभिज यानि - मानि उरतस्य योजनराशेरेका गुणन मूलराशिक षष्टिभाग के च जातम ४२० एषां चतुर्दशनिर्भजने भागतः स. राशिः ३० होगा तेषां चतुर्दशभिर्मागा या साधवा ज्यामपवर्तने जातं प्राजकराश्योः इति सुरयम जं०७ है । चक्क० । ( चन्द्रमएमलाचन्द्रमण्डलं कियन्याऽबाधया स्थितमिति अन्तर' शब्दे प्रथममा ६६ पृष्ठे गतम) संप्रति मायामादिमानद्वार . सवणं ? भंते! पुच्छा गोआमा ! तिष्ठितीसे जो एसए श्रगाहित्त। एत्थ ला पाचा एामेव सावरे पारस चंदमंगला जवतीतिमक्खायं । (१०७८) श्रभिधानराजेन्द्रः | सपणे णं समुदे णं दस चंदमंगसंबुद्दीचे कायमुद्दे 1 म लवणसमुळे जन्त ! प्रश्नः गौतम! लवणसमु दधिकानि त्रीणि योजनशतानि श्रवगाह्य अत्रान्तरे दशचन्द्रमगडनानि प्रप्तानि । एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे लवणस• मुझे पञ्चदश चन्द्रममनानि भवन्तीति श्राख्यानमिति । ( 'चं. 'शब्दे अनुपदमेव एतानि व्याख्यास्यामि ) अथ मण्डल क्षेत्र प्ररूपणां प्रश्नयन्नाह - सम्पन्नतराओ भंते! चंद्रमला केवहारवादासव्यवाहिरए चंदमंडले पम्पचे ? गोअमा पंचदमुत्तरं जोअणसप अवाहार सम्बाहिरए चंदमंदले पण । "सम्यंराम्रो" इत्यादि सर्वाज्यन्त भदन्त मण्ड लात् कियत्या अबाधया सर्व बाह्यचन्द्रमण्डलं प्रप्तम् । किमुक्तं सर्ववाद्य काशं तन्म एक लक्त्रं, तत्र च चक्रवालतथा विष्कम्भः पञ्चयोजमराठानि दशोत्तराणि रथ एकजागा योजनस्य ५१०४० इदं च व्याख्यातोऽधिकं बोध्यं तथाहि चन्द्रस्य मएमसानि पञ्चदश चन्द्रविम्बस्य च विष्कम्नः एकषष्टिभागात्मकयोजनस्य पचाशद्भागास्तेन ये ५६ पश्चदशभिर्गुयन्ते जातं ८४० तत एषां योजनानयनार्थम् ६१ एकषष्ट्या भागे हृते लधानि त्रयोदश योजनानि । शेषाः सप्तचत्वारिंशत् तथा चदशानां मरामलानामन्तराणि चतुर्दश एकैकस्यान्तरस्य प्रमाणं पयोजनानि पञ्चविंशच्च षष्टिभागा योज नस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सप्तधा विश्वस्य सत्काश्चस्वारोजगाः, ततः पञ्चत्रिंशश्चतुर्दशभिर्गुण्यन्ते जातानि चत्वारि योजनाधिकानि च। येऽपि विदेकटिभागा यन्ते जातानि चत्वारितानि कानि ४२०| अयं च राशिरे कषष्टिभागात्मकस्तेन एकषष्ट्या भागो न्दियते लब्धानि षट्योजनशतानि पषु पूर्वराशी प्रतिप्तेषु जाता ४६ योजना शेषाचतुःपञ्चादेकपटिभागास्तिति ये एकस्यैकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्त भागास्तेऽपि चतुर्दशनिर्गुण्यन्ते जाताः षट्पञ्चाशत, तेषां सप्तभिर्भागे ते धावेष्टिभागास्ते ऽनन्तरोकचतुःपञ्चाशति प्रतिष्यन्ते जाता द्वाषपिः ६२तत्रैकषष्टिभागयजनं सन्धं तच्च योजनराशी प्रयिते एकीकहिनागः शेषाः VLS योजनम बोऽपि विपक्षेषराशियोदय योजना च 1 चंदमले णं जंते! केवइयं आयामत्रिक्खजेणं केवइपरिक्श्वेवेणं केवइअं बाद लेणं पयते । गोमा ! छप्पणं एस डिजाए जो प्रणस्स प्रायामविक्खंभे णं तं तिगुणं सविसेसं परिक्लेवेणं अडवीच एसडिभाए जोधणस्स वादचेणं । "चंदमंमले णं ते! केवहां भायोम इत्यादि । - मएमलं भगवन् ! कियदायामविष्कम्भाभ्यां कियत्परिक्षेपेण कपालमोचैस्त्वेन प्रहतम् गौतम ! पपाशतमेकपविभागान्] योजनस्याचामविष्कम्भाज्य एकस्य योजनस्य मागीकृतस्य याप्रमाणा भागास्तावत्प्रमाणं - पञ्चाशतभागप्रमाणमित्यर्थः तत्रिगुणं सविशेषं साधिक परिक्षेपण करणरीत्या हे योजने पञ्चपञ्चाशङ्गागाः, साधिका इत्यर्थः । श्रष्टाविंशतिमे कषष्टिभागान योजनस्य बाइल्येन । अथ मन्दरमधिकृत्य प्रथमादिमराम लाबाधाप्रश्नमाद जंयुदीचे दीने एणं भंते दीने मंदरस्स पव्वयस केनाए चाहास नंतर चंद्रमंडले पएच है। गोमा चोप्रालीसं जो अरणसदस्साई अ य बीसे जो सर अवादाए • सव्यब्यंतरे चंदमंमझे पणत्ते ॥ "दीदी" इत्यादि जम्मूदी द्वीपे भगवन्! मन्दरस्व पर्वतस्य त्या वाया सर्वाज्यरचन्द्रमसम गौतमत्वारिंयोजनमाथि भए च विशत्यधिकानियोजनशतान्यषाधया सर्वाभ्यन्तरं सम्म एडलं प्रप्तमिति । उपपत्तिस्तु प्रा सूर्यचन्तायां दर्शिता । " द्वितीयाबाधाखसूत्रमाद जंमुदीचे भंते! दीवे मंदरस्य पन्चायस्स के आए अवादातांतरे चंदमले पर हैं। गोयमा चोल जोणसहस्साई ग्रह व उप्परणे जो एसए पानी च एगहिजार जोधणस्स एमाईभागं च सचहा बेता चचारि चुणिआभार अवादार अभ्यंतरावरे चंदमं पते । "जंदवेदीचे" इत्यादि जम्बूद्वीपे ! मन्दरस्व पर्वतस्य क्रियस्था अबाधया अभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं चन्द्रमएमसंगीत चतुरारिजन सहस्राणि हीच पद Page #1100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1050) अभिधानराजेन्द्रः । चंदमंमल धकान योजनशतान प िगान योजनस्य, एकं च एकषष्टिभागं सप्तधा हित्वा चतुरश्चूर्णिका भागानबाधया सर्वाच्यन्तरानन्तरं द्वितीयं चन्द्रमण्डलं प्रश सम। अत्रोपपतिः प्रागुक्तेऽज्यन्तरम एमलगतराशौ मामलाम्तरक्षेत्र एकल विष्कम्भराइयोः प्रक्षेपे जायते । तथाहि ४४८२० रूपः पूर्वममलयोजनराशिः अस्मिन् मएकलान्तर क्षेत्रयोजनानि३५ तथान्तरसत्कत्रिंशदेकशष्टिभागानां मण्डल विष्कम्भ सत्कष्टूप. प्राशदेकपटिनामानां च परस्परमीलने जातम् ०६ एकषष्टधा भागे चागतं योजनमेकं तच्च पुर्वोक्तायां पञ्चत्रिंशत् प्रक्विप्यते जाताः पट्त्रिंशद्योजनानां शेषाः पञ्चविंशतिरेकर्षाष्टभागाः चत्वारश्चूर्णिका नागा इति । अथ तृतीयाभ्यन्तरमण्डलाऽबाधां पृच्छुन्नाह अंबुद्दीवे दीवे मंदरस्य पव्वयस्स केवइयाए प्रवाहाए अन्तरवच्चे मंकले पष्ठते ।। गोयमा ! चोप्रालीसं जो सदस्साईड यं वा उए जो अणसए एगात्रं चएगसद्विजाए जो णस्स एंगडिजागं च सत्तहा बेता एगं चुणिद्याभागं प्रवाहाए अनंतरतश्चे चंदमंमले पाते । "ही दीये " इत्यादि । प्रह्मसूत्रं प्राग्वत् । उत्तरसूत्रे द्विती मण्डलसत्कराशी ३६ योजनानि २५ एक इत्यस्य प्रक्षेपे जातं यथोकम् । अथावाधाविषयं चतुर्थादिमएकलेष्वतिदेशमादएवं खलु एवं जवारणं पिक्खममाणे चंदे तयांतरा मंडल तयाणंतरमंडलं संकममाणे‍छत्तीसं बत्तीसंबाई पणवीसं च एगडिजाए जो णस्स एगडिनागं च सवा बेला चत्तारि चुणिआजाए एगमेगे मंमले प्रवाहामिभित्रमाणेश्सव्यवादिरं मंगलं नवसंकमिचाचारं चरइ । " एवं खलु ” इत्यादि । एवमुक्तरीत्या मएमसत्रयदर्शितयेत्यर्थः । पतेनोपायेन प्रत्यहोरात्र में कै कमराकल मोचनरूपेण निष्कामन लवणाभिमुखमरामल्लानि कुर्वन् चन्द्रस्तदनन्तराद्विषति. तात्पूर्वस्मान्मएका द्विवक्षितमुत्तरमण्डलं संक्रामन् २ षटूशयोजनानि अत्र योजनसंख्यागतवीत्सा जागसंख्यापदेष्वति• ब्राह्मा तेन पञ्चविंशतिम् पञ्चविंशतिम एकषष्टिनागानू योजनस्य एकमेकं चैकषष्टिभागं सप्तधा बिस्वा चतुरचतुरश्चूर्णिका - प्रागान् एकैकस्मिन्मण्डले श्रवाधया वृद्धिं अभिवर्द्धयन् २ सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति । अथ पञ्चानुपूर्व्यपि व्याख्यानाङ्गमित्यस्य मएकलाम्मदमलाबाधां पृच्तमाह- जंबूदीवे णं दीवे मंदरस्त पव्वयस्स केव आए आवाहाए सव्ववाहिरे चंदमंडले पत्ते १ । गोयमा ! पणयान्झीसं जोगासहस्सा तिरिण अ तीसे जोअणसए अबादाए सव्ववाहिरए चंदमंमले पाते । "जंबुद्दीवे सि" जबूद्वीपे भगवन् ! मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अबाधया सर्वबाह्यचन्द्रममलं प्रप्तम् । गौतम ! पञ्चचत्वारियोजनसहस्राणि त्रीणि चत्रिंशदधिकानि योजनशतान्यवाया सर्वामयम मम । उपपतिस्तु प्राग्वत । २७० चंदमंडल अथ द्वितीयबाह्यमण्डलाबाधां पृष्ठ शाह जंबुद्दीचे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवड़ आए अवाहाए बाहिरा तरे चंदमंडले पत्ते १। गोयमा ! पणयालीसं जो णसहस्सा दोष अ तेगुए जोणसए पणतीसं च एगड्डिभाए जो प्रणस्स एगद्विभागं च सत्तहा छेचा तिथि चुटियाजाए अवाहाए बाहिराणंतरे चंदमंकले पाते । जम्बूद्वीपे द्वीपे भगवन् ! मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अबाधया सर्व बाह्यानन्तरं द्वितीयं चन्द्रममलं प्रशप्तम् १। गौतम ! पञ्चचत्वारिंशद्योजन सहस्राणि द्वे च त्रिनवत्यधिके योजनशते पञ्चत्रिंशश्चैक षष्टिभागानू योजनस्य एकं चैकषष्टिभागं सप्तधा हिस्वा श्रीश् चूर्णिकाभागानबाधया सर्व बाह्यानन्तरं द्वितीयं चन्द्रमएमसं प्रकृतम् । सर्वषाह्यमण्डल राशेः पत्रिंशद्योजनानि पश्यवितिश्च योजनैकषष्टिभागा एकस्यैकषष्टिना गस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागाः पात्यन्ते जायते यथोक्तो राशिः । जं०७ वक्त० जी० । चंदमले एगसडि विभागविजाइए समंसे पाते । एवं सूरस्स वि ॥ ६१ ॥ चन्द्रमएमले चन्द्रविमानं 'णं' इत्यसंकृती (एससि) योजनस्यैकपष्टिभागेन षट्पचाशद्भागप्रमाणैर्विभाजितं विभा गैर्व्यवस्थापिते समांशं समविनागं प्रशतं विषमांशं योजनस्यैकषष्टिनागानां षट्पञ्चाशद्भागप्रमाणत्वात्तस्य च भागभागस्याविद्यमानत्वादिति । एवं सूर्यस्यापि मण्डलं वाच्यम् । अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिनागमात्रं हि तत्र चापरमंशान्तरं तस्याप्यस्तीति समांशतेति । स० ६१ सम० । अथ तृतीय बाह्यमण्डलाबाधामाद जंबुद्दी भंते! दीषे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अबाहार वाहिरचे चंदमंडले पत्ते १ । गोयम्म ! परणयालीसं जो सदस्साई दोणि सत्तावको जोश्रणसर णव य एगहिनाए जो अणस्स एगट्टिभागं च सत्तहा बेत्ता बच्चुसाभार अवाहार वाहिरतचे चंदमंकले पत्ते ॥ "जंबुद्दीवे" इत्यादिप्रश्नसूत्रं सुगमम् । उत्तरसूत्रे पश्चचत्वारिंशद्योजन सहस्राणि द्वे च सप्तपचाशदधिके योजनशते नव व एकषष्टिनागान् योजनस्य एकं च एकषष्टिभागं सप्तधा हिश्या षट् चूर्णि भाकागान् अबाधया बाह्यतृतीयं चन्द्रमण्डलं प्रकृतम । उपपत्तिस्तु बाह्यद्वितीयमरामलराशेस्तमेव पत्रिंशद्योजनादिकं राशि पातयित्वा यथोक्तं मानमानेतव्यम् । ( जं० ) ज्यो प्रथाबाधाविषयमभ्यन्तर चतुर्थादिमएमलेग्यतिदेशमाह एवं खलु एषणं उचारणं पविसमाणे चंदे तयाांतराच मंमन्नाओ तयाांतरं मंमनं संक्रममाणे २ छत्तीसं छत्तीस जोलाई पणवीसं च एगहिनाए जोग्रणस्स एडिभागं च सचहा बेत्ता चत्तारि चुलियाजाए एगमेगे मंगले श्रबाहा वुद्धिं विनेमाणे २ सन्नंतरं मंगलं उवसंकमित्ता चारं चरई ॥ 66 एवं खलु " इत्यादि व्यक्तं भवरम | अबाधायाः वृि निर्बंधयन २ हापयन हापयन्नित्यर्थः । Page #1101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०७०) चंदनमल अभिधानराजेन्दः। चंदमंडल अथ सर्वाच्यन्तरादिमण्डलायामाद्याह "अभंतरतच्चे णं" इत्यादि । अभ्यन्तरतृतीये चन्नमरामसे याव. सकनंतरे णं भंते ! चंदनमले केवइभं आयामविक्खंजे. तपदात्"चंदमंडले केवश्यं पायामविक्खंभेणं केवश्य परिक्सो णं केवइ परिक्खेवेणं पासते । गोयमा! णवाणउई जो घेणं" इति ग्राह्यम् । उत्तरसूत्रे गौतम! नवनवतियोजनसहना णि सप्त च पञ्चाशीत्यधिकामि योजनशनानि एकचत्वारिंशतं अणसहस्साई उच्च चत्ताले जोमणसए आयामविखंजेणं चैकपष्टिभागान् योजनस्य एकं च षष्टिभागं समधा निस्वा द्वी तिमि अ जोअणसयसहस्साई पसरस जोअणसहस्माई चचूर्णिकाभागावायामविष्कम्भाभ्याम्। प्रथमितीयमएमगत प्रउणाणउति च जोषणाई किंचि विसेसाहिए परिक्खे राशी वासप्तर्ति योजनान्येकपञ्चाशतं चैकपष्टिनागान् योजन स्थ एकच चूर्णिकाभार्ग प्रक्षिप्य यथोक्तं मानमानेतव्यं श्रीवि बेणं पसत्ते । योजनलक्षाणि पञ्चदशयोजनसहस्राणि पञ्च चैकोनपञ्चाशद"सम्वन्तरेण" इत्यादि । सर्वाज्यन्तरं जदन्त! चन्मएडलं कि धिकानि योजनशतानि किंचिद्विशेषाधिकानि परिक्केपेण शह पदायामविष्कम्जाच्यां कियपरिक्षेपेण प्राप्तम् । गौतम! नबन. पूर्वमण्डलं परिरयराशौ द्वे योजनशते त्रिंशदधिके प्रक्तिप्योपपपति योजनमहरूपाणि षट्चत्वारिंशदधिकानि योजनशतान्याया तिः कार्या। (जं.) ज्यो। मविष्कम्भाभ्यां त्रीणि च योजजत्रकाणि पञ्चदशयोजनसहना अथ चतुर्थादिमण्डलेवतिदेशमाहपयकोननवतिं च योजनानि किंचिद्विशेषाधिकानि परिक्वेपेण प्राप्तम् । उपपतिस्तूजयत्राऽपिस्र्यमएमलाधिकारे दर्शिता । एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे चंदे० जाव संकअथ द्वितीयम ममाणे संकममाणे बाबत्तरिं चावतारं जोअणाई एअभंतराणंतरे सा चेव पुच्छा ?। गोयमा ! वणनई गावणं च एगद्विभाए जोअणस्स एगहिनागं च सत्तहा मोअणसहस्साई मत्त य वारसुत्नरे जोअणसए एगावणं छेत्ता एग चुमित्रानागं एगमेगे मंझले विक्खंभवुद्धि अनिच एगहिनागे जोअणस्स एगहिनागं च सत्तहा छेत्ता बुझेमाणे २ दो दो तीसाई जोप्राणमयाई परिरयवुद्धि अभिएगं चुणिमानागं मायामविक्खंजणं तिमि अ जो बढेमागे २ सन्बवाहिरमंडलं उपसंकमित्ता चारं चर। "एवं खलु" इत्यादि पूर्ववत् । निकामश्चन्द्रो यावतपदाद प्रणसयसहस्साई तिमि अ एगृणवीसे जोअणसए किंचि | "तयाणतरामो ममलामो अणतरमंगलं" इति ग्राह्यम्। संक्रामन् विसेसाहिए परिक्खेवेणं ॥ संक्रामन् द्वासप्तति २ योजनानि । योजना-न संख्या पद. "मम्भंतराणंतरे" इत्यादि । अत्यन्तरानन्तरे सैव पृच्चा या| गता बीप्सा नागसंख्यापदेष्वपि प्राह्या तेनैकपञ्चाशतम एकसर्वाभ्यन्तरे मण्डले उत्तरसूत्रे । गौतम! नवनवति योजनसइ. | पञ्चाशतं चैकषष्टिभागान योजनस्थ एकं च एकषधिमाणि सप्त द्वादशोत्तराणि योजनशतानि एकपञ्चाशतम एक- भागं सप्तधा विस्वा एकमकं चर्णिकाभागमेकैकस्मिन्मण्डले पधिनागान् योजनस्य एकं चैकषष्टिभागं सप्तधा छित्वा | विष्कम्भवृश्मिभिवर्दयन् २ढे द्वे त्रिशदधिके योजनशते परिपकं चूर्णिकाभागमायामविष्कम्भाभ्यां तथाहि-एकश्चन्छ- रयवृकिमभिवर्कयन् २ सर्ववाई मएमसमुपसंक्रम्य चारं मा द्वितीये मामले संक्रामन् षट्त्रिंशद्योजनानि पञ्चविं- चरतीति । (जं०) ज्यो। शति चैकष्ठिभागान् योजनस्य एकस्य एकस्य एकषष्टि संप्रति पश्चानुपूर्या पृच्चतिभागस्य सप्तधा जिन्नस्य सत्कान् चतुरो नागान् विमुख्य सम्बवाहिरए णं भंते ! चंदमंडो केवयं भायामविक्वं संक्रामति। अपरतोऽपि तावन्त्येव योजनानि विमुच्य संक्रामति उभयमीलने जातं द्वासप्ततियोजनानि एकपञ्चाशदेकषष्टिभागा भेणं केवश्नं परिक्खेवेणं पलत्ते।गोप्रमा! एग जोअणयोजनस्य एकस्य एकषष्टिनागस्य सप्तधान्त्रिस्य सत्कएकोन- सयसहस्सा छच्च सहे जोमणमयसहस्सं । उच्च सटे जोभागोद्वितीयमयमले विष्कम्ताज्यामचिन्तायामधिकत्वेन प्राप्य प्रणसए आयामविक्खंभेणं तिीि भजोअणसयसहस्साई ते इति । तच्च पूर्वमएमलराशौ प्रतिप्यते जायते यथोक्तं द्विती अट्ठारससहस्साइं तिथि अपहरमुत्तरे,जोअणसए परिमएममाऽऽयामविकण्वम्भमान त्रीणि योजनशतसहस्राणि श्रीणि कोनविंशत्यधिकानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषाऽधि क्खेवणं ॥ कानि परिकेपेण द्वितीय मण्डलं प्रज्ञप्तम् । उपपत्तिस्तु प्रथमम "सम्बवाहिरए एं" इत्यादि । सर्वबाचं भदन्त ! चन्मएकएमलपरिरये शासप्तति योजनादीनां परिरये त्रिंशदधिकद्धियो- लं कियदायामविष्कम्भाभ्यां कियत्परिकेपेण प्राप्तम् । गौतम! अनातरूपे प्रति सति यथोक्तं मानम् । एकंयोजनलकं षषष्ठानि षट्पष्टयधिकानि योजनशतान्यायाअथ तृतीयम् मविष्कम्भाभ्याम् उपपत्तिस्तु जम्बूद्वीपो लकम उन्नयोः प्रअन्नंतरतच्चे एंजाव पत्ता गोभमा! एवणउइं जो स्येकं त्रीणि योजनशतानि त्रिंशदधिकानि उभयमीलने योज नानां षट्शतानि पटवधिकानोति। त्रीणि च योजनसवाणि भअणसहस्साई सत्तय पंचासीए जोअणसए इगतालीसं च | टादशसहस्राणि त्रीणि च पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि परिएगहिभाए जोअणस्स एगढिमागं च सत्तहा नेता दोहिण क्षेपेण । अत्रोपपत्तिः-जम्बूद्वीपपरिधौ षष्टयधिकषट्शतपरिअचुलिमालाए आयामविक्खंनेणं तिमि भजो अणमय धौ प्रतिप्ते भवति यथोक्तं मानम् । सहस्साई पप्परसजोअणसहस्साई पंच य इगुणापरणे अथ दितीयमजोअणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं। बाहिराणंतरेणं पुच्चा गोयमा पगंजोधणसयसहस्स Page #1102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०७२) निधानराजेन्द्रः । चंद मंडल पंचसत्तावीसं जो णमए यत्र य एगट्टिभाए जोअणस्स एगट्टिभागं च सत्तहा छेत्ता छ चुम्मिग्रामाए श्रायामत्रिक्खमे तिथि जो सयमस्साई अहारसस इस्साई पंचासीइ च जोअणाई परिक्खेवेणं ॥ अ " बाहिरा" इत्यादितरं दितीयं । पृच्छेति प्रश्नाला पाकस्तथैव उत्तरसूत्रे गौतम ! एक योजनतकं पचनाशीत्यधिकानि योजना बैकटिभागान् यो जनस्य एकं व एक पष्टिमागं सप्तधा हित्वा षट् चूर्णिका भागान् चूर्णिकाभागान् श्रायामविष्यभायायोपपति-पूर्वयोज मान्येकं पञ्चाशत चैकषष्टिभागान् योजनस्य एकस्य च एकषचित्रागस्य सप्तधा विन्नस्य एकं भागमपनीय कर्तव्या श्रीणि योजनाणि भादशसहस्रातियोजन पेण सर्वषामपराध योजनानामनयने यथोकं मानम् । अथ तृतीयम् बाहिरतां भंते ! चंदमंडले पत्ते । गोयमा ! एगं जो ससस्स पंचदमुचरे जोभणसए एगुणची च एगसडिनाए जो अणसए एगडिजागं च सत्तहा सेता पंच चुमित्राभार प्रायामविवखं नेणं तिष्टि भ जोनसगसहस्सा सत्तरससदस्साई अट्ठ य पणपछि जोश्रणसए परिक्खेत्रेणं ।। "वाहितच्चे" इत्यादि । वाह्यतृतीयं भदन्त ! चन्द्रमएकलं यावच्चात् सर्व प्रश्नसूत्रं ज्ञेयम उत्तरसूत्रे गौतम! एकं योजनल सराणि योजनानि शकि षष्टिभागान्] योजनस्य एकं बैकपट्टिमा सप्तधा या पक्ष चूर्णिकामागार मायामविष्कम्भाभ्याम् । अत्र संगतस्तु द्वितीयमunaराशेः द्वासप्ततियोजनादिकं राशिमपनीय कार्या श्रीणि योजन लक्षाणि सप्तदशसहस्राणि अष्ट च पञ्चपञ्चाशहृधिकानियोजनशतानि परिक्षेपेण उपपत्तिस्तु पूर्व राहते शिधिनी काया । अथ चतुर्थादिमय प्रेष्यतिदेशमाद एवं ख एवं वाणं पविसमाणे चंदे० जाव संकममाणे २ वाचत्तरिंश्जो अणाई एगावणं च एगद्विजाए जोअणस्स एमट्ठिभाग च सत्तहा बेत्ता एगं चुरिण श्राभागा मेगे मं विज विहेमाणे २ दो दो सीमाई जोणसयाई परिरयवुद्धिं पिबुड्ढेमाणे १ सव्वब्जंतर मं कलं छत्रकमित्ता चारं चरई ॥ I "ख" इत्यादि पूर्ववत् प्रविधको पाचपात यानंतराम्रो मंडलाओ तयणंतरं मंगलमिति" प्राह्मम । संक्रामन् २२ योजनानि एकं पञ्चाशतमेकपञ्चाशतं रूपद्विनागानू योजनस्य एकषष्टिजागं च सप्तधा बिस्वा एकमेकं चूर्णिकाभागमेकैकस्मिन् मण्डले विष्कम्भवृद्धि नियन् २ हापपद हापयत्यर्थः । द्वे द्वे विंशधिक योजनशते परिनिर्द्धयन् २ हापयन् हापनित्यर्थः सर्वान्यन्तरमपटपसंकाय बारे चरति । चेदमंगल तपसेविता चार अथ मुगतिप्ररूपणाजया व नंते! चंदे सतरं चर तथा एगगेणं सुदुचे केव खेतं गच्छ गो या ! पंचजो णमस्साई तेवत्तरिं च जोरणाई सत्तत्तरि च चोभाले जागसप गच्छ मंडल तेरसहि सहस्तेहि सचहिं का पानी था। ! "जय" इत्यादिपदन्त चन्द्रः सर्वान्तरमण्डलमुपसंकाय चारं परति । तदा एकैकेन मुहूर्तेन किय गच्छतियानाह-गौतम! पञ्चजनसहस्राणि । - च योजनानि सप्तसप्ततिं च चत्वारिंशदधिकानि भागशतानि गच्छति । कस्य सत्का भागा इत्याह-मएमलं प्रक्रमात् सर्वाच्य योनिः सत्यध स्थिति पञ्चसहस्रयोजनादिकं परिमाणमा तथाहि प्रथमतः सर्वायन्तरमा परिधिः योजन २९२००६ रूपा द्वाभ्यामेकविंशत्यधिकाम्यां शतायते जात ६८६३४६६१ अस्य राशेः प्रयोदशनिः सह सप्त पञ्चविंशत्यधिकैर्नागे हते लब्धानि पञ्चयोजन सदस्राणि त्रिसप्तत्यधिकानि अंशा सप्ततिशतानि चतुरधिका५०१३ ननु यदि मण्डलपरिथिः प्रयोदशसहस्रा ७७४४ | शिता भाग्यस्ता किमित्येविशत्यधिकायां | १३७२५ ताभ्यां मदमपरिचियते चन्द्रस्य महमखपूरणकाला द्वापरिमुहूर्ता एकस्य मुहूर्तस्य सत्कायोविंशतिरेकविंशत्यधिकशतद्वयभागाः । अस्य चायना चन्द्रस्व मुहूर्त भागगत्यवसरे विधास्यते मुहांसनार्थमेकविंशनिगुणयोशिश च जात १३७२५ अतः समभागान्याचे मण्डलस्याप्येविशत्यधिकद्वयेन गुणनं संगतमेवेति भावः सूर्यः पचा मुहूर्तमे समापयति शीघ्रगतित्वात् विमानगामित्याच। तथा चो मुखकित्यधिकशतयनामेड प्रस्थतिम न्दगतित्वाद् गुरुविमानगामित्वाच्च तेन मएकलपूर्तिकालेन मण्ड अपरिधिः सन्तीति समाएक शत्यधिकशतयजा करणे कि वीजमिति दुष्यते ममख कालानयने अस्यैव द्राशेः समानयनात् मामलकानिरूपयार्यमिदं जैशिकं यदि साधिके सकलयुगवर्तिभिः श्रर्द्धमण्डलैरष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि रात्रिदिवानां लभ्यन्ते ततो ममाभ्यामेकेन मम लेनेतिभावः । कति रात्रिदिनि लभ्यन्ते । राषि-१७६८० १८३० । २ । अत्रान्त्येन राशिना विकलकणेन मध्यस्य राशेः १०३० रूपस्य गुणने जातानि तानि कानि ३६६० तेषामाद्येन राशिना १७६८ रूपेण जागे इते बन्धे द्वे द्वे त्रिदशेषं तिष्ठति चतुवैिशत्यधिकं शतम १२४ क मिन् शिर्ता इति तस्य त्रिशा गुराने जातान यानि ३२० ते सपचिकै भोगे तेली महा श्योराने जाते है राशि पविशतिः करा कवित्यधिकशतप इति (अं) ज्यो० । अथाऽस्य दृष्टिपथप्राप्ततामाद या इहगयस मणुसस्स सीमाक्षीसाए जो अप्पसह Page #1103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५५ । चंदमंगल प्रान्निधानराजेन्द्रः। चंदमंडस सेहिं दोहिं असेबडेहि जोधणसएहिं एगवीसाए अस- रते लब्धानि पक्षसहस्रापयशीत्यधिकानि १०८ शेषं त्रयोशसहिभाएहि जोधणस्स चैदे चक्खप्फासंचमागचs | हमाणि त्रीणि शताम्येकोनत्रिशदधिकानि नागानाम १३३२६ "तया ण रहगयस्य" इत्यादि।तदाइहगतानां मनुष्याणां स. सचत्वारिंशता योजनसहस्बैठाभ्यां च विषयधिकान्यां पो अथ चतुर्थादिमएमनेष्वतिदेशमादमनशताभ्यामेकविंशत्या च षष्टिभागैर्योजनस्य चन्द्रः चक्षुः- एवं खबु एएणं उवारणं निक्खममाणे चंदे तयाणंतस्पर्श शीघ्रमागच्छति । भत्रोपपत्तिः सूर्याधिकारे दर्शिताऽपि | राओ० जाव संकममाणे तिरिणजोमणाई छणउइंच किंचिद्विशेषाभिधानाय दयते-यथा सूर्यस्य सर्वाज्यन्तरमएम- पंचावएणे नागसए एगमेगे मंझले मुलुत्तगई अनिवघ्माणरे में जम्बूद्वीपचक्रयालपरिधर्दशभागीकृतस्य दशत्रिनागान् या. सब्बवाहिरममझ उवसंकमित्ता चारं चर॥ बत्तापत्र तथाऽस्याऽपि प्रकाशकेत्रं तावदेव पूर्वतोऽपरतश्च तस्याः चतुःपथप्राप्ततामायाति । यत्तु वष्टिभागीकृतयोजन "एवं खलु एपणं" इत्यादि पूर्ववत । निष्कामन् चन्द्रस्तदनन्तसतकैकविंशतिनागाधिकरवं तत्तु संप्रदायगम्यम् । अन्यथा च. रात यावच्छन्दात मपलात्तदनन्तरं मरमसं संक्रामन् संक्रामन दाधिकारे सांधिकद्वापष्टिमुहूर्तप्रमाणमएडलपूर्तिकालस्य नेत. त्रीणि २ योजनानि पक्षवति च पञ्चपञ्चाशदधिकानि भागशता राशित्वेन जणनात् सूर्याधिकारे पष्टिमुहूर्तप्रमाणमएमलपूर्ति- न्येकैस्मिन्मएमले मुर्तगतिमनिवर्कयन्।सर्ववाद्यमएमसमुपसं. कालरूपस्य छेदराशेरनुपपद्यमानस्यात् ।। काम्य चारं चरति।कयमेतदवसीयते इतिचेदुच्यते-प्रतिचन्द्रमभय द्वितीयमण्डले मुर्तगतिमाह एमले परिरयवृद्वेिशते शिवधिक १३. अस्य च त्रयोदशा सहस्राधिकेन राशिना भागे हते लब्धामि त्रीणि योजनानि शेष मया णं भंते ! चदे अभंतराणं ममलं नवसंकमित्ता चारं पनवतिपचपचाशदधिकानि प्रागशतानि ।३ चरमजाच केवश्भं एत्न गच्चइ गोयमा! पंचजोणस १३७५ इस्साई सत्तत्तरिंच जोप्रणाई बत्तीसं च चोअत्तरे भाग भय पश्चानुपूा पृच्छतिमए गच्छद मेमनं तेरसहिं सहस्सेहिं० जाव छेत्ता । जयाणं मंते ! चंदे सम्बवाहिरे मंगले उवसंकमित्ता चार "जयाणभंते !" इत्यादि।यदाभदन्त !चन्द्रः अत्यन्तरानन्तरं चर, तया णं एगमेगणं मुदुत्तेणं केवइभं खेत्तं गच्छद । द्वितीय मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति । यावतपदात "तयाणं पगमेगेणं मुहुत्तेणं"इति गम्यते। कियत क्षेत्रं गच्छति। गौतम! गोअमा! पंचजोअणसहस्साई एगं च पणवीसं जोअणस पञ्चयोजनसहस्राणि सप्तसप्तति चयोजनानि पत्रिशतंचचतुः यं अउणत्तरं च उए नागसए गच्छद मंमले तेस्त्री सप्तत्यधिकानि प्रागशतानि गच्चति मएमनं त्रयोदशनिः सौः। जागसहस्सेहिं सत्तहिं अ० जाव छेत्ता। वावत्पदात"सत्तर्हि अपणवीसेहि" इति माद्यम निस्सावित्रज्य "जयाणं" इत्यादि। यदा भदन्त! चन्द्रः सर्ववाह्यमएमममुपएतत्सूत्रप्राम्जावितार्थमिति नेह पुनरुच्यते।मत्रोपपत्ति:-द्विती संक्रम्य चारं चरति। तदा एकैकेन मुहर्तेन कियत के गगंत। पचकमण्डले परिरयपरिमाणम् ३१५३१ए पतत् द्वाभ्यामेकवि- गौतम! पञ्चयोजनसहवाणि एकं च पञ्चविंशत्यधिक योजनशताभ्यां गुण्यते जातम ६६६८५४ एषां प्रयोदशभिः सहस्रः शतमकोनसप्ततिं च नवत्यधिकानि भागशतानि गतिमएमसप्ततिः शतः पञ्चविंशत्यधिकैमोगे हते लब्धानि पञ्चयोजनस-| मंत्रयोदशाभागसहः सप्तनिश्चयापच्छेदात् पञ्चविंशत्यकि हस्राणि सप्तसप्तत्यधिकानि ५०७७ शेषं षट्त्रिंशतानि चतुः- कैः शनैर्विभज्य अत्रोपपत्तिः-अत्रमपम परिरयपरिमाणम् । सप्तत्यधिकानि नागानाम् ३६७४ ३१८३१५ एतद्द्वाभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां शताभ्यां गण्यते १३७२४ जातम् ७०३४७६१५ एषां प्रयोदशनि सहः सप्तभिः शतः अथ तृतीयम्-- पञ्चविंशत्यधिकै गेहते लब्धानि ५१२५शेषं भागैः। ६६६. जया णं भंते ! चंदे अभंतरतच्चं मंमल उपसंकमि १३७२ अथास्य भएडले दृष्टिपथप्राप्ततामाहघा चारं चरझ, तया णं एगोगेणं मुहुत्तेणं केवइ खेत्तं तयाणं इङ्गयस्स मणूसस्स एकतीसाए जोमणसहस्सहिं गच्छद गोप्रमा! पंचजोत्रणसहस्साई असीइंच जोमणाई अहहिं अ एगतीसेहिं जोअणसपहिं चंदे चक्लुप्फासं हन्न तेरस य भागसहस्साई तिमि अ एगृणतीसे भागसए ग मागच्छइ । छा मंडलं तेरसहि० जाव छेत्ता। "तयाणं" इति तदा सर्ववाहमपमचरणकाले इहगताना "जया"इत्यादि । यदा भदन्त!चन्द्र अज्यस्तरतृतीयमण्ड- मनुष्याणामेकत्रिंशतायोजनसहममिश्चकमिशदधिकोसमुपसंक्रम्य चार चरांत । तदा एफैकेन मुदतेन कियत क्षेत्र जनशतेइचन्मश्चक्षुःस्पर्श शीघ्रमागध्यति। अत्र सूर्याधिकारोकगच्छति गौतमपञ्चयोजनसहस्राणि प्रशीति च योजनानि प्रयोग मतीसाए सहिलाए"इत्याधिक मन्तव्यमाउपपतिस्तुप्राम्पत। बश च भागसहखाणि त्रीणि च एकोनविशदधिकानि भागशता. अथ द्वितीयमयमलम्निगच्चतिामाकलं त्रयोदेशभिःसहस्तैरित्यादिपूर्ववत् अत्रोप. जया संभंते ! वाहिराणंतरं पुच्छा|गोत्रमा पंचजोभपत्तियथा-पत्र मामले पारेरयः ३१४५४१ पतद द्वाभ्यामेकविशत्यधिकाज्यां शताभ्यां गुण्यते जातम "६६७३६३२० एषां सहस्साई पकं च एकवीसं जोमणसयं एकारस य सहि पोदशामासासी सप्ताह पबवियत्यापभांगे भागसहस्से गच्च मंगलं तेरसहिमाचलेचा" Page #1104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००१) चंदमंडल अभिधानराजेन्डः। चंदमंडल "जयाणं" इत्यादि। यदा भदन्त ! सर्वबाह्यानन्तरं द्वितीयमि- सगाई सयमेव पविट्टित्ता चारं चरति । तं जहा-निक्ख. त्यादि प्रश्नः प्राग्वत् । गौतम! पञ्चयोजनसहस्राणि एकं चैकार्वि- ममाणे चेव अमावासांतण पविसमाणे चेव पुहिममासि शत्यधिकं योजनशतम एकादश च षष्टयधिकानि भागसहस्राणि तेणं एताई खलु दुचे अहगाई जाई चंदे केणई असामएणगच्छति ममलं त्रयादेशाभिर्यावतपदात सहस्रैः सप्तभिः शतैः पञ्चविंशत्यधिकैः छित्त्वा । अत्रोपपत्तिः-अत्र मएमले परिरयः गाई सयमेव पविहिता २ चारं चरति । ता पढमायणगते ३१८०८५ एतद् द्वाभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां शताज्यां गुण्यते चंदे दाहिणाते भागाते पविसमाणे सत्त अपचंदममझाई जातम्-७०२६६२८५ एषां १३७२५ एनिर्जागे हृते सब्धम जाई चंदे दाहिणाते भागाते पविसमाणे चारं चरति । क५१२१ शेषम् । ११.६० तराई खबु ताई सत्त अद्धमंमनाई से जाई चंदे दाहिणाते अथ तृतीयम् भागाते पविसमाणे चारं चरति। इमाइं खलु ताई सत्तप्रदजया णं भंते ! वाहिरतचं पुच्छा । गोमा ! पंचजोश्रण | मंमलाइं जाइं चंदे दाहिणाते नागाते पविसमाणे चारं चरति, सहस्साइंएगं च अट्ठारमुत्तरं जोणसयं चोइस य पंचुत्तरे तं वि दिए असमंडल्ले चकत्थे अफममन्ने बढे अचममले नागसए गच्छद मंमलं तेरसहिं सहस्सेहिं सत्तहिं पण अहमे असमले दसमे अदमंमले वारसे श्रद्धमंमले चनबीसहिं सएहिं देता। दसमे अहममले एताई खबु ताई सत्तऽहमंमलाई जाइं नंदे "जया णं" इत्यादि । यदा भदन्त ! सर्वबाह्यमएझलमित्या दाहिणाते भागाते पविसमाणे चारं चरति, ता पढमायणगते दि प्रमः प्राग्वत् । गौतम! पञ्चयोजनसहस्राएयके चाादशा- चंदे उत्तराते भागाते पविसमाणे अचमलाई तेरस य धिक योजनशतं चतुर्दशपश्चाधिकानि भागशतानि गच्छति सत्तडिजागाई अचमंमलस्स जाई चंदे उत्तराते भागाते मएमसं त्रयोदशभिः सहस्रैः सप्तभिः शतैः पञ्चविंशत्यधिकैः नित्वा । अत्रोपपत्तिः-अत्र मरामले परिरयपरिमाणम ३१७८५५ पविसमाणे चारं चरति, कतराई खबु ताई अघमंडलाई एतद् द्वाभ्यामकविंशत्यधिकाज्यां शताभ्यां गुण्यते जातम । सत्तहिभाई अच्छमंगलस्स जाई चंदे उत्तराते भागाते पवि. ७०२४५४५५ एषां १३७२५ पभिर्भागे हृते लब्धम् ५११८ शेष समाणे चारं चरति । इमाई खलु ताई अझममनाई तेरसभागाः,२४०५ सत्तहिनागाई अद्धमंमास्स जाई चंदे उत्तराते नागाते |१३७२५ अथ चतुर्थादिमएमलेम्पतिदेशमाह पविसमाणे चारं चरति, तं जहा-ततिए अच्छमने पंचमे अमंडले सत्तमे अघमंडल्ले नवमे अघमंडले एकारसमे एवं खलु एएणं जवाएणं० जाव संकममाणे तिमिश अमममले तेरसमे अद्धमंमझे पन्नरसमे अद्धममयस्स तेरजोअणाई गणउतिं च पंचावले भागसए एगमेगे ममले मुहुत्तगई णिबुझेमाणे समजतरं मंडलं नवसंकमित्ता मसत्तहिनागाइं एताई खलु ताई अद्धमंमलाइं तेरसयस तद्विभागाई अचममलस्स जाइं चंदे उत्तराते जागाते पचारं चरइ ।। "एवं खलु" इत्यादि । एतेनोपायेन यावचन्दात् "पविसमाणे विसमाणे चारं चरति । एतावता य पढमे चंदायणे सम्मचे चंदे तयणंतराप्रोमंडलाओ तयणतरंमंमसं" इति ग्राह्यं संक्राम- जवति ॥१॥ ता नक्खत्ते अफमासे नो चंदे अफमासे न २ त्रीणि २ योजनानि षावति च पञ्च पञ्चाशदधिकामि भा. चंदे अच्छमासे नो णक्खत्ते अच्छमासे ता नक्खत्तागशतानि एकैकस्मिन्मण्डले मुहूर्तगतिं निबर्द्धयन् सर्वाज्यन्त ओ अचमासातो चंदेणं अद्धमासेणं किमधियं चरति, रमपमसमुफ्संक्रम्य चारं चरति । उपपत्तिः पूर्ववत् । अत्र सभ्यन्तरसर्वबाह्यचन्द्रमण्डलयोदृष्टिपथप्राप्तता दर्शिता शेष ता एगं अगंमलं चरति चत्वारि य सत्तडिजागाई मएमलेषु तु सा अत्र ग्रन्थे चन्नप्राप्तिबृहत्क्षेत्रसमासवृत्यादिषु अधमंडलस्स सत्तष्ठिभागं च एकतीसाए लेता णवच पूर्वैः क्वापि न दर्शिता तेनान न दर्यत इति । जं०७ वका जागाइ ता दोच्चायणगते चंदे पुरच्छिमाते भागाते णिचन्द्रार्द्धमासे चन्द्रमएमलानि क्खममाणे सत्तचउपमाई जाई चंदे परस्स चिमं परिचता चंदे णं अफमासे णं चंदे कति मंमन्नाई चरति । ता| ति । सत्ततेरसकाई जाइं चंदे अप्पणो चिमं पमिचरति ताचोदस चनजागममलाई चरति, एग च चउवीससतभागं| दोच्चायणगते चंदे पच्चच्छिमाए नागाए निक्खममाणेमंमलस्स प्राश्चेणं अफमासेणं चंदे कात मंडलाई चरति, बचउप्पलाई जाई चंदे परस्स चियं परिचरति, छत्तेरसगावा सोलस मंडलाइं चरति, सोलसमंडझचारी तदा अवराई इ चंदे अप्पणो चियं परिचरति । अवराई खलु दुवे तेरखलु मुने अट्ठकाई । जाई चंदे केणइं असामसकाई सय- सगाइ जाई चंदे केण असामन्नगाईसयमेव पविहित्ता चारं मेव पविट्टित्ता २ चारं चरति, कतराई खनु वे अट्ठकाई चरति, कतराई खलु ताई दुवेतेरसगाई जाई चंदे केणई असाजाई चंदे केपाइ असामसकाई सयमेव पवित्तिा चारं च- ममगाई सयमेव पविष्टित्ता चारं चरति, इमाई खलु ताई सुवे रति । इमाई खलु दुवे अहगाई जाइं चंद केण य असाम- तेरसगाइ जाई चंदे केणई असामागाइं सयमेव पविद्वित्ता २७१ Page #1105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०७२) चंदमंडल अभिधानराजेन्सः । चंदमंडल चारं चरति । संयन्भंतरे चव मंमले सव्ववाहिरे चेव कथमेतदवसीयते इति चेत् । उच्यते-त्रैराशिकबलात् तथाहिमंमसे एयाणि खबु ताणि मुवे तेरमगाई चंदे केणई यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन सप्तदशशतान्यष्टषष्टयधिकानि मएमलानां सभ्यन्ते । तत एकेन पर्वणा किं लभ्यते ?। राशित्रयजाव चारं चरइ, एतावता दोच्चे चंदायणे समत्ते नवति।।।।। स्थापना-१२४।१७६८।। अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिगुण्यते ता णक्खत्ते मासे नो चंदे मासे चंदे मासे णो णक्खत्ते मा सच तावानेव जातस्तत्राद्येन राशिना भागहरणं लब्धाश्चतुर्दसे ताणक्खत्तातो मासाओ चंदेणं मासेण किमधियं चरति ?, श १४। शेषास्तिष्टन्ति द्वात्रिंशत् शतत्र छेद्यदकराश्योकितादो अच्छडलाई चरति अट्ठ य सत्तट्ठिलागाई अच्छमंड नापवर्तना क्रियते । तत श्दमागमति चतुर्दशमएमलानि पञ्च दशस्य मएमलस्य षोडश द्वाषष्टिनागाः १४ । १६। नक्तं चैतदअस्स सत्तहिनागं च एकतीसधा छेत्ता अट्ठारस जागाई ता न्यत्रापि । "चोद्दस य मंमलाई १२४, वि सहि भागा य सो तच्चायणगते चंदे पच्चच्छिमाते जागाए पविसमाणे वाहिरा लस हविजा । मासद्धण उकुबई, पत्तियमित्तं चर खितं"। हिणंतरस्स पचच्छिमिल्लस्स अच्छमंडलस्स इत्तालीसं सत्त-| ॥१॥ "ता आश्चणं" इत्यादि । श्रादित्येनार्डमासेन चन्छः द्विभागाइं जाईचंदे अप्पणो परस्स यचिमं पमिचरति,तेरस- कति ६२ मण्चनानि चरति।भगवानाह-"ता सोलस" इत्यादि। पोमश मएमलानि चरति षोमशमएमलचारी च तदा अपरे सत्तट्ठिलागाई जाई चंदे परस्स चिम्म पमिचरति, तेरससत्त खलु हे अष्टके चतुर्विंशत्यधिकशतसत्कानागाष्टकमानोरको हिजागाइं चंदे अप्पणो परस्स चिंमं पमिचरति, एता प्येषः सामान्ये केनाप्यनाचीर्णपूर्वे चन्द्रः स्वयमेव प्रविश्य २ बया च वाहिराणंतरे पच्चच्छिमिझे अकमंडले सपत्ते चारं चरति । "तं कयराई खलु वे" इत्यादिप्रश्नसूत्र सुगमम् । जवति तच्चायणगते चंदे पुरच्छिमाए भागाए पविस जगवानाह-"इमा खलु दुवे" इत्यादि । श्मे खलु अष्टके ये केना प्यनाचीर्णपूर्वे चन्द्रः स्वयमेव प्रविश्य चारं चरति । तद्यथामाणे वाहिरतच्चस्स पुरच्चिामिवस्स अद्धमंमयस्स इत्ता सर्वाज्यन्तरान्ममलादिनिकामन् नैवामावास्यान्ते एकमष्टकं लीसं सत्तट्ठिभागाइं जाई चंदे अप्पयो परस्स चिम्म | केनाप्यनाचीर्ण चन्छः प्रविश्य चारं चरति । सर्ववाह्यान्मएमपमिचरति तेरससत्तमिजागाइं जाई चंदे परस्स चियं लादज्यन्तरं प्रविशन्नेव पौर्णमास्यन्ते हैतीयमष्टकं केनाप्यना. पमिचरति तेरससत्ताभागाई जाई जाई चंदे अप्पणो चीर्णपूर्वे चन्छः प्रविश्य चारं चरति । “एयाई खबु वे अहपरस्स य चिएणं परियरति,एतावता च वाहिरतचे पुरमि गाई" इत्यादि । उपसंहारवाक्यं सुगमम् । इह परमार्थतो द्वा चन्डी एकेन चन्द्रेणार्धमासेन चतुर्दशमएडलानि पञ्चदशस्य वे अफममले सम्मत्ते नवति ता तच्चायणगते चंदे पच्च- | च मण्डलस्य हात्रिंशतं चतुर्विशत्याधिकशतभागान चमणेन छिमाते जागाते पविसमाणे ३। बाहिरचउत्थस्स पच्च- पूरयतः परं लोकरूत्या व्यक्तिभेदमनपेक्ष्य जातिभेदमेव केवच्छिीमवस्स अफममलस्स अट्ठसत्तहिजागाइं सत्तहिनागं लमाश्रित्य चन्द्रश्चतुर्दशमएकलानि पञ्चदशस्य मण्डलस्य द्वाच एगतीसधा छेत्ता अट्ठारस जागाइं जाइं चंदे अप्षणो त्रिंशतं चतुर्विशत्यधिकशतभागान् चरति श्त्युक्तम् । अधुना ए. कश्चद्रमा एकस्मिन्नपने कति अर्धमएमत्रानि दक्षिणभागे कत्युपरस्स य चिमं पमिचरति एतावता च बाहिरचनत्ये पच्च तरभागे भ्रम्यापूरयतीति प्रतिपिपादयिषुभंगवानाह-" ता पचिमिद्धे अचममने संमत्ते जवइ । एवं खलु चंदणं मासेणं ढमायणगए चंदे" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । प्रथमायनगते चंदे तेरसच उप्पणगाई उवे तेरसगाई जाई चंदे परस्स प्रथमायनं प्रविष्टश्चन्छो दक्विणस्माद्भागादज्यन्तरं प्रविशति सप्त चिमं पमिचरति तरेस तेरस गाई जाइं चंदे अप्पणो- अर्द्धमण्डलानि भवन्ति । यानि चन्को द कणस्मानागादज्यचिमं पमियरति दुवे इत्तालीसगाई अट्ठसत्तट्ठिभागाइं सत्त न्तरं प्रविशन्नाक्रम्य चारं चरति । “ कतराई खझु" श्त्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भगवानाह-" इमाई खलु" इत्यादि। ट्रिभागं च एकतीसधा नेता अट्ठारस भागाइं जाई चंदे मानि खा सप्तार्द्धमएफलानि यानि चन्छो दकिणाद्भागादज्यअप्पणो परस्स अ चिमं पमिचरति अवराई खलु दुवे- न्तरं प्रविशन्नाकम्य चारं चरति । तद्यथा-द्वितीयम:मएमसतेरेसगाई जाई चंदे केणई असाममगाई सयमव पविहि- मित्यादि सुगमम नवरमियमत्र नावना-सर्वबाह्ये पञ्चदशे मत्ता चारं चरति । श्चेसा चंदमसो निगमणणिक्खमणवु एमले परिचमणेन पूरणमधिकृत्य परिपूर्णपाश्चात्ययुगपरिसमा. प्तिनवति ततोऽपरयुगप्रथमायनप्रवृत्ती प्रथमेऽहोरात्रे एकश्चहिणिवुष्ठितमंगणसंठितीति जच्चणगहिपत्तेसु वि चंदे देवे झमा दक्षिणभागादज्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयं मएमलमाक्रम्य देवेाहितेति वदेजा। चारं चरति । स पाश्चात्ययुगपरिसमाप्तिदिवसे उत्तरस्यां दिशि "ता देणं अद्धमासेणं" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । चन्छ- चारं चरितवान् स वेदितव्यः ततः स तस्मात् द्वितीयान्माएमण अर्द्धमासेन प्रागुक्तस्वरूपेण चन्छः कति मण्डलानि चरति ?। सात् शनैश्शनैरज्यन्तरं प्रविशन् द्वितीये अहोरात्रे उत्तरस्यां जगवानाह-"ar चोद्द" इत्यादि। चतुर्दश सचतुर्भागमण्ड- दिशि सर्ववाह्यान्मएमलादज्यन्तरं तृतीयमीमण्डलमाक्रम्य लानि चरति । एक च चतुर्विशतिम भागं मालस्य किमुक्त चारं चरति । तृतीये अहोरात्रे दक्विणस्यां दिशि चतुर्थमएमलं भवति परिपूर्णानि चतुर्दशमएमझानि पञ्चदशस्य मामलस्य चतुयें अहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि पञ्चममर्द्धमएमलं पञ्चमे चतुर्भागं चतुर्विशत्यधिकसत्कैकत्रिशद्भागप्रमाणमेकं च च. अहोरात्रे दक्विणस्यां दिशि षष्ठमर्द्धमएमलं षष्ठे अहोरात्रे तुर्विदाशतभागं मएमलस्य सर्वसंख्यया द्वात्रिंशत् पश्च- दक्विणस्यां दिशि सप्तममम्मएकल सप्तम अहारात्र दकि. दशस्य मामलस्य चतुर्विशत्यधिकशतभागान् चरतीति ।। णस्यां दिशि अष्टममीमण्डलमष्टमेऽहोरात्र उत्तरस्यां दिशि Page #1106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदममल (२०७३) ग्रनिधानराजेन्डः। नवममर्द्धमएमलं नवमे अहोरात्रे दक्विणस्यां दिशि दशम- अहोरात्र उत्तरजागादभ्यन्तरप्रवशचिन्तायां द्वितीयादीन्येकामद्धमएमलं दशमे अहोगत्रे उत्तरस्यां दिशि एकादशमर्द्ध- न्तरितानि चतुर्दशपर्यन्तानि सप्ता:मामलानि भवन्ति । दक्षिमामलमेकादशे ग्रहोत्रे दक्किणस्यां दिशि द्वादशममर्कमण्डलं एभागादभ्यन्तरप्रवेशचिन्तायां तृतीयादीन्यकान्तरितानि त्रयोद्वादशे अहोरात्र उत्तरस्यां दिशि त्रयोदशमर्फमएमलं त्रयोदशे दशपर्यन्तानि षट्प्रर्धमएमलानि भवन्ति । पञ्चदश चार्धमअहोरात्रे दक्विणस्यां दिशि चतुर्दशम मामलं चतुर्दशे अहोरात्रे एमलस्य त्रयोदशसप्तषष्टिनागाः। एवं च सति यावत् चन्छस्याउत्तरस्यां दिशि पञ्चदशस्याईमरामलस्य त्रयोदशसप्तषीष्टभा. धमासस्तावान्नक्षत्रस्यार्धमासो न भवति । किं तु ततो न्यून ति गानाक्रम्य चारं चरति । एतावता च कालेन चन्छस्याऽयनप- सामर्थ्यात्तत् एव्यम् । तथा चाह-"ता नक्ख तेणं" इत्यादि। रिसमाप्तिःचन्द्रायनं हि नक्कत्रमासप्रमाणं तेन नक्कत्रार्द्धमासेन यद्येवमेकस्मिन्नयने नक्षत्रार्धमासरूपे सान्यतश्चन्द्रममत्रयोदश चमचारे सामान्यतस्त्रयोदश मण्डलानि चतुर्दशस्य च मराम- मण्डलानि चतुर्दशस्य च मण्डलस्य त्रयोदशसप्तपष्टिनागाः । लस्य त्रयोदशसप्तषष्टिभागा लभ्यन्ते । तथा हि-यदि चतुर्ति- 'ता' इति ततो नक्षत्रार्धमासश्चान्द्राधमासो भवति चान्छे शदधिकेनायनशतेन सप्तदशशतान्यष्टषष्टिसाहितानि मएमलानां अर्धे मासे चतुर्दशानां मण्डलानां पञ्चदशस्य चन्द्रमण्डलस्य लभ्यन्ते। तत एकेनायनेन किं लभासहे। राशित्रयस्थापना-१३ द्वाविंशतश्चतुर्विशत्यधिकशतभागानां प्राप्यमाणत्वात् । “ह न. ४।१७६७।१। अत्रान्त्येन राशिना एकलकणेन मध्याराशिगुण्य- कत्रोर्धमासश्चान्नोऽर्भमासोन भवति" इत्युक्तौ नक्ककार्डमासः। ते जानः स तावानेव ततस्तस्याद्येन राशिना चतुस्त्रिंशदधिक- चान्द्रोम्रासोन नवति। यस्तुश्चान्द्रो मासः स कदाचित्रकत्रोशतरूपेण नागहरणं लब्धास्त्रयोदश शेषास्तिष्ठन्ति षट्विंशतिः। ऽप्यर्कमासः स्यात् । यथा “परमाणुरप्रदेश" इत्युक्तौ परमाणुरप्रतत्र छेद्यछेदकराइयोxिकेनापवर्तना लब्धास्त्रयोदशसप्तषष्टि देश पव यस्त्वप्रदेशःस परमा गुरपि जवति अपरमाणुश्च केत्रप्रनागाः नक्तं च "तेरस य मंमलाणिय, तेरस सत्तट्टि चेध भागा देशादिरिति शङ्का स्यात्। ततस्तदपनादार्थमाह-"चान्द्रोद्धमासो य । अयणेण चर सोमो, नक्वत्तेणऽकमासेण" ॥१॥ एतच्च नकत्रोऽर्कमासोन जवति" एवमुक्तेन भगवान् गौतमो! नकत्रार्द्धसामान्यत उक्तं विशेषचिन्तायां चैकस्य चम्सो युगस्य प्रथ- मासयोर्विशेषपरिज्ञानार्थमाह-"ता नक्खत्तानो अम्मा सानो" मे अयने यथोक्तेन प्रकारेण दक्षिणनागादयन्तरप्रवेशे द्विती- इत्यादि। 'ता' इनि पूर्ववत् । नक्षत्रात् अर्डमासात्ते तव मतेन यादीभ्येकान्तरितानि चतुर्दशपयेन्तानि सप्ताधमएमलानि ल- जगवन्! चन्श्चान्णाऽऊमासेन किमधिकं चरति। भगवानाभ्यन्ते उत्तरभागादभ्यन्तरप्रवेशे तृतीयादीन्येकान्तरितानि त्रयो- ह-"ता एगं" इत्यादि। एकमर्ममण्डलं द्वितीयस्य चार्द्धमण्डदशपर्यन्तानि षट्परिपूर्णान्यर्द्धमरामलानि सप्तमस्य तु पञ्चदश- बस्य चतुःसप्तपतिभागानेकस्य च सप्तपष्टिभागस्य एकत्रिंशधामरामलगतस्यामरामलस्य त्रयोदशसप्तषष्टिभागाः पतावता विभिन्नस्य सत्कान् नवभागानधिकं चरति । कथमेतदवसीयते च यवक्ष्यति उत्तरजागादत्यन्तरप्रवेशचिन्तायाम " तप इति चेत् ? उच्यते-त्रैराशिकबवात् तथाहि-यदि चतुर्विशत्यअरुममले" इत्यादिसूत्रं तदपि भावितमेव । संप्रतिदकिणभा- धिकेन शतेन सप्तदशशतानि अष्टषष्यधिकानि मएमझानां गादच्यन्तरप्रवेशे यानि सप्ताद्धमएमलान्युक्तानि तदुपसंहारमा- लभ्यन्ते तत एकेन पर्वणा किं लभागहे ? । राशित्रयस्थापनाह-"पयाई" इत्यादि। सुगमम अधुना तस्यैव चन्द्रमसस्तस्मिन्ने- १२४ । १७६७ । १। अत्रान्त्येन राशिना पध्यराशिचुरायते जातः घ प्रथमे अयने उत्तरभागादज्यन्तरप्रवेशे यावन्त्यर्द्धमएडलानि स तावानेव । तत आयेन चतुर्विशत्यधिकशतरूपेण राशिना भवन्ति तावन्ति विवक्षुण्ह-"ता पढमायणगए" इत्यादि। 'ता' भागहरणं व्यदकराश्याश्चतुष्केनापवर्तना, अब्धानि चतुर्दशइति पूर्ववत प्रथमायनगतेयुगस्यादौ प्रथममयनं प्रविष्टे चन्छ मएमलानि अष्टौ च एकत्रिंशद्भागा एतस्मान्नकार्डमासगम्यं उत्तरभागादज्यन्तरं प्रविशति । षट् अर्द्धमयमलानि भवन्ति । के त्रयोदश मण्डलानि एकस्य च मण्डलस्य त्रयोदश सप्तपसप्तमस्य चार्द्धमएमसस्य त्रयोदशसप्तषष्टिनागा यानि चन्छ । ष्टिभागा इत्येवंप्रमाणः शोभ्यते तत्र चतुर्दशभ्यस्त्रयोदश मएमउत्तरजागादच्यन्तरं प्रविशन् आक्रम्य चारं चरति । " कय- लानि शुद्धानि एकमवशिष्टं संप्रत्यष्टभ्य एकत्रिंशद्भागेज्यस्त्रराई स्वमु" इत्यादि । प्रश्नसूत्रं सुगमम् । "श्माई समु" इत्यादि योदश सप्तषष्टिभागाः शोध्यास्तत्र सप्तपष्टिरष्टभिर्गुणितो जातानिवेचनसूत्रम् । पतच्च प्रागेव भावितम् । “एयाई खलु" इत्या- नि पञ्चशतानि पत्रिंशदधिकानि ५३६ एकत्रिंशता त्रयोदश दि । निगमनवाक्यं निगदसिद्धम् । "पतावता" इत्यादि । पता गुणिता जातानि चत्वारि शतानि व्युत्तराणि ४०३ एतानि पबताकालेन प्रथम चन्द्रस्यायनं समाप्तं भवति । एतदपि प्राग्भा- चभ्य शतेभ्यः षट्त्रिंशदधिकेन्यः शोध्यन्ते स्थितं शेषं प्रयवितं तदेवं पाश्चात्ययुगपरिसमाप्तिचरमदिवसे य उत्तरस्यां स्त्रिंशदधिकं शतम १३३ तत एतत् सप्तपष्टिभागानयनार्थ सप्त. दिशि चारं चरितवान् तस्याजिनवयुगपक्के प्रथमे अयने या- षट्या गुण्यते जातानि नवाशीतिशतान्यकादशाधिकानि८६११ वन्ति दत्तिणजागाभ्यन्तरप्रवेशेऽमण्मयानि यावन्ति चोत्तर- बेदराशिमौल एकत्रिंशत्सप्तषष्टया गुएयते जाते हे सहस्रेसभागादभ्यन्तरप्रवेशे तावन्ति साक्कामुक्तानि एतदनुसारेण द्वि- तसप्तत्यधिके २०७७ ताभ्यां जागो हियते लब्धाः चत्वार स. तीयस्याऽपि चन्मसस्तस्मिन्नेव प्रथमे चन्द्रायणेऽर्फमएम- तषष्टिभागाः। शेषाणि तिष्ठन्ति षट्शतानि व्युत्तराणि ६०३ ततलानि वक्तव्यानि तानि चैवं स पाश्चात्ययुगपरिसमाप्तिचरमदि- इछेयकेदकराइयो सप्तपष्टयापवर्तना जाता उपरि नव अधवसे दकिणदिग्भागे सर्वबाह्ये मरामले चार चरित्वा अनिनवस्य | स्तादेकत्रिशलब्धाः एकभ्य सप्तपष्टिनागस्य नव एकत्रिंशतवेयुगस्य प्रथमे अयने प्रथमेऽहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि द्वितीयम- दकृताः भागाः। उक्त च-“एगं च ममत्रं म-मयस्स सत्तट्रिभाग कैमरामलं प्रविश्य चारं चरति । द्वितीये अहोरात्रे दक्षिणस्यां चत्तारि । नव चेव चुसिया उ , गतीसकरण बेपण"॥१॥ इह दिशि सर्ववाह्यतृतीयमर्द्धमएमलं प्रविश्य चारं चरति । तृती-| नावनां कुर्वता मराम मण्डलमिाते । यदुक्त तत सामान्यये अहोरात्रे नतरस्यां दिशि। चतुर्थमण्डनमित्यादि । प्रागु-1 तो ग्रन्थान्तरे या प्रसिद्धा भावना तदुपरोधादवलयं परमार्थ कानुसारेण सकलमपि वक्तव्यः । तदेवमस्य चन्मसः प्रथमे तः पुनरर्धमएमलमवसातव्यम् ततो न कश्चित् सूत्रभावाने __ Page #1107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००४) चंदमंमल प्रन्निधानराजेन्द्रः। चंदमंडल कयोर्विरोधः । तदेवमेकचन्द्रायणवक्तव्यतोक्ता ॥ १ ॥ संप्रति | ति प्रयोदश सतषष्टिभागान् स्वयं चीर्णानिति । "अवरा खसु द्वित्तीयचडायणवक्तव्यताऽभिधीयते-तत्रयःप्रथमे चाम्हायणे दुवे" इत्यादि । अपरे खलु द्ध त्रयोदशके तस्मिन्नयने द्वितीयेचन्छः दक्विणभागादभ्यन्तरं प्रविशन् सप्तामएकतानि उत्तरभागा केनाप्यनाचीर्ण पूर्वे स्वयमेव प्रविश्य चारं चरति । “कयराई दभ्यन्तरं प्रविशन् पम्अर्कमण्डलानि सप्तमस्य चार्फमरामलस्य खलु"श्त्यादि । प्रश्नसूत्रं सुगमम् । “इमाइंखल" इत्यादि । निर्षप्रयोदशसप्तषष्टिभागान् चरितवान् तमधिकृत्य द्वितीयायनभा चनवाक्यमेतदेतच्च प्रायो निगदसिद्धं नवरमेकं तत् त्रयोदशकं बना क्रियते-तत्रायनस्य मामलं केत्रपरिमाणं त्रयोदशा: सर्वाभ्यन्तरे मपमले तत्पाश्चात्यायनगतत्रयोदशकादूर्द्ध बोदतमामलानि चतुर्दश चाहेमामलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिनागाः व्यम् । तस्यैव संनवास्पदत्वात् द्वितीये सर्वबाह्य मण्डले तरच तत्र प्राक्तनमयनमुत्तरस्यां दिशि सर्वाज्यन्तरे मएमले त्रयादश पर्यन्तवर्ती प्रतिपत्तव्यम् "एयाई खलु ताणि" इत्यादि । निगमसप्तपष्टिनागपर्यन्ते परिसमाप्तम् । तदनन्तरं द्वितीयायनप्रवेशे नवाक्यं सुगमम् । तदेवमेकं चन्छमसमधिकृत्य द्वितीयायनवचतुःपञ्चाशता सप्तषष्टिभागैः सर्वाभ्यन्तरमएमलं परिसमाप्य ततो द्वितीये मगमले चारं चरति । तत्र त्रयोदशभागपर्यन्त प. क्तव्यतोक्ता एतदनुसारेण चद्वितीयमपि चन्द्रमसमधिकृत्य द्वि तीयायनवक्तव्यता भावनीया। परं तस्य पश्चिमन्नागे सप्तचतुः कम्मरमलं द्वितीयस्यायनस्य परिसमाप्तंद्वितीयमर्द्धमण्डल पञ्चाशत्कानि परचीर्णानि चरणीयानि सप्तत्रयोदशकानि स्वयं मुत्तरस्यां सर्वाज्यन्तरा तृतीये अर्डमण्डलत्रयोदशभागपर्यन्ते चीर्णाचरणीयानि वक्तव्यानि पूर्वभागे षट्चतुःपञ्चाशत्कानि तृतीयममण्डलं दक्विणस्यां दिशि चतुर्थेऽमरले चतुर्थ परचीचरणीयानि षट्त्रयोदशकानि स्वयं चीर्णप्रतिचरणीमर्द्धमएममुत्तरस्यां दिशि पञ्चमेऽमराले पञ्चमेऽर्द्धमपसंद यानि ॥"एतावता" इत्यादि । एतावता कालेन द्वितीयं किणस्था दिशि षष्ठेमण्डले षष्टममबमलम् उत्तरास्यां दिशि चम्झायनं समाप्तं भवति । "ता नक्लत्ते" इत्यादि । यद्येवं सप्तमेऽर्द्धमण्डल सप्तममर्द्धमएमलं दक्विणस्यां दिशि अष्टमेs: द्वितीयमप्ययनं एतावत्प्रमाणं ता इति ततो नकत्रो मासो मपमोऽयममर्द्धमएमलमुत्तरस्यां दिशि नमवमएमले नव. न चाम्छो मासो नवति, नापि चान्द्रो मासो नक्कत्रो मासः, ममर्द्धमएमलं दविषस्यां दिशि दशमेऽर्द्धमएमले मामले दश• संप्रति नक्षत्रमासात कियता चन्मासोऽधिकः इति जिज्ञासः ममीमण्डलम उत्तरस्यां दिशि एकादशेऽर्कमएमले एकादश प्रश्नं कति। "ता नक्वत्ताओ मासातो" इत्यादि । 'ता'शति तत्र मर्डमएमलं दक्विणस्यां दिशि द्वादशेऽकमएमले द्वादशमर्द्धम नक्षत्रात् चन्छःचान्ण मासेन किमधिकं चरति । एवं प्रो एकलम उत्तरस्यादिशि त्रयोदशेऽर्कमण्डले त्रयोदशमर्द्धमएम कृते भगवानाह-"ता दो मद्धमंडला" इत्यादि । देअदमएममंदक्षिणस्यां दिशि चतुर्दशेऽर्थमएमले चतुर्दशमर्द्धमएमलं तच लेतृतीयस्यार्द्धमयमलस्याटौ सप्तपष्टिनागान् । एकं च सप्तषप्रयोदशनागपर्यन्ते परिसमाप्तं तदनन्तरं त्रयोदशसप्तषष्टिभा. दिमागमेकत्रिंशकाछित्त्वा तस्य सत्कानष्टादशभागानधिकं चर गान् भन्यान् चरति । एतावता द्वितीयमयनं परिसमाप्तम् ॥ ति ॥ एतच्च प्रागुक्कमेकायनाधिकमर्द्धमयमलमित्यादि गुणं चतुर्दशे च मण्डले संक्रान्तः सन् प्रथमवणार्द्धसर्वबाह्यम- कृत्वा परिभावीयम् ॥२॥ संप्रति यावता चन्द्रमासः परिपूर्णो. एमलाभिमुखं चारं चरति । ततः परमार्थतः कतिपयनागाति- भवति तावन्मात्रतृतीयायनवक्तव्यतामाह-"ता तच्चायणगप क्रमे पञ्चदश पव सर्ववाद्ये मएमले वेदितव्यः तदेवमस्मिन्न- चंदे' इत्यादि वह द्वितीयायनपर्यन्ते चतुर्दशे मामलेषत्रिंशयने पूर्वभागे द्वितीयादीन्येकान्तरितानि चतुर्दशपर्यन्तानि तिसंख्यसप्तषष्टिनागमात्रमाकान्तं तव परमार्थतः पञ्चदशमर्दमसप्तामरामलाचीर्णानि पश्चिमभागे च तृतीयादीन्येकान्तरिता नि त्रयोदशपर्यन्तानि षट् अर्डमएमलानि । तत्र पूर्वभागे पश्चि एमले वेदितव्यम् बहुतदाभिमुखंगतत्वातदनन्तरं नीसवपर्वतप्र. मभागे वाह्यप्रतिमण्डलं स्वयं चीर्णमन्यवीणे वा चरति तन्नि देशे साक्वात्पञ्चदशममण्डसं प्रविष्टस्तत्प्रविष्टश्च प्रथमकणादरूपयति-"ता दोचायणगए " इत्यादि । ता' इति पूर्ववत् । सर्वबाह्यानन्तरावाक्तनद्वितीयमरामनाभिमुखं चरति। तस्यता द्वितीयाध्यनगते चम्मः पौरसपाद्भागानिकामति कि.मुक्तं नवति स्मिन्नेव सर्वबाह्यानन्तरेऽक्तिने द्वितीये मएमले चारं चरवि. पौरस्त्यनागे चारं चरति । सप्तचतुःपञ्चाशत्सत्कानि भवन्ति पतितस्ततोऽधिकृतस्तत्रोपनिपातस्तृतीयायनगते चन्छे पश्चिमे यानि चन्छः परस्येति तृतीयाथै षष्ठी। परेण सूर्यानाचीर्णानि भागे प्रविशति। वाह्यानन्तरस्यार्वाग्भागवर्तिनः पाश्चात्यस्याईप्रतिचरति सप्त च त्रयोदशकानि भवन्ति यानि चन्छ आत्म मामलस्य एकचत्वारिंशत्सप्तषष्टिनागास्ते वर्तन्ते यानि चन्क नैव चीर्णानि प्रतिचरति । श्यमत्र नावना-मेरोः पूर्वस्यां दिशि मात्मना परेण चीर्णान प्रतिचरति । त्रयोदश च सप्तपष्टिनायो भागः स पूर्वभागो यश्चापरस्यां दिशि स पश्चिमभागः तत्र गास्ते यान् चन्छः परेणैव चीणान् प्रतिचरति। अन्ये च प्रयोपूर्वभागे सप्तस्वा। द्वितीयादिवेकान्तरितेषु चतुर्दशपर्यन्तेषु दशसप्तपप्टिभागास्ते बर्तन्ते यान चन्छः स्वयं परेणाचीर्णान् सप्तषष्ठिभागप्रविभक्तेषु प्रत्येकं चतुःपञ्चाशतम् २ सप्तपष्टि- प्रतिचरति । एतावता च परिजमणेन वाह्यानन्तरमाक्तनपाभागान् चन्द्रः परेण सूर्यादिना चीर्णान् प्रतिचरति । त्रयोदश. भात्यमईमएमवं समाप्तं भवति । तदनन्तरं च तस्मिभेव तृती२ सप्तषष्टिभागान् स्वयं चीर्णानिति । "ता दोघाणे गए " याऽयनगते चन्के पौरस्त्यभागे प्रविशति सर्वबाह्यादातनस्य इत्यादि । तस्मिन्नव चन्द्रमसि द्वितीयाऽयनगते पश्चिमभागा- तृतीयस्य पौरस्त्यस्यार्द्धमएमलस्य एकचत्वारिंशत्सप्तपष्टिभागा निष्कामति पश्चिमेनागे चारं चरति । षट्चतुःपञ्चाशतका- यानचन्द्र आत्मना परेण च चीर्णान् प्रतिचरति । ततः परमन्ये नि जवन्ति यानि चन्द्रः परस्योति परेण सूर्यादिना चीर्णानि प्र- ते त्रयोदश भागा यान चलः परेणैव चीन प्रतिवरति। अन्येच तिचरति षट्रयोदशकानि यानि चन्मः स्वयं चीर्णानि प्रति- ते त्रयोदशभागा यान् चन्द्र श्रात्मना परेण च चीर्णान् प्रतिचरचरति । अत्रापीय भावना-पश्चिमे भागे षट्स्वपि तृतीयादि- तिएतावता सर्वबाह्यान्मएमसादाक्तनं तृतीयं पौरस्त्यमर्द्धमएस कान्तरितेषु त्रयोदशपर्यन्तषु मर्ममएफलेषु सप्तषष्ठिभागप्रवि- वं परिसमाप्तं नवति सप्तषष्टिरपि भागानां परिपूर्णतया जातत्वाभक्तेषु प्रत्येक चतुःपञ्चाशतं सप्तषधिभागान् परचीणान् चर-| 'ता' इत्यादि । ततस्तस्मिनेवतुतीयायनगते चन्द्रे पधिमेभागे Page #1108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदमन (100) चंदमंगल अभिधानराजेन्सः। प्रविशति सर्वबाह्यान्मएमलादाक्तनस्य चतुर्थस्य पाश्चात्यस्था- इत्यादि । व्याख्यानं पूर्ववत, परं सूर्यप्राप्तिस्थाने बन्प्रतिईमरामसस्याष्टौ सप्तषष्टिभागा एकंच सप्तषष्टिनागमेकत्रिंशका र्षाच्या । जं०७ वक्त। नित्वा तस्य सत्का अष्टादश भागास्त वतन्त यान् चन्क प्रात्मा चंदमंमलणिभ-चन्छमामलनिज-त्रि. चिन्मएकलाकारे, ना परेण च चीर्णान् प्रतिचरति, एतावताच परिभ्रमणेन चान्द्रो रा० । मासः परिपूर्णो जातः संप्रति पूर्वोक्तमेव स्मारयन् चन्द्रमासगतमुपसंहारमाह-"पवं खलु चंदणं मासेणं"श्त्यादि । एवमुक्तेन चंदमंगलसमप्पभ-चन्द्रमएमलसमपन्न-त्रि० । शशधरविम्बधव प्रकारेण खसुनिश्चितं पान्छेण मासेन चान्छे त्रयोदश चतुःप- प्रनाते वृत्ततया शोभमाने, प्रश्न ४ आश्रबार । शाशत्कानि जातानि द्वे च त्रयोदशके,यानि चन्द्रः परेणैव ची- | चंदमग्ग-चन्द्रमार्ग-पुं०। चन्द्रमण्डले, (सू०प्र०) नानि प्रतिचरति । वर्तमानकालनिर्देशः सकलकामयुगस्य प्र. नकनाद्यधिकृत्य चन्मएकलानि चन्द्रमागी अनिधीयन्तेयमे चान्छे मासे पवमेव द्रष्टव्यमिति ज्ञापनार्थः । तत्र प्रयोदशाऽपि चतुःपञ्चाशत्कानि द्वितीय अयने तत्राऽपि सप्तचतुःप ता कधं ते चंदमग्गा आहिता ति वदेजात एतेसिणं शाशकाम पूर्वभागे षट्पाश्चात्यनागे ये च प्रयोदशके ते अट्ठावीसाए एक्खताणं अस्थि नक्खता, जेणे सत्ता द्वितीयस्याऽयनस्योपरि चन्द्रमासावधेरर्वाक द्रष्टव्ये, तत्रैका. चंदस्स दाहिणेणं जोअं जोएंति, अस्थि णवत्ता जे णं योदशकं सर्वबाह्यादाक्तने द्वितीये पाश्चात्ये अर्द्धमपमले द्वि- सत्ता चंदस्स नसरेणं जोअंजोएंति,अस्थि एक्खत्ता जे एं तीये पौरस्त्ये तृतीये अर्कमण्डले । तथा "तेरस" इत्यादि । चंदस्स दाहिणणं वि उत्तरेणं वि पमई पि जोअंजोएंति, प्रयोदश पयोदशकानि यानि चन्द्र प्रात्मनैव बीर्णानि प्रतिचरतितानि सर्वाण्यपिद्वितीये अयने वेदितव्यानि,तत्राऽपि सप्तपूर्व भत्थि णक्खत्ता जेश चंदस्स सदा पमई जोअंजोएति । ता भागे, बट पधिमनागे इत्यादि । तथा "दुवे" इत्यादि । के एक एतेसि णं अट्ठावीसाए नक्खत्ताणं कतरे नक्खत्ता, जेणं चत्वारिंशत्के के च त्रयोदशक अष्टौ सप्तषष्टिभागा एकं च स- सदा चंदस्स दाहिणणं जोयं जोएंति, तहेव०जाव कतरे नसपष्टिनागमेकत्रिशका छित्वा तस्य सत्का अष्टादश भागाः, या. क्खना जेणं सदा चंदस्स पमई जोअंजोएंति', ता एतेसि एं म्येतानि चन्द्र भात्मना परेण च चीर्णानि प्रतिचरति तत्र एकमेकचत्वारिंशत एकमेकं च प्रयोदशकद्वितीयायनोपरि सर्ववा. अट्ठावोसारणक्खचाणं जेणं णक्खत्ता सया चंदस्स दाहह्यान्मएमलादर्धाक्तने द्वितीये पाश्चात्येऽमण्डले द्वितीयमेकच णेणं जोयं जोएंति,ते णं गतं जहा-संगणाप्रदा पुस्सो अस्सेत्वारिंशत्कं, द्वितीयं च प्रयोदशकं सर्वबाह्यान्मामलादाक्तने सा इत्यो मूझो, तत्य जे ते णक्खत्ता जेणं सदा चंदस्स तृतीयं पौरस्त्ये शेषपाश्चात्ये सर्वबाह्यादतिने चतुर्थाईमएमसे। उत्तरेणं जोयं जोएंति, ते णं वारस । तं नहा-अभिई मवणो अधुनोपसंहारमाह-" इथेसा" इत्यादि । इत्येषा चन्द्रमसः, संस्थितिरिति योगः। किंविशिष्टत्याह-अनिगमनिकमणवृधिनि पणिड्डा सतानिसया पुचजद्दवया उत्तरपोढवया रेवती खनवस्थितसंस्थाना,प्रनिगमनं सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरप्र अस्सिणी भरणी पुच्चाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी साती, तविशनं, निकमणं सर्वाभ्यन्तरान्मएमलाहिर्गमनम् वृद्धिःच. स्थ जे ते णक्खत्ता जेणं चंदस्स दाहिणेणं वि उत्तरेणं वि न्द्रमसःप्रकटतया सपचयो, निवृहियथोक्तस्वरूपवृदयनाथः, ए- पमई पि जोअंजोएंति, ते णं सत्त। तं जहा-कत्तिया रोसानिरनवस्थितं संस्थानम् अभिगमननिष्क्रमणे अधिकृत्यावस्वानं वृकिमिची अपेक्ष्य संस्थानमाकारो यस्याः सा तथारूपा हिणी पुणवसू महा चित्ता विसाहा अपराहा, तत्थ जे ते संस्थितिः, तथा परे रश्यमानचन्द्रविमानस्याधिष्ठाता बिकुर्व णखत्ता जेणं चंदस्स दाहिणणं वि पमई पि जोभं जोगर्द्धिप्राप्तो रूपी रूपवान, अत्रातिशये मत्वर्थीयोऽतिशयरूपवान् पंति, ताओ य णं दो प्रासादायो सव्ववाहिरे मंझले जोयं चन्द्रो देव आख्यातो,न तु परिरश्यमानविमानमात्रश्चन्छो देव | जोयंसुवा, जोयंति वा, जोएस्संति वा, तत्य जे ते णक्खत्ते इति वदेत्स्खशिष्येभ्यः । सू०प्र० १३ पाहु ।चं.प्र.। जेणं सदा चंदस्स पमई जोयं जोएंति, साणं एगाजेश । __ अप चन्द्रवक्तव्यप्रश्नमाह "ता कहते" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । कथं केन प्रकाजंबुद्दीवेण नंते !दीवे चंदिमा उदीपाश्णमुग्गच्छ पा रेण नक्वत्राणां दक्विणत उत्तरतः प्रमर्दतो यदि वा सूर्यनकत्रैईणदाहिणमागच्छंति, जहा सूरवत्तचया, जहा पंचमसयस्स विरहिततया अविरहिततया च चन्द्रस्य मार्गाश्चन्डस्य मएमदसमे उद्देसेन्जाव अवडिएणं तत्य कान्ने परमत्ते। समणा- लगत्या परिभ्रमणरूपा मण्डवरूपा चा मार्गा भाख्याता इति उसो! इच्चेसा जंबुद्धावपमती चंदपप्पत्ती वत्युसमासेणं वदत् ।भगवानाह-"ता पएसि णं" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत्, सम्मत्ता भव॥ एतेषामष्टाविंशतिनतत्राणां मध्ये,अस्तीति, निपातत्वादापत्वा. द्वा सन्ति तानि नक्कत्राणि, यानि, 'ण' इति वाक्यालङ्कार, "जंबुद्दोवे णं" इत्यादि । जम्बूद्वीपे भदन्त! द्वीपे चन्दादी- सदा चन्छस्य दक्षिणेन दक्षिणस्यां दिशि व्यवस्थितानि योगं चीनप्राचीनदिग्नागे उत्य प्राचीनदकिणदिग्भागे पागच्छतः युञ्जन्ति कुर्वन्ति । तथा सन्ति तानि नक्कत्राणि यानि सदा चन्द्रइत्यादि । यथा सूरवक्तव्यता तथा चन्छवक्तव्यता, यथा, वाश- स्य उत्तरेण उत्तरस्यां दिशि व्यवस्थितानि योगं युञ्जन्ति तथा ब्दोऽत्र गम्यः, पञ्चमशतस्य दशमे उद्देशके चन्द्रनाम्नि कि- सन्ति तानि नवत्राणि यानि चन्द्रस्य दक्विणस्यामपि दिशि यत्पर्यन्तं सूत्रं ग्राह्यमित्याह-यावदवस्थितस्तत्र कामः प्रज्ञप्तः । स्थितानि उत्तरस्यामपि दिशि स्थितानि योगं युञ्जन्ति,प्रमदमपि हे भ्रमण ! हे अायुष्मन् ! अत्राप्युपसंजिहीर्षराह-"येसा । प्रमर्दरूपमपि योगं कुर्वन्ति, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यामि २७१ Page #1109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2008) अभिधानराजेन्द्रः । चंदमा चन्द्रस्य दक्षिणास्यामपि विशि व्यवस्थितानि योगं युञ्जन्ति प्रमदेरुपमपि योगं युञ्जन्ति मस्ति यत् सा प्रमरूपं योगं युनक्ति । एवं सामान्येन भगवतोक्ते नगवान् गौतमो विशेषावगमनिमित्तं यः प्रताप " इत्यादि सुगमम् । भगवानाह " ता एसि गं" इत्यादि । 'सा' इति पूर्ववत् एतेषामन्त रोदितानामाविशतिमाणां मध्ये यानि मचाणि सदा चन्द्रस्य दक्षिणस्यां दिशि व्यवस्थितानियो कुन्तितापि तथा मृगशिरा पुष्योऽलेषा हस्तो मूलब्धतानि सर्वापि पञ्चदशस्य बन्द मएकलस्य बदिश्वारं चरन्ति । तथा चोक्तं करणविभावनायाम्-" ....."पश्नरसमस्ल चंद मंडलस्स वाहिर । मगसिर अदा पुसो असिलेहा हत्य मूलां य" ॥१॥ जम्बूदीपत्रसाथप्युक्तम" संज्ञाण अद्द पुस्तो सिलेस इत्यो तहेच मूलो य। वारिओ वाहिरमंडलस्स बप्पेते नक्खत्ता " ॥ १ ॥ ततः सदेव दक्षिणदिस्थितान्येव तानि चन्द्रेण सह योग न्युपपन्नान्यचेति तथा वा 3 मध्ये यानि तानि मत्राणि यानि सदा सर्वकालं चन्द्रस्यासरेण उत्तरस्यां दिशि व्यवस्थितानि योगं युञ्जन्ति कुततानि द्वा तद्यथा-"अनि" स्यादि एनानि द्विद्वादशाऽपि नासि ज्यन्तरे चन्द्रम एकले चारं चरान्त । तथा चोक्तं करणविभावनाबाम्-"से पढने सम्वग्नंतरेबंद मे जहर नई सो घडा सतभिसया पुण्यन या उत्तरमा अ सिणी जर पुण्यफी उत्तरगुणी साते यदा | कुञ्चफग्गुणी । चैतैः सह चन्द्रस्य योगस्तदा स्वनावाश्चन्द्रः शेषेष्वेव म एकलेषु वर्तते, ततः सर्वे नेतान्युतस्तान्येव चन्द्रमसा सहयोगमुपयन्ति । तथा तत्र तेषामष्टाविंशतेर्न कुत्राणां मध्ये यानि तानि नक्क प्राणि यानि चन्द्रस्य दक्षिणस्थामा दिशि स्थितानियांग रामपिदिशि उपस्थितानि योगं युञ्जन्ति प्र मरूपमपि यन्ति तानि सप्त वयपालिका रोहिणी पुनर्वसु मघा वित्रा विशाला अनुराधा, केचित्पुनानकुत्रमपि दक्षिण योगि मन्यन्ते तथा चोकं पुण बसु.रोहिणि चित्ता, मह जेठारपुराह कत्तिय विसाहा। चंदस्स - भयजोगीति" । चत्र उभययोगीति व्याख्यानयता टीकाकृतोक्तमपतानि न कुत्राणि उभययोगीनि चन्द्रस्योत्तरेण दक्षिणेन च युख. कादिमयान्तीति तच वयमाणयेष्ठासूत्रेण सह विरोधीति न प्रमाणं तत्र तेषामविराणां मध्ये येते न दात्रे'' इति वाक्यालङ्कारे सदा चन्द्रस्य दक्षिणेनापि दक्षिणस्यामपिदिशि व्यवस्थिते योगं युक्तः प्रमईच योग युक्तः, ते, णं' इति वाक्यालङ्कारे, द्वे आषाढे पूर्वापाढोत्तराषा पेचितुस्तारे, तथा च प्रामेदोकम् "पुण्यासाढे च उतारे पसे ति" तत्र द्वे द्वे तारे सर्वबाह्यस्य पञ्चदशस्य मरुलस्याभ्यन्तरतो द्वे द्वे बहिः । तथा चोकं करण विभावनायाम्"पुतराणं श्रमाढाणं दो दो ताराओ अभितर, दो दो बाहिरश्र सव्ववादिरस्स मंडलस्स" इति । ततो ये द्वे द्वे तारे अभ्यन्तरतस्तयोर्मध्ये न चन्द्रो गच्छतीति तदपेक्षया प्रमदे योगं युक्त इत्युच्यते, ये तु द्वे द्वे तारे बहिस्ते चन्द्रस्य पञ्चदशेऽपि मण्डले पारं भरतः सदा दक्षिणदि दक्तिणेन योगं युक्त इत्युक्तम्। संप्रत्येतयोरेव प्रमदे योगजा बनार्थे किञ्चिदाताओ व साहित्यादि से पूषा चराषाढा नकुत्रे चन्द्रेण सह योगमयुद्ध, युके, पोक्यते वा चंदमग्ग सदा सर्वषा मण्डले व्यवस्थिते, ततो यदा पूर्वाषाढोराचादाभ्यां सह चन्द्रो योगमुपति तदा नियमतोऽज्यन्तरतारकाण मध्ये न गच्छतीति तदपेक्षया प्रमर्दमपि योगं युक्त इत्युक्तम्, तथा तथ तेषामष्टाविंशषाणां मध्ये यत्सा चन्द्रस्य ममदं योगं युनक्ति सा एका ज्येष्ठा सम एलगत्या परिभ्रमणरूपाश्चन्द्रमार्गा चक्काः । सू० प्र० । संप्रतिरूपान् चन्द्रमा अभिधित्सु प्रथमं तद्विषयं प्रश्नमुत्रमाह ता कति पाँचंदमंक्षा पात्ता ? । ता पारस चंदमंगला पसत्ता । एतेसि पारस एदं चंदमंडलाणं प्रत्थि चंदमंगला जेण सत्ता नक्ख तेण अविरहिया, प्रत्थि चंदमंगला जे पं सचा नवखतेहि पिरडिया, अत्यि मंदमंदना ने रविससिनक्खत्ताणं सामछा जवंति, प्रत्थि चंदमंगला जे गं सता आदिच्च विरडिया, ता एतेसि पारसए चंद नाणं कयरे चंदमंडला जे एां सत्ता नक्खत्तेहि श्रविरहिया० जाब कयरे चंदमंमन्ना जेणं सदा श्रादिच्चविहिता, ता एतेसि णं पारसएवं चंद्रमंडलाणं तत्य नेते चंदा जे सदा णक्खत्तेहिं प्रविरहिता, ते णं तं जहा- पढने चंदमंडले तर चंदमंद सचमे बंदमंदले अमे मंदसमे चंदमंडले एकादसे चंदमले पगारसमे चंदमंडले, तत्थ जे ते चंद्रमंडला जे रणं सदा एक्खतेहिं विरहिया सत्त, तं जहा वितिए चंदमंडने चडत्ये चंदमंगले पंचमे चंदमंगले नवमे चंदमंडले वारसमे चंदमंडले तेरसमे चंदमंडले चउदसमे चंदमंडले, तत्थ जे ते चंदमंगला जे ससिरविनक्रखत्तारणं सामछा जवंति, ते णं चत्तारि । तं जहापढमे चंदमंद बीए चंद्र इकारसमे चंदमंडले पछरसमे चंदमंकले, तत्य जे ते चंदमंगला जे णं सदा आदिविरहिता ते पंचतं महाचंद सचमे चंदमंगले श्रमे चंदमंडले वमे चंदमंकले दसम चंदमंडले । 66 "ता कर " इत्यादि। 'ता' इति पूर्ववत् कति कियानि '' इति वाक्यालङ्कारे चन्द्रमा भगवानाह "ता पारस " इत्यादि । 'ता' इति प्राग्वत् । पञ्चदश चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि, तत्र पञ्च चन्द्रम एकलानि जम्बूद्रीपे शेषाणि दश मएकलानि सवणसमुखे । तथाचोकं जम्बूद्रीपप्रज्ञप्तौ'अंबुद्दीचे णं भंत ! दावे केवश्यं श्रगाहिता केवइया संद मंगला पक्षता ?। गोयमा ! अंबुद्दीचे दीवे असीयं जोयणसयं भोगादिता एत्थ णं पंच चंद्रमंडला पक्षता । लवणे णं मंते 1 समुद्दे के वश्यं श्रगाहिता के वश्या चंद्रमंडला पता। गोयमा ! समुद्धतीसे जोयसाई ओगादितापत्य लापता मे सारे जंबुद्धीचे स य पर चंदमंगला भवतीति अक्खायं " 'ता' इत्यादि । 'ता' इति । तत्र तेषां पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां मध्ये (अत्थिरी) सति चन्द्रममलामि यानि सदा नरविरहितानि ततः सं विनिपानि सदा विरहितानि तथा स इस " Page #1110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८७) अभिधानराजेन्द्रः | चंदमग्ग न्ति चन्द्रमण्डलानि पनि धारणानि । किमुक्तं भवति सामान्यानि सा तेषु मम मति पति तथा सति चन्द्रमसानि यानि सदा दिव्याभ्यां द्वित्वेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वाद' विरहितानि येषु न कदाचिदपि ये सूर्ययोध्येको सूर्यो भावः । एवं भगवता सामान्येनो के नगवान् गौतमो विशेषावगमनिमित्तं भूयः प्रश्नयति-"ताएपसि णं" इत्यादि, सुगमम। भगवामाह -" ता एसिं" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । एतेषां पञ्चदशानां चन्द्रमएमलानां मध्ये यानि तानि चन्द्रमएमलानियानि, 'णं' इति प्राग्वत् सदा नक्षत्रैरविरहितानि नान्यष्टौ । तद्यथा"पढमे चंद मंगले" इत्यादि । तत्र प्रथमे चन्द्रम एकले अभिजिदादीनि द्वादश नक्कत्राणि । तथा च तत्र संग्रहणिगाथा - "अभि स पण धणिका, सयभितया दो य ढोति जड्वया । रेवश अस्सिणि रणी दो फल्गुणिसा पढमं |१| तृतीये न्द्रमण्डले पुनर्व सुमधे पड़े चन्द्रमले कृत्तिका, सप्तमे रोहिणीचित्रे वि शाखा, दशमे अनुराधा, एकादशेष्ठ पञ्चदशर पुष्यस्तो मूलम् पूर्वाषाढा उत्तराषाढा धानि पद नक्षत्राणि यद्यपि पञ्चदशस्य मरामलस्य बढिश्वारं चरन्ति तथाऽपि तानि तस्य प्रत्यासन्नानीति तत्र गष्यन्ते, ततो न कश्चिद्विरोधः तथा तत्र तेषां पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां मध्ये यानि तानि चन्द्रमाने पानि समत्रैर्विरहितानि तानि सप्त । तद्यथा द्वितीयं चन्द्रमएमलमित्यादि । तथा तत्र तेषां पञ्चदशानां चन्द्रममलानां मध्ये यानि तानि चन्द्रमपरलानि रविशशिनवत्राणां सामान्यानि भवन्ति तानि, णं' इति प्रात् चत्वारि । तद्यथा-"पढमे बंद मंगले" इत्यादि । तथा तत्र तेषां पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां मध्ये यानि तानि चन्द्रमएमखानि यानि सदा श्रादित्याभ्यां विरहितानि तानि पञ्च । तद्यथा" चंद मंडले" इत्यादि सुगमम् । एतद्भणनाश्च यान्यज्यन्तराणि पञ्च चन्द्रमण्डलानि । तद्यथा- प्रथमं द्वितीयं तृतीयं चतुर्थे पञ्चमं, यानि च सर्वबाह्यानि पञ्चचन्द्रमण्डनानि, तद्यथा-एकादशं द्वादशं योदमित्येतानि शतानि सूर्यस्यापि साधारणानीति सम्यते तथा चोकसम्पत्र . इस मंडलाई अतिरबाट रविससीएं। सामनाणि उ नियमा, पत्रोया होति सेसाणि " ॥ १ ॥ अस्यारगमनिका - पञ्चान्यन्तराणि पश्च बाह्यानि, सर्वसंक्य या दशमानि नियमाद रचिनो सामान्यानि साधार पानिपानि तु पानि पानि पानिप स्तानि प्रत्येकान्य साधारणानि चन्द्रस्य तेषु खन्द्र एव गच्छति, मतु जातु कदाचिदपि सूर्य इति भाषा । किडकियता नागेन सूर्यमण्डले स्पृश्यते कियन्ति वा चन्द्रमराकल स्पापान्तराले एव सूर्यमण्डलानि कथं वा बडादीनि दशपयन्तानि पञ्च चन्द्रमएम लानि सूर्येण न स्पृश्यतेइति चिन्तायां विभागोपदर्शनं पूर्वाचार्यैः कृतम्, ततस्तद्विवजनानुग्रहाय प्रथम द्विभाषनाथ कप निरूप्यते सूर्यस्य चिकम्पका दश तथादि यदि सूर्यस्यैकेनाहोरात्रेण पिको से योजने एकरूप योजनस्यापत्यारिंशदेकपष्टभागा सभ्यन्ते ततस्पर्शत्यधिकमाहोरा कलमामहेश्यस्था पता- ११५३। अत्र सपर्णेनार्थे द्वे योजने एकषष्ठपा गुप्यते चंदमग्ग गुणविश्वा चोपरितनाचारि कटिभागाः प्रक्षिष्यन्ते ततो जातं सप्तत्यधिकं शतम् १७०, पतत् श्रशीत्यधिकेन शतेनाम्यराशिना गुरुपले जातान्येकत्रिंशत्सहस्राणि शतमेकंदशीर ३२११ तस्यार्थमेका ६१ जागो हियते, लब्धानि पञ्च योजनशतानि दशोत्तराणि ५१०, पतावती सूर्यस्य विकम्प क्षेत्रकाष्ठा । चन्द्रमसः पुनर्विकम्प क्षेत्रकाष्ठा - पञ्च योजनशतानि नवोत्तराणि, एकस्य च योजनस्य त्रिपञ्चाशदेकपािगाः । तथाहि यदि चन्द्रमस पकेनाहोरात्रेण विकरूपः षट्त्रिंशद्योजनानि, एकस्य च योजनस्य पञ्चविंशतिरेकपष्टिभागाः, एकस्य त्र एकषष्टिभागस्य चत्वारः सप्त मागा राज्यशरिरात्रैः किं लभामहे ।। रात्रियस्थापना१४ सनार्थ प्रथमतः शित् एकपक्ष्या भुरायते गुगवित्वा चोपरितनाः पञ्चविंशतिरेकपटिनागास्तत्र प्र क्षिप्यन्ते जातानि द्वाविंशतिशतानि एकविंशत्यधिकानि २२ २१ । एतानि सप्तभिर्गुणयित्वा चोपरितनाचत्वारः सतनागास्तत्र प्रतिप्यन्ते नहो जातानि सहस्राणि म्येकपञ्चाशदधिकानि १५५५१ ततो यजमानयनार्थम ६१७ बेदराशिरप्येकपटिलकणः सप्तनिर्गुण्यते, जातानि चत्वारि शतानिधानि ४२७ उपरित ततो जाते हे लये सप्तदश सहस्रप्त शतानि चतुर्दशाधिकानि २१७७१४ श्रा भिरपवर्तना जाता, उपरितनो राशिरेकत्रिंशत्सहस्राणि शतमेकं घुत्तरं ३११०२, छेदराशिरेकषष्टिः, ततस्तया भागे हुने लब्धानि पञ्चयोजनशतानि नवोत्तराणि, एकस्य च योजनस्य त्रिपञ्चाशदेकत्रष्टिनागाः ५०६।५३, एतावती चन्द्रमसो कम्पत्रे काठा, सूर्यमण्डलस्य च परस्परमन्तरं द्वे द्वे योजने, चन्द्रमएमलस्य च परस्परम् अन्तरं पञ्चत्रिंशत् योजनानि, एकस्य च योजनस्य त्रिंशदेकपटि ३०| ६१ नागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य चत्वारः सप्त जागाः । उक्तं जम्बूद्वीपप्रती" सुरमं णं भंते! सूरमं एलणं केवश्वं अवाडा अंतरे पत्ते ? । गोश्रमा ! दो जोभणाई सूरमंडलस्स सुरमंदलम्स अपात तथा दल णं भंते! चंदमंगलस्स पसणं केव प्रवाहार अंतरे पसे । गोअमा ! पंचतीसंजोयणाई तीसं एसट्टि मागा जोअणस्स एवं व एगमद्विभागं सत्ता बिचारि चुचिया भागा, ऐसा मंडल द डलस्स भवाहाए अंतरे पक्षले " इति। एतदेव व सूर्यम एकसस्य चन्द्रमासस्य च वयमप्रविष्कम्भपरिमाण सूर्यस्य चन्द्रमसश्च विकम्पपरिमाणमवसेयम्। तथा चोक्तम्" सूरविकंपो पको, समंडला होर मंडनंतरिया । 4 दविपय तहा, समंगला मंगलंतरिया ॥ १ ॥ " अस्या गाथाया अरगमनिका एकः सूर्यविष्कम्भो भवति, (मंडरिस) अन्तरमेव भात, भेदात् स्वायें ट्या, ततः स्त्रीत्वविवकायां ङीष्प्रत्यये श्रन्तरी, श्रान्तर्येव अान्तरिका मएकलस्य मरमवान्तरिका ( समंगल सि ) रह मण्डलशब्देन मते परिमाणे परिमाणवत् उपचारात ततः सह मण्डपमा बने इति समएला । किमुकं भवति एकस्य सूर्यम यत्परिमाणं योजनाद्वयलक्षणं तदेव सूर्यमएमल विष्कम्भ पारेमान अष्टाचत्वारिशदेषविज्ञागलक्षणेन सहितमेकस्य सूर्यवि Page #1111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०००) चंदमग्ग प्रन्निधानराजेन्द्रः। चंदमग्ग कम्पस्य परिमाणमिति,तथा मामलान्तरिका चकमण्डलपरि-1 रिशादेकषष्टिभागा योजनस्य,तत्र द्वे योजने एकपष्टया गुण्येते, माण पश्चत्रिंशत् योजनानि, एकस्य च योजनस्य त्रिंशदेकषधि- जातं द्वाविंशशतम १२२, तत उपरितना अष्टाचत्वारिंशदेकषभागा एकस्य चैकषष्टिनागस्य चत्वारः सप्त भागा इत्येवंरूपम् । ष्टिभोगा योजनस्य प्रक्विप्यन्ते, जातं सप्तत्यधिकं शतं १७०, तेन (समंमा ति) मएमलविष्कम्जपरिमाणेन सहित एकश्चन्छ- पूर्वराशेागो हियते, लब्धाः हादश, पतावन्तोऽपान्तराले सूर्यविकम्पो भवति। मार्गा भवन्ति, शेष तिष्ठति पञ्चविंशशतं १२५, तत्र द्वाविंशेन यस्तु विकम्पक्केत्रकाष्ठादर्शनतो विकम्पपरिमाणं ज्ञातुमिच्छ.! शतेन द्वादशस्य सूर्यमार्गस्योपरि द्वे योजने लब्धे,शेषास्तिष्ठन्ति ति तं प्रतीयं पूर्वाचार्योपदर्शिता करणगाथा प्रय एकषष्टिभागाः,येऽपिच प्रथमे चन्द्रमण्डले रषिमएडसात " सगमंडलेहि लकं, सगकठाओ हवंति सविकंपा। शेषा अष्टावकषष्टिनागास्तेऽप्यन प्रक्तियन्ते शति जाता एकाजे सगविक्वंभजुया, हवंति सगमंमसंतरिया ॥ १॥" दश एकपष्टिभागाः, तत श्दमागतं द्वादशात्सूर्यमार्गात्परतो वि. अस्याकरमात्रगमनिका-ये चन्द्रमसः सूर्यस्य वा विकम्पाः, तीयाचन्द्रमण्डझादीए वे योजने, एकादश च पकषष्टिभागा कथं भृतास्ते श्त्याह-वकषिष्कम्नयुताः स्वकमामलान्तरि योजनस्य, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागा, काः,स्वस्वमएमविष्कम्भपरिमाससहितस्वस्वमएमसान्तरिकारूपा तत्र योजनद्वयानन्तरं सूर्यमण्डलमतो द्वितीयाश्चन्द्रमण्डलादाश्त्यर्थः। भवन्ति स्वकाष्ठातः स्वस्वविकम्पयोग्यवेत्रपरिमाणस्य गज्यन्तरं प्रविधं सूर्यमण्डलम, एकादशे एकषष्टिनागानेकस्य स्वकमएमलः स्वस्वमएमलसंख्यया भागे ते यटलब्धं ताब च एकषष्टिभागस्य सत्कान् चतुरःसप्तभागान्,ततः परं षट्त्रिंशत्परिमाणास्ते स्वविकम्पाः स्वस्वविकम्पा जवन्ति । केत्रकाष्ठा देकष्टिभागा एकस्य च एकवष्टिनागस्य सत्कास्त्रायः सप्तभागा पश्च योजनशतानि दशोत्तराणि ५१०, तान्येकषष्टिभागकरणार्थ इत्येतावत्परिमाणं सूर्यमण्डलं चन्द्रमण्डलसंमिश्रं, ततः सूर्यममेकषष्टया गुणयन्ते,जातान्येकत्रिंशत्सहस्राणि शतमेकंदशोत्तरं रामलात्परतो बहिविनिर्गतं चन्द्रमपमबमकोनविंशतिमेकषष्टि३१११०, सूर्यस्य मण्डलानि विकम्पक्षेत्रे ऽयशीत्यधिकं शतम् भागानकस्य च एकषष्टिभागस्य चतुरः सप्तनागान्, ततः परं १८३, ततो योजनानयनार्थ ज्यशीत्यधिकं मामलशतमेकषष्धा भूयस्तृतीयाच्चन्मएमलाद रायथोक्तपरिमाणमन्तरम्। तद्यगुण्यते, जातान्येकादशसहस्राणि शतमेकं त्रिषष्ट्यधिकम २११६३, एतेन पूर्वराशेर्मागो हियते,लब्धे द्वे योजने, शेषमुपरि था-पञ्चत्रिंशतयोजनानि त्रिंशदेकषष्टिनागा योजनस्य, एकस्य च पकषष्टिनागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागाः, एतावति चान्तरे हादुद्धरति सप्ताशीतिशतानि चतुरशीत्यधिकानि ७०४. ततः द्वादशसूर्यमार्गा बज्यन्ते,उपरिच द्वे योजने अयोधकषष्टिभागा संप्रत्येकषष्टिभागाानतव्याश्त्यधस्तात्रेदपशिज्यशीत्यधि योजनस्य,एकस्य च एकषष्टिनागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तनागाः, कं शतम् १८३, तेन नागे हते सम्धा अष्टाचत्वारिंशदेकषाष्टिभा ततोऽत्र प्रागुक्ता द्वितीयस्य चन्द्रमामयस्य सत्काः सूयमण्डलागा:४६१,एतावदेकैकस्य सूर्यविकम्पस्य परिमाणातथा चन्छ द बहिर्विनिर्गता एकोनविंशतिरेकषष्टिभागाः, एफस्य चद्वा. स्यधिकम्पक्षेत्रकाष्ठा-पञ्च योजनशतानि नवोत्तराणि त्रिपञ्चाशकषष्टिनागा योजनस्य ५७६५३,तत्र योजनान्येकषष्टिभागकर• पष्टिजागस्य चत्वारः सप्तपष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, ततो जातापार्थम एकपष्टया गुण्यन्ते, जातान्येकत्रिंशत्सहस्राणि एकोनप स्त्रयोविंशतिरेकषष्टिनागा, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्क शाशदधिकानि ३१०४६, तत उपरितनानिपञ्चाशदेकषष्टिभा एकः सप्तभागः, तत इदमायातं द्वितीयाच्चन्द्रमण्डलात्परतो गाः प्रक्षिप्यन्ते ६१, जातान्यकत्रिंशत्सहस्राणि शतमेकं पुत्त द्वादश सूर्यमार्गाः, द्वादशाच्च सूर्यमार्गात्परतो योजनदयारम् ३११०३, चन्द्रस्य तु विकम्पक्षेत्रमध्ये मामलानि चतुर्दश तिक्रमेण सूर्यमएमसं, तच्च तृतीयाञ्चलमामलादर्वागभ्यन्तरं १४, ततो योजनार्थ चतुर्दश एकषष्टया गुण्यन्ते, जातान्यष्टौ श. प्रविष्ट, प्रयोविंशतिमेकषष्ठिभागान् एकं च पकषधिभागसत्कं तानि चतुःपञ्चाशदधिकानि ०५४,तैः पूर्वराशेर्भागोहियते, मा. सप्तभागं, ततः शेषाश्चतुर्विशतिरेकषष्टिभागाः, एकषष्टिभागब्धानि षट्त्रिंशद्योजनानि ३६, शेषाणि तिष्ठन्ति त्रीणि शता स्य पट् सप्तभागाः सूर्यमण्डलस्य तृतीयचन्द्रमण्डलसंमिश्रा, व्यधपञ्चाशदधिकानि ३५७, अत कलम् एकषष्टिनागा भामे ततस्तृतीयं चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डसाद बहिर्विनिर्गतमेकत्रिंशतसव्याः, ततश्चतुर्दशरूपोऽधस्तात दराशिः १४ तेन भागे ते मेकपष्टिभागान, एकस्य च एकषष्टिनागस्य सत्कमेकं सप्तलन्धाः पञ्चविंशतिरकेष्टिभागाः२५६१शेषास्तिष्ठन्त्यौदाते प्रागं, ततो भूयोऽपि यथोकं चन्द्रमण्डलान्तरं, तस्मिश्च द्वादसप्तभागकरणार्थ सप्तमिर्गुष्यन्ते, जाताः षट्पञ्चाशत् ५६, त श सूर्यमार्गा बन्यन्ते, द्वादशस्य र्यमार्गस्योपरि वे योजने स्याश्चतुर्दशतिर्भागे ते लब्धाश्चत्वारः सप्तभागाः, एतावत्परि त्रय एकपष्टिभागा योजनस्य, एकस्य च एकषष्टिनागस्य समाण केकचाविकम्प इति तदेवं चन्छस्य सूर्यस्य च विकम्प काश्चत्वारः सप्तनागाः, ततो येऽत्र तृतीयमण्डलसत्काः सूयेकेत्रकाष्ठा चसमाजलानां सूर्यमण्डलानां च परस्परमन्सरमु मण्डलाद बहिर्विनिर्गता एकत्रिंशदेकषधिलागायोजनस्य,एककम्। संप्रति प्रस्तुतमभिधीयते-तत्र सर्वाभ्यन्तरे चन्मएडले स्य च एकमष्टिनागस्य सत्का पके सप्तमागाः, तेऽध प्रक्तिसर्वाभ्यन्तरं सूर्यमयमलं सर्वात्मना पविष्टं, केवलमष्टावकषष्टि प्यन्ते, ततो जाताश्चतुत्रिंशदेकषष्ठिभागाः एकस्य च एकभागाश्चन्मएडलस्य बहिःशेषा वतेन्ते।चन्द्रमएमझात सूर्यम पष्टिभागस्य सत्काः पच सप्तभागाः, तत श्वं वस्तुतत्वं जातं-- एमलस्याधाजिरेकषष्टिभागहीनत्वात्सतो द्वितीयाचबमएमला तीयाचबमण्डलात्परतो द्वादशसूर्यमागात्परतो योजनवयदागपान्तराले द्वादशसूर्यमार्गाः तथाहि द्वयोश्चन्धमण्डलयो मतिक्रम्य सूर्यमएमसं, तच्चतुर्थाश्चन्द्रमपमलार्वाक अभ्यन्तरं गम्तरं पञ्चत्रिंशत योजनानि, त्रिंशश्चकषष्टिनागा योजनस्य, ए प्रविएं चतुर्विंशतमेकषष्टिभागानेकस्य च एकपष्टिनागस्य सकस्य च एकष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागाः, तत्र योज. कान् पञ्चसप्तनागान्, ततः शेषाःसूर्यमणमलस्य प्रयोदश एकनान्येकवष्टिभागकरणार्थमेकषष्टया गुण्यन्ते,गुणयित्वा चोपरि पष्टिनागाः, एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्कों द्वौ भागौ, प्रत्येनानाविशदेकवष्टिभागा:प्रविष्यन्ते,जातान्येकविंशतिशतानि तावचतुर्थचन्हमण्डलसंमिश्रं, चतुर्थस्य चन्द्रमएमलस्य सूर्य अषष्टाधिकानि १६५,सूर्यस्य बिकम्पोदे योजने अरावत्या-। मपमखाद बहिर्थिनिर्गतद्विचत्वारिशदेकषष्टिनागा एफपरिभा Page #1112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदमग्ग चंदमग्ग गस्य सत्काः पञ्च सप्त जागाः ततः पुनरपि यथोदितपरिमाणं । चन्द्रमण्डलान्तरं तत्र च द्वादश सूर्यमार्ग लभ्यन्ते द्वादशम्य च सूर्यमार्गस्योपरि योजने प्रय एकषष्टिमाया] योजनस्य, एकस्य च एकपाष्टभागस्य सत्कालात्वारः सप्तभागाः रात्र च ये चतुर्थस्य चन्द्रमएकलस्य सूर्यमण्डलादू बहिर्विनिर्गता द्वाचत्वारिंशदेकप ष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काः पञ्च सप्तन्नागाः, तेऽत्र चतुर्भिश्च एकस्य एकषष्टिभागस्य सत्कैः सप्तमागैर्म्यूनं यथोदिप्रमाणं ततः परमद्वादशसू मार्ग सज्यते ततस्तस्मिन्तरे सर्वनाश्योदश सूर्यमार्गयोदशस्य सूर्यमार्गस्य बहिरटमा चन्द्रमराकलादबार अन्तरं त्रयस्त्रिंशदे कषष्टिभागाः, ततोऽष्टमं चन्द्रमण्डलं, तस्मा मध्य-मण्डलापता एकपाभागः सूर्यमराम तिन रूयैरे कपारीक पदमा ब दमकलास्तरं पुरतो विद्यते इति ततः पुरतो ऽन्येऽपि द्वादश सूर्यमार्गः ततस्तस्मिन्तरे सर्वसंकलनया त्रयोदशमा गोदामात्परतो नमान्द्रमरुलादगन्तर चतुश्चत्वारिंशदे कषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य चत्वारः सप्तभागाः, ततः परं नवमं चन्द्रमपकलं, तस्माच्च नवमाश्चऊमएम लात्परत एकविंशत्या एकषष्टिना गैरेकस्य च एकषष्टिनागस्य निः सूर्यमण्डलं ततएको मत कषष्टिमागैरेकस्य एकषष्टिभागस्य श्रभिः परिही पधप्रमाणं चन्द्रमान्तरं तत्र चान्ये द्वादश सूर्यसप्तभागी तदेवं पञ्च सर्वाभ्यन्तराणि चन्द्रममलानि सूर्यममार्गाः एवं चामितरे सर्व संकलनयायो सूर्यमार्गा मखान्तरेषु द्वारा सूर्य शौ प्रतिप्यन्ते ततो जाताः षट्चत्वारिंशदे कषष्टिजागाः, द्वौच एकषष्टिभागस्य सत्कौ सप्तभागौ, तत एवं वस्तुस्वरूपमवगन्तयम-चतुर्थाच्चम्ममात्परतो द्वादश सूर्यमार्गः, द्वादशाच्च सूर्यमार्गात्परतो योजनद्वयातिक्रमे सूर्यमण्डलं तच्च प शमाचन्द्रमरुलाइ अज्यन्तरं प्रविष्टं पतिकष्टभागान्, हीच एकस्यैकलागस्य सरको सप्तभागी, शेषं सूर्यममलस्य एक एकषष्टिमागः एकस्य च कष्टमा स्य पञ्च सप्तभागाः, इत्येतावत्परिमाणं पञ्चमं चन्द्रममलं संमिभं, तस्य च पञ्चमस्य चन्द्रमएकलस्य सूर्यमण्डलादू बहिर्बिनिर्ग. तं चतुपञ्चाशदेकपाि एकपट्टिभागस्य मनसंमिश्राणि चतुर्षु मार्ग इति जातम् । संप्रति षष्ठानि दशमपर्यन्तानि पञ्च चमज्ञानि सूर्यमासंस्पृष्टानि मान्यता मात्परतो यः षष्ठं चन्द्रममहित्यात त्रिशतयोजनानि त्रिशबैक पश्चिभागा] योजनस्य एकस्य च एकषष्टिज्ञागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागाः, तत्र च पञ्चत्रिंशद्योजनान्ये कषष्टिभागकरणार्थमेकषष्टधा गुण्यन्ते, गुणयित्वा चोपरितनात्रिंशदे कषष्टिभागाः प्रक्षिष्यन्ते ततो जातान्येकविशतिशतानि पञ्चषष्टद्यधिकानि २१६५, येऽपि च पञ्चमस्य चन्द्रमण्डलस्य सूर्यमएमलाद् बहिर्विनिर्गताश्चतुःपञ्चाशदे कपष्टिभागा द्वौ च एकषष्टिभागस्य सत्को सहभागी ते प्रय म्ते, जातानि द्वाविंशतिशतान्ये कोनत्रिंशत्यधिकानि२२१६, सूर्य स्प विकम्प योजने अंशत्यारिंशदेकपटिलागाधिके, त द्वे योजने एकषष्टद्या गुण्येते, जातं द्वाविंशं शतमेकषष्टिभागानां । उपनिवारिंशदेपभागाः प्रयन्ते स तत्यधिकं शतम् १७०, तेन पूर्वराशेर्भागो द्रियते, लब्धास्त्रयोदश, शेषास्तिष्ठन्ति नव, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काः षट् सप्तनागाः, तत इदमागतं पञ्चमाच्चन्द्रमएकलात्परतस्त्रयोदश सूर्यमागयोदशस्य च सूर्यमार्गस्योपरि षष्ठाचन्द्रमादर्षा अन्तरं नव एकषष्टिभागा योजनस्य, एकस्य च एकषष्टिप्रागस्य सत्काः षट् सप्तभागाः, ततः परतः षष्ठं चन्द्रमएकलं, तब पट्पचाशदे कषष्टिभागात्मकं ततः परतः सूर्यमण्डलादयोगन्तरं पट्पचाशदे कषष्टिभागाः, एकस्य चैकषष्टिनागस्य एकः तस्य चयोदशस्य सूर्यमार्गस्योपरि मामला क अन्तरं पादेकपािगाः एकस्य च एकष्टिनागस्य एकः सप्तनागः, ततो दशमं चन्द्रमण्डलं, तस्माच्च दशमाचन्द्रमरमखात्परतो नवगिरेपनिागरेऽस्य व एकषष्टिस्य स त्कैः षड्यिः सप्तन्नागैः सूर्यमराकलं, ततः सप्तपञ्चाशता एकषटिमागैरेकस्य व एकस्य सःकनं प्रागुकपरिमाणं चन्द्रमएम लान्तरं ततो भूयोऽपि भादरा सूर्यमार्गीयन्ते तस्मिन्तरे सर्व यात्रयोदश सूर्यमागतस्य सूर्यमार्गस्योपरिएका शाचन्द्रमराकलादर्वागन्तरं सप्तषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काः पञ्च सप्तभागाः, तदेवं पञ्च चन्द्रकलानि षष्ठादीनि दशमपर्यन्तानि सूर्य संमिश्राणि षट्सु व चन्द्रम रेषुदमार्गा इति जातम् सत्येतद्न्तर मुच्यते तत्र एकादशे चन्द्रमरकले चतुःपञ्चाशदे कषष्टिजागाः, एकस्य च एकषष्टिनागस्य साकी ही सप्तनागीता सूर्य एक लादभ्यन्तरं प्रविष्ट एक एकषष्टिभागः, एकस्य च ए परिभागस्य पञ्च सप्तभागाः इत्येतान् सूर्यमण्डल मिश्रम एकादशा चन्द्रम एकलाइ बहिर्बिनिर्गतं सूर्यम एकलं पट्चएकच एक पहिजागर की ही सप्त भागौ, तत एतावता हीनं परतश्चन्द्रम एकलान्तरमस्तीति द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते ततः परमेोनाशीत्या एकपट्टिमागैरेका च एकषष्टिभागस्य सत्कायां द्वाभ्यां सप्तभागाभ्यां द्वादशं चन्द्रममलं तच द्वादशं चरूमएकलं सूर्यम एक लादन्यन्तर प्रविष्टं द्वाचत्वारिंशतमेकषष्टिभागानू, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कान् पञ्च सप्तनागान्, शेषं च त्रयोदश एकषष्टिजागा योजनस्य एक जागस्य सत्को ही सप्तभागी स्तावमा सूर्यमएकलसंमिश्रं तसाचादान्ममा बदिविनिर्गत सूर्यमण्डलं चतुर्खिशतमेकपष्टिमागार योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सरकान पञ्च सप्तज्ञागान् तत एतावन्मात्रेण हीनं परतश्चन्द्रमण्डलान्तरं तत्र च द्वादश सूर्यमार्ग लभ्यन्ते, द्वादशाच सूर्यमागत्परतो नयतिसंयेरेपाष्टिभागेरेकस्य च एस्पिभिः सप्तभावदर्श म तच भयो चन्द्रमरुलं सूर्यमसादयन्तरं प्रविधम् पक (२००५) 3 अभिधानराजेन्द्रः । नागः, तदनन्तरं सर्वमाच परत एकषष्टिभागान चतुरुचरेण शतेन एकस्य च एकषष्टिनागस्य सत्केनैकेन सप्रभागेन हीनं यथोदितप्रमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं प्राप्यते, तस्मासूर्यमागत्परतोये हादरा सूर्यमाणां अभ्यन्ते ततः सर्वक नया तरिमप्यन्तरे त्रयोदश सूर्यमार्ग तस्य च त्रयोदश स्य सूर्यमार्गस्योपरि सप्तमाच्चन्द्रमण्डलाद व अन्तरमेकविं शतिरेक षष्टिजागा एकस्य च एकषष्टिजागस्य त्रयः सप्तनागाः, ततः सप्तमं चन्द्रमण्डलं, तस्माच्च सप्तमाच्चन्द्रमण्डलात् परतः चतुश्चत्वारिंशता एकषष्टिनागैरेकस्य च एकषष्टिजायस्य सकेपडलं ततो द्विनवतिरेकटिभागे २७३ च 9 Page #1113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५० ) निधानराजेन्द्रः । चंदममा कस्य त्रिंशतमेवपाटनागानू, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कमेक सप्तभागं, शेषं चतुर्विंशतिरेक षष्टिभागाः एकस्य च एकषष्टिभाग स्य सत्क षट् सप्तन गा इत्येतावन्मात्रं सूर्यमण्डलसंमिश्रं त साथ पोशाकलग तिमेकषष्टिभागानू, एकस्य च पकषष्टिभागस्य सत्कमेकं सप्तभागं, तत एतावता दीनं परन्द्रान् तद्वादश सूर्यभागी द्वादशाच सूर्यमागत्परताले च एकषष्टिभागस्य सत्कैस्त्रिभिः सप्तन्नागैश्चतुर्दशं चन्द्रममलं, तश्चतुर्दशं चन्द्रममलं सूर्यम एक लादभ्यन्तरं प्रविष्टमेकोनविंशतिमेकषष्टिभागानेकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कान् चतुरः सप्तभागान् शेषं पशिदेकपटिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कास्त्रयः सप्तभागा इत्येतावत्परिमाणं सूर्यमराकल संमिश्र, तस्माद्यतु देशाचन्द्रमण्डलाद्वहिविनिर्गत सूर्यमयमयमेकादश ए. कस्य च एकषष्टिभागस्य चतुरः सप्तनागान् तत एतावता हीनं यथोपरिमाणं चन्द्रमा सूर्यमाद्वा चन्द्रममलानि सूर्यमण्डल संमिश्राणि भवन्ति चतुर मेषु चन्द्रमान्तरेषु हाइस द्वादश सूर्यमार्गीवंतु वदन्यत्र सन्ममान्तरेषु सूर्यमार्गप्रतिपादन कारि यथार अट्ठतु, अभिनरवाहिरेसु सूरस्स । वारस वारस भग्गा, बसु तेरस तेरस भवंति ॥ १ ॥ तदपि संवादि द्रष्टव्यम् । सू० प्र० ११ पाहु० चंदमहत्तर - चन्द्रमहत्तर - पुं० । षष्टकर्मग्रन्थस्य टीकाकारके गपिनि, जे० ० । दशा सूर्यमात्परत पाचोरेण शतेन चंदरागरण-व्याकरणन०किरणांमध्ये पञ्चदशं चन्द्रमण्डलं सर्वस्मात्सूर्यमादयन्तरं प्रति टमष्टावेकषष्टिजागानू, शेषा अष्टाचत्वारिंशदे कषष्टिनागाः सूर्यमरमलसंमिश्र तदेवमेतान्येकादशादीनि प चंद्रमा चन्द्रमम्-पुं० [चन्द्रे सान्तो ऽयं शब्दः प्रथमेकवचन- । मत आदन्त उपलभ्यते । " क्वत्ताणं च चंदमा " सूत्र० १ ०११ प्रतिपादके दागे ज्ञाताभ्यवने, स० १६ सम० । चंदमालिया - चन्द्रमालिका स्त्री० : चन्द्राकृतिमालायाम्, श्र० । चंद्रमास चान्द्रमास ० चन्द्र पासी शास कृष्णपतिपद वारज्य वाक्पूर्णमासीपरिसमाप्तिस्ताव कालमाने मासभेदे, स च एकोनत्रिंशदहोरात्राणि द्वात्रिंशश्च द्वापभागा अहोरातस्य २ कर्ममासमासइत्येोः। स त्रिंशदिवसप्रमाणः । वृ० १ ० । स० । नि० चूश सू० प्र० । स्यो० ( चान्द्रो मासो यथा चन्द्रमएम लैर्निष्पद्यते तथा "मंडल "शब्दे भागे ०४ पृष्ठे समुतम् ) चंदरिति चन्द्रर्षि पुं० । एञ्चसंग्रहकर्तरि पं० सं० ५ द्वार । -न० । कलाभेदे, स० । दलक्खण- चन्द्रलक्षण - न चंदोसा- चन्द्रश्या स्त्री चन्द्रस्य वेश्या, बेश्या दीप्तिस्तत्कारगत्वान्म्डलम् । चन्द्रमरामले ल०१५ सम० चतुर्थदेवलोकस्ये विमानभेदे न० । स० ३ सम० । चंदा लेखाश्री० चन्द्रकान्तयति ि हाकु "मिताने पञ्चदशा करके उन्होजे बा० राजपुरनगर राजस्व समर के दविकंप तोः कन्यायास्, दर्श० । “जंबुद्दीवे सिंहलदीवे रयणदोसा से रिपुरनयरे चंदगुप्तो राया, तस्स चंदलेडा भारिश्रा " जम्बूद्द | पस्थचन्द्रगुप्तस्य राज्ञो नार्यायाम्, ती० १० कल्प। "सिरिसा सिपाहणर दलेहानिदाणा महासई देवी" शालिवाहनराजन्य खनामख्यातायां महासत्यां स्त्रियाम् ती० ५३ कल्प । चंदवमिंग- चन्द्रावतंसक०तिन्द्र दि मान, च० प्र०१८ पाहु सू० प्र० । साकेत नगरस्याधिपतौ मुनिचाभिधानस्य मुनेः पितरि उत्त० १३ ० ० ० । श्र० चू० । " चंदवाद्य-चन्द्रवर्ण-२०तुर्थदेवलोकनमख्याते विमाने, स० ३ सम० । दययणा चन्द्रवदना श्री० विश्वपुरराजपुत्रममित्रस्य मदनपुत्रस्य भार्याया ग०३० तु व्याकरणे ०१ क कल्प० | , चंदविकंप - चन्द्रविकम्प-पुं० ! चन्द्रस्य विकम्पक्केत्रे, ( ज्यो० ) परस्परं चन्द्रसूयधिकम्याःचंदंतरे असू, तरवादिरे सूरस्स । वारस वारस मग्गा, उम्र तेरस तेरस भवंति ॥ इह चन्द्रमहरूसानामन्तराणि चतुर्दश । तथाहि-मला नाराणि चतुर्दश भवन्ति नाधिकानि सर्वाभ्यन्तरे चन्द्रकान्तरेषु चतु धुं च सर्वषु चन्द्रमान्नरेषु प्रवेद्वारा मा भवन्ति, षट्सु च चन्द्रमएमत्रान्तरेषु मध्यवर्ति त्रयोदश त्रयोदश मार्गा भवन्ति । अथ कथमं तदवसीयते एकैकस्मिन् चन्द्रमएमलान्तरे द्वादश त्रयोदश वा सूर्यमार्गा भवन्ति इति ? | एतदर्थमेकस्मिन चन्द्रविकम्पे यावन्तः सूर्यविकम्पा भवन्ति तावतः प्रतिपादयिषुः करणमाहचंदवि एकं सूरविकंपे भागए नियमा । जावर जागं लं, पूरविकंपान ते होति ॥ एकं चन्द्रविन् पातयोजनानि पञ्चविंशतिपहिया योजनस्य एकषष्टिभागस्य सप्तधा दिन्नस्य सत्कात्यारो भागाश्वेवंरूपे सूर्यविकम्पन योजने अयत्वारिंशदेकपटिजागा] योजनस्य एकपट्टिरित्येवंप्रमाणेन नियमात्रिश्चयेन नाजयेत् विभक्ते च सति यावद् भागं लब्धं नवति तावत् प्रमाणास्ते कम्पयन्ति तत एवं सूर्यविपाशात्वा यावन्तश्चन्द्रममवान्तरे सूर्यमार्गा भवन्ति तावन्तः सूर्या ज्ञातस्याः तद्यथा प्रथमे सर्वान्तरे सूर्यमले सूर्योपरिभ्रमति चन्द्रोऽपि चन्द्रद्वितीपदिने मला पहिरन्तरं पञ्चत्रिंशद् योजनानि त्रिंशनं चैकषष्टिभागान् योजनस्य, एकस्य चषष्टिभागस्य सप्तधा छिन्नस्य सत्कान् चतुरो नागान् विकम्प्य चारं किम्पस्य परिमाणं पशि योजनानि प विंशतिरंकषष्टिभागा रोजनस्य, एकम्य च एकषष्टिजागस्य सप्तधा विन्नस्य सकाश्चत्वारो भागाः । अत्र योजन। शिरे कषष्टिजागकरपार्थमेकागुते जान्काशितानि प कान २१६, ये परितनाः पञ्चविंशतिरेपनि गाय 9 " Page #1114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदविकंप प्रकिण्यन्ते, जातानि द्वात्रिंशशतानि एकविंशत्यधिकानि २२२१, सूर्यविकम्पो द्वे योजने अष्टाचत्वारिशद कषष्टिभागा योजनस्य तत्र हे योजने एकपट्टिभागकरणामका गुप्ते जातं द्वा शत्यधिकं शतं १२२, तत उपरितना अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिजागाः प्रविप्यन्ते, जातं सप्तत्यधिकं शतम् १७०, एतेन पूर्वराशेर्भागो हियने, लब्धास्त्रयोदश, एतावन्तः सूर्यविकम्पा एकस्मिन् चन्द्रकिम्पुन्येकादश एकषष्टिभागाः, एकस्य चै कषष्टिभागस्य सप्तधा छिन्नस्य सत्काञ्चत्वारो भागाः, द्वयाश्च च मोरान्तराले द्वादश सूर्यमार्गा अवन्ति, एकस्य सूर्यमास्य सर्वाभ्यन्तरे एव मएडब्बे भावात् । एवं शेषेष्वपि चन्द्रमएममान्तरेषु पूर्वपूर्व चन्द्रममन्त्रान्तरोद्वरित भागपरिमीलनेन यथोसूर्यमार्गप्रमाणं परिभावनीयम् । जावयिष्यते वाऽयमर्थोऽये स्वयमेव सूत्रकृतेति न प्रतिवन्द्रमालास्तरभावना कियते तदेवमुकं चन्द्रमण्डलान्तरेषु सूर्यमार्गप्रतिपादनार्थे करणम् । संप्रति सूर्यमण्डलान्तरपरिमाणं चन्द्रमरमलान्तरपरिमाणं च प्रतिपादयति वे जो सूर मंगला तु हवई अंतरिया । चंदस्स वि पणती, साड़ीपा होइ नायव्या ॥ (२०११) अभिधान राजेन्द्रः । सूर्यस्य सवितुः सत्कानां मण्डलानां परस्परमन्तरिका श्रन्तरमेवान्तर्यम ब्राह्मणादित्यस्वार्थे ततः खी विवक्षायां प्रत्यये अन्तरी, अन्तर्येच आतरिका नवति द्वे योजने चन्द्रस्य पुनरान्तरिका भवति बातम्या पम्पत्ि योजनानि साधिकानि पञ्चत्रिंशत्योजनानि पञ्चविंशतिरे कषष्टिभागा योजनस्य एकस्य व एकषष्टिभागस्य सप्तधा छिन्नस्य सत्काश्चत्वारो भागा इत्यर्थः । 1 " अधुना सूर्यविकम्पस्य चन्द्रविकम्पस्य च परिमाणमादसूरचिकंपो एको, समंगला दोइ मंगलवरिया | चंदत्रिकंपो य तहा, समंमला मंगलंतरिया || एकः सूर्यविकम्पो भवति मरामलान्तरिका समएमला ! किमुक्तं भवति ? एकस्य सूर्यम एकत्रान्तरस्य यत्परिमाणमेकसूर्यमएमपरिमाणसहितं तदेकस्य सूर्यविकम्पस्य परिमाणमिति । "दविपो" इत्यादि तथा तेनैव प्रकारेण चन्द्रविकल्प ज्ञातव्योमरामलान्तरिका समण्डला, एकस्य चन्द्रमरमलास्तरस्य यत्परिमाणं तत् प्रागेवास्मानिरुतामेति । साम्प्रतमेकेनायनेन चन्द्रः सूर्यो वा यावत्प्रमाणं क्षेत्रं तिर्यगाक्रामति तत्परिमाणमाद पंचैव जोयसादसुसरा जन्म मंगला होत जं कमेश तिरियं चंदो सूरो य प्रयणं ॥ यत् चन्द्रसूवा एकेनायनेन तिर्यगाक्रामति, यत्र प न्द्रमसः सूर्यस्य वा मानि भवन्ति तस्य क्षेत्रस्य परिमाणं पञ्च योजना दोसराणि वरं चन्द्रमसाजिरे कपटिना न्यूनानि तथाहि एकस्मिन्यनेपा शत्यधिकं शतं भवति । एकैकस्य सूर्यविकम्पस्य परिमाण कषष्टिजागरूपं सप्तत्यधिकं शतम् १७०, ततश्च व्यशीत्यधिकं शतमेकेन शतेन गुण्यते, जातान्ये कत्रिंशत्सहस्राणि शतमेकं दशोत्तरम् ३१११० तत एतेषां योजनानयनार्थमेथा प्रायो हियते धानि पञ्च योजनानि ५०० " " चंदाप एतावत् सर्णत्यन्तराम्मपदपरत एकेनायमेन सूर्यरित क्षेत्रमा कामति तथा मिनेन्द्र , श, एकस्य च चन्द्रविकल्पस्य परिमाणं पत्रिशतयोजनानि पञ्चविंशतिरेक षष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकपष्टिभागस्य सप्तधा छित्रस्य चत्वारो भागाः योजनाकिषष्टिकरणार्थमेकपद्मा गुरुयन्ते जाताम्पेकविंशतिशतानि षमावत्यधिकानि २१६६, तत उपरितनाः पश्चविंशतिरेकपष्टिनागाः क्षिष्यन्ते जातानि द्वाविंशतित एक विधान १२२१ चतुर्दश च सर्वसंख्या चन्द्रमसो विकण्याः ततो द्वातिनिधिक चतुर्दशभियन्ते जातान्येाणि चतुका नि ३१=३४, येऽपि च एकस्य एकषष्टिभागस्य सप्तधा विन्नस्य सरकारी भागाचतुर्निर्गुण्यन्ते जाताः षट्प सप्ताह असे ते पूर्वराशी प्रक्षिप्यन्ते जातः पू राशिरेकदिशत्दशितमेकेर ३२१०२ शेषां योजनानयनार्थमेकपोसानि पञ्चजनश तानि नवोत्तराणि त्रिपञ्चाशबैक षष्टिभागा योजनस्य ५०६, पयोजना दशोत्तम त्यर्थः। एतावत्सर्वाज्यन्तरान्मण्डलात्परत एकेनाऽयनेन चन्द्रस्तियंए क्षेत्रमा काम एकाच क्षेत्रका मूलटीकायामपि भाविता । तथा च तद्ग्रन्थ:-" सूरस्स पंच जोयणसया दसादिया कहा सचैव भट्ट एकसडिनादिया चंदका दवसि " ॥ " " संप्रति काष्ठादर्शनतो विकम्पानयनार्थे करणमाहसगमले हि लं, सगकट्टाओ हवंति सविकंपा । जे सगविक्खंभा, हवंति सगमंडलतरिया | चन्द्रमसः सूर्यस्य वा विकार कथम्भूता इत्याह-स्वविष्क भयुताः स्वकमरामहान्तरिका, स्वस्थमम्मिि तस्वस्वमण्डलान्तरिकरूपा इत्यर्थः । भवन्ति ते स्वकाष्ठातः, प्राकृतत्वात् षष्ठयर्थे पञ्चमी । स्वस्वविकम्पयोग्य क्षेत्र परिमाणस्य स्वकमएकलैः स्वस्वमण्डल संख्यया जागे हृते यलब्धं तावत्प्रमाणाः " विकम्पनयति तचादि-सूर्यस्य क्षेत्रका पञ्च योजनातानि दशोराणि ५१० पनिागकरकपा गुण्यन्ते जातान्येकशत्सहस्राणि शतमेकं दशोत्तम ३१११०, सूर्यस्य मानि १८३. ततो योजनानयमार्चशत्यधिकं मण्डलं शतमेकषया गुतान्येकाद शाशितमेकं १२१६२भीगो हियते, लब्धं द्वे योजने, शेषमुपरिष्टाद्वरित सप्ताशीतिशतानि चतुरशीत्यधिकानि ०७०४, ततः संप्रत्येक षष्टिजागा धातव्या इति अधस्ताच्छेदपिशीत्यधिकं शतं यते १८३ मा हुने लन्धा अष्टाचत्वारिमायाः एतावत्परिमाणमेकैकस्य सूर्यविकम्पस्य तथा चन्द्रस्य तिर्थक्षेत्रका पञ्च योजना ने नोसराणि पञ्चाशदेि भागा योजनस्य ५०६। ५३, तत्र योजनान्येकषष्टिभागकरणार्थगुबन्ते जातान्यसिदखाणि कोनपञ्चाशद धिकानि २१-४२ उपरितनाखिपञ्चाशदेकपािगाः प्रतिव्यन्ते, जातान्ये कत्रिंशत्सहस्राणि शतमेकं द्वघुतरम ३११०२, चन्द्रस्य चन्द्रमण्डलानि सर्व बाह्यान्मरकलादर्वाक चतुर्दश १४. तो योजनानयनायें चतुर्दश एकषष्ट्या मुण्यन्तो जता , 9 Page #1115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०३२) निधानराजेन्द्रः । चंदधिकंप अष्टौ शतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि ८५४, तैः पूर्वराशेर्मागो हियते सम्धानि योजना २६, शेषान - म्ति श्रीणि शतान्यष्टापञ्चाशदधिकानि ३५६ त ऊईमे षष्टिभागा श्रनेतव्याः, ततश्चतुर्दशनिर्जागे बन्धाश्चत्वारः सप्तभागाः, एतावत्परिमाण एकैकश्चन्द्रविकम्प इति इह सर्वाभ्यन्तरं सूर्यममलं सर्वात्मना प्रषिकेपलमाप " शतशतं १५८, तत्र द्वाविंशेन शतेन द्वादशस्य सूर्यमार्गस्योपरि द्वे योजने लब्धे, शेषास्तिष्ठन्ति तत्र एकषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्त भागाः, येऽपि च प्रथमे चन्द्रमहरुले रविमगमनात् शेषा श्रष्टावेकषष्टिभागास्तेऽप्यत्र प्रक्विप्यन्ते इति जाता एकादश एकादश एकषरिनागाः, द्वादशाच सर्वमारतो योजनातिक्रमे सूर्यमालमत भागत्य द्वितीया मण्डलाभ्यन्तरं प्रविएं सूर्यमराकल मेकादश एकषष्टिभागा एकस्व सप्तधा छिन्नस्य सकाश्चत्वारो भागा इति । साम्प्रतं शेषेषु द्वितीयादिषु चन्द्रमण्डलेषु यावत्प्रमाणं सूर्यभएमादभ्यन्तरं प्रविष्ठं तावत्परिमाप्रतिपदार्थ करणमोह इच्छा, गुणियमभंतरं तु सूरस्स । तस्सेसं मामणं, सामश्यत्रिसेसियं समिणो ॥ यस्मिन्मण्डस्य चन्द्रमण्डलादज्यन्तरं प्रविष्टस्य हातुमिच्छाते इच्छामएमलेन रूपोनेन प्राक्तन मनन्तरोक्तमभ्यन्तरप्रत्रिष्टं सूर्यमराम परमपिते गुणितं सत्यावि माणे मन्द्रादयन्त सूर्यस्य मम प्रविष्ट सेव तद्वधा तृतीयेचन्द्रमले फिल " यो रूपानाः क्रियन्ते, जाती द्वौ ताज्यां प्रागुता पकादश एकषष्टिर्भागा गुण्यन्ते, जाता द्वाविंशतिः येऽपि च चत्वारः सप्तमागास्तेऽपि गुणवन्ते जाता सप्तभिरेक एकपटमागोलधापूर्वी प्रतितीये मले चन्द्रमएकलादभ्यन्तरं प्रविष्टं सूर्यमएमलं त्रयोविंशतिरेकषष्टिनागस्य सप्तधा छिस्स को भाग एवं तुन्द्रम चन्द्रमण्डलान्तरं सूर्तम प्रविशदेप नागाः, एकस्य च एकषष्टिनागस्व सत्काः पञ्च सप्तनागाः, पञ्चमे मण्डले पट्चत्वारिंशदेपनिागाः अस्य सप्तधा विस्थ दितीयादिषु तु चन्द्रमराकलेषु विशेषं वक्ष्यति । ( तस्सेसं सामंत ) तस्याभ्यन्तरप्रविष्टस्य सूर्यमएमलस्य यत् शेषं सूर्यमण्डलसत्कं तत् सामान्यं साधारणं, चन्द्रममलामि प्रविशमित्यर्थः यत् सामान्य विशेषितमतिरितं मल कम्नस्य तत् शशिनोऽसाधारणं द्रष्टव्यम् । तद्यथा-द्वितीये चन्द्रमण्डले सूर्यमण्डलसाधारणाः पशपरिभाषा एकस्य चैकषष्टिजागस्व त्रयः सप्तभागाः । किमुक्तं नवति ?, द्वितीयेन्द्ररामले सूर्यममिति चन्द्रमम च विष्कम्भः षट्पञ्चाशदे कपाभागा योजनस्य, ततः पपातः पविशत्येकपष्टिभागेषु त्रिपु कषष्टिभा यस्य समापनीतेषु शेषानिये कोनविंशतिरेकपमा गाः, एकस्य च एकषष्टिनागस्य चत्वारः सप्तभागाः, एतावस्प्रमाणं द्वितीयं चन्द्रमराकलं क्षेत्रे सूर्यमएमक्षवत् बहिर्विनिर्गतं बन्द्रमएमलमिति । एवं सर्वेष्वपि मण्डलेषु जावनीयम, भावयि यते चाप्येतदाचार्य इति न संमोहः कार्यः । संप्रति षष्ठादिषु चन्द्रमरालेषु विशेषमाहबट्टाई रविसे, रविससिणो अंतरं तु नायक । चंदविकंप तं वमसि सूतराहियं अंतरं गाहि ॥ षष्ठादिषु चन्द्रमरमलेषु प्रागुक्तकरणवशात् यक्षुभ्यते तत्र रथेः सूर्यमण्डलात् शेषं वर्तते तत्रविशशिनोरन्तरं हातव्यम् । " तं वेत्यादि " श्रत्र तं वेति प्रथमा सप्तम्यर्थे, शशिशुरू इत्यत्र प्रत्येकं विभकिलोपास्यात्। ततोऽयमर्थः-तसिन् रविशशिनोरन्तर, वाशन्दो निक्रमः स चैवं योजनीयः - शशिनि च सूर्यान्तरात् सूर्यान्तरपरिमाणात् योजनकद्विकरूपात यश्च द्वे शेषं यदधिकं सूर्यान्तरपरिमाणस्य वर्तते तत् शशिनो बहिः सूर्यमण्डलादगन्तरमवसेयम् । यथा षष्ठे किस चन्द्रमएमले अन्तरं ज्ञातुमिच्छा, ततः षट्रूपोनाः क्रियन्ते, जाताः पञ्च तैरेकादश एकषष्टिनागाः, एकस्य चैकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तनागा गुण्यन्ते, जाताः सप्तपञ्चाशदेकषष्टिनागाः, एकस्य च एकषष्टिनागस्य सत्काः षद् सप्तभागाः, तत्राष्टाचत्वारिंशत्केरेका सूर्यममअविशुद्धं शेषा एकषष्टिभागाः पकस्य च एकषष्टिनागस्य सत्काः षद् सप्तभागाः तिष्ठन्ति । एतावन्मात्र प्रदेशे रविशशिनारेन्तरं तत एतस्मिन् सूर्यान्तरपरिमा शाद्वियोजनरूपात परिपरिमाणात् डियोजनरूपात परिशु चन्द्रे मलपरिमाणेच पट्पञ्चाशदेप किषन्ते पादेकपष्टिनागा, एकस्य चैकषष्टिभागस्य सत्क एकः सप्तभागः, एतावत् षष्टाच्चन्द्रममात्परतः सूर्यमएमला दवगन्तरम्, एवं शेषेष्वपि मण्डलेषु जावनीयम् । 9 जत्य न सुझर सोमो, तं सहियो सत्य होइ पत्तेयं । तस्से सामनं, सामन्नविसे सियं रविणो ॥ यत्र चन्द्रमएकल क्षेत्रे अनन्तरोक्तकरणचिन्तायां सोमश्चन्द्रो न यति यथाकाशे चतुर्दशे पञ्चदशे वा तत्र सामा शशिनः प्रत्येकमसाधारणं ज्ञातव्यं तस्माच्च परतो यत् शेषं चन्द्रमएमलान्तर्गतं सूर्यमरामलसत्कं तत् सामान्यमुभयसंमि श्रं ज्ञातव्यम् । तस्माच्च सामान्यात् परतो यद्विशेषितमसाधारण रावेरसेयम्। यथा लेकादशे चन्द्रमस क्षेतरादि परिमाणं जिज्ञास्य तदेकादशरूपानं क्रियते जाता दश ते एकादश एकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिनागस्य च सत्काचत्वारः सप्त भागा गुण्यन्ते, जातं पञ्चदशोत्तरमेकशतम्, एकस्य चैकषष्टिजागस्य सत्काः पञ्च सप्तनागाः ११५ । ५, एतेषां मध्ये अष्टाचत्वारिंशतैकषष्टिभागं सूर्यमण्डलं शुद्धं, शेषाः सप्तषष्टिरेकषष्टिभागा एकस्य चैकषष्टिभागस्य सत्काः पञ्च सप्तमागासिष्ठन्ति तत् सूर्यान्तरपरिमाणात् योजना सो यशेषादेकपट्टिभाग की पा स्य सत्कौ सप्तभागौ, एतावता चन्द्रो न शुध्यति, चन्द्रमण्डनस्य देष्टिनागप्रमाणत्वात् तत एतावद सूर्यमपमवादेकादशं चन्द्रममन्यन्तरं प्रवेष्वसेय शेषं त्वेकषष्टिभागस्य सत्काः पञ्च सप्तभागा इत्येतावत् प्रमाणं सूर्यमरामलसंमिश्रं तस्माच्च परतः षट्चत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् द्वौ चैकषष्टिनागस्य सप्त नागान् याचत केवलं सूर्यमण्डलम, एवं शेषेष्वपि द्वादशादिषु मण्डलेषु भावना कार्या। त देवमुखं चन्द्रम एकलान्तरेषु सूर्यमार्गपरिमाणं, चन्द्रसूर्यमण्डला तरपरिमाणं चन्द्रम एक सूर्यमएससाधारणं भागपरिमास च । , Page #1116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदविकंप अनिधानराजेन्डः। चंदविकंप साम्प्रतमुक्तमेवार्थ सुखग्रहणधारणनिमित्तं व्याख्याता संजि- एकषष्टिभाग एकस्य चैकषष्टिभागस्य सत्काः पश्च सप्तनागाइ. घृतः प्रथमतः ससर्वाभ्यन्तराणां पञ्चानां साधारण- त्येतावत्परिमाणं पञ्चमं चन्द्रमामलसांमध, तस्य च पञ्चमस्य __मण्डलानां गाथाद्वयेन नावनामाह चन्द्रमामलस्य सूर्यमामलाहिर्विनिर्गतं चतुःपञ्चाशदेकष ष्टिभागा,एकस्य चैकषष्टिभागस्य द्वौ सप्तभागा, तदेवं पञ्च सअटे वारस चन-तीसा तिन्नि न गुणवीस चत्तारि । ज्यन्तराणि चन्द्रमामानि साधारणानि, चतुषु च चन्मतेवीसेगं चनवी-सबक गतीस एकं च ॥ एमलान्तरेषु द्वादश सूर्यमार्गा इत्येतदू भावितम् । चउतीस पंच तेरस, दुगं च वायाल पंच भागाणि । सम्प्रति पञ्च साधारणानि चन्जमरामलानि विभावयिबुराहगयाल दुगेगं पुण, चउपमं चेव दो भागा ।। नव बप्पणेग एक्का-वीसंवा तिमि वा चत्ता। प्रथमे सर्वाज्यन्तरे चन्द्रमण्डले के सूर्यमएमबाद बहिर्वि चत्तालीस तिगडहिया, तेतीसा एगसीया य॥ निर्गतचजमरामलमष्टावकषष्टिभागान् , ततो द्वितीयाच्चन्द्रम- चउयाझा उरणवीसं, ति उप्पणं एग न कं । एमझादागपान्तराले द्वादश सूर्यमार्गाः। अत्रार्थे च भावना प्रा-1 पञ्चमाञ्चधमएमलात्परतो यः षष्ठं चन्द्रमण्डलमधिकृगेव कृता। द्वादशाच सूर्यमार्गात्परतोडितीयाच्चन्मरामताद त्यान्तरं, तच्च पञ्चत्रिंशतयोजनानि एकषष्टिनागकरणार्थमेकवाक द्वे योजने एकादश च एकषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टि षष्टया गुण्यन्ते,गुणयित्वा चोपरितनास्त्रिंशदेकषष्टिनागाःप्रक्किभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागाः,तत्र योजनद्वयानन्तरंसूर्यम प्यन्ते,ततो जातानि एकविंशतिशतानि पञ्चषष्टयधिकानि२१६५ , एमसमतो द्वितीयाच्चमामलादर्वागभ्यन्तरं प्रविएं सूर्यमएड येऽपि च पञ्चमस्य चन्द्रमामलस्य सूर्यमामलादाहिर्विनिर्गलमेकादशैकषष्टिभागान् , एकस्य च एकषष्टि नागस्य सत्कान् ताश्चतुःपञ्चाशदेकषष्टिनागा द्वौ च एकस्य एकषष्टिभाचतुरः सप्तनागान्, ततः परं त्रिंशदेकषष्टिनागाः, एकस्य च | गस्य सत्कौ सप्तनागौ तत्र प्रतिप्यन्ते, जातानि द्वाविंशतिशएकषष्टिभागस्य सत्कास्त्रयः सप्तनागाः,इत्यतावत् परिमाणं सू-1 तानि एकोनविंशत्यधिकानि, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काः यमरामसंमिश्रम्, एतावता किन शुरूं सूर्यमण्मलं, ततः सूर्य- षट् सप्तभागाः२२१६।६, सूर्यस्य विकम्पो द्वे योजने अष्टाचत्वामएमलात्परतो बहिर्विनिर्गतं चन्द्रमामलमेकोनविंशतिमेकषष्टिः रिंशदेकषष्टिभागाधिके, तत्र द्वे योजने एकषष्टया गुण्येते, भागान् , एकस्य चैकषष्टिभागस्य सत्कान् चतुरः सप्तभागान् , जातं द्वाविंशं शतमेकषष्टिभागानां,तत उपरितना अशाचत्वारिंततः परं भूयः तृतीयाच्चन्डमएमलादर्वाक् यथोक्तपरिमाणम- शदेकषष्टि नागाः प्रविष्यन्ते, जातं सप्तत्यधिकं शतं १७०, तेन न्तरम् । तद्यथा-पञ्चत्रिंशद् योजनानि त्रिंशदेकषष्टिभागा योज. पूर्वराशेर्भागो ह्रियते, लब्धास्त्रयोदश, शेषास्तिष्ठन्ति नव, एनस्य,पकस्य च एकषष्टिनागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागाः, पता-1 कस्य च एकषष्टिनागस्य सत्काः षट् सप्तभागाः,तत श्दमागतम्वति चान्तरे कादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते, उपरि च द्वे योजने| पञ्चमाञ्चन्मएडलात्परतत्रयोदश सूर्यमार्गाः,त्रयोदशस्य च त्रयश्चैकषष्टिभागा योजनस्य, एकस्य च एकषष्टिभागस्य स- सूर्यमार्गस्योपरि षष्ठाच्चन्द्रमएमलादर्वागन्तरं नव, एकस्य काश्चत्वारः सप्तभागाः, ततोऽत्र प्रागुक्तहितीयाज्यां ते द्वादश- च एकषष्टिभागस्य सत्काः षट् सप्तभागाः, ततः परतः स्य च सूर्यमार्गस्योपरि हे योजने, त्रय एकषष्टिभागाः योजन- षष्ठं चन्द्रमण्डलं, तच्च षट्पश्चाशदेकषष्टिनागात्मक, ततः स्य,एकस्य चैकषष्टिनागस्य सत्कएकः सप्तभागस्तत्र प्रक्षिप्यते। परतः सूर्यमण्डलादर्वागन्तरं, (छप्पणेग त्ति) षट्पञ्चाततो जाताश्चतुर्विंशदेकषष्टिनागस्य सप्तनागाः, तत इदं तृ- शदेकषष्टिजागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्क एकः सप्ततीयाश्चन्छमएमलात्परतो द्वादश सूर्यमार्गाः, द्वादशाच्च सूर्यमा- भागः, तदनन्तरं सूर्यमराकलं, तस्माच्च परत एकषष्टिभागानां त्परतो योजनद्वयमतिक्रम्य सूर्यमएमवं चतुर्थाश्चन्द्रमएमलाद- चतुरुत्तरेण शतेन एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्केन सप्तनागेन गभ्यन्तरं प्रविष्टं चतुर्विंशतिमेकषष्टिभागानेकस्य चैकषष्टिभा हीनं यथोदितप्रमाणं चन्द्रमालान्तरं प्राप्यत इति एतस्मात् गस्य सत्कान् पञ्च सप्तभागान्ततः शेष सूर्यमएमनस्य त्रयोदश- सूर्यमामलात्परतोऽन्ये द्वादश सूर्यमार्गाः लभ्यन्ते, ततः सर्वकसप्तषष्टिभागाः,एकस्य चैकषष्टिभागस्य सत्को द्वौ सप्तभागी, संकलनया तस्मिन्नप्यन्तरे त्रयोदश सूर्यमार्गाः, तस्य च त्रयोद. इत्येतत् चतुर्थचन्द्रमएमबसंमिधं चतुर्थस्य सूर्यमएमलाद हिश्व शस्य सूर्यमार्गस्योपरि सप्तमाच्चन्द्रमण्डलादागन्तरमेकविंशन्छमामलस्य विनिर्गतद्विचत्वारिंशदेकषष्टिनागा एकस्य तिरेकषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागम्य त्रयः सप्तभागाः, चैकषष्टिभागस्य सत्काः पञ्च सप्तजागाः, ततः पुनरपि यथोदितं ततः सप्तमं चन्डमएमनं,तस्माच्च सप्तमाञ्चन्द्रमरमतात्परतश्वपरिमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं, तत्र च द्वादश सूर्यमार्गा लज्यन्ते, तुश्चत्वारिंशता पकषष्टिनागैः एकस्य च एकपष्टिभागस्य सरकैद्वादशस्य च सूर्यमार्गस्योपरि द्वे योजने, प्रय एकषाष्टिभागा चतुर्भिः सप्तभागैः सूर्यमण्डलं, ततो द्विनवतिसंख्यैकषष्टिभागैः योजनस्य, पकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारःसप्तभागाः, तत्र ये चतुर्थस्य चन्द्रमएमलस्य सूर्यमण्डलाद बहिनिर्गता द्वा चतुर्जिश्व एकस्य एकषष्टिभागस्य सत्कैः सप्तभागैः न्यनं यथो दितप्रमाणं चन्द्रमएमलान्तरं, ततः परमस्तीत्यनेनाऽपि द्वादश चत्वारिंशदेकषष्टिभागा, एकस्य चैकषष्टिभागस्य सत्काः सूर्यमार्गा जवन्तीति, तस्मिन्नप्यन्तरे त्रयोदश सूर्यमार्गाः, त्रयोपञ्च सप्तनागाः, तेऽत्र राशौ प्रक्तिप्यन्ते, ततो जाताः षट- दशस्य च सूर्यस्य बहिरष्टमाश्च चन्जमएमवादाक् अन्तरं त्रयचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः, द्वौ च एकस्य एकषष्टिनागस्य स- त्रिंशदेकषष्टिनागाः, ततोऽष्टमं चन्मएकलं, तस्माच्चाटमाच्चको सप्तभागौ , ततश्चतुर्थाश्चन्द्रमण्डलात्परतो द्वादशसूर्य- न्द्रमामलात्परतस्त्रयस्त्रिंशता एकषष्टिभागैः सूर्यमामलं, तत मार्गात्परतो योजनद्वयमतिक्रम्य सूर्यमएमलं, तच्च पञ्च- एकाशीतिसंख्यैरेकषष्टिनागैरूनं यथोदितप्रमाणं चन्द्रमामलामापन्जमएमलादर्वाक् अन्यन्तरं प्रविष्टं षट्चत्वारिंशदेक- न्तरं पुरतो विद्यते इति,ततः पुरतोऽन्ये द्वादश सूर्यमार्गाः,ततपष्टिभागान् द्वौ चैकस्य सत्कौ सप्तनागौ, शेष सूर्यमराभलस्यैक। स्तस्मिन्नप्यन्तरे सर्वसंकलनया त्रयोदश सूर्यमागाः, याद १1। Page #1117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) चंदविकंप अभिधानराजेन्द्रः। चंदविकंप शाश सूर्यान्नवमाच्च चन्द्रमण्डलादाक् अन्तरं चतुश्चत्वारि- त्रिंशदेकषाष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काः षट् शदेकषष्टिभागाः, एकस्थ च एकषष्टिभागस्य सत्काः चत्वारः सप्तभागाः, इत्येतावन्मात्रं सूर्यमण्डलसमिश्रं, तस्मानच त्रयोसप्तभागाः, ततः परं नवमं मामलं, तस्माच नवमाच्चम्छमाराम- दशाश्चमण्फलाद बहिःसूर्यमण्मलाबेनिर्गतं त्रयोविंशतिरेकषसात्परत एकविंशतिः एकषष्टिभागैरेकम्य च एकषष्टिभागस्य प्टिभागाः, एकस्य चैकषष्टिभागस्य सत्क एकः सप्तजागः, तत सत्कैः त्रिभिः सप्तभागैः परिहीनं यथोक्तं प्रमाणं चन्द्रमण्ड- एतावता हीनं परतश्चमण्मलान्तरं , तत्र च कादश लान्तरं,तत्र चाऽन्ये द्वादश सूर्यमार्गाः, एवं चाऽस्मिन्नप्यन्तरे त्र- सूर्यमार्गाः, द्वादशाश्च सूर्यमार्गात्परत एकएभागानां झुत्तरण योदश सूर्यमार्गाः,तस्य च त्रयोदशस्य सूर्यस्योपरि दशमाश्चन्छ- शतेन एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कस्त्रिभिः सप्तभागश्चतुर्दमरामनादर्वाक अन्तरं षष्ठं, षष्ठात चन्द्रमामादाक अन्तरं षट्- शं चम्म मल सूर्यमण्मनादभ्यन्तरं प्रविष्टम,(गुणवीस चड पञ्चाशदेकषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागम्यैकः सप्तजागः,त- त्ति) एकोनविशतिरेकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागा, तो दशम मएमलं,दशमाच्चन्द्रमामलादेकषष्टिभागस्य सत्कैः ष- शेषं षट्त्रिंशदेकषष्टिभागाः,एकस्य च एकषष्टिनागस्य सत्कामुभिः सप्तभागैः सूर्यमगडलं नतः सप्तपञ्चाशता एकपष्टिनागैरे. स्त्रयः सप्तभागा इत्येतावत्परिमाणं सूर्यमएलसंमिश्र, तस्माकस्य च एकषष्टिनागस्य सत्कैः षभिः सप्तनांगरूनं प्रागुक्त- च्चतर्दशात सूर्यमण्डलाद बहिर्विनिर्गतं सूर्यमण्डलम् एकादश परिमाणं चन्मएमसान्तर , ततः सूर्येऽपि द्वादश सूर्यमार्गा ब. एकषष्टिजागाः,एकस्य च एकषधिभागस्य सत्काश्चत्वारःसन्तभ्यन्ते इति।तस्मिन्नप्यन्तरे त्रयोदश सूर्यमार्गाः,त्रयोदशस्य मू- भागाः, तत एतावता हीनं यथोक्तं परिमाणं चन्द्रमण्डलान्तर, यमार्गस्योपरिएकादशाच्चन्मएमलादाक् अन्तरं सप्तपष्टिभा- तत्र च द्वादश सूर्यमार्गाः, द्वादशाच्च सूर्यमरामलात्परत एकषगा,एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्काः पञ्च भागातदेवं भावि- प्टिभागानां चतुर्दशोत्सरेण शतेन पचदशं चारुमण्डलं, तका सानि मध्यमानि पञ्च साधारणानि मएफलानि षटमुखचन्द्र- पञ्चदशं चन्द्रमण्मलं सर्वानिमान् सूर्यमण्मयादगभ्यन्तर मएमसान्तरेषु त्रयोदश सूर्यमार्गाः। प्रविष्टमटावेकपप्टिभागाः,शेषा अष्टचत्वारिंशदनागाः सूर्यसम्प्रति सर्वबाह्यानि पञ्च साधारणानि मण्डलानि, चतुर्यु च भएडलसंमिश्रं, तदेवं जावितानि सर्वबाह्यानि पञ्च साधारणासर्ववाद्येषु चन्झमएमलान्तरेषु द्वादश सूर्यमार्गान् विनावयिषु- नि मगमलानि,चतुषु च मर्यवाह्येषु चन्द्रमण्डलान्तरेषु द्वादश सूर्यमार्गाः। संप्रति येषु प्रागुक्तेषु अंशेषु सप्तांशा भावास्तस्माद् चन उप्पल दुगेगं, पामवयात्रीसं व दो चेव । मन्दमतीनां विशिष्टस्मरणायाऽधुना कथयति-"दो दो तेत्ती स" इत्यादि। ये द्वे अप्टमचन्ऽमालचिन्तायां त्रयस्त्रिंशतायुक्ते, बायाल पंच तेरस, दुगं च चोतीस पंच भागा य॥ यौ च प्रथमपञ्चदशचन्द्रमामलयोरप्टकावुतौ,एतेषां चतुर्णाइगतीसँग चनची-स छक्क तेवीस एकं च । मपि सप्तांशा न विद्यन्ते, किं तु परिपूर्मा पव ते एकषष्टिभागाः, इगुणवीस चन छत्ती-स तिनि एकारसेव चउर। तदेवं ततःसूर्यमालानां चन्द्रमण्मलानां च परस्परं विभादो दो तेत्तीसऽ? य, नत्थि चउएई पि सत्तंसा॥ गन्नावना, एतेषु चन्धमपमसेषु द्वौ सूर्यो , द्वौ च चन्द्रमसौ चारं चरतः । एकादशस्य चन्द्रमामलस्य चतुःपञ्चाशदेकषष्टिनागाः, एकस्य सर्वान्यन्तरे मामले वर्तमानयोईयोः च एकषष्टिभागस्य सत्को द्वौसप्तभागौ,श्त्येतत् सूर्यमण्डलाद ___ परस्परमन्तरपारमाणमाहज्यन्तरं प्रविष्टम एकषष्टिभागः,एकस्य च एकषष्टिनागस्य सत्काः नवननई य सहस्सा, कच्चेव सया हवेति चत्वाला। पञ्च सप्तभागाः, इत्येतावन्मानं सर्यमएमसंमिश्रम । अत्रार्थे च-"जत्थ न सुज्जह सोगे" इत्यत्र प्रदेश भावना कृतैवेति न भू. सूराण न आवाहा, अभितरमंमलच्छाया ॥ यः क्रियते,तदनुसारेण चोत्तरत्राऽपि स्वयं भावना भावनीया। प. सूर्ययोः परस्परमाबाधा नवनवतिः सहस्राणि षट्शतानि कादशात् तुचन्द्रमराडसाद बहिर्विनिर्गतं सूर्यमण्डलं षट्चत्वारि- चत्वारिंशदधिकानि योजनानां ६४०, तथाहि-पकोऽपि स्यों शदेकषष्टिनागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कौ द्वौ सप्तभागौ, जम्बूद्वीपे अशीत्यधिकं योजनशतमवगाह्य सर्वाभ्यन्तरे मतत एतावता हीनं परतश्चन्द्रमामलान्तरमस्तीति द्वादश सूर्य- एडले स्थितोऽपरोऽपि,ततोऽशीत्यधिकं शतं द्वाभ्यां गुण्यते, जा. मार्गा लभ्यन्ते। ततः परत एकोनाशीत्या एकषष्टिभागैरेकस्य च तानि श्रीणि शतानि षष्टयधिकानि ३६०, पतेषु जम्बूद्वीपविभा. एकषष्टिभागस्य सत्काभ्यां सप्तनागाभ्यां द्वादशं चन्द्रमण्मलं, गयोजनलकप्रभाणादपनीतेबु शेषं यथोक्तपरिमाणं भवति, यदा तव द्वादशं चन्मण्डनं सूर्यमण्डबादच्यन्तरं प्रविष्टम (बाया- तु सर्वाभ्यन्तराऽन्तरे द्वितीये मामले उपसंक्रम्य सूर्यो चार मपंच ति) द्विचत्वारिंशदेकषष्टिभागस्य सत्काः पञ्च सप्त- चरतः,तदा तयोः परस्परमन्तरं नवतियोजनसहस्राणि पशभागाः, शेषं च त्रयोदश एकषष्टिनागाः, पकस्य च एकषष्टिभाग. तानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि, पञ्चत्रिशचकषष्टिभागा योजस्य सत्कौद्वासप्तनागावित्येतावन्मानं सूर्यमण्मलसंमिश्रं, तस्मा- नस्य १६६४५-३५.६१, तथाहि-एकोऽपि सूर्यों हितीये मामले पद्वादशाच्चन्द्रमामलाद बहिर्विनिर्गतं सूर्यमण्मलं चतु- संक्रामन् द्वे योजने अष्टचत्वारिंशच्चैकषष्टिभागान चिमुच्य त्रिंशदेकषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काः पञ्च संक्रामति तथा द्वितीयोऽपि,सूर्यविकम्पस्य एतावत्प्रमाणत्वात,तच सप्तजागाः,तत एतावन्मात्रेण हीनं परतश्चन्द्रमामलान्तरं तत्र च प्रागेव नावित,ततः पञ्च योजनानि पञ्चविंशकषष्टिनागा यो. द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते, द्वादशाच सूर्यात्परतो नवतिसंस्थेरे- जनस्य, द्वितीये मामले सूर्ययोः परस्परमन्तरचिन्तायामधिकत्वने कषष्टिनागैरेकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कैः षभिः सप्त- प्राप्यन्ते,एवमग्रेतनेम्वपि मण्डलेषु जावनीयम । यदा तु सर्वाभागैस्त्रयोदशं चन्झमएमलं , तत्र प्रयोदशं चन्द्रमण्डलं ज्यन्तरान्मरामलानृतीये मगमले सूर्यो चारं चरतस्तदा तयोः सूर्यमण्मनादन्यन्तरं प्रविष्टम , ( इगतीसेग सि ) एक- परस्परमन्तरं नवनवतियोजनसहस्राणि षट्शतानि एकपश्चाश Page #1118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००५) अभिधानराजेन्द्रः । चंदविकंप दधिकानि पष्टिनागा योजनस्य २६६२१-१भ्यन्तरात्मा बाधेषु ममषु कामः सूर्ययोः परस्प रमन्तरचिन्तायां मएमले मरामले पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभांगा योजनस्य वृद्धिस्तावत् मन्तव्या यावत् सर्वग्राह्यं मएकलम् । ज्यो० १० पाहु | दविमा - चन्द्रविमान - न० । चन्द्रसत्कविमाने, जं० ७ वक० । (चन्द्रविमानस्य संस्थानादि 'जोसियविमाणशब्दे) (अधेचा मेव षोडश सहस्राणां व्यक्तिः ' बिमाण ' शब्द वदयते) ( भ्रत्रस्यदेवस्थितिः ' नि ' शब्दे वयते) विलासिणी चन्द्र विलासिनी स्त्री० [चन्द्रवन्मनोदयशीखायाम, रा० । जं० । जी० । चंद संच्छर-चन्द्र संवत्सर- पुं० । चान्द्रमासैर्निष्यन्ने प्रमाण संवरसरे, चं० प्र० १० पाहु० सू० प्र० । ता एसि णं पंचण्डं संत्रद्धराणं दोचस्स चंदवच्चरस चंदे मासे तीसती ते गणिजमाने के लिए रात्रिंदिवम्मेणं मुहुत्ते आहिते विवदेज्जा ? ता एगुणती राविंदियाई, बत्तीसं च भागा रातिदियस्स, रात्रिंदियग्गेणं आहितेति वदेज्जा । वासेां के लिए मुदुग्गेणं आहितेति वदना ? वा अड पंचासीए मुदुत्तस ते तीसं च वावट्ठिनागे मुहत्तस्स मुहुत्तमोहितेति वदेज्जा ता एस णं अट्ठा दुवास खत्तकमा चंदे संवच्छ, ता केणं केवातिए रातिदियम्गेणं आदिवावि वदेज्जा ? | ता तिमि चउप्पले रातिंदियसते दुवाल सग्गा बावभागा राईदियस रातिंदियग्गेणं हिते ति वदेना । ता से केवति मुत्तग्गेणं हितेति वदेज्जा ? । ता दस मुदुत्तसहस्साई अब प्रगुणबी मुहुत्तसते पणासं च बाब डिभागे मुदुचस्स मुदुत्तम्गेणं आहिता ति वदेजा || "ता एसि णं" इत्यादि सुगमम् । भगवानाह - "ता एगूणतीसंइत्यादि। एकोनत्रिंशव रात्रिन्दिवानां द्वात्रिंशद्वाजागा रात्रन्दिवस्तापरिमाण पात इति वदेत् तथाहि युगे चन्द्रमासा प्रागेव भावितं ततो युगकामामा दशानामदोरान त्रिशदधिकानां षष्ट्या भागे हृते लब्धा एकोनविंशद होरात्राः, एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशत् द्वाषष्टिभागाः २९ । ३२ । 61 ता से णं " इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भगवानाह-'ता अठ " इत्यादि । अष्टौ मुहूर्तशतानि पञ्चाशीत्यधिकान्येकस्य च मुहूर्तस्य विंशत् द्वाषष्टिनामा, एतावत्परिमाणा 64 मासो मुहूर्तापायात इति । तथादि चान्द्रमासपरिमाणमेकोनत्रिंशदोरान एकस्य च अहोरात्रस्य द्वात्रिंशस् द्वाषष्टिभागाः, तत्र सवर्णनार्थमे कोनत्रिंशद्व्यहोरात्रा घाष गुण्यन्ते, गुणयित्वा च उपरितनात् द्वात्रिंशत् द्वाषष्टिनागाः प्रक्विष्यन्ते, जातान्यष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि द्वा षष्टिभागानां १८३० तत पतानि तान्जानिय तुपञ्चाशत्सहस्राणि नवशतानि मुहूर्तानागानाम्। ४६० तेषां भागो पञ्चाशीत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य त्रिंशत् चंदसिरी द्वाषष्टिभागाः ८८५३० "ता एस णं श्रट्टा " इत्यादि प्रावावनीयम् । चं० प्र० १२ पाहु० । ( श्रादित्यचन्द्रसंवत्सराः 'संवच्छर ' शब्दे वक्ष्यन्ते ) अत्र दिनमानम दस्त संरस्स एगमेगे उक्त एगुणसडिराईदिया राईदियग्गेणं पत्ता । "इस " इत्यादि संवत्सरो हानेकविधः स्थानाङ्गादिष् क्तस्तत्र यश्चन्द्रगतिमङ्गीकृत्य संवत्सरो विवक्ष्यते स चन्द्र एव । तत्र च द्वादश मासाः षट् च ऋतवो भवन्ति । तत्र चैकैक ऋतुरेकोनषष्टिरात्रिंदिवाग्रेण जवति । कथम ?, एकोनत्रिंशच्च द्विषष्टिनामा अहोरात्रस्येत्येयं प्रमाणः कृष्णप्रतिपदामाज्य पो र्णमासी परिनिष्ठितचन्द्रमासो जयति, ज्यांचाज्यातुर्भ धति । तत एकोनषष्टिरहोरात्रात्यसौ भवति । यश्चेद द्विषष्टिभागद्वयमधिकं तत्र विवक्षितमा ०५०। एकोनत्रिंशदिना निशिच्च दिवाना दिवसस्येत्येवं प्रमाणः २६ ॥३२॥ ६२, निद्वात्रिंशच्च द्विषष्टिजागा कृष्णप्रतिपदारथः पौर्णमासी परिनिष्ठितचन्द्रमासः तेन मासेन द्वादशमासपरिमाणश्चन्द्र संवत्सरः, तस्य च प्रमाणमिदं त्रीणिश तान्या चतुःपञ्चाशदुत्तराणि विभाग ३४४ १२ । ६२ । स्था० ५ ० ३ उ० । पुमिपरिया पुरण, वारस संवच्छ से हवइ चंदो | द्वादशसंख्याः पोर्णमासीपरावत एकादसंवत्सरो म वति । एकश्च पौर्णमासीपरावर्त एकश्वान्द्रो मासः, तमिन्द्र मासे रात्रिन्दिय परिमाणचिन्तायामेरा त्रिन्दियानि द्वात्रिंशच्च द्वापष्टिनामा रात्रिन्दिवस्य पा दशभिर्गुते जातानि त्रीणि शतानि चतुःपश्चाशदधिकनि रात्रिन्दिवान, घाश च द्वादिनागा रात्रिन्दिवस्य प रिमाणश्चान्द्रः संवत्सरः । ज्यो० २ पाहु० । ( 'संवच्चर' शब्दे चैतद् विवरिष्यते ) ( ' आउट्टि ' शब्दे द्वितीयभागे ३० पृष्ठे चन्द्रादित्यावृत्तय उक्ताः ) " नक्षणमस्य - ससि सगलपुष्पमासी, जोएइ विसमचारि णक्खत्ते । कमुओ बहूदओ या तमादु संपच्चरं चंदं ॥ , ( ससिसि) विनक्तिलोपात् शशिना चन्द्रेण सकलपौमासी समस्तराका, यः संवत्सर इति गम्यते । अथवा यत्र श. शी सकलां पौर्णमासीं योजयति, आत्मना संबन्धयति, तथा विषमचारीणि यथा स्वतिथिष्ववर्तीनि नक्षत्राणि यत्र सविपचारिक तथा कटुकोऽतिशीतोष्णसङ्गावात् बद कृत्तसं वत्सरं चन्द्र, चन्द्रचारलक्षणलकितत्वादिति । स्था०५०३३०| चंदसाला- चन्द्रशालाखी० प्रासादोपरितनशालायाम प्र - । श्र० १ श्र• द्वारा। जं० । ज्ञा० । शिरोगृहे. जी० ३ प्रति० । चंदसिंग - चन्द्रशृङ्ग- न० । चतुर्थदेवलोकस्थे स्वनामस्या विमाने, स० ३ सम० । । - चंदसिंह चन्द्रशिष्ट-म० चतुर्थे देवलोकस्थे स्वनामस्या विमाने, स० ३ सम• । चंदसिरी- चन्द्रश्री-स्त्री० । द्वितीय कुलकरस्य चक्षुष्मतो मा Page #1119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) चंदसिरी अभिधानराजेन्द्रः। चंदायण तरि, प्रा. चू०१०। पूर्वनवे चन्द्रस्याप्रमहिण्या मातरि, चंदागमणपवित्जत्ति-चन्यागमनपविभक्ति-न० : वीरवन्दनार्थ झा०२ श्रु. १०। समागतस्य चन्द्रस्याजिनयात्मके नाटयनेदे, रा०। चंदसरदंसारणिया-चन्द्रसर्यदर्शनिका-स्त्री० । सद्यो जातस्य चंदागारोवम-च-डाकारोपम- त्रिचन्डाकारश्चन्छाकृतिः स बालस्य तृतीये दिवसे क्रियमाणे चन्सूर्यदर्शनानिधे उत्स उपमा येषां तानि तथा । चन्द्रमएमलवद् वृत्ते, जी० ३ वविशेषे, भ० ११ श० ११ उ० का0 ('चंददरिसणिया' शब्दे प्रति० । रा। १०७१ पृष्ठे तविधिः) चंदसरपासणिया-चन्धसूर्यदशनिका-स्त्री० । अन्वर्थानुसा चंदाणण-चन्जानन-पु.। जम्बूद्वीपे ऐरवतवर्षेऽस्यामवसर्पिरिणि सद्यो बालस्य तृतीयदिवसोन्सवे, विपा०१ श्रु०१०। एयां जाते प्रथमतीर्थकरे, सति । श्राव। चंदमूरि-चन्द्रसरि-पुं० । आर्यवज्रस्वामिशिष्यश्रीवजसेनसूरी चंदाणणा-चन्जानना-स्त्री० । चवदाननं मुखं यासां ताः। णां शिष्ये, यतश्वनकुलं विनिर्गतम् । "श्रीवासेनसक-स्त जो० ३ प्रति० । राचन्ऽमुख्याम, नेमिकुमारस्य राजीमत्याः त्पदपूर्वाचूिलिकाऽऽदित्यः। मूलं चान्कुलस्या-जनि च ततश्व प्रायाः स्वनामख्यातायां सख्याम, कल्प०७क्षण | स्वनासरिगुरुः" ॥१॥ ग.४ अधिसच वैक्रमसंवत्सराणां हि. मख्यातायां शाश्वतजिनप्रतिमायाम, सा चोत्कर्षतः पश्चधनु:तीयशतकेऽभवदिति पट्टावलिकादर्शनात प्रतीयते। निरयावालि शतानि जघन्यतः सप्तहस्ता । रा०1 कानां श्रुतस्कन्धस्य विवरणकर्तरि , स च "वसुलोचनरवि- चंदाज-चन्दान-पुं० । अवसाण्यामकादशे कुल करे, जं०२वक्का वर्षे,श्रीमच्छीचन्मसूरिभिब्धा । श्राभडवसाकवसती,निरयाव भ० । " चंदाभो ति सामन्नं स व ताव सोमलेसा विसेसो लिशास्त्रवृत्तिरियम् ॥१॥" इति (नि.५वर्ग) १२२८ बैक्रमवर्षे चंदपियणम्मि दोहिलो चंदाभोयति, " चन्छप्रभे तीर्थकरे, पासीत् । निशीथाध्ययनस्य विंशतितमोदेशसत्कसूत्राणां विशे. भा० चू०२०। पञ्चमदेवलोकस्थे विमानभेदे,808 सम० पव्याख्याकृति श्रीशीलभसूरीणां शिष्ये च । (सच "भीशी अभ्यन्तरपश्चिमायाः कृष्णराजेरने लोकान्तिकविमाने, पत्र नभसूरीणा, शिष्दै श्रीचन्द्रसाराभः । विशकोहेश व्याख्या, गदेतोया लोकान्तिकदेवा निवसन्ति । स्था०८०। हब्धा स्वपरहेतवे । वेदावरुद्रयुक्ते, विक्रमसंवत्सरेतु मृगशीर्षे। माघप्तितद्वादश्यां, समर्थितेयं रवौ वारे॥॥” इति स्वोल्लेखात चंदायण-चान्द्रायण-न० । चण वृद्धिनाजा कयभाजा व वैक्रमसंवत् ११७४ वर्षे जके, इति निरवापलिकानिशीथाध्यय | सहायते गम्यते यत्तच्चान्द्रायणम | चन्प्रतिमायाम्, (द्वा०)। नयोरके पव व्याख्याकृत् इति प्रतीयते , उभयत्र रब्धेतिपदप्र- । एकै वर्षयेद् ग्रासं, शुक्ने कृष्णेच हापयेत् ।। योगात्, चतुः पञ्चाशद् वर्षारयन्तरं दीर्घायुषः कथञ्चित्सम्भ तुजीत नामावास्याया-मेष चान्डायणे विधिः ॥१ना वत्येव।) अयश्च मनधार्यभवदेवशिष्य हेमचन्छसूरिशिष्यविजयसिंहसूरिशिष्योऽनवदिति, तत्कृतसंग्रहणीरत्नग्रन्थोक्तः, अ (रकैकमिति) एकैकं वर्द्धयेत् प्रासं कवनं शुक्ल पक्षे प्रतिनेनावश्यके प्रदेशव्याच्या नाम टिप्पनकमपि कृतमस्ति, विक्र पत्तिथरारज्य यावत् पौर्णमास्यां पञ्चदश कवलाः, कृष्णे च मसंवत १२२२ वर्षे तृतीयोऽपि चन्जसरिः पाक्तिकमूत्रटीका पके हापयेत् हीनं कुर्यादेकैकंकवलं,ततो तुजीत न अमावास्याकारकस्य यशोदेवसूरेः शिभ्य आसीत् । जै००। यां, तस्यां सकलकवलक्षयादेष चान्डायणश्चन्द्रेण वृद्धि जाजा कयनाजाच सहायते गम्यते यत् तत् वान्कायणं,तस्यायं विधिः चंदसूरोतरण-चन्धोवतरण-न । समवसरणभूमौ श्रीवी. करणप्रकार इति । द्वा० १२ द्वा० । रस्वामिवन्दनार्थ सविमानयोश्चन्द्रसूर्ययोरवतरणे.कल्प०५कण। इयं च चन्द्रायणप्रतिमा यवमध्या स्थावज्रमध्या विपासानिका (तद्वक्तव्यता 'सूरचंद' शब्दयोरवसेया) ('उत्त च, तत्राद्यां तावदर्शयन्नाहरणं चंदसूराणं' 'अच्छेर' शब्द प्रथननागे २०० पृष्ठे आवेदितम) चंदसूरोवराग-चन्छसूर्योपराग-पुं० । ग्रहणे , “चंदसूरोषरागो सक्कम्मि पमिवयाओ, तहेव वुढीजाव पमरस । गहणं भन्नति" नि० चू० १६० ।। पंचदसपमिवयाहिं, तो हाणी किएहपमिवक्खे ॥१॥ चंदसेण-चन्छसेन-पुं० । श्रीऋषभजिनेन्द्रस्य षट्चत्वारिंशे | डात शक्रपके प्रतिपदः प्रथमतिथेरारज्य तथैव तेनैव प्रकारेपुत्रे, कल्प०७ कण । स्वनामके सूरौच, अयमाचार्यः विक्रम ण एकाघेकोत्तरलकणेन वृद्धया प्रतिदिनं भिक्काणां कवलानांच संवत् १३०७ मिते विद्यमान आसीत, प्रद्युम्नसूरेरयं शिष्य उत्पा वर्कनेन यावत्पश्चदश भिवाः कवलान्बा गृह्णाति ( पंचदसपदसिद्धिनाम्नो ग्रन्थस्य कर्मा । जै०६०। डिवयाहिं ति) पश्चदश्यां पौर्णमास्यां प्रतिपदि च कृष्णपक्वप्रवंदसेहर-चन्ऽशेखर-पुं। हरिश्चनसमकालीने नृपे, यो हि। थमतिथौ (तो त्ति) ततोऽनन्तरम-(हाणि त्ति ) एकैकशोऽ. नदिन भिकादिहानि करोति कृष्णप्रतिपके. कृष्णस्वरूप शकपकीणद्रव्यं हरिश्चन्; याचमानेन कुलपतिना वसु लकं याचनी। तापेकया द्वितीयपक्षे इत्यर्थः । तत्र चामावास्यायामका भिका य इत्युक्तः । ती• ३८ कल्प.। श्रीसोमतिनकसूरीणां शिष्ये ।। च, श्रीसोमप्रभसुरेः पट्टे श्रीसोमतिनकसूरीडास्तेषां च ये| कवलो वा स्यादिति गाथार्थः ॥ १०॥ विनेयास्तत्र श्रीचन्द्रशेखरः प्रथमः । ग० ४ अधि । अथ वज्रमद्ध्या, तामाहचंदा-चन्द्रा-स्त्री. । चन्द्वीपे चन्द्रदेवस्य राजधान्याम, जी। किएहे पमिवऍ पार-स गगहाणीयों जाव इको उ । ३ प्रतिः । (तक्तव्यता 'चंददीव' शब्दे अस्मिन्नेव जागे अमवस्मपमिवयाहिं, वुट्टी पाथरस पुनाए ॥२०॥ १०७१ पृष्ठे उक्ता) कृष्णे पक्षे प्रतिपदि प्रथमाती पञ्चदश कवादीन गृह्मानि Page #1120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदायण अभिधानराजेन्द्रः। चंपगमेय तत (पगहाणीओ सि) एककालादिहानिः प्रतिदिनं क्रियते, विणयं प्रायरियगुणे, सीसगुणे विणयनिग्गहगुणे । बावदेकस्तु एक एव कवलादिरमावास्याप्रतिपदोः प्रतीतयो- नाणगुणे चरणगुणा, मरणगुणविहिं च सोळणं ॥१७॥ स्ततो वृकिः कवलादीनामनुदिनं क्रियते, यावत्पञ्चदश कवला- तह सित्तह काउज्जे, जह मुच्चह गम्भवासवसहीणं । पः पूर्णायां पूर्णमास्यां नवन्तीति गाथाथः॥२०॥ मरणपुणम्भवजम्मण-दुगारण विणिवायगमणाणं" ॥१७॥ शह तपसि मिक्वाऽऽदि प्राह्यतयोक्तमतस्तल्लकणमाह- द०प०४प.। एत्ता जिक्खामाणं, एगा दत्ती विचित्तरूवा वि । चंदिमा-चन्धिका-स्त्री० । “चन्धिकायां मः" ८।१।११। कुक्कमिअंमयमेतं, कवास्स वि होई विमेयं ॥२१॥ चन्रिकाशब्दे कस्य मो भवति, इति मः। प्रा०१पाद।दप.। श्ता विषक्तिततपास्वरूपाभिधानानन्तरंभिक्षामान,वाच्यमिति | वन्द्रज्योत्स्नायाम्, शा. १७०८० शेषः । तदम्-एका असहाया, दत्तिर्भकप्रक्षपरूपा, विचित्ररू- | चंदिमाइय-चाधिक-पुं० । चन्द्रदृष्टान्तप्रतिपादके प्रथम भुतपाऽपि बह्वल्पैकानेकलव्यस्वन्नावतया नानास्वभावाऽपि, न के- स्कन्धस्य ज्ञाताध्ययने, आव.४० प्रा०च.।प्रश्नः। वसमेकस्वनावेति । अथ कवलमानमाह-कुकुट्यएमकमात्रं क | चंदिलो-देशी-तापिते, देना.३ वर्ग । बलस्याऽपि भवति विकेयमिति प्रतीतं, नवरं मानमिति वर्तते इति गाथार्थः ॥२१॥ चंउत्तरवमिंसग-चन्घोत्तरावतंसक-नाचतुर्थे देवसोकस्ये स्वहैव विशेषमाह नामख्याने विमाने, स०१ सम। एतं च कीरमाणं, सफल परिसुधजोगनावस्स । चंदेरी-चन्द्रेरी-स्त्री० । खनामख्यातायां नगाम, यत्राजितणिरहिगरणस्स णेयं, इयरस्स ण तारिसं होई॥ ॥ स्वामी प्रतिमारूपेण पूज्यते । ती०४५ कल्प। पता एतत्पुनरनन्तरोतं तपः क्रियमाणं विधीयमानं सफल चंदोज-देशी- कुमुदे, दे० ना०३ वर्ग। मोकादिफलं, शेयमिति योगः ; परिशुद्धा निदोषा योगा व्या-चंदोत्तर-चन्घोत्तर-न। कौशाम्या नगा बदिः स्वनामख्यापारा जावधाध्यवसायो यस्य स तथा, तस्य, एतदेव स्पष्टतरमाह-निरधिकरणस्य गुरुतरारम्भवर्जितस्य निकलहस्य बा अयं ज्ञातव्यम, तिरस्य साधिकरणस्य न नैवं तादृशं, यारशं चंदोयर-चन्मोदर-पुं० । चक्रपुराधिपस्य बनायुधस्याङ्गजे निरधिकरणस्य फलमिति गम्यते, भवति स्यादिति गाथार्थः। इन्द्रपुर्यधिपपोत्तरनृपतिसुतायाः सलीलेहायाः पत्यो बेता॥२२॥ पञ्चा०१६ विवाचबस्योत्तरतो दकिणतश्च षभिः व्यपर्वते मलयपुरे किरणवेगस्य नरपते राजसिंहासनेऽनिपनिर्मासैगमने, ज्यो०११ पाहु. । (तत्प्रमाणम् 'अयन' शम्दे विक्ते भानुसूरीणां शिष्ये, ध०२०। प्रथमभागे ७५१ पृष्ठे उक्तम् । तथा 'चंदमंमल' शब्द ऽस्मिन्नेव चंदोवग-चन्झोपक-न० । कुशासम्बननिमिचे परिवाजकोपभागे १००१ पृष्ठेऽप्युक्तम) करणे, स्था.४ ग०२ उ०। चंदालग-चन्छालक-न० । देवतार्च निकाचर्य ताम्रमये मथुरा-चंदोवराग-चन्धोपराग-गुं० । चन्यस्य चन्द्रविमानस्य उपराप्रसिद्ध भाजने, सूत्र०१७०४०२३.। गोराधिमानतेजसोपरजनं चन्द्रोपरागः ।खा० १० ग। चंदावली-चन्द्रावली-स्त्री० । तमागादिषु जलमध्यप्रतिविम्बित | चन्द्रग्रहणे, न.३ श०६०।अनु०। चंपग-चम्पक-पुं० । पुष्पप्रधाने स्वनामख्याते वृक्षविशेष, सचन्छपड्डी, रा०। जी०।जं.प्रा०म०। सुवर्णचम्पका काठचम्पकति द्विविधः । जं० १ बका। चंदावलीपविजक्ति-चन्शावलीमविभक्ति-न। चम्बावलीप्र वारा स्थान प्रा० म०कल्पाचा आव.। विभागाभिनयात्मके नाट्यभेदे, जी०३ प्रतिकाज। भ.प्रका । जी•ाविंशतितमजिनस्य किम्पुरुषाणांच चंदाविज्मय-चन्धावेध्यक-न । चन्द्रो यन्त्रपुरालिकालिगो चम्पकश्चत्यवृतः। प्रभ०२ आश्रद्वार । स०। तत्पुप्पे,नात नको गृह्यते,तथा प्रामदिया विध्यते शते आवेभ्यं, तदेवावे. स्वर्णवत्पीतं भवति। प्रम०२ आश्रद्वार। जम्बूद्वीपस्य विजय ध्यक,चम्बलकणमावेश्यकं चन्झावोन्यकमाराधाबंधे,तदुपमान- द्वारसत्कविजयाभिधानराजधान्याः पश्चिमदिग्वर्तिचम्पकवनमरणाराधनप्रतिपादके अन्यविशेषे च । तच्च प्रकीर्णकरूपम स्याधिपती देवे, पुं० । जा०३ प्रति०। सत्कालिकश्रुतभेदः । पा०।। चंपगकसम-चम्पककुसुम-न । सुवर्णचम्पकत्वचि, मी०३ तच्चेदम् प्रति०। प्रका। 'नामिऊण नमोकारं, जिणवरवसदस्स बद्धमाणस्स। संथारम्मि निवकं, गुणपरिवाडि निसामेह ॥१॥ चंपगगुम्म-चम्पकगुन्म-न । हस्वस्कन्धखडकापडपत्रपुष्पफएस किराराहणया, एस किर मणोरहो सुविहियाणं । लोपेतेषु चम्पकवृक्षेषु, ०२ वक्का एस किर पच्छिमंते, पमागहरणं सुविहियाणं ॥२॥ चंपगनदी-चम्पकमा -श्री० । सुवर्णचम्पकत्वचि, प्रका भगदणं जहा ण, कयाण अवमाणयं व अज्माणं । १७ पद । जं। मचाणं च पडागा, तह संथारो सुविहियाणं" ॥३॥ चंपगपिय-चम्पकप्रिय-वि०। यस्य चम्पकपुष्पं प्रियं तस्मिन्, श्त्याधुपक्रम्य संस्तारकविधिरुतः । ६०५. ३५० । माव.३०। "श्य समप्पश्श्य मो, पञ्चज्जामरणकालसमयम्मि । मो हुन सज्जा मरणे, साभाराहमो भणियो ॥१७॥ चंपगभेय-चम्पकजेद-पुं० । सुवर्णचम्पकच्छेदे, जी०३ प्रातिका २७५ Page #1121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०ए०) चंपगमाला अन्निधानराजेन्द्रः। चंपिज्जिया चंपगमाला-चम्पकमाला-स्त्री०। ६ त० । स्वर्णचम्पकनिर्मि-| मानः प्रतिषिध्य आर्यया जनन्या क्रमेण महावृषभस्य यौवनवा तायां मामायाम्, स्त्रीणां कांगभरणे, दशाकरपादके पक्ति कदशादर्शनाजातः प्रत्येकबुझः , सिकिं चाससाद । ६। प्रसकन्दोभेदे च । वाच । “असुश्हाणे पडिया, चंपगमाला स्यां चन्दनबाझा दधिवाहननृपतिनन्दना जन्म उपलेने,या किया न कीरईसीसे॥' आव० ३ ० ('किइकम्म'शब्द अस्मिन्नेव जगवतः श्रीमहावीरस्य कौशाम्न्यां सूर्पकोणस्थकुल्माषैः भागे ५१७ पृष्ठे ऽस्या व्याख्या ) पारणाकारुण्यातू पञ्चदिनोनषएमासाऽवसाने व्यक्केत्रकाल भाषाभिग्रहानपूरयत् । ७ । अस्यां पृष्ठचम्पया सह श्रीवीरस्त्रीचंपगलया-चम्पकता-स्त्री०। चम्पका दुमविशेषाः, लतास्ति णि वर्षारात्रसमवसरणानि च । । अस्यामेव परिसरे श्री. र्यक्शाखाः, प्रचाराभावात्, चम्पकानां लतास्तनुकास्त एव । श्रेणिकसूनुरशोकचलो नरेन्डः कूणिकाऽपराख्यः श्रीराजगृह सताकृतिषु चम्पकवृक्केषु, ज०१ वक० । औ०। जनकशोकाद्विहाय नवीनां राजधानी चम्पामचीकरत् ।। अस्याचंपगवमिंसय-चम्पकावतंसक-पुं० । सौधर्मादिविमानानां म-1 मेव पाएमुकुलमएलनो दानशौरमेषु दृष्टान्तः श्रीकर्णनृपतिःसाध्यदेशवर्तिनि अन्यतमेऽवतंसके, प्रशा०२ पद । रा०। म्राज्यश्रियं चकार , दृश्यन्ते चाद्यापि तानि तानि तदव दानस्थानानि शृङ्गाटचतुष्कादीनि पुर्यामस्याम् । १० । अस्यां चंपरमाणिज्ज-चम्पारमणीय-न । कुमाराख्यसंनिवेशस्य बहिः सम्यग्दृशां निदर्शनं सुदर्शनश्रेष्ठी दधिवाहनभूपस्य राझ्याऽजयास्वनामख्याते उद्याने, प्रा. चू० १ अ० । प्रा०म० । ख्यया संनोगार्थमुपसर्ग्यमाणः वितिपतिवचसा वधार्थ नीतः चंपा-चम्पा-स्त्री० । अङ्गाख्यजनपदराजधान्याम, आव. १ स्वकीयनिष्कम्पशीलसंपत्प्रभावाकृष्टशासनदेवतासान्निध्यात् शूप्र० प्रा० म० । कल्प० । सुत्र । झा० । स्था०। प्रज्ञा० । लं हैमासिंहासनतामनैषीत , तरवारिं च निशितं सुरभिसुमपश्चा० । प्रय० । ती प्रा.क। अन्त । चम्पानगा हि नोदामानयत् । ११ । भस्यां च कामदेवः श्रेष्ठी श्रीवीरस्योव्याख्या प्राप्तेः पञ्चमशतकस्य दशम उद्देश तक्ता । भ०५श. पासकाग्रणीरष्टादशकनककोटिस्वामी गोदशसहस्रयुतषस्गो१० । पञ्चा० । कुलाधिपतिर्भापतिरभवत् , यः पोषधागारस्थितो मिथ्यातत्कल्पश्चेत्थम् हरदेवेन पिशाचगजभुजगरूपैरुपसर्गितोऽपि न कोभमभजत , श्लाघितश्च नगवताऽन्तःसमवसरणम् ॥ १२ ॥ अस्यां विहरन "कृतऽनयभङ्गाना-मङ्गानां जनपदस्य नूषायाः। चम्पापुर्याः कल्पं, जल्पामस्तीर्थपुर्यायाः " ॥१॥ श्रीशय्यम्भवसूरिश्चतुर्दशपूर्वधरः स्वतनयं यमनिकानिधान राजगृहागतं प्रव्राज्य तस्यायुः षण्मासावशेषं श्रुतज्ञानोपयोगेनामस्या द्वादशमजिनेन्ऽस्य श्रीवासुपूज्यस्य त्रिभुवनजनपूज्यानि ऽऽकलय्य तदध्ययनार्थ दशवैकालिकं पूर्वगतानियूंढवान् , गर्नावतारजन्मप्रव्रज्याकेवलज्ञाननिर्वाणोपगमलकणानि पञ्च क तत्रात्मप्रवादात् षट्जीवनिकां कर्मप्रवादात पिएमैषणां सत्यप्रव्याणकानि जझिरे ।। अस्यामेवश्रीवासुपूज्यजिनेन्द्रपुत्रमजवनृप घादाघाक्यशुझिम् अवशिष्टाध्ययनानि प्रत्याख्यानपूर्वतृतीयवतिपुत्री अक्ष्मीकुक्किजाता रोहिणी नाम कन्याऽष्टानां पुत्राणामुपरि स्तुन इति । १३ । अस्यां वास्तव्यः कुमारनन्दी सुवर्णकारः जके,साच स्वयबरे अशोकराजन्यकएठे वरमालां निक्षिप्य तं परिणीय पट्टराझी जाता,क्रमेणाप्टौ पुत्रांश्चतस्रश्च पुत्रीरजीजनत् ।। स्वविभववैभवाभिनूतधनमदोऽशकृशानुप्रवेशात्पञ्चशैला-- अन्यदा वासुपूज्यशिष्ययो रूप्यकुम्नस्वर्णकुम्भयोर्मुखादरपुःख धिपत्यमधिगत्य प्राग्भवसुहृदच्युतविबुधवोधितचारुगोशीर्षस्योपशम हेतुं प्रारजन्मचीर्ण रोहिणी तपः श्रुत्वा सोद्यापनविधि चन्दनमयीं जीवन्तस्वामिनी सालङ्कारां देवाधिदेवश्रीमहावीरप्राचीकटन्मुक्ति सपरिच्छदाऽगच्छत् ।३। अस्यां करकण्डनाम प्रतिमा निर्ममे । १४ । अस्यां पूर्वभद्रे चैत्ये श्रीवीरोव्याकरोद्योधेयो भूमण्डलाख एडलः पुराऽसीद्यः कादम्बामटव्यां कलि ऽष्टापदमारोहति स तद्भव एव सिद्ध्यतीति ॥१५॥ अस्यां पालिगिरेरुपत्यकावर्तिनि कुएमनाम्नि सरोवरे श्रीपार्श्वनाथं पद्मस्था तनामा श्रीवारोपासको वणिक्, तस्य पुत्रः समुध्यात्रायां समुझे वस्थायां विहरन्तं हस्तिव्यन्तरानुभावात्कलिकुण्डतीर्थतया प्र. प्रसूत इति समुहपालो वध्य नीयमानं वीक्ष्य प्रतिवुकः,सिद्धिच तिष्ठापितवान् ।। अस्यां सुभषा महासती पाषाणमयविटक प्रापत् ।१६। अस्यां सुनन्दः श्राद्धः साधूनां मलदुर्गन्धं निन्दिपाटसंपुटपिहितास्तिस्रः प्रतोली शीलमाहात्म्यादामसूत्रतन्तु त्वामृतः कौशाम्ब्यामिन्यसुतोऽभूद् व्रतं चाऽग्रहीदुदीर्णः पुर्गबेहितेन तित उना कूपाजलमाकृष्य तेनानिषिच्य सप्रभावमु न्धः कायोत्संगण देवतामाकृष्य स्वाङ्गे सौगन्ध्यमकार्षीत् ।१७। दघाटयत्,एका तु तुरीया प्रतोली अन्योऽस्ति,याकिल सत्सहशी अस्यां कौशिकायशिष्याङ्गर्षिरुषकास्यानसंविधानकं सुजासुचरित्रा भवति, तयेयमुद्घाटनी येति भणित्वा राजादिजनसमकं तप्रियङ्मवादिसंविधानकानि च जझिरे । १८ । इत्यादिसंतथैव पिदितामेवास्थापयत, सा च तहिनादारभ्य चिरकाले विधानकरत्नप्रकटनानावृतिनिधानामयं पुरी,अस्याश्च प्राकाराभतथैव रया जनतया,क्रमेण विक्रमादित्यवर्षेषु षष्यधिकत्रयोदश. त्तिप्रियसखीव प्रतिकणमालिङ्गाति पावनधनरसपूरितान्तरा शतेवतिक्रान्तेषु १३६० लकणावतीहम्मीरश्रीमुरत्राणसमदीनः सरिद्वरा प्रसृतवीचिभुजानिः।१६"उत्तमतमनरनारी-मुक्तामणिशङ्करपुर पुगोपयोगि पापणग्रहणाध प्रतोली पातयित्वा कपाट धोरणिप्रसवशुक्तिः। नगरीविविधाद्भुतव-स्तुशालिनी मालिनी संपुटमग्रहीत्।। अस्यां दधिवाहन नृपतिमहिन्या पद्मावत्या सह जयति ॥२० ।। जन्मभूर्वासुपूज्यस्य , तद्भक्त्या श्रूयते बुधैः ।चनदीहर पूरणार्थमनेकपाऽऽरूढः संचरन् स्मृतारण्यानीविहारेण का। म्पायाः कल्पमित्याहुः,श्रीजिनप्रभसूरयः॥२१॥" ती०३५ कल्प । रिगणानां प्रति वजना अपवाहिनः स्वयं ताशाखामालम्ब्य स्थितः, चंपाकमम-चम्पककुसुम-न० सुवर्णचम्पकपुष्प, रा०। जी01 करिणि पुनः संचरिने व्यावृत्येमामेव स्वपुरीमागमत, देवी चामामण्यांतदामदेवारपानीमगात् । तदवतीय क्रमेण मनं सपवे. | चंपिन्जिया-चम्पीया-स्त्री० । स्थविराद् भव्यशसो निर्गतस्य सच करकगसुर्नाम क्षितिपतिरजनि, कलिनेषु पित्रा सार्दै युभ्य-। महुपातिकगणस्य प्रथमशाखायाम, कस्पक्षण। Page #1122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। चक्रवट्टि (ण) चकोर-कोर-पुं० परतपादे दीर्घग्रीवे जलचरपक्षिणि, नि० चक्कबाल विक्खंज-चक्रवातविष्कम्न-पुं० । चक्रवालस्य विष्कखू० १७४०प्रश्न म्भः । पृथुत्वे, स्था० २ ग. ३ उ०। चक्क-चक्र-न। “सर्वत्र लवरामवन्" ८।२।७६ । इति चक्कवालसामायारी-चक्रवाससामाचारी-स्त्री० । चक्रवत्प्रतिपदं रसोपाः। प्रा.२पाद । नाजिप्रोतारबद्ध वृत्ताकृती पदार्थ, प्रश्न.३ भ्रमन्तीति चक्रवालविषया सामाचारी। ध.३ अधिः । निआश्र द्वार । यथा रथाङ्गमरघट्टानं वा । औ० । प्रश्न । सम- त्यकर्मसामाचार्याम्, पं०व०४ द्वार। स्तायुधातिशायिदुर्दमरिपुर्विजयकरे , प्रव० २१२ द्वार । रत्न- सांप्रतं दशधा पदविभागसामाचारीस्वरूपप्रदर्शनायाssrमृतमहरणावशेषे , स्था०२ ठा० ४ उ० । ओघ० । आव०। "इच्छा मिथ्या तथाकारा, गताऽऽवश्यनिषेधयोः । याबमा (मनुष्यभवदार्लभ्ये चक्रदृष्टान्तो "मणुस्स" श आपृच्छा प्रतिपृच्ग च, चन्दना च निमन्त्रणा ॥ ३३ ॥ देवायसे)वासुदेवानां सुदर्शनाभिधानं चक्रम् । उत्त०११ अ.। उपसंपच्चेति जिनैः, प्रज्ञप्ता दशधाऽभिधा। चक्राकारे शिरोभूषणविशेषे, जं० २वक० । आभरणविशेष, नेदः पदविभागस्तु, स्यादुत्सर्गापवादयोः" ॥ ३४॥ (युग्मम) भौ० । चक्रवाके, कल्प०३ कण । पक्तिविशेषे, पुं० । जी०१ प्रति० । प्रज्ञा । सैन्ये, राष्ट्र, दम्भभेदे , जलावर्ते, प्रामजाले, इति अमुना प्रकारेण जिनैर्दशधाऽभिधा दशधाख्या सामाचारी प्रशप्ता प्ररूपिता। (ध.) चक्रवत्प्रतिपदं भ्रमन्तीति तगरपुष्पे, व्यूहभेदे, वाच। चक्रवाझविषया दशधा सामाचारी,एतत्सेवकानां च महाफलम, चक्ककंत-चक्रकान्त-पुं० । अन्तिमसमुनस्याधिपती, ही। यतः-" एवं सामायारि, जुजुत्ता चरणकरणमाउत्ता। साहुं खचक्कजोहि (D)-चक्रयोधिन्-पुं० । चक्रेण युद्धकर्तरि वासु- वैति कम्मं, अणेगनवसंचित्रमणंतं ॥१॥" प्रवचनसारोकारे तु देवे, आव०१०। प्रकारान्तरेणापि दशधा चक्रबालसामाचारी प्रोक्ता । तथाहि "पमिलेदणा पमजण, भिक्स्नायरिया श्रभुजणा चेष । पतंग वकज्झय-चक्रध्वज-पु. । स्त्री• । चक्रालेख्यरूपचिह्नोपेतायां घुवण विमा-रे मिलावस्सयात्रा ॥१॥" एतद्याख्यानं तु ध्वजायाम् , जं०१ वक्त। पञ्चा०रा०जी०। तादृशश्व मोघसामाचार्यो गतप्रायमेवेति । ध०३अधिः । जयुक्ते च । त्रि०"चकज्या य सब्बा, सव्वा वरज्या चेव।" द्वा०१द्वा०। चक्कवाना-चक्रवाला-स्त्री.। वक्षया कृती श्रेषयाम, स्था०७गन चक्कापस्टाण-चक्रापप्रतिधान-त्रि. । चक्रेग्वष्टासु प्रतिष्ठानं चक्कय-चक्रक-jol चक्रमिव कायति कै-कः। स्वापेक्कापदयपरिप्रतिष्ठाऽवस्थानं यस्य तत्तथा । अष्टचक्रयुक्ते, स्था०६०। । • त्वनिबन्धनेऽनिष्टप्रसङ्गरूपे तर्कभेदे, वाचा यथा प्रामाण्यधि चारे-न यावद्विज्ञानस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदलक्षणो विशेषः पकणानि-चक्रनानि-पुं । चक्रारप्रोतस्थाने, “भरहो रदेण | सिद्ध्यति संवादार्थिना यावच न प्रवृत्तिन तावत् क्रियासंवादः, समुहमवगाहिया चक्कणानिं० जाव ततो नामकं सरं विसज्जा यावन्न संवादो न तावद्विज्ञानस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदकत्व. "प्राव. १०। सिद्धिारति चक्रकप्रसङ्ग।अने०१अधिशचक्रकारे,प्रज्ञा०१पद। चक्कतित्थ-चक्रतीर्थ-न । मधुरास्थे तीर्थनेदे, तो०१ कल्प। । चक्करयण-चक्ररत्न-न• । चक्रजातौ वीर्यत उत्कृष्टे, चक्रवर्तिचक्कदेव-चक्रदेव-पुं०। स्वनामण्याते सार्थवाहपुत्रे, ध.१अधिका नामेकेन्जियरत्ने, स्था० ७ ठा० स०। प्रशा० । जं० । प्रा०म० । (चक्रदेवचरित्रं तु प्रथमभागे 'असढ' शब्दे ८३५ पृष्ठे समुक्तम्) | पाचू०। (चक्रवर्तिनां चक्ररत्नं यथोत्पद्यते यथा च तद्देशितमा श्चिक्रिणो भारतवर्षविजयाय यान्ति तथा भरह'शब्दे वक्ष्यते) चक्कपाणिलेह-चक्रपाणिरेख-त्रि० । चक्र इव पाणिरेखा येषां ते तथा । चक्राङ्कितहस्तरेखेषु, प्रश्न.४ प्राश्र• द्वार। चक्का-चक्रल-पुं० । पादानामधो वृत्ताकारेऽवयवविशेषे, आo म०प्र०। चक्कपुरा-चक्रपुरा-स्त्री० । वल्गुविजयराजधान्याम,जं• वक्षः। भाव०।" दो चक्कपुराओ" स्था० ५ ० ३ ०। चक्कलक्खण-चक्रलक्षण-न०। चक्रस्वरूपे, तत्प्रतिपादकशाने, तद्विज्ञाने च । सूत्र० २०२० स.चक्राकारचिट्ठोपेते, चकवाल-चक्रवाल-न० । सर्वतः परिमण्डलरूपे, जं. २॥ स्था.101०। पक्ष प्रश्नाकल्प। भ०। औ•। मामले, स्था० ३ ठा. ४ उ० । जन्नपारिमाएडल्ये, स. १०० सम० । समूहे, पातु। चक्कलियानिम-चक्रलिकाभिन्न-त्रि०ावृत्तखएडे, वृ०१००। बके, ज०१श० १० । दशविधवक्रवालसामाचारीत्यत्र | चकवाट्टि (ण )-चक्रवर्तिन-पुं० । चक्रेण रत्नभूतेन प्रहरणविचक्रवालशब्देन किमुच्यते, इति प्रश्ने,उत्तरम्-चक्रवाले नि शेषेण वर्तितुं शीलमस्य चक्रवर्ती । स्था०२ ग०४३.चक्रं स्यकर्मणि सामाचारी चक्रवालसामाचारी, दशविधा दशप्र प्रहरणं तेन विजयाधिपत्ये वर्तितुं शीलमस्येति । श्राव०४ कारा चासौ चक्रवालसामाचारी च दशविधचक्रवालसामा. अ. । प्रश्नः । श्रा०म० । रा०। अनु० । षट्स्खण्डभरतेश्वरे, चारीति चक्रबालशब्दोऽवश्यकायवाचीति पञ्चवस्तुवृत्ती, स्त्र. २ श्रु. १ अ.। उत्त० । श्राव। तथा चक्रवाले चक्रवासविषया चक्रवत्प्रतिपदं भ्रमन्ती दशविधा सामाचारीत्यपि प्रवचनसारोकारवृत्तौ शततमद्वारे इति । अथ चक्रिणां सर्वोऽधिकार:३२ प्र० सेन०३ रखा। "जंबूदीवे वारस चक्कवट्टी होत्था । तं जहापकवानपव्वय-चक्रवासपर्वत-पुं०। कुएलाभिधानकादशदी- "भरहे सगरे मघवं, सणकुमारो य रायसहलो । पवर्तिनि पर्वते, स्था० १० ग० । संती कुंय य अरो, हव सुभूमो य कोरब्बो ४६॥ Page #1123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्कवट्टि(ण) प्रनिधानराजेन्बः। चकवट्टि(ए) नयमो य महापउमो, हरिसेणो चेव रायसइलो। च तइशितमार्गा भरतं साधयन्ति तथा भरतचरिताधिअयनामो य नरपई, वारसमो भदत्तो य"॥४७॥१०।। कारे वक्ष्यते) पर्यायः(कस्मिन् जिनान्तरे कश्मीति 'अंतर' शब्दे प्रथमन्नागे पर्याय: केषाश्चित्प्रथमानुयोगतोऽबसेयः, केषाञ्चित्प्रवज्याप्रा. ६६ पृष्ठे उक्तम् । चक्रवर्त्यवग्रहः 'अवग्गद' शब्दे प्रथमजागे ६६६ पृष्ठे उक्तः) धान विद्यत पवेति । भाव. १०। भरतक्षेत्रचक्री प्रथमं के खएडं साधयतीति क्रमः प्रसाध शति प्रभे , उत्तरम-भरतसांप्रतं चक्रवायुकप्रतिपादनायाऽऽह केत्रचकी प्रथमं कं स्खएडं साधयतीत्यत्र चक्री मध्यमख"चरासीई वाव-तरीय पुव्वाण सयसहस्सा। पडन् साधयित्वा सेनानीरत्नेन सिन्धुखएवं साधयति , पंचेव य तिनि अए-गंच सयसहस्सा र बासाणं ॥१२॥ तदनु गुहाप्रवेशेन वैतात्यमतिक्रम्य मध्यस्खएमं साधयति, पंचाणउसहस्सा , चमरासीई अहमे सट्ठी ॥ तेनैव तत्रत्यं सिन्धुखपमं गलाखमंचसाधयित्वा अत्राप्यातीसा य दस य तिन्नि य, अपच्चिमो सत्तवाससया" ॥६॥ गतो गङ्गाखण्डं तेनैव साधयित्वा राजधानी समागच्छतीति गाथावयं परितसिद्धम् । आव०१०। कमः।ही०३ प्रका। चक्रवर्तिनः कल्याणभोजनम् पितरःभत्र कल्याणभोजनसंप्रदाय एवम्-चक्रवर्तिसंबन्धिनानां पु जंबुद्दीचेणं जारहे वासे इमीसे प्रोसप्पिणीएवारस पकवाड एमेक्षुचारिणीनामनातङ्कानांगवां लक्षस्यााचक्रमेण पीतगोकी- पियरो होत्था । तं जहारस्य पर्यन्ते याचदेकस्याः गोः संबन्धि यत कीरं तत्प्राप्तकलम- "उसभे सुमित्तविजए , समुहबिजए य भाससेणे य । शालिपरमानरूपमनेकसंस्कारकद्रव्यसमिथं कल्याणभोजन मि- विस्ससेणे य सूरे, सुदंसणे कत्तवीरिए चेव ॥४४॥ ति प्रसिक, चक्रिणं स्त्रीरत्नं च विना अन्यस्य भोक्तुपुर्जरंमददु- पउमुत्तरे महाहरी-विजए,राया तहेव य । मादकं चेति । ०२वक्षः। पंने बारसमउत्ते, पिउनामा चकवट्टीणं " ॥४॥स। काकिणी इदानीं चक्रवर्तिपुरप्रतिपादनायाहएगमेगस पं रखो चामरंतचक्कवहिस्स असोवभिए। “एगमेगस्स पं रखो चाउरंतचकवहिस्स पावत्तरिय काकिणिरयणे उत्तले बालसंसिए अडकभिए अधिकर साहस्सीनो पहचानो।"स०७२ समः । "जम्मणविणी मउज्मा, सावत्थी पंच हस्थिणपुरम्म । विसंगिए पाते। पाणारसि कंपिल्ले , रायगिहे चेव कंपिले ॥" একজয় হৃদৰেক্ষনিন ফ্যাকাবিলা- निगदसिद्धा । पावरमा (चक्रवर्तिवलं 'बल' शम्बेवाश्यते) मपि तुल्यकाकिणीरनप्रतिपादनार्थमेकैकप्रहणं,निरुपचरितरा सांप्रतं चक्रवर्तिनां मातृप्रतिपादनायाहजशब्दविषयमापनार्थ राजग्रहणं, षट्सएगभरतादिभोकृत्वप्रतिपादनार्थ चतुरन्तचक्रवर्तिग्रहणमिति , अष्टसौवर्णिकं काकि "जंबुद्दीवेणं दावे भारहे बासे इमीसे मोसाप्पिणीएवारस - जिरलं, सुवर्णमानं तु-चत्वारि मधुरतृणफलान्येका श्वेतसर्षपः, क्याटिमायरो होत्या। जहा सुमंगला जसवतीनदा सहदेवा पोमश वतसंघपा एकं धान्यमाषफलं, द्वे धान्यमाषफले एका मश्रा सिरिदेवी तारा जाला मेरा बप्पा चुटलणी अपच्चिगुखा,पञ्चगुजा एका कर्ममाषकः,षोमश कर्ममाषका एका सुव मा॥"साभाव। णः, पतानि मधुरतृणफलादीनि भरतकालभावीनीति गृह्यन्ते, चक्रवर्तिनां मुक्ताहार:यतः सर्वचक्रवर्तिनां तुल्यमेव काकिणीरत्नमिति षट्तलं द्वाद- सबस्स वियणं रन्नो चाउरंतचक्कवहिस्स चउसहिशाक्षि भष्टकर्णिकम अधिकरणीसंस्थितं प्राप्तमिति । तत्र तमा. बहीए महग्घे मुत्तामणिमए हारे पसचे ।। नि मध्यखएमानि , अयः कोटयः, कर्णिकाः कोणविभागाः, अधिकरणिः सुवर्णकारोपकरणं प्रतीतमेवेति । श्वं च चतुर सर्वाणि चतुःषष्टिरिति ( चउसहिलाठीप सि)चतुःषष्टीलटिनां इलप्रमाणम , "चउरंगुलप्पमाणा, सुषमवरकागिणी नेया।" शराणां यस्मिनसौ चतुःषष्टियाष्टिकः । (मुत्तामणिमये इति । स्था०० ठा० । ति ) मुक्ताश्च मुक्ताफनानि मणयमन्द्रकान्तादिरत्नविशेसाम्प्रतं चक्रिणां गतिप्रतिपादनायाऽऽद पाः, मुक्तारूपा पा मणयो रत्नानि मुक्तामणयः, तहिकारो मुक्तामणिमयः। स०६४ सम० । "अट्टे व गया मुक्खं, सुहुमो बनो असत्तम्मि पुढवि। चक्रवर्तिनां रत्नानिमघवं सणकुमारो, सणकुमारं गया कप्पं ॥१०॥" एगमेगस्सणं रनो चाउरंतचक्कव हिस्स सत्त पगेंदियरसूत्रसिदा । माव० १० । प्रामा एकैकस्य-- यणा पसत्ता । तं जहा-चक्करयणे उत्तरयणे चम्मरय" एगमेगस्स गं रखो चानरंतचकवहिस्स ग्मन ग्याउ णे दंमरयणे असिरयणे मणिरयणे काकणिरयणे । गामकोमीलो होत्या।" स०१७ समा "दो चकवही अपरि- "चकरयणे" इत्यादि।"रलं निगद्यते तत,जाती जाती यदुतकबसकामभोगा कासमासे का किया अहे सत्चमाए पुढोए एम्" इति वचनात् । चक्रादिजातिषु यानि वीर्यत उत्कृष्धानि अपश्टाणे नरके नेइयत्ताए उववना,सुजूमे बेवबंमदतेचेव"। तानि चकरसादीनि मन्तब्यानि, तत्र सक्रादीनि सप्तैकेन्द्रियास्था०२ ग०४ उ०। (चक्रिणा चक्ररकं यथोत्पद्यते बचा। णि पृथिवीरूपाखि। तेषां प्रमाणम् Page #1124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चकवट्टि (ण) अभिधानराजेन्द्रः। चक्कवाह (ए) "चवं उत्तं वंडो, तिमि वि एया वामतुल्ला। वरसहस्साणुजायमग्गा, चनसाहसहस्सपवरजुवतीणयणचम्मं दुहत्थदीहं, वत्तीसं अंगुलाई असी। कंता, रत्ताभा, पउमपम्हकोरंटगदामचंपगसुतत्तबरकणकचवरंगुलो मणी पुण, तस्स चेव होने वित्थियो । निघसवमा, सुजायसव्वंगसुंदरंगा, महग्यवरपट्टणग्गयविचउरंगलप्पमाणा, सुवमवरकागणी नया" || स्था० ७ ठा। " एगमेगस्स रणं रनो चाउरंतचक्कट्टिस्स सत्त पंचेंदि चित्तरागएपीपएणीनिम्मियजुगलवरचीणपट्टकोसेजसोयरयणा पत्ता । तं जहा-सेणावश्रयणे गाहावश्रयणे बह- णीसुत्तकावजूसियंगा, वरसुरजिगंधवरचुम्मवासवरकुसुमश्रयणे पुरोहियरयणे इत्थिरयणे प्रासरयणे हस्थिरयणे " भरियसिरया, कप्पियच्छेयायरियसुकयरश्दमालकमगंगयसेनापतिः सैन्यनायको, गृहपतिः कोष्ठागारनियुक्तः, वकिः तुमियवरनूसणपिणछदेहा, एकावलिकंठसुरइयवच्छ, पालंसूत्रधारः, पुरोहितः शान्तिकर्मकारीति चतुर्दशाप्येतानि प्रत्येकं यकसहस्राधिष्ठितानीति । स्था०७ ग० । अनु०। वपलंवमाणामुकयपमनत्तरिजमुद्दियापिंगलं गुन्निया, उज्जचक्रवर्तिनां वादयः लनेवत्यरइयचिसगविरायमाणा, तेएण दिवाकरो न दित्ता, "सब्वे वि एगवन्ना, निम्मलकणगप्पहा मुणेयब्वा । सारयनवत्थणियमहरगंजीरणिघोसा उप्पमसमत्तरयणक्वंमभरहसामी, तेसि य माणं अश्रो वुच्छ ।। 55 ॥ चक्करपणपहाणा, नवनिहिपणा समिछकोसा, चाउरंता पंचसय अपंचम, छायालीसा य अरूधणुअंच। चानराहिं सेणाहिं समाजाइज्जमानमग्गा, तुरगपतीगयपती इगुवालधणुस्सऽद्धं, च चउत्थे पंचमे चत्ता ।। ६ रहपती नरपती विपुलकुलवीसुयजसा सारयससिसकपणतीसा तीसा पुण, अछाबीसा य वीस य धरणि । पारस पारसेव य,अपच्छिमो सत्त य धणूणि"IROIR०१० लसोम्पवयणा, सूरतिबोकनिग्गयपभावलघसद्दा, समत्तभचक्रवर्तिनां स्त्रियः रहा हिवा, नरिंदा, ससेमवणकाणणं च हिमवंतसागरंतं धरा पपसिंवारसएहं,चक्कवट्टीणं चारस शत्थिरयणा होत्था।तं जहा. जोत्तण भरहवासं जियसत्तू पवररायसिंहा पुवकडतवपना"पडमा होह सुभद्दा,भद सुणंदा जया यविजया य॥ वा निविट्ठसंचियमुहा, अणेगवाससयमानम्वंतो नजाहि य किएहसिरी सूरसिरी, पउमसिरी वसुंधरा देवी। लच्चिई कुरुमई, इत्थीरयणाण णामाई" ॥ स.। जणवयपहाणाहिं सालियंता,अतुझसद्दफरिसरसरूवगंधे य अणुनविता ते वि उवणमंतिमरणधम्मं वितित्ता कामाएं। चक्रवर्तिनां स्त्रीषु सन्तानःचक्री वैक्रियं रूपं त्यक्त्वा स्त्रियं नुनाक्ति,तबसन्तानं स्यान्न वेति? चक्रवर्तिनः राजातिशयाः ससागरां भुक्त्वा वसुधां माएडप्रश्ने,उत्तरम्-चक्रिणो वैक्रियशरीरेण सन्तानोत्पत्तिर्न सजाव्यते, लिकत्वं च तुक्त्वा भरतवर्ष चक्रवर्तित्वे अतुलान् शब्दादींश्चाकिं त्वौदारिकेणैव,केवसं ते वैक्रियशरान्तर्गता इति न गर्भाधा- नुभूयोपनमन्ति मरणधमेमवितृप्ताः कामानामिति संबन्धः। महेतव इति प्रज्ञापनावृत्तिवचनात् । या च शिक्षादीत्यादीनां।सू. किंविधास्ते इत्याद-सुरनरपतिभिः सुरेश्वरनरेश्वरैः सत्कृताः र्यादेरुत्पत्तिः श्रूयते,तत्रापि समाधानान्तरमस्ति, तश्चेदम "वैकि- पूजिता ये ते तथा । के श्वानुनूता इत्याह-सुरवरा श्व देवपेभ्यः सुरानेभ्यो, गों यद्यपि नोनवेत् । तदा नीतीदारिकाङ्ग प्रवराइव,की-देवलोके स्वर्ग तथा भरतस्य नारतवर्षस्य सम्बधातुयोगात्तु संभवी"।१। श्त्यादिमद्ववादिप्रबन्धे । ही०२प्रका। निधनां नगानां पर्वतानां नगराणां करविरहितस्थानानां सहनैचकवट्टी सुरनरवतिसक्कया सुरवर व्व देवलोए भरहनग निगमानां वणिजनप्रधानस्थानानां जनपदानां देशानां पुरव. णगरनिगमजणबयपुरवरदोणमुहखेमकब्बडममवसंवाहप-. राणांराजधानीरूपाणांद्रोणमुख न जलस्थनपथयुक्तानां खेटा. नांधूलीप्राकाराणां कर्वटानां कुनगराणां ममम्पानां दूरसंस्थित. दृणसहस्समंमियं थिमियमेयणियं एगच्चत्तं ससागरं भुंजि- सन्निवेशान्तराणां संवाहाना रक्षार्थ धान्यादिसंवहन वितकण वसुहं नरसीहा नरवती नरिंदा नरवसहा मरुयवस- पुर्गविशेषरूपाणां पत्तनानां च जलपथस्थलपथयोरकतरयुजकप्या अन्नहियं रायतेयनच्छीए दिप्पमाणा सोमा रा क्तानां मरिमता या सा, तथा, तां स्तिमितमेदिनीकां निर्मयत्वेन स्थिरविश्वनराश्रितजनाम् एकमेव छत्रं यत्र एकराजत्वात् सा यत्रसतिलगा रविससिसंखवर चक्कसोत्थियपमागजवमच्छकु एकन्छना ता ससागरा तां तुक्त्वा पालयित्वा वसुधां पृथिवीं म्मरहवरजगभवणविमाणतुरंगतोरणगोपुरमणिरयणनंदि भरतार्कादिरूपां,माण्डलिकत्वेन एतश्च पदद्वयमुत्तरत्र “हिमवं. यावत्तमुसलनंगासुरइयवरकप्परुक्खमिगवतिभद्दासणसुर- तं सागरंतं धीरा भोतूण जरहवासमिति" समस्तभरतक्त्रविथजबरमनमसरियकुंडलकुंजरवसभदीवमंदरगुरुलज्मय भोक्तृत्वापेकया भणनादवसीयते, नरसिंहाः सूरत्वात् नरपतयः इंदकेनदप्पणअट्ठावयचाववाणनक्खत्तमेहलवीणाजुगछत्त तत्स्वामित्वात्, नरेन्जाः तेषां मध्ये ईश्वरत्वात्, नरवृषनाः गुणैः प्रधानत्वात्, मरुवृषभकल्पा वा देवनाथभूताः मरुजवृषनदामदामिणिकमंडलुकमलघंटावरपोतसुचीसागरकुमुदागरम कल्पा वा मरुदशोत्पन्नगवनूता अङ्गीकृतकार्यभारनिर्वाहकगरहारगागरनेउरणगणगरवश्किम्मरमयूरवररायहंससार- स्वात,अज्याधिकमत्यर्थ राजतेजोलम्या देदीप्यमानाः,सौम्या: सचकोरचक्कवागमिहुणचामरखेडगपर्वासगविपचिवरतालि अदारणा नौरुजा बा, राजवंशतितकास्तन्मएडनभूताः, तथा यंटसिरियाजिसेयमेयणिखग्गंकुसविमनकासभिंगारवद्धमा- | रविशश्यादीनि वरपुरुषअक्षणानि येषां ते तथा, रविशशी, शो वरचक,स्वस्तिकं,पताका,यबो, मत्स्याश्च प्रतीताः,कूर्मः, कच्छपः, एगपसत्थउत्तमविनत्तवरपुरुसमक्खणधरा, बत्तीसराय- रथवरः प्रतीतो.जगो योनि,भवनं जवनपतिदेवावासो, विमानं Page #1125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०२) चक्कवट्टि (ण) अभिघानराजेन्सः। चकवाट्ट (ण) वैमानिकनिवासः, तुरगस्तोरणं गोपुरं च प्रसिकानि, मणिः णि, माला आभरणविशेषः, कटकानि कङ्कणानि, पागम्तरेण चन्द्रकान्तादिरत्नः, कतनादि, नन्द्यावतों नवकोणः स्वस्ति- कुण्डलानि प्रतीतानि, अङ्गदानि बाह्वाभरणाविशेषाः, तुटिका कविशेषः, मुशलं लागलं च प्रसिद्ध, सुरचितः सुष्टुकृतः सुर- बाहुरक्षिका, प्रवरभूषणानि च मुकुटादीनि,मालादीन्येव वा प्रव. तिदो वा सुखकरो यो वरकल्पवृक्षः कल्पद्रुमः स तथा, मृग- रभूषणानि,पिनकानि बझानिये देहे येषां ते तथा,एकावलीविचिपतिः सिंहो, भकासनं सिंहासनं, सुरुचिः रूढिगम्या आभर- प्रमणिका एकसरिकं कएठे गले सुरचिता वकसि हृदये येषां णविशेष इति केचित्, स्तूपः प्रततिः, वरमुकुटं प्रवरशेखरः, ते तथा , प्रलम्बो दीर्घप्रलम्बमानो लम्बमानः सुकृतः सुरचि[सरिय तिमुक्तावली,कुएमलं काजरणं, कुञ्जरो वरवृषभश्च तः पटशाटकः उत्तरीयम् उपरि कायवलं यैस्ते तथा, मुखिका. प्रतीती,दीपो जलवृतो जूदेशः,मन्दिरो मेरुः,मन्दरं वा गृहं, गरुमः भिरालीयकैः पिङ्गलाःपिला अहल्यो येषां ते तथा, ततः कर्मसुपर्णः, वजः केतुः,केतुरिन्द्रयष्टिः, दर्पणः आदर्शः, अष्टापदं धारयः,उज्ज्वसं नेपथ्यं वेषो रचितं रतिदं वा (चिल्लगं ति)बीनं चूतफलक, कैलाश पर्वतविशेषो का, चापं धनुः, वाणो मार्गणः, दीप्यमानं वा विराजमानं शोभमानं येषां तेन वा विराजमानं वा नक्षत्र मेघश्च प्रतीती, मेखमा काञ्ची, वीणाःप्रतीता, युगं यूपः, ये ते तथा, तेजसा दिवाकर इव दीप्ता इति प्रतीतं, शारदं शरछत्रं प्रतीतं.दाममावादामिनी खोकरूढिगम्या,कमण्डलुः कुहिम कालीनं यत् नवमुत्पद्यमानावस्थं स्तनितं मेघगर्जितं तन्मका कमसं घण्टा च प्रतीते , वरपोतो वोहित्थः, सूची प्रतीता. धुरो गम्भीरः स्निग्धश्च घोषो येषां ते तथा। वाचनान्तरे-“सागसागरः समुफ, कुमुदाकरः कुमुदखएडं, मकरोजनचरविशेषः, रनवेत्यादि" दृश्यते । उत्पन्नसमस्तरत्नाश्च ते चक्ररत्नप्रधाहारः प्रतीतः [गागर ति] स्त्रीपरिधानविशेषः, नूपुरं पादाजरणं, नाश्चेति विग्रह रत्नानि च तेषां चतुर्दश। तद्यथा-"सेणावहर नगः पर्वतो,नगरं प्रतीतं,वैरं वज्र,किन्नरोवाद्यविशेषो,देवविशेषो माहावा, २ पुरोहिय ३ तुरंग ४ वहई ५ गय ६ इत्थी ७.चकं । वा,मयूरवरराजहंससारसचकोरचक्रवाकमिथुनानि प्रसिद्धानि, छत्तं हसम्म, १० मणि ११ कागिणि १२ खग्ग१३ दंडो य १४॥" चामरं प्रकीर्णकं, खेमकं फलक,पत्रीसकं विपञ्ची' वाद्यविशेषो, नवनिधिपतयः। निधयश्चैवम्-"निसप्पे १ पंमुर पिंमु ३ पिंगवरतासवृन्त व्यजनविशेषः,श्रीकाभिषेको बक्ष्याभिषेचनं, मेदि- सय, सब्बरयणे ५ तहा महापरमे ६ । काले ७ य महकाले, ८ नी पृथिवी,खड्रोऽसिः, अशः गृणिः, विमलकलशो शृङ्गारश्च माणधगमहानिही । संने॥१॥" समृद्धकोशा इति प्रतीतं. चत्वाजाजनविशेषो, वर्द्धमानकं शरावं, पुरुषारूढपुरुषो वा, एतेषां रोऽन्ताःभूविभागाः पूर्वसमुद्रादिरूपा येषां ते तथा,त पव चातुद्वन्कः, तत एतानि प्रस्तानि मङ्गल्यानि उत्तमानि प्रधानानि रन्ता चतुभिरशैहस्त्यश्वरथपादातिलकणैरुपेता वा तुर्यस्ताभि विभक्तानि विविक्तानि यानि वरपुरुषाणां सकणानि तानि समनुयायमानमार्गः समनुगम्यमानपन्थाः,एतदेव दर्शयति तुरधारयन्ते ये ते तथा, तथा द्वात्रिंशता राजवराणां सहस्रैरतुजा- गपतय इत्यादि, बिपुलकुलाश्च ते विश्रुतयशसश्व प्रतीतः ख्यात तोऽनुगतो मार्गो येषां ते तथा, चतुःषष्टिसहस्राणि यासां इति विग्रहः, शारदशशी यः सकसपूर्णस्तद्वत् सौम्यं वदनं तास्तथा ताश्च ताः प्रवरयुवतयश्च तरुण्य इति समासः, तासां । येषां ते तथा, शूरात्रैलोक्यनिर्गतप्रजावाश्च ते लब्धशब्दाश्च नयनकान्ताः लोचनाभिरामाः, परिणयनभर्तारो वा, रक्ता लो- प्राप्तण्यातय इति विग्रहः, समस्तभरताधिपा नरेन्या इति हिता आभा प्रना येणं ते रक्तानाः, ( पमपम्ह त्ति ) पद्मगर्नः प्रतीतं , सह शैलैः पर्वतैर्वननगरविप्रकृष्टैः काननैश्च , कोरण्टकदाम कोरण्टकाऽभिधानपुष्पसक, चम्पकः, कुसुमवि- नगरासग्नैर्यत्तत्तथा, हिमवत्सागरान्तं धीरा नुक्त्वा भरतवर्ष शेषः, सुतप्तबरकनकस्य यो निकषो रेखा स तथा, तत पते. जितशत्रवः प्रवरगजसिंहाः पूर्वकृततपःप्रजावादिति प्रतीतं, षामिव वर्णो येषां ते तथा सुजातानि सुनिष्पन्नानि सर्वाण्यङ्गा- निर्विष्टं परिसिञ्चितं च पोषितं मुखं यैस्ते तधा,अनेकवर्षशतानि अवयवा यत्र तदेवंविधं सुन्दरमहं येषां ते तथा, महा- युष्मतः नार्याभिश्व जनपदप्रधानानि ल्यमानाः विमास्यधानि महामूल्यानि वरपत्तनोकतानि प्रवरक्षेत्रविशेषोत्पन्नानि मानाः , अतुला निरुपमा ये शब्दस्पर्शरसरूपगन्धास्ते तथा विचित्ररागाणि विविधरागरञ्जितानि,पणी हरिणी,प्रेणी च त. स्तांश्चानुभूय तेऽपि आमताम् उपनमन्ति प्राप्नुवन्ति मरणधद्विशेष एव,तच्चमनिर्मितानि यानि वस्त्राणि तानि पणीप्रैणीनि में मृत्युलवणं जीवपर्यायं च अवितृप्ता अतृप्ता कामानामब्रह्मामितान्युच्यन्ते, श्रूयन्ते च निशीथे-" कालमृगाणि नीलमृगाणि कानाम् । प्रश्न०४ आश्रद्वार। च" इत्यादिभिर्वचनैः मृगचर्मवस्त्राणीति , तथा दुकूलानीति चम्पादिषु दश चक्रिणः प्रवजिता:दुकुलो वृतविशेषस्तस्य वल्कं गृहीत्वा दूखलजलेन सह कुट्ट- एयासु णं दसमु रायहाणीसु दस रायाणो, मुंडा भवियित्वा वुशीकृत्य सूत्रीकृत्य ब्यूयन्ते यानि तानि दुकूलानि ताजाव पव्वइया । तं जहा-भरहे सगरे मघवं सणंकुमारे वरचीनानीति दुकूलवृकवल्कवृकस्यैव यान्यभ्यन्तरं हीरोति निष्पाद्यन्ते सूक्ष्मतराणि भवन्ति तानि, चीनदेशोत्पन्नानि वा संती कुंथू अरे महापउमे हरिसेणे जयनामे ॥ चीनान्युच्यन्ते, पट्टसूत्रमयानि पट्टानि कौशेयकानि कौशेयक- "तरुणा सिस्थिविवा-हरायमाईसु होइ सरकरणं । भाउजरोद्भवानि वस्त्राणि,श्रोणीसूत्रकं कटिसूत्रकम, एनिर्विभूषितान्य- गीयसहे, इत्थीसहे य सवियारे" ॥१॥ (पतास्विति) अनन्तङ्गानि येषां ते तथा, वाचनान्तरे निर्मितस्थाने कौमिक इति रोदितासु दशस्वार्यनगरीषु मध्येऽन्यतरासु कासुचिहश राजापठ्यते-तत्र कौमिकाणि कासिकानि वृक्वेन्यो निर्गतानीत्य- नश्चक्रवर्तिनः प्रजिता इत्येवं दशस्थानकेऽवतारस्तेषां कृतः। म्ये, अतसीमयानीत्यपरे, तथा वरसुरभिगन्धाः प्रधानमनोज्ञपु- द्वौ च सुभूमब्रह्मदत्तानिधानौ न प्रवजिती, नरकं च गताविति । टपाकलकणा गन्धास्तथा वरचूर्णरूपा वासास्ताडिता इत्य-] तत्र जरतसगरौ प्रथमद्वितीयौ चक्रवर्तिराजौ साकेते नगरे र्थः। वरकुसुमानि च प्रतीतानि, तेषां भरितानि तानि शिरां- विनीतायोध्यापर्याये जातो,प्रवजितौ च । मघवान् श्रावस्त्याम, सि मस्तकानि येषां ते नथा. कल्पितानि ईप्सितानि काचार्येण | सनत्कुमारादयश्चत्वारो हस्तिनागपुरे, महापद्मो वाराणस्याम, निपुणशिल्पिना सुकृतानि सुष्टु विहितानि रतिदानि सुखकारी- इरिषणः काम्पिल्ये, जयनामा राजगृहे इति । न चैतासु Jain Education Interational Page #1126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चकवट्टि (ए) निधानराजेन्डः। चक्कवाट्टिविजय नगरीषु क्रमेणते राजानो व्याख्येयाः, ग्रन्थविरोधात ।। दन्यतरस्याभाव इति । जं० ७ वक०। (कश्चक्रवर्ती कथं लभत उक्तं च-" जम्मणधिणी अउज्झा , सावत्थी पंच हथि- | इति 'अंतकिरिया 'आदिशग्देषु प्रथमन्नागे ५९ पृष्ठे नक्तम् ) णपुरम्मि वाणारसि कंपिल्ले रायगिहे चेव कंपिल्वे त्ति" देशविरतौ चक्रिपदबन्धो भवति नवेति प्रश्ने, उत्तरम्-अत्राप्येअप्रवजितचक्रवर्तिनौ तु हस्तिनागपुरकाम्पिल्ययोरुत्पन्नाविति, कान्तो ज्ञातो नास्तीति । ही०६ प्रका० । चक्रवर्तिनस्तिमिश्रगुये च यत्रोत्पन्नास्ते तत्रैव प्रवजिता इति इदमावश्यकाभिप्रायेण हाद्वारोद्घाटने ज्वाला निःसरन्ति , न वा यदि न , तर्हि कूणिव्याख्यातम, निशीथभाज्याभिप्रायेण तु दशस्वेतासु नगरीषु। कस्य कथं निस्ससारेति प्रश्ने , उत्तरम्-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यादिषूद्वादश चक्रिणो जातास्तत्र नवस्वेकैकः, एकस्यां तु प्रय इति । | क्रममस्ति , यच्चक्रवर्तिनः सेनानीनरो द्वारमुद्घाटयति , माह च ज्वाला च न निःसरति कूणिकस्य तु द्वाराणि नोद्घारितानि, "चंपा महुरा वाणा--रसी य सावत्थिमेव साकेयं । तर्हि ज्वाला कुतो निःसरेत् , स तु तमिश्रगुहाधिष्ठायकेन दएकरत्नन हतः सैन्यानि पश्चाद्वलितानीत्यक्कराणि आवश्यकहत्थिणपुर कंपिल्लं, मिहिला कोसंवि रायगिरं ॥१॥ द्वाविंशतिसहस्रीमध्ये सन्ति, द्वादशसहस्रीमध्ये तु ज्वालानिःसंती कुंथू य अरो, तिमि वि जिण चक्कि एक्लपक्केहिं ।। सरणमप्युक्तमस्ति, सा तु कुमतिकृताऽस्ति । श्रावश्यकटिप्पनजाया तेण दस होति, केसवजाया जणाइन" ॥२॥ केतू कथितमस्ति , यज्ज्वालानिःसरणघोटकपश्चात्पादचलनस्था० १० ठा०। ( एकस्मिन्केत्रे एकदा द्वौ चक्रवर्तिनी न प्रघोषसिद्धान्तविरुद्धो झेय इति । ४७४ प्र) सेन. ३ नखा। भवत: शति 'उवई' शब्दे वक्ष्यते) चक्रवर्ती कियत्कालेन मोक्षं यातीति प्रश्ने, उत्तरम-जघन्यतउत्सर्पिएयां नविष्यन्तश्चक्रिण: स्तद्भवे, उत्कृष्टतस्तु कश्चित्किञ्चिदनार्द्धपुद्गलपरावर्तान्तरेणापि जंबुद्दीवेणं दीवे भारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए मोकं यातीति । ६० प्र०सेन०४ उल्ला । सर्वचक्रवर्तिनां सर्वरवारस चकवट्टिणो जविस्संति । तं जहा नानि प्रमाणतस्तुल्यानि न्यूनाधिकानि वेति प्रश्ने, उरत्तम्-सर्व. चक्रवर्तिनां काकिण्यादिरत्नानि कियन्ति केषाश्चिन्मते प्रमाणा"जरहे य दीहदंते, गूढदंते य सुकदंते य । इलमाननिष्पन्नानि, कियन्ति तु तत्कालीन पुरुषादिमानोचितसिरिउत्ते सिरिजई, सिरिसोमे य सत्तमे पउमे ॥१॥ मानानि, केषाश्चिन्मते तु सर्वा एयपि तत्कालोचितमानानीति महापउमे य विमन-वाहणे विपुन्नवाहणे चेव । ४२.प्र० सेन ३ उल्ला। चक्रवर्तिनो राज्याऽनिषेकादनु पुत्रो रिटे वारसमे तह, आगामिनरहादिवा उत्ता ॥॥॥" | भवति न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-चक्रर्तिनो राज्याभिषेकादनु पुत्रो नवतीति श्रीअजितचरित्रादौ विद्यते । ८५ प्र० सेन०१ उस्ला। एएसिणं वारसएहं चक्कवट्टीणं वारस पियरो जविस्संति, चक्रवर्तिनः स्कन्धावारो कादश योजनान्युत्तरति, चक्रवर्ती तु वारस मायरो जविस्संति,वारस इत्थीरयणा नविस्संति । प्रत्येकं योजनमेकं चलति, ततो द्वादशयोजनप्रान्ते य उत्तरति स । स योजनमेकं चलति तदा द्वादशयोजनमध्ये कियन्ति दिनाजम्बूद्वीपे चक्रवर्तिनः पृच्छा- . नि भवन्तीति प्रश्ने, उत्तरम्-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ती योजनं योजनान्तजंबुद्दीचे णं भंते ! दीवे केवइया जहमपए वा नक्कोस | रेण श्रमेण चक्रवर्ती चनति , तथा चक्रवर्तिसैन्यं द्वादश योपए वा चकवट्टी सव्वग्गणं पसत्ता । गोत्रमा ! जहमपदे जनान्युत्तरतीत्यनेकग्रन्थे कथितमस्ति , तस्मात्पूर्वापरविचार णया यद्योजनान्तं कथितमस्ति तस्मात्पूर्वापरविचारणया योचत्तारि, उक्कोसपदे तीसं चक्कवट्टी सव्वग्गणं पप्मत्ता, बलदेवा जनान्तरं कथितमस्ति तत्सैन्याग्रभागापेक्षया संभाव्यते , तथा तत्तिा चेव, जत्तिा चक्कवट्टी वासुदेवा वि तत्तिा चेव । चक्रिसन्यस्यादौ मध्ये नैवोत्तरतीत्यराणि व्यक्तानि शास्त्रे न जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे कियन्तो जघन्यपदे वा उत्कृष्टपदे वा दृष्टानि,आधुनिकक्करास्तु दिवाले उत्तरतो,दृश्यन्ते,ततस्तत्काचक्रवर्तिनः प्राप्ताः?। भगवानाद-गौतम! जघन्यपदे चत्वारः। ले यथोचितं नविष्यति तथोत्तरिष्यन्ति, तथाऽपि चक्रवर्त्तिनां उपपत्तिस्तु तीर्थकराणामिव , बत्कृष्टपदे त्रिशच्चक्रवर्तिनः दिव्यानुभावेन सैन्यप्रान्तोत्तीर्णास्तेऽपि शीघ्रं सुखेन मार्गमतिसर्वन प्राप्ताः । कथमिति चेत् ? , उच्यते-द्वात्रिंशद्विजयेषु ऋमिष्यन्तीत्यत्र न काऽप्याशङ्का, यतो दिव्यशक्तिरचिन्त्याs. वासुदेवस्वामिकान्यतरविजयचतुष्कवर्जितविजयसत्काष्टाविंश स्तीति । ६६ प्र० सेन० ४ उल्ना० । (व्यासेन तु भरतादितिः, भरतरावतयोस्तु द्वाविति पूर्वापरमीलितास्त्रिंशत् । यदा शब्देषु दृश्यम् )। महाविदेहे उत्कृष्टपदेऽष्टाविंशतिश्चक्रिणः प्राप्यन्ते , तदा निय- | चकवट्टिलच्छि-चक्रवर्तिलब्धि-स्त्री०। चक्रवर्तित्वप्राप्तिहेतील. माच्चतुर्णामर्द्धचक्रिणां संभवेन तन्निरुत्रेषु चक्रिणामसं- ब्धिभेदे , प्रव०५७० द्वार । पा० । जवात्, चक्रिणाम चक्रिणां च सहानवस्थानलकणविरोधादिति । अथात्र तथैव बलदवाईचक्रिणश्चाह-"बलदेवा तत्तिया" चकवट्टिविजय-चक्रवर्तिविजय-पुं० । चक्रवर्तिनो विजयन्ते इत्यादि । बलदेवा अपि तावन्त एवोत्कृष्टपदे , जघन्यपदे च यषुयान् वा ते चक्रवर्तिविजयाः । स्था• ठा० । चक्रवर्तिवि. यावन्तश्चक्रवर्तिनः वासुदेवा अपि तावन्त एव, बलदेवसहचा- जेतव्ये क्षेत्रखएमे , ज्ञा०१ श्रु० ८ ० । स० । रित्वात, कीऽर्थः१-यदा चक्रवर्तिन उत्कृष्टपदे त्रिंशत् अवश्य चक्रवर्तिविजयवक्तव्यतामाहबलदेववासुदेवौ जघन्यपदे चत्वारः, तेषां चतुर्णामवश्यंभावात् । जंबूमंदरपुरच्छिमेणं सीयाए महाणईए उत्तरेणं अट्ठ यदा च बलदेवा वासुदेवा वा उत्कृष्टपदे त्रिंशत् , तदा चक्रिणो जघन्यपदे चत्वारः, तेषामपि चतुर्णामवश्यंभावात । तेनैतेषां चक्कवष्टिविजया पयत्ता । तं जहा-कच्चे सुकच्छ महाकच्छे परस्परं सहानवस्थानबक्षणविरोधनावनान्यतराश्रितक्षेत्रे त. मावई आवते. जाव पुक्खन्नावई । जंबमंदरपुरच्चि. Page #1127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९०४) चकवद्रिविजय अनिधानराजेन्द्रः। चक्खिदिय मेणं सीयाए महाणईए दाहिणेणं अह चक्कवट्टिविजया पन्छ- न्यसंक्वेयजीवरूपाणि रायमानपृथ्वीपिएमस्यासंख्येयजीवात्मता। तं जहा-वच्छे सुवच्छे जाव मंगलावई । जंबूमंदरपञ्च कस्वात्तथा आगत्यप्यसंख्यानाश्रित्येति संन्नाव्यत इति।११०प्र० सेन १चल्ला देशविरतिचक्रित्वे देशविरत्या चक्रिपदं लन्यते च्छिमणं सीओयाए महाणईए दाहिणेणं अट्ट चकवष्टि- नवा। तथा चक्रिणां गाबस्थे देशविरतिः स्थान पा। यदि सान विजया पमत्ता । तं महा-पम्हे० जाव सलिझाबई । जंबू- स्यात्तत्र को हेतुरिति प्रश्ने, उत्तरम-देशविरत्या चक्रवर्तिपदप्रामंदरपच्चच्छिमेणं सीओयामहानईए उत्तरेणं अट्ठ चक्क तिर्भवतिन भवति च श्त्येकान्तो ज्ञातो नास्ति तथा चक्रिणांमपट्टिविजया पमत्ता। तं जहा-चप्पे सुवप्पे० जाव गंधिलाई । हापरिग्रहित्वादेशविरतेःप्राप्तिः स्यादिति । ७८ प्र०सेन२ उहा। प्रत्यचकिणोद्धचक्रिणो वा गङ्गासिन्धुकृतव्यवधानपूर्वापर. "जाव पुक्खलाव ति" भणनात् “मंगलावत्ते पुषखले खएमयोःसाधने तत्र गमने क उपायश्च रत्नाभावात्तयोरुत्तरणं ति" द्रव्यम् । 'जाव मंगलावर चि' करणात् “ महावच्छे कयं स्यादिति । तथा संप्रति भूपत्यादीनां त्रिखएकाधिपत्यं वाषष रम्मे रम्मए रमणिज्जे" इति दृश्यम् । " जाव सलि. स्तवमुतोपमामात्रं वेति प्रश्ने,उत्तरम-तेषां देवादिसानिध्यात्सलावत्ति" करणात "सुपम्हे महापम्हावई संखे नलिणे कुमुए- 4 संजाव्यत इति १५४० सेन०२ उल्ला। चक्रित्वं प्राप्य ति" दृश्यमा "जाब गंधिलावत्ति" करणात् "पम्हे महावप्पे | पुनश्चक्रित्वं क्रियता कान प्राप्यत इति प्रश्ने,उत्तरम-जघन्यतः बप्पावर व सुवम्गु गंधित्ति" रश्यम् । स्था•० ठा। साधिकसागरेणोत्कृष्टतोऽनन्तकालेन तत्प्राप्यते इति भगवती चकवाग-चक्रवाक-पुं० । पक्षिविशेषे, का० १ ६० एम० ।। १५ शतके। ६७५० सेन• ३ उल्ला०। चक्रवर्तिनो मागधादी भौ०जी०प्रश्न रा. कत्यष्टमान् कुर्वन्तीति प्रइने,उत्तरम-मागधस्तूप १ वरदामस्तूपर चक्कबूढ-चक्रव्यूह-पुं० । चक्रमिव म्यूहः सम्यस्थितिरचनाधि प्रभातस्तूप ३वैतात्यदेवसाधन ४ तमिश्रादेवसाधन नमिविनशेषः । युबाथै मण्डलाकारे सैन्यस्थापने, वाच। तत्परिका मिदेवसाधन ६सिंधुदेवसाधन चुहिमवन्तसाधन गङ्गादेनात्मके कलाभेदे, का०१९०१०।०।०। वीसाधन (नवनिधानप्रकटीकरणा-१. ऽयोध्यानगरीप्रवेशकर णार्थ चक्रिणो १५ ऽनुक्रमेणैकादशाएमान् कुर्वन्तीति जवूद्वीचक्कसाला-चक्रशाला-स्त्री० तिलपीमनशालायाम,व्य०१०३०॥ पप्रज्ञप्तिसूत्रे तीर्थकृष्चक्रिणोऽष्टमान कुर्वन्तीत्यपि शान्तिचरित्रेचकसुह-चक्रमुख-पुं० । मानुषोत्तरपर्वतस्याधिपती देवे, दी। स्तीति केयम् । ६६ प्र. सेन० ३ उस्ला। चक्कसेण-चक्रसेन-पुं०। चक्रपुराधीश्वरे, दर्श। चक्केसर-चक्रेश्वर-पुं० । विक्रमसंवत् १२१० वर्षे विद्यमाने, म. जयमेरुराजजयसिंहमान्यधर्मघोषसूरिशिध्ये, आवश्यकलघुव चकहर-चक्रधर-पुं० । वासुदेवे, विशे०। त्तिकारके सूरी, जै० ०। चकहरगंमिया-चक्रधरगएिमका-स्त्री० । चक्रधरवकव्यता-चकेसरी-चक्रेश्वरी-स्त्री। ऋषजदेवस्य शासनदेवतायाम, याधिकारानुगतायां वाक्यपस्ती, स० । आ.क० । सा च मतान्तरेणाप्रतिचका सुवर्णवर्णा गरुमबाचक्का-चक्रवाक-पुं० । सर्वत्र रसोपः अनादौ द्वित्वम " क.। इनाऽष्टकरा वरणवाणचक्रपाशयुक्तदक्षिणपाणिचतुष्टया धनुगचजतदपयवां प्रायो लुक" ।।१।१७७ । इति वकयोलुंक। वैज्रकाकुशयुक्तवामपाणिचतुष्टया चेति । प्रव०२७ द्वार। "से चक्काओ" पतिविशेषे, प्रा. १ पाद । का। चक्कोहा-देशी-अग्निभ्रष्टे, दे० ना० ३ वर्ग। चक्काउह-चक्रायुध-पुं० । षोमशतीर्थकरस्य प्रथमशिम्ये, स०। चक्खिय-प्रास्वादित-त्रिका "क्तेनाप्फुस्मादयः" ।।४।२४॥ ति. इति आस्वादितशब्दस्य 'चक्खिय' प्रादेशः। ईषत्सम्यक घकाग-चक्राक-नाचक्राकारे, "चक्कगं भजमाणस्स समो वाऽऽस्वादिते, प्रा०४ पाद । अंगो य दीसह" प्रका०१ पद । आचा। चक्खिदिय-चतुरिन्द्रिय-ना रूपग्राहके इन्छियभेदे,तब सम्युचक्कारवछ-चक्रारव-न० । गव्यादी द्विपदे याने, दश ५ पकरणनेदाद द्विधा-तत्र लब्धीडियमेकद्वित्रिचतुरिन्छियाणाम पि,उपकरणेन्द्रियं तु चकुरिन्छियस्यान्तमध्ये केवलिगम्या धा. भ०१०॥ न्यमसूराकारा काचिन्निवृत्तिरस्तियाम्पग्रहणोपकारे वर्ततेतं. चकि (ण) चक्रिन्-पुं० । चक्रधरे, चक्रवतिनि, ही०३ प्रका० । (अत्र विषयविजागादय 'इंदिय ' शब्दे द्वितीयभागे चकिय-चाक्रिक-पुं०। चकं प्रहरणमपामिति चाक्रिका चक्रप्र- ५६५ पृष्ठे उक्ताः ) हरणेषु योद्धषु, चक्रं वाऽस्ति येषां ते चाक्रिकाः कुम्भकारत अथ चकुरिन्छिये उदाहरणम्लिकादिषु चक्रं चोपदर्य याचन्ते ये ते चाक्रिकाः। चक्रधरेषु, नगरी मपुरा नाम, जितशत्रुनरेश्वरः। डा०।१७०१ म०। मौलाना कल्प। प्रकृत्या धार्मिकी राशी, धारिणी चित्तहारिणी ॥१॥ तत्रैकयक्वयात्रायां, राजा रात्री च नागराः। चकियसाला-चाक्रिकशाला-स्त्रीतैविक्रयशालायाम, व्य. ययुः सर्वेऽपि, सर्वो , विच्छर्दितमहीयसा ॥२॥ एउ01 तदैकेनेज्यपुत्रेण, यान्त्या राड्या सुखासने । चक्की-चक्रिन्-पुन चक्रवर्तिषु, चक्रिणांचाकादिसप्तरलान्येकजी- अरच्छदावहितो, दृष्टोऽहि“पुरादिनृत् ॥३॥ बारमकाम्यसंख्यजीवात्मकानि वा तथैषामागतिरुक्ता सा एक- दध्यावेवंविधो यस्या-श्चित्तहचरणोऽपि हि । जावमाथित्यानेकानति प्रश्ने, उत्तरम-चक्रिणां चक्रादिसप्तरता- देषीतोऽप्यधिकं मम्ये, रूपमस्या भविष्यति॥४॥ Page #1128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्खिदिय अभिधानराजेन्द्रः। चक्खिदिय मथाऽनुरक्तस्तस्यां स, तद्वेश्मासन्नमापणम् । सा तयाऽभूत्ततः पित्रा-ऽऽहता मान्त्रिकतान्त्रिकाः। गृहीत्वाऽऽवर्जयकाकी-वर्ग समर्घ्यदानतः ॥ ५ ॥ सर्यानतर्जयत्तीवं. तां तेऽमाध्येत्यथाऽत्यजन् ॥ २६॥ अयैकदा च पप्रच्छ, चेटोर्गन्धपुटीरिमाः । भथाधृतिः पिता मुह्य, चट्टस्तं स्माह मा मुद । कश्छोटयति तास्माहुः, स्वयं नः स्वामिमीस्यथ ॥६॥ क्रमागतान्ति मे विद्या, सर्व सेत्स्यत्यदस्तया ॥ २७ ॥ कस्तूरिकारखं , मिखित्वा नूर्जपत्रके। दुष्करस्तूपचारोऽस्याः, श्रेष्टपूचे सुकरो मम । क्षिप्त्यैकस्या गन्धपुट्याः, मध्ये चेट्याः समार्पयत् ॥७॥ पाख्यचट्टोऽथ कार्येऽत्र, चत्वारो ब्रह्मचारिणः ।। २० ॥ सचायम-- भानेयास्ते कुशुद्धाधे-त्तदा कार्य न सेत्स्यति । कासे प्रसुप्तस्य जनार्दनस्य , तेषां नवत्यनर्थश्व, तान् भौतनिथानयत् ॥ २६ ॥ मेघान्धकारासु च शर्वरीषु । भानायितास्तथा, योधाश्चत्वारः शब्दवेधिनः। मिथ्या न जल्पामि विशालनेत्रे!, दिकपालाः स्थापितास्तेऽथ. लिखित्वा तत्र मएमलम ॥३०।। ते प्रत्ययार्थ प्रथमाकरषु ॥ ७ ॥ उक्ताश्च ते मनाग वेश्याः, शिवाशब्दो भद्यतः । छोटयित्वा पुटं मध्या-तं लेखं देव्यवाचयत् । प्रौताश्चोच्यन्त कुर्षीध्वं, हुं फट् कृते शियास्तम ॥ ३१॥ अचिन्तयधिग्भोगान्, मसिलेखमथालिसत् ॥९॥ त्वं रोषेण धृतेनेय, तिष्ठेरूचे च कन्यका । सचायम्-- कृते तथैव भूतास्ते, विद्धा नाभूत्पटुः सुता ॥ ३२॥ मेहमोके सुखं किञ्चि-च्छादितस्यांहसा भृशम । तदा धनस्य वैराग्य-मजायत तपस्थिषु । मितं च जीवितं शोके, तेन धर्मे मतिं कुरु ॥१०॥ चट्टेनोक्तं मयाजाणि, सिकि ब्रह्मचारिभिः ॥ ३३ ॥ पूर्ववत् प्रथमाकरैरेवोत्तरम। कचे धनोऽधुना कः स्या-सुपायव ऊचिवान् । सदैव च तथा कृत्वाऽ-पयचेटीकरे पुटीम् । शोध्या ब्रह्मभृतः कापि, शृणु तेषां च लक्कणम् ॥ ३४ ॥ नबन्धुरा इमे गन्धाः, इत्युदित्वाऽपयेरिमाम ॥११॥ भवन्त्येवंविधाः श्रेष्ठिन् !, मुनयो ब्रह्मचारिणः। भर्पितायां गन्धपुटयां, चेट्याऽऽख्याते च वाचिके। ये च सत्यादिका गुप्तीः. पालयन्ति सदा नत्र ॥ ३५ ॥ पुटीमास्कोट्य लेखस्थं, लेस्वार्थमवधार्य सः ॥१०॥ अथ दर्शनिनः सर्वान, श्रेष्ठी प्रश्नं स पृष्टवान् । भनाशः खेदमेदस्वी, निर्ययौ संहताऽऽपणः। ब्रह्मगुप्तीन कोऽप्याख्य-दाख्यन् श्वेताम्बराः पुनः ॥ ३६ ॥ वसतिः कथासनाके, कुड्यन्तरपुरा रते। सदाऽऽप्तिचिन्तोपायार्थी, चमन राज्यान्तरं गतः ॥ १३ ॥ प्रणीतात्यसने भूषा, नवैता ब्रह्मगुप्तयः ॥ ३७॥ एतं श्लोकं तत्राश्रौषीत श्रेष्टी तानाह मे कार्य, गृहेऽस्ति ब्रह्मचारिभिः । मशक्यं स्वरमाणेन, प्राप्तुमर्थान् सुदुर्लभान् । ऊचुस्ते गृहिणां कार्य, विधातुं कल्पते न नः ॥ ३८॥ नार्योच रूपसंपन्नां, शत्रूणां च पराजयम् ॥१४॥ सब्धा ब्रह्मभृतश्चट्ट!, कार्य नेम्वन्ति ते पुनः। अत्र च दृष्टान्त: सोऽज्यधादीशा एव, भवन्ति मुनयो धन! ॥ ३४॥ बसन्तपुरमित्यास्ते, पुरं सुरपुरात्प्रति। विमुक्तलोकव्यापाराः, एषां नामापि सिकिकृत् । श्रावको जिनदत्तोऽनू-तत्र सार्थपतेः सुतः ॥१५॥ मरामसं पुनरासिख्य, दिक्पाला विनिवेशिताः॥४०॥ पुर्यासितश्च चम्पाया-मीश्वरः सार्थपो धनः। न्यस्तानि साधुनामानि, चक्रे पूजां यथाविधि । भस्त्याश्चर्यद्वयं तस्य, यन्न जूतं न भावि च ॥ १६ ॥ न शिवाजिनं जातं, जाता श्रेष्टिसुता पटुः ॥४१॥ चतुरब्धिसारजूता, विमला मुक्तावलीगुणैः कलिता। धनोऽथ साधुमाहात्म्य-ज्ञानात् सुधायकोऽभवत्। अकसितमूल्यविशेषा, सकनकमाकुशसमतिरपि च ॥१७॥ चट्टो धर्मोपकारीति, दत्ते द्वे अपि तस्य ते ॥४२॥ हारप्रभा च कन्यास्ति. तबूपादिगुणस्तुती! एवं स्थैर्यापायेन, प्राप रूपवती प्रियाम् । स्याद्वागीशोऽप्यवागीशः, स्वयं बागप्ययागिध ॥ १७ ॥ इति श्रुत्वेज्यसूर्देशे, तदुपायं च सोऽप्यगात् ॥४३॥ जिनदत्तस्तदाका -ऽनुरक्तस्तामयाचत । विद्यासिद्धा दएमरका-करास्तिष्ठन्ति तत्र च। श्रावकोऽयमिति ददौ,मिथ्यामिर्न तस्य सः॥१६॥ तस्य ते सेवया तुष्टा, स्माहुरस्मत्किमीहसे?॥४४॥ घट्टवेवः स्वयं चम्पा-मेकाकी संययौ ततः। छचे मे घट्यतां देवी, जगुस्ते घरयिष्यते ! एकस्तत्रास्त्युपाध्यायः, तं विद्यार्थीत्युपस्थितः ॥२०॥ तैस्तस्याथ समं राल्या, मेलोपायो व्यचिन्त्यसौ ॥ ४५ ॥ उपाध्यायोऽवदन्द्रक!, पातयिष्याम्यहं परम् । साऽपवादा नृपत्यक्ता, मिझत्येषाऽस्य नान्यथा। मदगृहे भोजनं नास्ति, दुर्भिकं चास्ति संप्रति ॥२९॥ विकुर्विताऽथ तैर्मारि-मर्तु लग्नो घनो जनः ॥ ४६॥ धनन्ध दत्ते भौतानां, ततः सोऽगासदन्तिके । अधारका नृपेणोक्ताः, मारिबिकाय कथ्यताम् । देहि विद्यार्थिनो मेऽनं, सोऽबदद्दास्यते पन ॥२२॥ चासवेश्मनि तैव्यो, विद्ययाऽथ विकुर्विताः॥४७॥ सेनोदिया सुताऽमुष्मै, ददीथा नित्यं भोजनम् । मनुष्यहस्तपादांशाः, देव्यास्यं च सलोहितम् । सदभ्यो चिन्तितं जातं, सतुमध्ये लुठद् घृतम् ॥ २३॥ तैरुक्तं देव ! गहे स्वे-ऽन्वेच्या मारिः परत्रन ॥ ४ ॥ फलाद्युपाचरत्तस्याः, उपचारं न साग्रहीत् । राज्ञान्विष्टा च हा चा-ऽऽदिष्टास्तेऽथ यथा रहः । अथावसरमासाद्य, सोऽत्वरस्तां वशेऽनयत १२४॥ स्वगृहे मएमलं कृत्वा, नीस्था तत्र निगृह्यताम् ॥ ४ ॥ अथ सा तगुणै रक्ता, तमुवाच पलाय्यते। । नीता तेरथ सा तत्र, रात्रावभ्यास्य मण्डलम् । तेनोक्तं नोचितमिदं त्वमुन्मताऽधुना भव ॥ २५॥ हन्तुं प्रचक्रमे याव-दिल्यसूस्तावदाययौ ॥१०॥ Page #1129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९०६) चक्खिदिय अभिधानराजेन्दः। चखुदसणवडिया सऊचे मार्यतेऽसौ कि, मारिरेषेति मार्यते । तिविहे चक्खू पसत्ते। तं नहा-एगचक्खू विचक्खू तिचसोऽवदत् घटते नैत-जातोऽस्याः कोऽपि पुर्जनः ॥५१॥ क्खू । छनुमच्छे णं मणुस्से एगचरक्खू देवे विचक्रव तहाहत मा मुञ्चततां तु, नेत्रकैरवकौमुदीम। रूवे समणे वा माहणे वा उप्पएणणाणदसणधरे नेषुस्ते पुनरूचे च. गृह्णीध्वं कोट्यसंकृतिम् ॥ ५५॥ निगृहीचं च मा मैता, मुश्वध्वं वः कृतोऽञ्जलिः। से णं तिचक्खु त्ति वत्तव्वं सिया ॥ तस्या अप्यभवत्प्रेम, तत्राकारणवत्सले ॥ ५३॥ प्रायः काव्यम् । चक्षुलोचनं तत व्यतोऽति,भावतो कानम। कचुस्ते नेति निर्धन्धा-न्मुक्ताऽसौ त्वं च किं त्वतः। तद्यस्यास्तीति स तद्योगाश्चतुरेव चतुष्मानित्यर्थः। सच त्रिधि गत्वा देशान्तरे तिष्ठे-स्तामथादाय सोऽगमत् ॥ ५४॥ धश्चतुःसंस्थाभेदात,तत्रैकं चकुरस्येत्येकचक्षुः। एवमितरावपि । प्राणप्रदोऽयमित्यासी-तत्रातिप्रेमभागसौ। छादयतीति उमझानावरणादि तत्र तिष्ठतीति छमस्थः। स च रतिसागरनिर्मग्ना, तेन सार्द्धमथास्ति सा ॥ ५५ ॥ यद्यप्यनुत्पन्न केवलज्ञानः सर्व एवोच्यते तथाऽपीहातिशयवत कछु स्वान् साऽन्यदाञ्चाली-प्रेम्णा गन्तुं न सा ददी। श्रुतज्ञानादिविवर्जितो विवक्कित शति । एकचक्कुरिन्छियापेक्कया हसितं तेन साप्राक्की-निबन्धेऽकथयत्कथाम् ॥५६॥ देवो द्विचनुश्चक्षुरिन्द्रियावधिज्याम् उत्पन्नमावरणकयोपशमेनिर्विय साऽथ साध्वीनां, धर्म श्रुत्वाऽग्रहीद व्रतम् । मकानं च श्रुतावधिरूपं दर्शनं चावधिदर्शनरूपं योधारयति बहस्तरोऽगात्तु नरकं, चक्षुलौल्यकृतोदयात् ॥ ५७ ॥ प्रा०क०। ति स तथा एवंभूतः सः त्रिचक्षुश्चक्षुरिन्छियपरमश्रुतावधिरिति मा० मा प्रा० चू० । ग० । "चक्खिदियउइंत-जणस्स अह- वक्तव्यं स्यात् । स हि साक्षादेवावलोकयति हेयोपादेयानि पत्तिओ भवति दोसो।जं जलणम्मि जनते, पडह पयंगो अबुको समस्तवस्तूनि केवली विहन व्याख्यातः केवलज्ञानवर्शनलक" मा० १ श्रु० १७ अ०। णचकुर्द्धयकलानासंभवेऽपि चक्षुरिन्जियलकणवक्षुषः उपयोगापक्खिदियणिग्गह-चकुरिन्धियनिग्रह-पुं० । चक्षुरिन्द्रियस्य भावेनासत्कल्पनया तस्य चतुस्त्रयं न विद्यत इति कृत्वति किषयलाम्पट्यनिरोधे, ( उत्त.) व्यन्छियापेक्तया तु सोऽपि न विरुभ्यत इति । स्था० ३ तत्फलम ठा. ४००। ते चक्खुलोगंसि हणायगा उ,मम्गाणुसासंचक्खिदियनिग्गहेणं भंते ! जीवे कि जण्यइ । चक्खि | ति हितं पयाणं" ते तीर्थकरगणधरादयोऽतिशयज्ञानिनोऽस्मिन् सोके चकुरिव चक्षुर्वर्तन्ते । यथा हि-चक्षुर्योग्यदेशावस्थिदियनिग्गहेणं मणुनामणुन्नेसु रूवमु रागद्दोमनिग्गरं ज तान् पदार्थान् परिजिनत्ति। एवं तेऽपि सोकस्य यथावणय । तप्पञ्चइयं कम्मन बंधइ पुबबर्फच निजरे॥६३॥ स्थितपदार्थाविष्करणं कारयन्ति । यथास्मिन् लोके ते नाहे दन्त ! देस्वामिन् ! चक्षुरिन्द्रियनिग्रहेण जीवः किं जनय-| यका प्रधानाः। सूत्र०१ श्रु.१५०।। ति। तदा गुरुराह-देशिष्य!चक्षुरिन्द्रियनिग्रहण मनोशाऽमनोखे- | चक्खुइंदियवल-चक्कुरिन्डियबल-नाचकुरिन्छियस्य खसाघु रूपेषु रागद्वेषजयं जनयति। ततश्च तत्प्रत्ययिकं रागद्वेषोत्पनं कर्म न बध्नाति । पूर्ववर्क रागद्वेषोपार्जितं कर्म निर्जरयति त | चखुकंत-चक्कुष्कान्त-पुं० । कुएमलोदसमुकाधिपती देवे, क्षपयति ॥ ६३ ॥ उत्त• २६ अ० । जी० ३ प्रति। चक्व-चकृष्-न । चदयतेऽनेनेति चक्षुः।" पाऽक्ष्यर्थवचना | चक्खुकंता-चकुष्कान्ता-स्त्री० । प्रसेनजितः कुलकरस्य भायाः"८1१। ३३ । इति वा पुंस्त्वम्।लोचने, तत भव्यतोऽति, र्यायाम, प्रा.म.प्र.मा.कास। भावतोबानमा स्था०२ठा०४ २०। सूत्र । इह चकुरिन्छियम, तब विधा-कव्यतो भावतश्च । व्यन्द्रियं बाह्यनिर्वृतिसाधकम, चक्खुदंसण-चकुर्दर्शन-न० । चकुषा वस्तुसामान्यांशात्मके तत्करणरूपम् "निर्वृत्युपकारेण द्रव्योन्द्रियम्" इति वचनात् । भा. प्रहणे, कर्म०४ कर्म दर्शनभेदे, पं० सं०१द्वार० । स्था। घेन्द्रियं तु उपशम उपयोगच "सम्धोपयोगी भावन्द्रियम्" इति चचुरिन्छियप्रीत्यर्थ दर्शनप्रतिक्षायाम, नि०चू०१२ उ०। पचनात् । अत्र चकुर्विशिष्टमेवात्मधर्मरूपं तत्त्वावबोधने बन्धन- चक्खुदंसणवमिया-चकुदर्शनप्रतिझा-खी । चक्षुषा संकष्टुं भझास्वभावं गृह्यते । श्रमाविहीनस्याचप्मत व रूपतत्त्व- प्रतिक्षायाम, (प्राचा.)। दशनायोगात् । न चेयं मार्गानुसारिणी सुखमवाप्यते। सत्यां चक्षुर्दर्शनप्रतिज्ञया न गच्छेत्-- चास्यां भवत्येव तन्नियोगतः कल्याणचक्षुषीव सद्रूपदर्शनं से निक्खू वा मिक्खुणी वा अह वेगयाई रूवाई पासइ।तं न यंत्र प्रतिबन्धो नियमेन ऋते कालादिति निपुणसमयविदः । अयं चाप्रतिबन्ध एव । तथा तद्भवनोपयोगित्वात् । तमन्तरण जहा-गंथिमाणिवा वेढिमाणि वा परिमाणि वा संघाइमाणि तत्सिद्ध्यसिके, विशिष्टस्योपादानहेतोरेव तथापरिणतिस्वजाव वा कहकमाणि वा पोत्थकम्माणि वा चित्तकम्माणि वा स्वात् तदेषाध्यभ्यवीजभूता धर्मकल्पद्रुमस्यति परिजावनीयम् । मणिकम्माणि वा दंतकम्माणि वा मालकम्माणि वा पचइदं चेह चक्षुरिदं चोक्तं भगवद्भयः इति । ल । " चक्कुष्मन्त छोजकम्माणि वा विविधाणि वा वेडिमाइं अमायराई पवेद, ये श्रुतज्ञानचकुषा । सम्यक् तदैव पश्यन्ति, नावान् हेयेतरानराः" ॥१॥ भ०१श०९ उ० । शुभाशुजार्थकारित्वात श्रुत तहप्पगाराई विरूवरूवाई चक्खुदंसणपमियाए णो भकाने, साचतुरिव चकुः। केवलझाने, सूत्र०१श्रु०६अादर्शने, भिसंधारेज गमणाए एवं णेयव्वं जहा सहपमियाए प्राचा०१ श्रु•ए अ०१३०॥ विशिष्ट आत्मधर्म, रा. लोकस्य वि. सना वाइत्तवज्जा रूवपमिया वि पंचमयं सत्तिकयं । विधकार्येषु प्रवृत्तिनिवृत्तिविषयप्रदर्शक शा०१०१मारा "से" इत्यादि । सभापनितुः कचित्पर्यटनथैकानि कानि Page #1130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९०७) धरहदंसान मिया प्रानिधानराजेन्डः। चक्खुदंसणवडिया चिन्नानाविधानि रूपाणि पश्यति । तद्यथा-प्रथितानि प्रथितपु.। कोईसरपुत्तो कुमारो पब्वश्तो सो तं रायाणं थीपरिवुमं दपूर्ण पादिनिसिंतस्वस्तिकादीनि, वेष्टिमानि वनादिनिर्वतितपुत्त. बितेर सच जाइयं अम्हेदि एरिसीणं णाणुभूतं ताहे पमिगसिकादीनि, (पूरिमाणित्ति) यान्यतः पूरुषाधाकृतीनि भवन्ति, च्छेना भवे कारणं। सातिमानि चोलकादीनि, काष्ठकर्माणि रथादीनि, पुस्तकमर्माणि लेप्यकर्माणि, चित्रकर्माणि प्रतीतानि, मणिकर्माणि वितियपदमणप्पज्के, जाणंतो वा वि पुणो अप्पके। विचित्रमणिनिष्पादितस्वस्तिकादीनि, दन्तकर्माणि दन्तपुत्त- गच्छंतो वा वि पुणो, कुनगणसंघातिकजेसु ॥ ए॥ लिकादीनि, तथा पत्रच्छेद्यकर्माणीत्येवमादीनि विरूपरूपाणि कुत्रादि वा कजे जहराया पधावित्रोताहे ण अल्लियंति मग्गचक्षुदर्शनप्रतिक्रया नानिसन्धारयेजमनाय एतानि रुष्टुं गमने | तो गच्छति एवं पडियरिऊण जति ते पमिपुमालादयो दोसा मनोन विदध्यादित्यर्थः। एवं शम्दसप्तककसूत्राणि चतुर्विधातोच. ण भवंति तो अदि ठिो तर्दि अल्लियति। रहितानि सर्वाण्यपीहायोज्यानि केवलं रूपप्रतिक्षयेत्येवमभिमापो योज्या, दोषाश्चात्र प्राग्वत्समायोज्या इति । प्राचा०२चू। | जे जिवाव रनो खत्तियाणं मुधियाणं मुच्छाजिसित्ताणं ने निकाबू रखो खत्तियाणं मुदियाणं मुदाभिसित्ताणं इत्थीओसव्यालंकारविजूसियाओ पयमवि चक्खूदंसणवमिप्राइगच्छमाणाण वाणिग्गच्छमाणाण वा पयमविचक्खूदंस याए अभिमंधारेइ गच्छइ गच्छंतं वा साइज्जइ । ए॥ पावमियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारतं वा साजा ॥८॥ जे जिक्खू इथियाए, सव्वालंकारजूसियाए । चक्खुवमियाएँ पयमवि, अभिधारे प्राणमादीणि ॥५॥ प्रतियानं प्रवेशः बहिनिर्गमो निर्यानं चक्खुसणेण दहूं प्रतिका । अथवा-चक्षुषोर्दर्शयामीति प्रतिज्ञा पगपदं पिच्छति के इत्थ भुत्तजोगी, अनुत्तभोगी य के निक्खंता । तस्स आणादिया दोसा ॥ रमाण जल्लोश्यंतिय, अम्हे एयारिसं आसि ।।१।। ने जिक्खू रातिमा, णिग्गच्छंताण अह वितिनाणा। पूर्ववत् "के त्यति"तुत्तभोगिणो सति विभवे णिक्खंता चक्खुपमियाए पदमवि, अभिधारे आएमादीणि ॥४॥ पुणो संजवंता वचंति । अतित्ति प्रवसंति पगमवि पदं अनिधारतो आणादि दोसे पडिगमए अतित्यिय, सिट्ठी संजति सलिंगहत्ये य । पावति ॥ वेहाणस ग्रोहाणे, एमेव अनुत्तजोगी वि ॥३॥ संकप्पुट्टियपदनि-दणे य दिहेमु चेव सोहीओ। पूर्ववत् । अनुत्तभोगी वि उप्पलकोहो उ पडिगमणादी लहुप्रो गुल्मो मासो, चतु लहुगा चेव गुरुगा य ॥४॥ पवे करेज । मणनट्ठियपदनेदे, य दंसणे मासमादि चतु गुरुगा । किं चान्यत्-- सहुमो लहुया गुरुगा, सणवजेसु व पदेसु ।। ४६ ।। रीयाति प्रणवयोगी, इच्छीणाती सुहीणभवियचं। पमिपोग्गले अपमियो-ग्गले य गमणं णियत्तर्ण वा वि। | अजितिंदियनडाहो, पापडणे भेदवडणं च ॥ ५३॥ । विजए पराजए वा, पडिसेहं वा वि वोच्छेदं ।। ४७॥ भधिरक्संतो रीयाए अणुवउत्तो भवति इत्थीए जे सयणा रायाणं पासामित्ति मणसा चितेरे मासलहं उद्विते मासगुरूं तयणाणवो जे सुहिणो तेसिं अवियत्तं भवति । जहा से अणुपदभेदे चउलहुं वि चगुरुं । अहवा-वितियादे सेण मणसा रत्ता दिट्टी लक्खिजति । तहा से अंतगमो विभावेण णज्जति बितति मासगुरुं उद्विते चउल हुँ । पदजेदे चउगुरूं एगपदानेदे अजिदिमो एवं उहाहंतं निरक्खंतो वाणगादिसु भावमेज वि चउगुरुगा किमंग! पुण दिढे आणादिविराहणा भद्दपंता भायणं वा निंदेज सयं वा पडेज इत्थं पादं था लूसेड दोसा यजोभहतो सो य,जोभहतोसो।पडिपोग्गत्ति साधु प्रायविराहणा। ठा धुवा सिद्धिः अस्थिउकामो विगच्छ ताहे भविकरणं वितियपदमणप्पज्के, अजिधारविकोविते व अप्पज्के । भवति । जं च सो जुहाति करेस्सति । जति से जयो ताहे जाणते वा वि पुणो, मोहतिगिच्छा तु कज्जेसु ।। ५४ ॥ पिथमेव संजए पुरतो गच्च अपडिपोग्गत्ति इमोहि सुत्तसिरे. हि विदिहिं कुतो मे सिद्धी गंतुकामो विणियत्तति। अह कई मोतिगिनाए वसभोहं समं अप्पसारिए वितो णिरिक्वति विगतो पराजिमो ताहे पश्चगतो पदूसति पउट्ठो य ज काहि साश्मविधिमतिकतो पासति । तिचोय करपञ्चयंताण य पमिसेहं करेज जयकरणवोच्छेदं णिनीतिमायतीए, दिट्टीकीवो असारिए पेहे। पा करेज अह परेत्यर्थः। अट्ठाणाणि वगच्छति,संघाहणमादि गच्छति ॥ ५५ ॥ अहया इमे दोसा हवेज णिग्वितियादियं जाहेअतीतो तादे अप्पसारिए दिट्टितो दिदट्ठण य रायत्यि, परीसहपराति तत्थ केयं त । ट्ठीए कीवो पासति । जह से पोग्गलपरिसामो जीओ तो सर्क प्रासंसं वा कुज्जा, पमिगमणादीणि व पदाणि ॥ अण्वसमंतेहिं सावादिए वा दति अशाणं गच्छेज्ज तत्थ अंकाहिति भत्तो आसंसं णिदाणं कुजा। अह वा-तस्समीवे पदभेदे वि णस्थि पच्छित्तं । नि० चू० ६ उ० ।मसंकियविभूसियाओ श्याओ द पमिगमणं अम्मतिस्थिणी जे निक्खू बप्पाणि वावराणि वा वावीणि वा पोक्खराणि सिरुिपुत्ति संजती या पमिसेवति हत्यकम्मं या करोति । अहवा.। वा पोखरीणि वा दीहाणि वा गुज्कालियाणि वा सरा Page #1131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९००) चक्खुदंसणवमिया अभिधानराजेन्द्रः। चक्खुदसणवडिया णि वा सरपंतियाणि वा सरसरपंतियाणि वा चक्खूदंस- जाणते वा वि पुणो, कजेसु बहुप्पगारेसु ॥१४॥ णपमियाए अभिसंधारे अभिसंधारतं वा साइज । कंग। बप्पाई गणा खलु, जेत्तियमेत्ता य आहिया सुत्ते । "कजेसु बहुप्पगारेसु ति" अस्य व्यास्याचक्वपडियागणी, अभिवरितम्मि आणादी ॥१४॥ तत्थ गतो होज पहू-ण विणा तेण वि य सन्जा। पप्पो केदारो, परिहा खातिया गरादिसु पगारो रत्नदुवारा- तं कन्जं संभम पडि-णीय भए उमस गेलखे ॥१४॥ दिसु तोरणा, जगरदुवारादिसु अमात्रा तस्सेव पासगोरहस- पभू रायादि कुनगणसंघकज्जं भग्गिमादिसंभमे पमिणीयठितो पासातो पव्ययसंधियं । उवरुवरिनूमियाहिं उन्बरमाणं भया वा गछति प्रोसनंति साधूणं तत्थ गमणं अविरु कूडागारं कुंडेवागारं पर्वते कुट्टितमित्यर्थः । भूमिगिहं भूमिघरं | भाइप्रति साधचो तस्येव प्रापासेति गिमाणस्स या पच्छा सक्योश्चियगिहागारो रुक्खगिह रुक्त्रो वा घरं कडं, पर्वतः भायणादिणिमित्तं गच्छति । मसिद्धः ममंचो वियर स्तम्भः प्रसिका पडिमागिहं चेत्तिय तस्थिमा जयणालोहारकुह।। आवेसणं मोगसमवायहाणं आयतणं देवकुलप्र. सिकं सद्भधः स्थान सभा गिम्हादिसु उदगपदाणं य या जत्थ तेसुं दिटिमबंधं नो, गयं वा पमिसाहरे । नं प्रचतितं पाणियगिह जत्थ विकासासाला। अहवा-स परस्साणुवरोहेणं, देखें तो दो दि वज्जए॥ १५० ॥ कुट्टिगं गिहं अकुहा साला एवं जणलालाओ वि जणो सेवि- पधाणपधाणेसु दिक्षिण बंधति सहमा वा गयदि पमिगादि जत्थ णिक्वित्ता छुदा प्रसिमरा पर्व मज्को पन्वगो वि. साहरतिारायादि अणुयन्ति उज्जोयंतोदोविरागदोसे चज्जे। ज्झसारियो रंगाला जत्थ मज्केति फच्छा जथ फझुति घडिजं- जे जिक्खू कत्याणि बा, गहाण वा ण्माणि वा ति वा सवसयाणं सुसाणं गिरिगुदा कंदरं असिवसमणहा वणाणि वा वणविग्गाणि वा पब्बयाणि वा पचयविणं सती सेसो पञ्चतो गोसादिवाणं भवणागारं वणरायमंमि. पं प्रवणं तं चेव वणविवज्जियं गिहं चक्षुरिन्छियप्रीत्यर्थ दुग्गाणि वा चक्रवदसणवडियाए अजिसंधारेइ,अग्निसंधारं दर्शनप्रतिकया गच्छन्ति । तं वा साइज्जइ ॥१॥ तत्थ गच्छंतस्स संजमविराहणा दिळे य रागदोसादयो | कच्छादी गणा वलु, जेत्ति य मेना उ आहिया मुत्ते । हमे दोसा चक्नुपडियाए तेमुं, दोमा ते तं च वितियपदं ॥१५२।। कम्मपसत्यऽपसत्थे, राग दोसं च कारए कुजा। । चमखुदंसणपडियार गच्छतोचतुमझुम्क्नमादी कच्छादवियं सुकयं सुअज्जियंतिय, मुहविविणयोश्य दव्यं ॥१४४॥ घीयं णूमं भिन्नं पगजातीय अणेगजाईय रुक्खाउलं गहणकारको सिप्पी तेण सुपसत्ये कते रागं करेति अध्यसत्ये दो विदुगं एगो पञ्चतो बहुपहिं पन्नतोहिं विगं कूबो अगमो सं। अह वा भणंति-देवकुलादिसु कयं पत्थ अणुमती अहवा. तडागदेहा णही पसिद्धा समवृत्ता बापी चातुरस्सा पुक्स जेण कारवियं तं भणति सुद्ध अजिय तेण दव्वं सुधाणे वाणि-| रिणी पताच चेव दीहदियाश्रो दाहिया सारणी वा वि पतं एवं मणुमती मित्थं तूबवूहा। पुक्खरणीश्रो वा मंडलिसंचियाओ प्रश्नोत्रकबामसंजुत्तामो बकेहि य सत्येहि य, परलोयगता बितेम एज्जति। गुंजामिया भन्नति अनेजणंति णिका अगभेदगतागुंजालिनिउणाऽनिउणत कई, कम्माण व कारगा सिप्पी ॥१४॥ या सप्पगती वा पगं महाप्रमाणं सरं ताणि चेव इणियं णिवणाण णिउणतं कवीण वक्केहिं णज्जति सिप्पियाणं सत्थे- | ति ग्यिाणि पत्तेयं वा जुत्ताणि सरपंती ताण चेव बहूणि अन्नोन्नकबामसंजुत्ताणि सरसरपंती तेसु गच्छंतस्स ते चेय हिणजा विणध्वत्थु दर्छ भणति। दोसा तं चेव होति वितियपदं । बुस्सिक्खियस्स कम्म, धणियं अपरिक्खियोय सो पासि।। जे निक्खू गामाणि वा गराणि वा खेमाणि वा कब जेण मुहाविणियत्तं, सुवीयमिव ऊसरे मोरा ॥१४६॥ डाणि वा मवाणि वा दोणमुहाणि वा पट्टणाणि वा कारगे वा धम्माधम्मे सिप्पिसुए वा अपरिक्खगो मासि कर अपरिक्खित्तो पासि । णागराणि वा संवाहाणि वा संनिवसाणि वा चक्रव्दसण पच्छद्धं जणाति अंतरागयस्स वा इमे दोसा वमियाए अभिसंधारेइ अलिसंधारतं वा साइज्जइ ॥१२॥ दुबिहा तिविहाय तसा, जीया वा नसरणाणि कंखेजा। गामादी गणा खत्रु, जत्तियमेत्ता उ प्राहिया मुत्ते । नोवतगं य अवमं, अंतराइयं च ज वमं ॥१४७॥ चक्खपमियाए सुं, दोसा ते तं वितियपदं ॥१५२|| सुविधा-जलचरा थलचरा य । तिविहा जलयमसहचारिणो गच्छतस्स दप्पे चतुबहुं करादियाण गम्मो गामो, करो यते भीता दुत्तिरवडयं देज्जा जलयरस्स जलं सरणं विझंडो- जत्थ तं एकर खे नाम धूलिपागारपरिक्खितं कुणगरो गरं वा थलचरस्स खहचरस्स प्रागासं कंखेज्जा अभिलास- कधर्म जोयणज्जन्तरे जस्स गामादि णत्यि तं मर्मवादी अषसरणं वा मन्नतेत्यर्थः। तं वा साधु अन्नं वाणोलेज्जा, तेसिया सादिप्रागारोपवणं विहं जलेण जस्त अंडमागजति बरंताणं अंतराश्यं करेति जं वर्णति ते णस्स ता जं काहिति ।। इतरं थलपट्टणं थसेण जस्स भंममागच्छति इतरं थलश्याणि प्रयवादो पट्टणं दोरिण मुहा जस्स तं दोषिणमुहं जलेण वि योण वि वितियपदमणप्पज्के, अहिवरे अकोविते व अप्पज्के। । भममागवति । भासमंणाम नावसमादीणं सस्था वासणस्था Page #1132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्खुदसणवडिया अभिधानराजेन्द्रः। चक्खदसणवडिया णं सरिणवेसं. गामो वा पिंडितो संनिविट्ठो, जत्थागतो वा हयणगीयवाइयतंतीतलतालतुमिपमुप्पवाइयहाणाणि वा लोगो संनिविछोतं सरिणवेसं जम्मति, अएणत्थ किसि करेत्ता चक्रवदंसणवमियाए अजिसंधारेइ, अभिसंधारतं वा साअन्नत्थ वोदु वसंति,तं संवासं भएणति । घोसंगोउलं,बणियब इज्जा ॥ ३१ ॥ जे जिक्ख मिमाणि वा ममराणि वा खामो जत्थ बसति तं णेगम, अंसिया गामततियनागादि भंडुग्गा धणा जत्थ भिज्जंति तं पुडभेयं, जत्थ राया वसति सा राणि वा वेराणि चा महासंगामाणि वा कलहाणि वा रायदाणी । वोलाणि वा चकवूदंसाणवडियाए अजिसंधारेश्, अभिसंधाने निक्ख गाममाहाणि वा० जाव समिवेसमाहाणि वा | रंतं वा सारजइ ॥ ३३॥ चक्खूदसणवमियाए अभिसंधारे, अभिसंधारतं वा सा अफ्खाणगादि आधादियं एगस्म वनमाणं अनेण अणुमीयत इज्जइ ॥२३॥ जे जिक्खू गामवहाणि वा० जाव समिवे- इति, माणुम्माणियं जहा धन कंवलसवला अधवा माणपोतयो सवहाणि वा चक्खुदसणपमियाए अजिसंधारेइ, अनिसं- माणुम्माणिय विजादिपहिं रुक्लादीण मिजंतीति णेमं, अथवाधारतं वा साइजइ ।। २४॥ णम्म वर्ट सिक्खावजंतस्स अंगाणि णमिति गहितक हा । अथवा-बत्थपुप्फचमादि वा कप्पं रुक्खादिभंगो दब्वजे भिकम्व गामपहाणि वाग्जाव सप्लिवेसपहाणि ना चक्नु विभागे य कनहो वादिगो जहा सिंधवीणं रायादीणं बुग्गहो, दंसणवमियाए अनि जाव साइज ॥२५॥ जे भि- | पासतादी जूया सभादिसु अणेगविहा जणवया । क्खू गामदाहाणि वा० जाव सम्मिवेसदाहाणि वा चक्खू- जे निक्खू कट्ठकम्माणि वा चित्तकम्माणि वा पोदंसणवमियाए अभिसंधारेइ, अनिसंधारतं वा साइ- त्थकम्माणि वा लेप्पकमाणि वा मणिकम्माणि वा सेलकजइ ।। २६ ॥ म्माणि वा गंथिमाणि वा वेढिमाणि वा कापरिमागामस्स पहो गाममार्ग इत्यर्थः । णि वा संघायमाणि वा वेहमाणि वा विधिहमाणि वा जे जिवख आसकरणाणि वा हस्थिकरणाणि वा० जाब चक्रवदंसाणवमियाए अमिसंधारेइ, अनिसंधारतं वा सूकरकरणाणि वाचकादंसणवाडियाए अनिसंधारेश, अभि- साइज्जइ॥ ३३ ॥ संधारतं वा साइजा ।। २७॥ जे जिक्खू आघायाणि वा| ककम्म कोट्टिमादि पुस्तकेषु च वत्थे वा पोत्थं, चित्तलेपा चक्खुदसणवमियाए अभिसंधारे, अभिसंधारतं वा सा प्रसिका, पूयादिषु पुष्पमासादिषु गंठिम, जहा आणंदपुरे पुष्फइज्ज ॥२७॥ पूरगादि वेदिमं प्रतिमापूरिम सकंचुकादिसु कट्ठसंबंधीसु वा, संघामिमं महदाण्यानं वा महता इतं , अहवा-महता श. प्राससिक्स्त्रावणं आसकरणं, एवं सेसाणि त्ति । म्देन वादित्रमाहतं, चाश्ता तंती, अन्यद्वा किंचित, हत्थतालणं जे निरखू पासजुवाणि वा० जाव सूकरजुकाणि वा तालो, कडं बादित्रसमुदायो, त्रुटिः अस्स मुतिंगस्स घणं स. चक्खूदंसणवमियाए अभिसंधारेश, अभिसंधारतं वा सा-| इसारिच्चो सदो सो घणमुइंगो पकुणा सइण वाइतो सर्व इज्जः ॥ २ ॥ एवेछियार्थः चक्षुः। दयोऽश्वः तेषां परस्परतो युरूम, एवमन्येषामपि, गजादयः जे भिक्खू विरूवरूवेस महुस्सवेसु इत्थीणि वा परिमाणि प्रसिकाः, शरीरेण विमध्यमः करटः रक्तपादपः घट्टका सिखी वा थिराणि वा मजिकमाणि वा महराण वा अणलंकिधूम्रवर्णः लावकः अाडिमादि प्रसिका भदियपच्चाडियादिक- याणि वा सुअलंकियाणि वा गायंताणि वा वायंताणि वा रणेहिं जुकं,सबसंधिविक्खोवणं णिजुद्धं, पुवं जुरूण जुकिओ | एचंताणि वा हसंताणि वा रमंताणि वा मोहंताणि वा पच्छा संधी विक्रोनिज्जति जत्थ तं जुळं णिजुद्धं । विपुलं असणं वा पाणं वा खाइमं या साइमं वा परिनुंजजे जिक्खू गानजुहियहाणाणि वा इयजुहियट्ठाणाणि ताणि वा चक्रवदंसणवडियाए अभिसंधारेइ, अनिसंधाबागयजुहियट्ठाणाणि वा चक्रन्दसणवमियाए अभिसंधारे, रंतं वा साइज्जइ ॥३४॥ अजिसंधारतं वा साइजइ ॥ ३०॥ उहि गावा गावो उहित्तानो अमवी जुत्ती उज्जूदि. भासयंते सत्याणि अच्छति । अहवा-आम्नावंति भुमंति, अहवा गोसंखडी उज्जूहिगा भन्नति, गावीणं णिवेढणा जन्तीत्यर्थः । रममाणा गेंदुगादिसु रमते मज्जपान अंदोलगापरिभाविणिज्झहिगा वधूवर परियारंति मिथुजूहियवम्मि दिसु ललंतो जलमध्ये क्रीमा ननृत्तादिषु कंदणी मोहनो. मगुहि हपहिं वनदरिसणा हयाणीय, गएहि वरदरिसणा | द्भवकारिका क्रिया मोहणा , सेवणता सेसपढ़ा प्रथप्रगयाणीयं, रहहिं बलदरिसणा रहाणीयं, पाइवलदरिसणा सिकाः । जे जिक्खू विरूवरूवाणि वा इत्यादि । भणेगरूषा पायताणीयं, चउसमवायो य अणियदरिसणं चोरादि वा बज्झ विरूवरूवा महता महामहा जत्थ महेवहराया जहा भंजीणिज्जमाणं पेहाए । सुरुलाए, महवा-जत्थ महे बहू राया मिलंति, जहा सर. क्खसो वदुरयो जम्नति तालायरबहुबा बदुणमाला गसपुज्जेव जे जिकावू अनिसेयट्ठाणाणि वा अक्खाश्यहाणाणिवा गंमभगा य वहुराया श्रवत्तभासिणो, बहुगा जत्थ महे मिति माणम्माणियहाणाणिवा पमाणियहाणाणि वा महया सो वह मिलक्खुमहो, ते य मिलक्नु इमिमादी । १७८ Page #1133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्खुदसणवडिया प्रनिधानराजेन्द्रः। चक्खुस्सव जे भिक्ख इहलोएमु वा रूम दिईसु वा रूबेसु सुएमु चक्खुमंत-चक्षुष्मत्-पुं० । स्वनामख्यातेऽवसनिण्यां जाते द्वितीये बा रूसु अमुएम वा रूवेमु विष्णाएम वा रूवेमु प्रवि. कुलकरे, प्रा०म०प्र० । प्रा0 101 स.101खा मा. पाएमु वा सेवेसु सज्जारज्जइ गिज्झइ अफोरवज्जइ, चू०।लोचनयुक्ते, त्रि०। विशे।('कुलगर' शब्दे अस्मिसजमाणं वा रज्जमाणं वा गिज्माणं वा अज्झोक्वज शेष भागे ५५३ पृष्ठेऽस्य वक्तव्यतोता) माणं वा साइज ॥ ३५ ॥ चक्खुम्मेल-चक्षुर्मेल-पुं० । एकस्य चक्षुष उन्मीलनेऽपरस्व हसोश्या मणुस्सा, परसोइया हयगयादी पुव्वं पच्च निमीलने, व्य०१ उ० । विट्ठा अदिका देवादी मणुमा जे अणिता सहावादी पदा ए. चक्खुय-चानुष-पुं० । चतुःस्पों रष्टिगोचरे प्रकचापागट्टिया । अहवा-प्रासेवणाभावे सज्जणना मणसा पीती ग दौ, मा० म० वि०। मणं रजुणता सदोसुबलके वि अविरमो गंधी अगमगमणा- चक्नुलोल-चकर्लोल-पुं. चिकुषा लोलशालः, बकुळ सेवणा वि अज्झुत्रवातो । नि. खू. १२ उ०। लोलं यस्य स तथा। स्तूपादीनालोकयित्वा ब्रजति, स्था. बक्खुदसणावरण-चकुदेर्शनावरण-न।