________________
(२५३)
अभिधानराजेन्द्रः। यथा च ज्ञानावरणीय चिन्तितं तथा दर्शनावरणीयमपि चि- यति तच्चिन्तायामेकवचनबहुवचने च सर्वत्रामङ्गक नामगोत्रान्तयितव्यम्।
म्तरायसूत्राणि ज्ञानावरणीयसूत्रवत् प्रज्ञा० २५ पद । वेयणिज्जं बंधमाणे जीवे कइ कम्म ? गोयमा ! सत्तवि- बन्धवेदीसम्पति किं कर्म वेदयेते काः कर्मप्रकृतीर्वजीतश्त्युहबंधए वा अढविहबंधए वा बिहबंधए वा एगविहबंधए
दयेन सह सम्बन्धस्य सम्बन्धं चिन्तयिषुरिदमाह । चा एवं मणूसे वि सेता नारगादीया सत्तविह अविह
जीवे णं भंते ! नाणावरणिज्ज कम्मं वेदेमाणे का कबंधगा जाव वेमाणिए । जीवाणंजते ! वेयणिज्ज कम्मं बंध
म्मपगमीओ बंध ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अवविपुच्छा, सव्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा य अववि
हबंधए वा गविहबंधए वा एगविहबंधए वा ॥
“जीवे णं भते" इत्यादि सुगर्म नवरं ज्ञानावरणीयं कर्म घेदहवन्धगा य एगविहवन्धगा य बिहवन्धगा य श्र
दयमान पकविधवन्धक उपशान्तमोहः कोणमोहो वा न तु सहवा सत्तविहबंधगा य अविहबंधगा य एगविहबंधगा|
योगिकेवली तस्य ज्ञामावरणीयोदयानाचात् । य । अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य एगविह- जीवाणं ते ! नाणावरणिज कम्मं वेदमाणा कइ कम्मबंधगा य । विहबंधए य । अहवा सत्तविहबंधगा य पगमीयो बंधति ? गोयमा ! मम्वे विताव होज्जा सत्तविअट्ठविहबंधगा य एगविहबंधगा य छबिहबंधगा य अ- हवंधगा य अट्ठविहबंधगा य । १ । श्रहवा सत्तविहवंधबसेसा नारगादिया जाव वेमाणिया जाहिं नाणावरणं गा य अहनिहबंधगा य छबिहबंधए य ।। अहवा बंधमाणा वंधति ताहिं नाणियव्वा नवरं मणूसाणं ते ! सत्तविहबंधगा य अहविहबंधगाय छबिहबंधगा य ।३। वेदणिज्ज कम्मं बंधमाणा कइ कम्मपगमीओ बंधति गो- | अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य एगविहबंधगे यमा ! सव्वे वि ताव होज्जा सप्तविधबंधगा य एगविह-| य। ४ । अहवा सत्तविहबंधगा य अविहवंधगा य एबंधगा य? अहवा सत्तविहबंधगा य एगविह बंधगा य अह गविहवंधगा य । ५। अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहविहबंधए या अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य बंधगा य छबिहबंधगे य एगविहबंधगे य । ६ । अहवा अविहबंधगा य ३ । अहवा सत्तविहबंधगा य एगविह- सत्तविहवंधगा य अहविहबंधगा य छबिहबंधए य एगविबंधगा य विहबंधए य ।। अहवा सत्तविहबंधगा य दबंधगा य । ७ । अहवा सत्तविहबंधगा य अवविहबंधगा एगविहबंधगाय गन्धिहबंधगा या अहवा सत्तविहबंधगा| य बिहबंधगा य एगविहबंधगेय । । अहवा सत्तविहवंय एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधए य अविहबंधए य ६।
धगा य अट्ठविहबंगा य उबिहबंधगा य एवं एते नव भंगा अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधगाए
अवसेस्साणं एगिदियमणुस्सवज्जाणं तियभंगो जाच वेमाणिपबिहबंधगा य७। अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहब- |
याणं एगिदियाणं सत्तविहबंधगा य अहविहबंधगाय ॥ भगा य अहविहबंधगा य बिहबंधगे य । अहवा सत्तवि
बहुवचनचिन्तायां षट्विधबन्धकाः सूक्ष्मसम्पराया एकविधहपंधगा य एगविहवैधगा य अट्टविहबंधगा य उब्धि हबंधगा बन्धका उपशाम्तमोहकीणमोहाः कादाचित्का एकत्वादिना च यए। एए नव भंगा। मोहणिज्ज बंधमाणे जीवे कइ कम्म- जाज्या इत्युभयेषामप्यनावे सप्तविधबन्धका भपि अपविधवन्ध पयमीयो बंध? गोयमा! जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो जीवे
का अपित्वेको भङ्गो द्वयानामपि सदैव बढ़त्वेन सन्यमानत्वा
त ततःषविधवन्धकपदप्रक्केपे एकवचनबहुवचनान्यां द्वौ भनौ गिदिया सत्तविहबंधगा वि अढविहबंधगा वि जीने णं भंते ! | एवमेव द्वौ जावेकविधषन्धकप्रोपेऽपि उन्नयोरपि युगपत् प्र.
आउयं कम्म बंधमाणे कई कम्मपगमीयो बंधइ ? गोयमा! | केपे पूर्ववच्चत्वार इति संख्यया नव नैरयिकादिषु तु पदेबके नियमा अट्ठ एवं नेरइए जाव वेमाणिए । एवं पुहत्तेण वि।।
न्द्रियमनुष्यवर्जेषु बहुवचमचिन्तायां नङ्गत्रिकमष्टविधवन्धका
नां कादाचित्कतया एकत्वादिनानाज्यतया च सन्यमानत्वात् । नामगोयंतराइंबंधमाणे जीवे कइ कम्मपयमीओ बंध गोष
एकेन्द्रियेषु त्वजन सप्तविधबन्धकाष्टविधषन्धका अपीति मा ! जाहिं नाणावराणज्जं बंधमाणे बंधइ ताहिं नाणियन्यो
उभयेषामपि सदा बढ़त्वेन प्राप्यमाणत्वात् । एवं नेरइए जाव वेमाणिए। एवं प्रहत्तेण विजाणियव्वं ॥
मणस्साणं पुच्छा ? गोयमा! सन्चे विताव होज्जा सत्तविघेदनीयचिन्तायाम् “एकविधबंधए वा इति" उपशान्तमोहा।।
हवंधगा अहवा सचविहबंधगा य अढविहबंधगे य अहवा दि शेष प्राग्वत् । मनुष्यपदविषयाचन्तायामपि त एवं प्रागुक्ता
सत्तविहबंधगा य अविहबंधगा य अहवा सत्तविहबंधगा नव भङ्गाः सप्तविधयन्धकानां च सदैव बहुत्वनावस्थिततया भनान्तरासम्भवान्मोहचिन्तायां जीवपदे पृथिव्यादिषु पदेषु च
य छबिहवंधए य एवं छविहबधएण व समं दो नंगाप्रत्येकमक एव भङ्गः । सप्तविधवन्धका अपि अष्टविधबन्धका एगविहबंधएण वि समं दो नंगा अहवा सत्तविहवंशशा य अपि उभयेषामाप सदैव बहुत्वेन सन्यमानत्वात् । षधि
अट्ठविहबंधए य बिहबंधए य चउभंगा अहवा सत्तावहबन्धकस्तु मोहनीयबन्धको न भवति मोहनीयबन्धो ह्यनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थानकं यावत् पविधवन्धकास्तु सूदमसं
बंधगा य अट्ठविहवन्धएय एगविहवन्धएय चनंगा अहवा. पराय इति आयुर्वन्धकस्तु नियमादष्टविधबन्धक इति तचिन्त- सत्त विहवन्धगाय छबिहबंधए य एगविहबंधए य चागा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org