६त। दर्शनावरण.| ग० ४ ०। "वखुलोलए हरियावाहियाए पलिमंचू" कर्मभेदे, यदयात् जीवानां चकर्दशनं सामान्यप्राही बोधः | ०६००। ( स्थाग०) न भवति । स समः । अथ चतुलोशमाहचक्रवदिहि अचस्व, सेसिदिय भोहिकेवलेलं च । । भालोयणा य कहणा, परियट्टऽणुपेहणा आणाभोए । दसणमिह सामनं, तस्सावरणं तयं चहा॥१०॥ | महुगो य होति मासो, प्राणादि विराहणा विहा ।। रह चक्षुर्दर्शनं नाम यच्चनुषा रूपसामान्यग्रहणं तस्यावरणं स्तूपादीनां लोकनां कुर्वाणः, कथनां धर्मकथां, परिवर्तना बकुर्दर्शनावरणं, चक्कुःसामान्योपयोगावरणामिति यावत् (क प्रेक्षां च कुर्वन् यद्यनाभोगेनानुपयुक्तो मागें व्रजति तदा लघुमाम.) भत्र च चकुदर्शनावरणोदय एकत्रिीन्द्रियाणां मनन सा, पाकादयश्च दोषाः, द्विविधा विराधना प्रवेत् । एव चकुर्न नवति,चतुःपञ्चेम्प्रियाणां तु भूतमपि चकुस्तथाविधे इदमेव नावतिसदुदये विनश्यति , तिमिरादिना बाऽस्पदं भवति । आलोएंतो वञ्चति, थूभादीणि व कहति वा धम्म । कर्म.१कर्म। परियहणाणुपेहण, न यावि पंथं ति नवउत्तो॥ चक्खुइय-चकुर्दय-पुं० । बकुरिव चकुः भुतकानं, शुभाशुभार्थ- स्तूपादीनि पालोकमानो, धर्म वा कथयन् , परिवर्तनामुविभागकारित्वात, तत् दयते इति चर्दयः। सकाचकुरिव चनुः | स्पेक्षा वा कुर्वाणो बजति । यद्वा-सामान्यन न च नैवोपयुक्तः विशिष्टः प्रात्मधर्मस्तस्वावबोधनिबन्धनश्रास्वजावा, भा- पथि जति , एष चकुलाल उच्यते । बिहीनस्याऽचकुष्मत इव रूपतत्वदर्शनायोगात, कल्याणचक्कु अस्यैते दोषा:पीवभवति वस्तुतत्त्वदर्शनं तदीयं धर्मकल्पमस्यावश्ययोजभतेच्यो भगवदृश्य पव। ध०१ प्रधिका तहदतीति चवदाः। कायाण विराहण, संजमे भायाऍ कंटगादीया । राकानच मार्गानुसारिणी श्रद्धा सुखेनावाप्यते । चक्षुःस श्रावमणे जाणनेदो, खके उड्डाह परिहाणी॥ मानभुतकानदायकेषु तीर्थकृत्सु, कल्प०१क्षण । अनुपयुक्तस्य गच्छतः संयमे षट्रायानां विराधना भवेत,माबक्खुपमिनेहा-चतुःपतिलेखा-बी०ा चषाबलोकने, नि. स्मविराधनायां कपटकादयः पादयोर्लगेयुः, विषमे पा प्रदेश भापतनं नवत्, तत्र जाजनभेदः। 'सद्धेच' प्रचुरे भक्षपाने भूचू०१०। मौ छर्दिते हादो भवेत-अहो बाहुनकका अमी इति । भाजने चक्खुपह-चक्षुष्पथ-पुं० । सोचनमागें, सूत्र.१.६०।। च भिन्ने परिहाणिः सूत्रार्थपरिमन्यो नाजनान्तरगवेषणे, सत्यबक्खुपहडिय-चकृष्पथस्थित-पुं० । लोकानां लोचनमार्गे भ- रिकर्मणायां च नवेति । गतश्चकुलोलः । ०६०। वस्थकेवल्यवस्थायां स्थिते लोकानां सूक्ष्मम्पयहितपदार्थावि-चखलोयणलेस्स-चक्कोंकनलेश्य-त्रि० । चकुककलोकभावन चक्षुर्भूते, सूत्र.१६०६०। (च)ने, अवलोकने सेश्यति च दर्शनीयत्वातिशयतः लिभ्यचक्नुपम्हनिवाय-चतुःपक्ष्मनिपात-०। उन्मेषनिमेषमात्र तो वा यत्र तत्तथा । जी० ३ प्रति० । चक्षुःकर्तृकलोकने लि शतीव दर्शनीयत्वातिशयात श्लेष्यतीव यत्र तत्तथा । तथाविधे क्रियायाम, म०१० ३३० । सुरूपे, येन तत्पश्यचकुर्न विश्लिष्यति । रा०। परखुफास-चतुःस्पर्श-पुंग चक्षुषोः दृष्टेः स्पर्श व स्पशों, न चक्खुविचिहय-चकुर्वतिहत-निकारष्टयाऽपरिचिते,व्य०८॥ तु स्पर्श पव, चक्षुषोरप्राप्यकारित्वात इति वक्षःस्पर्शः। भ०१ २०६ उ० । दर्शने, औ० । राष्टिगोचरे, उत्स०१० । चक्नुस्सव-चकुःश्रवस्-पु. भुजले, सहिचकुवतृणोति। परिक्खेव-चकृर्विक्षेप-०। चकुर्धमे, भ० ३०२ उ०। (सम्म भयत एव चनुषा शमवणं प्राणिविशेषाणाम, "चकुःश्रवसो नुजनाः" इति लोकप्रवादावा मिथ्या स प्रवाद पक्भीय-चकीत-त्रि० । चतुःशम्दोऽत्र दर्शनपर्यायः। इतिचत, नैतत प्रथादवाधकस्यानावात्,कीचद्रानुपलब्धध। दर्शनादेव भीते, प्राचा० १९.६ म०५०। बदनशूकचकुषो जात्यन्तरादित्युत्तरमत्रोपयोगि, मन्य Page #1134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्खुस्सव भनिधानराजेन्सः। चमढ प्रापि प्रकृष्टपुण्यसंभारजनितसर्वविधनुषि समामत्वात । | चमवेना-चटवेला-स्त्री.। चपेटायाम् , प्रम.२ श्राम द्वार। सम्म० एकाएक | चडुयार-चटुकार-पुं० । मुखमङ्गलकरे,प्रम०३ भामाशार। पाखुहर-चकाई (प)र-विकारपाकेपकत्वात, अथवा प्रछादनीयाजदर्शनात चक्षुईरति धरति वा निर्वर्तयति यन- चमुक्ष-चहुल: .| चमुल-चटुल-त्रि०ा चट-लन् । चले, चपलेच, विद्युति, स्वात्तत्तथा । तथाविधेऽतिशीलेऽनिनये, शा०१०१ मा | नावाचा सत्र। पचर-चत्वर-न० । “कृत्तिचत्वरे चः "16|२। १२ । इति | चमुलनाव-चटुमनाव-त्रि० । चटुमश्च विविधवस्तुषु कणे सकारस्थ चकारादेशः। प्रा. २ पाद । भनेकरध्यासक्रम- आकाङ्गादिप्रवृत्तेनीवाधितं यस्य स तथा विषयासक्तशलस्थाने, कल्प०४ कण । श्रीरा० । भ० । ०। विपा। चित्ते, प्रम०१ आश्रद्वार। प्रस। स्था० । रण्याष्टकमध्ये, का.१.१. त्रिपथमे-चनिया-चमल्लिका-खीनपर्यन्तज्वलिततृणपूनिकायाम,नंग दिस्थाने, का०१७.१०। औ.। "एहं रत्थाण जहि, जाहचह-पिष-धा चूर्णने, “ पिषेणिवहणिरिणासणिरिणजरो. पवहोतं चचरं विति ।" यत्र पक्षां रध्यानां प्रवदो निर्गमस्तं | बत्वरं युवते तीर्थकरगणधराः। वृ०१.। शबहाः"||४|१८५ । इति पिपेधडादेशः। 'चहा' पिमर्जर-त्रि०।"चूलिकांपैशाचिके तृतीय-तुर्ययोराद्य-द्विती भाष्टि। शुज-धागा भरणे, बादने, “भुजोवृक्षजिमजेमकम्मा. एहसमाणचमढचडाः"।८।४।११. । इति भुजेः चहादेशः। यो"।।। ३२४ । इति तृतीयस्य स्थाने प्रथमः । जीणे, 'च'भुनक्ति । प्रा०४ पाद । पात्रविशेषे,०१०। प्रा०४ पाद । बचर।-चर्चर-स्त्री० । चर्च-अरन् । गौरा सीए । गीतिनेदे, |चण-चण-पुं०। चणकधान्ये, ज• ३ वक। कुटिलकेशे, हर्षकीडायाम, साटोपवाक्ये. उन्होनेवासाचण्या-चणकिका-खी। मसूरधान्ये, स्था०५०३ उ. करवनौ, “रासे चधरीमो य"माव०१०। चणग-चणक-पुं० । सनासवृत्तफल के सस्यभेदे, तत्फलरूपे बच्चसा-चर्चसा-त्रा० । वाद्यभेदे, "अटुसयं वचसाणं महस-1 धान्यभेदे च । (चना) प्रा० चू०६.। पंचवसावायगाणं"100 चणगगाम-चणकग्राम-पुं० । गोल्लविषये स्वनामख्याते प्रामे, बच्चिक-नग स्थासक-पुं०। “गोणाऽऽदयः" ।।१७।। इति | यत्र चणिद्विजात्मजचाणक्यो जके । मा म. वि. मा. स्वासक इत्यस्य 'चधिक' भादेशः। चाकविक्ये, निलये, चू० प्रा० क०। चाप्रदुं २ पाद। चागपुर-चणकपुर-ज० । चणकत्रं ष्ठा निशासिते नगरे, सखुप-अप्पि-धारा भपि-णिच् । समर्पणे, " अप्परलिव- यत्क्रमेण राजगृहं नाम नगरं जातम। प्रा. काभावः। चन्चुप्प-पणामाः" ॥४॥३६॥ इत्यर्यन्तस्य चन्चु प्रा० चूती.। प्पादशः। चन्चुप्पर 'अर्पयति । प्रा.४ पाद । चणि-चणि-पुं०। चाणिक्याख्यस्य चन्द्रगुप्तमहाराजस्य मनि पच्च-तक्ष-धा । तन्करणे, (चाँग्ना) "तस्तच्चधर- जो ब्राह्मणस्य पितरि, प्रा. क. मा० चू। म्परम्फाः " ॥८४१६४॥शति त'चप'मादेशाचच-चत्र-नातको, ध० २ अधि। पञ्चा. । 'चर' तक्षति । संतनूकरोतीत्यर्थः । प्रा०४ पाद । त्यक्त-त्रिकापरिहते, उत्त "त्यक्ते परिप्रसाधो, ज-द-पा० । "शो निचपेधावयच्यावयज्जवजस प्रयाति सकसं रजः।" भष्ट० २५ अष्टः । म्भवदेखीभक्सावक्खापनक्सपुसोएपुलपनिभावनासपा--- |चत्तदेह-त्यक्तदेह-त्रि० । त्यक्तो निर्ममत्वेन परिचानावेन साः"॥८४॥ ११॥ति सूत्रेण शेश्वजादेशः। 'चज' भवगणितो देहो यैस्ते त्यक्तदेहाः । उत्त.१२अान्युत्सृष्टपश्यति । प्रा०४ पाद । शरीरे.संथा। चट्टसाला-चदृशाना-सी० । ब्रह्मवदनामध्ययनशालायाम, चत्तदोस-त्यक्तदोष- विपरिहतरागादी, ध० ३ अधिः। चत्तालीस-चत्वारिंशत-श्री चतुर्गुणितायां दशसंस्थायाम, चह-प्रारुह-धा-1"भारुहेश्वरवसम्गी"।८।४।२०६।। "तीसा चत्तालीसा "प्रज्ञा०२पद । इति मारपूर्वस्य सहधातोश्चमादेशः। 'चमई' आरोहति । प्रा. चत्वारिंशत्क-त्रि०ाचत्वारिंशद्वर्षजाते, "मोगायनीसगस्सक, ४पाद। चत्तासीसस्स विनाणं।" तं०। चमग-चटक-पुं०।कल विपक्तिविशेष, (चिरकली) प्रज्ञाचफल-मिध्यावादिन-त्रि०ा गोणादित्वात्तथादेशः। मसत्त१पदा सूत्राप्रमा० म० । कोशकारे, कोशकार- सापिनि,"रेरे चप्फलया!"रेरेमिथ्यावादिन् ! "गोणादयः" भवं सूत्रं चटकसूत्रमिति सोके प्रतीतम । अनु० । प्रा०म०।।।२।१७।। इति "चाफा" इत्यादेशः “स्वार्थे कथा " चमगर-चटकर-पुं०1 समुदाये, का०१०१०।विस्तरे, ।।११६४ाशति कप्रत्ययः। मनेन वा दीर्घः। कगचज. भ.श. ३३ 30। विपा-माम विच्छते. महया| ।।१।१७७॥ इति कलुक"श्रवों०" १०अया. प्रमचमगरविंदपरिक्वंतं" ०१७०१ मा अता सलुक। "चप्फलया रे" प्रा०९०१पाद । चमगरचण-घटकरत-जा अतिप्रपञ्चकथने,"महयाचमगर-चमकिरिया-चपक्रिया-स्त्री०। चमत्कारे, अष्ट०१४ अट। उणेणं प्रत्यकहा हणा (३." . .. पचमढ-भुज-धारा पालनाऽभ्यवहारयो, "जो तुम्जाजि Page #1135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९१२) अभिधानराजेन्सः । चमढ चमर मजेमकम्माएहसमाणचमढचड़ाः”।5।४। ११० । इति नु-| रत्तए त्ति कट्ट एवं संपेहेइ, संपेहेइत्ता कवं पाजप्पभायाए अधातोश्चमढादेशः। 'चमढनुङ्क्ते । जुनक्ति । प्रा०४ पाद। रयणीए तं चेव निरवसेसं चनत्थे पुगए पमइ तं अचमढणा-चमढना-स्त्री. । कदर्थनायाम, उद्वेगे, वृ०१ उ। मौ०। प्पणा आहारं आहारे । तए णं से पूरणे वाझतवचमढि-चमढित-त्रि०। विनाशिते, व्य० २२० । स्सी तेणं उरालणं विवुलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं चमढिजंत-चमढायमान- त्रिकदर्थ्यमाने, श्रोघलाउद्वेज्यमाने, वाशतवोकम्मेणं तं चेव जाव वेभेनस्स सशिवेसस्समझ मज्केणं निग्गच्छद, निग्गच्छश्त्ता पानयकुंमियमादीयं नवचमर--चमर-पुं० । प्रारण्ये गवि, प्रश्न०३ आश्र द्वार । रा०। जं. । प्रज्ञा ।भ । औः। झा । सुमतिनाथस्य प्रथमशिष्ये, गरणं चनप्पुमयं च दारुमयं पडिग्गहियं एगंतमंते एमेश, स० । प्रव० । दाक्षिणात्यानामसुरकुमाराणामिन्छे, प्रा० २ एडेइत्ता वेभेनस्म सन्निवेसस्स दाहिणपुरच्छिमे दिसी पद । स. । नागे अचनियत्तणियं ममसं आलिहिता संलेहणाअथ चमरस्योपपातवक्तव्यता सणासिए भत्तपाणपमियाक्खिए पाओवगमणं नितेणं कालेणं तेणं समरणं रायगिहे पयरे होत्था० जाव | बन्ने, तेणं कालेणं तेणं समएणं अह गोयमा ! छउमत्थपरिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे अ-| काझियाए एकारसवासपरियाए छठें छठेणं अनिक्खित्तेणं मुरिंदे असुरराया चमरचंचाए रायहाणीए सभाए मुह-| तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे पुन्वाणुपुम्माए चमरंसि सीहासणं सि चउसट्ठीए सामाणियसाह- | वि चरमाणे गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे जेणेव सुंमुमारपुरे स्सीहि जाव नट्टविहं जबर्दसेत्ता जामेव दिसि पाउन्नएनगरे जेणेव असोयवणसंडे उज्जाणे जेणेव असोयवरपातामेव दिसिं पडिगए, जत्ति । ज. ३ श०२ उ०। । यवे जेणेव पूढवीसिलावट्टए तेणेव बागच्छामि, उवा गच्छामित्ता असोगवरपायवस्स हेढे पुढविसिलावट्टयसि भागे ८५९ पृष्ठे उक्तः) अहमजतं पगिएहामि दो वि पाए साइड वग्धारियपाणी यावदूर्खमुपपातः एगपोग्गलनिविठ्ठदिट्ठी अणमिसनयणे सिं पन्नारगएणं एस विय णं भंते ! चमरे असुरिंदे असुरराया उलुन कारणं अहापणिहिएहिं गत्तेहिं सबिदिएहिं गुत्तेहिं एगप्पश्यपुब्वे जाव सोहम्मे कप्पे । हंता गोयमा एस वि य राइयं महापडिमं उपसंपजित्ता विहरामि । ज०३ श० उ०। एं चमरे असुरिंदे असुरगया नई नप्पइयपु० जाव सो. उपपातःहम्मे कप्पे । अहो णं ते ! चमरे असुरिंदे असुरराया म- तणं कालेणं तेणं समएणं चमरचंचा रायहाणी अणिंदा दिड्डीए महज्जुतीए० जाव कहिं पविघा कूमागारसाना अपुरोहिया पावि होत्या, तए णं से पूरणे बालतवस्सी दिलुतो भाणियब्यो । चमरेणं नंते ! असुरिंदणं असुर- बहुपडिपुमाई दुवालसवासाई परियागं पाणित्ता मासिरखो सा दिव्या देविही तं चेव किम्मा लछा०३१॥ एवं खलु याए संलहणाए अत्ताणं सेत्ता सढि भत्ता असणाए गोयमा । तेणं काझेणं तेण समएणं हेव जंबुद्दीवे दीवे बेदेत्ता कालमासे कालं किच्चा चमरचंचाए रायहाथीए भारहे वासे विझगिरिपायमले वेलेणामं संनिवेसे होत्था।। नववायसभाए जाव इंदत्ताए नववन्ने, तए णं से चमरे बमो -तत्य णं वेनेलसमिसे पूरणे नामं गाहावई परि- असुरिंदे असुरराया अहुणोववन्ने पंचविहाए पज्जत्तीए घसर, अ दित्ते जहा तामनिस्स बत्तव्बया तहा नेयच्या, पजत्तिनावं गच्चइ । तं जहा-आहारपज्जत्तीए० जाव भा. णवरं चउप्पुडयं दारुमयं पमिग्गहयं करेत्ता० जाब विपुलं सामणपज्जत्तीए तए णं से चमरे अमुरिंदे असुरराया असणं पाणं खाइमं साइमं० जाव सयमेव चनप्पुमयं दारु- पंचविहाए पज्जत्तीए पजत्तिनावं गए समाणे नहुं वीसमयं पमिग्गहयं गहाय मुंभे नवित्ता दाणामाए पञ्चजाए साए मोहिणा प्राभोइए. जाव सोहम्मे कप्पे पास य, पव्वश्र, पन्चइए विय णं समाणे तं चेव० जाव भाया। | तत्य सकं देविंदं देवरायं मघवं पागसासणं सयकडे सहवणनमीए पञ्चोरुनिता सयमेव चनप्पुमयं दारुमयं पमि- सिक्वं वजपाणिं पुरंदरं० जाव दसदिसाओ उज्जोवेमाणं ग्गहयं गहाय वेभेनसमिवेसे नचनीयमझिपाई कुलाई पनासेमाणं सोहम्मे कप्पे सोहम्मवर्मिसए विमाणे वरसमुदाणस्स निक्खायरियाए अडेता जं मे पढमे पुमए | सभाए मुहम्माए सक्कंसि सीहासणंसि० जाव दिखाई पमइ, कप्पइ मे तं पत्थियपहियाणं दलइत्तए, जं मे दोचे | जोगभोगाइं जमाणं पासइ,पासश्ना इमेयारूवे अन्जथिए पुमए पमइ, कप्पइ मे कागसुणगाणं दायित्तए, जं मे तच्चे चिंतिए पत्थिए मणोगयसंकप्पे समुप्पज्जित्था, केसणं एस पुगए पमः, कप्पड़ मे तं मच्चकच्छमाणं दाइत्तए, जमे | अप्पत्थियपत्यए दुरंतर्पतलक्षणे हिरिसिरिपरिवजिए चमत्ये पुढए पमइ, कप्पा मे तं अप्पणा आहारं आहा- हीणपुमचाउदस्से जं. मम श्मे, एयारूवार दिवाए दे Page #1136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९१३) चमर अभिधानराजेन्डः। चमर विहिएजाव दिव्वे देवाणुना सके पत्ते अभिसमठणा- देवरायं सयमेवं अचासाइत्तए ति कह उत्तरपुरच्छिमं दिगए उप्पि अप्पुस्सुए दिवाई भोगभोगाई जुंनमाणे सीभागं अवक्कमइ, अबक्कमहत्ता वेउनियसमग्याएणं समोविहरइ, एवं संपेहेइ,संपेहेइत्ता सामाणियपरिसोपवएणए देवे हण, समोहणइत्ता. जाव दोच्चं पि उब्धियसमुग्धारणं सहावे,सदावेइत्ता एवं वयासी-केसणं एस देवाणप्पिया! समोहणइ, समोहणइत्ता एगं महं घोर घोरागारं नीमनी अपत्थियपत्थिए.जावजमाणे विहरइ । तए णं से सामा- मागारं नासुरं भयाणीयं गंजीरं उत्तासायं कालकरत्तं भाणियपरिसोबएणगा देवाचमरणं असुरिंदेणं असुररमो एवं सरासीसंकासं जोयणसयसाहस्सीयं महावादिं विनव्वर, वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठ० जाव हयद्दियया करयसपरिग्गद्दियं | विउबइत्ता अप्फोमेश, अप्फोमेइत्ता वग्गइ, वग्गश्त्तागदसनई सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट जएवं विजएणं ज्जइ,गज्जपत्ता हयहेसियं करेइ, करेइत्ता हत्यिगुलगुलाइयं वकाति, वखातित्ता एवं वयासी-एसणं देवाणुप्पिया! करेइ, करेइत्ता रहघणघणाइयं करेइ, करेइत्ता पायदद्दरगंकसक्के देविंदे देवरायाजाव विहरइ। ज०३ श०२ उ०। रेइ, करइत्ता मिचवेडं दनयर,दलयइत्ता सीहनादं नदा, नदत्ता उच्छोड,उच्छगनेत्ता पच्छोले,पच्छोलेइत्ता तिउर्द्धमुपपातः वति छिदइ, तिवति छिदत्ता वाम नुयं ऊसवेड, ऊसवेइत्ता तए णं से चमरे अमुरिंदे असुरराया तेसिं सामाणिय- दाहिण हत्थरएसिणीए अंगुट्ठनहेण यदि तिरिच्छं मुहं निमपरिसोक्वएणगाणं देवाणं अंतिए एयमढे सोचा निसम्म वइ,विमंचइत्ता महया महया सदेणं कलकत्ररवं करे, करेमामुरुत्ते रुठे कुविए चंडिकिए मिसिमिसेमाणे ते सामाणिय इत्ता एगे अविइए फलिइयणामयाए उ विहासं चप्पइपरिसोववाए गए देवे एवं वयास।-अप्ले खल्नु नो ! से सके | ए खोभंते चेत्र अहोलोयं कंपेमाणे व मेयणितलं सा कसुते देविंदे देवराया, अन्ने खलु नो ! से चमरे असुरिंदे | व तिरियलोयं फोडेमाणे व अंबरतलं कत्यइ गजइ, कत्थर असुरराया महिहिए खबु जो! से सके देविंदे देवराया, | विज्जुयायंते, कत्थई वासंवासेमाणे,कत्था ग्युग्घायं पकरेमाअप्पिग्लिए खदु जो ! से चमरे अमुरिंदे असुरराया, तं णे, कत्थइ तमुक्कायं परेमाणे, वाणमंतरे देवे वित्तासेमाणे इच्छामिणं देवाणुपिया!सकं देविंदं देवरायं सयमेव अच्चा- वित्तासेमाणे जोसिए देवे हा विजयमाणे दुहा विभयमाणे साहित्तए त्ति कहु उसिणे उसिणभूए जाए यात्रिहोत्था। तए | आयरक्खदेवे वि पसायमाणे पनायमाणे फलिहरयण अंबरतणं से चमरे असुरिंदे असुरराया ओहि पउंजर,पउंजइत्ता मम लंसि वियट्टमाणे वियदृमाणे विनम्भाएमाणे विनन्माएमाणे श्रोहिणा आनोएइ, श्राभोएइत्ता मयारूवे अब्भत्यिए. ताए उक्किचाए. जाव तिरियमसंखेजाणं दीवसमुदाणं नाव समुप्पज्जित्या, एवं खलु समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे म मज्केणं बीस्वयमाणे वीर्डवयमाणे जणेव सोहम्मे दीवे जारहे वासे सुंसुमारपुरे नगरे असोगवणसंडे उजा- | कप्पे जेणेव सोहम्मवमिसए विमाणे जणेष सभा सुहम्मा णे असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलावट्टयंसि अट्टम- तेणेव नवागच्छा नवागच्छइत्ता एगं पायं पउमररवेश्याए जत्तं पगिएिहत्ता एगराइयं महापडिमं उपसंपज्जित्ता णं करने, एग पायं सनाए सुहम्माए करे, फनिहरयणेणं विहर६ , त सेयं खलु मे समाणं जगवं महावीरं नीसाए महया महया सद्देणं तिक्वुत्तो इंदकीलं आन मेइ, आउमे. सकं देविंदं देवरायं सयमेव अचासाइत्तए त्ति कटु एवं इत्ता एवं वयासी-कहिणं भो! सके देविंदे देवराया,कहिणं संपेहे, संपेहेत्ता सयणिज्जायो अन्तुडे, अन्नुढेश्त्ता ताओ चनरासीइसामाणियसाहस्सीओ जाव कहिणं तादेवदसं परिहेइ, परिहइत्ता जेणेव सना मुहम्मा जेणेव श्रो चत्तारि चनरासीनो आयरक्खदेवसाहस्सीओ, कचोप्पाले पहरणकोसे तेणेव नवागच्चइ, उवागच्चश्त्ता फ- हिणं ताओ अणगाओ अच्छराकोमीओ, अज हणामि, लिहरयणं परामुसइ, परामुसइत्ता एगे अवीए फलिहरय अज्ज वहमि.अज्ज महेमि,अज्ज ममं अवसाओ अच्छराओ णमयाए महया अमरिसं वहमाणे चमरचंचाए रायहाणीए वसमुवणमंतु ति कट्टु तं अणि8 अंकंतं अप्पियं असुनं मज्कं मक्केणं निग्गच्छ, निग्गच्छइत्ता जेणेव तिगिच्चकूमे अमणुमं अमणार्म फरुसं गिरं निसिरह । तए से मके नप्पायपबए तेणेव नवागच्चम, उवागच्छइत्ता वेउब्बिय- देविंदे देवराया तं अणिटुं० जाब अमणाम अस्मयपुत्वं समुग्धारणं समोहणइ,समोहणइत्ता जाव उत्तरवेउब्धिय- फरुसं गिरं सोचा निसम्म आसुरुत्ते. जाव मिसिमिसेरूवं विकुव्वर, ताए उकिट्ठाए जाव जेणेव पुढविसिलाव- माणे तिवलियं निउडि निलामे साह९ चमरं असुरिंदं अ. हए जेणेव ममं अंतिए तेणेच नवागच्च, उवागच्छइत्ता सरराय एवं बयासी-हं जो! चपरा असुरिंदा असुरराया ममं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करे३०, जाव नमंसित्ता अप्पत्थियप्पत्थिया० जाव हीणपुमचानदेसा अज्ज न जएवं वयासी-इच्छामि एं भंते ! तुम्नं नीसाए सकं देविंदं वसि नाहि ते मुहमत्थि त्ति कह तत्थव सीहासणवरगए २७ए Page #1137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमर अभिधानराजेन्द्रः। चमर बज्ज परामुसह,परामसइत्ता तं जलंत फुतं तमतमंत उक्का- पिए अोहिणा आजोएमि. हा हा. जाव जेणेव देवाणुसहस्साई विणिमयमाणं विणिमुयमाणं जालासहस्साई पिए तोणेव उवागच्छामि, देवाणप्पियाणं चनरंगुलमसंमुयमाणं इंगालसयसहस्सा पविक्खिरमाणं पविविश्वरमाणं | पत्तं वज्जं पमिसाहरामि, वज्जपमिसाहरणट्टयाए णं इहफुझिंगजामामालासहस्सेहिं चक्खुविक्खेवदिहिपमिघायं मागए, इह समोसढे, श्ह संपत्ते, इहेव अज्ज उपसंपजिला पि पकरेमाणं हुयवहअतिरंगतेय दिप्पतं जइण नेगं फुसकि- ण विहरामि, तं खामेमि णं देवाणप्पिया ! - मयसमाणं महम्मयं जयंकरं चमरस्म असुरिंदस्स असुरर- तु मं देवाणप्पिया ! खंतुमरिहंतु एं देवाणप्पिया ! नाइयो वहाए बकं निसिरह । तए णं से चमरे असुग्देि असु- भुजोश एवं करणायाए त्ति कटु ममं बंदशनमसइ,नमंसरराया तं जझंतं० जाव जयंकरं वज्जमनिमहं आवयमाणं | इत्ता उत्तरपुरच्चिमं दिसीजागं अवक्कम अवक्कमइत्ता वापास,पासइत्ता झियाइ पिहाइ पिहाइ जिक्रयाइ क्रियाइत्ता मेणं पादेणं तिक्खुत्तो जूमि दालेप, चमरं अमरिंदं असुरपिहाता तहेव संभग्गम उमविडए साझवहस्थानरणे रायं एवं क्यासी-मुक्कोसि णं भो ! चमरा असुरिंदा न पाए अहोसिरे कक्खागयसेयं वि व विणिं मुयमाणे असुरराया समणस्स जगवो महावीरस्स पनावेणं मुयमाणे ताए उष्ट्ठिाए। जाव तिरियमसंखेजाणं दी- नाहि ते दाणिं ममाओ भयमस्थि ति कटु जामेव दिसिं समुदाणं मऊ मज्णं वीईवयमाणे वीईवयमाणे जेणेव | पाउनए तामेव दिसिं पडिगए जंते त्ति ! जगवं गोयमे जंबुद्दीवे दीवेळ जाव जेणेव असोगवरपायवे जेणेव समणं जगवं महावीरं वंदशनमसइ,नमसइना एवं वयासीममं अंतिए तेणेव उवागच्छद, उवागच्छइना जीए जयग- देवेणं मंते ! महबीए महज्जुए० जाव महानागे पुन्चाग्गरसरे जग सरणं मेत्ति वुयमाणे ममं दोएडं वि पायाणं मेव पोग्गलं खिवित्ता पनू तमेव अणुपरियट्टित्ता णं गिएिहअंतरंसि कत्ति वेगेणं समोवमिए तए एं तस्स सकस्स त्तए। हंता पनू । से केणटेणं नंते !० जात्र मेएिहत्तए । देविंदस्स देवरमो मेयारूपे अभस्थिए० जाव समुप्प गोयमा ! पोग्गलेणं खिविते समाणे पुचामेव सिम्यगई ज्जित्था, णो खबु पत्तू चमरे असुरिंदे असुर राया, णो खलु नवित्ता तो पच्चा मंदगई जवर, देवेणं महिछीए पुब्धि समत्ये चमरे अमुरिंदे असुरराया, नो खलु विसए चमर- पि पच्छा वि सीहे सीहगई चेच तुरिए तुरियगई चेव, से स्स अमरिंदस्स असुररगणो अपणो णिस्साए न तेणढेणं०जान पलू गेणिहत्तए । जइणं भंते ! देधे महिकीएक ताजा सोहम्मे क पे.पत्य अरखते वा अति- जाव प्रणपरियट्टित्ताणं गेएिहत्तए,कम्हा ण नंते ! सकेणं बेइयाणि वा अरणगारे वा नावियप्पाणो णीसाए नई देविदेणं देवरमा चमरे असुरिंदे असुरराया नो खलु संउप्पय३० जाव सोहम्मे कप्पे, तं महामुक्खं खा तहारू- चाए साहत्यि गरिहत्तए?। गोयमा! अमरकुमाराणं देवाणं अरहंताणं जगवंताणं अणगागण य अचासाय वाणं अहेगइविमए सिग्धे चेव तुरिए चेव, न गतिविसए ल्याए त्ति कट्ट ओहिं पउंजडपजश्त्ता ममं ओहिणाबा अप्पे अप्पे चेव मंदे मंदे चेब,वेमाणियाणं देवाणं उठं गतिभोएड,आजोएइत्ता हा हा अहो हतोअहममि त्ति बट्ट ताए विसए सीहे सीहे चेव तुरिए तुरिए चेप,अहेगतिविसए अप्पे उकिट्ठाएकजाच दिव्बाए देवगईए वजस्स वीहिं अणुगच्च अप्पे चेव मंदे मंदे चेव, जावइयं खित्तं सके देविंदे देवराया माणे अणुगच्छमाणे तिरियमसंखेजाणं दीवसमदाणं मज नई उप्पयइ एक्केणं समएणं तं वज्जे दोहि, जं वज्जे दोहिं मज्केणं जाव जेणेव असोगवरपायवे जेणेव ममं अंतिए तं चमरे तिहिं, सनत्यो सक्कस्स देविंदस्स देवरम्मो उसलोतेणेव उवागच्च,उवागच्छइत्ता ममं च णं चउरंगुलमसंपत्तं यकंमए मखेजगुणे जावश्यं खत्तं चमेरे असुरिंदे असुरबज पमिसा हरद, अवि या इमे गोयमा! मुट्ठिवाएणं के राया अहे उवय एकेणं समएणं तं सक्के दोहिं जं सके दोहिं सग्गे वीइत्या, तए णं से सक्के देविंदे देवराया वजं पति तं वज्जे तिहिं सब्बत्योने चमरस्म अमुरिंदस्स अमुररको साइरित्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ,करइत्ता | अहोस्रोयकंमए उसलोयकंमए संखेजगुणे एवं खलु गोयमा! बंदर, नमसइ, नमसइत्ता एवं वयासी-एवं खलु जंते ! अहं| सक्केणं देविदेणं देवरम्लो चमरे अमुरिंदे असुरराया नो संतुम्भं नीसाए चमरेणं असुरिंदेणं असुररएणो सयमेव अ चाएइ साहत्यि गिएिहत्तए, सकस्स णं नंते ! देविंदस्स श्वासाइए,तए णं मए कुविएणं समाणेणं चमरस्स असुरिं देवरएको उकं अहो तिरियं च गाविसयस्स कयरे दस्स अमुररपणो वहाए बजे निसिट्टे, तर शं में इमेया- कयरेहितो अप्पे वा बहुए वा तवे वा विसेसाहिए वा। रूने भम्पत्थिए जाव समुपज्जेत्या , णो पञ् चमरे गोयमा ! सम्बत्योचे खेत्तं सके देविंदे देवराया अहे उचअसुरिंदे असुरराया तहेवार मोहिनामि देवा- यह एणं समएषं विरियं संखेजे जागेगच्छइ, उ संखे Page #1138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। चमरचंच बजे भागे गच्छह । चमरस्स णं भंते ! अमुरिंदस्स असुरर- ममं अंतिए तेणेव नवागच्च,उवागच्चइत्ता ममं तिक्वत्तो मो नई अहे तिरियं च गाविसयस कयरे कयरोहिंतो अप्पे आयाहिणपयाहिणं. जाव नमंसित्ता एवं बयासी-एवं पाबहए वा तुझे वा विसेसाहिए वा गोयमा! सम्बत्यो खसुजते ! मए तुन्नं नीसाए सके देविंदे देवराया सयमेखेत्तं चमरे अमरिंदे असुरराया उलु उप्पयइ, एकेणं सम-| व अचासाइए० जाव तं भद्द णं भवतु देवाणुप्पियाणं एणं तिरिय खेजे भागे गच्छइ, अहे मंखजे भागे गच्छइ, | जस्सम्मि पनावेण अकिडे जाव विहरामि, तं खामि देविंटे देवराया नई नप्पयड, एकणं समएणं तं बजे। पं देवाणप्पिया!. जाव उत्तरपुरच्छिम दिसीनागं अवदोहिं तं चमरे तिहिं वजं जहा मकस्म तहेव, नवरं विसे- कमइ,अवक्कमइत्ता० जाव वत्तीसइबदं नट्टविहिं उवदंसेइ, साहियं कायन्न,सकस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरलो उपय- उवदंसेइत्ता जामेव दिसि पाउन्जए तामेव दिसिं पमिगए,एवं पाकालस्स य उप्पयणकालस्स य कयरे कयरोहिंतो अप्पे | खयु गोयमा ! चमरणं असुरिंदेणं असुररलो सा दिव्या दे-- वा बहुए वा तुल्ने वा विसेसाहिए वा। गोयमा ! सम्बत्यो। विही सदा पत्ता अजिसमप्ठयागया ठिई सागरोवमं महाविदो सकस्स देविंदस्स देवरएणो उद्धं उप्पयणकाले नवयणकाले बासे सिज्झिदिइ०,नाव अंतं काहि । ज०३ श०२०। संखेजगुणे, चमरस्स वि जहा सक्कस्स, णवरं सव्वत्योवे (विकुर्वणावक्तव्यता 'विउवणा' शन्दे ) (चमरस्याप्रमनवयणकाले उपयणकाले संखेजगुणे । वज्जस्स पुच्छा। हिन्यः 'अम्गम हिसी' शब्दे प्रथमन्नागे १६६ पृष्ठे सक्ताः) गोयमा ! सम्बत्यो जप्पयणकाले उवयणकाले वितसा- | ('परिसा' शब्दे त्रिविधा पर्वत)" चमरस्स णं भसुरिंदस्स हिए। एयस्स णं भंते ! वजस्स वज्जाहिवस्स चमरस्स य असुररमो तिगिच्छिकडं उप्पायपवए सत्तरसएकवीसाई असुरिंदस्स असुररएणो उवयणकालस्स य नप्पयणका- जोयणसयाई उई उत्तेणं पश्यत्ता'" स. १७ सम०। ('सालस्स य कयरे कयरोहिंतो अप्पे वा०४१। गोयमा ! सकस्स माणिय' शब्द सामानिकदेवाः ) प उप्पयणकाले चमरस्स नवयकाले, एस गं दोएह वि चमरस्स णं अमुरिंदस्स अमरकुमाररमो तिगिच्छकमे तुढे सन्नत्यो सकस्स य नवयणकाले बम्जस्स य उप्प अप्पायपवए मुझे दसवाचीसे जोयएसए विखंभेणं परमत्ता। यणकाले एस णं दोएई वि तुझे संखेज्जगुणे, चमरस्त य | चमरस एणं असुरिंदस्म अमुरकुमाररनो सोमस्स महारयो सप्पयणकाले,बज्जस्स य उवयणकाले, एस णं दोएह वि सोमप्पने उपायपन्चए दसजोयणसयाई न नश्चत्तेणं तुझे विसेसाहिए, तए एं से चपरे अमुरिंदे असुरराया दसगाउयसयाई उव्हेणं मले दसजोयणसयाई विक्खंभेबज्जनयविप्पमुक्के सकेणं देविदेणं देवरएणो महया अव णं पाता। स्था० १०ठा० । माणेणं अवमाणिए समाणे चमरचंचाए रायहाणीप स- चामर-न० । चमा इदम मण् । “वाध्ययोत्खातादावदातः" माए मुहम्माए चपरंसि सीहासणसि उवहयमणसंकप्पे चिं- ।।१।६७ । इत्याकारस्याकारः । चमरीपुच्छे, प्रा०पाद। तासोयसागरसंपविढे करयलपन्हत्यमुहे अट्टज्माणोवगए | चमरचंच-चमरचत्र-पुं० । चमरस्यावासपर्वते , (न.) भूमिगयदिट्ठीए झियाइ, तए णं तं चमरं असुरिं- चमरे णं भंते ! असुरिंदे असुरराया चमरचंचे आवासे दं असुररायं सामाणियपरिसोववएणया देवा श्रोहय-| सहि नवे। णो इणढे समढे । से केणं खाइमं अटेणं पणसंकप्पं. जाव झियाइमाणं पासइ, पासइत्ता करयल. भंते ! एवं वुइ-चमरचंचे आवासे २१:गोयमा !से जहा माव एवं बयासी-किएवं देवाणुप्पिया ! उवयमणसंकप्पा णामए शेव मास्सलोगंसि उवगारियलेणाइ वा उग्जानाव झियागह। तएणं से चमरे असुरिंदे असुरराया ते णियलेणाचा णिज्जाणियझेणाइ वा धारवारियलेणा सामाणियपरिसोववप्लए देवे एवं वयासी-एवं खत्रु देवा- ग तत्व णं वहवे मणुस्सा ग मणुस्सीओ य प्रासयंति, णुप्पिया ! मए समणं जगवं महावीरं नीमाए सके देविंदे | सयंति जहा रायप्पसेणइज्जे० जाव कलाणफन्नवित्तिविदेवराया सयमेव अच्चासाइए, तए णं तेशं परिकुविएणं मे पचणज्जवमाणा विहरंति, अपत्य पुण वसहि उवात, समाणेणं पमं बहाए के निसिद्धे, तं नई णं नवतु देवा- | एवामेव गोयमा ! चमरस्स प्रसुरिंदस्स असुरकुमाररयो प्पिया ! समास्स जगवओमहावीरस्स, जस्सम्मि पभा. चमरचंचे आवासे केवलं किडारतिपत्तियं अपत्थ पुणवबेण अकि अवहिए अपरिताविए हमागए, हसमोसदे, सहिं उवति, से तेण्डेणं० जाव आवासे ॥ श संपत्ते, हेव अज उवसंपजिचा विहरामि,तं गच्छा. (उबगारियलेणा व ति) औपकारिकलयनानि प्रासादादिमो णं देवाणुप्पिया,ममणं भगवं महावीरं वंदामो! नमसामो० पीठकल्पानि। ( उज्जाणियोणाश्व ति) उद्यानगलजमानाभाव पज्जुवासामोत्ति का चउसट्ठीर सामाणियसाहस्सी मुपकारकगृहाणि नगरप्रवेशगृहाणिका (जिग्जाणिवणादव हिजाब सन्विीर जाव जेपेव असोगवरपायवे नेवतिनगरनिगमगृहाणि (बारबारियोणाहपछि) धारा Page #1139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमरचंच प्रभिधानराजेन्छः। चमरचंचा प्रधानं वारिजलं येषु तानि धारावारिकाणि तानि च तानि बहुसमरमणिज्जस्स बदमकदेसजाए एत्य णं महं पगेपालयनानि चेति वाक्यम् । (प्रासयंति त्ति) माश्रयन्ते ईपद्ज सायवसिए पमत्ते, असाइजाई जोयणसयाई उ उपम्ते ( सयंति त्ति) श्रयन्ते अनीषद्भजन्ते। अथवा-(प्रासयंति) ईषत्स्वपन्ति ( सयंति ) अनीषत्स्वपन्ति (जहा रायप्पसेणजे तेणं,पणवीसं जोयणसयाईविक्खंभेणं, पासायवनो उति) अनेन यत्सूचितं तदिदम्-" चिति" कलस्थानेन तेषु होगनूमिवमओ अट्ठजोयणाणि मणिपेदिया चमरस्स तिष्ठन्ति “निसीयंति" उपविशन्ति (तुयटुंति ) निषमा मा- सीहासणं सपरिवारं भाणियब्वं , तस्स णं तिगिच्छकूमस्स सते 'हसंति 'परिहासं कुर्वन्ति 'रमंति ' भक्कादिना दाहिणणं उक्कोटिसएपणवायं च कोडीओ पणतीस चसरतिं कुर्वन्ति । 'ललति' इप्सितक्रियाविशेषान् कुर्वन्ति 'की. यसहस्साई पामासं च सहस्साई जोयणाई अरुणोदए ससति' कामक्रीडां कुर्वन्ति 'किटृति' अन्तर्जतकारितार्थत्वादन्यान् कीडयन्ति 'मोहयंति' मोहनं निधुवनं विदधति “पुरा मुद्दे तिरिय वीईवइत्ता अहे रयणप्पभाए पुढवीए चचापोराणाणं सुचिनाणं सुपरवंताणं सुभाणं कमाणं कम्माणं" | बीसं जोयणसहस्साई जग्गाहित्ता तत्थ णं चमरस्म असुइति, व्याख्या चास्य प्राग्बदिति । (वसहि मवेति त्ति) वासमुप- रिंदस्म असुररमो चमरचंचा नामं रायहाणी पमत्ता, एस यान्तिा "पवामेव"इत्यादि । एवमेव मनुष्याणामोपकारिकादिल. जोयणमयसहस्सं आयामविक्खंजेणं जंबूदीपप्पमाणा नपनवश्चमरस्य ३,चमरचश्चावासोन निवासस्थानं केवलं किं तु (किडारतिपत्तियं ति)क्रीमायां गतिरानन्दःक्रीडारतिः। अथवा वरियतलेणं सोमसजोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं, पक्रीडा च रतिश्च क्रीमारती, सा ते वा प्रत्ययो निमित्तं यत्र मासं जोयणसहस्साई पंच य सत्ताण उयजोयणसए किंचि तत्कीमारतिप्रत्ययं , तत्रागच्छतीति शेषः । भ० १३ श० ६ विसेमणे परिक्खेवेणं , सबप्पमाणं वेमाणियस्स पमाणस्स उ.। दश० । अफ नेयध्वं । चमरचंचा-चमरचञ्चा-स्त्री० । रत्नप्रभापृथिव्याः चमरस्यासुः। "कहि गं" इत्यादि । (असुरिंदस्ससि) सुरेन्द्रस्य स रराजस्य राजधान्याम, स्था०५ ०३ १०। चेश्वर तामात्रणाऽपि स्यादित्याह-असुरराजस्य वशवय॑सुर निकायस्यत्यर्थः [ बप्पायपवर ति] तिर्यग्लोकगमनाय यकहिणं ते! चमरस्स असुरिंदस्स अमुरकुमाररमोस पागत्योत्पतति स उत्पातपर्वत इति । " गोथूनस्स" इत्यादि । जा सुहम्मा पपत्ता गोयमा ! जंबुद्दीचे दीवे मंदरस्स प. तत्र गोस्तूनो लवणसमुफमध्ये पूर्वस्यां दिशि नागराजावावयस्स दाहिणेणं तिरियमसंखेजदीवसमुदं वीईवइत्ता | सपर्वतः, तस्य चादिमध्यान्तेषु विष्कम्भप्रमाणमिदम्-“कमअरुणवरदीवस्स वाहिरिबाओ बेइयंताओ अरुणोदयं सो विखंभो से, दसवाबीसा जोयणसवाई। सत्तसप ते. पीले, चत्तारिसए य चउवीसे"॥१॥ष विशेषमाह-"मबरं" समुदं वायानीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्य एं इत्यादि । ततश्वेदमापत्रम्-" मुले दसवावीसे जोयणसए चमरस्स अमरिंदस्स असुररमो तिगिच्छकमे नामं उ- विक्खनेणं मज्के चत्तारि चउवीसे उधर सत्सतेषीसे मुले प्पायपव्यए पत्ते, सत्तरसएकवीसे जोयणसए उठं नच- तिम्नि जोयणसहस्साई दोनिय वत्तीसुत्तरे जोयणसए किंचि सेणं चत्तारि तसे जोयएमए कोसं च उन्हेणं गोधूम विसेसूणे परिक्खेवेणं मज्के एगं जोयणसहस्सं तिषिण व इगुयाले जोयणसए किंचि विसेसूणे परिक्लेवेणं उरि दोस्स आवासपवयस्स पमाणेणं णेयवं, नवरं उवरियं प मि जोयणसहस्सा दोन्नि य ग्लसीए जोयणसप किंचि माणं मज्के नाणियन्वं, मूझे दसवारीसे जोयणसए विक्वं- विसेसाहिए परिक्खेवेणं " पुस्तकान्तरे त्वेतत्सकलमस्त्येनेणं, मज्के चत्तारि चरबीसे जोयणसए विखंनेणं, घेति । (वरवाइरविग्गहिए ति) वरबज़स्येव विग्रह प्राकृउवरि सत्ततेवीसे जोयणमए विखंनेणं, मूले तिमि | तिर्थस्य स स्वार्थिकप्रत्यये सति वरवज्रविग्रहिको मध्यकाम जोयणसहस्साई, दोएिण य वत्तीमुत्तरे जोयणसए किंचि इत्यर्थः। एतदेवाह-"महामउंदे"इत्यादि । मुकुन्दो वाद्यविशेषः। (अच्छे त्ति) स्वचः श्राकाशस्फटिकवत् , यावत्करणादिदं विसेसूणे परिक्खेवेणं, मजो एग जोयणसहस्सं नि रश्यम्-"सरहे" श्लक्ष्णः इलक्षणपुमत्तनिवृतत्वात 'लएहे'ममृणः घि य गुयाले जोयणसए किंचि विसेमूणे परिक्खेवेणं, 'घट्टे' घृष्ट श्व घृष्टः खरशाणया प्रतिमेव 'म' मृष्ट इव मृष्टः उपरि दोषि य जोणयसहस्साई दोषिय बलसीए जोय- सुकुमारशाणया प्रतिमेव प्रमार्जनिकयेव वा शोधितोऽत पव णसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवणं०, जाव मृले वि 'नीरए 'नीरजा रजोरहितः 'निम्मले' कग्निमलरहितः 'नि पंके' आर्डमलरहितः 'निकंकमच्चाए' निराबरणदीतिः त्थमे मज्के संखित्ते उपि विसाले मज्झे वरवइरविग्गहि 'सपने' सप्रभावः 'समिरिईए' सकिरणः । सउज्जोए ' ए महामउंदसंठाणसंविए सबरयणामए अच्छे जाव प्रत्यासन्नवस्तूद्योतकः , (पासाईए पलमबरखेड्याए वणवंमपमिरुने, सेणं एगाए पउमवरवेश्याए वणखमेण य सब-1 स्स य वएणो ति)। वेदिकावर्णको यथा-"साणं पउमवरखे. श्रो समंता संपरिक्खित्ते पउमवरवेश्याए वणखंडस्स य श्या अहंजोयणं नहुँ उश्चत्तेणं पंचधणुसया विक्संभेणं स. वरयणामइतिीगच्छगकूडउवारतापारक्खेवसमापरिक्खेवेणंबएणो -तस्स णं तिगिच्छकूडम्स नपायपव्ययस्स न. तासेणं पचमवरवेयाए इमेयासवे वरणावासे पएणते"वर्णकपिंपहबमरमाणिजे मित्नागे पएणचे, वनो-तस्स | व्यासो वर्णकविस्तरः “वरामया नेमा" इत्यादि । (नेमति) Page #1140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमरचंचा प्रन्निधानराजेन्द्रः। चमरचंचा स्तम्भाना मूमपादाः,नवरं वनखरामवर्णकस्त्वयम्-"से गं वण- सना,सुधम्मां,मिकायतनमुपपातसन्ना, दोधभिषेकसभा, मलबंडे देसूणाईदो जोयणाई चकवालबिक्वंभेणं परमवरवे- हारसना,व्यवसायसनाचेति। एतानि च सुधर्मसजादीनि सौधस्यापरिक्षसमे परिक्लेवेणं किएदे किएहोनासे " इत्यादि। मैवैमानिकसभादिन्यः प्रमाणतोऽप्रमाणानि, ततधोच्चूय (बहुसमरणिज्जे त्ति) अत्यन्तसमो रमणीयमेत्यर्थः। [वगण-| देषां पशिधोजनानि,पञ्चाशदायामो, विष्कम्भश्च पञ्चविंशमो सि] वर्णकस्तस्य वाच्यः। स चायम्-"से जहानामए मा. तिरिति । एतेषां च विजयदेवसम्बन्धिनामिव "प्रणेगखंजसलिंगपुक्खरे पा" प्रालिलपुष्करं मुरजमुन, तद्वत्सम इत्यर्थः। यसरिणविका अभुगयसुक्यवश्रयेश्या " इत्यादि वर्णको "मुइंगपुक्खरो वासरतले वा करतलेइवा भायंसमंझलो वा घाच्यः। तथा " दाराणं नपि बड़वे अट्टष्मंगलगा ज्झया चंदममलेइवा" इत्यादि । [पासायडिसए ति] प्रासादोऽवतं- उत्तात्ता" इत्यादिरलङ्कारध सभादीनां वाच्यः । सबै सक व शेखरक श्व प्रधानत्वात्यासादावतंसकः । “पासा- च जीवानिगमोक्तं विजयदेवसम्बन्धि चमरस्य वाव्यं, यावयवपणमोति" प्रासादवर्णको वाच्यः। स चैवम्-“अन्तु- पपानसभायां सङ्कल्पश्चाभिनवोत्पन्नस्य किं मम पूर्व पश्चाता मायनूसियपहसिए" अभ्युनतमन्नोतं वा यथा भवत्येवमु. कर्तुं श्रेय इत्यादिरूपः,अनियकवानिषेकसभायां महल्या सामाच्छ्रिता, अथवा-मकारस्यागमिकत्वात् अभ्युतश्वासावुवूि. निकादिदेवकृतः, विषणा च वस्त्रालङ्कारकृता अलङ्कारसभायातत्यन्युनतोच्छुितः, अत्यर्थमुख इत्यर्थः, प्रथमैकवचनलोप-म, व्यवसायश्च व्यवसायसभायाम, पुस्तकवाचनतोऽचानका धात्र रक्ष्यः । तथा प्रहसित श्व प्रभापटलपरिगततया प्रह- च सिचायतने सिम्प्रतिमादीनां सुधर्मसभागमनं च सामानिसितःप्रजया पा सितः कः संबद्धो वा प्रभासित इति। कादिपरिवारोपेतस्य चमरस्य परिवारश्च सामानिकादि ऋद्धि(मणिकणगरयणनत्तिचित्ते) मणिकनकरत्नानां भक्तिनि- मत्वं च "एवं महिलिए" इत्यादिवचनैर्वाच्यमस्येति, पतन विधितिभित्र चित्रो विचित्रो यः स तथा इत्यादि । ( नल्लोड वाचनान्तरेऽर्थतः प्रायोऽवलोक्यत एव । भ० २०८००। भूमिवक्षश्रोत्ति) नवोचवर्षक: प्रासादस्योपरिभागवर्णकः। कहिणं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुररमो चरपचंचा स चैवम्-" तस्स गं पासायवर्मिसगस्स इमेयारवे नल्लोए पत्र पउमलयभत्तिचिले जाव सभ्यतवणिजमए अच्छो णाम आवासे पन्नते?। गोयमा ! जंबूदीवे दिवे मंदरस्स पञ्चय. जाव पमिब्वे"। नूमिवर्णकस्त्वेवम्-"तस्स णं पासायवर्मि- स्स दाहिणणं असंखेजे दीवसमुद्दे एवं जहा वितियसए सयस्स बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पम्मत्ते। तं जहा-मासिंग सजाउद्दसए बत्तन्चया सव्येव अपरिसेसाणेतन्या, वरं इम पुषस्वरोवा" इत्यादि। (सपरिवारं ति) चमरसम्बन्धिपरिवारसिंहासनोपेतमा तवैवम्-"तस्स णं सीहासणस्स प्रवरुत्सरेणं णाणतं० जाब तेगिच्छिकूमस्स उप्पायपन्चयस्स चमरचंमत्सरेणं उत्तरपुरचिमणं पत्थ णं चमरस्स चउसट्टा सामा चा रायहाणी चमरचंचस्स आवासपवयस्स अप्लेसिं च णियसाहस्सीणं बसही नदासणसाहस्सीओ पनत्ताओ, एवं वर्णं सेसं तं चेव० जाव तेरस य अंगुलाई भकंगुलं किंचिपुरछिमेणं पंचराहं अग्गमहिसाणं सपरिवाराणं पंचभदास- विसेसाहिया परिक्खेवणं तीसे णं चमरचंचाए रायहाणीए णा सपरिवारा, दाहिणपुरचिमणं अजितरियाए परिसाए | दाहिणपच्चच्चिमेणं कोहिसए पणपोच कोमीप्रोपणबउब्बीसाए देवसाढस्सीणं चउव्वीसं भद्दासणसाहस्सीओ, एवं दाहिणणं मज्झिमाए महावीसं भदासणसाहस्सीभो, दा. तीसं च सयसहस्सा पडासं च सहस्साई अरुणोदगसमुहे दिणपछिमेणं वाहिरियाए वत्तीसं पञ्चटिमेणं सत्तदं - तिरियं वीईवइत्ता एत्य णं चमरस्स असुरिंदस्स असुररष्ठो णियाहिणं सत्त महासणाई,चदिसि पायरक्सदेवाणं च. चमरचंचा णामं भावासे पाते, चउरासीइंजोअणसहस्साई सारिभदासणसहस्सचउसट्ठीप्रोत्ति" "तेत्तीसं भाम सि"वा- आयामविखंभेणं दो जोमणसयसहस्सा पाहिच सहस्सा. बनान्तरे रश्यते,तत्र भौमानि विशिष्टस्थानानि, नगराकाराणी इंउच्च वत्तीसे जोणणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं, स्यन्य । (उवरियतलेणं ति) गृहस्य पीठबन्धकल्पम ( सन्यप्पमाणं घेमाणियपमाणस्स अखं नेयम्व ति) अयमर्थः-यत्तस्यां | से णं एगाए पागारेणं सबओ समंता संपरिक्खितं से ण राजधान्यां प्राकारणासादसनादि वस्तु तस्य सवेस्योरखयादि. पागारे दिवई जोअणसयं उठं उच्चत्तेणं,एवं चमरचंचा रा. प्रमाणं सौधर्मवैमानिकविमानप्राकारप्रासादसभादिवस्तुगत. यहाणी वत्तव्यया जाणियन्ना सनाविहूणा जाव चत्तारि प्रमाणस्याईनेतव्यमातथाहि-सौधर्मवैमानिकानां विमानप्रा- पासायपंतीओ । चमरे णं भंते ! मसुरिंदे असुरराया चमरकाये योजनानां त्रीणि शतान्युश्चत्वेन, पतस्यास्तु सार्दै चंचे आवासे वसहिं उवेणोइणहेसमढे।से केणं खाइएवं शतं, तथा सौधर्मवैमानिकानां मूलप्रासादः पञ्च योजमावां शतानि , तदन्ये चत्वारस्तत्परिवारभूताः साढे अद्वेणं ते! एवं वुच चमरचंचे आवासे।चमरचंचे शते, प्रत्येकं च तेषां चतुर्णामप्यन्ये परिवारजूताश्चत्वारः आवासे गोयमा !से जहाणामए इहव मणुम्सलोगंसि उसपाद शतम, एवमन्ये तत्परिवारजूताः सार्धारिषष्टिः, एव. वगारियाणाइ वा उजाणियलेणाइ वाणिजाणियलेणाइवा मन्ये सपादैकर्षिशत , द तु मूलप्रासादः सावे योजन- धारवारियनेणाइ वा तत्य णं वहवे मणुस्सा य मणुस्सीशते, पवमकारहीनास्तदपरे यावदन्तिमाः पञ्चदश योजनानि, ओ य भासयंति, संयंति, जहा रायप्पसेणइज्जेजाव कपत्रच योजनस्यायशाः। एतदेव वाचनान्तरे उक्तम्-"चत्तारि परिवाडीयो पासायवर्मिसगाणं अद्धकहोणाश्रोति।"पतेषां। जाणफलवित्तिविसेसं पच्चणुन्नवमाणा विहरंति,पएणत्थ च शासादानां चतसृष्वपि परिपाटीषु त्रीणि शतान्येकचत्वारि पुण वसहि उति, एवामेव गोयमा! चमरस्स असुरिंदस्स धिकानि भवन्तिा एवेन्यः प्रासादेच्या उत्तरपूर्वस्यां दिशि। असुरकुमाररपणोचमरचंचे आवासे केवलं किडारतिपत्तिय, २८. Page #1141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमरचचा अपत्य पुरा सहि उर्वेति, से तें० जाव आवासे || सुधर्माद्याः पञ्चेह सभा न वाच्याः, कि यहां यावदियमिह चमरचञ्चाराजधानीवक्तव्यता भणितव्येत्याह- ( जाव च तारि पासाप्रतीओ त्ति ) ताश्च प्राग्दर्शिता पवेति ( उबगारिवणावति) पकरिया प्रासादादिपीक व्यामिति वति नानामुपकारकगृहाणि नवरप्राणि वा निखाणियाविति नगरनिर्गमगृहाणि । ( धारवारियलेणाति वत्ति ) धाराप्रधानं वारि जलं येषु तानि धारावारिकाणि तानि च तानि अपना बेति वाक्यम[आसयति ]ि आश्रयन्ते जा 2 3 जन्ते तच ते मास ) यति पित्स्वपन्ति सति) मनीपास्वपन्ति रायप्यसेजेस अनेन सूचितं चिति स्थानि निसांपति उपविशन्ति इंति' आसते हसति परिहासं कुर्वन्ति र तिर कुन्तितितिक्रियाविशे बान् कुर्वन्ति कति कामीकुर्वन्ति विति अन्तभूतकारितार्थत्वादम्यार कीमयन्ति मोहयति मो. ।' ' निंविद्यति पुरा पोराणाणं सुविना सुपरकं ताणं सुजाणं कडाणं कम्माणं ति" व्याख्या चास्य प्राग्वदिति । (वसई उति चि) वासमुपयान्ति "वामेव" इत्यादि। एय मेव मनुष्याणामोपकारिकादिलयनचचमरस्य चमरचआबासो न निवासस्थानं केवलं किन्तु किनारतिपत्तिर्य ति) कीमायां रतिरानन्दा कीमारतिय क्रीडा रतिध कीमारी सा ते या प्रत्ययनिमिषं यत्र तत्प्रत्ययं तत्रागच्छतीति शेषः । न० १३ श० ६ ० | द्वी० | 66 ( २११८) श्रभिधानराजेन्द्रः । 3 तत्र सभाः चमरवंचार णं राजपाणी पंच सजाओ पनचा जहा सभा सुम्मा उवनचयसभा अभिसेयसभा आलंकारियसभा पवसायसभा । चमरचा रत्नप्रभाचिप्यां चमरस्यासुरकुमारराजयेति - मांसभायां शय्या उपासना यामुत्पद्यते अभिषेका यस्यां राज्यानिषेणाभिषिच्यते, अलङ्कारिका पश्याम किय से, व्यवसायसभा यत्र पुस्तकवाचनतो व्यवसायं तत्वनिश्चयं करोति एताश्च यथाक्रममुत्तरपूर्वस्यां द्रष्टव्या इति । स्था० ५ बा० ३ उ० । चमरस्त अरिदस्स अररो चमरपंचाए रायढाणी एकमेकवाराए तेत्तीसं २ भोमा पण्णत्ता ॥ ( तेती मोमति ) भीमानि नगराकाराणि विशिष्टस्यानानीत्यन्ये । स० ३३ सम० । तत्रोपपातविहारः-चमरपंचा णं राहाणी कोणं अम्मासा विरड़िया ववारणं ॥ " चमरवंवेत्यादि " चारस्य दाहिणात्ययासुरनिकायना कस्य, चञ्चाचञ्चाख्या नगरी नमरचज्वा, या हि जम्बूद्वीपे म [य] पर्वतस्य दक्षिण तिर्यगसंख्येवान् द्वीपसमुदाय तरुणवरद्वीपस्याद्वेदकान्तादरुपदं समु रिंशद्योजन सहस्त्राण्यवगाह्य चमरस्यासुरराजस्य तिमिच्छिकूटो नाम उत्पातपर्वतोऽस्ति सप्तदी कविंशत्युतराणियो जनशतान्युचः, तस्य वृद्धि योजन] कोटिशतानि साधिकायस्तो समुद्रे सिव्ययाधरप्रभायाः पृथिव्या अत्याशियोजन सहायता जम्मा चं, सा चमरचचा राजधानी उत्कृष्टेन पण्मासान् विरहिता वियुक्त उपपातेन, इहोत्पद्यमानदेवानां षम्‌मासान् यावत् विरहो भवतीति भावः । स्था० ६ ० । चमरपमिसरीर चमरपश्चिमशरीर-२० चमराणां गोविशेपायां पश्चिमहारीरम देहपश्चाद्भागः । चामरे ०४ आश्र० द्वार । चमरुप्पाय - चमरोत्पात - पुं० । चमरस्यासुरराजस्योत्पतने कगमने, स्था० १० ० । (स च ' अच्छेर ' शब्दे प्रथमभागे २०० पृष्ठे वक्त मरशब्देऽस्मि भागे १९९३ पृष्ठे चोकः) चमस-चमस० दर्दकायाम् श्र० । " । म० द्वि० । चमूचपू-आं० सेनायाम, प्रा० ० ० । হ। चम्मचन्नती चा सक्षमकृत्स्वचर्मग्रहणम । (०) नो पर निरंगधीणं समोमाई चम्मा अहिट्ठित्तए । जो कल्पते निन्न समानर्माण अधिष्ठानुं निषदनादिना परिभोकुमिति सुत्रार्थः । अथ भाष्यविस्तरः चम्म -- चम्मम्मि सलोमम्मी, ग्गिंचीणं उबेसमाणीणं । गुरुगाऽऽयरियादी, तस्य विश्राणादिणो दोसा ॥ सोमनि चर्मणि निर्ग्रन्थीनामुपविशन्तीनां चतुर्गुरुकाः । श्रत वाया पतत्सूत्रं प्रवर्तिन्या न कथयति चतुरः प्रवर्तन अ मणीनां न कथयति चतुर्गुरुकाः, श्रमण्यो न प्रतिवन्ति मा लघु तत्राप्यकथने अपने सोचमपवेशने वा दोषाः । अथानन्तरोकमेव प्रायश्वितं विशेषयवाहगणे चिहुँ सीयों, तुपणे च गुरुगा सामपि । रिझाने परगुरुगा समणीणारोवणा चम्मे ।। सल्लोमचर्मणो ग्रहणं कुर्वन्ति चतुर्गुरु, कालेन च लघवः, गृहीत्वा तत्र स्वानरूपं कुर्वन्ति चतुर्गुरुका, तपसा सम यः कालेन गुरपनिषदनं कुर्वन्ति तपसा गुरवः, कालेन लघवः, त्वम्वर्तनं कुर्वन्ति तपसा कालेन च गुरव, निलमणि तु चतुर्लघुकाः पयमेव चतुर्षु खानेषु ल कामविशेषता दचा अमरौनां चर्मणि वर्मविषयाऽऽरोपया मन्तव्या । दोषान दर्शयति कुंपणगाइ संजमे, कंटगद्दिविगाह आपाए । जारो जय भुतियरे, परिगमशाई सलोमम्मि || सलोमचर्मणि कुन्युपनकादयो वर्षासु संमूर्छयेयुः तेषु स्थाननिषदनादिना विराध्यमानेषु संयमविराधना, कण्टकेन, अहिना, वृश्चिकादिना वा तत्रोपविष्टाः सुप्ता घा बुपघातमा Page #1142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्निधानराजेन्द्रः। नुवन्तिसा आत्मविराधना, भारश्च मार्गे गच्छन्तीनां तस्य महा. द्वितीयपदे कारणे चर्मापि गृहीयात् , कथमित्याह उद्वलनन भवति, भयं च स्तेनादिभ्यस्तद्विषयं भवति भुक्तभोगिनीनां व स्मृतिकरणम् , इतरासां तु कौतुकमुपजायते, ततश्च प्रतिग मभ्यङ्गन कस्याश्चिदार्यिकायाः कर्तव्यं, तदर्थ निलोम चर्म गृह्यते । अथागाढं कारणं, ततः सलोमचर्मणोऽपि यतनया मन भूयोऽपि गृहवासाश्रयणस् , अादिशब्दादन्यतीधिकग परिभोगः कर्तव्य इति । मनादि वा कुर्युः । अथैनामेव नियुक्तिगाथां विवृणोतिअथैनामेव नियुक्तिगाथा व्याख्यानयति उकृम्मि वायम्मि धणुग्गडेवा,अरिसाणि सूले व विमोइतव्वे । तसपाणविराहणया, चम्मसलोमे त होति अहिकरणं । निलामे तसपाणग, कुंथुयमाणे य करणं वा ॥ एगंगसव्वंगगए व वाते, अभिगिता चिट्ठति चम्मलोमे ।। यस्याः संयत्याः प्राचुर्येणोद्धों वात उच्छलति, धनुग्रहोऽपि सलोमनि चर्मणि संसक्तानां कुन्थुप्रभृतीनां सप्राणिनां वि-| घातविशेषो, यः शरीरं कुब्जीकरोति, स वा यस्या अजनिष्ट, राधना भवति , तश्चातिरिक्तोपकरणत्वादधिकरणं भवति , निर्लोमन्यपि चर्मणि परिभुज्यमाने असमाणिनो विराध्यन्ते प्रीति वा संजातानि,शूलं वा अभीक्ष्ण मुद्धावति,पाणिपादा. कुन्धुमति च तस्मिन् करणं पादकर्म संयती कुर्यात् । द्यत विमोचितं स्वस्थानाचलितम, एकाङ्गतो वा सर्वाङ्गतो घा कस्याश्चिद् वातः समुत्पन्नः, सा निलामचर्मणि अन्यङ्गिता अविदिप्लोवधि पाणा,पडिनेहा विय ण मुज्कति सलोमे । तिष्ठति। वासासु य संसज्जति , पतावमवतावणे दोसा ।। अथ सरोमविषयं विधिमाहतीर्थकरैरवितीर्णोऽदत्तोऽयं सलोमचर्मलक्कण उपधिः, शुधिर- तरच्छचम्म अणिलामयस्स, कर्मि व वेढेंति जाहिं व वातो । तया च तत्र सीमान्तरेषु प्राणिनः संमूर्नन्ति, प्रत्युपेकणाऽपि च | एरंमणेरंड मुणेण मकं, वेढोत गयंति वदीविचम्मे ।। न शुद्ध्यति , वर्षासु च कुन्थुपनकादिग्निः तच्चर्म संसज्यते, यदि संसजनभयात्प्रतापयति ततोऽग्निविराधना , अथ न प्रतापयति अनिलमयीं वातरोगिणीं तरतुचर्मणा बेष्टयन्ति, यत्र वा ह. ततः त्रसप्राणिनः संसज्जन्ति, एवमुभयथाऽपि दोषा जवन्ति । स्तादी वातो भवति तं बोष्टयन्ति,परण्डेन वा हमिकितेन वा अनेप्रागंतुतचुन्नूया सत्ता, मुसिरे वि गिएिहतं मुक्खं । । रएडेन वा,शुनाऽऽदिदष्टानां वा चर्मणा वेष्टयन्ति, द्वीपिचर्म णि वा तान् स्थापयन्ति । अह नज्मति तो मरणं, सलोमणिबोमचम्मेऽयं ।। पुया व घस्संति अपत्थरम्मि,पासाव घस्सति व थेरियाए। श्रागन्तुकास्तदुद्भूताश्च कुन्थुपनकादयः सत्त्वाः अशुषिरेऽपि ग्रहीतुं पुःखेन शक्यन्ते, किं पुनः शुषिरेसनोमचर्मणि, ततो यत्ते. लोहारमादी दिवसोवजुत्ते,लोमाणि काउं अह संपिहंति ॥ पांत्योनूयः संघट्यमानानां परितापनं तनिष्पनं प्रायश्चित्तम्, | स्थविरायाः संयत्या अनास्तृते प्रासादे उपविशन्स्याः पुती मथ तदुभयवान् जन्तूनुज्जति ततस्तेषां मरणं भवेत् ततः। घृष्येते, सुप्ताया वा पाचौँ घृष्येते, ततः सलोमचर्मापि, यदि च सलोमचर्माश्रित्योक्तम् ।। हा लोह कारादिभिरूपविशद्भिरुपभुक्तं तत्प्रातिहारिकंदिने दिने अथ सलोमनिलाम्नोरुजयोराप दोषा उच्यन्ते मार्गेऽपि लोमान्यधः कृत्वा संपिदधति, परिन्नुञ्जते श्त्यर्थः । जारो भय परितावण, मारण अहिकरणमेव अविदिन्नं । दिवसे दिवसे य मुखभं, उच्चत्तं घेत्तुं तमाणं । लोमेहि णं संविओपए, मउअट्ठा च न ते समुन्द्रे॥ तित्थयरगणहरोहिं, सतिकरणं जुत्तभोगीणं ॥ अथ प्रातिहारिक दिवसे दिवसे गवेष्यमाणं दुर्द्धनं, न बज्यते सलाम्ना निर्लोम्ना वा चर्मणा मार्गे गच्छन्तीनां भारो भयं इत्यर्थः। तत उच्चत्वेन 'णमिति' तदजिनं गृहीत्वा रोमभिःसंचोत्पद्यते, परितापनं मारणं वा भवति । अथैतद्दोषजयात् वियोजयेत, रोमाण्युच्छभेदिति भावः । अथ तेषु स्थानेषु न परित्यजति , ततोऽसंयतैर्गृहीते अधिकरणम् , तीर्थकरगण तदजिन परुषस्पर्श भवति ततो मृद्वर्थ न तानि रोमाणि सधरैश्चावितीर्णोऽदत्तोऽयमुपधिः, सरोमनि च कुन्थुपनकादि मुद्धरेत् ॥ वृ० ३०० ॥ जीवानां परिभुज्यमाने स्मृतिकरणं भुक्तभोगिनीनाम्, इत. जेनिक्खु सलोमाइं चम्माइंधारेइ, धरतं वा साइजह ॥५॥ रासां कौतुकमुपजायते । सह लोमेहिं सोमं अहिटे,नाम ममेमं ति जो गिराहतस्स कथमित्याह चनलहुँ। जइ ता अचेतणम्मि, अश्णे फरिसो उ एरिसो होति । चम्मम्मि सलोमम्मी, गणणिसीयणतयट्टणादीणि । कोरिस सचेयणम्मी, पुरिसे फरिसो न गमणादी ।। जे जिक्रव तेगिच्छा, सो पावति प्राणमादीणि ॥१॥ यदि तावदनेतने अजिने चणि ईदृशः स्पर्शो भवति ततः किं सलोमे चम्मे जो वाणं चेवत्ति करे णिसीयह तुयट्टर वा,सो पुनः सचेतनस्य पुरुषस्य स्पर्शा नवति , एवं विचिन्त्य काचिदार्यिका गमनमवधावनं कुर्यात, आदिशब्दाद् विहायसमरणं प्राणादिदोसे पावति, श्मं व से पच्चित्तं । नि०० १२ उ०॥ ा प्रतिपद्यते। कप्पइ निग्गयाणं सलोमाइं चम्माई अहिट्टित्तप, से वि द्वितीयपदमाद-- पारिनुत्ते, नो चेव णं अपरिभूत्ते, सेविय परिहारिए, नो विश्यपऍ कारणम्मी, चम्मुन्चनाणे तु होति निल्लोमं । चेव णं अपमिहारिए, से वि य एगराईए. नो वेवणं आगाढकारणम्मी, चम्मसलोमम्मि जयणाए । अणेगराईए॥ Page #1143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्म कल्पते निर्मन्थानां सलोमानि धर्माणि अधिष्ठातुं परिभो कुं, तत्रापि यत् चर्म परिभोक्तुं तदेव प्रायं नोऽपरिभुक्तं, तदपि च प्रातिहारिक, नोऽप्रातिहारिकं तदपि चैकरात्रिकं, नैवामेकरात्रिकमिति सूत्रार्थः । एतन्निर्व्रन्यानामपवादसूत्रम् । अथ शिष्यः प्राह-निर्ग्रन्थानां किं कारणं न कल्पते! | सूरिराहदोसा उ जे होंति तत्रस्सिणीणं, सोमाइणे ते ण जतीश तम्मि । तं कप्पती तसि सुतोदोसा, जं कप्पती तासि ण तं जतीणं ॥ ( ११२० ) अभिधानराजेन्द्रः | ये दोषाः स्मृतिकरणादयस्तपस्विनीनां लोमयुके अजिने धर्मणि प्रवन्ति ते यतीनां तस्मिन् सलोमचर्मणि न भवन्ति । अतस्तत्कल्पते तेषां श्रुतोपदेशात्प्रस्तुतसूत्रवचनात् यच्च निलम धर्म तासां कल्पते, न तद्यतीनां स्मृतिकरणादिदोप्रसङ्गादिति, सलोमापि चर्म निन्यानामुत्सर्गतो न कल्पते । यत आह निग्गंथाण सलोमं, ण कप्पती सुसिर तं तु पंचविहं । पोत्यग तर दूसं तं, दुविहं चम्मं पिपगं च ॥ सतोमचर्म निर्मन्थानां न कल्पते शुषिरं जीवाभवस्थानमिति कृत्वा । वृ० ३ ० अत्र परः प्राद दिट्ठा सोमे दोसा, खिल्लोमं णाम कप्पती घेत्तुं । हारी गुरुगा पाडले - पणगतसपासतिकरणं ॥ सक्षोमचर्मणि यतो दोषा दृष्टा अतो निर्ग्रन्थानां नियमधर्म नामेति संजावयामः कल्पते ग्रहीतुम् । सूरिराह-यदि मिलोमचर्मणो ग्रहणं करोति ततश्चतुर्गुरुकाः, यत्सूत्रप्रत्युपेणा न शुद्ध्यति, पनकत्रसप्राणिनो वा संमूर्च्छन्ति, सुकुमारतया भुक्तभोगिनां स्मृतिकरणं भवति, अनुकभोगिमस्तु कौतुकम् । इदमेव स्पष्टयति मुत्तस्स सतीकरणं, सरिसं इत्थी एय फासेणं । जति ता अचेयम्पि, फासो किमु चेयणे इतरे ॥ क्तभोगिनः स्मृतिकरणं भवति अहो ! स्त्रीणां संबन्धी यः स्पर्शोऽस्माभिरनुजुनपूर्वः तेन सदृशमेत चर्माध्येतादृशसुखस्पर्शो ऽनुभूयते । किं पुनः सचेतने इतरस्मिन् ख। शरीरे भचिता, एवं विचिन्त्य प्रतिगमनादीनि कुर्युः, यत एते दोषा तो निलम गृहीतुं न कल्पते, तर्हि मा कल्पतां यत्तु सलोमकं तावदेतत्सूत्रेणानुज्ञातं नवद्भिस्तु तदपि प्रतिषिक, तदेतत् कथमिति ? | अत्रोच्यते सुत्तनिवाओ बुठे, गिलाण तद्दिवसजुत्त जतणाए । भागाढे च गिलाणे, मक्ख घट्टे भिन्ने श्ररिसीओ ॥ सूत्रनिपातो वृद्धे ग्लांने वा भवति, वृरूस्य ज्ञानस्य वा रुस्पर्शमसहिष्णोरास्तरणार्थ सलोम चर्म प्रायमिति भावः । तथा तद्दिनसतं, कुम्भकारादि निस्तस्मिन्नेव दिवसे परिभुक्तम, रात्र हि प्रसादयः प्राणिनो न भवन्ति, तथा गृहीत्वा पतनया For Private चम्म रोमायुपरिकृत्वा परिभोकव्यम्, आगाढे च ग्लानत्वे यसै सन प्रक्षणं तदथै, यस्य वा गुदादिपाणि घृष्टानि, यो वा साधुि अकुष्ठी, यस्य वा श्रशसि समुद्भूतानि तदर्थे वा निग्रॅम धर्म ग्रहीतव्यमिति संग्रहगाथासमासार्थः । श्रथैनामेव विवृणोति - संथार गिलाणे, अनिलादी चम्म घेप्पति सलोमं । बुढासवालाण व प्रत्यरण्डा विएमेव ॥ ग्लानस्य संस्तारकार्थम् अनिलादिसंबन्धि सलोम धर्म गृह्यते, वृद्धाऽसहिष्णु बालानामप्यास्तरणार्थमेवमेव सतोम धर्म प्राम । तच कीदृशमित्याह कुंभारोहकारे-हिँ दिवसमलिय जुत्तं तसविणं । नवरं सोमे काउं, सोत्तुं गोसे तमत्थेति ॥ कुम्नकारलोहकारादिभिः स्वस्वकर्म कुर्वीणयदिवसतो मलित परिभुकं तत् श्रसविद्दीनं भवति । अतः संध्यासमये तेषां तत्प्रातिहारिकं गृहीत्वा लोमाण्युपरि कृत्वा रात्रौ तत्र सुप्त्वा 'गोसे' प्रभाते प्रत्यर्थयन्ति । ताणगादि निलो - तेल्ल चट्ट घेप्पती चम्मं । घट्टा व जस्स पासा, गनंत कोडेऽरिसानुं वा ॥ भवयाणादितैलेन वा ज्ञानस्याभ्यङ्गे विधातव्ये निलम धर्म ग्रहीतव्यम अध्वानादौ या चम्र्म्मार्थम, यस्य वा पार्श्वणि घृष्टानि तस्यास्तरणार्थे, यो वा गलकुष्ठः साधुस्तस्य परिधानार्थमास्तरणार्थे वा, भर्शोसि वा यस्य समुत्पन्नानि तस्योपवेशनाथ निलम चर्म गृह्यते । सोणिय प्याक्षित्ते, दुक्खं धुत्रणा दिणे चीरे ! कच्चे किमिभने, उप्पतिगिले व णिलोमं ॥ शोणितेन पूयेन वा श्रालिप्तस्य चीवरस्य दिने धुवना दुकरा, अतः कच्छ्रतः किट्टिभवतश्च निर्लोम चर्म कल्पते। कच्छू पामा, किटिनं शरीरैकदेशनाथी कुष्ठमेदः, तथा यस्य षट्पदिका प्राचुर्येण संमूर्च्छति स षट्पदिकावान् निलम धर्म परि धानं गृह्णाति । जह कारणे निलो, तु कप्पती तह जवेज्ज इयरं पि । अनादि सलोमं आ-दि काउ जा पोत्यए गहणं ॥ यथा कारणे निलम धर्म कल्पते तथा इतरदपि शुचिरमपि ग्रहीतुं कल्पते । किं बहुना ? आगाढे कारणे सलोम चर्म आदी कृत्वा पञ्चानुपूर्व्या तावनेतव्यं यावत्पुस्तकस्यापि ग्रहणं कर्तव्यम् । एतदेव स्पष्टयतिजत्तपरिन्नगिलाणे, कुसमादि खराऽसती तु कुसिरा वि । अप्पकलेहिय दूसा-सती तु पच्छा तथा होति ॥ प्रक्तपरिज्ञावतः प्रतिपन्नानशनस्य, तथा ग्लानस्यास्तरणार्थे कुशादीन्यशुपितृणानि गृह्यन्ते, अथ तानि खराणि कर्कशानि नवाप्यन्ते ततः शुषिरास्यपि तृणानि गृहीतव्यानि । श्रurभक्तप्रत्याख्यानिनो ग्वानस्य वा सुखशयनार्थ प्रथमतोऽप्रत्युपेत्य दृष्यम उपधानं तुलादि प्रहीतव्यं तद्द्भावे यथाक्रमम Personal Use Only Page #1144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९२१) चम्म अभिधानराजेन्द्रः। शुषिराणि पश्चात् तृणानि भवन्ति, तानि प्रस्तीर्यन्त इत्यर्थः। ऽष्ठौ वा प्रतिप्यन्ते स कोशकः, या तु संपूर्णा जहां पिददुप्पलेहिय दूसे, श्रद्धाणादी विचित्त गेएहती। धाति सा जङ्घा, जङ्घाई पिधायिनी सैबाजवा, एतान्यपि घेपति पोत्थगपणगं, कालियणिज्जुत्ति कोसा। प्रमाणकृत्स्नानि। अथैतदेव स्पश्यतिअध्वादौ विविक्तमुषिताः सन्तो यथोक्तमुपधिमलभमाना पुलत्युपेक्ष्य दृप्याणि केऽपि प्रावारप्रभृतीनि गृह्णन्ति, तथा मतिमे पायस्स जं पमाणं, तेण पमाणेण जा नवे कमणी। धादिपरिहाणि विज्ञाय कालिकश्रुतस्य, उपनक्कणत्वादुत्कालि- | मज्झं तत्थ अखंमा, अन्नत्य व सकनकसिणं तु ॥ कश्रुतस्य वा, नियुक्तीनां वा आवश्यकादिप्रतिबद्धानां दानग्रह- | पादस्य यत्प्रमाणं तेन प्रमाणेन या युक्ता क्रमणिका मध्यणादौ कोश श्व भाएमागारमिवेदं भविष्यतीत्येवमर्थ पुस्तकप- | प्रदेशे अन्यत्र वाऽस्मएडा जवति तदेव सकसकृत्स्नमुच्यते। श्वकमपि गृह्यते। सुपुमादि अद्धखरा, समत्तखदा य वग्गुरी खपुसा । कृत्स्नचर्मग्रहणम् श्रद्धजंघा समत्था, पमाणकसिणं मुणेयव्वं ॥ ४ ॥ नो कप्पा निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा कसिणाईच द्विपुटादिका द्विविप्रवृतितलोपेता या उपानत, या चाऽर्द्धख. म्माई वमाइंधारित्तए वा परिहरित्तए वा। सा समस्तबमा धागुरा पुसा भदंजका चेति सर्वमप्येतत् अस्य संबन्धमाह प्रमाणकृत्स्नं ज्ञातव्यम् । चम्म चेवाहिकयं, तस्स पमाणमिह मिस्सिए सुत्ते । तत्रैव कानिचिद्विषमपदानि व्याचष्टेअपमाणं पमिसिज्कति, उ गहणं एस संबंधो॥ नवरिं तु अंगुलीओ, जाया एसा तु वग्गुरी होति । इह पूर्वसूत्रे चमैव तावदधिकृतमतस्तस्य चर्मणः प्रमाणमिद खपुसय खरगमेत्तं, अझ सव्वं व दो इयरे।। मिश्रित निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीप्रतिबद्धे सूत्रे प्ररुप्य ततोऽप्रमाणं प्रमा या पादयोरहलीः गदयित्वा उपर्यपि गदयति सा पा. पातिरिक्तं तत्प्रतिषिध्यते न तु पुनः सर्वथा चर्मणो ग्रहणम् । गुरा भवति। खल्लको घुएटकस्तन्मात्रं यावदाच्छादयति साख. एष संबन्धः । पुसा, इतरे तु वे जवाईजक्वालक्षणे अभी सवी वा जहां अहवा अत्थरणहा, तं वुत्तमिदं तु पादरक्खट्ठा । यथास्वं गदयति । गतं प्रमाणकृत्स्नम् । तस्स वि य वन्नगादी, पमिसोहंती इहं मुत्ते ॥ अथ वर्णकृत्स्नबन्धकृत्स्ने प्रतिपादयतिअथवा-तत्पूर्वसूत्रोक्तं चर्म प्रास्तरणार्थमुक्तम, इदं तु प्रस्तु- वाढ वामकसिणं, तं पंचविहं तु होइ नायब्वं । तसूत्रं पादरकार्थमुद्यते, तस्यापि च चर्मणो ये वर्णादयो गु- बद्दु वंधणकसिणं पुण, पुरेण जं तिएह बंधाणं ॥ णास्तयुक्तमिह सूत्रे प्रतिषेधयति । अनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा - यत् चर्म वर्णनात्यम्, उज्वनमित्यर्थः, तद्वर्णकृत्स्नम, तच्च स्नानि प्रमाणादिभिः प्रतिपूर्णानि चर्माणि धारयितुं वा, परि-1 कृष्णादिवर्णनेदात्पञ्चविधं ज्ञातव्यं, यत्तु त्रयाणां बन्धानां पुरतो हतु पति सूत्रार्थः। बहुबन्धैर्यद्धं तदू बन्धनकृत्स्नमुच्यते। भव प्राप्यविस्तरः अथैतेष्वेव प्रायश्चित्तमाहसगलप्पमाणवमे, बंधपाकसिणे य होइ नागव्यो। लहुओ लहुगा दुपुमा-दिएसु गुरुगादि खनगादीसु । श्राकसिणमट्ठारसगं, दोसु वि पासेसु खंडाई॥ प्राणादिणो य दासा, विराहणा संजमावाए ॥ कृत्स्नं चतुर्दा-सकबकृत्स्नं, प्रमाणकृत्स्नं, वर्णकृत्स्नं, बन्धः नकृत्स्नं चैव भवति ज्ञातव्यम् । एतच्चतुर्विधमपि न कल्पते सकलकृत्स्नं गृणहतां लधुमासः द्विपुटादिषु चत्वारो लघवः, प्रतिग्रहीतुम । परः प्राह-यद्येवं ततो यदकृत्स्नं चर्म तदशकम खल्लकादिषु समस्ताखल्लुकास्त्रपुसावागुराजकार्बजवासु, च. शादशभिः सपरैः कर्तव्यमित्यर्थः । तानि च सामानि द्वयोरपि त्वारो गुरुकाः, आज्ञादयश्च दोषाः,विराधना च संयमात्मविषया पार्श्वयोः परिधातव्यानि इति संग्रहगाथासमासार्थः। भवति ! तत्र क्रमणिकादिभिः पिनद्धाभिः कीटिकादिव्यपरोप णात संयमविराधना,अात्मविराधना तु बन्धेछिन्ने सति प्रस्खभथैनामेव विवरीषुराह लनं भवेत्, प्रमत्तं वा देवता छलयेत् । अर्द्धस्मल्लकायामुपानहि एगपुड सकलकसिणं, पुमादीयं पमाणतो कसिणं ।। चतुर्गुरु, तपसा कालेन च बघुकं, समस्तखल्लकायां कालखल्ल खओसा वम्गुरि, कोसग जंघऽकजंघा य ।। गुरुकं, वागुरिकायामन्यतरेण तपसा कालेन वा गुरुकं, खपुएकपुटमेकतरं चर्म सकलकृत्स्नमुच्यते । द्विपुटादिकं द्वित्रि सायां तपोगुरुकम, अर्द्धजवायां समस्तजक्वायां च तपसा कालेन च गुरुकम् । प्रभृतितकं तु प्रमाणतः कृत्स्नम्, तथा खडका द्विधा-अर्द्धखल्ल किचका,समस्तवनका च । या पदार्ध छादयति साऽखडका । या पुनरुपानत संपूर्ण पदं स्थगयति सा समस्तखलुका, या तु जत्तियमित्ता वारा, तु बंधते मुंचते व जति वारा । घुएटकं पिदधाति साखपुसा, या पुनरङ्गनीश्छादयित्वा पा- सहाणं ततिवारे, होती वुटी य पच्चित्ते ।। दावप्युपरि कादयति सा वागुरा । यत्र तु पाषाणादिषु प्र- बावन्मात्रान् वारानगुलीकोशसककृत्स्नादिकं बध्नाति तिस्फलिताः पादा नवा वा न भज्यन्तामिति बुद्ध्या अङ्गाल्यो । मुशति वा, यदि तावन्तो वाराः स्वस्थानं नाम यद्यत्र पक्ष २८१ Page #1145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९२२) चम्म अनिधानराजेन्षः। चम्मकोस कादिचतुर्गुरुकान्तं प्रायश्चित्तमुक्तं, तथा प्राशाजङ्गे चतुर्गुरु, एतावतां सामानांप्रदणे मासलघु प्रायश्चित्तम्, भसमाचारीअनवस्थायां चतुर्लघु, मिथ्यात्वे चतुर्लघु, आत्मविराधनायां निष्पन्नमित्यर्थः । मुच्यमानेषु चैतावत्सु खरमेषु महान् सूत्रार्थचतुर्गुरु, संयमविराधनायां कायनिष्पन्नमेवमाशादिभिः पदै- | योः परिमन्यो जवति । श्राद-यधेवं ततः कियन्ति खएमानि रभीक्ष्णं सेवानिष्पन्ना वा प्रायश्चित्तस्य वृद्धिर्भवति । बृ० ३ उ०। क्रियन्ते इत्याह-द्वितीयपदे यदा चर्म गृह्यते तदा मध्यप्रतिजे भिक्खू कसिणाणि चम्माई धरेइ, धरतं वा साइजइ बद्धखएमे कत्र्तव्ये मध्यभागी त्रोटयित्वा वएमद्वयं विधाय मध्ये बध्यादिना बन्धनीय इत्यर्थः । अथ पूर्वार्द्धस्य इदं पाठा. ॥ २१ ॥ जे जिस्व कसिणातिं चम्माति धरेति, धरंतं वा न्तरम्-"मुञ्चते पत्रिमंथो, जत्तियामिच्छं तु तात्तए गहणं।" अष्टासातिज्जति ॥२॥ दशस्त्रएमानि मुश्चति साधे। मदान्पलिमन्थः, ततो यावन्मात्रम् कसिणमा प्रधानभावे गृह्यते । नि० चू०२२० । अपरिमन्थाय नवति ताबमात्र ग्रहीतव्यम् । उत्तराई प्राग्वत् । कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अकसिणाई चम्माई प्रथाशदशानां स्मरामानां करणे कीरशः परिमन्योधारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥ भवति,श्त्याह-- कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अकृत्स्नानि चर्माणि पडिलेहापमिमयो, णदिमादुदए य मुंच बंधते । धारयितुं वा परिहर्तुं वा इति सूत्रार्थः । सत्यफिडणेण तेणा, अंतरविंधे च मंकणता ।। अथ भाष्यम् याबदष्टादश खरमानि द्विसंध्यं प्रत्युपेकते तावत् सूत्रार्ययोः अकसिणचम्मग्गहणे, बहुओ मासो न दोस आणादी। परिमन्थो नवति, नद्याधुदकमेव तितीर्घश्च यावदष्टादश खएमावितियपदे घेप्पमाणे, अट्ठारस जाव उक्कोसा ॥ नि मुञ्चति , उत्तीर्णश्च यावत्सानि नूयोऽपि,बध्नाति, तावत्सा धान स्फिटति, स्फिटितश्च स्तेनानां गम्यो भवति । बनतां यद्यपि सूत्रे अनुज्ञातं तथाऽपि न कल्पते अकृत्स्नं चर्म प्रति खएमानामन्तरेषु च कएटकैबिकेन बहुबन्धघर्षेण वा पादगृहीतुं, यदि गृह्णाति ततो लघुमासः प्रायश्चित्तम् , अाज्ञादयश्च योःमको भवेत् , यत एवमतः पूर्वोक्तनीत्या समस्यं विधेयम् । दोषाः। द्वितीयपदे तु पूर्वोक्तैरभ्वादिभिः कारणैरकृत्स्ने गृह्यमाणे कथं पुनस्तद् बन्धनीयमित्यादविधिरभिधीयते। तत्र नोदकः प्राह-यद्यकृत्स्नं गृहीतुं कल्पते ततो योरुपानहोरुत्कर्षतोऽष्टादश खएमानि यावत् कर्तव्यानि। तज्जायमतज्जायं, दुविहं तिविहं व बंधणं तस्स । श्दमेव व्याचष्टे तज्जायम्मि विलहो, तत्थ वि आणादिणो दोसा ।। अकसिणमट्ठारसगं, एगपुम विवस एगवंधं च ।। तस्य चमखण्डद्वयस्य तज्जातम् अत्तज्जातं वा बन्धनं प्रवति, तं कारणम्मि कप्पनि, णिकारणधारणे लहुओ॥ तज्जातं नाम-तस्मिन् चर्मणि जातं.वध्यादिवन्धनमित्यर्थः। त विपरीतं दवरकादि अतजातप । एतचद्विविधं त्रिविधं चा भवअकृत्स्नं नाम अष्टादशनिः खएमैः कृतं,तदप्येकपुटमेकतलं, वि ति, द्वौ वा त्रयो वा बन्धादातम्या इति नावः। पत्र प्रथममतज्जावर्ण विवत्यिम, एकबन्धं च तद् यदि बन्धनोपेतम् , पतिः तेन दवरकादिना बन्धनाय यदि तज्जातेन बध्यादिना बध्नाति चतुनिः पदैर्यथाक्रमं सकलप्रमाणवर्षबन्धनैः कृत्स्नता परिहता, ततो मासलघु , तत्राप्याज्ञादयो दोषा भवन्ति। वृ. ३०० । तदेवविधमकृत्स्नं कारणे धारयितुं कल्पते, अथ निष्कारणे पं०भा० । अष्ठाकुल्योराच्छादनरूपे स्फुरके, जी०१ प्रति०। धारयति ततो लघुमासः। एषा पुरातनी गाथा। भ.। (मानुप्यदौर्लज्ये चर्मदृष्टान्तः 'माणुसत्त' शब्दे वक्ष्यते) मयैनां व्याख्याति-- जा अकसिणस्स गहणं, भाए का कमेण अहदस । चम्मकम्म (ए)-चर्मकर्मन्-न०। चर्मनिर्माणपरिज्ञानात्मिकायां षष्टिकलायाम, कटप०७ जण | स० । एगपुमविवोहि य, जहिं तहिं बंधते कज्जे ॥ चम्मकरग-चर्मकरक-न । गालनोपकरणे, “ गालिति तर्ष ययकृत्स्नस्य चर्मणो ग्रहण कर्तव्यं तत नपानहावष्टादशनागान बस्यमाणक्रमेण कृत्वातैः स्खएमरेकपुटैः विवर्णेश्वशम्दादेकबन्धैन तु करगेणं " प्रासुकं मन्यं पानकं च चर्मकरकेण गालय न्ति । नि० चू० २ उ•। यत्र यत्र पादप्रदेशे भावाधा, तत्र तत्र कार्यसमुत्पन्ने बध्नीयात् । कथं पुनरष्टादश भएकानि भवन्तीत्युच्यते चम्मकिम-चर्मकिट-१० । चर्मव्यूते बवादिके , न. १३ पंचंगुल पत्तेयं, अंगुट्टमहे य ग्वखमं तु । चम्मकोस-चर्मकोश-पुं० । रविकोशे, तं० । पाणि - सत्तममम्गतलं वा, मकऽटुं परिहया एवमं ॥ कादौ, भाचा. २ ०२ . ३ उ० । हैकस्य पादस्य पशानामङ्गलीनां बन्धनाय प्रत्येकमेकैकं अंगुट्ट अवरफाणू, नह कोसगछेयणं तु जे बका। सापलं कर्तव्यम,अङ्गाष्ठस्याधः षष्ठ खामम, अप्रतले सप्तमं,मध्यतले अनमम, पाणिकायां नबमम् । एवं द्वितीयस्था अप्युपानहो ते छिन्नसंघणहा, दुखंमसंधाए हेतुं वा ।। नव अपमानि, सर्वास्पप्येवमष्टादश भएमानि जवन्ति। चर्ममयः कोशः चर्मकोशः, सोऽष्ठस्य, यदि वा 'प्रवरफाएवं परणोके सति त्रिराह णू' पाणिका, तस्याः परिरक्षणाय ध्रियते । अथवा-नखरद- . नादेरोपप्रदिकोपकरणविशेषस्य चर्ममयः कोशश्चमेकोशः, ये एबयाणं गहणे, मासो मुचंति होति पलिमंथो। तुबन्धास्ते चर्मपरिच्छेदनकमित्युच्यन्ते, तेच निसंधानावितियपऍ घपमाणे, दो खंमा मज्पमिबंधा ।। धमथवा द्विबएमसंधानहेतोधियन्ते ।ब्ब० उ०। Page #1146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९२३) चम्मकोसिया प्रानिधानराजेन्डः। चयन चम्मकोसिया-चर्मकोशिका-श्री शस्त्रकेपणकोत्यके, सूत्र०चम्मपरिच्छेयणग-चर्मपरिच्छेदनक-न० । वधे, तद्विच्चि२ श्रु०२०। नसंधानार्थम्। अथवा-द्विस्खएडसन्तानहेतोधियते । व्य. ८ उ०। चम्मखंडिय-चर्मवधिमक-पुं०।चर्मपरिधाने, चर्ममयं सर्वमे | चम्मपाणि-चर्मपाणि-पुं० । चर्म अङ्गष्ठाङ्गल्योराच्छादनरूपं ययोपकरणं यस्य स चर्मखण्डिकः । सर्वचर्मोपकरणे, अनु.।। स्य तस्य तथा । स्फुरकहस्ते, रा० । भ० । ग० । का। चम्मपाय-चर्मपात्र-न । धर्मनिर्मिते पाने, प्राचा० २ श्रुः ६ चम्मखेम-चर्मखेट-न । कलाभेदे, स० ७३ सम.। अ० १ उ.। चम्मग-चर्मक-न० दुकादो, सूत्र १० २ ० २ ०। पं० चम्मरयण-चर्मरत्न-न । चर्मजातौ यद् वीर्यत उत्कृष्टं तमा० । प्राचाः। चर्मरत्नम् । चक्रवर्तिनामेकेन्द्रियरत्नभेदे,स्था० ७ ठा० स०। चम्मचक्खु-चर्मचकुष-त्रि० । चर्मचकुर्भूते, अष्ट० २४ अष्टः । प्रा० चू० । चर्मरत्नं छत्रस्याधस्ताच्चक्रवर्तिहस्तस्पर्शप्रजावचम्मच्छेयणग-चनेच्छेदनक-न । वज्रपदिकायाम, पिप्प. संजातद्वादशयोजनायामविस्तारं प्रातरुप्ताऽपराएहसंपन्नोपलकादौ च । ध०३ अधिः। श्राचा। भोग्यशाल्यादिसंपत्तिकरम् । प्रव०११२ द्वार । (भरतचक्रिणो ऽधिकारे एतत्स्वरूपं बयते) चम्मडिल-चौष्ठिल-पुं। चर्मचटके, प्रश्न.१ भाभ• द्वार । चम्मतिग-चर्मत्रिक-न० । वर्धतक्षिकाकृतिरूपे चर्मत्रये , ध० | चम्मरुक्ख-चर्मवृक्ष-पुं० । वृक्षनेदे, न. श० ३२० । ३ अधिक। चम्मलक्खण-चर्मलक्षण-न० । कलानेदे, प्रा० । चम्मपक्खि (ण)-चर्मपक्षिण-पुं०। चर्ममयपक्षाः पक्षिणः च. चम्मेढगा-चर्मेष्टका-स्त्री० । चर्मनद्धपाषाणे, प्रश्न ३ आश्र० मंपविणः । वल्गुलीप्रभृतिषु पक्किनेदेषु, स्था० ४ ठा०४ उ०।। द्वार । शष्टिकाशकलादिनृतचर्मकुतुपे, यदाकर्षणेन धनुर्धरा सूत्र० । " से किं तं चम्मपक्खी? | चम्मपक्खी अणेगविधा प व्यायाम कुर्वन्ति । उपा० ७ अ• । लोहमये लोहादिकुसत्ता । तं जहा-बगुल। जलाया अडिला नारंडपक्खी जीवं हनप्रयोजने लोहकागद्युपकरण विशेषे, न० १६ श०१ उ. जीवा समुद्दवायसा कमात्तिया पक्विविराली, जे यावझे तह- | " चम्मेठगदुहणमोट्टिय-समाहयनिचितगायकाए ति!" चपगारा, सेत्तं चम्मपक्खी।" जी. १ प्रतिः । मेष्टका इष्टिकाशकवादिनृतचर्मकुतुपरूपा, यदाकर्षणेन ध. चम्मपट्ट-चर्मपट्ट-पुं० । वर्षे, विपा० १ श्रु०६०। नुर्द्धरा व्यायाम कुर्वन्ति, द्रुघणको मुद्रो, मौष्टिको मुष्टिप्रमाचम्मपणग-चर्मपञ्चक-न। प्रजादिचर्मपञ्चके , (प्रव० ) णः प्रोतचर्मरज्जुकः पाषाणगोलकस्तैः समाहतानि व्याअयएलगाविपहिसी-मिगाणमजिणं च पंचमं होई ।। यामकरणे प्रवृत्तौ सत्यां तामितानि निचितानि गात्रातलिगा खल्लग वके, कासग कित्ती अवीभ तु॥ एयनानि यत्र स तथा एवंविधः कायो यस्य स तथा। भनेनाभ्यासजनितं सामर्थ्यमुक्तम् । उपा० ७ अारा! जी0। मजावगलिकाः, एडका अजविशेषाः, गावो महिण्यश्च प्रती- ताः, मृगा हरिणाः, एतेषां संबन्धीनि पचअजिनानि चर्माणि |चय-त्यज्-धा० । हानी, त्यजेश्चयादेशः। 'चय' त्यजति। शकभवन्ति । अथवा-द्वितीयादेशेन श्दं चर्मपञ्चकमा यथा-(तलि | स० धा।"शकेश्चयतरतीरपाराः" ।८।४ । ८६ । इति गति) उपानहस्ताश्च एकतलिकाः, तदभावे याववतुस्तलिका शकेश्चयादेशः । 'यह' शक्नोति । प्रा०४ पाद। अपि गृह्यन्ते, अचक्षुर्विषये रात्री गम्यमाने सार्थवशाद दि- जत्थ एगे चिसीयंति, ण चयंति जवित्तए । [१] बापि मार्ग मुक्त्वा उन्मार्गेण गम्यमाने स्तमस्वापदादिभयन महोपसर्गपरिकाध्ययने उपसर्गाः प्रतिपादिताः, ते चानुकूलाः त्वरितं गम्यमाने कण्टकादिसंरक्षणार्थमेताः पादयोः क्रियन्ते । प्रतिकृयाश्च । तत्र प्रथमोद्देशके प्रतिकूलाः प्रतिपादिताः, वह बदा-कश्चित् सुकुमारपादत्वासन्तुमसमर्थो भवति ततः सोऽपि गृहाति, तथा खल्लकानि पादत्राणानि, यस्यहि पादौ विचचिका त्वनुकूलाः प्रतिपाद्यन्ते । सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ०। त्वेन स्फटितौ नवतः, स मार्गे गच्छन् तृणादिभिर्दयते । यदा-क चय-पुं०। चयनं चयः। पिएमीभवने, अनु० । वृक्षौ, प्राचा०१ स्पचित्सुकुमारपादत्वात् शीतेन पाएयादिप्रदेशेषु विपादिकाः भु.१०५ उ० । श्रा०म० । परमाणूपचयाश्चयः ।संघाते, स्फुटन्ति , ततस्ताक्षणार्थ तानि पादयोः परिधीयन्ते। तथा ओघ । प्राचा०११०५०२ उ० । शरीरे, श्राव०५०। (बत्ति) वर्धास्ते च त्रुटितोपानहादिसंधानार्थ गृह्यन्ते । विपा। देवनवसंबन्धिनि देहे , विपा० २ श्रु० ११०। तथा कोशकधर्ममय उपकरणविशेषः, यदि हि कस्यचित्पाद- च्यव-पुं० । च्यवने , स्था० ग० । मा० । भ० । नि। नखाः पाषाणादिषु प्रतिस्फलिताः भिद्यन्ते तदा तेषु कोशकेवाल्योऽष्ठी वा क्षिप्यन्ते । अथवा-नवरदनिकाधीधार: चयंत-शक्नुवत-त्रि० । सामर्थ्य भजमाने, सूत्र०१७० ३ अ० कोशका, तथा कृत्तिर्मार्गादावनलभयाच्छन् यच्चर्म ध्रियते, ३००। वत्र वा प्रचुरः सचित्तः पृथिवीकायो भवति तत्र पृथि- चयण-चयन-न० । कुशलकर्मण उपचयकरणे, प्रव०२द्वार । वीकाययतनाथै कृत्तिमास्तीर्य अवस्थानादि क्रियते । यता- प्राकषायादिपरिणतस्य कर्मपुजोपादानमात्रे, स्था०५ ग० कदाचित्तस्करमुनिता भवेयुस्ततोऽन्यप्रावरणानावे तामपि १०। विशे०। प्रावृपवन्तीत्वत् द्वितीयं यतिजनयोग्यं चर्मपञ्चकं जपति। | रयवन-नाच्युतिश्च्यवनम् । वैमानिकज्योतिश्चक्राणां मरणे, प्रव. २३ द्वार । पा० । भाव । ०। जीत• । "पगे बयसे" च्यवनमेकजीवापेक्षया नानाजीवापेकवा च Page #1147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२४) अभिधानराजेन्द्रः । चयण चयगकप्प पूर्ववदिति । स्था० १ ठा० १२० । "दोण्हं चयणे पम्मत्ते । तं याकालनिष्ठाकालयोरजेदाभिधानेन तदीयाहारकालस्याल्पजदा-जोइसियाणं चेव वेभाणियाणं," इच्युतिश्च्यवनं, मरण- तोक्ता, तदनन्तरं (पहीणे य आउए भव ति) चः समुमित्यर्थः । तच ज्योतिष्कवैमानिकानामेव व्यपदिश्यते । स्था. च्चये, प्रवीणं प्रहीणं वा आयुर्जवति, ततश्च यत्रोत्पद्यते मनुग०३ उ०। जत्वादी (तमान्य त्ति)तस्य मनुजत्वादेरायुस्तदायुः, प्रइच्चेयाहिं तिहिं गणेहिं दो देवे चइस्सामीति जाणइ तिसंवेदयत्यनुभवतीति । “तिरिक्खजोणियानयं च" इत्याविमाणाचरणाई णिप्पलाइं पासित्ता कप्परुक्खगं मिलाय दौ देवनारकायुषोः प्रतिषेधो, देवस्य तत्रानुत्पादादिति । भ०१श.७ उ.। हस्तपादादेर्देशकये, तं० । व्याख्यानान्तरेस माणं पासित्ता अप्पणो तेयलेस्सं परिहायमाणं जाणित्ता ।। कलने, स्था० २००१ उ०। चं० प्र०। विमानाभरणानां निष्प्रभत्वमौत्पातिक, तच्चकुर्विभ्रमरूपं वा (कप्परुक्खगं ति) नेत्यवृत्तम (तेयलेस्सं ति) शरीरदीप्ति,सुखा चयणकप्प-च्यवनकल्प- पुंच्यवनं चारित्रात प्रतिपतनं, तस्य 'सिकां वा, "इच्चेयाहिं' इत्यादि निगमनम्। भवन्ति च एवंविधानि कल्पः प्रकारच्यवनकल्पः । पार्श्वस्थादिविहारे, ग०१अधि०। लिकानि देवानां च्यवनकाले। उक्तं च-"माल्यम्मानिः कल्पवृक पावस्थादिषु गच्छतः सामाचार्याम्प्रकम्पः, श्रीहीनाशो वाससांचोपरागः। दैन्यं तन्बा कामरागाअभङ्गो, दृष्टेभ्रान्तिर्वेपथुश्चारतिश्च " ॥ १॥ इति । स्था० ३ संखवसमुदिह, एत्तो वोच्चं चयणकप्पं ॥ ग०३००। आहारोवहिसेजा, तिकरणसोहीऍ जाहे परितंतो। देवे एं भंते ! महलिए महज्जुइए महव्वले महाजसे म-| पग्गहितविहारातो, तो चवती विसयपमिवको । हेसक्खे महाजावे अविउत्कंतियं चयमाणे किंचि कालं कोति विसेसं वुज्जति, पसत्थठाणा अहं परिग्नहो। हिरिवनियं गंगवत्तियं परिसहवत्तियं आहारं नो आ- अंधत्तेणं कोती, ए वुज्कए मंदधम्मत्तं ॥ हारेड, अहे णं आहारे आहारेजमाणे श्राहारिए परि- दव्वे भावे अंधो, दब्वे चक्खूहिँ नावे ओसएहो । णामिज्जमाणे परिणामिए पहीणे य आनए नव जत्थ संविम्गत्त ण रोयति, णितियाइ पहाणमिच्छंतो॥ नववज्ज तमानयं पमिसंवेएइ तं तिरिक्खजोणियाउयं वा जत्तो चुओ विहारा, तं चेव पसंसते सुखजवाही। मणस्सानयं वा । हंता गोयमा! देवेणं महाहिए. जाव ओसण्हविहारं पुण, पसंसए दीहसंसारी॥ मणुस्साजयं वा ।। श्राहारोवहिसज्जा, णीयावासो वितिकरणविसोही। (महक्लिप ति) महर्दिको विमानपरिवाराद्यपेक्वया (मह- तह नावंधा केई-मं तु पहाणं ति घोसंती॥ ज्जुइप ति) महाद्युतिका शरीराजरणाद्यपेक्षया (महन्वले णीया विविहारम्मिवि,जदि कागतीणिग्गहं कसायाणं । ति)महाबलः शारीरप्राणापेकया (महाजस ति ) महायशाः वृहत्प्रख्यातिः (महेसक्खे ति) महेशो महेश्वर इत्या तस्स दुजवते सिघी, अवितह मुत्ते नणियमेयं ।। स्याऽभिधानं यस्यासौ महेशाख्यः।"महासोक्खे त्ति" कचित् । बहुमोहे विदु पुब्धि, विहरित्ता संवुमे कुणति कालं । (महाभावे ति) महानुजावो विशिष्टवैक्रियादिकरणाचि सो सिज्जति अविय इमे, पुरिसज्जाता भवे चनरो॥ त्यसामर्थ्यः (अविउक्कंतियं चयमाणे त्ति) च्यवमानता किलो. णाणेणं संपल्मो,णो तु चरित्तेण एत्थ चउभंगो। त्पत्तिसमयेऽप्युच्यते इत्यत आह-व्युत्क्रान्तिरुत्पत्तिस्तनिषेधा तेणेसेव पहाणो, एवं जासति णिकम्मा ।। दव्युत्क्रान्तिकम, अथवा-व्यवक्रान्तिमरणं तनिषेधादव्यधकान्तिकम, तद्यथा भवत्येवं च्यवमानो जीवन्नेव मरणकान इत्यर्थः। तम्हा तु न एताई, कुज्जा आलंवणा मतिमं तु । "अविउक्कंतियं चयं चयमाणे ति" क्वचिद् दृश्यते । तत्र चयं कुज्जा हि पसत्थाई, इमा. श्रावणाई तु ॥ शरीरम् 'चयमाणे त्ति' त्यजन् (किंचिकालं ति) कि तित्थगराण चरितं, कसिणं वा गणधराणं च । यन्तमपि कालं, यावन्नाहारयदिति योगः । कुत इत्याह जो जाणति सद्दहती, श्रोसएहं सोण रोएति ।। द्वीप्रत्ययं लज्जानिमित्तम् , स हि च्यवनसमयेऽनुप- धुवप्तितिब्वगम्मिनि,तित्थगरोजदि तवम्मि उज्जमति। क्रान्त एव पश्यत्युत्पत्तिस्थानमात्मनो राष्ट्रा च तदेव भवविसरशं पुरुषपरिचुज्यमानस्त्रीगर्भाशयरूपं जिह्वेति, हिया किं पुण तवे उज्जोगो, अवसेसेहिं न कायव्यो ।। च नादारयतीति । तथा जुगुप्साप्रत्ययं कुत्सानिमित्तम, चोद्दसपुब्बी कसिणं-गपारगा तेसि जो उ नज्जोगो । शुक्रादेरुत्पत्तिकारणस्य कुत्प्ताहेतुत्वात् । ( परिसहवत्ति- तं जो जाणति सो खल, संविग्गविहार सद्दहते ॥ यंति ) इह प्रक्रमात्परीषदशब्देनारतिपरीषदो ग्राह्यः, तत एमादी आलंवण, काचं संविग्गगं तु रोएति । श्वारतिपरीपहनिमित्तं दृश्यते चारतिप्रत्ययाबोकेऽप्याहारग्रहणवैमुख्यामिति । आहारं मनसा तथाविधपुनस्रोपादानरूपम् । को पुण श्रोसएहत्तं, रोएती भलते इमं तु ॥ ( अहे णं ति ) अथ लज्जादिकणानन्तरमाहारयति, बुद्ध सुत्तत्थतदुभए कम-जोगी प्रोसबरोयो होज्जा । कावेदनीयस्य चिरं सोदुमशक्यत्वादिति । " पाहारिज्जमा अहवा दुग्गहियत्यो, अहवा वी मंदधम्मत्ता । मे पाहारिए " इत्यादौ नावार्थः प्रथमसूत्रवत, अनेन च क्रि । प्रमाणी कडजोगी, दुम्गहियत्थो तु जेण अववादो। Page #1148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२५) अभिधानराजेन्द्रः | चयणकप्प गहिओ ण वि उस्सग्गो, गहिनो वा मंदधम्मो तु ॥ सो रोए श्रसहं, इति एसो बहिओ चयणरूप्पो । पं० भा० ॥ / याणि चणकप्पो । गाढा - ( श्राहारोबहि) जो श्राहारोचाहिं नियतः सेनाप ताणाहाराणि जाहे उम्ममा सो हेड परितो भवता तो पारा पहिओ नामगीत्थसंविग्गविहारो, ताश्रो चत्रमाणो पासत्थाइसु गच्छइ जिनायिको गाढ़ा (कोइ विसे) को पुरा पासत्यासु गंतुं पि विसेसं जाणार, जहाऽहं मंदपुत्तो जाओ लोगो पर लोगनिव्विासो कपालोमेसप्सु अहिलासं करोम, साहुणो परिक्कमति, एस पसंसिनो, को पुण अन्नाभाबंध शेण ण वुज्झर, मंद धम्मयाए वा किं या ते अम्मदियं करेति गीयत्यसंविगा गाड़ा (जो बुम्रो) चुत्रो नाम प्रभ्रष्ट इत्यर्थः । संविग्गविहाराश्रो तं चैव पसंसप लजोडी जो पुण दाहसंसारी सो ओसनमेन पसंद गाढ़ा - (आहारोव हि सेज्जा-गीयावासो तिकरणविसोदि सि ) माममुष्याय देणार जातिकरसाबसा माई करत देवपुरडुचरं श्रचरंतो अनुपाले इमं चेष पढाएं ति घोस नवरि कसाया न कायव्वा तं मूलिया सोही असोही वा मति च बहुमो वि वि चिहरिता नाणपत्रे नामेगे नो चरणे, जहा श्रहमे सए नो एवमात्रणं कायव्वं । किं पुण कायन्वं । गाहा (तिस्थगराण चरितं ) जदा भगवया अस्सल वितथे उज्जयिं किं पुरा अवसेसहिं साइहिं पवार माणुस्से, तहा कसिणं गणधराणं चरियं चोदी, जो पति बिहार सदर सो य रोप वाहा (सत्य) को पुण ओबिहार रोपति ?, जो सुत्थे तदुपसु च कडओगी, अक इत्यर्थः । सो श्रो सन्नं रोटा, कायियोनामायण गढ़ियाजिन सग्गो पयइप, मंदधम्मो वा सो रोपज्जा, एस चयणकप्पो | पं० यू० । चणमुच्यवनमुख चि० मरहमुखे ० चयोवाय- च्यवनोपपात-पुं० । व्यवने उपपाते, चं० प्र०१५ पा० (चन्द्रसूयग्नोपपाती जोसि शब्दे वयते) चयावचइय- चयापचयिक - न० । इष्टाहारोपभोगतया धृत्युपष्टमनादीदा रिकवर्गणापरमापचयापचयः, सदनावेन तद्विनादपचयः । चयापचयी विद्यते यस्य तस्यापचयिकम् । तथाविधे शरीरे, " एयं असासयं चयोवचश्यं विपरिणामधम्मं पासह" । श्राचा० १० ५ ०२ उ० । चयोवचय-चयोपचय - पुं० । अधिकत्वेन वृद्धौ, हीनत्वेनापवृकौ च । सु० प्र० १ पाहु० । चर-चर- पुं० 1 चरणे, दर्श० आ० चू० । स्था० । ० म० माचा० । चरंत चरतु शि० विहरति उत्त० २ ० अटति सूत्र० १ श्रु० १ ० | विश्वं व्याप्नुवति, प्रश्न० ४ माश्र• द्वार । चरंती- चरन्ती श्री । यस्यां दिशि भगवान विहरति तस्थाम, (व्य० ) तथा तिस्रो दिशः प्रशस्ता ग्राह्याः । तद्यथा२८२ चरण पूर्वा, उत्तरा, चरन्ती । चरन्ती नाम-यस्यां जगवानई विहरति सामान्यतः केवलज्ञानी मनः पर्यवज्ञान) अवधिज्ञानी चतुर्दशपूर्वी योदपूर्वी यापूर्वी यदि वा यो वस्मिन् युगे प्रधान आचार्यः स प्रतिद्वारिकान् यथा विहरति । व्य० १० चरग-चरक पुं० । घाटिभिक्षाचरे, झा० १ ० १५ अ० प रिवाजकविशेषे, दश० १ श्र० । व्य० । संघाटिवादकाः सन्तो ये भिकां चरन्ति ये नुञ्जानाश्चरन्ति । ग० २ अधि० । ये धावितनैकोपजीविनः । अथ वा कच्छोटकादयः । प्रज्ञा० २० पद । दंशमशकादौ च । सूत्र० १० २ श्र० २ उ० । चरगतिभक्षणयोः । भावे- ल्युट् । आचा० १ श्रु० ५ ० १ उ० । चरण चरण - न० ! गमने, ग० १ अधि । प्रव० आ० म० । स्था• । श्रावण । श्रतिशयगमने, नं। विहरणे, सूत्र० १४० १० अ० २ उ० । अवस्थाने, प्राचा० १०५ श्र० ३ उ० । संयमानुष्ठाने, सूत्र० १ श्रु० १० अ० । सेवने, जी० २ प्रति० । चरणनिक्षेपमाह चरणे छको दम्बे, गए चैव भक्खणे चरणं । खिचेकाले जम्म जांबे उ गुणान आयर ॥ व, विषयः परिमाणमनिष-तत्र नामस्थापने गतार्थे, ये गतिरूपं चरणं परगतिभनयोरिति । तथा (खेने काले जम्मिति ) यस्मिन् क्षेत्रे काले वा चरणं चर्यते व्यायात क्षेत्रका चेति प्रकः भावे तु गुणानां मूलोतरगुणरूपाणामारमा सेयसमिति गाथार्थः । उत० १५ श्र० । चरणं नामादिभेदात् षोढा, तत्र अव्यचरणं त्रिधा भवति, गतिभक्कणगुणभेदात् । तत्र गतिचरणं गमममेव आहारचरणं मोदकाः गुरुचरणं द्विधा-लीकिकं. लोकोचरं च लौकिकं यत् प्रन्यायें हस्तिकादिक - कादिकंवा शिक्ष लोकोत्तरं साधूनामनुपयुक्तचरमुरायिरूपमारकादेव, क्षेत्रचरणं यस्मिन् क्षेत्रे गत्याहारादि च व्यायायते या शब्दसामान्यान्तर्भावाद्वा शालिकेचादिपरण मिति । कालेऽप्येवमेव, भावे भावत्ररणमपि गत्याहारगुरामेदात् विधा, तत्र गतिचरणं साधोपयुकस्य युगमा तर मरणमपि पान स्य, गुणचरणमप्रशस्तं मिथ्याम्पहीनामपि सनिदान तेषामेव कर्मदेशनाथै मूलोसरगुकलापविषयम आचा० १ श्रु० १ अ०१ उ० । भक्कणे, वाच। चर्च्चते मुमुक्षुभिरासेव्यते इति चरणम् । अथवा चर्यते गम्यते प्राप्यते भवोद परं कूलमनेनेति परणम व्रतभ्रमणधर्मादिषु गुणेषु बिशे• । झा० । श्राव० । श्रा० चू० । सूत्र० । नं० । आ• म० । भ० मोघ० ! "चरणकरणष्पहाणा, ससमयपरसमय मुक्कवावारा । चरणकरणस्स सारं. खिच्छियसुद्धं न याणंति " ॥ चरणं भ्रमणधर्मः । " इति । "वयसमणधम्मसंयम. देवायचं मगुसीओ। मायाइतियं सयको निम्हारे चरण मेयं ॥ " सम्म० ३ काएक । श्रा० म० । ज्ञा० । “ सव्वाओ पाणाश्वायाओ देरम १, सम्याचो मुसाबायाचो बेरमणं २, सवा दादा रमणं ३ सम्म मेटुयामो रमयं ४, स Page #1149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरण प्रभिधानराजेन्दः। चरण व्याश्रो परिम्गहारो वेरमणं " इति व्रतानि । "दसविधे सम- तु नदीण क्रोधाद्यनुदयरूपत्वात् । अथवा-कान्त्यादयो ग्राह्याः, णधम्मे पम्पते।तं जड़ा-खंतीमुत्ती२ अञ्जवे ३महवे ४ नाघवे ५ क्रोधादयो हेय इति भेदात् इत्युक्ता मूत्रगुणाः। ध० ३ अधि०। मचे६संजमे७ तवे चियाए । वंभचेरवासे १०॥" क्रोधजयः१, दश० । चर्यते इति चरणम् । चारित्रे, उत्त.१० । सूत्र। निर्लोभता ५ मायात्यागः ३ अहंकारत्यागः परिग्रहत्यागः ५ नं० । सर्वतो देशतश्च चारित्रे, विशे• । चारित्रक्रियासत्यं ६ प्राणातिपातविरमणरूपः ७ तपः त्यागः सुविहिते- याम, अनु० । सूत्रः । आचा०। विशे० । उत्त । दर्श । विरज्यो वस्त्रादिदानरूपः । ब्रह्मचर्यम् १० इति श्रमणधर्मः। पृथि- तिपरिणामे, सूत्र०२६०६ अादर्श०। समग्रविरतिरूपेचारित्रे, व्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाणां पासनानव भे- दश० ३ भ० । सकलयतिसमाचाराचरण, दर्श०। चरणं त्रिवि. दाः ९, अजीवसंयमः पुस्तकचर्मपञ्चकादीनामनुपभोगो धं त्रिप्रकारम् । तद्यथा-क्षायिकम्, औपशमिकम, क्षायोपशमिकं बतनया परिभोगो वा हिरण्यादित्यागो वा १० प्रेवासंयमः च। तत्र क्षायिकं सम्यक्त्वं वायिकसम्यग्दष्टेः,ौपशमिकमुपशस्थानादि यत्र चिकीत तत्र चक्षुषा प्रेक्कां कुर्यात् ११ उपेक्कासंयमो मश्रेण्यां शेषकालं कायोपशामिक चरणमपि क्वायिक, कपक निग्रन्थस्य औपशमिकमौपशमिकण्यामन्यदा क्षायोपशमिव्यापारविषयतया द्वधा तत्र सदनुष्ठाने सीदतः साधूनोपेक्वेत, प्रेरयेदित्यर्थः। गृहिणस्तु प्रारम्ने सीदतः उपेक्षत,न व्यापारयेत् कम् । व्य०२ उ०। विशे। १२ प्रमार्जनासंयमः पथि पादयोर्वसत्यादेश्व विधिना प्रमार्जन तस्स वि सारो चरणं,सारोचरणस्स निव्वाणं ॥११२६॥ १३ परिष्ठापनासंयमः अविशुद्धभक्तोपकरणादेविधिना त्यागः तस्यापि श्रुतकानस्य सारश्चरणं,सारशब्दोऽत्रफलवचनः प्रधा१४ मनोवाकायसंयमाः अकुशलानां मनोवाक्कायानां निरोधाः। नवचनश्च मन्तव्यः, तस्य फसं चरणम् । यदि वा-तस्मादपि श्रुत१५भीउमास्वातिवाचकपादैस्तु संयमभेदाः प्रशमरतावेवमुक्ताः ज्ञानाचरणं प्रधानम्, न तु चरणं नाम संवररूपा क्रिया, क्रियाच "पाश्रवाद्विरमणं, पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः। दरामत्रयविर- बानाभावे हता "देया प्रमाणतो किरिया" इतिवचनात, ततो तिश्चे-ति संयमः सप्तदशभेदः ॥१॥” इति संयमः।"दसविधे शानक्रियाभ्यां समुदिताभ्यामेव मोक इति समानत्वमेवोभघेयावच्चे पपत्ते । तं जहा-आयरियावच्चे १ उवज्ञाय २ र ३ यो,कथं ज्ञानस्य सारश्चरणमिति । उच्यते-ह यद्यपि 'सम्य. तवस्सि४गिलाण ५ सेह ६ कुन ७ गण संघ बेयावसा- ग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इति समानं ज्ञानचरणयोनिइम्मियवेयावशे १०॥" इति वैयावृत्यम् । “नव भचेरगुत्तीओ र्घाणहेतुत्यमुपन्यस्तं, तथाऽपि गुणप्रधानभावोऽस्ति । तथा पमत्तानो । तं जहा-विचित्ताई सयणासणाई सेवित्ता भवति, ज्ञानं प्रकाशकमेव, “नाणं पयासयमिति" वचनात, चरणं नो स्थिसंसत्ताई नो पसुसंसत्ताई नो पंगसंसत्ताई १ नो त्वजिनवकर्मादाननिरोधफलं, प्रागुपातकर्मनिर्जराफलं च, तइत्थीणं कहं कहेत्ता हवइ।" नो स्त्रीणां केवलानां कथां धर्म तो यद्यपि ज्ञानमपि प्रकाशकतयोपकारीति कानचरणम्पदेशनादिलकणवाक्यप्रतिवन्धरूपाम् २ "नो इत्यिहाणाई सेवे. द्विकाधीनो मोक्तस्तथापि प्रकाशकतयैव व्याप्रियते ज्ञानं, कसा जवति । गणं निषद्या ३, णो इत्थीणं मणोहराई मणोरमाई गंमतशोधकतयाऽनुचरणमिति प्रधानगुणभावाच्चरणं ज्ञानस्य इंदिया मासोश्त्ता निन्जाइत्ता भव ४, णो पणीयरसभोई ५, सारः । उक्तं च-" नाणं पयासयं वी, गुत्तिविसुष्फिलं च णो पाणभोयणस्स अश्मात्तमादारए सया भवति ६, यो जं चरणं । मोक्खो य दुगाहीणो, चरणं नागास्स तो सारो पुन्वरयं पुव्वकीलियं सरिता नवर ७, णो सद्दाणु ॥११३०॥" अपिशब्दात्सम्यक्त्वस्यापि सारश्चरणम् । अथवा बाती णो रूबाणुवाई णो सिलोगाणुवाई ८, णो सायासोक्ख- अपिशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः,तस्य श्रुतज्ञानस्य सारश्चरणमपि, पमिवके यावि भव । इति ब्रह्मगुप्तयः । ज्ञानदर्शनचारि- भपिशब्दानिर्वाणमपीत्यर्थः । अन्यथा ज्ञानस्य निर्वाणहेतुता अलकणं ज्ञानादित्रिकं तपो द्वादशधा पूर्वोक्तम् १२, क्रोध- न स्यात्, किं तु चरणस्यैव, अनिएं चैतत्, 'सम्यग्दर्शनकानमानमायालोजत्यागः ४ क्रोधादिनिग्रह इति चरणम् । ग० चारित्राणि मोक्षमार्गः' तथा-" नाणकिरियाहि मोक्खो " १ मधि० । सप्ततिसंख्याश्वग्णस्य चारित्रस्य वेद इत्यादिवचनात्कवलं साझानस्य निर्वाणहेतुता गौणतया प्रतिभवन्तीति, चरणसप्ततिसंज्ञा इत्यर्थः । अत्रायं विवे- पत्तव्या, मुख्यतया तु चरणस्य, यतः केवलज्ञानलानेऽपि का-चतुर्थव्रतान्तर्गतत्वेऽपि नवब्रह्मगुप्तीनां पृथगुपादानं न तत्क्षणमेव मुक्तिरुपजायते, किंतु शैलेश्यबस्थाचरमसमतुर्यव्रतस्य निरपवादत्वसूचनार्थम् । यत उक्तमागमे-" न यभाविचरणप्रतिपत्त्यनन्तरमतो मुख्य कारणं निर्वाणस्य चरव किंचि अणुण्णायं, पमिसिर्फ वा वि जिणवरिदेदि । णम् । तथा चोक्तम्-"जं सव्वनाणलंभा-नंतरमहवा न मुबएसमुत्तुं मेहुणनावं, न विणा तं रागदोसेहिं ॥१॥, वो । मुच्चर य सम्वसंवर-लाभे तो सो पदाणयरो" ॥ तत तथा व्रतग्रहणेन चारित्रस्य गतार्थत्वेऽपि ज्ञानादित्रिके चारि उक्तं तस्य सारश्चरणमिति । तथा " सारोचरणस्स नियाप्रग्रहणं शेषचतुर्विधचारित्रसंग्रहार्थ, व्रतशब्दने सामायिका- णं" इत्यत्र सारशब्दः फलवचनः,चरणस्य संयमतपोम्पस्य सादिपञ्चविधचारित्रस्यैकांशरूपसामायिकाभिधेयत्वेन शेषच-1 रः फलं निर्वाणम् । दापि शैलेश्यवस्थाभाविसर्वसंवररूपतुर्विधचारित्राग्रहणात् तथा श्रमणधर्मान्तऋतत्वेऽपि संयमत चारित्रमन्तरण निर्वाणस्य नावातजावे चावश्यं भावादिति प्रधापसोः पृथगुपन्यासस्तयोर्मोक्षाङ्गं प्रति प्राधान्यस्यापनार्थम् | दृष्ट नभावमधिकृत्य उपन्यस्तम,अन्यथा शैलेश्यवस्थायामपिनायिभायं न्यायः-यथा ब्राह्मणा आयाता वसिष्ठोऽप्यावात इत्यादि । कज्ञानदर्शने स्त इति सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयस्य समुदितस्यैव प्राधान्य च तयोः क्रमेणापूर्वकर्माधवनिरोधहेतुत्वेनानशनादि निर्वाणहतुत्वमिति । ज्योऽतिशायित्वोपदर्शनार्थ, तथा श्रमणधर्मग्रहणेन गृहिणा নখ কা নিযুকিঙ্কাमपि क्रोधनिग्रहादीनां पृथगुपादानम् , उदयप्राप्तक्रोधादीनां मुयनाणम्मि वि जीवो,बट्टतो सोन पाउण मोक्खं । निष्फलौकरणं क्रोधादिनिग्रह इति व्याख्यानात, कान्त्यादीनां | जो तवसंजममइए, जोगेन चएइ बोई जे ॥ ११४॥ Page #1150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरण अभिधानराजेन्छः। चरसकरपाणुप्रोग भुतकाने , अपिशब्दान्मत्यादिष्वपि ज्ञानेषु , जीवो वर्तमानः | वरणगुणविहीणस्ततः सुबह्वपि जानन निमज्जति । भा.म. सन्न प्राप्नोति मोक्षमित्यनेन प्रतिज्ञार्थः सूचितः । यः किंवि. प्र० । प्रा० ० । विशे० । पादे, वेदैकदेशशाखारूपे प्रन्ये, शिष्ट इत्याह-यस्तपःसंयममयान् तपासयमात्मकान् योगान तदभ्येतरि जने, गोत्रे, वाच । केनापि यजमानेन वेदान्तर्गतशक्नोति वोदुमित्यनेन देखर्थः । “जे " इति पादपूणे, अन्धविशेषाभ्ययनानिमित्तं चरणशब्दवाच्येज्यश्चतुज्यों बाय"इजेराः पादपूरणे।"।। ३ । २१७ । इति वचनात् । रटा- ज्यः। विशे। चतुर्णा चरणानां चतुर्वेदब्राह्मणानामिति । न्तस्तु स्वयमन्ज्यूह्यः। वक्ष्यति वा प्रयोगः-न शानमेवेप्सितार्थ- बृ० १२० । प्रापक, सक्रियाविरदात, स्वदेशप्राप्त्यभिलषितगमनक्रियाशू चरणकरणपरिडीए-चरणकरणपरिहीन-त्रि०। प्रतादिना न्यमार्गशमानबत् । सौत्रो वा दृष्टान्तः-मार्गनियामकाधिष्ठिः तोप्सतदिवसंप्रापकपवनक्रियाशून्यपोतवत् । पिएडविशुद्ध्यादिना च परिहीनः । मूलोत्तरगुणहीने.१० ३००। तथा चाद चरणकरणपारवि-चरणकरणपारविन-त्रि० । चर्यते इति जह छेयन्नकनिजा-मगो वि वाणियगइच्छियं भूमि । चरणं मूवगुणाः, क्रियत इति करणमुत्तरगुणाः, तेषां पारं तीरं पर्यन्तगमनं, तद्वेत्तीति चरणकरणवित् । मूलोत्तरगुणपारके, वारण विणा पोतो, न चएइ महमवं तरिउं॥११४५।। सूत्र०१ श्रु०१०। चरणकरणयोरनुयोगश्चरणकरणानुयोगः। तह नाणलद्धनिजा-मगो वि सिचिवसहिं न पाण। व्या० २ अध्या० । निनणो वि जीवपोओ,तबसंजममारुयविहणो ॥११४६||| चरणकरणाओग-चरणकरणानुयोग-पुं० द्विचत्वारिंशयथा येन प्रकारेण छको दक्को लब्धः प्राप्तो निर्यामको येन | दूषणरहितपिण्डग्रहणादी, व्या। पोतेन स तथाविधः, अपिशब्दात सुकर्मधाराद्यधिष्ठितोऽपि, शुधानादिस्तनुर्योगो, महान व्यानुयोगजः । वणिज इष्टा वणिगिष्टा, तां भूमि, महार्णवं ती वातेन विना पोतो न शक्नोति, प्राप्तुमिति वाक्यशेषः । उपनयमाह-तथा इत्थं षोमशका ज्ञात्वा, विदधीत शुजादरम् ॥ ३॥ मुतकानमेव लब्धो निर्यामको येन जीवपोतेन स तथाविधः, शुद्धानादिः गुफाहारग्रहणम, अर्थाच्चरणकरणानुयोगास्यो मपिशब्दात् सनिपुणमतिकर्मधाराधिष्ठितोऽपि संयमतपो- योगो द्विचत्वारिंशदूषणरहितपिण्डग्रहणो योगस्तनुर्लघुः कनियमरूपेण मारुतेन विहीनो निपुणोऽपि जीवपोतो भवार्ण- थितः, तथा व्यानुयोगः स्वसमयपरसमयपरिकानं, तदाग्यो वं तीर्खा सन्मनोरथवणिजोऽभिप्रेतां सिकिवसतिं न प्रामोति , योगो द्रव्यानुयोगजो योगो महान् महत्तरः कथितः ॥३॥ तस्मात्तपःसंयमानुष्ठाने खल्वप्रमादवता भवितव्यम् ।। व्या० १ अध्या० । तथा चात्रौपदेशिकमेव गाथासूत्रमाह चरणकरणप्पहाणा, ससमयपरसमयमुक्कवावारा। चरणकरणस्स सारं, णिच्छियमुन याति ॥१६॥ संसारसागराओ, उच्चूढो मा पुणो निवुडेजा । चरणकरणयोश्चारित्रात्मकत्वात् अव्यपर्यायात्मकजीवादितचरणगुणावप्पहीणो, वुड्डइ सुबहुं पि जाणतो॥११४७।। स्वावगमस्वभावरुच्यभावेऽभावादथ चरणकरणयोः सारं निश्चअस्याः पदार्थो दृष्टान्ताऽग्निधानद्वारेण प्रोच्यते। यथा नाम क- येन शुद्धं सम्यग्दर्शनं ते न जानन्ति । न हि यथावस्थितवस्तुतचित्कच्छपः प्रचुरतृणपत्रपटनिविडतमर्शवलाच्छादितोदका. स्वावबोधमन्तरेण तद्रुचिः। न च स्वसमयपरसमयतात्पर्यान्धकारमहाहदान्तर्गतो विविधानेकजलचरकोभादिव्यसनपर नवगमे तदवगमे तदवबोधो वोटिकादिरिव संभवी । अथ म्पराव्यथितमानसः सर्वतः परित्रमन् कथमपि शैवालरन्ध्र जीवादिव्यार्थपर्यायार्थापरिझानेऽपि यदर्हद्भिरुक्तं तदेवैकं मासाद्य तेनैव च तत उपरि विनिर्गत्य शरदि पार्वणचन्चन्द्रि- सत्यमित्येतावतैव सम्यग्दर्शनसभावः । " मन्नश तमेव सकास्पर्शसुखमनुभूय भूयोऽपि स्वबन्धुस्नेहाकृष्टचेतोवृत्तिस्ते- छ, णिस्संकंजं जिणेहि पन्नत्तं।" इत्याद्यागमप्रामाण्यान खसबामपि तपःस्विनामदृष्टकल्याणानामहमिदं सुरलोककल्पं कि- मयपरसमयपरमार्थानमिनिरावरणशानदर्शनात्मकजिनस्वरमपि दर्शयामीत्यवधार्य तस्मिन्नेव हदमध्ये निमग्नः, ततः समा- पाशानवद्भिस्तदभिहितजावानां सामान्यरूपतयाऽप्यनवच्छेदन सादितबन्धुवर्गः तदर्शननिमित्तं विवक्तितरन्ध्रापलब्धये पर्य- सत्यस्वरूपत्वेन ज्ञातुमशक्यत्वात्, नत्वेवमागमविरोधः, सामाटन् अपश्यंश्च कटतरं व्यसनमनुभवति स्म, एवमयमपि जीव- यिकमात्रपदविदो माषतुषादेर्यथोक्ताश्चारित्रिणस्तत्र मुक्तिप्रतिकच्चपोऽनादिकर्मपटलसन्तानाच्छादितान्मिथ्यादर्शनादितमो. पादनात् सकलशास्त्रार्थकता, विकलव्रतस्य व्रताद्याचरणनैतुगताद् विविधशिरोनेत्रकर्णवेदनाज्वरकुष्ठनगन्दरादिशरीरेष्ट- रर्थक्यापत्तिश्च, तत्साध्यफलानवाप्तेः। नच यथोपवर्णितचरखवियोगानिष्टसंप्रयोगादिमानसदुःखजलचरसमूहानुगतात, सं. करणसम्यविकल्प जवतो कानादितृतीयस्यापि तत्र पागत् सरणं संसारो, भावे घञ्प्रत्ययः, स एव सागरस्तस्मात् परि- येन यथोदितचरणकरणप्ररूपणासेवमद्वारेण प्राधान्यावश्चार्या: चमन् कथञ्चिदेव मनुष्यनवप्राप्तियोग्यकर्मोदयलक्षणं रन्ध्रमा- खसमयपरसमयमुक्तव्यापारा न भवन्तीति नमोऽत्र संबन्धात् साद्य मनुष्यत्वप्राप्त्या उन्मग्नः सन् जिनचन्द्रवचनकिरणाव- चरणकरणस्य सारं निश्चयशुरूं जानन्त्येव, गुर्वाकायाः प्रवृबोधम्मसाथ प्रापोऽयं जिनवचनबोधिलाज इत्येवंजाना- त्तेः चरणगुणस्थितस्थ साधोः सर्वनयविशुध्वन्युपगमात् । नः स्वजनस्नेहविषयातुरचिन्तया मा पुनः कूर्मवत् तत्रैव "तंसम्वण्यविसुद्ध, जं चरणगुणहिओ साह।"इत्याद्यागमप्रा. निमज्जेत् । आह-अज्ञानी कर्मोऽतो निमज्जति , इतरस्तु माएयात, अगातार्थस्तु स्वतन्त्रचरणप्रवृत्त बतायनुष्ठानस्य बै. हिताहितप्राप्तिपरिहारझो ज्ञानी , ततः कथं निमज्जति ? । फल्यमभ्युपगम्यत एव, “गीयत्यो य विहारो, बीमो गीयत्थसत आह-चरणगुणैर्विविधमनेकप्रकारं प्रकर्षेण हीन- मीसो भणियो।" इत्यागमप्रामाण्यात् । सम्म०३ काएन। Jain Education Interational Page #1151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२८ ) अभिधानराजेन्: । चरणकरणाभिलासि (ए) चरणकरणाभिलासि (ण् ) - चरणकरणा जिल्लापिन्- त्रि० । योsवन श्रात्मन उद्यतचरणो जविष्यामीत्यभिलाषिणि नि० चु० १५ उ० । चरणकुसीन-चरणकुशील त्रि० । चरणमालिन्यजननं कुर्वा णे, प्रव० २ द्वार । चरणगुण-चरणगुण- पुं०। चरणं चारित्रं पञ्चमदाव्रतरूपं, तस्य गुणाः । पिएमविशुद्ध्यादिषु करणचरणसप्तति रूपेषु, " नाणिस्स दंसणिस्स य, नाणेण विणा ण होति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि श्रमुक्खस्स निव्वाणं ॥ " अनु० । चरणगुणडिप-चरणगुण स्थित त्रि० । चर्यत इति चरणं चारित्रं, गुणः साधनमुपकारकमित्यनर्थान्तरम् । तच्चासी गुणश्च निर्वाणात्यन्तोपकारितया चरणगुणः । तस्मिन्, उत्त० १ अ०] आचा० | चारित्रल कणगुणेषु व्यवस्थिते, पञ्चा० २१ वि० काननयव्यवस्थिते, विशे० । चरणं चारित्रं क्रिया, गुणोऽत्र ज्ञानं, तयोः स्थितः । ज्ञानक्रियाभ्यां द्वाभ्यामपि युक्ते, विशे० । चरणग्ग-चरणाग्र- त्रि० । चरणेनाग्रः प्रधानश्वरणाप्रः । निचयनयमतापेक्षया कोणकषायादिके अकषायचारित्रे, पिं० । चरणणय - चरणनय - पुं० । नयभेदे क्रियानये, स च चरणस्य प्राधान्यमभिदधति । आचा• १ ० १ अ० ७ उ० । (तदभिधानं च 'किरिया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५५४ पृष्ठे समुक्तम् ) चरणपमिवत्ति-चरणप्रतिपत्ति स्त्री० । चर्यते इति चरणं व्रतादि, तस्य प्रतिपत्तिः चरणप्रतिपत्तिः । श्रध० । सर्वविरत्यभ्युपगमे चारित्राभ्युपगमस्वभावे, त्रि० । पञ्चा० ६ विव० । चरणपमिवत्तिसमय-चरण प्रतिपत्तिसमय- पुं० । चारित्राभ्युपगमकाले, पञ्चा• ७ विव० । चरणपरिणाम - चरणपरिणाम- पुं०| चारित्राभ्यवसाये, पञ्चा० ११ विव० । चरणपुरिस-चरण पुरुष - पुं०: मूलोत्तरगुणरूपे पुरुषोपमितेऽर्थे, "मूसुत्तरगुणरूव-इस ताइणो परमचरणपुरिसस्स । अवराहसलपनवो, भाववणो दोइ नायब्वो ॥ १ ॥ " आव० ५ ० । चरणमोह - चरणमोद - न० । चरणं चारित्रं तं मोदयतीति चरणमोहमिति । कर्म० १ कर्म० । चारित्रमोहनीय कर्मणि, धा०| चरणय- चरणक- न० । कन्यापरिधाने, श्रा० म० द्वि० । चरणरय - चरणरत- त्रि० । चरणप्रतिबके, दश० ३ ० । चरणविगम - चरण विगम-पुं० । चरणाभावे, पञ्चा० १६ विव० । चरणनिगम संकेस - चरणविगमसंक्लेश-पुं० । चारित्राभावहेतुदुष्टाध्यवसाये, पञ्चा० १६ विव० । - चरणविधाय - चरणविघात - पुं०| चारित्रा भावे, पञ्चा०११ विव० । चरणविप्पहूण- चरणविप्रहीण - त्रि० । क्रियारहिते, “ सुबहु पि सुयमधीतं, किं काही चरणविप्पडूणस्स ? । अवस्स जह पलिप्ता, दीवसतसहस्सकोडी वि ॥ " रशिक्रिया पूर्वकाक्रीयाविकलत्वात्तस्यति भावः । श्राचा० १ ० ६ अ०४ ४० । चरणविहि-चरण विधि- पुं० । चरणं चारित्रं, तस्य विधिर्यत्र बर्फाते प्रन्धे स चरणविधिः। नं० / चरणं व्रतादि तत्प्रतिपाद चरणविदि कमभ्ययनं चरणविधिः । पा० । उत्कालिक भुतविशेषे, ६ त० । चारित्रविधौ, चारित्रस्य विधाने, उस० ३० अ० चरणविधिशब्दनिक्केपायाऽऽह निर्युक्तिकृत निक्खेवो चरणम्मी, चन्त्रिहो य होइ दव्वम्मि । आगम नोयागमतो, नो आगमतोय सो तिविद्धो ॥१४८॥ जाण सरीरभविए, तव्वरिते य भक्खणाईसु । आचरणा आचरण, जावे चरण तु नायव्वं ॥ ४७ ॥ निक्खेवो उ बिहीए, चव्त्रिहो विह होइ दव्वम्मि । आगम नागमतो, आगमतो होइ सो तिविहो ॥ ५० ॥ जाणगमरीरजविए, तव्त्रइरिते य इंदियत्थेसु । भावविढी पुण निहा, संजमजोगा तो चेव ॥ ५१ ॥ गाथाचतुष्टयं स्पष्टमेव, नवरं (तव्यइरिते यसि तदूव्यतिरिकं व गतिभक्कादिषु, गतिर्गमनं, नक्षा भक्कणं, पठ्यते हि - 'वर' गतिभक्कणयोरिति । श्रादिशब्दादा सेवा परिग्रहः । उक्तं हि चरतिरासेवायामपि वर्त्तते इति । तत एतेषु सत्सु प्रक्रमाद् अव्यमेष,सुफ्यत्ययेन गत्यादयो वा भावचरणं कार्याकरणत्वेन, तद्व्यतिरितं द्रव्यचरणं, तथा चरणे प्रस्तावात् ज्ञानाद्याचारे ब्राचरणमनुष्ठानं सिद्ध्यत्यभिहितं भावे विचायें चरणं तु विशेषेण ज्ञातव्यमिति । तथा (इंदियत्थेसु ति) इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि तेषामर्याः स्पर्शादयः, तेषु प्रक्रमाद्यो विधिरनुष्ठानरूपं चरणासेवनं प्राविधिः, स चैवंविध एवेति गाथाचतुष्टयार्थः । संप्रति येनेट् प्रकृतं तदुपदर्शयन्नुपदेशमाहपगयं तु जावचरणे, जावविहीए य होइ नायव्वं । चऊण अचरणविहिं, चरणविहीए उ जझ्यव्वं ॥ ए॥ गाथा निगदसिका, नवरं भावचरणेन प्रस्तावाच्चारित्रानुष्ठामेन अचरणविधिमनाचारानुष्ठानं त्यक्त्वा चरणविधायुक्तरूपे यतितव्यं यत्नो विधेय इति गाथार्थः । उको नाम निष्पचनित्क्षेपः ॥ ५२ ॥ संप्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयम् । तचेदमचरणविहिं पवक्खामि, जीवस्स उमुदावहं । जं चरित्ता वहू जीवा, तिठा संसारसागरं ॥ १ ॥ चरणस्य विधिरागमोक्तन्यायश्वरणविधिस्तं प्रवक्ष्यामि जीधस्य, तुरवधारणे निश्नक्रमस्ततः (सुहावदं ति) सुखावहमेव वा यथा चैतदेवं तथा फलोपदर्शनद्वारेण आद-यं चरित्वाssसेव्य बहवो जीवास्तीर्णा श्रतिक्रान्ताः, संसारसागरं भवसमुद्र, मुक्तिमषाप्ता इत्यभिप्राय इति सूत्रार्थः । यथाप्रतिज्ञातमेवाह विर कुज्जा, एगतो य पवत्तणं । संजमे नियति च संजमे य पवत्तणं ॥ २ ॥ रागदो से य दो पावे, पावकम्मपवत्तणे । जे जिक्खू भए नि, से ण अच्छर मंगले ॥ ३ ॥ दिव्य जे उबस्सग्गे, तहा तेरिच्छमाणुसे । जे भिक्ख सहई सम्मं, से न अच्छइ मंमझे ॥ ४ ॥ दंगाणं गारवाणं च, सद्भाणं च तियं तियं । Page #1152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरम (८) स्थिति (१९२५) चरणविहि अभिधानराजेन्द्रः। ने निक्व रुंजए निचं, से ण भच्च ममले ॥५॥ चरणहीण-चरणहीन-त्रि० । सर्वथा चारित्रससायिफसेकविगहाकसायसनाणं, झाणाणं बहुयं तदा । म्यचरणहीने, घ०३ अधि० । प्रधः । प्रायः। मे भिक्व बज्जए निश्चं, से ण भच्छइ मंडले ॥६॥ चरणाराहणाणिमित्त-चरणाराधनानिमित्त-1०1 मस्सलिपएस इंदिअत्येम, समिईसु किरियासु य । तचारित्रपासनायें, पञ्चा० २ विव.। ने भिक्ख जयई निचं, सेन अच्छा ममले ॥ ७॥ चरणोरिया-चरणेा -श्री. । 'अभ्र-वन-मन-चर' गस्यों । सेसामु उसु काएम, उके आहारकारणे । चरतेभीवे ल्युट चरणं, तपेया चरणे- । श्रमणस्य केनापि मे जिक्खू जयई निचं, से न अच्छइ मंमसे ॥ ७ ॥ प्रकारेण भावरूपे गमने, प्राचा० २ श्रु० ३ म. १३.। पिंडुग्गहपमिमासु, भयहाणेसु सत्तसु । ('इरिया' शदे द्वितीयभागे ६२६ पृष्ठे विस्तरतः प्रतिपादितम) ने जिक्ख जयई निच, सेप अच्चा मंडले ॥५॥ चरम-चरम-त्रि० । अवसानवृत्तौ, पो० ३ विवापर्यन्तपतिमंदेसु वंभगुत्तीसु, जिक्खुधम्मम्मि दसविहे । नि , प्रबा० ५पद । भ० । ने जिक्व जयई निचं, से न अच्चइ ममले ॥१०॥ विषयसूचीनवासगाणं पमिमासु, भिकवणं पमिमासु य । (१) चरमाघरमनिर्वचनम् । (१) चरमाचरमलत्तणम्। मे निक्खू जयई निश्चं, से न अच्छश् मंडले ॥ ११ ॥ (३) रत्नप्रजादीनां नैरयिकादीनां च चरमाचरमविभागः । किरियामु नूयगामेसु, परमाहम्मिएम य । (४) रत्नप्रनादिषु प्रत्येकं चरमाचरमादिगतमस्पबहुत्वाने मिक्ख जयई निच, से न अच्छा मंमले ॥१॥ निधानम् । गाहासोनसएहि, तहा अस्संजमम्मि य । (५) लोकालोकविषये प्रश्नाः। (६) परमाणुपुमलानां चरमाचरमत्वविचारः। ने निक्खू जयई निचं, से न अच्छइ मंडले ॥ १३ ।। (७) जीवादीनां चरमाचरमविनागेन चिन्तनम् । भम्मि नायज्य णेमु, गणेस य समाहिए। स्थितिचरमे विचारः। जे भिक्खू जयई निचं, से ण अच्छा मंडले ॥१४॥। (ए) जीवादयो जीवभावेन चरमा अचरमा त्याहारा दिविशेषेण प्रभाः। एगवीसाएँ सवले. बावीसाए परीसहे । ने निक्ख जयई निचं, से ण अच्छइ मंमसे ॥ १५ ।। (१०) अपस्थितौ चरमाचरमविचारः । (१)अथ केयं चरमाचरमपरिभाषे? तत्रोच्यते-चरमं माम तेवीसाए स्यगमे, रूवाहिएम सुरेसु य । प्रान्तं पर्यन्तवर्ति,प्रापेक्तिकं च चरमत्वं, यदुक्तम्-अन्यव्यापेमे भिकरवू जयई निचं, से ण अच्छद मंमले ॥ १६ ॥ क्षया चरमं व्यमिति, यथा पूर्वशरीरापकया चरमं शरीपणवीसभावणेहिं, नदेसेसु दसाइणं । रमिति । तथा अवरमं नाम अप्रान्तं मध्यवर्ति, श्रापेक्विकंचाने निकाय जयई निश्चं, से ण अच्छइ समझे ।। १७॥ चरमत्वस, यमुक्तम्-अभ्यद्रव्यापेकया इदमचरम द्रव्यं, यथाअणगारगुणेहिं च, पकप्पम्मि तहेर य । उन्यशरीरापेकया मध्यशरीरमिति । भ०९ श० ३ उ.। जे भिक्खू जयई निचं, से ण अच्छा ममले ॥ १०॥ (२) अथ चरमाचरमलकणाभिधानायाऽऽहपावेसु य पसंगेसु, मोहहाणेसु चेव य । जो जं पाविहिति पुणो, नावं सो तेण अचरिमो हो । ने भिक्खू जयई निचं, से ण अच्छद मंडले ॥१५॥ प्रचंतविजोगो ज-स्स तेम भावेण सो चरिमो । सिघाइगुणजोगेसु, तेत्तीसासायणासु य । (जो जंपाविहिति त्ति)यो जीवोनारकादिये जीवत्वनारकत्वाने निकाबू चई निचं, से व अच्छा मंमले ॥२०॥ दिकमप्रतिपतितं प्रतिपतितं वा प्राप्स्यति लप्स्यते पुनः पुनरइत्यादि एकोनविंशतिः सूत्राणि । उत्त० ३१ अ०। (घिरत्या-1 पि जावं धर्म, स तेन भावेन, तद्भावापेक्तयेत्यर्थः; भचरमो दीनामर्थोऽन्यत्रान्यत्र) भवति । तथा अत्यन्तवियोगः सर्वयाविरहो यस्य जीवादेयेन नावेन स तेनेति शेषश्वरमो जवतीति । भ०१६ श० १३० । अध्ययनार्थ निगमयितुमाहश्य एएसु ठाणेमु, जे भिक्खू जयई सया। (३) रत्नप्रभादीनां नैरयिकादीनां च चरमाचरमविभागमाहखिप्पं सो सन्चसंसारा, विप्पमुच्चइ पंमिश्रो ॥१॥ इमा णं ते ! रयणप्पना पुढवी किं चरमा, अचरमा, इत्यनेन प्रकारेणतेप्यनन्तरोक्तरूपेषु स्थानेषु असंयमादिषु यो| चरमाई,अचरमाई,चरमंतपदेसा, अचरमंतपदेसा ?। गोयमा! मिक्षुर्यतते उक्तन्यायेन यत्नवान् भवति सदा क्षिप्रं स संसारा इमा ण रयणप्पनापुढवी नो चरमा,नो अचरमा,नो चरमाई, विप्रमुच्यते पण्डित इति सूत्रार्थः । उत्त० ३१ अाएकत्रिशे उत्तराध्ययने, स० ३६ सम। नो अपरमाई, नोचरमंतपदेसा, नो अचरमंतपदेसा, नियमा परणसंपल-चरणसंपन-विकासम्यग्दर्शनकानचारित्रतपास- अचरमं चरमाइ य चरमंतपदेसा य, अचरमंतपदेसा य, पसे, पं.पू. एवं० जाव अहे सत्तमा पुढवी सोहम्मादी० जाव अनुत्तर२०३ Page #1153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरम अभिधानराजेन्द्रः। चरम विमाणाणं एवं चेव, इसीप्पन्नाराए एवं चेव, लोगे वि एवं पादितमिति ततोऽवधार्यम् । एवं " जाव अहे सत्तमाए पुचेव, एवं असोगे वि । ढवीए" इत्यादि । यथा रत्नप्रभा पृथिवी प्रमनिर्वचनाभ्या मुक्ता, एवं शर्कराद्या भपि पृथिव्यः, सौधर्मादीनि च विमानानि " मा गं भंते ! रयणप्पभा पुढवी किं चरमा " इ-1 अनुत्तरविमानपर्यवसानानि, ईषत्प्रागभारालोकश्च वक्तव्यः, त्यादि पृच्छा? । अथ केयं चरमाचरमपरिजाषा ? । उच्यते सूत्रपाठोऽपि सुगमत्वात स्वयं परिभावनीयः। स चैवं-"सकपरमं नाम पर्यन्तवर्ति, तश्रमत्वमापोटेकमन्यापेकया तस्य रप्पभाए णं भंते ! पुढवी किं चरमा, अचरमा, चरमाणि, अ. जावात । यथा पूर्वशरीरापेकया चरमं शरीरमिति, अ- चरमाणि" इत्यादि । ( एवमलोके वि इति) एवमुक्तेन प्रकारेबरममप्रान्तं मध्यवर्ति इति यावत, तदपि चापेक्विक, तस्य णालोकोऽपि वक्तव्यः । स चैवम्-" भलोए णं भंते ! किं चर• परमापेकया नावात् । यथा तथाविधान्यशरीरापेकया म मे अचरमे" इत्यादि प्रश्नसूत्रं तथैव । निर्वचनसूत्रं-“गोय. मा ! मचरमेचरमाणि ब चरमंतपपसा य अचरमतपएध्यशरीरमचरमशरीरं तदेव चरमाचरमेत्येकवचनान्तः प्रश्नः कतः । सम्प्रति बहुवचनान्तमाद-(चरमा अचरमाई ति) सा य" । तत् चरमाणि यानि लोकनिष्कुटेषु प्रविष्टानि, पतानि चत्वारि प्रश्नसूत्राणि तथाविधैकत्बपरिणामविशि शेषमन्यत्सर्वमचरम, चरमसएडगताः प्रदेशाश्वरमान्तप्रदेशाः, पद्रव्यविषयाणि कृतानि । संप्रति प्रदेशानधिकृत्य प्रश्नसूत्र- भवरमखण्डगताःप्रदेशा भचरमप्रदेशाः । प्रज्ञा०१पद । म इयमाह-( चरमंतपपसा यति ) चरमाएयवान्तर्वर्तित्वात (४) सम्प्रत्येतेषु रत्नप्रभादिषु प्रत्येकं चरमाचरमादिगतमन्ताश्चरमान्तप्रदेशाः । अचरममेव कस्याप्यपेकयाऽनन्तव मल्पबहुत्वमनिधित्सुरिदमाहतित्वादन्तोऽवरमान्तप्रदेशाः । तदेवं षट्सु प्रश्नेषु कृतेषु नग- इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए अचरमस्स यच. घानाह-गौतम!सा रत्नप्रजा पृथिवी नो चरमा, चरमत्वं ह्यापेविकामत्युक्तं, न चाचान्यदपेक्षणीयमस्ति, केवलाया एष तदन्य रमाण य चरमंतपदेसाण य अचरमंतपदेसाण य दबट्ठयानिरपेक्षायास्पृष्टत्वात, नाप्यचरमा, तत एव हेतोः, तथा खचर ए पदेसट्टयाए दबट्ठपदेसट्टयाए कयरे, कयरोहितो अप्पा मत्वमपि आपेक्षिक, न चाचान्यदपेक्षणीयमस्तीति । किमुक्तं वा बहुया वा तुझा वा विसेसाहिया वा?। गोयमा! सचभवति ?-इयं रत्नप्रना पृथिवीन पश्चिमा, नापि मध्यमा, तद. त्योवे इमीसे रयणप्पनाए पुढवीए दमट्ठयाए एगे अचम्यस्यापेक्षणीयस्याविववणादिति । अत एव नचरमाणि,चरम रमेचरमाइं असंखेज गुणाई अचरमं चरमाणि य दो वि स्वव्यपदेशस्यैवाऽसम्भवः,तद्विषयबहुवचनासम्भवात्। तथाहिपदा तस्याश्चरमत्वव्यपदेश पधोक्तयुक्तोंपपद्यते, तदा कथं विसेसाहियाइ पदेसट्टयाए सम्बत्योवा, इमीसे रयणप्पतद्विषयं बदुवचनमुपपत्तुभहतीति, एवंमचरमारयपि प्रतिषे. भाए पुढवीए चरमंतपदेसा अचरमंतपदेसा, अचरमंतपदेसा धनीयानि,प्रागुक्तयुक्तरचरमत्वव्यपदेशस्यासंभवातून चरमान्त- असंखेज्जगुणा, चरमंतपदसा य अचरमंतपदेसा य दो प्रदेशा नाप्यचरमान्तप्रदेशाः,नक्तयुक्त्या चरमत्वस्याचरमत्वस्य वि विसेसाहिया दबट्ठपदेसट्ठयाए सव्वत्थोवे, इमीसे चाऽसम्भवतस्तत्प्रदेशकल्पनाया अप्यसम्नवात् । यद्येवं तर्दि किंस्वरूपा सेत्यत्र आह-नियमानिय मेनाचरमं चरमाणि च । रयणप्पनाए पुढवीए दबट्टयाए एगे अचरमे चरमाइं अकिमुक्तं भवति?-यदीयमखएकरूपा विवक्तितत्वात् पृज्यते तदा संखेज्जगुणाई अचरमं चरमाणि य दो वि विसेसाहियाई यथोक्तनमानामेकेनापि नङ्गेन व्यपदेशो न जवति, यदा त्यसं- चरमंतपदेसा असंखेजगुणा अचरमंतपदेसा असंखेज्जस्येयप्रदेशावगाडेत्यनेकावयवविनागात्मिका विवक्ष्यते तदा य गुणा चरमंतपदेसा य अचरमंतपदेसा य दो विविससाहियोक्तनिर्वचनविषया भवति । तथाहि-रत्नप्रनाप्रथिन्या यानि प्रान्तेयवस्थितानि स्वयमानि प्रत्येक तथाविधविशिष्टैकत्वप या एवं० जाव अहे सत्तमा सोहम्पस्स० जाव लोगस्स रिणामपरिणतानि चरमाणि, यत्पुनमध्ये महद्रत्नप्रभायाः य एवं चेव । बएवं तत्तथाविधैकत्वपरिणामयुक्तत्वादेकत्वेन विवक्षितमित्य- ___ "श्मी से णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए अचरमस्सय चरचरमम २,उभयसमुदायम्पा चेयम, अन्यथा तदभावप्रसात। माण" इत्यादि प्रभसूत्रं सुगमम । निर्वचनसत्रे सर्वस्तोकं द्रव्यातदेयमवयवावयविरूपतया चिन्तायामचरमचरमाणि चेस्यब- र्थतया भल्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या अचरमखण्डम् । कस्मागमैकनिर्वचनविषया प्रतिपादिता, यदा पुनः प्रदेशचिन्ता दिति चेदत माह-एके 'निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विनक्कीक्रियते तदेवं निर्वबनम, चरमान्तप्रदेशाच,अचरमान्तप्रदेशाश्च। नां प्रायोदर्शनम्' इति न्यायादत्र हेतौ प्रथमा । ततोऽयमर्थःतथाहि-ये बाह्यखामेषु गताः प्रदेशास्तं चरमान्तप्रदेशाः. ये| यस्मातथाविधकस्कन्धपरिणामपरिणतत्वादकं ततः स्तोक.त. पुनमध्यकखाएमगताः प्रदेशास्तेऽचरमान्तप्रदेशाः। अन्ये तुम्या- स्मात् वानि चरमाणि अपमानि तान्यसंस्येयगुणानि, तेषामपकते-चरमाणि नाम तथाविधप्रविष्टेतरप्रान्तकप्रादेशिकी- संख्यातत्वात, अयाचरमं चरमाणि समुदितानि चरमाणां तु. णिपटलरूपाणि मध्यभागोऽचरम इति। तदपि समीचीनम, व्यामि विशेषाधिकानि चेति शङ्कायामाह-अचरमं चरमाणिव दोषाभावात् । चरमान्तप्रदेशा यथोक्तरूपप्रान्तकप्रादेशिक समुदितानि विशेषाधिकानि । तथाहि-यदचरमभव्यं तच्चरणिपटलगताः प्रदेशा अचरमान्तप्रदेशा मध्यभागगताः प्रदे- महव्येषु प्रविते ततश्चरमेय एकोनाधिकत्वाद्विशेषाधिकसमुशाः । अनेन निर्बचनसूत्रेण एकान्तपुर्नयप्रधानेन अवयवा- दायो भवति, प्रदेशार्थत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाश्चरमान्तप्रदेशाः, षयविरूपं रत्नप्रभादिकं वस्तु, तयोश्चावयवावयविनोर्मेदाभेद बतचरमखएमानि मध्यखएकापेक्तयाऽतिसदमाणि, ततस्तेषामत्यावदितं, तथा चावयवावयविरूपतायां परोक्तवृषणायका- संस्थेयानामपि ये प्रदेशास्ते मध्यखएडगतप्रदेशापेकया सर्वशः। तथा धर्मसंग्रहणीटीकायां बाह्यवस्तुप्रतिष्ठायसरं प्रति- स्तोकाः, तेभ्यो अचरमप्रदेशा भसंश्येयगुणा, भचरमखण्ड Page #1154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३१) निधानराजेन्द्रः । चरम स्यैकस्यापि चरमलण्डसमुदायापेक्षया केत्रतोऽसंख्ययगुणेस्वात्, चरमान्तप्रदेशा श्रचरमान्तप्रदेशाश्च द्वयेऽपि समुदिता अचरमान्तप्रदेशेभ्यो विशेषाधिकाः कथमिति चेत् ?, उच्यतेचरमान्तप्रदेशा अचरमान्त प्रदेशापेक्षया असंख्येय भागप्रमाणाः, ततोऽचरमान्तप्रदेशेषु चरमान्तप्रदेशप्रक्षेपेऽपि ते अचरमान्तप्रदेशेभ्यो विशेषाधिका एव भवन्ति इत्यार्थप्रदेशार्थनिन्तायाम्, (अचरमं चरमाणि य दो वि विसेसाहियाई चरतपसा श्रसंखेज्जगुणा इति ) अचरमचरमसमुदायाश्चरमान्तप्रदेशा असंख्येयगुणाः कथम ?, उच्यते-इह यदचरमस्त्रएमं तदसंख्येयप्रदेशावगाहमपि द्रव्यार्थतया एकं चस्मेषु पुनः खरमेषु प्रत्येकमसंख्येयाः प्रदेशास्ततो भवन्ति चरमाचरमव्यसमुदायादसंख्येयगुणाश्चरमान्तप्रदेशास्तेभ्यो ऽप्यचरमान्तप्रदेशा असंख्येयगुणास्तेभ्योऽपि चरमाचरमप्रदेशाः समुदिता विशेषाधिका इति पूर्ववत् । लोगस्स णं जंते ! अचरमस्स य चरमाण य चरमंतपसा य अचरमंतपदे साथ य दव्नट्टयाए पदेसट्टयाए पट्टयाए करे, कय रोहिंतो अप्पा वा० ४ १ । गोयमा ! सव्वत्यो लोगस्स दव्वट्टयाए एगे अचरमे चरमाई असंखेज्जगुणाई चरममचरमाणि य दो विविसेसाहियाइँ पदेस याए सम्बत्थोवा; अलोगस्स चरमंतपदेसा अचरमंतपसा प्रांतगुणा चरसंतपदेसा य अचरमंतपदेसा य दो विविसेसाहिया दपदेसध्याए सन्वत्योवे; अलोगस्स दव्त्रट्टयाए एगे अचरंमे चरमाई असंखेज्जगुणाई अचरमं च चरमाणि य दो वि विसेसाहियाई चरमंत देसा असंखे जगुणा चरमं तपदेसा प्रणतगुणा चरमंतपदेसा य चरमंतपसा य दो वि विसेसाहिया । प्रदेशार्थचिन्तायां सर्वस्तोका लोकस्य चरमान्तप्रदेशाः, सो कनिष्कुटवान्तस्तेषां भावात्, तेभ्योऽचरमान्तप्रदेशा मनन्तगुणाः, अलोकस्यानन्तत्वात् । चरमान्तप्रदेशा अचरमान्तप्रदेशाश्च समुदिता विशेषाधिकाः, चरमान्तप्रदेशा ह्यचरमान्तप्रदेशापेक्षया अनन्तनागकल्पाः, ततस्तेषामचरमान्तप्रदेश राशी प्रेपेऽपि वेऽचरमान्तप्रदेशेभ्यो विशेषाधिका एव भवन्ति । (५) सम्प्रति लोकालोकविषयं प्रश्नसूत्रमाहलोगालोगस्स णं भंते ! अचरमस्स य चरमाण य चरमंपदेसाय चरमंतपदेसाण य दन्डयाए पदेसट्टयाए दन्चपदेस याए कयरे, कयरेरेहिंती अप्पा वा बहुया बा तुला वा विसेसादिया वा । गोयमा ! सव्वत्योचे लोगालोगस्स दव्वट्टयाए एगमेगे अचरमे, लोगस्स चरमाई असंखेज्जगुणाई, लोगस्स चरमाई विसेसाहियाई, लोगस्स अलोगस्स य अचरमं च चरमाणि य दो त्रिविसेसादिया पदेसट्टयाए सव्वत्योत्रा, लोगस्स चरमंतपदेसा, अलोगस्स चरमंतपदेमा विसेसा दिया, बोगस्स अचरमंतपदेसा असंखिज्जगुणा, लोगस्स चरमंतपदेसा अनंतगुणा, लोगस्स य भलोगस्स य चरमंतपदेसा य अचरमंतपदेसा य दो चि | चरम विसेसाहिया दव्वपदेसट्टयाए सम्बत्यो, लोगा लोगस्स दाए एगमेगे चरमे, लोगस्स चरमाई असंखेज्जगुपाई, श्रलोगस्स चरमाई विसेसाहियाई, लोगस्स य श्रलोगस्स य चरमं च चरमाणि य दो वि विसेसाहियाई, लोगस्स चरमंतपदेसा असंखेज्जगुणा, अलोगस्स चरमंतपदेसा विसादिया, लोगस्स अचरमंतपदेसा असंखेज्जगुणा, अलोगस्स चरमंतपदेसा अतगुणा, लोगस्स य लोगस्स य चरमंतपदेसाय अचरमंतपदेसा य दो वि विसेसाहिया सन्दव्वा विसेसाहिया सन्वपदेसा अंतगुणण सव्वपज्जवातगुणा । प्रश्नसूत्रं सुगमम् । निर्वचनमाह--"गोयमा” इत्यादि । गौतम ! लोकस्य लोकस्य ख यत् एकैकं श्रचरमखण्डं तत् स्तोकमेकत्वात् तेज्योलोकस्य चरमखण्डद्रव्याण्यसंख्येयगुणानि तेषामसख्यत्वात्, तेभ्योऽप्यलोकस्य चरमखण्डानि विशेषाधि कानि । कथमिति चेत् ?, उच्यते-इह यद्यपि लोकस्य चरमखएमानि तत्त्वतोऽसंख्येयानि तथापि प्रागुपदर्शित पृथ्वी न्यासपरि कल्पनया तान्यष्टौ परिकल्पन्ते । तद्यथा एकैकं चतसृषु दिक्षु एकैकं च विदिविति भलोकचरमखरामानि च तन्न्यासपरिकल्पनया परिगण्यमानानि द्वादश । तद्यथा - एकैकं चतसृषु दिक्कु द्वे द्वे विदिश्विति द्वादश चाष्टज्यो न द्विगुणानि त्रिगु णानि च किं तु विशेषाधिकानि, तेभ्योऽलोकस्य चरमखए डेज्यो लोकस्य चरमाचरमख एमानि श्रलोकस्य चरमाचरमखण्मानि समुदितानि विशेषाधिकानि तथाहि लोकस्य चरमखण्डानि प्रागुकपरिकल्पनया अष्टावेकमचरममित्युजयमीलनेन न श्र लोकस्यापि चमाचरमखरामानि समुदितानि त्रयोदश, उजयेधामेकत्र मीलनेन द्वाविंशतिः, सा च द्वादशज्यो न द्विगुणा नापि त्रिगुणा किं तु विशेषाधिकेति, अलोकस्य चरमखण्डेभ्यो लोकालोकचरमाचरमखण्डानि समुदितानि विशेषाधिकानि, प्रदेशार्थताचिन्तायां सर्वस्तोका लोकस्य चरमान्तप्रदेशाः, अष्टख रामसत्कानामेव प्रदेशानां जावात् । तेज्योलोकस्य चरमान्तप्रदेशा विशेषाधिकाः तेभ्योऽलोकम्याच रमन्तप्रदेशा असंख्येयगुणाः, क्षेत्रस्यातिप्रभूततया तत्प्रदेशा नामप्यतिप्रभूतत्वाभावात् । तेज्यो ऽप्यलोकस्याचरमान्तप्रदेशा अनन्तगुणाः, क्षेत्र स्थानन्तगुणत्वात्, तेभ्योऽपि लोकस्य चरमान्तप्रदेश अरमान्तप्रदेशा अलोकस्यापि चरमान्तप्रदेशा श्रचरमान्तप्रदेशाः समुद्दिता विशेषाधिकाः । कथमिति चेत् ?, उच्यते-इह अलोकस्याचरमान्तप्रदेशराशौ लोकस्य चरमाचरमान्तप्रदेशा श्रलोकस्य चरमान्तप्रदेशाश्च प्रतिप्यन्ते, ते च सर्वसंख्ययाऽप्यसंख्येयाश्वानन्तराश्यपेयाऽतिस्तोका इति प्रकेपेऽपि ते लोकस्याचरमान्तप्रदेशेभ्यो विशेषाधिका एव । एतदनुसारेण द्रव्यार्थप्रदेशार्थचिन्तासूत्रमपि स्वयं परिज्ञानवनीयम, नवरं लोकालोकवरमावर मखराडेभ्यो लोकस्य चरमान्तप्रदेशा असंख्येयगुणा इति लोकस्य किन चरमाणि स्वमान्यष्टौ एकैकस्मिंश्च खएकदेशे खएरूप्रदेशा असंख्येयलोकालोकचरमावरमखरामानि च समुदितानि द्वाविंशतिः, ततो घटन्ते लोकालोकचरमाचरमखए मेभ्यो लोकस्य चरमान्तप्रदेशा असंख्येयगुणाः । शेषपदभावना प्राण्वत ( सम्बदन्चा Page #1155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरम 9 बिसेसाहिया इति लोकालोकबरमाचरमान्तप्रदेशेयः सर्व पाणि विशेषाधिकानि अनन्तसंक्यानां जीवानां तथा परमाण्वादीनामनन्त परमाण्यात्म कस्कन्धपर्यन्तानां प्रत्येकान मनन्तयानां पुचक २ व्यत्वात् तेभ्योऽपि सर्वप्रदेश अनन्तगुणाः तेभ्योऽपि सर्वपर्यया अनन्तगुणाः प्रतिप्रदेशं परमेभिन पर्यायाणामत् , ( ११३२) अभिधानराजेन्द्रः । (६) इदानीं परमाण्वादिकं चिन्तयन्नाहपरमाणुमालाने किं चरमे अचरमे भवत चरमाई अचरमाई अवतव्वयाई ६ उदाहु चरमे य अचश्मे य ७ उदाहू चरमे व अचरमाई 0 उदादु चरमाई अचरमे य tu उदाहु चरमाई च अचरमाई च १० पढमा च भगी । दाहु चरमेय अवतन्त्र य ११ उदाहु चरमे य अवत्तब्याई च १२, उदाहु चरमाई च अवतन्त्रए य १३ उदाहु चरमाई च अवत्तन्वयाई च १४ बीया चउजंगी। उदाहु चरमे थ अवत्तव्वर य १५ उदाहु अचरमस्स य अवतन्त्रया च १६ उदाहु अचरमाई च प्रवत्तन्वए १७ उदाहु अचरमाई व अवतव्ययाई च १० वया च जंगी । उदाहु चरमे य अचरमे य घवतन्त्रए १६ उदा चरमेव अचरमेय अरणन्नपाई च२० उदाद चरमेव अपरमाई च भवतव्य १२१ उदाचरमे याच रमाई च अवतव्वयाई च २२ उदाडु चरमाई अचरमे य अवतन्त्र य २३ उदाहु चरमाई चरमे य अवसव्वपाई २४ उदाहु चरमाई च अचरमाई च अब सव्वए य २५ तदातु चरमा च अपरमाई च अवसन्नपाई च २६ एवं उपसगा ? गोपमा ! परमापोले नो परमे नो अरमे नियमा अवसर, सेसा गंगा परिदेवया । तत्र ब्रह्मसूत्रे पर्विद्यतिमा, पतस्त्रीणि पदानि परमार माणानि तेषां वैकैकसंयोगे प्रत्येकमेकवचनात्रयोभङ्गःः। तद्यथा-वरमः १ अचरमः २ अवक्तव्यकः ३। त्रयो बहुवच मेन । तद्यथा चरमाणि १ अचरमाणि २ अवक्तव्यानि ३। सर्वसंपया द्विसंयोगाखव तद्यथा परमार कर मापकम्यकपरितीयः अधरमा कल्पकपदोस्ती मित्रो त प्रथमे द्विफसंयोगे एवं परमा उचरमश्च १ चरमश्चाऽचरमाश्च २ चरमाश्वारमश्ध ३ परमाचरमेव चतुराभ्यपद्य मे चाचरमावतव्यपदयोः, सर्वसंख्याया विकसंयोगे द्वादश भांग एकदचनवमाध्याम, सर्वना पतिः अत्र निर्वाचनमाद" सोचमा ! परमाण मंचर इत्यादि परमाणुश्रमो न भवति परमार्थ हा यापेक्षं न चान्यदपेचणीयमस्ति तस्याविवकणान्न च सांगः परमापैशापेक्षया चरम प्रका चस्मा चरमो नाप्यचरमा निरवयवतया मध्यत्वायोगात, किं स्कायः, नरमाचर मध्य पंदेश कारणतः शून्यतया चरमशब्देग्राऽचरमशब्देन वा व्यपदेष्टुमशक्यत्वाद्, वक्तुं शक्यं हि वक וי चरम व्यं च परमशब्देन या स्वस्थमा यतुमशक्यं सम्यमिति शेषास्तु परम तेषामभवात्। यति च परमामय स्था यमर्थः परमाणो परम चिन्तायां तृतीयो भङ्गः परिप्रा शेषा निरवयवत्वेन प्रतिपत्याः । प्रका० १ पद । , परमाणुपासे णं भंते । किं परिमे चरिमे । गोयमा ! दम्यादेसेणं णो परिये अपरिमे, खेसा देसेणं सिय चरिये सिय अचरिमे, कालादेसेण सिय परिये सिय प्रचरिमे, जावादेसेणं सिय चरिमे सिय अचरिमे ॥ "परमाणु" इत्यादि । (चरमे ति) यः परमापूर्यस्माद्विवक्षितभाषायुतः पुनस्तं मायं न प्राप्स्यति सद्भावापेक्षा चरमः पतद्विपरीतस्त्यचरम इति तत्र ( दन्यासेति ) आदेशः प्रकारो रूव्यरूप आदेशो द्रव्यादेशस्तेन नो वरमः, स दि अन्यतः परमाणुत्वाच्च्युतः संघातमवाप्यापि ततदयुतः, " परमात्य इन्यत्वमपास्यति इति ( बेदेसेणं ति क्षेत्र विशेषितत्व क्षणप्रकारेण स्यात्कदाचिचरमः कथम् ?, यत्र क्षेत्रे केवल समुद्धा गतस्तत्र क्षेत्रे का परमा सुरगादोऽसीत , तेन केलना समुद्रालगतेन विशेषितो न बनाहं सस्ते केपनादित्येवमो ऽसाविति । निर्विशेषणापेक्षा त्यचरमस्तत्केावगाहस्य तेन सम्यमानायादिति (कालादेसेणं ति प्रकारे (सिय परिमेति कथचिचरः कथ कालना समुद्रातः कृतस्तच परमा परमाणुतथा संवृतः स तं कालविशेषं केमिसमुद्धातविशेपितं न कदाचनापि प्राप्स्यति, तस्य केवलिनः सिद्धिगमनेन पुनः समुदावाभावादिति तदपेक्षया कालतकारमो ऽसाविति निर्विशेषणकालापेक्षा त्वचरम इति भाषायसेति ) नायो पर्यादिविशेष विशेष प्रकारेण स्थावरमा कथम् ? . विवचितकेवसिसमुद्वातावसरे यः पुलो वर्णादिभावविशेष परिणतः स चिचतियखिसमुद्रात विशेषत परिणामापेक्षमा चरमो यस्मात् तत्केवलि निर्माणे पुनस्तं परिणाममसौ न प्राप्स्यतीति इदं च व्याख्यानं चूर्णिकारमतमुपजीव्य कृतमिति । भ० १४० ५ ४० । • • - दुपदेसिए णं भंते ! खंधे पुच्छा १ । गोयमा ! दुपदेसिए खंधे सिय चरमे नो अचरमे, सिय अवत्तव्वए, सेसा भंगा पमिसेsयन्वा ॥ "दुपयसिप नंते!" इत्यादि प्रह्मसूत्रं प्राग्यय निर्वाचनमाह" गोयमा ! सिय सरमे तो अचरमे, सिय सम्म " इत्यादि । द्विप्रदेशकः स्कन्धः स्यात् कदाचित चरमः कथमिति चेत् ?, उच्यते-इह यदा द्विप्रदेशकः स्कन्धो द्वयोराकाशप्रदेशयोगादो भयति समस्या व्यवस्थितया तदायको पि परमार पर परमापचयेऊया चरमोऽपरोऽप्यपरपरमाहया चरम इति चरमः श्रचरमस्तु न भवति, सर्वपाणामपि केवलाचरमत्वस्यायोगात् । यदा तु स एव द्विप्रदेशिकः स्कन्धः एकस्मिनाकाशप्रदेशे अवगावे, तदा स तथाविधापरिमाणपरिणतया परमाणुवत् चरमा चरमव्यपदेशकारणशून्यत्वान्न चरमशब्देन व्यपदेष्टुं शक्यते, नाप्यचरम Page #1156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३३ ) निधानराजेन्द्रः | चरम शब्देनेति श्रवतव्यः शेषास्तु भङ्गाः प्रतिषेभ्याः । तथा च वयति पदमोदय य होइ परसे" यमर्थः-हिप्रदेशके स्कन्धे प्रथमो नङ्गश्वरम इति तृतीयोऽवक्तव्य इति भवति । शेषास्तु प्रतिषेध्याः, असम्भवात् स चासम्भवः सुप्रतीत एव । " सिपरसिए व भंते! खंचे पुच्छा! गोपमा ! तिपदेसिए । खंधे सिग चरमे नो चरमे, सिय अवत्तम्बए नो चरमाई, नो अचरमाई नो प्रवत्तव्वयाई, नो चरमे य अचरमे य, नो चरमे व अपरमाई सिय चरमाई व परमे य, नो चरमाई च अपरमाई सिय चरमेय अवसम्मत् य, सेसा भंगा पमिसेदेयन्वा ॥ " तिपए लिए मंते ! खंधे" इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्। निर्वचनम् - "गोयमा ! लिय चरमे" इत्यादि । इद यदा त्रिप्रदेशिकः स्कन्धोद्वयोराकाशप्रदेशयोः समष्या गाटो नवति तदाऽसौ चम, सावरमाचरमत्वनावना द्वि. प्रदेशिक स्कन्धवद्भावनीया, अचरमप्रतिषेधः प्राग्वत्, स्थादवकव्य इति यदा स एव त्रिप्रदेशिकः स्कन्ध एकस्मिन्नाकामदेशे गाते तदा परमाणुयत् चरमावर मध्यपदेशकारणशून्यतया चरमाऽचरमशब्दाज्यां व्यपदे घुमशक्यत्वादवक्तव्यः, चतुर्थादयोऽष्टमपर्यन्ताः प्रतिषेध्याः, असंभवातू, असं नवस्तु प्रतीतत्वात् स्वयमुपयुज्य वक्तव्यः, नवमस्तु प्राह्यः, तथा चाह - ( लिय बरमाइ य अचरमे य ) प्राकृते द्वित्वेऽपि बहुवचनम्, ततोऽयमर्थः-स्वा कदाचिदयं नारमो ऽचरमथ, या प्रदेशिकः स्कन्धः विध्याकाशप्रदेशेषु समष्या व्यवस्थितेष्वेवमवगाहते तदाऽऽदिमान्तिमौ द्वौ परमाणुपर्यन्तवस्वाश्चरम, मध्यमस्तु मध्यवर्तित्वादचरम इति, दशमस्तु प्रतिषेध्यस्कन्धस्य त्रिप्रदेशिकतया चरमाचरमशब्दयोः च चननिमित्तासंभवात्, एकादशस्तु ग्राह्यः तथा चाह - (सिय चरमेय भवत्तवप य ) स्यात्कदाचिदयं भङ्गश्चावक्तव्यश्ा, तत्र यदा स विप्रदेशिका समय वाहते वा हो परमाणु समय व्यवस्थिताविति प्रदेशिक स्कन्धवच्चरमव्यपदेशकारणभावतः चरम एकश्च प रमाणुर्विधेस्थिधरमाचरमशब्दाभ्यां व्यपदेशुमशक्यकव्यः, शेषास्तु भङ्गाः सर्वेऽपि प्रतिषेध्याः । वक्ष्यति च " प इमो तओ नवमो, पक्कारसमो य तिपपसे । " अस्थायमर्थःत्रिप्रदेशे स्कन्धे प्रथमो नङ्गकारम इति, तृतीयोऽवक्तव्य इति, नवमश्वरमौ वाऽचरमश्च, एकादशश्चरमश्चाव कव्यश्चेति भबति, शेषा भङ्गा न घटन्ते । चप्पएसिए णं भंते ! खंधे पुच्छा ! । गोयमा ! चडcreसिए णं खंधे सिय चरमे नो अचरमे, सिय प्रवत्तore नो चरमाई, नो अचरमाई नो अवत्तव्त्रयाई, नो चरमे य अचरमे य, नो चरमे य अचरमाई च सिय परमाई अचरमे य, सिय चरमाई च अपरमाई च सिय चरमे व अवसम्बए य, सिय चरमे य अनतम्बयाई च, नो चरमाई च प्रवत्तन्वए य, नो अचरमाई च भवत्तच्वयाई च, नो अचरमे य अवत्तव्वर य, नो अचरमे | ૨૮ चरम य असा च नो अचरमाई व भवतव्य य नो चरमाई व प्रवत्तन्वयाई च, नो चरमे य अचरमे य प्रवत्तन्वए य, नो चरमे य अचरमेय अवत्तब्बयाई च नो चरमेय अचश्माई च प्रवत्तव्वए य, नो चरमे यचरमाई च अवतव्यवाई च, सिय परमाई च अपरमे व अचम्म य सेसा भेगा पडण्या ॥ सिते! बंधे" इत्यादि प्रह्मसूत्रं प्रयत्न चनमाह -" गोयमा ! लिय बरमे " इत्यादि । अत्र प्रथमतृतीनमद कादराद्वादश श्योविंशतितमः सप्तभङ्गः प्राह्याः, शेषाः प्रतिषेध्याः, तत्र प्रथमभङ्गो यः स्याच्चरम शति, इह यदा चतुःप्रदेशिकस्कन्धो द्वयोराकाशप्रदेशयोः समश्या व्य वस्थितयोरेवमवगाढते तदा चरमः, सा च चरमत्व भावना स मधेया व्यवस्थित प्रदेशावगाढद्विप्रदेशस्कन्धवद्भावनीया, तृतीयो भङ्गः स्यादवक्तव्य इति, स चैवम् - यदा स एव चतुष्पदेशकः स्कन्ध एकस्मिन्ना काशप्रदेशे ऽवगाद्ते तदा परमाणुवत् वक्तव्यः,नवमः स्याश्चरमौ चाचरमश्च स चैवम् यदा स चतुःप्र देशात्मक स्कन्धस्त्रिष्वाकाशप्रदेशेष्वेवमवगाहते तदा आद्यन्तप्रदेशाववादी चरमी, मध्यप्रदेशावगाढयचरम दशमः स्याच्चरमौ चाचरमौ च तत्र यदा स चतुः प्रदेशात्मकः स्कन्धः समोरचा व्यवस्थितेषु चनुष्यकाशप्रदेशेष्वेवाहते तदा प्रदेशपाठी ही परमाणु परमो यो मध्यमयोराकाशप्रदेशोरवगाढौ द्वौ परमाणु अचरमाविति पकादशः स्याच्चरमश्चावक्तव्यः, स चैवम् यदा स चतुःप्रदेशका स्कन्धः शिष्याकाशप्रदेशेषु समयेया वैधमयाते तदा समत्रे विव्यवस्थितद्विप्रदेशावगाढाखयः परमावो द्विप्रदेशावगाढ द्विप्रदेश कस्कन्धवत् चरम एकश्च वि श्रेणिस्यः परमासुरिव परमाचरमशब्दाभ्यां व्यपदेशक्यत्वादवक्तव्य इति द्वादशः स्याच्चरमश्चावक्तव्यौ च स बैमदास चतुःप्रदेशात्मकः कन्यकाशप्रदेशेष्यम वगाहते जी परमाणु द्वयोः समयावस्थितयो का प्रदेशयोद्व च परमाणु द्वयोः विवेण्या व्यवस्थितयोः तदा द्वौ परमाणू समश्रेण्या व्यवस्थितौ द्विप्रदेशावगाढद्विप्रदेशकस्कन्धवच्चरमः, हौ च परमाणू विधेणिव्यवस्थितौ केवल परमाणुवश्चरमाचरमशब्दाभ्यां व्यपदेष्टुमशक्यावित्यवक्तव्यौ । त्रयोविंशतितमः स्याच्चरमौ चाचरमश्चावतव्यश्च कथमिति चेत्, ब- पास चतुदेशकः स्कन्धका शब्देरोवेवमवगाते यः परमा समय व्य काशप्रदको विधेस्थिप्रदेशे तदा विषु परमा समश्रेणिव्यवस्थितेषु मध्ये श्राद्यन्तौ परमायुपर्यन्त वर्तित्वाच रमी, मध्यस्त्ववरमो, विधेविस्थय इति यति"पदमोतो नमो इसम एक्कारसो व वारसमो । भंगा से समय बोध ॥ १ ॥ " गतार्था । पंचपदेसिए णं जंते ! खंधे पुच्छा ? । गोयमा ! पंचपदेसिए खंबे सिव चश्मे नो अपरमे, सिय भव्य नो चरमाई नो अचरमा नो अवत्तन्वयाई, सिय चरमे य अचरमे य, नो चरमेव अपरमाई सिय चरमाई व अचरमे य, सिय चरमाई व अचरमाई च, सिय चरमेय अवतन्त्रए Page #1157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरम (१९३४) अभिघानराजेन्द्रः। चरम य, सिय चरमे य अवतब्बयाई च, सिय चरमाई च पञ्चस्वाकाशप्रदेशेष्वेवमवगाहते द्वौ परमाणू उपरि द्वयोराकाप्रवत्तव्यए य, नो चरमाईच अवत्तव्बयाई च, नो अ-| शप्रदेशयोः समश्रेण्या व्यवस्थितयोरषगाढौ द्वौ च द्वयोस्तचरमे य अवत्तव्बए य, नो अचरमे य प्रवत्तव्बयाई च, नो थैवाधः एकपर्यन्तमभ्यसमे तदा द्वाषप्युरितनौ द्विप्रदेशावगा. ढयणुकस्कन्धवचरमौ द्वौ चाधस्तनौ चरम इति चरमो अचरमाइंच अवत्तव्बए य, नो चरमाई च अवत्तव्बयाई च, एकश्च केवलः परमाणुरिवावक्तव्य इति,त्रयोविंशतितमः चरमौ नो चरमे य अचरमे य अवत्तव्बए य, नो चरमे य अचरमे चाचरमश्चावक्तव्यश्च । यदा पञ्चप्रदेशकः स्कन्धश्चतुर्वाकाशय अवत्तबयाई च, नो चरमे य अचरमाइं च प्रवत्तव्बए प्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते त्रिवाकाशप्रदेशेषु य, नो चरमे य अचरमाइंच अवत्तव्बयाई च, सिय चरमाई समश्रेण्या व्यवस्थितेवायेऽपि विश्रेणिस्थ एकः तदा त्रिवा काशप्रदेशेषु मध्ये आद्यन्तप्रदेशावगाढी चरमौ, मध्यप्रदेशवर्ती च अचरमे य श्रवत्तबए य, सिय चरमाईच अचरमे य तु द्वयणुको मध्यवर्तित्वादचरमो विश्रेणिस्थश्चावक्तव्य इति । अवत्तव्वयाई च, सिय चरमाई च अचरमाइंच अवत्तवए। चतुर्विशतितमश्वरमौ चाचरमश्वावक्तव्यौ च । कथमिति चे. य, नो चरमाइंच अचरमाइंच अवत्तव्ययाईच। दुच्यते-स एव यदा पञ्चप्रदेशकः स्कन्धः पश्चस्वाकाशप्रदेशेषु "पंचपपसिए णं ते!" इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् । निर्वचन-1 समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते त्रयः परमाणवत्रिवाकामाह-"गोयमा! सिय चरमे" इत्यादि । इह प्रथमतृतीयसप्तम- शप्रदेशेषु समश्रेणिव्यवस्थितेषु द्वौ चद्वयोः परमारवोर्षिणिनवमदशमैकादशद्वादशत्रयोदशत्रयोविंशतितमचतुर्विशतितम- स्थयोः तदा त्रिवाकाशप्रदेशेषु मध्ये हावाद्यन्तप्रदेशवर्तिनी पञ्चविंशतितमरूपा एकादश भङ्गाः प्रायाः, शेषाः प्रतिषेध्याः। चरमौ मध्यचाचरमौ द्वौ च विश्रेणिस्थावबक्तव्यौ,पञ्चविंशतिवश्यति च-" पढमो तओ सत्तम, नव दस पक्कार वार तमश्चरमौ चाचरमौ चाबक्तव्यश्व,स चैवम् यदा स पञ्चदशकः तेरसमो । तेवीस चडचीसो, पणवीसश्मो य पंचमए" ॥१॥ स्कन्धः पञ्चस्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या विश्रेण्या चैवमवगातत्रायं प्रथमो भङ्गः-स्यात् चरम इति , इह यदा पञ्चप्रदे- हते चत्वारश्चतुवाकाशप्रदेशेषु समश्रेणिव्यवस्थितम्चेको विशेशात्मकः स्कन्धो द्वयोराकाशप्रदेशयोः समश्रेण्या व्यवस्थित- गिस्थः तदा चतुर्वाकाशप्रदेशेषु मध्ये द्वावाद्यन्तप्रदेशवर्तिनी योरेवमवगाहते त्रयः परमाणव एकस्मिन्नाकाशप्रदेशे द्वौ चरमौ द्वौ च मध्यमवर्तिनावचरमावेको विश्रेणिस्थोऽवक्तव्यः । हितीये तदा द्विप्रदेशावगाढद्विप्रदेशकस्कन्धवचरमः, तृतीयोऽ- __ छप्पएसिए णं नंते ! पुच्चा । गोयमा ! छप्पएसिए वक्तव्यः । स चैवम्-यदा स पञ्चप्रदेशात्मकः स्कन्ध एक एं खंधे सिय'चरमे १ नो अचरमेश सिय अवत्तन्वए । स्मिनाकाशप्रदेशेऽवगाहते तदा स परमाणुवद्वक्तव्यः, सप्तमः स्याश्चरमधाचरमश्च , स चैवम्-यदा पञ्चप्रदेशकः स्कन्धः नो चरमाइं ४ नो अचरमाई ५ नो अवत्तव्ययाई ६ सिय पश्चस्वाकाशप्रदेशेवेवमवगाहते तदा ये चरमाश्चत्वारः पर. चरमे य अचरमे य ७ सिय चरमे य अचरमाईच सिय माणवस्तेषामेकसम्बन्धिपरिणामपरिणतत्वादेकवर्णत्वादेकग चरमाइं च अचरमे य एसिय चरमाइं च अचरमाइंच १० न्धत्वादेकरसत्वादेकस्पर्शत्वाञ्चकत्वव्यपदेशे चरम इति व्यप सिय चरमे य अवत्तब्बए य ११ सिय चरमे य अवत्तव्ययादेशो, मध्यस्तु परमाणुमध्यवर्तित्वाद चरम इति, नवमश्चरमौ चाचरमश्च, तत्र यदा स पञ्चप्रदेशकस्कन्धस्त्रिवाकाशप्रदे. इंच १३ सिय चरमाइं च अवत्तव्लए य १३ सिय घरमाई शेषु समश्रेण्या व्यवस्थितेष्वेवमवगाहते द्वौ परमाणू आये श्रा- च अवत्तव्ययाई च १४ नो अचरमे य अवत्तचए य २५ काशप्रदेश द्वावन्ते एको मध्ये तदा प्राद्यप्रदेशावगाढौ द्वौ चर- नो अचरमे य अवत्तव्बयाई च १६ नो अचरमाइं च अवमौ द्वावन्त्यप्रदेशावगाढी चरम इति चरमौ मध्यस्तु मध्यव त्तव्वए य १७ नो अचरमाई च अवत्तव्वयाइंच १० सिय र्तित्वादचरमः, दशमश्वरमौ चाचरमौ च, तत्र यदा स पञ्चप्रदे चरमे य अचरमे य अवत्तव्बए य १५ नो चरमेय शात्मकः स्कन्धश्चतुर्खाकाशप्रदेशेषु व्यवस्थितेष्वेवमवगाहते त्रयः परमाणवः त्रिध्वाकाशप्रदेशेवेकस्मिन् द्वाविति, तदा श्रा अचरमे य अवत्तव्बयाई च ३० नो चरमे य अचरमाई यप्रदेशवर्ती परमाणुश्चरमौ द्वौ चान्त्यप्रदेशवर्तिनी चरम च अवत्तबए य २१ नो चरमे य अचरमाइं च प्रव. इति चरमौ द्वौ च मध्यवर्तित्वाद चरमौ, एकादशश्वरमश्चावक्त तब्बयाई च २२ सिय चरमाईच अचरमे य अवसव्वए व्यः, कथमिति चेत्, उच्यते-यदा सपश्चप्रदेशस्त्रियाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या चैवमवगाहते द्वौ २परमा तयोराकाशप्रदेश य २३ सिय चरमाइं च अचरमे य अवत्तम्बयाई च २४ योः समश्रेण्या व्यवस्थितयोरेको विश्रेणिस्थः तदा चत्वारः सिय चरमाइं च अचरमाई च अवत्तब्बए य १५ सिय परमाणवो द्विप्रदेशावगाहित्वात् द्विप्रदेशावगाढद्विप्रदेशकस्क- चरमाई च अचरमाईच अवत्तव्बयाईच १६ ॥ म्धवचरम एकश्च विश्रेणिस्थः परमाणुर्वक्तव्यः, द्वादशश्वरम- "छप्पपसिए णं भंते!" इत्यादि प्रश्नसुत्रं प्राग्वत् । निर्वचनधावक्तव्यौ च, तत्र यदा म पञ्चप्रदेशात्मकः स्कन्धश्चतुर्बा- म्-"गोयमा! सिय चरम" इत्यादि । इह द्वितीयचतुर्थपञ्चमकाशप्रदेशेषु समभेएया विश्रेण्या चैवमवगाहते द्वौ परमाणू , षष्ठपञ्चदशपोषशसप्तदशाष्टादशविंशतितमैकविंशतितमद्वार्वि. द्वयोराकाशप्रदेशयोः समश्रेण्या व्यवस्थितयोरेको विश्रेणि- शतितमरूपा एकादश भङ्गाः प्रतिषेध्या वक्ष्यति च-"विचउस्थो द्वौ चान्यस्मिन् विश्रेणिस्थे तदा हो परमाणू समश्रेणि- त्य पंच छटुं. पारसोलं च सत्तरहारं। विसेक्कवीसगंच,...... व्यवस्थितद्विप्रदेशावमाढौ द्विप्रदेशावगाढद्विप्रदेशस्कन्धवचरमः, बजेज छट्टम्मि॥" शेषास्त्वेकादयः परिमायाः, घटमानत्वात्तत्र द्वौ च विश्रेणिस्थौ पृथगेकैकाकाशप्रदेशावगाढी चावक्तव्यौ, यथा खादयो नघटन्ते ,एकादयस्तु घटन्ते , तथा भाव्यतेप्रयोदशश्चरमौ चावक्तव्यश्च, तत्र यदा स पश्चप्रदेशावगाढ- हयदा षट्पदेशकः स्कन्धो द्वयोराकाशप्रदेशयोः समभेण्या Page #1158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९३५) अभिधानराजेन्द्रः । चरम व्यवस्थितयोरेवमवगाहते, एकस्मिन्नप्याकाशप्रदेशे प्रयः परमा-1 भेणिव्यवस्थितद्विप्रदेशावगाढणुकस्कन्धवदेकश्वरमी द्वौच णवोपरमिन्नपि त्रय इति तदा छिप्रदेशावचाढो द्विप्रदेशकस्क- | विश्रेणिस्थप्रदेशावगाढी परमाणुवदेकोऽवक्तव्यः, बावश.. ववधरमः,अचरमसकणस्तु द्वितीयो जोन घटते,चरमरहितस्य रममावतव्यो च, तत्र यदा स षट्प्रदेशात्मकः स्कन्धश्चतुकेवलस्याऽचरमस्याऽसम्भवात, न खायु प्रान्ताभावे मध्यं भवतीति पर्वाकाशप्रदेशेषु समभेण्या विश्रेण्या चैवमवगाहते दी परभावनीयमेतत,तृतीयोऽवक्तव्यलकणः,स चैवम-यदा षट्प्रदेशा- | माणू प्रथमप्रदेशे द्वौ समश्रेणिव्यवस्थिते द्वितीये प्रदेश ए. त्मकः स्कन्ध पतस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽवगाहते तदा परमाणुवचार- कस्ततः परमुपरि तृतीयप्रदेशे एकस्यायश्चतुर्थे शति तदा माचरमशब्देन व्यपदेष्टुमशक्यत्वादवक्तव्यः, चतुर्थश्चरमाणीति, चत्वारः परमाणवो, किप्रदेशावगाढः पूर्ववदेकश्वरमो, द्वीच पञ्चमोऽचरमाणीति, षष्ठोऽवकन्यानि इति, पञ्चदशोऽचरमचा- विश्रेणिस्थप्रदेशद्वयावगाढाववक्तव्याविति, प्रयोदशश्वरमौ चावक्तव्यश्व, षोडशोऽचरमश्चावकव्यानि च, सप्तदशोऽचरमाणि वक्तव्यश्च यदा स एव षट्प्रदशकः स्कन्धः पञ्चस्वाकाशप्रदे. चावक्तव्यश्चाष्टादशोऽचरमाणि चावक्तव्यानि चेत्येते सप्त भना शेषु समभेण्या विश्रेण्या चैवमवगाइते छौ परमाणू दयोमोघत पवन संजवन्ति, तथाप्रकाराणां व्याणामेवासम्भ राकाशप्रदेशयोः समश्रेणिव्यवस्थितयोः द्वौ तयोरेवाधः स. चात् । न हि एवं जगति केवनानि चरमादीनि व्याणि सम्न मणिन्यवस्थितयोराकाशप्रदेशयोः श्रेणिद्वयमभ्यनागसमझे. वन्ति, ममम्नवश्व प्रागुक्तभावनानुसारेण सगमत्वात् स्वयं नाव णिस्थे चैकस्मिन्नाकाशप्रदेशे द्वाविति तदा द्विप्रदेशावगाढानीयः, सप्तमश्चरमचाचरमश्वेत्येवंरूपः, पवं यदा स षट्पदेशात्म गुकस्कन्धवदुपरितनद्विप्रदेशावगादौ द्वौ परमाणू एकवर. का स्कन्धः पञ्चवाकाशप्रदेशेग्वेकपरिकेपेण व्यवस्थितेष्वेव मो द्वावधःस्तनाविति चरमौ बावेकप्रदेशावगादी परमाणुमषगाहते द्वौ परमाणू मध्यमप्रदेशे एकैकः शेषेषु तदा तेषां वदेकाऽवक्तव्यः , चतुर्दशश्चरमौ चावतन्यौ च, तत्र यदा चतुर्णा परमाणूनामेकसम्बन्धिपरिणामपरिणतत्वादेकवर्ण- स एव षट्प्रदेशकः स्कन्धः षट्स्वाकाशप्रदेशेषु समनपा वादेकगन्धत्वादेकरसत्वादेकस्पर्शत्वात् चैकत्वन्यपदेशः, एक- विएया चैवमवगाहते द्वौ परमाणु द्वयोराकाशप्रदेशयोः स्वव्यपदेशपच्चरम इति व्यपदेशो, यौ तु द्वौ परमाणू मध्ये समश्रेण्या व्यवस्थितयोः द्वौ तयोरेवाधः समभेणिन्यबस्थिततावेकवपरिणामपरिणतावित्यचरमः,मष्टमइचरमश्चाचरमौ च, योराकाशप्रदेशयोरेको विश्रेणिन्वयमध्यभागसमभेणिस्थे प्रदेश तत्र वदा स एव षट्प्रदेशात्मकः स्कन्धः षट्सु प्रदेशेषु एक- एक उपरितमयोः द्वयोः विभेगिस्थे तदा द्वावुपरितनावेपरिकेपेणकाधिकमेवमवगाहते तदा पर्यन्तवार्तनः परिकेपे- कश्चरमो द्वावधस्तनाविति चरमौ दो चावक्तव्यकाविति, जावास्थिताश्चत्वारः परमाणवः प्रागुक्तयुक्तरेकश्वरमो द्वौ च म. एकोनविंशतितमश्चरमश्चाचरमश्चावक्तव्यश्च,स चैवम्-यदा ध्यवर्तिनावचरमाविति , अन्ये त्वभिदधति-चतुर्णी परमानां स षट्प्रदशकः स्कन्धः षट्स्वाकाशप्रदेशेषु एकपरिकेपेण क्षेत्रप्रदेशान्तरव्यवहिताधिकत्वपरिणामो न भवति, तदभावाच विश्रेणिस्थैकाधिकमवगाहते तदा एकवेष्टकाश्चत्वारः परमानैष भङ्ग उपपद्यते, प्रतिषिय सूत्रे, यतो वक्ष्यति-"वि चउत्थ | णवः, प्रागुक्तयुक्तरेकरचरम एकोऽचरमो मध्यवर्ती एकोपंचछ" इति प्राकृतशैल्या "ग्टुष्टु" इत्येतयोः पदयोनिदेशः। ऽवक्तव्यो, यश्च विंशतितमश्चरमचाऽचरमइचावक्तव्यो ततोऽयमर्थ:-षष्ठममं च वर्जयित्वेति, अथ नामैवंरूपोऽपि नको च स सप्तमप्रदेशस्यैवोपपद्यते, न षट्प्रदेशकस्य, योऽप्येकविभवति तदेवं गम्यते-य एकवेटकाव्यवधानेन चत्वारः परमा- शतितमश्वरमश्चाचरमौ चावक्तव्यश्च सोऽपि सप्तप्रदेशस्यैवोणवः ते तथाविधैकत्वपरिणामपरिणतत्वाच्चरमः तस्मादधि- पपद्यते न षट्पदेशकस्य, यस्तु द्वाविंशतितमः चरमश्चारमा कोऽपि समश्रेण्यैव प्रतिबरुत्वान्न तदतिरिक्त इति सोऽपि त- चावक्तव्यौ च सोऽप्रदेशकस्यैवेति त्रयोऽप्येकोनविंशत्यादयो. स्मिन्नेव चरमे गएयते इत्येकं चरम, पुनश्च योऽधिकमध्ये व्यव ऽत्र प्रतिषिद्धाः, यश्च त्रयोविंशतितमश्चरमीचाचरमश्वावक्तव्य: स्थित इति स मध्यवर्तित्वादनेकपरिणामित्वाच्च वस्तुनोऽच. स च पव, यदा स एव षट्प्रदेशकः स्कन्धश्चतु काशप्रदेशे. रमोऽपि, ततोऽचरमावित्यपि भवति, अत्रापि न कश्चिहिरोधः, म्वेवमवगाहते द्वौ २ परमाणू द्वयोराकाशप्रदेशयोरेकस्तयोरेव तत्त्वं पुनः केवलिनो विदन्ति, नवमश्चरमौ चाचरमश्च, यदा स समश्रेसिस्थे तृतीये माकाशप्रदेशे एको विश्रेणिस्थे इति तदा एव षट्प्रदेशकः स्कन्धः त्रिष्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या व्यव- प्राद्यप्रदेशावगाढौ द्वौ परमाणू चरमस्तृतीयप्रदेशावगाढश्वरस्थितग्वेवमवगाहते पकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशे द्वौ २ परमाणू इति मो द्वितीयप्रदेशावगाढी द्वौ परमाणू चरमी विश्रेणिस्थोऽवक्तसदाऽऽद्यप्रदेशवर्तिनौ द्वौर परमाणू चरमो धावन्त्यप्रदेशपर्तिनौ । व्यः, चतुर्विशतितमः चरमौ चाचरमश्वावक्तव्यौ च, तत्र यदा चरम इति, चरमौ द्वौ तु मध्यप्रदेशवर्तिनावेकोऽचरम इति, द. स एव षट्प्रदेशात्मकः स्कन्धः पञ्चस्वाकाशप्रदेशेषु समवे. शमश्वरमौ चाऽचरमौ च । साचैवम्-यदा षट्प्रदेशकः स्कन्धश्च- एया विश्रेण्या चैवमवगाहते त्रिष्वाकाशपदेशेषु समश्रेण्या तुर्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या व्यवस्थितेष्वेवमवगाहते द्वौ चाये व्यवस्थितेष्वाद्ये एको द्वितीये एकस्तृतीये द्वौ द्वयोर्विश्रेणिप्रदेशे द्वौ द्वितीये एकस्तृतीये एकश्चतुर्थे तदा हो परमाणू प्र. स्थयोरेकैक इति तदा आद्यन्तप्रदेशावगाढी चरमौ मध्यावथमप्रदेशवर्तिनावेकश्चरम एकोऽन्त्यप्रदेशवर्ती चरम इति च. गादी अचरमौ विश्रेणिस्थौ प्रदेशद्वयावगाढी प्रवक्तव्यौ, पशरमौ द्वौ परमाणु द्वितीयप्रदेशवर्तिनावेकोऽचरम एकस्तृतीयप्र विंशतितमश्वरमौ चाऽचरमौ चाबक्तव्यइच, यदा स एव षट्प्रदेशवी अचरम इत्यचरमावपि द्वौ, एकादशश्चरमश्वावक्तव्य देशात्मकः स्कन्धः पञ्चसु प्रदेशेषु समश्रेण्या विषया चैवमय। स चैवम्-यदा स एव षट्प्रदेशात्मकः स्कन्धस्त्रिध्वाकाश- गाहते चतुर्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेणिव्यवस्थितेप्याद्यप्रदेशत्रवे प्रदेशेषु समस्या विश्रेण्या चैवमवगाइते साधाये प्रदेशे एकैकश्चतुर्थे द्वौ पञ्चमे विश्रेणिस्थे एकः तदाश्राद्यन्तप्रदेशवर्तिद्वी समभेण्या व्यवस्थिते द्वितीयप्रदेशे नौ विश्रेणिस्थे तृती नौ चरमौ मध्यप्रदेशद्वयवर्तिनौ द्वावचरमौ विश्रेणिप्रदेशस्थ यप्रदेशे तदा वितीयप्रदेशावगाडामत्वारः परमाणवः सम-। एकोऽवक्तव्यः षट्विंशतितमःचरमा चाउचरमा चाव Page #1159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरम 'चैवम् यदा स षट्प्रदेशकः स्कन्धः षट्स्वाकाशप्रदेशेषु समधे. या विषया वैमगाते तदा भायन्तमदेशायगाडी हो घरमौ द्वौ मध्यप्रदेशावगाडावचरमौ दौ च विश्रेणिस्थप्रदेशद्वयावगाढाव वक्तव्याविति (१९३३) अभिधानराजेन्द्रः । सतपदेसिएं जंते! खंधे पुच्छा ? । गोयमा ! सत्तपरसिखंचे सिय परमे १ नो अपरमे २ सिग अवसर नो चरमाई ४ नो अवरमाई ५ नो भवत्तचाई ६ सिव चरमे व अचरमे प 9 सिय चरमे व अचरमाई च सिप परमाई व अचरमेव एसिय चरमाई व अचरमाई च १० सिप परमे व अपव्यय ११ विचरमे प बाईच १२ सय परमाई च अवतव्य १२ सिय चरमाई व अवत्तव्यवाई च १४ नो अचरमे य १५ नो अचरमेय अवत्तव्ययाई च १६ नो अचरमाई च अत्तच्चए १७ नो अचरमाई च प्रवत्तव्वयाई च १८ सिय चरमेय अचरमेय अवयव १ सय चरमे व अचरमे य अवत्तव्वयाई च२० सिय चरमे य चरमाई च प्रवत्तव्वए २१ नो चरमे व अचरमाई व अव्ययाई च२२ सिय चरमाई च मचरमे य अवत्तव्वए १२३ सिय चरमाई च श्रचरमे य भवतव्ययाई २४ सिय चरमाई च अपरमाई च अवचनएश्ए सिय चरमाई चमचरमाई व अवतव्यवाई व २६ ।। "पयसि नंते! बंधे "इत्यादि सूत्रं प्राम्यत् । निर्वाचनमाद" गोपमा ! सतपसिए णं बंधे सिय चरमे नो अरमे" इत्यादि । द्वितीयचतु पोमशद शाशदशद्वाविंशतितमका नव भङ्गाः प्रतिषेध्या शेषा उपादेयाः, वक्यति च वि चटक पंच कुठं, पराणर सोलं व सतरद्वारं । बजिय बाबीसमं, सेसा भंगा उ सतम " ॥ १ ॥ तत्र घ्यादीनामष्टादशपर्यन्तानां प्रतिषेधकारणं प्रागुक्तमनुसर्तव्यं न केवलमत्र किं तु सर्वेष्वनुत्तरेषु स्कन्धेषु यस्तु द्वाविंशतितमः सोऽष्टप्रदेशकस्यैव घटते, न सप्तप्रदेशकस्येत्युक्तं प्राकू, तत इह प्रतिषेधः शेषास्तु प्रथमादयः धर्माविशतितमपर्यन्ताः सप्तदश नङ्गाः पदेशकस्यैव प्रावनीयाः केवलं विनेयजमानुग्रहाय स्थापनामात्रेोपद इयं प्रथमो धरमभङ्गः तृतीयोऽयम्यः सप्तमध रमश्चाचरमश्च, अष्टमश्वरमश्चाचरमौ च, नवमश्वरमौ चाचरमा, दशमश्वरमौ चाचरमौ च, एकादशश्चरमश्वावकव्या, द्वादशश्चरमश्चावक्तव्यौ च, त्रयोदशश्चरमौ चावक्तव्यश्च चतुर्दश. श्वरमौ चावक्तव्यौ च, एकोनविंशतितमश्चरमश्वाचरमश्चाबचपच, विंशतितमश् चरमश्चाचरमश्चान्यच का तितमश्चरमश्चाचरमी चावक्तव्यश्च त्रयोविंशतितमश्वरमी चाचरमश्चावक्तव्यश्च चतुर्विंशतितमश्चरमौ चाचरमश्चाबम्बी च पञ्चविंशतितमाचरमी चाचरमी चावव्यश्य विशतितमश्चरमी चाचरमी चायकम्यौ र परमात् प्रदेशका स्कन्धा एकस्मिनाकाशप्रदेशेऽवगाते योर पित्रिष्वपि यावत्सप्तस्वपि, तत एवं भङ्गाः सम्भवन्ति । असि भंते! संधे पुच्छा । गोयमा ! अपए१ सिए खंधे सिय चरमे १ नो अचरमे २ सिय प्रवत्तन्नए 3 " चरम ३ नो चरमाई ४ नो अचरमाई ५ नो अवत्तब्वयाई ६ सिय चरमेय अचरमे य ७ सिय चरमे य अपरमाई सिय चरमाई च अपरमे य ए सिय चरमाईच अवरमाई च १० लिय परमे य अव्वत्तवर ११ सिय चरमेय अवतव्वयाई च १२ सिय चरमाई च अन् य १३ सय चरमाई व अवसाई च १४ नो अचरमे य श्रवत्तम्बए य १५ नो अचरमे य प्रवत्तव्ययाई च १६ नो अपरमाई व अवसर य १७ नो अचरमाई च अवत्तन्वयाई च १८ सिय चरमे य चरमे य प्रवत्तव् य १ए सिप चरमे व अचरमेव भाईच२० सिप चरमेस अपरमाई व य २१ सिय चश्मे व अचरमाई च प्रवत्तन्वयाई च २२ सिय चरमाई व अचरमेय अवतव्य २२ सिय चरमाई च परमे प प्रवत्तन्वयाईच २४ सिय चरमाई च अचरमाई च प्रवत्तव् य २५ सिय चरमाई च अचरमाई च श्रवत्तब्वयाई च २६ संखेज्जपदेसिए असंखेज्जपदेसिए अणं तपदे सिए खंजदेव पदे सिए तदेव पत्तेयं जाणियब्बा । "पयसिप ते बंधे "इत्यादि पृष्ठा प्राप निर्वचनसूत्रम् - " अपए लिए णं बंधे सिय घरमे " इत्यादि । sta द्वितीयचतुर्थ पञ्चमाऽष्टपञ्चदशषोडश सप्तदशाऽष्टादशकपा अष्टौ नङ्गाः प्रतिषेध्याः, शेषास्तु प्राह्याः । वक्ष्यति च "बिचक पंच हूं, पन्नर सोलं च सप्तरद्वारं । पर बजियनंगा, सेसा सेसे बंधे ॥ १॥" सुगमा गयरंसेसा सेसे संधेसु इति" शेषा भङ्गाः शेषेषु सप्तप्रदेशकात् स्कन्धादितरेषु अष्टप्रदेशादिकेषु सर्वेषु स्कन्धेषु रुष्टव्याः । अन्ये त्वेवमुत्तरा पति- जय नंगा, तेण परमचाट्टिया गंगा सेखा" सुगमम्, तेच प्रथमादयो भङ्गाः पति शभावनात् स्थापनातश्च प्राग्वद्भावनीयाः, नवरं चरमश्वाचरमौ चावक्तव्यौ चेत्येवंरूपो द्वाविंशतितमो भङ्गः, तत एवम् अथ शिप्रदेशकादिषु स्कन्धेवतायामित्येवंरूपं पठो भङ्गः कस्माप्रतिषिध्यते तस्याऽपि युक्तिः सम्यावात् तथाहि या एकः परमाणुरेकस्मिन्नाकाशप्रदेशे द्वितीयो विश्रेणिस्थे प्रदेशतयाएको द्वितीयोऽप्यवम्य इति ति नङ्गाखिप्रदेशक चिन्तायामेकस्मिकपरमार परस्मिन् प्रदेशकान्तायां प्रत्येकं द्वी २ परमाणू इत्यादि सत्यमेत केसमे जगति इयमेव नास्ति कथमेतदवसितमिति चेत् ?, उच्यते-अत एव प्रतिषेधवचनात्, यदि हि तथारूपं द्रव्यं सम्भवेश चार्य प्रतिषेधं कुर्यादिति यदि वा सनयेऽपि जातिनिर्देशात्तीको बेतिया, यथाप्रतिषेच्या विधेयाभोका 66 संख्यातप्रदेश के च प्रत्येकं वक्तव्याः । तथा चाह-"संखेजपरसिप असंखेजपपलिए " इत्यादि पाठसिकं, नवरम् श्यं सक्षेत्र भावना यस्मादेकादिभ्यपि आकाशप्रदेशका स्कन्धानामवगाहो नवति तथा घटते, यथोक्ताः सर्वेऽपि नङ्गाः। मन्यसंख्यात प्रदेशात्मक स्थानन्त प्रदेशात्मकस्य च स्कन्धस्य कथमेकस्मिनाकाशप्रदेशेऽवगाः । उच्यते तथा तथा माहात्म्यातून Page #1160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९३७) चरम अनिधानराजन्यः। चरम चैदनुपपन,युक्तितःसंजाव्यमानत्वात् तथाहि-अनन्तानन्ता द्विप्र-| जहा संखेजपदेसोमाढे एवं. जाव पायए॥परिमालेणं देशका स्कन्धाः,यावदनन्तानन्ता ससपेयप्रदेशात्मका:स्कन्धाः, भंते ! संगणे अणंतपदेसिए संखेज्जपदेसोगादे क चरमे अनन्तानन्ता असहाय प्रदेशात्मका:स्कन्धाः,अनन्तानन्ता अनन्त पुच्छा। गोयमा ! तहेव. जाव आयते ॥ अर्णतपदेसिए प्रदेशात्मका,मोकवसर्वात्मनाऽप्यसङ्खधेयप्रदेशात्मकः,ते चसर्वे. ऽपि लोक एवावगाढानालोके ततोऽवसीयते, सन्स्येकस्मिन्नप्याका असंखेजपदेसोगादे जहा संखेजपदेसोगाढे एवं. जाव शप्रदेशेऽवगाढा बहवः परमाणवो,बहवो द्विप्रदेशका: स्कन्धाः ,या. आयते ॥ बदूबहवोऽनन्तप्रदेशात्मका: स्कन्धाः।तथा चात्र पूर्वसूरयःप्रदी संख्यातप्रदेशासंख्यातप्रदेशानन्तप्रदेशपरिमण्डलादिसंस्थानपरष्टान्तमुपवर्णयन्ति-यथैकस्य प्रदीपस्य गृहमध्ये प्रज्वलितस्य चरमाचरमादिचिन्तायां निर्धचनसूत्राणि रत्नप्रनाया व प्रत्ये. प्रभापरमापवः सर्वमेव गृहं प्राप्नुवन्ति, तथा प्रत्येक प्रदीपस. तव्यानि, मनेकावयवविजागात्मकत्वाविवकायामचरमं च चरहस्रस्थापि, न च प्रतिप्रदीपप्रभापरमाणवो न जिन्नाः, प्रतिप्र माणि चेति निर्वचनं प्रदेशविवक्षयां चरमान्तमदेशाइचादीपे पुरुषस्य मध्यस्थितस्य छायानेददर्शनात,ततो यथेति स्यूसा चरमान्तप्रदेशाश्च । अपि प्रदीपप्रभापरमाणव एकस्मिन्नप्याकाशप्रदेशे बहवो मान्ति, सम्प्रति संख्यातप्रदेशस्य संख्यातप्रदेशाधगाढस्य परिमण्डतथा परमाएवादयोऽपि, इति न कश्चिद्दोषः, आकाशस्य तथा लादेश्चरमाचरमादिविषयमल्पबहुत्वमनिधित्तुराहतयाऽवकाशदानस्वभावतया वस्तूनां च विचित्रपरिणमनखभावतया विरोधानावात्।। परिमंडलस्सणं भंते ! संगणस्स संखज्जपदेसियस्स संखेपरमाणुम्मि य तइयो, पढमो तइओ य होइ उपदेसे । जपदेसोगाढस्स अचरमस्स य चरमाण य चरमंतपदेसाण य पढमो तइओ नवमो, एकारसमो य तिपदेसे ॥१॥ अचरमंतपदेसाण य दव्वट्टयाए पदेसट्टयाए दवघ्पदेसहपढमो तो नवमो, दसमो एक्कार वारसमो । याए कयरे, कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुझा वा विसेसाभंगा चप्पदेसे, तेवीसमो य बोछब्बो ॥॥ हिया वा। गोयमा सव्वत्थोवे परिमंमयस्स संठाणस्स संखे. पढमो तश्यो सत्तम, णब दस एकार वार तेरसमो । जपदेसियस्स संखज्जपदेसोगाढस्स दवट्ठयाए पगे अचरमे, तेवीस चउन्नीसम, पणवीसइमो य पंचमए ॥ ३ ॥ चरमाइं संखेज्जगुणाई, अचरमं च चरमाणि य दो वि विसेविचउत्थ पंच बलु, पनर सोलं च सत्तरऽहारं । साहियाई, पदेसट्टयाए सनत्योवा,परिमंमलस्स संगणस्स वीसेकवीस वावी-सगं च वज्जेज दृम्मि ॥ ४॥ संखिजपदेसियस्स संखज्जपदेसोगाढस्स चरिमंतपदेसा वि चनत्य पंच उई, पनर सोलं च सत्तरऽद्वारं । अचरिमंतपदेसा संखेज्जगुणा, चरमंतपदेसा य अचरबावीसश्मविहणा, सतपदेसम्मि खंधम्मि ।। ।। मंतपदेसा दो वि विसेसाहिया,दवट्ठपदसट्टयाए सम्बत्यो, वि चउत्थ पंच छटुं, पनर सोलं च सत्तरऽहारं । परिमंडलस्स संगणस्स संरेखज्जपदेसियस्स संखेज्जपदेसोएते वन्जिय भंगा, सेसा सेसेसु खंधेसु ॥ ६॥ गाढस्स दबट्ठयाए एगे अचरमे , चरमाइं संखज्जगुणाई, "परमाणुम्मि य तो " इत्यादि पाठसिद्धम , भाविता- अचरमं च चरमाणि य दो वि विसेसाहियाई, चरमंतपदेसा चत्वात् । नवरं षट्प्रदेशादिचिन्तायां प्रतिषेध्या भङ्गाः स्तोका संखज्जगुणा अचरमंतपदेसा संखेज्जगुणा, चरमंतपदेसा य इति, लाघबाथै त एव संगृहीताः। इहानन्तरं स्कन्धानां चरमा. अचरमंतपदेसा य दो वि विसेसाहिया ॥ एवं वदृतंसचउरंचरमादिवक्तव्यतोक्ता, स्कन्धाश्च यथायोगं परिमण्डलादिसंस्थाने च जवन्ति । (प्रज्ञा०) समायएसु वि जोएयव्वं ।। परिमंगलस्स णं भंते ! संगणपरिमंमले णं भंते ! संगणे संखेजपदेसिए संखेजपदेसो- स्स असंखेज्जपदेसियस्स संखेज्जपदेसोगाढस्स अचरममाढे किं चरमे,अचरमे, चरमाई, अचरमाई, चरमंतपदेसा, स्स य चरमाण य चरमंतपदेसाण य अचरमंतपदेसाण य अचरमंतपदेसा। गोयमा परिमंमलेणं संगणे संखेजपदे- दन्वट्ठयाए पदेसट्टयाए दबट्टपदेसध्याए कयरे, कयरेहितो सिए संखेजपदेसोगाढे नो चरमे,नो अचरमे,नो चरमाई,नो। अप्पा वा०४ी गोयमा! सव्वत्थोचे परिमंमलस्स संगणअचरमाई, नो चरमंतपदेसा, नो अचरमंतपदेसा. नियमा स्स असंखेज्जपदेसियस संखेज्जपदेसोगाढस्स दबटअचरमं चरमाणि य १, चरमंतपदेसा य अचरमंतपदेसा याए एगे अचरमे, चरमाई संखेज्जगुणाई, अचरमं च य, एवं० जाव आयते । परिमंमले णं भंते ! संगणे चरमाणि य दो वि विसेसाहियाई, पदेमट्ठयाए सबअसंखेजपदेसिए संखेजपदेसोगाहे किं चरमे पुच्चा । स्थोवा,परिमंमलस्स संगणस्स असंखेज्जपदोसियस्स संखेगोयमा ! असंखेजपदेसिए संखेजपदेसोगाढे जहा संखे- ज्जपदेसोगाढस्स चरमंतपदेसा अचरमंतपदेसा संखज्जगुजपदेसिए एवं० जाव आयए। परिमंमले णं भंते ! संगणे | णा, चरमंतपदेसा य अचरमंतपदेसा य दो वि विसेसाहिया, असंखेजपदोसिए असंखेज्जपदेसोगाढे किं चरमे पुच्छा दबद्यपदेसट्टयाए सम्वत्थोवे,परिमंमास्स संगणस्स असं गोयमा ! असंखेजपदेसिए असंखेज्जपदेसोगाढे नो चरमे, खेज्जपदेसियस्स संखज्जपदेसोगाढस्स दबट्ठयाए एगेमचJain Education Internatio BOY Page #1161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरम रमे परमाई सेवेनगुणाई, अचरमं च परमाणि वदो वि विसेसाहियाई चरमंतपदेसा अचरमंतपसा संखेज्जगुणा, चरमंतपसा व अचरमंतपसा य दो विविसेसाहिया वा एवं जाव प्रायते । ( ११३० ) अभिधानराजेन्द्रः । " , "परिमंगलस्य णं ते!" इत्यादि सुगमं नार्थ ताचिन्तायां चरमान ( संजणारं प्रति समरि मण्डलसंस्थानस्य संख्यातप्रदेशात्मकत्वात् असंख्यातप्रदेशस्पाऽसंख्यात प्रदेशायगादस्य अन्यस्वं रत्नभाया इव भावनीयम् श्रनन्तप्रदशकस्याऽप्यसंख्यातप्रदेशाऽवगाढस्य नवरं संक्रमे अनन्तगुणा इति ततो यदा इव्यचिन्तां प्रति संक्रमणं तदा तानि चरमाएयनन्तगुणानि वक्तव्यानि । तद्यथा"समत्यो गेवराई बेज्ज यो अनंतगुणाई अचरमं परमाणिय दोषि विसेसाहियाई" इति तदेवं संस्थानान्यपि चरमा चरमादिविमान चिन्तितानि । (७) संप्रति जी वादीन् चरमाचरमविनागेन गति चिन्तयतिजीवे ं अंते ! गतिचरणं किं चरमे अचरमे १ । गोयमा सिप परमे, सिय अचरमे । 1 " गतिपर्य्यायरूपं चरमं गतिचरमं तेन जीवो भदन्त ! चिन्त्यमानः किं चरमोऽचरमः ? भगवानाह - गोतम ! स्याश्वरमः, स्वादचरमः, कश्चिच्चरमः कश्चिदचरम इत्यर्थः । तत्र यः पृच्छासमये सामर्थ्यान्मनुष्यगतिरूपे पर्याये वर्तमानानन्तरं न किमपि गतिमवाप्स्यति किं तु मु भविता, स गतिचरमः, शेषस्त्वगतिचरम इति । नेरइए भंते !गविचरमेयं किं चरमे, अचरमे । गोयमा ! सिय चरमे, सिय अचरमे, एवं निरंतरं • जाव वैमाणिया । ने1 रयाणं जंते! गतिचरमेणं किंचरमा, किं अचरमा ?। गोयमा ! चरमावि अचरमावि, एवं निरंतरं नाव मागिया ॥ “ नेरइए णं अंते ! गइवरमे " इत्यादि । नैरयिको भदन्त ! गतिचरमेण सामर्थ्यानरकगतिपर्यायरूपेण चरमेण चिन्त्यमानः किं चरमोऽवरमो वा ? | भगवानाड् गौतम ! स्याश्वरमः स्यादचरमो, नरकगतिपर्यायादुदृत्तो न भूयोऽपि नरकगतिप मनुष्यास चरम शेपस्वचरम एवं श रामकथा निरन्तरं तावद्वयं याच मानिकसूत्रम् बहुवचन दण्डकसूत्रे निर्वचनम् - ( चरमा वि अचरमा वि इति ) पृच्छासमये केवन नैरपिकास्तेषां मध्येऽवश्यं केचन नैरधिकमतिप र्यायेण चरमाः, इतरे त्वचरमास्तत एकमेवेदमंत्र निर्वचनम्-चरमा अपि अचरमा अपि एवं सर्वस्थानेष्वपि तां तां गतिमधिकृत्य जावनीयम् । प्रज्ञा० १० पद भ० । स्था० । (८) स्थितिथरमे 1 रए भंते! त्रितिचरमेणं किं चरमे, अचरमे ?। गोयमा ! सिय चरमे, सिय अचरमे । एवं निरंतरं० जाव वैमाणिया । नेरझ्या णं भंते ! वितिचरमेणं किं चरमा, अचरमा ! | गोपमा ! चरमा चि चरमावि एवं निरंतरं० जाव े माणिया । नेरइए णं जंते ! जवचरमेणं किं चरमे, किं अ चरम चरने हैं। गोषमा ! सिय सरमे, सिपचरथे एवं निरंतरं० जाव वेमालिया । नेरझ्या णं भंते ! जवचरमेणं किं चरमा, अ चरमा है। गोपमा ! चरमो वि अचरमा वि एवं निरंतरं० जाव माणिया || " "नेर ! विचरमेणं "त्यादि नैरथिको भदन्तत्रैव नरकेषु चरम स्थितिपर्यायरूपे परमेण विन्य मानः किं चरमोऽचरमो वा ? । भगवानाह स्याच्चरमः, स्यादचरमः । किमुक्तं भवति ? -यो भूयोऽपि नरकमागत्य स्थितिचरमसमयं प्राप्स्यति सोऽयरमः शेषस्तु चरमः। एवं निरन्तरं मानिकःकचिन्तायाममा वि अचरमा विशति ) ह यः पृच्छासमये स्थितिचरमसमयं प्रास्वति सोऽचरम शेपस्तु चरमा एवं निरन्तरं यावद्वैमानिक बहुत्वदमकचिन्तायाम् - ( चरमा वि अचरमा विशत) रह ये पृासमये स्थिति चरमसमये वर्तन्ते ते ते इस्त अन्यथा उनाया विरहस्यापि सम्भवाद, एकादीनामवि चोद्वर्त्तनाया भावात्. "चरमा वि श्रवरमा वि” इत्युजयत्राध्यपश्येनायिनां बहुवचनेन निधनं नोपपद्येत कि तु वे स मये वर्तन्ते ते क्रमेण स्वस्वस्थितिचरमसमयं प्राप्ताः सन्तस्तेन रूपेण चरमा अवरमा वा इत्येतचिन्तनेन उपपद्यते यथो निवचनमिति भवपरमगतिरत्र प्र १० पद भाषासः - नेरइए णं अंते ! नासाचरमेणं किं चरमे, अचरमे ।। गोयमा ! सिय चरमे, सिय अचरमे, एवं निरंतरं जाव बेमाशिया नेइया जंते! भासाचरमेणं किं चरमा, अचरमा है। गोयमा ! चरमा वि अचरमा नि एवं एर्गिदिय० जान वेणिया । नेरइए णं भंते! आणापाचरमेणं किं चरमे, चरमे १ । गोयमा ! सिय चरमे, सिय अचरमे, एवं निरंतरं० नाव बेमाथिए । नेरइया णं भंते! आशापाणुचरमेणं किं चरमा, अचरमा । गोयमा ! चरमा पिअरमा वि एवं निरंतरं० जाव वैमाणिया । नेर हारचरमेणं किं चरमे, अचरमे १ गोषमा सिय चरमे, सिय अचरमे, एवं निरंतरं०जाव वेमाणिए नेरइए अंते ! आहारचरमेणं किं चरमा, अचरमा । गोयमा ! चरमा वि, अचरमा चि एवं निरंतरं०जान मालिया नेरइए णं भंते! भावचरमेणं किं चरमे, अचरमे १ गोषपा ! सिय चरमे, सिय अचरमे एवं निरंतरं० जाव वैमाणिए । नेरइया जंते ! जावचरमेणं किं चरमा, अचरमा ? । गोयमा ! चरमा , 1 अचरमावि, एवं निरंतरं० जाव वैमाणिया । नेरइए पं अंते ! वनचरमेणं किं चरमे, अचरमे १ । गोयमा ! सिय चरमे, सिय अरमे, एवं निरंतरं० जाव वमाणिए । नेरइया णं भंते ! वनचरमेणं किं चरमा, अचरमा ? | गोवमा ! चरमा वि, अचरमा बि एवं निरंतरं० जाव Page #1162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरम (१९३४) अभिधानराजेन्सः । चरम वेमाणिया । नेरइए णं चंते ! गंधचरमेणं किं चरमे, लेस्मा, जहा आहारो, हावरं जस्स जा अस्थि अवेस्सा, अचरमे १ । गोयमा ! सिय चरमे, सिय अचरमे, एवं | महा णो सम्मी णो असमी सम्मदिट्टी, जहा अणाहारो निरंतरं० जाव वेमाणिए । नेरझ्या णं भंते ! गंधचरमेणं | मिच्छट्टिी, आहारओ, सम्मामिच्छट्टिी एगिदियविगलिंदिकिं चरमा, अचरमा ? | गोयमा ! चरमा वि, अचरमावि, यवज्जं सिय चरिमे,सिय अचरिमे। पुहत्तेणं चरिमोवि,अचरिएवं निरंतरं० जाव वेमाणिया। नेरइए णं नंते ! रस-| मो वि, संजओ जीवो मणुस्सो जहा आहारमो, असंजो चरमेणं किं चरमे, अचरमे १ । गोयमा ! सिय चरमे, | वि तहेव | संजयासंजओ वितहेव, णवरं जस्स जं अत्थि, सिय अचरमे, एवं निरंतरं० जाव वेमाणिए । नेरइ- णो संजया णो असंजया णो संजयासंजया जहा णो या णं जंते ! रसचरणं किं चरमा, अचरमा ?। गोयमा ! जवसिद्धी य णो अभवसिघीओ सकसाई० जाव लोभचरमा वि, अचरमा वि, एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । कसायी सव्वट्ठाणेसु जहा आहारो, अकसायी जीवपदे नेरइएणं जंते ! फासचरमेणं किं चरमे, अचरमे ? ।। सिद्धपदे य णो चरिमो, अचरिमो, मणुस्सपदें सिय चरिमो, गायमा ! सिय चरमे, सिय अचरमे, एवं निरंतरं० जाव सिय अचरिमो, णाणी जहा सम्मदिट्ठी सम्बत्य पाजिणिवेमाणिए । नरेझ्या णं भंते ! फासचरमेणं किं चरमा, बोहियणाणीज्जाव मणपज्जवणाणी जहा आहारो,णवरं अचरमा। गोयमा ! चरमा वि, अचरमा वि, एवं० जाव जस्स जं अस्थि, केवलणाणी जहाणो लएणी णो असमी, वेमाणिया । संगहणीगाहा-" गति गिति नवे य जासा, अडाणी० जाब विभंगणाणी जहां आहारो। सजोगी. प्राणापाणू चरमे य बोपन्या । आहारजावचरमे, वनरसे जाव कायजोगी जहा आहारो जस्स जो जोगो अस्थि, गंधफासे य"॥१॥ अजोगी जहा णो सएणी णो असामी । सागारोवनभाषाचरमं चरमा भाषा , ततोऽयमर्थः-नैरयिको भदन्त । त्तो भणागारोवउत्ते य जहा अणाहारो। सवेदो जाव चरमयाऽचरमया नाषया किं चरमोऽचरमो वा शेषं सुगमम् । णपुंसगवेदो जहा आहारो, अवेदो जहा अकसाबहुवचनसूत्रे प्रश्नलावार्थ:-ये पृच्चासमबे नारकास्ते स्वकाल यी, ससरीरी० जाव कम्मगसरीरी जहा आहारो, एवरं क्रमेण चरमा भाषां प्राप्ताः सन्तः तया चरमया नाषया चरम। अचरमा बा इति। ततो निर्वचनसूत्रमप्युपपन्नम । एवमुच्चा जस्स जं अस्थि, सरीरी जहा णो भवसिकी य को साहारसूत्रे अपि जावनीये, नाव औदायिकः, शेषं सुगमम । अभवसिदी य पंचहिं पजत्तीहिं पंचहिं अपजत्तीहिं जहा प्रशा०१० पद । आहारओ सव्वत्थ एगत्तपुहत्तेणं दंगा जाणियब्वा । (C) जीवादयो जीवभावेन चरमा अचरमा वेत्याहारादि. "जीवेण" इत्यादि । जीवो जदन्त ! जीवनावेन जीवत्वपर्याविशेषणन प्रश्ना: येण किं चरमः, किं जीवत्वस्य प्राप्तव्यचरमन्नागः, किं जीवत्वं जीवे णं नंते ! जीवभावणं किं चरिमे, अचरिमे । मोक्ष्यतीत्यर्थः । (अचरमे ति) अविद्यमानजीवत्वचरमसमयो गोयमा! णो चरिमे अचरिमे। हैरइए णं भंते ! रश्यना- जीवत्वमत्यन्तं न मोक्ष्यतीत्यर्थः । इह प्रश्न आह-नो नैव चरवेणं पुच्छा । गोयमा ! सिय चरिमे, सिय अचरिमे, मः प्राप्तव्यजीवत्वावसानो, जीवत्वस्याव्यवच्छेदादिति । “ने रहए णं" इत्यादि । (सिब चरिमे सिय अचरिमे त्ति) यो एवं जाव वेमाणिए, सिके जहा जीवे । जीवाणं पुच्चा ? नारको नारकत्वात्तः सन् पुनः नरकगतिं न यास्यति गोयमा ! जीवा णो चरिमा, अचरिमा, णेस्यश्या चरिमा सिद्धिगमनात् स चरमोऽन्यस्त्वाऽचरमः । एवं यावद्वैमावि, अचरिमा वि, एवं० जाव वेमाणिया सिक्का जहा | निकः ( सिद्ध जहा जीवे ति ) अचरम इत्यर्थः । न जीवा । आहारए सव्वत्थ एगत्तेणं सिय चरिमे, सिय हि सिकः सिम्तया विनयतीति । " जीवा णं " इत्यादि अचरिमे, पुहत्तेणं चरिमा वि अचरिमा वि, प्रणाहारो पृथक्त्वदालकः तथाविध एवेति । अहारकद्वारे-(आहारए सम्बत्यत्ति) सर्वेषु जीवादिपदेषु (सिय चरमे सिय अचरमे जीवो सिको एगत्तेणं वि पोहत्तेणं विणो चरिमो, ति) कविश्वरमो यो निर्वास्यति,अन्यस्त्वचरम इति। अनाहारप्रचरिमो, सेसघाणेसु एगत्तपुहत्तेणं श्राहारो भव- कपदे अनाहारकत्वेन जीवः सिरुश्चाऽचरमो वाच्योऽनाहारसिकीयो जीवपदे एगत्तपोहचणं चरिमे, णो अचरिमे, | कत्वस्य तदीयस्यापर्यवसितस्वाजीबश्वेह सिद्धावस्थ एवेति । सेसवाणेसु जहा आहारो, अजवसिघीओ सव्वत्थ एग पतदेवाह-"अणाहारो" इत्यादि । (सेसहाणेसु सि) नारकादिषु पदेषु (जहा आहारो त्ति) स्याश्चरमः, स्यादचरम तपुहत्तेणं णो चरिमे, अचरिमे, णो जवसिद्धी य, पो इत्यर्थः । यो नारकादित्वेनाऽनाहारकत्वं पुनर्न लप्स्यते स चरअभवसिधी य, जीवा सिधा य एगत्तपुहत्तेणं मो, यस्तु तपस्यतेऽसावचरम इति । भव्यद्वारे-"नवंसिकिजहा अजवसिद्धीग्रो, सम्मी जहा आहारओ एवं असली भो" इत्यादि । भव्यो जीवो भव्यत्वेन चरमः, सिभिगमनेन वि, णो समीणो असमी जीवपदे सिकपदे य अचरिमो. भव्यत्वस्य चरमत्वप्राप्तः, एतच सर्वेऽपि भवसिकिका जीवाः सेत्स्यन्तीति'वचनप्रामाण्यादनिहितमिति । (अभवसिकियो माणुस्सपदे चरिमो , एगत्तपुहत्तेणं सलेस्सो० जाच मुक-| सम्वत्थ त्ति) सर्वेषु जीवादिपदेषु । (नो चरमेत्ति) अभव्य Page #1163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरम स्यप्रयत्वेनाभावात्। " नो मधे " इत्यादि उयनिषेधवान् जीवपदे सिप वा भवसिद्धिकवचरमः तस्य सिद्धत्वास त्यस्य च सत्यामादिति संहिद्वारे (सरणी जहा आहारओ ति ) सहित्वेन स्याच्चरमः स्यादचरम इत्यर्थः चमयपि, उनपनिषेध जीव रम मनुष्यस्तु चरमः. राजयनिषेधवतो मनुष्यस्य केवलित्वेन पुनर्मतुष्यत्वस्यासानादिति श्याद्वारे सखा" इत्यादि । ( जहा आहारश्र त्ति ) स्याश्चरमः स्यादचरम इत्यर्थः । तत्र ये निर्वास्यन्ति ते सलेश्यत्वस्य चरमाः, अन्ये त्वचरमा इति । दृष्टिद्वारे - ( सम्मद्दिष्ठी जड़ा अणाहारथो ति ) जीवः सिरुव सम्यम्टष्टिरचरमः यतो जीवस्य सम्यक्त्वं प्रतिपतितमध्यवश्यंभावि, सिकस्य तु न प्रतिपतत्येव, मनुष्यस्तु अकपाथि तोपेतं मनुष्यत्वं यः पुनर्न लप्स्यते स चरमो, यस्तु सप्स्यते सोऽखरम इति ज्ञानद्वारे-नाणी जहा सम्मदिड ) श्रयमिद सम्पदः जीवो हि ज्ञानस्य सतः प्रतिपातेऽप्यवश्यं पुनर्भवेनाचरमः सिद्धत्वीय निभाव एव जयतीत्यचरम शेषास्तु का पुनर्लाभासंभवे चरमाः, अन्यथा त्वऽवरमा इति (सव्वत्थति) सर्वेषु जीवादिसिकान्तेषु पदेष्वे केन्द्रिय वर्जितेष्विति गम्यम् । ज्ञानभेदापेयाऽऽ"अनिणिवोहिय" इत्यादि। "जदा मादा रओ ति" करणात् स्याच्चरमः स्यादचरम इति दृश्यम् । तत्राभिनियोधिकादिज्ञानं यः केवलज्ञानप्राप्त्या पुनरपि न लप्स्यते स चरमोऽन्यस्त्वचरमः । (जस्स जं अस्थि ति ) यस्य जीवना[रकादेयत्राभिनियोधिकाद्यस्ति तस्य तद्वाच्यं तच्च प्रतीतमेष, केवलाम्बरम वाच्य इति नाथः "अनाणी" श्यादि अज्ञानी समेदः स्याच्चरमा स्यादचरम इत्यर्थः । बोधानं पुनर्न लप्स्यते स चरमो, यस्तु अजव्यो ज्ञानं न लप्स्यत एवासावचरम इति । एवं यत्र यत्राहारकातिदेशः तत्र तत्र स्थावरमः स्यादचरम इति व्याक्येयम् शेषमप्यनयैव दिशा उज्यूद्धमिति । म० १० श० १३० । ( ' गोसालग' शब्देऽत्रैव जागे १०२६पृष्ठे सामपितान्यष्टचरमापयुकानि ) चरमादयचरमानीति प्रश्नमुद्दिश्य प्रवृते दराने प्रापनापदे, प्रज्ञा१पद् (१०) अल्पस्थितौ - अस्थियां जेते! चारमा वि या परमा वि रहा है। हंता ! प्रत्थि से पूर्ण चरिमेहिंतो एहिंतो परमा थेरया महाकम्पतराय चैत्र महाकरियतराए चैव महास तराए चैव महावेयणतराए चेव परमेहिंतो वा रइएहिंतो चरमा रइया अप्पकम्मतरा चैव अप्प किरियतरा चैव अप्पासवतरा चैव अप्पवेयणतरा चैव ? । गोयमा ! चरमेहिंतो रहितो परमा० जाव महावेषणतरा चैव परमेहिंतो एहिंतो चरमा रश्या० जाव अप्पयणतरा चैव से केाणं भंते ! एवं स० जाव अपनेतरा चेव । गोमा ! वितिं पकुच्च, से तेण घेणं गोयमा ! एवं वृच्चइ० जाव अप्पवेयखतरा चेव । अस्थि अंते! परमावि असुरकुमारा, परमा वि असुरकुमारा ? | एवं चैव वरं विवरीयं जाणियव्वं, परमा अप्पकम्मा, चरमा महाकम्पा, सेसं तं चेत्र० जाव यणियकुमारा ताब 1 ( ११४० ) अभिधानराजेन्धः | 8 चरम एव पुढचीकाइया० जाव मनुस्सा, एए जहा थेरड्या वाणमंतर जोइसिय वैमाणिया जहा अमुरकुमारा । 9 - " अस्थि णं" इत्यादि ( चरमा वित्ति ) अल्पस्थितयोऽपि । (परमा विति ) महास्थितयोऽपि । (ठि पहुच प्ति) येषां नरकाणां महती स्थितिस्ते इतरेज्यो महाकमंतरादयोऽशुजकमपेक्षया भवन्ति येषां त्वल्पा स्थितिस्ते इतरेभ्योउदयकर्मतराइयो भवन्तीति भावः असुरसूत्रे - (नवरं विषरीति) पूर्वोकापेया विपरीतं बाध्यम् । तचैवम" से सू भंते! बरमेदितो असुरकुमारेहितो परमा असुरकुमारा म coकम्मतरा चेव अप्प किरियतरा चेव" इत्यादि । श्रल्पकर्मत्वं च तेषामसालाद्यशुभकर्मापेक्षम् अल्पक्रियत्वं च तथाविधकाविपादिकष्ट क्रियापेक्रम, अल्पास्रवत्वं तु तथाविधकष्ट कियाज म्यकयन्धापम् | अल्पवेदनत्यं स पीकाभावापेक्रमवसेयमिति । भ० ६ श० ५ ० । चरमोऽनन्तरभावी भयो यस्थासौ चरमः । " अभ्रादिभ्यः " | ७|२| ४६ ॥ इति मत्वर्थोऽच्प्रत्ययः । यस्य नारकादिभवान्यः पुनस्तेनैव नोत्पत्स्यते सिद्धिगमनादिति ताडये नैरधिकारी वैमानिक पर्यन्ते, दर्शितं चैतदधुनैव । स्वा० २ ० २४० । चरमजापवितिकरण-चरमयथाप्रवृचिकरण न । मन्ति यथाप्रवृत्तिकरणे, तब परमार्थतोऽपूर्वकरणमेवेति योगन्दी व्यवस्थापितम् । तथा च प्रन्या" अपूर्वासनान, व्यभिचारबियोगतः । तत्त्वतोऽपूर्वमेवेदमिति योगविदो विदुः " ॥ १ ॥ घ० १ अधि० । चरमंत चरमान्त-पुं० हद च विषयाऽऽदिरन्तो भवति तद्व्यवच्छेदार्थे वरमग्रहणम् । चरमः पर्यन्तवर्ती अन्तो न पुनरावित इति पर्वतोते, विशे० "लोगस्स व बरितोरितो दोष नासार" विशे० (खोकरमान्तो 'लोक' शब्दे एव व्याभ्यास्यते ) 1 सर्वेषां चरमान्तानां वक्तव्यता इमीसे में भंते! रणष्पभाए पुढची पुरममंते किं जीवा पुच्छा ? गोपमा ! शो जीवा एवं जब लोगस्स सहेब चचारि वि चरिता० जान सवरले, जहा दसमसए विमला दिसा तव शिरवसेसं डिल्ले चरिमंते, जब लोगस्स हेहिले चरिमंते तहेव वरं देसे पंचिदिएसु जंगो, सेसं तं चैत्र, एवं जहा रयणप्पजाए बत्तारि चरिमंता चणिया एवं सकरप्पजाए वि, उबरिमडिया जहा रथपनाए हे डिसा, एवं०जाब अहे सत्तमाए, एवं सोहम्मस्स वि० जात्र अच्चुयस्स, गेवेज्जगविमाणाणं एवं चैव, खवरं वरिमडिले चरिमंतेसु देसेसु पंचिंदियाण वि मज्झिमचिरदिओ से तव एवं जहा येवेज्जगनिमाथा वहा - खुनरविमाणावि, सिप्पारा व परमापोगले भंते! लोगस्स पुरच्छिमिलाओ परिमंताओ पचच्छिमि चरितं एगसमरणं गच्छा, पञ्चच्छि मिल्लाओ चरिमंताओ पुरच्छिमि चरितं एगसमएणं गच्छछ, दाहि विद्याओ चरिमंत्रा उत्तरिनं० जात्र गच्छह, उत्तरिल्लाओं दाहि Page #1164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरमंत अभिधानराजेन्दः। चरित्त णिवं० जाच गच्छइ, उवरिल्लामो चरिमंताओ हेडिवं च- चरमणिदाहसमय-चरमनिदाघसमय-पुं० । जेष्ठमासपर्यन्ते, रिमंतं एग जाव गच्चइ, हेडिवामो चरिमंताओ नव- जी० ३ प्रति०।। रिखं चरिमंतं एगसमएणं गच्चइ। हंता गोयमा! परमा-चरमतित्थयर-चरमतीर्थकर-पुं० । अन्तिमतीर्थकरे, यथाऽवएपोग्गलेणं लोगस्स पुरच्छिमिल्लं तं चेव० जाव उपरिवं सर्पिण्यां महावीरः । स्था० १ ग १ उ०। चरिमं गच्छइ॥ चरमन्नव-चरमनष-त्रि- । चरम एव भयो यस्य प्राप्तस्तिष्ठति, "श्मीसे गं" इत्यादि । (उचरिल्ले जहा दसमसए विमला देवभवो वा चरमो यस्य सः, चरमनवो भविष्यति यस्य सः। दिसा तहेव निरवसेसं ति) दशमशते यथा विमला दिगुक्ता अन्तिमभवे, प्रति०। तथैव रत्नप्रनोपरितनवरमान्तो वाच्यो निरवशेषं यथा भव- चरमवम-चरमवर्ण-पुं० । अधमवणे, यथा ब्राह्मणेन क्षत्रियायां तीति । स चैवम्-"श्मीसे नंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उव जातः क्षत्रियो भवति इति चरमवर्णव्यपदेशः । आचा०२ रिल्ले चरिमंते किं जीवा० गोयमा! नो जीवा"। एफप्रदेशि श्रु० १ ० । कप्रतरात्मकत्वेन तत्र तेषामनवस्थानात् । “ जीवदेसा वि, जे जीबदेसा ते नियमा एगिदियदेसा" सर्वत्र तेषां भावात् । चरमसमय-चरमसमय-पुं० । सयोग्यधस्थान्तिमसमये , नं०। "अहवा एमिदियदेसायबेनियस्स य देसे, भदवा एगिदिय-चरमसमयत्नवत्थ-चरमसमयावस्थ-पुं० । चरमसमये भवस्य देसा य वेदियस्स य देसा, अहवा एगिदियदेसा य बेदि- जीवितस्य तिष्ठति यः स तथा । आयुषश्चरमसमये सिते, पाण य देसा ३।" रत्नप्रभा हि द्वीन्द्रियाणामाश्रयः, ते चैके- भ०७ श०१०। छियापेक्वयाऽतिस्तोकाः, ततश्च तपरितनचरमान्ते तेषां क चरमाण-चरत-त्रि० । सेवमाने, स्था०५ ग०३ उ०। दाचिदेशः स्यादेशा वेति, एवं त्रीन्छियादिष्वप्यनिन्छियान्तेषु -तथा-"जे जीरप्पएसा ते नियमा एगिदियपएसा, अहवा ए. चरवाय-चरपलक-पुं० । श्रावकरजोहरणरूपे, तत्स्वरूपमागगिदियपएसा वि बेदियस्स य पएसा १, अहवा-पगिदियप मेन क्वाप्युलन्धमिति नदर्शितम् । (राजेन्सूहिक) एसा य दियाण य पएसा।" एवं त्रीन्द्रियादिप्वप्यनिन्छि- चरिऊण-चरित्वा-प्रव्य० । आसेव्येत्यर्थे, प्रा० म०प्र०। यान्तेषु तथा, "जे अजीचा ते विहा पमता । तं जहा-कविअजीवा य अरुविधजीवाय । जे रूविअजीबा ते चउविहा चरिंगा-चरिका-स्त्री०। परिव्रांजिकायाम्, ओघ । प्रा०म०। पसत्ता । तं जहा-बंधा जीवा परमाणु पोग्गला।जे अरूविश्न चरित्त-च (चारित्र-नंग'चर' गतिभवणयोरित्यस्य "श्रर्तिलूजीवा ते सत्तविहा पत्ता । तं जहा-नो धम्मत्थिका धूसूखनसहचरइत्रः" ।३।२।१८४। इति इत्रप्रत्ययान्तं चरित्रमिप धम्मस्थिकायस्स देसे धम्मस्थिकायप्पएसा, एवं प्रध- ति भवति । चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्रम् । चारित्रमोहनीयम्मत्थिकायस्स वि, श्रागासस्थिकायस्स वि, प्रद्धासमए क्कयोपशमे,दश०१० आव० व्या'चर' गतिभक्षणयोः,चरत्ति" अद्धासमयो हि मनुष्यक्षेत्रान्तर्वर्तिनि रत्नप्रभोपरि- न्ति गच्छन्ति अनिन्दितमनेनेति चरित्रम् । “खनसहलूधूचरर्तेः" तनधरमान्तेऽस्त्येवेति । " हिहिले चरिमंते " इत्यादि । इति (पास८७) इत्रप्रत्ययः। चरित्रमेव चारित्रं,किमुक्तं भवति !, पथाऽधश्चरमान्तो लोकस्योक्त एवं रत्नप्रभापृथिव्याः, स अन्यजन्मोपात्ताविधकर्मसञ्चयापचयाय चरणं, सर्वसावधचानन्तरोक्त एव । विशेषस्त्वयम्-लोकाधस्तनचरमान्ते द्वी- योगनिवृत्तिरूपं चारित्रमिति । श्रा०म०प्र०ा चरन्त्यनिन्दितमरियादीनां देशजकत्र मध्यमरहितमुक्तमिद तु रत्नप्रभा- नेनेति चारित्रम्, अष्टविधकर्मचयरिक्तीकरणाद् वा चारित्रम् । धस्तनबरमान्ते पञ्चेन्द्रियाणां परिपूर्णमेव तद्वाच्यं, शेषाणां सर्वविरतिक्रियायाम, विशे।चर्यते मुमुक्षुभिरासेव्यते ततुहीन्द्रियादीनां मध्यमरहितमेव, यतो रत्नप्रभाऽधस्तन दिति, चर्यते वा गम्यते अनेन निर्वृताविति चारित्रम्, अथवाचरमान्ते पश्शेन्द्रियाणां गमागमद्वारेण देशो देशाश्च संभ- चयस्य कर्मणां रिक्तीकरणाच्चरित्रं,निरुक्तन्यायादिति । (स्था) बन्त्यतः पश्शेन्द्रियाणां तत्तत्र परिपूर्णमेव भवति, द्वान्छि- चारित्रमोहनीयतयाद्याविभूते आत्मनो विरतिरूपे परिणामे, मादीनां तु रत्नप्रजाऽधस्तनचरमान्ते मारणाम्तिकसमुदातेन (स्था)"एगे चरित्ते" तदेकं वक्ष्यमाणानां सामायिकागतानामपि तत्र देश एव सम्भवति, न देशाः, तस्यैक- दितद्भेदानां विरतिसामान्यान्तर्भावादेकस्य चैकदा भावाद्वेति, प्रतररूपत्वेन देशानेकत्वाऽहेतुत्वादिति, तेषां तत्तत्र मध्यम- एतेषां च ज्ञानादीनामयमेव क्रमो, यतो नाऽज्ञातं श्रमीयते, ना. रहितमेवेति । अत एवाह-" नवरं देसे" इत्यादि । ( चत्ता- श्रहितं सम्बगतुष्ठीयत इति । स्था०१० ठा। सूत्राचर्यते भारि चरिमंत ति) पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तररूपाः ( वरिमहिट्टि- सेव्यते अनेन वा, चर्यते गम्यते मोक इति चारित्रम् । मूलोत्तरझा जहा रयणप्पभाए देहिले ति) शर्करप्रजाया उपरितना- गुणकलापे, स्था०२ ग०१०। आश्रवनिरोधे, व्य०१ उ०। धस्तनचरमान्तौ रत्नप्रभाऽधस्तनचरमान्तवद्वाच्यौ, द्वीकिया- अनुष्ठाने, ज्ञा० १ श्रु. २५० । स्था० । अज्ञानोपचितस्य कर्म. दिषु पूर्वोक्तयुक्तमध्यमभङ्गरहितं, पञ्चेन्द्रियेषु तु परिपूर्ण दे. वजस्य रिक्तीकरणे, नि.चू०१००। सर्वसंवरे, सूत्र०२ श्रु०१ शभत्रयं ,प्रदेशचिन्तायां तु द्वीन्द्रियादिषु सर्वेवाद्यभङ्गकर- अ०। चारित्रमोहनीयक्वयक्कयोपशमजे जीवपरिणामे, भ०८ हितत्वेन शेषभाकद्वयम, अजीवचिन्तायां तु कपिणां चतु- श०२ उ० सावद्ययोगनिवृत्ती, प्रश्न० ३ संव.द्वार । बाह्यकम, अरूपिणां त्वासमयस्य तत्राभावेन षट् वाच्यमिति सदनुष्ठाने, रा। क्रियाचेष्टादिके, उत्त० २० अ०।। भावः। ज० १६ श०० उ० । कुम्भदृष्टान्तेन चत्वारि चरित्राणिचरमकाम-चरमकाल-पु.। मरणसमये , पं० व०४ द्वार।। चत्तारि कुंभा पन्नता । तं जहा-भिन्ने, जजरिए, परि Page #1165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९४२) निधानराजेन्द्रः । चरित साई, परिस्साई । एवमेव चन्त्रिहे चरिते पन्नत्ते । तं जहा - जिन्ने० जात्र अपरिस्साई । तथा निम्नः स्फुटितो, जर्जरितो राजीयुक्तः, परिश्रावी दुपक्कत्वात् करकः, अपरिधावी कठिनत्वादिति । चारित्रं तु जिनं मूलप्रायश्चित्तापस्या, जर्जरितं छेदादिप्राप्त्या परिश्रावि सूक्ष्मातिचारतया, अपरिश्रावि निरतिचारतयेति । इह व पुरुषाधिकारेऽपि यच्चारित्रलकणं पुरुषधर्मभरानं तद्धर्मध र्मिणोः कथञ्चिदनेदादनवद्यमवगन्तव्यमिति । स्था० ४ ठा० ४ ० । ( सामायिकादिशब्देषु पृथमयाख्यानम् ) सामायिकादि पञ्चविधं चारित्रम्सामाइयत्य पढमं बेावणं भवे वीयं । परिहारविमुद्धी, सुमं तह संपरायं च ।। १२६० ॥ तत्तो य अक्खायं खायं सव्वम्मि जीवलेोगम्मि । जं चरिऊण सुविहिया, वञ्चंतऽयरामरं ठाणं ॥ १२६१|| ( एषां पदानां व्याख्या स्वस्वस्थाने ) विस्तरार्थं तु भाष्यकृदाह सन्यामि सामइयं, बेया विसेस पुणे जिनं । अविसेसियमा मयं, ठियमिह सामएएसभाए || १२६२|| सावज्जजोगविरह, त्ति नत्थ सामान्यं हा तं च । इत्तरमावक ति य पढमं पढमंतिम जिणं ॥ १२६३ ॥ तित्थेसुमणारोविय - वयस्स सेदस्स थोवकालीयं । सेसाणमात्रकादियं, तित्थेसु विदेहयाणं च ।। १२६४ ॥ सर्वमपीदं चारित्रमविशेषतः सामायिकमेव, एतदेव च बेदादिविशेषैर्विशिष्यमाणमर्थतः संज्ञातश्च नानात्वं प्रतिपद्यते, तत्राद्यं विशेषणाभावात्सामान्य संज्ञायामेवावतिष्ठते सामायिकमिति । तत्र सावद्ययोगविरति स्वरूपमेतत्सामायिकम् । तथ द्विधा इत्वरं यावत्कथितं च । तत्रेत्वरं स्वल्पकालीनं भरतैरावताद्यचरमतीर्थकर तीर्थयोरेवानारोपितमहाव्रतस्य शिष्यकस्य दृष्टव्यम् । यावत्कधिकं यावजीविकं भरतैरावतप्रथमचरमवर्जशेषतीर्थकर तीर्थसाधूनां महाविदेहजानां च साधूनामव सेयमिति || १२६४ ।। भथ प्रेरकः प्राह न जावज्जीवाए, इत्तरियं पि गहियं मुयंतस्स । हो पनाओोवो, जहाssवकहिथं मुयंतस्स ।। १२६५ ॥ श्राह - ननु करोमि भदन्त ! सामायिकं यावज्जीवमित्येवं व्रतग्रहणकाले इत्वरमपि सामायिकं गृहीतमुपस्थापनायां मुञ्चतः प्रतिज्ञालोपः प्राप्नोति यावत्कथितपरित्याग इव । श्रत्रोत्तरमाह न लियं सव्वं चिय, सामाइयमिणं विमुद्धिओ जिनं । सावज्जविरइमइयं को वयलोवो विसुद्धीए || १२६६ ।। ननूकं सर्वमेवेदं चारित्रमविशेषतः सावययोगविरतिसामास्यात् सामायिकमेव बेदादिविशुद्धिविशेषैर्विशेष्यमाणमन्यथात्वं प्रतिपद्यते, ततः को नाम विशिष्टतरायां विशुद्ध प्रतिपद्यमानायां व्रतलोपः १ न कश्चिदित्यर्थः ।। १२६६ ।। For Private चरित कुत इत्याह क्म भंगो, जो पुरण तं चिय कर सुधयरं । सन्नमित्तविसिहं, सुमं पिव तस्स को भंगो ।। १२६७ ॥ उन्निष्क्रामतः प्रव्रज्यात्यागमेव कुर्वतो व्रतभङ्गो प्रवति, यर पुनस्तदेव प्राकू ग्रहीतं चारित्रं विशुद्धतरं संपादयति, संज्ञामात्रेण तु चारित्रं विशिष्टं भिन्नं, तस्य भङ्गो न भवति, किं तु सुतरामेव व्रतनैर्मल्यं संपद्यते, यथा सामायिक संयतस्य (सुडुमं ति ) सूक्ष्मसंपरायं प्रतिपद्यमानस्य, बेदोपस्थापनीयस्य वा परिहारविकिमकुर्वतो व्रतनिर्मलत्वमिति ॥ १२६७ ॥ artपस्थापनीयस्य व्याख्यानमाहपरियायस्य यो, जत्थोवडावणं वसुं च । मह, मणरेयरं विद्धं ।। १२६८ ॥ सेहस्स निरइयारं, तित्यंतरसंकमे च तं होज्जा । मूलगुणघाणोसा - इयारमुभयं चव्यिकप्पे ।। १२६ए ॥ ( जत्थ ति ) यत्र चारित्रे पूर्वपर्यायस्य छेदो व्रतेषु चोपस्थापनं विधीयते, तदिह छेदोपस्थापनं, तश्च द्विधा सातिचारमनतिचारं च । तत्र शिष्यकस्यापस्थापनायां तीर्थान्तरसंकान्तौ वा यदारोप्यते तन्निरतिचारं भवेत्, यत्तु मूलगुणघातिनः पुनरपि समारोप्यते तत्सातिचारम् । एतश्च्चोभयमपि स्थितकल्प एव जवति, न स्थितास्थितकल्पे, तत्र नरतैरावतप्रथमचरमतीर्थकर साधूनां स्थित कल्पः । विशे० प्रव० । श्रातु० । सूत्र० । पं० प्रा० आ० म० । ( 'सामाश्य' आदिशब्दे पृथक् २ व्याख्यानम् ) ( केषां कषायाणामुदये चारित्रमतिचर्यते इति अश्यार' शब्दे प्रथमभागे ८ पृष्ठे उक्तम् ) अथ तत्कयोपशमादिभ्यश्चारित्रप्राप्तिमभिधित्सुराह वारसविदे कसाए, खत्रिए नवसामिए व जोगेहिं । अन्न चरितभो, तस्स विसेसा इमे पंच ।। १२५४।। द्वादशविधे द्वादशप्रकारेऽनन्तानुबन्धादिभेदभिन्ने, कषाये, जा तावेकवचनं, क्रोधादिलक्षणे, रूपिते विध्याताम्नितुल्यतां नीते, उपशमिते भस्मच्छशदहनकल्पतां प्रापिते, वाशब्दात् कयोपशमे चार्धविध्यातज्वलनसमतामुपकल्पिते, योगेर्मनो वाकायरूपैः प्रशस्तैर्हेतुभिर्लज्यते चारित्रलानः, तस्य च सामान्येन चारित्रस्य विशेष प्रेदा एते वक्ष्यमाणाः पञ्च । इति निर्युक्तिगाथार्थः ॥ १२५४ ॥ प्राष्यम् खविए उवसमिए वा, वासदेणं खओवसमिए वा । वारसव कसाए, पत्थकाणाइजोगेहिं ॥ १२५५ ।। गतार्था: नवरं प्रशस्तभ्यानं प्रशस्तं मनः ॥ १२५५ ॥ क्षीणादिकषायस्वरूपमाह वीणा निव्वाहुया -सणो व छारपिहिय व्व उवसंता । दरविज्झायविहाय जलगोवम्मा खओवसमा १२५६ व्याख्यातार्था, नवरम् श्रर्द्धविष्यात विघट्टितज्वलनोपमाः कायोपशमिककषायाः, क्षयोपशमावस्थेषु हि कषायेषु दलिकस्य वेदनमप्यस्ति तच्च विघट्टितवह्निकल्पमिति ॥ १२५६ ॥ अथ कस्य चारित्रस्य कथं लाभ इत्याहयो वा समय बा, खओवसमय व तिनि लन्नंति | Personal Use Only Page #1166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित चरित्त अभिधानराजेन्द्रः। मुहम अहवायाई, स्वयओसमोव नमुत्तो॥१२५७॥ किंचसामायिकच्चेदोपस्थापनीयपरिहारविशुस्किसकणान्यायानि सव्वाश्रो विगईओ, अविरहिआ नाणदंसणधरेहिं । श्रीस्सि चारित्राणि श्रेणियादम्यत्र कषायदयोपशमात् पूर्वप्र ता मा कासि पमायं, नाणेण चरित्तरहिएणं ।। ए | तिपन्नानि प्रतिपाद्यमानानि च लभ्यते, अनिवृत्तिबादरस्य पुनरुपशमश्रेणौ तदुपशमात्पूर्वप्रतिपन्नानां तेषां लाभः, कपक सर्वा अपि नारकतियनरामरगतयः अविरहिता अबियुक्ताः, श्रेणौ तु कयादिति । सूदमसंपराययथाख्यातचरित्रे तूपशमशे कैः१, ज्ञानदर्शनधरैः, यतः सर्वास्वेव सम्यक्त्वश्रुतसामायियौ कषायोपशमातू, कपकश्रेणी तु तवक्षयाल्लभ्येते, नान्यतः, कध्यमस्त्वेव,न च नरकगतिव्यतिरेकेण अन्यासु मुक्तिः, चारिकयोपशमान प्राप्यत इत्यर्थः॥ १३५७॥ त्राभावात,तस्माचारित्रमेव प्रधानं मुक्तिकारणं, तनावमावित्वा दिति, यस्मादेवं ( तामा कासिपमायं ति) तत्तस्मान्मा काषी: आह-ननु "तस्स विसेसा मे पंच" (१९५४) इत्यत्र किं प्रमादं ज्ञानेन चारित्रम, एतेन तस्येष्टकलासाधकत्वात् । कामसामान्य चारित्रमात्रं तच्छन्दस्य वाच्यम, अहोस्वित् द्वादशा ग्रहणं च दर्शनोपलकणार्थमिति गाथार्थः ॥ १५ ॥ नां कषायाणां कयादिभ्यो यदनन्तरमेवोक्तं तदेबेत्याशङ्क्याह इतश्चारित्रमेव प्रधान, नियमेन चारित्रयुक्त एव लन्न चरित्तलाजो, खयाइओ वारसएह नियमोऽयं । सम्यक्त्वसद्भावादाह चन उ पंचविहनियमणं, पंच पिसेस त्ति सामएणं ।१२५८।। सम्मत्तं अचरित्त-स्स हुन्ज भयणा निमसो नत्थि । द्वादशानां कषायाणां कयादितः क्वयक्कयोपशमोपशमेभ्य एव | साभश्चारित्रस्य, नान्यथा इत्येवमेवेह नियमो षष्टव्यो, न तु जो पुण चरित्तजुत्तो, तस्स न निअमेण सम्मत्तं ॥६॥ पञ्चविधनियमनं, द्वादशकषायाणामेव क्षयादितो लब्धस्य सम्यक्त्वं प्राइनिरूपितस्वरूपम् , प्रचारित्रस्य चारित्ररहिचारित्रस्य पञ्चैते विशेषा इत्येवंचूतो नियमोऽत्र न कर्तव्य तस्य प्राणिनः, भवेत् भजनया विकल्पनया, कदाचिद् भवति श्त्यर्थः । किं तर्हि ?, द्वादशानामधिकानां वा कषायाणां कया. कदाचिनेति नियमशो नास्ति नियमेन न विद्यते, प्रभूतादितो बब्धस्थ तस्य सामान्येनैव चारित्रस्यैते वक्ष्यमाणाः नां चारित्ररहितानां मिथ्यादृष्टित्वात, यः पुनश्चारित्रयुक्तः पञ्च विशेषा इत्येवं सामान्यं चारित्रमात्रं तच्छन्दस्य संबध्यत सत्वस्तस्यैव, तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् नियमेनावश्यतया शति ।। १२५८ ।। सम्यक्त्वमतः सम्यक्त्वस्यापि नियमतश्चारित्रयुक्त एवं भाअथ कस्माद्वादश कषायाणामेव कयादितो लब्धस्य चारित्र वात्प्राधान्यमिति गाथार्थः॥६६॥ स्य पञ्चैते विशेषा इत्येवंभूतो नियमोऽत्र न क्रियते इत्याद किञ्चजं तिमि वारसएणं, लब्नंति खयाइअो कसायाणं । जिणवयणबाहिरा जा-वणाहि उबट्टणं अयाणंता। मुहमं पन्नरसएहं, चरिमं पुण सोलसएई पि ॥१५॥ नेरअतिरिअएगि-दिएहि जह सिज्जई जीवो ॥७॥ यतः सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुफिकलकणानि जिनवचनबाह्या यथावस्थितागमपरिज्ञानरहिता,प्रत्येकं शानदप्रोण्येव चारित्राणि द्वादशकषायाणां कयादितो लभ्यन्ते, इति शननयाऽवलम्बिनः (भावणाहिं ति) उक्तेन न्यायेन ज्ञानदर्शनकथं तत्वयादिलभ्यस्य चारित्रस्य पश्चविधत्वं स्यात् ।। भावनाभ्यां सकाशान्मोतमिच्छतीति वाक्यशेषः। उद्वर्तनामजासूक्ष्मसंपरायचारित्रं तु संज्वलनलोभीजैतानां शेषपञ्चदश नानां नारकतीर्यगेकेन्द्रियेज्यो यथा सिद्ध्यति जीवस्तथोद्वर्तकषायाणां कयादुपशमा लज्यते। चरमं तु यथाख्यातचारित्रं नामजानाना इति योगः। इयमत्र भावना-शानदर्शनाभावेऽपिन षोमशानामपि कषायाणां कयात, उपशमाद वा प्राप्यते । एवं नारकादिन्योऽनन्तरमनुष्यभावमप्राप्य सिध्यति कश्चित् , चच सति सामान्यस्यैव चारित्रस्य पञ्च विशेषा जवन्ति । इति रणाभावातू. तेन तयोः केवलयोरहेतुत्वमोकं पतितेच्य पवैगाथापञ्चकार्थः ॥ १५॥ ॥ (चरित्रादेव मोक इति । किरिया केन्द्रियेज्यश्च शानादिरहितेच्योऽप्युत्तो मनुष्यत्वमपि प्राप्य णय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५५४ पृष्ठे उपपादितम् ) चरित्ररहितं चारित्रपरिणाम एव सिद्ध्यति , नायुक्तो अकर्मभूमिकादिरत कानं दर्शनं वा न वातन्त्र्येण मोक्षसाधनम् । प्राव३ अ० । | इयमुद्वर्तना कारणांवैकल्यं सूचयतीति गाथार्थः ।। ६७ ॥ साम्प्रतमसहायदर्शनपके दोषा उच्यन्ते । यदुक्तं-"न सेणिो पुनरपि चारित्रमेघ प्रकं समर्थयन्नाहमासि" इत्यादि । तन्न । तत्त्वत एवासौ नरकमगमत, असहा- मुह वि सम्मबिट्टी, न सिज्झई चरणकरणपरिहीणा। यदर्शनयुक्तत्वात् , अन्येऽप्येवंविधा दसारसिंहादयो नरकमेव जं चेव सिधिमूलं,मूढो तं चेव नासेइ ।।८।। गता इत्याहदसारसीहस्स य सेणिस्स, पेढालपुत्तस्स य सञ्चइस्स। सुष्ठप्यतिशयेनाऽपि, सम्यग्दृष्टिन सिद्ध्यति, किंभूतः?, चरण करणपरिहीनः,तद्वादमेव च समर्थयति,किमिति?, यदेव सिकि. अणुत्तरादसणसंपया तया,विणा चरित्तेण हराग गया। मूसं तदेव मोककारणं सम्यक्त्वं,मूढस्तदेव नाशयति, केवलं तदसारसिंहस्य अरिष्टनेमिपितृव्यपुत्रस्य, श्रेणिकस्य च प्रसेन- हादसमर्थनेन "एक पि असद्दहतो, मिच्छत्तं" इति वचनात् । जितपुत्रस्य , पेढामपुत्रस्य च सत्यकिनः , अनुत्तरा प्रधाना, अथवा-सुष्ठपि सम्यग्दृष्टिः , कायिकसम्यग्दृष्टिरपीत्यर्थः । न कायिकीत्युक्तं भवति, का?, दर्शनसंपत, तदा तस्मिन् काले, सिध्यति चरणकरणपरिदीनः, श्रेणिकादिवत, किमिति ?, यतथापि विना चारित्रण धरागतिं गता नरकगतिं गताः, नरक- देव सिकिमूलचरणकरणमूढस्तदेव नाशयति, अनासेवयेति गति प्राप्ता रति वृत्तार्थः॥ १४ ॥ गाथार्थः॥ ८॥ Page #1167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्त (१९४४) अभिधानराजेन्द्रः। चरित कि चायं केवलदर्शनपको न भवत्येवागमजिदः योरिति योगः, किं,न विराधयति चरणं नखएमयति चारित्रं,यदि सुसाधो, कस्य तर्हि भवत्यत आह संयमेऽपि पृथिव्यादिसंरक्वणादिलक्षणे, वीर्ये सामर्थ्य, उपयोदसणपक्खो सावरें, चरित्तभट्टे अमंदधम्मे अ। गादिरूपतया न निगूढ येत् न प्रच्चादयेत,मातृस्थानेन (न हावे. दंसणचरित्तपक्खो, समणे परसोअकखम्मि ।। एए॥ जत्ति) ततो न हापयेदिति संयमं न खण्डयेत्, स्यादेवं संयम गुण इति गाथार्थः । संयमयोगेषु पृथिव्यादिसंरक्षणादिव्यादर्शनपक्कः श्रावके ऽप्रत्याख्यानकषायोदयवर्तिनि, चारित्रभ्रष्टे पारेषु, सदा सर्वकालं, ये पुनः प्राणिनः(संतबिरिया विसीयंति च कस्मिश्चिदव्यवस्थितपुराणे, मन्दधम्मच पावस्थादी दर्शनचा- त्ति) विद्यमानसामा अपिनोत्सहन्ते, कथं ते विशुरुचरणा रित्रपक्षः श्रमणे जवति, किंभूते?, परलोककाजिणि, सुसाधा- जवन्ति ? इति, योगेनैवेत्यर्थः । बाह्यकरणालसाः सन्तः, प्रत्युवित्यर्थः । प्राकृतशैल्या चेह सप्तमी षष्ठव्यर्थे एव अष्टव्या,दर्शन पेक्वणादिबाह्यचेष्टारहिता इति गाथार्थः ।। १०४ ।। प्रहणाच्च ज्ञानमपि गृहीतमेव अष्टव्यमतो दर्शनादिपकनिरूपो आह-ये पुनरालम्बनमाश्रित्य बाह्यकरणानसा भवन्ति वेदितव्य इति गाथार्थः ।। एEM तेषु का बातेति !, उच्यतेअपरस्त्वाह-यद्येवं बहीभिरुपपत्तिभिश्चारित्रं प्रधानमुपवर्यते भवता,ततश्च ते देवास्त्वलं ज्ञानदर्श माळेवणेण केणइ, जे मन्ने संजमं पमायति । नाज्यामिति न तस्यैव, तद्व्यतिरेकेणासंजवात । न हुतं होइ पमाणं, तूअत्थगवेसणं कुज्जा ॥१०॥ माह च मालम्बत इत्यालम्बनं प्रयततां साधारणस्थानं , तेनालम्बपारंपरप्पसिकी, दंसणनाणेहि होइ चरणस्स ! नेन केनचित , अव्यवस्थित्यादिना ये प्राणिनः, मन्ये इत्येवमदं पारंपरप्पसिकी, जह हो तहऽन्नपानहिं ।। १०० ॥ मन्ये, संयमम उक्तलक्षणं, प्रमादयन्ति परित्यजन्ति (न हुतं होर नम्हा सणनाणा, संपुन्नफलं न दिति पत्तेनं । पमाणं) नैव तदालम्बनमात्रं भवति प्रमाणम् भादेयं, किंतु चारित्तजुत्रा दिति उ, निसिस्सए तेण चारित्तं ॥११॥ भूतार्थगवेषणं कुर्यात्तत्वार्यान्वेषणं कुर्यात् । किमिदं पुएमाल म्बनमाहोस्विन्नेति, यद्यपुष्टमविशुरुचरणा एव ते, मथ पुष्टं बि. पारम्पय्येण प्रसिद्धिः पारम्पर्यप्रसिद्धिः स्वरूपसत्ता, पतदु- शुद्धचरणा ति गाथार्थः । प्राब० ३ ० । ध०। कं भवति-दर्शन ज्ञानं, चारित्रम् , एवं पारम्पय्येण चरणस्व. रूपसत्ता, सा दर्शनशानाभ्यां सकाशाद्भवति चरणस्यातस्त पवममुना प्रकारेण चरित्रे विद्यते शोधिः, तदादवतः द्भावभाबित्वाच्चरणस्य त्रितयमप्यस्तु। लौकिकन्यायमाह-पा. कुर्वतश्च शोधिमेवमुक्तप्रकारेण दृश्यते, यदपि चोक्तं दर्शनशानाज्यां तीर्थ याति तदरम्पर्यप्रसिद्धिर्यथा भवति तथाऽन्नपानयालोकेऽपि प्रतीतैवेति क्रिया, तथा चान्नार्था स्थालीन्धनाद्यपि गृह्णाति, पानार्था प्पयुक्तं यथा भवति तथा शृणुत। अयुक्ततामेव कथयतिचकाक्षाऽऽद्यतखितयमपि प्रधानमिति गाथार्थः ॥१००। आहयद्येवमतस्तुल्यबलत्वे सति ज्ञानादिना किमित्यस्थानपकपात एवं तु नणंतेणं, सेणियमादी वि थाक्यिा समणा । माश्रित्य चारित्रं प्रशस्यते भवतेत्यत्रोच्यते-यस्माद् दर्शनशाने समणस्स य जुत्तस्स य, नत्थी नरएमु नववातो॥ संपूर्णफलं मोक्षलवणं न दत्तःन प्रयतःप्रत्येकं, चारित्रयुक्त यदि नाम ज्ञानदर्शनाभ्यां तीर्थ, तहि प्रवचनं , तच्च श्रमणेषु दत्त पत्र, विशेष्यते तेन चारित्रं,तस्मिन सति फलभावात, शति व्यवस्थितं, तत एवं भणता त्वया श्रेणिकादयोऽपि श्रमणा व्य. गाथार्थः ॥१०१॥ वस्थापिताः, तेषामपि शानदर्शनावात् , न चैतमुपपन्नम, प्राद-विशिष्यतां चारित्रं किंतु यतः श्रमणस्य, श्रमणगुणयुक्तस्य च नास्ति नरकेषूपपातः । नजममाणस्स गुणा, जह होति ससत्तिो तवसुएस। तवन श्रेणिकादीनामसंभवात् । एमेव जहासत्ती, संजममाणे कई न गुणा ॥१०॥ जंपिज्ज हु एकवीसं, वाससहस्साणि होहि तित्थं तु । 'मुज्जमाणस्स'उद्यच्छत उद्यम कुर्वतः,की,तपःश्रुतयोरितियोगः। तं मिच्छा सिघी वि य, सव्वगतीसुं च होज्जाहि ॥ गुणास्तपोकानाद्याप्तिानेर्जरादयो यथा नवन्ति स्वशक्तितः स्व. यदपि सूत्रे च भणितम्-एकविंशतिवर्षसहस्राणि तीर्थमनुवशक्त्युद्यमवत एवमेव यथाशक्ति, शक्त्यनुरूपमित्यर्थः। ( संज- र्तमान भविष्यति इति, तदपि त्वन्मतने मिथ्या प्राप्नोति , पदस्वपि ममाणे करण गुण सि) संयममाने संयमं पृथिव्यादिसंरक- समासु ज्ञानदर्शनजाविनश्चिरकालमपि तीर्थानुषजनप्रसणादिलकणं कुर्वति सति साची, कथं न गुणाः, गुणा पवेत्यर्थः। तः । यथा सर्वास्वपि च गतिषु सिकिरप्येवमनिवारितप्रसरा अथवा-कयं गुणा येनाविकमसंयमानुष्ठानरहितो विराधकः भवेत् । सम्यग्दर्शनशानयुक्तानां चारित्ररहितानां सर्वगतिप्रतिपद्यते इत्यत्रोच्यते वपि जीवानां भावात, ये चानुन्नरोपपातिनो देवास्ते नियअणिराहतो पिरिश्र, न विरादे चरणं तवसुएसु ।। मतस्तद्भवसिकिगामिनो भवेयुः , तेषामनुत्तरकानदर्शनोपेजइ संजमे वि पिरिअं, न निगृहिज्जा न हाविज्जा॥१०॥ तत्वात् , न चैतदिष्टम , तस्मादिदमागतम-“ पच्छित्तम्मि असंतम्मि, तित्थे नो सचरित्तया।" असति विद्यमाने प्रायसंजमजोगेसु सया, जे पुण संतविरिया विसीअंति ।। श्चित्ते चारित्रं न तिष्ठति , प्रायश्चित्तमन्तरेण चारित्रस्व गुदिन कह ते विमुद्धचरणा, वाहिरकरणालसा हुंति ॥ १०४॥ | भवेत् , चारित्रे चासति तीर्थस्य न सचरित्रता । अनिगृहन् वीर्य प्रकटयन सामय यथाशक्त्या,की, तपाधुत-। । अचरितयाएँ तित्थस्स, निवाणम्मिन गच्च। अचरित्याए तित्यस Page #1168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित 66 निव्वाणम्म असंतम्मि, सन्या दिवखा निरत्यया ॥ तीर्थस्याचारित्रतायां साधुर्निर्वाणं न गच्छति । असति च निर्वाणे संत्री दोका निरर्थका । व्य० १० उ० । पञ्चा । ( ' उवसम' शब्दे द्वितीयभागे २०२८ पृष्ठे चारित्रमो हनी यस्योपशमताऽभिहिता) नावे होर करणं करणं नाणेण फासियं होर। दुई पि समाभोगे दो विसोही चरितस्त्र " ० ० केवकिषाणामुये चरित्रस्य लाभ एव न भवति केषानियम प्रतिचरति प्रतिपति च । श्र० चू० १ अ वीतरागाणां चरित्रं न वर्द्धते, नापि दानिमुपगच्छति, कषायाणामभावात् किन्त्ववस्थितमेकमेव परमप्रकर्षा संगमस्थानमिति सरागसंयतानां तु केषाश्चिद् वर्धते, केषाञ्चिीयते । व्य०१० उ० । व्यवहारनयमते देशभङ्गेऽपि सर्वजङ्गाभावः चारित्रमवतिष्ठत एव । व्य०१ उ० । वस्तुतो योगस्थैर्यरूपं चारित्रं महान्त्राभ्यस्वरससिद्धमिति महता प्रव न्धेनोपपादितमध्यात्ममतपरीक्कायाम्। प्रति० । " चारित्रमात्मदर्शनं मुनये साध्य-हिपालामा त् क्रियानयः ॥३॥" अष्ट० १३ अष्ट० । “सम्मत्तं श्राचरित-स्स नया नियमसो नरिथ जो पुण चरिततो, तस्स हु नियमेण सम्मत्तं ॥ १॥" संथा० | सम्मरामि उ लढे, पतियपुहखेण सावम्रो होज्जा । चरणोवसमवयाणं, सायरसंखंतरा हुंति ॥ " श्रा० । चरण I ( ११४५) अभिधानराजेन्द्रः । पिकप चक्रभ्रामकदण्डवत् । असौ व्यकताऽप्यस्य लोपनविक्रिया ॥ २ए ॥ आधिक्यं सजातीयपरिणामप्राचुर्य स्येयं व पतनप्रतिबन्धः तत्सचे चक्रभ्रामकद एक बदामुपदेश उपयुज्यते यथाहि दमो भ्रमतश्चक्रस्य दृढभ्रम्यर्थे, भग्नभ्रमेव भ्रम्याधानार्थमुपयुज्यते न सूचितवत्येव तत्र तथोपदेशोऽपि गुणप्रारम्भाय, तत्प्रतिबन्धाय चोपयुज्यते, न तु स्थितिपरिणामं प्रतीति । तमुपदेशपदे- "बरसो विडु सफल, गुनासारंभगाज जीवाणं । परिवकमाणाण तहा, पायं न उ तडियाणं वि" ॥१॥ व्यञ्जकताऽप्यस्योपदेशस्य तद्बोन परिणाम जेनोपनतिथि या सन्निधानलक्षणा, अन्यथा घटादा दरामादेरपि व्यञ्जकत्वापत्तेरिति भावः । २६ । द्वा० १७ द्वा० । अव्यस्तचं निर्दूषणं प्रसाध्य - " श्रलमित्थपसंगणं, एवं खलु होश भावचरणं तु । परिस्थितं भावे जिग्रकम्मजोपणं |" इत्यादि । श्रथवाऽत्र अव्यचरणम् -" नावचरणमुग्गविहारणा यदवचणं तु जिणपूजा । पढमा ज‍ ण पुष्टि वि, ज‍ णं पढमं चिय सत्था ||१|| कंचणमाणस्सुलिए सुवएणतले जो कारबेज जिद तो जो असंतो, सबसेजमेण वडुभवसमधिपावकम्ममलपवई निविऊ रसाय कार्ड जिणायो मंसियमेव दाणायो विसुवियं न परो सि" प्रति ( चारित्रस्य निन्दा प्रशंखाच अनुसराश्य' शब्दे प्रथमभागे ०११ पृष्ठे उता चारित्रस्यावर्ण पदवीति 'या' शब्दे ७६३ पृष्ठे व्याख्यातम् ) न चरित्रं विराधयजया विसर नदिज्जंति, पमणाऽसणविसं पि वा । काल धिकण परिपत्र, नो चरितं विराहए । २८७ 6 चरित यह एयाई न सकेज्जा, तो गुरुणो लिंगं समप्पिय । विदेसे जत्य नागच्छे पडती तस्य गंतूणं ॥ अणुव्वयं तु पालिज्जा यो जविया णिकम्मो | महा० ए अ० । 9 वियचरिमन्ययाई परं परितमिह सम्यदम्बे " इति 'सामान्य' शब्दे प्रपञ्चयिष्यते) आहारशुद्धिरेष मुख्यश्चारितुष्यते । " पिंडं बसतो, अरि इत्य संसश्रो नत्थि । चारिप्तम्मि असंते, सव्वा दिक्खा निरस्थीया ॥ " ० ० इदानीमप्यस्ति चारित्रं पयामा मचिन्तां कृत्वा, ननु तर्हि द्वाविंशतिजिनयतीनां ऋजुप्राशनां भवतु धर्म्मः परं प्रथमजिनयतीनां ऋजुजडानां कुतो धर्मः ?, श्रनवबोधात्, तथा च वक्रजमानां वारयतीनां तु सर्वथा धर्मस्य अभाव एव, मैवम, ऋजुजमानां प्रथमजिनयतीनां जम स्वेनसावेऽपि भावस्य विशुत्वा भवति धर्म तथा चानामपि रजिनापेक्षा अविशुको जवति, परं सर्वथा धर्मो न भवति इति न वक्तव्यम्, तथावचने हि महान् दोषः । यदुक्तम्-" जो भणइ नत्थि धम्मो न य सामश्यं न चैव य वयाई । सो समण संघवज्भो, arraat समणसंघेण " ॥ १ ॥ कल्प० १ क्षण । दर्श० । पञ्चा। एष एवार्थः पुष्करिण्यादिदृष्टान्तेन भायनीयः । यथापूर्वकाले पुष्करिण्यादयो महापरिमाणा आसन्, इदानीं तु न तथा, तथापि पुष्करिय पवेत्वेपमिदाम दोनमपि त्वं न विजहाति किन्तु यावाायश्वितं तावन्प्रायश्चितम् । न विणा तित्थ नियंडे दि नियंता वा अतित्यगा चैत्र । कायसंजमो जा - व ताव अणुसज्जणा दोहं । निधैर्विना तीर्थं न भवति तेनापि विना निथा अतीर्थका स्तीर्थरहिता भवन्ति, परस्परात्र्यवच्छिन्नतया एकस्याऽपरस्य भायात, निर्धन्धा तदेतदपि संयतैर्विना न तीर्थ, नापि तीर्थमन्तरेण संयता निर्ग्रन्थाः, संयताम्य प्रथमभवनेन चतुर्दशपूर्वरयवच्छेदेऽपि विद्यन्ते यतो यावत् पटुकाय संगमस्तावत् द्वयानामनुषजनाऽनुवर्त्तमाना समस्ति, पटुकाय संयमश्च प्रत्यक्षतोऽद्याप्युपलभ्यते, ततः सन्ति निर्थन्थाः सन्ति संयता इति प्रतिपत्तव्यं, तत्सत्वं प्रतिपत्तव्यं तत्सस्वप्रतिपती तीर्थ सचारित्रमित्यपि प्रत्येक चारित्रे सति प्रायभितमस्त्येक ॥ सव्वहि परूविय, छक्काय महव्त्रया य समितीओ ! स क्षेत्र य पद्मवणा, संपतिकाले वि साहूणं ॥ तेनोवपन्न विश्वं दंसणना खेहिँ एक सिर्फ तु । निगा वोच्चिना, जं पिय जणियं तु तन्न वहा ॥ पूर्व साधूनां सर्वज्ञैश्चारित्रस्य प्रतिपत्तयो रकणाय च षट्टायानां महाव्रतानि सतिश्च प्ररूपिताले च प्रतिज्ञाना सम्यगाराभ्यतया संप्रतिकालेऽपि साधूनामस्ति, तत उपपन्नं सम्प्रत्यपि चारित्रमस्ति, एवं च सिद्धं न तीर्थ ज्ञानदर्शनाज्यां ब्रजसि, किंतु इनदर्शनचारिरिति १०० 66 "से भयचं ! उ कालसमत तथाकटिकरापर्यन्तमपुच्छा ? । गोयमा ! तत्र परेणं उटुं दीयप्राणे जे केह छायसमारंजा से भ Page #1169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९४६) चरित्त प्रानिधानराजन्यः। चरित पुग्ने वंदे पूए नमसणिज्जे जीवियं सुजीवियं तेसि" महा०५० तत्कालमेव सकलचारित्रन्त्रंशः, शेषेषु पुनमहाव्रतेष्वभी"मह समारसेसे , होड़ा नामेण दुप्पसह समयो । क्णप्रतिसेवनया महत्यतिचरणे वा वेदितव्यः, उत्तरगुणप्र. अणगारो गुणगारो, धम्मागारो तबोऽगारो ॥१३॥ तिसेवनायां पुनः कालेन चरणदंशो, यदि पुनः प्रायश्चित्तसो फिर आयारधरो, अपच्चिमो होश ताव नरहवासे । प्रतिपस्या नोज्वालयति । एतदेव कुतोऽवसेयमिति चेत', तेण समं पायारो, नस्सिहि सम्म चरितेणं ॥ १४॥" ति०।। उच्यते-शकटदृष्टान्तात् । तथाहि-शकटस्य मूलगुणा वेचके, (मूलगुणोत्तरगुणयोरेकस्य नाशे द्वयोरपि नाश इति 'अश् उठी, अक्कच, उत्तरगुणा वधकीलकलोहपट्टादयः। एतैर्मूलगुयार' शब्द प्रथमन्नागे । पृष्ठे उक्तम् ) अत्र चोदक आह-यदि णैरुत्तरगुणश्च सुमंप्रयुक्कं सत् शकटं यथा मारवहनकर्म मूवगुणानां नाशे उत्तरगुणानामपि नाशः, उत्तरगुणानां नाशे भवति , मार्गे च सुखं भवति, तथा साधुरपि मूलगुणैरुत्तमूलगुणानामपि स्यात् ततो न खलु नैव मूलगुणाः सन्ति, रगुणैश्च सुसंप्रयुकः सन् अष्टादशशीलासहस्रनारवहनक्षनाप्युनरगुणाः,यस्मानास्ति स संबतो यो मूलोत्तरगुणानामन्य मो प्रवति, विशिष्ट उत्तरोत्तरसंयमाध्यवसायस्थानपये च सुखं तमं गुणं न प्रतिसेवते । अन्यतमगुणप्रतिसेवने च ध्यानामपि वहति । अथ शकटस्य मूखानानामेकमपि मूलाझं जम्नं नवमूलोत्तरगुणानामभावः, तेषामभावे सामायिकादिसंयमानावः, ति तदा न मारवहनक्षम, नापि मार्गे प्रवर्तते , उत्सराङ्गेषु तदनावे वकुशादिनिर्ग्रन्धानामभावः, ततः प्राप्तं तीर्थमचा कैश्चिद विनाऽपि शकट कियतकामं भारतमं प्रवति , प्रबरित्रमिति । इति च मागें, कालेन पुनर्गच्छताऽन्यान्यपरिशटनादयोग्यमेष सरिराह तदुपजायते । एवमिहापि मूलगुणानामेकस्मिन्नपि मूलगुणे हते चोयग! छकायाणं, तु संजमं जाऽणुधावए ताव । न साधूनामष्टादशशीलासहस्रनारवहनक्षमता, नापि संयम श्रेणिपथे प्रवहणम, उत्तरगुणेषु कैश्चिदप्रतिसेवितैरपि जवति मूलगुण उत्तरगुणा, दोसि वि प्राणुधावए ताव ।। कियन्तं कासं चरणभारवहनकमता, संयमश्रेणिपथे प्रवर्तनं चोदक! वाचत घट्जीवनिकायेषु संयमोऽनुधावति अनुगच्छति च, कालेन पुनर्गच्छता तत्राऽप्यन्यान्यगुणप्रतिसेवनातो जवति प्रबन्धेन वर्तते तावत् मूलगुणा उत्तरगुणाश्च येऽप्येते मनुधा- समस्तचारित्रग्रंशः, ततः शकटदृष्टान्तादुपपद्यते मूलगुणानावन्ति प्रबन्धेन वर्तन्ते। मेकस्यापि मूलगुणस्य नाशे तत्कालं चारित्रभ्रंशः, मत्सरगुणइत्तरसामइयच्छे-यसंजमा तह दुवे नियंठा य । नाशे कालक्रमेणेति । इतश्चैतदेवं मएमपसर्षपादिदृष्टान्तात् । चनसु पमिसेवणा ता, अणुसज्जते य जा तित्थं । । तथाहि-परपमादिमएमपे यद्यको द्वौ बहवो वा सर्षपाः. उप. यावन्मूनगुणा उत्तरगुणाश्चानुधावन्ति तावदित्वरसामायिकच्चे लकणमेतत, तिलतरकुनादयो वा प्रतिप्यन्ते, तथाऽपि न दसंयमावनुधावतः , यावश्चेत्वरसामायिकच्छेदोपस्थानसं मएमपो भङ्गमापद्यते , अतिप्रभूतैश्चाढकादिसंख्याकैर्मयमौ तावत् द्वौ निर्ग्रन्थावनुधावतः । तद्यथा-वकुशः, प्रतिसे ज्यते । अथ तत्र महती शिक्षा प्रक्षिप्यते, तदा तयैकयाधकश्च । तथाहि-यावद् मूलगुणप्रतिसेवना तावत्प्रतिसेवको, पि तत्कणादेव ध्वंसमुपयाति । एवं चारित्रमएमपोऽप्येकद्धि व्यादिनिरुत्तरगुणैरतिचर्यमाणैर्न भङ्गमुपयाति , बहुभिस्तु यावऽत्तरगुणप्रतिसेवना तावद्वकुशः, ततो यावत्तीर्थ तावद्वकुशाः, प्रतिसेवकाश्च अनुसञ्जन्ति अनुवर्तन्ते, ततो नाचारित्रं कामक्रमेणातिचर्यमाणैर्भज्यते , शिलाकल्पेन पुनरेकस्यापि म्प्रसक्तं प्रवचनमिति । अथ मूलगुणप्रतिसेवनायामुत्तरगुण लगुणस्यातिचारे तत्कालं ध्वंसमुपगच्चतीति, तदेवं यस्मान्मूप्रतिसेवनायां वा चारित्रभ्रंशे भस्ति कश्चिद्विशेषः, सत ना लगुणातिचरणे किप्रमुत्तरगुणातिचरणे कालेन चारित्रचंशो स्ति ? । अस्ति इति बमः। भवति तस्मान्मूलगुणा उत्तरगुणाश्च निरतिचाराः स्युरिति कोऽसावित्याह षट्कायरकणार्य सम्यक् प्रयतितव्यम्, परकायरकणे हि मूलमूलगुणे दश्यसगमे, उत्तरगुणे ममवे सरिसवाई। गुणा उत्तरगुणाश्च शुभा भवन्ति, तेषु च इयेष्वपि शुरुषु, (अत्र गाथायामेकवचनं प्राकृतत्वात, प्राकृते हि वचनव्यत्ययोउक्कायरक्खणडा, दोसु विमुखेम चरणमुखी ॥ ऽपि भवतीति) चरणशुद्धिः चारित्रशुभिः ! व्य०१ उ० । नि० मूलगुणेषु दृष्टान्तो दृतिः, शकटं च। केवलमुत्तरगुणा अपि तत्र चू० । दर्श। दर्शयितव्याः, उत्तरगुणेषु दृष्टान्तो मएडपं, सर्षपादि, मादि चारित्रफलम्शब्दात शिलादिपरिग्रहः, तत्रापि मूलगुणा अपि दर्शयितव्याः। यह भविए भंते ! चरित्ते, परनविए चरिते । गोयमा! श्यमत्र जायना-एकेनापि मूलगुणप्रतिसेवनेन तत्क्षणादेव इह जविए चरित्ते, णो परभविए चरित्ते, पो तदुनयचारित्रभ्रंश उपजायते , उत्तरगुणप्रतिसेवनायां पुनः कालेन, अत्र दृष्टान्तो दृतिका तथाहि-यथा रतिक रदकभृतः पञ्चमहा जविए चरित्ते, एवं तचे, संजमे । द्वारः,तेषां महाद्वाराणामेकस्मिन्नपि द्वारे मुत्कलीजूते तत्क्षणादेव चारित्रसूत्रे निर्वचने विशेषः। तथाहि-चारित्रमैहभविकमेव,न रिक्तो भवति , सुचिरेण तु कालेन पूर्यते, एवं महावतानामेक- हि चारित्रवानिह नृत्वातेनैव चारित्रण पुनश्चारित्री भवति,यास्मिन्नपि महाव्रते अतिर्यमाणे तत्कणादेव समस्तचारित्र- वजीवताऽवधिकत्वातस्य । किञ्च-चारित्रिणः संसारे सर्वविरभ्रंशो भवति ; एकमूलगुणघाते सर्वमूलगुणानां घातात्।। तस्य देशविरतस्य व देवेष्वेवोत्पादात,तत्रच विरतेरत्यन्तमभातथा च गुरवो व्याचकते-एकवतभङ्गे सर्ववतभङ्ग इति ।। वान्मोक्षगतावपि चारित्रसम्भवाभावात् । चारित्रं हि कर्मकपपतन्निश्चयनयमतं , व्यवहारतः पुनरकवतभने तदेवैकं नम्न | णायानुष्ठीयते, मोके च तस्याऽकिञ्चित्करत्वात, यावजीवमिति प्रतिपत्तन्यम् , शेषाणां तु भङ्गः कमेण, यदि प्रायश्चित्तप्रतिप- प्रतिकासमाप्तेस्तदन्यस्याश्वाग्रहणात, अनुष्ठानरूपत्वाचारित्या नानुसंधत्ते इति । अन्ये पुनराहु:-चतुर्थमहावतप्रतिसेवने । त्रस्व,शरीराभावे च तदयागात् । अत एवोच्यते " सिनोच Page #1170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९४७) चस्ति ग्रनिधानराजेन्छः। चरित्तकप्प रितीनो अचरिती"नो अचरित्रीति च अविरतेरजावा. गच्छाणुकंपयाए, आयरिय गिलाणे आचतीए य॥ दिति । अनन्तरं चारित्रमुक्तम् । तब विधा-तपःसंयमनेदादिति पमिसेवा खलु जणिता, एते खलु कारणा ते उ । तबोनिरुपणावातिदेशमाह-(पवं तवे संजमे सि) प्रश्ननिर्वचनाभ्यां चारित्रवत्तपःसंयमौ वाच्यौ, चारित्ररूपत्वाच्योरिति । तेहि य तेणादासं, गच्चस्स हाणसेवणा होति ॥ म.१ .१०.। आयरियाण व अट्ठा, विभासवित्यारदुऍ एत्थं । अष्टादश चारित्रभवाः णातुं तवं विणासं, अरगा साहारणेण एवं तु ।। “भाराहणा य एत्थं, चरणपरिवत्तिसमयमो पभिई । पायरियस्स विणासे, गच्छविणासो धुवं एवं । प्राबरखंतमजस्सं, संजमपरिपालणं विहिणा." ॥१॥ इति । आगाढे गेलएणे, कंदातिविनास प्रावती वसुना ॥ पर्व चेह यद्यपि चारित्रप्रतिपत्तिभवा विराधनायुक्का अनि देवावति तह जोगा, वतीवग्गओ तह जागो चेव । कुमारवर्जनवनपतिज्योतिष्कत्वहेतुभवसहिता दश, अबिराध. नाभवास्तु यथाक्तसाँधमादिदवेलाकेसवासिद्धपुत्पात्रीहत एतेहि कारणोहिं, अप्पचेहि नो तु सेवेज्ज ॥ वासप्त, अष्टमश्च सिकिंगमनभव इत्येवमष्टादश चारित्रभवा मुहसीलयारें जोऊ, आवजतिण विय सुज्कती सोन। सक्ताः। भूयते चाटैव नयाँश्चारित्रं जबति।ज०१५।०१3०। जो पुण पत्ते कारणे, जयणा आसेवणं करेज्जा ह॥ बषसायनेदे, चारित्रमपि समभावलकणो व्यवसाय एव, बो तस्स सेवणा विजा सा, कोगे सव्वे जिणेहि तं इणमो। धस्वभावस्याऽत्मनः परिणतिविशेषत्वात् । स्था०३ ग.३ उ०। गच्छाणुकंपयाए, आयरियगिलाण आवदि वि दिये। चरित्तगुणप्पमाण-च (चा)रित्रगुणप्रमाण-न। चरस्यनिन्दितमनेनोति चरित्रं, तदेव चारित्रं, चारित्रमेव गुणः। साबधयो जत्थेव य पमिसेहो, सचरित्ताऽऽसेवणा तत्थ । गाबिरतिरूपे गुणप्रमाणभेदे, तच्च पञ्चविधम्-"चरित्तगुणप्प पुरिमस्स पच्छिमस्स य, मजिऊमगाणं तु जिणवरिंदाणं ॥ माणे पंचविहे पाते। तं जहा-सामाश्मचरितगुणप्पमाणे, प्रासेवणा य सचरि-त्तया य अत्येण अणुगम्मा । आवजावणचरितगुणप्पमाणे, परिहारबिसुद्धिमचरित्तगुण- क्यभंग पि करतो, जह सचरित्ती कहं तु अत्येणं ॥ प्पमाणे, सुदुमसंपरायचरितगुणप्पमाणे, अहक्वायचरितगुणप्पमाणे" अनु। अणुगंतव्वं एयं, भन्नति आगाढकारणतो। चरित्तकप्प-चरित्रकल्प-पुंचारित्रप्रतिपादके शास्र,पं०भाग जे के अवराहपदा, कएहा मुका जवे पवयणम्मि । पिपरिसपरिच्छणाए, दुगठाणेणं मुणेयम्बो । ..............", एत्तो वोच्चं चरिनकप्पं त । पमिसेहें अन्ना वा, पायच्चित्ते य ओह णिच्चए॥ जे तु विहाणचरित्ते, वतेमु गुरुलाघवं चेव ।। आहेण न सहाणं, अत्यविरेगेण वोगमियं । पंचविहम्मि चरित-म्मि वएिणता जे जहि अणजागा। हिंसादवराहपदा, किरहे अणुघाति सुकिला लहुगा। एसो चरित्तकप्पो, जहकयं होति विएणो॥ णिप्परिसपरिच्छम्मे, जह कणगं ताव णिहसेसु । सामाश्याहि पंचहि, सबो वि नवे बहुत्तरं कंग। एवं परिच्छिऊणं, पायवयं गच्छमावती जंतु ॥ सन्वगुरुगा अहिंसा, तीसे सारक्खण सेसाणि ॥ पित्यारयम्मि पत्ते, जयणाए णिसेव सचरिती। मेहुणवयं च तत्तो, ततो अदत्तं मुसं तत्तो। उहाणा मूलुत्तर-दप्पे मजए य होति पडिसेहो ॥ सव्वलहुओ परिग्गह, सम्बावत्याऍ रागनिग्गहणं ॥ कप्पे जयणागुप्मा, जो पुण निकारणासेवे । मोगे पुण गरुगतरो, सव्वेसु भवे मुसावादो।। पायच्छित्ते पावति, तं दुविहं ओहियं च णेघश्यं ।। काऊण वि संघरणं, सुयवज्जाणं तु सबभंगे वि।। श्रोहं च जमावएहं, तं दिजति तम्मि सहाणं । जेन पावंति धम्म, सुएम अह मिच्चगेते। णेच्छइयं प्रत्येणं, वीमसेता तु देजती तं तु ।। सोतुं मिच्छवतारा, विणयं काऊण हिडए प्राह ।। एवं अत्यविरेगं, वोगमियं छब्बिई इणमो । प्रज्जप्पनिई अम्हं, वुद्धो सला बते देह । कस्स कहं व कहितं, वोकमिया फम्मि किच्चे वा ।। मुसवज्जा वाएमो, धारेमो गिएिहतुं वते तेणा ॥ ग्हाणपदविजतं, अत्यपदं होति वोगमियं । बीसत्यमित्तगाणं, मुसितविहारं समोहत्ता । कस्स त्ति गीतगीत-स वा विकह जयण जयणाए । मिच्छत्त वेति तेणे, घेत्तुं सिक्खावयाण मा अज्जो॥ कह प्रकाण वसंतो, दिया णु सुन्निक्खब्जिक्खे । मंजह लंवति जहा, तेणा ऊ वज्जसमणेसु। अहवा दिव राम्रो वा, कम्मि ती कारणे व इतरे वा ॥ सदम्मो गुरुखाघव-वक्खाणं सोहिकारणानिहितं ॥ कम्मि च पुरिसज्जाते, आयारादीण अन्नतरे। पत्तम्मि कारणम्मि तु, लहुयतरं पुन्च सेवेज्जा । केचिर कतिवारे खा, केवइकालं व सेवियं होजा । काणि पुण कारणाणी, जेसं पत्तेसु जयणपमिसेवा ॥ एवं बहाणेहि, सुकामुके भमुचित्तरो । चएणइ ताण इमाई, कित्तेऽहं ले समासणं । संघयणधितिजुताणं, सपअरुहं तु दिज्जए तत्थ ।। Page #1171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चस्तिकप्प असत् अचिरादीनं दिजति वाति में बोई । सोत्तूण कप्पियपदं, करेति प्रालंबणं मतिविहूणो ॥ रहसं च रस्सं, करेति मतिसूयो पुरिसो । माइहाणविमुकं कप्पियं जो तु सेवते भिक्खू ॥ तं वा कप्पति पदं, मायासहिते चरणनेदो पं० भा० । श्यानि वरिप्पो, गाड़ा- (पंचविम्मितं चरितं पंचवि ई सामामा अभागो नाम सामाश्च विहोरो आवकडिओ, बेओहावणिओ घेण परियागं परिहारविसुदिप निव्विसमाणे निव्विको य, एवं सव्वे वि भाणियध्वा, जो जस्स अनुभागो तम्म पुर्ण चरिते गुरुलाघवं नाय पंच चिप परं मारियतरं वा ? उच्यते सम्या सरसेाणि तयांतरं मेड तताद ततो मोसं, सम्बलडुओ परिग्दो सम्यावस्थासु रामदासाणि श्रवणेकणं तु.न विणा रागेण लोप पुरा मुसावाओ नारिश्रो, जहा दव्वयि सङ्केहिं कवडेण मुसावायवज्जाणि सिक्वापयाणि घेण विदा लिलिओ, एसा पुण गुरुलाघवा विसोही कारणे कीर पढमं जं लहुयं तं सेविज्जत पुणो कत्थ सेविज । गाहा(गाणुकंपयाए) बोदियाइस वालबुकाओ ण गच्कुलाइजे वा, आयरियाणं गिलाणाइनजाइकज्जसु वा दब्वखेकानभावावसु वा पपसु गच्छाशुकंपयाश्सु कारणेसु प्रयन्तेसु सुहसीलया 9 1 वयाणि छे, सो माषख तारापसिंगाडा - प) सो पुर्ण सु गच्छाशुकंपास कारणेसु पचेसु गुरुलाघवावसोदीय वयाणि पेल्लेइ, जाणि वेब पमिसेवियाणि चैव पमिसेवेइ सो सुद्धो । गाहा - ( पुरिमस्स ) एवं पुरिमपच्छिममकिमाणं तत्थगराणं कारणे पत्तेचा 33 सेवसार भवर, पडिसेवियपयाणं सच्चरितया य। कहूं पुरा, अत्थश्रो अणुगमिता । गाहा (जे के अवराहपया) हिंसादयो किन्ह त्ति गुरुया, सुकि सचिव निधसमय परिपिया मवधारणीसमिति कडुकेय जयणपुरिसकारो मुलासमो नाखइरिण परिसट्ठी दुपहाणं नाम मूलगुना उत्तरगुणा च ते कति एवं सम्यस्य वि पमिसेदे मुखो अगुवा कया। गाढा (पाकिस असा) पायच्चितं पुण दुविहं ओहियं निष्ठश्यं च । श्रहेण जं चेत्र भावसो तं चेव दिज्जर, दि, निष्पक्ष पुरा अत्येविरेण विणिच्णं तमणिवं दोस्तो दिग्ज, विरेगो पुरा वितर गाढा -(कस्स कहं) कस्स वाई, गीयत्थस्स वा, गीयत्था भायरिबा, उबकाया, भिक्खु वा आयरियचवज्जाया नियमा गीयत्था, ते पुणो कपकरणा या कयकरचाणं तदाक दिग्जह, निक्खु अभिगयं अभिगयं थिराधिरकय करणा य भयणीओ कहंति, जयेणार अजयणापवा पडिसेचियं कति, श्रद्धाणे वा जणवर वा पमिसेचियं कयामि दुवा. दिया, राम्रो कम्म कारणे अकारणे वा । केश्चिरं कश्वारे कालं वा एवं बर्हि ठायो वोकमे जंण दिज्जर, तत्थ जइ सुरूण सुका चैव सुद्धति, कारणे सुका कारणे सेवियं अगीयत्थासु वा असुखं तस्स पुण सडु अस शिविग्ज स द थिरसंजमो जेण गाड़ा( सोच्न कवियप कपिपदमिति अवाओ सत्य यति ममविद्यो चि महविणणाअंबोण करे, रहस्साणि भरहस्वाणि कर महसुयगो नाम सो पावो । गाहा - ( माश्झाविमुकं ) गादा सिमेव । एष चरितकप्पो । पं. चू० । 3 " ( १९४०) अभिधानराजेन्द्रः " चरितधम्म चरिया चारित्रार्थताखी० सदनुष्ठानरूपेऽर्थे, स्था० ५ ० २४• । वर्षास्वपि अन्यत्र गच्छेत्-"चारिया " बारिशार्थतया तु तस्य क्षेत्रस्थानेपणा स्यादिदोषदुष्टतया तरुणार्थम् । स्था० ५ ० २ उ० । चरितवणा चारित्रस्थापना श्री० ६४० चारिवस्यानिर्वाह्यत्वेन म्यासे, यथा-" सझायरकप्पट्टी परिसषणा " शय्यातरस्य कल्पस्थिकायामाचार्येण चारित्रस्य स्थापना कृता प्रतिसेवते इति भावः । वृ० ४ उ० । 66 | 1 चरित्चधम्म चारित्रधर्म्य - पुं० । चरित्रं क्षयोपशमरूपं तस्य प्रावधारित्रमशेषकर्मवाययेत्यर्थः ततश्चारित्रमेव धर्मचारित्रधर्म इति भ्रमराधर्मे " परिधम्मो समणथम्भो । चि " वचनात् । दश० १ अ० । स्था० । स च कान्त्यादिरूपो दशधा । नं० | चारित्रं मूलोत्तरगुणकलापः, तदेव धर्मचारिधर्मः । स्था० २ ठा० ६ उ० । कान्त्यादिश्रमणधर्मः । अयं च द्विविधोऽपि द्रव्यभावभेदे धम्र्मे भावधर्म उक्तः । यदाह-" दुविहो उ भावधम्मो, सुयधम्मो बहु चरित्तधम्मो य । सुपधम्मो समझाओ चरितधम्मो समणधम्मो ॥१॥ चिस्या०२२२४० प्राणातिपातादिनिवृत्तिरूपे धर्मभेदे दश० ४ म दुहिं च रित्तधम्मं " द्विविधं देशसर्वचारित्रनेदात् विप्रकारं चर्यते मुमुभिराचिते वा गम्यतेनेन निर्वृति परिजम | अथवा चचस्य कर्मणां रिकीकरणाचरिचं निद कन्यायादिति । चारित्रमोदनीययायावर्तत मात्मनो विरतिकपः परिणामस्तलकणो धर्मः श्रेयश्चारित्रधर्मस्तम्। पा । बारित्रं मूलोजर गुणकलापस्तदेव धर्मश्चारित्रधर्मः । स्था० । चरितम्मे दुबिहे पद्म से नहा-अगारचरितम्मे चैव अणगारचरितधम्मे चैव। अणगारचरितधम्मे दुबिहे पछते । तं जहा सरागसंजमे क्षेत्र, वीयरामसंनमे चैव सरागये दुबिदे पाते । तं जहा मुहुमसंपरायसरागसंजये चेब, बादरसंपरायसरागसंजमे चैव सुडुमसे पराय सरागसंजमे · विदे पाते । तं जहा पदमसमयमसंपरायसरागसंये । चेव, अपढमसमयसुमपरायसरागसंनमे चैव महवा चरमसमयनुपपराय सरागसंजमे, अचरमसमवयसं परायस-रागसंजमे । श्रहवा-सुहुमसंपरायसरागसंजमे दुविहे पष्ठते । तं जहा - संकिलेस माणए चेव, विसुज्झमाणए चेव । बादरसंपरायसरागसंजमे दुविहे पष्मत्ते । तं जहा- पढमसमयबादरसंपराय सरागसंजमे, पढमसमयदादर संपराय सरागसंजमे । अहवा - चरमममयबादरसं परायसरागसंजमे अचरमसमयवादरसंपरा पसराग संगमे । अहा वायरसंपरायसरासंजमे दुविहे पत्ते । तं जहा - पडिवातिए चैत्र, अपमिवातिए चैव । वीयरागसंजमे दुविहे पण ते । तं जहावसंतकसायनीयरागसंजमे चेव, खीएकसायवीयरागसंजमे चैव । जवसंतकसायवीयराय संजमे 5विहे पणते । तं जड़ा-पदमसमयसंत कसायवीयरागसंजमे चेव, अपदमसमय जब संतकसायचीय रागसंजमे चैव । हवा चरमसमय " Page #1172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४९) चरित्तधम्म अभिधानगजेन्दः । चरिक्तनेणी वसंतकसायवीयरायसंजमे, अचरमसमयउपसंतकसायवी- लाः सम्परायाः कषायाः यस्य साधार्यस्मिन् वा संयमे स तथा, यरायसंजमे । खीणकसायवीयरायसंजमे सुविहे पएणते । सूक्ष्मसम्परायप्राचीनगुणस्थानकेषु. शेष प्राग्वदिति । "सुहमे" सं जहा-उउमत्यखीणकसायवीयरायसंजगे चेब, केवनि इत्यादि । सूत्रद्वये प्रथमसमयादिविभागः केवलकानवदिति । "अहवा" इत्यादि । शक्लिश्यमानकः संबम उपशमश्रेण्या खीणकसायवीयरायसंजमे चेव । उनमत्थरवीण कसाय प्रतिपततो विशुद्धय मानस्ताम् उपशमणि, क्षपकणि वा स. बीयरायसंजमे दुविहे पामते । तं जहा-सयंबुचर उमत्थ- मारोहत इति। बादरेत्यादिसत्रद्वयम्, बादरसंपरायसरागसंयखीण कसायवीयरायसंजमे, बुधबोहियछउमत्यखीणकसा. मस्य प्रथमाप्रथमसमयता संयमप्रतिपत्तिकालापेक्कया, वरमायवीयरायसंजमे । सयंबुछ उमत्थखीणकसायवीयरा खरमसमयता तु यदनन्तरं सूक्ष्मसम्परायता; असंयतत्वं धा भविष्यति तदपेक्रयेति ।"अहवा" इत्यादि । प्रतिपाती उपशपसंजमे दुबिहे पामत्ते । तं जहा-पढमसमयसंयंबुच्छउम मकस्यान्यस्य वा, अप्रतिपाती कपकस्येति सरागसंयम उक्तः। स्थखीणकसायवीयरायसं जमे, अपढमसमयसयंबुच्छउम- अतो वीतरागसयममाह-“वीयराय" इत्यादि । उपशान्ताः त्थखीणकसायवीयरायसंजमे चेव । अहवा-चरमसमयसयं प्रदेशतोऽप्यवेद्यमानाः कषाया यस्य यस्मिन् वा स तथा, साधुः संयमो वेति एकादशगुणस्थानवौतिकीएकषायो द्वादशगुणबुनमत्यखीणकसायवीयरायसंजमे, अचरमसमयसयंबु स्थानवर्तीति। "वसंत" इत्यादि सूत्रद्वयं प्रागिन । "स्त्रीणे"इदनमत्थखीणकसायचीयरागसंजमे। बुधवोहियउनमत्थ. स्यादि । कादयत्यात्मस्वरूपं यत्तचन,ज्ञानावरणादि घातिकर्म, खीणकसायवीयरागसंजमे दुबिहे पन्नत्ते । तं नहा-पढमस- तत्र तिष्ठति शति ग्यस्थोऽकेवली, शेवं तथैव, केवलमुक्तरूपं मयबुकवोहियर उमत्थखीणकसायवीयरायसंजमे, अपढमस. ज्ञानं च दर्शनं चास्यास्तीति केवलोति । "ग्मत्य" इत्यादि । स्वयम्बुबादिस्वरूप प्रागिवेति "सयंबुक" इत्यादि नव सूत्राणि मयबुच्चोहियरउमत्यखीणकसायवीयरागसंजमे । अहवा गतान्येवेति । स्था० म०१ उ० । चरति मोकं प्रति याचरमसमयनुरूवोहियर उमत्थखीणकसायवीयरायसंजमे,अ. ति येन तचरित्रं, तब तमश्चेति चरित्रधर्मः, चरित्रशब्देचरमसमयबुकवोहियग्नमत्थखाणकसायत्रीयरायसंजमे । नभुतस्य व्यवभेदः । प्रत्याख्याने, “पञ्चखाणं नियमो, चरिकेवलि-खीणकसायवीयरायसंजमे दुविहे पन्नत्ते । तं जहा- तधम्मो य होति एगट्ठा ॥" पश्चा०५ विव०। सजोगिकेचलिखीणकसायवीयरायसंजमे, अजोगिकेवलि-चरित्तधम्मश्रारादणा-चारित्रधर्माराधना-स्त्री०। भाराधनाखीणकसायवीयरायसंजमे । सजोगिकेवलिखीणकसायवीय- दे, स्था० ३ ठा०१०। (व्याख्या 'पाराहणा' शम्दे द्विरायसजमे ऽविहे पबचे। तं जहा-पढमसमयसनोगिकेव- तीयभागे ३७४ पृष्ठे उक्ता) लिखीणकसायवीयरायसंजमे, अपदमसमयसजोगिकेवलि-चरित्तपमिवत्ति-चारित्रप्रतिपत्ति-नी। चारित्रस्य वैराग्यखीणकसायवीयरागसजमे । हवा-चरमसमयसजोगिकेव- तया शुखी, पं० चू० । सिखीणकसायवीयरागसंजमे, अचरमसमयसजोगिकेवलि- चरित्तपरिणाम-चारित्रपरिणाम-पुं० । चारित्रमेव परिणामः। खीणकसायवीयरायसंजमोअजोगिकेवलिखीणकसायवीय- परिणामनेदे, प्रज्ञा० १२ पद । स्था। रायसंजमे विहे पसे । तं जहा-पढमसमयअजोगिकेबाल-चरित्तपायच्छित्त-चारित्रप्रायश्चित्त-न० । प्रायश्चित्तन्नेदे, वीणकसायवीयरायसंजमे, अपढमसमयमजोगिकेवलिखी- स्था० ३ ग.४००। (पच्छित्त' शब्देऽस्य व्याख्या) णकसायवीयरायसंजमे । अहवा-चरमसमयअजोगिकेवलि-चरित्तपरिस-चारित्र पुरुष-पुं० । तद्वति, स्था• ३ ग०१ उ०। खीणकमायवीयरायसंजमे, अचरमसमयमजोगिकेवलिखी-| (व्याख्या 'णाणपुरिस' शब्दे फटण्या )। णकसायवीयरायसंजमे ॥ चरित्तबल-चारित्रबल-न० । चारित्रानुपासनसामध्यें, यद् दु. " चरितेत्यादि " अगारं गृहं, तद्योगादागारा गृहिणस्तेषां करमपि सकलप्सतवियोगं करोत्यात्मा, यच्चानन्तमवाधमैयइचरित्रधर्मः सम्यक्रवमूलावतादिपालनरूपः स तथा।। कान्तिकमात्यन्तिकमात्मायत्तमानन्दमानोति । स्था०१०म०। एवमितरोऽपि,नवरमगारं नास्ति येषां तेऽनगाराः साधव शति। हढचरित्रे, प्रज्ञा०६पद। चारित्रधर्मश्च संयमोऽतस्तमेवाह-"दुविहे" इत्यादि । सद रागेण अभिष्वक्रेण मायादिरूपेण यः स सरागः, स चासो चरित्तभावणाय-चारित्रजावनाक-त्रि। चारित्रेण सामायिसंयमइच, सरागस्य वा संयम इति वाक्यम् । वीतो कादिना भावना वासना यस्य स चारित्रभावनाकः । चारित्रविगतो रागो यस्मात् , स चासौ संयमश्च, वीतरागस्य वा वासनायुक्त, प्रश्न०१ संवा द्वार। सयम शत वाक्यम् । “सराग "इत्यादि । सम्मोऽसं-चरित्तभेणी-चारित्रनेदिनी-सी। चारित्रभेदकारियां विस्यातकिट्टिकावेदनतः सम्परायः कषायः, सम्पति संसरति कथायाम् (स्था) सम्जवन्तीदानी महावतानि साधूनां संसारं जन्तुरनेनेति व्युत्पादनात्। प्राह च-"कोहाइसंपराभो, प्रमादबहुलत्वादतिचारप्रचुरत्वादतिचारशोधकाचार्यतत्कारतेण जो संपरीक्ष संसारं।" स च लोभकषायरूप औपश- कसाधुशुद्धीनामभावादिति ज्ञानदर्शनाप्न्यां तीर्थ प्रवर्तत इति मिकस्य क्षपकस्य वा यस्य सःसूक्ष्मसंपरायः साधुस्तस्य स- ज्ञानदर्शनकत्तम्यग्वेष यत्नो विधेय इति । भणितं च-"सोही रागसंयमविशेषणसमासो वा भणनीय इति । बादराः स्थ- यनविन विदि-तकरेंता वि य के नीसंति । तित्थं च णा. २८८ Page #1173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरितमेथी रावणमिवो चेन ॥ १ ॥ " इत्यादि । अनया हि प्रतिपन्नवारित्रस्यापि तद्वैमुख्यमुपजायते, किं पुनस्तदभिमुखस्येति चारित्रभेदिनीति । स्था० ७ ० । ( ११५०) श्रभिधानराजेन्द्रः । चरितमोहणिज्ज - चारित्रमोहनीय न० | मोहनीय कर्मभेदे, कर्म १] कर्म० ( पोश कपाया नयनोपायाश्वेति विध तत् ' मोहनीय' शब्दे वक्ष्यते ) चरित्तरक्खण्ड - चारित्ररक्षणार्थ - न० । पञ्चप्रकारं चारित्रं सामायिकाद्यमथाभ्यातपर्यवसानं तस्य रक्षणार्थम्भूतरा याः परिपालनार्थे, पं० चू० । "चारित रक्क्षण्ठा, सूयगमस्तुवरि ठवितारं ॥ " पं० भा० । चरिषभ पारिझान पुं० बारिषस्याम्पजन्मोपासावि धर्मसंचयापचयाय सर्वसाद्ययोगनिवृतिरूपस्य लाभे श्रा० म० प्र० । चरितविणय चारिचविनय पुंखारामिवारिविन बः । चारित्रेण विनीतकतायाम (दश) परिश्चिममा अट्टविई कम्पचयं, जम्हा रितीकरे जयमाणो । नवचन बंध चरिचविशीओ व तम्हा ||८|| अधिकारं कर्म कर्म प्रापयं यस्मादिकं करोति तुच्छताऽपानः क्रियायां न तथा नवमन्यं च कर्मवयं न बध्नाति यस्माचारित्रविनय इति, चारिषाद्विनवारिश्रमि स्मादिति गाथार्थः ॥ ८५ ॥ दश० नि० ६ श्र• १३० । भौ० । चरितविराणा चारित्रविराधना श्री चारिचं सामायिकादोनि, तेषां विराधना खरमना । स०३ सम० । व्रतादिकमने, ध० ३ अधि० । न० चरितवरिय वारिमवीर्य-न अशेषकर्मविदारण साम कीरादिपुरपानसामध्ये ० १ ४० । चरित संपण्या चारित्र संपन्नता स्त्री० । यथाश्यातंच्चारित्रयुकत्वे, उत्त० १० प्र० । - तत्फलम् - चरित संपन्नयाए णं जंते ! जीने किं जणय ? । चरिसंपन्नयार णं सेनेसीजावं जणय, सेलेसिपमित्रन्ने अणगारे चत्तारि केवलकम्मं से खदेड़, तभ पच्छा सिज, झ, सुबर, परिनिव्वायर, सव्वक्वाणमंत करे5 ।। ६१ ।। हे स्वामिन्! चारित्र सम्पन्नतया चरित्रेण यथाख्यातचारित्रेण सम्पन्नता, तथा यथाख्यातचारित्र सहितत्वेन जीवः किं जनयति । तदा गुरुराह दे शिष्य ! बारिषसम्पद्मयथानयात चारित्रसहितत्वेन शैलेशीभावं जनयति, शैलानां पर्वतानां ईशः शैलेशो मेरुस्तस्येयं अवस्था शैलेशी तम्या जवनं शैलेशीभावः तमुत्पादयनि मेरुपस्य वस्थां प्रतिपन्नोऽनगारश्चतुरः कर्माशान् क्षपयति, अंशशब्दः सतार्थवाचकः स्थानं भजते ततः पश्चा ति सकलकर्माणि कपयित्वा सिद्धिं प्राप्नोति, बुध्यति तस्त्रको भवति मुच्यते कर्मभ्यो मुक्तो भवति, परिनिर्याति कमाया चरितायार रुपातलो भवति, सर्वदुः खानामन्तं करोति ॥ ६१ ॥ उत० २६ श्र० । चरितमुद्धि चारित्रशुद्धि-स्त्री० । चरणविशुद्धतायाम, पिं० । (तस्या बाह्यमान्तरं च कारणद्वयम ' उग्गम' शब्दे द्वितीय नागे ६० पृष्ठे दर्शितम् ) चरिताचरित-चरित्राचरित्र न० । चरित्रं तदचरित्रं चेति चरित्राचरित्रम् | संयमाऽसंयमे, भ० ८ श० २४० । परिचायार चरित्राचार पुं० चारित्रिय समित्यादियानाम के व्यवहारे, स० १०० सम० । श्याणि चरितायारो भरणतिपाजोगतो, पंच समिती तिद्धि व गुचीहि । एस परिचायारो, अविहो होति यायचो ।। ३५ ।। पणिहाणं तिषा अभवसारां ति वा चिंतंति वा एगठा जोगा मक्काया परिहाणजोगेद्दि पसरथोई जुत्तो पविाणजोगतो, तर य पणिहामजोगतस्स पंच समितीओ, तिथि गुप्तो भवति ताद समितिगुती श्मा-रियांसम मासासमिई, एसणासमिती, भाषाशसमिई, भंग किय मासमि परिहारसियासमि मागुती, वयगुती कायगु ती । जीवसंरक्खणडुजुगमे तंतरदिहस्स अध्यमादिणो संजमोकरव्यायण धिमित्तं जा गमयकिरिया मा इरितासमितीक इसणिदूरकडुप फरसबदवप मानदोसवखितादियमणक्षमता संदेहमिदोहधम्मणो भासासमिती, सुतानुसारेण स्मरणवत्यपादापासालि मोर पस णासमिती, जं वत्थपायसंधारक फलगपीठकारण्डुगडणिक्लेसंकरणं पडिलेडिय पमखिय सा आदाणणिक क्षणासमिती, जं मुत्तमल सिलेस पुरीसमुक्काण जं वा वि वेगारुहाणं संसताणं तपाचारीण जंतुविरहिय मिले बिहिया विवेगकर " सा परिचयागसमिती मध्यसंताकिरिय[संप्पणगोचणं मणगुती, बायझफरसपिसा वत्तणणिग्गहकरणं मणे वा सा वयगुत्ती, गमनागमणप दाणणयंत्रणादि किरिया गोवणं कायगुती समितिगुणं दिसेसो प्रथति " समितो नियमा गुत्तो, गुप्तो समियराणाम्म ततियन्यो । कुसल उदीरेतो तो विमोचि ॥ गतिकिरियासमिती, किरियागो तुगुसी। बागोषण बागुली, समितियारो वि तरसेव संकष्यकिरण, मणगुती भवति समिति पधारो भणिता भट्ट ब माता, पत्रयणवतफलं ण तता तो " ॥ महाप समिती य गुत्तीण य, एसो ते दो तु होइ लायन्वो । समिती पयाररूवा, गुत्ती पुण उभयरूवा वि ॥ ३६ ॥ समित नियमा गुत्तो, गुतो समियत्तम्मि तइयव्वो । कुसलवति नदीरेंतो, जं बड़गुत्तो वि समियो वि || ३७ ॥ समिती पयाररूवा, गुत्ती पुण होति नयरूवा । सुमतिउदीरेंतो, ते गुतो वि समिधो वि ॥ १८ ॥ गुलो पुणा जो साधू, अप्पविधाराएँ याम गुप्तीए । Page #1174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्तायार अभिधानराजेन्सः । चरित्तारिय सो ण समिश्रोत्ति वुश्चति, तीसे तु वियाररूवचा॥३॥ मत्थखीणकसायवीयरायचरित्तारिया दुविहा पम्मत्ता । नि० ० १ उ० । स्था। तं जहा-सयंबुचबउमत्थखीणकसायवीतरागचरित्तारि(चारित्रातिचारे प्रायश्चित्तं 'पच्छित्त' शब्द बक्ष्यते) या , बुधबोहियचउमत्थखीणकसायवीतरायचरित्तारिया चरित्ताराहणा-चारित्राराधना-स्त्री० । “तिविदा चरिताराह| यासे किं तं सयंबुन उमत्थखीणकसायवीतरागचरित्ताणा पत्ता । तं जहा-नकोसा, मन्जिमा, जदया।" स्था०३ / रिया ? । सयंबुधबउमत्थलोणकसायवीतरागचरित्तारिग. ४० । या दुविधा पसत्ता । तं जहा-पढमसमयसयंबुघवीणचरित्तारिय-चारित्रार्य-पुं०। चारित्रेणायें, (प्रा.) कसायवीतरागचरित्तारिया, अपढमसमयसयंबुकबउमत्थतजेदाः खीणकसायवीतरागचरित्तारिया या अहवा-चरिमसमयसयंसे कितं चरित्तारिया । चरित्तारिया दुविहा परमत्ता। बुखरउमत्थखीणकसायवीतरागचरित्तारिया,अचरिमसमतं जहा-सरागचरित्तारिया, वीतरागचरित्तारिया। से किं तं सरागचरित्तारिया ? | सरागचरित्तारिया विहा पमत्ता। यतयंबुबग्उमत्थखीणकसायवीतरागचरित्तारिया य । सेतं सयंबुझछनमत्थरवीणकसायवीतरागचरित्तारिया ॥ से किं तं-जहा-मुहमसंपरायसरागचरित्तारिया य,वायरसंपरायसरागचरित्तारिया य । से किं तं मुहुमसंपरायसरागचरि तं बुदवोहियउउमत्थरखीणकसायवीतरागचरित्तारिया । बुकवोहियछनमत्यखीणकसायवीतरागचरित्तारिया दविहा त्तारिया ? । मुहुमसंपरायसरागचरित्तारिया दुविहा पर्यता। तं जहा-पढमसमयमुहुमसंपरायसरागचरित्नारिया , पसत्ता । तं जहा-पढमसमयबुद्धबोहियउउमत्यवीणकसायभपढमसमयसुहुमसंपरायसरागचरिचारिया य। अहवा-च वीतरागचरितारिया, अपढमसमयबुद्धवोहियछ उमस्यखीणरिमसमयमुहुमसंपरायसरागचरित्तारिया, अचरिमसमयसुहु कसायवीतरागचरित्तारिया य । अहवा-चरिमसमयबुकचोमसंपरायसरागचरित्तारिया य । अहवा-मुहुमसंपरायस हियरउमत्यखीणकसायवीतरागचरित्तारिया,अचरिमसमरागचरित्तारिया दुविहा पसत्ता । तं जहा-संकिलिस्समाणा यबुकवोहियग्नमत्थखीणकसायवीतरागचरित्तारिया य । सेत्तं बुकवोहियग्नमत्यखीणकसायवीतरागचरित्तारिया। य,विसुज्जमाणा य । सेत्तं मुहुमसंपरायसरागचरित्तारिया। से किं तं वायरसंपरायसरागचरित्तारिया। वायरसंपराय से उउमत्थखीएकसायवीतरागचरित्तारिया ॥ से किं तं सरागचरित्ताग्यिा दुविहा पमत्ता। तं जहा-पदमसमयबाय केवलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया ? । केवलिलीणरसंपरायसरागचरित्तारिया , अपढयसमयबायरसंपरायस कसायवीतरागचरित्तारिया दुविहा पसत्ता । तं जहा-सरागचरित्तारिया य । अहवा-चरिमसमयवायरसंपरायस जोगिकेवलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया , अजोगिकेरागचरित्तारिया अचरिमममयबायरसंपरायसरागचरित्ता- बलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया यासे किं तं सजोगिरिया य । महवा-वायरसंपरायसरागचरित्तारिया विहा | केबलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया ? । सजोगिकेवलिपपत्ता । तं जहा-पमिवाई य, अपमिवाई य । सेत्तं वायर-| खीणकसायचीतरागचरित्तारिया दुविहा पमत्ता। तं जहासंपरायचरित्तारिया । सेत्तं सरागचरित्तारिया।। से किं तं पढमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया , बीतरागचरित्तारिया। वीतरागचरित्तारिया दुविहा पसत्ता। अपढमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया तं जहा-उवमंतकसायवीतरागचरित्तारिया, खीणकसाय- य। अहवा-चरिमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागवीतरागचरित्तारिया यासे किं तं जवसंतकसायवीतरागच- चरित्तारिया य,अचरिमसमयसजोगिकेवलिखोणकसायवीरित्तारिया ? । उवसंतकसायवीतरागचरित्तारिया दुविहा तरागचरित्तारिया या सेत्तं सजोगिकेवानिखीणकसायवीतपहाता । तं जहा-पढमसमयउवसंतकसायवीतरागचरित्ता- रागचरित्तारिया ॥ से किं तं अजोगिकेवलिखीणकसायरिया , अपढमसमयनवसंतकसायवीतरागचरित्तारिया य । वीतरागचरित्तारिया ?। अजोगिकेवलिखीणकसायत्रीतराअहवा-चरिमसमयनवसंतकसायवीतरागचरिचारिया, अच- गचरितारिया विहा पएणत्ता । तं जहा-पढमसमयग्मिसमयमवसंतकसायवीतरागचरित्तारिया य । सेत्तं उव- जोगिकेवलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया य, अपढमसंतकसायवीतरागचरित्तारिया।।से किं तं खीणकसायवी- समयअजोगिकेबलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया य । तरागचरित्तारिया ? । खीणकसायवीतरागचरित्तारिया अहवा-चरिमसमयअजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागचदुविहा पसत्ता । तं जहा-उनमत्थरखीणकसायवीतरायच- रित्तारिया य, अचरिमसमयअजोगिकेवलिखीणकसायचीरित्तारिया, केवलिखीणकसायवीयरागचरित्तारिया य। से| तरायचरितारिया य । सेतं अजोगिकेवलिखीणकसायवीकिंतं उउमत्थखीणकसायवीयरागचरितारिया? उन- तरागचरित्तारिया । सेतं केवलिखीणकसायवीतरागचार Page #1175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५२) श्रभिधानराजेन्द्रः । चरितारिय चरियापरीसह तारिया । सेतं खीण कसायवीतरागचरितारिया । सेतं । नाति मसरसवसमाधिप्रत्ययरूपाभ्यामाकाराभ्यां न प्रयोजनं, तदा अनाजोग सहसा काराकारौ भवतः अङ्गुल्यादेरनाजोगेन सहसाकारेण वा मुखप्रक्षेपसंभवात् । अत एवेदमनाकारमप्युच्यते, आकारद्वयस्यापि परिहार्यत्वात् । ध० २ अधि० । पंचा० । भाव० । वीतरागचरितारिया || अहवा-चरितारिया पंचविदा पत्ता । तं जहा सामाय चरितारिया, जे प्रोत्रद्वावणीयचरितारिया, परिहारविसु विचरितारिया, सुडुमसंपरायचरिता रिया, अहक्खायचरितारिया य । से किं तं सामाइयचारितारिया ? | सामाइयचरितारिया दुविहा पत्ता । तं जहा - इस रियसामाइयचरितारिया, श्रावकहियसामाप्यचरितारिया य। सेतं सामाइयचरितारिया ।। से किं तं बेोवडावणीयचरित्तारिया || बेोवद्वावणीयचरितारिया दुविहा पत्ता | जहा - साइयारा बेोकावणीयचरित्तारिया, निरइयारा बेभोवद्यावणीयचारेत्तारिया । सेत्तं छेोवद्वावणीयचरिचारिया || से किं तं परिहारविसुवियचरित्तारिया । परिहारविसुवियच रित्तारिया दुविहा पएलत्ता । तं जहा - नि विस्समाणपरिहारविसुवियचरितारिया, निव्विडकाइयपरि हारविसुवियचरितारिया य । सेत्तं परिहारविसुद्धिश्रच - रित्तारिया || से किं तं सुहुमसंपरायचरितारिया ।। मुहुमसंपरायचरितारिया दुविहा पणत्ता । तं जहा - संकिलिस्समा - सुडुमसंपरायचरितारिया, विसुज्ऊमाणसुहुमसंपरायचरिरियाय । सेतं सुमसंपरायचरितारिया || से किं तं अक्खायचरितारिया १ । हक्खायचरितारिया दुविहा पघाता । तं जड़ा - छठमत्यग्रहक्खाय चरित्तारिया, केवलिक्खायचरितारिया य । सेत्तं श्रक्खायचरितारिया । सेत्तं चरितारिया । प्रज्ञा० १ पद । वरिति (ण्) - चारित्रिन् - त्रि• संयते, पं० ०१ द्वार। श्रनुः। चरिर्त्तद- चारित्रे - पुं । यथास्यातचारित्रे, स्था०३ ठा०१० ( व्याख्या 'इंद' शब्द द्वितीयभागे ५.३४ पृष्ठे उक्ता ) चरितोवधाय चारित्रोपघात - पुं० । समितिभङ्गादिभिश्चारित्रस्योपघाते, स्था० १० ठा० । चरिमपच्चक्खाण- चरममत्याख्यान- न० अन्तिमप्रत्याख्याने, चरमं चरिमोऽन्तिमो भागः। स च दिवसस्य, नवस्य चेति द्विधा । तद्वेिषयं प्रत्याख्यानमपि चरमं तच्च प्रत्याख्यानं च । इट् भवचरमं यावजीवंतत्र द्विविधेऽपि चत्वार श्राकारा भवन्ति । यत्सूत्रम्- "दि बसचरिमं भवचरिमं वा पश्चक्खाइ चउब्विहं पि श्राहारं श्र सणं पाणं खाइमं साइमं अन्नत्थाऽणाजोगेणं लहसागारणं मह तगारेण सव्वसमाहिबत्तिश्रागारेणं वोसिर । " ननु दिवसचरमप्रत्याख्यानं निष्फलम, एकाशनादिप्रत्याख्यानेनैव गतार्थत्वात् । नैवम् - एकाशनादिकं ह्यष्टाद्याकारमेव, एतच्च चतुराकारमत आकाराणां संकेपकरणात् सफल मेव, श्रत एवैकाशनादिकं दैवसिकमेव भवति, रात्रिनोजनस्य त्रिविधत्रिविधेन यावज्जीवं प्रत्याख्यातत्वात्; गृहस्थापेक्तया पुनरिदमादित्यो मान्तं दिवसस्याहोरात्रमिति पर्यायतयाऽपि दर्शनात् । तत्र येषां रात्रिभोजनं नियमोऽस्ति तेषामपि इदं सार्थकमनुवादत्वेन स्मारकत्वात् । भवचरमं तु द्व्याकारमपि भवाते, बड़ा जा For Private चरिमसगलसुयणाणि - चरमसकल श्रुतज्ञा निन्- त्रि० । चर मम पश्चिममित्यर्थः । सकलं कृत्स्नं, निरवशेषमित्यर्थः । पं००। ज्ञानं यस्य सः । भबाहुस्वामिनि, पं० भा० । चरिय-चरित - त्रि० । सेविते, प्रश्न• ३ भाभ० द्वार । चेष्टिते, पं० ६० ३ द्वार प्रश्न० । सत्ये उदाहरणे, तत् चरितमभिधीयते यदुसं, तेन कस्यचिद्दान्तिकार्थप्रतिपत्तिर्जन्यते । तद्यथादुःखाव निदानं यथा ब्रह्मदत्तस्य । दश० १ अ० | नं० । चरियन्त्र - चरितव्य - त्रि० । श्रासेवितव्ये, भ• ६० ३३४० । आ० म० । चरिया - चरिका - स्त्री० । नगरप्राकारयोरन्तरेष्वष्टहस्तप्रमाणे मार्गे, प्रश्न० १ प्रश्र० द्वार | झा० जी० रा० स० । अनु वृ० भ० | गृहप्राकारान्तरे इस्त्वादिप्रचारमार्गे, न० ५ श० ७ उ० । चर्या स्त्री० | 'चर' गतिप्रणयोः । " गमदचरमश्चानुपसर्गे ॥ ३|१|१००॥ (पाणि०) इत्यनेन कर्मणि भावे वा यत्प्रत्ययः । चर्यते चरणं वा चर्या आचा० १ भु० ५ म० १४० भाव० । ० चू० । गमने साधुना हि सति प्रयोजने युगमात्रदृष्टिना गन्तव्यम् । सू० १ ० १ ० ४ । प्रासादिष्वनियतविहारित्वे, ०२२ सम० । भिक्कादिके, सूत्र० १ ० ६ म० । चर्या रुव्यतो प्रामानुग्रामबिहरणात्मिका, भावतस्त्वेकस्थानमधितिष्ठतोऽप्यप्रतिबद्धता | प्रव० ०६ द्वार बाढ्ने, स्था० ४ ठा० ३ उ० । चरियापरी सह-चर्यापरीषह-पुं० चरणं चर्या प्रामानुप्रामविहरणात्मिका, सैव परीषहर्यापरीषदः । उत०२ श्र० । प्रश्न बर्जितानस्यो] प्रामनगरकुलादिषु अनियतवसतिर्निर्ममत्वः प्रतिमासं चर्यामाचरेदिति । श्रव० ४ श्र० । इत्येवंरीत्या प्रामान्तरादिष्वप्रतिबतया सञ्चरणकरणे, भ० ८ ० ८ ० । "प्रामाद्यनियतस्थायी, स्थानाबन्धविवर्जितः । चर्यामेोऽपि कुर्वीत विविधाभिग्रहैर्युतः ॥ " ध० ३ अधि०। " प्रामाद्यनियतस्थायी, सदा चाऽनियतालयः । विविधाभिप्रहैर्युक्त श्चर्यामेकोऽप्यधिश्रयेत् ॥ " आ०म० द्वि० | एतदेव सूत्रदाहएग एव चरे लाटे, अनिनूय परीसहे । गामे वा नगरे वा वि, निगमे वा रायहाणिए ॥ १८ ॥ एक एव रागद्वेषविरहितश्वरेदप्रतिवद्धविहारेण विहरेत्सहायवैकल्यतो चैकस्तथाविधगीतार्थः । यथोक्तम्- "ण वा लभिजा निढणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा । एको वि पावाएँ विवज्जयंतो, विहरेज कामेसु श्रसज्जमाणो ॥ " ( लाढे सि ) लाढयति प्रायुकैषणीयाहारेण साधुर्गुणैर्वा श्रात्मानं यापयतीति लाढः । प्रशंसानिधायि वा देशीपदमेतत पठ्यते (एग पत्र बरे लादेति तत्र चैकोऽसहायः प्रतिमाप्रतिपन्नादि ः, सबैको रागादिवैकल्यादभित्य निर्जित्य परीषहान् । क पुनश्वरेत, इत्याद Personal Use Only Page #1176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरियापरीसह ग्रामे चोकरूपे नगरे वा करविरहित, अपिः पूरणे, निगमे वा वणिनिवाले राजधान्यां या सिकायामुभयत्र क शब्दानुवृते मदताना पानाहेति सूत्रार्थः । पुनः प्रस्तुतमेवाह असमाणो परे भिक्खु, नेप कुल्ला परिगई । असंसत्तो गिइत्येहिं, अणिकेओ परिव्वए । न विद्यते समानोऽस्य गृहिण्यापासूनित्वेनान्यतीर्थिकेषु चानियतविहारादित्वेना समानोऽसदृशो, यद्वा-समानः साहङ्कारो, न तथेत्यसमानः । अथ वा- "समाणो त्ति" प्राकृतत्वादसन्निवासन् यत्राऽऽस्ते तत्राप्यसन्निहित इति हृदयम् । सन्निहितो हि सर्वः स्वाश्रयस्योदन्तमावहत्ययं तु न तथेत्येवंविधः संश्वप्रतिबद्धहानिया बिरे मितिः कस्यादि त्याह-नैव कुर्यात्परिग्रहं ग्रामादिषु ममत्वबुद्ध्यात्मकम, अत्राह च - "गामे कुले वा नगरे च देसे, ममं त्ति भावं न कहिंचि कुज्जा । " इति । इदमपि यथा स्यात्तथाऽऽह प्रसंसक्तोऽसंबद्धो गृहस्थैदिभिरनिकेतोऽविद्यमानगृह नेत्र बदास्पदः परिव्रजेत स तो वि न निदेशादी, गृहि संपर्क एकत्र यावे निदेशादिविहारिनायां या स्पादपि ममय तनावे तु निरवकाशमिति भाव इति सूत्रार्थः । 9 अत्र च शिष्यद्वारमनुसरन् " असमाणो बरे " इत्यादिसूत्रसूचितमुदाहरणमाह कोहरे वत्यत्रो, दत्तो सीसो य हिंमतो तस्स । उचर भाइ पिमं अंगुलिमा यसा दिव्वं ॥ उत्त० नि० १ खएम । (१९५३) अभिधानराजेन्द्रः । و ( कोलहरे) कोशहर मानि नगरे वास्तव्यः, प्राचार्य इति शेषः । दत्तः शिष्यश्च हिण्डकः, तस्य उपहरति धात्री पिएम अङ्गुलिज्वलनाच्च सा देव्यमिति गाथाऽक्करार्थः । भावार्थस्तु वृद्ध संप्रदायादवगन्तव्यः । स चायम्-कोल्लागपुरे सङ्गमस्थविरा बहुश्रुता यथास्थितोत्सर्गपवाद निपुणाः दुर्भिके गणं देशान्तरे श्रेय स्वयं नगरं नवनाय कृत्य व्यवस्थित नगरदेवता च तेषां : रजिता भन्दा त गुरुवन्दना र्थ दत्तनामा शिष्यः समायातः, तद्भक्त्यर्थं गुरवः सपात्रं साथै बावा निकाय गताः एकस्येभ्यस्य भ बासरे गृहीतः सदा रोदिति उपकरणे भ्यन्तरदोषोपशान्तिनं जाता, गुरवस्तद्गृदे गताः, चप्पुटिकाकरणपूर्वमा रुद बालेयुक्तम आचार्यतपस्तेजसा व्यन्तरो नष्टः, तुष्टास्तन्मातृपितृप्रभृतिस्वजनास्तेभ्यो मोदकादिकमाहारे मादाऽऽप्रदेश दयन्तः ते मोदकास्तस्यैव शिष्यस्य गुरुनिता स्वयं तु महावित्यः प्र तिक्रमणाऽवसरे तस्य शिष्यस्य विष्कदोषमालोचयेति गुरुजिस्म शिष्यः चिन्तयति-सी धात्रीपियमं सदा जुड़े मम स्पेयं कथयतीति चिन्तनसमये सद्भावनार्थ देवताका रं विकुर्वितं स भृशं बिभेति । गुरुं प्रति वक्ति - श्रहमत्र दूरस्थो विनेमि, गुरव प्राहुः पदि मत्समीपे स बक्ति घो रान्धकारे नाहमागन्तुं शक्नोमि । गुरुभिः थूत्कृतनिता स्वासीदर्शिता, तदुद्योतेन सोऽत्रायातः परं चिन्तयति-गुरवो 1 २८६ 3 चरियापचि 1 r. दीपक रक्षयन्ति एवं विस्वासी देवतया सपेटामिस्त जिवा हातस्वरूपेनिस्तस्य क्षेत्रनयाकरणादिकं स्व स्वरूपं प्रकाशितम् । यथा सङ्गमस्थविरैर्विहारकमापरपर्यायअपो उत्पासितः तथा मानत्वावस्थायामपि न वज्रागीकरणेनाऽपि चर्यापरीषहोऽन्यैरध्यासितव्यः । उत्त० २ अ० । ( 'परीसह' शब्देऽन्यद् प्रष्टव्यम् ) दरियापरीसह विजय र्यापरीविजय पुं० अधिगतबन्ध मोकृतत्वस्य पवनयधिः सङ्गतामादधानस्य देशाप्रमाणपेत संयमविरोधिमार्गगमनं प्रतिमासमागमानुसारेण - स्वमाचरतः परुषश के कटकादिधारणस्यापि सतः पूर्वतयानानादिगमनास्मरणे, पं० [सं०] ४ द्वार चरियापविट्ठ-चरिकाप्रविष्ट - त्रि० । अनिनिचारिका निमित्तं व जिकादिषु प्रविष्टे (०) 1 बहवे साहम्मिया इच्छेजा एगयओ अभिणिचारियं चारण, यो एई कप घेरे अच्छा एगयतो अनिनिचारि चारए० जाव एवं घेरे पुच्छिता एगयतो भिणिचारियं चारए, से अंतरा ए वा परिहारे वा ।। १८ ।। व्य० सू० । बहवस्त्रिप्रनृतिकाः साधर्मिकाः साम्भागिकाः, इच्छेयुरेकतः सहिता इत्यर्थः । श्रभिनिचारिकाः - श्रभिमुख्येन नियता चरिका सूत्रोपदेशेन बहुवर्जिकासु दुर्बलानामप्यायनिमित्तं पूर्वाह्णे काले समुत्कृष्टं समुदानं लब्धुं गमनं अभिनिवारिका, तां चरितुं समाचरितुं कर्तुमित्यर्थः । एवमेतेषामिच्छतां कल्पते नो " एवं "प्रति वाक्याद्वारे स्थविरान् भार्यागना एकता संहतानामभिनिवारकां चरितुं यदि पुन स्थविरान् अनापृच्च व्रजन्ति ततः प्रायश्चित्तं मासलघु, स्वच्छन्दारिया पाहणादेवं परिपूर्णपाठो - "मेरे तो अभिनिवारियार, घेराव से परे एवं अभिनिवारियं चारण, धेरा य से नो वियरेजा. एवं एदं नो कप्पर एगतो श्रभिनिचारियं चारए, जं तत्थ थेरोह अवितिएणे एगतो अभिनिवारियं चरंति से अंतरा के वा, परिहारे वा । " अस्य व्याख्या यत एवं स्वच्छन्द चारितायां मातघु तस्मात् कल्पते "एहं” इति पूर्ववतू स्थबिराना तो नारिकां परिमा मपि कृतायां यदि स्थविरा वितरेयुरनुजानीयुः" इति प्रायत् करपते अभिनिवारिक परिस्थविराध न बितरेननुजानीयुः प्रत्यपायं पश्यन्तः, प्रयोजनाभावतो वा, ततो न कल्पते एकतोमनिचारिकां चरितुं यत्पुनस्तत्रं स्थ अननुहाएकोऽनिनिवारियर तनिमितं से पां प्रत्येकमन्तरात्, अन्तरं नाम तस्मात्स्थानादप्रतिक्रमणं तस्मात् छेदः, परिहारो वा उपलक्षणमतदन्या तपः प्रायश्चित्त मिति । व्य० ४ ० । चरियापविट्ठे भिक्खु०जाव चनराया पंचरायातो थेरा पासेज्जा से चैव श्राह्माणा से चैव परिक्कमणा, से चैत्र उग्गहस्स पुत्राणा चिति श्रहानंदमवि जाव उग्गहे ॥ १८५ ॥ "रयापविट्टे भिक्" इत्यादि सरिकानिमित्त का Page #1177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५४) अभिधानराजेन्द्रः । चरियापविड 1 कुत्रपश्येदिति चेत् 3 दिषु प्रविष्टास्तेषामेकतमं परिगृह्येदमुच्यते खरिकाप्रविष्टो भि सूर्यापरिमाणावचारणे ततोऽर्थ एकराचं द्विरा रात्रं चतूरात्रं पञ्चरात्रं यावत् व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरिति द्वितीयमायादिति व्यस्पश्ये पते अनिनिचारिकां गन्तुमुक लोऽपि नाचायें यत्र संदेशको सहमि तानां सेवालोचनानि या अन्यस्मात् गणादामनपसं पद्यमानेन वितीर्णा, तदेव च प्रतिक्रमणं यदवसन्नादागत्य त स्मिन् गच्छे उपसंपलेन तस्मात् सैव चावग्रहणस्य पूर्वाऽनुज्ञापना तिष्ठति, या अन्यस्मात् गणादागतेनोपपद्यमानेन साधमिकावग्रहस्यानुज्ञापना कृता यथाबा दो संगायन केवलं यथाकालं किन्तु चिर मपि यथाकालं यावत् ततो गच्छात्तस्य जावो न विपरिणमति, तावदवग्रहः, श्रवग्रहस्य सैव पूर्वाऽनुज्ञापना तिष्ठति । एत तो यादमालोचना प्रतिक्रमणं व्यम् । व्य० ४ उ० । - चरिया भिक्खू परं चनराया पंचरायाओ येरे पा सेज्जा, पुणो सोज्जा, पुणो पढिक्कमेज्जा, पुणो य परिहारस्स उपाएमा निक्कुभावस्स अडाए दो पिउ सिया कप्पड़ से एवं वदिन अणुजाराइ ते मितोम्ब अहादेवं नियतं च्छट्टि ततो पच्छा कायसंफासं, एवं नियट्टे वि दो गमा ॥ २० ॥ चरकः परं चतूराद्वापि व्या शेषप्रतिपत्तिस्तत इदं द्रष्टव्यम्-यदि तस्य भावो विपरिणतो यथा कोऽत्र स्थास्यति इति, ततश्चतूरात्रात् पञ्चरात्राद्वा भारतः प रतो वा स्थविरान् पश्येत्, पुनरपि न तस्य भावो जातो यथा तिष्ठास्यत्रतत्रैयोपसंपदा तथा प्रथमोपसंपदोष पुनरालो तू पुनः प्रतिक्रामेत, पुनरदेदस्य परिवारस्य या उपतिष्ठेत् । किमु जयति विपरिते परि वा भावे य आपनं प्रायश्चित्तस्थानं तस्मिन् श्राबोचितेय आचार्येण वेदः परिहारों या निर्दिदुस्तस्य सम्यकात्तस्य कारणार्थमयु सिष्ठेत् पिपास्प आज्ञाया अर्थाय पात्रातरं नाव स्य निस्यार्थाय मे यथास्थितं त्वं भूषादित्येवमर्थः द्वितीयमपि वामप्रदोऽनुज्ञातयः स्यात् कथमित्याह धनु जानीत मदत ! परम कल्याणयोगिन् मित गमनादीनामुपलकणं, मितं गमनं मितमवस्थानं मितं स्थाननिपदत्वादि अनुजानीत यथालबधाका पद श्यं कर्तनियतावश्यमापन नि यतं यावत्सहायान लभे तावदवश्यमनुष्ठेयम्; तथा व्यावृत्तम् । किमुतानृत्य पापाप्रति तत् मनुजानीत, ततो गुरुणा अभ्युपगते कायस्य क्रमयुगलवणस्य शि रसा संस्पर्श करोति । अथवा कृतिकम्मी निम यः कायसंस्पर्शस्तमध्यनुजानीत एवं विदो गा इति । एवमनुना प्रकारेण यथा चरिकाप्रविष्टौ गमाको सूत्रे तथा चरिकनिवृत्रपि श्री गो तोमपरियनिपट्टे निक्खु जान बच पंचरावतो धेरे चरियापवि पासेजा, स चेत्र प्राज्ञोपणा, स चेत्र पमिकमा स देव उग्गहस्स पुन्त्राएलवणा चिट्ठति अहालंदमवि उग्गहे || चरियानियट्टे निक्खु परं चनरायपंचायातो घेरे पासेज्जा पुणो आलोइज्मा, पुणो पारकमेता, पुणो देवस्त्र परिहा रस्स वा जबडाएज्ज, जिक्खुनावस्स अट्ठाए दोच्चं पि नग्गहे अमिया, अनुजाण नंते! मितोग्गडं अहासंद पूर्व नियनिच्छविहियं ततो पच्छा कायफासामेति ॥ अस्य सूत्रद्वयस्याप्यथेः स एव यकारिकाप्रविएसूत्रद्वयस्य, 3 किमनयोरुपादानं चरिकाप्रविष्टसूत्राभ्यामेव गता र्थत्वात् । तथाहि यैव चरिकाप्रविष्टानां सामाचारी सैव चरिकातो निवृत्तानामपीति । सत्यमेतत् केवलमनुच्चारित निवृत्तसूत्रये च चरिकाप्रविष्टानां सामाचार से परितोि वृत्तानामपीति न लभ्यते, सूत्रेऽनुपासत्वात् किं त्वन्यत्किमपि कल्पेत ततः कल्पान्तरं मा भूदिति सूत्रद्वयमपि सूत्रपञ्चकसंकेपार्थः । संप्रति नाप्यद्विपमपद विवरणं चिकीर्षुः प्रथमतोरिकाप्रविष्ठाय मतिं "जाय चतरापंचरायतो थेरे पासेजा" इति तद्उपाध्यानार्थमाह पंचाणं पुण, बलकरणं होई पंचहि दिणेहिं । गगतिपथगा आस य विज्ञासाए ॥ " सूत्रे " जाव चउराय पंचरायाश्रो ” इत्यत्र यत् पञ्चाग्रहणं पुनर्विशेषतः कृतमाचार्येण पुनःशब्दो विशेषे, ततः पञ्चनिर्दिनैर्बल करणं भवतीति ज्ञापनार्थम् । उक्तं च- "एगपणगरूमासं, स ही सुणमयगोरीं। अथ पञ्चभिर्दिनैः कथमपियन भवतीति ततो द्वितीयमपि पञ्चाहं यावत् । तथाचाह-एक द्वित्रि 66 दिवानां समाधित्य विषयाविकल्पेन दवाडी यात्री या यावदित्येवंरूपेण सूत्रे चैवं पञ्चरात्रग्रहणमुपव्याख्यानतो विशेषपरितो न भाग्यसूत्रयोर्वरोधः । संप्रति स शेष लोपणे "त्यादिपव्याख्यानार्थमादउपसंषज्जमान, जा दत्ताऽऽलोयणा पुरा । अवसन्नेहि आगम्म, पमिकंतो उ जावतो || जायगुणा, कया साहम्मितम् । संभावणाएँ सासंद, जा भावो वत्तती ॥ याम्यमाणादागतेनोपसंयमानेनाऽऽलोचना पुरा दत्ता च तिष्ठति यच पूर्वमवसभ्य भागम्य भावतः प्रतिक्रान्तस्त देव प्रतिक्रमणं तिष्ठति, या च पूर्वमन्यस्मात् गणादागतेन साधर्मकामस्यानुापना कृता चैव सिद्धति "मादम" इत्यत्र योऽपिशब्दः तस्यार्थः सा च एषा न केवलं सावन्तं का किंतु विरमपि कार्म यात्राऽधिकृत स्थापितायत् सेवावप्रस्यानुमापना तिष्ठति । बधामा सेवालोचना, तदेव च प्रतिक्रमणमपि अधुना द्वितीये परिकाप्रविस्त्रे यम" परं - पंचायतो इत्यादि, तयाच्यानार्थमाह । परं परिणते जावे, परितो उ सो पुणो । न चोत्रसंपयाए व तत्थाऽऽलाए पक्किमे ।। " Page #1178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्स:। चरियापविट्ठ "परं चउरायपंचरायातो" इत्यत्र परमिति व्याख्यानतो वि. अधुना “येउट्टियं" इत्यस्य भावार्थ कथयतिशेषप्रतिपत्तिः । ततोऽयमर्थः-परिणते गच्चगन्मया निमित दिवसे दिवसे वेन-हिया उपक्खे य बंदणादीसु । वमित्येवं परिणते भावे, अत एव गच्तात्परिभूतः सन् पट्ठवणमादिएमुं, उववायपमिच्छणा वहुधा ।। चतूगत्रात्पश्चरात्राद्वा परत प्रारतो का स्थविरान् पश्येत, भावश्च पुनर्गच्छावस्थायितया यदि प्रत्यावृत्तोऽजायत ततः स दिवसे दिवसे, प्रतिदिवलमित्यर्थः । पक्के पाक्तिकदिने, चशपुनर्भूयो न चोपसंपदीव तत्प्रथमतयोपसंपदीव तत्र तेषु दाचातुर्मासिकदिने, सांवत्सरिकदिने च,बन्दनादिषु,आदिशस्थविरषु पार्वे पालोचयेत्, प्रतिक्रामेश्च । ब्दात् क्षामणकादिपरिग्रहः । तथा प्रस्थापनादिषु स्वाध्याय. जइ पुग्ण किंचापलो, तस्स उ आलोइउं उवहाति । पस्थापनादिषु, अत्रादिशब्दात् उद्देशसमुद्देशादिपरिग्रहः । विपरिणयम्मि जावे, एमेव अविप्परिणयम्मि॥ यवधा भनेकप्रकारमुपपातप्रतिच्छन्नं तदनुजानीत । विपरिणते भावे यदि किश्चित प्रायश्चित्तस्थानमापन्नः, तस्य सम्प्रति " कायसंफासं" इति व्याख्यानार्थमाहप्रथमत मालोचयितुमालोचनां दातुमाचार्याणामुपतिष्ठते,पवमे भन्नुवगए न गुरुणा, सिरेण संफुसति तस्स कमजुयलं । व अविपरिणतेऽपि यम किमुक्तं नवति ?-अविपरिण कितिकम्ममादिएमु य, नितीनते य जे फामा ॥ तेऽपि जावे यदि किञ्चिदापनः प्रायश्चित्तस्थानं ततः सूत्रा- अनुशापनायां कृतायां गुरुणाऽज्युपगते दृष्टः सन् तस्य गुरोः एयालोचयति, रवमाचार्याणामुपतिष्ठते, ततो विपरिणत अवि- क्रमयुगलमात्मीयेन शिरमा संस्पृशति, प्रणमतीत्यर्थः । तदेवं परिणते वा भावे प्रायश्चित्तस्थानापत्तावालोचितायामाचार्य- ततःपश्चात्कायसंस्पर्श कुरुते इति व्याख्येयम् । अथवाऽयमर्थःय छदं परिदारं वा प्रयच्छन्ति । तस्य श्रकापूर्वकं कारणाया- ततः पश्चात्कायसंस्पर्शमनुज्ञापयति । तथा चाह-कृतिकर्मादिभ्युत्तिष्ठति। पुरुतिकर्म चन्दनकं, विश्रामणादिकं वा, मादिशब्दात्क्षाम"भिक्खुनावस्स अघाए" इत्यत्र पागन्तरम्-"भिक्ख णादिपरिग्रहः, तेषु कर्तव्येष्वागच्छति गच्छति वा ये स्पर्शाः ग्ववायस्स अछाप"शति । तत्रोपपातशब्द कायस्पर्शाः, तान्, भनुजानीतति वाक्यशेषः । व्याख्यानार्थमाह-- सम्प्रति यत्पागन्तरं "निक्खुजावस्सेति" तद्याख्यानार्थमाहनववाो निद्देसो, आशा विणो य होंति एगा। जिक्खूभावो सारण-वारणपफिनोयाणा जहा पुदि । तस्सट्टाए पुणरवि, मितोगगहोबासगाडामा !! तह चेव इयाणि पी, निम्जुन मुद्धका-सा ।। सपपातो निर्देश आज्ञा विनय इत्येतानि जवन्त्येकार्थानि, ततोऽयमर्थः-निक्षुस्तस्योपपातस्य आझाया अर्थाय करणाय त्रिशुनावो नाम सारणा, वारणा, प्रतिचोदना। अत्र प्रति चोदनांगहाणं चोदनाया उपकणं, तत्र विस्मृतेऽर्थे स्मारणा, पुनरपि द्वितीयमपि वारं मितावग्रहानुना । किमुक्तं भवति - अन्नाचारस्थ प्रतिषधनं धारणा, स्वाक्षतस्य पुनः शिकणं चोमिता चासावनुझा, एतेन मितावाहपदव्यास्थानं कृतम्। मितावरणं सूत्रे मितगमनादीनामुपलक्षणमतस्तदुप दमा, पुन पुनः स्ववितस्य निर्व शिक्षापणं प्रतिचोदना । पतानियथावस्थितो भिकुभाव उपजायते, ततः कारण का. दर्शयति यांपचारादेता एव निकुभाव इत्युक्तं तदायति । किमुक्त मितगमणचेछणातो, मियाना भियं च जोयणं भंते!। जवति?-यथा पूर्वमेताः स्मारणादय श्रासी रन् तथा इदानीममक दुवं अजाणह, जा य धुवा गच्छमनाया ॥ । पिस्यरित्येवमर्थः, तदेवं कृता विषमपदव्याख्या जायकृता, मितं गमनं,प्रयोजनवशतः तःकरणात मितम. (चिहणत्ति साम्प्रतमेषा वक्ष्यमाणा सूत्रस्य स्पर्शिका नियुक्तिः। अवस्थान से तस्य यत् प्रवृत्ततया विश्रामनिमित्तं, तस्य कि तामेव प्रथमसाधर्मिकसूत्रविषयामाहयत्कालं भावात, पितं भाषितं, कार्य समापतिते तस्यावरूर आकियो सो गच्छो, मुहदुक्खपच्चिएहिँ सीसेहिं । भावात्,मितं भोजनम्,पककुक्षिपूरणमात्रस्य जगवताऽनुशानात्। नदन्त ! परमकव्यागयोगिन् ! मम ध्रुवमनुजानीत, या च ध्रुवा दुननखमगगिलाणे, निम्गमसंदेसकहणे य॥ गच्छमर्यादा,तामप्यनुजानात यह ध्रुवं नियत नैस्विकमिति त्रयो- बहवः सार्धाम्नका इच्छेयुरेकतो अभिनिचारिकां चरितुमि. ऽप्येकार्थाः, तथाऽप्यर्थ नेदोऽस्ति, तत्र या ध्रुवा गच्छमर्यादेत्या त्युक्तम् तत्र पर आह-केन कारणेन तेषां निगमेच्छा । नियक्तिनेन धूवशब्दार्थो व्याख्यातो, धुवमवश्यकरणीयमिति ।। कृदाह-सुखपुःखप्रतीच्चिकैः सुखदुःखार्थमुपसंपन्नैः प्रतीचिकैः संभ्रति निस्तनैश्चयिकशब्दज्याख्यानार्थमाह शिष्यैश्च स गच्च बाकीर्णः समाकुत्रः, आकीर्णत्वेन च सन गरे स्थितोऽन्यत्र स्थितानामेषणीयभक्तपानासंभवात् , तत्र च तृनिययं च न हाविस्म, अहमवि श्रोहाणिया इजा मेरा। तीयस्यां पौरुष्यां जिक्षावला, चिरं च हिण्डितव्यं, धान्याम्सनिचं जाव सहाए, न लभामिइहावसे ताव || कारादिकं च तत्र नक, ततः केचित्साधयो दुर्बला जाताः, यावदवधावनिका मर्यादा तावदहमपि नियतं न हापयिष्या- कपका अपि पारण के प्रायोग्यालाभतो दुर्वला अभवन् , म्यवश्यकरणीयम्। किमुक्तं भवति ?-नियतमवधावनमर्यादातो. ग्लाना अप्यधुनोत्थिताः सीदन्ति,एतैःकारणैर्निगन्तुमिच्छन्ति। अवश्यमहापनीयमिति । तथा नित्यमिति कोऽर्थः-यावलहाया- दृष्ट्वा चाचार्य पृच्छन्ति, ते चाचार्येण तान् दुर्बवान् ज्ञात्वा मुमलने तावदिहावस्लामीति, सहायलाभमर्यादाकमावसनं या- कलनीयाः,ये पुनर्निष्कारणं गन्तुकामा आपृच्चन्ति ते न मुत्कबदवश्यमनुष्ठेचं, नित्यमित्यर्थः । बनीयाः, ये चानुशाता व्रजतेति तेषामाचार्यः संदेशं कथयति । Page #1179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरिवापविद्व कथमित्याह अहमवि हामो वा असत्य इहेव मं मिलिज्जाह । श्रतिदुबले य नाडं, विसज्जणा नत्थि इतरेसिं ॥ यत्र यूवं गमिष्यथ अहमपि श्तः स्थानात् तत्र एष्यामि श्रागमिष्यामि । अथवा अन्यत्र मम सकाशे आगन्तव्यम्, यदि या मां पूर्व माया दियते तथा तैः क व्यम् बाध्यता इत्वा तेषां विसर्जनामु कलेन कर्त्तव्या इतरेषां निष्कारणं गन्तुमनसां विसर्जना नास्ति। पतेन वितरणमवितरणं च सूत्रोपासं व्याख्यातम् । तंत्र भामास दोषणापुच्छा। उओगे नहि सुना, साइसखीहित्ये ॥ ( १९५६ ) अभिधानराजेन्द्रः । 9 यदि निर्मन्तुनोऽपृच्छया जन्ति तदा प्रायधि मासलघु पृथ्ायामपि कृतायां यदेव पूर्वभणितं तदेचाधिकृत्य गम नकाले द्वितीयं पारमापृच्छा कर्त्तव्या यदि पुनर्द्धिती बारं नापृच्छन्ति तदाऽपि प्रायश्चित्तं मासलपु किं कारणं द्वितीयमि बारमापृच्छा कर्त्तव्यो चेत आह-उपओगे" इत्यादि । यदा पूर्वमा सार्योऽनुपयुक्त आसीत पचादुपयुक्तत उपयुक्तेन च तत्राशिवादयो दोषा ज्ञाताः । अथवा - ( सुणण सि पचादाचार्येण विचारादिनिमित्तं हितेन तं यथा-तत्र बहवो दोषा इति, यदि वा साधुना केनापि संशिना श्रावण गृहस्थेन वा, केन वा मिध्यादृष्टिना नम्रकेण कथितमाचार्याणाम, यथा-तत्र बहवो दोषा इति, तस्मात् द्वितीयवारमवश्यं प्रष्टव्यं च्यां च कृतायां यद्यपि तत्र न चापि दोषा भाचार्येण विज्ञातास्तथाऽपि तत्र प्रत्युकाः पूर्व प्रेपणीयाः । " तथा चाह- नाऊणय निरगमणं, पमिलेहण सुलभ दुल्लनं जिक्खं । जे गुणा आपुच्छा, जे वि य दोसा अणापुच्छा ॥ तेषां साधूनां निर्गमनं ज्ञात्वाऽऽचार्येण साधुनिस्तस्य क्षेत्रस्य प्रतिलेखनं कारयितव्यं येन सुबनं दुर्जनं वा नैकं ज्ञायते । किं च ये गुणाद्वितीयवरमापृच्छायां भवन्ति ते प्रतिलेखनेऽपि द्र टव्याः येऽपि च दोषा द्वितीयवारमनापृच्छायां ते दोषा अप्र स्युपेक्षणेऽचि के ते ? . इत्याद पञ्चंत सावयाई, तेला दुब्भिक्ख तावसीतो य । निवगपचिकाणा, पफुडणा हरियाणी य । " प्रत्यन्ताः समावर्ति लोकानामुपलवोत्पादनायोस्थितापते खपदानि व्याघ्रादीन्यपान्तराने सन्ति तेना वा शरीरापहारिण उपध्यपहारिणो वा समन्तत उत्थिताः, 5भिकं वा तत्र जातं, तापस्यो वा प्रचुरासात्र भूयस्यो ब्रह्म. चर्योपद्रवाय प्रभवन्ति, निजका वा अभिनवप्रव्रजितं साधुप्रविशेवा तत्र सिपस्थितः (उ) रूसित वा स कदाचित् दोषो भवेत् ( फप्फुडण ति) या वसतिः प्रागासीत् सा केनचिदपनीता स्यात्, (हरितपनीयति ) तब दुर्भिक्षप्रायमतः शाकादिहरिनं बाह ल्येन जयते, तश्च साधूनामकल्पम् । श्रथवा " हरितपपीति" नाम-तत्र देशे केषुचित गृहेषु राज्ञा दमं दवा देव तत्र , साथै वय पुरुषो मातेस "गृहस्वोपरि केतो विनश्यतीति । चरियापवि जितादितिप्रविष्टः सन् क्रियते, "तागृहीत संप्रति परिकाविद्यादिसूत्राणां चतुर्णामपि सामान्यतो नियुचिमाह त्यतत्व विष्परिणतेय गेलले हो चटजंगो । किमियागतागतेय, पुछा पुणे वा दोषं ॥ 1 1 अन्यत्र चरिकाप्रवेशे तत्र चरिकातो निवृत्तौ विपरिणते विपरि णामे नाते यदाऽऽभवति यश्च न भवति, तेषां तद्वव्यमिति शेषः । तथान्येान भवति तु तस्यां चतुयामये चणादी याति प्रायश्चित्तं तद्वाच्यमित्युपकारः तथा रिफडिताः त्रिपरिणताः तेषां गतागतेषु आचार्यस्य समीपमा गता इत्येवंरूपेषु यावत्तं कालमधिकृताः तस्मिन अपूर्णे पूर्णे वा यदि द्वितीयमपि वारम् श्रवग्रहमनुज्ञापयति ततो यदि परिणतेयं तदाचायों न बनते, किंतु यदा तेषां तथारूपं चित्तमजायत, यथा- द्वितीयमपि वारमवग्रहमनुज्ञापयामः, ततः प्रभृति यल्लब्धं तदाचार्यस्याऽऽभवति । एष गाथार्थः । साम्प्रतमन्यत्र तत्र वा विपरिणते यत् माभाग्यं दर्शयतिव्यवरोपरस्स निस्सं, जइ खल मुद्ददुर्वखया करेज्यादि । ग्रहन्तर सेहं, अति गुरू पुणो न लभई य ।। , यदि चरिकाप्रविष्टा यदि चरकात निवृता विपरिणामे क मस्माकमाचार्येण दमेव परस्परं सुखदुःखनिय कुर्महत्येयं रूपे जाते अपरस्परस्य परस्परं सुखदुखकु तदा यावानवधिः कृतस्तस्याभ्यन्तरे तस्मिन्नपूर्णे पूर्णे वा यत् शेकं पदमुपलभूत चितादिकमुपाद तेषामेव भवति, गुरुराचार्य पुनने लगते, वस्तूति-मर्थ " हट्टण " इत्यादिना व्याख्यास्यति । तदेवं तत्राभ्यत्र विपरिणते इति भावितम् । गेस इदानीं " गेलवे दोर चडभंगो " इति भावयतिगो, तेर्सि अवा वि होल आगरिए । दोहं पी होज्जादी, अहव न होज्जाहि दोएदं पि ॥ ग्लाये चतुर्भङ्गरितानां महानो नाचार्यस्य इति प्रथमो भङ्गः अथवा श्राचायें प्राचार्य तिम्लानो न तेषामिति द्वितीयः "दोष पि होनाहीत" दयानां विपरिणतानामाचार्यस्य जयति ज्ञान इति तृतीयः । अथ द्वयानामपि न भवति ग्लान इति चतुर्थः ! अत्र प्रायधितविधिमाह- आयरिऍ अपेसेंते, बहुओ करेंते च गुरू होंति । परितावणादिदोसा, तेसिं अप्पेस एवं ॥ प्रथमभङ्गे तेषां ग्वानो नाचार्यस्येत्येवंरूपे, यद्याचार्यो गवेषणया कमपि प्राय लघुको मासः । अथ प्रेषणे ते कथिते यदि म्लानकृत्यं न किमपि करोति तद तस्मिति चत्वारो गुरुका भवन्ति येऽपि चानागाढपरितापनादयो दोषास्तनिमित्तमपि च गुरुच्यादि चरमपर्यन्तं तस्य प्रायश्चित्तमापद्यते । द्वितीये नङ्गे आचार्यस्य ग्लानो, न तेषामित्येवंरूपे, तैरपि ग्लानस्य गवेषणाय साधुप्रेषणा Page #1180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरियापविट्ठ निधानराजेन्द्रः। चरियापविट्ठ दिकर्तव्यम,यदि पुनर्न कुर्वन्ति तदा तेषामप्यप्रेषणे,उपलक्कण. पच्छा पुणो वि जातो, नभंति दोच्चं अणवणा ॥ मेतदकरणेन एवमुक्तप्रकारेण प्रायाश्चित्तमवसातव्यम् । तथाहियदि ते गवेषणाय साधुसंघाटन प्रेषयन्ति तदामासलघु, मथ यदि पुनस्ते पृष्टाः सन्तो ब्रुवते-एतद्विपरिणते भावेऽस्माभिर्मकृतेऽपि प्रेषणे आचार्येण वा झापिते यदि ग्लानकृत्यं न कुर्वन्ति | गधं, तत्तेषामेव, नाचार्यस्य, अथ पश्चात्पुनरपि भावो जातोद्वितदा चत्वारो गुरुकाः प्रायश्चित्तम् । तीयमपि वारमवग्रहस्यानुशापना कर्तव्या, तदा तथारूपाद्भांअहवा दोएह वि हुज्जा, संयरमाणेहि तह वि गवेसणया । पात् ज्ञातादारतो यत्ते लजन्ते तदाऽऽचार्यस्य भवति, न ते षामिति । तं चेव य पच्चित्तं, असंथरंता नवे मुछा ।। अथवा द्वयानामपि आचार्यस्य तेषां च, प्रत्येक ग्लानो नवेत्, प्रागयमणागयाणं, नउबके सो विही उजो भणितो। तथाऽपि यदि संस्तरन्ति ततः संस्तरद्भिः परस्परं ग्लानस्य ग अच्छाण सीसगम्मि वि, एस विही पट्टिएँ विदेसं ॥ वेषणा करीन्या । भथ न कुर्वन्ति तदा तदेव प्रायश्चित्तं यदन-1 य एषोऽनन्तरमुक्तो विधिः स एव ऋतुबके काले भागतानां न्तरमुक्तम् । तथादि-परस्परमप्रेषको मासलघु, ग्नानकृत्याकरणे । चरिकातो निवृत्तानामनागतानां चरिकाप्रविधानामवसेयः। एप चतुर्गुरुकम । अथ द्वयेऽपि प्रत्येक न संस्तरन्ति,दयानामपि च पुनर्वदयमाणो विधिर्विदशं प्रस्थिते, उपलकणमेतत् स्वदेशेप्रत्येकं ग्लानस्तत माह-प्रसंस्तरंतो गवेषणोद्यकुर्वन्तोऽपि पि रं गन्तुकामे मध्वशीर्षके ग्रामे स्थिते वेदितव्यः। प्रवन्ति गुमान प्रायश्चित्तविषयाः। तमेवाहसम्प्रति "गुरुपुरणेण लभते च" इत्यत्र चशम्दसू- सत्येणं साझंव, गयागयाण इह मग्गणा हो। चितमर्थमुपदर्शति तत्थाऽन्नत्थ गिलाणे, सह गुरु सद्गा चरिम जाव । इट्ठणं न गविष्टा, भतरतों ण ते य विप्परिणयाभो। सार्थेन सह विदेशेऽपि वा दूरं गन्तुकामा साबम्बं गता यथातत्थ वि न लहइ सेहे, बना य कजे विपारणया वि।।। पदि अश्वशीर्षके ग्रामे परतो गमनाय सार्थ अपस्यामहे ततो ते सुबासोपसंपन्नकाश्चरिकागता भतरन्तो यदि कथमप्या- पास्यामः, अथ न बस्यामः,उदन्तं च परस्परं वक्ष्यामः। एवं ये चार्यण हुऐन नीरोगेण,प्रयोजनान्तराव्याकुलितेन च सता.नाग-1 सान सहाध्वशीर्षके ग्रामे गताः,येचन गतास्तेषामिहानवेषिताः,अतरन्तोन च ते विपरिणताः-यथा वयमतरन्तो वतामहे वत्वनाभवति सचित्तादी विषये मार्गणा पक्ष्यमाणा भवति, तथाऽप्याचार्येण न गवेषितास्ततः किमस्माकमाचार्येणेति,त तथा तत्रान्यत्र च ग्लाने चतुर्भङ्गी भवति । तद्यथा-अन्यत्राभ्वत्रापिहष्टनागवेषणेऽपि, पास्तां परस्परनिश्रायामित्यपिशब्दार्थः, शीर्षके ग्रामे स्थितानां ग्लानो न तत्र श्राचार्यपाश्र्वे न तेषामिन लजते गुरुः शैक्षात्, किमुक्तं भवति-ते तथा विपरिणताःसन्तो ति द्वितीयः। द्वयानामपि पार्वे ग्लान इति तृतीयः। न दयानामबत्सचित्तादिकमुत्पादयन्ति तदाचार्यों न लजते । अथ कायें पीति चतुर्थः। तत्र यद्याचार्यस्तेषां गवेषणं न करोति मासलघु, कस्मिश्रपि व्याकुलीभवनेन आचार्येण तेऽतरन्तो न गवेषिता. मथ काते ग्लाने तस्य कृत्यकरणाय न यत्नमाधत्ते ततश्चतुर्गुस्तर्हि यद्यपि ते विपरिणता भपि यत्ते सचित्तादिकमुत्पाद- रुकं, यच्चानागाढपरितापनादिनिमित्तं चतुर्बध्वादि यावच्चरम यन्ति, तत्ते न लभन्ते, किंतु लभते प्राचार्यः । पाराश्चितं तदपि प्राप्नोति । तदेवं प्रथमजङ्गे प्रागनिहितमपि प्रायश्चित्तं विनेयजनानुग्रहाय भूय उक्तम्, एवं द्वितीय तृतीयेसऊं अविष्परिणते, कहिंति नावम्मि विप्परियणाम्म । ऽपि भने वाच्यम् । इति मायाए गुरुओ, सच्चित्तादेसगुरुया वा ।। संप्रत्याभवत्यनाभवति च सचित्तादौ विषये मार्गणां यदि अविपरिणते भावे सचित्तादिलनवा विपरिणम्य कथय चिकीर्षुराहन्ति-इदं विपरिणते भावेऽस्माभिलब्धमिति तदा 'मायाए' उप पाहो व अपुछे वा, विपरिणए जा हो अणुलवणा। संपदं लोपयन्तीति मायानिष्पन्नं प्रायश्चित्तं गुरुको मासः । अचित्ते समुत्पादिते तत्प्रत्ययमुपधिनिष्पन्नं प्रायश्चित्तं, सचित्ते गुरुणा वि हु कायव्या, संका लदे विपरिणते उ॥ समुत्पादिते तत्प्रत्ययं चतुर्गुरुकमादेशान्तरेण प्रायश्चित्तमन- यतो विदेशेऽपि वा दुरंगन्तुकामाःसङ्केतं कृतवन्तो,यदि वयमे. बस्थाप्यम् । तथा प्राचार्यो निष्कारण यदि सान् गवेषयति तावद्भिर्दिवसैन प्रत्यागच्छामस्तदा ज्ञातव्यं गता इति, अन्यथा सदा तस्य प्रायश्चित्तं मासलघु । नेति,तस्मिन्नवधौ पूर्णे अपूर्णे वा यदि ते विपरिणता जातास्तमुहक्खिया गविट्ठा, सो चेव य उग्गहो य सीसा य । ! तः पुनरपितैरवग्रहस्य द्वितीयं वारमनुज्ञापना कर्तव्या गुरुणा ऽपि, या तेषु तथा विपरिणतेष्वनुज्ञापना जवत्ति सा प्रतिपत्तव्या, विप्परिणमंतु मा वा, अगविहेसुं तु सो न लने ॥ यदि पुनरपूर्णेऽवधौ तेषां शैक्षः प्रत्युत्पन्नस्ततो जाता शङ्का,यद्यते सुखदु:खिताः सुखदुःखोपसंपन्नका प्राचार्येण गवेषिताः, पणेऽवधावष समत्पन्न इति कथयिष्यते तत्र भाचायस्य भविष्यस एवावग्रहो वर्तते,अद्यापि विपरिणामाकथनात्, ते शिष्याः | ति,तस्मादाचार्यस्य मा भूदिति प्रत्यागतास्ते पालोचयन्ति, पूर्णे यदि विपरिणमन्तु यदि वा मा विपरिणमन्तु तथापि यत्तैरु- संकेतकाले लब्धोऽयमस्माभिः शक इति तदा तेषां प्रायश्चित्तं स्पादितं सचित्तादि तदाचार्यों लभते, न पुनस्तत्तेषामिति । मासगुरु, तस्मात्सत्यनूतेन भावनाऽऽलोचयितव्यम, तथा पूर्णेप्रथन गवेषिता आचार्येण विपरिणताश्च ते धातास्ततस्तैरग ऽवधौ शैके सम्धे प्रत्यागत्य तथैवालोचयति, गुरुणाऽपि शङ्का न वेषितैर्विपरिणतश्च यवन्धं सचित्तादि तत्स प्राचार्यों न लवते, कर्तव्या, यथा अपरिपूर्णेऽप्यवधौ लन्धेशैक्के शक्कलोनेन विपकिं तु तत्तेषामेव । रिणत ति सत्यभावेनालोचनात् तब परजावोपत्रककैरेकांशेन विप्परिणयम्मि भावे, लषं अम्डेहिं वेति जा पट्ठा। झातव्यमिति तदेवमुपसंपन्नानां यद्वक्तव्यं तदुक्तम् । २५० Page #1181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११५७) चरियापविट्ठ अभिधानराजेन्द्रः। चरियापविट्ट इदानीमुपसंपयमानानधिकृत्याह-- एतदेव व्याचिख्यासुराहपारिच्छनिमित्तं वा, सन्भावेणं व वेति तु पमिच्छे । सम्मत्तम्मि निग्गमो, तस्स होति इच्छाए । उवसंपज्जितुकामे, मज्झं तु अकारक इहई । मंडलि महब जिक्खे, जह अले तह जावए । मम गवेसह खेत्तं, पाउग्गं जं च होइ सम्बेसि । यस्य श्रुतस्यार्थेनोपसंपन्नस्तस्मिन् समाप्ते श्रुते तस्य निर्गम बामगिलाणादीणं, सुहसंथरणं महगणस्स ।। इच्छया भवति ; यदि प्रतिभासते तर्हि तिष्ठति नोचेन्निर्गच्छति । परीकानिमित्तं वा, सद्भाबेन वा प्रप्तीच्छिकानुपसंपनुकामान् तथा महत्यां भक्तमएमयां, दुर्वने च भैक्ये यथाऽन्ये साधयो गुरुनते-पार्याः! इहास्मिन् क्षेत्रे मम भकारकं भक्तपानादि,त. यापयन्ति तथा सोऽपि यापयेत् । यापनांचासहमानः कोऽपिगस्मादन्यत् क्षेत्र मम प्रायोग्य यच जवति सर्वेषां वा ग्लानादी च्नेत, सूत्रमएमल्यामपिचारणालापमागच्चन्तमनवेकमाणस्त्वमां प्रायोग्यं यच महतो गणस्य सुखसंस्तरणं सुखेन निस्तार रया कोऽपि निर्गच्छति । हेतुस्तत गवेषयथ प्रतिलेखयथ । कारणे असिवादिम्मि, सम्वेसि होइ निग्गमो । कयसकाया एते, पुव्वं गहियं पि णासते अहं। दंसमादी नवस्सग्गे, सब्बोस एवमेव उ॥ खेत्तस्स अपमिोहा, अकारगा तो विसजेइ ।। मशिवादौ कारणे समुत्थिते सर्वेषां भवति निर्गमः । एवमेव एवं संदिष्टाः सन्तो यदि ते भाषन्ते-पते युष्माकं शिष्याः कृत अनेनैव प्रकारेण दंशादिके दंशमशकादिके उपसर्गे समुपस्थिस्वाध्यायास्तस्मादेतान्प्रेषयथ, भस्माकं पुनः केत्रप्रत्युपेक्षणार्थ ते सर्वेषां भवति निर्गमः । गतानां पूर्वगृहीतमपि नश्यति । एवमुक्ता यदि ते क्षेत्रस्य प्रत्यु नीयवएहि उवसम्गे, जा गच्छति नेतरे । पेकका अप्रत्युपेक्षका विनयवैयावृत्यादरकारकाच ततस्तावि. निग्गच्छति ततो एगो, पमिबंधो विजावतो।। सर्जयति। निजकैरपि स्वजनैरप्युपसर्गे क्रियमाणे यदि इतरे गच्चसाध. सव्वं करिस्सामो ससत्तिजुत्तं, वो न गच्छन्ति ततः स एक एकाकी प्रतीचिको निर्गच्छति। इच्चेवमिच्छते पमिच्छिकएं । बदि वा-भावतः स्वजनेषु महान्प्रतिबन्धः, ततो निर्गच्छति । निब्बेसबुद्धीऍ न यावि लुंजे. आयपरोनयदोसे-हिँ जत्थऽगारीऍ होज पम्बिंधो । तं चागिनी पूरति तेसि इच्छं ॥ तत्थ न संचिठेजा, नियमेण उ निग्गमो तत्थ ।। ये पुनः संविष्टाः सन्त एवं युवते-यथा सर्व स्वशक्तियुक्तं स्व- यत्रात्मपरोन्नयदोषैरगार्या उपरि नवेत् प्रतिबन्धस्तत्र न शक्त्युचितं करिष्यामः , तान् एवमिच्छतःप्रतीच्छेत् । प्रतीच्य संतिष्ठत । किन्तु नियमतस्तत्थेति प्राकृतत्वात्तस्मादित्यर्थे । बतान,न चापि नैव, निर्वेशबुख्या-कर्म मया पुरा कृतमेवं वेद तस्मात्स्थानानिर्गमः। यितव्यमिति बुद्धया, तुओं परिभोगं नयति, किंतुस्वपरयोर्निर्ज राबुद्ध्या यया वेच्च्या ते उपसंपद्यन्ते तां चेच्गं तेषामागिलया पदमचरिमेसुडाणा, निग्गम सेसेस होइ ववहारो। निर्जराबुद्ध्या पूरयति, न परोपरोधात् चित्तनिरोधेन। भय तेषां पदमचरमाण निग्गों, इमा न जयणा तहिं होई । प्रतीच्चिकानां कियन्तं का प्रतीच्छको भवति । प्रथम चरमे च कारणे नियमेन निर्गमे अनुज्ञा भवति,शेषेषु तु तत्राह कारणेवनाभोगतो निर्गमे भवत्याजवव्यवहारश्न, तत्र प्रथमनिट्ठिय महा भिक्खे, कारण नवसग्गगारिपमिबंधो। चरमाणां प्रथमचरमकारणोपेतानां निगमे श्यं वक्ष्यमाणा तत्र पढमचरिमाइ मोत्तुं, निग्गम सेसेसु ववहारो॥ यतना भवति । निष्ठितं नाम, येन कारणेनोपसंपन्नस्तत्र सूत्रार्थलकणं कारणं तामेवाऽऽहनिष्ठितं समाप्तं ततो निर्गच्छति,(महलति)महती सूत्रमण्डली, सरमाणे उनए वा, कानस्सगं तु काउ बच्चेज्जा । भक्तमाली वा, तत्र सूत्रमएकल्यां चिरणालापक भागच्छति , पम्हट्टो दोस वि ऊ, आसनातो नियजा ।। जकमामल्यां महत्या जागागतं, तत्र यथा अन्ये साधषोऽश्वास. प्रथम चरमे च कारणे समपजाते उभयस्मिन्नप्याचा ते तथा तेनाऽप्यध्यासितव्यम, अनध्यासितश्च निर्गच्छति,तथा प्रतीच्छिके च विधि स्मरति, निन्ना संप्रत्युपसंपदिति झापनार्थ दुर्लनं तत्र के भैक, तत्र यथाऽन्ये साधवी थापयन्ति तथा कायोत्सर्ग कृत्वा स प्रतीधिको व्रजेत । अथ प्रतीकिकस्व तेनापि प्रतीचितेन यापनीयं, यापनां चासहमानः कोऽपि विस्मृतं तत प्राचार्येण स्मारयितव्यं, यथा कुरु चिन्नोपसंपन्निनिर्गच्छति, कारणमशिवादिकं, तस्मिन् समुत्पन्ने सर्वैरेष निर्ग- मित्तं कायोत्सर्गमिति। अथाऽनानोगतो द्वयोरपि (पम्हहमिति) स्तव्यम्। उपसर्गा धिविधाः-दंशमशकादयः,स्वजनादयश्च। तत्र एकान्तम विस्मृतं, ततो द्वयोरप्येकान्तेन विस्मृतावकृते कायो. दंशमशकादिषु सर्वैर्निर्गन्तव्यम,स्वजनादिकृतेषु तूपसर्गेषु गच्च त्सर्गे संप्रस्थितो यथाऽऽसने प्रदेशे स्मरति तत मासासाधयो निर्गच्छन्ति वा, न वा, प्रतीचितेन पुनरवश्यं निर्गन्त त् प्रदेशानिवर्तेत , निवृत्य च कायोत्सर्गों विधेयः । व्यम् ,भागारीप्रतिबन्धोनाम-यत्रागार्या विषये आत्मपरोजयस. मुत्था दोषास्तत्रावश्यं तेन निर्गन्तव्यम , अत्र प्रथमं चरमंका दूरगएण उ सरिए, साहम्मि दडु तस्सगासम्मि । रणं मुक्त्वा शेषेषु कारणेषु निर्गम आभवद्यवहारश्च स बथा कानस्सग्गं का, सदं जंतं च पेसे॥ भवति तावद्वदये। अथ दूरं गत्वा स्मृतवान् , ततो दूरगतेन स्मृते साधम्मिकं Page #1182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९५५) चरियापविट्ठ भनिधानराजेन्द्रः। चरियापविट्ठ हुधा तस्य सकाशे समीपे कायोत्सर्गः करणीयः, संदेशश्व प्रे संप्रत्यागाढे विधिमनिधित्सुरिदमाहषणीय प्राचार्यस्य, यथा-तदानीं युष्मत्समीपे कायोत्सर्गकरणं आगाढो वि जहनो, कप्पियऽकप्पादि तिमऽहोरत्ता । विस्मृतमिदानीममुकस्य साधर्मिकस्य समीपे कृतः कायोत्सर्ग इति, कायोत्सर्ग च कृत्वा यदकृते कायोत्सर्गे सचित्तादि नकोसो उम्मासे, वियाहपम्मत्ति आगाढे ॥ कमुत्पन्न तत्प्रेषयति । आगाढोऽपि योगो जघन्यतस्त्रयोऽहोरात्राः, यथा कल्पि काकल्पिकादेरुत्कर्षत आगाढ आगाढयोगः परमासान् यथा पढमचरमाण एसो, निग्गमणविही समासतो भणितो । विवाहप्रज्ञप्तः पञ्चमानस्य । एत्तो मज्झिदाणं, ववहारविहिं तु बुच्छामि ॥ अत्राभवयवहारमाहप्रथमचरमाणा प्रथमचरमकारणोपेतानामेष निर्गमनविधिः तत्थ वि कानस्सग्गं, आयरियविसज्जियम्मि विधाओ। समासतो भणितः। श्त ऊर्दू मध्यमानां मध्यमकारणोपेतानां व्यवहारविधि प्रायश्चित्तव्यवहारविधि च वक्ष्यामि । संसरमसंसरं वा, अकऍ बभंते तु सूरीए । प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति तत्राप्यागाढयोगे पू अपूणे वा आचार्येण यस्य सकाशे योगः प्रतिपन्नस्तेन मूरिणा विसर्जिते विसर्जने कृते चित्रा उपमंसज्जायमिं बोसंते, जोए उम्मासपाहुभे । दिति झापनार्थ संस्मरन् कायोत्सर्ग कुर्यात्, असंस्मरन् वा सज्जायमि दुविहा, आगादा चेवऽणागाढा ॥ प्राचार्येण स्मारयितव्यः । तत्र नूमौ स्वाध्यायभूमावागावे योगे स्वाध्यायभूमि प्रतिपन्नः सन् तामनिक्षिप्य यो व्यतिक्रामति अपरिपूर्णे प्राचार्येण विसर्जितः । कृते कायोत्सर्गे यदि प्रजतस्मिन् आजवद्व्यवहार उच्यते। अथ स्वाध्यायनूमिरिति ति तर्हि सव्रजन् यत्किमपि लभते सचित्तादिकं तत्तस्यैवाकिमनिधीयते ?, उद्यते-प्राभृतं नाम यदिष्टः श्रुतस्कन्धस्तस्मिन् ऽऽभवति, नोद्देशनाचार्यस्य, अथाऽकृते कायोत्सर्गे जति, ये योगाः सा स्वाध्यायभूमिः, सा चागाढयोगमधिकृत्योत्कर्षतः तर्हि यावदन्यत्र गतोऽपि तं श्रुतस्कन्धं पठति, सारां चोदेशपएमासाः। एतदेष द्वविध्यनाह-स्वाध्यायभूमिद्धिविधा, योगो नाचार्यस्तस्य करोति, तावद् यत् किमपि सचित्तादिकमुद्विविध इत्यर्थः । मागाढा अनागाढा च । त्पादयति, तत्सर्वमुद्देशनाचार्यों लभते। जहणेण तिमि दिवसा, प्रणगादुक्कोस होइ चारसओ। पुनरितरःएसा दिट्टीवाए, महकप्पसुयम्मि वारसमा ॥ तीरिऍ अकए उगते, जा अनं न पढएउता पुरिमे। भनागाढा स्वाध्यायभूमिर्जघन्येन त्रयो दिवसाः, यथा-नन्द्या भासमाउ नियत्तइ, दरपतो वा वि अप्पाहे ॥ दिकस्याध्ययनस्य, उत्कर्षतोजबति बादश वर्षाणि, एषा द्वा तीरिते समाप्ति नीते भागाढयोगे श्रुतस्कन्धे च भक्तिपुरस्सदशवर्षप्रमाणा उत्कृपा स्वाध्यायमूमिदृष्टिवादे, साऽपि दु रमाचार्यादिकमणया तोषिते यदि कथमपि गमनबेलायामनामेधसः संप्रतिपत्तव्या, प्राशस्य तु वर्षम् । उक्तं च-"अणागाढो जहरणं तिमि दिवसा, नकोसेण वरिसं,जहादिहिवाय जोगतोऽकृते कायोत्सर्गे याति तर्हि स गतः सन् यावस वारस वरिसाणि दुम्मेहस्सेति ।" महाकल्पचते द्वादश दन्यत्र पतितुमारज्यते तावद्यत्किमपि लनते तत्पूर्वस्वाचार्यवर्षाएयुत्कृष्टा स्वाध्यायभूमिः। स्याभवति, न तस्य, तस्य चास्मरणतोऽकृते कायोत्सर्गे गतस्येयं सामाचारी, यदि आसन्ने प्रदशे गत्वा स्मृसं तत अत्राभवावहारमाह प्रासन्नानिवर्तते । अथ दूरं गतेन स्मृतं तर्हि तत्र यं साधर्मिकं संकता पवहतो, कानस्सगं तु निन्न उपसंपा। पश्यति तस्य समीपे कायोत्सर्ग तु कृत्वा 'अप्पाहे ति' संदेश भकयम्मी उस्सग्गे, जा पढती तं सुयक्खधं ॥ कथयति यथा मया कृतोऽमुकस्य समीपे कायोत्सर्ग इति । योगं बहन् गणान्तरमन्यत्र संक्रामन छिन्नमुपसंपदिदामी- अवितोसिते पाहुमिते, छेद पमिच्छे चऊ गुरुया। मिति प्रतिपत्यर्थ कायोत्सर्ग कृत्वा व्रजेत् । अथ कथमपि तस्य जो विय तस्स उलाभो, तं पि य न बभे पहिच्छतो। विस्मृतं भवति, तत प्राचार्येण स्मारयितव्यः-यथा कुरु कायो प्राभृते श्रुतस्कन्धे, मतोषिते समाप्त्यनन्तरं जक्तिबहुमानादित्सर्गम्, अथ द्वयोरपि विस्मरणतः सोऽकृतकायोत्सगों याति पुरस्सरमाचार्यादिकमणया तापमनीते, यदि निर्गच्छति तर्हित. तहि यावत्सोऽन्यत्र गतोऽपि तं श्रुतस्कन्धं पठति।। स्मिन् प्रायश्चित्तं छेदः। प्रायश्चित्तं पातयितुं प्रतीचति, तस्मिन् वा लानो उद्दिसणा-यरियस्स जइ वह वट्टमाणिं से। प्रतीच्छके प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः, योऽपि च तस्य निर्गतअवतम्मि व बहुगा, एस विही होई अणगाढे॥ स्यान्यप्रविष्टस्य लाभस्तमपि न लभते प्रतोचकः, किमुक्तं भव. तावत् यत्किमपि स लभते सचित्तादिकं स समस्तोऽपि ति-स तथा निर्गतो यत्किमप्युत्पादयति सचित्तादिकं तत्पूर्वलाभ उद्देशनाचार्यस्य-येनोद्दिष्टः स श्रतस्कन्धस्तस्य पर्वा- तनस्याचार्यस्याऽऽभवति, न तु तस्य, नापि यस्तं पाग्यति चार्यस्याऽभवति, केवळं यदि स पूर्वतन उद्देशनाचार्यः | तस्य, प्रतीत ति, तदेवं गच्छानिर्गतानां विधिरुतः। 'से' तस्यान्यत्र गतस्य सतो वर्तमानां सारां वहति । अथ स संप्रत्यानिर्गतानां तमाभधित्सुराहतस्वाकृतकायोत्सर्गस्य सतोऽन्यत्र गतस्य सारांन वहति तत. तत्य वि य अत्यमाणे, गुरुनाहया सम्बनंग जागस्स । स्तस्मिन् सारामवहत्युद्देशनाचार्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः, या सचित्तादिकं स प्रतीटिको बभते तदपि तस्याऽऽभ प्रागाढमणागादे, देसे भंगे न गुरुलहुमो ॥ बति, पपोऽनन्तरोदितो विधियत्यनागादे वोगे। तत्रापि गच्छे तिष्ठन् यदि योगं वक्ष्यमाणप्रकारेण जनक्ति Page #1183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरियापविह अभिधानराजेन्द्रः। चरियापविट्ठ देशतः सर्वतो.वा,तदा तस्मिन् योगस्यागाढस्य सर्वतो नङ्गे प्राय- योगे ग्लानत्वे च प्रत्येकमागाढेनाजवति चतुर्भङ्गी, गाथायांपुं. श्चित्तं चत्वारो गुरुकाः, अनागाढस्य सर्वतो भङ्गे चत्वारो लघुकाः।। स्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात्। सा चैवम्-श्रागाढो योग प्रागाढंग्लातथा आगाढे आगाढस्य देशतो भने गुरुकः, सर्वतो भने बघुकः। नत्वम् १, आगाढो योगोऽनागाढं सानत्वम् २, अनागाढोयोग अथ कथं देशतः सर्वतो वा योगस्य भङ्गस्तत आह- आगाढं ग्लानत्वम् ३, अनागाढो योगोऽनागाढं ग्लानत्वमा आयंविखं न कुबइ, भुंजति विगतीन सव्वभंगो न। तथा चाह-प्रथमे नङ्ग उभयागाढ उभयमागाढं यस्मिन् स तथा । द्वितीय आगाढ आगाढयोगेन । तृतीय आगाढ आगाढचत्तारि पगारा पुण, होति इमे देसभंगम्मि ॥ ग्लानत्वेनेत्यर्थः । चतुर्थ उभयस्याप्यागाढस्याभावे ॥ आचामाम्लं परिपाट्या समापतितं न करोति विकृती | तत्र प्रथमभङ्गमधिकृत्याहनुक्ते , एष योगस्य सर्वभङ्गः, देशभङ्गे पुनरिमे वक्ष्यमाणा उभयाम्म वि आगाढे, दके पक्कएहि तिमि दिणे । श्चत्वारः प्रकाराः । तानेवाह मक्खाते अगयंते, पर्चत धरे दिणा तिनि ।। न करोति नजिकणं, करेइ काउं सयं च भुजति तु । उभयास्मन्नपि योगे ग्लानत्वे चागाढे तं प्रतिपन्नागादग्लानं वीसज्जेह ममं ति य, गुरु बहु मासो विसिटो उ॥ दग्धेन पक्कन वा तैलेन । यदि बा-पक्केन शतपाकादिना प्राचार्येण संदिष्टो विकृतिग्रहणाय-कायोत्सर्ग कृत्वा विकृतीः | तैलेन त्रीणि दिनानि प्रकयन्ति तथाऽप्यतिष्ठति ग्लानत्वे यत्र भोक्तुम् , तत्रैकोऽकृते कायोत्सर्गेविकृतीभुक्त, न च तुक्त्वाऽपि पच्यते पक्वान्नं तत्र त्रीणि दिनानि यावत् नीत्वा पर्यन्ते ध्रियते, करोति कायोत्सर्ग, तस्य प्रायश्चित्तं मासलघु, तपसा कालेन | येन तमन्धपुलाघ्राणत प्राप्यायितो भवति । चतुर्गुरुकं, तत्र तपसा अष्टमादिना, कालेन ग्रीष्मादिना,अन्यस्त जत्तियमेत्ते दिवसे, विगई सेवन उदिसे तेमु । था संदिष्टः सन् विकृती क्त्वा विकृतिग्रहणाय कायोत्सर्ग करोति , तस्य प्रायश्चित्तं मासबघु । (का सयं च भुंजति उ) तह वि य अठायमाणे, निक्खिवणं सव्वहा जोगे । तृतीयस्तथा संदिष्टः सन् स्वयं कायोत्सर्ग कृत्वा विकृतीनुले, यावन्मात्रां विकृतिमुक्तप्रकारेण सेवते तेषु तावन्मात्रेषु दिव. तस्य प्रायश्चित्तं मासलघु, तश्च तपसा लघु, चतुर्थादिना तस्य । सेषु सूत्रं नोद्दिशेत,तथापि च दिनत्रयपर्यन्तधारणमाप्यतिष्ठत्यकरणात, कालेन वा गुरु, वसन्तादौ तस्य बहनाभ्यनुज्ञानात् , निवर्तमाने बानत्वे सर्वथा प्रायोग्यस्य निरूपणं कर्तव्यम् । चतुर्थो विकृति लब्ध्वा भूरीन् ब्रूते-संदिशत कायोत्सर्ग कृत्वा जइ निक्खिप्पइ दिवसे, तूमीए तत्तिए उवरि बढे । विकृति भुजेऽहमिति, तस्य मासलघु तपःकालाज्यां लघु । तथा चाह-चतुर्वपि लघुमासो, गुरु पुनर्यथायोगं तपःकाला अपरिमियं उद्देसो, नूमीऍ ततो परं कमसो।। ज्यां विशिष्टः सन् , एवमनागाढे योगे देशजङ्गः। श्रागाढे पुन: यदि यावत्प्रमाणान् मत्वा योगो निक्लिप्यते तावन्मात्रान् स्त्यिपरिपूर्णेऽनुज्ञा विसर्जनस्य , न केवत्रमेतेषु चतुर्यु प्र- दिवसान भूमेः स्वाध्यायभूमेरुपरि वर्द्धयेत् । किमुक्तं भवति ?कारेषु यथोक्त प्रायश्चित्तं, किं त्वाझादयोऽपि दोषाः । यावति पविते स्थितः स्वाध्यायः स्वाध्यायभूमिसूत्र यावतो तथा चाह दिवसान् चेद्धो योगो निक्षिप्यते तावतो दिवसान् नूयोऽपि एकेके आणादी, विराहणा होइ संजमाऽऽयाए। योगमुक्षिप्य योगोद्वहनेन स्वाध्यायभूमेरुपयेवमेवातिवाहयेत् । अथ यस्मिन् दिने योगः प्रथममुक्किमस्तस्य विस्मृतेर्दिवसपरिअहवा कज्जे उ इमे, दई जोगं विसज्जेज्जा ॥ माणं प्रतिनियतं कर्तुं न शक्यते, तत पाह-पशिमितं यदि दिवसएकैकस्मिन्प्रकारे आझादय आझाऽनबस्थाप्यमिथ्यात्वविराधना- परिमाणं तत उद्देशो ग्राह्यः,स स्वाध्यायनूमेरुपयेव योगवहनेरूपा दोषाः, तथा रक्षानत्वे भावतो देवताउलनतो वा संयमस्या- नातिबाह्यते तावन्मात्रदिवसातिवाहनतः, परं क्रमशः,सूत्रपाठा. स्मनश्च विराधना नवति । अथवा इमानि वक्ष्यमाणानि ग्लान- नुसारेण वहत् । गतः प्रथमभङ्गः । त्वादीनि कार्याणि दृष्ट्वा योगं विसर्जयेत् , नास्ति तत्र देशतः संप्रति द्वितीयजङ्गमधिकृत्याहसर्वतो वा मङ्गः। तान्येव कारणान्याह गेलएणमणागादे, रसवति नेहोबरे असति पक्का । तह वि य अगयमाणे, आगाढनरं तु निक्खिवणा ।। दहु विसज्जण जोगे, गेलम चए महकाणे । ग्लानत्वे अनागाढे रसवत्यां शालनकादौ यः स्नेह उद्वरितः आगाढे नवगवजण, निकारणे कारणे विगती ॥ सम्रक्षणाय प्रदीयते, तथाप्यसत्यातष्ठति ग्लानत्वे यानि शतदृष्ट्वा ग्लानमतरन्तं चयति नजिकायां विकृतिलाभ,तथा महा-पाकादिना पक्वानि घृततैलानि तानि म्रक्षणाय दातव्यानि, महानिन्द्रमहादीन् अध्वानं निन्नाध्वानमुपलकणमेतत् अवमौ तथाऽप्यतिष्ठति सानत्वे ग्लानमागाढतरं ज्ञात्वा योगस्य सर्वथा दर्य राजप्रद्विष्टं च नष्ट्वा योगो योगस्य बिसर्जनं कर्तव्यं , तथा निक्केपणं कर्तव्यम् । गतो हितीयो भङ्गः। भागाढे विकृतिनवकस्य वर्जनं , दशमायाः पक्वरूपाया नजना। संप्रति तृतीयमाहतथा निष्कारणे योग निक्तिप्य विकृतयो न कल्पन्ते, कारणे तु तिएिण तिगेगंतरिए, गेलएणागाढ निक्खिव परेणं । कल्पन्ते । एष द्वारगाथासंकेपार्थः। संप्रत्येषा विवरीतन्या, तत्र प्रथम ग्लानमधिकृत्याह तिरिण तिगा अंतरिया, चउत्य नंगे य निक्खिवणा॥ जोगे गेलमम्मि य, आगाढियरे य होति चउजंगो। अनागाढे योगे ग्लानत्वे त्रीन दिवसानां त्रिकान् एकान्तरिकान् कारयेत्, तथाप्यतिष्ठति ततः परेण योगस्य निक्केपः कर्तव्यः। पदमो नन्नयागादो, वितिओ तइओ य एकणं ॥ श्यमत्र भावना-एकस्मिन् दिवसे विकृतिप्रहणाय कायोत्सर्गः Page #1184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९६१) अनिधानराजेन्ऊ:/ चरियापवि तो द्वितीयेऽपि दिवसे पुनः कृतः कायोत्सर्गः एवं तृतीयेऽपि। चतुर्ये दिवसे कृतं निर्विकृतिकम पुनः पञ्चमपलसमेषु कायोसर्गः ततो भूयोऽष्टमे दिवसे निर्विकृतिकं, नवमे दिवसे कायोसर्गः पिदिन स्थित ग्लानत्वं ततो दशमे दिबसेोगनिषः स्तृतीयोऽपि भङ्गः । संप्रतिचतुर्थमाह " तिथि तिया "यादि प्रयत्रिका न दिवसा इत्यर्थः । अन्तरिता एकान्तारतातुन कर्तव्याः तथाप्यतिष्ठतिम्ला नत्वे योगस्य निक्षेपणम् । अत्रापीयं भावना एकस्मिन् दिवसे कायोत्सर्गो द्वितीयादव निर्विकृति तृतीयदिवसे कायोचतुर्थी निर्विकम्पमारिकासनि "" नव दिवसान् वायत्कार येश चाप्य तिष्ठति दशमे दिवसे योगो विपि प्रतिदिवसं ग्लानप्रायोग्या लाभे तत्परिवासयितव्यं भवति तत्रापि योगो निचिप्यते । अथ कदाचित हीरादिभिन्नस्य प्रयोजनमायत तदा ग्रामे सम्मातिथ्यम् अति स्वत्रे परमदया तथाऽप्यसति क्षेत्राद् बहिरपि गत्वा समानेतव्यम् । अथ कदाचितायामस्तर्हि मजकामपि ग्लानं समयेव पतितं द्वितीयं व्रजिकाद्वारम् । तत्रेयं यतनावया अभोगि जोगी, व अदद अतरंगस्स दिते । निव्वयं श्राहारो, अंतर विगतीऍ निक्खिवणं ॥ जिकायां गोकुले गन्तुकामस्य (अतरंतगस्स त्ति) ग्लानस्य लानत्वेन विना दुर्बलस्य द्वितीया दीयन्ते प्रयोगवाहिनः, त दमाये योगवानि वाताहानिमित्त च कायोस्वर्गतः। अथ सय प्रतिदिवस विकृतिस्तदा योगस्य नि पणम् । अत्रेयं भावना-ग्लानस्य दृढस्य वा व्रजिकागन्तुकस्य द्वितीया दीयन्ते प्रयोगवाहिनः । अथ ते न सन्ति तदा अनागाढयोगवाहिनो दातव्याः, तत्र गता विकृती: परिहरन्ति निर्वृकृतिकमाहारमाहारयति अन सय दिने दिने निकृति सदान्त विकृतिग्रहणाय कायोत्सर्गे कुर्वन्ति अथ दिने दिने विकृतिदेव प्रायो लज्यते नान्यसदा योगस्तेषां निष्यते। संप्रतिनिधिकृतिकमाहारमाहारयतां विधिमादप्रायविलस्सऽलंभे, चनत्थमेगंगियं च तक्कादी | असतेयरमागाडे, निक्खेव तहि चेव ।। यद्याचाras श्राचाम्लप्रायोग्यं न सभ्यते तदा चतुर्थमनका कर्वन्ति । अथ न शक्नुवरयन्त्रकार्य कर्तुं त कातिकमाहारयन्ति तावामाम्लं कुर्वन्तीत्यर्थः आदि शब्दात एकाक्रिकं काष्ठमूलमाहारयन्तीति रुष्टव्यम् । अथन स नागादयोगवादिनो द्वितीयास्तव इतरे धागादयोगपाहिनो द्वितीया दीयन्ते तत्र यदि तेषां प्रायोग्यं लभ्यते ततः सुन्दरम् अथन लभ्यते केवलं तंत्र कीरादीनि लभ्यन्ते तदा योगो निक्षिध्यते निपानन्तरं च पुनरदेशस्तचैव यथाऽधस्ताणितम् । जति निविखप्पर दिवसे, भूपीए तचिए उपरिट्टे । अपरिमितुसो, भूमीत परं कमसो ॥ गर्त जिकाद्वारम इदानीं महामहद्वारमाहसक्कमहादी वा पमत्त मा णं सुरा बजे ग्वणा । २९१ पिज्जंतु व ददा, इतरे न दिसंति न पति ॥ महामहाः शक्रमद्दादयः आदिशब्दात्सुची धमक महादिपरिग्रहः सेषु (उवण ति) मनागादयोगप्रतिपन्नाः तेषां योगो निप्ते, किं कारणमिति चेत् ? श्रत श्राह मा तं प्रथमतः सन्तं काचित् मिष्याचिताइयेत्। अभ्यश्च तेषु दिवसेवियो न्ते ततो ये अदृढा दुर्बलाः सन्ति तैर्विकृतिपरिभोगत श्राप्यातामिति योगनिक्षेपणम ये पुनरितरे भगादयोगवाहिनस्तेयोगो निपते, केत्तो दिशन्ति नापि पठन्ति । गतं महामदद्वारम् । चरियापविट्ठ 1 इदानीमद्विर्ण द्वारत्रयमादअकाणे जोगी, एसियं तु सगाण पणगादी | असती अणगाडे, निविखयमवासी इमरे || अप्रामानुग्रामिके योगं वहति, अच किं तदा यत पषितं प्रासुकमित्यर्थः । ततो योगिनां योगवाहिनां दीयते, शेषाणां पञ्चकादि दातव्यम् । किमुक्तं भवति - शेषाः पञ्चकपरि हाएया पञ्चकादिषु यतन्ते । अथ सर्वे योगवाहिनो न संस्तरन्ति ते प्रासुकेन रात भाद-सति सर्वेषां तेषां योगवादिनां प्रा सुके अनागाढे योगवाहिनां योगस्य निक्केपः करणीयः । अथ सर्वथा तत्र प्रासुकं न लभ्यते । तत श्राह सर्वेषां प्रासुकस्यासत्यभावे इतरेऽप्यागाढयोगवाहिनो निक्विप्यन्ते । एवमवमौदराजद्विष्टेऽपि च भावनीयम् । साम्प्रतमागाढे नवकवर्जनमिति व्याख्यानार्थमादगाढम्म उ जोगे, विगतीड नव विवज्जणीओ य । दसमाएँ होइ जया, सेसन जयणा वि इयराम्य ॥ आगाढयोगे पक विकृतिव्यतिरेकेण शेषा मयापि विकृतयो वि वर्जनीयाः, दशम्याः पुनः पक्षविकृतेर्भवति भजना विकल्पना भागाई लानत्यमधिकृत्य पूर्वप्रकारेण तस्याः सेवना भवति, शेषका नेति भावः । इतरस्मिन्नागाढयोगे शेषकाणामपि कीरादीनां विकृतीनां भजना विकल्पना, श्रागाढग्नानस्याना गाढग्लानस्य चेतरा विकृतिग्रहणाय कार्योत्सर्गस्याधिकरणाभ्यनुज्ञानात् । संप्रति " निक्कारण कारणे विगत " इति व्याख्यानयतिनिकारणे न कप्पति, विगतीतो जोगपाहिणो कति कारणे चोत्तुं, अमाया गुरूहिँ उ ॥ योगवाहिन भागादयोगवादिनो या निष्कार ग्लानत्वादिकारणाभावे चिकतयः पूर्वप्रकारेमोन ननुज्ञाता गुरुनिमकुं कल्यन्ते नवकारणे ऽपि दोषः । कारणे पु योगनिपे तथा चाद विगतीकरण जोगं, निक्लिए दहनले । से जावतो निक्खित्ते, निक्खिसे वि य तम्मि उ ॥ यः संहननेोऽपि सन् शरीरेण दुर्बल इति कृत्वा वि तिकृतेन विकृतिपरिभोगाय योगं निक्षिपति से तस्य नि हिसेऽपि तस्मिन् योगे भावतः स योगोऽनिति एमा निकेपणात् । 3 विगतकए जो जोगं, निक्खिवे अढे वले | Page #1185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९६२) चरियापविट्ठ अभिधानराजेन्द्रः। चरियापविट्ठ से नावतो अनिक्खित्ते, उववाएण गुरूण उ॥ पि मायानिष्पन्नं प्रायश्चित्तं मासगुरु, सचित्तविषयं जघन्यमयो चबो बलवानपि संहननेनादृढ इति कृत्वा विकृतिकृतेन | ध्यमोत्कृष्टोपधिनिष्पर्ण (गुरुवयणे पटकडो सि) ये त्रि भिः प्रकारैरपहताः शियास्ते कदाचित्स्नानादिषु समबयोग निक्तिपति सयोगस्तस्य भावतोऽनिक्षिप्त एव । कुतस्याह-गुरुणामुपपातेन पाइया "उववातो निद्देसो, आणा वि सरणादौ मिनन्ति गुरुणा च पृष्टाः सन्तो यथावन्निवेदयन्ति, गओ य होति पगा" इति वचनात निक्केपणादिति वाक्य. ततो व्यवहारे जाते स प्राचार्यवचनेन पश्चात् क्रियते पराजीशेषः। न च तथा योगनिकेपणे योगस्य सर्वथा भक्तः । यते, तस्य सत्कं सर्वमाचार्यस्याऽऽभवतीत्यर्थः (अभुवगमे तस्स इच्छाए त्ति) याद पुनस्तेन पराजितेनाभ्युगमः क्रियते. यत आह यथा न सबै मया सुन्दरं कृतं मिथ्या दुष्कृतं ममेति तदा गावो विगति जो उ, आपुच्छिताण सेवए । तस्यैवमन्युपगमे इच्छया करोतु मा वा तपादितसस जोगे देससंगो उ, सचभंगो विपज्जए । चित्ताद्यपहरणमिति । सासम्बो विकृतिनिःप्राणितः सन् कि ज्ञानादि ग्रहीयामी साम्प्रतमेतदेव गाथाद्वयोक्त व्याख्यानयतित्यालम्बनसहितो यो गुरुमाउच विकृती: सेवते परिभुते, अहिज्जमाणे सच्चित्तं. उप्पमं तु जया नवे । स योगे योगस्य देशभङ्गो भवति,न सर्वभङ्गा, विपर्यये श्रास जोगो निक्खिप्प तं भंते, कज्ज मे किंचि वेति उ ।। म्बनाभावे गुर्वनापृच्चायां च सर्वभङ्गः। अधीयाने अधीयानस्य सतो यदा यदा सचित्तमुत्पन्नं भ. भथ साक्षाद्योग निक्षिपति न च सर्वभङ्ग इति पति तदा तदा गुरुसमीपं गत्वा मते-भदन्त ! मम किश्चिका वाचोयुक्तिः । पाह स्कार्य प्रयोजनमस्ति प्रोः ! निक्षिप्यतां योग इति। जह कारणे असुकं, चुंजतो न न असंजतो हो । अधुना " चहिया य प्रणापुच्छा" इति व्याख्यानायाहतह कारणम्मि जोगं, न खलु अजोगी ठवेंतो वि ॥ । बहिया य अणापुच्छा, जगजामे लजिय सेहमादिं तु । यथा कारणे निन्नावकादावशुद्धमपि जानो न तु नैवासं- ने सयं पेसति वा, आसन्नम्यिाण उ गुरूणं ॥ यतो जवति, तथा कारणे पुर्बलत्वादिलक्षणे सति योगं स्था बहिरुझामे उखामकाभकायां गतः शैक्षकादि लब्ध्वा वस्य पयनपि खनु नैवायोगी जवति ततो न सर्वभक्तः। सकाशेऽधीते तमनापृच्छ्य आसन्नस्थितानामनन्तरक्षेत्रस्थि. प्रमो इमो पगारो, पमिच्छयस्स न अहिज्जमाणस्स । तानां गुरूणां निजाचार्याणां स्वयं नयति, अन्यैर्वा स्वगुरुकुखमायानियमीजुत्ते, ववहारो सचित्तमादिम्मि ।। सत्कैः प्रेषयन्ति। प्रतीकस्याधीयानस्यायं वक्ष्यमाणः प्रकारः । तमेवोपद. "विही आपुच्छणाएँ मायाए" इति व्याख्यानार्थमाहयति-सचित्तादिके सचित्तादिकविषये यो मायानिकृति अहवुप्पो सचित्ते, मा मेतं वा गुरूहिँ अच्छित्ती। युक्तो माया वञ्चनाऽभिप्रायो निकृतिस्तदनुरूपं बहिराकारा- मायाए आपुच्छर, नायविहिं गंतुमिच्छामि ॥ च्छादनं ताभ्यां युक्तस्तस्मिन् व्यवहार प्रानवव्यबहारः प्राय- अथवेति मायायाः प्रकारान्तरोपदर्शने, उत्पचे सचित्तादिके श्चिसव्यवहारश्च भणनीयः। चिन्तयति-मा ममेदं सचित्तादिकमुत्पन्नमेतैर्गुरुभिः (प्रच्छितमेवाभिधित्सुराह सी इति) अपहियतामिति मायग्रा आपृष्ठति-पातिविधि उप्पले नप्पो, सञ्चित्ते जो न निक्खिव जोग। स्वजनवगै वन्दापयितुं गन्तुमिच्चामि । सम्वसि गुरुकुलाणं, उपसंपज्ज झोबिया तेण ॥ पञ्चावेउं तहियं, नाममनाले य पत्थवे गुरुणो। उत्पन्ने नत्पन्ने सचित्ते, उपलकणमेतदचित्ते वा, यो योग नि प्रागंतुं च निवेयण. लषं मे नालवकं ति॥ क्षिपति । किमुक्तं भवति-यदा यदा तस्य सचित्तादिकमुत्पन्नं तत्र गत्वा नालबकान नाससंबकान् अनालबहान् षा प्रवाज्य भवति तदा तदा गुरुं विज्ञापयति-अस्ति किञ्चित्प्रयोजनं साधा। गुरोः स्वाचार्यस्य प्रेषयति । प्रेष्य च पुनरध्यायपितुः समीपे यितव्यमतो निक्तिपामि योगमिति,पवं मायाबहुलतया योगं नि- समागगत, समागत्य च निवदयात-पया मया ल' त्तिपति । तेन पापीयसा सर्वेषां गुरुकुलानां श्रुतोपसंपापिता। बका इति तत्र प्रेषिताः। वहिया य अणापुच्छा, विहीऍ आपुच्छणाएँ मायाए । एहाणादिसु इहरा वा, दई पुच्छा कयासि पब्बइमा । गुरुवयणे पच्छकमो, अन्नुवगमे तस्स इच्चाए । अमुएण अमुयकाने, इह पेसविया निया वा वि ।। यहिरुद्वामकभिक्काचर्या गतो, यत् सचित्तादिकमुत्पत्र, व. येते विनिः प्रकारैरपहताः शिष्यास्तान् जिनस्नानादिषु सस्य सकाशेऽधीते तमनापृच्छय निजाचार्याणां प्रेषयति, ते. मवसरणे इतरथा वा अन्यत्र वा मिलित्वा दृष्ट्वा प्राचार्येण नापि सर्वगुरुकुलानां श्रुतोपसंपन्नोऽपि “ विहीए आ- पृच्छा-यथा फदा कथं वा प्रनजिता अभवन् । ततस्ते तत केत्र पुचपाए मायाए" इति यदा सचित्तादिकमुत्पन्नं तदैत- च कालं च पुरुषं कथयनि-यथा अमुकनामुके काले श्द चिन्तयति-मा ममैतद् गुरवो हरिप्यन्ति ततो मायया वि-| अस्मिन् केत्रे प्रवाजितास्तथा एवमन्यैः सह प्रेषिताः, स्वयं वा धिना गुरूनापृच्छति-स्वजनवर्ग चन्दापयितुं प्रजामि, तेना. तत्रनीता, एवं निवेदिते व्यवहारो जाता, तस्मिश्च व्यवहारे पि सर्वगुरुकुतानां शुतोपसंपन्डोपिता, अमीषां च प्रयाणाम- । स पराजितः। Page #1186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरियापविट्ठ ( ११६३) अभिधानराजेन्द्रः | तत आचार्येण यत्कर्त्तव्यं तदाह सो पगलबत्या - निवारणडाऍ मा हु असो वि । काहिति एवं होतं, गुरुगं श्रवणं देई || समाचार्यो मा एवं त्वा अन्योऽप्येवं कार्षीदिति प्रसङ्गानयस्यानिवारणार्थे गुरुकमारोपर्ण मासगुरुप्रभृतिकं पूर्वोक ददाति । अधुना " अवगमे तस्स इच्छाए " इतिव्याख्यानयति अन्वगयस्स सम्मं, तस्स उ पणिवइयवच्छलो कोइ । बियरति ते च्चिय सेहे, एमेव य वत्थपत्तादी || सत्यं मयाऽसुन्दरं कृतं तस्मान्मिथ्या मे दुष्कृतमिति सम्यग न्युपगतस्य प्रतिपचस्य तस्य कोप्याचार्यः प्रणिप ये शास्तेन दीक्षितास्तानेव वितरति प्रयच्छति पदमेव पत्रपात्रादिकमपि तदुत्पादितं तस्यैव प्रयच्छति । उपसंहारमाद एवं तु हिज्जेते, ववहारो अनिहितो समासे । निधारते इमो, बत्रहारविहिं पवक्खामि ॥ पवमनेन प्रकारेण तुर्भिन्नक्रमः स यायोक्यते, अधीयाने व्यवहारः समासेन संक्केपेणाभिहितः । इमं पुनर्व्यवहारविचिमभिधारयति प्रपश्यामि । , प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति जं होति नालबद्धं, घामियनाती व जो व तह बंजो । पति विगत वर्ष सेसेस आयरिश्रो । बल्ली संतरणंतर, अणंतरा उज्जया इमे हुति । माया पिया य जाया, जगिणी पुत्तो य धूया य ॥ 33 यद्भबति नालबद्धं, वल्लोब रूमित्यर्थः सा च वल्ली द्विधा-श्र नन्तरा, सान्तरा च । तत्रानन्तरा श्मे षम्जनाः । तद्यया-माता पिता भ्राता भगिनी पुत्रो दुहिता च । सान्तरा पुनरियम्मातुर्माता १ पिता २ भ्राता ३ प्रगिनी च ४ तथा पितुः पिता १ माता २ भ्राता ३ भगिनी व ४, तथा भ्रातुरपत्यं भ्रात्रिव्यो, प्रात्रिव्या वा, नगिन्या वा अपत्यं भागिनेयो जागिनेयी वा, पुत्रस्यापत्यं पौत्रः, पौत्री बा, दुहितुरपत्यं दौहित्रो, दौहित्री बा । उक्तं च-" माउम्माया य पिया, भाया भगिणिऍय एव पिणो वि । भाठनगिणीपऽबच्चा, धूयापुत्तायावि तहेव । परम्परवल्लिका एषा । अन्य त्वाद्दुःप्रपौत्रपौत्री इत्यादिरपि परम्परवल्ली यावत्स्वाजन्य स्वीकाघाममा पसि ) यो पाचनलषित इत्यर्थः । यो वा तत्र नालबद्धे घमितज्ञातौ वा माना । एतेनैते अनन्तरोदितासिद्धं विमानयन्तः सन्तोऽभिघारयन्ति । श्रनिधारयत श्राभाव्या भवन्ति, शेषेषु पुमरन निधारयत्स्याचार्यः म्रुतगुरुस्वामी भवति शेषा अन निधारयन्तः श्रुतगुरोराभाष्या भवन्ति इत्यर्थः । उक्तं च" जर ते अभिधारंती, पमिच्छते या पमिच्छुगस्सेव । श्रह नो अभिधारंती, सुयगुरुणो तो उ श्रभव्वा ॥' ना-ये नालबद्धा एव घटितज्ञातयो, ये घा ते दीक्षितास्तैः सह संकेत पूर्व तो यथा यूयममुकस्याचार्थस्य पाप्र 39 श्यमत्र भाव यरियापवि जताऽहं पुनरागमिष्यामि एवं संकेतं कृत्वा ते मुलापितास्ते चानिधारयन्तो वर्तन्ते यथाऽनुफो मुककाले समागमिष्यति, सोऽपि च पश्चादागतः सन् तथैव निवेदयति चिह्नान्यपि च सर्वाण्यपि मिलन्ति तदा पूर्वमुपस्थापि तस्य सर्वे । उक्तं च-" संगारो पुष्धकतो, पच्छा पाडिच्छयो उ सो जातो ते निवेदयन्वं उपडिया पुन्यलेहा से ॥ " यदि पुनः कालधिधि विसंवादस्तदा गुरोरामाच्या इति एतदेव व्याख्यानयन्नाहउवपज्जए जत्थ, तत्थ पुच्छा भणाति तु । वयं चिधेहि संगार, व सीए यांतगं ॥ यत्रोपसंपद्यते स पयातेः तेन कारणेन मागतोऽसि । स प्राह- सूत्रार्थानामर्थायोपसंपत्तुमेवमुक्त्वा तेन सद्भाया कथनीयो बचा उपसंपये इति परिणामात्पूर्वका समपि युवा पार्श्वे वे नामपदा घटितायस्ते दांशिवा या पूर्वमुपस्थितास्तेषां मया संकेता तो यथा पश्चात् शीते शीतकाले, चशब्दादन्यस्मिन्वा काले उपसंपत्स्ये तेषां चेतावद्रय एतस्य शरीरस्य वर्णः सर्वभूतं शीतकालमा योग्यमनन्तकं वस्त्रमेषं वयसा चित्रैश्च संकेतं स्पष्टयति । उक्तं च-" एवश्एहि दिणेहिं, तुम्भ सगासं अवस्ल एहामो ॥ संगारों पकतो, चिचाणि सेसि विधे " चत्रान्नान्यविधिमादनापासनंते, जया तमनिधारए । जे यावि चिंधकालेहि, संवयंति उ घट्टिया ॥ 3 पदा तमुपसंपत्स्यमानमभिधारयन्ति नापदाः पूर्वोपस्थि ता यथा सोऽत्र सत्परमुपसंपते तदा तेन लभ्यन्ते ये वाऽपि पतितयो नाराबद्धादिदीकिता च कालेन च तेऽपि तस्याभवन्ति, विसंवदन्तस्तु गुरोः, श्रथ विहैः संवादोऽस्ति न काखतः। तथाहि यस्मिन्काले पूर्वमुपस्थित कथितान से तस्मिन् काले प्रायाताः किन्तु कालान्तरे सो ऽपि च संकेतदिवसे नायातस्ततः स ते वा पृव्यन्ते, तथ यदि केनापि कारणेन ग्लानत्वादिना स ते वा नायातास्तदाऽस्ति तस्वतः कालसंवाद इति ते तस्याप्राव्याः । एतदेवाद काले वि पाया, कारले उ केण वि । सेवितसाभवती छ, विवरीयायरियस्स उ । ये कारणेन ग्लानत्वादिना केनचित्पूर्वमुपस्थिता अन्यकालेऽपि यस्तेनोपसंपद्यमानेन कालो निर्दिष्टस्तस्मादन्यस्मिन्नपिकाले आयातास्तेऽपि तस्याभवन्ति । विपरीतास्तु कारणमन्तरेणादिसंवादिन आचार्यस्याभान्या । उपलसमे तत् सोऽपि यदि कारणेन विनिर्दिष्टकालादम्यस्मिन्काले स• मायातस्तथापि तस्याभवन्ति विपरीतास्तु कारणमन्तरेणोपसंपद्यमानकाल विसंवादनाज आचार्थस्थानाच्याः । विपरिणयपि भावे, जइ जावो सिं पुणो वि उप्पणो । ते ताssयरियस उ, हिज्जमाणे य जो लाजो ॥ संकेत करणादनन्तरं यदि तेषां पूर्वमुपस्थितानां नाको विप रितो यथा नामामुकस्य पार्टी उपसंप Page #1187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरियापवि ? भावे पश्चात् पुनरपि केनापि कारणेन उपसंपद्यमानस्याभिप्राय उत्पन्नस्तदा ते पूर्वमुपखिता नवस्याचार्यस्य अयनेषु तेषु गाथायामेकवचनं प्राकृतत्वात् " प्राकृते हि वचनव्यत्ययो ऽप्यस्ति, " यो लानः सोऽप्याचार्यस्य, उपलक्षणत्वादेतदपि द्रपम-संकेतकरणा यदि तस्य पचादुपसंपद्यमानस्य भा सो विपरिणतः पश्चात्पुनरपि कालान्तरेण जातस्तदा ते पूर्वोपस्थिता गुरोराभाव्याः यश्च तेषां साभः सोऽपि गुरोः। तथा च पश्चादुपसंपद्यमानमधिकृत्य पञ्चकल्पेऽनिहितम , ॥ - "काण व विदि व भविसंवादी तस्स गुरुणिरा कामिचिसंयदिप पुस्तिकतु आतो सि संगारयदिवस अप गेला दिदीवर तो ड तस्स च श्रद् जावो, विपरिणतो पच्छ पुरा जातो ॥ तो दो गुरुसेव स एवं संपदा उ जे यानि पायादी विध िसंपयंति श्राजवंति उ ते तस्सा, विवरीयाऽऽयरियस्स उ || " यान्यविपाशादीनि चिः संवदन्ति, यथा-ममुकस्य पार्श्वे मुकस्कृति व पात्रं यावद भूमयमित्यादि, ताम्यपि, गाधायां प्रात्तस्यापरीतानि तु चिह्न विसंवादभाजि प्राचार्यस्य आभताडिगारे व बहुते सप्पसंगया। जयंता इमे असणे, ग्रहसीलादि आदिआ ॥ श्रभवदधिकारे वर्तमाने तत्प्रसङ्गादाभवदधिकारप्रसङ्गादिमे वक्ष्यमाणा अन्ये श्रभवन्तः सुखशीलादयः सुखशीलादिप्रयुक्ता श्राख्याताः । तानेव द्वारगाथया संगृहान आहसुदसीलऽणुकंपाऽऽय-डिए य संबंधि खमग गेलथे । सचिने ससिहाओ, पफए धार दिसाज || सुखलेन भावप्रधानोऽयं निर्देशः सुखशतया अनुकम्प या, आत्मस्थितस्य संबन्धिनः स्वज्ञातेः क्षपकस्य ग्लानस्य वा ये प्रेषिताश्वसयिशियाकोऽभ्यस्य प्रेषित पतान् कु संबन्धी गणसंबन्धी या प्रति आकर्षयतीत्यर्थः धारयविदिशा इत्येष द्वारगाथासपार्थः । ( ११६४ ) अभिधानराजेन्द्रः । - , साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतः सुखशीलद्वारमाहसुहसीलयाऍ पेसे-इ कोइ दुक्खं खु सारखेडं जो । देश व प्रायद्वीणं, सुहसीलो दुइर्स नोति ॥ लु साधून सारवितुमिति मन्यमानः कोऽपि सुखीलतया कमपि साधुमन्यस्य प्रेषयति । यदि वा कोऽपि सुखशीला सोऽयमिति प्रकाश्य ददाति । तगं पि नेच्छए क्खं, सुहमार्कखए सया । मुहसीलवर बाबी, सायागारवनिस्सितो | तनुकमपि स्तोकमपि नेच्छत्यात्मनो दुःखं, किं तु केवलं सदा सुखमाकाङ्क्षति । ततः सुखशीलतया सातगौरवनिधितः स्प यं साधुना दत्ते सर्वे ते भवन्त्याचार्यस्याभाव्याः । गतं सुखशीलद्वारम् । साम्प्रतमनुकम्पाद्वारमाह एमेव य असहाय व देवि कोइ अनुकंपया छ । चरियापविट्ठ । नेच्छ परमायट्टी, गच्छा निग्गंतुकामो वा ॥ पेसे सो उ अन्नत्थ, सिणेहा नायगस्स वा । खमए वेज्जवचडा, देज्ज ता तहि कोइ तु ॥ स्वसंविधत्वादिकारणव्यतिरेकेणापि, असहायस्य सः को व्यनुकम्पया ददाति । गतमनुकम्पाद्वारम् श्रात्मस्थित द्वारमाह आत्मार्थी श्रारमाथि सन् परं नेच्छति ततः काचि तं करोति । यदि बागन्तुकामः आत्मा अन्यत्र यस्य यास्यति तत्र कमपि साधुं प्रेषयति । गतमास्थितद्वारम् । संबन्धिद्वारमाह-स्नेहात् ज्ञातस्य वा स्वजनस्य वा सोऽम्यत्र प्रेषयति । कपकद्वारमाह-तत्रान्यत्र वा प्रसिके रूपके कोऽपि पायार्थ कमपि साधुं धा , संप्रति ज्ञानद्वारं सशिखाकारं वाह पेसेति गिलाणस्तव, अहव गिलायो सयं अचार्यतो । पेसंतस्स असीहो, ससिहो पुछ पेसितो जस्स ॥ नस्य वा कोऽपि वैयावृत्यकरणाय प्रेषयति साधुम । अथवास्वयं ग्लानः शक्नुवन् करोति । सर्वेऽप्येते प्राचार्यस्याभा व्याः । तथा यदि सशिखाकः परस्मै प्रेष्यते तर्हि स यस्य प्रेषितस्तस्यैवाभयति। अधाशिखाकः परस्मै प्रेषितस्ता प्रेषवितुरेयानाम्यो न परस्य तथा चाह "वेसंतस्स असोदो, ससिहो पुर्ण पेसितो जरूस " । अत्र परः प्रश्नमाह चोदेती कपम्मी, पुत्रं भणियं च होति पेसितो जस्स । ससिहो या असिहो या असंचरे सो उ तस्सेच ॥ चोदयति प्रकरोति ननु पूर्व कल्पे भणितं यस्य सशियो वा भशिखो वा प्रेषितः स तस्यैवासंस्तरे श्रसंस्तरणे सति भवति । ततः कथमत्राशिखाकः प्रवयितुराभाव्योऽभिहित इति । अत्रोत्तरमाद नार पुन्बुत्तातो, पच्छा वृत्तो विही भवे बलवं । कामं कप्पे अनियिं प्रसिद्धं दाव न लभति तु ॥ प्रयतेोरं दीयते पूर्वोका विधेः पचादु विि वान् भवति, ततो यद्यपि कामं कल्पेऽनिहितं तथापी हाशिवं दातुं न लभते । अन्यश्च संविग्गा विही एसो, संविग्गेन दिज्जए । कुलिचो वा गणिच्चो वा, दिष्ां पीतं तु कए ॥ दानविधिः संविग्नानां नमिचिग्नस्य पुनः सर्वधा न दीयते न दातव्यः । अथ कथमपि केनापि दत्तो भवति तर्हि तं दतमपि कुलसत्को वा गणसत्को मा कर्षयति । खेचाती आउरे भीते, अदिसत्यी व जं दर सचित्तादि कुलादी तु, भुज्जो तं परिकट्ठए ॥ किसादि आदिशब्दात्पक्षाविष्टादिपरिषद धतुरो मर णचिह्नाम्युपन्नभ्यात्याकुलो, जीतः किमपि मे राजप्रद्विष्टादिकं क रिष्यति न विद्यइति नयाकुलो, प्रतिगीतार्थो वाचितां दिशं यद्ददाति परस्मै सवितादितः कुलादि आदि गणपरिग्रह परिकर्षयति तदेतत्प्रतीच्छिकानधिकृत्योम | 1 Page #1188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरियापविट्ठ (१९१५) अभिधानराजेन्द्रः । अधुना शिष्यानधिकृत्याह नाव नाले वा, सीसम्मि उ नत्यि मग्गणा । दोक्खरखरदिडंता, सव्वं आयरियस्स उ ।। शिष्ये स्थीति अर्थ नालको नाल इति विषयविमा नालबकोऽनालबरु गेन नास्ति मार्गणा किंतु व शिष्या मते साति त्सर्वमाचार्यस्याऽऽभवति । केन दृष्टान्तेनेत्याह-डाकरखरदृष्टातेन तदाखः खरो गर्दभस्तदृष्टान्ता दान मे न्तेन, यक्षरो खरः क्रीतो, दासोऽपि मे, खरोऽपि मे, इत्येवं लक्षणात्सूत्रम् । व्य० ४ उ० । चरियारय-चर्यारत - त्रि० । भिक्कारते, आचा० २ ० २० २४० । चरु- चरु - पुं० । हज्याने होमार्थे पाच्याने, "अनवस्रावितानन्तरूष्मपाक श्रौदनश्चरुः" इति याज्ञिकाः । वाच० | स्थालीविशेषे, औ०। तत्र पच्यमानं द्रव्यमपि चरुरेव । वलौ, निः ३ वर्ग । श्र० म० । चल-चल-त्रि० । अस्थिरे, भ० ५ श० ४ ० । स्था० । भङ्गुरे, स्था० ५ वा० ३ ० । लये, स्था० ४ वा० २ उ० । नि० चू० । नियते, विशे० । चपले, नि० प्यू० ४ उ० । अनियत बिहारिणि आचा० १ ० ६ ०५ उ० । चलता चलविश्वा अप० स्थानात् स्थानान्तरं त्यर्थे, " चलता श्राहरे पाणनोयणे " चत्रयित्वाऽऽहरेदानीय दद्यादित्यर्थः । दश० ५ ० १ उ० । चलंत - चलत् - त्रि । पतति, भ्रश्यति, अनु० । “चलंत घुम्मंतजंगलसमूहं " औ• । ईषत्कम्पमाने, जं० १ वक्ष० । चलचल - चलचल - पुं० । घृते निष्कास्यमानेषु त्रिषु घाणेषु, ताव पढमं जं घयं वित्तं तत्थ अयं अपक्खिवंती आदि मे जे तिनिघाणा ते चनचलेति " नि० चू० ४ उ० । चल चल चल चपलत्र पिले, " 66 कीमनदवधिया "चलसपसमतिशयेन पयश्चित्रं नानाप्रकारं क्रीमनं यश्च चित्रो नानाप्रकारो ऽवः परिहासस्तौ प्रियौ येषां ते चलचपलचित्रक्रमिनद्रवप्रियाः । जी० ३ प्रति● | स० । चलचिच-चलचित्र वानरवचपलानिप्राये सं० । नि० चू० । अथ चतविशद्वारमतिदेशेनैवादचलचित्तो जालो, स्मग्ववाचतो तु जो पुि भणितो सो चेव इदं गाणंगशियं तो वोच्छं ॥ चलचित रह जाययलोपरापरशा पाहगृह्यते स उरतो ऽपवादः पूर्वमद्वारे भवितः स एवे हापि भणितव्यः । वृ०१ च• । रस्य लोवा " ॥ ८ | ४ | ३२६ ॥ इति प्यूमिकापैशाचिकेऽपि रस्य ज्ञः प्रा० ४ पाद चलण-चरण-पुं० | " हरिद्रादौ सः " ॥ | १ | २५४ ॥ इति रस्य लः । प्रा० १ पाद । जं० । औ० ज्ञा० । व्रतभ्रमणधर्मेत्यादिसप्ततिस्थानरूपे चरणे, प्रव० ४० द्वार । 22 चलगा। चलन - न० । कर्मणः संचरणे, विशे० । “चलमाणे चलिए इत्याद्यर्थनिर्णयाचे चलनविषये व्यायाम प्रथमोद्देश के, भ० १ ० १ ० । हस्तशरीरयोश्चालने, ध० ३ अधि० । स्त्री० । चलनं स्पन्दनं, चलाकम्पगः- पद्मनकर्मगति तेन क गतिर्विशिष्यते । चलनाख्यायां कर्मगतौ, दश०१ श्र० ('ग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ७७५ पृष्ठे व्याख्योक्ता) चलणग- चलनगति-बी० तिरियं परिस्पन्वर्तते। । । चलनं स्पन्दनमित्येकोऽर्थः । चलनं च तप्रतिश्व सा चलनगतिः । गमनक्रियायाम्, दश० १ ० । चलणमालिया चरणमालिका श्री पादाभरणमेवे, प्र० 39 ५ सम्ब० द्वार । चला चलना खी स्फुरनायायामेनायाम, (न.) कविदा ते ! चनणा पत्ता । गोयमा ! तिविहा चला पण्णत्ता । तं जहा- सरीरचलणा, इंदियचलला, जोगचणा। सरीरचलणा णं जेते ! कविड़ा पता गो या ! पंचविदा पत्ता । तं जहा प्रोरालिय सरीरचल ०जाब कम्मगसरीरला इंदिलाएं ते क विदा पत्ता | गोमा ! पंचविदा पएणना । तं जद्दासोइंदियचलणा० आप फासिंदियचलणा जोगपणा जंते ! कइविहा पण्णत्ता । गोयमा ! तिविद्दा पत्ता । तं जहा - मएजोगचलणा, वइजोगचक्षणा, कायजोगचलणा । सेकेण्डेणं अंते एवं बुवइ ओरालियस रीरचक्षणा, भोलि यसरीरचक्षणा १ । गोयमा ! जं एं जीवा ओरालिगसरीरे बहुमाणा श्रराधिपसरीरप्पाभोगाई दबाई - रानिय सरीरत्ताए परिणामेमाणे श्रराशियसरी रचलणं सिंमुवा, चनि वा चल्लिस्संति वा । से तेण डे०जाव प्रोरानियसरीरचक्षणा, घोराक्षिण्मरीरचलणा से केणां अंते ! एवं बुच्च-वेडव्वियसरी रचला, वेजव्वियसरीरचला ? | एवं चैव वरं वेजव्वियसरीरे वट्टमाणे एवं० जाव कम्मगसरीरचना | से केण होणं जंते ! एवं वुच्चर - सोइंदि चला,सोदिया है। गोपमानं यं जीवा सोइंदिए माया सोइंदिथप्पा ओग्गा दव्बाई साईदियत्ताए परि णामेमाणे सोइंदियचक्षणं चसिसु वा, चसिंति वा, चनिस्संति मासे ते ० जाव सोईदियचन्त्रणा, सोइंदियचक्षणा एवं० नाब फासिंदियचला। से केणडे भंते ! एवं बुच्चइ-मणगचलणा, पणजोगचलना ?। गोयमा ! जं णं जीवा मरणजोए वहमाना मा जोगप्पा भोग्गाई दव्बाई मण जोगचा परिणामेमाना महाचमणं चलिया, चलते वा चलिस्संतिया, से सें० जाब मणजोगचक्षणा मणजोगचलणा । एवं भोगचला एवं कायजोगचलणा वि । ज० १० श० एन० । Page #1189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चलगिया चव्वाग चनणिया-चलनिका स्त्री० । साध्वीनां कट्युपकरणभेदे, "जा चवल-चपल-त्रि० । आकुले, आ० म० प्र० । कायचपलोपेतप्यमाण चली, अलिए " चलनिकाऽपि कवत नयमो जानुपमानास्यूतलकापनपत्र वंशानर्तकी चलनकवन्मन्तव्या । वृ० ३ उ० नि० चू० । ध० चक्षणी - चलनी - स्त्री | चलनमात्रस्पर्शिनि कर्दमे, जं| ०३ प्रति०| चलनप्रमाणः कर्दमश्चलनीत्युच्यते । भ० ७ श० ६ उ० । चोवनायकारिया चलनोपपातकारिकाख० पादसेवाविधायिन्यां दास्याम, ज्ञा० १ ० १ ० । तथा भ० ३ ० १ ४०) मनोवाक्कायास्यैयत् (स.) स्वपतो वा ( श्र०) संभ्रमवशादेव (श्रा० म० प्र० ) श्राकुले, ग्रा० म० प्र० । श्र० । अनवस्थितचित्ते, प्रज्ञा०२ पद । इतस्ततः कउपमाने, कल्प० १ क्षण । यत्किञ्चनकारिणि, सुत्र०२ श्रु०२श्र० । चञ्चले, शा०१ श्रु० ८ श्र० । चत० । प्रश्न० । घ० । उत्सुकतयाऽ समीहिते, प्रश्न० २ सम्ब० घार हस्तग्रीवादिरूपकाय चलनवति, प्रश्न० ३ सम्ब० द्वार । पारदे, मीने, विकले, दुर्विनीते च । त्रि० । बाच० । " चनमण चमनम् - वि० चलितचित्ते ० १ ० ६० । । चन्झमाण - चन्नत् त्रि० । स्थितिक्कयादुदयमागच्छति विपाकानिमुखीभवति कर्मणि "माणे बलिए" म०१०१० ( " चनमाणे चलिए त्ति " कजकारणभाव' शब्देऽस्मिन्नेव नागे १९९७ पृष्ठे व्याख्यातः ) चल सच - चल सच - त्रि० । चलमस्थिरं परीषहादिसम्पाते ध्वं सात्सस्वं यस्य स चल्लसत्त्रः । अस्थिरसत्वे, स्था० ४ ० ३ • । भङ्गुरसखे पुरुषजाते, स्था० ५ ठा० ३ ० । चलसनाव - चलस्वभाव- - त्रि० । चञ्चलस्वाभिप्राये, “समुद्दीची विव चलसभावाश्रो। " तं० ॥ भ० । चलाचल-चन्नाचल - त्रि० । स्थूणादौ, भाचा० २ ० ५ अ० १ उ० । अप्रतिष्ठितेऽस्थिरे, दश०५ अ० १ ० । चलिदिय-चनेन्द्रिय- त्रि । इन्द्रियविषयनिग्रहे रूपापातं प्राव्याऽसमर्थे, आ० चू० १ ० । चलिय-चलित ईषत्कम्पमा कम्पिते आम० प्र० । स्वस्थानगमनापत्रे, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार । गन्तुं प्रवृत्ते, औ० । "जं पतेसिं चेव गणाणं जहासंभवं चलियठितो पासतो पितो वा जुज्झति तं कुठं चत्रियं णाम ठाणं " नि० चू० 1 २० उ० । 2 - ( १९६६) अभिधानराजेन्द्रः / , चलियरसचलितरस-वि० खितो विनशे रसास्वाद उप लक्षणत्वाद् वर्णादिर्यस्य तश्चलितरसम् । कुथिताभपर्युषितद्विदपूपिका, केवलजजरा रादायक जन्तुसकावाद पुपितोदनपकान्नादिनियादी व ०२० चय - चलुक - पुं० । स्तनाग्रभागे, प्रति० । चलेमाल - चलत् त्रि । गच्छति, श्राचा० १० ८ श्र० १ ४० चलो वगरणडया-चलोपकरणार्थता स्त्री० चलोपकरणलक्षणो योऽर्थस्तद्भाषाहोपकरणता तस्याम भ० ५ ० ४ ० | चल चल - धा० । संचलने, “स्फुटिचलेः ॥ ८ । ४ । २३९ ॥ इति लस्य द्वित्वम् । 'चतुर' चलति । प्रा० ४ पाद । "चवर्णस्याऽचः " || ८ | ४ | २३३ ॥ चव - च्यु- धा० । च्यवने, इत्युनस्यावादेशः । चवर ' व्यवते । प्रा० ४ पाद । च्यव - पुं० । च्यवने, झा० १ ० १ ० । चत्रण - च्यवन- न० | चारित्रात्प्रतिपतने वृ० १ ० । चरण कप्प - च्यवनकल्प-पुं० । च्यवनं चारित्रात्प्रतिपतनं तस्य कल्पः प्रकारच्यवन कल्पः । पार्श्वस्थादिविहारे, पृ० १३० । चल - पुं० [पायने जं०३ ०० "ज्ञा प्पमाणकल्लोल लोलंततोयं " अतित्रपता इति यावत्, तथा उच्चमात्मप्रमाणं येषामेवंविधा ये काम कीभूय पृथक् भवत् एवंविधं तोयं पानीयं यस्य सः । कल्प० ३ कण । चवलक्ख-चपलाक्ष-पुं० । चक्षुरिन्द्रियलोसे, चक्षुरिन्द्रियविपाके, ग० २ अधि० । - बवला - चपला - स्त्री० । विद्युति, लक्ष्म्याम, पुंश्चल्याम्, पिप्पल्ल्याम, विजयायाम्, जिह्वायाम, आर्य्यानेदे च । वाच० दे० ना० । चपलेव चपला क्रोधविशिष्टस्येव श्रमाऽसंवेदात्, जी० ३ प्रति० रा० कायचापल्यवत्यां देवगतौ, कल्प २ क्षण । भ० । पविमाचपेटा श्री " या वेदना पेटारकेसरे॥" ८१ १४६ ॥ इत्येकारस्य वेल्वम विस्तृताहूल दस्ते, प्रतले च । प्रा० १ पाद । चावेयव्व- च्योतव्य- न० । च्यवनीये, कर्त्तव्ये च्यवने, “चषियव्वं भविस्स” स्था० ३ वा० ३ उ० ! चविया-चत्रिका - स्त्री० । वनस्पतिविशेषे, प्रज्ञा • १७ पद । चविला - चपेटा - स्त्री० । “ बपेटा पाटो बा " || ८ | ११६८ ॥ इति टस्य वा लः । प्रा० १ पाद पत इद्वा वेदना चपेटादेवरकेसरे " ॥ | १ | १४६ ॥ इतीत्वम् । प्रा० १ पाद करतल 66 घाते, उत्त० १ श्र० । चमी देशी-करसंपुटे, दे० ना०३ वर्ग -देशी-चनीये दे० मा ३ वर्ग पवार (ए) पाकिणिशीले, "रोमं जं, चण्वागी नीरसंच बिसने प्ति ।" यथा वृपनेत्रं वृषसागारि कं नीरसमपरो वृषभधयति एवं यः कार्य रोमन्यायमानो निष्फलं रचयतिष्ठेत चर्वहारासायी वारी व्य० ३३० । चव्वाग - चार्वाक - पुं० । लोकायतिके, (सुत्र०) चावकास्त्वेवमनम्ति यथा नास्ति करिपरलोकयाची भूतपञ्चकातर पदार्थो नापि पुचपास्त इत्यादि एवं कृत्यैते लोकायतिकाः मानवाः पुरुषाः सक्ताः गृका अभ्युपपन्नाः कामेष्विच्छ मदनरूपेषु । तथा चोचुः"तायानेच पुरुषो यावानिन्द्रियगोचरः । भ ! वृकपदं पश्य, यद्वदन्त्यबहुश्रुताः ॥ १ ॥ पिव बाद च साधु शोभने !, Page #1190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९६७) चव्वाग अभिधानराजेन्मः। चाइ (ण) यदतीतं वरगात्रि! तन्न ते। णकस्स प समावएणो व्हिाणि मगति । अपणया रायाणं न हि भीरु! गतं निवर्तते, विन्नवरे-जदि वि तुम्हे अम्हं वित्तं ण देह, तहा वि अम्हेहिं समुदयमात्रमिदं कलेवरम ॥२॥" सत्र.१७०१०१००। तुम्ह हियं वत्तब्बं । भणियं च तुम्ह माया चाणकेण मारिया । प्रमाणं चात्र प्रत्यक्षमेव, नानुमानादिकम् रना धाती पुच्छिया । श्रामं ति । कारणं ण पुच्छियं । केण विकारणेसं रन्नो य सगासं चाणको आगो, जाव दिढेि णो. संति पंच महन्नूया, इह मेगेसिमाहिया। देति ताव चाणिको चिंतेति-रुट्टो एस राया। अहं गताउ पुढवी प्रान तेज वा, वान आगास पंचमा ॥ ७॥ त्ति काउं दब्बं पुत्तपपुत्ताणं दाऊणं संगोवित्ता य गंधा संजोसन्ति विद्यन्ते महान्ति च तानि भूतानि च महाभूतानि, इया, पत्तयं च लिहिऊण सो विजोगो समुग्गे बूढो । समुग्गो य सर्वलोकन्यापित्वान्महत्वविशेषणम, अनेन च जूताभाववादि. चनसु मंजूसासु बूढो, तासु बुभित्ता पुणो गंधो धरए बूढो,तंनिराकरणं घटव्यम् । इहास्मिम् लोके एकेषां नूतबादिनामा यहूदि कीलियाहिं सुघडियं करेता दवजायं णातवग्गं च ख्यातानि प्रतिपादितानि तत्तीर्थकृता तैर्वा भूतवादिभिर्धा धम्मे णिवत्ता अमवीए गोकुलहाणे इंगिणिमरणं अभुवगईस्पत्यमतानुसारिभिराख्यातानि स्वयमङ्गीकृत्यान्येषां च प्र श्रो । राणा य पुच्छियं-चाणको किं कर? धातीय से सवं तिपादितानि | तानि चामूनि-(सूत्र. टी.)-पृथ्वी १ आपो| जहावतं परिकहह । गहियपरमत्येण य नाणयं-अहो!मया अजनं २ तेजो बह्निः ३ वायुः। श्राकाशं पञ्चमं येषां तानि । समिक्खियं कतं, सब्बतेउरजीहवलसमग्गो खामेडं णिग्गमनु सांण्यादिभिरपि नृतानि मन्यन्त एव तत् कथं चार्वाक तो, दिट्टो अणेण करीसभाहो, खामियं सबहुमाणं, जणि'मतापेक्तयैव नूतोपन्यास ति चेत् ?, उच्यते-साङ्ख्यादिभिर्हि ओ अणेण-णगरं वश्चामो । नणति-मए सब्बपरिश्चानो को प्रधानाहङ्कारादिकं तथा कालदिगात्मादिकं चान्यदपि वस्तु त्ति, तओ सुवंधुणा राया विएणविप्रो, अहं से पृयं करेमि अ. जातमङ्गीक्रियते |चार्वाकैस्तु नूतव्यतिरिक्तं नात्मादि किञ्चिन्म जाणह, अणुमाए धूवं डहिऊणं तम्मि चेव एगप्पदेसे करीन्यत इति तन्मताश्रयणेनैवायं सूत्रोपन्यास इति । (सूत्र० दी०)। सस्सोवरि ते अंगारे परिध्वति । सो य करीसो पलितो, यथा चैतत् तथा दर्शयितुमाह दलो चाणको । ताहे सुर्वधुणा राया विएणविओ-चाणकस्स एए पंच महब्नूया, तेभो एगो त्ति आहिया । संतियं घरं ममं अणुजाणह, अणुमाए गओ पच्चुविक्खमाणेण अह तेसिं विणासेणं, विणासो होइ देहियो । य घरं दिछो, अपवरको घट्टियो । सुबंधू चितरे-किम" एए पंच महन्नूया ” इत्यादि । एतान्यनन्तरोक्तानि वि अच्छति । कबामे भंजित्ता उग्घामिउ मंजूसं पास । सा पृथिव्यादीनि पञ्च महाजूतानि यानि तेयः कायाकारपरि-1 पञ्चमहाजूतान यानि तन्यः कायाकारपरि- वि सम्घाडिया जाब समुग्गं पासह । मघमघंतगंधयं पत्तयं पे. णतेभ्य एकः कश्चिश्चिद्रूपो जूताव्यतिरिक्त प्रात्मा जवात, न तितं पत्तयं वापति । तस्स य पत्तयस्स एसो अत्थी-जो एय नतेभ्यो व्यरिक्तोऽपरः कश्चित्परपरिकल्पितः परलोकानु-| चुन्नयं अघाएति-सो जा रहार वा,समालनवा, अलंकारेश पायी सुखदुःखमोक्ता जीवाल्यः पदार्थोऽस्तीत्येषमाख्यातव. सीओदगं च पिबति महतीए सिजाए सुवति जाणेण गच्चन्तस्ते । तथाहि एवं प्रमाणयन्ति-न पृथिव्यादिव्यतिरिक्त इगंधव्वं वा सुणेश, एवमादी अन्ने वा के विसए सेवति । मात्माऽस्ति, तबाहकप्रमाणाभावात् । सूत्र०१ श्रु. १ ० १ जहा साहुणो अच्छंति तह सो जदि ण अच्छेह तो मरति। उ.प्राचा.। ('माता' शब्द द्वितीयभागे १८० पृष्ठे चैतदा तादे सुवंधुणा विणासणत्थं प्राणो पुरिसो अग्घावित्ता सहाइस्मनः साम्परायिकत्वसिद्धिय॑क्केणोपापादि) णो विसए मुंजाविओ,मओ य, तो सुबंधू जीवियही, प्रकामो चम्बागि (ण)-चार्वाकिन-त्रि०। 'चव्वाश्ण' शब्दार्थे,व्य०३००। साहू जहा अत्यंतो विण साहू।" एवमधिकृतसाधुरपि न सा. चसग-चपक-पुं० । सुरापानपात्रे, जं०५ वक्त। धुरतो न त्यागीत्युच्यते, अभिधेयाऽर्थानावात् । चाइ (D)-त्यागिन्-त्रि० । सङ्गत्यागवति, भ०२श०१ उ०।। यथा चोच्यते तथा अन्निधातुकाम भाहपं०व० । आजीविकादिजयप्रव्रजितः संक्लिष्टचित्तो व्यक्रियां। जे य कंते पिए भोए, बके विपिट्टि कुव्वा । कुर्वन्नप्यश्रमण एवाऽत्याम्येव , कथम?, यत प्राह सूत्रकार:- साहीणे चयई भोए, से हु चा त्ति वुच्च।। ३ ॥ वत्थगंधमलंकारं, इत्योश्रो सयणाणि य । चशब्दस्य अवधारणार्थत्वात् य एव कान्तान् कमनीयान्, अच्छंदा जे न तुंति, न से चाइ ति वुच्च ॥३॥ शोभनानित्यर्थः। प्रियानिष्टान,इह कान्तमपि किश्चित् कस्यचित् घनगन्धालङ्कारानित्यत्र वस्त्राणि चीनांशुकादीनि, गन्धाः को कुतश्चिनिमित्तान्तरादप्रियं भवति । यथोक्तम्-"चाहिं गणेटिं ष्टपुटादयः, असङ्काराः कटकादयोऽनुस्वारोऽलाक्कणिकः, स्त्रि संते गुणे णासेज्जातं जहा-रासेणं,पमिनिवसेणं,अकयराणुयाए, योऽनेकप्रकाराः, शयनानि पर्यङ्कादनि, चशब्द आसनाद्यनु मिच्छत्ताग्निनिवेसेणं।" अतो विशेषणं प्रियानिति, भोगान् श. क्तसमुच्चयार्थः । एतानि वस्त्रादीनि किम् ?, प्रच्चन्दा अस्व. ब्दादीविषयान्, लब्धान् प्राप्तान, उपनतानिति यावत् । (विपिघशाः, ये केचन , न भुञ्जते नासेवन्ते । बहुवचनोद्देशेऽप्येक | ट्रिकुब्बइत्ति) विविधमनेकै प्रकारैः शुनभावनादिभिः, पृष्ठतः पचननिर्देशः। विचित्रत्वात्सूत्रगतेः, विपर्ययश्च नबत्येवेति कृ- करोति, परित्यजनीत्यर्थः। स च न बन्धनबहःप्रोषितो घा, किंतु त्वा आह-नाऽसौ त्यागीत्युच्यते सुबन्धुवन्नासौ श्रमण इति सू. स्वाधीनोऽपरायत्तः, स्वाधीनानेव त्यजति जोगान् । पुनस्स्याप्रार्थः। कः पुनः सुबन्धुरित्यत्र कथानकम्-"जया दो चंदगुत्ते- गग्रहणं प्रतिसमयं त्यागपरिणामवृद्धिसंसूचनार्थम् । भोगग्रहण णिच्छूढो, तया तस्स दारेण निगाच्छंतस्स पुहिया चंदगुस्से णं तु संपूर्णभोगग्रहणार्थ, त्यक्तोपनतनोगसूचनार्थ वा। ततश्चय दिपिंधर । एयं अक्खाणयं जहा श्रावस्तए-जाव विंदुसा. ईशा, हुशब्दस्याघधारणार्थत्वात्, स एव त्यागीत्युच्यते, नररो राया जाओ, गंदसतिओ य सुवंधूणाम अमचो। से चा- तादिवदिति । अत्राह-"जदि भरह जंतुनामादिणो संपुम्मे जे संत Page #1191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाइ (ण) अन्निधानराजेन्डः। चानम्मासी भोगे परिचयंति,ते परिचाणो,एवं ते भणंतस्स अयं दोसो भव- हिस्ताद्धम्मोंपकरणाद्वहिर्यदिति, इह च मैथुनं परिग्रहेऽन्तर्भति-जे के अत्थसारहीणा दमगाणो पब्बइकण भावो अहि. वति , न ह्यपरिगृहीता योषित् जुज्यत इति । प्रत्याख्येयस्य प्रा. सादिगुणजुत्ते सामने अन्नुज्जुया,ते किं अपरिचाणो हवंति? णातिपातादेश्चतुर्विधत्वाश्चतुर्यामता धर्मस्येति । इयं चेह भावआयरिश आह-ते वि तिमि रयणकोमोश्रो परिच्चाकण ना-मध्वमतीर्थकराणां वैदेहिकानां च चतुर्यामकधर्मस्य पूजावो पब्बड्या-अग्गी, उदयं, महिला, तिमि रयणाणि लोग- पश्चिमतीर्थकरयोश्च पञ्चयामधर्मस्य प्ररूपणा शिष्यापेक्कया। साराणि परिवाऊण पब्वइया दिटुंतो-एगो धम्मिपुरिसो सुध- परमार्थतस्तु पञ्चयामस्यैवोनयेषामप्यसौ,यतः प्रथमपश्चिमतीम्मसामिणो सगासे कहारओ पव्वश्त्रो, निक्खं हिंडतो लो- र्थकरतीर्थसाधव ऋजुजडाः, बक्रजडाश्चेति, तत्वादेव परिग्रहो एण जाति-एसो सो कहारओ पवश्नो,सो सेहत्तेण पायरि- वर्जनीय इत्युपदिष्टो मैथुनवर्जनमवयोर्बु पालयितुं च म क्वमाः, यं भणति-मयं अन्नत्थ णेह, अहं न सकेमि अहियासित्तए। मध्यमविदेहजतीर्थकरतार्थसाधवस्तु ऋजुप्राशास्तद्वाद्धं घर्जपायरिपदि अजो आपुच्चिो -बच्चामो त्ति । श्रभो भणति- | यितुं च कमा इति । मासकप्पपानग्गं खित्तं किं एयं न भवति, जेण अच्छके नवतश्चात्र इलोकोअन्नत्य वचह?। पायरिपहिं भणियं-जहा सेहनिमित्तं । अभश्रो "पुरिमा उज्जुजडाओ, बंकजमानो य पच्छिमा। भणति-अत्थह वीसत्था, अहमेयं लोग उवाएण निवारेमि । मज्झिमा उज्जुपमाओ, तेण धम्मे दुहा कए ॥१॥ चिओ पायरियो । वितिप दिवसे तिन्नि रयणकोमीश्रो ठवि. पुरिमाणं दुव्विसोको न , चरिमा पुरणपालए । याओ, उग्घोसावियं नयरे-जहा अभो दाणं देति । लोगो कप्पे मज्झिमगाणं तु, सुचिसोके सुपालपत्ति॥२॥"स्था भागतो । जणियं च णेण-तस्साई एयाओ तिम्नि कोडीयो ४ ठा.१ उ० । “अज्जा विण सुपासा पासावञ्चेज्जा अागदोमि, जो पयाई तिमि परिहरइ-अग्गी, पाणिय, महिलियं य । मेस्साए उस्सप्पिणीए चाउज्जामं धम्मं पन्नबित्ता सिकिर्हिति० लोगो जणति-पतेहिं विणा किं सुबन्नकोमोहिं । अनमो भणति- जाव अंतं काहिति" || स्था• ६ ठा। पश्चयामचतुर्यामधर्मवितो कि भन्मह-दमोति पब्बइओ। जो विणिरत्यो पव्यश्ओ चारः केशिनं प्रति गौतमेनोद्भावितः । उत्त०५३ अा कप्पतेण व पयानो तिन्नि सुवन्नकोडीओ परिच्चत्तायो । सच्चं हि' शब्दे अस्मिंशेव भागे१३३ पृष्ठे 'अकप्पछिईशब्दे च प्रथसामि! हिरो लोगो पत्तीभो। तम्हा प्रत्यपरिहाणो वि संजमे | मजागे ११७ पृष्ठे चातुर्यामिकपश्चयामिकानां कल्पाऽकटपचिो तिन्नि लोगसाराणि-अम्गी उदयं महिलाओ य परिच्चयंतो साइ ति लम्भति।" कृतं प्रसनेति सूत्रार्थः । दश |चानस्थिय-चातथिक-पं० । चतर्थे चतर्थेऽह्नि जाया अष्ट०। | गभेदे, जी० ३ प्रति०। चाउमा-चामुंमा-स्त्री०i "यमुनाचामुण्डाकामुकातिमुक्तके मो. चाउद्दसी-चातुर्दशी-स्त्री०। प्रतिपद प्रारभ्य चतुर्दशेऽहोरात्रे, अनुनासिकश्च" ॥८।१७८१ ॥ इति मस्य स्थानेऽनुनासिकः । ज्यो० ३ पाहु० । द०प० । “ चाउसिं पनरसिं, वजेजा चएडमुण्डविघातिन्याम्, प्रा०१ पाद । चानक्कोण-चतुष्कोण-त्रि०। चत्वारः कोणा अनयो यस्य सः। अटुर्मि च नवार्म च।" विशे। चतुरने, जी. ३ प्राते। चाउम्मास-चातुर्मास-पुं०। चत्वारो मासाः समाहृताश्चतुर्माचानघंट-चतुर्घण्ट--त्रि० । चतस्रो घण्टाः पृष्टतोऽग्रतः सं, तदेव चातुर्मासम् । मासचतुष्के, यथा आषात्याः कार्ति की यावत् उत्कृष्टः पर्युषणाकल्पः । पञ्चा०१७विव०। प्रव० । च. पाश्वतश्वालम्बमाना यस्य सः । नि.१ वर्ग । जं०।का।च | तुषु मासे भवे, पञ्चा०१५ विव.चतुर्मासकत्रयाका श्रादिका तुघएटोपेते, भ• ६ श• ३३ २० । कुत उपविशतीति प्रश्ने, उत्तरम-सप्तमीतः उपविसति, परं पूर्णिचाउज्जाम-चाताम-न०। चतुर्णी परिग्रहविरत्यन्तर्भूतब्रह्मच- मावासरे सुपर्वतिथित्वादात्मन इति। १५५ प्र. सेन०४ उल्ला०। यत्वेन चतुःसङ्ख्यानां यानानां समाहारश्चतुर्यामम ।। अथ वटपल्लीयपन्यासपद्मविजयगणिकृतप्रशास्तमुत्तराणि च पश्चा० १७ विव० । पं० ना० । स्था० । तदेष चातुर्या- यथा--सामाचार्यो चत्वारि पञ्च वा योजनानि गन्तुमामम् । प्रव० ७७ द्वार । नि० चूचितुमहाव्रत्याम, स्था। गन्तुं च कल्पते इत्युक्तमस्ति , तमनागमनमाश्रित्य, किंवा भरहेरवएस णं वासेसु पुरिमपच्छिमवाजा मजिकमगा गमनमाश्रित्यैवेति प्रो, उत्तरम-चतुर्मासकमध्ये ग्मानौष धादिकारणे चत्वारि पञ्च वा योजनानि गच्छति, तान्येवागवाचीसं अरहंता भगवंता चाउज्जामं धम्मं पनाविति । तं चति, न तु ग्लानौषधादिकार्ये संपूर्णे सति कणमात्रमपि तत्र जहा-सव्वाश्रो पाणाश्वायाओ वेरमणं,एवं मुसावायाओ, तिष्ठति, तथा यत्साशं योजनमस्ति तमनागमनाच्या केय. अदिनादाणाश्रो, सव्वाश्रो बहिबादाणाओ वेरमणं, स- मिति । ३५७ प्र० सेन० ३ उल्ला•। ब्बेसुण महाविदेहेसु अरहंता जगवंना चानज्जामंधम्म प-चानम्मासिय-चातुर्मासिक-पुं० । कृस्वषिशेषे, पाक्तिकचातुर्माभवयंति । तं जहा-सव्वाओ पाणाइवायाप्रो वेरमणं० जाव सिकादितपः कियता कालेन प्राप्यते इति प्रश्न, उत्तरम्-यया शसवाओ वहिबादाणाओ वेरमणं ॥ क्त्या तत्तपः त्वरितमेव पूर्णीभवति तथा विधीयते,कालनियम स्तु प्रन्ये ज्ञातो नास्तीति । ३४ प्र० सेन० ४ उल्ला० । द्वाविंशतिरिति । चत्वारो यमा एव यामा निवृत्तयो यस्मिन् । स तथा। (बहिखादाणाो त्ति) बहिका मैथुनं, परिग्रहविशेषःचानम्मासी-चातुमोसी-खी । चातुर्मास्ये, ध०। ('पज्जश्रादानं च परिग्रहः,तयोद्वन्द्वैकत्वम् । अथवा-श्रादीयत इत्या- सणा' शब्द साधूनां सामाचारी बक्यते ) श्रावकाणां तु दानं परिग्राह्य वस्तु,तच धर्मोपकरणमपि भवतीत्यत आह-ब-। चातुर्मासीकृत्यानि यथा--पूर्वप्रतिपन्नवतेन प्रतिचतुर्मा Page #1192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चानुम्मासी सकं तन्नियमाः संक्षेप्याः, श्रप्रतिपन्ननियमेन तु यथास्वं प्र वितुमखर्क नियमा ब्राह्या वर्षाचतुर्मास्यां पुनर्वे नित्यानी यमाः सम्यक्त्वाधिकारे प्रागुक्तास्ते विशिष्य ग्राह्याः । तथादिशिर्फियां देवपूजाऽष्टभेदादिका संपूर्णदेवचन्दनं चैस् सर्ववि मात्रमहोमहापूजाप्रभावनादि गु द्वन्दनम, अङ्गपुजनप्रभावा स्वस्तिकरचनादिपूर्व व्याख्यानश्रवणं विश्रामणा अपूर्वज्ञानपावायनेकविधस्वाध्यायकरणं प्रा सुकनीरपानं सत्यागस्तद्ायमुपयोगित्वादङमितिस्तम्भखट्टा पट्टी का सितलजलादिभाजने मधनधान्यादिसर्ववस्तूनां पनकादिसंसक्तिरकार्थ चूर्णकर कादि जलस्य खरएटनमलापनयनातपमोचनशीतलस्थापनादिना द्विखगनादिना स्नेहगुडनजलादीनां सम्पायनादिना स्नानादीनां पनकायसंसकरजोब पृथक पृथक त्यागेन दीपादेरनुद्वाटमोचनेन पेषणन्धनमा जनादानादी सम्पक प्रत्युपेत्यशालादेरपि विलो मानसमारवर्तन गृहे व व्यापारणस्थानो यथाई यतना अन्यायान पपपपचननिरर्थकपाच जन दिन रातथाशको पतिथिपावनं शेषदिनेषु दिवाऽब्रह्मत्यागो रात्रौ परिमाणकरणं च इच्छापरिग्रहपरिमाण संकेपतरः सर्वदिग्गमननिषेधस्तदशक्तावनुपयोगिदिग्गनननियमः यथाशक्ति स्नानशिरोगुम्फनदन्तका पानादिरयाग भूखनन व खादिरशन शंकट लेटनादिनिषे धादिना लिपि राजगाद लिपिकादिपदिकादिशुष्क शाकीय कादिकनागपीपल परकब खाकादीन फुलिकुन्थ्विलिकादिसंसक्तिसंभवात् त्यागः, श्रोषधादिशेषकार्ये तु सम्यग् शोधनादियतनतयैव तेषां ग्रहणं खरकर्मव्यापारवर्जन जलकीडादिनियमन स्नानोवरधनादिदे शाकाशिक सामायिक पोषपतानां विशेषतः पर्वसु करणं नित्यं पारणे वाऽतिथिसंविभागः यथाशक्त्युपधानमासादितिमाचाद्रियसंसारतारणाष्टाहिकापत कृपणमासप दिविशेोविधानं रात्री चतुर्विधाहारस्य त्रिविधाहारस्य वा प्रत्यास्थानं दीनानाथादरणमित्यादीनि दिन्यश्वतुर्मास्यनिग्रहप्रतिपादिकाः पूर्वाचार्यप्रणीता गाथाः विधि तथाहि "चाउम्मासिश्रभिग्गह, नाणे तह दंसणे चरित्ते श्र । तत्रविरिश्रायारम्मिश्र, दब्वाइ अगहा हुंति ॥ १ ॥ परिवार्ड सभाओ, देसणसवणं च चिंतणं चेव । सती काय, सिश्रपंचमि -माणपूआ य ॥ २ ॥ संमोचवण गृहनियामंगणं चायभवणे । बेहद निम्मलकरणं च विचाणं ॥ ३ ॥ चारित्तम्मि जलूश्रा, जूनागंडोलपाडणं चेव । चणकीमखारदा, इंधणजवणऽन्नतस रक्खा ॥ ४ ॥ बज्जर अभक्खाणं, अक्कोसं तद य रुक्खवणं च । देवगुरुमकरणं, पेसुम्नं परपरीवार्य ॥ ५ ॥ पिमाणि जयणं निहि रुपमाविसम्म । दिणें मरयणिवेला परनर से वाइपरिहारो ॥ ६ ॥ घणयन्नानवदिच्छामि निश्रम परपेलसंदेसय, अह गमखाईऍ दिति साये ॥ ७ ॥ हागवण-विक्षेचा रवलं । २६३ ( १९६०) अभिधानराजेन्द्रः । - - चाउरंत ॥ घणसागुरुकुंकुमपोहिसमयमा हिपरिमाणं मंगुलियरागारा पत्थपरिमाणं । र बजे मणिका रुपमुत्ताश्परिमाणं ॥ ५ ॥ जंबीर- नारिंग जरा। डिक्लोमायमचं ॥ १० ॥ बजुद डिमना लिफेराई । विविणार फभिडवणं ॥ ११ ॥ कपरकरमंया नोरविला च । अत्यागं अंरिमाणाविलपताणं ॥ १२ ॥ समय पहुची अकार्यकमसो । निगाणं इष्याणं कुण परिमाणं ॥ १३ ॥ सुत्रधोअपुलिंपण- - खत्तक्खणणं च न्हाणदाणं च । जूत्रक मुलमन्द-स्स खित्तकजं च बहुश्रं ॥ १४ ॥ संगणचीणमाईण कुमार संक्षेच जल जिन्ननण रंघण - उब्बट्टएमा आाणं च ॥ १५ ॥ देसावगाविप, पुढवीखणणे जलस्स आणवणे । तद् चीरघोणे न्दा-णपिश्रणजलणस्स जालणप ॥ १६ ॥ तद दीयो पापणे हरिणे चेव । अणपणे गुरु-जये ॥ १७ ॥ पुरिसा सणसणी, तह संत्रासणपलोषणाईसु | यद्वारे परिमाणं दिसि माणं भोगपरिभोगे ॥ १ ॥ तद् सत्य, सामाश्यपोस तिदि विभागे । सव्वेसु विसंखेवं, काढं पदिवसपरिमाणं ॥ १६ ॥ खंडणीसणरंण मुंजयविणवत्थरपणं च । । २० ॥ - ॥ २२ ॥ कलियो वाहणरोहण लिफ्लाइज परिभोगे । निंदणादणा कम्मे ॥ २१ ॥ संवरणं कायव्वं, जहसंभवमणिं तहा पढणे । जिणभवने सुरा रागुणणजंराभव किच्चे कलातही सबसे काहामि उज्जनम, धम्मत्थं चरिसमज्जाम्मि ॥ २३ ॥ धम्मन्थं मुदतीजला भोसहाइदाणं च । साहम्मिश्रवच्छलं, जहससि गुरुण विणश्रो श्र ॥ २४ ॥ मासे मासे सामा-श्रं च बरिसम्मि पोसद् तु तहा । कादाम सत्तीप, श्रतिहोणं संविभागं च ।। २५ ।। इति चतुर्मासीकृत्यानि । ६०२ अधि० । श्राब० । ( 'पमिका' शब्देातुमणि) - 1 चाउरंगिज्ज - चातुरङ्गीय- न० । उत्तराध्ययनेषु चतुर्थेऽध्ययने, तत्र हि मानुष्यं १ श्रुतिः २ धर्मः २ श्रद्धा ४ चेति चश्वारि परमाङ्गाणि गतानि स० ५१ सम० मनुः । चाउरंत चातुरन्त त्रि० । चत्वारोऽस्ताः पर्यन्ताः पूर्वदक्षिणप मिसमुद्रमिशणा यस्याः पृथिव्याः सा चतुरन्तात स्या श्रयं स्वामित्वेनेति चातुरन्तः । स्था० ४ ० १० । चत्वारोऽन्ता जुमिजागाः पूर्वसमुषादिरूपा यस्य स तथा स एव चातुरन्तः । चक्रवर्त्तिनि, प्रश्न० ४ श्रश्र० द्वार | चतुरन्वन० चतसृणां गतीनां नारकनिरामयानाम न्तो यस्यास्तच्चतुरन्तम्, समृध्यादित्वादात्वम् । घ०२ अधि० । चत्वारोऽन्ता गतयो यस्य स तथा चतुर्गतिके, सूत्र० २ ० २ Page #1193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९७०) चानरंत अभिधानराजेन्दः। चाउलोदग अ० २उ० । प्रश्न । दिग्भेदगतिभेदाभ्यां चतुर्विभागे, प्रश्म०२ स्ते यावन्न शाम्यन्ति विध्वंसमुपयान्ति तावत् तत् सराफुलोआश्र• द्वार । दकं मिश्रमित्यके । अपरे पुनराहुः-तण्डुलोदके तन्दुसप्रकाब नभाएमकादपरस्मिन् भाण्डके प्रक्षिप्यमाणे ये तन्दुलोदकचाउरंतचक्कवाट्टि (ण)-चातुरन्तचक्रवर्तिन-पुं०। चत्वारोऽन्ताः स्योपरि समुद्भता बुबुदास्ते यावदद्यापिन शाम्यन्ति नविनाशसमुज्त्रयहिमवन्नकणा यस्याः सा चतुरन्ता पृथ्वी , तस्या अयं स्वामी चातुरन्तः, स चासौ चक्रवर्ती चेति । स्था० मियूति तावत् तन्मुलोदकं मिश्रमिति । अन्ये पुनरेवमाहुः-त न्दुलप्रक्षासनानन्तरं तन्दुमा रन्धमारब्धास्ततस्ते यावन ५ ग०। चतुर्षु पूर्वापरदकिणोसररूपेषु अज्ञेषु वनितुं सीलमस्येति । राजी . । चतुरन्ताया भरतादिपृथिव्या एते राध्य रित, यावन्नाद्यापि सिध्यन्तीति जावः । तावत् तन्दुलो दकं मिश्रमिति । स्वामिन इति चातुरन्ताः , चक्रेण वर्तनशीलत्वाश्च चक्रवतिमः, ततः कर्मधारयः । चतुरन्तग्रहणेन च वासुदेवादीनां एषां त्रयाणामप्यादेशानां दूषणान्याहव्युद। ।भ. १२ श० एउ० । चतुरन्तायाः पृथिव्या ईश्वरेषु एए उ अणाएसा, तिमि वि कालनियमस्सऽसंजवओ। चक्रवातषु चतुहियगजरथपदातिनिः सेनाकैरन्तोऽरीणां बुक्खेयरनं मगपय-णसंभवासंभवाईहिं ॥२२॥ विनाशो यस्य सः, चतुरन्त एव चातुरन्तः । आसमुषमा हिमालय विविधविद्याधरवृन्दगोतकीर्तितया एकच्चत्रषखएम एते त्रयोऽप्यनादेशा एव, तुशब्द एवकारार्थो भिन्नक्रमश्च, राज्यपालके, उत्त० ११ अ०।। कुतोऽनादेशा इत्याह-कालनिषमस्यासंजवात, न खलु वि द्वपगमे, वुवुदापगमे, तएफुलपाकनिष्पत्तौ वा, सदा सर्वत्र चानरंतसंसारकतार-चातुरन्तसंसारकान्तार-पुं० । चतुरन्तं प्रतिनियत एव कालो, येन प्रतिनियतकालसंभावनो मिचतुर्विभाग नरकत्वादिभेदेन, तदेव चातुरन्त, तश्च तत्संसार श्रत्वादूर्द्धमचित्तत्वस्याप्यभिधीयमानस्य न व्यभिचारसंकान्तारं चेति । चतुर्गत्तिके संसाराऽरण्ये, स्था० । “तिहि जबः । कथं प्रतिनियतः कालो न घटते ? इति कालठाणेहिं संपन्ने अणगारे अणाईयं अणवदगां दीहमकं चाउरत- नियमासंभवमाह-" लुक्नेयर" इत्यादि । सतरभाण्डपवनसंसारकंतारं विश्वएज्जा । तं जहा-अणिदाणयाए, दिठिसंप- संभवासंभवादिभिः । अत्रादिशब्दाच्चिरकालसलिलनिन्नप्रयाए, जोगवाहियाए ।" स्था० १ ० ३ उ. । स्वादिपरिग्रहः। श्यमत्र भावना-इह यदा पाकतः प्रथममानीतं, चाउरकगोखीर-चातुरक्यगोक्षीर-न० । चतुःस्थानपरिणाम- चिरानीतं वा सहजलादिना न भिन्नं जाएमं तत रूतमुच्यते, पर्यन्ते गोकीरे, (जी०) तश्चैवम्-गवां पुरामूदेशोद्भवेक्षुचारि स्नेहादिना तु जिन्न स्निग्धं, तत्र रूके भाण्डे तमुलोदके प्रणीनामनातड्डानां कृष्णानां यत् वीर तदन्यान्यः कृष्णगोभ्य विष्यमाणे ये विन्दवः पार्श्वेषु लग्नास्ते जाएमस्य रुकतया झटिएव यथोक्तगुणाभ्यः पानं दीयते तत्कीरमप्येवं नूतान्योऽन्या त्येव शोषमुपयान्ति, स्निग्धे तु भारमे भारमस्य स्निग्धतया भ्यस्ततीरमप्यन्यान्य इति चतुःस्थानपरिणामपर्यन्तम्, एवं चिरकानम्।ततःप्रथमादेशवादिना मते रूके भागमे विन्दूनामपभूतं यत् चातुरक्यं गोकीरम् । जी० ३ प्रति० । प्रा० म.। गमे परमार्थतो मिश्रस्याप्यचित्तत्वसनावनया ग्रहणमसंगः स्नि ग्धे तु भारमे परमार्थतोऽचित्तस्यापि विन्दुनामपगमे मिश्रत्वेन चानल-तएमुल-पुं० । शालिव्रीह्यादेस्तरमुले, प्राचा० २ सनावनया न ग्रहणमिति । तथा वुडदा अपि प्रचुरखरपवनसंपश्रु० १०१ १० । दे० ना०३ वर्ग। तो झटिति विनाशमुपगच्छन्ति , प्रचुरखरपवनसंपर्काचाउलपनंब-तण्डुलप्रनम्ब-न० । 'चानलाः' तरामुयाः शा- भावे तु चिरमप्यवतिष्ठन्ते, ततो द्वितीयादेशवादिनामपि मते सिब्रीह्यादेस्त एव चूर्गीकृतास्तत्कर्णिका वा । आचा०२श्रु.१ यदा खरप्रचुरपवनसंपर्कात झटिति विनाशमैयरुवुवुदास्तदा ०१ उ.। अर्द्धपक्क शाल्यादिकणिकादिके, प्राचा०२ श्रु०१ परमार्थतो मिश्रस्यापि तन्दुलादेकस्याचित्तत्वेन संभावनया अ०६ उ० । भग्नशाल्यादितण्मुलेषु, प्राचा०२ श्रु०१० ग्रहणप्रसङ्गः। बदा तु खरप्रचुरपवनसंपर्काभावे चिरकालमप्यव११ उ.। तिष्ठन्ते वुदवुदास्तदा परमार्थतोऽचित्ततूतस्यापि तन्दुलोदकस्य खुदबुद दर्शनतो मिश्रत्वशङ्कायां न ग्रहणमिति । येऽपितृतीयादेशचाउलपिट्ठ-तएलपिष्ट-न । तम्पुलसत्कपिष्टे, प्राचा०२ वादिनस्तेऽपिन परमार्थ पर्यालोचिबवन्तः, तन्दुबानां चिरकाशु०१०८ उ०। लपानी भिन्नाभिन्नत्वेन पाकस्य नियतकालत्वात् । तथाहि-ये चाउलोदग-तरामुमोदक-न । अट्टिकरके, " तंमुसादगं - चिरकालसनिलजिन्नास्तन्मुला न च नवीना इन्धनादिसामग्री हुणा धोयं च वज्जए" दश. ५ अ० ।ब० । तरामुलधा- च परिपूर्णा ते सत्वरमेव निष्पद्यन्ते, शेषासु मन्दं, ततस्तेषामपि बनोदके (ग.) "चाउलउदगं बहुपसन्नं" चाउलोदकं त- मतेन कदाचिन्मिश्रस्याप्यचित्तत्वसंभावनया ग्रहणप्रसङ्गः एकुलोदकमबहुप्रसन्न नातिस्वाभृतं, मिश्रमित्यर्थः । अबहु- कदाचित्पुनचित्तौजूतस्यापि मिश्रत्वशङ्कासनवादग्रहणमिति प्रसममित्यत्रादावकारलोपः, आर्षत्वात् । त्रयोऽप्यनादेशाः : आदेशत्रिकमेव दर्शयति . संप्रति यः प्रवचनाविरोधी प्रादेशः प्रागुपभंगपासगलग्गा, उत्तेमा बुब्बुया य न समेति। दिष्टस्तं विभावयिषुराहजा ताव मीसगं तं-मुला य रति जावऽन्ने ॥२॥ जाव न बहु प्पसन, ता मीसं एस इत्थ आएसो। सपमुखोदके तणमुलपकालनभाएमादम्पस्मिन् भाएने प्रक्तिप्य होइ पमाणमचित्तं, वहुप्पसनं तु नायचं ॥ २३ ॥ माणे ये त्रुटित्या भारामकस्य पाश्र्वेषु 'उत्तेढा' विन्दवो लग्ना- यावत्सन्दुलोकन बहु प्रसन्नं नातिस्वच्छचीनूतं तावन्मिश्र Page #1194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९७१) चाललोदग निधानराजेन्द्रः चाणक मवगन्तव्यम । एषोऽत्र मिश्रविचारप्रक्रमे नमत्यादेशः प्रमाणं, प्राप्य चन्दनगन्धाभ, धर्मसंन्यासमुत्तमम् ॥४॥ न शेषं , यत्तु बहुप्रसन्नमात स्वच्छीनूतं तदचित्तं ज्ञातव्यम् । गुरुत्वं स्वस्य नोदेति, शिका स्वात्म्यव सावता । ततोऽचित्तत्वेन तस्य महणे न कश्चिद्दोषः । पिं० । कल्प० । श्रात्मतत्त्वप्रकाशेन, तावत् सेव्यो गुरुत्तमः॥५॥ प्राचा० । ०। झानाचारादयोऽपीटाः, शुद्धस्वस्वपदावधि । चाउल्लग-देशी-न० । पुरुषपुत्तल के, नि००१००। निर्विकल्पे पुनस्त्यागे, न विकल्पो न वा क्रिया ॥६॥ योगसंन्यासतस्त्यागी, योगानप्यखिलाँस्त्यजेत् । चाउचम-चातुर्वर्ण-न० । चत्वारो वर्णाः प्रकाराः श्रमणादयो श्त्येवं निर्गुणं ब्रह्म, परोक्तमुपपद्यते ॥७॥ यस्मिन् स तथा स एव स्वााथकाण विधानाच्चातुर्वर्णम् । स्था० वस्तुतस्तु गुणैः पूर्ण-मनन्तैनासते स्वतः। ग. २. । श्रमणश्रमणीश्रावकश्राविकाचतुष्टयरूपे सङ्के, रूपं त्यक्ताऽऽत्मनः साधो-निरम्रस्य विधोरिव" ॥८॥ स्था० ५ ग० २०० । ब्राह्मणादिलोके, भ० १५ २० १ उ०। इति त्यागाष्टकम । अष्ट०८ अष्टः । परिहारे, पश्चा०२ विव०। चाउव्वष्ठाइस-चातुर्वर्णाकीर्ण-त्रि० । चत्वारो वर्णाः श्रमणादयः | चागाणुरूव-त्यागानुरूप-त्रि०ा परिहारोचिते, बा.१८ द्वा। समाहता इति चतुर्वर्ण, तदेव चातुर्वर्णम् । तेनाकीर्णाकुलश्चा- | चामकर-चाटकर-त्रि०। प्रियवादिनि, औः । प्रियम्बका तुर्वर्णाकीर्णः । अथवा-चत्वारो वर्णाः प्रकारा यस्मिन्स तया, १ श्रु०१० । प्रश्न। दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्, चतुर्वर्णश्वासावाकीर्णश्च कमानानादिभिर्म चादो-देशी-मायाविनि, दे ना० ३ वर्ग। हागुणैरिति चतुर्वर्णाकीर्णः। तथाविधे सधे, "समणस्ल मग. वओ महावीरस्स चउन्वन्नाभने संघ। तं जहा-समणा, सम-चापाक-चाण (णि) क्य-पु.। चणक ग्रामे जाता, चणकस्य द्विणीओ, सावमा, साविगामो।" स्वा० १. ठाभि०। जस्थापत्यं वा चाणक्यचाणिक्यो वा । चाउवेज-चातुर्वेद्य-न० । चतुर्णा विद्यानां समाहारे, स्या०१ तमुत्पत्तित्रैवम्श्लो। "गोल्लासदेशेऽस्ति चणक-प्रामस्तत्र चणी द्विजः। चाग-त्याग-पुं० । प्रोझने, पं०५०। श्रावकः स च तह, विद्यन्ते साधक स्थिताः ॥१॥ त्यागशब्दार्थ ब्याचिख्यासुराह सदन्तोऽस्य सुतो जातः, सूरिपादेषु पातितः। चागो इमेसि सम्म, मणवयकाएहि अप्पवित्तीयो। तैरुचेऽसौ नृपो भावी, स दध्यौ पापकन्नृपः ॥२॥ घृष्टा तस्य रदा नास्यद, गुरूणां तेऽभ्यधुः पुनः । एसा खलु पच्चज्जा, मुक्खफला होइ निअमेणं ॥७॥ भविष्यति तथाऽप्यष, बिम्बान्तरितराज्यकृत् ॥३॥ त्यागःप्रोजनम,अनयोरारम्भपरिग्रहयोः, सम्यक् प्रवचनोक्तेन विद्यास्थानानि सोऽध्यापि, पाठयोग्यश्चतुर्दश । विधिना मनोवाक्कायैः त्रिनिरप्यप्रवृत्तिरेव, प्रारम्भे परिग्रहे च व्यवाहि च भुतां बनीं, पिताऽथ प्राप पश्चताम् ॥४॥ मनसा वाचा कायन प्रवर्तनमिति भावः। एषा स्वस्विति । एषै. चाणिक्यस्य प्रियाऽथागाद, बन्धूद्वाहे पितुर्गृहम । व प्रवज्या यथोक्तस्वरूपा मोक्षफला भवति, मोकः फलं यस्याः स्वसारोऽन्याः पुनस्तस्याः, अलङ्कृतविभूषिताः ॥५॥ सा मोकफला भवति नियमेनावश्यतया, भावमन्तरेणारम्नादौ प्रायाता गौरवं प्राप्ताः, सा पुनः कर्मकारिका। मनःप्रवृत्यसंभवादिति गाथार्थः ॥ ८॥ खिन्ना सा स्वगृहेऽथागात , पत्या पृष्टाऽऽदराज्जगी ॥६॥ अधुनैतत्पर्यायानाह स दध्यौ निःस्वभार्येत्य-भिभूता तैः स्वपुष्यपि । पन्चज्जा निक्कमणं, समया चाओ तहेव वेरग्गं । ददाति पाटलीपुत्रे, नन्दस्तत्राथ सोऽगमत् ॥ ७॥ धम्मचरणं अहिंसा, दिक्खा एगहियाई तु ।।।। ततः कार्तिकराकायां , प्रगे न्यस्तान्युपाविशत् । नन्दाऽर्थ चास्ति तन्न्यस्तं, निमित्ती नन्दमूचिवान् ॥८॥ प्रवज्या निरूपितशब्दार्था, निष्क्रमणं व्यन्नावसङ्गात, समता द्विजोऽयं नन्दवंशस्य, छायामाक्रम्य तस्थिवान् । सत्त्वविष्टानिष्टषु, त्यागो बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहस्य, तथैव वैराग्यं दास्यूचेऽत्राऽऽस्यता विप्र!, सोऽमुचत्तत्र कुालिकाम् ॥५॥ विषयेषु.धर्माचरणं कान्त्याद्यासेवनम,अहिंसाप्राणिघातवर्जनं, तृतीये दगिमकां न्यस्था चतुर्थे जपमालिकाम् । दीका सर्वसत्त्वाभयप्रदानेन जावत्वम् । एकार्थिकानि तु ए धृष्टोऽयमिति विज्ञाय, कृष्टो धृत्वा पदेऽथ सः॥१०॥ तानि प्रवज्याया पकार्थिकानि, नुर्विशेषणार्थः शब्दनयाभिप्रा सोऽथ क्रुद्धो विप्रोऽवादीतयेण, समभिरूढनयाऽन्निप्रायेण तु नानार्थान्यव, अभिन्नप्रवृत्ति कोशैश्च भृत्यैश्च निबद्धमूलं, निमितत्वात्सर्वशब्दानामिति गाथार्थः । पं०व०१द्वार । पुत्रैश्च मित्रश्च विवृहशाखम् । अथ त्यागाष्टकम् सत्पाट्य नन्दं परिवर्तयामि , "संयतात्मा श्रयेच्बुद्धो-पयोगं पितरं निजम् । महाद्रुमं वायुरिखोप्रवेगः ॥११॥ धृतिमम्बां च पितरौ, तन्मां विसृजत ध्रुवम् ॥१॥ दभ्यो गुरुनिरुक्तोऽस्मि, बिम्बान्तरितराज्यकृत् । युष्माकं संगमोऽनादि-वन्धवो नियतात्मनाम् । राज्ययोग्यस्य कस्यापि, प्रेक्षार्थ सोऽथ निर्ययौ "॥१२॥ प्रा. ध्रुवैकरूपान् शीलादि-बन्धूनित्यधुना श्रयेत् ॥३ क. प्रा० म०।०। श्राचा० । संथा। मा० म० । आ. कान्ता मे शमता चैका, ज्ञातयो मे समक्रियाः। चु० । स्था. विशे। ती० । सूत्रापाव । (नन्दं वञ्चबाह्यवमिति त्वक्वा, धर्मसंन्यासवान् भवेत् ॥३॥ यित्वा चन्मगुप्तं राज्ये प्रतिष्ठापितवान् इति 'चंदगुत्त' शब्दधर्मास्याज्याः सुसनोत्थाः, कायापशमिका अपि । ऽस्मिन्नव जागे १.६८ पृष्ठे समुक्तम) Jain Education Interational Page #1195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९७२) चाणिक निधानराजेन्द्रः। चारहिझ्य चाणिक-चाणक्य-पुं०'चाणक्क' शब्दार्थे , प्रा० क०। जावम्मि नाणदसण-चरणं तु पसत्यमपसत्थं ॥४६॥ चामर-चामर-न । चमरपुच्छे, ज्ञा० १६ अ० प्रकीर्णके, स० केत्र पुनर्यस्मिन्केत्रे चारः क्रियते, यावद्वा क्षेत्रं चर्यते, स केत्र३४ समझा । औ० । रा० । चारः, कालस्तु यस्मिन्काले चरति,यावन्तं वा कालं, स कालचामरज्झय-चामरध्वज-पुं० । चामरयुक्तध्वजायाम, औ०। चारः, भावे तु द्विधाचरणं-प्रशस्तमप्रशस्तंच तत्र प्रशस्तं ज्ञान. चामरधारपमिमा-चामरधारपतिमा-स्त्री० । चामरधारिएयां दर्शनचरणान्यतोऽन्यदप्रशस्तं गृहस्थान्यतीथिकाणामिति गाप्रतिमायाम, जिनप्रतिमानां प्रत्येकमुभयोः पाश्र्वयोंढे द्वे चाम थार्थः ॥१६॥ रधारप्रति मे प्रशते । जी १ प्रति० । रा०। तदेवं सामान्यतो खव्यादिकं चार प्रदर्य प्रकृतो पयोगितायाः यतेन वचारं प्रशस्त चामरा-चामरा-स्त्री० चमरीपुच्छे, भ० "णाणामणिकणगरयविमलमहरिहतवणिज्जुज्जलविचित्तदंमाओ चिल्लियाओ संखं. प्रश्नद्वारेण दर्शयितुमाहककुंददगरयमियमयिफेणपुंजसभिगासाओ धधमानो चाम लोगे चउबिहम्मी, समणस्स चन्त्रिहो कहं चारो। राओ गहाय सलील वीयमाणीश्रो चिटुंति" यद्यपि चाम- हो धिती तहिगारो, विसेसओ खित्तकालेस॥४७॥ रशब्दो नपुंसकलिङ्गे रूढस्तथापीह स्त्रीलिङ्गतया निर्दिष्टः, त. लोके चतुर्विधे व्यक्केत्रकालजाधरूपे श्रमणस्य श्रोष्यतीति थैव क्वचिबूढत्वादिति । भ६ श०३३ २०जी० ॥ श्रमणो यतिस्तस्य, कथंभूतो ब्यादिश्चतुर्विधश्चारः स्यादिति चामीकर-चामीकर-न० । कनके, दर्श० । मा० म.। प्रश्ननिर्वचनमाह-भवति धृतिरित्येषोऽधिकारः, व्ये तावदरचामीकररश्य-चामीकररचित-त्रि० । सुवर्णरचिते सुवर्णमये, सविरसप्रान्तरूवादिके धृतिर्भावयितव्या, केत्रेऽपि कुतीर्थकल्प. २ कण । कलाविते प्रकृत्यजनके वा नोद्वेगः कार्यः, कालेऽपि दुष्कालादी यथालाभसन्तोषिणा नान्यं, नावेऽप्याक्रोशोपहसनादौ नोहीचामुंमराय-चामुण्डराज-पुं० । ए.. शके वर्तमाने जिनसेनभ पितव्यम,विशेषतस्तु केत्रकालयोरवमयोरपि धृतिर्भाव्या, द्रव्य. हारकशिध्ये दिगम्बराचार्य, जै० इ० । नावयोरपि प्रायशस्तनिमित्तत्वात् ॥४७॥ चामुंमा-चामुएमा-स्त्री० । निहतचण्डमुण्डायां भगवत्याम, विशे० प्रा० म०। पुनरपि अव्यादिकविशेषतो यतेश्वारमाहचायंत-शक्नुवत-त्रिकासमर्थे, सूत्र०१ श्रु० ३ ० १ ० ।। पावोवरए अपरि-ग्गहे य गुरुकुलनिसेवए जुत्ते । चार-चार-पुंच चरणं चारः। अनुष्ठाने, प्राचा०१७०५१०३७०। उम्मग्गवज्जए रा-गदोसविरए य से विहरे ॥ ४ ॥ निचूका प्रश्न संचरणे, औ०। चरन्ति नमन्ति ज्योतिष्कवि- पापोपरतः पापात् पापहेतोः सावद्यानुष्ठानात हिंसाऽनृताsमानानि यत्र स चारः। समस्ते ज्योतिष्ककेत्रे, व्युत्पत्त्यर्थमात्रान- दत्ताऽऽदानाऽब्रह्मरूपादुपरतः पापोतरः, तथा न विद्यते परिपेक्षणेन शब्दप्रवृत्तिनिमित्ताश्रयणात् । स्था० २ ग० २ उ०। ग्रहो अस्येत्यपरिग्रहः ! पापोपरतोऽपरिग्रहश्चेति व्यचारः । परिचमणे,स०१२ समसामएमलगत्या परिभ्रमणे,स०प०१० केत्रचारमाह-गुरोः कुलं गुरुसान्निध्यं, तत्सेवने युक्तः समपादुक('जोइसिय' शब्देऽस्य विस्तरः) वितो यावजीचं गुरूपदेशादिनत्यनेन कालचारः प्रदर्शितः। चारो चरिया चरणं, एगहुं वंजणे तहिं उक। सर्वकालं गुरुपदेशविधायित्वोपदेशाद्भावचामाह-उमतो मादव्यं तु दारुसंकम-जलथलचारादियं बहुहा ॥४॥ पुन्मार्गोऽकार्याचरणं तद्धर्जकः, तथा रागद्वेषविरतः स साधु बिहरेत् संयमानुष्ठानं कुर्यादिति गता नियुक्तिः । आचा० १ (चार इति)'चर' गतिलक्षणयोः, भावे घञ् (चर्येति) “गद श्रु०५ अ०१०। कलाभेदे, जं. २ वक्षः। वृक्षविशेषे, येषु मदचरबमश्चानुपसर्गे "॥३।१।१०० ॥ इत्यनेन कर्मणि चारकुतिका सत्पद्यते । अनु । तत्फले, न. । प्रज्ञा० १६ पद । भावे वा यत्, (चरणमिति) भावे ख्युत्, एकोऽनिनोऽऽस्येत्येकार्थम,किंतद्?,व्यञ्जन-व्यज्यते प्राविष्क्रियते अर्थोऽनेनेतिव्य. चारग-बारक-न० । वन्दिप्रनृतीनामवस्थापनार्थ गृहविशेष, अनं शब्दः, इत्येतत् पूर्वोक्तं शब्दत्रयमेकार्थम,एकार्थत्वाचन प्र. दशा०६अ। कल्प कारागृहे, आव०१ अग गुप्तिगृहे, स्था० थमनिक्षेपः, तत्र चारनिकेपे पहूं चारस्य, षट्प्रकारो निक्केप इ- ७० व्यः । भरतस्य साम्राज्यानुजवनकाले चतुर्विधा त्यर्थः । तद्यथा-नामस्थापनेत्यादि । तत्र सुगमत्वात् नामस्थापने दयानीतिरजूत , तत्र तृतीया चारकसवणा भरतेन माणवकअनाहत्य शरीरजव्यशरीरव्यतिरिक्तं व्यचारं गाथाशकलेन विधि परिभाव्य प्रवर्तिता , सा गुरुतरापराधविषया । श्रा० दर्शयति-(दब्वं तु ति) तुशब्दः पुनःशब्दार्थे, व्यं पुनरेवंभूतं म०प्र० । गुप्तौ , औ० । आ० म०। भवति-दारुसंक्रमश्च जलस्थलचारश्च दारुसंक्रमजसस्थलचारौ,तावादी यस्य तदारुसंक्रमजलस्थलचारादिक, बहुधा अ. चारगपरिमोहण-चारकपरिशोधन-न० । चारकशब्देन कानेकधा, तत्र दारुसंक्रमो जले सेत्वादिः क्रियते, स्थले वा गर्ता रागृहमुच्यते, तस्य शोधनं शुद्धिः । बन्दिविमोचने, भ० ११ लखनादिका, जनचारो नावादिना, स्थाचारोरथादिना, आदि श०११ उ०। कल्प। ग्रहणात्प्रासादादौ सोपानपङ्क्त्यादिरिति, यज्जले सेत्वादिना | चारगपाल-चारकपाल-पुं०। गुप्तिरक्कके, विपा०१ श्रु०६अ। देशान्तरावाप्तये व्यं स व्यचार इति गाथार्थः ।। ४५॥ चारद्रिय-चारस्थितिक-पुं०।चारे ज्योतिश्चक्रे क्षेत्र स्थितिसम्प्रति केत्रादिकमाह रेव येषां ते चारस्थितिकाः । समयकेत्रबहिवर्तिषु घण्टाकृतिषु खत्तं तु जम्मि खित्ते, कालो काले जहिं जषे चारो। । ज्योतिष्कष, स्था० २ ठा०२ १० । भाचारस्य यथोक्तस्वरू Page #1196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाराष्ट्रिय अभिधानराजेन्द्रः। चारमा पस्य स्थितिरजावो येषां ते चारस्थितिकाः । अपगतचारेषु, चारणस्स णं जंते ! कह सीहागती, कई सीहे गतिविसए सू०प्र० १६ पाहु । जी० । पएणते ? । गोयमा ! अयं जंबुद्दीचे दीवे एवं जहेब चारण-चारण-पुं० । चरणं गमनं तद् विद्यते येषां ते चारणाः। "ज्योत्स्नादिज्योऽण" ॥ ७॥२॥ ३४॥ इति मत्वर्थीयोऽण प्र विज्जाचारणस्स, एवरं तिमत्तवृत्तो परियट्टित्ता एं त्ययः। तत्र गमनमन्येषामप्यस्ति ततो विशेषणान्यथाऽनुप हव्वमागच्छेजा, जंघाचारणस्स णं गोयमा ! तहा सोहागई पत्या चरणमिह विशिष्टम अाकाशे गमनमागमनं वाऽभिगृह्य- तहा सीहे गतिविसए पत्ते, सेसं तं चेव । जंघाचारणस्स तेऽत एवातिशयितो मत्वर्थीयोऽयम, यथा रूपवती कन्येत्यत्र । णं नंते! तिरियं केवइए गतिविसर पाते । गोयमा! से अतिशयितगमनागमनलब्धिसपनेषु, प्रा. म. प्र०। श्राव। एं इओ एगणं उप्पारणं रुयगवरेदीचे समोसरणं करेइ, नं०। प्रा० चू।न। साधुविशेषेषु , विशे० । औ०। करइत्ता तहिं चेइयाई वंदर, वंदइत्ता तो पमिणियत्तमाणे काविहा एंजते ! चारणा पत्ता | गोयमा विहा वितिएणं उप्पारणं गंदीसरवरे दीचे समोसरणं करे, चारणा पत्ता । तं जहा-विज्जाचारणा य, जंघाचारणा करेइत्ता तहिं वेश्याई वंदइ, वंदना इइं हव्यमागच्छन, इहं य। सेकेणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ-विजाचारणा, वि०५ चेइयाई बंदइ, जघाचारणस्स एं गोयमा ! तिरियं एवइए ?। गोयमा ! तस्स णं छ8 बढेणं आणि क्खित्तर्ण त श्रो गइविसए पाप्यते । जंघाचारणस्स णं ते ! न केवश्र कम्मेणं विज्जाएसु उसरगुणलचिखममाणस्स विज्जाचार गतिविसए पामते ? । गोयमा ! सेणं इओएगणं मगवबाबची णामं लदी समुप्पजइसे तेणढेणं० जाव विजा णे समोसरणं करे, करेइत्ता तहिं चेइयाई वंद, वंदश्त्ता चारणा, वि० । विज्जाचारणस्स पं नंते ! कह तओ पमिणियत्तमाणे वितिएणं उप्पारणं णंदणवणे सीहागई, कहं सीहे गइविसए पसत्ते। गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे० जाव किंचि विसेसाहिए परिक्खेवणं देवेणं समोसरणं करेइ, करेइत्ता तहिं चेइयाई वंदप, वदत्ता इहमहिडीए० जाव महेसक्खे० जाच णामेव त्ति कहु केवल मागच्च, मागच्चश्त्ता इह चेइयाई वंदइ, जंघाचाकप्पं जंबुद्दीवं दीवं तिहिं अच्चिराणिवाएहिं तिक्खुत्तो रणस्स एं गोयमा ! उहुं एवए गतिविसए पत्ते । अणुपरियट्टित्ताणं हव्वमागच्छज्जा । विजाचारणस्स णं से णं तस्स हाणस्स प्रणालोश्यपमिकते कासं करेइ,णास्थ तहासीहागई तहा सीहे गइविसए पालत्ते । विज्जाचारणस्स तस्स आराहणा । से णं. तस्स हाणस्स आलोइयपमिकते जते! तिरियं केवइयं गतिविसए पपत्ते । गोयमा ! से कालं कर, अत्थि तस्स राहणा । सेवं भंते ! भंते ति।। णं एगेण उप्पारणं माणसुत्तरे पचए समोसरणे करेइ, करे ते च द्विनेदा:-जवाचारणाः, विद्याचारणाश्च । तत्र ये चारित्र तपोविशेषप्रजावतः समुदतगमनागमनविषयलब्धिसंपन्नाइत्ता तहिं चेइयाई वंदइ, बंदइत्ता वितिएणं उप्पाएणं णं-| स्ते जलाचारणाः। ये पुनर्विद्यावशतः समुत्पन्नगमनागमनक्षदिस्सरवरदीवे समोसरणं करे, करेइत्ता तहिं चेक्ष्याई | न्धयस्ते विद्याचारणाः । जलाचारपाश्च रुचकवरती यावत् बंदइ, वंदइत्ता तो पमिणियत्तइ, पमिणियत्तइत्ता इह गन्तुं समर्थाः, विद्याचारणा मन्दीश्वरं, सत्र जङ्गाचारणा यष मागच्चड, मागच्चइत्ताहं चेझ्याइं बंदश,विज्जाचारणस्सणं कुत्रापि गन्तुमिच्छवस्तत्र रविकरानपि निरीकृत्य गच्छन्ति, विद्याचारणास्त्वेवमेव । जलाचारणश्च रुचकवरद्वीपं गगोयमा तिरियं एवए गतिविसर पाते । विज्जाचारणस्स च्छन् एकेनैवोत्पातने गच्छति, प्रतिनिवर्तमानस्त्वेकेवोत्पातेन णं भंते ! उन केवइए गतिविसए परमत्ते ?। गोयमा! से एं नन्दीश्वरमायाति, हितीयन स्वस्थानं, यदि पुनरुशिखरं इओ एगणं उप्पाएणं णंदणवणे समोसरणं करेइ, करेइत्ता जिगमिषुस्तहि प्रथमेनैवोत्पातने पाकवनमधिरोहति, प्र. तिनिवर्तमानस्त्वेकेनेति । प्रथमेनोत्पातेन नन्दनवनमागच्छतहिं चेश्याई वंदइ, वंदत्ता वितिएणं नपाएणं पंमगवणे ति, हितीयन स्वस्थानमिति, जङ्घाचारणो हि चारित्रासपासरणं करहे, करेइत्ता तहिं चेइयाई वंद, वंदइत्ता तो | तिझयप्रभावतो भवति, ततो लभयुपजीवेन औत्सुक्यभापमिणियत्तह, पमिनियत्तइत्ता इहमागच्चइ, मागच्छइत्ता इहं बतः प्रमादसंजवात् चारित्रातिशयनिबन्धना लम्धिरपि ही. चेक्ष्याई वंदर, विजाचारस्स णं गोयमा ! नई एवइयं गइ यते, ततः प्रतिनिवर्तमानो द्वाभ्यामुत्पाताभ्यां स्वस्थानमाविसए पपत्ते । से णं तस्स हाणस्स अणालोश्यपडिकते याति, विद्याचारणः पुनः प्रथमेनोत्पातेन मानुषोत्तरं पर्वतं गच्छति, द्वितीयन तु नन्दीश्वरं, तत्र च गत्वा चैत्यानि बन्दते, काल करे, पत्थि तस्स राहणा। से णं तस्स हाणस्स ततः प्रतिनिवर्तमानस्त्वेकेनोपातेन स्वस्थानमायाति तथा श्रालोइयपमिकते कालं करेरे, अत्थि तस्स राहणा। मेरुं गच्छन् प्रथमेनोत्पातेन नन्दनवमं गच्छति, द्वितीयेन प. से केणढणं ते! एवं वुच्चइ-जंघाचारणा, जं०श गोयमा! एमकवनं, तत्रैव चैत्यानि वन्दित्वा ततः प्रतिनिवर्तमान पकेनतस्स णं अट्ठमं अट्ठमेणं अणिक्खित्तणं तओकम्मणं वोत्पातन स्वस्थानमायाति । विद्याचारणो हि विद्यायशाचति, विद्या च परिशील्यमाना स्फुटा स्फुटतरोपजायते । ततः प्र. अप्पाणं नावमाणस्स जंघाचारणलकीणामलद्धी समुष्प तिनिवर्तमानस्थ शक्त्यतिशयसंजवादेकेनवोत्पातेन स्वस्थाज्जइ, से तेण्डेणं० जाव जंघाचारणा, जंघा०। जंघा- नागमनमिति । २६४ Page #1197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९७४) भनिधानराजेन्द्रः। चारण चारि चारणगण-चारणगण-पुं० । श्रीगुप्ताचाधिगते स्थनामख्या"अश्सयचरणसमत्था, जंघाविजाहि चारणा मुणयो। ते वीरतीर्थीयानामेकक्रियावाचनानां साधूनां समुदाये, स्था. जंघाहि जाइ पतमो, नोसं का रविकरे वि ॥ ए ठा० । पगुप्पारण गतो, रुयगवरमितो ततो पडिनियत्तो। विपणं नंदिस्सर-मिहं ततो ए३ तइएणं ॥ थेरेहिंतो णं सिरिगुत्तहितो हारियसगोत्तेहिंतो इत्थ णं पढमेण पंमगवणं, विइउप्पारण नंदणं पर । चारणगणे नामं गणे निग्गए । तस्स णं इमारो चत्तारि तश्उप्पारण ततो, वह जंघाचारणो हो । साहायो, सत्त य कुलाई एवमाहिति । से किं तं साहापढमेण माणुसोत्तर-नगम्मि नंदिस्सरं तु विश्पणं । ओ? । एवमाहिज्जति । तं जहा-हारिअमालागारी१, एक तो तश्प, कयचेश्यवंदणो इहरं ॥ परमेण नंदणवणे, बीनप्पारण पंमगवणम्मि। संकासिया २, गवेधुपा ३, वज्जनागरी। सेत्तं सापाहं तारणं, जो विजाचारणो होहे " ॥ श्रा० म० हाओ । से किं तं कुमाई ? । एवमाहिज्जति । तं जहाप्र० । विशे० । प्रज्ञा० । जी० । पा० । स्था०। प्रा० चू०।। "पढमित्य बच्चलिज, वीअं पुण पीइधम्मिभं होई । अन्येऽपि बहुजेदाचारणा भवन्ति । तद्यथा-श्राकाशगामिनः पर्वकासनावस्थानिषमाः कायोत्सर्गशरीरपादोत्-केपनिक्केप तअं पुण हासिज, चतुत्ययं पूसमितिजं ॥१॥ क्रमादिना व्योमचारिणः, केचित्तु जलजवाफलपुष्पपत्र. पंचमगं मालिज्जं, लडं पुण अज्जवरयं होइ। पयाग्निशिखाधूमनीहारावश्यायमेघवारिधारामर्कटकतन्तुज्यो- सत्तगं कएहसह,सत्त कुन्ना चारणगणस्स" कल्प०कण। तीरस्मिपवनव्वालम्बनगतिपरिणामकुशलाः। तथाहि-जलमु. पेत्य वापीनिम्नगासमुकादिष्वप्कायिकजीवानविराधयन्तो ज | चारणपुंगव-चारणपुजव-पुं० । चारणप्रधाने, प्रति। ले समाविव पादोत्केपकुशलाः जलचारणाः १,शुव उपरिच. चारणजावणा-चारणभावना-स्त्री० । ब. व० । चारणतुरङ्गालप्रमिते भाकाशे जङ्घानिक्षपोत्केपनिपुणाः जङ्घाचार- शब्दे चारणस्योक्तं स्वरूपम, चारणस्वरूपं भाव्यते सविस्तर णाः २, नानाद्रुमफलान्युपादाय फलाश्रयप्रापयविरोधेन फ- प्रतिपाद्यते यासु ताश्चारणनावनाः। अङ्गबाह्यकालिकश्रुतनेदे, लतले पादोत्क्षेपनिकेपकुशक्षाः फवचारणाः ३, नानाद्रुम- पा० ताश्च षोडशवर्षपर्यायस्य दीयन्ते । पं०व०२ द्वार। लतागुल्मपुष्पाण्युपादाय पुष्पसूक्ष्मजीवानविराधयन्तः कुसु- चारणलकि-चारणलब्धि-स्त्री० । लब्धिभेदे , यवशाचारणमतलदलावलम्बनसंसगेतया पुष्पचारणाः ४, नानावृकगु लब्धिर्विद्याधरसब्धिश्च जायते। भा००१०। प्रव०। लमबीरुल्लतावितानप्रवालतरुणपल्लवालम्बनेन पर्णसूदमजीवा. नविराधयन्तः चरणोततेपनिक्षेपपटवः पत्रचारणाः५, च- वारणसमण-चारणश्रमण-पुं० । बहुविधैश्वर्यनूतलब्धिकलातुळजनशतोच्छूितस्य निषधस्य नीलस्य बाऽष्टङ्कछिन्नां श्रे पोपते महातपस्विनि, सूत्र०२१०२०। तथा योगशास्त्र. णिमुपादायोपयंधो वा पादनिक्केपोत्केपपूर्वकमुत्तरणावतर- वृत्तिगतवसुराजाधिकारे चारणश्रमणानां निशि गमनागमनं पनिपुणाः श्रेणिचारणाः ६, अग्निशिखामुपादाय तेजःका- दृश्यतेऽतो निशि चारणश्रमणा व्योम्नि गमनागमनं कुर्वन्ति थिकानविराधयन्तः स्वयमदह्यमानाः पादविहारनिपुणा अ न वेति प्रश्शे, उत्तरम्-चारणश्रमणा निशि व्योम्नि गमनागमनं ग्निशिखाचारणाः ७, धूमवति तिरश्चीनामूर्द्धगां वा आलम्ब्या- कुर्वन्ति, श्रीपार्श्वनाथचरित्रादावपि तथैव दर्शनादिति । ६५ स्खलितगमनास्पन्दिनो धूमचारणाः ७, नीहारमवष्टभ्या- प्र. सेन०१चलना। एकायिकपीमामजनवन्तो गतिमसङ्गामश्नुवाना नीहारचारणाः चारपरिस-चारपुरुष-पुं० । गुप्तिरककेषु, प्रा० म०प्र०। है, अपश्यायमाश्रित्य तदाश्रयजीवानुपरोधेन यान्तोऽत्रश्यायचारणाः १०, ननोवत्मनि प्रविततजलधरपटनपटा | चारभम-चारभट-पुं० । राजपुरुष, वृ०१०। प्रश्न । नि. स्तरणे जीवानुपघातिचक्रमणप्रत्रवा मेघचारणाः ११, | चुलाचौराहे, प्रश्न० ३ श्राश्र• द्वार । प्रा० क०। चू। प्रावृषेण्यादिजाधरादेर्विनिर्गतवारिधाराऽवलम्बनेन प्राणिपी-चारि-चारि-स्त्री०॥ भोजनसंपत्ती, ध.३ अधिकाविशेगानं०। मामन्तरेण यान्तो वारिधाराचारणाः १२, कुब्जवृतान्तरा- | चारिचरकसंजीव-न्यचरकचारणविधानतश्चरमे । लजाषिनभःप्रदेशेषु कुजवृक्वादिसंबरूमर्कटतन्त्वालम्बनपादोद्धरणनिक्षेपावदाना मर्कटतन्तूनच्छिन्दयन्तो मर्कटकतन्तुचा सर्वत्र हिता वृत्ति-र्गाम्भीर्यात्समरसापच्या ॥ ११ ॥ रणाः १३, चन्छाग्रहनकत्राद्यन्यतमज्योतीरस्मिसंबन्धेम चारेश्वरको भवयिता, संजीवन्या औषधरेचरकोऽनुपभोक्ता, भुवीव पादविहारकुशला ज्योतीरस्मिचारणाः १४, पवने- तस्य चारणमन्यवहरणं, तस्य विधानं संपादनं, तस्माचाबनेकदिग्मुखोन्मुखषु प्रतिलोमानुलोमवर्तिषु तत्प्रदेशावली- रिचरकसंजीवन्यचरकचारणविधानतः, चरमे जावनामयशाने मुपादाप गतिमस्खलितचरणविन्यासा नभसि यान्तो वायु- सति,सर्वत्र सर्वेषु जीवेषु हिता वृत्तिः हितहेतुःप्रवृत्ति,न कस्यचारणाः १५ । इति चारणाश्च सातिरेकानि सप्तदशयोजनस- चिदहिता । गाम्भीर्यादाशयावशेषात् समरसापत्त्या सर्वानुहस्राणि कर्द्धमुत्पस्य पश्चात्तिर्यगागच्छन्ति । उक्तं च समवा- प्रहरूपया, कयाचित् स्त्रिया कस्यचित् पुरुषस्य वशीकरणार्थ याते-" इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहसमरमणिज्जा- परिवाजिकोक्ता-यथेमं मम वशवर्तिनं वृषनं कुरु, तया च किल श्रो भूमिजागाभो सारेगाई सत्तरस जोपणसहस्सा उ कश्चित्सामथ्र्यात स वृषनः कृतस्तं चारयन्ती पाययन्ती चास्त, उप्परता तो पच्छा चारणाणं तिरियं गती य वत्तति ति"| अन्यदाच वटवृकस्याऽधस्तामिषम्मे तस्मिन् पुरुषगवे विद्याधग.२ अधि०। रीयुग्ममाकाशमागमत् । तत्रैकयोक्तम्-अयं स्वाभाविको न गौः। Page #1198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारि (११७५) अभिधानराजेन्दः। चारित्तसंका द्वितीययोक्तम्-कथमयं स्वाभाविको भवति । तत्राद्ययोकम्- | चारित्तपरिणाम-चारित्रपरिणाम-पुं० । सर्वविरतिपरिणती, अस्य बटस्वाधस्तात संजीवनी नामेोषधिरस्ति, यदि तां च पश्चा०वि० प्रवज्यास्थतस्वे, पं०व०४ द्वार। रति तदाऽयं स्वानाविकः पुरुषो जायते। तश्च विद्याधरीबचनं | चारित्तपासण-चारित्रपालन-न० । चयरिक्तीकरणं चारित्रं तया स्त्रिया समाकर्णितं, तया चौषधि विशेषतों अज्ञानानया सर्वामेव चारिं तत्प्रदेशवर्तिनी सामान्येनैव चारितः, या तस्य पालनं यत्तत्तथा । सकलसमितिगुप्तिप्रत्युपेक्वणाधनुष्ठानवत्संजीवनीमुपचुक्तवान् , तदुपभोगानन्तरमेवासौ पुरुषः सं. करणे, दर्श। वृत्तः। एवमिदं बौकिकमाख्यानकं श्यते । यथा तस्याः स्त्रिया चारत्तन्नेस-चारित्रवंश- पुं ष्टचारित्रत्वे, (ग.) स्तस्मिन् पुरुषगवे हिता प्रवृत्तिः, एवं भावनाशानसमन्वितस्या- अथ वाइमात्रेणापि नएचारित्रस्य दण्डप्रतिपापि सर्वन भव्यसमुदाये अनुग्रहप्रवृत्तस्य हितैव प्रवृत्तिरिति ॥ दनद्वारेण प्रस्तुतमेवाहपो०११ विव०। वायामित्तेण विज-स्थ जहचरियस्स निग्गहं विहिणा। चारिसंजीवनीचार-न्याय एष सतां मतः । बहुलफिजुअस्सावी, कीरइ गुरुणा तयं गच्छ ॥७॥ नान्यथाऽवेष्टसिद्धिः स्यात्, विशेषेणाऽऽदिकर्मणाम् ॥११॥ वाङ्मात्रेणापि, किं पुनः कायेनेत्यपिशब्दार्थः । यत्र गच्छे चारे प्रतीतरूपाया मध्ये संजीधन्यौषधिविशेषश्चारिसंजीवनी, दृष्टचरितस्य स्खदिमतचारित्रस्य साधोः (निग्गहं ति)नपुंसकतस्याश्चारश्चरणं, स एव न्यायो दृष्टान्तश्चारिसंजीवनीचा त्वं प्राकृतत्वात मित्रहो दएडो विधिनाऽऽगमोक्तप्रकारेण, रन्यायः, पोऽविशेषेण देवतानमस्कणीयतोपदेशः सतां शि कथंभूतस्थ बहुलब्धियुतस्यापि अनेकलब्धिसमन्वितस्थापि, ष्टानां मतोऽनिप्रेतः ॥ ११५ ॥ यो०वि०। क्रिवते विधीयते, गुरुणाऽऽचार्येण, क्षुसकस्सवे पित्रा, स चारिच-चारित्र-न० । भामण्ये, संथा । अष्टादशशीलासह. गच्छ: स्यादिति । ग०२ आधि। सनिप्रतिपत्ती, पं०चून पं०व० स्थूलसूक्ष्मप्राणातिपातादि.] चारित्तभाव-चारित्रनाव-पुं० । चरणपरिणामे, पञ्चा० १७ विरमणपरिणामाऽऽत्मके, प्रा०म०वि० । प्राचा। क्रियारूपे. विव.। ऽर्थे, आव०६ ० । सर्वसावधयोगपरिहारनिरवद्ययोगसमा चारित्तभानणा-चारित्रभावना-स्त्री०। चारित्रस्य फलपर्याचाररूपेऽर्थे, ध०३ अधिक। बाह्ये सदनुष्ठाने, शा०१६०१० लोचनायाम, प्राव. ४०। (" नवकम्माणायाणं, पोराणं निष्कारणं सदोषभुजां जघन्यतोऽपि चारित्रं स्यान्न वेति प्रश्ने, णिज्जर सुभादाणं । चारित्तस्य बणाए, झायमयत्तेण य समेश उत्तरम्-"जं किंचि वि पूश्कडं, सट्ठीमागंतु हितं । सहस्सं. ॥३॥" इति 'झाण' शब्द व्याख्यास्यते) तरि भुजे, दुपक्खं चेव सेवई ॥१॥"इत्यादिश्रीसत्रकृदङ्गादि-चारिभणी-चारित्रनेदिनी-स्त्री० । कुतीर्थकमानादिरूपायां बचनप्रामाश्यान्मुख्यतस्तदभावः,परं सशुकनिःशूकादिपरिणाम- विकथायाम, न संभवन्तीदानी महाव्रतानि साधूनां, प्रमादबभेदेन गूढागूढालम्बननिरालम्बनवत्त्वेन केषाश्चित्कथमपि स्या- हुलत्वादतिचारशोधकाचार्यतस्कारकशुकीनामभावादित्यादिदपि, न स्यादपि केषाश्चिदत एव पार्श्वस्थादिष्वपि देशसर्वनेदेन रूपा । ध०३ अधि० । ग०। नूयानधिकार: सिकान्ते प्रोक्तोऽस्तीति । १०१ प्र० सेन०१ बल्ला तथैकेन केनचिश्चारित्रं ब्रह्मचर्यादिवतं गृहीतं पश्चात्कर्म चारित्तरसायण-चारित्ररसायन-न। चरणशरीरस्व पुष्टिकघशाद्भग्नम् अपरेण तु तद्भङ्गनयादेवन गृहीतं,तयोर्मध्ये को गुरुः | रणात् रसायनोपमिते, पश्चा०९०विव०। कश्च लघुरिति साकरं प्रसाद्यमिति प्रश्ने, उत्तरम्-येन व्रत- चारित्तवंत-चारित्रवत-त्रि० । साधौ, षो०१ विवः। ग्रहणवेलायां शुन्नाध्यवसायेन यत्कर्मार्जितं वोधिनाभस्वर्गायु |चारिचविणय-चारित्रविनय-पुं०। चारित्रमेव विनयः, चानाति तदर्जितमेव गौतमप्रतिबोधितहासिकवत् कर्मवशाच्च तद्भङ्गेऽपि निन्दागर्दाऽऽदिना नन्दिषेणादिवत शुकोऽपि स्वात्त रित्रस्य वा श्रद्धानादिरूपो,विनयश्चारित्रविनयः। विनयनेदे, दपेकया स लघुकर्मा, येन तु तद् भङ्गभयादेव न गृहीतं स "सामाश्यादि चरण-स्म सद्दहणया तहेव कायणं । संफासणं गुरुकर्मा, तदूग्रहणलाभाभावादिति, अन्यथा तु "वयभंगे गुरु परूवण-मह परओ भब्वसत्ताणं।"स्था•७ गण"से किंतंचादोसो, थेरस्स वि पालणा गुणकरी अगुरुबाघवं च ने" रिसविणए?। चारितविणए पंचविहे पत्ते । तं जहा-सामाइएप्र.सेन. ३ उल्ला० । प्रचारित्तविणए छेदोवट्ठावाणिप्रचारित्तविणए परिहारबिसु. चारित्तगिरिपजिया-चारित्रमिरिपधिका-स्त्री० । चारित्रं स. किचारित्तविणए सुहुमसंपरायचारित्तविणए अहक्खायचारिसामधयोगपरिहारमिरवद्ययागसमाचाररूपं, तदेव गिरिःपर्व त्तविणए, से तं चारित्तविणए " | औ•॥ तस्तस्य पधिकेव पधिका । गृहिधर्मे,ध पधारोदेण पुमान् यथा चरितविसोहि-चारित्रविशोधि-स्त्री०। चारित्रस्याचारपरिमुखन महाशलमाराहात तथा निष्कलङ्कानुपालितश्रमणोपा-1 पासनतो विशुझी. स्था० १०००। सकाचारसर्वविरति सुखणावगाहत इति जावः। ध.२ अधिनाचरितमंबा-चारित्रशस्का-स्त्री० । पत्रचारत अनन्या " चारित्ततह-चारित्रनथ्य-न । तपसि बादशषिधे संयमे सप्त नरथकर्षणाभिप्रहप्राप्तदूननिर्गततापसाभमावस्थितजनमेज--- दशविधे सम्यगनुष्ठाने, स्व०२ श्रु। यनृपसुतामदनावल्ल्यनुरागादिसकलचरित्रं हारषणचक्रिण: चारित्तपज्जव-चारित्रपर्यव-पु.।६ त । सर्वविरतिरूपपरि. प्रोचे, भीखत्तराध्ययनवृत्तिभारुविभ्यादीचमहापनचकिचारित्र. खामस्य बुकिकृते अविभागपलिच्छेदाविषयकतेचा पर्याय, मिति कथमेतेषां संगतिर्विचारणीया,तत्कारितप्रासादम्य पशभ.२५१०६०।. नेन हारषेणसांनिध्यमेव संगतिमलति, परमन्यपके बहुप्रन्य Page #1199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९७६) चारित्तसंका अभिधानराजेन्षः। चारुदत्त सम्मतिरिति बह्वाऽऽरेका समुत्पद्यत इति प्रश्ने, उत्तरम्-अत्र चारिय-चारिक-पुं० । हैरिके, प्रभ० २ आश्र द्वार । वृ० । मतान्तरमवसीयत इति ॥ ए०प्र० सेन. १ उदा०। भाएिमके, निवृ०१०। चारित्तसमाहि-चारित्रसमाधि-पुंग अन्यथतविहारमरणयोः चारु-चारु-त्रि०। शोभने, सू०प्र०५० पाहु । उपा० । षो०। चारित्रसमाधावपि विषयसुखनिस्पृहतया निष्किञ्चनोऽपि परं मौ० । पारु शोजनमुपितं च मन्मननाषितादि, तत्सहगत. समाधिमानोति । तथा चोक्तम-" तणसंथारणिसमे, वि मुणि- मुखादिविकारोपलकणमेतत्. प्रेक्तितं चार्फकटाक्षवीक्षितादि,उपरो भट्टरागमयमोहो। जं पावर मुत्तिपह, कत्तो तं चक्कवट्टी पितपेक्तिम् । उत्त०१६ अ०। औ•। चं०प्र० । विशिष्टच. वि॥" मूत्र. १ श्रु० १० अ०। शिमोपेते , रा०तृतीयतीर्थकरस्य प्रथमशिष्ये, स०। निः। चारित्तायार-चारित्राचार-पुं० । समितिऍप्तिरूपे प्राचारभेदे, प्रहरणविशेषे, जी०३ प्रतिः। स्था० २ ग० ३ उ० । पञ्चा। ध। नं.। चारुणिया-चारुणिका-स्त्री० । चारुणदेशोत्पन्नायां दास्याम, पणिहाणजोगजुत्तो,पंचहिँ समिहिाँतिहिँ च गुत्तीहिं। का०१ श्रु० १ अ०। चारुदत्त-चारुदत्त-पुं० । कुक्कुटेश्वरतीर्थकारकस्य ईश्वरनएस चरित्तायारो, भट्टविहो होइ नायव्वो ॥ १५॥ पस्य जीवे, ती०५५ कल्प । ब्रह्मदत्तचक्रवर्तिना परिणीतायाः प्रणिधानं चेतःस्वास्थ्यं तत्प्रधाना योगा व्यापाराः तैर्युक्तः कात्यायनीनाम्न्याः कन्यावाः पितरि, उत्त• १३ अ०। समन्वितःप्रणिधानयोगयुक्तः । अयं चौघतोऽविरतसम्यम्ह - चारुदत्तदृष्टान्तश्चायमटिरपि भवति । अत आह-पश्चनिः समितिनिस्तिसभिश्च अस्थिऽत्थ पवरनयरी, चंपा झुपागलोगपरिमुक्का । गुप्तिभिर्वःप्रणिधानयोगयुक्तः मतद्योगयुक्त एतदद्योगवानेव । तत्य य सिठी भाणू, भाणू श्व सुयणकमलाणं ॥१॥ अथवा-पञ्चसु समितिषु तिसृषु गुप्तिध्वस्मिन् विषये पता तस्स सुभदा गिहिणी, अनिम्मलसीलधम्मवरधरणी। प्राश्रित्य प्रणिधानयोगयुक्तो यः, एष चारित्राचारः, आचारा- पुत्तो य चारुदत्तो, सुदंतिदंतु ब्ब विमलगुणो॥२॥ चारवतोः कथञ्चिदव्यतिरेका अष्टविधो भवति ज्ञातव्यः, मित्तेहि सह रमंतो, पयाणुसारेण खयरमिहुणस्त । समितिगुप्तिनेदात् । समितिगुप्तिरूपं च गुजप्रवीचाराप्रवीचार- स कयावि कयलिगेहे, पत्तो पिच्छो असिफसगं ॥३॥ रूपं यथा प्रतिक्रमणे इति गाथार्थः । उक्तश्चारित्राचारः ॥१६१० तत्थ उमेणं सद्धिं, दळं सवंगकीलियं खयरं । दश० ३ ०। सस्सासिकोसमझे, भोसहितियगं तहा तेण ॥४॥ चारित्ति(ण)-चारित्रिन्-पुं० । शीलवति,पं० १० १द्वार । नि- निस्सल्लो रूढवणो, सचेयणो तादि प्रोसहीहि कओ। रतिचारचारित्रवति, ध०२ अधिः। सो जंप वेपन्हे, गिरिम्मि सिवमंदिरपुरस्मि ।।५।। चारित्रिणः स्वरूपत आह पुत्तो माहिदविक्कम-नरवश्णोऽमियगति खयरोऽहं ।। धूमसिहवयस्सेणं, जुत्तो सेच्छा' कोलतो ॥ ६ ॥ मग्गणुसारी सहो, पसवाणिज्जो कियापरो चेव । हरिमंतपञ्चयगो, हिरमसोमस्से मावखस्स सुयं ।।। गुणरागी सकारं-मसंगो तह य चारित्ती ॥६॥ सुकुमालियं ति दळं, मयणत्तो तो गमओ सपुरं ॥ मार्ग, तस्वपथमनुसरत्यनुयातीत्येवंशीलो मार्गानुसारी-निस- मित्ताउ तयं नाडे, पिटणा परिणाविमो या तस्स सुयश गतस्तस्वानुकूलप्रवृत्तिः, चारित्रमोहनीयकर्मयोपशमात् । ए. अह धूमसिहो तीए, अहिलासी सो मए नामो ॥७॥ तस तत्वावाप्र्ति प्रत्यवनध्यकारणं, कान्तारगतविवक्कितपुरप्राप्ति- सुकुमालियाएँ तेण य, समन्निो तह य भागो इदयं। सद्योग्यतायुक्तस्येव, तथा श्रामः-तवं प्रति श्रमावान्, तत्प्रत्य- सो मं पमत्तयं की-लिकण हरिउं गयो मज्जं ॥ ६ ॥ मीकक्लेशहासातिशयादवाप्तव्यमहानिधानतग्रहणविधानोपदे- तुमप वि मोइओ ते-ण तुज्झ नादं भवामि रिणमुको। शश्रकालुनरवत् विहितानुष्ठानरुचिर्वा तथा, अत एव कारण- श्य भणिय गनो खयरो, सिठिसुनो नियगिह पत्ता ॥ १० ॥ यात् प्रसापनीयः कथञ्चिदनाभोगादन्यथाप्रवृत्ती तथाविधगी- सचट्ठमाचलसुयं, पिसणा उब्वाहिश्रो स मित्तव।। तार्थेन संवोधयितुं शक्यः,तथाविधकर्मकयोपशमादविद्यमा- तह वि हु नीरागमणो, खित्तो दुखलियगोठाए ॥११॥ नासदभिनिवेशःप्राप्तव्यमहानिधितग्रहणादन्यथाप्रवृत्तसुकर- पत्तो गणियाएँ गिहे, वसंतसेणाएँ ती आसत्तो। संबोधननरवत्तथा,अत एव कारणाक्रियापर:-चारित्रमोहनीय, सोलससुवन्नकोमी, वारसवरिसेहि सो देश ॥ १२ ॥ कर्मयोपशमान्मुक्तिसाधनानुष्ठानकरणपरायणः तथाविधनि- मकाएँ निद्धणु त्ति य, गिहाल निस्सारिश्रो गमो सागहं। धानग्राहकवत् , चशब्दः समुश्चये,एवशब्दोऽवधारणे, एवं चा. नालं पिकण मरणं, गाढयरं दृमिओ चित्ते ॥ १३ ॥ नयोः प्रयोगः क्रियापर पव नाक्रियापरोऽपि सक्रियारूपत्वा- प्रज्जाएँ भूसणेडिं, माउलसहिओ गमो षणिजेणं। चारित्रस्य, तथा गुणरागी-विशुकाध्यवसायतया स्वगतेषु पर- नयरे उसीरवत्ते, कप्पासो तत्थ बहु किणिो ॥१४॥ गतेषु वा गुणेषु कानादिषु रागः प्रमोदो यस्यास्त्यसौ गुण- जंतस्स तामलिन्ति, मग्गे दो दवेण सो सयलो। रागी, निर्मत्सर इत्यर्थः । तथा शक्यारम्भसङ्गता-कर्तुं शकनी- निम्भग्गसेहरोत्तय, माउलएणाबि सो चत्तो॥ १५ ॥ थानुष्ठानयुक्तो, न शक्ये प्रमाद्यति , न चाशक्यमारजत इति आसारूढो गच्छर, पच्छमादसि तयणु से मओ तुरगो। भावः। तथा चेति समुच्चवार्थः । ततश्च मार्गानुसारितादिगुण- छुत्तराहपरिकिलंतो, तत्तो पत्तो पियंगुपुरं ॥ १६ ॥ युक्तः शक्यारम्भसंगतधेति स्यात् चारित्री, सर्वतो देशतो षा] सिंही सुरिंददत्तो, पिनमित्तो तत्थ तस्सगासामो। चारित्रयुक्तो भवतीति गम्यमिति गाथार्थापनाविव वक्री दव्यलक्वं, गहिवं सो पायमारूढा ॥ १७ ॥ Page #1200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारुदत्त प्रन्निधानराजेन्द्रः। चारुवम पत्तो जमुणादीवं, तस्स पुरेसुंगमागमेणं च। गंधब्बसेणधूया, तह जाया विजयसेणपत्तीए । अजेइ चारुदत्तो, कहमवि कणगष्टुकोमीनो ॥१७॥ रजं जुवराजमह, दाउं पुत्ताण पब्वइओ ॥४३॥ अह तस्स निययदेसा-भिमुहं तस्स पवहणं फुढे । कक्कोमगसेलोऽयं, लवजले कुंजकंगे दीवे । तो फलगगो सत्तहि, दिणेहि किच्छेण नत्तिनो ॥ १६ ॥ अहमित्थ तवेमि तवं, तुमं पि साहसु नियमबंधं ॥४४॥ उन्वरवश्वेलतमे, पत्तो रायपुरबादिरुजाणे । सिधिसुरण वि सम्वो, नियवुत्ततो मुणिस्स तो कहियो । तत्थ तिदमी दिणकर-पहनामो तस्स संमिलिभो ॥२०॥ अह साहुसुया ते दो, पत्ता नेहिं मुणी ममिओ ॥ ४५ ॥ तेणं सह सो पत्तो, रसहे पव्वयस्स कूवीए ।। भणिया ते वरमुणिणा, पुत्ता सो एस चारुदत्त ति। मंची विभो तुंबय-सहिमो रज्जू ओइन्नो ॥ २१॥ इत्थंतरे महिली, तत्थेगो आगो तियसो ॥ ४६॥ ता केण वि भणियामयं, को सि तुमं तयणु तेण श्य वुतं । तेण नमो सो पढम ,पच्ग साह तओ य खबरेदि। चसियो मि चारुदत्तो, तिदंडिएणित्य पक्खित्तो॥१॥ पुछो साहरु देवो, हेवं वंदणविवजासे ॥४७॥ सो भण पुणो वणियो, इमिणा खिविमो पि इत्य मे देहो । तथाहिअद्धो रसेण खद्धो, तुम पि ता इत्थ मा विससु ॥ २३ ॥ सुलसा तह व सुभद्दा, ससाउ चरियाऊ भासि कासीम । श्य भणिऊणं तेणं, समप्पियं तस्स भरियरसतुंबं । वेयंगपारगाओ, तीदि जिया वाश्णो बहवे ॥ ४ ॥ रज्जू' कापियाए, तिदंडिणा करिसिओ सा उ ॥ २४ ॥ अह जमवायपरिवा-यगेण सुलसा जिया कया दासी। मगह रसतुंबतं. नो तार तेण तो रसो चत्तो । वहुसो संसगीप, तेण य तीए सुनो जात्रो ॥ ६ ॥ अह लिगिणा स खित्तो, पमित्रो रसकृवियापे तमे ॥१५॥ लोगोवहासभीया-णि ताणि तं मुत्तु पिप्पलस्स अहे । तो वणिणा सो वुत्तो, गोहाणुच्छेण उत्तरिजासु। नहाणि सुभद्दाए, दिछो मुहपमियपिंपो सो ॥५०॥ पवमिमो उत्तरिओ, सुमिरतो पंचनवकारं ॥ २६ ॥ कपिप्पलायनामो. तीए संबोि गहिवविजो। जा गिरिकुहराउ बहि, निक्खंतो ताव धावियो महिसो । पियमायमेहपमुहे, जन्ने पन्नविय ते दण ॥ ५१ ॥ तो सो सिलाएँ उवरिं, आरूढो जाव चिछेह ।। २७ ॥ तस्स विणेप्रो वलि-नामाऽहं पसुवहाइ बहु जन्ने। ता निम्गओ अयगरो, तेर्सि जुझतयाण सो नट्ठो । का नरयम्मि गो, पंचभवे तो पस् जाओ ॥ ५२ ॥ मिलियो माउलपुत्तो, अहन्नया रुद्ददत्तो सो॥२७॥ हपिनो दिएहिँ जन्ने, गहनवेऽणेण दित्तणवकारो। भंडं अलत्याएं, चित्तुं चलिया सुबन्ननूमुवरि । सोहम्मे स्वधनो, तो पुन्यमिमो मर नमिओ ॥ ५३॥ तरि वेगवश्नई, गिरिकूमे ते गया दो वि ॥ २६ ॥ इय भणिय चारुदत्तं, नपिउं च गयो सुरो सगणम्मि । तो चित्तवणे तत्तो, टंकणदेसम्मि तत्थ दो मेसा। खयरेहि तेहि सो पुण, नीओ सिवमंदिरे नयरे ॥ ५४॥ किणि तेसुं चडिउं, पंथो अश्लंधिो बहुओ ॥३०॥ सक्कारिओ य संमा-णिो य अश्गरुयगमरवेण तर्हि । रुद्देण तो वुत्तं, अश्रो परं नस्थि नूमि चारुति । खयरेहि तेहि सकि, जा चलिमो नियपुरीसमुहं ।। ५५ ।। तो मेसे मारेउ, उच्चद्वेउं च पविसामो ॥ ३१ ॥ ता तत्थ सुरवरो सो, पत्तो तबिहियवरविमापम्मि । तो पबम्भंतीए , भारुंडविहंगमेहि मक्खित्ता। आरूढो सिटुिसुरो, समागओ झत्ति चंपाए ॥ ५६ ॥ वच्चिस्सामो अम्हे, सुवनभूमि सुहेणावि ॥ ३२ ॥ बहुयाच कणयकोमी-उदाउमह सो सुरो गमो सम्गं । श्रद तेणुत्तो रुद्दो, जोहं उत्तारिया विसमभूमि । नमिऊण चारुदत्तं, स्त्रयरा वि गया सगणम्मि ॥ ५७ ॥ ते मेसे कह दणिमो, हियजणए परमबंधु ब्व ? ॥ ३३ ॥ सबमाउलो तह, मित्तवई सा वसंतसेणाय । रुहो भणहन एसिं, तं सामी तेण मारिओ मेसो। सम्वे वि तस्स मिलिया, फुरिया विमला तहा कित्ती ॥५॥ निदो वीश्रो य पुणो, तरलच्छो नियइ माणुसुयं ॥ ३४ ॥ अह सो अस्थमणस्थि-कमंदिरं जाणि विसुकमणो। तो वुत्तो तेण श्मं, ताउमसत्तो तुम किमु फरेमि । पणिहपरिमाणजुलां, गुरुमूले लेइ गिहिधम्मं ॥ ५ ॥ जिणधम्म पमिवज्जसु, सरणं विहुरे वि बंधुसमं ॥ ३५॥ जहजुम्गं नियदव्वं, सन्वं वविऊण सत्तखित्तेसु । दिन्नो नवकारो त-स्स चारुदत्तेण, अह हो उगलो । मुच्चामच्छरचत्तो, स चारुदत्तो गमो सुगरं ॥ ६ ॥ रुदेण, तो सुन्नि वि. तब्भत्थासुं पविता ते ॥ ३६॥ एवं ज्ञात्वा चारुदत्तस्य वृत्तं, सुरियाहत्या विहगे-हिं उहिया एगआमिसत्याण । नित्यं शिष्टाः! सुष्ठ संतुष्टिपुष्टी । तेसिं जुज्झताण, प्राणुसुरो सरवरे पडिनो ॥ ३७ ॥ अर्थेऽनर्थक्लेशसंबन्धबद्ध, छुरिया छित्तु भत्थं, निस्सरिऊणं गयो नगं पगं । धर्मकोभं मा स्म धत्त प्रलोभम् ॥ ६१ ॥ ध०२०। दिछ तत्थुस्सम्गे, विप्रो मुणी वंदिनो तेण ॥ ३० ॥ पारियकालसम्मो, भणश् मुणी धम्मलाभ मह दाउं । चारुपाण-चारुपाणि-त्रिका चार प्रहरगविशेषः 'गणी येषां ते कदमित्थ भूमिगोयर-अविसयसेसे तुमं पत्तो ? ॥ ३५ ॥ चारुपाणयः। करेण चारुनामकप्रहरणधारके,जी०१ प्रति० राण खयरोऽहं अमियगई, तश्या तुमए वि मोइओ पत्तो। चारुपेहिणी-चारप्रेक्षणी-स्त्री०। चारु प्रेक्तितुमवलोकितुं शीलअट्ठावयगिरिपासे, मंद सो परी नको ॥४॥ मस्याश्चारुपोक्किणी। अधोहितादिदोषादुष्टायाम्, उत्त०१ म०। ता हं नियमजं गि-रिहऊण सिवमंदिरम्मि संपत्तो। सुन्दरावलोकनायां, सुन्दरनयनायां वा । उत्त० २२० । रजे म उविकणं, मज्झ पिया गिण्डए दिक्त्रं ॥४१॥ चारुरूव-चारुरूप-त्रि० । मनोहररूपे, कल्प०३ क्षण। पुत्तो मे सीहजसो, पत्ती मणोरमा सजाओ। बीओ वराहगीयो, मम तुद्धा विक्कमबलेहिं ॥ ४२ ॥ चारुवा-चारुवर्ण-त्रि सत्कीती, शौर्यादिशरीरवणयुक्त, भौग २६५ Jain Education Interational Page #1201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारुबेस चित-वि० व्याप्ते, अनु 1 कु चारुवेस- चारुदेषवि० बाय नेपथ्यं समाया यस्य सः जी. ३ प्रति० । मनोहरनेपथ्ये, जं० १ वक० चिआग - त्याग - पुं० । संयतेभ्यो वस्त्रादिदाने भाव० ४ ० । चारोवन चारोपण-पुं० बारयके ज्योतिष्छे सु० प्र०१२ चि चिति श्री विश' चयने इत्यस्य स्त्रियां पाडु● | शलकर्मण उपययकरणे ०२ द्वारकार कार्योपचारा चारोषवद्याग-चारोपपन्नक-पुं० । बारो महमलगत्या परिभ्रम जोहरणायुपधिसन्तौ, चीयतेऽस्याविति वा व्युत्पत्तेः । भाव• पं समुपपचाधारोपपन्नाः चारमाश्रितवत्सु ज्योतिष्केषु जी० ३ अ० । इष्टकादिचये, उत्त० ९ अ० । ३ प्रति० ॥ जं० । स्था० । चिकम्म (ण्) - चितिकर्मन् - न० । कृतिकर्मणि बन्दनके, भाव० ३० वितिकर्मापि द्विपेय-म्यतो भाव इत स्तापसादिसिहकर्म, अनुपयुक्तसम्य रजोहरणादिकर्म 1 , भावतः सम्यग्दृष्टद्युपयुक्तरजोहरणाद्युपधिक्रियेति । ( अत्र करान्तःकिकमेव मागे ६-७ पृष्ठे उकः) चिइच्छा-चिकित्सा - स्त्री० । "स्वरादनतो वा ८।४।२४०॥ इत्यनत्वः पर्युदासान ह्रस्वः । प्रा० ४ पाद । हस्वात् थ्य-श्च रस-सामनिश्चले " | ८ | २ | २१ | इति सभागस्य नः । रोगप्रतिकारे, प्रा० २ पाद । 66 चालण - चालन-न• । स्थानात्स्थानान्तरनयने शा० १ ० ३ , 이 चालणा - चालना स्त्री० । गोचरमर्कगोचरं वा दूषयं चाल्यते आक्षिप्यते दया बचनपकस्या सा चलना । पृ० १ ३० / सूत्रस्यार्थस्य वाऽनुपपरबुजावने, एषैब चालनाऽऽवश्य के सामाविकासरे स्वस्थाने विस्तरती इय्या | अनु० । स्था० । विशे० । अधिकृतानुपपत्तिचोदनायाम्, यथा अस्त्विति प्रार्थना न युज्यते तमाशादिशासिके ० । चालणी - चालनी-स्त्री० । ( बालनी) तितौ, श्रा० क० । I ( ११७० ) अभिधानराजेन्द्रः । आ० म० । विशे० । | । । , चाचणीपमिवख चाझनीम विपक्ष 50 चालनीतिपन्ते निर्मापि तापसभाजने, ततो हि बिन्दुमा मनिप्रवति। उक्तं च-"ताबस लउरकटियर्थ, चाणपत्र न सब दव्वं पि ॥ " आ० म०प्र० । पितर- चिकुरपुं० [पतरामयाविशेषे जं० १ ० ० म० । प्रज्ञा० । रा० । गन्धद्रव्यविशेषे, रा० । प्रज्ञा० । 'वि' इत्यम्यकं शमं कुरति कुरकः केशे मे पर्वते सरीपे, चपले, तरले, चञ्चले न । त्रि० । वाच० । चित्ररंगराग-चिकुराङ्गराग पुं० चिकुरसंयोगनिमियादौ रागे, रा० आ० म० । चालिस चालवितुम् अव्य० भङ्गकान्तरं कर्तुमित्यर्थे - पा० २ अ० । चालेमाथ चानयत् भ० शरीरस्य मध्यभागे संचरति जी० ३ प्रति । भाव-चाप ० धनुषि मी० ० ० ० उपा जी० - " - चित्र - अव्य०। " ण- बेन-चित्र वा अवधारणे " । ६ । २ । १०४ इति अवधारणे विशद अवधारये प्रा० २ पाद सेवादी वा इति वाशिम २ " 3 तथा । प्रा० २ पाद । चितामणि चिश्वंदरणा - चैत्यवन्दना - स्त्री० । पूजापुरःसरमहबिम्बवन्दने, पञ्चा० १ विव० । घ० । भ० । ० । प्रश्न० । चारपाणि चापपाणि- त्रि० । चापं पाणी येषां ते चापपाणयः। धनुस्तेषु जी०३ प्रति० रा० । प्र० । पं० ब० । । , चावश्च चापस्य २० । आत्मपरिणतीनां स्वस्वकार्यकरणे पर नावोन्मुखप्रवर्त्तमरूपे अस्थैर्ये, अष्ट० ३ अष्ट० । चात्राली - चावान्ना-स्त्री० । स्वनामख्याते प्रामे, सा चोत्तरदकणभेदादू दिवा-" सामी दाहिणचावालीओ उत्तरबाबालि बच्चति" । प्रा० म० द्वि० । ० चू० । प्रा० क० । चाचिश्रध्यावित भि० परिवसितं धनु चावेदी-चापेटी स्त्री० विद्याभेदे यथाऽन्यस्य चपेटायां दी- चिंता-चिन्ता श्री० तिनं चिन्ता नं। मनश्वेष्टायाम् चिंवग चिन्तक पुं० अप्रमादेन यातरि प्राय० चिंतण - चिन्तन - न० । अनुस्मरणे, पर्यालोचने, प्रा. ४० विस्मर परिभावनेत ३२० चिनिया - चिन्तनिका स्त्री। अनुप्रेक्षायाम्, स्था०५०३४० चिंतयंत चिन्तयत्-भि स्मरति, संघा० मम्यमाने, सूत्र० १ भु० १२ अ । 1 । | - । यमानायामातुरः स्ववीजवति । व्य०५ उ० । चास चाप पुं० [किकीदिविनि प्रश्न०१ द्वार पक्षिवि शेषे, रा० जी० प्र० । प्रज्ञा० । ज्ञा० । उत्त । चासपिच्छ चाप पिच्छ १० चापप, रा० भाव० ४ ० । विचारे, उस० २३ प्र० । पर्यालोचने, सुत्र० १ १२० स्वरूपपर्यालोचनरुपायां कथायाम, आव० ४ ० । चिंता जोग - चिन्तायोग - पुं० । अतिसूक्कासंयुक्तिचिन्तनसंबन्धे, पो० ११ विष० । चिंताणाण- चिन्ताज्ञानम० शीर०११ चिंतामणि- चिन्तामणि मन्त्र, पो० २ विव० । चिरबंध - चिकुरवन्ध-० केशरिने भेदे, कल्प ७ क्षण । चिउरराग- चिकुरराग-पुं दौ रागे, प्रज्ञा० १७ पट् । चिंचइयो - देशी- मणिमते, चलिते, दे० ना० ३ वर्ग । चिंचा- चित्रचा श्री - पीतव्यविशेषनिष्पादिते बा १०० चिन्तामात्रेवार्थमभेदे Page #1202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७) अभिधानराजेन्द्रः । चिंतामय चिंतामय - चिन्तामय - त्रि० । खिन्तानिर्वृते, पो० १२ विष० । चिंतावग - चिन्तापक- त्रि० । अनुभावके, प्रा० मं० द्वि० । चिंतासोगसागरप्पविडा -चिन्ताशोकसागरमविष्टा - ० कि. यशोकसागरश्चिन्ताप्रधानो वा शोकसागरश्चिन्ताशोकसागरस्तं प्रविष्टः शोकाधिनिमन्ने सूत्र० २ ० १ ० चिंतिय चिन्तित - न० | स्मरणे, भ० ६ श० ३३४० । नि०१ झौ | नि० : ० भ० विपा० चिन्ता सज्जातास्मन्निति चिन्तितः। चिन्ता जी प्रति० रा० ० विपा० । सूत्र । परेण विस्थापिते ज्ञा १०१० ब्रितिपन्य-चिन्तितव्यमा विकल्पनीये - रिमावनीये, पञ्चा० २ विष० । विवितुं चिन्तयित्वा अस्मृत्यर्थे पं० २ द्वार चिंध-चिन चिह्नयते ज्ञायतेऽनेनेति चिहम सूत्र० १० ४ अ० 8 ॐ० । “चिहेन्धो वा”॥ [ । २ । ५० ॥ चिहे संयुक्तस्य धो वा प्रवति । महाऽपवादः, पदक्षे सोऽपि ।' खिन्धं' चिपहं, लाउने, झा० १ ० १६ अ० । लिके, पञ्चा० १ विव । चिंग- विगत शि० चिह्नानि सहखानि गतः। भी. श्री० I चिंषपुरिस-चिह्नपुरुष-पुं० । पुरुषचि हैः श्मश्रुप्रभृतिभिरुपलहिते नपुंसके पुरुषवेदे तेन चिचते पुरुष इति कृत्येति पुरु पवेषधारिणि वादौ । आह च- “ पुरिसाकिरे नपुंसो, बेश्रो वा पुरुसवेयो वा " । स्था० ३ ठा० १४० । विशे० । चिधित्थी - चित्री-स्त्री० । चिह्नद्यते ज्ञायतेऽनेनेति चिह्न, स्तननेपथ्यादिकम् । • १० ४० १४० चिमात्रेण सूत्र• । त्रियाम, ('इत्थी' शब्दे द्वितीयनागे ५९५ पृष्ठे चैतटुक्तम ) चिंचणी देशी वीणामयको दे० ना० ३ वर्ग चिकाचिकण-०ि कम्यनिष्य प्र०१७ ० १ ० । पिच्छिले, तं० । दुर्विमोचे, प्र• १ श्राश्र० द्वार। भाषयति प्र०१ मा० द्वार हाइपे, “कम्म बंधे चिकणं" दश०६ म० । चिकणंग चिकणाङ्ग २० विमाने शरीरे, सं० चिकणीक चिकणीकृत चितथाविधमिचत् हम कर्मस्कन्धानां सरखतथा परस्परं गाढसंबन्धकरणतो दुर्भेबीकृते कर्मणि, ०६० १३० चिट्ठियव चिक्खल - चिक्खन न० | विश्व करोति खटुं च भवति चिक्ल म | अनु० | प्रबल कर्दमे, प्रश्न० १ अभ० द्वार। वृ० । स्था० । आव । प्रज्ञा० । चिक्खलय- चिक्खल्लक न उज्जयन्तशैले स्वनामन्याते नगरे, "नियरे मयहरं अस्थि सेलगं दिव्यं । तस्स ब मज्जम्मि ठिमो, गणकरस्स कुंरुश्रो चचारें ॥ " ती०२ कल्प। चिक्खिन- चिक्खिन- म० । कर्दमे, प्रश्न० ३ प्राभ० द्वार | स० । श्रीन 66 चिंच चिंचय-चिचिल-मडिया हाई चुरा० भूषायाम्। चूषावाम्, "मएमेग्माचेश्चमचिश्चिपुरीमटिषिडिकाः " ॥ ८४ ॥ ११५ ॥ इति ममेशियाचादेशाः । विवर, चिल्लर " मण्डयति । प्रा० ४ पाद । चिचणा - देशी - घट्टिकायाम, दे० ना० ३ वर्ग । चि ०१० चिन्धजय - चिह्नध्वज - पुं० । बिहत गरुमसिंहवराहाङ्कित चिचं- देशी- रमणे, दे० ना० ३ वर्ग । चित्र-स्था-था० । कस्थानेन्द्र स्पापचि निरप्पा: " ॥ ८ । ४ । १६ ॥ इति तिष्ठतेरादेशः । प्रा० ४ पाद । " तिष्ठेखि " || ८ | ४ २३८ । इति मागच्यां तिष्ठतेादेशः । ' चि'- तिष्ठति । प्रा० ४ पाद । ऊर्ध्वस्थानेन, (भ०११ ११०) विठति 'चिट्ठश्ता प्रवति' स्थाता भवति। - शा० ३ अ० । चिपमाग - चिह्नध्वजपताक-त्रि० । चिह्नध्वजा गरुमादिचियुक्ताः केतवः पताका यस्य स तथा चिह्नयुकम्वजपताकोपेते, विपा० १ ० १ ० । चिंणिप्पा - चिह्न निष्पन्न- त्रि० । लिङ्गिते, " लिंगियं ति घा विधवा करणाप्यर्थ ति यामिति वा पगट्ठा " भ० चू० ६ ० । चिंधपम-चिह्नपट - पुं० । ६ ब० । वीरतासूचके नत्रादिवत्रमनपट्टोपेते श्री. चित्रणा खी०-स्थानसंठित ठिती | अवद्वाणं अवत्था य, एगट्टा चिट्टणा वि ६० (उदकतीरे स्थाननिषेधः "दगती" शब्दे चिचरो - देशी - चिपिटनासावाम, दे० ना० ३ वर्ग । चिश्चा- त्यक्त्वा धन्य० । द्वित्वेत्यर्थे, उस० १८ अ० । सूत्र• । विधि-चिविप्राय० । चीत्कारे विपा० १०२० । चिच्चो - देशी - विपिनासायाम, दे० ना० ३ वर्ग । 66 अवस्थाने "पतिट्ठा ठायचा हा • ट्ठार्थ, " पदयते) चिह्नमाण चेष्टमान त्रि० । अनुष्ठानं विश्वति, पश्चा-२ विव० । तिष्ठत् – त्रि० । अवस्थाने, पाच । चिट्टा पेश-श्री० [कायव्यापारे याचा० २ ० २ ० वि० चू०|धृ० | देहावस्थायाम, प्राव• ४ ० । -- । चिट्टिण स्थित्वा धन्य० स्पष्ठाविट्ठनिरण्याः ४०४१६४ इति स्थाचाधादेशः प्रा० ४ पाद स्थानोपविश्ये त्यर्थे, स्था० ३ ठा० २ ० । चिड़िया स्थित्वा अव्य० 'चिडिय' शब्दाचे, प्रा०४ पाह चिट्ठिय-चेष्टित--न० । भावे कः । सकाममङ्गप्रत्यङ्गावयवप्रदर्शनपुरःसरे प्रियस्य पुरतोऽपस्थाने, बं० प्र० २० पाहु०सु० प्र० । हस्तन्यासादौ प्रश्न० ४ संघ० द्वार कृतचेष्टोपेते, ज्ञा० १ ० १ ० । 9 - पिडिंतु क्रिया-स्थिरायति श्राचा० १ ० ३ ० ४ ४० ॥ चिद्विगम्य-स्वातन्य-म० निष्क्रमप्रवेशादिवर्जितस्थाने संघमात्ममवचनबाधापरिहारेणो खानेनोपवेष्टव्ये, २०१०९ ४० " Page #1203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११००) अभिधानराजेन्द्रः | चियंसु चिसु - क्रिया-अतीतकाले चिन्वति, स्था० २ ठा० ४ ० गृहीतवति, स्था० ६ ० । चिखिनंवचीयमान त्रि० विध्वंस' शब्दार्थे, प्रा० ४ पाद चिम- चीर्ण-त्रि० चरक इबी प्र 1 ढितः साधुत्वम् । श्रन्यथा चरितमिति युक्तम् । उत० १३० पञ्चा० । अङ्गीकृते निषेविते, उत्त० ३१ अ० । हारिते, भ० १ए श० ३ ड० । सू० प्र० । पञ्चा० । “ सव्वं सुचिष्ठं सफलं नरा" सुचीर्ण सम्यक् प्रकारेण कृतं संयमतपः प्रमुखं सर्वम् । उस० १३ अ० । । चित्त-चित्र-त्रिभू विपा०१०६० मानाप्रकारे प्रव० ४ द्वार | जी० । श्रनेकविधे, स्था० १० ठा० । द्वा० । प्रज्ञा० स० । श्री० । विशे० । उत्त० दर्श० रा० । आश्चर्यकारिणि, कल्प० ३ कृण । अतिरम्यतयाऽद्भुते, श्र० । शोजवाऽद्भुतभूते, तंo | अनेकरूपवति, सू० प्र०१८ पाहु० । विचित्रे, झा० १ ० १ अ० । चित्रकारिणे, कल्प० १ कृण । चित्रवति, उत्त १० अ० प्र० । शा० । भित्यादिल्लेख्ये, " चित्रमेव हि संसारो, रागादिक्लेशवासितम् " । द्वा० ३१ द्वा० । विशे० औ० । कर्बुरे, [झा० १० ८ अol आलेखने, रा० । श्रा० म० । वेणुदेववेणुदारिणोः प्रथमे लोकपाले स्था० ४ ठा० १ उ० ज० । शङ्खराजजागिनेये, आ० म० द्वि० । प्रदेशिराजदूते, श्वेतव्यां नगचित्रनामा दूतः प्रदेशिराज्ञा प्रेषितः श्रावस्त्यां नगयो 3 जितशशुसमीपे स्वगृहान्निर्गत्य गतः । नि० १ वर्ग । काम्पिचित्तकट्टर - चित्रकहर - न० । चित्रशब्देन कलिञ्जादिकं वस्तु व्यनगरे ब्रह्मदत्तचक्रिपूर्वभवजीवस्य सम्भूतस्य चापमालयो म्रतरि, उत्त०१३ अ ( स च यतिर्भूत्वाऽनिदान एव मृतः पुरिमतालनगरे श्रेष्ठिकुले उत्पन्नः प्रवग्राजेति 'बंजदन्त' शब्दे पदवते) प्रातर्सिनो राजमदिष्यो विदुम्मालावि न्मत्योः पितरि उत्त० १३ श्र० । किच्यिते तस्य कट्टरः खहरुः चित्रबहने, अनु० । चित्तकणगा-चित्रकनका स्त्री० । द्वितीयायां विद्युत्कुमारीमहसरिकाग्राम, जं० ५ चक्क० | स्या० । विदिगुरुचकादिवासि म्यां दिक्कुमारिकायाम्, द्वी० आ० क० ति० । चित्तकम्प (ण्) -चित्रकर्म्मन् -- [-न० । चित्रलिखित रूपके, अनु०| चित्त- न० । अन्तःकरणे, श्रावण ४ श्र० । श्राचा० । विश्वं मनो विज्ञानमिति पर्यायाः । अनु० भ० । मानसे, भौ० । श्रतु । भावे पश्चा०२ विष चेतनाभावे, पो० १३ विय० । चे तयति येन तब चित्तम् । झाने, श्राचा० १ ० १ ०५४० । मतौ, श्राव० ४ अ• । श्राचार्याभिप्राये, आचा० १०५ अ०४ ४० | सामान्योपयोगे, धनु चित्तं चेतना संज्ञानमुपयोगोऽ धानमिति पर्यायाः प्रा० ६ ० त्यागतिस्थिति व्ययहारनिबन्धनस्थ बुद्धेराधारे दर्शवित्तमुपयोगो का नम् । सूत्र० १ ० १ ० १ उ० । दृढाऽध्यवसाये, वृ० । विविधम् , फायादिविशि चिर्च तिव्वं मयं च मछं च जह सीहस्स गती, मंदा य पुता दुया चैव ॥ माध्यवसायात्मकं वित्तं त्रिधा कायिक, वाचिकं मा मखिकाधिकं नाम यत्काव्यापारेणोपयुको का रणिकां करोति, कुर्मा संगापाठति वाकिंतुमवेशी निरवद्या भाषा भाषितव्या, नेदृशी सावद्येति विमर्शरस्सरं यज्ञापते । यद्वा विक्रयादिव्युदासेन तपरावर्त्तनादिकमुपयुक्तः करोति तद्वाचिकम मानसं त्वस्मित् वस्तुनि स्यैकाप्रता पुनरेकैकं धनी मृकं च मध्यं च तत्र चित्तकूट 2 समुत्कटं, मृदुकं मन्दं मध्यं च नातितीयं नातिमृडुकामत्यर्थः । यथा सिंहस्य गतयस्तिस्रो भवन्ति । तद्यथा मन्दा च ता] चंताच रात्र मन्दाविलम्बिता प्लुता जातिमन्दाना तित्वरिता, दुता चातिशीघ्रवेगा स्यात् । बृ० १ उ० । आव० । (अंरिमाणं चितं तं ज नावणा वा अणुपेा वा श्रहव चिंता ॥ " इति ध्यानाश्चित्तस्य भेदो ' काण ' शब्दे वक्ष्यते ) चित्तउत्त-चित्रगुप्त-पुं० । षोमशे भविष्यजिने, स० । ० । ० यमने, चित्रगुप्ताय वै नम इति सर्पसमन्त्रः वाचः । चितंग चित्राङ्ग-पुं० चित्रस्यानेकविधस्य विवकायाः प्राधान्यात्, माल्यस्य कारणत्वाच्चित्राङ्गाः । स्था० ७ ग० सुषमसुपमा कर्मभूमिषु सदा चाकर्ममिषु युगः समनुध्यसमये जायमानेषु कल्पद्रुमजेदेषु, आ०म०प्र० स० जी० । “वित्तंगेसुय मल्लं " चित्राङ्गेषु माध्यमनेकप्रकारसरससुरभिनानावर्णकुसुमदामरूपं भवति । तं । श्री ऋषभदेवस्याष्टमे पुत्रे, कल्प० ७ कण । चिचतरलेस्सा- चित्रान्तरलेश्या - पुं० | चित्रमन्तरं लेश्या च येषां ते तथा तथाविधेषु ज्योतिकेषु यथा चित्रमन्तरं सुणां चन्द्रान्तरितत्वात् त्रिया चन्द्रमां शीतरमित्याद सूर्याणामुष्णरश्मित्वात् । जं० ७ वक्क० सू० प्र० । " ग०। आचा० । चित्तकर-चित्रकर- पुं० । चित्रकारे शिल्पिनि श्राव० ४ परिनिष्किारोऽमाप्यापि रेखादिकं प्रमाणयुक्तं चित्रं करोति तापनमा वा वर्षकं गृह्णातियावन्मात्रेण समाप्यते । श्रा० म० द्वि० चित्तक-चित्रकथत्रिकाकथके, उ० ३ ० । विचकूम-चित्रकूट पुं० चित्राणि चित्ररूपाणि कूटानि यस्य सः॥ नं०। जम्बूद्व | पे मन्दरस्य पर्वतस्य सीताया महानद्या उत्त रकूले वक्षस्कारपर्वते, स्था० ४ ० २ उ० स० । ' दो चित्तकूडा ' स्था० २ ० ३ उ० । कहि जंते ! जंबुद्दीचे दीवे महाविदेहे वासे चित्तकूडे णामं वक्खारपन्चए पत्ते । गोयमा ! सीखाए महाएईए उत्तरे शीलवंतस्सवासहरपव्ययस्तदाई जयस्स पुरच्छिमेणं सुकच्छविजयस्स पच्चच्छ्रिमेणं एत्य अंबुदवे दीने महाविदेहे वाले चिचकूटे शार्म वक्खारखव्त्रए पत्ते । उत्तरदाहिणाए पाईपमीणविच्छिन्ने सो लस मोअन सदस्साई पंच या जो Page #1204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९०१) चित्तकम अभिधानराजेन्द्रः। चित्तदोस अएगणसिइभाए जोअणस्स आयामधं पंच जोमणस- स्योत्तरस्याम् । एवं प्राक्तनं प्राक्तनमप्रतनादग्रेतमाइक्विणस्यामा याई विक्खंभेणं नीलवंतवासहरपब्वयं तेणं चत्तारि जो- अप्रेतनमतनं प्राक्तनात्प्राक्तनादुसरस्यां केयं, तर्हि शीतानीस बतोः कस्यां दिशि इमानीत्याह-प्रपमकं शीताया उत्तरतः' अणसयाई उठं नच्चत्तेणं चत्तारि गाउअसयाई उव्हेणं चतुर्थकं नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिण इति सूत्रपाठोक्तकतयाऽणंतरं च णं मायाए उस्सेहोबेहपरिखुटीए परि मबन्नात् द्वितीयं चित्रनामकं प्रथमानन्तरं शेय, तृतीय कच्छवुलमाणे सीआमहापईनंतणं पंच जोमणसयाई उर्ल नामक चतुर्थादर्घाग् केयमिति। चित्रकूटादिषु वक्तस्कारेवेउच्चत्तेणं पंच गाउअसयाई उव्येहेणं अासखंधसंगणसंठिए वं कूटनामनिवेशे पूर्वेषां संप्रदाया-सर्वत्रायं सिद्धायतनकूट , सबस्यणामए अच्छे सएहे. जाच पडिरूवे उभओ पासिं महानदीसमीपतो गण्यमानत्वात. द्वितीयं स्वस्ववक्षस्कारना मकं, तृतीयं पाश्चात्यविजयनामकं, चतुर्थ प्राच्यविजयनामकदोहिं पउमवरवेश्याहिं दोहि अवणसंमेहिं संपरिक्खित्ते मिति । अथास्य नामार्थ प्ररूपयति-" एत्थ णं" इत्यादि । अत्र वो एहं, विचित्तकूमस्स णं वक्खारपव्वयस्स उपि| चित्रकूटनामा देवः परिवतति , तद्योगात् चित्रकूट इति नाम बहुसमरमणिज्जे मिजामे पाते. जाव पासयंति । चि-| अस्य राजधानी मेरोरुत्तरतः शीताया उत्तरदिग्नाविषकस्कातकूमेणं चते वक्वारपव्वए कति कूमा पलता। गोयमा। राधिपतित्वात्। एवमग्रेतनेष्वपि वकस्कारेषु यथासंभवं वाव्य मिति गतः प्रथमो वकस्कारः । जं० ४ पक्ष। चत्तारि कूमा पसत्ता। तं जहा-सिद्धाययणकूडे १चित्तकूडेश, देवकुरुषु चित्रविचित्रकूटौ नामको द्वौ पर्वतौ स्थानतः पृच्छतिकच्चकूमे ३, सुकच्चकूमे ३, समा उत्तरदाहिणणं परुप्परं पदम सीधाए उत्तरेणं चउत्थयं नीलवंतस्स वासहरपव्व कहि णं जंते ! देवकुराए चित्तविचित्तकूडा णामं दुवे पचया पछत्ता ? | गोयमा ! णिसहस्स वासहरपब्वयस्स यस्स दाहिणेणं एत्थ णं चित्तकूमे णामं देवे महिक्लिए | उत्तरिवाओ चरिमंताओ अच्चोचीसे जोअणसए चत्ताजाव रायहाणी॥ रिअ सत्तभाए जोधणस्स अवाहाए सीआए महाणईए मथ यतोऽयं पश्चिमायामुक्तस्तं चित्रकूटपकस्कारं लक्षयन्नाह- पुरच्छिमपञ्चच्चिमेणं जनमो कृले एत्य णं चित्रविचित्तकमा 'कहि गं' इत्यादि सुलभम्, नवरम आयामे षोमशसहस्त्रयोजना णाम दुवे पलत्ता, एवं जच्चेव जमगपबयाणं सच्चेव एएर्सि दिरूपोविजयसमान एव, विजयानां विजयवक्षस्काराणां चतु. ज्ययामत्त्वात तेन तत्करणं प्राग्वदेव,विष्कम्भेन पञ्च योजनानीति रायहाणीओ दक्षिणेसं॥ विशेषस्तेन तानि कथमित्युच्यते-जम्बूद्वीपपरिमाणविष्कम्भात् "कहिणं भंते ! देवकुराए चित्तविचिकमा " इत्यादि बमवतिसहस्रेषुशोधितेषुअवशिष्टानि चत्वारि सहस्राणि एक- व्यक्तं, नवरम एवमुकन्यायेन चैव यमकपर्वतयोः,वक्तव्यता शनि स्मिन् दकिणे भागे उत्तरेवाऽष्टौ वक्तस्कारगिरयः, ततोऽष्टभिर्वि- शेषः, सैबैतयोश्चित्रविचित्रकूटयोः, पतदधिपतिचित्रदेवयोः भज्यन्ते ततः सम्पद्यते वक्षस्काराणां प्रत्येक पूर्वोक्तो विष्कम्भः, राजधान्यो दक्षिणेनोति । ज०४ वकः । इह हि विदेहेषु विजयान्तनदीमुखवनमे दिव्यतिरेकेणाम्यत्र चित्तकोकिन-चित्रकोकिल-पुं० । मानारूपे कोकिलपक्षिाणि, सर्वत्र वनस्कारगिरयस्ते पूर्वापरविस्ताः सर्वत्र तुल्यविस्ताराः, | "चित्रोऽन्यः कोकिलो यत्तद्, द्वादशाङ्गी प्रवक्ष्यसि" इत्युत्पलं , तत्र बिजयपोमशकपृथुत्वं पञ्चत्रि-1 प्रति वीरजिनः। प्रा० क०।। शतसहस्राणि चत्वारि सतानि षडुत्तराणि ३५४०६ । अन्तरन.चित्तगता-चित्रगना-स्त्रीला रुचकपर्वते विहरणशीलायां दिछुदीषट्पृपुत्वं सप्तशतानि पञ्चाशदधिकानि ७५० । मेरुविष्कम्भपूर्वापरभवशालवनायामपरिमाणं चतुःपञ्चाशत्सहस्राणि | मारीमहचरिकायाम्, द्वी०। ज० । प्रा० क०। मा• म०। स्था। ५४००० । मुखवनद्वयपृथुत्वमष्टापश्चाशतानि चतुश्चत्वारिं चमरस्यासुरेन्छस्यासुरकुमारराजस्य सोमस्य महाराजस्थाग्रमशदधिकानि । सर्वमीलने जातानि पम्पयतिसहक्षा हिष्याम, ज०१००५ उ01 स्था। णि १६००० । इति तथा नीलवद्वर्षधरपर्वतसमीपे चत्वारि चित्तघरग-चित्रगृहक-न । चित्रप्रधाने गृहके, जं० ७ वकः । योजनशतान्यूर्टोच्चत्वेन चत्वारि गन्यूतशतानि उद्वेधेन, तद| रा०। जी० । मन्तरं च मात्रया २ क्रमेण २ उत्सेधोद्वेधपरिवर्कमानः २ यत्र यावदुच्चत्वं तत्र तच्चतुर्थभाग नवेध इति द्वाभ्यां | चित्तचमकय-चित्तचमत्कृत-न० । मनप्राश्चर्यावगाहित्वे , प्रकाराज्यामधिकतरो भवतीत्यर्थः। शीतामहानद्यन्ते. पञ्चयो "जाय चित्तचमक, देविदाणं पितं गच्छं।" महा०५०। जनशतान्यूोच्चत्वेन पञ्चगव्यूतशतान्योद्वेधेन, अत एव चित्तणिबंधणसमुन्नव-चित्रनिबन्धनसमुनव-त्रि० । मानाप्रकाच स्कन्धसंस्थानःप्रथमतोऽने तुमत्वात्,क्रमेणाम्ते तुङ्गत्वात | रकरणादुत्पन्ने, पं०व० १हार। सर्वरत्नमयः, शेषं प्राग्वत् । अथास्य शिस्त्ररसौभाग्यमावेदयान्त. "चित्तकूडस्सणं" इत्यादि व्यक्तम् ॥ अथात्र कूटसयार्थ चित्तपास-चित्तन्यास-पुं०1 मनोनिक्केपे, पञ्चा०२ विधः । पृच्छति-"चित्तकमे" इत्यादि । पदयोजना सुलजा। भावार्थ चित्तणिवाइ ()-चित्तनिपातिन-पुं०। चित्तमाचार्याभिप्रास्त्वयम्-परस्परमेतानि चत्वार्यपि कटानि उत्तरदक्षिणनावे यः, तेन निपतितुं क्रियायां प्रवीत्ततुं शीलमस्यति चित्तनिपाती। न समानि, तुल्यानीत्यर्थः। तथाहि-प्रथम सिहायतनकट वि.] गुरुच्छन्दानुवर्तिनि, आचा०१ १०५०४१०। तीयस्य चित्रकूटस्य दक्षिणस्यां, चित्रकूट सिहायतनकर-चित्तदोस-चित्तदोष-पुं० । खेदादिषु चिरं दूषयासु, (पो०) २९६ Page #1205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९७२) चित्तदोस अभिधानराजेन्द्रः । चित्तसंनूइय " खेदोद्वेगकेपो-स्थानभ्रान्त्यन्यपुमलास।युक्तानि हिचित्ता- प्योपभोग्बकल्पवृक्केषु , मा. म. प्र० । नि, प्रबन्धतो वर्जयेन्मतिमान् ॥१॥" षो० १३ विव० । चित्तराग-चित्रराग-पुं०। विविधयगरजिते प्रश्न०४ माचित्तधणप्पत्य-चित्तधनप्रजूत-त्रि० । भूतं बहु चित्रमाश्चर्य- | श्रद्वार। मनेकप्रकारं वा धनमस्मिन्निति प्रभूतचित्रधनम् । प्राकृतत्वात्प्र-चित्तल-चित्रल- त्रिशच, पाव.४० व्या मारण्ये जूतशम्दस्य परनिपातः। उत्तानानाप्रकारचित्रधनशालिनि,। "इमं गिह चित्तधमप्पनूयं ।" उन० १३ .। जीवविशेषे, जी०१ प्रति।। चित्तपक्व-चित्रपक्क-पुं० । चतुरिन्छियजीवनेदे, जी०१ प्रति चित्तसय-चित्रलक-त्रि० । कः प्रत्ययः स्वार्थिकः, प्राकृतप्रका० । सुवर्णकुमाराणामिन्षयोर्वेणुदेववेणुदारिणोस्तृतीये लकणवशात् । विचित्रे पञ्चवर्ण (गुहादि) रचनोपेते रजोलोकपाले, म०३ श०७० । स्था। हरखे, ग. ३ मधिः । हरिणाकृतौ द्विखुरविशेष, प्रश्न०१ चित्तप्पलव-चित्तपनव-त्रि०। प्रभवस्यस्मादितिप्रनवः,चित्तहे. मा० द्वार। तुकत्याधि, चित्तं चामो प्रभवश्व चित्तप्रभवः । तथाविध धर्मे, चित्तलि (ए)-चित्रलिन्-पुं० । मुकुलिसर्पभेदे, प्रका० १ पद। "धर्मश्चितप्रनवो,यतः क्रियाकारणाश्रयं कार्यम्"पोइविवना चित्तवनि-चित्रवद्वि-स्त्री. गन्धप्रधाने बडीभेदे, कल्प०७ कण। चित्तपयजुय-चित्रपदयुत-त्रि० । नानाविधावप्रतिपादकामि- | चित्तविचिचजमगपन्वय-चित्रविचित्रयमकपर्वत-पुं० । देवकुधानयुक्ते , पश्चा० १६ विष रुषु शीतोदावा उभयपातचित्रकूटश्च पर्वता, तथा उत्तरकुरुषु, चित्तपरिच्छेय-चित्तपरिच्छेक-पुं० । अघौ, "चित्तपरिच्छेयप- शीताप्रिधावा नद्या उन्नयतो यमकाभिधानौ पर्वतीस्तः। तेषु. च्छाप," चित्रपरिच्छेको लघुः प्रकृदो वनविशेषो यस्थ स| भ०१४ श.८०। तथा । न० ७ ० १ ० । मौ. । चित्तविणास-चित्तविनाश-पुं० । चितभेद, चित्तकालुके चित्तफाग-चित्रफलक-ना चित्रयुक्त फलके, "चित्तफमगह- | पो०७विवः। त्यागर" चित्रफलकं हस्ते गतं यस्य । भ०१५ श०१०॥ चित्तविमास-चित्तविन्यास-पुं० । मानसावेशने, पञ्चा० ३ चित्तबहल-चेत्रबहुल-पुं०। चैत्रमासस्यान्धकारपक्के,जं०२वक्ता विव०। चित्ततित्ति-चित्रमित्ति-श्रीचित्रगतायांत्रियाम, 'दशचित्तविम्भम-चित्तविभ्रम-पुं० । चित्तभ्रमकारणे, तंग आण्म चित्तभेय-चित्रभेद-पुं० । बहुप्रकारे, पञ्चा० ३ विव० । चित्तस्य विमो विशेषेण चमणमनवस्थानं यस्मात् । उन्माद. रोगे, वाचः। चित्तमंत-चित्तवत-त्रि० । चित्तं जीवलक्षणं तदस्यास्तीति चि.| चित्तविप्पुइ-चित्तविष्यति-स्त्रीनचित्तविलवे, चित्तविप्लुतेरकाबत सजीवे, दश०४० । सचेतने, दश०४ 01 पा० । तिरिति चित्तविप्लत्या प्रेरितः स्त्रीसेवादी प्रवर्तते।दश। भाषा भाचा० । चित्तमादिय-चित्तानन्दित-त्रि० । चित्तेनानन्दितः। का० १ | चित्तवीणा-चित्रवीणा-स्त्री. । आकारविशेषवत्यां वीणायाम, श्रु०१०। चित्तमानन्दितं स्फीतीतूतं ('टु नदि'समृकाविति बनात) यस्य स चित्तानन्दितः। जार्यादिदर्शनात्याक्षिको चित्तसंजइय-चित्रसंतीय-न० । चित्रसम्भूतयोश्चाएमालयो. निष्ठान्तस्य परनिपातः । मकारःप्राकृतत्वादनाक्षणिकः। चेतसा निजातयोराख्यानकप्रतिबद्ध उत्तराध्ययनानां कादशेऽभ्यय. प्रहष्टे, जी० ३ प्रति०। ने, ( उत्त०) चित्रसंभूतीयमिति नाम, प्रतश्चित्रसंतनिक्षे. चित्तय-चित्रक-पुं० । (चौता) द्वापिनेदे, प्रा० म० प्र० । पाभिधानायाऽऽह नियुक्तिकृतरोमार्थ चित्रका बध्यन्ते । आचा। अशोकवृक्के, परएमवृक्के, चित्ते संजूयम्मि य, निक्खेबो चउक्कल दुहा दब्वे । कुष्ठमेदेवाचा आगम-नोश्रागमतो, नोभागमतो य सो तिचिहो॥६॥ चित्तरयण-चित्तरत्न-न० । चित्तं मनस्तानमिव चित्तरत्नं, जाणगसरीरभविए, तव्यरित्ते य सो पुणो तिविहो। निर्मलस्वजावत्वोपाधिजनितविकारत्वादिसाधात् । हा० एगजवियवसाय-अनिमुहओ नामगोए य ।। ६५ ।। २४ प्र० । प्रकाशस्वप्नावसाधान्मनोमाणिक्ये, पचा० "चित्ते संभूतीओ, बहतो भावभोस नायव्यो। तेसुंइतिच" २विब० पाठे तयोः समुस्थितमिति जवं चित्रसंतीयम् । “वृक्षाच्छ" चिचरस-चित्ररस-पुं०। चित्रां विचित्रा रसा मधरादयो मनो- ॥४॥२॥ ११॥ इति (पाणि०) छप्रत्ययः, वृरूसहा तु--"वा हारियो बेयः सकाशात्संपद्यन्ते ते चित्ररसाः। स्था० ७ ठा0 नामधेयस्य" इति वचनात् । भोजनाङ्गेषु, स्था० १० म० । विशिष्टदलिककामशालिसाल. साम्प्रतिकाविमौ चित्रसंन्ती, केन चानयोरधिकार नकपकानप्रभृतिज्योऽपि चापरिमितस्वादुतादिगुणोपेतेम्छि इत्याशङ्कयाहबमपुषिहेतुस्वादुभाजनपदार्थपरिपूर्णैः फलमभ्यर्विराजमानेषु (२०) नोजमदायिषु, स०१० सम० । अनेकबहुविभ्रसा साएए चंदवडिं-सयस्स पुत्तो उ आसि मुणिचंदो । परिणतेन जोजनविधिनापपेतेषु, जी० ३ प्रतिक गलिकमनु-1 सो विय सागरचंद-रस अंतिए पन्चए समणो ॥६६॥ रा०। उऽह नियुक्तियमिति नाम, मनानां बादशेष Page #1206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८३) अभिधानराजेन्द्रः । चित्तसंइय तहा@हाकि लंतं, समणं दण श्रमविनिदुतं । मलाणा य बोही, पत्तो गोवालपुतेहिं ॥ ६७ ॥ तो दुनि दुगं, कालं दासा दसने प्रायाया । दोन्नि य उसुयारपुरे, अहिगारो बंजदत्ते ॥ ६८ ॥ गाथात्रयस्याप्यक्षरार्थः स्पष्ट एव, नवरम् ( पव्वर समजसि) प्रावाजीत्, समानं मनोऽस्येति समनाः, सर्वत्रारत रचितः सन् । यद्वा श्राम्यतीति श्रमणः तपस्वी सन् निश्चयनयापेक्षं चैतत् " नेरइए नेरक्ष्यसु उववार " इत्यादिवद । तथा ( श्रमविनियंतं ति) अटवीनिःसृतमरण्याचि - कान्तमित्यर्थः । भाषार्थस्तु कथानकगम्यः। तचेदम् अस्ति कोशलाकार साकेतं नाम नगरं तत्र बाजूदधिगतजीवाजीवादितश्वश्चन्द्रावतंसको नाम राजा, तस्य च धारिणी देथी, तदजो मुनिचन्द्रः, स च राजा मन्यदा समुत्पन्नसंवेगस्तमेव सुतं राज्येऽभिषिच्य प्रव्रज्यामशिश्रियत्, प्रतिपाल्य च प्रवज्यामपगत मल कलङ्कोऽपवर्गमगमत् । श्रन्वधा च सागरचप्राचार्या बहुशिष्यपरिवृतास्तत्रागताः, निर्गतश्च चन्द्रनृपतिस्तन्दनाय, दृष्टाश्चानेन सूरयः स्तुत्वा च तानुपविष्टस्तदन्ति के तत्कथितो विशुद्धो धर्मः समुत्पचञ्चास्य तत्करजाभिलाषः, ततः स्वसुतं राज्ये निवेश्य प्रतिपचोऽसौ श्रमएवं गृहीता चानेन प्रहणासेचनोजयलक्षणा शिक्षा, प्रवृत्ताम्यदा सुलार्थेन सगच्छाः सागरचन्द्र सूरयोऽध्वानम, मुनिचन्द्रमुनिश्चतैः समं वजन गुरुनियोगादेकाक्येव भक्तपाननिमिचं कचित्प्रत्यन्तग्रामे प्रात्रिशत् प्रविष्टे वास्मिन् प्रवृत्तः साथ गन्तुं प्रचलिताः सहानेन सूरवः, विस्मृतश्चायमेषाम प्रस्थितश्च क्षखान्तरेण गृहीतनकपानस्तदनुकारिणीं वि 9 टीम तत्र चासौ परिभ्रमन् गिरिकन्दराएयतिक्रामप्रतिनिम्नोशत भूभागान् पश्यन् जयानकानेकद्वीपितरतुभल्लादि - स्वापदानुत्तीर्णः तृतीयदिने तदा च क्षुतक्षामकुतिः शुष्कोठकण्ठतालुरेकत्र वृकच्छायायां मूर्द्धावशनष्टचेष्टो दृष्टश्चतुर्भि गोपालदारकैः उत्पन्नाऽमीषामनुकम्पा, ते त्वरितमागत्य गोरसोन्मिश्रहतिजलेन पायितोऽसौ तदैव समाश्वस्तश्च नीतो गोकुलं, प्रति जागरितः तत्कावाचितकृत्यन, प्रतिलाजितः प्रासुकान्नादिना कथितस्तेषामनेन जिनप्रणीतधम्मों गृहीतचायमेतेर्भावगर्ने, गतश्चासौ विवक्षितस्थानं, तं च मलसंदिग्धदमवलोक्य द्वयोः समजनि जुगुप्सा, तदनुकम्पातः सम्यक्वानुभावतका निर्वर्त्तितं चतुर्भिरपि देवायुः, जग्मुश्च देवलोकं, ततयुतौ चाकृतजुगुप्सौ कतिचिद्भवान्तरितौ द्वाधिषुकारपुरे द्विजकुले जातो, (तद्व कव्यता च इषुकारी वनान्यनन्त राज्यवनेऽभिधास्यते) चौ च द्वौ जुगुप्सको तौ दशार्णजनपदे ब्राह्मबकुले दासतयोत्पन्नौ तयोश्चय इह ब्रह्मदतो भविष्यति, तेनात्राधिकारो. निदानस्यैवात्र वकुमुपक्रान्तत्वात् तेनैव च तद्विधाबाद, द्वितीयस्य तु प्रसङ्गत एवाभिधीयमानत्वाद, रह च नामनिष्पचनिक्केपेऽपि प्रस्तुते प्रसङ्गतोऽर्थाधिकारोऽप्युक्त इति गाथात्रयजावार्थः । उत्त० १२ अ० स० । ( ब्रह्मदत कथानकं 'मदत' शब्दे बक्ष्यते ) । वितसंविद्या - चित्तसंवित्-स्त्री० । ६८० | स्वपरचित तरागादिज्ञाने, “हृदबे चिचसंवित" । हृदये शरीरप्रदेशविशेषेऽधोमुखस्वल्प एकरी कारे संयमाच्चेतसः संवित् खपरचित्त गतवासनारा. नादिज्ञानं भवति । द्वा० २६ द्वा० । For Private चित्तसमा हिट्ठाण चित्तसभा - चित्रसभा स्त्री० । चित्रकर्मवन्मण्डपे प्रश्न० १ श्राश्र० द्वार। आव । ज्ञा० । चित्तसमादिट्ठाण - चित्रसमाधिस्थान - न० । ६ त०] मनसः समाधिपदेषु, (दशा० ) येषु सत्सु चित्तस्य प्रशस्त परिणतिर्जीयते । "तानि दशसुयं मे संते जगवया एवमक्खायं इद खलु थेरेहिं भगवंतेहिं दस चित्तसमादिट्ठाणा पष्मत्ता, कतराई खलु ताई थेरेहिं भगवंतेहिं दस चित्तसमादिडालाई पत्ता १ । इमाई खलु येरेहिं दस चित्तसमादिट्ठाणाई पसत्ताई। तंमहा-ते काले ते समएवं वाणियगामे लगरे होत्या; एवं नगरवध भाषियन्यो । तस्स णं वाणियगामस्स नगरस्त बढ़िया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए दूतिपलासए नाम are होत्या; वेश्यवपओ जाणियव्वो । जितसत राया, वस्स णं धारिणी देवी, एवं समोसरणं भाणियब्वं० नाव पुढविसिवट्टए सामी समोसढो, पमिस्स निग्गया, धम्मो कहितो, परिसा पमिगता, अज्जो ! इति समणे जगवं महावीरे समणा निग्गंया य निम्गंधी य श्रमंतेचा एवं वयासी - इह खलु प्रज्जो ! णिग्गंथाल वा पिग्गंथीय बाइरियासमिताणं भासासमिताएं एसणास मिताएं प्रादाण भंडमणिक्खेवासमिताणं उच्चारपासवण खेलसिंघाणजलपारिडावणियासमिताणं मण समिताएं वयसमिता काय समिताणं मणगुचाणं बड़गुत्ताणं कायगुत्ताणं गुचिदियाणं गुत्तबंजयारीणं प्रायद्वीणं प्रयहिताणं श्रायजुतीणं प्रायपरक्कमाणं पक्खियपोसहिएस समाहिपत्ताणं झियायमाणा इमाई दस चित्तसमाहिडाणाई असमुप्प - पुवाई समुपजिज्जा । तं जहा - धम्मचिंता वा से असमुपसपुव्वा समुप्पज्जेज्जा सब्बं धम्मं जाणित्तर १ सुविणदंसणे वा से असमुप्पणपुन्वे समुप्पज्जेज्जा अहातच्चं सुविणं पासिते जाइसरण वा से समुप्पा पुब्वे समुपज्जेज्जा प्यणो पोराणि य जाई सुमरिच ग्रह सराम, देवदसणे वासे समुप्पा पुत्रे समुज्जेज्जा ३, दिव् देव दिव्वं देवजुई दिव्वं देवाणुभावं पासितए ४, श्रोदिणाणे वा से समुप्पा पुब्वे समुप्पजेज्जा ओहिणा लोयं जाणिचए ५, ओहिदंसणे वा से असमुप्पण्णपुब्वे समुप्पज्जेज्जा श्रोहिणा लोयं पाखित्तर ६, मणपज्जचणाणे वासे समुपु समुप्पज्जेज्जा तो मस्सखिये प्राइजेस दीवसमुद्देसु समीपं पंचिंदियाणं पज्जतगाएं मणोगते नावे जाणित्तए ७, केवलनाणे वा से समुपण पुत्रे समुपज्जेज्जा केवलकप्पं लोयालोयं जाणितर, केनदंसणे वा से असमुप्पाणपुब्वे समुप्पज्ज्ञेना केवलकप्पं लोयालोयं पासित्तए ६, केवलमरणे वा से Personal Use Only Page #1207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८४) चिचसमाहिहाण थाभिधानराजन्द्रः। चित्तसमाडिहाण समुप्पएणपुध्वे समुप्पज्जेजा सम्बदुक्खप्पहीणाए १०। पूर्वमुक्तं, किमर्थ तहिं योऽपि जगवचनानुवादपूर्वकम् “ते प्रोयं चित्तं समादाय, माणं समणुपस्सति । कालेणं" इत्यादि सूत्रमा उच्यते-स्वमनीषिकापरिहारायेदधम्महितो अविमणे, निव्वाणमभिगच्छति ॥१॥ मुक्तम् । यद्वा-स्वयमेव स्थविरैरेवाऽमृत्युक्तानि भविष्यन्ति म पुनस्तीर्थकरैरित्यविश्वासपिशाचीनिराकरणायेदं सूत्रम। तत्र ण इमं चित्तं समादाय, जुज्जो लोयंसि जायति । यस्यां नगर्यो यस्मिन्नुद्याने यथा भगवास्निोकीपतिर्दश चि. अप्पलो नत्तमं गणं, सरणीणाणेण जाणति ॥२॥ तसमाधिस्थानानि ब्यागृणाति स्म, तथोपदिदर्शयिषुःप्रथमतो जहा तच्चं तु मुविणं, खिप्पं पासति संवुमे । नगयुद्यानाभिधानपुरस्सरं सकलवक्तव्यतोपक्के वक्तुकाम :सव्वं च अाहें तरती, सुक्खादो य विमुञ्चति ॥३॥ दमाह-"ते णं काले णं" इत्यादि । 'ते' इति प्राकृतशैलीवशात्तपंताई जयमाणस्स, विवित्तं सयखासणं । स्मिन्निति, यस्मिन् समये जगवान् प्रस्तुतां चित्तसमाधिस्थान वक्तव्यतामचकथत् तस्मिर समये, वाणिजग्राम इति नाम्ना म. अप्पाहारस्स दंतस्स, देवा दंसेंति तातियो ॥४॥ गरमभवत्। नन्विदानीमपि तनगरं वर्तते, ततः कथमुक्तमत्रषसबकामविरत्तस्स , खमंतो भयनेर । दिति सच्यते-वक्ष्यमाणवर्णकग्रन्थोक्तविनूतिसमन्वितं तदैवातो से प्रोही जवति, संजतस्स तवस्सियो ।। ५॥ भवत्। ननु विवक्तितं ग्रन्थविधानकाले, एतदपि कयमवसेयमितवसा अवहमस्स, दसणा परिसुति । ति चेत् । उच्यते-अयं कालोऽधसप्पिणी, अवसर्पिराणं च प्र. तिकणशुभभावादीनि हानिमुपगच्छन्ति । एतच सुप्रतीतं जिननमहयं तिरियं च, सव्वं समापस्सति ॥ ६॥ वचनवेदिनामतोऽनवदित्युच्यमानं न विरोधभाक्। “पत्थ" :मुसमाहितलेसस्स, अवितकस्स निक्खुणो। त्वत्र नगरवएणको शेयः। स चायम्-"रिद्धिथमियसमिद्धे प. सव्वतो विप्पमुक्कस्स, आया जाणति पज्जवे ॥७॥ मुइयजणजाणवए " इत्यादि श्रीपपातिकग्रन्धप्रतिपादितः जदा से णाणवरणं, सव्वं होति खतं गतं । समस्तोऽपि वर्णको वाच्यः; स चेद प्रन्थगौरवभयान लिख्यते, तदा लोगमलोग च, जिणो जाणति केवली ॥ ७॥ केवलं तत एवोपपातिकादवसेयः। "तस्स " इत्यादि । तस्य पाणिजग्रामनगरस्य बहिरुत्तरपौरस्त्यां हि उत्तरपूर्वी रूपोदिग्विजया से दरिसणावरणे, सव्वं होइ खयं गयं । भागः,ईशानकोण इत्यर्थः। पवकारोमागधभाषाऽनुरोधतःप्रथतो लोगमनोगं च, जिणो पास केवली ॥५॥ भैकबचनप्रनवः। यथा--"कयरे आगबह दित्तकवे" इत्यादी। पमिमाए विमुज्काए , मोहणिजे खयं गते । दूतीपनाशमिति नाम चैत्यमभवत् । चितेनेप्यादिचयनस्य श्राससं लोगमलोगं च, पासंति सुसमाहित ।। १०॥ वा भावः कर्म वा चैत्यम् । तच संज्ञाशब्दत्वाद् देवता प्रतिविम्बे प्रसिद्धः । ततस्तदाश्रय नूतं यदेवस्य गृहं तदजहा य मत्थयसूयीए, हत्थाए हसती तसे । प्युपचाराचैत्यम् । “ चैत्यमायतनं तुल्ये।" तच्चेद व्य. एवं कम्माणि हमंति, मोहणिजे खयं गते ॥ ११ ॥ न्तरायतनं अष्टव्यं, न तु भगवतामहतामायतनम् । —होत्था' सेणावतिम्मिणिहते, जहा सेणा पणस्सति । इत्यभवत, (चेझ्यवसामो जाणियन्वो त्ति ) चैत्यवर्णको भएवं कम्मा पणस्संति, मोहणिजे खयं गते ॥१॥ णितव्यः; सोऽप्यौपपातिकग्रन्थादवसेयः । (जियसतू राया, तस्स ति) तस्य जितशत्रुराको धारिणी नाम्नी देवी समस्ताधूमहीणो जहा अग्गी, खीयती से निरंधणे। न्तःपुरप्रधाना भार्या (पवं समासरणं भाणियब ति ) एवमिएवं कम्माणि खीयंति, मोहणिजे खयं गते ॥१॥ त्यमुनापपातिकग्रन्थानुसारेण सर्व निरवशेषं समवसरणं भगमुक्कमूले जधा रुक्खे, सिच्चमाणे ण रोहति । बदागमनपरिषन्मिलनधर्मकथादिरूपं भणनीयम् "जाव पुढएवं कम्मा न रोहंति, मोहणिजे स्वयं गते ॥ १४ ॥ विसिलावट्टए समोसढे" "जाव ति" यावत्करणात-"जणेव पाणियग्रामे नगरे जेणेव दृतिपलासए चेहए जेणेव पुढबिसिजहा दाण वीयाणं, ण जायंते पुण अंकुरा । बाबदए तणेव उबागच्छ” इत्यादि पिपातिको पाउसिखं कम्मवीएसु दोसु, ण जायंति लवकुरा ।। १५ ॥ सर्वमवसेयम्। संझामात्रमत्रैव दर्शयति-पृथिवीशिनापट्टके स्वाचिचा उरालियं वोदि, नाम गोत्तं च केवली । मी समवसृतः, पर्षनिर्गता (धम्मो कहिओसि)स्वामिना पर्षदने, आनयं वेयणिजं च, छित्ता नवतिणीरये ॥ १६॥ "अस्थि लोप" इत्यादिभावप्रदर्शनरूपो धर्मः कथितः। साम्प्रतं विवक्तितं प्रदर्शयति-(अज्जो इति ) हे आर्याः! इत्यामन्त्रणवएवं अजिसमागम्म, चितमादाय उसो । चनं श्रमणो जगवान् महावीरः श्रमणान् निर्गन्धान निर्ग्रन्थ्यच सेणिसोधिसुवागम्म,आता सोधिमुवागत्ति वेमि॥१७॥ भामन्त्रयित्वा एवमवादीत-"यह स्खलु" इत्यादि । इह खलु पति " सुयं मे " इत्यादि प्राग्वत् , ननु कृत एव मङ्गलो- निपातौ इति। शहबोके,प्रवचनेवा खल्ववधारणे। निग्रंथावापचारस्ताह किमर्थं यूयोऽपि तदुपादानं पोनरुक्त्यात् इति मिति। निर्ग्रन्था निर्गतान्तरान्मिथ्यात्वादेबाह्याच धर्मोपकरणवचेत?, उच्यते-" यावच्चक्यं तदाचरेत् " इति वा.. किनादनिम्रन्याः, तेषां निर्ग्रन्यानाम, एवं निर्ग्रन्थीनाम् । कथ क्यात पुनर्नमस्कारेण न पुनरुक्तताऽऽशङ्कनीया इति, नवरं भूतानामित्याह-(हरियाणं ति) समेकीभावेनेति निश्चय समिति चित्तस्य मनसः समाधिस्थानानि, समाधिपदानीति यावत्।। रीयोया विषये समितिः, शकटादिवाहनाकान्तेषु सूर्यरस्मिप्रता. तद्यथा-" ते गं काले णं ते पं समए णं" इत्यादि । ननु स्थ- पितेषुप्रासुकविविक्तेषु युगमात्रदृष्टिभिर्यनिभिर्गमनं कर्तव्यं, त. विरैरेवामूनि दश चित्तसमाधिस्थानान्युक्तानि इति । धुक्ता,तेषाम् । एवं भाषासमितासंदिग्धतषणासमितिभिगोचर Page #1208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिचसमाहिठाण गतैः साधुभिः सम्यगुपयुक्तैर्नव कोटी विशुद्धं ग्राह्यम् । (श्रायाणे | इत्यादि ) आदानं प्रढणं, निक्केपणा मोचनं, जा एकमात्रं सर्वोपकरणं, मध्ये स्थितो भाएकमात्रशब्दः काकाक्षिगोलकन्यायेनोभयत्रापि संबध्यते, ततश्च भाएकमात्राद्यादाने निकेपणायां " 1 समितिः प्रमार्जनपूर्विका सुन्दरवेष्टा तथा दुकानाम उच्चारादीनां परिष्ठापना पुनर्प्रणतयोपन्यासः, तत्र भवा पारि हापनिका सा बासी समिति प्रत्युपेणादिपूर्याचे त या समितानां तत्रोच्चार पुरीषं प्रस्रवणं मूत्रं खेलो सिघानं नाशिक तेषां परिष्ठापने समिति ओढत राज्यनोदशगुणं स्थरिमलं तथा मणसमितार्थ ति) मनसा समितानाम् । एवं वाचा, कायेनेति च स्यात्, तथा समितानां गवेषणे (मणगुणं ति) गोपनं गुप्तिः, तथा गुसानामू, एवं वचसा, कायेम, अतएव गुप्तेन्द्रियाणां गुप्तब्रह्मचारिणां भूयः कथंतूतानामित्याह आयतो दीर्घकालावस्थितिकत्वामोहस्तस्थार्थितस्तेषाम् आत्महिता-मनोदितमिव दितम आत्महितं हिताहितं च शरीरेामनि च नया सत्र शरी रे हिताहितं पथ्यापथ्याहारादिकम् श्रात्मनि तुहिंसाप्रति निवृत्ती अथवा आत्मनो हितानि त्रीणि त्रिपानि पाकि शतानि तपनयनं तदस्ति येषां ते आत्महिता तेषाम (आयजोगीणं ति) आत्मायत्ताः स्ववशे वर्त्तमानाः योगा मनोवाक्कालक्षणा येषां ते आत्मयोगिनः, श्रान्त योगिनो या, तेषां तथा येषां ते आत्मपराक्रमास्तेषां तथा (पक्खिय पोसहिए सुसमा - हिपतानं ति प भवं पाक्षिक मासिकं पर्व, रात्र पो " 1 " धः पाकिक पोषधः, सोऽस्ति येषां ते पाकिकपाषेधिकाः। यतइन्चूर्णि:-" पक्खियं पक्खियमेव, पक्खिर पोस हो पक्खियपोस - हो बाउसिमी यात्रापि स पार्थः यथा पके अ ईमासे नवं पाक्षिकं तत्र पाक्षिके पोषधः पाक्तिक पोषधः, अत्र च नियतः पोषध उवासरूपः । यतः श्रीउत्तराध्ययनवृददूवृती-' -" सर्वेष्वपि तपोयोगः, प्रशस्तः कालपर्वसु । श्रष्टम्यां पदश्यां च नियता पोषयं वसेत् ॥ १॥ तथा श्रीमाateचूर्णी - " सव्वे कालपव्वे-सु पसत्थो जिणमते तवो जोगी । श्रभिपन्नरसीसुं, नियमेण हविज्ज पोसहि श्री ॥ १ ॥” इति वचनात पाक्षिकेऽवश्यं तक कार्य उपलक्षणं - एम्योः तत्रापि तपः कार्यम् इति योकं चूर्णिकृता-" बा उसिमी था। " अत्र वारान्दः समुच्चयार्थे अनुप प्रादको व्यावर्णितश्चूर्णिकृता, तत्र तपोविशेषश्चतुर्थादिरूपस्तेन युक्तानां साधूनां मध्ये ( समाहिपचाणं ति ) समाधिन ज्ञानदर्शनचारित्ररूप समाधिमतां ( जियायमाणाणं ति ) धर्मशुक्लं ध्यानं ध्यायमानानाम् (इमाई ति) श्मानि अनन्तरवक्ष्यमाणस्वरूपाणि दश चित्तसमाधिस्थानानि (श्रसमुप्पापुब्वाति समुपपूर्वाणि काकाले न समुत्पन्नपू णि इत्यर्थः समुत्ययेरन्निति शेषः तद्यथा (म्मेद 'सेल' निर्देशे, तस्य एवंगुणजातीयस्य निर्व्रन्थस्य निर्भया बा ( धम्मचिंत) धम्मों नाम स्वभावः जीवषव्याणामजीवद्रव्याणां च तद्विषया चिन्ता, कथंरूपा ?-श्रमी नित्या उत्तानित्याः कचिणाणि इत्यादिरूपा (मुण्यि प्राग्वत्, सत्यं धर्मे ज्ञातुम् । अथवा धर्मचिन्ता यथा सर्वे कुसमया अशोभना अनिर्वाहकाः पूर्वापरविरुद्धा मतः सर्वधर्मेषु शोभनतरोऽयं धम्मों जिनप्रणीत एवंरूपा इत्येकम १ ( सक्षीस्वादि) सं सम्यग्जानातीति संकृतस्य पदसंज्ञानं यथा २६७ ( ११८५ ) अभिधानराजेन्द्रः | 9 चित्तसमाहिद्वारा पूर्वो गां दृष्ट्वा पुनरपराह्णे प्रत्यभिजानीते असौ गौरिति । "असमुपये" इत्यादि प्राग्वत् । (अदं सरामीति) अहं स्मरामीति-भकोऽई पूर्वभवे असं सुदर्शनादिवत इति २ । सुमि दि) स्वदर्श या गवतो वमानस्वामिनां प्रतिपादितं स्वनफलं तथा, अथ स्त्री पुरुषां वा एकां महतीं यपदकिम् (द्धार्थ ति यथातथ्यं फलं स्पटुर्जातिस्मरणम्, आत्मनः पौराणिकी जाति स्म चिन्ता देवसणे व ति) तं यस्यासावितिकृत्वा देवाः ' से' तस्य आत्मानं दर्शयदिव्य दिव्यां देवर्ति दिव्यं देवानाम ४। (दिना वा सेति) अवधिज्ञानं ५, शेषवक्तव्यता देबावदर्शन, मनःपवानम् (अंते ति ) अन्तमध्ये मनुष्यतेत्रस्य श्रर्द्धतृतीयेषु द्वीपसमुद्वेषु जम्बूद्वीपघात की लएम पुष्कराषु संझिनां मनोचितायां पर्या सकानां पर्यासिष्ट्र समेतानां मनाता तोता बान् परिणामस्वरूपान् शात्रमिति ७ 'केवलनाणे' इत्यादि स्वरूम, नवरं केवलमिति परिपूर्ण सकल वांशसंपूर्ण लोकालोकं तुम एवं केवलदर्शनम् (केवलमरणमिति) केवलज्ञानेन यह मरणं केवलमरणम् (सम्यक्प्णाय सि) सर्वपार्थम १०४ साम्प्रतं द्योतमेवार्थ - शयति- ( श्रयं ति ) श्रजं नाम रागद्वेषरहितं चित्तं उच्यते, गुरुम् एकमेव सम्यक् आदाय गृहीत्वा (जाणं ति) ध्यानं धर्म पश्यति करोति धातूनामनेकार्थत्वात् सम्यक् यथा नयति तथा भवति, तथा अन्यैर्दष्टम् अनु पश्चात्पश्यति, पुनःपुनर्वाप श्यति करोति समनुपश्यति पुनः कथंभूतः - (धम्म) धर्मे स्थितः यथार्थोपलम्भके ज्ञानक्रियारूपे स्थितो ध स्थितः । पुनःकथंभूतः १ - ( अविमणो ) अविमनाः- परसमयेषु मनो यस्य न याति सोऽविमनाः । अथ वा-शङ्कादि जिनवचने न करोतीत्य चिमनाः स पर्व पूर्वविशिष्टो निका होपशमलक्षणं, मोच श्रभिगच्छति । य एव गत्यर्थास्त एव ज्ञानार्था ति वचनात् पाति इति गाथार्थः ॥ १॥ (ण इमं ति) न इति प्रतिषेधे, ( इमं ति) पतत् चित्तं ज्ञानं, सम्यक आदाय गृहीत्वा तिन उच्यते-जातिस्मरणादि, ज्यो भूयः लोके संसारे जायते नृत्पद्यते, आत्मनः ( उत्तमं ति) प्रधानं स्थानं यो हि परभवे"आसम् श्रमुकत्रैवं रूपम् । अथवा उत्तमः संयमो मोक्को वा, यतो ज्ञातं कर्म वा न विद्यते। श्रथवा उत्तमं श्रेष्ठ निर्वादकं हितं वा श्रात्मनः, तज्जानीते ॥२॥ "जहातचं तु" यथातथ्यम- श्रविसंवादिफलं यत्तत् यथातथ्यमित्युच्यते, यथा चरमतीर्थकृता दश स्वप्ना दृष्टाः, किप्रं च फलमजीन, तथा क्षिप्रफलं पश्यति, संवृतात्मा निद्वार सबै निरवशेषं शब्दः स्वगतानेकभेद सूचकः। 'ओ' सततं प्रसृतमवाई संसारसमुद्रमिव समुद्रम, अप्राव्यपारम् । एवविध] तरति न पुनः संसारी प्रति (दुक्वादो य दुःखात् दुःखोत्पादककर्मणः शारीरमानसिकाद्वा दुःखात्, सांसारिकाद्वा विविधादनेकप्रकारान्मुच्यते इति गाथार्थः ॥ ३॥ ( पंताई ति) प्राम्यानि कल्प्यामूल्यानि जीर्णानि भजमानस्य सेवमानस्य ( विवित्तं सयणासणं ति) विविक्तं रहस्यभूतं स्त्रीपशुपण्डकसंसर्गराहतम् । अथवा (विवित्तं) 'चिविर्' पृथग्भावे, पृथिव्यादिजीवेया पृथग्भूतानि विमानश्वेति संबन्ध नीयम् । पुनः कथंभूतस्य ? - अल्पाहारस्य ब्रह्मचर्यगुतिरक्षणार्थे स्वल्पाहारिणः, दान्तस्येन्द्रियदमनतत्परस्य, एवंगुणविशिष्टस्य साचो देवाः वैमानिका आत्मानं दर्शयति यथास्थितं देवस्वरू Page #1209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) चित्तसमाहिट्ठाण अभिधानराजेन्षः। चित्ता पयुक्तम (तामिणो ति) भात्मत्राता, परत्राता, उभयत्राता, तस्य ते पुनरहुराः, तथा कर्मबीजेषु इति व्यक्तम् ॥ १५॥ "चि. wn (सन्वत्ति)सर्वे च ते कामाश्च सर्वकामाः शब्दादयः,तेच्यो | चा" इत्यादि । त्यत्तवा औदारिकं वोनि शरीरं, तत्रौदाविरक्त,सर्वकामविरक्तस्तस्य नयेन भैरवं रौऊ भयभैरव, सिंह- रिक नाम उदारं, प्राधान्यं चास्य तीर्थकरगणधरशरीरापेकया, व्याघ्रपिशाचशिवादिवतं, क्षमतः सहता, ततस्तस्यैवंगुणजाती- ततोऽन्यस्यानुत्तरसुरशरीरस्याप्यनन्तगुणहीनत्वात् । अथवायस्य (ोदी ति) अवधिर्भवति,पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् | 'बरालं' नाम-विस्तरवत्, विस्तरवत्ता चास्यावस्थितखमावस्य अवधिकानं जवति । कथंभूतस्य?-सयमवतः(तवस्सिणो ति) सातिरेकयोजनसहनमानत्वात् । चशब्दात् तैजसं.कार्मणं च । तपस्विन शति गाथार्थः॥ ५॥ ( तवसति) तपसा द्वादश- उक्तंच-"पोरालियतेयाकम्माया सव्वाहि विष्पजहचाहिं वि. प्रकारण अपहृतकृष्णादिलेश्यात्रयस्यावधिदर्शन परिशुद्ध्यति प्पजहति" च पुनर्नामगोत्रं, तत्र नामयति गत्यादिपर्यावानुभवनं विद्यखतरं भवति । पाह-तेन किं पश्यति । उच्यते-कर्द्ध- प्रति प्रवणवति जीवमिति नाम, तथा ग्यते शन्द्यते उच्चावचैः मधस्तिर्यक् सर्व सम्यम् अनुपश्यति । तत्र-छमित्यू लोक- शब्दैर्यत् तद गोत्रम-उच्चनीचकुलोत्पत्तिलकणः पर्यायविशेषः, म, अधोलोकं च, तथा तिर्यगसंस्थेयद्वीपसमुद्रात्मकं लोकं तद्विपाकवचं कर्मापि गोत्रं, कार्ये कारणोपचारात । यदा-कपश्यति । कोऽर्थ:- ये तत्र जावाः जीवादयः कर्माणि वा, यैर्वा मणोऽपादानविवक्षा-गूयते शन्धते बच्चावचैः शब्दैरात्मा बविर्यत्र गम्यते पुमलाझोके यथापरिणामस्तथा सर्व सर्वात्म स्मारकर्मण उदयात्तोत्रं चेत्युत्तरेण सह संटका केवतीति के. ना सर्वासु च दिह ॥ ६॥ "सुसमाहित" इत्यादि । सुष्ठतिश- वलज्ञानवान्, तथा-(भाग्यमिति) एति प्रागच्छति च प्रतिव. येन समाहिताः स्वचेतसि स्थापिता लेश्यास्तेजःपदाः शुक्ला- न्धका स्वकृतकर्मबाह्यनरकादिकुगात निष्कमितुमनसो जन्तोस्या येन स सुसमाहितलेश्यः, तस्य सुसमाहितलेश्यस्य रित्यायुः। अथवा-श्रा समन्तादधिगच्छति मवाद्भवान्तरसंक्रा(अवितकस्सत्ति) वितकों नाम-कहो विमर्श इति पर्यायः। सो न्तौ विपाकोदयमित्यायुः, उनयत्राप्यौपादिक उम्प्रत्ययः। तथा ऽस्ति विद्यते यस्य स वितर्कः,न विद्यते वितर्कोऽश्रद्धानक्रिया (वेवणिजं च ति) चकारोन क्रमदर्शकः, पंचते माहादादिकफलदेहरूपो यस्य सोऽवितर्कः, तस्य (निक्खुणो ति) भिक्कण पेण यदनुभूयते तवेदनीयमत्र कर्मण्यनीयः। यद्यपिच सर्व कर्म शीसो भिक्षुः, तस्य निक्षोः (सम्बतो त्ति) सर्वतः सर्वबाह्यान्य घेद्यते तथापि पकूजादिशब्दवत् वेदनीयशदस्य कढिविषय. म्तरभेदभित्रपरिग्रहाद्, विविधैातनावनादिभिः प्रकारैः,प्रकर्षे. स्वात, नित्त्वेति प्रात्मप्रदेशेभ्यः कर्मदनिकान पातयित्वा (भवति ण परीषहादिसहिष्णुतया मुक्तस्य, एवंविधस्व माधोरात्मा जी. जोरपति) भवति नीरजाः कर्मरजोरहितः ॥१६॥ "एवं" इ. बो,कानेन मनःपर्यायलकणेन,पर्यावान् जीवस्य मनोगतान, जा त्यादि । पवमवधारणे,अभिराभिमुस्खे, समेकीमाबे,'पा' म. नीते ॥७॥अथ कीदृशं केवलयानं जवति !, तदाह-"जदा से" बादाजिविध्यो । 'गम्''सिप' गती, सर्व पब गत्यर्था काइत्यादि । यदा यस्मिन्नवसरे,सेत्यनिर्दिष्टनाम्नो जीवस्य ज्ञाना नार्था केयाः । भजिसमागत्य मानिमुख्यं सम्यग् कात्वेत्यर्थः। वरणे विशेषावबोधरूपप्रस्तावात केवलज्ञानावरणं , सबै निर किं कर्तव्यमित्याह-(चित्तमादाय ति) चित्तशब्देन कानम, श्रावशेषं वयं गतं भवति । ननु केवलकानं तदेवोत्पद्यते यदा सर्वा. दाय गृहीत्वा,एतावता रागादिकालुण्यवर्जितं ज्ञानं प्रगृह्य (मा वरणविगमो भवतीत्यर्यादागते किमर्थ सर्वग्रहणमित्याशङ्का । उसो ति) आयुष्मन्नित्यामन्त्रणे। एतानि च दशचित्तसमाधितत्रोच्यते-सर्वग्रहणं कानान्तरभेदसूचकं केयं , यावदावरण. स्थानानि समादाय, किंकर्तव्यम् ? । उच्यते-(सेणिसोधिमुविगमे कानान्तरव्यपदेशो दर्शितः ततो न निरर्थकता माश. घागम्म ति)श्रेणिशोधि उपागम्य।णिर्विधा-कन्यभेणिर्भावकनीया, (तदा ति) तदा लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकम, मसोकं श्रेणिश्च न्यश्रोणिः-प्रासादानां श्रेणिर्नाम सोपानपङ्किरुच्यते चानन्तं, जिनो जानाति केवली लोकालोकं च सर्वे, नान्यत- यया प्रारुह्यते । भावणिरपि विधा-विशुबा प्रविादा च। रमित्यर्थः ॥०॥ "जया" इत्यादि व्यक्तं , नवरं दर्शनं संसाराय आविशुका,मोकाय विशुबा,तस्याः शोधिरिति शुषिः, सामान्यावबोधरूपम् ॥ ए॥"पमिमाए" इत्यादि । प्रतिमा- कर्मणां शुद्धिर्येन भवति साशुद्धिरित्यभिधीयते। शोधिग्रहणात याम "सप्तम्यर्थे तृतीया" । विशुझायाम् , प्रतिमा तु द्वादशभि- | संकमणिहीता भवति । उक्तं च-"अकलेवरसेणिसुस्सिकुप्रतिमारूपा। अथवा-नयमेव रजोहरणतग्रहणधारणरूपा। माइति" उपागम्य ज्ञात्वा, उप सामीप्ये आगम्य प्राप्य, कि अथवा-मोहनीयकर्मविवर्जित आत्मा च वसति, सैव प्रति- भवति । उच्यते-पात्मनः शोधिरात्मशोधस्तां, तपसा (सवेश माप्रतिरूपता । प्रथना-इहलोकपरसोकानाधितत्वेम विगुका ति) पश्यति, य एवं करोति ११७॥ दशा०५० स्था। प्रतिक्षा, मोहनीये च कर्मणि क्षयं गते सति, शेषं व्यक्तं, नवर चित्तसमाहिय-चित्तसमाहित-त्रि०। चित्तनातिप्रसन्ने, दश म(सुसमाहिए ति) सुष्ठतिशयेन समाधिनः समाधिमन्तः ॥१०॥“जहा" इत्यादि । बथा मस्तकसूची हन्यते करत १०० मेन, तदा करतलोऽपि हतो भवति, एवं कर्माणि हन्यन्ते, | चित्तसहाव-चित्रस्वजाव-त्रि०ा नानास्वभावे, पं० १० बार। 'हन' हिंसागत्योः । ततो हन्यन्ते घातमाप्नुवन्ति, क सति !, चित्तसाहु-चित्रसाधु-पुं० । भवान्तरे चाण्डालपुनः चित्राग्यो कमाण क्षयं गते सति ति गाथार्थः ॥ ११ ॥ (से- भूत्वा सार्थवाहपुत्रीभ्य प्रमजिते ब्रह्मदत्तचक्रिणो मित्रसाधी, जापतिम्मि) सेनापती कटकनायके (दते ति) यथा सेना प्रण- सूत्र.१७०३.२ उ०। स्थति, पवं कर्माणीति, सर्व सुगमम ॥ १२॥ "धूम" इत्यादि । सिमेणग-चित्रसेनक-go ब्रह्मदत्तचक्रिराज्याः प्रकायाः पितधूमहीनो यथाऽग्निः क्षीयते स निरन्धनो नाम-इन्धनरहितः | एवं व्यक्तम् ॥ १३ ॥ (सुकमूले ति) शुष्कमूलो यथा वृकः | रि, उत्त० १३ अ.। सिग्यमानो रोहति-न किमानोति, पवं व्यक्तम् ॥१४॥ चित्ता-चित्रा-स्त्री०सनकत्रोदे, अं०७ बक्षासू०प्र०ाज्यो। "जह" इत्यादि । यषा-दग्धेषु बीजेषु न जायन्ते नोत्पद्य- विशेाभनु०। स्था।"दोचिसाओ" स्था०२ ठा०३० Page #1210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वित्ता चिया (१९०७) अंभिधानराजेन्द्रः। द्वी० । विदिग्चकाद्रिवासिन्यां विद्युत्कुमारीमहत्तरिकाबाम, | चियत्त-त्यक्त-त्रिकाप्रीत्या दत्ते, पा० । अप्रीत्यकरणे, स्था०३ ति। स्था। प्रा० म०। प्रा० क०जं०। शकस्य देवेन्छ- ठा. प्रीतिकरे, श्रीकारा। अभिमते, सूत्र०२ श्रु० ३०॥ स्य देवराजस्य सोममहाराजस्याप्रमहिन्याम, स्था०४ ग. १०० भ०। चियत्ततेउरघरप्पवेस-त्यक्तान्तःपुरगृहप्रवेश-पुं० । “चियत्तंचित्ताण्य-चित्तानुग-त्रि.। प्राचार्यचित्तानुगामिनि, उत्त० तेउरघरप्पवेसा चियत्तोत्ति" लोकानांप्रीतिकर पवान्तःपुरे वा २ अ०। गृहे वा प्रवेशो येषां ते तथा, अतिधार्मिकतया सर्वत्रानाशनीचित्ति-चिति-स्त्री० मिस्यादेश्वयने, मृतकदहनार्थ दारुविन्या यास्त इत्यर्थः। अन्ये त्वाहुः-(चियत्तो त्ति) नाप्रीतिकरोऽ. न्तःपुरगृहयोः प्रवेशः शिष्टजनप्रवेशन येषां ते तथा, अनीाबु. से च। प्रश्न ११ आश्रद्वार । ताप्रतिपादनपरं चेत्थं विशेषणमिति । अथवा-(चियचो ति) चित्तिया-चित्रिका-स्त्री०। व्याघ्रविशेषस्त्रियाम, प्रज्ञा०११पद। त्यक्तः अन्तःपुरगृहयोः परकीययोर्ययाकयश्चित् प्रवेशो यैस्ते चित्ति (ण)-चित्रिन-पुं०। चित्रं चित्रकर्म तत् कर्तव्यतया तथा । भ०२ श०५०। तथाविधे भतिधार्मिके, तथा पर्वविद्यते यस्य स चित्री। चित्रकरे , कर्म• १ कर्म । . त्रानाशजूनीये श्रावके, दशा. १० अ.। चित्तिसम-चित्रिसम-न0 | चित्री चित्रकरस्तेन समं सशं | चियत्तकिच्च-त्यक्तकृत्य-त्रि• । त्यक्तानि कृत्यानि दशषिधचित्रिसमम् । चित्रकारोपमिते नामकर्मणि,यथा हि-चित्री चित्रं चक्रवालसामाचारीरूपाणि सर्वाणि येन सः। जीत फत्वंकचित्रप्रकारं विविधवर्णयुक्तं करोति,तथा नामकर्मापि-जीवं मा रणीयं, त्यक्तं कृत्यं येन सः। त्यक्तचारित्रे , नि.चू०१७.। रकोऽयं तिर्यग्योनिकोऽयमेकेन्छियोऽयं हीन्कीयोऽवमित्यादि | पं० चू। व्यपदेशैरनेकधा करोति चित्रसममिदमिति । कर्म०१ कर्म । चियत्तदेह-त्यक्तदेह-त्रि० । त्यको वधबन्धाधवारणास् , अय. चित्तस्साह-चित्तोत्साह-पुं०। मनःसमुत्सादे, पो. ६ विव०। वा चियत्तः सम्मतःप्रीतिविषयो , धर्मसाधनेषु प्रधानत्वादेचिद-चित्-स्त्री-चित्-सम्प० किए। काने, वाचकाचैतन्यशकी, हस्येति । ज०१० २०२ उ०। परीषहसहनात या देहो यस्य। अनिग्रह विशेषयुक्ते, कल्प०६क्षण । व्य०। स्था प्राकृते पतारशःशब्दो न प्रयुज्यते व्यस्तः।" चिदानन्दघनस्व" चिदू ज्ञानमानन्दः सुखं, तदनः तत्सन्दोहरू संप्रति “चियत्तदेहे ति" व्याख्यायते । तच त्यतं विधापस्तस्य । अष्ट. १८ अष्ट• I“चिदाणंदमकरंदमहुब्बए " सव्यतो भावतश्च ! तत्र बन्यत माहबानानन्दस्य मकरन्दरहस्यं तस्य मधुवतो रसास्वाद।। अष्ट. जुज्कपराजिय अट्टण, फलहियमद्धे निरुतपरिकम्मे । २१ भष्ट । “चिदाणंदसुहाखिहे," चिकानं तस्यानन्दः स एव सुधाऽमृतं तां बेदीति । अष्ट० ३० अष्ट० । गृहण मच्चियमझे, तश्यदिणे दव्यतो चत्तो ॥ इदं कथानकं प्रबन्धेनावश्यकटीकायामुक्तम, तु ग्रन्थगौरव. चिहप्पण-चिर्पण-पुंचिद्शानं सर्वपदार्थपरिच्छेदक, तदेव तबान लिख्यते, ततस्तस्मादवधारणीयम् । प्रकरयोजना त्वेवम्दर्पणः । ज्ञानादर्श , अष्ट० ४ अष्ट । अट्टनो नाम मल्ल उज्जयिनीवास्तव्यासोपारे पत्तने वृक्षतया युके चिदविभो-देशी-नि शिते, दे. ना.३ वर्ग। पराजितः , तेनान्यः फल हीमल्लो नाम मल्लो मार्गितः । स सोचिहीव-चिहीप-पुं० । कानप्रदीपे, भ्रष्ट• ३२ अष्ट । पारके मात्सिकमल्लेन सह युद्ध दसवान् । तत्र फलहीमल्ले निरुक्तं निरवशेषं, परिकर्म क्रियते । इतरस्तु मात्सिकमल्लो चिप्पिस्य-चिप्पिटक-पुं० । चपलसरशे धान्यभेदे , दशा०६/ गर्वाध्माततबा शरीरपीमां गृहयन् न किमपि परिकर्म कारिभास्था। तवान् । ततः परिकर्माकरणतः तृतीयदिने मारितस्तेन, परिचिप्पिण-चिप्पिन-पुं० । केदारवति तटवति वा देशे , केदारे कर्माकरणतो यस्त्यको देहः स अन्यतस्त्यक्तः । चाभ.५ श०७ उ. । प्रावतस्त्यतमाहचिन्जपियामच्च- चिटिकामत्स्य-पुंगमत्स्यभेदे,जी०१प्रतिका बंधेज व रुंभेज्ज व. कोई वहणेज्ज अहव मारेज्ज । चिमिद-चिपिट-पुं निम्ने, "चीणचिमिढणासामो।"मा. वारे न सो जयवं, वि चत्तदेहो अपमिवको ॥ १००० स प्रतिमाप्रतिपत्रो भगवान्, शरीरेऽप्यप्रतिबद्धो यदि कोऽपि चिमिणो-देशी-रोमशे, देना.३ वर्ग। पन्नीयात , अथवा-रुन्ध्यात्, यदि वा हन्यात, मारयेद्वा. त थापितं न निवारयति । एष भावतस्त्यक्तदेहः । व्य०१०१०॥ चिम्मंत-चीयमान-त्रि. वि-कर्मणि भावे पायकि शानन् । शान चियमंससोणियत्त-चितांसशोणितत्व-न । धांद्रेके, पं० "म्मः "८।४।२।२४३ ॥ इति धातोः कर्मणि भावे | व०३ द्वार। चान्ते वा म्माऽऽदेशः। चयं नीयमाने, प्रा०४ पाद । चियनोहिय-चितलोहित-त्रिचितमुपचयं प्राप्तं लोहितं शोचिम्मेत्त-चिन्मात्र-नाबानमात्रे, अष्ट०२०। जितमस्वेति चितलोहितः । सोहितमिति शेषधातूपलक्षणम् । चिय-चित-त्रि० । शरीरे, वयं गते, न.१ श०१०। पचि. उदितधाती, उत्त०७०। ते, खा० ४ ठा०४ नाटकादिरचिते प्रासादपीनगदी, अनुपिया-चिता-स्त्री. शवदाहाथै चितेन्धनाम्नी, सत्र.१०५ चिय-अन्याएवकारायें, स्था०२०१०। पञ्चा।। ०५००। Page #1211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ११००) चियाग अनिधानराजेन्द्रः। चिलाईपुत्त चियाग-त्याग-पुं० । त्यजमंत्यागः। संविग्नकसं प्रोगिकानां भ- चिरपन्चइय-चिरपब्रजित-पुंग चिरंदीक्किते, १०१३० कादिदाने, स्था०५०१ उ०। श्रमणध, स्था० १०१ | चिरप्पवास-चिरप्रवास-पु.।चिरवियोगे, पं० चू। उ०ा त्यागो द्विधा-द्रव्यत्यागो, भावत्यागश्च । व्यत्यागो नाम- | चिरया-देशी-कुट्याम, दे० ना० ३ वर्ग। माहारोपधिशय्यादीनामप्रायोग्याणां परित्यागः, प्रायोग्याणां चिरसंथुत-चिरसंस्तुत-त्रि० । चिरं बहुकालमतीतं यावत्संयतिजनेभ्यो वितरणम् । प्रा• म०प्र०। प्रव० । स्तुतः। चिरस्नेहात्प्रशंसिते, भ० १४ श.७७०। चियायमंत-त्यागवत्-त्रि० । दानशीझे, स च स्तोकादपि स्तो चिरसंसिह-चिरसंसृष्ट-त्रि० । चिरं बहुकासं यावत चिरे वाईकं ददानो गणस्य बहुमानभाग्भवति इति स गच्चोपग्रहयोग्यः। तीते प्रसूते काले संश्लिष्टः । चिरस्नेहात्संबद्धे, भ० १४ श० प०३उ०। ७०। चिर-चिर-न। दीर्घकाले, व्य०१3० । प्रजूतकाले, मातु। चिराध्य-चिरादिक-त्रिः। चिरचिरकाल मादिनिवेशो यस्य सत्रप्राव। तधिरादिकम् । नि०५ वर्ग। औ० । का० । चिरकालिके, चिरंजीविय-चिरंजीवित-नादीघे आयुषि, स्था० १० ठा०।। विपा०१ श्रु०१०।। चिरंतण-चिरन्तम-त्रि० । पुराणे, पाव० ४ म.। चिराणुगय-चिरानुगत-त्रि० । ममानुगतिकारित्वात चिरमनुचिरजसिय-चिरजपित-त्रि०ा चिरसेविते, 'जुषी' प्रीतिसे-| गते,०१४ श०७०। वनयोरिति वचनात् । भ०१४ श.७ उ०। चिराणवत्ति-चिरानुवृत्ति-त्रि० । चिरमनुवृत्तिरनुकूमवर्तिता चिरमितिय-चिरस्थितिक-त्रि०। चिरं प्रभूतकालं स्थितिर- यस्यासौ चिरानुवृत्तिः । प्रभूतकालमनुकूलतया संजाते, "चिरपरिचितो सि मे गोयमा !, चिरजसिनो सिमे गोयमा., वस्थानं येषां ते तथा । सूत्र०१० ५ ०१ उ० । प्रजूतकालस्थितिकेषु, सूत्र०१ श्रु०५०३ उ०। एकद्वयादिसागरोप चिराणुगो सि मे गोवमा!, चिरागुवत्ती सि मे गोयमा!" मस्थितिकेषु, स्थावा। तथाहि-उत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरो भ०१४ श०७ उ०। पमाणि, जघन्यतो दशवर्षसहस्राणि तिष्ठन्ति देवा नारकाच ।। चिरादण-चिरंतन-त्रि० । प्राचीने आचार्यपरम्परागते, वृ० सूत्र०१७०६०। दशा । “एया फासा फुसंति वालं, ३०। निरंतरं तत्य चिरहितीयं।" सूत्र०१ भु०५ ०२०। । चिरिचरा-देशी-जलधारायाम, दे० ना०३ वर्ग। चिरतिकिवय-चिरदीकिस-त्रि० । प्रनतकाले प्रव्रजिते, व्यापारी-HTTAILar.र्ग। ४० । चिरिष्ट्रिहि-दशी-दानि, दे० ना०३वर्ग। संप्रति चिरप्रवजितद्वारमाहचिरपक्वइओ तिविहो, जहनो मजिकमो य उकोसो। चिरोववमग-चिरोपपत्रक-त्रि.। चिरजाते, प्राव. ५०। तिवरिस पंचम मझो, वीसनिवरिसोय उकोसो।। । चिकाइया-किरातिका-श्री किरातास्वानार्यदेशोत्पायर्यादाचिरप्रव्रजितस्त्रिविधः। तद्यथा-जघन्यो मध्यम उत्कृष्टः । तत्र स्याम, नि०१ वर्ग । रा०। श्रा० चू० । दशा० । भ.। त्रिवर्षप्रवजितो जघन्यश्चिरप्रवजितः, पञ्चवर्षप्रवजितो मध्यमो, चिलाई-किराती-स्त्री. । किराताख्यानार्यदेशोत्पन्नायां चेविशतिवर्षप्रवजित उत्कृष्टः॥ टघाम, का. १७०१ म०। प्रय केन बहुश्रुतेन चिरप्रवजितेन चाधिकार श्त्यत माह चिलाईपुत्त-किरातीपुत्र-पुं० । धनश्रेष्ठिदास्याः किरात्याः पुत्रे, बसुयचिरपन्वइओ, एत्थ मज्सु होति अहिगारो। आ.क. एत्थ उ कमे विनासा, कम्हाउ बहुस्सुओ पढमं ॥ "विद्वन्मानी द्विजन्मको, जिनशासनहीलक। पादेऽधिसभमाचार्य-र्जित्वा शिष्यीकृतो बलात ॥१॥ अत्र बहुश्रुतचिरप्रवजितयोमध्ये ताभ्यामधिकारः, गाथायां स्थिरोऽनदेवतावाक्या, जुगुप्सां तु मुमोचन । सप्तमी तृतीयायें। पत्र क्रमे क्रमविषये, विनाषा कर्तव्या । सा भार्याउदात्कार्मणं प्रेम्णा, मृतस्तेन दिवं गतः॥२॥ चैवम-कस्मात प्रथमं पदुश्रुत उक्तः ?, यतः प्रथमं प्रवज्या नव तनिवेदन साऽप्यात्त-व्रताऽनालोच्य तन्मृता । ति,ततःभुतं,ततःप्रथमं चिरप्रवजितस्योपदानं युज्यते? नैष दो दिवं ययौ स पूर्णायु-विजदेवस्ततश्च्यतः॥३॥ पः-नियमविशेषप्रदर्शनार्थ घेवमुपादानं, यो बहुश्रुतः स निय- पुरे राजगृहे श्रेष्ठी, धनश्चेटी चिलातिका । माधिरप्रणजितो, येन त्रिवर्षप्रव्रजितस्य निशीथमुद्दिश्यते, पञ्च- तस्याः स्तनंधयो नाम्ना, चिलातीपुत्र इत्यभूत् ॥४॥ वर्षप्रवजितस्य कल्पव्यहारी, विंशतिवर्षप्रत्रजितस्य दृष्टिवाद- तत्प्रागजन्मप्रियाऽप्यन्दैः, कियद्भिः सुंसुमाऽभिधा । स्तेन न दोष इति । वृ०१०। उपरिष्टात् पञ्चपुड्याः, धनस्यैव सुताऽभवत् ॥ ५॥ चिरपरिचिय-चिरपरिचित-नि० । पुनपुनदर्शनतः परिचिते, स बालो धारकस्तस्या-श्वेटोऽथ भोष्ठिनाऽन्यदा। म०१४ २०७०। तथिहे विक्रियां कुर्वन्, दृष्टा निःसारितो गृहात् ॥ ६॥ चिरपोराण-चिरपुराण-नि० । चिरप्रतिष्ठितत्वन पुराणे, भ० गतः सिंहगुहापछ|-मिष्टः पल्लीपतेरजूत।। ३१०७००। गुसाः कैश्चित् ततस्तं स, मुमूर्षुः स्वपदेऽकरोत् ॥७॥ Page #1212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८२) अभिधान राजेन्द्रः । चिलाई पुत सोऽवक् चौरान् राजगृहे, धनसार्थपतेर्गृहम् । मुष्णीमोऽभ्येत्य वो व्यं, तत्पुत्री सुंसुमा मम ॥ ८ ॥ डत्वाऽथ रक्कि प्राप्तो मुषितुं धनवेश्म तत् । धनो नष्टः सपुत्रोऽपि सोऽगादादाय सुसुमाम् ॥ ६ ॥ घनेनोक्तास्तलारकाः, निवर्तयत मे सुताम् । धनं वो मे सुता तेऽथा ऽप्रावन् भग्नाश्च तस्कराः ॥ १० ॥ निवृत्तास्ते गृहीत्वा स्वं श्रेष्ठ पञ्चसुतान्वितः । नयन्तं सुसुमां बेट-मन्वधावत् कृतान्तवत् ॥ ११ ॥ चेोऽप्यशक्तस्तां वोढुं गृहीत्वा तच्चिरोऽव्रजत् । तस्थौ श्रेष्ठी सपुत्रोऽथ, शोकार्तोऽथ क्षुधार्दितः ॥ १२ ॥ हत्वा मां खादतेत्यूचे, पुत्रान् याताथ पतनम् । मैषुः किं तु तेऽप्याः, श्रेष्ठिवत्सर्व एव हि ॥ १३ ॥ श्रेष्ठवाच पुनः पुत्रान् सर्वेषां मृत्युरस्तु मा । एतदेव वपुः पुत्र्याः खादित्या गम्यते पुरे ॥ १४ ॥ तदेतैः कारणे गाढे, पुत्रीमांसादनं कृतम् । एवं साधुभिराद्दारो, प्रायो मइति कारणे ॥ १५ ॥ तेनाहारेण ते याताः संजाता भोगभोगिनः । स्यादेव कारणाहारात्, साधुवर्गोऽपि सिद्धिभाक् ॥ १६ ॥ स च शीर्षासिभृप्रच्छन्, साधुमातापनापरम् । दृष्ट्वाऽचष्ट समासेन, धर्ममाख्याहि मेऽधुना ॥ १७ ॥ नो चेदपि शिरश्वेत्स्ये साधुर्धर्मोऽयमित्यवक् । समासान्द्रो उपशमो, विवेकः संवरस्तथा ॥ १८ ॥ एकान्तेऽस्थात्प्रतिमया, सोऽपि तां त्रिपदीं स्मरन् । जझावुपशमः स्याद-क्रोधस्येत्यत्यजत् क्रुधम् ॥ १६ ॥ विवेकः स्यादसङ्गस्य, खड्गशीर्षे ततोऽमुचत् । संवृतेन्द्रियवित्तम्य, संवरस्तं तथाऽकरोत् ॥ २० ॥ तदा लोहितगन्धेन वज्रतुण्डाः पिपीलिकाः । शैलं निस्वास्थिताश्वकु श्चालनीमिव तद्वपुः ॥ २१ ॥ कर्मनिर्गमे द्वार - कारकाः कोटिका इमे । उपकयों ममेत्येवं, तासु भ्यानं बबन्ध सः ॥ २२ ॥ श्र० क० एतदेव सप्रपञ्चं सूत्र कृदाह ज जंते ! समं भगवया महावीरेण० जाव संपत्तेणं सत्तरसमस्त गायज्झयणस्स प्रयमट्ठे पत्ते, अट्ठारसमस्स एं भंते! खायज्भयणस्स समणेणं भगवया महाबीरे के अट्टे पत्ते ? | एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तणं समरणं रायगिहे नामं नयरे होत्था, वरण, तस्स रायगहस्सायरस बढ़िया उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए एत्थ णं गुण सिलए णामं चेडए होत्था, वाओ रिद्धिस्थिए समि, तत्थ णं धरणे नाम सत्यवादे परिवसई, नद्दा नाम जारिया, तस्स णं धएणस्स सत्यवाहस्स पुत्ता जद्दाए अत्तया पंच सत्यवादारगा होत्या । तं जहा घले, घणपाले, धणदेवे, घणगोवे, घणरक्खिए । तस्स णं धस्स सत्यवाहस्स धूम्रा भद्दाए अत्तया पंचरहं पुचाणं श्रणुमगं जाइया सुसुमा नाम दारिया होत्या सुकुमालपाणिपाया । तस्म णं धस्स सत्यवाहस्स चिलाए नाम दास चेरुए होत्या २६८ For Private चिलाई अहीणपंचिदिअसरीरे मंसोव चिए वालकीलावण कुसझे यावि होत्या सुकुमालपाणिपाया। तए मां से चिलाए दाम चेपए सुंसुमाए दारियाए बालग्गाहे जाए यात्रि होत्या, सुसुमं दारियं कडीए एह, एहस्सा बहुहिं दारपछि य दारिषाहि यजिए हिय किंचियाहि प कुमारएहि य कुमारियादिय सद्धि अजिरममाणे विहरइ । तए णं से चिलाए दास चेमए सेसि बहूणं दारयाण य६ अप्पेगइ श्राणं खुलए अवहर, एवं बट्टए अंगोलीयाओ ति दूसए ति पोल्लए सामोलए अप्पेगइयाणं श्राभरणमलालंकारं अवहरड़, अप्पेगया प्रासर, एवं अवध, निच्छोमेइ, निब्जत्थे, तज्जे‍, ताले । तर ते बहवे दारगा य ६ रोयमाणा य कंदमाणाय य विज्ञत्रमाथा य सायं २ अम्मापिडणं णित्रेयंति । तरणं तेसिं बहुणं दारगाण य६ अम्मापियरो जेणेव सत्यवाहे, तेणेव जवागच्छंति, उवागच्छंतित्ता धंसत्यवादं बहुहिं खिज्जषादि य रुंटणाहि य उबलं भणाहि य खिज्जमाणा य रुंटमारणा य उबलंज पारणा य स सत्यवास्स एयमहं पिवेति । तर षं से धो सत्यवाई विलायं दासचे मयं एयमहं भुज्जो २ निवारेश, नो चेत्र णं चिलाए दासचेडे उबरमइ । तर णं से चिलाए दाम मए तो बहुणं दारगाण य ६ अप्पेगतियाणं खुप अवहरति जात्र तालेइ । तए णं ते बहवे दारंगा य६ रोयमाणा य० जाव अम्मापिडणं निवेति । तए णं श्रसुरा०५ जेणेव घम् सत्थवादे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छं तित्ता बहुहिं खिज्जणाहि य०जाव एयमहं णिवेयंति। तर से धो सत्य वा बहुएं दारगाणं ० ६ अम्मापिडणं अंतिए एयमहं सोचा प्रासुरचे० ए चिलायं दासचेडयं उच्चावयदि साहिं आडसर, उसे, णिन् भत्थेश, निच्छोमेइ, तज्जेति, उच्चावयाहिं तालणाहिं तालेति, साओ गिहाओ णिच्छुभइ । तए एं से चिलाए दासचेए सानो गिहाओ पिच्छूढे समाणे रायगिदे ायरे सिंघामग० जाव पसु देवकुलेसु य सजासु य पवासु य जयखखए य वेसाघरसु य पाणधरएसु य सुहं मुद्देणं परिवढइ । तए णं से चिलाए दासचे ए प्रणाइडिए - विरिए सच्छंद गई सरप्पचारी मज्जप्पसंगी चोरप्यसंगी सुपसंगी जयपसंगी बेसप्पसंगी परदारप्पसंगी जाए यावि होत्या । तर रायगिहस्स नगरस्स अबूरसामंते बाहिणपुरர் चिचमे दिसिनाए एत्थ णं सीहगुहा णामं चोरपली होत्याविसमगिरिकरुगकोमंवसंनिविट्ठा वंसीकांगपागारपरिक्खिता बिनसेल गाविसमप्पवायफलिहोवगृढा एक5बारा अनेकखंमी विदितजण निगमप्पवेसा अजित रपाणिमा सु Personal Use Only Page #1213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५०) अभिधानराजेन्द्रः । चिलाई पुत वाबधायगाण य दुरंता बहुस्स वि कुवियस्स बल्लस्स आगयस्स पुष्पवेसा वि होत्या । तत्थ यं सीदगुहाएं चोरपल्लीए विजय नामं चोरसेणाहिवई परिवसर, अडम्मिए अहम्म Fair use धम्मापुर ब्रहम्मपलोई अहम्मसीखसमुदारे० जाव प्रदम्मके उस मुट्ठिए बहुणमरनिग्गयजसे सूरे दढप्पहारी साहसिए सद्दवेही, से एवं तत्थ सहिगुहाए चोरपीए पंच एवं चोरसयाणं आहेवचं० जाव विहर। तए णं से विजयतकरे चोरसेणावई बहुएं चोराल य पारदारगाण य खत्तखयगाण य गंविछिंदगाण य संधिच्छेदगाव य रायावराहाण य अणधारगाण य सुवनंजगाव य बीसंञ्जघायगाण य जूयकाराण य खंडरक्वाथ य असि चब बिष्टनिष्पवाहिराहयाणं कुरंगे यात्रि होत्या । तर से विजयतक्करे चोरसेणादिवई रायगिहस्स एयरस्स दाहिणपुरच्छिमं जणवयं बहूहिं गामघाएहि य नगरघारहि यगोग्गदहि य बंदिग्गदहि य पंथकुट्ट नाहि यखत्तख हि य उवत्रीलेमाणे २ विरूं सेमाणे नि त्थाएं निवणं करेमाणे विहरइ । तए एं से चिल्लाए दासचेमए रायगिहे जयरे बहुहिं प्रत्थानि संकीहि य चोरियाजिसकी हि य दाराभिसंकीहि य धणिएहि य जयकरोह य परिभवमाणा २ रायगिदाओ गयराओ णिग्गच्छति, ि गच्छतित्ता जेणेव सीहगुहा चोरपनी तेथेव उवागच्छति, उवागच्छतित्ता विजयं चोरसेणाहिवई उवसंपजिता एं विहरइ । तर गं से चिलाए दासचेमए विजयस्स चोरसेणादिवइस्स अग असिडिग्गाहे जाए यावि होत्या । जावियां से विजए चोरसेणाहिवई गामघायं वा० जाव पंथकोट्टं वा काउं वयंति, ताहे विय पं से चिल्लाए दासचे बहुं पि य कुवियबलं हयमद्दिय० जाब पढिसेहेइ, पुणरवि लकट्ठे कयकज्जे प्रणहसमग्गे सीहगुहं चोरपल्लि हब्वमागच्छइ । तर णं से विजए चोरसेणादिवई चिलायं तकरं बहुओ चोरविज्जाश्रो य चोरमंते य चोरपाडयाओ य चोरमायाओ य चोरणिगमी ओय सिक्खावेइ । तए णं से विजयचोरसेणादिवई अनया कयाई कालधम्मुणा संजुते यानि होत्या । तए एां से ताई पंचचोरसयाई बिजयस्स चोरसेणा हिवइस्स महया २ इड्डीसकारसमुदएणं णीहरणं करोति, करेतित्ता बहुरं लोइयाई मयकिच्चाई करे, काले ० जाव विगयसोया जाया याविं होत्या । तते णं वाइं पंचचोरसयाई अनममं सदावेइ, सहावेत्ता एवं बयासी एवं खलु देवाविया ! विजए चोरसेणा हिवई कालधम्मुणा संजुत्ते, श्रयं च णं चिलाए तकरे विजएणं चोरसे - | चिलाई पुत लावण बहुश्रो चोरविजाओ० जाव सिक्खात्रिय, तं सेव aa म्हं देवाप्पिया ! चिल्लायं तकरं सीढगुहाम्रो चो रपल्ली चोरसेणाहिवताप अभिसिंचित एति कट्टु अन्नमनस्स एयम पनिसुर्णेति, चिनायं सीहगुहाए चोरपीए चोरसेणाहिवइत्तार अभिसिंचंति । तए एं से चिलाए चोरसेणाहिवई जाए अहम्मिए० जाव विहरति । तएां से चिलाए चोरसेणाहिवई चोरणायगे० जाव कुंमगे यावि होत्या । से णं तत्य सीहगुहाए चोरपक्षीय पंचएह य चोरस्याप्य य एवं जहा विजयो तदेव सव्नं० जाव रायगिहस्स णं णगरस्त दाहिणपुरच्छिमि जणवयं० जाब निष्कणं करेमाणे विहरइ । तए णं से चिल्लाए चोरसेणाहिवई अझया कयाई विडलं असणं ० ४ उवक्खडाबेति, ता पंचचोरसए आमंते, तो पच्छा एहाए० जाव जोयलमंत्रांस तेहिं पंचहि चोरसएहिं सछि विउलं प्रस० ४ सुरं च० जाव पसंच आसाएमाणे बिहरइ । जिमियतुसुराग ते पंचचोरसर विजलेणं धूवगंधमयालंकारेण सकारे, संमाणे, एवं बयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! रायगिहे पयरे धो नामं सत्यवाहे अहे, तस्स एं धूम्रा जाए अत्तया पंचएदं पुचाणं अणुमग्गं जाइया सुमा नामं दारिया होत्या श्रहीणा० जाव सुरूवा । तं गच्छामो णं देवाष्णुप्पिया ! धस्स सत्यवाइस गिहं विलुंपामो, तुन्भं विपुलेणं घणकणग० जाव सिलप्पवाले, मम सुंसुमा दारिया । तए णं ते पंच चोरसया चिलायस्स एयमहं पडिसुर्खेति, तए णं से चिलाए चोरसेणादिवई तेहिं पंचचोरस एहिं सर्फि अचम् दुरूह, पुव्वावरण्ढकाल समयंसि पंचचोरसएहिं सर्फिसभ० जाव गहिश्रादपहरणे माझ्यगोमुह एहिं फलएहिं निकट्ठाहिं असिलाहिं सगएहिं तोणेहिं सजीदाहादि श्रोसारियाहिं जलघंटियाहिं ऊरूघंटियाहिं वेहिं धणुरहिं समुक्खिचेहिं सरेहिं समुल्लालियाहिं छिप्पत्तूरेहिं वज्जमाणाहिं महया २ उकिडसीहणायचोरकलकलरवं० जाव समुद्दरवनूयं करेमाला पुव्वावरण्दकालसमयंसि सहिगुहाओ चोरपल्ली पडिणिक्खमति, पमिणिक्खमहत्ता जेणेव रायगिहे जयरे तेणेव उवामच्छति, उवागच्छतिचा रायगिहस्स एयरस्स दूरसामंते एगं महं गहणं अणुप्पविसंति, श्रणुष्पविसंतित्ता दिवसं खवेमाणा चिति, तए णं से चिलाए घोरसेणा हिवई अरू रक्तकाल समयंसि णितं परिणिसंतमि पंचाहिँ चोरसरहिं सद्धिं माइयगोमुहेहिं फलएहिं० नाव मुझ्याहिं ऊरूघंटियाहि जेणेव रायगिदे गरे पुरच्छिमिले दुवारे तेणेव उवागच्छति, वागच्छातचा उदगवतिथं परामम, परामुसता Page #1214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५१ ) निधानराजेन्द्रः । चिलाई त प्रायंते ३ तालुग्घाडा विज्जं आवादर, आवाहइचा रायगिहस्स पयरस्स दुबारकवा मे उदएण अच्छोडेर, अच्छोमेइता कवारं विज्ञामेश, विहा मइत्ता रायगिहं अणुपविस‍, अपविसरता महया २ सद्देण उग्घोसेमाणे उग्घोसेमाणे एवं वयासी - एवं खलु प्रहं देवायुप्पिया ! चिलाए नाम चोरसेावई पंचाईं चोरसएहिं सार्क सीहगुहाश्री चोरपल्लीओ इहं हन्यमागए घण्णस्स सत्यवाहस्स गिहं धाउकामे, तं जो णं णवियाए माउपाए दुई पाठकामे, से णं णिग्गच्छ इति कट्टु नेणेव घण्णस्स सत्यबाइस्स गिहे तेणेव लबागच्छति, उनागच्छतित्ता घरस्स गिहं बिहार, तर यं से धरणे सत्यवाहे चिलाएं चोरसेणा दिवणा पंचाई चोरसएहिं सकि गिहं घाइजमाणं पासइ, पासइत्ता जीए तत्येव पंचाईं पुत्तेहिं सर्फि एगते अवकम । तए णं से चिलाए चोरसेणादिवई घण्णस्स सत्यवास्स गिर्द घाएइ, घारइत्ता सुबनुं तां धणकणगं० जाव सावएज्जं सुंसुमं च दारियं गिराहति, गिएहतिचा रायगिदाओ मिणिक्खमति, पमिणिक्खमातिता जेणेव सीहगुहा पक्षी तेणेव उवागच्छति पहारेस्वगमणाए, तर णं से घणे सत्यवादे जेणेव सर गिहे, तेणेत्र उचागच्छति, उबागच्छतित्ता सुबहुं क्षणकरणगं, सुसुमं च दारियं प्रवहरियं च जाणिला महत्यं० जाव पाहुडं गहाय जेणेव नगरगुत्तिया, तेथेव उवागच्छाते, नवागच्छतित्ता तं महत्यं जान पाहुरुं जवणेति, एवं बयासीएवं खदेवाप्पिया ! चिलाए चोरसेणाहिवई सीहगुहातो चोरपवीतो इहं दन्त्रमागम्प पंचाहिँ चोरसएहिँ सकिं मम गिहं घाता सुबहु घरणकणगं, सुसुमं च दारियं गहाय० जाव परिगए, तं इच्छामो णं देवाप्पिया ! सुसुमाए दारियाए कुत्रं गमित्तए तुम्भ णं देवाप्पिया ! से विजले धणकणगं, मम सुसुमा दारिया । तए णं ते नगरगुत्तिया घरणस्स सत्यबाहस्स एयम पमिसुति सबका जाव गहियाउहप्पहरणा महया २ उक्किहसीइरणायं करेमाणा समुद्दरवभूयं पिव करेमाणा रायगिहाम्रो नगराओ निक्खमंति, निक्खमंतित्ता जेव चिलाए खोरसेथाहिवई, तेथेव उवागच्छंति, उवागच्छंतित्ता चिलाएणं चोरसेणावतिया सर्फि संपलग्गा यावि होत्या । सते ते नगरगुतिया चिलायं चोरसेणावरं इतमहिय०जाव पढिसेहेति । तते णं ते पंच चोरसया नगरगुचि एहिं हतमहिय० जान पमिसेहिया समायातं विपुलं धणकणगं विच्छूमेमाला य विपरिमाणा य सन्य समता वि पलाइत्था । तते णं ते नगरगुक्तिया तं विपुलं घusri बिरहांत, चिलाई पुत गिएहतित्ता जेलेव रायगिहे नगरे, वेशेव उवागच्छति । तते णं से चिलाए तं चोरसेणं तेहिं नगरगुत्तिएहिं हयमहियपत्ररजीते तत्थे सुसुमं दारियं गहाय एगं महं आगामियं दीमक अणुप्प विडे । तते णं से धो सत्यबाहे संसुमं दारियं चिलाएणं श्रमविमुहं अवहीरमाणि पासित्ता पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अप्परट्ठे समद्धबद्ध चिलायस्स प दमग्गविहिं अगच्छमाणे अभिगज्जंते अणुगिज्झमाणे इकारेमाणे पुकारेमाण अभितज्जेमाणे अभिचासेमाणे पि. 1 अगच्छंति । तते णं ते चिनाए तं ध ं सत्यवाई पंचा पुत्तेहि अप सन्नकबक समणुगम्ममाणं पासति, पासतित्ता अत्थामे अवले ० ४ जाहे नो संचाएइ सुसुमं दारियं निव्वाहेत्तर, वाहे संते तंते परितंते नीलुप्पलमसिं परामुसति, परामुसतित्ता सुंसुमाए दारियार उत्तममं छिंदति, बिंदतित्ता तं गहाय आगांमियं प्रविं श्रणुपविट्टे । तते से चिलाए तीसे आगामियाए तहहाए अभिभूते समाणे पहुदिसाभार सीइगुहं चोरपनि संपत्ते अंतरा चेब कालगए, एवामेव समरणाउसो० ! जाव पव्वइए समाणे इमस्स उरालियम्स सरीरस्स वंतासवस्स० जाव विद्धंसणधम्मस्स वन्नहेडं वा० जाव प्रहारं आहारेइ, से णं इहलोए चेव बहूणं समयाणं ४ हीलज्जेि० जाव अणुपरियहिस्सर, जहा वा से चिल्लाए तकरे, तते एां से धो सत्यवाहे पंचहि पुतेहिं परडे चिलायं तीसे श्रागामियाए सव्वधो समता परिधाडेमाणे २ संते तंते परितंते नो संचाए‍ चिलायं चोरसेगाव साहित्यि गिरिहत्तर से णं तम्रो पमिनियचर जेणेव सुंसुमा दारिया चिलाएणं जीविश्राम्रो क्वरोविआ तेणेव उवागच्छति, उवागच्छतित्ता सुंसुमं दारियं चिलाए जीविया ओ बवरोवियं पासति, ( पासतित्ता ) परमुणियत्तेव चंपगपायवे, तते गं से धले सत्यवाहे पंचि पुतेहिं सद्धि अप्पट्टे आसत्ये कूयमाणे कंदमाणे बिलवमाणे महया महया सद्देणं कुहुकुहस्स परुले सुचिरं कालं वाहमोक्खं करेति । तते णं से धो सत्थवाहे पंचहिं पुरोहि पर चिल्लातीसे आगामियाए सव्वतो समंता परिघामाणे २ तहाए बुहाए य पराजुए समाणे तीसे प्रागामिया hair सव्वतो समता उद्गस्स मग्गरागवेसणं करोति, संते तंते परितंते निव्विम् तीसे आगामिया अडवी नदगस्स मग्गणगवेसणं करेमाणे णो चैत्र उदगं साए । तए णं उदगं श्रणासाएमाणे जेणेव सुंसमा दारिया जीवितो वक्रोबिया, तेणेव उवागच्छवि । तए णं से धष्छे सत्यम हे जेडं पुत्तं सद्दावेति, सहावत्तत्ता एवं वयासी एवं खलु पुत्ता ! संसुमाए दारियाए हाए चिनायं तकरं सव्वतो समंता परिधाडेमाणे For Private Personal Use Only Page #1215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०२) चिलाईपुत्त अभिधानखजेन्छः। चिलाईपुत्त तएहाए नुहाए अभिजूमा समाणा इमीसे आ जाव पव्वक्ष्या,एकारसंगविऊ मासियाए संदेहणाए.जाव गामित्रआए अमवीए उदयस्स मग्गणगवेसणं करे- कालमासे काले किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए मववएणे, 'माणा नो चेव णं उदगं आसादेमो, तए णं उदगं ताओ देवमोगाओ महाविदेहे वासे सिज्झिहिंति०, माव अणासाएमाणा णो संचाएमो रायगिहं संपावित्सए। तएणं अंतं करेहिंति, जहा वि य ण जंबू! धले सत्यवाहे णो तुम्भे णं मम देवाणुप्पिया! जीवियाओ बवरोवेह, ममं बन्नहेर्ने वा नो रूवहे वा नो बलहे वा नो विसयहेजें मंसं च सोणियं च आहारेह, तेणं आहारेणं अवधट्ठा वा सुंमुमाए दारयाए मंसं सोणियं च प्राहारिए, नन्नत्य समाणा ततो पच्छा इमं आगामियं अडविं नित्थरिहेड, एगाए रायगिहं संपावणहयाए, एचामेव समपासो जो रायगिहं च संपाविहिह, मित्तवाणिययं अभिसमागच्छि अम्हं निग्गयो वा निग्गयी वा इमस्स ओरालियसरीरस्स हिह, अत्थस्स य धम्मस्स य पुनस्स य माजागी सवि वंतासवस्स पित्तासवस्स मुक्कासवस्स सोणियासवस्स० जाव स्सह । तते णं से जेट्टपुत्ते धसेणं सत्थवाहेणं एवं बुत्ते अवस्सविप्पजहियवस्स नो बन्नहे वा नो रूबहे वा समाणे धां सत्यवाहं एवं वयासी-तुन्ने णं ताश्रो नो बलहेनं वा नो विसयहेलं वा आहारं पाहारेति, नत्रअम्हं पित्रा गुरुजणा य देवयजूया ठवका पतिवका | त्थ गाए सिधिगमगसंपावणट्टयाए, से णं यह भवे चेव संरक्खगा संगोवगा, तं कहं एं अम्हे ताओ तुज्के बहूणं समणाणं०४ अच्चाधिज्जे० जाव वीईवश्स्सइ, एवं जीवियातो ववरोवेमो, तुम्भे मं मंसं च सोणियं च आ खलु जंबू ! समषेणं भगवया महावीरेणं० जाव संपत्तेणं हारेमो,तं तुब्ने णं ताओ ममं जीवियातो ववरोबेइ, मंसं च अट्ठारसमस्स णायज्यणस्स अयमढे पम्पत्ते ति वेमि । सोगियं च आहारेह, आगामियं अमविं नित्थरह, तं चेव झा० १ श्रु० १० अ०॥ सव्वं जणतिजाव अत्थस्स ३ श्रानागीनविस्सह । ततेणं प्रासी चिलाइपुत्तो, मुइंगलिया चालणि व्व को। धमं सत्यवाहं दोचे पुत्ते एवं वयासी-मा णं ताओ अम्हं सो वि तह खज्जमाणो, पमिवन्नो उत्तम अहं ।। न् जेटमायरं गुरुदेवयं जीवियाओ ववरोवेमो, तुम्भे णं ताओ आसीचिलातिपुत्रः सुंमुमाझाते प्रसिद्धः (मुइंगलियाहिं ति) ममं जीवियाओ ववरोवेह० जाव आनागी नवस्सह,एवं०जाव कीटिकाभिः, पद्न्यां शोणितगन्धेन प्रसृतानिर्भक्कयन्तीपंचमे पुत्ते । तते णं से धमे सत्थवाहे पंचपुत्ताणं हियच्चिय भिः शिरो यावच्चाबनीव कृतः, सोऽपि तानिस्तथा भक्ष्यमाणः प्रतिपन्न उत्तमार्थम। संथा। जाणित्ताते पंचपुत्ते एवं वयासी-मा णं अम्हे पुत्ता एगपवि __ तथा चामुमेवार्थ प्रतिपिपादयिषुराहजीवितातो ववरोवेमो, एस णं सुसुमाए दारियाए सरीरे निप्पाणे०जाव जीवाओ विप्पजढे, तं सेयं खलु पुत्ता! अम्हे जो तिहि पएहि सम्म, समाभगो संजमं समभिरूढो । उवसमविवेगसंवर-चिलाइपुत्तं नमसामि ॥१०॥ मुंसुमाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहरित्तए। तते णं यस्त्रिनिः पदैः सम्यक्त्वं समभिगतः प्राप्तः, तथा संयम ससाअम्हे तेणं श्राहारेणं अवधवा समाणा रायगिहंणयरं संपा. रूढः, कानि पदानि?-उपशमविवेकसंवराः, उपशमः क्रोधादिउपियस्सामो । तए ण ते पंच पुत्ता धम्लेणं सत्यवाहेणं एवं निग्रहः,विवेकः स्वजनसुवर्षादित्यागः,सम्बर शन्द्रियनाशन्द्रयवुत्ता समाणा एयमढे पडिसुणंति । तते णं से घले सत्यवाहे पं- गुप्तिरिति । तमित्यनूतम् उपशमविवेकसम्बरचिलातिपुत्रं नमचपुत्तेहिं सकिं परिणिं करोति, अरिणिं करेतित्ता सरगंक- स्ये, उपशमादिगुणा अनन्यत्वाश्चिमातिपुत्रे एवोपशमविवेकरेति, सरएणं अरणिं महेति,महेतित्ता अग्गि पामेति, अग्गि सम्बर इति, स चासौ चिलातिपुत्रश्चेति समानाधिकरण इति पामेतित्ता अग्गिसंधुकं करोति , करेलित्ता दारुयाइ पक्खि गाथार्थः । आव २०। संथा। वर, पक्खिवइत्ता अग्गि पज्जालेनि, अग्गि पज्जालेति अडिसरिया पाएहिं, सोणिगंधेण जस्स कीमीयो। त्ता सुंमुमाए दारियाए ममं च सोणियं च आहारेति, खायंति उत्तमंग, तदुक्करकारयं वंदे ॥११॥ तेणं माहारेणं भवट्ठा समाणा रायगिहं नगरं संपत्ता। अभिमृताः पादाभ्यां शोणितगन्धेन कीटिकाः यस्य श्र. मित्तनाति अजिसमन्नागया, तस्स य विपुलस्स धणकण विचलिताध्यवसायस्य प्रक्षयन्त्युत्तमाङ्गं. पद्भ्यां शिरोवेधगता इत्यर्थः । तं दुष्करकारकं वन्दे हाते गाथार्थः। मरया जार आभागी जाया। तते णं धमे सत्यवाहे मुं. धीरो चिलाइपुत्तो, मुइंगलिग्राहि चालिणि व्व को। मुमाए दारियाए बहुइं लोश्याई० जाब विगयसोए जाए जो तहवि खजमाणो, पमिवन्नो उत्तमं अट्ठ ॥१२॥ वावि होत्या । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे जगवं म धीरसखसंपनश्चिखातिपुत्रः (मुझंगलियादि ) कीटिकाभिर्जहावीरे जेणेव गुणसिनए चेहए, तेणेव समोसढे, सेपियो क्ष्यमापश्चालनीव कृतस्तथापि खाद्यमानः प्रतिपन्नः उत्तमविराया णिग्गयो। तर से धो सत्यवाहे धम्मं सोचा० अर्थम, शुभपरिणामापरित्यागादिति दयम् ॥ Page #1216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९५३) चिलाईपुत्त अभिधानराजेन्द्रः। चिलिमिली महाज्जेहि राई-दिएहि पत्तं चिलाइपुत्तेणं । पंचविह चिलिपिली पुण, उवग्गहकरी जये गच्छे । देविंदामरभवणं, अच्छरगणसंकुलं रम्मं ॥ १३ ॥ सूत्रमयी रज्जुमयी वल्कमयी दण्डमया कटकमयी बेति पञ्चअतृतीयैःरात्रिन्दिवैः प्राप्तं चित्रातिपुत्रेण देवेन्द्रस्येव अमर विधाचिसिमिझी,एपा पुनर्गच्छे गच्छवासिनामुपग्रहकरी भवति । भवनम, अप्सरोगणसंकुलं रम्यमिति गाथार्थः । श्राव० २ | उक्तो नेदः। अथ सूत्रप्ररूपणा क्रियते-सूत्रस्य विकारः सूत्रमयी, १०। प्रा०म०। सा च वस्त्रमयी वा, कम्बलमयी वा प्रतिपत्तन्या, रज्जोर्विकारो चिलाय-किरात-पुं० । सिन्धुमहानदस्य पश्चिमायामविदूरे रज्जुमयी, कर्मादिम्यो दवरक इत्यर्थः । वल्कं नास-शणादि'बबूचिस्तान इति ख्याते' म्लेच्छदेशभेदे, तजे मनुष्यजातौ च । वृक्षत्वगरूप, तेन निर्वृत्ता बल्कमयी, दमको घंशषेत्रादिमयी ये हि भरतेन महाराजेन पापाना नाम किराताः पराजिताः । यष्टिस्तेन निर्वृत्ता दमकमयी, कटो बंशकटादिस्तनिष्पन्ना प्रज्ञा १ पद । जं० । स्था० । कोटीवर्षस्याधिपती राजनि, कटकमयी। गता प्ररूपया । आव०४ मा प्रा०का प्रा० चूा(मूलगुणप्रत्याख्याने कथा) अथास्याः पञ्चविध्या अपिचितिमिलिकायाचिलायपुत्त-किरातपुत्र-पुं० । किरातीपुत्रे, व्य. १००। यथाक्रम गाथात्रयेण द्विविधं प्रमाणमाहचिलिच्चिलं-देशी-पा, दे०मा० ३ वर्ग । हत्थपणमं उदीहा, बिहत्थ रुंदोन्नियाणऽसड खोमा । चिलिमिली-चिलिमिलि-स्त्री. । जवनिकायाम, व्य.८ २० । एतप्पमाण गणणे-क्कमेक गच्छंव जा वेट्टे ॥ प्रमाणगणनाभेदाद द्विविधं प्रमाणं, तत्र प्रमाण माश्रित्य सूत्रमयी भाचा० । प्रच्छादनपट्याम , सूत्र०२ श्रु. २० । चिलिमिक्षिका हस्तपञ्चकं दीर्घा, त्रीन् हस्तान रुन्दा-विस्तीर्ण कप्पा निम्गंधाण वा निग्गंथीण वा चलचिलिमिलियं भवति । एष चोत्सर्गतस्तावदौर्णिकी, ऊर्णिक्या असत्यनामे कोधारित्तए वा। मिकी प्रहीतच्या। वल्कचिलिमिलिकाया अप्येतदेव प्रमाणम् । अस्य संबन्धमाह-- गणनाप्रमाणं पुनरधिकृत्य एकैकस्य साधोः, एकैकस्यां याचसागारिपच्चया, जह घमिमचो तहा चिलिमिनी वि। त्यो वा गच्छं वेष्टयन्त्यो भवन्ति, या वा प्रातिहारिकी गच्छ सकलमपि वेष्टयति सा गणनयैका, प्रमाणेन च नियता। रत्तिं च हेहऽणंतर, इमाउ जयणा उभयकाले ॥ असतोमि खामरज्जू, एक पमाणेण जान चेटे। सागारिको गृहस्थः, तत्प्रत्ययार्थ यथा घटीमात्रक, तथा चि. लिमिलिकाऽपि धारयितव्या, तदधस्तात् सूत्र, ततोऽनन्तरं त. कटहूवग्गादीहिं, पोत्तेऽसइ जए व वग्गमई ॥ स्मिन्नपावृतद्वारोपाश्रयस्त्रे सत्रौ चिलिमिलिकादिप्रदानयतना रज्जुचिलिमिलिका पूर्वमौर्णिकदवरकरूपा, तस्वा ममावे नणिता,श्यं तु उभयकाले-रात्रौ दिवा च कर्तव्या इति । अनेन कौमिकदवारका, सैकाऽपि कर्तव्या, सा च सर्वेषामपि साधूसंबन्धेनाऽऽयातस्यास्य व्याख्या-कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्र- नां प्रत्येकं गणनये कैका, प्रमाणेन तु हस्तपश्चकदीर्घा जयति, न्थीनां वा चेलचितिमिलिकां धारयितुं वा । एष सत्राकरायः। गणावच्छेदिकहस्ते वा एक एव दवरको प्रवति, यः सकलअथ भाध्यविस्तर: मपि गच्छं शातादिरकायै वेष्टयति । कभहू नाम-वृक्तविशेषः, धारणया न अलोगो, परिहरणा तस्स होइ परिजोगो। तस्य यद्वल्कम, आदिशब्दापालाशीशणादिसबन्धि, वल्केन निर्वृत्ता वल्कमयी, सा च (पोत्तेऽसत्ति) वस्त्रचिलिमिलिचेल उपहाणतर तो, गहणं तस्सेव नन्नासिं॥ काया प्रभाव, जये वा स्तेनादिसमुत्थे गृह्यते। धारणता तु अन्नोगो अव्यापारणं, परिहरणा तु-तस्य चिलि देहाधिओं गणणेको, दुवारगुत्ती भए व दंगमपी। मिलिकास्यस्योपकरणस्य परिभोगो व्यापारणमुच्यते । श्रादपसारथकटबल्कदएमभेदात पञ्चविधा चितिमिलिका बक्यते, संचारिय चतुरो वा, जय माणे कममसंचारं । तत्कथं सूत्रे चेनचितिमिलिकाया एव ग्रहणमिति । श्राह-चेलं तस्य प्रमाणादधिको यो दएमः स देहाधिकः, स च गपतु वस्त्रं रज्वादीनांमध्ये बहुतरोपयोगित्वातू प्रधानतरं, तत रिभाषया देहाचतुरङ्ग-लाधिकप्रमाणा नालिका नण्यते, पतास्तस्यैव सूत्रे प्रहणं कृतं, नान्यासांरज्जुचिसिमिलिकादीनाम् । पता प्रमाणमुक्तम् । स च देहाधिको दएकको गणनयेअथ चिलिमिनिकाया एव भेदादिनिरूपणाय द्वारगाथामाह कैकस्त्वाधारकैको भवति, तैश्च दएमकैः श्वापदादिजये द्वार गुप्तिः-द्वारस्य स्थगनं क्रियते । एष दएममयो कष्टव्यः। एताश्चा• दो य परूवणया, दुविह पमाणं च चिसिमितीणं तु। दिमाश्चतस्रश्चितिमिलिका वखतेर्वसतिकेत्राव क्षेत्र संचरन्ती. उवनोगो न दुपक्खे, अगहणऽधरणे य सहु दोसा।। । ति संचारिमा उच्चन्ते, कटकमयी तु असंचारिमा, माने च प्रथमतः चिनिमितिकाभेदो वकन्यः, ततस्तासामेव प्ररूपणा | प्रमाणे द्विविधे तां कटकमयीं चिलिमिली जज विकल्पय, भ. कर्तव्या, ततो द्विविधं प्रमाणं गणनाप्रमाणनेदात चिसमिति- नियतप्रमाणेत्यर्थः । तत्र प्रमाणमङ्गीकृत्य यावत्या पक्ष्यमाणं कानामानिधातव्यम, चितिमिक्षिकाविषय उपमोगो द्विपक्षे संय- कार्य पूर्यते तावत्प्रमाणा कटकचिलिमिली, गणनया तु यद्ये. तीपकद्वयस्य वक्तव्यः, चिलिमिक्षिकाया श्रग्रहणे अधारणेच का कटः कार्य न प्रतिपूरयति ततो द्विपादयोऽपि तावचतुर्मघुकाः प्रायश्चित्वं, दोषाश्चाकादयो जवन्ति । एतद्द्वार- संख्याकाः ग्रहीतव्या यावद्भिस्तत्कार्य पूर्यते । गतं विविगाथासंकेपार्थः। धं प्रमाणम्। प्रथैनामेव प्रतिद्वारं विवरीषुराह अथोपभोगो द्विपक्षे इति पदं विवृणोतिमुत्तमई रज्जुमई, वग्गमई दंडकडगमई य । सागारि सज्काए, पाणदएँ गिलाणे सावयजए वा । २६ Page #1217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९६४) चितिमिली अन्निधानराजेन्डः। चीणंसुय अकाणमरणवासा-सु चेव सा कप्पए गच्छे ।। जे जिक्खू सोत्तियं वा रज्जुयं वा चिलिमिलिं वा सयमेसागारिके पश्यति, स्वाध्याये विधातव्ये , प्राणदयायां विधे-1 व करेइ, करंतं वा साइज्जइ ॥१॥ यायां, ग्लानाथ, श्वापदनये वा उत्पन्ने, अध्वनि, मरणे, वर्षासु जे भिक्खू सोत्तियेत्यादि सभाष्यं पूर्ववत । नि० चू. ३ उ०।। चैव, सा चितिमिलिका कटपते, गच्छे गच्छवासिनां साधूनां | परिभोक्तुम । एष नियुक्तिगाथासमासार्थः । चिलीण-चिल्लीन-त्रि० । मनसः कलिमपरिणामहेती, जी. ३ प्रति। अथैनामेव प्रतिपदं विवृणोति चिस-चिन्त-पुं०1(चीड) वृक्तविशेषे, प्रज्ञा० १६ पद । पमिोहोजयममलि, इत्थीसागारियड सागरिए। | चिबग-चिबक-त्रि.। देदीप्यमाने, प्रश्न०४ आश्र द्वार। च. घाणास्रोगज्काए, मच्छियमोबाइपाणेसु ॥ प्रतिलेखनां कुर्वतो द्वारे चिलिमिलिकां कुर्वतो मा सागा प्र० । शा० । श्वापदादे, प्रज्ञा० ११ पद । शिम्ये, “एगस्स भारिका उत्कृष्टोपधि कातुः, मा वा उमुम्वकान् कावुरिति कृत्वा, यरियस्स चिद्धो अविणीओ " प्रा०म० द्वि० । ( उजयमंडलि ति) ससुद्देशनमएमल्यां स्वाध्यायमामल्यां चिबम-चित्रक-पु. । व्याघ्र, आचा० २ ० ३ ० ३ उ०। चोद्धतरक्षणार्थ, स्त्रीरूपप्रतिबद्धायां च वसतो स्त्रीसागारि-चिसणा-चिसणा-स्त्री० । वैशालिकपुराधिपतेश्वेटकराजस्य कामामालोको मा स्तादिति एतदर्थ चिलिमिली दीयते (सा- कन्यायां श्रेणिकमहाराजस्य नार्यायाम , प्रा० क० । अन्त । गारिए ति) सागारिकद्वारे चिन्त्यमाने पतत्कारणजातं चि. मा• मानि०। झा०। (तत्परिणयश्च सणिय' शब्दे वक्ष्यते) लिमिलिकाग्रहणे अष्टव्यम् । (घाणालोगज्काए सि) यत्र सूत्र |चिवल-चिल्वल-न । चिखल्लमिश्रोदके जलाशयविशेषे, पुरीषादेरगुभा घ्राणिरागच्छति, शोणितचर्चिकाणां वा यत्रालोकः, चेटरूपाणि वा यत्र कुतूहसेनालोकन्ते तत्र चिलिमिली भ०५ श०७ ३० । प्रज्ञा का प्रारण्यके पशुविशेषे, जी. ३ दत्त्वा स्वाध्यायः क्रियते , मक्किकामोलादयो वा प्राणिनो प्रति· । खरविशेषे, प्रश्न. १ आश्र द्वार। शा० ज०। यत्र बहवः प्रविशन्ति मोलास्तिका सच्यन्ते , तत्र प्राणदया | चिवलिया-चिनलिका-स्त्री। चिल्ललाख्यपशुजातीयनियाम् , यमेतासामेव चिलिमिलिकानामुपभोगः कर्तव्य इति । प्रज्ञा० ११ पद । उनोसहकजे वा, देसे वीसत्यमाइ गेनन्ने । चिल्ला-देशी-शकुनिकाख्ये, दे० ना० ३ वर्ग । अच्छाणे उन्नास, उवहीए सावए तेणे ॥ चिल्लिय-देशी-देदीप्यमाने, जी०३ प्रति० । कल्प० । भ•। नभयं संक्षाकायिकीलक्षणं चित्रिमिलिकया पावतो ग्लानः जं. लीने , दीप्ते च । औ०। सुखं व्युत्सृजति,ओषधकार्य वा ओषधं तस्य प्रच्छन्ने दातव्यं,मा चिलिरी-देशी-मशके, दे० ना० ३ वर्ग। मृगा अवलोकन्तामिति कृत्वा,अतः चिसिमिनिका दातव्या। एवं (देसे त्ति) यत्र देशे शाकिन्या उपद्रवाः संभवन्ति तत्र ग्लानः चिस्लूरं-देशी-मुसले, दे० ना० ३ वर्ग। प्रच्छन्ने धारयितव्यः,विश्वस्तो ग्लानः प्रच्छन्ने सुखमपावृतस्तिष्ठ- चिल्लो-देशी-बाले, दे० ना० ३ वर्ग। ति । श्रादिशब्दात् पुग्धादिकं ग्लानार्थमेव गीतार्थन स्थापित, चिवटी-देशी-तृणे, दे० ना० ३ वर्ग। तच दृष्ट्वा ग्लानो यदा तदा वा अभ्यवहरेदिति कृत्वा तत्रान्तरे चिलिभिलिका दीयते, यथाऽसौ तन्न पश्येत् , एवमादिके ग्ला चिन्वंत-चीयमान-त्रि०। चि-कर्मणि भावे वा यक्। "नवा कनत्वे चिसिमिक्षिकानामुपभोगः। अध्वनि प्रच्छन्नस्थानस्यानावे मभावे व्यः क्यस्य च मुक्"॥ ८।४।२४२ ॥ इति चिधातो: चिलिमिलिकां दस्वा समुद्दिशन्ति वा, सारोपधि वा प्रत्यक- कर्मणि भावे वा द्विरुक्तो वकारः। उपचीयमाने, प्रा०४ पाद । न्ते। श्वापदेभ्यो वा यत्र भयं, स्तेनेभ्यो वा यत्रोपधेरपहरणशङ्का, चिर-चिकर-पुं." निकपस्फटिकचिकुरे हः" ॥१६॥ तत्र दहमकचिलिमिलिकया कटकचितिमिलिकया वा दृढं द्वारं काय कारः । प्रा०१ पाद । रागाव्य पिधाय स्थीयते (वृ० ) जी० ३ प्रति०। तथा-- बंभव्ययस्स गुत्ती, उहत्यसंघामिए सुहं जोगो । चिहरंगराय-चिकराङ्गराग-पुं० । चिकुरसंयोगानिमित्ते वस्त्रावीसत्यचिट्ठणादी, सुरहिगमा विह रक्खा य॥ दौ रागे, जी० ३ प्रतिः । उपाश्रये वर्तमाना आर्यिका चिलिमिलिकया नित्यकृतया ति-| चीम-चीम-पुं०। गन्धप्रधाने वृत्तनेदे , ल० प्र०। ष्ठति, यतो ब्रह्मवतस्य गुप्तिरेवं कृता भवति। छिहस्तविस्तराया | चीण-चीन-पुं०। श्रीऋषनजिनस्य द्वादशे सुते, तम्राज्ये च । अपि सवाटिकायाः सुखं जोगो भवति , प्रतिश्रये हि तिष्ठन्त्यो कल्प० ७ क्वण । म्लेच्छदेशविशेषे, प्रब० २७४ द्वार । सूत्र०। द्विहस्तविस्तरामेव सङ्घाटिकां प्रावृण्वते,न त्रिहस्तां न वा चतु प्रश्नावृ० प्रकाश स्वे,त्रिका'चीणचिमिढवंकनम्गणासं' चीना हस्तामा ततः चिलिमिलिकया बडिख्या वतनयापि प्रावृतया हस्वा (चिमिदत्ति) चिपिटा निम्ना बंका वक्रा जम्नेव भन्ना, विश्वस्ता निःशङ्काः सत्यः सुखं स्थाननिषदनत्वग्वर्तनादिकाः अयोधनकुट्टितेवेत्यर्थः, नासिका यस्य स तथा। झा०१७०७ क्रियाः कुर्वन्ति,पुरधिगमाश्च शालानामगम्या भवन्ति , द्विधा अ०। कङ्कतुल्यब्रीहिनेदे, मृगभेदे च । पताकायां, सीसके च । च रका कृता भवति; संयम अात्मा च रवितो भवतीति | नावाचा भावः। १०१ उ०। पंजा। पं०व० । निचू० । चीणंसुय-चीनांशक-नास्वनामख्यातः कोशिकारः तज्जे,चीन Page #1218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९५५) चीसुय अभिधानराजन्छः। विषये निष्पन्ने वस्त्रभेदे च । चीनांशुको नाम कोशिकारोऽप्य- फिडफिट्टफुडफुट्टचुक्कभुद्धाः" ।।८।४।१७७ ॥ इति शंशेश्चुस्ति , तस्माज्जातं चीनांशुकम । यद्वा-चीनो नाम जनपदस्तत्र पकादशः । चुक्कई' भ्रश्यति । प्रा०४ पाद । प्राव० । बि. यः लक्षणतरः पट्टस्तस्माज्जातं चीनांशुकम । वृ०१ १० । स्मृते, वृ०४ उ० । मुष्टी, दे० ना०३ वर्ग । कल्प० । स्था० आ० म०। चीनांशुकानि नानादेशेषु प्रसिका. नि दुकलविशेषरूपाणि, पूर्वोक्तस्यैव वल्कस्य यान्यन्तरहीरैनि वष्ट-त्रि.। पतिते, "गिहत्थधम्माल चुक्कंति।" गृहस्थधर्मापाद्यन्ते सूक्ष्मतराणि च भवन्ति तानि चीनांशुकानि । जं० दाद्यतिधर्मात्संविग्नपाक्षिकपथाच्चुक्कति, दृष्टः संसारपथ२ वक० । नि० चू। चीनदेशे आमिषपुजाः क्रियन्ते, तद त्रयान्तर्वीत्यर्थः । ग• १ अधिः । र्थिनः कीटीरागत्य बालां मुञ्चन्ति, तत्सूत्रं भवति, तनिष्पन्न चुक्र-न० । चक-रक-अत उत्वं च । अम्लतसे, धुक्रवस्त्रं चीनांशुकमित्युच्यते इति वृक्षाः । अनु.।। पालङ्कशाकभेदे, शुक्तभेदे च । स्वाथै कन् (श्रामरुन) शाके, चीणपिट्ठ-चीनपिष्ट-पु० । लोहितवणे वस्तुविशेषे (रा.)। तिन्तिण्यां च । स्त्री० । वाच०। लोकप्रासिके, प्रका०१७ पद । चीनदेशजं सिन्दरमिति प्रती-चक्कखलित-भ्रष्टस्खलित-न० । अनानागे, “अणानोगो चुकयते । वाच०। स्खलितो भपति" नि० चू०२० उ० । चीमय-जीमृत-पुं० । 'चूलिकापैशाचिके तृतीयतुर्वयोराद्यद्वितीयौ ८ ३२५ ॥ इति जस्य चः। मेघे, पा०। | चुक्खतुत्त-चोक्षसुक्त-त्रि० । शुचिसमाचारे, वृ०१००। चारकडूसगपट्ट-चीरकएसकपट्ट-पुं० । रजोहरणबाचुच्चुय-चूचुक-न० । स्तनाग्रनागे, रा०। प्रश्न। "चीरकंड्सगबंधो खाम-जाहेरयहरणं तिनागपएसे खोमिए-1 चुच्च-तुच्छ-त्रि० । “तुच्छे तश्वछौ वा" || १ | २०४॥ ण मोणिपण वा चीरेणं वेदयं प्रवति, ताहे उन्निदोरेण इति तकारस्य चकारः। हीने, अल्पे च । प्रा०१ पाद । तिपासियं करेति, तं चीरकंसगपट्टओ भपति" नि. चुमल-चुटल-न० । जीर्णतायाम, पिं०।। चू०५ उ०। चुमली-चटली-स्त्री०। प्रदीप्ततृणपूलिकायाम, भ०१ श.५ चीरग-चीरक-पुं०। रथ्यापतितचीवरपरिधाने लिङ्गिनि, ग. उ०। तं०। वन्दनदोषभेदे, “चुमलि ब्व गिएिदऊणं, रयहरणं २ अधि.। होई चुमलिं तु" चुटली नाम-उल्का, उस्कामिवालातमिव प. चीरत्थल-चीरस्थल-न० । मथुरास्थे स्थलनेदे, ती० एकरूप ।। र्यन्ते रजोहरणं गृहीत्वा भ्रामवन् यत्र बन्दते तच्चुटलिकम् । चीरल-चीर-पुं० । पक्तिविशेष, प्रश्न १ आश्र• द्वार। द्वात्रिंशत्तमे वन्दनदोष, प्रव० २ द्वार । धा• चू० । वृक्ष चीरिय-चीरिक-पुंoरण्यापतितचीवरपरिधाने, चीरोपकरणे भाव०। (सच दोषः 'चुम्लपिंड' शब्दे वक्ष्यते) बा पाबरिमसाधौ, बा.१ ध्रु०१४ अ० । अनु० । चुप-चूर्म-पुं० ।न। "हस्वः संयोगे" ॥ १४॥ प्रा. १पाद । यवादीनाम् (प्राचा०२ श्रु०२१०१३०) बदरादिकानाचीवंदण-चैत्यवन्दन-ज०। 'चेहयवंदणं' इति प्राप्ते आर्षत्वात म (नि० चू०१६ उ०) मोदकादिखाद्यकचूरो, बृ०१० । थारूपम् । विधिपूर्व देववन्दने, प्रा० १ पाद । प्राचा० । प्रज्ञा । गन्धव्यसम्बन्धिनि रजसि, भ.३श०७ चीवर-चीवर-न० । वो, स्था०५ ठा. २ उ० । उत्त। उ० । वशीकरणादिफले द्रव्यसंयोगे, वृ०१ उ८ । अन्तर्धा. चीवरधारि (ण)-चीवरधारिन्-त्रि.। वस्त्रधारिणि, कल्प नादिफले नयनाअनादौ, ध०३ अधि० । ग। जे निक्ख अंगादाणं ककेण वा लोदेण वा पउमचुमेण चुअ-च्युत-त्रि० । विनष्टे, आचा०१ श्रु०११०१ उ० उच्छास- वा पहाणे वा चुमहिं वा वहिं वा उबट्टे वा, परिवह निश्वासजीवितादिदशविधप्राणेभ्यः परिम्रटे, अनु· । देव. वा. उव्वतं वा परिवदृतं वा साइज्जइ ॥५॥ लोकादवतीर्णे, कल्प० १ कण । ककं नवलणयं, व्यसंयोगेन वा कक्कं क्रियते, किंचिल्लोई चइ-च्यति-स्त्री०। च्यवने, वैमानिकज्योतिष्काणां मरणे, स्था० हजव्यं, तेण वा उबट्टेति, पद्मचूर्णेन वा एहाणं-गहाणमेव, १ग०१०। महवा उबगहाणयं जमति। तं पुण माषचूर्णादिसिणाणं गधिचुश्समय-च्युतिसमय-पुं० । इहभवपरभवशरीरायुःपुझसपू- यावणे अंगाघसणयं वुच्चति । चुण्णश्रो जो सुगंधो, चं. परिशाटसमये, प्रा०म०वि०(अस्मिन् समये किम् श्ह दणादिचूर्णानि, जहा वट्टमाणचुप्पो पम्वासादिवासनिमि. भवः, किंवा परजवः ? ति विवेचितं 'करण' शन्देऽस्मिन्नेव ते तहेव उव्वट्टति, एक्कस्सि परिवहति पुणो पुणो । नि. भागे ६५ पृष्ठे) चू० १ उ० । चुंचुण-चुञ्चुन-पु. । इम्यजातिनेदे, स्था• ६ ग० । प्रज्ञा०। चौर्ण-न० । पदभेदे, (दश) चौर्ण पदमाहचुंचय-चुञ्चुक-पुं० । म्लेच्छजातिभेदे, प्रश्न०१आश्रद्वार । अत्थबहुलं महत्थं, हेउनिवाअोवसग्गगंभीरं । चुंबण-चुम्बन-न० । बक्त्रसंयोगे,प्रव०१६ए द्वार । चुम्बनविकल्पः सम्प्राप्तकामभेदः । दश० ६ १०। वहुपायमवोच्चिन्नं, गमणयमुहं तु चुन्नपयं ॥ १०॥ चुक-श-धा०। अधःपतने, दिवा०-पर०-अनिट् । “नशे अर्थो बहलो यस्मिन् तदर्थबहुसम्। "कचित् प्रवृत्तिः कचिदन Page #1219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९९६) अभिधानराजेन्द्रः। चुमभेय वृत्तिः, कचिद्विनापा क्वचिदन्यदेव । विधेविंधानं बहुधा समी- कुसुमपुरे नगरे चन्द्रगुप्तो वाम राजा, तस्व मन्त्री पाएक्यः, क्य, चतुर्विध बाहुसकं वदन्ति ॥१॥" ततश्चतिः प्रकारैः बहर्थम् । नत्र च जबाबलपरिहानाः सुस्थितानिधाः सूरयः । भ. महान् प्रधानो हेयोपादेयप्रतिपादकत्वेनार्थो यस्मिन् तन्महार्थम। न्यदा च तत्र निकमपबत् । ततः प्रिनिश्चिन्तितम्-अमुं हेतुनिपातोपसर्गः गम्भीरम् । तत्राऽन्यथाऽनुपपत्तिलक्षणो हेतुः।। समृझानिधानं शिष्यं वरिपदे स्थापयित्वा सकलगच्छसयथा मदीयोऽयमश्वो, विशिष्टचिह्नोपल कितत्वात् । चवाख- मेतं सुभिक्षे क्वापि प्रेषयामि, ततस्तस्मै योनिप्रामृतमेकान्ते स्वादयो निपाता। पर्युतसमवादय उपसर्गाः। एभिरगाधमा बहु- व्याख्यातुमारग्धे, तत्र च तुझकद्वयेन कथमप्यररयीकरणपादम्-अपरिमितपादम् । अव्यवच्छिन्न-लोकवविरामराहतम् ।। निबन्धनमजनं व्याख्याने शुश्रुवे, यथा-अनेनाअनेनाम्जितच. गमनयः शुद्धम, गमास्तदकरोचारणप्रवणा भिन्नार्थाः।यथा"ह कुर्न केनापि दृश्यते, इति योनिप्राचैतन्यास्थानसमर्थनानखलु छजीवालिया ; कयरा खलु सा जीबगिया?।" इत्यादि। न्तरं समृद्धाभिधोऽन्तेवासी त्रिपदे स्थापितः, मुत्कलिनया नैगमादयः प्रतीताः, तुरवधारणे, गमनयशुद्धमेव चौर्ण पदं तश्च सकलगच्चसमेतो देशान्तरे, स्वयमेकाकिनस्तत्रैवावतब्रह्मचर्याध्ययनपदवदिति गाथार्थः । दश०२०। स्थिरे सूरयः, कतिपयादिनानन्तरं चाचार्यस्नेहतस्तत् कुधकाचुम्मकोसग-चूर्णकोशक-न । चूर्णनृते कोशकाकृती भक्ष्यभेदे, यमाचार्यसमीपे समाजगाम । प्राचार्या अपि यत्किमपि भिक्या लभन्ते तत्समं विविच्य खुबकायेन सह भुजते,तत आहाराऽप. प्रश्न०५ संब• द्वार। रिपूर्णतया सूरीणां दोविल्यमनवत् ।चिन्तितंतुवकद्वयन-अवमो. चुप्पपसि ( )-चूर्णपेषिन्-त्रि० । ताम्बूलचूर्णस्य गन्धव्य- दरता सूरीणाम, ततो वयं पूर्वश्रुतमजनं कृत्वा चन्द्रगुप्तेन सह चूर्णस्य वा पेषणकारके, भ०११ श० ११ १०।। भुम्जाबहे, इति तथैव कृतम् । ततश्चगुप्तस्याहारस्तोकतया भूमा शरीरे कशता । चाणक्येन पृष्टम ते शरीरदौर्बल्यम् । चुएणगुंमियगाय-चूर्मगुपिउलगमत्र-त्रि०। गैरिककोदावगुण्ठि स प्राह-परिपूर्णाहारालाप्रतः । ततश्चाणक्येन चिन्तितम-पतातशरीरे, विपा०१ श्रु०२ अ०। बत्याहारे परिवेष्यमाणे कथमाहारस्यापरिपूर्णता?, तम्नूनमचुम्मात्ति-चूर्णयुक्ति-स्त्री० । कोष्ठादिसुरभिमन्येषु चूर्णीकृतेषु जनसिकः कोऽपि समागल राका सह भुते । ततस्तेनाअन. तदुचितव्यमेलने, जं०२ वक. । एषादि किलाभेदः। सिरुग्रहणाय नोजनमएमपेऽतीवश्लणेएकाचर्णे विकीर्ये हकस्प०७ कण । ज्ञा० । औ०। धानि मनुष्यपदानि । ततो निश्चिक्ये-नून द्वौ पुरुषावजनसि. खावायातः । ततो द्वारं पिधाय मध्येऽतिबहुलो धूमो निचुमजोग-चूर्णयोग-पुं० । स्तम्जनादिकर्मकारिणि व्यचूर्णानां | पादितः। धूमवाधितनयनयोश्च तयोरम्तनं नयनामुभिः सह योगे, झा• १ श्रु० १५ १० । अदर्शीकरणाद्यजने मोहनचूर्ण विगलितम् । ततो बनूवतुः प्रत्यको सुखकी, कृता चम्कगुसेनायोगेनाहारग्रहणरूपे चतुर्दशे उत्पादनदोषे, उत्त० २४ अ०। मनि जगप्सा-अहो ! बिटालितोऽहमानमामिति । ततश्चाणचुम्मापिम-चूर्णपिएम-पुं० । चूर्णमब्जनादि, तत्प्रयोगेण लब्धः क्येन तस्य समाधाननिमित्तं , प्रवचनमानिन्थरतार्थ च प्रशं. पिएडः । जी० १ प्रति० । वशीकरणाद्यर्थ द्रव्यचूर्णादवाते सितो राजा । यथा-धन्यस्त्वमसि यो बालब्रह्मचारिभिः पिएमे, प्राचा. २ ० १ ०९ २० । पञ्चा। यतिनिः पवित्रीकृत इति । ततो वन्दित्वा मुत्कलितौ द्वाब पि तुन्छको । चाणक्येन रजन्यां बसतावागत्यासूरय उपालअस्य स्वरूपं सोदाहरणम् धाः-ययैतौ युष्मत्त्व काधुडाहं कुरुतः । ततः स एवोपालचुन्ने भंतघाणे, चाणके पायलेवणाजोगे। ब्धः । प एवात्र विद्यायामजनोक्का दोषास्त एव वशीमूझे विवाहे दो दं-डणीन आधाणपरिसाडे ।। करणादिचूर्णेष्वपि द्रष्टव्याः । सूत्रे चात्र तृतीया सप्तम्यर्थे । तथा चूर्णे प्रयुज्यमाने एकस्य चूर्णस्य प्रयोक्तुरनेकेषां पा चूर्णे अन्तर्धाने लोकदृष्टिपथतिरोधानकारके दृष्टान्तौ-चाणक्य साधूनामुपरि द्वेषं कुर्यात् , ततस्तत्र निकालाभाद्यसंप्रवः। "पविदिती छौ क्षुल्लको । पादे पादलेपनरूपे योगे दृष्टान्ताः-समित यथारो वा पि" नाशो वा भवेत् । तदेवं " चुने अंतका. सूरयः। तथा मूले मूबकर्मणि अक्षतयोनेः कतयोनिकरणरूपे णे चाणक्के " इति व्याख्यातं, तयाख्यानाथ चूर्ण इति युवतिद्वयं हटान्तः। विवाहविषये मूनकर्मणि युवतिद्ववमुदाद- द्वारं समर्थितम् । रणम् । तथा गर्भाधानपरिसाटरूप मूलकमणि द्वे दण्डिन्यौ ने जिक्खू चुप्पयापिम मुंजर, जंतं वा साइज॥७२।। नृपपल्याबुदाहरणम्। तब "चुन्ने अंतद्धाणे चाणक्के" इत्ववयवं भाष्यकृत् "जे चुम्लपिमं" इत्यादि । बसीकरमादिया चुमा,तोदि जो पिमं गाथात्रयेण व्याख्यानयति उप्पादेति तस्स माणादिया दोसा, चटलहुंच से पनि। जंघाहीणा ओमे, कुबुमपुरे सिस्सजोगे रहकरणं । जे भिक्खु चुप्लपिम, मुंजेज्ज सयं तु अहव सातिजे । सो प्राणा असवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे ॥ १६॥ खुड्डागंजणमुणणा, गमणं देसंतरे सरणं॥ कंग।जे विज्जामंतेहिं दोसा, ते चेष वसीकरणमादिपहिं सेपेक्खं परिवाहं तो, थेराणं देसे ओमे-दताण । हिंदोसा, रागारागपदोसपत्थारदोसा य; असिवादिकारणेहि सहनुज चंदगुत्ते, ओमोयरिएण दोव्ववं ॥ वा वसीकरणमादिचुमहिं पिंडं उप्पादेजा । नि० चू १३ १०। चापक पुच्छ एट्टा-बचुन्न दारं पिहित्तु धूमे य । चमपमोला-चूर्णपटोला-स्त्री० । शस्यन्नेदे, प्रा. १ पद । द कुच्छ पसंसा, थेरसभीवे नपालंभो ।। चुसजेय-चूर्णजेद-पुं०।चूर्णभेदे , स्था० १० ठा। . Page #1220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चष्म्य (११५७) अभिधानराजेन्रुः । चुलणीपिया युप्मय-चूर्णक-न । सन्त्रस्ते, चिपा. १७०२ म०। मणोवासयस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमए एगे देवे अंतिनृपवास-चूर्णचास-०। चूर्णलक्षणे घासे, का० १७० ए० पाउन्जए । वए णं से देवे एगं नीलुप्पक्ष जाव असि "अमयबासं च चुपचासंच" आचा०२ भु०३चू०। गहाय चुलणीपियं समणोवासयं एवं बयासी-हंजो चुलचुलिय-चूर्णयित्वा-अव्या चूर्णनं कृत्वेत्यर्थे, प्र०श०१० णीपिया! जहा कामदेवे० जाव न भंजसि तो अहं अज चुधियानेद-चूर्णिकाभेद-पुं० । तिलादिचूर्णषदूजव्यभेदे, भ. जेटपुत्तं सानो गिहाभोणीणेमि १, तब अग्गो घाएमि २, ५ श० ४.०। "से किंतं चुनियाभेदे ।। चुमियाभेदे तमो मंससोझे करेमि, करेमिचा प्रादाणभरियसि कडाहजसं तिलचुखाप वा मुगाचुखाण वा मासचुखाण वा पिप्पली- | पंसि अदहेमि तच गातं मंसेण य सोणिएण य आइच्गमि, चुनाण षा मरियचुशाण वा सिंगवरचुजाण पा चुजियाए भेदे। जहा णं तुम अहवसहे प्रकाले जीवियाभो - भवति सेत्तं चुनियाभेदे । " प्रक्षा• ११ पद । परोवेजसि । तमो चक्षणीपिया समणो० तेणं देवेणं एवं चुम्ब-चुम्ब-धा० । 'चुबि' बत्रसंयोगे, मन्ते “ व्यञ्जना कुत्ते अजीए० जाब विहरइ। तं से देवे चुलणीपियं समर्ण बदन्ते"॥८।४।२३६ । इति मकारः। 'चुम्बा' चुम्बति । अभीयंन्जाव पासइ, पासश्त्ता दोच्चं पि तचं पि चुलणीप्रा०४ पाद । पियं एवं वयासी-इंभो चुतणीपिया! तं चेव जप चुंविवि-चुम्बित्वा-अव्य। 'चुद' चुम्बने । "क्त्व व इवि सो. जाव विहरह । तं से देवे चुनणीपियं भनीयं. अवयः" ॥011 ४३६ ॥ इति इम्यादेशः त्वाप्रत्ययस्थाने। चुम्बितं कृत्वेत्यर्थे, “ रक्खा सा विसहारिणी, ते करचुम्बिधि | जाव पासित्ता भासुरुत्ते०४ चुलणीपियस्स समणोचासयजीड । "प्रा० ४ पाद । स्स जेहपुतं गिहाम्रोणीणे, पीणेइत्ता अग्गो घारइ, चुय-च्युत-त्रि०। कुतोऽप्यनाचारात्स्वपदात्पतिते. शा० १. भग्गयो घाएइत्ता तमो मंससोल्लिने करेइ, करेइत्ता प्रादा मा परिम्रष्टे, आ० म०प्र० । जन्मान्तरं गते, सूत्र० १४० जरियंस कमाइंसि प्रदेडइ, अद्देहइत्ता चुलणीपियस्स १०म० स० कालान्तरेण च्युते, स०। समणोवासयस्स गाय मंसेण य सोणिएण य प्राइंचइ । तर नुयधम्म (ए)-च्युतधर्मन्-त्रि० । धर्मात्प्रचष्टे,व्य०१.१०। एं से चुलणीपिया समणो तं उज्जलं जाव अहियासेइ । चुयसामि-च्युतस्वामिन्-वि० । उत्सनस्वामिके, व्य० २०। वए णं से देवे चुलणीपियं अनीयं० जाव पासइ, पासइचा अक्षणी-चुलनी-स्त्री० । काम्पिल्यपुरे ब्रह्मदसबकवतिनो मासरि, उत्त०१३ भ० । हुपदमहाराजस्य खियाम् , का० १६० दोचं पि तवं पि चुमणीपियं समणोवासयं एवं क्या१६ मातं० । आव० स०। सी-हंभो चुसणीपिया ! अपत्थियपत्थिया० जाव ण मंचलणीपिया-चलनीपित-पुं० । धाराणसीवास्तव्बे स्वनाम- असि तयो अहं अज माफिम पुचं साधो गिहाम्रो व्याते गृहपती, घुलनीपितृनामा गृहपति राणसीनिवासी| पीमि, पीयेमित्ता तव अग्गो घाएमि जहा जेवपुत्र तथैव प्रतिवदः प्रतिपक्षप्रतिमो विमर्शकदेवेन मातरं त्रिखपमा तहेव जण, वहेव करइ, एवं कणीयसं पि० जाव प्रक्रियमाणां रष्ठा कुभितश्चलितप्रतिको देवनिप्रहार्थमुहधाव, हियासेइ । तं से देवे चुनाणीपियं अभीयं० जाव पासइ । पुनः कृतालोचनस्तथैव दिर्घ गत इति वक्तव्यताप्रतिषः ततीये उपासकदशानामध्ययने, स्था.१० ग०। चउत्थं जाव चुक्षणीपियं समणोवासयं स एवं वयासी-हं पतदेष सूत्रकृदाह भोचुलणीपिया! अपस्थिम्पत्थिया०४ जाणं तुमं० जावन सक्खेवो तइयस्स-एवं खलु जंबू ! वेणं कालेणं देणं अंजसि तो अहं अज्ज जाइमा माता जहा सत्यवाही देवसमएषं वापारसीणामं नयरी,कोट्ठए चेहए, जियसत्तू राया | तं गुरुं जणणिं दुक्करदुक्करकारियं तं से साओ गिहामो पाहिए, वत्थ ण वाणारसीए चुलणीपिया णामं गाहावई णीणेमि, णीणे मिचा तव अग्गयो घाएमि, घाएमिचा तो परिवस अड्डे जाव अपरिभूए, सोमा भारिया, महहि- मंससोलए करेमि, करोमिचा प्रादाणजरियसि कमायसि रमकोटीयो णिहाएपचाओ बुदिपवित्थरपत्तानो प्र- प्रदहमि,तब गातं मंसेण य सोणिरण य प्राइंचामि, जहा इन्बया दसपोसाहस्सिएणं वएणं जहा भाणंदो ईसर तुम अदुहह अकाले चेव पवरोविज्जसि । तर गं बाव सन्नकजवावर यावि होत्या,सामी समोसडे, परिसा से चुलषीपिया सावया तेणं देवेणं एवं वृत्चे अभीए० निग्गया, चुलणीपिया वि जहा प्राणंदो वहा निग्गभो, जाय विहरइ। तएणं से देने चुझणीए अजीमं० जाच विहरसहेव गिहिधर्म पमिवज्जइ । गोयमपुच्छा तहेव सेसं माणं पास।चुन्नणीपियं दोचं पि एवं बयासी-इंनो चुलमहाकामदेवस्स० जाव पोसहसालाए। पोसहिए बंभचारी पीपिया ! तहेव० जाव ववरोविज्जसि । तए णं सस्स चुससमणस्स भगवमो महावीरस्स अंनिए धम्मपत्रिं उव- पीपियस्स तेणं देवेणं दोच्चं पि एवं वुत्ते समाणस्स इमेसंपजिला पं विहरइ। तए णं तस्स चुलणीपियस्स स- यारूवेजाव भन्नथिए०४, अहोणं इमे पुरिसे प्रणारिए Jain Education Intemational Page #1221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११०८ ) अभिधानराजेन्द्रः । चुलीपिया अमारियबुद्धी अणारियाई पावाई कम्पाई समाचरए, जेण ममं जेपुत्तं सा गिहाओ जीणेमि, मम अग्गओ घाएइ, घाचा जहा कयं तदा वि चिंतेइ० जाव गायं आइंच, जेणेव मम मतिमं पुत्तं साम्रो गिहाओ० जाव सोयिं आइंच, जेणेव मम कणीयतं पुत्तं साओ गिढ़ाओ तहेव० जाब आईंच, जात्रि य णं इमं मम माता भद्दा सत्यवाही देवतं गुरुं जणि करकारियं तं पिय णं इच्छा, साभोगिहाओ पीलेचा ममं अग्गो घाइत्तए, तं संयं स्व ममं एवं पुरिसंगिएत्तए ति कट्टु उट्ठाति, ते से बि म भागासिए उप्पतिए तेण य खंभे प्रासादिए महया महया सह कोलाइले कए, तर णं सा भद्दा सत्यवाही तं कोलाहलसहं सोचा निसम्म जेणेव क्षणीपिया समणोबासया तेथेब उवागच्छर, उवागच्छत्ता चुनणीपियं एवं बयासी–किं णं पुता ! तुमे मढ्या महया सदेणं कोलाहले कए । तर णं से चुलणीपिया अम्मयं भदं सत्थिवाहिं एवं बाली एवं खलु म्पो न जाणामि के वि पुरिसे प्रासुरुसे०ए एगं महं नीलुप्प० असिं गहाय ममं एवं बयासी-इंजो चुलणीपिया ! अपत्थियपत्थिया० ४ वज्जिया जइ णं तुमं० जब वनरोविज्ञ्जसि, तरणं अहं तेणं देवेां एवं वृत्ते समाणे अजीए० जाव विहरामि । तए ां से देवे मम अभीयं० जाव विहरमाणं पास, पासइत्ता ममं दोचं पि तचं पि एवं क्यासी-हं जो चुलणीपिया ! तब गायं भाईचइ, तर यं श्रहं तं उज्जलं० जा दिया सेमि, एवं तहेव उच्चारेयव्वं सव्वं ० जाव कणीयसं० जाव आईच, अहं तं उज्जनं० जान अहियासेमि । तए से देने ममं अभीयं जाव पास, पासइता ममं चत्यं पि एवं वयासी- इंजो चुलपीपिया ! अपत्थियपत्थिया०जाव न जसि तो ते अज्ज जा इमा माता गुरु० जाव ववरोविजसि, तरणं अहं तेषां देवेणं एवं बुत्ते समाणे भजीए० ர் जाब विहरामि । तर गं से देवे दोच्चं पि तच्च पि ममं एवं बयासी - इंजो चुलणीपिया ! अज्ज०जाव ववरोविज्जसि, तर णं अहं तेषां देवेणं एवं वृत्तस्स समाणस्स इमेवारूवे अभत्थिए अहो पणं इमे पुरिसे प्रणारिए० जाव समायरए जेणं ममं जेपुचं साओ गिहाओ तहेब जाव कणीयसं० जाब आइंच, तुग्भे वि यां इच्छाई साओ गिहाओ० जाव पीता, मम अग्गओ घात्त तं सेयं खलु ममं एयं पुरिसं गिरिहत्तर ति कट्टु उडाति, ते से वि य यागासे उप्पतिते ममए वि य खंजे प्रासादिते महया महया सद्देणं कोलाहले कए, तर णं सा अद्दा चुलणीपियं समणोवासयं एवं बयासी - नो खलु केइ पुरिसे तव० जाव कणीयसं पुत्तं साचो गिहाओ जीणे, णीणेइत्ता तव अग्गओ घाएइ । एस एं केर पुरिसे तव उवसग्गं करे, एस णं तुमे वि दारिसपणे दि For Private चुल्लसयय हे, तर तुमं इयाणिं भगवया जग्गणियमे भग्गपोस हे विहरसि, ते तुमं पुत्ता ! एयरेंस ठाणस्स लोहिन्जाव विज्जेहि । एां से चुझणी पिया समणोवासया अम्माए भद्दा स० तह ति एयम विणणं पमिसुणे, पडिसुइचा तस्स गणस्स भालोएइ० जाब पडिवज्जेइ । तए णं से चुलपिपिवा स०पढमं उवासगपमिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ । पढमं उवासगमहासुतं जहा आणंदो० जान एक्कारस बितर से चु० तेणं उराक्षेणं जहा कामदेवे० जाव सोहम्मे कप्पे सोहम्मदसियस्स महाविमाणस्त उत्तरपुरच्छिमेणं रुपने णामं विमाणे देवत्ताए नवबधे चत्तारिपोमा ठिई महाविदेहे वासे सिज्जिहिं ति० ५ । उपा० ३ ० ॥ चुलसी - चतुरशीति - श्री० । बतुरधिकायामशतौ, जं० २ चक०स०| प्रका० प्रा० । चुलसीइसमज्जिय-चतुरशीतिसमर्जित- त्रि०। एकत्र समये समुस्पद्यमानानां येषां राशिः चतुरशीतिसमर्जितः स्यात् तेषु नैरयिकादिषु भ० २० श० १० उ० । उपा० ( राघवाय 'शब्दे द्वितीयभागे ९१५ पृष्ठे उक्तं चैतत् ) चुलसीय - चतुरशीत - त्रि । चतुरशीत्यधिके, “खुलसीयं मंलसतं चरति " सू० प्र० १ पाहु० । चुलुक्क - चुलुक्य- पुं० [ कत्रियकुलविशेषे, यस्मिन् सिकराजाय आसन्, कुमारपाक्षराज आसीत् । " अहो चौसुक्यपुत्रीणां साहसं जगतोऽधिकम् । पत्युमृत्यो विशन्त्यग्निं, या प्रेमरहिता अपि " ॥ १॥ स्था० ४ ठा० २ ० | चुलचुम्न - स्पन्द - घा० । किश्चिचलने, “ रूपन्देश्चुतचुतः " ॥ ८ ४ । १२७ ॥ इति रूपदेश्चुलचुलादेशः । “चुलबुल" स्पन्दते । प्रा० ४ पाद । चुल्ल - कुछ - त्रि० | महदपेक्षया लघौ, स्था० २ ० ४ ४० ॥ चुल्लकप्पसूय-तुझकन्पश्रुत- न० । अल्पप्रन्ये, अल्पार्थे च विरादिकम्पप्रतिपादके तत्कालिकते, नं० । चुनग - देशी- भोजने, मनुष्यत्वलाभे सुलग (भोजन) दृष्टान्तः प्रा० क० । चुलपिङ - कुपितृ-पुं० । लघुपितरि, दिपा ० १ ० ३ अ० । "अजय पज्जय था वि, वप्पो चुम्लपिङ, चि य" । दश०७ अ० चुल्लमाडया-कृद्रमातृका - स्त्री० । सघुमातरि, नि० १ वर्ग । " कूणियस्स रम्पो खुल्लमाख्या " अन्त० छ वर्ग । ज्ञा० । चुलसयय - कुत्रशतक- पुं० । महाशतकापेक्षया लघुः शतकश्चुचशतकः । स्वनामस्याते गृहपतौ स चाऽलम्भिकामिधाननगरनिवासिदेवेनोपसर्गकारिणा अन्यमुपन्हियमाणमुपलभ्य चलितप्रतिकः पुनर्निरतिचारः सन् दिवमगमदिति यथा तथा यत्राभिधीयते तस्मिन् उपासकदशानां चतुर्थोऽध्ययने, स्था० १० ग० । Personal Use Only Page #1222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुनहिमवंत (११ ) चुझसयय अनिधानराजेन्द्रः। एवं खलु जंबू । तेणें कालेणं तेणं समएणं वाणा-] बासे सिन्फिहिंति ५ (नपा० ४ ० ) एवं खल्लु रसीए एयरीए कोहए चेइए, जियसत्तू राया , मुरादेवगा- जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं आलहिया णयरी, हाई अले दित्ते हिरमकोडीभो णिहाणपत्नाप्रो० जाच संखवणे नजाणे, जियसत्तू राया, चुबसयए गाहावई नव्वया दसगोसाहस्सिएणं वएणं,धमा जारिया,सामी समो. अकेल जाव छ हिरमकोमीयो० जाव उव्वया दसगोसढो, जहा भाणंदो तहेच पमिवज्जइ गिहिषम्यं,जहा काम- साहस्सिएणं वएणं, बहुला नारिया, सामी समोसढो, देवो जाव समणस्स जगपभो महावीरस्स पयत्तिं नव- जहा माणंदो तहा गिहिधम्म पस्विजर, सेसं जहा संपज्जित्ताणं विहरइ। तए णं तस्स मुरादेवस्स समणोवा- कामदेवे जाव धम्मपत्तिं उवसंपज्जित्ता विहरइ, पुन्वरचावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अंतियं पाउ- तए तस्स चुनसयगस्स पुव्वरत्वावरत्तकाले एगे म्भवित्था । से देवे एगं महं नीलप्पल जाव प्रसि देवेतियं० जाव भसिं गहाय एवं वयासी-हंजोचुवस! गहाय मुरादेवं समणोवासयं एवं बयासी-हंभोमुरादेवा! जाव ण जंजसि तो अज जेट्टपुत्तं गिहाओ प्रपत्थियपस्थिया ४ जपं तुम सीलाइ० जाव न णीमि एवं जहा चुलणीपियं; एवरं एकेकसत्तमंससोजंजसि तओ जेहपुनं साओ गिहाओ जीणेमि , वव - सयाज्जाव कणीयसंग्जाव आइंचामि ; तए णं से चुने ग्गमो पाएमि , एवं मंससोचए करोमि । आयाणरियं- जाव विहरइ । तए पं से देवे चुन्नस्स चउत्थं पि एवं सि कडाहगंसि अदहेमि, प्रदमित्ता तव गायं मंसेण य | बयासी-इंलो चुन! जान न भंजसि तो ते अज्ज सोणिएण य आइंचामि , जहा गं तुमं अकाले जाव इमाओ 3 हिराकोमीओ णिहाणपत्ताओ क वकिल बबरोविज्जसि। एवं मजिकमयं कणीयसं एकेके पंच सोदया | उपवित्थरपत्ताश्रो तानो साओ गिहाअोणीयेमि, जीणेवढेव करेश जहा चुनणीपियस्स, नवरं एकेके पंच सोखया। मिचा पालहियाए पयरीए सिंघामग०जाव पहेसु सव्वओ तए से देवे सुरादेवं चउत्थं पि एवं वयासी-डंभो सुरा०! | समंता विप्पारामि,जहा णं तुमं अनुहट्ट० अकाले जीअपत्थियपत्थिया जाव न परिजसि तओ ते मज | विवाभो ववरोविज्जसि । तए णं से चुनसए तेणं देवेणं सरीरस्स जमगसमगमेव सोलसरोगायंके पक्खिकामि । तं एवं वुत्ते समाणे अभीए० जाव विहर । तए से देवे महा-सासे कासे० जाव कोडे, जहा णं तुमं अट्टाह० जाव चुलस० अनीयं० जाव पासित्ता दोच्चं पि तच्चं पि एवं बवरोविज्जसि । तमो से सुराजाव विहरह, एवं देवो दोचं वृत्ते तहेव० माव ववरोविज्जसि । तए णं तस्स चुनसएपि तचं पि जण० जाव ववरारिजसि । तए णं तस्स णं देवेषं दोच्च पि तच्चं पि एवं वुत्तस्स अयमेयारूचे मुरादेषस्स तेणं देवेणं दोचं पि तच्चं पि एवं वुत्तस्स अन्भस्थिए । अहो णं इमे पुरिसे अणारिए, जहा चुलसमाणस्स इमेयारूवे अन्न. अहोणं इमे पुरिसे भ- पीपिया तहा चिंतेजाव कणीयसंजाव आईचइ । जापारिएन्जाव समारयह जेणं ममंजेपु० जाव कणीयसं० श्रो विय णं इमामो ममं उ हिरमकोमीणिहाणपत्ताओ नाव भाईचइ,जे वि यमे सोमस रोगायंका ते विय इच वक्लिक पवित्थरपचाओ तामओ वि य णं इच्छेइ मर्म मम सरीरगंसि पक्विवित्तपत सेयं खलु मम एवं परिसं सामो गिहारो णीणित्ता अालहियाए णयरीए सिंघागिरिहत्तए तिकडु नहाएइ,से वियागासे उप्पतिते तेण मग० जाब विपरित्तएत सेयं खलु मम एवं पुरिसं य खंभासाइए,महया महया सद्देणं कोलाहले कए,तएणं गिएिहत्तए त्ति का नहाइए जहा सुरादेवे तहेव भारिसाधनाजारिया कोलाहलं सुच्चानिसम्म जेणेव मुरादेवे सम. या पुच्छइ, तहेव कहे, सेसं जहा चुनणीपियस्स० जाव पोवासए तेणेव उवागच्च, उवागच्छइचा एवं वयासी-किंमं सोहम्मे कप्पे अरुणसिके विमाणे उ. विश्सेसं साव देवाणप्पिया तुन्भे एं महया सद्देणं कोलाहलेकर? तर जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिंति । नपा० ५ अ०। पं से मुरादेवे धर्म भारियं एवं बयासी-एवं खलु देवा- चुदाहिमवंत-शुहिमवत्-त्रि० । महदपेक्षया मधुर्हिमवान् चु. शुप्पिया! केवि पुरिसे तहेव कहा जहा चुमणिप्पिया धन्ना हिमवान् । स्था०२ ठा० ३ उ० । वर्षधरपर्वतभेदे , स्था० वि पटिजण जाव कणीयसं णो खलु देवा! तुज के ७० स०। सच क्व कियन्मान श्त्याहपुरिसे सरीरंसि जमगसमगं सोमसरोगायके पक्खिवइ, एस कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मुन्नहिमवंते णाम वासहरपणं के वि पुरिसे तुम्भ नबसग्गं करेइ । सेसं जहा चुल- ब्वए पलत्ते । गोयमा! हेमवयस्स वासस्स दाहिणेणं जरहस्स बीपियस्स भदा भणइ बिरवसेसं० जाव सोहम्मे कप्पे वासस्स उत्तरेणं पुरच्छिमलवणसमुदस्स पच्चच्छिमेणं अरुणकंते विमाणे चत्वारि पलिअोवपाई विर्थ महानिदेहे। पञ्चच्छिमलवणसमुहस्स पुरच्छिपेणं एत्थ णं जंबुद्दीचे दीवे Page #1223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुहिमवंत अनिधानराजेन्द्रः। चुमहिमवैत जुदाहिमवंते णामं वासहरपन्चए पएणत्ते,पाईणपमीणायए देशस्तत् स्वस्वजीवापेकवा स्वस्वधनुःपृष्ठस्य यथोकमानतो. उदीणदाहिणविस्थिएणे हा लवणसमुदं पुढे पुरच्छिमिया पपत्यर्थम , अन्यथा न्यूनाधिकमानसंनयात् । ए कोडीए पुरच्गिमिवं लवणसमुई पुढे पच्चच्छिामिनाए मथ पर्वतं विशेषणैर्विशिनष्टिकोमीए पच्चच्चिमिवं सवणसमुदं पुढे एगं जोधणसयं रुअगसंगणसंठिए सव्वकणगामए अच्छे सएहे एडे उठं नच्चत्तेणं पणवीसं जोमणाई उन्हेणं एगं जोमण सहेव० जाव पामरूवे उनो पासिं दोहिं पउमवरवश्यादि सहस्सं वावणं च जोप्रणाई दुवालस य एगणवीसभाए दोहिं भवपसंडेहिं संपरिक्खित्त दुएह विमाणं वनगो त्ति । "अग" इत्यादि । रुचकसंस्थानसंस्थितः सर्वकनकमय जोअणस्स विक्खंनेणं ति तस्स तस्स वाहा पुरच्छिम इत्यादि प्राम्बत, नवरं द्वयोरपि पनवरवेदिकावनखएषयोः पच्चच्छिमेणं पंच जोअणसहस्साई तिमि अप्पणासे नो- प्रमाणं वर्णकम कातव्य इति शेषः। मणसए परस्स य एगणवीसभाए जोमणस्स अफ अथास्य शिखरस्वरूपमाहजागंच आयामेणं तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपीणायए. चुनहिमनंतस्स वासहरपन्चयस्स नवरिं बहुसमरमाणजे जाव पच्चच्छिमिवाए कोडीए पच्चच्छिमिळू लवणसमुई भूमिभागे पयत्ते से जहाणामए प्रालिंगपुक्खरेइ वा०जाव पुठ्ठा चउन्नीसं जोअणसहस्साई एव य वचीसए जोन- बहवे वाणमंतरा देवा य देवीक अप्रासयंति० नाव णसए अचभागं च किंचि विसेसूणा आयामेण पसत्ता ।। विहरंति ॥ क्वनदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे तुलाखो वा महाहिमवदपेकया "धुल्लहिमवंत" इत्यादि प्राग् व्याख्याताथै, नवरं बहुसमत्वं लघुहिमवान तुरुहिमवान् नाम नाम्ना वर्षधरपर्वतः प्रसप्तः । चात्र नदीस्थानादन्यत्र केयम् । अन्यथा नदीस्रोतसा संसरणवर्षे उन्नयपार्श्वस्यिते वे केत्रे धरतीति वर्षधरः, क्षेत्रवयसीमा- मेव न स्यात् । कारी गिरिरित्यर्थः। स चासौ पर्वतश्चवर्षधरपर्वतः, माक्यात अर्थतन्मध्यवरिंद्रदस्वरूपनिरूपणमाहस्तीर्यद्भिरिति , शेष सुगम, नवरमेकयोजनशतमोखत्वेन तस्स पण बहुसमरमणिजस्स भूमिनागस्स बहुमज्भदेसभापञ्चविंशतियोजनानि उद्वेधन भूगतत्वेन, उच्चत्वचतुर्थनागस्यैष पुगतत्वात, एकं योजनसहन, विपञ्चाशच योजनानि , द्वादश ए, इस्थ णं इके महं पउमदहे णाम दहे पयत्ते,पाईणपमीवैकोनविंशतिभागान योजनस्य विष्कम्नेण । अस्योपपत्तिस्तु- णायए उदीपदाहिणवित्थिएणे कं जोअणसहस्सं आयाद्विगुणितजम्बूद्वीपम्याससंख्यं, तस्य नवत्यधिकशतेन नागहर- मेणं पंच जोपसयाई विखंभेणं दस जोअणाई उव्वेहे. पेन भवति, क्षुद्रहिमवतो भरताद द्विगुणत्वात् । अत्र च करणवि. गं अच्छे सपढे रययामयकले जाव पासाइए. जाव धिर्भरतवर्षावष्कम्भ श्व शेयः। अथास्य पाहे माह-"तस्स पमिरूवे०४। पाहा" इत्यादि । तस्य छुद्राहिमवते वाहे प्रत्येकं पूर्वपश्चिमयोः पक्ष योजनसहस्राणि, श्रीणि च योजनशतानि पञ्चाशद- | "तस्स" इत्यादि । तस्य क्षुहिमवतो बहुसमरमणीय धिकानि, पञ्चदशयोजनस्टकोनविंशतिनागान् एकस्य योज- | स्य भूमिज़ागस्य बहुमध्यदेशनागे अत्राऽवकाशे एको महान् मैकोनविंशतितमभागस्याई च यावदायामे प्राप्ते । सूत्रे पाकहो नाम कहः पाहदो नाम हृदो चा प्राप्तः, पूर्वापरायत च वचनव्यत्ययःप्राकृतत्वात् । स्थापना यथा-योजन ३५५० पत्तरदकिणविस्ती एक योजनसहनमायामेन पश्च योजनकला १५मस्य व्यायानं वैतात्याधिकारसूत्रतो केबम, शतानि विष्कम्भेण दश योजनान्युधेन व्यत्वेन, अच्छोऽनाप्रायःसमसूत्रत्वाद । अथैतस्य जीयामाह-" तस्य जीषा" विलजलत्वात श्लपण सारवजादिमयत्वाव, रजतमयकूल इति इत्यादि । तस्य भुहिमबतो जीवा उत्तरतो बराचीनप्र- व्यक्तम् । जं०४ वक्षापं०व०। तीचीनायता "जाव पच्चचिमिचाए"इत्यादिप्राग्वत, याव सेणं एगाए पउमवरवेइमाए एगण यषणसंमेण प स्पदा-"पुरचिमिठाए कोमीप पुरनिमिझनवणसमुदं पुढार ति" माह्यम् । आयामेन चतुर्विशतियोजनसहस्राणि नवद्वा. सन्चो समंता संपरिक्खित्ते वेइआवणसंम्वमओ नाणिविशदधिकानि योजनशतानि अमागंच कलाई प्रकप्ता, कि- पन्चो, तस्स गं पउमद्दहस्स चउहिसिं चचारीति सोवाणशिविशेषोना किशिदूना इत्यर्थः किचिदनत्वं चास्था भानय- पमिरूवगा पत्ता, वडावासो जाणिभन्यो,सिणं ति सो माय वर्गमूले कुते शेषोपरितनराश्यपेक्षया द्रव्यम । पाणपमिरूवगाणं पुरओ अपचे पत्ते तोरणा पमचा, प्रथास्याः परिधिमाद तेणं तोरणा जाणामधिमया, तस्स णं पउमदहस्स बहुमतीसे घणपिढेदाहिणेणं पणवीसं जोश्रणसहस्साई दोषि जदेसभाए पत्थ णं महं एगे पउमे पक्षचे, जोअणं प्रायाभतिसजोअणसए चत्वारि अएगणवीसइजाए जोपस्म मविक्खंभेणं अकजोअणं बाहोणं दस जोप्रणाइंउन्हेणं परिक्खेवणं पसते ॥ "तीसे" इत्यादि । तस्याः सुइहिमवञ्जीवावाः धनुःपृष्ठं दो कास असिए जलंताओ सारेगाई दस जोमणाई दक्षिणतो दक्षिणपाधै पञ्चविंशतियोजनसहस्राणि, वेचत्रिंश सम्बगो णं पष्मता॥ वधिक योजनशते,चतुरच एकोनविंशतिभागान योजनस्य परि- "से गं" इत्यादि।स पदह याचत पदापरवेदिकाया केपेण परिधिना प्राप्तम् । यात्र"तीसे"इति शम्देनजीवानि-। एकनवधनखएन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः,वेदिकावनक Page #1224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२०१) अभिधानराजेन्द्रः । चुल्लहिमवंत । एमको प्रणिता प्राम्यदित्यर्थः " तस्स " इत्यादि व्यक्तम् । " तेसि णं " इत्यादि सर्वे प्राग्वत्, नबरं ( णाणामसिम (स) वर्णकैकदेशेन पूर्णस्तोरणचर्यको प्रायः अचान पद्मस्वरूपमाह - " तस्स णं " इत्यादि । तस्य पद्महस्य बहुमध्यदेशमागे अत्रान्तरे मदेकं पद्मं प्रप्तम् एकं योजनमायामतो, विष्कम्भतश्च योजनं, बाल्येन पिएमेन दश योजनान्युद्वेधेन जलावगान द्वौ क्रोशा बुच्छ्रितं जलान्ताज्जल पर्यन्तात् एवं सातिरेकाणि दश योजनानि सर्वाण प्रहशानि, जलायगादोपरितनभावत्ककम समानमीलने यतायतामेव संभवात् । से पगार जगई सभ्य समता संपरिक्खिते - दीवजगष्यमाणा गणकट वि तह चैव पमाणं ॥ 'सेणं' इत्यादि । तत्पद्ममेकया जगत्या प्राकारक रूपया सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तं, सा च जगती जम्बूद्वीप जगती प्रमाणा यदितया एतच प्रमाणं अपरिहार्य योजनात्मकजलावगादप्रमाणस्याऽविवचितत्वात् । गवाक्षकटकोऽपि जासमूहोऽपि तथैव प्रमाणेनोकत्वेनार्ययोजनपञ्चाधनुःशतानि विष्कम्भेणेत्यर्थः । अथ पद्मवर्णकमाह तरस णं प मस्स अयमेारूवे मावा से पत्ते । तंजडा-रामया सूझा, रिहाए कंदे, वेरुलिआमए वाले, पेरूलियामा बाहिरपत्ता, जंबूनपमया अन्जितरपत्ता, तवजिमया केसरा, हाणामधिमया पोक्खरच्छिसया कगमई कविगा, साणं अजोभणं प्रायामविकरवंजेणं, कोर्स वाढणं सम्यकणगामई अच्छा, तीसे कलिए उप बहुसमरमखिज्जजूमिनागे पाते, से जहा शाम लिंग तस्वयं बहुसमरम राजस्व नू मिभागस्स बहुमदेसभाए एत्य यं मई एगे भवणे प छात्ते, कोसं श्रायामेणं, अरूकोसं विक्खंभेणं, देसू गं को सं उ उचचेणं भोगखंजसपसपिवि० जाव पासाद रसणिज्जे ४ तस्स णं जवणस्स तिदिसिं तत्र दारा पछाता, ते णं दारा पंचधणुसयाई उठ्ठे, अड्डाइज्जाई घणुसयाई विक्खंभेणं, तावति चेव पवेसेण, से आावरकणगधूभिभंगा० जाव णमालामो अन्नाओ, तस्स जमण स तो बहुसमरमणिश्ने भूमिभागे पद्यते से जहानाआलिंग तस्स एां बहुमज्झदेसनाए एत्यं महईए गामणिपेढ पणत्ता, सा गं मणिपेढिया पंचधणुसयाई श्रायामविवखंनेणं अड्डाइज्जाई धणुमयाई बाहुलेणं सव्यमणिमई अच्छा, तीसे णं मणिपेडिभाए पिएत्य महंगे सयणिज्जे पत्ते, सयज्ञ्जिवएणश्रो भापिन्वो ॥ ( तस्स चि) तस्य पद्मस्थायमेतरूपवर्णन्यासः प्रकृतः। तयथा वज्रमयानि मूलानि कन्द्रादधस्तिनितजटासमूहावयवरूपाणि, अरिष्टरत्नमयः कन्दो मूलनालमभ्यवर्त्ती प्रन्थिः, बैर्षमा परि मध्यवयवयः, वे सूर्यमानि बाह्य ३०१ चुल्लहिमवंत त्राणि । अत्राऽयं विशेषो बृहत् क्षेत्र विचारवत्यादी बाह्यानि चत्वारि पत्राणि वैडूर्यमयाणि, शेषाणि रक्तसुवर्णमयानि जाम्बूनदमी स्वर्ण सम्मयानि अभ्यन्तरपत्राणि, सि. रिनिलयमिति क्षेत्रविधारी तु पीतस्वर्णमानित पनीयमयानि रक्तस्वर्णमयानि, केसरकर्णिकायाः परितोऽब यवाः नानामणिमयाः पुष्करास्थिभागाः कमलवीजविभागाः, कनकमया कर्णिका बीजकोशः । अथ किंकामानाद्याइ - " साणं " इत्यादि । सा कर्णिका अयोजनमाषामेन, विजेण च क्रोश, बाद्दल्येन पिएमेन सर्वात्मना कनकमयी, प्रत कनकमयानि पूर्वापरविशेषाम्बवयवविभागेऽपि कन कमयत्वं स्यादित्याशङ्का निरस्ता" अच्छा " इत्येकदेशेन 'सपदाइ " इत्यादि पदान्यपि ज्ञेयानि । तेषां व्याक्या च प्राचत् । "तीसे एं" इत्यादि । एतानि सर्वाण्यपि निगदसिकानि । शयनीयवर्णकचायं जीवाभिगमोक्त:- "तस्स णं देवसवणिजस्स अयमेरूवे वसावासे पठन्ते । तं जहा णाणामणिपडियाया सोविना पाया जाणामणिमयाई पायसासगाई जंबूणयमबाई गत्ताई वहरामया संधी णाणामणिमए विबे रययामई मी लोहिया वियोणारं तणिज्जमांड मोचहाणिया इति णं सयणजे सालिंगण व भविष्यो अणे उनओ उपण मज्भे गए गंजीरे गंगापुलिनवालुआउदाआई गरु लसाहिसर उपभोगुपपडिय अचूरणीयलफासे सुर म्मे पासादी कर ति” । अत्र व्याख्या तस्य देवशयनीयस्यायमेतद्वो वर्षण्यासः प्रइतः तद्यथा नानामणिमयाः प्रतिपादाः 64 पादानप्रति विशिष्टोपसम्भकरणाय पादा प्रतिपादाः सीकामयाः पादा मूलपादाः, जाम्बूनदमयानि दिनमा बज्ररत्नपूरिताः सन्धयः नानामणिम विश्वे इति ) विश्वं नाम व्यूतं, विशिष्टं वातमित्यर्थः । रजतमया तूझी, लोहितासमयानि (विवाह) उपधानानि उच्छीकाणीति यावत्, तपनीयमय्यो गमोपधानिकाः, गल्लमसुरकाणीत्यर्थः । तपनीयं सह श्रालिङ्गनवर्षा शरीरप्रमाणेनोपधानेन यत् तत्तथा । उन्नयत उज्जैौ शिरोऽन्तपादान्तावाधित्य "बिव्वोणे" उपधाने यत्र तत्तथा, उजयत उन्नतं मध्ये नतं च तत् नम्रत्वात् गम्भीरं च महत्वात् तवथा, गङ्गापुलिनवालुकाया अवदालो विदलनं पादादिन्यासे अधोगमनमिति तेन सा (सानिस ति ) सदृशकं तथा ( उग्रवित्ति) विशिष्ट परिकर्मित की कार्यासिकं तदेव पट्टस प्रतिच्छा दनमाच्छादनं यस्य तथा। " श्रईणग" इत्यादि प्राग्वत् । सुविरचितं रजस्त्राणमाच्छादन विशेषोऽपरिनोगावस्थवा पत्र तथा [रांशुकेनराशादिनिवारणार्थकमा गृहानिधानविशेषेण संयुतमत व सुरम्यम, "पासादयइत्यादि पदचतुष्कं प्राम्यत् । अथास्य प्रथमपरिक्षेपमाह से णं परमे अण अमण पमाणं तदयुत्तप्यमाणमिचाणं सभी समता संपरिवखचे ते पत्रमा अ जोअणं श्रयामविक्खंभेणं, कोसं बालेषणं, दस जो प्रणा उd, कोसं ऊसा जयंता साइरेगाई दस जोनथाई उच्चर्ण सेसि परमार्थ अयमेारूने बावासे पचे नारायणा मूला नाथ कयागामई क वं Page #1225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२०२ ) अभिधानराजेन्द्रः । हिमवंत लिआ सा णं कमिया को आयामेणं, अद्धकोसं बाहृणं सन्त्रकणगामई अच्छा, बीसे णं करिश्राए उपि बहुसमरमाथि जे० जाव मणी उपसोजिए। तस्स णं पढमस्स अपरूतरे उत्तरपुर मे एत्य सिरी देवीए चलएई सामाथि प्रसादस्सी बनारि परमसाहस्सीचो पछ तस्मणं परसपुर मेणं एत्य णं सिरी देवी चरए महत्तरिमाणं चत्तारि पठमा पएाचा तस्स णं पक्षमस्व दाहिणपुरच्छिमेणं एत्य णं सिरीए देवीए अजितारआर परिसाए अट्टएडं देवसाहस्सी अपरमसाहसीओ पछताओ दाहिनेणं मज्जिमपरिसाए दसह देवसाहस्सीणं दस परमसाहस्सियो पत्ताओ, दाहिणपचछिमे बाहिरिए परिसाए वारसएवं देवसाहस्सीणं पारसए पचमसाइस्सी भोपात्ताओ। पञ्चच्छिमेणं सचएवं मणिहिणं सत्त पक्षमा पत्ता पत्रमस्स चउद्दिसिं सब समंता इत्य णं सिरीए देवीए सोलसए आयरक्खदेवसा इस्सी सोलम पडमाइस्सीश्रो पत्ता । से णं परमवरपरिक्खेवेहिं सव्वओो समता परिविखने। तं जहा अतिरके मज्जिमपूर्ण बाहिरए तिरपनम परिक्खेवे बत्तीसं पउमसयसाहस्सीओ पत्ता, मज्जिमए पलमपरिक्खेवे चत्तालीसं पनमसयसाहसीओ पणताओ। बाहिरए पउमपरिक्खेवे भवालीसंप मसय साहसीओ पहणताओ । एवामेव सपुन्नावरेणं तिहिं पउमपरिक्खेवेहिं एगा पउमकोमी वीसं च पउमसयसादस्सीय भतीति अक्खायं ।। 9 " " से "दिपद्ममवेनातेनान स्वप्रमाद्यमात्राणां तस्य मूलपद्मप्रमाणस्यार्द्धमईरूपा उच्यत्वे त्यो प्रमाणे चायामविस्तारबाहल्यरूपे मात्रं प्रमाणं येषां तानि तथा तेषां सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तम् । अत्र जम्बोपरितनभागे उच्चत्वस्य व्यवहारप्राप्तस्य विवकपादप्रमाणे संभवत्यन्यथा जलावगाह सहितोषि शायामुतरसूत्रे सातिरेकं पञ्च योजनानि इति वच वक्तव्यं स्यात्, सामान्यत चतमेव मानं व्यनक्ति-"तेणं" इत्यादि प्रा युक्तप्रायम् । एषां वर्णकमाह-"तेसि णं" इत्यादि व्यक्तम् । "सा णं" इत्यादि इदमपि व्यक्तम् । " तीसे णं " इत्यादि व्यक्तम् । एषु च श्रीदेव्या भूषणादिवस्तूनि तिष्ठन्ति इति सूत्रानुक्तोऽपि विशेषो बोध्यः ॥ अथ द्वितीयपद्मपरिक्षेपमाह-" तस्स णं " इत्यादि । तस्य मूलपद्मस्यापरो तरस्यां वायव्यकोणेत्तरस्याः उत्तरपूर्वस्यामीशानकोणे च सर्वसंकलनया दि शान्तरे श्रिया देण्याची सामानिकसहस्रारिपतस्य पद्मस्य पूर्वस्यां दिशि अ सूर्या महतरिकायां चाचारि पद्मानि महानिि तविजयदेवसिंहासनपरिवारानुसारेण पार्षद्यादिपद्मसूत्राणि बक्तव्यानि सुगमत्वाच्च न वित्रियन्ते, यावत्पश्चिमायां सप्तानीकाधिपतीनां सप्त पद्मानि ॥ श्रत्र तृतीयपद्मपरिक्षेप समय:-"तस्स हिमवंत णं" इत्यादि । तस्य मुख्यपद्मस्य चतसृणां दिशां समाहारश्चतु र्दिक्, तस्मिन् चतुर्दिथि, सर्वतः समन्तात्, अत्रान्तरे श्रिया देव्याः पोमशानामात्म रक्षक देवसदस्यासां पोरापस्राणि तचादि चत्वारि पूर्वस्यां चत्वारि दक्षिणस्याम एवं पश्चिमो तरयोः । अथोक्तव्यतिरिक्ता अन्येऽपि त्रयः परिवेषाः सन्तीस्वाद" से यं पड़ने" इत्यादि। सत्यं विनिव्यतिरिकैः पद्मपर समन्तात् संपरिक्षित तथा अभ्यन्तरकेणाभ्यस्तरभवेन, मध्यप्रचेन, बाहिर बहिर्भवेनदेनक च्यन्तरपद्मपरिकेपे द्वात्रिंशत्पद्मानां शतसहस्राणि लकाणि, मयमके चत्वारिंशत्याला बाधेच वारिपाणि " सादिं च पद्मपरिक्षेपत्रिकम अभियोग देवसंधि बोध्यम् अत एव निधिक यापनपरं निर्दिष्टम अन्यथा सूषकृत चतुर्थपञ्चमपरिशेषा इत्येया कथयिष्यत मनु तर्हि आजियोगिकजातानामेक एवात्मरक्षकाणामिव वाच्यम् । उच्यते-उच्चमध्यम कार्यनियोज्यायेनानियोगिकानां जनप रिक्षेपस्यापि भिनत्वात् । अथ परिक्षेपत्रिकस्य पद्मसर्वाप्रमा" चामेव" इत्यादि । एवमेवोन्वायेन सपूर्वापरेण पू व परसमुदायेन त्रित्रिः पद्मपरिक्कपैरका पद्मकोटी विंशतिश्च प झलक्षाणि नवन्तीत्याख्यातं मयाऽन्यैश्व तीर्थकुङ्गिः । संख्यानयनं व स्वयमभ्युम, पां पद्मपरिक्षेप्राणां मुख्यपद्येन सह मीलने सैव संख्या पञ्चासत्सहस्नैकशतविंशत्यधिका शातव्या स्थापना यथा-५०१२० कमलानि कमलिन्याः पुष्परूपाणि भवन्ति " मूलं कन्दश्ध कमलिन्या एव भवतः, न तु कमलस्य तत् कथमत्र मूलकन्दाकौ ? । उच्यते-कमलान्यत्र न वनस्पतिपरिणामानि, किंतु पृथव कायपरिणामरूपाणि, कमलाकारकाणामेतेपामिन विकाविति अत्राद्यपरिपनांमुखपद्मादर्द्धमा नं सूत्रकृता साक्षादुक्तम्, उत्तरोत्तरपरिक्केपपथानां तु पूर्वपूर्वपरिक्षेपपज्योऽर्द्धा मानता युक्तितः संगच्छते देवप्रासाद क्लैरिव, अन्यथाऽपर्किकमहर्षिदेवानामाश्रपतारतम्यं चतु थीदिमदा परिक्षेपपद्मानामवकाशः, शोभमानस्थितिकत्वं च न संभवेयुः मानता चैव मूलपचं योजनाप्रमाणम आये परिक्षेपे पद्मानि द्विकोशमानानि द्वितीये फोशमानानि तृतीयेऽकोशमानानि चतुर्थे चतुःशतमानानि प विधनुर्मानानि पानानि तथा मूलपा पेया सर्वपरिक्षेपेषु जादुष्प नागोऽध्यर्द्धक्रमेण शेषः व या सूत्रपद्ये जलात् कोषमा परिक्षेपकोश यः, द्वितीये क्रोशा, तृतीये क्रोशचतुर्थीशः, चतुर्थे क्रोशाष्टांशः, पञ्चमे क्रोशपोशांशः, षष्ठे क्रोशात्रिंशांश इति । एवमेव मूलपद्मापेक्षया पद्मानां बाहस्यमध्यकर्कक्रमेण वाच्यं ननु षट्परिकेपा इति विचार्य, योजनात्मना सहस्त्रत्रयात्मकस्य धनुरा त्मनाद्विकोटिद्विचत्वारिंशद्धकप्रमाणस्य षहपरमपरिधेः षष्ठपरिपपद्मानां षष्टिकोटिधनुः क्षेत्रमायतानाम् एकया पङ्कया कथ मवकाशः संभवति ?, एवं प्रथमपरिक्षेपवर्जे शेषपरिक्के पाणामपि तसत्परिधिमाने पद्ममानं परिभाव्य वाच्यम् । उच्यते-षट्परिक्केपा इत्यत्र षट्जातीयाः परिकेपा इति प्राह्यम् । श्रद्या मूलपद्माईमाना जातिः, द्वितीया तत्पादमाना, तृतीया तदष्टमनागमाना, चतुर्था तत्पोमशभागमाना, पञ्चमी तद्वात्रिंशसमभागमाना, षष्ठी तच्चतुःषष्टितमभागमाना । ततश्च तत्परिधि क्षेत्र परिक्षेपपसंख्यापद्मविस्तारान् परिभावय-यत्र यावत्यः पयः संभवम्ति गणितज्ञेन करणयोस्तत्र तावतीभिः पङ्क्तिभिरेक एव परि · Page #1226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०३) चुहिमवंत अभिधानराजेन्द्रः। चुबहिमवंतकूड केपो शेयः, पानामेकजातीयत्वाताकिमुक्तं भवति ?-महापरियोजनमर्यादयैव कर्तव्या, ततः परं ध्याससत्कपञ्चशतयोजनाक्षेप एकया पतचा न समानि,हपरिधिवेत्रस्याल्पत्वात्,पमानां | नां पर्षपसितत्वात् शोभमानाश्चोकरीत्यैव नबन्तीति । किं चच बहुत्वात्, ततः पङ्किनिः पनानि पूरणीयानि, एवं परिकेपः मानि पद्मानि शाश्वतानि पार्थिवपरिणामरूपत्वात,वानस्पतापूर्यो भवति, सहपरिधेश्व प्रतिपरिक्षेपं भिन्नमानकत्वात स न्यपि बहुनि तत्रोत्पद्यन्ते । यदाहुः श्रीउमास्वातिवाचकपादाः पद्मपरिक्केपो प्रिन्न एव लक्ष्यते इति । न च द्रहकेत्रस्याल्पमिति स्वोपजम्बूद्वीपसमासप्रकरणे-नीलोत्पलपुएमरीकशतपत्रसौवाच्यम,अत्र गणितपदक्षेत्रस्य पश्चलक्षयोजनप्रमाणत्वात्, सह- गन्धिकादिपुष्पार्चित इति । अन्यथा श्रीवज्रस्वामिपादाः श्रीनयोजनप्रमाणायामस्य पश्चशतयोजनविष्कम्नेण गुणने एता. देवतासमपितानुपमे महापद्मानयनेन पुरिकापुर्य्या कथं जिनवतामेव लाभात , पद्यावगाढकेत्रं तु सर्वसंख्यया विंशतिः स- प्रवचनप्रभावनामकार्षुरिति ?, एतानि च शाश्वतानि, तत्रत्यश्रीइस्राणि पञ्चाधिकानि योजनानां,षोडश्वभागीकृतस्यैकस्य योज- देवतादिभिरवचीयमानत्वात् । यदचः श्रीहेमचन्द्रसरयः स्वोनस्य त्रयोदश भागाः२००५ है । तथाहि-मूलपद्मावगाहो यो- पकपरिशिष्ठपर्वणि-"तदा च देवपूजार्थ-मवचित्यकमम्बुजम् । जनमेकं, जगती च द्वादशयोजनानि मूखे पृथुरिति जगती पूर्वा. श्रीदेव्या देवतागारं,यान्त्या वज्रर्षिरैयत" ॥१॥इति । नन्वयमपरजागसत्कालव्यासपद्मव्यासयोर्मीलनेन पञ्चविंशतिर्योजना- नन्तरोक्तार्थः कथं प्रत्येतव्यः। उच्यते-दमेव द्वितीयपरिक्केपसूत्रं नीति । तथा तत्परिधी प्रथमः परिकेपोऽष्टोत्तरशतपमानां प्रत्यायकम् । तथाहि-अत्रैकादशाधिकचतुरिंशत्सहस्रकमलातदरगाहकेवं सप्तविंशतिर्योजनानि , अयोजनप्रमाणत्वेन नि उक्तदिशमापयितव्यानि, तानि च क्रोशमानानि एकपतचा तेषामेकस्मिन् योजने चतुर्णामवकाशाचतुर्जिरोतरशतैयक्त च तदाऽवकाशं सभेरन, बदा द्वितीयपद्मपरिधिरकादशाधि. पतावतामेव लाभात्। ननु योजनार्द्धमानवतां तावतां चतुःपश्चा- कचतुर्विंशत्सहस्रक्रोशप्रमाणः स्यात् । स च तदा स्याद्यदा शयोजनानि सजवेयुरिति । सत्वर-केत्रबहुत्वादेकपतया व्य मूलकेत्रायामव्यासौ साधिकाशितिशतप्रमाणौ स्यातां, तो पस्थितत्वेन प्रत्येकं योजनचतुर्थाशावगाहकत्वे च उक्तसंख्यैव प्रस्तुते न स्तः, तेन यथासंभवं पङ्किनिद्धितीयपरिकपपनजातिः समुचिता, अत्र पमरुद्धकेत्रस्यैव जणनादिति, तथा द्वितीयः प. पूरणीयति तात्पर्यम् । एवमन्यपरिक्षेपेयपि यथासंजवं रिक्षेप एकादशाधिकचतुस्त्रिंशत्सहस्राणां तदतगाह के द्वे स- भावना कार्येति । अथ कथमयमर्थः सिमान्ततां प्रापित इति । हने पञ्चविंशत्यधिकं शतं च योजनानां, एकादश च भागा उच्यते-अन्यथानुपपत्या, न हि यथाऽकरमात्रसंनिवेश सूरयः योजनस्य षोमशभागीकृतस्य ११२५३४ उपपत्तिस्तु-योजनपा- सूत्रव्याख्यानपरा भवन्ति, किंतु प्राक्परार्थाऽवरोधेन । दप्रमाणस्वादिमानि षोडशमानानाति ३४०।११। इत्ययं परि- यमुक्तम्-"जं जह सुत्ते भणिग्रं, तहेव तंजर विमानणा केपपद्मराशिः १६ षोडशनिर्भज्यते आगच्छत्यनन्तरोक्तो नत्थि । किं कानिआतुअोगो, दिछो दिटिप्पहाणेति ॥१॥" राशिः । अस्यां च परिकेपजाती पतयः सूत्रोक्तस्वस्वदिशि | असं प्रसनेनेति । जं. ४वक० । ( मङ्गासिन्धुवक्तव्यता निवेशनीयपनिवेशनेन विषमवृत्ताः संभाव्यन्ते,पमानां विषम- स्वस्वस्थाने अष्टव्या) संख्याकत्वादिति । अथ तृतीपपरिकेपः-पोरशसहस्त्रपमानांत अथास्य नामान्वर्थ व्याचिख्यासुराहदवगाहक्षेत्र द्वे शते पञ्चाशदधिके योजनानाम् ५५० । उपपत्तिस्तु-अममि योजनाष्टमभागप्रमाणत्वाद्योजने चतुःषष्टि मान्तीति से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ-चुनहिमवंते वासहरपन्चए चतुःषष्टयाः १६००० प्रमाणः पद्मराशिज्यते, सपतिष्ठते चुहिमचंते वासहरपन्चए । गोयमा ! महाहिमवंतवासहरचायं राशिः। अत्र च पङ्क्तयः समवृत्ता एव निवेशनीया,यथेच्छ पवयं पणिहाय आयामुच्चत्तुबेहविक्खंजपरिक्खेचं पमुच्च चतुर्दिक्षु पनानां निवेशनादिति। अथ चतुर्थः परिकेपः-द्वात्रिंश इसि खुइतराए चेव इस्सतराए चेव पीअतराए चेव चुद. स्लकपद्मानां तदवगाहक्षेत्र द्वादश सहस्राणि पञ्चशताधिकानि योजनामाम १२५००, आनयनोपायस्तु-एषां योजनषोमशभाग हिमवंते अ इत्थ देवे माहिहीए. जाव पलिओवमविईए प्रमाणत्वाद्योजने २५६ मान्तीति षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयन परिवस, से एएणतुणं गोयमा ! एवं बुच्चा-चुतहिम३२००००० इत्ययं पाराशिनज्यते,ततो यथोक्तो राशिरायाती- वंते वासहरपव्यए चुल्लहिमचंते वासहरपव्वए , अदुत्तरं च ति । तथा पञ्चमपरिक्केप:-चत्वारिंशल्लकपमानां तदवगाहक्षेत्र णं गोसासए णामधेजे पसते ॥ त्रीणि सहस्राणि नवशतानि च षमधिकानि योजनानां चत्वा "सेकेणट्रेणं" इत्यादि । अथ केनार्थेन नदन्त ! एवमुच्यतेरच घोडश भागा योजनस्य ३६०६-पई । उपपत्तिस्तु-एषां | योजनद्वात्रिंशत्तमांशप्रमाणत्वादमूनि योजने १०२४ मान्तीति च सुल्लदिमवर्षधरपर्वतः क्षुहिमवर्षधरपर्वतः । गौतम!मतुर्विशत्यधिकसहस्रेण ४०००००० रूपस्य पाराशेर्भागहरणन हाहिमवर्षधरपर्बतं प्रणिधाय प्रतीत्याश्रित्येत्यर्थः । मायामोप्राप्यते यथोक्तराशिरिति । अष्टषष्ठपरिक्षेपोऽष्टचत्वारिंशसक्तप पात्वोद्वेधविष्कम्भपरिकेपम् । अत्र समाहारवन्धः, तेन सूत्रे एमानां तदवगाहकेत्रम एकादशशतानि एकसप्तत्याधकानि यो कवचनम्, प्रतीत्य प्रेक्ष्य ईषतचुभतरक एव लघुतरक एव जनानां, चतुर्दश च षोमशभागा योजनस्य ११७१४, सपपत्ति यथासंभवं योजनाया विधेयत्वेनायामाद्यपेक्या हस्वतरक श्वात्राऽमीषां योजनचतुःषष्टितमांशप्रमाणत्वाद्योजने ४०६६ एवोवेधापेक्वया नीचतरक एवोचत्वापेक्षया, अन्यश्च तुल्लाहमान्तीति पएणवत्यधिकचतुसहस्रैः ४८००००० इत्यस्य पझरा मांश्चात्र देवो महद्धिको यावत्पल्योपमस्थितिका परिवसति। शे गहरणात् यथोक्तो राशिरुपपद्यते इति पूर्वापरपनत्रयो खेषं प्राग्वत । जं.४वका क्षुफदिमववर्षधरपर्वतदेव च । जनमीलनेन च पूर्वोक्तं सर्वाग्रं संपद्यते, परिक्वेपाश्चात्र वृत्ताका "दो चुल्लहिमवंता" स्था० २ ग० ३०० । रेण बाह्याः केत्रस्य बहुत्वात संभवन्तीति, पञ्जयश्चात्र बह-चुसहिमवंतकूम-कुहिमवत्कूट-न० । सुझाहमवता भरतकूकेत्रस्यायतचतुरनत्वेन पायामविस्तारयोर्विषमस्वेऽपिपञ्चशत- टस्य पूर्व सिहायतनमस्य पश्चिमे कूटलद। तदाप दव Page #1227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२०४) चुहिमवंतकूम अभिधानराजेन्द्रः। चुला च । जं०४ वक० । स्था० ।( "कूम ' शन्देऽस्मिन्नेव भागे | (द्रव्य इति) व्यसूडा आगमनोप्रागमकशरीरेतरादिव्यतिरि. ६१७ पृष्ठे वक्तव्यतोक्ता ) क्ता त्रिविधा सचिताद्या सचित्ता प्रचित्ता मिश्रा च । यथासं. चुहिमवंतगिरिकुमार-कुछ हिमवदगिरिकुमार-पुं० । क्षुद्र ख्यमाह-कुक्कुटचूमा सचित्ता,मणिचूमा अचित्ता, मयूर शिखा हिमववर्षधरपर्वतकूटदेवे, तस्य कुहिमवती नाम राजधानी। मिश्रा (क्षेत्र इति) केत्रचूमा लोकनिष्कुटा उपरिवर्तिनः, मन्दजं.४ वक्ता(सा च 'कूम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ६१७ पृष्ठे दर्शि रचूमा च पाण्डुकम्बला, चूमादयश्च तदन्यपर्वतानां क्षेत्र. ता)जरतविजयाधिकारे, " तो चुम्वदिमवंतगिरिकुमारं देवं प्राधान्यात् । आदिशब्दादधोलोकस्य सीमन्तका, तिर्यग्लोक. उयवेश, तत्थ वावत्तरिजोयणा सरो उरि हुत्तो बच्चति।" स्थ मन्दरः, उर्द्ध लोकस्येषत्प्राम्भार इति गाथार्थः ॥ २७ ॥ प्रा० म०प्र० । आ.चू० । अइरित्त अहिगमासा, अहिगा संवच्चरा अकालम्मि । चुझि-बुद्धि-ली)-स्त्री० । चुल-इन् वा डी । पाकार्थ नावे खओवसबिए, श्मा उ चूडा मुणेयव्वा ॥२८॥ मग्निस्थापनस्थाने, (खुला) "चुली चिरं रोदिति " इत्यु अतिरिक्ता उचितकासात्समधिका, अधिकमासकाः प्रतीता, द्भटः । अच् चुहाऽप्यत्र । वाच । भाचा०। अधिकाः संवत्सराश्च षष्टधन्दाबपेक्कया, काल इति काल चूडा, जाब ति भाषचूमा, कायापशमिके भावेश्यमेव द्विचुल्ली-चुलि (ली)-स्त्री० । 'चुल्लि' शब्दार्थे , भाचा.२ प्रकारा चूमा, मन्तव्या विझेया, क्षायोपशमिकत्वाच्छ्रुतस्योत शु० १ चू०। गाथार्थः ॥२८॥ दश०१०। प्राचा०नि० चू०। चुल्लो-देशी-शिशौ , दासे च। दे० ना०३ वर्ग। श्याणि चूसे चि दारंचूचूसाय-चूचूशाक-पुंग। लोकप्रसिद्ध शाकभेदे, उपा०१ ०। णाम उवणा चूला, दव्वे खेत्ते य काले भावे य । चूय-चूत-पुंग माने, विशेष स्था। सहकारे, मौका जं0 1 नि. एसो खवु चूनाए, णिक्खेवो बिहो होइ ॥ ६३ ॥ चू। भाचा० । “जह कुल्ला कणियारा, च्यग! अहिमासग- णिक्नेवगाहा कंठा। णामठवणाो गयाओ, दब्वचूला दुविम्मि घुम्मि । तुह न खमं फुल्ले, जपच्चंता करंति डमरा- हा-आगमतो णोआगमतो य । प्रागमओ जाणए भावउत्ते, इं" ॥१॥ चूत एव चूतका, संज्ञायां कन्, तस्यामन्त्रणं दे चू- णोबागमतो जाणयनब्यसरीरं, जाणयभवसरीरवहरित्ता । तक!। आव०४ अ.। विजयराजधान्यां चूतवनखएकस्वामि- तिविधा य दबचना, सच्चित्ता मीसगा य अच्चित्ता । नि देवे, नी. ३प्रति। कुक्कमसिहमोरसिहा, चमामाण अग्गकुंतादी ॥ ६४ ॥ चूयमंजरी-चूतमञ्जरी-स्त्री. । आम्रमजर्याम, ०३ पक्षः।। पुव्वद्धं कं । पढमो चसहोऽवधारणे, वितिमओ समुचये, चूयवमिसग-चूतावतंसक-न।विमानमध्यगानां पश्चानामव- पच्चद्धे जहासंखम्मि उदाहरणा, सचित्तचूमा-कुक्कुडचूला सीमंसपेसी चेव केवला लोकप्रतीता, मीसा-मोरसिहा, तस्स तंसकानामन्यतमे, रा.। ती० । मंसपेसीए रोमाणि भवति । अचित्ता-चूनामणी, कुंतम् वा, चुयवसिगा-चूतावतंसिका-स्त्री० । स्वनामख्यातायां शक्रान आदिसदाभो सीहकमपासादथूभअम्गाणि । दव्वच्ला गया। महिन्याम, जी० ३ प्रतिकाती। स्वाणि खेत्तचूला, सातिविहाचूबवण-चूतवन-न० । घृतप्रधाने बने, रा०। अतिरियटकुलोगा-ण चलिया होति-माउ खेत्तम्मि। चूया-चता-स्त्री.। स्वनामख्यातायां शक्राप्रमहिन्याम, स्था. सीमंत मंदरे वी, ईसीपभारणामा य॥६५॥ ४०२००।ती.। मह शति अधोलोकः, तिरिय ति तिरियनोकः, उति उचूला-चूमा-खी। शिखरे, नं०। ('दिठिवाय' शब्द तच्च मुलाकः, लोगस्स सहो पत्तेगं,चूला शति सिहा, दोति भवंति। लिका) इमा शति प्रत्यकः, तुशब्दः केत्रावधारणे, महोलोगादीण पच्चयूमानिकपः-तत्र चूमाशब्दार्थमेवाभिधातुकाम आह- केण जहासंखं उदाहरणं-सीमंतग शति, सीमंतगो गरगो रय. दो खेत्ते कामे, शावम्मि अ चूलिआएँ निक्वेषो । णप्पभाए पुढचीए पढमो, से अहलोगस्स चसा मिंदरो मेक,सो तिरियलोगस्ल चना,तिरियलोगेचला तिरियलोगातिकान्तत्वात, तं पुण उत्तरतंतं, सुअगहियत्यं तु संगहणी ॥२६॥ अहवा-तिरियलोगपतिट्टियस्स मेरोरुवरि चत्तालीसं जोयणा नामस्थापने क्षुष्मत्वादनारत्याह-द्रव्ये केत्रे काले भावे चद्र. चूला, सा तिरियलोगचूला।चसद्दो समुचये, पायपूरणे वा। ई. व्यादिविषवाचूमायाः निकेपो न्यास इति। तत्पुनश्चूडाद्वयमुत्त- सित्ति अप्पभावे, प इति प्रायोवृत्त्या,भार इति भारकंतस्स पु. रतन्त्रमुत्तरसूत्रम, दशवैकालिकस्याचारपञ्चचूमावत् । एतच्चो- रिस्स गायं पायलो ईसिणयं भवति,जाय एवं चिता सा पुढवी सरतन्त्रं श्रुतगृहीतार्थमेव-दशवकालिकास्यश्रुतेन गृहीतोऽों- इसिप्पभारा, णाम इति पतमनिहाणं तस्स,साय दवसिउस्योति विग्रहः। यद्येवमपार्थकमिदम् , नत्याह-संग्रहणी त- शिविमाणाश्रो उवार वारसेहिं जोयणेहिं भवति,तेण सा उक्सानुक्तार्थसंक्षेप शति गाथार्थः॥१६॥ लोगच्ला भवति । गता खेसचूला। अव्यचूमादिव्याचिस्यासयाऽऽह श्याणि कालावचूलामो दो वि एगगाहाए भष्मतिदव्वे सञ्चित्ताई, कुकुपचूमामणीमऊराइ । अहिमासो तु काले, भावे चूला तु होइ-मा चेव । खेचम्मि योगनिकम-मंदरचूडा अकूमा॥७॥ चला विनूसषंति य, सिहरति य होति एगहा ॥६६॥ Page #1228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चला (१३०५) भनिधानराजेन्द्रः। चेइय धारसमासपमाणवरिसाओ महिमो मासो अहिमासो अहि. (६) चैत्यशब्दस्य ज्ञानार्थकतानिराकरणम् । पहियवरिसे भवति । सो य अधिकत्वात् कालचूला भवति । (७) देवकृतवन्दनाधिकारः। तुसहोऽर्थप्पदरिसणे, ण केवलं अधिको कालो कालचूला भ. (७) वन्दनादौ मौनेन नगवदनुमतिकरणं दृढतरयुक्त्युपपबति अतो वि घट्टमाणो कालो कालचूलाए भवति । एवं जहा। त्तिजिःप्रतिपाद्यानुमोदने हिंसावाअभावप्रतिपादनम् । श्रोसप्पिणीए अंते अंतिदूसमाए सा उस्सप्पिणी कालस्स चूला (ए) साधोद्रव्यपूजादावनधिकारः। भवति । कालचूला गता । इयाणि भावचूला-भवणं भावः, प. (१०)न्यस्तवे गुणाः ।। र्याय इत्यर्थः । तस्स चला भावचूला । सा य दुविदा--आगम- (११) महानिशीयप्रामाएयपूर्वकं व्यस्सवस्थापनम् । श्रोम, नो आगमत्रो य । आगमओ जाणए उवत्ते; णो आगम- (१२) जिनपूजां तद्वैयावृत्त्यं चापपाद्य चैत्वपूजायामपि जिओ य इमा चेव । तुसद्दो खोवसमभावविसणे दन्वो । इमा नवैयावृत्यम् । इति पकप्पज्झवणा चूना । एगसद्दोऽवधारणे, चूझेगट्टिती।। (१३) जिनपूजायां हिंसादोषवादिनां निराकरणम् । चूलं ति वा विभूसणं ति वा सिहरं ति वा एते एगट्ठा । चूल (१४) आरम्भविचारं निरूप्य सच्भावकस्यात्राधिकारविचारः। त्ति दारं गयं । नि००१ उ०। उक्तशेषानुवादिन्यां ग्रन्थपद्धनौ, (१५) व्यस्तवे सिंहावलोकितेन हिंसास्तीत्येतनिरस्य प्राचा०१ श्रु० १ ० १ उ० । कूपनिदर्शनेन हिंसाऽभावप्रतिपादनम् । चूलाकम्म-चूडाकर्मन्-न० । बाबानां चूलके मुएमने, प्रा. (१६) पूजायां हिंसासंभवोक्तिविकल्पदूषणम् । म०प्र०। (१७) अर्थदएमत्वविचारः। (१०) प्रतिमापूजायां द्रौपदीभद्रासार्थवाहीसिकार्यराजानाचुलामणि-चूमामणि-पुं०। सकसपार्थिवरत्नसर्वसारे देवेन्छ | मुदाहरणानि । मूर्धकृतनिवासे निःशेषापमालाऽशान्तिरोगप्रमुखदोषापहार- (१६) ऊर्ध्वलोकादिषु जिनप्रतिमायाः स्थितिः । कारिणि प्रवरलक्षणोपेते परममङ्गलभूते आभरणविशेषे, रा.। (२०) प्रतिमायाः फलदत्वम् । जं० । प्रा० म.। उत्त । औ० । " चूसामणिमउम-रयणनूस- (२१) चैत्यानां पूजासत्कारादिस्तुतयः । णा" चूमामणिनीम मुकुटरत्नं चिह्ननूतं येषां ते तथा, असु. (२२) व्यस्त मिश्रपतत्वविचारः। रकुमारभवनवासिनश्चूमामणिमुकुटरत्नाः। प्रका०२ पद । (२३) प्रतिमायाः प्रामाण्यनिरूपणम् । चलियंग-चूलिकाङ्ग-न०। चतुरशीत्या लकैगुणिते प्रयुते,अनु। (१४) जिनभवनकारणविधि निरूप्य जीर्णोकारकारणफल वर्णनम् । जी० । स्था। (२५) बिम्बकारणविधिः । चलिया-चूलिका-स्त्री. चतुरशीत्या लकैर्गुणिते चूलिकाने, (२६) जिनबिम्बप्रतिष्ठाविधिः । जी०३ प्रति० भ० । अनु। जं। स्था० । उक्तानुक्तार्थसंग्र- (२७) जिनपूजाविधिस्तत्फलनिरूपणं च । हात्मिकायां प्रन्यपद्धती, नं। यथा दृष्टिवादे परिकर्मसत्रपूर्व- (२८) चैत्यविषये हीरविजयसूरिपूज्यपादकृतोत्तराणि । गतानुयोगोक्तार्थानुक्तासंग्रहपरा प्रन्यपरुतयः । स०। ('श्रा- (१६) चतुर्विशतिकापट्टविचारः। यार' 'दिठिवाय' प्रभृतिशब्देषु तत्संख्या) (३०) जिनचैत्ये व्यन्तरायतनविधानम् । चूलियावत्यु-चलिकावस्तु-नाचूलारूपे आचाराङ्गाऽध्ययन (१) चैत्यशब्दस्यार्थाः-- कल्पे परिच्छेदविशेषे, यया-उत्पादपूर्वस्य चत्वारि चूलिकाव चितलेप्यादिचयनस्य नावः कर्म वा चैत्यं , संज्ञाशब्द. स्तूनि । स्था०४०४ उ०। स्वाद देवताप्रतिबिम्बे, 'चिती' संकाने काष्ठकर्मादिषु प्रचेअ-अन्य० । अवधारणे, “णइ चेभ चिमच अवधारणे"। तिकृति दृष्ट्वा संज्ञानमुत्पद्यते शति । अहत्प्रतिमायां देव८।२ । १८४ ॥ इति सूत्रात् निपातम् । प्रा०२ पाद । बिम्बे , संघा० १ प्रस्ता० । प्रा० चू० । ल । शा०। वृ० । चेश्य-चैत्य (क्य)-न । चितिः पत्रपुष्पफलादीनामुपचयः । इष्टदेवताप्रतिमायाम, औ० । आव० । "कल्लाणं मंगलं चित्या साधु चित्यं, चित्यमेव चैत्यम् । उद्याने, "मिहिलाएँ चेदयं पज्जुवासेत्ता" दीर्घायुर्भवति । स्था०३ ग०१ उ०। "कल्लाणं मंगलं चेश्यं पज्जुधासामो" चैत्यमिवेष्टदेवताचेहए बचे, सीअच्चाए मणोरमे।" उत्त० ३०चित्तमन्तःकरणं, तस्य भावे कर्मणि वा" वर्णदृढादिन्यः व्यव" प्रतिमामिव पर्युपासे। औ० । कर्म०। चैत्यमिष्टदेवप्रतिमा, चै५।१।१२३ ॥ ( पाणि ) ति व्यञ् । आव० १ अ०। त्यमिव चैत्यं पर्युपासयामः । ज०२ श० १३०। उपा। मईधः। प्रति० । " स्यादनव्यचैत्यचौर्यसमेषु याद" ॥८।२। त्प्रतिमावाम , आव०१० । जं० । १०७॥ इति यात् पूर्व इत् । प्रा० १ पाद । प्रशस्तमनस्त्वे, (२) चैत्यनेदपुरस्सरं प्रतिमासिरि:तद्धेतुत्वात जिनबिम्बे, कारणे कार्योपचारात् । जक्ती-मंगल-चेक्ष्य, निस्सकमेऽणिस्स-चेहए वा वि। (१) चैत्यशब्दस्यार्थाः। सासय चेइय पंचम-मुवाहं जिनवरिंदेहिं ॥६६६॥ (२) चैत्यभेदपुरस्सरं प्रतिमासिकः। गिहजिणपडिमाए ज-तिचेश्यं उत्तरंगघमियम्मि । (३) भावैकनिक्केपबादिन उपहासं विधाय नावाचार्यनिष्पत्तिः।। (४) ब्राह्मी लिपिमाश्रित्य नामस्थापनाभ्यां प्रतिमायाः सिद्धिः।। जिणविंबे मंगलचे-इयं ति समयन्नुणो विति ।। ६६७।। (५) चारणकृतवन्दनां निरूप्य तत एवास्पाढतरं प्रामाण्यम्। निस्सकम जंगच्च-स्स संतियं तदियरं अनिस्सकमं। या. बामेव वैत्य पपासे ३०२ Page #1229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२०६ ) अभिधानराजेन्द्रः । चेहव सिकायपणं च इमं चेपण विसिदि ।। ६६० ॥ भतीति दस्य प्रत्येकमनिसंबन्धाभक्तिम मयत्यनिसि पञ्चममदिनामतः कथितं जिनवरेन्द्रैरिति या "महज इत्यादिमायाम् गुड़े जनप्रतिमायां यथोकलचणापेतार्या प्रतिदिनं त्रिकालपूजा वन्दनाथ कारि तायां प्रतिचैत्य तथा उत्तराय द्वारोपरिवर्तितज्ञा ठस्य मध्यभागे घटिते निष्पादिते जिनबिम्बे मङ्गलचैत्यमिति समया तवेदिनो से बदन्ति राय हि नग वो गृहे ते मङ्गखनिमिश प्रथममतिमा प्रति ष्ठाप्यन्ते, अन्यथा तद् गृहं पतति । तथा चाचोचामः स्तुतिषु"जम्मि सिरियासपडिमं संनिकर करे परिनिबारे विजयो विपूरित-मरमधन्ना न पश्यति ॥ " तथा निधाकृतं यच्छस्य कस्यापि सत्कं स एव गच्छस्तत्र प्रतिष्ठादिप्रयो जनेष्वधिक्रियते, अन्यः पुनस्तत्र किञ्चित्प्रतिष्ठादिन ते इत्यर्थः । तथा-( तदिवरं ति) तस्माशिश्राकृतात् इतरदिति अनिक्षाकृत | पत्र सर्वेगाः प्रतिष्ठानमाला रोपणादीनि प्रयोजनानि कुर्वते इते तथा सिद्धायतनं च शाश्वतजिनापवनं च इदं विनिर्दिष्टं विशेषेण कथितमिति ॥ ६६ ॥ अथवा अन्येन प्रकारेण पञ्च वैत्यानि भवन्ति । तत्राहनीबाई सुरलोर, भतिकवा च नरहमाईहिं । निस्साऽनिस्कपाई, मंगल कयमुतरंगम्मि ।। ६६ ।। वारचयस्य पुचो पनि कासी य चेहए रम्ये । तत्य व थली भद्देसी, साम्मियचेइयं तं तु ॥ ६७० ॥ " नीया " इत्यादिगाथाद्वयम् । नित्यानि शाश्वतानि चैत्यानि तानि च सुरलोके देवजूमौ उपलक्कृणत्वान्मेरुशिखरे कूटनन्दीश्वररुचकचरादिषु च भवन्ति । तथा जक्तिकृतानि जरतादिभिः कारितानि मकारोऽयमलानि तानि तानि निश्रा कृतानि चेति द्विधा तथा मामला मथुराद पुरीषु उत्तराङ्गप्रतिष्ठापितम् ॥ ६६६॥ तथा वारतकमुनेः पुत्रो रम्ये रमणीये चैवे देवगृहे प्रतिमां तस्यैव वारत क मुनेः प्रतिकृति[[मकाषीत् तत्र च स्थीति रूढिरभूत्। त मिति । जावांथस्तु कथानकादवसेयः । तश्चेदम्-वारत्तकं नगरम, अभय सेनो राजा, तस्य च वारतको नाम मन्त्री | एकदाच धर्मघोषनामा मुनिर्मित प्रतिज्ञाय च तस्मै निक्कादानाय दान्तस्वएमसंमिश्रपाय सपरिपूर्ण पात्रमुत्पादिती अम्रे व कथमपि तत्खण्डसंमिश्र तमि पतितः, ततः स महात्मा धर्म्मघोषमुनिर्भगवदुपदिष्टनिक्का विधिविधानविदितोयमश्वर्दिदोषऐषं मिका, तस्मान कल्पते ममेति मनसि विचिन्त्यभिकामत्वा वृद्धाभिर्जगाम । भारतकमन्त्रणा च मत्तवारणोपविपेन से नगवाधिन्यन किमनेन मुनिना मदीया भिक्षा न वेति । पर्व याचितयति तावतं भूमौ निपतितं खरमयुकं घृतबिन्डुं मक्षिकाः समेत्याशिश्रियन्, तासां च भक्षणाय प्रधाविता गृहगोधिका, तस्या अपि वधाय प्रधावितः खरटः, तस्याऽपि च भक्षणाय प्रधावति स्म मार्जारी, तस्या अपि च वचाय प्रभावितः प्राचूर्णकः भ्या, तस्यापि चेय च प्रतिद्वन्द्वी प्रधावितो वास्तव्यः श्वा ततो द्वयोरपि तथोः शुनारदन्योऽन्यं युद्धम; निजनिजशुनक पराजवपीडया च प्रधा वितयोर्द्वयोरपि तत्स्व. मिनोरनूत्परस्परं लकुटालकुटि महायुसर्वमपि वारकमन्त्रिणा परिभाषितं च घृता देवन्मात्रेऽपि भूमी पतिले यस संविधाऽधिकरणभित पवाधिकरण भगवान् मिकां न गृहीतो को भगवतो धर्मः को हितं भगवन्तं वीतरागमन्तरयमनपानधर्ममुपदेषुमतितो ममापि स एव देवता तदुक्तमेवानुष्ठानमनुष्ठातुमुचितमिति विचिन्त्य संखारसुखविमुखः शुभध्यानोपगत संजातजातिस्मरणो देवतार्पित साधुलिङ्गो दीर्घकालं संयममनुपालय केवलज्ञानमासादितवान् । कालक्रमेण च सिद्धः ततस्तत्पुत्रेण स्नेहात्परीतमानसेन देवारा रजोहरणमुखपोस कापरिग्रहचारिणी पितृमतिमा तत्रपिता, सत्रशाला च तत्र प्रवर्तिता । सा च साधर्मिकस्थनीति सिकान्ते भएयते । प्रव० ७९ द्वार । अथैनामेव विवरीषुः प्रथमतश्चैत्यस्वरूपं न्यास्यातिसाइम्मियाण अड्डा चतु लिंग तुज कुसुंबी मंगल सासय जती - ऍ जं कयं तत्थ आदेसो ॥ तु तद्यथा-साधर्मिक चेत्यानि मङ्गलचे त्यानि, शाश्वत चैत्यानि, भक्तिचैत्यानि चेति । तत्र साधर्मिकाणामर्याय यत्कृतं तत् साधर्मिक वैश्य साधर्मिद्विधा-तिः प्रवचनतश्च । तत्रेद लिङ्गतो गृह्यते । स च यथा कुटुम्बी। कुटुम्बी नाम प्रभूतपरिचारकलोकपरिवृतो रजोहरणमुखपोसिकादिलि कुमारी बारजकप्रतिच्छद तथा मधुपुर्वी तेषु म निमित्तं निवेश्यते तम्मस चैत्यं पुरलोकादी नित्यस्थायि शा स्वतंत्य मया मनुष्यैः पूजायन्दनाय कृतं का रितमित्यर्थः, तद्भक्तिचैत्यम् । तेन च प्रक्तिचैत्येनादेशो ऽधिकारः, श्रनुमानादिमहोत्सवस्य तत्रैव संभवादित्येषा निर्युक्तिगाथा । अथैनामेव विभावयिषुः साधर्मिकचैत्यं नवेदाहवारसगस्स पुतो, पाभयं कासी य चेश्यपरम्पि । तत् य थलीसी, माहम्मियचेश्यं तं तु ॥ दावश्यके योगसमदेषु "बारस पुरे समय सेवारते "इत्यत्र प्रदेशे प्रतिपादितचरितो यो वारतक इति नाम्ना महर्षिः, तस्य पुत्रः स्वपितरि प्रतिरात के कारितवान ततो रजोहणसुखत्रिकाप्रति प्रधारिणीं पितुः प्रतिमामस्थापयन् । तत्र च स्थली सत्रशाला तेन प्रवर्त्तिता श्रासीत्, तदेतदसाधार्मिकत्वम् अन्यस्थ नार्थाय कृतमस्माकं कल्पते । अथ मङ्गलत्यमाहअरहंत पट्टाए, महुरानगरीऍ मंगलाई तु । गेहेसु चथरे य, उचउईगाम असुं ॥ मथुरानगर्यो गृद्दे कृतेषु प्रथममा: प्रतिष्ठाप्यन्ते, अन्यथा तत् पतति मलयानि तानि च तस्यां नगर्यो गेहेषु चत्वरेषु च भवन्ति, तानि न केव तस्यामेव किं तु तत्पुरप्रति पतिसंख्याका प्रामाफी, तेप्यपि नवन्ति इहोत्तरापथानां ग्रामस्थ ग्रामार्थ इति 1 Page #1230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२०७ ) अभिधानराजेन्ः | चेइय १ संज्ञा । श्रइ चूपिकृत् -"गामद्धेसु त्ति देसण न्ति बन्नगामेसु चित्रणियं होइ, उत्तरावहाणं एसा भणिति । " शाम्यत वैस्यभक्तिचैवानियत निच्चाई मुरलोए, मचिकाई तु मरहमाहिं । निस्सास्सिकाई, नहिँ आएसो चयसु निस्सं ॥ नित्यानित्यानि सुकेनन्तरज्योतिष्कमानिकदेवानां भवननगर विमानेषु उपशिखर देताख्यादिकूटनन्दीश्वरवादयन्तीति तथा मनवा भरतादिभियांतिकारितानि तानि अन्तर्भूपत्वान अत्र जसो सि) बेन कि कैरवेना देश धानि श्राकृतं गच्छ प्रतिबरूम, अमिश्राकृतं तद्विपरीतं, (चयसु सिति निकृतं तत् त्यस परिहर, अनिक्षाकृतं तु करपते । गतं चैत्यद्वारम् । वृ० १३० । अतिमाया ममोपपत्तियां युक्तता प्रवदते । तत्रेदं प्रतिमाविषयाशद्वानिकारणस्य चिकीर्षितावाद प्रतिमास्तुतिरूपमिएपीजप्रविधानपुरस्लरमाद्यपद्यमाह द्वि " ऐन्द्रभनता प्रतापभवनं जन्यानेत्रामृतं सिकान्तोपनिषद्विचारचतुरैः प्रीत्या प्रमाणीकृता । मूर्तिः स्फूर्तिमती सदा विजयते जैनेश्वरी विस्फुरमोहोन्यादनप्रमादमादे रामचैरनालोकिता ॥ १ ॥ जैनैश्वर) मूर्ति सदा विजयते इत्यन्वयः जिनेश्वराणामयं जैनेश्वरी मूर्तिः प्रतिमा सदा शक्त्या प्रवात निरस्तरं विजयते सर्वोत्कर्षेण वर्त्तते अत्र जयतेरर्थ उत्कर्ष, , , , " परानवे तथोत्कर्षे, जयत्यन्ते त्वकर्मक " इत्याख्यातचसर्वाधिकत्वं वेरुपसर्गस्येति बोग्यम् मूर्ति (पेन्द्र इति इन्द्राणामेन्ट्री, सा बासी विभेति कर्मधारयः । तथा नता नमिकमहता तेनैतदलापकारिणो भगवत्प्रतापमैन्द्रः शापो ध्रुव इति व्यज्यते । पुनः कीरशी है, प्रतापस्य कोशदपदस्व तेजसो भवनं उक्तेः स्थाप्यगतं स्थापनायामुपसर्व व्यायम तेनैतदपतापकारियो नगरहनेवाता भविष्यन्ति श व्यज्यते । पुनः कीदृशी ?, जव्याङ्गिनाम्-आसन्नसिद्धिकप्राणिनां मेयर पीयूपं सकलनेत्ररोगापनयनात्परमानन्दजननाथ म नैना येषां नयनयोर्मानन्दस्ते दुरयाइत्यभि व्यज्यते । पुनः कीदृशी ?, प्रमाणीकृता प्रमाणत्वेनाभ्युपगता | कैः ?, सिद्धान्तोपनिषद्विचारचतुरैः सिद्धान्तानामुपनिषदस्वं द्विचारे ये चतुरास्ते का ? त्या स्वरसेन नतु बलानियोगादि नातिमात्रामा धान्युपगम पोर्नान्तरीयकत् रसतः प्रतिमाप्रामाण्याभ्युपगन्तैव शिष्टो नान्य इत्यादि सूचितं दिनभ्युपगता च सिद्धान्तानिक इति पुनः की स्फूर्तिमती-स्फूर्ति प्रतिप्रर्द्धमानकान्तिनिततिहार्षत्वं वा तद्वत । एतेन तदाराधकानामेव बुद्धिस्फूर्त्तिर्भवति, मान्यस्येति सूयते पुनः की अनालोकिता, साइमनीि तेत्यर्थः अनालोकितपदस्य साइमनालोकितत्वेऽर्थान्तरसंक मितवाच्यत्वात्, अन्यथा चक्षुष्मतः पुरस्थितवस्तुनोऽनालोकितत्वानुपपतेः के, विस्फुरन् विविधं परिणमन यो मोहोन्मादो चइय " घनप्रमादश्च तावेव ये मदिरे, ताज्यां ये मत्तास्तैः । न च प्रमा[दस्य मोहेनेव गतार्थत्याधिक अनाभोगमतिशादिरूप स्य ग्रहणात् न चान्ययपरिसमापय विशेषणस्योपादाना समाप्तपुनरातदोषमनियम सर्वो दरणीयत्वे लब्धे यदि सर्वेराद्रियते कथं न लुम्प के रित्याशङ्कानिवारणायैतद्विशेषणम् । ते हि मोहप्रमादोन्मत्ता इति तदनादरेऽपि सर्व प्रेक्षावदादरणीयत्वावतिरित्युक्तदोषाभावात् प्रकृतापवाद विशेषणस्य पुनरुपादान एवं व्यवस्थिते। "पितिमचिचिन्तामणि सनुते तार्किक शिरोमणिः श्रीमान् |" इत्यत्र श्रीमद्विशेषसेनन समाप्तपुनरातत्व वि स्तरानुगुपानसमृद्धिरिव्यस्य प्रकृतोपपादकत्वादिति समा हितं तार्किकैः । बा सेत्यध्याहृत्य वाक्ये, येयैः सा नेता ते मन्दभाग्या इति ध्वनिः श्रानन्तयें तु नानुपपतितेोऽपीति ध्येयम इत्येवमाद्यपद्ये प्रतिमाया निखिलप्रेक्कावदादरणीयत्वमुक्तम् । (३) भावैकनिपादिन उपहासं विधाय नावा चार्यनिष्पत्ति: नामादित्रयमेव नावजगवताप्यधी कारणं शास्त्रात्स्वानुभवाच्च शुहृदरिष्टं च तेनाईत्यतिमामनादृतवत जावं पुरस्कुर्वतामन्धानामिव दर्पणे निजमुखाको कार्थिनां का मतिः ? ॥२॥ (नामादित्रयमित्यादि) अयमेव नामादिपदस्य नामादिनिष परवा मितिबायानिष्यिमाणं नामादित्रयमेवेत्यर्थः । भावभगवतो निकेप्यमाणजावाईतस्ताद्रूष्यधियोऽभेदबुः का रणं, शास्त्रादागमप्रमाणात, स्वानुभवात् स्वगतप्रातिभप्रमाणा मुबरं वारमिष्टं च दृष्टं च, शास्त्रादिष्टम्, अनुभवाच्च दृष्टमिडुरा मननं याच ध्यानमुपनिषतेन तस्थप्रतिपापायसामध्यमावेदितमः तदाह-" झागमेनानुमानेन ध्यानाभ्यासरलेन च। त्रिधा प्रकल्पयन् प्रज्ञां लभते तत्त्वमुत्तम म " ॥ १ ॥ इति । तेन भावनिकेपाध्यात्मोपनायकत्वेन नामादिनिकेपत्रयस्यात्प्रतिमास्थापनानिक्षेपस्वरूपत्वेनानादृतवतां भावं भावनिकेपं पुरस्कुर्वतां बादमात्रेण प्रमाणयतां दर्पणे निजमुखालो कार्थिनामन्धानामिव का मतिः ?, न काचिदित्यर्थः । निक्के पत्रयानादरे भावोवासस्यैव कर्तुमशक्यत्वात् शास्त्र श्व मामादिप्रये हृदयस्थिते सति भगवान् पुर व परिस्फुरति हृदयमिवानुप्रविशति मधुराक्षापमिवानुवदति समि यानुभवति तन्मयीभावमिवाद्यते तवे सर्वसिद्धिः। तदाह 9 "अस्मिन् हृदयस्थे सति तो गुनी इति । हृदयस्य तस्मिनियमात्सर्वार्थसिद्धिः ॥ चिन्तामणिः परोऽसौ तेनेयं भवति समरसापत्तिः । सैने योगमाता, निर्वाणफलप्रदा प्रोका ॥ " इति । तत्कथंनिकेपत्रयादरं विना भावनिकेपादरः भावोल्लासस्य तीच नैसर्गिक एव भावोदास इत्येकान्तोऽस्ति जनमते तथा सति सर्वव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गादिति स्मर्तव्यम् । अत्र निरु देशेषणविशिषु लुम्पकेषु निरुकशेषणविशिष रूपोरमेक्का कहिपतोपमानमादायोपमा वेति यथोचित्येन योजनीयं ततदलङ्कारग्रन्थनिपुणैः । स्यादेतत् । नावाई दर्शनं यथा भवानां स्वगतफलं प्रत्यपनिचारि, तथा न निक्षत्रप्रतिपत्तिरितिसाद इति मैयम् स्वगतफले स्वपति 1 " " 1 Page #1231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२००) चेइय अनिधानराजेन्द्रः। रिक्तभावनिक्षेपस्याप्यव्यभिचारित्वाभावात् । न हि नावाहतं विसोहि जणय" इति सम्यक्त्वपराक्रमाध्ययनोपदशिंतचतुदृष्ट्वा जव्या प्रजम्या वा प्रतिबुध्यन्त इति । स्वगतनाबोल्लास- विशतिस्तवाराध्यतयैव सि,तत्रोत्कीर्तनस्याधिकारित्वासन निमित्तत्रावस्तु निक्केपचतुष्टयेऽपि सुव्य इति। एतेन स्वगताध्या- च दर्शनाराधनस्योक्तत्वात, “महाफलं खलु तहालवाणं भगस्मोपनायकतागुणेन वन्द्यत्वमपि चतुष्टयविशिष्टमित्युक्तं भवति। घंताणं णामगोत्तस्स वि सवण्याए एवं बलु तहाम्वाणं भगवंशिरश्चरणसंयोगरूपं हि वन्दनं जावभगवतोऽपि शरीर एच सं. ताणं णामगोत्तस्स विसवणयाए" इत्यादिना भगवत्यादौ मनवति, न तु जावभगवत्यरूपे, आकाश इव तदसंभवात । भा- हापुरुषनामभवणस्य महाफलबत्त्वाकेन। नामखापनानिक्षेपवसंबन्धाचरीरसंबकं वन्दनं भावस्यैवायातीति तत एवं स्वाराध्यता च-" थयथुश्मंगलेणं ते ! जीव किं जणय? । नामादिसंबकमपि भाषस्य किं न प्राप्नोतीति परिभाषय । क- यययुश्मंगलेणं जंते ! नाणदंसणचरिसवोहिलामं जणयह । चिदाह कुमतिव्युग्राहितः-किमेताभियुक्तित्रिः १, महानिशीथ नाणदंसणचरित्तवोहिलानं संपचे णं नंत! जीवे अंतकिरियं एव नावाचार्यस्य तीर्थकतुल्यत्वमुक्तं, निकपत्रयस्य चाकिञ्चि कप्पविमाणोवबत्ति बारादणं पारादेश” इति बचनेनैव करत्वमिति भावनिकेपमपि पुरस्कुर्वतां क इवापराधः । तथा | सिद्धा। मत्र स्तवः स्तवनं स्तुतिःस्तुतित्रयं प्रसिकं,तत्र द्वितीया चोक्तं तत्र पञ्चमाध्ययन-"से भयचं!किं तित्थयरसंतियं पावं स्तुतिः स्थापनाईतः पुरतः क्रियते । चैत्यवन्दनावसरतया च नाश्क्कमिज्जा, ग्याहुआयरियसंतियं । गोयमा ! चउन्विहा था- कानदर्शनचारित्रबोधिलाभतो निरर्गलस्वर्गापवर्गसुखलाम यरिया पएणत्ता । तं जहा-नामायरिया,ठवणायरिया, बब्वाय इति शेषाकराण्यपि स्फुटीजविष्यन्त्यनुपदमेव । व्यनिक्षेपारारिया, भावायरिया । तत्थ णं जे ते प्रावायरिभा, ते तित्थयर ध्यता च सूत्रयुक्त्या स्फुटैव प्रतीयते। तथाहि-श्रीमादिनाथवारसमा चेव दछन्वा, तेसि संतियं आणं नाश्कमिजा । सेभयवं! के साधूनामावश्यकक्रियायां कुर्वतां चतुर्विंशतिस्तबाराधने त्र. कवरेण ते भावाबरिमा भति ? गायमा! जे अज्ञपवश्य योविंशतिव्यजिना पवाराध्यतामास्कन्दयेयुरिति । नच ऋष. विभागमविहीए एवं पए २ अणुसंचरंति ते भावायरिए, जे भजिनादिकाले एकस्तवधिस्तबादिप्रक्रियाऽपि कर्तुं शक्या,शान वाससयदिक्लिए वि हुसा णं वायामित्तेणं पि आगमो चाहिं करिति,ते णामध्वजाहि णिउश्यव्वति।" अत्र ब्रूमः-प श्वताभ्ययनपारस्य देशेनापि परावृत्त्या कृतान्तकोपस्य वज्रलेप. त्वात्।नच नामोत्कीर्तनमात्रे तात्पर्यादविरोधोऽर्थोपयोगरहितरमशुम्भावनाहिकनिश्चयनवस्यैवायं विषयः, यन्मते एकस्यापि गुणस्य त्यागे मिथ्यारष्ठित्वमिप्यते । तदाहु:-"जो जह वा. स्योत्कीर्तनस्य राजविद्विष्टसमत्वेन योगिकुलजन्मबाथकत्वात्, यं न कुण, मिच्गदिट्ठी तो हु को प्रश्नो?" ति। तन्मते निक्के अत एव द्रव्यावासकस्य निषेधःसूत्रे,"उपयोगच अव्यम्" इति पान्तरानादरेऽपि नैगमादिनयवृन्देन नामादिनिकेपानां प्रा. शतश उद्घोषितमनुयोगद्वारादौ। अर्थोपयोगे तु वाक्यार्थतयैव सिकाव्यजिनाराध्यतेति, एतेन द्रव्यजिनस्याराभ्यत्वे करतनमाएबान्युपगमात्क इव व्यामोहो अवतः, सर्वनयसंमतस्यैव परिकलितजलचुसुकबर्तिजीवानामप्याराध्यत्वापत्तिः, तेषामपि शास्त्रार्थत्वात् , अन्यथा सम्यक्त्वचारित्रैक्यग्राहिणा निश्चयनयेनाप्रमत्तसंयत पब सम्यक्त्वस्वाम्युक्तो, न प्रमत्तान्त इति कदाचिजिनपदवीमाप्तिसंभवादिति शासनविडम्बकस्य लुश्रेणिकादीनां बहूनां प्रसिद्धं सम्यक्त्वं न स्वीकरणीयं स्या म्पकस्योपहासः । “तिरक्खो," व्यजिनत्वनियामकपर्यादेवानां प्रियेण । उक्तार्थप्रतिपादकं त्विदं सूत्रमाचाराले पञ्च. यस्य तत्रापरिकानात् । मरीचिस्तु स्वाध्यायध्यानपरायणो महा. त्मा भगवतो नाजिनन्दनस्य चन्दनप्रतिमया गिरा परिकलितमाध्ययने तृतीयोदेशके-"जं सम्मति पासहा तं मोणं ति पासहा, जं मोणं ति पासहा तं सम्मं ति पासहा" (प्रति०) ताशपर्यायपुलकितगात्रेण भक्तिपात्रेण भरतचक्रवर्तिना व न्दित एवेति प्रसिद्धमावश्यकनियुक्ती , पुरश्चकार च वन्दनअथवा-यावत्या निर्वृत्या भावाचार्यनिर्वृतिस्तावत्या सन्याचा. यसंपत्तिः, सा च सापेक्षत्वे भावयोग्यतयेति भावाचार्यना निमित्तं द्रव्यजिनपर्याय,न त्वौदयिकभावम्। तथाहि-"ण वि ते मस्थापनावत् प्राशस्त्येनातिकामति, अन्त्यविकल्पं बिना कव्य पारे चर्क, बंदामि अहंण ते इदं जम्मं । जह होहिसि तित्थयरो. जावसङ्करस्याविश्रामातू प्रशस्तनामस्थापनाचत । अप्रशस्त अपचिमो तेण बंदामि।" इति पापिष्ठत्वामुक्तमिदं नियुक्ती, परं जावस्याहारमर्दकादेद्रव्यं तु तत्रामस्थापनावदप्रशस्तमेवेति नमूत्र इति नियुक्तिकमेवेति तस्य दुष्टस्य शिरसि ऋषभादिषाप्रागुक्तमहानिशीथसत्रे नियोजनीयार्थः । रके चतुर्विशतिस्तवसुत्रपागनुपपत्तिरेव प्रहारः। यदि व्यजितदवदाम गुरुतत्त्वनिधये नतां पुरस्कृत्य 'जरतेन मरीचिबत्' वन्द्या कथं न साधुभिरित्यत्र "नत्थि य एगो एसो, जंढव्वं हो सुखभावस्स। तु विशेष्य वन्दने तद्यवहारानुपपत्तिरेव समाधानम्। सामान्यतमामागिश्तुझं, तं सुहमियरं तु विवरीयं ॥१॥ तस्तु-"जे अईमा सिद्धा" इत्यादिना गतमेव । अथ द्रव्यजद गोयमाश्ाणं, णामा तिमि इंति पावहरा । त्वस्य कन्यसंख्याधिकारेऽनुयोगद्वारादिषु एकद्विकवअंगारमदगस्स बि, णामाइ तिम्सि पावयरा ॥२॥" सायुकाभिमुखनामगोत्रदभित्रस्यैवोपदेशाद्भावजिनाइति-- इति प्रशस्तभावसंबन्धिनां सर्वेषां निकेपाणां तु प्रशस्तमेवेति व्यवहितपर्यावस्य मरीचे व्यजिनत्वमेव कथं युक्तमिति चेत्, नियूढस् । अपि च-" जो जिणदिट्टे जावे, चउब्विह सदहार सत्यम् । आयुष्कर्मघटितस्य व्यत्वस्यैकभाविकादिनदनिसबमेव । सयमेव न मह त्ति य,स निमोगरुईत्तिणायन्वो ॥१॥" यतत्वेऽपि फलीभूतभावाईत्पदनमनयोग्यतास्पस्थ प्रस्थकादिइति उत्तराध्ययनवचनाच्चतुर्विधशब्दस्य नामस्थापनाद्रव्य- दृष्टान्तेमरेऽपि नैगमनयात्रिप्रायेणाश्रयणात, योग्यताविशेषेच भावनेदभिन्नत्वेन व्याख्यानिक्षेपचतुष्टयस्यापि यथोचित्ये- कानिवचनादिनाऽवगते दोषमुपेत्यापि तेषां वन्दनवैयावृत्यानाराध्यत्वमविरुकम् । अत एवाप्रस्तुतार्थापाकरणात प्रस्तु. दिव्यवहारः संगच्छत एवाऽतिमुक्तकार्वे वीरवचनाद्भावितार्थव्याकरणाच निक्षेपः फलवानिति शास्त्रस्य मर्यादा । कि भद्रतामवगम्य स्थविरैर्वतस्खलितमुपेक्ष्याऽम्लान्या वैयावृत्यं च-नामनि केपस्याराध्यत्वं तावत् " चोवीसत्थएणं दस- निर्ममे । किं च-"नमो सुस्स" इत्यादिनाऽपि द्रव्यनिरूपस्या Page #1232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेश्य (१२.ए) अभिधानराजेन्दः । चेइय राज्यत्वं सुप्रतीतम् । अकरादिश्रुतभेदेषु संशाव्यजनावरादीनां त्वविवक्षितत्वात् , अन्यथा चतुर्विशतिनामोपन्यासप्रसङ्गात् । भावश्रुतकारणत्वेन ब्यश्रुतत्वात् पत्रकपुस्तकनिखितस्य "तंद- श्रुतदेवतानमस्कारानन्तरमृषभनमस्कारोपण्यासानौचित्यात् । स्वसुभंज पत्तयपोत्थयलिहि" इत्यागमन अव्यश्रुतत्वप्रसिद्धः।। शुद्धनैगमनये ब्राया लिपेः कर्तुः लेखकस्य नमस्कारप्राप्तेश्चेति भावभुतस्यैव वन्द्यत्वे तत्पर्यायजिनवागपि न नमनीया स्वात्, न किञ्चिदेतत् । एतेवाकारप्रश्लेषादलिप्ये लेपरहिताय माह केवलज्ञानेन दृष्टानामर्थानां जिनवाग्योगेन सूपायास्तस्याः श्रोतृ- जिनवाण्यै नम इत्यादि तत्कल्पनाऽपि परास्ता, वाणीनमस्काषु भावश्रुतकारणत्वेन न्यश्रुतस्वात् । तदार्षम-"केवलनाणण- रस्य 'नमः श्रुतदेवतायै' इत्यनेनैव गतार्थत्वात, वक्रमार्गेण पुनस्थे, जाउं जे तत्थ पसवणजोगा। ते भासह तित्ययरो, वयजो. रुक्तौ वीजाभावात्। "वभीए ण शिवीए अट्ठारसविहे लिविविगो सुध हवा सेसं।" इति । वागयोगः श्रुतं भवति शेषम- हाणे पन्नसे" इति समवायाङ्गप्रसि प्रकृतपदस्य मौलमर्थमुखप्रधानं, व्यभूतमिति तुरीयपादार्थः । भगवन्मुखोत्सृष्टव पाणी ङ्ग्य विपरीतार्थकरणत्वोत्सूत्रप्ररूपणव्यसनं विनाकिमन्यत्कारणं बन्दनीया नान्येति वदन् स्वमुखेनैव व्याहन्यते, केवलायास्त- धर्मशृगालस्योति वयं न जानीमः? । केचित्तु पापिष्ठा नेदं सूत्र. स्याः श्रवणायोग्यत्वेन श्रोतृषु भावभ्रताजननात द्रव्यश्रुतरूप. स्थं पदं, "रायगिहचलण" इत्यत एवारज्य भगतीसूत्रप्रवृत्तः, ताया अप्यनुपपत्तेः, मिश्रायाःश्रवणेऽपि वत्रिणि स्थिता ए- किन्त्वन्यैरेवोपन्यस्तमित्याचवते तदपि तुच्चम् । नमस्कारादी. चामात् । पराघातबासिताया ग्रहणे च जिनवागप्रयोज्याया नामेव सर्वसूत्राणां व्यवस्थितेरेतस्य मध्यपदत्वात्। प्रति (नमअन्याया अपि यथास्थितवाच आराध्यत्वाकतेः । एतेन सि- स्कारस्य स्वस्थाने युक्तता) एवं च नमस्कारादौ प्राप्तिसूत्रे स्थि. काचलादेराराध्यत्वमापि व्याख्यातं, ज्ञानदर्शनचारित्ररूपभाव- तम-" बमो बंभीए विवीए " इति पदं प्रतिमास्थापनायात्य. तीर्थहेतुखेनास्य व्यतीर्थत्वादनन्तकोटिसिस्थानत्वस्यान्यत्र न्तोपयुक्तमेवेति मन्तव्यम् । विशेषेऽपि स्फुटप्रतीयमानतद्भावेन तीर्थस्थापनयैवात्र विशेषात्, “हित्वा सुम्पकगच्छरिपदवीं गार्हस्थ्यलीस्रोपमां, अनुभवादिना तथासिकौ श्रुतपरिभाषान्नावस्य तत्रत्वात् । अ- प्रोद्यद्बोधिरतः पदादभजत श्रीहीरवीरान्तिकम् । न्यथा बतुर्वर्णश्रमणसके तीर्थत्वं,तीर्थकरे तु तद्ग्राह्यत्यमित्यपि श्रागस्त्यागपुनव्रतग्रहपरो यो नाग्यसौभाग्यभू, विचारकोर्टि नाटीकेत,व्यवहारविशेषाय यथा परिभाषणमपरि स श्रीमेघमुनिन कैः सहृदयधर्मार्थिषु श्लाघ्यते? ॥१॥ भाषणं च न व्यामोहाय विपश्चितामिति स्थितम्जावनिक्षेपेतु एकस्मादपि समये पदादनेके , मविप्रतिपत्तिरिति चतुर्णामपि सिद्धमाराध्यत्वम् ॥२॥ (प्रति०) संबुका वरपरमार्थरत्नलानांतं ॥ (४) ब्राह्मी लीपिरिव प्रतिमा सूत्रन्यायेन बन्यति तदपल- अम्भोधौ पतितपरस्तु तत्र मूढो, वकारिणां मूढतामाविस्करोति निर्मुक्तप्रकरणसंप्रदायपोतः ॥ २॥" ३n बुप्तं मोहविषेण किं किमु हतं मिथ्यात्वदम्नोलिना, अथ नामप्रतिमावन्द्यां स्थापना स्थंपिवतिमग्नं किं कुनयावटे किमु मनो बीनं नु दोषाकरे । किं नामस्मरणेन न प्रतिमया किंवा जिदा काऽनयोः, प्रशसा प्रथमं नतां लिपिमपि ब्राह्मीमनालोकयन, संबन्धः प्रतियोगिना न सदृशो जावेन किं वा द्वयोः ।। वन्द्याऽहमतिमा न साधुनिरिति ब्रूते यन्मादवान् ॥३॥ तद्वन्धं द्वयमेव वा जममते ! त्याज्यं द्वयं वा त्वया , ( लुप्तमिति) प्राप्ती प्रथममादौ वचने नतां सुधर्मस्वामि स्यात्तर्कादत एव लुम्पकमुखे दत्तो मषीकूर्चकः॥४॥ ना माहीं लिपिमनालोकयन्नवधारणाबुद्ध्याऽपरिकल्पयन् "श्र. हत्प्रतिमा साधुभिन वन्या" इति यन्मादवान् मोहपरवशो | "किं नाम" इत्यादि । किं नामस्मरणेन चतुर्विंशतिस्तवादिमबूते, तरिक तस्य मनो मोहविषेण मुप्तं व्याकुलितम् । मामानुचिन्तनेन?, नाम्नः पुजलात्मकत्वेनात्मानुपारिवानाम्ना किमु मिथ्यात्वदम्भोलिना मिथ्यात्ववजेण हतं चूर्णितम् ।। स्मरणेन नामिस्मरणे तद्गुणसमापत्या फलमिति चेदत्राहअथवा-किं कुनयावटे पुर्नयो मम्नम् ? । यद्वा नु ति उ. प्रतिमया किंवा न स्यात्, भमुगुणसमुअलोकोत्तरमुद्रालस्प्रेकायां, दोषसमूहानिन्ने दोषाकरे बीनम् ? । “छायालेषेन म कृतजगवत्प्रतिमादर्शनादपि सकलातिशायिनगवलुपस्यानश्वविशति" इति श्रुतेर्मृतमित्यर्थः। अत्र “लिम्पतीव तमो. नस्य सुतरां संभवात् । जानि" इत्यादी लेपनादिना व्यापनादेरिव विषकर्तृकमुप्तत्वा तकमदिना लुम्पकमनामूढतामा अध्यवसामात् स्वरूपोत्प्रेक्षायाः कि "प्रशमरसनिमग्नं दृष्टियुग्मं प्रसन्नं, मादिर्घोतकः "संभावनमथोत्प्रेक्षा, प्रकृतस्य समेन यत्" इति वदनकमलमङ्कः कामिनीसरशन्यः । काव्यप्रकाशकार। अन्यधर्मसमानेवादिद्योत्योत्तेति हेमचन्द्रा. करयुगमपि यत्ते शस्त्रसंबन्धवन्ध्यं, चार्याः॥ अयं भाव:-"नमो बंजीए लिवीप"इति पदं यद् व्या. तदसि जगति देवो वीतरागस्त्वमेव" ॥१॥ इति । स्याप्रशतेरादाबुपन्यस्तं, तत्र ब्राह्मी लिपिरवरविन्यासः,सा यदि बोभ्युदयोऽपि प्रतिमादर्शनादू बहूनां सिद्ध एव। तदुक्तं दशवकाश्रुतज्ञानस्वाऽऽकारस्थापना तदा तन्वन्द्यत्वे साकारस्थापनाया | सिकनियुक्ती-"सिजंभवं गणहरं, जिणपडिमादसणेण पमित्भगवत्प्रतिमायाः स्पष्टमेव साधूनां वन्द्यत्वम, तुल्यन्यायादिति । कं । मणगपिधरं दशका-विमस्स णिज्जूहगं बंदे"|१| इत्यादि. तत्प्रवेष प्रकृतप्रवेष एव । यत्तु प्रतिमाप्रवेषसाधनाऽधकारित- नियुक्तिश्चसूत्रान्नातिभिद्यत तिव्यक्तमेव । विवेचयिष्यते चेदमुदयेन धर्मशृगालेन प्रलपितम्-ब्राह्मी लिपिरिति प्रस्थकदृष्टान्त- परिष्ठात् । नाम्नानामिना सहवाच्यवाचकभावसंबन्धोऽस्ति, न प्रसिद्धनैगमनयभेदन तदादिप्रणेता नानेयदेव एवेति, तस्यैवायं स्थापनाया इत्यस्ति विशेष इति चेत् अत्राह-प्रतियोगिनेतरनिःनमस्कार इति। तम्महामोदविलसितम्। ऋषभनमस्कारस्य 'न क्षेपानिरूपकेन भावनिक्केपेण सह, द्वयोर्नामस्थापनयोः,संबन्धः एव सिकप्रतिव्याक्तिऋषभादिनमस्कारस्य । किं सहशोना,सरशवचने न मिथः किश्चिद्वैषम्यमित्यर्थः। एकत्र ३०३ Page #1233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेश्य अभिधानराजेन्द्रः। वाचकभावस्यान्यत्र स्थापकभाषस्य संबन्धस्वापि विशेषात, (प्रताविति) जगवतीसूत्रे किं चारणः जहाचारणविद्यातादाम्यस्य तुजव्यादन्यत्रासंभवात अनया प्रतिबन्धा पुर्धादि. चारणभ्रमणैनंमिता प्रतिमानतिः न विदिता न प्रसिद्धा?; अपि नमाक्षिपति-तस्मात्कारणात हे जडमते! त्वया द्वयमेव नामस्था- तु प्रसिदैव । सुधर्मस्वामिना कण्ठरवेणोक्तस्य तत्र तरणिप्रकापना सक्षणमविशेषेण वन्द्यमद्वयोरपि भगवदध्यात्मोपनायकत्वा- शतुल्पस्य कुमतिकौशिकवाझ्मात्रेणापह्रोतुमशक्यत्वात् । ननु विशेषात् । अन्तरङ्गप्रत्यासत्यभावापेक्ष्यत्वे तु वयमेव त्वया यदुक्तं तद्यक्तमेव,परं चैत्यवन्दननिमित्तालोचनाभावे नाराधकत्याज्यं स्यात,तथानिष्टम,नाम्नः परेणाप्यङ्गीकरणात्,प्रत पवत. त्वमुक्तमिति तेषां चैत्यनति स्वारसिकी नाभ्युपगच्छाम . कात् मुम्पकमुखे मषीपूर्वको दत्तास्यात्, मालिन्यापादनादिति त्याशङ्कायामाह-(तेषामिति) तेषां जाचारणविद्याचारणाप्रायः। अत्र मषीर्चकत्वेन मौनदानविवकायां 'कमलमनम्भसि | नां सन्युपजीवनात, तस्य प्रमादरूपत्वात्तु पुनर्विकटनानाश्त्यादाविव रूपकगर्जा यथाश्रुतविवक्तायां त्वसंबन्धं संबन्ध- बादालोचनाभावात् “मालोयणा चियाणेति" नियुक्तिवचकपाऽतिशयोक्तिः। प्रथात्र स्थापना यद्यवन्द्या स्यात्तदा नामाप्य माद्विकटनाशब्दस्यालोचनार्थः। प्रनाराधना, तदन्यतो निमिधन्यं स्यादित्येतस्यन तर्कत्वस, आपाधापादकयोभिनाभयत्वा त्तात्तदाह-साऽनाराधना कृत्यस्य प्रमादालोचनस्याकरणात्, दिति चेत,पापाचापादकान्यथानुपपत्तिमर्यादयैव विपर्ययपर्य अकृत्यकरणं चैत्यवन्दने मिथ्यात्वकरणं, तत् पुरस्कृत्यानाराधवसायकत्वेनात्र तोक्त। अत एव यद्ययं ब्राह्मणो न स्यात्ततस्त नायामुच्यमानायां भग्नवतत्वं भवेत, मिथ्यात्वसहचारिणामनत्पिता ब्राह्मणो न स्यात,उपरि सविता न स्याद् चूमेरालोकक्त्वं न्तानुबन्धिनामुदयेन चारित्रस्व मूलत एवोच्छेदात, “ मूलनस्यादित्यादयस्तर्काःसुप्रसिका। विपर्ययपर्यवसानं च परेषा रोजं पुण हो बारसरहं कसायाणं" इति वचनात । तनालोमनुमितिरूपमस्माकं खतन्त्रप्रामतिरूपमित्यन्यदेतत् । नाबनिक्के चनामात्रतोऽपि शोधयितुं शक्यमित्ययं जारो मिथ्याकल्पकस्य पो यद्यवन्धस्थापनानिकेपप्रतियोगी स्यादवन्धनामनिक्षेपप्र शिरस्यस्त्वित्येताम, सन्नयः समीचीननयः, स एव मिथ्याक. तियोग्यपि स्यादित्येवं तर्कस्य ब्यधिकरणत्वं निरसनीयम , ल्पनाविषविकारनिरासत्वात्सुधा पीयूषं, तेन साराः, बुधानां अनिष्टप्रसङ्गरूपत्वात, प्रतिवन्धे चात्र स्वातन्त्र्येण तर्क शति सिकान्तपारहश्वनां गिरः पाचः॥६॥ प्रति विजावनीयं तर्कनिष्णातैः। ननु चारणानां यावान् गतेगोचर उक्तस्तावदेशगमनपरीकाप्रतिबादीनेव जाग्याऽऽक्षिपस्तदाराधकानभिष्टौति यामेव मुख्य उद्देशः, तेभ्यः क्रियमाणा या तत्तच्चैत्वानामपूर्वा(५) चारणकृतवन्दनाधिकारः । चारणदेवधन्दितत्वम् या दर्शनाद्विस्मयोद्धोधेन तन्नतिर्न तु स्वरसत ति, तदाचरणं न शिष्टाचार ति सर्वेषां साधूनां न तन्यता तसष्टान्तेनेति . स्वान्तं ध्वान्तमयं मुखं विषमयं हग् धूमधारामयी, कुमतिमतमाशय निषेधतितेषां यैन नता स्तुता न नगवन्मूतिर्न वा प्रेक्षिता । तेषां न प्रतिमानतिः स्वरसतो लीलानुषङ्गातु सा, देवश्चारणपुङ्गवैः सहृदयैरानन्दितैर्वन्दिता । सन्ध्यातादितिकालकूटकवलोकारा गिरः पाप्मनाम् । ये त्वेनां समुपासते कृतधियस्तेषां पवित्रं जनुः ॥५॥ हन्तैवं न कथं नगादिषु नतिर्व्यक्ता कथं वेह सा, " स्वान्तमित्यादि "। यैनंगबन्मूर्तिन नता तेषां स्वान्तं हदयं चैत्यानामिति तर्ककर्कशगिरा स्यात्तन्मुखं मुषितम् ॥ ७॥ ध्वान्तमयमन्धकारप्रचुर, हृदये नमनप्रयोजकालोकानावा- ( तेषामिति ) तेषां जलाचारणविद्याचारणानां प्रतिमानतिः देवातनमनोपपत्तेः, वैर्भगवन्मूर्तिर्न स्तुता तेषां मुखं विषम स्वरसतो न,खरसाश्रमानक्तिसंसुलितः परिणामः तु पुनः,लय, स्तुतिसूक्तपीयूषाभावस्य तत्र विषमयत्व एवोपपत्ते, भ्याप्तात् लब्धिप्राप्तात लीलानुषमात्, सन्धिप्राप्तलीलां दिहपैर्भगवन्मूर्तिः, वा अथवा, न प्रेकिता तेषां ग् धूमधारा क्षया प्रवृत्तानां तत्रापूर्वदर्शनीसंनिधिकदर्शनतयेत्यर्थः। न तु मयी, जगदशाममृतसेचनकतत्प्रेकणाभावस्य धूमधारावृत- अस्वारसिकनत्या काऽपि क्षतिः,स्वारसिककृत्यकरणस्यैव दोनेत्रत एवोपपत्ते, ध्वान्तत्वादिना दोषविशेषा एवाध्यव षत्वाव, इत्येताः पाप्मनां लुम्पाकदुर्गतानां गिरः कालकूटकबसीयन्ते इत्यतिशयोक्तिः, सा चोक्तदिशा काव्यविनानु लोमाराः, उडीर्यमाणकालकूटकवलाश्त्यर्थः। भक्कितमिथ्यात्वप्राणिताऽवसेया। ये तु कृतधियः पण्डिता एनां भगवन्मूर्ति कालकूटानामीरशानामिवोझाराणां संभवात् । तत्रोत्तरम-हन्तेसमुपासते तेषां जनुः जन्म पवित्रं, नित्यं मिथ्यात्वमलपरि ति निर्देशे,एवं लीलाप्राप्तस्य विस्मयेन साधूनां वन्दनसंजवे कर्य त्यागात् । कीरशी १, देवैः सुरासुरव्यन्तरज्योतिकैः, चारण नगादिषु मानुषोत्तरनन्दीश्वररुचकमेरुतदारामादिविषये न चापुङ्गवः चारणप्रधानः जवाचारणविद्याचारणैः, सहदय - रणानां नतिः, तत्राप्यपूर्वदर्शनजनितविस्मयेन तत्संभवाताकथं नतस्वैरानन्दितैर्जातानन्दैर्बन्दिता, हेतुगर्भ चेदं विशेषणम्, चेह भरतविदेहादौ ततः प्रतिनिवृत्तानां चैत्यानां प्रतिमानां सा देवादिवन्दितत्वेन शिष्टाचारात्तत्समुपासनं जनानां पावि. नतिः इत्येवंभूता या तर्ककर्कशा गौस्तया तन्मुखं पाप्मवदनं ध्यायेति भावः । (प्रति०) (भत्र 'चारण'शब्दो श्यो. मुषितम, अनया गिरा ते प्रतिवक्तुं न शक्नुयुरित्यर्थः। कर्कशपऽस्मिन्नेव भागे ११७३ पृष्ठे) दंतर्कस्य निविममुद्राहेतुत्वमनिव्यनक्ति पत्र यथा गोचरचर्योंउक्तमेव स्वीकारयंस्तत्र कुमतिकल्पिताशङ्कां निरस्यबाह- देशेनापि निर्गतेन साधुनाऽन्तरोपनताः साधवः खरसत एष प्रज्ञप्ती प्रतिमानतिर्न विदिता किं चारणैर्निर्मिता, बन्दनीयाः, तथाऽगमगोचरदर्शनायामपि, एवं चारणैनन्दीश्व. तेषां लब्ध्युपजीवनाद्विकटनानावाचनाराधना। रादिप्रतिमानतिः स्वरसत एव अननोपनतपीयूषवृष्टिवत्परम प्रमोदहेतुत्वादित्युक्तं भवति ॥ ७॥ सा कृत्याकरणादकृत्यकरणाद्भग्नव्रतत्वं नवे (६) अथोक्तालापके-"तहिं चेहयाई चंदर " इत्यस्यादित्येता विलसन्ति सन्नयसुधासारा बुधानां गिरः॥६॥। यमर्थः-यथा भगवद्भिरुक्तं, तथैव नन्दीश्वरा. Page #1234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेहय दिमिति अहो ! तथ्यमिदं भगवञ्ज्ञानमित्यनुमोदते इत्यर्थः चैत्यपदस्य ज्ञानार्थत्वादिति मुग्धपर्षदि मूर्धानमाधूय व्याख्यातुरूपहसन्नाह " ज्ञानं चैत्यपदार्थमाह न पुनर्मू मनोयों द्विपन, बन्यं तदपूर्ववस्तुकलानादाचार्यपि । धातुप्रत्ययरूढिवाक्यवचनन्यारूयामजानमसो महावस्तु नमः श्रियं न लजते काको मरासेष्विव ॥ ८॥ यो द्विपन जिनशासने नाममा पुनः प्रभो, किंभूतं ज्ञान तथ्य यापूर्वे वस्तुमा कमनात्परि छेदा बन्धमनुमोद्यमिति योगः किंभूतमपि दृष्टाचार्य, हद लोके चैत्यचन्दनसंचरिष्णुन विष्णु शब्दार्थमपि अपूर्वदर्शनेन विवोत्पादकत्वाद् भगवानस्व बनाये "दाई बंदर" इत्यस्यानुपपत्तिः, श्ापूर्वादर्शनात् अपिना निपातेनानौचित्यं दर्शयति असौ जमः, प्रश्चाधत्सु प्रेक्षावतां मध्ये, श्रियं सडुतरस्फूर्तिसमृद्धिं न लभते, केषु क श्व, मरालेषु राजहंसेषु काश्य इत्युपमा। किं कुर्वन् जानन् कां धात्वादिव्याख्याम् । सपादिस्वामी 'बिती' संज्ञाने इति धातुकर्म तथा चात्यतिमा पार्थ चितीसंज्ञाने संज्ञानमुत्पद्यते काष्ठकर्मादिषु प्रतिकृर्ति दृष्ट्वा -'जहा एसा भरिहंतपडिम सि चूर्णिस्वरसादिति प्रकृते ज्ञानमर्थे वदन् प्रकृतिप्रत्ययानजिक एव । तथा रूढरप्यनभिज्ञ एव, वैत्यशब्दस्य जिनगृहादाढत्वात् । स्यं जिनकस्तद्वियोजनसमाता" इति कोशात् । एतेन विपरीतभ्युत्पचानामभेदप्रत्यययोगार्थोऽपि निरस्त योगा क पाखादिप्रसंगात वाक्यस्यापि । वाक्यं साकासमुदायाचे बंद " इति। स्थानि - त्यानि वन्दते इति हि वाक्यार्थः । स च चैत्यपदस्य मार्थत्वेन घटते भगवज्ञज्ञानस्य नन्दीश्वरादिवित्वाभा बाद जयचित्वस्याम्यसाधारणयेनाविस्मापकत्वात् तेन न दीश्वराः प्रतिमाचाचकतयाः प्रामादयानि च प्रामगवचनाविश्वासेन मिध्यादृष्टित्वप्रसंगादिति । वचनस्य । ज्ञानस्यैकत्वात् ज्ञानार्थे चैत्यशब्दस्पापीष्टबहुवचनस्य कुत्राप्यननुशासनात्सिद्धान्तेऽपि तथा परिभाषणस्यानावाव् । अन्यथा " केबलनाणं " इत्यत्र स्थले " श्राई वि" प्रयोगापते, यदि वा पूर्वभगवानप 46 प्रयोगः स्यादिति कल्पते तदा गर्भगृहस्यमयाचित मृगपुत्रस्य यथोक्तस्य दर्शिनो गौतमस्याधिकारेऽपि तथा प्रयोगः स्वादिति किमसंवादिना पामरेण सह विचा रणया । तस्स छाणस्स " इत्यत्र तच्छन्दाव्यवहितपूर्ववसिंपदार्थपरामर्श करायसादि चैत्य बन्दननिमितको चनयुकाया एवानाराधनाया अभिधाना गीतमेतदिति । मै यम् तवदेन व्यवहितस्याप्युत्पतन गमनस्यैवालोचनानिमित कालोचनानि परामर्थात्, वतनयाऽहितेन योगमा पि दोषायाएव च यतनया ग्रामानुधामं चिता गौतम स्वामिनोदयाय चारणमाथि प्र मे निर्दोषता द्वन्द चोकमुत्तराध्ययननिर्युकी"बरमसरीरो साहू, आरुती जगवरंण श्रष्ठो सि । एयं तु उदाहरणं, कासी य तर्हि जिणयरिंदो ॥ २५ ॥ " 9 ( १२१९ ) प्रभिधानराजेन्द्रः । 3 चेश्य सोहण तं भगवो, इति वहिं गोयमो पहितकिसी आरुज्झतं गवरं, परिमात्र बंदर जिखाणं " ॥ २६ ॥ चि ॥ उस० नि० १० अ० ।" भगवं व गोयमो जंघा - चारली तासंतुम्मि विस्तार उप्प for " चूर्णिः । न च लब्धिप्रयोगमात्रं प्रमादमग्लान्या धर्मदेशनादिना तीर्थोऽपि तत्प्रसंगाव किं तु तत्कालीनत्यमिति निरुत्सुका नभोगमनेनापि चन्दनेन दोष इति दृढतरमनुथेयम् मत एव भगवत्य तृतीयशतके पञ्चमोद्देशके सङ्घकृत्ये साधोबैक्रिय करणस्य विषयमात्रमुक अनगारपूर्वमभियोगे चामालोचनायामनियोगेषु गतिरुका प्रशस्तपापारेषु न कितित्तथा तत्पाठ:- "अणगारे से ! जाविया बाहिर पो दि ' अणगार' शब्दे प्रथमभागे २७४ पृष्ठे उक्तः ) ( प्रति० ) (७) अथ देववन्द्यतामधिकृत्य देवानां शरणीकरणीयां भगवन्मूर्त्तिमभिष्टौति चैमुनीन्द्रनिश्रिततया शक्रासनदमावधि, मौ भगवान् जगाद चमरस्योत्पातशक्ति भुवम् । जैनीं मूर्तिमतो न पोऽत्र जिनवजानाति जानातु कस्तं मदरहितं स्पष्टं पशुं पण्डितः ||५|| (अदिति) अस्तीकराः चेत्यानि तत्यतिमा मुनीन्द्र परम सौम्य भावनात तिता किरणेन हेतुना, भगवान् ज्ञातनन्दनः, चमरस्यासुर कुमारराजस्य, शक्रस्य चासनमाऽऽसनपृथ्वी, साऽयधित्र पस्यो क्रियायां तथा चम रस्योत्पातस्य शक्ति भुवं निश्चितं जगाद मतः-मदनगरमध्ये चैत्यपादयोऽत्र जिनशासने, जैन मूर्ति जिनवत् जननुल्यां न जानाति तं मये मनुष्यं कः परितः मोशानुगतप्रज्ञावान् जानाति १, न कोऽपीत्यर्थः । सर्वेषामपि प्रेक्षावतां स मनुष्यमध्ये न गयनीय इति तात्पर्यम् फीड तम अविवेकितथा स्पष्टं प्रत्यक्षं पशुभ्यां रहितं पुन्हामामात्रेण तस्य पशोर्वैधर्म्य नाम्यदित्यर्थः व्यतिरेकालङ्कारगर्भोऽशापः प्रति असुरकुमार' शब्दे प्रथमभागे ८५२ पृष्ठे, ' चमर' शब्दे अस्मिन्नेव भागे १९१२ पृष्ठे च तत्कृत बन्दन कपाठ ततः ) अत्र लुम्पक:-" भरते बा अरिहंतवेश्याणि वा " इति पदद्वयस्यार्थः " समर्थ बा माहणं वा " इति पदद्वयस्यैव । अन्यथा-" तं महाडुक्वं खलु" इत्यादी अर्हतां भगबता मनगाराणं च भगवत्याशातनया महादुःखमत्याशासनाद्वयस्यैवोपनबादुपकमोपसंहारविरो धापचेरिस्वाद तनुच्यस्योपक्रमे एकार्थत्वे, उपसंहारेऽपि तब गले पादिकया पदद्वयपाठप्रसङ्गात्, अन्यया शैलीमङ्गदोषस्य वज्रपतानुपपत्ते करत विरोधपरिहा रोपाय इति चेत्, माकय कर्णामृतं सनम, अरुण मातुः । उपकने त्रयाणां शरणीकरणीयत्वे तुझ्यत्वे विचासु प्रकृतिवज्रस्य शक्रस्योपद्वारे पाशातनया दाशानायामेचान्तचा विवक्षितानां प्रयत्रिशत एवं परिणयनाद्दिरोध इति । यदपि भाबाईतां भावसाधूनां च महान्मध्ये - स्वयमयुक्तमिति कल्पते, सिद्धान्तापरिज्ञानसं. उग्रस्वकालिकस्य भगवतो ज्याईत वासुकुमारराजेन शरणकराव, म्यादेवः शरणीकरणे स्थापनाईतः शरयकरणस्थ न्यायप्राप्तत्वात् चैत्यशरणीकरणीयत्वे स्वस्थानादौत " Page #1235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इय सस्यान्महाबीर दार रामस्थित प्रयोजनं स्यादित्य तु महाविदेदे मायातामपि सस्यानानतिक्रम्य इच्छ रणीकरणं कथमित्याशङ्कयैव निर्मावनीयम्, एतेनात्र वैत्यशसदस्य हानमर्थ इति मूढकल्पितार्थोऽपि निरस्तःप्याः केवलज्ञानाभावात्, अर्हतः पृथक् तद्ज्ञानस्य प्रहे साधुभ्यः पृथगपि तद्ग्रहापत्तेः । तथा च " अरिहंते वा अरिहंत वेदआाणि वा भाविअप्पणा अणगारा अणगारचे श्राणि वा " इति सेरिति न किञ्चिदेतत उपद्वारे पदविस्मृतेः। संमा न्यूनत्वं न दोषः 'मामा संस्पृश' इत्यादिनाऽलङ्कारानु यामिनः महावीरवाशातनाया उत्कटकोटिक संशयरूपसंभा यामाशासनाद्वयश्चैव समावेशतात्पर्य दोष इत्यन्ये। अथानाशातनाविनयेन देवैवेन्दिता जगवन्मूर्त्तिः [क] सचेतसो न वन्देत्याशयेनाह ( १२१२ ) निधानराजेन्द्रः | मूर्तीनां त्रिदशैस्तया जगवतां सक्यां सदाशातनात्यागो यत्र विधीयते जगति सा ख्याता सुधमी सभा । इत्यम्वर्यविचारणा अपि हरते निषां शोर्नध्वान्तच्छेदनमा नमधियं धूर्क बिना कस्य न ? | १० | ( मूर्तीनामिति) यत्र मूर्तीनां सदाशातनात्यागो विधीयते सा स प्रा सुधर्मेति यातेत्यम्बधिचारणाऽपि सुप भावनाऽपि जडधियंम्पर्क मुलुक बिना कस्य शोकां मरते हैं, अपितु सर्वश्वशनिंद्रांशी डुर्नया एव ध्वान्तानि तेषां छेदे रविप्रज्ञा तरणिकान्तिः, रविसनितु ध्यायेात्तरकार्यानुपपत्तेः विनो चिपकाव्यम् (प्रति०) ('अगमसि प्रथमभागे १६६ पृष्ठे सजा इन्द्रा मैथुनं कर्तुं न म्भितजिनशक्तिप्रज्ञावादित्युक्तं दशमशते पञ्चमोद्देश के) एवं षष्ठे सूर्यनातिदेशेन शक्रलुधर्माधिकारोऽपि प्रतिमापूजाप्रतिपादनाद् भावनीयः । तथा हि- "कहि णं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स देवरयो सभा सुदमा पचता है। गोषमः ! जंबुद्दी दावे मं दाहिणं श्मीसेरयणभाष पुढ० पवं जदा राया० जाय पंचवर्डिसया पता । तं जहा असोगवसिए० जाव म सोम्यसिप महाषिमाणे भतेरसज्ञोपणमयससारं धायामविवं एवं जटा सूरियाने तदेव उपा सिद्धाय पुराम दारे विस जेव जिणपमिमा तेणेव उवाग उवागदिता जिणपमिमा आमोद पता करे, होमहरथगं गिफ्ट मित्य मणिपडिमा सुरजणा गंधोद निहाइ सि जाव आयरक्षति।" अनिकायाः परो ग्रन्थस्तावद्वांच्यो यात्र दारककाः । स चैवं लेशतः- "तते णं से सक्के देविंदे देवराया स सुहम्मं अणुवावर खोडास पुराधाभिमुनिस सक्कस्स देविंदस्स देवरायस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुर मेणं बोरासी सामाजिसाहसीओ जिसीयति, पुरच्छि मे मदिस दाहरणं परि साए पारसदेवसाहस्मीयो विमोति दाहिमा परिवार बसाहसीओ, दाहिणपचणं वाहिरिया परिवार सोनसदेवसाहस्सी विसीति । " इत्यादि (प्रति०) चेय अथ सूर्याभाधिकारेण प्रतिमारीणां शासनार्थं स्तेनानां कादशी प्रदर्शस्ता अभिनीतिमाकपचाच हितार्थतां हृदि विदन् तैस्तैरुपायैर्यथा, मूर्तीपूजितवान् दा जगवतां सूर्याजनामाऽसुरः । याति युवक कुरे, तत्रत्वं नृपप्रश्नोपाङ्गसमर्थिता इतधियां व्यक्ता तथा पद्धतिः ॥ ११ ॥ " प्रागित्यादि " । प्रागादौ पश्चाच्चोत्तरं, तद्भावनवान्तरसं माहितार्थितां श्रेयमिति दस्वादितू जाग माचैरुपायेनं किसानप्रकारचा सूर्याननामाऽसुरः नगवतां मूर्तीः पूजितवान् तथा व्यक्ता प्रकटा, नृपनोपाराजीयोपा समर्थित सहेतुकं निर्णीता, पद्धतिः प्रक्रिया तधियां मूलो लुम्पकमतियासितानां तव प्रच्युतो वर्णों यस्मा निर त्यर्थः । तेनातिप्रतिबन्धानाचादतिदादयते। कर्णकुदरे नात्र संस्कृव्यते तप्तत्रपुम्बं याति । सान्यकराणि दुर्मति कर्णे गतदोषाचा ज नयन्तीत्यर्थः । ग्रह "गुरुवचनमपि जनयति श्रवणस्थितं शूलम भव्यस्येति । श्रत्र तप्तत्रपुत्वं यातीति निद शेगा, "अनवस्तुसंबन्ध उपमां परिकल्प्य यः निदर्शनेति "मम्म टवचनात् । असंबन्धे संबन्धरूपाऽतिशयोक्तिरित्यपरे । (उक्तार्थे चालायकस्तु सूरियान' शब्दे लक्ष्यमासतथ्य रियादय सेयः) प्रति० । रा० । 6 नन्वत्र प्राकू पश्चाश्च हितार्थिता देवभवापेक्तयैव पर्यवस्यति, तथा वैदिकाभ्युदयमात्रं प्रतिमापूजनादिफलं सूर्यानस्य न मोहार्थिनामादरणीयं देवस्थितेवानामेवाणी पायादित्याशय निराक रणपूर्वे तादृशं कारणमाक्षिपन्नाह नाम प्रेत्य हिसार्थितोच्यत इति व्यक्ता जिनाच स्थितिः, देवानां न तु धर्महेतुरिति ये पूत्कुर्वने दुर्द्धियः ।। प्राक् पश्चादिव रम्यतां परजव श्रेयोऽर्पिता संगत, क्या हितार्थतां तां पश्यन्ते न किम् ? |१२| ( नात्रेति ) नात्राधिकृते सूर्याभकृत्ये प्रेत्य हितार्थितोच्यते । "मे चाहिचा" इत्यादिवचनात्। " पाहि " इति पचन रूपवचनकर्षस्थ प्युत्वादिति जिना व्यक्ता कटा, देवानां स्थितिः स्थितिमात्रं, न तु धर्मसाधनम् इति दुर्मियों दुजः कुर्वते शिरसि रजः किन्त इय बाई पति से प्रापयतामिव शा पश्चाप्य दिसार्थितां परभवमेयोऽर्चितायां संहिताय उयलोकार्थता परिणामीत्यर्थः । किं न पश्यन्ति ?, तथाऽदशेने तेषां महाप्रमाद इत्यर्थः । प्राक्पश्चाम्यतावचनं चेदं राजप्रभीये" तरणं केसीकुमारसमणे पपसि एवं वयासीमाणं तुमं पपसी पुत्रं रमणिजे पच्छा अरमाणजे नवेजासि" (इत्यादि 'पपी' शब्दे शी कुमारसंवादे स्फुटभविष्यति) प्रति० रा० । अत्र यदेव भावजिनवन्दने फलं तदेव जिनप्रतिमानेऽप्युक्तम्। न चैतत्सूर्यानदेवस्य सामानिकदे ववचनं न सम्यग् भविष्यति इत्याशङ्कनीयस् सम्यग्टशां देवानामप्युत्सूत्र मारियासंभवात, तर्हि कायागमे कि पुि Page #1236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१३ ) अभिधानराजेन्द्रः । चेय 1 कराणज्जं " इत्यादि सम्यम्टष्टिना पृष्टोऽप्यैहिक सुखमात्र निमिले नदि" हिचा हा " इत्यादिना ऽपि प्रत्युत्तरहितं दृष्टम् ते चापि बन्दनाधिकारेऽपि कचित् "खादिवाद" इत्याद्येो णं इह नवे वा आणुगामियसार भविस्सह "सि नोकपाठवैषम्य कदर्थनाऽपि । किं च " पच्छा कहुअ विवागा" इत्यत्र यथा पश्चा कन्दस्य परभवविषयत्वं तथा प्रकृतेऽपीति किं न विभावयसि । एवम् " जस्स नस्थि पुरा मज्जे, तस्स उक्कोसिया" इत्यत्राऽपि पुरा पश्चादिति वाक्यस्य त्रिकालविषयत्वं व्यकमिति प्रकृतेऽपि तद् योजनीयम् ॥ १२ ॥ स्थितिविषयाशङ्कामेव समानधर्मदर्शनेन उपसंहरन्नाद बाप्पादेखि पुजनादिविषदांमूर्तेजनानां स्थितिः, सादृश्यादिति ये वदन्ति कुधियः पश्यन्ति भेदं तु न । एकत्वं यदि ते वदन्ति नित्रयोः खीवेन जाया अम्बयोस्तत्को वा पततामसंहतरं वक्त्रं विधातुं बुधः ।। १३ ।। १ (बाप्यादेरिति वाप्यादनेन्हा पुष्करिण्यादेरिय, आदिशतो महेन्द्रध्वजतोरणसभाशासनविकादिपरिमदः । दिषां दे चानां जनानां ते पूजना स्थितिः स्थितिमा अनशब्दाभिधानसाम्यादिति ये कुधियः कुत्सितबुरूयो, वदन्ति मे तु यमाणं न पश्यन्ति ते यदि खीनीलिमा निजयोः स्वकीययोर्जायाम्ययोः कान्ताजनन्योर्वेदम्ति एकत्वं, तहिं को वा को नाम वक्त्रं मुखमसय यात् शयेनोद्द्घाट,बुधः पतिः पिधातुमाच्छादयितुं पततां पराक मा पस्किरणायोगानको या मिति भाषः प्रतिवस्तूपमया दूरान्तरेऽपि सम्बन श्राम्यतामुपहासोज्यते । तदुक्तम् " का कायमलौकिकं समासे निसर्गस्थितो, गाम्जीर्ये महदन्तरं वचसि यो नेदः स किं कथ्यते ? पताषत्सु विशेषणेष्वपि पुनर्यैर्वेदमालोक्यते, के काकाः सनि ! के च दंसशिशवो देशाय तस्मै नमः " ॥ १३ ॥ दहेतुनेोपदर्शिनमा पा कर्मन्यपूर्वकता शक्रस्तवप्रक्रियाजावाजितहृद्यपद्यरचनाssलोकप्रणामैरपि । ईक्षन्वेऽतिशयं न चेद्भगवतां मूर्त्यर्चने स्वःसदां बालास्तत्पथि लौकिकेऽपि शपथप्रत्यायनी या न किम् ? | १४ | (सत्यादि) सव्ययसापूर्व कल्वमेकं निप्रतिमान स्यानुषङ्गिकत्वाद्य चैनतो भेदकं, व्यवसायनतासंभवे कयोपशमादिहेतुत्वातजिनशासने नासिकम् । तदुक्तम्-" उदयकखश्रोवस मिभो, ववसायं च कम्मुणा भणिया । दव्वं खित्तं कालं, भावं च भवं संपप्य ॥ ॥ इति जीवामिवृत्ती विजयदेवाधिकारे प्र स्वले विवृतमास्ते, तदालापकश्च प्रकृतात्नापकादावशिष्ट इति न पृथग् लिखितः । श्रत्र पापिष्ठाः ननु “ धम्मियं ववसायं गिरहद्द " ३०४ चेय इत्यत्र धार्मिको व्यवसायः कुलस्थितिरूपधर्मविषय एष युकोऽतएव पुस्तके व शास्त्रमित्यत्रापि धर्मशब्दार्थः कुि तिधर्मच मुख्यवसायस्तु देवानामध्येच तिथि साप पण ते धम्मिए ववसाए, अधम्मिए बबला, धम्माधामएवबसाए" इति तृतीये स्थानके व्यवसायिनां धार्मिका धार्मि धार्मिका धार्मिकाणां संयतासंयत संयतासंयतलक्षणानां संबत्वादेनोच्यमानाश्रयाभवन्तीति व्याख्यानाचारित्रिकामेष धार्मिकव्यवसायसंवादिति प्राह प्रष्ट फिमे देशसंयतानां सामाचिकायायोऽपि न धार्मिकाया इति स्थापयितुमुद्यतो दिवं यस्यास्यामो sa एव संयमासंयमदेश संगमल कणभेदाद्वेति पक्कान्तरेण वृत्तौ मिति तदपि नेयमनातिपरिभाषाविशे युज्यते, अन्यथाऽविरत सम्यग्दृष्टी नां सम्यक्त्वाध्यवसायः कुत्रावेदिति ने निर्माय विचारयन्तु देवानां प्रियाः एकान्तबिरताविरत सम्पादयः कदाचिदपे या तृतीयेऽन्तर्भावयिष्यत इति चेतकान्तेन त्रैराशिकमतप्रवेशापत्तिभिया पकत्रयस्य पक्कद्रय एवान्तर्माषविज्ञया जिनपूशादिसम्पदेषा च पवेति पद का बाधा है। अन्य था स्वया देवानां जिनवन्दनाद्यपि कथं वक्तव्यं स्वात् ? सर्ववेिरत्यादियोगकेमप्रयोजकान् व्यापारानेच धर्मादिशब्दवाच्यान् स्वकु इति यदेतसे परिभाषन्ताम अनुमो हारस्तु पुचानुगतकिये चतुर्थगुणस्थानकानु रोधादर्शनाचाररूपत्वादनव्यवसायात्मकं जिनादि विका चोकलानाङ्के "सामाश्वयवातिथि प तं जहा - नाणबवसाए, दंसणववसाए, चरित्तववसाए ष्ठि " ॥ द्वितीयदत्वं शक्रस्तव प्रक्रियाप्रसिकप्रणिपातद एक कपाठः । न दिवाप्यादिकं पूर्णता पाप्यादेः पुरतः शक्रस्तपः पतितोऽस्ति किन्त्वत्प्रतिमानां सकलसंपद्भावान्वितस्थितिमात्रत्वे ऽन्यत्राप्य पनि तारणस्यं तारकमया भावन मायोम्यानितुं शक्यतेनादिव्यापारं विना शान्त रसास्वाद इति यत्र दुयोज्यं सह । तथा भावैः पापनिवेदनप्रति पानि पानि पद्या म्यष्टोत्तरशतानि तेषां खनामप्रतिमानां पुरस्तादपि तृतीयं वस्तुमानां महोदयहेतुत्वेन सूत्रेऽभिधानात स्वधर्मापकत्वात् नहि देशकृत तथा चतुर्थकम् आलोकप्रणाम पत्र जिनप्रतिमास्तत्र “भोरपणा करे इति पाठो तुति विशेषोऽपि धर्माक्षेपकः एतैरपि स्वसदां देवानां भगवतां मूर्त्यचंने इति । चेत् यदि अतिशयं त्रिशेषं नेकन्ते तर्हि बासा विशेषदर्शन हेतुशक्तिविकता लुम्पकाः, सोफिकेऽपि पथि जोजनादी, शपथेन कोशपानादिना प्रत्यायनी प्राः विश्वासनीयाः किं न भवन्ति ?, अपि तु तथैव भवन्ति । कामिनी करकमलोपरि स्थिते शिष्यानी या जोजने किसिंह पुरीमनं वेति संशयात्तेन विरमेयुरित्यर्थः । न चायं वस्तुनोऽपराकिंतु स्थाणोऽपगचो बननपश्च तीति । कियदेषां महामोह धूत्र प्रवर्तित नाट्य बिम्बित वर्णनीर्यमिति दिए ॥ ६४ ॥ अथ स्थितिमभ्युपगम्याप्याहजयोऽन्यगबोधिरस्प भवान् सहाष्ट्टराराधको यश्वोक्तश्वरमोऽर्हता स्थितिरहो सूर्याजनाम्नोऽस्य या । " " Page #1237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५.१४ ) अभिधानराजेन्द्रः । चेय सा कपस्थितिवन्न धर्म्मपरतामन्वेति जात्रान्वयान् मा काममत्र के अपि पिशुनैः शब्दान्तरैतिः। १५शा ( जन्य इत्यादि ) जव्यो भवसिद्धिकः, अञ्यग्रगबोधिः समीपगतबोधिः, सुनभवोधिक इति यावत् । अस्पजनजी पवना, परिमितसंसारिक इत्यर्थः । सती समीचीना दद्विर्यस्यासी सद्दष्टि सम्पदाष्टरित्यर्थः धाराको हानाथा राजनकर्ता च पुनः करमोऽयमिमयोऽता महाधीरेणोक्तः, अहो ! इत्याश्चर्ये अस्य सूर्याभनाम्नो देवस्य या स्थितिः, सा कल्पस्थितियन्न धर्मपरतां न धर्मव्यवहारविश्यतामन्वेति श्र तिक्रामतिमा जान्याभावसंवन्धात् कृतेपिशुनः शब्दान्तरैः स्थित्यादिशन्देवेशिता ज्यामोदं प्रापिता मानक स्थिति रित्यादिसमाज मा भूयनित्यर्थः । सूर्यानस्य मध्यमादिनिधायक आलापको यथा-" नंते वामदेवे कि भवसिद्धिए, श्रभवसिद्धिए, सम्मदिट्ठी, मिच्छद्दिट्ठी, परिसं सारिए, भसंतसंसारिए, सुलजबोदिए, लबोहिए, भाराहर, विराहए, चरमे, अचरमे ? । समणे भगवं महावीरे सूरियाभं देवं एवं वबासी-सूरियामा ! तुमं खं भवसिद्धिप णो भवसिद्धिए० जाव चरमे यो अचरमेति । " ( नवसिकिएस) नवे सिद्धिर्यस्यासो भवसिफिक इत्यर्थः । तद्विपरीतोऽभवसिद्धिकोऽभव्य इत्यर्थः । भव्योऽपि कश्चिन्मिथ्यादृष्टिर्भवति, कश्चित्सम्यग्दृष्टिस्तत आत्मनः सम्यग्दृष्टित्वनिश्वयाच पृच्छति । सम्यग्दष्टिरपि कब्धि परिमितसंसारो भवति, काश्यपरिमितसंखारः । उपशमवितानामपि केषाचिनन्तसंसारभावादतः प्रतिपरिमित संसारिको वान संसारिको वा नन्वसंसारभाषा परिमितः स वासौ नं. सारः परिमिवसंसारः सोऽस्यातीति परिमितसंसारिकः, “अ तोsनेकस्वरात् । ७ । २ । ६ । इतीकप्रत्ययः । एवममन्तश्चासौ संसारश्चानन्तसंसारः, स्वोऽस्यास्ती स्वनन्त संसारिकः । परिमितसंसारिकोऽपि कति बोधिको नयति यथा-शा निजादिकः । कश्चिद् दुर्लजवोधिकः । यया-पुरोहितपुत्रज)योऽतः पुच्छति । सुलना बोधिर्भवान्तरे जिनधर्मप्राप्तिर्यस्यासौ सुनभयोषिकः एवं दुर्लभयो चिकः । सुलभ बोधिकोऽपि कश्चि द्वात्रिं वा विराधयति ततः पृच्छति । श्राराधयति सम्यक् पालयति विधिमित्याराधकः ; इतरो विराधकः । माराधकोऽपि कश्चिद्भयमभवति ततः पृच्छति। चरमोऽमन्तरभावी भवो यस्याऽसौ चरमः, " अभ्रादिभ्यः " । ७ । २ । ४६ । इति च मत्वधायोऽप्प्रत्ययः । तद्विपरीतोऽचरमः । पवमुक्ते सूर्याभदेवे भ्रमणो जगवाम्बीरस्तं सूर्याभं देवमेवमवादीत जो सूप भवसिद्धिकः बाचचचरम इति वृतिः । कटपस्थितिसूत्राणि च "धि कम्पईि सत्ता । तं जहासागारश्न संजश्वकपठिई, संजबकप्पठिई, छेमोवद्वावशिवसंजय, शिवसमाण कम्पछि विकि धेरे कम्पनि तस्मादेरप्रति मार्चचं भादीनां स्थितरित्युपमानेऽपि सम्यगृष्टिस्थि तित्वेन यमेवमादतमिति नियोजस्ता यष्टिम्बं निश्चितं परमष्ठाह्निका दौ बहवो देवा जिनाखनाद्युत्सकुर्वन्तीति जीवामिगमेऽपि प्रतिमा परि हार्थ बहुशब्द इति सर्वदेवकृत्यत्वेन तत्स्थितिरिति चेत् । मैच चेइय मजेके विमानस्थसंख्याता संख्यात सम्पदा जिनतिमापूजादिपरायणात कापमा बहुशब्दप्रयोगाफल्या अन्यथा-" सम्मेसि देवानं" इत्यादिप्रसंगात्। प्रति भिगम चेदम" देखे उत्तर जणपतस्त्र से चोद्दिसिं उत्तारि णंदापोक्खरिणीश्रो परणत्ताश्रो । तं जहा वि जया. विजयंती, जयंती, अपराजिना, ससं तहेव० जाव सिद्धायतपासच्या वेश्य घरवाणा यच्चा । तत्थ णं बह ये भववश्वा णमेतरजोइसिकमाणिया देवा चाउमावि संच च्छरे य असेसु बहुजण निक्खमणनाण्पायपारीनेत्रायलमाइप देवकले समुददेयसमिती देवसमासु देचपथेोपगतश्रो साहिया समुदाया समाता पमुश्यपफीलिया अादियाचो महामहियाओ करेमाणा मुहं सुद्देणं विहरतीति चेश्यघरवणा " इत्यत्र चैत्यगृ बिनप्रतिमाहमेव इष्टम्यम अत्साधस्तत्रासं भवादित्यचमपि म्पकस्यैव शिरसेि प्रहारः पचयन चारित्राद्यनुष्ठानमिव मिष्णामपि जिनप्रतिमापूजादिकं संभवति, तथापि बहूनां देवानां देवीनां चार्चनीया वन्दनीयाः पूजनीया इत्यादिप्रकारेण जिनप्रतिमात्रनं मिथ्यादृगपेक्षया न युज्यते, नियमेन सम्यग्धर्मबुध्या जिनप्रतिमापूजावन्दनावात्मातुस्यानादि विनामिष्यत्यलेशस्यान्ययोगान चक्रिणां देवासाधनाय पोष कफलस्याप्यश्रवणात् चिनविनायकाद्युपशमस्य तेषां स्वतः त्यात्मन्या मिथ्यादेवानां पुर बागायादिन सङ्गादिति दिक । ननु यदा विमानाधिपतित्वेन मिथ्यादवि देवतयोत्पद्यते, तदाऽऽत्मीयबुद्ध्या जिनप्रतिमां पूजयति, देवस्थितो व शस्तवं पठति, आशातनां च त्वाजयति | कृतेऽपि स्यादिति बेद मैयम् निष्यादशां विमानपतित्वेनोत्प्रादासंभवाद्, विमानाधिपतिः मिथ्याष्टगपि स्थादिस्यादिवचनस्याप्यागमे ऽनुपलम्भात् ये चो धन्द्रसूर्या अप्यसंख्यातास्तेऽपि सम्यग्रदृश्य एव स्युरिति । || १५ || प्रति०] । ( वैमानिकानां सम्यग्दृष्टित्वाचिन्ताऽन्यत्र ) (७) नन्वधार्मिका एव देवा उच्यन्ते तत्कृत्यं न प्रमाणमित्याशङ्कां निराचिकीर्षुराहसद्भक्त्यादिगुणान्वितानपि सुरान सम्यग्रहो ये भुनं, मन्यन्ते स्म विधर्मो गुरुकुलष्टामिनादिः । देवाशातनपानया जिनमताद मातले जिरे, स्थानामतिषिकया चिह्नितया ते सर्वयो बाह्यताम् ।। १६ ।। (सद्यादति) सतां चातुर्वर्खेनीय स्थितानां भक्तिर्बाह्यप्रतिपतिरादियां बहुमानवैयावृत्यादीनां ते च ते गुणाश्च तैरन्वितान् संयुतान् सम्यग्दृशः सुरानपि ये गुरुकुलाद्रष्टास्त्यक्तगुरुकुलवा - सा यथाच्छन्दा यथाच्छन्दविहारिणो जिनाचद्विपो जिनप्रतिमापूजा तषाम्पाका श्वपाका विधर्माणः विगतो धर्मो प्रेयस्ते विधमर्णवाद रूपया शासन प्रतिषिद्धवाकर्ता हित प्रमा कृतया, मातङ्गबच्चा एकालयत्, सर्वतः सर्वस्माद बाह्यतां निरे । अनया से कर्मचायमानत्वं प्राप्तमिति व्यप्रतीतेः पर्यायोक्तम ज्योतिः पर्यायोकं शतमवचनात् देशान रमिते सर्वतो तो Page #1238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२१५) अभिधानराजेन्खः । चेइय का चेति ध्येयम् । प्रति०। ( "वसाय" शब्दे प्रथमभागे ७६२ पृष्ठे सर्वेषामवर्ण उक्तः) देवववाद बधादेवाय घो सोलं, विसयविसविमादिश्रा वि जिणनवणे | अच्छरसादिपि समं हासाई जेण न करिति ॥ १ ॥ " इति । स्था०.५ डा० " वृत्ती सविशेषण" इत्यादिन्यायायाग्भवमीयतपस् यमयोरेव देवनंनविधी तात्पर्यमिति निरस्तम एकविरम्य 1 सिद्धत्वेन चमरेले शामेन्द्रादावतिप्रसङ्गेन च विशिष्टविधा देवतात्पर्याय तस्माद्येऽचार्मिका देवा इति बदन्ति स्वर्णयादस्य उपहतित्या स्वकरण स्वशिरसि रजःप्य ते इति ज्ञेयम् । अत एव सत्यप्य संयतत्वे निष्ठुर भाषाभयानोऽसंय सत्यमागमे तेषां परिभाषितं तु कुमतिः पू क्रियमाणं न कापि श्रूयते, धर्मसामान्याभावप्रसङ्गेन तथा वकुमशक्यत्वात्। उपग्राहिसं चैतन्महता प्रबन्धन "धर्मपरीक्षायाम् " इत्यस्मानिरुपरम्यते ॥ १६ ॥ श्रथ देवेषु धर्मस्थापकान् गुणानेव दर्शयन् परानाक्षिपतिशुक्रेऽवग्रदाता व्रतां निष्यापवाग्भाषिता जिला पिता च गदिता प्रतिसूत्रे स्फुटम् । इत्युच्चैरतिदेशपेशलमतिः सम्वद भर्मित्वमतिनूः खझखखनकर्मस्थिति जानताम्॥ १७ ॥ (स्वाद) शके खोधर्मेन्द्र व साधूनामयमहदा तृताऽवग्रह दानगुणः, तथा निष्पापवाग्भाषिता निरवद्यवाण्भाषकत्यगुणः सतां साचादीनां शर्माद्यभिषिता विश्रा दिकारित्वगुणः वः समुचये तिचे नगवां स्फुटं दिता, एते गुणा व्यकं प्रतिपादिता इत्यर्थः। इति अमुना प्रकारणे, ट उचैरत्यर्थम्, अतिदेशेन सादृश्य ग्राहकवचनेम, पेशला रमणीया मतिः सम्यग्र सम्पन्न स्वदां देवानांनी स्पर्थ धर्मधियानां विप्रति पाया तु साहिणी की बलस्थलनकृत जनप्रति पराजयकृदित्यर्थः अर्थ भाव-सम् टिदेवेष्वेव नवग्रहदानाइयो वन्दनवैयावृत्यादयश्चोभयसिद्धा गुणा दर्शनाचारस्य धर्मत्वेन चितिताः प्रकृतिवद्विकृति तिन्यायेन धर्मतयाऽकामेनाप्येव्याः, तत्कथं तद्वन्तोऽप्यत्रहित जिन परिशद ? मे तेषां धर्मोपादिकमिति पर्वतविग्रह बिना धिनं हवानान्यत्कारणं पश्यामः । अक्कराणि चात्र- " तर गं से सक्के देविदे देवराया समणस्स भगवन महावीरस्स प्रतिए धम्मं सोच्चा णिसम्म ह४० समणं भगवं महावीरं बंदर, पंदसा एवं पासी कवि णं ते!" "उ" शब्दे द्वितीयभागे ६६६ पृष्ठे शक्रागमनावसरे पाठ उक्तः ) ॥ १७ ॥ प्रति० । (८) मीनेन जगदनुमति ननुमोचं देवानां भक्तिका " तेन न धर्म शति शूदास्यनिराकुर्याद देवानां ननु जक्तिकृत्यमपि न श्लाध्यं यतीनां यतः, सूर्यानः वनृत्य दर्शनकचित्रक्षोऽई तानाहता । हस्ते अमवातुरी गुरुकुले कुन या शिक्षिता, कुत्र सर्वत्रापि हि परिमतैरनुमतं येनानिषिद्धं स्मृतम् ||१०|| (देवानामित्यादि) ननु देवानां भत्ति कृत्यमपि प्रतिमाऽचना चेइय दि. यतीनां नाध्यं नानुमोद्यं, ततश्च न धर्मो वन्दनानि, माध्यत्वात् धर्म एवा । अत एव "पोराणमेयं सुरियाम" इत्यादि प्रतिज्ञाय चतुर्विधा देवा तो जगतो दिवा नमस्कृत्य स्वस्वनामगोत्राणि धनिम्नमिति । दे मित्यमेव यतः सूर्याभोवत्यकरण येन स तथाऽगा श्रीमहावीरेण माहतः ततृत्वकरण नापन त्यर्थः । तथा च सूत्रम् - " तते णं से सूरियाभे देवे समणस्ल नगरओ महावीरस्स अंतिर धम्मं सोच्या णिसम्म हरुतुट्टा • जाय दियया उडेड, उस्ता समणं भगवं महावीर बंद, यस सस्था एवं बयासी अहं पां भंते! राजे देवे किं भवसिद्धिए० जाव अचरमे । तते णं से सूरियाभे देवे समणेणं एवं इसे समाणे चिमादि परम सोमणस्से समणं भगवं महावीरं वंदर, णमंस, णमंसत्ता एवं वयासी-तुब्ने णं भंते ! सव्वं जाणद सव्वं पासह सवं कालं नाणह पासह सन्ये जाह पानह जाणंति षं देवागुपिया ! साव तं इच्छामिं० जाय वयसि तते पं समये भरायं महावीरे दूरिया मेणंदेणं एवं तुझे समसुरियाजस्स देवम्स पयम खोsar णो महाइ, णो परिजागर, तुलिपीए संचि । ततेणं से सूरिया देवे समयं मयं महावीरं दो पिपिए यासीनं सम्यं जान जाय उपदेखि कि कट्टु समणं भगवं महावीरं वियुतो भावादिषं पाहिलं करे " इत्यादि । प्रति० । रा । श्रत्रोत्तरम-हन्त इति खेदे, इयं चातुरी वा गुरु शिक्षिता यत् मौनं निषेयमेव यवतीति येन कारथेन सर्वत्रापि सर्वमपि संप्रदायैः पवितैः निषिद्धमनुमतं स्मृतम् अत एव स्वार्थमाहारादि निष्पादनगृहीतानुमतिप्रसंगवादेव निषिध्यते - निषेधस्यानुमत्या क्षेपकत्वातिप्रसङ्गादिति । सोऽनुपदमेव निराकरिष्यते ॥ १८ ॥ 1 जावे भवद्भिरपि किं बीजं वाच्यमित्या शङ्कायामाह- " । " इच्छा स्वस्य न नृत्यदर्शनविधौ स्वाध्यायनङ्गः पुनः, साधूनां विदशस्य चातिशयनी नक्तिर्भवध्वंसिनी । तुझ्यायव्ययतामिति प्रतियता तूष्णीं स्थितं स्वामिना, बाह्यस्तत्पतिषेधको न कचराजानां स्थितिम् ॥ १०७५ || (इच्छेति वागविधी मेच्छा वीतरागत्वात् साधूनांगीतमादीनां पुनर्नृत्यदर्शने स्वाध्यायभङ्गः स चानिष्टः । तेषां त्रिदशस्य सूर्याभस्य च भक्तिः प्रववंसिनी नृत्यप्रदर्शने समुदायापेायायव्ययतां समानाभिवृद्धिप्रति केवलज्ञानालोकन करता स्वामिना श्रीपर्कमान स्वामिना तृष्ण मनेन स्थितं प्रत्येकं तु यस्य यो माचो वक्षस्तदपेक्षया तस्य नित्वानिष्टानुबन्धस्याच सत्यान्नयत्रिशेषे तदभावा द्वा तत्साम्राज्यात् । श्रभ्यथाऽऽहारविरोधादिविधायिगतेः वावि पये प्रदायकम नियामक इति जानां स्वामिवंशोत्प नांदतां बाह्य शासति नीवातून ह्यन्यत् कुलमर्यादां तद्बहिवर्ती जानातीत्युक्तिः ॥ १६ ॥ चाकमवैचिपमेयोपदर्शयति पब्रिमिय सायं मानुमन्यते सु 9 भगवान सायं व्यवहारतोऽपि जगवान् साक्षात्किनानादिशन, Page #1239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेय । म्यादि प्रतिमार्चनादि गुणा कम्पोनेन संमन्यते मत्यादि सदां तदाचरणतः कर्त्तव्यमाह योगेच्छामनुगुण वा व्रतमतचित्रो विजोरुक्रमः ||२०|| (साययमिति ) वकिल पापादि प्रतिमार्जनादि च ययारतोऽपि स्लज्यपदारेणाऽपि सावधं सावधपराविष यः साक्षात् कण्ठरवेच अनादिशन् नगयाम्मीनेन गुरुद संमन्यते, मोनाप्तिविधिना तत्र प्रवर्तयतीत्यर्थः । अप्रमादसारो हि भगवदुपदेशोऽनग्धादी स्वस्वोचित्येन विशेषेच श्राम्यतीति तदाऽयं चातिशयविजृम्भितम । श्रत एव "सन्वे पाणा सब्बे भूया" इत्याद्युपदेशात् तदीयात् केचिचारि केविदेशति के खित्केवलसम्ममा प्रतिपन्तः प्रमादविधिशेषभूतात् स्वस्वविधा नमायामतिवाद्वा प्रतिसंधाय तत्सर्वेऽप्रमेव पुरस् ( १९१६) अभिधान राजेन्द्रः । प्रत्यर्थः समुपदेशसां देवानां नत्यादि चन्दनादि, तदा चरणतः चरणमाश्रित्य स्फुटं कर्तव्यमाह । श्रत वाऽऽ"मोदेवानुप्रिय बन्दे" "पोरानमे यं " इत्याद्युक्तैर्भगवतां पुर पव नाट्यकरणादिपर्युपासनाया अप्युपदेशः । अन्यथा जाव परजुवासाभि " इत्य प्रवेन्यूनतापतेः न च नामविधिः स्वतन्त्र एतस्य सुखम्पम्यतरत्वाभावेन फमविनि साधनविधिः, पर्युपासनाया एव साधनत्वात्, समकृतमा नामगोत्रप्रवणस्य साधनासिक किंतु किसान फूलप्रतिष्ठाविधिशेषतया तस्योपयोगः शेषेण आप कर वेति व्युत्पन्नानां न कश्चिदत्र व्यामोह व्रतं चारित्रं, स्फुटं प्रकटं, प्रयोगिनं प्रत्याह एवं देवतामा " योगिनं प्रतियोगेच्छामा पाह" महासुदेवा सुया! मा परिबंध करे इतीष्ठानुखोमायादे त्यर्थः, वाकारोवस्थायाम् । एवं विभोगवतो, वाक्क्रमो वनरचनानुक्रमः, चित्रो नानाप्रकारः । मौनमपि च विनीतमभि पुरुषं प्रतीचानुप्रमादिकमेवेति तात्पर्यप्रतिसंधानेनैव प्रेक्षावत्प्रवृत्तिः सुघटा। अत एव मौने स्वव्यवहारानुरोधेन कृतेऽपिपारिणामिक्या बुद्ध्या स्वकृतिसाध्यत्वेष्टसाधनत्वाद्यनुसंधा नाट्यकरणमारब्धं सूर्यत्रेण देवेन । तदुक्तं राजप्रश्रीयवृत्ती"तप णं" इत्यादि । ततः पारिणामिक्या बुद्ध्या तस्वगम्यमानमेव भगवत उचितं न पुनः किमपि वक्तुं केवलं मया भक्तिरारमीयोपदर्शनीयेति प्रमोदातिशयतो जातपुलकः सन् सूर्याभदेवः भ्रमणं भगवं महावीरं ते स्तोति नमस्वति कायेन वन्दित्वा नमस्कृत्य, "उतरपुर निमं" इत्यादि सुगममिति ॥२०॥ एकाधिकारिक तुल्यायन्ययत्वादेव भक्तिकर्मणि विनोमनमुचितमिति मतं निषेधयति-दानादाविव किमैणि दिषाभिविध मौनी स्थादिति गीपेन कुधियां पृष्ठे निषेस्थिते: । अन्यत्र प्रतिबन्धतोऽनभितत्यागानुपस्थापनात्, प्रज्ञाप्ये विनयान्विते विफलताद्वेषोदयासंभवात् ॥ २१॥ " ( दानादाविति ) दानशालादिषु श्राकस्थानेषु दीयमाने हा मादाय मतिकर्मणि यादी विविध व दोषानयतः पात रज्जुस्थानी स्वात् । तथाहि दानादिनि चेय उत्तराय भयं तद्विधाने प्रघातानुमतिरिति तत्र साधून मीनमेव युक्तम् । "जे तुपसंति वदति पाणि पमिति विकिि प्र मिति अस्थि वा मत्थि वा पुणो । श्रयं रहस्से हिचा णं, निव्वाणं पाठणंति ते " ॥ इति सूत्रकृद्वचनात् । तथा भक्तिकर्मण्यपि निषेधे भक्तिव्याधातभयं, विधी व बहुप्राणिध्यापत्तिभयादिति मौनमेवोचितमिति जावः। इतीयं गीः कुधियां कुबुद्धीनां मृषैव । कुतः ?, पृष्ठे दोषवति, निषेधस्थितेः निषेधव्यवस्थानात् । एतदपि कुतः १, प्रतिबन्धतः प्रतिबन्धो व्याप्तिस्ततः । प्रतिबन्धाकारश्चायम्-यद्यत्र येम दोपवता ज्ञायते तत्र तेन निषेध्यमिनि निषेधार्थः । पापजनकत्वमनिष्टजन्यशोधनत्वं तावत् यदि दोषवति न स्वात् तर्हि स्वप्रविपक्षवाधकतर्केण तद्मद अथ दुष्टमशुकाहारदानं तच्चन्यास्यानशक्त्याचे अनुकूलत्यनीकेन नि षियत इति व्यभिचारः, तदाह- श्रन्यत्र तेनानभिमतो यस्त्यागस्तस्यानुपस्थापनमुपस्थापनानुकूल शक्यभावस्ततः । तदुक्तमाचारे सप्तमस्य द्वितीये "ते फासे मुद्धो धीरो अहियार अदुबा आधारगोवरमाश्के सहिपागमणेलिस अया वयगुतीच गोयमस्स" इत्यादि तर्कयित्वा पुरुषं, कोऽयं पुरुष इत्यनन्य सडामायकीत विमानुपातिर्विध्येत्याद"अनुषा" वाद्यर्थः । तथाच यदूति नियम कान्तस्य निवेशेन यादिनो निषेधेऽपि वागुतिसमान्य प्रतिरो धात्र दोष तदुकं तच-"अदुवा पायाम विजहा अस्थि सोप णत्थि सोप, धुबे लोप, अधुवे सोए, साइए लोप, अ भाइ हो, सपासप सो, अपवत्रिए हो, सुकमे दुक्कमेति वा कमाणे ति वा पवित्ति वा सार सिवा असार ति वासिद्धित्ति वा असिद्धित्ति वा निरप तिवा अनिरप तिवा जमणिविप्पविना मामंग धम्मं पशवेमाणा परथ विजाए "अकस्मात् एवं तेर्सि णो सुक्खाए णो सुपा ते धम्मे भवति । से जदेयं प्रगवया पवेइया श्रासुपश्येणं जाणया पालया अदुवा गुप मोयमस्स सिमि "स्तिनास्तिवावाकामल काधिकानां प्रादुतानां वादे प्रतिहारतोपवासेन तत्पराजयापादनतः दे यम् अथवा गुतिमोचरस्य विधेये तीमीति फलितथे तथा प्राप्ये प्रज्ञापनीये, विनयान्विते पुरुष इत्यपि विशेषणीश्रम कुतः निषेधस्य विफलतायाः श्रोतुर्देषोदयस्य पासंभ वात् । तेन जमालिना विहारक तव्यतां पृष्टो भगवांस्तदुष्टतां जाaralsपि न निवान्, किं तु मौनमास्थितवांस्तत् न दोषः। अविनीते हि सत्यवच्चः प्रयोगेऽपि फलतोऽसत्य एव । तदाह“अविणीयमाणवं तो, किनिस्साई भासई मुलं चैव। घंटा बोहं णाउं, को कम करणे पवन्ति ॥ " ति । तत्प्रज्ञाप्ये विनीते सूर्याने नाट्यकर्त्तव्यतां पृच्छति भगवतो मौनमनुमतिमेव व्यज्जयतीति स्थित. म् । वस्तु भक्तिनिषेधे जे दाइत्यादिनानि वादाननिषेधः सुतमिति पनि तयोः सोप्य " 'जे तुदत्यादिसूत्रस्य दातृयात्रयोदशविशेषगर स्वात् श्रपुष्टाऽलम्वनगोचरत्वादिति यावत् । पुत्रालम्बनं तु द्विजन्मने भगवद्वस्त्रदानवत् सुहस्तिनो रङ्कदानवत्साधूनामपि गृहिणामनुकम्पादानं श्रूयतो " गिहिणो वेयावमियं न कुज्जा" इत्यादिना Page #1240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेय (१२१७) अभिधानराजेन्द्रः । तनिषेधस्याप्युत्सर्गपरत्वात्। भवति हि तेन मिथ्यादृष्टेरप्यप्रमत्तसंवतगुणस्थानादिनिधनाविरत सम्यगृचादिगुणस्थानमा.. सिलो गुण प्राददतरगुणस्येषां अपनाते "उस्सस्स गिस्स व जिणपचयनिवभावियमास्स । कीरड़ जं श्रणवां, दढसम्मत्तस्सऽवत्यासु ॥ इत्यादिना नितु ज्ञानिनां तथाविचिचितु शुभकर्मनिर्जरणमेव । (प्रति० ) 39 निषेध संमतिमेवमुपपादयतिज्ञातैः शल्यविषादिभिर्नु भरतादीनां निषिद्धा यथा, कामा नो जिनसकारण विविक्तं निषिस्तथा ॥ सर्वेशानुमते पराननुमते व्यस्त किंसतो नेष्टाज्ज्वरिणां ततः किमु सिता माधुर्यमुन्मुञ्चति १२२ (ज्ञातैरिति) 'नु' इति निश्वये, शल्यविपादिभितैर्दृष्टान्तैः, यथा भरतादीनां कामा निधिकाः, तथा जिनसद्मकारणविधि निषिद्ध बागमे "नाउाण, मासी व जिणवरे कासी । " इत्यादिना च यदिस पुष्टः स्यात्तदा कामादेविनिषिध्येत न च तथा निचिद्धा, वनुमत इवानुमते आह च "तार अघुमड व्विय अप्यभिसेहाओ तं जुजीए त्ति ।" तथा “ओखर बलिमाई, भरदाई ननिवारितं तेख जड़ तेलि चियकामा सवसादि पाय"तीर्थेानुमते इयत पराननुमते द्वेषाननुमोदनात् किं स्यात्, नकिविदित्यर्थः। इदमेव प्रतिवस्तूपमा यतिबेर सिता शर्कराष्ट माता क माधुर्वे स्वभावसिद्धमधुरतागुणमुम्मुतिनैवोति तद्भगवदनुमतस्य यस्तवस्यान्पशेषमाप्रेम नासुन्दरत्यमिति गतार्थः ॥ २२ ॥ (ए) अनुमोद्यत्वमेत्र व्यस्तवस्य सूत्रनीत्या स्थापयन् परमापिति साधूनां वचनं च चैस्पनमनश्लापार्चनोदेशतः, कायोत्सर्गविधायकं ह्यनुमतिं व्यस्तवस्याद् यत् । ताकि लुम्पक @म्पतस्तव जयं दुःखोबाइल! ज्वाला जालमये भवाहिदने पातेन नोत्पद्यते ।। २३ ।। (सानामित्यादि) साधून परमार्थतचारित्रयतां चैत्थनमनश्लाघार्चनोद्देशतः चैत्यवन्दनाद्युपदेशेन, कायोत्सर्गविधाय कं कायोत्सर्गकरणप्रतिज्ञाप्रतिपादकं हि निश्चितं वचनं रू स्तवस्य यत् अनुमतिमनुमोदनमाद, हे लुम्पक ! तद्वचनं, लुम्पतस्तव भवाऽद्दिषदने संसारको पान भयं नोत्पद्यते, अयुक्तमेतत् तवेति व्यङ्ग्यम् भवाविद किभूते, दुःख एवं हालाहलं तस्य यद ज्वालाजा तन्मये सूत्रेदं स्पष्टमेव प्रतिवेश्आणं" इत्यादि । अस्यार्थः- अर्हतां भावार्हतां चैत्यानि चित्तसमाधिजनकानि प्रतिमालक्षणानि बहंत्यानि तेषां वन्दनानिमितं कायो त्सर्गे करोमीति संबन्धः । कायोत्सर्गः स्थानमौनत्यागं विनाअभ्यन्तरस्यागतं करोमि किं निमित्तमित्याह-बंदनव याद" इत्यादि बन्ने प्रशस्तमनोवाक्कायवृत्तिः सत्याय यं तन्निमितं वाहक बन्दनात् पुष्यं स्यात्सारक्कायोत्सर्गादपि भवत्वित्यर्थः । ' वत्तिश्राए ति ' आर्षत्वात्सिरूम, 'पूप्रणवत्तिपूजनं गन्धमादयादिनिरभ्यर्चनं तत्प्रस्थयम सारव ३०५ चेय तिआए' सत्कारो बखानरणादिभिस्तत्प्रत्ययम् । नन्वेतौ पूजासरकारी व्यस्तत्वात् साधोः " बञ्जीवकायसंजमो " इत्या दिवचनप्रामाण्यात्कथं नानुचितौ ?, श्रावकस्य तु साकात कुर्वतः कायोत्सर्गद्वारेण तत्प्रार्थने कथं न नैरर्थक्यम् ? । उच्यतेसाधव्यस्तनिषेधः स्वयं न तु कारणाम तिरभ्यस्ति यदुक्तम्- "मुख मदयरशिक्षिणा कार अभिमरस कामगंधे, सुश्रं गया देसणा चेव" । श्रावकस्य त्वेतौ संपादयतो भक्त्यतिशयादाधिक्यसंपादनार्थे प्रार्थयमानस्य न नैरर्थकयम एते भगवन्तोत्पादरेण वन्द्यमानाः पूज्यमाना अप्यमन्तगुणत्वान्न सुबन्दितपूजिताः स्युः । अत्र दशार्णभको दृष्टान्तः। तदेवं प्रजासत्कारौ भावस्तवदेतुत्वीयावेत "सम्मा" संमानः स्वादिकिर्तनं प्रत्ययं अद्वैतान्म मित्याह - "बोदिलाभवत्तियाग त्ति" बोधिलाभः प्रेत्य जिनधर्मप्रातिप्रत्ययम्पयोऽपि किं निमित्तमय तियार ति" निरुपसर्गो जन्माद्युपसर्गरहितो मोक्षः, तत्प्रत्ययम् । मयं च कायोत्सर्गः कादिरहितैः क्रियमाणोऽपि साधक इत्यत श्राह - " सद्धाए " इत्यादि । श्ररूया स्वाभिप्रायेण न लाभियोगादिना 'मेघा' देयोपादेषपरिज स्पेन मर्यादार्तता या नासमार्चितेन येन य मानयेति प्रत्येकं भहारिभिः संयते पचतेमि करोमि कायोत्सर्गमिति वृषि, व्यस्तवानुमोदनादिति वृत्तिः, भावः । इति भावस्तवस्यपचयाय कायोत्सर्गद्वारा तदाश्रयणं युक्तम, अनुमोद्यनिमित्त लोकोपचार विनयोपकर्षत्वाच तद्त्यन्तोपयोगः दुर्गतरत्नाकररत्नलाजतुल्यत्वाद्वा यतीनां कृतप्रयक्षस्येति भावनीयं सुचभिः ॥ २३ ॥ प्रति० ॥ 1 तन्त्रयुक्त्या व्यस्तवे साधोरनुमोदनमस्तीत्येतदेव दर्शयन्नाह - तंतम् दणाण, यसकारहेड सग्गो । जतियो विहु णिद्दिट्ठो, ते पुण दव्वत्ययसरूवे ||२५|| शाकिनाके, बन्दनायां चन्दनाऽभिधाने, पूजनखत्कारहेतु पूजासस्कृतिनिमित्तम उत्सर्गः कायोत्सर्गः बतेरपि जावस्तवादसाधोरपि न केवलं या शब्दस्तचैव नि दियोऽमितिस्तीकरादिभिः यतस्तत्र , या करेमिका दतिया तया सा "इत्यादि । यद्येवं तदा प्रस्तुते किमायामः इत्याह( ते पुण सि) तौ पुनः पूजनसत्कारौ, ( दव्वत्थयसरूषे त्ति ) प्राकृतत्वात् इन्यस्तवस्वरूपी व्यस्वस्वभाषी यतः इव्यस्तस्वरूपे वा पतौ वर्त्तते । इदमुकं नवति-व्यस्तवस्वरूपपूजादिप्रत्यय कायोत्सर्गप्रतिपादनात्साधोई व्यस्तवे ऽनुमोदनमनुज्ञातं सूत्रे । इति गाथार्थः ॥ २६ ॥ अथ पूजनसत्कारयोग्यस्तवता निधानायाऽऽद्दमलाइएहिँ पूजा, सकारो पवरवत्यमादीहिं । अजिओ इह, दुहा वि दव्वत्थओ एत्थ ||३०|| मालायांसानि यानि प्रतिमानि तदादिभिः श्रादिश ब्दादप्रथितकुसुमग्रदः। पूजा पूजनं भवति सत्कारः सत्कृतिर्भपति प्रधानतिभिः प्रकारः प्रा Page #1241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेय (११०) चेश्य श्रभिधानराजेन्द्रः। कृतप्रभवः । आदिशब्दश्च कनकादिपरिग्रहार्थः । इत्येकीयं म- | जावदेशं बहु मन्यमानेन द्रव्यस्तवो बहुमत पवेति समर्थतम् । अन्येऽपरे सूरयः, विपर्ययो व्यत्यासः, पूजा प्रवरषत्रादि ववाहभिः, सत्कारो माल्यादिभिरित्येवं लक्षणः । इति पूजास कजं इच्छंतोणं, अणंतरं कारणं पि इ8 तु। स्कारलकणे, इति मन्यन्ते शति वाक्यशेषः । प्रस्तुतयोजनार्थमाह-विधाऽपि द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां, व्याख्यानद्वयेऽपीत्यर्थः। जह आहारजतित्ति, इच्छतेणेह आहारो ॥ ३४ ॥ कव्यस्तवोऽस्ति, अत्रेति पूजासत्कारयोः। इति गाथार्थः॥३०॥ कार्य साध्य भावलेशादिकम, इच्छता अनुमन्यमानेन, अएवं तावत्तन्त्रतो व्यस्तवे साधोरनुमोदनं दर्शितमथो नन्तरमव्यवहितं,न तु व्यवहितं कृष्यादिक, तथैवानुभूतेः। कापपत्तितस्तदेव दर्शयत्राह रणमपि हेतुरपि अव्यस्तवादिकः, न केवलं कार्यवेत्यापिशप्रोसरणे वलिमादी, ण चेह जं भगवया वि पडिसिर्फ ।। ब्दार्थः । श्ष्टं त्वनिमतमेव, कारणाविनानूतत्वात्कार्यस्य । किता एस पाणुप्पाओ, उचियाणं गम्मती तेण ॥ ३१ ॥ मिवेत्याह-यथा यद्वत् , अाहारजतृप्ति नोजनजनितबुनुक्कोप शमस, इच्छता वाञ्छता, इह लोके, आहारो भोजनम्, इष्ठ अवसरणे समवसरणे,देवसंस्कृतभगवव्याख्याननूमी, षल्या शति प्रक्रमः । इति गाथार्थः॥ ३४॥ घुपहारप्रभृति, आदिशब्दागन्धमाल्यगीतवाद्यपरिग्रहः। न नैव, अथ वल्यादौ नवत्यनुमतिर्जिनस्य, जिनजवनादौ तु सा शब्दो व्यस्तवाऽनुमोदनस्य समर्थने कारणान्तरसमुच्च तस्य न भविष्यतीत्याशङ्काबामाहपार्थः। इहागमे,लोके वा, यद्यस्मात्कारणात् , भगवता जिनेनाऽपि। तेन दि किल तन्निरतिचारचारित्रतया निषेधनीयं स्यादि. जिबनवणकारणाइ वि, भरहादीणं ण वारितं तेण । त्यपिशब्दार्थः । प्रतिषिद्धं मियारितम् । (ता इति) तस्मात्कार- जह तसि चिय कामा, सदविसादीहिँ णाएहिं ॥३५॥ णात् एष अव्यस्तवः वल्यादिविधानस्य द्रव्यस्तवत्वात् अनु जिनजिवनकारणाप अहदायतनविधापनप्रवृत्तिकमपि, न शातोऽनुमतः, इति गम्यतेऽवसीयते, " अप्रतिषिकमनुमतं" केवलं समवसरणे बल्यादि, प्रादिशब्दात् जिनबिम्बपूजादिइतिवचनात, उचितानां तद्योग्यानां गृहस्थानां, राजादीना. प्रहः। भरतादीनां भरतचक्रवर्तिप्रभृतीनाम्, न वारितं न निषिमित्यर्थः । तेन भगवता जिनेनति । प्राह च कस, तेन जगवताऽऽदिदेवेन । कयमित्याह-यथा यद्वत, तेषामेव "राया च रायमच्चो, तस्सासह परजणवत्रो वा वि। प्ररवादीनाम, कामाःशब्दादिभोगाः, शल्यविषादिभिःशल्यविउच्चलिखंडियकड़िय-तंदूखाणाढगं कममा ॥१॥ पप्रभृतिभिः, शातैनिदर्शनैः,निषिद्धा ति प्रक्रमः।ज्ञातानि पुनमाश्यपुष्पणियाणं, प्रखंमफुमिगाण फलगसरिसाण। रेवम्-"सव कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा। कामे कीरद वली सुरा विहु, तत्येव तुहंति गंधाई॥ २॥" य पत्थेमाणे तु, अकामा जंति कुम्मई" ॥१॥ अयमभिप्राय:श्त्यादि । इति गाथार्थः ॥३१॥ यदि जिनभवनविघापनादिकमननुमतमन्नविष्यद्भगवतस्तदा अथ भवतु जगवतोऽनुमतोऽयं तदन्येषां तदनुमतिर्न युक्ता, कामवनिषिद्धमजविष्यत् । शत्ति गाथार्थः ॥ ३५ ॥ अमुक्त्यङ्गत्वादित्याशङ्कयाऽऽह - यदि ततेन तेषां न वारितं, ततः किमित्याहणय जगवं अणुजाणति,जोगं मुक्खविगुणं कदाचिदवि । ता तं पिमणुमयं चिय, अप्पमिसेहान तंतजुत्तीए। एप य तयणुगुणो वि तओ,ण बहुमतो होति अपोसि ॥३॥ इय सेसाण वि एत्थं, अणुमोयणमादि अविरुफ ॥३६॥ न च नैव, जगवानहन, अनुजानाति अनुमन्यते, बोगं व्यापारम् । किंविधम?, मोक्षधिगुणं निर्धाणाननुगुणस्, कदाचिदपि क- | यतो जिनभवनादि न पारितं, तत्तस्मात्तदपि जिनजवनाद्यपि, चिदपि काले, पारमार्थिकपरोपकारकरणस्वरूपत्वाद्भगवतः । अपिशब्दावल्याद्यपि । अनुमतसेव बहुमतमेव, जगवतः । कुत ततः किमित्याह-नच न पुनः, तदनगुणोऽपि मोक्षानुकूलोऽपि, पतदवसितमित्याह-अप्रतिषेधादनिवारणात | अथ कथममोक्कविगुण एवाऽबहुमतो भवति इति सुचनार्थोऽपिशब्दः । प्रतिषेधमात्रादिदमवसितमित्याह-तन्त्रयुक्त्या शास्त्रीयोपपतको योगः, न बहुमतो नानुमतो, बहुमत एव, भवति जायते, स्या,यदि तस्व तदननुमतमनविष्यसदा कामानामिव तनिषेधअन्येषां भगवतोऽपरेषां साधूनाम् । इति गाथार्थः ॥ ३२॥ मकरिष्यत, न चाऽसौ कृतस्तेन, अतस्तस्य तदनुमतमित्येवं लकणया । यदि जगवतस्तदनुमतं तदाऽन्येषां किमित्याहमन प्रगवतोऽपि चारित्रित्वात् द्रव्यस्तवानुमतिर्न युक्ते इत्येवं भगवन्यायन, शेषाणामपि जगवतोऽपरेषामपि माधूनां, स्वाशझ्याह न केवलं भगवत एव । भत्र जिननवनविधापनादिषव्यस्तवे, जो चेव भावलेसो, सो चेव य भगवतो वहमतो उ। | अनुमोदनादिकं जिनबिम्बादिदर्शनसमुसितप्रमोदतस्तत्कारण तोविणेयरेस, ति अत्यओ सो वि एमेव ॥३३॥। कोपबृंहणतच याऽनुमतिस्तत्प्रभृतिकम्। आदिशब्दात्तदुपबृंह'य पच जावलेशो भगवद्बहुमानरूपः,सन्यस्तवाद्भवतीति शे- णेन तत्फलदेशनने च बिम्बादिविधापनोत्साहसंपादनतस्तपः। (सोचेच यत्ति) स पवासावच, नेतरः। चशब्द पदमप- द्विधापनस्य परिग्रहः । अविरुकं संगतम, मोक्कसाधनस्यैव, रंयुक्तचन्तरमिति सूचनार्थः। भगवतो जिनस्य,बहुमतोऽनुमतो, भावलेशस्य तत्र मुख्यवृत्योपादेयत्वादिति च प्राग दर्शितम् । मुख्यवृत्त्या भगवतस्तथास्वनावत्यावा तुःपूरणे। केवलं न नैव, इति गाथार्थः ॥ ३६॥ पञ्चा०६विव०। पं0 व.। तकोऽसौ भाववेशोऽपि, नेतरेण व्यस्तवं बिना भवति, इति तदेवम्-"जश्णो विहु दन्वत्थय-नेमो अणुमोयणेण:देनोः, अर्यतः सामर्थ्यात्, लोऽपि व्यस्तपोऽपि, न केवखं थि" ति यदुक्तं, तत्समर्थितम् । अथ तदेव नावलेश एव । एवमेव जावले शवदेव, बहुमत एव । इति प्रकारान्तरेण समर्थयबादगाथार्थः॥३३॥ जंच चउछानणिओ,विणओ उवयारिमोन जो तत्थ । Page #1242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेइय (१२१५) अनिधानराजेन्मः। सो तित्थगरेणियमा, ए होइ दबत्थयादमो ॥ ३७॥ भवत्येव, पश्यन्तु दयारसिका इति भावः। एतचनं, लुम्पकयद्यस्मात्कारणात् , यशब्द उपपत्यन्तरसमुच्चयार्थः । चतुर्दा मुन्धकस्य लुम्पकमृगयोः, मुग्ध आपाततः श्रुतबाह्यधर्माचारे, चतुर्भिःप्रकारैनिदर्शनचारित्रोपचारलकणः । भणितः साधू मृगे, वागुरा बन्धपाशा, इति व्यस्तरूपकं मुग्धपदमननिहरूनां विधेयतया वर्णितो विनयसमाध्यध्ययनादौ । विनयः कर्म पार्थान्तरसंक्रमितबाच्यमिति । य एतद्वचनं श्रुणुयात् स मृगविनयनसमर्थोऽनुष्ठानविशेषः । ( तत्य ति) तत्र तेषु बद्भवेदिति व्यङ्ग्यम् । इति पुनस्तस्य पाशस्य दशस्त्रं ष. चतुर्पु विनयेषु मध्ये, उपचारो लोकव्यवहारः, पूजा बा, प्र. चोऽस्मत्सांप्रदायिकानाम् । इतीति किम् ?, शह प्रक्रान्ते ऽव्ययोजनमस्येत्यौपचारिको भक्तिरूपः । तुशब्दः पुनरर्थः । य स्तवे द्रव्यभावोभयात्मके, नाव एवाङ्गभूतो यो शस्तं हदि इति विनयः, स इत्यसौ, तीर्थकरे अर्हद्विषये, नियमादव. चित्ते, आधाय स्थापयित्वा, सरागसंयम व त्यक्त उपेक्तितः, श्यंजावेन , न भवति न वर्तते, अव्यस्तवात्पजादेः, अन्योऽप. प्राश्रयांशः आश्रवभागो यैस्ते तथा, अषणा दोषरहिता रस, व्यस्तव एवासाविति भावः । तस्मात् व्यस्तवानुविको वयं स्थिताः स्मः । अयं नावः-सरागसंयमेऽनुमोद्यमाने यथा मावस्तव इति प्रकृतम् । औपचारिकविनयस्वरूपं चेदम रागो नानुमोद्यताकुत्तौ प्रविशति, तथा अव्यस्तचेऽनुमोच. "तित्थयरसिककुलगण-संघकिरियधम्मनाणनाणीणं । माने हिंसांशोऽपि । संयमत्वेनानुमोद्यत्वे रामांशो नोपतिष्ठआयरियथेरुवका-यगाणं तेरस पयाणि ॥१॥ त एवेति, द्रव्यस्तवत्वेनानुमोद्यत्वे तु सुतरां हिंसानुमतेः स्थिअणसायणा व भत्ती, बहुमाणो तह ब बमसंजलणा।। तिः। द्रव्यस्तवत्वशिरसाऽप्यघटकन्वात्तस्याः। इत्थमेव श्रीनेमितित्थयरादी तेरस, चठग्गुणा होति वावमा"॥२॥ नागज़सुकुमारस्य श्मशानप्रतिमापरिशीलनाननुकाते तदर्थिना इति गाथार्थः ॥ ३७॥ भावितच्चिरोज्वलनमनुशातमित्युपपादयितुं शक्यते, व्यस्त परप्राणव्यापादनानुकुलव्यापारत्वाद्विशेष इति चेत् , तथापि यदि द्रव्यस्तवादभ्यो नासौ, ततः किमित्याह व्यस्तवत्वं न हिंसात्वमिति न कतिः , वस्तुतो विहारादावतिएअस्स उ संपाडण-हेउं तह चेव बंदणाए उ । व्याप्तिवारपाय प्रमादप्रयुक्तप्राणव्यपरोपणत्वं हिंसात्वं वाच्यं, पूजणमामुच्चारण-मुववध होइ जइणो वि ॥३०॥ न प्रकृतिरिति न दोषः । र, सति सचिशेष इत्यादिना एतस्य तु एतस्यैव द्रव्यस्तवरूपौपचारिकविनयस्य सं यावत् प्रमादाप्रमादयोरेव हिंसारूपत्वात् बन्धमोक्षहेतुत्वे बिपादनहतुं संपादनार्थम्, (तह चेवत्ति) तथैव तेनैव प्रकारेण, शेष्यभागानुपादानं स्यादिति चेत् । सत्यम्। प्रमादयोगात्प्राणव्य. कायोत्सर्गकरणलक्षणेन , वन्दनायां चैत्यवन्दनायाम , तु परोपणं हिंसा, प्रमादायोगात प्राणव्यपरोपणमहिंसेति सक्षणशब्दः पादपूरणे । पूजनायुच्चारणं पूजाप्रतिपदाभिधानम् । योर्व्यवहारार्थमेवाचारनुशासनान्धमोकहेतुतायाश्च निश्चपादिशब्दात्सत्कारादिपरिग्रहः । उपपनं सङ्गतम, भवति यतः प्रमाइत्वाप्रमादत्वाज्यामेव व्यवस्थितेः, बाह्यहेतूत्कर्षादपि वर्तते , यतेरपि भावस्तववतोऽपि, न केवलं गृहिण एव । फलोत्कर्षाभिमानिना व्यवहारनयेन तु विशेष्यभामोऽप्याफियत शति गाथार्थः ॥ ३८ ॥ इति सर्वमवदातज्ञानम् ॥२४॥ उक्तविपर्यये बाधकमुपदर्शयन् प्रकृतनिगमनायाऽऽह अनुपदेश्यत्वादनबुमोद्यत्वं व्यस्तवस्येत्यत्राऽऽहशहरा अणत्थगं तं, ण य तयणुच्चारणेण सा भणिता।। मिश्रस्यानुपदेश्यता यदि तदा श्राघस्य धर्मस्तया, ता अहिसंधारणो, संपामणमिट्टमेयस्स ।। ३७ ॥ सर्वः स्यात्सदृशी नु दोषघटना सौत्रक्रमोल्लङ्यनात् । इतरथाऽन्यथा व्यस्तवसंपादनार्थ यदि पूजााधारणं न तत्सम्यविधिजक्तिपूर्वमुचितमव्यस्तवस्थापने, भवति तदा, अनर्थक निष्प्रयोजनम् , तत्पूजाधुश्चारणं, पूजा विद्यो नापरमत्र लुम्पकमुखम्लानिं विना दूषणम् ॥२॥ दीनामनिष्टत्वात् । न च निरर्थकं वाक्यमुच्चारयन्ति सन्तः, | (मिश्रस्येति) मिश्रस्येति देनुगर्नविशेषणम,मिश्रत्वादिति यावत्। तस्वकतिप्रसङ्गाद् । अथ न कुर्वन्त्येव वन्दनायां पूजासत्कारा- यदि अनुपदेश्यता साधूनामुपदेशविषता द्रव्यस्तवस्य त्वया प्रतिधुधारणमित्याशङ्कयाह-न च नैव, तदनुधारणेन पूजाल मायते,तदा श्राद्धस्य धर्मःसर्वस्तथाऽनुपदेश्यः स्यात्,तस्य मि. काराद्यनुचारणेन , सा वन्दना, भणिता अभिहिताऽऽगमे धतायाः कररचेण सूत्रकृताऽनिधानात, इष्टापत्तिरत्र । सर्वविविधेयतया । (ता इति ) यस्मादेवं तस्मात् , मभिसंधारणात, रतिरूपस्यैव धर्मस्य शास्त्रेऽभिधानादंशे स्वकृत्यसाध्यताप्रतिकायोत्सर्गकरणद्वारेण पूजादिसंपादनाभिसंधेः। संपादन कर- संधाने स एष तस्यार्थः, सिद्धदेशरूपविरतित्वात् । "जं सक्का णम्, श्ष्टमभिमतम, एतस्य द्रव्यस्तवस्य, इति गाथार्थः ॥३॥ तं कीरह" इत्यादिव्युत्पत्तिमतांतत्र प्रवृत्तिसंभवादिति चेत् ।। पञ्चा०६विव०। द्वादशवतादिविभागस्य विशेषावधि विना उपपतेरिति देशेन हिंसाविचार: खेच्या ग्रहणे श्रमणनिङ्गस्यापि श्रासन ग्रहणप्रसङ्गात्। दृश्यत किं हिंसाऽनुमतिर्न संयमवतां व्यस्तवश्लाघये एव केषाश्चित् भाद्धानां निवाग्रहणादिकं यतिव्रतमपि देशप्राप्तत्येतल्लुम्पकबुन्धकस्य वचनं मुग्धे मृगे वागुरा । मिति चेत्, दृश्यते तदद्रष्टव्यमुखाना, न तु मार्गवर्तिनाम, अनु चितप्रवृतमहामोहबन्धहेतुत्वाद्भिशब्दप्रवृत्तिनिवन्धनस्य श्राहृद्याधाय सरागसंयम इव त्यक्तावांशाः स्थिता- । मानुपपत्तेरानन्दादिभिरनादरणात, अम्बम्स्य तु परिवादसिङ्ग जावागांशमपणा इति पुनस्तच्छेदशस्त्रं वचः॥१४॥ त्वेन निकायाम् अनौचित्याजावात,ततः श्राद्धधर्मवढू द्रव्यस्तव. .. (किमिति ) संयमवतां चारित्रिणां, सव्यस्तवश्लाघया स्य नानुपदेश्यता, अप्रतिषेधानुमत्याकेपपरिहारयोरुभयत्र तु. द्रव्यार्चानुमोदनवा, किं न हिंसानुमतिर्भवति १; अपितु ल्ययोगकेमत्वात, यतिधर्माननिधानात् प्रागनजिधानस्याप्युभ. Page #1243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेय यत्र तत्यात्, यतिधर्मस्य प्रागनिधाने श्रोतुस्तद्शकत्वाचेन प्रतिश्रारुधमंप्ररूपणं यथाऽवसर सङ्गत्या, तथा भावस्तवस्य प्रागभिधाने तदशाप्रकाशकं प्रत्येव व्यस्तवाभिधानमिति कमस्यैषा विमोचन्यायः सूत्रमा सीमस्य सिकस्य क्रमस्योलना मनु इति निये, दोषघटना दोपसङ्गतिः, सरशी गुल्या कमप्रारूप न तु कोऽपि दोष इति अन्युत्प्रतिक मविरुद्धोपदेशे सुकररुजे रुत्कटत्वेनाप्रतिषेधानुमतिः प्रसङ्गदोपादा, सम्प्रति यथायोग्योपदेशेऽपि न दोष - तु त्यनुत्र्य व दारादिग्रन्थार्णव संप्लवव्यसनिनां प्रसिद्धः पन्थाः। तत्त कारणात् विधिपूर्वमतस्य स्तपस्यापने उपदेशे जातप्रति नास्यनिहरुलुम्प कस्य मुखम्प्रानं बिना परं दूषणं वयं न विद्मो न जानीमः । विनोतिरलङ्कारः ॥ २५ ॥ प्रति । ( १२२० ) अभिधानराजेन्द्रः । मिश्रस्यानुपदेश्यताऽऽशङ्कानाशं साऽनुमतिदेया परिणतिस्थैर्यार्यमुदच्छता, संवासानुमविस्वनावनतो दूरस्थितानां कथम् ।। हिंसाया अनिषेधनानुमतिरप्याङ्गास्थितानां न यत्, साधूनां निरत्रयमेव तदिदं प्रव्यस्तव श्लाघनम् || १६ || व्यस्तवे हिंसाऽनुमतेर्यत् विशेषाभावात् सामान्याभाव इत्यनुशास्ति भगवा पूजादर्शनाद्वहवो जीवाः सम्यग्दर्शन नर्मलमासाद्य चारित्रप्रया सिद्धिसोधमध्यासतामिति नावनया पूजा कर्तस्पेति दारिणः स्वच्छता उद्यमं कुर्वाणानां साधूनां नाशंसामयति उपदेशफलेच्छा विश्वासानुमतिस्तु मनायतनतो हिंसाबार स्थितानां कथं भवति ? । पुष्पाद्यायतन मेघानायतनमिति चेन्नई स्थितानामनायतनवान दे गृहेऽपि स्तुतित्रयर्पणात्परतो ऽवस्थानमनुज्ञातं साधूनामितिद्यर्थमवस्याने नोदोषः । प्रास्थितानां क्रमाद्विरुकोपदेशापाङ्गावर्तिनां हिंसाया अनिषेधनानुम तिरपि यद्यस्मान्न भवति, तत्तस्मात्कारणादिदं सव्यस्तवस्य श्लाघनं माहात्म्यप्रकाशनं साधूनां निरवद्यमेव शुभा वदति निष्कर्षः ॥ २६ ॥ कश्चिदाह-स्वातन्त्र्येण साधवः किं न कुर्वन्ति, अन्यस्तवो यदि साधूनामनुमद्यस्तदा तेषां कर्तव्यः स्यादिति चेकिामे - तन्त्र, साधने प्रसङ्गापादनं वा ? | नावः साधुकर्त्तव्यः, तस्याना - श्रितत्वेनासाध्यत्वादन्त्य एवाहसाधूनामनुमोद्यमित्यथ न किं कर्त्तव्यमर्यादिकं, सत्यं केवलसाहचर्यकलनाचेष्टानुमानप्रथा । व्याप्तिः काऽपि गता स्वरूपनिराचारापास्त क्लीवस्येव वृथा बधूनिचुचने तालतर्फे रतिः ॥ २७ ॥ साधूनामप्यनुमोद्यमिति तोकिन कर्तव्यम धनुर्मार्थ स्पारयति - मोद्यमिति वचनम्। तथा चैतता दितोयसिद्धेरित्यर्थः । अत्रोत्तरम् सत्यम् स्वयाऽऽ पाततः प्रसञ्जनं कृतं परं केवलस्य साहचर्यस्य कलनातू पुरस्करनादनुमानप्रया प्रसङ्गादिचर्यमा व्या • चेय तिः, पार्थिवत्व लोह लेख्यत्वयोरपि तत्प्रसंगात् । तथा च तर्कमूलन्यायसिद्धेत्विदोष इत्यर्थमनुमत म नियतसाहचर्याद व्यामिरस्त्येवेश्वाह-व्याप्तिः कापि गता दूरे नष्टा कस्मात् स्वरूप निराचारात स्वरूपनिरवद्याचारादुपाधेः, यत्र साधु कर्त्तव्यत्वं तत्र स्वरूपतो निरवद्यत्वं यत्र च तदनुमोद्यं तत्र स्वरूपतो निरवद्यत्वमिति नास्ति कारणे विहितानां तारादीनां संपवलम्बनादीनां धातुमोरवेऽपि स्वरूपत्वनिरवद्यात्तथा चानाधिका ररूपण्याप्त्यभावान्मूलशैथिल्यं वज्रलेप इति भावः । व शुष्क एव बलीवर्दस्य तर्फे मुखं प्रवेशयत उपहासमाह तत्त स्मात्कारणात् दे बाल ! अविवेकिन् ! तव तर्फे रतिः वृथा, स्वद्गत शक्त्यभावात् कस्य ?, क्लीबस्य बधूनिधुवन श्व कान्तारससंमर्द हव । न च विद्यामुखचुम्बनमात्राद् प्रोगसौभाग्यमाविवति । यतस्तूक्तम् - " वेश्यानामिव विद्यानां मुखं कैः कैर्न लुम्बितम हृदयादिणस्तासां द्विशः सवा" ॥ १ ॥ इति किं चादीनामेकखाद्याचारस्यानुमो त्वेऽपि तदम्यत्यात्सूत्रीत्या व्यक्त एव दोषः। व , जोतिया, पण अलग व संधर। तेज डु डीलति परं सम्बे वि अ ते जिवाखार ॥ "सि । प्रति० । दर्श० । अत्र हरिप्रसूरिः । यदि नाम यतिना संधारणतो - स्तवः संपाद्यते, तदा साक्कादेव कस्मात् न क्रियते ?, इत्याशइक्याद सक्खा उ कसिणसंजम - दव्बाजावेहिँ यो अयं इट्ठो । गम्म तद्वितीय भाव पहाणा हि मुगल चि ॥ ४० ॥ साक्षात्तु स्वयं करणतः पुनः कृत्स्नसंयमश्च सर्वथा प्राणवधविरतिः, द्रव्याभावश्च निष्परिग्रहत्वेनार्थासत्ता, कृत्स्नसंयमद्रव्यभावी ताज्या पानान्तरेण कृत्संयम याचायाम् तत्र व्यभावो ऽप्रधानत्वं स्रव्यस्तवस्येति । नो नैष, श्रयं द्रव्यस्तत्रः इष्टोऽजिमतो यतीनां विधेयतया इति । गम्यतेऽवसयपत्री दिनां नादिपरिहारप्रतिपादनपरं निर्मन्थताऽनिधायकं च युज्यते व स्वयमकरणं व्यस्त वस्वति ग्रह न भावप्रधाना जावपूजापराः, मइयप्रधानाः हियस्मादयः । मुनयो यतयो भवन्तीतजा वत एव पूजा तेषां युक्ता, तदद्भिसंधारणं पुनर्भाव एव । इतिशब्दो वाक्यार्थसमास इति गाथार्थ ॥ ४ 1 1 , केषां तर्हि इन्यस्तवस्य साक्षात्करण मिटमित्यादएएहिं तो अम्पे, जे धम्महिंगारिणो उ तेसिं तु | सक्खं चिव चिओ, जारंगतया जतो महितं ॥ ४१ ॥ एतेभ्यो मुनिभ्योऽन्येऽपरे ये इत्यत्रोत्तरस्य पुनरर्थस्य तुशदस्थ संबन्धाद् ये पुनः, धर्माधिकारिणो धाम्मिंकाः, तेषां तु तेपामेव साकादेव च स्वयंकरणतोऽपि विशेयो विधेयतया ज्ञातव्यः । रूव्यस्तव इति प्रक्रनः कथमित्याह-भावाङ्गतया शुभभावकारणतया, जावस्तवाङ्गतया वा, इहार्थे शास्त्रप्रमाणतोपदिशन्नाह यतो यस्मात्कारणाद्, प्रखितमभिहितं नियुक्तौ इति गाथार्थः ॥ ४१ ॥ यद्भणितं तदर्शयनादअकसिद्यपवसपार्थ, विश्पाविरयाण एस लघु जुतो । Page #1244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२१) चेइय अभिधानराजेन्द्रः। चेश्य संसारपयणकरणे, दव्वत्थऍ कूवदिढतो॥४२॥ दिविधानम् , प्रात्याभित्य , न पुनरनुमोदनाद्यपि पुष्पपूजादेर नुमतिविधापनप्रतृतिफमपि प्रतीत्य, अपिशब्दः समुच्चयार्थः। प्रकृरामपरिपूर्ण, संयमं प्रवतंबन्ति विधति बेते मकृत्स्न द बद्ययाचार्येणाऽपि विशेषेण अव्यस्तवं प्रति साधोर्षिधाप्रवर्तकाः, तेषाम् । अत एव विरताच ते निवताः स्यूलादिवि. पनमनभ्युपगतं तथाऽपि व्यस्तवफल खरूपप्ररूपणारेण तशेषणेभ्यः प्राणातिपातादिभ्यः , अविरताश्चानिवृत्ताः सूदमा देरिप्यते , न पुनः साक्षात्कारेण । यथा-त्वं जिनभवनं कुरु, दिविशेषणेभ्यस्तेज्य एवेति विरताविरताः, तेषाम् । एप व्य तदर्थ च मि बन , मृत्तिकां वह , जलमानय , इत्यादि स्तषः । मलुरवधारणे भिन्नकमश्च । युक्त एव संगत एव । कि विभाषा । मह्येवं स्वयंकरणस्य कारणस्य च महान् विशेषोऽफलोऽयमित्याद-संसारं नवं प्रतनुमरूपं करोतीति संसारप्रत स्ति । इति गाथार्थः॥४४॥ मुकरणः । १६ च विशेषणस्व परनिपातः सिकसेनाचार्य इत्यादाविष न पुष्टः । सुप्तनावप्रत्ययाद्वा संसारप्रतनुताकरब इति प्रय द्रन्यस्तवस्वानुमोदनं साधार्युक्तं , झापकैस्तस्य दृश्यम् । ननु कथञ्चित्सावद्यतमा सदोषत्वेनानाश्रयणीयत्वादम्य समर्थितत्वात् । कारणं त्वयुक्त, कापकाकथं संसारप्रतनुकारित्वमित्याशक्याऽऽह-अयस्तो भाभ भावात् , इत्याशङ्कयाहवणीयतया सावितुमिष्टे , कृपदृष्टान्तोऽवटखननकातमस्तीति। तत्प्रयोगधेवम्-सदोषमपि स्वरूपेण पद् गुरुकगुणान्तरकारणं सुन्न पवइररिसिणा, कारवणं पिहुआणुट्टियामिमस्स । तदाधयणी, यथा कूपस्खननं, तथा च न्यस्तव इति दृश्यम् । बायगगंथेमु तहा, एयगया देसणा चेव ॥ ४५ ॥ हटान्तबारेण नाबना तु प्राग्वत् । इति माथार्थः ॥ ४२ ॥ भूयते समाफपयंते प्रावश्यकनियुक्तौ , चशब्छो युक्त्यन्तरभय " अकसिखपवत्तयाणं" इत्यत्र गाथार्या पुष्पादिरेव समुधवार्थः, वैरऋषिणा पैरानिधानमुनिपतिना, कारापणमपि सन्यस्तयोऽभिहितः, ह च प्रकरणे जिनभवना- देवेविंधापनमपि, न केवलमनुमोदनं, यद्भयतामनभिमतं कारादिरसावुक्तः, तत्कयमियमिहत्यसंवादाय स्था- पणं , तदपीत्यर्थः । दुर्वाक्यालङ्कारे । अनुष्ठितनासवितम् , दित्येतदाशय परिहरनाह प्रस्य पुष्पादिद्रव्यस्तवस्य । यतस्तत्रोक्तम्-"मादेसरीउ सेला, सो खलु पुप्फाईश्रो, तत्थुत्तो न जिणनवणमाई वि। पुरि पनीया हुयासणगिदाओ । गवणयलमश्वश्त्ता, बहरेण भाईसहावुत्तो, तयभावे कस्स पुप्फाई ॥४३॥ मदाणुभावण ॥ १॥" किले कदा भगवान् वैरस्वामी पुरिका. भिधानायां नगर्या विदरति स्म । तत्र च तदा श्रमणोपासकसव्यस्तवः,खबुरावधारले, तस्य च प्रयोगो दर्शयिमते, पु बुशेपासफैश्च परस्परस्पर्द्धया स्वकीयदेवानां माल्यारोपणापादिक एच कुसुमधूपदीपप्रभृतिरेव , तत्र "अकसिणपबत्त- निविधीयन्ते मा सर्वत्र च बोपासकाः पराजीयन्ते स्माराजा गाणं" इत्यत्र चतुर्विशतिस्तवनियुक्तिनाथायाम, उक्तोऽभितः, च तेषामनुकूलः, ततस्तेनूपोऽभ्यर्थितः, तेन च श्रमणोपासका"दन्वत्थउ पुप्फाती, संतगुणुकित्तणानावे।" इति प्रक्रमपति नां कुसुमानि निषेधितानि । पर्युषणादिने च तदभावात श्रावका तत्वादस्याः। न नैव , जिनभवनाद्यपि जिनजवनकरणप्रभृति- | विषाणाः। सवालवृधाश्च ते धैरस्वामिनमुपस्थिताः, भणितय. रपि । इह मकारः प्राकृतशलीप्रभवः। भपिशब्दः समुच्चया न्तश्च-" यदि युग्मानि यः प्रवचनमपचायते, तदनया यूयमंत्धेनोक्त इति क्रियानिसंवन्धार्थः । हाकेपे समाधिमा-मा मेव यद्भवति तज्जानीधेति"। ततश्च समुत्पत्त्य माहेश्वरी नगरीदिशब्दाद “दव्यत्या पुप्फाई" इत्यत्रोपन्यस्तापुक्को भणि मगमद्भगवान्,तत्र च हुताशनं नाम व्यन्तरगृहम, तदारामे प्रति. तः, जिनभवनादिन्यस्तव इति प्रक्रमः। विपर्यये बाधकमाह दिनं पुष्पाणां कुम्भ उत्पद्यते । तत्र च धरस्वामिनः पितृहधिभादिशब्देन जिनभवनादीनाम ननिधानं चेत् , तदा तेषाम न्तकोजवत्, सच जगवन्तमुपलभ्य ससंभ्रमवादीत-किमागव्यस्तवत्वेनाकरणप्रसङ्गात् । भभावे जिननवनबिम्बाद्यभावे मनप्रयोजनम् । ततो गवानुवाच-पुष्पैः प्रयोजनमस्ति । ततो. कस्य १, न कस्यापि । पुष्पादिः कुसुमयल्ल्याद्रव्यस्तवः | स्यामिविषयत्वादिति भावना । इति गाथायः॥४३॥ ऽसावुवाच-अनुग्रहो नो गृहीतैतानि । भगवानऽवादीत-वनी त एतानि ताबदू यूयं यावत्वाऽहमागच्छामि , ततः समुत्पत्य मनु जिनभवनादिव्यस्तवो नवतु , कि वसावागमे हिमवन्महागिरी श्रीदेवतायाः समीपे जगाम । भिया च चैबतेनिषिद्धस्तत्कथं मावस्तवो व्यस्तबानुगतः, त्यार्चनाय तदा पचं चिच्छिदे । ततो वन्दित्वा तया तेन निमश्त्याशक्य परिहरबाह न्त्रितः । तब गृहीत्वा हुताशनगृहमाजगाम । तत्र च तेन विमापण तत्थेव य मुपिणो, पुष्फाशनिवारणं फुमं प्रत्वि। मं विरचितम् । तत्र पुष्पकुम्मं विप्त्वा जृम्भकदेवगणपरिवृतो दिव्येन गन्धर्वगीतनिनादेनाम्बरतलमापूरयन्महेश्वर्याः पुरीमाअस्थि तयं सय करणं, पमुच्च नऽणुमोयणाई वि॥४॥ गतवान् । तृतीयवर्णिकाच जम्भकनिकायाकीर्णमाकाशमवतोमन्विति परमताशङ्कायाम, तत्रव च अन्धे, यत्र विरतानां - क्य वितकंयामासुः-अस्माकभिवं प्रातिहार्य देवा चिधति,त्यघंव्यस्तवस्य साक्षात्करणमुपदिष्टम् । मुनेः साधो,पुष्पादिनिवा- मादाम स्वकीवायतनेज्यस्तदनिमुलं निर्गतवन्तः । नगवाँस्तु रणं कुसुमवल्ल्यादिनिधनम्, स्फुट व्यक्तम् , अस्ति विद्यते। देवसमुदायपरिवृतो जिनायतनमगमत् । तत्र च देवा महान्तं बतस्तत्रोक्तम्-"छज्जीवकायसंजमें, दव्यथएँ सो विरुज्जर महिमानमकार्षुः । जिनशासनं प्रति च बोकस्यातीव बहुमानः कसिणो । तो कसिएसंजमविऊ, पुष्फाईयं न इच्छति ॥१॥"| समजनि। राजाऽपि चावर्जितः श्रमणोपासको बलूचेति । तथा मतः कथं पूजादिजव्यस्तवानुमोदनविधापने भवदन्युगते वाचकग्रन्थेषु वाचकः पूर्वधरोऽनिधीयते । स च श्रीमानुमासाधोः सङ्गते इति परमतम् । समाधिश्चैवम्-अस्ति विद्यते, तद । स्वातिनामा महातार्किकः प्रकरणपञ्चशतीकर्ताऽऽचार्यः सुप्रमुनेः पुष्पादिनिवारणम, केवलं स्वपकरणम् आत्मना पूजा | सिकोऽभवत , तस्य प्रकरणेषु, तथेति वाक्योपदेपे । स च Page #1245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२२ ) निधान राजेन्द्रः | चेश्य वाक्यस्यादौ दृश्यः । एतद्वता इव्यस्तयविषया देशना प्ररून पगा । तथा हि " 'यस्तृणमपि कुमचि नक्त्या परमगुरुज्यः, पुण्योत्मानं कुतस्तस्य ? ॥ १॥" तथा- "जिन जिनविस्वं जिन जिनमतं च यः कुर्यात्। तस्य नरामरशियख फलानि करवस्थानि ॥१३॥ इति । नया हिदेशनया श्रोता द्रव्यस्तवं कारितो नवति । ततो वाचकमुख्यस्यापि जयस्तव कारणमस्तीति भावः । चैवेति समुच्चयार्थः। तदेवं स्वयं करणमेवाजित्य पुष्पादिनिषेधनं सा वो न पुनरनुमोदना पोति प्रकृतमिति । इह च नद्यप्याचार्यरोहरण यस्तफार साधोरविशेषेण विधेयतया दर्शितम् तथाचापवादिकमे से यम वन्दननि क्त्यां तस्य भग्नशुभपरिणामालम्बन तयोपदिष्टत्वात् । तथाहि च "नावासविहार जिवालानं । बिग य परिबंध निदोसं चोश्या वैति ॥ १ ॥ यकिप्रत्युकम् - " बेकुलगणसंघे, अनं वा किं विकाउ निस्साणं । अहवा वि अज्जवहरं, तो लेवंती करणिज्जं ॥ १ ॥ कखामिना मुसारें । न कया पुरिया ततो, मोक्लंग सा वि साहूणं ॥ २ ॥ " हार्य समाधि: " ओजावणं परेसिं, सतित्थउन्भावणं च वच्चनं । नगणेनाधियकममं च ॥ १ ॥ " ( गणेमाणति ) आलम्बनानि गणयन्तः । अपवादतस्तु स्वयं करणं कारणं चानुमतमेव । यतः कल्प उक्तम्"जे फल इयरे चोति तंतुमाईसु । जोतिसु, अनिच्छफेरिति संता १" (मंगल (स) मफलकानीव मङ्गफलकानि निर्वाहहेतुत्यानि तथा " अन्नाभावे जगणा-पॅ मगगनासो नवेज्ज मा तेण । पुञ्चकयाय यणाई, ईसिं गुगसंभवे शहरा ॥ १ ॥ श्यकुलगणसंधे, आयरियाणं च पवयण सुए य । किरा ॥ २ ॥ इति । तथावाचकस्यापि स्याद्यभिधानाथैव देशना फलार्थिनस्तु स्वत एव तंत्र प्रवर्तन्ते; यदि पुनः साक्षात् परप्रवर्तनाय सा स्यात्तदा साकादेव तत्र तत्प्रवर्तनमपि वि यं स्यात् । तथा च वैरस्वामिचरितावलम्बनस्य पुष्टत्वमेव स्यादू, अपुष्टत्वं च तस्यावेदितमिति । द्रव्यस्तवादिश्रावकधर्मप्र रूपणं च यतिधर्मासमर्थस्य शिवस्य विधेयम अन्यथा आरम्भेषु प्रवर्तनोपसंभवात् । आद च मित्रता तपसाणं 33 लोनिवि फति ॥ १ ॥ इति गाथार्थः ॥ ४५ ॥ पञ्चा० ६ विव० । ४० । ननु यदि मतिर्मावल द्रव्याचैव कथं नापेक्ष्यते । तत्राहदुग्धं सर्पिरपेक्तेन तु तृणं साकाययोत्पत्तये, चेइय या चनुमतिप्रभृत्यपि तथा भावस्तवो न वियाम् । इत्येवं शुचिशास्त्रतच्चमविदन यत्किञ्चिदापादयन्, किंमतोऽसि पिशाची किमया किं वातकी पाकी (दुपमिति) सर्पितमोत्तम देवान्यवधानेन सर्पिष उत्पद्यमानस्योपलम्नात्, न तु तृयाम, गवाभ्यवहारण तथापरिणम्यमानमपि व्यवधानात् । तथा भावस्तव उपचितावयविस्थानी यो, द्रव्याचानुमतिप्रभृत्यपि स्वा की भूतं कारणमुक्तापेक्षसे न स्विम ज्याची व्यवधाना त्वयाग्निकारिकाभ्युदासेन नाथाग्निकारिचैवानु काता साधूनाम् । प्रति० । इत्यार्थीद्रव्याम्यते न हि मुनिस्व समर्थी जलं, बाहुभ्यामिव काष्ठमत्र विषयं नेतावता श्रावकः । बाज्यां भववार तर्तुमपटुः काष्ठोपमां नाश्रये, Sव्याचमपि विमतारकगिरा भ्रान्तीरनासादयन् ? || || (वार्चामिति ) अत्र जगति बाहुभ्यां जलं तर्फे समर्थः विषय सकट का मजम तर्हि नैव व्यांची मवलम्बते स्वरूपतः सावद्यायास्तस्याः सकपटकका स्थानीय नेतायता कुदि दोषेण स्वयमदिन आयका बाहुभ्यां प्रचारि संसा रसमस कामांविषय चमाश्रयेत ?, किं कुर्वन् प्रतारकस्य गिराऽपि भ्रान्तीः विपर्ययान् अनासादयन् अप्राप्नुवन् तदा ननु स्वीचित्यापरिज्ञाने स्वादेव तदमाश्रयणं मुग्धस्यति भावः ॥ २५ ॥ अक्षीणाविरतिय हि ग्रहिणोस्त सर्वदा सेवन्ते कटुकोपपेन सदृशं नानीदृशाः साधवः । इत्युचैरधिकारिभेदमविदन् बालो या खिद्यते, नैतस्य प्रतिमाद्विषो व्रत परं विद्यते ॥ ३० ॥ , "म की ऐत्यादि" हि निश्चितम् श्रणोऽविरतिरेव ज्वरो येषां ते तथा गुडिः ज्वरापहारिणा कपन यस्त दादशा कोणाविरतिज्वराः साधयो नय न्ते न हि नीरोगवैयोक्तम् औषध रोगवान सेवत इति लोके - समिति रविना विकार मलिनाम् तदित राधिकारिधिशेषमविदन् बालानी वृया विद्या कुरुते । एतस्य प्रतिमाद्विषः प्रतिमाशत्रोः परं केवलं मुक्किने वि धते, प्रवचनार्थिन एकत्राश्रद्धानवतो योगशतस्य निष्फलत्वम् । तडकमा चारे "वितिभिष्वाणं जो सब समा हिं " ति । अत्र प्रत्यवतिष्ठन्ते ननु यतिरत्र कस्मान्नाधिकारी, यतः कर्मलक्षणो व्याधिरेको द्वयोरपि यतिगृहस्थयोः, श्रतस्तच्चि किराये पूजादिना समेत कार कथं पुनस्तत्प्रतिविमानख केशादिसं स्त्रियाम्। गन्धमाल्यं धूपं त्यजन्ति ब्रह्मचारिणः १ इति वचनान्मुनेः स्नानपूर्वकत्वाधिकार 1 भूतार्थस्यैव तस्य निषेधात् । यदि यतिः सावधानवृत्तस्ततः को दोषो यत् स्नानं कृत्या देवतार्चनं न करोति ? यदि हि स्नानपूर्वकदेवार्चने साथद्ययोगः स्यात् तदाऽसी 9 Page #1246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२३ ) वेश्य अभिधानराजेन्द्रः । चेइय गृहस्थस्यापि तुल्य इति तेनाऽपि तन्न कर्त्तव्यं स्यात् । अय (वैतृषण्यादिति) बैतृएवाद् धनतृष्णाविच्छेदादपरिग्रहस्यागृहस्थः कुटुम्बाद्यर्थे सावधे प्रवृत्तस्तेन तत्रापि प्रवर्तनम् | परिग्रहवतस्य दृढता भवति । तथा दानेन कृत्वा धर्मोन्नतिबतिस्तु तत्राप्रवृत्तत्वात्कयं स्नानादौ प्रवर्तते इति । ननु यद्यपि प्रेवति । विहितं च तजिनभवन कारणे पूर्वाङ्गम् "अचासो कुटुम्बाद्यर्थ गृही सावधे प्रवर्तते, तथाऽपि तेन धर्मार्थ तत्र विजनः, संबभ्यपि दानमानसत्कारैः । कुसलाशयवान् कार्यो, न प्रवृत्तिः, तकं पापमाविरताविरत्याऽन्यदयाचरितम्बमा प्रथ नियमादू बोध्यमबमस्य" ॥१॥ इत्यादिना । तथा मलि. कृपोदाहरणात नानादि युक्तम,एवं यतेरपि तद् युक्तमेव, एवं च नारम्भानुबन्धस्य छिदा प्रासादादिकर्तव्यताऽनुसंधाने सदाकथं स्नानादौ यतिनाधिकारीति ? । अत्रोच्यते-यतयः सर्वथा रम्नाध्यवसायस्पैव प्राधान्यादितरस्यानुषङ्गिकत्वात, तत्यवासावधन्यापारात्रिवत्ताः, ततश्च कृपोदाहरणेनापि तत्र प्रवर्त हप्रवृत्त्यैव बंशतरणोपपत्तेः । प्राह च-" अक्षयनीत्या घेवं, मानानां तेषामवद्यमेव चित्ते स्फुरति, न धर्मस्तत्र सबैच केयमिदं बंशतरकारामम्" इति । तथा चैत्यानत्वर्थमुपनम्रा युमध्यानादिप्रवृत्तत्वात् । गृहस्थास्तु सावधे स्वन्नावतः उपनमनशीला थे साधवस्तेषामेकदेशे देशनाधतानां वानि सततमेव प्रवृत्ता न पुनर्जिनाचनादिद्वारेण स्वपरोपकारा बचांसि तेषामाकर्णनात् कर्णयोरमृतमज्जनम् । तथा-जिनत्मकधमें, तेन तेषां स एव चित्ते लगति निरवद्य इति कर्तृप मुखस्य भगवत्प्रतिमावन्दनादौ ज्योत्स्नाया लावण्यसमालो. रिणामवशादधिकारीतरौ मन्तव्याविति स्नानादौ गृहस्थ पवा- कन्यदहणोनयनयोश्चामृतमज्जनम्, बिगखितवेद्यान्तरोऽभयानधिकारी, म यतिरित्वष्टकवृत्तिकृतः । अत्र व्यस्तवे प्रवृत्ति न्दात्मा शान्तरसोदबोध हति यावत् ।। ३१॥ काले स्फुरणं साधोः किमबखगावात, अग्रिमकालेऽवद्यस्य स्वशोधत्वकानात, स्वप्रतिकोचितधर्मविरुषत्वज्ञानात्, पाहा नानासङ्घन्समागमात् सुकुतवत्मान्धहस्तियजरोपाद् वा । नायद्वितीची। गृहितुल्ययोगक्षेमत्वादुभवासि- स्वस्तिप्रश्नपरम्परापरिचयादप्यनुतोनावना । देः । तृतीयः । गृहिणाऽपि योगादिनिषेधाय धर्मार्थ वीणावेणमृदङ्गसंगमचमत्काराच्च नृत्योत्सवहिंसा न कर्तव्येति प्रतिकातकरणाद्विरुदत्वज्ञाने स्फुरिताद. स्फाराईगुणसीनताऽनिनयनाद नेदतमप्क्षावना ।।३।। चत्वेन ब्यस्तचाकरण प्रसङ्गात् । अध्यात्मानयनेन व्यस्तवीदिखाया अहिंसीकरस्पनाविरोधस्याप्युभयोस्तौल्यात् ।। (नानेति) नानाप्रकाराः स्वदेशीयान्यदेशीया ये सवास्तेषां समामापि तुर्यः । भवद्याहार्यारोपस्येतरेणापि कर्तुं शक्यत्वात् । तेन गमात्सुकृतवन्तो ये सम्त एवं गन्धदस्तिनो गन्धमाश परबा. रूपस्तवत्यागस्यापि प्रसङ्गादिति । मलिनारम्भस्याधिकारि. दिगजभञ्जकत्वात्, तेषां वजः समूहः, तत्र या स्वस्लिप्रशस्य प. विशेषस्याभाबादेव न साधोर्देवपूजायां प्रवृत्तिः; मलि- रम्परा,तस्याः परिचयादप्यद्लुतरसम्योद्भावनोद्धोधः,ततश्च स. बारम्मी हि तन्निवृत्तिफमायां तत्राधिक्रियते पुरितवानिव त- योगवनकादिकमेण परमः समाधिलाभ इति । च पुनः. वीणाभिवृत्तिफले प्रायश्चित्ते । तदाह हरिभकः-"असदारंभपवित्ता वेणुमृदङ्गसङ्गमेन तौर्यत्रिकसंपत्त्या यश्चमत्कारः, ततो नृत्योत्सवे जं गिहिणो तेण तेसि विनेया । निबित्तिफला एसा , तहा स्फारा येऽईद्गुणास्तवीनता बिनायानुभावीभूतं यदभिनयन परिभावयन्वमिणं ॥१॥" अत एव स्नानेऽपि साधोनाधिका तस्माद्भेदभ्रमस्य नेदविपर्ययस्य प्लावना परिगलनम् । तथा च रः, तस्व देवपूजाङ्गत्वात् । प्रधानाधिकारिण एव चाङ्गेऽधिकारो, सभापत्त्यादिभेदेनाईदर्शनं स्यादिति भावः। समापत्तिल दाणमिमान्यस्य,स्वतन्त्रोपगतजङ्गप्रसङ्गादिति युक्तं पश्यामः। असदारम्भ दम्-"मणेरिवाऽभिजात्यस्य, कणवृत्तेरसंशयम्। तावत् स्याबिवृतिफलत्वं च व्यस्तवस्य चारित्रमोहक्कयोपशमजननद्वारा सरञ्जनत्वा-त्समापत्तिः प्रकीर्तिता ॥१॥" इति । आपत्तिस्तीफलतः शुभयोगरूपतया स्वरूपतवात एव ततो नारमित्रकी नामकर्मबन्धः; संपत्तिस्तद्भावानिमुख्यमिति बोगग्रन्थे क्रिया शुजयोगे प्रमत्तसंयतस्यानारम्नकतायाः प्राप्ती दर्शित प्रसिद्धम् ।। ३२॥ त्वोत, अर्थेनातिदेशेन देशविरतेवितरालाभात् । प्रति०। ('कि. पूजापूजकपूज्यसंगतगुणध्यानावधानकणे, रिवा' शब्दस्मिन्नेव जागे५४५पृष्ठे क्रियाऽधिकार उक्तः) (भवि. मैत्री सत्चगणेष्वनेन विधिना जव्यः मुखी स्तादिति । कोपचितादि चतुर्विधं कर्म नोपचीयते इति'कम्म' शन्देऽस्मिन्नेव | बैरव्याधिविरोधमत्सरमदक्रोधैश्च नोपप्लबः, मागे २५६ पृष्ठे समुक्तम) तनिष्कर्षस्त्वेवम्-"बतनातो न च हिंसा, बस्मादेषेव तभिवृत्तिफला । तदधिकनिवृत्तिभावाद्, विहि तत्को नाम गुणो न दोषदलनो व्यस्तवोपक्रमे ॥३३॥ तमतो दुष्टमेतदिति"॥१॥ इति मल एव विस्तरेणाभिधास्यते । (पूजेति) पूजापूजकपूज्यसंगतात्रयान्वयिनो गुणाः तेषां यदग्बैतपरिष्ठादित्यलं प्रसङ्गेन। रटेष्टलमापत्तिसमाधिफलं ध्यानं, ततो यद अवधानमनुपेका, "इयं प्रोक्ता सम्यक् य ह समबे वाचकवरैः, ततकचेतदवसरे,अनेन विधिना व्यस्तवविधिना भव्यः सर्वोक्रियाया निष्कर्ष कलयति कृती शान्तमनसा। ऽपि सुखी स्तादिति सत्वगणेषु प्राणिसमूहेषु मैत्री भवति । श्रत यशाभीस्तस्योरूपचलति भव्यस्य गुणिनो, पवाल्पबाधया बहुप्रकारादनुकम्पपिपत्तिरिति पञ्चलिङ्गीकारः! गुणानां बानुभ्यात्परमरसिकेव प्रणयिनी " ॥१॥३०॥ तथा वैरं च व्याधि विरोधश्व मत्सरश्च मदश्च क्रोधश्व तेः (१०) द्रव्यस्तवे गुणानुपदर्शवति कत्वोपप्लव उपद्रवो न भवति, तत्तस्मात्कारणात, न्यवैतृषायादपरिग्रहस्य दृढता दानेन धर्मोन्नतिः, स्तवोपक्रमे-उपक्रम्यमाणे द्रव्यस्तवे, दोषदानो दोपोच्छेदकासकर्मव्यवसायतश्व मलिनारम्नानुबन्धच्दिा री को नाम गुणो न भवति । अपि तु सूयानेव भवतीति । जावः ॥ ३३॥ चैत्यानत्युपनम्रसाधुवचसामाकर्णनात्कर्णयो उक्तशेषमाढ-मावयज्ञोऽयं व्यस्तवो नाऽत्र हिंसादोषःरदपोश्रामृतमज्जनं जिनमुखज्योत्स्नासमालोकनात् ।।३१।। सत्तन्त्रोक्तदशत्रिकादिकविधौ सूत्रार्यमुजाक्रिया Page #1247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेइय (१२२४) चेइय अभिधानराजेन्सः । योगेषु प्रणिधानतो व्रतभूतां स्यानावयको ह्ययम् । कृतासमन्त्रात्कर्मणोऽध्यवसायानुरोधिफलाभ्युपगमे तु मन्त्र. जावांपद्विनिवारणोचितगुणा ह्यप्यत्र हिंसामति करणकोपासनेतिकर्तव्यतासम्बनत्वमेव देवतात्वमिति युक्तम् । संसारिदेवत्वं च देवगतिनामकर्मोदयवत्त्वं, संसारिषु संसारमुटानां महती शिक्षा खलु गले जन्मोदधौ मज्जताम्॥३।। गामिनामितरेषु चेतरेषां भक्तिः स्वरससिद्धोति तु योगतन्त्रप्रसि(सत्तन्त्रति) सत्तन्त्रे सच्चास्त्रे उक्तः पूजापूर्वापराशीभूतो कम् । तदुक्तं योगदृष्टिसमुच्चये-"संसारिषु हि देवेषु, प्रक्तिस्त" ददतिगअहिगमपणगं" इत्यादिनाऽनिहितो दशत्रिकादिका स्कायगामिनाम । तदतीते पुनस्तत्वे, तदगीतार्थयाधिनाम ॥१॥" विधिस्तस्मिन्विषये, सूत्रं च अर्थश्व मुद्रा च किया च तलत- इति स्वाहास्वधाबतरस्यैव मन्त्रत्वमित्ययमपि नेकान्तःभणेषु योगेषु, प्रणिधानतो, दि निश्चितम्, अयं व्यस्तवः नाव- वन्यासे नमःपदस्यापि तत्वभवणात् । तमुक्तम्-"मन्त्रन्यासस्तु यकः स्यातू, अभ्युदयनिश्चयहेतुयकरूपत्वात्तदाह-पतदिह भा- तथा,प्रणवनमःपूर्वकं च तन्नाम । मन्त्रः परमो झयो,मननात त्राणे वयः सद्गृहिणो जन्मफलमिदं परममभ्युदयविच्छित्या नियः | खतो नियमात ।।" इति। मीमांसकस्तु इन्कविश्वतनस्य सतोभादपवर्गतरुवीजमिति । हि निश्चितमत्र द्रव्यस्तवे, जिनविरह ऽपि न देवतात्वं,तक्देिशनादेशितचतुर्थ्यन्तपदनिर्देश्यत्वमात्राप्रयुक्ततनिवासंपत्तिरूपाया भावापद्विनिवारणोचितो गुणो मणाय दद्यादित्यादी ब्राह्मणादेदेवतात्ववारणाय देशनादेशियत्र तारशाऽपि हिंसामतिः, सा स्खलु मूढानां विपर्यस्तानां | तेति । दशना वेदः, तेन यत्र यागे इविषि वा चतुर्थ्यन्तपदनिजन्मोदधौ संसारसमुझे मजतां गले मदती शिना । मजतां हि देश्यतया यो बोधितः स तत्र देवता । ऐन्कं दधि भवतीत्यादी पापानां गले शिक्षारोप नचित एवेति सममलङ्कारः। “समं यो- | देवतातहितविधानादिन्द्रोऽस्य देवतेत्यर्थः । देवतात्वमत्र चग्यनबाद योगो,यदि संभावितः कचित्" इति काव्यप्रकाशकारः। तुय॑न्तपदनिर्देश्यत्वमेवति नान्योऽन्याश्रयः । इन्जाय स्वाइदं पुनरत्र विचारणीयम्-भावोपपदः स्तवशब्दश्च भावोपपदो देत्यादौ तु चतुभ्य देशनादशितचतुर्दान्तपदनिर्देश्यत्वमर्थः। यशब्दञ्चारित्रमेवाचष्ट इति कथं द्रव्यस्तवे भावयपदप्रवृ- इन्छपदं स्वपरतारशनिर्देश्यत्ववदिन्छपदकस्त्याग शत वाक्यात्ति?, यस्तवशब्दस्यैव प्रवृत्तेरौचित्यात् । यकशब्दो सौकिक- थः। भ्रत एव ब्राह्मणाय स्वाहत्यादि न प्रयोगः, स्वाहादिपदयोगे प्रसिद्ध इति व्यावर्तनेन नावपदयोगः प्रकृते प्रवर्तयि- | बोगे देवताचतुर्ध्या एव साधुत्वेन ब्राह्मणादेनिरुक्तदेवतात्वाभाप्यते, तर्हि स्तवहाब्दोऽपि स्तुतिमा प्रवृत्तो भावशब्दयोगेन | वात् । तत्रादि संप्रदानत्वबोधकचतुर्येव । एवं पृथक् सूत्रप्रापप्रकृते प्रवर्तताम, "संतगुणकित्सणाभावे" त्ति नियुक्तिस्वार- यनमेब, आकाशाय स्वाहेत्यादिसंप्रदानचतुर्थ्य नावेऽपि "नमः स्यात् । गुणवत्तया ज्ञानजनकव्यापारमा शकस्तवपदं भावप- स्वस्ति" ॥२।३।१६॥ इत्याद्युपपदचतुर्थीसंजवः । मन्त्रसिङ्गा योग आझाप्रातिपत्तिरूपे विशेषे एव पर्यवसाययतीति त- दिना च यत्र देवत्वावगमः तत्र ततस्तथाश्रुत्युन्नयनादेशनादेस्कारणे द्रव्यस्तवपदप्रवृत्तिरेब युक्तेति चेत, तईि-"महाजवं तित्वम् । इत्थमवेन्द्राय स्वाहत्येव प्रयोगो, न तु शक्राय स्वाजयर जननिहं" इत्यागमात् भावयपदस्यागमे चारित्र पव हेति पर्यायान्तरेऽपीत्यनेन चेतनैव देवतात्वम,अम्नये प्रजापतये प्रसिद्धेऽव्यस्तवपदप्रवृत्तेरेयौचित्यमिति देवतोदेशकत्यागे घो- चेत्यादौ देवतात्यकल्पने गौरवाद्वाक्यभेदप्रसङ्गाच चकारबगझदस्य प्रयोगः प्राप्नुयात् । भावपदोपसंहानेन वीतरागदेव- लाच विशिष्टस्यैव देवतात्वम्, अग्निप्रजापतिज्यां स्वाहेत्येव तापूजया तत्प्रवृत्तिपर्यवसानमिति तु युक्तम् । माह च-"देवो- प्रयोगात्।धृतिहोमे 'धृतिर्वो देवता रकायै' बतुर्थ्यन्तेतिचतुथ्यदेशेनैत-दादिणां कर्तव्यमित्यलं गुरुः । अनिदानः खलु भावः, न्तेत्यर्थकं धृतिः स्वादेत्यादौ प्रथमाया एव चतुर्थीपिधानात् । स्वाशय शति गीयते तदुः।" इति देवतोदेशेन त्यागत्वनिश्चयत अथ देवतोद्देशेन क्रियमाणत्वात् ब्राह्मणाद्देशकत्यागवत घृतोथात्मोदेशेनैव देवतात्वं पीतरागत्वमिति रागात्समर्षितस्य स्वा- देशेन क्रियमाणे दनि व्यभिचारवारणाय सत्यन्तम्। तत्परिशेरमन्त्रुपनयनाव॥ योगास्तु देवतात्वं मन्त्रकरणकविनिष्ठफलभा. पात् स्वामित्वादिति सिकंदेवता चैतन्यामिति चेत् । न । अप्रयोगित्वेनोद्देश्यत्यम,अतश्चतुर्थी विनाऽपीन्प्रादेदेवतात्वं दविनिष्ठ जकत्वात्। तनिष्ठकिशिद्देशनायं क्रियताम् न त्वस्योपाधित्वाफलं स्वगतमतो न यागजन्यस्वर्गरूपफलाश्रयकलयव्याप्तिः। न नहि हविस्त्यागो देवतानिष्ट किञ्चिदुद्देशेन क्रियते, किंतु चनन्त्रं विनेन्डाय स्वाहेत्यनेन त्यागे देवतात्वं न स्यादिति घा- | स्वनिष्ठफलादेशेन । शिवाय गां दद्यादित्यादौ द्देश्यत्वेनोक्ता च्यमन्त्रकरणकत्यागान्तरमादाय देवतात्वात्, स्वाहास्वथा- चतुर्थीददातिस्त्यागमात्रपर ति नानुपपत्तिरित्याह । तदसत् । अभ्यतरस्यैव प्रकृते मन्त्रत्वात् । पित्रादीनां स्वधया त्यागे देवता. चतुथ्येन्तपदस्य देवतात्वे नावाभावात्, चतुथी विनाऽपीन्द्रो स्वमान नु प्रेतस्य,नमःपदेनैव तदा त्यागागुमातू, अपि तु देवता- देवतेति व्यवहारात, अग्नये कव्यवहायेत्यादौ देवतादयप्रसत्वं च ब्राह्मणपठितस्वमन्यात् ब्राह्मणाय स्वाहेत्यनने ब्राह्मणाय कात् । "इन्द्रः सहस्राकः" इत्यर्थवादस्य इन्जमुपासीतेति वि. त्यागेऽपि स्वाहेत्वस्य न ब्राह्मणस्वत्वहेतुत्वं, तद्विनाऽपि प्रति- शेष्यतया स्वर्गार्थिवादवत् प्रामाण्यात्, इन्कायेत्यादौ भुतपदे. प्रहमात्रादेव तत्सत्यसंभवात् । अदृष्टजनकरवेन चा त्यागो नेव त्वागस्य फलहेतुताया वचनसिकत्वात् "तिर्यग्पडतिरूबाविशेषणीयः, वाहेत्यनेन ब्राह्मणाय त्यागो नादृष्टदेतुः, पामरेण यदेवतानामाधिकारः" इति जैमानसूत्रस्यैव देवताचैतन्यसामन्त्रं विनाऽश्वराय त्यागे ईश्वरस्य देवतात्वं,मन्प्रकरणकत्या- धकत्वाब अत्यन्येऽधिकाराप्रसक्त्या तन्निध्यानौचित्यागान्तरमत एव उद्देश्यत्वं उद्देश्यतावच्छेदकावच्छिनोपलक, त् । सूत्राश्वम-तिरवां विशिष्टान्तःसंझाविरहात, पलोः केवल मैन्द्रया देवनात्ववारणाय विशिष्टत्वेनोद्देश्यत्वाद्विशिष्टस्यै- प्रचरणाभावात्, तिनो रश्रुितिवाच आया ऋत्विग्योव देवतात्यादिल्याहुः । तदासचापक्षमात्रम् । योगिनामुपासनी. ग्याखिमुख्या येषामन्धबधिरमकानां दर्शनश्रवणोचारणायायावीतरागदेवताया एवं प्रसिद्धेरहङ्कारममकारात्मकतत्वस्य समर्थानां तिक्ष्याःयाणामिति त्रिप्रवराणामेवाधिकारो, न स्वे. तग्निपितस्य कुनोऽपि क्वचिदपादानासंभवात्, सरागेश्वरदे. कद्विवतुःप्रवरादीनां देवतानामनाधिकारिवाजेदन संप्रदाबतायाध रागविरम्वितैरेवाभ्युपगन्तुनईत्वात् । वीतरागोद्देशेन ! नत्वायोगादिति। एतेन देशनादेशितचतुर्यन्तपदनिर्देश्यत्वस्व Jain Education Interational Page #1248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२५ ) अभिधानराजेन् चेइय तापयोज्यत्यरूपस्येन्द्रादिपदे संभवाद, तारापविशिष्ट इन्द्रादिकथेतन एव देवता विशेषस्येन्द्रादिपदान देवानामानाचा त्याक्षणामानन्येन तेषां चतुचाभावेन देवतात्वायोगात् न च तथाऽपि देवता यामागरम बाखादिना मिशरीरेषु चैत्रत्यादियादिति वाच्य तपसि देवजातेरविशेषोपहत स्वस्य चानुगतत्वात् । ईश्वरे च देवतात्वे मानाभावात, ईशनादेः कर्मफलं भोक्तुं जीवभूतस्यैश्व देवतात्वाद, ईश्वरीयाहृतिभुतेरपी - शानपरायात्, आकाशाततिरपि विपति मालायाम् विशेषपदी देवगतिनामकमदयो देवताभ्य हारप्रयोजकः, तीर्थंकर नामकर्मोदयश्च देवाधिदेवव्यवहारप्रयोजकः, उपासनाफलप्रयोजकश्च मन्त्रमयदेवता, नयश्च समनिकन तपजीव्युपचारोपायमादाय संपतानामपि देवतानमस्कारीवत्यमित्ययं संप्रदायाविरुको म नीपोन्मेषः । [समेत वीतरागोद्देशेन न्यस्तयोऽपि भा. वयज्ञ एवेति ॥ ३४ ॥ नावापद्विनिवारणगुणेन कृतां स्थापनामेव द्रढयतिसम्यग्दृष्टियोगतो भगवतां सर्वत्र भावापदं, सुं तद्भवने तदर्चनविधिं कुर्वन्नष्टो भवेत् । वाहिन्युत्तरथोद्यतो मुनिरिव स्यापदं निस्तरन, वैषम्यं किमिति विकलः शून्यं परं पश्यतु ।। ३५ । सम्यग्रः भगवतीकृतामभयोगको बिदा सर्वत्र सर्वस्थाने नावापदं मे भगवदायतनेच तदि विहितां भगवत्पूजां कुनदोषान्नयेत् क इव पदन्यतो विहायोगरूप निस्तर विस्तरणकाम चाहिन्यां नयां तत्तदधिकार्योत्ये चतुयत्यादेकच नित्यत्वं कारणनित्यत्वात्, अन्यत्र नैमित्तिकत्वं च निमित्तमात्रापेक्षणादित्यस्यो पपत्तेरिति । इतिः पर्यनुयोगे, हेतुविकलः प्रत्युत्तरदानासमर्थः, परं केवलं शून्यं परमतु, दिग्मूढस्तिष्ठत्वित्यर्थः ॥ ३५ ॥ वैषम्यतुमाशङ्कय निराकरोतिनोत्तर मुनेर्नियमनाद् वैषम्यमिष्टं यतः, पृष्टासम्बननयिमितं किं तु श्रुते रागमम् । अस्मिन् सच्चबधे वदन्ति किस शक्यमतीकारतां तैर्निन्दामि पिवामि चाम्भ इति हि न्यायः कृतार्थः कृतः । ३६ । सुनेः नद्युत्तरणे नियमनात् संस्थानियमाभिधानात् श्राकस्य पूजायां तदभावाद्वैषम्यमिमिति नो नैव वाच्यं यतः त तरणं पुष्टालम्बनकं ज्ञानादिलाभकारणं, न नियमितं, किंतु भुते सिद्धान्ते, राग रागप्राप्तम् इत्थमेव नखनिर्दलनमा सावधानिषेधार्थप्रविवेरिव रामप्राणनिषेधार्थ प्रकृतस्य नियमविधित्वोपपत्तेः। द्रव्यस्तवविधिस्तु गृहिणोऽपूर्व एबेति सामान्ययोगात्, पुष्टालम्बनं तु वर्षास्वपि प्रामानुग्रामं विहारकरणमप्यनुतमिति कस्तत्र संस्थानियम है। तथा च स्थानाङ्गसूत्रम् - "बासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पर निग्गंधायथा निम्गंधी वा गामायामं दूरज्जित पंचा कप । तं जहा णाणहुयाए दंसणहुयाए चारितध्याए आय रिया पीसमेजारिया या ३०७ चेश्य वारणा थि" तत्र मातवादाचेदिनमध्ये ब यो मघुत्तर संभवतीति परिहासमाधिमा -अमितरणे, सत्यबधे जलादियाले येापप्रतीकारां भोजनं निन्दामि पिवामि ति वाया कृतार्थः कृतः, सस्त्रवधमात्रस्य निन्दनान्नद्युत्तरणसंभविनश्च तस्याश्रयणाशक्यं ह्येवं प्रतिमानेऽपि वक्तुम भक्तिसाघनीभूत पुष्पादिसत्ययस्य शयपरिहारत्वात्करणे अपरिहारः इति बेत्, नद्युप्तरणे तज्जीवबधपरिहारः शक्य इति हृदयम् । साधुना कुलाद्यप्रतिवदेन विहारस्तावदवश्यं कर्तव्यः चन रणं विना न संभवतीत्यनन्यगत्यैव नद्युत्तरणमिति चेत्र, साधमांशस्यरूयाश्वश्यं कर्तव्या जगात प्रतिमाऽयं विना न संभवतीत्यत्राप्यनन्यगतिः तुल्या । एतेनैकत्रैव प्रतिक्र मणस्यासाधकत्वात् " नइसंतरणे पडिक्कमर " इत्यागमे त सिके । यदि त्वधिकाराहानिरपेयधिक नदीप्राणधशोधिकारी स्वासदा साधुदानोयतः कोऽनानोगा दिना सचितस्पर्शमा प्रतिक्रम्यदः स्यात् । यथा प्रत्याख्यानस्य सर्वसावधानां साधूनां पाना दिगताने कजलः दिजन्तुधातोत् पातकमपा क्रियते तथा गुदिनभोगतः सचितरुपमात्रजन्यपात कापाकरणमीपत् रमेवेति संस्थानिवमोऽपि न कल्पते। द्विवारादिनिषेधे एकश उत्तारविधायिनः परजीववधपातकस्य वा परिहार्यस्वात्, शचलत्वनिषेधाय तदादरणस्याव्याज्ञामात्रशरणत्वात् । संख्यामियमेनैव पातकित्वे च सांवत्सरिकप्रतिक्रमणेऽतिप्रसंगः। किं च लुम्पनिमा क्यापचारेोका किंतु" इत्यसादा" इत्यादिनिविगाथेचेतिमेनाम जानकल्येन ? अथ नगयतामेव नसारे प्रतिका द्रव्यस्त इत्यत्र को हेतुरिति पृच्छामीति चेत्, यदि वो. महापातकशोधकस्याप्रतिशोधक स्यान्मदातलकस्य तृणान्मूत इवेत्युत्तरमा वस्तुत ईयां प्रतिक्रम्यैव द्विमानः आयकः साधु सचितादिघा यतोऽतिरिकामी प्रतिमेतद्वि विधं विविधेन प्राक्यानलस्य सामाधिपादेखि विधं त्रिविधेन प्रत्याख्यानलक्षणस्य सामायिकच्छेदोपस्थापनयादिचारित्रस्यातिचारलक्षणं मालिन्यं मा भूदित्यभिमाबादित्यर्थः । तथेयोपधिकरण सामाविकानि पुन रापनि पृथियाद्यारम्भवमनुष्ठानमानस अन्यथाऽनि गमनादावपि तदभिधानप्रसंगात्। अत एव कृतामाथिको मु निरिव भावकः पुष्पादिभिर्जिनपूजां न करोतीति जिनाहा, न पुनरितरोऽपि कृतसामायिकस्य तदवाप्तपूर्तिकालं यावत्सचितादिस्पर्शरतश्चैव प्रतपालकत्या जिनपूजां चिकीघुंस्तु सचित्तपुष्पादिवस्तून्युपादायैव तां करोति, तद्विना पूजाया एवाऽसंभवात् । प्रति कार्ये कारणस्य भिन्नत्वादिति लोकेऽपि यथाप्रवेशेयुपगमनापण तथा लोकोसरेऽपि सामायिक जानति यादासादाविति नाव: । "अपमिकताए शरयावहियं न कप्पर चैव किंचि कासं " इत्यत्र न किश्चिदिति विशेषः, "परमेव चेश्वंदणसम्झाए " इत्यभिमपदेनैव तदभिम्यकेरिति बोध्यम् ॥ ३६ ॥ रातीकृतेरन्यायेनापतियमपुचरणं प्रवृत्तिविषयो ज्ञानादिलाभार्थिनां Page #1249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२६) चेश्य अभिधानराजेन्द्रः। चेश्य दुष्टं तद् यदि तत्र कः खलु विधिव्यापारसारस्तदा। स्य वारणमतिश्रेष्ठोऽधिकारिणा भगवता अत्यन्तमनिप्रेतः,हिनितस्मादीदृशर्कर्मणीहितगुणाऽधिक्येन निर्दोषतां, भितमपरोऽन्योऽशोऽनुषङ्गहिंसाम्पो नेपः,उपेकित इति यावत् । तस्य स्वापेकयाऽवन्नवदोषरवानावेन प्रवृत्तव्याघातकत्वादसावपि ज्ञात्वाऽपि प्रतिमार्चनात् पशुरिव त्रस्तोऽमि किं दुर्मते! ।३७) म्यायो निर्देशलक्षणः दुर्मते व्यस्तवानम्युपगमे हुमघने पृक्कस. (बदिति) यदुकानादिनानार्थिनां प्रवृत्तिविषयो नधुत्सरणं, तद् मूहे प्रोहामः प्रवरतरो दावानलो दावाग्निः, एतन्मायोपस्थिती यदि दुई स्यात्तदा तत्र,स्खल्विति निश्चये,विधिव्यापारस्य विध्य प्रतीतस्यापि दुर्मतस्य त्वरितमेव मस्मीमावार, कन्यस्सवेऽप्ययंस्य सारा का तात्पर्य किम् ?, विध्यर्थो हि पलवदनिष्टाननुब- धिकारिणो गृरिणो भक्त्युझेकेण बोधिलाभहेतुत्वस्यैवांश. न्धीसाधनवे सति कृतिलाध्यत्वं,पापेच वनवत्यनिष्ठं जायमाने स्यैवेष्टत्वादितरस्वोपेकणीयत्वादिति प्रायः । प्रतिः । तत्र वियपंवाधक एवं स्थादित्यर्थः । तस्मादीहशे अधिका (११) महानिशीथाकराणि तत्मामाएवज्ञापनपूर्व दर्शयतियुचिते, नासारादिकर्मणि, ईदितस्येष्टस्य गुणस्याधिक्येन नि. किं योग्यत्वमकृत्स्नसंयमवता पूजासु पूज्या जगुः , दोषतां स्वरूपतः सावद्यत्वेऽपि बलवदनिधाननुवन्धितां विहिसत्वेनैव ज्ञात्वाऽपि तदृष्टान्तेनैव चेतःशुछिसंजवात् । हे धर्म भाकानां न पहानिशीथसमये वक्त्या त्रिलोकीगुरोः। ते पुएबुदे! प्रतिमार्चनात् पशुरिव किं त्रस्तोऽसि भयं प्राप्तो- नन्दीदर्शितसूत्रवृन्दविदितप्रामाण्यमुधानृतो, ऽसि,विशेषदर्शितत्रासप्रयोजककुमतिनिरासस्यायं नाश शति निशाणेषु पतन्ति मिएिममदमत्कास इवैता गिरः॥४०॥ भावः। प्रति०। (सत्सर्गापवादसत्रं पञ्चमहार्णवसूत्रं 'पईसंतार' ( किं योग्यत्वमिति ) किमकृत्स्नसंयमवतां देशविरतानां शब्दे वदयते) अत्र हि संख्यानियमोऽपोवसनस्य यतनया क. भालानां भक्त्याऽतिशयेन रागेण त्रिलोकीगुरोखिनुवनधर्माचास्पनाशतच्चलनाप्रयोजकत्वमिति यावत्, परतस्त्वाबाभकान. यस्य पूजासु पुष्पादिनाऽर्चनेषु पूज्या गणधरा महानिशीथ. वस्थाच्यां यतनयाऽपिन तथात्वमिति बोध्यम् । तदेवं पुष्टान- समये महासिद्धान्ते योग्यत्वं न जगुः?, अपि तु जगुरेव । प्रति। म्बनमापवादेऽपि प्रासौचित्यमिति स्थितम् ॥ ३७॥ प्रति०। दन्नत्यवा जनाव-स्थवं तु दव्वत्थउ बहुगुणो भवउ । सृष्टान्तान्तरेण समर्थनमाह तम्हा वुहजणबुद्धी-हिँ बकायाइयं तु गोयमाऽणुढे । गर्नादनविघर्षणैरपि मुतं मातुर्यथाऽहेर्मुखात, अकसिणपवत्तगाणं, विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो । कर्षन्त्या न हि दूषणं ननु तया दुःखानलाचिदृतात् । जे कसिणसंजमविऊ, पुप्फादीयं न कप्पए तेसि ॥ संसारादपि कर्षतो बहुजनान घन्यस्तवोद्योगिन किं मन्ने गोयम! ए-सा वित्ती सदाणुट्टिए जम्हा।। स्तीर्थस्फातिकतोन किञ्चन मतं हिंसांशको दूषणम् ॥३०॥ तम्हा उन्नयं पि अणु-हिजेत्थं न बुज्जसी विणो ।। (गादिति) यथा गाद्विवरादतित्वरयाऽस्य विघर्षणैरपि गामावंतं तेसिं, नावत्थवऽसंभवो तह य । कत्वाऽहेर्मुखात्सर्पस्य वदनात्सुतं कर्षन्त्याःमातुन हि नैव,दूषण, ननु निश्चये, तथा दुःखानलाचि तादसुखानिलज्वालापूरितात् भावच्चणा य उत्तम, दसन्नभद्देण्याहरणं ॥ तह चेव चक्कहरभा-ससिदत्तदमगादिहि विणिदेसो। संसारादपि बहुजनान् बीजाधानद्वारेण कर्षतो व्यस्तवे उयोगिन उद्यमवतस्तीर्थस्फातिकतो जिनशासनोन्नतिकारिणः पुच्चं ते गोयम ! सा-वजं सुरिंदोह भत्तीओ।। हिंसांशतोऽपि हिंसांशेन न किञ्चन दूषणं मतं, स्वरूपहिसाया सबिलि' अम्मघसा-मपूयासकारए कए। दोषस्याबलत्वादुद्देश्यफलसाधनतयाऽनुबन्धतो दोपतादव ता किं तं सव्यसावजं, तिविहं विरएहिँऽणुट्टियं ।। स्थ्यात् ।। ३८ ॥ एतत्समर्थितरष्टान्तन्या प्रकृते योजयितुमाह उपाहु सव्यथामेसु, सव्वहाऽविरएसु उ । एतेनैव समर्थिता जिनपतेः श्रीनानिनूपान्वय भयवं ! सुरवरिंदेहि, सव्वयामेसु सव्वहा । व्योमेन्दोः सुतनीवृतां विभजना शिल्पादिशिक्षाऽपिच ।। अविरइएहि सुनत्तीए, पूयासकारए कए । भंशोऽस्यां बहुदोषवारणमतिश्रेष्ठो हि नेष्टोऽपरो, जा एवं तो वुज,! गोयमा ! मनिसेसयं ।। न्यायोऽसावपि दुमतद्रुमवनपोदामदावानलः ॥३५॥ देसविरयऽविरयाणं, विणियोगमुभयत्थविसयमेव । (पतेनैवेति) पतेनोपदर्शितेन सुतकर्षणडपान्तेनैव भीनाभिभूप- सव्यतित्थंकरोहिं, जं गोयम! संसमायरियं ।। स्य योऽन्वयो वंशस्तदेवव्योमाऽतिविशालत्वात्तन्दुः परमसौ. कसिणढकम्मखयका-रियं तु जावत्थयमणुचिट्टे । म्यनेश्यत्वाजगन्नेवासेचनकत्वात् च तस्य विशेषणेनैव झटि जवतीउ गमागमनं, तु फरिसणा पमद्दणं तत्थ ॥ स्युपस्थितर्विशेषानुपादानाश न्यूनत्वम् । जिनपतेस्तीर्थकरस्य, श्रीऋषभदेवस्येत्यर्थः। सुतनीवृतां सुतदेशानां विभजना विभज्य सपरहिनोवरयाणं, ण मणं पि पवत्तए तत्थ । दानं, शिल्पादीनां शिक्षाऽपि च, प्रजानामिति शेषः । समर्थिता ता सपरहिओवरएहि सव्वहा ऐसियव्वं विसेसं ॥ निर्दोषतयोपदर्शिता,नीवृवन्वितस्य सुतपदस्य शिकायां पृथग- जं परमसारत्तूयं, विसेसवंतं च अणुढेयं । नन्वये सुतेष इत्यध्यादारावश्यकत्वेऽन्यथा विधेयाविमर्शदो ता परमसारन्यं, बिसेसवंतं च सालुवम्गस्स ।। षानुद्वारे सुध शोभना ता लक्ष्मीर्यत्रेति नीवृतसमानाधिकरण एगंतहियं पत्थं, सुहावहं पय परमत्यं । विशेषणमेव व्याख्येयम् । अस्यां सुतनीवृद्विभजवायां शिल्पादि. शिकायां च बहुदोषस्वेतरथा मात्स्यन्यायेनाच्यायप्रवृत्तिलक्षण. * 'अमुग्मयम्गस्स' त्यपि पाठः । Page #1250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२७ ) चेय अनिधानराजेन्द्रः। चेइय तं जह मेरूतुगे, मणिमंमएँ कंचणमऐं परमरम्मे ॥ पढमा ज ण सुष्मि वि, जहणं पढम चिय पसत्था ॥ कंचणमणिसोपाणे, थंभसहस्मृसिए सुवम्मतले । नयणमणाणंदकरे, पभूयविनाणसाइसए । जो कारवेज जिणहरे, तो वि संजमतो अपंतगुणो ।। सुसिलिविसिट्ठसुल-कबंदमुविनत्तए मुणीवेसे ॥ तवसंजमेण बहुजव-समजिरं पावकम्ममनपवई । बहुसिंहग्गतघंटा-दयाउले पवरतारणसणाहे । निठविकणं अहरा, सासयसुक्खं वए मुक्खं ।। सुविसाले सुविथिने, पए पए पिच्चियबएँ सिरीए ॥ काउंजिशायणेदि, सुमंमिश्र सयलमेश्णीवट्ठ । दाणाइचउक्कणं , सुतु विगच्छिज अच्चुयं न परं"। मघमग्यतनज-तमगरुकप्पूरचंदणामोए । न च प्रथमाया एवं प्रशस्तत्वाभिधानेनाद्याया अप्रशस्तत्वादनाबहुविहविचित्तबहुपु-फमाइपूयारिहे सुपए य ॥ दरणीयत्वम, एवं सति “सारो चरणस्स निव्वाणं"इत्यनिधानापञ्चपरिचरणाउय-सयानले महरमुखसद्दाले। मोक्षस्यैव स्वरसत्वाभिधानाचारित्रस्याप्यनादरणीयताऽऽपणे कुटुंतरासजणसय-समानले जिणकहाखितचित्ते ।। सारोपायत्वेन सारत्वं तत्राविरुद्धमिति चेत्, प्रशस्तभावाचार्यो पायत्वेन व्यार्चाया अपि प्राशस्त्यादादरणीयत्वाकतेः॥४१॥ पकहंतकहगणचं, तत्थगतं नवनिग्घोसे । महानिशीथेऽस्सयुक्ताऽप्रामाण्याऽभ्युपगमं कमसिनो एमादिगुणोवेए, पए पए सव्वमेइणीवट्टे ॥ दूषयन्ना नियनुयनिविट्ठपुन-त्थिएण नायागएण अत्थेणं । प्रामाण्यं च महानिशीथसमये प्राचामपात्यप्रियं, कंचणमणिसोपाणे, थंभसहस्सूसिए सुवन्नतले ॥ यत्तुर्याध्ययने न तत्परिमितेः केपाश्चिदालापकैः । जे कारवेज्ज जिणहरे, तो वि तवसंजमो अणंतगुणो। वृतास्त्वाहुरिदं न सातिशयपित्याशङ्कनीयं कचित् , तबसंजमेण वहुभव-समज्जियं पावकम्ममललेवं ॥ तरिक पाप! तवापदः परगिरां प्रामाण्यतो नोदिताः।४। निविकणं अंइरा, अणंतसोक्खं वए मोक्खं । (प्रामाण्यमिति) महानिशीथसमये प्राचामपि प्राचीनयुका जिणायणेहिं, सुमंमियं सबमेणीवढें ॥ मत्सांप्रदायिकानां प्रामाण्यम इति वचः अप्रियमरमणीय, यद् यस्मात्तुर्याध्ययने केपाञ्चिदाचार्याणां परमितेत्रैिरालापकैदाणाश्चनक्केणं,सुङ वि गच्छेज अच्चुवं न परं । महा०३० स्तत्प्रामाण्यं नास्ति : वृद्धास्त्वाहुः-इदं महानिशीथं सातिशयं, उभयत्र-व्यस्तवे नावस्तवे चेत्यर्थः । नन्द्यां नन्दीसूत्रे, दार्श- अतिप्रभावमतिगम्भीराय चेति कचिदपि स्थले नाशङ्कनीयम, तं यत् सत्रवृन्द, तन्मध्ये विदिता प्रसिका या प्रामाण्यमुजा तस्मात्कारणात हे पाप! परगिरामुत्कृएवाचामस्मत्संप्रदायामहानिशीथप्रमाणवाय, तद्विभ्रप्ति यादृश्यः, एताः संप्रदायसा- कानां प्रामाण्यतः प्रामाण्याभ्युपगमे तवापदो नोदताः?, अपि नौमानां गिरः, निजाणेषु सुप्तप्रमन्तेषु,डिएिममस्य पटहस्य, म- तूदिता एव । अन्युपगमसिकान्तस्वीकारेच तन्त्रसिद्धान्तजङ्गए। मत्कारा श्व पतन्ति । यथा-गाढसुप्ताः परिमोषण आकस्मि- | सनादां निष्काशयतः क्रमेलकागमन्यायापातात। तथा चोक्तं कभयकरजेरीमाङ्करशम्श्रवणेन सर्वस्वनाशोपस्थित्या कान्दि- चतुर्थाध्ययनप्रान्ते-अत्र चतुर्थाध्ययने बहवः सैद्धान्तिकाः शीका नवन्ति , तथोकमहानिशीथशब्दश्रवणेन लुम्पका अपी- केचिदालापकान सम्यग् श्रद्दधत्येवं तैरश्रद्दधानरस्माकमपि न ति।नच वाडवाण महानिशीथमप्रमाणमित्यपि तैर्वक्तुं शक्यम्। | सम्यक् धकानमित्याह हरिजप्रसूरिः,न पुनः सर्वमेवेदं च. यत्र सूत्रे पाचारादीनि प्रमाणतया दर्शितानि तत्रैव महानि- तुर्थाध्ययनम् , अन्यानि वाऽध्ययनानि, अस्यैव कतिपयैः परिमिशीथस्यापि दर्शनात् ; अतो विरोधस्य च बहुपु स्थानेषु दर्श- तैरानापकैरश्रद्धानमित्यर्थः । यतः स्थानसमवायजीवाभिगमप्रनाद्विवेकिनः समाधिसौकर्यस्य च सर्वत्र तुख्यत्वादिति ॥४०॥ ज्ञापनादिषु किश्चिदेवमाख्यातं यथा प्रतिसंतापस्थलमस्ति , तद् अन्युच्चयमाह गुहावासिनश्च मनुजास्तत्र च परमाधार्मिकाणां पुनः पुनःसप्तायदानादिचतुष्कतुल्यफलतासंकीतनं या पुन वारान् यावदुपपातः,तेषां च तैरुणैर्वजशिलाघरदृसंपुटैर्गि लितानां परिपीज्यमानानामपि संवत्सरं यावत्प्राणव्यापतिन द्वौ श्राधस्य परो मुनेः स्तव इति व्यक्ता विभागप्रथा । प्रवतीति । वृक्षवादस्तु पुनर्यथा-तावदिदमार्प सूत्र, विकृतिन यच्च स्वर्ण जिनौकसः समधिको प्रोक्तौ तपःसंयमौ , ताक्दा प्रविष्टा , प्रभूताश्चात्र श्रुतस्कन्धेऽर्थाः सुष्ठतिशयेन तत्सर्व प्रतिमाऽर्चनस्य किमुन प्राग्धमताख्यापकम् ॥४१॥ सातिशयानि गणधरोक्तानि चैव वचनानि, तदेवं स्थिते न कियतदानादिचतुष्कस्य दानादिचतुष्टयस्य,तुल्यफलतायाःसंकी. श्चिदाशङ्कनीयमिति । विरोधमानं च वेदनीयस्य जघन्या स्थितन, या पुनः द्वौ व्यस्तवभावस्तवौ, श्राद्धस्योचितौ, परो भाव तिरन्तर्मुहूर्तमुत्तराध्ययनेषुक्ता, प्रज्ञापनायां तु द्वादश मुहर्ता इस्तव एक पब मुनेः साधोरिति व्यक्ता विभागस्य प्रथा विस्तारः। त्यादौ संभवत्येव " हेऊदाहरणासंजवे पि" इत्यादिना प्रामा. यत् स्वर्णाजिनौकसः सुवर्णाजिननवनकारणाकृतव्यस्तवादपि, एयाभ्युपगमोऽप्युन्जयत्र तुल्य इति दिग् ॥ ४२ ॥ तपःसंयमी समधिको प्रोक्तौ, तत्सर्व प्रतिमार्चनस्य किमु प्राग महानिशीथ पवाऽन्यथा वचनमाशङ्कतेधर्मतायाः भावस्तवेनानुचीयमानधर्मतायाः, ख्यापकं सूचकंन?, ज्रष्टैश्चैत्यकृतेऽर्थितः कुवलयाचार्यों जिनेन्डालंये, अपि तु व्यापकमेव । उत्कृष्टतमावधेरुकृपतरस्यैव युकत्वात् यद्यप्यस्ति तथाऽप्यदः सतम इत्युक्त्वा भवं तीर्णवान् । हीनावधिकोत्कर्षोक्तेरस्तुतित्वात,नहि सामान्यजनादाधिक्यव एतरिक नवनीतसारवचनं नो मानमायुष्मता, र्णनं चक्रवर्तिनः स्तुतिः, अपि तुमहानरपतेरिति । अकराणि यत कुर्वन्ति महानिशीथवक्षतोऽव्यस्तवस्थापनमाशा च-"भावच्चणमुग्गविहा-रणा य व्यञ्चणं तु जिणपूजा । ब्रटैलिङ्गमात्रोपजीवितैः, चैत्यकृते स्वाभिमतचैत्यालयसंपाद Page #1251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेश्य (१२२७) अनिधानराजन्यः। चेश्य नाय अधितः कुबलयाचार्यः, पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात'कु- सर्व प्रन्यं, शनैः शनैः मन्दं मन्द, भोत्रे प्रकाऽनुसारेण संबन्थ्य वलयप्रभाचार्यः-यद्यप्येतचैत्यालये वक्तव्यमस्ति तथाऽपि स. एखाशुरुयोर्विवेको विनिश्चयः,ततःस्वसमयं स्वसिद्धान्तं निःतमः सपापम , इत्युक्त्वा, नवं संसारार्णवं, तीर्णवान् , एतत्ार्क शस्वं शल्यरहितमातन्वते तात्पर्यविवचनेन सुत्र प्रमाणयन्ति, नवनीतसाराध्ययनवचनम्, आयुष्मतां प्रशस्तायुषां भवतां, नो न तु शङ्कोद्भावनेन मिथ्यात्वं वर्कयन्तीति भावः ॥४५॥ मानं न प्रमाणं?,यन्महानिशीथबलतः महानिशीथमवरज्य, द्र- एतेन प्रदेशान्तरविरोधोऽपि परिहत स्त्याहव्यस्तवस्थापनं कुर्वन्त्यायुष्मन्तः। यत्र हिवामात्रेण पि द्रव्यस्त- तेनाकोविदकस्पितश्चरणभृदयात्रा निषेधोद्यतवप्रशंसनं निषि,तत्र कथं तत्करणकारणादि विहितं भविष्य- श्रीवजार्यनिदर्शनेन सुमुनर्यात्रानिषेधो हतः। तीति ॥४३॥ स्वाच्छन्द्येन निवारिता खसु यतश्चन्छसमस्याऽऽनतिः, सत्तरयतिशान्त ! प्रान्तधिया किमेतददितं पूर्वापरानिश्चयात् , प्रत्यज्ञायि महोत्तरं पुनरियं सानैः स्वशिष्यैः सह ॥४६॥ येन स्वश्रमक्लुप्तचैत्यममता महात्मना सिङ्गिनाम् । (तेनेति ) तेनोक्तहेतुना कोविदेन तात्पर्यझेन कल्पितभरण भृतां यात्रानिषेधे उद्यता ये श्रीवज्राचार्याः श्रीवजसूयस्तेषां जन्मार्गस्थिरता न्यषेधिन पुनश्चैत्य स्थितिःसारणा निदर्शनेन दृष्टान्तेन सुमुनेः सुसाधोः यात्रानिषेधो हतो निरा. वागजगी किमु यद्यपीति न मुखं चक्रं विधत्ते तव ॥धा छतः, यतस्तत्र प्रन्ये स्वाच्चन्येनाकारहिततया गुरुनिः चन्सप्र. हे नात! विपर्ययाभिनूत! पूर्वापरग्रन्धतात्पर्यानिश्चयात् प्रान्त प्रस्य चन्द्रप्रभस्वामिन प्रानतिनिषिका,महोत्सरं समयामोत्सवधिया हीनवुद्ध्या, त्वयैतत्किमुदितं कुत्सितमुक्तम् । येनोक्तव निवृत्यनन्तरं, पुनरियं चन्द्रप्रभयात्रा तैराचार्यै।, स्वशिष्यैः सह, चनेन, स्वधमक्युप्तानि यानि चैत्यानि तेषु या ममता तत्र मृद प्रत्यकायि कर्तव्येति प्रतिकाविषयी कृता । अत्राऽप्यविधियात्रा. प्रात्मा येषां ते तथा,तादृशां लिङ्गिना, सूरिणा कुवलयाचार्यण, निषेधमेवोपश्रुत्य यात्रामात्रं मूदैनिषिद्धं तद् दूषितं तात्पर्यज्ञैरिति मनसि निश्चितचत्यकर्त्तव्यतागोचरतत्प्रतिज्ञा गलहस्तयता उ योध्यम् । प्रति०। (मत्र साबधाचार्यवज्राचार्यसंबन्धी श्रोतृणामु. मार्गस्थिरता अनायतनप्रवृकिदाम्य न्यषेधि, न पुनत्यस्थितिः पकाराय महानिशीथगतावनिधास्येते 'सावजायरित्र' शब्द) सम्यम्भाविचैत्यप्रवृत्तिव्यवस्था,हार्थे यद्यपीति वाग्भङ्गी वच “कुवलयमत्रवतमुनीशयो-श्वरितयुग्ममिदं विनिशम्य भोः। नरचना,किमुतव मुखं वर्कन विधसे?, अपि तु विधत्त एव । कुर्मतिभिर्जनितं मतिविभ्रमं , त्यजत युक्तममुक्तविनावप्राकरणिकस्य संबोध्यमुखवकोकरणस्य कार्यस्याभिधानेन काः ॥ १॥" प्रथमे बनधिकारिकतकत्वविशिष्टचैत्यप्रप्रकृतवक्रोक्त्यनिधानादप्रशंसाबहारः। "अप्रस्तुतप्रशंसा तु, या वृत्यनुमोदने तात्पर्य, द्वितीये चाविधियात्रानिषेध इति ।न सेष प्रस्तुताश्रया"इति लक्षणम् । तथा च-"ज वि जिणासयं च यात्रायामवासंयमानिधानात्तन्मात्रनिषेधे स्वस्थानावधितह विसावजमिणं।" न स्वभावतश्चैत्यस्थितेमुष्टत्वमाह, किं कर्थिप्राप्तिफलकव्यापाररूपायास्तस्या निषेधे संयतसार्थेन त. तु सर्वप्रवृत्युपाधिनेत्येव धकेयम, न हि यद्यपि पायसं तथाऽपि निषेधापत्या संयतसार्थन तनिषेधस्यैव फलितत्वात, भत न भक्ष्यमिति वचनं विषमिश्रताधुपाधिसमावेशं विनोपपद्यत एव साधूनामवधानभृतां कदासम्बनीजूतैव चैत्यनक्तिश्चैत्यइति नावनीयं सूरिभिः॥४४॥ वासिनामावश्यकेऽपि निषिका । एवं व्याख्यातमेवान्यत्रापि सूत्रस्य निःशङ्कितत्वकरणेन प्र. "नीया चासविहार, चेअभत्तिं च अज्जियालाभं । विगश्सु अप्पमिबंध, निदोसं चोप्रा विति॥ ज्यासार्थकतोपपत्तिरित्यनुशास्ति चेहप्रकुलगणसंघ, अन्नं पाकिंचि काम निस्साणं । यत्कर्मापरदोषमिश्रिततया शास्त्रे विगीतं नवेत , अहवा वि अजवरं, तो सेवंती अकरणिज्जं" ॥ इत्यादि । स्वाजीष्टार्थलवेन शुधमपि तल्लुम्पन्ति दुष्टाशयाः । तस्मादावश्यकमहानिशीथाघेकवाक्यतया साधुलिङ्गस्यै. मध्यस्थास्तु पदे पदे धृतधियः संबन्ध्य सर्व बुधाः, व चैत्यभक्तिर्निषिद्धा, धाकानां तु शतशो विहितैवेति श्र यम् ॥ ४६॥ शुद्धाशुभविवेकतः स्वसमयं निःशल्यमातन्वते ॥४॥ सिंहावलोकितेन बिम्बनमनानुकूलव्यापारे यात्रापदार्थ(यत्कर्मेति) यत्कर्म स्वरूपतः शुद्धमपि अपरदोषेण मिश्रि बोधमाशय परिहरतिततया शास्त्रे विगीतं निपिकं भवेत् तत् स्वाभीष्टार्थवेन | नो यात्रा प्रतिमानतिव्रतनृतां सादादनादेशनात्, स्थानिमतार्थक्षेशप्राप्त्या शुद्धमपि दुाशया सुम्पन्ति, निद्रान्वेपिणामीहशो बलस्य सुलनत्वात, यथा वेदोद्वेगादिदोषमिश्रि तत्पश्नोत्तरवाक्य इत्यपि वचो मोहज्वरावेंशजम् | तमावश्यकादि निषिद्धमिति पालत्वादावश्यकमेवेदंयुगीना मुख्याथैः प्रथिता यतो व्यवहृतिः शेषान् गुणान् लक्षयेत्, नामकर्तव्यमित्याध्यात्मिकादयो वदन्ति । विधिनक्तिबिकलो द्र- सापत्र्येण हि यावताऽस्ति यतना यात्रा स्मृता तावना। ज्यस्तयो निष्फलः स्यात्तदाह-"जं पुण एयवित्तं, पगतेणेव (नो इति) प्रतिमानतिः यात्रा न भवति । केषाम,व्रतभृतां भावसुन्नं तितं वि समयम्मिणितो, भावत्थवहेननो णेयं" चारित्रिणाम् ।कुतः,तत्प्रश्नोत्तरवाक्ये शुकलोमिझादिकृतयात्रा॥१॥ यदनुष्ठानम्, एतदौचित्यं भावे बहुमानविषयेऽपि वी- पदार्थप्रश्नानां थावचापुत्रजगवदात्तरवाक्ये साक्षात्कएठपातरागेऽपि विधीयमानं तको व्यस्तवः, तथा प्रकृतेऽपि मठमि- नाउनादेशनात् विम्बप्रणतरनुपदेशात्, श्त्याप वचः, कुमती. श्रितदेचकुलादिकं नाचार्येणानुमतम् इत्यादिकं पुरस्कृत्य नां मोहरूपो यो ज्वरस्तदावेशस्तपारवश्यप्रतापजनितम्, यतः सव्यस्तव पचन कार्यमिति सुम्पका बदन्ति । मभ्यस्थास्तु मुख्याधैः प्रथिता प्रसिद्धा, व्यवतिः शब्दप्रयोगरूपा, शेषान गीताथा, पदे पदे स्थाने स्थाने, धृतधियःसंमुखीकृतविमर्शाः, उक्तावशिष्टान् गुणान् लकयत् । हि यता, यावता सामग्यण Page #1252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२५) चेश्य अभिधानराजेन्डः। चेश्य यावत्या सामन्या, यतना नवति तापता यात्रा स्मृता । तथा | घेयावमियं करेंति, तमाहु एए निहया कुमारा।" इत्यादी वैच-"र्क ते प्रेते! जत्तासु आगमे तबणियमसंजमसज्जायज्जा- यावृत्यवादप्रयोगस्य सूत्रे दर्शनान वादिपदग्राह्य पानादिकणावस्सयमाश्सु जयणा " इत्यत्रादिपदस्वरसात् यत्याभ- मेव, किंतु वक्त्यादिकमपि । अत एव तपस्ख्यादीनां तपोयोमोचितयोगमात्रयतनायां यात्रापदार्थों लज्यते । यथा “परेषां गप्रतिकालेऽशनादिसंपादनस्यागोगाद्भक्त्याधुचितनित्यव्यायझेन" इत्यादिसूत्रं शतपथविदितकर्मवृन्दोपलक्षकम, भत एव पारसंपादनसंभवाभिप्रायेण योगविभागात्समासः, पालादीनां सोमिलप्रश्नोत्तरे यथाश्रुतार्थबोधे फलोपन्सककत्वं व्याख्यातम। शैक्षसाधर्मिकयोश्च कश्चित्तुल्यतयति जावनीयम् । एतदेवाहतथा चात्र भगवतीवात्तः-एतेषु च यद्यपि भगवतो न अन्यथोक्तवपरीत्ये, सङ्कादेस्तदारणे वैयावृत्योच्चारे,परः कुतदानीं किञ्चिदस्ति तथाऽपि तत्फलसद्भावात्तदस्तीत्यवगन्त- मतिः, कथं न व्याकुलो व्यः स्यात, कुलगणसवादीनां सर्वेण व्यमिति । अयं च एवंनूतनयार्थः, प्रागुक्तस्तु शब्दसमभि- सर्वदा सामग्येणाशनादिसंपादनस्य कर्तुमशक्यत् , यावदूधाधं सढयोरिति विवेकः ॥४७॥ प्रामाण्यं तूनयत्र वक्तुं शक्यमिति दिक ॥ ४० ॥ ___ साक्षादादेशगतिमप्याह अर्थान्तरवादमाधिकृत्याहवैयावृत्यतया तपो नगवां नक्तिः समग्राऽपि वा, वैयावृत्यमुदाहृतं हि दशमे चैत्यार्थमने स्फुटम् ।। झानं चैत्यपदार्थमत्र वदतः प्रत्यक्षबाधैकतो, नैतत् स्यादशनादिनैव जजनाद्वाराऽपि किं त्वन्यथा, धर्मिद्वारतया मुनावधिकृते त्वाधिक्यधीरन्यतः । सङ्कनदेस्तदीरणे वत कथं न व्याकुलः स्यात्परः ॥धना दोपायेति परः परःशतगुणप्रच्छादनात्पातकी, वा अथवा, समग्राऽपि सर्वाऽपि, भगवतां भक्तिः कृतकारिता दग्धां गच्छतु पृष्ठतश्च पुरतः का कान्दिशीको दिशम् ? ४५ नुमतिरूपा,स्वाधिकारौचित्येन तप एव, तथा च तपःपदेन या- (कानमिति) अत्र प्रश्नव्याकरणप्रतीके, चैत्यपदार्थ शानं वदत्रायाः साकादुपदेश पवेति भावः। धैयावृत्यत्वमस्याः कुतः सि. तो लुम्पकस्यैकस्मिन्पक्षे प्रत्यकवाधा प्रत्यक्कप्रमाणबाधः, परि. द्धमत पाह-हि निश्चितं, दशमेऽने प्रश्नन्याकरणाख्ये, स्फुटं प्र. इष्टविश्रामणादिवयावृत्यस्य कानेऽनुपपत्तेः। धर्मिद्वारतया ध. कटं, चैत्यार्थ वैयावृत्यमुदाहृतम् । तथा च तत्पा:-"अह के मिणि धर्मोपचाराभिप्रायण, मुना साधौ, अवधिकृते वत्साग्ररिसए पुणाऽऽपाराहए वयमिणं । जे से उवाहभत्तपाणदाण होते तु, अन्यतः पक्षान्तरे,प्राधिक्यधोदोषाय, मुने मादिपदैसंगहणकुसले अवंतवालवलगिलाणवुनुभवगपवित्तिआय- गृहीतत्वाच्चैत्यपदस्य पौनरुक्त्यमित्यर्थः । चैत्यपदेनोपचाररियउवझायसेहसाहम्मियतवस्सिकुलगणसंघचेश्यठो 'णि स्याप्ययोगातू,एवं सति चैत्यार्थपदस्य चैत्यप्रयोजनममुना चाजरही घेधावच्चं अणिस्सियं दसविहं बदविहं परेश ति"। र्थान्तरसंक्रामतवाच्यताया एव युक्तत्वात् । “चेश्यकुलगणसंघे, (अह केरिसए ति) अथ परिप्रश्नार्थः, कीडशः पुनः "भाई ति" प्रायरियाणं च पवयणसुए भासव्येसुधि तेण क, तवसंजमअलंकारे, पाराधयति व्रतमिदम। इह प्रश्ने उत्तरमाह-"जेसे" मुज्जमंतेष" ।।इत्यादिना तपःसंजमयोः चैत्यप्रयोजनप्रयोजकइत्यादि । योऽसावुपधिभक्तपानानां दानं च संग्रहणं च, तयोः त्वस्य सिकान्तसिरूत्वात् बालादिपदेकवाक्यतया चैत्यपदकुशलो विधियः,स तथा,पालश्चेत्यादेः समाहारवन्तः। ततो स्यैककार्यत्वसङ्गत्यैव प्रहणौचित्यात् । उपसंहरति-इत्येवं, पर: ऽत्यन्तं यदपालग्लानरूकपकं तत्तथा । तत्र विषये वैयावृत्यं कुमतिः,पर शतानां गुणानां चैत्यशब्दनिर्देशप्रयुक्तानां, प्रच्छादकरोतीति योगः। तथा प्रवृत्त्याचार्योपाध्याये, इह द्वन्द्वकत्वात्प्रवृ. नानिहवात्पातकी दुरितवान्, कान्दिशीको भयतः सन्, पृष्ठत्यादिषु, तत्र प्रवृत्तिसकणमिदम-"तवसंजमजोगेसुं, जो जुम्गो तत्य तं पबचे। भसह य णियत्तेई,गणतत्तिो तःपुरतश्च दग्धां कां दिशं गच्छतु मिथ्यानिशङ्की , न कुत्रापवित्तीतो"|| ऽपि गच्यतीति भावः। अत्र दग्धदिगत्वेन पूर्वोत्तरपकघ्याध्यव. व्य०१०ाश्तरी प्रतीती,तथा 'सेहें शैकेभिनवप्रवजिते. सा सानादतिशयोक्तिः॥४॥ धर्मिके समानधर्मिके लिङ्गप्रवचनान्यां, तपस्विनि चतुर्थभक्का (११) निश्चितार्थेऽनुपपत्तिमाशङ्क्यनिराकरोतिदिकारिणि, तथा कुलं गणसमुदायरूपं चान्दादिकं, गणः कुलसमुदायः कोटिकादिका, सबस्तत्समुदायरूपः, चैत्यानि जिनप्र वैयावृत्यमथैवमापतति वस्तुर्ये गुणस्थानके, तिमाः, पतासां योऽर्थः प्रयोजनं स तथा । तत्र निर्जरार्थी क- यस्माद्भक्तिरसङ्गरा जगवतां तत्रापि पूजाविधौ । मक्षयकामः, वैयाघृत्यं व्यावृतकर्मरूपमुपष्टम्भनमित्यर्थः । - निभितं कीादिनिरपेकं, दशविधं दशप्रकारम् । पाह सत्यं दर्शनलक्षणेऽत्र विदितेऽनन्तानुबन्धिव्ययाव , "यावचं वाव-भावो रह धम्मसाहणणिमित्तं। नो हानि त्वयि निर्मला धियमिव प्रेक्षामहे कामपि ।।५०॥ अभाइमाण विहिणा, संपायणमेस भावत्यो । (वैयावृत्यमित्यादि) अथैवं चैत्यभक्तेश्रृयावृत्यत्वेन, वः युष्माआयरियउवमाप, थेरतवस्सीगिलाणसेहाणं। . कं,तुयें चतुर्थे गुणस्थानके,वैत्यावृत्यमापतति प्रसज्यते,यस्मातसाहम्मियकुलगणसं-घसंगयं तदनिहायच्वं" ॥ प्रजगवतामईता,पूजाविधी विहितार्चनेऽनहराऽव्याप्या भक्तिर्वबहुविधं भक्तपानादिदानभेदेनानेकप्रकारं करोतीति वृत्तिः।। तते । सत्यमित्यर्दाङ्गीकारे, अत्र चतुर्थगुणस्थानके,दर्शनलकणे ननु चैत्यानि जिनप्रतिमा इत्यत्र वृत्तिकृतोतं,परं विचार्यमाणं न सम्यक्त्वलक्षणीजूते वैयावृत्ये विदिते "सुस्सूसधम्मरामओ, गुरुयुक्तम् ,अशनादिसंपादनस्यैव वैयावृत्यस्योक्तत्वेन प्रतिमासु तद- देवाणं जहा समाहीए। वेयावचे णियमो, वा पमिबत्ती अभय योग्यत्वात् । प्रत पाह-न पतद्वैयावृत्यम्, अशनादिनैषा- णात्रो"११ इत्यादिप्रसिऽनन्तानुबन्धिनां व्ययात क्षयोपशमान शनादिसंपादनेनेव स्यादिति तत्कि त भजनाद्वाराऽपि भक्ति-कामपि हानि प्रेकामहे । कुत्र कामिव, त्वयि निर्मला निःशाकद्वारेणाऽपि प्रत्यनीकनिवारणरूपे भक्तिव्यापारअप"जक्खाह तां धियमिव बुद्धिमिव, यथा त्वयि निर्मला घिय न प्रकामह, ३०८ Page #1253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेश्य तथाऽस्मकार्थे न हानिं प्रेक्कामहे इत्युपमा । चारित्रमोहनीयभेदादनन्तानुबन्धिव्ययजायमानस्य वैयावृत्यगुणस्याविरतसम्यग्दशामपि वे बाधकाभावादित्यर्थः ॥ ४० ॥ तथा सति तेषां चारिलेशसंभवेऽविरतस्यानुपपतिरेव याधिकेत्याद-श्रादानां तपसः परं गुणतया सम्यक्त्वमुख्यत्वतः सम्यक्त्वाङ्गमियं तपस्विनि मुनौ प्राधान्यमेषाऽश्नुते । पीलातयोपसर्जनविधां पत्ते यथा शशवे, ? ये व्यवसायया सा मुख्यतामञ्चति ॥ ५१ ॥ श्राद्धानां दर्शनभावकाणां, परं केवलं तपसो गुणतया मनुव्यतया, इयं प्रक्तिः, सम्यक्त्वाङ्गं सम्यक्त्वप्रधानस्याङ्गीभूता, सम्यक्त्वफलेनैव फलवतीत्यर्थः फलवत्संनिधानफलं - दङ्गमिति न्यायात्, तथा च तावता नाविरतत्वहानिः, कार्षाप - रामात्रचनेन धनवानेकोमात्रेण गोमानित " " यदेवसूरथः। कषायविशेष एवाविरतत्वहानिप्रयोजफोन तु प्रथमानुदयमात्रं तेनापेक्किकोपशमादीनां सम्यक्त्वगुणानामेव जनकत्वादिति निष्पादयाभावो पश्चस्स जो भवे कसायाणं । ता कह एसो एवं भन्नइ य तजियसवेरवासि ॥ १ ॥ प्रधानी चूतास्तूपशमादयोऽपि चारिि घटते तदा "विसम्मतं वा गिटिस्स सुत्तमवियतिरूवंतु। एवंविदो विओोगो, होइ इमेदितन्तु चि ॥१॥ इति विंशिकायाम् । एतदेवाभिप्रेत्याह तपस्विनि प्रधानतपोसुके, मुनी चारच या भक्तिः प्राधान्यं प्राप्नोति अश माद यथा ये पाये चालायाः प्रचामीभूतायाः शैशवे श्रीमायाः अङ्गतया उपसर्जनवां गणना बी. चनकाले साबु यवसायसंमृततया बलपराक्रमीचीनतया मुख्यतां मुख्यभावमञ्चति प्राप्नोति ॥ ५१ ॥ अत्र सूत्रनीत्वा हिंसामाशङ्कयोगमभिनयति परः " काममपेक्ष्य धर्ममथवा निघ्नन्ति ये प्राणिनः प्रश्नव्याकरणे हि मन्दमतयस्ते दर्शितास्तत्कचम् । पुष्पाम्भोदनादिजीवतो निष्पाद्यमानां जनैः " 9 पूजां धर्मतया प्रसवदतां जिड़ा न नः कम्पताम् || २ || (अर्थमिति) अर्थम् कामम् अथवा धर्ममपेक्ष्य ये प्राथि नो निन्ति ते करणे हि निश्चितं मन्दमतयो दर्शिताः सत्कार्य स्यात् ?, पुष्पाम्भोददनादिजीवानां यो चस्ततो ज केवलितस्वरित्यर्थः । निष्पाद्यमानां कार्यमाणां पूजां प्रसह्य ह गत, धर्मत्वेन वदतां नः अस्माकं जिह्वा कथं न कम्पताम् ?, श्रपि तु कम्पलामू धर्मियां जिव मृषा भाषितुं कम्पत इत्युक्ति ५२ ( १३ ) अत्रोत्तरदातुः स्वस्य वैद्यताभिनयाभिव्यये षजमुपदर्शयति(धर्माहिंसा न दोषाय ) भोः पापाः ! भवतां भविष्यति जगद्वैयोक्तिशङ्करभृतां किं मिथ्यात्वत्कोपवशतः सर्वाङ्गकम्पोऽपि न । यो धर्माङ्गतया वधः कुममये दृष्टोऽत्र धर्मार्थिका साहिम न तु सत्क्रियास्थितिरिति व सपनम् ॥५.३॥ (भोशी) जो पापा पापान्वेषिणः कुमतयः नयां जग , ( १२३०) श्रभिधानराजेन्द्रः | , , इय द्वैद्यस्य भगवतः उक्तौ शङ्काभृतां मिथ्यात्वरूपो यो महद्वायुस्तस्य प्रकोषः किं सर्वाङ्गम्पोऽपि न प्रविष्यति। तत्र कम्पे प्रतीकारक वैद्यवचनचिचिकित्सक रोगियो ब्रह्मणा प्रतिक मशक्यत्वान सुखोक्तिविचिकित्सायन्तो भविष्याम रक्तरोगमुपदिश्यतामिति विवक्षायामाह योपधः कुसमये कुशाखे धर्माङ्गतया धर्मकारण र परीयलोके, सा धर्मार्थिका हिंसा न तु सत्क्रियास्थितिरप्रमत्तयोगेन हिं. सायामुपरमात्। इतीयं च सत् समीचीनं भेषज । अन्यथा सतभावाभिगमनायैकोनपञ्चाशता दिनैः परिपाकशोभ्यादद करत्नं कृतवान् तथा राज्ञा कारिता सुबुद्धिर्महाहिसको मन्दबुद्धिश्व स्यात् । तथा च सूत्रम "तते णं सुबुद्धिस्स श्मेयाचे अम्भस्थिर समुपखित्या, अहो मंजियस तवे तदिए श्रवित सम्भूय जिणपत्रते भावेणोवलंत्रितं सेयं खलु ममं जिसस रो सताणं तयाणं तद्द्यिाचं अधितहाणं सम्भूया णं जिणपपत्ताणं जावाणं अभिगमण्डयाए समट्ठ उवयणाविर एवं संपेरे संपेदेचा पंचसपार्ह पुरिद्धितरापणाओ नव घडे गिएछइ । गिरहइत्ता संगाकालसमयंसि पविरमसि वितपडिणिसंतंसि जेणेच परिहोदय तेथेच सवागच्छद्द, उवागच्छसा तं परिहोदगं गेएदावेति, नवरसु घमे मालायेति नयपसुघमेसु पक्खिवादेति, सज्जधार परिचय पश्चिमाना यदि करावे करावेस्ता तं परिसावेति, परिसावेतित्ता तच्चे पि नवपसु घमेसु० जाव संवसावेति, अंतरा गाढामाणा २ अंतरा पक्खिवावेमाणा २ नं. तरा वसावेमाणा २ सन्त सत्त राईदियाई परिसावे, परिसावेह तानतेणं से परिोदय सरायंसि सतयंसि परिणममासि उदमरषये जाए आषि हत्या" तदा वायुकायादि विराधनाया श्रावि । वायुकायादिविराधनाया अयनीयत्वादकरणपरिदारस्य च तकरी एतेन " एवमादी संते सत्त परिवजिया उवणंति, श्रवसाहपंति, दमूढदारुणम कोहा माणा माया बोभा हासरती सोवेदवजय कायस्थधम्महडें सवसा अवसा अहा अणठा य तपाणा थावरे य दीसंति, मंदबुद्धी सबसा हति, अवसा हणंति, सवसा श्रवसा दुहश्र हणंति श्रष्ठा हरांति, श्रणट्टा हणंति, ठाणा दुहश्रो हणंति, हस्सा हणंति, वेरा हणंति, रतीए हणंति, हस्सा वेरा रती इणंति, कुद्धा हणंति, मुद्धा हति, बुद्धा हणंति, कुद्धा मुद्धाबुका हति, अत्था हणति, धम्मा हणंति, "शि प्रश्नसूत्रकामा इति, अत्था धम्मा कामा इति । मायाकोधादिकारवां वश्याद्यर्थे पनि मन्दबुदितत्वेऽपि स्वाम्यधिकारे-" करेते, जे सोप रियमच्यवंधा साउणेया वाहा कूरकम्मा" इत्याद्युपक्रम्य "स यो पत्ता असुन लेसरस परिणामापते अव पवमादी करेति पाणावायकरणं" इत्यतिदेशामियानेन शु नोश्यानामेव प्राणातिपातकनृत्योपदिशा दि सम्यग्दर्शनसेन प्रशस्तलेश्याकानां देवपूजाकर्तॄणां दिखा लेशस्याप्यनुपदेशात् कथं च शृङ्गग्राहिकयाऽतिदेशनैव तेषां हिंसकानुक्तावपि तथा प्रलापकारिणां नानन्तसंसारित्वं शासमोच्छेदकारिणामनन्ता नुयन्धिनीमायादिसदृशापस्याभवात् । तटुक्तम्- " जर वि य ण गिणे " इत्यादि । किं च-येऽर्थाय कामाय धर्माय घ्नन्ति मन्दबुष्य इति पराऽनिमत उद्देश्यविशेषज्ञोऽप्ययुक्तः प्रामानन्दादीनामपि त्वप्रसङ्गात् । किं तु ये मन्दबुद्धय उक्तकारणैः प्रान्ति, ते प्राणा Page #1254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३१ ) अनिधानराजेन्द्रः । चेइय तिपातफलं दुस्तरं प्राप्नुवन्तीति मन्दबुकित्वमुद्देश्यतावच्छेदके प्रवेश्ये प्रयोगो युक्त इति विवेके न चाशङ्का, न चोत्तरमिति श्रयम् ॥ ५३ ॥ एतदेव षोडशके रिजसूरिः । स्नानादिषु जीव कायवधमाशङ्क्याह स्नानादौ कायवधो, न चोपकारो जिनस्य कश्चिदपि । कृतकृत्यश्च स जगवान्, व्यर्था पूजेति मुग्धमतिः ॥ १३ ॥ [स्नानादावित्यादि ]स्नानादौ स्नान विलेपन सुगन्धिपुष्पादौ पूर्वोक्ते, कायवधो जलवनस्पत्यादिवधः परिदृष्टरूप एव न चोपकारः सुखानुभवरूपस्तदनुनोगेन, जिनस्य वीतरागस्य मुक्तिव्यवस्थितस्य, कचिदपि कोऽपि कृतकृत्यश्च निष्ठितार्था, स भग वान् न किञ्चित् तस्य करणीयमस्त्यपरैरवं व्यर्था पूजा निरथिंका पूजेत्येवं मुग्धमतिरव्युत्पन्नमतिर्मूढमतिर्वा पर्यनुयुङ्क्ते ॥ १३ ॥ ०६ विव० । पञ्चवस्तु के चैत्यहिंसाया प्रदूष्यत्वं वैदिकाईसाया दूष्यत्वं विस्तरतो ऽप्युक्तम रम्यत्वादत्रोपेक्षितम् । प्रति० । पं० व० । यागधर्माङ्गतयेत्याद्युक्तमेवोपपादयति यागयो वध एव धर्मजनकः प्रोक्तः परैः स्वागमे, ना स्पिनोधनिषेघदर्शितफलं कार्यान्तरार्थाश्रिते ? । दाहे कापि यथा सुवैद्यक बुधैरुत्सर्गतो वारिते, धर्मत्वेन धृतोऽप्यधर्मफलको धर्मार्थकोऽयं वधः ॥ ५४ ॥ “यागीय इत्यादि" । यागीयो यागस्थलीयो वध एव दि, परैवैदिकैः स्वागमे धर्मजनकः प्रोकः, "मूर्तिकामः पशुमालभेत्" इत्यादिवचनात् । अस्मिन् श्रघनिषेधेन सामान्यनिबेधेन दर्शितफलं निषेध्यप्रयोजनं दुर्गतिगमनल कणम् । न इति म कीदृशेऽस्मिन्कार्यान्तरम् ओघनियुक्तमुक्तरूपफल भिन्नं, कार्ये च न प्राप्तिलक्षणं तदर्थमाश्रिते । तदाह- उत्सर्ग निषे धानुगुणं दुःखरूपं फलं न जवतीति न । अयं धर्मार्थको वधः धर्मत्वेन धृतोऽपि भ्रान्तिविषयीकृतोऽपि, अधर्मफल को ऽधर्मदेतुः । आह च - " मिथ्यादृष्टिभिराम्नातो, हिंसाद्यैः कलुषीकृतः । स धर्म इतिविन्तोऽपि भवभ्रमणकारणम् ॥ १९ ॥” इति । तस्मात् धर्मार्थ हिंसा यागादावेव, न तु जिनप्राश्रमापूजायामिति श्रयम् ॥ ५४ ॥ ननु भवतामपि सामान्यतो निपिकाया हिंसायाः फलं कथं न पूजास्थलीय हिंसायामित्यादअस्माकं त्वपवादनाकलयतां दोषोऽपि दोषान्तरोच्छेदी तुच्छफलेच्छया विरहितश्चोत्सर्गरक्षाकृते । यागादावपि सच्चादिफलतो नेयं स्थितिर्दुष्टतः, श्येनादेरिव सवशुद्ध्यनुदयात्तत्संभवादन्यतः ॥ २५ ॥ अस्माकं त्वपवादमाकलयताम्, उत्सर्गिकाधिकारिकमपवाद निम्नोन्नतन्यायेन तुल्यसंख्या कमभ्युपगच्छतामित्यर्थः । दोषोऽपि व्यस्तवेऽधिकारिविशेषणी नृतोऽयमिति नारम्भस्तत्कालीनः सदारम्भो वा, दोषान्तरस्यानुबन्धाई सारूपस्योच्छेदी, तुच्छफवस्य भूत्यादिलक्षणस्येच्या विरहितश्चोत्सर्गरकाकृत एवोसरकार्थमेव प्रवर्तत इति विरोधः । परेषां तु सामान्यनिषेध उत्सर्गे मुमुक्षोरपवादश्च यागांयहिंसाविधिलकणो भूति इ कामस्येति भिन्नविषयत्वादुत्सर्गापवादभावानुपपत्तिरेव तदुक्तं हेमसूरिजि:-"नोत्सृष्टमन्यार्थम पोद्यते च " | इति । ननु यागादी प्रतिपदो फल कामनया मा भूदेवमुत्सर्गापवादभावः, "तमेवं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन" इत्यादिश्रुतेः प्रतिपदोक्तफत्यागेन शतपथावहितकर्मवृन्दस्य विविदिषायां सत्वगुद्धिद्वारा रा संत्रविमुचयेनोपयोगो जविष्यतीत्यत श्राह - "या गादावपीति" यागादावपि सत्त्वशुरूिफलमाश्रित्य नेयमस्मदुक्तजातीया, स्थितिर्मर्यादा, कुतः, दुष्टतः स्वरूपतो दुष्टात् श्येनादेरिव श्येनयागादेरिव, सखरूचनुयात् मनः शुद्धेः कर्तुमशक्यत्वात्, ये हि प्रतिपदोकफलत्यागेन वेदोक्तमिति कृत्वा ज्योतिष्टोमादि सत्वशुद्धार्थमादयन्ते तैः श्येनयागोऽप्यतिचारफत्रत्यागेन सत्त्वगुयर्थमादरणीय इति भावः । श्रवदाम च ज्ञानसागर प्रकरणे"वेदोकत्वान्मनः शुद्धया, कर्मयज्ञोपयोगिनः । ब्रह्मयज्ञा इतीत्थं नः, इयेनयागं त्यजन्ति किम" || इति । तथाऽन्यतो गायत्री जपादेः, सत्सं वात्सश्वशुद्धिसंभवानयं स्थितिरित्यवधेयः। श्रस्माकं त्वनन्यगत्याऽऽयव्ययतुलनया वादाश्रयणे सत्वशुकेर्नासंभवः ॥ ५५ ॥ अनन्यगतिकत्वे पूजादावन्यथा सिकिं शङ्कते - नन्वेवं किमु पूजयाऽपि भवतां सिख्यत्यवद्योज्जिताद्भावापद्विनिवारणोचित गुणः सामायिकादेरपि । सत्यं योऽधिकरात दर्शनगुणोनामाय वित्तव्यये, तस्येयं महते गुणाय विफलो हेतुर्न हेत्वन्तरात् ।। ५६ । ननु एवं सत्त्वशुद्धेरन्यतः संभवे भवतां स्वरूपतः साधवया पूजयाऽपि किं जनैरिहप्रयुक्तया, भावापछिनिवारले जिन उचितो गुणः श्रवद्योज्झितात् पापरहितात् सामायिकादेरपि सिद्ध्यति, तस्य पारमार्थिक विनयरूपत्वात् । श्राह च - "पुष्पामि - पस्तुतिप्रतिपत्तीनां यथोत्तरं प्रामाण्यम्” इति । उत्तरमाह( सत्यमिति ) सत्यमित्यर्द्धाङ्गीकारे, यो दर्शन गुणालासाय सम्यक्त्वगुणवृद्धधर्थे वित्तक्षये कृते धनव्ययायाsa करोति श्रधिकारभाग्नवति, तस्येयं पूजा महते गुणाय नवति श्रधिकारिविशेषेण कारणविशेषात् फलविशेषस्य न्याय्यत्वाद् भूना तत्प्रवृत्तेश्चात एव द्रव्यस्तवः श्राकानां श रीरे हस्ततुल्यः, भावस्तवश्च तेषां किञ्चित्कालीन सामायिकादिरूपस्तदक्तितुल्य इति तत्र तत्र स्थितम् । तुल्यफलत्वे ऽप्याहहेत्वन्तराद्धेतुर्विफल न । तथा च दानादीनां सामायिकादीनां देवपूजायाश्च श्राकोचितफले "तृणारणिमणि" न्यायेन कार त्वान्न दोषः । अत एव श्रमणमधिकृत्याप्युक्तम्- " संवर निर्ज ररूपो, बहुप्रकारस्तपोविधिः सूत्रे । रोगचिकित्सा विधिरिव कस्याऽपि कथञ्चिकारी " ॥ १ ॥ ५६ ॥ आरम्भशङ्कायामत्र दोषानाहअन्यारम्भवतो जिनार्चनविधावारम्जशङ्काभृतो, मोहः शासननिन्दनं च त्रिलयो वोधेश दोषाः स्मृताः । सङ्काशादिवदिष्यते गुणनिधिर्धर्मार्थमृज्यर्जनं, शुकालम्बनपक्षपातनिरतः कुर्वन्नुपेत्यापि हि ।। ५७ । ( अन्यारम्भ इति ) अन्यारम्नो जिनगृहातिरिक्ताऽऽरम्नस्तद्वतो जिनार्चनविधौ विहितजिनपूजायामारम्भशङ्कां बिजतत्यारम्भशङ्काभृत्तस्य मोहोऽनाभोगः स्वार्थभ्रंशात् शासनानन्दने च कीदृश पतेषां शासने धर्मों ये स्वष्टदेवतामपि श For Private Personal Use Only Page #1255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२३२) चेइय अभिधानराजेन्दः । चेइय कितकलुषिता नाराधयन्तीति, ततो बोधेविलयश्व, मनुचितप्रवृधिकारिता पवमपि धूमः, अमलिनारम्भस्य नाशनीयस्मत्या शासनमामिन्यापादनस्य तत्फलत्वात् । भाइच-"यः शासन- भाषाइनारम्भफलस्य च चारित्रेच्चायोगत एवोपपतेः। तत् स्य मालिन्ये-नाभोगेनाऽपि वर्तते । बध्नाति स तु मिथ्यात्वं,म- कृतः पस्पर्शकतो यो मस्तस्य प्रशासनापेक्षया विदरतः हानर्थनिबन्धनम्"।राति। एते दोषाःस्मृताः। नन्वेवमन्यारम्भ- | पङ्कास्पर्शनमेव घरं, तस्मात्सदारम्नेच्चो मसिनारम्भश्चेत्युजयप्रवृत्तः पूजार्थमारम्भे प्रवर्ततामित्यांदागतम् । तया च "धर्मार्थ मेवाधिकारिविशेषणं भरयमित्यर्थः। उकं च पितीयाएकयस्य वित्तेहा,तस्यानीदागरीयसी प्रकालनाद्धि पङ्कस्य,दाद। सौ-गृहिणोऽपि प्रकृत्या पृथिव्याद्युपमर्दनभौरोयतनावतः सास्पर्शनं वरम्।।१॥" इत्यनेन विरोध इति चेत् ।न । सर्वविरतापेक्ष- पद्यसंकेपरचेर्यतिक्रियानुरागिणो न धर्मार्थ सावद्यारम्भप्रमाऽस्य श्लोकस्याधीतत्वेनाविरोधात् गृहस्थापेकया तु सावधप्र. तियुक्तति । इन्तेवंसति क्रियाभ्यासेन श्रमणोपासकत्वमिदानीवृत्तिविशेषस्य कूपदृष्टान्तत्वेनानुज्ञातत्वान्न केवलं तस्य पूजा- तनानां कुमतीनामनुमतं स्यात्तदा न स्वस्य स्वमतिविकल्पितत्वेश्रीभूतपुष्पावचयादारम्भप्रवृत्तिरिया, अपितु वाणिज्यादिसाब- नाबहुमतत्वानिरपकस्य संयतस्यैव नवितुमुचितत्वात् । पाहधप्रवृत्तिरपि, कस्यचिद्विषयविशेषपकपातरूपत्वेन पापकयगु- "णिरविक्खस्स उ जुत्तो, संपुत्रो संजमो चेव" ति। द्रव्यस्तणबीजलानहेतुत्वात् । तदिदमाह-संकाशादिवत् संकाशश्रा- वभावस्तबोभयभ्रष्टस्य दुर्लभबोधित्वात्। तदुक्तं धर्मदासगाणवकादिरिव धर्मार्थम, ऋद्ध्यर्जनं वित्तोपार्जनम, उपेत्यापि प्र- कमाश्रमणैः-"जो पुण निरवणुवि य,सरीरसुहकज्जमित्ततचीश्रीकृत्यापि, हि निश्चितम, कुर्वन्, शुद्धालम्बने यः पक्कपातस्त- लो। तस्स य बोहिताभो, प सुग्गई व परसोगो॥१॥"त्ति। निरत इति हेतोगुणनिधिर्गुणनिधानमिप्यते । संकाशश्राव- कस्तहि सावद्यसंक्षेपकच्याकः "एवं वि जयं चित्तो, सावगध. को हि प्रमादाद्भक्तितः चैत्यरूव्यनियरलाभान्तरायादिक्लि- म्मो बदुप्पगारो।" इत्यादिवचनादित्येवाह । इच्छया तु धर्मसंटकर्मा चिरपटितपुरन्तसंसारकान्तारोऽनन्तकालाल्लुब्धमनु- करे क्रियमाणेन किञ्चित्फसमित्युक्तमेव ॥५८ प्रति०॥ द्वा। व्यजावो दुर्गतनरशिरशेखररूपः पारगतसमीपोपलब्धस्वकी अत एव यतियोगापेकयाऽस्य तुचतामेव दर्शयन्नाहयपूर्वभववृत्तान्तः पारगतोपदेशतो तत्वनिबन्धनमकपणाय यदहमुपायिष्यामि द्रव्यं प्रासाच्छादनवजे सर्व जिना सन्नत्य निरनिसंग-तणेण जइजोगयो महं होइ । यतनादिषु नियोजयिष्यामि, कालेन च निर्वाणमबाप्तधानिति । एसो न अभिस्संगा, कत्था तुच्छे वि तुच्छे उ ॥१०॥ अयैतदित्यं संकाशस्यैव युक्तं, तथैव तत्कर्मक्कयोपपत्ते, न पुन- सर्वत्र समस्तेषु कम्पक्षेत्रादिषु, निरनिम्वङ्गत्वेन साधूनां रम्यस्येत्यादिप्रहणमफसमन्यथा एमागमैर्यथालाभमित्याच- सकारादिततबा, पतियोगः स्वाभ्यायादिसाधुण्यापारः, मकारः निधानानुपपत्तेरिति चेत् । न । व्युत्पनाशयविशेषजेदेनान्यस्या- पूर्ववत । महान् गुरुद्रव्यस्तवापेक्षया भवति । पप तुमचं प्यादिना प्रहणौचित्यात, अन्यथा-"मुम्बरमापनारी" :- पुनर्षव्यस्तवः, अभिष्ववाद व्यस्तवकारिणां प्रति बन्धात । त्यादिवचनव्याघातापते,नहितया पथालाम म्यायोपाच- कचित्कुत्रचित देगेहपुत्रमित्रकसत्रादौ, तुच्छेऽप्यसारेऽपि, परवित्तेन वा तानि प्रहीतानि, तथा चैत्वसंबन्धितवा प्रामादिप्रति- लोकानुपकारित्वात । अपिशब्दः तुच्छे सङ्गकरणस्यानुचितत्व. पादनानुपपत्तेचा पोतनार्थः । तुच्चस्त्वसार पर पतियोगापेक्षवा न महानिति इयते व तत्प्रतिपादनं परपमायादी गाथार्थः॥१८॥ "चोहर चेश्याणं, रुप्पसुचपगार गामगोवाइ। लगतस्स मुणिणो, तिगरणसुखी कहं भवे॥ मथ कथमभिष्वङ्गादपि तुच्छत्वं कम्यस्तवस्येत्यवाहभएणड स्स्थ विनासा, जो एबाइ सयं वि मम्गिक्षा। जमा न अजिस्संगो, जीवं दसह शियमतो चेन। नदु हो तस्स मुली, मह होई रज्जणाबारे॥ तसियस्स जोगो, विसघारियजोगतुरो ति॥१५॥ सव्वत्थामेण तर्हि, संघेण व हो सगियचं तु। यस्माव,तुशम्दो प्रावनार्थः। येन हि कारणेन,अभिवतः तथासंचरित्तचरित्तीए, एवं सम्बोस कज्जे तु"॥ विधवस्तुसङ्गः, जीवं प्राधिनम, स्वभावतः स्काटकोपलशकल. शुरूागमैर्यथालानमित्यादि नुन स्वयं पुष्पत्रोटननिषेधनपरं, धवलमपि, दूषयति कषयति, नियमतधैव नियमादेष, ततः किं तु पूजाकासोपस्थिते मासिके दर्शनप्रभावनाहेतोणिग्ग्ला- किमित्याह-तक्षितस्यानिवाकयुषितस्य, योगो व्यापारः, नप्रोक्तव्ययस्यास्य व्याख्यापनपरमित्यदोष इति ॥ ५७ ॥ विषघारितयोगतुल्यो हालाहलध्याप्तपुरुषव्यापारसशोऽस्पट. (१४) नन्वेवं मलिनारम्नो नाधिकारिविशेषणं, किं चेतनत्वादल्प इत्यर्थः । इतिशम्दो वाक्यार्थसमाप्तौ । इति तु सदारम्नोऽप्येवेति (सच्चाकस्य नाधिकारः) गाथार्थः ॥१६॥ यतेरप्याधिकारः स्यादत भाह इहैवाथै व्यतिरेकमाहयः श्राकोऽपि यतिक्रियारतमतिः सावधसंक्षेपकत, जपणो असियस्सा, हेयाओ सव्वहा णियत्तस्स । जीरुः स्थावरमर्दनाच्च यतनायुक्तः प्रकृत्येव च । सुको उ उवादेए, अकलंको सचहासो न ॥२०॥ तस्यात्रानधिकारिता वयमपि वमो वरं दूरतः, पतेः साधो, अदृषितस्याभिप्वश्रेणाकलुषितस्य, अत एव पडास्पर्शनमेव तत्कृतमलपकालनापेक्षया ।। ५०॥ हेयात् परिहर्तव्यात हिसादर, सर्वथा सर्वप्रकारैःकरणका( य इति ) यः भाकोऽपि यतिक्रियायां रता क- रणादिभिनिवृत्तस्य । किमित्याह-गुरुस्तु शुरू पवानिवजादूतव्यत्वेनोत्सुका मतियस्य स तथा । सायद्यसंकेपकृत् | पित एव भवति, योग इति प्रक्रमः । उपादेयवस्तुनि सर्वसावधवर्जनाथै, स्थावराणां पृथिव्यादीनां मर्दनाद्भी- महावतादौ विषये आज्ञाप्रवृत्तेः। अतोऽकलकोऽपतदोषकलरु., प्रकृत्यैव स्वभावेनैव च यतनायुक्तः, तस्यत्र पूजायामन-1 , सवेथा सवप्रकारक, सतुसप Page #1256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेइय (१२३३) अभिधानराजेन्सः । चेय स्वतो विचित्रयतियोगतुल्यत्वानावेन न अन्यस्तवो भावस्त. पति जायते, कालेन समयेन, कियताऽप्यतिकान्तेन, कालस्य व एवेति स्थितम् । शति गाथार्थः ॥ २०॥ तथालव्यत्वपरिपाकहेतुत्वादेवमभिधानम्। इति गाथार्थः॥२३॥ अथ दृष्टान्तेन द्रव्यस्तवनावस्तवयोर्विशेषमाह-- द्वितीयोऽपि भवति कालेनेत्युक्तमथ तस्यैव द्वितीयस्य असुहतरंमुत्तरण-पाओ दन्वत्थोऽसमत्तो य । स्वरूपप्रतिपादनायाहपदिमादिसु इयरो पुष, समत्तवाहुत्तरणकप्पो ॥१॥ | चरणपमिवत्तिरूवो, थोयव्वोचियपवित्तिो गुरुयो। अशुभमशोभन, कपटकादियोगादसुखं वा, तत एव दुःख- संपुषाऽऽणाकरणं, कयकिच्चे हंदि उचियं तु ॥श्वा। हेतुत्वात् । तच्च तत्तरगडं च काष्ठादि, तेन यत्तरणं पार- चरणप्रतिपत्तिरूपा चारित्रात्युपगमस्वभावः, भावस्तव इति गमनं, तत्प्रायस्तरकल्पो, यः स तथा. मनागवद्यसंकीर्णत्वात् । प्रकृतम् । स्तोतव्ये पूजनीये भगवति वीतरागे विषयनूते या कोऽसावित्याह-व्यस्तवःप्रतीतः। तथा असमाप्तः-अपर्याप्त- नचिता सङ्गता प्रवृत्तिः प्रवर्तनं सा स्तोतयोचितप्रवृत्तिः, श्व, तत् एव सिध्यसिके । केषु यत्तररामोत्तरणमित्याह- तस्याः स्तोतव्योचितप्रवृत्तहेतोः, गुरुको गरीयान्, व्यस्तनद्यादिषु नदीहदप्रभृतिषु तरणीयेषु,श्तरोभावस्तवः, पुनरिति वापेक्वया । अथोचितप्रवृत्तितो जव्यस्तवोऽपि गुरुकोऽस्तु । ने. विशेषद्योतनार्थः। समाप्तः पर्याप्तः स चासौ बाहूत्तरणकल्पश्च वम् । यतः-संपूर्ण सर्वविरतिप्रतिपत्तितोऽखएमं यदाज्ञाकरतुजपारगमनतुल्यः,समाप्तवात्तरणकल्पः। तत्र समाप्तत्वं नाव. णमाप्तवचनानुपालनं, तत्संपूर्णाज्ञाकरणं, तदेव । कृतकृत्ये विहिस्तवस्य द्रव्यस्तवानपेकस्यापि संसारसागरपारप्रापणप्रवणत्वात् तनिखिलकर्तव्थे सिद्धप्रयोजने नगवति वीतरागे, हन्दीत्युपप्र. बादत्तरणकल्पत्वं चात्मपरिणामरूपत्वेन बाह्यानपेकत्वात् । दर्शने। उचितं संगतम्, पुष्पादीनां तु अव्यस्तवाङ्गानां कृतकति गाथार्थः ॥२१॥ त्यत्वेन तस्यानुपयोगित्वात् । तुशब्दोऽवधारणार्थो योजितश्च । अत्रैव दृष्टान्तान्तरमाह इति गाथार्थः ॥२४॥ कमुगोसहादिजोगा, मंयररोगसमसपिहोवा वि। सम्पूर्णाझाकरणं च साधोरेव भवति, नेतरस्येति दर्शयन्नाहपढमो विणोसहेणं, तक्खयतुबो य वितिओ उ ॥२॥ ऐयं च भावसाहुं, विहाय अमो चए का जे । कटुकौषधादियोगानागराद्यौषधसंबन्धात्, आदिशब्दात सम्मं तम्गणणाणा-भावा तह कम्मदोसा य ॥२॥ कारशरीवेधादिग्रहः । मन्धरो विलम्बितो दीर्गकालभावी, यो न नैव, इदं संपूर्णाझाकरणम्, चशब्दः पुनरर्ध। भावसाधुं पारोगशमो व्याधिशमनमात्र, न तु सर्वथा क्षयः, तत्संनिभस्तनु- रमार्थिकयति, विहाय विमुच्य, अन्योऽपरः, (चपत्ति) शक्नोति, त्यो यः स तथा। वाऽपीति प्रागुक्तदृष्टान्तापेक्कया समुच्चयार्थः।। कत विधातुम् । 'जे' इति पादपूरणे निपातः । कुत एतदेवकोऽसावविध इत्याह--प्रथमो द्रव्यस्तवः, प्रथमत्वं चाऽस्य मित्याह-सम्यक् यथावत्, तद्गुणज्ञानाभावात् आझाकरणगु. सूत्रक्रमप्रामाण्याद्, आदितः प्रायःप्राप्ती, इह चावद्यलेशयुक्त- णोपलम्भानावात् । न हि यथा भावयतिराझाकरणगुणान् वेत्ति, तया कर्मरोगोपशमहेतुतया च यद्यपि द्रव्यस्तवः कटुकौषधा- तथाऽन्यः, तस्यैव तत्र विशेषाधिकारित्वात् । तथा कर्मदोषाश दितुल्यो मन्थररोगोपशमतुल्यः पुनर्दीर्घकालभावितव्यस्त- कश्चिदाशाकरणगुणपरिक्षानेऽपि चारित्रमोहनीयकर्मविपावजन्यः कर्मशमस्तथापि कर्मशमस्य व्यस्तवव्यपदेशतः काच्चेति, अतोनावसाधोरेव कर्तुं शक्यत्वेन संपूर्णाज्ञाकरणकार्ये कारणोपचारान्मन्थररोगशमसन्निभो उभ्यस्तव इत्युक्तम् । रूपो भावस्तवो गुरुकः । इति गाथार्थः ॥ २५॥ तथा विनौषधेन औषधं कटुकमधुरादिरूपं, तेन विनैव, त- भावस्तवस्याचार्यान्तरैरपि गुरुत्वनिष्टमित्यावेदयन्नाहरक्कयतुल्यश्च रोगात्यन्तिकनाशतव्य एव, चशब्दोऽवधारणे, द्वि एत्तो चिय फुट्वामिस-थूइपमिवत्तिपूषमन्झम्मि । तीयस्तु भावस्तवः पुनः। अयमन्निप्रायः-नावस्तव आत्मपरिणामरूप एव,न तु व्यस्तववद् वाह्यव्यसव्यपेक,तथा जावस्त चरिमा गरुई इट्टा, अमेहि वि णिच्चभावाओ ॥ २६ ॥ वादेवात्यन्तिकः कर्मकयो भवतीति कृत्वा विनौषधेन ततक- श्त एव संपूर्णाझाकरणस्य जावसाधुसाध्यत्वादेव । (फुल्लामियतुल्य इत्युक्तम् । तथा यद्यपीह कटुकौषधाभावकल्पो भाव- सफश्पमिवत्तिपूयमम्मि ति) पुष्पाणि जात्यादिकुसुमास्तबो, रोगक्षयतुल्यश्च भावस्तवसाध्यः कर्मवयः, तथाऽपि। नि, उपप्रवणत्वाद्वस्त्ररत्नादीनामिहैवान्त वो वेदितव्यः । श्राकर्मवयस्य भावस्तवव्यपदेशतः 'कार्य कारणोपचारात्' क- मिषमाहारः, इहाऽपि तथैव फत्रादिसकलनैवेद्यपरिग्रहो दृश्यः। यतुल्यो भावस्तव इत्युक्तम् । इति गाथार्थः ॥ २२ ॥ स्तुतिर्गुणोत्कीर्तनम, प्रतिपत्तिश्चरणाभ्युपगमः, एता एव अर्थतयोरेव हेतुफलभावतो भेदमाह पूजाः,तासां मध्यमवहिर्भावः, पुष्पामिषस्तुतिप्रतिपत्तिपूजामध्यं, पढमाओं कुसनबंधो, तस्स विवागेण सुगमादीया।। तत्र । चरमा प्रतिपत्तिपूजा, गुर्वी ज्येष्ठा, इष्टा मता, अन्य। रपि प्रन्थकारः। शहाथै साधनमाह-नित्यनावात्सवा सद्भातत्तो परंपराए, वितिओ वि हु हो कालेणं ॥॥ वात्तस्याः, सा हि यावज्जीविकी, शेषास्तु कादाचित्क्यः । इति प्रथमादिति द्रव्यस्तवात, कुशलबन्धः पुण्यानुबन्धिपुण्यक- गाथार्थः ।। २६॥ मबन्धनं भवति। तस्य कुशलस्य कर्मणः, विपाकेनादयेन, सुग एवं भिन्नावपि परस्परानुगतरूपावेताविति दर्शयत्राहत्यादयः सुदेवत्वसुमानुषत्वलकणसतिप्रभृतयो भवन्ति । श्रा दव्वत्थयभावत्थय-रूवं एयमिह होति दडव्वं । दिशब्दात् शुभसत्त्वसंहननादार्यसंपदादिग्रहः। ततः सुगत्याद्यनन्तरम्, परम्परया विच्छिन्नसंतानया सुगत्यादीनामेव । द्वितीयो अप्पो समणुबई, णिच्चयतो जणियपिसयं तु ॥२७॥ जावस्तवोऽपि, न केवल सुगत्यादय एव । हुशब्दोऽप्रकारे । भ- व्यस्तवभावस्तवयारूप स्वभावा व्यस्तवभावर ३०ए Page #1257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माह (१२३४) चेइय अभिधानराजेन्द्रः । चेश्य पतदित्यत्रोत्तरतुशब्दयोगादेतत्तु एतत्पुनः, प्रागुपदर्शितं जिन- तत्र मेरोः समस्तलोकनाभिभूत अक्कयोजनप्रमाणस्य, सर्षपस्य भवनादिविधान चरणप्रतिपत्तिलक्षणम्, इह स्तवाधिकारे, च राजिकामात्रस्य, यावन्मानं यावत्प्रमाणमन्तरं व्यवधानं, भवति वर्तते, अष्टव्यं बोकव्यम् ।किंभूतमित्याह-अन्योऽन्यस- भवतीति गम्यते। उपलकणं चैतत्समुजविन्द्वायुदाहरणानाम, नुबिद्धं परस्परानुगतम, निश्चयतः परमार्थतः, जणितः प्राग- तावन्मानं शेयम, किम ,जावस्तवाव्यस्तवयोरन्तरमिति । यत निहितो, विषयो गोचरः, प्रायो गृहिसाधुलकणो यस्य तत्त- उत्कृष्टमिति प्राकृतवशात, यत उत्कृष्टतोऽपि व्यस्तवमाराध्य, था। तुशब्दो व्याख्यात एव । इति गाथार्थः ॥ २७ ॥ याति गच्चति, अच्युतं द्वादशमं देवबोकं यावत् । जावस्तवेन, तत्र भावस्तवरूपं व्यस्तधेन समनुबिद्धमिति तावदर्श- तुशब्दस्य लुप्तस्येह दर्शनात् पुनः प्राप्नोति लभते, अन्तर्मुहू. यन्नाह सेन, निर्वाणं मोकमिति गाथाथः ॥१४॥ अतः किम्जइणो वि हु दव्वत्थय-भेदो अणुमोयणेण अत्यि त्ति । मोत्तूणं नावथयं, जो दव्यत्य' पबट्टए मूढो। एयं च एत्थ णेयं, इस मुफ़ तंतजुत्तीए ॥ २० ॥ सो साह बत्तन्नो, गोयम! अजओ अविरो य ॥१५॥ यतेरपि भावस्तवारूढसाधोरपि, न केवलं गृहिण एव । दुशदोऽनकृतौ । यस्तवभेदो ऽव्यस्तवविशेषः। अनुमोदनेन यो मौढ्याधिषयमाम्पट्याद्वा महामोहग्रस्तबहुजनप्रवृत्तिदर्शजिनपूजादिदर्शनजनितप्रमोदप्रशंसादिकपयाऽनुमत्या, अस्ति नाद्वा, मुक्त्वा परित्यज्य, जावस्तवं सर्वसावद्यानिवृत्तिलकणं, विद्यते। इतिशब्दो वाक्यसमाप्तौ। अथ साधाव्यस्तवे श्र द्रव्यस्तवे सर्वसावधनिबन्धनरूपे, प्रवर्तते, मूढः परमार्थमजानुमोदनमसिद्धमित्याशझ्याह-पतचैतत पुनरनुमोदनम्, अत्र नानः, स साधुर्वक्तव्यो नणनीयो, गौतम ! इन्धनूते ! अयतोऽबिरतश्च । चशब्दात् एतदपि द्रष्टव्यम्-असंयताविरव्यस्तवे, शेयं ज्ञातव्यम, श्त्यनया वक्ष्यमाणया, शुरुमनव ताऽप्रतिहतपापकर्मा देवार्चक इति वा देवजोजक इति । यम्, तत्रयुक्त्या शास्त्रगोपपत्त्या । ति गाथार्थः ॥२७॥ अयमाशयः-यो हि भवपरम्पराजिरनेकाभिरापमक्केपेण मोक्कपञ्चा० ६ षिव०। दर्श। सुखसाधकं सर्वसम्बरस्वभावं संयमं प्राप्यापि मोहात्तस्य परितं नस्थि भुवषमज्झे, पूयाकम्मं न जं कयं तस्स । त्यागेन पुष्पपूजादौ प्रवर्तते, स उभयत्र भ्रष्टतयाकिश्चित्कर जेणेह परमाणा, न खंमिया परमदेवस्स ।। १२॥ एवेति गाथार्थः॥१५॥ तत्किमपि नास्ति न विद्यते, जुवनमध्ये त्रिनुबने ऽपि, पूजाक अन्यञ्च तस्यातिमूर्खत्वप्रतिपादनायाऽऽहने पूजाविधान, यन्न कृतं यन्ननिष्पादितं, येन केनचिदनिर्दिष्टना- मंसनिवित्तिं काउं, सेवति दंतिकति धणिभेत्रा। म्ना, हेति पूजाविधानविचारे, परमोत्कृष्टाका परमाऽऽझा, परमः | इय चश्णाऽऽरंभ, परववएसा कुणइ बालो ॥ १६ ॥ त्वं चाऽस्याः सकलकल्मषनिर्मूलनत्वेन सकलसुखविधायिस्वात,कि,न खपिमतानोल्लीघता।कस्येत्याह-परमदेवस्य वी. मांसं पिसितं,तस्यापि पापहेतुत्वाद् निवृत्ति विरतिं कृत्वा विधातरागस्येत्यर्थः । अयमत्राभिप्रायः--यद्यपि साधुः पुष्पपूजादौ न | या पश्चाजिहादोषासेवते भजते, तदपि खादतीत्यर्थः। लोकलप्रवर्तते तथाऽपि समस्तप्रतिपत्तिमूबसर्वज्ञाऽऽझायाः परिपा ज्जया ध्वनिनेदं शब्दमात्रभेदं विधाय,केनोल्लेखेन ? (दंतिकयं ति लनात्पूजादिविषये चोचितदेशनादौ प्रवर्तनादनुमोदनाच्च त्ति) दन्तिकमिदं नेदं मांसमिति, इत्यनेन हेतुना स्वयमात्मना दर्शनशुधिर्भवत्येवेति । प्रयोगश्चात्र-पुष्पपूजादिव्यतिरेकेणापि समस्तजनप्रत्यकं त्यक्त्वा प्रारम्भं नूतोपमईनं, तृतीयार्थे सर्वसम्बरवत्साधुसमाजानां दर्शनशुद्धिरुपजायते, भावस्तव पञ्चमी । ततोऽपरव्यपदेशेन तीर्थकृतां भगवतामहं भक्त शति हेतुकत्वात्पुष्पादिपूजायाः, घटोत्पत्तौ मृत्पिरमवत् । न चास्य करोति विधते, बालोऽ इति गाथार्थः ॥ १६ ॥ हेतो वस्तवोत्पत्तिहेतुत्वेऽपि दर्शनशुद्धावसिद्धतोद्भावनीयेति; ननु कथमसौ बालः ?, स हि धार्थितया तीर्थकरानुदिशा जावस्तवस्य दर्शनशुछिन्यतिरेकेणात्यन्तासद्भावात । अथ वेत्तं प्रवर्ततेऽतो युक्तमिवेति यो मन्यते, तं प्रत्याहप्रयुज्यते तस्य हि भगवतः समस्तजगतीतविण्यातकीर्तस- तित्थयरुदेसेण वि, सिडिलिज न संजमं सुगइमूलं । कलातिशयसंपन्नस्य त्रिभुवनादरविवरभासुरसकासुरासुराक तित्थगरेण वि जम्हा, समयम्मि इमं विपिद्दिढे ।। १७॥ नरनरखचरशेखरपरमपूजनीयस्य,सर्वमपि यात्रास्नात्रविलेपाभरणगीतनृत्यपुष्पाद्यारोहणादिकं पूजाकर्म कृतमेव, तदवि तीर्थड्रोद्देशेनापि,न केवलमन्योद्देशेनेत्यऽपिशब्दार्थः। शिथिकलाझाकरणतः सर्वसम्बरारूद्वैः साधुभिरपि सकसकसङ्कविक लयेत् शिथिलं विदध्यात्, न नैव, कमित्याह-संयमं सर्वविरतिं सकेवलज्ञानोत्पत्तिदर्शनात् प्रसन्नचन्द्रमहामुनिभरतेश्वरचक्र सुगतिमूलं मोकस्यैकान्तप्रापक, तीर्थकरेणापि यदुहेशेन साबवर्तिवदिति गाथार्थः ॥ १२॥ द्यानुष्ठाने प्रवृत्तिर्विधीयते तेनापीत्यपिशब्दार्थः । यस्मात्स मये सिद्धान्ते, इदं विनिर्दियं प्रतिपादितमिति गाथार्थः ॥१७॥ कऐतरसाध्ययोभीवस्तवव्यस्तवयोस्तयोरन्तरं फलं च प्रतिपादयन् गाथाद्वयमाह तदेवाहमेरुस्स सरिसवस्स य, जत्तियमेत्तं तु अंतरं होई। सव्वरयणामएहिं, विजूसियं जिणहरेहि महिवलयं । जो कारेज समग्गं, तो विचरणं महिटीयं ॥१०॥ नावत्थयदव्यथया-ण अंतरं तत्तियं नेयं ॥ १३ ॥ नकोसं दबथयं, आराहिय जाइ अच्चुयं जाव । सर्वाणि च तानिरत्नानि, यहा-सर्वतो रत्नानि, सर्वरत्नै निष्प नानि सर्वरत्नमयानि, तैः सर्वरत्नमभैः, सर्वतो महामाणिक्यजावत्थएण पावइ, अंतमुहुत्तेण निव्वाणं ॥ १४॥ | शिलासंचयचितिरित्यर्थः । न केववं सामान्यपाषाणेष्टका Page #1258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेडय चेश्य (१२३५) अभिधानराजेन्द्रः। दिविनिर्मितं वितषित मएिमतं,जिनगृहैरहदायतनैमहीबअयं स- र्या देवलोकगमनानुपपत्तेः । बन्धावहा चेत्पुण्यबन्धाबहे चोमस्तधरणातवं, यः कश्चिदतिशयमहापुण्यप्राग्भारश्चक्रवा- तनावेन प्रशस्तीकरणात् प्रशस्तरागवत् पुष्पादिसंघटनादिः, कारयेत्समग्रं परिपूर्ण. ततोऽपि तस्मादपि, सर्वोत्तमहव्यं | दिरूपोऽसंयमस्तत्र हेतुरुक्त इति चेत्, सोऽपि पर्युदासेन सं. यावदपीत्यर्थः। चरण चारित्रं सर्वविरतिस्वभावं,महर्द्धिक वि. यमयोगविरुरुयोगरूप एव स्यात् । तस्यापि च भावेन प्र. शिष्टतरतमं, यतस्तैऽपि ताग्विधसर्वोत्तमव्यस्तवविधायि- शस्तीकरणे किं हीयते ?, उत्तरकालिक एव भावः प्रा. नोऽपि सर्वसम्बरवन्त एव शिवसुखसाधका भवन्तीति | स्तीकर्तु समर्थः,न पौर्वकालिक ति चेत्। न । दुर्गतनारीदृष्टान्तेगाथार्थः ॥ १८ ॥ दर्श० ३ तत्व। न विहितोत्तरत्वात् । कश्वायं मन्त्रो यः पूर्वापरभावन न्यूनाधि(१५) सिंहावतोकितेन हिंसास्तीति तामेव कलावं नियमयतीति सूक्ष्मेक्षिकायां प्रशस्तहिंसा पुण्यावहाव्यस्त निरस्यति ऽपि न स्यादिति चेत् । दमित्यम,श्यं व्यवहारपद्धतिर्व्यवहारधर्मार्थ सृजवां क्रियां बहुविधां हिंसा न धार्थिका , नयसरणिरिणी, प्रशस्तपुण्यवन्धहेतुत्वस्याऽपि “घृतं दह तीति" न्यायेनेष्टत्वात, निश्चये निश्चयनये तु विचार्यमाणे,हिंसा हिंसांशे न यतः सदाशयतृतां वाञ्छा क्रियांशे परम् । वृथैव, अन्यतरबन्धस्याप्यहेतुत्वात् । केवलम् एक एव भावः न व्याश्रवतश्च बाधनमाप स्वाध्यात्मभावोन्नते- फलदः, प्रशस्तोऽप्रशस्तो वा, प्रशस्तमप्रशस्तं वा फसं जनरारम्भादिकमिष्यते हि समये योगस्थितिव्यापकम् ॥ यितुं समर्थ इत्यर्थः। अत एव कामनोगानाश्रित्योत्तराध्ययने(धमार्थमिति) धर्मार्थ बहुविधां बहुप्रकारां, क्रियां पूजादि पूक्तम्-" न कामजोगा समयं उर्वति, ण यावि जोगा विगई उ. रूपां, सजतां सदार्थका धर्मार्था हिंसा न, यतः सदाशयभृतां वेति । जो तप्पोसी य परिमाही य, समो य जो तेसु स वी. शुभनाबानां हिंसां वाञ्छा न,परं केवलं क्रियांशे वाचा,तथा अरागो ॥१०१॥" ति। उत्त०३५अाअत एव च विषयेष्वपि चानुबन्धाहंसानिरासः, सदाशवध यतनोपबृंदितो ग्राह्य इति सतवचिन्तयाऽभिसमन्वागमनबन्धकारणमुक्तमाचारे । एवं हेतुहिंसाऽपि निरस्तैव, तथा च स्वरूपहिंसवास्ति । तबाह विधः समाधिः पूर्वभूमिकायां न भवत्येवेति चेत् ।न। सर्वथाsअश्याश्रवतश्च स्वस्य योऽध्यात्ममावस्तमुन्नतेः बाधनमपि भावस्य वक्तुमशक्यत्वात् । सम्यग्दर्शनसिफियोगकाल एव प्र. "अम्भत्थे चेव बंधप्पमोक्खें" इत्याचारवचनात् । इदमेव कथा शमलकणलिङ्गसिकेरनुकम्पादीनामिच्छाद्यनुभवत्वात् । मत्राह-हि पतः,समय सिद्धान्ते,योगस्थितिव्यापकं, यावत् यो तदुक्तं विंशिकायाम्गास्तिष्ठन्ति तावदित्यर्थः । च्यते मन्यते, "जावं चणं ए- "अणुकंपा णिव्वेश्रो, संवेगो तह य होइ पसुमुत्ती। या वेयर, तावं च णं भारंजा संरंजह समारंभर" श्त्यादिवच- पपसि अणुभावा, इच्छाईणं जहासंखं ॥१॥” इति । नात् भारम्नाद्यन्यतरत्वेन बोगळ्यापकतालाभात्। यदि च 5. अणुभावाः कार्याणि, इच्गदीनां च्गप्रवृत्तिस्थिरसिकियो. व्याश्रवमात्राद् बन्धः स्यात्तदा त्रयोदशगुणस्थानेऽपि स्यात्, न गाना, समाधिजनितश्च जावोऽज्युत्थानकालेऽपि संस्कारशेषतचैवमस्ति, समितगुप्तस्य व्यावसत्त्वेधूपादानकारणानुसारि. या मैयाद्युपबृंहितोऽनुवर्तत एव, अन्यथा क्रियासाफल्यासिके, तवैव बन्धवैचियस्वाचारवृत्तिचर्यादौ व्यवस्थितत्वात् । न च "भावोऽयमनेन विना, चेष्टा व्यक्रिया तुच्छग" इति वचनात् । द्रव्यतया परिणतिरपि सहमैकेन्जियादेरिव बन्धजननाति धर्मा- एवं विविक्तविवेके विरतसम्यग्दृष्टेरपि पूजायां न बन्धः, विरत्यर्णवमतमाप युक्तम् । एकेन्द्रियादीनामपि सदमबन्धस्योपादान- शजस्तु बन्धोऽन्यः पूजायोगाप्रयुक्तः, अन्यथा जिनवन्दनादावसूदमताऽपेकित्वादप्रमत्तसाधोव्याधसंपन्नस्य तन्निमित्तस्य | पि तदापत्तिः। तत इह कूपनिदर्शनं पज्ञातं कस्यचित् यथा श्रुतपरमाणुमात्रस्यापि बन्धनिषेधात् "ण हु तस्स तपिणमित्तो, स्याऽऽशकापदं श्राशङ्कास्थानम् । एवं हि तदावश्यके व्यस्तबंधो सुदुमो विदेसिनो समए । " इत्यागमात, प्रपश्चितं चेदं वीयप्रसङ्गसमाधानस्थले व्यवस्थितम्। प्रति० । षो । आव०। धर्मपरीक्षायां महता अन्थेन ॥ ५ ॥ “अकसिणपबत्तयाणं, विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो। एवं व्यवस्थिते कृपनिदर्शनचिन्त्यतामावि वयति संसारपयणुकरणे, दम्वत्थर कूवदितो ॥४५॥" पूजायां खलु जावकारणतया हिंसा न बन्धावहा, अकृत्स्नं प्रवर्तयन्तीति,संयममिति सामर्थ्याद गम्यते, अकृत्स्नगौणीत्थं व्यवहारपतिरियं हिंसा वृथा निश्चये । प्रवर्तकाः, तेषां, विरताविरतानामिति श्रावकारणाम, एष खनु जावः केवामेक एव फलदो बन्धो विरत्यंशज युक्तः-एष व्यस्तवः, खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् युक्त एव । किंभूतोऽयमित्यत माह-संसारप्रतनुकरणः संसारक्षयकारस्त्वन्यः कूपनिदर्शनं तत इहाशङ्कनपदं कस्यचित् ॥६॥ क इत्यर्थः । व्यस्तवः हेयः प्रकृत्यैवासुन्दरः, स कथं श्रावअत्रास्माकमिदं हृदि स्फुरति यद व्यस्तवे दूषणं, काणामपि युक्त इत्यत्र कृपदृष्टान्त इति । "जहा नवनवनगरावैगुण्येन विधेस्तदप्युपहतं जक्त्येति हि ज्ञापनम् । दिसंनिवसे केइ पनूअजलाभावतो तराहाविपरिगता तदपनोकूपातफलं यतो विधियुताऽप्युक्तक्रिया मोक्षदा, दार्थ कृवं वांति, तोर्स च ज वितएहादिया फिट्टति, मट्टिा जक्त्यैव व्यवधानतः श्रुतधराः शिष्टाःप्रमाणं पुनः॥६॥ कद्दमा भिजंति, तदा वि तदुब्भवणं चेच पाणिपणं ति सिं चते, एहाश्था सो य मलो पुब्बगो य फिट्टति, सेसकालं च ( पूजायामिति ) पूजायां, खल्विति निश्चये, भाव. तदन्ने य लोगा सुनयाइणो भवंति, पवं दबत्थर जइ विसंजमो स्य द्रव्यस्तवकारणाध्यवसायरूपस्य, कारणतया हिंसा ब- तहा वि तो चेव सा परिणामसुद्धी भवति, जातं असंजमो. धावहा न भवति । एषा स्थापयति हि स्नानादिसामग्री - पज्जियं अन्नं च निरवसेस खवेति ति, तमाह-विरयाविरहि व्यस्तवेऽधिकारिणम, न च सा हिंसा कर्मणा बभ्यते, पुगतना- एसद्वत्थवो कायब्धो सहाणुवंधी य पनूतणिज्जराफलो य Page #1259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेश्य (१२३६) अभिधानराजेन्द्रः। चेश्य ति काऊणं" इति गाथार्थः ॥ ४२ ॥ अथ कीाद्यर्थमपि - ऽष्टमपि जलोत्पत्तावनन्तरोक्तदोषानपोह्य स्वोपकाराय परोपव्यस्तवे प्रवृत्त्या भाज्यवसायव्यनिचारश्चारित्रक्रियायामपि काराय किल भवतीत्येवं स्नानादिकमप्यारम्भदोषमपोह्य शुभातुल्यः, शुभाध्यवसायस्यैव तथात्वान्न कारणत्वेन पुष्पाद्यत्यर्च- ध्यवसायस्योत्पादनेन विशिष्टाशुभकर्मनिर्जरणपुण्यबन्धकारणं ने त्वेवं चारित्रनावेन तक्रियायास्तयात्वापत्तिभावाकान्तम् । भवतीति।इह केचिन्मन्यन्ते पूजार्थ स्नानादिकरणकासेऽपिनिनित्यस्मृत्यादिना भावनयोत्पादाप्रतिपादगुणवृथ्वादिकमपिन- मलजलकल्पशुनाध्यवसायस्य विद्यमानत्वेन कर्दमझेपादिकतग्रहणादिक्रियया तुल्यम्, "एसा लिई उ इत्थं, ण उगहणादेव रूपपापाभावाद्विषममिदमित्यमुदाहरणम् । तकिलेदमित्थं योजायई णियमा । गहणोवायं पिजायर, जाओ वि अ वेश्कम्मुद- जनीयम-यथा कूपखननं स्वपरोपकाराय भवत्येवं स्नानपूजाया। तम्हा णिस्संचइए,” इत्यादिवचनात् । परितनानुपाय- दिकं करणानुमोदनद्वारेण स्वपरयोः पुण्यकारणं स्यादिति। स्वमपि तथैव, प्रमत्तस्थविरकल्पिकादः क्रियाया अप्रमत्तजिन' न चैतदागमानुपाति। यतो धर्मार्थप्रवृत्तावप्यारम्भजनितस्या कल्पिकादिनाऽनुपादेयत्वात्,कन्यस्तबजनितपरिणामशुद्ध्या - स्पस्य पापस्येष्टत्वात, कथमन्यथा भगवत्यामुक्तम्-"तहारूव व्यस्तवस्थलीयासंयमोपार्जितस्यान्यस्य च निरवशेषस्य क- समणं वा मादणं वा पडिहयपञ्चक्खायपावकम्मं अफासुपणं मणः कपणाभिधानमपि चारित्रक्रियाजनितपरिणामशुध्वा त. अणसणिजेणं असणं पाणं खाश्मं साइमं पमिलानेमाणे अंते ! दतिचारजनितान्यनिरवशेषकर्मकपणाभिधानतुल्यं, सर्वस्या किं कजा। गोयमा! अप्पे पावे कम्मे बहुतरिआसे णिज्जरा अपि प्रवज्याया भवद्वयकृतकर्मप्रायश्चित्तरूपतायास्तत्र तत्र व्य- कजई"। तथा ग्लानप्रतिचारणानन्तरं पञ्चकल्याणकप्रायश्चित्तवस्थितत्वात, जिनशासनविहितेत्यत्रापि शुभयोगे तदतिदेशात प्रतिपत्तिरपि कथं स्यादित्यत्रं प्रसङ्गेनेति समासार्थः ॥१०॥ "जोगे जोगे जिणसा-सणम्मि दुक्खक्खया पजंता । इ. यतनया विहितस्य स्नानादेःशुभन्नावहेतुत्वं प्रागुक्तम् । अथ यतककम्मि अणंता, वटुंता केवली जाया।" इत्युक्तवचनात् छ- नां स्नानगतां शुभभावहेतुतांच यतनाकृतां स्नानस्य दर्शयन्नाहव्यस्तवे क्रियमाण एव च भावशुद्ध्या नागकेतुप्रनृतीनां कै- "भूमीपेहणजलछा-णणाइ जयणा उ होइ राहाणाश्रो। चल्योत्पादश्रवणात शुजानुवन्धिप्रभूततरनिर्जराफसत्वोपदर्श- ___ एत्तो विसुरुभायो, अणुहवसिद्धो चिय बुहाणं ॥ ११॥" नमेव व्यस्तवेऽल्पस्यापि पापस्थानं न सहन्त इति शुरुभा- भूमेःप्रेकणं च स्नानभुवःप्राणिरक्वार्थ चक्षुषा निरीक्वणं,जलच्चावस्य निर्विषयः कूपदृष्टान्तः। तत्र पुष्पाद्यज्यर्चनवेलायां शुन्नभा- णणं च पूतरकपरिहारार्थ नीरगालनम, आदिःप्रमुखं यस्य व्यावसंभवेन निश्चयनयेन तस्य व्यवहारनयेन च तदन्धितक्रि- पारवृन्दस्य तद्भमिप्रेकणजलच्छाणणादि।प्रादिशब्दात्मक्किकायाया विशिष्टफलहेतुत्वेऽपि ततः पूर्व तद्विषयसंभव इति वा- रवणादिग्रहः। तत्किमित्याह-यतना प्रयत्नविशेषः । तुशब्दः पुच्यम, प्रस्थकन्यायेन पूर्वपूर्वतरक्रियायामपि शुभनावान्वयत- नरर्थः। तद्भावना चैवम्-स्नानादि यतनया गुणकरं भवति। यतना त्फलोपपत्तेः। नैगमनयाभिप्रायेणात एव पूजार्थ स्नानादिक्रिया- पुनर्भूमिप्रतणजनगणणादिः,भवति वर्ततेक्वेत्याह-स्नानादावधि यामपि यतनया अधिकारसंपत्या शुजनावान्वय उपदार्शतश्च- कृते देहशौचविलेपनजिनार्चनप्रभृतिनि च,इह प्राकृते औकारश्रुतेतुर्थपञ्चाशके । तथाऽह-- रभावातू"एहाणाओ"इत्येव पठ्यते इति । (एत्तोत्ति) इतः पुनर्य“यहाणा वि जयणाए, आरंभवओ गुणाय णियमेणं । तनाविहितस्नानादेशुिरुभावःशुभाध्यवसायोऽनुजवसिक एव सुहन्नावहे उपो खबु, विषयं कूवनापणं" ॥ १०॥त्ति। । स्वसंवेदनप्रतिष्ठित एव,बुधानां बुझिमतामनेन च शुभभावहेतुमानाद्यपि देहशौचप्रनृतिकमपि, पास्तां तद्वर्जनं, पूजा वा । त्वादित्यस्य पूर्वोक्तहेतोरसिद्धताऽऽशङ्का परिदृतेति गाथार्थः श्रादिशब्दाद्विलेपनादिग्रहः। गुणायेति योगः। यतनया रकयितुं ॥११॥ अत्राभयदेवसूरिव्याख्याने धर्मार्थप्रवृत्तावप्यारम्भजनित. शक्यजीवरकणरूपतया, तत्कि साधोरपीत्याशङ्क्याह-बार- | दोषस्याल्पस्य यदिष्टत्वमुक्तम् तद् ग्रन्थकर्तुःक्क सरससिकं?,षोम्नवतः स्वजनधनगेहादिनिमित्तं कृष्यादिकर्मनिः पृथिव्यादि। डशके-“यतनातोन चहिंसा" इत्याद्यन्निधानात् यतनया नावा. जीवोपमर्दनयुक्तस्य,गृहिण इत्यर्थः। न पुनः साधो,तस्य सर्व- किमतः पूजायां कायवधासंभवस्यैव दर्शितत्वात् पूजापश्चाशसावद्ययोगविरतत्वाद्भावस्तवारुदत्वात् । जावस्तवारूढस्य दि केऽपि कायबधात्कथं पूजा परिशुद्धेति प्रश्नोत्तरे-"जम्मइ जिणस्नानादिपूर्वकाव्यस्तवोऽनादेय एव, जावस्तवार्थमेव तस्या- पूयाए, कायवहो जश् वि होइ उ कहिं वि । तह वि तई श्रयणीयत्वात, तस्य च स्वत एव सिद्धत्वात् । श्मं चार्थ प्रकर- परिसुद्धा, गिदीण कूवाहरणजोगा ॥४२॥" इत्यत्र कथाश्चित णान्तरे स्वयमेव वश्यतीति ।गुणाय पुण्यबन्धलक्षणोपकाराय, केनचित् प्रकारेण यतनाविशेषेण प्रवर्तमानस्य सर्वथा न नियमेनावश्यजावेन । अथ कथं स्वरूपेण सदोषमप्यारमिजणा भवतीति प्रदर्शनार्थ कथञ्चिद् ग्रहणमिति तपस्विनां स्वयमेव गुणायत्याह-(सुभन्नावहेनश्रोत्ति) बुप्तनावप्रत्ययत्वेन निर्दे: व्याख्यानात्, "देहादिणिमित्त पिहु, जे कायवहंसि तह पयशस्य शुभभावहेतुत्वात्प्रशस्तभावनिबन्धनवाजिनपूजार्थस्ना- ९ति । जिणपूमाकायवह-म्मि तेसिमपवत्तणं मोहो॥४५॥" इति नादेरनुभवन्ति च केचित् स्नानपूर्वकं जिनार्चनं विदधानाः ग्रन्थेनाग्रे ग्रन्थकृतैवाधिकारिणो जिनपूजा कायवधम् अपेत्य शुभभावमिति। खलुर्वाक्यालङ्कारे विज्ञेयं ज्ञातव्यम् । अथ गु- प्रवृत्तदर्शितेन हिंसास्वरूपस्य च यतनयैव त्याजनाभिप्रायात् णकरत्वमस्य शुभभावहेतुत्वात्कथमिव शेयमित्याह-कृपझाते- समाधियोगेनेत्यादिनकणासिः । न च पुण्यजनकाध्यवसायेन नावटोदाहरणेन । इह चैवं साधनप्रयोगः-गुणकरमधिकारि- योगेन चाल्पस्यापि पापस्य बन्धसन्नवः,अध्यवसायानां योगानां णः किञ्चित्सदोषमपि स्नानादि, विशिष्टशुउभाषहेतुत्वात्, वि. |बा शुभाशुनैकरूपाणामेवोक्तत्वात, तृतीयराशेराबमे प्रसिरेतशिष्टशुभभायहेतुभूतं यत्तद्गुणकरं दृष्टम् । यथा कृपखननम् । वि- दुपपादयिष्यत उपरिष्टात् भाष्यसंमत्या, जगवत्यां सुपात्रे शुद्धशिष्टशुनभावहतुश्च यतनया स्नानादि, ततो गुणकरमिति। - दानेऽल्पपापबद्तरनिरानिधानं चनिराविशेषमुपलकयति। पखननपके शुजनावः तृपयादिव्युदासेनानन्दाद्यवाप्तिरिति ।। स च शुरुदानफलावधिकापकर्षात्मकः, प्रकृते च चारित्रफमा. श्दमुक्तं भवति-यथा कूपखननं श्रमतृष्णाकर्दमोपलेपादिदोष- वधिकापकर्षात्मको दानादिचतुष्कफलसमशीलः सोऽधिक्रियत Page #1260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२३७) निधानराजेन्द्रः | चेय इति कथङ्कारमगुरुदानेन जायत्यमुपनीयमानं वि चितामत्कारसारं घेतो रमथितुं स्थलम् अनिं ?1 तिथिसंविभागवतस्याऽतिचारभूतं, गुरूपूजा च समग्रश्राद्धध स्य तिलकी चूतोत्तरगुणरूपेति च । आह वाचकचक्रवर्ती- "चै त्यायतनप्रस्थापनानि कृत्वा च शक्तितः प्रयतः । पूजाश्च गन्धमाझ्या धिवासधूपदीपाद्यथाः॥ इत्यादि। अथ शुद्धदानविधिसनविचिचापवादः उत्संगी पचादी व स्वस्थाने पिवाद विधिविषयीभूतादे पूजायामुच्यमानं न दोषायेत्यभिप्रायः ददानं कस्य विभषा,स्वरूपोऽशुकतायाः स्वरूपत आरम्भयसायायान सुदामाम्तो सुन्धरभावि ताना भावि भगवतीवृताविति पव्युत्पतजिन पूजायां विपरीतव्युत्पन्नकृतदानत्यत्वमनिषीयमानं कथं परे त?, ग्लानप्रतिचारणानन्तरं पञ्चकल्याणकप्रायश्चित्तप्रतिपत्तिरपिगीतामयम्यतरपद वेवैकल्या एवेति सर्वपदसाकल्ये प्राया सकरणंकल्पमात्रवरूपतः सदोषतयेतद्दुम सायइग्नेन जिनपूजां कृत्वाऽपि प्रायचि कव्यं स्यात् तथा नैर्यापचिकी मात्रमयुक्तम, अरूदानेऽपि भाऊजीतकल्पादावुक्तमिति वृथा वल्गनमेतदभिन्नसूत्रानिमानिनामतिचारजनकक्लिष्टभावशोधनमपि तुल्याधिकशुद्धाभ्यवसायेनैव, अन्यथा ब्राह्म्यादीनां स्वरूपमायया अशुभविपाके प्रसानामिदानीं चारित्रं कथं नि हेदित्यर्थः । पढ्नावेन प्रपञ्चितं पञ्चवस्तुक एवेति यतनानायशुद्धस्याधिकारिणः क श्वासोपलेप इति पा गामिकमाभाति, पूजेतिक व्यासपतिरेव च सम्म पोत्पतिः तत्कालीन पवारम्ना प्रतिपन्नगृहस्थधर्मप्राणपदव्य स्तवस्य कृपनस्थानीया तत्कामार्जितमेव व्यस्तसं भवात्त्रियविरोधिनस्ततः प्रथमवर्गस्यापि सिके सहार म्भाजित कर्मनिर्जरणमेव च द्रव्यस्तवसंभाविनी भावेनेति, अन्योक पूर्वपक्के "अस्माकमिदं यदि स्फुरति यत् व्यस्तवे दू"येन भमिकतानतासंभविविधिक म प्रायामसंभवम्याप्याम्दोष फलेन समारोपेण तो धने तथाऽपि कूपदृशन्ताभिधानापत्तिरिति प्राचीनपक्षे खरसः स्नानादावारम्भधिसे जयतीत्यानिमानिक धारम्भदोषस्त्वनधिकारिणो न संगतः। विधानस्य भावदोषत्वादस्पदोषस्य च विरूपस्यैवेष्टत्वादनिधानस्य विपर्ययस्य विपर्ययरूपदोषस्यापस्य वक्तुमशकयत्वादुपरितनानां तदपत्याभि मानस्तु विषया स्याद्वादमार्गे वस्तुन आपेकि परिकल्पकस्य यो मार्गः स जिनकल्पिकापेक्षया न मार्ग तिविधियुकं यदूषणमपि भक्त्याऽधिकतर भक्तिनावेनोपहतं भवति, इति हि ज्ञानं कूपज्ञानस्य फलरूपाने प्यतेत्यर्थः पूजाविधिस्थलीयेऽप्युपले भक्तिप्राबल्यस्य प्रतिबन्धकत्वम, कूपे खन्यमाने कर्मोपलेपादाविच मन्त्रविशेषस्येति भावः यतोऽवधियुताऽपि क्रिया व्यवधानेनातिपारम्पर्येण नक्त्यैव कृत्वा मोकदोक्ता, शिश पुनरत्रार्थे शिष्टकवाक्यतयाऽनूदत्र स्वकपोकल्पित्वमात्रमिति भावः इथं चाभयदेवसूरिवचनानामुक्तानां शेषाणां च भक्तिमात्रप्रयुक्तपूजेय विषय इति स योऽपि प्राचीनपन्थास्तिरस्कृतो नयति इत्थं विवेषका सुहाना सुत्ररूपकाः शङ्कितायें पुनः सूत्रे ध्यायते विका व सम्मती मधइस्तिना" उसासण ३१० चेइय पद्मवणा सिकंतजागो होइ । ण वि जाणगो वि समय, णिच्छिम्रो श्रो " ति न परीक्षां विना स्थेयं प्राचीनप्रणयापरमविवचितत्र निरस्ता गन्धहरितमाता-ि " अयं जनोऽभ्यस्य मृतः पुरातनः, पुरातनैरेव समो भविष्यति । पुरातनेष्वित्यनवस्थितेषु कः, पुरातनोक्तान्यत्रिमृश्य रोचयेत् ॥ १ ॥ " प्राचीनं स्वनीनमप्यनेकान्तगतिं तसात्पर्यमेदेन सम्बेनातिप्रपातं विशदीकरणेऽधिकमा प्र नोक्तमस्माभिस्तदवधार्यताम् ॥ ६१ ॥ (११) पूजा हिंसासंयोविकल्पं दूषयन्नाह धर्मार्थः प्रतिमार्चनं यदि वचः स्वादस्तदा कि सूत्रकृते न तत्र परितो जूताहियकार्थवद । या हिंसा खलु जैनमार्गविहिता सा स्यानिषेच्या स्फुटं नाधार्मिकवहिन्तुमिद्ध किं दोषं सोद्भवम् ।।६२।। (धर्मार्थमिति ) यदि पूजायां हिंसा कुमतिना किमनर्थद एकरूपा वा स्थादर्थदण्डरूपा वा ? नाद्यः पक्षः क्षोत्ररामः प्रयोजन राहित्यासि मयाद यदि प्रतिमानं ध मांथो व व्यासः स्यादवेन व्यवहार्यः स्या इष्टापतावाह तदर्द्धदरमा सूत्रकृतेऽर्थदकाधिकारे किन पतिः किं नृताहार्थो यथा दाम पतितइत् इदं हि तत्-"पढने दंमसमाहाणे महाईमवत्तिय तिि र से जहा नाम के पुरिसे आवहेडं वा धागारवा मि हेडंवा नागडं या भूपदे या जब या दंतसचावरे सयमेव णिस्सर असेहि वा णिसिरावेइ, अन्नं वा णिसिरंत समपुजाण, एवं खलु तस्स तप्पत्तिश्रं सात्रकं ति श्रहिज्जइपिहिनिप्रतिमापूजार्थोऽपि वचोऽत्राधिकृत पा सदा पातु जिण "स्पति सूत्र कारः सर्वोऽपि दमो गृहस्थानाममारा गार विषय केच्छाप्रयोज्येच्छाया हेतोरुक्तशेषे संभवान्न न्यूनत्वमिति रामदासादियामरो अदेयम् । एवं सति परिवारदेवं " इत्यादेराधिक्यापत्तेः परिवाराद्यर्थस्यापि तस्वतो गृहार्थत्वादिति यत्किश्चिदेतत् । अथ विवक्षात एव तत्पाठ इत्यत आहया खलु जैनमार्गविहिता हिंसा सा किं प्रसङ्गोद्भवं दोषं निहन्तुं वारयितुं स्फुटं नामानियन स्वात् अपितु स्यादेव मनु प्रतिलोममेतत् सत्यमधिकारे पूजार्थयस्वाधा कर्मिकस्येत्र पाठोपपत्तेरिति चेत् । सत्यम्, तर्हि भगवत्यादावाधार्मिकस्येव तस्य स्फुटं निषेधदित्यमन्यत्र पनि पितस्यैवात्रोपलक्षणसंभवादित्यत्र तात्पर्यात्, तत्वे तदशिक्कि सोपानमात्रम्" तत्थ खलु भगवया परिषदा पश्या-म इस चैव जीवियस परियंदणाणणापभिया स" इत्याचार प्रथमाध्ययने जातिमरणमोचमार्थ प्राणाति पतस्तस्य च कटुतरविपाकोपदर्शनाजिनजादेरपि वदपगमेन वर्थ प्रसिद्धेरा सा निषेधादिति चेत् न पचना रथस्य शेनाप्यसि। तथादिकर्मणि भगवता परिका परिक्षा प्रत्याश्यामं च प्रवेदिता, अथ किमर्थमसौ कटुविपाके कर्माश्रवभूतेषु क्रियाविशेषेषु प्रवर्त्तनेत्याह-" इमस्सेत्यादि " । Page #1261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेय (१९३७) चेश्य अन्निधानराजेन्दः। (१७) अर्थदण्मत्वविचार: शाक्यादयः। " चेन्नाई ति" अईच्चैत्यानि जिनप्रतिमाः, "नअानन्दस्य हि सप्तमाङ्गवचसा हित्वा परिव्राट्वर सत्य अरहतहि व त्ति " न कल्पते, इह योऽयं नेति प्रतिषेधः, सोऽन्यत्रादिभ्यः, अर्हतो वर्जयित्वेत्यर्थः। न हि किल परिवाआघस्य प्रथितोपपातिकगिरा चैत्यान्तरोपासनाम् । जकवेषधारकोऽतोऽन्ययधिकदेवतावन्दनादिनिषेधोऽईतामपि अर्हचैत्यनतिं विशिष्य विहितां श्रुत्वा न यो धुर्मति, बन्दनादिनिषेधो मा नूदितिकृत्वा " नन्नत्थ" इत्यधीतम्, इति । स्वान्तान्मुञ्चति नाश्रितप्रियतया कर्माणि मुश्चान्त तम्॥६॥ अाईच्चैत्येऽम्बडस्य "कएउ एव विहिता" इति न्यायाधनभि शस्यापि सुझानम् । श्यं च सम्यक्त्वालापक पवाहच्चैत्यानां (श्रामन्दामिति) हि निश्चितम, अामन्दस्य आनन्दधमणोपास वन्दननमस्करणयोविहितत्वात्पूजाद्यप्यधिकारिणां सिकामिति कस्थ, सप्तमाङ्गवचसा उपासकदशाङ्गवचनेन, तथा परिवाट सिकान्ते स्फुटमईचत्यपूजाविधानं न पश्यामः। सम्यक्त्वपराबरः प्रधानोयः श्राफः अम्बद्धः श्रमणापासका,तस्य, प्रथिता प्र. माध्ययने स्फुटं फलानभिधानादिति बुम्पकमतं निरस्तमान सिवानीपपातिकगिरीपपातिकोपागवाक,तया,चैत्यान्तरोपास पश्याम इत्यस्य स्वापराधत्वात्। न ह्ययं स्थाणोरपराधः, पदेननाम-प्रम्यतीर्थिकचैत्यतत्परिगृहीतार्थ चैत्योपासना, हित्वा स्य मन्धान पश्यतीति । सम्यक्त्वालापक एव सूक्ष्मदृष्टया दर्शना. क्त्वा, स्थितस्येति शेषः, “मत्प्रसूतिमनाराध्य" इत्यनेध, अन्यथा सम्यक्त्वपराक्रमाध्ययनेपि गुरुसाधर्मिकदाश्रूषाफलाभिधानिनकर्तृकक्त्वाप्रत्ययानुपपत्तेः। अथवाऽन्तर्भूतण्यर्थत्वादू हित्वेत्यस्य हापयित्वेत्यर्थः। एवं झभिमतानभिमतविधानहापनयोरे नेनैव पूजाफलाभिधानादिति भावनाय सूरिभिः ॥६३ ॥ ककर्तृत्वेमक्त्वाप्रत्ययानुपपत्तिः अर्हचैत्यानामहत्प्रतिमानां,नति सुवर्णगुलिका । श्राह चविशिष्म नामग्राहंविहितां कर्तव्यत्वेनोक्तां श्रुत्वा यो ऽमंतिं प्रति. प्रश्नव्याकरणे सुवर्णगुलिकासंबन्धनिर्धारणे, माऽनाराध्यति दुष्टमति नत्यजति, तम, प्राधितस्यातिप्रियतमा- शस्ते कर्मणि दिग्द्वयग्रहरहाख्यातौ तृतीयाङ्गतः। उत्यतानीष्टतया, श्वेत्यस्य गम्यमानत्वादुपमोत्प्रेके । आश्रिताः सम्यग्नावितचैत्यसाविकमपि स्वालोचनाझाश्रुतौ, प्रिया वस्य तत्तयेतिन्याख्याने गुणप्रिय इत्यादाविव विशेषणपरनिपातः। कर्माणि ज्ञानावरणीयादीनि न मुञ्चन्ति । तत्र सप्तमा सूत्राच व्यवहारतो भवति नः प्रीतिर्जिनेन्द्रे स्थिरा ॥६॥ कालापको यथा-"तते णं से आणंदे गाहावती समणस्स प्रश्नव्याकरणे सुवर्णगुत्रिकायाः संबन्धनिर्धारणे सत्यजगवो महावीरस्स अंतिए पंचागुवयस्स सत्त सिक्खावयं संबद्धस्याननिधेयत्वात्संबन्धानिधानस्यावश्यकत्वे वृत्तिस्थजुवालसविदं गिहिधम्मं पमिवजइ,समणं भगवं महावीरं वंदर, स्य तस्य सौत्रत्वादिति भावः । तथा तृतीयाङ्गतः स्थानाणमंसद, णमंसइत्ता एवं वदासी-नो खलु मे ते! कप्पर अज- ङ्गगतः, शस्ते प्रशस्ते कर्मणि दिग्दयस्य पूर्वोत्तरदिग्पप्पभिए अमनस्थिया वा अमा उत्थियदेवयाणि वा अपत्थियप. स्य, यो ग्रहः पुरस्कारः, तस्य यो रहाख्यातिस्तात्पर्यप्रतिरिग्गहिया वा अरिहंतचेइया वंदित्तए वा गमंसित्तए वा"। पात्तिः, तस्यां च पुनः; व्यवहारतः सूत्रात्सम्यग्जावितान्यप्रति०। ('सम्मस' शब्दे तद्ग्रहणप्रस्तावे व्याख्या)('आणंद' यतनारूपवर्जनया सद्भावं प्रापितानि यानि चैत्यानि तानि शब्दे द्वितीयभागे १०६ पृछे सूत्रमुक्तम) अत्राम्ययिकपरिगृही. साकीणि यत्र यस्यां क्रियायां, तथा स्वालोचना सुष्ठ समीतचैत्यनिषेधे मिश्रितार्हचैत्यवन्दनादिविधिः स्फुट एवान चात्र चीना याऽऽलोचना, तस्याः श्रुतौ विधिश्रवणे सति, नः चैत्यशब्दार्थ ज्ञानं मूोक्तं घटते। अईदज्ञानस्यान्यतीर्थिकपरिगृ- अस्माकं, प्रीतिर्जिनन्छे स्थापनाजिने स्थिराऽप्रतिपातिनी हीतत्वानुपपत्तो, नापि साधुः, श्रुतवत् तस्यान्यपरिगृहीतत्वा- | जवति, स्थापनाजिनस्य जिनेन्द्रत्वं भावजिनवत्सद्यःसमुपाससिद्धः। सिकौ वा स्वतार्थिक एव सः। अन्यागमस्याप्यन्यपरि- नाफलदानसमर्थतयाऽव्यभिचारणाध्यात्मिकभावाकेपकत्वादप्रहेणैव व्यवस्थिते भृशं स दुर्बुद्धिपरिग्रहाश्च बमः । "तदन्या वसेयम् । तत्र तुर्याश्रवद्वारि-" सुवन्नगुलिआए ति " प्रती. गममप्रमाणम्" इति वचनाद । अथ-"अमउत्थिया वा"श्त्या केवृत्तिा-यथा सुवर्णगुत्रिकायाः कृते संग्रामोऽतृत्। तथाहि-सिन्धुदिपदत्रयमेकार्थमेव "सपणं वा माहणं वा" इति पदद्वयवत् ।। सौवीरषु जनपदेषु विदर्जकनगरे उदायनस्य राक्षः प्रभाव. अन्यथा "तेसिं असरपंच" इत्याद्यनुपपत्तेः। तत्पदस्थाव्यव. त्या देव्याः सकाशे देवदत्तानिधानां दास्यतृत् । सा च देवहितपूर्वोक्तपदार्थपरामर्शकत्वात् चैत्यानामेव वाच्यव्यवहितपू- निर्मितां गोशीर्षचन्दनमयीं श्रीमन्महावीरप्रतिमां राजमन्दिराधीक्तत्वासेषां दानाद्यप्रसनेम तनिषेधानुपपत्तेरिति चेतान। - न्तर्वर्तिचैत्वजवनव्यवस्थितां प्रतिचरति स्म, तद्वन्दनार्थ च श्रा. शक्तानां त्रयाणां नत्यादेरवश्यनिषेध्यत्वात्पदत्रयस्यैकार्थताया वकः कोऽपि देशात संचरन् समायातः, तत्र चागतोऽसौरोगेवक्तुमशक्यत्वात, तेन तदा यावयुक्तपरामर्शस्यैव युक्तत्वाञ्च णाऽपटुशरीरो जातः,तया च सम्यक् प्रतिचरितः। तुष्टेन च तेन वस्तुतोऽव्यवहितप्राकालीनशाब्दबोधानुकूलव्यापारविषयत्वं सर्वकामिकमाराधितदेवतावितीर्णगुलिकाशतमदायि । तथाऽनवाच्यम् । तथा च-पूर्वमनालपितेनेत्यत्रान्यताधिकरित्यध्याहार- या कुम्जा विरूपा,सुरूपा जयासमिति मनसि विभाव्य एका गुटिस्यावश्यकत्वात तेषामिति तत्पदेन त्वव्यवहितपूर्वोक्तान्यतीर्थिक- का भक्किता, तत्प्रभावात् सा सुवर्णवर्णी जातेति सुवर्णगुलिका परामर्श युक्त इति मदुत्प्रेक्षां प्रमाणयन्तु प्रामाणिकाः। औपपा- नाना प्रसिकिमुपगताततोऽसौचिन्तितवती-जाता मे रूपसंपद्, तिकासापको यथा-"अम्ममस्स णं णो कप्प अमउथिए वा पतया च किं भर्तृविहीनया,तत्र तावदयं राजा पितृतुल्यो न का एतया चाक भतावहानयात अमाउत्थियदेवयाणि वा अमाउत्थियपरिम्माहिआणि य अरिहंत- मयितव्यः, शेषस्तु पुरुषमात्रमतः किंतैः?,तत उज्जयिन्याः पति चेहभाणि वा वंदित्तए वा णमंसित्तए वाजाच पाजवासित्ता चाडप्रद्योतराजं मनस्याधाय गुटिका भविता, ततोऽसी देघववाणपत्थ अरिदंतेहि वा अरिहंतचेइअाणि वा वंदित्तिए।"तदव- चनात्तां विज्ञाय तदानयनाय हस्तिरत्नमारुह्य तत्रायातः । मा. त्तियथा-"अम्म उत्थिर ति"मन्ययधिका पाहतसमयापेकया कारिता च तेन सा,तयोक्तम्-श्रागच्छामि यदि प्रतिमांनयास,ते. Page #1262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेश्य चेय (१९३०) अभिधानराजन्द्रः। नोक्तम्-तामहं श्वो नेष्यामि । ततोऽसौ वनगरी गत्वा तद्रूपां) “सम्म भाविआई " इति विशेषणेनैव देवतानां चैत्यानांच प्रतिमां कारपित्वा रचित्वा तामादाय तत्रैव रात्रावायातः, स्व. “अहं च भोयरायस्स" इत्यत्र 'पुच्याम'श्चातपात विशेषणव्या. कीमप्रतिमां देवतानिर्मितप्रतिमास्थाने विमुच्य तां सुवर्णगुलिकां | नुरोधेनावृत्तिं कृत्वा व्याख्येयम् । सम्यग्जावितप्रतिमापुरस्का गृहीत्वाऽऽगतः । प्रजाते च चामप्रद्योतगन्धहस्तिविमुक्तम्- रश्च मनःशुर्विशेषायैव दिग्द्वयपरिग्रह श्वेति न्यायोपेतअपुरीषगन्धेन विमदान सहस्तिनो विज्ञाय कातचएमप्रद्योता- | मेव । याव्यते कुमतिभिः सम्यम्भावितपदेनाविरतसम्यग्दृष्टेरेव गमोऽवगतप्रतिमासुवर्णगुखिकानयमोऽसावुदायमराजः परं को। पारिशेष्येण ग्रहान्न प्रतिमास्पर्श इति। तदस्पृश्यास्पर्शस्य नूपपमुपपतो दशभिर्मदाबलः राजभिः सहोज्जयिनी प्रति प्रस्थितः। णत्वान्न दूषणम, आलोचनादानार्हस्य गीतार्थे संनवेऽध्यात्मशुअन्तरा पिपासावाधितसैन्यखिपुष्करकरणेन देवतया नि- कये प्रतिमाश्रयणस्यैव शास्त्रार्थत्वात् । अर्हत्सिरूपुरस्कारस्य स्तारितसैन्योऽक्षेपेणोजयिन्या बहिः प्राप्तः, रथारूढच धनुर्वे- कथमिदमुत्सर्गतामवलम्बतामिति चेत्, सद्भावाभ्यामत्रापि दकुशलतया सन्नरूहस्तिरत्नारुढं चएकप्रद्योतं प्रजिहीर्थे । विशेषविजावय। एतेन पर्यन्तोक्तत्वाजघन्यं प्रतिमाश्रयणमित्या मएडल्खा भ्रमन्तं चरणतलशरव्यथितहस्तिनो वि निपातनेन पि उर्वचनं निरस्तम्, ततोऽप्यग्रेऽईसिद्धपुरस्कारस्योक्तेरिति वशीकृतवान् दासीपतिरिति समारप? मयरपिच्छेनाङ्कितबा-1 किमिति पवितेन ॥ ६ ॥ निति । प्रति। प्रभ० ४ आश्रद्वार। दिग्ध्योर्निग्रहे स्थाना- (१७) बौपद्यधिकारः। प्रतिमापूजायां द्रौपदीभकासार्थझालापको द्वितीयस्थाने प्रथमोद्देशके यथा-"दो दिसाम्रो अभि. वाहीसिकाराजानामुदाहरणानिगिझकप्पह शिगंधाण वाणिगंथीण वापब्वाविसप पाणं तीर्थेशप्रतिमार्चनं कृतवती सूर्याजवनक्तितो, चेव नदीणं चेव एवं मुंमावित्सप सिक्वावितए बवझावित्तए स जित्तए संवसित्तए सज्झाचं उदिसित्तए सज्जावं पदिसि. यत् कृष्णा परदर्पमाथि सुदिदं षष्ठाङ्गविस्फूर्जितम् । तए सज्झायं अणुजाषित्तए पालोत्तए पमिकमित्तए णिदित्त- सच्चके खप्नु या न नारदमृर्षि मत्वाऽवतासंयतं, ए गरदित्त विउवित्तए बिमोहितप अकरणयाए अनुट्टि मृढानामुपजायते कथमसौ न श्राविकेति भ्रमः ॥६॥ तए अहारिदं पायच्चित्तं तवोकम्मं पमिवजितप,दो दिसामोअ. कृष्णा गौपदी,सूर्याजवत् राजप्रश्नीयोपानाभिहितव्यतिकरसूनिगिज्झ कप्पणिग्गंथाण वाणिग्गंथील वा अपच्छिममारणं र्याजदेवत्, भक्तितो नक्त्या, तीर्यशानां भगवतां,प्रतिमार्चनं प्र. तियसलेहणाफूसणाझसिधाणं भत्तपाणपडिसाइक्खियाणं पा तिमापूजन,कृतवती,तदिदं तदेवतदर्थानिधायकम्,न परं,षष्ठात. भोवरायाणं कावं अणवस्त्रमाणाणं विहरित्तए तंपाईणं चेव उदीणं चेव सि" प्रतिस्थापत्राहि दिग्द्वयाभिमुखीकरणमई स्व ज्ञाताधर्मकथाध्ययनाङ्गस्य, बिस्फूर्जितं सम्यम्याख्यान विलसितं,परेषां कुवादिनां,दर्पमहङ्कारं मनातीत्येवंशीलम,तेहि बैत्यानां नुग्नाभिमुखीकरणायैवेति तद्विनयसर्वकर्मपूर्वाङ्गत्वाद् बदन्ति-पञ्चमगुणस्थानवृत्त्या पूजा कृतेति सूत्रे कुत्राऽपि व्यक्तागृहस्थस्याधिकारिणो लोकोपचारतविनयात्मकपूजायाः प्रधा करं नोपलभ्यते, गते प्रसिके षष्टाङ्ग एव च तदक्करोपलब्धेमवस्तूचितमेवेति तात्पर्यमा प्रतिका उक्तंच-"पुवानिमुहोठिया, रिति कथं नोत्तानहशो दर्पप्रतिघातः। ननु बौपद्याऽईप्रतिमापू. दिजा अहवा पमिच्चिजा।जाप जिणादो बा, जिणिदवरचेइयाई वा" ॥१॥ प्रति० । व्यवहारालापको यथा आलोचनास्त्रे जा कृतेति षष्ठाङ्गेऽभिहितमिति वयमपि नापलमः, तस्याः पञ्च"जत्थेव समं नावियाई पासेजा जाव पडिक्कमिज्जा, खो चेव मगुणस्थानं नास्तीत्येवं तु बम इति चेत्,अत्राह-यातं नारदमृषि सम्म नावियाई वहिमा गामस्स० जाव सन्निवेसस्स पाई. व्रतासंयतं मत्वा न सच्चक्रे न सत्कृतवती, असौ श्राविका नेति णाभिमुहे वा उदाणाभिमुहे वा करयलपरिम्गाहियं सिरसाव- भ्रमः कथमुपजायते ?, न युक्तोऽयं भ्रमः । एवमापद्याचाम्सासं मत्थए अंजा कट्ट एवं वदिज्जा-पवइया मे अवराहा एव. न्तरितषष्ठादिकरणमपि श्राविकात्वमेधार्थापयतीति द्रष्टव्यम् । इक्खुत्तो अहं अवरो अरहंताण सिद्धाणं अंतिए आलोइ अत्रालापका ज्ञातावृत्तौ-" तए णं सा दोबई रायवरकन्नगा ज्जा पमिक्कमेज्जा निदिज्जा पायचित्तं पडिवज्जिज्ज सि जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छद, उपागच्छश्ता मज्जणवेमि।" प्रति०। अथाऽग्रेतनस्याप्यभावे यत्रैव सम्यग्भावितानि घरं अणुपविसर, अणुपविसश्त्ता राहाया कयवलिकम्मा जिनवचनवासितान्तःकरणानि दैवतानि पश्यति, तत्र गत्वा कयकोउयमंमलपायच्छित्ता सुरुप्पावेसाई मंगलाई वत्थाई तेषामन्तिके वालोचयेत् , देवतानि हि भृगुकाछगुणशिलादौ पवरपरिहिया मज्जणघराओ पडिनिक्खमा, पमिनिक्समहत्ता भगवत्समबतरे एकशो विधीयमानानि शोधिकरणानि दृष्टा जेणेब जिणघरे तेणेव उवागच्छद, उवागच्छश्त्ता जिणघरं विशोधिदानसमर्थानि जवन्ति,महाविदेहेषु गत्वा तीर्यपुरानापृ अणुपविस, जिणपडिमाणं आलोए पणामं करे, करेहता च्छच वाचाऽष्टमेनाकम्प्य पुरत पालोचयेत्। तासामपि देवता- वंदर, नमस, नमसइत्ता लोमहत्थेणं परामुसति, परामुसश्त्ता नामभावेऽहत्प्रतिमानां पुरतः स्वप्रापितदानपरिक्षाकुशलमा एवं जहा सूरियानो जिणपडिमाश्रो अच्चेति तहेव भाणिलोचयति,ततः स्वयमेव प्रतिपद्यते प्रायश्चित्तम, तासामप्यभा. यब्वं० जाप धूवं महति, महतिसा वामं जाणुं अंचेह, दाहिणं वे ग्रामादेवहिः प्राचीनादिदिगभिमुखः, करतलान्यां परिगृहीतं जाणु धरणितलंसि साहट्ट तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि तथा शिरसाऽऽवों यस्य तम । अनुक्समासः । अञ्जलि निस, निवेसेहत्ता ईसि पच्चुन्नमय, करयन जाव कट्ट एवं कृत्या एवं वदेत्-पतावन्तो मेऽपराधाः, पतावत् कृत्वाऽहमपरा वयासी-जमोऽत्थु णं अरिहंताणं जगवंताणं० जाव संपत्ताणं खः। एवमहतां सिमानामान्तिके पाखोचपेत् । प्रायश्चित्तदान चंदर, णमंसद, नमसश्ता जिणघराश्रो पडिनिक्खम, जेणेव विधि विद्वानालोच्य च स्वयमेव प्रतिपद्यते प्रायश्चित्तं, सच अंतेउरे तेणेव उवागच्चर"। झा० १६ अ० । अत्र यावत्कतथा प्रतिपद्यमानः शुरू एव, सूत्रोक्तविधिना प्रवृत्तेः। यदपिच रणात् अर्थतो दृश्य, लोमहस्तकेन जिनप्रतिमाः प्रमार्टि, सुविराधितं तत्रापि गुरुः प्रायश्चित्तप्रतिपत्तेरिति । अत्र रभिगन्धोदकेन स्नपयति, गोशीपचन्दनेनानुलिम्पति, वखा Page #1263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेश्य (१२४०) चेश्य अभिधानराजेन्द्रः। णि निवासयति, ततः पुष्पाणां माल्यानां, प्रथितानामित्यर्थः। हिययदए संयवर कबहयुद्धकोलाहलाप्पए जमणागन्धनां चूर्णानां वस्त्राणामानरपानां चारोपणं करोति स्म। मा-| निवासी बहुसुयसमसुयसंपराए सुदसणए समंतो कलहं लाकलापावलम्बनं पुष्पप्रकरंतन्दुलैदर्पणाद्यष्टमङ्गलकाले रचनं सदक्खिणं अणुगवेसमाणे असमाहिकरे दसावरवीरपु.करोति । (वामं जाणुं मंचेशत्ति) उरिक्षपतीत्यर्थः (दाहिणं जाएं। रिसतेल्लुकबलवग्गणं आमतेऊणं तं भगवतिं पक्कमाणि धरणितलंसि निहटु) निहत्य, स्थापयित्वेत्यर्थः। (तिक्वुत्तो मु- गयणगमणहत्थं सप्पश्ो गगणतलमहिलंघयंतो गामागरनकाणं धरणितणसि णिवेसेड त्ति) निवेशयतीत्यर्थः । ( इसिं गरखेमकब्वम्मडवदोणमुहपट्टणसंवाहसहस्समंमियं थिमिपच्चुन्नमति २ करतलपरिग्गहियं अंजनि मत्थर कटु एवं व- यमेदणीतलं सुदं ओस्रोयंतो रम्म दस्थिणारं नयरं उवागए यासी-नमोऽन्थु णं अरिहंताणं• जाव संपत्ताणं बंदति, णमंसति, पंमुरायभवणंसि अश्वेगेणं समोवया, तए णं से पंमुराया कणमंसितित्ता पमिनिक्खमात्ति) तत्र वन्दते चैत्यवन्दनविधिना | रुबुल्सनारयं पजमाणं पास, पासात्तापंचहि पंडवेहिं कुंतीए प्रसिन, नमस्यति पश्चात्प्रणिधानयोगेनेति वृक्षाः, नच द्रौपद्याः देवीए सभासणाश्रो अनुछेद, कच्छल्लनारयं सत्तापया प्रणिपातएदमकमात्रं चैत्यवन्दनमभिहितं सूत्रे इति सूत्रमात्रप्रामा- पच्चुग्गच्छा, पञ्चुगच्छाता तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयादिणं एयादन्यस्यापि श्रावकादेस्तावदेतदमन्तव्यमाअन्यथा सूर्याजादि- करेति, करेसावंदर, लमंसद, णमसत्तामहरिदेणं मासणेणं देववक्तव्यतायां बहूनां शस्त्रादिवस्तूनामर्चनं श्रूयते इति, तदपि उवनिमंतेइ । ततेणं से कच्छचनारए उदगपरिचरफासियाए विधेयं स्यात,किश्चाविरतानां प्रणिपातदएकमात्रमपिचैत्यचन्दनं दभोवरिए वत्थमाए भिसिमाए निसीयइ, निसीयइत्ता मुराय संजाव्यते, यतो वन्दते नमस्यतीति पददस्य वृद्धान्तरव्याख्यान-| रज्जे प्र० जाब अंतेउरे यकुसलोदंतं पुच्चति । तते णं से मेवमुपदर्शितं जीवाजिगमवृतिकृता-अविरतिमतामेव प्रसिद्ध पंडराया कुंती देवी पंच पंडवा कचनारयं प्रादंति. त्यवन्दनविधिर्भवति , अन्येषां तथाऽभ्युपगमपुरस्सरं कायो- जाव पज्जुवासंति ; तते णं सा दोवती कच्छुल्लनारयं अस्सं. त्सर्गासिको, ततो बन्दते सामान्येन, नमस्करोति आशषवृके। जयं अविरयअप्पडिहयअपचक्खायपावकम्म त्ति कटु नो रज्युत्थानरूपनमस्कारेणेति। किंच-"समणेण सावपण य, आढाइ० जाव णो पज्जुवासति ति" प्रति । झा। अवस्सकायव्वयं हवइ जम्हा। अंतो महो णिसियस्स य, तम्हा आवस्सयं णाम ॥१॥" तथा "-जंणं समणो वा सम नद्रा सार्थवाहीणी वा सावत्रो वा साविया वा सचित्ते तम्मणे तल्लेसे उन्नो __ "तते णं से भद्दा सत्यवाही धणेणं सत्यवाहेणं अब्भणुष्माकासं आवस्सरण चिटुंति, तं सोयनत्तरियं भावावस्सयं " इ. या समाणी हन्तु० जाव हिययाविउलं श्रमणं पाणं स्वाइ. त्यादिरनुयोगकारवचनात् । तथा सम्यग्दर्शनं संपनः प्रबचन- मं साश्म उवक्त्रमावेश, उवक्खमावेश्त्ता सुबहुपुष्फवत्थगंभक्तिमान् पम्विधावश्यकनिरतः षट्स्थानयुक्तश्च भावको भ. धमलालंकारे गेहति, रसयान गिहाण गच्छद, रायगिह नगरं वतीत्युमास्वातिवाचकवचनात् श्रावकस्य षविधावश्यकस्य मझ मज्झेणं णिगच्छर, णिग्गच्छत्तिा जेणेव पुक्खारणी सिकावावश्यकाऽन्तर्गतं प्रसिकं चैत्यवन्दनं सिद्धमेव भवती तेणेव उबागच्छइ, स्वागच्चश्त्ता पुक्खरिणीप तारेसु बहुपुष्फ. ति वृत्तौ। यच्च "जिणपडिमाणं अच्चणं करे " ति एक- जाव मल्लासंकारं ठवेद, उवहत्ता पुक्खारिणि प्रोग्गहरु, अोम्गस्यां वाचनायामेतावदेव दृश्यते इति वृत्तावेवं प्रागुक्तं, तत्रापि हात्ता जलमज्जणं करेक, करेश्त्ता जलकीम करेक, जलवृद्धाशयात्सम्पूणों विधिरिष्यत एव, जिनप्रतिमार्चनस्य प्रणि- कीमं करोइत्ता पहाया कयवलिकम्मा उल्नुपमिसामिमा धानस्तवेनैव विरतिमतां निर्वाहात् । यदपि " जाव संपत्ताणं नाई तत्थ उप्पलाई० जाव सहस्सपत्ता गिराहा, गिबहात्ता ति"असंपूर्णदएमकदर्शनाश्वास इति प्रतिमाऽरिणोच्यते । तदपि। पुक्वारणीनो पच्चारुहर, पच्चारुहश्त्ता तं पुष्फवस्थगंधमवं स्तम्भतीर्थचिरकाबीनतामपत्रीयपुस्तकसंपूर्णदएमकप्रदर्शनेन गेएहर, गेएहहत्ता जेणेव नागधरए. जाव घेसमणघरप बहुशो निराकृतमस्माभिः । सम्पूर्णचैत्यवन्दनविधौ चापुनर्बन्ध- प तेणेव उवागच्छा, उवायच्वश्त्ता तत्थ णं नागपमिमाण कादयोऽधिकारिणः स्थाणोरालम्बनतदन्ययोगपराति सि- य० जाय वेसमणपडिमाण य ालोए पणामं करो, कत्तिा कमेव । योगग्रन्थे तु श्राविका तु बौपद्यानन्दादिवत्प्रत्याख्याता | पच्चुन्नमा,पच्चुन्नमश्त्ता लोमहत्थगंपरामुसझनागपडिमाओ० अन्यतीर्थिकादिरूपत्वादिव सिद्धा तथाहि शातावृत्ती-“तपणं जाव घेसमणपमिमाओ य लोमहत्थपणं पमज्जइ, सदगधाराप पंच पंमवा दोबईदेवीए सद्धिं कल्लाकल्लिं वारंवारेणं उरालाई जो- अम्भुर, अनुछेहत्ता पम्हनसुयासाए गंधकासाइए गायाई गभोगाइजाव विहरति । तते णं से पंमुराया अप्पयाकया पंच- लूहेश, महरिहं बथारुहणं च गंधारुहणं च वनारुहणं च पंमोहिं कुंतीप देवीप दोवश्प देवीप सहिं अंतेउरपरियालसद्धि करेह, करेश्त्ता धूवं महर, रज्जन्नुपायपडिया एवं बयासी-जर संपरिखुमे सीहासणबरगए यावि विहरतिाइमं चणं कच्चुसनारए णं बह दारगं वा पयमित्तो णं अहं जायं च जाव अणुवढेमि दसणेणं अश्नहए विणीप अंतोय कनुसहियएमज्जत्योवथिए | त्ति कए ओवाश्यं करेइ, जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, प्रवीणसोमपियदसणे सुरुवे अमावसगलपरिहिए कालमिय-1 | विउल असणं पाणं खाश्मं साश्यं आसाएमाणा० आव चम्म उत्तरासंगश्वत्थे दमकमंगलुहत्ये जमामउडदिससिरप | विहरति । " न चौपद्या जिनप्रतिमार्चनकालवरोपयाजमोवअगले ति अमुंजमेहसवनगलधरे हत्थकयकभीए पि-1 चितं कृतं श्रूयते, प्रत्युत “जिणाण जावयाणं" इत्यादिना अगंधब्वे धरणिगोप्ररप्पहाणे संवरणावरणउवयणुप्पयणिसे- जगवद्गुणप्रणिधानमेव कृतमस्तीति कथं विशेषं न पश्यति सिणीसु य संकामणिप्राभिओर्गपत्तिगमणीर्थभणीसु य सचेताः। इत्थं प्रणिधानेनैव च महापूजा, अन्यथा तु पूजामात्र. बहुसु विज्ञाहरीसु विज्जास्सु विसुयजसे हरे रामस्स य मिति शास्त्रगतार्थः। तदाह-"देवगुणप्रणिधाना-तद्भावानुगतकेसवस्स य पज्जुन्नपश्वसंवअनिरुद्धनिसढउस्सुपसारण- मुत्तमं विधिना । स्यादादरादियुक्तं, पत्तहेवार्चनं चेष्टम् "॥१॥ गयसुमुहदुम्मुहाईणं जायवाणं अट्ठाण य कुमारकोमीण इति। प्रति० । आचा० । कल्प० । Page #1264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेश्य (१२४१) अभिधानराजेन्दः। (सिद्धार्थराजस्य) श्राह च माचार्यादीनां युगप्रधानानाम् ,तथाऽतिशविनामृकिमतां केव. एतेनैव समर्थिताऽज्युदयिकी धा च कल्पोदिता, निमनःपर्यायावधिमचतुदर्शपूर्वविदा,तथाऽमर्षीप्रत्यादिमाप्त सनां, यदभिमुखगमनं, गत्वा च नमन, नत्वा च दर्शनं, तथा श्रीसिकार्थनृपस्य यागकरणमौडिदशाहोत्सवे ।। गुणोत्कीर्तन,संपूजनं गन्धादिना, स्तोत्रः स्तवनमित्यादिका दर्श. श्राफःखल्लयमादिमाङ्गविदितो यागं जिनार्चा विना, नभाषना, तया हि दर्शनभावनया दर्शनाद्धिर्भवतीति ॥१॥ कुर्यानान्यमुदाहृता व्रतभृतां त्याज्या कुशास्त्रस्थितिः॥६६॥ किं च-"जम्मानिसेयगाहा" "अहावयगाहा " तीर्थकृतां ज. (पतेनेति) पतेनैव कौपदीचरितसमर्थनेनैव, प्राभ्युदय न्मभिषेकनूमिषु तथा निष्क्रमणचरणशानोत्पत्तिनिर्वाणभूमिकी अभ्युदयनिवृत्ता, धा च धर्मादनपेता च, कल्पोदिता पु, तथा देवलोकभवनेषु मन्दरेषु मन्दीश्वरद्विपादौ भौमेषु पा. कल्पसूत्रप्रोक्ता, श्रीसिकार्थनृपस्य श्रीसिकानाम्नो राको तालनवनेषु यानि शाश्वतानि चैत्यानि तानि वन्देऽहमिति भगवत्पितुः, दशाहोत्सवे दशदिवसमहे, यागकरणस्य प्रौ. द्वितीयगाधान्ते क्रिया । इत्येवमापदे, तथा श्रीमदुज्जयस्त. ढिः मौढता समर्थिता अपपादिता । न च यागशब्दार्थोऽन्यः गिरी, गजाप्रपदे दशार्णफूटवतिनि,तथा तकशिलायां धर्मचक्रे, तथा हिच्छत्रायां श्रीपार्श्वनाथस्य धरणीन्द्रमहिमास्थाने, एवं स्यादिति ततमाह-खसु निश्चितं, अयं सिद्धार्थराज प्रादिमाअविदितः प्राचारानसिकः, भाकः श्रीपार्श्वपत्यीयश्रम रथावर्तप्रवर्तने वैरस्वामिना यत्र पादपोपगमनं कृतम, यत्र च णोपासकः, जिनाची विनाऽन्य लोकप्रसिकं याग, न कुर्यात् । श्रीवर्षमानस्वामिनमाश्रित्य चमरन्द्रेणोत्पतनं कृतम् । पतेषु यतः व्रतभृतां कुशालस्थितिस्त्याज्या। अन्यश्च यागः कुशास्त्रीयः। यथासंजषमभिगमनधन्दनपूजनोत्कीर्तनादिकाः क्रियाः कुर्वतो दर्शनयुधिर्भवतीति । कल्पसूत्रपामे यथा-" तप णं सिकत्ये राया साहियाए विश्वडियाए पषटमाणीप सहए म साहस्सिए 4 सयसाह तयास्सिए अ..."संभेमाणे य पमिच्छमाणे य पमिच्छावेमाणे य "अरिहंतसिद्धचेश्य-गुरुसुअधम्मे य साहुबग्गे य । एवं च णं विहर।" व्याख्या-(दसाहिए त्ति) दशाहिकायां मायरिऍ उपग्झाए, पवयणए सव्वसंघे य॥१॥ दशदिवसमानायां, स्थिती कुलमर्यादायां, पतितायां गतायां, पु. पएसु नत्तिजुत्ता, पूअंता अहारिहं मणुपमणा। अजन्मोत्सवप्रक्रियायां तस्यां प्रवर्त्तमानायां, शतिकान् शतप सासणमणूसरंता, परित्त-संसारिआ अणिमा" ॥२॥ द० प०॥ रिमाणान् साहनिकान् सहस्रप्रमाणान् शतसाहनिकान् ल इति मरणसमाधिप्रकीर्णके, तथा भावनमस्कारं प्रतिपाद्यमा नो दर्शनमोहनीयादिक्कयोपशमेन अर्हत, अत्यतिमा, अर्हन्तः, क्षप्रमाणान् यागात् देवपूजाः दानान्पर्वदिवसादी दानादीन भागान् ददत दापयन् लाजयन् प्रतीच्छन् गृहन् प्रतिग्राहयन् साईत्प्रतिमा, साधुरहतप्रतिमा चेति युगद्वयम, साधुर्जिनविहरबस्ति । एवं थीसिद्धार्थटपेण परमश्राद्धेन देवपूजा कता प्रतिमाश्च, साधवो जिनप्रतिमा च, साधधो जिनप्रतिमाश्च, चेदन्येषां कथं न कर्तव्या? । तस्य श्रमणोपासकत्वे भाचारा श्त्यष्टस्वपि भनेषु लज्यते । उक्तम्-" नाणावराणज्जस्स उ, दंसणमोहस्स तह खोबसमे । जीवमजीवे असु, लापश्चायम्-" समणस्स भगवो महावीरस्स अम्मापियरो पासावज्जिज्जा समणोवासया भावि हुत्या । तेणं बहुई भंगेसु अहोर सम्बस्स" ॥१॥ इति गाथया नमस्कारनि युक्तौ-"तित्थयरा जिणचउदस, सविमा घामसंविम्मा । बासाई समणोवासगपारेभाई पालइत्ता छराइं जीवनिका सारूवियवयदंण-पडिमाओ प्रावगामा उ" ॥१॥ इति कयाणं सरखणनिमित्तं पालोश्ता णिदित्ता गरहित्ता प्रहा. रिहं उत्तरगुणपायचित्तं पमिवज्जिचा कुससंथारं पुरूहि. ल्पनाध्येण च, जिनप्रतिमादर्शनाद्यन्नावऽपि केषाश्चित्सम्य. ता भसं पञ्चक्खाइति, पञ्चक्खाइत्ता अपच्छिमाए मार क्यलाभदर्शनायभिचार इति नाशश्नीयम,चित्रभव्यत्वपरिपागंतियार सरीरसंलेहणाए झुसियसरीरा काले मासे कालं कयोग्यतया प्रतिनव्वं सम्यक्त्वहेतूनां वैचित्र्यात, तथात्वे कस्य किया तं सरीरं विपजहेत्ता अच्चुए कप्पे देवत्ताए उव चित तीर्थकत्,कस्यचिकणधरः,कस्यचित्साधुः,कस्यचिजिनप्रवन्ना । तो गं बाउक्खएणं चश्ता महाविदहेवाखे चरि तिमादिकमित्येवं वैचित्र्यात् स्वजनभव्यत्वपरिपाकद्वारेण व्य. मेणं सासणं सिभिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, सव्वदुक्खा भिचाराजावात्। अन्यथा तीर्थकृतोऽपि सम्यक्त्वहेतवो न भवे. मंतं करिस्संति"त्ति । यथा च सिकार्यराजव्यतिकर या युः, तीर्थकरमन्तरेणापि गौतमादिबोधितानां बहूनां सम्यक्त्व. गशब्देन पूजा कृतेति समर्थितं, तथा महाबलादिव्यतिकरेऽपिह लाभप्रतीतेरन्वयव्यतिरेकसिवायमर्थः। अत एव सम्यपि परिग्रहीताः सम्यम्भाविता अपि रष्टा नव्यजीवस्याकुमाराश्यम्।पिच-शाश्वताशाश्वततीर्थान्याचार्यादीच प्रत्यभिगमन देरिव सम्यग्दर्शनाद्युदयमानमुपलज्यते। ततः "कारण कार्योपसम्पूजनादिना सम्यक्त्वनैमल्यं स्यादित्युक्तमाचारनियुक्ती । चारः" इति हत्या ता अपि नाचनामा भयम्ले शति,तथा पहाव. तथाहि श्यकान्तर्गतश्रावकप्रतिक्रमणसूत्रे साकादेव चैत्याराथनमु"तित्थयराण भगवउ-पवयणपावणिप्रश्सयट्ठीणं । कम्-" जावंति चेश्याई, उ अ अहे अतिरियसोए श्रासअहिगमणनमणदरिसण-कित्तणसंपूअणत्पुणणा ॥१॥ ब्वाई ताई चंदे, संतो तत्थ संताई" ॥४४॥ इति चतुश्चत्वारिजम्माभिसेयनिक्लम-णचरणनाणुप्पयाणनिब्वाणे । शत्तमगाथया। एतच्चूर्णियथा-" एवं चावासाए जिणाणं चं. दियनोमनवणमंदर-नंदीसरभोमनगरेसु ॥२॥ दणं काउं संपह सम्मत्तविसुरिणिमित्तं तिलोधगयाणं सासअट्ठावयमुज्जिते-गयग्गपयधम्मचक्के य । यासासयाणं वंदणं नमाइ-( जावंति )" ॥प्रति०। पासरहावत्तं चिय, चमरुप्पायं च वंदामि ॥ ३॥" (१६) गर्व लोकादिषु जिनप्रतिमास्थिति:वृत्तियथा-दर्शननावनार्थमाह-तित्थयरगाहा। तीर्थकृतां भगवः "श्त्य लोया तिविहो-उलोगो, अहोरोओ, तिरियलोश्रो वां,प्रवचनस्य द्वादशाङ्गस्य गणिपिटकस्य, तथा प्रावचनिकाना- अ। तत्य योगो सोहम्मीसाणाश्या दुवालसदेवलोगा; Page #1265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १२४२) अभिधानराजेन्दः । चेइय चेय हिछिमात्रा नबगेविजा विजयाईणि पंचाणुत्तरमाईणि । हियक्खपडिसेयाई कणगामया पाया कणगामया गोफा एपसु विमाणाणि पत्तेय कणगामईओ जंघाओ कणगामया जाण कणगामया करू "वत्तीसट्टावीसा, वारस चउरो य सयसहस्सा। कणगामईश्रो गायलट्ठीओ तवाणिज्जमईओ नाभीयो रि. पारेण बंजनोगा, विमाणसंखा नवे एसा ॥ पंचासचत्तछचे-व सहस्सा बंतसुक्कसहसारे । हमईयो रोमराजीओ तवणिजमया चूचुआ तवणिजमया सयचउरो आणयपा-णपसु तिन्नारगच्चुयए ।। सिरिवच्छा कणगामईयो गीवाओ कणगामईओ वाहासक्कारसत्तरं हि-हिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए । ओरिद्वामए मंसू सिलप्पवानमया ओट्ठा फलिहमया दंता सयमेयं वरिमप, पंचेच य अणुत्तरविमाणा ॥ तवाणिज्जमईश्रो जीहाओ तवणिज्जमया तालुश्रा कणगमईसवांगचुलसिसयसह-ससत्तएनई भवे सहस्साई। तेवीसं च विमाणा, विमाणसंखा नवे पसा" ॥ ओ नासाो अंतो लोहियक्खपमिसे याओ अंकामयाई अतदा प्रदोलोए मेरुस्स उत्तरदाहिणश्रो असुराश्या दस छीणि अंतोलोहियक्खपरिसेग्राईपुनकम यो दिहीनिकाया । तेसु विभवणसंखा यो रिहामईयो तारगाो रिट्ठामयाई अच्छिपत्ताई रि"सत्तेवय कमीश्रो. हवंति वावत्तरि सयसहस्सं । हामईयो जमुहाओ कणगामया कवोलाकणगामया सवणा जावंति विमाणाई, सिहायतणाइतावति" ॥ कणगामया णिडाला वइरामईओ सीसघमीनो तवणिज. तहा तिरियलोगो, तत्य जिनायतनानि मईओ केसंतकेसनूमीश्रो रिट्टापया उवरि मुद्धया, तासिणं "नंदिसरे वावन्ना, जिपहरा सुरगिरीसु तह असीई। कुंभलनगमणुपुत्तर-रूअगवनपसु चस चउरो॥ जिणपडिमाणं पच्चिओ पत्तेयं पत्तेयं उत्तधारगपमिमाओ नसुयारेसु चत्तारि, असीह वक्खारपव्ययेसु तहा। पत्ताओ,ताओणं उत्तधारपफियाओ हिमरययकुंदंदुप्पगावेब सत्तरिसय, तीसं वासहरसेनेसु ॥ साई कोरिटमवदामा धवलाई आतपत्ताई सलीनं ओहारमावोसं गयदंतेस , इसजिणजवणाइ कुरुनगवरेसुं। एवं च तिरियसोप, अमवमा टुति सयचउरो॥ णीओ ओहारेमाणीओ चिति, तासि णं जिणपमिमा वंतरजोइसिसाणं, असंखसंखा जिनालयाई वा। उनो पासिं पत्तेयं पत्तेयं चामरधारगपमिमाओ पात्ताओ, गामागरनगराई, पपसु कया बहू संति॥ ताओणं चामरधारगपमिमानो चंदप्पहवेरुवियनाणामाणएयं च सासयासा-सया बंदामि चेइआई ति। कणगरयणविमलमहरिहतवाणिज्जुज्जाविचित्तदंमाओ चिइत्थ पर्दसम्मि ठिो , संता सत्य पदेसम्मि " ॥ द्वियायो प्रखंककुंददगरय अमयमहितफेणपुंजर्मनिकासाकति समस्तद्रव्याहद्वन्दनादिवेदकगाथासमासार्थः। श्रो मुटुमरययदीहवालाओ धवलाओ चामराम्रो सनीलं अत्र जिनप्रतिमानां यद् अव्याहत्वमुक्तं, तद्भावाऽईत्परिक्षानहेतु ओहारेमाणीओ २ चिट्ठति । तासि णं जिणपमिमाणं मतामधिकृत्य,अन्यथा तासांस्थापनाजिनत्वात् । कश्चिदाह-पत. त् श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रं न गणधरकृतं, किंतु धावककृतम्। तत्रापि पुरओ दो दो नागपडिमानो जक्खपडिमाओ तू"तस्स धम्मस्स" इत्यादिगाथादशक केनचिदर्वाचीनेन किप्तमि तपमिमामो कुंमधारपमिमाओ विणोणयाश्रो पंजलिपुत्यादि निर्बीजम्, सहसाझातकथने तीर्थकरादीनां महाशातना- मानो (पायवमियाओ) सन्निक्खित्तानो चिट्ठति । सबरप्रसङ्गात् । न हि क्वाप्येतस्सूचकं प्रवचनमुपसभामहे । न चाविच्छि- ययामईओ अच्छाओ साहाओ लएडाओ घट्ठाओ मट्ठाअपरम्परागतवृद्धवचनमीदक केनचित् श्रुतम्,किं तु यस्य सूत्रा ओ नीरयाओ णिपंकाओ० जाव पमिरूवाओ, तासि पं देः कर्तृनाम न शायते, प्रवचने च सर्वसंमतं यत्सत्कर्ता सुधर्मस्वा. म्यवति वृद्धवादः। जणितं तथा विचारामृतसंग्रहेऽपि-"निय. जिणपमिमाणं पुरओ अट्ठमयं घंटाएं अट्ठसयं चंदणकनदब्बे कयासुं,जिणिदभवणविववरपटासु।वियरपसत्यपु साणं अट्ठसयं भिंगारगाणं थालाणं णायंसगाणं पातीणं सु. स्थय-सुतित्थतित्थयरपूजासुं"॥१॥इति । भक्तप्रकीर्णके-"संवच्छ- पटगाणं मणगुलियाणं वायकरगाणं वित्तारयणकरंमगाणं रचाउम्मा-सिपसु अहाहित्रासुअविहीसुं। प्रश्चायरेण लम्गाइ, हयकंगाणं० जाव उसनकंगाणं पुप्फचंगेरीणं० जाव जिणिदपूना तवगुणेम ॥” इत्यादि । किंबहुना-उपदेशमालायाम्-"वाक्येनावगृहीतसंगतनृणांवाच्यार्थवैशिष्टयता, लोमहत्थचंगेरीणं पुप्फपमलगाणं अट्ठसयं तेलसमुग्गाणं सद्बोध प्रतिमाः सृजन्ति तदिमा कयाः प्रमाण स्वतः । जाव धूवकमुच्चुगाणं संनिक्खित्तं चिट्ठति । जी०३ प्रति। तत्तत्कर्मनियोगनृत्परिकरैः सेव्याः परोपस्करै तत्य कने से उवरिमविमिमग्गसाले एत्य णं एगे महं सिरेता पव हि राजलकणनृतो राजन्ति नाकेष्वपि ॥२॥" प्रतिः। कायतणे पहात्ते-कोसं आयामेणं, अछकोसं विक्खंनेणं, तथा च देसणं कोसं नई उच्चत्तेणं आगेगमतसग्निविटे. वमओतत्थ पं देवच्छंदए अट्ठसयं जिएपमिमाणं जिणुस्सेह- तिदिसिं तो दारा पंचधसता अवाजधणुसय पमाणमित्ताणं संनिक्खित्तं चिट्ठति, तासि एंजिणपमि- विकावंजेणं मणिपढिया पंचधणुमतिया देवछंदओ पंचधणुमाणं अयमेयारूवे वरमावासे पन्नत्ते । तं जहा-तवाणि- सतविक्खंभो सातिरेगं पंचधणुसयं न नच्चत्तणं,तत्य जमया हस्थतला पायतला भंकामयाई नखाई अंतो लो- देवच्छंडए अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहप्पमाणाणं एवं Page #1266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घेइय अभिधानराजन्मः। चेश्य सबसिकाययणवत्तव्यया नाणियब्वा० जाव धृवकडुच्छु- अकृताईत्प्रपूजस्य, तस्करस्येव लोचन । याउ ति पागारा सोत्वस विहेहिं स्यणेहिं जवेए तहेव ।। शोचनेनैव संस्पृष्टे, गुप्तपातकशङ्किते ॥४॥" (१० अनुपकारे कथं फलदत्वं प्रतिमाया:(जी० ३ प्रति० ) अष्टशतं ध्वजानामित्यादि । एवंविधराजचिह्नयुक्तोचितव्यापारनियुक्तनागादिप्रतिमासेव्यमानाः च पाप्या नूनमुपक्रिया प्रतिमया नो काऽपि पूजाकृता, नेयादिपूजोपकरणसमन्विताश्च प्रतिमाः शाश्वतभावेन स्वत चैतन्येन विहीनया तत इयं व्यर्थेति मिथ्यामतिः । एवात्मनो जगत्पूज्यत्वं ख्यापयन्ति, अन्यथा तथाविधचिह्नाच- पूजा नावत एव देवमणिवत् सा पूजिता शर्मदेपेतत्वातंत्रयात् । एवंविधव्यतिकरमाकार्याऽपि ये जिनप्रति- स्येतत्तन्मतगर्वपर्वतनिदावजं बुधानां वचः॥ ६८ ॥ मामाराध्यत्वेन नाङ्गीकुर्वते ते क्लिष्कर्मोदयवन्तो मन्तव्याः। न "प्राप्या नूनमुपक्रिया" इत्यादि सर्वमवगतार्थम् । वैवं परिवारोपेताः शाश्वतप्रतिमाः भवन्तीति नान्या इति "एवं युक्त्या शंनोभक्त्या मूत्र व्यक्ता मुम्पाकावाच्यम । मापदाऽौ भरतकारितानामृषभादिधळमानान्ता. चित्तोखिका मायासिक्ताः फ्लप्तारिक्ताः किम्पाकाः । मां चतुर्विशतेरपि जिनप्रतिमानां तथा परिवारोपेतत्वात , जी. एतत्पुण्यं शिरैर्गुण्यं निर्वैगुण्यं मयोधैपानिगमोक्तात् 'परिवारयुक्ताः इति वचनात् । किंव-देवलोका स्तत्त्वं बाध्यं नीत्या शोध्यं नैवायोध्यं निःक्रोधैः ॥१॥ दावपि "जेणेव देवबंदए" इत्यागमाजिनप्रतिमानां त एव आत्माराम शुक्लाश्यामे वृद्विश्रामे विश्रान्ताशाश्वतभावेन देवशब्दवाच्याः सन्ति, न तथाऽन्यतीर्यिकाभि स्त्रट्ययन्धाः श्रेयःसन्धाश्चित्संबन्धादत्रान्ताः। मताब्दवाच्याः, तेषां देवानामतथात्वात्।। अद्भक्ता युक्तौ रक्ता विद्याऽऽसक्ता येऽधीता"देवाधिदेवप्रतिमाः प्रनुत्वं, स्वतः प्रतिष्ठोपममाश्रयन्ति ।। निष्ठा तममुच्चरेषा तर्को खा निर्णीता ॥२॥"प्रतिकाद्वा० षो। शडूगमतिस्थाप्य गतीविशेषोन स्थापनायाः किमु निर्विपक्कः"। (नमस्कारशब्दे फलप्रयोजनोपदर्शनाऽवसरे व्याख्यास्यते) अथ स्तवपरिझया प्रथमदेशनादेशितो, गुरागरिमसारया स्तवविधिः परिष्ट्रयते । अविधिकृतत्वेऽपि तृपोदन्वदनुसारिणो मतमुपन्यस्य दूषयति-- इदं खलु समीहितं सरसदृष्टिवादादितः, वन्द्याऽस्तु प्रतिमा तथापि विधिना सा कारिता मृग्यते, श्रुतेविरतमुत्तमं समयवेदिभिर्मण्यते" ॥ २॥ प्रतिः। स प्रायो विरलस्तथा च सकलं स्यादिन्जालोपमम् । (अत्र स्तवपरिका टीकाकृता दर्शिता,तामहमन्ते दर्शयिष्यामि)। हन्तवं यतिधर्मपौषधमुखभाषक्रियादेविधेसर्वलुम्पकमतमुपसंहरनाह दालभ्येन तदस्ति किं तव न यत् स्यादिन्द्रजात्रोपमम्।६६। इत्येवं शुचिसूत्रन्दविदिता नियुक्तिनाष्यादिनिः, सन्यायेन समर्थिता च नगवन्मूर्तिः प्रमाणं सताम् । ननु प्रतिमा वन्द्याऽस्तु, उक्ताकरशतैस्तथाध्यवस्थितेः, तथापि सा विधिना कारिता मृग्यते, सम्यग्भावितानामेव प्रतिमानां युक्तिस्त्वन्धपरम्पराश्रयहता मा जाघटीदुधिया भावग्रामत्वेनाभिधानात्स विधिः प्रायो विरलः, पेदंयुगीनानां मेतदर्शनवञ्चिता गपि किं शून्येव ननाम्यति ॥१७॥ प्रायोविधिप्रवृत्तत्वस्य प्रत्यकसिद्धत्वात् । तथा च सकतं इत्येवं उक्तरीत्या, शुचिना निहोंपेण, सूत्रवृन्देन विदिता, निर्यु- प्रतिमागतं पूजाप्रतिष्ठावन्दनादिकम्, इन्जालोपमं स्यात,म. क्तिनाप्यादिभिः, प्रादिना चूर्णिवृत्तिसर्वोत्तमप्रकरणपरिग्रहः। हतोऽप्याम्म्बरस्यासत्यालम्बनत्वात् । हन्तेति प्रत्यवधारसन्यायेन सदयुक्त्या च, समर्थिता निष्कलङ्कनिश्चयविषयी. णे । एवं प्रतिमावदेव, यतिधर्मश्चारित्राचारः, पौषधः थाद्धानां कृता, भगवन्मूर्तिः, सतां शिष्टानां प्रमाणमाराध्यत्वादिना, यु. पर्वदिनानुष्ठानं, तन्मुखा तदादिर्या श्राद्धक्रिया, तदादेयों विक्तिस्तु दुष्टबुझीनामन्धपरम्पराऽऽश्रयणीयेत्यज्युपगमरूपा, तया धिः, श्रादिनाऽपुनर्बन्धकाधुचिताचारपरिग्रहः। तस्य, सुषमायां हता सती, मा जाघटीत् मा सुतरां घटिष्ट, युक्तिनिरासपर- कुर्लनत्वेन तत्किमस्ति यच्चन्द्रजालोप न स्यात् ?, न्यायम्परायां युक्तिग्रहणस्यानुपपत्तित्वात् । एतद्दर्शनेन भगवन्मूर्ति स्य समानत्वात् । न चेयं प्रतिवन्दिः,सा च कत्रनुकूलपरिवारदर्शनेन, वञ्चिता दृगपि दृष्टिरपि, किं शून्येव न भ्राम्यति ?, सम्पत्तिराराधनात्ममैव समानसौलभ्यस्य विधक्तितत्वात॥६॥ अपि तु भ्राम्यतीति। तदाह“तिलकयुतललाटभ्राजमानाः स्वनाग्या योगाराधनशमनरथ विधेर्दोपः क्रियायां न चेत्, ङ्करमिव समुदीतं दर्शयन्ते जनानाम् । तत किन प्रतिमास्थलेऽपि सदृशं प्रत्यवमुद्रीच्यते । स्फुरदगुरुसुमालासौरभोफारसाराः, किं चोक्ता गुरुकारितादिविषयं त्यक्त्वाऽऽग्रहं नक्तितः, कृतजिनवरपूजा देवरूपा महेन्याः ॥१॥ श्रानन्दमान्तरमुदारमुदाहरन्ती, सर्वत्राऽप्यविशेषतः कृतिवरैः पूज्याऽऽकृतेः पूज्यता ॥७॥ रोमाञ्चिने वपुपि सस्पृहानुबसन्ती। (योगेत्यादि) योगो विधिः कत्रनुकूलपरिवारसंपत्तिः, पारापुंसांप्रकाशयति पुण्यरमासमाधि धनमात्मनैव निर्वाहः, शंसनं च बहुमानमुपलक्षणत्वाद् द्वेषश्च, सौभाग्यमर्चनकृतां निभृता दृगव ॥२॥ तैः, विधेः, अथ क्रियायां चेद् न दोषः, तम्कि योगादिनाऽदुष्टस्पृशति तिलकशून्यं नैव लक्ष्मीब लाटं. व प्रतिमास्थयेऽपि सदृशं नोद्वीक्ष्यते ?, उद्वीतीयमिदमपि । मृतसुकृतमिव श्रीः शौचसंस्कारहीनम् । तदुक्तम्अकलितभजनानां वल्कलान्येव वस्त्रा "विहिसारं चिय सेवा, समालुसचित्तमं अणुट्टाणं । एयपि व शिरसि शुलं उत्रमप्युग्रभाः ॥३॥ दव्याश्दासनिहनो, विपक्खायं वहद तम्मि ॥ १ ॥ Page #1267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेश्य (१२४४) अभिधानराजेन्द्रः । धनाणं विहिजोगो, विहिपक्खाराहगा सया धना। तिनः स्तुतयो दीयन्ते । तत्र प्रतिचैत्यं स्तुतित्रये दीयमाने थेविहिबहुमागी धन्ना, विहिपक्खप्रसगा धना ॥२॥ लाया अतिक्रमो भवति, भूयांसि वा तत्र चैत्यानि, ततो बेला अवसिवित्राण विहिणा, परिणामो हो समकानं । चैत्यानि वा कास्वा प्रतिचैत्यमेकैकाऽपि स्तुतितव्येति । विहिवाओऽविहिनती, अनन्वजियदरभन्वाणं ॥३॥" अत्रावस्थितपको यद्यप्युरसगतो विधिकारितत्वमेव,गुरुकारितसर्वत्र सम्यग्विधियः कार्यश्च सर्वशक्त्या पूजादिपुण्यकि- स्वयंकारितयोयोरपित्तविशेषरूपयोरेवोपम्यासात। प्रत एव यायां, प्रान्ते च सर्वत्राविध्याशातनानिमित्तं मिथ्यामुष्कृतं दा- विषयविशेषे पक्षपातोल्लसद्धीर्यवृद्धि हेतुभूततया तदन्यथात्वे त्र. तव्यमिति श्राद्धविधौ विधिभक्त्युपयोगादिसाचिव्ये, देवपू- याणामपि पक्वाणां जजनीयस्वमुक्तं विंशतिकाप्रकरणे हरिजद्र जादिकममृतानुष्ठानमेव, ततो विभ्यषस्यापि सत्वे प्रथमयो- सूरितिः। तथाहि-"रंगा सोवोत्रा, साहरणाणं च इटुफला। गाङ्गसंपत्यनुबन्धतो विधिरागसाम्राज्ये-"एतकागादिदं हेतु- किंचि विसेसेणित्ते,सम्धे चिय ते विजाइयव्या"।त्ति । विधिश्रेष्ठ योगविदो विधः" इति च तद्वदनुष्ठानरूपं, ततद्वपमपि कारितसंपन्नापवादस्त्वाकारसौष्ठवमवलम्थ्य मनःप्रसत्तिराचादेयं प्रवति, विषगरानुष्ठानानामेव हेयत्वादित्यध्यात्मचिन्ता. पादनीया, न चैवमविभ्यनुमतिः,अपवादालम्बनेन तनिरासात्, स्मकाः। अत एव भोगानाभोगाभ्यां व्यस्तवस्य यद्वैविध्यमुक्तं | क्रमदेशनायां स्थावरहिंसाननुमतिवत् भक्तिग्यापारप्रदर्शने तान्त्रिकैस्तपुपपद्यते । यदाहुः दोषोपस्थितिप्रतिरोधावा काव्यव्यक्तिप्रदर्शनेन शास्त्रस्थितिः। "देवगुणपरिमाणा, तजावाणुगयमुत्तमं विहिणा । अत एवोकं व्यवहारभाष्ये-"सक्खणजुत्ता पमिमा,पासाठिया आयरसाई जिणपू-अणेण आभोगदम्बधश्रो ॥१॥ सरस्सतंकारा । पल्हाया जह य मणं, तह णिज्जरमो विश्राएत्तो चरित्तलानो, होइ लहू सयलकम्मणिद्दलणो । णादि ॥१॥" ति ॥ ७॥ ता पत्य सम्ममेव हि, पट्टिब्वं सुदिट्ठीहिं॥२॥ चैत्यानां पूजासत्कारादिम्तुतयःपूआविहिविरहाओ, अपरित्राणाउ जिणगयगुणाणं । इज्यादन च तस्या-नपकारः कश्चिदत्र मुख्य इति । सुहपरिणामकयत्ता, एसोऽणाभोगदव्वथओ ॥ ३॥ तदतत्त्वकल्पनेपा, बालक्रीमासमा जवति ॥ ७ ॥ गुणगणठाणगत्ता, एसो एवं पि गुणकरो चेव । इज्या पूजा, तदादेः सत्काराभरणस्नात्रादेः, न च नैव, तस्या सुहसुहयरजाबाओ, विसुमिहेक न वोहीमो॥४॥ देवतायाः प्रस्तुतायाः, उपकार सुखानुभवसंपादनलकणः, कअनुहचरण धणिय, धन्नाणं आगमे सि भदाणं । श्चिदत्र मुख्य इति । न कश्चिन्निरुपचरितो मुख्यदेवताया उपअसुणिय गुणे वि तूणं, विसएऽपीई समुच्छलइ ॥५॥ कारः संभवति । तत्तस्मादतत्त्वकल्पनैषाऽपरमार्थकल्पनैषा मु. यथा शुकमियुनाहविम्बे । क्तिगतदेवतोपकारविषया, वालकीमासमा भवति बालकाहोइ पआसो विसर-ऽगुरुकम्माणं भवातिणीदाणं । मया तुल्येयं वर्तते । यथा बालो नानाविधैरुपायैः क्रीडासुखमपत्थम्मि पानराण व, उवष्ठिए निच्छिए मरणे ॥६॥ नुभवति तथा तऽपकारार्थमिष्यमाणैः पूजासत्कारादिभिर्देएत्तो चिय धम्मन्नू , जिविवे जिणवरिंदधम्मे वाम वताविशेषोऽपि परितोषमनुजवतीति । बालक्रीमातुल्यत्वमुप. असुहझालभयाो , पओसलेसं पि वज्जंति" ॥७॥ कारपके दोषः, ये त्वात्मश्रेयोऽर्थ कुर्वते पूजासत्कारादि, न ते. परजिनद्वेषे शकुन्तलाक्षातम् । अज्युदयमाह-किं च गुरुकारि षामयं दोषो भवतीति भावः ॥ ७॥ षो०८ विव०। तादिविषयम् प्राग्रहं त्यक्त्वा नक्तितो नक्तिमात्रेण, सर्वत्राऽपि चैत्येऽविशेषतो विशेपौदासीन्येन कृतवरैमुख्यपपिकतैः पूज्या एतत्सर्व मनसिकृत्याहकृतः भगवत्प्रतिमायाः, पूज्यतोक्ता, कालाद्यालम्बनेनेत्यमेव बो चैत्यानां खल्ल निश्रिततरतया भेदोऽपि तन्वे स्मृतः, धिसौलभ्योपपत्तेः । तथा च श्राविधिपाचे प्रतिमाश्च वि. प्रत्येक लघुघवन्दनविधिः साम्ये तु यत्सांप्रतम् । विधाः, तत्पूजाविधौ सम्यक्त्वप्रकरणे इत्युक्तम् इच्छाकल्पितदूषणेन भजनासङ्कोचनं सर्वतः, "गुरुकारियाएँ कई, अन्ने सयकारिया' तं विति। स्वाऽभीष्टस्य च वन्दनं तदपि किं शास्त्रार्थबोधोचितम्।७१। विहिकारियाएँ अन्ने, पमिमाए पूअणविहाणं "॥१॥ (चैत्यानामिति ) खस्विति निश्चये, चैत्यानां निश्रितेतरतया व्याख्या-गुरवो मातृपितृपितामहाहदादयस्तैः कारितायाः के- निधितानिधितवान् जेदोऽपि तन्त्रे शास्त्रे प्रत्येक लघुवृद्धवन्दनचित्, अन्ये स्वयं कारितायाः, विधिकारितायास्त्वन्ये प्रति- विधिः स्मृतः, साम्ये तु प्रायस्तुल्यत्वे यत् सांप्रतं विषमदुःषमायाः, तत्पूर्वानिहितं पूजाविधानं ध्रुवन्ति । कर्तव्यमिति भाकाले, श्च्छाकल्पितं यद् दूषणमन्यगच्छीयत्वादिकं, तेन भजशेषः । अथवाऽवस्थितपक्कस्तु-गुर्वादिकृतस्यानुपयोगित्वाग्रहर- नायाः सेवायाः,संकोचनं संक्षेपणं, यहुभिरंश म्पकममाने, हितेन सर्वप्रतिमा अविशेषेण पूजनीयाः, सर्वत्र तीर्थकृता- नापर्यवसायि, स्वाभीष्टय स्वेच्छामात्रविपयस्य च, वन्दनम, कारोपलम्भनवुद्धे रुपजायमानत्वात् । अन्यथा हि स्वाग्रहव- तदपि किं शास्त्रार्थबोधस्योचितम् ?, नैवोचितम्, कतिपयमु. शादईविम्बेऽप्यवज्ञामाचरतो पुरन्तसंसारपरिचमणलक्क- ग्धवणिगधनमात्रफसत्वादिति भावः ॥ ७१ ॥ को बलाद् दण्डः समाढौकते । न चैवम, अवधिकृतामपि उक्लाथै काकुव्यङ्गमेव कण्ठेन स्पष्टीकर्तुमाहपूजयतस्तदनुमतिद्वारेणाझाभङ्गालक्कणदोषोपपत्तिः, श्रागमप्रा- चैत्यानां न हि निङ्गिनामिव नतिर्गच्चान्तरस्योचितेमाएयात् । तथाहि श्रीकल्पभाष्ये"निस्सकममनिम्सकमे, अचेइए सबहिं पुई तिन्नि। त्येतावद्वचसैव मोहयति यो मुग्धान् जनानाग्रही। येयं च वेश्याइँ य, रणावं इक्किकया वावि ॥१॥" तेनावश्यकमेव किं न ददृशे वैषम्य निर्णायकं, निधाकृते गच्चप्रतिबके,अनिधाकृत चतहिपरीते चैत्ये, सर्वत्र लिङ्गे च प्रतिमासु दोषगुणयोः सचादसवात्तथा ॥७शा Page #1268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४५) चेइय अभिधानराजेन्द्रः। चेश्य (चैत्यानां न हीति) गच्चान्तरस्य चैत्यानां नतिनोंचिता, के ति,तद्विधिवेयर्थं स्यादिति । अत्रोत्तरम-सत्यं,सा प्रतिष्ठा,देवपामिव ?, सिङ्गिनामिव,गच्छान्तरस्यति संबध्यते । भवयवद्वय विषयोद्देशेन प्रात्मगतवाऽऽत्मनिष्ठव,मुख्या उदिता प्रतिपादिता, प्रदर्शनादत्र पञ्चावयवप्रयोग एवं कर्तव्यः-गच्छान्तरीया प्रति- विधिना जनितस्यात्मगतातिशयस्यादृष्टांशस्य पृजाफलप्रयोजमा न बन्दनीया, गच्छान्तर रगृहीतत्वात्, यो यो गच्छान्तर- कत्वात्,प्रतिष्ठाध्वंसेनैव तदन्यथासिद्धौ संस्काररावंसेनानुभवस्य परिगृहीतः स स अवन्दनीयः, यथा अन्यगच्चसाधुरिति । एत- दानाविध्वंसान चादृष्टस्य तदापत्तेदेवतासान्निध्यमपिन फलमू, द्वचसैव यःमुग्धान् जनान् मोहयति विपर्यासयति-प्रमाणपादि- अहङ्कारममकारान्यतररूपस्य सान्निध्यस्य वीतरागदेवतानयेऽसं. निरस्मद्गुरुनियक्तं तत् सत्यमिति । यः कीदृशः १, आग्रही भघात्। नच चारामासादिस्पर्शनाश्या प्रतिष्ठाजनिता प्रतिमागता अग्निनिवेशमिथ्यात्ववान, तेन किमावश्यकनियुक्त्याख्यशास्त्रमे शक्तिरेव कल्पनीयेति,आत्मनिष्ठफलोद्देशन क्रियमाणस्यात्मगतव न ददृशे न दृष्टम, कीदृशं तत् १, बिङ्गे च दोषगुणयोः किञ्चिदतिशयजनकत्वकल्पनाया एवौचित्वात् । अत एवाऽऽत्म. सत्वात् तथा प्रतिमासु तयोरसत्त्वाद्वैषम्पनिमायकं बैसर-1 गतातिशयस्थ समानाधिकरणपापान्तिकमुक्तिफलकत्वमप्युप. श्यनिर्णयकारि. सिङ्ग इत्यत्र व्यञ्जकत्वात्यविषयत्वे सप्तमी। पद्यते। तदा यस्याः प्रतिष्ठाया सकाशात्परमा सा प्रतिष्ठा, अत्राह-मोक्षोपसमाधानग्रन्थ आवश्यके एवमुपपद्यते, तद्विः भवेत्स्यात्, किस्वरूपा?, जीवायसो जीवरूपलोहस्व,सिद्धता. हारिगते विधौ प्रतिपादिते सत्याह चोदक:-किमनने पर्याया- रूपा कनकता, कस्याः?,स्थाप्ये परमात्मनि समापत्तितःसमान्वेषणेन, सर्वथा नावशुद्धया कर्मापनयनाय जिनप्रणीतलिङ्गमे । पत्तिमासाद्य , कस्मिन् सति ?, कर्ममले दग्धे सति, केन ?, व युक्तं, तसतगुणविचारस्य निष्फलत्वात् । न हि ततगुणप्र- वचनानखेन नियोगवाक्यहुताशनेन ॥ ७ ॥ भावान्नमस्कर्तुनिर्जरा,अपि त्वात्मीयाध्यात्मशुक्रिप्रभवा । प्रतिका मन्वेवमात्मनः प्रतिष्ठितत्वेऽपि प्रतिमाया अप्रतिष्ठि-- (तथाहि "तित्थयरगुणा पमिमा " (५८) आव० ३ ०। तत्वं स्यात, प्रतिष्ठाकर्तृगतादृष्टवये प्रतिमायाः इत्यादि 'किइकम्म' शब्देऽत्रैव मागे ५१६ पृष्ठे व्याख्यातम् ) पूज्यताऽनापत्तिश्चेत्यत आहसक्तमेव विवेचयन् वादिनो मुग्धतां दर्शयति- विम्बेऽसावुपचारतो निजहृदो नावस्य संकीर्त्यते , लिङ्गे स्वप्रतिबघ्बुद्धिकलनामाज्या नवेन्यता, पूना स्याद्विहिता विशिष्टफलदा प्राक् प्रत्यजिज्ञाय या। सैकान्तात प्रतिमासु भावनगवनयोगुणोदबोधनात । तेनास्यामधिकारिता गुणवतां शुफाऽऽशयस्फूर्तये, तुल्ये वस्तुनि पापकर्मरहिते भावोऽपि चारोप्यते , बैगुण्ये तु ततः स्वतोऽप्युपनतादिष्टं प्रतिष्ठाफलम् ॥१५॥ कूटधव्यतया धृतेऽत्र न पुनर्मोहस्ततः कः सताम् ।।७३॥ बिम्बेऽसौ प्रतिष्ठा,निजहदो निजहृदयसंबन्धिनोभावस्याध्यव(लिङ्गति) लिङ्गे स्वप्रतिबद्धः स्वसंबन्धी योधर्मः तबुद्धि- सायस्थ,उपचारारसंकीर्यते प्रतिष्ठाजनिताऽऽत्मगता समापत्तिकलनात् तद्धीस्मरणात् “एकसंबन्धिशानेऽपरसंबन्धिज्ञानस्य रेव स्वनिरूपकस्थाप्यालम्बनाध्यवसायसंबन्धेन प्रतिष्ठितत्वस्मारकत्वादिति सद्धर्मोपस्थिती तदालम्बनतया विन्धते- व्यवहारजननीत्यर्थः। या काक् शीघ्रं प्रत्यनिहाय पूजा विहिता त्यर्थः, तथाऽसम्मोपस्थितौ च तदालम्बनतया निन्द्यते- विशिएफलदा स्यात्, विशिष्टं फलमाकारमात्रासम्बनाध्यवसा. त्यर्थः । प्रतिमासु सा सावद्यता एकान्तात, कस्मात् ?, यफलातिशायि,तथा च प्रतिष्ठितविषयकं यथार्थ प्रत्यभिज्ञानमेभावजगवत्संबन्धिनो ये नूयांसो गुणास्तेषामुबोधनात् , ए. व पूजाफलप्रयोजकमिति। तेनास्यां प्रतिष्ठायां, गुणवतां प्रशस्तकेन्द्रियदलनिष्पन्नत्वादेश्व बन्धगतस्य जगवत्कायगतौदारि- गुणवतामधिकारिता, शुरूस्य विशिष्टस्याशयस्य स्फूर्तये उपकवर्गणानिष्पन्नत्वादेरिवानुतदोषस्याप्रयोजकत्वाच्चान्त- स्थितये,विशिष्टगुणवत्प्रतिष्ठितेयमिति प्रत्यनिशाने विशिष्टाध्यरीयसाधुवत्तादृशप्रतिमाया प्रवन्धत्वमित्यप्ययुक्तम, तदध्या- घसायस्य प्रत्यकसिद्धत्वात् । वैगुण्ये तु प्रतिष्ठाविधिसामन्यसं. रोपविषयसद्भाबात् । तदाह-तुल्ये वस्तुन्युभयाभावेनाका- पत्ता तु, प्रत्यनिज्ञानात् स्वतोऽपि उपनताद् बाह्यसामग्री विना रसाम्यवीत, पापकर्मरहिते सावधचेष्टारहिते, प्रावोऽपि मनसोऽप्युपस्थितात प्रतिष्ठाफाम इष्टम् । तऽक्त विशिकायाम्गुणोऽप्यवाप्यते । अत्र वस्तुनि कूटद्रव्यतया धृते चारो " धमिल्ले घिहु पसा, मणवयणाए पसंसिया चेव । प्यतेऽजगारमर्दक श्व भावाचार्यगुणः, तत्र कः सतां शिष्टानां भागासगोमयाइदि, पत्थवणाईहि सामगी" ॥ मोहो, यत स्वगच्छीयैव प्रतिमा बन्येति, नान्या, अन्यसाधुवदिति । द्रव्ये हि कतिपयगुणवत्यपि संपूर्णगुणवदध्या स्थापना मनास स्थापनं,यमुक्तं न्यायसमये-"यत् तु सम्यकसिरोपो युक्तः, प्रतिमायां स्वाकारसाम्येनेत्यागोपालाङ्गनाप्रती खानुस्मरणपूर्वकमसनम । उक्तं ततस्थापनमिव, कर्तव्य स्थापनं तत्वात् ॥ ७३ ॥ मनसि"॥ इति इत्थं च बाह्यकरणानुपपत्ती, प्रतिष्ठाकर्तुर्गुणानां प्रायो दुर्लजत्वे वा, कटुकादिगम्बरप्रतिष्ठितद्रव्यमितव्यनिष्पएवं सति प्रतिष्ठावैयर्यमित्याशङ्कय समाधत्ते नव्यतिरिक्ताःसर्वा अपि प्रतिमा वन्दनीया इति वचनकलापस्य नन्वेवं प्रतिपैकता प्रवदतामिष्टा प्रतिष्ठाऽपि का, हेतुत्वान्यायविदखयानादरोऽपि कर्तृगतोत्कटदोषशब्दाशसत्यं साऽऽत्मगतैव देव विषयोद्देशेन मुख्योदिता । यापरिस्कृतेः । अत एवं साधुवासक्केपादवन्दनीयास्तिस्रोऽपि यस्याः सा वचनानलेन परमा स्थाप्ये समापत्तितो, वन्दनीयतां नातिकामन्तीति रिचक्रवर्तिनां श्रीहीरनामधे. यानामाशातः शुझाशयस्फूतरप्रतिहतत्वादिति दिग् ॥ ७५॥ दग्धे कर्ममले नवेत्कनकता जीवायसः सिफता ॥७॥ | (नन्वेवमित्यादि) ननु एवमाकारमात्रेण प्रतिमाया एकतां वन्द्य. पतेनैव शङ्काशेषोऽपि निरस्त पवेत्याहताप्रयोजिकां प्रवदतां युष्माकं प्रतिष्ठाऽपि का टा,न काचिदिः चैत्येऽनायतनत्वमुक्तमथ यत्तीयोन्तरीयग्रहात, Jain Education Internat३१२ Page #1269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४६ ) निधानराजेन्द्रः । चेइय तत्किं तन्ननु दुर्मविग्रहवशाद दुष्टं श्रयामीति चेत् । साम्राज्ये घटमानमेतदखिलं चारित्रजाजांजवेत्, पार्श्वस्यस्त्वसती सतीचरितवो वक्तुमेतत् प्रभुः ॥ ७६ ॥ (चैत्येनेति) अथ यत् यस्मात्कारणात्, तीर्थान्तरस्य प्रहः परि ग्रहः, तस्मात् श्रनायतनत्वमुक्तम्, "नो कप्पर उत्थियपरिमहिमाएं अरिहंतचेश्श्रारं वा इत्यादिना । तत्तर्हि नन्वित्या केपे, दुर्मतीनां दुर्बुद्धानां पावस्थादीनां यो ग्रहः परिग्रहस्तद्वशाद् दुष्टं दोषवत् चैत्यं किं श्रयामि ? अन्यतीर्थिकपरिग्रहवचष्टाचारपरिग्रहस्यायनायतनत्व हेतुत्वादिति भावः । इति चेत एतदखिसं त्वयोच्यमानं, चारित्रनाजां साम्राज्ये सम्राभावे प्रवर्त्तमाने, घटमानं युक्तं भवेत् । तदोद्यतविधिभिरिति तजितसकल भयैराचार्यादिः पुरुषैः शुद्धाशुद्धावेवेके क्रियमाणे विधिगुण्पकपातस्य सर्वेषामसुरत्वेन भावोद्वासस्यावश्यकत्वात् । श्राह " जो जो उत्तममग्गो, पहश्रो सो डुक्करो न सेसाएं। आयरिश्रमि जयंते, तयचरा के ए सी श्रंति ' ॥ १॥ इत्यादि । पार्श्वस्थस्य तु " लास्यावश्यकत्वादाह - पार्श्वस्थस्तु भवान् पार्श्वस्थमध्यवर्त्ती, एतत् निर्दिष्टम् असती सतीचरितवत् सप्तीचरित्रवद्, नो वक्तुं प्रभुः, श्रशक्यस्य स्वकृतिसाध्यतोक्तावसतीयत्वप्रसङ्गात् प्रायस्तुल्यत्वे एकतरपक्षपातेनेतरभक्तिसंकोच द्वेषादिना महापातकप्रसङ्गात् ॥ ७६ ॥ उपसंहरति सर्वासु प्रतिमासु चाग्रहकृतं वैषम्यमीक्षामहे, पूर्वाचार्य परम्परागतगिरा शास्त्रीययुक्त्याऽपि च । इत्थं चाविधिदोषतापदलनं शक्ता विधातुं विधिस्वैरोज्जा गररागसागर विधुज्योत्स्नेव भक्तिमथा ॥ ७७ ॥ सर्वासु निश्रितानिश्रितादिभेदभिन्नासु प्रतिमासु, श्राग्रदकृतं स्वमस्योत्प्रेक्कतं वैषम्यं विषमत्वम्, श्कामहे प्रमाणयामः । तथा च सर्वत्र साम्यमेव प्रमाणयाम इति पर्यायोक्तम् । कया ?, पूर्वाचार्य परम्परागतया गिरा, परम्परागमेनेत्यर्थः । शास्त्रीया या युक्तिस्तयाऽपि चशब्देन तदुपजीविनाऽनुमानादिप्रमाणेनेत्यर्थः । भक्त्युला प्राधान्येन चात्र विध्यनुमतिरनुत्थानोपहतेत्याहइत्थं च एवं व्यवस्थिते चाविधिदोषतापस्य परितापकारिणो विध्यनुमोदनप्रसङ्गस्य, दलनं, विधातुं कर्ते, विधौ विधाने, खैरोजागरो यथेच्छप्रवृत्तिमान्, राग एव सागरः, तत्र विधुज्योलेव चन्द्रचन्द्रदेव, भक्तिप्रथा शक्ता समर्था ॥ ७८ ॥ उपस्थितया भक्त्या प्रश्न इव जगवत्प्रतिमामेवाभिष्टौतिउत्फुल्ला मित्र मालतीं मधुकरो रेवामिवेजः प्रियां, माकन्दडुममञ्जरीमिव पिकः सौदर्यभाजं मधौ । नन्दच्चन्दनचारुनन्दनवनी भूमी मित्र द्योःपतिस्तीर्थेशप्रतिमां न हि क्षणमपि स्वान्ताद्विमुञ्चाम्यहम् । ७G] ( उत्फुल्लामिति ) अहं तीर्थेशप्रतिमां क्षणमपि स्वान्ताद् न विमुञ्चामि न त्यजामि, किं तु विषयान्तरसंचारविरहेण सदा ध्यायामीति ध्वन्यते । कां का इव ?, उत्फुल्लां मालती मधुकर श्व भ्रमर एव हि मालतीगुणज्ञः, तदसंपत्तावपि तत्पक्षपातं न परित्यजति तथा प्रियां मनोहारिणीं रेवामिवेजो हस्ती, तस्य ततो मयैव रत्युत्पत्तेः । तथा माकन्ददुममञ्जरी सहकार For Private चेइय तरुमञ्जरीं, कीडशीम् ?, मधौ वसन्ते सौन्दर्ये भजतीत्येवं शीलां तां पिक घ्व कोकिल श्व, सहकारमञ्जरीकषायकएवः कलकाकलीकलकलैर्मदयति च यूनां मन इति । तथा द्योः पतिरिन्द्रः, नन्दद्भिश्चन्दनैश्चार्वी नन्दनवनीभूमिमिव सदि प्रियाविरहतापं तच्चारित्रचमत्कारदर्शनाद्विस्मरतीति । अत्र रसनोपमालङ्कारः ॥ ७८ ॥ जैनी मूर्तिरुपास्यताम्मोहोदामदवानलप्रशमने पायोदवृष्टिः शमस्त्रोतोरण समीहितविधौ कल्पवलिः सताम् । संसारप्रवलान्धकारमथने मार्त्तण्मचण्डद्युतिजैन मूर्तिरुपास्यतां शिवसुखे जन्याः ! पिपासाऽस्ति चेत् ७ (मोहोदामेति ) मोड् एव य उद्दामो दवानलः, तस्य प्रशमने शान्तिकर्मणि, पाथोदवृष्टिः वारिदधारासंपातः सकलप्लोषक शमनत्यात् । तथा शमतारूपप्रवाहस्य निर्भरणी नदी, एवं समीहितस्य वान्वितस्य विधी विधाने, सतां शिष्टानां कल्पवलिः सुरतरुलता, अविलम्बेन सर्वसिद्धिकरत्वात् । तथा संसार एव यः प्रबलान्धकार उत्कटं तमः, तस्य मथनेऽपनयने, मार्त्तण्डस्य सूर्यस्य, चरमद्युतिस्तीव्रप्रभा, विवेकवासरतारुण्ये मोहच्छायाया श्रप्यनुपलम्भात् । एतादृशी जैनी जिनसंबन्धिनी मूर्तिः, उपास्यतां सेव्यतां, भो भव्याः ! शिवसुखे मुक्तिशर्मणि, यदि वः युष्माकं, पिपासात्कटेच्छा - स्ति । रूपकमलङ्कारः ॥ ७६ ॥ " (१२) द्रव्यस्तवे मिश्रपक्षत्वविचारः । एवं वृत्तद्वयेन भगवन्मूर्ति स्तुत्वा वादान्तरमारभतेश्रादेन स्वजनुः फले जिनमतात्सारं गृहित्वाऽखिलं त्रैलोक्यापिपूजने कपता मोक्षार्थिना मुच्यताम् । धृत्वा धर्मधियं विशुद्ध मनसा व्यस्तवे त्यज्यतां, मिश्रोऽसाविति लम्बितः पथि परैः पाशोऽपि चाशोभनः । ८० । ( श्राद्धेनेति ) श्राद्धेन श्रकावता, जिनमतात् जैनप्रवचनात, सारं तात्पर्यमखिलं गृहीत्वा त्रैलोक्याधिपस्य त्रिजगतोऽfasting, भत एव सर्वाराध्यत्वात् पूजने, कीडशे ?, स्वजनुषो मनुजावतारस्य फले, मोहार्थिना सता, कलुषता कसमता, मुच्यतां त्यज्यतां, तथा द्रव्यस्तवे धर्माधियं धर्मत्वा धृत्वा, विशुद्धेन मनसा, मिश्रो धर्माधर्मोभयरूपोऽसौ Gorera इति पररेन्यमतिभिः पथि मार्गे, लम्बितोऽशोभनः पाशोऽपि त्यज्यतां पाशचन्द्राभ्युपगमस्य पाशत्वेनाध्यवसा नं मुग्धजनमृगपातनद्रव्यमभिव्यनक्ति || GO जावेन क्रियया तयाने तु तयोर्मिश्रत्ववादे चतु यां नादिम एकदानभिमतं येनोपयोगद्वयम् । arat धर्मगतः क्रियेतरगतेत्यल्पो द्वितीयः पुनभावादेव शुभात् क्रियागतरजोहेतुस्त्ररूपक्षयात् ॥ ८१ ॥ उक्तमिश्रत्ववादे चतुर्भङ्गयां भङ्गी चतुष्टये, श्रादिमः पक्को, भावेन जावस्य मिश्रत्वाकारो न घटते, कुतः ?, येन एकदा उपयोगद्वयम् श्रनभिमतम् श्रनिष्टम, द्रव्यस्तवारम्भोपयोगयोयगपद्याभाषान्न भावयोर्मित्वम् । श्रमारम्ने हि यत्तन्नारम्भे उपयुज्यते, स्थैर्यातिचारयोरप्येकदाऽभावादिति सूक्ष्मदृष्टया Personal Use Only Page #1270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेश्य चेइय (१५४७) अन्निधानराजेन्डः। भावनीयम्। भावोधर्मगतः,क्रियेतरगताऽधर्मगता,इत्यपि द्विती- (हिंसेति) विधिकृतः श्राहस्य साधोश्च सद्यवहारतः सिद्धायः पुनर्नकोऽल्पः, अकोदकम इत्यर्थः। कुतः १, शुभाद्भावादेव, म्तव्युत्पन्नजनव्यवहारेण,हिंसा नैव जवति,प्रमत्तयोगे प्राचन्यक्रियागतं यद्रजहितुस्वरूपं अशुभभावद्वारकत्वं, तस्य क्षयात् । परोपणस्यैव तन्मते हिंसात्वात, स्वगुणस्थानोचितयतनया प्रक्रिया ह्यशुभन्नावद्वाराऽधर्मस्य, शुभजावद्वारा धर्मस्य कारण- मादपरिहारस्य चोभयोरविशेषाऽपरितनेनाधःप्रमादपर्यवसाम, न च स्वरूपतः॥१॥ यकतायाश्चातिप्रसङ्गत्वात अधिकारिजेदेन न्यूनाधिकनावस्याद्वितीयपक्षाभ्युपगम एव वादिनामिष्टापत्तिमाह प्यमुक्तिसंभवात् । अन्यथा संपूर्णाचारश्चतुर्दशोपकरणधरः स्थ. विरकल्पिको जिनकल्पिकमपेक्ष्य यतो न्यूनश्च स्थात,न चैवमवाहिन्युत्तरणादिके परपदे चारित्रिणामन्यथा , स्ति,रत्नाकरदृष्टान्तेन द्वयोस्तुल्यताप्रतिपादनात् । तस्मात्स्वधिस्यामिश्रत्वमपापनावमिलितां पापक्रियां तन्वताम् । षये गृहिणः साधोश्च धर्मकर्मणि हिंसानास्त्येवेतिलोकव्यवहाकिञ्चाऽऽकेवलिनं विचार्य समये अव्याश्रयं नाषितं, रतस्तु बाह्यलोकव्यवहारापेक्षया, सा परप्राणव्यपरोपणरूपा शुद्ध धर्ममपश्यतस्तनुधियः शोकः कथं गच्छति॥शा हिंसा,उभयोऍहिसाध्वोर्वाधाकरी न,मिश्रपक्तप्रवेशकरा न, व्य धिकरणतया मिश्रणासंभवात्। स्वानुकूलव्यापारसंबन्धे तस्याः ( वाहिनीत्यादि) अन्यथोक्तानभ्युपगमस्वरूपत एवाभवत्वा सामानाधिकरणस्य च योगमादाय केवलिमतेप्रमत्तनावस्थले भिमतस्याधर्मे चोक्त्यैक्यादिति,उत्तरणादिके नधुत्तारप्रमुख, प. वक्तुमशक्यत्वात् सद्यवहारपर्यवसानाति ,न किश्चिदेतत् । रपदेऽपवादमार्गे, चारित्रिणां भावसाधूनाम, अपापो धर्मैकस्व. प्राण्युपमर्दनस्तावधर्मकर्मण्यपि हिंसैव,ग्रहीतुं तां करोति,साभावो यो भावः पुरासम्बनाध्यवसायः, तेन मिलितां पापक्रियां धोस्तु सा कथञ्चिद्भवतीत्यस्ति विशेष इत्यत्राऽऽह-इच्छाकल्पननाचारादिरूपां, तन्वतां कुर्दतां, मिश्रत्वं मिपकाश्रयणं, स्यात, या स्वरसपूर्वयेच्छयाऽज्युपेत्य विहिते नियतव्यापारके वर्जनीन चेष्टं परस्यापि, साधूनां धर्मेकपकाभ्युपगतत्वात, तस्माद् भ. यहिंसासंबन्धे कर्मणि तदुत्पादनोत्पत्तिभ्यां निदा काऽपि तथ्या मनावे स्वरूपतः सावधक्रियाया मिश्रणं न्यस्तव इत्यर्थः । न, अपि तु स्वकल्पनया मुग्धमनोविनोदमात्रमिति भावः । अयुषयमाह-किञ्च,आकेवलिनं केवलिपर्यन्तं, समये सिद्धा- तथाहि-हिंसाऽनुषक्तधर्मव्यापारे साध्यत्वाख्यविषयहिंसाऽनुन्ते, " जावं च णं पस जीवे एयश वेय ताचणं आरजह" कूल कृतिमत्त्वं गृहिणश्चेत,साधोः न कथम?,यतनया परिहारथे. इत्यादिना व्यायं प्राषितं विचार्य, तदेव शुद्धं धर्ममपश्य उभयत्र समानाकृती हिंसात्वावच्छिन्नसाध्यत्वाख्यविषयतातस्तदनुचिते ऐदम्पर्यानालोचने तनुबुद्धेः शोको धर्मपक्षस्थानो नावोऽप्युभयोस्तुस्या, अशक्यपरिहारोऽपि प्रसक्ताकरणप्रत्यचंदजनितवैलव्यसवणः, कथं गच्छतु ,न कथश्चित् । अत एव | वायभिया द्वयोःशास्त्रीय ति सूक्ष्ममीकणीयम् ॥७॥ सुन्दरर्षिः-"अयोगिकेवलिन्येव, सर्वतः संवरो मतः।" इति । नदीतरणादौ वादिप्रसङ्गं समाधते अपवादप्राये कर्मणि न विधिः, किं तु यतनाभाग एव, वाहिन्युत्तरणादिकेऽपि यतनामागे विधिर्न क्रिया स्वच्छन्दप्राप्तया तत्र मिश्रत्वं स्यादत्राऽऽहजागेऽप्राप्तविधेयता हि गदिता तन्त्रेऽखिलैस्तान्त्रिकैः । पूर्णेऽर्थेऽपि विधेयता वचनतः सिद्धा नियात्मिका, हिंसा न व्यवहारतश्च गृहिवत्साधोरितीष्टं तु नो, भागे बुकिकृता यतः प्रतिजनं चित्रा स्मृता साऽऽकरे। मिश्रत्वं ननु नो मते किमिह तहरोषस्य संकीर्तनम् ॥शा नो चेज्जैनवचः क्रियानयविधिः सर्वश्च मिश्रो नवे( वाहिन्युसरणादिकेपीति) वाहिन्युत्तरणादिके कर्मणि, य. दित्यं दमयं न किं तव मतं मिश्राद्वयं लुम्पति ?|५॥ तनाभागे विधिः, अप्राप्तत्वात्, न तु क्रियाभागेऽपि, यतः, अ. (पूर्णे ति) पूर्णेऽर्थेऽपि विधीयमाने यतनाविशिष्टे कर्मणि लिङखिलस्तान्त्रिकैरप्राप्तविधेयता गदिता, 'अप्राप्तप्रापणं विधिः',अ- ात्मिका लिङयस्वरूपा विधेयता, वचनतः श्रुतिमात्रेण सिद्धा, नधिगतार्थाधिगन्तृ प्रमाणम,श्त्यनादिमीमांसाव्यवस्थितेः, अयं प्रवर्तनाया एव तदर्थत्वात,तस्याश्च प्रवृत्तिहेतुधर्मात्मकत्वात, च न्यायोऽस्माभिराधीयते । अत्र हि यतनाभाग ति यत- "प्रवत्तिहतं धर्म त,प्रवदन्ति प्रवर्तनाम्"इत्यभियुक्तोक्तस्तस्य तना न तेन मिश्रिता, अन्येनैव मिश्रणसंभवात्, तर्हि नात्तारादि स्वात् श्ष्टसाधनत्वरूपत्वात् । तथा च प्रवृत्तिहविच्छाविषयताक्रिययव मिश्रता स्यात् , तत्राह-गृहिवत् साधोर्व्यवहारतो पर्याप्त्यधिकरणधर्मत्वं यकर्मावच्छिन्ने बाध्यते, तकविच्छिव्यवहारतया नद्युत्तारादिक्रियायै हिंसा न, गृहिसाध्वोयतना अस्य विधेयत्वमिति प्रकृते यतनाविशिष्टजन्यस्तवस्य विधेयऽयतनाज्यामेव व्यवहारविशेषादिति, ततो हिंसा मिश्राऽभावा, स्वमवाधितमेव , ततो विनिगमनाविरहेणाऽपि तथासिद्ध लिनो तु नैव,मिश्रत्वम् इष्टम, नन्वित्याकेपे,नोऽस्माकं मते किमिह ऊर्थप्रयस्यैव विनिगमकत्वम् । बुद्धिकृता विधेयता विषयतावितद्दोषस्य कीर्तन, नवतां द्रव्यस्तचे तु साधुक्तनाऽभावाद- शेषरूपा, सा भागे भवतु, न तावता क्षतिः । यतः सा प्रतिजनं वर्जनीयैव हिंसेति मिश्रपक्षो दुष्परिहर इति भावः ॥ ३॥ प्रतिप्राणि चित्रा, प्राकारेस्याद्वादरत्नाकरे,स्थिता व्यवस्थिता, एतद् दूषयति "स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम्" इत्यत्र विशेषणविशेष्यान्यतराहिंसा सव्यवहारतो विधिकृतः श्राफस्य साधोश्च नो, प्रसिद्धौ तदन्यभागस्य विधेयत्वाप्रसिद्ध्या उजयस्यैव विधेयत्व. सा लोकव्यवहारतस्तु विदिता बाधाकरी नोनयोः। मिति तत्रोक्तेः। रक्तं पटं वय, ब्राह्मणं स्नातं भोजयेन्यादावेकवि धे द्विविधे त्रिविधे च दर्शनात् । नो चेद् यतनाक्रियाभ्यामेव च इच्छाकल्पनयाऽभ्युपेत्य विहिते तथ्या तदुत्पादनो मिश्रत्वे, तदा तत्प्रतिपादकं जैनवचः क्रियानयविधिश्च सर्वोऽपि त्पत्तिच्यांतु जिदान कापिनियतव्यापारके कोण||GRIII मिश्रो भवेत प्रस्थं च धर्मपकोऽपि ताज्यां नागाभ्यां मिश्रो भवे Page #1271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२३४०) अभिधानराजेन्द्रः | चेश्य दिति मिश्रा स्यात् सोपेन एकशेपात्तमा तब मतं दमयं पक्षत्रयप्रतिपादकं कथं न लुम्पति ?, "स्वशस्त्रं सोपघाताय " इति न्यायस्तवापन्न इति भावः ॥ ८५ ॥ तृतीयपद्ममधिकृत्याह नदीतरणादौ वादिप्रसङ्गं समाधतेarat धर्मगतः क्रियेतरगतेत्यत्रापि भने कथं मित्वं तमेव मुनयोजावानुरोधाद्विदुः । अस्थाईत्यतिमार्चनं कृतां न स्पृश्यमानः पुनतिमिवाग्रहाचिलधियां पापेन संचयते ।। ८६ ।। भावो धर्मगतः किपेतरगता इत्यत्रापि तृतीयान्ये भमित्वं यमाभावानुरोमेन दुष्टभावपूर्व 9 निषेधादिति दिन कायाविहितकिया अपि प्रत्यवाय स्पेन निवादीनां निग्रॅन्थरूपस्य दुरन्तसंसारहेतुखेनाधर्मत्वम् । "इ चेपादिम, जाजरामरणवस संसार . यति निरूपेण ॥१॥ इत्यादिनावख्यापित नियतोत्सूत्रप्ररूपकाणामेव तत्फलं,निर्मन्थरूपेण इत्यत्रोपलक्षणे तृतीये ति नाशङ्कनीयम, चरममै बेयकपर्यन्त फल होता निहवकामुपगतापारस्यैवात्र दृष्टिपदार्थत्वात् निन्यरूपेणेत्य चान्येन नमि विदभेदादिपराद्यनुष्ठानानामधर्मत्वेनैव बहु यो धर्ममतो ना प्रकृत सं भवतीत्यत्राह भक्त्येति प मार्चनं कृताः पापेन स्पृश्यमानः संयते।यतिरेक हान्तमाह-किमिय प्रदाविलधियाम् अभिनिवेशमसीमसबु कीनां चितमिव तद्यथा पापेन स्पृश्यमानं संलक्ष्यते, तथा न भक्तिकृतां भावइति योजना अर्थ पुष्पापमईयामि ततः प्रतिमां पूज यामि इति भावः पापस्पृष्टो लक्ष्यत एवेति वेता, नदीजलजीवापयामि ततो नद्यामुखीय विहारं कुर्वे, इति साधोरपि बुधः कृतानुपतिकेनोद्देश्यत्वा स्यविषयतासाम्यत्वास्यविषयता यतमानस्य न निषिरुरूपाऽवस्थितेति चेत तुल्यमेतदुभयोरपीति किमप्रेडितेन ॥ ८६ ॥ " तुरीयं विकल्पमपाकुर्वन्नाह " धर्मागते क्रिये च युगपत्तो विरोधं मिथो नाऽप्येते प्रकृतस्थले कचिदतस्तुर्योऽपि नगो वृथा । शुकशुद्ध उदाहृतो विधिना योगोऽर्चनाद्याश्रयः, सोऽप्येको व्यवहारदर्शनमतो नैव द्वयोर्मिश्रणात् ॥ 09 ॥ ( धर्माधर्मगते इति ) धर्माधर्मगते च क्रिये युगपद्विरोधतः निविपयक्रियाद्वयस्यैक कालावच्छेदेने कशनवस्थाननियमात् । "भिनास निसिद्धं किरिया" इति वचनात प्रकृतेऽसोदिया-नाये धर्माधर्मग यस्तस्थानेचितः कारणात तुर्थोऽपि न वृथा मिश्रप कसमर्थनाय मृषोपन्यासः। शुद्धाशुको योगः शास्त्रोक्त एवेति, तत्र पादित्यविधि जिनादि निधितं योग दातः सोऽपि स्वयदारदर्शनमः एक अंशे भ्रमप्रमादरूपे कानव शाविषयमनुषयोः काशुद्धयोयोगयोर्मियो विरोधादेवेति इसो जिला, शुकाविष यत्वं च योगाभिव्यापारानुबन्धिविषयतानयेन स्वतो योगस्य निर्विषत्वादिति सव्यम ७ ॥ 9 नियतस्तु युद्धायोगो नास्येवेत्याहजावजन्यतया द्विधा परिणतिप्रस्पन्दरूपा स्मृताः, योगास्तत्र तृतीयराश्यकथनादायेषु नो मिश्रता । नैवान्त्येष्वपि निश्रयादिति विषोद्वारः कथं ते भ्रमो निष्पीता कितु न क्षमाश्रमणगीः समाप्यसिन्धोः सुधा-fo (भाषेत्यादि) परिणतिप्रस्पन्दनक्षण योगा प्रावरून्यतया द्विधा स्मृताः तत्राद्येषु प्रायोगे मेस्मा तृती पराशेरकवनात् नान्यपशुभावीति द्विविधान्येवाप्यवसाय स्थाना न्युक्तानि, न तु तृतीयोऽपि राशिरिति । अन्त्येषु रूज्य योगेष्वपि नियात नैव मिश्रा, तन्मते व्ययोगे मिश्राणामभावात् । तद्माघाम्बे शुभाशुभाम्यतरस्येव पयोगबारे णापि तथा व्यवहरणात् । अत एवाशोकप्रधानं वनमशोकचनमिति विवकया मिश्रभाषापत्तिः। कथं तर्हि श्रुतभावभाषायां तृतीयस्यापरिगणनं भावनानाषायां तुमेति चेत एकत्र निश्वयनयेन धर्मिणोऽर्पणादन्यत्र व्यवहारनयेनेति गृहाण। सर्वत्र निश्चयनयेन धर्म्यर्पणे तु भाषायां द्वावेव जेदो. न चत्वारः । ६दमेव भाषारहस्ये "सा चउविह त्ति ववडा-रनयाल पाणं सचामु चिनासाहि थिय हंदि निष्॥२॥ चि। एवं विशदीकृतेऽर्थे भ्रान्तोक्त्या कथं व्यामोहः कार्य प्रत्याहइत्येवं कथं समोप्रयोगो विपद्वारा किसा यद्विशेषावश्यकं तदेव सिन्धुः समुदस्तस्य सुधाऽमृतं समाश्र मी:- जिनद्वगणिभ्रमणपाणी न निष्पीलाई अन्यथा मोबि पोद्वारो न स्यादेव, अम्रत्याकारस्य किं तु कुमतिपरिगृहीत भुताऽऽनासविषयः, तस्यैवेदं चित्रसितमिति संभावयामः॥८८॥ कि संकीर्णकर्मकपफलाभावादपि संकीर्णयोगो नास्तीति चेय व्यस्तवे मिश्रपको कमोदि लताविस्तारा मिश्रत्वे खलु योगभावविधया कुत्रापि कृत्ये भवेम्मिश्रं कर्म न बध्यते च शव तरसे क्रमात्स्यात्परम् । तत् धव्यस्तवमिश्रतां मवदता किं तस्य वाच्यं फलं स्वयुदग्राहितमूढपर्षदि मदान्मूर्द्धानान्ता ॥ ८ ॥ ( मिश्रत्वे इति) खल्विति निश्चये कुत्रापि कृत्ये योगनाववियामिमाफीमा मिश्रं कर्म प्रवे तत्तु बन्धतो नास्ति इत्याह-न बध्यते च शवलमिति, शबलं मिश्र कर्मन मिश्रमोहनीयं सिर्फ पर के , , मत्स्यात् तस्मादयस्तमित प्रया तस्य व्यस्तवस्य फलं बैध्यमानं कर्म शुभ भाववन्न भवति, श्र ननुरूपत्वात्, मिश्रं च बध्यमानमभ्युपगच्छता कृतान्तः कुप्पेदिस्वत्र तृणमेव स्वयं स्वया करोग. स्वेता - ढा तेषां पदि मदाद् बुद्धिगीरवान्नं शिरसमान्यता कम्पयता, अनुभावो महस्य व्याधेरेव पर्यवसान इति जानीहि । अत्रेयमुनाष्यवाणी कुमपाशपाते ! 66 न य साहारणरूवं, कम्मं तक्कारणाभावा । " न च साधारणरूपं संकीर्णस्वभावं पुण्यपापात्मकमेकं कमति तस्यैतस्य कर्मणः कारणानात् । अत्र प्रयोगःनास्ति संकीर्णोभवरूपं कर्म अभायमानैवंविधिकारावाबन्ध्यादिति । तोरसित परिहरणा"का जोग सिमितं, सुभोऽसुनो वास पगसमयस्मि । . Page #1272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेइय चेइय (१२४ए) अनिधानराजेन्द्रः। होज्ज ग उभयस्यो, कम्मं पितो तयणुरूबं" ॥१३४॥ श्यरेवरभावं वा, सम्मामिच्छा न च गहणे"१६३॥ मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतव इति पर्यन्ते वेति अथ या, एतदद्यापि संभाव्यते, यत्पूर्व गृहीतं पूर्व य योगानिधात सर्वत्र कर्मबन्धहेतुत्वस्य योगाधिनाभावात, यो. मिथ्यात्वनवणं कर्म परिणामवशात् पुअत्रयं कुर्वन्मिश्रतां गानामेव बन्धदेतृत्वमिति कर्मयोगनिमित्तमित्युच्यते । स च सम्यमिथ्यात्वपुञ्जरूपसां नयेत्प्रापयेदिति, इतरतरनावं वा मनोवाकायात्मको योग पकस्मिन्समये शुभोशुनो वा भवेत, नयेत सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं चेति । इदमुक्तं भवति-पूर्ववकान् नतूभयरूपोऽतः कारणानुरूपत्वात कार्यस्य काऽपि तदनुरूपं मिथ्यात्वपुमान् विशुद्धपरिणामः संशोधयित्वा सम्यक्त्वशुभ पुण्यरूपं, भाभं वा पापरूपं बध्यते, न तु संकीर्णस्वभा स्पतां नये, भविशुरूपरिणामस्तु रसमुत्कर्ष नीत्वा सम्यक्त्ववमुभयरूपमेकदैव बभ्यत इति ॥१६३५॥ पुमनास्मिथ्यात्वपुज्जे संक्रमय्य मिथ्यात्वरूपतां नयेदिति पूर्वप्रेरकः प्राह गृहीतस्य सत्तापर्तिनः कर्मण इदं कुर्यात् । ग्रहणकाले "नणु मणबहकायमगा, सुभासभा वि समयम्मि दासंति। । पुनर्न मिश्रं पुण्यपापरूपतया संकीर्णस्वनायकर्म पध्नाति,नापादवम्मि मीसनावो, हवेज्ज प न भावकरणम्मि" ॥१९३६।। । तरदितररूपतां नयतीति ॥१९३०॥ ननु मनोवाकाययोगाः शुभा अशुजाश्च, मिश्रा इत्यर्थः । सम्यक्त्वं मिथ्यात्वे संक्रमय्य मिथ्यात्वरूपता नपतीत्युएकस्मिन्समये दृश्यन्ते, तत्कथमुच्यते-" सहो असुदोषा स कम्, ततः संक्रमविधिमेव संक्षेपतो दर्शतिएगसमयाम्म ति" ? । तथादि-किञ्चिदविधिना दानादिकं "मोत्तूण पाउयं खलु, दसणमोहं चरित्तमोहं च। वितरणं चिन्तयतः शुभाशुभो मनोयोगः, तथा किमप्यविधि सेसाणं पयमीणं, उत्तरविहिसंकमो भग्जो" ॥१९३६॥ नैव दानादिधर्ममुपदिशतः शुभाशुभो वाग्योगः, तया किम वह कानाधरणादिमूलप्रकृतीनामन्योन्यं संक्रमः कदापि न भ. व्यविधिनैव जिनपूजावन्दनादिकायचेष्टां कुर्वतः शुभाशुजः बत्येष, उत्तरप्रकृतीनां तु निजनिजमूनप्रकृत्यनिधानां परस्परं काययोगति। तदेतदयुक्तम् । कुत इत्याह-"दव्वम्मि" इत्यादि। संक्रमो भवति। तत्र चायं विधिः-" मोतूण पाउयं" इत्यादि। श्दमुक्तं भवति-इह विविधो योगो-न्यतो जावतश्च। तत्रम "मानयं" इति जातिप्रधानो निर्देश इति बहुवचनमत्र कटनोवाकाययोगप्रर्वतकानि द्रव्याणि, मनोवाकायपरिस्पन्दात्मको न्यम,चत्वार्यापि मुक्त्वेति । एकस्या मायुर्लकणाया निजमूलयोगश्च अध्ययोगः,यस्त्वेतदुनयरूपयोगहेतुरभ्यवसायः स भा. प्रकृतेरभिन्नानामपि चतुर्णामायुषामन्योऽन्यं संक्रमो न भव. वयोगः, तत्र शुजाशुज़रूपाणां यथोक्तचिन्तादेशनाकायचेष्टानां तीति तर्जनम् । तथा दर्शनमोहं चारित्रमोई व मुफ्त्या, प्रवत्तके द्रव्ययोगे द्विविधेऽपि व्यवहारमयदर्शनविवकामात्रेण एकस्या मोहनीयलक्षणायाः स्वमलप्रकृतेरनिन्नयोरपि दर्शप्रवेदपि शुभाशुनत्वनको मिश्रभावः, न तु मनोबाकाययोग नमोहचारित्रमोहयोरन्योऽन्यं संक्रमो न भवतीत्यर्थः। उक्त. निबन्धनाभ्यवसायरूपे जावकरणे भावात्मके योगे,अयमविप्राय:- | शेषाणां तु प्रकृतीनां,कथम्भूतानामित्याह-"उत्तरबिहि सि"। कव्ययोगो व्यवहारनयदर्शनेन शुभाशुभम्पोऽपि भ्यते, निश्च विधयो भेदा,उत्तरेच ते विधयश्चोत्तरविधय उत्तरदातदयनयेन तु सोऽपि शुभोऽशुनो वा केवलः समस्ति, यथोक्त भूतानाम जसरप्रकृतिरूपाणामिति तात्पर्यम्। किमित्याह-संक्रचिन्तादेशनादिप्रवर्तकाव्ययोगानामपि शुभागुजरूपमिश्राणां मोजाज्यो भजनीयः। भजना चैवंद्रटन्या-याःकिल ज्ञानावरणपतन्मतेनाजावात् , मनोवाकाययोगनिवन्धनाभ्यवसायरूपेतु भा. कदर्शनावरणनघककपायषोमशकमिथ्यात्वनयजुगुप्सातैजपकरणे भावयोगे, शुभाशुनरूपो मिश्रनावो नास्ति, निश्चय सफार्मणवर्णादिचतुष्कागुरुलघूपघातनिर्माणान्तरायपश्चकमक्षनयदर्शनस्यैवागमेऽत्र विवक्षितत्वात् । न हि अनान्यशुनानि णाः सप्तचत्वारिंशत् ध्रुवबन्धिन्य उत्तरप्रकृतयः,तासां निजैकम्चाऽध्यवसायस्थानानि मुक्त्वा शुभाशुभाभ्यवसायस्वानरूपस्तु. सप्रकृत्यन्निनानामन्योन्यं संक्रमः सदैव भवति। तद्यथा-कानाव. तीयो राशिरागमे कचिदपीप्यते, येनाध्यबसायरूपेषु भावयोगे. रणपञ्चकान्तर्वर्तिनि मतिज्ञानावरणे श्रुतकानावरणादीनि,तेवघु गुभाशुभत्वं स्यादिति जावः । तस्माद्भावयोगे एकसिमन्समये पि मतिज्ञानाचरणं संक्रामतीत्यादि। यास्तु शेषा अध्रुवबन्धिन्य. शुभोऽशुभो वा भवति, नतु मिश्रः। ततः कर्मापि तत्प्रत्ययं स्तासां निजैकमयप्रकृत्यभेदवर्तिनीनामपि वध्यमालायामवभ्यपृथक पुण्यरूपं पाप वा बध्यते, न तु मिश्ररूपमिति मानाः संक्रामन्ति, न त्ववध्यमानायां वध्यमाना यथा साते स्थितम् ॥ १९३६॥ बध्यमानेऽसातमवध्यमानं संक्रामति, नत बध्यमानमयध्यमाने, एतदेव समर्पयत्राह इत्यादि वाध्यमित्येष प्रकृतिसंक्रमे विधिः, शेषस्तु प्रदेशादिसं"माण सुभमसुनं था, न मीसंजच झाणविरमम्मि । कमविधिः "मूलप्रकृत्यभिन्नासु, वेद्यमानासु संक्रमः । भवति" सेसा महाऽसुहा था, मुहमसुई वा तमो कम्म" ॥१९३७॥ इत्यादिना स्थानान्तरादबसेयमित्यवं प्रसङ्गेनेति ॥१३॥ ध्यानं यस्मादागमे एकदा धर्मशक्कभ्यानात्मकं शुजम, भारी- ननु मिश्रयोगाभ्यवसायाभावाद् मा भूम्मिमप्रकृतिबन्धापत्तिः, सात्मकमशुभं वा निर्दिछ, न तु शुभाशुन्नात्मकं, यस्माच्च ध्या- तथापि व्यायवादन्ततो ध्रुवबन्धि पापमपि फलमबजंनी. नोपरमेऽपि लेश्या तेजसप्रिमुखा शुजा, कापोतीप्रमुखा चम. यमिति चेत् । न । ध्रुवबन्धित्वादेव तस्यातत्प्रत्ययत्वात् । अशुभा एकदा प्रोक्ता, न तु शुभाशुजरूपाः ध्यानलेड्यात्मकाच न्यथाऽतिप्रसाद प्रदणसमय पव गुणावयाभ्यां कर्मणि शुभावयोगाः, ततस्तेऽप्येकदा शुना अगुभा या भवम्ति, न तु भत्वस्याशुभत्वस्य रसाद्यपेकया जननात्। मिश्राः । ततो भावयोगनिमित्तं कर्माऽप्येकदा पुण्यात्मकं शुभं तदाहबध्यते, पापात्मकमजुभं वा बध्यते, न तु मिश्रमपि ॥१९३७॥ "भविसिटुंचियतं सो, परिणामासयसभावो खिप्पं । प्रपिच कुरुते सुभमसुनं वा,गहणे जीवो जहाहार" ॥ १६४३ ॥ "पुब्बगहियं च कम्मं, परिणामवसेण मीसयं नेज्जा । परिणामो जीवस्याभ्यवसायस्तवशानीयो ग्रहणसमये कर्मणः ३१३ Page #1273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५५०) चेश्य अभिधानराजेन्द्रः। चेइय शुभत्वमशुभत्वं वा जतयति,प्राश्रवः कर्मणो जीवः,तस्य स कोऽपि स्यात , अथवा श्वभिश्चरति, सोऽवनिशुनां परिपालको भवतीस्वभावो येन शुभान्यतः परत्वेन परिणमयन्नेव कर्म गृहाति,तथा त्यर्थः । अथवा 'सोवणि अंतए' श्वाभः पापाई कुर्वन्मृगादीशुभाशुन्नत्वयोः कर्म, तस्यापि स कोऽपि स्वभावः येन शुभा- नामन्तं करोतीत्यर्थः। इति अन्यहननतया सापराधगृहपतिशुभपरिणामान्वितेन जीवेन गृह्यमाणमेव तद्रूपतया परिणमय- दानादिना तत्संबन्ध्युष्ट्रजङ्घाच्छेदादिना तच्चालादाहादिना ति । उपलकणमेतत्-प्रदेशाल्पवहुभागवैचित्र्यादेः। नत्संबन्धिकुएमलाद्यपहारेण वा पाषाएककोपरि क्रोधेन त. उक्तं च कर्मप्रकृतिसंग्रदिण्याम् दुपकरणापहारतदाहारदाननिषेधादिना निर्मितमेव गृहपतिक्के"गहणसमयम्मि जीवो, अप्पाएई गुणे सपच्चयो। अंदानादिनाऽभिग्रहिकमिथ्यादृष्टितयाऽपशकुनधिया श्रमणानां सम्वजिआनंतगुणे, कम्मपपसेसु सम्वेसु" ॥ दशनापघातापसरणेन तशावसरास्फालनेन च , स्फाटकाश्राउयभागो थोबो" इत्यादि ॥१६४३|| दानेनेत्यर्थः । परुषवचनप्रहारैः परेषां शोकाद्युत्पादनादिना म"परिणामासयवसओ, धेणुए जद्द पो विसमाहिस्स । हारम्भादिना नागभवाश्लाघया चैश्वर्यात, अत्र भवे महातृष्णा. तुल्लो वि तदाहारो, तह पुस्मापुस्मपरिणामो ॥ १६४४ ।। वतामधर्मपक्क बक्तः । उपसंहृतश्च-"एसहाणे अणारिए अके जह बेगसरीरम्मि वि, सारासारपरिणामयामेति । वले अपमिपुन्ने असंसुद्धे अरण्याचए असल्लगत्तणे असिकिमअविसिहो आहारो, तह कम्मसुहासुहविवागो" १६४५॥ | ग्गे अमुत्तिमग्गे अणिवाणमग्गे अणिज्माणमम्गे असबपुरकननु न्यायस्तावन्मुग्धानां कूटपाशप्राय इत्यभिन्नसूत्रादेशेन प्पहीणमग्गे पगंतमिच्छे असाहू एस खलु पढमस्स गणस्स श्राद्धानां मिश्रपकोऽस्त्येवेति पश्यतस्तदधिकृतद्रव्यस्तवस्य अहम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए ति" | अदास्थानमनार्यममिथत्वं रोचयाम इति चेत्, अहो दुराशयसिकान्ततात्पर्थपरि नाचीर्णत्वात, नास्ति केवलं यत्रत्यकेवलमाकामित्यर्थः । अपकानमनुपासितगुरुकुलस्य तव कथंकारं संजवति ? । तथाहि रिपूर्ण सद्गुणविरहात्, इत्थमनैयायिकमसन्यायवृत्तिकमस. व्यवहारनयादेशेन बन्धानौपयिक पक्कायोपवर्णन कृतं, संग्रह द्वगत्वमिन्द्रियासंवरणरूपम, 'रगि लगि संवरणे' इति धातोः नयादेशेन तु कलापेक्षया द्वैविध्यमेवेति पूजापोषधयोः को शोचनो लगः सल्लगस्तद्भावस्तत्वं, नास्ति स यत्रेतिव्युत्पत्तेः। वा विशेषः? ॥८६॥ यद्वा-शल्यं गायति कथयतीति शल्यगः, तद्भावस्तत्वं , नास्ति श्राकानां मिश्रपक्कस्य भेदोऽस्त्येतदभिप्रायवानाह तद् यत्र तदशल्यगत्वम् , सिद्धिः स्थानविशेषो, मुक्तिरशे षकर्मतयः , निर्वाणं निःशेषतया भवपरित्यागेन यानं, निासिधान्ते परिजापितो हि गृहिणो मिश्रत्वपक्षस्ततो, नमात्मस्थानापत्तिः, सर्वपुःखस्य प्रक्षीणं प्रत्यक्तः, तन्मार्गाबन्धानौपयिको विरत्यविरतिस्थानात्तनुत्प्रेक्षया । भावादसिकिमार्गादिपदानि व्याख्येयानि । कुत पवमित्यत्र भन्तर्भावित एव सोऽपि पुरतो धर्मे फलापेक्ष्या, "पाहरणं च" इत्यादि एकान्तेनैव तत्स्थानं , यतो मिथ्यापूनापोषधतुल्यताऽस्य किमु न व्यक्ता विशेषेक्षिणाम्।६० | नूतं मिथ्यात्वोपहतबुद्धिस्वामिकत्वात् अन्तरसाध्वसवृत्तित्वा त् । तदयं प्रथमस्य स्थानस्याधर्मपाक्तिकस्य पापोपादाननूतस्य (सिमान्त इति) सिमान्ते सूत्रकृताख्ये, हि निश्चितं, ततो मि. विभङ्गो विशेषः, स्वरूपमिति यावत्, एवमाहृत पवमुपदर्शितः। श्रत्वपक्षो बन्धानौपयिकः बन्धाननुगुणः विरत्यविरतिस्थानात धर्मपक्षस्त्वेवमतिदिष्टः- "अहावरे दोश्चस्स गणस्स धम्मपक्खयोऽनुगमस्तपुत्प्रेक्या , स्वरूपमात्रेणेति यावत् । परिभाषितः स्स विभंगे एवमाहिज्जर-इह खलु पाईणं वा पडीणं वा०संतेसंकेतितः, सोऽपि परिजाषितमिश्रपक्षोऽपि, पुरतोऽने, फलापे गश्श्रामणुस्साभवंति । तं जहा-श्रारिमा बेगे प्रणारिया बेणे कया धर्मेऽन्तर्भावितः , ततोऽस्य गृहिणः , विशेषेक्विणां विशे- सच्चागोआ वेगेनीगोत्रा वेगे, कायमंता वेगे,हस्समंता धेगे, सु. षदर्शिनां पूजापोषधयोस्तुल्यता,किमु न व्यक्ता?,अपि तु व्यक्ता। वमा वेगे,दुवामा वेगे,सुरूवा वेगे,पुरुवा चेगे। तेसिं च खेत्तवत्यूवाग्व्यवहारतो मिश्रपक्षस्य, निश्चयतश्च धर्मत्वस्य, सूत्रकृते हि णि परिगहिवार भवंति। एसो पालावगो जहापुमरीए तहाणेपकत्रयव्याख्यानावसरे "अत्तरं चणं पुरिसविजयं विनंगमा- धब्बो,तेणेव अंभिलावणंजाब सब्वोवसंता सव्वत्ताए परिनिन्इक्खिस्लामि, वह खलु नाणापन्नाणं नाणादाणं नाणासीलाणं मत्ति वेमि। एसटाणे आरिए केवले जाव सव्वक्खपहीणनाणादिट्ठीणं नाणारईणं जाणारंभाणं नाणाझवसायसंजुत्ताणं मंग्गे एगंतसम्म साहू दोश्चस्स गणस्स धम्मपक्खस्स विनंगे नाणाविहपावसुअज्जयणं एवं भवति। तं जहा-भोमं उप्पायं।" पवमाहिए त्ति।" तृतीय स्थानमधिकृत्य एवं सूत्रं प्रवृत्तम-". इत्यादिना पापश्रुताध्ययनाद्यर्थ तत्प्रयोगेण सुरकिल्बिषादिना- हावरे तच्चस्स ट्ठाणस्त्र मीसगस्स विभंगे एवमाहिज्जइ,जे इमे बनया तल्लोकोत्पादितश्रुतस्येममूकादिभावोत्पादेन गृहिणां भवंति-आरन्निया श्रावसहिया गामाणिअंतिया कण्हुई हस्सिचात्मस्वजनाद्यर्थचतुर्दशनिरसदनुष्ठानैः; तथाहि-कश्चिदका- या०जावते तओ विप्पमुखमाणा नुज्जो पलमयत्ताए पञ्चायति, र्याध्यवसायेनानुगच्छतीत्यनुगामिको जवति , तं गच्छन्तमनुग-1 एस ठाणे प्रणारिए अकेवले जाव असव्वदुक्खप्पहीणमग्गे च्छतीत्यर्थः। अथवा-तस्यापकारावसरापेदयुपचारको जवति,अ. असाह एस खलु तच्चस्स गणस्स मीसगस्स विनंगे एवमाथवा तस्य प्रतिपथिको भवति,प्रतिपथं संमुखीनमागच्छतीति। दिए त्ति । " साम्प्रतं धर्माधर्मयुक्तं तृतीयस्थानमाश्रित्याहअथवा स्वजनाद्यर्थ संधिच्छेदको भवति, खात्रखननादिकर्ता "अहावरे" इत्यादि । अथाऽपरस्तृतीयस्थानस्य मिथकाभवतीत्यर्थः । अथवा घुधुरादिना ग्रन्थिच्छेदकभावं प्रतिपद्यते , ख्यस्य विभङ्गो विभागः स्वरूपमाख्यायते । अत्र चाधर्मपअथ सौर मषैश्चरतीति सौरनिकः, अथवा शौकारको भव- केण युक्तो धर्मपको मिश्र इत्युच्यते , तत्राधर्मस्येह भूयति, अथवा शकुनिभिश्चरति शाकुनिका, अथवा बागुरया मृगा- स्त्वादधर्मपक एवायं षष्टव्यः। एतदुक्तं भवति-यद्यपि मिथ्या. दिबन्धनरज्ज्वा चरति बागुरिकः, अथवा मत्स्यैश्चरति मात्स्यि- दृष्टयः काञ्चित्तथाप्रकारां प्राणातिपातादिनिवृत्ति विदधति, कः , अथवा गोपालकभावं प्रतिपद्यते , अथवा गरघातकः । तथाऽप्याशयाशुत्वादभिनवेऽपि तदन्ये सति शर्करामिश्रकी Page #1274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५१) चेश्य अन्निधानराजन्द्रः । चेडय रपानवखरप्रदेशवृष्टिवदिति तीर्थासाधकत्वान्निरर्थकत्वमा- उवलभंते, तेणं तत्थ उजलं विउलं पगाढं कमुअंककसं चंडं शयाशुद्धत्वादभिनवेऽपि ते तथा मिथ्यात्वानुन्नावात् मिश्र- | दुक्खं दुग्गं तिव्वं पुरहिवासं रा वेयणं पञ्चम्भवमाणा पक्कोऽप्यधर्मपक्ष एवावगन्तव्यः , इत्येतदेव दर्शयितुमाह-"जे विहरति । से जहाणामए रुक्खसिया पब्वयम्गे जाए मुझे छिन्ने श्मे भवतीत्यादि "। ये श्मे अनन्तरमुच्यमाना प्रारपियकाः | अम्गे गरुए जो णितं जतो विसमं जतो दुग्गं ततो पवमंति, कन्दमूलफलासिनस्तापसादयो , ये चावसथिका आवसथो एवमेव तहप्पगारे पुरिसजाए गम्भाओ गम्भं जम्माओ नम्म गृहं , तेन चरन्तीत्यावसाथिका गृहिणस्तु कुतश्चित्पापस्था- माराश्रो मारं णरगाओ जरगं दुक्खाओ दुक्खं दाहिणगामिए नानिवृत्ता अपि प्रबलमिथ्यात्वोपहतबुद्धयस्ते यापवासा- णेरए कपहपक्खिए आगमिस्साणं दुबहवोहिए प्रावि भवर, दिना महता कायक्लेशेन देवगतयः केचन प्रवन्ति , तथा- एसधाणे अणारिए अकेवले जाव असव्वदुक्खप्पहीणमग्गे ऽपि ते प्रासुरीयेषु स्थानेषु किल्विषिकेषूत्पद्यन्ते इत्यादि सर्व एगतमिच्छे असाह पढमस्स गणस्स अहम्मपक्खस्स विपूर्वोक्तं जणनीयम् , यावदेकान्तमिथ्यानूतं सर्वथैतदसाध्विति नंगे एवमाहिए । अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स तृतीयस्थानस्य मिश्रकस्याऽयं विनङ्गो विभागः स्वरूपमाख्यात. विनंगे एवमाहिज्जइ-इह खबु पाईण वा० संतेगइया मणुनिति । उक्तान्यधर्ममिश्रस्थानानि । साम्प्रतं तेनाश्रिताः स्थानिनो- स्सा जवंति । तं जहा-अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माऽभिधीयन्ते। यदि वा प्रकृतमेवान्येन प्रकारण विशेषतरमुच्यते णुगा धम्मा० जाव जे आवन्ने तहप्पगारा सावज्जा अवोहिआ शति संगत्याऽग्रिममालापकत्रयं योजितम्-" अहावरे पढ- कम्मंता परपाणपरियावणकरा कन्जंति,तो विपमिविरया जा. मस्स हाणस्स अहम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिजइह खलु बज्जीवाप,से जहाणामए अणगारा जगवंतो इरिआसमिआ भा. पाईणं वा०सतेगआ मणुस्सा भवंति-गिहत्था महिला महा- सासमिश्रा अणगारवाओ० जाव सव्वगायपडिकम्मविप्पमुरम्भा महापरिग्गहा अधम्मिया अधम्माएमा अधम्मिका अध-| का चिति । तते णं एएणं विहारेणं विहरमाणा बहुरं वासा म्मक्खाई अधम्मपल्लोई अधम्मपावजीविणो अधम्मवलजणा | सामनपरिमार्ग पाउगंति वहु २ आवाहंसि वा अधम्मसीलसमुदायारा अधम्मेणं चेव वित्ति कप्पेभाणा मंसि वा अणुप्पमंसि वा बहुई भत्ताई पच्चक्खित्ता बविहरति । हण बिंद जिंद विगत्तगा बोहिअपाणी चंडा हुई वासाहि अणसणाहिं छेदति २ जस्सहाए कीरइ जग्गरहा खुद्दा साहस्सिा उक्कंचणवंचणमायाणियमिकूमक- भावे मुंमभावे अण्हाणभावे अदंतवणगे उत्तए अणूवरसाइसंपयोगबहुला दुस्सीला दुव्वया दुप्पडिपाणंदा वाहणए भूमिसेज्जाफलगसेजा जाव केसलोए बंजचेरवासे असाहु सव्वाभो पाणाश्वायाओ अप्पमिविरया जावजी- परघरप्पवेसे सका अलकामाणावमाणणाओ होलणाओ जिंदपाए सव्वमो कोदालो. जाव मिच्छादसणसद्धाश्रो अप्पमि- णाम्रो गरहणामो खिसणाओ तज्जणाश्रोतालणाओ उच्चावया विस्या सव्वो एहाणवणुम्मदणवमगंधविलेवणसहफरिसरस- मामकंटया वावीसं परीसहोवसग्मा अहिआसिज्जंति तमास्वगंधमवालंकारामो अप्पडिविरया जावजीवाए सव्वाश्रो माराहेति , तमट्ठमाराहेत्ता चरमेहिं उस्सासनीसासहि अणंतं सगडरहजाणजुगगिल्लिथिद्विसिआ संदमाणिया सयणासण- अणुत्तरं निवाघायं निरावरणं कसिणं परिपुन्नं केवलवरनाणजाणवाहणभोगनोपणपवित्थरविहीओ अप्पमिविरया जावजी. दसणं समुप्पामेति,समुप्पाडेतित्ता तो पच्छा सिझंति वुऊपाए०जावसव्वानो कूडतुबकूममाणाो अप्पडिविरया०सव्वा- तिमुच्चति परिनिव्वायंतिण्जाव सव्वदुकाणमंतं करेंति,एगद्याए ओ प्रारंभसमारंभाओ अप्पडिविरया०सव्वाश्रो करणकारणा- पुण एगे भयंतारोजवंति अवरेपुवकम्मावससेणं कालमासे प्रोअप्पमिविरयाजावजोवाए सव्वाओ पयणपायाणाश्रो अप्पमि- कावं किच्चा अणुत्तरेसु देवलोएसुदेवत्ताए उववत्तारो भवंति, विरयासब्बाओ कुट्टणपिट्टणतजणतामणवहबंधणपरिकिसा. तं जहा-महलिपसुजाव महितीया महज्जुआव्जाव महासुखाश्रो अप्पमिविरया जावज्जीवाए जे आवश्नेतहप्पगारासावजाब- हारविहाराश्ववत्था कडगतुसिनिअनुया पगयकुंमलमगंबोहिमा कम्मंता परपाणपरित्रावणकरा जे अणारिपहिं कज्जति डयनकमपीग्धारी विचित्तवत्थाजरणा विचित्तमालामउलितमो वि अप्पडिविरया जावजीवाए, से जहाणामए के पुरिसे मनमा कडाणगंधपवरवत्थपरिहिश्रा कल्लाणगपवरमद्वाणुकलमसूर० जाब पवमेव ते इत्थिकामेहिं मुच्चिया गिद्धा गढि- बेवधरा भासुरवोदीपलंबवणमालधरा दिब्वेणं रुवणे दिआ अजोयना जाव वासाई चउपंचमाई वा चद्दसमाई वा ब्वेणं वोणं दिवेणं फासणं दिवेणं संघाएणं दिव्येणं अप्पतरो वा भुज्जतरोधा कासं तुंजित्तु भोगभोगाइं पविसुश्त्ता संगणणं दिवाए इलिए दिव्वाए जुईप दिव्वाए पभाए धेरायतणाई संचिणित्ता बहूई पावाई कम्माई उस्सनाई संभा- दिव्वाए गयाए दिव्याए अच्चाए दिव्वणं तेएणं दिवाए रकमेण कम्मुणा से जहाणामए अयगोसइ वा सेलगोल वा लेसाए दसदिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा गतिकल्लामा उदगंसि पक्खित्ते समाणे उदगतलमश्चात्ता अहे धरणितलप- चितिकल्लाणा आगमेसि भद्दया वि भवंति, एसटाणे आरिए० इटाणे भवति । एवमेव तहप्पगारे पुरिसजाते वजवहुले जाव सम्बखप्पहीणमग्गे एगतसम्म साहू दोच्चस्स गणस्स धूतबहुले० जाव अयसवहुले उस्सन्नतसपाणाश्चाई काले धम्मपरकस्स विनंगे एवमाहिए। अहावरे तच्चस्स हाणस्स मी. मासे कालं किया धरणितलमइवश्ता अहे णरगतलप- सगस्स विनंगे एवमाहिज्जर,श्ह खबु पाईणं वा संतेगइया म. ट्ठाणे नवति । तेणं गरगा अंतोवट्टा वाहिं चउरसा अहे गुस्सा भवंति। तं जहा-अप्पच्छा०जावसुपमिआणंदा साहुजाव खुरप्पसंठाणसंठिया णिच्चंधगारतमसा ववगयगढचंदसू. परपाणपरितावणकरा कज्जति. तओ वि एगच्चायो अप्पमिरनकत्तजोश्सप्पहामदेवसामसरुहिरपूयपडलचिक्खनसित्ता- विरया से जहाणामए समणोवासगा भवंति। अभिगयजीवागुलेवणतला असुई बीसा परमब्भिगंधा० जाव असुभा जीवा नवलपुमपावा. जाव अप्पाणं भावेमाणा विहणरगा असुना णरपसु वेदणाओ। नो चेवणं णरगेसु नेरइया | रति । तेण प्यारूवणं विहारणं विहरमाणा पहुई वासा णिहाईति य पलायति वासति वा रात वा धिर्ति वा मतिं वा । समणोचासपरिश्रायं पातपति, पानणेतित्ता अवाहसि उप Page #1275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेइय (१२५२) अभिधानराजेन्छः। इय मंसि वा अणुप्पमसि वा वहुई भत्ताई अणसणाए पचरका-1 २, विरताविरतः ३, सर्वतो विरताविरतः ४, श्रमणोपंति, पचरकापंतिचा बहुई अणसणाई देति , छेदेतित्ता | पासको देशविरतः ५, सर्वविरतश्च ६ इति तावत् षट् पुरुषा पालोअपडिकता समाहिपत्ता कालमासे कासं किच्चा अध्य- प्रवन्ति । तत्र सर्वतो विरतः स उच्यते, यः कुगुरुकुदेवकुधर्मश्र परेसु देवलोपसु उववत्तारो मवेति । तं नहा-महरुिपसु महः कावान् सम्यक्त्वलेशेनाऽप्युत्सृष्टमनाः, यमुद्दिश्य-" इह खबु ज्जुइपसु० जाव महासुखेसु सेसं तदेव जाव एसटाणे पाय- | पाणं बा०४ संतेगमा मात्रा भवंति । तं जहा महिच्या रिए० जाव एगंतसम्मे साहू तवस्स गणस्स मिस्सगस्स | महारंभा" इत्यादि सूत्र वृत्तम । १। अविरतस्तु स छविनंगे पवमाहिए" ति । अथ स्थानत्रयमुपसंहारद्वारेण संके- च्यते, यः सम्यक्त्वालस्कृतोऽपि मूलोत्तरभेदभिन्नो पिरति पतो विभणिपुराह-"अविरइंपमुच्च वाले पाहिजशविर पहु- पालयितुमसमर्थो जिनप्रतिमामुनियावृत्यकरणाशातनापरिहाउच पंडिए पाहिज्जर, विरताविरति पमुच्च बालपंडिए माहि- रादिना या प्रकटितभक्तिरागः ।श विरताविरतश्च स उच्चज्जा, तत्थ पंजा सा सम्बतो अविरतिए एसटाणे प्रारंजहाणे ते, यः पूर्णसम्यक्त्वाभावधानपि स्वोपचितान् सर्वव्रतनियमान प्रणारिए० जाव सव्वदुक्खप्पहीणमम्मे पगंतसम्मे साह, तत्थ विभर्ति । ३। सर्वतो विरताविरतश्च स उच्यते, यस्य मनसि णं जा सा सव्वतो विरताविरती एसटाणे प्रारंभाणारंभहाणे " तमेव निस्संतु णीसंकं, जं जिणेहिं पवे।" इति पएसहाणे आरिप० जाव सव्वक्खप्पहीणमग्गे पगंतसम्मे, रिणामः स्थिरो भवति, परं मनसः प्रमादपारतच्या मना साह, पवामेव समागम्ममाणा इमेहि चेष दोहि गणेहि साधुसङ्गमाभावात्परिपूर्ण जिननाषितं न जानीते, कुलक्रमासमो अवतरंति । तं जहा-धम्मे चेव अधम्मे चेव उवसंते वर्ता च विरतिं पालयति, पूर्व संयमझानाभावादारम्भेन चेव अणुवसंते चेव।" (सूत्र०२७०२०) आह च-मिश्र- जिनपूजां करोति भक्तिरागपारवश्यात् , तत एव संयमवानपको मिथ्याशामधर्मपक्क एव , सम्यशां श्राद्धानामपि | यमिति वा यावता कृत्येन संयमः पालयितुं न शक्यते स धर्मपक्क एवेति व्यक्तं फलतः प्रतीयते, साधुश्रारूमार्गयोः ताबानेवाविरतिनागः श्रुते भणित इति । बमुदिश्येदं सूत्रम्सर्वदुःखप्रवीणमार्गत्वात् । यथा च मिथ्यारोः कव्यतो विर- "ह बमु पाइणं वा संतेगश्मा मणुा भवंति । तं जदा-प्रतिरपि सम्यक्त्वाभावादविरतिरेव बालशब्दव्यपदेशनिबन्धनं प्पिच्छा अपारंजा" इत्यादि । चतुर्थनास्वषिरत्यपेक्कया स्यात, तथा सम्यम्दृष्टः धर्मकर्मणि कन्यतोऽविरतिरपि विरति- स्तोकस्याविरत्या तृतीयो भक्त इति विवेकः ॥॥ श्रमणोकार्याशिकपारिमत्यव्यपदेशप्रतिबन्धिका न स्यात, द्रव्यतयैव पाशको देशविरतश्च स उच्यते,याश्रमणोपासनमहिम्ना प्रतिनिष्फलत्वादिति सूक्ष्ममीकणीयम् । अविरतिविषयाणामष्टाद- दिनप्रबमानसंगो यावजीवं सक्ष्मवादरादिनदपरिकानशानामपि स्थानानामेकतरांशस्य सत्वेऽपि तत्प्रतिपकस्य धर्मा थान् तत पवास्थिमज्जप्रेमानुरागरक्तचित्तो देशविरतिं गृहीशस्योत्कटत्वे धर्मपतएव विजयते; अन्यथाऽविरतिसम्यग्दृष्टि- त्वा पालयति सम्यक्त्वसहितवतमहोत्तमभकरधोजयकाब. कस्यापि पकस्य स्थानं न स्यात् । ततश्च यनिकम्योक्तम्-"तत्थ मावश्यकं कुरुते, स एव संयम जानीते । उक्तं चानुयोगवागंजे से पढमस्स ठाणस्स अहम्मपक्खस्स विनंगे पवमादिज्जर रस्ते-“समगण सावरण य, अवस्सकायन्वयं हवा जम्दा । तस्स ण इमाई तित्रि तेवट्ठाई पावाप्रो असयाईभवंतित्ति प्र. भंतो महोणिसीए, तम्हा श्रावस्सयं माम" ॥१॥ दशकालिके क्वाश्यं । जहा-किरियावाईणं, प्राणाणियवाईणं, वेणाभवा- च-"जो जीवे वि बियाणेश, अजीवे वि वियाण । जीवाजीवे ईणं ति" तद्विमर्श परस्य गगनमालोकनीयं स्यात् । न हि ती| वियाणतो, सो हुणाहिर संजमं॥" एनमेवोद्दिश्य"-से जहाणार्थकदृष्टानुगत प्राचारो धर्मः स्वसमयानुगतश्च धर्मः प्रती- मएसमयोवासगा भगवंता अभिगयजीवाजीवा" इत्यादि सूत्रं यते इति । ए०॥ प्रवर्तते । अयमेव शुद्धजिनप्रतिमानुचितं संयममाफियते, हिंसा पतत्सर्वमभिप्रेत्य प्रक्तिरागप्रतिबन्धाद् व्यस्तवे धर्मप- परिहत्य जिनविरहे जिनप्रतिमा पूजयति, संयमको ह्यसौ कबलात्परमङ्गीकारयन्नाह षदायहिंसां परिहरति । अत एवोक्तं महानिशीथे-" - हिंसांशो यदि दोपकृत्तव जह ! द्रव्यस्तवे केन त कसिणपवत्सगाणं, विरयाविरयाण एस खसु जुत्तो । जे कमिश्रत्वं यदि दर्शनेन किमु तद्भोगादिकालेऽपि न । सिणसंयमविक. पुष्फरिन कप्पए तेसि ॥१॥" प्रावश्यक नियुक्तावपि-"जे कसिणसंयमविक, पुष्फाईनं ण इच्छति।" जक्त्या चेत् न तु साऽपि का यदि मतो रागो भनानं तदा- इत्यत्र साधुधावकयोद्धयोरविशेषेण कृत्स्नसंयमहत्वपुणादि. हिंसायामपि शस्तता तु सदृशीत्यत्रोत्तरं मृग्यते ॥१॥ परिहारेण पूजाधिकारेतादवस्थ्यमुक्तम,तत्रैकतरपक्षपातोनथे. (हिसांश इति) दे जम ! यदि व्यस्तवे हिंसांशो दोषक- यान, किंचात्र कारणमिति विचारणीयम् । यदीन्द्राभिषेककन्मिभत्वकृत, तदा केन तन्मित्वं कृतं स्यात् । चेत् यदि- रणे सुपर्वाणोऽहमहमिकमीदारिकजलपुष्पसिकार्यादीनि गृ. भक्त्या मिश्रत्वं त्वयोच्यते तद साऽपि भक्तिरपि रागो। दन्ति, जिनपूजां तु तेनोपचारेण कुर्वन्तीति सुरपुष्पेप्यत्र संनवोs. मतस्तदा भवाङ्गम्, रागद्वेषयोरेव संसारमूलत्वात्तदाऽभ्यां सं- सानत्वं च हेतुश्चेद, हिंसापरिदार एवायं धर्माभ्युदयाय प्रगल्ला, सारान्तर्गताज्यां धर्मपक्कश्चोत्कटः स्यादिति को मिश्रावकाशः', समवसरणे च वैक्रियाण्येव पुष्पाणि देवाः प्रभोरप्रे देशनाप्रशस्तरागत्वाद्भक्तिवाङ्गमिति चेत्, तर्हि व्यस्तवानुगतदि। वसरे व्याकिरन्ति, मण्यादिरचनाप्यचितवोक्तं राजप्रमीयोपा. सायामपि शस्तता सहशी; अत्र तव किमुत्तरमिति मृग्यते?, अत्र | ने-"पुष्फवदलयं विनव्वंति" इत्यादि नवकमलरचनाप्यचित्तव च सम्यगुत्तरं वर्षसहस्रेणापि न परेण दातुं शक्यमिति मो.। शेयातयामाना,वन्दनाघधिकारे पञ्चविधाभिगमविधीसचित्त काधिभिरस्मदुक्क एव पन्थाः अकेयः। पतेन षट्पुरुषीप्रदर्श- सन्योज्कनमुक्तमस्ति, जिनजवनप्रवेशेऽपि चैत्यवन्दनभाण्यादाबेन श्रमणोपासकानां न व्यस्तवाधिकार इति कापुरुषस्य पा-1 वयं विधिरुक्तोऽस्तीति, ततो निरवद्यपूजैव देशविरतस्य संजश्वस्थस्य मतं निरस्तम् । एवं हितत्-सर्वतो विरतः१, अविरतः वतीति श्रद्धेयमासर्वविरतश्च स उच्यते-यो गृहीतपञ्चमहावतः Jain Education Interational Page #1276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेश्य चेइय (१२५३) अभिधानराजेन्द्रः । समितिगुप्तिसंपन्नो घोरपरीघहोपसर्गसहनदृढशक्तिमान् सन्य- __ "एगचाओ अप्पमिविरया" इत्यन्वयः। “से जहानामए समणोस्तसर्वारम्भपरिग्रहः सदानिरवद्योपदशदाता वाङ्मात्रेणाऽपि वासगा प्रवति" श्रमणोपासकगुणवतो विरताविरतगुणवसावद्यतन्मिधाननुमोदकः परमगनीरचेताः संप्राप्तभवपार शति। ध्यापकत्वस्यैव लाभाद्वस्तुतः श्रमगोपासकपदेन बिरतावि. एतद् हताशस्य मतम् । समूर्छिताऽन्येक्तितघातयतोः सर्ववि. रतपरिचरणाद् गुणस्थानविशेषावच्छिन्ने शक्तिग्रहतात्पर्य श्रम रताविरतयोरत्यन्तभेदाभावाद बालत्वव्यपदेशनिबन्धनाविरते. जोपासकपदाद् बुद्धिविशेषानुगतैर्गुणविशेषैरेव बोधे विरतप रुभयत्राऽविशेषात् पापस्यानत्वविभाजकोपाधिव्याप्यविषय- दादपि व्युत्पत्तिविशेषात्तथैव बोधः समभिरूढनयाश्रयणेन ताका विरतिः सर्वतोऽप्यविरतत्वे द्रव्यतो हिंसादिव्यावृत्तमि- विरताविरतश्रमणोपासकपदार्थभेदस्त्वयाऽज्युपगम्यते चेदेवं ध्यादृष्टिष्वव्याप्तः, सम्यक्त्वाभावस्यैव सर्वतोऽविरतत्वपरि घटकुम्नादिपदार्थनेदोऽपि किं नान्युपगम्यत एव, परभाषणे च सम्यम्हष्टिब्यावृत्तावप्येकभेदानुगुण्याभावात्फलासि. विभाजकोपाधिभेदाप्रयुक्तत्वेन विभागाननुकूल इति चेत्, प्र. द्धेः । किं चैवं सम्यग्दृष्टिरपि मिथ्यादर्शनविरत्यविरतिभ्यां मि कृतेऽपि दीयतां दृष्टिः, “अकसिणपबत्तगाणं" इत्यादिधपक्कपातः। श्यापत्तिरत्र-“एगच्चायो मिच्छादसणसल्लाश्रो प महानिशीथप्रवचनाद् व्यस्तवाधिकारिणो बिरताविरतान देशविरताः इति चेत्, महानिशीथध्वान्तावलसितमेतद्देवानां मिविरयाप जाव अप्पमिविरयाए जाश्रो अप्पडिविरया" इति पाठस्वरसादिति चेत् । न । तस्याकारानाकारादिविषयत्वेन मू प्रियस्य । तत्र हि विशिष्य देशविरतकृत्यमेतदानादिचतुष्कं तु. त्यफलं चेति व्यक्तमुपदर्शितमेवाधस्तात् । यत्तु कृत्मसंयमविलगुणविरत्यभावापेक्तयैवाविरतेय॑वस्थापितत्वात, सम्यक्त्वा दां पुष्पाद्यर्चने नाधिकारात श्रमणोपासका अपि न तदधिकाभावेन विरतिरेवेति तु कृतमेव जाषितं,का तवाऽऽहोपुरुषिका?, रिण इति तदधिकारित्वेनोक्ता विरताविरता एवेति चेत, अहो एतेन तृतीयभक्तोऽपि विलूनशीर्षः, संपूर्णकाने चाविरतेरेवै भवान पामरादपि पामरोऽस्ति, यः कृत्स्नसंयमविद इत्यस्य वृ. कस्याः साम्राज्यात् । यत्किञ्चिदर्थाथद्धाने तु " एकस्मिन्जयर्थे त्तिकृदुक्तमर्थमपि न जानाति । कृत्स्नसंयमाश्च ते विदो वि. संदिग्धेऽहति तु निश्चयो नष्टः" इति न्यायात् संपूर्णचकानानावान्मिथ्यात्वस्यैवावस्थितेः । चतुर्थे भने तु सैव मि छांस इत्येव हि वृत्तिकृता विवृतमिति । यदि च श्रमणोपासक महिमलब्धकृत्स्नसंयमपरिझानेन देशविरताः पुष्पाद्यर्चनेनाध्यादिसंक्षेपरुचिसम्यक्त्वाभावाद्देशतो विरत्या देशविरतिः धियुः, तदा देवा अपि कृतजिनादिसेवाः पुस्तकरत्नवाचनोपसंपन्नेति केयं वाचोयुक्तिर्यदुतसर्वतो विरताविरतिः। ननु देश लब्धधर्मव्यवसायाः सम्यक्त्वोपबृंहितनिर्मलावधिज्ञानेनागम्य विरतिविशेषपरिज्ञानाजावेऽपि तादृशसम्यक्त्वेन माषतुषादीनां व्यवहारप्रियाः कथं तन्नाऽपि कुर्युः । अत पवार्चितपुष्पादिभिः सर्वविरतिरप्यखएका प्रसिति किमपराद्धं देशविरत्या,येना रेव ते जिनपूजां कुर्वन्तीति चेत, अहो सुम्पकमातृष्वसः! केनेई स्य तद्वतान भवेत् । एवं बदतश्च सिकान्तले शमपि नाधातवान् तव कर्णे सूचितं, यन्नदीपुष्करिणीकमलादीन्यचित्तान्येवेति हताशः तथा चोक्तं भगवत्याम्-" से नूर्ण नंते ! 'तमेव सव्वं सचित्तपुप्पादिना पूजाध्यवसाये अव्यतः पापाच्युपगमेऽचिणीसंकं, जिणेहि पवेश्अं'? हंता गोयमा! तमेव सव्वं । से नूर्ण तपुष्पादिना ततो भावतः पापस्य दुर्निवारत्वात् महिषव्यापाभंते ! एवं मणे धारेमाणे एवं पकरेमाणे आणाए आराहए दन श्व शौकरिकस्य किमिति मुग्धबन्धनार्थ कृत्रिमपुष्पादिना भवति ? हंता गोयमा! तं चेव" त्ति । जीवविशेषपरिज्ञानाभा पूजां व्यवस्थापयति । एवं हि स्नानजलादिनैवाभिषेको वेन मूलतः सम्यक्त्वाभावोक्तौ षटकायपरिज्ञानघतोऽपि स्या ऽपि पाच्या, मूत्रत एव निषेधे किं न भाषसे दुरन्तसंद्वादसाधनानभिज्ञस्य न सम्यक्त्वमित्युपरितनोद्दिष्टं तथ सब सारकारणं धारम्नशङ्काम । तदाहुः श्रीहरिभसूरयः-"मिन्छजालायते । तदुक्तं सम्मतौ-"गज्जीवनिकाए स-दहमाणो मस्थारंजवओ, धम्मेणारंजयो अणाभोगा। लोए पवयणवसा, न सद्दहइ नावा। हंदी अपजवेखं, सद्दहणा हो अवित्रत्ता"।१। अवोहिवाय ति दोसाय ॥१॥" इन्जाभिषेके जलादिग्रहणं प्रकरणोक्तिरियमिति चेत, किमुत्तरादावपि नाराधितां स्पृश जिनपूजार्थ तु तत्रत्यस्यैवेत्यत्र तु कारणं मङ्गलार्थत्वनिस्यति । तमुक्तम्-“दावाण सव्वभासा, सव्वयमाणेहि जस्स - भक्त्यर्थत्वादीनि, मा विप्रियं कुरु, अभिगमवचनं तु वलका । सव्वाहि णयविहीहि, विरतरुई यत्ति णायब्वो" ॥१॥ योग्यतया भोगाङ्गं सचित्तपरिहारविषयं, यथा घटमाहरेत्ति।विशेषानावेऽपि सामान्याक्षतिश्चावयोस्तुल्या । एवं "ण श्म त्यत्र घटपदं योग्यतया विजेतरविषयम् । अन्यथा सबालकसकमागारमावसंतेहिं" इत्यादिनाऽपिन व्यामोहः कार्यः। सूत्र स्त्रियो मुनिवन्दने नाभिगच्छेयुः । चैत्यवन्दनजाण्यादौ चाभिस्य नयगम्भीरत्वान्नयगतश्च विचित्रत्वात् । इह तु तव पुस्त- गमेऽचित्तायोज्झनं श्राद्धानां पुष्पादिना पूजाविधान चोरवारिबुडनजयं स्यात् । यदेतत् नक्तिरागण देवपूजाप्रवृत्तावार. क्तमिति किमुपजीव्य विरोधेनाभिगम इति खड्गच्छत्रोपानत्प्र. म्भात् संयमक्षत्या कथं देशविइतित्वेन जक्तिरागेण संजमाप भृति चिह्नद्रव्यं ध्वजादिरपरित्याज्यं स्यात्, प्रवचनशोभानुगुरिगणनाद्विरत्याविरतिरेव न देशविरतिरिति,तत्तु महामोहानि णाचित्तव्योपादानमेव द्वितीयार्थ इति चेत्, पृजाद्यवसरे तद. निवेशेनागणिनपरलोकभयस्य तवैव दुस्तरवारिकृताय, अस. नुपयोगिसचित्तद्रव्योज्जनमेव प्रथमार्थ शति किं न दीयते दारम्भपरित्यागेन सदारम्भप्रवृत्तौ शुभयोगः, संयमक्षतिभयाभावात् , भक्तिरागस्य प्रशस्तत्वे दोषाजावात्तस्यैव च दोषत्वे. दृष्टिः, येन शाकिनीष वाक्वलमेधामन्वेषयसि, पुष्पवहनविकु र्वणमपि विकरणमात्रसंपादनार्थम, अधोवृत्तजलस्थलजपुष्पन विदुषोऽपि बलात्प्रवृत्तिप्रसङ्गात् । न हि विद्वानपि रागात्क- विकरणस्यैव पाठसिकत्वात्पूजाङ्गे सचित्तशङ्का तदृष्टान्तेनाट्यादसंयमेन प्रवर्तते, श्रमणोपासकानां देशविरतानां पृथग्गु- नेया। एतेन यत्प्रेक्तितं जातिसङ्करवता पूजायामादौ पुष्पायुणवर्णनाद्विरताविरतेयस्तेऽतिरच्यन्ते इति चेत्,अहो बालिश! पमादधर्म एव, तदनन्तर शुभजावसंपत्त्या तु धर्म इति धर्माकेनेदं शिक्षितम् ? किं करुणया विप्रलब्धोऽसि, स्वकर्मणा वा? धर्मसंकर एवेति। तनिरस्तम् । एवं हियागे हिसया प्रागधर्मसूत्रे हि-"एगञ्यायो पाणाइयायाओ अपमिविरया जावजीवाए" मत्तरादानदक्षिणादिना स्वनन्तरं धर्म वदतः सब्रह्मचारिता ३१४ Page #1277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेय पातात्, यत्तत्कालीन संयमोज्जनं शुभजावेनोक्तं तधिभ कत्यन्यतरवैगुण्य एवं अन्यथा स्वरूपासंयम वासि रेकेणोतुमशक्यत्वादनुबन्धिसंयमस्य वाबुद्भवोपहतस्थादू, अपस्तवस्याप्रधानत्वमपि स्वरूपत एवं विधिभक्तिवसादू, गुणोपवृदितभावप्रवृत्तौ जावस्तवस्यैव साम्राज्यात् । इयमेव महाबुद्धिशान्निना दरिभाषा वाणाऽनिदितं, तथापि यस्य स्युद्धेर्मनसि नायाति तद्नुकम्पा तङ्घन्धपाते"दस्यथयो प्रावधयो, बहुगुणद्धि सिया अणिमश्वयणमिणं, छज्जीवहिचं जिणा विति” ॥१॥ इत्यस्तवो भावस्तव इत्यत्र व्यस्तयो] बहुगुणः प्रभूतत रगुण इति एवं बुद्धिः स्यात्, एवं चेन्मन्यसे इत्यर्थः । तथाहि - किलास्मिन् क्रियमाणे वित्तपरित्यागात् शुभ प वाध्यवसायः, तीर्थस्योन्नतिकरणं दृष्ट्वा तं च क्रियमाणमन्ये Sपि प्रतिबुध्यन्ते इति स्वपरानुग्रहः, सर्वमिदं सप्रतिपक्कमिति चेतसि निधाय द्रव्यस्तवो बहुगुण इत्यस्यासारताख्यापनाया -अनिपुणमतिवचनमिदमिति । श्रनिपुणमते चनमनिपुण तिवचनम् इदमिति यस्तो बहुगुणमिति गम्यते । किं 66 जीवदितमित्यादि जिना पृथिवी कायादीनां जीवानां दिवं. जिनास्तीकरा ते प्रधानं मोकसाधनमिति गम्यते । 33 किं च पम्जीवहितमित्यत माह"काज दवाएँ सो विरु कखियो । तो जिम पुकारेण इति ॥१॥ पजीवकायसंयम इति, पक्षां जीवनिकायानां पृथिव्यादिलऋणानां संयमः संहननादिपरित्यागः षजीवकायसंयमः । असौ हि नामैततः किमित्यत आह-यस्तवे पुष्पादिसमयजीव कायसंयमः किम, सिम्य संपद्यते, कृत्स्नः संपूर्ण इति, पुष्पादिसंलुश्चनसंघटना दिना कृत्स्नसंयमानुपपत्तेः । ततश्चैवं न स्यात्, कृत्स्नसंयमविद्यांस इति कृत्यासंयमप्रधाना विद्वांसस्ततः साधव उच्यन्ते । कृत्स्नसंयमग्रहणमकृत्स्नसंयमधिषां श्रावकाणां व्यपोहार्थम् ते किम गुपादिकं यस्तवं नेष्यन्ति यदुकं स्तवे क्रियमाणे सचित परित्यागात् शुभ एवाध्यवसाय इत्यादिपि किचिद्यभिचारात् कस्यचिदन्यसत्यस्यावियेकिनोवा शुजाभ्यवसायानुपपतेः। दृश्यते चकीत्यर्थम सत्वानां यस्तवे प्रवृत्तिरिति शुभाध्यवसायनावेऽपि तस्यैव प्रावस्तवत्वादितरस्य च तत्कारणत्वेनाप्रधानत्वमेव, "फलप्रधानाः समारम्भाः" इति न्यायात् । जावस्तवत एव तस्य स म्यक्त्वादिति पुग्यत्यासमेव धड्डा कियमाणमपि सुतरां प्रति का इति परानुमहोप देवेति गाथार्थः । माह-यद्येवं किमयं द्रव्यस्तव एकान्तत एव हेयो वर्तते, श्रोविडुपादेयोऽपि । उच्यते साधुना हेय एव, श्राaणोपादेयोऽपि । तथा चाड् नाप्यकार:"प्रसिपचनासं विरयाविरयान यस तु तुतो । संसारकरणो यत्कृति" ४२ ॥ अकृत्स्नं प्रतीति, संयममिति सामध्यगम्यते अ नर्तकार तेषां वितरितानामिति प्रायकायामेष ख खलु युक्तः पयस्ततुशब्दस्यावधारणार्थत्वा युक्त एव किभूतोऽयमित भाद-संसारतनुकरणः संसारयकारक ( १२५४ ) निधान राजेन्द्रः BẢ 1 :1 चेहय इत्यर्थः । अव्यस्तवा देयः प्रकृत्यैवासुन्दरः, स कंथं भावकाणा मपि युक्त इत्यत्र कूपदृष्टान्त इति । " जहा णवणगराइसनिवेसे के पभूपजलानाबतो तपाविपरिगता तदपनोदार्थ कृप खरांति, तेसिं जर वि तएहादिया वहुति, मट्टिकाकइमाईह श्रमत्रिणइज्जति, तहा वि तडुब्भवणं चैव पाणिरणं तेसि तादीनां सो श्रमलो पुण्वगो य फिट्टश् चि, सेसकालं च ते तद य लोगा सुभागिणो भवंति एवं दव्वत्थर जर वि असंजमो तहा वि राम्रो वेव सा परिणामसुदी भवति जा तं प्रसंजमोवज्जियं भ्रां च जिरवसेसं खवेति सि तम्हा विरताविरतेस इव्यत्ययो कायन्यो सुभाबंधी पत णिज्जराफलो अतिकाळणम्” इति गाथार्थः । अत्र हि व्यस्तवनावस्तवक्रिययोः स्वजन्यपरिणामशुरुिद्वारा तुज्ययम्नोज्ञकारणत्वमास्तां तत्फलकाम्यवधानायां तु वि शेषः क्रियायाः सत्त्वशुरू कारणतावच्छेदकोटौ च प्रणिधानादिना तत्पूर्वकत्वं निवेश्यते "भावोऽयमनेन विना, चेष्टा व्यक्रिया तुच्छा" इति ऋसूत्रादेशेनापि क्रियायामतिशयाधाननावेवेति या यक्रिया तुच्छेति नानुबन्धे प्रभूतनि रांजनयेत् सा कथमसंयममिति विचारणीयम् । न चैकत्या तू प्रदीप रूपप्रकाशकार्यद्वयवत्पत्तिकारणान्तराननुप्रदेशातू न हि पापपुण्योपादानकारण शुभाशुभाच्यवसाय स्थानयीगये संभवति, तस्मात्कचत्रिद्योत्ययसनासमादेशादेव तत्रा संयमोपपत्तिस्तच्बोधनमपि परिणामशुद्ध्या भवतीति स. म्यग्मनस्यनियतं यथा व्यस्तवस्य गृहाश्रमरूपधर्माधिकारितावच्छेदे कासदारम्भ कर्मापनयनसदारम्भ क्रियाव्यतिरिति कृपष्टष्टान्तोपादानमत्र, नापवादपदादौ मुनयः, प्रधानाधिकारिण धिकारादिति तथ " अयमिति विदो विमा स्फुरति हृदि प्रतिज्ञावतां मुनीनाम | जरुमतिवचस्तु विप्रलम्बा कति न जमास्तददो कलियान् ॥ १ ॥ निजमतिखचितप्रकल्पिते विबुधजनोतितिरस्क्रियापराणाम श्रुतमतिसामरायां स्फुरितमतं समुदीक्ष्य विस्मिताः स्मः ॥ २ ॥ विधिवदनुपदं विवृएवते हो, नयगमनङ्गगभीरवासवाक्यम् । कथमिय मलिनाद्विनिश्चितार्थ, तदिदमो न पुनर्जी३ ॥ शिध्ये मूढे गुरो सूसूमिया खलम् । इति शङ्कापिशाचिन्यः, सुखं खेलन्तु बानिशैः ॥ ४ ॥ स्फुटोदर्के तर्के स्फुटमभिनवे स्फूर्जति सतामियं प्रायां वाचन गतिरिति मूढः प्रतपति नजानी नियति नापि रचनां वृथागर्वप्रस्तश्वलमभिमन्येति विदुषा ॥ ॥ शोभिता पदपदि । पञ्जरे बहुतकाक संकुले, संगता न हि मराललालना ॥ ६ ॥ कृष्णतासिततयोः स्फुटेऽन्तरे, गीर्गीरिमगुणे च भेदिनि । Page #1278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेइय (१२५५) चेश्य अनिधानराजेन्जः। यस्य हंसशिशुकाकशङ्किता, कं मानसप्रत्यकगम्यो जातिविशेष इति परेऽपि सङ्गिरन्ते । वतं धिगस्तु जननी च तस्य धिक् ॥७॥ स्तुतो योगदैर्यरूपं चारित्रं महाभाध्यस्वरससिमिति मअस्तु वस्तु नयतो यथा तथा, हता प्रबन्धेनोपपादितमध्यात्ममतपरीक्षायामस्माभिः । तथा परिमताय जिनवाग्विदे नमः। च स्थिरयोगरूपस्य चारित्रस्य मोकहेतुत्वं, तदबान्तरजातीयशासनं सकलपापनाशनं, स्य च स्वर्गहेतुत्वं वैजात्यद्वारा कल्पनीयं तत्पूजादावपि तु. यद्वशं जयति पारमेश्वरम"॥८॥१॥ व्यमिति ॥१५॥ (२३) प्रतिमायाः प्रामाण्यनिरूपणम् । अत्रातिदेशेन कुमतशेष प्राचार्य भप्येनां शंसति । लोकोत्तरलौकिकत्वाभ्यां निराकुर्वनाह धर्मपुण्यरूपत्वं तु पूजायामिप्यते इत्यादएतेनेदमपि व्यपास्तमपरे यत्माहुरज्ञाः परे, . या ज्ञानाद्युपकारिका विधियुता शुकोपयोगोउज्वला, पुण्यं कर्म जिनार्चनादि न पुनश्चारित्रवद् धर्मकृत् । सा पूजा खलु धर्म एव गदिता लोकोत्तरत्वं श्रिता । तदत्तस्य सरागतां कलयतः पुण्यार्जनद्वारतो, श्रावस्याऽपि सुपात्रदानवदितस्त्वन्यादृशीं लौककीधर्मत्वं व्यवहारतो हि जननान्मोक्षस्य नो हीयते।। ए॥ माचार्या अपि दानभेदवदिमां जस्पन्ति पुण्याय नः॥३॥ पतेन शुद्धजिनपूजाया धर्मत्वव्यवस्थापनेन, श्दमपि व्य या ज्ञानादेः, प्रादिना सम्यक्त्वादिग्रह, उपकारिका पुष्टिकापास्तं निराकृतं , यत् परे अशा अनधिगतसूत्रतात्पर्याः प्रा. रिणी,विधियुता विधिसहिता, तथा शुकोपयोगेन'इमां भवतरणे हुः । किं प्राहुः ?, जिनार्चनादि पुण्यं कर्म न पुनश्चारित्रवद् नाविकरूपां भगवत्पूजां दृष्ट्वा बहवः प्रतिबुम्वन्ता,षट्कायरक्षकाधर्मकृत् धर्मकारणम्, व्वापासनहेतुगतिदेशप्राप्तं स्फुटयति-हि भभवन्त्वित्वाद्याकारणोज्वला,सा पूजा खबुभावपूर्विका असंयतः, तस्य जिनार्चनादिकर्मणः, तद्वत् चारित्रवत, सरागतां मोहपूर्विका चेति धर्म एव गदिता, यतः लोकोत्तरत्वं श्रिता, एरागवत्ता कसयतो रागसदितस्य पुण्यार्जनद्वारतः शुभा ताशगुणप्रणिधानात पूजाया आगमैकविहितत्वात्, कस्याऽपि?, अचवापारकत्वेन मोकस्य जननाद् व्यबहारतो धर्मत्वं न भाद्धस्याऽपि,किंवत,सुपात्रदानवत् । इतस्त्वन्यारशी लौकिक हीयते । अयं भावः-जिनार्चनादिकं पुण्यं कर्म स्वर्गादिकामना सामान्यधर्मक्चनप्राप्तां , नः अस्माकं, दाननेदबहानविशेषवत्, करणादिति साधनं न युक्तस, भ्रान्तकरणे व्यनिचारात् । श्र पुण्या जल्पन्ति, इच्छन्ति । प्रान्तरिति विशेषणे च विशेष्यासिकि,नहितारशा जिनार्च तमुक्तं बिम्बसाधनमाश्रित्य षोडशप्रकरणेनादिकं स्वर्गाय कुर्वन्ति, किंतु मोकायैवेति । अयं च मोकायैव तु " एवंविधन यद्वि-म्ब कारणं तदन्ति समयविदा। घटते विशिएमतिरुत्तमः पुरुष इति स्वर्गार्थितया विहित लोकोत्तरमन्यदतो, लौकिकमभ्युदयसारं च ॥ १४ ॥ त्वादिति हेतुरितिनाधिकारिणो बिवकिनः, सर्वत्र मोकार्पिन लोकोत्तरं तु निर्वा-साधकं परमफलमिहाश्रित्य । पवार्थसिके, क्वचित्साधारण्येनेव फलोपदेशाच, पाहवाचकः भज्युदयोऽपि दि परमो, भवति त्वत्रात्रानुषङ्गेण ॥ १५ ॥ " जिनभवनं जिनबिम्ब, जिनपूजां जिनमतं च यः कुर्यात् । कृषिकरण श्व पसासं, नियमादत्रानुषतिकोऽभ्युदयः । तस्य नरामरशिवसुख-फलानि करपल्लबस्थानि ॥१॥" इति । एते. फलमिद धान्यावाप्तिः, परमं निर्वाणमिव बिम्बात ॥ १६॥" षामन्युदवैकफलकत्वं हेतुरप्यस्ति असिके रागानुप्रवेशेन त (षो०७विव०) त्वस्य च चारित्रेऽपि सत्त्वात, स्वरूपतस्तत्त्वस्य चोजयत्रासि पतचावाधक, कमाऽऽदिभेदानामप्यलौकिकानामेवोत्तमकमके, निरवच्छिन्नयरूर्मावच्छेदेनान्युदवजनकता तकर्मावच्छेदे णादेवेति स्त्रेण धर्ममध्ये ग्रहणादन्येषामर्थतः पुण्यत्वसिद्धेः त्वर्थचारित्रस्य सरागत्वेनाभ्युदयजनकता, न स्वरूपत इति लौकिकत्वाभिधानादेवेत्यमुपपन्नम । आइ-" उबगारवगारिन दोष इति चेताना कन्यस्तवत्वनापि चारित्रजनकताघाटेतक विवा-गवयणधम्मुत्तरा नवे खंती । साविक्वं महरेगं , सोगिपेणाज्युदयजनकत्वात विजातीययोगत्वेनैव रून्यस्तवस्य स्वर्ग गमिहरं गं जश्णो ॥१॥" दानविशेषस्य पुण्यत्वं चानुकम्पाजनकतेति चारित्रस्यापि तथैव तत्वमिति तत्तुल्यतया पुण्य दानादौ अल्पतरपापबहुतरनिर्जराकारणत्वेन सूत्रोपदिष्टस्य त्वे काति । अथ शिवहेतवो न भवहेतवो,हेतुसङ्करप्रसङ्गादि बादादिपुण्यमध्ये प्रोक्तं धर्ममध्येऽपि, तद्वत्पूजाऽपि स्यादिति ति निश्चयनयपर्यालोचनायां सरागचारित्रकालीना योगा एव परमार्थः ॥ १३॥ स्वर्गहेतवः, तबारित्रं घृतस्य दाहकत्वं तद्व्यवहारनवेनैव चा- ननु पूजादानप्रवचनवात्सल्यादिकं सरागकृत्यं,तपश्चारित्रादिरित्रस्वर्गजनकत्वोक्तरित्यस्ति विशेष इति चेत् ।नाकव्यस्तवस्थ- कंतु वीतरागकृत्यमिति विविक्तविभागः, तत्राचं पुण्यम, नेपि निश्चयतो वोगानामेव स्वर्गहेतुत्वं, न मोक्कतोमव्यस्त. अन्त्यं धर्मः स्यात्,अत एव धर्मपदार्थो द्विविधः,एकः सं. वस्यति बक्तुं शक्यत्वादानादिक्रियास्वपि सम्यक्त्वानुगमजि- झानयोगलक्षणो,अन्यः पुण्यलक्षण इति शास्त्रवार्तासमु. नातिशवेन मुक्तिहेतुत्वात् । तक्तं विंशतिकावाम-"दाणामा- च्चये हरिभद्रसूरिनिरुक्तं, ततो वाग्भौमिकस्य उ पम-म्मि व सुका न९ति किरिया जाएयामो विहु जम्हा, देवपूजादिकर्मणः कथं धर्मत्वं रोचयामः १, मोक्सफलामो पराश्रो य॥१॥" अन्यथा च तत्रापि योगा तत्राहमामेव निश्चयतः स्वर्गहेतुत्वमवशिष्यत इति चारित्रं शुमोपयोगरूपं योगेन्यो निन्नमित्यनुक्तनिश्चयविवेकोपपत्तिः, पूजा पुण्यं कर्म सरागमन्यऽदितं धर्माय शास्नेविति, दानादिकं तु न योगभिन्नमिति तदनुपपत्तिरिति चेत्।नाभाव श्रुत्वा शुधनयं न चात्र सुधियामेकान्तधीयुज्यते । तस्माच्युपतरं चतुर्दशगुणस्थाने हि धर्म नयः, Page #1279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेश्य (१२५६) अभिधानराजेन्द्रः। किं ब्रूते न तदङ्गतां त्वधिकृतेऽप्यन्त्रान्तमीक्षामहे ॥६॥ निवेशे तु प्रागुक्तो भेदधर्मः किं व्यं पर्यायो वेति जिज्ञासाया(पुण्यं कर्मेति) पुण्यं सरागकर्म,अन्यदरागकर्म, शास्त्रेषु धर्मा मित्थमुच्यते इति चेल्लकणाधिकारि नेदमुपयोगि, न चिन्तायोदितं परिभाषितम्, इति शुद्धनयाथै श्रुत्वा, न चात्र एवार्थों धिकारि , नयद्वयनिर्देश एवं युक्तेनैकनयनिर्देशः तूजयनिग्र. भिन्नक्रमश्च, नात्रवेत्यर्थः। सुधियां पीएमतानाम, एकान्तधीरे। हस्थानप्रसङ्गात्। यथोक्तं भगवता भबाहुस्वामिना सामायि कमधिकृत्य-"किं दारे जीवो गुण-पमिवन्नो णयस्स दवहिप. कान्ताभिनिवेशो युज्यते, एकनयाभिनिवेशस्य मिथ्यात्वरूपत्वा स्स।सामाइनसो चेव पज्जवणयहियस्स एस गुणो "त्ति। दन्यनयविचारेण तस्य मूलोक्तबचनाच "धम्मकंखिए पुमकंखिए" इत्यादिधर्मः श्रुतचारित्रलक्षणः, पुण्यं तत्फलनूतं शुभं क एतदर्थप्रपञ्चोऽकृतानेकान्तव्यवस्थायाम्, एकनयेनैव धर्मलक्क णेचानिधातव्ये व्यवहारनयेन तत्प्रणयनमुचितं , निश्चयमेंति विवृण्वता वृत्तिकृतासाधकफलेच्छामेदेन भेदेऽपि श्रुतचा नयान्यां प्रत्ययपरिणामैकान्तपरिणामकत्वेन दुष्टत्वात् । रित्रभावान्यतरानुगतक्रियाणां धर्मत्वेनैव निश्चययोगव्यवहार अत एव मूढ " तश्नं कालियं" इत्याद्युक्तं, सर्वाशङ्कानिराकनयेनाभ्युपगमत्वात, गुमजिहिकया स्वर्गादीच्छाया अप्युपेयमो रणाय च नयद्वयेन तत्प्रणयनं न्याय्य,यथा प्रमादयोगात्प्राणव्य. क्षेच्चगव्याघातकत्वेनाऽदोषत्वात् । प्रयाणभङ्गाभावेन शाश्वत परोपणं हिंसेति तत्वार्थशास्त्रे हिंसालक्षणमनिहितम, इत्यं विसुखसमो हि सम्यग्दृशां स्वगलाभ इति योगमर्मविदः । यद् चार्यमाणे च क्रियाहेतुः मुष्टिशुद्धिमचित्तं धर्म ति हरिभद्रोक्तं चोक्तम्-निश्चय एव रुचिः,साऽपि न युक्ता हि यतः,तस्मादुक्ता लकणमतिव्याप्त्यादिदोषाकलङ्कितं सर्वत्रानुगतं निरवधं संगबान्तरनिश्चयात (शुद्धतरमिति) शुको नयो निश्चयः, चतुईश च्छते,अधर्मश्चित्तप्रभव इत्यादि षोमशकं, तवृत्तिश्चास्मत्प्रणी. गुणस्थाने तश्चरमसमये इत्यर्थः। किं धर्म न ब्रूते, तथा चैकान्ता ता योगदीपिकानाम्नी अनुसरणीया, यावानुपाधिविगमस्तानिनिवेशे ततोऽर्वाग् सर्वत्राप्यधर्मः स्यात्। सचातिष्ठस्तत्राऽपी घान् धर्म इत्यप्युभयोपाधिविगमो, नोभयनयानुगतं सर्वत्र तिनावः। शुभः निश्चयाऽभिमतधर्माङ्गनावेन प्रागपि धर्म व्यव सङ्गम्यमानं रमणीयमेव । " सेवंतो कोहं च माणं च मायां च हारनयनाऽज्युपगतो "उभयक्खयहेऊो, सेलेसीचरमसमय लोभं च एस नासगस्स दसणं" इत्यादिसूत्रमप्यत्र प्रमाणमेव । नावी जो। सेसो पुण णिच्चयो, तस्सेव य साहगो भाण "व्यस्तवे तदिह भक्तिविधिप्रणीते, ओ" ॥१॥ इति धर्मसंग्रहणीप्रतीकपर्यालोचनादिति चेत, तर्हि पुण्यं न धर्म इति धर्मतिनां कुबुद्धिः। त्यक्तस्त्वया एकान्ताजिनिवेशः, आयातोऽसि मार्गेण, प्रत्यप तत्तद्नयैस्तु सुधियां विविधोपदेशः, द्यस्व व्यस्तवेऽपि निश्चयधर्मप्रसाधकतया व्यवहारधर्मत्वं,मा संक्लेशभाग यदि जडस्य किमत्र चित्रम् ॥१॥ भूत्तव त्रान्तिकृदूरासन्नत्वादिति भावः । प्रस्थकादिभावः प्रस्थकादिदृष्टान्तजावितविचित्रनैगमनयप्रवृत्तेश्वासद्धेतुस्वात् । त अधर्मः पूजेति प्रश्नपति स लुम्पाकमुखरः , दाह-तदङ्गतां तु शुद्धनिश्चयानिमतधर्माङ्गतां तु, अधिकृते द्र श्रयन्मिश्रं पक्ष तमनुहरते पाशकुमतिः। विधिम्रान्तः पुण्यं वदति तपगच्चोत्तमबुधः, व्यस्तवेऽफि,अभ्रान्तं भ्रान्तिरहितमीक्षामहेऽतो विशेषदर्शितामस्माकं वचनेनैव त्वयैतत् तत्वं ध्येयमित्युपदेशे तात्पर्यम् । अयं सुधासारां वाणीमनिदधति धर्मो ह्ययमिति ॥ २॥" ॥४॥ च निश्चयनयः परिणतिरूपभावग्राहककाष्ठाप्राप्तवंभूतरूपः, येन गम्नीरविचारे गुरुपारतव्येणैव फलवत्तां दर्शयन्नुपदेशसर्व शैलेशीचरमक्षणे शुको धर्म उच्यते, अर्वाक तु तदङ्गतया व्यव स्वमाहहारान् कुर्वदूपत्वेन हेतुताऽभ्युपगमश्चास्यर्जुसूत्रतरुपशाखारू- इत्येवं नयजङ्गहेतुगहने मार्गे मनीषोन्मिषेद् , पत्वात । आह गन्धहस्ती-"मूलनिमेणं पज्जव-बयस्स उज्जसु. मुग्धानां करुणां विना न सुगुरोरुद्यच्छतां स्वेच्छया । अवयणविच्छेदो। तस्स उ सहाईश्रा साहयसाहासुहुमनेया" तस्मात्सद्गुरुपादपद्ममधुपः स्वं संविदानो बलं, ॥१॥ उपयोगरूपं भावग्राहकनिश्चयनयस्तु व्यस्तवकविशुरूं धर्मस्वातन्त्र्येणैवाभ्युपैति, रागाद्यकमुषस्य वीतरागगुण सेनां तीर्थकृतां करोतु मुकृती अव्येण भावेन वाए लयात्मकस्य धर्मस्य तदाप्यानुभविकत्वात्, तन्मते हि शुक्रोध इत्येवममुना प्रकारेण,नया नैगमादयो, जङ्गाः संयोगाः, हेतवश्व योगोधर्मः,शुभाशुभौ पुण्यपापात्मकाविति ।यैरप्यात्मस्वभावो उत्कृष्टाद्यपक्वया दशपञ्चायेकावयववाक्यानि, तैर्गहने गधर्म इत्युच्यते,तेषां यदि घटादिस्वभावो घटत्वादिधर्म इति मतं म्नीरे, मार्ग स्वेच्या स्वोत्प्रेकया, उदयच्छतामुद्यम कुर्वतां मु. तदाऽनादित्वेनापुरुषार्थत्वापत्तिः! यदि तु स्वकीयो नागन्तुको ग्धानां,मनीषा बुद्धिः,सुगुरोः करुणांविना नोमिषेदत्र निराकाउनुपाधिर्भावोधर्म इति, तदावर्त्तमानः स्वकीयः शुभः परिणाम सतया विश्रामे च तस्मात्सद्गुरुपादपद्मे मधुपः सन्, गुर्वाझामाऋजुसूत्रविषयः स जिनपूजायामप्यक्कत इति कथं न तत्र निश्च प्रवर्ती सन्नित्यर्थः। स्वं बलं योग्यतारूपं संविदानो जानन् । परयशुको धर्मः?, शब्दनयेन सामायिकबद्देशविरतानां धर्मों नेष्यत स्मैपदिनः प्रत्ययस्य रूपमिदम,परानिसन्धिमसंविदानरत्यत्रे. इति चेत्,किं तावता समनिरूढेन षष्ठगुणस्थानेऽप्यनच्युपगमा वेति बोध्यम् । अव्येण गृही भावेन सुकृती साधुस्तीर्थकृतां सेवां द्वहिपरिणतोऽयापिएमो बहिरिति तद्भाबपरिणत प्रात्मैव धर्मः । करोतु, यथाधिकारं भगवद्भक्तरेव परमधर्मत्वात् ॥ ५ ॥ स्वभावपदप्रवृत्तिरपि तत्रैव स्वो नावः पदार्थ प्रति व्युत्पत्तेः।। एतत्सर्व प्रतिमाविषय पतत्सर्व प्रतिमाविषये भ्रान्तमिव दृषणं पुर इव परिस्फुरन्तं आह च-" परिणमविनेण दवं, तकासं तम्मयं ति पझतं । हृदयमिवानुप्रविशन्तं सर्वाङ्गीणमिवालिङ्गन्तं समापत्यैकतामितम्हा धम्मपरिणो, अदोधम्मो मुणेअब्वो"११ । इतिापत वोपगतं श्रीशलेश्वरपुराधिधित पावपरमेश्वरं संबोध्यादप्यधिकृते संबन्धमेव इदं तु वितन्वते, प्रात्मनोधर्मिणो अव्य. भिमुखीकृत्यैव यत्रापि बादी संबोध्यस्तत्राप्यार्थिकी भगवतसंस्य निर्देशे धर्मद्वारा धर्मत्वम, अन्यथाऽराध्यत्वामतिसं- खुफिर्मयैवं तन्मतामृतबाह्यो दृष्यत इति स्फुरितयं पर्यवसनेति करः कथ वारणीयः, प्रशान्तवाहिताख्यस्य पर्यायप्रवचनस्यैव तंत्रवनयभेदमुपदर्शयति Page #1280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेश्य (१५५७) अभिधानराजेन्द्रः। चेश्य सेयं ते व्यवहारजक्तिरुचिता शङ्केश्वराधीश ! यद्, गमः" इति योगाचार्याः। यन्मतपत्तप्रवृत्तौ निश्चयतश्चारित्रवान, तेन चारित्रं बज्यते इत्यर्थः । सा कीरशी?, अानमद्विश्वा दुर्वादिवजदूषणेन पयसा शङ्कामलदालनम् ॥ नमन् विश्वो यस्यां सा तथा, अत एव विद्योतमाना विशेषेण स्वात्माऽऽरामसमाधिवाधिनभवनास्मानिनीयवे, भ्राजमाना । यमकालङ्कारः ॥ ७॥ दृष्यं दृषकदषणस्थिातिरपि प्राप्तनयं निश्चयम् ।। ६ ।। त्वबिम्बे विधृते हृदि स्फुरति न प्रागेव रूपान्तरं, हे श्रीशकेश्वराधीश! सेयं ते तव उचिता व्यवहारजक्तिः व्यवहारनयोचिता भक्तिः, कृता इत्यर्थः । विधेयप्राधान्यानुरोधात त्वदूपे तु ततः स्मृते भुवि जवेनो रूपमात्रप्रथा । स्त्रीत्वनिर्देशः। यद् दुर्यादिनां ब्रजः समूहस्तदूषणरूपण, पय- तस्मात् त्वन्मदनेदबुच्युदयतो नो युष्मदस्मत्पदोसा नीरेण, शङ्कारूपमयस्य कालनं व्यवहरन्तीदशिष्टाः, परस. लेखः किश्चिदगोचरंतु लसति ज्योतिः परं चिन्मयम् ।। मयदूषणपूर्व स्वसमयस्थापनस्य भगवद्यथार्थवचनगुणस्तुत्यो त्वबिम्बे हृदि विशेषेण धृते सति, प्रागेव सुतरां रूपान्तरमाषासनं च । तदाहुः श्रीहेमसूरयः-"अयं जनो नाथ! तव स्त कारान्तरं,न स्फुरति नस्मृतिकोटिमाटीकते, सदशदर्शनविधावाय , गुणान्तरेज्यः स्पृहयाबुरेव । विगाहतां किन्तु यथा घस्मारके त्वद्विम्बे तदन्यस्य स्मृतिपथाराहायोगात् , स्वद्धिर्थवाद-मेकं परिक्षाविधिपुर्विदग्धः "॥२॥ उदयनोऽपि सर्व म्बमेव च तादृशं प्रकृतिरमणीयं, येनान्यबिम्बमेव दृक्पथं नाप्रसिष्मीश्वरमुद्दिश्य उपासनात्वैनव करणीयतामाह । तमुक्त गन्तुं दीयते, कुतस्तरां तदाकारिणि देवत्वम , उपनीतदोषेन्यायकुसुमाञ्जली-तदेवं जातिगोत्रप्रवरचरणकुलधर्मादिवदा णापि नावात् । संसारं प्रसिद्धानुलवे भगवति किं निरूपणीयम्,तथाऽपि अवदानाष्टसहस्रीविवरणे" न्यायचर्चेयमीशस्य, मननव्यपदेशभाक् । उपासनैव क्रियते, श्रवणानन्तरागता"।।। यदीय व्यवहारजक्तिस्तदा निश्च "यदेवैतदूपं प्रथममिह सालम्बनतया , तदेव ध्यानस्थं घटयति निरालम्बनसुखम् । यभक्तिः का?, उच्यताम, इत्याकाकायामाह-स्वात्मेति । स्वा रमागौरीगङ्गावलयशरकुन्तासिकसितं, स्मैवाऽऽरामोऽत्यन्तसुखहेतुत्वान्नन्दनवनसदृशः, स्वात्मानमा कथं लीलारूपं स्फुटयतु निराकारपदवीम् ॥१॥ रामयति समन्तात् क्रीमयति तादृशो वा यः समाधिः अता लीमाऽस्येत्यपि कपिकुलाधीतचपलशुजोपयोगरूपः संप्रज्ञातः , अपश्चिमविकल्पनिर्वचनबध्यार्थिकोपयोगजनितलेशतो वा संप्रज्ञातो लयरूपः, तेन बाधितो स्वभावोद्वान्तत्वं विदधति परीक्षा दि सुधियः । बाधितानुवृत्या स्थापितः , संसारो यैः, कुतस्तत्रितयानुगतो न यद ध्यानस्याङ्गं तदिह भगवद्पमपि किं, वादग्रन्थ शति ध्यानदशायां निश्चयभक्तिस्थितानामस्माकं सर्वत्र जगवीलाहेतुर्बहुविधमदृष्टं जनयति ॥२॥" इति समये च परिणामो, व्युत्थाने व्यवहारजक्तौ तु परपक्कदूष. ततस्त्वबिम्बासम्बनध्यानानन्तररूपेध्याते सति जुषि रूपमाणमसंभावनाविपरीतभावनानिरासायैव, एतेन रागद्वेषकालु प्रधानं भवेत्, सर्वेषां रूपाणां ततो निकृष्टत्वात, सर्वोत्कृष्टत्वेयमित्युचितत्वमात्रं वदितं जवति ॥ १६॥ नैव भगवदूपत्य ध्येयत्वात् । तदाहःअथ साहात स्तुतिमेवाह कतिपयैः "सर्वजगम्तिमतिशय-संदोहसमृद्धिसंयुक्तम् । दर्श दर्शमवापमव्ययमुदं विद्योतमाना लस ध्येयं जिनेन्द्ररूपं, सदसि गदनतत्परं चैव ॥ १॥ द्विश्वासं प्रतिमामकेन रहित ! स्वान्ते सदानन्द ! याम् । सिंहासने निविष्ट, छत्रत्रबकल्पपादपस्याधः। सा धत्ते स्वरसप्रसृत्वरगुणस्थानोचितामानमद् सत्त्वार्थसंप्रवृत्तं, देशनया कान्तमत्यर्थम् ॥२॥ विश्वा संप्रति मामके नरहित ! स्वान्ते सदानं दयाम् ॥७॥ आधीनां परमौषध-मव्याहतमखिलसंपदा बीजम् । (दर्श दर्शमिति ) अकेन रहित सर्वदुःखविप्रमुक्त, अत चक्रादिलकणयुतं, सर्वोत्तमपुण्यनिर्माणम ॥३॥ एव सदानन्दं ! संप्रति याग्यानन्द, ! ते तव प्रतिमां मूर्ति निर्वाणसाधनं भुवि, भन्यानामतुलमाहात्म्यम् । म् । कीदृशीम, सद्भावस्थापनामित्यर्थः । यां दर्श दर्श रष्ट्वा सुरसिहयोगिवन्ध, वरेण्यशब्दाभिधेयं च" ॥ इति १ प्रतिप्रवर्षमानशुजपरिणामोऽहम्, अव्ययमुदं विगलितवेद्या- तस्मात् त्वदूपध्यानाद् यद् द्रव्यगुणपर्यायसारश्यं तेन यतस्वन्तरपरब्रह्माऽऽस्वादसोदरशीतरसास्वादमवापं प्रापम, कुत्र, मदभेदबुदयःस्थात्। तमुक्तम्-"जो जाणदि अरहते"इत्यास्वान्ते हृदये , कथम् ?, बसद्विश्वासं लसन् विश्वासो यत्र दितितः,युष्मदस्मत्पदोल्लेखो न भवति, भ्यातृध्यानध्येयानां त्रयायस्यां क्रियायाम, अविश्वस्तस्य रमणीयदर्शनेनापि सुखा- णामेकत्वप्राप्तः। ततः किश्चिदगोचरं,चिन्मयं ज्योतिः, परमनुपम, नवाप्तधर्मेऽपि सविचिकित्सस्य समाध्यलाभात् । तथा प. मसति,तयाने चक्षीणकिल्विषत्वानैश्चयिकाव्यगुणपर्यायसारमार्षम्-"मिच्छासमावन्नेणं अप्पाणणं"न लभते समाधिरि- म्यपर्यालोचनायां त्वमहं च विख्येते, ततश्च निन्नत्वेन शातयोति । हे नरहित ! मनुष्यहितकारिन्, ! सा तव प्रतिमा, संप्रति रभेदस्यायोग्यत्वाशानयुष्मदस्मत्पदयोर्वेदान्तरीत्याऽखएमब्रह्मणि दर्शनजन्यभावनाप्रकर्षकाले, मयि सदानं दयां धत्ते, अभयदा-1 जहदजहल्लकणायामतुलं यद् निर्विकल्पकसाक्षात्काररूपनसहितं दयावृत्ति पोषयति,ज्ञानोत्कर्षस्य निश्चयचारित्रस्य पर. कानमाविर्भवति, दतया, अर्थव्युत्क्रान्ता मेदग्राहिमच्यार्थोपमेश्वरानुग्रहजनितस्य तदुभयस्वरूपत्वात्,ज्ञानोत्कर्षश्चातिशयि- | योगेन वा, सोऽयमनालम्बनयोगश्चरमावश्चकयोगप्राप्तिमाहिनि ता भावेनैवेति । दयां कीदृशीम, स्वरसप्रसृत्वरं मनष्यादि- यद्दर्शनात जवति,सा भगवत्प्रतिमा परमोपकारिणी,तगुणवर्णप्रवत्तेमानं, यद्गुणस्थानं, तमुचितां तदनुरूपाम, अनुग्राद्यानुग्राह ने योगीन्डा अपि न कमा, श्त्यावेदित भवति निनु कथमाकयोग्ययोयोस्तुल्यवृत्तित्वात् । अत एव "अनियोगपरोऽप्या- टशां भगवत्प्रतिमादर्शनाज्जातप्रमादानां प्राणिनां संभवति,३षु ३१५ Page #1281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेश्य (१२५) चेय अभिधानराजेन्डः। पातज्ञानेन केवलज्ञानादार तदनिधानात् । उक्तं च-"द्रागस्मा- ॥१॥ तथा-"सिद्धस्स सुहोरासी, सबझापिंमिश्रो जह हवितद्दर्शन-मिषुपातमात्रतो शेयम्। एताद्ध केवलं तदू,शानं यत्तत्पर जा।सोऽणंतवगभइनो, सब्वागासेण माइजा"॥ अत्र सर्वाकाज्योतिः" ॥१॥ इति । सत्यम् । तत्त्वतस्तदानीमेव संभवेऽपि यो- संपिएडनमनन्तवर्गभजन, सर्वाऽऽकाशमानं चानन्तानम्तरूपप्र. ग्यतया प्रागप्युक्ती बाधकानावात् । शुक्लभ्यानवत, योगानुभव दर्शनार्थ, व्यावाधावयसंजातसुखलवानामत्र मेलनाजावाद्वाश्वात्र साक्रीति किं वृथाऽऽडम्बरेण । ए८ ॥ स्तवस्य निरतिशयसिद्धसुखस्य कालेन भेदस्य कर्तुमशक्यत्वाउक्तमेव भावयन्ननिष्ठौति त्, न हि न्यासीकृतधनकोटिसत्ता घनिनः कालभेदेन निद्यते । किं ब्रह्मैकमयी किमुत्सवमयी श्रेयोमयी किं किमु , तदाहुयौगिकाः "वाबाहक्खयसंजा-यसुहलवभावमेद्विज्जा। ज्ञानानन्दमयी किमुन्नतिमयी किं सर्वशोभामयी। तत्तो अणंतरुत्तर-खयनावो वा तहा भयो ॥१॥ इत्थं कि किमिति प्रकटपनपरैस्त्वन्मूर्तिरुद्वीतिता, प उ तह निन्नाणं चिय, सुखसवाणं तु एस समुदायो । किं सर्वाविगमेव दर्शयति सख्यानप्रसादान्महः। ए| ते तह भिन्ना संभा-व खउवसम जाव जं हुंति ॥२॥ किं ब्रह्मैकमया ब्रह्मैव एकं प्रचुर स्यां सा, ब्रह्मणैकमयी ण य तस्स श्मो भावो, साहु सुखं पि हु परंतहा हो। ब्रह्मैकमयी, स्वरूपोत्प्रेक्यम् । एवमग्रऽपि किमुत्सवमयीत्या बहुविसलवसंजुत्तो, अमयं पि न केवलं अमयं ॥ ३॥ दौ उत्सवादयोऽपि ब्रह्मविवर्ता एव उत्प्रेक्षिताः, तेन नाक्रम सबकासंपिंगण-मणंतवम्गभयणं जइत्थ सव्वग्गो । दोषः, उत्प्रेक्विते क्रमस्यातन्त्रत्वात् । यथा मनोराज्यमेव तत्र सव्वागासेण माणं, अणंतगुणदसणथं तु ॥४॥ क्रमप्रवृत्तेः, 'ब्रह्माद्वयस्यान्वन्नवत्प्रमोदम्' इत्यादाविति बोध्यम् । तिन्नि चिय एस रासी, एगाणं तु ठाविया हुंति । इत्यममुना प्रकारेण, किं किमिति प्रकल्पनपरैः कविभिः, त्व. हंदि विससेण तहा, अणतयाऽणतया सम्मं ॥५॥ तिरुद्वीक्विता सती, शानानिवर्तकस्य रूपस्य कुत्राप्यला तुल्लं च सव्वयं, सब्वेसि हो कालनेपण । भात, सद्भयानप्रसादानिर्विकल्पकलयाऽधिगमात् किंशब्दमव जह तं कोडीसत्तं, तह तंणास सुहुमाणं ॥६॥ गच्छति यत्तारशं महः स्वप्रकाशज्ञानं दर्शयति । नक्तं च सव्वं पि कोमिकप्पिय-मसभवणाइ जं भवे वियं । सिद्धस्वरूपं परमा-"सब्वे सरा थियटुंति तका जत्थ णावि ए. तत्तो तस्सुहसामी-ण होश इह भेप्रो कालो ॥ ७ ॥ ज पयह तत्थ पगाहिआओ एअप्पडहाणस्स से बन्नेसण स. जह तत्तो अहिगं खलु, होह सरवेण किं वि तो भेश्रो। देण रूवेण" इत्यादि स्वतःसिकता, तत्र च जिज्ञासेति सक ण हु अज वासकोमी, समयाण | पि सो होइ" Gil लप्रयोजनमौलिभूतपरब्रह्मास्वादप्रदत्वाद् भगवन्मूर्तिदर्शनं त्र फलस्यानन्दघनत्वेन साधनस्यापि तथात्वं बोध्यम, इत्थं चाव्यानां परमहितमिति द्योत्यते ॥ ६६ ॥ रूपध्यानरूपनिरालम्बनयोगायैव रूपस्तुतिरित्यावेदितं भवति । प्रागर्थगर्भी स्तुतिमाह तथा च "प्रतिमा स्वल्पवुधानाम्"इत्यादिदर्शनेनाऽपि नव्यामो हः कार्यः,निरालम्बनयोगादर्वाक स्वल्पबुकीनामित्यादि तदधि. त्वपं परिवर्तता हृदि मम ज्योतिःस्वरूपं प्रनो!, कारसिके, सालम्बनयोगसंपादकत्वनैव तस्याश्चारतार्थत्वात्। तावद्यावदरूपमुत्तमपदं निष्पापमाविर्भवेत् । अन्यथा केवलज्ञानकासाननुवर्ति श्रुतझानमप्यनुपजीव्यं स्यादू यत्रानन्दघने सुरासुरसुखं संपिषिमतं सर्वतो, देवानां प्रियस्यति न किश्चिदेतदित्यर्थः ॥ १०२ ॥ प्रति०॥ भागेऽनन्ततमेऽपि नैति घटनां कालत्रयीसंजवि ॥१०॥ इति दर्शितं जिनप्रतिमाया यागमोपपतिभ्यां युक्तत्वम् । स्वान्तं शुष्यति दह्यते च नयनं जस्मीभवत्याननं, (२४) तत्र जिनजवनकारणविधिःदृष्टा त्वत्पतिमामपीह कुधियामित्याप्तसप्तात्मनाम् । नमिऊण वच्छमाणं, वोच्चं जिणभवणकारणविहाणं । अस्माकं स्वनिमेषविस्मितदृशां रागादियां पश्यतां , संखवो पहत्यं, गुरूवएसाणुसारेणं ॥ १॥ सान्धानन्दसुधानिमजनसुखं व्यक्तीजवत्यन्वहम्।।१०१॥ नत्वा प्रणम्य, वर्षमानं महावीरम्, वक्ष्ये भणिभ्यामि, मन्दारअमचारुपुष्पनिकरैर्वृन्दारकैरर्चिता , जिनभवनकारणविधानमहदायतनविधापनविधिम, संपतः समासेन,न पुनर्विस्तरतः पूर्वस्वित, महाथै बृहदनिधेयं,न तु सवृन्दाभिनतस्य निर्वृतिलताकन्दायमानस्य ते ।। संक्तिप्तत्वनाल्पसूत्रतयाऽल्पार्थम, गुरूपदेशानुसारेण प्राचानिस्यन्दात् स्नपनामृतस्य जगतीं पान्तीममन्दामया- | यशिकाऽऽनुरूप्येण, न तु स्वोत्प्रेक्तितया,व्याभिचारित्वाशङ्कया वस्कन्दात्पनिमा जिनेन्द्र परमानन्दाय बन्दामहे ॥१०॥ तस्यानादेयताप्रसंगादिति गाथार्थः॥१॥ (त्वदूरूपमिबि हे प्रजो! मम हृदि स्वद्रूपं तव रूपं परिवर्तताम- 'जिननवनकारणविधानं वक्ष्ये' इत्युक्तं, जिनजवन नेकधा येन केन प्रकारेण परिणमतु, किंवत् ?, यावद् कीण च येन कारयितव्यं, तमादौ तावनिरूपयन्नाहकिल्विषमरूपं रूपरहितं, उत्तमपदं फलीचुतं साधनीभूतम- अहिगारिणा इमं खलु, कारेयध्वं विवजए दोसो। प्रतिपाति, ध्याने नाविर्भवेत्तावत्, उत्तमपदमभिष्टौति-यत्र य. स्मिन्नानन्दघने श्रानन्दैकरसे,कालत्रयीसंजवि सर्वतः संपिएिक प्राणाभंगाउ चिय, धम्मो आणाएँ पडिबको ॥२॥ तमेकराशीकृतं सुरासुरसुखमनन्ततमेऽपि नागे घटनां नैति,अ. अधिकारिणा तत्कारणयोग्यतावतैव, इदं जिननवनम, खलुनन्तानन्तमित्यर्थः। यदार्पम्-"सुरासुरसहसमतं,सब्धका पिडि- रवधारणे । तस्य च प्रयोगः प्रागुपदर्शित एव । कारयितव्यं य अनंतगुणं । ण वि पाये मुत्तिसुई-ऽणतेहि विवेगवम्गोर्टि" विधापयितव्यम् । अथ किमित्यधिकारिणवेत्युच्यते ?, श्त्याह Page #1282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेश्य चेश्य विपर्यये विपरीतत्वे, अनधिकारिकारण इत्यर्थः । दोषो दूषण- तथेति समुच्चये । सोऽपि धर्मरागी श्रुतचारित्रलक्षण धर्मानुरशुभकर्मवन्धलक्षणम् । ननु संसारसरितरणतरकाण्डकल्पकः, धर्माननुरागी ह्युक्त गुणक एकला पोपेतो न जिनभवनविधाने यस्तदविचापि कथं दोष हत्याह श्रामादेव श्राप्त प्रवर्तते प्रवृतावपि नाभिप्रेतफलसिद्धिभागिति मासाधिकावचनोल्लङ्घनादेवः श्राज्ञा चैवं द्रव्यस्तवं प्रति व्यवस्थिता - री । चशब्दः समुच्चयार्थ पवेति ॥ तथा गुरवः पूज्याः, लौकिका "कसिपवत्तगाणं, विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो । सं- लोकोत्तराध लीफिका दिया सोकोसरा सारपयकरणे, दन्यत् दितो ॥ १ ॥" अधाशा स्तु धर्माचार्यादयः तेषां पूजाकरणे यथोचितविनयाद्यचवि ये कथं दोष इत्याह-धर्मोस्तवादिरूपः आज्ञायामा- धौ, रतिरासक्तिर्यस्य स तथा गुरुपूजाकरणरतो वा, एवंविसवचने, प्रतिबको नियतो वर्त्तते यतोऽतस्तद्भङ्गे दोष एव, घोदि जनप्रियत्वेन ससहायतया समारब्धसाधनसमर्थो नवधर्मप्रचलन इति गाथार्थः ॥ २ ॥ ति तथा वादिगुण एव च शु , । 3 आशाप्रतिबद्धत्वमेव धर्मस्य दर्शयन्नाहआराहणाऍ तीए, पूर्व पारं विराट्याए दादयोऽह गुणा राद्यथा-"पणं चैप धार तथा ऊहापोहविज्ञानं तत्वानं तु श्रीगुणाः ॥ १ ॥ तैः समन्वित एव च । चैवशब्दौ समुच्चयावधारणार्थौ नियोजितावेव विधो हि शास्त्रसंस्कृतबुद्धिरवेनासा साधो भवति । अस्यैव विशेषमाह-हाविद्वान् कस्ये त्याह-अधिकृतविद्यानस्य जिनभवनकारणवि एवंविधेन दिया 1 । आराधनया पालनया 9 एवं धम्मरहस्तं विषयं बुद्धिमते ॥ ३ ॥ पञ्चमी सप्तम्योर्वैकवचनं व्याख्येयम् । तस्या श्राज्ञायाः पुण्यं शुभकर्म जवति । पुण्यं च धर्म एकत्वस्य पापमशुभं कर्म नवति । विरा धनया तु बाधया पुनः आशाया एव धर्म्मनिमित्ततां प्रति पुर स्करणायाऽऽह एतदनन्तरोक्तमाराधनाविराधना रूपं विधिनिबेधद्वारेण धर्मरहस्यं कुशल कर्म गुहाम, विज्ञेयं ज्ञातव्यम्, वुद्धिमद्भिः पण्डितैः यतः पारलौकिकेषु विधिष्वाज्ञात एव प्रवृत्तिनिवृत्ती जवतः, प्रत्यक्कादीनां तत्राप्रवृत्तेः, अनाप्तवचनस्य च व्यभिचारित्वादिति बानिय चान्तरात्मनो वचनम् धर्मतत्संस्थो मीनीन्द्र चैतदिह परमम् ॥ १ ॥ " इति गाथार्थः ॥ ३ ॥ " तदेवं जिनभवनकारणविधानाधिकारिणं प्रस्ताव्य तमेव गाथयुग्मेन निदर्शयन्नाह - कुलजो । ॥ ४ ॥ अहिगारी न गिहत्थो, सुहसयणो वित्तसंजु खुद धिवलिओ, महत धम्मरागी य गुरुपूयाकरण, मुस्सागुणसंगओ चैव । या ढिग विहास धणियमाणप्पहाणोय ||५| अधिकारी तु योग्यः पुनर्जिनभवनविधौ गृहस्थोऽगारी, न तु साधुः, विशेषप्रतिज्ञारूढत्वात्तस्य । सोऽपि न सामान्यः, इत आह-स्वजनोऽम्पिकः अशुनस्वजनो हि स्वज नानां लोकधर्म्मविरुरूचारित्वेन न शुत्रभाववृद्धिमवाप्नोति, न च प्रवचनं प्रजावयितुमलम् । एतद् द्वयार्थमेव हि जिनभवनारम्भो विवेकिनामिति । सोऽपि वित्तसंयुतो मध्यपतिः अनीशस्य हि तदारम्यमपि न सिद्ध्यति तसि च सेाजनं भवति पराज्यर्धनद्वारा जनहास्यो भवति"अहो जिनजनकारणव्याजेनायं कुटुम्वं पुष्णाति इतिसंभाव माहेतुत्वादिति । सोऽपि कुलजः प्रशस्य कुलजातो ऽनिन्य कुलजातो वा । अन्यथाविधेन हि विहितं तन्नात्यन्तं लोकादेयं स्यादिति । सोऽप्यक्षुषोऽकृपणः कृपणो द्यौचित्येन द्रव्यव्ययकरणाशक्तत्वान्न तत्साधनाय शासनप्रभावनाय चालम् । अथवाऽक्रूरेण हि परोपाकियाजनद्वेष्येण कृतं सदाय सनं सन्मत्सरेण जनद्वयं स्यादिति । सोऽपि धृतिबकि चि समाधानणसामर्थ्ययुक्तः प्रतियलविटीनो हि इव्यय्य ये पश्चात्तापान पुण्यभाजनं भवति । सोऽपि मतिमान् बुद्धियुक्तः, मतिविहीनो अनुपायप्रवृत्तेन दृष्टादृष्टफखजाकू भवति । 9 , (१२५) अभिधान राजेन्द्रः । 1 , तथा म्, आशाप्रधानश्चागमपरतन्त्रश्च ; एतेन हि तत्कारितं लोकोप्रयत्न निर्वाणभवयवार्थः । इति गाथाद्वयार्थः ॥ ५ ॥ , अथ कस्मादस्यैयं गुगगम्यत इत्याहएसो गुणकि जोगा, अरोगता ती विओोगा । गुणरयणविवरणं तं कारितो दिवं कुइ ॥ ६ ॥ एषोऽनन्तरोको जिनभवनविधानाधिकारी, गुणद्धियोगादनन्तरोक्त गुणश्री युक्तत्वात्, अत एव तस्या गुणर्सेर्विनियोगात् स्वकीये स्वकीये कार्ये व्यापारणाद्, श्रत एव गुणरत्नवितरणेन सम्यक्त्वपीजसम्यन्नादिकृणगुणमाणिक्याने अनेका नामिति संबन्धनीयम् । तज्जिननघनं कारयन विधापयन्, हितं श्रेयः करोति विदधाति, अनेक सत्वानामात्मनो बेति । श्रतो दिगणोऽन्विष्यते इति गाथार्थः ॥ ६ ॥ गुणरत्नावतरणेनेत्युक्तं तत्पुनरस्य यथा स्यात्तथा दर्शयन्नाह - तं तह परमार्थ, द के गुणरागिणी मगं । 2 3 अछेउ तस्सची मुभावाओ पचति ॥ 9 ॥ तं जननयनकारणाधिकारिणम तथा तेन प्रकारणोक पानुरूपलक्षणेन प्रवर्तमान जिनमनविधी पदमानम् - ष्ट्रा उपलभ्य, केचिदेकतमे जीवाः । किंविधाः ?, गुणरागि यो गुणपपात तदन्येषां मार्यादिप्रतिमार्गे सम्यग्दर्शनादिकं मोकपथम् प्रतिपद्यन्त इति योगः । अन्ये तु मार्गप्रतिपत्तयोऽपरे पुनः तस्य मार्गस्य बीजं हेतुप्रवचनप्रशंसादिकम् । कुत इत्याह-शुभभावात् शोभनपरिक्षामाद्गुवानुरागरूपाद प्रतिपद्यन्ते समाप इति गाथार्थः ॥ ७ ॥ 3 शुभभावाद बीजे प्रतिपद्यन्त इति यदुक्तं तत्समर्थनार्थमाह :; ? जो हिजाबो खलु सम्मन्नुपपम्बि होइ परिभुको सोच्चिवजाय बी, बाहीए तेयार ॥ ६ ॥ य एवन्यादिरूपतया सामानावा प्रशस्तपरि Page #1283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेहय (१२६०) अनिधानराजेन्द्रः। णामः प्रशंसादिरूपः , खलुक्यालङ्कारे, सर्वशमते सर्ववेदि-| अन्योऽन्यस्य च तो जावं , लक्षयामासतुस्तराम ॥ २२ ॥ प्रवचनविषये , तदन्यविषयस्यातथाविधत्वात् । भवति जा- व्याख्यानुवः समुत्थाय, जग्मतुर्भवनं निजम् । यते, परिशुद्धः, न पुनः परानुवृत्यादिदूषणोपेतत्वेनापरिशु- तत्रैको व्याजहावं, यातस्त्वं भावितः किल ॥२३॥ द्धः, स एवासावेव, परिशुद्धः शुभभाव एव , जायते संपते, जैनवाचा न चाऽहं भोः, तदत्र किमु कारणम् ? । बीबमिव बीजं कारणम , बोधेः सम्यग्दर्शनस्य ; अयंचार्यः कथं एकचित्ततयाऽऽख्याता-बावां लोक इयचिरम् ॥२४॥ समर्थनीय इत्याह-स्तेनहातेन चौरोदाहरणेन । तश्चेदम् - श्दानीमत्र संजातं, विभिन्नं चित्तमावयोः। "इहाभूतां नरौ कौ चि-दन्योऽन्यं दृढसौहृदौ । सत्र कारणं किं स्या-दन्यो वक्ति स्म विस्मितः ॥ २५ ॥ युवानो साहसोपेतो, चौरी स्वबलगर्विती ॥१॥ सत्यमेवं ममाप्यत्र, विकल्पः संप्रवर्तते । भोगलुब्धौ समस्तच्छा-पूरकाव्यवर्जितौ। केवलं केवली नूनं, निश्चयं नः करिष्यति ॥२६॥ तो चचौर्य व्यधासिष्टां, भोगवाञ्छाधिमम्बितौ ॥२॥ स एव प्रश्रितोऽत्रार्थे, तद्याताखस्तदंन्तिके । दएमपाशिकलोकेन, संप्राप्तावन्यदा तकौ । एवं तौ निश्चयं कृत्वा, प्रातर्यातौ तदन्तिकम् ॥२७॥ नीयमानौ च तो तेन, वध्यस्थानं तपस्विनौ ॥३॥ पप्रच्छतुस्तमाराध्य, विनयेन स्वसंशयम् । दृष्टवन्तौ मुनीन् मान्यान् , मानिमानवसंहतेः। सोऽप्युवाच पुरैकेन, साधवो वां प्रशंसिताः ।। २८॥ साधूनां सस्क्रियां दृष्ट्वा, तयोरेको ब्यचिन्तयत् ॥४॥ न चान्येन तदेकस्य, जातं बीजस्य तत्फलम् । अहो धन्यतमा पते, मुनयो विमनक्रियाः । तद्वोधरूपमन्यस्य , बीजत्वेन न चाभवत् ॥२५॥ स्वकीयगुणसंदोहात, जगतां पूज्यतां गताः ॥५॥ एवं पूर्वभवासेवां, जिननोकां सविस्तराम् । वयं पुनरधन्यानाम-धन्या धनकाजन्या । निशम्यैकस्य संजातं, जातेः संस्मरणं क्षणात् ।। ३०॥ विदधाना विरुझानि, वध्यतां प्रापिता जनैः॥६॥ ततोऽसौ प्रत्यये जाते, जातः संवेगभावितः। धिक्कारोपहतात्मानो, यास्यामः कां गतिं मृताः। प्रावतश्च जिनोदिष्ट, प्रपेदे शासनं शुभम् ॥ ३१ ॥ तत्प्रतिपत्तिसामर्थ्यात् , शुजकर्मानुबन्धतः । ही जाता :स्वनावेन , लोकद्वयविराधकाः ॥ ७ ॥ सिद्धिं यास्यत्यसी काले, परः संसारमेव हि ॥ ३२॥ तदेवं साधु साधूनां, वृत्तं वारितकल्मषम्। ततः स्थापितमेतेन, भावो जैनमताश्रयः। विपरीतो मतोऽस्माक-मस्मात् कल्याणकं कुतः? ॥ ७॥ स्वल्पोऽपि जायते बीजं, निर्वाणसुखसंपदाम ॥ ३३॥ अन्यः पुनरुदासीनो, जवति स्म मुनीनजि । इति गाथार्थः॥८॥ गुणरागादवांपैको, बोधिवीजं न चापरः ॥६॥ ततस्तनुकषावत्वा-दानशीलतया च तौ। एवं जिनजवनकारणाधिकारी सप्रसनोऽभिहितोऽथाधिकनरजन्मोचित कर्म, बम्वन्तावनिन्दितम् ॥१०॥ तमेघ जिननवनविधिमुपदर्शयन्नाहमृत्वा च तौ समुत्पन्नौ, कौशाम्न्यां पुरि वाणिजौ । जिणनवणकारणविही, मुघा नूमी दलं च कट्ठाई । जातौ चानिन्दिताचारी, वणिग्धर्मपरायणौ ॥११॥ भियगाणसंधाणं, सासयबुद्धी य जयणा य ॥६॥ जन्मान्तरीयसंस्कारा-दाबाबत्वात्तयोरजूत् । अत्यन्तमित्रताजावो, लोकाश्चर्यविधायकः॥१२॥ जिनभवनकारणविधिरुक्तशब्दार्थः, किंधिध इत्याह-शुका रोचते च यदेकस्य, तदन्यस्यापि रोचते। निर्दोषा, काऽसौ?, भूमिः केत्र, तया दलं चोपादानकारणं, किंततो लोके गतौ स्याति-मेकचित्तांविमाविति ॥१३॥ भूतम् ? , काष्ठादि दारुपाषाणप्रभृति, शुद्धमिति प्रक्रमः । तथा ततः कुबोचितं कर्म, कुर्वतोर्यान्ति वासराः। भृतकानां कर्मकराणामनतिसन्धानमवश्चनं भृतकानतिसन्धाअन्यदा नुवनानन्दी प्राप्तस्तत्र जिनेश्वरः ॥ १४ ॥ नम् । तथा स्वाशयस्य शोभनाध्यवसायस्य, स्वकीयाध्यवसा यस्य वा, वृशिर्वर्द्धनं स्वाशयवृद्धिः, सा च । तथा यतनाच यजगवान् श्रीमहावीरः, श्वाकुकुलनन्दनः । थाशक्ति गुरुदोषत्यागेतरदोषाश्रयणम् साचा चशब्दासमुच्चवाग्नीरैर्जनसंताप-शमने ऽम्भोदसन्निनः॥१५॥ विदधुस्तस्य गीर्वाणाः, व्याख्याभूमि मनोहराम । यार्थाः। श्ह नूम्यादीनि जिनमवनविधेरङ्गानीत्यङ्गाङ्गिनोरजेदोतत्राऽसौ धर्ममाचख्यौ. सनरामरपर्षदि ॥ १६॥ पचारात जिनभवनविधिभूम्यादीनीति समानाधिकरणेनोक्तम् । तमागतं समाकर्य, कौशाम्बीवासिनो जनाः । इति द्वारगाथासमासार्थः । पञ्चा० ७ विव० । षो० । ध० द्विा०। राजादयः समाजग्मुर्वन्दितुं तत्पदाम्बुजम् ॥ १७ ॥ तावपि श्रेष्ठिसत्सून, कुतूहलपरायणी । शुका भूमिरित्युक्तमतस्तां दर्शयन्नाहजनेन सार्कमायाती, जिननायकसन्निधौ ॥ १७ ॥ दव्वे भावे य तहा, सुघा जमी पएसऽकीला य । जिनस्तु देशयामास, मोकमार्ग सनातनम् । सत्त्वानां सर्वकल्याण-कारणं करुणापरः ॥ १५ ॥ दन्वेऽपीतिगरहिया, अमेसि होइ जावे ॥१॥ ततस्तयोर्वणिक्सून्यो-रेकस्य तजिनोदितम् । व्ये अव्यमाश्रित्य, जावे भावमाथित्य, चशब्दः समुच्चये। श्रमानमार्गमायाति, भाव्यतेऽथ स मानसे ॥२०॥ तथा तेन वक्ष्यमाणप्रकारण विशिष्टप्रदेशादिलकणेन, किमिस्फाराको मस्तकं धुन्वन, कर्णपर्णपुटार्पितम् । त्याह-शुका नूमिर्निर्दोषा जिनभवनोचितभूः , द्विविधा भवरोमाञ्चितः पिवत्युच्चै--र्जिनवाक्यं यथाऽमृतम् ॥ २१॥ ति । तत्राऽऽद्यां तावदाह-प्रदेशे विशिष्टजनोचितनूभागे, तथा तदन्यस्य तदाभाति, बालुकाकवयोपमम् । अकीला च शङ्करहिता। उपलकणत्वादस्थ्यादिशल्यरहिताच, Page #1284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९६१) चेश्य अभिघानराजेन्द्रः। चेइय व्ये व्यतः, शुभा मिर्जवतीति प्रकृतम् । अथ द्वितीयामाह- धर्मार्थ जिनभवनोद्देशेन कर्मक्कयनिमित्तम, सद्यतेनोद्यम अप्रीतिकरहिता अप्रीतिवर्जिता। इहाप्रोतिकशब्दस्यान्येपामि- कुर्वता, सर्वस्य समस्तस्य जघन्यादिजनस्य, अप्रीतिकमप्रेम, त्येत्पदसापेक्षस्यापि समासः, तथा दर्शनादिति । अन्येषां परे| न कर्तव्यं न विधातव्यं, धर्मविरुरूत्वादस्याप्रीतिनियोगाच षाम, भवति वर्तते, भावे तु भावतःपुनः, शुका भूमिरिति जिनभवनविघातादिप्रवृत्ती दीर्घसंसारजाजनं जयन्तीत्यता:प्रस्तुतमेवेति गाथार्थः ॥१०॥ प्रीतिकरहिता भावतः शुद्धा भवति भूमिरिति हृदयम् । न विशिष्टजनाऽऽकीर्णप्रदेशे जिमभवनमिव्यतः शुका केवलं जिननवनविधिरूपं धर्ममिच्छता पराप्रीतिकं न कार्य, भवतीत्युक्तमन्यत्र पुनरशुद्धा भवति, दोषसंभवात् । किंतु इत्येवमप्रीतिवर्जनेन, संयमोऽप्याश्रयनिरोधोऽपि, आस्तां अथैतदर्शयन्नाह जिनभवनम, श्रेयान् प्रशस्यः, अथ कथमयमर्थः सिक इ. त्पाह-अत्र च इह पुनः, पराप्रीतिपरिहारेण संयमस्य श्रेयअपदेसम्मि ण वुखी, कारवणे जिणघरस्स ए य पूजा । स्त्धे प्रत्येतव्ये, भगवान् महावीरः, उदाहरणं ज्ञातम । उदासाहणमणगुवाओ, किरियाणासो उ अवधाए ॥ ११ ॥ हरणप्रयोगश्चैवम्-ये संयमार्थिनस्ते पराप्रीतिकं न कुर्वन्ति, अप्रदेशे, नमः कुत्सार्थत्वादलाकणिकत्वेनाशिष्टजनाकीर्णत्वेन संयमाथित्वादेव, यथा भगवान् । इति गाथार्थः ॥ १४ ॥ या कुत्सिते प्रदेशे, (कारवणे त्ति) कारणे विधापने, जिनगृ. एतदेव दर्शयन्नाहहस्याऽहनिवासस्य, न वृफिर्नानुदिनं स्फातिनवति, अपन. सो तावसासमाओ, तेसिं अप्पत्तियं मुणेऊणं । कणसामर्थ्यादसजनसामर्थ्याच। अत एव न न नैव, पूजा अर्चा तस्य भवति । जिनविम्बपूजाऽपि जिनभवनपूजा विवक्तिता, परमं अबोहिवीयं, ततो गतो हंतकाने वि ॥ १५॥ बिम्बानां तदाश्रितस्वेनोपचारादिति । तथा साधूनां संयता- स भगवान्, यः पूर्वगाथायामुदाहरणतयोक्तः,तापसाश्रमात्पानाम, अननुपातोऽनागमन, चैत्यवन्दनाधर्थ वेश्याषिङ्गादिभ्यो खण्डिकविशेषनिवासात, तेषां तापसानाम, अप्रीतिकमणीतिधर्मवंशभयात, अथापतन्ति ते तत्र तदा यद्भवति तदाह-| म, (मुणेळणं ति) ज्ञात्वा, परममात्यन्तिकम, प्रबोधिबी. क्रियानाशः स्वाचार,शो विटचेष्टादर्शनवचनश्रवणादिभिः | जं सम्यग्दर्शनानावहेतुम, ततस्तस्माद्यत्र तापसाश्रमे वर्षासाधूनां भवति । तुशब्दः पुनरथों जिनक्रमश्च । अवपाते तु घासः कर्तुमारब्धः, गतो निर्गतः, " हंतेति" कोमलामन्त्रतत्रागमने पुनः । रति गाथार्थः ॥ ११ ॥ णे, प्रत्यवधारणे वा । अकासेऽपि साधूनां विहारासमयेऽपि, तथा प्रावृत्रीत्यर्थः । विहारकालश्चासौ, यंदाह-"नो कप्पड निरगंसासणगरिहा लोए, अहिगरणं कुच्छियाण संपाए । थाण वा निग्गंधीण वा पढमपाउसंसि गामाणुग्गामं दूर जित्तए।" तथा-" दगबाहवत्तणो, हरियतणाणं च बाहि. आणादीया दोसा, संसारणिबंधणा घोरा ॥१॥ याईसु । प्रायाविराहणाओ, न जई वासासु विहरति ॥१॥" शासनगर्दा प्रवचननिन्दा,"एवंप्राया एव ह्येते जैनाः, ये वेश्या- काल एव किल गच्छन्ति साधव इत्यर्थसंसूचकोऽपिशब्दः, पाटकमद्यापणपाटकबूतखलकमत्स्यबन्धादिपाटकादिषु जिना- इत्यतरार्थः । जावार्थः कथानकगम्यः । तश्चेदमयतनं विधापयन्ति" इत्येवंरूपा । लोके जनमध्ये,तथाऽधिकरणं "जिनः श्रीमान् महावीरो, वारितान्तरशात्रवः। कलहो भवति, कुत्सितानां निन्द्यानां मद्यपप्रभृतीनां, संपाते प्राज्यं राज्यं परित्यज्य, प्रव्रज्यां प्रतिपद्य च ॥१॥ समागमे सति । ते दि निवार्यमाणाः कलहायोत्तिष्ठन्ते । तथा निःसङ्गोऽतिमहासत्त्वः, सत्त्वानां रक्कणोद्यतः । अत्रैवाऽऽझादयः, आझाभङ्गानवस्थाप्यमिथ्यात्वविराधना दोषा प्रामादिसंकुलां पृथ्वीं, उनस्थो विहरबसी ॥२॥ जवन्ति । किनूताः?, संसारनिबन्धनाः नवहतबः, घोरा दा- मथुराकाभिधं ग्राम, संप्राप्तस्तत्र चाश्रयः। रुणाः । इति गाथार्थः ॥ १२॥ द्यमानाभिधानानां, पाखण्डिगृहिणामन्त ॥ ३ ॥ अकीला चेत्युक्तं, तत्र सकीलायां दोषमाह तेषां कुलपतिर्मित्र-मासीद्भगवतः पितुः । कीलादिसवजोगा, होति अणिव्वाणमादिया दोसा । महावीरमसौ दृष्टा, संभ्रमेण समुत्थितः ॥४॥ स्नेहादालिङ्गनार्थाय , श्रीजिनस्य ततो जिनः। एएसि वज्जएटा, जइज्ज श्ह मुत्तविहिणा न ॥१३॥ बाहुं प्रसारयामास, तं प्रति प्राक् प्रयोगतः॥५॥ कीबादिशल्ययोगात शिवकाङ्गारास्थिकप्रभृतिशल्यसंबन्धा- सोऽवोचत्सस्ति वेश्मानि, योग्यान्यत्राश्रमे तव । दु, भवन्ति जायन्ते, अनिर्वाणादयोऽनिवृत्त्यर्थहान्यासिछि- ततः कुमार! तिष्ठ त्व-मत्राथ जिननायकः ॥६॥ प्रभृतयः, दोषा दूषणानि, यस्मादेवं तस्मात, एतेषामनिवृत्त्या- एकां तत्र स्थितो रात्रि-मन्यत्र गतवाँस्ततः। दीनामुक्तदोषाणां, वर्जनार्थ परिहारार्थम, यत्नं कुर्यात् । इह गच्छन्तं च जिनं स्नेहा-दवोचत्तापसाधिपः ॥ ७ ॥ जिनभवनं प्रति व्यतो मिशुझौ, सूत्रविधिना तु आगमनी- यद्यत्र रोचते तुभ्यं, तदागत्य विधीयताम् । त्यैवोकलक्षणयेति गाथार्थः ॥ १३ ॥ वर्षावासो जनस्यास्या-नुग्रहार्थ त्वया मुने!॥॥ व्यतो नूमिभिरुक्ता, अथ जावतस्तामाश्रित्य यदुक्कममी. मासानष्टौ विहृत्याथ, तं ग्राममगमज्जिनः । तिकरहितेति तत्र कारणमाह उपागतासु वर्षासु, मठं चैकमुपाश्रितः॥॥ प्रारम्भे प्रावृषस्तत्र, प्राप्नुवन्ति नवं तृणम् । धम्मत्थमुजएणं, सबस्सापत्तियं ण कायव्वं । गोरूपाणि मगनां तत्, प्रचखादुः पुरातनम ॥१०॥ श्य संजमोऽवि से ओ, एत्य य जयवं उदाहरणं ॥१४॥ तापसा वारयन्ति स्म, तानि ते दएमपाणयः। Page #1285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेय भट्टारका पुनस्तानि निःसङ्ग १२ ॥ ततस्ते तापसाः स्वस्य नायकस्य न्यवेदयन् । " यथैष नवतामिष्टो, गोज्यो नावति नो मम ॥ १२ ॥ ततः कुलपतिर्गत्वा वभाण श्रीजिनं प्रति । 9 कुमार जो ! न युक्तं ते, मठस्योपेक्षणं यतः ॥ १३ ॥ कुलोऽपि नि रकत्व यथावलंम् ततो गावो निवार्यास्ते, नाशयन्त्यो मनं तकम् ॥ १४ ॥ इत्येवं शित्तयामास सपिपासमी जिनम " ततः स्वामी तदप्रीतिं ज्ञात्वा निर्गतवांस्ततः ।। १५ ।। प्रतिगते पक्के अस्थिकाममाययी। 3 प्रीतिपरिहाराय यतेतैवं यथा जिनः ॥ १६ ॥ इति गाथार्थः ।। १५ ।। इदमेव निदर्शनमङ्गीकृत्योपदिशाद , ( १२६२) अनिधानराजेन्द्रः । 3 इय सब्वेण वि सम्मं, सक्कं श्रप्पत्तियं स जणस्स । पियमा परिहरियव्वं, श्यरम्मि सतत्तर्विता उ ॥ १६ ॥ इत्येयं लगयतेबेत्पर्थः । सर्वेणाऽपि समस्तेनापि, जिनभय नादिविधानार्थ संगम न केवलमेरेवेत्यपिशब्दार्थः । अप्रीतिकं परिहर्त्तव्यमिति योगः । कथं ?, सम्यग् भावसुद्धा किंभूतं तदित्याशयं शस्यपरिहारस्येन शकनीयं नाशकनीयमपि तस्य परितुमशक्यत्वादेव, (अध्यक्षि त ) अधीतिरेवाशतिकं सदा जनस्य लोकस्य नियमादवश्यं तथा, परिहर्त्तव्यं वज्र्ज्जनीयम, इतरस्मिन्नशक्य परिहारेऽप्रीतिके, स्वतत्त्वचिन्ता तु स्वस्वभावपर्यालोचनमेव विधेयम् । तथाहि "हो, शुभे यस्मालोको भवति मपि कुप्रीतिहृदयः । पापस्यैवं मे कथमपरथा मत्सरमयं, जनो पति स्वयं प्रति ॥६॥ इति गाथार्थः ॥ १६॥ व्याख्यातं शुद्धा भूमिरिति द्वारम् । पञ्चा• ७ चित्र० । द्वा० । षो० । अथ दलद्वारमपि कडादी विद सुद्धं देवताओ विहिणोवणीयं सयंच कारावियं जं णो || १७ || कादिरुपाषाणप्रकृतिकम, अपि शब्दस्योत्तरत्र संवत्यः दलमा निनोपादानमपिशब्दोपस श्चयार्थः । (इहेति) जिनजवनविधौ, शुद्ध मनवद्यम्, किंविधमित्याहयदिति दलम (देवाति) हादिशब्दस्याम्यत्र दर्श नादेवतेोपवनादेरिति प्रष्टव्यम् । तेन देवतोपवनाद् व्यन्तरकानवात्, आदिशब्दात्तद्भवनादिपरिग्रहः, तदानयने हि तस्याः प्रद्वेषसंवाद जिनायतनस्य तत्कारकादीनां व्याघातसंवादिति । नोमै उपनीतमुदितम तथाऽविधिना द्विपदचतुष्पदानां शरीरादि संतापजननद्वारेण तथा स्वयं चात्मना च कारितं वृकच्छेदेकापचनादिभिर्विधापितम् यद्दलम, नो नैव तत् शुद्धमि ति उदकादि तदपि च तत्कारितः कीतम् । उचितक्रयेण यत्स्या-दानीतं चैव विधिना तु " ॥ १ ॥ इति गाथार्थः ॥ १७ ॥ 1 चेइय अथ दलस्यैव शुकशुकत्या तस्स विय इमो लेओ सुद्धामुकपरिमाणणोवाओ । तक गहरणादिम्मी, सउणेयरसमिवातो जो ॥ १८ ॥ तस्य दलस्यापि चेतिशुदात् भूमेश्ध, ययमेव वयमाणः गुरूपरामोपायो निर्दोषम देतुः, तयोईलभूम्योः कथा च ग्रहणाय पर्यालोचो, ग्रहणं च परतः स्वीकरणं. तदादिर्यस्यानयनादेस्तत्तथा तत्र तत्कथाग्रहवादी नेतरनिपातः साधकास स्वीकृतादिनिमित्तः संबन्धो यः, स उपाय इति प्रकृतम् । इति गाथार्थः ॥ १८ ॥ 3 शकुनाशकुनयोरेव स्वरूपोद्देशमाहदादिमुह सरो, भरियो कसोऽस्य सुंदरा पुरिसा । सुजोगाइ यसो दियसदादि इतरो छ । १५ ।। मन्द्यादिन्दीप्रमृतिः तत्र नन्दीद्वादशनियोंषः सवधा"भा मनंद मद्दल, कलंब ऊल्लरि हुमुक्क कंसाला | वीणा धंसो महो, संखो पणवो य वारसमो " ॥ १ ॥ आदिशब्दात् घण्टाशब्दादिपरिग्रहः यूनः प्रशस्तः स्वतन्त्र एवा सिद्ध इन्द्र इत्यादिशास्त्रप्रसिद्धः तथाहि" सिर्फ देतदेव गोविंदे मुद्दे सह तह मेट्स य" ॥ १ ॥ शब्द ध्वनिः तथा परिपूर्ण कलशो घटः, श्रत्र व्यतिकरे, सुन्दराः प्रशस्ताकारनेपथ्याः, पुरुषानराः सुयोग दे प्रशस्तचेशप्रभृति चन्द्र दादा शब्दः समुये शकुनो ि रिसूचकं निमित्तम, ऋन्दितशब्दादि श्राक्रन्दध्वनिप्रतिषेधवचनप्रभृति, तु पुनः, इतरोऽशकुन इत्यर्थः । तुशब्दः पुनरर्थः । स च संबन्धित एवेति गाथार्थः ॥ १६ ॥ दलगतमेव विधिशेषमाह सुस्स त्रि गहियस्स, पसत्यदियहम्मि मुहमुहुत्तें । कामम्मि वि पुणो विधेया सामादीया ॥ २० ॥ शुद्धस्यापि निपातेन निधितनययत्यस्यापि अ शुद्धस्य ग्रहणमेव नास्तीति प्रतिपादनपरोऽपिशब्दः । गुड़ीतस्य स्वीकृतस्य दलस्येति प्रकृतम् । कदा गृहीतस्येत्याहप्रशस्तदिवसे नन्दादिकाय तिथी शुभादिना शुभकालविशेषेण करणजूतेन, संक्रामणेऽपि गृहस्थानात् कथारपि न केवलं ग्रहण एव पुनरषे भूयोऽपी त्यर्थः । विज्ञेया ज्ञातव्याः, निरूपणीया इत्यर्थः । शकुनादयः शकुनप्रभृतयः, आदिश व शुभदिनादिपरिग्रहइति गा थार्थः ॥ २० ॥ गतं दलद्वारम् । पञ्चा ७ विव० । दर्श० । द्वा०पो० । अथ भूतकानसिंघाद्वातिकारवणे विय तस्सिह, भितगाणसिंघणं ण कायव्वं । पिदिादिफलं एवं ॥ २१ ॥ कापणे विधाने अपि चेत्यस्य समुचयार्थत्वादला नयनादावपि चेति व्याख्येयम् । तस्य जिनभवनस्य इद द्रव्यस्वाधिकारे भूतका कर्मकरा सूत्रधारादीनामति संघानं वञ्चनं देयापेकया, न कर्त्तव्यं नैव विधेयम् अपि चेति विशेषप्रतिपादनार्थः । अधिकप्रदानंः प्रतिपन्न वेतनापेक्क्या Page #1286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेइय समगल तरद्रव्यवितरणम, कर्तव्यमिति प्रक्रमः । यतो दृष्टाहटफलमुपलच्य प्रयोजनम् एतदधिकप्रदानमिति गाथार्थः ॥ २१ ॥ 3 दृष्टफलप्रतिपादनायाद से तुच्छा बराया, अहिगेण दर्द उविति परितोमं । तुट्ठा य तत्थ कम्मं तत्तो अहिगं पकुब्वंति ||२२|| ते भृतकाः, तुच्छका अगम्भीराः, वराकास्तपस्विनः, यतोऽतः, अधिकेन प्रतिवेतनापेया समन इलेि म्यम् । दृढमत्यर्थम उपयान्त्युपगच्छन्ति परितोषमानन्दम् । ततः किमित्याह दशा पुनः तब वि कर्मभूतको चियापारं ततोऽधिकदानानन्तरम् अधिकदान विना वा कृतं यत्कर्म ततस्तस्मात्सकाशात् । अधिकं समर्गलं, प्रकृति विद्यति इति माथार्थः॥२२॥ (१२६३ ) ग्रभिधान राजेन्रूः । , एवं तावदधिकदानस्य दृष्टसाधकतां प्रतिपाद्यादृष्टफलसाकां प्रतिपादनायाऽऽढ़धम्मपायें नहा के णिबंधेति वोडियीयाई। असे उलहुयकम्मा, एतो चिय संपवुज्छंति ॥ २३ ॥ धर्मप्रशंसा जिनशासनया तत्यधिकदानसंतोष प्रभातकार तथा तकविषयाधिकादर्शनादिया, निवध्वन्युपार्जयन्ति बोधिजानि सम्यग्दर्शनकारणानि अन्येतु बोधिजयन्धपरे पुनर्भृतकाः, तद्दानदर्शिनो वा, लघुकर्माणो बोधिबीजबन्धकापक्क्या अल्पावरणाः इत एवाधिकदानात, संप्रबुद्ध्यन्ते सम्यग्बोधमुपयान्तीति गाधार्थः ॥ २३ ॥ 3 , लोगे य साहुवाओ, अतृच्छन्नावेश सोहणी पम्मो । पुरिमुत्तमण्यणतो, पभावणाचैव तित्यस्स ।। २४ ॥ लोके जिने दो गुणान्तरसमुध्वये साधुवादो धंवादो भवति । केनेत्याह-प्रतुष्वभावेनोदाराशयेन जिन अयनकायगतेन करणभूतेन किता साधुवाद इत्याद शोभनः प्रधानः, उदारत्वाज्जैनानाम् । धर्मो जिनप्रवचनरूपः, पुरुषोत्तमप्रणीत उत्तमपुरुषगदितः तथा प्रभावनोद्भावना, चः समुच्चये । एवमनेन न्यायेन, अनुस्वाराश्रवणं चेह गाथाऽनुलोम्यात् । तीर्यस्य जनस्य नयति इति गाथार्थः ||२४|| उक्तं नृतकानतिसंधानद्वारम् । | , " अथ स्वाशयवृद्धिद्वारमाह-साननगुरुराजे जिंदगुणपरिह्याए । विठावणंत्यं, सुद्धपवितऍपियमेणं ॥ २५ ॥ स्वाशयवृद्धिरपि कुशलपरिणामवर्द्धनमपि न केवलं नृतकागतिसंधानमित्यपिशब्दार्थः । इह जिनचनविधाने यतोति गश्यम् । कथमित्याह जुवन गुरुजिनेन्द्रगुणपरिया त्रिलोकगौ[रजिनेश्वर सवंत्यसंसारकान्तारो तारण सामर्थ्यादिगुणापरिधन करणले सम्यिस्थापनार्थ जिनेन्द्रप्रतिमाप्रतिष्ठानिमित्तं या शुचिद्यकिय तस्याः शुद्धतेसा शात, नियमेन नियोगेन इति गाथार्थः ॥ २५ ॥ तथा पेच्तिस्सं इत्थमहं वंद गणिमित्तमागए साहू | पेइय कयपुणे जगवंते, गुणरयणणिही महामते ।। २६ ।। प्रेष्यामि अत्र निभवने अहमि " निमित्तं वन्दनार्थम् आगताना याताद, स्थानान्तरेभ्यः । साद पुण्यानुपार्जित शुभकर्मण जगतः परमे गुणरत्ननिधी ज्ञानादिमाणिक्यनिधानानि महास स्वान् सत्वाधिकान् इति गाथार्थः ॥ २६ ॥ 1 तथा पति इतं दण निदिविकलंकं । विभता कार्डिति ततो परं धम्मं ॥ २७ ॥ प्रतिभोत्स्यन्ते बोधिलप्स्य ने, इह जिनभवने दृष्ट्वाऽवलोक्य, जिनेन्द्रविम्बं वीतरागप्रतिमाम्, अकलङ्कं शस्त्रख्यादिकलङ्करहितम्, अन्येऽप्यस्मत्तोऽपरे, श्रदं तु प्रतिबुद्ध एवेत्यपिसम्दार्थः । भयसत्त्वाः मुयिोग्यजीवः करिष्यन्ति विद्या स्यन्ति ततः परं प्रतिबोधकालात् परतः, धर्म कुशलानुष्ठानमिति गाथार्थः ॥ २७ ॥ ततः किमित्याद ता एयं में वित्तं, जमेत्थमुव प्रोगमेति प्रणवरयं । इयताऽपतिवडिया सामयी मोक्खफला ॥२०॥ यस्मादिद जिनभवने सति तदुर्विम्बस्थापनं-साधुदर्शनं भव्यप्रतिबोधश्च प्रविष्यति, तत्तस्मातोः, एतदिदमेव, अवधारणं च अन्यत्परमार्थतः काकुपाठात् । मे मदीयम, वित्तं सव्यम्, परकीयमेव । यकविमित्याह-पदत्र जिनमदने, उपयोग विनियोगम् प्रति याति तं सततम इत्येवंप्रकारा, चिन्ता विकल्पः प्रतिपतिता अविद्धि किमित्याह-स्वाय वृद्धिः कुपरिणामवनय भवतीति गम्यम शब्द एवकारार्थः, उत्तरत्र व संबन्धोऽस्य । सा च मोहफक्षा सिकिप्रयोजनैव । इति गाथार्थः ॥ २८ ॥ उक्तं स्वाशयवृद्विद्वारम् । , अथ यतनाद्वारमाह जयणाय पयत्तेणं, कायव्वा एत्य सव्वजोगेसु । जयणा उ धम्मसारो, जं जणिया वीयरागेहिं ॥ २६ ॥ यतना व जलगालमादिजीवरक्षणोपायविशेषलक्षणा, यशस्वापेक्षा समुपार्थः प्रयात्यादरेण क स्याविशेषा, अनिचनविधी सर्वयोगेषु समस्या रेषु दानयन शोधनमिति चयनादि कस्यामित्याह तना तु यथाशक्तिजीवरचैव धर्मसारी धर्मोत्कर्ष: यद्यस्माअनिता वीतरागरङ्ग इति गाथार्थः ॥ २६ ॥ , श्रथ यतनाया धर्मसारतामेव समर्थयन्नाह जगणा चम्पजणणी, जयथा धम्मस्व पाल 3 बुट्टकरी जया एतावा जपणा ॥ २० ॥ धर्मजननी कु· यतना तु यथाशक्ति जन्तुरक्षणोपाय एव. शलमाता तथा यतनैव धर्मस्य पालनी, जनितस्य सतः पुस्वापायेभ्यो रहिका, चन्दः समुदयार्थ ऽवधारणार्थः, तस्य व संबन्धः प्रागेव दर्शितः । तद्वृद्धिकरो धर्मोपकरणशीला पतना मातेव पुत्रस्य किंबहुन कालेन सर्वदापिका एकसुखाव Page #1287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेइय (१२६४) अनिघानराजेन्द्रः। हा, एकान्तसुखं वा सिब्सुिखं, तदावहाायतनोक्तलकणा, वह केवलम,अकुशमनिवृत्तिरूपा सपापारम्भोपरमणस्वभावा। ननु च यतनाशब्दस्य पुनः पुनरुपादानं न दुष्टम, प्रादरकृतत्वात्। पतनायामपि स्पीयसां पृथिव्याघारम्भाणां विद्यमानत्वात्कआहब-"वक्ता हर्षजयादिभि-राक्षिप्तमनास्तुषस्तथा निन्द- थमकुशलारम्भनिवृत्तिरूपाऽसावित्याह-( अप्पमविसेसभा. न् । यत्पदमसकृत ब्रूया-सत्पुनरुक्तं न दोषाय॥१॥" इति वणं ति) इह भावप्रत्ययस्य लुप्तस्य दर्शनादस्पत्वबाहुबलकगाथार्थः ॥ ३०॥ णौ यो विशेषी परस्परजेदी जिनभवनविषयाणां यतनारम्भातथा पां तदन्यारम्भाणां च तयोर्यो भाषः सनावः स तथा, तेनाजयणाऍ वट्टमाणो, जीवो सम्पत्तणाणचरणाणं । ल्पबहुविशेषनावेनाइदमुक्तं नवति-जिननवनारत्राणामल्पदोसमाबोहासेवण-मावणाराहगो जणितो ॥३१॥ षाणामाश्रयणेन तदन्येषां बहुदोषाणां त्यागादकुशवानिवृत्ति रूपा यतना जवतीति गाथार्थः॥ ३४॥ यतनया करणभूतया, वर्तमानो व्याप्रियमाणो, विधियोगे नन्वादिदेवस्य सकललोकव्यवहारप्रवर्तनमयुक्तं, सूतोपधाषु यतनायां वा वर्तमाना, जीवो जन्तुः, सम्यक्त्वज्ञानचरणा- तरूपत्वादित्येवं पूर्वपकं जिनभवनयतनाद्वारप्रनां मोक्षपथानाम, क्रमेण भद्धाबोधासेवनानां रुच्यवगमानु सङ्गेन परिहरमाह-- ष्ठानानां, यो भावः सद्भावः स तथा, तेन यतनायाः श्रद्धाभावेन एत्तो चिय णिहोस, सिप्पादिविहाणमो जिणिदस्स। सम्यक्त्वस्य, बोधनावेन ज्ञानस्य, आसेनत्राचेन चरणस्य, पाराधकः साधकः, भणितोऽनिहितः, जिनैरिति गम्यते। शति लेसेण सदोस पि हु, बहुदोसणिचारणत्तेण ॥ ३५॥ गाथार्थः ॥ ३१॥ (एसो चिय ति) यतोऽल्पबहुत्वधिशेषभावेनाकुशलनिनन्यस्याः कश्चिदारम्जरूपत्वात्कथमनया वर्तमानस्य चर- वृत्तिरूपा जिनायतना भवति, अत एव कारणात् । निर्दोष णाराधकत्वं निवृत्तिरूपत्वाच्चरणस्येत्याशङ्कयाऽऽह- निरवद्यम्, शिल्पादिविधानं शिल्पकलाराजनीतिप्रभृतिपदार्थोएसा य होइ णियमा, तदहिगदोसविणिवारणी जयणा। पदर्शनम्, 'ओ' इति निपातः। जिनेन्द्रस्य नाभिनन्दनस्य, किंभूतं तदित्याह-लेशेन मात्रया, सदोषमपि सावद्यमपि, तेण शिवित्तिपहाणा, विमेया बुछिमंतेहिं ॥३॥ निदोषमेवत्यापशब्दार्थः। हुशब्दोऽसकृतौ। केन कारणेनेत्याहएषा च इयं पुनर्यतना, प्रवति जायते, नियमावश्यतया, बहुदोषनिवारणत्वेनाऽन्योऽन्यहननधनहरणाचनेकविधाऽनर्थतदधिकदोपविनिवारिणी तस्माद्यतनागतारम्भदोषादधिकोष- निषेधकतया, इति नाथार्थः ॥३५॥ इतरो यो दोष आरम्नान्तररूपस्तं विनिवारयति इति तद- भगवतः शिल्पादिविधाने निदोषतामेव समर्थयवाहधिकदोषविनिवारिणी। येन यस्मात्कारणासन तस्मात्कारणातू, निवृतिप्रधाना प्रारम्भान्तरनिवर्सनमारा, विक्रया का वरबोहिलाभनो सो, सबुत्तमपुषसंजुओ भयवं। तव्या शति । बुद्धिमद्भिः पण्मितः, एषा। ति गाथार्थः ॥३२॥ एंगतपरहियरतो, विसुद्धजोगो महासत्तो ॥ ३६॥ तामेव स्वरूपेण दर्शयत्राह जं बहुगुणं पयाणं, तं णाकणं तहेव दंसे। साइह परिणयजलदल-विमुकिरूवा न होणायन्वा । ते रक्खतस्स ततो, जहोचितं कह नवे दोसो ॥ ३७॥ अमारंभणिवित्ती-ऍ अप्पणाऽहिट्टणं चेवं ॥ ३३ ॥ वरः प्रधानोऽप्रतिपातित्वाद्वोधिलानः सम्यग्दर्शनावाप्तिर्यस्य सा पुनर्यतना, इह जिननवनविधाने, अन्यत्र पुनरनीरश्यपि स वरबोधिलाभको, वरबोधिलानाद्वा हेतोः स जिनः । परिणतं प्रासुकं यज्जलं पानीयं दतं च दार्वादि, तयोर्या विशु किमित्याह-सर्वोत्तमपुण्यसंयुतः अत्यन्तप्रकृष्टतीर्थकरनामाद्धिरनवद्यता प्रसरहितत्वादिलकणा, सैव रूपं स्वभाषो य दिलक्षणशुनकर्मसंयुक्तः, तथा भगवान् परमेश्वरः, तथैकास्याः सा परिणतजलदलविशुद्धिरूपा । तुशब्दः पुनरर्थः । सा तपरहितरतः सर्वथा परोपकारनिरतः, तथा विशुद्धयोगो तु सा पुनरित्येवं संबन्धित एव, अवधारणाओं वाऽयं, तेन निरवद्यमनोवाकायव्यापारः, तथा महासत्त्व उत्तमसत्त्व इति । एवंविधैव सामान्यरूपा, भवति वर्तते, ज्ञातव्या झेया। तथा ततः किमित्याह-यच्छिल्पादि, बहुगुणं प्रभूतोपकारं, किञ्चिद अन्यारम्भनिवृत्त्या कृप्याद्यारम्भत्यागेर, प्रात्मना स्वयमेव, दुष्टमपि, प्रजानां लोकानां, तल्पिादिकम, ज्ञात्वाऽवगम्य, अधिष्ठानं जिनभवनारम्भाणामध्यासनम्, एवं चैषा वतना, भ. तथैव यथा लोकोपकारम, दर्शयति प्रकाशयति, (तेत्ति ) तान् वति ज्ञातव्येति प्रकृतम्। जिनजवनारम्नाणां हि स्वयमाधिष्ठाय प्रजाशब्दपर्यायान् लोकान्, रकतो बहुतराऽबर्येभ्यः पालयकत्वं प्रतिपन्नो यथोचितं जीवान् रक्षयन् कर्मकराँस्तदारम्भेषु तः, ततः शिल्पादिप्रकाशनात, यथोचितमौचित्येन, उचित प्रवर्तयति, निरधिष्ठायकास्तु ते यथाकथञ्चित्तेषु प्रवर्त्तन्ते, चावश्यवेद्यशुनवेदनीयचारित्रमोहादिकोदये वर्तमानस्य क लादिदर्शनत एव प्राणिसंरक्षणम, ततः बिरतिप्रतिपनी तु श्त्यात्माऽधिष्ठायकत्वं यतना । ति गाथार्थः॥ ३३ ॥ संयमः,कानोत्पत्तौ च तीर्थप्रवर्तनादेवेति । कथं केन प्रकारेण?, निवृत्तिप्रधाना यतनेति यमुक्तं, तदेव समर्थयन्नाह- जवेजायेत, दोषो दूषणम, न कथञ्चिदित्यर्थः । इति गाथाएवं च होइ एसा, पवित्तिरूवा वि जावतो एवरं । द्वयार्थः॥ ३६ ॥ ३७॥ अकुसलणिवित्तिरूपा, अप्पबहविसेसभावणं ॥ ३४ ॥ ननु शिल्पादिविधानेऽप्यारम्भदोषो दृष्ट परास्त्यतः एवं चानेन पुनः प्रकारेण परिणतजलाद्याश्रयणजिनभवनार. कथं तत्र न दोष श्त्याशङ्क्याऽऽदम्नाधिष्ठायकत्वलकणेन, जवति जायते, एषा यतना, प्रवृत्ति तत्य पहाणो अंसो, बहुदोसणिवारणा जगगुरुणो। पाऽपि सती, प्रास्तामप्रवृत्तिरूपा, जावतः परमान, नव णागादिरक्खणे जह, करुणदोसे वि मुहजागो) ३०॥ Page #1288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेय 9 तत्र शिल्पादिविधाने, प्रधानः प्रवरः, अपेक्षणीय इत्यर्थः । अंशोऽयययः किंरूपा, दोष निवारणात ग्रन्योऽयादि कणप्रभूतदूषणनिषेधनेनैव जगङ्गुरोर्भुवननायकस्यः स्यात् आरदोषेऽपि भगवतः शुभ एव योग इति हृदयम् । एनमेवार्थे दृष्टान्तेन समर्थपति-नागादिरक्षणे सर्पादिभ्यः पुत्रादेवने यथा च पुत्रावेशकर्षणं तदेव तस्मिन् वा दोषो दूषणं शरीरधर्षणादिः कर्षणदोषः, तत्र कर्षदोऽपि खति, आस्तां दोषाभावे, शुभयोगो मात्रादेः शोजन एव व्यापारः । इति गाथार्थः ॥ ३८ ॥ मागादिरकृणज्ञातमेवाह , 9 खड्डातमम्मि जिसमे इह पेच्छिक कीतं । तप्पच्चवापनीया तदाखण गया जणी ॥ ३०५ ॥ दिडशे य ती यागो से पति ऐतो दुतो उ खट्टाए । तो कहितो तो तह, पीमाऍ त्रिसुजावाए ॥ ४० ॥ गर्भातटे श्वन्तय्याम, किंविधे १, विषमे निम्नोन्नतादिरूपे, इष्टसुतं वलनपुत्रम, प्रेक्ष्य दृष्ट्रा श्रीमन्ते रममाणम्, सत्प्रत्यपायभीता गर्तप्रपातरूपसुतानर्थचकिता, सदानयनार्थ पुत्रानयनार्थ गता प्रस्थिता, जननी मातेति ततो दृष्टोऽवलोकितः चः समुच्चये, तया जनन्या नागो भुज• गः तं प्रति पुत्रं प्रति ( पंतो त्ति ) श्रयनागच्छन्, द्रुतस्तु शीघ्रगतिरेव (खड्डा सि ) गर्ताश्वभ्रात्, (तो चि ) ततो ना. गदर्शनान्तरम, ( कश्रिो सि) कृष्ट आकृष्टः, तकः पुत्रकः, तथा पीमायामपि आकर्षणजनितदेह समुत्थवेदनायामपि संजवन्त्याम, पीडासंभवेनाऽकर्षणीयता सूचनार्थोऽपिशब्दः । शु. सुभाषया सपकारकरणाध्यवसायोपेतया, इति गाथाद्वयार्थः । ॥ ३६ ॥ ४० ॥ , , शार्थस्यैव निदर्शवाद ( १२६५ ) अभिधानराजेन्द्रः । " " एयं च एत्य इराहिनदोस जावतो ऽत्यो । तप्परिहारेऽत्यो प्रत्यो थिय तसओ ओ ॥ ४१ ॥ तापीयाऽपि पुत्राकर्षणम् अत्र जननीहाले, युक्तं संगतम्, इतरथा पुत्रस्याकृष्यमाणस्य पीमा भविष्यतीस्थनाकर्षणे, अधिकदोषजावत आकर्षणजन्य स मर्गजतरस्य सर्वभजन् मानणस्य दूषणस्य सावत् अनर्थोपायः तस्यार्थस्य सुमरणलक्षणस्व परिहारो वर्जनं तत्परिहारस्तत्र बोउन घरोपीमो रपतिलकणः सोऽर्थ एव गुण एव तत्त्वतः परमार्थतो मरपलकणमहादोषरकणतः ज्ञेयो ज्ञातव्यः । अथवा दार्शन्तिकमर्थमाश्रित्यैवं गाथा व्याख्येया । तत्र ' एबं च' इति भगवतः शिल्पादिविधान, शेषं तथैव इति गाथार्थः ॥ ४९ ॥ 9 अथ यतनाद्वारं निगमयन्नाहएव निविचिपहाणा, विश्या नाओ से जया उ विहिणा, धूमादिनया वि एमेव ॥ ४२ ॥ एवमुक्तेन प्रकारेणानन्तरोकान्तरोग, निवृतिप्र इतरसात निवर्त्तनसारा पतो विज्ञेया, भावता परमार्थतः सखिनिवृत्तिरिति मिति नभवनविषया प्रवृत्तिः, किं सर्वस्यैव ?, नेत्याह-यतनाबत ३१७ 1 चेइय स्तु यतनावत एव मान्यस्थ । तथा विधिना भूमिशुद्ध्यादिलक्षणेन नान्यथा अथ कि जिनमवनविषय रसवघातनिवृत्तिप्रधानत्वादहिंसोते ज्ञेया, उताऽन्यापीत्याशङ्कयाह- पूजादिगताऽपि जिनाचनयात्राप्रभृतिविषयाऽपि न केवलं नियम प्रवृतिरिति गम्यम् प्रथमेव एवं प्रकारादित्यर्थः अथवा पूर्वा भगवतः शिल्पादिषु प्रवृरसात्यमुक्तम् उत्तरातुनियनले पूजादीत्यादिग्रहणेन जिन नवनग्रहणात् इति गाथार्थः ॥ ४२ ॥ उक्तं यतनाद्वारम् । उक्तश्च जिन भवन कारणविधिः । पञ्च० ७ विव० । षो० पं० च० । - T अथ तदुत्तरविधिमाह डिफाइऊण एवं निभव सुंदरं तर्हि ि विकारयमह विहिणा, पडवेज्जा अहं चेत्र ||४३|| , " 3 9 । निष्पाद्य निर्माय एवमनन्तविधिना निवनं प्रतीतम् ततः सुशोभनम् तत्र निभने विग्यं प्रतिमां प्रक्रमस्जिनस्यैव विधिकार शास्नीतिविधापितम् । अथानन्तरम् विधिना शास्त्रानीत्या प्रतिष्ठापयेघु शीप्रमेव । यदुक्तम्- "निष्पद्यश्यैयंजनोदित प्रतिष्ठा तु । दशदिवसान्यन्तरतः सद्भवनं स्फातिमद् भवति ॥१॥" इति। - स्वयधारणार्थः । इति गाथार्थः ॥ ४३ ॥ " अथ जिनभवनकारणाविधः फलीपदार्थमाहएयस्स फर्म नणियं इस प्राणाकारिणो न सङ्घस्स | चित्तं सुहायं णिव्यात मिणिदेहिं ॥ ४४ ॥ " " एतस्य समस्तस्य जिनजवन विधानस्य फलं प्रयोजनम्, न पितमुक्तम् स्पेयमुनीया आकारिणस्तु थासोपदेशयधायिन एव श्राद्धस्य श्रावतः श्रावकस्येत्यर्थः । चित्रं वि चित्रं देवमनुजजन्मसुताविधाभ्युदयरूपम शुभानुबन्धमवि च्छिनकल्याणसन्तानम् निर्वाणान्तं मुक्तिपर्यवसानम, जिनेन्द्रैः सर्वज्ञैः इति गाथार्थः ॥ ४४ ॥ " , । एतदेव विभागेनादजिविषापण भावज्जियकम्मपरिणतिवसे सुगती पट्टावरण - महं सदि अप्पणी चैव ॥ ४५ ॥ जिनबिम्बप्रतिष्ठापनमईत्प्रतिमास्थापनं, तस्मिन् यो भावः स्वाशयकरूपः "विदं भुवणगुणगु परिवार बिगवणत्थं, सुरूपवित्तीऍ नियमेणं ॥ १ ॥ इति प्रागुक्तगाथाभिहितः तेन यदतिमुपाकर्मयानु पुष्परूपं तस्य या परिणतिर्विपाकः तस्या यो वशः सामर्थ्य, स तथा तेन जिनयिम्यप्रतिष्ठापनमा बार्जित कर्मपरिणतिवशेन, किमित्याद-सुमती देवगत्यादी प्रतिज्ञापनं व्यवस्थापनम् अमन तत्कालीनदोषाऽऽगामिदोषायोचा त्सदा । कस्येत्याह श्रात्मन एव स्वजीवस्यैव । भवति, इति गाथार्थः ॥ ४५ ॥ 1 तथा तत्य विय साहुस - भावज्जियकम्मतो उ गुणरागो । काले यसादंसण महकमे गुणाकरं तु ||४६|| तत्रापि च स्वस्य सुगतिप्रतिष्ठापनेऽपि च पूर्वकाले, गुणराग Page #1289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेइय चेइय (१२६६) अनिधानराजेन्डः। प्रासीदेवत्यपिशब्दार्थः। साधुदर्शने मुनिजनावलोकने, यो ना. जम्मादिदोसविरहा, सासयसोक्खं तु णिवाणं ॥३०॥ वोऽध्यवसायः स्वाशयवृद्धिरूप एव, "पेच्छिस्सं पत्थ अहं, आराधकश्च ज्ञानाचाराधनावान, चशब्दः पुनरर्थः । जीवः चंदणगनिमित्तमागए साहू । कयपुले भगवते, गुणरयणनिही प्राणी, सप्ताप्टनवैः सप्तभिरष्टाभिर्जन्मभिरित्यर्थः । इदं च महासत्ते॥१।।" इति प्रामुक्त गाथोक्तः, तेन यदुपार्जितं कर्म पु. जघन्याराधनामाश्रित्योक्तम्, अन्यथा तद्भव एव कश्चिसिद्धयएयरूपं तत्तथा तस्मात्साधुदर्शनभावार्जितकर्मतः, तुशब्दः तीति । एते च सप्ताप्टौ वा भवा आराधनायुक्ता एव्याः । पुनरर्थः , गुणरागो गुणपकपातो, भधति स्वरूपेणैव । ततः इतरथा तु सप्तव प्राप्नुवन्तीत्याराधकस्य मनुष्येष्वनुनपादादिकाले चावसरे पुनः । साधुदर्शनं मुनिपुङ्गवावलोकनम् , तत एव जायते । किंनूतम् ?, यथाक्रमेण यथापरिपाटि । अथवा ति। प्राप्नोति लभते, नियमादचइयतया, कुतः किंविधं किमिअथाऽनन्तरं, क्रमेण परिपाट्या , गुणकरं तु गुणकरणशील त्याह-जन्मादिदोषविरहाज्जातिजरामरणप्रतिषणवियोगामेव , इति गाथार्थः॥४६॥ त, पतच्च पदं शाश्वतसौख्यमित्यनेनं प्राप्नोतीत्यनेन वा संबन्धनीयम् । शाश्वतसौख्यं तु नित्यसुखमेव, न तु स्वा. पमिवुज्किस्संतन्ने, जावज्जियकम्मो य पमिवत्ती। स्थ्यमात्रम् , निर्वाणं निवृतिम् , शति गाथार्थः ॥ ५० ॥ जावचरणस्स जायति, एगंतमुहावहा णियमा ॥७॥ उक्तो जिनभवनविधिः । पञ्चा०७ विव० । प्रतिजोत्स्यन्ते बोधि लप्स्यन्ते, अन्ये जिनभवनविधायकापे जीर्णोद्धारे त्वेवं विशिष्योपक्रम्यम् यतःकयाऽपरे , इत्यादिरूपो यो भावोऽध्यवसायः स्वाशयवृफिरूप " नवीनजिनगहस्य, विधाने यत्फलं भवेत् । एव, "पनियुजिकस्संति हं,दहण जिणिबिंबमकलंक। अन्ने वि तस्मादष्टगुणं पुण्यं, जीर्णोकारेण जायते ॥१॥ भव्वसत्ता, काहिंति तओ परं धम्मं ॥१॥" इति प्रागुक्तगाथोक्तः, जीर्णे समुद्धते यावत, तावत्पुण्यं न नृतने । तस्माद्यदर्जितं कर्म कुशमानुबन्धिपुण्यस्वरूपं तत्तथा तस्मा उपमर्दो महास्तत्र, स्वचैत्यख्यातिधीपि"॥२॥ प्रतिभोत्स्यन्तेऽन्ये जावार्जितकर्मतः सकाशात्, चशब्दः पुन तथारर्थः, प्रतिपत्तिरभ्युपगमः , भावचरणस्य पारमार्थिकचारि "राया अमच सिट्टी, को९वीप वि देसणं काउं । त्रस्य , जायते जवति, एकान्तसुखावहा मोक्तशर्मावहा, अन्य- जिले पुवाययणे, जिण-कप्पी वा वि कारयः ॥ १॥ भिचारतो वा सुखावहा, नियमावश्यतया, इति गाथार्थः॥४७॥ जिणनवणाई जे उ-दरंति भत्ती समियपकिआई। अपतिवमियसुइचिंता-नावज्जियकम्मपरिणतीए उ। ते उकरंति अप्पं, भीमानो नवसमुहाओ॥२॥" गच्छति इमीइ अंतं, ततो य आराहणं लहइ ।। ४ ॥ जीर्णचैत्योहारकारणपूर्वकमेव चे नव्यचैत्यकारापणमुचितम्, श्रप्रतिपतिता स्थिरा या शुभचिन्ता प्रशस्तानुचिन्तनं स्वा तत एव संप्रतिनृपतिना एकोननवतिसहस्रा जीर्णोकाराः कारिशयवृधिरूपा, "ता पयं मे वित्तं, जमेत्थमुवोगमेह अणवरयं । ताः, नवचैत्यानि तु षट्त्रिंशत्सहस्रा एव । एवं कुमारपालवस्तुपाश्य चितापरिवमिया, सासयवुहीउ मोक्खफला ॥१॥" इति प्रागु. लाधैरपि नव्यचैत्येभ्यो जीर्णोद्धारा एव बहवो व्यधाप्यन्त क्तगाथाभिहिता, तबकणो यो नावः, तेनार्जितं यत्कर्म कुश- इति। चैत्ये च कुरिमकाफलशौ रसप्रदीपादिसर्वाङ्गीणोपस्करलरूपं, तस्य या परिणतिः सा तथा, तस्या अप्रतिपतितशुज. णकारणं यथाशक्ति कोशदेवदायवाटिकादियुक्तिकरणं च, राजाचिन्ताजावार्जितकर्मपरिणतेः सकाशात, तुशब्दः पुनरर्थः। ग- देस्तु विधापयितुः प्रचुरतरकोशप्रामगोकुलादिदानं, यथाऽवि. चति याति, अस्याश्चरणप्रतिपत्तेः , अन्तमवसानम, अप्रति- चिन्ना पूजा प्रवर्तते इति द्वारम्। इत्थं च चैत्ये निष्पन्ने शीघ्रमेव पतितां पालयतीत्यर्थः। ततश्चरणप्रतिपत्त्यन्तगमनात्पुनः , प्रा. प्रतिमा स्थापयेत्। यदाह षोडशके श्रीहरिजद्रसरिः-"जिनजव. राधनां चरणाराधकत्वम , लनते प्रामोति , विशुरुचरणारा- ने जिनयिम्बं, कारयितव्यं द्रुतं तु बुद्धिमता । साधिष्ठानं ह्येवं धको भवतीत्यर्थः । अप्रतिपतितचरणस्यैव हि चरणाराधना ज. तद्भवनं वृकिमद्भवति ॥१॥"ध०२ अधिः । चति, इति गाथार्थः ४७॥ (१५) जिनबिम्बकारणविधिः-जिनभवनं च जिनबि. पतदेव दर्शयन्नाह म्बाध्यासितमेव भवतीति तद्विम्बप्रतिपिच्छयणया जमेसा, चरणपमिवत्तिसमयतो पभिति । ष्ठाविधिं प्रतिपिपादयिषुमङ्गादिआमरणंतमजस्सं, संजमपरिपालणं विहिणा ॥ ४॥ प्रतिपादनायाऽऽहनिश्चयनयानयविशेषमतेन, व्यवहारनयात्तु मरणावसरचर नमिऊण देवदेवं, वीरं सम्मं समासओ वोच्छ । णाधनमात्रमाराधनेत्यभिप्रायेण निश्चयनयात इत्युक्तम् । यद्य- जिणविवपइटाए, विहिमागमलोयणीतीए ॥१॥ स्मात्, पषा प्रागुक्ताऽऽराधना जवति । कुतः कथं तदित्याह-चरण नत्वा प्रणम्य , देवदेवं पुरन्दरादिदेवानामाराभ्यम् , वीरं व. प्रतिपत्तिसमयतः चारित्राभ्युपगमकामात, प्रवृति तदादितः , मानस्वामिनम , सम्यग्नावशुद्ध्या, बदये इत्येतक्रियाया वेदं आमरणान्तं मृत्युलकणावसानं यावत्, न पुनस्तदारात् । विशेषणम् । ततश्च सम्यगवैपरीत्येन, समासतः संक्केपेण, अजसमनवरतं, संयमपरिपालनमहिंसाधाराधनम् , विधि-- वक्ष्ये अभिधास्ये ,जिनबिम्बप्रतिष्ठाया:प्रतीतायाः, विधि वि. नागमोक्तन्यायेन । अतस्तदन्त आराधनां लभते ति युक्तम् । धानम् , आगमलोकनीत्यो जिनप्रवचनन्यायेन. लौकिकन्याइति गाथार्थः ॥ ४६॥ येन चत्यर्थः । लोकग्रहणेन चेदं दर्शयति-लोकनीतिरपि यद्याराधनां लभते ततः किं स्यादित्याह क्वचिजिनमताविरुद्धाश्रयणीया, अत एव प्रासादादिलक्षणं अराहगो य जीनो, सत्तट्ठभवेहि पावती णियमा । तदुक्तमयाधीयते, इति गाथार्थः॥१ Page #1290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेडय जिनबिम्बस्थाकारित प्रतिष्ठा न भवतीतिधिमभिधित्सुस्तत्प्रस्तावनायाऽऽद जिविस पाडा, पार्थ काराचियस्स जं तेण । तकारणम्म चिहिं, पदमं चिप वधिमो ताव ॥ २ ॥ जिनबिम्बस्य जिनप्रतिमायाः, प्रतिष्ठा प्रतिष्ठापना, प्रायः प्रायेण, प्रायोग्रहणं चाकारितस्याऽपि स्वयंकृतस्य क्रीतस्य च प्रतिष्ठा भवतीति प्रतिपादनार्थम् । यदिति यस्माद्धेतोः तेन मात्र) जनवविधापने, विधि कल्पम, प्रथममेव पूर्वमेव प्रतिष्ठानिधानात् वषामो भणामः ताबदिति प्रक्रमार्थः । इति गाथार्थः ॥ २ ॥ ( १२६७) अभिधानराजेन्द्रः । अथ बिम्बकारणविधिमेवाभिधित्सुस्तत्प्रवर्तकशुद्धबुद्धिरूपं तापाचायतुष्केाऽऽद सोडं पाऊण गुणे, निलाल जायाएँ सुकचुकीए । किच्चमि मणुयाणं, जम्मफलं एत्तियं चैव ॥ ३ ॥ गुणपरिसोनिया खलु तेसि विस्स दंसणं पिसुई। कारावयेण तस्स उ अग्गो असणो परमो ॥ ४ ॥ मोक्खप सामियाणं, मोक्खत्थं उज्जएण कुसलेणं । गुणवमाणादि, जयव्वं सव्वजत्तेणं ॥ ५ ॥ सगुणवााओ, वह सुनावेण वञ्चती लिपमा । कम्पं मुद्दा तस्युदया सम्नसिकि थि ।। ६ ॥ त्या गुरुणानिधीयमानाना तथा कात्यायगम्य का नू ?, गुणान् रागादिवैरिवार विदारणप्रवचनप्रवर्तनादीन् पाम है, जिनानामई ताम, जातायां प्राप्तायां सत्यां तायामित्यत्र पुनर्व्याख्याने एककर्तृकत्वाभावात् क्त्वाप्रत्ययस्याउपपत्तिः स्वादिति प्राप्तायामिति व्यायाम अथवा गुण गुथिनोबुद्धिजीययोरमेदात् श्रवणानक्रियापेक्षया बुद्धिज मनाकियाया एक कर्तृत्वमेवेति ततो जातायामुत्पनायाम् आत्मनः बुको निर्मलयो किमित्याह-कृविधेयम इदं जिन बिम्बम, मनुजानां नृणाम्, तथा जन्मफलं जननसाध्यम्, पतावदेव नाधिकम् अत्र मनुष्यभवे ॥ ३ ॥ तथा-गुणप्रकर्षो गुणातिशयः, जिना एवार्हन्त एव धर्मधर्मिणोर भेदाच्च गुणप्रकर्षो जिना इत्युक्तम् । अन्यथा गुणप्रकर्षो जिनानामिति यकव्यं स्यादिति । खरवधारये । अत एव तेषां जनानां विम्यस्य प्रतिमाया दर्शनमप्यवलोकनमपि, आस्तां द्वन्दनादि सुखं वा वर्तते केतुत्वाद । ततः किमित्याह - कारणेन विधापनेन, तस्य विम्बस्य, तुशब्दः पुनरर्थः, अनुग्रह उपकारो भवति, स्वकीयस्य, परम उत्कृष्टः ॥ ४ ॥ ततश्च मोक्षपयथामिकानां सिदिजिनान मोक्षार्थ सिद्धिनिमित्तम् उद्यतेन प्रयत्नपरेण कुशलेन नि णेन स पत्र मोक्षो गुणः फलं येषां बहुमानादीनां ते तदुणाः, ते च ते बहुमानादयश्च । अथवा ते ख ते असाधारणा गुणाश्च तदुपास्तेषु बहुमानादयः प्रीतिपूजाप्रभृतयः सद्गुणबहुमानादयः अथवा ते ते गुणा बहुमानादयति समासो उतस्तेषु तेषां मोक्षपदस्वामिकानां गुणयमानादय इति तु न व्याख्यातम्, तच्छब्दस्य गतार्थत्वात्तत्संस्पर्शनीयस्य साक्षात्पथा तदिति तेन , च " - " चेइय तेषां जिनानामिति व्याख्येयमिति । यतितव्यं प्रवृत्तिविधेया, सर्वयत्नेन समस्तादरेय ॥ ५ ॥ अथ कस्मादेव मित्याहतद्गुणबहुमानात्मोपपस्वामिगुणपरुपाताद, तथाकारण मोकपथस्वामिगुणवमानोद्भवेन, शुभभावेन शोभ नपरिणामेन, वध्यते उपादीयते, नियमादवश्यंतया, कर्मादृएं, भानुबन्धं कुशलानुबन्धि । ततंश्च तस्य शुभानुबन्धिकर्मण उपात्सर्वसिद्धिः समस्तेप्सितकार्यनिष्पतिर्भवति इतिशब्दः शुद्धबुद्धिस्वरूपाकिसमालिस पनार्थः इति गायाचतुष्कार्थः ॥ ६ ॥ चतुर्भिः कलापकम् । अथ जिनबिम्वकारणविधिमाह इय सुबुकिजोगा, काझे संपूण कत्तारं । विजवोचियमप्पेज्जा, मोक्षं श्रणहस्स सुहभावो || ७ ॥ इति शुद्धबुद्धियोगादेवमनन्त रगाथा चतुष्को कनिर्मलबोध संवकासरे, संपूज्य मानतो नबिम्बविधायकं सूत्रधारक मित्यर्थः विभवोचितं स्यसमृद्धानु रूप, र्पयेत् समर्पयेत् मूल्यं वेतनम् अस्य निर्दोषस्य, अ नौचित्येन प्रव्यविनाशकत्वात् । शुजन्नाव उदारतया प्रवर्द्धमानप्रशस्ताध्यवसायः, कारयिता । इति गाथार्थः ॥ ७ ॥ घशिल्पिनोऽसद्भावे यद्विधेयं तदाहवारिसयस्साजावे, तस्सेव हि तत्व मुजुधो खवरं । नियमे मो नं उचिये कालमासज्ज | ॥ तारकस्थानमस्येत्यर्थः कर्तुरिति प्रक्रमः बनाये प्राप्ती तस्यैव कर्तुरेव, हितार्थे श्रेयोनिमित्तम्, विम्बार्थकल्पितद्रव्यभहणतो यत्तस्प संसारगर्तपनं तदक्षराद्वारेण उद्यतः प्रय सः नवरं केवल नियमन्त्रियेत् विम्य प्रतिमा वेतनम्, यथेयता अव्येण यद् विम्बं विधातव्यं भवता यथाबहुशो मूल्यं च दास्यामीति यदिति मूल्य उचितं बो ग्यं प्रतिमाऽपेक्षया, कालमवसरम् श्राश्रित्य प्रतीत्य यतः क. चिकालावपि विम्बे मूल्यं प्रचुरं स्यात्कदाचिदन्यम इति गाथार्थः ॥ ८ ॥ , यदि पुनरनधस्यैतरस्यापि यमर्पयति, तः को दोषः स्यादित्य देवस्सपरीजोगो, अणेगजम्मेदार विभागो । सम्म सहोड़ खिउचो पावो जो कारुओ इहरा | ए | देवस्वस्य जिनबिम्बनिर्मापणार्थे कल्पितत्वेन जिनदेव द्रव्यस्य, पर नोगो जक्षणं, देवस्वपरी भोगः । उपचारासहेतुकं कर्म देवस्वपरीभोग उक्तः । स चानेकजन्मस्वनन्तभवेषु, दारुणविपाको नरकादिदुःखकारणत्वेन घोरोदयो भवति तस्मिन् देवस्वपरी भोगे, स इति कारुकः, भवति स्यात् नियुक्तो व्यापारितः पापः सदोषो, यः कारुकः शिल्पी, इतरथाऽन्यथा, विम्वमुज्यनियमन जावे इत्यर्थ न परोपकारकरणतः करणानां सतां दायविपाके कर्मणि परव्यापारथं युक्तम्। इति गायार्थः ॥ १ ॥ , " अथ देवस्वपरीभोगो दारुणविकको यदि कारकस्य प्रविष्यति ततः किमस्माकमित्यभिप्राययन्तं 3 शिक्कयितुमाहजाय परिणामे अमुई सदस्य तं न फायणं । Page #1291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेंइय सम्म पिरुविऊणं, गाढगिलाणस्स वाऽपत्थं ॥ १० ॥ यदनुष्ठान जायते संपद्यते, परिणामे आयस्याम् सुखम श्रसुखहेतुत्वात् कासैाख्यमशुनं था, सर्वस्य समस्तस्याऽऽत्मनः परस्य वा न पुनरात्मन एव । सतां परोपकारकरणप्रवणान्तःकरणत्वात् । आद च-"जयन्तु ते सदा सन्तः, सवीयाः सहुकृतार्थाः स्वयं सन्तः परायें साहित्यानम् न कर्तव्यं न विधेयम्, सम्पराविपरीततया निरूप्याय सम्यनिरूपणाभावे हि परिणामस्व यत्वं स्यादिति । श्रत्रार्थे दृष्टान्तमाह-गाढग्लानस्य सन्निपाताद्यभिभूततया तीव्रातुरस्य वाशब्द श्वशब्दार्थः, भपथ्यमयोग्यनोजनम्, अपथ्यदानेन हि गाढग्लानो विनाशितो जवति । इति गाथार्थः ॥ १० ॥ (१२३०) अभिधानराजेन्द्रः । ननु यद्यनवकारुकस्याविशेषेण मूल्यार्पणे सदोपस्यामितिः स्पाचदा का वार्तेत्याशङ्कयाऽऽहआणागारी आरा-हमेश तीए दोसवं होति । उमत्यो मुद्धपरिणामो ॥। ११ ॥ श्राज्ञाकार आप्तोपदेशवर्ती, यथेोक्तजिनबिम्ब मूल्यविधिविधा त्यर्थः किमित्याह द्वाराधनेन विम्वमूल्यनियमनाद्वारेण पालनया, तत्या श्राज्ञायाः, न नैव, दोषघाविपाकदारुणदेवस्वपरिगप्रर्वतक लक्षणदूषणयुक्तः, भवति जायते, वस्तुनो यययविधानेन देवस्य विपर्यासः समायवेपत्यं वस्तुविपर्यासस्तस्मिन्नपि देवद्रव्यस्य का केण लक्षणेऽपीत्यर्थः, श्रविपर्यासे निर्दोष एवेत्यपिशब्दार्थः । योनिरतिशयानः अनेन वस्तुविपयासस्य बीजमुकं, तस्यैष मोहनात्प्रय कथमखावाहाकारी न दोषानि स्याह यतः शुद्धपरिणामो निरवद्याध्यवसायः कर्ती । इति गाथार्थः ॥ ११ ॥ अथ कथं वस्तुविपर्यासेऽप्याज्ञाकारिणः शुरूपरिणामो भवतीत्यत आहश्राविचिभिप, सुको एसो अथड़ा दियमा । तित्यगरे बहुमाणा, तदजावाओ य पायव्वो । १२ ॥ आज्ञामवृत्तित एवाऽऽतोपदेशपरतन्त्रप्रवर्त्तनादेव, शुद्धो वि शुरू, पत्र परिणामो विश्वविद्यायको वा हेय इति योगः । न नैय, श्रन्यथा अपरवा, आज्ञाया अपारतन्त्र्यप्रवृत्तेरित्यर्थः नियमादवश्यंतया, शुद्धो ज्ञेयो नवतीति प्रकृतमेव । श्रथ कुत तदपि द्वयमित्याह तीर्थंकरे जिने बहुमानात्पक्षपातात् आछात्रवृतिकः शुद्धः सनायासीकरे बहुमानाभावात् बना शाप्रवृत्ति कस्त्वयुद्धः चशब्दः समुच्चयार्थः ज्ञातव्यो केव इति तमेव इति गाथार्थः ॥ १२ ॥ · 9 अथ किमेवमाहायाः प्रायमु समतिपवित्ती सव्वा, आणावज्झ चि जवफला चैव । तित्यगरुदेसेण वि तचओ सा तदुद्देसा ॥ १३ ॥ स्वमतिप्रवृतिः श्रात्मबुद्धिपूर्विका बेहा सपी समस्ता यस्वभावस्तयविषया, काबा आप्तोपदेशा इति हेतोः प्रयफय संसारविधमेव माहावा एव प्रयोशारहेतुषु प्रमाणत्वादिति । ननु या कीर्थकरानुदेवी " चेय सा भवफला युक्ता, न त्वितरा, जिनपक्षपातस्य महाफलत्वादित्याशयाह तीर्थकरोद्देशेनाऽपि जिनालम्बनेनापि, आस्तां ततोऽयत्र स्वमतिप्रवृत्तिफलेदेति प्रकृतम् कृत पदो न ततो न परमार्थेन साधकती स्वमतिप्रति तस्मिंस्तीर्थकरे उद्देशः प्रणिधानं यस्यां सा तदुद्देशा, य एक या प्रवर्तते स एव हि जिनमुद्दिश्य प्रवर्तत निधीयते मापर इति गाथार्थः ॥ १३ ॥ - श्राझोलुङ्घनेन जिनमुद्दिश्य जिनभवनविम्बतस्पूजादिप्रवखान् पहुनुपलज्योपालम्भयन्नाह मृदा प्रणादिमोहा, वहा वहा एस्य संपयर्द्धता । तं चेत्र य मांता अत्रमता ण याति ॥ १४ ॥ सूदा सूर्खा, कुत इत्याह-धनादिमोहाय आदिरहिताना अनादि मोहो येषां ते तथा । तथा तथा तेन तेन प्रकारेणाssतालिका तीर्थकर ना व्याप्रियमाणाः, (तं चैव यत्ति ) तमेव च तीर्थकरं मन्यमानास्तत्पूजादिकरणत आराध्यतयाऽज्युपगच्छन्तः, अवमन्यमा वास्तमेव परिभवन्त प्रायनेन न जानन्ति नागति, श्रनादिमोहमूदत्वादिति हृदयम् । इति गाथार्थः ॥ १४ ॥ प्रस्तुतमेवार्थ निगमयन्नादमोक्स्वत्थिया ओइ, आणाए चैव सव्वमचेयं । सदस्य विजय, संयंति कथं पसंगेण ॥ १५ ॥ मोहार्थिना सिद्धिकामेन (तो ति यतः स्वमतिप्रवृतिः फला तो तो इह प्रथमे मायैवासोपदेशेनैव सर्वयत्ने न सर्वादरण, सर्वत्रापि समस्तेऽपि परलोकसाधनविधौ, आ स्तामेकत्र यतितव्यं चेष्टितव्यं, सम्यग् भावशुद्ध्या, रतिशब्दः परिसमाप्तौ कृतमय प्रसङ्गेन प्रसान्नमणितेन इति गाथार्थः । । १५ ॥ पञ्चा० ८ त्रिव० । जिनजवने तद्विम्बं कारयितव्यं कुतं तु बुद्धिमता । साधिष्ठानं होतं, सजवनं वृद्धिमद्भवति ।। १ ।। जिनभवने जिनायतने विजिनबिम्बं कारयितम्यं कारण तु शघ्रमेव बुद्धिमता बुद्धिसंपन्न, किमिति तं फारविसम्यमित्याह-दि वात्सधिष्ठानं साधिष्ठातृमेव, जिनबिम्बेनैव तद्भवनं प्रस्तुतं वृद्धिमद्भवति वृद्धिभाग भवति ॥ १ ॥ तबिम्बकारणविधिमाहजिनबिम्बकारणविधिः काले पूजापुरस्सरं कर्तुः । निवोचितम्पार्पण-मनपस्य शुभेन भावेन ॥ २ ॥ जिनयिकारणविधिः निधीयते इति वाक्यशेषः काले अवसरे, पूजापुरस्सरं भोजनपत्रपुष्पफलपूजापूर्वक कर्तुः शिल्पिनः विज्ञानिकस्य विभवोचितस्य मूल्यस्य धनस्थाप समर्पणमनघस्याव्यसनस्य शुभेन प्रशस्तेन भावेनान्तःकर जेन ॥ २ ॥ • अनघस्येत्युक्तं तद्व्यतिरेकेणा नार्पण मितरस्य तथा युक्त्या वक्तव्यमेव मुख्यमिति । काले च दानमुचितं भावेनैव विधिपूर्वम् ।। ३ ।। Page #1292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेश्य (१२६६) चेश्य अनिधानराजेन्द्रः। (नार्पणमित्यादि ) इतरम्य स्त्रीमद्यद्यूतादिव्यसनवतो, ना- वालाद्याथैत्ता य-तत्क्रीडनकादि देयमिति ।। ए॥ पणं तथा क्रियते यथा अनघस्य, युक्त्या लोकन्यायेन, व (अत्रेत्यादि) अत्र जिनबिम्बकारणे, अवस्थात्रयगामिनो बालक्तव्यमेव मूल्यमिति इति एवंस्वरूपं मृत्यमिदं वक्तव्यं, काले च प्रस्तावे च दानमुचितं, मूल्यस्येति गम्यते । शुभभावेनैव न कुमारघुव लक्वणावस्थात्रयगामिनो, बुधैर्विद्भिदौहृदा मनोअशुभभावेन, विधिपूर्वमविधिपरिहारेण ॥ ३॥ रथाः, समाख्याताः कथिताः, बालाद्याःचैसा यत् चित्ते भवाधे त्ताः शिल्पिचित्तगताः, यद्यस्मात्त वर्तन्ते तत्तस्माच्चैत्तयानाद्यसव्यसनं प्रति किमेवमुपदिश्यत इत्याह- वस्थात्रयमनोरथसंपत्तये, कीडनकादि क्रीडनकं विस्मयकारि चित्तविनाशो नैवं, प्रायः संजायते द्वयोरपि हि । भोगोपकारणजातं,देयमुपढौकनीयम,रति एवंप्रकारम। श्वमुक्तं अस्मिन व्यतिकर एष, प्रतिषिसो धर्मतच्चझैः॥ ४॥ भवति-शिल्पी बालो युवा मध्यमवया या प्रतिमानिमाणे व्याचित्तविनाशः चित्तकालुष्य, नैवम् उक्तनीत्या, प्रायो बाहुल्ये प्रियते, तस्य तदवस्थात्रयमनादृत्य प्रतिमागताचस्धात्रयदर्शि नश्चैत्ता ये दौईदाः समुत्पद्यन्ते, तत्परिपूर्णाय यतितव्यम् ॥६॥ न, संजायते,द्वयोरपि हि कारयितवैज्ञानिकयो.अस्मिन् प्रस्तुते, व्यतिकरे संबन्धे, एष चित्तविनाशश्चित्तन्नेदः, प्रतिषिद्धो नि भावशु नेत्युक्तं, तदुपदर्शनायाऽऽहराकृतो, धर्मतत्वधर्मस्वरूपवेदिभिः ॥ ४॥ यद्यस्य सत्कमनुचित-मिह वित्ते तस्य तजमिह पुण्यम् । अस्मिन् व्यतिकर इत्युक्तं तमेवाश्रित्याह भवतु शुजाशयकरणा-दित्येतनावशकं स्यात् ॥२०॥ एष द्वयोरपि महान् , विशिष्टकार्यप्रसाधकत्वेन । यत् स्वरूपेण यन्मात्रं, यस्य सत्कं यस्य संबन्धि, वित्तमिति संबन्धमिह कुमं, न मिथः सन्तः प्रशंसन्ति ।। ५॥ । गम्यते, अनुचितमयोग्यम, इह वित्ते मदीये कथञ्चिदनुप्र(एष इत्यादि । एष योगो. द्वयोरपि पूर्वोक्तयोमहान् गुरु विष्ट,तस्य पुरुषस्य, तस्माज्जातं तज्जम, इह विम्बकरणे, पुण्यं विशिष्टकार्यप्रसाधकत्वेन जिनबिम्बनिर्वर्तकत्वेन, इह संबन्धं, पुण्यकर्म, भवतु प्रस्तु, शुजाशयकरणात शुनपरिणामकरणाक्षुम्मं वैकल्यं, न मिथः परस्परं, सन्तः सत्पुरुषाः,प्रशंसन्ति तु, इत्येवमुक्तनीत्या, पतत् न्यायार्जितं वित्तं पूर्वोक्तं भावळ, स्तुवन्ति ॥ ५॥ स्यात् । परकीयवित्तेन स्ववित्तानुप्रविष्टेन पुण्यकारणाननिजिनबिम्बकारणे भावप्राधान्यमुररीकृत्याऽऽह- लापाद्भावेनान्तःकरणेन शुद्धं भवेत् ॥ १०॥ यावन्तः परितोषाः, कारयितुस्तत्समुद्भवाः केचित् । जिनविम्बकारणविधिरभिधीयत इत्युक्तं, तमतमेव वि. तद्विम्वकारणानी-ह तस्य तावम्ति तत्वेन ॥६॥ शेषमाह( यावन्त इत्यादि) यावन्तो यत्परिमाणाः, परितोषाः प्रीति- मन्त्रन्यासश्च तथा, प्रणवनमःपूर्वकं च तन्नाम | विशेषाः, कारयितुरधिकृतस्य, तस्य समुद्भवा बिम्बसमुजवाः, मन्त्रः परमो झयो, मननत्राणे ह्यतो नियमात् ॥ ११ ॥ केचित्केऽपि, चिच्छन्दोऽप्यर्थे, तद्विम्बकारणानि जिनबिम्ब- मन्त्रन्यासश्च तथा जिनबिम्बे कारयितव्यतयाऽनिप्रेते मन्त्रनिर्वर्तनानीह प्रक्रमे, तस्य कारयितुः, तावन्ति तत्परिमापानि, स्य न्यासो विधेयः। कः पुनः स्वरूपेण मन्त्र इत्याह-प्रणवनमःतत्त्वेन परमार्थेन ॥६॥ पूर्वकं च तमाम । मन्त्रः परमो शेयः प्रणव ओङ्कारो,नमःशब्दश्च, चित्तविनाशोऽत्र प्रतिषिद्ध इत्युक्तं, तमाश्रित्याह- तो पूर्वावादी यस्य तत्प्रणवनमःपूर्वकं, तस्य विवक्तितस्य ऋअप्रीतिरपि च तस्मिन् , जगवति परमार्थनीतितो केया। पजादाम ताम,मन्त्रः,परमः प्रधानो, यो वेदितव्यः । किमिसर्वापायनिमित्तं, ोपा पापा न कर्तव्या ॥७॥ त्याह-'मननत्राणे घतो नियमात्' हिर्यस्मादतः प्रणवनमःपूर्व( अप्रीतिरित्यादि) अप्रीतिरपि च चित्तविनाशरूपा, त कानाम्नः सकाशात ज्ञानरकणे नियमाद्भवत इति कृत्वा मन्त्र स्मिन् शिल्पिनि क्रियमाणा, भगवति जिने, परमार्थनीतितः उच्यते तन्नामैवेति ॥ ११ ॥ परमार्थन्यायेन, कारयितुईया सर्वापानिमित्तं, हि यतः, स. ननु च रत्नकनकादिभिः सुरुपमहाविम्वकरणैर्विशिष्टं फब. बैषामपायानां प्रत्यवायानां निमित्तमप्रीतिः, तस्मादेषा पापा माहोस्वित्परिणामविशेषादित्याशङ्कचाऽऽहऽप्रीतिः, न कर्तव्या न विधेया ॥ ७॥ विम्ब महत्मरूप, कनकादिमयं च यः खल विशेषः । कथं पुनः तत्कारयितव्यमित्याह नास्मात्फलं विशिष्टं, भवति तु तदिहाशयविशेषात् ॥१॥ अधिकगुणस्थैनियमात , कारयितव्यं स्वदौहृदैर्युक्तम् । बिम्ब प्रतिमारूपं, महत्प्रमाणतः, सुरूपं विशिष्टाङ्गाबयवसन्निवे. न्यायार्जितवित्तेन तु, जिनबिम्ब जावशकेन ।।। शसौन्दर्य, कनकादिमयं च चतुर्वर्णरत्नादिमयं च, यः खयु (अधिकेत्यादि) अधिकगुणस्थैरधिकगुणवर्तिभिः, प्राक्तनका विशेषो बाह्यवस्तुगतः, नास्मात्फलं विशिष्टमस्मादेव विशेषान्न लापेकया, नियमाद् नियमेन, कारयितव्यं कारणीयं, स्वदोहदैः फनविशेषो न फसमधिकं, नैतदविनाभावि फल मित्यर्थः । भ. स्वमनोरथैः, शिल्पिगतः, युक्तं सहित, न्यायाजित वित्तेन तु वति तु नवत्येव, तद्विशिष्टं फलम, इह प्रक्रमे, प्राशयविशेषात् न्यायोपात्तकविणेन तु करणनूतेन, जिनबिम्बं जिनप्रतिमारूपं, यत्र भावोऽधिकस्तत्र फलमप्यधिकमिति हृदयम ॥ १२ ॥ भावद्धन भावेन सदन्तःकरणलक्षणेन शुरूं यन्न्यायार्जित प्राशयविशेषात् विशिष्टं फलमित्युकं, स एव प्राशयविशेविस तेन ॥ ८॥ षो याहकः प्रशस्तो भवति तादृकमाहस्वदौहदैर्युक्तमित्युक्तं तद्विवरीपुराह आगमतन्त्रः सततं, तन्नत्यादिनिङ्गसंसिद्धः । अत्रावस्थात्रयगा-मिनो बुधैर्दोहृदाः समाख्याताः। चेष्टायां तनुस्मृतिमान्, शस्तः खस्वाशयविशेषः॥१३॥ Page #1293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेश्य (१२७०) अभिधानराजेन्षः। चेश्य (आगमेत्यादि ) आगमतन्त्र भागमपरतन्त्र आगमानु- विवपरिवारमज्जे, सेलस्स य बन्नसंकर न सुहं । सारी; सततमनबरतं, स आगमो विद्यते येषां ते तद्वन्तस्तेषु, समअंगुलप्पमाणं, न सुंदरं होइ कश्या वि ॥४॥ भक्त्यादीनि भक्तिबहुमानविनयपूजनादीनि यानि लिङ्गानि तैः कंगुलाश्पडिमा, कारस जाव गेहें पूज्जा । संसिद्धो निश्चितः, तद्वद्भक्त्यादिलिङ्गसंसिद्धः, चेष्ठायां व्या- नई पासा' पुणो, इअ नाणिनं पुन्वसूरी हिं ।। ५ ।। पारकरणे, ततस्मृतिमानागमस्मृतियुक्तः, शस्तः खलु प्र- निरयावलिमुत्ताओ, लेवोवलदंतकट्ठलोहाणं । शस्तो जवत्याशयविशेषः परिणामनेदः ॥ १३ ॥ परिवारमाणरहिअं, घरम्मि नो पूत्रए बिबं ॥६॥ एवमाशयधिशेषमन्निधाय तेन बिम्बकरणं समर्थयन्नाह- गिहपमिमाणं पुरओ, वलिवित्यागे न चेव काययो। एवंविधेन यद् वि-म्बकारणं तद्वदन्ति समयविदः। निश्चं न्हवण तिसंऊं, मज्जणयं भावो कुजा" ॥ ७ ॥ प्रतिमा मुख्यवृत्त्या सपरिकराः सतिलकाद्याभरणाश्च कारलोकोत्तरमन्यदतो, लौकिकमन्युदयसारं च ।।.१४॥ यितव्याः, विशिष्य च मूलनायकः, तथैव बिशेषशोभातजनि(एवमित्यादि) एवंविधेनाऽऽशयेन यद बिम्बकारणं पूर्वोक्तं,त- तविशेषपुण्यानुबन्धिपुण्यादिसंभवात् । उक्तं च-“ पासाईश्रा दन्ति प्रतिपादयन्ति, समयविदःशास्त्रज्ञाः, लोकोत्तरमागमिक- पमिमा" इत्यादि द्वारम् । अथैवंनिष्पन्नस्य बिम्बस्य सद्यः प्रमन्यदतो लौकिकमतोऽस्मादाशयविशेषसमन्धितात् जिनबि- | तिष्ठा विधाप्या। यदुक्तं षोमशके-"निष्पन्नस्यैवं खलु, जिनबिम्बकारणादू, अन्यदू लौकिकं वर्तते, अभ्युदयसारं च तद्भ- म्बस्योदिता प्रतिष्ठा तु । दशदिवसाभ्यन्तरतः, सा च त्रिविधा वति ॥ १४ ॥ समासेन ॥ १॥” इत्यादि । बृहद्भाध्येऽपि-"वत्तपश्ट्ठा पगा, लौकिकमभ्युदयसारमित्युकं, लोकोनरंतु कीरगित्याह खित्तपश्ता महापश्ठा य । एगचउवीससत्तरि-सयाण लोकोत्तरंत निर्वा-साधकं परमफलमिहाश्रित्य । सा होइ अणु कमसो ॥१॥ " प्रतिष्ठाविधिश्च सर्वाङ्गीअच्युदयोऽपि हि परमो, भवति त्वत्रानुषङ्गेण ।। १५॥ णतमुपकरणमीमननानास्थानश्रीसगुर्वाज्ञाकारणप्रौढप्रवेश महादितत्स्वागतकरणभोजनवसनप्रदानादि सर्वाङ्गीणं सलोकोत्तरं तु पुनर्निर्वाणसाधक मोक्कसाधक, परमफनमिहा- प्रकारेण वन्दिमोककारणमारिनिवारणाऽवारितसत्रवितरणश्रित्य प्रकृष्टफसमङ्गीकृत्याऽभ्युदयोऽपि दि स्वर्गादिः, परमःप्र. सूत्रधारसत्कारणस्फीतसङ्गीताधभिनवाद्भुतोत्सवावतारणा-- धानो भवति स्वत्रानुषङ्गेण नवत्येवात्र प्रसङ्गेन, न मुख्य दिरष्टादशस्नात्रकारणादिश्च प्रतिष्ठाकल्पादेयः। ध०२ अधिक। वृत्त्या ।। १५॥ (२६) अथ तत्प्रतिष्ठाविधिमभिधातुमाहप्रधानानुबङ्गिकप्रतिपन्यर्थ दृष्टान्तमाहकृषिकरण इव पलालं, नियमादत्रानुषङ्गिकोऽज्युदयः।। णिप्फएणस्स य सम्म, तस्स पश्हावणे विही एस । फलमिह धान्यावाप्तिः, परमं निर्वाणमिव विम्बात् ।। १६ ॥ मुहजोएण पवेसो, आयतणे गणवणा य ।। १६ ॥ कृषिकरण श्व,पक्षालं प्रतीतं,नियमादत्र जिनबिम्बकारणे,प्रा. निष्पन्नस्य चसिद्धस्य पुनः,सम्यक् यथावत,श्दं पदं प्रतिष्ठापन नुषङ्गिकोऽज्युदयः स्वर्गादिः फलमिह दृष्टान्ते, धान्यावाप्तिः इत्यनेन, निष्पन्नस्येत्यनेन वा संबध्यते । तस्य जिनबिम्बस्य, सस्यलाभः, परमं निर्वाणमिव विम्बात् धान्यनिर्वाणावाप्त्योः प्रतिष्ठापने संस्थापने, विधिर्विधानम्, एष वक्ष्यमाणः । तमेसाम्यं दर्शयति । षो०७ विद्य० । वाह-शुभयोगेन साधकचन्नक्षत्रादिसंबन्धन प्रशस्तमनःप्रभृ. तिव्यापारेण वा, प्रवेशः प्रवेशनं, बिम्बस्य कर्त्तव्य इति शेषः । जिनबिम्बस्य तावद्विशिष्टलकणलक्वितस्य प्रसादनीयस्य व आयतने भवने, स्थानस्थापना च उचितस्थानन्यासश्च, बि. जेधनीलाजनचन्कान्तसूर्यकान्तारिष्टकर्केतनविद्रुमसुवर्णरू म्बस्यैव । इति गाथार्थः ॥१६॥ प्यचन्दनोपनमृदादिभिः सारव्यैर्विधापनम् । यदाह"सन्मृत्तिकाऽमलशिलातलरूप्यदारु तथासौवर्णरत्नमणिचन्दनचारु बिम्बम् । तेणेव खेत्तसुद्धी, हत्थसयादिविसया णिश्रोगेण । कुर्वन्ति जैनमिह ये स्वधनानुरूपं, कायन्बो सकारो, य गंधपुप्फादिएहि तहिं ॥ १७ ॥ ते प्राप्नुवन्ति नृसुरेषु महासुखानि ॥१॥" तेनैव शुनयोगेन, केत्राभिर्भूमिशोधनं, हस्तशतादिविषयो तथा गोचरो यस्याः शुद्धः सा हस्तशतादिविषया,प्रादिशब्दाद् बहु"पासाईश्रा पडिमा, लक्खणजुत्ता समत्तलंकरणा। तरविषया,अल्पतरविषया वा । श्यं च समन्ततो द्रव्या, शोजह पल्हाएश्मणं, तह णिज्जरमो विप्राणादि"।१।१०५ अधि० धनीयं च तत्रास्थिमांसाशुच्यादिद्रव्यमिति । नियोगेनावश्यप्रतिमाश्च वास्तुशास्त्रोक्तविधिनिष्पन्नाः सुलकणा अत्राप्य- तया, कार्योति गम्यम्। तथा कर्तव्यो विधेयः, सत्कारश्च गन्धज्युदयगुणहेतवः । यतः पुष्पादिभिः प्रतीतेः, श्रादिशब्दाळूपादिग्रहः । तस्मिन् जिनमः "अन्यायजन्यनिष्यन्ना, परवास्तुदखोद्भवा । घने, प्रतिष्ठावसरे च, इति गाथार्थः ॥१७॥ होनाधिकाङ्गा प्रतिमा, स्वपरोन्नतिनाशिनी ॥ १ ॥ दिसि देवयाण पूजा, सबोस तह य योगपालाणं । मुहनक्कनयणनाही-कडिभंगे मूबनायमं चयह । आहरणवत्थपरिगर-चिंधाउह में पूजा ॥२॥ ओसरणकमेणसे, सव्वेसिं चेव देवाणं ।। १८ ।। वरिससयाओ उएं, जं बिंब उत्तमेहि संगविरं । दिग्देवताऽऽदीनामिन्द्रादीनाम्, प्रजाऽर्चन,सर्वेषां समस्तानाम, बिअलंगवि पूइज्जइ, तं बिंब निक्कलं न जो॥३॥ तथा चेति समुश्चये, लोकपालानां सोमवमवरुणकुबेराणां,शक्र Page #1294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२७१) चेइय निधानराजेन्द्रः। चेइय संबन्धिनां पूर्वादिदिनुक्रमेण व्यवस्थितानां,क्रमणव तु खड्गद- मङ्गलदीपा माङ्गल्यप्रदीपाः, चः समुच्च्यार्यः, तथेति तेनैव प्र. एमपाशगदाहस्तानामिति, अवसरणक्रमेण समवसरणन्यायेन कारेण, घृतगुडपूर्णाः घृतगुमसमन्विता जवान्ति,तत्र तथा शुभाः द्वितीयप्रकरणणितेन, अन्येऽपरे सूरयः, सर्वेषां चैव सम- प्रशस्ता श्वव श्चयएिखण्ढानि, भदयाणि च खएडखाद्यकास्तानामेव, देवानां सुराणाम, पूजा कार्यत्याहुरिति शेषः ।। दौनि, येषु दीपषु ते तथा । चः समुच्चये। अथवा-स्वतन्त्राइति गाथार्थः ॥१८॥ एयव शुभेक्षुभक्ष्याणि च भवन्ति । "सुभेक्युरुक्ख ति" पाठाअव किमेषामसंयतानां पूजादि क्रियत इत्याह न्तरम् । तत्र शुभा इक्कयो वृताश्च कदल्यादयः। तथा यववारकाः जमहिगयबिंदसामी, मव्वेसिं चेव अन्जुदयहेछ । शरावादिरोपितयवाङ्कराः, वर्णकश्चन्दनं श्रीखएमादि, स्वस्ति कः प्रसिद्ध एव, वर्मकस्य वा स्वस्तिका वर्णकस्वस्तिकास्ते ता तस्स पाहाए, तेसिं पूयादि अविरुद्धं ॥१ए ।। आदिर्यस्य नन्दाव दिवस्तुजातस्य तत्तथा । सर्व समस्तम्, यद्यस्मादधिकृतबिम्बस्वामी, जिनपतिरित्यर्थः । सर्वेषामेव | महारम्यमतिरमणीय, जवति, तत्र विधेयमित्यन्वयः । इति गा. समस्तानामपीछादिदेवानाम, अभ्युदयहेतुः कल्याणनिमित्त. | थार्थः ॥२३॥ म, तत्तस्मात् तस्याधिकृतबिन्दस्वामिनः, प्रतिष्ठायाम, तेषां मंगलपमिसरणाई, चित्तारिद्धिविद्धिजुत्ताई। दिकदेवतादीनाम, पूजादि पूजासत्कारप्रभृति क्रियमाणम, अविरुकं संगतमेव, इति गाथार्थः ॥१६॥ पढमदियहम्मि चंदण-विलेवणं चेव गंधळं ॥ २४ ॥ मङ्गलप्रतिसरणानि मङ्गलकडूणानि, चित्राणि विचित्राणि, साहम्मिया य एए, महिठिया सम्मदिद्विणो जेण । ऋभिवृद्धियुक्तानि ऋद्धिवृच्चभिधानौषधीसनाथानि, प्रथमएत्तो चिय नचियं खतु, एतेसिं एत्य पूजादी ॥३०॥ दिवसे आद्यदिने, अधिवासनादिने इत्यर्थः। चन्दनविलेपनसाधर्मिकाः समानधार्मिका,आईतत्वात्तेषाम् । पते दिग्दवे. मेव च मलयजानुलेपनमेव च, गन्धात्यं कर्पूरकस्तूरिकादिगतादयः, तथा महर्सिका महेश्वराः, तथा मिथ्यादृशोऽपि साध- न्धैः पूर्ण विधेयम, ति गाथार्थः ॥२४॥ मिका व्यतो भवन्तीत्याह-सम्यग्दृष्टयः सम्पदर्शनधराः, येन चउणारीओमिणणं, णियमा अहिगासु णस्थि उ विरोहो। कारणेन, (एतोच्चियत्ति) अत एव कारपत्रयादेव, उचितं खलु णवत्थं च इमासि, जंपवरं तं हं सेयं ।। २५॥ सङ्गतमेवेति, पतेषां दिग्देवतादीनाम, अत्र प्रतिष्ठाऽवसरे, चतुःसंख्या नार्यः स्त्रियश्चतुर्नार्यस्ताभिर्मङ्गल्याभिः, (श्रोपूजादि पूजासत्कारप्रनृति । इति गाथार्थः ॥२०॥ मिणणं ति) अवमानं प्रोक्षणकं लोकशास्त्रसिम्म, चतुर्नार्यच. तत्तो सुहजोएणं, सहाणे मंगलेहिँ उवणा उ। मानं नवति तत्र कर्तव्यम् । नियमावश्यतया, अधिकातु चत. अहिवासपमुचिएणं, गंधोदगमादिणा एत्थ ॥ २१ ॥ सभ्योऽर्मसतरासु, नास्ति तु न भवत्येव, विरोधः शास्त्रबाधः, ततो दिभदेवताऽदिपजानन्तरम, शुभयोगेन प्रशस्तचन्दनपत्र नेपथ्यं च वेषः, आसामवमानकारिणीनां नारीणां, यत्प्रवर लग्नादिसंबन्धेन, स्वस्थानेऽधिवासनोचितदेशे, मङ्गलैयवि यत्प्रधान प्रशस्तं च, तदितवमानप्रस्तावे, श्रेयः कल्याण नूतं शेवैः, चन्दनादिभिर्वा । स्थापना तु न्यासश्च, बिम्बस्य विधेयेति समाश्रयणीयं च, शति गाथार्थः॥ २५ ॥ गम्यम । ततश्चानिवासनमधिवासनं वा, शुद्धिविशेषापादनेन ननु प्रवरनेपथ्यस्य रागहेतुत्वात्कथं श्रेयस्त्वमित्याहबिम्बप्रतिष्ठायोग्यताकरसं प्रतिष्ठाकल्पप्रसिद्धम, सचितेन जं एयवइयरेणं, सरीरसकारसंगपंचारु । योग्येन, गन्धोदकादिना सन्धमन्योन्मिभजलप्रभृतिना, श्रादिशब्दात्कषायमृत्तिकाऽऽदिपरिग्रहः, अत्र प्रतिष्ठायाम । इति कीरइ तयं असेसं , पुषणिमित्तं मुणेयव्वं ॥२६॥ गाथार्थः॥१॥ यत्प्रवरमेपथ्यादि, पतद्व्यतिकरण जिनबिम्बप्रतिष्ठासंबन्धेन, तथा शरीरसत्कारसंगतं देहनूषानुगतं, चारु शोभनम्, क्रिवते वि. चचारि पुमकलसा, पहाणमुद्दाविचित्तकुसुमजुया । घीयते, धार्मिकजनेन । तत्तदशेषं सर्वम्, पुण्यनिमित्तं शु जकर्मनिबन्धनम, (मुणेयव्वं ति ) शेय, सत्पक्षपातरूपत्वामुहपुस्लचत्तचउत-तुगोत्थया होति पासेस ।। २२ ॥ तत्परिणामस्येत्यर्थः । श्रेय एव तासां नेपथ्यविशेषः, इति चत्वारश्चतुःसंख्याः, पूर्णकलशा घटाजसपरिपूर्णा अखएमाश्च, गाथार्थः ॥२६॥ प्रधानमुप्रथा रूप्यसुवर्षरत्लस्वरूपचा विचित्रकुसुमैश्च नाना अथ कुतस्तत्पुण्यनिमित्तमित्याहविधपुष्पैर्युता युक्ता ये ते तथा । शुनपूर्णचत्रचतुस्तन्तुकावस्तृ तित्थगरे बहुमाणा, आणाआराहणा कुसमजागा । ताः, पूर्ण सूत्रकुक्कुटिकापूरितं, यश्चत्रं तर्कः, तस्य संबन्धि यचतुस्तन्तुकं तन्तुकचतुष्टं तत्तथा । शुभं च तन्निरवा पूर्ण अणुवंधसुधिजावा, रागादीणं अभावा य ।। २७ ॥ चत्रचतुस्तन्तुकं चेति समासः,तेनावस्तृता आच्छादिताः कपट- तीर्थकरे जिने, बहुमानातू पकपातात्, तथा आझाऽऽराधनादा. देशेषु ये ते तथा, भवन्ति, विधेया इति शेषः । पाश्वषु चत- तोपदेशानुपालनात् , कुशत्रयोगात् प्रशस्तव्यापारात् शास्त्रो. सृषु दिचु, पुरस्तात्पतिचाप्यप्रतिमायाः, इति माथार्थः ॥२२॥ तत्वेन । अनुबन्याकिनावात सातत्येन कर्मकयोपशमेनात्मनो किं चान्यत निर्मलत्वसद्भावात् , रागादीनां रागद्वेषप्रभृतीनाम, अजाचात अविद्यमानत्वात, रागाऽद्यभावश्चाकापरतन्त्रत्वानेव, च. मंगलदीवा य तहा, घयगुनपुमा मुभिक्खुनक्खा य । शब्दः समुच्चये, पुण्यनिमित्तं प्रवरनेपथ्यादि विज्ञेयमिति प्रह जववारयवायस-त्थिगादि सव्वं महारम्मं ॥२३ ।। तम् । रति गाथार्थः ॥ २७ ॥ Page #1295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेइय पेशामानमाड़ दिलिप जियोमिओ दाखाओ सचिओ तयम्मि । वेद दारिद्द, च होंति ण कयाति नारीणं || 25 | दीकित जिनावमानतोऽधिवासित जिनयोङ्खण कादू लोकप्रसितू तथा दानाद्वित्तवितरणात् शक्तितः शक्तिमाश्रित्य, यथाशत्यर्थः । तथा तेन प्रकारेण प्रदेश पतस्मिन् जगवति विषयभूते मृतभर्तृत्व दारि इथं भवति जायते, न कदाि नारीणां स्त्रीणां प्रोङ्खणककारिणीनाम् इति गाथार्थः ॥ २८ ॥ अधिवासनगतं विध्यन्तरमादकोसिया य पूजा, पहाणदव्वेहिँ एत्थ कायन्त्रा । श्रसहिफलपत्यमुपममुत्तरयणाइएहिं च ।। २५ ।। उत्कर्षिका उत्कर्षवती, चशब्दः पुनरर्थः, पूजा पूजनम ई बिस्वस्य । प्रधानद्रव्यैः प्रवरपूजाङ्गैश्चन्दनागरुकर्पूरपुष्पादिनिः, अधिवासनावसरे विधेया श्रोषधफव वर्गमुकारका प्रतीतैरेव नरमोभ्यो ब्रह्मादय फ लागि नारदामिमादीनि इति गाथार्थः ॥ २०५ ॥ चित्तवलिचित्तगंधे-हिं चिचकुसुमेहिं चित्तवासेहिं । चिरोहिं विकदेहिं भावेहि विवसारेण ॥ ३० ॥ चित्रविचित्र गन्धैः पूर्जां कर्तव्येति प्रकृतम् । तत्र चित्रा नानाविधा बलय उपहारा गन्धास्तु कोष्ठपुटपाकादयः । चित्रकुसुमैर्विचित्रपुष्पैः, चित्रवासैः सुगन्धिद्रव्यचूर्ण रूपैर्वस्वन्तरयास स्वभावैः चित्रविधैः ( विहित ) न्यू रचनाविशेः प्रावेशरचनागतः प्रीतिप्रमुदितालङ्गितादिभिर्भक्तिसारैर्वा, विभवसारेण विनृत्युत्कर्षेण, इति गाथार्थः ॥ ३० ॥ अकस्मादेवमत्या पूजा विधीयत इत्याहएयमिह मूलमंगल, एतो च्चिय उत्तरा वि सकारा | ता एयम्मि पत्तो, कायन्त्रो बुद्धिमतेहिं ॥ ३१ ॥ पूजादिकम रह जिनबिम्बविषये मूलमङ्गलमादिकल्याणम्, ततः किमित्यादयति ) इत एव मूललाव उत्तरेऽप्युक्तरकालाविनोऽपि सत्कारा अधिकृषि भवन्ति निमित्त मूलमङ्गलस्य 'ता' इति यस्मादेवं तस्मिन मूलमले उत्त तरकारी प्रयत्न उद्यमः कर्तव्यो विधेष बुद्धिमद्भिर्धीमद्भिः इति गाथार्थः ॥ ३१ ॥ पूजाद्यनन्तरं यत्कर्त्तव्यं तदाहचिदिनद्युतिवृष्टी, उस्सग्गो साहु सासणमुराए । थय सरण पूय काले, उवणा मंगलगपुब्बा उ ॥ ३२॥ वन्दना प्रतीता कर्तव्या स्तुतिवृद्धिः प्रवर्धमानस्तुतिपावरूपा विधेया, उत्सर्गः कायोत्सर्गो विधेयः साधु यथा नयति असंतयेत्यर्थः कस्या धाराधनायेत्याहशासनसुरायाः प्रथमदेवतायाः स्वयस्मर , " बानुखिनं कायोत्सर्गे कार्यम् अथवा चतुर्विंशतिस्तयः पठनीयः स्मरणं चेदीनामिति ततः पूजा पूजनं विचे या जिनस्य प्रतिष्ठाकारकस्य या पद ( १२७२ ) अभिधानराजेन्द्रः । 3 9 १ इय योधानुस्वारावर्ण रचता प्राकृत्यादिति ततः काले लग्नस्थाभिमतां स्थापना प्रति जिनविस् पूर्वा तु पञ्चनमस्कारपूर्यैय मङ्गलान्तरपूर्वेव वा इति गाथार्थः ॥ ३२ ॥ पूया चंदणमुस्स-ग्गपारणा नावथेज्जकरणं च | सिच्ाचलदीव समु-दमंगलाणं च पाठो उ ॥ ३३ ॥ ततः पूजा पुष्पादिभिरर्चनं प्रतिष्ठितबिम्बस्य विधेया, ततो व न्दनं चैत्यवन्दनं विधेयम्, तत उत्सर्गः कायोत्सर्गों निरुपसनिमित्तं विधेयः प्रतिदेवतायाशयन्ये ततः पारणा परिसमाप्तः तस्यैव विधेया भावकरणं च वित्त स्थिरतासंपादन] भावेन वा बाचन करणं च विधेयम् । अत एवाद- सिद्धाचलद्वीपसमुद्र मङ्गलानां च सिद्धाद्युपमोपेतमङ्गलगाथानां वक्ष्यमाणरूपाणाम्, पाचोऽनि धानं विधेयः, तुशब्दो गाथापूरणार्थः, इति गाथार्थः ॥ ३३ ॥ सिकादिमङ्गतान्येवाह जसिका पतिट्टा, तिलोग धूमापणिम्मि सिद्धिपदे । चंदसूरियं तह, होउ इमा सुप्पतिट्ठति ।। ३४ ।। यथा बहुत सिद्धानां निर्वृतानां प्रतिष्ठा अस्थान लि कामनी त्रिशिरोरत्नक, सिद्धिपदे नि स्पदे, आचन्द्रसूर्य चन्द्रसूर्यौ यावत्, तथा तत् भवतु अस्तु, मधिकृत सुप्रतिष्ठा शोभनावस्थान इतिशब्दः परिख माप्तौ इति गाथार्थः ॥ ३४ ॥ " शेषा मङ्गलगाथा अतिदेशत ग्रह एवं अनादी वि, मेरुपमुद्दे होति वचनं । एते मंगलसदा सम्म सुनिधादिडा ।। ३५ ।। मनेनैव सियायेन प्रमादिष्यपि प्रचलद्वीपसमुष्वपि न केवलं सिद्धविषय एव । किंभूतेष्वचलादिषु ?, मेरुमुखे मेरुजम्बूद्वीपलवणेोदधिप्रभृतिषु भवति जायते, चकव्यं णनीयं तथाविधगाथाभिधानद्वारे ताहि 66 'यह मेरा पट्टा, जम्बूदवस्स मरारम्भ । आचदसूरियं तद, होउ इमा सुप्पटु ति ॥ १ ॥ जम्बूज सोमवारम् । आचंद्रसूरियं तह, दोन इमा सुप्परति ॥ २ ॥ जड़ लवणस्स पट्ठा, सव्वसमुद्दारा मज्झयारम्मि | आचंद्रसूरियं तह, दोन घ्मा सुप्पट्ठति ॥ ३ ॥ " एवमन्या अपि मङ्गलगाथा न विरुद्धा इति । अथ कस्मादेताः पश्यन्ते यत्र कारणमाह-पते अनन्तरोका ि शब्दा माध्यमात निप्रतिष्टावसरे, सुनन्ि माः शुभः ष्टा निश्चित समयः इति गाथार्थः ॥३॥ शुभनिबन्धनत्वमेवैतेषां समर्थयन्नाह सोनं मंगलसद्दं, सउम्मि जहा उ इट्ठसिद्धि त्ति । एत्यं पितहा सम्मं विलेया बुद्धिमंतेहिं ।। ३६ ।। त्वामपि मया विजयसिया दिशब्दो मङ्गलशब्दस्तम, शकुने शकुनविषये, यथा तु यद्वदेव, इष्टसिद्धिरभिमतार्थनिष्पत्तिः भवतीति गम्यम्, इत्येतत् Page #1296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७३ ) अभिधानराजेन्द्रः । चेय ज्ञात इति शेषः । अत्रापि प्रतिष्ठायामपि न केवलं शकुनवि पय एव तथा तद्वदिष्टसिकिः, सम्यग्यथावत, विज्ञेया ज्ञातया बुद्धिममितिमा इति गाथार्थः ॥ ३६ ॥ इटाचारमतमाह जव पुष्पकलसा - दिवावणे उदहिमंगलादीणि । सव्वत्थ जावतो जिणवरा चैव ॥ ३७ ॥ श्रन्ये त्वपरे पुनः सूरयः, पूर्ण कलशादिस्थापने पूर्ण कलशमङ्गलदीपानां म्यासे, उदधिमादीनि समुज्यसमप्रभृतीनि जल्पन्ति भणन्ति, पठनीयतयेति । श्रन्येऽपरे पुनः, सर्वत्र सर्वप्रयोजनेषु प्रतिष्ठागतेषु जायतः परमार्थता, ममिति गम्य । जिनवरा एव जिनेन्द्रा एब, न मङ्गलान्तरमतस्तन्नामैव सर्वत्र प्रहीतव्यम् । इति गाथार्थः ॥ ३८ ॥ प्रतिष्ठानन्तरं पद्विधेयं तदाह सती संपूजा, विसेसपूजाल बहुगुणा एसा । जं एस सुए भणिओ, तित्थयरातरो संघो ॥ ३८ ॥ शक्त्या पचायतीत्यर्थः सहपूजा चतुर्णीम भ्यर्चनं विधेवा पूजा धर्माचार्यादितद्विशेषाच नायाः सकाशात्, बहुगुणा महाफलेत्यर्थः । एषा सवपूजा, पतदाहोद मणि सोऽभिहितः तीर्थंकरेश्यो द्वितीय तीर्थकरा मन्तरः पूज्यत्वेनेति शेषः अथवा अविद्यमानमन्तरं विशेषो यस्य सोऽनन्तर तीर्थकराणामनन्तरस्तीयेत्यर्थः । ते बामपि तस्य पूज्यत्वात् । अथवा तीर्थकरोऽनन्तरो यस्मात्स तथा सङ्गपूर्वकं हि तीर्थंकरस्य तीर्थंकरत्वम् इति संबन्धितमेव, इति गाथार्थः ॥ ३० ॥ मुमेवार्थे समर्थयन्नाद् " य. गुणसमुदाओ संघो पण तित्यं ति होति एगहा । तित्ययरो वि एणं, राम गुरुभावतो चेन ॥३६॥ गुणसमुदायोsनेकप्राणिस्थानादिगुणसमूहः, ( संघोति ) सङ्घ उच्यते । तस्य च प्रवचनं तीर्थमिति चैतौ शब्दो, प्रव तो ते एकार्थाभिक्षार्थी । यद्यपि प्रकृष्टं प्रशस्तं वा वचनं नंतर भोधिमिती - दशाङ्गयेव, तथाऽव्याधाराधेययोरभेदविवणात्प्रवचनं तीर्थे च सङ्घ उच्यत इति, ततश्वानपचित पुरुषादिभावतया गुणसमुदायरूपताया एनापेक्षणात् । तीर्थकरोऽपि च जिनोऽपि च, प्रस्तामिरज नमचिन्ते धर्मचारम्भे-नमोतित्थस्स" इति प्रणनात् । कुत इत्याह-गुरुभावतः " गुरुरयं गुणात्मकत्वात" इत्येवंरूपो यो प्रावोऽध्यवसायः स गुरुभावस्तस्मात् । अथवा गुरुभावतो गुरुत्वा गौरवाईत्वात् चैवेत्यबधारणार्थः, इति गाथार्थः ॥ ३६ ॥ अथ तीर्थकरनमनीयत्वं स्यागमेन दर्शयन्नाह सप्पुचिया अरिया, पूजितपूपा व विणयकम्मं च । कयकियो विज कहं कति मते तदा तित्यं ||४०|| तत्पूर्विका तीर्थहेतुका, तीर्थे च सङ्घः, (अरिहयति ) आईता तीर्थकत्वं प्रवचनवात्सल्यादिवज्यत्वात्तस्याः । तथा पूजि तस्य सतः पूयै सङ्घस्यपूजा सा पूजितपूजा सा प्र ३१९ चेय तां, पूजित पूजकत्वाल्लोकस्य । तथा विनयकर्म्म च वैनयिककृत्यं धर्मकृतं चतु विनयसो वम्मं स्याधिक रणार्थम् इत्येवं कारणत्रयान्नमति तीर्थमिति योगः । श्रथ कृ कृत्यस्य किं ताथैनमनेनेत्याह-योनिता अपि प्रास्तामितर, यथा यद्धत, कथां धर्मदेशनास, कथयति करोति नमति प्रणमति तथा तीर्थकर नामकर्मोदयादचित्यरिति गायार्थ Vo 9 तदेव एयम्मि पूजियम्पि, स्थि तयं नं सा पूजिये होई भुवि पूर्वाभिज्जं वा गुणद्वाणं ततो अकं ॥ ४१ ॥ एतस्मिन् सङ्खे पूजिते सति, नास्ति न विद्यते, तत्पूज्यम यत्र पूनितमर्चितं नवति, सर्वमेव पूजितं भवतीति भावः । कुत देवमित्याह यनेऽपि लोकेऽपि पूजनीयं पूयम, न नेव गुणस्यानं गुणास्पदं ततः सात अन्य परमस्ति विगाथार्थः ॥ ४१ ॥ अथ सङ्घकदेशपूजैव कर्त्तुं शक्या, न सङ्गपूजा, तस्य सफलसमक्षेत्राश्रयत्वादित्याद्दतयापरिणामो, इंदि महाविंसयमो मुणेच्यो । ससम्म वि देवयपूयादिणाण ॥ ४२ ॥ सत्पूजापरिणामः सङ्घपूजनाध्यवसायः, संघमदं पूजयामि" इत्येवंरूप हन्दीत्युपप्रदर्शने, महाविषयो कोचरः मकारः प्राकृतत्वात्, (मुणेयव्वो ति) ज्ञातव्यः, तद्देशपूजनेऽपि सङ्घैकदेशाचैनेऽपि, श्रपिशब्दः परोक्ताऽभ्युपगमसूचनार्थः । कथमेतत्किमित्याह- दैवतपूजादिज्ञातेन देवतार्चनप्रनृत्युदाहरणेन यथा हि-देवतस्य राहो वा मस्तकपादायेकदेशपूज मेऽपि तत्पूजापरिणानाद्देवतादिः पूजितो भवति एवमेकदेशपूजनेऽपि सः पूजितो भवति इति गाथार्थः ॥ ४२ ॥ 66 सङ्घपूजामेव गाथाश्रयेण स्तुवन्नाहआसा सिकिपाणं, लिंगमिणं विरेपिच । संचम्मचैव पूषा, सामणं गुणनिम्मि ॥ ४३ ॥ एसा महादा, एस थिय होति भावभएको चि । सागित्वसारो, एसचिव संपयामूलं ।। ४४ ।। एची फलं यं परमं वाणमेव शियमेण । सुरणरमुहाई अयु-निपाई इह किसिपलाल व ॥४५॥ समासीन जीवानासि चिह्नम, इदमेतत्, जिनवरैः तीर्थकृङ्गिः प्रज्ञप्तमुक्तम्, यतः किमित्याह श्री महेन्दोऽवधारणार्थः । स योतर संमन्यते पूजार्थना, कथम्, सामान्येनैव नतु प रिवाजन्यादिविशेषेण विशेषापेकृपा हि गुणानामुपसर्जनभावो जयति, स्वाजन्यादिविशेषस्यैव प्रधानता स्यादिति । गुणनिधौ ज्ञानादिगुणरत्ननिधाने, गुणनिधानत्वादिति भावः, इति ॥४३॥ एषा तुइयमेवपूजा महादानमुत्तमविश्राणनम्। एषैव च भवति जायते, भावयज्ञः परमार्थयागः, इतिः समाप्तौ, पा संघपूजा गृहस्थसारो गृहिणां सार इव सारः सर्वस्वम्, ईप्सितार्थसाधकत्वात्। गृहस्थधर्मसारो वा । एत्रैव च संपम्मूश्रीकारणम् ||४४ ॥ एतस्याः सङ्घपूजायाः, फलं साम्यम्, ज्ञेयं 2 Page #1297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेश्य (१९७४) अभिधानराजन्द्रः। चेइय ज्ञातव्यम्, परमं प्रधानम्, निर्वाणमेव निवृत्तिरेव, नियमेनाव- सार्चनकरणेन, तथा तथा तेन तेन प्रकारेण, विचित्ररूपइयन्तया, सुरनरसुखानि प्रतीतानि, प्रानुषङ्गिकाणि प्रासङ्गि- तयेत्यर्थः । इह जिनबिम्बे प्रतिष्ठिते सति, कर्तव्यं विधेय. कानि, न परमाणीत्यर्थः । इह सङ्घपूजायां, फलविचारे वा, किं- म, विहितानुष्ठानं पूजावन्दनयात्रास्नानादि, खलुरवधारणे, वदित्याह-कृषी कर्षणे पन्नालं वुसं कृषिपलाझं तदिव तदिति । स चोत्तरत्र संजन्स्यते । भवविरहफलमेव संसारवियोगसा. गाथात्रयार्थः॥ ४५ ॥ धकमेव, यथेति तथाशब्दस्य वीण्सायां प्रयुक्तत्वाद्यथाशसङ्घपूजाप्रकरणमुपसंहरन्नाह ब्दोऽपि चीप्सायामेव अष्टव्यः, तेन यथा यथा येन येन प्र. कारेण भवति जायत इत्युपदेशः, इति गाथार्थः ॥५०॥ कयमेत्य पसंगणं, उत्तरकालोचियं हऽ पि । पञ्चा०८ विव० । इति प्रतिष्ठाविधिः । ध० । षो० । अणुरूवं कायव्वं, तित्थुमतिकारगं णियमा ॥४६॥ श्रावककृतबिम्बप्रतिष्ठाविधिःकृतमझम, अत्र प्रतिष्ठाऽधिकारे,प्रसङ्गेन प्रसङ्गभणितेन,पूजाविषयेण । नत्तरकालोचितं प्रतिष्ठोत्तरसमयानुरूपम् , इह प्रति दव्वत्थोत्ति केई, विंबपइटु जणंति सहस्स । ष्ठापर्वणि, अन्यदप्युक्तातिरिक्तमपि, अमारिघोसणादि । अनुरूप तह कप्पे जणियमिणं, सम्म पश्ट्ठवणवयणाओ ।। मुचितम, कर्तव्यं विधेयम्, तीर्थोन्नतिकारकं प्रवचनप्रभाव- कन्यं वासकुसुमधूपकायमृत्तिकातैलोन्मीलनकारि लक्षणम्, नाकारि, नियमादवश्यतया । इति गाथार्थः ॥ ४६॥ सत्प्रधान:स्तबो व्यस्तवो,भावप्रधानत्वानिर्देशस्य,ततोऽव्यजचियो जणोवयारो, विसेसओएवरि सयणवग्गम्मि । स्तवत्वात् कारणात्,इतिहेतौ,सचदर्शित एव। केचनैके,बिम्बप्र. तिष्ठां सर्वकप्रतिनिधेस्तद्गुणाध्यारोपलकणां, भणन्ति जल्पन्ति, साहम्मियवग्गम्मि य, एयं खलु परमवच्छल्लं ।। १७ ॥ श्रारूस्य श्रावकस्य । अयं तेषामाशयः-यतिधर्मों हिनावस्तउचितो योग्यः, जनोपचारो लोकपूजा सामान्यतो विधेयः, पप्रधानः,स च प्रतिष्ठायां क्रियमाणायां पूर्वोक्तज्यव्यापारणतो विशेषतो विशेषेण, नवरं केवलम् , स्वजनवर्गे स्वकीयलोके, नसम्यग्जाघटीति,तथा प्रकारण,कल्पे वेदग्रन्थविशेषे, भणितं प्रत्यासन्नतरत्वात,साधम्मिकवर्गे च स्वजनातिरिक्तसमानधा- प्रतिपादितम, इदं प्रतिष्ठाविधान, सम्यक् प्रतिष्ठापनवचनात्मिकजने च,धर्मबहुमानात विशेषत शति प्रकृतम् । कस्मादेव "सावओ को पढमं जिणपमिमाए पइवणं करे"त्ति जणनामित्याह-पतत्खलु एतदेव, पाठान्तरेणैवं स्खलु, इथमेवेत्यर्थः । तू । धावकः कश्चित्प्रथमम् आद्यं, जिनप्रतिमाया जिनमः,प्रतिप्रतिष्ठोद्देशकृतोपचाररूपम् । परमवात्सल्यं प्रधानगौरवं च, स्व. ष्ठापनं प्रतिष्ठां, करोति विदधाति । गाथायां च प्रथमकरोजनसाधर्मिकाणाम्, ति गाथार्यः ॥ ४७ ॥ त्यादिशब्दानुपादान बन्दोवशात् न कृतं, सूचनाच सूत्रस्येति । अतः स्थितमेतत्-कारणद्वयाऽक्तलकणात् श्रावक पव प्रतिअट्ठाहिया य महिमा, सम्मं अणुबंधसाहिता केइ । ष्ठां करोति, न साधुरिति । अन्ने उ तिमि दियहे, णियोगयो चेव कायया ॥४॥ साम्प्रतं पूर्वपकार्थी प्रथमपकस्य परिहारं दातुकाअधाद्विका अष्टदेवसिकी, चशब्दः समुच्चये, महिमा महो- मस्तदनुष्ठानेनैव चोत्तरं गाथाऽर्द्धनाऽऽहसवः, महिमाशब्दश्च स्त्रीलिङ्गोऽपि रश्यते। सम्यम्भावतः,सा ह्यनुबन्धसाधिका पूजाविच्छेदगमिका भवतीति केचिदाचार्या सयमामिलाए दाम, खिवंति सहीण खंधदेसम्मि ।। वदन्ति । अन्ये त्वपरे पुनराचार्याः, त्रीन् दिवसान् यावत् स्वयमारमना, अम्लानां साओ, दाम माला, विपन्त्यकापयन्ति, महिमा । नियोगत एव नियमनैव, चैवशब्दोऽवधारणार्थः। श्राद्धीनां श्राविकाणां, स्कन्धदेशे ग्रीवायाम् । अयमनिप्रायःकर्तव्या विधेया इति गाथार्थः ॥ ४ ॥ यदि व्यस्तवमीतैनवद्भिः प्रतिष्ठा न क्रियते, किमिन्युपधानतत्तो विसेसपूया-पुव्वं विहिणा पमिस्मरोम्मुयणं । विधौ मालाऽऽरोपणं विधीयते ?, अम्लानादित्वेनास्यापि सा ध्वनुचितव्यस्तवत्वात, दमपि कर्तुं न युज्यत इति । नूयबलिदीणदाणं, एत्थं पि ससत्तिो किं वि॥णा एवमुक्तः परः स्वमतस्थित्यर्थ यद्वदिष्यति, तत् ततो महिमाऽनन्तरम्, विशेषपूजापूर्व प्राक्तनदिनापेकया वि तृतीयपादनाहशिष्टतरार्चनपुरःसरम्, विधिना शास्त्रोक्तेन, साम्प्रदायिकेन वा । प्रतिसरोन्मोचनं कङ्कणमोचन विधेयम् । तथा भूतबलिः अह सत्थे जणियमिणं, ति प्रेतोपहारः पत्रपुष्पफलावताद्यः सुरनिमन्धोदकोन्मिश्रः सि अथेत्याचार्यवचनानन्तर्यार्थम्, शास्त्रे महानिशीथाख्ये, भकाम्नप्रक्केपरूपः, दोनदानं कृपणेभ्योऽनुकम्पावितरणं, ततः प णितमुक्तम, इदं मालारोपणविधानम् , इतिर्हेतावतो विधीदद्वयस्य समाहारचन्द्वः । अत्रापि कङ्कणमोचने, न केवलं प्र. यत इति । तिष्ठानम्तरमेवेत्यपिशब्दार्थः । स्वशक्तितः स्वकीयं चित्तवित्त अस्यापि न्यायत उत्तरं चरमपादेनाऽऽहसामर्थ्यमाश्रित्य, किमपि प्रतिष्ठाऽवसरापेकया स्तोकम् , इति तस्थिमा जुत्ति वत्तव्वा ॥ गाथार्थः ॥ ४॥ तत्र शास्त्रनणने, ( श्म त्ति) श्यं वक्ष्यमाणा, युक्तिरवितथभअथ प्रकरणार्थोपसंहारार्थमाह णितिः, वक्तव्या वाच्येति गाथार्थः । तत्तो पमिदिणप्या-विहाणो तह तह कायव्यं । तामेवाहविहिताणुट्ठाणं खबु, नवविरहफलं जहाहोति ॥५०॥ सत्यं पि बहुमयं ते, रइयं जं पुव्वसूरिपवरोहिं। ततः कङ्कणोन्मोचनानन्तरम् , प्रतिदिनपूजाविधानतोऽनुदिव- ताणाऽऽयरणं नणु मू-ढ ! होइ गझं विसेसेण ।। Page #1298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेश्य वेइय (१२७५ ) अनिधानराजेन्द्रः। शास्त्रमेव महानिशीथादिलक्षणम्, अपिशब्द एवकारार्थः. चेश्यपूया रायानिमंतणं च दो वि दारे पगट्टे । स च दर्शित एव; बहुमतमतीवाभीष्ट, ते तव, रचितं कृतं, यत् वखाणेइ पविसंते श्मे गुणा भवंतियस्मात् , पूर्वसूरिप्रवरैश्चिरन्तनाचार्यप्रधानैः, तेषामाचायवृन्दार "सहावुही रन्नो, पृयाएँ थिरत्तणं पभावणया। काणाम्, आचरणं चेष्टितं,नन्वित्यकमायां मूढ!मन्दमते!, भवति पमिघाश्रो य अणत्थे, अत्था य कथा हवा तित्थे" ॥१॥ जायते, ग्राह्यं स्वीकर्तव्यं, विशेषेणाऽऽदरेण । श्दमत्र तत्वम् रनो सद्धा वढिया नवर, चेश्यप्रया थिरीकया हव, तीर्थ यदि तव पूर्वाचार्यवचनं शास्त्रस्थित प्रमाणं, ततस्तच्चेष्टितं वि प्रभावितं भवति, ये चाऽर्हच्छाशनप्रत्यनीका बहुजने दोषान् शेषतः कर्तुं युज्यते, न हि ते अनुचितं कुर्वन्ति, अत्र बहुवचन ख्यापयन्ति, एवंविधानामनर्थानां प्रतिघातः कृतो भवति । प्रास्था प्रक्रमेऽपि यदेकवचनेन निगमनं कृतं, तद् "बह्वादेशेऽपि एकादे नाम-स्वपक्कासामर्हत्कृते तीर्थ बहुमानत्वमुत्पादितं भवति । शः" इति वचनाद् अदुष्ट मन्तव्यम्, एवमन्यत्रापीति गाथार्थः। निमंतणं सन्नि त्ति सावगा वाई, एए दो वि अत्र यदि परो ब्रूयात-न मम तदाचरितं प्रमाणम दारे पगिछे वक्खाणेतस्तत्साधनाय गाथाऽर्द्धमाह " पमेव य सन्नीण वि, जिणाण पडिमासु पढमपध्यणे । असढेहि समाइन्न, इच्चावयणओ तयं सिर्फ । मा परवाई विग्धं , करज वाई तओ वि सई" ॥१॥ अशरमायिभिः, समाचीर्णमासेवितम्, इत्यादिवचनत एवं- कंग । सावो कोई पढम जिणपडिमाए पश्वर्ण करदे प्रभूतिभणनात,सकं तत् पूर्वाचार्यानुष्ठित,सिकं प्रतिष्ठितम्।आदि- णाश्पगिद्धेण । श्मे गुणा परवाइनिग्गहं दटुंग्रहणादेवं दृश्यम-"जं कत्थइ केणवा, असावजमणुठिअं तेण । "तवधम्माण थिरतं, पभावणा सासणे य बहुमाणो । अनिवारियमन्नेहि,वहुमणुमयमेवमायरियं"।१।सुगमं च । एतश्च अभिगच्छति य विग्घा, पूयाएँ सपक्षसेयाए" ॥१॥ पराजिप्रायमभ्युपगम्यास्माभिरुक्तम्, वस्तुतस्तु व्यस्तव एवेयं कंठा । (सेयाए त्ति) अविग्घेण पूत्राए,कयाए सपक्खस्स ह. बिम्बप्रतिष्ठान भवति, निरवद्याचार्यमन्त्रधनुष्टानपूर्वकाजनगु लोए एयं सेयं-इहलोप असिवाई नवद्दवा न हवंति, परनोए णाध्यारोपणेन जावस्तववादस्याः। किंच-आचार्यप्रतिष्ठाकरणे तित्यगरपूयाए दरिसणविसुद्धी तब्वत्तिया भव। श्रीमदुमास्वातिवाचकसमुषसूरिहरिजद्राचार्यादिरचिताः प्रति खवग त्ति दारमियाणिप्ठाकल्पा दृश्यन्ते, श्रावकप्रतिष्ठाकरणविधौ तु न किमपि दृश्यते "श्रायाविति तवस्सी, ओनावणया परप्पवाईणं । विधानस, ततः कथं ते तां कुर्वन्तु ?,मा वा भवतु, यदि श्रावके जे परिसा वि महिमं , ज्वेति कारिति सहा य" ॥१॥ ण कुत्रचित कदापि च कृता नवति भवद्वचनात्पूर्वप्रतिष्ठा, (कारिति सहायं ति) जड परिसा तवस्सिणो वेति, तो ततो युज्यतेदमपि वक्तुम् । यदप्युच्यते-अष्टापदजैनालये कृता सावगा महिमं करिति, कारर्विति य । भविष्यति, तदपि युक्तं स्यात् यदि साधुव्युच्चित्तौ निष्पन्न श्याणि धम्मकहिं ति दारंतत्स्यात्।किश्वावश्यकचूया तत्करणविधिः सर्वःप्रतिपादितो, "बायपरसमुत्तारो, तित्थविवह य होइ कहयंतो। न तु साधुना श्रावकेण वा प्रतिष्ठा कृतेत्युक्तम्। यश्च संप्रतिराजनि अन्मोन्नाभिगमेण य, पूयाथिरया सबहुमाणों"||१|| राजनिओपितानार्यदेशचैत्येषु साध्वजावात्कृता भविष्यति, तत्रा श्याणि संकियं ति दारंपि पश्चातैः साधुभिः प्रतिष्ठा कृता भविष्यतीत्ये , तदपि वक्तुं "निस्संकियं च काहिश, उभए ज संकियं सुयहरोहिं"। शक्यते, तस्मात्किमेभिः कुशकाशावलम्बनैरिति ?। पत्तदारमियाणिद्वितीयविकल्पशोधनायोत्तरार्द्धमाह "अब्बोधित्तिकरं वा, लजइ पत्तं दुपक्वात्रो" ॥१॥ कप्पम्मि विजं नणियं, तं अणुजाणाहिगारम्मि । पभावणदारमियाणि-- कल्पेऽपि न केवलं प्रथमविकल्पेन तब न किञ्चित्समीहितं जाइकुशवधणबल-संपमा शहिमंत निस्संका। जातं, द्वितीयेनापि नेत्यपिशब्दार्थः, यद् वचनं भणितं तद्वचन जयणाजुत्ता य जई-णमेव तित्थं पभासिति" ॥१॥ मनुयानाधिकारे रथस्य पृष्ठतोऽनुवजनेन प्रतिष्ठाधिकार इति उक्तं च-- गाथार्थः। "प्रावचनी धर्मकथी, वादी नैमित्तिकस्तपस्वी च । अस्यैवार्थस्य सुखावगमार्थ संबन्धपूर्वकमिदानी कल्पोक्तं नद जिनवचनरतश्च कविः, प्रवचनमुद्भावयन्त्येते" ॥१॥ क्षरैलिख्यते। तत्र रथयात्रादौ प्रनूतजनसम्मत कुलेषु साधु "जो जेण गुणा गहियो, जेण गुणा वा न सिज्झए जंतु। जिन प्रवेष्टव्यम् नत्सर्गतः, किं कारणम ? , गच्छतां मार्गे र्याशुनि भवति, जतादिशुद्धिश्च न जवति, प्राप्तानां च ततस्थाने सो तेण धम्मकजे, सम्वत्थामं न दावे" ॥२॥ इयाणि पवित्तिदारंश्रावकादियोकैरवरुकानि गृहाणि जवन्ति ततो देवगृहेऽपि स्थातव्यं स्यात , तथा च्यादिसंघट्टनतो रागद्वेषौ स्यातामे "साहम्मियागयाणं, खेमासिवाणं व लज्जा पवित्तिं । धमाद्यर्थप्रतिपादिका विस्तरेण द्वारगाथा प्रतिपादिता, सा गच्छति हिताई वा, होहिंति न वा वि अस्थर वा" ॥१॥ चाऽत्र ग्रन्थविस्तरभयान्न लिखिता।। इयाणि कज्जदार-उड्डाहदारेअपवादमाह "कुलमाईणं कज्जर, इमाहिं सालगिणो य सस्सिस्सा। इमेहि पुण कारणेहिं पविसियवं, जण पविस, तो जं मोगविरुद्धाई, करिति लोगुत्तराई वा" ॥१॥ चउगुरुयं पच्चित्तं । काणि य कारणाणि? समाप्ता द्वारगाथा। " चेइयपूया राया-णिमंतणं सन्निवाइखवगधम्मकही। अत्र संझिद्वारेणैव प्रयोजनं तदर्थ व्याख्यानायाऽऽहसंकियपत्तपत्रावण-पवित्तिकज्जा य नहाहो" ॥१॥ तत्थ य पढम उवणं, पढमं पसणं जणंति समयविऊ ! Page #1299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेय पुर्व पट्टियाए, रम्मि अणुयाग्रहिगारा || तत्र संनिद्वारव्याख्याने, चः पुनरर्थः, प्रथमं स्थापनं प्रथमं न्यासमारोपणमिति यावद, भणन्ति जल्पन्ति समयविदः सिका ताः पूर्व प्रथमं प्रतिष्ठितायाः कम्यसन रथे जिनस्यन्दने, अनुपानाधिकारात् इतोरिति गाथार्थः । स्यान्मतं कथमिदं ज्ञायते यदुतास्यायमर्थो न पुनर्मयोक्त अत आह पुण पइड भयो, वे तो मरण पारिंगेहेसु । मंगलपभिमाणं पिटु तुम्ह मया पाव पड यादे पुनरिति पराभिप्रायात् स्वाऽसमानार्थः प्रतिष्ठालकणो नियोजयेत् जायेत ततो मथुरानगरीगेहेषु मधुरामि धानपतनसनेषु मप्रतिमानामपि न केवलं तच समतानामित्यपिशब्दार्थः 'हु' पूरये युध्माकं भवतां मतदा यातू, प्राप्नोति प्रतिष्ठा, न च निष्पादिता प्रवति भवत्संमता, अत्र प्रतिष्ठाशन्दस्य विद्यमानत्वादित्यभिप्रायः । मङ्गलप्रतिमाधेह ता उच्यन्ते यासामकरणे गृहस्योपद्रवादिकं भवति यथा तु देशच्या गृहद्वारस्योपरि विनायकमूर्तिः वास्तु विद्योपदेशाथ कियते । तथा मनुरायां गृहे पार्श्वना जिनप्रतिमा ब्राह्मणादिभिरपि गृहद्वारस्योपरि कार्यन्ते । यदि न कियन्ते ततो गृदाणां पतनादिकं भवति तथा तत्रेय करपे भणितं मत्त्ररूपणावसरे" मदुरा नयरीप, जिणपकिमाउ गिहे गिहे पश्ठबिजंति " प्रतिष्ठाव्यन्ते न्यस्वन्ते इति भवतोऽपि सम्मतं न हि तासां मिथ्याहभिस्तव मतमतं प्रतिष्ठाविधानं क्रियते तदाकृतम्प्रतिष्ठाशब्दस्यात्र न्यसनमेव वाच्यम् । किं च प्रथमशब्दस्य मेरक्यं प्राप्नोति महोकस्था व प्रतिमाया द्वितीया प्रतिष्ठा क्रियते येन प्रथमपादानं क्रियते स्म केतु प्रथमं रथारोप संजयत्येव पूज्यास्तु व्याच 1 रोतेर्भणनेऽपि कारापणं दृश्यम् । ततश्च साधुत्र्यः सकाशात् श्रावकः प्रतिष्ठां कारयतीत्यर्थः । यथोमा स्वातिवाचको कायामस्याम्- "जिनभवनं जिनबिम्ब, जिनपूजां जिनमतं च यः कुर्यात् । तस्य नरामर शिवसुख-फलानि करपल्लवस्थानि ॥१॥" अत्र कुर्बादित्युक्त कारयेदिति द्रष्टव्यं न हि कः स्वयं जिनमन्दिरं तत्प्रतिमां वा करोति । एवमत्त्रापि प्रथमशब्द साफल्यं त्वेवं क थयन्ति तेन श्रावकेण प्रथममेव प्रतिमा कारिता निष्पाद्यमाना लापायं तेषां दूषयं स्थाने स्थाने प्रतिपादितमेवेति मायार्थः । (१२७६) निधान राजेन्द्रः । - विप्रतिपद्यमान सापाय दूषणमाहतह काम सिरिनिमालस चटरविंदमाईनं । अपमाणयं कुणते-हिँ तेहिँ अप्पा भवे खित्तो ॥ तथेति दूषणान्तरसमुच्चयार्थः काशब्द श्रीमाल सत्यपुरथि कान्हदं नगरमा सापचिपतनादूरसि बीमा समिति कदम सत्यपुरम् उपस्थराज भञ्जनलब्धमादात्म्यश्रीमहावीरजिन सदनममितम्, तत एषां तेषु सर्वप्रतिमाः। श्रादिशब्दाच्च गिरिमहा ताोधमदातीर्थमोटेरपुरमथुराऽर्बुद गिरिस्था दिपरिग्रहः, तासाम् । तदिह हृदयस्-एताः साधुभिः प्रतिमाः प्रतिडिता तथा कालोपतेनमिचिमि , चेइय लाम्बविभिर्विद्याधरनाथ कानिका थायें कान तिष्ठित जयति निवृषभः ॥१४॥ शेषास्तु सर्वजिनप्रतिमा स पमानताम्- आचार्य प्रतिष्ठितत्वेनाविधिप्रतिमा पता इति प्ररूपतो मुम्वनैभवसारीणां कुर्वद्भिः श्रावकप्रतिमाप्रतिपादनपरैरात्मा जीवो भवे संसारे तिरुः प्रणुन्नः । इति गाथार्थः । ननु किमेतावता एतावान् दण्डो भवति भवत्येवेत्यस्यार्थस्य साधनाय सिकान्तोक्तमाहकप्तमेवमाई, अनि पमिमासु वितिज्ञोयथाहाणं । पभिरूक्मथ्यतो पावड़ पारंचियं ठाणं ॥ कल्पस्य बेदग्रन्थस्योकं संपादकवचनम् परमेतावान विशेष 'स्त'' इत्यादी गाथायां पठ्यते तीर्थकानाधिकारे। पवमादि पूर्वोकार, अपीति संभावने प्रति मास्वपि जिन मूर्त्तिष्वपि न केवलं साकाद्भावतीर्थंकृता मित्यपि - शब्दार्थः प्रतिरूपं यथोक्ताशातनादिवज्र्जनम कुर्वविद्धानः प्राप्नोति लभते पारा प्रायधि (गणमिति) विस्मि प्रिति कम्मणि प्रायश्चित्तानावरणत इति स्थानं कर्मधारः कर्मभिश्च भवः। श्रतः सिद्धमिदम "तेर्हि अप्पा भवे खित्तोत्ति" किमाचारा नियुक्त्यां दर्शविशुद्ध वर्णयता केवलिना भणितम चिरन्तनचैत्यन्दने दर्शनशुद्धिर्भवति दम् " तित्थगराण भयवओ, पवयणपावणिअइसहीणं । मभिगमननमणरिक्षण कित्तणसंपूणावणा ॥ १ ॥ जम्माऽभिसेनिक्तम-णचरणमा पुष्पवास पिवा । दिमंद-मंदीरनोमणगरसु ॥ २ ॥ अठावयमुजते, गयग्गपयधम्मचक्के य । पासरावतं चिष, चमरुप्पायं च वंदामि ॥ ३ ॥ गणियनिमित्ता ती संदि भवित येयं 1 पुण पच्चइगा इमे अत्था ॥ ४ ॥ गुणमाह सिना-मकित सुरनदिया । पोराणचेश्याण य, श्य एसा दंसणे होइ " ॥ ५ ॥ नित्यानि च पूजतो दर्शनकर्तयति न केवलं पू गायकं कुर्वतः अतः स्थितमिद विरतनचैत्यानामव वादादि न कार्यम | नतु किमेवंभूतवचन सन्दर्भश्रव येऽपि से प्रतिपादयन्ति विकृत्याद्यर्थाः । तथा चोक्तं व्यवहारे यथाच्छन्दलक्षणं कथयता- ' " सच्छंमहविगायिका पद्मवे, तो तरल गुणं विगईयो लहर सा य पडिच्छंदा सुहं इच्कुश । तेण य सच्छन्दकष्पिण पविश्यं समाहिमो समायो पूर्व जाति इत्थमाझ्गारयेदि सदर इत्यादि एतचायतनेष्वप्यधिकारेषु य थासंभव योज्यमिति गाथार्थः । 33 दानी पूर्वकार्यनिगमन जीयोपदेशमाहजह समय पनि मुसु वह जीव समयवपाई। पुयुतदोस नाल-एस जेण नो भाषणं होसि ॥ 7 " यथा येन प्रकारेण, समयज्ञाः सिद्धान्तविदः, जल्पन्ति वदन्ति ( मुगसु ) जानीहि तथा तेन प्रकारण, न स्वमत्यनाबाधेन, जीव ! श्रात्मन् !, समयवचनानि सिकाम्याक्यानि यैः पूर्वोषिजालस्य भगपातादिदूषणातस्य Page #1300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेइय " येन कारणेन, नो नैष भाजनं पात्रं भवसि जायसे । इति गाथार्थः । जीवा० १ अधि० । हा० । पास्थितचैत्यं न पूज्य सावयजणस्स धम्म-स्सा फसए के वि विंति चेइहरे । पासल्याईविडिए नो सकाराइयं कुखा ॥ " श्रावकजनस्य धर्मस्य दानादेः "फसर त्ति " देशीभाषया त्र शकाः केऽप्यके, तेजति चै जिसने पावस्था दिविदिते श्रवसन्नादिकृते, नो नैव, सत्कारादिकं वस्त्राभरणपूजादिकं कुर्याद्विधेयादितिमाचार्थः । 3 अन्यच्च त एव यद्वदन्ति तत्सोतरं गाथया प्राहते वि हू ताणाओं, सइ सतीए निगासविज्जाओ । नेयं पि सुविहियाणं, जुज्ज‍ वोत्तुं जो भणियं ॥ तेऽपि पार्श्वस्थादयो, यैर्देवकुलानि कारितानीति शेषः । माशातनाकारित्वा पामित्याशयः स्तेयेव तद्स्यानात् देवकु खादे विद्यमानायां सामर्थ्य, निष्काशनी एव नमपि पूर्वो सुविहितानां साधूनां युज्यते घटते. कुं प्रणितुं यतो गणितं तदनन्तरगाथायां प्रणिष्यतीति गाथार्थः । तदेव गाथापञ्चकेनादवनहारतेयये, ओमविहारिणी बीए कारवियं चेश्हरं, तत्थ य तप्पेरियजणेहिं । सिकारम्मी मदिए वतयम्मि पत्ते व । विहरती तत्य पत्रि-त्तिणी उ पत्ता तहिं सा न ॥ २ ॥ पुज्जमित भणिया, अत्थि नवा कोइ एड़ चेहरे | मुस्सूसयरो जंप, नत्थि च्चिय जाइ गुरुणी उ ||३|| मनोज विजमाणम्पितम्पि तु भदे ! | होइ अनी जम्हा, इय करणे पेयार्थ ति ॥ ४ ॥ पुण विजमाणे, सुस्सयरे न उज्जमा विंति । तो जिशियं परं ववहारगंयस्मि ॥ ५ ॥ सुगमाः । तथा च व्यवहारे भणितम् अणुस उज्जमंती, विज्जंते वेश्याण सारखए । पमिवज्जंते गरुया, अणवठप्पा जत्तीप (१२७७) अभिधानराजेन्द्रः । " ननु तेषां तारण भवति ना "होउ ध मा होउ व तिऍ, पुनं तक्कारयाण सम्बन्नू । जागृति ते ववहारच, ओजस्साएं इमं वयणं " ॥ सुबोधा । 64 " तदेव गाथाना 5 1 'समयपवित्ती सव्वा, श्राणावज्जत्ति भवफला चेव तिथयसे मितवा तसा " ॥ तथा दन्ये भणितम्"चिमावि, तगुरय्पेसहाणिया । पाठवावा, चिट्ठति नह 39 सुगमा । अवकाणां पुनस्तत्र किमित्याहसाय पुणो चेय-दरं तु न तद व होत निष्फलं । ३२० पूर्व राष्फलयं पयमेयं आगमन्नृणं ॥ धावानां पुनचैत्य नितुः पूरणे पथा थापादितम आयकादिकृतं था, भवतु निष्पन्नं तनिष्ठां गतं पूज्यमानमर्च्यमानं, फलद मीप्सितकारि, मतमेतत् सम्मतमिदम् आगमानां सिकान्तविदामिति गाथार्थः ॥ इति विदिलेत्मनः शिक्षामाद रे जीव ! जीववच्छ-लकार तंसि जइ फुमंता मा । वारेसु सावयजणे, इय पूर्यते उ चेहरे | रे जीव ! जो श्रात्मन्! जीववात्सव्यकार को भव्यप्राण्युपकारकर्त्ता त्वमसि भवसि यदि स्फुटं प्रकटं, ततो मा वारय निषेधय, श्राचकजनान् भ्राकाद इत्येवं पूजयतोऽर्चयमानान् तु पूर्वक्य चैत्यगृहान् जिनमन्दिरामिति गाथार्थः । जीवा ३ अधि० । उक्ता प्रतिष्ठा, तदनन्तरं च यात्रा वक्तव्या भवति " जिणभचयविषायण जसा या सुवि दिणा " इति द्रव्यस्तवक्रमायातत्वाजिनयात्राऽत्र वक्तव्या । ( सा च ' अणुजाण शब्दे प्रथमन्नागे ३६७ पृष्ठे उक्ता, यात्राविषयं दानद्वारं च प्र० ना० अणुकंपा' शब्दे ३६० पृष्ठे च गतम् ) (२७) अथ जिनपूजा प्रोच्यते चेय 3 नमिष महावीरें, जिणपूजाए विहिं पक्खामि । संखेव महत्वं गुरुसारेणं ॥ १ ॥ मरा प्रणम्य महावीरं वर्कमानजिनस जिनपूजाया नस्य विधि विधानम प्रयामि निष्यामि संक्षेपतः समास सविस्तरतस्तु पूर्वनिरेव तस्योत्य एवं तन्पार्थविष्यतीत्याशङ्कपाद-महान योजनं वा स्वयमुत्प्रेकितमेतदित्याशङ्कयाऽनादेयमिदं मा भूदित्याह-गुरुपदेशानुसारेणाऽऽचार्य शिक्षा ऽनुवर्त्तनेनेति याथार्थः ॥ १ ॥ अथ पूजाविधिज्ञणने किं प्रयोजनमित्याहविहिणा उकीरमाणा, सव्व चिप फलवती भवति चेडा । इसोइया चि किं पुण, जिपूया उभयोगहिया ॥२॥ विधिनैव यथोचितविधानेनैव तुशब्द एवकारार्थः क्रियमाणा विधीयमाना, संवैव समस्ताऽपि फलवती साध्यसा धिका भवति जायते चेष्टा किया पेहलीकिक्यपी लोकप्र योजनाऽपि कृष्यादिकापीत्यर्यन किं पुनरिति विशेषद्योतनार्थः, सुतरामित्यर्थः जिनपूजन किं उजयलोकहिता इहलोक परलोक पोकिरीति । उभयलोकहितत्वाद्विशेषतो जि पूजा विधिनेन विधीयमानापती भवति ततस्तद्विधिः प्ररू पणीयो भवतीति गाथार्थः ॥ २ ॥ " 3 1 7 अथ विधिमाहकाले सुनू, विसिपुप्फाइ एहि बिहिणा उ । सारोच गरुई, जिणपूजा होइ कायव्या ।। ३ ।। काले समये, वक्ष्यमाणस्वरूपे । कर्त्तव्येति संबन्धः । तथा शुविभूतेन सुशब्दस्य प्रकृतिमात्रार्थत्वात् चिना अथवा भावप्रत्ययस्य सुप्तस्य दर्शनाद् भृतशब्दस्य प्राप्त्यर्थत्वाश्च शुचितां प्राप्तेन । अथवा शुत्रिश्वासौ भूतश्च संवृतः प्राणी वा शुचि , Page #1301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेश्य (१२७० ) अभिधानराजेन्दः । चेइय भूतः, तेन विशुष्मितेत्यर्थः । तथा विशिष्टपुष्पादिनिः प्रधान पुरुषेण नरेण, नरग्रहणं चेह प्रायः पुरुषस्य. प्राधान्यात । सुमनःप्रतिभिः करणभूतैः । श्रादिशब्दार्थ स्वयमेव वक्ष्यति । अथवा-पूः शरीरं, तत्र शयनात्पुरुषो जीवः, तेने बुद्धिमता तथा विधिना वयमाणविधानेनेति , तुशब्दः समुश्चयार्थः , धीमता, बुद्धिमानेव हि औचित्येन वर्तत इति बुद्धिमबहतथा सारस्तुतिस्तोत्रगुर्वी प्रधानस्तुतिस्तोत्रमहती, स्तुतिश्चैक- णम् । किंकुर्वता सेनेत्याह-शुलवृद्धिं कल्याणोपचयं, सुखवश्लोकप्रमाणा, स्तोत्रं तु बहुश्लोकमानम्, जिनपूजाऽर्हदर्चनं,जव. र्द्धनं वा । जावतः परमार्थतः, गणयताऽऽमनोऽन्विच्छता सता, ति वत्तते, कर्तव्या विधेया। ति द्वारगाथासमासार्थः ॥३॥ किमित्याह-यत्नेनाऽऽदरेण,भवितव्यं भाव्यम् । शुभानुबन्धप्रधापञ्चा०४ विव०। नेन कुशलाविच्छेदपरेण, यथा कल्याणसन्तानो वर्धते , तथा सम्यक स्मात्वोचित काले, संस्नाप्य च जिनान् क्रमाव।। यत्नो विधेयः । वृत्तिक्रियाविरुद्धसमये च पृजासेबनेनासौ व्यवच्छिद्यते; अतः पूजायामापवादिकफासः समाधीयते; पुष्पाहारस्तुतिनिश्च, पूजयेदिति तद्विधिः ॥ ६१ ॥ इति गाथार्थः ॥ ६॥ उचिते जिनपूजाया योग्ये, कालेऽवसरे, सम्यग् विधिना, स्ना अथ कथमापवादिककालानाश्रयणे शुभसन्तानव्यवच्छेदः त्वा स्वयं स्नानं कृत्वा,च पुनर्जिना हत्प्रतिमाः, संस्नाप्य सम्य स्यात् ?, वृत्तिव्यवच्छेदादिति ब्रूमः। एतदेवाहक स्नपयित्वा, क्रमात पुष्पादिक्रमेण, न तु तमुलध्य, पुष्पाणि कुसुमानि , पुष्पग्रहणं च सुगन्धि व्याणां विलेपनगन्धधू वित्तीवोच्छेयम्मि य, गिहिणो सीयंति सच्चकिरियाओ। पवासादीनामजन्यसनीयानां च वस्त्राभरणादीनामुपलक्षणम् । निरवेक्खस्स न जुत्तो, संपुप्पो संजमो चेव ।। ७ ॥ श्राहारश्च पक्वान्नफलाक्षतदीपजसघृतपूर्णपात्रादिरूपः, स्तुतिः शकस्तवादिसद्भूतगुणोत्कीर्तनरूपा , ततो द्वन्द्वः, ताभिः, पूज वृत्तिव्यवच्छेदे जीविकाविघाते, वृत्तिक्रियाविरुरूपूजाकालायेदिति । तस्य चैत्यपूजनस्य विधिरिति क्रियाकारकसंबन्धः । श्रयणे कृते ; चशब्दो विशेषद्योतकः पुनश्शब्दार्थः, तस्य चैवं भावना-वृत्तिक्रियाविरुष्कालाश्रयणे वृत्तिव्यवच्छेदो नवति । ध०५अधिक। वृत्तिव्यवच्छेदे पुनः किमित्याह-गृहिणो गृहस्थस्य, सीदअथ जिनपूजायां कालः किमित्याश्रीयते इत्याह न्ति न प्रवर्तन्ते. सर्वक्रिया धर्मलोकाश्रिताः समस्तव्यापाराः । कालम्मि कीरमाणं, किसिकम्मं बहफन्तं जहा हो। अथ सीदन्तु ताः सकलकल्मपविमोपपरपरममुनिपदपङ्कजश्य सव्व चिय किरिया,णियणियकासम्मि विमेया॥॥ पूजनप्रवृत्तस्य किं ताभिरित्यत्राह-निरपेक्तस्य तु वृत्तिनिस्पृहकाले प्रावृमादिसमये, निजे इति शेषः। क्रियमाणं विधीय स्य पुनः, पुरुषस्य । युक्तः सङ्गतो विधेयतया, संपूर्णः समानम , कृषिकर्म केत्रकर्षणक्रिया , बहुफलं प्रनूतधान्यादि विरतिरूपतया परिपूर्णः । संयमश्चैव साधुधर्म एव साधकम्, यथा येन प्रकारेण , नवति जायते, श्त्येतेनै साधोरिवान्यथा सर्वथा निरपेक्षत्वासिलेरिति गाथार्थः । ७॥ प्रकारेण, ( सध श्चिय त्ति) सर्वाऽपि समस्ताऽप्यास्तां जिनपू. अथ कालद्वारं निगमयन्नाहजा, क्रिया कर्म, निजनिजकाले स्वकीयस्वकीयावसरे, क्रियमाणा बहुफलेति शेषः । विझेया ज्ञातव्या भवति इति । तासिं अविरोहेणं, आभिग्गहिओ इहं मनो कालो। श्रतो जिनपूजायाः करणे कालः समाश्रयणीयः । इति गा- तत्थावोच्छिल्लो जं, णिचं तक्करणनावो त्ति ॥ ७॥ गार्थः ॥४॥ तत्तस्मादासां वृत्तिक्रियाणां,तासांचा, अविरोधेनानाबाधया, अथ पूजाकालं विशेषतो दर्शयन्नाह अभिग्रहश्चैत्यवन्दनमकृत्वा मया न जोक्तव्यं, न वा स्वप्तव्यमिसो पुण इह विशेश्रो, संकायो तिखि ताव आहेण । त्यादिरूपो नियमः प्रयोजनमस्यत्यानिग्रहिकः, इह जिनवित्तिकिरियाविरुधो, अहवा जो जस्स जावइओ॥५॥ पूजायां विषये, मतो विदुषां सम्मतः, कालोऽवसरः, अथ कथमनिमतोऽसौ, यतोऽभिग्रहेण बलात्तत्र काले पूजायां प्र. स इति यः सर्वक्रियासु बहुफलनिबन्धनत्वेन प्रागुपदि वर्ततेऽसौ,स्वरसप्रवृत्तिरेव च गुणकरीत्याशङ्कयाऽऽह-तत्राभिष्टोऽसौ कालः , पुनरिति विशेषप्रतिपादनार्थः , इह जिनपूजा ग्रहे सति,अविच्छिन्नोऽत्रुटितः। यद्यस्मात्,नित्यं प्रतिदिनम्, तत्कयां विषये, विडेयो ज्ञातव्यः , किनूत इलाह-सम्भ्याः कालवेनाः, तिम्रस्त्रिसंख्याः, तावदिति वक्ष्यमाणापवादिककाला रणभावः पूजाविधानाध्यवसायो भवति , तत्परिणामाध्यवपेकया प्रथमोऽयमिात क्रमभावसूचनार्थः । श्रोधेन सामा च्छेदस्य चाव्यवच्छिणपुण्यबन्धहेतुत्वादभिमत एवाभिग्रहिका न्येन, उत्सर्गत इत्यर्थः । अथापवादमाह-वृत्तिर्जीवन, तदर्थाः पूजाकाल इति भावः । इतिशब्दो वाक्यार्थसमाप्ताविति गाथार्थः ॥ ८॥ उक्तं कालद्वारम । क्रियाः कर्माणि राजसेवावाणिज्यादीनि, तासामबिरुकोऽबा. धको वृत्तिक्रियाविरुद्धः ; अथवेति विकल्पार्थः । ततश्चाप अथ शुचिद्वारानिधानायाऽऽहवादत इत्युक्तं भवति । यः पूर्वाह्वादिः, यस्य राजसेवक- तत्थ सुक्ष्णा दुहा वि हु, दव्वे एहापण सुचवत्येण । वाणिज्यकादेः, ( जावो ति) यत्परिमाणो यावान् , स एव भावे न अवत्थोचिय-विसुधविचिप्पहाणे ॥६॥ यावत्को मुहूर्तादिपरिमाणः, स तस्य तावत्कः पूजाकालो (तत्थ ति ) शुचिनूतेनेति यत् द्वारमुक्तं तत्रेदमुच्यते, गुजवति; न पुनः सन्ध्यात्रयरूप एवेति गाथार्थः ॥५॥ चिना शुचिमता प्राणिना, द्विधाऽपि द्वाज्यामपि प्रकाराच्याअथ किमर्थमापवादिककालप्ररूपणमित्याशङ्कयाऽऽद म, प्रास्तामेकधा इत्यपिशब्दार्थः। 'हु'शब्दः समुच्चये, तत्प्र. पुरिसेणं बुद्धिमया, सुहबुष्टिं भावो गणंतेणं। योगश्च दर्शयिष्यते। जिमपूजा कर्तव्येति प्रक्रमः। द्वैविध्यं चद्रजत्तेणं होयव्वं, सहाणुवंधप्पहाणेण ॥ ६॥ व्यनावापेक्वम् एतदेवाऽऽद-व्ये द्रव्यशौचविषये, स्नातेन जल Page #1302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२७९) चेइय अन्निधानराजेन्पः। चेइय कालितदेहेन, देशतः सर्वतो वा । तत्र देशतो विहितकरचर- चेऽपि, देवपूजां तनोति यः । पुष्पैपतियश्च, जवतः श्वपचाणमुखादिशौचेन, सर्वतस्तु जल कालितसर्वशरीरेणेति । तथा विमौ ॥१॥” इति । तत्र स्नानानन्तरं पचित्रमृगन्धकापायिकाशुरुवस्त्रेण च शुचिनिवसनोत्तरीयवाससाच सित्तवस्त्रेण,भावे घंशुकेनाहरूकणं तथा पोत्तिकमोचनपवित्रवम्यान्तरपरिधातु भावशौचे पुनर्विषयनूते, अवस्थोचिता देशकालविशिष्टाव- नादियुक्त्या क्लिन्नांदिहत्यां भूमिमस्पृशन पवित्रस्थानमागत्योस्थापेक्षया स्वभूमिकायोग्या, विशुद्धा निरवद्यप्राया, वृत्ति - त्तरामुखः संध्ययते दिव्यं नव्यमकीलितं श्वेतांशकद्वयम् । यतःविका, तया प्रधानः शोभनो यः, सावा प्रधाना यस्य, स तथा, "विशुद्धं वपुषः कृत्वा, यथायोगं जलादिभिः । तेन न्यायोपात्तवित्तयुक्तेनेति भावः। न्याय एव हि भावतः शौचं, धौतवस्खे वसीत द्वे, विशुद्धे धूपधूमिते" ॥१॥ कर्ममलपटलकाल नजमकल्पत्वात्तस्य । इति गाथार्थः ।।। लोकेऽप्युक्तम्प्रश्चा०४ विव० । (श्रावकस्य स्नानविघिरन्यत्र विस्तृतः) न कुर्यात्सन्धितं वस्त्रं, देवकर्मणि भूमिप!। " कृत्वेदं यो विधानेन , देवताऽतिथिपूजनम् । नदग्धं न तु वै चित्रं, परस्य तु न धारयेत् ॥२॥ करोति मलिनारम्नी, तस्यैतदपि शोभनम् ॥"॥१॥ कटिस्पृष्ट तु यद्वस्त्रं, पुरीषं येन कारितम् । विधानेन विधिना, अतिथिः साधुः, मलिनारम्भी गृहस्थः। समूत्रमैयुनं वाऽपि, तद्वस्त्रं परिवर्जयेत् ॥ ३॥ व्यस्नानस्य शोभनत्वे हेसुमाद पकवस्त्रो न भुञ्जीत, न कुर्याद्देवताऽचनम। "नावशुद्धेनिमित्तत्वा-त्तथाऽनुभवसिहितः। न कञ्चुकं विना कार्या, देवार्चा स्त्रीजनेन तु" ॥ ४ ॥ कथञ्चिद्दोपभावेऽपि, तदन्यगुणजावतः" ॥२॥ युग्मम् ।। एवं हि पुंसां वस्त्रवयं, स्त्रीणां च वस्त्रत्रयं विना देवपूजनादिन दोषोऽकायविराधनादि, तस्माद्दोपादन्यो गुणः मदर्शनशुसिल कल्पते, वखं च मुख्यवृत्याऽतिविशिष्टं क्षीरोद कादिकं श्वे. तमेव कायम् । उदायननृपराझीप्रभावतीप्रभृतीनामपि धौकणः। यमुक्तं-"पूत्राए कायवहो, पमिकुट्ठो सो उ किंतु जिण तांशुकं श्वेतं मिशीयादावुक्तं दिनकृत्यादापपि-"सेवत्यनिपूआ । सम्मत्तमुखिहेउ,त्ति भावणी या उणिरवज्जा ॥१॥" अन्यत्राप्युक्तम-व्यस्नानादिके यद्यपि पट्कायोपमर्दादिका अंसणोति" कीरोदकाद्यशक्तावपि दुकृलादिधौतिक विशिष्टकाचिहिराधना स्यात, तथापि कूपोदाहरणेन श्रावकस्य अत्र्य. मेव कार्यम् । यमुक्तं पूजाषोडशके-"सिताभवस्त्रेण"इति। तदा स्तवः कर्तुमुचितः । यदाहुः-" अकसिणवत्तयाणं, विरया. वृत्तियथा-सितवस्त्रेण च शुनवस्त्रेण च, शुभमिह शुभ्रादन्यदपि बिरयाण एस खलु जुत्तो । संसारपयाएकरणे, दम्वत्थएँ कूव पट्टयुग्मादि रक्तपीतादिवर्ण परिगृह्यते इति, "एगसामिअं उत्तदिटुंतो॥१॥" इदमुक्तं भवति-यथा कृपखननं श्रमतृष्णा रासंगं करे” इत्यागमप्रामाण्यादुत्तरीयमखएकमेव कार्यम,न तु कर्दमोपलेपादिदोषमुटमपि जलोत्पत्तावनन्तरोक्तदोषानपोह्य खएमद्वयादिरूपं,तच वस्त्रद्वयं भोजनादिकायें म व्यापार्य,प्रस्बे स्वोपकाराय परोपकाराय च किल नवतीत्येवं स्नानादिक दादिनाऽशुचित्वापत्तः, व्यापारचैलमेव व्यापार्य, परसत्कमपि मायारम्भदोषमपोह्य शुभाध्यवसायोत्पादनेन विशिष्टाशुनक च प्रायो वय, विशिष्य च बालवृद्धरूयादिसत्कं, न च तामनिर्जरणपुण्यबन्धकारणं भवति । इद केचिन्मन्यन्ते पूजार्थ ज्यां प्रस्वेदश्लेष्मादि स्फेटनीयं, व्यापारितवस्त्रान्तरेज्यश्च पृथम् स्नानादिकरणकासेऽपि निर्मलजल कल्पशुभाध्यवसायस्य वि. मोच्यमिति सम्यग् स्नास्वेत्यंशः प्रदर्शितः । अथ जिनं संस्ना. द्यमानत्वेन कर्दमलेपादिकल्पपापाभावाहिषममिदमित्थमुदाह प्येत्यशः प्रदर्शनीयः, तत्र जिनस्नपनादिविधिश्च समस्तपूजा रणम, ततः किदमित्थं योजनीयम-"यथा कूपखननं स्वपरो सामग्रीमेलनपूर्वकः । सा चेयम् । तथाहि-शुभस्थानात्स्वयमापकाराय नवति एवं स्नानपूजादिकं करणानुमोदनद्वारेण स्वप. रामिकादिकं सुमूल्यार्पणादिना संतोष्य पवित्रभाजनाच्छादरयोः पुण्यकारणं स्यादिति, न चैतदागमानुपाति, यतो धर्मा नहृदयाग्रस्थकरसंपुटधारणादिविधिना पुष्पाद्यानयेत, वैदवायंत्रवृत्तावप्यारम्भजनितस्यापपापस्येष्टत्वात,कथमन्यथा नग सिकपुरुषेण वाऽऽनाययेत्, जलमपि च तथा, तथोष्टपुटो. बत्यामुक्तम्-"तहारूपं वा समणं वा मादणं वा पमिहयपञ्च. तरीयप्रान्तेन मुखकोशं विदध्यात् । यतो दिनकृत्ये-" काऊण क्खायपावकम्मं अफासुपणं अणेसणिज्जेणं असणं पाणं खा विहिणा एहाणं, सेअक्थनिअंसणो । मुहकोसं तु काऊणं, गि इमं साश्म पमिलानेमाणे भंते ! किं कज्जा ?। गोयमा! अप्पे हबिबाणि पमजए"॥१॥ तितमपि च यथासमाधि कुर्यानासापाये कम्मे बहुअरिया से णिज्जरा कज्ज" तथा ग्लानप्र. बाधे तु नापि। यतः पूजापश्चाशके-“वत्थेणं बंधिऊ णासं अहवा तिचरणानन्तरं पञ्चकल्याणकं प्रायश्चित्तप्रतिपत्तिरपि कथं जहासमाही" पंतवृत्तिर्यथा-वस्त्रेण वसनेन,बद्धा आवृत्य, स्यादिति पञ्चाशकवृत्तौ तत्सूत्रमपि-" रहाणा वि ज नासां नासिकाम् । अथवेति विकल्पार्थो यथासमाधि समायणाय , आरंभवओ गुणा य नियमेणं । सुहभावहे उश्रो धानानतिक्रमेण,यदि हि नासाबन्धे असमाधानं स्यात्तदा ता. खनु, विम्मेअं कृवणापण ॥१॥" इत्यलं प्रसङ्गेन । एवं च मबध्वापीन्यर्थः । सर्व यत्नेन कार्यमित्यनुवर्तते इति, युक्तिमश्च देवपूजाद्यर्थमेव गृहस्थस्य व्यस्नानमनुमतं, तेन व्यस्नानं मुखे वस्त्रबन्धन, भृत्या अपि स्वामिनोऽङ्गमदनश्मश्रुरचनादिक पुण्यायेति यत्प्रोच्यते तन्निरस्तं मन्तव्यम् । जावस्नानं च कुर्वन्ति । यमुक्तम्-"बंधित्ता कासवयो बयणं अगुमाप शुभध्यानरूपम, यतः-" ध्यानाम्भसा तु बीजस्य, सदा य-| पोत्तीए । पत्धिवमुवासए खलु, वित्तिनिमित्तं सया चेव" ॥१॥ बुद्धिकारणम् । मस्र कर्म समाश्रित्य , नावस्नानं तदुच्यते त्ति। ध.२ अधि। ॥१॥" इति । कस्यचित्स्नाने कृतेऽपि यदि गएमूकतादि सवति, स्नानादौ यतना-यतनया विहितस्य स्नानादेः शुभभाव. तदा तेनाङ्गपूजां स्वपूष्पचन्दनादिभिः परेज्यः कारयित्वाऽन हेतुत्वं प्रागुक्तम, अथ यतनां स्नानगतां शुभावहे. पूजा भावपूजा च स्वयं कार्या,बपुरपायिध्ये प्रत्युताशातनासंभ तुतां च यतनाकृतां स्नानस्य दर्शयन्नाहबेन स्वयमङ्गपूजाया निपिनत्वात् । उक्तं च-"निःशकत्वादशौ. भूमीपेडणजलग-एणा जपणा उ होइ एहाणाओ। Page #1303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२०० ) अभिधानराजेन्द्रः । चेइय । सो शुभाअवसिको विष बुद्धानं ॥। ११॥ भूमेः प्रेकणं च स्नानञ्चवः प्राणिरकार्थ चक्षुषा निरीक्षण, जानं पुनरकपरिहारार्थ नीराजनप्रियस्य व्यापारवृन्दस्य मिलानादिदमक कारणादिकमित्यादयता प्रयत्नविशेषः तुराब्दः पुनरर्थः । ज्ञानाचैवम-स्नानादिगुणकरं भवति वतना पुनर्भूमिराजनादिति वर्ष केल्या स्नानादादेशीच विलेपन जिना उप्रतिनि च प्राकृते श्रकाराश्रुतेरभावात् ( एक्षणाओ ) इत्येवं पठ्यत इति (पोति कृतः पुनवेतनातिस्नानादविशुद्धभावः शुभाध्यवसायो ऽनुभवसिद्ध एव स्वसंवेदन प्रतिष्ठित एव, बुधानां बुद्धिमताम्, अनेन च शुभभावहेतुत्वा दित्यस्य पूर्वोक देतोरसिद्धताशा परिता इति गाथा ॥ ११ ॥ आरम्भवतो यतनया स्नानादि गुणायेति यत् प्रागुक्तं, तत्र कचिदाद-खारम्भवानपि यद्यधिकतर पापनया धर्मार्थस्नानादि न करोति सदा न क्षुषामुत्पश्याम इत्याशङ्कङ्घाऽऽड्पत्थरंजो, धम्मेऽणारं श्रणाभोगो । लोए पयखिंसा, अबोहिवीयं ति दोसा-य ॥ १२ ॥ धन्यत्राधिकृतस्नानादेरपरत्र विविधदेहादिक धार म्भवतो नूतोपमर्दनकारिणः सतो देहिनो, धर्मे धर्म्मविषये, जिनादिनिमित्तमित्यर्थः । (श्रणारंभ त्ति) अनारम्भ एवानारम्भको, नूतोपमर्दन परिहारः । किमित्याह- अनाजोगो ज्ञानाजावो वर्त्तत नानोगकार्यत्वादारम्भस्य अथवा अनारम्भतोऽवारम्नादनाभोगो ऽपत्रीयते । नाभाव दाखजिना चनादिगत आरम्भोऽकृत्य तयाऽवभासते । तथा लोके शिष्टजंने, तन्मध्य इत्यर्थः । प्रवचनखिसा जिनशासनालाघा -"पूजाविधानाप्रतिपादनपरं जिनशासनम्, अन्यथा कथमाहूताः शौचादिव्यतिरेकेापि जिनं पूजयन्ति " इत्यादिरूपा भव ति सा बायोमी तु रबोधिबीजम् । इत्येतावनन्तरोक्तौ दोषौ दूषणे भवतः । चशब्दोऽनाजोगापेक्षया समुचयार्थः । अथवा दोषाय प्रय प्रालिकृष्णाय तद्बोधबीजं संपयते इतिशब्द समाप्ती ततो ऽव्यतः स्नातेन शुद्धवंस्त्रेण च जिनपूजा विधेयेति स्थितमिति गाथाऽर्थः ॥ १२ ॥ अथ भावशौचानाश्रयणे दोषाभिधानायाऽऽहअविमुद्रा विविची, एवं चिय होइ अहिगदोसाच । तम्हा दुहा वि सुइणा, जिलपूजा होइ कायव्वा ॥ १३ ॥ अवस्थाया औचित्येन सावद्या, अपिशब्दो मः । शब्दो वाक्यालङ्कारे, वृत्तिरपि जीविकाऽपि न केवलं स्नानाद्यभाव एव । ( एवं चिय त्ति) एवमेवानेनैव प्रकारेण, स्नानादिव्याकरणाशिवेन भवति संप कदोषः तु इम्यशौयाभावापेण प्रचुरपरीतोऽनाभोगादयो व्यशीचाजायोक्ता दोषास्तावदभम व, श्रन्ये च राजनिग्रहादयो भवन्ति, अन्यायरूपत्वात्तस्याः । अथ युचिभूतेनेत्येतद्वारोपसंहाराय ( तम्ह त्ति) यस्मात् व्यशौचावशौचानावे ते दोषा भवन्ति, तस्मादेतोः, द्विधाऽपि चेय द्रव्यावभेदप्रकारद्वयेनाऽपि श्रास्ताम् एकप्रकारेण शुचिना शुचिभूतेन, जिनपूजाऽर्हदचैनम, भवति वर्त्तते, कर्त्तव्या विधे येति गाथार्थः ॥ १३ ॥ उक्तं शुचिभूतेनेति द्वारम् । श्रथ विशिष्टपुष्पादिभिरित्येतत् द्वारप्रतिपादनायाऽऽहगंधरधू सन्चो - महीहिँ उदगाइएहि चित्तेहिं | सुरहिविलेयणवरकुसुमदायवालिदीप च ।। १४ ।। नित्यदद्दि अवस्य गोरोवणमाइ जलाभं । कंचमोनिरयणा-इदामहिं च विचिहिं ।। १५ ।। युग्मम । द्वारगाथायां पुष्पादिनिरित्येवं द्वारस्य निर्दिष्टत्वाद् गन्धेत्यादि न युक्तम् । अत्रोच्यते - पुष्पादिभिरित्यत्रादिशब्दस्य प्रकारार्थत्वेन पुष्पादिभिः पुष्पप्रकारैरिति व्याख्यानान्न दोषः । वरधूपः प्रधानधूप, गन्धवरो वा गन्धप्रधानो धूपः कृष्णागरुप्रतिगम्यसिद्ध सर्वोषधयो लोकरुडा, एतेषां द्वाभिर्जिनपूजा भवति द्वारा योग तथोदकादिभिर्जलप्रनृतिभिरादिशब्दादिक्षुरसघृत डुग्धादिप.. रिग्रहः । चित्रैर्विविधैः, एभिः पुनः पूजा जिनबिम्बस्य स्नपनद्वारे पुरतः स्थापनाकारेण यथारुद्धि स्था जास्वेनाविरुत्वात् य जीवाभियमादिजानादर्शिता युकं तेषामादिशब्दोपादानम् ने नम जीवानिगमाद्यपदर्शितानामपि वलिदीपगोरोचनादीनामि होकत्वेन तपदर्शितस्य पूजाविधानस्याच्यापकत्वात् । अत एव जीवानिगमे नन्दापुष्करिणीजलेन स्नानोतावपि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यां नानाविधैर्जलै मृत्तिकातुवरादिषव्यैश्च स्नपनमुक्तम् । अथ घृतादिभिः स्नपनं न युक्तं विगन्धित्वात्तेषां को वा किमा इ यतो यानि गन्धादितिः सुन्दराणि घृतादिव्याति शोभाचहानि कर्तृणां भावोल्लासकारीणि तैरेव च तद्विधेयम् । यतो तिज रेहति तहसम्मकाणचेति । तथा सुरभिविलेपनं सुरनिश्री खएमाद्यनुलेपनं, वरकुसुमदामानि प्रधानपुष्पमालाः, बलिरुपहारः, दीपकः प्रदीपकः, एतेषां इन्धोऽतस्तैः । चशब्दः समुच्चये । सिद्धार्थकाः सर्षपाः, दधिच प्रतीतम् धताथ कला, दम्यतं, गोरोचना ि एषां द्वन्द्वोऽतस्तदादिनित्यनृतिभिः खादिशन्दाच्छेषमस्वस्तुपरिग्रहः बाप का अनमीकिकर लादिदामकैश्च कनकमुकफलमाणिक्यमाखानिश्च विविधै बहुप्रकारैरिति गाथाद्वयार्थः ॥ १४-१५ ॥ अथ कस्याद्विशिपुष्पादिभिरेवं पूता विधीयते इत्याशङ्कयाद परेहिं साइडिं, पायं भावो वि जायए परो । णय असो सवओोगो, एएसि सयान लडवरो ।। १६ ।। प्रकृष्टेः साः पूजाकारण प्रायो बाहुल्येन कस्यापि क्लिष्टकर्मणः प्रवरसाधनैरपि न जायते प्रवरभाव स्तस्यान्यस्यातिशुभकर्मणः प्रवरद्रव्याणि विनैव प्रवरभावो जायते इत्येतदर्थसूचनाय प्रायोग्रहणम् । भावोऽप्यवसायोऽपि न केवलं ध्यायेव प्रवराणीत्यपरार्थः जायते संप द्यते, प्रवरः प्रधानोऽशुजकर्मक्कयहेतुः । भवति च द्रव्यविशेषाद्भावविशेषः यदाह-गुट्टे यजेस मिलो हिस णं भावे इत्यू इच्छति बहारो ॥१॥" इत्ये कं प्रयोपादाने कारणम् । अथ कारणान्तरमाह-न नैव, Page #1304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेश्य चेइय (१२०१) अन्निधानराजेन्डः। चः समुच्चये, अन्यो जिनपतिपूजातोऽपरः, उपयोगो विनियो। यत्नपूर्व प्रविश्यान्त-दकिणेनाहिणा ततः ॥ २ ॥ गस्थानम, पतेषां प्रवरसाधनानाम, सतां विद्यमानानाम | सुगन्धिमधुरैव्यैः, प्राङ्मुखो वाऽप्युदङ्मुखः । लष्टतरः प्रधानतरो भवति । यदाह-"देहः पुत्रः कसत्रं चा, वामनाड्यां प्रवृत्तायां, मौनवान् देवमर्चयेत्” ॥३॥ संसारायैव सत्कृतः । वीतरागस्तु भव्यानां, संसारोच्छित्तये इत्याद्युक्तेन नैषेधिकीत्रयकरणप्रदक्षिणात्रयचिन्तनादिकेन च भवेत् ॥१॥" इत्यतः प्रवरपुष्पादिभिः पूजा विधेया, ति विधिना देवताऽवसरप्रमार्जनपूर्व शुचिपट्टकादौ पद्मासनासीन गाथार्थः ॥ १६॥ पूर्वोत्सारितद्वितीयपात्रस्थचन्दनेन देवपूजासत्कचन्दनभाजअमुमेवार्थ भावयन्नाह नाद्वा पात्रान्तरे हस्ततले वा गृहीतचन्दनेन कृतजानकएउहपु. इहलोयपारलोइय-कजाणं पारलोइअं अहिगं । दरतिनको रचितकर्णिकाङ्गदहस्तकणादिभूषणः चन्दनचर्चितं पि हु जावपहाणं, सो वि य इय कजगम्मो त्ति॥१७॥ तभूपिन जुजो लोमहस्तकेन श्रीजिनाङ्गानिर्मात्यमपनयेत् । नि सल्यं च-"जोगविणटुं दवं,निम्मलं विंति गीअत्या"। इति वृद. ऐहौकिकपारलौकिककार्ययोर्वर्तमानभवपरभवप्रयोजनयोः द्भाष्यवचनात् यजिनबिम्बायोपितं सद्विच्चायाभूतं विगन्धं जातं साध्ययोर्मध्ये, पारलौकिकं पारभविकम, अधिकं प्रधानतरं, दृश्यमानं च निःश्रीकं न नव्यजनमनःप्रमोद हेतुस्तन्निर्माल्यं घूविशेषतस्तस्य साधनीयत्वात, तदसाधने बहुतमानर्थसंत्र वन्ति बहुधुता इति सङ्घाचारवृत्त्युक्तेश्च भोगविनएमेव,न तु वि. वात् । पारलौकिककृत्यं च जिनपूजेत्यतो नान्यदुपयोगस्थान चारसारप्रकरणोक्तप्रकारेण ढौकितावतादोर्निर्माल्यत्वमुचितम, लष्टतरं प्रवरसाधनानामिति । तत्र च यत्प्रधान तद्दर्शयितुमाह शास्त्रान्तरे तथा दृश्यमानत्वादकादक्तमत्वाच, तत्वं पुनः केव(तं पि हुति)तत्पुनः पारलौकिक कार्यम् । भाव प्रात्मपरिणामः लिगम्यम् । वर्षादौ च निर्माल्य विशेषतः कुन्थ्वादिसंसक्ते पृथग् प्रधानः साधकतयोत्तमो यस्मिँस्तद्भावप्रधानं, शुभनावसाध्य पृथग् जनानाक्रम्य शुचिस्थाने त्यज्यते, एवमाशातनाऽपि न म् । अतोऽसौ भावविशेषो विशिष्टपारलौकिककार्यार्थिना स स्यात् । स्नात्रजलमपि तथैव, ततः सम्यक् श्रीजिनप्रतिमाः प्रमामाश्रयणीय इति हृदयम । यदि नावप्रधानं ततः किमित्याह ज्य उचः स्थाने जोजनादावव्यापार्यपवित्रपात्रे संस्थाप्य च (सो वि यत्ति) स पुनः पारलौकिककार्य हेतुतूतो भावः। इति करयुगधूत गुचिकाशादिनाऽभिपिश्चेजनं च पूर्व घुसणाधुन्मिकार्यगम्य इत्येवंविधमनन्तरोक्तं यत्कार्य नावस्य कृत्यं पूजा थं कार्य, यतो दिनकृत्ये-"घुसिणकप्पूरमीसं, काउं गंधोदगं थै प्रवरपुष्पायुपादानरूपं, तेन यो गम्यो निश्चेतव्यः स इति | बरं । तो तुवणनाहस्स, पहावेई भत्तिसंजुओ" ॥२॥ घुशृणं कार्यगम्यः, इतिशब्दः समाप्तौ । इदमुक्तं भवति-परलोकसाध. नहेतुभूतशुभनाबकार्यत्वात्प्रवरसाधनोपादानस्य शुभभावं स कुडूम, कर्पूरो घनसारस्ताभ्यां मिथ, तुशब्दास वैषिधिचन्दनाफलयद्भिस्तद्विधेयं जवति, इति गाथार्थः ॥ १७ ॥ दिपरिग्रह इति तदृत्तिः। स्नपनकाले च-"बालत्तणम्मि सामि. श्र, ! सुमेरुसिहरम्मि कणयकलसोहं । तिप्रसासुरेहि एहवि. अथाधिकृतद्वारं निगमयन्नाह ओ, ते धना जेहिं दिट्रो सि" ॥१॥ इत्यादि विचित्य पूजाक्षणे ता नियविहवऽणुरूवं, विसिट्टपुप्फाइएहि जिण पूजा । च मुण्यवृत्या मौनमेव कार्य, तदसक्तौ साधा त्याज्यमेव,अन्यकायव्वा बुद्धिमया, तम्मी बहुमाणसारा य ॥ १७ ॥ । था नैषेधिकीकरणनैरर्थक्यापत्तेः,कण्डूयनाद्यपि हेयमेव । यतः. ( ता इति ) यस्मात्प्रवरसाधनैः प्रवरो नाचो भवतीत्याशु-1 "कायकंडूअणं वजे, तहा खेल विगिचणं । इयुत्तजणणं च, कं, तत्तस्माद्धतोर्निजविभवस्य स्वकीयविभूतेरनुकूलं स्वभा पूनंतो जगबंधुणो ॥१॥" ततः सुयत्नेन बालककूर्चिको व्यापायो यस्य पूजाकरणस्य तनिजविभवानुरूपम् । कर्तव्येति कि पैकेनाहरूक्षणेन सर्वतो निर्जलीकृत्य द्वितीयेन च धूपितमृदू ज्ज्वलेन तेन मुहुः सर्वतः स्पृशेत, एवमङ्गरूकणद्वयन सर्वयाया विशेषणमिदम् । विशिष्टपुष्पादिनिरुक्तस्वरूपैः, जिनपू. प्रतिमा निर्जलीकार्या । यत्र स्वल्पोऽपि जबफ्लेदस्तिष्ठति, तत्र जाऽहंदर्चनम, कर्तव्या विधेया, बुद्धिमता धीमता। बुद्धि-1 मानेव हचुपादेयोपादानक्षमो जवतीति बुद्धिमतेत्युक्तम। तथा २ श्यामिका स्यादिति सा सर्वथा व्यपास्येत, न च पश्चतीतस्मिन् जिने बहुमानसारा प्रीतिप्रधाना । तद्यथा--"अनुपकृ. याचतुर्विशतिपट्टकादौ मिथः ......................... सरिआभदेवस्स । तपरहितरतः, शिवदस्त्रिदशेशपूजितो जगवान् । पूज्यो हितका जीवानिगमे विजया-पुरी' विजयाश्देवाणं ॥१॥ मानां, जिननाथो नाथताहेतुः" ॥१॥ चशब्दः पूर्वोक्तविशेषणा निंगाश्लोमहत्थय-लूहणया धूवदहणमाईअं । पेक्कया समुश्चपार्थः, इति गाथार्थः॥ १७ ॥ पश्चा०४ विव०।। परिमाणं सकदाणय-पूमाए इक्यं भणि मं ॥२॥ अथ विधिद्वारनिरूपणायाऽऽह-प्रमार्जितपवित्रावघर्षेऽसं निवुअजिणंदसकहा-सग्गसमुग्गेलु तिसु वि लोएसु । सक्तशोधितजात्यकेसरकर्पूरादिमिश्रश्रीखण्डं संघर्ध्य भाजनद. अन्नोन्नं संलग्गा, न्हवणजलाईहिं संपुछा ॥३॥ ये पृथगुच्चारयेत् । तथा संशोधितजात्यधूपघृतपूर्णप्रदीपा पुब्बधरकालविहिपा , पमिमाई संति केसु वि पुरेसु । ऽखण्डचोकादिविशेषाक्षतपूगफवविशिष्टानुच्छिष्टनैवेद्यहृद्यफल वत्तक्खा १ खेत्तक्खा २ महक्खया, ३ गथें दिघा य॥४॥" निर्मलोदकनृतपात्रादिसामग्री संयोजयेदेवं व्यतः शुचिता। (गंथें दिछत्ति) ग्रन्थे प्रतिष्ठायोमशकादौ दृष्टा । (ध.) भावतः शुचिताऽनुरागद्वेषकषायैरैहिकामुध्मिकस्पृहाकौतुक "मालायाधराण वि, धुवणजाई फुसेश जिणबिद । व्याक्तपादित्यागेनैकाग्रचित्तता । नक्तंच पुत्थयपत्ताईण वि, उवरुवार करिसणाई अं ॥ ५ ॥ " मनोवाक्कायवस्त्रो:-पूजोपकरणस्थितेः। ता नज्जा नो दोसो. करणे च उवीसवट्टयाईणं । शुभिः सप्तविधा कार्या , श्रीअर्हत्पूजनकणे" ॥१॥ आयरणाजुत्तीश्रो, गंथेसु अदिस्समाणत्ता ॥६॥" एवं व्यत्रावाभ्यां शुचिः सन् गृहचैत्ये बृहद्भाध्ये ऽप्युक्तम्"प्राथयन् दक्विणां शाखां, पुमान् योषित्वदक्विणाम् । "जिणरिदिसणत्थं, एग कारे कोइ भत्तिजुनो। Page #1305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२ ) चेश्य अभिधानराजेन्डः। चेश्य पायडिपामिहेरं, देवागमसोहिअंचेव ॥१॥ प्रदीपैः शाल्यादितन्दुसाक्षतैर्बीजपूरादिनानाफबैः सर्वनैवेद्यैर्निदसणनाणचरित्ता-राहणकजे जिणत्तिअं को। मोदकनृतशलादिपात्रैश्च पूजयेत् । तत्र प्रदीपो जिनस्य दक्किपरमिहिनमोक्कार, उज्जमिउं को पंच जिणा ॥२॥ णपार्वे स्थायः, अक्तैश्चास्त्र एमै रौप्यसौवणः शालेयैर्वा जिनस्य कहाणतवमहत्था, उज्जमिनरहवासनावि ति। पुरतो दर्पण १ भासन २ वर्षमान ३ श्रीवत्स ४ मत्स्ययुग्म ५ बहुमाणविसेसाओ, कोई कारिंति चउवीसं ॥३॥ स्वस्तिक ६ कुम्भ ७ नन्द्यावर्त 0 रूपाष्टमङ्गलानाले खयत् । उक्कोसं सतरिसयं, नरसोए विहरहत्ति प्रत्तीए । अन्यथा वा ज्ञानदर्शनचारित्राराधननिमित्तं सृष्टया पुअत्रयेण सत्तरिसयं पि कोई, बिवाणं कार धणहो॥४॥ पहादी विशिष्टाक्षतान पूगादिफलंच टौक्येत । नवीनफलागमे तस्मानितीर्थीपञ्चतीर्थीचतुर्विंशतिपट्टादिकारणं न्याय्यमेव तु पूर्व जिनस्य पुरतः सर्वथा दौक्यं, नैवेद्यमपि सति सामर्थ्य रश्यते, तथा सति तत्प्रकालनाद्यपि निर्दोषमेव, अङ्गरूकणं ह- कूराद्यशनशर्करागुडादि पानफलादिस्वाद्यताम्बूलादिखाद्यान् दौस्तादि च पृथक् नाजनस्थशुद्धजलेन काल्यं,न तु प्रतिमाक्वाल कयेत् । नैवेद्यपूजा च प्रत्यहमपि सुकरा, महाफला च नजलेन, चन्दनादिवताति जिनस्नपनविधिः। धान्यस्य च विशिष्य, आगमेऽपि राधान्यस्यैव प्रतिपादनात; अथ पूजाविधिः यत आवश्यकनियुक्तौ समवसरणाधिकारे "कीर बलीति," पृजा चालाग्रभावभेदात् त्रिधा । तत्र नपनमङ्गपूजैव,ततः "अंहि निशीथेऽपि-"तो पभावईए देवीए सव्वं बलिमाई काउं २ जानु२ करां६सेषु, मूर्द्धि पूजां यथाक्रमम" इत्युक्तर्वक्ष्यमा भणि-देवाहिदेवो वकमाणसामी तस्स पमिमा कीरो त्ति णत्वात्सृष्टया नवाजेषु कर्पूरकुमादिमिश्रगोशीर्षचन्दनान्यर्चये वाहिनो कुहामो दुहा जाय पिच्छा सव्वालंकारविभूसिअंभत्। केऽप्याहुः-पूर्व भाले तिलकं कृत्वा नवाङ्गपूजा कार्या।श्रीजि गवश्रो पडिम" निशिथपीठेऽपि-[बलि ति]"असिधोवसमनिमिनप्रभसूरिकृतपूजाविधौ तु-"सरससुरहिचंदणेणं देवस्स दाहि संकुरो किज्जा"। महनिशीथेऽपि तृतीयाध्ययने-"अरिहंताणं णजाणुदाहिणखंधनिमालवामखंधवामजाणुलक्षणेसु पंचसु भगवंतापं गंधमनुपश्वसंमज्जणोवलेषणविच्छित्तिवनिवत्थधूहिअपहिं सहत्येसु वा अंगेसु पूभं काऊण पच्चमाकुसुमेहि वाईपहिं पूनासकारोहिं पदिणमन्नवणं पकुब्बाणा तित्थुत्थप्पगंधवासेहिं च पृएर " इत्युक्तम् । ततः सद्वर्णैः सुगन्धिभिः ण करामोति"। ततो गोशीर्षचन्दनरसेन पञ्चाङ्गलितम एमालासरसैरभूपतितैर्विकाशिभिरशटितदः प्रत्यप्रैश्च प्राणैर्ना लेखनादि पुष्पप्रकराऽऽरात्रिकादिगीतनृत्यादि च कुर्यात् । सर्वमनाप्रकारप्रथितर्वा पुष्पैः पूजयेत् । पुष्पाणि च यथोक्तान्येव प्येतदमपूजैव यद्भाध्यम-"गंधवनवाश्श्र-सवणजमारत्तिा ग्राह्याणि । यतः दीवाई। किश्तं सन्वं,पि ओपरइ अग्गपूनाए"।। इत्यग्रपूजा। भावपूजा तु जिनपूजाव्यापारनिषेधरूपतृतीयनैषोधकीकरणपू. "न शुष्कैः पूजयेद्देवं, कुसुमैन महीगतैः। बै जिनादक्किणदिशि पुमान् , स्त्री तु वामदिशिं, पाशातनापरिन विशीर्णदलैः स्पृष्टै-नागुजैनोऽविकाशिनिः॥१॥ कीटकोशापविद्धानि, शीर्ण पर्युषितानि च । हारार्थ जघन्यतोऽपि संजवे नवहस्तमानादसंभवे तु हस्त हस्तार्कमानाद्रुत्कृष्टतस्तु षष्टिहस्तमानादवग्रहाद् बहिः स्थित्वा वर्जयेदृर्णनालेन, वासितं यदशोनितम् ॥२॥ चैत्यवन्दनां विशिष्टस्तुत्यादिभिः कुर्यात् । श्राह च-"तश्राउ पूतिगन्धोन्यगन्धानि, अम्लगन्धीनि वर्जयेत् । भावपूआ , गउं चिवंदणोचिए देसे । जहसात्त वित्तथुह मलमूत्रादिनिर्माणा-इच्छिष्टानि कृतानि च" ॥३॥ थु-त्तमाइणा देवबंदणयं ॥१॥" निशीथेऽपि-"सो उगंधारसासति च सामर्थ्य रत्नसुवर्णमुक्तानरण रौप्यसौवर्णपुष्पादिभि वो थयथुइहिं थुणतो तत्थ गिरिगुहाए अहोर निवसिओ"। श्चन्द्रोदयादिविचित्रदुकूलादिवस्त्र श्वाप्यसकुर्यात् । एवं चान्ये तथा वसुदेवहिएडौ-" वसुदेवो पच्चूसे कयसमत्तसावय. षामपि भाववृध्वादि स्यात् । यतः “ पवरेहि साहहिं, पायं सामाश्ानियमो गहिपश्चक्वाणो कयकानस्सम्गथुरभावो वि जायप पवरो। न य अन्नो उवोगो, एएसि सयाण वंदणोत्ति" । एवमनेकत्र श्रावकादिजिरपि कायोत्सर्गस्तुत्यादिसध्यरो"॥१॥त्ति। श्राद्धविधिवृत्ती-"प्रन्थिमवेष्टिम २ पूरिम३ भिश्चैत्यवन्दना कृतेत्युक्तम् । (१०) (स्तुतिन्नेदनिरूपणम् 'थुर संघातिम रूपचतुर्विधप्रधानाम्लानविध्यानातशतपत्रसदनपत्रजातीकेतकचम्पकादिविशिष्टपुष्पैर्माला १ मुकुट २ शिर शब्दे वक्ष्यते)गीतनृत्याद्यग्रपूजामामुक्तं नावपूजायामप्यवतरति; स्कं ३ पुष्पगृहादि विरचयेदिति विशेषः । चन्दनपुष्पा तश्च महाफनत्वाम्मुख्यवृत्त्या स्वयं करोत्युदायननृपराझी प्रनाव ती यथा । यन्निशीथचूर्णिः-"पजावईण्हाया कयबलिकम्मा कय. दिपूजा च तथा कार्या यथा जिनस्य चक्षुर्मुखाच्गद कोउअमंगल्ला सुक्किद्ववासपरिहिया जाव अट्ठमी चउहसी सु. नादि न स्यात, सश्रीकताऽतिरकेश्च स्यात्, तथैव बटणां प्रमोदवृथ्वादिसंभवात् । अन्योऽप्यपूजाप्रकार: कुसुमाञ्जलि अभात्तिरागण य सयमेव राओ नहोवयारं करेह, राया वि मोचनपञ्चामृतप्रवासनशुकोदकधाराप्रदानं कुडूमकपूरादिमि तयाणुवित्तीए मुरयं वाएर" इति। पूजाकरणावसरे चाईत. श्रचन्दनविलेपनाङ्गीविधानगोरोचनमृगमदादिमयतिलकपत्र-- श्छन्नस्यकवक्षिस्थसिद्धयावस्थात्रयं नावयेत् । यद्भाष्यम्-" एह पणच्चगेदि छनम-स्थवत्थपमिहारगेहि केवलिअं । पलिअंकुभङ्गपादिकरणप्रमुखो भक्तिचैत्यप्रतिमापूजाधिकारे वक्ष्यमा सम्मोह अ, जिणस्स भाविज्ज सिद्धत्तं ॥१॥" स्नापकैः पणो यथास्थं शेयः । तथा जिनस्य हस्ते सौवर्णबीजपूरनालिकेरपूगीफनागबबीदलनाणकमुनिकादिमोचनं कृष्णागुर्वादि रिकरोपरिघटितगजारूढकरकलितकलशैरमरैरर्चकैश्च तत्रैव धूपोत्केपसुगन्धवासप्रपाद्यपि सर्वमङ्गपूजायामन्तर्भवति । घटितमालाधारैः कृत्वा जिनस्य छमस्थावस्थां जावयेत् । ३. तथोक्तं वृहद्भाष्ये-" एहवणविलेवणआदर-णवस्थफसगंधधूवः। प्रस्थावस्था त्रिधा-जन्मावस्था १, राज्यावस्था २, श्रामण्यापुफहि । कीर जिगपूत्रा, तत्थ बिहीएस नायव्यो"॥१॥ वस्था च ३। तत्र स्नपनकारैर्जन्मावस्था १, मालाधार राज्यात्ति। तत्र धूपोजिनस्य वामयाबें कार्य प्रत्यापजातितोपतपी. वस्था २,श्रामण्यावस्था जगवतोऽपगतकेशशीर्षमुखदर्शना Page #1306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेश्य (१२०३) चेय अभिधानराजेन्सः । स्मुक्कानैव , प्रातिहार्येषु परिकरोपरितनकशोजयपार्श्वघटितैः द्विषदां यत्प्रतीकारकृते, या कृतमत्सरम। पत्रैः कोलिः १, मालाधारैः पुष्पवृष्टिः २, वीणावंशकरैः प्रति. रद्धाशयं विधीयेत, साक्तिस्तामसी मता ॥६॥ मोजयपार्श्ववर्तिनिर्दिव्यो ध्वनिः ३, शेषाणि स्फुटान्येव । ति रजस्तमोमयी भक्तिः, सुप्रापा सर्बदेहिनाम् । भावपूजा । अन्यरीत्याऽपि पूजात्रयं वृहद्भायाधुक्तं यथा- दुर्लभा सात्विकी भाक्तः, शिवाबधिसुखावहा" ।।७।। "पंचोवयारजुत्ता, पूना अट्ठोवयारकलिया य। अत्र च प्रागुक्तमङ्गाग्रपूजाद्वयं चैत्यबिम्बकारणरिद्धिविसेसेणं पुण, नेत्रा सम्वोबयारा वि ॥१॥ यात्रादिश्च द्रव्यस्तवः । यदाहतत्थ य पंचुवयारा, कुसुमक्खयगंधध्वदीवहिं। "जिणनवणबिंबठावण-जत्तापूना सुनो विहिणा । कुसुमक्खयगंधपई-बधूबनेवेज्जफलजनेहि पुणो ॥२॥ दश्चत्यो त्ति नेमो, नावस्थयकारणत्तेणं ॥१॥ अविहकम्मदलणी, अध्ववारा हव पूना । निच्चं चि संपुन्ना, जह विहु एसा न तीरप का। सम्वोबयारपूया, न्हवणऽच्चणवत्यनूसणाईहिं ॥३॥ फलबलिदीवाईहिं, नट्ठगिप्रारत्तिश्राहिं ति॥" तह वि अणुचिहिअव्वा, अक्खयदीवाश्दाणेणं ॥२॥ पगं पि उदगबिंद, जद्द पक्खित्तं महासमुद्दम्मि । शास्त्रान्तरे चानेकधाऽपि पूजाभेदा उक्ताः सन्ति । जायर अक्खयमेनं, पूआ वि हु वीअरागेसु ॥ ३ ॥ तद्यथा पएणं वीएणं, दुक्खा अपाविकण भवगहणे । "सयमाणयणे पढमा , बीमा प्राणावणेण अनोखें। अतुदारजोप, भोत्तुं सिझति सव्वाजा ॥४॥ तश्ा मणसा संपा-मणेण वरपुष्फमाईणं" ॥१॥ पूनाए मणसंती, मणसंतीए अ उत्तमं झाणं। इति कायवाश्मनोयोगितया करणकारणानुमतिनेदतया च सुहझाणेण य मुक्खं, मुक्खे सुक्खं निरायाधं" ॥५॥ इति । पूजात्रिकम् । तथा-"पूध पि पुष्फामिसथुश्पडिवत्तिभेमओ च पूजादिविधिसंग्राहकं प्रसिकोमास्वातिवाचककृतं उब्विहं पिजहासत्तीए कुज्जा"। ललितविस्तरादौ तु पुष्पामिष प्रकरणं चैवम्स्तोत्रप्रतिपूजानां यथोसरं प्राधान्यमित्युक्तं, तत्राऽऽमिषमशना " स्नानं पूर्वाऽऽमुखीय, प्रतीच्यां दन्तधावनम् । दिभोग्यवस्तुप्रतिपत्तिः, पुनरविकलाप्तोपदेशपरिपालमा श्त्या उदीच्यां श्वेतवस्त्राणि, पूजा पूर्वोत्तरामुखी ॥१॥ गमोकं पूजाभेदचतुष्कम्। गृहे प्रविशतां वाम-भागे शल्यविवर्जिते। तथा देवताऽवसरं कुर्यात्, सार्द्धहस्तोर्द्धनूमिके ॥२॥ "दुविहा जिणिदपूश्रा, दव्वे भावे अ तत्थ दवम्मि। नीचै मिस्थितं कुर्याद्, देवताऽवसरं यदि । दब्बेहिं जिणपूआ, जिणाणापालणं भावे" ॥१॥ नीचर्नीचैस्ततो घंशः, संतत्याऽपि सदा भवेत् ॥३॥ शति भेदद्वयेऽपि । तथा सप्तभेदा यथा पूजकः स्याद्यथा पूर्व-उत्तरस्याश्च संमुखः । "न्हवण विलेवण अंग-म्मि चक्बुजुमलंच वासपूत्राए । दकिणस्या दिशो वय, विदिश्वर्जनमेव हि ॥४॥ पुप्फारुहणं माला-रुहणं तह बन्नयारुहणं ॥ १॥ पश्चिमाभिमुखं कुर्यात, पूजां जैनेन्जमूर्तये। चुन्नारुदणं जिणघु-गवाण आहरणारोहणं चेव । अन्यत्र संततिच्छेदो, दक्विणस्यां न सन्ततिः ॥५॥ पुष्फगिहपुण्फपगरो, भारत्ती मंगनपश्वो ॥२॥ आग्नेय्यां तु यदा पूजा, धनहानिर्दिने दिने । दीवो धूवुक्खेबो, नेवज्जं सुहफबाण ढोअण। बायव्यां संततिर्नेव, नैऋत्यां च कुलक्षयः ॥६॥ गीअं नहें वज्ज, पूत्रानेमा इमे सतरा"॥ ३॥ ऐशाम्यां कुर्वतां पूजा, संस्थिति व जायते । एकविंशतिदास्त्वनुपदमेव वक्ष्यमाणा झेयाः। पते सर्वेऽप्य अंहि२ जानु २ करां ६ सेषु, मूड़िए पूजा यथाक्रमम् ॥७॥ कादिपूजात्रये सर्वव्यापकेऽन्तर्जवन्ति । श्रीचन्दनं विना नैव, पूजा कार्या कदाचन । अङ्गादिपूजात्रयफलं त्वेवमाहुः जाले कर हृदम्जोजो-दरे तिलककारणम् ॥८॥ नवभिस्तिलकैः पूजा, करणीया निरन्तरम् । "विग्योवसामगेगा, अभुदयसाहणी भवे बीमा। प्रभाते प्रथमं वास-पूजा कार्या विचक्षणः॥॥ निश्करणी तइया, फलया उ जहत्थनामोहं ॥१॥" मध्याहे कुसुमैः पूजा, संध्यायां धूपदीपकृत। सात्विक्यादिभेदैरपि पूजाविध्यमुकं यतो बामांशे धूपदाहः स्या-दग्रतूरं तु सन्मुखम् ॥ १० ॥ विचारामृतसंग्रहे अहंतो दविणे जागे, दीपस्य विनिवेशनम् । "सात्विको राजसी भक्ति-स्तामसीति त्रिधाऽथवा। ध्यानं तु दक्किणे भाने, चैत्यानां वन्दनं तथा ॥११॥ अन्तोस्तत्त्वादनिप्राय-विशेषादहतो भवेत् ॥ १॥ हस्तात्प्रस्खलितं तितौ निपतितं लग्नं क्वचित्पादयोअर्हतसम्यगुणश्रेणि-परिझानेकपूर्वकम् । यन्मूोपगतं धृतं कुवसनै भेरधो यद् भृशम् । अमुञ्चता मनोरङ्ग-मुपसर्गेऽपि भूयसि ॥२॥ स्पृष्टं दुष्टजनैघनैरभिहतं यद् दूषितं कीटकैअईत्संबन्धिकार्याथै, सर्वस्वमपि दित्सुना। स्याज्यं तत्कुसुमं दलं फलमथोजक्तर्जिनप्रीतये ॥ १२॥ नव्याङ्गिना महोत्साहात, क्रियते या निरन्तरम् ॥३॥ नैकपुष्प द्विधा कुर्याद्, न बिन्द्याकलिकामपि । भक्तिः शक्त्यनुसारेण, निःस्पृहाशयवृत्तिना। चम्पकोत्पलनेदेन, नवेद्दोषो विशेषतः ॥ १३ ॥ सा सात्विकी भवेद्भक्ति-र्लोकद्वयफलावदा ॥४॥ गन्धधूपाततैः स्रग्भिः, प्रदीपैवविवारिनिः। यदैहिकफलप्राप्ति-हेतवे कृतनिश्रया। प्रधानश्व फलः पूजा, विधेया श्रीजिनेशितुः ॥१४॥ लोकरज्जनवृत्यर्थ, राजसी भक्तिरुच्यते ॥५॥ शान्ती श्वेतं तथा पीतं, बाभे श्यामं पराजये। Page #1307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेश्य (१२०४) अनिधानराजेन्द्रः। चेइय मानार्थे तथा रक्तं, पञ्चवर्ण च सिम्ये ॥ १५ ॥ अथ कथं स्तुत्यादिप्रधानपूजाया गुवीत्वमित्यत्रोच्यते, पञ्चामृत तथा शान्तौ , दीपः स्यात् सघृतैर्गुमैः । स्तुत्यादीनां कुशनपरिणामहेतुत्वादेतदेवाऽऽदवही लवणनिक्षेपः . शान्त्यै तुष्टथै प्रशस्यते ॥ १६ ॥ तेसिं अत्याहिगमे, णियमेणं होइ कुसलपरिणामो । खएिमते संधिते छिन्ने, रक्ते रौ च वाससि । दानपूजातपोहोम-संख्यादि निष्फलं भवेत ॥ १७ ॥ मुंदरभावा तेसिं, इयरम्मि वि रयणणाएण ॥ २५ ॥ पद्मासनसमासीनो, नासाऽग्रन्यस्तसोचनः। तेषां सारस्तुत्वादीनामनिगमेऽभिधेयाऽवगमे सति, नियमौनी बस्त्रावृतस्थोऽयं, पूजां कुर्याजिनेशितुः॥ १८ ॥ मेनावश्यंभावेन, भवति जायते, कुशलपरिणामः शुभाध्यवसास्नात्रं विलेपनविभूषणपुष्पवास यः, अर्थाधिगमस्य प्रायः कुशसपरिणामकारकत्वादिति भव्यधूपप्रदीपफलतन्मुलपत्रपूगैः ॥ स्तोतृणामिति गम्यते । एवं तीर्थाधिगमवतामेव स्तुत्यादिभिर्गुनैवेद्यवारिवसनैश्चमराऽऽतपत्र वी पूजा स्यान्नान्येषामित्यत्रोच्यते-सुन्दरभावात् शुभन्नावत्यात, वादित्रगीतनटनस्तुतिकोशवृद्ध्या ॥ १६ ॥ तेषां स्तुत्यादीनाम, इतरस्मिन्नपि तदनवगमेऽपि,आस्तांत. इत्येकविंशतिविधा जिनराजपूजा , दर्थाधिगमे, कुशलः परिणामो नवतीति प्रकृतम् । अथ कथख्याता सुरासुरगणेन कृता सदैव । मिदमवसीयते इत्याह-रत्नहातेन माणिक्योदाहरणेन, यथा खण्डीकृता कुमतिनिः कनिकालयोगा रत्नमझातगुणमपि सुन्दरस्वभावतया गुणकरमेवमेतान्यपीति यद्यप्रियं तदिह भाववशेन योज्यम् ॥२०॥" इति। । गाथार्थः ।। २५ ॥ एवमन्यदपि जिनबिम्बवैशिष्टयकरणचैत्यगृहप्रमार्जनसुधाध अधिकृतमेव ज्ञातं ज्ञापनीये योजयन्नाहवमनजिनचरित्रादिविचित्रचित्ररचनसमग्रविशिष्टपूजोपकरण-1 जरसमाई रयणा, अम्पायगुणा वि ते समिति जहा । सामग्रीरवनपरिधापनिकाचन्द्रोदयतोरणप्रदानादिसर्वमङ्गादिपूजायामन्तर्भवति ; सर्वत्र जिनभक्तरेव प्राधान्यात् । गृहचैत्यो कम्मजराई थुश्मा-इवा वि तह जावरयणाश्रो ॥ २६ ॥ परिच धोतिकाद्यपि न मोच्य, चैत्यवत्तत्रापि चतरशीत्याशा- ज्वरशमनादीनि ज्वरापहारप्रनृतीनि, प्रादिशब्दाच्चूनशमनातनाया वर्जनीयत्वात् । अत एव देवसत्कपुष्पधूपदीपजलपात्रच दिग्रहः, रत्नानि माणिक्यानि, अज्ञातगुणान्यपि रोगिनिरविछोदयादिना गृहकार्य किश्चिदपि न कार्यमेव, नापि स्वगृहचे. दितज्वरादिशमनसामान्यपि, न केवलं ज्ञातगुणान्येव तान त्याकितचोकपूगीफलनैवेद्यादिक्रियोत्थाव्यं व्यापार्यम् । चै. ज्वरादिरोगान् शमयन्ति नाशयन्ति, यथा येन प्रकारेण, सुन्दत्यान्तरे तु स्फुटं तत्स्वरूपं सर्वेषां पुरतो विज्ञाप्यारोप्यम, अ. ररूपतालक्षणेन,कर्मज्वरादीन् कर्मलकणज्वरादिरोगान् स्तुत्या. न्यथाऽर्पणे च मुधा जनप्रशंसादिदोषप्रसङ्गः। गृहचैत्यनेवेद्याद्य. दीन्यपि स्तुतिस्त्रोत्राएयपि, न केवलं रत्नान्येव, (तह इति) अप्यारामिकस्य मुख्यवृत्त्या मासदेयस्थाने न देयं, शक्तयभावेच त्रोत्तरस्यावधारणार्थस्य तुशब्दस्य संबन्धात्,तथैव तेनैव प्रकाआदावेव नैवेद्यार्पणेन मासदेयोक्ती तु न दोषः । इति पूजा रेण, किंभूतानि स्तुत्यादीनि ?, भावरत्नानि पारमार्थिकमाणिविधिः। ध०२ अधि। क्यानि, शमयन्तीति प्रकृतमिति गाथार्थः ॥ २६ ॥ प्रस्तावितद्वारमेवोपदर्शयन्नाह सारस्तुतिस्तोत्रद्वारनिगमनम, तथा यदुक्तम्-"सारथुश्योत्तसारा पुण थुइथोचा, गंजीरपयत्थविरझ्या जे छ । सहिया, न त य चिविंदणाउंति" । पञ्चा० ४ विव०। सब्ज्यगुणक्तित्तण-रूवा खनु ते जिणाणं तु ॥ २४॥ पूजा अविच्छेदतोऽस्य कर्तव्येत्युक्तं सैव स्वरूपतोऽभिधीयते साराणि प्रधानानि, पुनःशब्दो विशेषद्योतनार्थः । तथैवम् कारिकाद्वयेनसरिः स्तुतिस्तोत्रैर्गुर्वी पूजा कत्र्तव्या; माराणि पुनस्तानि का. स्नानविलेपनसुसुग-न्धिपुष्पधुपादिभिः शुभैः कान्तम् । नात्युच्यते, यानि त्वित्येतस्येह दर्शनाद्यान्येव गम्भीरैरतुच्छैः, प- विजवानुसारतो यत्, काले नियतं विधानेन ।। १ ।। दानां शब्दानामथुरभिधेयैर्विरचितानि रब्धानि गम्भीरपदार्थ- अनुपकृतपरहितरतः, शिवदस्त्रिदशेशपूजितो भगवान् । विरचितानि । तद्यथा--" पमिवएणचरिमतणुणो, अश्सयलेसं पि जस्स दट्टणं । भवहुत्तमणा जायं-ति जोश्यो तं जिणं न. पूज्यो हितकामाना-मिति जक्त्या पूजनं पूजा ।।२।। मह" ॥ १ ॥ जे उत्ति' व्याख्यातमेव । अतुच्छपदार्थयुक्तान्यपि स्नानं गन्ध व्यसंयोजितं, स्नात्रं वा,विलेपनं चन्दनकुङ्कमादिकानिचिदसदभूतगुणकीर्तनरूपाणि स्युः । यथा भिः,सुष्ठ सुगन्धिपुष्पाणि जात्यादिकुसुमानि! तथा सुगन्धिधूपो गन्धयुक्तिप्रतीतः, तदादिजिरपरैरपि शुभैर्गन्धऽव्याविशेषैः, काकेमाय मर्त्यजगतस्तल एव शङ्के, न्तं मनोहारि, विभवानुसारतो विभवानुसारेण, यत् पूजनमिति शाकम्जरीनृप! गतं न भवद्यशोभिः। गायन्ति तानि यदि तत्र तुजङ्गयोषाः, संबन्धः! काले त्रिसंध्यं स्ववृत्त्यविरुवा, नियतं सदा,विधानेन शेषः शिरांसि धुनुयान मही स्थिरा स्यात् "॥१॥ शास्त्रोक्तेन ॥१॥ उपकृतमुपकारो, न विद्यते उपकृतं येषां ते इमेऽनुपकृताः, अकृतोपकारा इत्यर्थः। ते च ते परे च तेभ्यो इत्येतद्व्यवच्छेदायाऽऽह-सदनूनगुणोत्कीर्तनरूपाणि विद्यमा- हितं तस्मिन् रतोऽभिरतः, प्रवृत्तोऽनुपकृतपरहिवरतो निष्कारनगुणग्रहणस्वभावान्येव, खलुरवधारणे, तानि स्तुतिस्तोत्राणि, णवत्सलः, शिवं ददातीति शिवदस्त्रिदशानामीशास्तैः पूजितो, जिनानां तु प्राप्तानामेव । तद्यथा--" आणा जस्स बिलश्या , भगवान् समग्रैश्वर्यादिसंपन्नः, पूज्यः पूजनीयो, हितकामानां सीसे सब्वेडि हरिहरेहिं पि। सो वि तुढ झाणजसणे, मयणो | हिताभिलाषिणां, सत्वानामित्येवंविधन कुशलपरिणामेन, भमयणं व पविलीणो"॥१॥ इति गाथाधः ॥ २४॥ क्या विनयसेत्रया, पूजनं पूजोच्यते ॥२॥ Page #1308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इय ( १२०५) अभिधानराजेन्द्रः । सामेव भेदेनाऽऽह " 3 पञ्चोपचारयुक्ता का विचाटोपचारयुक्ता स्यात् । ऋद्धिविशेषादन्या पोका सर्वोपचारेति ॥ २ ॥ पोपचारयुक्त पञ्चाङ्गविपाकपा का विवाहोपचारयुक्ता स्यात् अष्टाङ्गप्रणिपातरूपा, ऋषिविशेषादन्या ऋद्धिविशेषो दशामादिगतः तस्मादपरा प्रोक, सर्वोपचारेति सर्वैः प्रकारैरन्तःपुरहस्त्यश्वरथादिभिरुपचारो विनयो यस्यां सा सर्वोपचारा ॥ तत्राद्या- " दो जाणू दोषि करा, पंचमयं दो मंत" एवमेत्रिः पञ्चभिरुपचारयुक्त - यथाभागमो पञ्चभिर्विनयस्यानैर्युक्ता । तद्यथा-"स हिचत्ताणं दव्वाणं विवसरण्याए, अच्चिताणं दव्वाणं - विसरण्याद एनसामियनं उत्तरागेणं फासे जलिपगणं मणसा एगसी नावकरणेणं " ॥ द्वितीया त्वष्टभिरः शरीरावयवैरुपचारो यस्याम् । तानि म्रयान"सीसमुरोरपिडी, दो बार ऊया महंगा।" तृतीया तु देवेयथोक्तमागमे सबलेणं सम्यमुदपणं सत्यविनूई सम्वरण"यादि ॥ ३ ॥ इयंानविन कार्या पुरुषेण च तदादन्यायार्जितेन परिशोधितेन विशेन निरवशेषेयम् । कर्त्तव्या बुद्धिमता, प्रयुक्तस सिद्धियोगेन ॥ ४ ॥ न्यायार्जित न्यायोपा सेन, परिशोधितेन नाविशेषात दिसेन द्रव्येण, निरवशेषा सकल्लेयं पूजा, कर्तव्या करणीया, बुद्धिमता प्रज्ञावता, प्रयुक्तसत्सिद्धियोगेन प्रयुक्तः वर्तितः सत्सिद्धियोगः सत्साधनव्यापारो येन स तथा ॥ ४ ॥ की प्रयत्नेन पुनः पुंसा करणीयेयमित्याहशुचिनाऽऽत्मसंयमपरं सितबुजवत्रेण वचनसारेण । आशंसारहितेन च तथा तथा भाववृद्धयोः ॥ ए ॥ शुचिनाइयतः स्नानेन देश सर्वस्वानाभ्यां देशस्नानं हस्त पादमुखप्रक्षालनं, सर्व स्नानं शिरसा स्नातत्वे सत्यागमप्रसिसिद्धया भावतः शुचिना भावनानेन विसायेनेत्य थेः । आत्मसंयमपरम् श्रात्मनः शरीरस्य संयमः संवृतातत्परं तत्प्रधानं यथा भवत्येचं पूजा क यासितवप्रेम भवत्रेण च सुतमिद सि साम्यदपि पट्टम्मादि रवीतादिव परिवा रेखा सारहितेन परलोकाचार्थसाथिकलेज तथा तथा भाववृद्धयोच्चैर्येन येन प्रकारे पुष्यादि विरचनागतेन भाववृद्धिः संपद्यते तेन तेन प्रकारेणे-त्यर्थः ॥ ५ ॥ प्रतिष्ठानन्तरं पूजा प्रस्तुता सा च पुष्पामिषस्तोत्रादिभेदेन बहुधा पुष्पादिपूजामनिधाय स्तोत्रपूजां कारि SS६ पिएम क्रियागुणगतैीरैव विधवसंयुक्तः । आशय विशुजिनके संवेगपरायणैः पुरुवैः ॥ ६ ॥ पापनिवेदनगरौंः प्रणिधान पुरस्परे चित्रा प्रस्खलितादिगुणयुतैः, स्तोत्रैश्च महामतिग्रथितैः ॥ ७ ॥ ३२२ चेहय पिएडं शरीरमहोतर लक्षणलक्षितं क्रिया समाचारका रितं तच सर्वातिशापि वरपरीषदोपसर्गसमुत्यभयविज्ञपित्वेन गुणाः कानविरतिपरिणामादयो जीवस्य सहि नोऽविनाभूताः सामान्येन, केवलज्ञानदर्शनादयस्तु विशेषेण, तद्गतैस्तद्विषयैस्तत्प्रतिवद्धैः, गम्भीरैः सूक्ष्ममतिविषय नावाज धायिभिरन्तर्भावप्रवर्तितैश्च, विविधवर्णसंयुकैर्विचित्राकरयोगेन्दोलङ्कारवशेन आशयविशु जिनके भावविशुद्धयापादकैः, संवेगपरायणैः- संवेगः संसारभयं, मोक्काभिलाषो वा, प मनं गमनं येषु तानि पनि संगे परायणानि संवेगरायणानि तैः पुण्यहेतुत्वात् पुण्यानि तैः ॥ ६॥ पापानां रागद्वेषमोस्वयं परमं दान्तर्गत भावो येषां तानि तैः पापनिवेदनः प्रणिधानात् पुरःसरैः, उपयोग प्रधानैरिति यावत् । विचित्रार्थैर्बहुविधार्थैः, अस्खलितादिगुणयुतैरस्खलितममिलितमन्यत्यामितमित्यादिगुणयुकैरभिव्याहारमाश्रित्य स्तोत्रे स्तुतिविरेविध महामतिप्रथितः महाबुद्धिपुरुषविरचिन्ह पूजा कर्तति पश्चात्संबन्धनीयम् ॥ ६-७ ॥ " कथं पुनः स्तोत्रेश्या पूजा नवतीत्याहशुभजावार्थं । पूजा, स्तोत्रेयः स च परः शुभो जवति । सदभूतगुणोरकीर्त्तन-संवेगात् समरसाऽऽपच्या || || (शुभेत्यादि) गुननावार्थं पूजा शुभभावनिमित्तं पूजा, सर्वाsपि पुष्पादिभिः स्तोत्रेभ्यः स्तुतिभ्यः स च भावः परः प्रह हः, शुभो भवति शुभहेतुर्जायते, एवं च पुष्पवस्त्रादीनामिव स्वोशणामपि प्राकनाध्यवसायापेक्षया गुमतरपरिणाम मियधनत्वेन पूजा हेतुत्वं सिद्ध्यति । कथं पुनः स्तोत्रेभ्यः शुभो नाथ स्याह-सद्गुणस्कीन संवेगात् द द्यमानानां तथ्यानां च गुणानां ज्ञानादीनां यत्कीर्त्तनं तेन संवेगो मुक्त्याला पस्तस्मात् समरसापत्या समभावे रसोभिलाषो यस्यां सा समरसा, सा चासावापत्तिश्च प्राप्तिरधिमतिरधिगम इत्यनर्थान्तरम् । तया हेतुनूतया समरसापत्त्या परमात्मस्वरूपगुणज्ञानोपयोगरूपया, परमार्थतस्तद्भवनेन तपुपयोगानन्यवृत्तितया स्तोत्रेभ्य एव शुभो भावो भवतीति तास्पर्यम् ॥ ८ ॥ 3 अधुना अन्यथा पूजाया एव भेदत्रयमाहकाया दियोगसारा, त्रिविधा तच्कुपात्तवित्तेन । या तदतिचाररहिता, सा परमाऽन्ये तु समय विदः ||६|| (कावेत्यादि) कायादयो योगाः कायादीनां वा तत्साश प्रधाना, त्रिविधा त्रिप्रकारा पूजा काययोगसारा, वाग्योगसारा, मनोयोगसारा च तच्छुद्धपात्तवित्तेन तेषां कायादियोगानां शुकः कायादिदोषपरिहारः, तयोपात्तं यद्वित्तं तेन करणभूतेनया ताररहिता निवारा, सा परमा प्र थाना पूजा सम्बे तु समयविद अपरे त्याचा भ दधति ॥ ए ॥ कायादियोगसारा त्रिविधा पूजेत्युकं तदेव विष्यमादविघ्नोपशमन्याचा, गीता ज्युदयमसाधिनी चान्या । निर्वाणखापनीति च फलदा तु यथार्थसंज्ञाभिः ।। १० ।। (विनेत्यादि) विघ्नानुपशमयतीति विघ्नोपशमनी, आद्या का Page #1309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेइय योगसारा कथिता अयु प्रसाधयतीत्यभ्युदय साधनी चान्याऽपरा वाग्योग प्रधाना, निर्वाणं साधयतीति नि र्वाण साधनीति च मनोयोगसारा, स्वतन्त्रा वा त्रिविधा, फलदा तु देवैका यथार्थाभिरन्यर्थाभिधानः॥ १०॥ तिसृष्वपि यद् भवति तदाहप्रवरं पुष्पादि सदा, चाद्यायां सेवते तु तद्दाता | मानयति चान्यतोऽपि हि नियमादेव द्वितीयायाम् ॥ ११ ॥ त्रैलोक्य सुन्दरं यद्, मनसाऽऽपादयति तत्तु चरमायाम् । भखिगुणाधिकसयोगसारसयागपरः ।। १२ ।। प्रवरं प्रधानं पुष्यादि पुष्पगन्धमाख्यादि, सदा च सर्वदेव मा. द्यायां प्रथमायां, सेवते तु सेवते एव ददात्येव तद्दाता तस्याः पूजायाः कर्त्ता दाता, धनपतिन्त्र स्वरात् प्रस्तुतं पुष्पादि नियमानेव विषमेनैव द्वितीयायां पूजायाम ॥११॥ वैखोयसुन्दरं त्रिषु लोकेषु प्रधानं यत् पारि जातकुसुमादि नन्दनादिवनगतं मनसाःकरणे आपा ति संपादयति, तत्तु तदेव, चरमायां निर्वाणसाधन्यां तद्दातेसंयते । श्रयमेव विशिष्यते-अखिलेगुणैरधिकं द्योगानां सद्धर्मव्यापाराणां सारं फलकल्पमजरामरत्वेन धर्मस्य सारोऽमरत्वमिति तस्वम् । सद्योगसारं यत् सद् ब्रह्म परमात्मस्वरूपं तस्य यागो यजनं, पूजनं तत् तत्परस्तत्प्रधानः प्रस्तुतस्तद्दाताऽखित्रगुणाधिक सद्योगसारसद्ब्रह्मयागपर उच्यते ॥ १२ ॥ पो० ६ विव० । ( १२८६ ) अभिधान राजेन्द्रः । 3 श्रकृतादिपूजास्तत्र दृष्टान्ताश्च । जिनप्रतिमापूजाविधिमाहमक्खधूवेहिं, दीवयवासेहिँ सुंदरफलेहिं । या पवसझिले, अविद्या तस्स कायच्या ॥ २४ ॥ कुसुमाकृतधूपैः पुष्पशास्याचमन्दुकृष्णागुरुसारपूपैः, दोषः प्रदीपो गन्धाः सुगन्धिसारम्यनिष्पन्नानेक सुन्दरफलैः पचित्रसुगन्धिमनोहरा तिचीनार जपूरकादिभिः, पूजा सपर्या, घृतं सर्पिः, उपलक्षणं चैतत्-समस्तनैवेद्यपकाचादेः खलि जलं ताभ्याम् अष्टविधाऽष्ट उपास्य मिश्रामादमेदभिजननयनमध्यगतनावाप्यगपाध्यारोपणसहाद्-विभ्यस्य कर्त्तव्या कार्या भवतीति गायार्थः ॥ २४ ॥ अथैतस्या पाटपूजायाः फलोपदर्शनप्रतिद्धन्ि न्तरोपरिचितानि धिकजनात्यन्तादरातिशयात्पादनार्थं सन्ति कथानकानि । दर्श० । ( तानि च ग्रन्थगौरवभयादत्र न प्रदर्शयामः तद्दिदर्शन "हुलपरिमलेक्षतेपदापै साः प्रायभेदेपितैः फलैध अम्भःसंपूर्णपात्रैरिति हि जिनपतेरचनामष्टदां, कुर्वाणा वेश्मभाजः परमपदसुखस्तोममारालभन्ते ॥ १ ॥ नव निधियानां पूजादिकरणे न काचित्कतप्राप्तिरिति वाध्यम विन्तामय यदुवीरागस्तो श्रीमनि "अप्रसन्नात्कथं प्राप्यं फलमेतदसङ्गतम् । चिन्तामा निवेतन ११०२० चेइय (ताजा) राजादिनानि जिनपूजारातो बिना जिनगृहे विविधप्रतिमाऽपेक्षया मनित्यरूपे पञ्चचिपे तु नानावि बिना जिनस्य भगवतः पूजनं पुष्पादिभिरज्य स्तुतिर्गुणोत्कीर्त्तनमित्यर्थः । तच्च जघन्यतो नमस्कारमात्रमुपथिकप्रतिक्रमणपूर्व शतवादि निकै रिति अत्र विधिना जिनगृहे गमनमुक्तम् । तद्विधिश्व यदि राजा महेकिंकरता " सच्चा हद्दीय सम्बाद हुई सत्यपरिसेणं इत्यादिवचनात् प्रनादनानिमि ययाति प्रथ सामान्यवितवस्तदीयपरिहारेण बधाउनु रूपामम्बरं बिभ्रत् मित्रपुत्रादिपरिवृतो याति; तत्र गतश्चपुष्पताम्बूनादिसचित्तद्रव्याणां परिहारेण १, किरीटवर्जशेषाभरणाचा द्रयाणामपरिहारण २ ते सङ्गत पुरुषं प्रति तु सविशेष नयावनततनुलतो ३, दृष्टे जिनेन्द्रे अञ्जलिबन्धं शिरस्यारोपय"नमो जिणा" इति स्त्रीणां निषिद्धः। तथा च तत्पाठः- "एकशाटकोत्तरासङ्गकरणं जिनेन्द्र शिरस्यचेति ही पुरुषमा की स्त्री " तथा चागमः" विणणयाए गायलडीए " ति । तावता शक्रस्तवपाठादावप्यासां शिरस्यज्ञ्जलिम्यासो न युज्यते, तथाकरणेऽङ्गदादिदर्शनप्रतेय "करयल जान कट्टु एवं बधासी" इत्युकं द्रौपदीप्रस्तावे तद्भक्त्यर्थे न्युञ्छनादिवदऽजलिभ्रमणसूचनपरं, न तु पुरुवैः सर्व साम्यार्थी, न च तथा स्थितस्यैव सूत्रोच्चारख्यापनपरं वा नृपपिनादाप्यादी तथा भणनात्या युक्तप्रायं परिज्ञाय्यमत्रमविरोधेनेति मनका कुर्य निति पञ्चविधाभिगमेन नैषेधिकीपूर्व प्रविशति । यदाह - " स शिवा दम्या विसरणार १, अधिया उसरणदा २ गङ्गसामपर्ण उत्तरागेणं ३, चक्काले अंजलिपगादेनं ४ मसोसकर ति" ५। राजादिस्तु प्रथितत्काल राजचिह्नानि त्यजति यतः" अप दहु रायककुआ - पंचवरकुआ । वत्सोवा म पर वह सामराम्रो अवारे प्रवेशे मनायै गृहव्यापारो निषिध्यते इति ज्ञापनार्थे नैधिकीत्रयं क्रियते, प मेवैषा गण्यतेादय्यापारस्यैकस्यैव निधिरवातः कृतायां नैषेधिक्यां] सावद्यव्यापारवर्जनमेव न्याय्यम्; अन्यथा तद्वैयपत्तेः तदित्ये "मिहो कहाओ वाओ, जो छ जिणालए। तस्स निसीदिश्रा हो, इइ केवलिभासि ॥१॥ इति । ततो मूलविम्वस्य प्रणामं कृत्वा सर्वे हि प्रायेणोत्कृष्टं वस्तु श्रेयस्कामै किन विधेयमित् I भागे करोति । विम्बं कुर्वन् दारानार्थ प्रदक्षिणाश्रयं उक्तं च ' तत्तो नमो जिणाएं, ति भणिअ अकोणयं पणामं च । कार्ड पंचगं वा, भक्तिन्नरनिभरमणेणं ॥ १ ॥ पूगपाणिपरिवारपरिय महिमहरघोसेणं । पदमाशो जनगणना २ कर पपाणिरत दिखा वाहिति एामणो जिप गुणेसु ॥ ३ ॥ Page #1310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेइय (१२७७) अनिधानराजेन्द्रः। चेइय गिहचेश्पसु न घम, इअरेसु वि ज वि कारणवसेणं ।। उक्तमपितह वि न मुयर मश्मं, सया वि तकरणपरिणामं ॥४॥" "उचिअत्तं पूनाप, विसेसकरणं तु मूत्रबिंबस्स । प्रदक्षिणादाने च समवसरणस्थचतूरूपं श्रीजिनं ध्यायन ग. जं पम तत्य पढम, जणस्स दिछी सह मणेण ॥१॥" प्रागारदक्विणपृष्ठवामदिकत्रयस्थबिम्बत्रयं वन्दते; अत एव सवस्थापि चैत्यस्य समयसृतिस्थानीयतया गर्भगृहबाहि गदि शिष्यःत्रये मूल बिम्बनाम्ना बिम्बानि कुर्वन्ति । एवं च-"वर्जयेदर्हतः "पूआवंदणमाई, काऊणेगस्स सेप्तकरणम्मि । पृष्ठम्" इत्युक्तोऽहत्पृष्ठनिवासदोषोऽपि चतुर्दिक निवर्तते,ततश्चै नायगसेवगभावो, होइ को लोगनाहाणं ॥२॥ त्यप्रमार्जनपोतकलेख्यकादिवक्ष्यमाणयथोचितचिन्तापूर्व वि एगस्सायरसारा, कीर पूआऽवरेसिं थोषयरी । हितसकलपूजासामग्रीको जिनगृहव्यापारनिषेधरूपां द्वितीयां पसा वि महावन्ना, लक्खिज्जइ निउणवुझीहिं ॥३॥ नैपेधिकी मुखमएकपादौ कृत्वा मुलबिम्बस्य प्रणामत्रयपूर्वकं आचार्य:-- पूर्वोक्तविधिना पूजां कुरुते। नायगसेवगबुडी, न होरे एएसु जाणगजणस्स। यद्भाष्यम् पिच्छंतस्स समाणं, परिवार पामिहोराई॥४॥ "तत्तो निसीहिआए, पविसित्ता मंडवम्मि जिणपुरो । ववहारो पुण पढम, पट्टिनो मूलनायगो एसो। महिनिहिअजाणुपाणी, करे विहिणा पणामतिगं ॥१॥ अवणिज्ज सेसाणं, नायगभावो न उ णतेणं ॥५॥ तयणु हरिसुल्लसंतो, कयमुहकोसो जिणिदपडिमाणं । वंदणपूश्राबलिढो-अणेसु पगस्त कीरमाणेसु । अबणेश रयणिवसिअं; निम्मलं लोमहत्येणं ॥२॥ प्रासायणा न दिट्ठा, उचिअपवित्तस्स पुरिसस्स ॥६॥ जिणगिहपमजणतो, करेइ कोरेइ वा वि अनेणं । जह मिम्मयपडिमाणं, पूमा पुप्फाइपहिं खलु उचित्रा। जिणबिंबाण पुरंतो, विहिणा कुणई जहाजोग"॥ ३ ॥ कणगानिम्मिश्राणं, उचितमा मज्जणाई बि॥७॥ अत्र च विशेषतः शुद्धगन्धोदकप्रकालनकुङ्कमामिश्रगोशीर्ष- कद्वाणगाइ कज्जा,एगस्स विसेसपूप्रकरणा वि। चन्दनविलेपनाङ्गीरचनगोरोचनमृगमदादिपत्रभङ्गकरणनाना-- नावन्नापरिणामो, जह धम्मिजणस्स सेसेसु ॥८॥ जातीयपुष्पमालारोपणचीनांशुकवस्त्रपरिधापनकृष्णागुरुमिश्र - उचिअपवित्तं एवं, जहा कुणंतस्स होइ नावन्ना। कपूरदहनानेकदीपोद्योतनस्वच्छाखएमावताष्टमङ्गलाझेखन-- तह मूलबिंबपूत्रा, विसेसकरणे वि तं नऽस्यि ॥ ६ ॥ बिचित्रपुष्पगृहरचनादि धेयं; यदि चप्राक केनापि पूजा कृता जिणनवणबिंबपूत्रा, कीरंति जिणाण नो कप किं तु । स्यात्तदा विशिष्टान्यपूजासामग्न्यन्नावे तां नौत्सारयेत् भव्या- सुहभावणानिमित्तं, बुहाण इयराण बोहत्थं ॥१०॥ नां तदर्शनजन्यपुण्यानुबन्धिपुण्यबन्धस्यान्तरायप्रसङ्गात् , किं चेहरण के, पसंतरूण के बिंबेणं । तु तामेव विशेषयेत् । पूभाएँ सया अने, अन्ने बुझंति उबएसा ॥ ११॥" यदू बृहद्भाध्यम इति पूर्व मूल बिम्बपूजा युक्तिमत्येवेत्यलं प्रसङ्गेन । सविस्तर"अह पुष्वं चित्र केणइ, हविज पूआ कया सुविहवेण । पूजाऽवसरेच नित्यं विशेषतश्च पर्वसु त्रिपश्वसप्तकुसुमाअलिप्रतं पि सविसेससोहं, जह हो तहा तहा कुज्जा ॥१॥ केपादि पूर्व भगवतः स्नात्रं विधेयम्। निम्मलं पि न एवं, जन्नइ निम्मल्लमक्खण्णाभावा। तत्रायं विधिः योगशास्त्रवृत्तिश्राविधिवृत्तिलिखितःभोगविणटुंदव्वं, निम्मा बिति गीअत्था ॥२॥ इत्तो चेव जिवाणं, पुणरवि प्रारोवणं कुणंति जहा । प्रातः पूर्व निर्माल्योत्सारणं प्रक्षालनं संक्षेपपूजा आरात्रिकं वत्थाहरणाईणं, जुगलिअकुंमलिअमाईणं ।। ३॥ मङ्गलप्रदीपश्च, ततः स्नात्रादिसविस्तरद्वितीयपूजाप्रारम्ने देवस्य पुरः सकुङ्कुमजल कलश स्थाप्यः। कहमन्त्रह पगाए, कालाईए जिणिदपडिमाणं । ततःअट्ठसयं लूहंता, विजयाई वलिया समप" ॥४॥ एवं मूलबिम्बस्य विस्तरपूजानन्तरं सृष्टया सर्वापरबिम्बपूजा "मुक्ताऽलङ्कारसारं सौम्यत्वकान्तिकमनीयम् । यथायोग कार्या, द्वारबिम्बसमवसरणविम्बपूजाऽपि मुण्यबिम्ब सहजनिजरूपनिर्जित-जगत्त्रयं पातु जिनबिम्बम्" ॥१॥ पजाद्यनन्तरं गर्भगृहनिर्गमसमये कर्तव्या संभाव्यते, न तु प्र इत्युक्त्वाऽलङ्कारोत्तारणम् । वेशे, प्रणाममात्र वासन्नार्चादीनां पूर्वमपि, एवमेव तृतीयोपाङ्गा " अवणिअकुसुमाहरणं, पयइष्टुिअमणोहरच्छायं । दिसंवादिन्यां सङ्घाचारोक्तबिजयदेववक्तव्यतायामित्यमेव प्र जिणरूवं मजणपी-उसंविधं वो सिवं दिसंब" ॥२॥ तिपादनात्। इत्युक्त्वा निर्माल्योत्तारणम् । ततः प्रागुक्तकलशढाबनं, पूजा तथाहि च । अथ धौतधूपितकलशेषु स्नात्राहसुगन्धिजलक्षेपः, श्रेण्या "तो गंतु सुहम्मसहं, जिणस्स कयदसणम्मि पणमित्ता। तेषां व्यवस्थापन, सवस्त्रेणाच्छादनं च,ततः स्वचन्दनधूपादिना उग्घामित्तु समुग्गं, पमज्जए लोमहत्येणं ॥१॥ कृततिलकहस्तककणहस्तधूपनादिकृत्याः श्रेणिस्थाः श्रावकाः सुरहिजलेणिगवीसं, वारा पक्खालिआऽणुलिपित्ता। कुसुमाञ्जलिहस्ताः पागन् पठन्ति । गोसीसचंदणणं, ता कुसुमाईहिं अश्वे ॥१॥ तत्रतो दारपमिमपूत्रं, सहासुहम्माइसु वि कर३ पुवं । " सयपत्तकुन्दमालइ-बहुविहकुसुमारे पंचवन्नाई। दारच्चणा सेसं, तरउवंगाउ नायव्वं" ॥३॥ जिणनाहन्हवणकाले,दिति सुरा कुसुमंजलीहत्था ॥ ३॥" तस्मान्मूलनायकस्य पूजा सर्वेन्योऽपि पूर्व सविशेषा हि कार्या।। इत्युक्त्वा देवस्य मस्तकेषु पुष्पारोपणम् । Page #1311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२००) चेश्य अनिधानराजन्द्रः। चेश्य "गंधाइक्विप्रमहुअर-मणहरझंकारसहसंगीश्रा। तित्यपवत्तपसमए, तिप्रसविमुक्का कुसुमवुट्ठी" ॥१॥ जिणचनणोवरि मुक्का, हरठ तुह कुसुमंजली दुरिमं" ॥१॥ इत्युक्त्वा प्रथमं कुसुमवृष्टिः । श्त्यादिपावैः प्रतिगाथादिपाठं जिनचरणोपरि श्रावकेण ततःकुसुमाञ्जलिपुष्पाणि केप्याणि, सर्वेषु कुसुमाञ्जलिपाठेषु " उप्रहपमिनग्गपसरं, पयाहिणं मुणिव करेकणं । तिलकपुष्पपत्रधूपादिविस्तरो केयः । अथोदारमधुरस्वरेणा पडा सहोणतणल-जिअं च लोणं हुअवहम्मि" ॥१॥ धिकृतजिनजन्माभिषेककलशपाठः, ततो घृतेरसपुग्धदाधि इत्यादिपाठविधिना जिनस्य त्रिः पुष्पलवणजलोत्तारणादि सुगन्धिजलपञ्चामृतैः स्नात्राणि, स्नात्रान्तरालेषु च धूपो देया, कार्य, ततः सृष्टषा पूजयित्वा आसक्किसधूपोरकेप उभयत स्त्रकालेऽपि जिनशिरः पुष्पैरशून्यं कार्यम् । उच्चैः सजलधारं परितः श्राकैः प्रकीर्यमाणपुष्पप्रकरयदाहु,दिवेतालाः श्रीशान्तिसूरयः "मरगयमणिघमिप्रविसा-लयालमाणिकममित्रपईयो। "प्रास्नात्रपरिसमाप्ते-रश्न्यमुष्णीषदेशमीशस्य । न्हवणपरकरुक्खित्तो, नमउ जिणारत्तिअं तुम्हं" ॥४४॥ सान्तानाद् धारा-पातं पुष्पोत्तमैः कुर्यात्" ॥१॥ श्त्यादिपाठपूर्व प्रधानन्जाजनस्थं सोत्सवमुत्तार्यते त्रिवारम् । स्नात्रे च क्रियमाणे निरन्तरं चामरसंगीततूर्याधामम्बरः यदुक्तं त्रिषष्टीयादिचरित्रेसर्वशक्त्या कार्यः, सर्वैः स्नात्रे कृते पुनरकरणाय शुद्धजलेन " कृतकृत्य श्वाथाऽप-सृत्य किञ्चित्पुरन्दरः । धारा देया। पुरोभूय जगद्भर्तु-रारात्रिकमुपाददे ॥१॥ ज्वलहीपत्विषा तेन, चकासामास कौशिकः। तस्पास्वायम् प्रास्वदोषधिचक्रेण, ऋङ्गेणैव महागिरिः ॥ २॥ " अभिषेकतोयधारा, धारेव ध्यानमएमलाग्रस्य। श्रद्धालुनिः सुरवरैः, प्रकीर्णकुसुमोत्करम् । जवभवनन्नित्तिनागान्, भूयोऽऽपि भिनत्तु नागवती ॥१॥" भर्तुरुत्तारयामास, ततस्त्रिदशपुङ्गवः" ॥ ३ ॥ ततोऽङ्गरूकणविलेपनादिपूजा प्राक्पूजातोऽधिका कार्या, मङ्गलप्रदीपोऽप्यारात्रिकवत्पूज्यतेसर्वप्रकारैर्धान्यपक्वान्नशाकविकृतिफलादिभिर्यसिदौकनं, काना "कोसंबिसंचिअस्त य, पयाहिणं कुण मनिअपश्वो। दिरत्नत्रयान्यस्य लोकत्रयाधिपतेनंगवतोऽप्रे पुजत्रयेणोचतं जिण ! सोमदंसणे दिण-यरु व्व तुह मंगलपश्चो॥१॥ स्नात्रपूजादिकं पूर्वश्रावकैवृद्धलघुव्यवस्थया, ततः श्राविकाभिः कार्य,जिनजन्ममहेऽपि पूर्वमच्युतेन्छः परिवारयुतः, ततो यथा जामिजंतो सुरसुंदरीहिँ तुह नाह ! मंगलपश्यो। क्रममन्ये इन्द्राः स्नानादि कुर्वन्ति, स्नात्रजलस्य च शेषावत् कणयायलस्स नजद, भाणु ब्व पयाहिणं दितो" ॥॥ शीर्षादौ केपेऽपि न दोषः संभाव्यः। इति पाठपूर्व तथैवोत्तार्यते,देदीप्यमानो जिनचरणाने मुच्यते, पारात्रिकं तु विध्याप्यते, तेन न दोषः, प्रदीपारात्रिकादि च यदुक्तं हैमश्रीवीरचरित्रे"अभिषेकजसं तत्तु, सुरासुरनरोरगाः। मुख्यवृत्या घृतगुडकपूरादिभिः क्रियते, विशेषफलत्वात् । ववन्दिरे मुहुः सर्वाङ्गीणं च परिचिक्षिपुः ॥१॥" लोकेऽप्युक्तम्श्रीपद्मचरित्रेऽप्येकोनत्रिंशे उद्देशे आषाढशुक्माष्टम्या प्रारभ्य "पुरः प्रज्ञातदेवस्य, कर्पूरेण तु दोपकम् । दशरथनृपकारिताष्टाहिकाचत्यस्नात्रमहाधिकारे अश्वमेधमवाप्नोति, कुलं चैव समुकरेत्" ॥१॥ "तं राहवणसंतिसलिलं, नरवश्णा पेसि सभजाणं । अत्र मुक्तालङ्कारेत्यादिगाथाः श्रीहरिजमसूरिकृताः संभाव्यन्ते, तरुणवलयाहि नेऊ, बूढं चित्र उत्तमंगेसु ॥१॥ तत्कृतसमरादित्यचरित्रग्रन्धस्यादौ-"उवणेन मंगलं वो,” इति कंचुश्हत्योवगयं, जाव य गंधोदयं चिरावे। नमस्कारदर्शनात् । एताश्च गाथा:श्रीतपापक्कादौ प्रसिका तिन ताव य वरगा महिसी, पत्ता सोगं च कोहं च ॥२॥ सर्या लिखिताः,स्नात्रादौ सामाचारीविशेषण विविधविधिदसा कंचुश्णा कुद्धा, अहिसित्ता तेण संतिसलिलेणं । र्शनेऽपि न व्यामोहः कार्यः,अर्हद्भक्तिफलस्यैव सर्वेषां साध्यत्वातिचविय माणसग्गी, पसन्नहिया तो जाया"॥३॥ त् । गणधरादिसामाचारीष्वपि भूयांसो नेदा नवन्ति, तेन यवृहच्चान्तिस्तवेऽपि शान्तिपानीयं मस्तके दातव्यमित्युक्तम् । घदू धर्माद्यविरुकमक्तिपोषक तत्तन्न केषामप्यसंमतमा एवं श्रूयतेऽपि जरासन्धमुक्तजरयोपद्रुतं स्वसैन्यं श्रीनेमिगिरा कृ. सर्वधर्मतत्वेष्वपि शेयम् । इह लवणारात्रिकाद्युत्तारणं संप्रदाप्णेनाराधनागेन्डात्पाताल स्थश्रीपार्श्वप्रतिमां शश्वेश्वरपुरे आ येन सर्वगच्छेषु परदर्शनेवीप च सृष्टौ च क्रियमाणं दृश्यते। नाय्य तत्स्नपनाम्बुना जिनदेशनासानि नृपाद्यैः प्रक्रिप्तं, क्रू श्रीजिनप्रभसूरिकृतपूजाविधी त्वेवमुक्तम्ररूपं बलिमर्धपतितं देवा गृहन्ति, तदाई नृपः, शेष "लवणाणुसरणं, पलित्तयं सरिमाइपुरिसहि । तु जनाः, तत्सिक्थेनाऽपि शिरसि क्षिप्तेन व्याधिरूपशा- सिंहारेण अणुन्ना-यं समप सिट्टिनं सम्म" ॥१॥ इति । म्यति, षण्मासाँश्चान्यो न स्यादित्यागमेऽपि, ततः सद्गुरु- स्नात्रकरणे च सर्वप्रकारसविस्तरपूजाप्रनावनादिसंजवेन प्रे. प्रतिष्ठितः प्रौढोत्सवानीतो सुकूलादिमयो महाध्वजः प्रदक्षि- त्य प्रकृष्टफलं स्पष्टं, जिनजन्मस्नात्रकर्तृचतुःषष्टिसुरेन्झाचणात्रयादिविधिना प्रदेयः, सर्वैर्यथाशक्ति परिधापनिका च नुकारकरणादि चात्रापीति स्नाप्रविधिः । ध०२ अधि। मोच्या । अथाऽऽरात्रिकं समङ्गलदीपईतःपुरस्तायोत्यम, विवसनैः सहाभरणविषयकः शास्त्रार्थ:आसन्न च वहिपात्र स्थाप्यम् । तत्र लवणं जलंच पात- यदपि जगवत्प्रतिमाया न जूषा आभरणादिभिावधयति यिष्यते । स्वाग्रहावष्टब्धचेतोभिर्दिगम्बरैरुच्यते, तदप्यहत्प्रणीताS5"उवणेउ मंगलं वो, जिणाण मुहलालिजालसंवलिआ। मापरिज्ञानस्य विजृम्नितमुपलदयते, तत्करणस्य बयभा Page #1312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ येश्य निमिया कर्मकारणत्वात् तथादि भगवति सायाभूषणायारोपणं कर्मक्कयकारणं कर्तुर्मनःप्रसादजनकं, कुङ्कुमाद्यालेपनवत् । न च व्रतावस्थायां भगवता भूषणादेरेनङ्गीकृतत्वात् न तत्प्रतिकृतौ तद्विधेयं, संमज्जनाङ्गरागपुष्पादिधारणस्यापि तथावस्थायां भगवताऽनाश्रितत्वान्न तत् तत्र विधेयं स्वाद अस्तकादिषु कदाचिदिनिस्तस्य वि हितत्वात् अस्मदादिभिरपि कृतानुकरणादिभिः प्रयोजनैस्तत विधीयते तत एवाऽऽनरादिभिर्विनृपादिकमपि चि धेयम्, कृतानुकरणादेः समानत्वात् । एवमन्यदप्यागमबाह्यं स्वमनीषिका परपरिकल्पितमागमयुक्तिप्रदर्शन प्रतिषेषव्यं न्यायदिशः प्रदर्शितताद परिनाचितागमतात्पर्या दिग्वासस एवाप्ताज्ञां विगोपयन्तीति व्यव स्थितम् । सम्म० २ काएम । विविधप्रतिमानम ( १२८६ ) अभिधान राजेन्द्रः । 1 , प्रतिमाश्च विविधास्तत्पूजाविधौ सम्यक्त्वप्रकरण इत्युक्तम्"गुरुकारिआइ के अन्यकारिकार त विदिकारिश्राइ भन्ने, पडिमाए पुत्रणविहाणं ॥ १ ॥ " गुरवो मातृपितृपितामहादयः, तैः कारितायाः केचित् अन्ये स्वयं कारितायाः, विधिकारिताबास्त्वन्ये प्रतिमायाः, तत्पूर्वा निहित, पूजाविधानंति कमिति शेषः स्थितस्तु गु तस्यानुपयोगित्वात्तेन सर्वप्रतिमा अि शेषेण पूजनीयाः । न चैवमविचितामपि पूजयतस्तदनुमतिद्वा रेणाऽङ्गदोषाऽऽपत्तिः आगमप्रामाण्यात्। , तथाहि श्री कल्पवृद्भाष्ये " निस्सकडम निस्सकमे, चेईए सबहिं थुई तिनि । वेल्लं व श्राणि श्र, नाउं इक्विक्किश्रा वा चि ॥ १ ॥ " निश्राकृते गच्छप्रतिबद्धे, अनिथाकृते तद्विपरीते, चैत्ये सर्वत्र तिस्रः स्तुतयो दीयन्ते । अथ प्रतिचैत्यं स्तुतित्रये दीयमाने वेलाया अतिक्रमो भवति सूर्यासि वा तत्र ततो सत्यान ज्ञात्वा प्रतिचत्यमेकैकाऽपि स्तुतिर्दातव्या ॥ १ ॥ अर्थ चैत्यगमनादिविधि सर्वोऽपि ऋद्धिप्रामाि यो योगसंस्तु विवादाद्ययुक्तः सामायिकं कृत्वा केनापि सह साधुवाति स च पुष्यादिसामम्म्याचा व्यपूजायामशक्तः सामायिकं पारयित्वा कायेन यदि पुष्पप्रथनादि क र्त्तव्यं स्यात् तदा तत् करोति । न च सामायिकत्यागेन द्रव्यस्तयस्य करणमनुचितमिति शयम सामायिकस्य स्वायत्तता शेष करत्यात्यकृत्यस्य च समुदायादान काहा ताशा महाफलरवेन प्रतिपादनाथ । यतः पद्मचरित्रे "मणला होइ चउत्थं, छठफलं श्रिस्स संभव । गमणस्स पयारम्भे, होइ फलं ग्रहमोवासो ॥ १ ॥ गमयेदसमं तु भवे, तह चैव चाल गर किंचि मोमायुववासं च विमि ॥ २ ॥ संपवणे, पावर समाधिं फलं पुरखो। तु फलं दास्सो लहर ।। ३ ।। पायाखणेण पावर, वरिलसयं तं फलं तो जिणे महिए । पावर वरिससहस्सं अणतपुष्षं जिणे युमिए ॥ ४ ॥ 1 ३२३ बेश्य सयं पमजणे पुष्पं, सहस्सं च विलेवणे । सयसाहस्तिया माला, अनंतं गीश्रवाइयं " ॥५॥ इति । प्रस्तावे च तस्मिन् किमा विशेषपुरायामः । यदागमः" जीवाण पोदिलाजो सम्म हो पियकरणं । आणा जिदिभत्ती, तित्थस्स पभावणा चेव " ॥ १ ॥ मने गुणाः ततस्तदेव कर्त्तव्यमय दिन "एवं तु विधियो रिकमंतस्स देखियो। इरो निअगेदम्मि, काउं सामाध्यं वयं ॥ १ ॥ जश् न कस्संइ धारेद्द, न वि वाओ वि विज्जए । उतो सुसाहु व गच्छप जिणमंदिरे ॥ २॥ कापण अस्थि जर किंचि, कायव्यं जिणमंदिरे | तो सामाइ मोतुं करेज करणिज्जर ॥ ३ ॥ " अत्रय सुर्वे विधिना जिनस्य पूजनं वन्दनं कादिचतुर्विंशतितमः संपूर्ण बन्दना कितः ०२ अधि० 'वैश्य' शब्दे दश चन्दनम् अष्टपुष्पी पूजा 'मी' शब्दे प्रयममागे २४४ पृष्ठे व्याख्याता 1 श्रसायणा' शब्दे द्वितीयभागे ४७८ पृष्ठे - त्यस्योत्कृष्टमध्यम जघन्या श्राशातना उक्ताः ) जिनेन्द्रस्य पुरता सिविधानम मलिया के निसेति सिक्षिकरणं । सेपि न जुचं जम्दा णि कप्पाही ॥१॥ श्रमलितच्छेदग्रन्था अनभ्यस्तच्छात्राः केऽपि निषेधयन्ति, सिद्धबलिकरणं जिनेश विश्वस्य पुरतो राद्धबालविधानं तदपि पस्माद् प्रणितमु कल्यादिचूर्ण, आदिशब्दादावश्यकपरिग्रह इति मायार्थः ॥१॥ तटुक्तमेवार्थत आह तं सिर जस्स सिरे दिन पसति तस्स वाडीओ। पुनुपपन्ना न नवा, न हुंति अन्ना तु छम्मासं ॥२॥ राति सि जनप्रतीतं चेदनिर्दि नाम्नः शिरसि मस्तके दीयते स्थाप्यते प्रास्यन्ति उपशमं यान्ति, तस्य शिरसि सिक्थविधातुः, व्याधयो रोगाः, किंविशिष्टा इत्याह-पूर्वोत्पन्नाधिरप्ररुाना नूतनाप्न भवन्ति न जायन्ते, अम्बे पूर्वचिणाः कियत्कालं यावदित्यादमा जन प्रीतम्। तथा च तत: सत्यं देवमच्चू रायमच्चू वा" इत्यादि यावत् "तं तु सित्थं जस्स मत्थर छुम्भ, तस्स पुण्युपन्ना वाही उबसमति " इत्यादि । श्रयमनिप्रायः यदि राद्धं न स्यात् सत्यमिति नानविध्यत् । न च सिक्थं मात्रमिति वा स्याह तथादितत्र "दुव्वलिखमिय" इत्यादिसर्वे निष्पादनविधिं प्रतिपाद्योकं "बिकाऊ चि " अत्र सिद्धशब्देन रन्धनमेव वाच्यं न पुनरनिष्पन्नं विधे सर्वस्य पूर्व प्रतिपादितत्वात स्मात् स्थितमत्र सिद्धो बलिः सर्वज्ञपुरतो विधीयते उत्सर्गत इति गाथार्थः । जीवा० १० अधि० । तत्र (२८) अथ हरपुर हीरविजयकृतोत्तराणजनप्रतिमानां साम्येाभरणानि प्रतिदिनं परिचाप्यन्ते अथ तेषां निर्माल्यता कथं न भवति ? इत्येतदाश्रित्य शास्त्रमध्ये 3 Page #1313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६०) अभिधानराजेन्छ । इय कथित योगरूपं तद् निर्मायमिति तेनाभ रणानां भोगविनष्टत्वाभावन निर्माल्यता न भवतीति ज्ञेयमिति । २ प्र० । ही० ४ प्रका० । परमके तपापीयाः स्वकीयेषु परकीयेषु वा वैत्येषु चन्दनादि करोति तत्र स्वकीयेषु यथा लाभस्तथा श्रीपरमगुरुपादेरादेयतयाऽऽदिषु परकीयेध्यपि लाभ प ज्ञातोऽस्ति न तु पा पम् । १४ प्र० ही ० १ प्रका० । काजकोकरणम् अन्यच्च चतुर्मासकमध्ये जिनगृहे देववन्दनं साधूनां श्राद्धानां च काकोद्धरणपूर्वकमेव युक्तिमत् ||४|| जिनगृहे रात्रौ नाट्यादिविधेर्निषेधो ज्ञायते । यत उक्तम्- " रात्रौ न नन्दिर्न बलिः प्रतिष्ठा, न स्त्रीप्रवेशो न च लास्यकीला ॥ " इत्यादि । किं च क्वापि तीर्थादौ तत्क्रियमाणं दृश्यते, तत्तु कारणिकमिति बोध्यम् । ५ प्र० । ही० २ प्रका० । प्रतिमानां चक्षुरादिकरणम जिनप्रतिमानां चक्षुरादिसंयोजनमाश्रित्य से निपुणाः श्राद्धाः सन्ति तैः रालतैले मेलयित्वा भूयो वर्त्तयित्वा तद्रसेन चरादिसंयोजयन्ति न तूप्यकारसेन तथाकरणे अशातनादोषप्रसङ्गादिति । २ प्र० । ही० ३ प्रका० । साधारणप्रासादे प्रतिमा: साधारणप्रासादे प्रतिमायां कार्यमाणायां ग्रामनाम्ना प्रतिमा चिलोपले उत्तराशिताना दिसता ग्रामनामेकमेव राशिनाम वियते तेन यथा युक्तं नयति तथा प्रसाद्यमिति प्रश्ने, उत्तरम् अत्र साधारणप्रासादे प्रतिमायां कार्यमाणायां ग्रामनाम्ना प्रतिमा विलोक्यत इति युक्तं ज्ञा यते इति । २५ प्र० । ही० ४ प्रका० । गुर्वाज्ञया चैत्यपूजाचेत्यादिधर्मकार्य कधी शक्तिमान् आका सांनिध्यम, माध्यस्थ्यम्, विकारं वा भजते, तदा लाभो भ यति न वेति प्रश्ने, उत्तर-त्यादिधर्मकार्य कुर्वतां तेषां श्रीपरमगुरुपादे रादेयतयाऽऽदिष्टचैत्यादि धर्मकार्ये सांनिध्यक मायाति सुन्दरं तदितरकार्ये तु माध्यस्थ्यमेव न तु क्वापि वैपरीत्यकरणेन विरोधोत्पादनं श्रेयसे । ही० १ प्रका० । रात्रावारात्रिकम् कानां रात्री जिनालय द्वाराधिकोत्तारणं युक्तं न वा इति प्रश्ने, उत्तरम् - श्राकानां जिनालये रात्रौ आरात्रिकोत्तारणं कारणे सति युक्तिमद्, नान्यथा ॥ १ ॥ ही०२ प्रका० । कायोत्सर्गस्थित जनप्रतिमानां चरणादिपरिचापनाचा कायोत्सर्गस्थित जनप्रतिमानां चरणादिपरिधान बेति प्रश्ने, उत्तरम्-जितमानां चरणादिपरिधापनं तु सम्प्रति न व्यवहारेण युक्तियुक्तं प्रतिभाति । दी० २ प्रका० । आरात्रिकमङ्गलप्रदीपविचार: रात्रिकमङ्गप्रदीपः सृष्टया संहारेण वोत्तार्यते, तदुत्तरपानश्च क इति प्रश्ने, उत्तरम् अत्र जिनप्रतिमाग्रे आरात्रिकमङ्गप्रदीपः सृयोत्तार्यते, न तु संहारेण पूर्वाचार्यमध्ये काविति पर विदाननिजिकरणो रणमुत्तमस्ति तेन तथैव क्रियते । ततारणगाथा च चेइय मरयमणिघमियविसा- नथालमाणिक्क मंमियपईवो । न्हवणपरक रुक्खित्तो, भमउ जिलाऽऽरतियं तुम्हं ” ॥४४॥ हो०४ प्रका० । (चैत्यायतनं कारितवत्या निर्ग्रन्थ्याः कताचा राया उकरणं 'खयाचार' शब्दे श्रस्मिन्नेव भागे ७१७ पृष्ठे नक्तम) ( गामशब्दे श्रस्मिन्नेव भागे ८६८ पृष्ठे तनिषेके जिनप्रतिमानां नावग्रामत्वम् ) ( भरते चतुरशीतिजिनप्रतिमाः 'जिनपडिमा ' शब्दे वक्ष्यन्ते ) (२६) पाशापविचारः चवीसवट्टयाई, पमिमा उ जिलाण के वारिति । पि जम्दा एए दोसा पसज्जति ॥ १॥ 四 " चतुर्विंशतिपट्टकादो, श्रादिशब्दाज्जिनत्रयादिपरिग्रहः । प्र तिमा जिनप्रतिकृतीः, जिनानां तीर्थकृतां, केऽपि न सर्वे । वारयति निषेधयन्ति मे न केवलं पूर्वोक्तमित्यपेनेति निषेधे युकं सङ्गतं यस्मादेते ययमाणाः, दोषा दूषणानि, प्रसज्यन्ते भवन्तीति गाथार्थः ॥ १ ॥ तापाह पुत्रावरणानंगो, जिणाण आसाणा विपमित्रती । सकागो मुद्धा होति एमाझ्या दोसा ॥ २ ॥ पूर्वारणाभङ्ग हो कालादियं प्रवृत्तिस्तस्पा विनाशाजि गानां सज्ञानाम् आशामा पूर्वकथितप्रकारेण विप्रतिपत्तिविरोध । एको भणति मदीया श्रेष्ठा प्रतिष्ठा; अन्यश्च मदीये. स्थेला भट्टो भक्तिमाशा, मुग्धानां मन्दमतीनाम तेथेच मध्यवस्यन्तिदा किमस्मानिर्मन्दमिजा रेवं प्रतिष्ठा कारितेति । भवन्ति जायन्ते, पचमादय उक्तप्रका रादयः, श्रादिग्रहणात् तदबहुमानपूजाद्यभावाख्याः । चकारोऽत्र प्राकृताल्लुप्तो द्रष्टव्य इति गाथार्थः ॥ २॥ सूत्रेणैव संबद्धां गाथामाह किंचत्य प्रति जुत्ती, वि पय महरिभदसूत्रियणाओ । तं भणणं तिविहा खलु, होड़ पट्ठा जिपिंदाणं ॥ ३ ॥ विद्यते स चतुर्विंशतिपादिकरणे, युक्तिरपि परमानवाक्यमपि न केवलमा त्यपिशब्दार्थ प्रक टहरिभद्रसूरिवचनात् प्रसिद्ध हरिद्राभिधानाचार्य भणनात्तदेवार्थता - तत्पुनर्भणनमिदं वक्ष्यमाणम्-त्रिविधा त्रिप्रका भवति प्रतिष्ठा जनगुणाधारोप वाजिनेाणां मुनीशानामिति गाथार्थः ॥ ३॥ वयमा - पढमा वत्तिपा, खेत्तपट्टा पुणो जवे बीया । तया महापड़ा, तासि ॥४॥ प्रथमाया व्यक्तिप्रतिष्ठा क्षेत्रप्रतिष्ठा पुनर्भवेद् द्वितीया मद्दाप्रतिष्ठा तृतीया, तासां प्रतिष्ठानां व्याख्यानं विवरणम, एवं वक्ष्यमाणप्रकारमेव तरेषकारार्थी, सदर्शित इति गाथार्थः ||४|| तदेव गाथाद्वयेनाऽऽह 9 हवति विसेसो एग-स्स जा उ पमिमा नवे जिदिस्स । खेत्ते नरहे उसभा - इयाण सव्वाण बीया न || २ || सत्रेसु बि खेतेयुं, जित्तियमित्ता जवंति तित्थयरा । सत्तरसयसंखाए, महापद्वा इमा भणिया ॥ ६ ॥ " Page #1314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेइय (१२९१) चेइय अभिधानराजेन्दः। सुगमे । यत एवम् अत उक्तिप्रत्युक्तिगाथामाह एतादृशेन व्यण,गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे,यत आत्माय कृतं तो णज्ज चवीस-ट्टयाऍ करण अह विजिन्नकरणे वि।। तत् श्रमणानां किं नु ग्रहीतुं कल्पते । सूरिराह-यत् चैत्यप्रव्येण, सहवं हविज सच्चं, वित्ताइअभावकरणेव ।। ७।। यश्च वा सुविहितानां मूल्येनात्मथ कृत, तद्दीयमानं न कल्पते । तस्माद् ज्ञायते चतुर्विंशतिपट्टकादेः करणं विधानम् , अा- | किं कारणमिति चेत्,उच्यते-स्तेनानीतस्य प्रतीच्या प्रतिग्रहम, दिशब्दात् शेषप्रतिष्ठाग्रहः । तिकारवकारौ पत्र प्राकृतलकणेन | लोकेऽपि गर्दिता, किमङ्ग पुनरुत्तरे,तत्र सुतरां गर्हिता, यतश्चैलुप्तौ । अथेति पराजिप्रायदर्शकः, तेन चतुर्विशतिपट्टकरणं, वि. त्ययतिप्रत्यनीके चत्ययतिप्रत्यनीकस्य हस्तात् यो गृहानि, भिन्नकरणेऽपि पृथक निष्पादनेऽपि, न केवलमेकत्र विधानेऽपि, सोऽपि, ह निश्चितं, तथैव चैत्यघातिप्रत्यनीक एव । व्य०६ श्त्यपिशब्दार्थः । सफलं चरितार्थ नवत, सत्यमवितथ, कि उ०। (जिनप्रातिहार्याणि स्वस्थाने) तु वित्ताद्यभावात् द्रव्यापरिपूर्णात, आदिशब्दात्कस्यचिदेव (३०) व्यन्तरायतनमसमाधानादिपरिग्रहः, करणं विधानम्, एवमुक्तप्रकारेण, अनु व्यन्तरायतने, यथा राजगृहे गुणशिलकम् । नि० १ वर्ग । स्वारश्चात्र लुप्तो दृश्यः, पूर्वोक्तार्थसंवादस्तु उक्तषोमशाख्य स०। चम्पानगर्या बहिः पूर्वस्मिन् पूर्णजाम । नि० १ वर्ग । प्रकरणोक्तश्लोकैरेनिबर्बोद्धव्यः झासू०प्र०।०प्र० । विपा। पामलकरपायामाम्रशाल"व्यक्त्याख्या खल्वेका, केत्राख्या वापरा महाख्या च । वनम् । “आमलकप्पाए णयरीए दाहिणपुरधिमे अंवसालय. णे चेइए।" चैत्यं संझाशब्दत्वाद्देवताप्रतिविम्बे प्रसिद्धं, ततस्त. यस्तीर्थकृत् यदा किल, तस्य तदाऽोति समयविदः ॥२॥ ऋषभाद्यानां तु तथा, सर्वेषामेव मध्यमा झेया । दाश्रयनूतं यद् देवताया गृहं, तदप्युपचाराचैत्यं, तच्चेह व्यन्तसप्तत्यधिकशतस्य तु, चरिमेह महाप्रतिष्ठेति"॥३॥ रायतनं अष्टव्यं, न तु भगवतामईतामायतनम् । रा०। "भावरसेन्बात्तु ततो, महोदयाद् जीयतास्वरूपस्य । तवर्णकश्चैवम्कालेन जवति परमा-प्रतिबद्धा सिद्धकाञ्चनता MEN चंपाए णयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसिनाए पुष्पानद्दे वचनाननक्रियातः, कर्मेन्धनदाहतो यतश्चैषा। णामं चेए होत्या। चिराईए पुचपुरिसपामते पोराणे सइतिकर्तव्यतयाऽतः, सफलैषाऽप्यत्र भावविधौ”॥ ६॥ शति गाथार्थः ॥७॥ दिए वित्तिए (कित्तिए)णायए सउत्ते सज्कए संघंटे सपमागअत्रैवाथै अन्यमतमुक्तिप्य परिदरम्नाह पडागाइपमागममिए सलोमहत्थे कयवेयदिए बाउबोजं पि अहरुत्तरेणं, करणा पासायणं नएंतऽन्ने । इयमहिए गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिप्मपंचंगुमितने उवतं पिन जुत्तं सव्वे, तुबगुणा जेण तित्थयरा ।। ७॥ चियचंदणकलसे चंदणघममुकयतोरणपमिवारदेसनाए यदपि अधरोत्तरेण आधाराधेयरूपेण,करणाद्विधानात,आशा- आसत्तोसत्तविउझवट्टवग्धारियमबदामकलावे पंचवष्णसरसतनां ज्ञानादित्रुटिरूपां, भणन्ति बदन्त्यन्ये ऽपरे, तदपि न केवल सुरहिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकनिए कानागुरुपवरकुंदुरुकतुरुक्कपूर्वोक्तं, नेति निषेधे, युक्तं सङ्गत, यस्मात्सर्वे समस्ताः, तुल्य ध्रुवमघमतगंधद्धयानिरामे सुगंधवरगंधगंधिए गंधिवाहिलूगुणा अहीनातिरिक्तगुणाः, तीर्थकराः सर्वज्ञाः । सर्वशप्रतिमाकरणे तु विप्रतिपत्तिरेव नास्त्यतो न तत्करणं प्रति विचार इति ए णमणट्टकजसमबमुट्टियवेक्षंचयपवगकहकलासकाइगाथार्थः॥८॥ क्खकरंखमखतूणइवतुंबवीणियनुयगमागहपरिगए बहुजएवं स्थिते जीवोपदेशमाह णजाणवयस्स विस्सुयकित्तिए बहुजणस्स आहुस्स आमइमोहं ना मा कुण-सु जीव वंदसु जिणिदपमिमा उ ।। हणिजे पाहणिजे अञ्चणिजे वंदणिजे नमंसणिज्जे पूयजह तह पहाडिया न, इच्छंतो सासयं सोक्खं ॥णा णिजे सकारणिज्जे सम्माणिजे कल्लाणं मंगलं देवयं चेप्रकटा । नवरं शाश्वतसौख्यं निर्वाणसातमिति गाथार्थः । चतुर्विंशतिपट्टकादिविचारः समाप्तः । जीवा० ८ अधिक। इयं विणएणं पन्जुबासणिज्जे दिवे सच्चे समोवाए सच्च(चौरद्वतचैत्यद्रव्यं क्रीन कल्पते) पुनरन्यथा परः प्पभावे सरिणहियपामिहेरे जागसहस्सनागपडिच्चए बहुप्रश्नयति जणो अच्चे आगम्म पुणनई चेइयं, से णं पुणभद्दे चेइए चेझ्यदव्वं विनया, करेज कोई नरो सयट्ठाए । एकेणं महया वणसंमेणं सधओ समंता संपरिक्खित्ते ॥ समणं वा सोवहियं, विक्के जा संजयटाए ॥६॥ चम्पायां नगाम, (उत्तरपुरच्छिम त्ति) उत्तरपौरस्त्ये, उत्तचैत्यव्यं चौराः समुदायेनापहृत्य तन्मध्ये कश्चिन्नर श्रा- पूर्वायामित्यर्थः। (दिसिभाए त्ति.) दिग्भागे, पूर्णभद्रं नाम चैत्मीयेन भागेन स्वयमात्मनोऽर्थाय मोदकादि कुर्यात्, कृत्वा च | त्यं व्यन्तरायतनम ( होत्थेत्ति) अनवत् । (चिराईए पुच्चपु. संयतानां दद्यात् । यो बा संयतार्थाय श्रमणं सोपधिक बि. | रिसपमत्ते) चिरं चिरकालम, यादिर्निवेशे यस्य तच्चिरादिक्रीणीयीन, विक्रीय च तत्प्रासुकं वस्त्रादि संयतेभ्यो दद्यात् ।। कम् । अत एवं पूर्वपुरुौरतीतनरैः प्रज्ञप्तमुपादेयतया प्रकाशित एयारिसाम्म दव्वे, समणाणं किं णु कप्पई घेत्तं । पूर्वपुरुषप्रज्ञप्तम् । (पोराणे त्ति)चिरादिकत्वात्पुरातनं (सहिये चेश्यदब्वेण कयं, मोद्धेण व जं सुविहियाणं ॥६॥ ति) शब्दप्रसिहः स संजातो यस्य तच्चब्दितम् । (वित्तिए त्ति) वित्तं प्रव्यं तदस्ति यस्य तद्वितिक, वृत्ति वाऽऽश्रिततो. तेण पमिच्ना लोए, वि गरहिया उत्तरे किमंग ! पुणो । कानां ददाति यत्तवृत्तिकम् (कित्तिए त्ति) पावान्तरं तत्र जनेइयजइपमिणीए, जो गेएदइ सो वि हुनहेव ।।६४ा । न कीर्तितं. समत्कीसिदं वा (गायर त्ति) न्यायनिर्णायकत्वात् Page #1315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेश्यथूम (१२९२) चेइय अभिधानराजेन्द्रः। न्यायकः। तथा शातसामर्थ्यमनुनूतं तत्प्रसादेन लोकेनेति । स- (सव्वओ समंता इति) सर्वतः सर्वदिक्षु, समन्ताद्विदिक्कु । औ०। छत्र सध्वजं सघएटमिति व्यक्तम् (सपमागपडागाइपमागम- स्वनामख्याते सन्निवेशविशेषे, यत्र पूर्वभवे जगवान् वीरस्वाडिए) सह पताकया वर्तत इति सपताक,तञ्च तदेका पताकाम- मी, अग्न्यायॊ नाम्ना जातः । प्रा०चू०१०। प्रा० म० । तिक्रम्य या पताका सा अतिपताका, तया मण्डितं यत्तत्तथा। प्रामादिप्रसिद्ध महावृक्षे, जनानां सनास्थतरी, चिताचिके, वाचनान्तरे-(सपमाए पमागाइफमागमंमिए त्ति)(ससोमहत्थे)। जनसभायां, बझस्थाने, जनानां विश्रामस्थाने च । वाच । लोममयप्रमार्जनकयुक्तम् ( कयवेयहिए) कृतवितर्दिक. रचि.| केत्रप्रत्युप्रेक्षणायाम, बृ०१ उ०। तवेदिकम । (लाउद्घाइयमाहए )"लाश्यं" यद भूमेः छगणा- जिनालये जिनदृष्टौ स्वस्थ तिबके क्रियमाणे कि पटादिनोपलेपनम् । ( उद्बोइयं ) कुट्यमानानां सेटिकादिनिः | स्तरं क्रियते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-अत्र पटान्तरं विना तिसके संमृष्टीकरणं, ततस्ताभ्यां महितमिव महितं पूजितं यत्तत्तथा । क्रियमाणे किं पटान्तरं क्रियते । ६६ प्र० । सेन० १ द्वा० । ( गोसीससरसरत्तचंदणदहरदिप्मपंचंगुलितले ) गोशोषण | जेसलमेरुनगरे मेदिनीने चोपाश्रयमध्ये श्रीहरिविजयसूरिसरसरक्तचन्दनेन च दईरण बहुवेन चपेटाप्रकारेण वा दत्ताः | प्रतिमाया मस्तकस्योपरि श्रीवारप्रविमाऽस्ति, तस्मात्तमुपापञ्चाङ्गलहस्तका यत्र तत्तथा ( नवचियचंदणकलसे )। श्रयं केचन चैत्यं कथयन्ति, तत्र किमुत्तरमिति प्रश्न-उत्तउपचिता निवशिताः चन्दनकलशा मङ्गनघटा यत्र तत्तथा।। रम्-यथा श्राद्धानां गृहस्य जिनप्रतिमासत्वेऽपि न चैत्यत्वं (चंदणघडकयतोरणपडिदुवारदेसभाए ) चन्दनघटाश्च | तयाऽत्रापीति ज्ञेयम् । ३५ प्र०। सेन०४ उल्ला। सुष्टु कृततोरणानि च द्वारदेशभागं प्रति यस्मिंस्तच्चन्दनघट श्रीहीरविजयसूरीश्वरप्रसादितद्वादशजल्पपट्टकमध्ये अवन्द. सुरुततोरणप्रतिद्वारदेशभाग, देशभामाश्च देशा एव । (श्रास नीयचैत्यत्रयं विनाऽन्येषां सर्वेषां चैत्यानि वन्दनपूजनयोग्यानि तोसत्तविनववग्घारियमल्लदामकसावे ) प्रासक्तो भूमी कथितानि सन्ति, किन्तु केचन तनिषेधं ब्रुवन्तः श्रूयन्ते, तत्कथसंबद्धः, उत्सत नपरि संबद्धः विपुलो विस्तीर्णः वृत्तो बतुलः मिति प्रश्ने, उसरम-केवश्राद्धप्रतिष्ठितचैत्य१-व्यलिङ्गीद्र(वग्धारिओति) प्रलम्बमानः माल्यदामकलापः पुष्पमालास- व्यनिष्पचचैत्यर-दिगम्बरचैत्यानि ३ विना सर्वेषां चैत्यानि व. मूहो यत्र तत्तथेति (पंचवम सरससुरहिमुक्कपुष्फपुंजोवया- न्दनार्हाणि पूजाहाणि च केयानि, अथ च पूर्वोक्तानि निषिकान्यरकलिए ) पञ्चवर्णेन सरसेन सुरनिणा मुक्तेन क्वितेन पुष्पपुज- पि चैत्यानि साधुवासकेपेण वन्दनपूजनयोग्यानि भवन्तीति, अ. लक्षणेनोपचारेण पूजया कलितं यत्तत्तथा ( कालागुरुपवर- न्यथा परपतकृतग्रन्था अप्यमान्या भवेयुः । तथा भव्यपार्श्वकुंकुरुकतुरुकधूवमघमघतगंधद्धयाभिरामे) कालागुरुप्रभृती स्थादिदीकिगः साधवः केवलिनश्वावन्दनीयाः स्युः, तथा चामां धूपानां यो मघमघायमानो गन्ध उद्धृत उद्भूतस्तेनाभि समञ्जसमापद्येत, यतस्तत्कृतस्तोत्रादिग्रन्था आत्मीयपूर्वाचायैररामं यत्तत्तथा । तत्र (कुंरुकं ति ) क्रीमा ( तुरुकं ति ) कृताः सन्ति, पार्श्वस्थादिदीक्कितसाधवश्व वन्दनीयतया शास्त्रे सिहक (सुगंधवरगंधगंधिए) सुगन्धा ये वरगन्धाः प्रवर- प्रोक्ताः सन्तीति स्वयमेव ध्येयमिति । १०४ प्रक। सेन०४ उल्ला वासास्तेषां गन्धो यत्रास्ति तत्तथा । (गंधिवट्टभूए) सौर- | चेयकम-चैत्यकृत-न० । वृतस्याधो व्यन्तरादिस्थानके,पाभ्यातिशेषान्धव्यगुटिकाकल्पमित्यर्थः । “नमनट्रेत्यादि " पूर्ववन्नवरमिद-नुयगा' भुजङ्गाः, नोगिन इत्यर्थः । भोजका चा०२ श्रु० ३ ० ३ ० । खानिमतचैत्यालयसंपादने,प्रति०। वा तदर्चका मागधा भट्टा इति । ( बहुजणजाणवयस्स वि चेइयखंभ-चैत्यस्तम्भ-पुं० । जिनसक्थ्यायतनरूपे स्तम्भे, यस्सुयकित्तिए) बहोर्जनस्य पौरस्य जानपदस्य च जनपदन- था सुधर्मायां सभायां माणवको नाम चैत्यस्तम्भः, तत्र वसोकस्य विश्रुतकीर्तिकं प्रतीतस्यातिकम् । (बहजणस्स, वज्रमयेषु सिक्ककेषु वज्रमयेषु समुझकेषु बहूनि जिनसकआहुस्स त्ति) अाहितुर्दातुः। कचिदिदं न दृश्यते।(आहणिजे थीनि निक्किप्तानि तिष्ठन्ति । सू०प्र०१० पाहुकारा।जी। त्ति ) आहवनीयं सम्प्रदानभूतम् ( पाहुणिज्जे त्ति) चेइयजत्ता-चैत्ययात्रा-स्त्री० । शृङ्गारितप्रवररथे जिनप्रतिमा प्रकर्षण आहवनीयम् ( अच्चणिज्जे ) चन्दनगन्धादिभिः | संस्थाप्य समहं मात्रपूजादिपुरस्सरं समस्तनगरे पूजाप्रवर्त(वंदाणजे) स्तुतिभिः । (नमंसणिज्जे) प्रणामतः (पूणिज्जे) नादिरूपायां रथयात्रायाम, थ. ३ अधि० । स्था० । (साच पुष्पैः ( सकारणिज्जे) वस्त्रैः (सम्माणणिजे) बहुमानाविषयतया 'अणुजाण' शब्दे प्रथमभागे ३६७ पृष्ठे दर्शिता) ( कवाणं मंगझं देवयं चेइयं विणएणं पन्जुवासाणज्जे ) चेइयट्ठ-चैत्यार्थ-पुं० । जिनप्रतिमानां प्रयोजने, प्रश्न ३ कल्याणमित्यादि बुख्या विनयेन पर्युपासनीयं, तत्र कल्याणमयहेतुर्मङ्गलमनर्थप्रतिविहेतुः दैवतं देवा,चैत्यभिष्टदेवताप्रतिमा सम्ब० द्वार। दि दिव्यं प्रधान (सच्चे) सत्यं, सत्यादेशत्वात् (सच्चोवाए)। चेक्ष्यणुइ-चैत्यनुति-स्त्री०। देववन्दने, ध०३ अधिः। सत्यानिलार्ष सत्यसेवं, सेवायाः सफलीकरणात् (सम्मिहिय- चेडयथभ-चैत्यस्तप-पुं० । सिकायतनस्य प्रत्यासन्ने स्तूपे, पाडिहेरे) विहितदेवताप्रातिहार्यम्। (जागसहस्सनागपडि- चित्ताहादके च । स्था०४ ठा०२ उ०। सछुए) यागाः पूजाविशेषाः, ब्राह्मणप्रसिद्धः, तत्सहस्राणां तासि णं मणिपेबियाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं चेइयाला भागमंशं प्रनीति अभव्यत्वात् यत्तत्तथा। वाचनान्तरे-(जा पत्ता । तेणं चेतिययूभा दो जोयणाई आयामधिक्खनेणं गभागदायसाहस्सपमिच्छर ) यागाः पूजाविशेषाः , भागा विशतिनागादयो, दायाः सामान्यदानानि, एषां सहस्राणि प्र सातिरेगाई. दो जोयणाई उर्फ़ जच्चत्तेणं सेया संखंककुंदतीच्छति यत्तत्तथा। "बहुमणो" इत्यादि सुगम, नवरम् - दगरयअमतमहितफेणपुंजसन्निकासा सबरयणामया अ"पुणनई चेश्यं " इत्यत्र द्विवचनं नक्तिसंभ्रमविवक्षयेति ।। च्छा० जाव पमिरूवा, तेसि एं चेइयथूभाएं उप्पिं अट्ठ Page #1316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६३ ) अभिधानराजेन्द्रः । चेयम मंगलगा बहु किन्दचामरज्ऊया पष्ाचा उत्तातिच्छता । तेसि णं चेतियजाणं चउदिसिं पत्तेयं पत्तेयं चत्तारि मलिपेटिया पणत्ताओ । ताओ णं मणिपेढियाच जोयणं आयामभिणं अजोवणं बाहल्लेणं सन्यमणिमया० जात्र तासि णं मणिपेढियाणं उपि पत्तेयं पचेयं चत्तारि जिपामा जिस्सेपमाण मित्ताओ पलियंकलिसाप्रजाभिमुद्दी सन्निक्खिताओ चिति । तं जहा उ सजवद्धमाण चंदालणवारिसेला । तेसिं चेतियथूभाणं पुरो विदिमिं पत्तेयं पत्तेयं मणिपेढिया पात्ताओ । ( जी० ) जेणेव चेइयथूने तेणेव उवागच्छंति, जवागच्छंतिचा लोमहत्यगं गेएढंति, गेएहंतित्ता चेइयथूनं लोमहत्थरणं पमज्जंति, पमज्जतित्ता दिव्वाए उदगरसेणं पुप्फारुह सतोमत्त जात्र धूवं दलयंति । जी० ३ प्रति०। चेइयदन्व - चैत्यव्य - न० । जिनव्ये, जिनार्थ सङ्गृद्दी ते द्रव्ये, दर्श । अधुना जिनद्रव्यप्रणादिद्वारं प्रतिपादयन् गाथाचतुष्टयमाहनक्खेड़ जो उवेक्खे, जिणदव्वं तु सावभो । पन्नाड़ीणो भवे जो उ, लिप्पई पात्रकम्मुला ॥ २४ ॥ आयाणं जो जड़, पमिवनं णं ण देइ देवस्स | नस्तं समुबेक्खर, सो वि हु परिजम संसारे || ५५ ॥ चेयद साहा - रणं च जो दुइ मोहियमईओ । धम्मं व सोन जाण, श्रहवा बकाउ नरए || ६ || चेदविणासे, तदव्वविणास दुविहभेए । साहू उक्खमालो, अनंतसंसारियो जलियो || ५७ ॥ भक्तयति यः स्वयमात्मसात्करोति, उपेक्षते अन्येन विलुप्यमानं, जिनद्रव्यम्, तुशब्दः समुच्चयार्थः । ततः श्रावको ऽन्यो वा यथा भद्रप्रत्यनीकादिः, प्रज्ञाहीनो नवेद् यः, तुशब्दोऽपिशब्दार्थः । ततः प्रज्ञाहीनतया जिनभवनादौ प्रवर्तमानो यदि द्रव्यं प्रणश्यति, तदा सोऽपि क्षिप्यते श्लिष्यते पापकर्म्मणा, पात केनेत्यर्थः । ततः स. म्यगागमविधि विज्ञाय सर्वत्र प्रवर्त्तितव्यम्। तथाऽऽदानं राजाऽमात्यादिना विहितमाभाव्यं, यो भनक्ति विलुम्पति, प्रतिपन्नं यन्नियमेनोपेतम, इतरथा वा पूजादिनिमित्तम-यथाऽहमेतद् दास्यामि, धनं द्रव्यं तस्य वा दीयमाने सति सामर्थ्य, समुपेक्षते - किमेभिः स्वजनादिभिः प्रकोपितैरित्याशयवानुपक्कां विधत्ते, सोऽपि, न केवलं पूर्वोक्ताः, हुशब्दस्यैव कारार्थत्वादखादन्नपि, जिनाशाकरणात, परिभ्रमति पर्यटति संसारे, तथा चैत्यद्रव्यं, साधारणं व सर्वसामान्यं ह्यति मोहितमतिकः, धर्मे वा स न जानाति, वायुको वा नरके, चैत्यद्रव्यविनाशे प्रतिमा निष्पत्तिनिमितं यत् तदुपचाराचैत्यद्रव्यं तद्विनश्यति । तद्व्यविनाशने द्विभेद इति, तस्य चैत्यसंबन्धित्वेन द्रव्यं तद्रव्यं पूजादिकसकल प्रयोजन योग्यं परितनिर्मास्यस्रव्यं च तस्मिन् द्विभेदेऽपि विनश्यति सति साधुरपि सर्वसम्बररतः सामर्थ्यवानुपेक्कां कर्वनन्त संसारिको जणितः प्रतिपादित आगमे । यत उक्तम"सचरित्तचरितीणं, एयं सव्वेसि कज्जं ति । " इति गाथाच३२४ For Private इयदव्य तुष्कसंत्तेपार्थः ॥ ५७ ॥ व्यासार्थं कथानकादयसेयम् । दर्श० १ तत्व द्वा० ( तच्च कथानकं ' जिणध्व ' शब्दे वक्ष्यते ) जिनरुण्योत्पाद वर्णनम निययंतरायमगणिय- मेमे जंपति कुगहगहगड़िया । जिणपमिमाणं पूया, पुप्फाईएहिँ कापव्वा ॥ १ ॥ पत्याईए नो पुण, जेणं तद्दन्वभक्खणे को बि । पमिही जबंधक, अम्हनिमित्तं इयमईए || २ || निजकान्तरायम गणित्वाऽविभाव्य, एके केचन, सकारो ऽलाकणिकः, जल्पन्ति वदन्ति । अयमाशयः एवं भणन्तं महदन्तरायो भवति । किंविशिष्टाः ?, कुग्रहग्रहग्रहीता प्रबोधिपिशाच स्वीकृताः, जनप्रतिमानां सर्वप्रतिकृतीनां पुष्पादिनिः कुसुमवासादिभिः, पूजा, कर्त्तव्या विधेया, वस्त्रादिचैव सनालङ्कारादिभिः, नो मैव पुनः, येन तद्व्यनवणे वस्त्रादिवित्तादने, कोऽप्यनिर्दिष्टनामा, पतिष्यति भवान्धकूपे संसारविषमावटे, अस्मनिमित्तमस्मत्कारणम्, इतिमस्था अनेन बोधेनेति गाथायार्थः ॥ १-२ ॥ एतन्निराकरणार्थ गाथाद्वयमाह गममग्गुत्तिन्नो, इय बोहा जेरण सुविहियजयो वि । बहु मन्न सकयं वत्थाई पूयणं बहुदा || ३ || सक्कारबत्तियाई-वयणेणं सो उ वत्थमाईदि । ओ तो तकरणं, तहा य ववहारउतं च ॥ ४ ॥ आगममा गौत्तीर्णः सिद्धः तपोऽविष्ट इत्येवं बोधात् येन सुविहितजनोऽपि सुसाधुलोकोऽपि न केवलमन्य इत्यपेरर्थः । बहु मनुतेऽनुमोदते, भाष्कृतं श्रावकविहितं वस्त्रादि पूजनं वसनानङ्काराद्यभ्यर्चनं, बहुधाऽनेकधा ॥ ३ ॥ सत्कारप्रत्ययमित्यादिवचने. न स पुनः सरकारो, वस्त्रादिभिः, मकारः पूर्ववद, भणित उक्तः । तथा चोक्तम्- "मलाइपहिं पूया, लक्कारो पवरवत्थमाह । विवज्जओ इह, उहा वि दव्वत्थभो एसो" ॥ १ ॥ ततस्तत्करणं सत्कारविधानं, तथाच परं व्यवहारोकं च वेदग्रन्थभणितमिति गाथाद्वयायः ॥ ४ ॥ तदेवाह - लक्खणजुत्तापडिया, पासाईया समलंकारा | पहाया जह य मणो, तह निज्जरमो विद्यालाहि ॥ ५ ॥ लक्षणयुक्ता परिपूर्णाङ्गादिसहिता, प्रासादिका रुष्टृणामतिप्रमोदजनिका, समस्तालङ्कारा निःशेषभूषणा, प्रह्लादयति सुखयति, यथा येन प्रकारेण ममः, तथा तेन प्रकारण, नि. जेरा कन्हासलक्षणा, श्र इति निपातः पादपूरणार्थी, विजानीहि बुद्ध्वस्व, समस्तानङ्कारभणनाद्भवन्मतव्यवछेद इति गाथार्थः ॥ ५ ॥ सूत्रेणैव विहितपातनां गाथामाह किं च जइ एव जीरू, तुम्हे ता मा करेह चेइहरं । परिमापूर्य पहु, होड़िति जो इमे दोसा ॥ ६॥ किञ्चाभ्युच्चये, यद्येवमित्थमस्मन्निमितं कर्म्मबन्धो मा भवत्विति भीरवः, ( तुम्हे चि ) यूयं ततो, मेति निषे धे, कुरुत विधत, चैत्यगृहं जिनमन्दिरस्, प्रतिमाः Personal Use Only Page #1317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२१४ ) चेश्यदव्व अभिधानराजेन्द्रः । चेइयरुक्ख जिनबिम्बानि, पूजामपि सपर्यामपि, 'हुः' पूरणे, भविष्यन्ति सूत्रसंबद्धां गाथामाहतत्परस्यन्ते, यतो यस्मात्, अमी वक्ष्यमाणाः, दोषा दूषणानि, शति गाथार्थः ॥ ६॥ अन्नं चाऽसुहतरयं,कुणंतो वि हु सुहाओं नाबाओ। तानेवा पावर पुखं सल्लु-करो व्व वीरस्स किंतु मुहं ॥१३॥ जजन व अवणेज व, कोई तुम्हाण कम्पबंधो उ। अन्यच्चापरं चाशुभतरकमतिशयानिष्ट, कुर्वाणो विदधानो, तम्हा बुज्कह पुन, पावं वा निययपरिणामा ॥ ७ ॥ 'हुः' फूरणे, शुभात्प्रशस्तात, भावादन्तःकरणात्,प्राप्नोति लभते, पुण्यं शुभं,शल्योकारवत् श्रवणकीलिकापनेतृवत् वीरस्य घरमभञ्जयेद् विनाशयेदवाऽपमयेत् स्थानान्तरे कुर्यात; वाशन्दौसमु. तीर्थकरस्य, किंतु पुनः, शुभं प्रशस्तम । अयमाशया-येन कीअयार्थी,उपलक्षणत्वादु मठादिकंवा तपरि विदयात,कोऽप्ये- | लिका भगवच्छवणात निष्कासिता, तेन महती व्यथोत्पादिता, कः, ततः (तुम्हाण ति) युप्माकं जवतां, कर्मबन्ध एव ज्ञाना- | येन तु किप्ता, तेन स्तोकतरा,परं शुभेतराशयादेकस्य स्वर्गोऽप. घरणीयाशुपश्लेषः, तुरेवकारार्थो, भवानिमित्तत्वादिति हृदयम् । रस्य नरक इति गाथार्थः ॥ १३ ॥ तस्माद बुध्यध्वं जानीत, पुण्यं शुजकर्म , पापं तद्विपरीतं, इत्थमवस्थिते जीवोपदेशमाहवाशब्दः समुच्चये । निजकपरिणामात् स्वाभिप्रायादिति गाथार्थः।। ७॥ मुपसत्यवत्यकणया- इवत्युवित्थाररहिरं पडिमं । परिणाममेव व्यक्तीकुर्वन्नाह कारावसु देसंतो, रे जिय ! जई महसि मइहें ॥ १४॥ दत्तस्स पुनमउलं, भक्खंतस्स व पुणो महापावं । सुप्रशस्तानि अतिशयरम्याणि, तानि च तानि वस्त्रकमकादिकुसलेयरजावाओ, एवं चिय जिणमहाइस वि | वस्तूनि च सचामीकराबडारकर्पूरादिद्रव्याणि, तेषां विस्तारः ददतः प्रयच्छतः,जव्यस्य जिनाय वस्त्रादीति शेषः। पुण्यं शुनम प्रपञ्चस्तेन"रोहिरंति"देशीभाषया शोनमानां,प्रतिमांजिनबिम्ब, तुलमनन्यसदृशं, भक्कयतश्च पुनरश्नतो,महापापं गुप्तकिल्विषम, कारय विधापय,दिशन् धर्मकथां कुर्वन् रे जीव! भो पात्मन् ! कुश लेतरजावातू प्रधानेतरान्तःकरणात, एवमित्थम, जिनम यदि महास वागस, मत्यर्थ चित्ताऽभिप्रेतम । अथमाशयः-जिहादिष्वपि सर्वज्ञमन्दिरप्रतिमादिकरणादिष्वपीति गाथार्थः॥८॥ नवस्त्रादिनिवारणान्तरायकर्मवश अभीष्टनावस्तव न नविव्यतिरेकमाह ध्यति, इति गाथार्थः ॥१४॥ जीवा० २८ अधिः। जइ पुण तह कायव्वं, जह दव्वं नेव होइ चेइहरे । समर्थः सन् चैत्यव्यापीमामनिवारयन् विसंनोग्यःता कह सहलं वयणं, एयं सितमुपसिर्फ ॥६॥ अहुणा चेतिनिमित्तं, जे कायव्वं तगं वोच्छं । यदि पुनस्तथा कर्तव्यं यथा नैव भवति द्रव्यं चैत्यगृहे, ततः । जो देश चेतियाणं, खेत्तहिरले व गामगावादी॥ कथं सफलं चरितार्थ वचनम्, एतत्-उपदेशपदपवितम् । लग्गंतस्स वि जतिणो,तिकरणसोही कहं णु भवे । अर्थतः सिमान्तसुप्रसिद्धमिति गाथासंक्षेपार्थः ।। ६ ॥ मएहति इत्थ विलासा, जो एयाइँ सयं वि मग्गेज्जा ॥ तदेव गाथात्रयेणाऽऽह तस्स ण होती सोही, अह कोति हरिज एयाई। जिणपवयणविधिकरं, पत्नावणं नाणदंसणगुणाणं । तत्थ करेंत नवेई, जा सा भणिता तु तिगरणविसोही । रक्खंतो जिणदव्वं, परित्तसंसारिओ हाई ॥१०॥ सा य ण होति अभत्ती-ऍ तस्स तम्हा णिवारेज्जा । जिपवयणविद्धिकरं, पजावणं नाणदंसणगुणाणं । सव्वत्थामेण तहिं,संघेणं होति लग्गियध्वं तु ।।पं०भा०। वळतो जिणदव्यं, वित्थरपत्ताइयं लहइ ॥ ११ ॥ चेइयपरिवाडी-चैत्यपरिपाटी-स्त्री०। जिनयात्राक्रमवर्णने,ध०२ जिणपवयणविधिकर, पजावमं नाणदंसणगुणाणं। | अधिः। कल्प। (चैत्यपरिपाटीकरणादिमहोत्सवः 'अणुजक्खंतो जिणदव्वं, अपंतसंसारिश्रो होइ ॥ १॥ जाण' शब्दे प्रथमभामे ३६७ पृष्ठे उक्तः) सुगमाः । अयमाशय-वन्मते जिनव्याभावात्कथं रक्कणव | चेयजत्ति-चैत्यभक्ति-स्त्री। चैत्यादिभक्ती, आव० ३ अ०। नभवणसंनवः । तथा तत्रैव दर्शनशुद्धिप्रथमतत्त्वे (प्रासंबण' शब्दे द्वितीयभागे ३६२ पृष्ठे विस्तार उक्तः) चेश्यदव्वं साहा-रणं च जो हइ मोहियमईओ। धम्मं च सो न जाण, अहवा बद्धानो नरए ॥५६॥ चेडयमह-चैत्यमह-पुं० चैत्यमहोत्सवे,प्राचा०२७०१ १०२ उ०। चेश्यदबविणासे, तहचविणासणे मुथिहभेए । चेइयरुक्ख-चैत्यवृत-पुं० । बकपीग्वृक्केषु येषामधस्तात्तीर्थसाहू उविक्खमाणो, अणंतसंसारिश्रो जणिो ॥५७॥" | कृतां केवलान्युत्पन्नानि । स०1 ('चेश्यरुक्खं चलेजा' इत्यादि तथा पञ्चकल्पे नणितम्-"जया पुण पुचपदत्तासि खेत्तहि- 'माणुस्सलोय' शब्दे वदयते) रमाणि दुपयवनपवाई जइमं वा वेडं वा चेइयाणं लिंगत्था ___ भवनपतीनां दश चैत्यवृत्ताःवा चेयघरानो जिणदव्वोऽयं ति रायभडाई वा देजा, तया एएसिणं दसविहाणं भवणवासीयं देवाएं दस चेश्यतवनियमसंपउत्तो वि साहू जर न मोएइ, तया तस्स सुकी रुक्खा पत्ता । तं जहा-- न हवाइ, श्रासायणा य भवई" । एतश्च कथं सार्थकं, किं च-कतकत्वाद्देवगृहभङ्गकाले तद्न्यानावात्कथं पुनरुकारः भियते "अस्सट्ठसत्तबन्ने, सामनिउंबरसिरीसदहिवन्ने । इति ।। १२॥ बंजुलपक्षासवप्पा-यए य कमियाररुवखे य ॥ १ ॥ Page #1318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६५) चेइयरुक्ख अभिधानराजेन्सः। चेश्यरुक्ख असुरकुमारादीनां क्रमेणाश्वत्थादयश्चैत्यवृक्का ये सिकाय- णिपेढियाओ पमनायो । ताओ मणिपेढियाओ जोयणं तवादिद्वारेषु श्रूयन्ते। आयामविक्खंभेणं अजोयणं बाहवेणं सव्वमाणिमईओ व्यन्तराणमष्टौएएसि णं अट्ठएहं बाणमंतराणं देवाणं अट्ठ चेयरु अच्छाओ० जाव पडिरूवारो॥ क्खा पाता । तं जहा तेषां च चैत्यक्ताणामयमेतावद्रूपो वावासः प्राप्तः। तद्यथा"कालंबो न पिसायाणं, बडो जक्खाण चेइयं । "वहरामयेत्यादि।" वज्राणि वज्रमयाणि मूलानि येषां ते वज्र मूला तथा रजता रजतमयी सुप्रतिष्ठिता बिमिमा बहुमध्यदेतुलसी भृयाण भवे, रक्खसाणं च कंडो॥१॥ शजागे कर्द्ध विनिर्गता शाखा येषां तेरजतसुप्रतिष्ठितविडिमाः, असोगो किम्मराणं च, किंपुरिसाणं च चंपओ। ततः पूर्वपदेन कर्मधारय समासः"रिट्टामय" इत्यादि । रिष्टनागरुक्खो लुयंगाणं, गंधव्वाणं तु तिंदुओ॥॥" मायः कन्दः, तथा वैमूर्यो वैमूर्यरत्नमयो रुचिरः स्कन्धो येषां ते तथा, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः समासः । "सुजात" तेषां चैत्यवृताः मणिपीठिकानामुपरिवर्तिनः सर्वरत्नमया इत्यादि । सुजातं मूलजव्यशुरूं वरं प्रधानं यद् जातरूपं तदात्मउपरि खत्रध्वजादिभिरलकृताः सुधर्मादिसनानामग्रतो ये का प्रथमका मूलभूता विशाबा शाखा शाखा येषां ते सुजात. अयन्ते ते पत इति संभाव्यन्ते । ये तु-" चिंधा कलंबझए; वरजातरूपप्रथमकविशालशाना। "नाणामपिरयण" इत्यादि । तुलस वडे तह य होइ खटुंगे। आसोएँ चंपए वा, मागे तह नानामणिरत्नानां नानामणिरत्नात्मिका विविधाः शाखाः प्रशातुंदुए चेव" ॥१॥ सि । ते चिह्नभूता एतेज्योऽन्य एवेति खा येषां ते तथा, तथा वैमूर्याणि वैमूर्यमयाणि पत्राणि येषां ते "कालंबो उ" इत्यादि श्लोकद्वयं कराठ्यम् । स्था० ठा० । तथा, तपनीयानि तपनीयमयानि पत्रवृन्तानि येषां ते तथा, ततः वाणमन्तराणां चैत्यवृकमानं, वर्णकश्चैवम्- पूर्ववत् पदवयमीलनेन कर्मधारयः । जाम्बूनदा जाम्बूनदनावाणमंतराणं देवाणं चेझ्यरुक्खा अट्ठ जोयणाई नमुंज- मकसुवर्णविशेषमया रक्का रकवर्णा मृदवो मनोज्ञाः सुकुमाच्चत्तेणं पाणता। स०१ सम । जी। तामिणं म राः सुकुमारस्पर्शा ये प्रवाला ईषन्मीलितपत्रभावाः, पखवाः णिपेढियाणं उप्पिं पत्तेयं पत्तेयं चेतियरुक्खा प संजातपरिपूर्णप्रथमपत्रनावरूपाः, वराकुराः प्रथममुद्भिद्यमा ना अकराः, तान् धरन्तीति जाम्बूनदरक्तमृसुकुमारप्रवालपपत्ता । ते णं चेतियरुक्खा अद्धजोयणाई उलं उच्चत्तेणं अ वारकुरधराः। कचित्पा:-"जंबूणयरन्नमत्य" इत्यादि । तत्र हजोयणं उन्हेणं दो जोयणाई खंधा अच्छजोयणं विक्खं- जाम्बूनदानि रत्मानि, मृदूनि प्रकग्निानि,सुकुमाराणि अकर्कभेणं उज्जोयणाई विमिमा बहुमज्देसजाए अद्धजोयणाई शस्पर्शानि,कोमलानि मनोज्ञानि, प्रबालपल्लवाकुरा यथादितआयामविक्खंजेणं सातिरेगाई अघजोयणाई सब्बग्गेणं प स्वरूपाः, अग्रशिखराणि च येषां ते तथा “विचित्तमणिरयण" सत्ताई। तसि णं चेतियरुक्खाणं अयमेतारूवे वळावासे प इत्यादि । विचित्रमणिरत्नानि विचित्रमणिरत्नमयानि यानि सुरभीणि कुसुमानि फलानि च तेषां भरेण नमिता नम्राः शाला: पत्ते। तं जहा-वइरामयमूलरययमुपट्टियविमा रिट्ठामय शाखा येषां ते तथा, सती शोजना छाया येषां ते सविपुलकंदा वेरुलियरुचिलक्खंधा सुजायवरजायरूवपढमग-1 छायाः, तथा सती शोजना प्रभा कान्तिर्येषां ते सत्प्रभाः, विसालसाला पाणामणिरयणविविहसाहप्पसाहवेरुलि अत एव सश्रीका, सह ज्योतेन वर्तते मणिरत्नानामदद्योयपत्ततवाणिज्जपत्तवेंटा जंबूणयरत्तमनयसुकुमालपवालप तनावेन सोद्योता, अमृतरससमरसानि फानि येषां ते प्र मृतरससमफला। अधिकमतिशयेन नयनमनोनिवृतिकरा,"पालववरंकुरग्गधरा विचित्तमणिरयणसुरनिकुसुमफनरि साईया" इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत् । " ते णंचेश्यरुयणमियसाला सच्छाया सप्पना ससिरिया सउज्जोया क्खा" इत्यादि । तचैत्यवृक्षा अन्येहुनिस्तिनकलवच्छत्रोपगअमयरससमरसफला अहियणयणमणणिव्युतिकरा पासा शिरीषसप्तपर्णदाधिपर्णलाधकधवचन्दननीपकुटजकदम्बपनस. ईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पमिरूवा । ते णं चेश्यरु तालतमालप्रियायप्रियङ्गपारापतराजवृकनन्दिवृक्षः सर्वतः स मन्तात् संपरिक्षिप्ताः। " तेणं तिलगा"इत्यादि । ते तिलका याक्खा अन्नहिं बहूहिं तिलयलवयउत्तोवगसिरीससत्तवन्नद वनन्दिवृक्का मूलवन्तः कन्दवन्त इत्यादि वृक्तवर्णनं प्राग्वत हिवन्नरोद्धयधनचंदणनीवकुमयकयंवफणसतालतमाझपि- तावद् वक्तव्यं यावदनेकशकटरथयानशिबिकास्यन्दमानिकायालपियंगुपारावयरायरुक्खनंदिरुक्खेहिं सबओ स प्रतिमोचनाः सुरम्या इति। "तेणं तिसगा" इत्यादि। ते तिलका मंता संपरिक्खित्ता। तेणं तिलय० जाव नंदिरुक्खा मन यावन्नन्दिवृक्ता अन्याभिर्बहुभिः पदालताभिः नागक्षताभिर शोकसतानिश्चम्पकलतानिइचूतलताजिवनलतानिर्वासन्तिकावंतो कंदवतो. जाव सुरम्मा। ते पं तिनया० जाव नंदिरु- | बतानिरतिमुक्तकलताभिः कुन्दसताभिः श्यामलताभिः सर्वक्खा अमोहिं वहूहिं पउमझयाहिं० जाव सामलयाहिं स- तः समन्तात सम्परिक्किप्ता। "ताश्रोण पउमलयात्रो० जाव सामओ समंता संपरिक्खित्ता । ताओणं पउमझताओ० जाव | मलयात्रओ निश्चं कुसुमियाओ" इत्यादि लताधणनं तावद वसामनयामओ निचं कुमुमियाओ० जाव पमिरूनाओ। तेसिणं तव्यं यावत् "पमिरुवाओ" इति । व्याख्या चास्य पूर्ववत् । "तेसिणं" इत्यादि । तेषां चैत्यवृताणामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गचेनियरुक्खाणं नपि अट्ठमंगला वहवे कएहचासरज्या लकानि बहवः कृष्णाचामरध्वजा इत्यादि पूर्ववत्तावद् बक्तव्य जाव पमिरूया। तेसि णं चेतियरुक्खाणं पुरो पत्तेयंशम- । यावदू बहवः सहपत्रहस्तकाः सर्वरत्नमया यावत् प्रतिरू Page #1319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६६) चेश्यरुक्ख अनिधानराजेन्द्रः। चेश्यवंदण पका इति। "तेसिणं" इत्यादि । तेषां चैत्यवृक्षाणांपुरतःप्रत्येक | (२.) नमस्कारद्वारम् । प्रत्येक मणिपालिकाः प्राप्ताः। ताश्च मणिपीठिका योजनमायाम- (२१) संपदद्वारम। विष्कम्ञाज्यामढ़योजनं बादल्येन सर्वात्मना मणिमय्य प्र. (२२) प्रणिपातदण्डके वाराः। च्या इत्यादि प्राम्वत । जी. ३ प्रति। (२३) चतुर्विशतिस्तवः । चेश्यवंदण-चै (च्यात्यवन्दन-नास्त्री वित्तस्य भावाः कर्माणि (२४) सिद्धस्तुतिः। या "वर्णरदादिन्यः प्यच" ॥५॥१।१२३॥ (पाणि) इति प्याज (२५) श्रुतस्य स्तुतिः । चैत्यानि जिनप्रतिमा,ताहि बन्धकान्तसूर्यकान्तमरकतमुक्ताशै (२६) वीरस्तुतिः। सादिवसानिर्मिता अपिचित्तस्य भावेन कर्मणावासावातीर्थक (२७) वैयावृत्ये स्तुतयः । रबुद्धि जमयन्तीति चैत्यान्यभिधीयन्ते। तेषां वन्दनं स्तवनं का. (२०) द्वादश अधिकाराः। यवाङ्मनःप्रणिधानं चैत्यवन्दनम् । प्रव०१चारचित्तं प्रस्तावात (२६) शरणीयद्वारम् । प्रशस्तं मनस्तद्भावश्चत्त्यं, तोतुत्वाज्जिनबिम्बा अपि चैत्यानि, (३०) जिनद्वारम् । कारणे कार्योपचारात्। तेषां वन्दना पूर्वोत्तःशब्दार्था चैत्यवन्दना। (३१) यो यत्र स्तूयते। (३२) येऽधिकारा यत्समताः स्तुतयः संस्कृतकाव्यानि । उक्तंच"चित्तं मणो पसत्यं, तब्भावो चेय त्ति तजणगं । (३३) षोमश आकाराः। जिणपभिमाश्रो तेसिं, बंदणमभिवायणं तिविहं ॥१॥" । (३४) स्तोत्रलकणम् । यवा-चितेलेप्यादिचयनस्य नावः कर्म वा चैत्यम, तश्च संज्ञा-] (३५) कतिबेलाश्चैत्यानि वन्देत । बान्दतात देवताप्रतिबिम्बे प्रसिद्धम् । चूर्णी तु-'चिती' संज्ञाने, (३६) चैत्यवन्दनकरणविधिः। काष्ठकर्मादिषु प्रतिकृति दृष्ट्वा संज्ञानमुत्पद्यते । यथा अहंदादि (३७) प्रकीर्णकबार्ताः। प्रतिमेति । शपं प्राग्बत् । ननु भावादादीनामध्येवं वन्दना क्रि-| (१)तविधि विभणिपुरधिकारसग्रहमाहयते, तत्कथं चैत्यवन्दनत्युच्यते?। सत्यम्-प्रायेणास्याचैत्याने इह च प्रतिदिनानुष्ठेयं चैत्यवन्दनादिकं संघश्याचारविधि करणात् । वदयामीत्युक्तम् । तत्र तावत्तथा च बृहद्भाष्यम् " साहूण गिहत्याण य, सब्बाणटाणमूलमक्खायं । "जावाजणप्पमुहाण वि, सब्वेसि विज वि बंदणा तह वि।। चिइवंदणमेव जत्रो, ता तम्मि वियारणा जुत्ता"॥ १ ॥ वेश्यअग्गे काउं, ती वंदणा तेणं ॥ २ ॥ इति वचनात् "सामाइयछिएहि वि, चनवीसं पुवया चेव" जिणबिंबाभावे पुण, ठवणा गुरुसक्खिया वि कीरति। इत्यावश्यकचूपिवचनाख, प्रथमं चैत्यवन्दनाविधि विमणिपु. चिइवंदण चिय इमा, तत्थ वि परमिहिरवणाओ!३॥ भाष्यकारः शास्त्रमुखापरपर्याय तद्द्वारगाथाचतुष्टयमाहअहया जत्य व तत्थ व, पुरओ परिमिहिउवणाश्रो। दहतिय १ अहिगमपणगं, २ कीर बुहेहिँ एसा, नेया चिश्वंदणा तम्हा" ॥४॥ दुदिसि ३ तिहुम्गह ४ तिहार वंदणयाए। करणत्रिकेण देवप्रणिधाने, संघा० १ प्रस्ता। पणिवाय ६ नमुक्कारं ७, विषयसूची वमा सोलसयसीयाला ॥२॥ (१) अधिकारसंग्रहः। इह सामान्येन साधुधावकादिबहसमानजिनभवनप्रवेशादि(२) दश त्रिकाणि। समयविधीयमाननषेधिक्यादिप्रणिधानपर्यवसानसकलचैत्य - (३) नैधिकीत्रयम् । वन्दनाविधानप्रतिपादनप्रधान विःसंस्थानकानबई दशत्रिका(४) तत्र तुवनमल्लकथानकम् । स्यं प्रथमटारम-(दहतिय त्ति) दशेति दशसंख्यानि त्रिकाणि नै(५) पूजात्रिकम् । धिकीत्रयादिरूपाणि यत्र द्वारेतद्दशत्रिकम् । वक्ष्यति च "तिन्नि (६) भावनाः। निसीही" इत्यादि। अत्र च सर्वत्र विभक्तिलोपादिकं प्राकृतल(७) त्रिदिशानिरीक्षणवर्जने गन्धारधावककथानकम् । क्वणवसादवसातव्यमा पुनः ऋयवाप्ताहिप्राप्तश्राकानधिक(८) स्तुत्यकराणि । त्य विशेषतश्चैत्यादिप्रवेशविध्यभिधायकं द्वितीयमभिगमद्वारम(६) मुखात्रिकप्ररूपणम्। (अहिगमपणगं ति) अभिगमानां चैत्यादिप्रवेशे विधिवि(१०) प्रणिधानम्। षयद्वारं, शेषाणां पञ्चकमभिगमपञ्चकम् । जणिष्यति च-"स(११) भनिगमः। चित्तदवो ज्माण" इत्यादि । २ । प्रविश्य जिनगृहे विहितय(१२) चैत्यवन्दनदिक। थोचितनैषेधिक्यादिकरणैर्नरनारिंगणैर्भावपूजादिविधित्सया (१३) अवग्रहः। स्वस्वोचिता दिग् मेयेति तृतीयं दिग्द्वारम्-(ऽदिसि त्ति) (१४) त्रिविधवन्दमा । वे वामदकिणलक्षणे दिशौ काष्ठे क्रमतः स्त्रीपुंसयायोग्यतया (१५) स्तुतिविचारः। बन्दनामधिकृत्य समाहते वर्णिते धा यत्र तद् द्विदिग् । मभिधा(१६) चैत्यवन्दनविधिः । स्थति त्र-"वंदति जिणे दाहिण" इत्यादि ।३। वामेतरदिकस्यैश्च (१७) जघन्यवन्दनाविचार। तैर्जिनात् कियत् दूरे बन्दना विधेयेति दिगनन्तरं चतुर्थ(१८) अपुनबन्धकादयोऽधिकारिणः । मवग्रहहारम-(तिहमाह त्ति) त्रिधा जघन्यमध्यमोत्कृष्टभे(११) अधिकारिता। दात त्रिप्रकारोऽवग्रहो मूल विम्बवन्दनास्थानाज्यन्तराल जूभाग Page #1320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंद गरूपः । गदिष्यति च " नवकरजन्न " इत्यादि ॥ ४ ॥ उक्तरूपा च गृहस्यैध कियदा यदा कार्येति वानभिधाय त्याहारविहायसि त्रिचा अन्यादिभे दास्त्रिभेदा | केत्याह-वन्दनेति । "भामा सत्यभामेति" न्यायात् चैत्यवन्दना पूर्वोक्तशब्दार्था । प्रतिपादयिष्यते च - "नवका रेण जहा" इत्यादि । तुशब्दो विशेषणार्थः । तेन प्रन्धान्तरप्रसिजादिदधाऽपि पयमवमोऽपि रोको दशधाऽवसातत्र्यः । एतच्चोपरिष्टाद् दर्शयिष्यते ||५|| चैत्यत्रन्दना प्रायः प्रतिपानिरूपितेति तत्स्वरूपनिरूप प्रणिपातकार-(पणिवा तिप्रणिपात मचात् कृष्टतः पञ्चाङ्गो ज्ञातव्यः, नाऽष्टाङ्गः । तस्य प्रवचनेऽप्रसिद्धत्वात् । श्रध्येष्यन्ति च " पणिवाओ पंचगो " इत्यादि ॥६॥ कृतप्रणिपातैश्च प्रथमतो नमस्कारा भणनीयाः, श्रतः सप्तमं नमस्कारद्वारम् - ( नमुकार त्ति ) नमस्कारो जिनगुणोत्की - नपरा वचनपद्धसयो, मङ्गलवृत्तानीति यावत् । ते चात्रोत्कृष्टतः पुरुषानगरं शतं शेषमनिरूपविष्यति च सुमह स्थनमुक्कार " इत्यादि ||७|| नमस्काराश्च वर्णात्मका इति वर्णसंख्याद्वारममम् वर्णैश्यादि । यद्वा सर्वमप्यनुष्ठानमहीना तिरिक्ताकरं करणीयं, विपरीते दोषसंजवात् । तथा चागमः'अहिए कुणालकश्णो, ही विज्जाहादिहंता । बालावराण जोयण-भेसज्जविवज्जश्रो भए ॥ १ ॥ " वर्गसंख्यापरिज्ञाने सति जयतीत्यष्टमं वर्ण संस्थाद्वारा सोसीया) वर्णा अ राणि, तेच सामान्यतोऽत्र चैत्यवन्दनाधिकारे नमस्कारकमाश्रमणादिषु नवसु स्थानेष्वपुनरुक्ता ध्रुवं भणनीयाश्च पो. डशशतानि सप्तचत्वारिंशदधिकानि ज्ञातव्याः । 66 चहीनायक तथाहि अमसट्टि ६० असा २०, नवनासयं च १६६ दुसयसगनउया २०७ ॥ दोणतोस २२६ सट्टा २६०, सोल २१६ अमन यस १६८ दुवन्नसयं १५२ ॥ १ ॥ 66 श्अ नवकार १ खमासम ण ३ इरिय ३ सक्कत्थवादमेसु । पणिहाणेसु य है, श्रडरु तवष्य सोसयसीयाला ॥ २ ॥ " 66 ( १२६७ ) अभिधानराजेन्द्रः | यदि नवकारादिवर्णपरिसंख्यानं तत्तदादित्वात्स स्यति ज्ञापनार्थम् । एवं पदादिष्वपि वाच्यम् । इगसीयस तु पया, सगनमुई संपयाड पण दंडा | बारसहिगार च वं- दणिज्ज सरणिज्ज चतुहजिया || वरीय पदानि स्युरिति वर्णद्वारानन्तरं भवनं पदार इगसीय इत्यादि । एकाशीत्यधिकं शतं पदान्यत्रौघतो नमस्कारादिस्थानसप्तके ज्ञातव्यानि । तुर्विशेषणे । विशेषश्चायम् यद्यपि " कमाश्रमण, जे य श्रईया सिद्धा" इत्यादिगतान्यतिरिक्तान्यपि पदान्यप्यत्र सन्ति तथाऽपि पूर्ववत संपदा दिकं किमपि कारणान्तरमधिकृत्यैव पदानि ध्यादिकामीति सम्माननुगामितयाऽस्माभिरप्यत्रैतायत्येव सानाधिकामीति तथा खो स्वस्वभा ३२५ चेयवंदण 46 नव बत्तीस तितीसा, ति चत्त श्ररुवीस सोल वीस पया । मंगरिया सक्कत्थयाइसुं एगसीसयं ॥ १ ॥ " एवमन्यत्रापि न्यूनाधिकत्वे कारणं वाच्यम् ॥ ६ ॥ द्विव्या दिपीति दशमं संपद्वारम (स. गनबइ संपयाइन प्ति ) सप्तनवतिसंपदोऽर्थविश्राम स्थानानि साङ्गत्वेन पय परिस्यितेऽथ यानिरिति : संइत्यर्थः तच सप्तसु स्थानेपूयते ताप 1 66 अठ नवय मंगल हवीस सोलस य वीस वीसामा । गई " ॥ २ ॥ 33 शब्दो नामतवादिषु प्रायो विशेषार्थपदार्थ परि दाजावेऽपि संगतपदत्वेन पायसमा ऊसासा इनिवचनाश्च सामान्येन संपदो विश्रामस्थानानि ज्ञेयानीति विशेषयति || १० || संपदश्च दमादिका श्रत एकादर्श दरम कद्वारम् - (पणदंड त्ति) यथोक्तमुद्रानिरस्खलितं जयमानत्वाद् दरमा इव दमाः, सरना इत्यर्थः । ते चात्र पञ्च शक्रस्तवादयः। प्रतिपादयिष्यति च "पण दंडा सक्कत्थय" इत्यादि । यदत्र वन्दनाया एव दएककाः परिज्ञापिताः नान्येषां तदस्या एवात्र मु प्रस्तुतत्वादितिकार्यादयाम॥१२॥ दयमेषु कादिका अधिकारातीत तत्संख्याख्यापके द्वादशमधिकारद्वारा सि) अधिकारा भाषाईदायालम्बन विशेषस्थानानि, ते च द्वादश दमक पञ्चके भवन्ति । अभिधास्यति च - "दो इग दो पंच य" इत्यादि ॥ १२ ॥ श्रधि कारास्याधिकार्यविनामानि नानाधारयपदेशाभा वातू, घृताद्यभावे घृतघटादिव्यपदेशानावचत् । श्रतोऽधिकारिण आलम्बनापरपर्याया अत्र ज्ञेयाः ते च द्विधा, वन्दनीयस्मरणीयजेदात् । तत्र प्रथमं सामान्यतः सफलवन्दनीयप्रतिपादकं त्र योदशं चन्दनीयारम (चित्वारो माण जिनादयोऽय वन्दनीया प्रमाणाबोध निरूपविष्यति जनमुनिसुपसिद्ध " ॥ १३ ॥ अधिका रस्ताचादेव चतुर्दशं स्मरणीयारम ( सरणित) स्प रणीयाः क्षुद्रोपद्रव विद्रावणादितगुणानुचिन्तनादिनोपवृंहणीयाः सूचनीया इति यावत् । यद्वा-स्मरणीयाः प्र मादादिना विस्मृतं तत्करणीयं तत् तत् सङ्गादिकार्य झाप नीयाः । श्रथवा-सारणीयाः प्रभावनादौ । तत्र हि ते कार्ये प्रव र्तनीयाः, ते चात्राधिकारितया सम्यग्दृष्टयो देवा ज्ञातव्याः तेषा मेस्मरणात्। दादीनां तुन्दनीय गु स्मारणादिकर्तृत्वाश्च । भणिष्यति च "इह सुराय सराणेज ति" ॥ १४ ॥ एवं च सामान्येनाधिकारिण उक्ता इति विशेषतस्तदभिधानार्थे पञ्चदशंजिनद्वार जिय या जिगाइयो यन्दनीया इत्युक्तम, जिनाः कतिविधा इति सायकं पञ्चदर्श जिद्वार (जि) जिना ररागाद्यन्तरबैरिवारजेतारः, ते च चतुष वक्ष्यमाणमामजिनादिप्रेदेन चतुःप्रकाराः । वक्ष्यति च " वह जिणा नाम " इत्यादि ॥ १५ ॥ चउरो थुई निमित्त बार देऊ य सोस आगारा गुणवीस दोस उस्स-ग्गमाण युत्तं च सगवेलाः || जिनादया स्तुत्यादिभिः स्तूयन्ते इति जमद्वारा मथं स्तुतिद्वारस सड़ा०] । ( ताः कति पो विद्या Page #1321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६८) चेश्यवंदण अन्निधानराजेन्दः। चेइयवंदण रोऽस्मिन्नेव शब्देऽग्रे करिष्यते ) कायोत्सर्गानन्तरं स्तु- किरियं कप्पविमाणोववतिनं आराहणं आराहे।" इत्यादि तयो दीयन्त इत्युक्तम् । अथोत्सर्गा एवात्र किमर्थ क्रियन्त | विमर्शनीयमिदं सूदमधियेति ॥२२॥ इयं च चैत्यवन्दना दि. इति तत्फल निरूपकं सप्तदशं निमित्तद्वारम्-(निमित्तऽह त्ति) नमध्ये कियन्तो वारानोघतो विधेयेति वेलाप्रमाणप्ररूपक निमित्तानि प्रयोजनानि, फलानीति यावत् । अष्टौ अष्टसंख्यानि, त्रयोविंशतितमं हारम्-( सगवेल त्ति ) सप्तषेला सप्तवारान् इदमत्र हृदयम्-संपूर्णायामस्यां क्रियमाणायां पापकपणा- दिनान्तरोघतोऽपि वन्दना कार्येति । कथयिष्यति च-"पमिदीन्यष्टौ फलानि भवन्तीति । प्रतिपादयिष्यति च-"पापक्खव. कमणे चेयजिणमचरिम" इत्यादि ॥२३॥ णत्थमिरिया" इत्यादि । यदत्रैर्यापथिक्या अपि फलमुपाद दसआसायणचाओ, एवं चिश्वंदणाश्वगणाणि । शि तदर्यापथिकीप्रतिक्रमणपूर्विकैव परिपूर्णचैत्यवन्दनेति प्र. चवीसदुवारेहिं, मुसहस्सा हुंति चउसयरा ॥ तिपादनार्थम् । एवं तद्धे तुप्रमाणवर्णादीनामपि निरूपणे कारणं वाच्यम् ॥ १७ ॥ फलाष्टकार्थ कायोत्सर्गाः कार्या इत्यजा चैत्यबन्दनां विदधता विशेषत आशातनाः परिहायर्या इति णि , तत्र न कारणमन्तरेण कार्यप्ररोहसंभावना , बीजेन चतुर्विंशतितममाशातनाद्वारम्-(दसत्रासायणच्चाो सि) विना कुरप्रादुर्भावाभाववदिति निमित्तद्वारानन्तरमष्टादशं दशानामाशातनानाम्हेतुघारम्-( वार हेक य ति) हेतवश्च फसाधनयोग्यानि " जिणनवणम्मि अवाप्मा, पृयाइप्रणायरो तहा भोगो। कारणान्यन वक्ष्यन्ते । यथा-" तस्स उत्तरीकरण" इत्या. प्पणिहाणं अणुचिय-वित्तिं आसायणा पंच ॥१॥" दि। चशब्दो निमित्तहेतुभिः कश्चित्कथंचन कतिचिन्मन्यत इ- इति बृहनाप्योक्तावादिपञ्चप्रकाराऽऽशातनाऽन्तर्वर्तिभोगातिवाचनान्तरप्रदर्शनार्थः। तच्चाग्रे दर्शयिष्यते । इति निमि निधानतृतीयाऽऽशातनानेदानां ताम्बूलपानीयादीनां,त्यागः परितहेतुभिः कृतोऽप्युत्सर्गों नाकारैबिना निरतिचारः शक्यः हार: कार्यों, जिनगृह इत्युपस्कारः । वक्ष्यति च-" तंबोपालयितुमित्याकारद्वारमेकोनविंशतितमम्- ( सोल श्रा लपानभोयण" इत्यादि । पतासां चोपलकप्पत्वात् , तुलागार त्ति ) षोडश आकारा अपवादाः कायोत्सर्गकरणे दएमन्यायेन वा मध्यग्रहणेनाऽऽद्यन्तयोरपि प्रहणाच्चतुरशीत्युज्ञातव्याः। वक्ष्यति च-" अनुच्या वारस" इत्यादि ॥१९॥ तरभेदावमादिरूपं पञ्चप्रकाराऽप्याशासना वज्येति । एतच्च कृते चोत्सर्गे दोषा वा इति विंशतितमं दोषसंख्या एतदद्वारन्याख्याऽवसरे भणियामः । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण चै. कारस-( गुणबीस दोस त्ति ) एकोनविंशतिर्दोषाः कायो त्यवन्दनायां स्थानानि भवन्तीति योगः । कै?, चतुर्विंशतिघा. त्सर्गस्थर्वजनीयाः । अमिधास्यति च-" थोडगलय " रैः। तत्राद्यगाथायामष्टी, हितीयस्यां सप्त, तृतीयायामष्टी, चइत्यादि ।॥ २०॥ कियन्तं च कालमेवमुत्सर्गः कार्य इत्येकविंशं । तुामेकं हारमिति । कियन्ति स्थानानि भवन्तीत्याह-ही प्रमाणघारम्-( उस्लमामाणु त्ति ) कायोत्सर्गप्रमाणमत्र सहस्रौ चतुःसप्तत्यधिको । तत्राधारे त्रिंशत् , हितिये पञ्च, शेयम् । वक्ष्यति च-" इरिओस्सग्गपमाण" इत्यादि ॥२१॥ तृतीये द्वौ, चतुर्थे त्रीणि, पञ्चमे त्रीसि , षष्ठे पकम् , सप्तमे चैत्यवन्दना हि स्तुतिस्तवादिस्वरूपा, तत्र स्तुतयो बन्दनामध्ये एकम् , अष्टमे षोमशशतानि सप्तचत्वारिंशदधिकानि, नवमे दीयमागत्यात् तद्वारं षोमशमुक्तम। स्तवस्तु बन्दनापर्यन्तजावी, एकाशीत्यधिकं शतम् , दशमे सप्तनवतिः, एकादशे पञ्च , "चेश्या बंदिज्जंति, तो पच्छा संतिनिमित्तं भजियसंति- हादशे द्वादश , त्रयोदशे चत्वारि , चतुर्दशे एकम् , प. त्यो परियट्टिज्ज।" इत्यावश्यकचूर्णिवचनातू, तथैव स. ञ्चदशे चत्वारि , पोमशे चत्वारि , सप्तदशे प्रष्टौ , अष्टाकलसङ्कन क्रियमाणतया करणविधी समायातत्वाच्च । तथा दशे द्वादश , एकोनविंशतितमे षोमश , विंशतितमे एकोन. चावश्यकवृत्तावप्युक्तम्-" चेअाइं वंदिज्जति, तो संतिनि- विशतिः, एकविंशतितमे एकम. द्वाविंशतितमे एकम्, त्रयोविशे मित्तं अजियसंतित्थओ कम्हिज" इत्यतो द्वाविंशं स्तवद्वार- सप्त, चतुर्विंशतितमे दश । सर्वे मिलिताश्चतुःसप्तत्यधिकम्-(थुतं ति ) स्तोत्रं चतुःश्लोकादिरूपम्-" चनसिलोगाए सहस्रा भवन्तीति द्वारगाथाचतुष्टयार्थः । सङ्घा० १ प्रका० । परेणं थभो भव" इति व्यवहारचूर्णिवचनात् तदत्र भण (२) दश त्रिकाणिनीयम् । वक्ष्यति च-" गंभीरमहुरसइं" इत्यादि । चशब्दो विशेषकः । तेनात्र पदैकश्लोकादिकं भगवद्गुणोत्कीर्तनपरं अथ "यथोद्देशं निर्देशः" इति न्यायात प्रथमं द्वारं व्याचिख्याचैत्यवन्दनायाः पूर्व भएयते , ततो मङ्गलवृत्तापरपर्याया न सुः दशत्रिकप्रचिकटयिषया शास्त्रप्रतिमुखरूपाणि प्रतिद्वाराणि चिरन्तनगाथाघ्यनाऽऽहमस्कारा श्त्युच्यन्ते । यद्भाष्यम्" महामसयं वेया-लि उच्च पदिऊण सुकश्बद्धारं । तिनि निसीही तिन्नि य,पयाहिणा तिन्नि चेव य पणामा। मंगलताई तउ, पणिवायथयं पढ२ सम्म ॥१॥" तिविहा पूया य तहा , अवत्थतियभावणं चेव ॥ इति पूर्व भणनीयत्वादेव नमस्काराणां तद्द्वारं पूर्व सप्तममुक्त तिम्रो नैषेधिक्यो गृहादिव्यापारपरिहाररूपाः, जिनगृहादिस्थाम् । यत्तु कायोत्सर्गानन्तरं भएयते तत स्तुतय शति रूढाः, ने प्रविशता कर्तव्या इति क्रियाऽध्याहारः। एवमन्यत्रापि-"यश्च चैत्यवन्दनापर्यन्ते च स्तोत्रमिति, अयमेव चैतेषां परस्परं वि निम्ब परशुना, यश्चनं मधुसपिपा। यश्चैनं गन्धमाल्याज्यां, स. शेषः, अन्यथा भगवत्कीर्तनरूपतया सर्वेषामप्येषामेकस्व- वस्य कटुरेव सः॥१॥” इत्यादिवद् यथाऽनुरूपा क्रियाऽध्याहासपापत्तेः । भणितं चागमे त्रितयमप्येतत्-नमस्कारस्तुति- यति प्रथमं त्रिकम् ॥१॥ तिनश्च प्रदक्षिणा दातव्याः,तत्र प्रकर्पण स्तवा इति । तथा चोत्तराध्ययनसूत्रम्-'थयथुश्मंगले णं भंते ! सर्वासु दिदा विदिक्षु च परिभ्रमतां दक्षिणमात्मनो दक्विणाङ्गजीवे किं जणयर। थयथुश्मंगलेणं नाणदसणचरित्तणि, बो- नागवर्ति मूलबिम्बं शानादित्रयानुयूट्यकृते यत्र प्रतिपत्ती सा हिलाभं च जणय । नाणसणचरित्तसंपनेणं जीवे अंत.। प्रदक्विणेति द्वितीयं त्रिकम् ।। २॥ त्रयश्च प्रणामाः प्रकर्षण Page #1322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६६) चेश्यवंदण अभिधानराजेन्द्रः। चेइयवंदण शीर्थादिना भूस्पर्शादिलकणेन नामा नमनानि प्रहीभावा जि- | या ज्ञातव्यम् , तदविनाभावित्वात्सूत्रोचारस्य , "थयणढो हो. नस्याने विधेयाः, नमस्कारकरणकाले भक्थतिशयख्यापनार्थ जोगमुहाए" इत्यादिवचनात् । दृष्टश्व समुहं सूत्रपागेऽत्रीन वारान् शिरोनमनादि विधेय,न त्वेकमपि वारमित्येवशब्दो न्यत्राऽपि मन्त्रवेदादौ, परममन्त्रवेदादिकल्पं च सर्व जिनागमनियुक्तः । यदागमः-"तिपखुत्तो मुकाणं धरणितलंसि नमे- सूत्रम्। "कस्स विस परममंतो" इति। "अट्ठारस पयसहस्सी उ "त्ति ।। ३ ॥ शिरसा विजृमि स्पर्शयतीत्यर्थः । एकः चशब्दः बेओ" इत्यादिवचनात् अञ्जलिमुकापञ्चाङ्गीमुद्रादयस्तु अत्र न समुच्चये, द्वितीयस्तु विशेषणे । स चैकाङ्गादिकमपि प्र- परिझाता, उत्तरमुखारूपत्वात्तासामनियतत्वात, सूत्रपाउसमये णामं कुर्वद्भितम्याकाशशिरःप्रतिष्वाप सर्वत्र शिरःकरा- अनुपयुज्यमानत्वात् , तथाऽनुक्तत्वात् । सूत्रोच्चारकालात्पूर्वाअल्यादि त्रिःपरावर्तनीयमिति विशिनष्टि । एवं च-"पणिवाभो परकालनावित्वाद्विनयविशेषदर्शनमात्रफलत्वाश्चत्यादिवद् अत्र पंचगो " इत्यप्युच्यमानं न विरुध्यते, प्रणिपातभेदाङ्गव्य- परिकेयमिति नवमं त्रिकम् ॥ ६ ॥ त्रिविधं च त्रिभेदं चैक्तिण्यापनपरत्वात्तस्याः । यद्वा-नृमौ जानुन्यासशिरःस्पर्श- त्यवन्दनामुनिवन्दनाप्रार्थनानेदात् प्रणिधान, चैत्यवन्दनाऽवसाशिरोऽजलिकरणम्पाखवः प्रणामाः शक्रस्तवादी बि- ने विदध्यादिति शेषः। तथा चाममः-"वंदर नमसह" त्ति सूत्रधेयाः । उक्तं च-" चामं जाएं अंचेई" इत्यादि । अथवा स्य वृत्तिः-वन्दते ताः प्रतिमाश्चत्यवन्दनाविधिना प्रसिकेन, अनलिबन्धोऽर्कावनतता, पञ्चाङ्गश्चेति। अत्रैव वक्ष्यमाणलक्षणा नमस्करोति पश्चात्प्रणिधानादियोगेनेति दशमं त्रिकम् । इति प्र. स्त्रयः प्रणामा इति तृतीयं त्रिकम ॥३॥ त्रिविधा च त्रिप्रकारा तिद्वारगाथाद्वयसमासार्थः॥ १०॥ उक्तो दशत्रिकाकरार्थः । अङ्गाग्रभावाऽऽत्मिका पुष्पामिषस्तुत्यादिनिर्माप्यस्वभावा पश्चप्र संघा०१ प्रस्ता०। प्रव० । दर्श। काराऽष्टप्रकारसर्वप्रकाररूपा वाऽत्रैव वक्ष्यमाणस्वरूपा पूजाऽर्चा विधेया।तथेत्यागमादुक्तनीत्या तदुक्ताशेषतत्पूजानेदानामत्रा (३) नैषेधिकीत्रयम् । अथ नाबार्थ उच्यते-तत्र प्रथम नैषोधकीत्रिकं भावयन् जाध्यकृदाहतनावरूपया । मक्तं चैतच्चूर्णी-"तिविदा पूया पुप्फेहि नेवजेहिं घुईहि, सेसभेया इत्य चेष पविस्संति ति"। यद्वा-तथेति घरजिणहरजिणपूजा-वावारच्चायो निसीहितिगं । " सयमाणयणे पढमा " इत्यादिस्थानान्तराप्रसिद्धाऽनेकधा- अग्गबारे मज्जे, तझ्या चिऽवंदणासमए ।। पूजात्रयाणां ज्यापकः, तानि चाग्रे दर्शयिष्यामः । इति चतुर्थ | गृहं च मन्दिरम,उपलक्षणवादापणादिपरिग्रहः।जिनगृहं च देवत्रिकम ॥ ४ ॥ अवस्थात्रिकस्य छनस्थकेबलिसिद्धत्वरूपस्य, गृहम, जिनपूजा च पुष्पादिभिर्जिनात्यर्चनं, तेषां व्यापारस्तानावनं पुनःपुनश्चिन्तनं, "भावयेद् ज्योतिरान्तरमिति" वचनात्।। तकार्यकारणाश्चिन्तनादिलक्षण प्रारम्भः तस्य त्यागाद्वर्जनादुनैपिरामस्थपदस्थरूपातीतध्यानकृते कर्तव्यमेवेति, एबशब्दोऽवधा षेधिकीत्रयं पूर्वोक्तशब्दाथै, यथार्थनामक नवतीतिगम्यते।तत्र प्र. रयति । तथैव पिण्डस्थादिध्यानसिकेस्तदर्थत्वाच सर्वस्याऽपि थमा नैषेधिकी-अपद्वारे बलानकप्रवेशसमये विधेया । द्वितीया सद्धर्मानुष्ठानोपक्रमस्य, रूपस्थध्यानं तु दर्शनमात्रादपि सि तु मध्ये मुखमएम्पादौ । तृतीया पुनचित्यबन्दनाविधानसमये । कुत्चति । रुक्तंच"-पश्यति प्रथमं रूपं, स्तौति ध्येयं ततः पदैः। श्त्यक्षरार्थः । जावार्थस्त्वयम्-जिनभवनादिवहितगृहहट्टादितन्मयः स्यात्ततः पिएमे,रुपातीतः क्रमाद्भवेत् ॥१॥" इति पञ्चमं गतक्रयविक्रयादिव्यवहाररूपसाबद्यारम्नविधाननिषेधनिष्पन्ना त्रिकम् ॥५॥ प्रथमा नैषेधिकी, सा चाप्रद्वारे जिनभवनवृत्तानके वक्ष्यमाणतिदिसिनिरक्खणविरई, पअजृमिपमज्जणं च तिक्खुत्तो॥ पञ्चविधाऽनिगमविधानपुरस्सरं प्रविशता भुवनमन्चनरेन्छव कार्या मा । यदुक्तं भाष्येवन्नातिय मुद्दा-तियं च तिविहं च पणिहाणं ॥ "पंचबिहानिगमेणं, पविसंतो वनाणए निसिहितिगं। तिसुणामर्धाधस्तिर्यग्रूपाणां वामदक्विणपाश्चात्यलक्षणामां कुज्जा बहिवाबारं, न काहमिन्हि ति जावितो ॥१॥" वा दिशां, निरीक्षणस्यालोकस्य विरतिर्वर्जनं, विदध्यात । अत्र मनोवचःकायगृहादिव्यापारो निषेध्य इति ज्ञापनार्थतत्रानुपयोगे चन्दनस्यानादरतादिदोषप्रसङ्गात, यस्यां दिशि मुक्तम् । (मिसिहितिगं कुज त्ति) परमेकैवैषा यएयते, जिनगृ. तीर्थकृद्विम्बं तत्संमुखमेव निरीतयेतेत्यर्थः । यदागमः-"भ. हादिबहिर्जावितयैकरूपस्यैव गृहादिव्यापारस्य निषिकत्वात् । पणेवगुरुजिणिवपमिमासु विणिबसियनयणमाणसण. जाव तथा च लघुभाष्यम्-" तणुवयणमाणसाणं, निसीहबिसया चेहए बंदियधे " षष्ठं त्रिकम् ॥ ६ ॥ पदभूमेनिजच निसीहियाति ति"। रणन्यासभूमेः , सत्वादिरतार्थे सम्यग् चकुषा मिरीक्ष्य प्रमार्जनं च त्रिःकृत्वस्त्रीन् बारान् कुर्यात् । उकं चागमे अत्र भुवनमल्लनरेन्द्रकथानकं चैवम्"जेश तिन्नि बारा उ चलणाणं हिटगं नर्मि न पमजिज्जा, "कुसुमपुरी अस्थि पुरी, बदुचनरयणाहि एगचउरयणं । तो पच्चित्तं" इति सप्तमं त्रिकम् ॥७॥ वर्णादित्रिकं चैत्यव- एगहरिं भूरिदरिहि, परिहवा अमरनयरिं जा ॥१॥ न्दनागताकरार्थासम्बनरूपया परिक्षानं सम्यगुच्चारचिन्तनात्र- हेमप्पहो हरि श्व, तत्थऽथि निबो गवाहियो स जो। वेण पर एकाग्रतां मनसश्चिन्तयेत्। श्त्यष्टमं त्रिकम्॥॥ मुकाणां भजा य तस्स रंभा, पुत्तो पुण भुवणमल्नु त्ति ॥२॥ हस्तायनविन्यासविशेषलक्षणानां त्रयं च योगमुजाजिनमुद्रा- सूरो रणम्मि सोमो, नयम्मि धक्को रिउम्मि जो उ बुहो। मुक्ताशुक्तिमुकात्मकं सूत्रपाउसमकभावितया मूलमुजात्रयरूपं सत्यम्मि मई गुरू, नीई कई अधेमंदो ॥३॥ समस्तप्रत्यूहव्यूहव्यपोहाथै,सकलसमोहितसंपादनार्थ च,यथा कश्या निवं सहत्थं, वित्ती विन्नव देव! यहि एगो । महामान्त्रिको मन्त्रादि स्मरन् वज्रमुखाकृष्टीमुद्रादिका मुखाः प्र. पुरिसो द8 इच्छा, पहुं कहेश्न असो अप्पं ॥ ७॥ युङ्गे, तथा चैत्यवन्दनासूत्रोच्चारावसरेऽवश्यं सत्यापनीयत- | मुंच त्ति निवुत्ते जा, मुको पत्तो य रायदेिट्ठिपहं । Page #1323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३००) चेइयवंदण अनिधानराजेन्द्रः। चेइयवंदण ता हसि निवो भणई, कि अप्पं करद ! गोवेसि ॥ ता सोतुमिमं सम्मं, अरिहं देवो मुसाहुणो गुरुणो। सोभण कयपयामो, पहु! कीरउ भेऽवयारणं करहो। । जिणपएणतं तत्तं, इत्थ पहाणं ति कुण मई॥३०॥ कह चिरदिछो ग्रोल-क्खिो मि नामं च सरियं मे ॥६॥ जणियं चजगाइ निवो उबयारी, वीसरसी तुम जमाप्पिया तुमए । मुत्तूण जिणं मुत्त-ण जिणमयं जिणमए बि ए मुर्नु । रम्भा दिवे विवाहे, थविय कणयपाउया मज्म ॥७॥ संसारकन्नधारं, चिंतिज्जं तं जगं सेसं ॥ ३१॥ इय संभासिय पुट्ठो, आगमणपोश्रणं निवेण इमो। सईसणसुकिए, कायव्वा वंदणा जिणाण सया। जण पह! अस्थि सिरिसे-णनिवश्धूया रयणमाला॥5॥ तिनिसीहादसगं, तत्थ य नेयं जहा विहिणा ॥ ३२ ॥ सा कुंदरयणमाला, सुरयणमान व्व वरगुणसमेया। अह भणइ भुवणमलो, भयवं! कह मुच्चिओ ममं दटुं । जो कुण राहवहं, स मे वरो इय कयपयन्ना ॥६॥ समयणरमणिवियारे, कहं व पुरिसो वि कुण श्मो? ॥३२॥ राया तु नुवणमल्ल, श्च्छाप्त भयणिसुवरं न वरं। भण गुरू प्रह! पुरा, सीहपुरे आसि रयणसारनिवो। कुमरीगिरमवमन्न, जाणतो कुमरकोसल्लं ॥१०॥ गंग व्व सुई सुदया, तस्स पिया मयणरेह ति॥३४॥ इअ पेसिनो निव!श्हं, ता कुमरो तिच्चवेन यऽविज्ञवं । लियविनीयविरते, कइआइ निवम्मि साऽणुरत्ता वि । नियदसणामपणं, सिरिसेणनरिंदमणनयणे ॥ ११ ॥ उबंधेऊण मया, अवमाणदुई असहमाणा ।। ३५ ॥ निय नियो गणयमुहं, तो सभण पवरमज्ज जुत्तदिणं । जोचिता निवो धुवा कुम-रभद्दसेणी सविहबग्गा ॥ १५ ॥ अलियाववायअभिदू-मीययजीवस्स सुद्धदिययस्स । यत उक्तम् होइ वह तस्स पुणो, चंदणरससीयलोऽगी वि ॥ ३६॥ सस्थानान्यविघ्नानि, संभवत्साधनानि च । देवच्चणदाणदया-सुरुभावा उ साइप्पराणा । कथयन्ति पुरः सिलिं, कारणान्येव कर्मणाम् ॥ १३ ॥ सिद्धत्थपुरे सुंदर-निवधूत्रा मूलनक्वत्ते ॥ ३७॥ मणपवणस उणपरियण-अणुकुलत्तण तोचवणमल्लो । अह सहसा कालगो, राया जं मे मीइ तो कुणई । चंपापुरीअनिमुह, चलिमो चउरंगबलकलिओ ॥ १४॥ सुमअमच्चो पयडिय-पुत्तत्तं रजाभिसेयं ॥ ३० ॥ सिद्धस्थपुरसमीवे, जा पसोता नरेहि तप्पहुणा । मरिऊण रयणसारो, जामो सि तुम हागए दिहे। बिन्नत्तो जह कीरउ, वीर!सरवणे इहावासो ॥ १५॥ पइपुवन्नवब्जासा, पई एए सरिउ नेहो ॥ ३६॥ तत्थावसित कुमारो, नियइ घणं विम्हिो समंता जा। किं मह इमम्मि पीई, एवं ति इमेह विमरिसंतीए । ता पिच्छा हयमयरह-सुहमसमूह समूहमितं ॥ १६ ॥ जाए जाईसरणे, तं जायं ज तए पुटुं ॥ ४०॥ किमियं ति कुमरपुछा, नणंति सिद्धत्थपुरनिवनरा ते। भुत्तं संसारसुहं, नालंदश्यस्स नेहपरिणामो । न मुणेसु.परं संभा-विज्जह सिरिमूलदेवनिवो ॥ १७॥ दिठो मालबदेसो, खका मंमा य अग्घाणा ॥४१॥ ज तुम्हागमरसण-समया स मन्नई सणं पि। भण मूत्रदेवो, मुणिवइवयणा न जायवेरम्गो । वरिसमम ति इमेजा, कहंति ता विनयह वित्ती ॥ १७ ॥ पमिवज्ज पव्वज्ज, रज्जं दाउं कुमारस्स ॥ ४२ ॥ सिद्धत्थपुरनिवो पहु!, गयउत्तिनो पहिए ति। कुमरो पुण संमत्तं, गिएहइ चिइवंदणाइनियमजुयं । तो कुमरो अस्थाइ जा, पत्तो ता स झति तहि ॥ १६ ॥ अह गुरुणा गुरुकरुणा-परेण एवं स अणसिहो॥४३॥ अश्वविजियमारं, द? कुमारं घस त्ति धराणवो। लभंति सुरसुहा, बभंति नरिंदपवरिकीओ। मुच्चावसास पमिओ, हा हा सद्दो पुणुच्छालश्रो ॥ २०॥ न उणो सुबोहिरयणं, लगभइ मिच्छत्ततमहरणं ॥४४ ।। कुमरेण ससंभममह, चंदणसेयाश्णोक्यारेण । जह गहगणाण गया, प्राहारो रोहणो य रयणाणं । संलद्धचेयणो किं, वाह तुम्हं ति सो पुछो? ॥२१॥ सिंधूण जहा जलही, तह सयलगुणाण संमत्तं ॥४५॥ ओणयवयणो न दे३, उत्तर नियइ यविरदिट्ठीए । जह उवसमो मुणीणं, चाचविहविणयसीलमित्थीणं । कंडूअ स य कन्न, पायंगुछेन लिहइ नुवं ॥ २२॥ तह सम्मत्तं गिहिणो, जइणो वि विनूसणं परमं ॥ ४६॥ किमिय ति कुमरपुट्ठो, सिरिसेहरमंतिनंदणो सीहो। ता मा कासि पमाय, सम्मत्ते सव्वक्वनासणए । कुमरवयं सो साह, पहु! श्हन मुणिज्जई कि पि । जं सम्मत्तपट्ठा-(नाणतषबिरियचरणाई॥४७॥ नवरं ओ अदूरे, गम्मिजउ देव ! जेण धरणाणी । इत्थं ति जणिय कुमरो, तो मन्नतो कयत्थमप्पाणं । सिरिअजयघोससूरी, समागयो अस्थि इह जो उ॥ २४॥ बहु बहुमाणं नमिलं, गुरुपयपउमं गो सिबिरं ।। ४ ।। मेरु व महियजलही, सूरो विव निहयविसमतपतरणो। सिद्धत्थपुरे गंतुं, सुमरअमचं तहिं नविय रज्जे। दोसुम्मूलपरसिओ, रवि ब्व दास व्व पबरगुण ॥ २५ ॥ चलिश्रो पुरो पत्तो, अडवि कालिंजरं जायो। ४६ ॥ सयपरिगदरहिशो, विरक्ष्यसारंगसंगहो सययं । खग्गानिघायभज्ज-तमत्तमायंगवियडकुंजयडा। विहियसयलक्खविजओ, एगसंसारभयभीत्रो ॥ २६ ॥ विलसिरसकुंतसरच-कवायया संगरधर व्व ।। ५०॥ तो कुमरो सो य निबो, गंतूणं तत्थ नमिय सूरिपए । तत्थ दसजोषणते, आवासीय जाव बरुणनश्तीरे । उविसइ उचियाणे, तो सिरि कहाश्य धम्म ॥२७॥ कुमरो नियह वणा, ता पिच्छ रिसहजिणभवणं ॥५१॥ लहिउं सुलहं पुर-भवाइसामग्गिमित्थ भवहरए । तो तत्थ निसीहितिगं, काउं जा पविसइ नियइ ताव । सईसणपरिजठा, मा कुहिया भमह कुम्म ब्व ॥ २७॥ जिणप्यवावडाओ, अमरीश्रो भत्तिनमिरात्रो ॥५॥ हरपरिमियत्तणा अवि, लहिज्ज ससिदसणाइ सो कुम्मो। । अह दटुं निप्पमिमं, कणगमयं रिसहसामिणो पडिमं । न उ पुण वि जत्रो बोहि, भवऽग्रतत्ता अकयसुकत्रो ॥२६॥ कुमरो वियसियवयगो, वंदिन बिहिणा थुण एवं ॥ ५३॥ Page #1324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेइयवंदण अनिधानराजेन्षः। चेइयवंदण विश्वत्रयैकदर्शन!, सहस्रदर्शननतक्रम ! जिनेन्!। कश्मा दहश्रासहिो , उजिते समएँ केवलि नंतुं । सवणंतपत्तदंसप!, अणंतदंसण! चिरं जयसु ॥ ५४॥ चलिमो निपमि मग्गे, जोगिभमिक मसाणते ॥ ७९ ॥ पूर्वाकृतसुकृतानां, पूर्वाशीलितविसुद्धशीलानाम् । रत्तंदणकयतिलयं, परिहियमिगन्यम्मपित्तप्तयपुष्पं । अविहियतवाण पुटिक न दोह तुह दंसणं व ॥ ५५॥ कसिणादिजोगघट्ट, मिहत्तं गरुयहुंकारं ॥८॥ भवशतकृतमपि पापं, त्वदर्शनतो विलीयते नाथ!। तस्सऽग्गे जलिरानिल-कुंड यामम्मि कन्नगं वेव । पिमाभूनं पि घयं, दुमं जहा जलिरजलणाश्रो॥५६॥ रुयमाणि रत्तंदण-मित्तं कणवीरमालिनं ॥१॥ समयोऽयमेव शस्यः, सलकणोऽसौ कणस्तदहरनधम् । तं जा खिविही नसणे, स मए ता तल्लिो अरे पाय !। पक्खो वि सो सपक्खो, जयवंधव ! दोससे जत्थ ॥ ५७ ॥ असमंजसमिश्र कार्ड, कत्धिरिह यश्चसि हयास!॥ ८२॥ कटुमदृष्टे वाञ्छा. दृष्टे त्वयि नाथ! विरहजं दुःखम् । तो सो भीत्रो कम्नं, मुत्तु नहो दया श्मे मुक्को । इय ज दुहा वि न सुह, तहा वि सुह दसणं होतु ॥ ५८ ।। पत्तो अहं पि रेवय-गिरिम्मि त बाखि नहिडं ।।३।। पूर्वार्जितसुकृतकृतं, जाविशुभनिधन्धनं हरति चैनः । तत्थ सुरिसुमकेवखि-सुणिणो कमकमममसमहं। श्य कालत्तयसुहयं, जिणाण तुह दसणं दुलहं ।। ५। पणमित्ता आसीणो, सुरणामि इय दंसणं भणहं ॥ ४ ॥ स्वामिन् ! स्वदर्शनं कुरु, तथा यथा स्यात्पुनर्न तदभावः। " कोहो अप्पीश्करो, नव्वेयकरो य सुगमिद्दलणो। जच्चधवेयणाश्रो, चक्खुक्खयवेयणा दुसहा ॥ ६ ॥ वेराऽणुबंधजणणो, जमणो वरगुणगणवणस्स ॥ ५ ॥ नामाऽपि नाथ! यस्ते, वरमन्त्रसधर्म कीर्तयति तस्य । कोहंधा निहगंति ब, पुतं मित्तं गुरुं कलतं च । मिच्छादसणदोसो, बहु नास किं परं भणिमो?॥६१॥ जणयं जणि च अप्पि, पि निग्घिरमा किच ण कुणंति ॥८६॥ य इति जिन! स्वामन्यू-नदर्शनान्यूनदर्शनं नौति । कोहऽग्गीपज्जलिओ, न केवलं महइ अप्पणो देखें। स विशुरुदर्शनः श्रय-ति सत्वरं सर्वदर्शित्वम् ।। ६२ ।। संताविश्य परं पि हु, पहवः परत्रवविणासाय ॥ ७॥ श्य थोउ चेश्य जा, सविम्हयं नियः सवप्रो कुमरो। ता कोहमहाजलणो, विज्झवियम्चो खमाजलेण सया। ता पिच्छा पच्छिमदिसि, कमलललामं च पुक्खरिणि ॥६३।। अन्नह दुसहं दुक्खं, देश जह इमी बालाप ॥ ८८" गंतुं तत्थ जलेणं, मडुरेणं सीयलेण विमलेणं। जयवं कोहबसेणं, शमी पत्तं दहं कहंति मया। गुरुवयणेण व अप्पं, सोहिय जा विस्सम सुत्थो॥ ६४ ॥ पणमिय पुट्ठोस कहे- केवली असुर! निसुणोह ॥ ॥ ता गुंजाहलहारो, सलसइसासाकरो हलिहनिहो । कयमंगलापुरीप, धसिठिसया न बालविहवासी। एगो समागो त-स्थ वानरो वानरीजुत्तो ।। ६५ ॥ जयसुंदरी ति तीसे, अत्तिजया भायरा पंच ॥१०॥ समणुयगिराइ कुमरं, पणमिय भणइ पहु! असरासरण ! । जिहस्स पुणो भज्जा, न यहए ती सह सया सम्मं । सुदय! पवमसुदक्खिण,! कुमर! मह मुणसु विसतं ॥६६॥ तं परिणावर प्रचं, कन्नं सा मच्चरितमणा ॥५॥ इह ममवीर सया वि हु, वानरसूहाहिवत्तमासी मे। तीइ कयं जं किं पी, दूसर तह हर 58वयगेहिं । एसा न बल्लहा तह, पाणेहि वि वखडा निच्च ।। ६७॥ गयनज्जा संमुहमु-त्तरं दयभामाया बि || ए२॥ तं मह जूदं एंट, वणंतरगयस्स वानरेण बला। जिणभवणमागयाओ, वि परप्परविलियभासणेण श्मा । अघहरिश्रो असणं, तं तु समत्थो विणिग्गदिउं॥ ६॥ प्रमाण बी मिसीहिय-भंगाई कुगंति विकहतए ॥१३॥ नवरं न देह महते-ण जुज्झिनेहकायरा पसा। जोअहमवि इमं न सके-मि इत्थ पगागिगि मुत्तुं ।। ६६॥ जो होश निसिद्धप्पा, निसीहिया तस्स भावभो हो। संपह तुमं महायस!, मणनयणूसवकरो सुबंधु ब्व । अनिसिहस्स निसीहिय, केवनमित्तं भव सहो ॥ए । परउवयारिकपरो, दिट्ठो पुलोदएण मए ।। ७०॥ मिहो कहाओ सव्वाश्रो, जो बज्जेश जिणालए । ता जाव अहं रिवा-नरं बहुं निहणिऊण एमि हं। तस्स निस्सिहिया होइ, इह केवलिभासियं ॥१५॥ ता नेहभीरु पसा, निरुद्दवा गन तुह पासे ।। ७१।। श्य अवसट्टामओ, परुप्परं दो विकलहमाणाश्रो। श्य ननिय तई मुत्तुं, गो श्मो चितए तो कुमरो। विज्जूप दसामो, मरिउं, जायाओं पग्घीओ ॥१६॥ कह मणुअगिरा एसो, वय पवन्न इव मईपुवं ।। ७२॥ पुवम्भासा अन्नु-नदसणा जायतिब्बरोसाओं। बलिअरिउणा पियं जा, निहयं न सुखामि ता मम वि जुत्तं । जकिय मरिवं सत्सो, पत्ताओं तश्यनरयम्मि ॥१७॥ मरणं ति भणिय कुमर-स्स वानरी पड वार्वि तो।७३ ॥ तत्तो उवट्ठिय गय-चरम्मि पुवनवविहियमुकयघसा । महु मह इमी सरणा-गयार मरणं उविक्खिउं उचिरं । भाउज्जायाजीवो, ज़ाया सिरिसूरनिवजाया ॥ १८ ॥ श्य तार ककृणत्थं, झंपावह तत्थ जा कुमरो॥ ७४॥ तीसे गब्जे धुवत्ता-३ नणंद जियो उ अप्पन्नो। तावन्न वाविन जलं, न वानरी तत्थ किंतु अप्पाणं । पर मणसंतावं, उवयं जणइ अगरुनं ॥९॥ वरमणिमयपासाए, पद्वंकगयं नियक्ष कुमरो॥ ७५ ॥ विहिपसु वि तप्पामण-हेजसपमुं न जाव सा पमिया । अह अनियंता कुमरं, निष्चा गंतु कहंति मंतीण । तो जाया पयमेउ, मय त्ति दासी छविया ।। १०० ।। ते विदु सन्निहियबला, तं कयजत्ता गवसंति ॥ ७६॥ तद्दिषसपसूयाए, तोप पुण भप्पियाएँ धूयाए । प्रायम्मनाग एगो, अह कुमरं पश् पयंपइ हं भो!। तत्थ य पालिज्जती, सा बाला वट्टिया एत्तो ॥ १०१॥ मा कि पिचितियऽनं, कारणोतं मयाऽऽसीओ ॥ ७७॥ कीलंती मिभेहि, अहऽनया जोगिएसा भोलविउं । अश्रुहमंतसाहण-हेडं नीया मसाणे सा ।। १०२ ॥ को तं किमाणिो हं, अ कुमरुत्ते नरो नगइ सुणसु । जा छिविही सा जलप्पे, ता तुमए मोइ इहाणीमा । अमिश्रगई असुरोऽहं, कीलाजवणं च मह पयं ॥ ७ ॥ इन नाउं भो अप्पा, कसाइयवो न धोवं पि ॥ १०३ ॥ Page #1325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०५) चेइयवंदण अनिधानराजेन्द्रः। चेइयवंदण. . भणियं च वत्थाजरणा बहुं, दाउं पत्तो साणम्मि ॥ १६ ॥ भणयोवं वणथोवं, अम्गीथोवं कसायथोवं च । कुमरो वि तो चलिओ, पत्तो चंपा तमह वृत्ततं । न हु भे विस्ससिअव्वं, थोवं पिहु तं बहुं होइ ।। १०४।। सिरिसेणनिवो सोउं, श्य चिंतइ हरिसिओ हियर ॥१७॥ दासत्तं देइ अणं, अइरा मरणं वणो विसप्पंतो। तम्मि कुले उष्पत्तो, सो विणो तं कलातु कोसवं । सम्बस्स दाहमग्गी, दिति कसाया भवमणंतं । १०५।। सोको वी पूण पढभा-रपगरिसो अत्थ एयरस ॥ १२८॥ सा जणइ सरियजाई, जयवं! सव्वं पि मेऽणुनूयमिणं । जेणं बीला शच्चिय, धुवं करिस्सिही राहवे हं ति। ता सिंह कुण करुणं, हा विजह होमि निस्संगा ॥१०॥ नियहियो राया, कुमरं संवर धरनुवणे ॥ १२६ ॥ भण मुणी गिहिधम्म-स्स इपिड उचिया तुम जो अत्थि। अह सजिजअ राहावे-हममवे रयणथंभसोहिल्ले । पुवकयदेवपूया-सुकयसंभूयभोगफलं ।। १०७ ॥ मंचोवरि वरसीहा-सणोववि सु निवईसु ॥ १३०॥ जओ कुमरो असुरऽपिपयए, वरवत्थाहरणभूसियसरीरो। देवश्चणेण रज्ज, भोगा दाणेण रूवमभएणं । परिहारदसियम्मि, णिवसइ सीहासऐ रम्मे ॥ १३१॥ सोहग्गं सीलेणं, तवेण मणवंछिया सिझी ॥ १० ॥ इत्तो य रयणमाला, कुमरी सियसिचयसारलंकारा। साजणा तुम्ह सवं, पच्चक्खं नाह! नवरि मज्भ कहं। सिवियारूढा पत्ता, तत्थुव विष्ठा पिउच्चंगे ।। १३२ ।। अविरयसुराण मज्ज-ट्ठया निश्चट्टि गिहिधम्मो ॥ १०६ अद सिरिसेणनिवेणं, बणिय भो भो निवा ! निवपुत्ता !। तो केवत्रिणा भणियं, नहे ! कालिंजराइ अमवीए । जो राहमिणं विंधर, सो कन्नाए इमाइ बरो॥१३३ ॥ सिरिरिसहनाहभवण-म्मि तुझ पूर्य रयंतीए ॥ ११०॥ आ ममवमझे सुदि-कणयथंभोवरि अहोवामा । हेगप्पहरायसुत्रो, तत्थ समागच्छिही नुवणमल्लो । वरकंचणपुत्तप्रिया, विया तीसेउ हिम्मि ॥ १३४ ॥ जिणनमणत्थं विहिणा, का निस्सीहियातियगं ।। १११ ॥ चउ चन चक्काईदा-दिणेण वामेण बेगनरियाई। तेण समं रज्जसुह, माणित्ता पालि च गिहिधम्मं । तेसिँ अहो नूमीए, तिल्लजुआ कुंमिया नविया ॥१३५ ॥ पमिवज्जिय पवज्जं, अहिही अश्राऽमरट्ठाणं ॥ ११ ॥ तत्थ पमिबियाए, पंचालीए अहो नियंतेण । अद तीए गिहिधम्मे, पमिवन्ने नमित्र केवलिस्स मप । विधेयव्वा वाम-च्छितारिया साबहाणेण ।। १३६ ॥ इच्चाए णं विहियं, विजयपयम त्ति से नामं ॥ ११३ ।। तह इह पत्ताण मए, सब्वेसिं खत्तियाण नामा। मह कुमर ! अज्ज एसा, जाव गया चेइयम्मि पूयत्थं । भुज्जेसु लिहावे, मिम्मयगोबेसु खित्ताई ॥१३७ ॥ ता कयनिसीहियतिगो, जिणनमणत्थं तुम पत्तो ॥११॥ वियाई ताइ इह सा-यकुंभकुंभम्मि संति कते । निस्सीहियं कुणतं, दट्ट इमा सूरीहिं भणियत्ति । अम्हं पुरोहियम्मी, गोलो किर नीहर जस्स ॥ १३८ ।। जो केवलिणा कहिओं, धुवं इमो भुवणमल्लो सो ॥११५॥ सो राहावेहम्मी, ववसायं कुण इय ववत्थ त्ति । श्रह ताहिँ वाविपमुहं, कान पवंचं तुम इहाऽऽणीओ। तत्थ पुरोहियहत्थे, अह पढमे गोलए चलिए ॥ १३६।। ता तिइ पाणीगहणे-ण कुमसु मह पत्थणं सहलं ।। ११६ ।। नामम्मि वाइए तह, अनुज्झनयरीएँ पहु जस्स अंगरुहो । कुमरो नण पमाणं, आएसो नवरि गम्मउ बलम्मि । मयरद्ध यकुमरो व-हिऊण सकरे करेह धणुं ॥ १४ ॥ नविरहियो परियणो, हेण गमिही खणं पिजओ ॥११॥ पुवमणिएण विहिणा, मुक्को वि हु अप्पडित्तु अयरम्मि । श्रारोविन विमाणे, कुमरं सिविरम्म नेह जा असुरो। सुचरणमुणिहियए श्व, जग्गो मयरद्धयस्स सरो॥ १४१ ।। ता सहसा उज्जोअं, हटुं सचिवाइणो विति ॥ ११८ ॥ एवं राहावेहे, विहियारंजेसु खत्तिअवरेसु। जो दुं पिता तए जा, हरिओ जेण कुमरो तो खोहं। उड नुवणमल्यो, कुमरो इह अवसरे पत्ते ॥ १४ ॥ चयह बहसज्जा सा-हसस्स दइवो विन हु किं पि ॥११॥ सज्जीकयधमुगुणो, अंतरमहलहिय मुक्कप्रसमसरो। यत: राहावेहं साहइ, गंठीभयं व भव्वजिप्रो ॥ १४३ ॥ सत्वैकतानमनसां, स्फूर्जदूर्जस्वितेजसाम् । जयतालादाणपरे, जणम्मि कुमरेण हतुट्ठमणो । देवोऽपि शङ्कते चैषां, कि पुनर्मानवो जनः ॥ १२०॥ तो सिरिसेनरिदो, परिणावर रयणमालं तं ।। २४४॥ इय ते जा साडोवा, हुंति सुगंति त्ति ताव अमरगिरं । कयसंमाणे अन्ने, नियनियगणे निवे विसजेद। सत्तप्पहाण अवितह-भिहाण जय सिरीभुवणमल्ल ।।१२१ ॥ कुमरो विकचि दिवसे, सुहेण तत्थेव वाऊण ॥ १४५ ॥ परउवयारपरायण, पुरिसेसुं तुभ दिज्जए लेहा। सिरिसेणनिवमणुनवि-य बहुयपरिवारपणश्णीसहिश्रो! पसुमित्तस्स वि कज्जे, गणेसि पाणे तिणसमाणे ॥ १२ ॥ पत्तो नियम्मि नयरे, पिऊण पणमेइ पयपउमं ॥ १४६ ॥ इय सुणिय जायहरिसा, ते प्रोयरिय विमाणो कुमरं । भुनुत्तरं च सीहो, कुमरवयंसो कहे सव्वं पि। पणमांत तय असुर, देवीसहियं तु तुट्ठमणा ॥ १२३ ॥ रएणो ज जह वित्तं, ता जाव इहागनो कुमरो ।। १४७ ।। तो सो असुरो हिलो, कुमरेण विवाहए तयं धूयं । धम्मत्थिणा अह निवेणा-ह्रय कयाइ सव्वदंसणिणो। सप्पणयंजण तहा, वच्छे सुण मज्झ वयणमिणं ॥ १२४॥ पुट्ठा धम्म तेहि उ, कहिए चिंता इमं राया ॥ १४८ ।। निवाजा दयिते ननान्टषु नता श्वश्रूषु नम्रा नवे, जत्थ न विसयविराओ, न संगवाओ जिपसु विणिवाओ। स्निग्धा बन्धुषु वत्सला परिजने स्मेरा सपत्नीष्वपि । किह हुज्ज सो विधम्मु-त्ति चिंति ते विसज्जे ॥ १४६ ॥ पत्युमित्रजने सनर्मवचना, खिन्ना च तद्वेषिषु, स्त्रीणां संवननं ननूचितमिदं चित्तौषधं भर्तृषु ॥ १२५ ॥ कहर कुमारो इच्छा, धम्म जणाउ ताय ! जइणो वि। श्रामं नि तीइ वुत्ते, असुरो सपियस्स नुवरणमल्लस्स। ता पुच्चय मुणिणो र-क्खियंगिगयसंगजियणगा ॥१५॥ Page #1326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद निवापसा तो वि-त्तिणा उ खुड्डो समाणिओ एगो । स निवेत्तो खुइय !, ज‍ धम्मं मुरासि ता कहसु ॥ १५१ ॥ सोमो अम्मरहस्से इमं ति प्रयमाणो । मट्टिगोल विवि कुड़े।। १४२ ।। ( १३०३) अभिधानराजेन्द्र राजा खुड्डय ! इय खुडुम्म, धम्मरहस्सं न किं पि बुज्झामो । क्षुल्लकःनरवर ! ता एगमणो, सुण भणियं जमिह गोलेहिं ।। १५३ ।। उल्लो सुक्को य दो बूढा, गोल्नया मट्टिया मया । दोविया कु जो उम्रो सो वि बाई ।। १५४ ।। एवं लग्गंति डुम्मेहा, जे नरा कामलालसा । विरता उ न लग्गंति, जहा से सुक्कगोल ए ।। १५५ ॥ विदयमणोनि मुणितम उप #! इय थोऊणं तद् नमि-य खुडूयं तो विसज्जेश् ॥ १५६॥ अह वीर्यादिणे राया, रज्जं दाऊण भुषणमलस्स । सिरिश्रभयघोस गुरुणो, पासे दिक्खं पवज्जेश् ॥ १५७ ॥ देमप्हरायरिसी, दुवाल संगीसु पत्तसूरी उ । बोहर रविवासरसी भविसरसिरुहे ॥ १५८ ॥ निलो पानि विि साहम्मियवच्छ करे देश विदे ॥ २५६ ॥ पणमायणपरो तिथिनीसोपमुखविहिता पविसिय चेइहरसुं, अच्चाम्रो जिणारा प्रवेश ॥ १६० ।। रहजत्तपत्त सोहं, अठादियममणीय जणमोहं । सयलं पि णियं रज्जे, सुण सुराणं पि कयलुज्जं ।। १६१ ॥ तस्थायमप्पड़-गुरुणो वयणं सुणों व कश्या वि पुष विजयपायायें संजु ॥ १६२ ॥ पविश्य निखेदिउं शिविसाव श्रब्भस दुविहसिक्खं, वो मुशिसीहो जुवणमो ॥ १६३ ॥ इच्छा मिच्छा तड़का र आवसी तह निसी हिया पुच्छा । पमिपुच्छच्छंद्रेण निमं-तणा य उपसंपया दसमा ॥ १६४ ॥ इय सामावारिपुरो निसेहि सअंतरावितं । तो निसेहि किरिओ, सिधं गनो सविजयपमागो ॥ १६५ ॥ स बेतिवृत्तमनिवृत्त]वरेण्यपुण्यपापणं भुवनमनरेश्वरस्य । वैकाविभिजगदीश जिनमेरे, नैधिकीत्रिककृतौ कृतिनो ! यतध्वम्” । १६६। सङ्घा०] १ प्रस्ता०| अथ यज्ञानकप्रवेशसमय विहिततै पेधित्रयानन्तरं जिन दर्शने "नमो जिनेभ्यः" इति भणित्वा प्रणामं च कृत्वा सर्वे हि प्रावोत्कृष्ट वस्तु कल्याणकामदेकिएजाग एवं विधेयमित्या रमनो दक्षिणाङ्गभागे मूलविम्बं कुर्वन् ज्ञानादित्रयाराधनार्थ प्रदक्षिणात्रयं करोति । उक्तं च "तत्तो नमो जिणाणं, ति नणिय श्रद्धोणयं पमाणं च । काउं पंचंग वा प्रतिभरनिव्भरमणेणं ॥ १ ॥ पूगपाणियारपरिंगमो गरिमदुरोणं । पढमाणो जिनगुणगणी.२ ॥ करपरिषजोगमुद्दो पर पर परखना उन्तो । दिजा पर्यााहिणतिगं, एगग्गमणो जिणगुणेसु" ॥३॥ अवि य जं किंचि वि देवकजं, नो अन्नमहं तु विचितश्जा । मुण चेयवंदगा इत्यीक भक्तको न कई कहिजा ॥१॥ मम्मा न वश्ज्ज वक्कं, न जम्मकम्मापुगयं चिरुषं । मालीय वा धोयं हि धम्मपर ला ॥२॥ गिहचेइपसु न घम, इयरेसु विज वि कारणवसेण । तह विन मुंच मश्मं, सया वि तक्करणपरिणामं ॥३॥ यथा च चैत्येषु भावार्हत्वमारोप्य शक्रस्तवपाठः, पञ्चविधाभिगमधेति जानात्यतिपतिर्विधीयते तथा तत्र प्रदक्षिणाश्रयमपि दातव्यं, दत्ताश्च तिम्नः प्रदक्षिणा विजयदेवेन निजराजधानीसि काय व्यापारीहरिभद्रसूरिभिः। तथा अमिततेजखेचरोबर धारणश्रमज्यां ताः प्रदत्ताः, बालचन्द्रया च विद्याधर्या वैताढ्यापरितने सिकायत कृता देवेन हरिपत विहिताः। एतच्च सर्व वसुदेवमि प्रतिपादितम् । सङ्घ १ प्रस्ता० । (हरिकूटादिसम्बन्धो 'वसुदेव' शब्दे ) जिनगृह प्रवेशे प्रणामत्रिकमू प्रदायानन्तरं देवपपोतक पापापादिचटापनकम्मकरसारादिकरणेत्यादिपव्यापारपरम्पराप्र तिषेधरूपां द्वितीयां नैवेधिक मध्ये मुखमररुपाद कृत्वा सूलविश्वमुखं प्रणामधिकं करोति । यद्भाष्यम् "तो निसदिया पविखिता मंत्रम्म जिपुरो महिनिविजापानी, फरेश बिहिणा पणामति ॥ १ ॥ हरित कयमुहको जिदिपमिमाणं । अयणे स्यणिवसिये, निम्म लोमहत्येणं ॥ २ ॥ तो करे कार वा विप्रेण जिवाणं पूर्यतो विदिणा कुरा अहजोगं ॥ ३ ॥ अह पुवं चिअ कणा, हचिज्ज पूया कया सुविहवेण । तां च विशिष्टान्य पूजामन्य सामग्रयभावे नोत्सारयेत्, भध्याना तद्दर्शनजन्यपुण्यानुबन्धिपुण्यानुबन्धस्यान्तरायप्रसङ्गात् । किं तु 66 तं पि सविसेससोहं, जह होइ तहा तहा कुज्जा ॥ ४ ॥ निम्मलं पिन एवं नन्नइ निम्मल्ललक्खणाभावा ॥ जोगविण दव्वं निम्मल्लं बिंति गीयत्था " ॥ ५ ॥ निम्यारोपितं सद्विच्छायीभूतं विगन्धिसंजामा च निःश्रीकतया न भव्यजनमनः प्रमोद हेतु स्तन्निर्माल्यं ब्रुवन्ति बहुश्रुताः । मां पूजां कृत्वा चैत्यन्दनांची वेवंविधं निर्मायमेयं चत्येयं निधो न कापि दृश्यते। " इत्तो चेव जिणाएं, पुणरवि आरोवणं कुणंति जहा । वत्थाहरणाईणं, जुगलियकुंडलियमाणं ॥ ६ ॥” नैवं खेत कहमन्नह एगाए, कालाईए जिदिपडिमाणं । लयं लुहंता, विजयाई वन्निया समए " ॥ ७ ॥ आगमे ऽदार्थ समानयनादिरूपो जिनपूजाविषयोऽपि 66 व्यापारो देवसरेन का पतियस्तृतीयां जिगपूजा करणव्यापारपरित्यागरूप नैवेधिक करोति पुष्पफलपानीयनैवेद्यदीपप्रमुख एव "सत्यव तिवारं, सिराइ नमणे पणामतियं । " यद्वा जावितम् - " तिनि निसी । तिन्नि य पयाहिणं " इत्यर्थः । तत्र यदुक्तम्- " करे 1 Page #1327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०४) चेश्यवंदण अभिधानराजेन्द्रः। चेश्यचंदण विहिणा पणामतियं ति।" तत्प्रणामस्वरूपनिरूपिकेयं गाथा- सथुईपमिवत्तिनेयं चलब्विहं पिजहासत्तीपकुज्जत्तिा" ललि"अंजलिबंधो अको-जओ य पंचगो यतिपणामों" अजास- तविस्तरादौ तु-पुष्पामिषस्तोत्रप्रतिपत्तिपूजानां यथोत्तरं प्राबन्धरूप इत्यस्यायमर्थः-स्वाम्यादिवर्शनविज्ञापनादिसमये भ. धान्यमिति । सवा०१ प्रस्ता०। (पताश्चैत्यशब्दे दर्शिता अपि क्तिकृते करद्वययोजनेति त्रिकद्वयम् । संप्रति "तिन्नि चेव पणा. विस्तरभिया तत्रानुक्ता अपि सदृशान्ताः सधाचारादयसेयाः) मेत्ति" तृतीयं त्रिकं भावयन्नाह-"अंजलिधंधो गाहा" प्रकपा त्रिदिग्निरिक्षणविरतिः-यस्यां दिशि तीर्थकृत्प्रतिमा तत्समुखसोपयोगा चेति व्याख्यायते-देकः प्रणामोऽजलिकरणं, शा. मेव निरीक्षण विधेयं,न पुनरन्यदित्रयसंमुखं, चैत्यवन्दनस्या र्षादौ वा अजलिना करणं, तत्र च परिभ्रम्य घि- नादरतादिदोषप्रसङ्गात् । यथा चैत्यवन्दनं कर्तुकामेन सत्वादेः झापनाकृते मुखादिप्रदेशे संस्थापनम् । यथाऽऽगमः " च- रक्तणनिमित्तं सम्यक् चक्षुषा निरीक्ष्य मिअचरणनिक्केपभूमेः क्खुप्फासे अंजलिपग्गहणं । " तथा--" अंजबिमउलियहत्थे | प्रमार्जनं त्रिवारं विधेयं, तच्च गृहिणा बनाञ्चलेन, वतिना तु तित्थयराभिमुद्दे सत्तटुपयाई अभिगच्छ। "तथा." सिरसाव. रजोहरणेनेति । सं दसनहं मत्थए अंजलि कट्ट एवं बयासी।" तथा-"सिरसा | "वन्नातियामिति" विवृणोतिधत्तं दसनह मत्थप अंजनि कटु जएणं विजपणं बद्धावेश, "वन्नत्थावंषणो, वनातियं वियाणेज त्ति" | वद्धाषित्ता एवं वयासी" इत्यादि । उपलक्षणमेतदेकहस्त- वर्णा अकारककारादयः,अर्थः शब्दाभिधेयम,पालम्बनं प्रति. स्याप्युद्धीकरणादेः, नौरवाहप्रतिपत्तये तथाकरणस्य लोके मादिरूपमेतस्मिन् त्रितये उपयुक्तेन भवितव्यम् । दर्शनात् । अस्वस्व वनतरूप अादिस्थानस्थितः किञ्चि तत्रालम्बनं यथाचिरोनमनं शिरःकरादिना भूपदादिस्पर्शनं चेत्यादिस्वरूपः । "अशाभिः प्रातिहार्यैः कृतसकसजगद्विस्मयः कान्तकान्तिः, उक्तं चागमे-" आलोप जिनपमिमाणं पमाणं करे।" | सिञ्चन् पीयूषपूरैरिव सदसि जनं स्मेरदृष्टिप्रपातैः ।। तथा वृहद्भाव्ये निःशेषश्रीनिदानं निखिसनरसुरैः सेव्यमानः प्रमोदा"तत्तो नमो जिणाणं, तिनगिय अकोणयं पणामंच। । दईनासम्बनीयः स्फुरदुरुमहिमा चन्दमानेन देवान् ॥१॥" काउं पंचगं वा, जत्तितरनिभरमणेण ॥१॥"त्ति । "मुद्दातिगं चेति" ब्याचष्टेएकालादि चतुरकान्तं प्रणामम्, उपवणमिदम-अर्कानि न | "जिणमुद्दजोगमुद्दा, मुत्तासुत्तीउ तिनि मुद्दाओ त्ति" । सर्वाणि,प्रकृतामध्यादङ्गान्यवनतानि यत्र प्रणामे सोऽवि- जिनमुद्रा, योगमुत्रा, मुक्ताशुक्तिमुझा चेतिमुखात्रयं ज्ञातव्यम्। नत इति व्युत्पत्तेः। अपरस्तु पञ्चाङ्गः पञ्च न चत्वार्यपि, अङ्गा- प्रव०१द्वार। नि जानुद्वयादीनि भूस्पृष्टानि यत्र स पञ्चाङ्गः। उक्तं च- (६) उक्तम्-"तिविहा पूया य तह त्ति" चतुर्थ पूजा"दो जाणू दुन्नि करा, पंचमगं होइ उत्तमंगं तु: त्रिकम् । पूजां च कुर्वतो नगवतोऽवस्थात्रिक संमं संपणिवानो, नेप्रो पंचंगपणिवाओ" ॥१॥ जावनीयमिति पञ्चमं त्रिकं पर्यायान्यामादपते प्रयः प्रणामाः सर्वत्र वा भूम्याकाशशिरःप्रभृतिषु उक्त भाविज अवत्थतियं, पिंमत्थपयत्थरूवरहियत्तं । प्रणामेषु वा प्रणामकरणकाले त्रीन्वारान् शिरस्कराञ्ज- बउमत्थ केवसितं, सिच्चत्थं चेव तस्त्रऽत्यो । ल्यादेमनावर्तन्तदिना प्रणामत्रिकं भवति कर्त्तव्यं, विजयदे- भावितार्था । ननु च-"पिएमस्थं च पदस्थं च,रूपस्थं रूपवर्जितम्। धवत् । विशेषविषयस्त्वत्र एव द्वारावसरव्याख्यानतो, बहु- ध्यानं चतुर्विधं शेय,संसारार्णवतारकम"॥१॥इति चतुर्धा ध्यानश्रुतपयुपास्तेश्च ज्ञातव्यः ॥ सङ्का १प्रस्ता०। प्रव० (पूर्व- बेदिन्जिानमुच्यते। अत्र त्वबस्थानिकेण ध्यानत्रयमुक्तमतोऽत्र सूचितविजयदेवसम्बन्धोऽन्यत्र) चतुर्य ध्यानं कथं स्वात्। उच्यते-रूपस्थध्यानं हि जिनबिम्बादि(५) उक्तम्-" तिनि निसीही तिनि य, पयाहिणा तिन्नि दर्शनतः प्रथममेव संजायते । यत उक्तम्-"पश्यति प्रथम रूप, चेव य पणामे " त्ति त्रिकत्रयम् । संप्रति चतुर्थ पूजानिक स्तौति ध्येयं ततः पदैः । तन्मयः स्यात्ततः पिएडे, रूपातीतः বঙ্গল থানা মান্না क्रमाद्भवेत् ॥१॥" इति स्यादेव यथोक्तभ्यानसिकिः । सवा०१ अंगग्गजावभेया, पुप्फाहारत्थुईहि पूयतिगं । प्रस्ता। [ भवस्थात्रयनावना सङ्घाचाराद् विस्तरेण क्षेया ] प्ररूपिता सिद्धावस्था, तत्प्रतिपादनेन च निरूपितमवस्थात्रिपंचोवयार अट्ठो-वयार सव्वोवयारा वा ।। कभावनमिति पञ्चमं त्रिकम् । तच दिक्त्रयालोकनवर्जनेन अङ्गच जिनप्रातिमागात्रम, अगं व सत्पुरोमागः, भावश्च चै सम्यक् स्यादित्यतः “तिदिसिनिरिक्षणविर" ति षष्टत्यवन्दमागोयर आत्मनः परिणाम विशेषः। कैः कृत्येत्याह-पुष्प त्रिकस्वरूपनिरूपणार्थ गाथामाहहारस्तुतिनियथाक्रममिति गम्यम् । उच्छाहो तिरियाणं, तिदिसाण निरिक्खणं चज्जाद वा। यमुक्तं वृहद्भाध्ये पच्छिमदाहिणवामा-ण जिएसमुहत्यदिहिजुत्रो॥ "अंगम्मि पुप्फपुआ, आमिसपृश्रा जिणगो बीया। प्रोपा सुगमा च । नवरं तुर्यपदस्येयं भावनासईया थुइथुत्तगया, तासि सरुवं इमं होई "॥ " पालोयबलं चक्खं. सणुप्रोतं करंथिरं काउं। चैत्यवन्दनाचूर्णायप्युक्तम्-" तिविहा पूत्रा पुप्फेहि मे रूवेहि तर्हि खिप्पड़, सन्नावत्रो वा सयं चल ॥१॥ विज्जोह पुईहिं य, सेसभेया इत्थ चेय पविससि त्ति ।" उत्त. तह विहुमामियगीयो, विसेसो दिसितियं न पहिज्जा । राध्ययनेषु पुनरेवम्-" तित्थयरा भगवतो, लस्स चेष जत्ती तत्वोगाभावे, दसणपरिणामहाणी उ॥२॥" कायम्वा, सा पूश्रा बंदणाहं हयर, पूर्व पि पुप्फामि- उक्तं चमहानिशीथे-"नुवर्णकगुरुजिणिदपमिमाविणिवेसिय Page #1328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०५) चेइयवंदण अभिधानराजेन्द्रः। चेश्यबंदण नयणमाणसेण धम्मो हं सपुष्पो हंति जिणवंदणाए सहलीकयज- विश्वार्यों भवतः स पातु नवतः श्रीमुघ्रतः सुनतः॥६॥ म्मुत्ति मन्त्रमाणेण विरइयकरकमबंजलिणा हरियतणुबीयजंतु- लोभाम्भोजनमेश्यरोपम! नमे ! धर्मे धियं धेहि मे, विरहियभूमीए निहिनोनयजाणुणा सुपडिफुझसुविदियनी- चन्देऽहं वृषगामिनं प्रशमिनं श्रीनेमिमं नेमिनम् । संकजदत्थसुत्तत्थोभयं पर पए नाघमाणेणं. जाव चेइए थीमत्पार्श्वजिन स्तुवेऽस्तवृजिनं दान्ताक्षर्वाजिनं, बंदियब्वे"। सहा०१प्रस्ता| ध०। नौमि श्रीत्रिशलाऽङ्गजं गतरुजं मायालताया मजम् ॥७॥ (७)गन्धारश्रावककथा इत्वं धर्म्यवचोवितानरचितं वयं स्तवं मुद्यतः, "बेयगिरिस्स समा-सन्ने गंधारजणवए । सद्धर्मद्रुमसेकसंवरमुचां भक्त्याऽईतां नित्यशः । गंधसमिद्धे नयरे, गंधारो नाम सावो ॥ १॥ श्रेयःकीर्तिकरं नरः स्मरति यः संसारमाकृत्य सोऽसो उपन्यासकामो पच्वइपहिं पुक्रवण तित्थाइ नमिन- तीतार्तिः परमे पदे चिरमितः प्राप्नोत्यनन्तं सुखम् ॥७॥ ति ति सम्वतित्थयराणं जम्मणनिक्खमणनारगुप्पत्तिनिपाण- (कर्तृनामगीष्टदल कमलम्) मीनो दई निग्गयो। जिन तव गुणकी विश्वविध्ने सुकीर्ते, तस्थ विगलदपरकीर्तेय किरा धमकीतः। जम्मपुरि दो विणीया, सावत्थी दो अउज्झ कोसंबी । सितकरसितकीर्तेः सुद्धधम्मैककीते । । वाणारसि चंदबरी, कायंदी भहिलपुरं च ॥२॥ स्तुतिमहमाचिकीर्ते तक्वितानङ्गकीर्ते ॥१॥ सीहपुरचंपकंपि-ल्लकज्झरयणउर ति गयपुरमिहिला । जय वृषन जिनाभिष्ट्रयसे निस्तनाभिरायगिहमिहिलसोरिय-पुर वाणारसी य कुंडपुरं ॥ ३॥ जेमिमरविसनाभिर्यः सुपर्वाङ्गनाभिः । उसभस्स पुरिमताले, नाणं वीरस्स जंजियाएँ बही । नुम इह किन नानिकोणिनृत्सूनुनाभिनेमिस्स रेवए व य, नाणो सेसाण जम्मपरे ॥४॥ इतनुवनमनाभिः, कान्तिसंपत्कनानिः॥२॥ अछावयम्मि उसभो, वीरो पावाएँ रेवए नेमी। प्रकटितवृषरूप त्यक्तनिःशेषरूपचपाएँ वासुपुज्जो, सम्मेए सेसजिण सिझा ॥ ५॥ प्रतिविषयरूप ज्ञानविश्वस्वरूप। शति तित्थाई दळं पडिनियत्तो जाव पव्वयामि त्ति ताहे जय चिरमसरूपः पापपङ्काम्बुरूप, वेअकृगिरिगुहाए उसहाइसवतित्थयराणं सब्बरयणचिंच- त्वमजित निजरूपप्राप्तसज्जातरूपः ॥ ३॥ श्याओ कणगपमिमाओ साहुसगासे सुणित्ता ताओ दच्छा- जय मदगजचारिः संनवान्तर्भवारिमित्ति तत्थ गओ, तत्थ देवयाराहणं करिता विहामियाओ वजनिदहितबारिश्रीन केनाप्यचारि। पडिमाओ, तत्थेगो सावगो थयथुहिं पुणतो अहोरत्तं यदधिकृतनवारि धंस नः श्रीभवारिः, नियसित्रो" । इति निशीथे। प्रशमशिखरिचारिमाणमहानवारिः॥४॥ तत्र स्तोत्रम् अकृतशुननिवारं योऽत्र रागादिचारं, " नम्राऽऽखएमसमौलिमयमलमिनन्मन्दारमालोच्चल सुविनतमघवारं संचरदूदुःखबारम् । साझामन्दमरन्दपूरसुरजीभूतक्रमाम्भोरुहान् । मदनदहनचारं दोलितान्तवारं, श्रीनाभिप्रभवप्रनुप्रनृतिकाँस्तीर्थकरान् शङ्करान् , नमत सपरिवारं तं जिनं सर्वदाऽरम् ॥५॥ स्तोष्ये साम्प्रतकाललब्धजननान् नत्या चतुर्विंशतिम् ॥१॥ तव जिन! सुमते न प्रत्यहं तद्यतेन, नन्द्यान्नाभिसुतः सुरेश्वरनतः संसारपारं गतः, स्तुतिरिति सुमतेन कृत्तमो निष्कृतेन । क्रोधाद्यैरजितं स्तुवेऽहमजितं त्रैलोक्यसंपूजितम्। यदिह जगति तेन काग् मया संमतेन, सेनाकुक्तिभवः पुनातु विभवः श्रीसंभवः शंभवः, धुवमितरितेन श्रीश! नाव्यं हितेन ॥६॥ पायाम्मामभिनन्दनः सुवदनः स्वामी जनानन्दनः ॥ २॥ परिहतनृपसद्म श्रीजिनाधीश पद्मलोकेशः सुमतिस्तनोतु विनतश्रेयः श्रियं सन्मति प्रभ सदरुणपद्मद्युत् तपोहंसपद्म। दम्भद्रोः कलभं मदेनशरनं प्रस्तौमि पद्मप्रभम् । स्वदखिलभविपद्मवातसंबोधपद्म, श्रीपृथ्वीतनयं सुपार्श्वमभयं वन्दे विलीनामयं , स्वजनगतविपद्मय्यतु शर्माङ्कपद्म ॥७॥ श्रेयस्तस्य न दुखंभं शशिनिभं यः स्तौति चन्द्रप्रजम् ॥ ३॥ पुरितमिभगमोहं पूर्विकार्यक्रमो हबोधि नः सुविधे! विधेहि सुविधे! कर्मद्रुमौघप्रधे, न्स्यसमतमशमोऽहकारजिद् यः समोहम् । जीयादम्वुजकोमलक्रमतवः श्रीमान जिनः शीतलः । कृतकरणदमो हन्तास्तलोभं तु मोहं, श्रीश्रेयांसजयः स्फुरदुषचयः श्रेयाश्रियामाश्रयः, मतिहतमसमोऽहं तं सुपार्श्व तमोहम् ।। ६॥ संपूज्यो जगतां श्रियं वितनुतां श्रीवासुपूज्यः सताम् ॥ ४ ॥ समतृणमणिनावः ज्ञातनिःशेषभावः, मोकं वो विमनो ददातु विमलो मोहाम्बुवाहानिलो प्रहतसकलनावप्रत्यनीकप्रभावः। ऽनन्तोऽनन्तगुणः सदा गतरणः कुर्यात्वयं कर्मणः । कृतमदपरिभावः श्रीशचन्द्रप्रनाव, धम्मों में विपदच्युतं शिवपदं दद्यात्सुखैकास्पदं, हिजपतितनुनाव त्यक्तकामस्वभाव ।।६॥ शान्तिस्तीर्थपतिः करोत्विजगतिः शान्ति कृतान्तातितिः ॥५॥ जिनपतिसुविधे यः स्यात्वदाझाविधेय. कुन्थु घरवो भवादवतु वो मानेभकण्टीरवो, प्रवहण इह धेयःप्रस्फुरद्भागधेयः। भक्त्या नम्रनरामरं जिनवरं प्रातःस्मरं नौम्यरम् । त्रिजगदनभिधेय श्लाध्यसनामधेय, श्रीमल्लेखनतक्रमोज्झिततमो मोऽस्तु तुभ्यो नमो, श्रयति शुभविधेयस्तम्जसदूपधेय ॥१०॥ Page #1329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेश्यवंदण यह हितकार्म मुकराश्यादिकामम् प्रणतसुरभिकामं स्वक सद्भोगकामम् । बमति स निजकामं प्राप्यते त्वां प्रकामं, श्रयत कृतमकामं सार्विका श्रीः स्वकामम् ।। ११ ।। विशेष प्रतिविशति सदोषाऽप्यस्य किं कालदोषा वह बदनदोषाचाािकादोषा तनुकमलमदोषा श्रेयसा शस्तदोषा ॥ १२ ॥ कृतकुमतपिधानं सत्वरक्षाविधानं, विहितमवधानं सर्वलोकप्रधानम् । असमशमनिधानं शं जिन संदधानं, नमत सपधानं वासुपूज्याभिधानम् ॥ १३ ॥ जवदवजलवादः कर्म कुम्भाज्यदाहः, शिवपुरपथवाढवलोकप्रवाहः । ( १३०६ ) अभिधानराजेन्द्रः । मासिकान्ताविवाहः शमित करवाहः शान्ततृम्हव्यवाहः ॥ १४ ॥ जिनवर विनयेन श्रीविशुकाशयेन, प्रवरतरनयेन त्वं नतोऽनन्त ! येन ॥ जविकमलवन स्फूर्जवन नितेन १५ ॥ जडिमरबिस धर्म प्रोक्तदानादिधर्म, विदितनिखिलधर्मग्यताप्रा जय जिनवरधर्म त्यक्तसंसारिधर्म्म, प्रतिनिगदितधर्म्म व्यमुख्यार्थधर्म ॥ १६ ॥ यदि नियतमशान्ति नेतुमिच्छोपशान्ति, समलिपत शान्ति तद् द्विधा दत्त शान्तिम् ॥ विदित जन्मत नमत विगतशान्ति हे जनाः ! देवशान्तिम् ॥ १७ ॥ ननु सुरवरनाथ ! त्वं सदाऽनाथनाथ, प्रथितविगतनाथः किं त्वहं कुन्थुनाथ ! ॥ प्रकुरु जिन ! सनाथ ! स्यां यथाऽऽद्योपनाथ । प्रणतविबुधनाथ ! प्राज्यसच्छिष्यनाथ ! ॥ १८ ॥ अवगमसवितारं विवशता शत्रुरुविजिततारं सहवासान्द्रतारम् जिनमजनमतारं भव्यलोकावतारं, यदि पुनरवतारं संत॥ १६ ॥ अनिशमिह निशान्तं प्राप्य यः सन्निशान्तं, नमति शिवनिशान्तं मल्लिनाथं प्रशान्तम् । अधिमि विशान्तं श्रीमंताचाशतं, श्रयति दुरितशान्तं प्रोज्झय नित्यं च शान्तम् ॥ २० ॥ नमन तमथवा सत्प्रोल्लस्रच्छुरूवासः, परितगृहवासस्यांशके यस्य वासः । विदित शिवनिवासः प्रमोदप्रवासः स मन इह नवासः सुव्रतो मेऽध्युवास ॥ २१ ॥ समनमयत वालः शात्रवान् योऽप्यबालप्रकृतिरसितवालः स्रस्तरुग्वक्रवालः । जयतु नमिरवाबः सोऽधरास्तत्प्रवानः, श्वसितविजितबालः पुण्यवल्ल्या लवालः ॥ २२ ॥ जिन मदनमुने मे नानिशं नाथ नेने, निरुपमश मिनेमे ये न तुल्यं विनेमे । चेयवंदगा निकृति जल ने सीमो प्रणिदधति न नेमे ते नरा अध्यनेमे ॥ २३ ॥ अहिपतिनृपपार्श्वे विन्नसंमोहपार्श्व, दुरितहरणपार्श्व संनमद्यक्ष पार्श्वम् । अनुपार्श्वे या वृजिनविधिना श्रीजिनं नीम पाम २४ ॥ त्रिविविहितानं सप्तहस्तामानं दलितमनमानं सद्गुमानम् । अनवरतममा कोमत्यस्यमानं जिनवरमसमान संस्तुवे वर्द्धमानम् ॥ २५ ॥ विगलितवृजिनानां नौमि राजि जिनानां, सरसिजननानां पूर्णचन्द्राननानाम् ॥ जमावास्यानां मदन जीवानानाम् ।। २६ अविकलकलतारा प्रीणनाथांताराभवजलनिधितारा सर्वदा विप्रतारा ॥ सुरनरविनतारा त्वाईतीगीर्वतारादनवरत मितारा ज्ञानलक्ष्मीं सुतारा ॥ २७ ॥ नयनजित कुरङ्गी मिन्ड सोचिरङ्गीमिह कुलमनुरङ्गीकृत्य चिन्तातरङ्गी । स्मृतिरिह सुचिरं गीर्देवतां बस्तरङ्गी, कुरुत इममरीत्यादि । २८ (इति द्विवर्णमिद्वयस्तुतया "रास्स निम्मलय न मनागमवि जोनो जाओ, देवतेति तुट्टा देवया वृि डिया तो संवेगेन लवियं-नियम कामजो सुकिंशतिमोक्षणं तिनविता देवया श्रयं गुलिश्राणं जहाचितियमणोरहाणं पणमेश, तो य निग्ग सुचणेगा "वीषभर नयरे वी, सव्वालंकार जूलिया दिव्या ॥ देवावयारिया सा, एगा मणतोसिणी पमिमा । तं पमिमं दच्छामि ति, तत्थ गो वंदिया पमिमा ॥ ४१ ॥ तर ओस गिलाणो, जाओ पमिचारियो य कुज्जाए । असयं गुबियाणं, तीए दाउ स पश्य ॥ ४२ ॥ अह एगगुनियनक्खण- पभावश्रो सा सुवन्नाना । जाया तप्पभि‍जणे, सुवन्नगुलियत्ति विक्खाया ॥ ४३ ॥ भक्ति वीयगुलियं, चिंतइ सा मे पित्र व्व एस निवो । सेसा गोड्समा तो, मह मत्ता हवड पज्जोश्रो ॥ ४४ ॥ सो देवयाभावा, ती पुरतो विसजए दूयं । साभार दंसन निवं, पजोयस्साह सो गंतुं ॥ ४५ ॥ ननगिरिमारुहिय इमो, निसि पत्तो तत्थ तीर अनिरुश्रो । जियमिमं सह गिएहसु, एमि तदा श्रमहा नेव ॥ ४६ ॥ अह गंतु सो सनयरं, पडिरूवं कान तो तर्हि पत्तो । तं मुलुं जियपमिमं दासिं गहिलं गो सपुरिं ॥ ४७ ॥ गोसेस करी सोडं, नट्ठमए चेमियं श्रवहडं च । ओदानियो, जा जोषावे जयपि सोमद पज्जोय निवस्सुवरिं, बलिओं काले निदाघम्मि ॥ ४९ ॥ पत्तो मरुम्मि सिन्ने, जिलं तिसापोमिए सरइ राया । चिपनादेवं स विप्रसरति तो बना Page #1330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३०७ ) अभिधान राजेन्द्रः । चेयबंद लिंगो वपयं । राया उदायणो वि हु, उज्जेणिपुरं कमा पत्तो ॥ ५१ ॥ तत्थ उदायणरन्नो, अवंतिनादस्स दूयवयणेण । अचिरा परपरेणं, रहसंगरसंगरो जाश्रो ॥ ५२ ॥ सरपपरोरमा उदायो पत्तो गुणकारमुदारं कुणमाणो समरभूमी ॥। ५३ ।। नारायणं नियं नलागेर भिष पतो रवि पज्जोश्रो पुण, बलवंते का न पन्ना ? ॥ ५४ ॥ नलगिरिगयमारूढं तं मुदायको भरो पाव मोहि होस रे !xx इय जणिय मंगलीप, रपण नीओ रहं नियो भमामंतो । निसियस विचरीकरणलाई ५६ ।। सोही पडओ उदायपोओ। मम दासीदासो, चि अंको कोचि ॥ ५७ ॥ गंतुं तत्र विदिसाए, श्रत्थि य देवादिदेवपडिमं जा । उप्पामर नरनाहो, ता भण सुरो अहो ! ॥ ५८ ॥ भूव मानेसु यो पमिमं वीयभए पंसुवद्दवो होही । तो राया सविताओ, नमिव तवं पुरममिचलियो ॥ ५३ ॥ बुसिन खलि सिरिं निहित या काऊण धूलिवप्पे, दस वि निवा तस्स रक्खा ॥ ६० ॥ अपणादिवसे वाउहाणे सूषो पत्थर पज्जोयनिवं, का तुइ कारी उ रसवइति ॥ ६१ ॥ सो चिंतनू मारिकामी विसाणा तो जंपेर सूर्य किरद्द, क्रिमज मे विसू य श्राहारो ? ॥ ६ ॥ सूश्रो जंपर साभी न उ सपरियरो य भत्तही । जं श्रज पज्जुसवा, तो तुह साहेमि आहारं ॥ ६३ ॥ सो श्राह साह तुमए. जेण मिणं मध्न सारियं सूर्य ! | अज्जुववासो मज्ऊ वि, जं पियरो मह परमलको ॥ ६४ ॥ तं सूत्र साइइ गं तुदायले सो वि जणइ जाणस्मि । से समुत्तं जाण, धुत्तो पुण बसगं काउं ॥ ६५ ॥ काराइ वीर एम्मि जारिसे तारिले वि न हु सुद्धा । मह दो पज्जुलवणा, इय तं मुंचे नरनाहो ॥ ६६ ॥ दाउ अवंतिदेवं स महत्या कुणइ तेण खामणयं । दासंफगोवराहा, वियर कणगपहुंच ६७ ॥ तप्पभि पट्टबका, निवा पुरा असि ममबद्ध त्ति । वित्ते वरिसारते, उदायणो नियपुरं पत्तो ॥ ६८ ॥ जे लाजत्थी वणिया, समागया तत्थ ववहरणहडें । तोहें चित्र वसमाणं तं खायं दसपुरं नयरं ॥ ६६ ॥ इय मह निव्वाणं, निसाऍ गोयम ! पाल्लइ नित्रो अवंतीए । होहि पाकलिप सो, असु उदार्शनिवमरणे ॥ ७० ॥ पाल र सट्टिएण पणसयं नवएट् नंदाणं । नव मोरियऽसयं स सवरिस समित्तस्स ॥ ७१ ॥ यलमनमामिता साहस चालीसा। लेर निव गमिले, कल्लिकालऍ उणियसगे चनरो ॥ ७२ ॥ सुन्नमुणिवेयजुत्ता, जिएकाला विक्कमो वरिससठी | धम्माइच्चां चत्ता, नाइल सगबीसनाहडे अठ ॥ ७३ ॥ तह षि कुमार ति समावरि दस मित्त अंधो, हेययबंसी असीनेओ ॥ ७४ ॥ श्रह जिणपमिमं जाइल-नियो निसाए कयाइ पूतो । चेयवंदगा यदि आप असुरे, हु निम्गओ कुडवर साह || ७५ ॥ घर पर या हुमिह पसं होही एवं ति परं, मिच्छत्तं गच्छिही तिव्वं ॥ ७६ ॥ जं श्रद्धया तुमं, पूयाइ विणग्गउत्ति वुत्तु सुरा । ति गया अह रद्द, निबो बहुं डुड्डु बिहियं मे ॥ ७७ ॥ भाइलसामी तु तओ, पसिरूमज्ञ वि समत्थि अवंती | जियपदिमुत्पत्ति पर न्नगान सेसं तु नायव्यं ॥७८॥ रहमसिद्धि दर भणियं जवियदिया, तिदिसिं श्राणा पुण पगयं ॥ ७ ॥ गान्धारेयथावकश्वेनं पू चितन्निमित्त। नित्यं जज्याः ! नव्यभावेन देवान, वन्दध्वं नो दियेकोज्जनेन " ॥ ८० ॥ 66 इति त्रिदिग्निरीक्षणवर्जने गन्धारश्रावक संबन्धः । खङ्घा० १५०१ भावितं " तिदिसि निरिक्खणविरह" त्ति षष्ठं त्रिकम् । सप्तमस्य तु विकस्य पयभूमिपमा यतितो" इत्यस्येयं ना चना-सर्वमपि धर्मानुष्ठानं दयाप्रधानमेव क्रियमाणं सफलत धत्ते । श्राह च पवितं श्रुतं च शास्त्रं, गुरुपरिचरणं च गुरु तपश्चरणम् । घनगर्जितमिव विजलं, विफलं सकलं दयावि कलम् " ॥ १ ॥ इति । तथा-" जयणा व धम्मजणणी, जयणा धम्मस्स पालणं। चेय । तह बुढिकरी जयरणा, एगंतसुदावहा जयणा ॥ १ ॥ इति । सङ्घा० १ प्रस्ता० । से जयवं ! केलं द्वेणं एवं बुच्चइ, जहा णं पंचमंगलं महासुखंघम हिज्जित्ता णं पुणो इरियात्राहियं अहीए ? | गोयमा ! जो एस आयासेणं जया गमागमलाई परिनामपरिणए प्रयोगजीवपाणभूषमत्ताणं अवतर जसे संपवणं किलामा प्रणालय पभियंते चेव असेसकम्पक्खयद्वाए किंचि विश्वंदासज्झायज्जारणाइएसु अभिरमेज्जा, तया से एगग्गचित्ता समादी हवेला न वा जम्रो णं गमयागमलाइ प्रयोगन्नवावार परिणामासत्तचिनयाए के पाणी तमेव भवांत रमच्छड्डिय हट्टऽज्जवसिए कंचि कालं खणं विरतेज्जा, ताहे तं तस्स फलेणं विसंवएज्जा, जया पुण कहिं वि अन्ना मोहपमायदो सेणं सहसा एगिंदियाईणं संघट्टणं परितावणं वा कयं हवेज्जा, तया य पच्छा हा हा हा उ कयमम्हेहिं ति य घणरागदोसमोहमिच्छत्त श्रन्नाशंधेहिं अदि पर लोग कूरकम्पा निम्पिशोऽहं ति परमसंवेगमापन्ने सुपरिफुमं आलोएत्ता णं निंदिता गरिहित्ताणं पायच्चित्तमणुचरिता णं निसल्ले अणाउलचिले असुकम्बलपट्टा किंचि आवहियं चेश्वंदाई डिज्जा, तया तयचे चेत्र वनत्ते से हवेज्जा, तया वसणं परमेगगचितसाही हवेजा, तया व सव्वजगजी वषाय जूयसत्ताणं श्रदिफलसंपत्ती नवेजा, ना गोषमा ! णं अपमिकताएं इस्यावहिचाए न - Page #1331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०७) चेश्यवंदण अनिधानराजेन्द्रः। चेश्यवंदण कप्पा चेव काचं किंचि चिइवंदणसज्झायज्झाणाश्यं यदनाणिफमासायमनिकलुगाणं, एएणं अटेणं गोमा! एवं वुचइ " भावारिहंतपसुहं, सरिज्ज आलंवणं पि दंडेसु। अहवा जिणबिंबाई, जस्स पुरो बंदणात्ति":१॥ सन०१ जहा णं गोयमा ! सुत्तत्थोभयं पंचमंगलं थिरपरिचयं प्रस्ता०। [अत्र चन्छनरेन्धकथा सङ्घाचारादवसेया ] काऊणं तो इरियावहियं अहीए । महा० ३ अ०।। (६) अथ नवमं मुजात्रिकं नामतो गाथोत्तरानाऽऽहदशबैकालिकद्वितीयचूसिकावृत्तौ तु ईर्यापथिक्या प्रतिक्रमणं | जोगजिणमुनसुत्ती-मुद्दाभेएण मुद्दतियं । घिना न कल्पते किमपि कर्तुमिति, इत्यागमप्रामाण्यादीर्यापथिकीपूर्वमेव सर्वमपि धर्मानुष्ठानमनुष्ठेयम , इत्यमेव चित्तो | मुखाशब्दः पृथग् योज्यते, ततश्च योगमुकाजिनमुद्रामुक्ताशुपयोगेनानुष्ठानस्य साफव्यजणनात् । अन्यथा प्रायश्चित्तैकाग्र क्तिमुखानेदान्मुतात्रिकं भवतीत्यर्थः । ताया अप्यभावात् सूत्रप्रामाण्याच्च पुष्कलिना शहं प्रति आसां स्वरूपमाहश्रावकवन्दनस्यापि तथैव विधानाच्च । संघा० १ प्रस्ता० । अन्नुन्नतरिअंगुत्रि-कोसागारेहिँ दोहिँ हत्थेहिं । अथ चेर्यापथिकीप्रतिक्रमणपूर्वकं चैत्यवन्दनमिति पूर्वमुक्तं,तच पिटोवरि कुप्परसं-ठिएहिं तह जोगमुद्दति ॥ १२ ॥ युक्तं, यतो महानिशीथे-"रिश्रावहिए अपडिक्वंताए न किंचि कप्पह चेइअयंदणसभायाऽऽवस्सया का" इति । अन्या उन्नयकरजोमनेन परस्परमध्यप्रविष्टाइलिभिः कृत्वा पाकुम्मअपि प्रतिक्रमणादिक्रिया एतत्प्रतिक्रमणपूर्विकाः शुद्ध्यन्ति। बाकाराज्यां द्वाभ्यां हस्ताज्या, तथा उदरस्योपरि कुहणिकया यतो विवाहचूमिकायाम् व्यवस्थिताभ्यां, योगो हस्तयोर्योजनविशेषः, तत्प्रधाना मुघा "दिग्विम्हि कुसुमसेहर, सुच्चा दिवादिगारमझम्मि । योगमुना इत्येवं स्वरूपा प्रवतीति गम्यम्॥ १२ ॥ वणायरि विउं, पोसहसालाएँ तो सोही ॥१॥ । चत्तारि अंगुलाई, पुरओ कणा जत्थ पच्छिमत्रो। उम्मुमनूमणो सो, हरिआइपुरस्सरं च मुहपुत्ति। पायाणं उस्सग्गो, एसा पुण होइ जिणमुना ॥ १३ ॥ पडिले हिकण तत्तो, चउब्धिहं पोसई कुणः ॥२॥" ति॥ चत्वार्यङ्गलानि स्वकीयान्येव पुरतोऽग्रतस्तथा ऊनानि कितथाऽवश्यकचूर्णावपि-"तत्थ दंढरो नाम सावत्रो सरीरचितं चिच्चत्वार्येवाङ्गलानि यत्र मुलायां पश्चिमतः पश्चाद्भागे, एवं काऊण पमिस्सयं वाइ, चाहे तेण पूरएण तिन्नि निसीहिआरो पादयोरुत्सर्गः, परस्परसंसर्गत्यागोऽन्तरमित्यर्थः । एषा पुनकयाम्रो, एवं सो हरिआई दरेण सरेण करेह" त्ति । नथा च भवति जिनानां कृतकायोत्सर्गाणां सत्का, जिना वा विघ्नजैत्री "ववहारावस्सयमहानिसीहभगवईविवाहचूलासु पक्किमण मुद्रा जिनमुति ॥ १३ ॥ भवति च यथा स्थानस्थापितमुचुम्निमासु पढम इरिभापडिक्कमणं" इत्याद्युक्तेरतः प्रथममी जात्रयचैत्यवन्दनाकरणतोऽत्रामुत्रापि विघ्नसलातविघाता, वक्त पिथिकीसूत्रं व्याख्यायते । तच्च-" इच्छामि परिक्कमिउं" - चैत्यवन्दना पञ्चाशकवृत्तौ ॥ त्यादि " तस्स मियामि दुक" इत्यन्तम् । ध०२ अधिः । एवमालोचनाप्रतिकमणरूपं द्विविधं प्रायश्चित्तं प्रतिपद्य कायो मुत्तासुत्तीमुद्दा, जत्थ समा दो विगब्जिया हत्था । रसगलवणप्रायश्चित्तेन पुनरात्मध्यर्थमिदं पति-" तस्स उ. ते पुग्ण निडालदेसे, बग्गा अन्ने अलग्गं ति ॥ १४॥ तरीकरणेणं" इत्यादि "वामि काउस्तम्" इति पर्यन्तम् । ध०२ मुक्ताशुक्तिरिय मुद्रा हस्तविन्यासविशेषो मुक्ताशुक्तिमुका, सा अधि० सं० । संपूर्णकायोत्सर्गइच--"नमो अरिहंताणं" इति चैवं समावन्यान्यान्तरितालितयाविषमी छावपिन त्वेको गनमस्कारपूर्वकं पारयित्वा चतुर्यिशतिस्तवं संपूर्ण पठति ।। जिंताविव गर्भितावुन्नतमध्यौ, तु नीरन्ध्रौ, चिपिटावित्यर्थः । ध. २ अधि० । “पयभूमिपमज्जणं च तिक्वुत्तो " इति हस्तौ, तौ पुनरुजयतोऽपि सोल्लासी करौ भालमध्यनागेन सप्तमत्रिकभावार्थः । लग्नौ संबद्धौ कार्यावित्येके सूरयः प्राहुः अन्ये पुनस्तत्रालग्ना(८) स्तुत्यक्कराणि । अथ वर्णादित्रयमित्यष्टमं त्रिकं गाथा- वित्येवं वदन्ति, नेत्रमध्यभागवाकाशसङ्गतावित्यर्थः ॥ १४ ॥ पूर्वार्द्धन भाध्यकृद्विवृण्वन्नाह श्रासां विषयविभागमाह - वन्नतिअं वन्नत्या-लवणमालवणं तु पमिमाई । पंचंगो पणिवाओ-चयपादो होइ जोगमुद्दाए। वर्णत्रिकमुच्यते, किमित्याह-वार्थासम्बनानि, तत्र वर्णाः स्तु वंदण जिणमुद्दाए, पणिहाणं मुत्तसुत्तीए ॥ १५॥ निदण्डादिगताम्यकराणि, ते च स्फुटसपदच्छेदसुविशुसान्यू- पञ्चाङ्गानि जान्वादीनि विवक्तितव्यापारवन्ति यत्र स पञ्चाङ्गनातिरिक्ता उच्चार्याः । यदवादि नाष्ये प्रतिपातः प्रणामः प्रणिपातदएमकः । पारस्यादाववसाने "थुश्दंडाई वन्ना, उच्चरियच्चा फुडा सुपरिसुझा। च कर्तव्यतया , स चोत्कर्षतः पञ्चागः कार्यः । यदुक्तसरवंजणामिन्ना, सपयच्या उचियघोसा ॥१॥" माचाराङ्गचूर्णी-" कह नमति सिरपंचमेणं कापणं " ति । अर्थश्च तेषामेयाभिधेयः, स यथापरिक्षानं चिन्त्यः। यत्पुनः “वामं जाणुं अंचेह" इत्याद्युक्तं,तत्पनुवादिकारणाधिन्यगादि च तत्वान्न यथोक्तविधिबाधकतया प्रभवितुमर्हति , चरितानु" चिंतेयव्यो सम्म, तेसि अत्यो जहापरिमाणं । पादत्वाच्च । यद्यपीह पञ्चाङ्गः प्रणिपात इत्युक्तम् , तथापि सुन्नहियत्त मिहरिहा, उत्तमफलस्राहगं न भवे ॥१॥" । पञ्चाङ्गमुख्या प्रणिपातः कार्य इति इष्टव्यम; मुषाणामेवामालम्बनं तु स्वयमेव जाध्यकद् व्याख्यानयति"आलम्बणं तुप- धिकृतत्वात् । युक्तं च पञ्चाङ्गधा अपि मुडास्वमविन्या. भिमादीमि" आलम्बनं पुनदैवान् वन्दमानस्य चनरेन्ऽस्येवा-। सविशेषरूपत्वात् , योगमुद्रादिवदिति । आह-मम्वेषम-"मश्रयणीयं कि तत् प्रतिमादिआदिशब्दननाबाईदादिपरिग्रहः। हातियं"इति नुक्ते संख्याविघातप्रसङ्गः नेतदेवम,अभिप्रायापरि Page #1332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद नदि मा योगमुद्रादयो हो परिसंख्याताः सूत्रोच्चारभाषितया मूलमुद्रयरूपस्य मुदाजपञ्चा श्री मुद्रादयस्तु प्रणामकरणकाल भावित्वेनोत्तरमुद्रा रूपत्वान्न परिज्ञाता, उत्तरमुप्रात्वं वासां सुपोचारसमये समकमनुपयुज्यमानत्वात्तथाऽनुकत्वादनियतत्वात् सूत्रोच्चार कालात्पूपरका भावित्वात् । यदपि " करयल परिग्ादियं सिरसादसनहं सत्य अंक एवं पयासी त्युकं ते तदपि सुत्रोच्चारयादी विनयविशेषदर्शनं परं न पुनस्तथास्थितस्यैव सूत्रोच्चारख्यापनपरम् अन्यथाऽपि नृपादीनां म गवत्यादौ तथा प्रतिपते नाव तथास्थित दर्शनात्पूर्वकालमा विविधिवाचिनः कृत्वेत्यत्र कत्वाप्रत्ययस्पो काल भाविविध्यन्तर सूचकत्वाच्च अक्किणी निमील्य हसतीस्यादिकर्तृत्वायोगाश्रमवादी गस्त्यमदणात्। किं च यद्येवंस्थितस्यैव सुत्रपात किवेत ततोऽ पिडितमुखत्वेन धर्मरुचि साध्वादीनामपि सावद्यनाषाऽऽपत्तिः । तथा च भगवस्यामुक्तम्-" सणं भंते ! देविंदे देवराया कि सावजं भासं भास, अणवज्जं भासं भासइ ? । गोयमा ! सावज्जं पि जासं भासर, अणवज्जं पि भासं भासइ । से केणणं भंते ! एवं वुश्चर, जहा -सक्के देबिंदे देवराया सावज्जं जासं प्रासर, भणव पि भासं भास? । गोयमा ! जाहे गं सक्के देविंदे देवराया सु मकार्य अणिज्जुहिता णं भासं भासइ, ताहे णं सक्के देविंदे देवराया सावज्जं भासं भासर । जाहे णं सक्के देविंदे देवराया सुहुमकायं निज्जुहिता णं भासं भास, ताहे देविदे देवराया अणवज्जं भासं भासह । से एप अणं गोयमा ! एवं बुखार, जहा णं-सक्के देविंदे देवराया सावज्जं पि भासं प्रासह, श्रणवज्जं पि भासं भासइ 33 । तस्मान्मुकु (१३०८) अभिधान राजेन्रूः " मुद्रा विनयविशेषदर्शनफलत्वेनाका लात्पूर्वापरकालभाषितया च न योगमुद्रादीनामिव मूलमुद्रापत्वम् । ततश्च "मुद्दातियं" इति न यथोक्तसंख्याविघातः पर्युपाया इत्यर्थे बहुश्रुताः। यत्र चरितानुवादे जीवा निगमादिषु वि जयदेवादिभिः "आलोए जिणपडिमाणं पमाणं करेइ" । तथा"वाजाचे दाहिणं जाएं धरणितलसि निहट्ट " मुकाणं धरणितलंस निवेसेइ " ति एकाङ्गचतुरङ्गश्च प्रणामः तो मध्यममादनापद्वितीय प्रणामातव्यमिति भावितारूपाऽवसरे तथा स्तवपातः शक्रस्तवादिजणनं भवति कर्त्तव्य इति शेषः । योगमुद्रया पूर्वोक्तस्वरूपया । तत्र चायं विधिः-इढ साधुः श्रा यो वाहादावेकान्ते प्रयतः परित्यक्तान्यर्तव्यः सक पनि निरीक्ष्य परमगुरुणीन प्रमृज्य च कितितलविहितजानुयुगलः करकमलवत्थापितयोगमुद्रं प्रणिपात पतीति यकं महानिशीथतृती याध्ययने" भुषणकगुदि पथिमाविनिवेसियनयणमासेण च सोऽति जियचंदा सलीक जम्मु सि मन्नमाण विकलिया हरिय जंतुविरयिभूमी विश्रोमा सुपरफुडसुविदि यनिज हत्या पर पर भामा जाइए चंदिय "सि तव चोक" सक्कत्यायं वेश्य चंदणयं ति । " यत्पुनीताधर्मकथादिषु धर्मरुचि साध्वादिचरितानुवादे प्रणितम पुरस्थाभिमुद्दे संपलिक निसन्ने क ३२८ चेश्यवंदगा "इत्यादिदत्यादिकरणाश्रितम न पुनः "भूमिनि दियोभयजा" स्यादिविशिषः धाविधायी पति तानुवादविदितत्वात् । चरितानुवादविदितानि हि नोत्सर्गानिधविधिवादस्य बाधकानि साधकानि वा नवितुमर्हन्ति, का रणाश्रितत्वेन द्वितीयपादान्तवर्तित्वा से पाम्, अन्यथा वा यथास्नायं सुनिः समायम तथा वदन-"अरिहंत येश्या" इत्यादिद एमके प्रसिजिनबिम्बादीनां जनमुखा पूर्वोक शब्दार्थया विघ्नया कर्तव्यं नवाते, यादव तथा च षष्ठा - "तपणं सा दोवई रायवरकन्ना० जाव धूवं डहुई, वामं जाएं श्रंचे, करयल० जाव कट्टु एवं वयासी-नमो० जाव संपता णं बंदर, नमसइ । " अत्र जीवाभिगमोर तो विधिना प्रणामं कुर्वन् प ठति - " नमोऽत्थु णं श्ररिहंताणं" इत्यादि, यावत् "नमो जिणाणं जियभपणं" इति । दशमकार्थश्चैत्यवन्दनाविवरणादवसेयः। "बं दश् नमंस" ति । वन्दते ताः प्रतिमाञ्चैत्यचन्दनविधिना प्रसिद्धेन, नमस्करोति पश्चात्प्रणिधानादियोगेनेति । " परिग्गहियं सिर सामत्यजलि क प वयासी नमोऽत्यु णं भरिहंताणं" इत्यादि । ततोऽस्य पाठे विविधविधिदर्शनात् सर्वेषां च प्रमाणग्रन्थकत्वेन विनयविशेषकृतत्वेन च निषेदुमशक्यस्वाद योगमुद्राऽपि विचित्रस्वाद मुनिमतानाम् । न चैतानि परस्परमतिविषानीति बा च्यम्, सर्वैरपि विनयस्य दर्शित्वात् इत्यलं प्रसङ्गेन । तथा व मदनम्-"अरिहंत वेश्याणं " इत्यादिदएकपादेन जिनबि म्यादिस्त जिनद्रया इयं च पादाश्रिता, एककानामपि मुद्राऽपि साच हस्ताश्रिता, श्रत उभयोरप्यनयोर्वन्दने प्रयोगः । उक्तं च " यि जिविय चलनो करधरियजोगमुद्रो य । जिनयनियिदिकी, उबणे जिखदमयं पढाई ।। १ ।। " तथा प्रणिधानं" जय वीयराय इत्यादि यथेष्टप्राधेनारूपं यद्यस्य तीवसंवेगहेतुरिति यावत् ती शुभाविनी वियोग सचमु मुझया कार्यमिति शेषः । सङ्घा० १ प्रस्ता० । ल० । पञ्चा० । दर्श०० धर्मपथान्यत्र ) 1 (१०) प्रणिधानम् उक्तं मुद्रात्रिकमिति नवमं त्रिकम् । संप्रति "तिविहं व पणा" इति दशमं त्रिकं गाथापाकेाऽऽदपणिद्दातिगं पेय-मुणिदणपत्यणासरूवा मकाएग यदि मुशुधा मुद्रा विधानत्रिम किमित्याह-चैत्यसुमियन्दनाप्रार्थनास्वरूपम्। अथापृथक बन्दनाश योगात्प्रथमं प्रणिधानं चेत्यचन्दनरूपम-जाति आई "इत्यादि। द्वितीय "जाति के वि साहू" इत्यादि । तृतीयं प्रार्थनास्वरूपम् "जय विराय" इत्यादि डच नाध्ये"अपि वा नेदानं । जम्मि कप संपुन्ना, उक्कोसा वंदणा होइ ॥ १ ॥ वेश्यगय साहुगयं, नेयव्थं तह य पत्थणारूत्रं । Page #1333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३१०) चेश्यवंदण अभिधानराजेन्डः। चेश्यवंदण पयस्स पुण सरूवं, सविसेसं उवरि वुच्छामि ॥ २॥" क्षणयोगादिति दर्शितम् । असतासक्तचित्तब्यापार एष ननु यदेतत्प्रणिधानत्रिकमुक्तं तत्किल वन्दनाऽवसाने विधीय. महान् । न च प्रणिधानादृते प्रवृत्यादयः । एवं कर्तते "अन्न पितिप्पयारं बंदणयपरंतभावि" इत्यादिनाष्यवचनात् । व्यमेवैतदिति प्रणिधानप्रवृत्तिविघ्नजयफलविनियोगानामुततः शेषा वन्दना प्रणिधानरहितोत प्राप्तमित्याशङ्कयाऽऽह-"चे. तरोत्तरभावात् प्राशयानुरूपः कर्मबन्ध इति । न खलु इयत्ति।" अथवा द्वितीयमपि प्रणिधानात्रकमस्ति यत्समस्तचै- तविपाकतोऽस्यासिकिः स्यात्; युक्त्यागमसिझमेतत् । स्यवदनायां विधीयते । किंतदित्याह-मनोवचःकायानामका अन्यथा प्रवृत्याद्ययोगः , उपयोगाभावादिति । न अनधिकाम्यम, अकुशलरूपाणां निवर्त्तनम, समाधिः रागद्वेषाभावोs. रिणामिदम् । अधिकारिणश्वास्य य एवं वन्दनाया उक्ताः। नन्योपयोगितेति यावत् । प्राह च तद्यथा-एतद्बहुमानिनो विधिपरा उचितवृत्तयधोक्तलिकाः "इह पणिहाणं तिविहं, मणवश्कायाण जं समाहाणं। एव । प्रणिधानलिकं तु विशुम्भावनादि । यथोक्तम्रागहोसाभावो, उवोगित्तं न अन्नत्थ ॥१॥ "विद्युम्भावनासारं, तदर्थापितमानसम । एनं पुण तिविहं पि हु, वदंतेणाऽऽओ उ कायव्वं । यथाशक्ति क्रियालिज, प्रणिधानं मुनिर्जगौ ॥१॥" विश्वंदणमुणिवंदण-पत्यणरुवं तु पज्जंते॥२॥" इति स्वल्पकालमपि शोभनमिदं, सकलकल्याणापात, ___अत्र चेयं भाष्योक्ता भावना अतिगम्भीरोदाररूपमेतत् , अतो हि प्रशस्तभावलाभाद्वि"चिंतइ न अन्नकज्जं, दूरं परिहर अट्टरुदाई। शिष्टक्षयोपशमादिभावतः प्रधानधर्मकार्यादिलाभः । तत्रापगमामणो वंद, मणपणिहाणं हवा पयं ॥१॥ स्य सकलोपाधिमुक्तदीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवनेन श्रकाबिगहाचिवायरहिओ, वजतो मृयढरं सहं। चार्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञावृध्या न हि समनसुखभाक् तदवंद सपयच्छेयं, वाया पणिहाणभेयं तु ॥२॥ महीनो जवति, तद्वैकल्येऽपि तद्भावहेतुकत्वप्रसङ्गात् । पेदंतमपज्जतो, उट्ठाणनिसीयणाश्ये कुणई । न चैतदेवं भवतीति योगाचार्यदर्शन, सेयं भवजलधिनौः प्र. चावारंतररहिओ, बंदर श्य कायपणिहाणं" ॥३॥ शान्तवाहितेति परैरपि गीयते । अयमातज्ञापनफलः सदुपञ्चाशकेऽप्युक्तम् पेदेशो हृदयानन्दकारी परिणमत्येकान्तन । झाते त्वखएमन"सव्वत्थ वि पणिहाणं, तग्गयकिरियाऽनिहाणवन्नेसु। मेव नावतः अनाजोगतोऽपि मार्गगमनमेव । सदन्धन्याप्रत्ये विसए य तहा, दिटुंतो निन्नजालाए ॥१॥" येनेत्यध्यात्मचिन्तकाः। तदेव शुभफलप्रणिधानं पर्यन्ते चैत्यवअस्या अर्थ:-सर्वत्रापि समस्तायामपि चैत्यवन्दनायां, न केवलं न्दनं तदन्वाचार्यादीनभिवन्द्य यथोचितं करोति, कुर्वन्ति वा तदन्त पव प्रणिधान कार्य,नरवाहणनरेन्द्रवत् । क विषये?,ता कुप्रहविरहेण । ल०। (नरवाहननरेन्षवृत्तं सवाचारग्रन्थाताश्चैत्यचन्दनागताः, क्रिया मुखस्थगनमुखान्यासादिकाः, तासु, दवसेयम् ) इत्युक्तं प्रतिधाननिकमिति दशमं त्रिकम् ।। तथा अभिधानानि पदानि, वर्णा अकराणि, तेषु तेषु, तथाऽ. अथ श्रोतुं त्वरमाणः शिष्यः प्राह-अत्र तावद्भगवद्भिः षडेव थोऽहंदादिपदाभिधेयः, तस्मिन्, विषयो वन्दनागोचरो भावा त्रिकाणि व्याख्यातानि, शेषाणां तु का वार्तेत्याशङ्काशङ्कसमुकईदादिः,राष्टिगोचरो वा चैत्यबिम्बप्रभृतिकः तस्मिन्, तथाशब्दात रणाय गाथाचतुर्थपादमाह"जय वीयराय" इत्यादिप्रार्थनायामपि, 'दिटुंतोनिनजामाप'इति सेसतियऽत्यो न पयम ति॥१६॥ तुर्यपदस्यैवं भावना । प्ररेकः प्राह शेषत्रिकाणां प्रदक्षिणात्रिकप्रणामात्रिकदिगत्रयनिरीकणविरति"वनासु नबनोगो, जुयवं कह घम एगसमयाम्म । त्रिकत्रिपदनूमिप्रमार्जनत्रिकलक्षणानामर्थस्तु पुनः,प्रकटः सुगम दो उवोगा समए, केवलिणो वि हुन जंठा ॥१॥" एवेति।भाष्ये नोक्तं, विवृतौ तु यथाप्रस्ताव भावितमेवेति स. आचार्य: मातानि दशाऽपि त्रिकाणि । "कमसो वि संभवंता, जुगवं नजंति तेवि जिना वि। एषां चैव कारणफले लघुभाष्योक्तेचित्तस्स सिग्धकारि-तणेण एगत्तभावानो" ॥२॥ "कम्माण मोहणीयं, जं वलियं तिसंगणगनिबर्क। अत्र दृष्टान्तश्छिन्नज्वालया उल्मफेन । यथा हितकाम्यमाणं तक्खवणता पयं, तिगदसगं होहनायब्धं ॥१॥ जिन्नज्वालमपि शीघ्रतया चक्राकारं प्रतिभासते। यद्वा श्य दहतियसंजुत्तं, वंदणयं जो विपगतिकालं । "केवलिणो उवोगो, बच्चा जुगवं समत्थनेपसु । कुणहनरो उपउत्तो, सो पावसासयं गणं ॥२॥" छ चमत्थस्स वि एवं, अभिन्नविसबासु किरियासु ॥ ३॥" | इति व्याख्यातं दशत्रिकाण्यं प्रथमद्वारम् । सवा०१ प्रस्ता। तथा चागमः (११) अभिगमः"भित्रविसयं निसिहं, किरियायुगमेगया न एगम्मि। अत्र च प्राक साधुश्रावकादिःसामान्येनत्याधुक्तं,तत्र चैत्यादिजोगतिगस्स वि भंगिय-सुत्ते किरिया जत्रो प्रणिया ॥४॥ वन्दितुकामः श्रावकः काश्चिन्महर्डिको भवेत.श्रीषेणनृपादिवत; मणसा चिंतह भंगे, वयसा उच्चरह लिहा कारण । कश्चित्सामाभ्यविभवः श्रीपतिश्रेष्ठीवत्। तत्र यदि राजादिस्तदा एवं जोगतिगस्स वि, भंगिअसुत्तम्मि वावारे" ॥५॥ सखा०१ "सवाए इडीए सव्वाप दित्तीए सवाए जुईप परियणसहिए प्रस्ता०। प्रव०। सब्बपोरिसेणं" इत्यादिवचनात प्रजाबनानिमित्तं महा चैप्रणिधानफलम त्यादिषु याति । अथ सामान्यविजवस्तदौकत्यादिपरिहारेण फसति चैतदचिन्त्यचिन्तामणे गवतः प्रभावेन । सक- सोकोपहासं परिहरन् वजति । तत्र च चैत्ये प्रविशन् पञ्चविलशुभानुष्ठाननिबन्धनमतत, अपवर्गफलमेव प्रणिधानं, तल्ल- पाभिगमं करोतीत्येतत्संबन्धायातः द्वितीयाभिगमः। Page #1334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेयवंदण ( १३११) निधानराजेन्द्रः । पण त्ति " द्वारं विवृण्वन्नाहसचिचदन्यण-पश्चित प्रगुणं मणेगतं । इगस मित्तरासं-गु अंजली सिरसि जिणदिट्ठे || १७ || सचित्तद्रव्याणां स्वाङ्गाश्रितानां कुसुमताम्बूलादीनामुज्ऊनं परित्यागः १ अनि कटककुल के गुरद्वारादीनां याणामित्यत्रापि योग्य अनुमपरित्यागः २ । मनकाध्यम रागपानावेन मनः समाधिः, अनम्योपयोचितेति यावत् । ३ । एकशाटक उत्तरासङ्गः । ४ । एकशाटको देशान्तर प्रसिद्ध उत्तरा बहुपरितनं यखं प्रावरणवस्त्रमित्यर्थः । के चाचा" एनसामो यदुकं भवति एनपावर ति, तेन कृत्वोत्तरासङ्गम् उत्तरियकरणं । " कल्पचूवयुकम" उतरि नाम पावर कविश्व" उत्तरिज्जं नाम पंगुरणं " इति पाठः । एवं च - " परेण पंगुरणवत्थेण उत्तरासंगो किज्जइति प्रणियं होइ । " अनेन व निवसनवस्त्रेणोत्तराकरणनिषेधा " तथाच कल्पनिशीवचूर्णे:-"अंतरि नाम नियत्रणंति।" एक पुनरुतरास सर्वथोपरितनप्रावरणवस्त्रस्य । एवं च परिहितैकवस्त्रो द्वितीयेन वस्त्रेण उत्तरासङ्गं कुर्यादित्युक्तं भवति । यदुक्तं पञ्चा की एकेन चोरतोवरास इति । मार्कण्डेयपुराणेऽप्युक्तम्- नैकवस्त्रेण नुञ्जीत न कुर्याद्देवतानम् इत्यादि । एतौ च पुरुषमा बित्यो की, ख] तु विशेप्रवृताङ्गनिवातनुः तथाचाऽऽगमः एगवेन सि" वृद्ध संप्रति स्त्रीयांविना देवादिकन कल्पते । धारयुक्त के बिना कार्या, देवाच स्त्रीजनेन तु । " इति । " अंजलि त्ति " श्रञ्जनिबन्धश्च कार्यः शिरसि मस्तके, जिनदृष्टे जिनबिम्बदर्शने सतीति गाथार्थः ॥ १७ ॥ च इस पंचविहाऽनिगमो अहवा मुच्चति रायचिंधाई । खग्गं छत्तोत्राणह - मनमं चमरे च पंचमए ।। १८ ।। इति पूर्वोकप्रकारण, पञ्चप्रकारोऽभिगमो भवति । श्रीपञ्चमा-"पंचविणं अभिगमेणं अभिगच्छतं जा स चिणं वाणं विसरणवाद १ अवित्ताणं दध्वानं अधि सरणयाए २ सारणं उत्तरासंगकर येणं ३ चक्प्फासे अंजलि पग्ग देणं ४ मणलो पगत्तीजावकरणं ५ " ति । क्वचित्तु" ग्रचित्ताणं दव्वाणं विवसरणायार" ति पाठः, तत्राचित्तानां त्रादिनां व्यवसरणेन व्युत्सर्जनेनेत्यर्थः । अन्यत्राप्युक्तम्"पुष्कतंबोलमाणि, सचित्ताणि विषज्जए । 33 इ छत्तवाणमाईण, अचित्ताणि तद्देव य ॥ १ ॥ तदर्थप्रतिपादनार्थमाह-अहवा इत्यादि । यद्वायो महर्दिको राजादियं प्रविशति स पञ्चचिचामि गमसमये राजचिह्नाम्यपि मुझतीत्यत आह-" चा " स्यादि । अथवा विकल्पान्तरसुचको न केवलं सचिताम्याणि मुच्यन्ते कि तांचितान्यपि इयाणि मु व्यन्ते, दूरीक्रियन्ते । कानि ?, राजचिह्नानि राजलक्कणानि । तान्येवाह - खङ्गः कृपाणः । १ । छत्रमातपत्रः । २ । उपानदौ पाडुके । ३ । मुकुटं किरीटम । ४ । चामराः बालव्यजनानि ५ पञ्चमका इति । तथा च सिद्धान्त:- " अहवहु रायककुदाइ 9 चेयवंदण पंचवरायककुभ्याम् दोषाणह-मउ तह चामराओ य" ति । सङ्घा० १ प्रस्ता० प्र० । ( अत्र श्रीषेणनृपतिश्रीपतिश्रेष्ठकथे सङ्घाचागज्ज्ञातव्ये ) प्ररूपिनमभिगमपञ्चकविधिरिति द्वितीयं समरूपणेन च प्रदर्शि विधिः। (१२)दिक सम्प्रतियेत्यवन्दना करणविधित्यते तत्र वैदिकस्यन्दनाविधेया तत्प्रतिपाद गाय तृतीय दिग्द्वारं गाथापूर्वाना 356 बंदति जिले दाहिए दिसि-ट्टिया पुरिस वामदिसि नारी । प्रणमन्ति जनप्रतिमा दक्षिणदिश मूत्रविम्बदक्षिणदिग्नागस्थित पुरुषप्रधानत्या धर्मस्य तथा वामदिशि विवादिनामे स्थिता नाजिमान त्यत्रापि योज्यमिति ह्यौत्सर्गिकम् । विधिप्रधानमेव च विधीयमानं सर्वमपि चैत्यवन्दनकादि धर्मानुष्ठानं महाफलं भवेत् । अन्यथा सातिचारतया श्रीदत्ताया इव कदाचिदनर्थमपि ज नयेत् । च धर्मानुष्ठानयेतथा महावे जनको दुषित्॥१॥" इति पचादिधनाऽस्य विधाने सातिवादात् प्रायश्चित्तमप्यु कमागमे । तथा च महानिशीथसप्तमाध्ययनसूत्रम् -" श्रविही ए वेश्याएं वंदिता तस्स णं पायच्चित्तं वइसिज्जा, जो अविहीर चेश्याएं वंदमाणो अलि असद्धं जाणइ इश् काऊणं" अपि च इदमेव चातयेन विधान रणं धाम तथा चोकम ; " विहिसारं चित्र सेवा, सिद्धालू सत्तिमं ठाणं । दादोसनि हो, विपक्खवायं वह तस्मि ||१|| "ति । सविस्तरायामयुक्तम्वं हि कुता भराचितं वचनं बहुमतो लोकनाथः परित्यक्ता लोकही बीकृता लोकोत्तरा प्रवृतिः समासादिता धर्मचारितेति । प्र तोऽन्यथा विपर्ययः आलोचनीयमिदं सूक्ष्मधियामेव शास्त्रोक्तमुपदेशमुल्लङ्घ्य पुरुषमात्रप्रवृत्तोऽपरोऽपि हितानुपायः स्यात् । ननु वन्दिनादिविधवादी तानुमति रूपः स्यात् । नैवम् । यत उक्तम् श्रपवादोऽपि सूत्रानाबाधया गुरुनाथवालोचनपरोऽधिकदोषनिवृत्या शुभाशुभानुबन्धिमहासत्वासेवित उत्सर्गभेद एव, उत्सर्गस्थानापन्नत्वेनोत्सर्गफलहेतुत्वात् । यदागमः "उन्नयमविra विश्न-स्स पसिद्धि उन्नयस्स निन्नं च । इस अनुभावेक्खा, उगचचायें हो तु 35 अत पयोम अधिड़िकया परमक, असूयणं प्रति समयन्नू । पायच्चित्तं श्रक, गुरुयं वि तहा कर लहुयं ॥ १ ॥ " न पुनः सूत्रबाधया गुरुलाघवचिन्ता, किन्त्वभावेन । त संसारश्रोतसि परमगुरुलाघवकारि स्व कुराकाशावम्बनप्राथमहितमिति भाग्यम् । सर्वथा निरूपणीयं प्रवचन गाम्भीर्ये यतितव्यमुत्तमनिदर्शनेष्विति श्रेयामार्गः ॥ सङ्घा० २ प्रस्ता० । ध० (अत्र श्रीदत्ताकथा सङ्घाचारादवसेया) (१३) अवग्रहःसंप्रतिद्वदिकस्थित लम्बस्य देवा Page #1335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेयवेदय बन्दनीया इत्याशङ्कायां चतुर्थमधमद्वारं गाथो सराना 35 नवकर जहन्नु सकि-रजिडु मज्जुग्गहो सेसो || १ || मूलबिम्बात् नवहस्तान् जघन्योऽवग्रहः, जघन्यत उच्चासनिःश्वासादिजनिताऽननापरिहाराय नमस्तस्थः देवबन्दना कार्या । षष्टिस्तान् ज्येष्ठ उत्कृष्टोऽवग्रहः, तत्परत उपयोगसंवाद मच्यो मत्यमः शेषो नयकरेज्य उपच हो मूलबिम्बवन्दनाथानाभ्यन्तरान भूभाग इति । अन्ये पुनर्द्वादशधाऽयमुक्तः । तथा च पञ्चस्थान के निदितम् "उकोसमपन्ना पत्तार तिसा दस पणइस दस नवति दु एगहूं, जिणुग्गहं वारसाविभेयं " ॥१॥ एतावता चाईहस्तादारभ्य षष्टिहस्तेभ्यश्चार्वाक् गृहचैत्ये चैत्यगृहे वा यथा जिनबिम्बस्याऽऽशातना न भवति तथा यथासम यमत्र स्थितैरमिततेजः खचरेश्वरदेव वदना कार्यैत्युक्तं भवति । सङ्घा० २ प्रस्ता० । ( अमिततेजः खेचरेश्वर कथा साचारादयसेवा) निगा विधाऽग्र इति चतुर्था तद्भणनेन च प्रदर्शितः चैत्यवन्दनाकरणविधिः । सङ्घा० २ प्रस्ता० । (१३१२) अभिधानराजेन्ड (१४) त्रिविधा वन्दना - संप्रति कतिप्रकाराशङ्कायां तत्स्वरूपाभिध रया "तिद्वारा बंद सि" पश्च द्वारे नक्कारेण महा, चिड़वंदा मऊ दंमनुपला | जन्ना, पाचक-यथािउकोसा | नमस्कारेण बन्धनमनादिप्रमाणमात्रेणा" नमो अरिहंताणं" इत्यादिना अथवा " पुरवरकवाडवच्छे फलिए दुहिणियघोसे । सिरिवच्छं कियवच्छे, वंदामि जिणे ॥१॥ इत्यादिनैकेन लोकादिरूपेण नमस्कारे निजानिदेशाद्वावभिरपि नमस्कारः निघायच "सुमहत्थनमुक्कारा इगडुग" इत्यादि । यथा नमस्कारेण प्रण तिपातापरनामतया प्रणिपात एक केनैकेनेति यावत् जघन्या स्वपा, पाठययोरल्पत्वात्, चैत्यवन्दना, नवति इति गम्यम् । एतावता एगनमुक्कारेणं, चिडवंदणया जहन्नयजहन्ना । बहुहि नमुक्कारेहि य, नेया व जहन्नमज्झमिश्रा ॥ १ ॥ सचियता जनकोसिया मुणेयच्या " ॥ इति त्रिविधोक्ता जघन्यवन्दना व्याख्याता। ईर्यापचिकीनमस्कारोऽपि प्रणिधानान्नापि शक्रस्तचेन जयन्दनेति तात्पर्यार्थः । सङ्घा० २ प्रस्ता० । पञ्चा० । ६० । (१२) स्तुतिविचारएतावताऽप्यवस्थात्रयभावनासिद्वैतदर्थमेव चात्र शक्रस्तवान्ते" जे य अश्या " इत्यादिगाथा पाठाद्। उक्तं च लघुभाध्ये"जे गहाण वीर्याहिगारेण य पणमामि भावसार, छमत्थे तिसु वि काले सु ॥ १ ॥ एषाऽपि यवैकद एक कस्तुत्यादिसहिता स्याचदा मध्यमा भवतीयत श्राह - "मज्झदंड पुइजुयला" मध्या मध्यमाश्च जघन्योत्कृष्टाः, पानकिययोस्तथाविचत्तपा 33 1 चेयवंदण त्यादिकस्तुतिका लोकादिरूपा प्रतीता चूलिकामिका एका तदन्त एव या दीयते । ते पत्र युगलं युग्मं यस्यां सा दएमस्तुतियुगला, चैत्यवन्दनेत्यत्राऽपि योज्यं घण्टा नालान्यायेन । संगया सम्यममिया " तथा "मुकराविरुद्दमा इत्याक्तितो व्या ख्यातम्, अन्यथा-"सक्कत्थवाश्यं चेश्य बंद" इत्यागमोक्तप्रा माख्यात् शक्रस्तोतादयेपि " सत्यमिममिया" अथवा त्यस्वरूप एवं स्तुतियुगलं चयमानीत्या मि [केतरस्तुतिइयरूपं यत्र सा दमस्तुतियुगाचैत्यमा कायोत्तरमामालिका सुति" लोग स्सुजोयगरे " इत्यादि । सङ्घा०२ प्रस्ता० । (१६) अन्नविधिमाह- निस्स ( कम ) मनिसकमेवा, वि पेड़ सव्वा पुई तिन्नि वेलं व चेहयाणि व, णाउं इक्किकया वा वि ॥ निकृते तद्विपरीते सत्र तिस्रः स्तुतयो दीयते। अथ प्रतिस्तुतिमा ला या अतिमो भवति भूसा तत्र वैत्यानि ततो वेलां त्यानि या शाराप्रतिचैत्यमेकाऽपि स्तुतिप्रति ०२४० " जवकारेण जसा, दंगघुश्जुश्रलमज्झिमा रोया । संयुमा उकोखा, विहिणा तु वंदा निविद्दा ॥ २ ॥ " (इतिपञ्चाशद्वितीयगाथायाम) संपूर्ण परिपृक्ष सा प्रस्तुतप्रधानप 2 . ति, चतुर्थस्तुतिः किलावांचीगेति । किमित्याह--उत्कृष्टत इत्युस्कर्ष उत्कृष्टा । इदं च व्याख्यानमेके . " तिनि वा कई जाब, थुईओ तिसिलोगिश्रा । ताब तत्थ अणुमायं, कारणेण परेण वि " ॥ १ ॥ इत्येतां भाष्यगाथ पणिहारी मुक्तसुती " इति वच नमाश्रित्य कुर्वन्ति || पञ्चा० ३ विव० । इति व्याख्यानात् तोऽपि वस्तुनि भवतः युग शब्देनोच्यते इति स्तुतियुगलं स्तुतिचतुष्टयमुकम्। तथा तुला दश्रुचद्] मध्यग्रहणादाद्यन्तयोरपि ग्रहणमिति म्यादि प थाऽऽदी शब्द एक कार्यसगदिनियतं भय तथाऽन्तेऽपि चतुर्थ कायोत्सर्गस्तुत्यन्ते तवादिधु भण नीयं, करणविधौ तथायातत्वात् । उक्तं च पञ्चवस्तुके"सेहमिद पापा तो पति । साहृदि संम गुरवो थुश्बुकी अध्पणा चेब " || १॥ श्राचार्या एव बन्द:पाठाभ्यां वर्द्धमानाः तुतीर्ददति । "बंदिय पुण द्वित्राणं, गुरुणा ता वंदणं समं दानं । सेहो भाई इच्छाकारण संदिखावे ॥दद्वितीयामकाय खाने तथा लखिति चतुर्थका 29 यायोकं व्याख्यासिद्धेभ्य स्यादिनं पुनः संवेगभावित मतयो विधिनोपविश्य पूर्ववत्प्रणिपात एककं पठित्वा स्तवपाठं पूर्ववत् । चतुर्थ कायोत्सर्गसुत्र स्तुतिस्तु सूत्राद्युक्तत्वादवश्यमेव भणनीया । तथा च ललितविस्तरायामुक्तम्- केचित्तु अन्या अपि पठन्ति न च तत्र नियम इति न तत्र व्याख्यानं क्रियते । श्रयमर्थः अन्या २ अपीति उक्तानुक्तादिसंग्रहरूपत्वेनात्र पञ्चमदमके तचापाऽपि सम्मानादिदोषानापतेः । Page #1336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदा 66 सङ्घा० २ प्रस्ता० । ल । घ० । न च तत्र नियमः- एका द्वे तिस्र इत्यादि क्षेत्रकालाचा कीसत्यनियतत्वात् तद्व्याख्यानाभावः । एतावता यदत्र व्याख्यातं चतत्रियमेन भजनीयमिति प्रतिपादितमव्याक्यातच सिद्धा धिकृततीर्थेशस्तुतियात्रा नियमभनीयत्वेन वेयाचच गराणं" इत्यादि चतुर्थकायोत्सर्गसुत्र स्तुत्यादि । तत्र यथा एचमेतत् "सिद्धाणं" इत्यादि पतित्वोपचितपुष्पसंभारा उचितेधूपयोगफलमेतदिति ज्ञापनार्थ पठन्ति देयाचचगरा" - त्यादिकायोत्सर्गविस्तरः पूर्ववत् स्तुतिश्च, नवरमेषां वैयात्राणां तथा तद्भावकरित्युक्तप्रायः प्रशंसितः प्रस्तुत कार्याय प्रोत्सहत इति प्रतिमेवेत्यर्थः तदपरिमा सिकादिमेव वचनं सूर्य हायकमन चाि रादौ मन्वादेत सदस्या सर्वत्र प्रवर्तित व्यमित्यैदम्पर्यमस्य । एषा ध्रुवं भणनीया चतुर्थी चूलिका स्तुत्यन्ता पञ्चमदण्डरूपा तृतीया सूत्रस्तुति संपूर्ण पा लिकाबाद न्यायावोम् पथा" " रखं संमतं"। तथा पाचिकचूर्णी "विरश्पमिवाचिकाचिद धमायोययारेण श्रावस्तं महासंनिदियदेवयासंविदाणम्मि भयद, तो देवालयं प्रणियं इदाऽपि बन्दनामध्ये देवसाक्स्वयं । देवाद्युपचारः तत्कायोत्सर्गस्तुत्यादि विना कोय इति पाकि काद्यागमोक्तत्वान्नियत सुदृष्टिदेवताकायोत्सर्ग स्तुत्यादि " सि बुद्धा इतिनाम्न्यास्तृतीयसूत्रस्तुत्या अन्तेऽवश्यं भणनीयम बक्तानुकाऽऽदिसंग्रादिकत्वादस्य विस्तार मायाः सुत्रतुः । पचैव वैत्ररूपसुहाटस्मरणानिषादशाधिकारान्ता पञ्चमदण्डक उच्यते । भणितं च इह लविश्रवित्थरावि-तिमाइवक्त्रायसुत्त अनुसारा । सुत्त नवहिगारा, दुदस इगारस सुतान्त्ररणा ॥ १ ॥ " । आवश्यकर्णिकारादिमता इत्यर्थः । ( १३१३ ) अभिधानराजेन्द्रः । 33 आह च "सगी बेया जाए। तेनं उज्जंता वि, अहिगारा सुश्रमया चेव ॥ १ ॥ " पताषता भाष्यान्तरोक्तजघन्यादिभेदा मध्यमाऽपि व्याख्याता । तथा वृद्भाष्ये "कोसा तिविहावि हु, कायन्वा सत्तिश्रो उभयकालं । सेसा पुण बन्नेया, चेश्यपमिवाडिमाईसु ॥ १ ॥ " । भणितं च कल्पभाध्ये "मिस्करमनिस्कट" इत्यादि । एवं प्रागुक्तयुक्त्या "निस्कड” शंत गाथया मध्यमा बेत्यवन्दना प्रणिता दवमस्तुतियुगलपाठकचेति स्थितम अन्यत्राप्युकम् "विश्वंदणं तु नेयं, सुत्तत्थुवओगश्रो समाहीए । अक्वलिश्रागुणजु, दंडगपंचासमुच्चरणं ॥ १ ॥ " मैवं बेततो ऽन्त्य कायोत्सर्गविदादिशस्त कायोत्सर्गाय ध्यभणनीयं स्यात्, " निस्सकम " इत्यादावनुकूलत्वात् । एवं चान्यत् स्तुतिस्तोत्रप्रणिधानादि स्वर्वमष्यनणनीयं प्राप्नोति, भवता चैत्यमध्ये उक्तयुक्तेरेव । उक्तं च "जह इसिमितं चिय जिम सुप से थुइधुवाइपवित्ती, निरन्थिमा दुज्ज सव्वाऽवि ॥ १ ॥ " । परिभाव्यमत्र सम्यक् कुग्रडविरहेण । यदागमः"जं जद मुझे भणियं तदेव तं विधारणा नउस्थि किं कालिगो, दिहो दिट्टिदाणेहिं ॥ १ ॥ " ३२६ चेयवंद सर्वत्राप्यादी प्रथममीर्यादिपाधिकी प्रतिक्रमितम्या । तथा चागमः - " ता गोश्रमा ! णं अप्पमिक्कंताए इरिश्रावहिआप न कप्पर वेव किंचि चिश्वंदणसायज्झाणारा फसा सामभिकखुगाणं । " दशवैकालिकेऽपि द्वितीयचूलिकायाम्" अभिषणं काहस्साकारि" इति सूत्रस्य वृद्धि:अभीक्ष्णं गमनागमनादिषु कायोत्सर्गकारि भवेत्। यथप्रतिक्रमणमहत्या न किञ्चिदम्यत्कुर्यात् तदताले रिति भाषः । यदि परमदवर्जिते भूतसमाचारितां निरुम्भति, नान्यदिति । वक्ता सप्रभेदा मध्यमाऽपि बन्दना । इयमेव च स्तवप्रणिधानादिपर्यन्तोत्कुष्टा भवतीति । उकं च बृहद्भाष्ये-" उक्कोसजहन्ना पुण, सच्चिय सक्कत्थयाइपता" तदर्थप्रतिपादनायाऽऽहमनुपपाण दाणे उक्कोसा" ति पश्चार्य पञ्चनिएमकैः शक्रस्तवादिदृष्टिकायोत्सर्गपर्यन्तैः स्तुतिचतुष्केन बन्दनाऽनुशास्तिस्तुतिरुपसिकास्तुति चतुष्टयेन द्वितीयमकादिकायोत्सर्गचतु कान्दातव्येन स्तवेन जघन्यतोऽपि चतुःश्लोकादिमानेन लोगो भवति व्यवहारचूर्णिनाणे तात् द्वितीयशक्रस्तवान्ते प्रणनीयेन तदादौ प्रपयमानस्य नमकारताऽऽपचेद प्रणिधान पयमाणस्वरूपैदाव धेयैरुत्कृष्टा संपूर्ण चैत्यवन्दनत्यत्रापि योज्यम् । उक्तं च चैत्यघन्दनाचूर्णी-" सक्कत्थवाश्दंमग पंचगपुश्चक्क गपणिहाणकरणाओ उक्कोसा " ति । तथाऽऽन्यत्र 39 "सत्यवादं पणश्चपसिहाणा । संपुषा चेयं दणास दुवई जो भणियं ॥ दुधमा वितरणाणिया । उनमो पोते इति न चेहए । तिथि या कई जातिसिलोमा। ताब तत्थ अणुन्नायं, कारण परेण वि " ॥ एतयोर्भावार्थ:-साधन तिष्ठति अथवा चन्दनात्यास्तथाधनन्तरं तिस्रः स्तुतीः प्रमाणाः प्र विधानार्थ यावत्कष्येते प्रतिक्रमणानन्तरम पाठयत् ताचेत्यानिष्कारणं न परतः । शालिसूरीय भाष्येऽऽप्युक्तम"दंगपंचगलपाठपखिदाणसाक्कोसा । अव पणिवायदं मग पंचगजुत्रविहिजुया चेसा " ॥ प्रथममतं चैवम् । उक्तात् "तिथि बाजा" इत्यादि मायार्थः प्रागुक्त एव । सिद्धादिश्लोकत्रयमात्रान्तपाठे तु संपूर्णचन्दनाया नाव एव, प्रथमस्तुत्तिश्लोकत्रयपाठानन्तरं चैत्यगृहेऽवस्थानानुगतेन प्रणिधानासद्भावात् प्रणितं चागमे वन्दनान् प्रणि धानम् । यथा-" बंदर नमस" ति सूत्रवृत्तिः- वन्दते ताः प्रतिमाभैत्यचन्दनविचिना प्रसिकेन ममस्करोति पाण धानादियोगेनेति । बन्दनान्ते तिस्रस्तुतयोऽत्र प्रणिधानरूपा हेयाः । सर्वथा परिनाव्यमत्र पूर्वापराविरोधेन प्रयचनजी मुक्त्वाऽभिनिवेशमिति । यज्ञा-पञ्चदल कैरुिरिति गम्य म स्तुतिचतुष्केण स्तुतियुगलगतेन पन्द माऽनुशास्ति स्तुतिरूपस्तुतिद्वयगणनेन युगलइये तिचतुष्टय भावात् शेषं प्राग्वत्, उत्कृष्टा चन्दना इति । उक्तं चजा थुइजुगल पुगेणं, जुगुणियचिश्वंदणार पुणो । 66 Page #1337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेsयवंदगा उक्कोसमज्झिमा सा प्राची स्तुतियुगलद्वयगतेन शेषं प्राग्वत्कृष्टा वन्दना । भणितं - ..., उक्कोक्कोसिया य पुण नेया । पणियाणाि ॥ सत्य य इरिश्रा, डुगुणिश्रचियवंदणाइ तह तिनि । फतपणिहाण सक्क - त्यो य श्य पंत्र सक्कथया ॥ एतावता " तिहा उ वंदना " इत्याद्यद्वारगाथागत तुशब्दसूचितं विधत्वमप्युक्तं इव्यम् । ये 16 " विश्वंदणा तिभेया, जहनिश्रा मज्जिमा व उक्कोसा । क्किका वितिनेया, जहन्नमज्झिमियत कोसा ॥ नवकारेण जहन्ना, इचाई जं च वपि तिविदा | नवभेयाणमिमसि, नेयं उबलक्खणं तं तु ॥ एसा नवपयारा. आश्मा वंदणा जिणमयम्मि | कालोचियकारी भनुमाहाणं सुहासच्या ॥" रत्नसारनरे ( १३१४ ) अभिधानराजेन्द्रः । द्रवत् । "बहुभेया एसा भनियति बहुस्सुपदि पुरस संपुन्नमवायंतो, मा को चश्ज सव्वं पि 11 भणियं च"वित्तिकिरियाविरोहो, अबवाय निबंधणं हित्थाणं । किरिअंतरकाला वि-कखयाश्भावो सुसाहूणं ॥ अहवा चिइवंदण्या, निच्चा इअर त्ति होइ दुविदा तु । निच्चा उ उभयसंभं, इयरा चेश्श्रगिहाईसुं निच्चा संपुन विश्र, श्यरा जसत्तिश्रो य कायन्त्रा । तवयमिमं सुतं मुखति गीधा उ परमत्यं ॥ उत्पन्नसंसया जे, सम्मं पुच्छंति नेव गीयत्थे । चुकंति सुरूमग्गा, ते पल्लवगाहिपंमिच्चा" ॥ किं च"गोत्था विहिरसिया, संविग्गतमा य सूरिणो पुरिसा | कह ते सुतविरुद्धं, सामायारिं परुवंति ” |१| संघा०२ प्रस्ता० । ( यत्र पूर्वसूचितरत्नसार नरेन्द्रका संघाचाराकाम्या ) (१७) जघन्यवन्दनाविचारा इह च केचिन्मन्यन्ते शक्रस्तवमात्रमेव वन्दनं श्रावकस्य युकं जीवाभिगमादिषु तन्मात्रस्यैव तस्य देवादित प्रतिपादितस्ततस्तदाप्रामाण्यास दधिकतरस्य गणधरादिकृतसूनच शुकस्यातिरिकं तदस्ती तित्रोच्यते यदुक्तमारितामादिति । तदयुकम यतो यदिदं जीवाजिगमादिसूत्रं तद्विजयदेवादिचरितानुवादपरमेवेति न ततो विधिवादरूपाधिकृत वन्दना कश क्यः । तेषां ह्यविरतत्वात्प्रमत्तत्वाच्च तावदेव तत् युक्तम्, तदम्येषां पुनरप्रमादविशेषयतां विशेषज्ञतां तदधिकवेापेन दोषः यदि पुनराचरितमलप्रवृत्ति कार्यों, तदाहि कर्तव्यं स्याद्वयाऽङ्गीकृतमपि वर्जनीयं स्यादिति म-तदधिकतरस्यानमिचानादिति । "लिवा हुई जाव, घुईचो तिसिलोइआ । " इत्यादिव्यवहारभाष्यवचनश्रव णात् । साध्व पेक्क्या तदिति चेत्। नैधम्। साधुश्रावक यो दर्शन शुरू: कर्तव्यवाहनशुद्धिनिमित्य वन्दनस्य तथा संवेगादिका रणत्वाद्श्वमाचरितराजतिलकरत् - चेयवंदण चैत्यचन्दनभाष्यकारादिभिरेतःकरणस्य स धिकतरमपि नायुक्तमित्य प०२० अथ वाचमाम्यादिदर्शनपरं अव्यजनानुग्रहाय किञ्चिदुच्यते" श्रन्ने विति इगेणं, सक्कथपणं जहन्नवंदणया । इगडुगतिमेण मज्जा, उफ्फोसा चहा पंचवा साओ मइरिश्रावहिया-अनायो दुन्नि । एवं उक्कोसाए, चउरो सक्कत्थए नेया ॥ २ ॥ प्रणिकण नमुक्कारे, सक्कत्थयदंडयं अपरिकं । इरि पडिक्कमंते, दो चरो वा वि पणिवाया ॥ ३ ॥ इरिआए एवं वा, पणिहाणंते व क्वथयत्रणणे । दुनिया तिनि ॥ ४ ॥ वारणेपुच्छ ते चतुरो । गुणिअवंदण वा, पुल्विं पच्छा व सक्कथए ॥ ५ ॥ सरिया दुगुणिचिया व विि पुत्तपणिहाणसक स्थश्रो य इय पंच सक्कथया ॥ ६ ॥ पाढकरियासारा प्रणिमा विश्व मानवहा तिविहाऽद्दिगारिभावा, तिहा चि सा श्य नवे नवहा " ॥ ७ ॥ संघा०२ प्रस्ता० । अधिकारिभेदाद् वन्दनाभेदाः । अथ प्रकारान्तरेण धन्दनायाविध्यमाहअवाविभावभेया, ओघेणं बंधगाई । सव्वा वितिहा ऐया, सेसाणमिमी ए जं समए ॥ ३ ॥ अथवाऽपीति निपातः पूर्वोक्तप्रकारापेक्षया प्रकारान्तरत्वद्योतनार्थः भावभेदात्परिणामविशेषाद गुणस्थानक 1 मोरूपा चन्दनाधिकारिजीवतात् त्रिधाविति संवन्धः । श्रोपेन सामान्येनाविति पाठक्रिया उत्पत्यादितयेत्यर्थः । केषामित्याह श्रपुनर्बन्धकादीनामपुनबैन्धकप्रभृतिकानां वन्दनाधिकारिणां तत्रापुनर्बन्धको व्याख्यातपूर्वः, आदिशब्दादविरत सम्यगृरदेश सर्वाऽपि नमस्का रादिभेदेन जघन्यादिप्रकारा अपि आस्ताम्रेका काचिदिति । सानन्धकस्य जघन्यात्परिणामस्य विजय स्वात्, अविरतसम्यग्दृष्टेर्मध्यमा, तत्परिणामस्य विकिमङ्गीकृत्य मध्यमत्वात् । सामान्यविरतस्य तुत्कृष्टा, तत्परिणामस्य सावित्यादेवेति । अथवान्धकस्यापि त्रिया. प्रमोदरूपभाववैविध्यात्, एवमितरयोरपीति । श्रथापुनर्बन्ध कादीनामिति कस्मादुक्तम् मागनिमुखादेरपि भावनेसद्भावादित्याह शेषाणामपुनर्वन्धकादिव्यतिरिकन सबन्धकमाभिमु खमार्गपतितदितरमियादा इमी ति) मध भाषभेदेन भेदवती वन्दना पाठादिभेदस्वादा न नैव यद्यस्मात् समधे सिद्धान्ते, प्रणितेति शेषः तेषां तद्योग्यताविकलत्वादिति गाथार्थः । पञ्चा० ३ विव० । ध० । (१०) अनादीनां स्वरूपमनिहितम, थामेव भावयन्दनायामधिकारितां शेषाणां चानधिकारितां दर्शयन्निदमाह एतेऽरिगारिणो हाउसेसा दव्बओ चिजं एसा । इरी जोगवा, सेसाथ न अप्पारा चि ॥ ७ ॥ तेऽनन्तरोचक अनयन्धकाय अधिकारिणः तद्यो Page #1338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३१५) श्रभिधानराजेन्द्रः । चेयवंदाग ग्यत्वेनाधिकारवन्तः, इद भाववन्दनायां न तु शेषाः न पुनरपुनन्धकादिज्योऽपरे मार्गभिमुख मार्गपतित सकृदूबन्धकतदन्यमियाशोऽधिकारिणइति प्रकृतम् । कुन दे तोऽपि भावव्यतिरेकेणापि, आस्तां भावतः, यद्यस्मात्कारणात्, एवा वन्दना अव्यवन्दनाऽपीत्यर्थः । इतरस्या भावतो वन्दनायाः, योग्यतायाम् श्रतायां सत्यां भवति नान्यथा; श्रतः कथं शेषा नाववन्दनाधिकारिणो नवन्तीति । ननु भाववन्दनाया अयोग्यतायामपि केषाञ्चिद् व्यवन्दनेष्यते श्रतः कथमुक्तं प्राववन्द नाणां यवन्दनाऽपि न भवतीत्यादशेषाणां तु शेषाणां पुनरपुनबन्धकादिभ्योऽन्येषां सन्धादीनाम, अप्रधाना ऽनुत्तमा द्रव्यवन्दना भवति, न तु प्रधाना, भाववन्दनाया अक्कारणत्वात्तस्याः । इदमुक्तं भवति द्रव्यशब्दो योग्यतायामप्राधान्ये च वर्त्तते तत्र शेषाणां भाववन्दनायोग्यत्वेन या प्रधाना अव्यवन्दना सा न भवति । तदयोग्यतया त्वप्रधानव्यवन्दना स्वादपि । इतिशब्द वाक्यार्थसमाप्ती । इति गाथार्थः ॥ ७ ॥ अथ तं शेषाणामंत्र माहबंगाओ, परेण इद जोग्या विजुन चि । परेण वि एसा जमन्यापि विदिट्ठा ||७|| न च नैव, अपुनर्वन्धकादुकस्वरूपात् परेण परतः, सक्कबन्धकादीनामित्यर्थः । इद जाववन्दनायां योग्यताऽप्यताऽपिमातां भाववन्दना, युक्ता संगता, संसारभूयस्त्वात्तेषाम् । इति शब्दो वाक्यार्थसमाप्तौ । तथा न च नैव न परेणापि न परसोऽपि सन्धारयेश वन्दना भवति भवत्येवे त्यर्थः । कुत एतदेवमित्याह यद्यस्मात्कारणात् श्रभव्यानामपि सिकिगमनायोम्यानामपि मास्तां सन्धादीनाम निर्दिश निदर्शिता आगमे। आईतदीका साध्यस्य ग्रैवेयकोपपातस्यानम्तो भय्यानामुकायात् शेषाणां प्रायवन्दनामश्वेन अव्यवन्दनाया प्रभावत्वात् तस्याश्च तेषामुक्तत्वादप्रधाना सेति स्थितम् । इति गाथार्थः । पञ्चा० ३ विव० । (१६) अधिकारिता यद्येवमुच्यतां के पुनरस्याधिकारिण इति । उच्यते तदूव इमानिनो विधिपरा न हि विशिष्टकर्मय रेवंभूता भवति कोऽप्यमः पामयमेव न खघुतस्तद् मानिनो विधिपरा नाम नासारस्याद्विप्रयोगस्य न चार्थ बहुमानाभावे इति न चामुष्मिकविधावप्यनुचितकारिणोऽन्यश्रोतिवृत्तय इति विषयभेदेन तदविश्यापूर्व कारविजृम्नितं हि तत्, तदेतेऽधिकारिणः परार्थप्रवृतैर्लिङ्गतोसेवामा नूनाधिकारिप्रयोगे दोष इति लिङ्गानि वेषांतपान तथा तत्काप्रीतिः, निन्दाऽवजय नुकम्पा, चेतसो म्यासः, परा जिज्ञासा, तथा गुरुचिनयः, सत्कालापेका सचिवासनं कस्वरता, पाठोपयोगः तथा लोकप्रिय स्वप अगड़िया किया, व्यसने पेय शक्तिस्याः तिमिस्वाधिकारितामवेत्येतदध्यापने प्रयत अन्य दोष इत्युक्तम् । आह-क इवानधिकारिप्रयोगे दोष इति । उच्यते स ह्यचिन्त्यचिन्तामणिकल्प मनेकनवशत सहस्रोपात्तानिष्टदुष्टाष्टकम्शशिजनितदत्यविच्छेदकमपीदमयोग्यत्वादवयविधिय दावते चास्यापादयति ततोऽविधिसमासेवक या धामि महदकवाणमासाद्यति । उकं च "धर्मानुष्ठान देता चेद्रयवंदण त्यायो महान् भवेत्। घजनको दुःप्रयुक्तादिवौषधात् " ॥१॥ इत्याद्यतोऽनधिकारिप्रयोगे प्रयोक्तृत्वमेव न स्वतः सद्याणमिति सिधकारिताम प्रर्चेत एवं हि कुता आराधितं वचनं यदुमतो झोकनाथः प रिक्त ओकोतरानं समासेविता धर्मचारिति यतोऽन्यथा विपर्यय इत्यालोचन यमेतदतिसूक्ष्मप्रावेन न हि वचनोकमेव विधानाऽपरोहितापायान चानुभवाभावे पुरुषमा स्तफलसिद्धि अि 1 पतिनिरोधतस्तद्विघात अपवादोऽपि सूत्रादायागुरुलाघवालो वनपरोऽधिकदोष शुभः शुभानुबन्धी महासत्वमनुषयाचया गुरुलाघव चिन्तानावेन हितमहितानुबन्ध्यसमञ्जसं परमगुरुलाघवकारि क्षुषसत्वविजृम्भितमिति । एतदङ्गीकरणमप्यनात्मज्ञान संसारसि कुशाम्यनमिति परिभावी थम सर्वथा निरुणी प्रगाम्भीर्थ विलोकया तन्त्रान्तरस्थितिः, दर्शनीयं ततोऽस्याधिकत्वम्, यतितव्यमुत्तमनिदर्शन इति श्रेयोमार्गः, व्यवस्थितश्चायं महापुरुषाण णप्रायकर्मणां विकाशयानां भवावदुमानिनाथ अ पुनर्बन्धादीनामिति । अन्येषां पुनरिहानधिकार गुरुदे शगाना देशना दि सत्यमृगयूथ सन्त्रासमि हनादः, ध्रुवस्तावदतो बुद्धिभेदः, तदनु सत्वलेशचनं, कपितफलभाषापादनात् प्रशस्तमहामोहको कृतकियात्यागकारी संपासादिनां स्वानुनयमि प्य समेत मोदसामर्थ्यादिति । न खल्तानधिकृत्य विषाशास्त्रवद्भावः प्रतिपादनीयो दोषभावादिति। च"अप्रशान्तमतौ शास्त्र - सद्भावप्रतिपादनम् । दोषायाभिनवोदीर्णे, शमनीयमित्यरे ॥" इति कृतं विस्तरेण अधिका रण वाचिकत्व पुरोहितान् अपक्षपात व निरस्तरात् प्रस्तुतमभिधीयत इति । ४० " एहिं लिंगोह, नाऊणऽहिगारिणं तश्रो सम्मं । विश्व दायप्यं दो चिहिणा ॥ १७ ॥ मणियं च त्यो चिह्निकणं च प्रत्यचिदात्रेण । पाटो तिम्रो देई ब्रद्दिगारिणि बंधाई ॥ १० ॥ दिना व अणद्दिगारिणि विमासेणा जस्त दुपत्त श्रसहं पिव, होइ अकलाणजणगं ति ॥ १६ ॥ तम्हा उ अबंधग, अविरयविश्यपहि होइ कायश्वा । वितिविधिमा गतिकविपदि सबका | २०|| साहित्य, अन्न चिजल जसं गाहिं पजिणपूपाचपार ॥ २१ ॥ तह दावा माओ पुणेो दुबिहा पुण बंधगाईणं । पहाणा य पहाणा, होऊ नाविस्लिह पहाणा ॥ २२ ॥ तत्थ पहाणा एसा होऊ पहाणं विश्व सेसा - इत्थ सम्बंधगाईं ॥ २३ ॥ उस ममाभिमुद्दा मामिणं । इराण व अपदाणा, विश्वंदण दव्वम्रो होइ ॥ २४ ॥ उवोगश्रत्थचिंतण, गुणराया सा विम्हओ चेव । लिंगाण विधिमंगो नावे दध्ये विभो ।। १५ ।। बेलाविहायसाय मयाणि वह सिंगाणि । Page #1339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेयवंदण रोमंचभाववुड्डी र जावचिवंदाइ भवे ॥ २६ ॥ सुते पगविड श्चिय, प्रणिश्रा तोडणेगसाहणमजुत्तं । इथूलम कोई, भन्न सुत्तं इमं सरिचं ॥ १५ ॥ तिम्नि वा कई जाव, पुई श्री तिसिलोइ श्रा । ताव तत्थ अरणुन्नायं, कारणेण परेण वि ॥ १६ ॥ भई गुरु विश्वपि न नये । सं निकारणजिमंदिर परिभोगनिवारय ॥ ५७ ॥ जं वासो पडो पर ताई अस्थि । संवाद वा तिमि उई ॥ १२८॥ सो वि हु भावत्थो, संजाविज्जर इमस्स सुत्तस्स । तो अन्नत्थं सुचं, अन्नत्थ न जोइडं जुषं ॥ १९ ॥ किं चजर इत्तियमित चिय, जिणबंदणमणुमयं सुपहुं तं । घुइयत्ताइपवित्ती, निरत्थिया दुज सव्वा वि ॥ २० ॥ (1318) निधानराजेन्द्रः | अन्नच गोवा विहिरसिया, संविग्गतमा व सूरिणो पुरिसा । कहते सुतविरुद्धं सामायारि पकमिति ॥ २१ ॥ अहवा चिश्वंदणया, निच्चा इयर ति होइ डुविहा उ । नि श्रागा ॥ २२ ॥ निचा संपुन विष, इयरा जहसत्तिओ वि कायव्वा । तब्बिसयमियं सुतं सुरांति गीया उ परमत्थं ॥ २३ ॥ सम्ममविचारिणं समय परओ व समयसुताई। जो पवय वि गोवर, सो नेश्रो र बहुसंसारी ॥ २४ ॥ दुसमदोखा जीवो जं वा तं चा मितरं पप्य । चेयबहु करणिज्जं, थोवं परिवज्जा सुहेण ॥ २५ ॥ इक्कं न कुपर मूढो, सुयमुद्दिसिउ नियकुदोदम्मि । जणमनं पि पवन, एवं बीयं महापावं ॥ २६ ॥ उत्पन्नसंसया जे, सम्मं पुच्छंति नेव गीयत्थे । कति माते पापिंडिया २७ ॥ बडुमेया पुरा पसा, भणिय ति बस्तुपहि पुरिसेहि संपूनमचायंतो मा को चइज्ज से सत्थं ॥ २८ ॥ " इत्याद्यभिहितं त्रिधा वन्दनेति पञ्चमद्वारम् | तत्र जम्या बन्दना प्रणिपातनमस्कारैरित्युक्तमतस्तापद प्रविपातस्वरूपाभिधित्सया द्वारं गाथापूर्वा " नाऽऽह पणिवा पंचंगो, दो जाणू कर5गुत्तमं गं च । अथवा प्राकू "अंजनिबंध श्रद्धो ओय पंचंगओ य तिपणामा ।" इति जपन्यादिनेदेन प्रयमुक्तम्। ततः प्रणाम कि मेकाङ्गादिप्रकार भूपतिजिकासा सयर्थमिदमाहा फेणामोऽपि पते तत्कथं पञ्चाङ्ग एव उत्कृष्ट इत्याशङ्कायां जिनसमयप्रसिद्धासि , मेनीयते प्रणिपातः प्रणामः पापानि शरीरावयवा नम्राणि यत्र स पञ्चाङ्गप्रणामः, सुरेन्द्रदत्तकुमारवत् । पञ्चभिरङ्गैभूमिः स्पर्शनीयेत्यर्थः । तथा चोक्तमाचारापूर्ण" कई गर्मति सिरमेणं कारणं ति "कानि तानीस्वाद-वे जानुनी प्रावती, करद्विकं हस्ततलद्वयं उत्तमा मस्तकं येति शिरःप्रभृत्यका योगतः बाणि पत्रकारः पतेन सिकान्तामसिकायादित्य चेयवंदण धि । उक्तं च भाष्ये - " पूयं प्रोवयारं, भांति महंगमेत्र पणिवायं । सो पुण एतदसिह, न इ अत्रियो जिणमयम्मि ||१|| " इति एकाङ्गादिमेदात् । यमुक्तम् 66 एकाङ्गः शिरसो नामे, सद्व्यङ्गः करयोर्द्वयोः । प्रयाणानमने बङ्गः, करयोः शिरसस्तथा ॥ १ ॥ " चतुणी करयोग्यो-नमने चतुरङ्गकः । शिरसः करयोजन्योः, पश्चाङ्गः पञ्चमो मतः " ||२॥ सङ्घा० २ प्रस्ता० (सुरेन्द्र चकचान्यत्र ) (२०) इति भणितं प्रणिपात इति पष्ठं द्वारम् संप्रति नमस्कार इति सप्तमं द्वारं गाथाऽऽहसुमहत्य नमुक्फारा, इग दुग तिग जान असयं ॥ २१ ॥ सुमहार्थाः शोभनो बैराग्यादिजनको माँ साध्योपमारूपक कियागुतयमकानुप्रास विरोधाद्वारादिग शाय्यर्थो येषां ते सुमहार्थाः, नमस्कारा मङ्गलवृत्तानि । कियन्तवैसे भरायन्तेयाको प्रयो] पायुत्कर्षसम तथा चागम:-"] अहोई मातुरोदि पुण तेहि महाविद संवर" विजयकुमार संघा०) इत्युक्तं नमस्कार इति सप्तमं द्वारम् । एवं च भणितं चैत्यचन्दनास्वरूपम् । सङ्घा० २ प्रस्ता० । सम्प्रति चैत्यवन्दनासूत्रार्थावसरः(२१) संपद्वार " ; अक्षराणि च संपतानीत्योत्तरपद संपदिति कार यम् । सङ्घा० ३ प्रस्ता० | ( पञ्चपरमेहिसुत्रसंपद मुक्कार शब्दे ) यांप्रतिक्रमणसूत्रमारभ्यान दर्शविध्यन्ताम्यतमीषपधिक व्यावायते, पाठक्रमायातत्वादर्यापथिकप्रतिक्रमणपुरस्सरं च सफलस्यापि चैत्यन्दनादेर्धर्मानुष्ठानस्योकस्वाद इत्यमेव च विसोपयोगेनानुष्ठानस्य साफल्यत्वात्, अन्यथा प्रायश्चित्तैकाग्रताया अभावात् सूत्रप्रामाण्याच्च । सङ्घा० ३ प्रस्ता० । पूर्वमत्रैवोत्तमएवं च सिद्धान्ताद्युक्तत्वादीर्यापथिकीप्रतिक्रमणपूर्विकेष चैत्यचन्दना वैस्यायाता वृद्धाः पुनरेवमादुः- उत्कृष्ट चैत्यचन्दना पथिक प्रतिक्रमण पुरस्सरैव कार्येति । ईयोपथिकी कमाश्रमणपूर्विका प्रतिक्रम्यते इति तदक्षरसंक्या प्रतिपादकसमर्थिकं गाथापादमाह - पणिवाय अक्खराई, अट्ठावीसं पादेन समाश्रमणमुच्यते प्रायस्तपूर्व तस्मात्ततश्च प्रणिपाते कमश्रमणेऽष्टाविंशतिरकराणि । तथा च तत्सूत्रम् - " इच्छामि खमासमणो बंदिडं जावणिज्जाए नि. सीहियाए मत्थपण वंदामि " || सघा० ३ प्रस्ता । तदनन्तरम् -" उट्ठितु असंनंतो, तिविहं पायंतरं पमजित्ता । जिणमुचियचलो, इरियावहियं पडिकमर " ॥ १ ॥ सव विपदसंपत्प्रतिपादनाय गाथापादत्रयमाद्तहा य इरियाए । नवनय प्रक्खरसर्य, दुतीसपयसंपया अ॥ २३ ॥ तथा ईर्यापथिक्यां नवनवत्यधिकमकराणां शतम् । “ठामि कानसभ्गं " इति यावत् । एतदन्तत्वादष्टम्याः संपदः । उक्तं Page #1340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३१७) चेश्यवंदण निधानराजेन्द्रः। चेश्यवंदण च-" अहमी तस्स उत्तरी" इत्यादि, "गमि काउस्सम्" इति उक्तं च व्यवदारनाम्येपर्यन्त मिति । परतः कायोत्सर्गदएमकत्वाच तद्वर्णसहितानि "अायरियागहणणं, तित्थयरो इत्य होइ गहिरो श्र। तु त्रीणि शतानि चत्वारिंशदधिकानि भवन्ति। उक्तं च-"नव- किं न भव प्रायरिश्रो, पायारं उवइसंतो य ॥ नवासया रिया-बहिवाए होश वनपरिमाणं । नस्सग्गबन्न- निदरिसणमित्थ जह खं-दएण पुट्ठो य गोभमो भयवं । सदिया. ते तिन्नि सया न चालीसा ॥१॥" अपरेतु-"मिच्छा केण तुहं सिति च, धम्मायरिएण पचाह ।। मि छक्कम" इति पर्यवसानं " वन्नाणं ससयं" इति भणन्ति । स जिणो जिणाइसश्त्रो, सो चेव गुरू गुरुवएसानो। तथाऽत्र द्वात्रिंशत्पदानि, अष्टौ संपदो महापदानीति ॥ फरणाय विणयणाउं, सो चेव मतो उवज्झाअं॥” इति । अथ यस्यां संपदि यावन्ति पदानि सन्ति तत्संख्या श्राद्यपदप. आचाराङ्गचूर्णावप्युक्तम्- "प्रायरिया तित्थयरागुणे प्रायरिय रिक्षाने च शेषपदानि सुनेन कायन्ते, श्त्याद्यपदानि च र्याप. असंजमए"ति । सूत्रचूर्णि:-"श्रायरिया तित्ययर त्ति"संघा० थिकीसंपदा प्रतिपिपादयिषुराह ३ प्रस्ता०। ईयाप्रतिक्रमणसूत्रमत्रैव प्रागुक्तम् (अत्र स्कन्दकमुदुग दुग इग चउ ग पण,इगरस उग इरियसंपयाइ पया। निकथानकं सताचाराज्यम् ) ई०प्र०अनन्तरम्-पतदर्थश्चैत्यइच्छाइरिगमपाणा, जे मे एगिदि अभि तस्स ॥॥ स्तबदएडके अभिधास्यते-“शरियउसग्गपमाणं,पणविंसुस्साद्वे च द्वेचेत्यादि द्वन्द्वः। ततो विवेकचतुरेकपञ्चैकादशषट्पदानि स" इति वचनात् पञ्चविंशत्युच्चासपूरणार्थ " चंदेसु निम्म लयरा" इत्यन्त चतुर्विशतिस्तवं मनसा विचिन्त्य " नमो अरियासु ताश्च ता र्यापधिकीसंपदश्च"तेलुग्वा" ॥३।२।१०८॥ इति हंताणं" इति भणन् कायोत्सर्ग पारयित्वा पुनश्चतुर्विशतिस्तवं पदपथिकीशब्दयोर्लोपः,तासामाद्यपदानि । यथा इच्छा च, इरि सकलं वाचोचरति । सङ्घा०३ प्रस्ता०1" नमोऽत्यु णं अरिधेत्यादिद्वन्द्वः इत्यकरघटना। एवमन्यत्रापि कार्या। भावार्थस्त्व हताणं जगवंताणं" इत्यादि। (अस्य व्याख्या अहंदादिशन्देषु) यम्-इच्छेतिवर्णद्वयसूचिताऽद्यपदा “श्च्यामि १ पडिक्कमिवं २" इति पदद्वयपरिमाणा प्रथमा संपत् । रीत्यक्करद्वयघटि तत्र शक्रस्तवसंपदां पदसंख्यामाद्यपदानि च ताद्यपदा "शरयावहिआए १ विराहणाए २" इति पदद्वय प्रतिपिपादयिषुराहनिष्पना द्वितीया संपत । गमेत्याद्यकरद्वयनकणा-"गमणाग- दुति चउ पण पण दुचउ ति, पयसकत्थयसंपयाइपया। मण" इत्येकपदैव तृतीया संपत् । “पाणे ति" हिवर्णवपर्या- नमुआइगपुरिसो सो-गुअभयधम्मऽप्पजिएसव्वं ॥३॥ दिमपदा "पाणक्कमणे वीयकमणे हरियक्कमणे ३ श्रोसा उत्ति अक्षरघटना प्रागुक्तानुसारण कार्या। भावार्थः पुनरयम्-“नगपणगदगमट्टीमकमासंताणासंकमणे ४" इति पदचतुष्टयनि मोऽत्पु णं अरिहंताणं" इत्याद्यपदा पदद्वयप्रमाणा प्रथमा सं. टङ्किता चतुर्थी संपत् । “जे मे" इत्याद्यव्यञ्जनद्वयव्यज्जिता | पत् । “प्रागरेणं " इत्यादिपदत्रयनिष्पना द्वितीया ।२। "जे मे जीवा विराहिया" इत्येकपदपरिमिता पश्चमी संप “ पुरिसुत्तमाणं " इत्यादिपदचतुष्कचर्चिता तृतीया । ३। त् । 'पगिंदीति ' अकरसूचिताऽऽद्यपदा-" एगिदिया "लोगुत्तमाणं" इत्यादिपञ्चपदपूरिता चतुर्थी । ४ । " अ१ बेदिया २ तेइंदिया ३ चरिदिया ४ पंचिंदिया ५" भयदयाणं " इत्यादिपदपञ्चकपरिमाणा पञ्चमी ।५ । " धइति पदपञ्चकपरिनिष्ठिता षष्ठी संपत् । 'नीति' वर्णद्वयब म्मदयाणं" इत्यादिपदपञ्चकनिष्पन्ना षष्ठी।६। “अप्पमिहः र्णिताद्यपदा"अनिया १ वत्तिमा २ सोसिमा ३ संघाश्या ४ य" इत्यादिपदद्वयनिर्वर्तिता सप्तमी।७। “जिणाणं" इत्यासंघट्टिया ५ परियाविश्रा ६ किलामिआ ७ विश्रा गणा- दिपदचतुण्यघटिताऽधमा । " सम्वन्नूणं" इत्याद्यत एकओगणं संकामिया जीविश्वाश्रो ववरोविश्रा १० तस्स मि- विकपरिकलिता "जियजयाणं" इति पर्यन्ता नवमी संपत । । । च्छा मि दुक्क ११ " इत्येकादशपदपरिच्छिन्ना सप्तमी संपत् । “ तस्स ति" आद्यपदालिङ्गिता " तस्स उत्त अधास्यैव वर्णादिसंख्यार्थ गाथापूर्वाफमाहरीकरणेणं १ पायचित्तकरणणं २ विसोहीकरणणं ३ वि. दोसयनउा वना, नव संपय पय तिसीस सकथए । सल्लीकरणेणं ४ पावाणं कम्माणं निग्घायणद्वार ५ गमि द्वे शते सप्तनवत्यधिके, वर्णा अकराणि, शक्रस्तबदमके इति कास्सग।" इतिपदपटूघटिताऽप्रमी संपत् । परतः कायो पोगः। “सधे तिविहेण चंदामि" इति यावत; एतदन्तस्यैव त्सर्गसूत्रत्वाद्भाध्यान्तरेऽन्यपदालिङ्गनेनास्या पतदन्तभणनाच। वर्णवृकिसम्प्रदायेन प्रणिपातदण्डकतया रूढत्वात्। तथा च चैउक्तं च-"जीवा बिराहिया पं-चमी न पंचिंदिया नवे ट्ठी। त्यवन्दनाचूर्णी-"तिविहेण वंदामि" इत्येतदन्तं व्याख्याय भणितमिच्छामि दुक्कडं स-त्तमी अट्टमि गामि काउस्सगं ॥१॥" एवं म-“ सक्कत्ययं विवरणं सम्मत्तं"। श्रीलघुनाध्येऽप्युक्तम्चासां पदैः परिगणनमर्थसाङ्गत्येन यथार्थतापरिज्ञानात् । "दो दो चल चल तिसया, सग नवा तिसनवा अप्पहिआ। उच्यते-"अब्ब गमो १ निमित्तं १, मोहे ३ यरहेण ४ संगदे अमतीसा छायाला, दंडेसु जहक्कम्मं धना" ॥१॥ ५ पंच । जीव ६ विराहण ७ पमिकम-णभेयो तिन्नि अस्यार्थः स्थापनातोऽवसेयः । तथा नव संपदः, पदानि च चूमाए ॥१॥" अस्या अर्थ उक्तानुसारेणोन्नयः। वाचनान्तराणि त्रयस्त्रिंशत् शस्तवे । सङ्घा० ३ प्रस्ता०।ध० प्रव०। त्वर्थसातत्याभावेन यादृच्छिकानि चेति मत्वोपेक्षितानि । जरतचरिते तु तस्य चक्ररत्ने उत्पन्नेअत्र चैवं वृहद्भाष्योक्तो विधि:-"सनिदिनं भावगुरुं, आपुच्चि- "सो विणयमो ग्वगो, काकण पयाहिणं च तिक्खुत्तो। त्ता खमासमणपुव्वं । इरिगं पमिक्कमिज्जा, ग्वणा जिणसरि- वंदा अभित्युणतो, इमाहि महुराहिँ बग्गदि ॥४६॥ कय इहरा ॥१॥" ननु जिनबिम्बस्यापि पुरतः स्थापना- लाभा हु ते सुलझा, जंसि तुम धम्मचक्कवट्टीणं । चार्यः स्थापनीयः, तीर्थकरे सर्वपदभणनातू तबिम्बेऽपि सर्व-1 होहिसि दस चतु इसमो, अ पच्छिमो वीरनामो त्ति ॥४७॥ पदस्थापना अवसीयत एव । एवं एहं थाऊणं, काऊण पाहिणं च तिक्खुत्तो। Page #1341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३१७) चेइयवंदण अभिधानराजेन्द्रः। चेइयवंदण प्रापुच्छिऊप पियर, विणियानयर अह पविट्ठो॥ ४०॥ | ण प्रकृष्टशब्दानि नाववृष्ये परयोगव्याघातवर्जितेन परिशुभुत्वैवं भरताधिपेन विदितां व्याहतो बन्दनां, कामापादयन् योगवृभिमन्येषां सद्विधानतः सर्वक्रप्रणीतवच. भीनाभिप्रभवप्रभाचनतश्चाष्टापदे स्थापनाम । नोन्नतिकराणि भावसारं परिशुरूगम्भीरण वनिना तु निभृतातो जव्यजनाखिकाल नविनामेषां सदा बन्दना, गः सम्यगनभिभवन् गुरुभ्वनि तत्प्रवेशात अगणयन् दशमकुर्डवं प्रतिमाश्च नावजनिताभ्यारोपतो यत्नतः" ॥ ४९॥ शकादीन् देहे योगमुख्या रागादिविषपरममन्त्ररूपाणि तदेवं द्रव्याईतां नमस्करणीयत्वात भाष्यकारादिभिः सम महास्तोत्राणि पठति । एतानि च तुल्यान्येव प्रायशोऽन्यथा थित्वादावश्यकचूर्णिकव्याख्यातार्थत्वात्संगादिकारणत्वा-- पोगघातः, तदस्य तदपरश्रवणम् । एवमेव श्रुतवित्तमाभः तदयाघातोऽन्यथेति योगाचयाः। योगसिद्धिरेवात्र कापक त्सम्यक्त्वनैर्मल्यहेतुत्वाद् अशठबहुबहुश्रुतपूर्वाचार्यचरितत्वात जीतकल्पानुपातित्वाश युक्तेः " जे य अईया" इतिगाथेति । द्विविधमुक्तम्-शब्दोक्तमर्थोक्तं च । तदेतदर्थोक्तं वर्तते, शुभविएष रुग्याईद्वन्दनार्थ द्वितीयोऽधिकारः । शकस्तवधिव तलाभार्थत्वाद्वन्दनाया इति । एवं च सति तन्न किञ्चिद्यमुच्यते रणं समाप्तमिति चूर्णिः । एवं शक्रस्तवास्याथमदपम परेरुपहासबुख्या प्रस्तुतस्यास्यादरतापादनाय। अलमनेन ककेन प्राबद्रव्याईतोऽजिवन्ध स्थापनाईद्वन्दनार्थमुत्थाय साधुः पणकवन्दनाकालादकल्पेनाभाविताभिधानेन, उक्तवदनाविता. भाबको वा चैत्यस्तबदण्डकं विधिवङ्गणति । उक्तं च विधानायोगात, स्थानादिगर्भतया भावसारत्वात् । तदपरस्या" उहिय जिणमुदंचिय-चलणो विदियकरजोगमुद्दो य।। गमबाह्यत्वात् । पुरुषप्रवृत्त्या तु तद्वाधायोगात्। अन्यथाऽतिप्र. चेहयगयधिरदिही, उबणाजिणदंम्यं पढ "॥१॥ सवा० सङ्गादिति न किञ्चिदेतत् । एवंभूतैः स्तोत्रैर्वक्ष्यमाणप्रतिकोचितं ३ प्रस्ता । चेतोभावमापाद्य पञ्चाङ्गप्रणिपातपूर्वकप्रमोदवृद्धिजनकानभि चन्द्याचार्यादिना गृहीतनावः सहृदयनटवत अधिकृतभूमिका(२२) प्रणिपातदएमके वारा: संपादनार्थ चेष्टते,बन्दनासंपादनाय स चोत्तिष्ठति, जिनमुन्या एताभिर्नवनिः संपद्भिः प्रणिपातदएमक उच्यते, तत्पागन पठति चैतत्सूत्रम्-'अरिहंतचेश्याणं' इत्यादि । संपदः । ल०। न्तरं प्रणिपातकरणात् । साचारवृत्ती तु-आदाबन्ते च त्रीन पारान् प्रणिपातः कर्तव्यः। तथा च तइन्थ:-"कहं नमति सि तत्रास्य संपतपदसंख्यापरिकानार्थमाहरपंचमेणं कापणं" इत्याचाराङ्गचर्णिवचनात् पञ्चागप्रणाम सुन सग नव तिय उच्चन-छप्पयचिसंपयापया पढमा । कुर्वता “तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितसंसि निवेस" इत्याग- अरिहं वंदण सका. अन्न सुहुम एव जा ताव ।। मात् त्रीन वारान शिरसा समि स्पृष्ट्वा भूमिनिहितजानुना कर मकरघटना प्राम्बत । भावार्थस्त्वयम्-"अरिहंतचेश्याण" धृतयोगमुख्या शकस्तबदएडको नणनीयः, तदन्ते. च पूर्ववत् इत्याद्यपदयप्रमाणा प्रथमा संपत् । " बंदणवत्तियार " प्रणामः कार्यः, ति जि.नजन्मादिषु स्वविमानेषु तीर्थप्रवृत्तेः पू. इत्यादिपदषमूपरिमाणा द्वितीया संपत् । “सका" इत्यादि चमपि शक्रोऽनेन भगवतः स्तोतीति शक्रस्तवोऽप्युच्यते । अयं सप्तपदपरिमाणा तृतीया संपत् । “अश्वत्थ ऊससिपणं" इत्या. च प्रायेण भावाईद्विषयो, भावाईदभ्यारोपाच्च स्थापनाईता दिपदनवकनिर्मिता चतुर्थी संपत् । “सुहुमोह" इत्यामपि पुरः पठ्यमाना न दोषाय । दिपदत्रययुता पञ्चमी संपत । " एवमाइपदि " इत्यादि। "तित्तीसंच पया, नवसंपयवनदुसयवासट्टा। षट्पदपूरिता षष्ठी संपत् । “जाव अरिहंताणं" इत्यादिपदप्रावजिणत्यवरुवो, माहिगारो एस पढमोति" ॥१॥ चतुष्कमित्यादि सप्तमी संपत् । “ताव कायं" इत्यादिपदषप्रतोऽनन्तरं त्रिकासवर्ति व्याईद्वन्दनार्थमिमां गायां पर्वा घांटताऽष्टमा शत । सडा० ३प्रस्ता० । प्रव० । ध०। चार्याः पति (२३) चतुर्विंशतिस्तवः"जय भईया सिद्धा, जे य भविस्संऽतणागए काले। "आरेहं बंदण सका, अन्न सुहुम एव जा ताव । संपयह य बट्टमाणा, सम्वे तिबिहेण वंदामि" ॥१॥ काव्या। अमसंपयतेत्राला, पयवना उसयतीसहिमा ॥१॥" ननु कथं द्रव्याहन्तो नरकादिगतिं गता अपि भावाईद्वन्दना । एष स्थापनाईन्दनाख्यस्तृतीयोऽधिकारः, द्वितीयो दइति चेत् । उच्यते-सर्वत्र तावन्नामस्थापनाव्याईन्तो नावा- एडकः कायोत्सर्गश्चाष्टांच्यासमात्रः । न त्वत्र ध्येयनिहंदेवस्थादि व्यवस्थाप्य नमस्कार्या इति द्रव्याहवन्दनार्थो- यमोऽस्ति, कायोत्सर्गान्ते च यद्यक एव, ततः " नमो ऽयं द्वितीयोऽधिकारः । ध०२ अधिक संपदः-"जे य ईश्रा अरिहंताणं " इति नमस्कारेण पारयित्वा यत्र चैत्यवसिद्धा" इति गाथा, साऽप्यवश्यं भणनीया शकस्तवान्ते, पूर्व- दनां कुर्वन्नस्ति, तत्र यस्य भगवतः संनिहितं स्थापनारूप महाश्रुतधरैरभिहितत्वात, न पुनरौपपातिकादिषु," नमो जि- तस्य स्तुतिं पठति । अथ बहवः, तत एक एव स्तुतिं परति । णाणं जियभयाणं" इति पर्यन्तस्य शकस्तवस्य पठितवान्नयं| अन्ये तु कायोत्सगस्थिता एव शुपवान्त यावत् स्तुतिसमगाथाऽस्माभिः स्वयं भएयते, इति कुबोधाऽऽप्रहप्रस्तमानसैन- प्तिः। ततः सर्वेऽपि नमस्कारेण पारयन्तीति, तदनन्तरं तस्यामेवनवानन्यविकल्पकल्पनकुशलैराधुनिकैरिव कैधित पठनीया, | पावसर्पिण्या ये भारते वर्षे तीर्थकृतोऽनुवन्, तेषामेकैककेत्रप्राक्तनैरशठेरननिमानैः गीतार्थैः सूरिनिराहतस्य पक्कस्यादरणी. निवासादिना आसन्नोपकारित्वेन कोर्सनाय चतुर्विशतिस्तवं यत्वादिति । प्रव०१ द्वार। तदेतदसौ साधुः श्रावको बा यथो-| पठति, पठन्ति वा-" लोगस्सुज्जोयगरे, धम्मतित्थयरे जिणे । दितं पठन् पञ्चाङ्गप्रणिपातं करोति । नूयश्च पादपुच्छनादि- अरिदंते कित्तश्स्सं, चउचीसपि केवली"|| ध०२ अधिकामा निषामो यथा भव्यस्थानवर्णार्धालम्बतगतचित्तः सर्वासाराणि | यदुक्तं कीर्तयिष्यामीति तत्कीर्तनं कुर्वन्नाहपथाभूतान्यसाधारणगुणसंगतानि जगवतां दुधालश्कारविरह.। "उसभमजिनं च बंदे, संभवमभिणंदणं च सुमईच। Page #1342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३१६) चेश्यवंदण अभिधानराजेन्द्रः। चेश्यवंदण पउमप्पर सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥१॥ गुणा इति सर्वलोकप्रहः । तदनुसारेण सर्वतीर्थकरसाधारणा सुविदि च पुष्फदंतं , सीअल सिज्जंस बासुपुखं च। स्तुतिः । अन्यथा अन्यकायोत्सर्गे अन्या स्तुतिरिति न स. विमलमणतं च जिणं, धम्म संतिं च बंदामि ॥२॥ म्यक, अतिप्रसङ्गात । इति सर्वतीर्थकराणां स्तुतिरुक्ता । एष स. कुथु अरं च मल्लिं, वंदे मुणिसुब्वयं नमिजिणं च। लोकस्थापनार्हतस्तवरूपः पञ्चमोऽधिकारः। चंदामिऽरिट्टनेमि, पासंतह वचमाणंच" ॥३॥ध०२ अधिका इदानीं येन ते नगवन्तः तदनिहिताश्च भावाः स्फुटमुपकीर्तनं कृत्वा चेतााट्यर्थ प्रणिधानमाह लज्यन्ते, तत्प्रदीपस्थानीयं सम्यक् श्रुतमर्हति कीर्तनं तत्राऽपि " एवं मए अभिपुत्रा, विद्यरयमला पहीणजरमरणा। तत्प्रणेतन् भगवतस्तत्प्रथमं स्तौतिचउवीसं पि जिणवरा,तित्थयरा मे पसीयतु"राध०२अधिक। "पुक्खरवरदीवके, थायइखंमे य जंबुदीवे य । तत्र प्रथममस्य लाघवाथै च श्रुतस्तवादेरस्यैकयैव गाथया भरहेरवयविदेहे, धम्माइगरे नमसामि"। ध०२ अधिनाला संपदादिप्रमाणमाइ एवं श्रुतधर्मादिकराणां स्तुतिरुक्ता , एष षष्ठोऽधिकारः । इदानीं श्रुतधर्मस्याऽऽहनामथवाइसु संपय-पयसम अस्वीस साल वीस कमा । " तमतिमिरपालविणं-सणस्स सुरगणन-रिंदमहिअस्स । अपुरुत्त वन दोसय, उसयं सोलऽहनउय सयं ।। सीमाधरस्स बंदे, पप्फोमिअमोहजाबस्स" ॥१॥ नामस्तबचतुर्विशतिस्तवः , अादिशब्दात श्रुतस्तषसिम्स्त. ध०२ अधि० ।ल। वग्रहः। पषु दएमकेषु,संपदो विश्रामाः,पदसमाः दएमकादिचतु इत्थं श्रुतमभिवन्द्य तस्यैव गुणोपदर्शनद्वारेणाप्रमादगोचरतां र्यभागसमानाः, यावन्ति पदानि ताबन्त्य एव संपदः। तत्र अष्टा प्रतिपादयन्नाहविंशतिर्नामस्तबे, एकश्लोकगाथाषटूमानत्वात् । षोमश श्रुतस्त " जाजरामरणसोगपणासणस्स, चे, गाथाद्वयवृत्तद्वयत्वात् । विंशतिः सिदस्तवे, गाथाप कल्लाणपुक्खलविसालसुहावहस्स । अकप्रमाणत्वात् । क्रमेण यथाक्रम, तथा अद्विरुक्ता म को देवदाणवनरिंदगणच्चिस्त, पुनरुक्ता ये एकवेलया गणितास्ते पुनर्न गएयन्ते । इति धम्मस्स सारमुवनभ करे पमाय॥१॥"ध०२ अधि. संघा०) यतश्चैवमतःभावः । वर्णा अकराणि , दमकत्रये क्रमेण भवन्ति । तत्र द्वे शते षष्टयधिके नामस्तवदण्डके ," सव्वलोए" इत्य “सिद्धे जो पयमो णमो, जिणमए नदी सया संजमे, रचतुष्कस्याकेपात् । अग्रेतनवर्णानाम अर्हचैत्यस्तवे गणित. देवं नागसुबन्नकिन्नरग-स्सम्भूअन्नावच्चिए॥ स्वादद्विरुक्ता शति प्रतिज्ञाताच । एवमप्रेऽपि भाव्यम् । १ । लोगो जत्थ पहियो जगमिणं तेमुक्कमच्चासुरं, तथा वे शते षोडशाधिके श्रुतस्तवदण्डके, "सुयस्स भग धम्मो बखर सासो विजयम्रो धम्मुत्तरं बहउ"॥१॥ध०२ वो ति" सप्ताक्षरसहितगणनात् दण्डकान्तःपातित्वादे अधिक। लासवा० । पाम । तथा अष्टनवत्यधिकं शतं सिद्धस्तवदएमके, “सम (२५) श्रुतस्य स्तुतिःदिकी समाहिगराणं " इतियावत् पश्चाधिकारप्रमाणत्वात प्रणिधानमेतन्मोक्कषीजकल्पं परमार्थतो नाशंसारूपमेवेति पशमदएमकस्य "सिद्धत्थर पंच अहिगारा" इति वचना प्रणिधानं कृत्वा श्रुतस्यैव वन्दनाद्यर्थ कायोत्सर्गाथै पठव । शेषभावना प्राग्वत् । संघा०३ प्रस्ता। ति, पठन्ति वा-सुअस्स भगवओ करेमि काउस्सगं " श्त्यादि," बोसिरामीति" यावत् । ध०२ अधिक नवरं श्रु. (२४) सिम्स्तुतिः तस्यति प्रवचनस्य सामायिकादिचतुर्दशपूर्वपर्यन्तस्य , भग"कित्तिय बंदिय महिया, जे ए सोगस्स उत्तमा सिद्धा। वतः समप्रैश्वर्यादियुक्तस्य , सिद्धत्वेन समप्रैश्वर्यादियोगः; प्रारुम्ग बोहिमानं, समाहिवरमुत्तमं दितु ॥१॥" ध०२ अ. न ह्यतो विधिप्रवृत्तः फोन वाच्यते, व्याप्ताश्च सर्वप्रवादाः, धिल पतेन विधिप्रतिषेधानुष्ठानपदार्थाविरोधेन च वर्तन्ते । "चंदेसु निम्मनयरा, प्राइवेसु प्राहियं पयासयरा । स्वर्गकेवलार्थिना तपो ध्यानादि कर्तव्यम् , " सर्वे जीवा न सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु"॥१॥ध०२अधिन हन्तव्याः" इति वचनात् । “समितिगुत्तिद्धा" क्रिया,"असपत्नो लासङ्घा नामाऽहं धन्दनाधिकाररूपश्चतुर्थोऽधिकारस्तृती. योगः" इतिवचनात्। 'उत्पाददिगमध्रौव्ययुक्तं सत्' एवं "द्रव्ययो दण्मकः । एवं चतुर्विंशतिस्तवमुक्त्वा सर्वलोक एवाह- मनन्तपर्यायमर्थः" इति वचनादिति कायोत्सर्गप्रपञ्चः प्राग्वत् । चैत्यानां वन्दनाद्यर्थ कायोत्सर्गकरणायेदं पठति, पन्ति तथैव च स्तुतिः, यदि च परं श्रुतस्य समानजातीयवृन्दकत्वाधा-" सब्बलोए अरिहंतचेइयाणं करेमि कामस्सगं" इ-| तू । अनुभवसिद्धमेतत् । तत्स्थानातू चलति समाधिरन्ययेति त्यादि, "वोसिरामीति" यावत् । ध०२ अधि० । ल०। नवरं | प्रकटम । ऐतिां चैतदेवमतो न साधनीयमिति । ल । सर्वलोके उधिस्तिर्यग्रूपे , त्रैलोक्य इत्यर्थः । तत्रोर्द्धलोके वावस्तियगरूप, त्रलाक्य इत्यथः । तत्राद्ध लोक | ततः कायोत्सर्गकरणं पूर्ववत्पारयित्वा श्रुतस्य स्तुति पतिसौधादिस्वागतविमानेषु। यथा-"वत्तीसमक्खचेइयं सो- | "सुअनाणत्ययरूवो, अहिगारो होइ एस सत्तमो। हम्मे" (इत्यादि 'चेश्य' शब्दे अस्मिन्नेव नागे१२४२पृष्ठे गतम्) इह पयसंपयसोलस, नमुत्तरा वन्न दुन्नि सया ॥१॥" ध. व्याख्या पूर्ववत्, नवरं सर्वश्चासौ लोकश्च अधकईतिर्यग्भे- २ अधिः । संघा० । व्याख्यातं 'पुष्करवरद्वीपाः' इत्यादि दः,तस्मिरलोक्य इत्यर्थः। अधोलोके हि चमरादिभवनेषु,ति- सत्रम् । पुनरनुष्ठानपरम्पराफसलतेत्यः तेज्यस्तथाभावेन तयंगलोके द्वीपाचज्योतिष्कविमानादिषु . कर्द्धलोके सौधर्मा- | क्रियाप्रयोजकेच्यश्च सिद्धज्यो नमस्करणायदं पठति, पन्ति दिषु सन्ति वाऽहंच्चैत्यानि । ततश्च मौलचैत्यं समाधिकारण- वा-"सिसाणं " इत्यादि सूत्रम् । २० । ध० । सवा० । मिति मूलप्रतिमायाः प्राक् स्तुतिरुक्ता । श्दानीं सर्वे अर्हन्तस्त- एष सिद्धस्तुतिरूपोऽष्टमोऽधिकारः । Page #1343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२० ) अभिधानराजेन्द्रः | इयवंदण (२६) इत्थं सामान्येन सर्वसिद्धनमस्कारं कृत्वा आसश्रोपकारित्वाद्वर्त्तमानतीर्थाधिपतेः श्रीमन्महावीरमानस्था मिनः स्तुतिं करोति " जो देवा वि देवो. जं देषा पंजनी नर्मसंति तं देवदेवमदित्रं, सिरसा वंदे महावीरं " ॥१॥ ध० २ अधि० । ल० । इत्थं स्तुतिं कृत्वा पुनः परोपकारायाऽऽत्मनाववृद्धये व फप्रदर्शनपरमिदं पद्धति 66 'इक्को बि नमुक्कारो, जिणवरवसहस्स वरूमाणस्स । संसारसागराश्रो, तारे नरं व नारि व " ॥१॥ ध०२ श्रधि० । ल० । संघा० । एष नवमोऽधिकारः । एतास्तिस्रः स्तुतयो गणघरकृतत्वानियमेोच्यन्ते पितुतीपति यदादावश्यकर्मकृत" सेसा जाए सि । " ता यथा 39 " दिखाना निसीया जस्स सेरेमेनामि ॥१॥ कख्यानपरं निहिय सि ) सर्वव्यापार निषेधा नैवे चिकी युक्तिः। एष दशमोऽधिकारः । "चत्तारि श्रेष्ठ दस दो, अ वंदिया जिवरा चउब्वीसं । परमनिषा सिका सिद्धि मम दिसंतु " ॥ १ ॥ ( परमनिसि सि ) परमार्थेन न कल्पनामात्रेण निष्ठिता श्रथ येषां ते तथा । शेषं व्यक्तम् । एष एकादशोऽधिकारः । ६०२ अधि । संघा० । (२७) वेयावश्ञ्चस्तुतिः - तातिः स्तुतयो नियमेोच्यन्ते केन्या अधिपत न तत्र नियमति न तख्याख्यानक्रिया । एवमेतत्पतित्वोपचितपुजारा उचितेषूपया मेदितिज्ञापनायें पति-पे पाचगणं तिगराणं सम्महि समाहिकरेम काउस्सभां " इत्यादि, यावद् " बोलिरामि । " व्याख्या पूर्ववत् । नवरं वैयावृत्वकराणां प्रस्तावाम्बाकूष्मा दीनां शान्तिकराणां द्रोपवेषु सम्यग्नां सामान्ये नान्येषां समाधिकराय स्वपरयोस्तेषामेव स्वरूपमेतदेवेषामि तिवृद्ध संप्रदाय एतेषां संबन्धिनम् । सप्तम्यर्थे वा षष्ठी । एतद्विषयम, एतान् वाऽऽश्रित्य करोमि कायोत्सर्गमिति, कायोत्सर्गविस्त रः पूर्ववत् स्तुतिश्च; नवरमेत्रां वैयावृत्यकराणां तथा तद्भाववृपानेऽप्ययान्ततः सिद्धादिमेव तथेक्षणात वचनं ज्ञापकम् । न चासिद्धमेतत् अभिकारका सदसत्र प्रवर्तितव्यमित्यर्थमस्य तदेतत् सकल योगबीजं वन्दनादिप्रत्ययमित्यादि न पश्यते, अपि त्वन्यसितेनेत्यादि नेपामा सामान्य सेयमेवो पारदर्शनाद् वचनप्रामाण्यादिति व्याख्यातं 'सिज्य इत्यादि सूत्रम् । ल० : अथ बृहद्भाष्यम्" पारियासम्म परमिट्टी व कचनमुकारो। गणंजाणं ॥ १ ॥ संगमय संगिदिया। असेसवेश्याणं दाणिकरण २ ॥ विहाण पुणो, प्रणित सक्कत्थयं तत्र कुणइ । जिणचेश्यपचिणं संविग्गो मुसुती ॥ ३॥ 99 चेयवेदय " जावंति वेश्याएं " इत्यादि । यावन्ति यत्प्रमाणानि, चैत्यानि आधाराधेयरूपत्वेन जिनानां गृहाणि, विम्बानि च । क?, ऊर्ध्वाधश्व तिर्यलोके च । तत्र जिनगृहाएयेवम्"सगको मिलक्खविस परि अहो म तिरिए दुतीस पण सरा लिखा सगनवर सहस्वतेविवरिलोय ॥ १ ॥ प्रतिमास्तु "तेरस को मिसयाको मिग जवइसलिक्स अलोए । तिरिश्रं तिलक्ख तिणवर, सहस्सपमिमा दुसयचन्ता ॥ २ ॥ घावनं कोडिसयं, वउ णउई लक्खसट्स चउश्राता । सत्तसया सठिया, सासयपमिमा उवरिनोए ॥ ३ ॥ " किमिवाद सर्वाणि तानि वन्दे यथा "सब्वे वि कोडी, लक्खा सगवंतसय श्रमनउया । तियणचे बंदेहणे ॥ ४ ॥ पनरसा को मिसया, कोमीवायाललक्ख श्रभवन्ना । अडतीससस बंदे, सासयजिणपमिम तिलोए ॥ ५ ॥ " कथम् । स्वस्थाने] सन् हि तत्र विद्यमानानि । लोकादिषु सि "सक्कथपण इमिणार, एयाई वेश्याइँ वंदामि । वियत्ययणणे, एवं खुपोषणं भणियं ॥ ६ ॥ पुणरुतं पिन दुर्घ, दव्वत्थमिणं जिलागमन्नूहि । जियराघुरूपता, कम्मश्चयकारणत्तेयं ॥ ७॥ जह विश्वविद्याषणार्थ, पुमंसुमरणं सुहवं तह मिच्छत्तविसहर, विनेयं वंदणाई वि ॥ ८ ॥ ततो यज्ञावसार, दाऊदविहिणा साहुगयं पणिहाणं, करेश् एयाऍ गाहाए" ॥ ६॥ " जावंति के साहू |" इत्यादि । यावन्तः केचित् उत्कृष्टतो जघन्यतश्च । यथा | " नवकोटि सस साहू नकोसं केवली व सपको बंदुकोडि फेल, कोडि सहसा मुबिजां ॥ १ ॥ लादिसाधयः १ भरतैरते महाविदेच पञ्चदशकर्मभूमिवित्यर्थः किम, सर्वेषां तेषां तो नम्रः त्रिविधेन यचामनोभिः प्रियमविरतानां मनादेवमादिरहितानां भावसाधनामित्यर्थः । "ततो वित्तो भुवि। सुकनिबद्धं सुद्धं, थयं च वृत्तं च वज्जर ॥ १ ॥ सभासादो गंभीर त्यो निकला। पाइयमाखाय तं विविदेहि देहि ॥ २ ॥ दो पमोरोमं इफल पत्थणपरं इय पणिहाणं कुणइ तश्यं " ॥ ३ ॥ स० [२] प्रस्ता० | नवरं स्तुतिया कृत्य करावा व वि. घिनोपविश्य पूर्ववत्प्रणिपात दमक पठित्वा मुकामुद्रा प्रणिधानं कुर्वन्ति । यथा " जय वीयराय जगगुरु होउ ममं तुह पत्रावश्रो भयवं । नियम सारिआ टुफहसिद्धी ॥ १० लोगविरुद्धच्चा, गुरुजणपूत्रा परत्थकरं च । सुरगुरुजोमो तय सेवा श्रभयमसंडा ॥ २ ॥ * ४० २ अधि० । - Page #1344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेश्यवंदण (१३२१) चेइयवंदण अभिधानराजेन्दः । चैत्यवन्दनसमाप्तौ यद्विधेयं तदाद प्रणिधानकरणविधिमादएयस्स समत्तीए, कुसलं पणिहाणमो उ कायव्वं । तं पुण संविग्गेणं, नवप्रोगजुएण तिव्यसकाए । सत्तो पवित्ति-विग्धज-य-सिदि तह य स्थिरीकरणं ।।२६।। सिरणमियकरयलंजलि, इय कायव्वं पयत्तेणं ॥ ३॥ पतस्यानन्तरोक्तचैत्यबन्दनस्य, समाप्ती, सत्तरस्य पुनःशब्दा तदिति प्रणिधानम , पुनरिति विशेषद्योतने , संमिग्रेन मो. र्थस्य तुशब्दस्येह संबन्धाभिष्ठायां पुनः , कुशलं शुभम, न तु क्षार्थिना, भवभीतेन पा । उपयोगयुतेनावहितमनसा, तीव. भवहेतुपदार्थप्रार्थनादिबदशुभम् । प्रणिधानं प्रार्थनागर्भमैका भरपा प्रात्यन्तिक्या सदनुपानकरणरुच्या, भनेन च मानसो घ्यम , 'ओ' इति निपातः पादपूरणार्थः। तुशन्दः सम्बन्धित विधिवक्तः । अथ शारीरं विधिमाह-शिरसि मस्तके, नमितो एष, कर्तव्यं विधेयम् । अथ कस्मादिदं कर्तव्यम् । भत्रोच्यते. नियशितः, करतलयोईस्तयोरन्जलिईस्तविन्यासविशेषो यत्र पस्मादितः सत्प्रवृत्त्यादयो प्रबन्तीत्येतदेवाह, ततः प्रागुक्तप्रणि करणे तत्तथा । कर्तव्यमित्येतरिक्रयाविशेषणमिदम, इति मनेन धानातू,प्रवृत्तिः समन्यापारेषु प्रवर्तन,प्रवति हि जातमनोर च पक्ष्यमाणेन पाठक्रमेण प्रयत्नेनादरेणेति. गाथार्थः ॥ ३२॥ थानां शक्तौ सत्यां तपाये प्रवृत्तिरिति । तया विघ्नजयो पश्चा०४विधाल। 'जय पीयराग' संघात्रवर्णसंख्या। मोक्षरूपपथप्रवृत्तप्रत्यूहस्य जघन्यमभ्यमोत्कृष्एस्याशुभभावरूप अथ प्रणिधानत्रिवर्णसंस्पाण्यापनाय गीतिगाथाप्रथमस्य प्रणिधानजनितशुञभावान्तरेणानिनवः, तथा सिद्धिर्विघ्न पादमाहजयात्प्रस्तुतधर्मव्यापाराणां निष्पत्तिः,पतस्य च प्रवृत्त्यादिपदत्र पणिहाणि वाचनसयं, ................................। यस्य समाहारद्वन्द्वः। (तह यत्तितधव,समुशयार्थश्वायम्। (पि. (पणिहाणि त्ति ) जातावकत्वं, ततश्च त्रिप्रणिधानेषु द्विपरीकरण ति ) स्वगतपरगतधर्मव्यापाराणां स्थिरीकरणं स्थि-| चाशदधिकं शत, वर्णानां प्रवति। तत्र "जावंति" इत्यादिजिनरत्वाधानमिति,अतः प्रवृत्यादीनि वाञ्चता प्रणिधानमवश्यं कर- धन्दनारूपे प्रथमे प्रणिधाने पञ्चत्रिंशत् 'जाति के' इत्यादिके णीयं, तदनावे प्रवृत्त्याद्यसिकेरिति गाथार्थः ॥ २५ ॥ द्वितीये मुनिवन्दनालक्षणेऽष्टत्रिंशत्, “जय धीराय" इत्यादि ननु प्रणिधानं प्रार्थनारूपत्वान्निदानवत्परिहार्थ स्यात, नैवं,कु- गाथाद्वयात्मके तृतीये प्रार्थनास्वरूपे त्वेकोनाशीतिः, सर्वमिशलमितिविशेषणेन तस्य निदानरूपतया व्यपोहितत्वात, अ. लिते द्विपञ्चाशं शतमिति। एषा च चैत्यवन्दना गुरुलघुवर्णपरि. कुशलस्यैव निदानत्वात् । इदं च विशेषणफलमनपधारयतो झानमन्तरेण क्रियमाणा न विशुका स्यात् । माह च-" गुरुसमन्दमतिशिष्यस्य निदानत्वाऽऽशङ्काव्यपोहायाऽऽह घुम्नेदज्ञानं, न विद्यते यस्य सर्वथा चित्ते । स विचक्षणोऽपि रक्षा, न बतभेदस्य कर्तुमलम्" ॥१॥ किंच-क्ष्यअनन्नेदादर्थनेएत्तो चिय ण णियाणं, पणिहाणं बोहिपत्यशासरिसं । दोऽर्थभेदे च नानीष्टसिद्धिः, प्रत्युतानर्थप्राप्तिः स्यात् , कुणालसुहनावहेनभावा, ऐयं इहराऽपवित्ती उ ।। ३०॥ कुमारघत । ततोऽवश्यं गुरुलघुत्वं वर्णानां शातव्यम् । एक(पत्तो थियत्ति) यत एव कुरासं, प्रवृत्यादि हेतुर्वा,अत एव का स्य च परिझाने द्वितीयं सुनेन परिज्ञायते । रणात,न नैव,निदानमार्तध्यानविशेषो भवति । किं तत् ?,प्रणि तत्र बाल्यत्वाद् गुरुवर्णसंख्याख्थापनार्थ गीतिगाथापादत्रधानं चैत्यवन्दनाचसानकृत्य, निदानस्याकुशलत्वात्प्रवृत्त्याधा बमाहशयविशेषानुत्पादकत्वाद्वा । तर्हि किंनुतमिदमित्याह-घोधि ........................ कमेसु सग तिचउवीस तित्तीसा। प्रार्थनासहशम् "पारोम्गं बोहिलाभं" इत्यादिप्रार्थनातुल्यं: गुणतीस अट्ठवीसा,चउतीसि तितीस बार गुरुवन्ना ।। यथा बोधिप्रार्थनं न निदानं तथेदमपीत्यर्थः । कुत पतदेवमि- (व्याख्याऽस्या अन्यत्र )सङ्घा०३प्रस्ता० (अत्र कुणामकुमारस्याह-शुभभावहेतुजावात्प्रशस्ताभ्यवसायस्य कारणत्वात्। यथा कथा सघाचाराद्वातव्या) हि घोधिप्रार्थनं शुभभावहेतुरेवमिदमपि, केयं ज्ञातव्यम् । नि- दण्डकस्तवमानम् " वन्ना सोलस सगनउ-इ संपया श्रदानरूपत्वे चास्य यत्स्यात्तदाह-इतरथाऽन्यथा,निदानरूपताया सीयाला । इगसीयसयं तु पया, सगनउई संपयायो य॥" मिव्यर्थः । अवृत्तिस्तु अप्रवर्त्तनमेव,चैत्यवन्दनान्ते प्रणिधानस्या- त्ति "अट्ठमनयमदसमेति" द्वारत्रयम् । करणमेव स्यात्, निदानस्यागमे निषिकत्वादिति गाथार्थः॥३०॥ सम्प्रति "पणदंडे" इत्येकादशद्वारगाथापूर्वानाऽऽहपथ नवत्वस्याप्रवृत्तिः को दोषः?, इत्याशङ्कां परिहरनाह- पण दंमा सक्कत्थव-चेश्यनामसुयसिफथय इत्थं । एवं तु पटुसिकी, दव्वपवित्ती उ प्राणहा णियमा । पएलकाः प्रागुक्तशब्दार्थाः,ते च पञ्चाऽत्र चैत्यवन्दनायां, गु एसागरनृपतिवत सत्यापनीयाः । तत्र प्रथमो दएमकः शतम्हा अविरुकमिणं, णेयमवत्यंतरे उचिए ॥३१॥ क्रस्तवः " नमोऽत्यु णं" इत्यादि, "सब्वे तिविदेण धंदापवं तु काका ध्येयम् एवं पुनः प्रणिधानप्रवृत्तौ पुनः, इष्टसिद्धिर- मि" इत्येतदन्तः । यतश्चैत्यवन्दनाचूर्णी चैतत्सर्वं व्याख्याय भिमतार्थनिष्पत्तिजवति, अन्यथा प्रणिधानस्य परिहार्यता- | प्रणितम्-" एवं पणिवायदंमगं भणित्ता तो पंचंगपयां प्रणिधानशून्यं बनुष्ठानं द्रव्यानुष्ठानमेवेति नियमादवइयं- णिवाइयं करे"त्ति । १। द्वितीयश्चित्यस्तवः "अरिहंतचेश्याभावेन ( तम्ह त्ति) यस्मादिष्टार्थसिहिनिबन्धनं प्रणिधानं | णं" इत्यादि ।२। तृतीयो नामस्तवः " लोगस्सुजोयगरे" तस्माद्धेतोः, अविरुवं संगतम,इदं प्रणिधानम, केय सातव्यम् । इत्यादि । ३। चतुर्थः श्रुतस्तवः "पुषस्वरवरदीच" स्यादि ।। कि सवावस्थासु, नत्याह-अवस्थान्तर भूमिकाविशेषे, उचि- पञ्चमस्तु बरामकः सिम्स्तवरूपः " सिखाणं बुकाणं " ते प्रणिधानस्य योग्ये, मप्राप्तप्रार्थनीये गुणावस्थायामप्राप्ततत्प्र. इत्यादि, यावत् "अप्पाणं घोसिरामि" इत्येतत्पर्यन्तः। तथा श्री. कर्भावस्थायां वेति भावना । ति गाथार्थः ॥ ३१ ॥ हरिभरिपूज्यैललितविस्तरायामतदन्तं व्याख्याय प्रपितम् । Page #1345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेयवंदण यथा-व्याख्यातं सिद्धेभ्य इत्यादि सूत्रमिति। संप्रस्ताव इत्याद्यभिहितं "पणदंड" इत्येकादशद्वारम् । अथाग रनृपकथा सङ्घाचाराद् ज्ञातव्या ) (२८) अथ घादशाधिकाराः। साम्प्रतं "वार अहिगार" ति द्वादशं धारं गाथोत्तरा नाऽऽहदो एग दो दो पंच य, ग्रहिगारा वारस कमेण ॥३०॥ पूर्वाकदापि संवध्यते तत इत्यसि ) ए दमकेष्यधिकशतोयविशेष प्रस्तावविशेषाः अधिकि यन्ते समाधियन्ते यन्दनां कर्तुकामैरिति पच दश क्रमेण भवन्ति । तत्र प्रणिपातद एमके द्वावधिकारी, एकोऽयस्तपदपके ही नामजनस्व तस्तदण्डके, पक्ष सिद्धस्तप । 66 एतानवाद्यपदोल्लिङ्गनया दर्शयति नम ने यहिं लोग उचिता देवाच ( १३२२ ) अभिधानराजेन्द्रः । सर्वत्र पदेकदेशे समुदाय उपचरितः ततब्ध "नमो त्यु" इतिनान्दनापस्य प्रथमाधिका प्रथम प मन्यत्रापि यथान्यायं प्रयोज्यम् ॥१॥ “ जे य श्रईया सिक" ति द्वितीयस्य ॥ २ ॥ अरिहंतचेश्याणं " इति तृतीयस्य ॥ ३ ॥ "लोगस्स उज्जोयगरे" इति चतुर्थस्य ॥ ४ ॥ सव्वलोप अरिहंत ति" पञ्चमस्य । "पुक्त्ररवरदीव" इति षष्ठस्य ॥ ६ ॥ "तमतिमिरपमन " शते सप्तमस्य || ७ || "सिद्धाणं बुद्धा" इत्यष्टमस्य ॥ ८ ॥ " जो देवाण वि " इति नवमस्य ॥ ६ ॥ " उजितसेल सिद्दरे" इति दशमस्य ॥ १० ॥ बत्तारि अ देसे" इत्येकादशस्य ॥ १० ॥ " वेयावच्चगराणं " इति द्वा. दशस्य । पतानि किमित्याह--अधिकाराणां प्रागुक्तशब्दार्थानां प्रथमपदान्युचिन पदानि इत्यर्थः । संघा० ३ प्रस्ता० ॥ घ० । इत्युक्तं " बार श्रहिगार " त्ति घादशं द्वारम् । सम्पति "दद्विरं समधिकपूर्वापदेनाऽऽह 16 सिद्धोदेवा। डिगाडमया ।। ३१ ।। चल पंदाज मुिििसका ह चत्वारो वन्दनीयाः मङ्गलोत्तमशरणविधायित्वेना माद्यः । के ते ?, इत्याह-जिन धनुविधा वक्ष्यमाणस्वरूपाः, मुनयश्च साधवो रगतादि वेदाः, आचार्योपाध्याययोरप्यन्यनिचारात्साधुग्रहणाद् ग्रहः । उक्तं च"साहसमुट्टिया जं. आयरियाई तोय ते साहू साहुगणेण गहियं, 1 ॥ १ ॥ *********** arees I चेयवंदण यतेति संपूर्ण रा सुर्यधेति "पुरुषः स्त्रिया" ||३|१|१२६॥ इत्येकशेषे सुरा चात्र काम्यामनृतयः सम्यष्टिदेवता ज्ञातव्याः न स्वईन्तः तेषां ग्राम्यन्दनीयत्वेनातिवादनुशासत्वात्सार करवाते त्यति स्मरणीयास्तत्तगुणानुचिन्तनोत्कीसेना स्वबनीया इत्यर्थः जिनप्रवचनस्थः स्वल्पगुणोऽपि सम्प्रशंसा रणत्वात् । नक्तं च-" गुणपगरिसबडुमायो, कम्मक्खयकारणं जे" इति नैवं चेदतततरसंयमस्थानवमिः साधुभिजघन्यतरादिसाध्यवृंदणीयाः स्युः तैः सुनियमादिसुरढाः श्रावकाः, न चैतदागमे ह मिष्टं वा पिनां गुणा न प्रशंस्याः, दर्शनमालिन्याद्यवाप्तेः । आइ च " दो खलु अपरिवरि निच्छो मलिए व सम्मते । होतो परिणाम तो भाई " ॥ १॥ ति । देशविरतानां वा श्रविरतसम्यग्दृष्टयः श्राद्धाः सत्काराद्य न स्युः तथा च सति, "तम्हा सव्वपयत्तणं, जो नमुक्कारधारश्रो । सावओो सो विवो, जड़ा परमबंधवो" ॥१॥ इत्याद्य पार्थकं स्यात् । एवं च सकलागमव्यवहारलोपाद्विमर्शनीयमिदं सूक्ष्मधिषेतिया-स्मरणीयाः स्मारणादिषु प्रेरणा तत्र "पद है गाड़ा।" अयमर्थः चैषावृत्यादिकारका गीयन्ते तत्र चानादरता भवता तर स्वकृत्यमपि विस्तृत कम प्रमादातुम दुलर्भा हि पुनरियं सामग्री, दुःखदः प्रमादारिः, पुरन्तो भवोद विविनिपातः स्वयं सत्यापयतेत्यादिन्याद्वशेष कारण स्मारणादि कियते अथवा सारनीयाः सा यावृत्यप्रभावनादावुभबलोकसुखावहे प्रेरणाहस्तत्करणशक्तियुक्त्वाचेषाम् इदमुकं भवति यदाऽमुकं स प्रभावनादि करिष्येच तद्दनमुकं कायोत्सर्गादिकं पारविष्यामि इत्यादि ना सुदर्शनप्रिया मनोरमा इव तत्र तत्र सङ्घकृत्ये प्रवर्त्तयितव्यम् । अथवाऽयं निशीथच्एयुक्तो विधि:-"'पुण्यं श्रसठी कि. ज्जर, पुर प्ति भणियं होश, " असठी पुइ सि एगट्टे " ति प्राप्यवचनात् । " साहु कथं ते एवं बुच्चइ, जड़ा-चंपाए सुप्रद्दा नागरजणेण असा धष्ठा सपुष्पा सित्ति, तो उवाजो दिज्जइ-सा खूणं सवपसपया ण कीर चि बुतं भवर, पच्छा से उपमाही ि भणियं - "दाणे दवावणे का-रणे य करणे य कयमपुष्ठाय । वयमवहियं वा, जाणाहि उवग्गहं एवं " ॥१॥ इति । सङ्घा० ३ प्रस्तार | ( अत्र सुदर्शन श्रेष्ठिप्रियामनोरमाकथा नावनीया सङ्घाचारात् ) इति निगदितं " सुरा य सरणिज्जप्ति " चतुर्दशं द्वारम् | (३०) जिनद्वारम् । अथ सिद्धा उताशेषकम्मणः। इहेति संपूर्ण चैत्यवन्दनायां, जिनशासने वा । यद्वा त्रैलोक्येऽपीति ॥ सङ्घा० ३ प्रस्ता० । ( अत्र सुमतिकथा सङ्घवारादवसेया ) इत्युक्तं चत्वारो वन्दनीया इति त्रयोदश द्वारम् । (२१) शरीपद्वारम् देवस्तुति "सर" तिचतुर्दशं द्वा 66 चउह जिए " ति पञ्चदशं द्वारं विभावयोरामाद चउह जिणा नामंडन - दव्वनावजिणने एणं || चतुष्यकारा जिना | कयमित्याद" नाम " इत्यादि । जिन शब्दो पृथक् पृथक् संबध्यते । ततश्च नामजिनस्थापनाजिनइयजिनानिभेदेव नामजिनादिप्रकारेणेति । ......... (इ) ॥२२॥ पताननेकभेदान् विभावयिषुराह - पूर्वज्ञारे संयोजितोऽपि दमकमणि पायात्रापि संय नामजिला जिणनामा, ठवण जिला पुए जिदिपमिमात्र। , Page #1346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३२३) चेझ्यवंदण अनिधानराजेन्डः। चेइयवंदगा दवजिणा जिणजीवा,भावजिणा समवसरणत्था ॥३३॥ तासां वन्दनपूजायपि करणीयमायातम,तत्प्रत्ययं च कायोत्सनामैव नामप्रधानतया वा जिना नामजिनाः। कानीत्याह-जि गांद्यपि। उक्तं चैतदावश्यकचूर्णी । तथाहि-पूज्यत्वात् तेषां पूजनः, महन्, पारगत इत्यादि नामानि । यद्वा-जिनानां तीर्थकृतां नार्थ कायोत्सर्ग करोमि, श्रद्धादिभिर्वर्द्धमानैः सद्गुणसमुत्की. नामानि "उसभ अजित" इत्यादीनि। स्थापनया लेप्यकादिरू- सनपूर्वकं कायोत्सर्गस्थाने पूजनं करोमीत्यर्थः। "जहा को गंध. पया जिना स्थापनाजिनाः,जिनेन्डाणां प्रतिमाः,बिम्बानीत्यर्थः । चुम्मवासमझाइएहि" समन्यर्चनं करोतीति। "एवं सकारवत्तिपुनःशब्दोऽकादिन्यस्तनिकारस्थापनाजिनपरिग्रहार्थः । व्यं याए सम्माणवत्तियाए विनावेयवं, नवरं सकारो जहा वत्थाभदलिक नूतनाविजावकारणं, तदाश्रित्य जिना द्रव्यजिनाः, येऽ. रणात्तिसकारण संमाणो संमं मणणं ति"। एतावता च सिईत्पदवीं प्राप्य सिद्धाः,ये च तां प्राप्स्यन्ति । सघा० ३प्रस्ता। द्धप्रतिमानामप्यग्रे "अरिहंतचेयाणं " इत्यपि दमकः पा. (अत्रेश्वरनरेन्द्रकथा ससाचारादकातव्या)उक्त "चन्ह जिण"त्ति गय संगच्छते, शब्दार्थयोरत्रापि समानत्वात् । पर्युपास्या पञ्चदशं बारम् । एवं च द्वारे उक्का द्वादशाऽधिकाराः । त्रयो- इदार्थे बहुश्रुताः । यथा श्रीजिनभगणिक्षमाश्रमणैरपि विशेदशचतुर्दशपञ्चदशेतिद्वारत्रयेऽधिकारिणश्च प्रतिपदिताः । पावश्यके साकेप स्थापिता सिद्धपूजा । (३१)अथ यत्राधिकारे या स्तूयते तत्प्रतिपादनाय गाथात्रयमाह तथा चपढमऽहिगारे वंदे, भावजिणे वीययम्मि दबजिणे । "कुजा जिणाण पूया, परिणामविसुद्धिहेउो निवं। दाणादो व मग्ग-प्पभावणाश्रो व कहणं च ॥१॥" गचेइयठवणजिणे, तऍ चउत्थम्मि नामजिणे ॥३॥ कार्या जिनसिम्पूजास्तत्परिणामविशुझिहेतुत्वात, दानादिक्रिप्रथमे प्राधे शकस्तवरूपेऽधिकारे स्तोतव्यविशेषस्थाने, व. यावत् । अथवा-कार्या जिनसिम्पूजा मार्गप्रजावनात्मकत्वात, न्दे सदूभूतगुणोत्कीर्तनेन स्तबीमीति भावजिनान् भावार्दतश्च धर्मकथावत् ॥१॥ तुस्त्रिंशदतिशयादिमत्वमहद्भावं प्राप्तानुत्पन्नकेवलज्ञानान् सम चादक:वसरणस्थाँस्तीर्थकृत इत्यर्थः। तत्रैव संपूर्णाईतावनावात् । भणितं "पूया फलप्पया नो, तहं च कोवप्पसायविरदाओ। च-"नावजिणा समवसरणत्धं"ति । तथा द्वितीये "जे य अश्य" जिणसिका दिईतो, वेहं च मणं निवाईया ॥२॥" त्ति गाधावकणेऽधिकारे, वन्दे इति सर्वत्रापि योज्यम् । कव्य प्राचार्यःजिनान् अव्याहतोऽष्टमहाप्रातिहार्यादिकां तीर्थकृलदमीं प्राप्य सिकार,ये च तस्मिन्नन्यस्मिन्वा भवे तां प्राप्स्यन्ति, न च तदानी " कोवप्पसायरहियं, पि दीसए फलयमनपाणाइ । प्राप्तवन्तस्तानहत्वाव्यान् , जिनजीवानित्यर्थः । कोवप्पसायरहिय,त्ति निष्फला तो प्रणेगंतो॥१॥"इत्यादि । पू. सक्तं च जिता च मरुदेवा स्वामिनी प्रयमसिक इति कृत्वा देवैः,कारि ताश्च सिसुप्रतिमा जरतेनाऽष्टापदोपरि एतयोः(संघा०३प्रस्ता०।) "भूतस्य भाविनो वा,भावस्य हि कारणं तु यहोके । तन्यं तत्वः , सचेतनाचेतनं कथितम्" ॥१॥ तथा विहरमाणजिनान् षष्ठे पञ्चदशकर्ममिषु विहारं कुर्वा णान, सूत्रार्थकथनपरायणान् भावाईत इत्यर्थः । वक्तं चतथा एकचैत्यस्थापनाजिनान्-यत्र देवगृहादौ चैत्यवन्दनं क. "पढमे छठे नवमे, दसमे एगारसे य भावजिणे" । वन्दे इति मारब्धं तत्र स्थपितानि यानि जिनबिम्बानीत्यर्थः, तृतीये| प्रकृतम् । ते च मघन्यतो विंशतिरुत्कृष्टतः सप्तविंशतिर्भवन्ति । "अरिहंतचेश्याणं" इति दएमकरूपे; तथा चतुर्थे चतुर्विशतिमपि जिनात्मके नामजिनान् जिननामानि । अस्यामवस माहचपिण्यां भरतकेत्रवर्तितयाऽऽसन्नत्वादिनोपकारित्वाश्चतुर्विंशति "सत्तरिसयमुक्कोसं, जहन्नो विहरमाणजिणवीसं । मपि जिनानामोत्कीर्तनेन स्तोमीत्यर्थः ॥ ३४ ॥ जम्मं पर उकोसं, वीसं दस इंति उ जहन ति ॥१॥" आवश्यकचूर्णां तु व्याईन्तोऽप्यत्र व्याख्याताः। तथा चोक्तमतिहुयणे उवणजिणे पुण, पंचमए विहरमाण जिन्हे। "कोसएणं सत्तरि तित्थयरसयं, जहमपएण वीसं तित्थयसत्तमए सुयनाणं, अट्टमए सव्वसिफथुई ॥३॥ रा, एए ताब एगकाले भवंति, अईया अणागया मणंता, ते त्रिभुवने-ऊद्धधिस्तिर्यग्लोके,स्थापनाजिनान् शाश्वताशाश्वत तित्थगरे नमसामि ति"। षष्ठे-"पुक्करबरदीव" इतिचैत्यस्थापिताऽसिद्धप्रतिमारूपान् , पञ्चमके "सब्बलोप मरि गायात्मकः । तथा सप्तमे-" तमतिमिर" इत्यादिस्वरूपे भुतदंतचेरयाणं" इति कायोत्सर्गदपमकलक्षणेऽधिकारे, बन्दे इति कानमतानङ्गप्रविष्टं सिकान्तं, वन्दे इति पूर्वगाथातो योज्यम् । योज्यम् । अत्र चाईत्सिकप्रतिमारूपानिति प्रकारान्तरसूचक तथाऽष्टमके " सिकाणं बुकाणं " शतिगाथायां सर्वेषां पुनःशब्दादू व्याख्यातम् , प्रणितं चावश्यकर्णिकारेण सिद्ध तीर्थसिकातीर्थसिकादिभेदजिन्नानां नामस्थापनादिरूपाणां प्रतिमानामपि वन्दनपूजनादि। तथा च प्रतिक्रमणाध्ययने-"स वा सिकानां कपितकोशानां स्तुतिः, क्रियत इति व्वलोप अरिहंतचेश्याणं" इति दएमकचर्णिः ।" जे सवलो. प सिकाई अरिहंता चेश्याणि य तेसिं चेव " प्रतिकृतिल गम्यम् ॥ ३५ ॥ कणानि, 'चिती' संक्षाने, संज्ञानमुत्पद्यते काष्ठकर्मादिषु प्रतिक तित्थादिववीरथुई, नवमे दसमे य नजयंतथुई।। तिं दृष्ट्वा “ जहा अरिहंतपडिमा एसत्ति," सिद्धादिप्रतिमे- इगदसमे अट्टावय, मुदिन्सुिरसुमरणा चरिमे ॥३६॥ त्यर्थः । अन्ये जणन्ति-"अरिहंता तित्थयरा तेसिं चेश्याणि, | तीर्थाधिपस्य वर्तमानतीर्थस्य प्रवर्तकत्वान्नाथस्य, वीरस्य अरिहंतचेश्याणि " अर्हत्प्रतिमेत्यर्थः । अत्र च अन्ये भ- वर्षमानस्वामिनः, स्तुतिर्विधीयते, आसन्नतरतया महोपकारिणन्ति-" अरहता तित्थयरा " इत्यादिभणता चूर्णिकृता । त्वात् नवमेऽधिकारे " जो देवाण वि" इत्यादिगापूर्वव्याख्याने सिद्धप्रतिमाः पृथग् स्पष्ट निकिताः, अन्यथा | थाद्वयरूपे । तथा दशमे च “उर्जितसेल " इतिगाद्वितीयध्याख्यानं निष्फलं स्यात् । एवं च सिम्प्रतिमासिकौ थाप्रमाणे, " उज्जयंत ति" तात्स्थ्यात्तव्यपदेश इति Page #1347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३२४) चेश्यवंदण अभिधानराजेन्द्रः। चेइयवंदण न्यायात उज्जयन्तपर्वतालङ्करणस्य श्रीनेमिनाथस्य स्तु-| जिणबंदिया ७ अट्ठ, अट्ठहि गुणिया ६४ दस, इसर्हि १००, तिविधीयते, चशब्दो विशेषकः, तेनायं जिनस्तुतित्वात दर्शन- तो चत्तारि दो य दो य, सब्बे मेनिया जाय सप्ततिशतम् विशोधकारकर्मक्वयादिकारकत्वात् संवेगादिकारणत्वात् अ- १७० । एए पारस कम्ममी सक्कोसो विहरमाणा बंदिशसमाचरितत्वात बहुबहुश्रुतानिवारितत्वात् जीतम्यव- ज्जंति - अह इस १८ चलाई गुणिया ७२, एपदि तिमि हारानुपातित्वात नाम्पकारादिभिः व्याख्यातत्वात् आवश्य- चउवीसीमो नवंति, ताम्रो य ह भरहे अभीयाऽणागयकचूर्णिकृतोऽप्यनुमतत्वात् भनिषिद्धत्वात्पारम्पर्यागतस्वार्थ- घट्टमानचउबीसगा तिगस्स स्वा तित्थयरा बंदिज्जति ! स्य स्वमत्या निषेदुमशक्यत्वात् निषेधे मिलवमागांनुपातित्वा- चत्तारि अट्ठमीलिया १५, ते य दस गुणिया १२०, एए त् आशाप्रकारत्वाश्च श्त्यतो युक्तमेचायमधिकारः। एवमप्रे- पंचचडवीसिओ पंचसु जरहेसु वट्टमाणाओ वंदिजंति १०,अतनोऽपि । तथा एकादशे चत्वारि "अहादस" इतिगाथास्वरूपे, दसहि गुणिया ८०, ते चेव दस मिलिया १०, सा चसहि "अहावय"त्ति सूचनात् मष्टापदपर्वतोपरि प्ररतीनापि- गुणिया ३६०, एए पन्नरस चवीसीओ पंचसु भरहेसु कातवत्तमानचतुर्विशतिजिनस्तुतिः क्रियते, निगमनार्थत्वा- लत्तयसंनवाओ बंदिज्जति ११, एए चेब तिनि पगारा । जदस्यति । यद्वा- " महारयत्ति " उपलक्षणं, तेनान्यत्रगा हा-७२ । १२० । ३६० । दोहिं गुणिजंति, जाया १४४।१४०। अपिजिना अनया गाथया वन्द्यन्ते । तत्र यथेयं मास्याता ७२० । चब्बीसी किन्जंति, जाया । ६।१०।३० । चमवीतथा भन्यानां भाववृष्ये किश्चिदश्यते सीमो लामो कमसो पुष्वभणिय मत्येण प्ररहेरवपसु समम्म घंदिज्जति १२ । अणुत्तरेसु १ गोविज्जेसु २ कप्पेसु ३ जोइ"चत्तारि अह दस दो, य वंदिया जिणचराच उध्वीसं। सिएसु य ४, एवं मुहं चत्तारि भेया, अहो य वंतरेसु अट्ट. परमानिष्ठियट्ठा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु" ॥१॥ नेएमु अ ० दसभेपसु सुवणवासी दस १० महिदाहिणारे चत्तारि, पच्चिमे अट्ट, उत्तरे दस, पुष्वभो दो पले सासयप्रसासयभेया दो य २। एवं तिहुयणे जिणायय, एवं अधावए चउवीसं जिणवरा वंदिजंति । अने प्रणंति यणेसु चउवीसं जिणवरा चंदिया १३ । जहा पुण जंबुद्दीवे उवरिममेह साप चत्तारि, मझिमाए भट्ट, हिडिमाए दस दो य, ६३५, धायसंडे १२७२, पुक्सरवर १२७६, मणुयलोयषहिं मिलियाओ चउवीसं जिणपडिमानो प्रहावर बंदिजंति, चत्ता १२, तिरियलोए वा सचसंवाए ३२७५, चेश्यसया, ताई अरश्रो जेहिं ते चसारो पयविसेसेणं अट्ठ 5 दस १० दो य२ सयमेच सहा नियनियसंस्खाए प्राणिकणं बंदियवाणि । " एवं वीस २० । चतुःशब्दौ विशेषज्ञापकार्थेषु यथायोग यो. विस्तरभयाच नोच्यन्ते । " एवं धणेगहा एगारसमे अहिगारे ज्यौ । “एए सम्भेयपब्वए बंदिया परमटेण वयारेण निट्टिय- जिणबरा बंदिळति ११ । " तथा सुदृष्टिमुराणां सम्यग्दृष्टिदेवट्ठा" समाप्तप्रयोजनाः,लिद्धाः शिवं गताः, 'षिधू' गत्यामिति घ. तानां स्मरणात तत्प्रवचनादिविषयवैयावृत्यादिकार्यविधानोचनात् २"चत्तारि पयं पुवं च अदससु मिलिया १७ दोयत्ती | पयोगप्रभृतिगुणगणानुचिन्तनोत्कीर्तनादिनोपवृंहणा । यथा धजाया" स्वर्गपा इन्डा इत्यर्थः, "तेहिं वंदिया चमबीस प्रया, न्याः पुण्यवन्तो लब्धजीवितादिफला भवन्तो, यदेवं सदनुष्ठासहा पंच,ते अट्ठारस मेलिया तेवीसं,एपर्सि तुज्जे बंदिजंति, कह नोद्यताः, युक्तमेवेदं भवाशांसुस्थानविनियोगफलत्वात्संपदः। परा पहाणा मा लच्छी समोसरणाश्या,तत्थ ठिया, समोसरिया इत्यर्थः निट्ठियट्ठा संपन्नफना केवमनाएसंपत्तीए।" यदागमः "तं नाणं तं च विन्नापं, तं कलासु य कोसतं । "जस्साए कीरइनग्गजावे मुएडभावे घराहाणए श्रदंतधवणे" सा बुद्धी पोरिसं तं च, देवकज्जेण जपए" ॥१॥ इत्यादि, सिद्धाः शास्तारो बभूवुः, मङ्गलभूताच, 'विधू' शास्त्रमाङ्गल्पयोरिति बचनातू । " चहिं प्रहगुग्गिया ३५, दोहि इत्यादिप्रशंसाद्वारेण तत्कृत्यप्रोत्साहनेत्यर्थः। अथवा-स्मारणा यदस २० मिलिय वावन्ना, नंदिसरजिणा य बंदिजति, च सहादिविषये प्रमादिनांलयाभूतवैयावृत्यादितत्कृत्यानां संस्मासदा मयंतरे पुण वीस, महवा चटरहिया पीस, रणम्, चरमे द्वादशेऽधिकारे "घेयावच्चगराणं" इत्यादिकाएए नंदिसरसोहम्मेसाणिग्गमाहिसारायहाणीसु संति, म योत्सर्गकरणं, तदीयस्तुतिदानपर्यन्ते क्रियते इति शेषः । श्रीयतरे पुण चवीसं, परं अहसहिया ३२ । एवं नंदिसरे चित्यप्रवृत्तिरूपत्वात् धर्मस्य, भवस्थानरूपव्यापाराभावे गुणा. दीवे ५२ । २०बा, रायहाणिसु १६ । ३२ था, परमण"न प्रावापत्तेः। यतःवर्णनामात्रेण, "निट्टिया" निष्ठां प्राप्ता, प्रास्था प्रास्थानं, रचने- "ौचित्यमेकमेकत्र, गुणानां कोटिरकतः । त्यर्थः। येषां ते तथा, सिद्धा नित्याः, अपर्यवसानमितिकत्वात् । विषायते गुणग्रामः, औचित्यपरिबर्जितः" ॥१॥ " चत्तारि जंबुदोवे ग्रह थायसंभे दस नवरं दो य रहिया अपि च-अनौचित्यप्रवृत्तो महानपि "मथुराक्षपकवत् कुबेरदपुक्खरवरके,एवं वीसं जिणा संप जहनश्रो बिहरमाणा बंदिजति, जम्म पइ उक्कोसमो पा" चतुःशब्दौ प्राग्वत् । "पर तायाः" भवत्यल्पानामपि प्रत्युच्चारणादिभाजनम् । मटुनिट्ठियट्ठा" भाविनि भूतबदुपचारात् सिकाः प्रख्याता भव्यै. शाह चरुपलब्धगुणसंदोहत्वात् । “चत्ता भरी जेहिं ते चत्तारि "कज्जमा "श्रा रकाद् भूपति याव-दौचित्यं न विदन्ति ये। णे कडे" इति वचनात् । "के परी भट्ट कम्माणि, के चत्तारि स्पृहयन्तः प्रभुत्वाय, खेलनं ते सुमेधसाम् ॥१॥" दस ते उ दो यति उहि पहिं इंति जहन्ना जम्मपयनरहे. इदमत्र तात्पर्यम्-सर्वदाऽपि स्वपरावस्थानुरूपया चेष्टया स. रघयदसगविहरमाणाजपानेशहि"।चः पूरणे । (उत्पीति) यंत्र प्रवर्तितव्यमिति । उक्तं च-सदौचित्यप्रवृत्त्या सर्वत्र प्रवउ:शाः पृथ्वीस्वामिनः,शेष प्राग्वत्।६"अहदसहि गुणिया८० सिंतव्यमित्यैदंपर्यमम्योति । (मथुराक्षपककुबेरदत्तादेव्योः संवसा दोह गुणिया १६०, सेसं पुव्वं वा, एवं सब्यविहरमाण- । -धः सद्याचाराद् ज्ञेयः) Page #1348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३२५ ) चेश्यवंदण अभिधानराजेन्दः । चेइयवंदण (३२) येऽधिकारा यत्समताः। अथ येऽधिकारा यत्प्रमाणे | तथा चैत्ववन्दनामध्ये देवकायोत्सर्गादि करणीय प्रेव, अन्यथा न भएयन्ते तदसंमोहाथै प्रकटयन्नाह तत्रान्यत्तदुपचारानावे देवसाक्तिकत्वासिकेः, चूर्णिकारण तनव अहिगारा इह ललि-यवित्थरावित्तिमाइ अासारा। चैव व्याख्यातत्वान्निश्चीयते चैतत् “ देवसक्खियं " इति सूत्रप्रामापयात् । एवमेव पूर्षापरविरोधाभाषादुक्तं च सूत्रत्वं तिन्नि मुयपरंपरया, वीभो दसमो इगारसमो ॥२७॥ ललितविस्तरायामप्यस्य । तथा चोक्तम्-व्याख्यातं "सिकेच्यः" इह द्वादशस्वधिकारेषु मध्ये,नव अधिकाराः-प्रथमतृतीयचतु. इत्यादि सूत्र मिति । तथा श्दमेव वचनं ज्ञापकमिति, वचनं सूत्र र्थपञ्चमषष्ठसप्तमाष्टमनवमद्वादशस्वरूपाः,या समितविस्तराख्या च पर्यायौ । एवं च सूत्रसिद्मा अप्येते नव अधिकारा इति चैत्यवन्दनामूलवृत्तिः, तस्या अनुसारेण सत्र व्याख्यातमूत्रप्रा. सिरूम । ननु च ज्ञातं सावत् प्रथमतृतीपचतुर्थपश्चममाएयेन,जस्यन्वति शेषः। तथा च तत्रोक्तम्-पतास्तिस्रः स्तुतयो षष्ठसप्तमाष्ठमद्वादशेति नवाधिकाराः, एवं सिद्धान्तानुसारेण नियमेनोच्यन्ते, फेचित्वन्या अपि पठन्ति, न च तत्र नियम इति जयन्ते,पर प्रवद्भिः “वार अहिगार" इति प्राक् प्रतिकातम्, ततः न तयाख्यानक्रिया,एवमेतत्पठित्वा उपचितपुण्यसंभारा सचि. शेपाः कुतः प्रामाण्यात् पठ्यन्ते, इत्याशङ्कयाऽऽह-"तिमि सुय" तेषूपयोगफलमेतदिति ज्ञापनार्य पठन्ति-"वेयावक्षगराणं" इत्यादि। इत्यादि । प्रयोऽधिकाराः पुनः (सुय त्ति)"ते सुग्या"।३।२।१०८॥ अत्र च एता इति "सिकाणं खु. १ जो देवाण वि०२ इक्फो इति पूर्वपदस्य बहुशब्दस्य झोपात् बहुश्रुताः,तेषां पारम्पर्यण गीवीति"३। अन्या अपीति-" उज्जितसेल. १, चत्तारि प्र. सार्थपूर्वाचार्यसंप्रदायन भष्यन्ते, पारम्पर्यागतस्यार्थस्य सुमत्या १० २ तया-जे य अईया" इत्यादि ३ । अत पवाऽत्र बहवः निषेधयितुमशक्यत्यातू, तनिषेधे नियमार्गानुयानापत्तेः । नक्तं चनं संभाव्यते, अन्यथा द्विवचनं दद्यात् । पठन्तीति-" से. च द्वितीयाङ्गनियुक्तौ-"प्रायरियपरंपरप-ण भागयं जो उ सा जहिच्गए" इत्यावश्यकचर्णिवचनादित्यर्थः। न च तत्र। अप्पबुद्धीप । को वेह छे वाई, जमालिना स स नासिदि" नियम इति, न तद्व्याख्यानक्रियेति तु प्रणन्तः श्रीहरिभरि- ॥१॥ति । प्रशनचरितेन च प्राझारूपत्वात् , तथाऽपि निषेधे पादा एवं कापयन्ति-यत्र यदृच्छया भएयते तन्न व्याख्यायते, जिनादातनाप्रसनाच । तथा च कल्पभाष्यम्-"मायरणा वि यत्पुननियमतो भणनीयं तमाख्यायते, व्याख्यातं च "चेया- हु प्राणा, अविरुका चेध दोश आण त्ति । हरा तिबच्चगराणं" इत्यादि सूत्रम् । तथा चोक्तम्-एवमेतत्पवित्वेत्या- स्थयरासा-यण त्ति तल्लक्षणं चेयं ॥१॥" इत्यादि । श्रदि, यावत् पठन्ति " घेयाषञ्चगराणं" इत्यादि । ततश्च यषा-(सुवपरंपरय त्ति ) यथा थुतस्य व्याख्यानं नियुक्तिः, स्थितमेतद् यत " घेयावच्चगराणं " इत्यप्पधिकारोऽव- ततोऽपि भाप्यचूर्यादयः, एवं श्रुतपारम्पर्येण । अयमर्थः-यथा श्य भणनीय एव,अन्यथा व्याख्यानासंनवास । यदि पुनरेषोऽ. | सूत्रे चैत्यवन्दना ततः श्रुतस्तवं यावदुक्तो,नियुक्तौ तु “सिद्धाण पि वैयावृत्यकराधिकार राज्जयन्ताधधिकारपत्कैश्चिद्भणनीयत-| पुई किइकम्म" ति श्रुतस्तवस्योपरिसिम्स्तुति णिता । चूर्णी या यादृच्छिकः स्यात्तदा "उज्जिंतसैल” इत्यादिगाथावदयमपि तु सिरुस्तुतेरप्युपरि धीवीरस्तुतिद्वयं व्याख्याय भणितम्न व्याख्यायेत, व्याख्यातश्च नियमभयनीयसिमादिगाथात्रिः “जहा पए तिनि सिसोगा जन्नति, सेसा जहिच्चाए" ति। सहायमनुषिकसंबन्धेनेत्यतोऽत्रुटितसंबन्धायातत्वात् सिद्धा- ततश्च यथा नियुक्तयादिव्याख्याताः सिकादिगाथास्तिस्रो घधिकारवदनुस्यूत एव भणनीयः । अथाक्रमेण तत्र पा- नायन्ते, तथा उज्जयन्ताद्यपि भव्यते, चर्णिकारेणाऽनिषिद्धख्यातं सूत्रमिति चेत्, एवं तहिं हन्त सकलचैत्यवन्दनाक्रमा- स्वादिच्चाद्वारेणानुज्ञातत्वाच्च । तथा हि-" सेस त्ति" अनेन भावप्रसङ्गः, तत्रैवास्या एवं क्रमस्य दर्शितत्वात् । तदन्यत्र तथा | उज्जयन्तादिगाथास्तित्वं प्रतिपादितम् असतोभणनाभावात् । व्याख्यानाभावाद् व्याख्यानेऽप्येतदनुसारित्वात्तस्य पश्चा-1 " अहिच्चाए " इत्यनेन तु चन्दनकरणेगवां "उजित" कालप्रजवत्वाद् नव्यकरणस्य तु सुन्दरस्याऽपि भवनिब धादिगाथाभणने स्वाभिमतत्वं दर्शयति , अननिमतस्येन्धनत्वात् तत्रोक्तस्य तूपदेशायाततया स्वच्छन्दकस्पिता च्छाऽयोगात्। येषां हि सज्जयन्तादि बन्दितुमिच्छातिशयः,ते भ• भावादिति परिजावनीयं बहुत्र माध्यस्थ्यमनसा, विमर्श णन्तु नाम, सज्जयन्तादिगाथाभणनतया कर्मक्षयहेतुत्वात् प्रवृनायं सूक्मधिया, बिचिन्तनीयं सिकान्तरहस्य, पर्युपासनी. त्तिरित्यर्थः । अथ के ते प्रयोऽधिकारा एवं श्रुतपारम्पर्येण भयं भुल्यकानां प्रवर्तितव्यम, असदाग्रहविरहेण पति एयन्ते, इत्याह-" वोनो" इत्यादि द्वितीयः "जे य अईया" तव्यं निजशक्त्याऽऽनुकूल्यमिति । एवं च द्वितीयदशमैकादश-| इत्यादिरूपः , दशमः " बाजित " इत्यादिलकणः, एकादश वर्जिताः शेषाः प्रथमाद्या बादशपर्यन्ता नव अधिकारा उपदे. " चत्तारि" इत्यादिस्वरूपः । एते त्रय इत्यर्थः॥ ३७॥ शायातललितविस्तराव्याख्यातस्तत्र सिका इति सिरूम । अमुमेवार्थ भाष्यकृत्स्पष्टयन्नाहश्रादिशब्दापाक्षिकसूत्रचूादिप्रहः । तत्र सूत्रम्-"देवसक्खियं" इति। अत्र चूर्णि:-"विरश्पमिवत्तिकाले चिश्वंदणार श्रावस्सयचुप्पीए, भाषियं सेसया जहिच्छाए । णोवयारेण अवस्सं महासंनिहयदेवयासंनिहाणम्मि भवत्र सेणं उज्जिताई वि, अहिगारा मुयमया चेव ॥ ३८॥ श्रो देवसक्वियं भणियं " इति । अयमत्र भावार्थ:-तावण- आवश्यकचूर्णी प्रतिक्रमणाध्ययने,यधस्माणितमिदम,तद्भणिधरैर्दायार्थ पञ्चसात्तिक धर्मानुष्ठानं प्रतिपादितं, लोकेऽपि | समेष दर्शयति-(सेसया जदिच्चाए) भणन्तीति प्रकृतम् । शेषाः व्यवहारदाव्यस्य तथा दर्शनात् । तत्र देवा अपि साक्किण सक्ताः, "सिकाणं०१ जो देवाण वि०२इको वि०३" इति गाथाभ्योऽन्या ते च चैत्यवन्दनायुपचारेणासन्नीनृताः साविता प्रतिपद्य- गाथा “ उज्जितसेल "श्त्यादिका यरच्या भण्यन्ते । या या न्ते ; चैत्यवन्दनामध्ये च तेषामुपचारः कायोत्सर्गस्तुतिदाना- इच्छा यहच्चा।प्रयमर्थः यस्य यस्य भावेनातिशयतो नेमिनाथादिना क्रियते, अन्यस्य तत्रासजवादश्रुतत्वाच्च, ततश्चैवमायातं, | दि वन्दितुं वाञ्छा वर्फते,स भण्तु नामता गाथा,न दोषःसं Page #1349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५६) चेश्यबंदण अभिधानराजेन्द्रः। चेश्यवंदन वेगादिकारणत्वन दर्शनविशुद्धिदतुत्वात्तस्याश्च मोकाङ्गतया एवं द्वादशाधिकारस्वरूपं निरूप्य तणनेन तात्पर्यार्थ प्रकर्तव्यत्वात् । मोक्षस्य चाकेपेण प्राप्तुमिष्टत्वात्तदर्थमेव च उपयवाहसकल धर्मानुष्ठानप्रवृत्तेः, यतश्चैवं शेषा गाथाइचूर्णिकृता भणि असदाश्मणवलं, गीयत्य अवारियं ति मज्जत्था । तास्तेन कारणनेदं निश्चीयते-यत पूर्वोक्ता नवाधिकारास्ता. वत्स्त्रसिका एव। येऽपि चोउजयन्नादयोऽधिकाराः, तेऽपि आयरणा विहुप्राण, त्ति वयणं तु सुबहु मन्नति ॥४॥ श्रुते चर्यादिरूपे श्रुतविवरणे पदेऽपि पदसमुदायोपचारात प्रशवेन निर्मायेन, पतेन चास्याविप्रतारकत्वमाह, 'पा' मता एव अनिमताः, इच्छायां भणितत्वात, अनभिमते सतां ति मर्यादया, सूत्रोक्तया गुरुलाघधचिन्तयेत्यर्थः । अनेन चाप्रवत्तयितुं योगाभावात् । अन्यथाऽनातत्वप्रसङ्गात् अनिषिद्ध चीर्णकर्तुः प्रमाणत्वं दर्शयति, प्रगीतार्थस्य प्रमाणत्वायो. त्वाच ॥३०॥ गात् , आचरितस्य तु सूत्रानुसारित्वं गुरुलाघधचिन्तया कृश्राह-" उर्जिताइ" इत्यत्रादिशब्देन" चत्तारि" इत्येकादश तस्य सूत्रेण सह पूर्वापरविरोधाभावात् । चीणे चरितं, देशएवाधिकारा अनुमीयन्ते, क्रमानुविरुवान पुनर्द्वितीयः, तस्या कालाद्यपेकया गुणानुविधायित्वेन बहुभन्योपकारीति कृत्वा न्यत्र पागदतः स कथं भएयते ?, इत्याशङ्कयाह अशठाचीर्णम्, तथा अनबधं निर्दोषं, जिनस्तुत्यादिरूपतया क मंकयहेतुत्वात् । तथा गीतार्यैस्तदन्यैस्तत्कालवर्तिभिर्न निबीओ मुयत्थयाई, अत्यउ पणिो तहिं चेव । वारितं, शोभनत्वादेव दर्शनादिविशोधकत्वात् जिनस्तुत्यादेः। सक्कथयंते पढिो , पुवायरिएहिँ पयडत्थो ॥३॥ इति एवं, यत् बहुबहुश्रुतं, संचिन्नपूर्वाचार्यसंमतमित्यर्थः । न केवलं दशमैकादशावधिकारी चर्णिकारप्रणितत्वात् प्रण्ये ततः सुबहु मन्यन्ते, इतिगाथान्ते संबन्धः । के इत्याह-मध्यस्थाः ते, किं तु द्वितीयोऽपीत्यपिगम्यः “जे य अईया" इत्यादिल. कुप्रहकलङ्काकलुषितचेतावृत्तित्वेन रागाद्यस्पृष्टाः। क्वणोऽप्यधिकारः, श्रुतस्तवस्य चतुर्थदण्मकस्य,आदौ "पुक्ख उक्त चरवरदी०" इतिगाथायामर्थतोऽर्थमाश्रित्य वर्णितो व्यावर्णितः, "जो न वि घट्ट गगे, न वि दोसे दुण्ड मझयाराम्मि । तत्रैव आवश्यकचूर्णवेव । अयमत्र भावार्थः-हितीयाधिकारार्थों सो हवई मज्झत्थो, सेसा सव्वे श्रमज्झत्ति" ॥१॥ व्याईद्वन्दना, सा च तत्र नणिता । तथादि-"सक्कोसपपणं अन्यथा धर्मानईत्वात् । प्राह चसत्तरं तित्थयरसयं, जहमपरणं वीसं तित्थयरा, एए ताच "रत्तो हो मुको, पुचि कुग्गहिरो य चत्तारि। एगकालेणं भवति । अईया अणागया अणता, ते तित्थयरेब. पए धम्मश्रणरिहा, आरहो पुण हो मज्जत्यो" ॥१॥ शति । मंसामि" इति । एव चूर्णिव्याख्यातार्थस्वरूपत्वेन चूपर्युक्त ए प्राचरणाऽपीति-न केवलं सूत्रोक्तमात्रमेवाहा, कि तु आचरचायमपीति नरायते । ननु यद्येवं पर्युक्तार्थतयाऽयं भरायते, णाऽपि संविग्नगीतार्थाचरितमपि, आझैव, हुरेवार्थे, सूत्रोपदेश तर्हि तत्रैव भएयतां, किमन्यत्र पाठेनेत्याह-शस्तवान्ते प्रणि एव, अतीर्थानुवृत्तिजीताख्यपञ्चमव्यवहाररूपत्वात् । पातदएमकानन्तरं, परितो भणितः, पूर्वाचार्यैः पूर्वैरनुयोगकृ. श्राद चद्भिः, शकस्तवान्तेऽस्य स्थानात्,भाचाहन्दनःऽनन्तरं द्रन्या- "बहुसुयकमाणुपत्ता, प्रायरणा धरइ सुत्तविरहे वि। हद्वन्दनायाः क्रमप्राप्तत्वात प्रथमाधिकारेऽपि नवमसंपदि कि- विज्काए घि पईये, नजइ दि सुदिट्ठीहि ॥१॥ श्चितणनात्, अस्य तु तद्विस्तरार्थत्वादित्यमेव च बहुभव्योप- जीवियपुवं जीवइ, जीधिस्स जे उ धम्मियजणम्मि । कारदर्शनात् , जावप्राधान्याश्रयेण च पश्चानुपूर्व्या चैत्यव- जीयंसि तेण जन्नश, आयरणा समयकुसलेहिं ॥२॥ न्दनायाः प्रारम्नः, तस्या अप्यागमेऽनुज्ञातत्यात् । श्रुतस्तवा- तम्हा अनायमूरे, हिंसारहिएऽसुया ण जणणीया । दौ स्वस्य पाठे अनानुपूर्ध्या अप्यसंभवात, तन्मध्यपाऽपि प्रिपरंपरपत्ता, सुत्तं च पमाण आयरणा ॥३॥" व्यत्यानेडितदोषप्रसङ्गात, शक्रस्तधान्तभणने तु दोषासंज- इत्येवं, यद्वचनं सूत्रम् । तथा च कल्पनियुक्ति:वात, दण्डकान्तेऽन्यस्यापि स्तुतिस्तवादेर्भपनादित्येचं नि- "पायरणा वि हुआणा, अविरुद्धा चेव होइ प्राण त्ति । दोषत्वेन पूर्ववृद्वैः शक्रस्तवान्तेऽयं परितः, तथैव च नपयते, इहरा तिस्थय रासा-याण ति तल्लक्षणं चेयं ॥१॥ वृद्धाचरितस्य जीतव्यवहाररूपत्वात् । उक्तं च-" जीयं ति असढेण समाइ, जं कत्थाइ केण असावज्जं । बा करणिजंति वा प्रायरणिज्जं ति वा पगा"। न निवारियमन्नेहि, बहु मणुमयमेवमारज्ज" ॥२॥ इति । तथा तस्मात्तचनप्रामाण्यात , सुष्टु याथातथ्यपूर्णाद्यनिशयेन "चत्तऽगुवत्तपवत्सो, बहुसो प्रासेविप्रो महाणेण । बहु मन्यन्ते भावसारं प्रतिपद्यन्ते, “यहमानो मानसी प्रीतिः" पसोय जीयकप्पो, पंचमत्रो होइ ववहारो॥१॥ शति वचनात् । यत उक्तम्वत्तो नाम कसि, अणुवत्तो जो पुणो वियवारं। "अवलंबिकण कज्ज, ज किंची आयरंति गोयत्था । तश्यहाणपउत्तो, सुपरिग्गहिओ महाणेण" ॥२॥ इति । थोबावराह बहुगुण, सम्वेसिं तं पमाणं ति" ॥१॥ वृत्त एकदा नवो जातः पात्रबन्धप्रन्यादिवदित्यादि । तथा यतःप्रकटार्थः सुगमार्थः, कृत इति शेषः । पासादीनामप्येवं शु “संचिग्गा बिदिरसिया, गीयत्थतमा उ सूरिणो पुरिसा। भन्नावः । चूपर्युक्तमर्थ हि केचिदेव जानते, एवं तु पाने म. न य ते सुत्तविरुद्ध, सामायारिं परुर्विति" ॥२॥ न्दमतीनामपि भवति । यथा वयं त्रिकालभाषिनो जिनानमु. अवि यना बदामहे, ततश्च सुलभ एव शुनभायवृद्धिः, बोधनिमित्त. जं बटु स्वायं दीसा, न य दोस कह वि भासियं सुत्ते। त्वात्तस्याः । इत्यलं प्रसनेन ॥ ३६॥ पमिसेहोविन दीसइ, मोणंवि य तत्य गीयाणं '३ इत्यादि । Page #1350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५०) चेइयवंदा अनिधानराजेन्द्रः। चेइयवंदण सांप्रतम् “चरो थुइ" ति षोडशं धारं विवृण्वन्नाह- जवानिशं सदा यस्या-जितनिष्कोपनाथति । अहितो निहितं स्वाभा-जितनिष्कोपनाथति ॥ ७॥ अहिगयजिण पदमथुई, बीया सबाण तस्य नाणस्स । | सनातनाय सेना-भवशम्भवसंभवः। वेयावच्चगराण उ, उवभोगत्थं चउत्थथुई ।। ४१ ॥ भगवन् ! नविकानाम-भवशंभवसंभवः ।।७। यस्य मूलबिम्बादेः पुरतश्चैत्यवन्दना कर्तुमारज्यतेऽसावधि- पुष्कृतं मे मनोहंस-मानसस्याभिनन्दन!। कृतजिन उच्यते। समाश्रित्य प्रथमा स्तुतिर्दातव्या, तन्नामा श्रीसम्बरधराधीश!,मानसस्याऽभिनन्दन !॥६॥ दिगा, सामान्येन जिनगुणोत्कीर्तनपरा वेत्यर्थः । उक्तंच स्वां नमस्यन्ति येऽङ्कस्थपद्मपद्मप्रभेश!ते। ललितविस्तराचाम् । अत्रैव वृका वदान्त-यत्र किलाऽऽयतनादी त्रैलोक्यस्य मनोहारी, पद्मपद्मप्रभे शते ॥१०॥ बन्दनं चिकीर्षित, तत्र यस्थ भगवतः संनिहित स्थापनारूपं, तं पुरस्कृत्य प्रथमः कायोत्सर्गः स्तुतिश्च, तथा शोभनन्नाव ........................................ ॥११॥ जनकत्वेन तस्यैवोपकारित्वादिति ॥१॥ तथा द्वितीया स्तु- सद्भक्त्या यः सदा स्तौति, सुपाश्र्चमपुनर्भवम् । तिः सर्वेषां जिनानां प्रायो बहुवचनादिगर्जा, सर्वजिनसाधा- सोऽस्तजातिमृतिर्याति, सुपार्श्वमपुनर्जवम् ॥१२॥ रणेत्यर्थः । अन्यथाऽन्यकायोत्सर्गेऽन्या स्तुतिरिति न सम्यक, सहर्षा ये समीकन्ते, मुखं चन्छपनाङ्ग! ते। अतिप्रसङ्गादिति,तथा तृतीया स्तुतिर्धानस्य श्रुतज्ञानमाहात्म्य- विदुः सकल सौख्यानां, सुखं चन्जानां गते ॥ १३ ॥ वर्णनपरेत्याम्नायः। तथा च ललितविस्तराया ऐतिह्यमेतदिति सदा स्वपादसंझीनं, मुविधे! सुविधेहि तम् । बृत्तिः। पब्जिकासंप्रदायवायम्-यदुत तृतीया स्तुतिः श्रुतस्ये- येन ते दर्शनं देव!, सुविधे सुविधे हितम् ॥ १४ ॥ ति ३॥ चतुर्थी स्तुतिः पुनर्वैयावृत्यकराणां यकाम्बाप्रभृतीनो यथा त्वं शीतल ! स्वामिन् , सोमः सोमामनोहरः। सम्यग्दृष्टिदेवतानाम, किमर्थमित्याह-उपयोगार्थ स्वकृत्येषु तेषां भध्यानां न तथाऽऽनाति, सोमः सोमामनोहरः ॥१५॥ सावधानतानिमित्तं,भवति च गुणोपवृहणतस्तकाववृद्धिः,ततश्च तं वृणोति स्वयंभूष्णुः, श्रेयान संबहुमानतः। स्वार्थकारित्वोपयुक्तताजगत्प्रसिम्मतत्-यत्प्रशंसा तत् सोत्साह जिनेशं नौति यो नित्यं, श्रेयांसं बहुमाऽऽनतः॥१६॥ कार्यकरणादर इति । तुशब्दो विशेषः,तेन याः श्रुतानीशासनदे- पाक्यं यस्तव श्रुश्राव. वासुपूज्य ! सनातन!। वतादिविषया स्तुतयस्ताः सर्वा अपि चतुर्थस्तुतौ निपतन्ति, भवे कुर्यात्तमोदाव-वाः सुपज्य! सनातन ! ॥१७॥ गुणोपवृंहणद्वारेण तासामप्युपयुक्ततादिफलत्वात्, स्तुतियुग- कस्य प्रमोदमन्यत्र , विमलात्परमात्मनः। लेषु तथानिबन्धनात् गुणोत्कीर्तनास्यद्वितीयस्तुतिरूपत्वात् । हृदयं भजते देवा-द्विमलात्परमात्मनः ॥१८॥ तथाहि-जिनकानस्तुतिवन्दनाद्यात्मकत्वादेका गएयते, वैयावृत्य- एष्ट्वा वान्तरजि-द्भावपराजितमनोभवम् । करादिस्तुतयस्तु द्वितीया,गुणोत्कीर्तनादिरूपत्वात् । एवमेघ च भविनां नाचतामेत्य, पराजितमनोऽभवम् ॥ १६ ।। युगलत्वसिद्ध,भावितं चैतत्पश्चमे वन्दनाद्वारे। अत एव कचि- श्रीधर्मेण कमाराम-प्रकृष्टतरवारिणा । धुगले चतुर्थी स्तुतिः,सर्वे यक्षाम्बिकेत्यारिवैयावृत्तिकरागां का- सनाथोऽस्मि तृषावली-प्रकृष्टतरवारिणा ॥ २० ॥ पिच भूयासुः, सर्वदा देवा देवानिरित्यादि सामान्यतः सर्वदे. स्थया वेधाऽरिषौ यत्-पादौ श्रीशान्तिनाथ! ते । बतानां कुत्रापि गौरी सैरभेति विद्यादेवतानाम् । अन्यत्र-"निष्प ............ , श्रीशान्तिनाऽथ ते ॥११॥ व्योमनी" इति देवविशेषविषया, एकत्र 'विकटदशना' इति वीतरागं स्तुवे कुन्', जिनं शंभुं स्वयंभुवम् । देख्या एव,कुत्रनिच्च-"मामूलालोमधूली" इत्यादि धुतदेवताया सरागत्वात्पुनान्यं, जिनं शंतुं स्वयं भुवम् ॥२२॥ इत्यादि । परिजावनीयमिदं समधिया कुप्रहग्रहविहरेण,कायो- विजिग्ये लीलया येन, प्रद्युम्रो भवतादर। त्सर्गविषयेऽपि बहु विमर्शनीयम् । यतो देवसिकावश्यकमध्ये भविनां भवनाशाय, प्रयुं नो भवतादर ॥२३॥ सामान्यतो वैयावत्यकरान् विमुच्य केवल श्रुतदेवता कायोत्स स स्यान्मल्लेन मखोखा, मल्लस्य प्रतिमल्यते । र्गकरणम,पाक्षिकादौ तु तुवनदेव्यादेः, दीकादौ तु शासनदेच्या कमो मनसि यो मोह-मतस्य प्रतिमल्यते ॥ २४ ॥ दीनामपीत्यलं प्रसङ्गेन । तत्त्वं तु परमर्षयो विदन्तीति । सङ्का०। विधत्ते सर्वदा यस्ते, स मुव्रतसमुन्नतिम् । स्तुतयः संस्कृतकाव्यानि-- समासादयते स्वामिन् !, स सुव्रत! समुन्नतिम् ॥२५॥ "जिनं यशःप्रतापास्त -पुष्पदन्तं समन्ततः॥ दृष्टा समवस्त्यन्तनमि ! तं चतुराननम् । संस्तुवे यत्क्रमी मोह-पुष्पदन्तं समन्ततः॥१॥ पश्येत्कोऽजितसन्धि मां, नमितं चतुराननम् ॥२६॥ प्रातस्तेऽहिद्वयी येन, सरोजास्यसमा नता । श्रीनेमिनाथमानौमि, समुरूविजयाङ्गजम् । तस्यास्तु जिनधर्माच्च, सरोजास्यसमानता ॥ २ ॥ हेलानिर्जितसंप्राप्तां, समुरूविजयां गजम् ॥ २७ ॥ वन्दे देवं च्युतोत्पत्ति--तकेबलनिवृतिम् । शिवार्थी सेवते ते श्री-पार्श्व! नासिककोमली। विश्वाचिंतच्युतोत्पत्ति-नुतकेवलनितिम् ॥ ३॥ न कमावनिशं नम्र-पावनालिककोमसौ ॥२६॥ चतुरास्यं चतुःकार्य, चतुर्धा वृषसेवितम् । वरिवस्यति यः श्रीम-न्महावीरं महोदयम् । प्रणमामि जिनाधीशं, चतुर्धा वृषसेवि-तम् ॥ ४ ॥ सोऽइनुते जितसंमोह-महावीरं महोदयम् ॥ २९ ॥ जिनेन्डानजनश्यामान, कल्याणाञ्जहिमप्रनान् । श्रीसीमन्धरतीर्थेशं, सादरं नुत निर्जरम् । चतुर्विशतिमानोऽस्य, कल्याणाञ्जहिमप्रभान् ॥ ५॥ योऽज्ञानं विदधे भस्म, सादरं नुतनिर्जरम ॥ ३०॥ विलोक्य विकचाम्नोज-काननं नाभिनन्दनम् । यैर्वन्दतेऽहंतोनार--तैरावतविदेहकान् । अष्टुमुत्कायते कोऽपि, काननं भि नन्दनम् ॥ ६ ॥ प्राप्यते प्रयरोदर्का-नैराबतविदेहकान् ॥ ३१ ॥ Page #1351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेयवंद सप्ततितं जनानामुत्कृष्टपदवर्त्तिनाम | वन्दे मनुष्यलोकेह मुष्टपतिनाम् ॥ ३२ ॥ श्रीमन्नन्दीश्वरद्वीपे प्रतिमासृताच्युताः । पतिप्रतिमाप्रयताच्युताः ॥ ३३ ॥ यथात्मनस्तस्थान-ममिममम । जैनबिम्बवजं तद्वै कृत्रिममकृत्रिमम् ॥ ३४ ॥ ये जिनेन्द्रान्नमस्यन्ति, साम्प्रतातीत भाविनः । दुष्कृतात् विमुच्यन्ते, साम्प्रतातीतज्ञाविनः ॥ ३५ ॥ परात्मानो जिनेन्द्रा ये-नयन्ते मानसं प्रति । पदं यान्ति जगन्मान-नीयं ते मानसं प्रति ॥ ३६ ॥ सोsस्तु मोक्षाय मे जैनो, नयसंगत आगमः । अपि यं बुध्यते विद्वो, नयसंगत ग्रागमः ॥ ३७ ॥ स्वं नामाज्ञानदेवते यन्न कोऽपि तदग्रे स्व-कीर्त्तये श्रुतदेव ! ते ॥ ३८ ॥ काम्याद्याः सुराः सर्वे, वैयावृत्यकरा जिने । कुर्वन्तु वेषात्यराज ३९ ।। उक्तं " चउरो थुइ " ति षोडशं द्वारम् ॥। ४१॥ निमित्तार्थ स्तुति: ( १३२८ ) अभिधानराजेन्ः | अधुना " निमिषति सप्तदशं द्वारं विवादपात्रस्वयत्यरिया- चंदणावनिपाइ उनिमित्ता । वयसुरसरणत्थं, उस्सग्गो इय निमिच ||४३|| पापानां गमनागमनादिसमुत्थानां रूपणार्थ निघतनार्थन पथिक्या, कायोत्सर्ग इति योगः । यदागमः - "गमणागमविहारे सेवा सुमिणइसरो राम्रो नाया नसतारे - रिवाहियाऍ पडिकमणं ॥ १ ॥ गमनागमनादिसमुत्थापकरूपं फलमधियाति तथा न त्ययादीनि षट् निमित्तानि फलानि येभ्यस्ते, तथा त्रय सत्लगी इति शेषः । वन्दनपूजन सत्कार संमानबोधिलाभनिरुपसर्गेति षट् फलानि चैत्यचन्दनादिकाः स्युः। तत्र सुमरणश्नमणारसुभमणवस्तनुपविति दण पुण्का पूयमित्धादि सारो ।। १ ।। समाणो णपीई विपत्ति बोहिलामो छ । तिव्वजिणधम्मसंपत्ति निरुवसग्गो व निव्वाणं ॥ २ ॥ रिहाश्वंदणीऍसु, जं पुनफलं वेड तं मज्छ । उस्लग्गाउ च्चिय त-प्फलेहि बाहि तउ वि सिवो" ॥ ३ ॥ तथा प्रवचनसुराः सम्यग्दष्टयो देवाः तेषां स्मरणार्थे वैयावृत्यक रेत्यादि विशेषणद्वारेणोपवृंहणार्थे क्षुषोपडवविद्रावणादिकृते तनद्गुणप्रशंसया प्रोत्साहनार्थमित्यर्थः । यथा-तत्कर्त्तव्यानां वैयावृत्यादीनां प्रमादादिना श्लथीभूतानां प्रवृत्यर्थम, अलयीभूतानां तु स्यैषय च स्मारणा कापना, तदर्थे, सारणायें या प्रवचनप्रभावनादी सिकायें प्रेरणार्थम् किम् ? उत्सर्गः कायोत्सर्गः चरम इति शेषः इत्येतानि निमित्तानि प्रयोजनानि फलानि इति वाचयवन्दनाथा भवन्तीति शेषः यद्यपि वैयावृत्यकरादयः स्वस्मरणाद्यर्थ क्रियमाणं कायोन ते तथापि तद्विषयक कायोत्सर्गक गु विनोपशमादिषु शुनसिकिर्भयत्यय आपत्ि नाव्यभिचारत्वात् । यथा स्तम्भनीयादिनिष्परिज्ञाने ऽप्याप्तोपदेशेन स्तम्भनादिकर्मकर्तुः स्तम्भनाद्यभीष्टफलालाईः । यद उक्तं च चूर्णे 39 "ते सिमविनाणे वि हु, तन्त्रिसउग्गओ फलं होई । विग्यजपुबंधाकारणं तना ॥१॥ इति । झापयति चैतदिदमेव कायोत्सर्गप्रवर्तकम् "वेयावच्चगराणं” इत्यादि सूत्रम्, अन्यथाऽजीष्टफलसिद्धादौ प्रबकत्वायोगात् । उक्तं च ललितविस्तरायां सदपरिज्ञानेऽप्यस्मात् तच्छुकिसिद्धारिमेव वचनं ज्ञापकमिति । सङ्घा० ३ प्रस्ता० । ( श्रत्र श्रीगुप्तश्रेष्ठिकथा सत्त्वादवसेया ) , इत्युक्तं " निमित्त त्ति ” सप्तदशं द्वारम् ||४२|| चतुर्हेतुफद्वारम् " तस्स उत्तरीकरण " इति साम्प्रतं " वारहेओ य " त्ति अष्टादशं द्वारं व्याख्यानयन्नाहचतु तस्स उत्तरी कर - पमुह सच्चाइया य पण देऊ । यावचरत्ता-इतिनि इय हे वारसगं ।। ४३ ।। चत्वारो हेतवः, तस्योत्तरीकरणप्रमुखाः "तस्स उत्तरीकर विसद्दिकरणं विकरणं" इति रूपाः, कायोत्सर्गसिद्धये भवन्तीति शेषः । तत्र "सालोयणपमिकम जमाइणा सोहियाश्यारस्त उत्तरकर करेमि रस १॥ पमिबंधवाई, जह सालागायें सोडिय हाणार गयमलस्स व जहा विसेवा सक्कारो ॥ २ ॥ आलोयणाणा तह, सुख श्यारस्स उत्तरकरणं । कीर पण जर सगइरहंगदाणं ॥ ३ ॥ पच्छित्तं पुण मस्त-मासखणं पंचमं इह बिसोही । अध्याराण अभावो, मायाएँ विणा विसल्लप्तं " ॥ ४ ॥ तथाश्रदादिकाः- “सद्घार मेहाए थिईए धारणाए अगुप्पेछाप वट्टमाणी " इत्यात्मकाः पञ्च हेतवः । तत्र "सका विद्याभिलासो, न परामा लाभिश्रोगाई। मेहा देयोपादेया न जमि ॥ १३ मेदा वा मज्जाया, जिएभणिया नासमंजसप्तपि । मणपादाणा पीई, धिई न रागा असलया ॥ २ ॥ धारण परिहागुणा विस्सरणं न उय सु अपेडा श्रत्थाई चिंता न पवितिमित्तं तु ॥ ३ ॥ पंचसु वि इमेसु पुढो, संवज्जर धकुमाराय त्ति जहा । सङ्घाई बह्माणी - इवासि उस्समामिच्चाई ॥४॥ श्य पांढो लाभकमा, एसि सद्धासईइ जड़ा महा । तो विधि विमाणमेव ॥५॥ कारणरदियं कज्जं, घमाश्यं जड़ न सिज्ज‍ कया वि । श्य सद्धाईहि विणा, काठस्सग्गस्म न हु सिद्धी " ॥ ६॥ तथा वैयावृत्यकरादयश्च त्र्यो हेतवः । उक्तं च"पणा पसंतिपयणसमाहि सम्मीि देवा, करंजे सिमु ॥ १ ॥ पचपणाचा इतियाजिमि देऊ । अविश्यभावानि उ णवत्ता ॥ २ ॥ देवा संघाचापमुहच्चिमिति । Page #1352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५६) चेश्यवंदण अनिधानराजेन्द्रः। चेइयवंदण नवसग्गाषिणासो, मणार दुहवारणसमाहि" ॥३॥ प्ररूपितम् “ पुत्तं च " इति द्वाविंशं द्वारम् । (सकाइ य सि) चशब्दाऽत्तरीकरणाद्याः पापक्कपणादिफले- (३५) कतिवेलाचैत्यानि बन्देत-साम्प्रतं " सगवेस" ति र्यापथिक्यादिकायोत्सर्गस्य,सामान्येन श्रमाद्या वन्दनादिप्रत्य- योविंशं द्वारं प्रकटयनाहयस्य, चैयावृत्यकृत्यादयस्तु सुरष्टिसुस्मरणादिफलोत्सर्गस्येति पमिकमणे चेश्यजिम-णचरिमपमिकमणसुवणपमिबोहे। केयम् । सक्का०३.प्रस्तान (भत्र सुदर्शनकथा संघाचारादु कात. चिश्वंदण इइ जश्णो, सत्त उ वेन्ना अहोरत्ते ॥ ४ ॥ व्या) इति प्ररूपितम् “चार देशोय" त्ति अष्टादशं हारम् ।।३। (३३) श्दानी "सोल आगार" सि एकोनविंशतितमं यतेः साधोः इति पूर्वाऊक्तरीत्या, अहोरात्रमध्ये सप्त वेलाज धन्यतोऽपि चैत्यबन्दना कर्तव्यच, अन्यथाऽतिचारसंभवात्सवআমাৰিৰম্বাই करणे प्रायश्चित्तस्य भणनादागमप्रामाण्यात् प्राधिके त्वनिषेधः। अन्नत्थआइ वारस, आगारा एवमाइया चउरो। पर्वादिषु विशेषतो बन्दनाभणनात, प्रतिषेधे प्रायश्चित्तापतेश्च । अगणी-पणिदिछिंदण-बोहियखोभाइ मक्को य ॥४४॥ | तथा चाऽऽगमः-"जेणं चेहए बंदमाणस्स वा संथुवेमाणस्स "अन्नत्य ति" भणनात् “अन्नत्युस्ससिपणं," मादिशब्दात वा पंचप्पयारं च सज्झायं पयरमाणस्स वा विग्छ करि"नीससिपण" इत्यादि प्रहः, यावत् "दिट्टिसंचादि ति" | ज्जा पच्छितं"। एतच तुशब्दो विशेषयत्ति, तत्र (पमिकरणे एतदर्थ: ति) प्राभातिकावश्यकावसाने एका चैत्यवन्दना । तथा च "अन्नत्थयबावारे, कामस्सगं करेमि श्य जोगो। मूनावश्यकटीका-" तो तिन्नि थुप्रो जहा थुत्तं, नवरमप्पऊससियं सासगहो, नीससियं सासमोमो य ।। सद्दगं दिति, जहा घरकोश्लाइसत्ता न उठति, तो देवे पयदा स्वासखुयं ज-भमुहए वायणीसम्गो। वंदंति, तो बहुवेतं संदिसावंति ति" ॥ (चेश्य ति) ................................"अहो बाम्रो । हितीया चैत्यवन्दना चैत्यगृहवेलायां भक्तादिप्रडणार्थभमली अकम्हाओ, भमंतमहिसणं च निवडंपा। मुपयोगकरणपूर्वमित्यर्थः । उक्तं च महानिशीथे सप्तमापित्तोदयाउ मुच्ग, विचेयणतं भमणरहियं च ॥ ध्ययने यतिदिनचर्याप्रस्तावे-“चेहपदि अबंदिपहिं उपयोसुदुमाणूससियाणु-म्मुकं पापाश्चंगसंचारो। गं करिज्जा पच्छित्तं । " तथा मूलावश्यके कायोत्सर्गनियुक्तिखेले कफाइते, दिही निमेसमाश्या ॥ वृत्योर्दिवसातिचारालोचनार्थमुक्तमसासाइनिरोहे, मरणाई तेण सुहम उसस। "काउस्सग्ग मोक्षप-हदेसिओ जाणिऊण तो धीरा । पवणमसगाइरक्षण-हेऊ सासाइसु य इत्थो । दिवसाइयारजाणण-व्या ठायति उस्तम्गं ॥१॥" उड्यबायनिसम्गे-सु सहजयणा वि भमलिमुच्छासु । मोवपथस्तीर्थकरस्तमुपदेशकत्वेन कारणे कार्योपचारात निवस विग्गहणभया, रोमुकंपाइदुनिवारा"। साम्प्रतंयक्तं दिवसातिचारक्षापनार्थमिति, तत्रोपते च हादश प्राकाराः कायोत्सर्गापवादप्रकाराः साक्वात् च्यते-विषयद्वारेण तमतिचारं दर्शयबादसूत्रे प्रतिपादिताः । तथा-(एवमाइय ति)" एवमाश्पर्दि" | "सयणासणनपाणे, चेयजइसिजकायमचारे । इति पदेन चत्वारः सूचिताः । तानेवाह-"अगणि" इत्यादि । समिई भावणगुत्ती, वितहायरणे अश्यारो" ॥१॥ अग्निर्विाद्दीपादिस्पर्शनम, प्रदीपनकमन्ये, पञ्चेन्द्रियैर्नरमार्जा- | (चेश्यत्ति) चैत्यवितथाचरणे सत्यतिचारः, चैत्याविषयं च रादिनिश्छिन्दनं स्वस्य कायोत्सर्गासम्पनस्य च गुर्बादेन्तराले वितथाचरणमविधिना वन्दनकरणे अकरणे चेत्यादि । (जाति) नुवोऽतिक्रमणं,बोधिका मानुषचौरा कोभःसुराष्ट्रकृतः, आदि यतिवितथाचरणे सत्यतिचारः, यतिविषयं च वितथाचरणं शब्दाद् वन्दिकराजभयभीतिपातादिग्रहणम्, दष्टश्च सपीदिना | यथा विनयाद्यकरणमिति । एषा च त्रिकालचत्यवन्दनामस्वः परो वा साध्वादिः, चशब्दात्सर्यादिरेव संमुखमासनं ध्ये प्राभातिकसेध्याकावन्दनोच्यते । यतो यतिनामपि दिवावाऽऽगच्छति । मध्ये त्रिसंध्यं चैत्यवन्दनाया अवश्यं कर्त्तव्यतयोक्तत्वात्। तथा अत्र यतना महानिशीथसूत्रम्-" गोयमा! जे केश भिक्खू वा भिक्खुणी या "फुसणम्मी गहणाईि-दणे अ तह तग्गहत्थकरणाई। संजयविरयपमिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिया पभिइमो अणुचारणपत्रायणाई, बोहियखोभाश्मकेसु" ॥१॥ दियह जावजीवाभिग्गहणं सुधिसत्यतत्तनिजरे जहुत्तविहीर उभयेऽपि मौलिताः वोमश । संघा० ३ प्रस्ता। सुत्तस्थमसरमाणे अणुनमणे एगम्गचित्ते सम्पयमणस्स (अत्र नरसुन्दरनृपतिदृष्टान्तः सङ्काचाराद् ज्ञातव्यः) (का-| सुहझवसाए थयथुइहि न तिकालियं चेश्प बंदिज्जा,तस्स णं योत्सर्गे दोषाः "कालस्सम्ग" शब्देऽस्मिन्नेव भागे ४२६ पृष्ठे | पायच्छितं वदासजा" ॥ (जिमण ति) चैत्यवन्दनां उक्ताः । उच्यासमानमपि ४२४ पृष्ठे उक्तम् ) कृत्या नोक्तव्यम् । तथा चोक्तम्-"चेपार्ह साहहि य प्रवदि. (३४) स्तोत्रलकणम् पहि पमिकमिज्जा पच्चिसं "। एषा च मध्यान्हचैत्यवन्दना इदानीं " पुत्तं च" ति द्वाविंशं घारमाविष्कुर्वन् गाथोत्तरा- गएयते। (चरिम त्ति) संचरणप्रत्याख्यानानन्तरं देवान् बन्देत। माह उक्तं च-"संचरित्ता णं चेयस्स सादूर्ण वंदणं न करिज्जा, तो गंजीरमहुरसई, महत्थजुत्तं हवा युत्तं ।।। पच्चिसं" एषा सायं सन्ध्या चैत्यबन्दनायां निपतति । एवं च गम्भौरा व्याण्यार्थान्योक्तिवक्रोक्तिकठोरोक्त्यादिगर्भाः, मधु- दिवामध्ये त्रिकालवन्दना यतिनां प्रवति । ( पमिक्कमण राः सुश्लिष्टकराः शब्दा यत्र तत्तथा। यद्वा-मधुरो मालबकै- त्ति देवसिकप्रतिक्रमणात्पूर्व देवा वन्दनीयाः। तथा च महानिशिक्पादिग्रामरागानुगतः शब्दः स्वरो यत्र । सङ्का०३ प्रस्ता। शीथे-"चिश्वंदणपमिक्कमणगाहा।" तथा "चेश्यहि अवदिए. (अत्र विजयश्रेष्ठिकथा सङ्घाचारादवसेंया) हिं पमिक्कमिजा पच्छित्तं" (सुवण त्ति) देवान् चन्दित्वा Jain Education Interational Page #1353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३३०) चेइयवंदण अभिधानराजेन्द्रः। चेश्यवंदण स्वप्तव्यं, नान्यथा । यदागमः-"चेहएदि अवंदिपहिं जाव संथा श्रेयोवीरसुपार्श्वशीतलनमीवैरोचिषः षोडश । रम्मि गाइज्जा पच्छितं" ॥ (पमिबोहे ति) प्रभाते प्रति हो चपनसद्विधी सितरुची द्वौ पार्श्वमती सिती, युकः सन् देवादोन वन्दत । उक्तं च-"शरिया कुसुमिणमग्गो, द्वौ पद्मप्रभवासुपूज्यजिनपौ रक्तौ विरक्तौ स्तुवे ॥१॥ जिणमुणिवंदण तहेव सज्झायं" इति ॥ ७ ॥ एवं च साधूना देवेन्डादिभिरहितो नरहितः स्तौम्यहतः सन्मुदा, श्रित्य वेसासप्तकनियता चैत्यवन्दना प्रदर्शिता ॥४॥ विद्यानन्तमुखाद्यनन्तसुगुणैः सिद्धान् समृद्धान् सदा । अथ गृहस्थानाश्रित्याऽऽह प्राचार्यान् यतिधर्मकीर्तितसमाचारादिचारून् महोपमिकमो गिहिणो विहु, सगवेना पंचवेल इयरस्स । पाध्यायान् श्रुतधर्मघोषणपरान् साधून विधेः साधकान्॥२॥ पूयासु तिसंझामु य, होइ तिवेना जहन्नण ।। ४६ ॥ अर्हन्तो मम मङ्गलं विदधतां देवेन्जवन्द्यक्रमाः, विद्यानन्दमयास्तु मङ्गलमयं कुर्वन्तु सिद्धा माये । प्रतिकामत उभयसन्ध्यमावश्यकं कुर्वाणस्य, गृहिणः श्रावकादेः, मा मङ्गलमस्तु साधुनिकरे सकर्मकीर्तिस्थिती, सप्तवेयाश्चैत्यवन्दना भवस्यहोरात्रमध्ये। यथा-द्वे द्वयोरावश्य मङ्गल्यं श्रुतधर्मघोषणपरं धर्म सुरभिः श्रये" ॥३॥ कयोः, द्वे च स्वापावबोधयोस्त्रिकाबपूजाऽनन्तरं तथा जघन्येन च तिषश्चेति सप्त। अपिः संभावने। सभाव्यते ह्येतदेवम् । अन्यथा इत्यादिरूपा यथारुचि यथाप्रस्तावमेकद्वियादिनमस्करा भऽऽवश्यककरणे षट् स्वापादिसमयावन्दने पञ्चादिरपि,प्रनूतदेव णनीयाः। ततः "कहं नमंति सिरपंचमेणं कारण" इत्याचारागृहादी या अधिका अपि । पञ्चवेला इतरस्याप्रतिक्रामतः। य अचूर्णिवचनात् पश्चाङ्गं प्रणाम कुर्वता "तिक्खुत्तो मुकाणं धथाधिस्वापावबोधयोस्तिस्रः तत्प्रतिसंध्यं पूजानन्तरं,तथा जघ रणितलसि निबेसे३ " इत्यागमात् त्रीन वारान् शिरसा नूमि न्येन श्रावकस्य तिम्रोवेवाश्चैत्यवन्दना भवति, कत्र्तव्येति शेषः । स्पृष्ठवा"नमोऽत्यु तिनुवणिकगुरुजिणिदपमिमाविणिवोसियनकथम, त्रिसंध्यासु यास्तिनः पूजास्तासु, तदनन्तरमित्यर्थः। ए. यणमाणसेण धन्नोऽहं सपुन्नोऽहं ति जिणवंदणाए सहलीकयतेन श्रारूस्य त्रिकालपूजाऽध्यावदिता, चशब्द उक्तानुक्तसमुच्चया जम्मु त्ति मन्नमाणेण विरदयमउलियंजलिणा हरियतणबीर्थः। तेन यदाऽपि पूजा न संजवति तथाऽपि घेतात्रयं देवा यजंतुविरदियभूमीए निहिओभयजाणुणा सुपरिफुडसुविदिचन्दनीयाः, तथा या पूर्वाह्ने गृहचैत्यचैत्यगृहादिषु वन्दनास्ताः यनीसंकजहत्यसुत्तत्थोभयं पए पए भावेमाणेणं जाव चेइप वंप्रातःसंध्यावन्दनायां निपतन्ति, तदनन्तरं मध्याटिक्यां, सत दिज" ति । तथा-"सकत्थयाई चेयवंदणं," महानिशीस्तुप्रदोषसंध्यायाम् । यथा चागमः-"जोजो देवाणुप्पिया! अज ये तृतीयाध्ययनोक्तविधिप्रामाण्याद् भूनिहितोभयजानुना प्पनिईए जावजीवं तिकालियं अणुतावोगग्गचित्तणं चेइप करधृतयोगमुच्या शक्रस्तवदएमको भणनीयः। तदन्ते च बंदियाचे श्णमेव जो मणुयत्ता असुश्असासयखणभंगुरा पूर्ववत प्रणामं कृत्वा समुत्थाय जिनमुखाश्चितचरणो योगमु. ओ सारं तितत्थ पुम्वरहे ताव उदगपाणं न कायक्वं जाव चे- ज्या "अरिहंतचेझ्याणं" इत्यादि चैत्यस्तवदण्मकं पठति । ए साहू य न बंदिए, तहा मज्झरहे ताव असणकिरियं न का. उक्तं चयचं जाव चेहए न वदिप,तहा अवरबहे चेव तहा कायब्वं जहा "उट्टियजिणमुइंचिय-चरणो करधरियजोगमुद्दो य । अवंदिपहिचहि नो सिज्जालयमश्क्कमिज ति।" सघा०३ चेयगयथिरदिछी, ग्वणजिणदंमयं पढा " ॥१॥ प्रस्तान "संवरित्ता णं चेयसाधूणं बंदणं ण करेजा पुरिम" कायोत्सर्गेऽत्रोच्चासा " मठ सेसेसु" ति वचनात् अष्टा, महा०७०(अत्र कान्तिश्रीकथानक संघाचारादू ज्ञातव्यम) चैत्य उच्चासपूरणार्थमिष्टसंपदं नवकारं चिन्तयित्वा तं पारयति । गृहे भाशातना 'पासायणा' शब्दे द्विजा०४७०पृष्ठे उक्ताः)(अत्र | ततः " पुरत्ति" अधिकृतजिनस्तुति ददाति । प्रजावतीदेवीकुमारनन्दिकथा स्वस्थानोक्ता श्या) इति प्ररूपितं तत्रायं वृहद्भाप्योक्तो विधिः"इस प्रासायणश्चाओ" ति चतुर्विशतितमं द्वारं, तनिरूपणेन च प्रदर्शितम् " एवं चिश्वंदणाई गणाई चउवीसवारेहि "अहस्सासपमाणा, उस्सग्गा सब एय कायन्वा । सहस्साई हुँति चसयर" ति प्राक् प्रतिज्ञातं सप्रपञ्च उस्सग्गसमत्तीप, नवकारेणं तु पारिज्जा ॥ १ ॥ मपि चैत्यवन्दनाविधानम् । परमिट्टिनमुकारं, सक्कयनासा पुण भण परिसो। (३६) साम्प्रतं चैत्यवन्दनाकरणविधिप्रदर्शनार्थमाह- चरिमाश्मयुश्पढणं, पाइयत्रासाइ वि न इत्थी ॥२॥ "रिमं१ नमुकारं२ नमोऽत्यु३ अरिहंतच्युइ५ लोग६ सब्वयुश्८ जह एगो देश पुई, अहऽणगो ता थुई पढर एगो। पुक्खस्यु १०सिका ११ वेया १२थुइ १३नमोऽत्यु १४ जावंति१५ सेसा नस्सग्गविश्रा, सुषंति जा सा परिसमत्ता ॥३॥ थय १६ जयवीय०१७ इति। तत्र "ता गोयमा ! णं अपमिक्क- बिंबस्स जस्स पुरो, पारका वंदणा धुई तस्स । ताप रियावहियाए न कप्पर चेव किंचि चिरवंदणसज्झा चेश्यगेहे साम-नवंदणे मूतबिंबस्स ॥ ४॥ श्यं काउं फलमभिकंखुगाणं" इत्यागमप्रामाण्यात् । "इ-| अस्थि य पुरिसपुए, वंद देवे चउम्बिहो संघो । रिय ति" प्रथममीर्यापथिकीप्रतिक्रमणे तत्कायोत्सर्ग च इत्थी धुई दुविहो, समणीओ साविया चेव ॥ ५॥" "चंदेसु निम्मलयर" ति यावत नामवस्य पञ्चविंशत्यु:। ततो लागन "लोगस्सुजोअगरेणं" मणता "सम्बत्ति" "स. वासमानं कृत्वा " नमो अरिहंताएं" इति जणतः पारयित्वा। वनोए अरि रोगाण" इत्यादिना प्राग्वत् कायोत्सर्गः क्रियते, मुखेन सकलोऽपि चतुर्विंशतिस्तवो भणनीय इति वृक्षाः। ततः पारयित्वा "चउधुत्ति" द्वितीयास्तुतिः सर्वजिनाभिता दीयते, तमाश्रमणपूर्वम “इच्छाकारेण संदिसह जगवन् ! चैत्यवन्दनं ततः "पुक्स्वर त्ति” “पुक्खरवरदीव"दएमको भणनीयः, करोमीति नणित्या " नमुक्कार" त्ति तत्कायोत्सर्गानन्तरंच “धुरत्ति" तृतीया स्तुतिः सिद्धान्तसत्का "श्यामौ नेमिमुनी उनौ विमलतः षट् पञ्च नाभेयतः, भणनीया। ततः "सिद्ध ति" "सिद्धाण" इत्यादि भणित्वा Page #1354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३३१) चेश्यवंदण अभिधानराजेन्छः। चेश्यवंदण "वेय ति""वेयाचञ्चगराणं" इत्यादिना कायोत्सर्गः कार्यः, अथ शुद्धवन्दनस्यैव मोक्तहेतुत्वम् । अथ शुरुवन्दनैव ततः “घुइ सि "वैयावृत्यकरादिविषयैव चतुर्थी स्तुतिर्दीयते, मोक्षहेतुरिति दर्शयितुमाहततः प्राग्वत प्रणामपूर्वक जानुद्वयं भूमौ विन्यस्य करधृतयोग- इत्तो उ वित्नागाओ, अणादिभवदव्वालिंगो चेव । मुज्या " नमोऽत्थु " ति पुनः शक्रस्तवदण्मको भणनीयः, त णिनणं पिरूवियचा, एसा जह मोक्खहेन ति॥३१॥ दन्ते प्रणामं कृत्वा " जाति"त्ति सर्वजिनबन्दनाप्रणिधा. नरूपा " जावंति चेइयाई" इत्यादिगाथा जणनीया । उक्तं च इतस्त्वस्मादेवानन्तरोक्ताद, विजागात्प्रयमकरणस्योपरि शुधव. पञ्चवस्तुके-बन्दित्वा द्वितीयप्रणिपातदएमकावसाने इत्यादि। न्दना नवतीत्येवं लवणात, तथा अनादिनये निष्प्राथम्यसंसारे, ततः कमाश्रमणं दत्त्वा "जावंति के साइ"इत्यादिना द्वि यानि व्यलिदानि, जावविकलत्वेनाप्रधानप्रवजितादिनेपथ्यतीयं मुनिवन्दनास्वरूपं प्रणिधानं करणीय, पुनः कमाश्रमणं वरणलकणानि तानि, तथा तेज्यस्ततोऽनादिभवद्रव्यविगतः, दत्त्वा " इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! स्तवनं भणितुम" चशब्दः समुच्चये, एवशब्दोऽवधारणे , स चान्यत्र योक्ष्यते । इति भणित्वा स्तोत्रं भणनीयम् , ततो मुक्ताशक्तिमुख्या निपुणं सुनिश्चितं यथा भवतीत्येवं निरूपयितव्या पालोचनीया। " जय बीयविराय" इत्यादि तृतीयं प्रार्थनालक्षणं प्रणिधानं कथम,यथेति यदुत,एषा पषैव शुरुवन्दनैब, नेतरा,मोक्तहेतुनिविधेयमिति । "पणदंमथुइचउक्कग-युइपणिहाणेहि उक्कोस" र्वाणवीजम् । अथवा इत पव विजागादनादिजवषयासतश्च त्ति प्रागुक्तक्रमप्रतिपादिका गाथा भणनीया। उक्तं चाकरार्थः। यस्मादियममोकदेतुरपि स्यादतस्तथा निरूपयितव्या । एषा बन्दना यथा मोकहेतुः स्याच्बुका विधेयेत्युपदेशः । इतिशब्दो अथ भाप्यकृत् सद्रुबहुमानातिशयतः स्वगुरुनामझापना वाक्यार्थसमाप्ती । अयमभिप्रायः-प्रथमकरणाज्यन्तरे अनागर्भ प्रकृष्टफलदर्शनद्वारेण निगमयनाह दिनवव्यलिङ्गेषु चेयमनन्तशोऽवाप्ताऽपि न मोक्तहेतुर्जाता, सव्वोवाहिविसुकं, एवं जो बंदए सया देवे । अशुरूत्वात, अतोऽधुना तथा निरूपणीययं यथा मोक्तहेतुः देविंदविंदमहियं, परमपयं पावर बहुं सो ॥५०॥ स्यात् , शुद्धा विधेयेति जावः । इति गाथार्थः ॥ ३१ ॥ सर्वे श्रावकादिविषया ऋद्धिमदनृद्धिमझोचरा देशकालाद्यनुगता अनादिभवायलिङ्गत इत्यनेनानन्तशः प्राप्तिरस्या द्रव्यस्तवजाबस्तवस्वरूपा वन्दनीयस्तवनीयादिविषयप्रणिधानल- उक्ता, सा चाशुझाया एव, न तु शुझाया इत्येक्वणाश्च उपाधयो धर्मानुविभाश्चिन्ताः "उपाधिर्धर्मचिन्तनम्" इ तयितुमाहतिवचनात,न पुनः सावधैहिकप्रयोजनविषयाः, बोके स्वन्नावसि- को जावो इमीए, परो विहु अवलुपोग्गला अहिगो। द्धा हि ते, इति नोपदेशपराः, अप्राप्ते हि शास्त्रमर्थवत् । न हि संसारो जीवाणं, हंदि पसिर्फ जिएमयम्मि ।। ३ ।। मलिनः स्नायात,बुनुक्षितो वाऽश्नीयादित्यत्र तत् । परमं च तत्प. दं च परमपदं, तीर्थकरपदवी मित्यर्थः। नो नैव, भावतः शुद्धाध्यवसायतः, शुझायामित्यर्थः । यदागमः (मीप ति) अस्यां वन्दनायां सत्यां, परोऽप्युत्कृष्टोऽपि, "सामंतो चक्कहरं, चक्कहरो सुरवश्नणं कंखे। प्रास्तामितरः । हुशब्दोऽलङ्कारे । ( अवकुपोग्गल ति) ह पुलशब्देन भीमादिन्यायेन पुलपरावर्तोऽभिप्रेतः, ततश्चाई इंदो तित्थयरत्तं,तित्थयरे पुण तिजयसुहए ॥१॥ पुलपरावर्तस्येत्यर्द्धपुलपरावर्तः। अप इत्यपकृष्टः किञ्चितम्हा जं देहि बि, कंखिज्ज एगबरूबक्नेहिं । न्यूनोऽर्धपुफलपरावर्तोऽपार्धपुरुझपराधर्तः । तस्मादधिकोऽर्गश्य साणुरायहियए-हिं उत्तमं तं न संदेहो" ॥२॥ लः, संसारो, जीवानां जन्तूनां, भवतीति गम्यम । कथमिदं प्राप्नोति समासादयति, लघु शीघ्रं, स यथोपाधिचैत्यवन्दना सिकमित्याह-हन्दीत्युपप्रदर्शने । प्रसिकं प्रख्यातं, जिनमतेऽ. कर्ता। हत्सिद्धान्ते । यदाह-"कालमणंतं च सुए, श्रद्धापरियो य उक्तं चागमे देसूणो। पासायणबहुलाणं, सक्कोसं अंतरं हो ॥१॥" इति । "जो पुण दुहउब्बिग्गो, सुहताहालू अलि ध्व कमलवणे । अतो द्रव्यत पषाऽऽसीत् । अनादौ नवे निरर्थिका चेति थयथुश्मंगलजश्स-इवावमो हुण मुणे किं पि ॥१॥ गाथार्थः ॥ ३२॥ भत्तिनरनितरो जिण-वरिंदपायारविंदजुगपुरभो। प्रकृतार्थ निगमयन्नाहभूमिनिट्टवियसिरो, कयंजनीवावमो भत्तो ॥२॥ इवं पिगुणं हियए, धरिज्ज संकासुद्धसंमत्तो। श्य तंतजुत्तिो खलु, णिरूवियव्वा बुहेहिँ एस त्ति । अक्खंमियवयनियमो, तित्थयरत्ताइ सो सिज्के" ॥३॥ ण हु सत्तामेत्तेणं, इमीऍ इह होइ जेव्वाणं ॥३३॥ ततश्च बाबत्तीर्थकरत्वं स्यात्तावन्मेघरथवच्चक्रीत्वाच. इत्यनन्तरोक्तायास्तन्त्रयुक्तस्तन्त्रयुक्ति भागमाश्रितोपपत्तिनुन्जवति । अथवा परमपदं मुक्तिपदं, परमज्ञानादिचतुष्टय. माश्रित्य, अथवा-तन्त्रं युक्ति चाऽऽश्रित्य, खमुक्यिालङ्कारे, योगात्, शेषं प्राम्बत। निरूपयितव्या पालोचनीया, मोकहेत्वहेतुच्याम । बुधैर्विद्भितथा चागमः निर्वाणार्थिभिरित्यर्थः । एषा अनन्तरोक्ता बन्दना । इतिशब्दो " नाम वि सयलकम्म-खमलकलंकेहि विष्पमुक्काणं । वाक्यार्थसमाप्तौ। अथ कस्माद् निरूपणमस्या सपदिश्यता तियसिंदच्चियचलणा-ण जिणवरिंदाण जो सरह ॥१॥ श्त्याह-न हुनेव, सत्तामात्रेण सद्भावेनैव, (श्मीए) अस्या बन्दतिविहकरणोव उत्तो, खणे खणे सीलसंजमुज्जुत्तो। नयाः, इह वन्दनाविचारे, नवति जायते, निर्वाणं निर्वृतिः, किं अविराहियवयनियमो, सो वि हु अश्रेण सिज्ज्जिा ॥२॥" | तु शुद्धयाऽनया तत् जायते, अतस्तस्यां यतितव्यमिति हृदयम् । सड़ा०३प्रस्ता०पश्चा०। (मेघरथकथा सङ्काचाराद ज्ञातव्या)। इति गाथार्थः ।। ३३ ।। Page #1355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३२ ) निधानराजेन्द्रः । यदण स्व वन्दनायाः शुरूत्वविचारे अभ्युच्चयमाहकमरुवा जति समयविक । किं पेट तं ते चित्तभेयं तं पितु परिजावणीयं तु ॥ ३४ ॥ 3 किमभ्युचयार्थी, शब्दोऽन्यत्र संजरस्वते देवासी शुरू, दूध व्यकिकू पासी रुपका कूटकरूपकः स एव तस्य वा हात निदर्शनं छेककू [टकरूपानं, वह भगन्ति वदन्ति समयविदः सिद्धान्तवेदिनो भबहुस्वामिप्रभृतयः, तन्त्रेष्वावश्यकनिर्युक्त्यादिशास्त्रेषु । तथाहि " रुप्पं टंक बिसमा यक्खरं तइयरूचत्रोछेश्रो । दोरादं पि समाश्रोगे, रूबो यत्तणमुवेति ॥ १ ॥ " चिअभेद बहुप्रकारं चतुर्विकस्वमित्यर्थः । इह याने पदिति शेषो यः तदपि ब्रेककूटकरूपका तमपि न केवलं यक्षि ग्रहणाममयेनात्वमस्या भावनीयमित्यपदार्थ एवकारायो, मिश्रकमधेति । इति यन्दनाथ, परित्रायनीय मेव पर्यालोचयितव्यमेव इतिशब्दो वाक्यार्थसमाप्तौ इति गाथार्थः ॥ ३४ ॥ चित्रभेदमित्युक्तं, तदेव दर्शयन्नाहदव्वेशं टंकेश य, जुत्तो छेश्रो हु रूत्रगो हो । टंकविहूणो दव्वे, विण खलु एगंतछेयो ति ॥ ३५ ॥ इम् प्यसुवर्णादिनोचितेन न वित्रविशेषेण च युकः समन्वितो यः स ब्रेक एव विशुद्ध पत्र, शब्दधकारार्थः, रूपको इम्मो जयति वर्तते इत्येको नेदः तथा टङ्कविहीन उचितचित्रचिकलो यः स इव्येऽपि रूपयादाप्युचिते सति नतु नैव कान्तः सर्वपा विरा राभावेन देशतः कूटपाद इति द्वितीयरूपा समाप्त्यर्थः । इति गाथार्थः ॥ ३५ ॥ 1 अथ तृतीयजेदमाह अब्बे टंकेत्रि, मो तेण वि विणा उ मुद्दति । फलमेत्तो एवं चिय, मुाण पयारणं मोतुं ।। ३६ ।। रूपाचवे सति नापिचिविशेषे यापि युक्ता भास्तां मावेशार्थः कूटोऽशुरू एव रूपको भवतीति प्रक्रमः । श्रथ चतुर्थमाद-तेनापि टङ्कनापि, अपिशब्दात् द्रव्येणाप्युभयाभाव इत्यर्थः । विना तु वियु तः पुनः । रूपको मुझेति चिह्नमात्रमिति व्यपदिश्यते । अथोपदर्शितरूपकचतुष्टयस्य फलमतिदेशन आह-फलमि " प्रयोजनम इतोऽनन्तरूपका मेरुप स्वरूप जयति तच क्रमेण पूर्वमदपूर्ण वितिक भावः सर्वा फलाभावश्चेति किमपि फलं भवतीत्यत्राह मुवानां मूढानां प्रतारणं वचनं मुत्यादिरहृश्य, अन्यत् फलं न भवति, तत्पुनर्भवतीति । अथवा सामायो योजनामा पोतियन्दनायाः सकाशादिति । श्रतिप्रसङ्गं वारयन्नाह" मुळेत्यादि । रूपकात्प्रतारणं स्याद्वन्दनायास्तु नेति गाथार्थः ॥ ३६ ॥ श्राद्यव्याख्यापके पातनैवम, श्रथ तेनैव फलेन तत्फल " पद्भविष्यतीत्याह * पुण अत्यफलदं ऐहाडिगवं जमवओगि चि । चेयवंदण प्रायं चिय एत्थं, चिंतिज्जइ समयपरिसुद्धं ||३७| तत्पुनर्मुग्धप्रतारणलकणं रूपकान्त्यनङ्गकद्वयजन्यं फसं, किमित्यानफलकम् अनर्थफल वा स्वपरयोर पकाररूपफलदायकम् । श्रत एव ननैव, श्द रूपकविचारे, अधिकृतं प्रस्तुतम् । किमिति नामित्याह यद्यस्मात् अनुपयोगिनियोजन, न हि सतामनर्थफलदेन पतन प्रयोजनमस्ति इतिशब्दः समाप्तौ । तर्हि किमिहाधिक्रियत इत्याह--आत्मगतमेव स्वविषयमेव कायकलभ्यमित्यर्थः नतु परविषयं प्रतारयादि, आयगतं या रूपकविनिमयेन योऽनित्रेतवस्तुनामस्ततमेच अत्ररूपकविचारे, चिन्त्यते विचार्यते, समयपरिशुद्धं शिष्टव्यवहारविशुरूं, न त्वयवहारगतं परप्रतारणमपीति । व्याख्यान्तरे त्वेवम्ननु वन्दनातोऽपि प्रतारणं मत बाह (तं पुजेत्यादि) "नेह " नात्र चन्दनाणे दाहोन्तिकेऽधिकृतम् (भायगवं चिय 1) जीवविषयमेव ( समयपरिषं वि) मागमानुगतं मोक्षादि, शेषं तथैवेति गाथार्थः ॥ ३७ ॥ एवं दृष्टान्तं सफल मनिधाय दार्शन्तिकं सफलमाह - अथवा सामान्यतो दाष्टन्तिक योजनामभिधाय विशेषतस्तामेवाह.... , जाणं खादिहिं चैव मुझेदि वंदा या । मोक्लफल चिप एसा, जोश्वगुणा व शियमेणं ॥ २८ ॥ भावेनापुनर्बन्ध काद्युचितश्रानभक्तिरूपेण द्रव्योपमेन, वर्णादिभिरेव साक्षरमवृतिभिरेव हयैः आदिशक्रिया लम्बनादिग्रहः । वैशदो व्यायात एव शुकैर्निरचेः करणभूतैः, या वन्दना, सा छेका शुरूा प्रथमरूपकोपमा, किंफलेयनित्या मोक्षफले निर्वाणयोजनेवाला न पुनः संसारफलेति वा वन्दना किफापेक्षा पुन रियं किंविधेत्याह--यथा येन प्रकारणोदितोऽभिहितस्तथैव गुणः फलं यस्याः सा बोदितगुणा, बच्चोचितगुणा वा गुण पाय मी जसे स होइ हलोगिया वाषित " चशब्दः समुन्नये । नियमेनावश्यन्तयेति गाथार्थः ॥ ३८ ॥ अथ द्वितीयरूपकयोजनामाह " भावादिहिं तहात जा होइ अपरिक ति । atraसमा खलु, एसा वि गृह निििरहा ||३९|| भावेनोक्तपरिणामेन द्रव्योपमेन, युक्तेति शेषः । तथाशब्दस्य समुच्चयार्थस्येह संबन्धात्, तथा वर्णादिभिरक्करप्रभृतिभिः । तुशब्दः पुनरर्थः । तस्य चैवं संबन्धः-या पुनवेन्दना, भवति व ते अपरा सदोषा इत्येवंप्रकारा, द्वितीयरुपमा द्रव्ययुक्तविहीनरूपकतुल्या, खलुक्यालंकार, एषाऽप्यसाथपि, न केवलमाद्यरूपकसमा । शुभा प्रशस्ता मोक्काज्युदयफसाधकत्वात् । इतिशब्दः उपप्रदर्शने । निर्दिष्टा तीर्थकरादिभिरभिहिता, जावप्राधान्यात् । श्राह च "क्रियाशून्यश्च यो जावो, जावशून्या च या क्रिया । अनयोरन्तरं ज्ञेयं, भानुखद्योतयोरिव ॥ १ ॥ " इतिगाथार्थः ॥ ३६ ॥ 1 अथ रूपकचरमरुययोजना बाह जवाब- इहिं सुद्धा वि कूमरूवसमा । उभयविहूणा ऐया, मुहपाया आणिडफला ॥ ४० ॥ भावविहीना अपुनर्बन्ध काद्युचितकानन चिरहिता या सा, Page #1356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३३३) चेइयवंदण अभिधानराजेन्सः । चेश्यवंदण वर्णादिभिरकरप्रवृतिभिः, शुद्धाऽपि निरवद्यापि,प्रास्तां साव- नारम्भादेव, अवधारणं चेह काकुपागत्प्रतीयते । न युक्तो चा, कूटरूपसमा रुण्यरहितटकयक्ततृतीयरूपकतुल्या, तथा| न घटमानः स्यात् , इतिशब्दो वाक्यार्थसमाप्तौ । इदमुक्तं उभयविहीना भाववर्णाविशुकिरहिता या सा, शेया सातव्या , भवति-यथा जैनवन्दनाऽनारम्नान्मुलाप्रायवन्दनायामिष्टफलं मुलाप्राया मुकाकल्पावरमनकवयस्यापि फलमाह-अनिष्ट- म युक्तम,एवं जैनबन्दनाऽनारम्भादेव तजन्यानर्थोऽपि न युक्तः फला अननिमतप्रयोजनाऽनर्थफोति यावत्। इति गाथार्थः॥४०॥ स्यात, रश्यतेच मुलाप्रायवन्दनायामनर्थानाषः यतो मतोऽसौ इयं चान्त्यभाकच्यवन्दना केषां किंफला च विशेषेण भ- जैनी न प्रयत्यपि तु लौकिक्येति गाथार्थः॥४३॥ बतीत्याह - अमुमेवार्थ प्रावयाहहोइ य पारणेसा, किमिट्ठसत्ताण मंदबुखीणं । जमुजयजणणसजावा,एसा विहिणेयरेडिं । उ अम्मा। पाएण दुग्गइफला, विसेसओ दुस्समाए न॥४१॥ ता एयस्साभावे, इमी' एवं कहं बीयं ? ॥४॥ भवति च संपद्यते पुनः, प्रायेण बाहुल्यन, प्रायोग्रहणमक्लि. पद्यस्मा तोरुभयजननवभावा इष्टानिष्टार्थोत्पादनषीजकल्पा, सत्वानामपि कदाचिदनुपयोगावस्थायामियं प्रवतीति ख्या- एषा जैनवन्दना । अथ कथमेवोमयजननस्वभावत्याहपनार्थम् । एषा अनन्तरोक्का रूपकचरमजङ्गकष्योपमिता, च. [विहिणेयरोहिं ति ] विधानेन क्रियमाणेनेष्टफला, इतरैरन्दना प्रायः विलसत्वानां संक्लेशबदुसजीवानां, किमाएं बा | विधिनिस्तु प्रत्यपायफला । लौकिक्यप्येवंभूतेति चेदित्यत्राहसत्त्वं येषां ते तथा तेषां, मन्दबुकीनां जधियां मिथ्यात्वोप न त्वन्या न पुनरपरा, लौकिकीत्यर्थः । लौकिकत्वादेव । ततः हतत्वात् । तथा प्रायेण बाहुल्यन, प्रायोग्रहणं च केषाश्चिन्मु. किमित्याह-(ता इति )यत एवं तत्तस्मादेतस्य प्राग्रष्टान्तीबाप्रायाऽपि सती सा संपूर्णचन्दनाहेतुत्वेन सुगतिफलाऽपि कृतस्येष्फमस्याभावेऽभवने, अस्यां द्विविधकुवन्दनायाम, पव. भवतीति कापनार्थम् । दुर्गतिफला कुदेवत्वादिप्रपोजना, वि- ममुना न्यायेन विधीतराज्यां सतफलप्रत्यपायजनकत्वलकणेशेषत इत्यत्रोत्तरस्य पुनःशब्दार्थस्य तुशब्दस्य संबन्धादि न, कथं केन प्रकारण, न कथञ्चिदित्यर्थः । कितीयं प्रत्यपायन. शेषेण पुनः, दुःषमायां दुषमाकाले कालदोषादेव, ति गाथा. कणं फलमित्यर्थः । अतः सुष्ठक्कं तत्फलामिव तत्प्रत्यपायन्नाथैः ॥४१॥ वोऽपि न युक्त इति। यत्र च प्रत्यपायोऽपि न प्रवति, सा हैवाऽर्थे मतान्तरमाह जैनी न भवतीति । अथवा तस्मादेतस्येष्टानिष्टफललकणस्योअसे न मोगिग च्चिय, एसा णामेण वंदणा जपणी ।। भयस्याभावोऽस्यां कथं बीजमिव बीजं जैनीत्वं, जैनी - जंतीइ फलं तं चिय, तीए ण उ अहिगयं किंचि ॥४॥ नर्थबीजम् । अथवा-कथं बीजं कथमपुनर्बन्धकादित्वं, तकि एके तावदियमनिष्फलेत्याहुः । अन्ये तु अपरे पुनराचार्याः वन्दनाजन्यार्थानर्थबीजम, अतो बीजाभावादेषा लौकिक्येसाकादनईफमतामपश्यन्तोऽस्याः प्राहुः-यदुत लौकिक्येबसा. वेति युक्तमेव । इति गाथार्थः॥४४॥ मान्यलोकसंबन्धिम्येष, न पुनर्जनी । एषाऽनन्तरोक्ता, अन्त्यमा इदमेव निगमयभाहकक्ष्यवन्दना । नन्वहद्वन्दनेतीयं प्रसिद्धा,न शिवादिवन्दनत्यतः तम्हा उ तदानासा, असा एस त्ति णायो ऐया। कथं नाईतीत्याह-नाम्ना अभिधानेनैव, न तु फलतः। बन्दना चै. मोसानासाणुगया, तदत्यनावा-णिश्रोगेणं ॥ ४५ ॥ त्यवन्दना,जैनी जिनसंबन्धिनी। अथ कथमिदमवसीयते इत्याह-यत इति वाक्यशेषः। यदिति यदेव तस्या लौकिकवन्दनायाः यस्मादस्याः प्रत्यपायाभावाज्जैनीत्वं नास्ति, तस्माकेतोः । तुशफलं साध्यं तदेव नान्यत्तस्या अन्त्यनजकद्वयगतजैनधन्दनायाः, ब्दोऽवधारणे । तस्य च प्रयोगो दशयिष्यते । तदानासा जनीन तु न पुनरधिकृतं प्रस्तुतं जिनवन्दनोचितं मोकादि । अथवा. सहशी,जिनादिशब्दानामुपायनादन्यैव बौकिक्यष, एषा मधिअधिकमर्गसतरं सौकिकवन्दनापेकयेति, किश्चिक्किमप्यपी. कृतदुर्वन्दना,तिशब्द उपप्रदर्शने,न्यायत उपपत्या, न्यायश्चानयोऽपीति गाथार्थः ॥४२॥ न्तरगाथोक्त एव , केया ज्ञातव्या, पुनः किंजूतेत्याह-स्वानाषानु गता असत्यवादान्विता । कथमित्याह-तदर्थे वन्दनाऽभिधेयएतस्यैवाचार्यान्तरमतस्यान्यनुज्ञानार्थमाह वस्तुनि, भावस्य सच्छुकानाद्यभ्यवसायस्यानियोगोऽव्यापारएयं पि जुज्ज च्चिय, तदणारंभाओं तप्फलं व जयो।। स्तदर्थभावानियोगः,तेन । यदा हि-"गणेणं मोणेणं झाणेणं" तप्पञ्चवायभावो, वि हंदि तत्तो ण जुत्त ति ॥ ३ ॥ इत्यादिपदानि तदर्थे भावमनियुजानः समुच्चारयति, तदा पतदप्यनन्तरोतमाचार्यान्तरमतेन कुवन्दनाया लौकिक मृषावाद पब स्यात् , ध्यानादीनामसंपादनात् । अथवा-तदत्वमपि , न केवलमस्मक्तमनिष्फलत्वमेव । युज्यत पच घटत थाभावाद्वन्दनाप्रयोजनाभावात्रियोगनावश्यतया, इति गाथाएव । तत्रोपपत्तिमाह-तदनारम्नाजैनबन्दनाऽनासेवनात् । अन्त्य यः॥४५॥ बन्दनाये हि अपुनर्बन्धकादिभावाभावाज्जैनवन्दनाया भनार एवं तावदन्त्यभाकद्वयगतवन्दना फलत उक्ता, अधाधभाकम्भ पव, तत्फलमिव जैनवन्दनाऽऽराधनाजन्यस्वगापवर्गसंपत्ति- बगतवन्दनाया अभव्यानां उलनताप्रतिपादनायाऽऽहक्षुषोपद्रवहान्यादिलकणफलमिव यतो यस्माद्धेतोः, तस्या | सुहफझजणणसजावा, चिंतामणिमाइए विणाजव्वा । जैनवन्दनाया अविधिवतायाः सकाशात्प्रत्यपाया उन्मादरोग- पावंति किं पुणेयं, परमं परमपयवीयं ति॥४६॥ धर्म सलक्षणा अनस्तित्प्रत्यपायाः, तेषां भावस्तत्प्रत्यपाय- शुजफलानामनिमतप्रयोजनानां, विशिष्टाच्युदयादीनां सुखभावः। सोऽपि, अपिशब्दादिष्टार्थभावोऽपि, हन्दीत्युपप्रदर्शने, लक्षणफसानां वा, जननमुत्पादनं,स्वभावः स्वरूपं येषां ते नथा, ततः कुवन्दनातः, अथवा-(तत्तो त्ति) तत एव जैनवन्दनाऽ.] तान चिन्तामण्यादिकानपिचिन्तारत्नप्रभृतिकानपि,मादिशब्दात ३३४ Page #1357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३३४) चेश्यवंदण थभिधानराजेन्द्रः। चेइयवंदण कल्पद्रुमादिपरिग्रहः । मकारस्त्वागमिकः । अपिशब्दार्थ तूत- मुग्धबुद्धयोऽपि तथैव प्रवर्तन्ते, प्रधानानुसारित्वात मार्गाणाम् । सर्द्धन वक्ष्यति, न नैव,अभव्या अयोग्याः, प्राप्नुवन्त्यासादय- ाह च-"जो उत्समेहि मग्गो, पढ़ो सो करोन सेसाणं। न्ति, किं पुनरिति पदमप्राप्तिविशेषद्योतकं,सुतरांन प्राप्नुवन्ती- पायरियम्मि जयते, तयणुचरो केण सीपज्जा" ॥१॥ स्यर्थः। एतां वन्दनाम, परमां प्रधानामाद्यनलकद्वयगताम, परम तथापदबीजं निर्वाणहेतुम् , इतिशब्दो हेत्वर्थः। तेन परमामेतां "जे जत्थ जया जश्या, बहुस्सुया चरणकरणसज्जुत्ता। परमपदबीजवादिति । समाप्त्यर्यो वाऽयमिति गाथार्थः ॥४६॥ जं ते समायरंती , आलंबणतिब्वसद्धाणं ॥ १॥" अभव्यास्ताबदिमां न प्राप्नुवन्ति , नव्या अपि न (जय त्ति) दुःषमादौ ( जश्यत्ति) दुर्भिक्कादाविति । तथा प्र. सर्व एवेति दर्शयन्नाद वृत्ताश्च ते बन्दनाराधनजन्यं हितमासादयन्ति,तद्विराधनाजन्यजव्वा वि एत्य णेया, जे आसन्ना ण जाइमेत्तेणं । प्रत्यपायेभ्यश्च मोचिता भवन्तीति । अयं चोपदेशोऽसमञ्जस तया स्वयं वन्दनां विदधानांस्तथाऽनवाप्तापुनबन्धकाद्यवस्थेजमणा सुए जणियं, एयं ण उ इटफलजणगं ।।४७॥ ज्यस्तथाविधजिज्ञासादितलिङ्गविकलेज्यो जनेभ्यस्तां प्रयच्चभव्या अपि योग्या अपि , अभव्यास्तावदयोग्या एवेत्यपिश- तः सूरीन वीक्ष्याचार्येण विहितः। एवं हि तत्प्रवृत्तौ तेषादार्थः। अत्र परमवन्दनाप्राप्ती, झेया ज्ञातव्याः, य एव केचिदा. मन्येषां चाऽनर्थोऽसमञ्जसक्रियाजन्या च शासनाऽपम्राजना सन्नाः , परमपदस्येति गम्यम् । व्यतिरेकमाह-न जातिमात्रेण मा भूदित्यन्निप्रायेण । इति गाथार्थः ॥४ न जात्यैव, भव्या इति प्रक्रमः । कुत एतदेवमित्याह-यद्यस्मा उपदेशशेषमाददनादिकालीनं,श्रुते सिद्धान्ते,भणितमुक्तम्, पतद्भव्यत्वं, न तुन तिव्वगिलाणादीण, सजदाणाइया पाया। पुनर्विद्यमानमपीष्टफलजनकमभिमतार्थसाधकं, मोकप्रापकमित्यर्थः । सर्वभव्यानां निर्वाणाप्राप्तेरिति गाथार्थः॥४७॥ दहन्वाइँ हं खलु, कुग्गहविरहेण धीरेहिं ॥५०॥ तत्र ये तावदेतां विधिना सेवन्ते, तद्विधिं वा श्रद्दध. टीका सुगमा । पञ्चा० ३ विव०। ति , ते आसन्नालव्याः, ये तु तान द्विषन्ति (३७ ) अत्र हीरविजयसूरिकृतप्रश्नोत्तरकदम्बकम्तेऽप्यासन्ना एवेति दर्शयन्नाह स्वकीयेतरकल्पे देवाश्चैत्यानि वन्दन्ते,नवा ?। देवा यदा स्व कीयेतरकल्पे यान्ति, तदा तत्रत्यचैत्पवन्दननिषेधो कातो नाविहि अपनोसो जेसि, आसप्ला ते वि सुष्पित्त ति।। स्तीति ।ही०४ प्रका। खुदमिगाणं पुण सु-कदेसणा सीहणायसमा ॥४०॥ । चैत्यालये चैत्यवन्दनकरणम् ईर्यापथिकीप्रतिक्रमणपुरस्तविधौ विधाने सम्यकरणे, वन्दनाया इति प्रक्रमः । प्ररूप्यमाणे रमेव, अन्यथाऽपि धा? चैत्यालये र्यापथिकीपुरस्सरं चैत्यअप्रहेषोऽमत्सरो, माध्यस्थ्यं भवति । येषां भव्यानाम , आस- न्दनकरणविषये एकान्तो नास्तीति ज्ञायते । ही० ३ प्रका० । ना निकटवर्तिनः, परमपदस्येतिगम्यमातेऽपि,न केवसमासेवा- शीतोष्णकालयोगृहस्थानां जिनालये देववन्दनं काजोद्धरणश्रद्धानवन्त एवेति । कुत पवमित्याह-शुफिप्राप्ता अवाप्तक्लिष्ट- पूर्वकं, किंवा प्रमार्जनेन?। शीतोष्णकालयोहस्थानां जिनाकर्मक्षयोपशमा ति कृत्वा , न हि क्लिष्टकर्मणां मार्ग लये देववन्दननिमित्त काजोकरणस्य नियमो नास्ति, तेन यदि प्रति माध्यस्थ्यमपि जायते । एतदेव दर्शयति-कुष्मृगाणां कश्चित् करोति तदा करोतु । ही. २ प्रका० । किलष्टक सत्वहरिणानां, पुनःशब्दो विशेषणार्थः, शुरुदेशना गृहस्थाचारधरो यतिवेषवान् प्रतिक्रमणं कर्तुकामः किं विशुरूप्रज्ञापना, विधिविषय उपदेश इत्यर्थः । सिंहनादसमा सामायिकग्रहणपूर्वकं करोति , अथवा चैत्यवन्दनतः । गृहकेशरिशब्दबुख्या, त्रासहेतुत्वादनिष्टेत्यर्थः। इति गाथार्थः ॥४॥ स्थाचारधरो यतिवेषवान् मुख्यवृत्या सामायिकग्रहणं कृत्वा एवं वन्दनां प्रति विध्यविध्योः फलमुपदय विधेर्विधे- प्रतिक्रमणं करोति ॥ ही०प्रका० । यतामुपदिशन्नाह सप्तदशभेदपूजादौ श्रीजिनगृहे चैत्यवन्दनं कृत्वा यदोपवि. श्यते तदा किमीर्यापथिकीप्रतिक्रमणपूर्वकमेवान्यथा वेति प्र. आलोचिऊण एवं , संतं पुन्वावरेण सूरिहिं । इने, उत्तरम्-मुहर्ताद्यवस्थानसंजावनायामर्यापथिकी प्रतिक्रम्य. विहिजत्तो कायव्वो, मुघाण हियट्ठया सम्मं ॥४॥ ते, अन्यथा तु यथाऽवसरामिति। ३६० प्र० सेन० ३ द्वा०। आलोच्य विमृश्य, एवं पूर्वोक्तन्यायेन , तन्त्रं प्रवचनं , कथ- | श्राधिका जिनालये चैत्यवन्दनां विधायोव स्थिता सत्येकनममित्याह-पूर्वश्च तन्त्रस्य पूर्वो भागोऽपरश्च तस्यैवापरो स्कारकायोत्सर्ग कृत्वा चैकां स्तुति कथयत्येतद्विधिः कास्तीति नागः , पूर्वापरं, तेन, सप्तम्यर्थे वा पनप्रत्यये सति पूर्वपरेणेति प्रश्ने, उत्तरम्-पतद्विधिर्भाष्यावचूरिमध्ये चैत्यवन्दनाधिकारे स्यात, पूर्वापरभागयोरित्यर्थः, तयोरविरोधेनेति यावत् । अनेन | कथितोऽस्ति , परमेतद्विधिकरणप्रवृत्तिरघुना भ चालोचनमात्रस्य व्यवच्छेदः, तस्य तत्त्वाववोधासमर्थत्वादिति न दृश्यन इति । २६ प्र० । सेन०४ उद्वा० । सूरिभिराचार्य, पण्डितैर्वा , विधौ विधाने वन्दनागते बेला. अथ पं० सत्यसौभाग्यग० कृतप्रश्नः , तमुत्तरं च । यथाद्याराधनरूपे, यत्न उद्यमो विधियत्नः, स कर्तव्यो विधातव्यः । उत्कृष्टचैत्यवन्दनविधावुत्तरोत्तरं स्तुतयो वर्णैर्वृद्धा विधीयन्ते, विमुक्तालस्यैः स्वयं वन्दना कार्या , अन्यैरपि विधिनैव न त्वल्पा इति रूढिः सत्याऽसत्या वेति प्रश्ने, उत्तरम्-उत्कृष्टचैसा विधापयितव्या इत्यर्थः। किमर्थमेतदेवमित्याह-मुग्धानाम- त्यवन्दनविधावुत्तरोत्तरं स्तुतयः प्रायो वर्णैर्वृदा एव विधेया व्युत्पन्नबुद्धीनाम, हितं श्रेयः , तद्रूपो योऽर्थो वस्तु स हितार्थः, इति परम्परा वर्तते, तेन रूढिः सत्यैवावसीयते, परम्परामूलं तु तस्मै हितार्थाय । सम्यगविपरीततया, यदा हि गीतार्था विधि- नमोऽस्तु वर्धमानायेत्यस्याधिकारे " तानो थुईनो एगना स्वयं वन्दनां विदधति , अन्यांश्च तथैव विधापयन्ति, तदा सिलोगादिवकृतिश्राओ पयक्खरादीहि वा सरेण वा वळूण Page #1358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३३५) चेश्यवंदण अनिधानराजेन्डः। चेयकड तिथि भणिऊणं " इत्याद्यावश्यकचर्यकरदर्शनमिति सं- चेश्यहर-चैत्यगृह-न० । देवसदने, (जी०) जिनमन्दिरे, जी० भाव्यत इति । ४०२०। सेन० ३ उल्ला। १प्रतिका चश्यवास-चत्यवास-पु० जनालय, बतानामावास, पशचेट्ठण-स्थान-नाअवस्थाने, व्य०४ उ०। अथ बद्यपि स्वावस्थानेनावरक्तितैनानुज्ञातं, तथाऽपि सत्र चेट्टा-चेष्टा-स्त्री० । क्रियायाम, पञ्चा०४ विव० । व्यापारकरप्रासुकैयणीयस्तत्र निवसतां को दोष इत्याह णे, षो०७ बिव० । पराक्रमे, पं० सं०५ द्वार। सुग्गंधमलिणवत्थ-स्स खेलसंघाणजजुत्तस्स । जिणजवणे नो कप्पड़, जइणो प्रासायणाहेश्रो॥ चेम-चेट-पुं० । पादमूलिके, औ० । म० । वासे, कल्प० ३ पुष्टो गन्धो दुरभिगन्धो यस्यासौ दुर्गन्धः, मसिनानि वस्राणि क्षण । कुमारके, का० १ ० २ ०। यस्यासौ मलिनवस्त्रः, दुर्गन्धश्चासौ मनिमवश्वपुर्गन्धमति- चेमग-चेटक-पुं० । देहबकुलजाते स्वनामख्याते वैशालिकानवस्त्रः,तस्य खेलो निष्ठीवन, सिवानो नासिकामलम, जल्लो| पुराधिपती, मा०क०। प्रा० चू। विशे। कल्प० । ('से. देहप्रभवपकः, एनियुक्तस्य समन्वितस्य, जिनभवने तीर्थक- जिय' शब्दे सर्वा वक्तन्यता)(चेलणा भेणिकस्य भार्या बभूव इमनि, न कल्पते, अवस्थानं कर्तुमिति शेषः। कस्यत्याह-बतेः। चेति 'चेलणा' शब्दे १३३६पृष्ठे वक्ष्यते) "समणे भगवं महाबीरे साधो, न तु गृहस्थस्य, तस्य स्वत एव गृहसत्वेन नि-1 भगवमो माया चेमगस्स भगिणी भोई।" माचू० १०। वासासंभवात, इतरस्य तु प्रवृत्तिदर्शनतो निषिध्यते इति। चेटकेन इवविद्वौ रक्षिती, कृषिकेन सह रथमुशलमहाकपटकिमर्थमित्वाह-पाशातनाहेतोराशातना सर्वधर्महानिर्माभूदि-| कशिलासंग्रामनामानी संग्रामा कृतौ । भ०७०६ ति । अयमत्र भावार्थ:-यस्य हि भगवतो चैत्यगृहे देवा प्रा. शातनाभीकतया संवृतात्मानो विशन्ति, तत्र कथं मसावित्र | चेमरूव-चेटरूप-त्रि० । कुमारकल्पे, ग.१ उ०। शरीराणां मुखदहेप्रकाबनारहिताना सदोधि:समीरण-चेमिय-चेषित-नाचेष्टायाम् , मौकासकाममङ्गप्रत्यङ्गोपाप्रचारवतां स्नानताम्बूलविलेपभोगराहतानां निबसितुं यु- ङ्गदर्शनादौ , जी. ३ प्रति। ज्यत इति , अक्तिश्च कथं कृता स्यादिति । अत एवोक्तम् चेमियाचकवाल-चेटिकाचक्रवाल-ज० । दासीसमूहे, "मि"जह वि न पाहाकम्म, कत्तिकयं तह विवज्जियं ते हु । भत्ती खलु कोह कया,इहरा पासायणा परमा ॥१॥" ननु यद्युत्पन्न याचकवालबरिसघरधेरकंचुइज्जमहत्तरयविंदपरिखित्ता " सकलावरणविरहितकेबलवलावलोकितविश्वविश्वस्वभावानां चेटीचक्रवासेनाऽर्थात स्वदेशसम्भवेन वर्षधराणां पतिकरणेन भावाईतामवग्रहे सर्बसाधूनां मिर्जराऽस्ति, तरिक स्थापनाई।। नपुंसकीकृतानामन्तःपुरमहलकानाम । न० श० ३३ तामयग्रहे तिष्ठतां कर्मबन्ध इति प्रयोगश्चान्वायुज्यते । स्था उ० । दशा। पनाऽर्हदवप्रहे यतेर्निवासः कर्तुं निर्जरासंभवात, भावाईदवन- चेडी-चेटी-स्त्री०। दास्याम , आ० म०प्र० । बाले, दे० ना० हनिवासिसाधुवदित्यत्रोच्यते । यदुक्तं मावाईतामित्यादि , | ३ वर्ग। तत्रान्य पव भावार्हतां कल्पः, स्थापनार्हतामन्य एवेति । तथा जगवतां जावाहतां सर्वसम्बरारूढत्वादेव सुसाधव एव स चेत्त-चैत्र-पुं० । चैत्रीपूर्णिमाघटिते मासे, चित्रानकवान्विता मस्तमपि वैयावृत्यं प्रकुर्वन्ति,भक्तपानादिकं च प्रयच्छन्ति,न तु पूर्णिमा चैत्री। चित्रान्वितायां पूर्णिमायाममायां च । स्त्री०।जं. पूर्णिमा चैत्री । चित्रान्वितायां पूणि गृहस्थाः, तथा तन्निमित्तनिवासादिकं न विधीयते । अन्य. ७ वक्षः। चं० प्र० । “चेत्तस्स पुन्निमाए पउमाभजिणस्स च्च-गृहस्था अपि पूजोपचारकृते तेषां वस्त्राभरणपुष्पविले. चित्ताहि" प्रा०म०प्र०। पनस्नानं कुर्वन्ति श्रतो भावाईकल्पत्वान्निषेधाभावाच्च न-त्रि। शिल्पिचित्तगते, पो०० विच०। युक्तमेव भावादवग्रहावस्थानमातथा यमुक्तम-प्रयोगश्चेत्यादि, तत्र निर्जरातोरसिद्धत्वात् । असिकता चास्य स्थापनाईक-चेत्तगण-चैत्रगण-पुं०। चैत्रगच्छे, वृ०६ उ०। ल्पजेदात तथा, यथा हि साघवो बैयावृत्यादिकं प्रत्यनधिका- "श्रीजैनशासननजस्तलतिग्मरस्मिः, रिणः, एवं तदवग्रहावस्थानं प्रत्यपि, शास्त्रानिषिद्धाचरणाच्च । श्रीपद्मचन्द्रकुलपविकाशकारी। यत उक्तम्-" देवस्स य परिभोगो, अणंतजम्मे च दारुणवि. स्वज्योतिरावृतदिगम्बरडम्बरोऽन्त, घागो। जं देवभोगभूमिसुवुझी न हु बट्ट चरित्ते ॥१॥" प्रयो- श्रीमान् धनेश्वरगुरुः प्रथितः पृथिव्याम ॥ ७ ॥ गश्च जिनभवनावस्थानं साधूनामयुक्तमेवेति, पापहेतुत्वात्, श्रीमच्चैत्रपुरैकमएमनमहावीरप्रतिष्ठाकृतसाबद्यानुष्ठानवदिति गाथार्थः ॥ दर्श० ३ तस्व० । स्तस्माच्चैत्रपुरप्रबोधतरणिः श्रीचैत्रगच्चोऽजनि" ॥ चेश्यसभिवेस-चैत्यसन्निवेस-पुं०। स्वनामख्याते सनिवेशे। ०६ उ० । ग0 । यत्राष्टमे नवे वीरजिनः षष्टिलक्कपूर्वायुग्मियोतो नाम चेय-चेतस-न। अन्तःकरणे, दश०५०१० । मनसि, विप्रतिदएमी भूत्वा मृतो नवमे सुरो जातः । कल्प० | स्था० ०२ न.। २ क्षण । चेयकम-चेतःकृत-न० । जीवस्वरूपनूतया चेतनया बद्ध, चेयसिहराइ-चैत्यशिखरादि-त्रि०। जिनभवनशिखरकलश- जीवानां किं चेतःकृतानि कर्माणि, अचेत कृतानि कर्माध्वजप्रभृतिषु, पश्चा० १५ विव०। णि वा? । भ०। Page #1359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेयकड अनिधानराजेन्द्रः। चोदग जीवा गं ते ! कि चेयकमा कम्मा कजंति, अचेयकमा चेल्लणा-चेरणा-स्त्री० । चेटकराजस्य हितरि, प्रा० चू० ४ कम्मा कवि ?| गोयमा ! जीवा णं चेयकमा कम्मा क- म० । दश । भोणिकमहाराजस्य भार्यायाम, मा० म०प्र०। ज्जति, णो अचेयकडा कम्मा कज्जति । चेरणापास-चेरणापार्श्व-पुं० टिपुरीनगर्वा दकिणे स्वनामपू"जीवा गं" इत्यादि । (चेयकमा कम्म सि)चेतश्चैतन्यं, जितपाश्वनाथप्रतिमायाम, ती०१०। (तत्कल्पः 'टिपुरी' शम्दे वक्ष्यते) जीवस्वरूपभूतचेतनेत्यर्थः । तेन कृतानि बसानि चेताकृतानि चेहय-चेवक-पुं०।भारण्ये जीवविशेषे, भाचा०२ भु०१० कर्माणि । (कजंति सि) भवन्ति । भ०१६ २०२०।। ५उादीप्यमाने, ती० ३३ कल्प । चेयण-चेतन-पुं० । सचित्ते, म्य०१०। सत्र। जीवे, स्था० चेव-चैव-मन्य० । च-पष-समासः । समुषयमात्रे, भाग० ४ ग०४०। विशे०। (जूतधर्म एव चैतन्यामिति लौकायति १ उदर्श० । पञ्चा।. कामां मतम् 'माता' शब्दे द्वितीयभागे १०० पृष्ठे उपपाच चोचन-चोदक-त्रिका प्रेरके, अनु०। खरिमतम) |चोज्जत-चोद्यमान-त्रि०ा परेण पृच्च्यमाने, सूत्र. १७०३ चेयणत-चेतनत्व-ना मनसि अनुभूती, व्या० ११ मध्या।। म०३ उ०। शिष्यमाणे, व्य० ७ उ०। नोद्यमाने, सूत्र०१ श्रु० चेयणा-चेतना-स्त्री० । संज्ञाने, उपयोगे, प्रवधाने , आव० ६/ ३१०३ उ०। अ०। ("आता" शब्द हितीयभागे १७० पृष्ठे अभौतिकस्वसि-चोय-चोदित-त्रि० । प्रेरिते, सूत्र०१७०५०१०। उ. द्विरुक्ता) करणे च । अत एव "सेज्जं ठाणं वा जदि चेश्य"| ताबिके, दश०१०२ उ०। यत्र चेतयते, 'चिती' संझाने, अनुभवरूपतया विजानाति, | चोक्ख-चोक्त-त्रि०। शुद्ध, का० १ ० ० शूचीकृते, वृ० बेदयते इत्यर्थः । अथवा-चेतयते करोति इति, धातनामनेका. र्थत्वात् । प्रा० म०वि०। प्राचा। १०। परमशुचीभूते, कल्प०५ कण । अपनीताशुचिकव्ये, भ०१० ३३००। श्रशुचिरूव्यापगमात् (न०११ श०६ चेया-चैतन्य-न० । साकारनिराकारोपयोगे, व्या १५ १०) विवक्तिमलापनयनात (औ०) पशिक्थाद्यपनयनेन अध्या० । (भ०३श०१०। बाविपा०ामा००) पवित्रे, रा०॥ चेर-चर्य-नाचरणे,नि चु०१०। ('बंभचेर' शब्दे व्याख्या) "घायंते चोक्ने परमसुनुए" विमलदेहनेपथ्ये, "अम्हे चोक्खा चोक्खायारा सुई सुईसमायारा औ० । चेल-चैल-न० । बने, प्राव. १ मा नि० पू० । दश । प्रमापाचा । स्था। वृ० । उत्त।का। मौ०। सूत्रः। चोक्खवत्थ-चोकवस्त्र-ना रजकपादितीवोज्ज्वलाकारितव. कल्पादो, व्य०७०। खे. बु.१ उ०। चेनकम-चैलकर्ण-पुं० । पत्रकणे, प्राचा०२७०१ म०७ ३० । चोक्खा-चोका-स्त्री० । स्वनामख्यातायां परिवाजिकायाम, या दि दानशाचधानाख्यातवती तीर्थकृमछिपराजिता काम्पिचेलकरण-चैमकरण-पुं०। चैलैकदेशे, दश० ४० । पनगरे जितशत्रु राजानं तवं संदिष्टषती । का० अ० । चेलगोल-चैलगोल-न। बस्त्रात्मके कन्दुके, सूत्र. १४० ('मल्लि' शन्देऽस्या कथा) ४ ० २३० । चोक्खायार-चोक्काचार-त्रि० । निरषद्यव्यवहारे, मौ०। चेन-चैझार्थ-नापसाये , वृ०३ उ०। चोग्गुण-चतुर्गुण-त्रि० । “न वा मयूखलवणचतुर्गुणचतुर्दश चतुर्षारसुकुमारकुतूहसोखसोलूखले"॥८।१।१७१ इति चेलपाय-चैनपात्र-न० । वनानिर्मितपात्रे, माचा० २ ० ।। घा प्रोत् । चतुरावृत्तेऽर्थे, प्रा०१ पाद । अ० १ ०० । चोजपसंगि (प)-चौर्यप्रसद्भिन्न-त्रिका चौर्यप्रशके, का०१ चेलपेमा-चैलपेटा-स्त्री। वनमजूषायाम, शा०१९०१०। ६०१८ मा नि० । तं०। चोप-चौर्ण-त्रि० । कर्मणि, “कम्मं तिचा खहं ति पा चोपं चेलपोलिया-चैलपोहलिका-श्री०। चैलानि, वस्त्राणि तेषां तिचा कसुसं ति का बेज्जंति वा घेरं तिषा।" नि००२० पोहलिका श्व सुसंगृहीताः सुरक्षिताः। तस्याम, दशा०१०म० | Bाकाष्ठहारादिके अधमकर्मणि, सूत्र० २६०२०। ०काष्ठहासावक अधमकमाण, सूत्र चोचीस-चतुर्विंशव-स्त्री० । चतुरधिकायां त्रिंशत्संख्यायाम, चेझुप-देशी-मुशले, दे० ना.३ वर्ग। "वोत्तीसं बुद्धबयणातिसेसा पमत्ता"।रा। चेमक्खेव-चैलोक्वेप-पुं० । तीर्थकद्भक्तिकार्यदर्शनादेवकृते प्र.चोत्थ-चतर्थ-त्रि०। “नचा मयूखलवणचतुर्गुणचतुर्दशचतुमोदभरेण बस्त्राणामूर्द्धक्केपे, रा०। आ० का कल्पस्थाारसकमारकुतहसावलोखले" ॥८।१।१७१॥ ति सूत्रेण चेद्वअ-चेलक-पुं० । शिष्ये, " चेल्लो भणति मिच्चा मि पा प्रोत्वम् । चतुःसंख्यापूरणे, प्रा० १ पाद । उक्कड " । दश० १ ० । “चेल्लुगं रिंदेजा" । प्रा० चोदग-चोदक-त्रि०। पृच्छके, "आयरिश्रो भण-हे चोदग। चू०४ अ०। अकाने तुमं पदंतो प्रतिसिरिमिच्छसि ?," नि० चू०१ उ०। Page #1360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोपुवि (ए) चोदम चतुर्दशपूर्विन् पुं० सम्पूर्ण भुरे, उ० ५ भ० । आ० म० । नं० । स्था० नि० चू०। ( 'चउदसपुवि" शब्दे जाने २०४१ पृष्ठे वृत्तमुतम योद्दसमजत्त- चतुर्दशजक्त5- न० 1 उपवासषट्के, पञ्चा०१६वेव० घोसी चतुर्दशी स्त्री० "नया मयूखलचणचतुर्गुणचतुर्थ - - । चतुर्दशचतुरसुकुमारकुतूह लोदूख लोलूखले " | ८१ । १७१ ॥ इति सूत्रेण वा ओत् । श्रमायाः पूर्णिमायाश्च पूर्वतिथी प्रा०१ पादः चोपमाणे (प) प्रोप्यरुः" ॥८॥ ४ । १११ । इति नः 'चोप्पड' आदेशः । "खोप्परु " प्रकृते । प्रा० ४ पाद । । - चोपाल चतुष्पाट १० मतवार ० २ ० जी० ( १३३७ ) निधान राजेन्द्रः । नि० चू० । चोप-स्व-श्री० । हरीरूपे वृत्तावयचे, " खोयं तु होत । हीरच्चलीरूपे हीरो सगलं पुण तस्स बाहिरा बल्ली" । नि० चु० १६ उ० ! शা० । प्र० । यृ० । प्रनः । जं० । गन्धद्रव्यविशेषे, प्रा० म० प्र० । अनु० जी० रा० । 'बोश्रो' उपलविशेषे, अनु० । चोपन चोदक- पुं० त्रिप्रचोदयतीति चोदा। मं० पीक्षितेक्षुच्छोटिके, घाचा० २ ० १ ० १८३० । उपपक्षप्रश्नकारिणि, व्य० १३० । सूत्र० । गन्धद्रव्यविशेषे, जी०३ प्रति० ॥ त्वक - न० । बल्ल्याम श्राचा० २ ० ७ ०२४० । चोयणा-चोदना-स्त्री० । प्रेरणे, ध०२ अधि० । प्रोत्साह करणे, व्य० १ उ० । श्रा० म० । चक्रवालसामाचारी हापयतो नोदनायाम्, पृ० १ ० । वैदिक विधिवाक्ये, सम्म० १ काण्ड । (" चोदनालक्षणो धर्मः" इति मीमांसका 'सह' शब्दे निराकरिष्यते ) चोयखिन्नाससार चायनिर्याससार पुं० बोयनामगन्धरसप्रधाने आसवे, जी० १ प्रति० । अं० । चोयपुम - चोय पुट - पुं० । चोयनामगन्धद्रव्यपुढे, रा० । पत्रादिमये त्वम्नाजने, झा० १ श्रु० १७ अ० । चोपाल चतुषत्वारिंशत् श्री० चतुरधिकायां चत्वारिंशति, -- 1 चोर-चौर- पुं० । स्तेने, घ०२ अधि० प्रश्न० । सूत्र० । गवादिहारिणि ० ० चीरशब्दोऽम्यत्र तस्करे रूढो दाक्षिणात्या नामोदने, स्या० । अनु० । चोरगाह चौरग्राह-पुं० चौरसाद के राजपुरुषे, ०१ आश्र० द्वार । चोरद-चौरद-पुं० [हरीतकयनस्पति, ०१ ०द्वा चोरपडर चौरप्रचुर वि० 1 दोषने पत्र याची उछ म्ति । व्य० ३ ० । चोरण्य प्रोग- चौरप्रयोग पुं० श्रीराणां प्रयोजनं व्यापारणं चौप्रयोगः । इरस पूषमिति हरणक्रियायाः प्ररेणा अथवा ३३५ बोलपट्ट राणां प्रयोग उपकरणानि कुत्सारिकारिकादीनि तेषामर्पणं विक्रयणं वा उपचाराश्चौरप्रयोगः । किमधुना यूयं निर्व्यापारास्तिष्ठथ । यदि भवतां भोजनादि नास्ति, तद्ददामि भयदानीतमोषस्य वा यदि विकापको न विद्यते सा fahrये इत्येवं वचनैश्वौराणां व्यापारणे, प्रब० ६ द्वार । बोरसंघ-चौरसस्य ५० पदातिरूपचौरसमूहे. प्र० भा० बापू जावनलोजनादिलक्षणेन बालानां धूमाकर्म सि सदा प्रवृत्तम् । आ० म० प्र० । प्रज्ञा० २ पद । - चोयासव - चोयासव - पुं० । चोयसारनिष्पन्ने आसवे, जी० ३ चोलपट्ट-चोलपट्ट पुं० । चोलस्य पुरुषचिह्नस्य पट्टः प्रावरण प्रति० । वस्त्र चोलपट्टः । प्रव० । द्वार । चोर-चौराक पुं० [स्वनामख्याते सनिवेशे यश प्रतिमास्थि- । यत्र तभगवतस्तपःप्रभाबाद गोशालो मएरूपं ददाह । प्र०म०द्वि चोराणीय चौरानीत- त्रि० चैौरैरानीते कनकबलनादी, तच्च मूल्येन मुधिकया था प्रनं एतस्तृतीयासु प्रब० ६ द्वार । । | चोरि-चौर्य - १० "स्यात् प्रभ्यवैषयसमेषु यातु" ICI २। १०७ । इति यत्पूर्व इत् । प्रा० ४ पाद । स्तेये, स्था० ३टा० ४ ० । श्रदन्तादाने, स्था०१ वा०१ स० । चोरिक - चौरिक्य- न० । चोरणं चौरिका, सैव चौरिक्यम् । प्रथमे गौणादन्तादाने, प्रश्न० ३ श्र० द्वार । चोरिय- चौरिक - त्रि० । परव्यापहारके, प्रव० ४१ द्वार ० म० । प्रणिधिपुरुषे, प्र० १ ० द्वार । चोरिया - चोरिका - बी० । चोरणे, प्रश्न० १ अभ० द्वार | चोल-चोम-पुं० । देशभेदे, सदूराज्यसम्पादके ऋषनदेवपुत्रे, कल्प० ७ कृण । ती० । चोल - पुं० । पुरुषविले. प्रव० ६१ द्वार । घ० । चोलम-चोलक ५० मोपममुडने २ श्राश्र० द्वार । श्रा० म० । सम्पति थूलद्वारमाह विदिशा चूलाकम्पं वाला चोलयं नाम । मानामविधिना जनप्रतिधिमुद्रादी इदानीोपप्रमाणप्रतिपादनायाऽऽह गुणो चलग्गुणो वा त्यो चरंस चोलपट्टो । रजुवाण्डा वा, सहे धुलाम्म य विभासा ||२०|| द्विगुणश्चतुर्गुणो वा कृतः सन् यथा दस्तप्रमाणश्चतुरस्रश्च भवति तथा बोलस्य पुरुषविहस्य पट्ट प्रावरणपोष पट्टः कार्यः । किमर्थे द्विगुणश्चतुर्गुणो वेत्याह- (थेरजुषापति) कमेण स्थविरायां युगं च साधूनामयप्र योजना स्थविराणां हि तदिन्द्रियस्य वारणानां च चतुस्तश्योलका करणीय इति भावः । ( सण्डे युद्धम्मिय विनास ति ) लक्षणे स्यू बोलपट्टे विभाषा विविध भाषा, अर्थ मेदो-त Page #1361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३८ ) अभिधान राजेन्द्रः । चोलपट्ट स्थविराणां लक्ष्णः करणीयः तदिन्द्रियस्य स्पर्शन बोलपट्ट स्योपघाताजावात्, यूनां तु स्थूल इति । प्रव० ६१ घर । किमर्थमसौ चोलपट्टकः क्रियत इत्यत श्राड्वेव्व वाउमेवा, हियए अइख पज्जणे चैव । सिंहत्या, सिंगुदयडा य पट्टो उ ॥ ४५ ॥ यस्य साधोः प्रजननं वैक्रियं भवति, विकृतमित्यर्थः । यथा दाक्तिणात्यपुरुषाणां चोयार्थे विध्यते प्रजननं, तश्च विरुतं भवति । ततश्च तत्प्रसादनार्थमनुग्रहाय चोलपट्टकः क्रियते तथा अप्रावृते कश्चित् वातिको भवति, वातेन तत्प्रजनम उच्छशं भवति, ततश्च तदनुग्रहाय अनुज्ञातः । तथाहीको लज्जालुः कश्चिद्भवति तदर्थे ते ( खद्धं ति ) वृहत्प्र माणं स्वनावेनैव कस्यचित् प्रयोजनं भवति । ततश्चैतेषामनुग्रहार्थे, तथा लिङ्गोदयार्थे कदाचित स्त्रियं वा लिङ्गश्योदयो भवति । अथवा तस्या एव स्त्रिया लिङ्गं दृष्ट्वा उदयश्च लिङ्गस्य भवति, तं प्रति श्रभिलाषो भवतीत्यर्थः । चोच्चार ततश्चैतेषामनुग्रहार्थं चोलपट्टकग्रहणमुपदिष्टम ॥४५॥ ओघ० । ध० । प्रश्नः । श्रचा० । पं०व० । चोबुक चौलुक्य पुं०: स्वनामख्याते वंशे, यत्र श्रीकुमारपालादयो जझिरे । ती० ५ कल्प ! चोलो - देशी- वामने, दे० ना० ३ वर्ग । चोलोवणग- चौलोपनक- न० । चूडाधारणे, न० ११ श०११४० ॥ चोलग चोलक पुं०। परिपाटी भोजने, उत्त० ३ श्र० । श्रा० म० मानुषत्वत्वे चोलकदृष्टान्तः । तत्र चोल्लको ब्रह्मदत्तचऋर्तिमित्र कल्याणभोजनम् । श्र० म० द्वि० । चोवतरि - चतुःसप्तति - स्त्री० । चतुराधेकसप्ततिसंख्यायाम्, स० ७२ सम० । चोव्बार चतुर्वार-पुं० । “न वा मयूवलवणचतुर्गुणचतुर्थचतुर्द चतुर्वार सुकुमार कुतूहलोदूख लोलूखले ॥ ८ ॥ १ । १७१ ॥ इति वा श्रोत् । चतुरावृत्ते, प्रा० १ पाद । concocetoo ********** इति श्रीमत्सौधर्म बृहत्तपागच्छीय- कलिकालसर्वज्ञकल्प श्रीमहारक- जैन श्वेताम्बराचार्य श्री श्री १००८ श्री विजयराजेन्द्रसूरिविरचिते निधान राजेन्द्रे चकारादिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् । For Private Personal Use Only शुः गु Page #1362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छकार (१३३) अभिधानराजेन्सः । छनमत्य छद्मम्धपयार्याः “निन्थयर" शब्दे वन्यन्ने ) (पञ्चभिः स्थान: छमस्थः परीषहं सहते इनि “परिसह "शः वायते) षट् स्थानानि झस्था न जानातिउहाणाई उउमत्थे मबजावणं जाणE, पाम:। न जहाधम्मत्यिकायमधम्माथिकायं ग्रागामं जीवमसम्पडिवई परमाणुपोग्गलं सई, एयाणि चेव उप्पामणाणदंमणधरे अ. रहा जिणे जाव मव्वजावेण जाण, पामः । त जहा धम्मत्यिगायं जाव सदं ॥ उ-उ-पुं० ।-कः । उदने , सपें, छागे, शक्तिधरे, उदे , सूते, | है । बदन , सप, छागे, शक्तिधर, उद , सूते, उद्मस्थो विशिष्टावध्यादिविकलो न स्वकेचली, यनो यद्यप्रवाले, मन्त्रस्य विभागे , अकरविभागे, आच्छादने, वलित्वे पि धर्माधर्माकाशान्यदारीरं जीव च परमावधिन जानाति, नच । न० । नित्ये, निर्मले च। त्रि० । एका० । सूर्ये, सोगे, नैर्म- थाऽपि परमाणु शब्दी जानात्येव, रूपित्वात्तयोः, रूपिविषयल्ये ,दे, स्वच्छ, ज्ञातरि, छन्दानुवर्तिनि, पुं०। निम्नगायाम , स्वाच्चाबधेरिति । एतच्च सूत्र सविपर्ययं प्राग व्याख्यानप्रायगिरायाम, स्त्री०। एका० । “उत्तिय दोसाण गयणे हो" मेव, इति छमस्थस्य धर्मास्तिकायादिपु हानशक्तिनास्तीत्युश्रा०म० द्वि० ।'' इत्ययं वर्णो दोषाणामसंयमयोगलकणा- कम । स्था०६०। नामाच्चादने भवति । आमा द्वि०।दनकर्तरि, तरसे, त्रिका छद्मस्थः सर्वभावेन सप्त स्थानानि न जानातिगृहे, न०। वाच सत्त घाणा उनपत्ये सम्बनावेणं न जाण, 7 पासह । षट्-त्रि० । एकाधिकपञ्चसंख्यायाम, ६० ६ उ० । “छराह तं जहा-धम्मत्यिकार्य अहम्मस्थिकार्य आगासत्यिकार्य मासाणं । "ज० १ ० ८३०।। जीवं असरीरं परमाणपुग्गलं सई गंधं, एयाणि चे उपछ-कृत-न० । “छोऽदयादौ"||२१७॥ इति कस्य । अनाणे० जाच जाणइ, पासइ । तं जहा-धम्मत्यिकायं जाव वणे,प्रा०२ पाद । गंधं । स्था०७०। अ-वयित-त्रि० । कयमापने, "गेऽक्ष्यादौ"।८।२।१७। सप्तभिः स्थानहेतुभूतैश्च छद्मस्थं विजानीयात्इति क्षस्य : प्रा० २ पाद । सत्तहिं गणेहिं उउमत्थं जाणेज्जा। तं जहा-पाणे अबइपुत्त-मायापुत्र-पुं० । छायापुते, सो प्रतिष्ठाने नरके उत्पन्नः। वाएत्ता जवइ, मुसं विदित्ता नव, अदिन्नमाइत्ता भवः, जी० ३गतिः । सद्दफरिसरसरूवगंधे आसदेत्ता भवइ, पुयासकारमए उवूछनम-उधन्-न। बादयतीति छद्म । गदयति ज्ञानादिकं गु हेत्ता भवा: इमं सावजं ति पासवेत्ता पडिसेवेना भवइ, णो णमात्मन इति बन्न पं०सं० १ द्वार । कर्म०। ल० । छाइ. यन्यात्मस्वरूपं यत्तत् छद्म । स्था०२ टा०१८ गद्यते केव- जहा बादी तहाकार। यादि जवह। लज्ञानं केवलदर्शनं चात्मनोऽनेनेति छद्म। ग.१ अधि० । दर्श०। " सत्तहि ठाणेहि " इत्यादि सप्तभिः स्थानः हेतुभूतैः बद्मस्था!"पछद्ममूर्खद्वारे वा"॥G।२।११।। इति दस्य! जानीयात । तद्यथा-प्राणानतिपातयिता तेषां कदाचित उत्वम् । प्रा० २ पाद: पिधाने , तश्च ज्ञानादीनां गुणानामावा- | व्यापादनशीलो जवति। इह व प्राणातिपादनमिति वक्तव्येऽपि रकत्वाज्ञानावरणादिलक्षणं घातिकर्मचतुष्टयम् । श्राव.४ "धमंधर्मिणोरनेदात्" अतिपातयितेति धर्मी निर्दिष्टः, प्राणातिश्र० श्रा०माशरत्वे, आवरणे, स०१समा भ०। उपधी, पातनात् छदस्थोऽयांमत्यवसीयते, केवली हि कोणचारित्रावछानि , मायायाम, दशए। ज्ञानावरणदर्शनावरणमो रणत्वानिरतिचारसंयमत्वान कदाचिदपि प्राणानामतिपातहनीयान्तरायकर्मोदये सति तस्मिन् केवलस्यानुत्पादात् सदा यिता भवतीति, श्त्येवं सर्वत्र भावना कार्या। तथा मृपावादिता पगमानन्तरं चोत्पादात् । कटप० २क्षण । भवति, अदत्तमादाता ग्रहीता भवति, शब्दादीनां स्वादयिता बउमत्थ-बद्मस्थ-पुं० । उनि तिष्ठति इति छद्मस्थः । श्रा०म० भवति, पूजासत्कारं पुष्पार्चनवस्त्राद्यर्चने अनुवृंदयिता परेण प्र० । छद्मनि शानदर्शनावरणमोहनीयान्तरायात्मके तिष्ठतीति | स्वस्थ क्रियमाणस्य तस्यानुमोदयिता, तद्भावे दर्षकारीत्यर्थः । छद्मस्थः। प्राचा०१ श्रु०९ अ०४ उ०। पं० सं० कर्म ।स्था तथेदमाधाकर्मादि सावा सपापमित्येवं प्राप्य तदेव प्रतिउत्त० । छद्मनि स्थितः बद्मस्थः । नि००२ उ०। निरतिश. धिता नवति, तथा सामान्यतो नो यथावादी नथाकारी, यज्ञानयुक्ते, औ०। पञ्चा०नि० चू०। प्रांगाशि, द्वा०१६ द्वा। अन्यथा अभिधायान्यया कर्ता भवति, पाउपाति समुच्चये। अकेवनिनि, श्राव. ४ अ० । सकषाये , स्था० ५ ठा० १ स्था०७ ठा। नाअतीन्द्रियज्ञानाभाववति, जी०१ प्रति०। प्रज्ञा० (उद्मस्थो अष्टौ स्थानानि उद्मस्थो न जानातिमनुष्यो निर्जरापुजलानां मानत्वादि न जानातीति तु “निजरापोग्गल" शब्दे वक्ष्यते) (छद्मस्थो मनुष्यो केवलीभूत्वैव सिद्धयः | अट्ठ द्वाणाई छउपत्थे मननावेणं न जाण.aur. तीति उकं “केवक्षि" शब्देश्य भागे ६५३ पृष्ठ) (तीर्थक्रता तं जहा-धम्मत्यिकायं० जाव गंधं वायं,एयाणि चेत्र, Page #1363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंद (१३४०) छनमत्थ अनिधानराजेन्द्रः। एणनाणदंसणधरे अरहा जिणे केवबी जाणइ, पास. उमत्थखीगकसायवीयरागदसणारिय-उद्मस्थतीणकपाय जान गंधं वायं ॥ वीतरागदर्शनार्थ-पुं०। वीतरागदर्शनार्यभेदे, प्रज्ञा०१ पद । "अटुट्ठाणेत्यादि" व्याख्यातं प्राग, नवरं यावत्करणात "अ- छनमत्थमरण-उद्मस्थमरण-म० । उग्रस्थानां सतां मरणे, धम्मत्थिकायं जीवमसरीरपतिबकं परमाणुपुग्गलं सई" इति "मणपजवयोहिणाणी, सुतममाणी मरंति जे समणा । छन्मएव्यमिति । एतान्येव जिनो जानातीति । प्राह च--"पयाणि"। स्थमरणमेयं," उत्सनि०१ मा मनःपर्यायनिदेशो विशुकृितइत्यादि सुगमम् । स्था० ० ठा० । प्राधान्यमकीकृत्य चारित्रिण एच, तदुपजायत इति स्वामिकृतदश स्थाचानि छमस्थो न जानाति प्राधान्यापेक्षया था, एवमवध्यादिष्वपि यथायोगं स्वधियैव दस ठाणाई उमत्थे सवभावयां न जाणशन पासइ । हेतुरनिधेयः । उत्त०५०।। बउमत्यवीयराय-बमस्थवीतराग-पुं०। मनि श्रावरणध्यरूपे जहा-धम्मस्थिकायं. जाव वाय, अयं जिणे जविस्सइ अन्तराये च कर्मणि तिष्ठतीति छनस्थोऽनुत्पन्न केवलज्ञानदर्शनः,स वा, न जविस्सइ, अयं सबउक्खाणमंतं करिस्सइ वा,। चासौ वीतरागइच, उपशान्तमोहत्वात कोणमोहत्वाद्वा विगतण वा करिस्सइ, एयाणि चेव उप्पासनाणदंसणधरे जाणा, रागोदय इत्यर्थः । स्था०७ ठा०1"चमत्थबीयरागेणं मोहणिपासइ० जाव अयं सव्वक्खाणमंतं करिस्सइ वा, न जवज्जाओ सत्त कम्मपयमीनो पेश। तं जहा-णाणावरणिज दंसणावरणिजं वेयणियं आउयं नाम गोयमंतराश्यं । " करिस्सइ ॥ एकादशहादशगुणस्थानवर्तिनि जीवे, उत्त०२० । उनस्थ शह निरतिशय पव अष्टभ्योऽन्यथाऽवधिज्ञानी परमा-उउमत्थावकमण-बद्मस्थापक्रमण-न०।६ त विद्मस्थानां सएवादि जानात्येव । (सव्वभावेणं ति) सर्वप्रकारेण स्पर्शर-| तां गुरुकुलान्निर्गमने, भ० एश०३३ १०। सगन्धरूपकानेन घटमिवेत्यर्थो धर्मास्तिकायम, यावत्करणादधर्मास्तिकायमाकाशास्तिकायं जीवमशरीरप्रतिबद्धं परमाणु छउमत्थावत्था-उद्मस्थावस्था-स्त्री० । ग्नस्थावस्था त्रिधापुद्रलं शब्दं गन्धमिति । अयमित्यादि द्वयमधिकमिह, तत्रायमि जन्मावस्था, राज्यावस्था, श्रामएयावस्था च । उमस्थकाले, ति प्रत्यक्षकानसाक्वात्कृतो जिनः केवली भविष्यति, न वा ध०२ अधि। भविष्यतीति नवमं, तथाऽयं “सब "इत्यादि प्रकट, दशममि उलग-षमुलक-पुं० । षडबूकगोत्रे पुरुषे, " नल्लुगो य ति । एतान्येव प्रस्थानवबाध्यानि सातिशयशानादित्वाजिनो गोत्तेणं तेण उलुओत्ति जीवो।" प्रा० चू०१ अ० ।वैशेषिकमजानातीति । आह च-" एयाई" इत्यादि । यावत्करणात-"जि तप्रवर्तके रोहगुप्ते, विशे०। णे अरिहा केवली सवराणू सव्वभावेणं जाणइ, पास। तं ननु रोहगुप्त इत्येवास्य नाम, तत्कथं षडुलूक इत्यजहा-धम्माधिकायं" इत्यादि यावदशमं स्थानं, तश्चोक्तमेवेति । सकृत् प्रागुक्तोऽसावित्याहस्था० १० ठा०। नामेण रोहगुत्तो, गोत्तेणालप्पए स चोलूओ। पश्च स्थानानि बन्नस्थः सर्वनावेन न जानाति, न पश्यति- दव्वाइउप्पयत्यो-वएसणाअो उचूओ ति ॥२॥ पंच गणाई उमत्थे सव्वजावेणं ण जाणण पासात नाम्नाऽसौ रोहगुप्तो, गोत्रेण पुनरुलूकगोत्रसंभूतत्वादसावुलूजहा-धम्मत्थिकायं अधम्मस्थिकार्य आगासत्थिकार्य जीवं| कश्त्यालप्यत, व्यगुणव कश्त्यालप्यते, व्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायलकणषट्असरीरपामिवई परमाणुपोग्गलं, एयाणि चेव उप्पणना- पदार्थप्ररूपणेन तु षट्पदार्थप्रधान उलूकः षमुलूक इत्ययं व्यपदिश्यत इति । विशे० । उत्त० । श्राम स्था०। कल्प० । पदसणधरे अरहा जिणे केवसी सव्वभावेणं जाणइ, पासइ, टि-बन्द-पुं । चन्दनं बन्दः। अग्निप्राये, ध०२ अांधे०। प्रश्न। धम्मत्थिकायं जाव परमाणुपोग्गलं ।। प्रव० । दशा आव०। प्रा०० । ज्ञा० । सूत्रः । आचा। "उमत्य" इत्यादि सुगम, नवरं छमस्थ इहावध्यातिशय स्था। उत्त। गुरोरभिप्राये, प्रा० म०प्र०ा परानवस्या भोगाविकसो गृह्यते, अन्यथा अमूर्तत्वेनाधर्मास्तिकायादीनजानन्न भिप्राये, प्राचा०१ श्रु०३०४३०। स्वकीयाऽभिप्रायविशेपि परमाणुं जानात्येवासौ मूर्तत्वात्तस्याऽथ सर्वनावेनत्युक्तम्, घे, स्था०१०म० । “ देणं अज्जो तुब्नं देणं ति " स्वाततश्च तं कथञ्चिजानन्नपि अनन्तपर्यायतया न जानातीति, भिप्रायेण यथेष्टमित्यर्थः । न०१ श०७०। गुर्वादेशं विनैव एवं तर्हि संख्यानियमो व्यर्थः स्याटादीनां सुबहनामाना प्रवर्तने,उत्स०४०। श्च्यायाम,व्य०१ उ० । दश। प्रायासे, मकेवलिना सर्वपर्यायतया ज्ञातुमशक्यत्वादिति । [सब्बभा नि० चू०१ उ.। अनालोचितपूर्वापरविषयाऽभिलाषे, प्राचा वणं ति] साक्षात्कारण श्रुतज्ञानेन त्वसाक्वात्कारेण जानात्यैव १७०१ अ०७०। प्रार्थनाऽभिलाषे, इन्द्रियाणां स्वविषयाजीवमशरीरप्रतिबद्धं देहमुक्त, परमारपुश्वासी पुद्गलश्चेति वि-- ऽभिलाषे वा । सूत्र० १ श्रु० १० अ० । वसे, उत्त०४ अ० । ग्रहः, छाणुकादीनामुपलकणमिदम् । स्था०५ वा० ३०० । उपदेशान्तरमाह" उन्तव्यं कस्य संमोहः, छन्नस्थस्य न जायते ।" आव० चंदेण पक्षे इमा पया, बहुमाया मोहेण पानडा । ६० भ०। घियमेण पर्मिति माहणे,सीउएह वयसाऽहियासए ॥२२॥ बउमत्यकालिय-उद्मस्थकालिक-पुं०। “छउमत्थकालियाए (देणेत्यादि ) बन्दोऽभिप्रायः, तेन तेन स्वकीयानिप्रायेण त्ति" प्राकृतत्वात् स्त्रीत्वम् । उमस्थकाले, स्था० १० ठा०। । कुमतिगमनकहतुना इमाः प्रजा अयं लोका, तासु गतिषु प्र. Page #1364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४१ ) अभिधानराजेन्द्रः । बंद लीयते तथाहि द्यागादिवचमपि स्थानियस्ता धर्म साधनमित्येवं प्रगल्नमाना विदधति । अन्ये तु सङ्घादिकमुदिश्य दासीदासचनधान्यादिपरिग्रहं कुर्वन्ति तथाऽन्ये मा याप्रधानैः कुक्कुटैरसकृत्प्रेक्षमाणश्रोत्रस्पर्शनादिनिर्मुग्धजन प्रतारयन्ति । तथादि - " कुक्कुटसाध्यो लोको, न कुक्कुटतः प्र वर्तते किञ्चित् । तस्माल्लोकस्याऽर्थे, पितरमपि सकुक्कुटं कुर्यात् ॥ १ ॥ " तथेयं प्रजा बहुमाया कपटप्रधाना । किमितियतो मोहोऽज्ञानं तेन, प्रावृताऽऽच्छादिता, सदसद्विवेकविफलेत्यर्थः । तदेवमवगम्य ( मायेति साधुकिटेन प्रक टेना मायेन कर्मणा मोके संयमे या प्रकर्षेण सीते यते, शोभनन्नावयुक्तो भवतीति भावः । तथा शीतं व उष्णंच अनुप्रतिकृलपरीषाः तान् वाया काबेन मनसा च करणत्रयेणाऽपि सम्यगधिसदेव इति ॥ २२ ॥ सूत्र० १० २ ० २ उ० । - उन्द ०० "वायर्यवचनाद्याः ८ १ २३ । इति प्राकृते वा पुंस्त्वम् । वेदस्य चतुर्थेऽङ्गे, आव०३ अ० ॥ श्र०० । अनु० । पद्यवचनलक्षणे शास्त्रे, औ० । कल्प० । सूत्रे, उत्त० ४ अ० । प्रासप्ततिकनानेदे, कल्प० 9 क्षण । वाच० । माचा० । चंदना-दना-श्री० [दि सम्परये यस्यानेकार्थत्वा कुरु समानुपदं परिच ममेदमित्येवं पूर्वनीताखनादिपरिजोगविषये साधूनामुत्साहनायाम, अनु० पूर्वगृहीतेनाशनादिना साधूनामभ्यर्थनायाम, ० १४० पा०| अथ च्छन्दनामाह पुरुवगहिरण बंद, गुरुप्रथाए जहारिहं होति । असणादिणा व एसा गेह बिसेसविसय ति ||१४|| पूर्वगृहीतेन बन्दनाऽवसरापेकृया प्रकासोपान, अवादि नेति योगः । या निमन्त्रणा, सेति गम्यम् । छन्दना भवतीतियोगः कथं १, गुवया, न रक्षाधिकादेशेन, स्वातन्ययेण तत्रापि यथाऽई बाल ग्लानादितद्योग्यानतिक्रमेण । यदाह "इयरो संसद सव पाहुणचम गिज्ञायसेहे व । अह राणियं सव्वे, उ चियत्तेणं निमंतिज्जा ॥ १ ॥ " (श्रोत) मडल्यनुपजीपी (चियां ति) प्रीत्या भवति स्यात् । अशनादिना अशनपानकप्रभृतिना, तुशब्दः पुनरर्थः । सभिकः । ननु किं सर्वेषां साधूनामिवं विधेवेत्याहक्याऽऽह - एषा तु इयं पुनः उन्दना, शेया ज्ञातव्या, इट् सामाचाविषये विशेषविषया साधुविशेषगोचरा, न तु सामान्यतः, इतिशब्दो वाक्यार्थसमाप्ताविति गाथार्थः ॥ ३४ ॥ विशेषविषयतामेवास्या दर्शयन्नाह जो कि खलु, विसिहखमगो व पारणाइतो । इद्दा मंगलभोगो, जतीण तह एगमंच च ॥ २५ ॥ यः साधुः, आत्मन एव सत्का लब्धिर्मकादिलानो यस्यासावामखन्धिकः, सुरेषकारार्थः, तस्य च य एवेत्येवं प्रयोगो दृश्य: विशिष्टपको वा अष्टमादितपस्वी था सन् पाशन्दो विकल्पार्थ चि) पारणवान् मोक्ता सहि दिनमा बहिनोजनकारीति हन्द करोति धन्येषामिति प्रक्रमः उत्तविधेयमाद तथा अन्यथा ३३६ नंदगिरोह आत्मकारणं विना भोगः साममयामेव प्रोजनं यतीनां साधूनां भवति तथेतिपक्षेपार्थः । एकनक्तं च एकाशनकं च श्रतः पूर्वगृहीतभक्ताद्यभावात् बन्दना नास्ति, शम्दः समुच्चयार्थः । इति गायार्थः ॥ ३५ ॥ अधारमलग्धिकादिशत्मोपयोभ्येय भक्तादि ग्रहीष्यतीत्यधिकस्य तस्याभावात् कथं बन्दनां करिष्यतीत्याशयाऽऽद नाणावग्ग सति, अहिगे गहणं इमस्सायं । दोह त्रिइफलं तं प्रतिगंजीराण धीराण ।। ३६ ।। नापहे खाधुगतानप्रभृतिगुम्बे सति भवति, अधिके स्वपोपातिरिक्रे प्रसादी विषये, ग्रहणमुपादानम्, अधिग्रहणमिति पाठान्तरम् अस्य साधकानुनम जिनः । कस्मादेवमित्यादद्वयोरपि बन्दकी सारा फलं वाच्यं यस्य तदिष्टफलंदा कस्य दानं प्रणं कितनीरयोर तीवातुच्छाशवयोः धीरयोराशङ्कावर्जितयोर्बुद्धिमतोर्वा तत्र दायकस्य मम्भीरतागुणोपष्टम्नाभिप्रायात् कर्मनिजरार्थित्वात् कीर्तिप्रत्युपकारस्याजन्याद्यनपेत्याच्य महीन कर्म यमाभवतु मम च स्वाध्यायाद्यविच्छेदोऽस्तु इत्येवमभि प्रायात्। धीरता दातुमपूर्तिष्यतीति यत्यागात् प्रहीतुः पुनः प्रतिदातव्यं भविष्यतीत्याशया नावादिति गाथार्थः ॥ ३६ ॥ ननु यद्यसौ गृह्णाति तदेव दातुदर्शनस्येष्टफलता ज्ञानाद्युपष्टम्नादू नान्यथेत्याशङ्कायामाह - गढ़ विणिज्जरा खलु, अग्गणे वि य दुहा वि बंधो य । जावो एत्थ णिमितं, आणासुको अनुको प॥ ३७ ॥ ग्रहणेऽपि छन्दकसाधूनां दीयमानस्य भक्तादेरादानेऽपि, आस्तां दाने, निर्जरा खलु, कर्मनिर्जरणमेव प्रवति । तथा श्रग्रहपिमादानेऽपि पतिमुनिरेव दातुरिति प्रक्रमः । तथा द्विधाऽपि प्रकारद्वयेऽपि ग्रहणाग्रहणरूपे, बन्धककर्मबन्धाभवति निर्जरापेया समुपार्थः । अथ कस्मादेवमित्यादनाच आत्मपरिणाम अत्र निर्जरायां बन्धे च; निमितं कारणं, न ग्रहणाग्रहणमात्रम् । अथ कथं भाव पब परस्परविरुद्धस्य कार्यस्य निमित्तं भवतीत्याह आइया श्राप्तवचनेन शुद्धोऽनवद्यो, न स्वाभिप्रायत इत्याकाशुरू सदोष आइयेागमाभिप्रायेणेत्यर्थः । क्रमेण निर्जराबन्धयोर्निमित्तमिति प्रक्रमः । उक्तं च- " परमरहस्समिसीणं, समतगणि पिरगभरिथसाराणं । परिणामियं पाणं निष्यमाणा " ॥ १ ॥ तथा-"न विपक्षी निमंत साहू परिणामसुद्ध ए उ निजरा होश्ऽगहिए वि ॥ १ ॥ इति गाथार्थः ॥ ३७ ॥ पञ्चा० १२ बिब० । जीत० । स्था० । ग० । घ० आ० म० । वृ० प्र० । उत्त० । बंदशिरोड-छन्दोनिरोप पुं० इन्द्रोऽयशस्तस्व निरोधः । स्वच्छन्दतानिरोधे, ब०० देश ने न्दस्तस्य निरोधो निवारणम्। गुर्वाज्ञया प्रवर्तने, उत्त० ३ अ० । Page #1365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४२) बंदरागाभिणिविट्ठ निधानराजेन्द्रः। बंदाणुवत्तिता बंदरागाजिणिविट्ठ-उन्दोरागाभिनिविष्ट-त्रि०ा छन्दः स्वाभि- चिंतेऊणं सचिरं, संभरिनाणियगजाती तु ॥ प्रायः, रागो नाम स्नेहरागादिः, तत्राभिनिविष्टः । उन्दोरागप्र- अहमेतस्स तिगिच्छी, आसि विसद्बोसही' तं सोए। त्यर्पितरशि, दशा०५०। सा रोहणीऍ पतो, संहिता वणे तस्स ॥ बंद-उन्दा-स्त्री० । चन्दात् स्वकीयादभिप्रायविशेषाद् गोबि निहितक्खरा अणिहुओ, मोऽहं विजोतवासि पुन्वनवे । न्दवाचकस्येव सुन्दरीनन्दनस्यव वा परकीयावा भ्रातृवशभवदत्तस्येव या सा छन्दा । प्रव्रज्याभेदे, स्था० २ ० १ उ० । संभारियसंभिन्ना, तो उ तो वाणरो कहते ।। गामेगे चोर पडिया, वत्थहिरन्नादि गिएिहतुं ते य । तह जूहा निज्जूढो, साहजं मज्म कुणसु वरमित्त! आमंति तेण जणितो, जूहं गंतूण ते सग्गा ॥ संपदिते य पविं, रूववती माहेलिया जणति ॥ किं न हरह महिलाओ, चोरा चितिति शत्थिया महिला। दोएह विसेसमणातुण, ण विकास य सो हु साहजं । णेतुं पद्वीवरुणो, उवणीया तेण पमिवना ॥ णमोनुत्तविलुत्तो, बिहति ततो अक्खरापुरतो॥ तीऍ धवो सयणेणं, नणितो किं वंदिगंण मोएसि । किं साहजं न कतं, पुरिसाह ण जाण दोएह वि विसेसं। गंतूण चोरपविं, थेरीओ लग्गए पयो॥ तो तुट्ठो वाणरतो, वणसालं अप्पणो विलए । किं ओलग्गसि पुत्ता, चोरेहिं भारिया इहाणीया। लग्गे सेगपहारे-ण मारितुं चोरपतिमतिगंतु विरहे तीऍ कहेंती, शहागतो तुज्छ नत्तति ।। रत्तिं मारिय चोरा-हिवं तु तं गेएिहतुं शत्थि ॥ कहिए तु चोरहिव-म्मि पनत्थे जणति भज्ज रत्तीए।। सग्गामं ाणेत्ता, इत्य उवणेतु सयाणवग्गस्स । पविसतु चोरमहिवो कं-पविढे सेणावतीप्रायो॥ वेरग्गसमाजुत्तो, थिरत्यु इत्थीहिँ जे भोगा। हेहाऽसंदिपवेसो, चोरहिवं भणति वृत्ति इणमो तु । मज्झत्यं अत्यंत, सयणो जंपति नु मायसे किं तु । जाद एज्जमझ जत्ता, तस्स तुमं किं करिज्जासि?॥ किं वाऽसि कजकामो, जणती कह अप्पणो उदं ॥ चोराहिवाऽऽह सका-रश्त्तु तुम दिज तो करे भिनडिं । थेराणं ति य धम्मं, सोउं पर जमकुवेसी य। आह ततो चोरहिवो, दारे थमम्मि उद्वेटिं। एसा बंदा जणिता,..... ............ |पं०भा०। वहिं वेढिज्जा, तुहा समे ति हेडसंदीए। पं० चू॥ णीणातुं चोरहिवो, खंभे वज्केहि वेढेइ॥ | छंदाणुवट्टय-उन्दोऽनुवर्तक-पुं० । छन्दोऽनुवर्तिनि,ज्ञा० १७०३ सुणएण खइयवके, पासित्ता णं व चोरअहिवस्स । अ०। सूत्र। मह असिणा छेत्तूणं, सीसं गहि शत्थिो भणति ॥ | बंदाणुवत्तण-छन्दोऽनुवर्तन-न० । मनिप्रायाराधने, देशकालदाणीणिज्जती सीसं, चोरहिवस्सा तु सा गहेतूणं । ने,कटकादौ विशिष्टनृपतेः प्रस्तावदाने,दश०६ ०१ ० स० गावंतीओ रुहिरं, अहिगछतो मग्गतो तस्स ।। बंदाणुवत्तय-बन्दोऽनुवर्तक-पुं० । “दाणुवट्टय" शब्दार्थे, जाहे जातजासं, ताहे सीसं तयं पमोत्तूणं । का० १ ० ३ ०। सूत्र। दसिया वी राशणिया, साती जाति चिंधट्ठा । छंदाणुवत्ति (ए)-उन्दोऽनुवर्तिन-त्रि० । गुरोश्छन्दानुवर्तिजाहे पणिहिताई, ताहे तणपूलियाउ वचंति । नि, गुरोरनिप्रायानुयायिनि, गुरोरभिप्रायानुवर्तिनि, ग०१ बच्चति अवएकंती, पुणो पुणो मम्गतो सातु ॥ अधिक। गोसे य पभायम्मी, सेणहिवं घाइयं ततो दर्दु । बंदाणूवत्तिता-कृन्दोऽनुवर्तिता-स्त्रीकान्दो गुरूणामनिप्रालग्गा कुढेण चोरा, पासंति य ताणि चिंधाणि ।। यः, तमनुवर्तते आराधयतीत्येवंशीलश्छन्दोऽनुवर्ती, तद्भाव. रुहिरदसगा दियाई, अणिच्छिया णिअइत्ति मन्नता। श्चन्दोऽनुवर्तिता । बिनयभेदे, व्य० । संप्रति छन्दोऽनुवर्तितामाहतुरियं धावे कुदिया, ताणि वि य पनायकालम्मि ॥ पंथस्स गए पासे, छियाणि कुढिएहिँ जाव दिहाति। कालसहावाणुमया, आहारुवहीउवस्सया चेव । तं स्वीलेहि वितड्डिय, महिलं घेत्तूण ते पगता ।। नाउं क्वहरइ तहा, बंदं अणुवत्तमाणो न ।। ते चोरा तंणे, चोराहिवजातिगस्स उवणेति । आहारं पिण्डः,उपधिः कस्पादिः, उपाश्रयो वसतिः, पते का. सा तेणं पडिवन्ना, चोराहिवपट्टवंधम्मि ॥ लस्वभावानुमता इति, अनुमतशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते । कालानुमता ये यस्मिन् काले सुखहेतुतया मताः, प्रकृतिः स्वइतरो वि खानएहिं, वितड्डिो अस्थती उ अमवीए । भावः । स चार्थादिह गुरोः प्रतिगृह्यते । तदनुमताः तदनुकजहाहिवएिज्जूढो, अह एति अणीहुतो तहियं ।। ताः, तान्, तथा ज्ञात्वा ग्न्दो गुरोरनिप्रायमनुवर्तमानो व्यवतो कहितो दट्टणं, कहि सने एस दिट्ठपुचो त्ति। | हरितं संपादयति । एष छन्दोऽनुवर्तिताविनयः । व्य० १ उ० । Page #1366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंदिय बंदिय बन्दित अनुजाते, मोघ निमन्त्रिते ि चू० २४० । छन्दित्वा -- अव्य० । निमन्त्रयित्वेत्यर्थे, दश० १० अ० । छंदोविक छन्दोनिक २० पये सूत्र० १ ० १ अ० १ उ० । 33 छंदोवणीय बन्दोपनीत - त्रि० । छन्दः स्वानिप्रायः इच्छामात्रम्, अनालोकितपूर्वापरविषयाभिलाषो वा तेन न्दसो पनीतः " रजमाणा विजयं पयंत दोषारो ववमा | अभिप्रायानुवर्तिनि श्राचा० १ ० १ ० ७ ० । मुद्र- षण्मुख- पुं० । " ङअणनो व्यञ्जने " । । १ । २५ । इति एकारस्यानुस्वारः । प्रा० १ पाद । "स्यमोरस्योत्" | ८|४| ३३१ । इति अकारस्योकारः । प्रा० ४ पाद । " षट्शमीशावसुवासप्तपर्णेष्वादेश्चः” । ८ । १ । २६५ । इति षस्य बः । कार्ति केये, प्रा० १ पाद । 6 क-पटक वि० [पद्परिमाणमस्येति पटुः पटुपरिमिते उन्त० १ श्र० । श्राव । नि० चू० । पिं० । षट्रकप्ररूपणामाह कम्मश्चिरय षट्कर्मनिरत त्रिः । यजनादिकर्मनिरते, स्था० ५ ० ३ उ० । नि० चू० । कलाएगवाइ (ए) - षटकल्या एकवादिन्- त्रि० । श्रीमहावीरस्वामिनः पप्पां कल्याणकानां वादिनि खरतरगच्छीये, कल्प०१ क्षण ( तेषामुपपतिः काणशब्दे भागे ३०४ पृष्ठे निराकृता ) चकसमजिय-पदकसर्जित त्रि० पट् प्रमाणमथेति कं वृन्दं तेन समर्जिताः पिश्मिताः षट्कसमर्जिताः । षट्कवृन्देनोत्पद्यमानेषु ये एकत्र समये समुत्पद्यन्ते तेषां राशिः षट्प्रमाणो यदि स्यात् तदा ते षट्कसमर्जिता उच्यन्ते । भ०२० श०१० उ० | (अत्र दरमकः 'चचवाय' शब्दे द्वि० भा० ६२२ पृष्ठे उक्तः) काय षट्कान०प कायानां समाहारः पटुकायम संथाका ते यथा बटुकायाः, पृथ्वीलानलवायुवनस्पतिजेदात् । पृथ्वीकायजल कायानलकाय वायुकायवनस्पतिकायत्र सकाय लक्षणा इत्यर्थः । प्रच० १५२ द्वार । दश० । स्था० । सूत्र० । ना वा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे छा । एसोगस्स, निक्खेवो उव्विहो होइ ।।२२६।। दश० नि०| तत्र नामस्थापने डुमो द्रव्यपदकं पट्ट प्याणि सचि सावित्तमिश्राणि । पुरुषकापासकृत पुरुषखणानि हे काकाशप्रदेशाः यद् वा भरतादीनि कालपट्टकं षट् समयाः, पम् वा ऋतवः । तथैव भावे चेति प्रावपटूक, पहनावा श्रयिकादयः अत्र च खचित्तङ्गव्यपतेनाधिकार इति गाथाऽर्थः । 3 · , श्राह - अत्र द्वयाद्यनभिधानं किमर्थम् ?। उच्यते- एकषम भिधानत माद्यन्तग्रहणेन तद्गतेरिति व्याख्यातं षट्कपदम् । दश०४ श्र० | | बक्कायपमद्दण-षट्कायप्रभर्दन- पुं० । पृथिव्याद्यारम्भके, पञ्चा० कजीवणिगाय-पजीवनिकाय - पुं० । दशवैकालिकस्य तृ- १५ दिव० पृथिव्याद्युपमर्दके, दश० १० अ० । तीयेऽध्ययने, दश० । छकायमुकजोग-पट्काचमुक्त योग-वि परकायेषु मुक बो जीवाहारो नभइ आयारो तेशिमं तु आयातं । गो यतनालक्षणो व्यापारो याभिस्ताः पटुकायमुक्तयोगाः । जन्म, कायारम्भनिरतेसु, ग० ३ अधि० । उज्जीवणिणं तस्सऽहिगारा इमे होति ||२२|| जीवाधारो भएयते आचारः सत्परिज्ञान पालनद्वारेणेति जावः येनैतदेवं तेनेदमायातम् अवसर, किं तदित्याह । - ( १३४३ ) निधानराजेन्द्रः । जीवनिकाध्ययनमत्रान्तरे अनुयोगद्वारोपन्यासावसरः । तथा नाह तस्य षम्जीवनिकाध्ययनस्य, अर्थाधिकारा एते भवन्ति वक्ष्यमाणलक्षणाः । इति गाथार्थः ॥ २२२ ॥ 3 तानाह जीवाजीवाहिगयो, परिजधम्मो तहेच जयथा व उवएसो धम्मफलं, छज्जीवणियाऍ अहिगारा ॥ १२३ ॥ जीवाजीचाभिगम जीवाजीव स्वरूपम अनियम्यते ऽस्मिप्रिति अभिगम इति कृत्वा, स्वरूपे च सत्यभिगम्यत इति भावः । तथा चारित्रयमे प्राणातिपातादिनिवृतिरूप तथेच पतना च पृथिव्यादिष्वारम्भपरिद्वारयत्नरूपा तथा उपदेश:-यथामायादिविषयः। तथा धर्मफलमनुत्तरानादि ते जीवनिकाया अधिकाराः। इति गायार्थः ॥ २२३ ॥ 9 , कायसमारं अत्रान्तरे गत उपक्रमः। निक्केपमधिकृत्याऽऽद खलु, । उज्जीवशिवार व निक्लेवो होइ नाम निष्पन्नो । एएसि तिए पि उ, पत्तेयपरूवणं वोच्छ्रं ॥ २२४ ॥ दश० नि० ४ श्र० । श्र० म० । बक्कट्ठय-षट्काष्टक - न० । गृहस्य बाह्यालन्द के पदारुके, झा० १ श्रु० २० । कम्प-पट्कर्म न० पुं० [पजनादिकर्मसु स्पा० वा० । | यजनादिषट्कर्मसु,स्था० ५ ३ च० यजनं याजनम, अध्ययनम, अध्यापनं, दानं प्रतिग्रहश्चेति । नि० ० १३ उ० । कायवग्गहत्था षट्कायव्यग्रहस्ता स्त्री० । बटुकाययुक्तहस्तायाम्, पिं० । काय पट्कायव० पकाया धियोवायुवनस्पतिषलक्षणानां बधो दिया। पटुकायायाम पं० सं० ३ द्वार । कायविराणा पकायविराधना स्त्री० षट्काषविराधना याम, श्रमप्रतिमावादी यथा बटुकायविराधना न भवति तथा परिवेषयति तदा निषेधो ज्ञातो नास्तीति । १० प्र० । सेन० ४ उल्ला० । उकापसमारंभ पायसमारम्भ कायानां भूदका - पक्षां ग्निवायुपपतिरूपाणां समारम्ने परितायने ५०२०। से जयवं किं णं हे आमेचि अबोहिदाय समक्खाए ? । गोयमा ! णं सव्वमवि बक्कायसमारंजे म हापावहाणे किंतु भाउकायसमारंभेणं अनंतसची बघा, ते Page #1367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४४) मायसमारंम अभिधानराजेन्द्रः। उज्जीवणि काय नकायसमारंजेणं अणंतसत्तोवघाए मेहुणासेवणेणं तु संखे-उज-राज-धा। त्वा० उ०। “राजेरग्धगज्जसहरीररहाः' ज्जस चोवधाए घणरागदोसमोहाणुगए,एत्य अप्पसत्यक- ।। ४ । १०० । इति राजेश्वज्जादेशः । दीप्तौ, प्रा० ४ पाद । वसायत्तमेव जम्हा णं एवं तम्हा उ गोयमा ! एनेसिं सं-उज्जा--गया-स्त्री० । काद्यते उपरि स्थग्यते इति गद्या। स्थगसारपासेवणं परिजोगादिसु वट्टमाणे पाणी पढममहन्वयमेव नके 'ढक्कन ' इतिख्याते , रा०। ण धारेज्जा, ते य अजाचे अवसेसमहन्चयसंजमाणुचणस्स जिया-गधिका-स्त्री० । गधा एव गयिका । रा०। र समाण,जा एवं छज्जीवणिकाय--परजीवनिकाय-पुं० । षट् च ते पृथिव्यप्तेजो. तो णं पवित्तियसंममायणासित्तेणाव गोयमा! तंकिंपि वायवनस्पतित्रसस्वभावा जीवाश्च, तेषां निकायः । पृथिव्याकम्मं न बंधिज्जा, जेणं तु नरतिरियकुमाणुसेसु अणंत दिजीवषट्रे, दर्श० ३ तस्व । परजीवनिकायप्रतिपादकमध्ययहुत्तो पुणो ह धम्मो त्ति अक्खराई सिमिणे वि णं अन्न नं षड्जीबनिकायाध्ययनम् । विपा०२ श्रु० १ ० । दशवै. जमाणं परिजमिजा, एएणं अटेणं आऊतेजमेहुणे - कालिकस्य तृतीयेऽध्ययने, तत्र परजीवनिकायाध्ययनोक्तजी वाजीवाभिगमस्यैकदेशमात्रम् । बोहिदायगे गोयमा ! समक्खाय चि ॥ महा०५ चू० । सुनं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु बज्जीउग-छग-न० । पुरीषे, प्रोघः । वणिया नामऽज्यणं समणेणं जगवया महावीरेणं कामजगण-गण-न० । गोमये, पञ्चा० १३ विव० । नि० च। । वेणं पवेड्या सुक्खाया सुपनत्ता, सेयं मे अहिजिउं अगणपीठय-गणपीउक-न। गोमयपके, निचू०१२ उ०। ज्झयणं धम्मपन्नत्ती । छगणियच्चार-गणिकक्षार-न० । गोमयकारे, ओघ । भूयते तदिति श्रुतं, प्रतिविशिष्टार्थप्रतिपादनफलं वाग्योगमात्र छगाणया-गणिका-स्त्री० । गोमयप्रतरे, अनु० । प्रगत्रता निसृष्टमात्मीयश्रवणकोटरप्रविष्टं कायोपशमिकन्नावप. छगल-बगल-पुं०।बागे, औ० आ० म०प्र० । प्रज्ञा० । रिणामाविर्भाबकारणं श्रुतमित्युच्यते । श्रुतमवधृतमवगृहीतमिप्रश्न। ति पर्यायाः । मयेत्यात्मपरामर्शः। आयुरस्थास्तीति आयुष्मागाय-छगनक-पुं० । पशुविशेषे, अनु। न् । कः कमेचमाह-सुधर्मास्वामी जम्बुस्वामिनामिति। तेनेति तु. बगलगगलबालग-छगलकगलबालक-पुं० । शाखाध्ययनवि वनभर्तुः परामर्शः, भगः समग्रैकश्वर्यादिलक्षण इति । उक्तं च-"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः। धर्मस्याथ कलेषु, यद्वा-उगलकस्य गलं ग्रीवां वलयान्ति मोटन्ति ।। गलकग्रीवामोटकेषु, मुण्डितेषु सत्स कुटुम्बिषु सौद्धोदनीये प्रयत्नस्य, षमा जग इतीङ्गना" ॥ १॥ सोऽस्यास्तीति घु, पिं नगवास्तेन जगवतां, बर्कमानस्वामिनेत्यर्थः। एवमिति प्रका रवचनः शब्दः । पाण्यातमिति केबलकानेनोपलवावेदितं,किबगापुर-उगमपुर-नः । नगरभेदे, या शकटो जन्मान्तरे मत आह-श्ह स्खलु पजीवनिकायनामाध्ययनमस्तीति वागगलिको जातः । स्था०१० गाबिपा। क्यशेषः । इहेति लोके प्रवचने वा, खबुशब्दादन्यतीर्थकृत्प्रवचगलिका-उगलिका-स्त्री० । अजायाम, प्रव० ७३ द्वार।। नेषु च षट्जीवनिकायेति पूर्ववत्, नामेत्यनिधानम, अध्ययनबगुणकालग-पगुणकालक-पुं०। परनिर्गुणितकालके पुरुले,। मिति पूर्ववदेव। दश०४ अ० । तत्र इह स्खलु षम्जीवनिकायिका स्था० ६ ठा० । नि० चू। नामाध्ययनमस्तीत्युक्तम् । अत्राह-एषा परजीवनिकायिका केन छगुणयुक्ख-पगुणरूक-पुं० । पगुणरूके पुतले, स्था०| प्रवेदिता प्ररूपिता वेत्यत्रोच्यते-तेनैव जगवता, यत पाह-"स मणेणं जगवया महावीरेणं कासवेणं पवेश्या सुक्खाया ६०। सुपन्नत्ते ति।" सा च तेन श्रमणेन महातपस्विना भगवता छन्गुरु-पगुरु-पुं० । अशीत्यधिके उपवासानां शते, उपवासत्र समग्रैश्वर्यादियुक्तेन महावीरण,शूर वीर विक्रान्ताविति कषायाये च । षगुरुशब्देन शतमशीत्यधिकमुपवासानामुच्यते स्म, दिशत्रुजयान्महाविक्रान्तो महावीरः। उक्तं च-"विदारयति यत्कसाम्प्रतकाने तु तद्विपरीतेनैव पम्गुरुशन्देनोपवासत्रयमेव सं. मै, तपसा च विराजते । तपो चीर्येण युक्तश्च, तस्माद्वीर इति केत्यते, जीतकल्पव्यवहारानुसारात् । स्था०२ ग०१०। स्मृतः॥१॥"महाश्चासौ वीरजच महाबीरः, तेन महावीरेण, छग्गोयरहिंग-पड्गोचरहिरमक-पुं० गोरिव चरणं गोचरः। काश्यपेनेति काश्यफ्सगोत्रेण,प्रवेदिता नान्यतः, कुतश्विदाकर्य यथा गोरुच्चावचतृणेषु मुस्वं वाइयश्चरत्येवं यदुच्चावच- काता,किं तर्हि स्वयमेव केवलाऽऽतोकेन प्रकर्षेण वेदिता प्रवेदिगृहेषु साधोभितार्थ चरणं स गोचरः, ततः षनिर्गोचरैर्हि- ता, विकातेत्यर्थः। तथा स्वाख्यातेति सदेवमनुष्यासुरायां पर्षरामत इति षगोचरहिण्डकः । पेटाऽईपेटागोमूत्रिकापतक- दि सुष्ठ पाख्याता स्वाख्याता,तथा सुप्रज्ञप्तेति सुष्ठ प्रकप्ता यौ। चाधिकासवुकवृत्तागत्वाप्रत्यागतास्वैः षभिर्गोचरैहिएमके, वाख्याता तथैव सुष्ठ सक्षमपरिहारासेवनेन प्रकर्षेण सम्यगासेपश्रा० १८ विव०। वितेत्यर्थः । अनेकार्थत्वाद् धातनां शपिरासेवनार्थः, तां चैवंउच्चर-कर-पुं० । झझ-परन् । “चूलिकापैशाचिके तृती- | भूतां षाजीवनिकायिका श्रेयो मेऽध्येतुं, श्रेयः पथ्यं हितं ममेयतुर्ययोराद्यद्वितीयौ"।८।४।२४। इति झकारस्य उकारः। त्यात्मनिर्देशः । गन्दसत्वात्सामान्येन ममेत्यात्मनिर्देश इत्यन्ये, प्रा०४ पाद । “जाँझ" इतिख्याते वाद्यभेदे, पटहे, कलियुगे, ततश्च श्रेय प्रात्मनोऽध्येतुम् , अध्येतुमिति पठितुं श्रोतुं भावनदनेदे, गद्यनेदे, स्त्री०। डीप् । वाच । यितुम् । कुत इत्याह-अध्ययनं धर्मप्राप्तिः "निमित्तकारणहेतुषु Page #1368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४५) उज्जीवणिकाय अभिधानराजेन्धः। उज्जीवणिकायवह सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनम्" इति वचनात हेतौ प्रथमा । कमेव । अस्य च करणस्य कर्म उक्तलक्षणो दरमः, तं वस्तुतो अध्ययनत्वात अध्यात्मानयनात् चेतसो विशुध्यापादनादित्यर्थः। निराकार्यतया सूत्रेणैवोपन्यस्यन्नाह न करोमि स्वयं, न कार• एतदेव कुत इत्याह-धर्मप्रशप्तेः प्रपनं प्रज्ञप्तिः,धर्मस्य प्राप्तिःध- याम्यन्यैः, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामीति, तस्य नदन्त ! मप्रकृप्तिः,ततो धर्मप्रशतः कारणाचेतसो विशुद्ध्यापादनाच श्रेय. प्रतिक्रमामीति । तस्यत्यधिकृतो दएमः संबध्यते, संबन्धलक्षणा मात्मनोऽध्येतुमिति । अन्ये तु व्याचक्षते-अध्ययनं धर्मप्रज्ञप्ति- अवयवलकणा वा पष्ठी । योऽसौ त्रिकालविषयो दएका, तस्य रिति पूर्वोपन्यस्ताध्ययनस्यैवोपपादेयतयाऽनुवादमात्रमेतदिति।। संबन्धिनमतीतमवयवं प्रतिक्रमामि, न वर्तमानमनागतंबा, म. शिष्यः पृच्छति तीतस्यैव प्रतिक्रमणात् । प्रत्युत्पन्नस्य संवरणादनागतस्य कयरा खलु सा छन्जीवणिया णामायणं समणेणं भ प्रत्याख्यानादिति। भदन्तेति गुरोरामन्त्रणम् । भदन्त ! भवान्त! भयान्त! ति साधारणा श्रुतिः। एतच गुरुसाविषयेष व्रतप्रमवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया, सुअक्खाया, सुपन्नता तिपत्तिः साध्वीति शापनार्थम् , प्रतिफमामीति भूतदण्डाद् सेयं मे अहिजिउ धम्मपन्नत्ती॥ निवर्तेऽहमित्युकं भवति । तस्माच्च निवृत्तिर्यसदनुमतर्विरम. सूत्रमुक्तार्थमेवानेनैतदर्शयति-विहायात्रिमानं संविग्नेन शि- णमिति । तथा निन्दामि गहमीत्यत्रास्मसाविकी निन्दा, परप्येण सर्वकार्येष्वेव गुरुः प्रष्टव्य इति । साक्षिकी गर्दा । जुगुप्सोच्यते-आत्मानमतीतदण्डकारिणम. भाचार्य प्राह श्लाघ्यं व्युत्सृजामीति विविधार्थो विशेषार्थों चा विशन्दः, उच्चब्दो भृशार्थः , सजामीति त्यजामि । ततश्च विविध विइमा खा सा बज्जीवणिया नामऽयणं समणेषं ज शेषेण वा नृशं त्यजामि व्युत्सृजामि इति । आह-यद्येवमतीपवया महावीरेणं कासवेणं पवेश्या, सुक्खाया, मु- तदएमप्रतिक्रमणमात्रस्यैदंपर्यम् , न प्रत्युत्पन्नसंवरणमनागत. पन्नत्ता, सेयं मे अहिजिनं अज्जयणधम्मपात्ती।। प्रत्याख्यानं चेति। नैतदेवम् । न करोमि इत्यादिना तदुभय सिद्धरिति । (दश) सूत्रमुक्तार्थमेवानेनाप्येतदर्शयति-गुणवते शिष्याय गुरुणाऽप्युपदेशो दातव्य पवेति। महार्या परजीवनिकायिकेति विधिनोपसंहरनाहतं जहा-पुढविकाइया अाजकाइया तेनकाइया वाजकार इच्चेअंबज्जीवणियं, सम्माद्दट्टी सया जए । या वणस्सइकाइया तसकाइया । दश०४ १०। आचा। दुसहं लहित्तु सामन्नं, कम्मुणा न विराहिज्जासि । (पृथिव्यादीनां व्याक्या स्वस्वस्थाने । षम्जीववधकारिणाम- इति बेमि ॥२ ॥ भावादिदशविषयादितभिवृत्तिकारिणां संपूर्णमुनिनावप्रदर्शन- इत्येतां षड़जीवनिकायिकाम अधिकृताध्ययनप्रतिपादितार्थमन्यत्र वक्यते) "दोहिं जीवनिकायेदि" आव०४०। रूपां, न विराधयेदिति योगः । सम्यग्दृष्टिीवः तत्वश्रद्धासाम्प्रतं चारित्रधर्मस्तत्रोक्तसंबन्धमेवेदं सूत्रम् बान् सदा यतः सर्वकालं प्रयत्नपरः सन्, किमित्याह-दुइच्चासि गएइं जीवनिकायाएं नेव संयं दंम समारंभिज्जा, लनं सवा श्रामण्यं दुष्प्रापं प्राप्य श्रमणनावं षड्जीवनिनेवऽनहिं ददं समारंजाविज्जा, दमं समारभंते वि अन्ने न कायसंरकणेकरूपं, कर्मणा मनोवाक्कायक्रियया प्रमादेन न वि. राधयेत् न खण्डयेत् , अप्रमत्तस्य तु ज्यविराधना यद्यपि समणुजाणामि जावजीवाए ॥१॥ कथञ्चिद् भवति, तथाऽप्यसावविराधनैवेत्यर्थः । पतन "जले सर्व प्राणिनः परमधर्माण इत्यनेन हेतुना एतेषां पला जीव- जीवाः स्थले जीवाः, आकाशे जीवमालिनि । जीवमालाकुले निकायानामिति "सुपा सुपो भवन्ति" शति पचनात् सप्त- सोक, कथं निवरहिसकः॥१॥" इत्यतत्प्रत्युक्तम, तथा म्यर्थे षष्ठी । एतेषु षट्सु जीवनिकायेषु अनन्तरोदितस्वरूपेषु | सूक्ष्माणां विराधनानावाच्च । वबीमीति पूर्ववत् । नैव स्वयमात्मना दएम संघटनपरितापनादिलकणं समारभेत अधिकृताध्ययनपर्यायशब्दप्रतिपादनायाऽऽह प्रवर्तयेत् , तथा नैवान्यैः प्रेष्यादिभिर्दएममुक्तलकणं समार नियुक्तिकारः-- म्भयेत, कारयेदित्यर्थः। दएम समारजमाणानप्यन्यान् प्राणिनो जीवाजीवानिगमो, आयारो चेव धम्मपन्नत्ती । न समनुजानीयात्, मानुमोदयेदिति विधायिकं भगववचनम यतथैवमतो यावज्जीवमित्यादि, यावद् व्युत्सृजामीत्यादि तत्तो चरित्तधम्मो, चरणे धम्मे य एगट्ठा ॥ २७ ॥ श्त्येवमिदं सम्यक प्रतिपद्येत श्त्यैदंपर्यम, पदार्थस्तु जीवनं जीवाजीवाभिगमः, सम्यग जीवाजीवाभिगमहेतुत्वात, एव. जीवः । यावदूजीवो यावजीवम-प्राप्राणोपरमादित्यर्थः । माचारश्चैवाचारोपदेशत्वात, धर्मप्रज्ञप्तियथावस्थितधर्मप्रक्षाकिमित्याह पनात् , ततश्चारित्रधर्मस्तनिमित्तत्वात, चरणं चरणविषयतिविहं तिषिहणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि, न त्वात् , धर्मश्च श्रुतधर्मस्तत्सारनूतत्वात् एकाधिका पते शब्दा ति गाथार्थः । अन्ये विदं गाथासूत्रमनन्तरोदित कारवेमि,करंतं वि भन्ने नसमाजाणामि,तस्स नंते ! पमि- सूत्रस्याधो व्याख्यानयन्ति, तत्राप्यविरुद्धमेव । नतोऽनुगमः। कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि ॥१३॥ साम्प्रतंनयास्तेच पूर्ववदेव । दश०४० त्रिविधं त्रिषिधेनेति तिम्रो विधा विधानानि कतादिरूपान्जीवणिकायवह-पम्जीवनिकायवध-पुं०। बम्जीवनिकामस्येति त्रिविधः, दण्ड इति गम्यते । तं त्रिविधेन करणेन, यानां पृथिवीकायाप्कायतेजस्कायवायुकायबनस्पतिकायत्रसएतदेवोपन्यस्यति-मनसा, वाचा,कायेन, एतेषां स्वरूपं प्रसि. कायलक्षणपद्रियपाणिगणानां वधे विनाशे, पा० । ३३७ Page #1369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४६) छज्जीवगिकायसंजम अन्निधानराजेन्द्रः। बट्टाण छजीवणिकायसंजम-पम्जीवनिकायसंयम-पुं० । षायां जीव प्राप्यते । तद्यथा-अनन्तभागवृद्धिः, असंख्यातभागवृभिः, सं. निकाथानां पृथिव्यादिलकणानां संघटनादिपरित्यागे, प्रति०। ख्यातभागवृषिः, संख्यातगुणवृतिः, असंख्यातगुणवृद्धिः, अ"छसु जीवनिकापसु, जे चूहे संजते सया । सो चेव होति वि. नन्तगुणवृश्चि । एवं हानिरपि, तत्र किञ्चित्सुगमत्वात् समेयो, परमत्येणावि संजए ॥१॥" दश० १ अ०। विरतिशुक्रिस्थानान्येवाश्रित्य लेशतो भाव्यते । इह हि स र्वोत्कृष्टादपि देशविरतिविशुछिस्थानात्सर्वजघन्यमपि सर्वबढ-षष्ठ-त्रि०ाषयां पूरणः। षष्-कट्-थुक् च । “कगटडतदपश विरतिविशुद्धिस्थानमनन्तगुणम् । अनन्तगुणता च सर्वत्रापि पसक पामूर्ध्व लु" ॥ ८।२। ७७ ॥ इति षस्य लुक् । षट्स्थानकचिन्तायां सर्वा जीवानन्तकप्रमाणन गुणकारेण द्रष्टप्रा०२ पाद । येन षट् सङ्ख्या पूर्यते तस्मिन, स्त्रियां ङीप् । व्या । श्यमत्र भावना-सर्वजघन्यमपि सर्वविरतिविमिस्थानं वाच । एकस्मिन्नहनि एकं नक्तं विधाय पुनर्दिनध्यमतुक्त्वा केवनिप्रज्ञाछेदनकेन छिद्यते,ठित्वा च निर्विभागाः जागाः पृथक चतुर्थेऽहोकभक्तमपि विधत्ते, ततश्चाद्यन्तयोरेकभक्तदिनयो । क्रियन्ते ते च निविभागाः भागाः सर्वसंकलनया विभाज्यमाना नक्तद्वयं मध्यदिवसयोश्च जक्तचतुष्टयमित्येवं षमा भक्तानां यावन्तः सर्वोत्कृष्टदेशविरतिविमिस्थानगता निर्विभागाः सर्वपरित्यागात् षष्ठं भवतीति । षष्ठभक्ते, "अहवा अध्मेणं दसमेणं जीवानन्तक रूपेण गुणकारेण गुण्यमाना जायन्ते,तावत्प्रमाणाः बहेणमेगया तुज"। श्राचा०१ श्रु० ए ०४० तथा षष्ठ- प्राप्यन्ते । अत्राप्ययं भावार्थ:-इह किलासकल्पनया सोंकरणशक्त्यजाधे पञ्चम्युपवासः पञ्चम्यां विधीयतेऽथवा पर्यु- स्कृष्टस्य देशविरतिशुद्धिस्थानस्य निर्विजागा जागा दश षणाचतुर्थ्यामिति प्रश्ने, पर्युषणायामुपवासे कृतेऽपि शुद्ध्यति सहस्राणि १०००० सर्वजीवानन्तकप्रमाणश्च राशिः शतं, हारविजयसूरिप्रसादितप्रश्नोत्तरसमुच्चयेऽपि तथैवोक्तत्वादिति। ततस्तेन शतसंख्येन सर्वजीवानन्तकमानेन राशिना दशस. ८१ प्र० । सेन० २ उल्ला। हस्रसंख्याः सर्वोत्कृष्टदेशविरतिविशुक्रिस्थानगता निर्विभागा उटुंग-पष्टाङ्ग-न० । ज्ञाताधर्मकथाऽध्ययननाम्नि अङ्गे, प्रति। भागा गुण्यन्ते, जाता दश लक्षाः १००००००। पतावन्तः किल सर्वजघन्यस्यापि सर्वविरतिविशुद्धिस्थानस्य निर्विजागा छट्टतव-पष्ठतपस्-न । पाक्तिकायां षष्ठं विधाय वीरषष्ठमध्ये भागा नवन्ति । एते च सर्वजघन्यचारित्रसत्कविशुसिस्थानग. क्षिप्यते,पाक्षिकोपवासस्तु स्वाध्यायादिना पूर्यते तदा स षष्ठस्त- तनिर्विभागा नागाः समुदिताः सन्तः सर्वजघन्यसंयमस्थानं मध्य प्रायाति,न चेति प्रश्रे,अल्पशक्तिमता यदि पाक्विकषष्ठो वी- जरायते, तस्मादनन्तरं यद् द्वितीयं संयमस्थानं तत्पूर्वस्मादरषष्ठमध्ये लिप्यते,तदा सायाति पाक्षिकं तप उपवासादिना नन्तभागवृक्षम्। किमुक्तं भवति?-प्रथमसंयमस्थानगतनिर्विभापृथग् त्वरितं पूर्यते इति । ३६ प्र० । सेन० ४ उल्ला० । गभागापेक्षया द्वितीयसंयमस्थानेन निर्विजागा अनन्ततमेन भागेउद्वपारणग-पष्टपारणक-न० । वीरषष्टपारणके ह्यनशनादि नाधिका नवन्तीति, तस्मादपि यदनन्तरं तृतीयं तत्ततोऽ. विधीयते किं वा यथाशक्त्येति प्रश्ने , यथाशक्त्या विधीयत नन्तनागवृक्षम् । एवं पूर्वस्मात् पूर्वस्माउत्तरोत्तराणि निर न्तरमनन्तभागवृद्धानि संयमस्थानानि, अङ्गलमात्रकेत्रासं. इति । ३७प्रा सेनल्ला०। ख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणानि वाच्यानि, एतानि च समुहनत-पष्टभक्त-न० । षष्ठं भक्तं भोजनं वर्जनीयतया यत्र दितानि संयमस्थानान्येकं खण्डकं वएमकं नाम समयपरितत् षष्ठजक्तम् । उपवासरूपे तपसि, तत्र उपवासद्वये चत्वारि भाषया अङ्कलमात्रक्षेत्रासंख्येयजागगतप्रदेशराशिप्रमाणा संजक्तानि वज्यन्ते, पकाशनेन च तदारज्यते तेनैव च निष्ठा ख्याऽनिधीयते । उक्तं च-" कइंति इत्थ भत्तइ, अंगुलयातीत्यत्र पम्जक्तवर्जनरूपं तदिति । इयं चाहोरात्रिकी दि नागो असंखेजो।" तस्माच्च खण्डकात्परतो यदनन्तरं सं. नत्रयेण याति,अहोरात्रस्यान्ते षष्ठनक्तकरणात् । यदाह-"अहो. यमस्थानं तत्पूर्वस्मादसंख्ययनागाधिकम । एतदुक्तं नवतिराश्या तिहिं पढा उठं करे त्ति" धर्म ३ अधिः । पञ्चा० । पाश्चात्य करमकसत्कचरमसंयमस्थानगतनिर्विजागनागापेक्तबहनत्तिय-पष्टनक्तिक-पुं० । दिनद्वयमुपोषिते, प्रश्न. १ या कामकादनन्तरसंयमस्थाननिर्विनागभागगताः प्रदेशा अ. सब०द्वार। संख्येयतमेन भागेनाधिकाः प्राप्यन्ते । ततः पराणि पुनर्यान्यउट्ठाण-पदस्थान-न० । षट्स्थानाख्ये षष्ठेऽध्ययने, स्था० ६ न्यानि संयमस्थानानि अङ्गलमात्रक्षेत्रासंख्येयन्नागगतप्रदेशराशिठा० । षमां स्थानानां वृद्धौ, हानी च । प्रव०। प्रमाणानि तानि यथोत्तरमनन्तभागवृछान्य वसेयानि । एतानि संप्रति 'छहाणबुम्हिाणि त्ति' षष्टयधिकदिशततमं द्वारमाह च समुदितानि द्वितीय कएमकं, तस्य च द्वितीयकामकस्यो परि यदन्यत् संयमस्थानं तत्पुनरपि द्वितीयकगडकस्य सवुटी वा हाण। वा, अणंत अस्संखसंखजागेहिं । कचरमसंयमस्थानगतनिर्विभागभागापेक्कयाऽसंख्येयभागवृकं, वत्यूण संखभस्स-खातगुणणेण य विहेवा ॥४३॥ ततो नूयोऽपि ततः पराणि कएमकमात्राणि संयमस्थानाअनन्तासंख्यातसंख्यातभागैः संख्यातासंख्यातानन्तगुणनेन नि यथोत्तरमनन्तभागवृद्धानि भवन्ति , ततः पुनरप्येकमसं. च वस्तूनां पदार्थानां वृद्धिर्वा हानिर्वा विधेया। इह हि षट्- | स्पेयजागवृकं संयमस्थानम, एषमनन्तभागाधिकः कण्डकप्र. स्थानके त्रीणि स्थानानि भागेन भागाहारेण वृद्धानि हो- माणैः संयमस्थानैर्व्यवहितान्यसंस्येयभागाधिकामि संयमस्थानानि चा भवन्ति, श्रीणि च स्थानानि गुणेन गुणकारेण नानि तावत्तानि अपि कएमकमात्राणि भवन्ति, चरमादसं. "जागो तिसु गुणणा तिसु" शति वचनात् । तत्र जागहा- ख्येयभागाधिकसंयमस्थानात्पराणि यथोत्तरमनन्तनागवृरेऽनन्तासंख्यातलकणः कमो, गुणकारे च संख्यातासंख्या- | द्वानि कएमकमात्राणि संयमस्थानानि वाच्यानि, ततः परतानन्तलक्षण इति । अयमर्थः-सर्वविरतिविशुद्धिस्थानादी- मेकं संख्येयभागाधिकं संयमस्थानं, ततो मूलादारभ्य यावनां वस्तूनां वृद्धिर्वा हानिर्वा चिन्त्यमाना षट्स्थानगता न्ति स्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति भूयोऽपि तेनैव Page #1370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४७) अभिधानराजेन्द्रः। छद्राण क्रमेणाभिधाय पुनरप्यकं संख्येयभागाधिकं संयमस्थानं| भागाधिकानि पुनरप्येवं पाश्चात्यस्य २ सयमस्थानस्य सत्कानां वाच्यम, इदं च द्वितीयं संख्येयभागाधिकं स्थानं, ततोऽनेन | निर्विनागभागानामसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणेन राशिना कमेण तृतीयं पाध्यम । प्रमूनि चैवं संख्येयभागाधिका जागेहते सति यदू यवभ्यतेस सोऽसंख्येयतमो भागस्ततस्तेनासं. नि संयमस्थानानि तावद्वाच्यानि यावत्कएमकमात्राणि भव- ग्येयतमेन भागेनाधिकान्यसंख्येयजागाधिकानि स्थानानि वेन्ति, ततस्तेनैव च क्रमेण भूयोऽपि संख्येयजागाधिकस्थान- दितव्यानि । संख्येयभागाधिकानि त्वेवम्-पाश्चात्यस्यासंयमप्रसङ्गे संख्येयगुणाधिकमेकं स्थानं वक्तव्यं, ततः पुनरपि । स्थानस्योत्कृष्टन संख्येयेन भागे हृते सति यवभ्यते स संख्येय. मादारज्य यावन्ति संयमस्थानानि प्रागतिक्रान्तानि ताव- तमो भागः,ततस्तेन तेन संख्ययतमेन भागेनाधिकानि स्थानानि न्ति भूयोऽपि तथैव वाच्यानि, ततः पुनरप्येकं संख्येयगु- घोदितव्यानि । संख्येयगुणवृकानि पुनरेवम्-पाश्चात्यस्य संयमणाधिकं स्थानं वाच्यम, ततो नूयोऽपि मूलादारभ्य तावन्ति स्थानस्य ये ये निचिजागा भागास्ते ते उत्कृष्टेन संख्येयमानेन संयमस्थानानि तथैव वाच्यानि, ततः पुनरप्येकं संख्येयगुणा- राशिना गुण्यन्ते , गुणिते च सति यावन्तो भवन्ति तावत्प्रधिकं स्थानम,अमून्यप्येवं संख्येयगुणाधिकानि संयमस्थानानि माणानि संख्येयगुणाधिकानि स्थानानि अष्टव्यानि । एवमसंबाच्यानि यावत्कएकमात्राणि नवन्ति । ततस्तेनैव क्रमेण पुनः ख्येयगुणवृद्धान्यनन्तगुणवृकानि च भावनीयानि , नवरमसंसंख्येयगुणाधिकस्थानप्रसङ्गेऽसंख्येयगुणाधिकस्थानं वाच्यम, ख्येयगुणवृद्धौ पाश्चात्यस्य २ संयमस्थानस्य निर्विभागा प्रागा ततः पुनरपि मूलादारभ्य थावन्ति संथमस्थानानि प्रागति- असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणेनासंख्येयेन गुण्यन्ते, अनन्तक्रान्तानि तावन्ति तथैव नूयोऽपि वाच्यानि, ततः पुनरप्ये- गुणवृक्षौ तु सर्वजीवप्रमाणेनानन्तकेनेति । अयं च षट्रस्थानककमसंख्ययगुणाधिकं संयमस्थानं, ततो भूयोऽपि मूलादार- विचार स्थापना विना मन्दबुद्धिनिः सम्यगवयोद्धं न शक्यते, ज्य तावन्ति संयमस्थानानि तथैव वाच्यानि, ततः पुनरप्ये. सा च स्थापना कर्मप्रकृतिपटेज्यः प्रतिपत्तव्या, विस्तरभयात्तु कमसंख्येयगुणाधिकं वाच्यम , अनि चैवमसंख्येयगुणा- नेह प्रदश्यते, केवलं कियन्तमपि स्थापनाशून्या स्थापनाप्रधिकानि संयमस्थानानि तावद् वाच्यानि, यावत्कण्डक- कारं प्रकाशयामः । तथाहि-प्रथमं तावत् तिर्यपतौ चत्वारो मात्राणि, ततः पूर्वपरिपाट्या पुनरप्यसंख्येयगुणाधिकस्थान- बिन्दवः स्थाप्यन्ते, तेषां च कण्डकमिति संझा,सर्वेषामपि चैते. प्रसझेरनन्तगुणाधिकं संयमस्थानं वाच्यम, ततो भूयोऽपि मू. वामन्योन्यमनन्तभागवृद्ध्या वृफिरवसेया। ततस्तेषामप्रतोऽबादारज्य यावन्ति संयमस्थानानि प्रागुक्तानि तावन्ति त. संख्यातनागवृतिसंझक एककः स्थाप्यते , ततो भूयोऽपि चथैव वाच्यानि, ततो भूयोऽप्येकमनन्तगुणाधिकं स्थानम, ततः स्वारो बिन्दवः, तत एकक इत्यादि तावदवसेयं यावद्विशतिपुनरपि मूलादारभ्य तावन्ति स्थानानि तथैव बाच्यानि, बिन्दवः, चत्वारकका जाताः, तदनु संख्यातभागवृद्धिसंज्ञको ततः पुनरप्येकमनन्तगुणाधिकं स्थानम्, पवमनन्तगुणाधिका- द्विकः स्थाप्यते। ततः पुनरपि विंशतिः बिन्दवः, चत्वारश्चैककाः, नि संयमस्थानानि तावद्वाच्यानि यावत्कण्डकमात्राणि भ. ततो द्वितीयो द्विकः । एवं विंशतेविंशतबिन्दनामन्तराऽन्तरा वन्ति, ततो भूयोऽपि तेषामुपरि पञ्चवृद्ध्यात्मकानि संयम- चतुर्णी चतुर्णामेककानामवसाने तृतीयचतुर्थावपि द्विको स्थानानि म्लादारभ्य तथैव बाच्यानि , यत्पुनरनन्तगु- क्रमेण स्थाप्यौ । तदनु नूयोऽपि चतुर्थद्विकस्याने विंशतिणवृद्धिस्थानं तन्न प्राप्यते, षट्स्थानकस्य परिसमाप्तत्वात् ।। बिन्दवः, चत्वारइचैककाः । एवं च जातं बिन्दूनां शतम् , इत्थंभूतान्यसंख्येयानि कण्डकानि समुदितानि एकं षट्स्था- एककानां विंशतिश्चत्वारश्च द्विकाः । अत्रान्तरे चतुर्मा बिन्दूनकं भवति । अस्माश्च पदस्थानकादृर्ध्वमुक्तकमेणैव द्विती- मामग्रतः संख्यातगुणवृद्धिसंझिकप्रथमस्त्रिका संस्थाप्यते,ततः यकं षट्स्थानकं तिष्ठति । एवमेव च तृतीयम् । एवं षट्स्थान- पुनरपि बिन्दूनां शतादेककानां विशतेर्द्विकानां चतुष्टयात्तु परतो कान्यपि तावद्वाच्यानि यावदसंख्ययनोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि द्वितीयस्त्रिका स्थाप्यते। एवं बिन्दनां शते २, एककानां विंशभवन्ति । उक्तंच-"छट्ठाणगअवसाने, अनं छठाणयं पुणो अन्नं । तो, द्विकानां चतुष्टये चतुष्टयेऽतिक्रान्ते तृतीयचतुर्थावपि त्रिको पवमसंखा लोगा, छट्ठाणाणं मुणेयन्या"१॥ अस्मिश्च स्थाप्यौ , तदनु चतुर्थत्रिकस्याप्यने बिन्दना शतमेककानां षट्स्थानके यादृशोऽनन्ततमो भागोऽसंख्येयतमः संख्येयतमो| विंशतिर्विकानां चतुष्टयं स्थाप्यते, ततो जातानि पञ्च शतानि गृह्यते,यारशस्तु संख्येयोऽसंख्येयोन ततो बा गुणकारः सन्नि- बिन्दुनां, शतमेककानां विंशतिकिानां चत्वारश्च त्रिकाः । रुप्यते, तब यदपेकयाऽसंख्येयानन्तगुणवृकता, तस्य सर्वजीव- अत्रान्तरे चतुर्णी बिन्दूनामग्रतोऽसंख्यातगुणवृद्धिसंशिकः संध्याप्रमाणेन राशिना नागो हियते.हृते च भागे यल्लुब्धं सो- प्रथमचतुष्कः स्थाप्यते, ततो भूयोऽपि पञ्च शतानि बिन्दनां उनन्ततमोजागः,तेनाधिकमुत्तरं संयमस्थानम्.किमुक्तं भवति?- शतमेककानां विंशतिकिानां चत्वारश्च त्रिकाः प्रागिव स्थाप्रथमस्य संयमस्थानस्य ये निर्विभागा भागास्तेषां सर्वजीव- प्यन्ते। ततो द्वितीयश्चतुष्कः स्थाप्यः । एवं बिन्दूनां शतपञ्चके संख्याप्रमाणेन राशिना भागेहते सति ये सभ्यन्ते तावत्प्रमाणे- एककानां शते द्विकानां विंशतौ त्रिकाणां चतुष्टये चतुष्टये चानिर्विभागैर्भागैद्धितीयभागसंयमस्थाने निर्विभागा भागा अ- न्तिकान्ते तृतीयचतुर्थावपि चतुष्कौ क्रमेण स्थाप्यो। ततश्चतुर्थधिकाः प्राप्यन्ते, द्वितीयसंयमस्थानस्य ये विभागास्तेषां सर्व- चतुष्कस्याग्रे पञ्चमचतुष्कयोग्य दलिक स्थापयित्वा अनन्तगुणजीवसंख्याप्रमाणेन राशिना भागे हते सति यावन्तो लभ्यन्ते | वृकिसाककः प्रथमः वृक्षिसंचिकः प्रथमः पञ्चको न्यस्यते । एवमनेनैवानन्तरोक्तन तावत्प्रमाणैनिर्विभागभागेरधिकास्तृतीये संयमस्थाने निर्विना क्रमेण द्वितीयतृतीयचतुर्या अपि पञ्चका न्यसनीयाः । ततगा भागाः प्राप्यन्ते, एवं यद्यसंयमस्थानमनन्तभागं वृरू श्चतुर्थपञ्चकस्याग्रे पञ्चमपञ्चकयोग्यं दलिकं लिख्यते , नव ते तत् पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्य सर्वजीवस- पञ्चकाः स्थाप्यन्ते । ते आद्यन्तयोः प्रत्येकं बिन्दुचतुष्टयन ज्याप्रमाणेन राशिना भागे हते सति यद्यल्लभ्यते ताव- प्रथमं षट्स्थानं समाप्यते, यदा पुनः प्रश्वमानन्तरं द्वितीयं प्रमाणेन अनन्ततमेन नागेनाधिक्यमवगन्तव्यम्। संख्येय. षट्स्थानकं स्थापयितुमिष्यते, तदा तदपेकया प्रथम पृथक Page #1371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गडे (१३४०) ट्ठाण अभिधानराजेन्दः । चत्वारो बिन्दवः स्थाप्यन्ते , तदनन्तरमेककादिः सर्वोऽपि वक्त च। भावे ल्यद-धमने, वाचा गर्दने, कवादिरूव्यप्रयोगपूर्वोक्तो विधिः क्रमेण कर्तव्य इति । सांप्रतमङ्कानां बिन्दूनां च | कृते, विपा० १७०८० उत्सर्गे, आव०५०। सर्वसंगया कथ्यते-तत्रैकस्मिन् षट्रस्थानके चत्वारः पञ्चका कहाविय-मोचित-त्रि०। मोचनं प्रापिते, " गहीया सातं भवन्ति, ततः पञ्चनिर्गुणयेदिति करणवशाचतुर्णी पञ्चकानां पञ्चभिर्गुणने लब्धा विंशतिश्चतुष्का । एतेषामपि पञ्चभि घेउं छडाविया "प्रा० म०वि०। गुंणने सम्धं शतंत्रिकाणाम १०० । एतेषामपि पञ्चनिर्गुणने बर्दापित-मोचिते, वृ० १३०। लब्धानि पञ्चशतानि द्विकानां ५००, तेषामपि पञ्चनिर्गणने | बहि-बर्दि (र्दी)-स्त्री०। छर्दयति । छर्द-हेतौ णिच् इन् । लब्धानि पञ्चविंशतिशतानि एककानां २५०, तेषामपि च बमनरोगे "सम्मईवितदिविकदिनर्दिकपदमादितेईस्य"|८| पञ्चभिर्गुणने सम्धानि द्वादश सहस्राणि सार्दानि बिन्दना- २।३६ । इति ईस्य । प्रा०२ पाद । म १२५०० । इयमेकस्मिन् षट्स्याने सर्वसंख्या। एवं शेषेऽपि प्रथातः नगर्दप्रतिषेधमध्यायं ब्यास्यास्वाम:षट्स्थानकेषु प्रतिपत्तव्यमिति ॥ प्रब० २६० द्वार । | "प्रतिरूवैरतिस्निग्धै-हचैलवणैरपि। गद्वितंत--पष्टितन्त्र--न। षष्टिः पदार्थो यस्मिन् शाने तन्यन्ते प्रकाले चातिमात्रैश्च तथाऽसात्म्यैश्च भोजनः । तत् षष्टितन्त्रम् । सांयशास्र, "सप्तत्यां किल येऽर्था,तेऽर्धाः क- भ्रमारक्षयात्ययोद्धगा-दजीर्णात कृमिदोषतः। स्नस्य षष्टितन्त्रस्य।" तवमरीचिशिष्येण कपिलेन ब्रह्मलोके नार्याश्वापन्नसत्वायाः, तथाऽतिद्रुतमइनतः। कस्पे देवत्वेनोत्पन्न कथितमिति समयविदः । प्रा०म०प्र०। बीजसैतुभिश्चान्य-द्रुतमुत्लेशितो बलात् । (इति 'कविल' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३०६ पृष्ठे उक्तम्) छादयन्नाननं वेग-रर्दयन्नकभञ्जनैः ॥ बही-षष्ठी-खी० । षमां पूरणी । षष्-मट-पुट-कीप् । तिथिनेदे, निरुच्यते बर्दिरिति, दोषोवक्त्रं प्रधावितः। दोषानुदीरयन् वृद्धा-नुदानो व्यानसंगतः॥ ज्यो० ३ पाहु० । विशे। द०५०। विभक्तिभेदे, नं० । स्वस्वामिभाषसंबन्धे, तस्यास्य गतस्य नृत्यादरिति । अनुका स्थान प्रा० समागच्चति भृशं, विरुद्धाहारसेविनाम् । मामाचा० । षष्ठी द्विविधा दृष्टा-भेदपष्ठी, अभेदषष्ठी चेति । हवासोझाररोधौ च, प्रसेको लवणस्तनुः। तत्र भेदषष्ठी, यथा-देवदत्तस्य गृहम । अनेदषष्ठी, यथा-तेल देषोऽनपाने च भृशं, बमीनां पूर्वलक्षणम् ॥ प्रबर्दयत फेनिलमल्पमल्पं, स्य धारा, शिलापुत्रकस्य शरीरकमिति । श्रोधः। शूलार्दितोयदितपार्श्वपृष्ठः। होवास-पष्टोपवास-पुं० । प्रथमदिवसोपवासं चतुर्विधाहारं धान्तः सघोषं बहुशः कषायं, कृत्वा द्वितीयदिने त्रिविधाहारोपवासंकरोतीत्येवं कृतपष्ठो बी. जीर्णेऽधिकं सानिलजा वमिस्तु । रपष्ठमध्ये प्रायाति,न वेति प्रभेद्वाभ्यामुपवासान्यां पृथकृता- योऽनं भृशं वा कटुतिक्तवक्त्रः, ज्यां निष्पन्नषष्ठो वीरषष्ठमध्ये नायाति,यत एकेन त्रिशदधिका पीतं सरक्तं हरितं वमेद् वा। द्विशतषष्ठाः तपउच्चरणबेलायां संबद्धा उच्चार्यन्ते, पालो सदाहचोषज्वरबत्रशोषपनामध्ये सषष्ठ पायातीति || सेन०४ उता। मच्छान्विता पित्तनिमित्तजा सा ॥ उड-त्यज-धा•ाम्बा-पर०-सक०-अनिट् । हानौ, दाने च । यो दृष्टरोमा मधुरं प्रनूतं. वास० । 'छमति' त्यजति । संथा। “सुविहिया सरीरं पि शुक्रं हिमं सान्त्रकफानुविधम् । उमंति" संथा।'ण परिग्इंचा 'सर्व सुजीत, न परित्य अभक्तरुग्गौरवसादयुक्को जेत् । प्राचा०२०१०६उ०। घमेद् वमी सा कफकोपजा स्यात॥ कृमक्खर-देशी-स्कन्दे, दे० ना०३ वर्ग। सर्वाणि रूपाणि भवन्ति यस्यां, सा सर्वदोषप्रनवा मता तु । डा-बटा-स्त्री० । गे-अटन-किचा दोती, परम्पराभ्यां च । बोनसजा दोर्हदजाऽऽमजा च, वाचा "मासिक उदकच्चटया" प्रा० म०प्र०ा विद्युति, याऽसात्म्यतो वा कृमिजा च या हि॥ दे. ना०३ वर्ग। सा पञ्चमी ताश्च विनावयेतु, छमिय-टित-त्रि.। कपिडते, छमिकया छटितानां तडसा- दोषोच्छयेणैव यथोक्तमादो। नाम । मा०म०प्र०। प्रामाशयोक्लेशभवाश्च सर्वा स्तस्माकितं सबनमेव तासु ॥ छह-मुच-धा० । तु०-मुचादि०-उन-सक०-अनिट् । त्यागे, शूबहकासबहुना, कृमिजा च विशेषतः। वाचा "मुचेश्छहावहेडमेडोसिक्करेअबणिलुछधंसाडाः"। कृमिहयोगतुल्येन, लकणेन च सक्किता। ॥८॥४१॥ इति मुञ्चतेम्हादेशः। 'हा'। प्रा० . कीणस्योपलवैर्युक्तां, सासूक्पूयां सतन्द्रिकाम् । पाद । "डेड गामं पविडियो"प्रा०म०प्र०। "छडका- नदि प्रसक्तां कुशलो, नारनेत चिकित्सितुम् ॥ माए सामी पविट्ठो"श्रा०म०प्र०ा त्याजने, विशे। धमीषु बहुदोषासु, गर्दनं हितमुच्यते। उर्द-धा०। चुरा-तम-सकर-सेट् । वमने, वाच० "छड़ि- विरेचनं वा कुर्वीत, यथादोषोच्छुयं भिषत् ॥ जा" गर्दै विदध्यात्। माचा०२ श्रु.१०२ उ०। संसर्गाश्चानुपूयेण, यथास्वं मेषजाय तान् । छइण-छर्दन-न० । पुं० ।नई-णिच-न्युट् । मदनवृक्के, निम्ब- । लघूनि परिष्काणि, सात्म्यान्यनानि वा चरेत् ॥ Page #1372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४६) ड्डि अनिधानराजेन्दः। छावय यथास्वं च कषायाणि, ज्वरनानि प्रयोजयेत् । प्राग् घृतखएकसंमिधपायसनृतं स्थानमुत्पाटितवती ? । अत्राकासः श्वासो ज्वरो हिका, तृष्णा वैचित्यमेव च । न्तरे च कथमपि ततः स्वएडसंमिश्रो घृतबिन्दुभूमौ निपतितः, लोगस्तमकव, श्रेयाश्चरुपद्रवाः॥" तत्रार्थ, ततो भगवान् धर्मघोषो मुक्तिपदैकनिहितमानसो जसधिरिव "आमाशयोक्लेशभषा दि सर्वा गम्भीरो मेकरिब निष्प्रकम्पो वसुधेव सर्वसहः शाश्व बों मता बङ्कनमेव तस्मात् ॥"वाचा भाचा०२ १०५ रागादिजिरनजनो महासुभट इव कर्मरिपुषिदारपनिषदकको अ०१०। भगवपदिशभिवाग्रहणविधिविधानकृतोद्यमो भिक्षेयं छर्दित दोषदुष्टा , तस्मान मे कल्पते, इति परिभाब्य ततो निगहिकुमार-उर्दिकुमार-पुं० । अनुक्तमोगिनि, वृ०१०। जंगाम । वारत्रकेण चामात्यने मसवारणस्थितेन रो भबहिणिरोह-गर्दिनिरोध-पुं०। धमनाभिघाते, गर्दिनिरोधे छ. गवान् निगच्छन् । चिन्तयति च स्वचेतसि-किमनेन प्रमधोत्पत्तिः । पं० चू० घतान गृह्यते स्म मे गृहे भिक्केति, एवं यावचिन्तयति तारख तु भूमौ निपतितं स्त्रएमयुक्त घृतबिन्दुमक्तिकाः समागमहत्तु-छर्दयित्वा-अव्या परित्यज्येत्यर्थे, व्य०२०। त्याऽशियिन् । तासां च भक्कणाय प्रधाविता गृहगोधिका, गृहबडिय-गर्दित-न०। परिसाटिमति दशमे एषणादोष, पञ्चा०१३ गोधिकाया अपि विघाताय प्रतिधावितः सरटः। प्रस्थापि च विव० । गास्था गर्दितं दीयमानस्यामादेः पृथ्वीकायादि-| प्रकणाए प्रधावति स्म मार्जारी, तस्या अपि च बधाय प्रधासंसक्तादि छर्दितं सता दश एषणादोषाः। जीत.।पिं० । वितःप्राघूर्णकः इवा, तस्यापि च प्रतिद्वन्धी प्रधावितोऽन्यो अथ गर्दितद्वारमाह वास्तव्यः श्वा, ततो द्वयोरपि तयोः शुनोरभूत्परस्परं कलहः, सञ्चित्ते अञ्चित्ते, मीसग तह बडणे य चउजंगो । ततः स्वस्वसारमेयपराभवमनस्कतया प्रधावितयोद्धयो रपि तत्स्वामिनोरनुत्परस्परमतुलं युखम् । एतच्च सर्व चउभंगे पडिसेहो, गहणे आणाइणो दोसा ॥ वारत्रकामात्येन परिभावितं, ततश्चिन्तयति स्वचेतसि-घृछर्दितमुज्झितं, त्यक्तमिति पर्यायाः । तब त्रिधा । तद्य तादेबिन्दुमात्रेऽपि नूमौ निपतिते यत एवमधिकरणप्रवृत्सिरत था-सचित्तमचित्तं, मिश्रं च । तदपि च कदाचित् ग्यते स एवाधिकरणभीरुनगवान् घृतबिन्दुं जूमौ निपतितमवलोक्य चित्ते सचित्तमभ्ये, कदाचिदचित्ते, कदाचिद् मिश्रे, तत एवं भिकांन गृहीतवान् । अहो सुदृष्टो भगवतो धर्मः, को हि रदितानां सचित्ताचित्तमिभनन्याणामाधारभूतानामाधेय- नाम भगवन्तं सर्वमन्तरेणेत्थमनपायिनं धर्ममुपदेषुमीशः, न भूतानां च संयोगतश्चतुर्जशी जवति । मत्र जातावेकवचनम् । खल्वन्धोरूपविशेष जानाति, एवमसर्वशोऽपि नेत्थं सकलकालसतो यदर्थस्तिनइचतुर्भङ्गयो प्रवन्ति । तद्यथा-सचित्तमिथ मनपायं धर्ममुपदेष्टुमलम, तस्माद्भगवानेव सर्वशः, पवमेव पदाभ्यामेका, सचित्ताचितपदान्यां द्वितीया , मिश्राचित जिनो देवता, तमुक्तमेवानुष्ठानं मयाऽनुष्ठातव्यमित्यादि विचिपदाच्या तृतीया, सन सचित्ते सचित्तं छर्दितं, मिझे सचित्तं, न्त्य संसारविमुस्खो मुक्तिवनिताऽऽश्लेषसुनलम्पटः सिंहब गिसचिचे मिश्रं, मिझे मिश्रामिति प्रथमा । सचिने सचित्तम, प्र- रिकन्दराया निजप्रासादाद्विनिर्गत्य धर्मघोषस्य साधोरुपकएवं चित्ते सचित्त,सचित्ते प्रचित्तम् प्रचित्ते मचित्तमिति द्वितीया। प्रवज्यामग्रहीत । स च महात्मा शरीरेऽपि निःस्पृहो यथोक्तत्रि. मिभे मिश्र, अचिसे मि, मिश्रे प्रचितं, मचित्तेऽचिसमिति, काग्रहणादिविधिलेवी संयमानुष्ठानपरायणः स्वाध्याये प्रावि. तृतीया । सर्वसंख्यया बादश भनाः। सर्वेषु च भनेषु सचित्तः तान्तःकरणो दीर्घकालं संयममनुपाल्य जातप्रतनुकर्मा समुच्छपृथिवीकायमध्ये गर्दित इत्यादिरूपतया स्वस्थानपरस्थानान्या लितपुर्निवार्यवीर्यप्रसरः, कपकश्रेणिमारुह्य चातिकर्मचतुएयं षट्रर्षिशत् षटूर्षिशव विकल्पाः, ततः षटूत्रिंशत् द्वादशभिर्गु. सम्मघातं हत्वा केवलज्ञानलक्ष्मीमासादितवान् , ततः फालणितानि जातानि चत्वारि शतानि , द्वात्रिंशदधिकानि । क्रमेण सिद्ध इति । उक्तमेषणाद्वारम् । पि०। उत्तापाचा। पतेषु च सर्वेषु प्रङ्गेषु प्रतिषेधो भक्तादिग्रहणे निवारणं, यदि | प्रव०। गर्दिते प्रायश्चित्तं पुरिमाईम् । जीत। पुनर्ग्रहणं कुर्यात्तत माकादयः-प्राकाऽनवस्थाप्यमिथ्यात्ववि- बडेन-उर्दयित्वा-प्रव्य० । अपरिष्ठाप्येत्यर्थे, ध्य०१०। राधनाइपा दोषाः । वह प्राधम्तग्रहणेन मध्यस्यापि ग्रहणमिति न्यायादौदेशिकादिदोषष्टानामपि भक्तादीनां प्रहणे माका गण-क्षण-पुं० । कणोति दुःखम् । कण-अन् । उत्सवे, इन्द्रोदयो दोश कटन्याः । त्सवादिके महे, भ०ए०३३ उ०।“छणो जत्य विसिट्रं संप्रति छर्दिताहणे दोषामाह अन्नपाणं उघसाहिजति।" नि० चू०१६ स०। दे० ना०३ बर्ग। उसिणस्स बणे दें-तो व डज्केज्ज कायदाहो पा।। क्षणु हिंसायाम । क्षणनं क्षणः हिंसनम् । यत् किमपि प्रापयुप घातकारि तस्मिन् कर्मणि, माचा०१६०५०६००। सीयपमणम्मि काया, पमिए महुबिंदु आहरणं ।। पंत-क्षण्वत-त्रि० । जति , नन्तमन्यन्न समनुजानीत । उम्णस्य द्रव्यस्य नर्दने समुज्झने, ददमानो वा भिकां, दहेत भूः प्राचा.१७०३०२०। म्याश्रितानाम, वा अथवा कायानां पृथिव्यादीनां दाहः स्वात शीतकव्यस्य मौ पतने भूम्याश्रिताः कायाः पृथिव्यादयो वि. नणण-कणन-न। हिंसने, प्राचा० १७०३१०६ उ० । राध्यन्ते । पत्र पतिते मधुबिन्दाहरणम्-"रैवतपुरं नाम नगरं, छापय-कणपद-न। हिंसापदे प्राण्युपमर्दजनिते, प्राचा०१ तत्रामयसेनो नाम राजा , तस्यामात्यो घरत्रकोऽन्यदा त्वरि-भु०२५०६ उ०। तमचपलमसंत्रान्तमेषणासमितिसमितो धर्मघोषनामा संयतोवणवय-कणपद-ना'छणपय' शब्दार्थ, प्राचा०१७०२ भिक्कामटन् तस्य गृहं प्राविशत, तद्भार्या व तस्मै भिक्षादानात | ०६ उ० । ३३७ . Page #1373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਪ ( १३५०) अभिधानराजेन्द्रः । उन्नदिपुरा०-कः । माच्छादिने, निर्जने रहसि न० । वाच० । न्याप्ते, रा० । अव्यक्तखरे, ध० २ अधि० । अप्रकाशे, नि० ० १४० चा १० २ अ० २४० कल्प० । प्रत्रे, अतिखखातथाऽप्यवचने, भ० २५ श० ६ उ० | मायायाम् तस्याः स्वानिप्रायप्रच्छादनरूपत्वात् । सूत्र० १ ०२ ०२ उ० । षष्ठे आलोचनादोष, "वां तह आलोप, अह नवरं भप्पणा सुण । " इति । स्था०१० ठा० । प्रच्छन्नम् भालोचयति । किमुक्तं भवति ? - लजालुवामु 1 दर्यापराधात्पशब्देन तथाऽऽलोचयति यथा केवलमात्मैव शृणोति, न गुरुरित्येष षष्ठ आलोचनादोषः । व्य० १ उ० । “ जं नं तं न वतव्वं, एसा आणा नियंटिया । " 'ग्यु' हिसायाम् । दिसाप्रधान तथा बध्यतां चोरोग्यम् सुबन्तां केदारा दम्यां गोरका इति यदि वा तयोरपि प्राद्यते तत्सत्यमपि न वक्तव्यम, इति । सुत्र० १ ० ६ भ० इष्टेपणदायरासि-पवतिच्छेदनदायराशि-पुं० । यो शिरा विद्यमानः पातिवाद वेदं सहते पर्यन्ते सकल मेकस्वरूपं पर्यवसितं जवति । तस्मिन् प्रज्ञा० १२ पद । ( एष च ' सरीर' शब्दे दर्शयिष्यते ) उ० स्त्रीणां कुरकुचोरभृतिषु १ उ० । छमपय- उन्नपद-न० | कपटे, मातृस्थाने, गुप्ताभिमाने, सूत्र १ श्रु० ४ ० १ ० उपयोपनीचि(५) उच्चपदापजीविन वि० [मातृस्यानोपजीविनि, सूत्र० २०६ अ० । मातृमातृसं० उप-उमफ-पुं० अन्मान्तराकरी, स्था० १० वा० य० । सामत्थ–छन्नसामर्थ्य त्रि० । परलिङ्गग्रहणेनाऽऽच्छादितस्वस्वरूपे व्य० १ उ० । उद्याम पणनापन-१० पचामचनामभिधायके शब्दे । से किं से बनाये । उन्नामे उन्हे पाने से जहा दइए उवसमिए खइए खच्प्रोक्समिए परिणामिए संनिवाइए || " से किं तं छन्नामे " इत्यादि । श्रत्रोदयिकादयः षक् जावाः प्ररूप्यन्ते । तथा च सूत्रम् -" उदइए" इत्यादि । अत्राह - ननु नाम्नि प्रकार तनिधेयानामर्थानां भावणानां प्ररूपणमयुक्रमिति नैतदेव नामनामयतोरभेदोपचारापणस्था यदुष्टत्वात् एवमन्यत्रापि यथासंभवं वाच्यम् । अनु० । उछाल- षम्नाल[-न० । त्रिकाष्ठिकायाम्, औ० उद्यालिप पनामिक न०त्रिकाशिकायाम 1 । श० १ उ० । ० । 2 छत इत्र-१०। 'उद्' अपचार त यति इति प्रसिकम् । तदाकारो योगोऽपि वत्रम् । तस्मिन् सू० प्र० १२ पाहु० | १० | प्रश्न० | अष्टत्रिंशे ३० द्वासप्ततिपुरुष कला भेदे, जं० २ बक्क० | नवमे चतुर्दशरत्ननेदे, प्रव० । उनं चक्रवर्ति उत्त हस्तसंस्पर्शप्रभाव संजातद्वादशयोजना यामविस्तरं सत् - तायनगोतरविभागवर्त्तिम्मेद्वानुराधितमेघकुमाराद्वृष्टाम्यु नरनिरसनसमर्थन च प्रयति सदस्रकाशनाकापरिम मितं निर्वणप्रशस्तकाञ्चनमयोदरामद एकं वस्तिप्रदेशे पजरविराजितं राजलक्ष्मी चिह्नमर्जुना निधानावर्णप्रत्य वस्तृतपृष्ठदेशं शारदसंपूर्ण पूर्णिमा मृगाङ्कुमएकल मनोहरं तपनाऽऽतपवातवृष्टिप्रभृतिदोषकयकारकम् । प्रव० २१२ द्वार । प्रशा० । आतपत्रे, पो० १५ विव० । श्रा० म० । पञ्चा। सूत्र० । श्राचा० भ० । अनु० स० । छात्रे, आ० म० प्र० नि० ० । करते " श्रब्जपकल पिंगलुजत्रेण" श्रभ्रपटलमिव मेघवृन्दमिव बृहच्छायाहेतुत्वात् अभ्रपटलं, पिङ्गलं च कपिशं सुवर्णक ञ्छिकानिमितत्वाद उज्ज्वलं निर्मलं यत्तत्तथा । अथवा श्रभ्रमन कं पृथि काय परिणामविशेषात् पिचोत था. तेन "अविरसमस दिवमंडलसमप्य" अविरलं नाकाबन्धेन समं तुख्यं सहकायोगेन (सहिय चि) संत मनिम्नोन्नतशलाका योगात् चन्द्रमएमलसमप्रभं च यद्दीप्त्यात तथा तेन । "मंगललय भतिच्छेयविचितियखिखिणिमणिहेमजानवरयपरिगय पेरंत कणगघंटियापयलिय किकिणिकर्णि तसुनिसुहसुमडुरसदा सोदिषण" महाभियाभिः श तमतिभिः शतसंस्यविष्वितिभिः केन निपुणेन शिल्पिमा विचित्रितं पतता, किङ्किणीभिः पुरुषदिकाभिः मणिजालेन च रत्नकनालकेन विरचितेन कृतेन विशिष्टरति देन वा परिगर्त परिवेष्टितं यचतथा पर्यन्तेषु तेषु कनकघटिकानिः प्रचलिताभिः किणिकिणायमानाभिः श्रुतिसुखसुमधुरशब्दयतीनिधमान' प्रत्ययस्य मत्वर्थीयत्वाद, शोभितं यत्तत्तथा । ततः पदत्रयस्य कर्मधारयो ऽतस्तेन । "सप्पयरवरमुदामसंबंतभूसमें" सप्रतराणि माभरणविशेषयुक्तानि पानि वरमुक्तादामानि वरमुक्ताफलमालाः (लंबत ति ) प्रलम्बमानानि तानि भूषणानि यस्य तथा, तेन । "नरिवामप्पमाणरुदपरिमंगले" नरेन्द्रस्य तस्यैव राहो व्यामप्रमाणेन प्रसारित युगलमानेनं विस्तीर्ण परिमण्डलं पृचभागो यस्य स तथा तेन । "सीयायववायवरिसविसदोसविनासखेन " शीतातपवातवृष्टिविषजन्य दोषाणां शीतादिलक्कणदोषाणां विनाशनं यत्तत्तथा तेन । "तमरय मनबहलपमलधामाप्पभाकरेण" तमोक्षकार, रजो रेगुल प्रीत बहु घनं यत् पटलं वृन्दं तस्य धामनी नाशनी या प्रभा कान्तिस्तत्करणशीलं यतथा तेन अथवा रजोमल तमोबहुल पटलस्य श्रीमने प्रभाकरइस वसतथा "सुदविच्छाय समय "तीकाल विशेषे, सुखा सुखहेतुः ऋतुसुखा, शिवा निरुपड़वा, छाया श्रातपवारणलक्षणा, तया समनुषद्धमनवच्छिन्नं यत्तत्तथा, तेन वेरु यिदंसणं सवितानितं यश. तथा तेना"वरामपत्थिनितण जोश्य सहस्रकं लागनिम्मि" वज्रमय वस्ती शलाकानिवेशनस्थाने, नि. पुणेन शिल्पिना, योजिता संबन्धिताः (अति) श्रष्टोत्तरसहस्त्रसंख्याः या वरकाञ्चनशलाकाः, ताभिर्निर्मितं यत्ततथा तेन । "सुनिम्मर यय सुच्छपणं ति" सुनिर्मलो रजः, तस्य संबन्धी सुच्छदः शोभनप्रच्छादनपटो यत्र तत्तथा तेन । Page #1374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५१) अभिधानराजेन्द्रः। छत्तिवएण “निनणोचियमिसिमिसितमणिरयणसूरमंडलवितिमिरकरनि छत्तरयण-छत्ररत्न-न0 । चक्रवर्तिनामत्युत्कष्टे ग्वे, स्था० ७ ग्गयम्गपमिहयपुणरविपच्चापमंतचंचममरीश्कबयविणिमुयंतेणं" निपुणेन शिल्पिना, निपुणं वा यथा भवति एवम्-(उचि ठा० । स 01 (बर्णकोऽस्य 'भरत' शब्दे विजययात्राधिकारे) यत्ति) परिकर्मितानि (मिसिमिसिंत सि) दीप्यमानानि या उत्तल-पदतन-न० । षट् तनानि यत्र तत्षट्तलम् । मध्यखएमनि मणिरत्नानि तानि मणिरत्नानि, तथा सुरमएमलादादित्य- । पदयुक्त, अनु० । स्था०। बिम्बात, ये वितिमिरा हताधिकाराः करनिर्गताः किरणविनिर्गताः, तेषां यान्यग्राणि तानि प्रतिहतानि निराकृतानि, पुनर छत्तलक्खण-छत्रसकण-न० । द्विशत्तमे अष्टत्रिंशत्तमें कपि प्रत्यापतन्ति च प्रतिवर्तमानानि यस्माच्चञ्चलमरीचिका लाभेदे, ज्ञा०१श्रु०१०। सूत्र० । सा मौ०। वचात्तत्तथा । अथवा-सूरमएमलाद् वितिमिरकराणां नि छत्तसंठिया-छत्रसंस्थिता-स्त्री०। छत्रस्येव संस्थितं संस्थानं य. र्गतानामप्रैः प्रतिहतं पुनरपि प्रत्यापतच्च तच्च तपञ्च स्याः सा त्राकारसंस्थिते पदार्थ, चं० प्र०४ पाहु। लमरीचिकवचं च चपलरश्मिपरिकर इति समासः । निप-उत्तहर-छत्र (धा) धर-पुं०। छत्रं धरति धारयति वा प्रस्णोचितीमसिमिसायमानमीणरत्नानां यत्सरमाएमलवितिमिर- ___ अण-वा।गयाकरणाय नियुक्ते दासभेदे, वाचाप्रा०म०द्विा करनिर्गताम्रप्रतिहतं पुनरपि प्रत्यापतच्चञ्चलमरीचिकवचं यत्तत्तथा, तद्विनिर्मुञ्चता विसृजता " सपमिदंमेणं" अति उत्तहार-छत्रधार-पुं० । 'सहर' शब्दार्थे, प्रा०म०वि०। प्रारिकतया एकदण्डेन उर्वहत्वात् सप्रतिदण्डेन "धरिज छत्ता-छत्रा-स्त्री०। स्वनामख्यातायां नमर्याम, यत्र पूर्वभवे माणणं आयवत्तेणं विरायते " इति व्यक्तम् । अधिकृतवाच श्रीमहावीरस्वामी जितशत्रुनृपतेर्भादेव्या नन्दनो नाम कुमार नायां तु चतुश्चामरबासबीजितात इति व्यक्तम । श्री०।छ उत्पन्न इति । श्रा० म०प्र०। प्रवन्मध्ये उन्नतं उत्नमानं यासांताः । प्रश्न०४ आश्र0 द्वार। छत्ताश्चत्त-छत्रातिच्छत्र-ना छत्रमतिक्रम्य त्रं नत्रातिच्छत्रउत्तंतिया-त्रान्तिका-स्त्री० । छत्रवत्त्वाद् राजरूपे पर्षभे- म । स्था०७ ठा। सारासू०प्र० । छत्राद लोकप्रसिकाद दे, वृ०१०।"परिसा" शब्दे पतत्स्वरूपं वक्ष्यते) एकसंख्याकादतिशायीनि छत्राणि उपर्यधोभागेन घिसंख्यानि छत्तक-छत्रक-न० । आतपवारणे, प्रइन० ४ सम्ब० द्वार । त्रिसंख्यानि वा छत्रातिच्यत्राणि । रा०जी० प्रा० मा उत्रं पतन्मदीय तावच्छत्रकादि गृहाण । आचा० २ ० ३| प्रसिद्ध, तदाकारो योगोऽपि ग्त्रं, ग्त्रात् सामान्यरूपात उपर्यअ०२ उ०। न्यान्यच्चत्रभावतोऽतिशायि छत्र ग्त्रातिच्छत्रम् । सू०प्र०१२पाउत्तकार-उत्रकार-पुं०। छत्ररचनाशीले शिल्पिनेदे, अनु०। । हु०रा०। उपर्युपरि स्थिते प्रातपत्रे, जी०३ प्रतिकाचं०प्र०॥ बत्तधारपडिमा-बत्रधारप्रतिमा-स्त्री० । जिनप्रतिमानामुपरि रा। चन्द्रेण युज्यमाने दशसु योगेषु षष्ठे योगे, सु० प्र. छत्रधारिणः प्रतिमायाम, जी०। १२ पाहु । रा०। तत्स्वरूपम् उत्तागारुत्तमंगदेस-चाकारोचमानदेश-न० । त्राकार उत्ततासि णं जिणपम्मिाणं पच्छित्तो पत्नेयं पत्तेयं उत्तधा माङ्गरूपो देशो येषां ते त्राकारोत्तमाङ्गदेशाः। जी०३ प्रति। तथाविधशिरस्केषु युगनिकमनुष्येषु, ग्वाकारोत्तमादेशः, रपमिमाओ पमचायो । ताओ णं उत्तधारपमिमाओ हिम- उन्नतत्वसाधर्म्यात । औ०। रयतकुंदंदुष्पगासाई कोरिंटमल्लदामाइं धवलाई प्रायवचाति उत्तातिच्छत्तसंगणसंठिय-उत्रातिच्चत्रसंस्थानसंस्थित-त्रिका सलीलं ओहरिमाणीओ ओहरिमाणीओ चिट्ठति । त्रमतिकम्य उत्रं त्रातिच्छत्रं, तथासंस्थानमाकारोऽधस्तनं तासां जिनप्रतिमानां पृष्ठत पकैका छत्रधारप्रतिमा हेमरजत- उत्रं महापरितनं लध्विति तेन संस्थितं ग्वातिच्छत्रसंस्थानकुन्देन्दुप्रकाशं सकोरिएटमाट्यदामधवलमातपत्रं ब्रहीत्वा स संस्थितम् । महदधस्तनोपरितनलघौ, स्था०७०। श्रीसं धरन्ती तिष्ठति । जी० ३ प्रति०। छत्ताय-बत्राक-जात्रातिपत्रेव कायति के-कः। शिलीमधे, छत्तपमागा-छत्रपताका-स्त्री० । छोण सहिता पताका छत्र जालववुरकके, पुं०। गौरादित्वात् डीम् । रामायाम, स्त्री। पताका, उत्रोपरि वा पताका ग्यपताका । तस्याम, श्री०।। वाच। स० भ० बा० उत्तार-उत्रकार-पुं० । उत्रनिर्मापके शिल्पिभेदे, प्रज्ञा०१पद । बचपलासय-उत्रपलाशय-न० । " कयंगला " कृतासा-उत्ति (प)-उत्रिन-त्रि० । ग्त्रमस्यास्तीति ग्त्री। त्रयुक्त, नगर्यो स्वनामख्याते चैत्ये, प्र०२ श० १००। अनु। उत्तनंग-उत्रता-पुं० । छत्रस्य भक्को यत्रा नृपनाशे, वैधन्ये, उति नकारपविभक्ति-इति उकारपरिजक्ति-०। पुं०। अस्वातव्ये च । वाच । स्था। छकारवर्णस्वरूपवर्णाकृतिमाखदे, रा०। उत्तमग्ग-उत्रमार्ग-पुं । यत्र त्रमन्तरण गन्तं न शक्यते - छतिया-छत्रिका-श्री०ात्रापुर्याम्, कल्प० ०क्षण । स्मिन् मार्ग, मूत्र० १० ११ १०।। त्तिवम-सप्तपर्ण-jo सप्त सप्त पर्णान्यस्य प्रतिपर्णम् ।बाबा उत्तय-बत्रक-पुं०। जमिव कायति कै-कः । वृक्के, मत्स्यर- सप्तपणे वा"।। १ । ४९ । इति द्वितीयस्यात इत्वं है, पाकाण च । स्वाथै कः । उत्रे.न० । वाच०प्रातपत्रे. वा। प्रा०१पाद । “षदशमीशावसुधासप्तपणेचादेश्वः" भाचा०२ शु०६ ५०१ उ० भ०। सूत्र०। । । प्रा० १ पाद । ।१।२६५ । इत्यादेवर्णस्य Page #1375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तिवस 39 छातिमवृत्ते, " सप्तपर्णो व्रणश्लेष्म- चातकुष्ठात्रजन्तुजित् । दीपनः श्वास गुल्मनः, स्निग्धोष्णस्तुवरः स्मृतः ॥ १ ॥ बालतायाम् खी० एकादमि " ताम्र सशर्करम् । लाजाचूर्ण समध्वाज्यं, सप्तपर्णमुदाहृतम् ॥ १ ॥ उक्ते खाद्यभेदे, न० । वाच० १ बत्तीसपी०शि० ( १३५२) अभिधानराजेन्द्रः । संस्था भेदे, तत्संख्याऽन्विते च । वाच| "उतीसा पठाणेहिं, जो होतिपरिनिट्ठियो । अलमत्यथो वारिस होई, ववहारं वहरित " ॥१॥ व्य० १० च० । “घर खरपुढवीप, ज्ञेया उसीसमाहिया " । उत० १ श्र० । प्रज्ञा० । छत्तोय-छत्रोक[-न० । कुहडभेदे, प्रज्ञा० १ पद । छत्तोवग-बत्रोपक- पुं० । वृक्षभेदे, रा० । -- दोष-पुं० वृक्षभेदे, मा० १ पद भ० । छवण - छर्दापन - न० | त्याजने, बर्दापनं नाम तद् बलादपि साधुपाश्वदम्यत्र वंशवं परित्यजेयुः ०० उसड़ा-पददशा-अन्य० पोकारे, ०४४० उही देशी गुयायाम दे० ना० ३ वर्ग उदास विप्यमुक पदोषविप्रमुक्त- न०पनिर्विप्रमुक्ते गेथे, ते च षट् दोषा अमी- "भीयं यमुपिच्छं " साल काकस्वरमनुनासं च । उक्तं च-“भीयं यमुष्पिच्चमु तालं कमलो मुणेयम्यं काकस्वरमा बोसा होति यस्स" ॥१॥ जी० ३ प्रति० । रा० अधरणुसहस्स– पधनुःसहस्र-१० कोश, स्था० ६० परधिक नयतिसंयायाम तत्सं श्र० म० । नि० चू० । उपसिय-पदमदेशिक-पुं० । प्रदेशषनिष्पद्ये पुस्तस्कन्धे, "पपलिया णं खंधा श्रणंता पश्चत्ता" । स्था० ६ वा० । छप्पर सो गाढ - षट्पदेशावगाढ- पुं० । बसु आकाशप्रदेशेषु बगाड पुले, "उपरसोगाढा पोम्गला अयंता " स्था० ६ वा० । उम्र-पावती० छम्मासिय- पाएमासिक - न० । षष्ठे मासे भवः ठञ् । मृतस्य एकानपहमासे कर्तव्येामे, "सायं पारमासिके तथेति" स्मृतिः । एकाइम्यूनपणमासे तस्य विधानम्। वाच० आचारण नि० चू० छप्पया-पट्पदिकात्री० [दूकायाम् आ०६० महा सम्पासिय भिक्खुपदिमा पापासिकाभिपतिमा श्री० [पमा ॥ भा० चू० । ख्यान्विते च । त्रि० । घाच० । ज्यो० । परिमाणे साधुप्रतिष्ठाविशेषे न हि परमासानू याद पद्दतो भक्तस्य पमेय व पानकस्येति । श्री छम्ह परमुख पुं० श्रीधिमजिनस्य यहे. स उप्पण - षट्पञ्चाशत् - त्रि० । धमधिकाः पश्चाशत् । शाक० संयामे सत्यवते च पाच गहरा हो 9 त्था । " स० ५६ सम० । उपपतिमिच-पट्पादिकावभि० यस्य पद्रपदिकाः प्रात्रु छल माः कर्तव्याः । तथा परावर्त्यपरागं निरूप्य पुनरपि श्रयः पुरिमाः कर्तव्याः एचमेतेषु पुरिमाः षट्चाराः प्रस्फोटनानीत्यर्थ श्रोघ० । नि० ० । घ० । स्था० । 1 छप्पुलओ - देशी - सप्तच्छदे दे० ना० ३ वर्ग । उमा-दमा-श्री राम "मायां की " ८१ १८ । इति कस्य नः । लाक्षणिकस्याऽपि दमादेशस्य नः । प्रा० २ पाद । " या श्लाधारत्ने ऽन्त्यव्यञ्जनात् " । ८ । २ । १०१ । एषु संयुकल्प यद्यं व्यञ्जनं तस्मात्पूर्योऽद् भवतिदागमः । पृथिव्याम, प्रा० २ पाद । मासम क्षमासमत्रि पृथ्वीसमे ३० २६ उमी - शमि - ( भी ) - श्री राम की पाच "वट्शमीशावसुधासप्तपर्णेष्वादेशः " । ८। १ । २६५ । इति शस्य बः । प्रा० १ पाद (जमी) वृकभेदे, वाच० । " शमी तिका कटुः शीता पाया रेचनो कम्पासमा कु कृमिजित्स्मृता ॥ १ ॥ बाच० । 33 - छम्मापिमानि पुं० स्वनामकयाते प्रामे पत्र पोपेन श्रीम दावीरस्वामिनः कर्णयोः करकला के प्रवेशिते ६ क्षण | आ० चू० प्रा० म० । छम्मास - परमास पुं० । मासषट्कात्मके कालपरिमाणविशेषे, पञ्चा० १० विष० । प्र० । सू० प्र० । शिखिवाहनो द्वादशसृजः फलचक्रवाणखङ्गपाशा कसूत्रयुक्तदविषट्कोनलचक्रधनुःफलका कुशान्ययुक्तया मपाणिषट्कध । प्रच० २६ द्वार । रूप-कृत-त्रि० । पीडिते, सूत्र० १० २ ० २३० । छरियगड़-कुटितगति त्रि० माघमा बोकायनाय मामि षु, बृ० १० । - हरु त्सर-पुं० [सर उदबमुजं० २० प्र० । भौ० । जी० । ० । सम्मूर्च्छन्ति । तस्मिन षटूपदिकाऽऽवृते, वृ० ३ उ० । उप्पद - षट्पद - पुं० । " षड्ामीशावसुधासप्तपर्णेष्वादशः " । | ঢ । १ । २६५ | इति षस्य तः । भ्रमरे, स्त्रियां ङीप् । यूकायाम | बाच० । षट्पदैः भ्रमरैः परिभुज्यमानानि कमलानि, उपसक्षणमेतत्- कुमुदानि च, यासु ताः षट्पदपरिष्वज्यमानक मलाः। जी० ३ प्रति० रा० । जं० । औ०| को०] कल्प० । नि० सू० । छप्पय - षट्पद-पुं० । ' उप्पद' शब्दार्थे, प्रा० १ पाद । उप्पुरिमा पदपुरिमा - स्त्री० । षम्बारमस्फोटनात्मिकायां प्रत्यु | पेक्खायाम्, तत्र वखस्य चक्षुषा निरूप्यावग्जागं त्रयः पुरि क्रूरुप्पवाय-त्सरुमवाद- पुं० । एकषष्टिकमायाम, जं०२ बक्ष० । शा० । खुरिकादिप्रद णोपाबजाते, प्रश्न० ५ माध० द्वार । सदः मुष्टितयवियोगात साम्देनाच उच्यते । प्र ara समुदायोपचारः, तस्य प्रवादो यत्र शास्त्रे तद त्सरुवाहम शिक्षा. जं० २० श्री० कुरुय - त्सरुक - पुं० । मुष्टिप्रहणस्थामे, डा० १ ० १६ अ० । छल-कूल-धा० । कृतौ, सक० सेट् उल्लयति । वाच० । “उक्षिति" नि०० ०" पदमाणो पंतदेवबा Page #1376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बल 66 जिहिंसि! " नि०यू० १४० । पं० ० २ द्वार । 64 (१३५३) अभिधानराजेन्द्र बलिजसि " उल्यसे । कथिते पर नाजेामायाम ने, शाख्ये, कापट्ये, वाच० बच्चनविघाते, स्या० । तत्रिधा वाकून बम्,सामान्यच्चत्वम्,उपचारच्चवं चेति । तत्र साधारणे शब्दे प्रयुक्त वक्तुरभिप्रेतादर्थादर्थान्तरकल्पनया तन्निषेधो वालम् । - नूतनविवक्षया यथा नवकम्बलोऽयं माणवक इति नूतन संख्यामारोप्य निषेधति - कुतोऽस्य नव कम्बला इति ? | संभाव नयाऽतिप्रसङ्गनोऽपि सामान्यस्योपन्यासे हेतु बेधः सामान्यच्छलम्। यथाऽहो नु खल्त्रसौ ब्राह्मणो विद्याचरणसं पन इति ब्राह्मणस्तुतिप्रसन्ने कश्चिद्वदति-संभवति ब्राह्मणे वि. द्याचरणसंपदितिवादी ब्राह्मणत्वस्य हेतुतामारोप्य नि. कुर्वन्नत्रियुङ्क्ते यदि ब्राह्मणे विद्याचरणसंपद्भवति, तर्हि वात्येऽपि सा भवेत् । वात्योऽपि ब्राह्मण एव इति । औपचारिके प्रयोगे मुख्यप्रतिषेधेन प्रत्यवस्थानम् उपचारच्चत्रम् । यथा-मञ्चाः क्रोशन्ति इत्युक्ते परः प्रत्यवतिष्ठते कथमचेतना मञ्चाः क्रोशन्ति ?, मस्थास्तु पुरुषाः क्रोशन्ति इति । स्या० । वृ० । श्रा० म० विपा० अ० अथ समधिको विच्छेषण-विच्छेदन ००१ पपत्तेरिति । तत्रार्थविशेषे विवहितेऽभिहिते वक्तुरभिप्रायादन्तरकल्पना वालम यथा नवकम्बलोऽयं देवद तः । अत्र च नचः कम्बलो ऽस्येति वक्तुरभिप्रायः । विग्रहे च विशेषो न समासे । तत्रायं बलवादी नय कम्बलो ऽस्येत्येतय ताऽनिहितमिति कल्पयाते, न चाऽयं तथेत्येवं प्रतिषेधयति । मिस्वदभिधानम्। यदि उन बिलं परमापत्वातस्पति सूत्र० १० १२० छलंस - षमस्र - न० । षट्कोटिके, स्था० वा० । छल-कूलन - न० । प्रक्षेपणे, माचा० २ ० ३ ० १३० १ छलना-कूलना स्त्री० व्यापादने, सायद्विपाइन्यतो प्रा वतश्च । द्रव्बतइछनना खङ्गादिनिः, भावतः परीषदोपसर्गाद्यैः । व्य० २ उ० । श्रा० चू० । आव० । ( 'परिहार' शब्दे व्याख्यास्यते ) कलायतन-पत्रा ( उद्या ) यतनन आयतन युक्ते, आसु कूलायतणं च कम्मं । " छलायतनं बलं, नवकम्बलो देवदत्त इत्यादिकमवन्तः शब्दादन्यस्व दूषणानापादिकम् । तथा कर्म च एकपद्विपादिकं प्र तिपादिवन्त इति । यदि वा - षमायतनानि उपादानकारणानि प्रधानद्वाराणि धोत्रेन्द्रियादीनि यस्य कर्मणस्तव पायतनं कर्मेत्येवमादुरिति सूत्र० १० १२० । कूलिय-कूलित- न० शृङ्गारकाव्ये, बृ० १० । व्यंसितेनापिते ० १ ० १ ० सिपिटते, तस्करसंज्ञायाम, तत्करणे साधोः प्रायश्वित्तं चतुर्थम् । जीत० । भाव० । छी-छी - स्त्री० । श्रभ्यन्तरवस्कले, स्था० ४ ठा० १ ० ॥ प्रवo | श्र० म० । जं० | झा० । दे० ना० ३ वर्ग । उपका-देशी-चर्माणि दे० ना० ३ वर्ग । । बीस त्वचायाम, जी० ३ प्रति० । स्था० ! त्वग्योगादौदारिकशरीरं, ती वारीतिर वा तद्वाचरति वारिते। स्था० ४ वा० १ उ० । वचचवलकादिफले, दश० ७ ० । अलङ्कारविशेषे, अनु० ॥ श्रा० म० । छविकर-कृविकर- पुं० । षष्ठे प्रशस्तमनोविनयभेदे, स्था० ७० । 1 " विच्छेय-विच्छेद पुं० [गौराप्राणातिपातपुते रतिकार। विशेषे०२ भरतकपतिकाले वतायां चतु र्थ्यो दमनीतौ सा च " बविच्छेयाइ भरहस्स विच्छेदादिका आदिशब्दादरः कर्तनादिपरिग्रहःप लितोपमsgभागे, सेसम्मि य कुलगरुप्पत्ती । " इति वचनातू तत्र पल्योपमं किलासत्कल्पनया चत्वारिंशङ्गागं परिकल्पते, तस्याष्टमो भागः पञ्च च विधिं परिभाव्य प्रवर्तिया सा गुस्तरापराधविषया चतुर्थी विच्छेदादिका आ० म० प्र० श्रावण था० । पञ्चा० । घ० २० । स्था० आ० चू० । प्रव० । उस० । घ० । प्रश्न० 1 श्राश्र० द्वार । - छविता छवित्रा १० देहदाने उ० २० छविदोष-निदोष-पुं० [विरलङ्कारविशेषस्तेजस्विता या तद्रहिते, विशे० । अनु० आ० म० । - विपन्न विप्रा० जाते. स्था०२ डा० ३ ० छविपर्व ० इविसन्धिबन्धने, स्था० ॥ दोहं छविपव्वा पण्णत्ता । तं जहा- मनुस्साणं चेत्र, पबिंदियतिरिक्लजोणियाणं चैव ।। (दोए विपचति द्वयानामुभयेषां (विति) मतुब्लो पात (पति) पर्याणि षिपर्वाणि । कचित् " छवियस " ति पाठः । तत्र वियोगान् विः, स एव विकः, स चासौ (श्रत त्ति) आत्मा च शरीरं विकात्मेति । "बिपन " ति पाठान्तरे कविः प्राप्ता, जातेत्यर्थः । गर्भस्थानामिति सर्वत्र संबन्धनीयः । स्था० २ वा० ३ उ० । छविमंत-छविमत्- त्रि० । त्वग्वति, स्था० २ ० ३ उ० । कवियतछविकाल्मन् पुं०दयोग - कविः, स विकः, स चासौ श्रात्मा च शरीरम् । कृवियुक्त, स्था० २ ३ उ० । छविवद छविका १० मुकफलताका । स्निग्धत्वग्रूव्ये, मुक्ताफलरक्ताशोकादिके, सूत्र० २ ० ६ श्र० । छव्वग - छवक - न० । पटलिकादिरूपे भाजने, पि०। आचा० । छवि कालगुण कम्पन्त पश्धिकाल गुणकर्मयुक्त चि०० द्विधस्य कालस्य ऋतुष दूरूपस्य कालस्य ये गुणाः कार्याणि तैः क्रमेण परिपाठ्या संगतं वसतथा पढकार्यपरिपाठा युक्ते, प्रश्न० ४ प्राश्र० द्वार | छवि - छवि (वी) - स्त्री० । व्यति प्रासारं विनति, तमो वा । बो-वि-किश्च वा डीप् । शोभायां कान्तौ च । वाच० । काव्य शरीर, ०२ अधि० प्रश्न आप का आचावीस पविशति श्रीमधिकांशतीमा ४० ३३६ -F 3 -- Page #1377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयडिय छसमय डिय - समयस्थितिक पुं० समय स्थायिनि पुछले, स्था० ६ ० । छस्सीसत्य- पमशीतिशासन देवेन्द्रसूरिविरचिते तिसंख्यागाथाप्रमाणे कर्मग्रन्थे, (कर्म० ) " यद्भाषितार्थलवमाप्य दुरापमाशु, श्रीगौतमप्रभृतयः शमिनामधीशाः । सुमार्थसार्थपरमार्थविदो व श्रीमानविरस्तु स वः शिवाय ॥ १ ॥ निजधायें नत्वा निष्कारकयन्यभ्यः । श्रीषमशीतिकशास्त्र, विवृणोमि यथागमं किञ्चित् ॥ २ ॥ तत्रादावेवानीष्टदेवता स्तुत्यादिप्रतिपादिकामिमां गाथामाद“नमिय जिणं जियमग्गण-गुणठाणुवभोग जोगलेसाओ । बंध बहुभावे, संखिज्जाई किमवि वुच्छं ॥ १ ॥ ” जिनं नत्वा, जीवस्थानादि वक्ष्ये इति संबन्धः । कर्म ०४ कर्म० । हाम्रो देशी मातरि दे० ना० ३ बर्ग (१३५५) अनिधानराजेन्द्रः । बाल-छायावत् - पुं० । “ श्राविलोल्सालवन्तमन्ते तेरमणा मतो: " ।। २ । १५६ । इति मतोरिल्लादेशः । बायायुक्ते, प्रा० २ पाद सहशे, इने, सरूपे, प्रदीपे च । दे० ना०३ वर्ग । छाउपस्थिसमुपायास्थिकसमुपात समुद्रात - 19 नैरयिकानामाचारयन्वारो वेदनादिसमुद्राताः तेषां तेजोल ब्भ्याहारक लब्धनावतस्तैजसस मुद्धाताहारकसमुद्धातासंभवात् । अरकुमाराणं पुच्छा है। गोयमा ! पंच समुपाया छाडम त्थिया पत्ता । तं जहा - वेदणासमुग्धाए कसायसमुग्धाए मारतिय समुपाए बेडव्वियसमुपाए रोयसमुम्याए । असुरकुमारादीनां सर्वेषामपि देवानामाहारकसमुद्धातच बाया जीः शेषाः पञ्च समुद्धाताः तेजोसन्धिसंभवातेजस समुद्रा तस्याऽपि संभवात् । यस्त्वाहारकसमुद्घातः, स तेषां न संभवति, चतुर्दश पूर्वाधिगमाभावतो नवप्रत्ययाश्च तेषामाहार भेदे, स० । संप्रति कतिाधिकाः समुदाता इति निपार्थमाहकति णं भंते ! छानमत्थिया समुग्धाया पत्ता १ । गोयमा ! छ छाउमत्थिया समुग्धाया पत्ता । तं जहा - वेयणासमुग्धाए कसायसमुभ्याए मारणंतिय समुम्याए बेसयसमुग्धा तेपसमुग्याए प्रहारसमुम्याए । प्रज्ञा० २६ पद । भवश्वास्थिकामेस्थेन च घातानि निर्जरान समुद्धाताः बेदनादिपरितो हि जीयो बहून बेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभावयोग्यातुदीरणेनाक्रियोदये प्रक्विप्यानुभूय निर्जरयति श्रात्मप्रदेशैः संशिवशन् शातयतीत्यर्थः ते चेह वेदनादिभेदेन पटुः । तत्र वेदनासमुद्घातः असावद्यकर्माश्रयः कषायसमुद्घातः-कषायाख्यचारित्रमोहन कमांश्रयः मारणान्तिकसमुद्धतन्त मुहूर्तशेषायुष्क कर्माश्रयः । वैकुर्विक तैजसाहारक समुद्धाताः श रीनामकर्माश्रयाः । स० १ सम० । कतिपयस्थिकासमुद्धता इतिचतुर्विंशतिदारुककनेण निरूपयति या नंते ! कई छाउपस्थिया समुग्याया पाता है। गोयमा ! चत्तारि छाजमत्थिया समुग्धाया पण्णत्ता । तं जहा वेदशासमुग्धा कसायसमुम्याए मारणंतियसम्याएका बेब्वियसमुन्याए । कलब्ध्यजावात् । एगिंदिय विगलिंदियाणं पुच्छा । गोयमा ! तिनि बामस्थिया समुग्धाया पणत्तातं जहा वेपणा० कसाय० मारणंतिय०, नवरं बाउकाइयाणं चचारि समुग्धाया - सत्ता । तं जहा - वेदणा० कसाय० मारणंतियस० बेडव्वियसमुग्धाए ॥ , 1 वायुकाय वर्ज के केन्द्रिय विकलेन्द्रियाणामाचा वेदनाकपायमरणलक्षणाः श्रयः समुद्घाताः तेषां वैक्रियाहारकतेजोलभावतः तत्समुद्घातासंभवात् । वायुकायिकानां पूर्वे यो बैकियसमुद्घातसहिताव्याचारः तेषां बादरपर्याप्तानां - संभवतो बैंकियसमुतस्यापि संवाद पंचिदियतिरिक्खमोशियाणं पुच्छा है। गोयमा ! पंच समुग्घाया चन्नत्ता । तं जहा - वेदणा० कसाय मारणंतिय बेहवियसमु० तेगसमुग्धार ॥ पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकासामा हारकसमुद्धाराजः शेषाः पच ब्राद्मस्थिकाः समुद्धाताः यस्त्वादारकसमुद्घातः स तेषां न संनवति, चतुर्दशपूर्वाधिगमाभावतस्तेषामाहारक सन्ध्य संभवात् । मगुस्सा कर छाउमत्थिया समुग्याया पन्नत्ता || गोयमा छाउपस्थिया समुग्धाया पहाता । तं जहा-वेदसमुन्याए कसायसमु० पारतियसमु० चेउन्वियसमु० तेगसमु० ब्राहारसमुम्याए । ! मनुष्याणां चमपि मनुष्येषु सर्वदा तदेवं बायो येषां समुद्धातास्तावन्तः तेषां निरूपिताः । प्रज्ञा० ३६ पद । भ० । छात्र- देशी-वुभुक्तेि, कशे च । दे० ना० ३ वर्ग कागल बागल अजासंबधिनि, कुतपागल किजम्। स्था० ८ ठा० २ उ० । छागल-गलत १० सं० छान - छादन- न० । दर्भादिमये पटले, भ० श० ६४० । "सश्यते रजते रजमये पुम्बनीनामुपरि कस्कानामच थाच्छादने, जी० ३ प्रति० । ठाणविच्छु छमणश्चिक- पुं० चतुरिन्द्रियभेदे, जी०१ प्रति०॥ काशी-गणी बी० गोमयपिण्डे, पञ्चत्रिंशत्तमे माशातनानेदे ०२ अधि० देवान्यादिमलने, योग, पखे च दे० ना०३ वर्ग छाप छात्र० होलि ले बाच० बुकिते, ओघ० । झा० । व्य० । 3 बायण- वादन -न० । दर्जादिना श्राच्छादने, ग० १ अधि० । " " आचा० सुत्र० । प्रइन० । गया - दाया स्त्री० । छो-राः । पचादित्वादच् । व्यति निि वाऽऽतपमिति छाया । उत्त० १ श्र० । श्रातपाभावे, प्र तिबिम्बे, सूर्यपक्षी, संशाप्रतिकृतौ, कान्तौ च । पालने, Page #1378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५५) छाया अभिधानराजेन्द्रः। छायागइ उस्कोचे, पती, कात्यायन्याम, बाच० । दीप्ता, औ०।। छाया किंवा २,पृच्ग पृच्छासूत्रं षष्टयम (दिवसस्स भागं नि) प्रका० । स० । रा० । प्रभायाम, जं. २ धक्क० । नि० पूर्वपूर्वसूत्रापेक्षया एकैकदिवसमधिकंदिवसस्य भागं किप्त्वा यू।स। शोभायाम, औ० । शरीरशोभायाम, “छाउज्जो व्याकरणमुत्तरसूत्रं ज्ञातव्यम् । तचैवम्--"विपोरिसीणं गया श्यंगमंगा " । जं.३ वका कायया शरीरप्रभया उयोति. किं गए बा, सेसे वा ?। ता छब्जागगए वा,सेसे वा। ता अखातमामार भङ्गप्रत्यकं येषां ते तथा । जी०३ प्रति। शरीरप्र इज्जपोरिसीणं गया किं गए वा, सेसे वा। ता सत्तभागगए वा, सेसे वा" इत्यादि। एतश्च तावत, यावत् "ताउ गुणसहि" भायाम, तं० प्रतिबिम्बे, उत्स०अ०स्था समुदायशोजा. पाम, जी०३ प्रतिक मातपबिरुके पुलपरिणामे, स्त्र० १७०१ इत्यादि सुगमम । सातिरेकैकोनषष्टिपौरुषी तु गया दिवसस्य अ०१३०। उत्तन गया वृत्तादीनाम्। स्था०२ गा०४ ० का। प्रारम्भसमये,पर्यन्तसमये वा? तत आह-"ता नऽस्थि किं वि गते वा, सेसे वा" इति।। औ०। मादित्यकरावरणजनितायामदीप्तौका० १७०२०।। गयामानम् ____ संप्रति गयाभेदान् व्याचष्टे तत्थ खलु इमा पणविसतिविहा जया पमत्ता। तं जहाता अवकृपोरिसीणं छाया दिवसस्स किंगए वा,सेसे वा। खंभच्छाया रज्जुच्छाया पागारच्छाया पोसायच्छाया ता तिनागे गए वा,सेसे वा। ता पोरिसीणं गयाए दिवसस्स किं गए वा,सेसे वा?ता चउत्नागगए वा, सेसेवा । ता नवगच्छाया उच्चत्तच्छाया अणुलोमच्छाया पडिलोमवियपोरिसीणं मूरिए पोरिसीणं गया दिवसस्स किं च्छाया आरुजिया जवाहिया समावमिहया खोलच्छाया गए वा, सेसे वागता पंचभागगए वा,सेसे वा । एवं अ पंखच्छाया पुरो जदग्गा पडिनदग्गा पुरिसकंउजागोवगया कपोरिसीणं गया-पुच्छा । दिवसस्स जागं गेहूंशदिव पच्छिमकंचनागोवगया गयाणुवादिणी गया छायच्छाया सस्स वागरणं जाव । ता अद्धअनणसहिपोरिसीया या विकंपेवेहा कमसमच्छाया गोलच्गया। " तत्थ" इत्यादि । तत्र तस्यां जयायां विचार्यमाणायां दिवसस्स किं गए वा, सेसे वा । ता एकुण वीससयना खल्वियं पञ्चविंशतिविधा छाया प्रज्ञप्ता तद्यथा-"वनच्छाया" गे गए वा,सेसे वा । ता अनपसडिपोरिसणं गया दि. इत्यादि प्रायः सुगमम् । विशेषव्याख्यानं चामीषां पदानां वसस्स किं गए वा, सेसे वा। ता बीससयनागगए वा, शास्त्रान्तरात, यथासंप्रदायाद्वा वाच्यम। सेसे वा। सातिरेगअनणसहिपोरिसीणं छाया दिवसस्स 'गोलच्छाया' इत्युक्तम, ततस्तामेव गोलच्चायां किं गए वा,सेसे वा। ता नत्यि किं विगए वा, सेसे वा। भेदत पाह तत्थ खलु इमा अट्ठविहा गोलच्छाया पएणत्ता । तं "ता अवके" इत्यादि । अपगतमई यस्शः सा अपाळ, सा जहा-गोझच्छाया अवगोलच्छाया गोलगोलच्छाया अचासौ पौरुषी च अपापौरुषी, छाया, पुरुषस्योपनकणत्वात् सर्वस्यापि प्रकाशस्य वस्तुनोऽप्रमाणा छाया । एवमुत्तरत्रा बगोलगोनच्छाया गोसावलिच्छाया अवगोलावलिप्युपलवणव्याख्यानं द्रष्टव्यम, दिवसस्य किंगते कतितमे भागे च्छाया गोनपुंजच्छाया अवगोलपुंजच्छाया । गते,शेष चेति कतितमे भागे शेषे नवति ? । जगवानाह-"ता" " तत्थ" इत्यादि । तत्र तासां पञ्चविंशतिच्छायानां मध्ये श्त्यादि । ता इति पूर्ववत्, दिवसस्य त्रिभागे गते भवति,दिव खल्वियं गोलच्छाया अष्टविधा प्राप्ता । तद्यथा-गोरगया सस्य त्रिजागे वा शेषे । “ ता" इत्यादि, पौरुषी पुरुषप्रमाणा, गोलमात्रस्य या गया, अपार्द्धस्य अपार्समात्रस्य गोलस्य प्रकाशस्य वस्तुनः प्रमाणा इत्यर्थः । काया किंगते कतितमे गया अपार्द्धगोलछाया, गोलैबहुभिर्मिलित्वा यो निष्पादित जागे,शेषे वा भवति । भगवानाह-दिवसस्य चतुर्भागे गते,शे पको गोलस्तस्य गया गोलगोलच्छाया । अपाईमात्रस्य गो. वाइयं च दिवसस्य चतुर्भागे गते,चतुर्भागे शेषे वा प्रकाश लगोलस्य छाया अपार्द्धगोलगोलछाया । गोलानामावलि. स्य वस्तुनः स्वप्रमाणभूता छाया अन्यत्र प्रन्थान्तरे सर्वाभ्य गोलावलिस्तस्य गया गोलावलिच्चाया, अपार्धा या गोलान्तरमएमलमधिकृत्योक्ता । तथा च नन्यभ्ययनचूर्णिग्रन्थः-"पु. वनिच्छाया अपार्द्धगोलाबलिच्छाया, गोलानां पुजो, गोलो. रिस त्ति संकु पुग्सिसरिं वा, ततो पुरिसे निष्फमा पोरि स्कर इत्यर्थः, तस्य गया गोलपुजच्छाया, अपास्य गोलसी, एवं सन्चस्स वत्युणो यदा स्वप्रमाणा काया भवति तदा पुञ्जस्य गया अपार्द्धगोलपुजवाया। चं० प्र०६ पाहु । पोरिसी हवइ, एयं पोरिसियमाणं उत्तरायणस्स अंते, दक्खि (गयाया व्यत्वसिकिः तम' शब्दे वक्ष्यते) . णायनस्स आइए एक दिणं प्रव,प्रतो परं अट्ट एगसटिनागा छायागइ-गयागति-स्त्री०। छायामनुसृत्य तदुपष्टम्नेन वा स. अंगलस्स दक्षिणायणे बरति, उत्तरायणे हस्सं ति. एवं | माश्रयितुं गती, प्रशा०। भंमले मंडले असपोरिसी" इति । तत श्दं सकलमपि पौ. से किं तं गयागती। छायागती जेणं हयच्छायं वा गयरुषीविभागे प्रमाणप्रतिपादनं सर्वाभ्यन्तरं मामलमधिकृत्यावसेयम्। तथा-ता इति पूर्ववत्, बर्द्धपौरुषी साईपुरुषप्रमाणा च्छायं वा नरच्छायं वा किन्नरच्छायं वा महोरगच्छायं गया दिवसस्य किं भागे कतितमे जागे गते भवति, किं शेषे वा गंधवच्छायं वा रहच्छायं वा छत्तच्छायं वा उपसंपवा कतितमे नागे शेषे ? । जगवानाह-"ता" इति पूर्ववत्, जित्ता णं गच्छति, सेत्तं छायागती ॥ दिवसस्य पञ्चमे भागे गते वा भवति, शेषे वा पञ्चमे भागे। छायागतिः-गयामनुसृत्य तदुपष्टम्भेन वा समाश्रयितुं गतिः 'एवं' इत्यादि। एवमुक्तेन प्रकारणमरूपौरुषीम् अपुरुषप्रमाणां गयागतिः । प्रज्ञा० १६ पद । Page #1379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयाघाय 6 1 छायाघाय - छायाघात - पुं० । प्रसापरिभ्रंशे बृ० १ ० । छायातो छापावस-अन्य० याया इत्यर्थे " गातो सीयंति " छायातः शीतकाले शीतमिति कृत्वा सीदन्ति । दशा० 9 अ० । छायापास- छाया पार्श्व-पुं० | हिमाचलस्थायां श्री पार्श्वनाथप्रतिमायाम, दमाच दायापायों मन्याधिराजः श्रीः १७ ती० ४५ कल्प । छायापासणाढ-छाया पार्श्वनाथ- पुं० । माहेन्द्रपर्वतस्थायां पार्श्वनाथप्रतिमायाम, माहेन्द्रपर्वते दायापार्श्वनाथः सी ४५ कल्प | छावालीस-पचत्वारिंशत् श्री० पदधिकचत्वारिंशत्संख्यायां तत्संख्याऽन्विते च । जी० ३ प्रति० । प्रज्ञा० । छायासमवायासमनुपुं० यया युके, रा० छायोगायोग यामुपगच्छतीति प्रायोपगः । बहुलच्छाये वृक्षे, तद्वत् अनुवर्तनापायसंरकणादिना सवोपेते स व्ये पुरुषजाते च । स्था० ४ ० ३ उ० । छायोजय छायोपगायोग' शब्दार्थे, स्था० ० ( १३५६ ) अभिधान राजेन्द्रः । 33 । भवति । प्रा०] १ पाद “ इस्प श्वोऽनादी २६५ मागध्यामनादाविति पर्युदासाच्द्रस्य श्वो न । अजे, प्रा० ४ पाद । द्वापशाव-पुं० शय-पम्" दशमीशावसुधासप्तपर्णेयादेइछः” | = । २ । २६५ । इति शस्य कुः । प्रा० २ पाद । शिशौ, स्वार्थे कस्तत्रैव । शवस्वेदम् अण् । शवसंबन्धिनि, त्रि० । “त्रिरात्रं शावमाशौदम् " इति स्मृतिः । वाच० । बावग - शावक - पुं० । शिशौ सूत्र० १ ० १४ श्र० । 3 छादन न० दर्भादि०१४० बाबा पो. नि० चू० । रोग-शायपोतक पुं० शा एच तिला तकः शावपोतकः । शिशौ, व्य० १उ० । छासी- देशी-तके दे० ना० ३ वर्ग ३ उ० । छार-कार-त्रि० । कर—ज्वला०वा पः । करणशीले, लवणरसे पू० गुरणे, सरे । वि. मलवणे पकारे च बाब भूतौ शोध भस्मनि, । । । श्राव० ४ अ० | झा० । श्र० म० । बृ० । परस्परमग्निपरिणामिले इन्धने नि० १"अजक द्वारो भाति नि० चू० ३ ०। मात्सर्ये, न० जी० ३ प्रति० । द्वार- देश - कुच दे० ना० ३ वर्ग छारिय-हारिक न० । भस्मनि भ० ५ श०२ उ० । गरोदेशी--अच्म दे० ना० ३ वर्ग छिदित्याद्विप्रय० द्विधा कृत्येत्यर्थे स्था० ३ ० २ ४० माचा० कुरमादिना कृष्णाकर्मिय त्यर्थे भ० १४ श० उ० । · - " छिंद-छिन् 'द्विदिता' शब्दायें मा० ३ ० २४०॥ छात्र- छाग-पुं० "कागेल." ११६१ कागे गस्य तो किंदियम्य-व्याकरणे प्रश्न ३० द्वार । । ८ । । छाहा - छाया स्त्री० । “छायायां होकान्तौ वा" । । १२४६॥ इति यस्य हः । प्रा० १ पाद । 'छाया' शब्दार्थे, उस० १म० । छाही देशी गगने, दे० ना० ३ द्वि-द्वि-खी० हो या कि गयाम वाले " पुंसि प्रोले, " पका० । , बिंदिया- छिमिका श्री०पा०२ , प्रारंति वितृपचनारायाजिओगो व गणानिओोगो लानिओगो य सुराभोगो ॥ कतारवित्त गुरुनिम्गडो य किया जिसासणम्पि || ६५३ ॥ तत्राप्रियोजनमनिच्छतोऽपि व्यापारणमभियोगः राम्रो नृपतेरभियोगो राजाभियोगः; गणः स्वजनादिसमुदायः, तस्याभियोगो गणाभियोगः बलं बलवतो दठप्रयोगः, तेनाभियोगो बलानियोगः सुरस्य कुलदेवतादेरनियोगः सुराभियोग का न्तारमरण्यम्, तत्र वृष्टिर्वर्तनं निर्वाहः कान्तारवृतिः । या-कान्तारमपि बाधा हेतुत्वादिद बाधात्वेन विवचितं, ततः कान्तारेण बाधया वृत्तिः प्राणवर्तनका कान्तारवृत्तिः न निवद इति यावत् । गुरवो मातृपितृप्रभृतयः । यदुक्तम्- " माता पिता फलाचार्य पातयस्तथा वृषा धर्मोपदेश, गुरुवर्गः मतः॥१॥ तेषां निदो निर्बन्धः तदेताः पट्टा अपवादा, जिनशासने भवन्ति इदमत्र तात्पर्यम-प्रतिपन्नम्य पत्वस्य परतीर्थिकयन्दनादिकं यत् प्रतिधि भयोगादिभिरेतैः षड्यिः कारणैः भक्तिवियुक्ते सव्यतः समाचरन्नपि सम्यक्त्वं नातिचरतीति । प्रच० १४८ द्वार । जिंकी-जिएकी श्री० [वृष्टिरूपायां द्विमिकायाम हा - । १ ० २ अ० । बिच्छ , " - पिक खिम्पक-पुं० वनेषु नानाजातीयमुद्राकर्तरि जातिवि शेषे, स्था० ८ वा० । ठिक-रस-न० "मलिनोभयसारच पातेलाह सिपिटिकापा" ० २ १३० इति 'लिक' आदेश प्रा० २ पाद । छिका टिका- स्त्री० । छिक् इत्यन्यकं शब्दं करोति । तुते, वाच० । छिक्कते, आ० म० द्वि० । रात्रौ द्विक्कायां प्रायश्चितमुपस्थापनम् । महा० ७ ० । ०००१०। सिक्कोषणो देशी- असहने दे० ना० २ वर्ग किं देशी-स्पृष्टे ये ० ना० ३ वर्ग बिच्छङ्-पुंश्चली-स्त्री० । पुंसो भर्तुः सकाशाञ्चलति पुरुषान्तरं , छोराकी पुंसो अन्त्यलोपे सम्परे खाये रास्त संपुंकानां सः । बा० स० । श्चुत्वम् । " गोणादयः " | ८ | २| १७४ । इति निपातः पुंश्चलीशब्दस्य द्विच्छ' मादेशः । प्रा० २ पाद । असत्यां स्त्रियाम, उपचारात्पारदारिके पुरुषेऽपि पुं० । वाच० । Page #1380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५७) निच्चि अभिधानराजेन्द्रः। बिलावाय विधि-धिकधिक-अव्यावसायां द्वित्वम् । “गोणादयः" पानिप्रेति,न द्वितीयेन सूत्रेण सह संबन्धयति तस्मिन्नयविशेषे, । ८।१।१७४ । इति विग्धिगित्यस्य स्थाने 'छिछि' इत्यादेशो यथा-"धम्मो मंगलमुक्टुिं" इति श्लोकम् । तथा ह्ययं श्लोकः निपातनात् । प्रा०२ पाद । निन्दायाम् , एतद्योगे निन्दावाच- निच्छेदनयमतेन व्याख्यायमानो न द्वितीयादीन श्लोकानपेकते, काच्छब्दाद् द्वितीषा। "धिक धिक् शक्रजितं प्रबोधितषता किं नापि द्वितीयादयः श्लोका प्रमुम् । अयमत्राभिप्राय:-तथा कथ. कुम्भकर्णेन वा ।" पाच। अनाप्यमुं श्लोकं पूर्वसूरयः ग्निच्छेदनयमते व्याख्यान्ति स्म.यथा लिच्छिकार-घिधिकार-पुं० । पुनःपुनधिंकारे, स्था० ५ ० न मनागपि द्वितीयादिश्लोकानामपेक्षा प्रवति, द्वितीयादीनपि लोकान् तथा व्याख्यानयन्ति स्म , यथा न तेषां प्रथमश्लोक३ उ०। स्यापेक्का, तथा मत्राएयपि यन्नयाभिप्रायेण परस्परं निरपेक्वाणि विज-छेद्य-२० । ठेचु योन्ये, सूत्र० २ ध्रु० ५ अ०। व्याख्यान्ति स्म सकिन्नच्छेदनयः। चिनो द्विधाकृतः पृथक्कतः बिजउं-बेत्तुं-मध्य० । विधा कमित्यर्थे, तं० । छेदः पर्यन्तो येन स छिनच्छेदः, प्रत्येक कल्पितपर्यन्त इत्यर्थः । छिज्जमाण-निद्यपान-त्रि० । खड्गादिभिः खएख्यमाने, उपा० ७ स पासौ नयश्च विन्नच्छेदनयः । नं० । प्रा०म० । स० । विपच्छेयणइय-निबच्छेदनयिक-त्रि० । निनछेदनयोऽस्त्यस्य अ० । विद्यमान विनम् । भ० १ ० १ ० । प्रम० । विपा० । "प्रतोऽनेकस्वरात" ॥७॥१६॥ इतीकप्रत्ययः । निनच्छेदन वचति, बथा दृष्टिवादे ऋजुसूत्रादीनि द्वाविंशतिः सूत्राणि छिन्नबिह-छि-न०। छिद्-रक। छिम-अच् चा। दूषणे,गतें,अवका छदनविकानि । नं० । स०। शे, ज्योतिषोक्ते खम्नतोऽष्टमस्थाने, वाच। प्रवेशद्वारे, प्रभ०३ | छिपजाला-छिमज्वाला-स्त्री० । इन्धनस्थाग्निश्रुटितार्चिर्षि, पाथ द्वार । नि० ० । राजन्यापारविरखत्वे, विपा० १ श्रु० १ ० । अल्पपरिवारत्वे, विषा० १ ० १ ०। विदश्छेद पज्ञा० १३ विव। नस्यास्तित्वाच्छिद्रम् । भ०२ श०२०। छिम्मकाणंतर-बिन्नाध्वान्तर-न। पधिभेदे, यत्र प्रामनछिगुरु-विधगुम-पुं० । फाणिते , नि० ० १३ ७०।। गरपजीवजिकानां किश्चिदेकतरमपि नास्ति,सर्वथैव शून्यत्वा वावृ.१००। विड्याति-छिद्रघातिन्-पुं०। निके अवसर प्रन्तीत्येवंशीला येते | | निमपुव्व-चिन्नपूर्व-त्रि० । पूर्व विधा छते , उत्त० १५ अ० । तथा । सत्यवसरे घातकारिषु, प्रश्न०३ आश्रा द्वार । “छिडे परिवति"। " छिड़ाते पुणो लोए चोप्पालए प्रएणंति" लिमबंधण-चिन्नबन्धन-पुं०। छिन्नमपनीतं बन्धनं कषायानि० ० १ उ०। त्मकं येन स विबन्धनः। ममत्वरहिते,सूत्र०२ श्रु०८ अाव्य। किरणाशि-विटपाणि-पुं० । सप्तविधपात्रनिर्योगसमन्विते जिन-दिसा-निम्नान अपात्रानयोगसमन्विते जिन-निहामव-बिन्नमसम्ब-न। अनासमवसत्यन्तरे, " निममकल्पिके, भाचा०२ शु० १ ० ३ उ०। णाम जस्स गामस्स रागरस्स वा उग्गदे सम्बासु दिसालिएण-चिन्न-त्रि० । छिद-क्तः । कृतच्छेदने, लूने, वणनेदे, सु भयो गामो ऽथि गोकुवं वा तच्छिाममंचं, तं च अखेत्तं वाच । श्रुटिते, प्रातु। निराकृते, मा० महि० । प्राचा० । भवति" नि० चू०१०७०।। अपनीते, सूत्र.१०८ अ अपगते, उत्त०२मा चित्रके, विमरूह-निन्नरूह-पुं०। विनः सन् रोहति । रुह-कः। तिलझा० १६० १० अ० । विपा० । " वाइचिना व गदभा"। कवृके, गुरुच्याम, स्त्री० । स्वर्णकेतक्याम, शलक्यां च । जिन्नाः फर्षितास्त्रुटिताः । सूत्र० १७० ३ ०४ उ० । प्रोटिते, स्त्री०पाचवित्वा गृहाचानीतं शुष्कताद्यवस्थां प्राप्तमसूत्र०१५० ११०। छिद्यते इति छिन्नम्। चत्रादीनां सपका- पि जलादिसामग्री प्राप्य गुच्यादिधत्पुनरपि यत्प्ररोहति तदिना दशने, उत्स० १५ प्र० । द्विधा कृते, नं० । प्राचा।। विषहम । तदेततकणैः साधारण शरीर केयमनन्तकायिउत्त०। प्रश्न विपाश्रो०। निर्धारिते, वृ०१3०1श्रारे, कमित्यर्थः। प्रव०४द्वार । प्रज्ञा०। दे० ना०३ वर्ग। गिएणसोय-छिन्नशोक-त्रि० । नष्टशोके, श्रोध० । प्रश्न । विमाकडंकह-दिन्नकथंकथ-त्रि०ा विना अपनीता कथं कथमपि जिन्नस्रोतस-त्रि०ाविधान्यपनीतानि स्रोतांसि संसारावतरया कथा रागकथादिका विकथारूपा बेन स चित्रकथंकथः। णद्वाराणि ययाविषयमिन्द्रियवर्तनानि प्राणातिपातादीनि वा यदि बा कथमिङ्गितमरणप्रतिज्ञां निर्वहिन्ये इत्येवंरूपा या कथा भावधाराखि येन सः। मब ०१५ अ० । स्रोतो द्विविसा छिन्ना येन स छिन्नकथंकथः । दुष्करानुष्ठानविधायिनि, धम्-व्यस्रोतो, भावनोतइच। तत्र द्रव्यस्रोतो नद्यादिप्रवाहः। प्राचा०२७०८०६ उ०। भाषस्रोतश्च संसारलमुद्रपात्यशुभो लोकव्यवहारः, स छिन्नो बिग्गंथ-छिन्नग्रन्थ-त्रि० । चिनो प्रन्यो धनधान्यादिः, तत्प्र बेन स तथा । त्रुटितन्यभावप्रवाहे, प्रश्न ५ सम्य० धार । तिबद्धो वा येन सः। छिन्नस्त्यको दिरण्यादिग्रन्थो येन स तथा। और। सूत्र० । सत्त। निग्रंन्ये, स्था०६०ाशा। कल्प० । प्रश्न। गिएणाल-चिन्नान-पुं० । तथाविधनुष्टजातो, " छिन्नाले किं. निपच्छेय-बिनच्छेद-त्रिकारिनो द्विधाकृतः पृथक्कृतः दःपर्य- दई सजि" उत्स० २७ अ००। जारे, दे० ना० ३ वर्ग । न्तो वेन स निन्छेदः । प्रत्येक कल्पितपर्यन्ते, नं। लाणाचाय-जिन्नापात-त्रि० । छिन्नोऽपगत प्रापातोऽन्योछिमच्छयण-चिनच्छेदनय-पुं०।यो नयः सूत्रं देन चिन्नमे- यत आगमनात्मकोऽर्थार्जनस्य येषु ते छिन्नापाताः। विविक्ते ३४० Page #1381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५८) छिमायाय अनिधानराजेन्द्रः। छीरविरालिया षु मार्गेषु , उत्त० २ अ० । व्यवच्छिन्नसमागमेषु, १० ४ 30 विण-स्पर्शन-10 | कुपने, जीवा० १७ अधिः । छिन्ना पापाताः सार्थगोकुलादीनां यस्यां सा.तथा । स्था० ४ जिवा-किपा-श्री म०२०० । व्यवच्छिन्नसार्थघोषाधापातायाम , भ०१५ श० लक्ष्णचर्मकशायाम्, विपा०१४०६ अ) १०॥ ग्विामिआ-छेदपाटी-खी० । वलादिफलिकाबाम,जं०१ बक्षका वित्त-केत्र-न0 । स्थाने, झा० १ श्रु०१०। ग्विाडियपोत्थय-वेदपाटीपुस्तक-ना"विवामिए ताहे । तणुस्पष-न० । “क्तेनाप्फुसादयः"।८।४। २५८ । इति स्पृष्ट पम्भूसियावा, होश देवामी बुहा वेति ॥ ४॥ दीहो वा हस्सो इत्यस्य 'छित्त' आदेशः। प्रा०४ पाद । दे. ना.३ वर्ग। । वा, जो पिलो होइ अप्पवाहको। तं मुणिव समबमारा, हिचित्तर-छित्वर-न । शादिमये गदनाधारनूते किनिजे, | वामिपोत्थं जयंतीह ॥५॥" (विवामिए ति) तनुभिः 4भ००० उ०।। त्रैरुच्छ्रितरूपः किश्चिदुब्रतो भवति नेदपाटीपुस्तक इति स्था० निद्द-नि-न०। रन्ध्र, म०११ श०४ उ० प्रा०। आव०।। ४ ग०२ १०। तं० । अल्पपरिवारत्वे, विपा० १ ० ६ ०। पं० सू०।। छिवि-देशी-न० । झुबरमे, दे० ना० ३ वर्ग। " खलः सर्षपमात्राणि, परच्छिमाण पश्यति । प्रात्मना विक्रिविकण-स्पृष्टा-अब्ब० । स्पर्श कत्वेत्यर्थे, महा० ७० ल्वमात्राणि, पश्यन्नपि न पश्यति ॥१॥" उत्त० ३५० ।। लघुमत्स्ये, दे० ना०३ वर्ग । दिव्य-देशी-न । कृत्रिमे , दे०मा० ३ वर्ग। छिदपोहि (ण)-विपेक्षिन्-पुं० । निजाणि प्रमत्ततादीनि प्रेक्षते हि-स्पृश-धा० । प०-तुदा०-सफ०-अनिट् । स्पः, "स्पृशः इति । पाराञ्चितयोग्यप्रमत्ततादिरूपप्रतिसेवनाकर्तरि, स्था०५ फासफंसफरिसछिवछिहाबुसाबिहाः" ।।४। १८२ । इति ग०१०। स्पृशेः 'किर' प्रादेशः । प्रा०४ पाद । छिन्द-ग्दि-धा० । देधीकरणे, “छिदिनिदो न्दः" । । | निहली-दिली-खी। शिखायाम् , १०४ उ०। माव० । २१६ । ति छिदेर्दस्य न्द' प्रादेशः “निन्द" नित्ति । प्रा०४पाद। निहंम-शिखएम-न० । मयूरशिक्षायाम, शा० १ भु०१०। चिन्दावण-बेदन-न० । वनस्पत्यादीनामन्वैइन्दने, 'पणं' छिहंडअ-देशी-न० । दधिसरे, दे० ना० ३ वर्ग । प्रायश्चित्तं चतुर्थमाचामाम्लमेकाशनकं निर्विकृतिकं वा। महा. निइंडि(ण)-शिखण्डिन्--पुं० । शिस्त्रएमोऽस्स्यस्व इति । मय ७ अ० । वाच० । शिखापति, शा० १ भु०१ म०। निप्प-स्पृश-धा० । तुदा० पर० सक० अनिट् । स्पर्श, वाच । " स्पृशेश्छिप्पः " । ७।४। २५७ । स्पृशतेः कर्मभावे |रिहा-स्पृशा-सी । स्पृश-कः । "इत्कृपादो"।११।१२८ । 'छिप्प' भादेशो वा भवति, क्यलुक च । 'छिप्पर स्पृश्य कृपा इत्यादिषु शम्देयादेत वा भवति इति श्त्वम् । ते । प्रा०४ पाद । प्रा० १पाद । "स्पृहावाम"। ।२। २३ । स्पृहाशब्दे संयुक्त स्य को वा प्रवति इति कः । प्रा०२पाद । सर्पघातिनी (कविप्प-देशी-न० । निझायां, पुच्छे च देना०३ वर्ग। विपा०। कालिका) पक्के, कण्टकार्याम, स्त्री०। गौरासी । वाचा विप्पंत-दिप्यमाण-त्रि० । सूर्यदे, मा० ० १ १०। गी-श्री-स्त्री० । विस्ववृके, वृक्षलदम्याम , एका। विपती-देशी-वतन्नेदे । उत्सबेच देना०३ वर्ग। गैय-चतु-न०। कवणं कुतम । “छोऽक्ष्यादौ"11२११७॥ निप्पतर-क्तिमतूर्य-न० । द्रुतं याबमाने त्य, का० १ श्रु ति प्रा०पाद । “ई: सुते" ।।१।११२ । इति १६ अ० । “छिप्पतूरेणं वनमाणेणं " विपा० १ ०३ ७०। प्रादेत ईत्वम् । प्रा०२ पाद । छिकायाम, नि० चू०१०॥ निप्पदर-देशी-गोमयनरमे विषमे, दे० ना० ३ वर्ग। लामा०म०मा० चू0 पाव । नं० । विशे। चिप्पोथी-छिप्पोझी-सी। वर्करादिलेण्डे, नि०च. १००। ीयमाण-कुवत-पुं। कुतं कुर्वति,प्राचा०२ श्रु०२ १०३ उ०। गिरा-शिरा-स्त्री० । “शिरावांवा" । ८1१।२६६ ।शिरा गण-कीण-त्रि० कि-कः। "क्षः खः कचित्तु ग्मौ"16।२। शब्दे मादेश्वः। प्रा०१ पाद । नाडीषु, शिरा नान्यः । । ३। इति क्षस्य कृः । प्रा०२ पाद । दुर्बले, क्षामे च । वाच । श०३३ उ०। गैर-कीर-पुंगाना कि-क्रन्-दीर्घश्च । 'घस'अदने-इरन् किच छिलिय-सिएिटत-२० । सीत्कारकरणे,प्रश्न०३ आभ० द्वार। | उपधालोपे, चर वा प्रद्धर्चा । वाच०।"कोऽक्ष्यादी" | निरवण-पबाशवन-न। मथुरास्थेपलाशवने, ती०१ कल्प। २।१७ । इति क्षस्य नः । प्रा०२पाद । दुग्धे, जले, सरचित्र-स्पृश-धा०प०-सक०-मनिट् । स्पर्श, "स्पृशः फासफं. बन्वे, वाच । सफरिसग्विछिहाबुबालिहाः" ।।४।१७। ति स्पृशतेः गरविरासिया-क्कीरविमालिका-कीरविदारिका-स्त्री० । कीविव' आदेशः । प्रा०४ पाद । लक्षणे. शा०११०२०। रभिव शुमा विहारी । श्वेतभूमिकूष्माएम, बाच० । कीरप्र. 'ग्विन्ति' छुपन्ति धारयन्ति, हस्ताअतिभिरिति गम्यते। धाना विदा)। शुक्रकृष्णयोभूमिकृष्माएमयो, वाच । प्रश्न.४ाश्र०कार। जीवा।प्र Page #1382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीवल ० । बीरुल-चीर पुं० भुपरिसंपविशेषे प्रश्न० १ बु-बु-अनुकरणशब्दः । दुष्टजीवनिवारणे; बृ० १ छुई देशी हाकावाम दे००२ वर्ग कुंकुंमुस - देशी- रणरणके, दे० नः०३ वर्ग बुंद देशी बहुनि दे० ना० ३ वर्ग बुजमाए - क्षुद्यमान- - त्रि० । पीड्यमाने, संचा० । बुइ-बुटितवि० मुळे, आम० अ० ( १३५६ ) अभिधानराजेन्द्रः | बुकारण- धिक्कारण-न० धिक्कारे, पुनः पुनर्धिकारे च । वृ०२ उ० बुष्करंत बुकु गितिशब्देन कुकुरान् निवारयति श्रा० म० द्वि० | आचा० । " वडावाय 1 ० द्वार | बुड-चिप-पा०] दिवा०पर० स० [प्रनिक्षिपेत्थामलसोल पेल्लोल्न बुहदुल परीघत्ताः । ८ । १४३ । इति क्षिपेः 'बुह' आदेशः । 'बृद्द' । प्रा० ४ पाद । प्रेरणे, वाच० । 'छुहइति ' प्रवेशयति । ब० १ उ० । 'बृहंति' प्रक्तिपन्ति । प्रा० म० प्र० । बुढा क्षुधा स्त्री० । “छोडक्यादौ" । ८ । २ । १७ । इति कस्य बः । प्रा० २ पाद। बुक्षायाम्, पं० सू० ३ सूत्र । प्रा० म० । उत्त० । " पंथसमा नऽत्थि जरा दारिदसमो य परिजोनत्थि । मरणसमं नऽत्थि जयं, ब्रहासमा वेबणां नऽस्थि” ॥ १ ॥ ०२ अधिधार्तः शकिमान् साधु-रेषणांना कुवेत् । यात्रामाधोनिनो बल्लारे ॥ १॥" प्रा० म० द्वि० । बुड्डिया - कृषिका श्री० आभरणाविशेषे प्र० सम्बद्वार। बुए कुमZro-mu-ko: -त्रिण | कुद-कः । “छोट्यादौ” | ८ | २ | १७ | इति कस्य नः । प्रा०२ पाद। मभ्यस्ते पिते पूर्वीकृते च वाच० पिष्टे, संथा० । श्राचा० । हमारा बुलाकृत्रि० पिष्ठापि, संचा० । बुत्त-बुप्त-त्रि० । स्पृष्टे, आचा०१ ४०१ २०४४० । सूत्र० । वि० सुप्त न० | स्वप-भावे कः । संप्रसारणम् । निद्रायाम्, शबने, सुषुप्तौ कर्तरि कः । निद्वेिते, त्रि० । वाच० । बुद्दहीर - देशी - न० । शिशौ, विधौ च । दे० ना०३ वर्ग । । । 33 हुन्द-ब्राक्रम-पुं० । बा-क्रम-प्रय्-अवृद्धिः । "आक्रमेरोहावो. देओ देशी भन्ते, देवरे च दे० ना० ३ वर्ग । स्थारच्छुन्दाः | ८ | ४| १६० । इत्याक्रमेः 'हुन्छ' भादेशः । प्रा० ४ पाद । बलेनातिक्रमणे, वाच० । प्प-कु०० पर०सक-मनिद् "गमादीवि" । । ४ । २४६ | गमादीनामन्त्यस्य कर्मनावे द्वित्वं वा जवति, तत्सन्नियोगे क्वस्य च लुकू, इति पस्य द्वित्वम् । 'प्प-छुविज्जर' कृप्यते । प्रा०४ पाद । . पंत क्षिपत् त्रि । प्रतिपति, नि० ०१ ४० । मा-दमा-श्री० मी० १० बुर-बुर-धा० । तुदा०-पर०-सक० सेट् । रति, अच्तुति, चुछोर, रितः । लेपने, बाचा ज्वा० पर०- सक० - सेट् । छोरति अछोरी पुच्छर हेदे, बाच । कुर-र-का, कुवा "होऽयादी" ८२।१७। इति वस्य वः । प्रा० २ पाद । नापितास्त्रे, पश्वादीनां शफे, (गुर) कोकिला मोरे, महापिडीतको पा खट्टादिपादुकायाम्, वाच० । बुरघरय-कुरगृहक-न० । नापितस्य चर्मोर्णादिमये कुरकर्त द्याधारे उपकरणे, नि० ० १४० । बुरमड्डि-देशी-चुरहस्ते, दे० ना० ३ वर्ग । बुरमुंम-कुरमुराम-पुं०। क्षुरमुएिकतशिरसि, पश्चा०१० विष० । छुरिया - बुरिका - स्त्री० | बुर बेदे, स्वार्थे कः, टापि तत्वम् । स्वनामख्याते अत्रनेदे, वाचः । श्राचा० । श्रा० म० । ० । मृतिकाया दे० ना०३ वर्ग सुधा - स्त्री० । " षट्शमी शावसुधा सप्तपर्णैष्वादेश्वः " | = | १ । २६५ । इति सस्व नः । प्रा० १ पाद | अमृते लेपन (कलीचून ) रूव्ये, वाच० । बुद्धि-देशी-विदे० ना० ३ वर्ग बूढ-क्षिप्त - त्रि० । वििप कः । "वृप्तियो रुक्चबूढो ८२ १२७ । इति किप्तस्य 'बूढ' आदेशः । प्रा० २पाद । न दीर्घानुस्वारातू " । । २ । २ । दीर्घानुस्वाराभ्यां लाकचिकाभ्यामाक्षणिकायां च परयोः शेषादेशो न प्रवति । प्रा०२ पाद । प्रेरिते, स्वके, विकीर्णे, अवज्ञाते, रागद्वेषादिवशाद्विषयाऽऽसक्तचिले, वायुरोगग्रस्ते च । वाच । नि० चू० । ८० । उत० । · 1 बेवडा व बेदोपस्थापन - न० । छेदेन पूर्वपर्ययनिरोधेन उपस्थापनमारोपणं महाव्रतानां यत्र तच्छेदोपस्थापन संप मभेदे, पञ्चा० ११ विव० । अनु० । "प्रेण तु परियागं पो तो उचित प्रयाणं धम्मम्मि पंजा सख” ॥ पं० भा० । I द्यावा पूर्वप ठेवावशिय-छेदोपस्थापनिक (नीय) पुं० यमस्वोपस्थापनं च तेषु यत्र तस्येदोपस्थापनम तब छेदोप स्थापनिकम् । ते बा विजेते यत्र तच्छेदोपस्थापनिकम् । अथवापूर्व पर्यायच्छेदेन उपस्थाप्यते भारोप्यते यन्महाव्रतलकणं चारिस्थापनमा प्रतिचार, सातिचार सामतिवारम् बहित्यरसामविकस्य शिष्यकस्वारोप्यते पार्श्वनाथसाथ पञ्चामधर्मप्रति सातिचार बन्न प्रायश्चितप्राप्तस्वति गाथे " परियायस्व च्छेश्रो, जत्थोवहावणं बरसु च च्छेदो । दोषाणमंद तमश्यारेतरं निहं ॥ १ ॥ सेट्स्स निरवाएं, तित्यंतर संकमेव तं दोजा । मूलगुणधारको सान्दवारमुभयं चकिप्पे" ॥ २ ॥ प्रथम पश्चिमतीर्थयोरित्यर्थः । स्था०५ ना० २ उ० भ० पञ्चा० । अनु० । विशे० । उत्त० । कर्म० । पं० सं० । स्था० अ० म० । अथ दोपस्थापनाय साधूनां कल्पस्थितिमाहदसठाणवितो कप्पो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । एसो धुत्तरयकप्पो, दसठाणपतिट्ठितो होति ॥ दशस्थानस्थितः कल्पः पूर्वस्य च पश्चिमस्थ व जिनस्य तीर्थक Page #1383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेोवद्वावगिय रस्य वेदोपस्थापनीय साधूनां मन्तव्यः । तदेषम् एष धूतरजाः कल्पों दशस्थानप्रतिष्ठितो भवति । ( १३६० ) अभिधान राजेन्ः | छेयवाद छेद- पुं० [दिनाचे पत्र अथा छेदने छेड़के "दं गुणं गुणं वेदम" इति कर्मणि घडे त्रि० सरमार्थस्य तु त्रिवेन स्थियां गौरा० की, तो नित्यमतम्, प्रेदिकम नित्य बेतवादी, वाच येन्ते, नं० 1 प्रश्न० । विनाशे, आ० म० द्वि० । विभजना, मण्ड० | करपत्रादिभिः पाटने, आव० ६ ० । श्राचा० । तपसा दुर्दमस्याहोरात्रपञ्चकादिना क्रमेण श्रमणपर्यायच्छेदने, पञ्चा० १६ विव० ० "माईसु पंचराया-इ पज्जायछेदणं बेदो" ग०१ अधि० । यस्मिन् पुनरापतिते प्रायश्चित्ते संदूषित पूर्वपर्या यदेशावच्छेदः शेषपर्याय रक्कानिमित्तं इत्यादि संदूषितशरीरकैदेशछेदनमिष शेषशरोपरिपालना क्रियते भवे च्छेदः । व्य० १ ० संप्रति लापश्यदाम प्रायश्रितमदेय विष ये प्रतिपादयति वाणियचरित्तल - बेदोपस्थापनिकचरित्रलब्धि - स्त्री० प्राक्तनयमस्य व्यवच्छेदे सति यदुपस्थापनीयं साधावारोपणीयं तच्छेदोपस्थापन पूर्वपर्यावच्छेदेन महाव्रतानामारोपणमित्यर्थः । तच्च सातिचारमनतिचारं च । सत्रानतिचारं दित्वरसामायिक शिक्षकस्यारोप्यते, ती रीवा यथा पानापमानस्यामितीय सं कामतः पञ्चयामधर्मप्राप्तौ । सातिचारं तु मूलगुणघातिनो यद् बतारोपणं तच तयार व छेदोपखापनीयचरित्रं तस्य यः पापनीयचरित्रविशेषे २०८०२ ३० छेज्ज - बेद्य - बेतुं योग्यः कर्मणि योग्यार्थे एयत् । भेत्तुं योभ्ये शीर्षरुद्यमतोऽहं स्वाम् " जट्टिः पाच पत्राद ग्रथितभेदे, दश० २ श्र० । मा-देशी-शिखायाम, नवमालिकायाम. दे० ना० ३ वर्ग बेडी - देशी- - लघुरथ्यायाम्, दे० ना० ३ वर्ग । एएसि अएणपरं निरंतरं प्रतिवरेज तिक्खुतो । निकारणमगिलाणे, पंच उ राइंदिया छेदो || एतेषामनन्तरोदितानां रात्रिदिवपदप्रायवित्तविषयाणां स्थानानामन्यतरस्थानमग्लानो निष्कारणं यो निरन्तरमतिचरेवत्यखीन पारान सदा तत्पर्यायस्य प्रेदः कि पञ्चदान उपलक्षयमेवयेप्यनन्तरोहितेषु स्थानेषु मासलघुकानि प्रायश्चित्तान्युक्तानि तेषामन्यतरस्थानमग्लानो निष्कारणं यदि निरन्तरं त्रीन् वारान् प्रतिचरति, तदा तत्पर्या यस्य वेदो मासिक इति रुष्टव्यम् । व्य० १ ० । सप्तमे प्रायश्चित्ते, स्था० ४ ठा० १ उ० । श्रव० । - बेत-क्षेत्र - न० । “ छोऽक्ष्यादौ " । ८ । २ । १७ । इति संयुक्तस्य बेयकर-बेदकर-पुं० । अप्रशस्तमनोविनये, औ० । श्राचा० । छः । प्रा०२ पाद । स्थाने, ओघ० । रा० । | तान्येव दश स्थानानि दर्शयतिअचेलकुदे सिय- सिनायररायपिंग कितिकम्मे | तजे पडिकपणे, मासप्पज्जोसवकप्पो || श्रावेलक्य मौद्देशिकं शय्यातरपिण्डो राजपिएमकृतिकर्मत्रसानि (जेड्डू सि) पुरुषज्येष्ठो धर्मप्रतिक्रमणं प्रासकल्पः पर्युष गाकल्पश्चेति द्वारगाथासमासार्थः । बृ० ६ ० । विशे० । स्था० । श्राव० । श्री० । बेनरं-देशी- दे० ना० ३ वर्ग छेत्तसोवलय- देशी- न० । क्षेत्रजागरणे, दे० ना० ३ वर्ग । छेत्ता - बेतृ त्रि० । बेदकर्तरि छेत्ता भवति कर्णनासाविकर्तन तः । आचा० १० २ ० १ उ० । बेतुमण सुमन त्रि० उन्यूहविधी आबा० १० २ - बेत्तुमनस्- | उपा० ७ अ० यकूमगरूवग-देककूटकरूपक पुं० [देवासी गुरूः कूटका कथञ्चिदशुद्धश्ककूटकः, स चासौ रूपकश्च बेककूटकरूपकः । शुद्धाशुद्धमुद्रायाम, वन्दनायाः शुरुशुरूविचारे, पञ्चा० ३ विष० । ( छेककूटकरूपकदृष्टान्तः वेश्यवंदण ' शब्देऽस्मि नेत्र भागे १३३२ पृष्ठे प्रष्टव्यः ) बेयगंथ - छेदग्रन्थ- पुं० । उत्सारकशास्त्रे, जीवा० ११ अधि० । जीतकल्प निशीथादी, प्र० १० द्वार से निश महानिशीथं, दशासुतस्कन्धो व्यवहारः पक पश्चेति । ही० २ प्रका० । बे-छेदन - न० । 'बिद भावे स्युट् । द्विधा करणे, झा० १ 3 1 श्रु० १० अ० । अनु० । उत्त० प्रश्न० । परिच्छेदकारिवचसि वृ० १३० । जीवत एव हृदयोत्कर्तने, दशा० ६ श्र० । बु० नि० ० उत्तरोत्तरमुप्राभ्यवसायारोहणाव स्थितिहासजनने, आचा० १०८ श्र० ८ उ० " एगे छेपणे " छेदनं शरीरस्यान्यस्य वा खङ्गादिना । स्था० १ ० १ ० । छेपणग छेदन २० सूत्र० २ ० ३ ० रार। शस्त्रादौ । करणे, अनु० अब्जीवनेदे, सुत्र० २ ०३ अ०] सूक्ष्मावयघे, बृ० १४० ॥ के यबुद्धि - ठेकबुद्धि-स्त्री० निपुण, सू० १ २०१३० बेयर-बेदकर - पुं० । व्यवच्छेदकारिश, पञ्चा० ३ विष० । 2 " अ० १ उ० 9 1 देपो देशस्थास के बीरे व दे० ना० ३ वर्ग भो - देशी-स्थासके, दे० ना० ३ वर्ग । यक-पुं० वा मेन् गृहाशके मृगपश्वादीनाविदग्धे वि० विदन्यप्रिये शब्दालङ्काररूपे अनुप्रासभेदे, मत्तायां स्त्रियाम, स्त्री० । वाच० । प्रयोग, ज्ञा० १ ० १ [अ०] । अनु० | ० | उपा० । निपुणे, सूत्र० १ ० १३ अ० । शा० । प्रश्न० | रा० । औ० जी० । दक्षे, आ० म० प्र० । वि. शे० ० जे० " पलाघवपहारसाधिया " लेका । । दत्ता लाहारेण कृताघातेन साधिता निर्मिता येते तथा । प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार अवसर, कल्प० ३ कण । 1 विपरिहार, कल्प० २ दान जीया० प्रा० म० । अब सर मनिकापचिडते, औ० " श्य हे इति" श्र० । बेका इत्येवमुपलभ्यमानाद्भुतप्रकारेण एवमन्यत्रापि छेकाः प्रशस्तकाः प्रस्तावज्ञाः कलापरिमता इति वृषा व्याचक्कते । | बेयवाइ ( ण् ) - बेकवादिन - पुं० । निपुणोऽहमित्येवं वादिनि प एिकताभिभानिनि, सत्र० १ ० १३ श्र० Page #1384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यसारहि प्रन्निधानराजेन्ः। चेयारिह डेयमारहि -कसारथिन-पुं०। प्राजितरि, ०।। अत्र व्यतिरेकमारकेपसत्त-छेदमन-10 काsदी, प्रा० म.वि०मरा जत्थ उ पमत्तयाए. संजमजोएम विविहभेएसु । (दसूत्रम्युजिशिकामस्तु 'चोच्छिति' मेऽने वक्ष्यते) नो धम्मिश्रस्स वित्ती, प्रणाहाणं तयं हो ॥ ६ ॥ " परिणाम अमरिणामा, भापरिणामा यतिविह पुरिमा तु। यत्र तु प्रमत्ततया हेतुनूतया, संयमयोगेषु संयमध्यापारषु, जातूण सुतं, परिणाम होनि दायम् ॥"पं.भा.। विषिधमेदेषु विचिबित्यर्थः । नो धार्मिकस्य सथाविधयते, (अपरिणामग' शम्दे प्रथमभागे ४ पृष्ठे तद्ब्याल्यातम) वृत्तिर्वर्तना, मननुष्ठानं वस्तुस्थित्या तद्भवति, तत्कार्यासाधकनेयमुधि-वेदादि-स्त्री०। पदे पदे तद्योगक्षेमकारिकियो- स्वादिनि गाथार्थः॥ ७६॥ । पदशेने,घ०१अधिकाविधिप्रतिषेधयोरबाधकस्य सम्बत- एएणवाहिजह, सभवह अतगनणप्रमेण । पालनोपायजूतस्यानुष्ठानस्योको, हारि०१०। एअवयोवेमो, जो सो पण नो सुच्छो ॥ ७ ॥ तस्वरूपं यथा पतेनानुष्ठानेन वाध्यते,संभवति च वृषिमुपगमति सतद् द्रवं सरसंभवपालनावेहोलिभेद इति । तयोविधिप्रतिषेधयोरना | विधिप्रतिषेधापन नियमेन, पतवचनोपेत इत्थंविधानुष्ठानवकविर्मतयो संभवः, माऽतयोश्च पालनारकारूपा, ततस्तत्सं- | मेन युक्तो य भागमासदेन प्रस्तुतेन न गुरुति गाथार्थ प्रवपालनार्थ या चे मिकाऽटनाऽऽदिवाह्यक्रियारूपा, सस्था अवोदाहरणमाहडात यया-कषशुद्धावप्याम्तरामवाद्धिमाशङ्कमाना सौ. जह देवाणं संगी-अगाइकजम्मि उजमो जपणो। वर्णिकाः सुवर्णगोलिका दमानियन्ते,तथा कपशुद्धाव कंदप्पाई करणं, असम्भवयणाजिहाणं च ॥ ७० ॥ पि धर्मस्य दमकन्ते, स च दो विम्बाबवेष्टारूपो, स्था देवानां संगीतकाऽऽदिकार्यनिमित्तमुद्यमो यतेः प्रवाजिविशुद्धा वेश सा, यत्रासन्तावपि विधिप्रतिषेधावबाधितरूपी तस्या यथोक्तम्-"संगीतकेन देवस्य,प्रतरावरणवाधातत्वी. स्वारमानं लनेते, लब्धाऽऽस्मानौ चानीबारलक्षणोपचारवि. रहितो उत्तरोत्तर वृद्धिमनुभवतः, सा पत्र में चोष्टा स स्पधमतो यतः, तत्र कार्यो विशेषतः ॥१॥" तथा कन्दप|55अपक्षा प्रोज्यते, स धर्मः वेदशुरू कि ।प.१ अधिः । दिकरणं पाविना, तथाऽसत्यवचनाभिधानं व ब्रह्मपा. "बज्माकारोणं, जेखन वाहिज्जए तयं णियमा । संजाप तकोऽमित्यादि । पकिल तवेदनीयकर्मक्रय इति गाथार्थः। परिसुख,सो पुण धम्मम्मि उति" स्था० ३१ सोल्टी। तह अमम्मियाणं, उच्छेनो नोभणं गिहे गंतं ! दमधिकृत्याह प्रसिधारा एनं, पापं बज्ज भण्डाएं ॥ ७ ॥ सइ अप्पमत्तयाए, संजमनोएमु विविएस । तथा अन्यधार्मिकाणांतीयांन्तरीयाणामुच्छेदो विनाशाय. जा पम्मिमस्स वित्ती, एभं व अणुवाणं ॥२॥ थोक्कम-"भन्यधर्मस्थिताःसत्वाः,असुरास्ववियुना। उच्छेसदा अप्रमत्ततया हेतुभूनया, संयमयोगेषु कुशलव्यापारेषु, बनीयास्तेषां हि, विधिवापोन विद्यते॥१॥"इति । ततो भोजवं विविधमेदेवनकप्रकारेषु, या धार्मिकस्थ साधो वृत्तिर्वर्तना, गृह चैकान्तं तदनुग्रहाय, तया प्रसिधाराऽऽदिवध प्रकृष्टएतद् बाह्यमनुष्ठानमिदाधिकृतमिति गाथार्थः ॥ ७॥ कियजयाय, एनत्पापं पापहेतुत्वादू,बाह्यमनुष्ठानमशोभनमिति एएण न बाहिज्जा, संजय अतं कु पि निअमेण ।। गाथार्थः ७० ॥ पं०व० ३ द्वार। व्यम्मुय-वेदश्रत-ना छेदश्रुतानि कक्षाव्यवहारादीनि। तेषु, एयवयपेण सुदो, जो सो केएण सुघोति ।। ७३ ।। म्य०१ उ. । (दानि भ्रमण्योऽपि व्याख्यास्यन्तीति पतेनानुष्ठाननन वाध्य संभवविच वृक्ष याति, तद् द्वयमपि 'मानोयणा'शहितीयभागे ४५० पृष्ठे उक्तम भावकाः विधिप्रतिवेषापं विषमेन एसवचनेन यथोदितानुष्ठानाक्या छेदस्वाणि न पाठयितव्या इति धायकपाउनाधिकारे बोयचागमःस देन शुद्ध इति गायार्थः। व्यास्यास्यते) बोदाहरणमाहनह पंचस समिई में, वीमु अ गुनीम मप्पमते ।। व्यायरिय-लेकाचार्य-पुंगशिल्पाऽऽचायें,भOUNGE TOIL "छेयायरियसपममश्कल्पणाविगप्पोकेको यस पुणो" सम्बं विष कायब, जणा सह काहगाई दि॥ ७॥ |माचायः शिल्पोपदेशदाना, जम्योपदेशाद् मतिभिः, तस्या पचा पश समितिवीर्यासमित्यादिरूपासु. तिसषु च गु सामत्यादरूपासु, तिसाच गु- या कल्पनाविकरूपाक्नप्तिभेदास्ते तथा । ०७०.उ तिषु मनोगुस्यादिरूपासु. अप्रमतेन सता सर्वमेवानुष्ठानं कर्व व्याशि-छेदाई-ज०। यथा शेषाारकार्य व्याधिषितम कि व्यं यतिनासाधुना,सदा, कायिकाऽऽयपि, पास्तां तावदन्य. दिति गाथार्थः ॥ ७४॥ चते, एवं व्रतशेषपर्यायरक्षार्थमतीचारानुमानेन दृधिनः प यायोयत्र वियते तच्छेदाई। जानकापायचेदयोग्ये सप्तमे तधा प्रायश्चित्ते, स्था०१०ग। ने खलु पयायजणगा, बसहाई ते वि बज्जणिज्जा उ। वानी दाहप्रायभित्तं गाथात्रयेणापअरवित्तीऍ तहा, प्रोमनो अ अप्पा णो ॥७॥ तवगविभो तवस्स य, असमत्यो तबमसदहंतोय। ये खलु प्रमादजनकाः परम्परया वसत्यादयः, आदिशब्दात तवसा च जोन दमा, प्रदपरिणाम-पसंगी य॥०॥ स्थानरेशपरिग्रहः,तेऽपि वर्जनीया एव सर्वथा, मधुकरवृस्या रिकुसुमपीमापरिहारेण, तथा पालनीय पवाऽऽस्मा,नो काले सुबहुत्तरगुणसी, व्यावत्तिमु पसजमाणोप। माज्य इति गाथाः ॥ ५॥ पासस्थाई जो विय, जईण पमितप्पनोसो ॥२॥ ४१ Page #1385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAA1444444444444444 T . . . waloatwatestostoalwalosopbotootnolonloaleelpatelseciaalpalwalealo'abar १४ WORDSC ANDROM -XN BAR MMAR remeenatamame.com RA 类型长长长长长长长长长长长长长长长长长长 28 LORE mevanaman TA CURTIDA Sasaskces novoveoonawwaowwwwwwwwwwwwwwwwwwvoMonam ... 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